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प्रथम सगं
वनम् तस्मिन् । 'अदन्ताव्ययीभावत्वात्सप्तम्याः" इति अम् । तटवननिकटे हृत्यर्थः । विप्रकीर्णप्रवाहाम् अतिविस्तृतनिर्झराम् । 'प्रवाही निर्झरी झरः' इत्यमरः । समीनां मीनैर्मत्स्यैः सह वसंत इति ताम् । गिरिगजशोभभिन्नोमिमालाम् गिरेः नगस्य सदस्य गजानां च क्षोभेण सङ्घहनेन भिन्ना विदारिता ऊर्मिमाला तर पंक्तिर्यस्यास्ताम् । तां नर्मदा । गजस्व नागस्य । अङ्गं शरीरे | भक्तिच्छेः भक्तम रचना रेखा इति यावत् 'भक्तिनिषवणे भागे रचनायाम्' इति शब्दार्णवे । तासा छेदः भङ्गिभिः । विरचितां भूतिभिय श्रृंगारमिव भस्मेव वा । "भूतिमतिङ्ग
जातीसम्मति सम्पति' इति विश्वः । प्रतोषेण पश्य प्रेक्षस्य ||७६ || अन्वय--तस्य अद्रेः उपवनं विप्रकीर्णप्रवाहा तीरोनान्सस्खलनविषमोद्-वृत्तफेना, सीमाना गिरितटगजक्षोभ भिन्नोमिमाला भक्तिच्छेदः गजस्य अङ्गे विरचितां भूति इव ( लक्ष्यमाणां ) तां श्रीच्या पश्य ।
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अर्थ - विन्ध्याचल के तट के वन के समोप अतिविशाल प्रवाह वाली, किनारे के समीपवर्ती भाग में ( पत्थर आदि की रुकावट से उत्पन्न ) स्खलन से ऊपरी भाग में प्राप्त विषम फेन वाली मछलियों से युक्त पर्वत के किनारे अथवा हाथियों ( अथवा पर्वतीय तट पर उत्पन्न हाथियों ) के क्षोभ से विरचित तरङ्गों की परम्परा वाली, रंगों से निर्मित मनोहर चित्राकृतियों के विभागों से हाथी के शरीर पर विनिर्मित शृंगार के समान उस नर्मदा नदी को प्रीतिपूर्वक देखोगे ।
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व्याख्या- मुझे आशा है कि तुम प्रोतिपूर्वक उस नर्मदा नदी को • अवश्य देखोगे, जिसका प्रवाह विन्ध्यपर्वत के किनारे अत्यन्त विशाल है, 'पत्थर आदि की रुकावट के कारण जिसके ऊपरी भागों में फेन उत्पन्न होते रहते हैं, जिसमें मछलियाँ रहती हैं, जो पर्वतीय किनारे और हाथियों ( अथवा पर्वतीय किनारे पर उत्पन्न हाथियों ) द्वारा किए गए क्षोभ से तरों को उत्पन्न करती है तथा जो अनेक प्रकार के मनोहर रंगों से ऐसी मालूम पड़ती है जैसे हाथी के शरीर पर शृंगार किया गया हो ।
दत्तं वन्येरिव कलभकैः पुष्करेणोत्क्षिपद्भिः, प्रायोग्यं ते मुनिमतचिरं वासनावासितस्थ | ग्रावक्षुण्णोच्चलितमथवा त्वं हरेवर्यवार्य, तस्यास्तिक्तैवं नगजमदैर्वासितं वान्तवृष्टिः ॥७७॥
दत्तमिति । मुनिमल भी सुनिभिः सम्मत । चिरं बहुकालिन । वासमाषासितस्य वासनया संस्कारेण साम्यतयेति यावत् । वासितस्य संस्कृतस्य । से तव । प्रयोग्य