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________________ पाश्वभ्युदय धनी छाया वाले ( नमेरु ) वृक्षों से युक्त रामगिरि पर्वत पर स्थित आश्रमों में तपस्वियों के मनोहर निवास स्थान का स्मरण नहीं करता था । व्याख्या -- वह मूर्ख यक्ष प्रायः हाथ में पत्थर को लेकर दोनों भुजाओं को ऊपर कर मस्तक आदि ऊपरी अजों को सन्तापित करता हुआ पञ्चाग्नि तप करता था | रामगिरि पर्वत के आश्रम में स्थित धना छाना या वृक्षों से युक्त तपस्वियों के रमणीक निवास स्थान की याद नहीं करता था । रामगिरि पर्वत प्राचीन काल में तपस्वियों का मनोहर निवास स्थान था | रामगिरि की पहचान लोगों ने रामटेक से की है, जो कि नागपुर के समीप है । अन्य लोगों के मतानुसार रामगढ़ पहाड़ी मध्यप्रदेश में है 1 तपः साधना करते हुए कमठ ध्यान में इतना लवलीन रहता था कि उसे • अपने निवास स्थान की याद ही नहीं आती थी । वैदिक परम्परा के अनुसार अन्वाहार्य, पचन, गार्हपत्य, आहवनीय और आवसथ्य में पांच अग्नियाँ होती हैं । पञ्चाग्नि तप करने वाला गर्मी की ऋतु में अपने चारों ओर अग्नि जला लेता है और ऊपर से सूर्य के ताप का सेवन करता है। यस्मिन्प्रात्रा स्थपुटिततलो बाववग्धाः प्रवेशाः, शुष्का वृक्षा विविधवृतयो नोपभोग्या न गम्याः । यस्माद् ग्रष्मान्नयति दिवसा०शुष्कवैराग्यहेतोस्तस्मिन्नौ कतिचिव बलाविप्रयुक्तः स कामी ||५|| यस्मिन्नित्यादि । यस्मिन् पर्वते । प्रावा उपलः । जात्यैकवचनम् | 'ग्रावाणी 'पोलपाषाणी' इत्यमरः । स्थपुटिततलः स्त्रपुटितं निम्नोन्नत तलमवः प्रदेशो यस्येति बहुब्रीहि 'स्थपुढं विषमोन्नतम्' इति घनञ्जयः । 'अधः स्वरूपयोरस्त्री तल स्यात्' इत्यमरः । प्रवेशा: अरण्यदेशाः । दावदग्धा दावाग्निना अस्मिताः । 'दवदावो वनारण्ये' इत्यभिधानात् । वृक्षा स्तरणः । शुष्यन्ति स्म शुक्काः । कल्पः " शुष्यचः क्म्' इति तस्य कः । विविषवृत्तयः विविधाश्च ताः बृतयश्चेति बहुव्रीहि: । 'विचित्रः स्याद्वविधम्' इति । 'प्राचीनं प्रान्तको वृतिः' इति च वचनात् प्रान्तावरणानीत्यर्थः उपभोग्या न स्थातुं योग्या न भवन्ति । गम्पाश्च न विहारयोग्याश्च न भवन्ति । तस्मिन् गहो तवामगिरी । यः अमला विप्रयुक्तः स्त्रीविमुक्तः सन् । शुष्कवैराग्यहेतोः निष्फलविरक्तिनिमितम् । कतिचित् कियतः । पान हमे ग्रष्मास्तान् । दिवसान् वासरान् । 'क्लीबे दिवसवासरी' इश्यमर | यति हम यापयति स्म । स कामी विषयाभिलाषुकः । कमठः सोसाविति नवमवृत्तेनाकाङ्क्षानिवृत्तिः ॥५॥
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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