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________________ प्रथम सर्ग व्यक्ति के असह्य नरक जन्य दुःख रूपी विए सागर से पार उतारने वाला वह मार्ग एक ( अद्वितीय ) ही नहीं है। उमे छोड़कर । उपसे भिन्न ) तुम्हारे कानों के सुख के कारणभूत मार्ग को कहता है. जिस मार्ग में प्रस्थान के अनन्तर मेरी प्रेयसी के सुनने योग्य शब्दविन्यास से युक्त सन्देश को सुनोगे। व्याख्या-यक्ष का विश्वास है कि भगवान् पार्श्व मरकर अवश्य ही मेषाकार को धारण करेंगे। इस कारण नैगम नय अथवा द्रव्य निक्षेत्र की अपेक्षा भगवान के लिए जलद ( मेघ ) विशेषण लगाया है। जिनोक्त मार्ग से भिन्न जैनेतरों के कल्याण भाजहत हैं। सयभरका के दुख से तारने वाले उनमें से किसी एक धर्ममार्ग का उपदेश देता हूँ। जिनोक्त माग को छोड़कर मेरे कहे हुए मार्ग से चलने पर तुम्हारे दुःख का परिहार अथवा सुख की प्राप्ति होगी । म जिनोक्त मार्ग को छोड़कर युद्ध के लिए सन्नद्ध होओ। तुम्हें युद्ध में मरने पर भी कल्याण की प्राप्ति होगी, यह शम्बरासुर का अभिवाय है। तत्राप्येकोऽनुजुऋजुरतः कोपि पन्यास्तयोर्यो, वक्रोऽपि त्वा नयति सुखप्तस्तं शृणु प्रोच्यमानम् । नानापुष्पद्रमसमनसां सौरभेणाततेष. खिन्नः खिन्न: शिखरिषु पदं न्यस्य गन्तामि यत्र ! ५१ ।। तत्रातीति । तत्रापि मन्मार्गेकि । एकः पन्थाः । अनुजः वक्रः । कोपि न्याः ।' अतः अस्मात् । ऋजुः सरलः । भवतीतिशेषः 1 तयोः तदध्वनोः । य: मार्गः । वक्रोपि असरलोपि । त्वा त्वाम् । 'स्वामी द्वितीयायाः' इति त्वादेशः। सुखतः अनायासैन । नयति प्रापयति । प्रोच्यमानं वधमुपक्रान्तम् । तं पन्या भ्रूण । यत्र मानापुष्पनुमसुमनसा नानाविवामि पुष्पाणि येषां द्रमाणां नयोक्तास्तेषाम् । सुमनसः कुसुमानि । स्त्रियः सुमनसः पुष्पं प्रसूनं कुसुम सुभम्' इत्यमरः । तासां सौरभण सुरभिरेव सौरभ 'मुभिताणतर्पणः इत्यमरः । तेन साततेषु निचिनेषु । शिखरिषु पर्यतेषु । जिन्न: खिन्नः सीणवाला सन् क्षोणवलः लन् । वोप्सायां द्विगविः । पर्ष पादम् । न्यस्य गिभिप्य | गन्तासि गमिष्यामि । 'तास्यौलुस्त्रोः' इति लुटि सास् ॥५१॥ यस्मिन्म्याः कृतकगिरयः सेव्यसानुप्रदेशा, नानावीरुतिततिसुभगाः पुष्पशयाचितान्ताः । तेन प्रज्या तव सुखकरी तत्र यायाः सुखेन, क्षीणः क्षीणः परिलधुपयः स्रोतसां चोपभुज्य ।। ५२ ।।
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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