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पाश्र्वाभ्युदय 'द्वयोविभज्ये व तरम्' इति तरयः । 'आधयोकितिजोसस्तयाम्'ि इति अस्यइन । अस्य मुनेः । धीरवं धैर्यम् । पश्य प्रेक्षस्व । वा अथवा । सोऽयं स एव मुनिः । स्त्रीमन्यः आत्मानं स्त्रियं मन्यते इति स्त्रीमन्यः । भयपरमशः भयाधीनः । मास्से वसते । विगस्तु निन्द्योऽस्तु । 'कु घिङ निर्भत्सन निन्दयोः' इत्यमरः । यः जनः यः कश्चन पुरुषः । पराधीनवृत्तिः परेषामधीना वृत्तिवंतनं यस्य तथोक्तः । 'परतन्वः पराधीनः परवान्नाथवानपि । 'वृसिर्वतन जीवने' इत्युभयत्राप्यमरः । स: अन्योपि जनः इतरोऽपि पुरुषः । अयमिव एतन्मतिरिय । न स्यात् न भवेत् । पराधीनजीवितेषु अयमपन्तपराधीन इति तात्पर्यम् ।
अन्वय-एवं बहुनिगदितं श्रुत्वा मपि अयं योगी जोषमेव आस्ते; योगात् न चलतितरा, अस्य धीरत्वं पश्य । स्त्रीम्मायः वा अयं । घिगस्तु । यः अर्य इव: पराधीनवृत्तिः सः अन्य; जनः भयपरवशः स्त्रीम्मन्यः वा आस्ते । घिगस्तु । यः अन्यः जनः पराधीनवृत्तिः अपि अयं इव न स्यात् ।
अर्थ-इस प्रकार अनेक प्रकार का कथन सुनकर भी यह योगी चुप. ही है, ध्यान से किञ्चित्मात्र भी च्युत नहीं हुआ है, इसकी धीरता को देखो । अथवा यह अपने आपको स्त्री मानता है। विक्कार हो। जो इसके. समान पराधीनवृत्ति है, वह अन्य मनुष्य ( क्या ) भयाधीन नहीं होता है ? अथवा बह यह भयाधीन अथवा अपने आपको स्त्री ( के समान ) मानने वाला है | उस अन्य व्यक्ति को धिक्कार हो जो पराधीन होते हुए भी इसके समान नहीं है। __ व्याख्या—यक्ष द्वारा विस्तार से दिए गए भाषण को सुनकर भी भगवान् पार्श्वनाथ चुप ही रहे, योग से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। यक्ष कहता है कि इसकी धीरता को तो देखो । संसार में जो व्यक्ति दूसरे के अधीन होता है, वह भवाधीन होता है। चूंकि यह ऐसा नहीं है अतः पराधीन व्यक्तियों को इसका अनुसरण करना चाहिए। पराधीन होने पर भी उन्हें भयाधीन नहीं होना चाहिए। अथबा यह पार्श्व भयाधीन होकर अपने आपको स्त्री के समान निर्बल मानता है। उस व्यक्ति को धिक्कार हो जो पराधीन होते हुए भी इसके समान नहीं है।
वित्तानिघ्नः स्मरपरवशां वल्लभां कांचिदेकां, ध्यानज्याजात्स्मरति रमणी कामुको नूनमेषः । अज्ञातं वा स्मरति सुक्ती या मया दूषिताऽसी
तां चावश्यं दिवसगणनासत्परामेकपस्नीम् ॥ ३३ ॥ वित्तानिन्म इति । एषः अयं मुनिः। वित्तानिघ्नः आसमन्तात् निम्नः