SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ पार्वाभ्युदय मेघं वारिवाहम् । मञ्जत् वायुरिव । नलगिरिस्तम्भ नलगिरिनाम शिलास्तभं । दर्यात् बलवत्त्वाहंकारात् । उत्पाट्य मामलुदधृत्य । उद्धांसः किल उद्भमति स्म किल । भूतानिहायकथाभिरिति शेषः । यत्र विशाला पुर्याम् । अभितः कथाकोविदः । अनो लोकः । आगन्सून आगम्मते हठावनेनागन्तुः 'स्थावावेशिक आगन्तुः' इत्यमरः । वेशान्तरादागतान् । बन्धून बान्धवान् । रमयति विनोदयति ॥ ११४ ।। अक्षय-प्रिय ! सः युद्ध शौण्ड: मुरुण्डः वत्सराजः कलहे प्रद्योतस्य तीक्ष्णस्म अरे दुहितर मन्त्र किस जह्न । यत्र स्त्रीजन: बालान् हासालापः रमपति (तस्मिन्) अत्र ( प्रदेशे ) सस्य एव राज्ञ: हेमं तालद्रुमवनम् अभूत, इति शैल प्रतिमवपुषा शल पीड्यन् मेघ मरुद्धत् उन्मदिष्णून् ज्यालान् कुपित समवर्ती एव निम्नन नलगिरिः दर्यात् स्तम्भ उत्पादन अन्न उद्घान्तः किल 'इति च यत्र अभिज्ञः जनः आगन्तून् बन्धून् रमयति' ।। ११३-११४ ॥ अर्थ-हे प्रिय मित्र! वह युद्ध में प्रवीण महण्डों और वत्सों के राजा (पाश्वनाथ वो समय का कोई कौशाम्बी का राजा उदयन ) ने युद्ध में प्रकृष्ट तेज वाले उग्र शत्रु की पुत्री को इसो उज्जयिनी में हरण कर लिया था । जहाँ स्त्रियाँ हास्य और वार्तालाप द्वारा बालकों का विनोद करती हैं इस प्रदेश में उस राजा का सुनहरा ( अथवा शीतयुक्त ) तालवृक्षों का वन था । यहाँ पर्वत के समान शरीर द्वारा पर्वत को पीड़ा पहुंचाता हुआ वायु के समान मेघ को नष्ट करता हुआ उन्मत्त दुष्ट हाथियों को क्रोधित यम के समान नष्ट करता हुआ नलगिरि नामक हाथी अभिमान से बन्धनस्तम्भ को उखाड़कर घूम रहा था। इस प्रकार से कथा का जानकार पुरुष ( दूसरे देश से ) आए हुए बान्धकों का मनोविनोद करता है। व्याख्या-नलगिरि एक पर्वत का भी नाम है। दमयन्ती की खोज में घूमते हुए राजा नल के चरणविन्यास से यह पवित्र हुआ था, अतः इसकी नलगिरि नाम से वैसी ही प्रसिद्धि हो गई जैसे राम के चरणविन्यास से रागगिरि की प्रसिद्धि हो गई थी। यहाँ नलगिरि का तात्पर्य है नलगिरि के शरीर के आकार रूप आदि को धारण करने वाला गजविशेष । नलगिरि इन्द्र के हाथी का भी नाम है, उसके समान नलगिरि नामक गज विशेष से यहाँ तात्पर्य है। यस्यां बिभ्रत्यवनिपपथा रत्नराशीनुक्नाम्, शूर्पोन्मेयाजलधय इवापीततोया युगान्ते ।
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy