SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाश्चाभ्युदय तत्क्षणे इत्यमरः । रम्या मनोहरा। 'रभ्यं सौम्य च सुन्दरम' इति धनञ्जयः । जाता जायते स्म । 'भूभृद्भुमिधरे नये' इत्यमरः। कुछ देशाः निकुम्जप्रदेशाः 'निकुञकुभलो वा क्लीबे लतादिपिहिलोदरे' इत्यमरः । केकिम्बनिसमुखराः के किनां मयूराणां ध्वनितेन ध्वनिना मुग्वराः शब्दयुताः 'दुर्मुखे मुखराबद्धमुखी' इत्यमरः । सेग्पाः सेवितुं योग्याः । माताः जायन्ते स्म । अपंवशाद्विभक्त्या विपरिणाम इत्युभयत्राप्यन्वयः । योगिन् मो मुने त्वं तस्मिन् जलदसमय तादृशे वर्षाकाले आरमर्यात स्थमनोबलात् । ' शौर्य च पौरुषम्' इति धनम्नमः । न प्रस्त्रले न चलेः । तथा हि ! कामार्ता हि वाञ्छितार्थपोडिता हि तनावेतनेषु चेतनाश्चाचेतनाश्च चेतनाचेतना इति द्वन्तः । तेषु विचिद्रूपपदार्थेषु । प्रकृतिकपणाः स्वभावदीनाः । स्वभावः प्रकृति. शोल निसर्गो विलस्रानिजम् ।' कीनाशः कृपणो लुषो गुन्नुर्दीनोऽभिलाषुकः।' इत्युभयत्रापि धनञ्जयः । हि स्फुटम् । 'हि हेताववधारणे' इत्यमरः । कामार्तानामेव जलदसमये चेतनाचेतनद्रव्येषु दैन्यं गमिते कामादेरिति तात्पर्यम् ॥२०॥ अन्वय-तदा भ- विरलै: इन्द्रगोपः सपदिरम्या जाता। भूभृतां किध्वनितमुखराः कुञ्जदेशाः सेव्याः ( जात्रा)। तस्मिन् जलदसमये आत्म यात् योगी न प्रास्सलत् । प्रकृतिकृपणा हि चेतनाचेतनेषु कामार्ताः । अर्थ-उस समय पृथ्वी सुकुमार इन्द्रगोपों से शीघ्र ही रमणीय हो गई। मोरों की ध्वनि से वाचालित ( शब्दयुक्त ! पर्वतों के कुलप्रदेश सेवन करने योग्य हो गए। उस मायानिर्मित वर्षाकाल में योगी आत्मवेर्य से स्खलित नहीं हुआ। स्वभाव से दोन अथवा कायर व्यक्ति चेतन और अचेतन पदार्थों में विकार को प्राप्त होते हैं। व्याख्या-मायानिर्मित मेघों के आगमन के फलस्वरूप पृथ्वी पर इन्द्रगोप ( लाल रंग के एक प्रकार के कीड़े ) उत्पन्न हो गए । पर्वतों के कुञ्जों में मोरों की ध्वनि होने लगी । ऐसे समय भी योगी अपने धैर्य से विचलित नहीं हुआ | जो स्वभाव से धीर होते हैं, उनका मन चेतन और अचेतन वस्तुओं में विकृति को प्राप्त नहीं होता है। जो स्वभावतः धैर्य से च्युत हो जाते हैं, उनके ही मन में विकृति का प्रादुर्भाव होता है भगवान् चूंकि स्वभाव से धीरोदात्त प्रकृत्ति के थे अतः उनके मन में विकृति नहीं हो सकती थी। इसी कारण वे आत्मध्यान में लवलीन रहे । ऊर्ध्वजु तं मुनिमतिघनैः कालमेघैः प्रयुक्तो, धारासारो भुवि नमयितुं नाशकद्दुःसहोऽपि ।
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy