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सप्ततिका प्रकरण नामक
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कर्म ग्रन्थ
[षष्ठ भाग] मूल, शब्दार्थ, गाथार्थ, विशेषार्थ,विषेचन एवं टिप्पण पारिभाषिक
शब्दकोष आदि से पुक्त
व्याख्याकार
मरुधरकेसरी, प्रवर्तक स्व, मुनि श्री मिश्रीमलजी महाराज
सम्पादक श्रीचन्द सुरामा 'सरस'
देवकुमार जैन
प्रकाशक श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति
जोधपुर-व्यावर
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प्रकाशकीय
श्री मरुधर केसरी साहित्य प्रकाशन समिति के विभिन्न उद्देश्यों में से एक प्रमुख एवं रचनात्मक उद्देश्य है-जैनधर्म एवं दर्शन से सम्बन्धित साहित्य का प्रकाशन करना । संस्था के मार्गदर्शक परमश्रद्धय प्रवर्तक स्व. श्री मरुधरकेसरीजी महाराज स्वयं एक महान विद्वान, आशुकवि तथा जन मागम तथा दर्शन के मंश और उन्हीं के मार्गदर्शन में संस्था की विभिन्न लोकोपकारी प्रवृत्तियां आज भी चल रही है । गुरुदेव श्री साहित्य के मर्मज्ञ भी थे और अनुरामी भी थे । उनको प्रेरणा से अब तक हमने प्रवचन, जीवन चरित्र, काव्य, आगम तथा गम्भीर विवेचनात्मक अनेकों ग्रन्थों का प्रकाशन किया है। अब विद्वानों एवं तत्त्वजिज्ञासु पाठकों के सामने हम कर्मग्रन्थ भाग ६ का द्वितीय संस्करण प्रस्तुत कर रहे हैं।
कर्मग्रन्थ जैन दर्शन का एक महान् ग्रन्थ है। इसमें जैन तत्त्वज्ञान का सर्वांग विवेचन समाया हुआ है । ...
स्व. पूज्य गुरुदेवश्री के निर्देशन में जैन दर्शन एवं साहित्य के सुप्रसिद्ध विद्वान सम्पादक श्रीयुत श्रीचन्दजी सुराना एवं उनके सहयोगी श्री देवकुमारजी जैन ने मिलकर इस गहन ग्रन्थ का सुन्दर सम्पादन किया है। इसका प्रथम-संस्करण सन् १९७६ में प्रकाशित हुआ, जो कब का समाप्त हो चुका, और पाठकों की मांग निरन्तर आतो रही । पाठकों की मांग के अनुसार समिति के कार्यकर्ताओं ने प्रवर्तक श्री रूपचन्दजी महाराज एवं उपप्रवर्तक श्री सुकनमुनिजी महाराज से इसके द्वितीय संस्करण के लिए स्वीकृति मांगी, तदनुसार गुरुदेवश्री की स्वीकृति एवं प्रेरणा से अब यह द्वितीय संस्करण पाठकों के हाथों में प्रस्तुत है । आशा है, कर्म सिद्धान्त के जिज्ञासु, विद्यार्थी आदि इससे लाभान्वित होंगे।
विनीत : मन्त्री श्री मरुधर कसरी साहित्य प्रकाशन समिति
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अपनी बात
___ जैन दर्शन को समझने की कुजी है-'कर्मसिद्धान्त' । यह निश्चित है कि समग्र दर्शन एवं तत्त्वज्ञान का आधार है आत्मा की विविध दशाओं, स्वरूपों का विवेचन एवं उसके परिवर्तनों का रहस्य उद्घाटित करता है 'कर्मसिद्धान्त' । इसलिए जैनदर्शन को समाप्तने के लिए 'कर्मसिद्धान्त' को समझना अनिवार्य है ।
कर्मसिद्धान्त का विवेचन करने वाले प्रमुख ग्रन्थों में श्रीमद देवेन्द्रसूरि रचित कर्मग्रन्थ अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं। जैन साहित्य में इनका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। तत्त्वजिज्ञासु भी कर्मग्रन्थों को आगम की तरह प्रतिदिन अध्ययन एवं स्वाध्याय की वस्तु मानते हैं।
कर्मग्नन्थों की संस्कृत टीकाएं बड़ी महत्वपूर्ण हैं। इनके कई गुजराती अनुवाद भी हो चुके हैं। हिन्दी में कर्मग्रन्थों का सर्वप्रथम विवेचन प्रस्तुत किया था विद्वद्वरेण्य मनीषी प्रवर महाप्राज्ञ पं० सुखलालजी ने । उनकी शैली तुलनात्मक एवं विद्वत्ता प्रधान है। पं० सुखलालजी का विवेचन आज प्रायः दुष्प्राप्य सा है। कुछ समय से आशुकत्रिरत्न गुरुदेव श्री मरुधर केसरीजी महाराज की प्रेरणा मिल रही थी कि कर्मग्रन्थों का आधुनिक शैली में विवेचन प्रस्तुत करना चाहिए । उनकी प्रेरणा एवं निदेशन से यह सम्पादन प्रारम्भ हुआ। विद्याविनोदी श्री मुकनमुनिजी की प्रेरणा से यह कार्य बड़ी गति के साथ आगे बढ़ता गया । श्री देवकुमारजी जैन का सहयोग मिला और कार्य कुछ समय में आकार धारण करने योग्य बन गया।
इस सम्पादन कार्य में जिन प्राचीन ग्रन्थ लेखकों, टीकाकारों, विवेचनकर्ताओं तथा विशेषतः पं० श्री सुखलालजी के ग्रन्थों का सहयोग
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प्राप्त हुआ और इतने गहन ग्रन्थ का विवेचन सहजगम्य बन सका। मैं उक्त सभी विद्वानों का असीम कृतज्ञता के साथ आभार मानता
श्रद्धेय श्री मरुधरकेसरीजी महाराज का समय-समय पर मार्गदर्शन, श्री रजतमुनिजी एवं श्री सुकनमुनिजी की प्रेरणा एवं साहित्य समिति के अधिकारियों का सहयोग विशेषकर समिति के व्यवस्थापक श्री सुजानमलजी सेठिया की महृदयता पूर्ण प्रेरणा व सहकार से ग्रन्थ के सम्पादन-प्रकाशन में गतिशीलता आई है, मैं हृदय से आभार स्वीकार करू-यह सर्वथा योग्य ही होगा। _ विवेचन में कहीं अटि, सैद्धान्तिक भूल, अस्पष्टता तथा मुद्रण आदि में अशुद्धि रही हो तो उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ और हंसबुद्धि पाठकों से अपेक्षा है कि वे स्नेहपूर्वक सूचित कर अनुगृहीत करेंगे। भूल सुधार एवं प्रमाद परिहार में सहयोगी बनने वाले अभिनन्दनीय होते हैं। बस इसी अनुरोध के साथ
द्वितीयावृत्ति
"कर्मग्रन्थ" भाग ६ का यह द्वितीय संस्करण छप रहा है। आज स्व. गुरुदेव हमारे बीच विद्यमान नहीं हैं, किन्तु उनके द्वारा, प्रदत्त ज्ञान निधि, आज भी हम सबत्रा मार्गदर्शन कर रही है । गुरुदेवश्री के प्रधान शिष्य उपप्रवर्तक श्री सुकनमुनिजी उसी ज्ञान ज्योति को प्रज्वलित रखते हुए आज हम सबको प्रेरणा एवं प्रोत्साहन दे रहे हैं, उन्हीं की शुभ प्रेरणा से "कर्मग्रन्थ' का यह द्वितीय संस्करण पाठकों के हाथों में पहुंच रहा है । प्रसन्नता।
विनीत -श्रीचन्द सुराना 'सरस'
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आ मुख
जैन दर्शन के सम्पूर्ण चिन्तन, मनन और विवेचन का आधार आत्मा है । आत्मा सर्वतन्त्र स्वतन्त्र शक्ति है। अपने सुख-दुःख का निर्माता भी वही है और उसका फल भोग करने वाला भी वही हैं । आत्मा स्वयं में अमूर्त है, परम विशुद्ध है, किन्तु वह शरीर के साथ मूर्तिमान बनकर अशुद्ध दशा में संसार में परिभ्रमण कर रहा है । स्वयं परम आनन्दस्वरूप होने पर भी सुख-दुःख के चक्र में पिस रहा है। अजर-अमर होकर भी जन्म-मृत्यु के प्रवाह में बह रहा है । आर्य है कि जो आत्मा परम शक्ति सम्पन्न है, वही दीन-हीन, दुःखी, दरिद्र के रूप में यातना और कष्ट भी भोग रहा है। इसका कारण क्या है ?
जैनदर्शन इस कारण की विवेचना करते हुए कहता है-आत्मा को संसार में भटकाने वाला कर्म है । कर्म ही जन्म-मरण का मूल है कम्मं च जाई मरणस्स मूलं - भगवान श्री महावीर का यह कथन अक्षरशः सत्य है, तथ्य है। कर्म के कारण हो यह विश्व विविश्व विचित्र घटनाचक्रों में प्रतिपल परिवर्तित हो रहा है । ईश्वरवादी दर्शनों ने इस विश्ववैचित्र्य एवं सुख-दुःख का कारण जहां ईश्वर को माना है, वहाँ जैनदर्शन ने समस्त सुख-दुःख एवं विश्ववैचित्र्य का कारण मुलतः जीव एवं उसका मुख्य सहायक कर्म माना है । कर्म स्वतन्त्र रूप से कोई शक्ति नहीं है, वह स्वयं में पुद्गल है, जड़ है। किन्तु राग-द्वेष वशवर्ती आत्मा के द्वारा कर्म किये जाने पर वे इतने बलवान और शक्तिसम्पन्न बन जाते हैं कि कर्ता को भी अपने बंधन में बांध लते हैं। मालिक को भी नौकर को तरह नचाते हैं। यह कर्म की बड़ी विचित्र शक्ति है । हमारे जीवन और जगत के समस्त परिवर्तनों का यह मुख्य बीज कर्म क्या है, इसका स्वरूप क्या है ? इसके विविध परिणाम कैसे होते हैं ? यह बड़ा ही गम्भीर विषय है। जैनदर्शन में
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कर्म का बहुत ही विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। कर्म का सूक्ष्मातिसूक्ष्म और अत्यन्त गहन विवेचन जैन आगमों में और उत्तरवर्ती ग्रन्थों में प्राप्त होता है । वह प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में होने के कारण विद्वद्भोग्य तो है, पर साधारण जिज्ञासु के लिये दुर्बोध है। थोकड़ों में कर्म सिद्धान्त के विविध स्वरूप का वर्णन प्राचीन आचार्यों ने गूंथा है, कण्ठस्थ करने पर साधारण तत्त्व-जिज्ञासु के लिये अच्छा ज्ञानदायक सिद्ध होता है ।
कर्मसिद्धान्त के प्राचीन ग्रन्थों में कर्मग्रन्थ का महत्वपूर्ण स्थान है। श्रीमद् देवेन्द्रसूरि रचित इसके पांच भाग अत्यन्त दी पन्नापर्ण है। इनमें जैनदर्शनसम्मत समस्त कर्मवाद, गुणस्थान, मार्गणा, जीव, अजीब के भेद-प्रभेद आदि समस्त जनदर्शन का विवेचन प्रस्तुत कर दिया गया है । ग्रन्थ जटिल प्राकृत भाषा में है और इसकी संस्कृत में अनेक टीकाएँ भी प्रसिद्ध हैं। गुजराती में भी इसका विवेचन काफी प्रसिद्ध है । हिन्दी भाषा में इस पर विवेचन प्रसिद्ध विद्वान मनीषी पं० श्री सुखलालजो ने लगभग ४० वर्ष पूर्व तैयार किया था।
वर्तमान में कर्मग्रन्थ का हिन्दी विवेचन दुष्प्राप्य हो रहा था, फिर इस समय तक विवेचन की शैली में भी काफी परिवर्तन आ गया । अनेक तत्त्व जिज्ञासु मुनिवर एवं श्रद्धालु श्रावक परम श्रद्धम गुरुदेव मरुधर केसरीजी महाराज साहब से कई वर्षों से प्रार्थना कर रहे थे कि कर्मग्रन्थ जैसे विशाल और गम्भीर ग्रन्थ का नये ढंग से विवेचन एवं प्रकाशन होना चाहिए। आप जैसे समर्थ शास्त्रज्ञ विद्वान एवं महास्थविर सन्त ही इस अत्यन्त श्रमसाध्य एवं ध्यय-साध्य कार्य को सम्पन्न करा सकते हैं। गुरुदेवश्री का भी इस ओर आकर्षण हुआ और इस कार्य को आगे बढ़ाने का संकल्प किया । विवेचन लिखना प्रारम् किया। विवेचन को भाषा-शैली आदि दृष्टियों से सुन्दर एवं रुचिकर बनाने तथा फुटनोट, आगमों के रद्धरण संकलन, भूमिका, लेखन आदि कार्यों का दायित्व प्रसिद्ध विद्वान श्रीयुत श्रीचन्दजी सुराना को
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सौंपा गया। श्री सुरानाजी गुरुदेव श्री के साहित्य एवं विचारों से अतिनिकट सम्पर्क में रहे हैं । गुरुदेव के निर्देशन में उन्होंने अत्यधिक श्रम करके यह विद्वत्तापूर्ण तथा सर्वसाधारण जन के लिए उपयोगी विदेन तैयार किया है। वे एक दोर्घकालीन अभाव की पूर्ति हो रही है। साथ ही समाज को एक सांस्कृतिक एवं दार्शनिक निधि नये रूप में मिल रही है, यह अत्यधिक प्रसन्नता की बात है ।
मुझे इस विषय में विशेष रुचि है । मैं गुरुदेव को तथा संपादक बन्धुओं को इसको सम्पूर्ति के लिए समय-समय पर प्रेरित करता रहा। पांच भागों के पश्चात् यह छठा भाग आज जनता के समक्ष आ रहा है। इसकी मुझे हार्दिक प्रसन्नता है ।
यह छठा भाग पहले के पांच भागों से भी अधिक विस्तृत बना है, विषय गहन है, गहन विषय को स्पष्टता के लिए विस्तार भी भवश्यक हो जाता है । विद्वान सम्पादक बंधुओं ने काफी श्रम और अनेक ग्रन्थों के पर्यालोचन से विषय का तलस्पर्शी विवेचन किया है। आशा है, यह जिज्ञासु पाठकों की ज्ञानवृद्धि का हेतुभूत बनेमा |
द्वितीय संस्करण
आज लगभग १३ वर्ष बाद "कर्मग्रन्थ " के छठे भाग का यह द्वितीय संस्करण पाठकों के हाथों में पहुँच रहा है । इसे अनेक संस्थाओं ने अपने पाठ्यक्रम में रखा है । यह इस ग्रन्थ की उपयोगिता का स्पष्ट प्रमाण है। काफी समय से ग्रन्थ अनुपलब्ध था, इस वर्ष प्रवर्तक श्री रूपचन्दजी महाराज साहब के साथ मद्रास चातुर्मास में इसके द्वितीय संस्करण का निश्चय हुआ, तदनुसार ग्रन्थ पाठकों के हाथों में है ।
बाज पूज्य गुरुदेवश्री हमारे मध्य विद्यमान नहीं हैं, किन्तु जहाँ भी हैं, उनकी दिव्य शक्ति हमें प्रेरणा व मार्गदर्शन देती रहेगी । इसो शुभाशापूर्वक पूज्य गुरुदेवश्री की पुण्य स्मृति के साथ ......
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-उपप्रवर्तक सुकनमुनि
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प्रस्तावना
'सप्ततिका प्रकरण' नामक छठा कसंग्रन्थ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने के साथ कर्मग्रन्थों के प्रकाशन का प्रयत्न पूर्ण हो रहा है। एतदर्थं 'श्री मरुधर केसरी साहित्य प्रकाशन समिति' के संचालकों-सदस्यों का हम अभिनन्दन करते हैं कि समय, श्रम और व्ययसाध्य गौरवशाली साहित्य को प्रकाशित कर जैन वाङ् मय की श्रीवृद्धि का उन्होंने स्तुत्य प्रयास किया है ।
पूर्वप्रकाशित पाँच कर्मग्रन्थों की प्रस्तावना में कर्मसिद्धान्त के बारे में यथासम्भव विचार व्यक्त किये हैं । यहाँ कर्मग्रन्थों का परिचय प्रस्तुत है । कर्मयों का महत्व
जैन साहित्य में कर्मग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान होने के बारे में इतना सा संकेत कर देना पर्याप्त है कि जैनदर्शन में सृष्टि के कारण के रूप में काल, स्वभाव आदि को मान्य करने के साथ कर्मवाद पर विशेष जोर दिया है। कर्म सिद्धान्त को समझे बिना जैनदर्शन के अन्त रहस्य का परिज्ञान सम्भव नहीं है और कर्मतत्व का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रारम्भिक मुख्य साधन कर्मग्रन्थों के सिवाय अन्य कोई नहीं है । कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि कर्मसाहित्य विषयक गंभीर ग्रंथों का अभ्यास करने के लिए कर्मग्रन्थों का अध्ययन करना अत्यावश्यक है । इसीलिए जैन साहित्य में कर्मग्रन्थों का स्थान अति गौरव भरा है ।
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( १२ } कर्मग्रंथों का परिचय
इस सप्ततिका प्रकरण का कर्मग्रन्थों में क्रम छठवां है । इसके रचयिता का नाम अज्ञात है । इस ग्रन्थ में बहत्तर गाथाएं होने से गाथाओं की संख्या के आधार से इसका नाम सप्ततिका रखा गया है। इसके कर्ता आदि के बारे में यथाप्रसंग विशेष रूप से जानकारी दी जा रही है। लेकिन इसके पूर्व श्रीमद देवेन्द्रसूरि विरचित पाँच कर्मग्रन्यों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करते हैं। ___ श्रीमद् देवेन्द्रसूरि ने क्रमशः कर्मविपाक, कर्मस्तव, बंधस्वामित्व, षडशीति और शतक नामक पाँच कर्मग्रन्थों की रचना की है। ये पांचों नाम ग्रन्थ के विषय और उनको गाथा संख्या को ध्यान में रख कर अन्यकार ने दिये हैं। प्रथम, द्वितीय और तृतीय कर्मग्रंथ के नाम उनके वर्ण्य विषय के आधार से तथा चतुर्थ और पंचम कर्मग्रन्य के नाम षडशीति और शतक उन-उन में आगत गाथाओं की संख्या के आधार से रख गये हैं। इस प्रकार से कर्मग्रन्थों के पृथक-पृथक नाम होने पर भी सामान्य जनता इन कर्मग्रन्थों को प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम कर्मग्रन्थ के नाम से जानती है। ___ प्रथम कर्मग्रन्थ के नाम से ज्ञात कर्मविपाक नामक कर्मग्रन्थ में ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि कर्मों, उनके भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप अर्थात विपाक अथवा फल का वर्णन दृष्टान्तपूर्वक किया गया है। ___ कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ में भगवान महावीर की स्तुति के द्वारा चौदह गुणस्थानों का स्वरूप और इन गुणस्थानों में प्रथम कर्मग्रन्थ में वर्णित कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्ता का वर्णन किया गया है।
तीसरे बंधस्वामित्व नामक कर्मग्रन्थ में गत्यादि मार्गणाओं के आश्रय से जोवों के कर्मप्रकृति-विषयक बन्धस्वामित्व का वर्णन किया गया है। दूसरे कर्मग्रन्थ में गुणस्थानों के आधार से बन्ध का वर्णन
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किया गया है, जबकि इसमें गत्यादि मार्गणास्थानों के आधार से बन्ध स्वामित्व का विचार किया है ।
षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ में जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, भाव और संख्या-इन पांच' विषयों का विस्तार से विवेचन किया गया है। इन पांच विभागों में से आदि के तीन विभागों में अन्य सम्बन्धित विषयों का वर्णन किया गया है । अन्तिम दो विभागों अर्थात् भाव और संख्या का वर्णन अन्य किसी विषय से मिश्रितसम्बद्ध नहीं हैं। दोनों विषय स्वतन्त्र हैं।
शतक नामक पंचम कर्मग्रंथ में प्रथम कर्मग्रंथ में वर्णित प्रकृतियों का ध्र बबन्धी, अध्र बबन्धिनी, ध्र वोदय, अध्र बोदय आदि अनेक प्रकार से वर्गीकरण करने के बाद उनका विपाक की अपेक्षा से वर्णन किया है । उसके बाद उक्त प्रकृतियों का प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बन्ध का स्वरूप और उनके स्वामी का वर्णन किया गया है। अन्त में उपशमणि और क्षपकनेणि का विशेष रूप में कथन किया है। आधार और वर्णन का क्रम
श्रीमद् देवेन्द्रसूरि के पांच कर्मग्रन्थों की रचना के पहले आचार्य शिवशर्म, चन्द्रषि महत्तर आदि भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा अलगअलग समय में कर्म-विषयक छह प्रकरणों की रचना की जा चुकी थी और उक्त छह प्रकरणों में से पांच के आधार से श्रीमद् देवेन्द्रसूरि ने अपने पांच कर्मग्रन्थों की रचना की है। इसीलिए ये कर्मग्रन्थ 'नवीन कर्मग्रन्थ' के नाम से जाने जाते हैं।
प्राचीन कर्मग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों में जिन विषयों का वर्णन किया है और वर्णन का जो क्रम रखा है, प्रायः यही विषय और वर्णन का क्रम श्रीमद् देवेन्द्रसूरि ने रखा है । इनकी रचना में मात्र प्राचीन
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कर्मग्नन्थों के आशय को ही नहीं लिया गया है, बल्कि नाम, विषय, वर्णन-शैली आदि का भी अनुसरण किया है । नवीन कर्मग्रन्थों की विशेषता
प्राचीन कर्मग्रन्थकार आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में जिन-जिन विषयों का वर्णन किया है, वे ही विषय नवीन कर्मग्रन्थकार आचार्य श्रीमद् देवेन्द्र सूरि ने अपने ग्रन्थों में वर्णित किये हैं। लेकिन श्री देवेन्द्र सूरि रचित कर्मग्नन्थों की यह विशेषता है कि प्राचीन कर्मग्रन्थकारों ने जिन विषयों को अधिक विस्तार से कहा है, जिससे कण्ठस्थ वारने वाले अभ्यासियों को अरुचि होना सम्भव है, उनको श्री देवेन्द्रसूरि ने अपने कर्मग्रन्थों में एक भी विषय को न छोड़ते हुए और साथ में अन्य विषयों का समावेश करके सरल भाषा पद्धति के द्वारा अति संक्षेप में प्रतिपादन किया है। इससे अभ्यास करने वालों को उदासीनता अथवा अरुचि भाव पैदा नहीं होता है। प्राचीन कर्मग्रन्थों की गाथा संख्या क्रम से १६८, ५७, ५४, ८६ और १०२ हैं और नवीन कर्मग्रंथों की क्रमशः ६०, ३४, २४, ८६ और १०० है। चौथे और पांचवें कर्मग्रन्थों की गाथा संख्या प्राचीन कर्मग्रन्थों जितनी देखकर किसी को यह नहीं समझ लेना चाहिए कि प्राचीन चौथे और पांचवें कर्मग्रन्थ की अपेक्षा नवीन चतुर्थ और पंचम कर्मग्रन्थ में शाब्दिक अन्तर के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है, किन्तु श्रीमद् देवेन्द्रसूरि ने अपने प्राचीन कर्मग्रन्थों के विषयों को जितना संक्षिप्त किया जा सकता था, उतना संक्षिप्त करने के बाद उनका षडशीति और शतक ये दोनों प्राचीन नाम रखने के विचार से कर्मग्रन्थों के अभ्यास करने वालों को सहायक अन्य विषयों का समावेश करके छियासी और सौ गाथाएँ पूरी की हैं । चतुर्थ कर्मग्रन्थ में भेद-प्रभेदों के साथ छह भाबों का स्वरूप और भेद-प्रभेदों के वर्णन के साथ संख्यात, असंख्यात और अनन्त इन तीन प्रकार की संख्याओं का वर्णन किया है तथा पंचम कर्मग्रन्थ
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में उद्धार, अद्धा और क्षेत्र इन तीन प्रकार के पत्योपमों का स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव- ये चार प्रकार के सूक्ष्म और बादर पुद्गल परावर्ती का स्वरूप एवं उपशमश्रेणि तथा क्षपकश्रेणि का स्वरूप आदि नवीन विषयों का समावेश किया है। इस प्रकार प्राचीन कर्मग्रन्थों की अपेक्षा श्री देवेन्द्रसूरि विरचित नवीन कर्मग्रन्थों की मुख्य विशेषता यह है कि इन कर्मग्रन्थों में प्राचीन कर्मग्रन्थों के प्रत्येक avi विषय का समावेश होने पर भी परिमाण अत्यल्प है और उसके साथ अनेक नवीन विषयों का संग्रह किया गया है ।
नवीन कर्मग्रन्थों की टोकाएं
श्रीमद् देवेन्द्रसूरि ने अपने नवीन कर्मग्रन्थों की स्वोपज्ञ टीकाएँ की थीं, किन्तु उनमें से तीसरे कर्मग्रन्थ की टीका नष्ट हो जाने से बाद में अन्य किसी विद्वान आचार्य ने अवचुरि नामक टीका की रचना की ।
श्रीमद् देवेन्द्रसूरि की टीका-शैली इतनी मनोरंजक है कि मूल गाथा के प्रत्येक पद या वाक्य का विवेचन किया गया है। इतना ही नहीं, बल्कि जिस पद का विस्तारपूर्वक अर्थ समझाने की आवश्यकता हुई, उसका उसी प्रमाण में निरूपण किया है। इसके अतिरिक्त एक विशेषता यह भी देखने में आती है कि व्याख्या को अधिक स्पष्ट करने के लिए आगम, नियुक्ति, भाष्य, नृणि, टीका और पूर्वाचार्यों के प्रकरण ग्रन्थों में से सम्बन्धित प्रमाणों तथा अन्यान्य दर्शनों के उद्धरणों को प्रस्तुत किया है । इस प्रकार नवीन कर्मग्रन्थों की टीकाएँ इतनी विशद, सप्रमाण और कर्मतत्व के ज्ञान से युक्त हैं कि इनको देखने के बाद प्राचीन कर्मग्रन्थों और उनकी टीकाओं आदि को देखने की जिज्ञासा प्रायः शान्त हो जाती है । टीकाओं की भाषा सरल, सुबोध और प्रांजल है ।
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पाँच कार्मग्रन्थों की संक्षेप में जानकारी देने के बाद अब सप्ततिका ( षष्ठ कर्मग्रन्थ ) का विशेष परिचय देते हैं ।
सप्ततिका परिचय
सप्ततिका के विचारणीय विषय का संक्षेप में संकेत उसकी प्रथम गाथा में किया गया है। इसमें आठ मूल कर्मों व अवान्तर भेदों के कपनबाओं का स्वतन्त्र रूप से व जीवसमास, गुणस्थानों और मार्गणास्थानों के आश्रय से विवेचन किया गया है और अन्त में उपशमविधि और क्षपणविधि बतलाई है |
कर्मों की यथासम्भव दस अवस्थाएँ होती हैं । उनमें से तीन मुख्य हैं—बन्ध, उदय और सत्ता । शेष अवस्थाओं का इन तीन में अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिए यदि यह कहा जाये कि ग्रन्थ में कर्मों की विविध अवस्थाओं, उनके भेदों का इसमें सांगोपांग विवेचन किया गया है तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।
ग्रन्थ का जितना परिमाण है, उसको देखते हुए वर्णन करने की शैली की प्रशंसा ही करनी पड़ती है । सागर का जल गागर में भर दिया गया है । इतने लघुकाय ग्रन्थ में विशाल और गहन विषयों का विवेचन कर देना हर किसी का काम नहीं है। इससे ग्रन्थकर्ता और ग्रन्थ- दोनों की महानता सिद्ध होती है ।
पहली और दूसरी गाथा में विषय की सूचना दी गई है । तीसरी गाथा में आठ मूल कर्मों के संवेध भंग बतलाकर चौथी और पांचवीं गाथा में क्रम से जीवसमास और गुणस्थानों में इनका विवेचन किया गया है । छठी गाथा में ज्ञानावरण और अन्तरायकर्म के अवान्तर भेदों के संवेध भंग बतलाये हैं। सातवीं से नौवीं गाथा के पूर्वार्द्ध तक ढाई गाथा में दर्शनावरण के उत्तरभेदों के संवेध भंग बतलाये हैं और नौवीं गाथा के उत्तरार्द्ध में वेदनीय, आधु और गोत्र कर्म के संवेध
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( १७ )
भंगों के कहने की सूचनामात्र करके मोहनीय के भंग कहने की प्रतिज्ञा की गई है
दसवीं से लेकर तेईसवीं गाथा तक मोहनीयकर्म के और चौबीसवीं से लेकर बत्तीसवीं गाथा तक नामकर्म के बन्धादि स्थानों व उनके संवेध भंगों का विचार किया गया है। इसके अनन्तर तेतीसवीं से लेकर बाचनवीं गाथा तक अवान्तर प्रकृतियों के उक्त संवेध भंगों को जीवसमासों और गुणस्थानों में घटित करके बताया गया है। अपनवीं गाथा में गति आदि मार्गणाओं के साथ सत् आदि आठ अनुयागद्वारों में उन्हें घटित करने की सूचना दी गई है ।
इसके अनन्तर वर्ण्य विषय का क्रम बदलता है। चौवनवी गाथा में उदय से उदीरणा के स्वामी की विशेषता को बतलाने के बाद पचपनवीं गाथा में ४१ प्रकृतियाँ बतलाई हैं, जिनमें विशेषता है। पश्चात् छप्पन से उनसठवीं गाथा तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्ध प्रकृतियों की संख्या का संकेत किया है। इकसठवीं गाया में तीर्थंकर नाम, देवायु और नरकायु इनका सत्व तीन-तीन गतियों में ही होता है, किन्तु इनके सिवाय शेष प्रकृतियों की सत्ता सब गतियों में पाई जाती है । इसके बाद की दो गाथाओं में अनन्तानुबन्धी और दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों के उपशमन और क्षपण के स्वामी का निर्देशन करके चौंसठवीं गाथा में क्रोधादि के क्षपण के विशेष नियम की सूचना दी है । इसके बाद पैंसठ से लेकर उनहत्तरवीं गाथा तक चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान में प्रकृतियों के वेदन एवं उदय सम्बन्धी विवेचन करने के अनन्तर सत्तरवी गाथा में सिद्धों के सुख का वर्णन किया है ।
इस प्रकार ग्रन्थ के वयं विषय का कथन हो जाने के पश्चात् दो गाथाओं में उपसंहार और लघुता प्रकट करते हुए ग्रन्थ समाप्त किया गया है ।
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कर्म साहित्य में सप्ततिका का स्थान ____ अब तक के प्राप्त प्रमाणों से यह कहा जा सकता है कि श्वेताम्बर
और दिगम्बर जैन परम्पराओं में उपलब्ध कर्म-साहित्य का आलेखन अग्रायणीय पूर्व की पांचवीं वस्तु के चौथे प्राभृत और ज्ञानप्रवाद तथा कर्मप्रवाद पूर्व के आधार से हुआ है। अग्रायणीय पूर्व के आधार से षट्खंडागम, कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका-इन ग्रन्थों का संकलन हुआ और ज्ञानप्रवाद पूर्व की दसवीं बस्तु के तीसरे प्राभत के आधार से कषायप्राभृत का संकलन किया गया है।
उक्त ग्रन्थों में से कर्मप्रति ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में तथा वषायाभृत और षट्वंडागम दिगम्बर परम्परा में माने जाते हैं तथा कुछ पाठभेद के साथ शतक और सप्ततिका- ये दोनों ग्रन्थ दोनों परम्पराओं में माने जाते हैं।
गाथाओं या श्लोकों की संख्या के आधार से ग्रन्थ का नाम राखने की परिपाटी प्राचीनकाल से चली आ रही है। जैसे कि आचार्य शिवशर्म कृत 'शतक'; आचार्य सिद्धसेन कृत द्वात्रिशिका प्रकरण; आचार्य हरिभद्रसूरि कृत पंचाशक प्रकरण, विशति-विशतिका प्रकरण, षोडशक प्रकरण, अष्टक प्रकरण, आचार्य जिनचल्लभ कृत पद्धशीति प्रकरण आदि अनेकानेक रचनाओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। सप्ततिका का नाम भो इसी आधार से रखा जान पड़ता है । इसे षष्ठ कर्म ग्रन्थ भी कहने का कारण यह है कि वर्तमान में कर्मग्रन्थों की गिनती के अनुसार इसका क्रम छठा आता है। ___कर्मविषयक मूल साहित्य के रूप में माने जाने वाले पांच ग्रन्थों में से सप्ततिका भी एक है । सप्ततिका में अनेक स्थलों पर मत-भिन्नताओं का निर्देश किया गया है। जैसे कि एक मतभेद गाथा १६-२० और उसकी टीका में उदयविकल्प और पदवृन्दों की संख्या बतलाते समय सथा दूसरा मतभेद अयोगिकेवली गुणस्थान में नामकर्म की
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प्रकृत्तियों की सत्ता को लेकर आया है (गाथा ६६, ६७, ६८)। इससे यह प्रतीत होता है कि जब काम किया. अनेक बनानार प्रचलित हो गये थे, तब इसकी रचना हुई होगी। लेकिन इसकी प्रथम गाथा में इसे दृष्टिबाद अंग की एक बूद के समान बतलाया गया है तथा इसको टीका करते हुए सभी टीकाकार अग्रायणीय पूर्व की पांचवीं वस्तु के चौथे प्राभत से इसकी उत्पत्ति मानते हैं। एतदर्थ इसकी मूल साहित्य में गणना की गई है। दूसरी बात यह है कि सप्ततिका की गाथाओं में कर्म सिद्धान्त का समस्त सार संकलित कर दिया है । इस पर जब विचार करते हैं, तब इसे मूल साहित्य मानना ही पड़ता है । सप्ततिका की गाथा संख्या
यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'सप्ततिका' गाथाओं की संख्या के आधार से रखा गया है, लेकिन इसकी गाथाओं की संख्या को लेकर मतभिन्नता है। इस संस्करण में '७२ गाथाएँ हैं। अन्तिम गाथाओं में मूल प्रकरण के विषय की समाप्ति का संकेत किये जाने से यदि उन्हें गणना में न लें तो इस प्रकरण का ‘सप्ततिका' यह नाम सुसंगत और सार्थक है। किन्तु अभी तक इसके जितने संस्करण देखने में आये हैं, उन सबमें अलग-अलग संख्या दी गई है। श्री जन श्रेयस्कर मंडल महेसाना की ओर से प्रकाशित संस्करण में इसकी संख्या ६१ दी है। प्रकरण रत्नाकर चौथे भाग में प्रकाशित संस्करण में ६४ है तथा आचार्य मलयगिरि की टीका के साथ श्री आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला भावनगर की ओर से प्रकाशित संस्करण में इसकी संस्था ७२ दी है । चूणि के साथ प्रकाशित संस्करण में ७१ गाथाओं का उल्लेख किया है।
इस प्रकार गाथाओं की संख्या में भिन्नता देखने को मिलती है। गाथा संख्या की भिन्नता के बारे में विचार करने पर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि गुजराती टीकाकारों द्वारा अन्तर्भाष्य गाथाओं को मूल गाथा के रूप में स्वीकार कर लिया है तथा कुछ गाथाएँ प्रकरण उपयोगी होने से मुलगाथा के रूप में मान ली गई हैं ।परन्तु हमने
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( २० )
श्री आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला के टीका सहित सप्ततिका को प्रमाण माना है और अन्त की दो गाथाएँ वर्ण्य विषय के बाद आई हैं, अतः उनकी गणना नहीं करने पर ग्रन्थ का नाम सप्ततिका सार्थक सिद्ध होता है । ग्रन्थकर्ता
नवीन पांच कर्मग्रन्थ और उनकी स्वोपज्ञ टीका के प्रणेता आचार्य श्रीमद् देवेन्द्रसूरि का विस्तृत परिचय प्रश्रम कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना में दिया जा चुका है । अतः सप्ततिका के कर्ता के बारे में ही विचार करते हैं ।
सप्ततिका के रचयिता कौन थे, उनके माता-पिता कौन थे, उनके दीक्षागुरु और विद्यागुरु कौन से अपने से पिधूनि को पवित्र बनाया था आदि प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं । इस समय सप्ततिका और उसकी जो टीकाएँ प्राप्त हैं, वे भी कर्ता के नाम आदि की जानकारी कराने में सहायता नहीं देती हैं।
सप्ततिका प्रकरण मूल की प्राचीन ताडपत्रीय प्रति में चन्द्रि महत्तर नाम से गर्भित निम्नलिखित गाथा देखने को मिलती हैगाहमा सयरीए चंदमहत्तरमयानुसारीए । टीगाइ नियमियाणं एगुणा होइ नउई उ ॥
लेकिन यह गाथा भी चन्द्रषि महत्तर को सप्ततिका के रचयिता होने की साक्षी नहीं देती है। इस गाथा से इतना ही ज्ञात होता है कि चन्द्रषि महत्तर के मत का अनुसरण करने वाली टीका के आधार से सप्ततिका की गाथाएँ (७० के बदले बढ़कर ) नवासी (८९) हुई हैं। इस गाथा में यही उल्लेख किया गया है कि सप्ततिका में गाथाओं की वृद्धि का कारण क्या है ? किन्तु कर्ता के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है । आचार्य मलयगिरि ने भी अपनी टीका के आदि और अन्त में इसके बारे में कुछ भी संकेत नहीं किया है । इस प्रकार सप्ततिका के कर्ता के बारे में निश्चय रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है ।
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चन्द्रर्षि महत्तर आचार्य ने तो पंचसंग्रह की रचना की है और उसमें संग्रह किये गये अथवा गर्भित शतक, सप्ततिका, कषाय-प्राभृत, सत्कर्म और कर्म प्रकृति-ये पांचों ग्रन्थ चन्द्रर्षि महत्तर से पूर्व हो गये आचार्य की कृति रूप होने से प्राचीन ही हैं । यदि वर्तमान की रूढ़ मान्यता के अनुसार सप्ततिकाकार और पंचसंग्रहकार आचार्य एक ही होते तो भाष्य, चूणि आदि के प्रणेताओं के ग्रन्थों में जैसे शतक, सप्ततिका और कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों के नामों का साक्षी के रूप में उल्लेख किया गया है, वैसे ही पंचसंग्रह के नाम का उल्लेख भी अवश्य किया जाना चाहिए था। परन्तु ऐसा उल्लेख कहीं भी देखने में नहीं आया है। अतएव इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सप्ततिका के रचयिता पंचसंग्रहकार के बजाय अन्य कोई आचार्य ही हैं, जिनका नाम अज्ञात है और वे प्राचीनतम आचार्य हैं।
ऐसी स्थिति में जब शतक की अन्तिम दो गाथाओं (१०४-१०५) से सप्ततिका की गलगाथा और लन्तिम गाथा (७२) का मिलान करते हैं तो इस सम्भावना को बल मिलता है कि इन दोनों ग्रन्थों के संकलियता एक ही आचार्य हों । सप्ततिका और शतक को गाथाएँ इस प्रकार हैं(१) वोच्छ सुण संखेवं नोसंदं दिद्विधायस्स ।।
२) कम्मप्पवाय सुयसागरस्स निस्संदमेत्ताओ। (३) जो जत्थ अपडिपुग्नो अत्थो अप्पागमेण बद्धो ति ।
तं खमिऊण बहुसुया पूरेऊणं परिकहंतु 10 (४) बंधविहाण समासो रइओ अप्प सुयमंदमइणाउ ।
ते बंध मोक्वणिउणा पूरेऊणं परिकहेंति ।।। उक्त उद्धरणों में से जैसे सप्ततिका की मंगलगाथा में इस प्रकरण
१ सपतिका, गाथा-संस्या, १ ३ सप्ततिका, गाथा-संख्या, ७२
२ शतक, गाथा-संख्या, १०४ ४ शतक, गाथा-संख्या १०५
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को दृष्टिवाद अंग की एक बूंद के समान बतलाया है, वैसे ही शतक की गाथा १०४ में उसे कर्मप्रनाद अलरूपी ही एक र के समान बतलाया गया है, जैसे सप्ततिका की अन्तिम गाथा में ग्रन्थकर्ता अपनी लघुता को प्रगट करते हुए संकेत करते हैं कि मुझ अल्पज्ञ ने त्रुटि रूप में जो कुछ भी निबद्ध किया है. उसे बहुश्रुत जानकर पूरा करके कथन करें। वैसे ही शतक की १०५बों गाथा में भी निर्देशित करते हैं कि अल्पभुत वाले अल्पज्ञ मैंने जो कुछ भी बन्धविधान का सार कहा है, उसे बन्धमोक्ष की विधि में निपुण जन पूरा करके कथन करें।
इसके अतिरिक्त उक्त माथाओं में हिस्संद, अप्पागम, अप्पसुयमंदमइ, पूरेऊणं. परिकहंतु-ये पद भी ध्यान देने योग्य हैं ।
इन दोनों ग्रन्थों में यह समानता अनायास ही नहीं है। ऐसी समानता उन्हीं ग्रन्थों में देखने को मिलती है या मिल सकती है, जो एक कर्तृक हों या एक-दूसरे के आधार से लिखे गये हों । इससे यह फलितार्थ निकलता है कि बहुत सम्भव है कि शतक और सप्ततिका एक ही आचार्य की कृति हों । शतक की चूणि में आचार्य शिवशर्म को उसका कर्ता बतलाया है । ये वे ही आचार्य शिवशर्म हो सकते हैं, जो कर्मप्रकृति, के कर्ता माने गये हैं। इस प्रकार विचार करने पर कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका-इन तीनों ग्रन्थों के एक ही कर्ता सिद्ध होते हैं।
लेकिन जब कर्मप्रकृति और सप्ततिका का मिलाने करते हैं, तब दोनों की रचना एक आचार्य के द्वारा की गई हो, यह प्रमाणित नहीं होता है । क्योंकि इन दोनों ग्रन्थों में विरुद्ध दो मतों का प्रतिपादन किया गया है । जैसे कि सप्ततिका में अनन्तानुबन्धी चतुष्क को उपशम प्रकृति बतलाया है, किन्तु कर्मप्रकृति के उपशमना प्रकरण में अनन्ताबन्धी चतुष्क की उपशम विधि और अन्तरकरण विधि का निषेध किया है। अतएव सप्ततिका के कर्ता के बारे में निश्चय करना असम्भव-सा प्रतीत होता है ।
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यह भी सम्भव है कि इनके संकलनकर्ता एक ही आचार्य हों और इनका संकलन विभिन्न दो आधारों से किया गया हो । कुछ भी हो, किन्तु उक्त आधार से तत्काल ही सप्ततिका के कर्ता शिवशर्म आचार्य हों, ऐसा निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता । __इस प्रकार सप्ततिका के कर्ता कौन हैं, आचार्य शिवशर्म हैं या आचार्य चन्द्रषि महत्तर हैं अथवा अन्य कोई महानुभाव हैं-निश्चयपूर्वक कहना कठिन है । परन्तु यह अबश्य कहा जा सकता है कि कोई भी इसके कर्ता हों, अन्य महत्त्वपूर्ण है और इसी कारण अनेक उत्तरवर्ती आचार्यों ने इस पर भाष्य, अन्तर्भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति आदि लिखकर ग्रंथ के हार्द को स्पष्ट करने का प्रयास किया है । सप्ततिका की दोकाओं आदि का संकेत आगे किया जा रहा है। रचना काल
ग्रंथकर्ता और रचनाकाल-ये दोनों एक दूसरे पर आधारित हैं। एक का निर्णय हो जाने पर दूसरे के निर्णय करने में मरलता होती है। पूर्व में ग्रंथकर्ता का निर्देश करते समय यह सम्भावना अवश्य प्रगट की गई है कि या तो आचार्य शिवशर्म सूरि ने इसकी रचना की है या इसके पहले लिखा गया हो। साधारणतया आचार्य शिवशर्म सुरि का काल विक्रम की पांचवीं शताब्दि माना गया है । इस हिसाब से विचार करने पर इसका रचनाकाल विक्रम की पांचवीं या इससे पुर्ववर्ती काल सिद्ध होता है। श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने अपनी विशेषणवती में अनेक स्थानों पर सप्ततिका का उल्लेख किया है और श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्चमण का समय विक्रम की सातवीं शताब्दी निश्चित है। अतएव पूर्वोक्त काल यदि अनुमानित ही मान लिया जाए तो यह निश्चित है कि सप्ततिका की रचना सातवीं शताब्दी से पूर्व हो गई थी।
इसके अलावा रचनाकाल के बारे में निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कहना सम्भव नहीं है । इतना ही कहा जा सकता है कि सप्त.
६
.-
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( २४ ) तिका की रचना सातवीं शताब्दी के पूर्व हो चुकी थी और इस प्रकार मानने में किसी भी प्रकार को शंका नहीं करनी चाहिए । सप्ततिका को टोकाएं
पूर्व में यह संकेत किया गया है कि संक्षेप में कर्म सिद्धान्त के विभिन्न वर्ण्य-विषयों का कथन करने से सप्ततिका को कर्म-साहित्य के मूत्रा महों में माना जाता है। इसे लिए इस पर अनेक उत्तरवर्ती आचार्यों ने भाष्य, टीका, चूणि आदि लिखकर इसके अन्तर्झर्द को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। अभी तक सप्ततिका की निम्नलिखित टीकाओं, भाष्य, पूणि आदि की जानकारी प्राप्त हुई है
का नाम
पारमाण
कता
रचनाकाल
वृत्ति
अन्तर्भाष्य गाथा गाथा १० अज्ञात अज्ञात भाष्य गाथा १९१ अभयदेवसूरि त्रि० १२-१३वीं श. धूणि
पत्र १३२ अज्ञात अज्ञात चूर्णि प्रलोक २३०० चन्द्रषि महतर अनु. ७वीं श.
श्लोक ३७८० मलयगिरिसूरि वि० १२-१३वीं श. भाष्यवृत्ति श्लोक ४१५० मेरुतुग सूरि वि० सं० १४४६ टिप्पण' श्लोक ५७० रामदेवगणी वि० १२वी. श. अवचुरि
गुणरत्न सूरि वि० १५वीं शता. इनमें से चन्द्रषि महत्तर की चूणि और आचार्य मलयगिरि की वृत्ति प्रकाशित हो चुकी है। इस हिन्दी व्याख्या में आचार्य मलयगिरि सूरि की वृत्ति का उपयोग किया गया है । टीकाकार आचार्य मलयगिरि
सप्ततिका के रचयिता के समान ही टीकाकार आचार्य मलयगिरि का परिचय भी उपलब्ध नहीं होता है कि उनकी जन्मभूमि, माता-पिता, गच्छ, दीक्षा-गुरु, विद्या-गुरु आदि कौन थे ? उनके विद्याभ्यास, ग्रन्थरचना और विहारभूमि के केन्द्रस्थान कहाँ थे ? उनका
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( २५ ) शिष्य-परिवार था या नहीं ? आदि के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । परन्तु कुमारपाल प्रबन्ध में आगत उल्लेख से उनके आचार्य हेमचन्द्र और महाराज कुमारपाल के समकालीन होने का अनुमान लगाया जा सकता है।
आचार्य मलयगिरि ने अनेक ग्रंथों की टीकाएँ लिखकर साहित्य कोष को पल्लनित किया है। श्री जन आत्मानन्द ग्रंथमाला, भावनगर द्वारा प्रकाशित टीका से आचार्य मलयगिरि द्वारा रचित टीकाग्रंथों की संख्या करीब २५ की जानकारी मिलती है। इनमें से १७ ग्रंथ तो मुद्रित हो चुके हैं और छह ग्रंथ अलभ्य हैं।
उक्त टीकाओं को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने प्रत्येक विषय का प्रतिपादन बड़ी सफलता से किया है और जहां भी नये विषय का संकेत करते हैं, वहीं उसकी पुष्टि के प्रमाण अवश्य देते हैं। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि वैदिक साहित्य के टीकाकारों में जो स्थान निरति है, जैन साहित्य में वही स्थान आचार्य मलयगिरि सूरि का है । अन्य सप्ततिकाएँ
प्रस्तुत सप्ततिका के सिवाय एक सप्ततिका आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर कृत पंचसंग्रह में संकलित है। पंचसंग्रह एक संग्रहग्रन्थ है और यह पाँच भागों में विभक्त है । उसके अन्तिम प्रकरण का नाम सप्ततिका
पंचसंग्रह की सप्ततिका की अधिकतर गाथाएँ प्रस्तुत सप्ततिका से मिलता-जुलती है और पंचसंग्रह की रचना प्रस्तुत सप्ततिका के बहुत बाद हुई है तथा उसका नाम सप्ततिका होते हुए भी १५६ गाथाएँ हैं । इससे ज्ञात होता है कि पंचसंग्रह की सप्ततिका का . आधार यही सप्ततिका रहा है ।
एक अन्य सप्ततिका दिगम्बर परम्परा में भी प्रचलित है, जो प्राकृत पंचसंग्रह में उसके अंगरूप से पायी जाती है। प्राकृत पंचसंग्रह
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( २६ )
एक संग्रह ग्रन्थ है । इसमें अन्तिम प्रकरण सप्तसिका है। आचार्यं अमितगति ने इसी के आधार से संस्कृत पंचसंग्रह की रचना की है. जो गद्य-पद्य का उभय रूप है और इसमें १३०० से अधिक गाथाएँ हैं ।
इसके अतिरिक्त दो प्रकरण शतक और सप्ततिका कुछ पाठ-भेद के साथ श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित शतक और सप्ततिका से मिलते-जुलते हैं । प्रस्तुत सप्ततिका में ७२ और दिगम्बर परम्परा की सप्ततिका में ७९ गाथाए हैं। इनमें से ४० गाथाओं के करीब तो एक जैसी हैं, १४-१५ गाथाओं में कुछ पाठान्तर है और शेष गाथाएं अलगअलग हैं। इसका कारण मान्यता-भेद और शैली का भेद हो सकता है। फिर भी ये मान्यता-भेद सम्प्रदाय-भेद पर आधारित नहीं हैं । इसी प्रकार कहीं कहीं वर्णन करने की शैली में भेद होने से गाथाबों में अन्तर आ गया है । यह अन्तर उपशमना और क्षपण प्रकरण में देखने को मिलता है ।
इस प्रकार यद्यपि इन दोनों सप्ततिकाओं में भेद पड़ जाता है, तो भी ये दोनों एक उद्गम स्थान से निकल कर और बीच-बीच में दो धाराओं से विभक्त होती हुई अन्त में एक रूप हो जाती हैं ।
सप्ततिका के बारे में प्रायः आवश्यक बातों पर प्रकाश डाला जा चुका है, अतः अब और अधिक कहने का प्रसंग नहीं है ।
इस प्रकार प्राक्कथनों के रूप में कर्मसिद्धान्त और कर्मग्रन्थों के बारे में अपने विचार व्यक्त किए हैं। विद्वद्वर्ग से सानुरोध आग्रह है कि कर्मसाहित्य का विशेष प्रचार एवं अध्ययन अध्यापन के प्रति विशेष लक्ष्य देने की कृपा करें।
— श्रीचन्द सुराना
- देवकुमार जैन
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प्रस्तावना
अनुक्रमणिका
कर्मग्रन्थों का महत्व कर्मग्रन्थों का परिचय बाधार और वर्णन का क्रम नवीन कर्मग्रन्थों की विशेषता
नवीन कर्मग्रन्थों की टीकाएँ सप्ततिका परिचय
कर्म साहित्य में सप्ततिका का स्थान
सप्ततिका की गाथा संख्या
ग्रन्थकर्ता
रचनाकाल
सप्ततिका की टीकाएँ
टीकाकार आचार्य मलयगिरि
अन्य सप्ततिकायें
सुलग्रन्थ
ग्रन्थ की प्रामाणिकता, वर्ण्य विषय का संकेत सिद्ध पद की व्याख्या
गाथा १
सप्ततिका प्रकरण की रचना का आधार, महार्थं पद की सार्थकता
बंध, उदय, सत्ता और प्रकृति स्थान का स्वरूप निर्देश 'श्रुणु' क्रियापद की सार्थकता
गाथा २
पृ० सं०
k
१२
१३
૨૪
१५
शिष्य द्वारा जिज्ञासा का प्रस्तुतीकरण
बंध, उदय और सत्ता प्रकृतियों के संवेध भंगों की प्रतिज्ञा
1
१६
१८
TE
२०
२३
२४
२४
२५
१-५
१
५.-१७
५
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( २८ )
मूल कर्मों के बंधस्थान तथा उनके स्वामी और काल का
निर्देश
मुलकमों के बंधस्थानों आदि का विवरण
मुलकर्मों के उदयस्थान तथा उनके स्वामी और काल का निर्देश
उदयस्थान आदि का विवरण
मूलकर्मों के सत्तास्थान तथा उनके स्वामी और काल का निर्देश
सत्तास्थान आदि का विवरण
गाथा ३
मूल कर्मों के बंध, उदय और सत्ता स्थानों के संवेध मंगों का निर्देश
मूल कर्मों के उक्त संवेध भंगों का स्वामी और काल सहित विवरण
गाथा ४
मूल कर्मो के जीवस्थानों में संवेध भंग
आदि के तेरह जीवस्थानों के भंगों का विवरण
संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान के संवेध भंगों का विवरण तथा उनका स्पष्टीकरण
चौदह जीवस्थानों के संवेध भंगों का विवरण
गाथा ५
W
मूल कर्मों के गुणस्थानों में संवेध भंग
भूल प्रकृतियों के गुणस्थानों में बंध उदय सत्ता संवेध भंगों का विवरण
गाथा ६
ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के संवेध
भंग
१०
१२
s
ક
१७-२२
१८
२०
२२-२७
२२
२४
२५
२६
२७-३०
२८
२८
३०-३४
३२
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( २६ )
उक्त दोनों कर्मों के संवेध भंगों का गुणस्थान, जीवस्थान और काल सहित विवरण
गाथा ७
दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्ता स्थान
दर्शनावरण कर्म के बन्ध, उदय और सत्तास्थान दर्शक विवरण
गाथा = ६ ( प्रथम पंक्ति)
P
दर्शनावरण कर्म को उत्तर प्रकृतियों के संवेध भंग दर्शनावरण कर्म के संवैध भंगों सम्बन्धी मतान्तर दर्शनावरण कर्म के संवेध भंगों का दर्शक विवरण गाथा (द्वितीय पंक्ति)
वेदनीय, आयु और गोत्रकर्म की उत्तर प्रकृतियों के संवेध भंगों के कहने की प्रतिज्ञा
वेदनीयकर्म की उत्तर प्रकृतियों के संवेध भंग आयुकर्म की उत्तर प्रकृतियों के संवेध भंगों के कथन की पूर्व भूमिका
नरकायु के संवेध भंग
नरकगति की आयुबन्ध सम्बन्धी विशेषता
नरकगति में आयुकर्म के संवेध भंगों का दर्शक विवरण देवायु के संवेध भंग
देवगति में आयुकर्म के संवेध भंगों का दर्शक विवरण तिर्यचायु के संवेध भंग
तिर्यंचगति में आयुकर्म के संवेध भंगों का दर्शक विवरण मनुष्यायु के संबैध भंग
मनुष्यगति के उपरतबन्ध के भंगों की विशेषता
मनुष्यगति में आयुकर्म के संवेध भंगों का दर्शक विवरण प्रत्येक गति में आयुकर्म के भंग लाने का नियम
૨૪
३४-३६
३५
३६
३६-३६
४०
४२
**
४६-६४
૪
४६
५०
५१
५२
५२
R
५.३
५३
५५
५५
4
५८
५६
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गोत्रकर्म की उत्तर प्रकृतियों के संवेध भंग गोत्रकर्म के संवेध भंगों का दर्शक विवरण गाथा १०
मोहनविक्रम की अशा प्रकृतिमा बासस्थान बन्धस्थानों के समय और स्वामी मोहनीयकर्म के बन्धस्थानों का स्वामी और काल सहित विवरण गाथा ११
मोहनीयकर्म की उत्तर प्रकृतियों के उदयस्थान स्वामी और काल सहित उक्त उदयस्थानों का दर्शक विवरण माथा १२, १३
७४-८७ मोहनीयकर्म की उत्तर प्रकृतियों के सत्तास्थान, स्वामी और काल अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना : जयधवला अट्ठाइस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट काल : मतभिन्नता सत्तास्थानों के स्वामी और काल सम्बन्धी दिगम्बर साहित्य का मत
७७ स्वामी और काल सहित मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का
दर्शक विवरण गाथा १४
८७-६० मोहनीयकर्म की उत्तर प्रकृतियों के बन्धस्थानों के भंग ८७ गाथा १५, १६, १७
९०-१०६ मोहनीय कर्म के बन्धस्थानों में उदयस्थानों का निर्देश मिध्यादृष्टि गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी के उदय से रहित उदयस्थान की सम्भवता का निर्देश
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( ३१ )
श्रेणिगत और अश्रेणिगत सासादन सम्यग्दृष्टि का न होने का विवेचन
दो प्रकृतिक उदयस्थानों में भंगों की मतभिन्नता
गाथा १६
मोहनीयकर्म के उदयस्थानों के भंग
बंधस्थान, उदयस्थान के संवेध भंगों का दर्शक विवरण
गाथा १६
उदयस्थानों के कुल भंगों एवं पदवृन्दों की संख्या
गाथा २०
१००
१०३
११०-११४
११०
११४
११४- ११७
११५.
११७- १२२
११७
१२०
उदयस्थान व पदसंख्या
उदयस्थानों का काल
मोहनीय कर्म के उदयविकल्पों और पदविकल्पों का दर्शक
विवरण
१२०
१२२-१४२
गाथा २१, २२
मोहनीयकर्म के सतास्थानों के साथ बंधस्थानों का संवेध निरूपण
मोहनीयकर्म के बंध, उदय और सत्ता स्थानों के भंगों का दर्शक विवरण
गाथा २४
१२३
गाथा २३
मोहनीयकर्म के बंध आदि स्थानों का निर्देश करने वाली
उपसंहार गाया
१४२
नामकर्म के बन्ध आदि स्थानों का कथन करने की प्रतिज्ञा १४२
१४२ - १५५
१४२
नामकर्म की उत्तर प्रकृतियों के बन्धस्थान
नामकर्म के बन्धस् थानों के स्वामी और उनके भंगों का
निर्देश
१४०
१४२
१४४
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________________
१८०
गाभा २५
१५६-१५८ नामकर्म के प्रत्येक बंधस्थान के भंग
१५६ नामकर्म के बन्धस्थानों के भंगों का दर्शक विवरण १५६ गाणा २६
नामकर्म के उदयस्थान नामकर्म के उदयस्थानों के स्वामी और उनके भंगों का
निर्देश गाणा २७, २८
१७६-१८४ नामकर्म के उदयस्थानों के भंग
उदयस्थानों के भंगों का दर्शक विवरण गाथा २६
१८४-१८७ नामकर्म के सत्तास्थान
१८४ नामकर्म के सत्तास्थान और गो० कर्मकाण्ड का अभिमत १५६ गाथा ३०
१८७-१८८ नामकर्म के बन्ध आदि स्थानों के संवेध कथन की प्रतिज्ञा १८८ गागा ३१, ३२
१५५-२०६ ओघ से नामकर्म के संवैध का विचार
१६० नामकर्म के बंधादि स्थान व उनके भंगों का दर्शक विवरण २०५ गाथा ३३
२.६-२१० जीवस्थानों और गुणस्थानों में उत्तरप्रकृतियों के बंधादि
स्थानों के भंगों का विचार प्रारम्भ करने की प्रतिज्ञा २१० गाथा ३४
२१०-२१३ जीवस्थान में ज्ञानावरण और अन्तरायकमं के बंधादि
स्थानों के संवेध भंगों का विचार गाथा ३५
२१३--२२१ जोवस्थानों में दर्शनावरण कर्म के बंधादि स्थानों के संवेध भंगों का विचार
२१३
२११
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( ३३ )
जीवस्थानों में वेदनीय, आयु और गोत्रकर्म के बधादि स्थानों के संवेध भंगों का विचार
२१४
जीवस्थानों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र और अन्तराय कर्मों के भंगों का दर्शक विवरण मोहनीय कर्म के अंगों का कथन करने की प्रतिज्ञा गाणा ३६
२२१
२२१
२२१-२२०
जीवस्थानों में मोहनीयकर्म के बंधादि स्थानों के संवैध
भंगों का विचार
२२२
जीवस्थानों में मोहनीय कर्म में संवेध भंगों का दर्शक विवरण २२७
२२८-२५४
गाया ३७, ३८
जीवस्थानों में नामकर्म के बंधादि स्थानों के भंगों का निर्देश
जीवस्थानों में बंधस्थान और उनके भंगों का दर्शक विवरण जीवस्थानों में उदयस्थान और उनके भंगों का दर्शक विवरण
जीवस्थानों में नामकर्म की प्रकृतियों के बंध, उदय और सत्ता स्थानों के भंगों का दर्शक विवरण
गाथा ३१ ( प्रथम पंक्ति)
गुणस्थानों में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म के बंधादिस्थानों के भंगों का विचार
गाथा ३९ (द्वितीय पंक्ति), ४०, ४१ ( प्रथम पंक्ति )
२५३
२५४-२५५
२२५
२४५
गुणस्थानों में दर्शनावरण कर्म के बंधादिस्थानों के भंगों का विचार
गाणा ४१ (द्वितीय पंक्ति)
२५१
२५४
२५५-२६०
गुणस्थानों में बेदनीयकर्म के बंधादिस्थानों के भंगों का
विचार
२५७
२६० - २६६
२६१
गुणस्थानों में गोत्रकर्म के बंधादिस्थानों के भंगों का विचार २६२
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गुणस्थानों में आयुकर्म के बंधादिस्थानों के भंगों का विचार २६५ गुणस्थानों में मोहनीय और नामकर्म के सिवाय प्येष कर्मों के बंधादि स्थानों के भंगों का दर्शक विवरण
२६८ गाथा ४२
२६६-२७१ गुणस्थानों में मोहनीयकर्म के बंधस्थानों का विचार २७० गाथा ४३, ४४, ४५
२७२-२७६ गुणस्थानों में महनीय में की उसस्थानों का विचार ७३ गाणा ४६
२७६-२८३ गुणस्थानों की अपेक्षा उदयस्थानों के भंग
२७६ गुणस्थानों की अपेक्षा उदयविकल्पों और पदवृन्दों का दर्शक विवरण
२८२ गाथा ४७
२८३-३०३ योग, उपयोग और लेश्याओं में संवेध भंगों की सूचना २८४ योग की अपेक्षा गुणस्थानों में उदयविकल्पों का विचार २८८ योग की अपेक्षा उदयविकल्पों का दर्शक विवरण २८६ योग की अपेक्षा गुणस्थानों में पदवृन्दों का विचार योग की अपेक्षा पदवृन्दों का दर्शक विवरण उपयोगों की अपेक्षा गुणस्थानों में उदयस्थानों का विचार २९५ उपयोगों की अपेक्षा उदयविकल्पों का दर्शक विवरण उपयोगों की अपेक्षा पदवृन्दों का विचार
२६७ उपयोगों की अपेक्षा पदवृन्दों का दर्शक विवरण
२६६ लेश्याओं की अपेक्षा गुणस्थानों में उदयस्थानों का विचार २६६ लेश्याओं की अपेक्षा उदयविकल्पों का दर्शक विवरण लेश्याओं की अपेक्षा पदवृन्दों का विचार लेश्याओं की अपेक्षा पदवृन्दों का दर्शक विवरण ३०२
२६० २६४
२००
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( ३५ )
गाथा ४८
३०३-३०७ गुणस्थानों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थान गुणस्थानों में मोहनीयकर्म के बंधादि स्थानों के संबंध
भंगों का विजार गाया ४६, ५०
३०७-३४७ गुणस्थानों में नामकर्म के बंधादि स्थान का विचार मिथ्यात्व गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थान व संवेध मंगों का विचार मिथ्यात्व गुणस्थान में नामकर्म के संवेध भंगों का दर्शक विवरण
३१६ सासादन गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थान व संवेध भंगों का विचार सासादन गुणस्थान में नामकर्म के संवेध भंगों का दर्शक विवरण मिश्र गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों व संवेध भंगों का विचार
३२७ मिश्र गुणस्थान में नामकर्म के संवेध भंगों का दर्शक विवरण
३२८ अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों व संवेध भंगों का विचार
३२८ अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में संवेध भंगों का दर्शक
देशविरति गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों व संवेध भंगों का विचार देशविरति गुणस्थान में संवेध मंगों का दर्शक विवरण प्रमत्तबिरत गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों और संवेध भंगों का विधार.
३३६
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प्रमत्तविरत गुणस्थान में नामकर्म के संवेध भंगों का दर्शक विवरण अप्रमत्ततंयत गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों और संवेध भंगों का विचार अप्रमत्तसंगत गुणस्थान में संवैध भंगों का दर्शक विवरण ३४० अपूर्वकरण गुणस्थान में नामकर्म के बंधादिस्थानों व संवेध भंगों का विचार अपूर्वकरण गुणस्थान में संवैध भंगों का दर्शक विवरण ३४३ अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानों में नामकर्म के बंधादि स्थानों व संवेध भंगों का विचार
३४३ उपशान्तमोह, क्षीणमोह गुणस्थानों में नामकर्म के बंधादि स्थानों व संवेध भंगों का विचार सयोगि केवली गुणस्थान में नामकर्म के उदय व सत्ता स्थानों का विचार व उनके संवैध भंगों का दर्शक विवरण ३४६ अयोगिकेवली गुणस्थान में नामकर्म के उदय व सत्ता
स्थानों के संवैध का विचार व उनका दर्शक विवरण ३४७ गाथा ५१
गतिमार्गणा में नामकर्म के बंधादि स्थानों का विचार ३४८ नरक आदि गतियों में बन्धस्थान
३४६ नरकगति में संवेध भंगों का विचार
३५० नरकगति में संवैध भंगों का दर्शक विवरण
३५१ तिर्यंचगति में संवैध भंगों का विचार
३५२ तिथंचगति में संवेध भंगों का दर्शक विवरण
३५३ मनुष्यगति में संवेध भंगों का विचार
३५६ मनुष्यगति में संवेध भंगों का दर्शक विवरण देवगति में संवेध मंगों का विचार
३६० देवगति में संवेध भंगों का दर्शक विवरण
३५७
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३६३
गाथा ५२
३६१-३:७० इन्द्रिय मार्गणा में नामकर्म के बंधादिस्थान एकेन्द्रिय मार्गणा में संवेध भंगों का विचार एकेन्द्रिय मार्गणा में संवेध भंगों का दर्शक विवरण विकलत्रयों में संवैध भंगों का विचार
३६४ बिकलत्रयों में संवेध भंगों का दर्शक विवरण पंचेन्द्रियों में संवैध भंगों का विचार
२६६ पंचेन्द्रियों में संवेध भंगों का दर्शक विवरण
३७०-३७५ बंधादि स्थानों की आठ अनुयोगद्वारों में कथन करने की सूचना
३७० मार्गणाओं में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र
और अन्तराय कर्म के बंधादि स्थानों का दर्शक विवरण ३७३ मार्गणाओं में मोहनीयकम के बन्ध, उदय, सत्ता स्थानों व उनके संवेध भंगों का दर्शक विवरण
३७५ मार्गणाओं के नाम कर्म के बंध, उदय, सत्ता स्थानों और उनके संवेध भंगों का दर्शक विवरण
३७५ गाथा ५४
३७५-१७८ उदय उदीरणा में विशेषता का निर्देश गाथा ५५
३७८-६१ ४१ प्रकृतियों के नामों का निर्देश, जिनके उदय और उदीरणा में विशेषता है
३७८ गाथा ५६
३८१-३८३ गुणस्थानों में प्रकृतियों के बंध के निर्देश की सूचना ३८१ मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान की बंधयोग्य प्रकृतियाँ और कारण
३८२
३७६
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गाया ५७
३८३-३८६
मिश्र आदि प्रमत्तविरत पर्यन्त चार गुणस्थानों की बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या और कारण
गाथा ५८
अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की बंधयोग्य प्रकृतियाँ और उसका
कारण
रण गुणवान की बतयों की संख्या ब
कारण
गागा ५६
( ३८ )
मार्गणाओं में बन्धस्वामित्व को जानने की सूचना
गाया ६१
अनिवृत्तिवादर से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक की बन्धयोग्य प्रकृतियां और उनका कारण
गुणस्थानों में बन्ध प्रकृतियों का दर्शक विवरण
गाथा ६०
३८४
३८६-३८८
गतियों में प्रकृतियों की सत्ता का विचार
३८०
३८८-३६२
३५६
३८६
३६१
३६२-३६३
३६२
३६३-३६५
३६३
३३५-४२०
३६५
३६६
૪૦૪
गाया ६२
उपशम श्रेणी के विचार का प्रारम्भ अनन्तानुबन्धी चतुष्क की उपशम विधि अनन्तानुबन्धी चतुष्क की बिसंयोजना विधि दर्शनमोहनीय की उपशमना विधि चारित्रमोहनीय की उपशमना विधि उपशमश्रेणि से च्युत होकर जीव किस-किस गुणस्थान को
प्राप्त होता है, इसका विचार एक भव में कितनी बार उपशमश्रेणि पर आरोहण हो सकता है
४०८
ve
४१६
४२०
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४२५
गाथा ६३
४२३-४३३ क्षपकणि के विचार का प्रारम्भ क्षपकवेणि का आरम्भक कौन होता है
४२७ क्षपक्रोणि में क्षय होने वाली प्रकृतियों का निर्देश व तत्सम्बन्धी मतान्तर पुरुषवेद के आधार से क्षपकश्रेणि का वर्णन
४२८ गाथा ६४ संज्वलन चतष्क के क्षय के क्रम का वर्णन
४३३ समुद्घात की व्याख्या और उसके भेद केवली समुद्घात का विवेचन
४३६ योग निरोध की प्रक्रिया सयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में सत्ता-विच्छेद को प्राप्त होने वाली प्रकृतियों का निर्देश
४३८ अयोगिकेवली गुणस्थान के कार्य विशेष गाथा ६५
४३८-४४० अयोगिकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में क्षय होने
वाली प्रकृतियों का निर्देश गाथा ६६
४४०-४४२ अयोगिकेवली गुणस्थान में उदयप्राप्त प्रकृतियों का निर्देश ४४१ गाथा ६७
अयोगिकेवली गुणस्थान में उदयप्राप्त नामकर्म की नौ
प्रकृतियों गाथा ६८
४४२-४४४ मनुष्यानुपूर्वी की सत्ता सम्बन्धी मतभेद का निर्देश ४४३
४३८
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४५०
गाथा ६
अन्य आचार्य अयोगिकेवली गुमशान के निमय मनुष्यानुपूर्वी की सत्ता क्यों मानते हैं ?
४४४ गाथा ७०
४४६-४५० कर्मक्षय के अनन्तर निष्कर्म शुद्ध आत्मस्वरूप का वर्णन ४४७ गाथा ७१
४५०-४५१ ग्रंथ का उपसंहार गामा ७२
४५१-४५२ लधुता प्रदर्शित करते हुए ग्रंथ की समाप्ति परिशिष्ट
परिशिष्ट १-षष्ठ कर्मग्रंथ की मूल गाथायें परिशिष्ट २--छह कर्मग्रंथों में आगत पारिभाषिक शब्दों
का कोष परिशिष्ट ३-कर्मग्रंथों की गाथाओं एवं व्याख्या में आगत
पिण्डप्रकृति-सूचक शब्दों का कोष परिशिष्ट ४–सप्ततिका प्रकरण की गाधाओं का अका
रादि अनुक्रम परिशिष्ट ५–कर्मग्रंथों की व्याख्या में प्रयुक्त सहायक
ग्रंथों की सूची। तालिकाएं
मार्गणाओं में मोहनीयकर्म के बन्ध, उदय, सत्ता स्थानों व उनके संवैध भंगों का दर्शक विवरण मार्गणाओं में नाम कर्म के बंध, उदय सत्ता स्थानों और उनके संवेध भंगों का दर्शक विवरण
३७५
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कर्मग्रन्थ
[सप्ततिका प्रकरण : भाग छठा]
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सप्ततिका प्रकरण अबाधित होती है। विद्वानों को निश्चिन्त होकर ऐसे ग्रन्थों का अध्ययन, मनन और चिन्तन करना चाहिये । इसीलिए आचार्य मलयगिरि ने गाथागत 'सिद्धपएहि' सिद्धपद के निम्नलिखित दो अर्थ किये हैं
जिन ग्रन्थों के सब पद सर्वज्ञोक्त अर्थ का अनुसरण करने वाले होने से मुप्रतिष्ठित हैं, जिनमें निहित अर्थगाम्भीर्य को किसी भी प्रकार से विकृत नहीं किया जा सकता है, अथवा शंका पैदा नहीं होती है, वे ग्रन्थ सिद्धपद कहे जाते हैं ।। अथवा जिनागम में जीवस्थान, गुणस्यान रूप पद प्रसिद्ध हैं, अतएव जीवस्थानों, गुणस्थानों का बोध कराने के लिये गाथा में 'सिद्धपद' दिया गया है ।
उक्त दोनों अर्थों में से प्रथम अर्थ के अनुसार 'सिद्धगद' शब्द कर्मप्रकृति आदि प्राभुतों का वाधक है, क्योंकि इस सप्ततिका नामक प्रकरण का विषय उन ग्रन्थों के आधार से ग्रन्थकार ने संक्षेप का में निबद्ध किया है । इस बात को स्पष्ट करने के लिए गाथा के चौथे चरण में संकेत दिया गया है--'नीसंदं दिट्टिवायस्स'--दृष्टिवादरूपी महार्णव की एक बूंद के समान है । दृष्टिवादरूपी महार्णव की एक बूद जैसा बतलाने का कारण यह है कि दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के परिक्रम, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका यह पांच भेद हैं। उनमें से पूर्वगत के उत्पादपूर्व आदि चौदह भेद हैं। उनमें दूसरे पूर्व का नाम अग्रायणीय है और उसके मुख्य चौदह अधिकार हैं, जिन्हें वस्तु
-. .-.
१. सिद्ध–प्रतिष्ठित चालायितुमशक्यपित्य कोऽर्थे: । तत: सिद्धानि पदानि येषु ग्रन्थेषु ते सिद्धपदाः ।
--सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १३६ २. स्वसमय सिद्धानि-प्रसिद्धानि यानि जीवस्थान-गुणस्यानरूपाणि पदानि तानि सिद्धपदानि. तेभ्यः तान्याश्रित्य तेषु विषय इत्यर्थः ।
–सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १३६
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श्री वीतरागाय नमः सप्ततिका प्रकरण
[षष्ठ कर्मग्रन्थ] सप्ततिका प्रकरण के आधार, अभिधेय एवं अर्थगांभीर्य को प्रदशित करने वाली प्रतिक्षामाशा-.
सिद्धपएहि महत्थं बन्धोदयसन्तपडिठाणाणं। वोच्छं सुण संखेवं नोसंदं दिठिवायस्स ॥१॥
शब्दार्थ-सिद्धपरहि--सिद्धपद वाले ग्रन्थों से, महत्थंमहान अर्थ वाले, बंशोत्यसंतपडिठाणाणं-बंध, उदय और सत्ता प्रकृतियों के स्थानों को, वोन्य-कहंगा, मुण-मुनो, संखेव-संक्षेप में, नीसद-निस्यन्द रूप, बिन्दु रूप, विहिवायस्स-दृष्टिवाद अंग का।
गाभार्थ-सिद्धपद बाले ग्रन्थों के आधार से बंध, उदय और सत्ता प्रकृतियों के स्थानों को संक्षेप में कहूँगा, जिसे सुनो | यह संक्षेप कथन महान अर्थ वाला और दृष्टिबाद अंग रूपी महार्णव के निस्यन्द रूप-एक बिन्दु के समान है । विशेषा-गाथा में ग्रन्थ की प्रामाणिकता, वर्ण्य-विषय आदि का संकेत किया है। सर्वप्रथम ग्रन्थ की प्रामाणिकता का बोध कराने के लिए पद दिया है 'सिद्धपएहि यानी यह ग्रन्थ सिद्ध अर्थ के आधार से रचा गया है। इस ग्रन्थ में वर्णित विषय में किसी प्रकार से पूर्वापर विरोध नहीं है। ___ जिस ग्रन्थ, शास्त्र या प्रकरण का मूल आधार सर्वज्ञ वाणी होती है, वही ग्रन्थ विद्वानों ने लिए आदरणीय है और उसकी प्रामाणिकता
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ :
IE
कहते हैं । उनमें से पांचवीं वस्तु के बीस उप-अधिकार हैं जिन्हें प्रामा कहते हैं और इनमें से चौथे प्राभूत का नाम कर्मप्रकृति है । इसी कर्मप्रकृति का आधार लेकर इस सप्ततिका प्रकरण की रचना हुई है।
उक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह प्रकरण सर्वज्ञदेव द्वारा कहे गये अर्थ का अनुसरण करने वाला होने से प्रामाणिक है। क्योंकि सर्वज्ञदेव अर्थ का उपदेश देते हैं, तदनन्तर उसकी अवधारणा करके गणधरों द्वारा वह द्वादश अंगों में निबद्ध किया जाता है । अन्य थाचार्य उन बारह अंगों को साक्षात् पढ़कर या परम्परा से जानकर अन्य रचना करते हैं । यह प्रकरण भी गणधर देवों द्वारा निबद्ध सर्वज्ञ देव की वाणी के आधार से रचा गया है । ___ सिद्धपद' का दूसरा अर्थ गुणस्थान, जीवस्थान लेने का तात्पर्य यह है कि इनका आधार लिए बिना कर्मप्रकृतियों के बंध, उदय और सत्ता का वर्णन नहीं किया जा सकता है। अतः उनका और उनमें बंध, उदय, सत्ता स्थानों एवं उनके संवेध भंगों का बोध कराने के लिए 'शिङ्कपद' का अर्थ जोत्रस्थान और गुणस्थान भी माना जाता है ।
उपर्युक्त विवेचन से यद्यपि हम यह जान लेते हैं कि इस सप्ततिका नामक प्रकरण में कर्मप्रकृति प्राभत आदि के विषय का संक्षेप किया गया है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि इसमें अर्थगाम्भीर्य नहीं है । यद्यपि ऐसे बहुत से आख्यान, आलापक और संग्रहणी आदि ग्रंथ हैं जो संक्षिप्त होकर भी अर्थगौरव से रहित होते हैं, किन्तु यह ग्रन्थ उनमें से नहीं है । अर्थात् नन्थ को संक्षिप्त अवश्य किया गया है लेकिन इस संक्षेप रूप में अर्थगांभीर्य पूर्ण रूप से भरा हुआ है । विशेषताओं में किसी प्रकार को न्यूनता नहीं आई है । इसी बात का ज्ञान कराने के लिए ग्रन्थकार ने गाथा में विशेषण रूप से 'महत्थे महार्थ पद दिया है।
ग्रन्थकार ने ग्रन्थ की विशेषताओं को बतलाने के बाद विषय का
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सप्ततिका प्रकरण
निर्देश करते हुए कहा है- 'बन्धोदयसंतपय डिठाणाणं वोच्छ'-बंध,
उदय और सत्ता प्रकृति स्थानों का कथन किया जा रहा है। जिनके लक्षण इस प्रकार हैं- लोपिंड के प्रत्येक कण में जैसे अग्नि प्रविष्ट हो जाती है, वैसे ही कर्म-परमाणुओं का आत्मप्रदेशों के साथ परस्पर जो एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध होता है, उसे बंध कहते हैं ।" विपाक अवस्था को प्राप्त हुए कर्म - परमाणुओं के भोग को उदय कहते हैं ।" अंध समय से या संक्रमण समय से लेकर जब तक उन कर्म-परमाणुओं का अन्य प्रकृतिरूप से संक्रमण नहीं होता या जब तक उनकी निर्जरा नहीं होती, तब तक उनका बाला के साथ रहने की स कहते हैं । "
स्थान शब्द समुदायवाची है, अतः प्रकृतिस्थान पद से दो, तीन, आदि प्रकृतियों के समुदाय को ग्रहण करना चाहिए ।" ये प्रकृतिस्थान संध, उदय और सस्त्र के भेद से तीन प्रकार से हैं । जिनका इस ग्रन्थ में विवेचन किया जा रहा है ।
गाथा में आगत 'सुण' क्रियापद द्वारा ग्रन्थकार ने यह ध्वनिल किया है कि आचार्य शिष्यों को सम्बोधित एवं सावधान करके शास्त्र का व्याख्यान करें । क्योंकि बिना सावधान किये ही अध्ययन
१. तत्र बंधो नाम कर्मपरमाणूनामात्मप्रदेश: सह वन्यःपिण्डवदन्योऽन्या- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४०
नुगमः ।
२. कर्मपरमाणूनामेव
विपाकप्राप्तानामनुभवनमुदयः ।
- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४० ३. बन्धमयात् संक्रमेगात्मला पसनयात्रा आरभ्य यावत् ते कर्मपरमाणव नान्यत्र संक्रम्यन्ते यावद या न क्षयमुपगच्छन्ति तावत् तेषां स्वस्वरूपेण यः सद्भावः सा सत्ता । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४० ४. प्रकृतीनां स्थानानि समुदाया: प्रकृतिस्थानानि हित्र्यादिप्रकृतिसमुदाया इत्यर्थः, स्थानशब्दोऽत्र समुदायवाची । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४०
―
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ : गा० २
पठन-पाठन किये जाने की स्थिति में उसका लाभ शिष्य न उठा सकें और स्वयं आचार्य खेदखिन्न हो जायें । अतः वैसी स्थिति न बने और शिष्य आचार्य के व्याख्यान को यथाविधि हृदयंगम कर सकें, इसी बात को बतलाने के लिए गाथा में 'सुण' यह क्रियापद दिया गया है ।
इस प्रकार से ग्रन्थ के वर्ण्य विषय आदि का बोध कराने के पश्चात् अब ग्रन्थ प्रारम्भ करते हैं । ग्रन्थ का वर्ण्य विषय बन्ध, उदय और सत्व प्रकृतिस्थानों के संवेध रूप संक्षेप में कहना है। अतः शिष्य आचार्य के समक्ष अपनी जिज्ञासा पूर्ति के लिये प्रश्न करते हैं कि
कs बंधतो वेयह कह कर वा भंगविगप्पा मुलुत्तरपगई
पयडितठाणाणि । बोधव्वा ॥ २॥
서
५.
11
शब्दार्थ – कइ -- कितनी प्रकृतियों का बंधतो वध करने वाना, बेयइ -- वेदन करता है, कइ कह – कितनी- कितनी वाअथवा पर्यातिठाणाणि - प्रकृतियों का सत्तास्थान, सलुसराई - मूल और उत्तर प्रकृतियों के विषय में, भंगविगप्पा भो के विकल्प, उ- और, बोधवा— जानना चाहिये ।
}
गावार्थ – कितनी प्रकृतियों का बंध करने वाले जीव के कितनी प्रकृतियों का वेदन होता है तथा कितनी प्रकृतियों का बंध और वेदन करने वाले जीव के कितनी प्रकृतियों का सत्व होता है ? तो मूल और उत्तर प्रकृतियों के विषय में अनेक भंग-विकल्प जानना 'चाहिए ।
विशेषार्थ - ग्रन्थ का वर्ण्य विषय बंध आदि प्रकृतिस्थानों का कथन करना है । अतः शिष्य शंका प्रस्तुत करता है कि कितनी प्रकृतियों का बंध होते समय कितनी प्रकृतियों का उदय होता है आदि । शिष्य की उक्त शंका का समाधान करते हुए आचार्य उत्तर देते हैं कि मूल और उत्तर प्रकृतियों के विषय में अनेक भंग जानना चाहिए। अर्थात् कर्मों की मूल और उत्तर प्रकृतियों में अनेक प्रकार के भंग
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सप्ततिका प्रकरण
विकल्प बनते हैं, किन्तु वाचाशक्ति की मर्यादा होने के कारण जिनका पूर्णरूपेण कथन किया जाना सम्भव नहीं होने से क्रमश: मूल और उत्तर प्रकृतियों में सामान्यतया उन विकल्पों का कथन करते हैं ।
ww
इस प्रकार इस गाथा के वाच्यार्थ पर विचार करने पर दो बातों को सूचना मिलती है। प्रथम यह कि इस प्रकरण में मुख्यतया पहले मूल प्रकृतियों और इसके बाद उत्तर प्रकृतियों के बन्ध-प्रकृति स्थानों, उदय प्रकृतिस्थानों और सत्व - प्रकृतिस्थानों का तथा उनके परस्पर संवेध' और उनसे उत्पन्न हुए भंगों का विचार किया गया है। दूसरी बात यह है कि उन भंग-विकल्पों को यथास्थान जीवस्थानों और गुणस्थानों में घटित करके बतलाया गया है ।
इस विषय विभाग को ध्यान में रखकर टीका में सबसे पहले बाठ मूल प्रकृतियों के बंध - प्रकृतिस्थानों, उदय प्रकृतिस्थानों और सत्वप्रकृतिस्थानों का कथन किया गया है। क्योंकि इनका कथन किये बिना आगे की गाथा में बतलाये गये इन स्थानों के संबेध का सरलता से ज्ञान नहीं हो सकता है। साथ ही प्रसंगानुसार इन स्थानों के स्वामी और काल का निर्देश किया गया है, जिनका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है ।
बंधस्थान, स्वामी और उनका काल
:
कर्मों की मूल प्रकृतियों के निम्नलिखित आठ भेद हैं- १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय ५. आयु, ६ नाम, ७. गोत्र और ८. अंतराय । इनके स्वरूप लक्षण बतलाये जा चुके हैं। मूल कर्म प्रकृतियों के आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, छह
१. सयेधः परस्परमेककाला मागम विरोधेन मोलनम् ।
1
कर्म प्रकृति बन्धोदय०, पृ० ६५.
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षष्ठ कर्मग्रन्थ : मा०२
प्रकृतिक और एक प्रकृतिक इस प्रकार कुल चार बंधस्थान होते
इनमें से आठ प्रकृतिक बंधस्थान में सब मूल प्रकृतियों का, सप्त प्रकृतिक बंधस्थान में आयुकर्म के विना सात का, छह प्रकृतिक बंधस्थान में आयु और मोहनीय कम के बिना छह का और एक प्रकृतिक बंधस्थान में सिर्फ एक वेदनीय कर्म का ग्रहण होता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि आयुकर्म का बंध करने वाले जीव के आठों कर्मों का, मोहनीय कर्म को बांधने वाले जीव के आठों का या आयु के बिना सात का; ज्ञानावरण, दर्शनावरण, नाम, गोत्र और अंतराय कर्म का बंध करने वाले जीव के आठ का, सात का या छह का तथा एक बेदनीय कर्म का बंध करने वाले जीव के आठ का, सात का छह का या एक वेदनीय कर्म का बंध होता है । __अब उक्त प्रकृतिक बंध करने वालों का कथन करते हैं।
आयुकर्म का बंध सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है किन्तु मिश्र गुणस्थान में आयुबंध नहीं होने का नियम होने से मिश्र गुणस्थान के बिना शेष छह गुणस्थान वाले आयुबंध के समय आठ प्रकृतिक बंधस्थान के स्वामी होने हैं। मोहनीय कर्म का बंध नौवें गुणस्थान तक होता है अतः पहले से लेकर नौवें गुणस्थान तक के जीव सात प्रकृतिक बंधस्थान के स्वामी हैं । किन्तु जिनके आयुकर्म का भी बंध होता हो वे सात प्रकृतिक बंधस्थान के स्वामी नहीं होते
१ तत्र मूल प्रकृतीनामुक्तस्वरूपाणां बंधं प्रतीत्य चत्वारि प्रकृति स्थानानि सच था-अष्टौ, सप्त, षड्, एका च ।
– सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १४१ २ आउम्भि अछ मोहेऽसत्त एक्कं च छाइ वा तइए । बझंतम्सि बांति सेसएमु छ सत्तष्ठ ।।
-पंचसंग्रह सप्ततिका, गा०२
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सप्ततिका प्रकरण
हैं, आठ प्रकृतिक बंधस्थान के स्वामी माने जाते हैं। आयु और मोहनीय कर्म के बिना शेष छह कर्मों का बन्ध केवल दश गुणस्थानसूक्ष्मसंपराय में होता है | अतः सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान दाले जीव छह प्रकृतिक बंधस्थान के स्वामी हैं। वेदनीय कर्म का बंध ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में होता है, अतः उक्त तीन गुणस्थान वाले जीव एक प्रकृतिका मान के साग 1
इन बंधस्थानों का काल इस प्रकार है कि आठ प्रकृतिक बंधस्थान आयुकर्म के बंध के समय होता है और आयुकाम का जघन्य व उत्कृष्ट बंधकाल अन्तर्मुहूर्त है । अतः आठ प्रकृतिका बंधस्थान का जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जानना चाहिए ।
सात प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि जो अप्रमत्तसंयत जीव आठ मूल प्रकृतियों का बन्ध करके सात प्रकतियों के बंध का प्रारम्भ करता है, वह यदि उपशम श्रेणि पर आरोहण करके अन्तमुहूर्त काल में सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है तो उसके सात प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्य काल अन्तर्महूर्त होता है । इसका कारण यह है कि सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में छह प्रकृतिक स्थान का बंध होने लगता है तथा सात प्रकृतिक बंधस्थान
१ छसु सगविहमठविहं कम्म बंधति तिमु य सत्तविहं ।
छबिहमेकाणे तिसृ एक्कमबंधगो एक्को ।।-गो कर्मकाण्ड ४५२ --मिश्न गुणस्थान के बिना अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त छह गुणस्थानों में जीव आय के बिना सात और आयु सहित माठ प्रकार के कर्मों को बांधते हैं । मिश्र, अपूर्ववरण और अनिवृत्ति करग इन तीन गुणस्थानों में आयु के बिना सात प्रकार के ही कर्म बांधते हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में आयु मोह के बिना छह प्रकार के कर्मों का बन्ध होता है ! उगणान्तकषाय आदि तीन गुणस्थानों में एक वेदनीयकर्म का ही बन्ध होता है और अयोगि गुणस्थान बन्धरहित हैं अर्थात् उसमें किसी प्रकृति का बन्ध नहीं होता है ।
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पष्ट कर्मग्रन्ध : गा०२
का उत्कृष्ट काल छह माह और अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि वर्ष का त्रिभाग अधिक तेतीस सागर है। क्योंकि जब एक पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण आयु वाले किसी मनुष्य या तिथंच के आयु का एक विभाग शेष रहने पर अन्तर्मुहूर्त काल तक परभव सम्बन्धी आयु का बंध होता है, अनन्तर जगणन आयु के समाप्त हो जाने पर वन् जीव तेतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु वाले दंवों में या नारकों में उत्पन्न होकर और वहाँ आयु के छह माह शेष रहने पर पुनः परभव सम्बन्धी आयु का बंध करता है, तब उसके सात प्रकृतिक बंधस्थान का उत्कष्ट काल प्राप्त होता है।
छह प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसका कारण यह है कि छह प्रकृतिक बंधस्थान का स्वामी सूक्ष्मसम्पराध गुणस्थानवी जीव है । अतः उक्त गुणस्थान वाला जो उपशामक जीब उपशम श्रेणि पर चढ़ते समय या उतरते समय एक समय तक मूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में रहता है और मर कर दूसरे समय में अविरत सम्यग्दृष्टि देव हो जाता है, उसके छह प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्यकाल एक समय होता है तथा छह प्रकृतिक बंधस्थान का अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उत्कृष्ट काल सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान के उत्कृष्ट काल की अपेक्षा बताया है। क्योंकि सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है।
एक प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण है । जिसका स्पष्टीकरण यह है कि जो उपशम श्रेणि वाला जीव उपशान्तमोह गुणस्थान में एक समय तक रहता है और मरकर दूसरे समय में देव हो जाता है, उस उपशान्तमोह वाले जीव के एक प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है तथा एक पूर्व कोटि वर्ष की आयु वाला जो मनुष्य सात माह गर्भ में रहकर और तदनन्तर जन्म लेकर आठ वर्ष प्रमाण
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सप्ततिका प्रकरण
१०
काल व्यतीत होने पर संयम धारण करके एक अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर क्षीणमोह होकर सयोगिकेवली हो जाता है, उसके एक प्रकृतिक बंधस्थान का उत्कृष्ट काल आठ वर्ष सात माह और अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण प्राप्त होता है। बंधस्थानों के भेद, स्वामी और काल प्रदर्शक विवरण इस प्रकार हैं
'
T
बंध स्थान
भाऊ प्रकृतिक
सात प्रकृतिक
ଚଞ୍ଚ प्रकृतिक
एक प्रकृतिका
मूल प्रकृति
सन
आयु के
बिना
स्वामी
जघन्य
उत्कृष्ट
मिश्र गुण के अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त
बिना
अनमस
गुणस्थान
तक
आदि के अन्तर्मुहुर्त एक अन्तर्मुहूर्त और
| गुणस्थान
छह माह कम तथा पूर्व कोटि का विभाग अधिक तेतीस सागर
मोह व आयु सूक्ष्मसम्पदाय
के बिना
वेदनीय
११, १२, १३वां
गुणस्थान
काल
एक समय
एक समय
अन्त ह
देशीन पूर्व कोटि
उदयस्थान, स्वामी और उनका काल
बंध प्रकृतिस्थानों का कथन करने के पश्चात् अब उदय की अपेक्षा से प्रकृतिस्थानों का निरूपण करते हैं कि आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक और चार प्रकृतिक, इस प्रकार मूल प्रकृतियों को अपेक्षा तीन उदयस्थान होते हैं । 1
१ उदयं प्रति त्रीणि प्रकृतिस्थानानि तद्यथा अष्टौ सप्त चतस्रः ।
J
- सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १४२
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पाठ कर्भ ग्रन्थ : गा०२
आठ प्रकृतिक उदयस्थान में सव मूल प्रकृतियों का, सात प्रकृतिक उदयस्थान में मोहनीय कर्म के बिना सात मूल प्रकृत्तियों का और चार प्रकृतिक उदयस्थान में चार अघाती कर्मों का ग्रहण होता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मोहनीय के उदय रहते आठों कर्मों का उदय होता है। मोहनीय के विना शेष तीन पाती कर्मों का उदय रहते आठ या सात कर्मों का उदय होता है। आठ कर्मों का उदय सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान तक होता है और सात का उदय उपशान्तमोह या क्षीणमोह गुणस्थान में होता है । चार अघाती कर्मों का उदय रहते आठ, सात या चार का उदय होता है । इनमें से आठ का उदय सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक, सात का उदय उपशान्तमोह या क्षीणमोह गुणस्थान में और चार का उदय सयोगिकेवली तथा अयोगिकेवली गुणस्थान में होता है।
उक्त उदयस्थानों के स्वामी इस प्रकार समझना चाहिये कि मोहनीय कर्म का उदय दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक होता है अनः आठ प्रकृतिक उदयस्थान के स्वामी प्रारम्भ से दस गुणस्थान तक के जीव हैं । मोहनीय के सिवाय शेष तीन घाती कर्मों का उदय बारहवें गुणस्थान तक होता है अतः सात प्रकृतिक उदयस्थान के १. (क) मोहस्सुदए अट्ठ कि सत्त या लमन्ति सेसयाणुदए । सन्तोइणाणि अघाइयाणं सह सत्ता चउरो य ।।
-पंचसंग्रह सप्ततिका, गा० ३ (ख) तत्र मोहनीयस्थोदयेऽष्टानामप्युदयः, मोहनीयबर्जानां त्रयाणां घातिकर्मणामुदये अष्टानां सप्तानां वा । तत्राष्टानां सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानक यावत्, सप्तानामुपशान्तमोहे क्षीणमोहे वा, वेदनीयाऽऽयुःनामगोत्राणामृदयेऽष्टानां सप्तानां चतसणांबा उदयः । तत्राष्टानां सूक्ष्मसंपराय यावत्, सप्तानामुपशान्तमोहे क्षोण मोहे वा, चनमृणामतामामव वेदनीयादीनां सयोगिकेवलिनि अयोगिकेवलिनि च ।
-सपातिका प्रकरण टीका, पृ० १४३
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सप्ततिका प्रकरण
स्वामी ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान के जीव हैं। चार अघाती कर्मों का उदय तेरहवें सयोगिकेवली और चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है । अतएव चार प्रकृतिक उदयस्थान के स्वामी सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जीव हैं ।
इन तीन उदयस्थानों में से आठ प्रकृतिक उदयस्थान के काल के तीन विकल्प हैं.-१. अनादि-अनन्त, २. अनादि-सान्त और ३. सादिसान्त । इनमें से अभव्यों के अनादि-अनन्त, भव्यों के अनादि-सान्त और उपशान्समोह गुणस्थान से गिरे हुए जीवों की अपेक्षा सादि-सांत काल होता है । __सादि-सान्न विकल्प की अपेक्षा आठ प्रकृतिक उदयस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपार्धपुद्गल परावर्त प्रमाण है । जो जीव उपशमणि से गिरकर पुनः अन्तर्मुहूर्त काल के गा उपशमश पर नया नशममोड़ी हो जाता है। उस जीव के आठ प्रकृतिक उदयस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त होता है और जो जीव अपार्ध पुद्गल परावर्त काल के प्रारम्भ में उपशान्तमोही और अन्त में क्षीणमोही हुआ है, उसके आठ प्रकृतिक
१. अदओ सहुमो ति य मोहेण विणा हु संतखोणेसु । घादिदराण घउक्करसुदओ अलि दुगे नियमा ।।
-गो० कर्मकांड, गा० ४५४ -सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक आर प्रकृतियों का उदय है । उपपाान्तकषाय और क्षीणकषाय इन दो गुणस्थानों में मोहनीय के बिना सात का उदय है तथा सयोगि और अयोगि इन दोनों में चार अघातिया
कर्मों का उदय नियम से जानना चाहिए । २. तत्र सर्वप्रकुतिसमुदायोऽष्टी, तासां चोदयो: मन्यानधिकृत्य अनाद्यपर्यवसितः,
भव्यानधिकृत्यानादिसपर्यवसानः, उपशान्समोहगुणस्थानकात् प्रतिपतितानधिकृत्य पुनः सादिमपर्यवसानः। –सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४२
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१३
षष्ठ कर्मग्रन्थ : गा० २
उदयस्थान का उत्कृष्टकाल कुछ कम अपार्ध पुद्गल परावर्त होता
है ।
1
सात मऋतिक स्थान क जयकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सात मूल प्रकृतियों का उदय उपशान्तमोह और क्षीणमोह इन दो गुणस्थानों में होता है । परन्तु क्षीणमोह गुणस्थान में न तो मरण होता है और न उससे पतन होता है और क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती जीव नियम से तीन घाती कर्मों का क्षय करके सयोगकेवली हो जाता है। लेकिन उपशान्तमोह गुणस्थान में जीव का मरण भी होता है और उससे प्रतिपात भी होता है | अतः जो जीव एक समय तक उपशान्तमोह गुणस्थान में रहकर और दूसरे समय में मरकर अविरत सम्यग्दृष्टि देव हो जाता है, उसके सात प्रकृतिक उदयस्थान का जघन्यकाल एक समय माना जाता है तथा उपशान्तमोह या क्षीणमोह गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः सात प्रकृतिक उदयस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त माना जाता है ।
चार प्रकृतिक उदयस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्व कोटि प्रमाण है। जो जीव सयोगिकेवली होकर एक अन्तर्मुहर्त काल के भीतर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है, उसकी अपेक्षा चार प्रकृतिक उदयस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है और उत्कृष्टकाल एक प्रकृति बंधस्थान काल की सरह देशोन पूर्व कोटि प्रमाण समझना चाहिए । अर्थात् जैसे एक प्रकृतिक बंधस्थान का उत्कृष्टकाल बतलाया है कि एक पूर्व कोटि वर्ष की आयु वाला मनुष्य सात माह गर्भ में रहकर और तदनन्तर
१ धातिकर्मवजश्चितस्रः प्रकृतयः तासामुदयो जघन्येनान्तमोः तिकः उत्कण तु देशपूर्वकोटिप्रमाण - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४२
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सप्ततिका प्रकरण
जन्म से लेकर आठ वर्ष प्रमाण काल के व्यतीत होने पर संयम प्राप्त करके एक अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर क्षीणमोह, सयोगकेवली हो जाता है तो वैसे ही आठ वर्ष, सात माह कम एक पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण समझना चाहिए । यहाँ इतनी विशेषता है कि इसमें क्षीणमोह गुणस्थान का फार्मुहूर्तानावाए।
उदयस्थानों के स्वामी, काल आदि का विवरण इस प्रकार है
काल
उवयस्थान | मूल प्रकृति : स्वामी
आट प्रकृति
सभी
आदि के दस गुणस्थान
सात प्रकृति मोह के बिना,
११, १२वाँ
गुण स्थान
चार प्रकृति चार अघाती
१४
१३
गुणस्थान
१४औं
I
अघन्य | उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त | कुछ कम अपार्थ
एक समय
पुद्गल परावर्त अन्तर्मुहूर्त
अन्तर्मुहूर्त
देशोन पूर्व कोटि
सत्तास्थान, स्वामी और काल
बन्ध और उदयस्थानों को बतलाने के बाद अब सत्तास्थानों को बतलाते हैं । सत्ता प्रकृतिक स्थान तीन हैं--आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक और चार प्रकृतिक | आठ प्रकृतिक सत्तास्थान में ज्ञानावरण आदि अन्तरायपर्यन्त सब भूल प्रकृतियों का सात प्रकृतिक सत्तास्थान में मोहनीय के सिवाय शेष सात प्रकृतियों और चार प्रकृतिक सत्तास्थान में चार अघाती कर्मों का ग्रहण किया जाता है। इसका विशेष स्पष्टीकरण यह है कि मोहनीय कर्म के सद्भाव में आठों कर्मों की, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतकाय की विद्यमानता में आठों
१ सत्ता प्रति श्रीणि प्रकृतिस्थानानि । तद्यथा--- अष्टौ सप्त, चतस्रः । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४३
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बाट कर्म ग्रन्थ : गा०२
कर्मों की या मोहनीय के बिना सात कर्मों की तथा वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अघाती कर्मों के रहते हुए आठों को, मोहनीय के बिना सात की या चार अघाती कर्मों की सत्ता पाई जाती है ।
इन सत्तास्थानों के स्वामी इस प्रकार हैं
चार अधाती कर्मों को सत्ता सयोगि और अयोगि केवलियों के होती है अतः चार प्रकृतिक सत्तास्थान के स्वामी सयोगिकेवली और अयोगिकेवली गुणस्थानवर्ती होते हैं । मोहनीय के बिना शेष सात कर्मों की सत्ता बारहवें क्षीणमोह मुणस्थान में पाई जाती है, अतः सात प्रकृतिक सत्तास्थान के स्वामी क्षीणमोह गुणस्थान वाले जीव हैं । आठ कर्मों की सत्ता पहले से लेकर ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान तक पाई जाती है, अतः आठ प्रकृतिक सत्तास्थान के स्वामी आदि के ग्यारह गुणस्थान वाले जीव हैं।
१. मोहनीये सत्यप्टानामपि सत्ता, ज्ञानापरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां सत्तायां
अष्टानां सप्तानां व सत्ता | वेदनीया यु नामगोत्राणां सत्तायामष्टानां सप्तानां चत्तसणां वा सत्ता। -सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४३ चतसृणां सत्ता वेदनीयादीनामेय सा, च सयोगिकेवलिगुणस्थानके अयोगिकेनिगुणस्थान के च द्रष्टव्या । -सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४३ ३. (वा) ताप्टानामुपशान्तमोहगुणस्थानकं यावत् मोड़नीय क्षीणे सप्तानां,
मा च भीणमोहगुणस्थानके । ---सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १४३ (ख) संतो ति अठ्ठसत्ता जीणे सत्तेव होति सत्ताणि 1 जोगिम्मि अजोगिम्मि य चत्तारि हवंति रात्ताणि ||
-गो० फर्मकांड, गा०४५७ उपशान्तकषाय गुणस्थान पर्यन्त आठों प्रकृतियों की सत्ता है। क्षीणकषाय गुणस्थान में मोहनीम के विना साप्त करें की ही सत्ता है और सयोगिकेवली व अयोगि केवली इन दोनों में चार अघातिया कर्मों की सत्ता है।
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सप्ततिबा प्रकरण
इन तीन सत्तास्थानों में से आठ प्रकृतिक सत्तास्थान का काल अभव्य की अपेक्षा अनादि अनन्त है, क्योंकि अभव्य के सिर्फ एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है और मिथ्यात्व गुणस्थान में किसी भी मूल प्रकृति का क्षय नहीं होता है। भव्य जीवों की अपेक्षा आठ प्रकृतिक सत्तास्थान का काल अनादि सान्त है, क्योंकि क्षपक सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में हो मोहनीय कर्म का समूल उच्छेद कर देता है और उसके बाद क्षीणमोह गुणस्थान में सात प्रकृतिक सत्तास्थान की प्राप्ति होती है और क्षीणमोह गुणस्थान से नहीं होता है । जिससे यह सिद्ध हुआ कि भव्य जीवों की अपेक्षा आठ प्रकृतिक सत्तास्थान अनादि-सांत है 12
१६
सात प्रकृतिक सत्तास्थान बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में होता है और क्षीणमोह गुणस्थान का जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । अतः सात प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य व उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है ।"
चार प्रकृतिक सत्तास्थान सयोगिकेवली और अयोगिकेवली गुणस्थानों में पाया जाता है और इन गुणस्थानों का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्व कोटिं वर्ष प्रमाण है | अतः वार प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण समझना चाहिए ।
१. तत्र सर्व प्रकृतिसमुदायोऽष्टी एतासां चाष्टानां सत्ता अभव्यानधिकृत्य अनाद्यपर्यवसाना, भय्यामधिकृत्य अनादिसपर्यवसाना |
1
- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४३ २. मोहनीये क्षीणं सग्तानां सत्ता सा च जघन्योत्कर्षेणान्तर्मुहुर्त प्रमाणा, सा हि क्षीण मोहे, क्षोणमोहगुणस्थानकं चान्तर्मुहर्त प्रमाणमिति ।
-- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४३
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षष्ठ कर्मग्रन्थ : गा०३
यहाँ कुछ कम का मतलब आठ वर्ष, सात मास और अन्तमुहूतं प्रमाण है । सत्तास्थानों के स्वामी, काल आदि का विवरण इस प्रकार हैसत्तास्थान | मूलप्रकृति , स्वामी ।
काल
| अपत्य । उत्कृष्ट आठ प्रकृतिक सभी | आदि के ११ | अनादि-सान्त | अनादि-अनन्त'
गुण स्थान
सात प्रकृतिक मोहनीय के क्षीणमोह । अन्तर्मुहूर्त । अन्त मुहूर्त
| बिना गुणस्थान चार प्रकृतिक ४ अघाति | १३वा, १४ाँ | अन्तर्मुहूर्त / देशोन पूर्वकोटि
गुणस्थान । इस प्रकार मूल प्रकृतियों के पृथक्-पृथक् बन्ध, उदय और सत्ता प्रकृति स्थानों को समझना चाहिए । अब आगे की गाथा में मूलको के संवैध भंगों का कथन करते हैं । मूलकर्मों के संवैध भंग
अट्ठविहसत्तछबंधगेसु अठेव उवमसंताई ।
एगविहे तिविगप्पो एगविगप्पो अबंधम्मि ॥३॥ १. घातिकर्मचतुष्टयमये च चतसृणां सत्ता, सा च जघन्य नान्तमुहूर्तप्रमाणा,
उत्कर्षण पुनर्देशोनपूर्वकोटिमाना । —सप्ततिका प्रकरण टीका, १४३ २. तुलना कीजिये
अढविहसत्तछर्बध गेस अठेव उदयकम्मंसा । एयविहे विधियापो एप वियप्पो अबंधम्मि ।। -गो० फर्मकाण्ड, ६२८
– मूल प्रकृतियों में से शानावरण आदि भाउ प्रकार के बन्ध वाले अथवा सात प्रकार के बन्ध वाले या छह प्रकार के बन्ध बाले जीवों के उदय और सत्त्व आठ-आठ प्रकार का जानना । जिसके एक प्रकार मूल प्रकृति का बन्ध है उसके तीन भेद होते हैं। जिसके एक प्रकृति का भी बन्ध नहीं होता उसके उदय और सत्त्व चार-चार प्रकार के होने से. एक ही विकल्प है।
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सप्ततिका प्रकरण
शब्दार्थ-अविसत्तधाञ्बंधो-अष्टविध, सप्तविध, पड्विध बंध के समय, अठेव-आठों कर्म की, उदयसंसाई-उदय
और सला, एगबिहे-एकविध बंध के समम, तिविगप्पो-तीन विकल्प, एगविगप्पो--एक विकल्प, मबंधम्मि-अबन्ध दशा में, बंध ने होने पर।
गाथार्थ--आठ, सात और छह प्रकार के कर्मों वा बंध होने के समय उदय और सत्ता आठों कर्म की होती है । एकविध (एक का) बंध होते समय नदय ब सत्ता की अपेक्षा तीन विकल्प होते हैं तथा बंध न होने पर उदय और सत्ता की अपेक्षा एक ही विकल्प होता है।
विशेषार्थ--इस गाथा में मूल प्रकृतियों के बंध, उदय और सत्ता के संबैध भंगों का कथन किया गया है । ___ आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक और छह प्रकृतिक बंध होने के समय आठों कर्मों का उदय और आठों कर्मों की सत्ता होती है-'अछेत्र उदयसंताई' । अर्थात् सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीत्र मिश्र गुणस्थान को छोड़कर आयुबंध के समय आठों कमों का बंध कर सकते हैं अतः उनके आठ प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता होती है । अनिवृत्तिवादर संपराय गुणस्थान तक के जीव आयुकर्म के बिना शेष सात कर्मों का बंध करते हैं किन्तु उनके उदय और सत्ता आठ कर्मों की हो सकती है और सूक्ष्मसंपराय संयत आयु व मोहनीय कर्म के बिना छह कर्मों का बंध करते हैं लेकिन इनके भी आठ कर्मों का उदय और सत्ता होती है।
इस प्रकार से कमों की बंध प्रकृतियों में भिन्नता होने पर उदय और सत्ता एक जैसी मानने का कारण यह है कि उपर्युक्त सभी जीव सराग होते हैं और सरागता का कारण मोहनीय कर्म का उदय है और जब मोहनीय कर्म का उदय है तब उसकी सत्ता अवश्य ही
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राज्ट कर्मग्रन्थ ; गा०३
होगी। इसीलिये आठ, सात और छह प्रकार के कर्मों का बंध होते समय आठों कर्मों का उदय और सत्ता होती है।
इस कथन से निम्नलिखित तीन भंग प्राप्त होते हैं१. आठ प्रकृतिका , आर पक्रतिक रदप पाठ प्रकृतिक सत्ता । २. सात प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय, आठ प्रकृतिक सत्ता । ३. छह प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय, आठ प्रकृतिक सत्ता। इन भंगों का स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
पहला भंग आयुकर्म के बंध के समय पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पाया जाता है। शेष गुणस्थानों में नहीं; क्योंकि अन्य गुणस्थानों में आयुकर्म का बंध नहीं होता है। किन्तु मिश्र गुणस्थान में आयु का बंध नहीं होने से उसको यहाँ नहण नहीं करना चाहिये । अर्थात् मिश्र गुणस्थान में आयु का बंध नहीं होता अतः वहाँ पहला भंग सम्भव नहीं है । इसका काल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है।
दूसरा भंग पहले गुणस्थान से लेकर नौवें अनिवृत्तिवादर संपराय गुणस्थान तक होता है । यद्यपि तीसरे मिश्न, आठवें अपूर्वकरण, - - - - इहाष्टविधबन्धका अप्रमत्तालाः, सप्तविधबन्धका अनियत्तिाबादरसंपरावपर्यवसाना: पड्यिघबंधकाश्च सूक्ष्मसंपरायाः, एते च सर्वेऽपि मुरागाः । सरागत्वं च मोनीयोदयाद् उपजायते, उदये च सत्यवश्यं सत्ता, ततो मोहनीयोदये सत्तासम्भवाद् अष्टविध - सप्तविध-षविधबन्धकेष्ववश्यमुदये सत्तायां चाष्टी प्राप्यतो । एतेन च श्रयो भंगा दर्शिता: तद्यथा-अष्टविधो बन्धा अष्टविन सुदयः अष्टविधां सत्ता । एष विकल्प आयुर्बन्धकाले । सप्तविधो बन्धोऽष्टविध उदयोऽष्टविधा सत्ता, एष वित्राल्ल आयुर्वन्धाभावे । तथा षडविधो वन्धोऽष्टविध उदयोऽष्टविधा सत्ता, एष विकल्पः सूक्ष्मसंपरायाणाम् ।
--सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४३
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सप्ततिका प्रकरण
२०
नौवें अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में आयुकर्म का बंध नहीं होता अतः वहाँ तो यह दूसरा भंग ही होता है किन्तु मिध्यादृष्टि आदि अन्य गुणस्थानवर्ती जीवों के भी सर्वदा आयुकर्म का बंध नहीं होता, अतः वहाँ भी जब आयुकर्म का बंध नहीं होता है तब दूसरा भंग बन जाता है । इस भंग का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट छह माह और अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि का त्रिभाग अधिक तेतीस सागर है।
तीसरा भंग सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती जीव को ही होता है । क्योंकि इनके आयु और मोहनीय कर्म के बिना शेष छह कर्मों का ही बंध होता है । इसका काल जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त प्रमाण है ।
यह तीनों भंग बंधस्थानों की प्रधानता से बनते हैं । अतः इनका जघन्य और उत्कृष्ट काल पूर्व में बताये बंधस्थानों के काल के अनुरूप बतलाया है ।
एक प्रकार के अर्थात् एक वेदनीय कर्म का बंध होने पर तीन विकल्प होते हैं- 'एगविहे तिविगप्पो' | जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
वेदनीय कर्म का बंध ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें - उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगिकेवली, इन तीन गुणस्थानों में होता है । किन्तु उपशान्तमोह गुणस्थान में सात का उदय और आठ की सत्ता, क्षीणमोह गुणस्थान में सात का उदय और सात की सत्ता सयोगिकेवली गुणस्थान में एक का बन्ध और चार का उदय, चार की सत्ता पाई जाती है । अतः एक वेदनीय कर्म का बंध होने की स्थिति में उदय और सत्ता की अपेक्षा तीन भंग इस प्रकार प्राप्त होते हैं
१. एक प्रकृतिक बंध, सात प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता ।
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पष्ठ कर्मग्रन्ध : गा०३
२. एक प्रकृतिक बंध, सात प्रकृतिक उदय और सात प्रकृतिक
सत्ता । ३. एक प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता ।
इनमें से पहला भंग उपशान्तमोह गुणस्थान में होता है, क्योंकि वहाँ मोहनीय कर्म के बिना सात कर्मों का उदय होता है, किन्तु सत्ता आठों कर्मों की होती है। इसका काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है।
दुसरा भंग क्षीणमोह गुणस्थान में होता है । क्योंकि मोहनीय कर्म का समूल क्षय क्षपक सूक्ष्मसंपराय संयत के हो जाता है । जिससे क्षीणमोह गुणस्थान में उदय और लत्ता सात कमी की पाई जाती है। इसका काल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है।
तीसरा भंग सयोगिकेवली गुणस्थान में होता है। क्योंकि वहाँ बंध तो सिर्फ एक वेदनीय कर्म का ही होता है किन्तु उदय और सत्ता चार अघाती कर्मों की पाई जाती है । इसका काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि प्रमाण समझना चाहिये।
इस प्रकार उक्त तीन भंग क्रमशः ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान की प्रधानता से होते हैं । ___एगविगप्पो अबंधम्मि' अर्थात् अबन्धदशा में सिर्फ एक ही विकल्प--भंग होता है। वह इस प्रकार समझना चाहिए कि अयोगिकेवली गुणस्थान में किसी भी कर्म का बन्ध नहीं होता है किन्तु वहाँ उदय और सत्ता चार अघाती कर्मों की पाई जाती है। इसीलिये वहां चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता, यह एक ही भंग होता है।
१ 'अबन्धे' बन्धाभावे एक एक विकल्पः, तद्यथा--चतुर्विध उदयश्चतुविधा
सस्ता, एष चायोगिकेवलिगुणस्थानके प्राप्यते, तत्र हि योगाभावाद् बन्धो न भवति, उदय-सत्ते चाघातिकर्मणां भवत: ।
सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४
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२२
सप्ततिका प्रकरण
इस भंग का जघन्य और उत्कृष्ट काल अयोगिकेवली गुणस्थान के समान अन्तर्मुहूर्त प्रमाण समझना चाहिए ।
इस प्रकार मुल प्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्ता प्रकृतिस्थानों की अपेक्षा संवेध भंग सात होते हैं । स्वामी, काल, सहित उनका विवरण पृष्ठ २३ की तालिका में दिया गया है ।
भूल प्रकृतियों की अपेक्षा बन्ध, उदय और सत्ता प्रकृतिस्थानों के परस्पर संवेध भंगों को बतलाने के पश्चात् अब इन विकल्पों को जीवस्थानों में बतलाते हैं ।
सत्तट्ठबंधअट्ठवयसंत तेरससु जीवठाणेसु । एगम्मि यंत्र गंगा को भंग हति
णो ॥ ४ ॥
शब्बार्थ -- सत्तट्ठबंध - सात और आठ का बंध, अट्ठदयसंतआठ का उदय, बाठ की सत्ता, तेरससु-- तेरह में, जीवठाणेसु—जीवस्थानों में, एगम्मि – एक ( पर्याप्त संशी) जीवस्थान में, पंचभंगापाँच भंग, वरे भंगर---दो भंग, हुति --होते हैं, केवलिणो — केवली के |
—
गाथार्थ आदि के तेरह जीवस्थानों में सात प्रकृतिक और आठ प्रकृतिक बंध में आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्व यह दो-दो भंग होते हैं। एक-संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में आदि के पाँच भंग तथा केवलज्ञानी के अन्त के दो भंग होते हैं ।
—
विशेषार्थ-संवेध भंगों को जीवस्थानों में बतलाया है । जीवस्थान का स्वरूप और भेद चौथे कर्मग्रन्थ में बतलाये जा चुके हैं। जिनका संक्षिप्त सारांश यह है कि जीव अनन्त है और उनकी जातियाँ बहुल है, लेकिन उनका समान पर्याय रूप धर्मों के द्वारा संग्रह करने को जीवस्थान कहते हैं और उसके चौदह भेद किये हैं
१. अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, २. पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, ३. अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, ४. पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, ५. अपर्याप्त
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५७ यामप्र.५: 41.४
काल
संधस्थान "
| जय । सत्तासंख्या
स्थान
स्वामी
जघन्य | उत्कृष्ट
।
आठ प्रक० | आठ | आठ । मिश्न के । अन्तमुहूर्त | अन्तर्मुहूर्त । प्रक० प्रक० सिवाय अप्र०
गुणस्थान तक ६ गुणस्थान
२ | सात प्रक० । आल आर
प्रक० | प्रक०
आदि ने गुणस्थान
अन्तमहत | छह माह
और अन्त कम पूर्वकोटि का त्रिभाग अधिक तेतीम सागर
३ । छह प्रक०
आय | आठ प्रक० | प्रकृ०
सूक्ष्म- 'एक सम्पराय । समय
'अन्तम टूर्त
एक प्रकृ०
सात
आठ
प्रक०
प्रकृ०
समय
उपशास्त- | एक अन्तर्मुहूर्त मोह क्षीणमोह अन्तमुहूर्त ' अन्तर्मुहूर्त
५ | एक प्र०
सात
सात
प्रक०
प्रकृ०:
६ । एक प्रक० | चार चार | सयोगि-
प्रक० । प्रक० ।
केवली
अन्तर्मुहुर्त देशोन पूर्व
कोटि
चार
चार प्रकर
अयोगि- | अन्तर्मुहुर्त अन्तर्मुहूर्त केवली
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सप्ततिका प्रकरण
द्वीन्द्रिय, ६. पर्याप्त द्वीन्द्रिय, ७. अपर्याप्त प्रीन्द्रिय, ८, पर्याप्त श्रीन्द्रिय, ६. अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, १०. पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, ११. अपर्याप्त असंजी पंचेन्द्रिय, १२. पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, १३, अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय, १४. पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय ।
जीवस्थान के उक्त चौदह भेदों में से आदि के तेरह जीवस्थानों में दो-दो भंग होते हैं-१. सात प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता, २. आठ प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय और भाउ प्रकृतिक सत्ता । इन दोनों भंगों को बताने के लिए गाथा में कहा है-'सत्तट्ठबंधअठ्ठदयसंत तेरससु जीवठाणेसु'।
दन तेरह जीवस्थानों में दो भंग इस प्रकारण होते हैं कि इन जीवों के दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय की उपशमना अथवा क्षपणा की योग्यता नहीं पाई जाती है और अधिकतर मिथ्यात्व गुणस्थान ही सम्भव है । यद्यपि इनमें से कुछ जीवस्थानों में दूसरा गुणस्थान भी हो सकता है, लेकिन उससे भंगों में अन्तर नहीं पड़ता है ।
उक्त दो भंग-विकल्पों में से सात प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता बाला पहला भंग जब आयुकर्म का बन्ध नहीं होता है तव पाया जाता है तथा आठ प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता वाला दूसरा भंग आयुकर्म के बन्ध के समय होता है। इनमें से पहले भंग का काल प्रत्येक जीवस्थान के काल के बराबर यथायोग्य समझना चाहिये और दूसरे भंग का जघन्य द उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, क्योंकि आयुकाम के बन्ध का जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है ।
१. सप्तविधो बन्धः अष्टविध उदयः अष्टविधा सत्ता, एप विकल्प आशुबन्धकाले
मुस्वा शेषकानं सर्वदेव लभ्यते, अष्टविधो बन्धः अष्टविध उदमः अष्टविधा सप्ता, एष विकल्प आमुबंधकाले, एष चान्तमौतिकः, आयुर्बन्धकालस्य जघन्येनोरकणर्षे चान्तमुहूर्तप्रमाणत्वात् । सप्ततिका प्रकरण टीका, प.१४४
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षष्ठ कर्म गन्थ : गा. ४
आदि के तेरह जीवस्थानों के दो-दो भंगों का विवरण इस प्रकार समझना चाहिये
जीवस्थान
उदय
सू०
अ०
मा० ए० अप० । बा० ए०प० द्वी० अ३० दा० ५० मो० सप० श्री०प० च० अप० च० प० असं० ० अप० असं० ० प० । सं०० अप०
Mistina म
ляти ялллллля
111111 fina
'एगम्मि पंचभंगा' अर्थात् पूर्वोक्त तेरह जीवस्थानों से शेष रहे एक चौदहवें जीवस्थान में पांच भंग होते हैं। इन पाँच भंगों में पूर्वोक्त दो भंग-१. सात प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय व सत्ता, २. आठ प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता तो होते ही हैं। साथ में १. छह प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता, २. एक प्रकृतिक वन्ध, सात प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता, ३. एक प्रकृतिक बन्ध, सात प्रकृतिक उदय और सात प्रकृतिक सत्ता यह तीन भंग और होते हैं । इस प्रकार पर्याप्त संशी पंचेन्द्रिय के कुल पांच भंग समझने चाहिये ।
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सप्ततिका प्रकरण
पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियों के पाँच भंग इस प्रकार होते हैं---
बन्ध
उदय
।
इन पांच भंगों में से पहला भंग अनिवृत्ति गुणस्थान तक, दुसरा भंग अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक, तीसरा भंग उपशमश्रेणि या क्षपकौणि में विद्यमान सूक्ष्मसंपराय संयत के, चौथा भंग उपशान्तमोह गुणस्थान में और पांचवां भंग क्षीणमोह गुणस्थान में होता है।
यद्यपि केवली जिन भी पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय हैं और उनके भी पाँच भंग मानना चाहिये । लेकिन उनके भंग अलग से बताने का कारण यह है कि केवली जीवों के क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रहते हैं अतः वे संज्ञी नहीं होते हैं। इसीलिये उनके संज्ञित्व का निषेध करने के लिये गाथा में उनके भंगों का पृथक से निर्देश किया है—'दो भंगा हुंति केवलिणों। उनके एक प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता-यह एक भंग तथा चार प्रकृतिक उदय व चार प्रकृतिक सत्ता, लेकिन बंध एक भी प्रकृति का नहीं, यह दूसरा भंग ही होता है। पहला भंग सयोगिकेवली के पाया जाता है, वहाँ सिर्फ एक वेदनीय कर्म का ही बंध होता है, किन्तु उदय और सत्ता चार अघाति कार्मों की रहती है। दूसरा भंग अयोगिकेवली के होता है। क्योंकि इनके एक भी कर्म का बंध न होकर सिर्फ चार अधाति कमों का उदय व सना पाई जाती है।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ : गा०५
ર૭
जीवस्थानों में भंगों का विवरण इस प्रकार समझना चाहिएबंध प्रकृति उदय प्रकृति | सत्ता प्रकृति . जीवस्थान । जघन्य उत्कृष्ट
बाल | अन्तर्मुहूर्त अन्त महत
यथायोग्य 'संही पर्याप्त । एक समय अन्तत | संजो पर्याक्त । एक समय मातहत
सयोगि । अन्तमुहत देशम पूर्व केवली
| कोटि अयोगि केवली | पा चह्रस्व पचि ह्रस्व
स्वरों के स्वरों के उच्चारण उच्चारण कालप्रमाण कालप्रमाण
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र
इस प्रकार से जीवस्थानों में मुल कर्मों के संवेध भंग समाना चाहिए । अब गुणस्थानों में संवेध भंगों को बतलाते हैं । गुणस्थानों में मूलकर्मों के संवेध भग
अट्ठसु एगविगप्पो छस्सु वि गुणसंनिएसु वुविगप्पो। पत्तेयं पत्तेयं बंधोदयसंतकम्माणं ॥ ॥५॥
शब्दार्थ-अमु-आठ गुणस्थानों में, एगविगो-एक बिफल्प, छस्सु-छह में, वि-और, गुणसंनिएसु-गुणस्थानों में, मुबिगप्पो-दो विकल्प, पत्त यं-पत्तेयं--प्रत्येक के, बंधोवसंतकम्मार्ण --वंध, उदय और सत्ता प्रकृति स्थानों के ।
गाथार्थ-आठ गुणस्थानों में प्रत्येक का बंध, उदय और सत्ता रूप कर्मों का एक-एक भंग होता है और छह गुणस्थानों में प्रत्येक के दो-दो भंग होते हैं।
विशेषार्थ-गाथा में चौदह गुणस्थानों में पाये जाने वाले संबंध भंगों का कथन किया है।
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सप्ततिका प्रकरण
मोह और योग के निमित्त से ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप आत्मा के गुणों की जो तरतमरूप अवस्थाविशेष होती है, उसे गुणस्थान कहते हैं । अर्थात् गुण + स्थान से निष्पन्न शब्द गुणस्थान है और गुण का मतलब है आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुण और स्थान यानि उन गुणों की मोह के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के कारण होने वाली तरतम रूप अवस्थायें विशेष |
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गुणस्थान के चौदह भेद होते हैं; जिनके नाम इस प्रकार हैं१. मिथ्यात्व २. सासादन सम्यग्दृष्टि, ३. सम्य मिथ्यादृष्टि (मिश्र), ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तविरत ७ अप्रमत्तविरत ८. अपूर्वकरण, ६. अनिवृत्तिबादर १०. सूक्ष्मसंपरा, ११ उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३ सयोगिकेवली, १४. अयोगिकेवली । इन चौदह भेदों में आदि के बारह भेद मोहनीय कर्म के उदय, उपशमः क्षयोपशम आदि के निमित्त से होते हैं तथा तेरहवाँ सयोगिकेवली और चौदहवां अयोगिकेवली यह दो अन्तिम गुणस्थान योग के निमित्त से होते हैं । सयोगिकेवली गुणस्थान योग के सद्भाव की अपेक्षा से और अयोगिकेवली गुणस्थान योग के अभाव की अपेक्षा से होता है ।
उक्त चौदह गुणस्थानों में से आठ गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्ता रूप कर्मों का अलग-अलग एक-एक भंग होता है- 'अल एगविगप्पो' | जिसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र), अपूर्वकरण, अनिवृत्तिवादर, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेबली, अयोगिकेवली, इन आठ गुणस्थानों में बन्ध, उदय और सत्ता प्रकृतिस्थानों का एक-एक विकल्प होता है। इनमें एक-एक विकल्प होने का कारण यह है कि सम्यग्मिध्यादृष्टि, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादर इन तीन गुणस्थानों में आयुकर्म के योग्य अध्यवसाय नहीं होने के कारण सात प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता यह एक ही भंग होता है ।
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पठ कर्म ग्रन्थ : गा० ५
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सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में छह प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता यह एक भंग होता है। क्योंकि इस गुणस्थान में बादर कषाय का उदय न होने से आयु और मोहनीय कर्म का बंध नहीं होता है किन्तु शेष कर्मों का हो बन्ध होता है।
उपशान्तमोह गुणस्थान में मोहनीय कर्म के उपशान्त होने से सात कर्मों का ही उदय होता है और एक प्रकृतिक बन्ध, सात प्रकृतिक उदय व आठ प्रकृतिक सत्ता, यह एक भंग पाया जाता है ।
क्षोणमो गुणस्थान में एक प्रकृति र सात प्रकृतिक उदय और सात प्रकृतिक सत्ता यह एक ही भंग होता है। क्योंकि सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में ही मोहनीय कर्म का समूलोच्छेद हो जाने से इसका उदय और सत्व नहीं है ।
योगिकेवली गुणस्थान में एक प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता, यह एक भंग होता है। क्योंकि इस गुणस्थान में चार भातिकर्मों का उदय व सत्ता नहीं रहती है ।
अयोगिकेवली गुणस्थान में योग का अभाव हो जाने से किसी भी कर्म का बंध नहीं होता है, किन्तु चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता रूप एक भंग होता है ।
इस प्रकार से आठ गुणस्थानों में भंग-विकल्पों को बतलाने के बाद अब शेष रहे छह गुणस्थानों के भंग-विकल्पों को कहते हैं कि'छस्सुवि गुणसंनिए दुविगप्पो छह गुणस्थानों में दो-दो विकल्प होते हैं । उन छह गुणस्थानों के नाम इस प्रकार हैं- मिथ्यात्व, सासादन, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमतविरत । इनमें पाये जाने वाले विकल्प यह हैं - १. आठ प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता तथा २. सात प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता । इन दोनों भंगों में से
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सलतिका प्रकरण पहला भंग आयुकर्म के बंधकाल में होता है तथा दूसरा विकल्प आयुकर्म के बंधकाल के अतिरिक्त सर्वदा पाया जाता है 11
चौदह गुणस्थानों के भंगों की संग्राहक गाथायें निम्न हैं एवं विवरण पृष्ठ ३१ की सालिका में लिया:
'मिस्स अपुष्वा बायर सपबंधा छच्न बंधए सुहमो। . ' उवसंताई एगं अंबंधगोऽजोगि एगेगं ।। मिछासायणअविरय सफ्मत्त अपमत्तया चेच । ससऽछ बंधगा पह, उदया, संता या पुण एए॥ जा सुहमो ता अ उ उदए संते य होति पयडीयो।
सत्ताधसते खीणि सत्त चत्तारि सेसेसु ॥ इस प्रकार मूल प्रकृतियों की अपेक्षा बंध, उदय और सत्ता प्रकृतिस्थानों के संवैध भंगों और उनके स्वामियों का कथन करने के पश्चात् अब उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा बंध, उदय और सत्ता प्रकृतिस्थानों के संवेध भंगों का कथन करते हैं। पहले ज्ञानावरण और अंतराय कर्म के संवैध भंग बतलाते हैं।
उत्तर प्रकृतियों के संवेध भग ज्ञानावरण, अन्तराय कर्म
बंधोषयसंतसा नागावरणंतराइए पंच ।
बंधोवरमे वि तहा 'उपसंता हुति पंचेव ।।६।। १. अष्टविधो बंधः अष्टविध उदयः अष्टविधा सत्ता, एष विकल्प आयुबंधकाले,
एतेषां ह्यायुर्वन्धयोग्याध्यवसायस्थानसम्भवाद् आयुर्वन्ध उपपद्यते । तथा सप्तविधो बंधः अष्टविध उदयः अष्टविधा सत्ता एप विकल्प आयुबन्ध
कालं मुक्त्वा शेषकालं सर्वदा लभ्यते । --सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४५ २. रामदेवगणि रचित सप्ततिका टिप्पण, सा० ८, ९, १० । ३. सुसना कीजिए
बंधोदयकम्मंसा णाणावरणंतरायिए पंच ।। बंधोपरमेवि तह! उदयंसा होति पंचेत्र ।। -गो० कर्मकांड ६३०
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गुण०
मि० | सा० | मि० | अधि [ देश० | प्रमस अप्रमत्त अपूर्व० | अनि०म० उपशा०] क्षीण सके प्र० के०
८७, ७
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ur
बन्ध उदय सत्ता विकल्प |
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11"
is
SS
षष्ट कर्मग्रन्थ : गा०६
M16
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८८५/5] ५
मूल प्रकृतियों के गुणस्थानों में पाये जाने वाले वन्ध, उदय, सत्ता संवेध भंगों का ज्ञापक विवरण इस प्रकार है
मंगक्रम
जघन्य
or m
गुणस्थान
काल
उत्कृष्ट १,२,३,४,५,६,७ । अन्तर्मुहूर्त
अन्तर्मुहूर्त १,२,३,४,५,६,७,८,६/ अन्तर्मुहूर्त
छह माह कम तेतीस सागर अन्त
मुं० न्सून पूर्वकोटि त्रिभाग अधिक दसर्वा एक समय
अन्तर्मुहूर्त ग्यारहवां एक समय
अन्तर्मुहूर्त बारहवां अन्समुहूर्त
अन्तर्मुहूर्त समोगियली अन्तमुहुर्त
नववर्षान पूर्वकोटि | अयोगिकेचली
| पंच ह्रस्व स्वर उच्चारण प्रमाण पंव ह्रस्व स्वर उच्चारण प्रमाण
1
đi
5 6
ore
4
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सप्ततिका प्रकरण
शम्वार्थ-बंधोदयसंसंसा–बंध, उदय और सत्ता रूप अंश, माणावरणराए-ज्ञानावरण और अंतराय कर्म में, पंच-पांच, बंधोवरमे-बंध के अभाव में, घि-भी, तहा-तथा, उपसंताउदय और सत्ता, हुति होती है, पंचेव-पांच की। ____ गाथार्थ-ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म में बंध, उदय और सत्ता रूप अंश पाँच ..तिनों के हरे हैं : बी अभाव में भी उदय और सत्ता पाँच प्रकृत्यात्मक ही होती है।
विशेषार्थ-पूर्व में मूल प्रकृतियों के सामान्य तथा जीवस्थान व गुणस्थानों की अपेक्षा संवैध भंगों को बतलाया गया है । अब इस गाथा से उन मूल कर्मों की उत्तर प्रकृतियों के संवैध भंगों का कथन प्रारम्भ करते हैं।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय यह आठ मूल कर्मप्रकृतियाँ हैं । इनके क्रमशः पाँच नौ, दो, अट्ठाईस, चार, व्यालीस, दो और पांच भेद होते हैं । जो उन मूल कर्मप्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियों कहलाती हैं। इनके नाम आदि का विवेचन प्रथम कर्मग्रन्थ में किया गया है। __इस गाथा में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के भंगों को बतलाया है। ___ ज्ञानावरण की पांचों उत्तर प्रकृतियाँ तथा अन्तराय की पांचों उत्तर प्रकृतियां कुल मिलाकर इन दस प्रकृतियों का बंध दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक होता है तथा इनका बंध-विच्छेद दसवें गुणस्थान के अंत में तथा उदय व सत्ता का विच्छेद बारहवं गुणस्थान में अन्त में होता है ।
ज्ञानावरण और अंतराय कर्म की पांच पांच प्रकृति रूप बंध, उदय और सत्ब सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान पर्यन्त है और बंध का अभाव होने पर भी उन दोनों की उपशान्तमोह में और क्षीगमोह में उदय तथा सत्व रूप प्रकृति पांच-पांच ही हैं ।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ : गा० ६
३३
अतः इन दोनों कर्मों में से प्रत्येक का दसवें गुणस्थान तक पांच प्रकृतिक बंध, पांच प्रकृतिक उदय और पांच प्रकृतिक सत्ता. यह एक भंग होता है तथा ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में पांच प्रकृतिक उदय, पांच प्रकृतिक सत्ता यह एक भंग होता है । इस प्रकार पांचों ज्ञानावरण, पांचों अन्तराय की अपेक्षा कुल दो संवेध भंग होते हैं ।
.
उक्त दो भंगों में से पांच प्रकृतिक बंध पत्र प्रकृतिक उदय और पांच प्रकृतिक सत्ता इस भंग के काल के अनादि-अनन्त, अनादि- सान्त और सादि- सान्त ये तीन विकल्प प्राप्त होते हैं। इनमें से अनादिअनन्त त्रिकल्प अभव्यों की अपेक्षा है। जो अनादि मिथ्यादृष्टि या उपशान्तमोह गुणस्थान की प्राप्त नहीं हुआ। सादि मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दर्शन और चारित्र को प्राप्त करके तथा श्रण पर आरोहण करके उपशान्तमोह या क्षीणमोह हो जाते हैं, उनके अनादि-सान्त विकल्प होता है । उपशान्तमोह गुणस्थान से पतित जीवों की अपेक्षा सादि-सान्त विकल्प है ।
पाँच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक सत्ता, इस दूसरे विकल्प का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि यह भंग उपशान्तमोह गुणस्थान में होता है और उपशान्तमोह गुणस्थान का जघन्य काल एक समय है, अतः इस भंग का भी जघन्य काल एक समय माना है । उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इस भंग का भी उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त माना गया है |
ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म के संवेध भंगों का विवरण जीवस्थान और गुणस्थान व काल सहित इस प्रकार समझना चाहिये
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३४
सप्ततिका प्रकरण
काल
| उघय सत्ता गुणस्थान
जीवस्थान
| अघन्य जस्कृष्ट १४ अन्तमुहर्त | देशोन
अपार्थ
१ से १० गुणस्थान
परावर्त
५ | ११ वा । १ संज्ञी एक समय | अन्तमुहर्त
१२ वी ' पर्याप्त । ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के संवेध भंग बतलाने के बाद अब दर्शनावरण कर्म के संवैध भंगों को बतलाते हैं । दर्शनावरण कर्म
बंधस्स य संतस्स य पगइट्ठाणाई तिन्नि तुल्लाई। उपयवाणाई दुवे घउ पणगं दसगावरणं ॥७॥
शब्दार्थ-बंधस्स--बंध के, य-और, संतस्स–सत्ता के, य-और, पगइट्ठाणाई–प्रकृतिस्थान, तिनि-तीन, तुल्लाईसमान, उदयढागाई–उदयस्थान, दुवे-दो, चउ-चार, पणगंपाँच, सणावरणे-दर्शनावरण कर्म में।।
१ पहले भंग का जो उत्कृष्ट काल देशोन अपार्ध पुद्गल परावर्त बतलाया
है, वह काल के सादि-सान्त विकल्प की अपेक्षा बताया है। क्योंकि जो जीव उपशान्तमोह गुणस्थान से च्युत हाकर अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर उपशान्तमोह या क्षीणमोह हो जाता है, उसके उक्त भग का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है तथा जो अपार्ध पुद्गल परावत काल के प्रारंभ में सम्यादृष्टि होकर और उपशमणि चड़कर उपशान्तमोह हो जाता है, अनन्तर जब संसार में रहने का काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है तथ क्षपकश्रोणि पर चढ़कर क्षीणमोह हो जाता है, उसके उा भंग का उत्कृष्ट काल देशोन अपाधं पुद्गल परावर्त प्रमाण प्राप्त होता है ।
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षष्ठ कर्मग्रन्ध : गा०७
गाथार्थ-दर्शनावरण कर्म के बंध और सत्ता के प्रकृतिस्थान नी एक समान होते हैं । नगरथान चार तथा पांच प्रकृतिक इस प्रकार दो होते हैं ।
विशेषार्थ-गाथा में दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के संवेध भंग बतलाये हैं । दर्शनावरण कर्म की कुल उत्तर प्रकृतियाँ नो हैं । जिनके बंधस्थान तीन होते हैं-नौ प्रकृतिक, छह प्रकृतिक और चार प्रकृतिक । इसी प्रकार सत्तास्थान के भी उक्त तीन प्रकार होते हैंनौ प्रकृतिक, छह प्रकृतिक, चार प्रकृतिक । जिसका स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है।
नौ प्रकृतिक बंधस्थान में दर्शनावरण कर्म की सब प्रकृतियों का बंध होता है । छह प्रकृतिक बंधस्थान में स्त्याद्धित्रिक को छोड़कर शेष छह प्रकृतियों का तथा चार प्रकृतिक बंधस्थान में पांच निद्राओं को छोड़कर शेष चक्षुदर्शनावरण आदि केवलदर्शनावरण पर्यन्त चार प्रकृतियों का बंध होता है।
उक्त तीन बंधस्थानों में से नौ प्रकृतिक बंधस्थान पहले और दुसरे-मिथ्यात्व, सासादन-गुणस्थान में होता है । छह प्रकृतिक बंधस्थान तीसरे सम्यमिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के पहले भाग तक तथा चार प्रकृतिक बंघस्थान अपूर्वकरण गुणस्थान के दूसरे भाग से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक होता है । - - ----- --- १ तत्र सर्वप्रकृतिसमुदायो नव, ता एवं नव स्त्यानद्धित्रिकहीनाः षट, एताश्च
निद्रा-प्रचलाहीनाश्चतस्रः । -सप्ततिका प्रकरण का, पृ० १५६ तत्र नवप्रकृत्यात्मकं बंधस्थान मिध्यादृष्टो सासादने वा । षट्प्रकृत्यात्मक बन्धस्थानं सम्यग्मिथ्याष्टिगुणस्थानकादारभ्यापूर्वकरणस्य प्रयमं मागं वायत् । चतुष्प्रकृत्यात्मकं तु बंधस्थानमपूर्वकरणद्वितीयभागादारभ्य सूक्ष्मसंपरायं यावत् ।
--सप्ततिका प्रकरण टीका, पु० १५६
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सप्ततिका प्रकरण
नौ प्रकृतिका बंधस्थान के काल की अपेक्षा तीन विकल्प हैंअनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमें अनादि-अनन्त विकल्प अभब्यों में होता है, क्योंकि अभव्यों के नौ प्रकृतिक बंधस्थान का कभी भी विच्छेद नहीं पाया जाता है। अनादि-सान्त विकल्प भव्यों में होता है, क्योंकि भव्यों के नौ प्राकृतिक बंधस्थान का कालानर में विच्छेद पाया जाता है तथा सादि-सान्त विकल्प सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुए जीवों के पाया जाता है । इस सादि-सान्त विकल्प का जघन्यकाल अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट काल देशोन अपार्श्व पुद्गल परावर्त है । जिसे इस प्रकार समझना चाहिए कि सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ जो जीव अन्तमुहूर्त काल के पश्चात् सम्यग्दृष्टि हो जाता है, उसके नौ प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्य काल अन्तमुहूर्त पाया जाता है तथा जो जीव अपार्ध पुद्गल परावर्त काल के प्रारम्भ में सम्यम्हष्टि होकर और अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्व के साथ रहकर मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है, अनन्तर अपार्ध पुद्गल परावर्त काल में अन्तर्मुहुर्त शेष रहने पर जो पुनः सम्यग्दृष्टि हो जाता है, उसके उत्कृष्ट काल देशोन अपार्ध पुद्गल परावर्त प्रमाण प्राप्त होता है ।
छह प्रकृतिक बंधस्थान का जधन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल एक सौ बत्तीस सागर है । वह इस प्रकार है कि जो जीव सकल संयम के साथ सम्यक्त्व को प्राप्त कर अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर उपशम या क्षपक श्रोणि पर चढ़कर अपूर्वकरण के प्रथम भाग को व्यतीत करके चार प्रकृतिक बंधन करने लगता है, उसके छह प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त होता है, अथवा जो उपशम सम्यग्दृष्टि स्वल्पकाल तक उपशम सम्यक्त्व में रहकर पुनः मिथ्यात्व में चला जाता है, उसके भी जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है । उत्कृष्ट काल एक सौ बत्तीस सागर इस प्रकार समझना चाहिए कि
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ : गा० ७
मध्य में सभ्य मिथ्यात्व से अन्तरित होकर सम्यक्त्व के साथ रहने का उत्कृष्टकाल इतना ही है, अनन्तर वह जीव या तो मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है या क्षपकश्रेणि पर आरोहण कर सयोगिकेवली होकर सिद्ध हो जाता है।
३७
चार प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । जिस जीव ने अपूर्वकरण के द्वितीय भाग में प्रविष्ट होकर एक समय तक चार प्रकृतियों का बंध किया और मरकर दूसरे समय में देव हो गया, उसके चार प्रकृतिक बंध का जघन्यकाल एक समय देखा जाता है । उपशमश्र णि या क्षपकश्रेणि के पूरे काल का योग अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, अतः इसका भी उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं होता है ।
दर्शनावरण के तीन बंधस्थानों को बतलाने के बाद अब तीन सत्तास्थानों को स्पष्ट करते हैं
नौ प्रकृतिक सत्तास्थान में दर्शनावरण कर्म की सभी प्रकृतियों की सत्ता होती है । यह स्थान उपशान्तमोह गुणस्थान तक होता है। छह प्रकृतिक सत्तास्थान में स्त्यानद्धित्रिक को छोड़कर शेष छह प्रकृतियों की सत्ता होती है। यह सत्तास्थान क्षपक अनिवृत्तिवादरसंपराय के दूसरे भाग से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान के उपान्त्य समय तक होता है । चार प्रकृतिक सत्तास्थान क्षीणमोह गुणस्थान के अंतिम समय में होता है ।
नो प्रकृतिक सत्तास्थान के काल की अपेक्षा अनादि-अनन्त और अनादि- सान्त, यह दो विकल्प हैं। इनमें पहला विकल्प अभव्यों की अपेक्षा है और दूसरा विकल्प भव्यों में देखा जाता है, क्योंकि कालान्तर में इनके उक्त स्थान का विच्छेद हो जाता है। सादि सान्त विकल्प यहाँ सम्भव नहीं, क्योंकि नौ प्रकृतिक सत्तास्थान का विच्छेद
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सप्ततिका प्रकरण
क्षपकाणि में होता है और क्षपकश्रेणि से जीव का प्रतिपात नहीं
होता है ।
쿠드
छह प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है । क्योंकि यह स्थान क्षपक अनिवृत्ति के दूसरे भाग से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान के उपान्त्य समय तक होता है और उसका जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तं प्रमाण है ।
चार प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय है । क्योंकि यह स्थान क्षीणमोह गुणस्थान के अंतिम समय में पाया जाता है ।
दर्शनावरण कर्म के उदयस्थान दो हैं-चार प्रकृतिक और पाँच प्रकृतिक- 'उदयठाणाई दुवे च पणगं' । चार प्रकृतिक उदयस्थान चक्षु, अत्रक्षु, अवधि और केवल दर्शनावरण - का उदय क्षीणमोह गुणस्थान तक सदैव पाया जाता है। इसीलिए इन चारों का समुदाय रूप एक उदयस्थान है । इन चार में निद्रा आदि पांचों में से किसी एक प्रकृति के मिला देने पर पांच प्रकृतिक उदयस्थान होता है। निद्रादिक ध्रुवोदमा प्रकृतियां नहीं हैं, क्योंकि उदययोग्य काल के प्राप्त होने पर उनका उदय होता है । अतः यह पाँच प्रकृतिक उदयस्थान कदाचित् प्राप्त होता है ।
दर्शनावरण के चार और पाँव प्रकृतिक, यह दो ही उदयस्थान होने तथा छह, सात आदि प्रकृतिक उदयस्थान न होने का कारण यह है कि निद्राओं में दो या दो से अधिक प्रकृतियों का एक साथ उदय नहीं होता है, किन्तु एक काल में एक ही प्रकृति का उदय होता है ।
१
न हि निद्रादयो द्वित्रादिका युगपदुदयमायान्ति किग्श्वेकस्मिन् काले एकवान्यतमा काचित् । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १५७
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ : गा० ८
दर्शनावरण कर्म के बन्ध, उदय, सत्ता स्थानों का विवरण इस प्रकार समझना चाहिये-...
बंध
उदय
सत्ता
सत्ता ६.६४ अब दर्शनावरण कर्म के बंध, उदय और सत्ता स्थानों के परस्पर संवेध से उत्पन्न भंगों का कथन करते हैं
बीयावरणे नवबंधगेसु चउ पंच उदय नव संता। छच्चउबंधे चैवं चउ बन्धुदए छलसा य॥ ॥ उपरयबंधे 'बउ पण नवंस चउरुवय छच्च चउसंता।।
१ तुलना कीजिए -
विदियावरणे णवबंधगेसु चदुपंच उदय णवसत्ता । छबंधगेस एवं तह चदुबंधे छडंसा य ।। उबरदबंधे चदुपंचउदय णव छम्म सत्त चदु जुगसं ।
--गो० कर्मकांड गा० ६३१, ६३२ टूसरे आवरण (दर्शनावरण) की ६ प्रकृतियों के बंध करने वाले के उदय ५ का या ४ का और सत्ता की होती है । इसी प्रकार ६ प्रकतियों के बन्धक के भी उदय और सत्व जानना । चार प्रकृतियों के बध करने वाले के पूर्वोक्त' प्रकार उदय चार मा पांच का, सत्व तौ का तथा छह का भी सत्व पाया जाता है । जिसके बन्ध का अभाव है, उसके उदय तो चार व पांच का है और सस्व नौ का व छह का है तथा उदव-सत्व दोनों ही चार-चार के भी हैं।
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सप्ततिका प्रकरण
शब्दार्थ-बीयावरणे-दूसरे आवरण-दर्शनावरण में, नवबंधगेसु-नौ के बंध के समय, च उपंच-चार या पांच का, उदय-- उदय, नवसंता-नौ प्रकृतियों की सत्ता, छच्च उबंधे-छह और चार 1. बंध में, चेवं-पूर्वोक्त प्रकार से उदय और सत्ता, चउबंधुरए -- चार के बंध और चार के उदय में, छतंसा-छह की सत्ता, प्रऔर, उबरयबंधे-बंध का विच्छेद होने पर, उपण-चार अथवा पांच का उदय, नवंस-नों की सत्ता, चउरुदय-चार का उदम, छ-छह, च-और, चउसंता-चार की सत्ता ।
गाथार्थ-दर्शनावरण की नौ प्रकृतियों का बंध होते समय चार या पाँच प्रकृतियों का उदय तथा नौ प्रकृतियों को सत्ता होती है । छह और चार प्रकृतियों का बंध होते समय उदय और सत्ता पूर्ववत् होती है। चार प्रकृतियों का बंध और उदय रहते सत्ता छह प्रकृतियों की होती है एवं बंधविच्छेद हो जाने पर चार या पाँच प्रकृतियों का उदय रहते सत्ता जो की होती है। चार प्रकृत्तियों का उदय रहने पर सत्ता छह और चार की होती है।
विशेषार्थ---गाथा में दर्शनावरण कर्म के संवैध भंगों का विवेचन किया गया है।
दर्शनावरण की नी उत्तर प्रकृतियों का बंध पहले और दूसरे मिथ्यात्व व सासादन-गुणस्थान में होता है, तव चार या पाँच प्रकृतियों का उदय तथा नी प्रकृतियों की सत्ता होती है-'बीयावरणे नव बंधगेसु चउ पंच उदय नब संता' । चार प्रकृतिक उदयस्थान में चक्षुदर्शनावरण आदि केवलदर्शनाबरण पर्यन्त चार ध्रुवोदयी प्रकृतियों का ग्रहण किया गया है तथा पाँच प्रकृतिक उदयस्थान उक्त चार प्रकतियों के साथ किसी एक निद्रा को मिला देने में प्राप्त होता है । इस प्रकार दर्शनावरण कर्म के नौ प्रकृतिक बंध, नौ प्रकृतिक सता रहते उदय की अपेक्षा दो भंग प्राप्त होते हैं
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षण्ठ कर्मग्रन्थ : ग्रा८
१. दौ प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता 1 यह भंग पांच निद्राओं में से किसी के उदय के बिना होता है।
४१
२. नौ प्रकृतिक बंध, पांच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता । यह भंग निद्रादिक में से किसी एक निद्रा के उदय के सद्भाव में होता है ।
यह प्रकृतिक बंध और चार प्रकतिक बंध के समय भी उदय और सत्ता पूर्ववत् समझना चाहिए । अर्थात् छह प्रकृतिक बंध, चार था पांच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता तथा चार प्रकृतिक बंध, चार या पांच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता । इनमें से छह प्रकृतिक बंध, चार या पांच प्रकृतिक उदय, नौ प्रकृतिक सत्तास्थान, तीसरे सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशामक अपूर्वकरण (आठ) गुणस्थान के पहले भाग तक के जीवों में होता है और दूसरा चार प्रकृतिक बंध, चार या पाँच प्रकृतिक उदय, नो प्रकृतिक सत्तास्थान उपशामक अपूर्वकरण गुणस्थान के दूसरे भाग से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के जीवों के होता है । इन दोनों स्थानों की अपेक्षा कुल चार भंग इस प्रकार होते हैं
१ - छह प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और नो प्रकृतिक सत्ता ।
२- छह प्रकृतिक बंध, पांच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता ।
३- चार प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता ।
४- चार प्रकृतिक बंध, पांच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता ।
उक्त चार भंगों में से क्षपकणि में कुछ विशेषता है। क्योंकि
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४२
सप्ततिका प्रकरण क्षपक जीव अत्यन्त विशुद्ध होता है, अतः उसके निद्रा और प्रचला प्रकृति का उदय नहीं होता है, जिससे उसमें पहला और तीसरा यह दो भंग प्राप्त होते हैं। पहला भंग-छह प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता-क्षपक जीवों के अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग तक होता है तथा तीसरा भंग-चार प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता-क्षपके जीवों के नौवें अनिवृत्तिबादरसपाराय गुणस्थान के संख्यात भागों तक होता है ।
क्षपक जीवों के लिए एक और विशेषता समझना चाहिए कि अनिवृत्तिबादर संपराय गुणस्थान में स्त्यानद्धित्रिक का क्षय हो जाने से आगे नौ प्रकृतियों का सत्व नहीं रहता है। अतः लनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान के संख्यात भागों से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्तिम समय तक चार प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्ता, यह एक और भंग होता है-'चउबंधुदए छलसा य' । यह भंग उपर्युक्त चार भंगों से पृथक् है ।
इस प्रकार दर्शनावरण की उत्तर प्रकृतियों का यथासंभव बंध रहते हुए कितने भंग संभव हैं, इसका विचार किया। नत्र उदय और सत्ता की अपेक्षा दर्शन्नावरण कर्म के संभव भंगों का विचार करते हैं। ___'उबरपबंधे च पण नवंस'-बंध का विच्छेद हो आने पर विकल्प से चार या पांच का उदय तथा नौ की सत्ता वाले दो भंग होते हैं । उक्त दो भंग इस प्रकार हैं
१-चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता । २-पांच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता ।
इन दोनों भंगों के बनने का कारण यह है कि उपशान्तमोह गुणस्थान में दर्शनावरण की सभी नौ प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है। और उदय विकल्प से चार या पांच प्रकृतियों का पाया जाता है ।
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पष्ठ फर्मग्रन्थ : गा० क
किन्तु क्षीणमोह गुणस्थान में स्त्यानद्धित्रिक का अभाव है, क्योंकि इनका क्षपकरण में हो जाता है तथा क्षोणमोह गुणस्थान के उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचला का भी क्षय हो जाता है, जिससे अन्तिम समय में चार प्रकृतियों की सत्ता रहती है। क्षपकश्र ेणि में निद्रा आदि का उदय नहीं होता है । अतः यहाँ निम्नलिखित दो भंग होते हैं।
१ - चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्ता । यह भंग क्षीणमोह गुणस्थान के उपान्त्य समय में पाया जाता है ।
२ - चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता | यह भंग क्षीणमोह गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है ।
इन दोनों भंगों का संकेत करने के लिए गाया में कहा है—'बउरुदय छच्च चसंता' ।
दर्शनावरण कर्म के अंगों सम्बन्धी मतान्तर
यहां दर्शनावरण कर्म के उत्तर प्रकृतियों के ग्यारह संवेध मंग बतलाये हैं । उनमें निम्नलिखित तीन भंग भी सम्मिलित हैं—
(१) चार प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक
सत्ता ।
(२) चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्ता ! (३) चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता ।
इन तीनों भंगों में से पहला भंग क्षपक णि के नौवें और दसवे अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय - गुणस्थान में होता है तथा दूसरा व तीसरा भंग क्षीणमोह गुणस्थान में होता है। इससे यह प्रतीत होत है - इस ग्रन्थ के कर्त्ता का यही मत रहा है कि क्षपकश्रेणि में निद्र और प्रचला का उदय नहीं होता है। आचार्य मलयगिरि ने सुप्ततिक प्रकरण की टीका में सत्कर्म ग्रन्थ का यह गाथांश उद्धृत किया हैनिस्स उगवणे परिवर
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साततिका प्रकरण
क्षपकौणि और क्षीणमोह गुणरपान में ट्रिाहिक नहीं होता है। कर्मप्रकृति तथा पंचसंग्रह के कर्ताओं का भी यही मल है। किातु पंचसंग्रह के कर्ता क्षपक श्रेणि और क्षीणमोह मुणस्थान में पाँच प्रकृति का भी उदय होता है, इस मत से परिचित थे और उसना उल्लेख उन्होंने 'पंचव्ह वि केइ इच्छसि'- इस पद से किया है । आचार्य मलयगिरि ने इसे कर्मस्तवकार का मत बताया है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि कर्मस्तवकार के सिवाय प्रायः सभी कार्मग्रन्थिकों का घही मत रहा है कि क्षपकणि और क्षीणमोह गुणस्थान में निद्राद्विक का उदय नहीं होता है। ___ दिगम्बर परम्परा में सर्वत्र विकल्प वाला मत पाया जाता है । कषायपाहुड चूणि में इतना संकेत किया गया है कि 'क्षपकौणि पर चढ़ने वाला जीब आयु और वेदनोय कर्म को छोड़कर उदय प्राप्त शेष सब कर्मों की उदीरणा करता है । इस पर टीका करते हुए बीरसेन स्वामी ने जयधवला क्षपणाधिकार में लिखा है कि क्षपश्रेणि वाला जीव पाँच ज्ञानावरण और चार दर्शनावरण का नियम से वेदक है किन्तु निद्रा और प्रचला का बादाचित् वेदक है, क्योंकि इनका कदाचित् अव्यक्त उदय होने में कोई विरोध नहीं आता है । अमिति
१ निहापयलाश खोणरागनवगे परिच्चज्ज । –कर्म प्रकृति 3० गा० १० २ पंचसंग्रह सप्ततिका गा०१४ ३ कर्मस्तषकारमतेन पश्चानामप्युदयो भवति ।
-पंचसंग्रह सप्ततिका टीका, गा० १४ ८ आउगवेदणीयवज्जाणं वेदिज्जमाणाणकम्माणं पवेसगो ।
-कषायपाहुड़ चूणि (यतिवृषभ) ५ पंचण्इं णाणावरणीयाणं चदुण्हं दसणाबरणीयाणं णियमा वेदगो, णिहापयलाणं सिया, तासिमबत्तोदयस्स कदाई संभवे विरोहाभावादो ।
--अयधवला (क्षपणाधिकार)
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पाट कर्म ग्रन्थ : गा० ८
गति आचार्य ने भी अपने पंचसंग्रह में यही मत स्वीकार किया है कि क्षपकौणि और क्षीणमोह में दर्गनावरण की चार या पांच प्रतियों का उदय होता है ।। गो० कर्मकांड में भी इसी मत को स्वीकार किया गया है।
इस प्रकार दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार चार प्रकृतिक बंध, पांच प्रकृतिक उदय और इन्ट प्रकृतिक सत्ता. यह एक भंग नौवें, दसवें गुणस्थान में तथा पाँच प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्ता यह एक भंग क्षीणमोह गुणस्थान में वड़ जाता है। इसलिथे दर्शनावरण कर्म के संवेध भंग बतलाने के प्रसंग में इन दोनों भंगों को मिलाने से तेरह भंग दिगम्बर परम्परा में माने जाते हैं, लेकिन श्वेताम्बर परम्परा में ग्यारह तथा मतान्तर से तेरह भंगों के दो विकल्प हैं।
दर्शनावरण कर्म के बंध, उदय, सत्ता के संवैध ११ अथवा १३ भंगों का विवरण इस प्रकार समझना चाहिये-- | बंध | उदय । सत्ता
गुणस्थान
-
-
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| ww' में
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१,२
ACKXK:
३,४,५,६,७,८ ८,९,१०३
१. योनंव द्वयोः षत वप च चतुष्टयम् । पञ्च पञ्चसु शून्यानि भङ्गाः सन्ति त्रपदश ।।
-पंचसंग्रह, अमितिगति, श्लोक ३८८ २. गो० कर्मकांड गा० ६३१, ६३२, जो पृ० ३६ पर उद्धृत है। ३. पांचवां भंग उपशाम क्षएक दोनों श्रेणि में होता है, लेकिन इतनी विशेषता
है कि सपकणि में इसे नौवें गुणस्थान के संख्यात भागों तक ही जानना। आगे क्षपक णि में सातवां भंग प्रारम्भ हो जाता है।
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४६
19 cu
११ १२
१३
५.
५.
Usual retw
वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म
सजतिका प्रकरण
८, ६.१० उपशमणि ६,१० क्षपक ६,१० मतान्तर में 1 ११ उपगामक ११ उपशा
१२ द्विचरम समय पर्यन्त मतान्तर से
१२ चरम समय में
दर्शनावरण कर्म के संवेध भंगों का कथन करने के अनन्तर अब वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के संवेध भंग बतलाते हैं ---
वेयणियाजयगोए विभज्जः मोहं परं वोच्छं ॥ ६ ॥
इन भंगों में आठवीं और बारहव भंग कर्मस्तव के अभिप्राय के अनुसार बतलाया है और शेष ग्यारह भंग इस ग्रन्थ के अनुसार समझना चाहिए । २. किन्हीं विद्वान ने वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के अंगों को संख्या बतलाने के लिये मूल प्रकरण के अनुसंधान में निम्नलिखित गाथा प्रक्षिप्त की है(क) गोम्म सत्त मंगा मद्य य भंगा हुवति बेयगिए । पण नव नव पण भंगा आउउनके विकमसो उ ॥
यह गांधा मूल प्रकरण में नहीं है ।
(ख) वेमणिये अडभंगा गोदे ससेब होंति भंगा हु । पण जव जव पण भंगा आउच उक्केस विसरिया ॥
-गो० कर्मकांड ६५१
वेदनीय के आठ और गोत्र के सात भंग होते हैं तथा चारों आयुओं
के क्रम से पाँच, नौ नौ और पांच भंग होते हैं ।
1
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भ्रष्ट कर्मग्रन्थ : ग ्
शब्दार्थ - वेय किया उयगोए — वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के, विभज्ज - घादिस्थान और उनके संवेध भंग कहकर, मोहं – मोहनीय कर्म के परं पश्चात् यो कथन करेंगे ।
,
गाथार्थ – वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के बंधादि स्थान और उनके संबंध भंग कहकर बाद में मोहनीय कर्म के बन्धादि स्थानों का क६ चले।
-
—
४५७
विशेषार्थ - गाथा में वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म में विभाग करने की सूचना दी है, लेकिन किस कर्म के अपनी उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा कितने बंधादि स्थान और उनके कितने संवेध भंग होते हैं, इसको नहीं बताया है । किन्तु टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में इनके अंगों का विस्तृत विचार किया है। अतः टीका के अनुसार वेदनीय, आयु और गोत्र के भंगों को यहाँ प्रस्तुत करते हैं । वेदनीय कर्म के संवेध भंग
वेदनीय कर्म के दो भेद हैं-साता और असाता। ये दोनों प्रकृतियाँ परस्पर विरोधिनी हैं। अतः इनमें से एक काल में से किसी एक का बंध और किसी एक का उदय होता है । एक साथ दोनों का बंध और उदय संभव नहीं है | लेकिन किसी एक प्रकृति की सत्ता का बिच्छेद होने तक सत्ता दोनों प्रकृतियों की पाई जाती है तथा किसी एक प्रकृति की सत्ता व्युच्छिन्न हो जाने पर किसी एक ही प्रकृति की सत्ता पाई जाती हैं | अर्थात् वेदनीय कर्म का उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा
१ तत्र वेदनीयस्य सामान्येनकं बंधस्थानम्, तद्यथा सातमसातं वा, द्वयो: परस्पर विरुद्धत्वेन युगपदबन्धाभावात् । उदयस्थानमपि एकम्, तद्यथा-सातमसा वा द्वयोर्युगपदुदयाभावात् परस्परविरुद्धत्वात् । सत्तास्थाने द्वे तथा — एक च । तत्र यावदेकमन्यतरद् न क्षीयते तावद् अपि सती, अन्यतरस्मिश्च क्षीणे एकमिति ।
2
--- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १५६
F
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४म
सप्ततिका प्रकरण
बंधस्थान और उदयस्थान सर्वत्र एक प्रकृतिक होता है किन्तु सत्तास्थान दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिकः, इस प्रकार दो होते हैं ।
बेदनीय कर्म के संवेध भंग इस प्रकार है- १. असाता का बंध, असाता का उदय और दोनों की सत्ता, २. असाता का बंध, साता का उदय और दोनों की सत्ता, २. साता का बंध, साता का उदय और दोनों की सत्ता और ४. साता का बंध, असाता का उदय और दोनों की सत्ता।
उक्त चार भग बंध रहते हा होते हैं। इनमें से आदि के दो पहल मिथ्याइष्टि गुणस्थान से लेकर छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं । क्योंकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान में असाता का बंधविच्छेद हो जान के आगे इसका बंध नहीं होता है । जिससे सातवें अप्रमत्तसंयत आदि गुणरामों में आदि के योग ।। ६ होते हैं, न के दो भंग अर्थात् तीसरा और चौथा भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेबर मयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं। क्योंकि साता वेदनीय का बंध तेरहवं सयोगिकेवली गुणस्थान तक ही होता है। बंध का अभाव होने पर उदय व सत्ता की अपेक्षा निम्नलिखित चार भंग होते हैं
१. असाता का उदय और दोनों की सत्ता । २. साता का उदय और दोनों की सत्ता । ३. असाता का उदय और असाता की सत्ता ! ४. साता का उदय और माता की सत्ता।
इनमें से आदि के दो भंग अयोगिकेवली गुणस्थान के द्वित्र रम समय तक होते हैं। क्योंकि अयोगिकेवली के द्विचरम समय तक दोनों की सत्ता पाई जाती है । अन्त के दो भंग-तीसरा और चौथा-चरम ममय में होता है । जिसके द्विचरम समय में साता का क्षय होता है उसके अन्तिम समय में तीसरा भंग-असाता का उदलू, असाता की सत्ता-पाया जाता है तथा जिसके द्विचरम समय में असाता का क्षय
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अं०
अ.
सा.
सा.
अ.
पष्ट कर्मग्रन्थ हो गया है, उसके अन्तिम समय में साता का उदय, साता की ससा यह चौथा भंग पाया जाता है । इस प्रकार वेदनीय कर्म के कुल आठ भंग होते हैं।' जिनका विवरण इस प्रकार समझना चाहियेमंग क्रम उदय सत्ता
गुणस्थान असा० २ १, २, ३, ४, ५, ६,
१, २, ३, ४, ५, ६,
१ से १३ तक सा.
१ से १३ तक १४ दिन समापस | १४ द्वि चरम समयपर्यन्त १४ चरम समय में
१४ चरम समय में आयुफर्म के संवेध भंग ___ अब गाथा में बताये गये क्रम के अनुसार आयुकर्म के बंधादि स्थान और उनके संवेध भंगों का विचार करते हैं। आयुकर्म के चार भेदों में कम से पांच, नौ, नौ, पाँच भंग होते हैं। अर्थात् नरकायु के
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असा.
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१ (क) सेरसमछट्टएएK सायासायाण बंधयोच्छनो।
संसउइण्णाइ पुणो सायासायाइ सब्वेसु ।। बना उद्दण्णयं चि य इयरं वा दो वि संत चउमंगो। संत मुइण्णमबंधे दो दोणि दुसंत इछ अट्ठ।
-खसंग्रह सप्ततिका गा० १७, १० (ख) सादासादेक्कदरं बंधुक्या होति संभवट्ठाणे ।
दोसत्तं जोगित्ति य परिमे उदयागर्द ससं ॥ छटोति चारि मंगा दो मंमा होति जान जोगिजिणे । परभंगाऽजोगिजिणे ठाणं पडि यणीयस्स ॥
-गो० कर्मकार, गा० १३३, ६३४
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सप्ततिका प्रकरण पाँच, तिथंचायु के नौ, मनुष्यायु के नौ और देवायु के पांच संवेध भंग होते हैं । जिनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
एक पर्याय में किसी एक का उदय गौः सो सब में बंधने योग्य किसी एक आयु का ही बंध होता है, दो या दो से अधिक का नहीं । इसलिये बंध और उदय की अपेक्षा आयु का एक प्रकृतिक बंधस्थान और एक प्रकृतिक उदयस्थान होता है किन्तु सत्तास्थान दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक इस प्रकार दो होते हैं। क्योंकि जिसने परभव की आयु का बंध कर लिया है, उसके दो प्रकृतिक तथा जिसने परभव की आयु का बंध नहीं किया है, उसके एक प्रकृतिक सत्तास्थान होता है।' ___ अब आयुकर्म के संवैध भंगों को बतलाते हैं। आयुकर्म की तीन अवस्थाएं होती है
१. परभत्र सम्बन्धी आयुकर्म के बंधकाल से पूर्व की अवस्था । २. परभव सम्बन्धी आयु के बंघकाल की अवस्था। ३. परभव सम्बन्धी आयुबंध के उत्तर-काल की अवस्था ।
इन तीनों अवस्थाओं को क्रमश: अबन्धकाल, बंधकाल और उपरतकाल कहते हैं। सर्वप्रथम नरकायु के संवेध भंगों का विचार करते हैं। १ आयुषि सामान्येनैक बंघस्थानं चतुर्णामन्यतमत्, परस्परविरुवत्वेन पुगपद द्विवायुषां बन्धाभावत् । उदयस्थानमन्मेकम्, तदपि चतुर्णामन्यतमत, युगपद वित्रायुषां उदयामाक्षात् । दे सत्तास्थाने, तद्यथा-है एक च । तत्रैक चतुमिन्यतमत् यावदन्यत् परभवायुनं बध्यते, परमवायुषि च बद्ध यावदन्यत्र परभवे नोत्पद्यते तावद वे सती ।
-- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १५६ २ तत्रायुषस्तिमोऽवस्थाः, तद्यथा-परभवायुबन्धकालात् पूर्वावस्था परभवायुर्वन्धकालावस्था परभवापुर्बन्धोत्तरकालावस्था च ।
-सप्तसिका प्रकरण टीका, पृ० १५०
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
नरकायु के संवैध भंग-नारकियों के अबन्धकाल में नरकायु का उदय और नरकायु का सत्त्व, यह एक भंग होता है। नारकों में पहले चार गुणस्थान होते हैं, शेष गुणस्थान नहीं होने से यह भंग प्रारम्भ के चार गुणस्थानों में सम्भव है ।
बंधनाल में १. लियंचायु का बंध, गरकायु का उदय तथा तियंचनरकायु का सत्त्व एवं २. मनुष्य-आयु का बंध, नरकायु का उदय और मनुष्य-नरकायु का सत्त्व, यह दो भंग होते हैं। नारक जीव के देव आयु के बंध का नियम नहीं होने से उक्त दो विकल्प ही सम्भव हैं। इनमें से पहला भंग मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में होता है, क्योंकि तिर्यचाय का बंध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है तथा दूसरा भंग मिथ गुणस्थान में आयु बंध का नियम न होने से, उसको छोड़कर मिथ्यात्व, सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि इन तीन गुणस्थानों में होता है। क्योंकि नारकों के उक्त तीन गुणस्थानों में मनुष्यआयु का बंध पाया जाता है ।
उपरतबंधकाल में १. नरकायु का उदय और नरक-तियंचायु का सत्त्व तथा २. नरकायु का उदय, नरक-मनुष्यायु का सत्व, यह दो भंग होते हैं । नारकों के यह दोनों भंग आदि के चार गुणस्थानों में सम्भव है । क्योंकि तियंचायु के बंधकाल के पश्चात् नारक अविरत सम्यगदृष्टि या सम्यमिथ्यादृष्टि हो सकता है। अविरत सम्यग्दृष्टि नारक के भी मनुष्यायु का बंध होता है और बंध के पश्चात ऐसा जीव सम्यमिथ्यादृष्टि गुणस्थान को भी प्राप्त हो सकता है, जिससे दूसरा भंग भी प्रारम्भ के चार गुणस्थानों में सम्भव है।
१ इह नारका देवायुः नारकायुश्च भवप्रत्ययादेव न बध्नन्ति तत्रोत्पत्त्यमाबात् ।
सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १५६
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सप्ततिका प्रकरण इस प्रकार नरकगति में आयु के अबन्ध में एक, बंध में दो और उपरतबंध में दो, कुल मिलाकर पांच भंग होते हैं। मरमगति को आयुबंध सम्बन्धी विशेषता
नारक जीवों के जन च भंग होने के प्रम में इतना विशेष जानना चाहिये कि नारक भवस्वभाव से ही नरकायु और देवायु का बंध नहीं करते हैं। क्योंकि नारक मर कर नरक और देव पर्याय में उत्पन्न नहीं होते हैं, ऐसा नियम है।' आशय यह है कि तिर्यंच
और मनुष्य गति के जीव, तो मरकर चारों गलियों में उत्पन्न होते है किन्तु देव और नारक मरकर पुन: देव और नरक गति में उत्पन्न नहीं होते हैं, वे तो केवल तिर्यंच और मनुष्य गति में ही उत्पन्न होते हैं । नरकगति के आयुकर्म के संवेध भंगों का विवरण इस प्रकार है--- भंग काल | बंध।
गुणस्थान १ | अबंधकाम
नरक । नरक । | बंधकाल तिबंध नरक न० ति. ३ | वंषकाल
| न० म० ४ उप. बंधकाल
नरक | न० तिः १, २, ३, ४ ५ उपबंधकाल
नरक | न० म०] १, २, ३, ४ वायु के संवेष भंग-पद्यपि नरकगति के पश्चात तिर्यंचगति के आयुकर्म के संवैध भंगों का कथन करना चाहिये था। लेकिन जिस प्रकार नरकगति में अबन्ध, बन्ध और उपरतबंध की अपेक्षा पांच भंग व उनके गुणस्थान बतलाये हैं, उसी प्रकार देवगति में भी होते
उदय
। सत्ता
AJ
मनुष्य
नरक
१ "देवा नारगा वा देवेसु नारगेसु विन उववज्जति इति"। ततो नारकाणां
परमवायुर्वन्धकाले बन्धोसरकाले च देवायुः नारकायुाम् विकल्पामावात् सर्वसंख्यया पंचव विकल्पा भवन्ति ।
--सप्ततिका प्रकरग टीका, १० १६०
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व कर्मग्रम्य
५१
हैं । परन्तु इतनी विशेषता है कि नरकायु के स्थान में सर्वत्र देवायु कहना चाहिये। जैसे देवायु का उदय, देवायु की सत्ता आदि ।' देवायु के पाँच भंगों का कथन इस प्रकार होगा -
१. देवायु का उदय और देवायु की सत्ता (अबन्धकाल) 1 २. तिचायुका बंध, देवायु का उदय और तिर्यंच देवायु की सत्ता (बंधकाल) 1
३. मनुष्यायु का बंब, देवायु का उदय और मनुष्य देवायु की सत्ता ( बंधकाल ) |
४. देवायु का उदय और देव तिर्यंचायु का सत्य ( उपरतबंधकाल) ।
५. देवायु का उदय और देव मनुष्यायु का सत्व ( उपरतबंधकाल) उक्त भंगों का विवरण इस प्रकार है
बंध
我打果汁
१.
२
३
४
५.
काल
अवन्धकाल
बंधकाल
बंधकाल उप० बंधकाल उप० बंघकाल
तियंच
मनुष्य
०
D
उदय
देव
देव
देव
क्षेत्र
1
| देव
ससा
देव
ति०, देव
बेय, म०
दे० ति०
दे० म०
गुणस्थान
१,२,३,४
१.२
१,२.४
१,२,३,४
१,२,३,४
तिचायु के संबंध भंग - तियंचगति में आयुकर्म के संवेध भंगविकल्प नौ होते हैं । जिनका कथन इस प्रकार है कि अबन्धकाल में तिचाधु का उदय और तिर्यंचायु की सत्ता यह एक भंग होता है, जो
१ एवं देवानामपि पंचविकल्या भावनीयाः ३ नवरं नारकायुः स्याने देवारिति वक्तव्यम् । तद्यथा— देवायुष जदयो देवायुषः सत्ता इत्यादि ।
-- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १६०
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सप्ततिका प्रकरण
प्रारंभ के पाँच गुणस्थानों में पाया जाता है। क्योंकि तियंचति में आदि के पाँच गुणस्थान ही होते हैं, शेष गुणस्थान नहीं होते हैं ।
तिर्यंचगति में बन्धकाल के समय निम्नलिखित चार भंग होते हैं--१. नरकायु का बंध, तिर्यंचायु का उदय और मरक-तिर्यंचायु की सत्ता । २. तिर्यंचायु का बंध, तिर्यंचायु का उदय और तिर्यच. तिर्यंचायु की सत्ता, ३. मनुष्यायु का बन्ध, तिथंचायु का उदय और मनुष्य-तियंचायु की सत्ता तथा-४ जायु का 53,
लिना उदय और देव-तियंचायु की सत्ता।
इनमें से पहला भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होता है, क्योंकि मिथ्याइष्टि गुणस्थान के सिवाय अन्यत्र नरकायु का बंध नहीं होता है। दूसरा भंग मिथ्याष्टि और सासादन गुणस्थानों में होता है, क्योंकि तिर्य चायु का बंध सासादन गुणस्थान तक ही होता है। तीसरा भंग भी पहले और दूसरे गुणस्थान-मिथ्यात्व और सासादन तक होता है, क्योंकि तिर्यंच जीव मनुध्यायु का बंध मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थान में ही करते हैं, अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थान में नहीं। चौथा भंग तीसरे सम्यगमिथ्याष्ट्रि (मिथ) गुणस्थान को छोड़कर पौत्रवें देशविरत गुणस्थान तक चार गुणस्थानों में होता है। सम्यमिथ्या दृष्टि गुणस्थान में आयुकर्म का बंध न होने से उसका यहां ग्रहण नहीं किया गया है । __इसी प्रकार उपरतबंधकाल में भी चार भंग होते हैं। जो इस प्रकार हैं-१. तिर्यंचायु का उदय और नरक-तिर्यंचायु की सत्ता, २. तिर्यंचायु का उदय और तिर्यच-तियंचायु की सत्ता, ३. तिर्यंचायु का उदय और मनुष्य-तियंचायु की सत्ता और ४. तिर्यंचायु का उदय तथा देव-तिर्यंचायु की सत्ता ।। __ ये चारों भंग प्रारम्भ के पांच गुणस्थानों में होते हैं, क्योंकि जिस तिथंच ने नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्यायु का बंध कर लिया
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षष्ठ कर्मग्रन्थ है, उसके अन्य गुणस्थानों का पाया जाना सम्भव है । इस प्रकार लियंचगति में अबन्ध, वंध और उपरतबंध की अपेक्षा कुल नौ भंग होते हैं । तिर्यंचगति में आयुकर्म के संगों का विवरण इस प्रकार है--
मंग क्रम
बाल
| बंध
अवन्ध
बंधकाल
नरक तियंच | मनुष्य
..
उदय __ सत्ता । गुणस्थान तिर्यंच तिथंच १,२,३,४,५ तियं च ३० ति १ तिर्य च तिरंच सिः | १.२ तिर्मच । म ति० ! १,२ । तिर्यव | देव ति० | १,२,४,५ तिर्यत्र | ति. न. १,२,३,४,५ तिर्यंच लियंच ति० १,२,३,४,५ ! तिसंच ति० म० १,२,३,४,५ तिर्यंच ति० दे० । १,२,३,४,५
' देव
उप० बंध
वि० ० ०
मनुष्यायु के संबंध भंग-नरक, देव और तियंचायु के संवेध भंगों का कथन किया जा चुका है। अब शेष रही मनुष्यायु के भंगों को बतलाते हैं । मनुष्यायु के भी नौ भंग हैं। जो इस प्रकार समझना चाहिये___ मनुष्यगति में अवन्धकाल में एक ही भंग-मनुष्यायु का उदय और मनुष्यायु की सत्ता होता है । यह भंग पहले से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक सभी गुणस्थानों में होता है। क्योंकि मनुष्यगति में यथासम्भव सभी चौदह गुणस्थान होते हैं ।
बंधकाल में–१. मरकायु का बंध, मनुष्यायु का उदय और नरकमनुष्यायु की सत्ता । २. तिथंचायु का बंध, मनुष्यायु का उदय और तिर्यंच-मनुष्यायु की सत्ता ३. मनुष्याय का बंध, मनुण्यायु का उदय
और मनुष्य-मनुष्यायु की सत्ता तथा ४. देवायु का बंध, मनुष्याय का उदय और देव-मनुष्यायु की सत्ता, यह चार भंग होते हैं ।
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सप्ततिका प्रकरणं इनमें से पहला संग मिपादष्टि गुणलाम में होता है. नोकि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के सिवाय अन्यत्र नरकायु का बंध सम्भव नहीं है। तिर्यंचायु का बंध दूसरे गुणस्थान तक होता है, अत: दूसरा भंग मिथ्यात्व, सासादन इन दो गुणस्थानों में होता है। तीसरा भंग भी मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानों में ही पाया जाता है, क्योंकि मनुष्य नियंचायु के समान मनुष्यायु का बन्ध भी दूसरे गुणस्थान तक ही करते हैं। चौथा भंग मिश्र गुणस्थान' को छोड़कर अप्रमत्तसंयत सातवें गुणस्थान तक छह गुणस्थानों में होता है। क्योंकि मनुष्यगति में देवायु का बंध अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पाया जाता है ।
उपरसबंधकाल में--१. मनुष्यायु का उदय और नरकमनुष्यायु का सत्त्व, २. मनुष्यायु का उदय और तिर्यच मनुष्यायु का . सत्व, ३. मनुष्यायु का उदय और मनुष्य-मनुष्यायु का सत्त्व तथा ४. मनुष्यायु का उदय' और देव-मनुष्यायु का सत्व, यह चार भंग होते हैं। ___ उक्त पार भंगों में से आदि के तीन भंग सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पाये जाते हैं। क्योंकि यद्यपि मनुष्यगति में नरकायु का बंध पहले गुणस्थान में, तिथंचायु का बंध दूसरे गुणस्थान तक तथा इसी प्रकार मनुष्यायु का बंध भी दूसरे गुणस्थान तक ही होता है, तथापि बंध करने के बाद ऐसे जीव संयम को तो धारण कर सकते हैं, किन्तु श्रेणि-आरोहण नहीं करते हैं। इसलिये उपरतबंध की अपेक्षा नरक, तिर्यंच और मनुष्य आयु इन तीन आयुयों का सत्त्व अप्रमत्त गुणस्थान तक बतलाया है । चौथा भंग प्रारम्भ के ग्यारह गुणास्थानों तक पाया जाना सम्भव है, क्योंकि देवायु का जिस मनुष्य ने बंध कर लिया है, उसके उपशमश्रेणि पर आरोहण सम्भव है। इस प्रकार मनुष्यगति में अबन्ध, बंध और उपरतबंध की अपेक्षा आयुकर्म के कुल नौ भंग होते हैं ।
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षष्ठ फर्मग्रन्थ मनुष्यगति के उपरतबंध भंगों की विशेषता ___तियंचगति में उपरतबंध की अपेक्षा नरकायु, तिर्यंचायु .और मनुष्यायु की सत्ता पांचवें गुणस्थान तक तथा मनुष्यगति में उपरतबंध की अपेक्षा नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्यायु को सत्ता सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक बतलाई है । इस सम्बन्ध में मतभिन्नता है ।
देवेन्द्रसुरि ने दूसरे कर्मग्रन्थ 'कर्मस्तव' के सत्ताधिकार में लिखा है कि दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय पहले से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक १४८ प्रकृतियों की सत्ता सम्भव है। तथा आगे इसी प्रन्थ में यह भी लिखा है कि चौथे से सातवें गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थानों में अनन्तानुबंधीच तुष्का की विसंयोजना और दर्शनमोहत्रिक का क्षय हो जाने पर १४१ की सत्ता होती है और अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानों में अनन्तानुबंधीचतुष्क, नरकायु और तिर्यंचायु इन छह प्रकृतियों के बिना १४२ प्रकृतियों की सत्ता होती है। __ उक्त कथन का सारांश यह है कि १. उपरतबंध की अपेक्षा चारों आयुयों की सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक सम्भव है और २. उपरतबंध की अपेक्षा नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्यायु की सत्ता सातवें गुणस्थान तक पाई जाती है । इस प्रकार दो मत फलित होते हैं।
पंच संग्रह सप्ततिका-संग्रह नामक प्रकरण की गाथा १०६ तथा बृहत्कर्मस्तव भाष्य से दूसरे मत की पुष्टि होती है, किन्तु पंचसंग्रह के इसी प्रकरण की छठी गाथा में इन दोनों से भिन्न एक अन्य मत भी दिया है कि नरकायु को सत्ता चौथे गुणस्थान तक, तिर्यंचायु की
१ गाभा २५, द्वितीय कर्म ग्रन्थ । २ गाथा २६, द्वितीय कर्मग्रन्थ ।
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सप्ततिका प्रकरण
सत्ता पाँचवे गुणस्थान तक, देवायु की सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक और मनुष्यायु की सत्ता चौदहवें गुणस्थान तक पाई जाती है । गो० कर्मकांड में भी इससे है दिगम्बर ग्रन्थों में भी
1
·
यही एक मत पाया जाता है।
यहाँ जो वर्णन किया गया है वह दूसरे मत - उपरतबंध की अपेक्षा नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्यायु की सत्ता सातवें गुणस्थान तक पाई जाती है— के अनुसार किया है। आचार्य मलयगिरि ने इसी मत के अनुसार सप्ततिका प्रकरण टीका में विवेचन किया है"बन्धे तु व्यवच्छिन्ने मनुष्यायुष उदयो नारक- मनुष्यायुषी सती, एष विकल्पोऽप्रमत्तगुणस्थानकं यावत्, नारकायुबन्धानन्तरं संयमप्रतिपत्तेरपि सम्भवात् । मनुष्यायुष उदयस्तिर्यङ, मनुष्यायुषी सती, एषोऽपि विकल्पोऽप्रमत्तगुणस्थानकं यावत् । मनुष्यायुष उदयो मनुष्य मनुष्यायुषी सती, एषोऽपि विकल्पः प्राग्वत् । मनुष्यायुष उदयो देव मनुष्यायुषी सती, एष विकल्प उपशान्तमोहगुणस्थानकं यावत् देवायुषि बद्धेऽप्युपशमश्रेण्या रोह सम्भवात् ।” सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १६०
보
श्वेताम्बर कर्म साहित्य में इसी मत की मुख्यता है | मनुष्यगति के नौ संवेध भंगों का विवरण निम्न प्रकार समझना चाहिये-
भंग क्रम
१
116 ला द र
काल
अबन्ध
बंधकाल
13
"
"
उप० बन्न
JP
21
बंध
०
नरक
तिर्यच
मनुष्य
देव
०००
उदय
मनुष्य मनुष्य
13
גת
رو
י
J7
"
"
श
सत्ता
नरक, मनुष्य म० लिये ०
म० म०
म० दे०
म० न०
म० ति०
गुणस्थान
सभी चौदह गुण
१
१,२
१,२
१, २, ४, ५, ६, ७ १,२,३,४,५,६,७ १,२,३,४,५,६,७ १,२,३,४,५,६,७ १ से ११ गुण० तक
म० म०
| म० • •
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-+
षष्ठ कर्मग्रन्थ
इस प्रकार चारों गतियों के ५+१+९+५ = २८, कुल मिलाकर आयुकर्म के अट्ठाईस भंग होते हैं ।" प्रत्येक गति में के भंग आयु लाने के लिये गो० कर्मकांड गा० ६४५ में एक नियम सूत्र दिया हैएक्काउस तिभंगा सम्भवआउहि ताजिये गाना । जीवे इभिवभंगा
गुणमसरित्थे ॥
इसका सारांश यह है कि जिस गति में जितनी आयुयों का बंध होता है, उस संख्या को तीन से गुण कर दें और जहाँ जो लब्ध आये
उसमें से एक कम बंधने वाली आयुयों की संख्या घटा दें तो प्रत्येक गति में आयु के अन्ध, बंध और उपरतबंध की अपेक्षा कुल भंग प्राप्त हो जाते हैं। जैसे कि देव और नारक में दो-दो आयु का हो बंध सम्भव है, अतः उन दोनों में छह-छह भंग होते हैं। अब इनमें एक-एक कम बंधने वाली आययों को संख्या को कम कर दिया तो नरकगति के पाँच भंग और देवगति के पाँच भंग आ जाते हैं । मनुष्य और तिर्यंचगति में चार आयुयों का बंध होता है। अतः चार को तीन से गुणा करने पर बारह होते हैं । अब इनमें से एक कम बंधने वाली आयुयों की संख्या तीन को घटा दें तो मनुष्य और तिर्यंचगति के नौ-नौ भंग आ जाते हैं। अतएव देव नारक में पाँचपाँच और मनुष्य, तिर्यंच में नौ-नौ भंग अपुनरुक्त समझना चाहिये ।
r
उक्त अपुनरुक्त भंग नरकादि गति में चारों आयुयों के क्रम से मिध्यादृष्टि गुणस्थान में समझना चाहिये । दूसरे गुणस्थान में नरकायु के बिना बंध रूप भंग होते हैं, अतः वहाँ ५, ८,८,५ भंग जानना । पूर्व में जो आयुबंध की अपेक्षा भंग कहे गये हैं, वे सब कम
१ नारयसुराउदओ व पंचम तिरि मणुस्ल चोद्दसमं ।
संता ॥
बसंता दो बाउ बज्दामाणाणं । नव नव पंच इइ भैया
५६
आसम्मदेस जोगी अबंधे इगि संतं दो वि एक्कस्दलो पण
- पंचसंग्रह सप्ततिका
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६०
सप्ततिका प्रकरण
करने पर मिश्र गुणस्थान में नरकादि गतियों में कम से ३, ५, ५,३, भंग होते हैं और चौथे गुणस्थान में देव, नरक गति में तो तिर्यंचायु का बंध रूप भंग नहीं होने से चार-चार भंग हैं तथा मनुष्य-तिर्यंचगति में आयु मंत्र जी अपेक्षा, तिक
तीन भंग न होने से छह-छह भंग हैं, क्योंकि इनके बंध का अभाव सासादन गुणस्थान में हो जाता है। देशविरत गुणस्थान में तिर्यंच और मनुष्यों के अंध, अबंध और उपरतबंध की अपेक्षा तीन-तीन भंग होते हैं। छठवें, सातवें गुणस्थान में मनुष्य के हो और देवायु के बंध की ही अपेक्षा तीन-तीन भङ्ग होते हैं। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि आदि सात गुणस्थानों में सब मिलाकर अपुनरुक्त भङ्ग कम से २८,२६,१६, २०,६,३,३ हैं । १
वेदनीय और आयु कर्म के संवेध भङ्गों का विचार करने के अनन्तर अब गोत्रकर्म के भङ्गों का विचार करते हैं ।
गोत्रकर्म के संबंध भंग
गोत्र कर्म के दो भेद हैं- उच्चगोत्र, नीचगोत्र। इनमें से एक जीव के एक काल में किसी एक का बंध और किसी एक का उदय होता है। क्योंकि दोनों का बंध या उदय परस्पर विरुद्ध है। जब उच्च गोत्र का बंध होता है तब नीच गोत्र का बंध नहीं और नीच गोत्र के बंध के समय उच्च गोत्र का बंध नहीं होता है ।
१
इन भंगों के अतिरिक्त गो० कर्मकांड में उपशमश्र णि और क्षपकाणि की अपेक्षा मनुष्यगति में आयुकर्म के कुछ और मंग बतलाये हैं कि उपशमणि में देवायु का भी बंध न होने से देवायु के अबन्ध, उपरतबंध की अपेक्षा दो-दो भंग हैं तथा क्षपकणि में उपरतबंध के भी न होने से अबन्ध की अपेक्षा एक-एक ही भंग है। अतः उपशमणि वाले चार गुणस्थानों में दो-दो मंग और उसके बाद क्षपक णि में अपूर्वकरण
से लेकर अयोगिकेवलीगुणस्थान तक एक-एक भंग कहा गया है ।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ इसी प्रकार उदय के बारे में समझना चाहिये । दोनों में से एक समय में एक का बंध या उदय होने का कारण इनका परस्पर विरोधनी प्रकृतियाँ होना है, किन्तु सत्ता दोनों प्रकृतियों की एक साथ पाई जा सकती है। दोनों की एक साथ सत्ता पाये जाने में कोई विरोध नहीं है। लेकिन इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीव उच्चगोत्र की उद्वलना भी करते हैं, अत: उद्वलना करने वाले इन जीवों के अथवा जब ये जीव अन्य एकेन्द्रिय आदि में उत्पन्न हो जाते हैं तब उनके भी कुछ काल के लिये सिर्फ एक नीचगोत्र की ही सत्ता पाई जाती है। उसके बाद उच्चगोत्र को बांधने पर दोनों की सत्ता होती है। अयोगिकेवली भी अपने उपान्त्य समय में नीचगोत्र का क्षय कर देते हैं, उस समय उनके सिर्फ एक उच्चगोत्र की ही सत्ता पाई जाती है।
गोत्रकर्म के बंध, उदय और सत्ता स्थानों के सम्बन्ध में उक्त कथन का सारांश यह है कि अपेक्षा से मोत्रकर्म का बंधस्थान भी एक प्रकृतिक होता है, उदयस्थान भी एक प्रकृतिक होता है, किन्तु सत्तास्थान दो प्रकृतिक भी होता है और एक प्रकृतिक भी होता है।'
१ णीचुच्चाणेगदरं बंधुदया होति संभवट्ठाणे ।
बोसत्ता जोगित्ति य चरिमे उच्च हवे सत्तं ।।--गो० कर्मकार, गाया १३५ २ उच्चुवेल्लिदतेक वाउम्मि म णीवमेव सत्तं तु ।
सेसिगिवियले सयले णीचं च दुगं च सत्तं तु॥ उज्युवेल्लिदतेक वाऊ सेसे य विएलसयलेसु । सप्पण्णपढमकाले पीचं एवं हवे सत्तं ॥
- ० कर्मकार गा० ३३६, ६३७, ३ तथा गोत्रे सामान्येने कं बन्धस्थानम्, तद्यथा--उच्चर्गोत्रं, नीचर्गोत्रं वा, ...द्रयोः परस्पर विरुखवेन युगपसन्धाभावात् । उदयस्थानमप्येकम्,
तदपि द्वयोरन्यतर, परस्परविरुखस्वेन युगपद योरुदयाभावात् ।
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६
सप्ततिका प्रकरण
गोत्रकर्म के सामान्य से भंग बतलाने के पश्चात् अब इन स्थानों के संवेध भङ्ग बतलाते हैं। गोत्रकर्म के सात संवेध भङ्ग इस प्रकार हैं१. नीचगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय और नीचगोत्र
की सत्ता। २. नीचगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय और नीच-उच्च ___ गोत्र की सत्ता । ३. नीचगोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय और उच्च-नीच
गोत्र की समा। ४. उच्चगोत्र का बंध, नीत्रगोत्र का उदय और उच्च-नीच
गोत्र की सत्ता। ५. उच्च गोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय और उच्च-नीच
गोत्र की सत्ता। ६. उच्चगोत्र का उदय और उच्च-नीच गोत्र की सत्ता । ५७. उच्चगोत्र का उदय और उच्चगोत्र की सत्ता ।
इनमें से पहला भङ्ग उच्चगोत्र की उद्वलना करने वाले अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के होता है तथा ऐसे जीव एकेन्द्रिय, विकलत्रय और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो उनके भी अन्तर्मुहूर्त काल तक के लिये होता है। क्योंकि अन्तर्मुहूर्त काल के पश्चात् इन एकेन्द्रिय आदि जीवों के उच्चगोत्र का बंध नियम से हो जाता है । दूसरा और तीसरा भङ्ग मिथ्या दृष्टि और सासादन इन दो गुणस्थानों में पाया जाता है, क्योंकि नीचगोत्र का बंधविच्छेद
द्वे सत्तास्थाने, तद्यथा- एक च । तत्र उच्चाय-नीचैर्गोत्रे समुदिते द्वे, तेजस्कायिक-वायुकापिकावस्थायां उच्चैर्गोत्रे उद्वलिते एकम, अथवा नीचर्गोत्रेऽयोगिकेवलिविचरमसमये क्षीणे एकम् ।।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १५१
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षष्ठ कर्मग्रन्थ दूसरे गुणस्थान में हो जाता है । इन दोनों भंगों का सम्बन्ध नीच. गोत्र के बंध से है, अतः इनका सद्भाव पहले और दूसरे गुणस्थान में बताया है, आगे तीसरे सम्यगमिष्याटि आदि गणास्थानों में ही बताया है। चौथा भङ्ग आदि के पाँच गुणस्थानों में सम्भव है क्योंकि नीचगोत्र का उदय पाँचवें गुणस्थान तक सम्भव है, अत: प्रमत्तसंयत आदि आगे के गुणस्थानों में इसका अभाव बतलाया है। उच्चगोत्र का बंध दसवें मूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक होता है, अत: पाँचवां भङ्ग आदि के दस गुणस्थानों में सम्भव है, क्योंकि इस भङ्ग में उच्चगोत्र का बंध विवक्षित है । जिससे आगे के गुणस्थानों में इसका निषेध किया है । छठा भङ्ग-उच्चगोत्र का उदय और उच्च-नीच गोत्र की सत्ता-उपशान्तमोह मुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय तक होता है। क्योंकि नीचगोत्र की सत्ता यहीं तक पाई जाती है और इस भङ्ग में नीचगोत्र की सत्ता गभित है । सातवा भङ्ग अयोगिकेवली गुणस्थान के अंतिम समय में होता है। क्योंकि उच्चगोत्र का उदय और उच्चगोत्र की सत्ता अयोगिकेवली गुणस्थान के अंतिम समय में पाई जाती है और इस भङ्ग में उच्च गोत्र का उदय और सत्ता संकलित है ।
गोत्रकर्म के उक्त सात भंगों का विवरण इस प्रकार है
मंगक्रम | बंध
गुणस्थान
नीच
उदय । सत्ता नीच | नीच १ नीच । नीच-उन : १२
नीच
नीच
उच्च उच्च
नीच उच्च
|
। १,२,३,४,५ | १ से १० गुणस्थान
११,१२,१३ व १४ दिचरम समय १४ वेंका चरम समय
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सप्ततिका प्रकरण
गुणस्थानों की अपेक्षा गोत्रकर्म के भङ्ग मिथ्या दृष्टि और सासादन गुणस्थान में कम से पांच और चार होते हैं । मिश्र आदि तीन गुणस्थानों में दो-दो भङ्ग हैं। प्रमत्त आदि आठ गुणस्थानों में गोत्रकर्म का एक-एक शक है और अगोगिदेवली गुणस्थान में दो भङ्ग होते हैं। ___इस प्रकार से वेदनीय, आय और गोत्र कर्म के भंगों को बतलाने के पश्चात अब पूर्व सूचनानुसार-मोहं परं वोच्छं-मोहनीय कर्म के बंधस्थानों आदि का कथन करते हैं। मोहनीय कर्म
बावीस एक्कबीसा, सत्तरसा तेरसेव नथ पंच । घउ तिग दुगं च एक्कं बंधढाणाणि मोहस्स ॥१०॥
शम्बार्य--वावीस-बाईस, एक्कवौसा-इक्कीस, सत्सरसासत्रह, तेरसेव-तेरह, नव-नी, पंच-पांच, घउ-चार, तिग.
। (क) बंधा कइण्णयं चि म इयरं वा दो वि संत चक मंगा । नीएसु तिसु वि परमो अबंधगे दोणि उच्चुदए ।
-पंचसंग्रह सप्तसिका, गा० १६ (ख) मिच्छादि गोयभंगा पण चदु तिमु दोणि अट्ठठाणेसु । एकेक्का जोगिजिणे दो मंमा होति. णियमेण ।।
---गो कर्मकांड, गा० ६३८ २ तुलना कीजिये(क) बावीसमेक्फबीसं ससारस तेरसेव णव पंच 1 पतियदुगं च एक्कं बंधट्ठाणाणि मोहस्स ।।
-गो० कर्मकांड ४६३ (ख) दुगहगवीसा, सत्तर तेरस नव पंच चउर ति दु एगो । बंधो इगि दुग चउत्श्य पणउणवमेसु मोहस्स ।।
-पंचसंग्रह सप्ततिका, गा० १६
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
तीन, युगं -दो, --ौर, एक-एक प्रकृतिका महानगर स्थान, मोहस्स-मोहनीय कर्म के
गाथार्य-मोहनीय कर्म के बाईस प्रकृतिक, इक्कीस प्रकृतिक, सत्रह प्रकृतिक, तेरह प्रकृतिक, नौ प्रकृतिक, पांच प्रकृतिक, चार प्रकृतिक, तीन प्रकृतिक, दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक, इस प्रकार दस बंधस्थान हैं। विशेवा-गाथा में 'मोहस्स बंधट्टाणाणि' मोहनीय कर्म के बंधस्थानों का वर्णन किया जा रहा है। वे बंधस्थान बाईस, इक्कीस आदि प्रकृतिक कुल मिलाकर दस हैं । जिनका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है। ___ मोहनीय कर्म को उत्तर प्रकृतिमा अट्ठाईस हैं। इनमें दर्शन मोहनीय की सम्यक्त्व, सम्बमिथ्यात्व और मिथ्यात्व यह तीन प्रकृतियाँ हैं। इनमें से सम्बक्त्व और सम्यमिथ्यात्व इन दोनों का बंध नहीं होने से कुल बंधयोग्य छब्बीस प्रकृतियां रहती हैं और उनमें से कुछ प्रकृतियों का बंध के समय परस्पर विरोधनी होने तथा गुणस्थानों में विच्छेद होते जाने के कारण बाईस प्रकृतिक आदि दस बंधस्थाम' मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के होते हैं। १ मोहनीय कर्म के बाईस प्रकृतिक आदि दस बंधस्थानों में प्रकृतियों की संग्राहक गाथायें इस प्रकार हैं
मिच्छं कमावसोलस भयकुच्छा तिण्डवेयमन्नमरं । हासरइ इयर यल प बंधपयडी य बावीसं । इगवीसा मिच्छविणा नपुबंधविणा र सासणे बंधे। अणरहिया सत्तरस नबन्धि थिई तुरि अठाणम्मि || वियसंपरायणा तेरस तह तश्यऊण नव बन्धे । मय-कुच्छ-जुगल पाए पण बंधे बायरे ठाणे ! तह पुरिस कोहऽहंकार-मायालोमस्स बंधवोच्चए ।
चउ-नि-दुग एम बंधे कमेण मोहस्स दसठाणा ।। -षष्ठ कर्मग्रन्थ प्राकृत टिप्पण, रामदेवणि विरचित, गाथा २२ से २५
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सप्ततिका प्रकरण
__मोहनीय कर्म के दस बंधस्थानों में से पहला स्थान बाईस प्रकृतिक है। इसका कारण यह है कि तीन वेदों का एक साथ बंध नहीं होता है, किन्तु एक काल में एक ही वेद का बंध होता है। चाहे वह पुरुषवेद का हो, स्त्रीवेद का हो या नपुंसकवेद का हो तथा हास्य-रति युगल और अरति-शोक युगल, इन दोनों युगलों में से एक समय में एक युगल का बंध होगा। दोनों यगल एक साथ बंध को प्राप्त नहीं होते हैं। अत: छुब्बीस प्रकृतियों में से दो वेद और दो युगलों में से किसी एक युगल के कम करने पर बाईस प्रकृतियां शेष रहती हैं। इन बाईस प्रकृतियों का बंध मिथ्याइष्टि गुणस्थान में होता है। ___उक्त बाईस प्रकृतिक बंधस्थान में से मिथ्यात्व को कम कर देने पर इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। यह स्थान सासादन गुणस्थान में होता है। क्योंकि मिथ्यात्व का विच्छेद पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में हो जाता है । यद्यपि दूसरे सासादन गुणस्थान में नपुंसकवेद का भी बंध नहीं होता है, लेकिन पुरुषवेद या स्त्रीवेद के बंध से उसकी पूर्ति हो जाने से संख्या इक्कीस ही रहती है । ___ अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क का बन्ध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है । अतः इक्कीस प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी चतुष्क को वाम कर देने से मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि-तीसरे, चौथे—गुणस्थान में सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान प्राप्त होता है । यद्यपि इन गुणस्थानों में स्त्रीवेद का बंध नहीं होता है, तथापि पुरुषवेद का वहाँ बंध होते रहने से सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान बन जाता है।
देशविरति गुणस्थान में तेरह प्रकृतिक बंधस्थान होता है । क्योंकि अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का बन्ध चौथे अविरत सभ्यग्दृष्टि गुणस्थान तक ही होता है । अतः सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान में से अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क को कम कर देने पर पांचवें देशविरत गुणस्थान में तेरह प्रकृतिक बंधस्थान प्राप्त होता है ।
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पण्ठ कर्मग्रन्य
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7
प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का बंध पाँचवें देशविरति गुणस्थान तक होता है । अतः पूर्वोक्त तेरह प्रकृतियों में से प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क को कम कर देने पर छठवें सातवें और आठवें - प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण- गुणस्थान में नो प्रकृतिक बन्धस्थान होता है । यद्यपि अरति-शोक युगल का बंध छठे गुणस्थान तक ही होता है, लेकिन सप्त और बाकी पूर्ति हास्य व रति से हो जाने के कारण नौ प्रकृतिक बंधस्थान ही रहता है।
हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियों का बंध आठवें गुणस्थान के अंतिम समय तक होता है | अतः पूर्वोक्त नौ प्रकृतिक बंधस्थान में से इन चार प्रकृतियों को कम कर देने पर नौवें अनिवृत्तिबादर संपराय गुणस्थान के प्रथम भाग में पांच प्रकृतिक बंधस्थान होता है। दूसरे भाग में पुरुषवेद का बन्ध नहीं होता, अतः वहाँ चार प्रकृतिक, तीसरे भाग में संज्वलन क्रोध का बंध नहीं होता है अतः वहाँ तीन प्रकृतिक, चौथे भाग में संज्वलन मान का बंध नहीं होने से दो प्रकृतिक और पाँचवें भाग में संज्वलन माया का बंध नहीं होने से एक प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इस प्रकार नौवें अनिवृत्तिबादर संपराय गुणस्थान के पांच भागों में पाँच प्रकृतिक, चार प्रकृतिक, तीन प्रकृतिक, दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक, ये पाँच बंधस्थान होते हैं ।
इसके आगे दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में एक प्रकृतिक बंधस्थान का भी अभाव है। क्योंकि वहाँ मोहनीय कर्म के बंध के कारणभूत बादर कपाय नहीं पाया जाता है। इस प्रकार मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के कुल दस बंधस्थान हैं ।
दस बंधस्थानों का समय व स्वामी
बाईस प्रकृतिक बंधस्थान का स्वामी - मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती
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सप्ततिका प्रकरण जीव है । इस बंधस्थान के काल की अपेक्षा तीन भङ्ग है-अनादि. अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमें से अनादि-अनन्त विकल्प अभव्यों की अपेक्षा होता है। क्योंकि उनके बाईस प्रकृतिक बंधस्थान का कभी अभाव नहीं पाया जाता है । भक्ष्यों की अपेक्षा अनादि-सान्त विकल्प है। क्योंकि कालान्तर में उनके बाईस प्रकृतिक बंधस्थान का बंधविच्छेद सम्मत्र है या जो जोत्र अन्यत्व से च्युत होकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुए हैं और कालान्तर में पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त हो जाते हैं, उनके सादि-सान्त विकल्प पाया जाता है। क्योंकि यह विकल्प कादाचित्क है, अत: इसका आदि भी पाया जाता है और अन्त भी । इस सादि-सान्त विकल्प की अपेक्षा बाईस प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन अपाधं पुद्गल परावर्त प्रमाण होता है । __ इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान का स्वामी सासादन गुणस्थानवर्ती जीव है। सासादन गुणस्थान का जधन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल' छह आवलो है, अत: इस बंधस्थान का भी उक्त कालप्रमाण समझना चाहिये । सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान के स्वामी तीसरे और चौथे गुणस्थानवी जीव हैं । इस स्थान का जघन्यकाल अन्तमुंहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है। तेरह प्रकृतिक बंधस्थान का स्वामी देशविरत गुणस्थानवी जीव है और देशविरत गुणस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल देशोन पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण होने से तेरह प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्य व उत्कृष्ट काल उतना समझना चाहिये । नौ प्रकृतिक बंधस्थान छठवें, सातवें और आठवें गुणस्थान में पाया जाता है। इस बंधस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि बर्ष प्रमाण है। यद्यपि छटे, सातवें और आठवें गुणस्थान का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं है, फिर भी परिवर्तन कम से छठे और
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वष्ठ कर्मग्रन्म
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सातवें गुणस्थान में एक जीव देशोन पूर्वकोटि प्रमाण रह सकता है । इसीलिये तो प्रकृतिक बंधस्थान का उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण है । पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक बंधस्थान नौवें अनिवृत्तिबादर संपराय गुणस्थान के पांच भागों में होते हैं और इन सभी प्रत्येक बंधस्थान का जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल' अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि नौवें गुणस्थान के प्रत्येक भाग का जधन्यकाल एक समय और उत्कष्ट काल अन्तर्म हर्त है। मोहनीय कर्म के दस बंधस्थानों का स्वामी व काल सहित विवरण इस प्रकार है
काल
बंस्थान
२२ प्र०
२१ प्र०
१७ प्र०
१३ प्र०
६ प्र०
भू
४
३
२
21
"
"
"
पहला
दुस ख
३, ४ था
५ व
६, ७, ८ वॉ
नौवें का पहला भाग
दूसरा भाग
तीसरा भाग
चौथा भाग
पाँचवाँ भाग
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गुणस्थान
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1,
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"
.
अन्तर्मुहूर्त एक समय अन्तर्मुहूर्त
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तुलना कीजिये – दस णव अट्ठ य सत् य उदपणा मोहे णव
JP
एक समय
17
"
जघन्य
〃
ri
—
उत्कृष्ट देशोन अपर
छह आवली साधिक ३३ सागर देशोन पूर्वकोटि
अन्तर्मुहूर्त
15
पण चत्तारि दोणि एव च । चैव य होंति नियमेण ॥
12
"
J
"
HOW
मोहनीय कर्म के दस बंघस्थानों को बतलाने के बाद अब उदयस्थानों का कथन करते हैं ।
एक्कं व दो व चउरो एस्तो एक्काहिया दसुक्कोसा। ओहेण मोहणिज्जे उदयद्वाणा नव हवंति ॥ ११ ॥ |
- गो० फर्मकांड, गा० ४७५
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सप्ततिका प्रकरण
शब्दार्थ — एवई – एक, द-और, दो-दो, व और, उरो - चार, एसो— इससे आगे एक्काहिया - एक एक प्रकृति अधिक, इस - इस तक, छक्कोसा - उत्कृष्ट से, ओहेज-सामान्य से, मोहणिज्जे — मोहनीय कर्म में, उदयद्वाणा --- उदयस्थान, नव-नौ, हवंति होते हैं ।
गाथार्थ एक, दो और चार और चार से आगे एक-एक प्रकृति अधिक उत्कृष्ट दस प्रकृति तक के नौ उदयस्थान मोहनीय कर्म के सामान्य से होते हैं ।
विशेषार्थ गण में मोदी या बतलाई हैं कि वे नौ होते हैं। इन उदयस्थानों की संख्या एक, दो, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ और दस प्रकृतिक है ।
1
ये उदयस्थान पश्चादानुपूर्वी के क्रम से बतलाये हैं । गणनानुपूर्वी के तीन प्रकार हैं-- १. पूर्वानुपूर्वी २ पश्चादानुपूर्वी और ३ यत्रतत्रानुपूर्वी । इनकी व्याख्या इस प्रकार है कि जो पदार्थ जिस क्रम से उत्पन्न हुआ हो या जिस क्रम से सूत्रकार के द्वारा स्थापित किया गया हो, उसकी उसी क्रम से गणना करना पूर्वानुपूर्वी है । विलोमकम से अर्थात् अन्त से लेकर आदि तक गणना करना पश्चादानुपूर्वी है और अपनी इच्छानुसार जहाँ कहीं से अपने इच्छित पदार्थ को प्रथम मानकर गणना करना यत्रतत्रानुपूर्वी कहलाता है। यहां ग्रन्थकार ने उक्त तीन गणना की आनुपूदियों में से पश्चादानुपूर्वी के क्रम से मोहनीय कर्म के उदयस्थान गिनाये हैं ।
'मोहनीय कर्म का उदय दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक होता | अतः पदचादानुपूर्वी गणना क्रम से एक प्रकृतिक उदयस्थान सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में होता है क्योंकि वहाँ संज्वलन लोभ का उदय है । वह इस प्रकार समझना चाहिये कि नौवें गुणस्थान के अपगत वेद १ गणणाणुपुत्री तिथिहा पष्णसा तं जहा – पुग्वाणुपुथ्वी, पाणुपुरुषी, अणापुथ्वी । अनुयोगद्वार सूत्र ११६
७०
...
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षष्ठ कर्मअन्य के प्रथम समय से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अंतिम समय तक संज्वलन लोभ का उदय पाया जाता है, जिससे सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में एक प्रकृतिक उदयस्थान बतलाया है।
उक्त एक प्रकृतिक उदयस्थान में तीन वेदों में से किसी एक वेद को मिला देने पर दो प्रकृतिक उदयस्थान होता है जो नौवें अनिवृत्तिबादर संपराय गुणस्थान के प्रथम समय से लेकर सवेदभाग के अंतिम समय तक होता है।
इस दो प्रकृतिक उदयस्थान में हास्य-रति युगल अथवा अरति-शोक युगल में से किसी एक युगल को मिलाने से चार प्रकृतिक उदयस्थान होता है। तीन प्रकृतिक उदयस्थान इसलिये नहीं होता है कि दो प्रकृतिक उदयस्थान में हास्य-रति या अरति-शोक युगलों में से किसी एक युगल के मिलाने से जोड़ (योग) चार होता है। अत: चार प्रकृतिक उदयस्थान बताया है। इस चार प्रकृतिक उदयस्थान में भय प्रकृति को मिलाने से पांच प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसमें जुगुप्सा प्रकृति के मिलाने से छह प्रकृतिक उदयस्थान होता है। ये तीनों उदयस्थान छठे, सातवें और आठवें गुणस्थान में होते हैं ।
इस छह प्रकृतिक उदयस्थान में प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क की किसी एक प्रकृति को मिलाने से सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है। जो पांचवें गुणस्थान में होता है। इसमें अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क की किसी एक प्रकृति को मिलाने पर आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह उदयस्थान चौथे और तीसरे गुणस्थान में होता है। इस आठ प्रकृतिक उदयस्थान में अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क को किसी प्रकृति को मिलाने से नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह स्थान दूसरे गुणस्थान में होता है और इस नौ प्रकृतिक
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७२
सप्ततिका प्रकरण उदयस्थान में मिथ्यात्व को मिलाने पर दस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह उदयस्थान मियादृष्टि गुणस्थान में होता है। ___ मोहनीय कर्म के उक्त नौ उदयस्थान सामान्य से बतलाये हैं । क्योंकि तीसरे मिश्र गुणस्थान' में मिश्र मोहनीय का और चौथे से सातवें गुणस्थान तक वेदक सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व मोहनीय का उदय हो जाता है। इसलिये सभी विकल्पों को न बतलाकर यहाँ तो सूचना मान की है। विशेष विस्तार से वर्णन आगे किया जा रहा है । प्रत्येक उदयस्थान' का जघन्यकाल' एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। मोहनीय कर्म के उदयस्थानों का विवरण इस प्रकार है
काल उदयस्थान गुणस्थान
जघन्य उस्कृष्ट १० नौवें का अवेद माग व दसवां एक समय | अन्तर्मुहूर्त
नौ का सवेद भाग
६, ७, ८ ६, ७, पांचा
४, ३
१ मोहनीय कर्म के नौ उदयस्थानों की संग्रहणीय गाथायें इस प्रकार हैं(क) एगयर संपरायं वेयजुयं दोष्णि जुयलजुय चउरो ।
पकमक्खाणेगपरे पृढे पंव पयवीयो ।
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७३
षष्ठ कर्मग्रन्थ ___ मोहनीय कर्म के उदयस्थानों को बतलाने के पश्चात् अब सत्तास्थानों का कथन करते हैं।
अट्ठगसत्तगच्च उतिगबुगएगाहिया भवे बोसा । तेरस बारिक्कारस इत्तो पंचाइ एक्कूणा ॥१२॥ संतस्स पगइठाणाई ताणि मोहस्स हुति पन्नरस । बम्धोदयसत पुण मगधिगध्या बार जाण ॥१३॥
___ शबा-अट्ठग-सप्तग-छन्वजलिंग-युग-एपाहिया-आठ, सात, छह, घार, तीन, दो, और एक अधिक, भवे-होते हैं, बौसाबीस, तेरस-तेरह, मारिककारस-बारह और ग्यारह प्रकृति का,
सो-इसके बाद, पंचाइ--पांच प्रकृति से लेकर, एकूष्णा--एकएक प्रकृति न्यून ।
संतस्स-लत्ता के, पगठाणा-प्रकृति स्थान, ताण-वे, भोहस्स–मोहनीय कर्म के, हुति-होते हैं, परस-पन्द्रह, बंधोबषसंते-बंध, उदय और सत्ता स्थान, पुण-तथा, भंगविगप्पामंगविकल्प, महू-अनेक, आण-जानो।
गायार्थ:-मोहनीय कर्म के बीस के बाद क्रमशः आठ, सात, छह, चार, तीन, दो और एक अधिक संख्या वाले तथा तेरह, बारह, ग्यारह और इसके बाद पाँच से लेकर एक-एक प्रकृति के कम, इस प्रकार सत्ता प्रकृतियों के पन्द्रह स्थान होते हैं। इन बंधस्थानों, उदयस्थानों और सत्तास्थानों की अपेक्षा भंगों के अनेक विकल्प होते हैं।
छ विध्य एगयरेणं झुढे सत्त य दुगुछि भय अट्ठ । अणि नव मिच्छे दसगं सामन्नेणं तु नव उदया ।
--रामदेवगणिकृत षष्ठ कर्म प्रन्थ प्राकृत टिप्पण, या० २६, २७, (ख) इगि दुग चउ एगृत्तरआदसगं उदयमाह मोहरस । संजनणयहासरहमयदुगुवतिकसायदिछी य ।।
-पंचसंग्रह सप्ततिका गा०२३
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सप्ततिका प्रकरणं
विशेषार्थ -- उक्त दो गाथाओं में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के सत्तास्थानों में प्रकृतियों की संख्या बतलाई है कि अमुक सत्तास्थान इतनी प्रकृतियों का होता है । सत्तास्थानों के भेदों का संकेत करने के बाद बंध, उदय और सत्ता स्थानों के संवेध भंगों की अनेकता की सूचना दी है। जिनका वर्णन आगे यथाप्रसंग किया जा रहा है। मोहनीय कर्म के कितने सत्तास्थान होते हैं, इसका संकेत करते हुए कार ने बताया कि ताणि मोहस्स हुति पतरस - मोहनीय कर्म प्रकृतियों के सत्तास्थान पन्द्रह होते हैं । ये पन्द्रह सत्तास्थान कितनी कितनी प्रकृतियों के हैं, उनका स्पष्टीकरण क्रमश: इस प्रकार है-- अट्ठाईस सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, वारह, ग्यारह पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक । 1 कुल मिलाकर ये पन्द्रह सत्तास्थान होते हैं ।
७४
१ (क) बगसत
तेरस बारेक्कारस संते
गच उति मदुग एककमा क्रिया
(ख) अट्ठयसत्तयकय तेरस
7
बोला । पंचाह जा एकं ॥
बारेयारं पणादि
- पंचसंग्रह सप्ततिका १० ३५
चदुतिदुरोगाविगाणि बोसाणि । एगुणमं सन्त ॥
- गो० कर्मकांड ग्रा०५०६
२ इन पन्द्रह सत्तास्थानों में से प्रत्येक स्थान में ग्रहण की गई प्रकृतियों की संग्रह गाथायें इस प्रकार हैं
नव नोकसाय सोलस कसाय दंसणसिगं ति अडवीसा । सम्मत्तुवलणं मिच्छे मीसे य समवीसा ॥
छब्बीसा पुण दुविहा मीसुव्वलणे अणा६ मिच्छते । सम्मा अणक्खए होइ वीसा || मिच्छे मोसे सम्मे खीणे विन्दुवीस एककवीसा य । अद्रुकसाए तेरस ननु क्खए पीवेयि खोणिगारस हासाइ पंचखज कोहे माणे माया लोभे खीणे म तिगु दुग एग असंत मोहे पन्नरस
होइ
बारसगं ||
पुरिसखीणे 1 कमसो उ ॥ संतठाणाणि ।
---षष्ठ कर्मप्रय प्राकृत टिप्पण, गा० २८-३२
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
इनमें से अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान में मोहनीय कर्म की सब प्रकृतियों का ग्रहण किया गया हैं। यह स्थान मिथ्यादृष्टि' गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान तक पाया जाता है। इस स्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक एकसौ बत्तीस सागर है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
छब्बीस प्रकृतियों की सत्ता वाला कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव जब उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता प्राप्त कर लेता है और अन्तर्मुहुर्तकाल के भीतर वेदक सम्यक्त्व पूर्वक अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना करके चौबीस प्रकृति की सत्ता वाला हो जाता है, तब अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है तथा उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ बत्तीस सागर इस प्रकार समझना चाहिये कि कोई मिथ्या दृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके अट्ठाईस प्रकृति की सत्ता वाला हुआ, अनन्तर वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त करके प्रथम छियासठ सागर काल तक सम्यक्त्व के साथ परिभ्रमण किया और फिर अन्तर्मुहर्त काल तक सम्यमिथ्यात्व में रहकर फिर वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त करके दूसरी बार छियासठ सागर सम्यक्त्व के साथ परिभ्रमण किया । अन्त में मिथ्यात्व को प्राप्त करके सम्यक्त्व प्रकृति के सबसे उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल के द्वारा सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वलना करके सत्ताईस प्रकृतिक सत्ता वाला हुआ। इस प्रकार अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्टकाल पल्य के असंख्यातवें भाग से अधिक एक सौ बत्तीस सागर होता है । ऐसा जीव यद्यपि मिथ्यात्व में न जाकर क्षपक श्रेणि पर भी चढ़ता है और अन्य सत्तास्थानों को प्राप्त करता है। परन्तु इससे उक्त उत्कृष्ट काल प्राप्त नहीं होता है, अत: यहाँ उसका उल्लेख नहीं किया है ।
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सप्ततिका प्रकरण अनन्तानुबन्धी 'हर की शिका : मला
अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्यकाल' अन्तर्मुहूर्त अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना करने से जब चौबीस प्रकृतिक सत्ता वाला होता है, तब प्राप्त होता है। बेवक सम्यग्दृष्टि जीव के अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क की बिसंयोजना करने में श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्य एकमत हैं। किन्तु इसके अतिरिक्त जयधवला टीका में एक मत का उल्लेख और किया गया है। वहां बताया गया है कि उपशम सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना करते हैं, इस विषय में दो मत हैं । एक मत का यह मानना है कि उपशम सम्यक्त्व का काल थोड़ा है और अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना का काल बड़ा है, अत: उपशम सम्घरदष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना नहीं करता है तथा दूसरा मत है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्क के विसंयोजना काल से उपशम सम्यक्त्व वा काल बड़ा है इसलिये उपशम सम्यग्दृष्टि जीव भी अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना करता है। जिन उच्चारणा वृत्तियों के आधार से जयधवला टीका लिखी गई है, उनमें इस दूसरे मत को प्रधानता दी है। अगाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट काल, मतभिन्नता
पंचसंग्रह के सप्ततिका संग्रह की गाथा ४५ व उसकी टीका में अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्टकाल पल्य का असंख्यातवां भाग अधिक एक सौ बत्तीस सागर बतलाया है। लेकिन दिगम्बर परम्परा में उसका उत्कृष्ट काल पल्य के तीन असंख्यातवें भाग अधिक एक सौ बत्तीस सागर बतलाया है । इस मतभेद का स्पष्टीकरण यह है---
श्वेताम्बर साहित्य में बताया है कि छब्बीस प्रकृतिक सत्ता वाला मिथ्यावृष्टि ही मिथ्यात्व का उपशम करके उपशम सम्यग्दृष्टि होता है । तदनुसार क्षेवल सम्यक्त्व की उद्वलना के अंतिम काल में जीत्र
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
७७ उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकता है। जिससे २८ प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कुष्टकाल पल्य का असंख्यातवां भाग अधिक १३२ सागर ही प्राप्त होता है। क्योंकि जो २८ प्रकुतियों की सत्ता वाला ६६ सागर तक वेदक सम्यक्त्व के साथ रहा और पश्चात् सम्यग्दृष्टि हुआ, तत्पश्चात् पुनः ६६ सागर तक वेदक सम्यक्त्व के साथ रहा और अंत में जिसने मिथ्यादृष्टि होकर पल्य के असंख्यातवें भाग काल तक सम्यक्त्व की उबलना की, उसके २८ प्रकृतिक सत्तास्थान इससे अधिक काल नहीं पाया जाता, क्योंकि इसके बाद वह नियम से २७ प्रकृतिक मत्तास्थान वाला हो जाता है ।
लेकिन दिगम्बर साहित्य की यह मान्यता है कि २६ और २७ प्रकृतियों की सत्ता वाला मिध्यादृष्टि तो नियम से उपशम सम्यक्त्व को ही उत्पन्न करता है, किन्तु २८ प्रकृतियों की सत्ता वाला वह जीव भी उपशम सम्यक्त्व को ही उत्पन्न करता है जिसके चेदक सम्यक्त्व के योग्य काल समाप्त हो गया है । तदनुसार यहाँ २८ प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट काल पल्प के तीन असंख्यातवें भाग अधिक १३२ सागर बन जाता है। यथा--कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके २० प्रकृतियों की सत्ता वाला हुआ । अनन्तर मिथ्यात्व को प्राप्त होकर सम्यक्त्व के सबसे उत्कृष्ट उबलना काल पल्य के असंख्यातवें भाग के व्यतीत होने पर वह २७ प्रकृतिक सत्ता घाला होता, पर ऐसा न होकर वह उबलना के अंतिम समय में पुन: उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ । तदनन्तर प्रथम ६६ सागर काल तक सम्यक्त्व के साथ परिभ्रमण करके और मिथ्यात्व को प्राप्त होकर पुनः सम्यक्त्व के सबसे उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण उद्यलना काल के अंतिम समय में 'उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ, तदनन्तर दूसरी बार ६६ सागर काल तक सम्यक्त्व के साथ परिभ्रमण करके और अंत में मिथ्यात्व को प्राप्त होकर पल्य के असंख्यातवें
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सप्ततिका प्रकरण
भाग काल के द्वारा सम्यक्त्व की उलना करके २७ प्रकृतियों की सत्ता वाला हुआ। इस प्रकार २८ प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट काल पल्य के तीन असंख्यातवें भाग अधिक १३२ सागर प्राप्त होता है।
इस प्रकार से कुछ मतभिन्नताओं का मोहनीय कर्म के सत्ताईस प्रकृतिका आदि शेष करते हैं ।
194
संकेत करने के बाद सत्तास्थानों को स्पष्ट
उक्त अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान में से सम्यक्त्व प्रकृति की उवलना हो जाने पर सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। यह स्थान मिथ्यादृष्टि और मिध्यादृष्टि को होता है तथा इसका काल पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इसका कारण यह है कि सम्यक्त्व प्रकृति की उवलना हो जाने के पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की उद्बलना में पल्य का असंख्यातवां भाग काल लगता है और जब तक सम्य मिथ्यात्व प्रकृति की उबलना होती रहती है तब तक वह जीव सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान वाला रहता है । इसीलिये सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान का काल पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण बताया है ।
सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान में से उबलना द्वारा सम्यम् - मिथ्यात्व प्रकृति को घटा देने पर छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । यह स्थान भी मिथ्यादृष्टि जीव को होता है । काल की दृष्टि से इस स्थान के तीन विकल्प है- १. अनादि-अनन्त, २ अनादि- सान्त, ३. सादि सान्त । इनमें से अनादि-अनन्त विकल्प अभव्यों की अपेक्षा है, क्योंकि उनके छत्रीस प्रकृतिक सत्तास्थान का आदि और अन्त नहीं पाया जाता है । अनादि-सान्त बिकल्प भव्यों के पाया जाता है । क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीव के छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान आदि रहित अवश्य हैं, लेकिन जब वह सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है
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षष्ठ कर्मग्राय तब उसके इस स्थान का अन्त देखा जाता है। सादि-सान्त विकल्प सादि मिथ्याइष्टि जीव के होता है। क्योंकि अढाईस प्रकृतिक सत्ता वाले जिस सादि मिथ्याष्टि जीव ने सभ्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व की उद्वलना करके छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान को प्राप्त किया है, उसके इस छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान का पुन: नाश देखा जाता है ।
छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान के काल के उक्त तीन विकल्पों में से सादि-सान्त विकल्प का जघन्यकाल अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्टकाल देशोन अपार्थ पुद्गल परावर्त है। जो इस प्रकार फलित होता है-जो छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान को प्राप्त कर लेने के बाद विकरण द्वारा अन्तर्मुरने में सम्यक्त्व को प्राप्त करके पुन: अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाला हो गया, उसके उक्त स्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है तथा कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और मिथ्यात्व में जाकर उसने पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल के द्वारा सम्यक्त्व और सम्यगमिथ्यात्व की उद्बलना करके छब्बीस प्रकृतियों के सत्त्व को प्राप्त किया, पुनः वह शेष अपार्थ पुगल परावर्त काल तक मिथ्यादृष्टि रहा किन्तु जब संसार में रहने का काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहा तब पुन: वह सम्यग्दृष्टि हो गया तो इस प्रकार छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्टकाल पल्य का असंख्यातवां भाग कम अपार्ष पुद्गल परावर्त प्रमाण प्राप्त होता है।
मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क की विसंयोजना हो जाने पर चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान प्राप्त होता है । यह स्थान तीसरे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है। इसका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल एक सौ बत्तीस सागर है। जधन्यकाल तब प्राप्त होता है जब जीव ने अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना करके चौबीस प्रकृतिक सत्ता
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सप्ततिका प्रकरण स्थान प्राप्त किया और सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर मिथ्यात्व का क्षय कर देता है तो उसके चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है तथा अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करने के बाद जो वेदक सम्यग्दृष्टि ६६ सागर तक वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यक्त्व के साथ रहा, फिर अन्तर्मुहूर्त के लिये सम्यमिथ्यादृष्टि हुआ और इसके बाद पुन: ६६ सागर काल तक वेदक सम्यग्दृष्टि रहा । अनन्तर मिथ्यात्व की क्षपणा की । इस प्रकार अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना होने के समय से लेकर मिथ्यात्व की क्षपणा होने तक के काल' का योग एक सौ बत्तीस सागर होता है। इसीलिये चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्टकाल एक सौ बत्तीस सागर बताया है।
चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान में से मिथ्यात्व के क्षय हो जाने पर तेईस प्रतिक सतास्थान होता है और यह स्थान चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक पाया जाता है। सम्यगमिथ्यात्व की क्षपणा का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमहत होने से इस स्थान का जघन्य व उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है।
तेईस प्रकृतिक सत्तास्थान में से सम्यगमिथ्यात्व के क्षय हो जाने से बाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । यह स्थान भी चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक पाया जाता है। इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। क्योंकि सम्यक्त्व की क्षपणा में इतना काल लगता है।
बाईस प्रकृतिक सत्तास्थान में से सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति का क्षय हो जाने पर इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । यह चौथे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है । इसका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर प्रमाण है । जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त इसलिये माना जाता है कि क्षायिक सम्यग्दर्शन को
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I
षष्ठ कर्मग्रन्य
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प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर क्षपक श्रेणी पर चढ़कर मध्य की आठ कषायों का क्षय होना सम्भव है । उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर इसलिये है कि उक्त समयप्रमाण तक जीव इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान के साथ रह सकता है ।
इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान में से अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, इन आठ प्रकृतियों का क्षय हो जाने पर तेरह प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । यह स्थान क्षपक श्रेणी के नौवें गुणस्थान में प्राप्त होता है । इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । क्योंकि तेरह प्रकृतिक सत्तास्थान से बारह प्रकृतिक सत्तास्थान प्राप्त करने में अन्तर्मुहूर्त काल लगता है ।.
इस तेरह प्रकृतिक सत्तास्थान में से नपुंसक वेद के क्षय हो जाने पर बारह प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । यह भी नौवें गुणस्थान में प्राप्त होता है और इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि बारह प्रकृतिक सत्तास्थान से ग्यारह प्रकृतिक सत्तास्थान के प्राप्त होने में अन्तर्मुहूर्त काल लगता है।
जो जीव नपुंसक वेद के उदय के साथ क्षपक श्रेणी पर चढ़ता है, उसके नपुंसक वेद की क्षपणा के साथ स्त्रीवेद का भी क्षय होता है । अन. ऐसे जीव के बारह प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं पाया जाता है । जिसने नपुंसक वेद के क्षय से बारह प्रकृतिक सत्तास्थान प्राप्त किया, उसके स्त्रीवेद का क्षय हो जाने पर ग्यारह प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। इसकी प्राप्ति नौवें गुणस्थान में होती है। इसका जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। क्योंकि हास्यादि छह नोकषायों के क्षय होने में अन्तर्मुहूर्त समय लगता है ।
ग्यारह प्रकृतिक सत्तास्थान से छह नोकषायों के क्षय हो जाने पर पांच प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल
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सप्ततिका प्रकरण
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दो समय कम दो आवली प्रमाण है । क्योंकि छह नोकषायों के क्षय होने पर पुरुषवेद का दो समय कम दो आवली काल तक सत्त्व देखा जाता है । इसके बाद पुरुषवेद का क्षय हो जाने से चार प्रकृतिक, चार प्रकृतिक में से संज्वलन कोष का दाय होने पर तीन प्रकृतिक और तोन प्रकृतिक में से संज्वलन मान का क्षय हो जाने पर दो प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। ये नौवें गुणस्थान में प्राप्त होते हैं । इनका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
दो प्रकृतिक सत्तास्थान में से संज्वलन माया का क्षय होने पर एक प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। यह नौवें और दसवें गुणस्थान में प्राप्त होता है तथा इसका काल जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है ।
मोहनीय कर्म के उक्त अट्ठाईस प्रकृतिक आदि पन्द्रह सत्तास्थानों का क्रम आचार्य मलयगिरि ने संक्षेप में बतलाया है। उपयोगी होने से उक्त अंश यहाँ अविकल रूप में प्रस्तुत करते हैं
'सत्र
एप्टे
सर्वप्रोिष्टाविंशतिः । ततः सम्यक्श्वे जवलिते शतिः । ततोऽपि सस्यम्मध्यात्वे उदखलिते षड्वंशतिः, अनाविमिष्याविशतिः । अष्टाविंशतिसत्कर्मणोऽनन्तानुबन्धिचतुष्टयक्ष ये विंशतिः । ततोऽपि मिध्यात्वं क्षपिते त्रयोविंशतिः । ततोऽपि सम्यग्मिथ्यात्वे अपिते द्वाविंशतिः । ततः सम्यक्स्ये क्षपिते एकविशतिः । ततोऽष्टस्वप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्ञेषु कथायेषु श्रोणेषु त्रयोदशः। ततो नपुंसक क्षपिते द्वादश । ततोऽपि स्त्रीबेदे क्षपिते एकादश । ततः षट्सु नोकदायेषु क्षीणेषु पञ्च । ततोऽपि पुरुषवेदे क्षीणं चतस्त्रः । ततोऽपि संकलनको क्षपिते तित्रः । ततोऽपि संवलनमा क्षपिते । ततोऽपि संज्वलन मायायः क्षपितायामेका प्रकृतिः सतोति । '
सतास्थानों के स्वामी और काल सम्बन्धी दिगम्बर साहित्य का मत श्वेताम्बर कार्मेग्रन्थिक मत के समान ही दिगम्बर कर्मसाहित्य १ सप्ततिका प्रकरण टीका,
पृ० १६३
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षष्ठ फर्मग्रन्थ
में भी मोहनीय कर्म के अद्राईस प्रकृतिक आदि पन्द्रह सत्तास्थान माने हैं। उनके स्वामी और काल के बारे में भी दोनों साहित्य में अधिकतर समानता है। लेकिन कुछ स्थानों के बारे में दिगम्बर साहित्य में भिन्न मत देखने में आता है । जिसको पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है । ___अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान के काल के बारे में दिगम्बर साहित्य के मत का पूर्व में उल्लेख किया गया है। शेष स्थानों के बारे में यहाँ बतलाते हैं।
श्वेताम्बर साहित्य में सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान का स्वामी मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिय्यादृष्टि जीव को बतलाया है। लेकिन दिगम्बर परम्परा के अनुसार कषायप्राभूत की चूणि में इस स्थान का स्वामी मिथ्यादृष्टि जीव ही बतलाया है--
सत्ताधीसाए बिहत्तिओ को होवि ? मिसाइट्टी। पंचसंग्रह के सप्ततिका संग्रह की माथा ४५ की टीका में सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान का काल पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है । लेकिन जयधवला में संकेत है कि सत्ताईस प्रकुतियों की सत्तावाला भी उपशम सम्यादृष्टि हो सकता है। कषायप्राभूत की चूणि से भी इसकी पुष्टि होती है । तदनुसार सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य काल एक समय भी बन जाता है। क्योंकि मत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान के प्राप्त होने के दूसरे समय में ही जिसने उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया, उसके सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान एक समय तक ही देखा जाता है।
श्वेताम्बर साहित्य में सादि-सान्त छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त बताया है। लेकिन कषायप्राभृत की पूर्णि में उक्त स्थान का जघन्य काल एक समय बताया है
'पन्यासविहती संबधिर कालायो ? जहण एसओ ।'
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सप्ततिका प्रकरण इसका तात्पर्य यह है कि सभ्यस्य' की उद्धलना में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर जो त्रिकरण क्रिया का प्रारम्भ कर देता है, और उद्वलना होने के बाद एक समय का अन्तराल देकर जो उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हो जाता है, उसके छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। ____ कर्मग्रन्थ में चौबीस प्रवृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट काल एक सौ बत्तीस सागर बताया है, जबकि कषायप्राभृत की चूणि में उक्त स्थान का उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर बताया है
'उबीसविहत्ती केचिरं कालादो ? जहणेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण घे छाबहिसागरोषमाणि साविरेयाणि ।' __ इसका स्पष्टीकरण जयधवला टीका में किया गया है कि उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके जिसने अनन्तानुवन्धी की बिसयोजना की । अनन्तर छियासठ सागर काल तक वेदक सम्यक्त्व के साथ रहा, फिर अन्तर्मुहर्त तक सम्यगमिध्याहृष्टि रहा । अनन्तर मिथ्यात्व की क्षपणा की। इस प्रकार अनन्तानुबन्धी वी विसयोजना हो चुकाने के समय से लेकर मिथ्याल की क्षपणा होने तक के काल का योग साधिक एक सौ बत्तीस सागर होता है । _____ इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर दोनों परम्पराओं में समान रूप से माना है । कषायप्राभूत चूणि में लिखा है
'एक्कसीसाए बिहत्ती केवचिरं कालादो ? जहणेण अंतोमुहतं, उपकस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ।'
इस उत्कृष्ट काल का जयधवला में स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि कोई सम्यग्दृष्टि देव या नारक मर कर एक पूर्वकोटि की आयु वाले मनुध्यों में उत्पन्न हुआ। अनन्तर आठ वर्ष के बाद अन्त
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!
षष्ठ कर्मग्रन्थ
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मुहूर्त में उसने क्षायिक सम्यग्दर्शन को उत्पन्न किया। फिर आयु के अन्त में मर कर वह तेतीस सागर को आयु वाले देवों में उत्पन्न हुआ। इसके बाद तेतीस सागर आयु को पूरा करके एक पूर्वकोटि की आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और वहां जीवन भर इक्कीस प्रकृतियों की सत्ता के साथ रहकर जब जीवन में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहा तब क्षक श्रेणि पर चढ़कर तेरह आदि सत्तास्थानों को प्राप्त हुआ । उसके आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्वकोटि वर्ष अधिक तेतीस सागर काल तक इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान पाया जाता है ।
इस प्रकार दिगम्बर साहित्य में सर्वाधिक तेलीय सागर प्रमाण का स्पष्टीकरण किया गया है ।
श्वेताम्बर साहित्य में बारह प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। जबकि दिगम्बर साहित्य में बारह प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य काल एक समय बताया है । जैसा कि कषायप्राभृत चूर्णि में उल्लेख किया गया है
वरि वारस विहत्ती केवचिरं कालादो ? जहणंण एगसमओ । इसकी व्याख्या जयघवला टीका में इस प्रकार की गई है कि नपुंसक वेद के उदय से क्षपक श्रेणि पर चढ़ा हुआ जीव उान्त समय में स्त्रीवेद और नपुंसक वेद के सब सत्कर्म का पुरुषवेद रूप में संक्रमण कर देता है और तदनन्तर एक समय के लिए बारह प्रकृतिक सत्तास्थान बाला हो जाता है, क्योंकि इस समय नपुंसक बेद की उदय स्थिति का विनाश नहीं होता है ।
इस प्रकार से कुछ सत्तास्थानों के स्वामी तथा समय के बारे में मतभिन्नता जानना चाहिए। तुलनात्मक अध्ययन करने वालों के लिये यह जिज्ञासा का विषय है ।
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सप्ततिका प्रकरण
मोहनीय कर्म के पन्द्रह सत्तास्थानों का गुणस्थान, काल सहित
विवरण इस प्रकार है
८६
सत्ता स्थान
२५
२७
२६
२४
२३
૧૨
२१
१३
१२
११
४
३
२
१
गुणस्थान
१ से ११
पहला व
तीसरा
१
३ से ११
४ से ७
४ से १७
४ से ११
वाँ
"
"
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11
"
नौ व reat
जघन्य काल
अन्तर्मुहूर्त
हम का असं० भाग
अन्तर्मुहुर्त
अन्तर्मुहूर्त
23
J3
ני
20
12
"
門
"
| साधिक १३२ सागर
पल्य का असंख्यातवां माग
देशोन अपार्थ पु० परावर्त
| १३२ सागर
अन्तर्मुहूर्त
साविक ३३ सम्र
अन्तर्मुहूतं
"P
दी समय कम दो आवली यो समय कम दो आवली
अन्तर्मुहूर्त
अन्तर्मुहूर्त
12
उत्कृष्टकाल
JS
"
A
כו
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1
षष्ठ कर्म ग्रन्थ
इस प्रकार मोहनीय कर्म के पश्चादानुपूर्वी से बन्ध और सत्ता स्थानों तथा पूर्वानुपूर्वी से उदयस्थानों को बतलाने के बाद अब इनके भंग और अवान्तर विकल्पों का निर्देश करते हैं। सबसे पहले बन्धस्थानों का निरूपण करते हैं।
छबायोस च इगवोस सत्तरस तरसे दो दो । नवबंध वि दोन्नि उ एक्केषकमओ परं भंगा || १४ ||
शब्दार्थ –छ छह, ब्धावी बाईस के बन्धस्थान के, चचचार, इगवी से इक्कीस के बन्धस्थान के, लसरत – सबह के बंधस्थान के सेरले - तेरह के बंघस्थान के वो बो—दो-दो, नवबंधणेनी के बन्धस्थान के, थिमी, दोलित – दो विकल्प, एक्केषकएक-एक, अओ - इससे, परं- आगे, भंगा-मंग ।
—
८७
गाया - बाईस प्रकृतिक बन्धस्थान के छह, इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान के चार, सत्रह और तेरह प्रकृतिक बंधस्थान के दो-दो, नौ प्रकृतिक बंधस्थान के भी दो भंग हैं । इसके आगे पाँच प्रकृतिक आदि बंधस्थानों में से प्रत्येक का एक-एक भंग है ।
विशेषार्थ - इस गाथा में मोहनीय कर्म के बंधस्थानों में से प्रत्येक स्थान के यथासंभव बनने वाले भंगों की संख्या का निर्देश किया है।
पूर्व में मोहनीय कर्म के बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक, इस प्रकार से दस बंधस्थान बतलाये हैं । उनमें से यहाँ प्रत्येक स्थान के होने वाले भंग-विकल्पों को बतलाते हुए सर्वप्रथम बाईस प्रकृतिक बंधस्थान के छह भंग बतलाये हैं - छब्बावीसे । अनन्तर क्रमशः इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान के चार भंग, सह प्रकृतिक बंस्थान के दो भंग, तेरह प्रकृतिक बंधस्थान
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सप्ततिका प्रकरण
के दो भंग, नो प्रकृतिक बंधस्थान के दो भंग, पाँच प्रकृतिक बंधस्थान का एक भंग, चार प्रकृतिक बंधस्थान का एक भङ्ग, तीन प्रकृतिक बंधस्थान का एक भंग, दो प्रकृतिक बंधस्थान का एक भंग और एक प्रकृतिक बंधस्थान का एक भंग होता है । जिसका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है ।
५६
बाईस प्रकृतिक बंधस्थान में मिथ्यात्व, सोलह कषाय, तीन वेदों में से कोई एक वेद, हास्य-रति युगल और शोक अरति युगल, इन दो युगलों में से कोई एक युगल और का, इन प्रकृतियों का ग्रहण होता है । यहाँ छह भंग होते हैं । जो इस प्रकार हैं कि हास्य- रति युगल और शोक अरति युगल, इन दो युगलों में से किसी एक युगल को मिलाने से बाईस प्रकृतिक बंधस्थान होता है । अतः ये दो भंग हुए। एक भंग हास्य- रति युगल सहित वाला और दूसरा भंग अरति-शोक युगल सहित वाला ये दोनों भंग भी तीनों वेदों के विकल्प से प्राप्त होते हैं, अतः दो को तीन से गुणित कर देने पर छह भंग हो जाते हैं।
उक्त बाईस प्रकृतिक बंधस्थान में से मिथ्यात्व को घटा देने पर इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है । क्योंकि नपुंसक वेद का बंत्र मिथ्यात्व के उदयकाल में होता है और सासादन सम्यग्दृष्टि को मिथ्यात्व का उदय नहीं होता है । स्त्रीवेद और पुरुषवेद, इन दो
१ खम्बादीसे चदु इगिवीसे दो हो हवंति छट्ठोत्ति एक्क्क पदोमंगो बंधट्ठाणेसु
मोहस्स ||
-गो० कर्मकाण्ड, गा० ४६७
ह्रासरइअरइलोगाण बंधया आणवं दुहा सच्चे " बेयविमज्जता पुण दुगङ्गवीसा छहा चहा ||
-- पंचसंग्रह सप्ततिका, गा० २०
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
वेदों में से कोई एक वेद कहना चाहिए । अतः यहाँ दो युगलों को दो वेदों से गुणित कर देने पर चार भंग होते हैं।
इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान में से अनन्तानुबंधी चतुष्क को घटा देने पर सत्रह प्रकुलिक बंघस्थान होता है। इसके बन्धक तीसरे और चौथे गुणस्थानवी जीव हैं। अनन्तानुबंधी कषाय का उदय नहीं होने से इनको स्त्रीवेद का बंध नहीं होता है। अतः यहाँ हास्य-रति मुगल और शोक-अरति युगल, इन दो युगलों के विकल्प से दो भंग होते हैं।
तेरह प्रकृतिक बंधस्थान में भी दो भंग होते हैं। यह बंधस्थान सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान में से अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क के कम करने दे पात होता है । यहाँ पुस्पलेट का ही बंध होता है अत: दो गुगलों के निमित्त से दो ही भंग प्राप्त होते हैं।
तेरह प्रकृतिक बंधस्थान में से प्रत्याख्यानावरण चतुष्क के कम करने पर नौ प्रकृतिक बंधस्थान होता है। यह स्थान छठे, सातवें और आठवे-प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण-गुणस्थान में पाया जाता है । यहाँ इतनी विशेषता है कि अरति और शोक का बंध प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही होता है, आगे नहीं। अत: प्रमत्तसंयत गुणस्थान में इस स्थान के दो भंग होते हैं, जो पूर्वोक्त हैं तथा अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण में हास्य-रति रूप एक ही भंग पाया जाता है।
पाँच प्रकृतिक बंधस्थान उक्त नौ प्रकृतिक बंधस्थान में से हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, इन चार प्रकृतियों को कम करने से होता है । यहाँ १ नवबंधके वो भंगी तौ च प्रमत्ते द्वापि दृष्टव्यो, अप्रमत्तापूर्वकरणयोस्त्वेक एव मंग: तत्रारति-शोकरूपस्य मुगलस्य बन्धासम्मवात् ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १६४
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सप्ततिका प्रकरण
एक ही भंग होता है । क्योंकि इसमें बंधने वाली प्रकृतियों के विकल्प नहीं हैं। इसी प्रकार बंधने वाली प्रकृतियों के विकल्प नहीं होने से चार, तीन, दी और एक प्रकृतिक बंधस्थानों में भी एक-एक ही विकल्प होता है— एक्केक्कमओ परं भंगा।
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इस प्रकार मोहनीय कर्म के दस बंधस्थानों के कुल भंग ६+४+ २+२+२+१+१+१+१+१= २१ होते हैं ।
मोहनीय कर्म के दस बंधस्थानों का निर्देश करने के बाद अब आगे की तीन गाथाओं में इन बंधस्थानों में से प्रत्येक में प्राप्त होने वाले उदयस्थानों को बतलाते हैं ।
मोहनीय कर्म के बंधस्थानों में उदयस्थान
बस बावीसे नव इक्कयोस सत्ताइ उपयठाणाई । छाई नव सत्तरसे तेरे पंचाइ अट्ठव ॥ ११५ ॥ वत्तारिमा नवबंधगेसु उनकोस सत्त उदयंसा । पंचविहबंधगे पुण उबओ दोन्हं मुणेयब्यो ॥१॥ इत्तो उबंधाई इषकेषकुवया हवति सव्ये वि । बंधोवरमे वि तहा उदयाभावे वि या होज्जा ॥१७॥
शब्दार्थ - सदस पर्यन्त, वाघोले- बाईस प्रकृतिक बंधस्थान में, तव नौ तक, इक्कवीस - इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान में, ससाइ - सात से लेकर, उदयठाणाई – उदयस्थान, छाई नव छह से नौ तक, सतरसे सत्रह प्रकृतिक बंबस्थान में, तेरे तेरह प्रकृतिक बंधस्थान में पंचाइ— पांच से लेकर अट्ठव - आठ तक ।
-
-
धत्तारिमाह-- चार से लेकर नवयंगे नौ प्रकृतिक बंध स्थानों में, उफ्कोस - उत्कृष्ट, सत्त-सात तक, उदयंसा--उदयस्थान, पंच निबंध- पाँच प्रकृतिक बंधस्थान में, पुण— तथा, उदो-उदय, बोहं दो प्रकृति का, पुणे – जानना चाहिए ।
TTE
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षष्ठ कर्म प्रत्य
इसो— इसके बाद चचयंबाई-चार आदि प्रकृतिक बंधस्थानों में, इक्कुदया – एक एक प्रकृति के उदय वाले, हवंति - होते हैं, सब्जेवि - सभी अंधोवरमे-बंध के अभाव में, विभी, सहर उसी प्रकार, उवयाभावे - - उदय के अभाव में, वि-मी, वा - विकल्प, होज्जा — होते है ।
"
गाथा - बाईस प्रकृतिक बंधस्थान में सात से लेकर दस तक इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान में सात से लेकर नो तक, सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान में छह से लेकर नौ तक और तेरह प्रकतिक बंधन में पाँच से लेकर आठ ---
नौ प्रकृतिक अंधस्थान में चार से लेकर उत्कृष्ट सात प्रकृतियों तक के चार उदयस्थान होते हैं तथा पाँच प्रकृतिक बंधस्थान में दो प्रकृतियों का उदय जानना चाहिये ।
इसके बाद ( पाँच प्रकृतिक बंधस्थान के बाद ) चार आदि ( ४,३,२.१ ) प्रकृतिक बंधस्थानों में एक प्रकृति का उदय होता है । बंध के अभाव में भी इसी प्रकार एक प्रकृति का उदय होता है। उदय के अभाव में भी मोहनीय की सत्ता विकल्प से होती है।
विशेषार्थ - - पूर्व में मोहनीय कर्म के बाईस, इक्कीस आदि प्रकृतिक दस बंधस्थान बतलाये हैं। यहां तीन गाथाओं में उक्त स्थानों में से प्रत्येक में कितनी कितनी प्रकृतियों का उदय होता है, इसको स्पष्ट किया है।
सर्वप्रथम बाईस प्रकृतिक बंधस्थान में उदयस्थानों का कथन करते हुए कहा है-सात प्रकृतिक, आठ प्रकृतिक, नो प्रकृतिक और दस प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान हैं। जिनका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है ।
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सप्ततिका प्रकरण
सात प्रकृतिक उदयस्थान इस प्रकार है कि एक मिध्यात्व, दूसरी अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि में से कोई एक तीसरी प्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि में से कोई एक चौथी संज्वलन क्रोध आदि में से कोई एक पाँचवीं छठी रति अथवा हास्य, रति के स्थान पर अरति शोक और सातवीं तीनों वेदों में से कोई एक वेद, इन सात प्रकृतियों का उदय बाईस प्रकृतियों का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि जीव को नियम से होता है।
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यहाँ चौबीस भंग होते हैं। वे इस प्रकार हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारों प्रकृतियाँ उदय की अपेक्षा परस्पर विरोधनी होने से इनका उदय एक साथ नहीं होता है । अतः क्रोधादिक के उदय रहते मानादिक का उदय नहीं होता किन्तु किसी एक प्रकार के क्रोध का उदय रहते, उससे आगे के दूसरे प्रकार के सभी क्रोधों का उदय अवश्य होता है । जैसे कि अनन्तानुबंधी क्रोध का उदय रहते अप्रत्याख्याना वरण आदि चारों प्रकार के क्रोधों का उदय एक साथ होता है । अप्रत्याख्यातावरण कोष के उदय रहते प्रत्याख्यानावरण आदि तीनों प्रकार के क्रोधों का उदय रहता है । प्रत्याख्यानावरण क्रोध के उदय रहते दोनों प्रकार के क्रोधों का उदय एक साथ रहता है और संज्वलन क्रोध का उदय रहते हुए एक ही क्रोध उदय रहता है। इस तरह यहाँ सात प्रकृतिक उदयस्थान में अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि तीनों कोवों का उदय होता है । इसी प्रकार अप्रत्यरूपानावरण मान का उदय रहते तीन मान का उदय होता है, अप्रत्याख्यानावरण माया का उदय रहते तीन माया का उदय होता है तथा अप्रत्याख्यानावरण लोभ का उदय रहते तीन लोभ का उदय होता है
उक्त क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चार भंगों का उदय स्त्रीवेद के साथ होता है और यदि स्त्रीवेद के बजाय पुरुषवेद का
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उदय हो तो पुरुष वेद के उदय के साथ होता है और यदि नपुंसक वेद का उदय है तो उसके साथ इन तार का बना होता है । इस प्रकार प्रत्येक वेद के उदय के साथ चार-चार भंग प्राप्त हो जाते हैं, जो कुल मिलाकर बारह होते हैं । ये बारह भंग हास्य और रति के उदय के साथ भी होते हैं और यदि हास्य और रति के स्थान में शोक और अरति का उदय हुआ तो उनके साथ भी होते हैं । इस प्रकार बारह को दो से गुणा करने पर चौबीस भंग हो जाते हैं।
पूर्व में बताई गई चौवीस भंगों की गणना इस प्रकार भी की जा सकती है वि हास्य-रति युगल के साथ स्त्री वेद का एक भंग तथा शोक-अरति युगल के साथ स्त्रीवेद का एक भंग, इस प्रकार स्त्रीवेद के साथ दो भंग तथा इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुंसक वेद के साथ भी दो-दो भंग होंगे। कुल मिलाकर ये छह भंग हुए। ये छहों भंग, कोष के उदय में क्रोध के साथ होंगे। क्रोध के बजाय मान का उदय होने पर मान के साथ होंगे । मान के स्थान पर माया का उदय होने पर माया के साथ भी होंगे और माया के स्थान पर लोभ का उदय होने पर लोभ के साथ भी होंगे । इस प्रकार से पूर्वोक्त छहों भंगों को क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार से गुणित करने पर कुल चौबीस भंग हुए । अर्थात् क्रोध के छह भंग, मान के छह भंग, माया के छह भंग और लोभ के छह भंग । यह एक चौबीसी हुई।
इन सात प्रकृतियों के उदय में भय, जुगुप्सा और अनन्तानुबंधी चतुष्क में से कोई एक कषाय, इस प्रकार इन तीन प्रकृतियों में से क्रमशः एक-एक प्रकृति के उदय को मिलाने पर आठ प्रकृतिक उदय तीन प्रकार से प्राप्त होता है । सात प्रकृतिक उदय में भय को मिलाने से पहला आठ प्रकृतियों का उदय, सात प्रकृतिक उदय में जुगुप्सा को मिलाने से दूसरा आठ प्रकृतियों का उदय और अनन्तानुबंधी क्रोधादि
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सप्ततिका प्रकरण
में से किसी एक को मिलाने से तीसरा आठ प्रकृतियों का उदय, इस तरह आठ प्रकृतिक उदयस्थान के तीन प्रकार समझना चाहिए । अतः इन भंगों की तीन चौवोसियाँ होती हैं । वे इस प्रकार हैं
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पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के उदय में भय का उदय मिलाने पर आठ प्रकृतियों के उदय के साथ भंगों की पहली चौवीसी हुई । पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के उदय में जुगुप्सा का उदय मिलाने पर आठ के उदय के साथ भंगों की दूसरी चौबीसी तथा पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के उदय में अनन्तानुबंधी क्रोधादि में से किसी एक प्रकृति के उदय को मिलाने पर आठ के उदय के साथ भंगों की तीसरी चौबीसी प्राप्त होती है । इस प्रकार आठ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते भंगों की तीन चौबीसी होती हैं।
सात प्रकृतिक उदयस्थान में और भय व जुगुप्सा के उदय से प्राप्त होने वाले आठ प्रकृतिक उदयस्थानों में अनन्तानुवन्धी कषाय चतुष्क को ग्रहण न करने तथा बन्धावलि के बाद ही अनन्तानुबन्धी के उदय को मानने के सम्बन्ध में जिज्ञासाओं का समाधान करते हैं । उक्त जिज्ञासाओं सम्बन्धी आचार्य मलयगिरि कृत टीका का अंश इस प्रकार है-
"मनु मिथ्यादृष्टेरवश्यमनन्सानुबन्धिनामुदयः सम्भवति तत् कथमिह मिध्यादृष्टिः सप्तोदये अष्टोबये वा कस्मिरिदन्तानुबन्ध्युदयरहितः प्रोक्तः ? उच्यते--इह सम्यगृष्टिना सता केनचित् प्रथमतोऽनन्तानुबन्धिनो विसंयोजिताः, एसा च स विश्रात्तो न मिध्यात्वाविक्षयाथ उद्युक्तवाम् तथाविधसामन्यभावात् ततः कालान्तरे मिथ्यात्वं गतः सन् मिध्यात्वरमयती सूयोऽप्यनसानुबन्धिनो बध्नाति ततोबरपालिका यावत् नाथाप्यतिक्रामति तावत् तेषामुवयो न भवति, बन्धावलिकायां स्थतिक्रान्तायां भवेदिति ।
१ सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १६५
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प्रश्न – जबकि मिथ्यादृष्टि जीव के अनन्तानुवन्धी चतुष्क का उदय नियम से होता है, तब यहाँ सात प्रकृतिक उदयस्थान में तथा भय या जुगुप्सा में से किसी एक के उदय से प्राप्त होने वाले पूर्वोक्त दो प्रकार के आठ प्रकृतिक उदयस्थानों में उसे अनन्तानुबन्धी के उदय से रहित क्यों बताया है ?
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समाधान - जो सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धो चतुष्क की विसंयोजना करके रह गया। क्षपणा के योग्य सामग्री न मिलने से उसने मिथ्यात्व आदि का क्षय नहीं किया । अनन्तर कालान्तर में वह मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ अतः वहाँ उसने मिध्यात्व के निमित्त से पुनः अनन्तानुarat चतुष्क का वध किया। ऐसे जीव के एक आवलिका प्रमाणकाल तक अनन्तानुबन्धो का उदय नहीं होता किन्तु आवलिका के व्यतीत हो जाने पर नियम से होता है । अत: मिथ्यादृष्टि जीव के अनन्तानुबन्धी के उदय से रहित स्थान बन जाते हैं। इसी कारण से सात प्रकृतिक उदयस्थान में और भय या जुगुप्सा के उदय से प्राप्त होने वाले आठ प्रकृतिक उदयस्थान में अनन्तानुबन्धी का उदय नहीं बताया है ।
"नमु कर्य बन्धावलिकातिक्रमेऽप्युदयः संभवति ? पतोऽबाधा कालक्षये सत्युदयः, अबाधाकालश्चानन्तानुबन्धिनां जघन्येनान्तर्मुहर्तम् उत्कर्षेण तु चत्वारि वर्ष सहस्राणीति, नंष शेषः, यतो बाघसमयावारभ्य तेषां तावत् सत्ता भवति, सत्तायां च सत्यां बधे प्रवर्तमाने तदग्रता तद्मतायां च शेष समानजातीयप्रकृतिवलिक सहकान्तिः संकमध्च दलिकं पद्मप्रकृतिरूपतया परिणमते ततः संक्रमालिकायामतीतायामुनयः, ततो बघावलिकायामतीतायामुयोऽभिधीयमानो न विरुध्यते । १
प्रश्न – किसी भी कर्म का उदय अबाधाकाल के क्षय होने पर होता है और अनन्तानुबन्धी चतुष्क का जघन्य अबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त १ सप्ततिका प्रकरण टीका,
पृ० १६५
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सप्ततिका प्रकरण
तथा उत्कृष्ट अबाधाकाल चार हजार वर्ष है। अतः बंधावलि के बाद ही अनन्तानुबन्धी का दार से सम्भत है?
समाषाम-बंध समय से ही अनन्तानुबन्धी की सत्ता हो जाती है और सत्ता के हो जाने पर प्रवर्तमान बन्ध में पतद्ग्रहता आ जाती है और पतद्ग्रहाने को प्राप्त हो जाने पर शेष समान जातीय प्रकृति दलिकों का संक्रमण होता है जो पतद्ग्रह प्रकृति रूप से परिणत हो जाता है जिसका संक्रमावलि के बाद उदय होता है । अत: आवलिका के बाद अनन्तानुबन्धी का उदय होने लगता है, अत: यह कहना बिरोध को प्राप्त नहीं होता है। ___ उक्त शंका समाधान का यह तात्पर्य है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्क विसंयोजना प्रकृति है और वैसे तो विसंयोजना क्षय ही है, किन्तु विसंयोजना और क्षय में यह अन्तर है कि विसंयोजना के हो जाने पर कालान्तर में योग्य सामग्री के मिलने पर विसंयोजित प्रकृति की पुन: सत्ता हो सकती है विन्नु क्षय को प्राप्त प्रकृति की पुनः सत्ता नहीं होती है। सत्ता दो प्रकार से होती है -बंध से और संक्रम से, किन्तु बंध और संक्रम में अन्योन्य सम्बन्ध है । जिस समय जिसका बंध होता है, उस समय उसमें अन्य सजातीय प्रकृति दलिक का संक्रमण होता है । ऐसी प्रकृति को पतद्ग्रह प्रकृति कहते हैं । पतद्ग्रह प्रकृति का अर्थ है आकर पड़ने वाले कर्मदल को ग्रहण करने वाली प्रकृति । ऐसा नियम है कि संक्रम से प्राप्त हुए कर्म-दल का मंक्रमाबलि के बाद उदय होता है। जिससे अनन्तानुवन्धी का एक आवली के बाद उदय मानने में कोई आपत्ति नहीं है । यद्यपि नवीन बंधावलि के बाद अबाधाकाल के भीतर भी अपकर्षण हो सकता है और यदि ऐसी प्रकृति उदय-प्राप्त हुई हो तो उम अंपर्पित कर्मदल का उदयसमय से निरपेक्ष भी हो सकता है, अत: नवीन बंधे हुए कर्मदल का
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प्रयोग विशेष से अबाबाकाल के भीतर भी उदीरणोदय हो सकता है, इसमें कोई बाधा नहीं आती है ।
पहले जो सात प्रकृतिक उदयस्थान बताया है, उसमें भय और जुगुप्सा के या भय और अनन्तानुबन्धी के अथवा जुगुप्सा और अनन्तानुबन्ध के मिलाने पर नौ प्रकृतिक उदयस्थान तीन प्रकार से प्राप्त होता है। इन तीन विकल्पों में भी पूर्वोक्त कम से भंगों की एकएक चौबीसी होती है। इस प्रकार नौ प्रकृतिक उदयस्थान में भी भंगों की तीन चौबीसी जानना चाहिए।
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पूर्वोक्त सात प्रकृतिक उदयस्थान में एक साथ भय, जुगुप्सा और अनन्तानुबन्ध के मिलाने पर दस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से भंगों की एक चौबीसी होती है ।
इस प्रकार सात प्रकृतिक उदयस्थान की एक चौबीसी, आठ प्रकृतिक उदयस्थान की तीन, नौ प्रकृतिक उपयस्थान की तीन और दस प्रकृतिक उदयस्थान की एक चौबीसी होती है। कुल मिलाकर बाईस प्रकृतिक बंस्थान में आठ चौबीसी होती हैं- सर्वसंख्या द्वाविंशतिबंधे अष्टौ चतुर्विंशतयः
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वाईस प्रकृतिक बंस्थान में उदवस्थानों का निर्देश करने के बाद अब इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान में उदयस्थान बतलाते हैं कि'नव इक्कवीस सत्ताइ उदयठाणाई - अर्थात् इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान में सात प्रकृतिक, आठ प्रकृतिक और नौ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान हैं। वे इस प्रकार है--इनमें अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन प्रकार की क्रोधादि चार कषायों में से कोई एक जाति की चार कषायें, तीन वेदों में से कोई एक वेद और दो युगलों में से कोई एक युगल, इन सात प्रकृतियों का उदय इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान में नियम से होता है। यहाँ भी पूर्वोक्त
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सप्ततिका प्रकरण
क्रम से भंगों को एक चौबीसी प्राप्त होती है। इस सात प्रकृतिक उदयस्थान में भय के या जुगुप्सा के मिला देने पर आठ प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकार से प्राप्त होता है । इस प्रकार आठ प्रकृतिक उदयस्थान के दो विकल्प होते हैं। यहाँ एक विकल्प में एक चौबीसी और दूसरे विकल्प में एक चौबीसी, इस प्रकार आठ प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की दो चौबीसी होती हैं । नौ प्रकृतिक उदयस्थान पूर्वोक्त सात प्रकृतिक उदयस्थान में युगपद भय और जुगुप्सा को मिलाने से प्राप्त होता है। यह एक ही प्रकार का होने से इसमें भंगों की एक चौबीसी प्राप्त होती है।
इस प्रकार इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान में सात प्रकृतिक उदयस्थान की एक, आठ प्रकृतिक उदयस्थान की दो और नौ प्रकृतिक उदयस्थान की एक, कुल मिलाकर भंगों को चार चौबीसी होती हैं।
यह इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान सासादन सम्यग्दृष्टि जीव के ही होता है और सासादन सम्यग्दृष्टि के दो भेद हैं-श्रेणिगत और अश्रेणिगत । जो जीव उपशमणि से गिर कर सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है, उसे श्रेणिगत सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं तथा जो उपशम सम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणि चढ़ा ही नहीं किन्तु अनन्तानुबन्धी के उदय से सासादन भाव को प्राप्त हो गया, वह अश्रेणिगत सासादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है । यहाँ जो इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान में सात, आठ और नौ प्रकृतिक, यह तीन उदयस्थान बतलाये हैं के अश्रेणिगत सासादन सम्यग्दृष्टि जीव की अपेक्षा समझना चाहिये ।
१ अयं पविशतिबंधः सासादने प्राप्यते । सासादनश्च द्विधा, थेणिगतो
ऽन्ने णिगतश्च । तपाणिगत सासादनमाश्रित्मामूनि सप्तादीनि उदयस्थानान्यव गन्तव्यानि ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १६६
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श्रेणिगत सासादन सम्यग्दृष्टि जीव के विषय में दो कथन पाये जाते हैं । कुछ आचार्यों का मत है कि जिसके अनन्तानुबंधी की सत्ता है, ऐसा जीव भी अपशमणि को प्राप्त होता है। नन आमार्गों के मत से अनन्तानुबन्धी की भी उपशमना होती है। जिसकी पुष्टि निम्नलिखित गाथा से होती है
अणदंसणऍसित्पीवेयछक्कं च पुरिसावेयं च ।। अर्थात् पहले अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम करता है । उसके बाद दर्शन मोहनीय का उपशम करता है, फिर क्रमश: नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय और पुरुषवेद का उपशम करता है।
ऐसा जीव श्रेणि से गिरकर सासादन भाव को भी प्राप्त होता है, अत: इसके भी पूर्वोक्त तीन उदयस्थान होते हैं।
किन्तु अन्य आचार्यों का मत है कि जिसने अनन्तानुबंधी की विसंयोजना कर दी, ऐसा जीव ही उपशमश्रेणि को प्राप्त होता है, अनन्तानुबंधी की सत्ता वाला नहीं। इनके मत से ऐसा जीव उपशमश्रेणि से गिरकर सासादन भाव को प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि उसके अनन्तानुबंधी का उदय संभव नहीं है और सासादन सम्यक्त्व की
-- ... --...... - १ (क) केत्रिदाहुः-अनन्तानुबधिसत्कर्मसहितोऽप्युपशमणि प्रतिपद्यते, तेषां मतेनानन्तानुबंधिनामप्युपशमना भवति ।
--सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ. १६६ (ख) दिगम्बर परम्परा में अनन्तानुबंधी की उपशमना वाले मत का षट्
खंडागम, कषायप्रामृत और उसकी टीकाओं में उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु गो० कर्मकाण्ड में इस मत का उल्लेख किया गया है। वहां उपशमश्रण में २८, २४ और २१ प्रकृतिक, तीन सत्तास्थान बतलाये
है-अउचउरेमकावीस उपसमसेडिम्मि ॥५११॥ २ आवश्यक नियुक्ति, गा० ११६
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सप्ततिका प्रकरण
प्राप्ति तो अनन्तानुबंधा के उदय से होती है, अन्यथा नहीं। कहा . भी है-श्रणंतरणुबंषुषपहियसम सासणभावो न संभवद । __ अर्थात् अनन्तानुबंधी के उदय के बिना सासादन सम्यक्त्व की प्राप्ति होना संभव नहीं है।
जिज्ञासु प्रश्न करता है कि--
अयोच्यते-या मिष्यावं प्रत्यभिमुखो म मायापि मिप्यास्त्र प्रतिपाति तवानीमनम्तानुबध्युपमरहितोऽपि सासापनस्तेषां मतेन भविष्यतीति लिमनायुतम् ? तरपुस्तम्, एवं सति तस्य पवादीनि नवपलानि पवायुश्यत्वामामि भवेयुः न भवन्ति, पुत्र प्रतिषेपात, तरानभ्युपगमाय, सस्मानमन्तातु. बग्युबमरहितः सासायनो म भवतीत्यवायं प्रत्येयम् ।' ___ प्रश्न-जिस समय कोई एक जीव मिथ्यात्व के अभिमुख तो होता है किन्तु मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता है, उस समय उन आचार्यों के मतानुसार उसके अनन्तानुबंधी के उदय के बिना भी सासादन गुणस्थान की प्राप्ति हो जायेगी । ऐसा मान लिया जाना उचित है ।
समाधान-यह मानना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसके छह प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, आठ प्रकृतिक और नौ प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान प्राप्त होते हैं । किन्तु आगम में ऐसा बताया नहीं है और वे आचार्य भी ऐसा नहीं मानते हैं । इससे सिद्ध है कि अनन्तानुबंधी के उदय के बिना सासादन सम्यक्स्व की प्राप्ति नहीं होती है।
"अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करके जो जीव उपशमणि पर मढ़ता है, वह गिर कर सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता।" यह कथन आचार्य मलयगिरि की टीका के अनुसार किया गया है, तथापि कर्मप्रकृति आदि के निम्न प्रमाणों से ऐसा ज्ञात होता है कि ऐसा जीव भी सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है । जैसा कि कर्मप्रकृति की पूर्णि में लिखा है
चरित्वसमणं कार्डकामो असि श्रेयगसम्माविष्टी तो पुष्पं अगंतागुबंधिणो १ सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १६६
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नियमा विसंजोएति । एएन. कारणेप्य विरयागं अगंतान अधिनिसंजोयना भन्नति । 1
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अर्थात् जो बदक सम्यग्दृष्टि जीव चारित्र मोहनीय की उपामना करता है, वह नियम से अन चतुष्क की विसंयोजना करता है और इसी कारण से विरत जीवों के अनन्तानुबन्धों की विसं योजना कही गई है। आगे उसी के मूल में लिखा है
आसाग वा वि गच्छेन्ना |
अर्थात् - ऐसा जीव उपशमश्रेणि से उतर कर सासादन गुणस्थान को भी प्राप्त होता है । उक्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि कर्मप्रकृति कर्त्ता का यही मत रहा है कि अनन्तानुबंधी की विसंयोजना किये बिना उपशमश्रेणि पर आरोहण करना संभव नहीं है और वहाँ से उतरने वाला जीव सासादन गुणस्थान को भी प्राप्त करता है | पंचसंग्रह के उपशमना प्रकरण से भी कर्मप्रकृति के मत की पुष्टि होती है। लेकिन उसके संक्रमप्रकरण से इसका समर्थन नहीं होता है । वहाँ सासादन गुणस्थान में २१ में २५ का ही संक्रमण बतलाया है । 3
MA
सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान के रहते 'छाई नय सत्तर से' - यह
१ कर्मप्रकृति श्रूणि उपशम गाथा ३०
२ कर्मप्रकृति उपशम गा० ६२
३ दिगम्बर संप्रदाय में षट्खंडागम और कशयप्राभूत की परम्परायें हैं । षट्खंडागम की परम्परा के अनुसार उपशमणि से च्युत हुआ जीब सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता है । वीरसेन स्वामी ने बवला टीका में भगवान पुष्पदन्त भूतबलि के उपवेश का इसी रूप से उल्लेख किया है - " भूद बलि भयवंतस्सुषए सेण उपसमसेढ़ीदो मोदिष्णो ण सासपत्तं परिवज्जदि । ० ० पृ० १३१
- शीब ०
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सप्ततिका प्रकरण
प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, आठ प्रकृतिक और नौ प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान होते हैं।
सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान तीसरे मिश्र और चौथे अविरत सम्यक्दृष्टि इन दो गुणस्थानों में होता है। उनमें से मिश्र गुणस्थान में सात प्रकृतिक, आठ प्रकृतिक, नौ प्रकृतिक, ये तीन उदयस्थान होते हैं ।"
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सात प्रकृतिक उदयस्थान में अनन्तानुबंधी को छोड़कर अप्रत्या ख्यानावरण आदि तीन प्रकारों के क्रोधादि कषाय चतुष्कों में से कोई एक क्रोधादि, तीन वेदों में से कोई एक वेद, दो युगलों में से कोई एक युगल और सभ्य मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियों का नियम से उदय रहता है। यहाँ भी पहले के समान भंगों की एक चौबीसी प्राप्त होती है । इस सात प्रकृतिक उदयस्थान में भय या जुगुप्सा के मिलाने से आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह स्थान दो प्रकार
किन्तु कषायप्रामृत की परम्परा के अनुसार जो जीव उपशमणि पर चढ़ा है, वह उससे च्युत होकर सासादन गुणस्थान को भी प्राप्त हो सकता है । तथापि कषायप्रामृत की चूर्णि में अनन्तानुबंधी उपशमना प्रकृति है, इसका निषेध किया गया है और साथ में यह भी लिखा है कि वेदक सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबंधी चतुष्क को विसंयोजना किये बिना कषायों को उपशमाता नहीं है । मूल कषायप्राभृत से भी इस मत की पुष्टि होती है ।
सप्तदशबन्धका हि द्वये
१
सम्यग्मिथ्यादृष्टयोऽविरतसम्यग्दृष्ट्यदच । तत्र सम्यग्मिथ्यादृष्टीनां त्रीणि उदयस्थानानि तद्यथा— सप्त, अष्ट, नव । -सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १६६ २ तत्रान्तानुबन्धियः त्रयोऽन्यतमे क्रोधादयः त्रयाणां वेदानामन्यतमो वैद:, त्रयोर्युगलयोरन्यतरद् युगलम् सम्यग्मिथ्यात्वं चेति सप्तानां प्रकृतीनाभुदयः सम्यग्मिथ्यादृष्टिषु ध्रुवः ।
- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १६६
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से प्राप्त होता है अत: यहां दो चौबीसी प्राप्त होती हैं । उक्त सात प्रकृतिक उदयस्थान में भय और जुगुप्सा को युगपद् मिलाने से नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ विकल्प न होने से एक चौबीसी होती है। __इस प्रकार मिश्र गुणस्थान में सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान के रहते सात प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की एक चौबीसी, आठ प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों को दो चौबीसी और नौ प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की एक चौबीसी, कुल मिलाकर चार चौबीसी प्राप्त होती हैं।
मिश्र गुणस्थान में सत्रह प्रकृतिक बंध में उदयस्थानों के विकल्प बतलाने के बाद अब चौथे गुणस्थान में उदयस्थान बतलाते हैं। चौथे अविरत सम्बष्टि गुणस्थान में सत्रह प्रकृतिक बंध होते हुए छह प्रकृतिक, वात प्रकृतिक, आर प्रकृतिक और नौ प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान होते हैं। वे इस प्रकार जानना चाहिए कि--
अनन्तानुबंधी को छोड़कर शेष तीन कषाय प्रकारों के कोषादि चतुष्क में से कोई एक कषाय, तीन वेदों में से कोई एक वेद, दो युगलों में से कोई एक युगल, इन छह प्रकृतियों का अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में निश्चित रूप से उदय होने से छह प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसमें भंगों की एक चौबीसी होती है।
इस छह प्रकृतिक उदयस्थान में भय या जुगुप्सा या सम्यक्त्वमोहनीय इन तीन प्रकृतियों में से किसी एक प्रकृति के मिलाने पर सात प्रकृतिक उदयस्थान तीन प्रकार से प्राप्त होता है। यहाँ एकएक भेद में एक-एक चौवीसी होती है, अतः सात प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की तीन चौबीसी प्राप्त होती हैं ।
आठ प्रकृतिक उदयस्थान पूर्वोक्त छह प्रकृतिक उदयस्थान में भय और जुगुप्सा अथवा भय और सम्यक्त्वमोहनीय अथवा जुगुप्सा
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सप्ततिका प्रकरण
और सम्यक्त्वमोहनीय इन दो प्रकृतियों के मिलाने से प्राप्त होता है । इस स्थान के तीन प्रकार से प्राप्त होने के कारण प्रत्येक भेद में मंगों की एक-एक चौबीसी होती है। जिससे आठ प्रकृतिक उदयस्थान में नमी की तीन चोली हुई।
उक्त छह प्रकृतिक उदयस्थान में भय, जगप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय, इन तीनों प्रकृतियों को एक साथ मिलाने पर नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इस स्थान में यिवारूप न होने से भंगों की एक चौबीसी बनती है। ___ इस प्रकार चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान में छह प्रकृतिक उदयस्थान की भंगों की एक चौबीसी, सात प्रकृतिक उदयस्थान की भंगों की तीन चौबीसी, आठ प्रकृतिक उदयस्थान की भंगों की तीन चौबीसी और नौ प्रकृतिक उदयस्थान की भंगों की एक चौबोसी, इस प्रकार कुल मिलाकर भंगों की आठ चौबीसी प्राप्त हुई। जिसमें से चार चौबीसी सम्यक्त्वमोहनीय के उदय बिना की होती हैं और चार चौबीसी सम्यक्त्वमोहनीय के उदय साहित की होती हैं। इनमें से जो सम्यक्त्वमोहनीय के उदय बिना की होती हैं, वे उपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिये और जो सम्यक्त्वमोहनीय के उदय सहित की होती हैं, वे वेदक सम्यग्दृष्टि जीबों के जानना चाहिये। ____ अब तेरह प्रकृतिक बंधस्थान के उदयस्थानों के विकल्पों को बतलाते हैं कि 'तेरे पंचाइ अठेव'--तेरह प्रकृतिक बंधस्थान के रहते पांच प्रकृतिक, छह प्रकृतिक, सात प्रकृतिक और आठ प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान होते हैं। उनमें से पहला पाँच प्रकृतिक उदयस्थान इस प्रकार होता है कि प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन प्रकारों के क्रोधादि कषाय चतुष्क में से कोई एक-एक कषाय, तीन वेदों में से कोई एक
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वेद, दो युगलों में से कोई एक युगल, इन पाँच प्रकृतियों का सदैव उदय रहता है ! यह स्थान न मृणाल में होता है। इसमें भंगों की एक बीबीसी होती है । पाँच प्रकृतिक उदयस्थान में भय, जुगुप्सा व सम्यक्त्व मोहनीय, इन तीन प्रकृतियों में से कोई एक प्रकृति को मिलाने से छह प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है। तीन प्रकार से इस स्थान के होने से तीन चौबीसी होती हैं। अनन्तर पाँच प्रकृतिक उदयस्थान में भय और जुगुप्सा या भय और सम्यक्त्वमोहनीय या जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय, इन दो प्रकृतियों को मिलाने पर सात प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है । इस उदयस्थान को तीन प्रकार से प्राप्त होने के कारण तीन चौबीसी प्राप्त हो जाती हैं। आठ प्रकृतिक उदयस्थान पाँच प्रकृतिक उदयस्थान के साथ भय, जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय को युगपद मिलाने से होता है। इस स्थान में विकल्प न होने से यहाँ भंगों की एक चौबीसी होती है ।
इस प्रकार पाँचवें गुणस्थान में तेरह प्रकृतिक बंधस्थान के रहते उदयस्थानों की अपेक्षा एक, तीन, तीन, एक, कुल मिलाकर भंगों की आठ चौबीसी होती हैं। जिनमें चार चौबीसी उपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों तथा चार चौबीसी वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के होती हैं । वेदक सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वमोहनीय के उदय वाली चार चोबीसी होती हैं।
अभी तक बाईस, इक्कीस, सत्रह और तेरह प्रकृतिक बंधस्थानों में उदयस्थानों का निर्देश किया है। अब आगे नौ प्रकृतिक आदि बंधस्थानों में उदयस्थानों का स्पष्टीकरण करते हैं ।
'चत्तारिमा नवबंत्रगेसु उक्कोस सत्त उदयंसा' अर्थात् नो प्रकृतिक बंधस्थान में उदयस्थान चार से प्रारम्भ होकर सात तक होते हैं । यानि नौ प्रकृतिक बंधस्थान में चार प्रकृतिक, पांच प्रकृतिक, छह प्रकृ
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सप्तनिका प्रकरण
तिक और सात प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान हैं । यह बंधस्थान छठे, सातवें और आठवें गुणस्थानों में होता है।
चार प्रकृतिक उदयस्थान में ग्रहण की गई प्रकृतियां इस प्रकार हैं कि संज्वलन कषाय चतुष्क में से कोई एक कषाय, तीन वेदों में से कोई एक बेद, दो युगलों में से कोई एक युगल, इन चार प्रकृतियों का उदय क्षायिक सम्यग्दृष्टियों, औपशमिक सम्यग्दृष्टियों को छठे आदि गुणस्थानों में नियम से होता है । विकल्प नहीं होने से इसमें एक चौबीसी होती है । इसमें भय, जुगुप्सा, सम्यक्त्वमोहनीय इन तीन प्रकृतियों में से किसी एक प्रकृति को क्रम से मिलाने पर पनि प्रकृतिक उदयस्थान तीन प्रकार से प्राप्त होता है। इसमें तीन विकल्प हैं और एक विकल्प की भंगों की एक चौबीसो होने से भंगों की तीन चौबीसी प्राप्त होती हैं । पूर्वोक्त चार प्रकृतिक उदयस्थान में भय और जुगुप्सा, भय और सम्यक्त्वमोहनीय या जुगप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय इन दो-दो प्रकृतियों को कम से मिलाने पर छह प्रकृतिक उदयस्थान तीन प्रकार से प्राप्त होता है और तीन विकल्प होने से एक-एक भेद में भंगों की एक-एक चौवीसी प्राप्त होती है, जिससे छह प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की कुल तीन चौबीसी प्राप्त हुई। फिर चार प्रकृतिक उदयस्थान में भय, जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय इन तीनों को एक साथ मिलाने से सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह सात प्रकृतिक उदयस्थान एक ही प्रकार का है, अतः यहाँ भंगों को एक चौबीसी प्राप्त होती है।
इस प्रकार नौ प्रकृतिक बंधस्थान में उदयस्थानों की अपेक्षा चार प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की एक चौबीसी, पाँच प्रकृतिक उदयस्थानों में भंगों की तीन चौबीसी, छह प्रकृतिक उदयस्थानों में भंगों की तीन चौबीसी और सात प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की एक चौबीसी होने से कुल मिलाकर आठ चौबीसी प्राप्त होती हैं। इनमें से चार
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चौबीसी उपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों के और चार चौबीसी वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के होती हैं ।
पाँच प्रकृतिक बंधस्थान में संज्वलन कोध, मान, माया और लोभ इनमें से कोई एक तथा तीन वेदों में से कोई एक वेद, इस प्रकार दो प्रकृतियों का एक उदयस्थान होता है- पंचविबंधगे पुण उदओ दोहं ।' इस स्थान में चारों कषायों को तीनों वेदों से गुणित करने पर बारह भंग होते हैं । ये बारह भंग नौवें गुणस्थान के पांच भागों में से पहले भाग में होते हैं ।
पाँच प्रकृतिक बंधस्थान के बाद के जो चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक बंस्थान हैं, उनमें एक-एक प्रकृति वाला उदयस्थान होता है । अर्थात् इन उदयस्थानों में से प्रत्येक में एक-एक प्रकृति का उदय होता है--' इत्ती चउबंधाई इक्केककुदया हवंति सम्वे वि।' जिसका स्पष्टीकरण नीचे करते हैं ।
पाँच प्रकृतिक बंघस्थान में से पुरुषवेद का बंधविच्छेद और उदयविच्छेद एक साथ होता है, अतः चार प्रकृतिक बंध के समय चार संज्वलनों में से किसी एक प्रकृति का उदय होता है । इस प्रकार यहाँ चार भंग प्राप्त होते हैं। क्योंकि कोई जीव संज्वलन क्रोध के उदय से श्रेणि आरोहण करते हैं, कोई संज्वलन मान के उदय से, कोई संज्वलन माया के उदय से और कोई संज्वलन लोभ के उदय से श्रेणि चढ़ते हैं। इस प्रकार चार भंग होते हैं ।
यहाँ पर कितने हो आचार्य यह मानते हैं कि बार प्रकृतिक बंध के संक्रम के समय तीन वेदों में से किसी एक वेद का उदय होता है । अतः उनके मत से चार प्रकृतिक बंध के प्रथम काल में दो प्रकृतियों का उदय होता है और इस प्रकार चार कषायों को तोन वेदों से गुणित
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सप्ततिका प्रकरण
करने पर बारह भंग होते हैं। इसी बात की पुष्टि पंचसंग्रह की मूल टीका में भी की गई है--
"पषधषकस्यात्याचनिभागे त्रयाणां वेरामामध्यसमस्य देवस्योगमं केविषिष्यन्ति, रचतुर्विषबंधकस्यापि द्वादश निकोक्यान् जानीहि । ___ अर्थात्--कितने ही आचार्य चार प्रकृतियों का बन्ध करने वाले जीवों के पहले भाग में तीन वेदों में से किसी एक वेद का उदय मानते हैं, अत: चार प्रकृतियों का बन्ध करने वाले जीव के भी दो प्रकृतियों के उदय से बारह भंग जानना चाहिए ।
इस प्रकार उन आचार्यों के मत से दो प्रकृतियों के उदय में चौबीस भंग हुए। बारह भंग तो पांच प्रकृतिक बन्धस्थान के समय के और बारह भंग चा पदक बन्ध साय, इस प्रकार जमीन मंग हुए।
संज्वलन क्रोध के बन्धविच्छेद हो जाने पर तीन प्रकृतिक बन्ध और एक प्रकृतिक उदय होता है। यहाँ तीन भंग होते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ संज्वलन क्रोध को छोड़कर शेष तीन प्रकृतियों में से किसी एक प्रकृति का उदय कहना चाहिए, क्योंकि संज्वलन क्रोध के उदय में संज्वलन क्रोध का बन्ध अवश्य होता है। कहा भी है- या ते बंधई.-जीव जिसका वेदन करता है, उसका बन्ध अवश्य करता है।
इसलिए जब संज्वलन कोध का बन्धविच्छेद हो गया तो उसका उदयविच्छेद भी हो जाता है। इसलिए तीन प्रकृतिक बन्ध के समय
१ इह विजयतुविषबंधसंक्रमकाले त्रयाणां बेदानामन्यतमस्य वेवस्योदयमिच्छन्ति ततस्तन्मतेन पसुविधबंधकस्यापि प्रथमकाले द्वादश विकोदयभंगा लभ्यन्ते ।
-सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १६८
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संज्वलन मान आदि तीनों में से किसी एक प्रकृति का उदय होता है, ऐसा कहना चाहिए।
संज्वलन मान के बन्धविच्छेद हो जाने पर दो प्रकृतिक बन्ध और एक प्रकृतिक उदय होता है । किन्तु वह उदय संज्वलन माया और लोभ में से किसी एक का होता है, अत: यहां दो भंग प्राप्त होते हैं । संज्वलन माया के बन्धविच्छेद हो जाने पर एक संज्वलन लोभ का बन्ध होता है और उसी का उदय । यह एक प्रकृतिक बन्ध और उदयस्थान है । अत: यहाँ उसमें एक भंग होता है। ___ यद्यपि चार प्रकृतिक बन्धस्थान आदि में संज्वलन क्रोध आदि का उदय होता है, अत: भंगों में कोई विशेषता उत्पन्न नहीं होती है, फिर भी बन्धस्थानों के भेद से उनमें भेद मानकर पृथक्-पृथक कथन किया गया है।
इसी प्रकार से बन्ध के अभाव में भी सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में मोहनीय कर्म की एक प्रकृति का उदय समझना चाहिये-'बंधोवरमे वि तहा' इसलिये एक भंग यह हुआ । इस प्रकार चार प्रकृतिक बन्धस्थान आदि में कुल भंग ४+३+३+१+१=११ हुए।
अनन्तर सूक्मसंपराय गुणस्थान के अन्त में मोहल्लीय का उदयविच्छेद हो जाने पर भी उपशान्तमोह गुणस्थान में उसका सत्व पाया जाता है। यहाँ बन्धस्थान और उदयस्थानों के परस्पर संवेष का विचार किया जा रहा है, जिससे गाथा में सत्वस्थान के उल्लेख की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी प्रसंगवश यहाँ उसका भी संकेत किया गया है-'उदयाभावे वि वा होज्जा'-मोहनीय कर्म की सत्ता विकल्प से होती है !
अब आगे की गाथा में दस से लेकर एक पर्यन्त उदयस्थानों में जितने भंग सम्भव हैं, उनका निर्देश करते हैं।
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सप्ततिका प्रकरण
एक्कग छक्केक्कारस वस सत्त चउक्क एक्कगा चेव । एए चउवीसगया चउवीस दुगेक्कमिक्कारा ॥१८॥
शब्दार्थ-एक्कग-एक, छक्फेक्कारस--छह, ग्यारह, दसदल, सस-सात, चउक्क-चार, एककमा--एक, देव-निश्चय से, एए-ये मंग, घजयीसगया-- चौबीस की संख्या वाले होते हैं, चउवोस-चौबीस, दुग-दो के उदय होने पर, इक्कमिक्कारा-एक के उदय में ग्यारह मंग ।
गायार्थ-दस प्रकृतिक आदि उदयस्थानों में कम से एक, छह, ग्यारह, दस, सात, चार और एक, इतने चौबीस विकल्प रूप भंग होते हैं तथा दो प्रकृतिक उदयस्थान में चौबीस और एक प्रकृतिक उदयस्थान में ग्यारह भंग होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में दस प्रकृतिक आदि प्रत्येक उदयस्थानों में चौबीस विकल्प रूप भंगों की संख्या बतलाई है। यद्यपि पहले दस प्रकृतिक आदि उदयस्थानों में कहाँ कितनी भंगों को चौबीसी होती हैं, बतला आये हैं, लेकिन यहां उनकी कुल (सम्पूर्ण) संख्या इस कारण बतलाई है कि जिससे यह ज्ञात हो जाता है कि मोहनीय कर्म के सब उदयस्थानों में सब भंगों की चौबीसी कितनी हैं और फुटकर भंग कितने होते हैं। ___ गाथा में बताई गई भंगों की चौबीसी को संख्या का उदयस्थानों के साथ यथासंख्य समायोजन करना चाहिये। जैसे दस के उदय में एक चौबीसी, नौ के उदय में छह चौबीसी आदि । इसका स्पष्टीकरण नीचे करते हैं। ___ दस प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की एक चौबीसी होती है'एक्कग' । इसका कारण यह है कि दस प्रकृतिक उदयस्थान में प्रकृतिविकल्प नहीं होते हैं । इसीलिये एक चौबीसी बतलाई है ।
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नौ प्रकृतिक उदयस्थान में 'छत्रक' - भंगों की कुल छह चौबीसी होती हैं। वे इस प्रकार हैं- बाईस प्रकृतिक बंधस्थान में जो नौ प्रकृतिक उदयस्थान है, उसकी तीन चौबीसी होती हैं। इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान के समय जो नो प्रकृतिक उदयस्थान होता है, उसकी एक चौबीसी मिश्र गुणस्थान में सत्रह प्रकृतिक बंस्थान के समय जो मौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है, उसके भंगों की एक चौबीसी और चौथे गुणस्थान में सत्रह प्रकृतिक बंध के समय 'उदयस्थान होता है, उसके भगों की एक चौबीसी । प्रकृतिक उदयस्थान के भगो को कुल छह बीसी हुई।
,
जो नौ प्रकृतिक इस प्रकार नौ
आठ प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की ग्यारह चौबीसी होती है— 'इक्कारल' । वे इस प्रकार हैं- बाईस प्रकृतिक बंधस्थान के समय जो आठ प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं, उसके भंगों की तीन चौबीसी, इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान में जो आठ प्रकृतिक उदयस्थान हैं उसके भंगों की दो चौबीसी, मिश्र गुणस्थान में सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान के समय जो आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है, उसके भंगों की दो चौबोसी, चौथे गुणस्थान में जो सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान है, उसमें आठ प्रकृतिक उदयस्थान के भंगों की कुल तीन नौबीसी और पांचवें गुणस्थान में तेरह प्रकृतिक बंधस्थान के समय आठ प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की एक चौबीसी । इस प्रकार आठ प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की कुल ग्यारह चौबीसी हुई ।
सात प्रकृतिक उदयस्थान में मंगों की कुल दस चौबीसी होती हैं। वे इस प्रकार हैं--- बाईस प्रकृतिक बंधस्थान के समय जो सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसकी एक चौबीसी । इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान के समय जो सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है उसके भंगों की एक चौबीसी, मिश्र गुणस्थान में सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान के समय होने वाले सात प्रकृतिक उदयस्थान के भंगों की एक चौबीसी, चौथे गुण
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सप्ततिका प्रकरण
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स्थान में जो सत्रह प्रकृतिक बंषस्थान हैं, उसके सात प्रकृतिक उदयस्थान के अंगों की तीन चौबीसी, तेरह प्रकृतिक बंधस्थान के समय जो सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है, उसके भंगों की तीन चौबीसी और . नौ प्रकृतिक बंधस्थान के समय जो सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है, उसके भंगों की एक चौबीसी होती है। इस प्रकार सात प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की कुल दस चौबीसी होती हैं।
छह प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की कुल सात चौबीसी इस प्रकार होती हैं-अविरत सम्यग्दृष्टि के सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान के समय जो छह प्रकृतिक उदयस्थान होता है, उसके भंगों की एक चौबीसी, तेरह प्रकृतिक और नौ प्रकृतिक बंधस्थान में जो छह प्रकृतिक उदयस्थान होता है, उसके अंगों को तीन-तीन चौबीसी होती हैं। इस प्रकार यह प्रकृतिक उदयस्थान के भंगों की कुल सात चौबीसी हुई।
पांच प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की कुल चार चौबीसी होती हैं। वे इस प्रकार हैं-तेरह प्रकृतिक बंघस्थान में जो पाँच प्रकृतिक उदयस्थान होता है, उसके भंगों की एक चौबीसी और नौ प्रकृतिक बंघस्थान में जो पाँच प्रकृतिक उदयस्थान हैं, उसके भङ्गों की कुल तीन चौबीसी होती हैं। इस प्रकार पाँच प्रकृतिक उदयस्थान में भङ्गों की कुल चार चौबीसी होती हैं ।
नौ प्रकृतिक बंधस्थान के समय चार प्रकृतिक उदय के भङ्गों की .. एक चौबीसी होती है।
इस प्रकार दस से लेकर चार पर्यन्त उदयस्थानों के भंगों की कुल संख्या १+६+११+१०+-+४+१-४० चौबीसी होती हैं।
पाँच प्रकृतिक बंध के समय दो प्रकृतिक उदय के बारह भंग होते हैं और चार प्रकृतिक बंध के समय भी दो प्रकृतिक उदय संभव है, ऐसा कुछ आचार्यों का मत है, अत: इस प्रकार दो प्रकृतिक उदयस्थान के बारह भंग हुए। जिससे दो प्रकृतिक उदयस्थान के भेगों की एक
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षष्ठ कर्मग्रन्थ चौबीसी होती है तथा चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक बंधस्थान के तथा अबन्ध के समय एक प्रकृतिक उदयस्थान के क्रमश: चार, तीन, दो, एक पर एक गंगोरे हैं। इनका होड़ ग्यारह है। अत: एक प्रकृतिक उदयस्थान के कुल ग्यारह भंग होते हैं। ____ इस प्रकार से गाथा में मोहनीय कर्म के सब उदयस्थानों में भंगों की चौवीसी और फुटकर मंगों को स्पष्ट किया गया है।
सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ के टबे में इस गाथा का चौथा चरण दो प्रकार से निर्दिष्ट किया गया है। स्वमत से 'चार गिकिमि इस्कारा' और मतान्तर से 'बबीस कुगिस्कमिकारा' निर्दिष्ट किया है। प्रथम पाठ के अनुसार स्वमत से दो प्रकृतिक उदयस्थान में बारह भंग और दूसरे पाठ के अनुसार मतान्तर से दो प्रकृतिक उदयस्थान में चौबीस भंग प्राप्त होते हैं। आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में इसी अभिप्राय की पुष्टि इस प्रकार की है
"द्विकोदये 'चतुर्विशतिरेका भंगकानाम्, एतश्च मतान्तरेणोक्तम्, अन्यथा स्वमते प्रावशेष भंगा बेवितम्याः।" ____ अर्थात् दो प्रकृतिक उदयस्थान में चौबीस भंग होते हैं। सो यह कथन अन्य आचार्यों के अभिप्रायानुसार किया गया है । स्वमत से तो दो प्रकृतिक उदयस्थान में बारह ही भंग होते हैं।
यहाँ गाथा १६ में पांच प्रकृतिक बंधस्थान के समय दो प्रकृतिक उदयस्थान और गाथा १७ में चार प्रकृतिक बंधस्थान के समय एक प्रकृतिक उदयस्थान बतलाया है। इसमें जो स्वमत से बारह और मतान्तर से चौबीस भंगों का निर्देश किया है, उसकी पुष्टि होती है। पंचसंग्रह सप्ततिका प्रकरण और गो० कर्मकांड में भी इन मतभेदों का निर्देश किया गया है।
बंधस्थान उदयस्थानों के संवैध भंगों का विवरण इस प्रकार जानना चाहिये
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सप्ततिका प्रकरण
गुणस्थान
बंधस्थान
उदयस्थान ।
मंग
पहला
७, ८, ६, १०८ पौबीसी
दूसरा तीसरा
बौधा पांचा ६ से 5 नौवा
दसवा
अब आगे की गाथा में इन भंगों की एवं पदवृन्दों की संख्या बतलाते हैं।
नवपंचाणउइसएहदयविगप्पेहि मोहिया जीवा।' अउणत्तरिएमुसरिपविक्सएहि विन्नेया ॥१६॥
१ चउबंधगे वि वारस दुगोदया जाण तेहि पूढेहिं ।
बन्धगभेएणे पंचूणासहस्समुदयाणं ।। -पंचसंग्रह सप्ततिका, गा० २६ २ सप्ततिका प्रकरण नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ के टने में यह गाथा 'नवतेसीयसएहि'
इत्यादि के बाद दी गई है।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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शब्दार्थ — नव पंधाण उडलए नौ सौ पंचानवे, उनमविगहउदयविकल्पों से मोहिया - मोहित हुए, जीवाजीव, अउणसरिएगु
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पर्यावक्सएहि पदवृन्दों सहित,
तरि — उनहत्तर सौ इकहत्तर विश्लेया जानना चाहिये ।
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गाथा - समस्त संसारी जीवों को नौ सौ पंचानवे उदयविकल्पों तथा उनहत्तर सौ इकहत्तर पदवृन्दों से मोहित जानना चाहिये ।
विशेषार्थ- पूर्व में मोहनीय कर्म के उदयस्थानों के भंगों और उन उदयस्थानों के अंगों की कहां कितनी चौडी होती हैं, यह गया है । अब इस गाया में उनकी कुल संख्या एवं उनके पदवृन्दों को स्पष्ट किया जा रहा है ।
प्रत्येक चौबीसी में चौबीस भंग होते हैं और पहले जो उदयस्थानों की चौबीसी बतलाई हैं, उनकी कुल संख्या इकतालीस है । अत: इकतालीस को चौबीस में गुणित करने पर कुल संख्या नौ सौ चौरासी प्राप्त होती है - ४१४२४ - १८४ । इस संख्या में एक प्रकृतिक उदयस्थान के भंग सम्मिलित नहीं हैं। वे भंग ग्यारह हैं। अतः उन ग्यारह् भंगों को मिलाने पर भंगों की कुल संख्या नौ सौ पंचानवें होती है। इन भंगों में से किसी-न-किसी एक भंग का उदय दसवें गुणस्थान तक के जीवों के अवश्य होता है। यहाँ दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के जीवों को ही ग्रहण करने का कारण यह है कि मोहनीय कर्म का उदय वहीं तक पाया जाता है । यद्यपि ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती जीव का जब स्व-स्थान से पतन होता है तब उसको भी मोहनीय कर्म का उदय हो जाता है, लेकिन कम-से-कम एक समय और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त के लिये मोहनीय कर्म का उदय न
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रहने से उसका ग्रहण नहीं करके दसवें गुणस्थान तक के जीवों को
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सप्ततिका प्रकरण
उक्त नौसौ पंचानव भंगों में से यथासंभव किसी न किसी एक भंग से मोहित होना कहा गया है। ___ मोहनीयकर्म की मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी काध, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्यास्थानावरण क्रोध आदि प्रत्येक प्रकृति को पद कहते हैं और उनके समुदाय का नाम पदवृन्द है। इसी का दूसरा नाम प्रकृतिविकल्प भी है । अर्थात् दस प्रकृतिक आदि उदयस्थानों में जितनी प्रकृतियों का ग्रहण किया गया है, वे सब पद हैं और उनके भेद से जितने भंग होंगे, वे सब पदवृन्द या प्रकृतिविकल्प कहलाते हैं । यहाँ उनके कुल भेद ६९७१ बतलाये हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
दस प्रकृतिक उदयस्थान एक है, अतः उसकी दस प्रकृतियां हुई। नौ प्रकृतिक उदयस्थान छह हैं अत: उनकी ६४६--५४ प्रकृतियाँ हुई 1 आठ प्रकृतिक उदयस्थान म्यारह हैं अत: उनकी अठासी प्रकृतियाँ हुई । सात प्रकृतिक उदयस्थान दस हैं अत: उनको सत्तर प्रकृतियाँ हुई । छह प्रकृतिक उदयस्थान सात हैं अतः उनकी बयालीस प्रकृतियाँ हुई। पांच प्रकृतिक उदयस्थान चार हैं अत: उनकी बीस प्रकृतियाँ हुई । चार प्रकृतिक उदयस्थान के एक होने से उसकी चार प्रकृत्तियाँ हुई और दो प्रकृतिक उदयस्थान एक है अत: उसकी दो प्रकृतियाँ हुईं। इन सब प्रकृतियों को मिलाने पर १० ५४+८८+७०+४२ +२+४+२=कुल' जोड़ २९० होता है।
उक्त २६० प्रकृतियों में से प्रत्येक में चौबीस-चौबीस भंग प्राप्त होते हैं अत: २६० को २४ से गुणित करने पर कुल ६९६० होते हैं । इस संख्या में एक प्रकृतिक उदयस्थान के ग्यारह भंग सम्मिलित नहीं हैं । अतः उन ग्यारह भंगों के मिलाने पर कुल संख्या ६९७१ हो जाती है । यहाँ यह विशेष जानना चाहिये कि पहले जो मतान्तर से चार
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प्रकृतिक बंध के संकमकाल के समय दो प्रकृतिक उदयस्थान में बारह भंग बतलाये थे, उनको सम्मिलित करके यह उदयस्थानों की संख्या और पदसंख्या बताई है। अर्थात् उदयस्थानों में से मतान्तर वाले बारह भंग कम कर दिये जायें तो ६८३ उदयविकल्प होते हैं और द्वि-प्रकृतिक उदयस्थान के बारह बारह भंग कम कर दिये जायें तो पदों की कुल संख्या ६६४७ होती है। विशेष स्पष्टीकरण आगे की गाथा में किया जा रहा है। अब बारह भंगों को छोड़कर उदयस्थानों की संख्या और पदसंख्या का निर्देश करते हैं।
नवतेसीयसहि उदयविगप्पेहि मोहिया जीवा। अउणसरिसीयाला पर्याववसएहि विन्नया ॥२०॥
शमा-नवतेसीयसहि-नौ सो तिरासी, उदयविएप्पैहिउदयविकल्पों से. मोहिया-मोहित हुए, जोवा-जीब, अवतरिसीयाला-उनहत्तर सौ संतालीस, पविवसहि-पदों के समूह, विलेया-जानना चाहिये ।
गाथार्य-संसारी जीव नौसो तिरासी उदयविकल्पों से और उनहत्तर सौ सैंतालीस पद समुदायों से मोहित हो रहे हैं, ऐसा जानना चाहिये।
विशेषार्थ—पूर्व गाथा में मतान्तर की अपेक्षा उदयविकल्पों और पदवृन्दों की संख्या बतलाई है । इस गाथा में वमत से उदयविकल्पों और पदवृन्दों की संख्या का स्पष्टीकरण करते हैं।
पिछली गाथा में उदयविकल्प ६६५ और पदवृन्द ६६७१ बतलाये हैं और इस गाथा में उदयविकल्प १५३ और पदवृन्द ६९४७ कहे हैं । इसका कारण यह है-चार प्रकृतिक बंध के संक्रम के समय दो प्रकृतिक उदयस्थान होता है, यदि इस मतान्तर को मुख्यता न दी जाये और उनके मत से दो प्रकृतिक उदयस्थान के उदयविकल्प और
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पदवृन्दों को छोड़ दिया जाये तो क्रमशः उनकी संख्या ६८३ और ६६४७ होती है ।
यहाँ मोहनीय कर्म के उदयविकल्प दो प्रकार से बताये हैं, एक ६५ और दूसरे ६८३ । इनमें से ६६५ उदयविकल्पों में दो प्रकृतिक उदयस्थान के २४ भंग तथा ६८३ उदयविकल्पों में दो प्रकृतिक उदयस्थान के १२ भंग लिये हैं। पंचसंग्रह सप्ततिका में भी ये उदयविकल्प बतलाये हैं, किन्तु वहाँ तीन प्रकार से बतलाये हैं। पहले प्रकार में यहाँ वाले ६६५, दूसरे में यहाँ वाले ६८३ प्रकार से कुछ अन्तर पड़ जाता है। इसका कारण यह है कि यहाँ एक प्रकृतिक उदय के बन्धाबन्ध की अपेक्षा ग्यारह भंग लिये हैं और पंचसंग्रह सप्ततिका में उदय की अपेक्षा प्रकृति वेद से लिये है, जिससे श से ७ घटा देने पर कुल ६७६ उदय-विकल्प रह जाते हैं। तीसरे प्रकार से उदय - विकल्प गिनाते हुए गुणस्थान भेद से उनकी संख्या १२६५ कर दी है ।
गो० कर्मकाण्ड में भी इनकी संख्या बतलाई है। किन्तु वहाँ इनके दो भेद कर दिये हैं- पुनरुक्त भंग और अपुनरुक्त भंग । पुनरुक्त भंग १२८३ गिनाये हैं । इनमें से १२६५ तो वही हैं जो पंचसंग्रह सप्ततिका में गिनाये हैं और चार प्रकृतिक संघ में दो प्रकृतिक उदय की अपेक्षा १२ भंग और लिये हैं तथा पंचसंग्रह सप्ततिका में एक प्रकृतिक उदय के जो पाँच भंग लिये हैं, वे यहाँ ११ कर दिये गये हैं। इस प्रकार पंचसंग्रह सप्ततिका से १८ भंग बढ़ जाने से कर्मकाण्ड में उनकी संख्या १२८३ हो गई तथा कर्मकाण्ड में अपुनरुक्क भंग ६७७ गिनाये हैं। सो एक प्रकृतिक उदय का गुणस्थान भेद से एक भंग अधिक कर दिया गया है । जिससे ९७६ के स्थान पर ९७७ भंग हो जाते हैं।
इसी प्रकार यहाँ मोहनीय के पदवन्द दो प्रकार से बतलाये हैं
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६९७१ और ६९४७ | जब चार प्रकृतिक बन्ध के समय कुछ काल तक दो प्रकृतिक उदय होता है, तब इस मत को स्वीकार कर लेने पर ६६७१ पदवृन्द होते हैं और इस मत को छोड़ने पर ६९४७ पदवृन्द होते हैं। पंचसंग्रह सप्ततिका में ये दोनों संख्यायें बताई हैं. किन्तु इनके अतिरिक्त साथ ही चार प्रकार के पदवृन्द और बतलाये हैं। उनमें पहला प्रकार ६६४० का है, जिसमें बन्धाबन्ध के भेद से एक प्रकृतिक उदय के ११ भंग न होकर कुल ४ भंग लिये जाते हैं । इस प्रकार ६९४७ में से ७ भंग कम होकर ६६४० संख्या होती है। शेष तीन प्रकार के पदवृन्द गुणस्थान भेद से बताये हैं जो क्रमशः ८४७७८४८३ और ८५०७ होते हैं ।
गो० कर्मकाण्ड में पदवृन्द को प्रकृतिविकल्प संज्ञा दी है। उदयविकल्पों की तरह ये प्रकृतिविकल्प भी पुनरुक्त और अपुनरुक्त दो प्रकार के बताये हैं। पुनरुक्त उदयविकल्पों की अपेक्षा इनकी संख्या ८५०७ और अपुनरुक्त उदयविकल्पों की अपेक्षा इनकी संख्या ६९४१ बताई है। पंचसंग्रह सप्ततिका में जो ६६४० पदवृन्द बतलाये हैं, उनमें गुणस्थान भेद से १ भंग और मिला देने पर ६९४१ प्रकृतिविकल्प हो जाते हैं । क्योंकि पंचसंग्रह सप्ततिका में एक प्रकृतिक "उदयस्थान के कुल चार भंग लिये गये हैं और कर्मकाण्ड' में गुणस्थान भेद से पाँच लिये गये हैं। जिससे एक भंग बढ़ जाता है ।
ऊपर जो कथन किया गया है उसमें जो संख्याओं का अन्तर दिखता है, वह विवक्षाभेदकृत है, मान्यताभेद नहीं है ।
इस प्रकार से स्वमत और मतान्तर तथा अन्य कार्मग्रन्थिकों के
१ मोहनीय कर्म के उदयस्थानों, उनके विकल्पों और प्रकृतिविकल्पों की जानकारी के लिए गो० कर्मकांड गा० ४७५ से ४५६ तक देखिए ।
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मतों से उदयविकल्पों और प्रकृतिविकल्पों के भंगों का कथन करने के बाद अब उदयस्थानों के काल का निर्देश करते हैं।
दस आदिक जितने उदयस्थान और उनके भंग बतलाये हैं, उनका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ।"
चार प्रकृतिक उदयस्थान से लेकर दस प्रकृतिक उदयस्थान तक के प्रत्येक उदयस्थान में किसी एक वेद और किसी एक युगल का उदय होता है और वेद तथा युगल का एक मुहर्त के भीतर अवश्य ही परिवर्तन हो जाता है। इसी बात को पंचसग्रह की मूल टीका में भी बतलाया है
"ओवेन युगलेन वा अवश्यं मुहूर्ताबारसः परावर्तितव्यम् ।" अर्थात् एक मुहूर्त के भीतर किसी एक वेद और किसी एक युगल का अवश्य परिवर्तन होता है।
इससे निश्चित होता है कि इन चार प्रकृतिक आदि उदयस्थानों का और उनके भंगों का जो उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है, वह ठीक है । दो और एक प्रकृतिक उदयस्थान भी अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक पाये जाते हैं। अत: उनका भी उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही है ।
इन सब उदयस्थानों का जघन्यकाल एक समय इस प्रकार समझना चाहिये कि जब कोई जीव किसी विवक्षित उदयस्थान में या उसके किसी एक विवक्षित भंग में एक समय तक रहकर दूसरे समय में मर कर या परिवर्तन कम से किसी अन्य गुणस्थान को प्राप्त होता है तब उसके गुणस्थान में भेद हो जाता है, बन्धस्थान भी बदल जाता है और गुणस्थान के अनुसार उसके उदयस्थान और उसके भंगों में भी अन्तर पड़ जाता है। अतः सब उदयस्थानों और उसके सब भंगों का जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है ।
१ इह दशावय उदयास्तभंगारच जवन्यत एकसामयिका उत्कर्षत आन्तमीहूर्तिकः । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७०
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ
१२१
मोहनीय कर्म के उदयविकल्पों और पदविकल्पों का विवरण इस
प्रकार है
उदयस्थान
दस के उदय में
नौ
"" "
काठ
सात "
छह "
पाँच
=
चाद "
दो
एक
JP
גן
27 23
=
" "
"
+7
12
"P
38
23
"""
कुल योग
मतान्तर से
दो के उदय में
चौबीसी
संख्या
१
११
१०
१
४०
१
चौबीसी के
कुल मंगों की संख्या
२४.
४१
૪૪
२६४
२४०
१६८
६६
२४
सिर्फ १२ मंग
,,, ११,,
६८३
२४
( १२ मंग
में मिलने से,
उपयपद
यहाँ सिर्फ १२
अंग लेना)
१०
**
५६
७०
४२
२०
६६४७
*=
(२४ मंग पहले के
लिए अत:
यहाँ २४
मंग लेना)
६६५
en
૬es;
इस प्रकार से बन्धस्थानों का उदयस्थानों के साथ परस्पर संवेष
૪
०
पदविकल्प
२८५
२४०
१२६६
२११२
१६८०
१००८
४८०
६६
૨૪
११
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१२२
सप्ततिका प्रकरण
भंगों का कथन करने के अनन्तर अब आगे सत्तास्थानों के साथ बन्धस्थानों का कथन करते हैं।
तिनव य बाबीसे इमबीसे अटवीस सत्सरसे । छ ज्वेव तेरनवबंधगेसु पंचेव ठाणाई॥२१॥ पंचविहवउविहेसु छ छक्क सेसेसु जाण पंचेव । पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि य बंधवोच्छए ॥२२॥
शम्वार्ष-तिष-तीन सत्तास्थान, य-और, बावीसेबाईस प्रकृतिक बन्धस्थान में, इगवीसे-कीस प्रकृतिक बन्धस्थान में, अटुवोस-अट्ठाईस का सत्तास्थान, ससरसे---सत्रह के बन्धस्थान में, छज्य--छह का, तेरनवबंधगेसु-तेरह और नौ प्रकृतिक बन्धस्थान में, पंथेव-पाच ही, ठाणाणि-सत्तास्थान ।
पंचषिह-पांच प्रकृतिक बन्धस्यान में, बबिहेसं... पार प्रकृतिक बन्धस्थान में, छक्क-छह-छह, सेसेस-बाकी के बन्धस्थानों में, जाण-जानो, पंचेच-पांच ही, पत्तेय-पत्तेम-प्रत्येक में, (एक-एक में), पत्तार-चार, 4-और, संभवोच्छेए-बन्ध का विच्छेद होने पर भी।
गाया--बाईस प्रकृतिक बन्धस्थान में तीन, इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान में अट्ठाईस प्रकृति वाला एक, सत्रह प्रकृतिक बन्धस्थान में छह, तेरह प्रकृतिक और नौ प्रकृतिक बन्धस्थान में पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं 1
पाँच प्रकृतिक और चार प्रकृतिक बन्धस्थानों में छह-छह सत्तास्थान तथा शेष रहे बंधस्थानों में से प्रत्येक के पांचपांच सत्तास्थान जानना चाहिये और बन्ध का विच्छेद हो जाने पर चार सत्तास्थान होते हैं।
विशेषार्थ-पहले १५, १६ और १७वीं गाथा मैं मोहनीय कर्म के बन्धस्थानों और उदयस्थानों के परस्पर संवेष का कथन कर आये हैं ।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
१२३
अब यहाँ दो गाथाओं में मोहनीय कर्म के बन्धस्थान और सत्तास्थानों के परस्पर संवेध का निर्देश किया गया है। साथ ही बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थानों के परस्पर संवेध का कथन करना आवश्यक होने से बन्धस्थान और सत्तास्थानों के परस्पर संवेध को बतलाते हुए प्राप्त होने वाले उदयस्थानों का भी उल्लेख करेंगे। ___ मोहनीय कर्म के वाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक कुल दस बन्धस्थान हैं। उनमें क्रमश: सत्तास्थानों का स्पष्टीकरण करते हैं ।
'तिन्न व य बावीसे'-बाईस प्रकृतिक बन्धस्थान के समय तीन सत्तास्थान होते हैं २८, २७ और २६ प्रकृतिक । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-बाईस प्रकृतियों का बन्ध मिथ्याष्टि जीव को होता है और उसके उदयस्थान चार होते हैं-७, ८, ६ और १० प्रकृतिक । इनमें से ७ प्रकृतिक उदयस्थान के समय २८ प्रकृतिक सतास्थान होता है । क्योंकि सात प्रकृतिक उदयस्थान अनन्तानुबन्धी के उदय के बिना ही होता है और मिथ्यात्व में अनन्तानुबन्धी के उदय का अभाव उसी जीव के होता है, जिसने पहले सम्यग्दृष्टि रहते अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना की और कालान्तर में परिणामयश मिथ्यात्व में जाकर मिथ्यात्व के निमित्त से पुन: अनन्तानुबन्धी के बन्ध का प्रारम्भ किया हो । उसके एक आवली प्रमाण काल तक अनन्तानुबन्धी का उदय नहीं होता है। किन्तु ऐसे जीव के नियम से भट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है। जिससे सात प्रकृतिक उदयस्थान में एक अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान ही होता है।
आठ प्रकृतिक उदयस्थान में भी उक्त तीनों सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि आठ प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकार का होता है-१. अनन्ता
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सप्ततिका प्रकरण
नुबन्धी के उदय से रहित और २ अनन्तानुबन्धी के उदय से सहित | 1 इनमें से जो अनन्तानुबन्धी के उदय से रहित वाला आठ प्रकृतिक उदयस्थान है, उसमें एक अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान ही प्राप्त होता है । इसका स्पष्टीकरण सात प्रकृतिक उदयस्थान के प्रसंग ने ऊपर किया गया है तथा जो अनन्तानुबन्धो के उदय सहित आठ प्रकृतिक उदयस्थान है, उसमें उक्त तीनों ही सत्तास्थान बन जाते हैं। वे इस प्रकार हैं - १. जब तक सम्यक्त्व को उवलना नहीं होती तब तक अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । २. सम्यक्त्व की उवलना हो जाने पर सत्ताईस प्रकृतिक और ३. सम्यग्मिथ्यात्व की उवलना हो जाने पर छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । यह छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को भी होता है।
१२४
नौ प्रकृतिक उदयस्थान भी अनन्तानुबन्धो के उदय से रहित और अनन्तानुबन्धी के उदय से सहित होता है। अनन्दानुबन्धो के उदय से रहित नौ प्रकृतिक उदयस्थान में तो एक अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है, किन्तु जो नौ प्रकृतिक उदयस्थान अनन्तानुबन्धी के उदय सहित है उसमें तीनों सत्तास्थान पूर्वोक्त प्रकार से बन जाते हैं ।
दस प्रकृतिक उदयस्थान अनन्तानुबन्धी के उदय वाले को ही होता है | अन्यथा दस प्रकृतिक उदयस्थान ही नहीं बनता है । अतः उसमें २८, २७ और २६ प्रकृतिक तीनों सत्तास्थान प्राप्त हो जाते हैं ।
इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान के समय सत्तास्थान एक अट्ठाईस
१ यतोऽष्टोदयो द्विधा - अनन्तानुबन्ध्युदय रहितोऽनन्तानुबन्ध्युदयसहितश्च । -- सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १७१
२
तत्र यावद नाद्यापि सम्यक्त्वमुवलयति तावदष्टाविंशतिः, सम्यक्त्वे उवलिते सप्तविंशतिः सम्यग्मिथ्यात्वेऽप्युवलिते षड्विंशतिः अनादिमिप्यादृष्टेर्वा दशतिः । --सप्ततिका प्रकरण टोका,
"
पृ० १७१
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I
षष्ठ कर्मग्रन्थ
१२५
प्रकृतिक ही होता है - इगवीसे अट्ठवीस | इसका कारण यह है कि इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान सासादन सम्यग्दृष्टि को ही होता है और सासादन सम्यक्त्व उपशम सम्यक्त्व से च्युत हुए जीव को होता है, किन्तु ऐसे जीव के दर्शनमोहनीय के तीनों भेदों की सत्ता अवश्य पाई जाती है, क्योंकि यह जीव सम्यक्त्व गुण के निमित्त से मिथ्यात्व के तीन भाग कर देता है, जिन्हें क्रमश: मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व कहते हैं । अतः इसके दर्शन मोहनीय के उक्त तीनों भेदों की सत्ता नियम से पाई जाती है। यहाँ उदयस्थान सात, आठ और नौ प्रकृतिक, ये तीन होते हैं। अतः इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान के समय तीन उदयस्थानों के रहते हुए एक अट्ठाईस प्रकृतिक हो सत्तास्थान होता है ।"
सत्रह प्रकृतिक बन्स्थान के समय छह सत्तास्थान होते है - 'सत्तरसे छच्चेव' जो २८,२७,२६,२४,२३, २२ और २१ प्रकृतिक होते हैं । सह प्रकृतिक बन्धस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि, इन दो गुणस्थानों में होता है।
इनमें से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के ७ ५ और ६ प्रकृतिक यह तीन उदयस्थान होते हैं और अविरल सम्यग्दृष्टि जीवों के चार उदयस्थान होते हैं- ६, ७, ८ और प्रकृतिक । इनमें से छह प्रकृतिक
१ एकविंशतिबन्धो हि सासादन सम्यग्दृष्टे भंवति, सासादनत्वं च जीवस्योपशमिकसम्यक्त्वात् प्रच्यवमानस्योपजायते, सम्यक्त्वगुणेन च मिध्यात्वं त्रिधाकृतम्, तया - सम्यक्त्वं मिश्रं मिथ्यात्वं च ततो दर्शनत्रिकस्यापि सत्कर्मतया प्राप्यमाणत्वाद् एकविंशतिबंधे त्रिष्वप्युदयस्थानेष्वष्टाविंशतिरेकं सत्तास्थानं भवति । - सप्ततिका प्रकरण टीका, १० १७१ सप्तदशबन्धी हि इयानां भवति, तद्यथा— सम्यग्मिथ्यादृष्टिनाम विरतसम्यग्दृष्टीनां च । तत्र सम्यग्मिथ्यादृष्टीनां त्रीभ्युदयस्थानानि तद्यथासप्त अष्टो नब अविरतसम्यग्दृष्टिनां चत्वारि तद्यथा षट्सप्त अष्टौ नव । - सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १७१
,
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सप्ततिका प्रकरण उदयस्थान उपशम सम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों को ही प्राप्त होता है । उपशम सम्यग्दृष्टि जीव को अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान प्रथमोपशम सम्यक्त्व के समय होता है तथा जिसने अनन्तानुबंधी की उबलना की उस औपशमिक अविरत सम्यम्हष्टि के चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव के इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है। क्योंकि अनन्तानुबंधी चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक इन सात प्रकृतियों के क्षय होने पर ही उसकी प्राप्ति होती है। इस प्रकार छह प्रकृतिक उदयस्थान में २८, २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं।
सम्यग्मिध्याइष्टि जीवों के सात प्रकृतिक जगशान के रहने २८, २७ और २४ ये तीन सत्तास्थान होते हैं। इनमें से अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाला जो जीव सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, उसके अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है, किन्तु जिस मिथ्यादृष्टि ने सम्यक्त्व की उद्वलना करके सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान को प्राप्त कर लिया किन्तु अभी सम्पग्मिथ्यात्व की उद्वलना नहीं की, वह यदि मिथ्यात्व से निवृत्त होकर परिणामों के निमित्त से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है तो उस सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव १ क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां त्वेकविंशतिरेव, क्षायिक हि सम्यक्त्वं सप्तकक्षये भवति, सप्तकक्षये च जन्तुरेकविंशतिसत्कर्मेति ।
–सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७२ २ सम्यग्मिच्यादृष्टि के २७ प्रकृतिक सत्तास्थान होने के मत का उल्लेख
दिगम्बर परम्परा में देखने में नहीं आया है। गो. कर्मकांड में वेदककाल का निर्देश किया गया है, उस काल में कोई भी मिथ्याइष्टि जीव वेदक सम्यग्हष्टि या सम्यग्मिध्याहृष्टि हो सकता है, पर यह काल सम्यक्स्य की उद्वलना के चालू रहते हुए निकल जाता है। अत: वहाँ २७ प्रकृतिक सत्ता वाले को न तो वेदक सम्यक्त्व की प्राप्ति बतलाई है और न सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान की।
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षष्ठ कर्म अभ्य
?*
के सत्ताइस कि सत्ता होता है तथा समष्टि रहते हुए जिसने अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना की है, वह यदि परिणामवशात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को प्राप्त करता है तो उसके चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान पाया जाता है। ऐसा जीव चारों गतियों में पाया जाता है। क्योंकि चारों गतियों का सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करता है । 1
कर्मप्रकृति में कहा भी है
"बगया पज्जत्ता तिम्दि वि संजोयणे विजयंति । करणेहि तीहि सहिया नंतरकरणं जवसमो वा ॥ २ अर्थात् चारों गति के पर्याप्त जीव तीन करणों को प्राप्त होकर अनन्तानुबंध की विसंयोजना करते हैं, किन्तु इनके अनन्तानुबंधी का अन्तरकरण और उपशम नहीं होता है ।
यहाँ विशेषता इतनी है कि अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में चारों गति के जीव, देशविरति में तिर्यंच और मनुष्य जीव तथा सर्वविरति में केवल मनुष्य जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्क को विसंयोजना करते हैं । अनन्तानुबंध की बिसंयोजना करने के बाद कितने ही जीव परिणामों के वंश से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को भी प्राप्त होते हैं । जिससे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है, यह सिद्ध हुआ ।
लेकिन अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के सात प्रकृतिक उदयस्थान रहते २८, २४, २३, २२ और २१, ये पांच सत्तास्थान होते हैं। इनमें से २०
१ यतश्चतुगंतिका अपि सम्यदृष्टयोऽनन्तानुबंधिनो विसंयोजयन्ति । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७२
२ कर्मप्रकृति उप० गा० ३१
ફ્
अत्र 'तिन्नि वि' ति अविरता देशविरताः सर्वविरता वा यथायोगमति । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७२
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सप्ततिका प्रकरण
और २४ प्रकृतिक तो उपशम सम्यग्दृष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के होते हैं, किन्तु यह विशेषता है कि २४ प्रकृतिक सत्तास्थान, जिसने अनन्तानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना कर दी है, उसको होता है।' २३ और २२ प्रकृतिक सत्तास्थान वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के ही होते हैं। क्योंकि आठ वर्ष या इससे अधिक आयु वाला जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव क्षपणा के लिये उद्यत होता है, उसके अनन्तानुबंधी चतुष्क और मिथ्यात्व का क्षय हो जाने पर २३ प्रकृतिक सतास्थान होता है और फिर उसी के सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय हो जाने पर २२ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । यह २२ प्रकृतिक सत्ता वाला जीव सम्यक्त्व प्रकृति का क्षय करते समय जब उसके अन्तिम भाग में रहता है और कदाचित् उसने पहले परभव सम्बन्धी आयु का बंध कर लिया हो तो मर कर चारों गतियों में उत्पन्न होता है । कहा भी है
"पद्ध्वगो उ मणूसो निट्ठो घउसु वि गईसु । ___ अर्थात् दर्शनमोहनीय की क्षपणा का प्रारम्भ केवल मनुष्य ही करता है, किन्तु उसकी समाप्ति चारों गतियों में होती है।
इस प्रकार २२ प्रकृतिक सत्तास्थान चारों गतियों में प्राप्त होता है किन्तु २१ प्रकृतिक सत्तास्थान क्षाधिक सम्यग्दृष्टि जीव को ही प्राप्त होता है। क्योंकि अनन्तानुबंधी चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक, इन सात प्रकृतियों का क्षय होने पर ही क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है ।
इसी प्रकार आठ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते हुए भी सम्यग्मिध्या---.१ नवरमनन्तानुबन्धिविसंयोजनानन्तरं सा अवमन्तच्या ।
–सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७२ २ स च द्वाविंशतिसत्कर्मा सम्यक्त्वं क्षपयन् तच्चरमग्रासे वर्तमान: कश्चित्
पूर्वायुरुकः कालमपि करोति, कालं च कृत्वा चतसुणा गतीनामन्यतमस्यां गतात्पद्यते ।
--सपातिका प्रकरण टोका, पृष्ठ १७२
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पाठ कर्ममन्व
१२६ दृष्टि और अविरत सम्यग्दष्टि जीवों के क्रमशः पूर्वोक्त तीन और पांच सत्तास्थान होते हैं। नौ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते हुए भी इसी प्रकार जानना चाहिये, लेकिन इतनी विशेषता है कि अविरतों के नौ प्रकृतिक उदयस्थान वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के ही होता है और वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के २८, २४, २३ और २२ प्रकृतिक, ये चार ससास्थान पाये जाते हैं, अत: यहां भी उक्त चार सत्तास्थान होते हैं ।
सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान सम्बन्धी उक्त कथन का सारांश यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि के १७ प्रकृतिक एक बंधस्थान और ७, ८, ९ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान तथा २६, २७ और २४ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं । अविरत सम्बन्दाष्ट्र में उपशम सम्वादृष्टि के १५ प्रकृतिक एक बंधस्थान और ६, ७, ८ प्रकृतिक तीन उवयस्थान तथः २८ और २४ प्रकृतिक दो सत्तास्थान होते हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टि के एक १७ प्रकृतिक बंधस्थान तथा ६,७ और ८ प्रकृतिक, ये तीन उदय स्थान तथा २१ प्रकृतिक एक सत्तास्थान होता है। वेदक सम्यग्दुषित के १७ प्रकृतिक एक बंधस्थान तथा ७, ८ और ह प्रकृतिक तीन उदय रस्थान तथा २८, २४, २३ और २२ प्रकृतिक चार सत्तास्थान होते हैं संवेष भंगों का पूर्व में निर्देश किया जा चुका है, अत: यहां किस कितने बंधादि स्थान होते हैं, इसका निर्देश मात्र किया है।
तेरह और नौ प्रकृतिक बंधस्थान के रहते पांच-पांच सत्तास्था होते हैं-'तेर नवगंधगेसु पंचेव ताणाई। वे पांच सत्तास्थान २८, २' २३, २२ और २१ प्रकृतिक होते हैं। पहले तेरह प्रकृतिक बंधस्थान सत्तास्थानों को स्पष्ट करते हैं।
तेरह प्रकृतियों का बंध देशाविरतों को होता है और वेशविर दो प्रकार के होते हैं-तियंच और मनुष्य ।' तिथंच देशविरतों । १ तत्र त्रयोदशबन्धका देशविरता: ते च विधा-तियचो मनुष्याश्च ।
-सपातिका प्रकरणीका, पृ०१५
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१३०
सप्तविका प्रकरण
उनके चारों ही उदयस्थानों में २८ और २४ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं । २८ प्रकृतिक सत्तास्थान तो उपशम सम्यग्दृष्टि और बेवक सम्यग्दृष्टि, इन दोनों प्रकार के ही तिर्यच देशविरतों के होता है । उसमें भी जो प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने के समय ही देशनिरस की जाप्त कर देता है, बस देशविर के सम्यक्त्व के रहते हुए २५ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । क्योंकि अन्तरकरण काल में विद्यमान कोई भी औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत को प्राप्त करता है और कोई मनुष्य सर्वविरत को भी प्राप्त करता है, ऐसा नियम है। जैसाकि शतक बृहच्चूर्णि में कहा भी है
समसम्मद्दिट्टी अन्सरकरणे ठिओ कोई वेसबिर कोई एमत्तापमत्तभावं पि गच्छ, सासरवर्णा पुम न किमवि लहई ।
अर्थात् अन्तरकरण में स्थित कोई उपशम सम्यग्दृष्टि जीव देशविरति को प्राप्त होता है और कोई प्रमत्तसंयम और अप्रमत्तभाव को भी प्राप्त होता है, परन्तु सासादन सम्यग्दृष्टि जीव इनमें से किसी को भी प्राप्त नहीं होता है।
-
इस प्रकार उपशम सम्प्रहृष्टि जीव को देशविरति गुणस्थान की प्राप्ति के बारे में बताया कि वह कैसे प्राप्त होता है । किन्तु वेदक सम्यक्त्व के साथ देशविरति होने में कोई विशेष बाधा नहीं है । जिससे देशविरति गुणस्थान में वेदक सम्यग्दृष्टि के २८ प्रकृतिक सत्तास्थान बन ही जाता है । किन्तु २४ प्रकृतिक सत्तास्थान अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करने वाले तिर्यंचों के होता है, और वे वेदक सम्यग्दृष्टि होते हैं। क्योंकि तियंचगति में औपशमिक सम्यग्दृष्टि के
१
जयघवला टीका में स्वामी का निर्देश करते समय चारों गतियों के जीवों को २४ प्रकृतिक सत्तास्थान का स्वामी बतलाया है। इसके अनुसार प्रत्येक गति का उपशम सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना कर सकता है। कर्मप्रकृति के उपशमना प्रकरण गा० ३१ से भी इसी मत की पुष्टि होती है। यहाँ चारों गति के जीवों को अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करने वाला बताया है।
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ
१३१
२४ प्रकृतिक सत्तास्थान की प्राप्ति संभव नहीं है । इन दो सत्तास्थानों के अतिरिक्त तिच देशविरत के शेष २३ आदि सब सत्तास्थान नहीं होते हैं, क्योंकि वे क्षायिक सम्यवश्व को उत्पन्न करने वाले जीवों के ही होते हैं और तिथंच क्षायिक सम्यग्दर्शन को उत्पन्न नहीं करते हैं। इसे तो केवल मनुष्य हो उत्पन्न करते हैं ।"
तेईस प्रकृतिक आदि सत्तास्थान तिर्यंचों के नहीं मानने को लेकर जिज्ञासु प्रश्न पूछता है
MAR
"जय मनुष्याः क्षायिकसम्यक्रममुत्पाद्य यथा सिर्धपखन्ते तथरा तिररची:प्येकविंशतिः प्राप्यत एव तत् कथमुच्यते शेषाणि त्रयोविदारयादीनि सर्वाणि न सम्भवन्ति ? इति तद् अयुक्तम्, यतः क्षायिकसम्यष्टिस्तिर्पशु न संपदेवर्धामुष्केट मध्ये समुत्पते के न च तत्र देशविरतिः, तबभावाच्च न त्रयोशबन्धकत्वम् अत्र त्रयोदश्बन्धे सत्तास्थानानि विस्यमानानि तल एक विधातिरपि त्रयोदशबजे तिर्यक्षु न प्राप्यते ।
प्रश्न--- यह ठीक है कि तिर्यंचों के २३ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है, तथापि जब मनुष्य क्षायिक सम्यग्दर्शन को उत्पन्न करते हुए या उत्पन करके तियंचों में उत्पन्न होते हैं तब तिचों के भी २२ और २१ प्रकृतिक सत्तास्थान पाये जाते हैं। अतः यह कहना युक्त नहीं है कि तिर्यंचों के २३ आदि प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होते हैं।
उत्तर - यद्यपि यह ठीक है कि क्षायिक सम्यक्त्व को उत्पन्न करने बाला २२ प्रकृतिक सत्ता वाला जीव या क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर तिर्यंचों में उत्पल होता है, किन्तु यह जीव संस्थात वर्ष की आयु वाले तिर्यचों में उत्पन्न न होकर असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिथंचों
१ शेषाणि तु सर्वाप्यपि त्रयोविंशत्यादीनि सत्तास्थानानि तिरश्चां न सम्भवन्ति तानि हि श्रामिकसम्यक्त्वमुत्पादयतः प्राप्यन्ते न च तिर्यचः यायिक सम्यकस्यमुत्पादयति, किन्तु मनुष्या एक |
3
- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७३
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सप्ततिका प्रकरण
में ही उत्पन्न होता है और उनके देश विरति नहीं होती है और देशविरति के न होने से उनके तेरह प्रकृतिक बंषस्थान नहीं पाया जाता है । परन्तु यहाँ तेरह प्रकृतिक बंषस्थान में सत्तास्थानों का विचार किया जा रहा है । अत: ऊपर जो यह कहा गया है कि तियंत्रों के २३ आदि प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होते हैं, वह १३ प्रकृतिक बंधस्थान की अपेक्षा से ठीक ही कहा गया है । चूणि में भी कहा है--
एगवीसा तिरिसने संजयाऽसंजएसु न संभवइ । कहं ?. भग्गा-संजबासा एसु तिरिक्सेसु लागसम्मट्ठिी ME असलेनमासाउएषु उमजेषमा, तस्स रेसविर मस्थि।
अर्थात्-तिर्यंच संयतासंयतों के २१ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता, क्योंकि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव संख्यात वर्ष की आयु वाले तियंचों में उत्पन्न नहीं होता है । असंख्यात वर्ष की आयु वाले तियंचों में उत्पन्न होता है, किन्तु वहाँ उनके देशविरति नहीं होती है ।
इस प्रकार से तिर्यंचों की अपेक्षा विचार करने के बाद अब मनुष्यों को अपेक्षा विचार करते हैं। ___ जो देशविरत मनुष्य हैं, उनके पांच प्रकृतिक उदयस्थान के रहते २८, २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं। छह प्रकृतिक और सात प्रकृतिक उदयस्थान के रहते प्रत्येक में २८, २४, २३, २२ और २१ प्रकृतिक, ये पांच सत्तास्थान होते हैं । आठ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते २८, २४, २३ और २२ प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं। उदयस्थानगत प्रकृतियों को ध्यान में रखने से इनके कारणों का निश्चय सुगमतापूर्वक हो जाता है। अर्थात् जैसे अविरत सम्य. म्हष्टि गुणस्थान में कथन किया गया है, वैसे ही यहाँ भी समझ लेना चाहिमे । अत: अलग से काथन न करके किस उदयस्थान में कितने सत्तास्थान होते हैं, इसका सिर्फ संकेतमात्र किया गया है ।
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षष्ठ कर्मग्रम्प
___ नौ प्रकृतिक बंधस्थान प्रभत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवों के होता है। इनके ४, ५, ६ और ७ प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान होते हैं। चार प्रकृतिक उदयस्थान के रहते २८, २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि यह उदयस्थान उपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि को ही प्राप्त होता है । पाँच प्रकृतिक और यह प्रकृतिक उदयस्थान के रहते पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि ये उदयस्थान तीनों प्रकार के सम्याष्टियों-औपशमिक, मायिक और वेदक को संभव है। किन्तु सात प्रकृतिक उदयस्थान वेदक सम्यग्दृष्टियों के संभव होने से यहाँ २१ प्रकृतिक सत्तास्थान संभव न होकर शेष चार ही सत्तास्थान होते हैं।' . ___पंचावह उविहेछ '-... तिष और चार प्रकृतिक बंधस्थान में छह-छह सत्तास्थान होते हैं। अर्थात् पाँच प्रतिक बंधस्थान के छह सत्तास्थान हैं और चार प्रकृतिक बंषस्थान के भी छह सत्तास्थान हैं। लेकिन दोनों के सत्तास्थानों की प्रकृतियों की संख्या में अन्तर है जिनका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है।
सर्वप्रथम पाँच प्रकृतिक बंधस्थान के सत्तास्थानों को बतलाते हैं। पांच प्रकृतिक बंधस्थान के छह सत्तास्थानों की संख्या इस प्रकार है-२८, २४, २१, १३, १२ और ११ ।' इनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
१ एवं नवबंधकानामपि प्रमत्ताऽप्रमत्तानां प्रत्येक चतुष्कोदये त्रीणि त्रीणि
सत्तास्थानानि, तद्यया----अष्टाविंशति: चतुर्विशतिः एकविशतिश्च । पंचकोदये षट्कोदये च प्रत्येक पंच पंच सत्तास्थानानि । सप्तोदये स्वेकविशतिवर्जानि शेषाणि चत्वारि सत्तास्थानानि याच्यानि ।
सप्ततिका प्रकरण टीशा, पृ० १७४ २ तत्र पंचविधे बन्धे अमूनि, तबया -अष्टाविंशतिः चतुर्विशति: एकविंशतिः
त्रयोदश द्वादश एकादश च । सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १७४
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१५४
सप्ततिका प्रकरण पांच प्रकृतिक बंधस्थान उपशमणि और क्षपकणि में अनिवृत्तिबादर जीवों के पुरुषवेद के बंधकाल तक होता है और पुरुषवेद के बंध के समय तक यह नोकषायों की सत्ता पाई जाती है, अतः पाँच प्रकृतिक बंघस्थान में पाप आदि सत्तास्थान नहीं पाये जाते हैं। अब रहे शेष सत्तास्थान' सो उपशमणि की अपेक्षा यहाँ २८, २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान पाये जाते हैं। २१ और २४ प्रकृतिक सत्तास्थान तो उपशम सम्यग्दृष्टि को उपशमश्रेणि में और २१ प्रकृतिक सत्तास्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि को उपशमप्रेणि में पाया जाता है। क्षपकणि में भी जब तक आठ कषायों का क्षय नहीं होता तब तक २१ प्रकृतिक सत्तास्थान पाया जाता है। अर्थात् उपशमणि की अपेक्षा २८, २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं । किन इतनी विशेषता है कि २८ और २५ प्रकृतिक सत्तास्थान तो उपशम सम्यग्दृष्टि जीव को ही उपशमश्रेणि में होते हैं, किन्तु २१ प्रकृतिक सत्तास्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव को उपशमश्रेणि में भी होता है और क्षपकणि में भी आठ कषायों के क्षय न होने तक पाया जाता है।'
१ पंचादीनि तु सत्तास्थानानि पंचविषवन्धे न प्राप्यन्ते, यत: पंचविषबन्धः
पुरुषवेदे बध्यमाने मवति, सायच्च पुरुषवेदस्य बंघस्सायत् षड़ नोकषायाः सन्त एवेति ।
-सप्ततिका प्रकरण टोकर, पृ० १५४ २ तत्राष्टाविंशतिः प्रविशतिश्चौपशमिकसम्यग्रष्टेरुपरामण्याम् । एकविक्षतिरुपशमण्यां शायिकसम्पग्हण्टेः।
--सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १५४ ३ सपकण्या पुनरष्टो कषाया पावद न श्रीयन्त्र तावदेकविंशतिः।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७४
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षष्ठ कर्मप्राय
____ क्षपक श्रेणि में १३, १२ और ११ प्रकृतिक सत्तास्थान तो होते ही हैं और उनके साथ २१ प्रकृतिक सत्तास्थान को और मिला देने पर क्षपकमिंग में ५१, १३, १२ और पार सत्तास्थान होते हैं। आठ कषायों के क्षय न होने तक २१ प्रकृतिक ससास्थान होता है और आठ कषायों के क्षय हो जाने पर १३ प्रकृतिक सत्तास्थान । इसमें से नपु सक वेद का क्षय हो जाने पर १२ प्रकृतिक तथा बारह प्रकृतिक सत्तास्थान में से स्त्रीवेद का क्षय हो जाने पर ११ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है।
इस प्रकार पांच प्रकृतिक बन्धस्थान में २८, २४, २१, १३, १२ और ११ प्रकृतिक, ये छह सत्तास्थान होते हैं। अब चार प्रकृतिक अन्धस्थान के छह सत्तास्थानों को स्पष्ट करते हैं। ____ चार प्रकृतिक बन्धस्थान में २८, २४, २१, ११, ५ और ४ प्रकृतिक, ये छह सत्तास्थान होते हैं।' चार प्रकृतिक बन्धस्थान भी उपशमश्रेणि और क्षपकवणि दोनों में होता है। उपशमश्चेणि में पाये जाने वाले २८, २४ और २१ प्रकृतिक सत्तास्थानों का पहले जो स्पष्टीकरण किया गया, वैसा यहाँ भी समझ लेना चाहिए । अब रहा क्षपकवेणि का विचार, सो उसके लिये यह नियम है कि जो जीव नपुंसकवेव के उदय के साथ क्षपकणि पर चढ़ता है, वह नपुसकवेद और स्त्रीवेद का क्षय एक साथ करता है और इसके साथ ही पुरुषवेद का बन्धविच्छेद हो जाता है। तदनन्तर इसके पुरुषवेद और हास्यादि षट्क का एक साथ क्षय होता है । यदि कोई जीव स्त्रीवेद के उदय
१ चतुर्विधबन्धे पुनरमुनि षट् सत्तास्थानानि, तपथा-अष्टाविंशतिः, चतुर्विंशतिः एकविंशतिः, एकादश, पंच, चतस्रः ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, प्र. १७४
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११६
सप्ततिका प्रकरण
के साथ क्षपकणि पर चढ़ता है तो वह जीव पहले नपुंसक वेद का क्षय करता है, तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त काल में स्त्रोवेद का क्षय करता है, फिर पुरुषवेद और हास्यादि षट्क का एक साथ क्षय होता है । किन्तु इसके भी स्त्रीवेद की क्षपणा के समय पुरुषवेद का बंद हो जाता है। इस प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसक वेद के उदय से क्षपकश्रेणि पर बढ़े हुए जीव के या तो स्त्रीवेद की क्षपया के अन्तिम समय में या स्त्रीवेद और नपुंसकवेद की क्षपणा के अंतिम समय में पुरुषवेद का अन्धविच्छेद हो जाता है, जिससे इस जीव के चार प्रकृतिक बंधस्थान में वेद के उदय के बिना एक प्रकृति का उदय रहते ग्यारह प्रकृतिक सत्तास्थान प्राप्त होता है तथा यह जीव पुरुषवेद और हास्यादि षटुक का क्षय एक साथ करता है। अतः इसके पाँच प्रकृतिक सत्तास्थान प्राप्त न होकर चार प्रकृतिक सत्तास्थान प्राप्त होता है। किन्तु जो जीव पुरुषवेद के उदय से क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है, उसके छह नोकषायों के क्षय होने के समय ही पुरुषवेद का बंधविच्छेद होता है, जिससे उसके चार प्रकृतिक बंषस्थान में ग्यारह प्रकृतिक ससास्थान नहीं होता किन्तु पांच प्रकृतिकं सत्तास्थान प्राप्त होता है। इसके यह सत्तास्थान दो समय कम दो आवली काल तक रहकर, अनन्तर अन्तर्मुहूर्त काल तक चार प्रकृतिक सत्तास्थान प्राप्त होता है ।
1
१ कषायप्राभूत की चूर्णि में पांच प्रकृतिक सत्तास्थान का जभ्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार का काल एक समय कम वो आयलो प्रमाण बतलाया है
"पंच वित्तिओ के विचिरं कालादो ? जहष्णुक्कस्त्रेण दो मावलियाओ समयुगाओ ।।”
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पष्ठ कर्मग्रम्प
इस प्रकार चार प्रकृतिक बंधस्थान में २८, २४, २१, ११, ५ और ४ प्रकृतिक, ये छह सत्तास्थान होते हैं, यह सिद्ध हुआ 1'
तीन, दो और एक प्रकृतिक बंधस्थानों में से प्रत्येक में पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं-'सेसेसु जाण पंचेव पत्तेयं पत्तेयं । जिनका स्पष्टीकरण करते हैं।
तीन प्रकृतिक बंधस्थान के पांच सत्तास्थान इस प्रकार है-२८, २४, २१, ४ और ३ प्रकृतिक। यह तो सर्वत्र सुनिश्चित है कि उपशमश्रेणि की अपेक्षा प्रत्येक बंधस्थान में २८, २४ और २१ प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं, अतः शेष रहे ४ और ३ प्रकृतिक सत्तास्थान क्षपक श्रेणि की अपेक्षा समझना चाहिये। अत: अब क्षपकणि की अपेक्षा यहाँ विचार करना है। इस सम्बन्ध में ऐसा नियम है कि संज्वलन कोष की प्रथम स्थिति एक आवलिका प्रमाण शेष रहने पर बंघ, उदय और उदीरणा, इन तीनों का एक साथ विच्छेद हो जाता है और तदनन्तर तीन प्रकृतिक बंध होता है, किन्तु उस समय संज्वलन कोष के एक आवलिका प्रमाण स्थितिगत दलिक को और दो समय कम दो आवली प्रमाण समयप्रबन को छोड़कर अन्य सबका क्षय हो जाता है । यद्यपि यह भी दो समय कम दो आवली प्रमाण काल के द्वारा क्षय को प्राप्त
१ गो० कर्मकांड गा० ३६३ में पार प्रकृतिक बंषस्थान में दो प्रकृतिक मौर
एक प्रकृतिक ये दो उदयस्थान तथा २८, २४, २१, १३, १२, ११, २
और प्रकृतिक, ये पाठ सत्तास्थान बतलाये है । इसका कारण बताते हुए गा० ४८४ में लिखा है कि जो जीव स्त्रीवेव नपुसफवेद के साय आणि पर बढ़ता है, उसके स्त्रीवेद या नपुंसक वेद के उदय के विपरम समय में पुरुषवेद का पंधविच्छेद हो जाता है । इसी कारण कर्मकार में चार प्रकृतिक संघस्थान के समय १३ और १२ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्मान और बताये हैं।
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सप्ततिका प्रकरण
होगा किन्तु जब तक क्षय नहीं हुआ तब तक तीन प्रकृतिक बंधस्थान में चार प्रकृतिक सत्तास्थान पाया जाता है और इसके क्षय हो जाने पर तीन प्रकृतिक बंधस्थान में तीन प्रकृतिक सत्तास्थान पाया जाता है, ओ अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है।
इस प्रकार तीन प्रकृतिक बंधस्थान में २८, २४, २१, ४ और ३ प्रकृतिक, ये पांच सत्तास्थान होते हैं। द्विप्रकृतिक बंधस्थान में पांच सत्तास्थान इस प्रकार हैं-२८, २४, २१, ३ और २ प्रकृतिक । संज्वलन मान को भी इसी प्रकार प्रथम स्थिति एक आवली प्रमाण शेष रहने पर बंध, उदय और उदीरणा, इन तीनों का एक साथ विच्छेद हो माता है, उस समय दो प्रकृतिक बंधस्थान प्राप्त होता है, पर उस समय संज्यलन मान के एक आवली प्रमाण प्रथम स्थितिगत दलिक को और दो समय कम दो मावली प्रमाण समयप्रबद्ध को छोड़कर अन्य सब का क्षय हो जाता है। यद्यपि वह शेष सत्कर्म दो समय कम दो आवली प्रमाण काल' के द्वारा क्षय को प्राप्त होगा किन्तु जब तक इसका क्षय नहीं हुआ, तब तक दो प्रकृतिक बंधस्थान में तीन प्रकृतिक सत्तास्थान पाया जाता है। पश्चात् इसके क्षय हो जाने पर दो प्रकतिक बंधस्थान में दो प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । इसका काल अन्तमुहर्त प्रमाण है।
इस प्रकार दो प्रकृतिक बंधस्थान में २८, २४, २१, ३ और २ प्रकृतिक, ये पांच ससास्थान होते हैं।
एक प्रकृतिक बंधस्थान में होने वाले पाँच सत्तास्थान इस प्रकार हैं-२८, २४, २१, २ और १ प्रकृतिक । इनमें से २८, २४ और २१ प्रकृतिक सत्तास्थान तो उपशमणि की अपेक्षा समझ लेना चाहिये। शेष २ और १ प्रकृतिक सत्तास्थानों का विवरण इस प्रकार है कि इसी तरह संज्वलन माया की प्रथम स्थिति एक आवली प्रमाण शेष रहने पर बंध, उदय और उदीरणा का एक साथ विच्छेद हो जाता है और
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षष्ठ कर्मप्रन्य
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उसके बाद एक प्रकृतिक बंध होता है, परन्तु उस समय संज्वलन माया के एक आवली प्रमाण प्रथम स्थितिगत दलिक को और दो समय कम दो आवली प्रमाण समयप्रबद्ध को छोड़कर शेष सबका क्षय हो जाता है। यद्यपि यह शेष सत्कर्म भी दो समय कम दो आवली प्रमाण काल के द्वारा क्षय को प्राप्त होगा, किन्तु जब तक इसका क्षय नहीं हुआ तब तक एक प्रकृतिक बंषस्थान में दो प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है। पश्चात् इसका क्षय हो जाने पर एक प्रकृतिक बंधस्थान में सिर्फ एक संज्वलन लोभ की सत्ता रहती है।
इस प्रकार एक प्रकृतिक बंधस्थान में २८, २४, २१, २ और १ प्रकृतिक, ये पांच सत्तास्थान होते हैं । अब बंध के अभाव में भी विद्यमान सत्तास्थानों का मिथान करते हैं । इस लिये गाना में कहा गया है...'बत्तारिय बंधवोच्छए'- अर्थात् बंध के अभाव में चार सत्तास्थान होते हैं। वे चार सत्तास्थान इस प्रकार हैं-२८, २४, २१ और १ प्रकृतिक । बंध का अभाव दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में होता है । जो उपशमश्रेणि पर चढ़कर सूक्ष्मसंपराय मुणस्थान को प्राप्त होता है, यद्यपि उसको मोहनीय कर्म का बंध तो नहीं होता, किन्तु उसके २८, २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान संभव हैं तथा जो क्षपकश्रेणि पर आरोहण करके सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान को प्राप्त करता है, उसके संज्वलन लोभ की सत्ता पाई जाती है। इसीलिये बंध के अभाव में २८, २४, २१ और १ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान माने जाते हैं।'
इस प्रकार से मोहनीय कर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों के संवेध भंगों का निर्देश किया गया। उनके समस्त विवरण का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
१ बन्धामाबे सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने चत्वारि सत्तास्थानानि तद्यपा-अष्टाविंशतिः चतुर्विशति; एकविंशतिः एका प । तवाद्यानि त्रीणि प्रागियोपशमश्रेग्याम् । एका तु संज्वलनलोमरूपा प्रकृति: क्षपाथ पयाम् ।
सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४
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मुणबषस्थान स्थान
उदयस्यान ।
चौवीसी
उदयभंग
जोड़
जोड
مع سمع م مدد ملی »
३-४ १७ ।
२
. उदयपद 1 उदय पदवृन्द संस्था
सत्तास्थान जोड़! : जोड़
२८
२८, २७, २६ ६४८
२८, २७, २६ २४० ३ । २८, २७, २६ | १६५
| २८ ३२ ३८४ ७६८
। २८ | ३ | २८, २४, २१ ६ २८, २७, २४,
२३, २२, २१ १०८६ २८.२७,२४,२३,२२,२१ [ ५ २८,२७,२४,२३,२२
३ । २८, २४, २१ ४३१२४८ ५ २८,२४,२३,२२,२१
५ २८,२४,२३,२२,२१ | २८, २४, २३, २२
२८, २४, २१ ६ ५ २८,२४,२३,२२,२१
२८,२४,२३,२२,२१ ४ २८, २४. २३, २२
८८४
४८
५। १३ ।
و لم أعد
२ ।
सप्ततिका प्रकरण
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गुण- धस्थान| स्थान
षष्ठ कर्मपग्प
उदयभंग
सत्तास्थान
भंग उदयस्पान |
चौबीसी जोड़| | जोड़
"
२४ .२४
E-xxxx
_xxxxx xxxxx
1 उदय पदउदयपद
संख्या जोड़। | जोड़
६ |६ ३ ५
XXXXX
XXXXX
.
الله له
२८,२४,२१,१३,१२,११ २८, २४, २१, ११, ५,४ २८, २४, २१, ४,३
२८, २४, २१, ३,२ 1 २८, २४, २१, २,१
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..
YX
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४ । २८, २४, २१, १
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ix ! ३ । २८, २४, २१
२५ । ।
२ERE
नोट—विन आचार्यों का मत है कि चार प्रकृतिक बंधस्थान में दो और एक प्रकृतिक उदयस्थान होता है, उनके मत से १२ उदयपद और २४ उदयपदवृन्द बढ़कर उनकी संख्या क्रम से १६५ और ६६७१ हो जाती है।
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૧
सप्ततिका प्रकरण
अब मोहनीय कर्म के कथन का उपसंहार करके नामकर्म को कहने की प्रतिज्ञा करते हैं ।
दसनवपन्नरसाई बंधोवसन्तपयरिठाणाई । भणियाई मोहणिज्जे इत्तो नामं परं वोच्खं ॥ २३॥' घोय
माण्वार्थ -- वसन वपश्नरसाई- दस, नौ और पन्द्रह, सन्तपयठाणा, उदय और सत्ता प्रकृतियों के स्थान, भनिया कहे, मोहणिजे मोहनीय कर्म के, इसो - इससे, नाम-नामकर्म के परं आगे वोच्छं कहते हैं ।
गार्थ - मोहनीय कर्म के बंध, उदय और सत्ता प्रकृतियों के स्थान क्रमशः दस, नौ और पन्द्रह कहे। अब आगे नामकर्म का कथन करते हैं।
विवीधार्थ - मोहनीय कर्म के बन्ध, उदय और सत्तास्थानों के कथन का उपसंहार करते हुए गाथा में संकेत किया गया है कि मोहनीय कर्म के बंधस्थानं दस, उदयस्थान नो और सत्तास्थान पन्द्रह होते हैं। जिनमें और जिनके संबंध भंगों का कथन किया जा चुका है । अब आगे की गाथा से नामकर्म के बंध, उदय और सत्ता के संवेध भंगों का कथन प्रारम्भ करते हैं ।
गामकर्म
सबसे पहले नामकर्म के बंधस्थानों का निर्देश करते हैं-तेवीस पण्णवोसा छठवीसा अट्टवीस गुणतोसा । तीसे गतीस मेक्कं बंधद्वाणाणि
नामस्स ||२४||
तुलना कीजिए—
वणवण्णरसाई गंधोदय सत्तपयडिठाणाणि । भणिदाणि मोहणिजे एती पामं परं वोच्छं ॥ २ तुलना कीजिए --
गौ० कर्मकांड ५१८
(क) जामस्त कम्मस्स अट्ठ द्वाणाणि एक्कसीसाए तीसाए एगुणती साए अट्टवीसार छब्बीसाए पणुवीसाए तेबीसाए एकिकस्से द्वाणं चेदि । जीव० ० ० ० ६०
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
__ .शमा-सेवीस-तेईस, पणवीसा-पच्चीस, छब्बीसा--- छब्बीस, मट्ठबीस-अट्ठाईस, गुगतीसा- उनसीस, तीसेगतीसंतीस, इकतीस, एक-एक, बंबाणाणि-बंधस्थान, पामस्सनामकर्म के।
गायार्थ -नामकर्म क तेईस, पच्चास, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस और एक प्रकृतिक, ये आठ बंधस्थान होते हैं। विशेषार्ष-गाथा में नामकर्म के आठ बंधस्थान होने के साथ-साथ वे स्थान कितने प्रकृतिक संख्या वाले हैं, इसका संकेत किया गया है कि वे बंधस्थान १. तेईस प्रकृतिक, २. पच्चीस प्रकृतिक, ३. छब्बीस प्रकृतिक, ४. अट्ठाईस प्रकृतिक, ५. उनतीस प्रकृतिक, ६. तीस प्रकतिक, ७. इकतीस प्रकृतिक और ८. एक प्रकृतिक हैं।
वैसे तो नामकर्म की उत्तर प्रकृतियाँ तिरानवे हैं। किन्तु इन सबका एक साथ किसी भी जीव को बंध नहीं होता है, अतएव उनमें से कितनी प्रकृतियों का एक साथ बंध होता है, इसका विचार आठ बंधस्थानों के द्वारा किया गया है। इनमें भी कोई तिर्यंचगति के, कोई मनुष्यगति के, कोई देवगति के और कोई नरकगति के योग्य बंधस्थान हैं और इसमें भी इनके अनेक अवान्तर भेद हो जाते हैं। जिससे इन अवान्तर भेदों के साथ उनका विचार यहाँ करते हैं।
तियंचगति में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव होते हैं।
() तेवीसा पमुषीसा वीसा अट्टपीस गुणतीसा । तीसेगतीस एमो घटाणा नामेट ॥
-पंच सप्ततिका, ना ५५ (म) सेवीसं पणवीसं मीसं अट्टपीसमुगतीसं । तीसेक्कसीसमेवं एरको बंधो दुसे हिम्मि ।
-पोकर्मकांड पा० ५२१
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सप्तत्रिका प्रकरण
तिर्यंचगति के योग्य बंध करने वाले जीवों के सामान्य से २३, २५, २६, २९ और ३० प्रकृतिक पांच बंधस्थान होते हैं। उनमें से भी एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के २३, २५ और २६ प्रकृतिक, ये तीन बंधस्थान होते हैं । । उनमें से २३ प्रकृसिक बंधस्थान में तिर्यचगति, तिथंचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस' शरीर, कार्मण शरीर, हुंडसंस्थान, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात नाम, स्थावर नाम, सूक्ष्म और बादर में से कोई एक, अपर्याप्त नाम, प्रत्येक और साधारण इनमें से कोई एक, स्थिर, अशुभ, सुभंग, जनादेय, अयश.फोति और निर्माण, इन तेईस प्रकृतियों का बंध होता है। इन तेईस प्रकृतियों के समुदाय को तेईस प्रकृतिक बंधस्थान कहते हैं और यह बंधस्थान अपर्याप्त एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले मिथ्या दृष्टि तिर्यच और मनुष्य को होता है।
यहाँ चार भंग प्राप्त होते हैं। ऊपर बताया है कि बादर और मूक्ष्म में से किसी एक का तथा प्रत्येक और साधारण में से किसी एक का बंध होता है । अत: यदि किसी ने एक बार बादर के साथ प्रत्येक का और दूसरी बार बादर के साथ साधारण का बंध किया। इसी
१---(क) तत्र तिर्यग्गतिप्रायोग्य बनतः सामान्येन पंच मषस्थानानि, तद्यथा त्रयोविंशति: पंचविशति: पविशति: एकोनत्रिशत् त्रिशत् ।
-सप्ततिका प्रसारण टीका, पृ० १५५ (स)तिरिक्तगविणामाए पंचाचाणि सीसाए एगूगतीसाए छवीसाए पणुवीसाए सेवीसाए ठाणं चेवि ।
---जी05,81०.०६३ २ तत्राप्ये केन्द्रियप्रायोग्यं बनतस्त्रीणि बन्धस्मानानि, तद्यथा--प्रयोविपतिः · पंचविंशतिः पत्रिषतिः ।
सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७५
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
જન્મ
प्रकार किसी ने एक बार सूक्ष्म के साथ साधारण का बंध किया और दूसरी बार सूक्ष्म के साथ प्रत्येक का बंध किया तो इस प्रकार तेईस प्रकृतिक बंधस्थान में चार भंग हो जाते हैं ।
1
P
पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान में तियंचगति तिर्यंचानुपूर्वी एकेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, इंडसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छवास, स्थावर, बादर और सूक्ष्म में से कोई एक पर्याप्त, प्रत्येक और साधारण में से कोई एक स्थिर और अस्थिर में से कोई एक शुभ और अशुभ में से कोई एक यत्रःकीति और अगशःकीति में से कोई एक, दुभंग, अनादेय और निर्माण इन पच्चीस प्रकृतियों का बंध होता है । इन पच्चीस प्रकृतियों के समुदाय को एक पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान कहते हैं। यह बंधस्थान पर्याप्त एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि तिथंच मनुष्य और देव के होता है।
इस बंधस्थान में बीस भंग होते हैं। वे इस प्रकार हैं-जब कोई जीव बादर, पर्याप्त और प्रत्येक का बंध करता है, तब उसके स्थिर और अस्थिर में से किसी एक का, शुभ और अशुभ में से किसी एक का तथा शकीर्ति और अयश: कीर्ति में से किसी एक का बंध होने के कारण आठ भंग होते हैं तथा जब कोई जीव वादर, पर्याप्त और साधारण का बंध करता है, तब उसके यशःकीति का वंध न होकर अयशःकीर्ति काही बंध होता है
नो सुमतिगेण जसं
और अपर्याप्त इन तीन में से किसी यशःकीर्ति का बंध नहीं होता है । अयशःकीर्ति के निमित्त से बनने
अर्थात् सूक्ष्म, साधारण एक का भी बंध होते समय जिससे यहाँ यशःकीर्ति और
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सप्ततिका प्रकरण
वाले भंग संभव नहीं हैं। अब रहे स्थिर अस्थिर और शुभ-अशुभ, ये दो युगल । सो इन का विकल्प से बंध संभव है यानी स्थिर के साथ एक बार शुभ का, एक बार अशुभ का तथा इसी प्रकार अस्थिर के साथ भी एक बार शुभ ना तथा एक बार अशुभ का धंध संभव है, अत. यहाँ कुल चार भंग होते हैं । जन कोई जीत्र झा और पर्याप्त का बंध करता है, लब उपके यवःवीति और अयश:ोति इनमें से एक अयशःकीत काही बंध होता है किन्तु प्रत्येक और साधारण में से किसी एक का, स्थिर और अस्थिर में से किसी एक का तथा शुभ और अशुभ में से किसी एक का बंध होने के कारण आठ भंग होते हैं। इस प्रकार पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान में ८-४+८=२० भंग होते हैं।
छब्बीस प्रकृतियों के समुदाय को छब्बीस प्रकृतिक बंधस्थान कहते हैं। यह बंधस्थान पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृ. तियों का आतप और उद्योत में से किसी एक प्रकृति के साथ बंध करने वाले मिश्या दृष्टि निर्यच, गनप्य और देव को होता है । छब्बीस प्रकृतिक बंधस्थान में ग्रहण की गई प्रतियां इस प्रकार हैं-नियंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय गाति, औदारिक शरीर, तेजस, कार्मण शरीर, हुंडसंस्थान, बर्णचनुण., अगृहलध, पराघात, उपघात, उन्छ - वास, स्थावर, आताप और उद्यान में से कोई एत्रा, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिर में में कोई एक, गृभ और अशुभ में से कोई एक, दुभंग, अनादेय, यश कीनि और अयाः कीति में कोई एक तथा निर्माण ।
इस बंधस्थान में सोलह भंग होते हैं। ये भंग आतप और उद्योल में से किसी एक प्रकृति का, स्थिर और अस्थिर में से किसी एक का, शुभ और अशुभ में से किसी एक का तथा यशःकीति और अयश कीर्ति में से किसी एक का बंध होने के कारण बनते हैं । आतप और उद्योत
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के साथ सुक्ष्म और साधारण का बंध नहीं होता है । इसलिये यहाँ सूक्ष्म और साधारण के निमित्त से प्राप्त होने वाले भंग नहीं कहे गये हैं।
इस प्रकार एकेन्द्रिय प्रायोग्य २३, २५ और २६ प्रकृतिक, इन तीन 'बंधस्थानों के कुन्न भंग ४+२०.१६ =४० होते हैं। कहा भी है
चत्तारि बीस सोलस भंगा एगिदियाण चत्ताला । अर्थात् . एकेन्द्रिय सम्बन्धी २३ प्रकृतिक बंधस्थान के चार, २५ प्रकृतिक बंधस्थान के बीस और २६ प्रकृतिक बंधस्थान के सोलह भंग होते हैं । ये सब मिलकर चालीरा हो जाते हैं ।
एकेन्द्रिय प्रायोग्य बंधस्थानों का कथन करने के अनन्तर हीन्द्रियों के बंधस्थानों को बतलाते हैं।
द्वीन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को बांधने वाले जीव के २५, २६ और ३० प्रकृतिक, ये तीन बंधस्थान होते हैं। ____ जिनका विवरण इस प्रकार है---पचीस प्रकृतियों के समुदाय रूप बंधस्थान को पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान कहते हैं। इस स्थान के बंधक अपर्याप्त वीन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को बाँधने वाले मिथ्यावृष्टि मनुष्य और तियं च होते हैं। पच्चीस प्रकृतियों के बंधस्थान की प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं___ तिथंचगति, तिथंचानुमूर्ती, द्वीन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंइसंस्थान, सेवातं संहनन, औदारिक अंगोपांम, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपधात, बस, बादर, अपर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश:कौति और निर्माण । यहाँ अपर्याप्त प्रकृति के साथ केवल अशुभ प्रकृतियों का ही बंध होता है शुभ प्रकृतियों का नहीं, जिससे एक ही भंग होता है । १ द्वीन्द्रियप्रायोग्य बघ्नतो बंधस्थानानि त्रीणि, तद्यथा---पंचविंशतिः एकोन त्रिशन विशम् ।
– सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७
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यतिका सफर
उक्त पच्चीस प्रकृतियों में से अपर्याप्त को कम करके पराधात, उच्छवास, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त और दुःस्वर, इन पत्र प्रकृतियां को मिला देने पर उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है । उनतीस प्रकृतियों का कथन इस प्रकार करना चाहिये-तिर्यचगति, तियंचानुपूर्वी, द्वीन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक अंगोपांग, दंडसंस्थान, सेवा संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छवास, अप्रशरत बिहायोगति, श्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिर में से कोई एक शुभ और अशुभ में से कोई एक दुर्मंग, दुःस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति और अयशःकीति में से कोई एक निर्माण । ये उनतीस प्रकृतियाँ उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में होती हैं। यह बंधस्थान पर्याप्त द्वीन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को बाँधने वाले मिथ्यादृष्टि जीव को होता है ।
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इस बंधस्थान में स्थिर अस्थिर शुभ-अशुभ और यशः कीर्ति अयश:कीर्ति, इन तीनों युगलों में से प्रत्येक प्रकृति का विकल्प से बंध होता है, अतः आठ भङ्ग प्राप्त होते हैं।
इन उनतीस प्रकृतियों में उचोन प्रकृति को मिला देने पर तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इस स्थान को भी पर्याप्त द्वीन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को बाँधने वाला मिध्यादृष्टि हो बांधता है। यहाँ भी आठ भङ्ग होते हैं । इस प्रकार १८+६= १७ भङ्ग होते हैं ।
त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को बाँधने वाले मिथ्यादृष्टि जीव के भी पूर्वोक्त प्रकार से तीन-तीन बंधस्थान होते हैं। लेकिन इतनी विशेषता समझना चाहिए कि श्रीन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों में त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों में चनुरिन्द्रिय जाति कहना चाहिए । भङ्ग भी प्रत्येक के सबह सत्रह हैं, अर्थात् श्रीद्रिय के सत्रह और चतुरिन्द्रिय के सत्रह भङ्ग होते हैं । इस प्रकार से विकलत्रिक के इक्यावन भङ्ग होते हैं। कहा भी है
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एग अटु डिलदियाण इगवण तिव्हं पि ।
अर्थात् - विकलत्रयों में से प्रत्येक में बंधने वाले जो २५, २१ और ३० प्रकृतिक बंधस्थान हैं, उनमें से प्रत्येक में क्रमश: एक, आठ और आठ भंग होते हैं तथा तीनों के मिलाकर कुल इक्यावन भंग होते हैं।
अब तक एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के तिर्यंचगति के बंधस्थानों का कथन किया गया। अब तिर्यंचगति पंचेन्द्रिय के योग्य बंधस्थानों को बतलाते हैं ।
तिर्यचगति पंचेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बन्ध करने वाले जीव के २५, २६ और ३० प्रकृतिक, ये तीन बंधस्थान होते हैं । इनमें से २५. प्रकृतिक बंधस्थान तो वही है जो द्वोन्द्रिय के योग्य पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान बतला आये हैं। किन्तु वहां जो द्वीन्द्रियजाति कही है उसके स्थान पर पंचेन्द्रिय जाति कहना चाहिये । यहाँ एक भंग होता है।
उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में उनतीस प्रकृतियां इस प्रकार हैतियंचगति, तिचानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, औदाविशरीर, औदारिक अंगोपांग, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, छह संहननों में से कोई एक संहनन, वर्णचतुरक अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति में से कोई एक, बस, बादर, पर्याप्त प्रत्येक स्थिर और अस्थिर में से कोई
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एक शुभ और अशुभ में से कोई एक सुभग और दुभंग में से कोई एक, मुस्वर और दुःस्वर में से कोई एक, आदेय अनादेय में से कोई एक, यशःकीर्ति-अयशःकीति में से कोई एक तथा निर्माण । यह बंधस्थान पर्याप्त तिच पंचेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को बांघने वाले चारों गति
१ तिर्यग्गतिपंचेन्द्रियायोग्य बन्धतस्त्रीणि बंधस्थानानि तद्यथा पंचविशनि एकोनत्रिंशत् त्रिशत् । - सप्तका प्रकरण टोका, पु० १७७
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१५.
सप्ततिका प्रकरण
के मिथ्यादृष्टि जीव को होना है। यदि इस बंधस्थान का बंधक सासादन सम्यग्दृष्टि होता है तो उसके आदि के पाँच संहननों में से किसी एक संहनन का तथा आदि के पांच संस्थानों में से किसी एक संस्थान का बंध होता है। क्योंकि हुण्डसंस्थान और सेबाल संहनन को सासादन सम्यग्दृष्टि जीव नहीं बांधता है
हुंडं असंपतं व सासणी म बंधइ । __ अर्थात्- सासादन मम्यग्दृष्टि जीव हुंडसंस्थान और असंशाप्तसंहनन को नहीं बाँधता है। ___ इस उनतीस प्रकृतिक धस्थान में सामान्य से छह संस्थानों में से किसी एक संस्थान का, छह संहननी में से किसी एक संहनन का, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगांत में से किसी एक विहायोगति का, स्थिर और अस्थिर में से किसी एक का, शुभ और अशुभ में से किसी एक का, सुभग और दुर्भग में से किसी एक का, सुस्वर और दुःस्वर में से किसी एक का, आदेय और अनादेय में से किसी एक का, यश:कोति और अयश:कीति में से किसी एक का बंध होता है। अत: इन सब संख्याओं को गुणित कर देने पर--६x६४२४२४२४२x२x२ X२८४६०५ भंग प्राप्त होते हैं।
इस स्थान का बंधक सासादन सम्यग्दृष्टि भी होता है, किन्तु उसके पाँच संहनन और पाँच संस्थान का बंध होता है, इसलिये उसके ५४५४२x२x२x२x२४२४२-३२०० भंग प्राप्त होते हैं । किन्तु इनका अन्तर्भाव पूर्वोक्त भंगों में ही हो जाने से इन्हें अलग से नहीं गिनाया है।
उक्त उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में एक उद्योत प्रकृति को मिला देने पर तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। जिस प्रकार उनतीस प्रकतिक बंधस्थान में मिथ्यादष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा
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विशेषता है, उसी प्रकार वहाँ भी वही विशेषता समझना चाहिये । यहाँ भी सामान्य से गंग होते हैं---
'गुपतीले ती बिय मंगा अठ्ठाहिया छ्यालया । पंचिदियतिरिजोगे पत्रोंसे बंधि भंगको ||
अर्थात् - पंचेन्द्रिय तिर्यत्र के योग उनतीस और तीस प्रकृतिक बंधस्थान में ४६०८ और ४६०८ और पीस प्रकृतिक बंस्थान में एक भंग होता है।
इस प्रकार पंचेन्द्रिय नियंत्र के योग तीनों बन्धस्थानों के कुल भंग ४६०८ | ४६०८ - १६२१७ होते हैं ।
पंचेन्द्रिय तिर्थ के उक्त ९२१३ भंगों में एकेन्द्रिय के योग्य यंत्रस्थानों के ४०, हीन्द्रित के योग्य थानों के श्री के योग्य बंधस्थानों के १७ और चतुरिन्द्रिय के लोग बंधस्थानों के १७ भंग मिलाने पर तिचगति राम्यन्वी बंधस्थानों के कुग्न भंग ९२१७:४० +१७÷१७+१७६३४८ होते हैं ।
इस प्रकार से चिपति योग्य बंधस्थानों और उनके भंगों को बतलाने के बाद अब मनुष्यगति के बंधस्थानों और उनके भंगों का कथन करते हैं ।
मनुष्यगति के योग्य प्रकृतियों को बाँधने वाले जीवों के २५, २६ और ३० प्रकृतिक बंधस्थान होते हैं ।"
पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान वही है जो अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के योग्य बंध करने वाले जीवों को बतलाया है । किन्तु इतनी विशेषता समझना
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१ (क) मनुष्यगति प्रायोग्य बनतस्त्रीणि बंदस्थानानि तद्यथा - पचविशतिः एकोनत्रिंशत् त्रिशल् - सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १७८ (ख) मदानाए तिष्णि द्वागाणि दीखाए एगुणतीसार पणुवीनाए णं चेदि । -जो० ० द्वा०, सूत्र ८४
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सतांतका प्रकरण
चाहिये कि यहाँ तिर्यंचति, लियंचानुपूवीं और द्वीन्द्रिय के स्थान पर मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और पंचेन्द्रिय कहना चाहिये । ___ उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान तीन प्रकार का है—एक मिथ्या दृष्टि की अपेक्षा से, दूसरा सासादन सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से और तीसरा सम्यमिथ्यादृष्टि या अविरत सम्यग्दष्टि की अपेक्षा से। इनमें से मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि के तियंचप्रायोग्य उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान बताया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिये, किन्तु यहाँ तिर्य चगतिप्रायोग्य प्रकृतियों के बदले मनुष्य गति के योग्य प्रकृतियों को मिला देना चाहिये ।
तीसरे प्रकार के उनतीस प्रऋतिक बंधस्थान में मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, पचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तंजस शरीर, काभण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, बज्रऋषभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलधु, उपघात, पराघात', उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिर में से कोई एक, शुभ और अशुभ में से कोई एक, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीति और अयशःकीति में से कोई एक तथा निर्माण, इन उनतीस प्रकृतियों का बंध होता है। इन तीनों प्रकार के उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में सामान्य से ४६०८ भंग होते हैं। यद्यपि गुणस्थान के भेद से यहाँ भमों में भेद हो जाता है, किन्तु गुणस्थान भेद की विवक्षा न करके यहाँ ४६०८ भंग कहे गये हैं ।
उक्त उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में तीर्थंकर नाम को मिला देने पर तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इस बंधस्थान में स्थिर और
१ एकोनत्रिंशत् त्रिधा---एका मिथ्यादृष्टीन् बंधकानाश्रित्य वेदितच्या, द्वितीया सासादनान्, तृतीया सम्यग्मिथ्यादृष्टीन् अविरतसम्यग्दृष्टीन् वा ।
--सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ०.१७८
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अस्थिर में से किसी एक का शुभ और अशुभ में से किसी एक का तथा यशःकीर्ति और अयशः कीर्ति में से किसी एक का बंध होने से इन सब संख्याओं को गुणित करने पर २x२x२=८ भंग प्राप्त होते हैं । अर्थात् तीस प्रकृतिक बंधस्थान के आठ भंग होते हैं ।
इस प्रकार मनुष्यगति के योग्य २५ २६ और ३० प्रकृतिक बंधस्थानों में कुल भंग १+४६०८८४६१७ होते हैं
वीसम्म एकको छायालाया अडसर गुती । मणूतीले उ सभ्ये छायालसमा उ सतरा ॥
अर्थात – मनुष्यगति के योग्य पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान में एक, उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में ४६०८ और तीस प्रकृतिक बंधस्थान में ८ भंग होते हैं। ये कुल भंग ४६१७ होते हैं ।
अब देवगति योग्य बंघस्थानों का कथन करते हैं। देवगति के योग्य प्रकृतियों के बंधक जीवों के २८, २६, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये चार बंधस्थान होते हैं । "
अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में – देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, स, बादर, पर्याप्त प्रत्येक स्थिर और अस्थिर में से कोई एक शुभ और अशुभ में से कोई एक, सुभग, आदेश, सुस्वर, यशः कीर्ति और अयशः कोति में से कोई एक तथा निर्माण, इन अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध होता है। इसीलिये इनके समुदाय को एक बंघस्थान कहते हैं । यह बंधस्थान देवगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्बमिध्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत और सर्वविरत जीवों को होता है।
१ देवगतिप्रायोग्यं बघ्नतश्चत्वारि बन्धस्थानानि तद्यथा - अष्टाविंशतिः एकोनत्रिंशत् त्रिशद् एकत्रिंशत् । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७६
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सप्ततिका प्रकरण
इस स्थान में स्थिर और अस्थिर में से किसी एक का, शुभ और अशुभ में से किसी एक का तथा यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति में से किसी एक का बंध होता है । अतः उक्त संख्याओं को परस्पर गुणित करने पर २२x२ भग प्राप्त होते है ।
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उक्त अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में तीर्थंकर प्रकृति को मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध अविरत सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में होता है । जिससे यह बंधस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि आदि जीवों के ही बनता है। यहाँ भी २८ प्रकृतिक बंधस्थान के समान ही आठ भंग होते हैं ।
तीस प्रकृतियों के समुदाय को तीस प्रकृतिक संघस्थान कहते हैं । इस बंधस्थान में ग्रहण की गई प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं – देवगति, देवानुपूर्वी पंचेन्द्रिय जाति, आहारकद्विक वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, रामचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुगलबु उपघात, पराधात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभ, स्थिर, सुभग, सुस्वर, आदेव, यशःकीति और निर्माण | इसका बंधक अप्रमत्तसंयत या अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती को जानना चाहिये ।" इस स्थान में सब शुभ कर्मों का बंध होता है, अतः यहाँ एक ही भंग होता है ।
तोस प्रकृतिक बंधस्थान में एक तीर्थंकर नाम को मिला देने पर इकतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। यहां भी एक ही भंग होता है। इस प्रकार देवगति के योग्य बंधस्थानों में ५+५+१+१= १८ भंग होते हैं। कहा भी है
अटुटु एक एक्कग भंगा बट्ठार देवजोगेसु ।
१ एतच्च देवगतिप्रायोग्यं बघ्नतोऽप्रमत्तसंवसस्थापून करणस्य वा वेदितथ्यम् । -- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७६
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अर्थात्-देवगति के योग्य २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक बंधस्थानों में क्रमश: आठ, आठ, एक और एका, कुल अठारह भंग होते
है।
___ अभी तक तियंत्र, मनुष्य और देव गति योग्य बंधस्थानों और उनके भंगों का कथन किया गया । अत्र नरकगति के बंधस्थानों व उनके भंगों को बताते हैं।
नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के एक अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इसमें अट्ठाईस प्रकृतियाँ होती हैं, अत: उनका समुदाय रूप एक बंधस्थान है। यह बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि के ही होता है। इसमें सब अशुभ प्रकृतियों का ही बंध होने से यहाँ एक ही भंग होता है। अट्ठाईस प्रकृतिक प्रस्थान में ग्रहण की गई प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-नरकति, नरकानुगु:, पंचेन्द्रिय जाति, वक्रिय शरीर, बैंक्रिय अंगोपांग, तेजस शरीर,कार्मण शरीर, हुंड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुल चु, उपघात, पराघात, उच्छवास, अप्रशस्त विहायोगति, बस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीति और निर्माण।।
इन तेईस आदि उपर्युक्त बंधस्थानों के अतिरिक्त एक और बंधस्थान है जो देवगति के योग्य प्रकृतियों का बंधविच्छेद हो जाने पर अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में होता है। इस एक प्रकृतिक बंधस्थान में सिर्फ यशःकीति नामकर्म का बंध होता है।' ___ अब किस बंधस्थान में कुल कितने भंग होते हैं, इसका विचार करते हैं
एक तु बंधस्थानं यशःकोतिलक्षणम् तच्छ देवगतिप्रायोग्य बन्थे व्यच्छिन्ने अपूर्वकारणादीनां त्रयाणामवगन्तव्यम् ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७९
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समसतिका प्रकरण
चउ पणवीसा सोलस नब बाणउईसया य अडयाला । एयालुत्तर छायालसया एक्केषक बंधविही ॥२५॥
शब्दार्थ-चबार, पणवीसा-पच्चीस, सोसस-सोलह, नव-नौ, माणउईसया-बानवसौ, ग-और, अजयाला--अतालीस, एमालुत्तर छायालसया-छियालीस सौ एकतालीस, एककेकएक-एक, अंधविहो-बंध के प्रकार, भंग ।
गाथार्थ तेईस प्रकृतिक आदि बंधस्थानों में क्रम में चार, पच्चीस, सोलह, नौ, बानवसौ अड़तालीस, छियालीरा सौ इकतालीस, एक और एक भंग होते हैं ।
विशेषायं--पूर्व गाथा में नामकर्म के बंधस्थानों का विवेचन करके प्रत्येक के भंगों का उल्लेख किया है। परन्तु उनसे प्रत्येक बंधस्थान के समुच्चय रूप से भंगों का बोध नहीं होता है। अतः प्रत्येक बंधस्थान के समुच्चय रूप से भंगों का बोध इस गाथा द्वारा कराया जा रहा है।
नामकर्म के पूर्व गाथा में २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ और १ प्रकृतिक, ये आठ बंधस्थान बतलाये गये हैं और इस गाथा में सामान्य से प्रत्येक बंधस्थान के भंगों की अलग-अलग संख्या बतला दी गई है कि किस बंधस्थान में कितने भंग होते हैं। किन्तु यह स्पष्ट नहीं होता है कि वे किस प्रकार होते हैं । अत: उन भंगों के होने का विचार पूर्व में बताये गये बंधस्थानों के क्रम से करते हैं। ___पहला बंधस्थान तेईस प्रकृतिक है। इस स्थान में चार भंग होते हैं। क्योंकि यह स्थान अपर्याप्त एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों के बांधने वाले जीव के ही होता है, अन्यत्र तेईस प्रकृतिक बंधस्थान नहीं पाया जाता है। इसके चार भंग पहले बता आये हैं। अत: तेईस प्रकृतिक बंधस्थान में वे ही चार भंग जानना चाहिये ।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान में कुल पच्चीस भंग होते हैं। क्योंकि एकेन्द्रिय के योग्य पच्चीस प्रवृतियों का बंध करने वाले जीव के बीस भंग होते हैं तथा अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यच पंचेन्द्रिय और मनुष्यगति के योग्य पच्चीस प्रकृतियों का बंध करने बाले जीवों के एक-एक भंग होते हैं। अत: पूर्वोक्त बीस भंगों में इन पांच भंगों को मिलाने पर पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान में कुल पच्चीस भंग होते हैं।
छब्बीस प्रकृतिक बंधस्थान के कुल सोलह भंग हैं। क्योंकि यह एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले जीव के ही होता है और एकेन्द्रियप्रायोग्य छब्बीस प्रकृतिक बंधस्थान में पहले सोलह भंग बता आये हैं, अत: वे ही सोलह भंग इस छब्बीस प्रकृतिक बंधस्थान में जानना चाहिये।
अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में कुल नौ भंग होते हैं। क्योंकि देवगति के योग्य प्रकृतियों को बंध करने वाले जीव के २८ प्रकृतिक बंधस्थान के आठ भंग होते हैं और नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले जीव के अट्ठाईस प्रकृतिक प्रस्थान का एक भंग। यह स्थान देव और नारक के सिवाय अन्य जीवों को किसी भी प्रकार से प्राप्त नहीं होता है । अत: इसके कुल नौ भंग होते हैं।
उनतीस प्रकृतिक बधस्थान के २४८ भंग होते हैं । इसका कारण यह है कि तिर्यंच पंचेन्द्रिय के योग्य उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थान के ४६०८ भंग होते हैं तथा मनुष्यगति के योग्य उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थान के ४६०८ भंग हैं और द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय के योग्य एवं तीर्थकर नाम सहित देवगति के योग्य उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थान के आठ-आठ भंग होते हैं । इस प्रकार उक्त सब भंगों को मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थान के कुल भंग ४६०८+४६०८++++ ८+८- ६२४८ होते हैं।
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साति: म...
तीस प्रकृतिक बन्धस्थान के कुल भंग ४६४१ होते हैं। क्योंकि तिर्यंचगति के योग्यं तीस प्रकृतिक बंध करने वाले के ४६०८ भंग होते हैं तथा द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और मनुष्यगति के योग्य तीस प्रकृति का बध करने वाले जीवों के आठ-आठ भंग हैं और आहारक के साथ देवगति के योग्य तीस प्रकृति का बन्ध करने वाले के एक भंग होता है। इस प्रकार उक्त भंगों को मिलाने पर तीस प्रकृतिक बन्धस्थान के कुल भंग ४६०८++८ |-+++१=४६४१ होते हैं।
इकतीस प्रकृतिक और एक प्रऋतिक बन्ध्रस्थान का एक-एक भंग होता है।
इस प्रकार से इन सब बन्धस्थानों के भंग १३६४५ होते हैं । वे इस तरह समझना चाहिये-४-२५+१६+६+६२४८ ---४६४१+१F १-१३९४५ ।
नामकर्म के बन्धस्थान और उनके कुन भंगों का विवरण पृष्ठ १५६ की तालिका में देखिये।
नामकर्म के बंधस्थानों का कथन करने के पश्चात अब उदयस्थानों को बतलाते हैं।
वीसिगवीसा चवीसगाइ एगाहिया उ इगतीसा। उदयट्ठाणाणि भवे नव अट्ट य हुंलि नामस्स ॥२६॥
१ तुलना कीजिये--- (क) अइनववीमिययीसा च उनीमे गहिन जाव इगितीसा। चउगइएसं वारस उदयट्ठाणाई नामस्स ||
-पंचसंग्रह सप्ततिका, गा० ७३ (ब) बीस इगिचउवीसं तत्तो इकितीसओ ति एयश्रियं । जदयट्ठाणा एवं णव अट्ट व होति ग्रामस्स ।।
- कर्मकांड, ५६२
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कम | बंघस्थान
मंग १३९४५
आगामी भवप्रायोग्य
बंधक
hahah
अपर्याप्त एकेन्द्रिय प्रायोग्य ४
तियं च, मनुष्य ४ एकेन्द्रिय २०, द्वीन्द्रिय १, श्रीन्द्रिय १, चतुरिन्द्रिय १, तियंच, मनुष्य २५, देव ८ पंचेन्द्रिय तिर्यच १, मनुष्य १ पर्याप्त एकेन्द्रिय प्रायोग्य १६
तिर्यच, मनुष्य व देव १६ | देवगति प्रायोग्य ८, नर कंगति प्रायोग्य १ । पंचेन्द्रिय निर्मच, मनुष्य
द्वीन्द्रिव ८, श्रीन्द्रिय ८, च. ८, पं० लि. ४६०८, मनुष्य तिर्यच १२४०, मनुष्य ६२४८, ४६०८, देव ८
देव ६२१६, ना, १२१६ द्वी. ६, श्री. ८, च, ८, पं. ति. ४६०८. मनुष्य ८, देव १ तिर्यच ४६३२, मनुष्य ४६३३
देव ४६१६, ना, ४६१६ देव प्रायोग्य १
मनुष्य ? अप्रायोग्य १
मनुष्य १
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सप्ततिका प्रकरण
शब्दार्थ-वीसिंगवीसा--बीस और इक्कीस का, चवीसगाइ-चौबीस से लेकर, एगालिया-एक-एक अधिक, और, इगतीसा-इकतीस तक, उदयट्ठाणाणि-उदयस्थान, भवे-होते हैं, नव अट्ठम -नौ और आठ प्रकृति का, हंति --होते हैं, नामस्सनामकर्म के।
गाथार्य-नामकर्म के बीस, इक्कीस और चौबीस से लेकर एक, एक प्रकृति अधिक इकतीस तक तथा आठ और नौ प्रकृतिक, ये बारह उदयस्थान होते हैं। विशेषार्थ-नामकर्म के बंधस्थान बतलाने के बाद इस गाथा में उदयस्थान बतलाये हैं। वे उदयस्थान बारह हैं। जिनकी प्रकृतियों को संख्या इस प्रकार है-२०, २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ८ और ह। इन उदयस्थानों का स्पष्टीकरण तिर्यंच, मनुष्य, देव और नरकगति के आधार से नीचे किया जा रहा हूं।
नामकर्म के जो बारह उदयस्थान कहे हैं, उनमें से एकेन्द्रिय जीव के २१, २४, २५, २६ और २७ प्रकृतिक, ये पांच उदयस्थान होते हैं। यहाँ तेजस, कार्मण, अगुरुल घु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णचतुष्क और निर्माण ये बारह प्रकृतियाँ उदय की अपेक्षा ध्र ब हैं। क्योंकि तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान तक इनका उदय नियम से सबको होता है । इन ध्रुवोदया बारह प्रवतियों में तिर्यंचगति, तिर्यचानुपूर्वी, स्थावर, पवेन्द्रिय जाति, बादर-सूक्ष्म में से कोई एक, पर्याप्त अपर्याप्त में से कोई एक, दुर्भग, अनादेय तथा यश:कीतिअयशःकीति में से कोई एक, इन नौ प्रकृतियों के गिला देने पर. इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह उदयस्थान भय के अपान्तराल में विद्यमान एकेन्द्रिय के होता है। __इस उदग्रस्थान में पांच भंग होते हैं, जो इस प्रकार हैं-यादर पर्याप्त, बादर अपर्याप्त, सूक्ष्म पर्याप्त, सुक्ष्म अपर्याप्त, इन चारों
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मंगों को अयशःकीर्ति के साथ कहना चाहिये जिससे चार भंग होते हैं तथा बादर पर्याप्त को यशः कीर्ति के साथ कहने पर एक भंग और होता है । इस प्रकार कुल पांच भंग होते हैं। यद्यपि उपर्युक्त २१ प्रकृतियों में विकल्परूप तीन घुगल होने के कारण २२२ - भंग होते हैं । किन्तु सूक्ष्म और अपयांप्त के साथ यशःकीति का उदय नहीं होता है, जिससे तीन भंग कम हो जाते हैं । भव के अपान्तराल में पर्याप्तियों का प्रारम्भ ही नहीं होता, फिर भी पर्याप्त नामकर्म का उदय पहले समय से ही हो जाता है और इसलिये अपान्तराल में विद्यमान ऐसा जीव लब्धि से पर्याप्तक ही होता है, क्योंकि उसके आगे पर्याप्तियों की पूर्ति नियम से होती है।
इन इक्कीस प्रकृतियों में औदारिक शरीर इंडसंस्थान, उपवाततथा प्रत्येक और साधारण इनमें से कोई एक इन चार प्रकृतियों को मिलाने पर तथा तिर्यंचानुपूर्वी प्रकृति को कम कर देने से शरीरस्थ एकेन्द्रिय जीव के चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां पूर्वोक्त पांच भंगों को प्रत्येक और साधारण से गुणा कर देने पर दस भंग होते हैं तथा वायुकायिक जीव के वैक्रिय शरीर को करते समय औदारिक शरीर के स्थान पर वैक्रिय शरीर का उदय होता है, अतः इसके वैक्रिय शरीर के साथ भी चौवीस प्रकृतियों का उदय और इसके केवन्द बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और अयशः कीर्ति, ये प्रकृतियां ही कहना चाहिये इसलिये इसकी अपेक्षा एक भंग हुआ। तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव के साधारण और यशःकीति का उदय नहीं होता अत: वायुकायिक को इनकी अपेक्षा भंग नहीं बताये हैं । इस प्रकार चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान में कुल ग्यारह भंग होते हैं।
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अनन्तर शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हो जाने के बाद २४ प्रकृतिक उस्मान के साथ पराघात प्रकृति को मिला देने पर २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है | यहाँ बादर के प्रत्येक और साधारण तथा यशः
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सप्ततिका प्रकरण
कीति और अयश:कोति के निमित्त से चार भंग होते हैं सथा सूक्ष्म के प्रत्येक और साधारण की अपेक्षा अयशःकीति के साथ दो भंग होते हैं । जिससे छह भंग तो ये हुए तथा वैक्रिय शरीर को करने वाला बादर वायुकायिक जीव जब शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हो जाता है, तब उसके २४ प्रकृतियों में पराधात के मिलाने पर पच्चीस प्रकृतियों का उदय होता है। इसलिये एका भंग इसका होता है। इस प्रकार पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में सव मिलकर सात भंग होते हैं। ___ अनन्तर प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के पूर्वोक्त २५ प्रकृतियों में उच्छवास के मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिका उदयस्थान होता है । यहां भी पूर्व के समान छह भंग होते हैं । अथवा शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जिस जीव के उच्छवास का उदय न होकर आतप और उद्योल में से किसी एक का उदय होता है, उसके छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी छह भंग होते हैं। वे इस प्रकार हैं-आतप और उद्योन का उदय बादर के ही होता है, मूक्ष्म के नहीं, अत: इनमें से उद्योन सहित बादर के प्रत्येक और साधारण तथा यश कीर्ति और अयश:कीति, इनकी अपेक्षा चार भंग हुए तथा आतप सहित प्रत्येक के यशःकीति और अयश कीर्ति, इनको अपेक्षा दो भंग हुए। इस प्रकार कूल छह भंग हुए। आसप का उदय लादर पृथ्वीकायिक के ही होता है, किन्तु उद्योत का उदय वनस्पतिकायिक के भी होता है और बादर वायुकायिक के वैकिय शरीर को करते समय उच्छ वास पर्याप्ति से पर्याप्त होने पर २५ प्रकृतियों में उच्छ् वास को मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । अत: यह एक भंग हुआ। इतनी विशेषता समझना चाहिये कि अग्नि कायिक और वायुकायिक जीवों के आतप, उद्योत और यशःक्रीति का उदय नहीं होता है । इस प्रकार छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में कुल १३ भंग होते हैं।
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उक्त छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त जीव के आतप और उद्योत में से किसी एक प्रकृति के मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी छह भंग होते हैं, जिनका स्पष्टीकरण आतप और उचीत में से किसी एक प्रकृति के साथ छल्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में किया जा चुका है।
इस प्रकार एकेन्द्रिय के पांच उदयस्थानों के कुल भंग ५+११+ ७+१३+६. = ४२ होते हैं। इसको संग्नह गाथा में कहा भी है
एगिषयउवएस पंच य एक्कार सत्त तेरस या।
छपकं कमसो भंगा बायला हंति सम्घ वि। अर्थात् एकेन्द्रिय के जो २१, २४, २५, २६ और २७ प्रकृतिक पाँच उदयस्थान बतलाये हैं उनमें क्रमशः ५, ११, ७, १३ और ६ भंग होते हैं और उनका कुल जोड़ ४२ होता है।
इस प्रकार से एकेन्द्रिय तिर्यंचों के उदयस्थानों का कथन करने के बाद अब विकलत्रिक और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के उदयस्थानों को बतलाते हैं।
द्वीन्द्रिय जीवों के २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये छह उदयस्थान होते हैं।
पहले जो नामकर्म की बारह ध्रुवोदय' प्रकृतियां बतला आये हैं, उनमें तिर्य चगति, तिर्यंचानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, स, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त में से कोई एक, दुर्भग, अनादेय तथा यक्ष:कीति और अयश कीति में से कोई एक, इन नौ प्रकृतियों को मिलाने पर इक्कीस प्रकृतिक उदशरथान होता है। यह उदयस्थान भव के अपान्तराल में विद्यमान जीव के होता है। यहाँ तीन भंग होते हैं, क्योंकि अपर्याप्त
१ तेजस, कार्मण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ वर्णचतुक और
निर्माण, ये बारह प्रकृतियाँ उदय की अपेक्षा ध्रुव है।
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सप्ततिका प्रकरण
के एक अयशः कीर्ति का उदय होता है, अतः एक भंग हुआ तथा पर्याप्त के यशः कीर्ति और अयशःकीर्ति के विकल्प से इन दोनों का उदय होता है अतः दी भंग हुए। इस प्रकार इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान में कुल तीन भंग हुए ।
इस इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान में औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, इंडसंस्थान सेवार्तसंहनन, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियों को मिलाने और तिर्यचानुपूर्वी को कम करने पर शरीरस्थ होन्द्रिय जीव के छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान के भंगों के समान तीन भंग होते हैं।
छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए द्वीन्द्रिय जीव के अप्रशस्त विहायोगति और पराधात इन दो प्रकृतियों के मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति की अपेक्षा दो भंग होते हैं। इसके अपर्याप्त नाम का उदय न होने से उसकी अपेक्षा भंग नहीं कहे हैं ।
अनन्तर श्वासोच्छ् वास पर्याप्ति से पर्याप्त होने पर पूर्वोक्त २८ प्रकृतिक उदयस्थान में उच्छवास प्रकृतिक के मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी यशःकीर्ति और अयशःकीति की अपेक्षा दो भंग होते हैं अथवा शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उद्योत का उदय होने पर उच्छवास के बिना २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी यशः कीर्ति और अयशःकोति की अपेक्षा दो भंग हो जाते है । इस प्रकार २६ प्रकृतिक उदयस्थान में कुल चार भंग होते हैं ।
भाषा पर्याप्त से पर्याप्त हुए जीव के उच्छवास सहित २६ प्रकृतियों में सुस्वर और दुःस्वर इनमें से कोई एक के मिला देने पर ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ पर सुस्वर और दुःस्वर तथा यश:कीर्ति और अयश: कीर्ति के विकल्प से चार भंग होते हैं अथवा प्राणापान पर्याप्त से पर्याप्त हुए जोव के स्वर का उदय न होकर यदि
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उसके स्थान पर उद्योत का उदय हो गया तो भी ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ यशःनीति और अयश:कीर्ति के विकल्प से दो ही भंग होते हैं। इस प्रकार तीस प्रकृतिक उदयस्थान में छह भंग होते हैं।
अनन्तर स्वर सहित ३० प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत के मिलाने पर इकतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ सुस्वर और दुःस्वर तथा यशःकीति और अयश कीर्ति के विकल्प से चार भंग होते हैं।
इस प्रकार द्वीन्द्रिय जीवों के छह उदयस्थानों (२१, २६, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक) में क्रमशः ३+३+२+४+६+४ कुल २२ भंग होते हैं । इसी प्रकार से श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में से प्रत्येक के छह-छह उदयस्थान और उनके भंग घटित कर लेना चाहिये । अर्थात् द्वीन्द्रिय की तरह ही त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी प्रकृतिक उदयस्थान तथा उनमें से प्रत्येक के भंग समझना चाहिये, लेकिन इतनी विशेषता कर लेना चाहिये कि द्वीन्द्रिय जाति के स्थान पर त्रीन्द्रिय के लिये त्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय के लिये चतुरिन्द्रिय जाति का उल्लेख कर लेवें।
कुल मिलाकर विकलत्रिकों के ६६ भंग होते हैं । कहा भी है
___सिंग तिग दुग बऊ छ चउ विगसाप असष्टि होर सिहं पि । अर्थात् द्वीन्द्रिय आदि में से प्रत्येक के २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक ये छह उदयस्थान हैं और उनके क्रमश: ३, ३, २, ४, ६ और ४ भंग होते हैं, जो मिलकर २२ हैं और तीनों के मिलाकर कुल २२४३=६६ भंग होते हैं ।
अब तिर्यच पंचेन्द्रियों के उदयस्थानों को बतलाते हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रियों के २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये छह उदयस्थान होते हैं।
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इन छह उदयस्थानों में से २१ प्रकृतिक उदयस्थान नामकर्म की बारह ध्रुवोदया प्रकृतियों के साथ तिर्यंचगति, तिर्यचानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, स, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त में से कोई एक, सुभग और दुभंग में से कोई एक, आदेय और अनादेय में से कोई एक यशःकीति और अयशः कीर्ति में से कोई एक इन नौ प्रकृतियों को मिलाने से बनता है । यह उदयस्थान अपान्तराल में विद्यमान तिर्यच पंचेन्द्रिय के होता है। इसके नौ भंग होते हैं। क्योंकि पर्याप्त नामकर्म के उदय में सुभग और दुभंग में से किसी एक का आदेय और अनादेय में से किसी एक का तथा यशः कीर्ति और अयशःकीति में से किसी एक का उदय होने से २x२x२= ८ भंग हुए तथा अपर्याप्त नामकर्म के उदय में दुभंग, अनादेय और अयशः कीर्ति, इन तीन अशुभ प्रकृतियों का ही उदय होने से एक भंग होता है ।
इस प्रकार २१ प्रकृतिक उदयस्थान में कुल नौ भंग होते हैं ।
किन्हीं आचायों का यह मत है कि सुभग के साथ आदेय का और दुर्भग के साथ अनादेय का ही उदय होता है। सार पर्याप्त नामकर्म के उदय में इन दोनों और अयश कीर्ति इन दो प्रकृतियों से गुणित कर देने पर चार भंग होते हैं तथा अपर्याप्त का एक, इस प्रकार २१ प्रकृतिक उदयस्थान में कुल पांच मंग होते हैं । इसी प्रकार मतान्तर से आगे के उदयस्थानों में भी गंगों की विषमता समझना चाहिये | 1
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अतः इस मत के अनुयुगलों को यशःकीर्ति
१ अपरे पुनराहः – सुभगादेये युगपदुदयमायातः दुर्भगाउनादेये च ततः पर्याप्तकस्य सुभगाऽऽदेय युगल दुर्म गाडनादेययुगलाभ्यां यशः कीर्ति अयशः कीर्ति भ्यां च चत्वारो मंगा: अपर्याप्तकस्य त्वेक इति, सर्व संख्यया पंच । एवमुत्तरत्रापि मतान्तरेण मंगवैषम्यं स्वधिया परिभावनीयम् ।
- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ. १८३
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शरीरस्थ नियंच पंचेन्द्रिय के २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। उक्त २१ प्रक तिक उदयस्थान में औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, छह संहननों में से कोई एक संहनन, उपघात और प्रत्येक, इन छह प्रकृतियों को मिलाने तथा तिर्यंचानुपूर्वी के निकाल देने पर यह २६ प्रकृतिक उदयस्थान बनता है।
इस २६ प्रकृतिक उदयस्थान के भंग २८६ होते हैं । क्योंकि पर्याप्त के पद संस्थान, छह संहनन और सुभग आदि तीन युगलों की संख्या को पररपर गुणित करने पर ६x६x२x२x२= २८८ भंग होते हैं तथा अपर्याप्त के हुंडसंस्थान, सेवात संहनन, दुर्भग, अनादेय और अयश-कीर्ति का ही उदय होता है अत: यह एक भंग हुआ। इस प्रकार २६ प्रकृतिक उदयस्थान के कुल २८६ भङ्ग होते हैं ।
शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के इस छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में पराघात और प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति में से कोई एक इस प्रकार इन दो प्रकृतियों के मिलाने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके भङ्ग ५७६ होते हैं। क्योंकि पूर्व में पर्याप्त के जो २८८ भङ्ग बतलाये हैं उनको प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति से गुणित करने पर २८८४२=५७६ होते हैं। ___ उक्त २८ प्रकृतिक उदयस्थान में उच्छ वास को मिला देने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके भी पहले के समान ५७६ भंग होते हैं । अथवा शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीत्र के उच्छ बास का उदय नहीं होता है. इसलिए उसके स्थान पर उद्योत को मिलाने पर भी २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसके भी ५.७६ भंग होले हैं। इस प्रकार २६ प्रकृतिक उदयस्थान के कुल भंग ५७६ + ५७६=११५२ होते हैं।
उक्त २९ प्रकृतिक उदयस्थान में भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त हुए
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सप्ततिका प्रकरण
जीव के सुस्वर और दु:स्वर में से किसी एक को मिलाने पर ३० प्रकतिक उदयस्थान होता है। इसके ११५२ भंग होते हैं। क्योंकि पहले २९ प्रकृतिक स्थान के उच्छ वास की अपेक्षा ५७६ भंग बतलाये हैं, उन्हें स्वरद्विक से गुणित करने पर ११५२ भंग होते हैं अथवा प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के जो २६ प्रकृतिक उदयस्थान बतलाया है, उसमें उद्योत को मिलाने पर ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके पहले की तरह ५७६ भंग होते हैं । इस प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थान के कुल मङ्ग १७२८ प्राप्त होते हैं। ___स्वर सहित ३० प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत नाम को मिला देने पर ३१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके कुल भंग ११५२ होते हैं । क्योंकि स्वर प्रकृति सहित ३० प्रकृतिक उदयस्थान के जो ११५२ भंग कहे हैं, वे ही यहाँ प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार सामान्य तियंच पंचेन्द्रिय के छह उदयस्थान और उनके कुल' भङ्ग २८६+५७६+ ११५२+१७२८+११५२= ४६०६ होते हैं।
अब वैक्रिय शरीर करने वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय की अपेक्षा बंधस्थान और उनके भङ्गों को बतलाते हैं । __वैक्रिय शरीर करने वाले तिर्यंच पंचेन्द्रियों के २५, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिका, ये पांच उदयस्थान होते हैं।
पहले जो तिथंच पंचेन्द्रिय के २१ प्रकृतिक उदयस्थान बतलाया है, उसमें वैक्रिय शरीर, बैंक्रिय अंगोपांग, समचतुरस्त्र संस्थान, उपघात और प्रत्येक इन पांच प्रकृतियों को मिलाने तथा तिर्यंचानुपूर्वी के निकाल देने पर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इस २५ प्रकृतिक उदयस्थान में सुभग और दुभंग में से किसी एक का, आदेय और अनादेय में से किसी एक का तथा यशःकीति और अयशःकीति
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में से किसी एक का उदय होने के कारण २x२२ = ८ भङ्ग
होते हैं।
अनन्तर शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के पराघात और प्रशस्त विहायोगति इन दो प्रकृतियों को २५ प्रकृतिक उदयस्थान में मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदय होता है. यहाँ भी पूर्ववत् क भङ्ग होते हैं ।
उक्त २७ प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छवास प्रकृति को मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पहले के समान आठ भङ्ग होते हैं । अथवा शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के यदि उद्योत का उदय हो तो भी २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है, यहाँ भी आठ भङ्ग होते हैं। इस प्रकार २८ प्रकृतिक उदयस्थान के सोलह भङ्ग होते हैं ।
अनन्तर भाषा पर्याप्त से पर्याप्त हुए जीव के उच्छवास सहित २८ प्रकृतियों में सुस्वर के मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी आठ भ होते हैं । अथवा प्राणापान पर्याप्त से पर्याप्त हुए जीव के उच्छवास सहित २८ प्रकृतियों में उद्योत को मिलाने पर भी २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसके भी आठ भङ्ग होते हैं । इस प्रकार २१ प्रकृतिक उदयस्थान के कुल सोलह भङ्ग होते हैं ।
अनन्तर सुस्वर सहित २६ प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने पर ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके भी आठ भङ्ग होते हैं ।
इस प्रकार बैकिय शरीर को करने वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के कुल उदयस्थान २५, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिक और उनके कुल भङ्ग ८+६+१६+१६+६५६ होते हैं। इन ५६ भङ्गों को पहले के सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यंच के ४६०६ भङ्गों में मिलाने पर सब तिमँचों के कुल उदयस्थानों के ४९६२ भङ्ग होते हैं ।
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सप्ततिका प्रकरण
इस प्रकार से तिर्यचों के एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के भेदों में उदयस्थान और उनके भङ्गों को बतलाने के पश्चात् अब मनुष्यगति की अपेक्षा उदयस्थान व भङ्गों का काथन करते हैं।
मनुष्यों के पदास्थानों का कथन सामान्य, वक्रियशरीर करने बाले, आहारक शरीर करने वाले और केवलज्ञानी की अपेक्षा अलगअलग किया जा रहा है ।।
सामान्य मनुष्य-सामान्य मनुष्यों के २५, २६, २८, २६ और ३० प्रकृतिक, ये पाँच उदयस्थान होते हैं। ये सब उदयम्यान तियं व पंचेन्द्रियों के पूर्व में जिस प्रकार कथन कर आये हैं, उसी प्रकार मनुष्यों को भी समझना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यों के नियंचगति, तिर्य चानुपूर्वी के स्थान पर मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी का उदय कहना चाहिये और २९ व ३० प्रकृतिक उदयस्थान उद्योत रहित कहना चाहिये, क्योंकि वैक्रिय और आहारक संयतों को छोड़कर शेष मनुष्यों के उद्योत का उदय नहीं होता है। इसलिय तियंचों के जो २६ प्रकृतिक उदयस्यान में ११५२ भङ्ग कहे उनके स्थान पर मनुष्यों के कुल ५७६ भङ्ग होते हैं। इसी प्रकार तिर्यचों के जो ३० प्रकृतिक उदयस्थान में १७२८ भङ्ग कहे, उनके स्थान पर मनुष्यों के कुल ११५२ भङ्ग प्राप्त होंगे।
इस प्रकार सामान्य मनुष्यों के पूर्वोक्त पाँच उदयस्थानों के कुल E+२ +५७६+५७६+ ११५२= २६०२ भङ्ग होते हैं।
पंक्रिय शरीर करने वाले मनुष्य-वैक्रिय शरीर को करने वाले मनुष्यों के २५, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिका, ये पाँच उदयस्थान होते हैं। बारह ध्रुवोदय प्रकृतियों के साथ मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, वक्रिय शरीर, वक्रिय अंगोपांग, समचतुरस्त्र, संस्थान, उपघात, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, सुभग और दुभंग में से कोई एक, आदेय और अनादेय में से कोई एक तथा यशःकीति और अयश कीति में से कोई
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एक, इन तेरह प्रकृतियों को मिलाने पर २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ सुभग और दुर्भग का, आदेय और अनादेय का तथा यश:जीति और अयशःकीर्ति का उदय विकल्प से होता है । अत: २४ २४२८ आठ भङ्ग होते हैं । बैंक्रिय शरीर को करने वाले देशविरत
और संयतों के शुभ प्रकृतियों का उदय होता है। ___ उक्त २५ प्रकृतिक उदयस्थान में शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के पराघात और प्रशस्त विहायोगति, इन दो प्रकृतियों को मिलाने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी २५ प्रकृतिक उपयस्थान की तरह आठ महोते हैं।
अनन्तर प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छ वास के मिलाने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां भी आठ भङ्ग होते हैं । अथवा उत्तर बंक्रिय शरीर को करने वाले संयतों के शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होने पर पूर्वोक्त २५ प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। संयत जीवों के दुर्भग, अनादेय और अयशःकीति, इन तीन अशुभ प्रकृतियों का उदय न होने से इसका एक ही भङ्ग होता है । इस प्रकार २८ प्रकृतिक उदयस्थान के कुल नौ भङ्ग होते हैं।
२८ प्रकृतिक उदयस्थान में सुस्वर के मिलाने पर २६ प्रकृतिक ज्दयस्थान होता है । यहाँ भी आठ भङ्ग होते हैं। अथवा संयतों के स्वर के स्थान पर उद्योत को मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका एक ही भङ्ग होता है। इस प्रकार २९ प्रकृतिक उदयस्थान के कुल ६ भङ्ग होते हैं।
सुस्वर सहित २६ प्रकृतिक उदयस्थान में संयतों के उद्योत नामकर्म को मिलाने पर ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसका सिर्फ एक भङ्ग होता है।
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सप्ततिका प्रकरण
इस प्रकार बंक्रिय शरीर करने वाले मनुष्यों के २५, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिक, पाँच उपयस्थान होते हैं और इन उदयस्थानों के क्रमशः ८÷८+६+६+१ = कुल ३५ भङ्ग होते हैं ।"
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आहारक संयत- आहारक संयतों के २५, २७, २५, २६, और ३० प्रकृतिक, ये पांच उदयस्थान होते हैं।
पहले मनुष्यगति के उदययोग्य २१ प्रकृतियाँ बतलाई गई हैं, उनमें आहारक शरीर, आहारक अंगोपाग, समचतुरस्र संस्थान, उपघात और प्रत्येक, इन पांच प्रकृतियों को मिलाने तथा मनुष्यानुपूर्वी को कम करने पर २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । आहारक शरीर के समय प्रशस्तै प्रकृतियों का ही उदय होता है, क्योंकि आहारक संयतों के अप्रशस्त प्रकृतियों - दुभंग दुस्वर और अयशःकीति प्रकृति का उदय नहीं होता है। इसलिए यहाँ एक ही भज होता है ।
अनन्तर उक्त २५ प्रकृतिक उदयस्थान में शरीर पर्याप्त से पर्याप्त
१ गो० कर्मकांड में वैपि वशरीर और वैक्रिय अंगोपांग का उदय देव और नारकों को बतलाया है, मनुष्यों और तिर्यों को नहीं । अतएव यहाँ बैक्रिय शरीर की अपेक्षा से मनुष्यों के २५ आदि प्रकृतिक उदयस्थान और उनके मंगों का निर्देश नहीं किया है। इसी कारण से वहाँ वायुकायिक और पंचेन्द्रिय तियंच के भी वैकिय शरीर की अपेक्षा उदयस्थानों और उनके मंगों को नहीं बताया। यद्यपि इस सप्ततिका प्रकरण में एकेन्द्रिय आदि जीवों के उदयप्रायोग्य नामकर्म की बंध प्रकृतियों का निर्देश नहीं किया है तथापि टीका से ऐसा प्रतीत होता है कि वहाँ देवगति और नरकगति की उदययोग्य प्रकृतियों में ही वैक्रिय शरीर और वैक्रिय अंगोपांग का ग्रहण किया गया है। जिससे ऐसा ज्ञात होता है कि तिच और मनुष्यों के वैक्रिय शरीर और वैक्रिय अंगोपांग का उदय नहीं होना चाहिए, तथापि कर्मप्रकृति के उदीरणा प्रकरण की गाथा में से इस बात का समर्थन होता है कि यथासम्भव तियंत्र और मनुष्यों के भी इन दो प्रकृतियों का उदय व उदीरणा होती है ।
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ममग्रन्थ
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हुए जीव के पराघात और प्रशस्त विहायोगति, इन दो प्रकृतियों के मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहां भी एक ही भङ्ग होता है।
२७ प्रकृतिक उदयस्थान में शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छ्वास नाभ को मिलाने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसका भी एक ही भङ्ग होता है । अथवा शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के पूर्वोक्त २७ प्रकृतिक उदग्रस्थान में उद्योत को मिलाने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका भी एक भङ्ग होता है। इस प्रकार २८ प्रकृतिक उदयस्थान के दो भङ्ग हुए।
अनन्तर भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छ वास सहित २८ प्रकृतिक उदयस्थान में सुस्वर के मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसका एक भङ्ग है । अथवा प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के सुस्वर के स्थान पर उद्योत नाम को मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसका भी एक भङ्ग है । इस प्रकार २६ प्रकृतिक उदयस्थान के दो भङ्ग होते हैं। ____ भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के स्वरसहित २६ प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने पर ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसका भी एक भङ्ग होता है।
इस प्रकार आहारक संयतों के २५, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिक, ये पांच उदयस्थान होते हैं और इन पांच उदयस्थानों के कमशः १+१+२+२+१=७ भंग होते हैं।'
१ गो० कर्मकांड की गाथा २६७ से ज्ञात होता है कि पांचवें गुणस्थान तक के जीवों के ही उद्योत प्रकृति का उदय होता है...
"दसे तदियकसाया तिरियावज्जोवणीचतिरियगदी।"
तथा गाथा २८६ से यह भी ज्ञात होता है कि उद्योत प्रकृति का उदय तिर्गचगति में ही होता है
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सप्ततिका प्रकरण
केवलज्ञानी- केवली जीवों के २०, २१, २६, २७, १८, २९, ३०, ३१, ६ और ८ प्रकृतिक ये दस उदयस्थान होते हैं ।
नामकर्म की बारह ध्रुवो दया प्रकृतियों में मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, स, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशः कीर्ति इन आठ प्रकृतियों के मिलाने से २० प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका एक भङ्ग होता है । यह उदयस्थान समुद्घातगत अतीर्थं केवली के काम काय योग के समय होता है ।
उक्त २० प्रकृतिक उदयस्थान में तीर्थकर प्रकृति को मिलाने पर २१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह उदयस्थान समुद्घातगत तीर्थकर केवली के कार्मणकाययोग के समय होता है। इसका भी एक भङ्ग है।
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२० प्रकृतिका उदयस्थान में औदारिक शरीर, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संहनन, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियों के मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह अतीर्थकर केवली के औदारिकमिश्र काययोग के समय होता है । इसके छह संस्थानों की अपेक्षा छह भङ्ग होते हैं, किन्तु वे सामान्य मनुष्यों के उदयस्थानों में भी सम्भव होने से उनकी पृथक से गणना नहीं की है ।
तेइतिगुणतिरितखे सुज्जोवो बादरे
पुणे |
इसी से कर्मकांड में आहारक संयतों के २५, २७, २० और २६ प्रकृतिक चार उदयस्थान बतलाये हैं। इनमें २४ और २७ प्रकृतिक उदयस्थान तो सप्ततिका प्रकरण के अनुसार जानना चाहिये। शेष रहे २८ और २६ प्रकृतिक उदयस्थान, इनमें से २६ प्रकृतिक उदयस्थान उच्छवास प्रकृति के उदय से और २६ प्रकृतिक उदयस्थान सुस्वर प्रकृतिक के उदय से होता है। अर्थात् २७ प्रकृतिक उदयस्थान में उच्छवास प्रकृति के मिलाने से २८ प्रकृतिक उदयस्थान और इस २८ प्रकृतिक उदयस्थान में सुस्वर प्रकृति के मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है ।
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पृष्ठ फर्मग्रन्थ
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२६ प्रकृति उदवस्थान में तीर्थकर प्रकृति को मिलाने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह स्थान तीर्थंकर केवली के औदारिक मिश्र काययोग के समय होता है । इस उदयस्थान में समचतुरस्र संस्थान का ही उदय होने से एक ही भङ्ग होता है।
पूर्वोक्त २६ प्रकृतिक उदयस्थान में पराधात उच्छ बास, प्रशस्त विहायोगति और अप्रशस्त विहायोगति में से कोई एक तथा सुस्वर और दुःस्वर में से कोई एक इन चार प्रकृतियों के मिलाने से ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह स्थान अतीर्थकर सयोगि केवली के औदारिक काययोग के समय होता है । यहाँ छह संस्थान, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति तथा सुस्वर और दुःस्वर की अपेक्षा ६×२x२=२४ भङ्ग होते हैं । किन्तु वे सामान्य मनुष्यों के उदयस्थानों में प्राप्त होते हैं, अत: इनकी पृथक् से गणना नहीं की गई है ।
३० प्रकृतिक उदयस्थान में तीर्थंकर प्रकृतिक को मिला देने पर ३१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह तीर्थंकर सयोगिकेवली के औदारिक काययोग के समय होता है तथा तीर्थंकर केवली जब वाक्योग का निरोध करते हैं तब उनके स्वर का उदय नहीं रहता है, जिससे पूर्वोक्त ३१ प्रकृतिक उदयस्थान में से एक प्रकृति को निकाल देने पर तीर्थंकर केवली के ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है । जब उच्छवास का निरोध करते हैं तब उच्छ् वास का उदय नहीं रहता, अतः उच्छवास को घटा देने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । किन्तु अतीर्थंकर केवली के तीर्थंकर प्रकृतिक का उदय नहीं होता है अतः पूर्वोक्त ३० और २६ प्रकृतिक उदयस्थानों से तीर्थकर प्रकृति को कम कर देने पर अनीर्थकर केवली के वचनयोग का विरोध होने होने पर २६ प्रकृतिक और उच्छवास का निरोध होने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है | अतीर्थंकर केवली के इन दोनों उदयस्थानों में छह संस्थान और प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, इन दोनों की अपेक्षा
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१७६
सप्ततिका प्रकरण
१२,१२ भङ्ग होते हैं। किन्तु वे सामान्य मनुष्यों के उदयस्थानों में सम्भव होने से उनकी अलग से गिनती नहीं की है।
प्रकृतिक उदयस्थान में मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, अस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीति और तीर्थकर, इन नौ प्रकृतियों का उदय होता है। यह नौ प्रकृतिक उदयस्थान तीर्थंकर केवली के अयोगिकेवती गुणस्थान में प्राप्त होता है। इस उदयस्थान में से तीर्थकर प्रकृति को घटा देने पर आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह अयोगिकेवली गुणस्थान में अतीर्थंकर केवली के होता है।
यहाँ केवली के उदग्रस्थानों में २०,२१,२७,२६,३०,३१, ६ और ८ इन आठ उदयस्थानों का एक-एक विशेष भङ्ग होता है। अत: आठ भङ्ग हुए। इनमें से २० प्रशिक, और निक, दो उदयस्थानों के दो भङ्ग अतीर्थंकर केवली के होते हैं तथा शेष छह भङ्ग तीर्थंकर केवली के होते हैं।'
इस प्रकार सब मनुष्यों के उदरस्थान सम्बन्धी कुल भङ्ग २६०२+३५+७+८= २६५२ होते हैं ।
अब देवों के उदयस्थान और उनके भङ्गों का कथन करते हैं ।
देवों के २१, २५, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिक, चे छह उदयस्थान होते हैं।
नामकर्म की ध्रुवोदया बारह प्रकृतियों में देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, अस, बादर, पर्याप्त, सुभग और दुर्भग में से कोई एक, आदेय और अनादेय में से कोई एक तथा यश:कीति और अयशःकीर्ति में से कोई एक, इन नौ प्रकृतियों के मिला देने पर २१ प्रकृतिक १ शह केवल्युदयस्थानमध्ये विशति एकविंशति-राप्तविंशति,एकोनविशत्-प्रिशद्
एकत्रिशद्-नवाऽष्टरूपैयष्टसूदयस्थानेषु प्रत्येमेककको विशेषमंगः प्राप्यते इमष्टो भंगाः । तत्र विशत्यष्टकयोभंगावतीर्थ कृतः शेषेषु षट्सु उदपस्थानेषु तीर्थ कृतः षड् भंगाः। --सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १८६
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पष्ठ कर्मग्रन्य
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उदयस्थान होता है । देवों के जो दुभंग, अनादेय और अयश:कोति का उदय कहा है, वह पिशाच आदि देवों की अपेक्षा समझना चाहिये। यहाँ सुभग और दुर्भग में से किसी एक, आदेय और अनादेय में से एक और यश:कीति और अयशःकीर्ति में से किसी एक का उदय होने से, इनकी अपेक्षा कुल २४२४२ मा होते हैं। ___ इस २१ प्रकृतिक उदयस्थान में दैकिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, उपघात, प्रत्येक और समचतुरस्र संस्थान, इन पाँच प्रकृतियों को मिलाने और देवगत्यानुपूर्वी को निकाल देने पर शरीरस्थ देव के २५. प्रकृतिक उपयस्वार होता है। यहां में पूर्ववत् आज म होते हैं। __ अनन्तर.२५ प्रकृतिक उदयस्थान में पराघात और प्रशस्त विहायोगति, इन दो प्रकृतियों को मिलाने पर शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए देवों के २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्वानुसार आठ भङ्ग होते हैं। देवों के अप्रशस्त विहायोगति का उदय नहीं होने से तनिमित्तक भङ्ग नहीं कहे हैं। ___ अनन्तर २७ प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए देश के उच्छवास को मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्वोक्त आठ भङ्ग होते हैं । अथवा शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए देवों के पूर्वोक्त. २७ प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहां भी आठ भङ्ग होते हैं। इस प्रकार २८ प्रकृतिक उदयस्यान में कुल १६ भाग होते हैं । ___ भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छ्वास सहित 15 प्रकृतिक उदयस्थान में सुस्वर को मिला देने पर २६ प्रकृतिक उदयस्यान होता है । यहाँ भी आठ भङ्ग पूर्ववत् जानना चाहिये । देवों के दुःस्थर प्रकृति का उदय नहीं होता है, अतः तन्निमित्तक भज यहां नहीं कहै हैं । अथवा प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छ वास
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सप्ततिका प्रकरण
सहित २८ प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत नाम को मिला देने पर २६ प्रकृतिक उपवन होता है. देश के उस नाम का उदय उत्तरविक्रिया करने के समय होता है। यहाँ भी पूर्ववत् आठ भङ्ग होते हैं । इस प्रकार २६ प्रकृतिक उदयस्थान के कुल भङ्ग १६ हैं ।
भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त हुए देवों के सुस्वर सहित २६ प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिला देने पर ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी आठ भङ्ग होते हैं ।
इस प्रकार देवों के २१, २५, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिक, ये छह उदयस्थान होते हैं तथा उनमें क्रमशः ८+६+६+१६+१६+ ८= ६४ भङ्ग होते हैं ।
अब नारकों के उदयस्थानों और उनके भङ्गों का कथन करते हैं ।
नारकों के २१, २५, २७, २८ और २६ प्रकृतिक, ये पाँच उदयस्थान होते हैं । यहाँ ध्रुवोदया बारह प्रकृतियों के साथ नरकगति, 'नरकानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, दुभंग, अनादेय और अयशः कीर्ति इन नौ प्रकृतियों को मिला देने पर २१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । नारकों के सब अप्रशस्त प्रकृतियों का उदय है, अतः यहाँ एक भङ्ग होता है ।
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अनन्तर शरीरस्थ नारक के वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, हुंडसंस्थान, उपघात और प्रत्येक इन पाँच प्रकृतियों को मिलाने और नरकानुपूर्वी के निकाल देने पर २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी एक भंग होता है।
शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए नारक के २५ प्रकृतिक उदयस्थान में पराघात और अप्रशस्त विहायोगति इन दो प्रकृतियों को मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका भी एक भङ्ग होता है।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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अनन्तर प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए नारक के २७ प्रकृतिक उदयस्थान में उच्छ् वास को मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी एक ही भङ्ग होता है ।
भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के २८ प्रकृतिक उदयस्थान में दु:स्वर को मिला देने पर २१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसका भी एक भंग है ।
इस प्रकार नारकों के २१, २५, २७, २८ और २६ प्रकृतिक, ये पांच उदयस्थान होते हैं और इन पांचों का एक-एक भंग होने से कुल पाँच भंग होते हैं।
अब तक नामकर्म के एकेन्द्रिय से लेकर नारकों तक के जो उदयस्थान बताये गये हैं उनके कुल भंग ४२+६६+४९६२÷२६५२+ ६४+५=७७६१ होते हैं |
नामकर्म के उदयस्थानों व भंगों का निर्देश करने के अनन्तर अब दो गाथाओं में प्रत्येक उदयस्थान के भंगों का विचार करते हैं । एग बियालेक्कारस तेत्तीसा छस्सयाणि तेतीसा । वारससत्तरससयाणहिगाणि बिपंचसीईहि ॥२७॥ अणसी सेक्कार सस्याहिगा सतरसपंचसट्ठीहि । secret च सावदयंतेसु उदयविही ॥ २८ ॥
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शब्दार्थ --- एग एक, बियालेक्कारस—दयालीस ग्यारह, तेतीसा-तीस छत्यागि छह सौ तेत्तीसा - तेतीस, बारससप्तर ससयाहिगाणि - बारह सौ और सत्रह सौ अधिक, बिवसीईहिदो और पचासी अउणत्ती सेवकार ससया हिंगा - उनतीस सौ और ग्यारह सौ अधिक स्तरसपंचसट्ठीहि सत्रह और पैंसठ इवकेषकएक-एक, गोसावतेसु - बीस प्रकृति के उदयस्थान से आठ प्रकृति के स्थान तक, वयविही- उदय के मंग
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सप्तविका प्रकरण
गापार्थ --- बीस प्रकृति के उदयस्थान से लेकर माठ प्रकृति के उदयस्थान पर्यन्त अनुक्रम से १, ४२, ११,३३,६००, ३३, १२०२, १७८५, २६१७, ११६५, १, और १ भंग होते हैं । ' विशेषार्थ पहले नामकर्म के २०, २१, २४, २५, २६, २७, २८, २६, ३०, ३१, ६ और ८ प्रकृतिक, इस प्रकार १२ उदयस्थान बतलाये गये हैं तथा इनमें से किस गति में कितने उदयस्थान और उनके कितने भंग होते हैं, यह भी बतलाया जा चुका है। अब यहाँ यह अतलाते हैं कि उन में से किस उदयस्थान के कितने भंग होते हैं ।
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ate प्रकृतिक उपस्थान का एक भंग है । वह अनीर्थकर केवली के होता है । २१ प्रकृतिक उदयस्थान के ४२ भंग हैं। वे इस प्रकार समझना चाहिये - एकेन्द्रियों की अपेक्षा ५, विकलेन्द्रियों की अपेक्षा ६, सियंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा है, मनुष्यों की अपेक्षा, तीर्थंकर की अपेक्षा १ देवों की अपेक्षा ८ और नारकों को अपेक्षा १ । इन सब का जोड़ ५+ε+8+8+१+६+१-४२ होता है।
२४ प्रकृतिक उदयस्थान एकेन्द्रियों को होता है, अन्य को नहीं
१ यो० कर्मकांड गाथा ६०३ – ६०५ तक में इन २० प्रकृतिक आदि उदयस्थानों के भंग क्रमश: १, ६०, २७ १६, ६२०, १२, ११७५, १७६०, २६२१, ११६१, १, १ बतलाये हैं । जिनका कुल जोड़ ७७५८ होता है
"बीसादीनं भंगा इनिवालपदे संभवा कमसो I एक्कं सड्डी चैव य सत्तावीसं च उगुवीसं ॥ वीसुत्तरच्चसया बारस पण तरीहि संजुत्ता । एक्कारससयसंखा उत्तरसस्याहिया सट्टी ॥ कपत्तीसाहियएक्कावीसा तदोवि एकट्ठी एक्कारससयसहिया एक्क्क विसरिसमा भंगा
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पष्ठ कर्मग्रन्थ
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और २४ प्रकृतिक उदयस्थान में एकेन्द्रिय की अपेक्षा ११ भंग प्राप्त होते हैं । अतः २४ प्रकृतिक उदयस्थान में ११ भंग होते हैं।
२५ प्रकृतिक उदयस्थान के एकेन्द्रियों की अपेक्षा ७, बैंक्रिय शरीर करने वाले तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा ८, वैक्रिय शरीर करने वाले मनुष्यों की अपेक्षा ८, आहारको संयतों की अपेक्षा १, देवों की अपेक्षा ८ और नारकों की अपेक्षा १ भंग बतला आये हैं। इन सबका जोड़ ७+++१++१=३३ होता है। अत: २५ प्रकृतिक उदयस्थान के ३३ भंग होते हैं।
२६ प्रकृतिक उदयस्थान के भंग ६०० हैं। इनमें एकेन्द्रिय की अपेक्षा १३, विकलेन्द्रियों की अपेक्षा ह, प्राकृत तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा २८८ और प्राकृत मनुष्यों की अपेक्षा २८६ भङ्ग होते हैं । इन सबका जोड़ १३+६+२८६+२८९ =६०० होता है । ये ६० भङ्ग २६ प्रकृतिक उदयस्थान के हैं।
२७ प्रकृतिक उदयस्थान के एकेन्द्रियों की अपेक्षा ६, वैक्रिय तिर्यच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा ८, वैक्रिय मनुष्यों की अपेक्षा ८, आहारक संयतों की अपेक्षा १, केवलियों की अपेक्षा १, देवों की अपेक्षा ८ और नारकों की अपेक्षा १ भङ्ग पहले बतला आये हैं । इनका कुल जोड़ ३३ होता है । अतः २७ प्रकृतिक उदयस्थान के ३३ भङ्ग होते हैं।
२८ प्रकृतिक उदयस्थान के विकलेन्द्रियों की अपेक्षा ६, प्राकृत तियं च पंचेन्द्रियों की अपेक्षा ५७६, वैक्रिय तिर्यच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा. १६, प्राकृत मनुष्यों की अपेक्षा ५७६, वैक्रिय मनुष्यों की अपेक्षा है, आहारकों की अपेक्षा २, देवों की अपेक्षा १६ और नारकों की अपेक्षा १ भङ्ग बतला आये हैं। इनका कुल जोड़ ६+५७६+१६+५७६+ ६+२+१६+१-१२०२ होता है । अत: २८ प्रकृतिक उदयस्थान के १२०२ भङ्ग होते हैं।
२६ प्रकृतिक उदयस्थान के भङ्ग १७८५ हैं। इसमें विकलेन्द्रियों
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सप्ततिका प्रकरण
की अपेक्षा १२, तिथंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा ११५२ वैक्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा १६, मनुष्यों की अपेक्षा ५७६, वैकिय मनुष्यों की अपेक्षा है, आहारक संयतों की अपेक्षा २, तीर्थंकर की अपेक्षा २, देवों की अपेक्षा १६ और नारकों की अपेक्षा ? भङ्ग है । इनका जोड़ १२+११५२+१६+५७६+९+१+१+१६+१-१७८५ होता है । अतः २६ प्रकृतिक उदयस्थान के कुल भङ्ग १७८५ प्राप्त होते हैं।
३० प्रकृतिक उदयस्थान में विकलेन्द्रियों की अपेक्षा १८ तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा १७२८, बैकिय तिर्यच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा ८, मनुष्यों की अपेक्षा ११५२, वैक्रिय मनुष्यों की अपेक्षा १, आहारक संयतों की अपेक्षा १, कलियों की अपेक्षा १ और देवों की अपेक्षा भङ्ग पूर्व में बतला आये हैं । इनका जोड़ १८+१७२८+६+११५२+ १+१+१+८=२६१७ होता है । अतः ३० प्रकृतिक उदयस्थान के २९१७ भङ्ग होते हैं ।
३१ प्रकृतिक उदयस्थान में विकलेन्द्रियों की अपेक्षा १२, तियंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा ११५२, तीर्थंकर की अपेक्षा १ भङ्ग पूर्व में बतलाया है, और इनका कुल जोड़ ११६५ है, अतः ३१ प्रकृतिक उदयस्थान के ११६५ भङ्ग कहे हैं ।
९. प्रकृतिक उदयस्थान का तीर्थंकर की अपेक्षा १ भंग होता है और ८ प्रकृतिक उदयस्थान का अतीर्थंकर की अपेक्षा १ भंग होता है। इन दोनों को पूर्व में बतलाया जा चुका है। अतः ९ प्रकृतिक और ८ प्रकृतिक उदयस्थान का १, १ भंग होता है ।
इस प्रकार २० प्रकृतिक आदि बारह उदयस्थानों के १+४२ + ११ +३३+६००+३३+१२०२+१७८५+२६१७ + ११६५+१+१= ७७९१ भंग होते हैं।
नामकर्म के उदयस्थानों के भंग व अन्य विशेषताओं सम्बन्धी विवरण इस प्रकार समझना चाहिये
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उदयस्थान
| २० | २१
२५
२६ ।
८.
२६ ।
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संख्या
कमग्रन्थ
३३ ६०० ।
२०२
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सर्व भंग एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय पं. तिष मनुष्य वक्रिम. तिर्यच वैक्रिय मनुष्य देव तीर्थकर केवली बैंक्रिय यति बाहारक नारक
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१-इम सब्दुदयविगप्पा एकागच्या समा उ सगसयरी । एत्तो संतवाणा ते वारस होति नामस्स ।।
-सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ प्राकृत टिप्पण
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सप्ततिका प्रकरण
नामकर्म के बंधस्थानों और उदयस्थानों का कथन करने के पश्चात् अब सत्तास्थानों का कथन करते हैं।
-A
तिबुनउई उगुनउई अट्ठच्छलसी असोइ उगुसीई । अयप्पणसारे नव अ य नामसंताणि ॥ २६ ॥ शब्दार्थ शिकुन उई -- तेरानवे, मानवे, उगुमराई - नवासी अटुलसी-अठासी छियासी, मसीह अस्सी, उसीई- उन्यासी, अट्टयम्रपणसरी अठहत्तर क्रियतर, पचहत्तर ती भट्ठ आठ, य- गौर, नामसंतापि नामकर्म के सत्तास्थान |
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१५४
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---
नाथानं--- नामकर्म के ६३,६२,६६,८६,८०,७६, ७८, ७६, ७५, ६ और ८ प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं । " विशेषार्थ - इस गाथा में नामकर्म के सत्तास्थानों को बतलाते हुए उनमें गर्भित प्रकृतियों की संख्या बतलाई है कि प्रत्येक सत्तास्थान कितनी - कितनी प्रकृति का है। इससे यह तो ज्ञात हो जाता है कि नामकर्म के सत्तास्थान बारह हैं और वे ६३, ६२ आदि प्रकृतिक हैं, लेकिन यह स्पष्ट नहीं होता है कि प्रत्येक सत्तास्थान में ग्रहण की गई प्रकृतियों के नाम क्या हैं, अतः यहाँ प्रत्येक सप्तास्थान में ग्रहण की गई प्रकृतियों के नामोल्लेखपूर्वक उनकी सख्या को स्पष्ट करते हैं ।
पहला सत्तास्थान ६३ प्रकृतियों का बतलाया है। क्योंकि नामकर्म की सब उत्तर प्रकृतियां ६३ हैं, अतः ९३ प्रकृतिक सत्तास्थान में
* कमंप्रकृति और संघ सप्ततिका में नामकर्म के १०३, १०२, १६, ६५२३,६०,८६,८४,८३,२६और प्रकृतिक, ये १२ सलास्थान बतलाये हैं | यहाँ बताये गये और इनं १०३ आदि संख्या के सत्तास्थानों में इतना अंतर है कि ये स्थान बंधन के १५ भेव करके बतलाये ये हैं । ८२ प्रकृतिक जो सत्तास्थान बतलाया है वह दो प्रकार से बतलाया हैं । विशेष जानकारी वहाँ से कर लेना चाहिये ।
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२ नामकर्म की १३ उत्तर प्रकृतियों के नाम प्रथम कर्मग्रन्थ में दिये हैं । अक्षः पुनरावृत्ति के कारण यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया है ।
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ
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सब प्रकृतियों की सत्ता स्वीकार की गई है। इन ६३ प्रकृतियों में से तीर्थंकर प्रकृति को कम कर देने पर ६२ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । ६३ प्रकृतिक सत्तास्थान में से आहारक शरीर आहारक अंगोपांग, आहारक संघात और आहारक बंधन, इन चार प्रकृतियों को कम कर देने पर प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । इस ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान मैं से तीर्थंकर प्रकृति को कम कर देने पर ८ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है ।
उक्त ८८ प्रकृतिक सत्तास्थान में से नरकगति और नरकानुपूर्वी की अथवा देवगति और देवानुपूर्वी की उवलना हो जाने पर ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है अथवा नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले ८० प्रकृतिक सत्तास्थान वाले जीव के नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैकिय शरीर, वैकिय अंगोपांग, वैकिय संघात और वैक्रिय बंधन इन छह प्रकृतियों का बंध होने पर ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । इस ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान में से नरकगति, नरकानुपूर्वी और वैक्रिय चतुष्क, इन छह प्रकृतियों की उद्बलना हो जाने पर ८० प्रकृतिक सत्तास्थान होता है अथवा देवगति, देवानुपूर्वी और वैक्रिय चतुष्क इन छह प्रकृतियों की उवलना हो जाने पर ८० प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। इसमें से मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी की उद्दलना होने पर ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है ।
उक्त सात सत्तास्थान अक्षपकों की अपेक्षा कहे हैं। अब क्षपकों की अपेक्षा सत्तास्थानों को बतलाते हैं ।
अब क्षपक जीव ६३ प्रकृतियों में से नरकगति, नरकानुपूर्वी, तिर्यंचगति, तचानुपूर्वी, जातिचतुष्क (एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, श्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति), स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण इन तेरह प्रकृतियों का क्षय कर देते हैं तब उनके ८० प्रकू
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सप्तत्तिका प्रकरण
तिक सत्तास्थान होता है। जब २२ प्रकृतियों में से इन तेरह प्रकृतियों का क्षय करते हैं, तब ७६ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है और जब ८६ प्रकृतियों में से इन तेरह प्रकृतियों का क्षय करते हैं तब ७६ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है तथा जब ८५ प्रकृतियों में से इन तेरह प्रकृतियों का क्षय कर देते हैं, तब ७५ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है ।
अब रहे और ८ प्रकृतिक सत्तास्थान । सो ये दोनों अयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में होते हैं। नौ प्रकृतिक सत्तास्थान में मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेश, यश:कीर्ति और तीर्थंकर, ये नौ प्रकृतियां है और इनमें से तीर्थंकर प्रकृतिक को कम कर देने पर प्रकृतिक, सतास्थान होता है । गो० कर्मकांड और नामकर्म के सत्तास्थान
पूर्व में गाथा के अनुसार बारह सत्तास्थानों का कथन किया गया । लेकिन गो० कर्मकांड में ९३,६२,६१,६०८५८४८२८०७६ ७८, ७७, १० और १ प्रकृतिक कुल तेरह सत्तास्थान बतलायें हैंतिथुणिउदी णउदी अरबो अहियसीवि सीवी य । ऊणासीबट्ठसरि सत्तसरि यस व जब सत्ता ॥ ६०६ ॥ विवेचन इस प्रकार है
यहाँ ६३ प्रकृतिक सत्तास्थान में नामकर्म की सब प्रकृतियों की सत्ता मानी है। उनमें से तीर्थंकर प्रकृति को घटाने पर ६२ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग, इन दो प्रकृतियों को कम कर देने पर ६१ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है | तीर्थकर आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग को कम कर देने पर १० प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। इसमें से देवद्विक की उवलना प्रकृतिक सत्तास्थान में से नरक
करने पर प्रकृतिक और इस
१ तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से गो० कर्मकांड का अभिमत यहां दिया है ।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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चतुष्क की उद्वलना करने पर ८४ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । इन ८४ प्रकृतियों में से मनुष्यद्विक की उबलना होने पर ८२ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है।
क्षपक अनिवृत्तिकरण के ६३ प्रकृतियों में से नरकद्विक आदि तेरह प्रकृतियों का क्षय होने पर ८० प्रकृतिक सत्तास्थान होता है तथा १२ प्रकृतियों में से उत्त, १३ प्रकृतियों का क्षय होने पर ७६ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है तथा इन्हीं १३ प्रकृतियों को ६१ प्रकृतियों में से कम करने पर ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। ६० में से इन्हीं १३ प्रकृतियों को घटाने पर ७७ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । तीर्थकर अयोगिकेवली के १० प्रकृतिक तथा सामान्य केली के प्रकृतिक सत्तास्थान होता है ।
इस प्रकार से नामकर्म के सत्तास्थान को बतलाने के पश्चात् अब आगे की गाथा में नामकर्म के बंधस्थान आदि के परस्पर संवेष का कथन करने का निर्देश करते हैं।
अटु य बारस बारस बंधोक्यसंतपडिठाणाणि । ओहेणावेसेण य जत्थ जहासंभवं विभजे ॥३०॥
शावार्थ-अह--आठ, य--और, पारस जारस-बारह, बारह, बंधोक्पसंतपडिठाणागि-बंध, उदय और सत्ता प्रकृतियों के स्थान, पोहेग---ओघ, सामान्य से, प्रादेसेण-विशेष से, य-और, जस्थ-जहाँ, अभास-यथासंभव, विभजे-विकल्प करना चाहिए।
___ गाथार्ष-नामकर्म के बंध, उदय और सत्ता प्रकृति स्थान क्रम से आठ, बारह और बारह होते हैं । उनके ओघ
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सामान्य और हैं, उतने विकल्प करना चाहिये ।
सप्तलिका प्रकरण
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विशेष से यहाँ जिस स्थान सम्भव
विशेषायं ग्रन्थ में पद्यपि नामकर्म के पहले बंधस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान बतलाये जा चुके हैं कि नामकर्म के बंघस्थान आठ हैं, उदयस्थान बारह हैं और सत्तास्थान भी बारह हैं । फिर भी यहाँ पुनः सूचना इनके संवेध भंगों को बतलाने के लिये की गई है।
इन संवेध भंगों को जानने के दो उपाय हैं-- १. ओघ और २. आदेश 1 ओघ सामान्य का पर्यायवाची है और आदेश विशेष का । यहाँ ओघ का यह अर्थ हुआ कि जिस प्ररूपणा में केवल यह बतलाया जाए किं अमुक बंधस्थान का बंध करने वाले जीव के अमुक उदयस्थान और अमुक सत्तास्थान होते हैं, इसको ओघप्ररूपण कहते हैं । आदेश प्ररूपण में मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान और गति आदि मार्गणाओं में बंघस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थानों का विचार किया जाता है । ग्रन्थकार ने ओघ और आदेश के संकेत द्वारा यह स्पष्ट किया है कि दोनों प्रकार से बंधस्थान आदि के संवेध भंगों को यहाँ बतलाया जायेगा |
अब सबसे पहले ओघ से संवेध भङ्गों का विचार करते हैं। तब पंचोदय संता तेवीसे पण्णवीस छवोसे । अट्ठ चउरटुबोसे नव सत्तुगतीस तीसम्मि ॥ ३१ ॥
शब्दार्थ पंच- नौ और पांच सवयसंत्ता--उदय और सत्ता स्थान, तेबीसे तेईस, पण्णवीस छब्बीसे पच्चीस और छब्बीस के बंधस्थान में अट्ठ-आठ, चउर-चार, भट्ठवीसेअट्ठाईस के बंघस्थान में नबनौ, सत्त—सात, पतीस सोसम्म – उनतीस और तीस प्रकृतिक वंषस्थान में ।
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पष्ठ कर्मप्रम्ब
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एगेगमेगतीसे एगे एगृदय अटू संतम्मि। उबरयबंधे वस वस बेयगसंतम्मि ठाणाणि ॥३२॥
शम्बार्ष-एगैन-एक, एक, एगतीसे--- इकतीस प्रकृतिक संघस्थान में, एगे-एक के बंधस्थान में, एगुदय-एक उदयस्पान, भट्ट संतम्मि-आठ सत्तास्थान, अबरब-बैष के अभाव में, प्रस रस-दस-दस, वेयग--उदय में, संतम्मि-सत्ता में, ठाणाणि-- स्थान ।
वोतों गापा- लेईस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक बंधस्थानों में नौ-नौ उदयस्थान और पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं । अट्ठाईस के बंधस्थान में आठ उदयस्थान और चार सत्तास्थान होते हैं । उनतीस एवं तीस प्रकृतिक बंधस्थानों में नौ उदयस्थान तथा सत्तास्थान होते हैं ।
इकतीस प्रकृतिक बंधस्थान में एक उदयस्थान व एक सत्तास्थान होता है । एक प्रकृतिक बंधस्थान में एक उदयस्थान और आठ सत्तास्थान होते हैं। बंध के अभाव में उदय और सत्ता के दस-दस स्थान जानना चाहिए।
१ तुलना कीजिये
नव पंचीदयसत्ता तेवीसे पण्णवीसव्वीसे । अट्ठ चउरटुवीसे नक्सन्तिगतीसतीसे य॥ एस्केप इगतीसे एषके एक्कुदय अटु संतसा । उपरय बंधे दस दस नामोदयसंतठागाणि ।।
-यह सप्ततिका, गा० १,१०० णवपेचोदयसत्ता तेवीसे, पाणुवीस छन्वीसे । अट्ठ चदुरबीसे गवसत्तुगुतीसतीसम्मि ।। एगेगं इगितीसे एगे एगुदय मठ्ठ सत्ताणि । उपरदबंधे दस दस 'उवयंसा होति णियमेणं ॥
—गो कर्मकार, गा. ७४०,५४१
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सप्ततिका प्रकरण
विशेषाध-इन दो गाथाओं में यह बतलाया गया है कि किस बंधस्थान में कितने उदयस्थान और कितने सत्तास्थान होते हैं। लेकिन यह शात नहीं होता है कि वे उदय और सत्तास्थान कितनी प्रकृति वाले हैं और कौन-कौन से हैं। अत: इस बात को आचार्य मलयगिरि कृत टीका के आधार से स्पष्ट किया जा रहा है।
तेईस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक बंधस्थानों में से प्रत्येक में नौ उदयस्थान और पांच सत्तास्थान हैं-'नव पंचोदय संत्ता......। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- तेईस प्रकृतिक बंधस्थान में अपर्याप्त एकेन्द्रिय योग्य प्रकृतियों का बंध होता है और इसको एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य बांधते हैं। इन तेईस प्रकृतियों को बचाने वाले जीवों के सामान्य से २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये नौ उदयस्थान होते हैं । इन उदयस्थानों को इस प्रकार घटित करना चाहिये---जो एकेन्द्रिय, दौन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिथंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य तेईस प्रकृतियों का बंध कर रहा है, उसको भव के अपान्तराल में तो २१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। क्योंकि २१ प्रकृतियों के उदय में अपर्याप्त एकेन्द्रिय के योग्य २३ प्रकृतियों का बंध सम्भव है। __ २४ प्रकृतिक उदयस्थान अपर्याप्त और पर्याप्त एकेन्द्रियों के होता है । क्योंकि यह उदयस्थान एकेन्द्रियों के सिवाय अन्यत्र नहीं पाया जाता है। २५ प्रकृतिक उदयस्थान पर्याप्त एकेन्द्रियों और वैक्रिय शरीर को प्राप्त मिथ्यादृष्टि तिर्यंच और मनुष्यों के होता है। २६ प्रकृतिक उदयस्थान पर्याप्त एकेन्द्रिय तथा पर्याप्त और अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के होता है। २७ प्रकृतिक उदयस्थान पर्याप्त एकेन्द्रियों और वैक्रिय शरीर को करने वाले तथा शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए मिध्यादृष्टि तिर्यच और मनुष्यों के होता है। २८, २९, ३० प्रकृतिका, ये तीन उदयस्थान
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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मिथ्यादृष्टि पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिथंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के होते हैं तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के होता है। उक्त उदयस्थान वाले जीवों के सिवाय शेष जीव २३ प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। अतः २३ प्रकृतिक बंधस्थान में उक्त २१ आदि प्रकृतिक ९ उदयस्थान होते हैं ।
२३ प्रकृतियों को बाँधने वाले जीत्रों के पांच सत्तास्थान हैं । उनमें ग्रहण की गई प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है - ६२,८८,८६, ८० और ७८ । इनका स्पष्टीकरण यह है- २१ प्रकृतियों के उदय वाले उक्त जीवों के तो सब सत्तास्थान पाये जाते हैं, केवल मनुष्यों के ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है, क्योंकि मनुष्यगति और मनुष्यनुपूर्वी की उलना करने पर ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । किन्तु मनुष्यों के इन दो प्रकृतियों को उद्बलना सम्भव नहीं है।
२४ प्रकृतिक उदयस्थान के समय भी पांचों सत्तास्थान होते हैं । लेकिन वैक्रिय शरीर को करने वाले वायुकायिक जीवों के २४ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते हुए ८० और ७८ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान नहीं होते हैं। क्योंकि इनके वैक्रियषट्क और मनुष्यद्विक की सत्ता नियम से है । ये जीव बँक्रिय शरीर का तो साक्षात ही अनुभव कर रहे हैं । अतः इनके वैक्रियद्विक की उबलना सम्भव नहीं है और इसके अभाव में देवद्विक और नरकद्विक की भी उद्बलना सम्भव नहीं है, क्योंकि वैकियषट्क की उद्बलना एक साथ ही होती है, यह स्वाभाविक नियम है और वैक्रियपट्क की उवलना हो जाने पर ही मनुष्यद्विक की उवलना होती है, अन्यथा नहीं होती है । चूर्णि में भी कहा है
जनकं उबले पच्छा मणुयगं जवले |
अर्थात् वैकियषट्क की उद्बलना करने के अनन्तर ही यह जीव मनुष्यद्विक की उलना करता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि
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सप्ततिका प्रकरण
वैक्रिय शरीर को करने वाले वायुकायिक जीवों के २४ प्रकृतिक उदयस्थान रहते ६२, ८८ और ५६ प्रकृतिक, सोम सतापाम हो होते हैं किन्तु ८० और ७८ प्रकृति वाले सत्तास्थान नहीं होते हैं।
२५ प्रकृतिक उदयस्थान के होते हुए भी उक्त पांच सत्तास्थान होते हैं। किन्तु उनमें से ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान बैंक्रिय शरीर को नहीं करने वाले वायुकायिक जीवों के तथा अग्निकायिक जीवों के ही होते हैं, अन्य को नहीं, क्योंकि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों को छोड़कर अन्य सब पर्याप्त जीव नियम से मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी का बंध करते हैं
तेवाऊबम्जो पग्नत्तगी मणुयगई नियमा बंधे। चूर्णिकार का मत है कि अग्निकायिक, वायुकायिक जीवों को छोड़कर अन्य पर्याप्त जीव मनुष्यगति का नियम से बंध करते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान अग्निकायिक जीवों को और वैक्रिय शरीर को नहीं करने वाले वायुकायिक जीवों को छोड़कर अन्यत्र प्राप्त नहीं होता है।
२६ प्रकृतिक उदयस्थान में भी उक्त पांच सत्तास्थान होते हैं। किन्तु यह विशेष है कि प्रकृतिक सत्तास्थान वैक्रिय शरीर को नहीं करने वाले वायुकायिक जीवों के तथा अग्निकायिक जीवों के होता है तथा जिन पर्याप्त और अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों में उक्त अग्निकायिक और वायुकायिक जीव उत्पन्न हुए हैं, उनको भी जब तक मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी का बंध नहीं हुआ है, तब तक ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है।
२७ प्रकृतिक उदयस्थान में ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान को छोड़कर शेष चार सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि २५ प्रकृतिक उदयस्थान अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों को छोड़कर पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय और वैक्रिय शरीर करने वाले तिथंच और मनुष्यों को
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होता है। परन्तु इनके मनुष्यद्विक की सत्ता होने से ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं पाया जाता है । .
यहाँ जिज्ञासु का प्रश्न है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के २७ प्रकृतिक उदयस्थान न पाये जाने का कारण क्या है ? तो इसका समाधान यह है कि एकेन्द्रियों के २७ प्रकृतिक उदयस्थान आतप.और उद्योत में से किसी एक प्रकृति के मिलाने पर होता है, किन्तु अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के आतप और उद्योत का उदय होता नहीं है । इसीलिये २७ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है।'
२८, २९, ३० और ३५ प्रकृतिक उदयस्थानों में ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान को छोड़कर शेष चार सत्तास्थान नियम से होते हैं। क्योंकि २८, २६ और ३० प्रकृतियों का उदय पर्याप्त विकलेन्द्रियों, तिथंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों को होता है और ३१ प्रकृतिक उदयस्धान पर्याप्त विकलेन्द्रियों और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों को होता है । परन्तु इन जीवों के मनुष्य गति, मनुष्यानुपूर्वी की सत्ता नियम से पाई जाती है। अत: उन उदयस्थानों में ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता.। इस प्रकार २३ प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के यथायोग्य नौ उदयस्थानों की अपेक्षा चालीस सत्तास्थान होते हैं।
२५ और २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के भी उदयस्थान और सत्तास्थान इसी प्रकार जानने चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि पर्याप्त एकेन्द्रिय योग्य २५, और २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले देवों के २१, २५, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिक उदयस्थानों में १२ और ८८ प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान ही प्राप्त होते हैं । अपर्याप्त १ अथ कथं तेजोवायूनां सप्तविंशत्युदयो न भवति येन तदर्जनं क्रियते ?
उच्यते- सप्तविंशत्युदय एकेन्द्रियाणामातप-उद्योतान्यतरप्रक्षेपे सति प्राप्यते, न च तेजोवायुष्वातप-उद्योतोदयः सम्भवति, ततस्तद्वर्जनम् ।
-सप्ततिका प्रकरण दीका, पृ० १६०
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सप्ततिका प्रकरण
विकलेन्द्रिय, तिथंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के योग्य २५ प्रकृतियों का बंघ देव नहीं करते हैं। क्योंकि उक्त अपर्याप्त जीवों में देव उत्पन्न नहीं होते हैं । अत: सामान्य से २५ और २६ प्रकृतिक, इनमें से प्रत्येक बंघस्थान में नौ उदयरथानों की अपेक्षा ४० सत्तास्थान होते हैं।
२३, २५ और. २६ प्रकृतिक बंधस्थानों को बतलाने के बाद अब २८ प्रकृतिक बंधस्थान के उदय व सत्तास्थान बतलाते हैं कि "अट्ट चउरट्ठवीसे" अर्थात् आठ उदयस्थान और चार सत्तास्थान होते हैं । आठ उदयस्थान इस प्रकार की संख्या वाले हैं–२१,२५,२६,२७,२८,२६,३०
और ३१ प्रकृतिक । २८ प्रकृतिक बंधस्थान के दो भेद हैं-१. देवगतिप्रायोग्य, २. नरकमति-प्रायोग्य ! इनमें से देवगति के योग्य २८ प्रकृतियों का बन्ध होते समय नाना जीवों की अपेक्षा उपर्युक्त आठों ही उदयस्थान होते हैं और नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध होते समय ३० और ३१ प्रकृतिक, ये दो ही उदयस्थान होते हैं ।
उनमें से देवगति के योग्य २८ प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के २१ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायिक सम्यम्हष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि पचेन्द्रिय तियंच, मनुष्यों के भव के अपान्तराल में रहते समय होता है । २५ प्रकृतिक उदयस्थान आहारक संयतों के और वैक्रिय शरीर को करने वाले सम्यग्दृष्टि या मिश्यावृष्टि मनुष्य और तिर्यंचों के होता है । २६ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि शरीरस्थ पंचेन्द्रिय तिथंच और मनुष्यों के होता है । २७ प्रकृतिक उदयस्थान आहारक संयतों के, सम्यग्दृष्टि या मिथ्या दृष्टि वक्रिय शरीर करने वाले तिर्यंच और मनुष्यों के होता है। २८
और २६ प्रकृतिक उदयस्थान कम से शरीर पर्याप्ति और प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए क्षायिक सम्यग्दृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्यों के तथा आहारक संयत, वैक्रिय संयत और दक्रिय शरीर को करने वाले सम्यादृष्टि या मिथ्यादृष्टि तिर्यंच और
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पछ कर्मग्रन्थ
मनुष्यों के होते हैं । ३० प्रकृतिक उदयस्थान सम्यग्दृष्टि, मिथ्या दृष्टि या सम्यमिथ्यादृष्टि तिर्यच और मनुष्यों के तथा आहारक संयत और वैक्रिय संयतों के होता है। ३१ प्रकृतिक उदयस्थान सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के होता है।
नरक गति के योग्य २८ प्रकृतियों का बंध होते समय ३० प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्या दृष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों के होता है तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यचों को होता है।
अब २८ प्रकृतिक बंधस्थान में सत्तास्थानों की अपेक्षा विचार करते हैं । २८ प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के सामान्य से ६२, ८६, ८८ और ८६ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान हैं। उसमें भी जिसके २१ प्रकृतियों का उदय हो और देवगति के योग्य २८ प्रकृतियों का बंध होता हो, उसके १२ और ८ ये दो ही सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि यहाँ तीर्थकर प्रकृति की सत्ता नहीं होती है । यदि तीर्थकर प्रकृति की सत्ता मानें तो देवगति के योग्य २८ प्रकृतिक बंधस्थान नहीं बनता है।
२५ प्रकृतियों का उदय रहते हुए २८ प्रकृतियों का बंध आहारक संयत और वैक्रिय शरीर को करने वाले तिर्यंच और मनुष्यों के होता है। अत: यहाँ भी सामान्य से ६२ और ८५ प्रकृतिक, ये दो ही सत्तास्थान होते हैं। इनमें से आहारक संयतों के आहारकचतुष्क की सत्ता नियम से होती है, जिससे इनके ६२ प्रकृतियों की ही सत्ता होगी। शेष जीवों के आहारकचतुष्क की सत्ता हो भी और न भी हो, जिससे इनके दोनों सत्तास्थान बन जाते हैं।
२६, २७, २८ और २६ प्रकृतियों के उदय में भी ये दो ६२ और म प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं।
३० प्रकृतिक उदयस्थान में देवगति या नरकगति के योग्य २८ प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के सामान्य से ६२, ८६, ८८ और ८६ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान होते हैं । इनमें से १२ और ८८ प्रकृतिक
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सप्ततिका प्रकरण
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सत्तास्थानों का विचार तो पूर्ववत् है और शेप दो सत्तास्थानों के बारे में यह विशेषता नाहिए कि किसी एक समुदय ने नरकायु का बंध करने के बाद वेदक सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया, अनन्तर मनुष्य पर्याय के अन्त में वह सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यादृष्टि हुआ तब उसके अन्तिम अन्तर्मुहुर्त में तीर्थंकर प्रकृति का बंध न होकर २८ प्रकृतियों का ही बंध होता है और सत्ता में ह प्रकृतियाँ ही प्राप्त होती है, जिसमे यहाँ पर प्रकृतियों की सत्ता बनलाई है । ३ प्रकृतियों में से तीर्थकर आहारकचतुष्क, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी और वैक्रिय चतुष्क इन १३ प्रकृतियों के बिना ८० प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । इस प्रकार ८० प्रकृतियों की सत्ता वाला कोई जीव पंचेन्द्रिय तिर्यच या मनुष्य होकर सब पर्याप्तियों की पूर्णता को प्राप्त हुआ और अनम्तर यदि वह विशुद्ध परिणाम वाला हुआ तो उसने देवगति के योग्य २८ प्रकृतियों का बंध किया और इस प्रकार देवद्विक और वैक्रिय चतुष्क की सत्ता प्राप्त की, अत: उसके २८ प्रकृतियों के बंध के समय ८६ प्रकृतियों की सत्ता होती है और यदि वह जीव संक्लेश परिणाम वाला हुआ तो उसके नरकगति योग्य २८ प्रकृतियों का बंध होता है और इस प्रकार नरकद्विक और वैकियचतुष्क की सत्ता प्राप्त हो जाने के कारण भी ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। इस प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थान में २८ प्रकृतियों का बंध होते समय ६२, और ६ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान
होते हैं ।
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३१ प्रकृतिक उदयस्थान में १२, ८८ और ८६ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं। यहाँ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है । क्योंकि जिसके २८ प्रकृतियों का बंध और ३१ प्रकृतियों का उदय है, वह पंचेन्द्रिय तिर्यच ही होगा और तिर्यंचों के तीर्थंकर प्रक्रति की सत्ता नहीं है, क्योंकि तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला मनुष्य तिथंचों में
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वष्ठ कर्मग्रम्य
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उत्पन्न नहीं होता है । इसीलिये यहाँ ६ प्रकृतिक सत्तास्थान का निषेध किया है ।
२९ और ३० प्रकृतिक बंधस्थानों में से प्रत्येक में ६ उदयस्थान और ७ सत्तास्थान होते हैं- "नवसन्त्तुगतीस तीसम्मि"। इनका विवेचन नीचे किया जाता है।
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२६ प्रकृतिक बंधन में २१२४ २५ २६ २७ २ २६ ३० और ३१ प्रकृतिक, ये है उदयस्थान हैं तथा ३९२६८० और ७८ प्रकृतिक, ये ७ सत्तास्थान हैं। इनमें से पहले उदयस्थानों का स्पष्टीकरण करते हैं कि २१ प्रकृतियों का उदय तिर्यंच और मनुष्यों के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले पर्याप्त और अपर्याप्त एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्यों के और देव व नारकों के होता है । २४ प्रकृतियों का उदय पर्याप्त एकेन्द्रियों के देव और नारकों के तथा वैकिय शरीर को करने वाले मिथ्यादृष्टि तियंत्र और मनुष्यों के होता है । २६ प्रकृतियों का उदय पर्याप्त एकेन्द्रियों के तथा पर्याप्त और अपर्याप्त विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के होता है। २७ प्रकृतियों का उदय पर्याप्त एकेन्द्रियों के देव और नारकों तथा वैकिय शरीर को करने वाले मिथ्यादृष्टि तिर्यच और मनुष्यों को होता है । २८ और २६ प्रकृतियों का उदय विकलेन्द्रिय, तियंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के तथा वैक्रिय शरीर को करने वाले तिर्यंच और मनुष्यों के तथा देव और नारकों के होता है । ३० प्रकृतियों का उदय विकलेन्द्रिय, तिर्यच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के तथा उद्योत का वेदन करने वाले देवों के होता है और ३१ प्रकृतियों का उदय उद्योत का वेदन करने वाले पर्याप्त विकलेन्द्रिय और तिच पंचेन्द्रियों के होता है तथा देवगति के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्यों के २१, २६, २८, २९ और ३० प्रकृतिक, ये पांच उदयस्थान होते हैं। आहारक संयतों और वैक्रिय संयतों के २५, २७, २८, २६ और ३०
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सप्ततिका प्रकरण
प्रकृतिक, ये पांच उदयस्थान होते हैं। वैक्रिय शरीर को करने वाले असंयत और तासंगन मनुष्यों के हिला दयस्थान होते हैं । मनुष्यों में संयतों को छोड़कर यदि अन्य मनुष्य वैक्रिय शरीर को करते हैं तो उनके उद्योत का उदय नहीं होता। अतः यहाँ ३० प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है । इस प्रकार २६ प्रकृतिक बंधस्थान में उदयस्थानों का विचार किया गया कि २१, २४, २५, २६, २७, २८, २६, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये नौ उदयस्थान हैं । ___अब सत्तास्थानों का विचार करते हैं। पूर्व में संकेत किया गया है कि २६ प्रकृतिक बंधस्थान में ६३, ९२, ८६, ८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृति वाले सात सत्तास्थान हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- यदि विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले पर्याप्त और अपर्याप्त एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय तथा तियंच पंचेन्द्रिय जीवों के २१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है तो वहाँ ६२, ८८, ८६, ८० और ७८, ये पांच सत्तास्थान होते हैं। इसी प्रकार २४, २५ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानों में उक्त पाँच सत्तास्थान जानना चाहिये तथा २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, इन पाँच उदयस्थानों में ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान को छोड़कर शेष चार सत्तास्थान होते हैं । इसका विचार जैसा २३ प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के कर आये है वैसा ही यहाँ भी समझ लेना चाहिए। मनुष्यगति के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के तथा मनुष्य व तिर्यंचगति के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले मनुष्यों के अपनेअपने योग्य उदयस्थानों में रहते हुए ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान को छोड़कर शेष चार वे ही सत्तास्थान होते हैं। तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यगति के योग्य २९ प्रकृतियों का बंध करने वाले देव और नारकों के अपने अपने उदयस्थानों में ६२ और ८८ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान
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षष्ठ कर्मग्रन्य
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होते हैं किन्तु मनुष्यगति के योग्य २६ प्रकृतियों का बन्ध करने वाले मिथ्याष्टि नारक के तीर्थंकर प्रकृति को सता रहते हुए अपने पांच उदयस्थानों में एक ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है। क्योंकि जो तीर्थकर प्रकृति सहित हो वह यदि आहारकचतुष्क रहित होगा तो ही उसका मिथ्यात्व में जाना संभव है, क्योंकि तीर्थकर और आहारकचतुष्क इन दोनों की एक साथ सत्ता मिथ्याइष्टि गुणस्थान में नहीं पाये जाने का नियम है।' अतः ६३ में से आहारकचतुष्क को निकाल देने पर उस नारक के ८६ प्रकृतियों की ही सत्ता पाई जाती है।
तीर्थकर प्रकृति के साथ देवगति के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य के २१ प्रकृतियों का उदय रहते हुए ६३ और ८६ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं । इसी प्रकार २५, २६, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिक, इन छह उदयस्थानों में भी ये ही दो सत्तास्थान जानना चाहिये । किन्तु आहारक संयतों के अपने योग्य उदयस्थानों के रहते हुए ६३ प्रकृतिक सत्तास्थान ही समझना चाहिये ।
इस प्रकार सामान्य से २६ प्रकृतिक बंधस्थान में २१ प्रकृतियों के उदय में ७, चौबीस प्रकृतियों के उदय में ५, पच्चीस प्रकृतियों के उदय में ७, छब्बीस प्रकृतियों के उदय में ७, सत्ताईस प्रकृतियों के
तित्थाहारा जुगवं सत्वं तित्यं ण मिच्छगादितिए । तस्सत्तकम्मियाणं तग्गुणठाणं ण संमवदि ।।
–गोकर्मकांड गा० ३३३ उक्त उद्धरण में यह बताया है कि तीर्थंकर और आहारकचतुष्क, इनका एक साथ सत्य मिथ्याइष्टि जीव को नहीं पाया जाता है । लेकिन गो० कर्मकांड के सत्ता अधिकार की गाथा ३६५, ३६६ से इस बात का मी पता लगता है कि मियादृष्टि के मी तीर्थंकर और आहारकपतुष्क को सत्ता एक साथ पाई जा सकती है, ऐसा मी एक मत रहा है ।
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सप्ततिका प्रकरण
उदय में ६, अट्ठाईस प्रकृतियों के उदय में ६, उनतीस प्रकृतियों के उदय में ६, तीस प्रकृतियों के उदय में ६ और इकतीस प्रकृतियों के उदय में ४ सत्तास्थान होते हैं। इन सब का कुल जोड़ ७+५+७+ ७+६+:+९+६+४५४ होता है ।
२००
अब तीस प्रकृतिक बंधस्थान का विचार करते हैं। जिस प्रकार तिर्यंचगति के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तियंत्र पंचेन्द्रिय, मनुष्य, देव और नारकों के उदयस्थानों का विचार किया उसी प्रकार उद्योत सहित तियंचगति के योग्य ३० प्रकृतियों का बंध करने वाले एकेन्द्रियादिक के उदयस्थान और सत्तास्थानों का चिन्तन करना चाहिये। उसमें ३० प्रकृतियों को बांधने वाले देवों के २१ प्रकृतिक उदयस्थान में ६३ और ६६ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं तथा २१ प्रकृतियों के उदय से युक्त नारकों के प्रकृतिक एक ही सत्तास्थान होता है, ६३ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है । क्योंकि तीर्थंकर और आहारक चतुष्क की सत्ता वाला जीव नारकों में उत्पन्न नहीं होता है
जस्स लिग राऽऽहारगाणि जुगवं संति सो नेरइएसुन उववक्जइ । जिसके तीर्थंकर और आहारकचतुष्क, इनकी एक साथ सत्ता है वह नारकों में उत्पन्न नहीं होता है। यह चूर्णिकार का मत भी उक्त मंतव्य का समर्थन करता है ।
इसी प्रकार २५, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिक उदयस्थानों में भी समझना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि नारकों के ३० प्रकृतिक उदयस्थान नहीं है। क्योंकि ३० प्रकृतिक उदयस्थान उद्योत प्रकृति के सद्भाव में पाया जाता है परन्तु नारकों के उद्योत का उदय नहीं पाया जाता है।
इस प्रकार सामान्य से ३० प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
२.१
के २१ प्रकृतियों के उदय में ७, चौबीस प्रकृतियों के उदय में ५, पच्चीस प्रकृतियों के उदय में ७, छब्बीस प्रकृतियों के उदय में ५, सत्ताईस प्रकृतियों के उदय में ६, अट्ठाईस प्रकृतियों के उदय में ६, उनतीस प्रकृतियों के उदय में ६, तास प्रकृतियों के उदय में ६ और सात्तीस प्रकृतियों के उदय में ४ सत्तास्थान होते हैं। जिनका कुल जोड़ + ५+७+५+६+६+६+६+४=५२ होता है।
अब ३१ प्रकृतिक बंधस्थान में उदयस्थान और सत्तास्थान का विचार करते हैं । ३१ प्रकृतिक बंधस्थान में 'एगेगमेगतीसे'-एक उदयस्थान और एक सत्तास्थान होता है । उदयस्थान ३० प्रकृतिक और सत्तास्थान ६३ प्रकृतिक है। वह इस प्रकार समझना चाहिए कि तीर्थकर और आहारक सहित देवगति योग्य ३१ प्रकृतियों का बंध अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण, इन दो गुणस्थानों में होता है। परन्तु इनके न तो विक्रिय होती है और न आहारक समुद्घात ही होता है। इसलिये यहाँ २५ प्रकृतिक आदि उदयस्थान न होकर एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान ही होता है। चूंकि इनके आहारक और तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है, इसलिये यहां एक ६३ प्रकृतिक ही सप्तास्थान होता है । इस प्रकार ३१ प्रकृतिक बंधस्थान में ३० प्रकृतिक उदयस्थान और १३ प्रकृतिक सत्तास्थान माना गया है।
अब एक प्रकृतिक बंधस्थान में उदयस्थान और सत्तास्थानों का विचार करते हैं । एक प्रकृतिक बंधस्थान के उदयस्थान और सत्तास्थानों की संख्या बतलाने के लिये गाथा में संकेत है कि "एगे एगुदय अट्ठसंतम्मि" अर्थात्-उदयस्थान एक है और सत्तास्थान आठ हैं। उदयस्थान ३० प्रकृतिक है और आठ सत्तास्थान ६३, ६२, ८६, ८८, ८०, ७६, ७६ और ७५ प्रकृतिक हैं। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-एक प्रकृतिक बंधस्थान में एक यश कीर्ति प्रकृति का बंध होता
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1
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सप्ततिका प्रकरण
है जो अपूर्वकरण गुणस्थान के सातवें भाग से लेकर दसवें गुणस्थान तक होता है। यह जीव अत्यन्त विशुद्ध होने के कारण वैक्रिय और आहारक समुद्घात को नहीं करता है, जिससे इसके २५ आदि प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होते किन्तु एक ३० प्रकृतिक ही उदयस्थान होता है।
एक प्रकृतिक बंधस्थान में जो आठ सत्तास्थान बताये हैं, उनमें से आदि के चार ६३, ९२, और प्रकृतिकास्थान उपशमश्रेणि की अपेक्षा और अंतिम चार ८०,७६, ७६ और ७५ प्रकृतिक सत्तास्थान क्षपकश्रेणि की अपेक्षा कहे हैं । परन्तु जब तक अनिवृत्तिकरण के प्रथम भाग में स्थावर, सूक्ष्म तिर्यचद्विक, नरकद्विक, जातिचतुष्क, साधारण, आतप और उद्योल, इन तेरह प्रकृतियों का क्षय नहीं होता तब तक ६३ आदि प्रकृतिक, प्रारम्भ के चार सत्तास्थान भी क्षपकश्रेणि में पाये जाते हैं।
इस प्रकार एक प्रकृतिक बंधस्थान में एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान तथा ६३,६२,८६,८८,८०,७६,७६ और ७५ प्रकृतिक, ये आठ सत्तास्थान समझना चाहिये ।
अब उपरतबंध की स्थिति के उदयस्थानों और सत्तास्थानों का विचार करते हैं। बंध के अभाव में भी उदय एवं सत्ता स्थानों का विचार करने का कारण यह है कि नामकर्म का बंध दसवें गुणस्थान तक होता है, आगे के चार गुणस्थानों में नहीं, किन्तु उदय और सत्ता १४वें गुणस्थान तक होती हैं। फिर भी उसमें विविध दशाओं और जीवों की अपेक्षा अनेक उदयस्थान और सत्तास्थान पाये जाते हैं । इनके लिये गाथा में कहा है
वरचे बस बस बेयरसंतम्मि ठाणाणि ।
अर्थात् - बंध के अभाव में भी दस उदयस्थान और दस सत्तास्थान
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' षष्ठ कर्म ग्रन्थ
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हैं । दस उदयस्थान २०,२१,२६,२७,२८,२९,३०,३१, ६ और ८ प्रकृतिक संख्या वाले हैं तथा सत्तास्थान ९३,६२,८६,८८,८०,७६,७६,७५, ६ और ६ प्रकृतिक संख्या वाले हैं । इनका स्पष्टीकरण यह है कि
केवली को केवली समुद्घात में ८ समय लगते हैं। इनमें से तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मण काययोग होता है जिसमें पंचेन्द्रिय जाति, असत्रिक, सुभग, आदेय, यश कीर्ति, मनुष्यगति और ध्रुवोदया १२ प्रकृतियां, इस प्रकार कुल मिलाकर २० प्रकृतिक उदयस्थान होता है और तीर्थंकर के बिना ७६ तथा तीर्थंकर और आहारकचतुष्क इन पाँच के बिना ७५ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं। यदि इस अवस्था में विद्यमान तीर्थकर हुए तो उनके एक तीर्थकर प्रकृति का उदय और सत्ता होने से २१ प्रकृतिक उदयस्थान तथा ८० तथा ७६ प्रकृतिक संसास्थान हो ।
जब केवली समुद्घात के समय औदारिकमिश्न काययोग में रहते हैं तब उनके औदारिकतिक, वचऋषभनाराच संहनन, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, उपघात और प्रत्येक, इन छह प्रकृतियों को पूर्वोक्त २० प्रकृतियों में मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है तथा ७६ और ७५ प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं।
यदि तीर्थंकर औदारिकमिश्र काययोग में हुए तो उनके तीर्थकर प्रकृति उदय व सत्ता में मिल जाने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान तथा ८० और ७६ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं।
२६ प्रकृतियों में पराघात, उच्छ वास, शुभ और अशुभ विहायोगति में से कोई एक तथा सुस्वर और दुःस्वर में से कोई एक, इन चार प्रकृतियों के मिला देने पर ३० प्रकृतिक उदयस्थान होता है जो
औदारिक काययोग में विद्यमान सामान्य केवली तथा ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में प्राप्त होता है । अतएव ३० प्रकृतिक उदयस्थान
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सप्ततिका प्रकरण
I
में ६३,६२८६८६७६ और ७५ प्रकृतिक, ये छह सत्तास्थान होते हैं । इनमें से आदि के चार सत्तास्थान उपशान्तमोह गुणस्थान की अपेक्षा और अंत के दो सत्तास्थान क्षीणमोह और सयोगिकेवली की अपेक्षा बताये हैं । यदि इस ३० प्रकृतिक उदयस्थान में से स्वर प्रकृति को निकालकर तीर्थंकर प्रकृति को मिलायें तो भी उक्त उदयस्थान प्राप्त होता है जो तीर्थंकर केवली के वचनयोग के निरोध करने पर होता है । किन्तु इसमें सत्तास्थान ८० और ७६ प्रकृतिक, ये दो होते हैं। क्योंकि सामान्य केवली के जो ७६ और ७५ प्रकृतिक सत्तास्थान कह आये हैं उनमें तीर्थंकर प्रकृति के मिल जाने से ८० और ७६ प्रकृतिक हो सत्तास्थान प्राप्त होते हैं।
सामान्य केवली के जो ३० प्रकृतिक उदयस्थान बतलाया गया है, उसमें तीर्थंकर प्रकृति के मिलाने पर तीर्थंकर केवली के ३१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है और उसी प्रकार ८० व ७६ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि सामान्य केवली के ७५ और ७९ प्रकृतिक, थे दो सत्तास्थान बतलाये हैं, उनमें तीर्थंकर प्रकृति के मिलाने से ७६ और ८० की संख्या होती है ।
सामान्य केवली के जो ३० प्रकृतिक उदयस्थान बतला आये हैं, उसमें से वश्वनयोग के निरोध करने पर स्वर प्रकृति निकल जाती है, जिससे २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है अथवा तीर्थंकर केवली के जो ३० प्रकृतिक उदयस्थान बतलाया है उसमें से श्वासोच्छ् वास के निरोध करने पर उच्छवास प्रकृति के निकल जाने से २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इनमें से पहला उदयस्थान सामान्य केवली के और दूसरा उदयस्थान तीर्थंकर केवली के होता है । अतः पहले २६ प्रकृतिक उदयस्थान में ७६ और ७५ प्रकृतिक और दूसरे २६ प्रकृतिक उदयस्थान में ८० और ७६ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं ।
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ
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सामान्य केवली के वचनयोग के निरोध करने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान बताया गया है, उसमें से वासोच्छ् वास का निरोध करने पर उच्छवास प्रकृति के कम हो जाने से २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह सामान्य केवली के होता है अतः यहाँ सत्तास्थान ७६ और ७५ प्रकृतिक, ये दो होते हैं ।
कर केतली के अयोगिकेवली गुजस्थान में प्रकृतिक उदयस्थान होता है और उपान्त्य समय तक ८० और ७६ तथा अन्तिम समय में प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं । किन्तु सामान्य केवली की अपेक्षा अयोगि गुणस्थान में प्रकृतिक उदग्रस्थान होता है तथा उपान्त्य समय तक ७६ व ७५ और अन्तिम समय में प्रकृतिक, ये
तीन सत्तास्थान होते हैं ।
इस प्रकार से बंध के अभाव में दस उदयस्थान और दस सत्तास्थान होने का कथन समझना चाहिए ।
नामकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों के संबंध भंगों का विवरण इस प्रकार है-
गुण स्थान |
१
बंध
स्थान मंग
५
२३
I.
उदयस्थान १२
२१
२४
२५
२६
२७
25
€
उदय मंग
"
सत्तास्थान १२
३२ १२,८६,८६,८०, ७८
५
११ १२,८८,८६,८०, ७८ 닛
२३
५
६००
५
२२
११८२
"
"
"
.
כן
६२,८८,८६,८०
27
भ
"
संवेषमंग
11
४
| ४
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सप्ततिका प्रकरण
उदयस्थान स्थान| मंग।
उदयभंग | सत्तास्थान १२ | संवेषभंग
स्थान
१७६४ १.६२,८८,८६,८०
२६०६
६२,८८,८६,८०,७८
"MR मत
" " " ६२,९८,६,८०
१६८
१७८०
४. ६२,८८,८६,८०,७८
३० | ६२,८८,८६,४०
४
१७८०
,,
,
, |
"
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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गुण । बंध
उदयस्थान उदयभंग
सत्तास्थान १२
संवधर्मग |
स्थान | स्थानं मंग
२६१४
६२,८८,८६,८०
र
१सेम| २८ ||
- स
:: ::
११७६ १७५५ २०१० ११५२
१२,८६,८८६
६२,८८,१६
१से८ २६६२४८
-
-
४१ '६३,६२.८६,८८,८६,८०,७८७ ११ १२,८८,६६,८०,७८ ५ ३३ ६३,६२,८१,८८,८६,८०,७८ ७
० ॥ . . , , , , ७ ३२ | ६३,६२,८६,८८,८६,८० ६ १२०२ ,
-
२६१६ ११६४ |
६२,८८,८६,
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२०६
सप्ततिका प्रकरण
स्थान, मंग ।"
.उदयस्थान
स्थान
१४६४१/ २१
-
उदय मंग सत्तास्थान १२ ४१ | १३,६२,८१,८८,८६,८०,७८७
६२,८८'८६,८०,७८५ ३२ | ६३,६२,८१,८८,८६,८०,७८७
___१२,८८,८६,८०,७८५ ६३,६२,८१,८८,८६,८०६ ६३,६२,८६,८८,८६,८०६
-
-
-
६२,८८,८६,८०४
७१८ | ३१
७२ १३,६२,८६,८८,८०,७६,७६८
७६,७५२ ८०,७६२ ७६,७५२ ८०,७६२
७६,७५२ ८०,७६,७६,७५४
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
गुण | बंध । स्थान स्थान |
मंग उदयस्थान
उदयभंग |
सत्तास्थान
संवेघभंग |
३ ३.६२.८६.८.८०.७६,७६,'
७५ १८०७६
I.
१३१४५/
१ ७६,५५८ ६५j ४६७२४ ।
इस प्रकार आठों कर्मों की उत्तर प्रकृतियों के बंधस्थान, उदय. स्थान और सत्तास्थानों और उनके परस्पर संवेध भंगों का कथन समाप्त हुआ। अब इसी क्रम में उनके जीवस्थानों और गुणस्थानों की अपेक्षा भंग का कथन करते हैं।
तिविगप्पपगइवाणेहिं जीवगुणसन्निएसु ठाणेसु । भंगा पजियव्या जत्थ जहा संभवो भव ॥३३॥
वार्ष-तिविगप्पपगाताहि-तीन विकल्पों के प्रकृतिस्थानों के द्वारा, जीवगुगसमिएसु---श्रीव और गुण संज्ञा पाले, ठाणेसु-स्थानों में, भंगा--भंग, उजियवा-घटित करना चाहिए, जत्थ.... जहाँ, जहा संभयो-जितने समय, भवाह---होते हैं।
गावार्थ-तीन विकल्पों (बंध, उदय और सत्ता) के प्रकृतिस्थानों के द्वारा जीव और गुण संज्ञा वाले स्थानों (जीवस्थात, गुणस्थानों) में जहाँ जितने भंग संभव हों वहां उत्तने भंग घटित कर लेना चाहिए।
विशेषार्थ-अभी तक ग्रन्थ में मुल और उत्तर प्रकृतियों के बधस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थानों व उनके संवेध भंग बतलाये हैं तथा साथ ही मुल प्रकृतियों के इन स्थानों और उनके संबैध भंगों
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सप्ततिका प्रकरण
के जीवस्थानों और गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामी का निर्देश किया है । किन्तु उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा बंधस्थान, उदयस्थान और उनके संबैध भंगों के स्वामी का निर्देश नहीं किया है। इनके निर्देश करने को प्रतिज्ञा इस गाथा में की गई है कि तीनों प्रकार के प्रकृतिस्थानों के सव भंग जीवस्थानों और गुणस्थानों में घटित करके बतलाये जायेंगे। __जीवस्थानों और गुणस्थानों में से पहले यहाँ जीवस्थानों में तीनों प्रकार के प्रकृतिस्थानों के सब भंग घटित करते हैं। औवस्थानों के संवेष भंग पहले अब ज्ञानावरण और अंतराय कर्म के भंग बतलाते हैं ।
तेरससु जीवसंखेवएसु नाणंसराय तिविगप्पो । एक्कमिम तिविगप्पो करणं पइ एत्य अविगप्पो ॥३४॥
शब्दार्थ-तेरसमु-तेरह, जीवसंखेवए-जीव के संक्षेप (स्थानों) के विषय में, नाणंतराय-ज्ञागावरण और अंतराय कर्य के, तिविगप्पो-. तीन विकल्प, एक्कम्मि---एक जीवस्थान में, सिविनप्पो-तीन अथवा दो विकल्प, करणप-करण (द्रव्यमन के आश्रय से) की अपेक्षा, एस्य---यहाँ, अविगप्पो-विकल्प का अभाव है। ___ गाथार्थ-आदि के तेरह जीवस्थानों में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म के तीन विकल्प होते हैं तथा एक जीवस्थान (पर्याप्त संजी पंचेन्द्रिय) में तीन और दो विकल्प होते हैं। द्रव्यमन की अपेक्षा इनके कोई विकल्प नहीं हैं।
विशेषार्थ-इस गाथा से जीवस्थानों में संबंध भंगों का काथन प्रारम्भ करते हैं। सर्वप्रथम ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म के भंग बतलाते हैं।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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ग्रन्थकार ने जीवस्थान पद के अर्थ का बोध कराने के लिये गाथा में 'जीवसंखेवएसु' पद दिया है अर्थात् जिन अपर्याप्त एकेन्द्रियत्व आदि धर्मों के द्वारा जीव संक्षिप्त यानी संगृहीत किये जाते हैं, उनकी जीवसंक्षेप संज्ञा है— उन्हें जीवस्थान कहते हैं । इस प्रकार जीवसंक्षेप पद को जीवस्थान पद के अर्थ में स्वीकार किया गया है । एकेन्द्रिय सूक्ष्म अपर्याप्त आदि जीवस्थानों के चौदह भेद चतुर्थं कर्मग्रन्थ में बतलाये जा चुके हैं।
उक्त चौदह जीवस्थानों में से आदि के तेरह जीवस्थानों में ज्ञानावरण और अंतराय कर्म के तीन विकल्प हैं--'नातरा मिनि ! इसका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है।
शानावरण और अंतराय कर्म की पांच-पांच उत्तर प्रकृतियां हैं और वे सब प्रकृतियां ध्रुवबंधिनी, ध्रुबोदया और ध्रुवसत्ताक है । क्योंकि इन दोनों कमों की उत्तर प्रकृतियों का अपने-अपने विच्छेद के अन्तिम समय तक बंध, उदय और सत्त्व निरन्तर बना रहता है। अत: आदि के तेरह जीवस्थानों में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म की उत्तर प्रकृतियों का पांच प्रकृतिक बंध, पांच प्रकृतिक उदय और पांच प्रकृतिक सत्ता, इन तीन विकल्प रूप एक भंग पाया जाता है। क्योंकि इन जीवस्थानों में से किसी भी जीवस्थान में इनके बंध, उदय और मत्ता का विच्छेद नहीं पाया जाता है ।
अन्तिम नौदहवें पर्याप्त संजी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म का बंधविच्छेद पहले होता है और उसके बाद उदय तथा सत्ता का बिच्छेद होता है। अतः यहां पांच प्रकृतिक बंध,
१ संक्षिप्यन्ते-संगृह्यन्ते जीवा एभिरिति संक्षेपा:-- अपर्याप्तककेन्टियत्वादयोवान्तरजातिभेदाः, जीवानां संक्षेपा जीवसंक्षेपाः जीवस्थानानीत्यर्थः ।
- सप्ततिका प्रकरण का, पृ० १६५
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सप्ततिका प्रकरण पांच प्रकृतिक उदय और पांच प्रकृतिक सत्ता, इस प्रकार तीन विकल्प रूप एक भंग होता है। अनन्तर बंधविच्छेद हो जाने पर पांच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक सत्ता, इस प्रकार दो विकल्प रूप एक भंग होता है-'एक्कम्मि तिदुविगप्पो।' पाँच प्रकृतिक वंध, उदय और सत्ता, यह तीन विकल्प सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक पाये जाते हैं तथा उसके बाद बंध का विच्छेद हो जाने पर उपशान्त मोह और क्षीणमोह गुणस्थान में कृतिकार शिक: ता. गहलो विकल्प होते हैं। क्योंकि उदय और सत्ता का युगपद् विच्छेद हो जाने से अन्य भंग सम्भव नहीं हैं।
पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान की एक और विशेषता बतलाते हैं कि 'करणं पइ एत्थ अविगप्पो' अर्थात् केवलज्ञान के प्राप्त हो जाने के बाद इस जीव को भावमन तो नहीं रहता किन्तु द्रव्यमन ही रहता है और इस अपेक्षा से उसे भी पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय कहते हैं। चूणि में भी कहा है
मणकरणं केवलिणो वि अस्थि सेण सनिणो वुच्चति । मणोविण्णाणं पाय है समिणो न हति।
' अर्थात-मन नामक करण केवली के भी है, इसलिये वे संजी कहलाते हैं किन्तु वे मानसिक ज्ञान की अपेक्षा संझी नहीं होते हैं ।
ऐसे सयोगि और अयोगि मेयली जो द्रव्यगन के संयोग से पर्याप्त संझी पंचेन्द्रिय हैं, उनके तीन विकल्प रूप और दो विकल्प रूप भंग नहीं होते हैं। अर्थात केवल द्रव्यमन की अपेक्षा जो जीव पर्याप्त संजी पंचेन्द्रिय कहलाते हैं, उनके ज्ञानावरण और अन्तराय क्रम के बंध, उदय और सत्व की अपेक्षा कोई भंग नहीं है क्योंकि इन कर्मों के बंध, उदय और सत्ता का विच्छेद केवली होने से पहले ही हो जाता है।
इस प्रकार से जीवस्थानों में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म के
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२१॥
षष्ठ कर्मग्रन्थ भंगों को बतलाने के बाद अब दर्शनावरण, वेदनीय, त्यायु और गोत्र कार्म के बंधादि स्थानों के अंगों को बतलाते हैं।
तेरे नथ चज पणगं न संतेगम्मि भंगमेषकारा । बेयणियाउयगोए विभज्ज मोहं परं शोच्छं ॥३५।।
शम्वार्थ-तर-तरह जोजस्थानों मे, नव-नां प्रकृतिक बंध, घाउ पणगं-चार अथवा पांच प्रकृतिक उदय, मनसंत-नौ की सत्ता, एगम्भि-एक जीवस्थान में, भंगकारा-ग्यारह मंग होते हैं, वेणियाउयगोए-वेदनीया, आयू और गोश कर्म में, विभज्ज--विकल्प करके, मोहं-मोहनीय कर्म के, परं-आगे, वोच्छं-- महेंगे।
गाया-तेरह जीवस्थानों में नौ प्रकृतिक बंध, चार या पांच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता होती है। एक जीबस्थान में ग्यारह भंग होते हैं । वदनीय, आयु और गोत्र कर्म में बंधादि स्थानों का विभाग करके मोहनीय कर्म के बारे में आगे कहेंगे। विशेषार्थ-गाथा में दर्शनावरण, वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के बंधादि स्थानों को बतला कर बाद में मोहनीय कर्म के विकल्प बतलाने का संकेत किया है।
दर्शनावरण कर्म के बंधादि विकल्प इस प्रकार हैं कि आदि के तेरह जीवस्थानों में नौ प्रकृतिक बंध, चार या पाँच प्रकृतिक उदय तथा नौ प्रकृतिक सत्ता, ये दो भंग होते हैं। अर्थात् नौ प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता यह एक भंग और नौ प्रकृतिक बंध, पांच प्रकृतिक उदय तथा नौ प्रकृतिक सत्ता यह दूसरा भंग, इस प्रकार आदि के तेरह जीवस्थानों में दो भंग होते हैं । इसका कारण यह है कि प्रारम्भ के तेरह जीवस्थानों में दर्शनावरण कर्म की किसी भी उत्तर प्रकृति का न तो बंधविच्छेद होता है, न उदयविच्छेद
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सप्ततिका प्रकरण
होता है और न सत्ताविच्छेद ही होता है । निद्रा, निद्रानिद्रा आदि पांच निद्राओं में से एक काल में किसी एक का उदय होता भी है और नहीं भी होता है । इसीलिये इन पाँच निद्राओं में से किसी एक का उदय होने या न होने की अपेक्षा से आदि के तेरह जीवस्थानों के दो भंग बतलाये हैं ।
परन्तु एक जो पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान है उसमें ग्यारह मंग होते हैं -- एगम्भि भंगमेक्कारा' । क्योंकि पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में गुणस्थानों के क्रम से दर्शनावरण कर्म की नौ प्रकृतियों का बंध, उदय और सत्ता तथा इनकी व्युच्छित्ति सब कुछ सम्भव है । इसीलिये इस जीवस्थान में दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बघ उदय और सत्ता की अपेक्षा २१ अंग होने का संकेत किया गया है । इन ग्यारह भंगों का विचार पूर्व में दर्शनावरण के सामान्य संवैध भंगों के प्रसंग में किया जा चुका है। अतः पुनः यहाँ उनका स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। जिज्ञासु-जन वहां से इनकी जानकारी कर लेवें ।
P
इस प्रकार से दर्शनावरण कर्म के संवेध भंगों का कथन करने के बाद वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के भंग बतलाते हैं । लेकिन ग्रन्थकर्त्ता ने स्वयं उक्त तीन कर्मों के भंगों का निर्देश नहीं किया और न ही यह बताया कि किस जीवस्थान में कितने भंग होते हैं । किन्तु इनका विवेचन आवश्यक होने से अन्य आधार से इनका स्पष्टीकरण करते हैं ।
भाग्य में एक गाथा आई है, जिसमें बेदनीय और गोत्र कर्म के भंगों का विवेचन चौदह जीवस्थानों की अपेक्षा किया गया है। उक्त भाषा इस प्रकार है
पज्जतसनियरे अट्ठ चक्कं च वैयणियभंगा । सक्षम लिगं च गोए पलेयं जीवठा ||
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ
२१५ ___अर्थात्-पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में वेदनीय कर्म के आठ भंग और शेष तेरह जीवस्थानों में चार भंग होते हैं तथा गोत्र कर्म के पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में सात भंग और शेष तेरह जीवस्थानों में से प्रत्येक में तीन भंग होते हैं।
उक्त कथन का विशद विवेचन निम्न प्रकार है-वेदनीय कर्म के पनि संझी गनेन्द्रिय जीजस्थान में दौलह गुण थान सम्भव हैं अत: उसमें, १. असाता का बन्ध, असाता का उदय और साता-असाता दोनों की सत्ता, २. असाता का बंध, साता का उदय और साता-असाता दोनों की सत्ता, ३. साता का बन्ध, असाता का उदय और साता-असाता की सता, ४. साता का बन्ध, साता का उदय और साता-असाता दोनों को सत्ता, ५. असाता का उदय और साता-असाता दोनों की सत्ता, इ. साता का उदय और साता-असाता दोनों की सत्ता, ७. असाता का उदय और असाता की सत्ता और ८. साता का उदय तथा साता की सत्ता, ये आठ भंग होते हैं। किन्तु प्रारम्भ के तेरह जीवस्थानों में से प्रत्येक के उक्त आठ भंगों में से आदि के चार भंग ही प्राप्त होते हैं। क्योंकि इनमें साता और असाता वेदनीय इन दोनों का यथासम्भव बन्ध, उदय और सत्ता सर्वत्र सम्भव है । इमोलिने भाष्य गाथा में कहा गया है कि 'पज्जत्तगसन्नियरे अछ चउक्कं च वेयणियभंगा।' _ वेदनीय कर्म के उक्त आठ भंगों को पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में गुणस्थानों की अपेक्षा इस प्रकार घटित करना चाहिये
पहला भंग --असाता का बंध, असाता का उदय और साता-असाता को सत्ता तथा दूसरा भंग-असाता का बंध, साता का उदय और साता-असाता की सत्ता, यह दो भंग पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पाये जाते हैं। क्योंकि आगे के गुणस्थानों में असाता वेदनीय के बंध का अभाव है। तीसरा भंग
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सप्ततिका प्रकरण
साता का बंध, असाता का उदय और साता-असाता की सत्ता चौथा भंग-साता का बंध, साता का उदय और साता-असाता की सत्ता, यह दो बिकल्प पहले मिथ्या दृष्टि गुणस्थान से लेकर तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान तक पाये जाते हैं। इसके बाद बंध का अभाव हो जाने से पाँचा भंग-असाता का उदय और साता-असाता की सत्ता तथा छठा भंग--साता का उदय और साता-असाता दोनों की सत्ता, यह दो भंग अयोगि केवली गुणस्थान में द्विचरम समय तक प्राप्त होते हैं और चरम समय में सातवा भंग- असाता का उदय और असाता की सत्ता तथा आठवां भंग-साता का उदय और साता की सत्ता, यह दो भंग पाये जाते हैं।
सयोगिकेवली और अयोगिकेवली द्रव्यमन के सम्बन्ध से संजी कहे जाते हैं, अत: संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में वेदनीय कर्म के आठ भंग मानने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है।
इस प्रकार से वेदनीय कर्म के भंगों का कथन करके अब मोत्र कर्म के अंगों को बतलाते हैं कि 'सत्तग तिगं च गोए'-वे इस प्रकार हैं-- __ गोत्रकर्म के पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में सात भंग प्राप्त होते हैं । वे सात भंग इस प्रकार हैं--१. नीच का बंध, नीच का उदय
और नीच की सत्ता, २. नीच का बंध, नीच का उदय और उच्च-नीच दोनों की सत्ता, ३. नीच का बंध, उच्च का उदय और उच्च-नीच दोनों की सत्ता, ४. उच्च का बंध, नीच का उदय और उच्च-नीच दोनों की सत्ता, ५. उच्च का बंध, उच्च का उदय और उच्च-नीच की सत्ता, ६. उनाच का उदय और उच्च-नीच दोनों की सत्ता तथा ५. उच्च का उदय और उच्च की सत्ता ।
इक्त सात भंगों में से पहला भंग उन संज्ञियों को होता है जो
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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अग्निकायिक और वायुकायिक पर्याय से आकर संज्ञियों में उत्पन्न होते हैं, क्योंकि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के उच्च गोत्र की उवलना देखी जाती है । फिर भी यह भंग संज्ञी जीवों के कुछ समय तक ही पाया जाता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में दूसरा और तीसरा भंग प्रारम्भ के दो गुणस्थान मिथ्यात्व सासादन की अपेक्षा बताया है। चौथा संग प्रारम्भ के पांच गुणस्थानों की अपेक्षा से कहा है। पांचवां भंग प्रारम्भ के दस गुणस्थानों की अपेक्षा से कहा है। छठा भंग उपशान्तमोह गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय तक होने की अपेक्षा से कहा है । और सातवां भंग अयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय की अपेक्षा से कहा है ।
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लेकिन शेष तेरह जीवस्थानों में उक्त सात भंगों में से पहला, दूसरा और चौथा ये तीन भंग प्राप्त होते हैं। पहला भंग नीच गोत्र का बंध, नीच गोत्र का उदय और नीच गोत्र की सत्ता अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में उच्च गोत्र की उवलना के अनन्तर सर्वदा होता है किन्तु शेष में से उनके भी कुछ काल तक होता है जो अग्निकायिक और वायुकायिक पर्याय से आकर अन्य पृथ्वीकायिक, द्वीन्द्रिय आदि में उत्पन्न हुए हैं। दूसरा भंग - तोत्र गोत्र का बंध, नीच गोत्र का उदय और उच्च-नीच गोत्र की सत्ता तथा चौथा भंग - उच्च गोत्र का बंध, नीच गोत्र का उदय और उच्च-नीच गोत्र की सत्ता, यह दोनों भंग भी तेरह जीवस्थानों में नीच गोत्र का हो उदय होने से पाये जाते हैं । अन्य विकल्प सम्भव नहीं हैं, क्योंकि तिचों में उच्च गोत्र का उदय नहीं होता है ।
इस प्रकार से भाष्य की गाथा के अनुसार जीवस्थानों में वेदनीय और गोत्र कर्मों के भंगों को बतलाने के बाद अब जीवस्थानों में आयु कर्म के भंगों को बतलाने के लिये भाप्य की गाथा को उद्धृत
करते हैं
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सप्ततिका प्रकरण पन्जत्तापज्जसग समणे पज्जत अभण सेसेसु ।
अट्ठावीसं दसगं नवगं पणगं च आउस्स ॥ अर्थात्-पर्याप्त संत्री पंचेन्द्रिय, अपर्याप्त संजी पंचेन्द्रिय, पर्याप्त असंशी पंचेन्द्रिा और कोष ग्यारह जीसस्थानक मश: २८, १०, ६ और ५ भंग होते हैं। ____ आशय यह है कि पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में आधुकम के २८ भंग होते हैं। अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में १० तथा पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में ह भंग होते हैं। इन तीन जीवस्थानों से शेष रहे ग्यारह जीवस्थानों में से प्रत्येक में पांच-पांच भंग होते हैं।
पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में आयुकर्म के अट्ठाईस भंग इस प्रकार समझना चाहिये कि पहले नारकों के ५, तिर्यंचों के ६, मनुष्यों के है और देवों के ५ भंग बतला आये हैं, जो कुल मिलाकर २८ भंग होते हैं, वे ही यहां पर्याप्त संजी पंचेन्द्रिय के २८ भंग कहे गये हैं। विशेष विवेचन इस प्रकार है
नारक जीव के १. परभव की आयु के बंधकाल के पूर्व नरकायु का उदय, नरकायु की सत्ता, २. परभव की आयु बंध होने के समय तियंचायु का बंध, नरमायु का उदय, नरक-तिर्यंचायु की सत्ता अथवा ३. मनुष्यायु का बंध, नरकायु का उदय, नरक-मनुष्यायु की सत्ता, ४. परभव की आयुबंध के उत्तरकाल में नरकायु का उदय और नरकलियंचायु की सत्ता अथवा ५. नरकायु का उदय और मनुष्य-मरकायु की सत्ता, यह पांच भंग होते हैं । नारक जीव भवप्रत्यय से ही देव और नरकायु बंध नहीं करते हैं अत: परभव की आयु बंधकाल में और बंधोत्तर काल में देव और नरकायु का विकल्प सम्भव नहीं होने से नारक जीवों में आयुकर्म के पांच विकल्प ही होते हैं।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ ___इसी प्रकार देवों में आयकर्म के पांच बिकल्प समझना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि नरकायु के स्थान पर देवायु कहना चाहिये । जैसे कि देवायु का उदय और देवायु की सत्ता इत्यादि ।
तिर्यंचों के नौ विकल्प इस प्रकार हैं कि १. तिर्यंचायु का उदय, तिर्य चायु की सत्ता, यह विकल परभव की आयु बंधकाल के पूर्व होता है । २. परभव की आयु बंधकाल में नरकाय का बंध, तियंचायु का उदय, नरक-तिर्यंच आयु की सत्ता अथवा ३. तिथं वायु का बंध, तिर्यचायु का उदय और तिर्यंच-तियं चाय की सत्ता अथवा ४. मनुष्यायु का बंध, तिर्यंचायु का उदय और मनुष्य-तियंचायु की सत्ता अथबा ५. देवायु का बंध, तिर्यंचायु का उदय और देव-तिर्यंचायु की सत्ता । परभत्रायु के बंधोत्तर काल में ६. तिर्यंचायु का उदय, नरक-तिर्यंचायु की सत्ता अथवा ७. तिर्यंचायु का सदरा, तिर्यच-नियंच आयु की सत्ता अथवा ८. तिथं चायु का उदय, मनुप्य तिर्यंचायु की सत्ता अथवा ह. तियंत्रायु का उदय, देव-तिर्यंचायु की सत्ता । इस प्रकार संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच के आयुकर्म के ह भंग होते हैं। ___ इसी प्रकार मनुष्यों के भी नो भंग समझना चाहिये, लेकिन इतनी विशेषता है कि तिर्यंचायु के स्थान पर मनुष्यायु का विधान कर लेवें । जैसे कि मनुष्यायु का उदय और मनुष्यायु की सत्ता इत्यादि । ___ इस प्रकार नारक के ५, देव के ५, तिर्यंच के है और मनुष्य के विकल्पों का कुल जोड़ ५-|-५-+E+९=२८ होता है। इसीलिये पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में आयुकर्म के २८ भंग माने जाते हैं।
संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीब के दस भंग हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव मनुष्य और तिर्यच ही होते हैं, क्योंकि देव और नारकों
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सप्ततिका प्रकरण
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में अपर्याप्त नाम कर्म का उदय नहीं होता है तथा इनके परभव संबंधी मनुष्यायु तथा तिर्यंचायु का ही बन्ध होता है, अतः इनके मनुष्यगति की अपेक्षा ५ और तिर्यंचगति की अपेक्षा ५ भंग, इस प्रकार कुल दस भंग होते हैं। जैसे कि तिर्यंचगति की अपेक्षा १- आयुबंध के पहले तिर्यचायु का उदय और तियंचायु की सत्ता २ आयुबंध के समय तियंचाय का बंध, तिर्यंचा का और नितिदायु की मनुष्यायु का बंध, तिचायु का उदय और मनुष्य तिर्यचायु की सत्ता, ४. बंध की उपरति होने पर तियंचायु का उदय और तिर्यच तिर्यंचायु की सत्ता अथवा ५ तिर्यत्रायु का उदय और मनुष्य-तियं चाय की सत्ता । कुल मिलाकर ये पाँच भंग हुए ।
इसी प्रकार मनुष्यगति की अपेक्षा भी पाँच भंग समझना चाहिये, लेकिन तिर्यंचा के स्थान पर मनुष्यायु को रखें। जैसे कि आयु बंध के पहले मनुष्यायु का उदय और मनुष्यायु की सत्ता आदि ।
पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव तिर्यंच ही होता है और उसके चारों आबुओं का बंध सम्भव है, अतः यहाँ आयु के वे ही नौ भंग होते हैं जो सामान्य तिर्यंचों के बतलाये हैं ।
इस प्रकार से तीन जीवस्थानों में आयुकर्म के भंगों को बतलाने के बाद शेष रहे ग्यारह जीवस्थानों के भंगों के बारे में कहते हैं कि उनमें से प्रत्येक में पाँच-पाँच भंग होते हैं। क्योंकि शेष ग्यारह जीवस्थानों के जीव तिर्यंच ही होते हैं और उनके देवायु व नरकायु का बंध नहीं होता है, अतः संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त तिर्यंचों के जो पाँच भंग बतलाये हैं, वे ही यह जानना चाहिये कि बंधकाल से पूर्व का एक भंग, बंधकाल के समय के दो भंग और उपरत बंधकाल के दो भंग । इस प्रकार शेष ग्यारह जीवस्थानों में पांच भंग होते हैं ।
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जीवस्थान
ज्ञाना-दर्शना।
कम
x | आयु
x
x
x
x
षष्ठ कर्मपत्य
चौदह जीवस्थानों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, आयू, गोत्र और अंतराय, इन छह कमों के भंगों का विवरण इस प्रकार है
। गोत्र | अंतराय
वरणवरण | E F | गान एकेन्द्रिय सूक्ष्म अपर्याप्त | १ | २ . ४ २ : एकेन्द्रिय मूक्ष्म पर्याप्त ३ | एकेन्द्रिय वादर अपर्याप्त
एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त १ । २ हीन्द्रिय अपर्याप्त दीन्द्रिय पर्याप्त
श्रीन्द्रिय अपर्याप्त ८ | श्रीन्द्रिय पर्याप्त है | चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त
चतुरिन्द्रिय पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त
असंजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त १३ | संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त १४ | संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त । २ ११ / 4
छह कर्मों के जीवस्थानों में भंगों को बतलाने के बाद अब 'मोहं परं वोच्छं'-मोहनीय कर्म के भंगों को बतलाते हैं ।
अदृसु पंचसु एगे एग दुगं दस य मोहबंधगए। तिग चा नव उदयगए तिम तिग पन्नरस संतम्मि ॥३६॥
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२२२
सप्ततिका प्रकरण
--
शब्दार्थ - अनुसु - आठ जीवस्थानों ने पंचसु-पाँच जीवस्थानों में, एगे -- एक जीवस्थान में, एग – एक, दुर्गा-दो, दलदस और मोहबंध गए - मोहनीय कर्म के बंधगत स्थानों में, तिग उन-तीन बार और नौ, उदय गए --- उदयगत स्थान, लिंग तिग पन्नरस तीन तीन और पन्द्रह समि-सता के स्थान |
-
·
L
गावार्थ- आठ, पाँच और एक जीवस्थान में मोहनीय कर्म के अनुक्रम से एक, दो और दस बंधस्थान, तीन, चार और मौ उदयस्थान तथा तीन तीन और पन्द्रह सत्तास्थान होते हैं ।
विशेषार्थ - इस गाथा में मोहनीय कर्म के जीवस्थानों में बंध, उदय और सत्ता स्थान बतलाये हैं और जीवस्थानों तथा बंधस्थानों, उदयस्थानों तथा सत्तास्थानों की संख्या का संकेत किया है कि कितने जीवस्थानों में मोहनीय कर्म के कितने बंधस्थान हैं, कितने उदयस्थान हैं और कितने सत्तास्थान हैं। परन्तु यह नहीं बताया है कि वे कौन-कौन होते हैं। अतः इसका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है।
आठ, पाँच और एक जीवस्थान में यथाक्रम से एक, दो और दस बंधस्थान हैं । अर्थात् आठ जीवस्थानों में एक बंधस्थान है, पाँच जीवस्थानों में दो बंधस्थान हैं और एक जीवस्थान में दस बंधस्थान हैं। इनमें से पहले आठ जीवस्थानों में एक बंधस्थान होने को स्पष्ट करते हैं कि पर्याप्त सुक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त सुक्षा एकेन्द्रिय, अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, अपर्याप्त श्रीन्द्रिय, अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय और अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय, इन आठ जीवस्थानों में पहला मिध्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है अतः इनके एक २२ प्रकृतिक बंधस्थान होता है । वे २२ प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं - मिध्यात्व, अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क आदि सोलह कषाय, तीन वेदों में से कोई एक वेद, हास्य रति और शोक अरति युगल में से कोई
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
२२३ एक युगल, भय और जुगुप्सा। इस बंधस्थान में तीन वेद और दो युगलों की अपेक्षा छह भंग होते हैं।
पाँच जीवस्थानों में दो बंधस्थान इस प्रकार जानना चाहिये कि पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, पर्याप्त द्वीन्द्रिय, पर्याप्त त्रीन्द्रिय, पर्याप्त चतुरिन्द्रिय और पर्याप्त असंशी पंचेन्द्रिय, इन पांच जीवस्थानों में २२ प्रकृतिक और २१ प्रकृतिक, यह दो बंधस्थान होते हैं। बाईस प्रकृतियों का नामोल्लेख पूर्व में किया जा चुका है और उसमें से मिथ्यात्व को कम कर देने पर २१ प्रकृतिक बंधस्थान हो जाता है। इनके मिथ्यावृष्टि गुणस्थान होता है इसलिये तो इनके २२ प्रकृतिक बंधस्थान कहा गया है तथा सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मर कर इन जीवस्थानों में भी उत्पन्न होते हैं, इसलिये इनके २१ प्रकृतिक बंधस्थान बतलाया है। इनमें से २२ प्रकृतिक बंधस्थान के ६ भंग हैं जो पहले बतलाये जा चुके हैं और २१ प्रकृतिक बंधस्थान के ४ भंग होते हैं। क्योंकि नपुंसकवेद का बंध मिथ्याल्बोदय निमित्तिक है और यहाँ मिथ्यात्व का उदय न होने से नपुंसक वेद का भी बंध न होने से. शेष दो वेद-पुरुष और स्त्री तथा दो युमलों की अपेक्षा चार भंग ही संभव हैं।
भब रहा एक संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान, सो इसमें २२ प्रकृतिक आदि मोहनीय के दस बंधस्थान होते हैं। उक्त दस बंधस्थानों की प्रकृति संख्या मोहनीय कर्म के बंधस्थानों के प्रसंग में बतलाई जा चुकी है, जो वहाँ से समझ लेना चाहिये । ____ अब जीवस्थानों में मोहनीय कर्म के उदयस्थान बतलाते हैं कि 'तिग चउ नव उदयगए'-आठ जीवस्थानों में तीन, पाँच जीवस्थानों में चार और एक जीवस्थान में नौ उदयस्थान हैं। पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि आठ जीवस्थानों में आठ, नौ और दस प्रकृतिक, यह
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९२४
सप्ततिका प्रकरण
तीन उदयस्थान हैं। वे इस प्रकार जानना चाहिये कि यद्यपि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अनन्तानुबंधी चतुष्क में से किसी एक के उदय के बिना ७ प्रकृतिक उदयस्थान भी होता है, परन्तु वह इन आठ जीवस्थानों में नहीं पाया जाता है। क्योंकि जो जीव उपशमश्रेणि से च्युत होकर क्रमश: मिथ्यादृष्टि होता है उसी के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में एक आवली का कम नहीं होना. परन्तु इन जीवस्थान वाले जीव तो उपशमश्रेणि पर चढ़ते ही नहीं हैं, अतः इनको सात प्रकृतिक उदयस्थान संभव नहीं है ।
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उक्त आठ जीवस्थानों में नपुंसक वेद, मिध्यात्व कषाय चतुष्क और दो युगलों में से कोई एक युगल, इस तरह आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इस उदयस्थान में आठ भंग होते हैं, क्योंकि इन जीवस्थानों में एक नपुंसक वेद का ही उदय होता है, पुरुषवेद और स्त्रीवेद का नहीं, अतः यहाँ वेद का विकल्प तो संभव नहीं किन्तु यहाँ विकल्प वाली प्रकृतियाँ क्रोध आदि चार कषाय और दो युगल हैं, सो उनके विकल्प से आठ भंग होते हैं।
इस आठ प्रकृतिक उदयस्थान में भय और जुगुप्सा को विकल्प से मिलाने पर तो प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ एक -एक विकल्प के आठ-आठ भंग होते हैं अतः आठ को दो से गुणित करने पर सोलह भंग होते हैं । अर्थात् नो प्रकृतिक उदयस्थान के सोलह भंग हैं। आठ प्रकृतिक उदयस्थान में भय और जुगुप्सा को युगपत् मिलाने से दस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह एक ही प्रकार का है, अतः पूर्वोक्त आठ भंग ही होते हैं। इस प्रकार तीनों उदयस्थानों के कुल ३२ भंग जो प्रत्येक जीवस्थान में अलग-अलग प्राप्त होते हैं ।
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पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय आदि पांच जीवस्थानों में से प्रत्येक में चार-चार उदयस्थान हैं- सात, आठ, नौ और दस प्रकृतिक । सो
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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इनमें से सासादन भाव के काल में २१ प्रकृतिक बंधस्थान में और १०, ये तीन-तीन उदयस्थान होते हैं तथा २२ प्रकृतिक बंधस्थान में ८, ६ और १० ये तीन तीन उदयस्थान होते हैं। इन जीवस्थानों में भी एक नपुंसकवेद का ही उदय होता है अतः यहाँ भी ७, ८ और ह और १० प्रकृतिक उदयस्थान के क्रमशः ८ १६ और भंग होते हैं तथा इसी प्रकार ८६ और १० प्रकृतिक उदयस्थान के क्रमशः ८, १६ और भंग होंगे, किन्तु चूर्णिकार का मत है कि असंज्ञी लब्धिपर्याप्त के यथायोग्य तीन वेदों में से किसी एक वेद का उदय होता है। अतः इस मत के अनुसार असंज्ञी लब्धि पर्याप्त के सात आदि उदयस्थानों में से प्रत्येक में रंग न होकर ग होते हैं।
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पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में उदयस्थान हैं, जिनका उल्लेख मोहनीय कर्म के उदयस्थानों के प्रसंग में किया जा चुका है। अतः उनको वहाँ से जान लेवें ।
जीवस्थानों में मोहनीय कर्म के सत्तास्थान इस प्रकार जानना चाहिये कि 'तिम तिग पन्नरस संतम्मि' अर्थात् आठ जीवस्थानों में तीन, पांच जीवस्थानों में तीन और एक जीवस्थान में १५ होते हैं । पूर्वोक्त आठ जीवस्थानों में से प्रत्येक में २५, २७ और २६ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में इन तीन के अलावा और सत्तास्थान नहीं पाये जाते हैं। इसी प्रकार से पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय आदि पांच जीवस्थानों में भी २८, २७ और २६ प्रक्रतिक सत्तास्थान समझना चाहिये और एक पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में सभी १५ सत्तास्थान हैं। क्योंकि इस जीवस्थान में सभी गुणस्थान होते हैं।
१ एक्केककमि उदयम्मि नपुंसगवेदेणं चेच अदु-अष्टु मंगा सेसा न संभवति....। असन्निपज्जतगस्त तिहि वि वेदेहि उष्ठावेयज्जा ।
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सप्ततिका प्रकरण इस प्रकार से जीवस्थानों में पृथक-पृथक उदय और सत्तास्थानों का कथन करने के अनन्तर अब इनके संवेध का कथन करते हैं—आठ जीवस्थानों में एक २२ प्रवृतिक बंधस्थान होता है और उसमें ८, E शोर १, प्रकृतिक, गइ नील रदयस्थान होते हैं तथा प्रत्येक उदयस्थान में २८, २७ और २६ प्रकृतिक सत्तास्थान हैं। इस प्रकार आय जीवस्थानों में से प्रत्येक के कुल नौ भंग हुए। पांच जीवस्थानों में २२ प्रकृ. तिक और २१ प्रकृतिक, ये दो बंधस्थान हैं और इनमें से २२ प्रकृतिक बंधस्थान में ८, ९ और १० प्रकृतिक तीन उदय स्थान होते हैं और प्रत्येक उदयस्थान में २८, २७ और २६ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान हैं। इस प्रकार कुल नौ मंग हुए । २१ प्रकृतिक बंधस्थान में ७, ८ और ६ प्रकृतिक, तीन उदयस्थान हैं और प्रत्येक उदयस्थान में २८ प्रकृतिक एक सत्तास्थान होता है। इस प्रकार २१ प्रकृतिक बंधस्थान में तीन उदयस्थानों की अपेक्षा तीन सत्तास्थान हैं। दोनों बधस्थानों की अपेक्षा यहाँ प्रत्येक जीवस्थान में १२ भंग हैं।
२१ प्रकृतिक बंघस्थान में २८ प्रकृतिक एक सत्तास्थान मानने का कारण यह है कि २१ प्रकृतिक बंधस्थान सासादन गुणस्थान में होता है
और सासादन गुणस्थान २८ प्रकृतिक सत्ता वाले जीव को ही होता है, क्योंकि सासादन सम्यग्दृष्टियों के दर्शनमोहत्रिक की सत्ता पाई जाती है। इसीलिये २१ प्रकृतिक बंधस्थान में प्रकृतिक सत्तास्थान माना जाता है। ___ एक संझी पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवस्थान में मोहनीय कर्म के बंध
आदि स्थानों के संवेध का कथन जैसा पहले किया गया है, वैसा ही यहाँ जानना चाहिये। १ एकविंशतिबन्धो हि सारादिनभावमुपागतेषु प्राप्यते, सासादनाश्चावश्य
मष्टाविंशतिसत्कर्माणः, तेषां दर्शनयिकस्य निमभतो मावात्, तत्तस्तेषु सत्तास्थानमष्टाविंशतिरेव । –सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २००
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षष्ठ कर्मग्रन्य
२२५ जीवस्थानों में मोहनीय कर्म के संवेध भंगों का विवरण इस प्रकार जानना चाहिये
कम जीवस्थान
| मंग |उदयस्थान मंग
उदयन
पदवृन्द | सत्तास्थान पद
| ८,६,१०
| ३६ | २६८ २८,२७,२६
८,९,१०
| २८,२७,२६ २८,२७,२६ २८,२७,२६
| बा. ए.प.
२८
| २८,२७,२६ २८,२७,२६
८,९,१० ७.८,६] ८,९,१० ३२ ८,९.१० ७,८,६ |
२८,२७,२६ २८,२७,२६ २८,२७.२६ २८,२७,२६ २८,२७,२६
६ 'चतु. अप.
८,९.१०
| चतु.पां. २२
.
२८
असं.पं.अ. २२
८.६,१०
| असं.पं.प. २२
२८,२७,२६ २८,२७,२६ २८
२८,२७,२६ २८८ | ६६४७ | सब
१३ | सं.प.अप, २२ १४ | सं.म.पर्या.
सब
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सप्ततिका प्रकरण जीवस्थानों में मोहनीय कर्म के बंधादि स्थानों व संवैध भंगों को बतलाने के बाद अब नामकर्म के भंगों को बतलाते हैं
पण दुग पणगं पण चउ पणगं पणगा हवंति तिन्नेव । पण छप्पणगं छमछप्पणगं अदृट्ठ दसगं ति ॥३७॥ सत्तेव अपज्जसा सामी तह सुहम बायरा चेव । विलिविया उ तिन्नि उ तह य असम्नी य सन्नी य॥३८॥
भावार्य-पण दुग पणर्ग-पांच, दो, पाँच, पण चउ पगगं--पाच, चार, पांच, पगगा-पांच-पांच, हवंति-होते हैं, तिन्मेष-तीनों ही (बंध, उदय और सत्तास्थान), पण छप्पण-पांच, छह, पाच, छप्पणगं-छह, छह, पाच, अटुट-आठ, आठ, बसगं- दस, ति–इस प्रकार ।
सत्तेब-सातों ही, अपज्जता अपर्याप्त, सामी-स्वामी, तहतथा, सुहम-सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, पापरा-बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, घेव-और, विगलिक्ष्यिा-विकलेन्द्रिय पर्याप्त, तिमि-लीन, तहवैसे ही, प-और, असम्मी-असंजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त, सन्नी-संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त ।
गापार्ष-पांच, दो, पाँच; पाँच, चार, पाँच; पाँच, पाँच, पाँच पांच, छह, पांच छह, छह, पाँच और आठ, आठ, दस; ये बंध, उदय और सत्तास्थान हैं। .
इनके क्रम से सातों अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, विकलत्रिक पर्याप्त, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त
और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव स्वामी जानना चाहिए । विशेषा-इन दो गाथाओं में जीवस्थानों में नामकर्म के भंगों का विचार किया गया है। पहली गाथा में तीन-तीन संख्याओं का. एक पुंज लिया गया है, जिसमें से पहली संख्या बंधस्थान की, दूसरी
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षण्ठ कर्म प्रय
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संख्या उदयस्थान की और तीसरी संख्या सत्तास्थान की द्योतक है । गाथा में संख्या के ऐसे कुल छह पुंज हैं। दूसरी गाथा में चौदह जीवस्थानों को छह भागों में विभाजित किया गया है। जिसका यह तात्पर्य हुआ कि पहले भाग के जीवस्थान पहले पुंज के स्वामी दूसरे भाग के जीवस्थान दूसरे पुंज के स्वामी हैं इत्यादि ।
यद्यपि गाथागत संकेत से इतना तो जान लिया जाता है कि अमुक जीवस्थान में इतने बंधस्थान, इतने उदयस्थान और इतने सत्तास्थान हैं, किन्तु वे कौन-कौन से हैं और उनमें कितनी कितनी प्रकृतियों का ग्रहण किया गया है, यह ज्ञात नहीं होता है। अतः यहाँ उन्हीं का भंगों के साथ आचार्य मलयगिरि कृत टीका के अनुसार विस्तार से विवेचन किया जाता है।
'पण दुर्गा पणगं सत्तेव अपज्जत्ता' दोनों गाथाओं के पदों को यथाक्रम से जोड़ने पर यह एक पक्ष हुआ। जिसका यह अर्थ हुआ कि चौदह जीवस्थानों में से सात अपर्याप्त जीवस्थानों में से प्रत्येक में पाँच बंधस्थान, दो उदयस्थान और पाँच सत्तास्थान हैं । जिनका स्पष्टीकरण यह है कि सात प्रकार के अपर्याप्त जीव मनुष्यगति और तिर्यंचगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं, देवगति और नरकगति के योग्य प्रकृतियों का नहीं, अतः इन सात अपर्याप्त जीवस्थानों में २८, ३१ और १ प्रकृतिक बंधस्थान न होकर २३, २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक, ये पांच बंधस्थान होते हैं और इनमें भी मनुष्यगति तथा तिथंचगति के योग्य प्रकृतियों का ही बंध होता है । इन बंघस्थानों का विशेष विवेचन नामकर्म के बंघस्थान बतलाने के अवसर पर किया गया है, अतः वहाँ से समझ लेना चाहिये। यहाँ सब बंस्थानों के मिलाकर प्रत्येक जीवस्थान में १३९४७ भंग होते हैं ।
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सप्ततिका प्रकरण
इन सात जीवस्थानों में दो उदयस्थान हैं-२१ और २४ प्रकृतिक । सो इनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थान में अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के तिथंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, तंजसशरीर, कार्मणशरीर, अगुरुलघु, वर्णचतुष्क, एकेन्द्रिय जाति, स्थावर, बादर, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति और निर्माण इन २१ प्रकृतियों का उदय होता है । यह उदयस्थान अपान्तराल गति में पाया जाता है । यहाँ भंग एक होता है क्योंकि यहाँ परावर्तमान शुभ प्रकृतियों का उदय नहीं होता है । ____ अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय सी को भी यही श्यात हो । किन्तु इतनी विशेषता है कि उसके बादर के स्थान में सूक्ष्म प्रकृति का उदय कहना चाहिए । यहाँ भी एक भंग होता है।
इस २१ प्रकृतिक उदयस्थान में औदारिकशरीर, हुंडसंस्थान, उपघात और प्रत्येक व साधारण में से कोई एक, इन चार प्रकृतियों को मिलाने और तिर्यंचानुपूर्वी इस प्रकृति को घटा देने पर २४ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । जो दोनों सूक्ष्म व बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवस्थानों में समान रूप से सम्भव है। यहाँ सूक्ष्म अपर्याप्त और बादर अपर्याप्त में से प्रत्येक के साधारण और प्रत्येक नामकर्म की अपेक्षा दो-दो भंग होते हैं । इस प्रकार दो उदयस्थानों की अपेक्षा दोनों जीवस्थानों में से प्रत्येक के तीन-तीन भंग होते हैं।
विकलेन्द्रियत्रिक अपर्याप्त, असंही अपर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त, इन पांच जीवस्थानों में २१ और २६ प्रकृतिक, यह दो उदयस्थान होते हैं। इनमें से अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, तेजस, कार्मण, अगुरुलधु, वर्णचतुष्क, द्वीन्द्रिय जाति, बस, बादर, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण यह २१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । जो अपान्तराल गति में
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षद कर्मग्रन्थ
विद्यमान जीव के ही होता है, अन्य के नहीं। यहाँ सभी प्रकृतियाँ अप्रशस्त हैं, अत: एक ही भंग जानना चाहिये।
इसी प्रकार त्रीन्द्रिय आदि जीवस्थानों में भी यह २१ प्रकृतिक उदयस्थान और १ भंग जानना चाहिये 1 किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रत्येक जीवस्थान में द्वीन्द्रिय जाति न कहकर श्रीन्द्रिय जाति आदि अपनी-अपनी जाति का उदय कहना चाहिये।
अनन्तर २१ प्रकृतिक उदयस्थान में शरीरस्थ जीव के औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, हुंडसंस्थान, सेवात संहनन, उपधात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियों के मिलाने और तिर्य चानुपूर्वी के निकाल देने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी एक ही भंग होता है। इस प्रकार अपर्याप्त द्वीन्द्रिय आदि प्रत्येक जीवस्थान में दो-दो उदयस्थानों की अपेक्षा दो-दो भंग होते हैं ।
लेकिन अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान इसका अपवाद है। क्योंकि अपर्याप्त संज्ञो जीवस्थान तिर्यंचगति और मनुष्यगति दोनों में होता है । अत: यहाँ इस अपेक्षा से चार भंग प्राप्त होते हैं।'
इन सात जीवस्थानों में से प्रत्येक में ६२, ५८, १६, ८० और ७८ प्रकृतिक पाँच-पाँच सत्तास्थान हैं । अपर्याप्त अवस्था में तीर्थकर प्रकृति की सत्ता सम्भव नहीं है अत: इन सातों जीवस्थानों में ६३ और ८६ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान नहीं होते हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सम्बन्धी शेष सत्तास्थान सम्भव होने से उक्त पाँच सत्तास्थान कहे हैं। ___ इस प्रकार से सात अपर्याप्त जीवस्थानों में नामकर्म के बंधस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान जानना चाहिये। अब इसके अनन्तर पण
१ केवलमपर्याप्तसंज्ञिनश्चत्वारः, यतो द्वौ मंगावपर्याप्तसंज्ञिनस्तिरश्चः प्राध्येते, द्वौ वापर्याप्तमं जिनो मनुष्यस्येति ।
--सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० २०१
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२३२
सप्ततिका प्रकरण
पउ पणगं' और 'सुहम पद का सम्बन्ध करते हैं। जिसका अर्थ यह है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में पांच बंधस्थान हैं, चार उदयस्थान हैं और पांच सत्तास्थान हैं। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव भी मरकर मनुष्य और तिर्यंचगति में ही उत्पन्न होता है, जिससे उसके उन गतियों के योग्य कर्मों का बंध होता है। इसीलिए इसके भी २३, २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक, ये पांच बंधस्थान माने गये हैं। इन पांच बंधस्थानों के मानने के कारणों को पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। यहाँ भी इन पाँचों स्थानों के कुल भंग १३६१७ होते हैं।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के २१, २४, २५ और २६ प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान होते हैं। क्योंकि इन सूक्ष्म जीवों के आतप और उद्योत नामकर्म का उदय नहीं होता है। इसीलिये २७ प्रकृतिक उदयस्थान छोड़ दिया गया है।
२१ प्रकृतिक उदयस्थान में वे ही प्रकृतियाँ लेनी चाहिये, जो सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों को बसला आये हैं। लेकिन इतनी विशेषता है कि यहाँ सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान विवक्षित होने से अपर्याप्त के स्थान पर पर्याप्त का उदय कहना चाहिये। यह २१ प्रकृतिक उदयस्थान, अपान्तराल गति में होता है। प्रतिपक्षी प्रकृतियां न होने से इसमें एक ही भंग होता है।
उक्त २१ प्रकृतिक उदयस्थान में औदारिक शरीर, हुंड-संस्थान, उपघात तथा साधारण और प्रत्येक में से कोई एक प्रकृति, इन चार प्रकृतियों को मिलाने तथा तिर्यंचानुपूर्वी को कम करने पर २४ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह उदयस्थान शरीरस्थ जीव को होता है । यहाँ प्रत्येक और साधारण के विकल्प से दो भंग होते हैं ।
अनन्तर शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव की अपेक्षा २४ प्रकृतिक
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
२३३
उदयस्थान में पराघात को मिला देने पर २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी २४ प्रतिक उदयस्था की तरह वे ही दो भंग होते हैं। ___ उक्त २५ प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव की अपेक्षा उच्छ्वास प्रकृति को मिलाने से २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्वोक्त दो भंग होते हैं। इस प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में चार उदयस्थान और उनके सात भंग होते हैं। ____ अब सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में सत्तास्थान बतलाते हैं। इस जीवस्थान में पाँच सत्तास्थान बतलाये हैं। वे पाँच सत्तास्थान ६२, ८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक हैं । तिर्यंचगति में तीर्थकर प्रकृति की सत्ता नही होती हैं। इसलिए ६३ और ८६ प्रकृतिक ये दो सता. स्थान संभव नहीं होने से १२, १८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक पाँच सत्तास्थान पाये जाते हैं। फिर भी जब साधारण प्रकृति के उदय के साथ २५ और २६ प्रकृतिक उदयस्थान लिये जाते हैं तब इस भंग में ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान सम्भव नहीं है । क्योंकि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों को छोड़कर शेष सब जीव शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होने पर मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी का नियम से बन्ध करते हैं और २५ व २६ प्रकृतिक उदयस्थान शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीवों के ही होते हैं। अत: साधारण सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के २५ और २६ उदयस्थान रहते ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है। शेष चार सत्तास्थान ६२, ८८, ८६ और ८० प्रकृतिक होते हैं । __ लेकिन जब प्रत्येक प्रकृति के साथ २५ और २६ प्रकृतिक उक्यस्थान लिये जाते हैं तब प्रत्येक में अग्निकायिक और वायुकायिक जीव भी शामिल हो जाने से २५. और २६ प्रकृतिक उदयस्थानों में ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान भी बन जाता है ।
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साप्ततिका प्रकरण
इस प्रकार उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि २१ और २४ प्रकृतिक में से प्रत्येक उदयस्थान में तो पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं और २५ व २६ प्रकृतिक उदयस्थानों में से प्रत्येक में एक अपेक्षा से चार-चार और एक अपेक्षा से पांच-पाँच सत्तास्थान होते हैं । अपेक्षा का कारण साधारण व प्रत्येक प्रकृति है। जिसका स्पष्टीकरण ऊपर किया गया है।
अब गाथा में निर्दिष्ट क्रमानुसार बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में बंधादि स्थानों को बतलाते हैं कि 'पणगा हवंति तिन्नेव' का सम्बन्ध "बायरा” से जोड़ें । जिसका अर्थ यह हुआ कि बादर एन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में पाँच बंधस्थान, पाँच उदयस्थान और पांच सत्तास्थान होते हैं । जिनका विवरण नीचे लिग्ने अनुसार है--
बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त नी भी मनुमति और हिनाति में योग्य प्रकृतियों का बंध करता है। इसलिए उसने भी २३, २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक, ये पाँच बंधस्थान होते हैं और तदनुसार इनके कुल भंग १३६१७ होते हैं।
उदयस्थानों की अपेक्षा विचार करने पर यहाँ पर भी एकेन्द्रिय सम्बन्धी पाँच उदयस्थान २१, २४, २५, २६ और २७ प्रकृतिक होते हैं । क्योंकि सामान्य से अपान्तराल गति की अपेक्षा २१ प्रकृतिक, शरीरस्थ होने की अपेक्षा २४ प्रकृतिक, शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होने की अपेक्षा २५ प्रकृतिक और प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त होने की अपेक्षा २६ प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान तो पर्याप्त एकेन्द्रिय को नियम से होते ही हैं। किन्तु यह बादर एकेन्द्रिय है अत: यहाँ आतप और उद्योत नाम में से किसी एक का उदयस्थान और संभव है, जिससे २७ प्रकृतिक उदयस्थान भी बन जाता है। इसीलिये बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में २१, २४, २५, २६ और २७ प्रकृतिक, ये पाँच उदयस्थान माने गये हैं।
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पष्ठ कर्मग्रन्थ
२३५ बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान के २१ प्रकृतिक उदयस्थान में ६१ प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-तिर्यंचगति, तिर्य चानुपूर्वी, एकेन्द्रिय जाति, स्थावर, बादर, पर्याप्त, तेजस, कार्मण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णचतुष्क, निर्माण, दुभंग, अनादेय, यशःकीति और अयश:कीर्ति में से कोई एक । इस उदयस्थान में यश:कीति और अयशःकीर्ति का उदय विकल्प से होता है। अत: इस अपेक्षा से यहाँ २१ प्रकृतिक उदयस्थान के दो भंग होते हैं।
उक्त २१ प्रकृतिका उपचन में शरीरस्य जीव की अपेक्षा औदारिक शरीर, हुंडसंस्थान, उपघात तथा प्रत्येक और साधारण में से कोई एक, इन चार प्रकृतियों को मिलाने तथा तिर्यंचानुपूर्वी को कम करने पर २४ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ प्रत्येक-साधारण और यश कीति-अयशःकीति का विकल्प से उदय होने के कारण चार भंग होते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि शरीरस्थ विक्रिया करने वाले बादर वायुकायिक जीवों के साधारण और यशःकीति नामकर्म का उदय नहीं होता है, इसलिये वहाँ एक ही भंग होता है। दूसरी विशेषता यह है कि ऐसे जीवों के औदारिक शरीर का उदय न होकर वैकिय शरीर का उदय होता है, अतः इनके औदारिक शरीर के स्थान पर बैंक्रिय शरीर कहना चाहिए।' इस प्रकार २४ प्रकृतिक उदयस्थान में कुल पांच भंग हुए।
अनन्तर २४ प्रकृतिक उदयस्थान में पराघात प्रकृति को मिलाने से २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह उदयस्थान शरीर पर्याप्ति से
१ वक्कियं कुर्वत: पुन दरवायुकायिकस्यकः, पसस्तस्य साधारण-यशःकीर्ती
उदयं नागच्छतः, अन्यच्च वैकियवायुकायिकचतुचियातायौदारिकशरीरस्थाने दैक्रियशरीरमिति वक्तव्यम् ।
-~-~सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २०२
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२३६
सप्ततिका प्रकरण
पर्याप्त हुए जीव को होता है। यहाँ भी २४ प्रकृतिक उदयस्थान की तरह पाँच भङ्ग होते हैं ।
यदि शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जोव के आतप और उद्योत में से किसी एक का उदय हो जावे तो २५ प्रकृतिक उदयस्थान में आतप और उद्योत में से किसी एक को मिलाने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । किन्तु आतप का उदय साधारण को नहीं होता है, अतः इस पक्ष में २६ प्रकृतिक उदयस्थान के यशःकीर्ति और अयश:कीर्ति की अपेक्षा दो भंग होते हैं। लेकिन उद्योत का उदय साधारण और प्रत्येक, इनमें से किसी के भी होता है अतः इस पक्ष में साधारण और प्रत्येक तथा यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति, इनके विकल्प से चार भंग होते हैं। इस प्रकार २६ प्रकृतिक उदयस्थान के कुल ५+२+४= ११ भंग हुए ।
अनन्तर प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव की अपेक्षा उच्छ्वास सहित २६ प्रकृतिक उदयस्थान में आतप और उद्योत में से किसी एक प्रकृति के मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पहले के समान आतप के साथ दो भङ्ग और उद्योत के साथ चार भङ्ग, इस प्रकार कुल छह भङ्ग हुए।
इन पाँचों उदयस्थानों के भङ्ग जोड़ने पर बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान के कुल भङ्ग २६ होते हैं ।
बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के २६८० और ७८ प्रकृतिक, ये पाँच सत्तास्थान होते हैं । इस जीवस्थान में जो पाँचों उदयस्थानों के २६ भङ्ग बतलाये हैं, उनमें से इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान के दो भङ्ग, २४ प्रकृतिक उदयस्थान में वैक्रिय बादर वायुकायिक के एक भङ्ग को छोड़कर शेष चार भङ्ग तथा २५ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानों में प्रत्येक नाम और अयशःकीर्ति नाम के साथ प्राप्त होने
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वष्ठ कर्मग्रन्थ
२३७
वाला एक-एक भङ्ग, इस प्रकार इन आठ भङ्गों में से प्रत्येक में उपर्युक्त पांचों सत्तास्थान होते हैं किन्तु शेष २१ में से प्रत्येक भङ्ग में ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान को छोड़कर शेष चार-चार सत्तास्थान होते हैं ।
अब गाथा में किये गये निर्देशानुसार पर्याप्त विकलेन्द्रियों में बंधादि स्थानों और उनके यथासम्भव भङ्गों को बतलाते हैं। गाथाओं में निर्देश है 'पण पणगं विगलिंदिया उ तिनि उ' । अर्थात् विकलत्रिक - - द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याप्तों में पाँच बंधस्थान, छह उदयस्थान और पाँच सत्तास्थान हैं। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि - विकलेन्द्रिय पर्याप्त जीव भी तिर्यंचगति और मनुष्यगति के योग्य प्रकृतियों का ही बंध करते हैं। अतः इनके भी २३, २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक, ये पाँच बंधस्थान होते हैं और तदनुसार इनके कुल भङ्ग १३९१७ होते हैं।
उदयस्थानों की अपेक्षा विचार करने पर यहाँ २१, २६, २८,२६, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये छह उदयस्थान होते हैं। इनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थान में - तेजस, कार्मण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णचतुष्क, निर्माण, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, द्वीन्द्रिय जाति, स बादर, पर्याप्त, दुर्भग, अनादेय और यशः कीर्ति व अयश: कीर्ति में से कोई एक - इस प्रकार २१ प्रकृतियों का उदय होता है जो अपान्तराल गति में पाया जाता है। इसके यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति के विकल्प से दो भज्ज होते हैं ।
अनन्तर शरीरस्थ जीव की अपेक्षा २१ प्रकृतिक उदयस्थान में औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, इंडसंस्थान, सेवार्त संहनन, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियों को मिलाने तथा तिर्यचानुपूर्वी को कम करने से २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी २१ प्रकृतिक उदयस्थान की तरह दो भङ्ग जानना चाहिये ।
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सप्ततिका प्रकरण
इस २६ प्रकृतिक उदयस्थान में शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव की अपेक्षा पराघात और अप्रशस्त विहायोगति, इन दो प्रकृतियों को मिलाने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहां भी पूर्ववत् दो भङ्ग होते हैं।
२८ प्रकृतिक उदयस्थान के अनन्तर २६ प्रकृतिक उदयस्थान का क्रम है । यह २६ प्रकुतिक उदयस्थान दो प्रकार से होता है - एक तो जिसने प्राणापान पर्याप्ति को प्राप्त कर लिया है, उसके उद्योत के बिना केवल उच्छ्वास का उदय होने पर और दूसरा शरीर पर्याप्ति की प्राप्ति होने के पश्चात् उद्योल का उदय होने पर। इन दोनों में से प्रत्येक स्थान में पूर्वोक्त दो-दो भङ्ग प्राप्त होते हैं । इस प्रकार २० प्रकृतिक उदयस्थान के कुल चार भङ्ग हुए।
इसी प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थान भी दो प्रकार से प्राप्त होता है। एक तो जिसने भाषा पर्याप्ति को प्राप्त कर लिया है, उसके उद्योत का उदय न होकर सुस्वर और दुःस्बर इन दो प्रकृतियों में से किसी एक का उदय होने पर होता है और दूसरा जिसने श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति को प्राप्त किया और अभी भाषा पर्याप्ति की प्राप्ति नहीं हुई किन्तु इसी बीच में उसके उद्योत प्रकृति का उदय हो गया तो भी ३० प्रकृतिक उदयस्थान हो जाता है। इनमें से पहले प्रकार के ३० प्रकृतिक उदयस्थान में यश:कीर्ति और अयश:कीति तथा सुस्वर और दुःस्वर के विकल्प से चार भङ्ग प्राप्त होते हैं। किन्तु दूसरे प्रकार के ३० प्रकृतिक उदयस्थान में यशःकीति और अयश कीर्ति के विकल्प से दो ही भङ्ग होते हैं। इस प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थान में छह भङ्ग प्राप्त हुए। १ ततः प्राणापानपर्याप्या पर्याप्तस्योच्छवासे क्षिप्ते एकोत्रिशत्, अत्राषि
तावेन द्वौ मङ्गी; अथवा तस्यामेवाष्टा विशती उच्छ्वासेऽनुदिते उद्योतनाम्नि तूदिते एकोनत्रिंशत् । ---सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ. २०३
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षष्ठ कर्मग्रन्य
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ऊपर जो ३० प्रकृतिक उदयस्थान के दो प्रकार बतलाये हैं उसमें से यदि जिसने भाषा पर्याप्ति को भी प्राप्त कर लिया और उयोत का भी उदय है, उसको ३१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ यश:कीति और अयशःकीति तथा दोनों स्वरों के विकल्प से चार भङ्ग होते हैं। इस प्रकार पर्याप्त द्वीन्द्रिय के सब उदयस्थानों के कुल भङ्ग २० होते हैं।
द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में भी एकेन्द्रिय के समान ६२, ८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक, ये पांच सत्तास्थान होते हैं। पहले जो छह उदयस्थानों के २० भङ्ग बतलाये हैं उनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थान के दो भङ्ग तथा २६ प्रकृतिक उदयस्थान के दो भङ्ग, इन चार भङ्गों में से प्रत्येक भङ्ग में पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं क्योंकि ७८ प्रकृतियों की सत्ता वाले जो अग्निकायिक और वायुकायिक जीव पर्याप्त द्वीन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, उनके कुछ काल तक ७८ प्रकृतियों की सत्ता संभव है तथा इस काल में द्वीन्द्रियों के क्रमश: २१ और २६ प्रकृतिक उदयस्थान ही होते हैं। इसीलिये इन दो उदयस्थानों के चार भङ्गों में से प्रत्येक भङ्ग में उक्त पांच सत्तास्थान क.हे हैं तथा इन चार भङ्गों के अतिरिक्त जो शेष १६ भङ्ग रह जाते हैं, उनमें से किसी में भी ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान न होने से प्रत्येक में चार-चार सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के सिवाय शेष जीव शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होने के पश्चात् नियम से मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी का बंध करते हैं, जिससे उनके ७८९ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं पाया जाता है।
पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों की तरह त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों को भी बंधादि स्थानों और उनके भङ्गों को जानना चाहिये । इतनी विशेषता जानना चाहिये कि उदयस्थानों में द्वीन्द्रिय के स्थान पर त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय का उल्लेख कर दिया जाये।
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सप्त तिका प्रकरण
अब क्रमप्राप्त अंसजी पर्याप्त जीवस्थान में अंधादि स्थानों और उनके भङ्गों का निर्देश करते हैं। इसके लिये गाथाओं में निर्देश किया है—'लच्छप्पण' 'असन्नी य' अर्थात् असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान के छह बंघस्थान हैं, छह उदयस्थान है और पाँच सत्तास्थान हैं। जिनका विवेचन यह है कि असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव मनुष्यगति.
और तिर्यंचगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करते ही हैं, किन्तु नरकगति और देवगति के योग्य प्रकृतियों का भी बंध कर सकते हैं। इसलिये इनके २३, २५, २६, २८, २६ और ३० प्रकृतिक ये छह बंधस्थान होते हैं और तदनुसार १३६२६ भङ्ग होते हैं।
उदयस्थानों की अपेक्षा विचार करने पर यहाँ २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये छह उदयस्थान हैं। इनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थान में तेजस, कार्मण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णचतुष्क, निर्माण, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, प्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग और दुर्भग में से कोई एक, आदेय और अनादेय में से कोई एक तथा यशःकीति और अयश:कीति में से एक, इन २१ प्रकृतियों का उदय होता है। यह २१ प्रकृतिक उदयस्थान अपान्तरालगति में ही पाया जाता है तथा सुभग आदि तीन युगलों में से प्रत्येक प्रकृति के विकल्प से ८ भङ्ग प्राप्त होते हैं।
अनन्तर जब यह जीव शरीर को ग्रहण कर लेता है तब औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, यह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, छह संहननों में से कोई एक संहनन, उपधात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियों का उदय होने लगता है। किन्तु यहाँ आनुपूर्वी नामकर्म का उदय नहीं होता है। अतएव उक्त २१ प्रकृतिक उदयस्थान में छह प्रकृतियों को मिलाने और तिर्यंचानुपूर्वी को कम करने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ छह संस्थान और छह संहननों
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
२४१ की अपेक्षा सुभगत्रिक की अपेक्षा से पूर्वोक्त ८ भङ्गों में दो बार छह से गुणित कर देने पर X६x६:२८८ भङ्ग प्राप्त होते हैं।
अनंतर इसके शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हो जाने पर पराघात तथा प्रशस्त विहायोगति और अप्रशस्त बिहायोगति में से किसी एक का उदय और होने लगता है। अत: २६ प्रकृतिक उदयस्थान में इन दो प्रकृतियों को और मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ दोनों विहायोगतियों के विकल्प की अपेक्षा भङ्गों के विकल्प पूर्वोक्त २८८ को दो से गुणा कर देने पर २८८४२-५७६ हो जाते हैं । २६ प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकार से होता है-एक तो जिसने आन-प्राण पर्याप्ति को पूर्ण कर लिया है उसके उद्योत के बिना केवल उच्छ्वास के उदय से प्राप्त होता है और दूसरा शरीर पर्याप्ति के पूर्ण होने पर उद्योत प्रकृति के उदय से प्राप्त होता है । इन दोनों स्थानों में से प्रत्येक स्थान में ५७६ भङ्ग होते हैं । अत: २६ प्रकृतिक उदयस्थान यो कुल ५७६ ४२=११५२ भङ्ग हुए।
३० प्रकृतिक उदयस्थान भी दो प्रकार से प्राप्त होता है । एक तो जिसने भाषा पर्याप्ति को पूर्ण कर लिया उसके उद्योत के बिना सुस्वर और दुःस्वर प्रकृतियों में से किसी एक प्रकृति के उदय से प्राप्त होता है और दूसरा जिसने श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति को पूर्ण कर लिया, उसके उद्योत का उदय हो जाने पर होता है। इनमें से पहले प्रकार के स्थान के पूर्वोक्त ५७६ भङ्गों को स्वरद्विक से गुणित करने पर ११५२ भङ्ग प्राप्त होते हैं तथा दूसरे प्रकार के स्थान में ५७६ भंग ही होते हैं । इस प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थान के कुल भंग ११५२+५७६ = १७२८ होते हैं।
अनन्तर जिसने भाषा पर्याप्ति को भी पूर्ण कर लिया और उद्योत प्रकृति का भी उदय है उसके ३१ प्रकृतिक उदयस्थान होता है ।
।
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सरततिका प्रकरण
यहाँ कुल भंग ११५२ होते हैं । इस प्रकार असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान के सब उदयस्थानों के कुल ४६०४ भङ्ग होते हैं। ___असंजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में ६२. ८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक ये पांच सत्तास्थान होते हैं। इनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थान के ८ भङ्ग तथा २६ प्रकृतिक उदयस्थान के २८८ भङ्ग, इनमें से प्रत्येक भङ्ग में पूर्वोक्त पाँच-पाँच सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि ७८ प्रकृतियों की सत्ता वाले जो अग्निकायिक और वायुकायिक जीव हैं वे यदि असंझी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में उत्पन्न होते हैं तो उनके २१ और २६ प्रकृतिक उदयस्थान रहते हुए ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान पाया जाना संभव है। किन्तु इनके अतिरिक्त शेष उदयस्थानों और उनके भङ्गों में ७८ के बिना शेष चार-चार सत्तास्थान ही होते हैं।
इस प्रकार से अभी तक तेरह जीवस्थानों के नामकर्म के बंधादि स्थानों और उनके मङ्गों का विचार किया गया। अब शेष रहे चौदहवें संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान के बंधादि स्थानों व भङ्गों का निर्देश करते हैं । इस जीवस्थान के बंधादि स्थानों के लिये गाथा में संकेत किया गया है.-'अट्टठ्ठदसगं ति सन्नी य' अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में आठ बंधस्थान, आळं उदयस्थान और दस सत्तास्थान है । जिनका स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है।
नाम कर्म के २३, २५ २६, २८ २६, ३०, ३१ और १ प्रकृतिक, ये आठ बंधस्थान बतलाये हैं। ये आठों बंधस्थान संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के होते हैं और उनके १३६४५ भङ्ग संभव हैं। क्योंकि इनके चारों गति सम्बन्धी प्रकृतियों का बंध सम्भव है, इसीलिये २३ प्रकृतिक आदि बंधस्थान इनके कहे हैं। तीर्थंकर नाम और आहारकचतुष्क का भी इनके बंध होता है इसीलिये ३१ प्रकृतिक बंधस्थान कहा है। इस जीवस्थान में उपशम और क्षपक दोनों श्रेणियाँ पाई जाती हैं इसीलिये १ प्रकृतिक बंधस्थान भी कहा है ।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
२४३ उदयस्थानों की अपेक्षा विचार करने पर और २०, ह और ८ प्रकतिक ये तीन उदयस्थान केवली सम्बन्धी हैं और २४ प्रकृतिक उदयस्थान एकेन्द्रियों का होता है अतः इस जीवस्थान में २०, २४, ६ और ८ प्रकृतिक, इन चार उदयस्थानों को छोड़कर शेष यह जीवस्थान बारहवें गुणस्थान तक ही पाया जाता है । २१, २५, २६, २७, २८, २६ ३०, ३१ प्रकृतिक ये आठ उदयस्थान पाये जाते हैं। इन आठ उदयस्थानों के कुल भंग ७६७१ होते हैं। क्योंकि १२ उदयस्थानों के कुल भंग ७७६१ हैं सो उनमें से १२० भंग कम हो जाते हैं, क्योंकि उन भंगों का संबंध संनी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव से नहीं है।।
नामकर्म के सत्तास्थान १२ हैं, उनमें से है और ८ प्रकृतिक सत्तास्थान केवली के पाये जाते हैं, अत: वे दोनों संजी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में संभव नहीं होने से उनके अतिरिक्त ६३, ६२, ६, ८८, ८६, ८०, ७६ ७८, ७६ और ७५ प्रकृतिक, ये दस सत्तास्थान पाये जाते हैं । २१ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानों के क्रमश: ८ और २८८ भंगों में से तो प्रत्येक भंग में १२, ८८, ८६, ८० और ७६ प्रकृतिक, ये पांच-पांच सत्तास्थान ही पाये जाते हैं।
१ गो० कर्मकांड गाथा ६७६ में नामकर्म के ६३, ६२, ६१, ६०, ८, ५४,
८२, ५, ७६, ७८, ७७, १० और प्रकृतिक ये १३ सत्तास्थान बतलाये हैं। इनमें से संज्ञो पंचेन्द्रिय जीवस्थान में १० और १ प्रकृतिक सतास्थान को छोड़कर शेष ११ मत्तास्थान बतलाये हैं-दसणवपरिहीणसन्वयं मत्तं ।।७०६॥
श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मनग्यों में नामकर्म के निम्नलिखित सत्तास्थान समान प्रकृतिक हैं, ६३, ६२, ८८, ८०, ७६, ७८ और ६ प्रकृतिक और बाकी के सत्तास्थानों में प्रकृतियों की संख्या में भिन्नता है। श्वेताम्बर कर्मग्रन्थों में ८६, ८६, ७६, ७५ प्रकृतिक तथा दिगम्बर साहित्य में ६१, ६०, ८४, ८२, ७७, १० प्रकृतिक सत्तास्थान बतलाये हैं।
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२४४
मप्ततिका प्रकरण इस प्रकार चौदह जीवस्थानों में बंधादि स्थानों और उनके भंगों का विचार किया गया। अब उनके परस्पर संबंध का विचार करते हैं।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों के २३ प्रकृतिक बंधस्थान में २१ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते ६२, ८८, ८६, ६० और ७८ प्रकृतिक, ये पांच सत्तास्थान होते हैं। इसी प्रकार २४ प्रकृतिक उदयस्थान में भी पांच सत्तास्थान होते हैं । कुल मिलाकर दोनों उदयस्थानों के १० सत्तास्थान हुए । इसी प्रकार २५, २६, २६ और ३० प्रकृतियों का बंध करने वाले उक्त जीवों के दो-दो उदयस्थानों की अपेक्षा दस-दस सत्तास्थान होते हैं। जो कुल मिलाकर ५० हुए। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त आदि भा छ अपर्याप्तों के ५०-: मनास्थान जानना किन्तु सर्वत्र अपने-अपने दो-दो उदयस्थान कहना चाहिये।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त के २३, २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक, ये पांच बंधस्थान होते हैं और एक-एक बंधस्थान में २१, २४, २५ और २६ प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान होते हैं । अत: पांच को चार से गुणित करने पर २० हुए तथा प्रत्येक उदयस्थान में पांच-पांच सत्तास्थान होते है अत: २० को ५ से गुणा करने पर १०० सत्तास्थान मूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में होते हैं।
बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त के भी पूर्वोक्त २३, २५, २६, २१ और ३० प्रकृतिक, पांच बंधस्थान होते हैं और एक-एक बंधस्थान में २१, २४, २५, २६ और २७ प्रकृतिक, ये पांच-पांच उदयस्थान होते हैं, अत: ५ को ५ से गुणा करने पर २५ हुए। इनमें से अन्तिम पांच उदयस्थानों में - के बिना चार-चार सत्तास्थान होते हैं, जिनके कुल भंग २० हुए और शेष २० उदयस्थानों में पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं, जिनके कुल भंग १०० हुए । इस प्रकार यहाँ कुल भंग १२० होते हैं।
द्वीन्द्रिय पर्याप्त के २३, २५, २६, २७ और ३० प्रकृतिक, ये पांच
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
२४५
बंधस्थान होते हैं और प्रत्येक बंधस्थान में २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये छह उदयस्थान होते हैं। इनमें से २१ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानों में पांच-पांच सत्तास्थान हैं तथा शेष चार उदयस्थानों में ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान के सिवाय चारचार सत्तास्थान है। ये कुल मिलाकर २६ सत्तास्थान हुए। इस प्रकार पांच बंधस्थानों के १३० भंग हुए ।
द्वीन्द्रिय पर्याप्त की तरह श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त के बंध स्थान आदि जानना चाहिये तथा उनके भी १३०, १३० भङ्ग होते हैं ।
,
असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में भी २३, २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक इन पांच बंधस्थानों में से प्रत्येक बंधस्थान में विकलेन्द्रियों की तरह लम्बीस भङ्ग होते हैं जिनका योग १३० है । परन्तु २८ प्रकृतिक बंधस्थान में ३० और ३१ प्रकृतिक ये दो उदयस्थान ही होते हैं । अतः यहां प्रत्येक उदयस्थान में ६२, ८८ और ८६ प्रकृतिक ये तीन-तीन सत्तास्थान होते हैं। इनके कुल ६ भङ्ग हुए। यहां तीन सत्तास्थान होने का कारण यह है कि २८ प्रकृतिक बंधस्थान देवगति और नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध पर्याप्त के ही होता है ।" इसी प्रकार असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में १३० + ६ = १३६ भङ्ग होते हैं ।
संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के २३ प्रकृतिक बधस्थान में जैसे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के २६ सत्तास्थान बतलाये, वैसे यहां भी जानना
१ अष्टाविधातिबंधकाना पुनस्तेषां द्वै एवोदयस्थाने, तद्यथा-विशदेकत्रिशच्च । तत्र प्रत्येकं त्रीणि त्रीणि सत्तास्थानानि तद्यथा - विनवतिः अष्टाशीतिः षडशीतिश्च । अष्टाविंशतिहिं देवगतिप्रायोग्या नरकगतिप्रायोग्या वा, ततस्तस्यां बध्यमानायामवषयं वैक्रियचतुष्टयादि बध्यते इत्यशीति- अष्टसप्वती न प्राप्येते । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २०५
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२४६
सप्ततिका प्रकरण
चाहिये । २५ प्रकृतिक बंधस्थान में २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये आठ उदयस्थान बतलाये हैं सो इनमें से २१ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानी में तो पाच-पांच सत्तास्थान होते हैं तथा २५ और २७ प्रकृतिक उदयस्थान देवों के ही होते हैं, अत: इनमें ६२ और ८५ प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं। शेष रहे चार उदयस्थानों में से प्रत्येका में ७८ प्रकृतिक के बिना चार-चार सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार यहाँ कुल ३० सत्तास्थान होते हैं । २६ प्रकृतिक बंधस्थान में भी इसी प्रकार ३० सत्तास्थान होते हैं।
२८ प्रकुलिक बंधस्थान में आठ उदयस्थान होते हैं। इनमें से २१ २५, २६, २७, २८ और २६ प्रकृतिक इन छह उदयस्थानों में ६२ और
म प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं। ३० प्रऋतिक उदयस्थान में १२, १८, १६ और ८० प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान होते हैं तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थान में ३२, ८८ और ८६ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार यहां कुल १६ सत्तास्थान होते हैं।
२६ प्रकृतिक बंधस्थान में ३० प्रकृतिक सत्तास्थान तो २५ प्रकृतियों का बंध करने वाले के समान जानना किन्तु यहाँ कुछ विशेषता है कि जब अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य देवगति के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध करता है तब उसके २१, २६, २८, २९ और ३० प्रकृतिक ये पाँच उदयस्थान तथा प्रत्येक उदयस्थान में ६३ और ८६ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं जिनका जोड़ १० हुआ।
इसी प्रकार विक्रिया करने वाले संयत और संयतासंयत जीवों के भी २६ प्रकृतिक बंधस्थान के समय २५ और २७ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान तथा प्रत्येक उदयस्थान में ९३ और ८६ प्रकृतिक ये दो उदयस्थान होते हैं। जिनका जोड़ ४ होता है अथवा आहारक संयत के भी इन दो उदयस्थानों में ९३ प्रकृतियों की सत्ता होती है और तीर्थकर प्रकृति की सत्ता बाले मिथ्यादृष्टि को अपेक्षा ८६ की सत्ता होती है। इस
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पष्ठ कर्मग्रन्थ
प्रकार इन १४ सत्तास्थानों को पहले के ३० सत्तास्थानों में मिला देने पर २६ प्रकृतिक बंघस्थान में कुल ४४ सत्तास्थान होते हैं।
इसी प्रकार ३० प्रकृतिक बन्धस्थान में भी २५ प्रकृतिक बन्धस्थान के समान ३० सत्तास्थानों को ग्रहण करना चाहिए । किन्तु यहाँ भी कुछ विशेषता है कि तीर्थक र प्रकृति के साथ मनुष्यगति के योग्य ३० प्रकृतियों का बंध होते समय २१, २५, २७, २८, २६ और ३१ प्रकृतिक, ये छह उदयस्थान तथा प्रत्येक उदयस्थान में ६३ और ८६ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं । जिनका कुल जोड़ १२ होता है । इन्हें पूर्वोक्त ३० में मिला देने पर ३० प्रकृतिक बंधस्थान में कुल ४२ सत्तास्थान होते हैं।
३१ प्रकृतिक बन्धस्थान में तीर्थंकर और आहारकद्विक का ध अवश्य होता है । अतः यहाँ भी ६३ प्रवृत्तियों की सत्ता है तथा १ प्रकृतिक बंध के समय ८ सत्तास्थान होते हैं। इनमें से १३, ६२, ८९ और ६ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान उपशमणि में होते हैं और ८०, ७६, ७६ और ७५ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान क्षपकणि में होते हैं।
बंध के अभाव में भी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के पूर्वोक्त आठ सत्तास्थान होते हैं। जिनमें से प्रारम्भ के ४ सत्तास्थान उपशांतमोह ग्यारहवें गुणस्थान में प्राप्त होते हैं और अन्तिम ४ सत्तास्थान बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में प्राप्त होते हैं। इस प्रकार संझी पचेन्द्रिय पर्याप्त जीव के सब मिलाकर २०८ सत्तास्थान होते हैं।
द्रव्यमन के संयोग से केवली को भी संजो माना जाता है। सो उनके भी २६ सत्तास्थान प्राप्त होते हैं। क्योंकि केवली के २०, २१, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ६ और ८ प्रकृतिक, ये दस उदयस्थान होते हैं। इनमें से २० प्रकृतिक उदयस्थान में ७६ और ७५ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं तथा २६ और २८ प्रकृतिक उदयस्थानों में भी यही
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सप्ततिका प्रकरण
दो सत्तास्थान जानना चाहिए। २१ तथा २७ प्रकृतिक उदयस्थान में ८० और ७६ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होसे हैं । २६ प्रकृतिक उदयस्थान में ८०, ७६, ७६ और ७५ प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि २६ प्रकृतिक उदयस्थान तीर्थकर और सामान्य केवली दोनों को प्राप्त होता है। उनमें से चांद तीर्थंकार को २९ प्रतिक उदयस्थान होगा तो ८० और ७६ प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होंगे और यदि सामान्य केवली के २६ प्रकृतिक उदयस्थान होगा तो ७६ और ७५ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होंगे। इसी प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थान में भी चार सत्तास्थान प्राप्त होते हैं । ३१ प्रकृतिक उदयस्थान में म०
और ७६ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं, क्योंकि यह उदयस्थान तीर्थकर केवली के ही होता है । ६ प्रकृतिक उदयस्थान में ८०, ७६ और ६ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं। इनमें से प्रारम्भ के दो सत्तास्थान तीर्थंकर के अयोगिकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय तक होता है और अन्तिम ६ प्रकृतिक सत्तास्थान अयोगिकेवली गुणस्थान के अंत समय में होता है। 5 प्रकृतिक उदयस्थान में ७६, ७५ और प्रकृतिक, ये तीन सत्सास्थान होते हैं। इनमें से आदि के दो सत्तास्थान (७६, ७५) सामान्य केवली के अयोगिकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय तक प्राप्त होते हैं और अन्तिम ८ प्रकृतिक ससास्थान अन्तिम समय में प्राप्त होता है । इस प्रकार ये २६ सत्तास्थान होते हैं।
अब यदि इन्हें पूर्वोक्त २०० सत्तास्थानों में शामिल कर दिया जाये तो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में कुल २३४ सत्तास्थान होते हैं।
चौदह जीवस्थानों में नामकर्म के बंषस्थानों, उदयस्थानों और उनके भंगों का विवरण नीचे लिखे अनुसार है । पहले बंधस्थानों और उनके भंगों को बतलाते हैं।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
२४६
--
--
-
सूक्ष्म एके० प० । बादर एकै. अप० बादर एके०१०
-
सूक्ष्म एके० अप० । --. . .--
१२४०
२६ ३०
२४० ४६३२
१३६१७।५ ।
| ५ . ५३६१७
द्वीन्द्रिय अपर्याप्त
द्वीन्द्रिय पर्याप्त
श्रीग्द्रिय अपर्याप्त | श्रीन्द्रिय पर्याप्त
| २५ ।
२५
९२४०
२४०
२४
२६ | ६२४० | ३० ४६३२
४६३२
३. :
४६३२
५ । १३६१७
१३६१७ | ५.१३९१७
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________________
२५०
सप्ततिका प्रकरण
चतुरिन्द्रिय अप०
१२ असं० पंचे. अप० असं०५० पर्याप्त
६२४०
६२४०
६२४०
४६३२
१३६१७
१३६१७
१३६१७
१३ संजी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त
संझी पंचेन्द्रिय पर्याप्त
६२४०
६२४८
४६४१
१३६४५
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I
षष्ट कर्मग्रन्थ
को बतलाते हैं।
सूक्ष्म एके० अप० सूक्ष्म एके० पर्याप्त
२१
२४
स्थानों के भंगों को बतलाने के बाद अब उदयस्थानों के भंगों
२१
२६
२
१
-
५
द्वीन्द्रिय अपर्याप्त
३
१
१
२
२१
२४
२५
२६
४
२१
२६
२८
२६
द्वीन्द्रिय पर्याप्त
३०
३१
६
२
1
७
२
२
४
६
४
२०
३
बादर एके० अप०
२१
२४
२
२१
२६
I
२
७
श्रीन्द्रिय अपर्याप्त
१
१
१
२
૪
बादर एके० पर्याप्त
२१
२५
२६
२७
X
८
२८
२६
२०
३१
र
६
??
श्रीन्द्रिय पर्याप्त
२६
२१
२
२६ २
کیا
४
२०
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________________
सप्ततिका प्रकरण
चतुरि. अप०
चतुरि० पर्याप्त
| असं० पंचे० पर्याप्त
२८.
. असंही
५७६
ममुष्य
११५२
---- -- ..
१७२८
तिर्यच
संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त
संज्ञी पंचन्द्रिय पर्याप्त
२५
२६
१७७२ २८६८
४
७६७६
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________________
क्रम
जीवस्थान
बवस्थान
१ सु० एके० अप० ५ | २३,२५,२६,२६,१० २ सु० एके० पर्या
२३,२५,२६,२६,३० ३. वा० ए० अप०६५/२३,२५,२६,२६,३० ४ बा० एक० पर्या० ५ २३,२५,२६,२६,३०
द्वीन्द्रिय अपर्याप्त ५ २३,२५,२६,२६,३०
जीवस्थानों में नामकर्म की प्रकृतियों के बंध, उदय, ससास्थानों के भंगों का विवरण
स०
होन्द्रिय पर्याप्त ५२२,२५.२६,२६,३० ७ त्रीन्द्रिय अपर्याप्त५ २३,२५,२६,२६,३० श्रीन्द्रिय पर्याप्त ५ / २३,२५,२६,२६,३०
५२३,२५,२६,२६,३० ५,२३,२५,२६,२६,३०
६ चतु० अपर्याप्त १० चतु० पर्याप्त
११] असं० पंचे० अप ०१ ४ २३, २५, २६,२६,३०
१२ असं० पंचे० पर्या० ६
२३, २४, २६, २८,२६,३०
१३ संज्ञी पंचे० अप० १४ संज्ञी पंचे० पर्या०
५
८
२३, २५, २६,२६, २० २३, २५, २६, २८, २९, ३०
३१, १
मंग
१३६४५
उदयस्थान १२
१३६१७
१३९१७
१३९१७ २२१,२४
१३६१७ ५.२१,२४,२५.२६, २७ २२१,२६
१३६१७
१३६१७
६.२१,२६, २८
१३९१७ २२१, २६
१३६१७६,२१,२६,२८.२६, ३०, ३१६
१३११७ २२१,२६
२:२१,२४
४२१,२४,२५,२६
मंग
७७६१
सत्तास्थान १२
३२६२,८८,८६,८०७८
७५६२८,८६८०७८ ३५/२२८८६८०,७८
२६ ५ १२,८८,८६,८०७८ २५ १२,८८,८६,८०,७८
२०१५:१२,८८,८६,८०, ७६ २५६२,८६,६६,८०, ७६
२०५६२,८८,८६,८०७८
२५/२,८८,८६,८०,७८
२०५१२,८८,८६,८०७५
४५२,८८,८६,८०७८
१२६१७६ २१,२६,२८,२६,३०,३१ १३६१७ २:२१, २६
१३९२६६२१, २६, २८.२६,३०,३१,४६०४५६२,८८,८६,८०,७८
१३९१७२ / २१,२६
४५.६२,८८,८६,८०, ७८
१३९४५, ११२१, २५, २६, २७, २८,२६७६७६१२/१३,९२,८६,८८,८६,८०
१३०,३१, के० २०,६८
७६,७८,७६,७५०६८
पाष्ठ कर्मग्रन्थ
AM!
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________________
२५४
सप्ततिका प्रकरण
इस प्रकार से जीवस्थानों में आठ कर्मों की उत्तर प्रकृतियों के बंध, उदय व सत्ता स्थान तथा उनके भंगों का कथन करने के बाद अब गुणस्थानों में भंगों का कथन करते हैं ।
गुणस्थानों में संवेध भंग
सर्वप्रथम गुणस्थानों में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म के बंधादि स्थानों का कथन करते हैं
नाणंतराय तिविमयि दससु वो होंति दोसु ठाणेसुं ।
शब्दार्थ - नाणंत राय - ज्ञानावरण और अन्तराध कर्म, सिंहिमवि-तीन प्रकार से (बंध, उदय और सत्ता की अपेक्षा ), बससु आदि के दस गुणस्थानों में दो-दो (उदय और सत्ता ), होंतिहोता है, दो-दो (उपशांतमोह और क्षीणमोह में ), ठाणेसुं— गुणस्थानों में ।
-
गाथार्थ - प्रारम्भ के दस गुणस्थानों में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म बन्ध, उदय और सत्ता की अपेक्षा तीन प्रकार का है और दो गुणस्थानों (उपशांतमोह, क्षीणमोह) में उदय और सत्ता की अपेक्षा दो प्रकार का है ।
विशेषार्थ - पूर्व में चौदह जीवस्थानों में आठ कर्मों के बंध, उदय और सत्ता स्थान तथा उनके संवेध भंगों का कथन किया गया। अब गुणस्थानों में उनका कथन करते हैं ।
ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म के बारे में यह नियम है कि ज्ञानावरण की पांचों और अन्तराय की पाँचों प्रकृतियों का बन्धविच्छेद दसवें सूक्ष्म संपराय गुणस्थान के अन्त में तथा उदय और सत्ता का विच्छेद बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान के अन्त में होता है । अतएव इससे यह सिद्ध हो जाता है कि पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक दस गुणस्थानों में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म के पाँच
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________________
¡
पष्ठ कर्म ग्रन्थ
२५५
प्रकृतिक बन्ध, पांच प्रकृतिक उदय और पांच प्रकृतिक सत्ता, ये तीनों प्राप्त होते हैं 11 लेकिन दसवें गुणस्थान में इन दोनों का बन्धविच्छेद हो जाने से उपशांतमोह और क्षीणमोह- ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में पांच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक सत्ता ये दो ही प्राप्त होते हैं । बारहवें गुणस्थान से आगे तेरहवे, चौदहवें गुणस्थान में इन दोनों कर्मों के बन्ध, उदय और सत्ता का अभाव हो जाने से बंध, उदय और सत्ता में से कोई भी नहीं पाई जाती है।
ज्ञानावरण और अंतराय कर्म के बंधादि स्थानों को बतलाने के बाद अत्र दर्शनावरण कर्म के भंगों का कथन करते हैं ।
मिच्छासाणे ब्रिइए नव चउ पण नव य संतसा ॥३६॥ मिस्साए नियट्टीओ व चच पण नव य संतक मंसा ।
उबंध तिगे च पण नवंस वुसु जुयल छ स्संता ॥४०॥ जयसं घड पण नव खोणं चजश्वय छकच च संतं ।
शब्दार्थ –मिच्छासाणे - मिथ्यात्व और सामान गुणस्थान में, बिए - दूसरे कर्म के, नबनौ च पण चार या पांच नवनौ य-और संसा--सत्ता ।
·
-
मिस्साइ मिश्र गुणस्थान से लेकर, नियट्टोओ-- अपूर्वकरण गुणस्थान तक छपण-छह चार या पांच नव नौ, यऔर संतकम्मंसा सत्ता प्रकृति, चजबंध - चार का बंध, तिगे
FWTBL.
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१ मिथ्यादृष्ट्यादिषु दशसु गुणस्थानकेषु ज्ञानावरणस्यान्तरायस्य च पंचविधो बंध: पंचविष उदयः पंचविधा सत्ता इत्यर्थः ।
- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २०७ र बन्धाभावे उपशान्तमोहे क्षीणमोहे च ज्ञानावरणीयाऽन्तराययोः प्रत्येकं पंचविध उदयः पंत्रविद्या च सत्ता भवतीति परत उदय सत्तयोरप्यभावः । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २०७
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२५६
THE प्रकरण
अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में, उपण—चार अथवा पाँच, नवंस-नौ को सता, बुधु दो गुणस्थानों (अनिवृत्तिबावर और सुक्ष्मसंपराय) में, जुपल-बंध और उदय, छस्संता-छह की सत्ता।
उनसते-उपशांतमोह गुणस्थान में, चउ पण-चार अथवा पांच, नव-नी, खोणे- क्षीणमोह गुणस्थान में, घसरूम-चार का उदय, छनच उछह और चार की, संतं- सत्ता । ___ गाणार्य-दूसरे दर्शनावरण कर्म का मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में नौ प्रकृतियों का बंध, चार या पांच प्रकृतियों का उदय तथा नौ प्रकृति की सत्ता होती है।
मिश्र गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के पहले संख्यातवें भाग तक छह का बंध, चार था पाँच का उद्रय और नौ की सत्ता होती है। अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में चार का बंध, चार था पनि का उदय और नौ की सत्ता होती है। क्षपक के नौ और दस इन दो गुणस्थानों में चार का बंध, चार का उदय और छह की सत्ता होती है।
उपशांतमोह गुणस्थान में चार या पांच का उदय और नौ की सत्ता होती है । क्षीणभोह गुणस्थान में चार का उदय तथा छह और चार की सत्ता होती है।'
१ (क) मिच्छा सासयणेसु नब बंध वलविस्त्रया में दो मंगा ।
मीसाओ य लियट्टी जा छब्बंधेण दो दो उ॥ च उबंधे नवसंते छोगिण अपुरबाउ सुहमरागो जा । अब्बंधे णव संते वयसते हुति हो मंगा ।। चउबंधे छस्ससे बायर सुहुमाणमेगुषस्व वयाणं । छसु च उमु व संतेसु दोणि अबधंमि ख़ीणरस ।।
पंचसंग्रह सप्ततिका गा० १०२-१०४ (ख) णव सासणोत्ति बंधो छच्चेव अपुरवपढमभागोति ।
चत्तारि होति तत्तो सुखमकसायस्स चरमोसि ।।
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पष्ट कर्मग्रन्थ
२५७
विशेषार्थ- इन गाथाओं में गुणस्थानों की अपेक्षा दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंध, उदय और सत्ता स्थानों का निर्देश किया पाया है।
दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ हैं हैं। इनमें से सत्याद्धित्रिक का बंध सासादन गुणस्थान तक ही होता है तथा चक्षुर्दर्शनावरण आदि चार का उदय अपने उदयविच्छेद होने तक निरंतर बना रहता है किन्तु निद्रा आदि पांच का उदय कदाचित होता है और कदाचित नहीं होता है तथा उसमें भी एक समय में एक का ही उदय होता है, एक साथ दो का या दो से अधिक का नहीं होता है। इसीलिये मिथ्यात्व और सासादन इन दो गुणस्थानों में प्रकृतिक बंध, ४ प्रकृतिक उदय और ६ प्रकृतिक सत्ता तथा ६ प्रकृतिक बंध, ५ प्रकृतिक उदय और प्रकृतिक राना, नो अंग न होते हैं .-'मिच्छासाणे बिइए नव चउ पण नव य संतसा ।' ___ इन दो-मिथ्यात्न और सासादन गुणस्थानों के आगे तीसरे मिश्र गुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग तक'भिस्साइ नियट्टीओ छचउ पण नब य संतकम्मंसा'---छह का बंध, चार या पांच का उदय और नौ की सत्ता होती है। इसका कारण यह है कि स्त्याद्धित्रिक का बंध सासादन गुणस्थान तक होने से छह प्रशिक बंध होता है । किन्तु उदय और सत्ता प्रकृतियों में कोई अंतर नहीं पड़ता है । अतः इन गुणस्थानों में छह प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक
खीणो त्ति चारि उक्ष्या पंचसु गिद्दासु दोसु णिहासु । एक्के उदयं पत्ते खीणदुचरिमोति पंचुदया ।। मिच्यादुवसंतो ति य अणियट्टी खग पठममागोत्ति । पवसत्ता वीणस्स दुचरिमोसि य छच्चदूवरिमे ।।
___-गो. कर्मकार ४६०-४५२
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२५८
सप्ततिका प्रकरग
उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता तथा छह प्रकतिक बंध. पांच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता, ये दो भंग प्राप्त होते हैं। यद्यपि स्त्यानद्धित्रिका का उदय प्रमत्तसंगत गुणस्थान के अंतिम समय तक ही हो सकता है, फिर भी इससे पाँच प्रकृतिक उदयस्थान के कथन में कोई अंतर नहीं आता है, सिर्फ विकल्प रूप प्रकृतियों में ही अंतर पड़ता है । छठे गुणस्थान तक निद्रा आदि पांचों प्रकृतियां विकला से प्राप्त होती हैं, आगे निद्रा और प्रचला ये दो प्रकृतियाँ ही विकल्प से प्राप्त होती हैं। ___ अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग में निद्रा और प्रबला की भी बंधयुच्छित्ति हो जाने से आगे सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान पर्यन्त तीन गुणस्थानों में बंध में चार प्रकृतियाँ रह जाती हैं, किन्तु उदय और सत्ता पूर्ववत् प्रकृतियों की रहती है। अतः अपूर्वकरण के दूसरे भाग से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक तीन गुणस्थानों में चार प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सता तथा चार प्रकृतिक बंध, पाँच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता, यह दो भंग प्राप्त होते हैं--'चउबंध तिगे चउ पण नवंस' ।
लेकिन उक्त कथन उपशमश्रेणि की अपेक्षा समझना चाहिये, क्योंकि ऐसा नियम है कि निद्रा या प्रचला का उदय उपशमश्रेणि में ही होता है, क्षपकवेणि में नहीं होता है । अतः क्षपक श्रेणि में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में पांच प्रकृतिक उदय रूप भङ्ग प्राप्त नहीं होता है तथा अनिवत्तिकरण के कुछ भागों के व्यतीत होने पर स्त्यानद्धित्रिक की सत्ता का क्षय हो जाता है। जिससे छह प्रकृतियों की ही सत्ता रहती है। अत: अनिवृत्तिकरण के अंतिम संख्यात भाग और सुक्षमसपगय इन दो क्षपक गुणस्थानों में चार प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्ता, यह एक भङ्ग प्राप्त होता है---'दुस जुयल दरसंता'।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
२५६
__ उपशमश्रेणि या क्षपक श्रेणि वाले के दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अंत में दर्शनावरण कम का बंधविच्छेद हो जाता है। इसलिये आगे ग्यारहवें आदि गुणस्थानों में बंध की अपेक्षा दर्शनावरण के भंग प्राप्त नहीं होते हैं । अतः उपशांतमोह गुणस्थान में जो उपशमश्रेणि का गुणस्थान है, उदय और सत्ता तो दसवें गुणस्थान के समान बनी रहती है किन्तु बंध नहीं होने से–'उवसंते चउपण नव'-चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता तथा पांच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्ता, यह दो भङ्ग प्राप्त होते हैं।
क्षीणमोह गुणस्थान में---‘खीणे उरुदय छच्च चउसंत'-चार का उदय' और छह या चार की सत्ता होती है। इसका कारण यह है कि बारहवां क्षीणमोह गुणस्थान क्षयकश्रेणि का है और आपक श्रेणि में निद्रा या प्रचला का उदय नहीं होने से चार प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है तथा छह या चार प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं । क्योंकि जब क्षीणमोह गुणस्थान में निद्रा और प्रचला का उदय ही नहीं होता है तब क्षीणमोह गुणस्थान के अंतिम समय में इनकी सत्ता भी प्राप्त नहीं हो सकती है और नियमानुसार अनुदय प्रकृतियाँ जो होती हैं, उनका प्रत्येक निषेक स्तिबुकासंक्रमण के द्वारा सजातीय उदयवती प्रकृतियों में परिणम जाता है, जिससे क्षीणमोह गुणस्थान के अंतिम समय में निद्रा और प्रचला की सत्ता न रहकर केवल चक्षुदंर्शनावरण आदि धार को ही सत्ता रहेगी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि क्षीणमोह गुणस्थान में जो चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्ता तथा चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता, इन दो भङ्गों में से पहला भङ्ग चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्ता का क्षीणमोह गुणस्थान के उपान्त्य समय तक जानना चाहिये और अंतिम समय में चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता
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२६.
सप्ततिका प्रकरण
का दूसरा भङ्ग प्राप्त होता है । इस प्रकार क्षीणमोह गुणस्थान में भी दो भंग प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार से ज्ञानावरण, अंतराय और दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्ता स्थानों को बतलाने के बाद अब वेदनीय, आयु और गोत्र कर्मों के भंगों को बतलाते हैं। बेयणियाउयगोए विभज्ज मोहं पर बोच्छ ॥४१॥
शब्दार्थ-वेणियाउयगोए-वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के, विभाज-विभाग करके, मोझ--मोहनीय कर्म के, पर- इसके बाद, बोध-कहेंगे।
गाथा-बेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के भंगों का कथन करने के बाद मोहनीय कर्म के भंगों का कथन करेंगे ।
ोिवा-गाथा में वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के भंगों के विभाग करने की सूचना दी है किन्तु उनके कितने-कितम भंग होते हैं यह नहीं बतलाया है । अत: आचार्य प्रलयगिरि की टीका में भाष्य की गाथाओं के आधार पर वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के जो भंगविकल्प बतलाये हैं, उनको यहाँ स्पष्ट करते हैं।
भाष्य की गाथा में वेदनीय और गोत्र कर्म के भङ्गों का निर्देश इस प्रकार किया गया है
पर घस्सु वोणि सत्तसु एगे घउ गुगिसु श्रेणियभंगा।
गोए पण घउ थी तिमु एमज्यू बोणि एकस्मि ।। अर्थात् वेदनीय कर्म के छह गुणस्थानों में चार, सात में दो और एक में चार भङ्ग होते हैं तथा गोत्रकर्म के पहले में पाँच, दूसरे में चार, तीसरे आदि तीन में दो, छठे आदि आठ में एक और एक में एक भङ्ग होता है जिनका स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है ।
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पक्ष कर्म ग्रन्थ __ पहले गाथा में वेदनीय कर्म के विकल्पों का निर्देश किया है। पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक छह गुणस्थानों में 'चउ छस्सु'–चार भङ्ग होते हैं। क्योंकि बंध और उदय की अपेक्षा साता और असातावेदनीय, ये दोनों प्रकृतियाँ प्रतिपक्षी हैं। अर्थात् दोनों में से एक काल में किसी एक का बंध और किसी एक का ही उदय होता है किन्तु दोनों की एक साथ सत्ता पाये जाने में कोई विरोध नहीं है तथा असाता वेदनीय का बंध आदि के छह गुणस्थानों में ही होता है, आगे नहीं। इसलिये प्रारंभ के छह गुणस्थानों में बदनीय कर्म के निम्नलिखित चार भंग प्राप्त होते हैं
१. असाता का बंध असाता का उदय और साता-असाता की सत्ता ।
२. असाता का बंध, साता का उदय और साता-असाता की सत्ता ।
३. साता का बंध, असाता का उदय और साता-असाता की सत्ता ।
४. साता का बंध, साता का उदय और साता-असाता की सत्ता ।
'दोण्णि सत्तसु"- सातवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक सात गुणस्थानों में दो भङ्ग होते हैं। क्योंकि छठे गुणस्थान में असातावेदनीय का बंधविच्छेद हो जाने से सातवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक सिर्फ सातावेदनीय का बंध होता है, किन्तु उदय और सत्ता दोनों की पाई जाती है, जिससे इन सात गुणस्थानों में–१. साता का बंध, साता का उदय और साता-असाता की सत्ता तथा २. साता का बंध, असाता का उदय और साता-असाता की सत्ता, यह दो भङ्ग प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार से तेरहवें गुणस्थान तक वेदनीय कर्म के बंधादि
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सप्ततिका प्रकरण स्थानों के विकल्पों को बतलाने के बाद अब चौदहवें गुणस्थान के भङ्गों को बतलाने के लिये कहते हैं कि 'एगे चउ' अर्थात् एक गुणस्थान-.-चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान में चार भङ्ग होते हैं। क्योंकि अयोगिकेवली गुणस्थान में साता वेदनीय का भी बंध नहीं होता है, अतः वहां बंध की अपेक्षा तो कोई भङ्ग प्राप्त नहीं होता है किन्तु उदय और सत्ता की अपेक्षा भङ्ग बनते हैं। फिर भी जिसके इस गुणस्थान में असाता का उदय है, उसके उपान्त्य समय में साता की सत्ता का नाश हो जाने से तथा जिसके साता का उदय है उसके उपान्त्य समय में असाता की सत्ता का नाश हो जाने से उपान्त्य समय तक-१. साता का उदय और साता-असासा कासगी, २. अताता। का उदय और साता-असाता की सत्ता, ये दो भङ्ग प्राप्त होते हैं। तथा अंतिम समय में, ३. साता का उदय और साता की सत्ता तथा ४. असाता का उदय और असाता की सत्ता, यह दो भङ्ग प्राप्त होते हैं। इस प्रकार अयोगिकेवली गुणस्थान में वेदनीय कर्म के चार भंग बनते हैं।
अब गोत्रकर्म के भंगों को गुणस्थानों में बतलाते हैं।
गोत्रकर्म के बारे में भी वेदनीय कर्म की तरह एक विशेषता तो यह है कि साता और असाता वेदनीय के समान उच्च और नीच गोत्र बंध और उदय की अपेक्षा प्रतिपक्षी प्रकृतियाँ हैं, एक काल में इन दोनों में से किसी एक का बंध और एक का ही उदय हो सकता है, लेकिन
१ 'एकस्मिन्' अयोगिकेवलिनि चत्वारो भंगा, से चेमे-असातस्योदय:
सातासाते सती, अषवा सातस्पोदय: सातासाते सती, एती, द्वौ विकल्पावयोगिकेवलिनि विचरमसमयं यावत्प्राप्येते, घरमसमये तु असातस्योदयः असातस्य सत्ता यस्य द्विधरम-समये सातं क्षीणम्, यस्य श्वसातं द्विचरम समये भीणं तस्यायं विकल्पः-सासस्योदयः सातस्य सत्ता।
-~-सप्ततिका प्रकरण टीका, प० २०९
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षष्ठ कर्मग्रन्थ सत्ता दोनों की होती है और दूसरी विशेषता यह है कि अग्निकायिक
और बायुकायिक जीवों के उच्चगोत्र की उद्वलना होने पर बंघ, उदय और सत्ता नीच गोत्र की ही होती है, तथा जिनमें ऐसे अग्निकायिक और वायुकाधिक जीब उत्पन्न होते हैं, उनके भी कुछ काल तक बंध, उदय और सत्ता नीच गोत्र की होती है। इन दोनों विशेषताओं को ध्यान में रखकर मिथ्यात्व गुणस्थान में गोत्रकर्म के अंगों का विचार करते हैं तो पांच भंग प्राप्त होते हैं-'गोए पण' । वे पांच भंग इस प्रकार हैं
५. नीच का बंध, नीच का उदय तथा नीच और उच्च गोत्र की सत्ता
२. नीच का बंध, उच्च वा उदर तथा नीच और उच्च की सत्ता ।
३. उच्च का बंध, उच्च वा उदय और उच्च व नीच की सला। ४. उच्च का बंध, नीच का उदय तथा उच्च व नीच की सत्ता। ५. नीच का बंध, नीच का उदय और नीच की सत्ता।
उक्त पाँच भंगों में से पांचवां भंग-नीच गोत्र का बंध, उदय और सत्ता-अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों तथा उन जीवों में भी कुछ काल के लिए प्राप्त होता है जो अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में से आकर जन्म लेते हैं। शेष मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीवों के पहले चार विकल्प प्राप्त होते हैं । ___ सासादन गुणस्थान में चार भंग प्राप्त होते हैं। क्योंकि नीच
गोत्र का बंध सासादन गुणस्थान तक ही होता है और मिश्र आदि __--.. --- १ नीचर्गात्रस्य अन्यः नीचर्गोत्रस्योदयः नीचर्गोत्र मत्, एष विकल्पस्तेजस्कायिक-वायुकायिकेषु लभ्यते. तदमवासषु या शेष जीवेषु कियत्कालन् ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २०९
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२६४
माप्ततिका प्रकरण गुणस्थानों में एक उच्चगोत्र का ही बंध होता है। इसका यह अर्थ हुआ कि मिथ्यात्व शुधस्थान के समान साराादन मुणस्थान में भी किसी एक का बंध किसी एक का उदय और दोनों की सत्ता बन जाती है। इस हिसाब से यहाँ चार भंग पाये जाते हैं और वे चार भाग वही हैं जिनका मिथ्यात्व गुणस्थान के भंग १, २, २ और ४ में उल्लेख त्रिया गया है।
"दो तिसु' अर्थात तीसरे, चौथे, पांचवे-मिथ, अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरति गुणस्थानों में दो मा होते हैं। गोंकि गो गे लेकर सरांचवें गुणस्थान तक बंध एक उच्च गोत्र का ही होता है किन्तु उदय और सत्ता दोनों की पाई जाती है । इसलिये इन तीन गुणस्थानों में-- १. उच्च का बध, उत्तच का उदय और उच्च-नीच की सत्ता, तथा २ ललच का बंध, नीच का उदय और नीच-उच्च की सत्ता, यह दो भंग पाये जाते हैं। यहां कितने ही आचार्यों का यह भी अभिगत है कि पांचवें गुणस्थान में उच्च का बंध, उच का उदय और रच-नीच की सना यही एक अंग होता है। इस विषय में आगग बचन है कि---
सामम्मेणं अयजाईए उपचागोपस्स उबलो होइ । अर्थात्--सामान्य से संयत और संयतासंग्रत जाति वाले जीवों के उच्च' गोत्र का उदय होता है ।
'एगऽवसु'-यानी छठे प्रमतसंयत गुपारथान से लेकर मार गुणस्थानों में से प्रत्येक गुणस्थान में एक भंग प्राप्त होता है । क्योंकि छठे से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक ही उच्च गोत्र का बंध होता है । अतः छठे, सातवें, आठने, नौ, दसवें--प्रमतसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वक रण, अनिवृत्ति बादर और मुक्ष्मसंपराय -- गुणस्थानों में से प्रत्येक में उच्च का बंध, उच्च का उदय और उच्च
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बाट कर्मग्रन्ध
२६५ नीव की सत्ता यह एक भंग प्राप्त होता है तथा दसवें गणस्थान में उच्च गोत्र का बंधविच्छेद हो जाने से ग्यारहवं. बारहवं, तरहउपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगिकेवली गुणस्थान में उच्चगोत्र का उदय और उच्च-नीच की सत्ता, यह एक भंग प्राप्त होता है। इस प्रकार छठे से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में एक भंग प्राप्त होता है, यह सिद्ध हुआ ।
'दोणि एक्कम्मि'-शेष रहे एक चौदहवें अयोगिकेवली मुणस्थान भे दो भंग होते हैं । इसका कारण यह है कि अयोगिकेवली गुणस्थान में नीच गोत्र की सत्ता उपान्त्य समय तक ही होती है क्योंकि चौदहवे गुगुणस्थान में यह उदयरूप प्रकृति न होने से उपान्त्य समय में ही इसका स्तिबुक संक्रमण के द्वारा उच्च गोत्र रूप से परिणमन हो जाता है, अत: इस गुणस्थान के उपान्त्य समय तक उच्च का उदय और उच्चनीव की सत्ता, यह एक भंग तथा अन्त समय में उच्च का उदय और उच्च की सत्ता, यह दूसरा भंग होता है। इस प्रकार चौदहवें गुणस्थान में दो भंगों का विधान जानना चाहिए।
गुणस्थानों में वेदनीय और गोत्र कर्मों के भंगों का विवचन करने के बाद अब आयुकर्म के भंगों का विचार भाष्य गाथा के आधार से करते हैं। इस सम्बन्धी गाथा निम्न प्रकार है
अच्छाहिावीसा सोलस चीसं च बार घ दोषु ।
वो चउसु तीतु एक्कं मिन्छाइसु बाउगे भंगा अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान में २८, सासादन में २६, मिश्र में १६, अविरत सम्यग्दृष्टि में २०, देशविरत में १२, प्रमत्त और अप्रमत्त में ६, अपूर्वकरण आदि चार में २ और क्षीणमोह आदि में १, इस प्रकार मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में आयुकर्म के भंग जानना चाहिए। जिनका विशेष स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है-..
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सप्ततिका प्रकरण
मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आयुकर्म के २८ भंग होते हैं। क्योंकि चारों गतियों के जीव मिध्यादृष्टि भी होते हैं और नारकों के पाँच, तियंचों के नौ, मनुष्यों के नौ और देवों के पांच, इस प्रकार आयुकर्म के २८ भंग पहले बतलाये गये हैं। अतः वे सब भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में संभव होने से २८ भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में कहे हैं ।
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सासादन गुणस्थान में २६ भंग होते हैं। क्योंकि नरकायु का बंध मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होने से सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य नरकावु का बंध नहीं करते हैं। अतः उपर्युक्त २८ भंगों में से१ भुज्यमान तिर्यंचायु, बध्यमान नरकायु और तिर्थंच नरकायु की सत्ता, तथा भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान नरकायु और मनुष्य- नरकायु की सत्ता, ये दो भंग कम होने जाने से सासादन गुणस्थान में २६ भंग प्राप्त होते हैं।"
तीसरे मिश्र गुणस्थान में परभत्र संबंधी आयु के बंध न होने का नियम होने से परभव संबंधी किसी भी आयु का बन्ध नहीं होता है । अतः पूर्वोक्त २८ भंगों में से बंधकाल में प्राप्त होने वाले नारकों के दो, तियंत्रों के चार, मनुष्यों के चार और देवों के दो, इस प्रकार २+४+४+२=-१२ भंगों को कम कर देने पर १६ भंग प्राप्त होते हैं।
चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में २० भंग होते हैं। क्योंकि अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तिर्यंचों और मनुष्यों में से प्रत्येक के नरक, तिर्यंच और मनुष्य आयु का बन्ध नहीं होने से तीन-तीन भंग
१ यतस्तिर्यंचो मनुष्या वा सासादनमाचे वर्तमाना नरकायुनं ब्रघ्नन्ति, ततः प्रत्येकं तिरश्चा मनुष्याणां च परमायुर्ब न्धकाले एकैको मंगो न प्राप्यत इति षड्विंशतिः ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २१०
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ तथा देव और नारकों में प्रत्येक के तियंचायु का बन्ध नहीं होने से एक-एक भंग, इस प्रकार कुल आठ भेद हुए । जिनको पूर्वोक्त २८ भंगों में से कम करने पर २० भंग होते हैं।
देशविरत गुणस्थान में १२ भंग होते है । क्योंकि देशविरति तिर्यंच और मनुष्यों के होती है और यदि वे परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध करते हैं तो देवायु का ही बन्ध करते हैं अन्य आयु का नहीं। देशविरता आयुर्वप्नन्तो देवायुरेय बध्नन्ति न शेषमायुः । अत: इनके आयुबन्ध के पहले एक-एक ही भंग होता है और आजुबन्ध के काल में भी एक-एक भंग ही होता है। इस प्रकार तियच और मनुष्यों, दोनों को मिलाकर कुल चार भंग हुए तथा उपरत बंध की अपेक्षा तिर्यंचों के भी चार भंग होते हैं और मनुष्यों के भी चार भंग । क्योंकि चारों गति सम्बन्धी आयु का वध करने के पश्चात तिर्यंच और मनुष्यों के देशविरति गुणस्थान के प्राप्त होने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। इस प्रकार उपरत बंध की अपेक्षा तिथंचों के चार और मनुष्यों के चार, जो कुल मिलाकर आठ भङ्ग हैं। इनमें पूर्वोक्त चार भङ्गों को मिलाने पर देशविरत गुणस्थान में कुल बारह भङ्ग हो जाते हैं ।
'छ होसु' अर्थात् पांचवें गुणस्थान के बाद के प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत, इन दो गुणस्थानों में छह भङ्ग होते हैं । इसका कारण यह है कि ये दोनों गुणस्थान मनुष्यों के ही होते हैं । और ये देवायु को ही बांधते हैं । अत: इनके आयु बन्ध के पहले एक भङ्ग और आयुबन्ध काल में भी एक भङ्ग होता है। किन्तु उपरत बन्ध को अपेक्षा यहाँ चार भङ्ग होते हैं, क्योंकि चारों गति सम्बन्धी आयुबन्ध के पश्चात प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं है। इस प्रकार आयुबन्ध के पूर्व का एक, आयु बन्ध के समय का एक और उपरत बन्ध काल के चार भङ्गों को मिलाने से प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत, इन दोनों गुंणस्थानों में छह भङ्ग प्राप्त होते हैं।
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सप्ततिका प्रकरण
___ आयुकर्म का बन्ध सातवें गुणस्थान तक ही होता है । आगे आठवें अपूर्वक रण आदि शेष गुणस्थानों में नहीं होता है । किन्तु एक विशेषता है कि जिसने देवायु का बन्ध कर लिया, ऐसा मनुष्य उपशमश्रेणि पर आरोहण कर सकता है और जिसने देवायु को छोड़कर अन्य आयु का बन्ध किया है, वह, उपशमणि पर आरोहण नहीं करता है
तिसु माडगेसु बबेसु मेण सेति न आवहन ।' तीन आयु का बन्ध वारने वाला (देवायु को छोड़कर) जीव श्रेणि पर आरोहण नहीं करता है। अत: उपशमणि को अपेक्षा अपूर्वकरण आदि उपशांतमोह गुणस्थान पर्यन्त आठ, नौ, दस और ग्यारह, इन चार गुणस्थानों में दो-दो भङ्ग प्राप्त होते हैं--'दो चउसु' । वे दो भङ्ग इस प्रकार हैं-१ मनुष्यायु का उदय, मनुष्यायु की सत्ता, २ मनुष्यायु का उदय मनुष्य-देवायु की सत्ता । इनमें से पहला भङ्ग परभव संबंधी आयु बन्षकाल के पूर्व में होता और दूसरा भङ्ग उपरत बन्धकाल में होता है।
लेकिन क्षपकश्रेणि की अपेक्षा अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में मनुष्याय का उदय और मनुष्यायु की सत्ता, यही एवः भङ्ग होता है।
क्षीणमोह, सयोगिकेवली, अयोगिकेवली इन तीन गुणस्थानों में भी मनुष्यायु का उदय और मनुष्यायु की सत्ता, यही एक भङ्ग होता है'तीसु एक्क'। ___ इस प्रकार प्रत्येक गुणस्थान में आयकर्म के सम्भव भङ्गों का विचार किया गया कि प्रत्येक गुणस्थान में कितने-कितने भङ्ग होते हैं।
१४ गुणस्थानों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र और अंतराय, इन छह कर्मों का विवरण इस प्रकार है
१ कर्म प्रकृति गाथा ३७५ ।
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पष्ट कर्मग्रन्थ
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दाना
गुणस्थान
ज्ञानाबरण
टनीय आयु | गोत्र | अंत राय
वरण
१ मिथ्यात्व
२ सासादन ३ मिश्न ४ अविरत ५ देशविरत . ६ प्रमलविरत ७ अपमत्तविरत
अपुर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसंपराम
उपशांतमोह १२ । क्षीणमोह
३ | मयोगिकेवली १४ | अयोगिकेवली
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अब गाथा के निर्देशानुसार मोहनीय कर्म के भंगों का विचार करते हैं । उनमें से भी पहले बंधस्थानों के भंगों को बतलाते हैं।
गुणठाणगेसु असु एक्केक्कं मोहबंधठाणेसु । पंचानियट्टिठाणे बंधोवरमो परं तत्तो ॥४२॥
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सप्ततिका प्रकरण
शब्दार्थगुण ठाणगेसु - गुणस्थानों में अट्ठसु-आठ में,
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एक्केक्कं एक- एक मोहबंधठाणेसु – मोहनीय कर्म के बंघस्थानों में से, पंच-पाँच, अभिपट्टठाणे - अनिवृतिबाधर गुणस्थान में, बंधोवरभो - बंध का अभाव है, परं- आगे तत्तो— उससे (अनिवृत्ति बादर गुणस्थान से ) |
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गावार्थ - मिथ्यात्व आदि आठ गुणरधानों में मोहनीय कर्म के स्थानों में से एक एक बंधस्थान होता है तथा अनिवृत्तिवादर गुणस्थान में पांच और अनन्तर आगे के गुणस्थानों में बंध का अभाव है ।
विशेषार्थ - इस गाथा में मोहनीय कर्म के बंजर स्थानों में से बंधस्थानों को बतलाया है। सामान्य से मोहनीय कर्म के बंधस्थान पहले बताये जा चुके हैं, जो २२, २१, १७, १३, ६, ५, ४, ३, २१ प्रकृतिक हैं। इन दस स्थानों को गुणस्थानों में घटाते हैं ।
'गुणठाणगे अट्टसु एक्केक्कं' अर्थात् पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त प्रत्येक गुणस्थान में मोहनीय कर्म का एक-एक बंधस्थान होता है । वह इस प्रकार जानना चाहिए कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानों में एक २२ प्रकृतिक, सासादान गुणस्थान में २१ प्रकृतिक, मिश्र गुणस्थान और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में १७ प्रकृतिक, देशविरति में १३ प्रकृतिक तथा प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वक रण में 2 प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इनके भंगों का विवरण मोहनीय कर्म के बंधस्थानों के प्रकरण गें कहे गये अनुसार जानना चाहिए, लेकिन यहाँ इतनी विशेषता है कि अरति और शोक का बंधविच्छेद प्रमत्तसंयत गुणस्थान में हो जाता है अत: अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान में नो प्रकृतिक बंधस्थान में एक-एक ही भंग प्राप्त होता है। पहले जो नौ प्रकृतिक
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पष्ठ कर्मग्रन्थ
२७१ बंधस्थान में दो भंग बतलाये हैं वे प्रमत्तसंयत गुणस्थान की अपेक्षा कहे गये हैं।'
'पंचानियट्टिठाणे' आठवें गुणस्थान के अनन्तर नौवें अनिवृत्तिबादर नामक गणस्थान में ५, ४. ३, २ और प्रकृतिक ये पांच बंधस्थान होते हैं । इसका कारण यह है कि नौवें गुणस्थान के पांच भाग हैं और प्रत्येक भाग में कम से मोहनीय कर्म की एक-एक प्रकृति का बंधविच्छेद होने से पहले भाग में ५, दूसरे भाग में ४, तीसरे भाग में ३, चौथे भाग में २ और पाँचवें भाग में १ प्रकृतिक बंधस्थान होने से नौवें गुणस्थान में पांच बंधस्थान माने हैं। इसके बाद सूक्षमसंपराय
आदि आगे के गुणस्थानों में बंध का अभाव हो जाने से बंधस्थान का निषेध किया है।
उक्त कथन का सारांश यह है कि आदि के आठ गुणस्थानों में रो प्रत्येक में एक-एक बंधस्थान है। नौवें गुणस्थान में पांच बंधस्थान हैं तथा उसके बाद दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म के बंध का अभाव होने से कोई भी बंधस्थान नहीं है ।
इस प्रकार से गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के बंधस्थानों का निर्देश करने के बाद अब आगे तीन गाथाओं में उदयस्थानों का कथन करते हैं ।
--- .. . . १ केवलमप्रमत्तापूर्वकरण योभंग एकक ए वक्तव्यः, अतिशोकयोबंन्यस्य
प्रमत्तगुणस्थानके एव व्य-च्छेदात् । प्राक् च प्रमत्तापेक्षया नवकबंधस्थाने द्रो भगो दशितो।
___ सप्ततिका प्रकरण टीका पृ०, २११ २ तुलना कीजिए--- (क) मिच्छे सगाइचउरो सासणमीसे मगाइ तिष्णुदया । छःपंच बजरपुन्ना तिअ चउरो अविरमाईणं ।।
-पंचसंग्रह सप्ततिका गा० २६
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सप्ततिका प्रशारण
सत्ताइ दस मिन्छे सासायणमीसए नवषकोसा। छाई नव उ अविरए देसे पंचाइ अट्ठव ।।४३॥ विरए खओवसमिए, चउराई सत्त छच्चायुश्चम्मि । अनियट्टिनायरे पुण इक्को व दुवे व उदयंसा ॥४४॥ ६६ सुहागरगो ए३ अवेयगा भवे सेसा । भंगाणं च पमाणं पुबुद्दिठेण नायध्वं ॥४५॥
शम्दार्म--ससाद पसउ- सात से लेकर दस प्रकृति सक, मिच्छे-मिथ्यात्व गुणस्थान में, सासायण मौसाए-सासादन और मिश्न में, नवक्कोसा-सात से लेकर नौ प्रकृति तक, छानिवउछह से लेकर नौ तक, अविरए-अविरत सम्पष्टि गुणस्थान में, वेसे–चेशविरति गुणस्थान में, पंचाइअब- पांच से लेकर आठ प्रकृति तक,
विरए खओक्समिए–प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में, चउराईसत्त-चार से सात प्रकृति तक, छात्र--और छह तक, अपुष्यम्मि -अपूर्वकरण गुणस्थान में, अनियट्टियागरे अनिवृत्ति बादर गुणस्थान में, पुण--तथा, इफ्को-एक, 4-अथवा दुई-दो, उवयंसाउदयस्थान ।
एग--एक, मुहमसरागो-सूक्ष्मसंगराय गुणस्थान बाला, घेएइ---वेदन करता है, अवेयगा--अवेदक, भवे-होते हैं, सेसाबाकी के गुणस्थान वाले, भंगाणं--भंगों का, च--और, पमाणंप्रमाण, पुवुदिलेण–पहले कहे अनुसार, नायवं-जानना चाहिए।
(ख) दसणवणवादि चउतिपतिद्वाण वसगसगादि चक |
ठाणा छादि तियं च य चदुधीसगदा अपुधवो ति ।। उदयटाणं दोण्हं पण बंधे होदि दोपहमेकस्स । चबिहबंधठाणे सेसेसेयं हवे ठाणं ।।
-गो० कर्मकांड गा० ४०० व ४६२
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
२७३ पाथार्थ-~-मिथ्यात्व गुणस्थान में सात से लेकर उत्कृष्ट दस प्रकृति पर्यन्त, सासादन और मिश्त्र में सात से नौ पर्यन्त, अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में छह से नौ तक, देशविरत में पांच से आठ पर्यन्त तथा
प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान में चार से लेकर सात तक, अपूर्वकरण में चार से छह तक और अनिवृत्तिघादर गुणस्थान में एक अथवा दो उदयस्थान मोहनीयकम के होते हैं।
सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान वाला एक प्रकृति का वेदन करता है और इसके आगे के शेष गुणस्थान वाले अवेदक होते हैं, इनके भंगों का प्रमाण पहले कहे अनुसार जानना चाहिए। विशेषार्थ-इन तीन गाथाओं में मोहनीयकर्म के गुणस्थानों में उदयस्थान बतलाये हैं कि किस गुणस्थान में एक साथ अधिक से अधिक कितनी प्रकृतियों का और कम से कम कितनी प्रकृतियों का उदय होता है। ____मोहनीयकर्म की कुल उत्तर प्रकृतियाँ २८ हैं। उनमें से एक साथ अधिक से अधिक दस प्रकृतियों का और कम से कम एक प्रकृति का एक काल में उदय होता है। इस प्रकार से एक से लेकर दस तक, दस उदयस्थान होना चाहिये किंतु तीन प्रकुतियों का उदय कहीं प्राप्त नहीं होता है क्योंकि दो प्रकृतिक उदयस्थान में हास्य-रति युगल या अरति-शोक युगल इन दोनों युगलों में से किसी एक युगल के मिलाने पर चार प्रकृतिक उदयस्थान ही प्राप्त होता है । अतः तीन प्रकृ. तिक उदयस्थान नहीं बतलाकर शेष १, २, ४, ५, ६, ७, ८, ९, और १० प्रकृतिक ये कुल नौ उदयस्थान मोहनीयकर्म के बतलाये हैं।
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२७४
सप्ततिका प्रकरण
यद्यपि गाथा ११ में मोहनीयकर्म के उदयस्थानों की सामान्य विवेचना के प्रसंग में विशेष स्पष्टीकरण किया जा चुका है, फिर भी गुणस्थानों की अपेक्षा उनका कथन करने के लिए गाथानुसार यहाँ विवेचन करते हैं।
'सनाद दमन मिन्टे' अर्थात् पहले मिश्याइष्टि गुणस्थान में ७, ८, ६ और १० प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान होते हैं। मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन, क्रोधादि में से अन्यतम तीन क्रोधादि, तीन वेदों में से कोई एक वेद, हास्य-रति युगल, शोकअरति युगल में से कोई एक युगल, इन सात प्रकृतियों का ध्रुव रूप से उदय होने से सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इन ध्रुवोदया सात प्रकृतियों में भय अथवा जुगुप्सा अथवा अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क में से किसी एक कषाय को मिलाने पर आठ प्रकृतिक तथा उन सात प्रकृतियों में भय, जुगुप्सा अथवा भय, अनन्तानुबंधी अथवा जुगुप्सा, अनन्तानुबंधी में से किन्हीं दो को मिलाने से नौ प्रकृतिक और उक्त सात प्रकृतियों में भय, जुगुप्सा और अनन्तानुबन्धी अन्यतम एक कषाय को एक साथ मिलाने पर दस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इन चार उदयस्थानों में सात की एक, आठ की तीन, नौ की तीन और दस की एक, इस प्रकार भंगों की आठ चौबीसी प्राप्त होती हैं।
सासादन और मिश्र गुणस्थान में सात, आठ और नौ प्रकृतिक, ये तीन-तीन उदयस्थान होते हैं।
सासादन गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन क्रोधादि में से अन्यतम क्रोधादि कोई चार, तीन देदों में कोई एक वेद, दो युगलों में से कोई एक युगल इन सात प्रकृतियों का ध्रुवोदय होने से सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इस स्थान में भय या जुगुप्सा में से किसी एक को मिलाने पर आठ प्रकृतिक तथा भय और जुगुप्सा को एक साथ मिलाने पर नौ प्रकृतिक उदयस्थान
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षष्ठ कर्म ग्रन्य होता है । इसमें भंगों की चौबीसी चार हैं। वे इस प्रकार हैं कि सात की एक, आठ की दो और नौ की एक।
मिश्न गुणस्थान में अनन्तानुबंधी को छोड़कर शेष अप्रत्याख्यानावरण आदि तीन कषायों में से अन्यतम तीन क्रोधादि, तीन वेदों में से कोई एक वेद, दो युगलों में से कोई एक युगल और मिश्र मोहनीय, इन सात प्रकृतियों का नियम से उदय होने के कारण सात प्रकृतिक उदयस्थान प्राप्त होता है । इसमें भंगों की एक चौबीसी होती है । सात प्रकृतिक सनमःया में भय का जुगम पो लामो पल प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहां भंगों की दो चौबीसी होती हैं तथा सात प्रकृतिक उदयस्थान में भय, जुगुप्सा को युगपत् मिलाने से नौ प्रकृतिक उदयस्थान बनता है और भंगों की एक चौबीसी होती है । इस प्रकार मिश्र गुणस्थान में ७, ८ और ६ प्रकृतिक उदयस्थान तथा भंगों की चार चौबीसी जानना चाहिये।
अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में छह से लेकर नौ प्रकृतिक चार उदयस्थान हैं—'छाई नव उ अविरए । अर्थात् ६ प्रकृतिक, ७ प्रकृतिक, ८ प्रकृतिक और प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान हैं। छह प्रकृतिक उदयस्थान में अप्रत्याख्यानावरण आदि तीन कषायों में से अन्यतम तीन कोषादि, तीन वेदों में से कोई एक वेद, दो युगलों में से कोई एक युगल, इन छह प्रकृतियों का उदय होता है। इस स्थान में भंगों को एक चौबीसी होती है । इस छह प्रकृतिक उदयस्थान में भय या जुगुप्सा या वेदक सम्यक्त्व को मिलाने से सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ विकल्प से तीन प्रकृतियों के मिलाने के कारण भंगों की तीन चौबीसी होती हैं। उक्त छह प्रकृतियों में भय, जुगुप्सा अथवा भय, वेदक सम्यक्त्व अथवा जुगुप्सा, वेदक सम्यक्त्व, इस प्रकार इन दो प्रकृतियों को अनुक्रम से मिलाने पर आठ प्रकृतिक उदयस्थान हैं। यह स्थान तीन विकल्पों से बनने के कारण भंगों की तीन चौबीसियां होती हैं।
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२७६
सप्ततिका प्रकरण छह प्रकृतिक उदयस्थान में भय, जुगुप्सा और वेदक सम्यक्त्व को एक सबमिलाने पर भी नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है और विकल्प नहीं होने से भंगों की एक चौबीसी प्राप्त होती है । चौथे गुणस्थान में कुल मिलाकर आठ चौबीसी होती हैं। ___'देसे पंचाइ अ8व'-देशविरत गुणस्थान में पांच से लेकर आठ प्रकृति पर्यन्त चार उदयस्थान है.-पांच, छह, सात और आठ प्रकृतिक । पाँच प्रकृतिक उदयस्थान में पांच प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-प्रत्याख्यानावरण, सज्वलन क्रोधादि मे से अन्यतम दो क्रोधादि, तीन वेदों में से कोई एक वेद, दो युगलों में से कोई एक युगल । यहां भङ्गों की एक चौबीसी होती है । छह प्रकृतिक उदयस्थान उक्त पाँच प्रकृतियों में भय या जुगुप्सा या वेदक सम्यक्त्व में से किसी एक को मिलाने से बनता है। इस स्थान में प्रकृतियों के तीन विकल्प. होने से तीन चौबीसी होती हैं। सात प्रकृतिक उदयस्थान के लिये पांच प्रकृतियों के साथ भय, जुगुप्सा या भय, वेदक सम्यक्त्व या जुगुप्सा, वेदक सम्यक्त्व को एक साथ मिलाया जाता है । यहाँ भी तीन विकल्पों के कारण भङ्गों की तीन चौबीसी जानना चाहिये । पूर्वोक्त पाँच प्रकृतियों के साथ भय, जुगुप्सा और बेदक सम्यक्त्व को युगपत् मिलाने से आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । प्रकृतियों का विकल्प न होने से भङ्गों की एक चौबीसी होती है। __पांचवें देशविरत गुणस्थान के अनन्तर छठे, सात प्रमत्तविरत
और अप्रमत्तविरत गुणस्थानों का संकेत करने के लिये गाथा में "विरए खओवसमिए' पद दिया है--जिसका अर्थ क्षायोपशमिक विरत होता है । क्योंकि क्षायोपशमिक विरत, यह संज्ञा इन दो गुणस्थानों की ही होती है। इसके आगे के गृणस्थानों के जीवों को या तो उपशमक संज्ञा दी जाती है या क्षपक । उपशमश्रेणि चढ़ने वाले को उपशमक और क्षपक श्रेणि चढ़ने वाले को क्षपक कहते हैं । अत:
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षष्ठ कर्मनग्य
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प्रमत्त और अप्रमत्त विरत इन दो गुणस्थानों में उदयस्थानों को बतलाने के लिये गाथा में निर्देश किया है-'चउराई सत्त' । अर्थात् चार से लेकर सात प्रकृति तक के दार उदयस्थान -चार पाँच छह और सात प्रकृतिक । इन दोनों गुणस्थानवी जीवों के संज्वलन चतुष्क में से क्रोधादि कोई एक, तीन वेदों में से कोई एक बेद, दो युगलों में से कोई एक युगल, यह चार प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भङ्गों की एक चौबीसी होती है। भय या जुगुप्सा या वेदक सम्यक्त्व में से किसी एक को चार प्रकृतिक में मिलाने पर पांच प्रकृतिक उदयस्थान होता है । विकल्प प्रकृतियां तीन हैं अत: यहाँ भङ्गों की तीन चौबीसी बनती हैं । उक्त चार प्रकृतियों के साथ भय, जुगुप्सा अथवा भय, वेदक सम्यक्त्व अथवा जुगुप्सा, वेदक सम्यक्त्व को एक साथ मिलाने पर छह प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी भङ्गों को तीन चौबीसी होती है । भय, जुगुप्सा और वेदक सम्यक्त्व, इन तीनों प्रकृतियों को चार प्रकृतिक उदयस्थान में मिलाने पर सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ पर विकल्प प्रकृतियों न होने से भंगों की एक चौबीसी होती है। कुल मिलाकर छठे और सातवें गुणस्थान में से प्रत्येक में भङ्गों की आठ-आठ चौबीसी होती हैं। ___ आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में चार, पाँच और छह प्रकृतिक, यह तीन उदयस्थान हैं। संज्वलन कषाय चतुष्क में से कोई एक कषाय, तीन वेदों में से कोई एक वेद और दो युगलों में से कोई एक युगल के मिलाने से चार प्रकृतिक उदयस्थान बनता है तथा भङ्गों की एक चौबीसी होती है । भय, जुगुप्सा में से किसी एक को उक्त चार प्रकृतियों में मिलाने पर पांच प्रकृतिक उदयस्थान होता है। विकल्प प्रकृतियाँ दो होने से यहां भङ्गों की दो चौबीसी प्राप्त होती हैं। भय जुगुप्सा को युगपत् चार प्रकृतियों में मिलाने पर छह प्रकृतिक
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सप्ततिका प्रकरण
उदयस्थान जानना चाहिये तथा भंगों की एक चौबीसी होती है। इस प्रकार आठवे 'गुणस्थान में भंगों की चार चौबीसी होती हैं ।
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'अनियfबारे पुर्ण इक्को वा दुवे व' - अर्थात् नौवें अनिवृत्तिकादर गुणस्थान में से दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक । यहाँ दो प्रकृतिक उदयस्थान में संज्वलन कषाय चतुष्क मैं से किसी एक कषाय और तीन वेदों में से किसी एक वेद का उदय होता है। यहां तीन बेदों से संज्वलन कषाय चतुष्क को गुणित करने पर १२ भंग प्राप्त होते हैं । अनन्तर वेद का विच्छेद हो जाने पर एक प्रकृतिक उदयस्थान होता है, जो चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक बंध के समय होता है । अर्थात् सवेद भाग तक दो प्रकृतिक और अवेद भाग में एक प्रकृतिक उदयस्थान समझना चाहिये । यद्यपि एक प्रकृतिक उदय में चार प्रकृतिक बंध की अपेक्षा चार, तीन प्रकृतिक बंध की अपेक्षा तीन, दो प्रकृतिक बंध की अपेक्षा दो, और एक प्रकृतिक बंध की अपेक्षा एक, इस प्रकार कुल दस भंग बतलाये हैं किन्तु यहाँ बंधस्थानों के भेद की अपेक्षा न करके सामान्य से कुल चार भंग विवक्षित हैं ।
दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में एक सूक्ष्म लोभ का उदय होने से वहाँ एक ही भंग होता है - एगं सुहुमरारागो वेएइ' । इस प्रकार एक प्रकृतिक उदयस्थान में कुल पाँच भंग जानना चाहिये ।
दसवें गुणस्थान के बाद आगे के उपशान्तमोह आदि गुणस्थानों में मोहनीयकर्म का उदय न होने से उन गुणस्थानों में उदय की अपेक्षा एक भी भंग नहीं होता है ।
इस प्रकार यहाँ गाथाओं के निर्देशानुसार गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के उदयस्थानों और उनके भंगों का कथन किया गया है और गाथा के अंत में जो भंगों का प्रमाण पूर्वोद्दिष्ट कम से जानने का
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षष्ट कर्म ग्रन्थ
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संकेत दिया है सो उसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार पहले सामान्य से मोहनीयकर्म के उदयस्थानों का कथन करते समय भंग बतला आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी उनका प्रमाण समझ लेना चाहिये । स्पष्टता के लिये पुन: यहां भी उदयस्थानों का निर्देश करते समय भंगों का संकेत दिया है। लेकिन इस निर्देश में पूर्वोल्लेख से किसी प्रकार का अंतर नहीं समझना चाहिये ।
अब मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों की अपेक्षा दस से लेकर एक पर्यन्त उदयस्थानों के भंगों की संख्या बतलाते हैं
एक्क छडेक्कारेकारसेव एक्कारसेव नव तिन्नि । एए चरबीसगया बार दुगे पंच एक्कम्मि ||४६ ॥ शब्दार्थ –एक्क—एक छडेकार छह, ग्यारह इक्कारसेव- ग्यारह, नव-नो, तिन्नि तीन, एए - यह बचवीस गया— चौबीसी मंग, बार-बारह मंग, दुगे- दो के उदय में पंच-पांच एक्कसि - एक के उदय में ।
A
गाथार्थ - दो और एक उदयस्थानों को छोड़कर दस आदि उदयस्थानों में अनुक्रम से एक. छह ग्यारह, ग्यारह नौ और तीन चौबीसी भंग होते हैं तथा दो के उदय में बारह और एक के उदय में पाँच भंग होते हैं ।
विशेषार्थ - मोहनीयकर्म के नौ उदयस्थानों को पहले बतलाया जा चुका है। इस गाथा में प्रकृति संख्या के उदयस्थान का उल्लेख न करके उस स्थान के भंगों की संख्या को बतलाया है। वह अनुक्रम से इस प्रकार समझना चाहिये कि दस प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की एक चौबीसी, नौ प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की छह चौबीसी, आठ प्रकृतिक उदयस्थान में ग्यारह चौबीसी, सात प्रकृतिक उदयस्थान में ग्यारह चौबीसी, छह प्रकृतिक उदयस्थान में ग्यारह
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सप्ततिका प्रकरण चौबीसी, पाँच प्रकृतिक उदयस्थान में नौ चौबीसी, चार प्रकृतिक उदयस्थान में तीन चौबीसी होती हैं तथा दो प्रकृतिक उदयस्थान के बारह भंग एवं एक प्रकृतिक उदस्थान के पांच भंग हैं। इनका विशेष विवेचन नीचे किया जाता है। ___ दस प्रकृतिक उदयस्थान एक है अतः उसमें भंगों की एक चौबीसी कही है । यह उदयस्थान मिथ्यात्व गुणस्थान में पाया जाता है । नौ प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की छह चौबीसी होती हैं क्योंकि यह उदयस्थान मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि इन मार गुणस्थानों में पाया जाता है और प्रियात्व गुणस्थान में प्रकृतिविकल्प तीन होने से तीन प्रकार से होता है, अत: वहाँ भंगों की तीन चौबीसी और शेष तीन गुणस्थानों में प्रकृतिविकल्प न होने से प्रत्येक में भंगों की एक चौबीसी होती है। आठ प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की ग्यारह चौबीसी होती हैं । यह आठ प्रकृतिक उदयस्थान पहले से सेकर पांचवें गुणस्थान तक होता है और मिथ्यात्व व अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में प्रकृतियों के सीन-तीन विकल्पों से तथा सासादन व मिश्र में दो-दो विकल्पों से बनता है और देशविरत गुणस्थान में प्रकृतियों का विकल्प नहीं है । अतः मिथ्यात्व और अविरत में तीन-तीन, सासादन और मिश्र में दो-दो और देशविरत में एक, भंगों की चौबीसी होती है। इनका कुल जोड़ ३+३+२+२ +१=११ होता है । इसी प्रकार सात प्रकृतिक उदयस्थान में भी भंगों की ग्यारह चौबीसी हैं । यह उदयस्थान पहले से सातवें गुणस्थान तक पाया जाता है तथा चौथे और पांचवें गुणस्थान में प्रकृतियों के तीन-तीन विकल्प होने से तीन प्रकार से बनता है। अत: इन दो गुणस्थानों में से प्रत्येक में तीन-तीन और शेष पहले, दूसरे, तीसरे, छठे और सातवें, इन पांच गुणस्थानों में प्रकृतिविकल्प नहीं होने से अंगों की एक-एक चौबीसी होती है जिनका कुल जोड़ ग्यारह है।
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बष्ठ कर्मग्रन्थ
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छह प्रकृतिक उदयस्थान में भी भंगों की ग्यारह चौबीसी इस प्रकार है- अविरत सम्यग्दृष्टि और अपूर्वकरण में एक-एक तथा देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत में तीन-तीन इनका जोड़ कुल ग्यारह होता है । पाँच प्रकृतिक उदयस्थान में भंगों की नो चौबीसी हैं। उनमें से देशबिरत में एक, प्रमत्त और अप्रमत्त विरत गुणस्थानों में से प्रत्येक में तीन-तीन और अपूर्वकरण में दो चौबीसी होती हैं। चार प्रकृतिक उदयस्थान में प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत और अपूर्वकरण गुणस्थान में भंगों की एक-एक चौबीसी होने से कुल तीन चौबीसी होती हैं । इन सबों की शुचि होती हैं तथा दो प्रकृतिक उदयस्थान के बारह और एक प्रकृतिक उदयस्थान के पाँच भंग हैं— 'बार दुर्गे पंच एक्कम्मि' जिनका स्पष्टीकरण पूर्व गाथा के संदर्भ में किया जा चुका है।
इस प्रकार दस से लेकर एक प्रकृतिक उदयस्थानों में कुल मिलाकर ५२ चौबीसी और १७ भंग प्राप्त होते हैं। जिनका गुणस्थानों की अपेक्षा अन्तर्भाष्य गाथा में निम्न प्रकार से विवेचन किया गया हैअट्टग च च चउरट्ठगा य चउरो य होंति घडवीसा । अपुषवंता वारस पण च अनियट्टे ॥
मिच्छा अर्थात् मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरण तक आठ गुणस्थानों में भंगों की क्रम से आठ, चार, चार, आठ, आठ आठ, आठ, और चार चौवीसी होती हैं तथा अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में बारह और पाँच भंग होते हैं ।
इस प्रकार भंगों के प्राप्त होने पर कुल मिलाकर १२६५ उदय विकल्प होते हैं, वे इस प्रकार समझना चाहिये कि ५२ चौबीसियों की कुल संख्या ५२४८ (५२ x २४ = १२४८ ) और इसमें अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के १७ मंगों को मिला देने पर १२४८ + १७= १२६५ संख्या होती है तथा १० से लेकर ४ प्रकृतिक उदयस्थानों तक के सब पद ३५२ होते हैं, अत: इन्हें २४ से गुणित करने देने पर ८४४८ प्राप्त होते
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सप्ततिका प्रकरण
हैं जो पदवृन्द महासे हैं। सर में की प्रकृतिक उदयस्थाग के २४१२ =२४ और एक प्रकृतिक उदयस्थान के ५ भंग इस प्रकार २६ मंगों को और मिला देने पर पदवृन्दों की कुल संख्या ८४७७ प्राप्त होती है । जिससे सब संसारी जीव मोहित हो रहे हैं कहा भी है
पारसपगसढसया उपविग फेहि मोहिपा जोया ।
घुलसोईसत्तत्तरिपविषसहि विनेया ।। अर्थात ये संसारी जीव १२६५ उदयविकल्पों और ८४७७ पदवृन्दों से मोहित हो रहे हैं।
गुणस्थानों की अपेक्षा उदयविकल्पों और पदवृन्दों का विवरण इस प्रकार जानना चाहिये---
क्रम सं०
उदयस्थान
गुणस्थान
___ भंग
गुणनफल
गुण्य (पदः)| गुणकार (पदवृन्द)
१६३२
19६८
१४४०
१२४८
मिथ्यात्व ७,८,९,१०८ चौबीसी| ६८५ | सासादन ७,८,९,१०|| ४ चौबीसी| ३२ मिथ ७,८,
६ ४ चौबीसी अविरत' | ६,७,८,९, ८ चौबीसी देशविरत | ५,६,७,८ | 4 चौधोसी प्रमत्तविरत ] ४,५,६७ | ८ चौबीसी । ४४ अप्रमत्तविक | ८ चौबीसी
अपूर्वकरण ४,५,६,७ | ४ चौबीसी & | अनिवृत्ति. | २,
१ १६ भंग सूक्ष्म
२४१४
१ मिथ्यात्व आबि गुणस्थानों में ६ आदि पद (गुण्य) होने का स्पष्टीकरण
आगे की गाथाओं में किया जा रहा है।
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पर पाय
२८३ इस प्रकार गुणस्थानों की अपेक्षा मोहनीयकर्म के उदयस्थानों व उनके भङ्गों का कथन करने के बाद अब आगे की गाथा में उपयोग आदि की अपेक्षा भङ्गों का निर्देश करते हैंयोग, उपयोग और लेश्याओं में भंग
जोगोवओगलेसाइएहिं गुणिया' हवंति कायस्वा । जे जस्थ गुणहाणे हवं ति ते तस्य गुणकारा ॥४७॥
शम्पाय--जोगोषओगलेसाइएहि-योग, उपयोग और लेश्यादिक से, गुणिया-गुणा, हति–होते हैं, कापवा करना चाहिये, जे-जो मोगादि, जस्थ गुणटाणे---जिस गुणस्थान में, हवंति–होते है, ते—उतने, तस्थ—उसमें, गुणकारा-गुणकार संख्या ।
गाथार्थ-पूर्वोक्त उदयभङ्गों को, योग, उपयोग और लेश्या आदि से गुणा करना चाहिये। इसके लिये जिस गुणस्थान में जितने योगादि हों वहाँ उतने गुणकार संख्या होती है।
विशेषार्थ-गुणस्थान में मोहनीयकर्म के उदयविकल्पों और पदवृन्दों का निर्देश पूर्व में किया जा चुका है। अब इस गाथा में योग, उपयोग और लेश्याओं की अपेक्षा उनकी संख्या का कथन करते हैं कि वह संख्या कितनी-कितनी होती है।
१ तुलना कीजिये(क) एवं ओगुवओमा लेसाई भेय ओ बहभेया । जा जस्स बंमि उ गुणे संखा सा तंमि गुणगारो ।
-पंचसंग्रह सप्ततिका गा० ११७ (ख) उदयट्ठाणं पढि सगसगउबजोगजोगआदीहि । गुण यिप्ता मेल विदे पदसंखा परिसंखा य ।
-गोकर्मकार गा० ४९०
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२८४
सप्ततिका प्रकरण
गुणस्थानों में योग आदि की अपेक्षा उदयविकल्पों और पदवृन्दों की संख्या जानने के सम्बन्ध में सामान्य नियम यह है कि जिस गुणस्थान में योगादिक की जितनी संख्या है उसमें उस गुणस्थान के उदयविकल्प और पदवृन्दों को गुणित कर देने पर योगादि की अपेक्षा प्रत्येक गुणस्थान में उदयविकल्प और पदवृन्द की संख्या ज्ञात हो जाती है । अतः यह जानना जरूरी है कि किस गुणस्थान में कितने योग आदि हैं। परन्तु इनका एक साथ कथन करना अशक्य होने से क्रमशः योग, उपयोग और लेश्या की अपेक्षा विचार करते हैं। ___योग की अपेक्षा भंगों का विचार इस प्रकार है-मिथ्यात्व गुणस्थान में १३ योग और भंगों की आठ चौबीसी होती हैं। इनमें से चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक और वैक्रिय काययोग इन दस योगों में से प्रत्येक में भंगों की आठ-आठ चौबीसी होती हैं, जिससे १० को ८ से गुणित कर देने पर ८० चौत्रीसी हुई । किन्तु
औदारिक मिश्र काययोग, वैयमिश्र काययोग और कार्मण काययोग इन तीन योगों में से प्रत्येक में अनन्तानुबन्धी के उदय सहित वाली चार-चार चौबीसी होती हैं। इसका कारण यह है कि अनन्तानु. बंधी चतुष्क की विसंयोजना करने पर जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में जाता है, उसको जब तक अनन्तानुबंधी का उदय नहीं होता तत्र तक मरण नहीं होता । अतः इन तीन योगों में अनन्तानुबन्धी के उदय से रहित चार चौबीसी सम्भव नहीं हैं । विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जिसने अनन्तानुबंधी की विसंयोजना की है, ऐसा जीव जब मिथ्यात्व को प्राप्त होता है तब उसके अनन्तानुबंधी का उदय एका आवली काल के बाद होता है, ऐसे जीव का अनन्तानुबन्धी का उदय होने पर ही मरण होता है, पहले नहीं। जिससे उक्त तीनों योगों में अनन्तानुबन्धी के उदय से रहित चार चौबीसी नहीं पाई जाती हैं।
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पाठ कर्मग्रन्थ
२८५ इसीलिए इन तीन योगों में भंगों की कुल बारह चौबीसी मानी हैं। इनको पूर्वोक्त ८० चौबीसी में मिला देने पर (८०+१२-१२) कुल' ६२ चौबीसी होती है और इनके कुल मा ५४ गुणा करले पर २२०८ होते हैं।
दूसरे सासादन गुणस्थान में भी योग १३ होते हैं और प्रत्येक योग की चार-चार चौबीसी होने से कुल भंगों की ५२ चौबीसी होनी चाहिए थी किन्तु सासादन गुणस्थान में नपुंसकवेद का उदय नहीं होता है, अत: बारह योगों की तो ४८ चौबीसी हुई और वैक्रियमिश्र काययोग के ४ षोडशव हुए। इस प्रकार ४८ को २४ से गुणा करने पर ११५२ भंग हुए तथा इस संख्या में चार षोडकश के ६४ भंग मिला देने पर सासादन गुणस्थान में सब भंग १२१६ होते हैं ।
सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिक व वैक्रिय ये दो काययोग कुल दस योग हैं और प्रत्येक योग में भंगों की ४ चौबीसी । अतः १० को चार चौबीसियों से गुणा कारने पर २४४४ = ६६ ४ १० = ६६० कुल भंग होते हैं ।
__ अविरत सम्यग्दृष्टि मुणस्थान में १३ योग और प्रत्येक योग में भंगों की ८ चौबीसी होनी चाहिये थीं । किन्तु ऐसा नियम है कि चौथे गुणस्थान के बैंक्रियमिश्र काययोग और कार्मण काययोग में स्त्रीवेद नहीं होता है, क्योंकि अविरत सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्री वेदियों में उत्पन्न नहीं होता है । इसलिए इन दो योगों में भंगों की ८ चौबीसी प्राप्त न होकर ८ षोडशक प्राप्त होते हैं । इसके कारण को स्पष्ट करते हुए आचार्य मलयगिरि ने कहा है कि-स्त्रीवेदी सम्याइष्टि जीव वैक्रियमिध काययोगी और कार्मण काययोगी नहीं होता है। यह कथन बहुलता की अपेक्षा से किया गया है, वैसे कदाचित इनमें भी
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२८६
सप्ततिका प्रकरण
स्त्रीवेद के साथ सम्यग्दृष्टियों का उत्पाद देखा जाता है । इसी बात को ब्रूणि में भी स्पष्ट किया है
वाह हो हरियवि ।
अर्थात् — कदाचित् सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रीवेदियों में भी उत्पन्न होता है । तथा चौथे गुणस्थान के औदारिकमिश्र काययोग में स्त्रीवेद और नपुंसक वेद नहीं होता है। क्योंकि स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी तिथंच और मनुष्यों में अविरत सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं, अत: औदारिक मिश्र काययोग में भंगों की चौबीसी प्राप्त न होकर आठ अष्टक प्राप्त होते हैं। स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी सम्यग्दृष्टि जीव औदारिकमिश्र काययोगी नहीं होता है। यह बहुलता की अपेक्षा से समझना चाहिए | इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में दस योगों की ८० चोबीसी, वैक्रियमिश्र काययोग और कार्मेण काययोग, इन दोनों में प्रत्येक के आठ-आठ षोडशक और औदारिक मिश्र काययोग के आठ अष्टक होते हैं। जिनके भंग ८० X २४ = १६२० तथा १६x८= १२८ पुन: १६८ = १२८ और ८ ८ ६४ होते हैं, इनका कुल जोड़
-..
१ (क) ये चाविरतसम्यग्दृष्टे व क्रियमिश्र कार्मणकाययोगे च प्रत्येक मष्टा - वष्टी उदयस्थानविकल्पा एषु स्त्रीवेदो न लभ्यते, वैक्रिय काययोगिषु स्त्रीवेदिषु मध्येऽविरतसम्यकृष्टे रुत्पादाभावत् । एतच्च प्रायोवृत्तिमाश्रित्योक्तम्, अन्यथा कदाचित् स्त्रीबेदिष्वपि मध्ये तदुत्यादो भवति । -- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २१७ (ख) दिगम्बर परम्परा में यही एक मत मिलता है कि स्त्रीवेदियों में सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होता है ।
२ अविरत सम्यग्दष्टे रौदारिक मिश्रकामयोगे येऽष्टादयस्थान विकल्पास्ते वेदसहिता एवं प्राप्यन्ते न स्त्रीवेद नपुंसक वेदसहिताः तिर्यग्-मनुष्येषु स्त्रीवेदनपुंसकवेदिषु मध्येऽविरत सम्यग्दृष्टे रुत्पादाभावत् एतच्च प्राचुर्यमात्रित्योक्तम् । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २१७
·
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.
षष्ठ कर्मग्रन्थ
२८७
११२०+१२८+१२८ -- ६४२२४० है । श्रीग को अपेक्षा २२४० भंग चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में प्राप्त होते हैं।
पांचवें देशवििरति गुणस्थान में औदारिकमिश्र, कार्मण काययोग और आहारकद्विक के बिना ११ योग होते हैं। यहाँ प्रत्येक योग में भंगों की चौबीसी संभव हैं अतः यहाँ कुल भंग (११४८८८ X २४२११२) २११२ होते हैं।
छठे प्रमत्तसंयत गुणरथान में औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग के बिना १३ योग और प्रत्येक योग में भंगों की चौबीसी होनी चाहिए। किन्तु ऐसा नियम है कि स्त्रीवेद में आहारक काययोग और आहारकमित्र काययोग नहीं होता है। क्योंकि आहारक समुद्घात चौदह पूर्वधारी ही करते हैं । किन्तु स्त्रियों के चौदह पूर्वो का ज्ञान नहीं पाया जाता है । इसके कारण को स्पष्ट करते हुए बताया भी है कि-
I
तुच्छा गारवबहुला चलिदिया बुकला व घीईए । इय भइसेसमपणा भूमाषाओ य नो योगं ।। "
अर्थात् स्त्रीदेदी जीव तुच्छ, गारवबहुल, चंचल इन्द्रिय और बुद्धि से दुर्बल होते हैं । अत: वे बहुत अध्ययन करने में समर्थ नहीं हैं और उनमें दृष्टिवाद अंग का भी ज्ञान नहीं पाया जाता है ।
इसलिये ग्यारह योगों में तो भंगों की आठ-आठ चौबीसी प्राप्त होती हैं किन्तु आहारक और आहारकमिश्र काययोगों में भंगों के आठ-आठ षोडशक प्राप्त होते हैं । इस प्रकार यहाँ ११x६ ४२४ = २११२ तथा १६४८ १२६ और १६४८ = १२८ भंग हैं । इन सबका जोड़ २११२+१२८१२८ - २३६८ होता है । अतः प्रमत्तसंयत गुणस्थान में कुल भंग २३६८ होते हैं ।
१ बृहत्कल्प भाष्य गा० १४६
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सप्ततिका प्रकरण
जो जीव प्रमत्तसंयत गुणस्थान में वैक्रिय काययोग और आहारक काययोग को प्राप्त करके अप्रमत्तसंयत हो जाता है, उसके अप्रमत्तसंयत अवस्था में रहते हुए ये दो योग होते हैं। वैसे अप्रमत्तसंयत जीव वैक्रिय और आहारक समुद्घात का प्रारम्भ नहीं करता है, अत: इस गुणस्थान में वैक्रियमिश्र काययोग और आहारकमिश्र काययोग नहीं माना है। इसी कारण सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिक, वैकिय व आहारक काययोग, ये ग्यारह योग होते हैं। इन योगों में भंगों की आठ-आठ चौबीसी होनी चाहिये थीं। किन्तु आहारक काययोग में स्त्रीवेद नहीं होने से दस योगों में तो भंगों की आठ चौबीसी और आहारक काययोग में आठ षोडशक प्राप्त होते हैं। इन सब भंगों का जोड़ २०४८ होता है जो अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में योगापेक्षा होते हैं ।
२८५
आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में नौ योग और प्रत्येक योग में भंगों की चार चौबीसी होती हैं। अतः यहाँ कुल भंग ८६४ होते हैं। नौवें अनिवृत्तिवादर गुणस्थान में योग है और भंग १६ होते हैं अतः १६ को से गुणित करने पर यहां कुल भंग १४४ प्राप्त होते हैं तथा दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में योग और भंग १ है । अतः यहां
६
कुल ६ भंग प्राप्त होते हैं ।
उपर्युक्त दसों गुणस्थानों के कुल भंगों को जोड़ने पर २२०८ - १२१६+६६० + २२४० + २११२ + २३६६ + २०४६+६६४+१४४+६ = १४१६९ प्रमाण होता है। कहा भी है
चटक्स य सहस्सा सयं व गुणहतरं उदयमाणं । 1
अर्थात् योगों की अपेक्षा मोहनीयकर्म के कुल उदयविकल्पों का प्रमाण १४१६६ होता है ।
१ पंचसंग्रह सप्ततिका गा० १२०
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
२८९ योगों की अपेक्षा गुणस्थानों में उदयविकल्पों का विवरण इस प्रकार जानना चाहिये
गुणस्थान
| योग
गुणकार
सासादन
मिश्र
मिथ्यात्व । १३ ! १० ८४२४ = १६२ | १९२४१० - १९२०२२०६
३ ४४२४८१६ / ६६३-२२८ | ४४२४ =६६. | १६x२२ =११५२ १२१६ ४४१६=६४ ६४४१-६४
४४२४६६ ६६४१०-१६० अविरत | १३ ८४२४ = १६२ | १९२४१० = १६२०२२४०
८४१६८१२८ | १२८x२=२५६
Ex-६४ ६४४१-६४ देशविरत | ११
८४२४ = १६२ १६२४११=२११२२११२ प्रमत्तसंयत | १३ ८४२४= १६२ १६२४११=२११२/२३६८
८४१६=१२८ १२८४२२५६ ८x२४ = १६२ १९२४१०=१९२०२०४८
८x१६-१२८ | १२८x१ =१२८ अपूर्व०
४४२४=१६ ६६X१६६४ ८६४ अनिवृत्तिः |
१६x६ = १४४ : सूक्ष्म
EX १६
अप्रमतस
.
कुल जोड़
१४१६६
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सप्ततिका प्रकरण योगों की अपेक्षा गुणस्थानों में उदयविकल्पों का विचार करने के अनन्तर अब क्रम प्राप्त पदवृन्दों का विचार करने के लिये अन्नर्भाष्य गाथा उद्धृत करते हैं
अट्ठी पतीसं बत्तीसं सष्टुिमेव बावन्ना ।
चोयालं धोया भीसा वि में मिश्चमाईसु ॥ अर्थात् - मिथ्याइष्टि आदि गुणस्थानों में कम से ६८, ३२, ३२, ६०, ५२, १४, ४४ और २० उदयपद होते हैं।
यहाँ उदयपद से उदयस्थानों की प्रकृतियां ली गई हैं। जैसे कि मिथ्यात्व गुणस्थान में १०, ६, ८ और ७ प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान हैं और इनमें से १० प्रकृतिक उदयस्थान एक है अत: उसकी दस प्रकृतियाँ हुई । ६ प्रकृतिक उदय स्थान तीन प्रकृतियों के विकल्प से बनने के कारण तीन हैं अत: उसकी २७ प्रकृतियां हुई । आठ प्रकृतिक उदयस्थान भी तीन प्रकृतियों के विकल्प से बनता है अत: उसको २४ प्रकृतियां हुई और सात प्रकृतिक उदयस्थान एक है अत: उसकी ७ प्रकृतियाँ हुई । इस प्रकार मिथ्यात्व में चारों उदयस्थानों की १०+ २७+२४+७=६८ प्रकृतियां होती हैं । सासादन आदि गुणस्थानों में जो ३२ आदि उदयपद बतलाये हैं, उनको भी इसी प्रकार समझना चाहिये। ___ अब यदि इन आठ गुणस्थानों के सब उदयपद {६८ से लेकर २७ तक) जोड़ दिये जायें तो इनका कुल प्रमाण ३५२ होता है । किन्तु इनमें से प्रत्येक उदयपद में चौबीस-चौबीस भङ्ग होते हैं, अत: ३५२ को २४ से गुणित करने पर ८४४८ प्राप्त होते हैं। ये पदवृन्द अपूर्वकरण गुणस्थान तक के जानना चाहिये । इनमें अनिवृत्तिकरण के २८ और सुषमसंपराय गुणस्थान का १. कुल २९ भङ्ग मिला देने पर ८४४०+२६ =८४७७ प्राप्त होते हैं । ये मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के सामान्य से पदवृन्द हुए ।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
२६१
अब यदि योगों की अपेक्षा दसों गुणस्थानों के पदवृन्द लाना चाहें तो दो बातों पर ध्यान देना होगा - १. किस गुणस्थान में पदवृन्द और योगों की संख्या कितनी है और २ उन योगों में से किस योग में कितने पदवृन्द सम्भव है। इन्हीं दो बातों को ध्यान में रखकर अब योगापेक्षा गुणस्थानों के पदवृन्द बतलाते हैं ।
यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में ४ उदयस्थान और उनके कुल पद ६८ हैं । इनमें से एक सात प्रकृतिक उदयस्थान, दो आठ प्रकृतिक उदयस्थान और एक नौ प्रकृतिक उदयस्थान अनंतानुबंधी के उदय से रहित है जिनके कुल उदयपद ३२ होते हैं और एक आठ प्रकृतिक उदयस्थान दो नौ प्रकृतिक उदयस्थान और एक दस प्रकृतिक उदयस्थान, ये चार उदयस्थान अनन्तानुबंधी के उदय सहित हैं जिनके कुल उदयपद ३६ होते हैं । इनमें से पहले के ३२ उदयपद, ४ मनोयोग, ४ वचनयोग, औदारिक काययोग और वैकिय काययोग, इन दस योगों के साथ पाये जाते हैं। क्योंकि यहाँ अन्य योग संभव नहीं है, अत: इन ३२ को १० से गुणित करने पर ३२० होते हैं और ३६ उदयपद पूर्वोक्त दस तथा औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मणयोग इन १३ योगों के साथ पाये जाते हैं। क्योंकि ये पद पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में संभव हैं, अत: ३६ को १३ से गुणित करने पर ४६० प्राप्त होते हैं ।
1
मिथ्यात्व गुणस्थान के कुल पदवृन्द प्राप्त करने की रीति यह है कि ३२० और ४६८ को जोड़कर इनको २४ से गुणित करदें तो मिथ्यात्व गुणस्थान के कुल पदवृन्द आ जाते हैं, जो ३२० + ४६८ = ७८८ X २४ = १८६१२ होते हैं ।
सासादन गुणस्थान में योग १३ और उदयपद ३२ है । सो १२ योगों में तो ये सब उदयपद संभव हैं किन्तु सासादन सम्यग्दृष्टि को क्रियमिश्र में नपुंसकवेद का उदय नहीं होता है, अतः यहाँ नपुंसकवेद
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२६२
सप्ततिका प्रकरण
के भङ्ग कम कर देना चाहिये । इसका तात्पर्य यह हुआ कि १३ योगों की अपेक्षा १२ से ३२ को गुणित करके २४ से गुणित करें और वैक्रियमिश्र की अपेक्षा ३२ को १६ से गुणित करें। इस प्रकार १२४३२ = ३५४४२४-- ६२१६ तथा नैकियमिश्र के ३२४ १६-- ५१२ हुए और इन ६२१६ और ५१२ का कुल जोड़ १७२८ होता है । यही १७२८ पदवृन्द सासादन गुणस्थान में होते हैं।
मिथ गुणस्थान में दस योग और उदयपद ३२ हैं। यहाँ सब योगों में सब उदयपद और उनके कुल भङ्ग संभव हैं, अत: १० को ३२ से गुणित करके २४ से गणित करने पर (३२४ १०८-३२० x २४ =७६८०) ७६८० पदवृन्द प्राप्त होते हैं। ____ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में योग १३ और उदयपद ६० होते हैं । सो यहाँ १० योगों में तो सब उदयपद और उनके कुल भङ्ग संभव होने से १० से ६० को गुणित करके २४ से गुणित कर देने पर १० योगों संबंधी कुल भङ्ग १४४०० प्राप्त होते हैं । किन्तु वैक्रियमिश्र काययोग और कार्मण काययोग में स्त्रीवेद का उदय नहीं होने से स्त्रीवेद संबंधी भङ्ग प्राप्त नहीं होते हैं, इसलिये यहां २ को ६० से गुणित करके १६ से गुणित करने पर उक्त दोनों योगों सम्बन्धी कुल भङ्ग १९२० प्राप्त होते हैं तथा औदारिकमिश्न काययोग में स्त्रीवेद
और नपुंसकवेद का उदय नहीं होने से दो योगों संबंधी भङ्ग प्राप्त नहीं होते हैं । अत: यहाँ ६० को ८ से गुणित करने पर औदारिकमिश्र काययोग की अपेक्षा ४८० भङ्ग प्राप्त होते हैं। इस प्रकार चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में १३ योग संबंधी कुल पदवन्द १४४००+१६२०+४० = १६८०० होते हैं।
देशविरत गुणस्थान में योग ११ और पद ५२ हैं और यहाँ सब योगों में सब उदयपद और उनके भङ्ग सम्भव है अत: यहाँ ११ से ५२ को गुणित करके २४ से गुणित करने पर कुल भङ्ग १३७२८ होते हैं ।
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Nष्ट फर्मग्रन्थ
२६३ __ प्रमत्तसंयत गुणस्थान में योग १३ और पद ४४ हैं किन्तु आहारकद्विक में स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है, इसलिये ११ योगों की अपेक्षा तो ११ को ४४ से गुणित करके २४ से गुणित करने से ११४४४ ४८४४२४=११६१६ हुए और आहारकद्विक की अपेक्षा २ से ४४ को गुणित करके १६ से गुणित करें तो २४४४ =८८४१६-१४०८ हुए । तब ११६१६+ १४०८ को जोड़ने पर कुल १३०२४ पदवृन्द प्रमत्तसंयत गुणस्थान में प्राप्त होते हैं ।
अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में भी योग ११ और पद ४४ हैं, किन्तु आहारक काययोग में स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है। इसलिये १० योगों की अपेक्षा १० से ४४ को गुणित करके २४ से गुणित करें और आहारक काययोग की अपेक्षा ४४ से १६ को गुणित करें। इस प्रकार करने पर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में कुल पदवृन्द ११२६४ होते हैं।
अपूर्वकरण में योग और पद २० होत हैं । २० को सणित करके २४ से गुणित करने पर यहाँ कुल पदवृन्द ४३२० प्राप्त होते हैं।
अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में योग और भङ्ग २८ हैं। यहाँ योग पद नहीं है अतः पद न कहकर भङ्ग कहे हैं। सो इन ६ को २८ से गुणित कर देने पर अनिवृत्तिबादर में २५२ पदवृन्द होते हैं तथा सूक्ष्मसंपराय में योग हैं और भङ्ग है, अतः ६ से १ को मुणित करने पर भङ्ग होते हैं।
इस प्रकार पहले से लेकर दसवें गुणस्थान तक के पदवृन्दों को जोड़ देने पर सब पदवृन्दों की कुल संख्या ९५७१७ होती है । कहा भी है
ससरसा सल सया पणनउसहस्स पयसंखा।' __ अर्थात् योगों की अपेक्षा मोहनीयकर्म के सब पदवन्द पंचानवे हजार सातसौ सत्रह ६५७१७ होते हैं । १ पंचसंग्रह सप्ततिका गा० १२० २ गो. कर्मकांड गा० ४६८ और ५०० में योगों की अपेक्षा उदयस्थान
१२६५३ और पदबन्द ८५६४५ बतलाये हैं।
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२६४
उक्त पदवृन्दों का विवरण इस प्रकार जानना चाहिये
गुणस्थान
योग उदयपद गुणकार
मिथ्यात्व
सासादन
मिश्र
अविरत सम्यग्दृष्टि
बेश विरत
प्रमत्तसंयत
अप्रमत्तसंयत
अपूर्व करण
अनिवृत्ति बादर
सूक्ष्मसंपराय
१३
१०
१२
१
१०
१०
२
१
११
११
२
१०
१
E
३६
३२
३२
३२
३२
ܪ
६०
६०
५२
४४
૪૪
४४
૪૪
२०
२
१
१
૨૪
૨૪
२४
१६
२४
२४
१६
G
२४
२४
१६
२४
१६
२४
१२
४
DVT
सप्ततिका प्रकरण
१
गुणनफल (पदवृन्द )
११२३२
८७६८०
६२१६
५१२
७६८० | ७६८०
१४४००
१६८००
१६२०
४८०
१३७२८
११६१६
१४०८
१०५६०
७०४
४३२०
२१६
३६
६
१८६१२
६७२८
१३७२८
१३०२४
११२६४
४३२०
२५२
£
६५७१७ पदवृन्द
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--
-
-
पाठ कर्मग्रन्थ
२६५ इस प्रकार से की अपेक्षा सुनावों में मोहनीयक के उदयस्थानों, भंगों और पदवृन्दों का विचार करने के बाद अब आगे उपयोगों की अपेक्षा उदयस्थानों आदि का विचार करते हैं ।
मिथ्यात्व और सासादन इन दो गुणस्थानों में मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान, चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन, ये पांच उपयोग होते हैं। मिश्र में तीन मिश्र ज्ञान और चक्षु व अचक्षु दर्शन, इस प्रकार ये पांच उपयोग हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत में आरम्भ के तीन सम्यग्ज्ञान और तीन दर्शन, ये छह उपयोग होते हैं तथा छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक पांच गुणस्थानों में पूर्वोक्त छह तथा मनपर्यायज्ञान सहित सात उपयोग होते हैं तथा प्रत्येक गुणस्थान के उदयस्थान के भंगों का कथन पूर्व में अन्तर्भाष्य माथा 'अट्ठग चउ चउ चउरटुगा य' के संदर्भ में किया जा चुका है। अत: जिस गुणस्थान में जितने उपयोग हों, उनसे उस गुणस्थान के उदयस्थानों को गुणित करके अनन्तर भंगों से मुणित कर देने पर उपयोगों की अपेक्षा उस गुणस्थान के कुल भंग ज्ञात हो जाते है। जैसे कि मिथ्यात्व और सासादन में कम से ८ और ४ चौबीसी तथा ५ उपयोग हैं अतः ८+४=१२ को ५ से गुणित कर देने पर ६० हुए । मिथ में ४ चौबीसी और ५ उपयोग हैं अतः ४ को ५ से गुणित करने पर २० हुए । अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थान में आठ-आठ चौबीसी और ६ उपयोग हैं अत: +८= १६ को ६ से गुणित कर देने पर ६६ हुए। प्रमत्त, अप्रमत्त संयत और अपूर्वकरण गुणस्थान में आठ, आठ और चार चौबीसी तथा ७ उपयोग हैं, अतः ८++४=२० को सात से गुणा कर देने पर १४० हुए तथा इन सबका जोड़ ६०+२०+६६+१४० =३१६ हुआ। इनमें से प्रत्येक चौबीसी में २४, २४ भंग होते हैं अत: इन ३१६ को २४ से गुणित कर देने पर कुल ३१६ ४२४ =७५८४ होते हैं तथा दो प्रकृतिक उदयस्थान
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२६६
सप्ततिका प्रकरण में १२ भंग और एक प्रकृतिक उदयस्थान में ५ भंग होते हैं, जिनका कुल जोड़ १७ हुआ। इन्हें वहाँ संभव उपयोगों की संख्या ७ से गुणित कर देने पर ११९ होते हैं। जिनको पूर्व राशि में मिला देने पर कुल भंग ७७०३ होते हैं । कहा भी है---
जपपागुनोगेस सगसरिसमा तिक्त्तर होति ।। अर्थात्-मोहनीय के उदयस्थान विकल्पों को वहां संभव उपयोगों से गुणित करने पर उनका कुल प्रमाण ७७०३ होता है।
किन्तु मिश्र गुणस्थान में उपयोगों के बारे में एक मत यह भी है कि सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थान में पांच के बजाय अवधि दर्शन सहित छह उपयोग पाये जाते हैं। अत: इस मत को स्वीकार करने पर मिन गुणस्थान की ४ चौबीसी को ६ से गुणित करने से २४ होते हैं और इन २४ को २४ से गुणित करने पर ५७६ होते हैं अर्थात् इस गुणस्थान में ४८० की बजाय ६६ भंग और बढ़ जाते हैं । अत: पूर्व बताये गये 199०३ भंगों में ६६ को जोड़ने पर कुल भंगों की संख्या ७७६६ प्राप्त होती है। इस प्रकार ये उपयोग-गुणित उदयस्थान भंग जानना चाहिये।
उपयोगों की अपेक्षा उदयविकल्पों का विवरण इस प्रकार है
गुणस्पान
उपयोग
गुणकार | गुणनफल (उदयविकल्प)
मिथ्यात्व
५४२४
६६०
४४२४
सासादन मित्र
१ पंससंग्रह सप्ततिका, गा० ११८ । २ गोल कर्मकांड गा० ४६२ और ४६३ में उपयोगों की अपेक्षा उदयस्थान
७७६६, और पदवृन्द ५१०८३ बतलाये हैं।'
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
EX२४
११५२ ११५२
x२४
८४२४
१३४४
अविरत देशविरत प्रमत्तविरत अप्रमत्तविरत अपूर्वकरण अनिवृतिवादर
१३४४
८४२४ ४४२४
सूक्ष्म संपराय
७७०३ उदयविकल्प
विशेष-जब दूसरे मत के अनुसार मिथ गुणस्थान में अबधिदर्शन सहित छह उपयोग होते हैं तब इसकी अपेक्षा प्राप्त हुए ६६ भंगों को ७७०३ भंगों में मिला देने पर कुल उदयविकल्प ७७६६ होते हैं । ____ इस प्रकार से उपयोगों की अपेक्षा उदयविकल्पों को बतलाने के बाद अब उपयोगों से गुणित करने पर प्राप्त पदवृन्दों के प्रमाण को बतलाते हैं।
पूर्व में भाष्य गाथा 'अट्ठी बत्तीसं ......' में गुणस्थानों में उदयस्थान पदों का संकेत किया जा चुका है। तदनुसार मिथ्यात्व में ६८, सासादन में ३२ और मिश्र गुणस्थान में ३२ उदयस्थान पद हैं, जिनका जोड़ १३२ होता है। इन्हें इन गुणस्थानों में सम्भव ५ उपयोगों से गुणित करने पर १३२४५=६६० हुए। अविरत सम्यग्दृष्टि में ६० और देशविरत में ५२ उदयस्थान पद हैं । जिनका जोड़ ११२ होता है, इन्हें यहां संभव ६ उपयोगों से मुणित करने पर ६७२ हुए । प्रमत्तसंयत
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सप्ततिका प्रकरण
२६८
में ४४, अप्रमत्तसंयत में ४४ और अपूर्वकरण में २० उदयस्थान पद हैं। इनका कुल जोड़ ४४+४४ + २० = १०८ होता है। इन्हें यहाँ संभव ७ उपयोगों से गुणित करने पर ७५६ हुए। इस प्रकार पहले से लेकर आठवे गुणस्थान तक के सब उदयस्थान पदों का जोड़ ६६० + ६७२ + ७५६ = २००८ हुआ । इन्हें भंगों की अपेक्षा २४ से गुणित कर देने पर आठ गुणस्थानों के कुल पदवन्दों का प्रमाण २०८८x२४ = ५०११२ होता है । अनन्तर दो प्रकृतिक उदयस्थान के पदवृन्द २४ और एक प्रकृतिक उदयस्थान के पद ५, इनका जोड़ २६ हुआ । सो इन २६ को यहाँ संभव ७ उपयोगों के दुक्ति करके १२०३ और प्राप्त हुए। जिन्हें पूर्वोक्त ५०११२ पदवृन्दों में मिला देने पर कुल पदवृन्दों का प्रमाण ५०३१५ होता है कहा भी है
पश्नासं च सहस्सा तिम्ति सथा चेव पन्नारा
अर्थात् - मोहनीय के पदवृन्दों को यहाँ संभव उपयोगों से गुणित करने पर उनका कुल प्रमाण पचास हजार तीनसौ पन्द्रह ५०३१५ होता है।
उक्त पदवृन्दों की संख्या मिश्र गुणस्थान में पांच उपयोग मानने की अपेक्षा जानना चाहिये। लेकिन जब मतान्तर से पांच की बजाय ६ उपयोग स्वीकार किये जाते हैं तब इन पदवृन्दों में एक अधिक उपयोग के पदवृन्द १३२४२४ = ७६८ भंग और बढ़ जाते हैं और कुल पदवृन्दों की संख्या ५०३१५ की बजाय ५१०८३ हो जाती है ।
उपयोगों की अपेक्षा पदवृन्दों का विवरण इस प्रकार जानना चाहिये
१ पंचसंग्रह सप्ततिका ग्रा० ११५ ।
My
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षष्ठ कर्मग्रन्य
गुणस्थान
| उपयोग
उदयपद
गुणकार | गुणनफल (पदवृन्द)
मिथ्यात्व
८१६०
सासादन
मिथ
३८४०
अधिरत
देशविरत प्रमसविरत अप्रमसविरत अपूर्वकरण अनिवृत्तिबादर
३३६०
सूक्ष्मसंपराय
५०३१५ पदवृन्द
इसमें मिश्र मुणस्थान संबंधी अवधिदर्शन के ७६८ भंगों को और मिला दिया जाये तो उस अपेक्षा से कुल पदवृन्द ५१०८३ होते है।
इस प्रकार से उपयोगों की अपेक्षा उदयस्थान पदवृन्दों का वर्णन करने के बाद अब लेश्याओं की अपेक्षा उदयस्थान विकल्पों और पदवृन्दों का विचार करते हैं। पहले उदयस्थान विकल्पों को बतलाते हैं।
मिथ्यात्व से लेकर अविरत सम्यग्दृष्टि, इन चार गुणस्थानों तक प्रत्येक स्थान में छहों लेश्यायें होती हैं । देशविरत, प्रमत्तसंयत और
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३००
सप्ततिका प्रकरण
अप्रमत्तसंयत, इन तीन गुणस्थानों में तेजोलेश्या आदि तीन शुभ लेश्या हैं और अपूर्वकरण आदि आगे के गुणस्थानों में एक शुक्ललेश्या होती है।
मिथ्यात्व आदि गणस्थानों में से प्रत्येक में प्राप्त चौबीसी पहले बतलाई जा चुकी है। इसलिये तदनुसार मिथ्यात्व में ८, सासादन में ४ और मित्र में ४ तथा अविरत सम्बन्हाट में 4 चौबासी हुई । इनका कुल जोड़ २४ हुआ। इन्हें ६ से गुणित कर देने पर २४४६=१४४ हुए। देशविरत में ८, प्रमत्तविरत में ८ और अप्रमत्तविरत में ८ चौबीसी हैं। जिनका कुल जोड़ २४ हुआ । इन तीन गणस्थानों में तीन शुभ लेश्यायें होने के कारण २४४ ३=७२ होते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान में ४ चौबीसी हैं, लेकिन यहाँ सिर्फ एक शुक्ल लेश्या होने से सिर्फ ४ ही प्राप्त होते हैं । उक्त आठ गुणस्थानों की कुल संख्या का जोड़ १४४-१-७२-|-४ =२२० हुआ। इन्हें २४ से गुणित कर देने पर आठ गुणस्थानों के कुल उदयस्थान विकल्प २२०४२४ = ५२८० होते हैं । अनन्तर इनमें दो प्रकृतिक उदयस्थान के १२ और एक प्रकृतिक उदयस्थान के ५ इस प्रकार १७ मंगों को और मिला देने पर कुल उदयस्थान विकल्प ५२८० +१७=५२६७ होते हैं। ये ५२६७ लेश्याओं की अपेक्षा उदयस्थान विकल्प जानना चाहिये ।
इन उदयस्थान विकल्पों का विवरण क्रमशः इस प्रकार है
गुणस्थान
लेश्या
गुणकार
गुणनफल (उदयविकल्प)
मिथ्यात्व
EX२४
११५२
सासादन
४४२४ ४४२४
मिन
५७६ ११५२
अविरत
EX२४
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३०१
देशविरत
८४२४
५७६
८४२४
५७६
८x२४
प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण
४X२४
सूक्ष्मसंपराय
अब लेश्याओं की अपेक्षा पदवन्द बतलाते हैं :मिथ्यात्व के ६८, सासादन के ३२, मिथ के ३२ और अविरत सम्यग्दृष्टि के ६० पदों का जोड़ ६८+३२+३२+६० = १६२ हुआ । इन्हें यहाँ संभव ६ लेश्याओं से गुणित कर देने पर ११५२ होते हैं। सो देशविरत के ५२, प्रमत्तविरत के ४४ और अप्रमत्तविरत के ४४ पदों का जोड़ १४० हुआ। इन्हें इन तीन गुणस्थानों में संभव ३ लेण्याओं से गुणित कर देने पर ४२० होते हैं तथा अपूर्वकरण में पद २० हैं, किन्तु यहाँ एक ही लेश्या है अतः इसका प्रमाण २० हुआ । इन सबका जोड़ ११५२+४२०+२०८१५६२ हुआ । इन १५६२ को भंगों की अपेक्षा २४ से गुणित कर देने पर आठ गुणस्थानों के कुल पदवृन्द ३८२०८ होते हैं । अनन्तर इनमें दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक पदवृन्द २६ और मिला देने पर कुल पदवृन्द ३८२३७ होते हैं । कहा भी है
तिगहीणा सेषग्ना सपा य उदयाण होति लेसाणं । अस्तीस साहस्साई पपाण सय दो संगतीसा॥
१ पंचसंग्रह सप्ततिका गा० ११७
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सप्ततिका प्रकरण
अर्थात् - मोहनीय कर्म के उदयस्थान और पदवृन्दों को लेश्याओं से गुणित करने पर उनका कुल प्रमाण कम से ५२६७ और ३८२३७१ होता है।
लेश्याओं की अपेक्षा पदवृन्दों का विवरण इस प्रकार जानना
चाहिये
३०२
गुणस्थान
मिथ्यात्व
सासादन
मिश्र
अविरत
देशविरत
प्रमत्तसंयत
अप्रमत्तसंयत
अपूर्वकरण
अनिवृत्तिवादर
सूक्ष्मसंपराय
लेश्या उदयपद
६
६
६
६
३
३
१
१
१
१
६क्ष
4
३२
३२
६०
५२
४४
४४
२०
१
१
गुणकार
२४
૨૪
१४
२४
૨૪
२४
૪
२४
१२
४
१.
१ गो० कर्मकांड गा० ५०४ और
विकल्प ५२६७ और पदवृन्द ३८२३७ बतलाये हैं ।
गुणनफल ( पदवृन्द)
६७९२
४६०८
४६०८
६४०
३७४४
३१६८
३१६८
४५०
૪
३८२३७ पदवृन्द
५०५ में भी लेश्याओं को अपेक्षा उदम
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३०३
इस प्रकार मोहनीयकर्म के प्रत्येक गुणस्थान सम्बन्धी उदयस्थान विकल्प और पदवृन्दों तथा वहाँ सम्भव योग, उपयोग और लेश्याओं से गुणित करने पर उनके प्राप्त प्रमाण को बतलाने के बाद अब संवेध भकों का कथन करने के लिये सत्तास्थानों का विचार करते हैं ।
गुणस्थानों में मोहनीयकर्म के संवेध भङ्ग
तिण्णेगे एगेगं तिग मोसे पंच चउसु नियट्टिए' तिनि । एक्कार बायरम्मी सुहमे चउ तिनि उवसंते ॥ ४८ ॥
·
I
शब्दार्थ- सिण- तीन सत्तास्थान एगे - एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में एगे एक में ( सासादन में ), एवं एक, तिग-तीन, मोसे मिश्र में पंच-पांच, चउसु — अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान आदि चार में निपट्टए- अपूर्व ५. रण में तिन्नि-तीन एवकार-ग्यारह, बायरम्मी – अनिलवादर में सुसूक्ष्मसपराय में, चच-चार, तिग्नि तीन, उबसंते, उपशान्त मोह में ।
.
-
गाथार्थ -- मोहनीयक मं के मिथ्यात्व गुणस्थान में तीन, सासादन में एक, मिश्र में तीन, अविरत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में से प्रत्येक में पांच-पांच, अपूर्वकरण में तीन, अनिवृत्तिवादर में ग्यारह सूक्ष्मसंपराय में चार और उपशान्तमोह में तीन सत्तास्थान होते हैं ।
विशेषार्थ - - गाथा में मोहनीय कर्म के गुणस्थानों में सत्तास्थान वतलाये हैं । प्रत्येक गुणस्थान में मोहनीयामं के मत्तास्थानों के
१ अन्य प्रतियों में, 'चउसु तिगःपुब्वै' यह पाठ देखने में आता है। उक्त पाठ समीचीन प्रतीत होता है, किन्तु टीकाकार ने 'नियट्टिए तिशि' इस पाठ का अनुसरण करके टीका की है, अतः यहाँ भी यही 'नियट्टिए तिनि' पाठ रखा है |
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३०४
सप्ततिका प्रकरण
होने के कारण का विचार पहले किया जा चुका है। अत: यहाँ संकेत मात्र करते हैं कि-'तिण्णेगे'- अर्थात पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में २८, २७ और २६ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान हैं तथा 'एगेगं' दूसरे सासादन गुणस्थान में सिर्फ एक २८ प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है। मिश्र गुणस्थान में २८, २७ और २४ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान हैं-'लिग मीसे'। इसके बाद चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सातवें अपमनगन गुणस्थान तल चरगुगस्थानों में से रोक में २८, २४, २३, २२ और २१ प्रकृतिक, ये पांच-पांच सत्तास्थान हैं। आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में २८, २४ और २१ प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान हैं। नौवें गुणस्थान-अनिवृत्तिबादर में २८, २४, २१, १३, १२, ११, ५, ४,३,२ और १ प्रकृतिक, ये ग्यारह सत्तास्थान हैं--'एक्कार बाय रम्मी' । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में २८, २४, २१ और १ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान हैं तथा "तिग्नि उपसंते' उपशांतमोह गुणास्थान में २८, २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं।'
इस प्रकार से गुणस्थानों में मोहनीयकम के सत्तास्थानों को बतलाने के बाद अब प्रसंगानुसार संवेध भङ्गों का विचार करते हैं
१ तिणेगे एगेगं दो मिस्से चदुसु पण णियट्टीए । तिणि प थूलेयार सुहमे बसारि तिष्णि उवसते ।।
--गो० कर्मकांड गा० ५०६ मोहनीयकम के मिथ्याष्टि गुणस्थान में ३, सासाचन' में १, मिश्र में २, अविरत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में पांच-पांच, अपूर्वकरण में ३, अनि वृतिवादर में ११, सूक्ष्मसंपागय में ४ और उपशाम्तमोह में ३ सत्तास्थान है।
विशेष-कर्मग्रन्थ में मिश्च गुणस्थान के ३ और गो० कर्मकांड में २ सत्तास्थान बतलाये हैं।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३०५ मिथ्यात्व गुणस्थान में २२ प्रकृतिक बंधस्थान और ७,८,९ और और १० प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान होते हैं । इनमें से ७ प्रकृतिक उदयस्थान में एक २८ प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है किन्तु शेष तीन , है और १० प्रकृतिक उदयस्थानों में २८, २७ और २६ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान संभव हैं। इस प्रकार मिथ्याइष्टि गुणस्थान में कुल सत्तास्थान १० हुए--१+३४३-१० ।
सासादन गुणस्थान में २१ प्रकृतिक बंधस्थान और ७, ८, ९ प्रकृतिक, ये तीन उदयस्थान रहते हुए प्रत्येक में २८ प्रकृतिक सत्तास्थान हैं । इस प्रकार यहाँ तीन सत्तास्थान हुए।
मिश्र गुणस्थान में १७ प्रकृतिक बंधस्थान तथा ७, ८ और है प्रकृतिक, इन तीन उदयस्थानों के रहते हुए प्रत्येक में २८, २७ और २४ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं। अत: यहाँ कुल ६ सत्तास्थान हुए।
अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में एक १७ प्रकृतिक बंधस्थान तथा ६, ७, ८ और १ प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान होते हैं और इनमें से ६ प्रकृतिक उदयस्थान में तो २८, २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं तथा ७ और 5 में से प्रत्येक उदयस्थान में २८,२४, २३. २२ और २१ प्रकृतिक, ये पांच-पांच सत्तास्थान हैं। प्रकृतिक उदयस्थान में २८, २४, २३ और २२ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार यहाँ कुल १७ सत्तास्थान हुए।
देशविरत गुणस्थान में १३ प्रकृतिक बंधस्थान तथा ५, ६, ७ और ६ प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान हैं। इनमें से ५ प्रकृतिक उदयस्थान में तो २८, २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान तथा ६ और ७ प्रकृतिक उदयस्थानों में से प्रत्येक में २८, २४, २३, २२ और २१ प्रकृतिक, ये पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं तथा ८ प्रकृतिक उदयस्थान
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३०६
सप्ततिका प्रकरण
में २५, २४ २३ और २२ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान है। इस प्रकार यहाँ कुल १७ सत्तास्थान होते हैं ।
C
प्रमत्त विरत गुणस्थान में प्रकृतिक बंधस्थान तथा ४, ५, ६ और ७ प्रकृतिक, ये चार उदयस्थान हैं। इनमें से ४ प्रकृतिक उदयस्थान में २८, २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं । ५ और ६ प्रकृतिक उदयस्थानों में से प्रत्येक में २५, २४, २३. २२ और २१ प्रकृ तिक ये पांच-पांच सत्तास्थान हैं तथा ७ प्रकृतिक उदयस्थान में २८, २४, २३ और २२ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान हैं। इस प्रकार यहाँ कुल १७ सत्तास्थान होते हैं ।
अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में पूर्वोक्त प्रमत्तसंयत गुणस्थान की तरह १७ सत्तास्थान जानना चाहिये ।
अपूर्वकरण गुणस्थान में & प्रकृतिक बंधस्थान और ४, ५ तथा ६ प्रकृतिक उदयस्थान तथा इन तीन उदवस्थानों में से प्रत्येक में २५, २४ और २१ प्रकृतिक ये तीन-तीन सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार यहाँ कुल ६ सत्तास्थान होते हैं ।
५
अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में ५, ४, ३, २ और १ प्रकृतिक, ये पाँच बंधस्थान तथा २ और १ प्रकृतिक, ये दो उदयस्थान हैं। इनमें से प्र प्रकृतिक बंधस्थान और २ प्रकृतिक उदवस्थान के रहते हुए २८, २४, २१, १३, १२ और ११ प्रकृतिक, ये छह सत्तास्थान होते हैं । ४ प्रकृतिक बंस्थान और १ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते २८, २४, २१. ११, और ४ प्रकृतिक, ये छह सत्तास्थान हैं । ३ प्रकृतिक बंधस्थान और प्रकृतिक उदयस्थान के रहते २८, २४, २१, ४ और ३ प्रकृतिक, ये पांच सत्तास्थान हैं । २ प्रकृतिक बंधस्थान और १ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते २५, २४, २१, ३ और २ प्रकृतिक, ये पांच सत्तास्थान होते हैं और १ प्रकृतिक बंधस्थान व १ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते हुए २८ २४,
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३०७
२१. २ और १ प्रकृतिक, ये पांच सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार यहाँ कुल २७ सत्तास्थान हुए।
सूक्ष्म संप राय गुणस्थान में बंध के अभाव में एक प्रकृतिक उदयस्थान तथा २८, २४, २१ और १ प्रकृतिक, ये बार सत्तास्थान होते हैं तथा उपशान्तमोह गुणस्थान में बंच और उदय के बिना २८ २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं ।
किस बंधस्थान और उदयस्थान के रहते हुए कितने सत्तास्थान होते हैं, इसका विशेष विवेचन ओघ प्ररूपणा के प्रसंग में किया जा चुका है, अतः वहां से जानना चाहिये ।
इस प्रकार से अब तक नामकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों के बंध आदि स्थानों का गुणस्थानों में निर्देश किया जा चुका है। अब नामकर्म के संवेध भंगों का विचार करते हैं ।
गुणस्थानों में नामकर्म के संबंध मंग
gora aai तिग सत्त दुगं दुर्गा तिग दुर्गा लियट्टु चक्र | दुग छ च्चउ दुग पण चउ दउ दुग चउ पणम एग चऊ ॥ ४६ एगेगम एगेगमट्ट छउमत्थकेवलिजिणाणं ।
एग चऊ एग चक्र अष्टु चज दु छक्कमुदयंसा ॥ ५० ॥
१ तुलना कीजिये
ma
छण्णवत्तियसगगि दुर्गातिगदुग तिणिअवतार दुगदुगचदु दुगवणचदु चदुरेयचदू पर्णयचदृ || एगेगभट्ट एगेन मट्ट एगचदुरेगवदूरो दोष
घटुभट्ट केवलिजिणं । दaas उसा || -गो० कर्मकोट भा० ६६३. ६६४
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सप्ततिका प्रकरण
शम्बार्थ-छण्णव छवकं-छह, नौ और छह, सिंग सत्त सुगंसोन, सात और दो, दुग तिग धुगं-दो, तीन और दो, तिगढ़ सकतीन, आठ और चार, दुग छ उच-दो, छह और चार, दुग पण
-दो, पांव और चार, NPA पर.-नार, को और चार, पणग एग च-पांच, एक और चार ।
एगेगम-एक, एक और आठ, एगेगमट्ट-एक, एक और आठ, उमस्य-छमस्थ (उपशान्तमोह, क्षीणमोह) केवलिजिमाणकेवलि बिन (सयोगि और अयोगि केवली) को अनुकम से, एग घऊ.. एक और चार, एग पक--एक और चार, अट्ट चउ-आठ और चार,
छक्क-दो और छह, उदयंसा--उदय और सत्ता स्थान ।
गाथा-छह, नौ, छह; तीन, सात और दो; दो, तीन और दो; तीन, आठ और चार; दो, छह और चार; दो, पांच और चारचार, दो और चार: पांच, एक और चार; तथा
एक, एक और आठ; एक, एक और आठ; इस प्रकार अनुक्रम से बंध, उदय और सत्तास्थान आदि के दस गुणस्थानों में होते हैं तथा छद्मस्थ जिन (११ और १२ गुणस्थान) में तथा केवली जिन (१३, १४, गुणस्थान) में अनुक्रम से एक, चार और एक, चार तथा आठ और चार; दो और छह उदय व सत्तास्थान होते हैं। जिनका विवरण इस प्रकार है
(ोष पृ० ३०७ का)
कर्मग्रन्थ से गो० कर्मकांड में इन गुणस्थानों के भंग भिन्न बतलावे हैं। सासादन में ३-७-६, देशबिरत में २-२-४ अप्रमत्तविरत में ४-१-४ सयोगि फेबली में २-४ ।
कर्मग्रन्थ में उक्त गुणस्थानों के मंग इस प्रकार हैं-सासादन में ३-७२, देशविरत में २-६-४, अप्रमत्तविरत में ४-२-४, सयोगिकेवली में -४ ।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
गणस्थान
बन्धस्थान
उदयस्थान | सत्तास्थान
१. मिथ्यात्व
२.. सासादन
३. मिश्च ४. अविरत
देशविरत
प्रमत्तविरत ७. अप्रमत्तविरत
अपूर्वकरण ६. अनिवृत्तिकरण १७. सूक्ष्मसंपराय ११ उपशान्तमोह १२. क्षीणमोह १३. सयोगिकेवानी १४. अयोगिकेवली
विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में गुणस्थानों में नामकर्म के बंध, उदय और सत्ता स्थानों को बतलाया है । (१) मिष्याष्टि गुणस्थान
पहले मिथ्याष्टि गुणस्थान में नामकर्म के बंधस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान क्रम से छह, नौ और छह हैं-'छण्णव छक्कं' | जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
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३१०
सप्ततिका प्रकरण
२३. २५, २६, २६, २६ और ३० प्रकृतिक, ये छह अंधस्थान हैं। इनमें से २३ प्रकृतिकः बंधस्थान अपर्याप्त एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले जीव को होता है। इसके बादर और सूक्ष्म तथा प्रत्येक और साधारण के विकल्प से चार भंग होते हैं। २५ प्रकृतिक बंधस्थान पर्याप्त एकन्द्रिय तथा अपयांप्त हन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुस्य गति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने बाले जीवों के होता है। इनमें से पर्याप्त एकन्द्रिय के योग्य बंध होते
भय २० भंग होते हैं तथा शेष अपर्याप्त द्वीन्द्रिय आदि की अपेक्षा एक-एक अंग होता है। इस प्रकार २५ प्रकृतिक बंधस्थान के कुल भंग २५ हुए।
२६ प्रकृतिक बंधस्थान पर्याप्त एकेन्द्रिय के योग्य बंध करने वाले जीव के होता है। इसके १६ भंग होते हैं तथा २८ प्रकृतिक बंधस्थान देवगति या नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले जीव के होता है। इनमें से देवमति के योग्य २८ प्रकृतियों का बंध होते समय तो भंग होते हैं और नरक गति के योग्य प्रकृतियों का बंध होते समय १ भंग होता है । इस प्रकार २८ प्रक्रतिक बंधस्थान के ह भंग हैं।
२६ प्रकृतिक बंधस्थान पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य गति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के होता है। इनमें से पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और जतुरिन्द्रिय के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध होते समय प्रत्येक के आठ आठ भंग होते हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रिय के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध होते समय ४६०८ भंग तथा मनुष्य गति के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध होते समय भी ४६०५ भंग होते हैं। इस प्रकार २६ प्रकृतिक बंधस्थान के कुल ४० मंगा होते हैं।
तीर्थकर प्रकृति के साथ देवगति के योग्य २६ प्रकृतिक बंधस्थान मिथ्या दृष्टि के नहीं होता है, क्योंकि तीर्थकर प्रकृति का बंध सम्यक्त्व
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षा कर्मग्रन्थ
३११ के निमित्त से होता है अतः यहाँ देवगति के योग्य २६ प्रकृतिक बंधस्थान नहीं कहा है। ___ ३० प्रति बंधस्था १ मि मिचिए, चारिदिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के होता है। इनमें से पर्याप्त द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के योग्य ३० प्रवृत्तियों का बंध होते समय प्रत्येक के आठ-आठ भंग होते हैं तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के योग्य ३० प्रकृतियों का बंध होते समय ४६.०८ भंग होते हैं । इस प्रकार ३० प्रवृतिक बंधस्थान के कुल भंग ४६३२ होते हैं ।
यद्यपि तीर्थकर प्रकृति के साथ मनुष्यगति के योग्य और आहारकद्विक के साथ देवगति के योग्य ३० प्रकृतियों का बंध होता है किन्तु ये दोनों ही स्थान मिथ्या दृष्टि के सम्भव नहीं होते हैं, क्योंकि तीर्थक र प्रकृति का बंध सम्यक्त्व के निमित्त से और आहारकद्विक का बंध संयम के निमित्त से होता है। कहा भी है
सम्मत्तगुणनिमित्त तित्ययर संजमेण आहारं । अर्थात्-तीर्थंकर का बंध सम्यक्त्व के निमित्त से और आहारकद्विक का बंध संयम के निमित्त से होता है । इसीलिये यहाँ मनुष्यगति और देवगति के योग्य ३० प्रकृतिक बंधस्थान नहीं कहा है।
पूर्वोक्त प्रकार से अन्तर्भाष्य माथा में भी मिथ्यादृष्टि के २३ प्रकृतिक आदि बंधस्थानों के भंग बतलाये हैं। भाष्य को गाथा इस प्रकार है
चन पणवीसा सोलस नव पत्ताला सया य वाणउया । बत्तीसुत्तरछायालसपा मिच्छस्स बम्धविहो ॥
१ या तु देवगतिप्रायोग्या तीर्थकरनामसहिता एकोनत्रिशत सा मिथ्यादृष्टेनं बन्धमायाति, तीर्थकरनाम्नः सम्यक्त्यप्रत्ययवाद मिथ्यारण्टेश्च सदमावात् ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २२३
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३१२
सप्ततिका प्रकरण
अर्थात् मिथ्याष्टि . जीम के जो २१, ५.२६, ४ . और ३: प्रकृतिक बंघस्थान हैं, उनके क्रमशः ४, २५, १६, ६, ६२४० और ४६३२ भंग होते हैं।
मिथ्यावृष्टि जीव के ३१ और १ प्रकृतिक बंघस्थान सम्भव नहीं होने से उनका यहाँ विचार नहीं किया गया है।
इस प्रकार से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के छह बंधस्थानों का कथन किया गया। अब उदयस्थानों का निर्देश करते हैं कि २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये नौ उदयस्थान हैं । नाना जीवों की अपेक्षा इनका पहले विस्तार से वर्णन किया जा चुका है, अतः उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि यहाँ आहारकसंयत, वैक्रियसंयत और केबली संबंधी भंग नहीं कहना चाहिये, क्योंकि ये मिथ्याइष्टि जीव नहीं होते हैं । मिथ्याहृष्टि गुणस्थान में इन उदयस्थानों के सब भंग ७७७३ हैं। वे इस प्रकार हैं कि २१ प्रकृतिक उदयस्थान के ४१ भंग होते हैं। एकेन्द्रियों के ५, विकलेन्द्रियों के ६, तिर्यंच पंचेन्द्रियों के ६. मनुष्यों के ६, देवों के ८
और नारकों का १ । इनका कुल जोड़ ४१ होता है। २४ प्रकृतिक उदयस्थान के ११ भंग हैं जो एकेन्द्रियों में पाये जाते हैं, अन्यत्र २४ प्रकृतिक उदयस्थान संभव नहीं हैं। २५ प्रकृतिक उदयस्थान के ३२ भंग होते हैं-एकेन्द्रिय के ७, वैक्रिय तिथंच पंचेन्द्रियों के , वैक्रिय मनुष्यों के ८, देवों के 5 और नारकों का १। इनका कुल जोड़ ७+++++१=३२ होता है । २६ प्रकृतिक उदयस्थान के ६०० भंग होते है-एके न्द्रियों के १३, विकलेन्द्रियों के र, तिर्यंच पंचेन्द्रियों के २८६ और मनुष्यों के भी २८६ । इनका जोड़ १३+६+२८६+ २८९= ६०० है । २७ प्रकृतिक उदयस्थान के ३१ भंग हैं--एकेन्द्रियों के ६, वैक्रिय तियंच पंचेन्द्रिय के ८, वैक्रिय मनुष्यों के ८, देवों के ८ और नारकों का १ । २८ प्रकृतिक उदयस्थान के ११९६ भंग हैं
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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विकलेन्द्रियों के ६, तियंच पंचेन्द्रियों के ५७६, वेक्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय के १६, मनुष्यों के ५७६, वैक्रिय मनुष्यों के ८, देवों के १६ और नारकों का १ । कुल मिलाकर ये भंग ६ + ५७६+१६+४७६+८+१६+१= ११६६ होते हैं । २६ प्रकृतिक उदयस्थान के १७८१ भंग हैंविकलेन्द्रियों के १२ तिर्यंच पंचेन्द्रियों के ११५२, वैक्रिय तियंच पंचेन्द्रियों के १६, मनुष्यों के ५७६, वैक्रिय मनुष्यों के म, देवों के १६, और नारकों का १ । कुल मिलाकर ये सब भंग १७८१ होते हैं । ३० प्रकृतिक उदयस्थान के २६१४ भंग है-- विकलेन्द्रियों के १८ तिर्यंच पंचेन्द्रियों के १७२८, वैकिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय के मनुष्यों के ११५२, देवों के ८। इनका जोड़ १८ - १७२८+८+११५२ + ८ २६१४ होता है । ३१ प्रकृतिक उदयस्थान के भंग १९६४ होते हैं - विकलेन्द्रियों के १२. तिर्यच पंचेन्द्रियों के ११५२ जो कुल मिलाकर ११६४ होते हैं ।
इस प्रकार मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में २१, २४, २५, २६, २७, २८, २६, ३० और ३१ प्रकृतिक, यह नौ उदयस्थान हैं और उनके क्रमशः ४१, ११,३२,६००, ३१. ११६६, १७८१ २६१४ और ११६४ भंग हैं । इन भंगों का कुल जोड़ ७७७३ है । वैसे तो इन उदयस्थानों के कुल भंग ७७६१ होते हैं लेकिन इनमें से केवली के प आहारक साधु के ७, और उद्योत सहित वैकिय मनुष्य के ३ इन १८ भंगों को कम कर देने पर ७७७३ भंग ही प्राप्त होते हैं।
मिध्यादृष्टि गुणस्थान में छह सत्तास्थान हैं। जो ६२, ८६ ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक हैं । मिथ्यात्व गुणस्थान में आहारक-चतुष्क और तीर्थंकर नाम की सत्ता एक साथ नहीं होती है, जिससे ९३ प्रकृतिक सत्तास्थान यह नहीं बताया है । ६२ प्रकृतिक सत्तास्थान चारों गति के मिध्यादृष्टि जीवों के संभव है, क्योंकि आहारकचतुष्क की
सत्ता वाला किसी भी गति में उत्पन्न होता है । ८१ प्रकृतिक सत्तास्थान सबके नहीं होता है किन्तु जो नरकायु का बंध करने के पश्चात् वेदक
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३१६
सप्ततिका प्रकरण
सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थकर प्रकृति का बंध करता है और अंत समय में मिथ्यात्व को प्राप्त होकर नरक में जाता है उसी मिथ्यात्वी के अन्तर्मुहर्त काल तक मिथ्यात्व में ८९ प्रकृतियों की सत्ता होती है। ८८ प्रकृतियों की सत्ता चारों गतियों के मिथ्याष्टि जीवों के संभव है गोंकि बात मिसष्टि नीदों के प्रकृतियों की सत्ता होने में कोई बाधा नहीं है। ८६ और ८० प्रकृतियों की सत्ता उन एकेन्द्रिय जीवों के होती है जिन्होंने यथायोग्य देवगति मा नरकगति के योग्य प्रकृतियों की उद्वलना की है तथा ये जीव जब एकेन्द्रिय पर्याय से निकलकर विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं तब इनके भी सब पर्याप्तियों के पर्याप्त होने के अनन्तर अंतर्महुर्त वाल तक ८६ और २० प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है । किन्तु इसके आगे वैक्रिय शरीर आदि का बंध होने के कारण इन स्थानों की सत्ता नहीं रहती है। ७८ प्रकृतियों की सत्ता उन अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के होती है जिन्होंने मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी की उबलना करदी है तथा जब ये जीव मरकर विकलेन्द्रिय और तियंच पंचेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होते हैं तब इनके भी अन्तर्मुहूर्त काल तक ७८ प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है । इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान में १२, ८६, ८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक, ये छह सत्तास्थान जानना चाहिये।
अब सामान्य से मिथ्या दृष्टि गुणस्थान में बंध, उदय और सत्ता स्थानों का कथन करने के बाद उनके संवेघ का विचार करते हैं।
२३ प्रकृत्तियों का बंध करने वाले मिथ्याष्टि जीव के पूर्वोक्त नौ उदयस्थान संभव हैं। किन्तु २१, २५, २७, २८, २९ और ३० प्रकृतिक, इन ६ उदयस्थानों में देव और नारका संबंधी जो भंग हैं, वे यहाँ नहीं पाये जाते हैं । क्योंकि २३ प्रकृतिक बधस्थान में अपर्याप्त एकेन्द्रियों के योग्य प्रकृतियों का बंध होता है परन्तु देव अपर्याप्त एकेन्द्रियों के
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षष्ठ वर्मग्रन्थ
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योग्य प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं, क्योंकि देव अपर्याप्त एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इसी प्रकार नारक भी २३ प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं, क्योंकि नारकों के सामान्य से ही एकेन्द्रियों के योग्य प्रवृत्तियों का बंध नहीं होता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि २३ प्रकृतिक बंधस्थान में देव और नारकों के उदयस्थान संबंधी भंग प्राप्त नहीं होते हैं तथा यहाँ ६२, ६८, ८६, ८० और ७ प्रकृतिक ये पांच सत्तास्थान होते हैं । २१, २४, २५ और २६ प्रकृतिक इन चार उदयस्थानों मैं उक्ता पाँचों ही सत्तास्थान होते हैं तथा २७, २८, २९. ३७ और ३१ प्रकृतिक, इन पांच उदयस्थानों में ७८ के बिना पुर्वोक्त चार-चार सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार यहाँ सब दयस्थानों की अपेक्षा कुल ४० सत्तास्थान होते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि २५ प्रक्रातिक उदयस्थान में ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान अग्निकायिक और वायु कायिक जीवों के ही होते हैं तथा २६ प्रकृतिक उदयस्थान में ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के भी होता है और जो अग्निकायिक तथा वायुकायिक जीव मरकर विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, इनके भी कुछ काल तवा होता है ।
२५ और २६ प्रकृतिक बंधस्थानों में भी पूर्वोक्त प्रकार कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि देव भी अपने सब उदयस्थानों में रहते हुए पर्याप्त एकेन्द्रिय के योग्य २५ और २६ प्रकृतिक स्थानों का बंध करता है। परन्तु इसके २५ प्रकृतिक बंधस्थान के बादर, पर्याप्त और प्रत्येक प्रायोग्य आठ ही भंग होते हैं, शेष १२ भंग नहीं होते हैं। क्योंकि देव सुक्ष्म, साधारण और अपर्याप्तकों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इससे उसके इनके योग्य प्रकुतियों का बंध भी नहीं होता है। पूर्वोक्त प्रकार से यहाँ भी चालीस-चालीस सत्तास्थान होते हैं ।
२८ प्रकृतियों का बंध करने वाले मिथ्या दृष्टि के ३० और ३१ प्रकृतिक, ये दो उदयस्थान होते हैं । इनमें से ३० प्रकृतिक उदयस्थान
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३१६
सप्ततिका प्रकरण तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों. दोनों के होता है और प्रकृतिक उदयस्थान तिथंच पंचेन्द्रिय जीवों के ही होता है। इसके ६२, ८६, ८८ और ८६ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान होते हैं। इनमें से ३० प्रकृतिक उदयस्थान में चारों सत्तास्थान होते हैं। उसमें भी ६ प्रकृतिक सत्तास्थान उसी के जानना चाहिये जिसके तीर्थकर प्रकृति को सत्ता है और जो मिथ्यात्व में आकर नरकगति के योग्य २८ प्रकृतियों का बंध करता है । शेष तीन सत्तास्थान प्रायः सब तिर्यंच और मनुष्यों के संभव हैं । ३१ प्रकृतिक उदयस्थान में ८६ प्रकृतिक को छोड़कर शेष तीन सत्तास्थान पाये जाते हैं। ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान तीर्थंकर प्रकृति सहित होता है, परन्तु तिर्यंचों में तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता संभव नहीं, इसीलिये ३१ प्रकृतिक उदयस्थान में ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान का निषेध किया है। इस प्रकार २८ प्रकृतिक बंधस्थान में ३० और ३१ प्रकृतिक, दो उदयस्थानों की अपेक्षा ७ सत्तास्थान होते हैं।
देवगतिप्रायोग्य २९ प्रकृतिक बंधस्थान को छोड़कर शेष विकलेन्द्रिय, तिथंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य गति के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि जीब के सामान्य से पूर्वोक्त १ उदयस्थान और ६२, ८६, ८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक, वे छह सत्तास्थान होते हैं । इनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थान में सभी सत्तास्थान प्राप्त हैं । उसमें भी ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान उसी जीव के होता है जिसने नरकायु का बंध करने के पश्चात् वेदकः सम्यक्त्व को प्राप्त करके तीर्थकर प्रकृति का बंध कर लिया है। अनन्तर जो मिथ्यात्व में जाकर और मरकर नारकों में उत्पन्न हुआ है तथा ६२ और ८८ प्रकृतिक सत्तास्थान देव, नारक, मनुष्य, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और एकेन्द्रियों की अपेक्षा जानना चाहिये। ८६ और ८० प्रकृतिक सत्तास्थान विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और एकेन्द्रियों की
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ד
षष्ठ कर्म ग्रन्थ
३१७
अपेक्षा जानना चाहिये । ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा जानना चाहिये । २४ प्रकृतिक उदयस्थान में ८६ प्रकृतिक को छोड़कर शेष ५ सत्तास्थान हैं। जो सब एकेन्द्रियों की अपेक्षा जानना चाहिये, क्योंकि एकेन्द्रियों को छोडकर शेष जीवों के २४ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है । २५ प्रकृतिक उदयस्थान में पूर्वोक्त छहों सत्तास्थान होते हैं। इनका विशेष विचार २१ प्रकृतिक उदयस्थान के समान जानना चाहिये । २६ प्रकृतिक उदयस्थान में ८ को छोड़कर शेष पांच सत्तास्थान होते हैं । यहाँ ८ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होने का कारण यह है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में उस जीव के यह सत्तास्थान होता है जो नारकों में उत्पन्न होने वाला है किन्तु नारकों के २६ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है । २७ प्रकृतिक उदयस्थान में ७८ के विना शेष पाँच सत्तास्थान होते हैं । ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान होने सम्बन्धी विवेचन तो पूर्ववत् जानना चाहिये तथा ६२ और प्रकृतिक सत्तास्थान देव नारक, मनुष्य, विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय और एकेन्द्रियों की अपेक्षा जानना चाहिये । ५६ और ८० प्रकृतिक सत्तास्थान एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों की अपेक्षा जानना चाहिये । यहाँ जो ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं बताया है, उसका कारण यह है कि २७ प्रकृतिक उदयस्थान अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों को छोड़कर आतप या उद्योत के साथ अन्य एकेन्द्रियों के होता है या नारकों के होता है किन्तु उनमें ७८ प्रकृतियों की सत्ता नहीं पाई जाती है । २८ प्रकृतिक उदयस्थान में ये ही पाँच सत्तास्थान होते हैं । सो इनमें २, ८६ और प्रकृतिक सत्तास्थानों का विवेचन पूर्ववत् है तथा ५६ और म० प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान विकलेन्द्रियों, तिर्यंच पंचेन्द्रियों और मनुष्यों के जानना चाहिये । २६ प्रकृतिक उदयस्थान में भी इसी प्रकार पाँच सत्तास्थान जानना चाहिये । ३० प्रकृतिक
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सप्ततिका प्रकरण
उदयस्थान में ६२, ८८, ८६, और ८० प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान हैं। जिनको विकलेन्द्रिय, लियंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों की अपेक्षा जानना चाहिये । नारकों के ३० प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है अतः यहाँ ८६ प्रकृतिक स्मरणान नहीं कहा गया प्रतिक उदयस्थान में भी ये ही चारों सत्तास्थान होते हैं जो विकलेन्द्रिय और तियंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा जानना चाहियो । इस प्रकार २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि जीव के ४५ सत्तास्थान होते हैं।
मनुष्य और देवगति के योग्य ३० प्रकृतिक बंधस्थान की छोड़फर शेष विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय के योग्य ३० प्रकृतियों का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि जीव के सामान्य से पूर्वोक्त ६ उदयस्थान और ८६ को छोड़कर शेष पाँच-पांत्र सत्तास्थान होते हैं । यहाँ ८९ प्रकृतिक सत्तास्थान संभव नहीं होने का कारण यह है ८९ प्रकृतिक सप्तास्थान वाले जीव के तिर्य चगति के योग्य प्रकृतियों का बंध नहीं होता है । यहाँ २१, २४, २५, २६ प्रकृतिक इन चार उदयस्थानों में उन पाँच सतास्थानों का कथन तो पहले के समान जानना चाहिये तथा शेष रहे २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक उदयस्थान, सो इनमें से प्रत्येक में ७८ प्रकृलिक के सिवाय शेष चार सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार ३० प्रकृतियों का बंध करने वाले मिथ्या दृष्टि जीव के कुल ४० सत्तास्थान होते हैं।
मिथ्याइष्टि जीव के बंध, उदय और सत्ता स्थानों और उनके संवेध का कथन समाप्त हुआ । जिनका विवरण इस प्रकार जानना चाहिये--
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वष्ठ कर्मग्रन्थ
बंधस्थान
२३ प्रकृतिक
२५ प्रकृतिक
प्रकृतिक
मंग
४
२५
६६
उदयस्थान
२१
२४
२५
२६
DIY
२७
२८
२६
Uw f
ܘܕ
३१
or irror
२१
२४
२५
२६
२७
m
२८
܀
உபு
२६
woa
३१
२१
२४
२५
२६
२७
ܐܐ
२६
३०
३१
भंग
३२
११
२३
६००
२२
११८२
१७६४
२६०६ ११६४
४०
११
३१
६००
३०
११६८
१७८०
२६१४
११६४
४०
??
३१
६०७
३०
११६८
१७८०
२६१४
१६६४
सत्तास्थान
१२६८०७८ ६२,६६, ८०, ७८ ६२८५ ८६ ८०, ७८ ६२,८८,८६,८०, ७८ २,५८६ ८०
£3, 5, 5, Co
६२,८८,८६,८०
२०५६, ८० २८०६,८०
६२,८८,८६,८०७० २८६६,८०७८
६२.८८६८०७८ ६२. ८५ ८६ ८०,७८
3, 55, 55, 5
६२,८८,८६,८० १२,८८,८६,८० ६२.८८६६,५० £3, 55, c, co
३१९
६२,८८,८६,८०७८ £2, 5, 50, 95 ६२.८५ ८६ ८०७८ ER, 5, 58, 50, 195 ६२,८८,८६,८०
६,८८,८६,50
६.२६६६,८०
६.२,८८,८६,८०
६.२८८६०
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३२०
सप्ततिका प्रकरण
बंघस्थान,
मंग
उदयस्थान
मंग
सत्तास्थान
२८ प्रकृतिक
६२. ८० ६२, ८८ १२, ८८
E२, EF १९७६ ६२,८८
१२, ८८ २८६. ६२,८६, ८८, ८६ ११५२ | १२,८८, ८६
१२४७
प्रकृतिक
|६२, ८६, ८, ९६.८७, ७८
६२, ८,८६, ८०, ७८ ६२, ८६, ८८, ८६, ८०,७८ ६२, ८६, ८,८६,८०,७८ १२, ८६, 45, ८६, . ६२, ८६, ८८, ८६, ८०
१७६१
२६१४
११६४
६२, ८६, ८८, ८६, ८७ ६२, ६, ८, ६
प्रकृतिक
६.२, ८६, ८,८६, ८०, ७८ ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ ६२, ८९,८८, ६, ८०, ७८ ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ १२, ८६, E८, ८६, ८०
६२, ८६, ८८, ८६, ५० ७८१ १२, ८६, ८, ८६, 50
१२, २६, ८, ६, ८० ११६४ | ६२,८८, ८६, ८०
| १३६२६ | ५३ |
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
(२) सासादम गुणस्थाम
पहले गुणस्थान के बंध आदि स्थानों को बतलाने के बाद अब दूसरे गुणस्थान के बंध आदि स्थानों का निर्देश करते हैं कि-'तिग सत्त दुगं' । अर्थात् ३ बंधस्थान हैं, ७ उदयस्थान हैं और २ सत्तास्थान हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
सासादन गुणमा में २८, २९ र २० मषित, कीन मामान हैं। इनमें से २८ प्रकृतिक बंधस्थान दो प्रकार का है-जरकगतिप्रायोग्य और देवगतिप्रायोग्य | सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों के नरकगतिप्रायोग्य का तो बंध नहीं होता किन्तु देवगतिप्रायोग्य का होता है। उसके बंधक पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य होते हैं । इसके आय भंग होते हैं।
२६ प्रकृतिक बंभस्थान के अनेक भेद है किन्तु उनमें से सासादन के बंधने योग्य दो भेद हैं---तिर्यंचगतिप्रायोग्य और मनुष्य गतिप्रायोग्य । इन दोनों को सासादन एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यच पंषेन्द्रिय, मनुष्य, देव और मारक जीव बांधते हैं। यहाँ उसके फूल भंग ६४०० होते हैं। क्योंकि यद्यपि सासादन तिर्यचतिप्रायोग्य या मनुष्यगतिप्रायोग्य २६ प्रकृतियों को बांधते हैं तो भी वे हुंडसंस्थान और सेवार्त यहनन का बंध नहीं करते हैं, क्योंकि इन दोनों प्रकृतियों का बंध मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होता है। जिससे यहाँ पाँच संहनन, पांच संस्थान, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति युगल, स्थिर-अस्थिर युगल, शुभ-अशुभ युगल, सुभग-दुर्भग युगल, सुस्वर-दुःस्वर युगल, आदेयअनादेय युगल और यश:कीति-अयश:कोति युगल, इस प्रकार इनके परस्पर गुणित करने पर ३२०० भंग होते हैं। ये ३२०० भंग तियंचगतिशायोग्य भी होते हैं और मनुष्यगतिप्रायोग्य भी होते हैं। इस प्रकार दोनों का जोड ६४०० होता है।
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३२२
ਪਾਰਵਿਸ ਸਾ
J
7
३० प्रकृतिक बंधस्थान के भी यद्यपि अनेक भेद हैं किन्तु सासादन में बँधने योग्य एक उद्योत सहित तिर्यंचगतिप्रायोग्य ही है। जिसे सासादन एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय मनुष्य देव और नारक जीव बाँधते हैं। इसके कुल ३२०० भंग होते हैं। इस प्रकार सासादन गुणस्थान में तीन बंधस्थान और उनके ८+६४०० + ३२०० - ६०८ भंग होते हैं। भाष्य गाथा में भी इसी प्रकार कहा गया है ।
अ य सय पोष बत्तीस सया य सासणे मेया ।
ager
सम्बाणऽवहिन
छण्ण उई ॥ अर्थात् सासादन में २८ आदि बंधस्थानों के क्रम से प ६४०० और ३२०० भेद होते हैं और ये सब मिलकर ६६०८ होते हैं ।
इस प्रकार से सासादन गुणस्थान में तीन बंधस्थान बतलाये | अब उदयस्थानों का निर्देश करते हैं कि २१, २४, २५, २६, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये सात उदयस्थान होते हैं ।
.
इनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थान एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय नियंत्र पंचेन्द्रिय मनुष्य और देवों के होता है। नारकों में सासादन सम्यक्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं जिससे सासादन में नारकों के २१ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं कहा है। एकेन्द्रियों के २१ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते हुए बादर और पर्याप्त के साथ यशःकीर्ति के विकल्प से दो भंग संभव हैं, क्योंकि सूक्ष्म और अपर्याप्तों में सासादन जीन उत्पन्न नहीं होता है, जिससे विकलेन्द्रिय तिर्यच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के प्रत्येक और अपर्याप्त के साथ जो एक-एक भंग होता है वह यहाँ संभव नहीं है । शेष भंग संभव हैं जो विकलेन्द्रियों के दो-दो, इस प्रकार से छह हुए तथा तिर्यंच पंचेन्द्रियों के मनुष्यों के और देवों के होते हैं। इस प्रकार २१ प्रकृतिक उदयस्थान के कुल ३२ भंग (२+६+६+६+८३२) हुए।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३२३
२४ प्रकृतिक उदयस्थान उन्हीं जीवों के होता है जो एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं। यहाँ इसके बार और पर्याप्त केकीति और अयशः कीर्ति के विकल्प से दो ही भंग होते हैं, शेष भंग नहीं होते हैं, क्योंकि सूक्ष्म, साधारण, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में सासादन सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होता है ।
सासादन गुणस्थान में २५ प्रकृतिक उदयस्थान उसी को प्राप्त होता है जो देवों में उत्पन्न होता है। इसके स्थिर अस्थिर, शुभ -अशुभ और यशः कीर्ति अयशःकीर्ति के विकल्प से भंग होते हैं।
८
२६ प्रकृतिक उदयस्थान उन्हीं के होता है जो विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। अपर्याप्त जीवों में सासादन सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं। अतः इस स्थान में अपर्याप्त के साथ जो एक भंग पाया जाता है, वह यहाँ संभव नहीं किन्तु शेष भंग संभव हैं। विकलेन्द्रियों के दो-दो, इस प्रकार छह, तिथंच पंचेन्द्रियों के २८८ और मनुष्यों के २८८ होते हैं। इस प्रकार २६ प्रकृतिक उदयस्थान कुल मिलाकर ५८२ भंग होते हैं ।
में
सासादन गुणस्थान में २७ और २८ प्रकृतिक उदयस्थान न होने का कारण यह है कि वे नवीन भव ग्रहण के एक अन्तर्मुहूर्त के काल के जाने पर होते हैं किन्तु सासादन भाव उत्पत्ति के बाद अधिक से अधिक कुछ कम ६ आवली काल तक ही प्राप्त होता है । इसीलिये उक्त २७ और २८ प्रकृतिक उदयस्थान सासादन सम्यग्दृष्टि को नहीं माने जाते हैं ।
I
२६ प्रकृतिक उदयस्थान प्रथम सम्यक्त्व से च्युत होने वाले पर्याप्त स्वस्थान गत देवों और नारकों को होता है। २६ प्रकृतिक उदयस्थान में देवों के और नारकों के १ इस प्रकार इसके यहाँ कुल भंग होते हैं ।
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३२४
सप्ततिका प्रकरण
३० प्रकृतिक उदयस्थान प्रथम सम्यक्त्व से च्युत होने वाले पर्याप्त तियंच और मनुष्यों के या उत्तर दिक्रिया में विद्यमान देवों के होता है। ३० प्रकृतिक उदयस्थान में तिथंच और मनुष्यों में से प्रत्येक के ११५२ और देवों के ६. इस प्रकार ११५२+-११५२++=२३१२ भंग होते हैं।
३१ प्रकृतिक उदयस्थान प्रथम सम्यक्त्व से च्युत होने वाले पर्याप्त तिर्यचों के होता है। यहाँ इसके कुल ११५२ भंग होते हैं । इस प्रकार सासादन गुणस्थान में ७ उदयस्थान और उनके भंग होते हैं। भाष्य गाथा में भी इनके भंग निम्न प्रकार से गिनाये हैं
बसीस बोन्नि अट्ट य बासीप सया य पंच नव उदया। पाहिगा वीसा पापग्नेकारस सया ॥
अर्थात् सासादन गुणस्थान के जो २१, २४, २५, २६, २६, ३० और ३१ प्रकृतिक, सात उदयस्थान हैं; उनके क्रमशः ३२, २, ८, ५८२, ६, २३१२ और ११५२ भंग होते हैं ।
सासादन गुणस्थान के सात उदयस्थानों को बतलाने के बाद अब सत्तास्थानों को बतलासे है कि यहाँ ६२ और ८८ प्रकृतिक, ये दो सत्ता. स्थान हैं। इनमें से जो आहारक चतुष्क का बंध करके उपशमणि से न्युत होकर सासादन भाव को प्राप्त होता है, उसके ६२ की सत्ता पाई आती है, अन्य के नहीं और ८८ प्रकृतियों की सत्ता चारों गतियों के सासादन जीवों के पाई जाती है ।
इस प्रकार से सासादन गुणस्थान के बंध, उदय और सत्तास्थानों को जानना चाहिये । अब इनके संवेध का विचार करते हैं।
२० प्रकृतियों का बंध करने वाले सासादन सभ्यग्दृष्टि को ३० और
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षष्ठ कर्ममन्य
३२५
३१ प्रकृतिक, ये दो उदयस्थान होते हैं। पूर्व में बंधस्थानों का विचार करते समय यह बताया जा चुका है कि सासादन जीव देवगतिप्रायोग्य ही २६ प्रकृतियों का बंध करता है, नमातित्राकोर १८ प्रकृति का. नहीं। उसमें भी करणपर्याप्त सासादन जीव ही देवगतिप्रायोग्य को बांधता है। इसलिये यहाँ ३० और ३१ प्रकृतिक, इन दो उदयस्थानों के अलावा अन्य शेष उदयस्थान संभव नहीं हैं। अब यदि मनुष्यों की अपेक्षा ३० प्रकृतिक उदयस्थान का विचार करते हैं तो वहाँ ६२ और ८८ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान संभव हैं और यदि तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा ३० प्रकृतिक उदयस्थान का विचार करते हैं तो वहाँ ८८ प्रकृतिक, यह एक ही सत्तास्थान संभव हैं क्योंकि ६२ प्रकृतियों को सत्ता उसी को प्राप्त होती है जो उपशमश्रेणि से च्युत होकर सासादन भाव को प्राप्त होता है किन्तु तिर्यचों में उपशमथेणि संभव नहीं है। अत: यहाँ ६२ प्रकृतिक सत्तास्थान का निषेध किया है।
तिर्यच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले सासादन जीवों के पूर्वोक्त सातों ही उदयस्थान संभव है, इनमें से
और सब उदयस्थानों में तो एक ८८ प्रकृतियों की ही सत्ता प्राप्त होती है किन्तु ३० के उदय में मनुष्यों के ६२ और ८८ प्रकृतिक, ये दोनों ही सत्तास्थान संभव है। २६ के समान ३० प्रकृतिक बंधस्थान का भी कथन करना चाहिये।
३१ प्रकृतिक उदयस्थान में प्रकृतियों की ही सत्ता प्राप्त होती है। क्योंकि ३१ प्रकृतिक उदयस्थान तिर्यंचों के ही प्राप्त होता है।
इस प्रकार सासादन गुणस्थान में कुल ८ सत्तास्थान होते हैं। सासादन गुणस्थान के बंध, उदय और सत्तास्थानों और संबंध का विवरण इस प्रकार जानना चाहिये--
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सप्ततिका प्रकरण
बंषस्थान
मंग
उदयस्थान
भंग
सत्तास्थान
२३१२
| ६२,८८
प्रकृतिक
CE
२६
प्रकृतिक
२३१२ ११५२
3Rad
प्रकृतिक
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
(३) मिश्र गुणस्थान
दूसरे सासादन गुणस्थान के बंध आदि स्थानों का निर्देश करने के बाद अब तीसरे मिश्र गुणस्थान के पंच आदि स्थानों की केयन करते हैं । मिध गुणस्थान में-'दुग तिग दुर्ग'-दो बंधस्थान, तीन उदयस्थान और दो सत्तास्थान हैं। जिनका विवरण इस प्रकार है कि २८ और २६ प्रकृतिक, ये बंघस्थान होते हैं। इनमें से २८ प्रकृतिक बंधस्थान तिर्यंच और मनुष्यों के होता है, क्योंकि ये मिश्र गुणस्थान में देवगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं। इसके यहाँ ८ भंग होते हैं।
२६ प्रकृतिक बंधस्थान देव और नारकों के होता है। क्योंकि वे मिश्र गुणस्थान में मनुष्यगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं । इसके भी ८ भंग होते हैं । दोनों स्थानों में ये भंग स्थिर-अस्थिर, शुभअशुभ और यशःकीति-अयशःकीति के विकल्प से प्राप्त होते हैं। २४२४२, शेष भंग प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि शेष शुभ परावर्तमान प्रकृतियाँ ही सम्यग मिथ्यादृष्टि जीव बांधते हैं। __यहाँ बंधस्थानों का कथन करने के बाद अब उदयस्थान बतलाते हैं कि २६, ३० और ३१ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान हैं । २९ प्रकृतिक उदयस्थान देव और नारकों के होता है । इस स्थान के देवों के ८ और नारकों के १ इस प्रकार ६ भंग होते हैं। ३० प्रकृतिक उदयस्थान तिर्यंच व मनुष्यों के होता है। इसमें तिथंचों के ११५२ और मनुष्यों के ११५२ भंग होते हैं जो कुल मिलाकर २३०४ हैं। ३१ प्रकृतिक उदयरथान तिर्यंच पंचेन्द्रियों के ही होता है । इसके यहाँ कुल मिलाकर ११५२ भंग होते हैं। इस प्रकार मिश्र गुणस्थान में तीनों उदयस्थानों के ६+२३०४-+ ११५२= ३४६५ भंग होते हैं।
मिश्र गुणस्थान में दो सत्तास्थान हैं-६२ और ८८ प्रकृतिक । इस प्रकार मिश्र गुणस्थान के बंध, उदय और सत्ता स्थान क्रमशः २, ३ और २ समझना चाहिये।
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सप्ततिका प्रकरण
प्रकृतियों का बंध प्रकृतिक, ये दो उदय
इसके संका विचार करते हैं करने वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि के ३० और ३१ स्थान तथा प्रत्येक उदयस्थान में ६२ और सत्तास्थान होते हैं । २६ प्रकृतियों के बंधक के एक २६ प्रकृतिका उदयस्थान तथा ६२ और प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं। इस
प्रकृतिक, ये दो-दो
३२६
प्रकार मिश्र गुणस्थान में तीन उदयस्थानों की अपेक्षा छह सत्तास्थान होते हैं ।
मिश्र गुणस्थान के बंध, उदय और सत्ता स्थान के संवेध का विवरण इस प्रकार जानना चाहिये
बंबस्थान
२५ प्रकृतिक
२६ प्रकृतिक
२
मंग
८
15
१६
-
उदयस्थान
२०
३१
२६
३
भंग
२३०४
११५२
st
३४६५
सत्तास्थान
६२.८५
६२,८८
६२,८८
६
(४) अविरत सम्यष्टि गुणस्थान
मिश्र गुणस्थान में बंध आदि स्थानों को बतलाने के बाद अब चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के बंध आदि स्थानों को बतलातें हैं कि इस गुणस्थान में तीन बंघस्थान, आठ उदयस्थान और चार सत्तास्थान हैं- 'तिगट्ठचच !' वे इस प्रकार जानना चाहिये कि २५, २६
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३२९ और ३० प्रकृतिक, ये तीन बंधस्थान हैं। इनमें से देवगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले अविरत सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्यों के २८ प्रकृतिक बंघस्थान होता है । अविरत सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य शेष गतियों के योग्य प्रकृतियों का बंध नहीं करते, इसलिये यहाँ नरकगति के योग्य २८ प्रकृतिक बंथस्थान नहीं होता है। ___ २६ प्रकृतिक बंधस्थान दो प्रकार से प्राप्त होता है। एक तो तीर्थकर प्रकति के साथ देवगांत के योग्य प्रतियों का संचकारने वाले मनुष्यों के होता है । इसके ८ भंग होते हैं। दूसरा मनुष्यगति के योग्या प्रकृतियों का बंध करने वाले देव और नारकों के होता है। यहां भी
आठ भंग होते हैं। तीर्थकर प्रकृति के साथ मनुष्यगति के योग्य प्रकृ. तियों का बंध करने वाले देव और नारकों के ३० प्रकृतिक बंधस्थान होता है । इसके भी आठ भंग होते हैं । ___ अब आठ उदयस्थानों को बतलाते हैं कि अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये ८ उदयस्थान हैं।
इनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थान नारक, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देवों के जानना चाहिये। क्योंकि जिसने आयुकर्म के बंध के पश्चात् क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया है, उसके चारों गतियों में २१ प्रकृतिक उदयस्थान संभव है। किन्तु अविरत सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तों में उत्पन्न नहीं होता अत: यहाँ अपर्याप्त संबंधी भंगों को छोड़कर शेष भंग
====-....
१ मनुष्याणां देवगतिप्रायोभ्यं तीर्थंकरसहितं बघ्नतामेकोनत्रिशत्, अत्राप्यष्टो भंगाः । देब-नरयिकाणां मनुरागतिप्रायोग्य बनतामेकोनत्रिंशत्, अत्रापि त एवाष्टो मंगाः । वेषामेव मनुष्यगतिप्रायोग्य तीर्थकरसहितं बनता प्रिंशत्, अत्रापि त एवाष्टो मंगाः ।
– सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ. २३०
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३३०
सप्ततिका प्रकरण
,
पाये जाते हैं जो तियंच पंचेन्द्रिय के मनुष्यों के देवों के द और नारकों का १ है । इस प्रकार कुल मिलाकर ६+६+८-|-१=२५ हैं ।
२५ और २७ प्रकृतिक उदयस्थान देव और नारकों तथा विक्रिया करने वाले तिर्यंच और मनुष्यों के जानना चाहिये । यहाँ जो २५ और २७ प्रकृतिक स्थानों का नारक और देवों को स्वामी बतलाया है सो यह नारक वेदक सम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही होता है और देव तीनों में से किसी भी सम्यग्दर्शन वाला होता है। चूर्णि में भी इसी प्रकार कहा है
पणवीस - सतबीसोबया बेबनेरइए विउब्बियतिरिथ मथुए य पडुच्च । नेरगो - वेगसम्म हिट्ठी देवो तिविहसम्मद्दिष्ट्टी वि ॥
अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में २५ और २७ प्रकृतिक उदयस्थान देव, नारक और विक्रिया करने वाले तियंत्र और मनुष्यों के होता है। सो इनमें से ऐसा नारक या तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है या वेदक सम्यष्टि, किन्तु देव के तीनों सम्यग्दर्शनों में से कोई एक होता है।
२६ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि तिथेच और मनुष्यों के होता है । औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव तिर्यच और मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होता है। अतः यहाँ तीनों प्रकार के सम्यग्दृष्टि जीवों को नहीं कहा है । उसमें भी तियंचों के मोहनीय की २२ प्रकृतियों की सत्ता की अपेक्षा ही यहाँ वेदक सम्यक्त्व जानना चाहिये ।
१ पंचविशति सप्तविंशत्युदयौ देव- नरविकान् वैक्रिय तिर्यङ् मनुष्याश्चाधिकृत्यावसेयौ । तत्र नैरयिकः क्षायिकसम्यग्दृष्टिदक सम्यग्दृष्टिव, देवस्त्रिविधसम्यष्टिरपि । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २३०
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३३१ २८ और २६ प्रकृतिक उदय चारों गतियों के अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों के होता है। ३० प्रकृतिक उदयस्थान तिथंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देवों के होता है तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थान तिथंच पंचेन्द्रियों के ही होता है। इस प्रकार से अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ८ उदयस्थान जानना चाहिये ।
अब सत्तास्थानों का निर्देश करते हैं
अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ६३, ९२, ८६ और ८ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान हैं। इनमें से जिस अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीय ने तीर्थकर और आहारक के साथ ३१ प्रकृतियों का बंध किया और पश्चात् मरकर अविरत सम्यग्दृष्टि हो गया तो उसके ६३ प्रकृतियों की सत्ता होती है। जिसने पहले आहारक चतुष्क का बंध किया और उसके बाद परिणाम बदल जाने से मिथ्यात्व में जाकर जो चारों गतियों में से किसी एक गति में उत्पन्न हुआ उसके उस गति में पुनः सम्यग्दर्शन के प्राप्त हो जाने पर. ६२ प्रकृतिक सत्तास्थान चारों गतियों में बन जाता है । किन्तु देव और मनुष्यों के मिथ्यात्व को प्राप्त किये बिना ही इस अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ६२ प्रकृतियों की सत्ता बन जाती है । ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान अविरत सम्यग्दृष्टि देव, नारक और मनुष्यों के होता है । क्योंकि इन तीनों गतियों में तीर्थकर प्रकृति का समार्जन होता रहता है। किन्तु तीर्थकर प्रकृति की सत्ता वाला जीव तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होता है अत: यहाँ तिर्यंचों का ग्रहण नहीं किया है, और ८८ प्रकृतिक सत्तास्थान चारों गतियों के अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों के होता है । इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में बंध, उदय और सत्ता स्थानों को जानना चाहिये । __ अब इनके संवैध का विचार करते हैं कि २८ प्रकृतियों का बंध करने वाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के तिर्यंच और मनुष्यों की अपेक्षा
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३३२
सप्ततिका प्रकरण
८ उदय स्थान होते हैं। उसमें से २५ और २७ प्रकृतिक उदयस्थान विक्रिया करने वाले तिर्यंच और मनुष्यों के ही होते हैं और शेष छह सामान्य के होते हैं। इन उदयस्थानों में से प्रत्येक उदयस्थान में ६२
और ८६ प्रकृतिक ये दो-दो सत्तास्थान हैं । २६ प्रकृतिक बंधस्थान देवगतिप्रायोग्य व मनुष्यगतिप्रायोग्य होने की अपेक्षा से दो प्रकार का है । इनमें से देवगतिप्रायोग्य तीर्थकर प्रकृति सहित है जिससे इसका बंध मनुष्य ही करते हैं। किन्तु मनुष्यों के उदयस्थान २१, २५, २६, २७, २८, २९ और ३० प्रकृतिक, ये सात हैं; क्योंकि मनुष्यों के ३१ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है। यहाँ भी प्रत्येक उदयस्थान में ६३ और ८६ प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं तथा मनुष्यगतिप्रायोग्य २६ प्रकृतियों को देव और नारक ही बांधते हैं। सो इनमें से नारकों के २१. २५, २७, २८ और २६ प्रकृतिक, ये पांच उदयस्थान होते हैं तथा देवों के पूर्वोक्त पाँच और ३० प्रकृतिक, ये छह उदयस्थान होते हैं। इन सब उदयस्थानों में १२ और ८८ प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं तथा मनुष्यगति योग्य ३० प्रकृतियों का बंध देव और नारक करते है सो इनमें से देवों के पूर्वोक्त ६ उदयस्थान होते हैं और उनमें से प्रत्येक में १३ और प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं । नारकों के उदयस्थान तो पूर्वोक्त पांच ही होते हैं किन्तु इनमें सत्तास्थान पर प्रकृतिक एक-एक ही होता है क्योंकि तीर्थकर और आहारक चतुष्क की युगपत् सत्ता वाले जीव नारकों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इस प्रकार २१ से लेकर ३० प्रकृतिक उदयस्थानों में से प्रत्येक में सामान्य से ६३. १२, ८६ और ८८ प्रकृतिक, ये चार-चार सत्तास्थान होते हैं और ३१ प्रकृतिक उदयस्थान में ६२ और ८८ प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में सामान्य से कुल ३० सत्तास्थान हुए । जिनका विवरण निम्न प्रकार से जानना चाहिये--
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नंम्यान ।
सास्थान
मंग
सत्तास्थान
प्रकृतिक
२, ८८ ६.२,८८ ६२,८
११७६ १७५२
२८८८ ११५२
१२, १८ ६२, ८८ १२.८८
प्रकृतिक
१७
ना
६३.६२, ६, ८ ६३, ६२, ८६, ८ १३, म ६३, ६२, ८६, ८८ ६.३, ६२, ८६, ८८ ६३, ६२, ८६, ८ १३, २, ८६, ८
६०१
११६०
प्रकृतिक
३२
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सप्ततिका प्रकरण
(५) देशविरत गुणस्थान
___ अब पांचवें देशविरत गुणस्थान के बंध आदि स्थानों का विचार करते हैं । देशविरत गुणस्थान में बंध आदि स्थान क्रमश: 'दुग छ चउ' दो, छह और चार हैं । अर्थात् दो बंधस्थान, छह उदयस्थान और चार सत्तास्थान हैं। उनमें से दो बंधस्थान क्रमशः २८ और २९ प्रकृतिक हैं। जिनमें से २८ प्रकृतिक बंधस्थान तिर्यंच पंचेन्दिय और मनुष्यों के होता है। इतना विशेष है कि इस गुणस्थान में देवगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का ही बंध होता है और इस स्थान के ८ भंग होते हैं। उक्त २८ प्रकृतियों में तीर्थक र प्रकृति को मिला देने पर २६ प्रकृतिक बंधस्थान होता है। यह स्थान मनुष्यों को होता है क्योंकि तिर्यचों के तीर्थकर प्रकृति का बंध नहीं होता है। इस स्थान के भी आठ भंग होते हैं।
इस गुणस्थान में २५, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, यह यह उदयस्थान होते हैं। इनमें से आदि के चार उदयस्थान विक्रिया करने वाले तिर्यंच और मनुष्यों के होते हैं तथा इन चारों उदयस्थानों में मनुष्यों के एक-एक भंग होता है किन्तु तिर्यंचों के प्रारम्भ के दो उदयस्थानों का एक-एक भंग होता है और अन्तिम दो उदयस्थानों के दो-द भंग होते हैं।
___३० प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ तिर्यंच और मनुष्यों के तथा विक्रिया करने वाले तिर्यंचों के होता है। तो यहाँ प्रारम्भ के दो में से प्रत्येक के १४४-१४४ भंग होते हैं, जो छह संहनन, छह संस्थान, सुस्वरदुस्वर और प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति के विकल्प से प्राप्त होते हैं तथा अंतिम का एक भंग होता है । इस प्रकार ३० प्रकृतिक उदयस्थान के कुल २८६ भंग होते हैं । दुभंग, अनादेय और अयशःकीर्ति का
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उदय गुणप्रत्यय से ही नहीं होता है अतः तत्संबंधी विकल्पों को यहाँ नहीं कहा है ।
३१ प्रकृतिक उदयस्थान तिर्यचों के ही होता है। यहाँ भी १४४ भंग होते हैं। इस प्रकार देशविरत में सब उदयस्थानों के कुल भंग १०+ १४४+१४४+१४४ / १४४३ भंग होते हैं ।
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यहाँ सत्तास्थान चार होते हैं जो ९३ ९२ ८६ और प्रकृतिक हैं। जो तीर्थंकर और आहारक चतुष्क का बंध करके देशविरत हो जाता है, उनके ६३ प्रकृतियों की सत्ता होती है तथा शेष का विचार सुगम है । इस प्रकार देशविरत में बंध, उदय और सत्ता स्थानों का कप किया। अवध का विवाद करते हैं कि
यदि देशविरत मनुष्य २८ प्रकृतियों का बंध करता है तो उसके २५, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिक, ये पांच उदयस्थान और इनमें से प्रत्येक में ६२ और १८ प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । किन्तु यदि वियंच २८ प्रकृतियों का बंध करता है तो उसके उक्त पाँच उदयस्थानों के साथ ३१ प्रकृतिक उदयस्थान भी होने से छह उदयस्थान तथा प्रत्येक में ६२ और प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं । २६ प्रकृतिक बंधस्थान देशविरत मनुष्य के होता है । अतः इसके पूर्वोक्त २५ २७ २८ २६ और ३० प्रकृतिक, ये पाँच उदयस्थान और प्रत्येक उदयस्थान में ६३ और ६६ प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार देशविरत गुणनस्थान में सामान्य से प्रारम्भ के पाँच उदयस्थानों में चार-चार और अन्तिम उदयस्थान में दो, इस प्रकार कुल मिलाकर २२ सत्तास्थान होते हैं ।
देशविरत गुणस्थान के बंध आदि स्थानों का विवरण इस प्रकार जानना चाहिए—
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बंषस्थान
२८
प्रकृतिक
२६ प्रकृतिक
२
गंग
८
5
१६
उदयस्थान
२५
२७
२८
२६
શ્
३१
२५
२७
२८
२६
३०
'
मंग
२
२८६
१४४
१
१
१
१
१४४
५६
सप्ततिका प्रकरण
सत्तास्थान
६२,८८
२,८८
०२. एक
६२, ६
६२,८८
६२, ८८
६३, ८६
६३, ८९
£3,5€
हमें कई
६३,८६
२२
(६) प्रमविरत गुणस्थान
अब छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान के बंध आदि स्थानों को बतलाते हैं कि- 'दुग पण चउ' - दो बंधस्थान पाँच उदयस्थान और चार सत्तास्थान हैं। दो बंधस्थान २० और २३ प्रकृतिक हैं। इनका विशेष स्पष्टीकरण देश विरत गुणस्थान के समान जानना चाहिये ।
पांच उदयस्थान २५ २७, २८, २९ और ३० प्रकृतिक होते हैं । ये
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३३७ सब उदयस्थान आहारकसयत' और वैक्रियसंयत जीवों के जानना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि ३० प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ संयतों के भी होता है । इनमें से वैक्रियसंयत और आहारकसंयतों के अलग-अलग २५ और २७ प्रकृतिक उदयस्थानों में से प्रत्येक के एक-एक तथा २८ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानों के दो-दो और ३० प्रकृतिक उदयस्थान का एक-एक, इस प्रकार कुल १४ भंग होते हैं तथा ३० प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ जीवों के भी होता है सो इसके १४४ भंग और होते हैं, इस प्रकार प्रमत्तसंयत गुणस्थान के सब उदयस्थानों के कुल भंग १५८ होते हैं। __ यहाँ सत्तास्थान यार होते हैं-६३, १२, ८६ और ८८ प्रकृतिक ।
इस प्रकार प्रमत्तसंयत गुणस्थान में बंध, उदय और सत्तास्थानों का निर्देश करने के बाद अब इनके संवेध का विचार करते हैं
२८ प्रकृतियों का बंध करने वाले पूर्वोक्त पांचों उदयस्थानों में से प्रत्येक में ९२ और ८८ प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं। उसमें भी आहारकसंगत के ६२ प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है, क्योंकि आहारकचतुष्क की सत्ता के बिना आहारक समुद्घात की उत्पत्ति नहीं हो सकती है किन्तु वैक्रियसंयत के ६२ और ८८ प्रकृत्तियों की सता संभव है। जिस प्रमत्तसंयत के तीर्थकर प्रकृति की सत्ता है वह २८ प्रकृतियों का बंध नहीं करता है । अतः यहाँ १३ और ८९ प्रकृतियों की सत्ता नहीं होती है तथा २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले प्रमत्तसंयत के पाँचों उदयस्थान संभव हैं और इनमें से प्रत्येक में ६३ और ८६ प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं । विशेष इतना है कि आहारक के ६३ की और वैक्रियसंयत के दोनों की सत्ता होती है।
इस प्रकार प्रमत्तसंयत के सब उदयस्थानों में पृथक-पृथक चारचार ससास्थान प्राप्त होते हैं, जिनका कुल प्रमाण २० होता है।
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सप्ततिका प्रकरण प्रमत्तसंवत के बंध, उदय और सत्ता स्थानों व संवैध का विवरण निम्नानुसार जानना चाहिये---
बंधस्थान
|
मंग
उदयस्थान
मत्तास्थान
२८
LF
प्रकृतिक
F
v० ० ४d
S
15
W
२९ प्रकृतिक
२०
(७) अप्रमत्तसंयत गुणस्पाम __ प्रमत्तसंयत गुणस्थान के बंध, उदय और सत्तास्थानों को बतलाने के बाद अब अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के बंध आदि स्थानों को बतलाते हैं कि 'चउदुग चउ'-चार बंधस्थान, दो उदयस्थान और चार सत्तास्थान है। चार बंधस्थान इस प्रकार हैं- २८, २९, ३० और ३१ प्रकतिक । इनमें से तीर्थकर और आहारकदिक के बिना २८ प्रकृतिक बंध
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षष्ठ कर्मग्रन्य स्थान होता है। इसमें तीर्थंकर प्रकृति को मिलाने पर २६ प्रकृतिक तथा तीर्थंकर प्रकृति को अलग करके आहारकद्विक को मिलाने से ३० प्रकृतिक तथा तीर्धवार और आहारकद्धिक की युगनत मिलाने पर ३१ प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इन सब बंधस्थानों का एक-एक ही भंग होता है । क्योंकि अप्रमत्तसंयत के अस्थिर, अशुभ और अयश:कीति का बंध नहीं होता है।
सातवें गुणस्थान में दो उदयस्थान होते हैं जो २६ और ३० प्रकृतिक हैं। जिसने पहले प्रमत्तसंयत अवस्था में आहारक या वैक्रिय समुद्घात को करने के बाद अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त किया है उसके २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके यहाँ दो भंग होते हैं जो एक वैक्रिय की अपेक्षा और दूसरा आहारक की अपेक्षा । ३० प्रकृतिक उदयस्थान में भी दो भंग होते हैं तथा ३० प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ अप्रमत्ततपत जीव के भी होता है अत: उसकी अपेक्षा यहाँ १४४ भंग और होते हैं जिनका कुल जोड़ १४६ है। इस प्रकार अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के दो उदयस्थानों के कुल १४८ भंग होते हैं ।
विगम्बर परम्परा में अप्रमत्त संयत के ३० प्रकृतिक, एक ही उदयस्थान बतलाया है। इसका कारण यह है कि दिगम्बर परम्परा में यही एकमत पाया जाता है कि आहारक समुद्घात को करने वाले जीव को स्वयोग्य पर्याप्तियों के पूर्ण हो जाने पर भी सातवां गुणस्थान प्राप्त नहीं होता है तथा इसी प्रबार दिगम्बर परम्परा के अनुसार बैंक्रिय समृद्घात को करने वाला जीव मी अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता है । इसीलिये गो. कमंकाड मा ५०१ में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान
ही बसाया है। २ सयोननिशद् यो नाम पूर्व प्रमत्तसंयत: सन् आहारफ बैंक्रियं वा निर्वर्त्य पउनादप्रमत्तमावं गच्छनि लस्म प्राप्य ।
- सप्ततिका प्रकरण टीकर, पृ. २३३
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३४०
सत्तास्थान ६३, ६२, ८8 और प्रकार जनसंसंयत गुजस्थान के चार चार सत्तास्थान जानना चाहिये। अब करते हैं
२८ प्रकृतियों का बंध करने वाले के उदयस्थान दोनों होते हैं, किन्तु सत्तास्थान एक प्रकृतिक ही होता है । २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले के उदयस्थान दोनों ही होते हैं किन्तु सत्तास्थान एक प प्रकृतिक होता है । ३० प्रकृतियों का बंध करने वाले के भी उदयस्थान दोनों ही होते हैं किन्तु सत्तास्थान दोनों के एक ९२ प्रकृतिक ही होता है तथा ३१ प्रकृतियों का बंध करने वाले के उदयस्थान दोनों होते हैं किन्तु सत्तास्थान एक ९३ प्रकृतिक ही होता है। यहाँ तीर्थंकर या आहारकद्विक इनमें से जिसके जिसकी सत्ता होती है, यह नियम से उसका बंध करता है । इसीलिये एक-एक बंघस्थान में एक - एक सत्तास्थान कहा है । यहाँ कुल सत्तास्थान होते हैं ।
इस प्रकार अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के बंध, उदय और सत्ता स्थानों के संवेध का विचार किया गया, जिसका विवरण इस प्रकार है
बंधस्थान
२८ प्रकृतिक
२६ प्रकृतिक
मंग
१
१
सप्ततिका प्रकरण
प्रकृतिक, ये चार होते हैं । इस स्थान को उपस्थान और इनके संध का विचार
उदयस्थान
२६
३०
२६
३०
मंग
२
१४६
२
१४६
सत्तास्थान
८५
६६
८६
छह
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३४१
बंधस्थान
मंग
उदयस्थान
सत्तास्थान
प्रकृतिक
U
4
प्रकृतिक
-
૨૨
(4) अपूर्वकरण गुणस्थान
आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में बंध आदि स्थान इस प्रकार हैं'पुणगेग पउ' अर्थात पांच बंधस्थान, एक उदयस्थान और चार सत्तास्थानः । इनमें से पांच बंधस्थान २८, २९, ३०, ३१ और १ प्रकृतिक है । इनमें से प्रारम्भ के चार बंषस्थान तो सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के समान जानना चाहिये, किन्तु जब देवगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का बंधविच्छेद हो जाता है तब सिर्फ एक यश:की ति नाम का ही बध होता है, जिससे यहाँ १ प्रकृतिक बंधस्थान भी होता है।
यहाँ उदयस्थान एक ३० प्रकृतिक ही होता है। जिसके वनऋषभनाराच संहनन, छह संस्थान, सुस्वर-दुस्वर और दो विहायोगति के विकल्प से २४ भंग होते हैं | किन्तु कुछ आचार्यों के मत से उपशमणि की अपेक्षा अपूर्वकरण में केवल वज्रऋषभनाराच संहनन का उदय न होकर प्रारम्भ के तीन संहननों में से किसी एक का उदय होता है। अतः उनके मत से यहाँ पर ७२ भंग होते हैं। इसी प्रकार
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राप्ततिका प्रकरण
अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय और उपशांतमोह गुणस्थान में भी जानना चाहिये।
यहाँ सत्तास्थान ६३, ६२, ८६ और ८८ प्रकृतिक, ये चार हैं । इस प्रकार अपूर्वकरण में बंध, उदय और सत्तास्थानों का निर्देश किया । अब संवेध का विचार करते हैं--
२८, २९, ३० और ३१ प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के ३० प्रकृतिक उदय रहते हुए कम से ८८, ८६, १२ और ६३ प्रकृतियों की सत्ता रहती है। एक प्रकृति का बंध करने वाले के ३० प्रकृतियों का उदय रहते हुए चारों सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि जो पहले २८, २९, ३० या ३१ प्रकृतियों का बंध कर रहा था, उसके देवगति के योग्य प्रकृतियों का बंध-विच्छेद होने पर १ प्रकृतिक बंघ होता है, किन्तु सत्तास्थान उसी क्रम से रहे आते हैं, जिस क्रम से यह पहले बांधता था। अर्थात् जो पहले २० प्रकृतियों का बंध करता था, उसके ८८ की, जो २६ का बंध करता था उसके ८६ की, जो ३० का बंध करता था उसके ६२ की और जो ३१ का बंध करता था उसके ६३ की सत्ता रही
१ अन्ये त्वाचार्या वते--आधसंहननत्रयान्यतमसंहननयुक्ता अप्युपशमश्रेणी
प्रतिपयन्ते तन्मतेन मंगा द्विसप्ततिः । एवमनिवृत्तिबादर-सूक्ष्मसंपराय-उपनान्तमोहेष्वपि द्रष्टव्यम् ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ. २३३ दिगम्बर परम्परा में यही एक मत पाया जाता है कि उपशमश्रेणि में प्रारम्भ के तीन संहननों में से किसी एक संहनन का उदय होता है । इसकी पुष्टि के लिये देखिये गो० कर्मकांड गाथा २६९
वेदतिय कोहमाणं मायासंजलणमेव सुहमंते । सुहमो लोहो सते वज्जणारायणाराय ।।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३४३
आती है । इसीलिये एक प्रकृतिक बंधस्थान में चारों सत्तास्थान प्राप्त
होते हैं।'
अपूर्वकरण गुणस्थान में बंध, उदय और सत्तास्थानों के संवेध का विवरण इस प्रकार है-
बंधस्थान
२८ प्रकृतिक
२६ प्रकृतिक
३० प्रकृतिक
३१ प्रकृतिक
१ प्रकृतिक
५
मंग उदयस्थान
१
१
१
ܕ
१
५.
ર્
३०
३०
३०
३०
५
मंग
२४ या ७२
२४ या ७२
२४ या ७२
२४ या ७२
२४ या ७२
१२० या ३६०
सत्तास्थान
EG
८६
દર્
६. ३
55, 58, ER, €3
म
(१-१०) अनिवृत्तिवावर, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान
नौवें और दसवें अनिवृत्तिवादर और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में
१ इहाष्टाविंशति एकोनत्रिंशत् त्रिशद्-एकत्रिंशदबंधकाः प्रत्येकं देवगति प्रायोग्यबंध व्यवच्छेदे सत्येक विधबन्धका भवन्ति, अष्टाविंशत्या दिवसकानां च यथाक्रममष्टाशीत्यादीनि सत्तास्थानानि तत एकविधबन्धे चत्वापि प्राप्यन्ते ।
--सप्ततिका प्रकरण टोका, १० २३३
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૪
प्रण
क्रमश: एक बंधस्थान, एक उदयस्थान और आठ सत्तास्थान हैं- एगेम मट्ठ' | जिनका स्पष्टीकरण निम्नानुसार है
अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में एक यशःकीर्ति प्रकृति का बंध होने से एक प्रकृतिक बंस्थान है तथा उदयस्थान भी एक ३० प्रकृतिक है और सत्तास्थान १३, ९२, ८६, ५ ८० ७६ ७६ और ७५ प्रकृतिक, ये आठ हैं। इनमें से प्रारंभ के चार सत्तास्थान उपशम श्रेणि में होते हैं और जब तक नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय नहीं होता तब तक क्षपकश्रेणि में भी होते हैं । उक्त चारों स्थानों की सत्ता वाले जीवों के १३ प्रकृतियों का क्षय होने पर क्रम से ८०, ७६, ७६ और ७५ प्रकृतियों की सत्ता प्राप्त होती है। अर्थात १३ की सत्ता वाले के १३ के क्षय होने पर ८० की, ६२ की सत्ता वाले के १३ का क्षय होने पर ७६ की, की सत्ता वाले के १३ का क्षय होने पर ७६ की और की सत्ता वाले के १३ का क्षय होने पर ७५ की सत्ता शेष रहती है । इस प्रकार यहाँ आठ सत्तास्थान जानना चाहिये । यहाँ बंघस्थान और उदयस्थान में भेद न होने से अर्थात् दोनों के एक-एक होने से संवेध सम्भव नहीं है । यानी यहां यद्यपि सत्तास्थान आठ होने पर भी बंधस्थान और उदयस्थान के एक-एक होने से संबंध को पृथक से कहने की आवश्यकता नहीं है ।
अनिवृत्तिबादर गुणस्थान की तरह सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में भी यथा: कीर्ति रूप एक प्रकृतिक एक बंधस्थान है, ३० प्रकृतिक उदयस्थान है तथा पूर्वोक्त ६३ आदि प्रकृतिक, आठ सत्तास्थान हैं। उक्त आठ सत्तास्मानों में से आदि के चार उपशमश्रेणि में होते हैं और शेष ८० आदि प्रकृतिक, अंत के चार क्षपकश्रेणि में होते हैं। शेष कथन अनिवृत्तिबादर गुणस्थान की तरह जानना चाहिये ।
अब उपशांतमोह आदि ग्यारह से लेकर चौदह गुणस्थान तक के भंगों का कथन करते हैं- 'छउमत्थकेवलिजिणा' ।
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স্বচ্ছ ক্ষমা
३४५
(११-१२) उपशांतमोह भीगमोह गुमास्थान ___ उपशान्तमोह आदि गुणस्थानों में बंधस्थान नहीं है, किन्तु उदयस्थान और सत्तास्थान ही हैं। अतएव उपशान्तमोह गुणस्थान में--'एग चऊ' अर्थात् एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान है और १३, ६२, ८६ और ८८ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान हैं।
क्षीणमोह गुणस्थान में भी एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान और ८०,७९, ७६ और ७५ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान होते हैं-'एग चऊ'। यहाँ उदयस्थान में इतनी विशेषता है कि यदि सामान्य जीव क्षपकश्रेणि. पर आरोहण करता है तो उसके मतान्तर से जो ७२ भंग बतलाये हैं वे प्राप्त न होकर २४ ही प्राप्त होते हैं ! क्योंकि उसके एक वनऋषभनाराच संहनन का ही उदय होता है।' यही बात क्षपकणि के पिछले अन्य गुणस्थानों में भी जानना चाहिये तथा यदि तीर्थक र प्रकृति की सत्ता वाला होता है तो उसके प्रशस्त प्रकृतियों का ही सर्वत्र उदय रहता है, इसीलिये एक भंग बतलाया है।
इसी प्रकार सत्तास्थानों में भी कुछ विशेषता है। यदि तीर्थकर प्रकृति की सत्ता बाला जीव होता है तो उसके ८० और ७६ की सत्ता रहती है और दूसरा (तीर्थकर प्रकृति की सत्ता रहित) होता है तो उसके ७६ और ७५ प्रकृतियों को सता रहती है। यही बात यथासम्भव सर्वत्र जानना चाहिये ।
१ ......"अन्न भंगाश्चतुर्विशतिरेव वर्षभनाराचसहननयुक्तस्यैव क्षपक. श्रेण्यारम्मसम्भवात् ।
सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २३४ २ एकोनाशीति-पंचसप्तती अतीर्थकर सत्कर्मणो वेवितव्ये । अशीति-षट्सप्सती तु तीर्थकरसत्कर्मणः।
सप्ललिका प्रकरण टीका, पृ. २३४
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सप्ततिका प्रकरण
(१३) सोगिकेवली गुणस्थान
सयोगिकेवली गुणस्थान में आठ उदयस्थान और चार सत्तास्थान हैं-'अट्टचाउ' । आठ उदयस्थान २०, २१, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक हैं तथा चार सत्तास्थान ८०, ६, ७६ और ७५ प्रकृतिक हैं 1 इनके संवेध का विचार पहले कर आये हैं अत: तदनुसार जानना चाहिये । सामान्य जानकारी के लिये उनका विवरण इस प्रकार है
बंधस्थान । मंग
उदमस्थान
|
मंग
सत्तास्थान
८०, ७६, ७६, ७५ ५०, ७६, ७६, ७५ ८०,७६
६०
।
२०
(१४) अयोगिकेवली गुणस्पान ___ अयोगिकेवली गुणस्थान में उदयस्थान और सत्तास्थान क्रमश:'दु छक्क' अर्थात दो उदयस्थान और छह सत्तास्थान हैं। इनमें से दो उदयस्थान और ८ प्रकृतिक हैं। नौ प्रकृतियों का उदय तीर्थकर
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पष्ठ कर्मग्रन्थ
३४७
-1
केवली के और आठ प्रकृतियों का उदय सामान्य केवली के होता है ।
छह सत्तास्थान ८०, ७६, ७६, ७५, ६ और ८ प्रकृतिक हैं। इस प्रकार अयोगि केवली गुणस्थान के दो उदयस्थान व छह सत्तास्थान जानना चाहिये। इनके संवेध इस प्रकार हैं कि ८ प्रकृतियों के उदय में ७६, ७५ और - प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं। इनमें से ७६ और ७५ प्रकृतिक सत्तास्थान उपान्त्य समय तक होते हैं और ८ प्रकृतिक सत्तास्थान अन्तिम समय में होता है तथा ६ प्रकृतियों के उदय में ८०, ७६ और प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं जिनमें से आदि के दो (८०, ७६) उपान्त्य समय तक होते हैं और प्रकृतिक सत्तास्थान अन्तिम समय में होता है।
अयोगिकेवली गुणस्थान के उदय सत्तास्थानों के संवेध का विवरण इस प्रकार है
बंधस्थान
भंग
सदयस्थान
मंग
।
सत्तास्थान
८०,७६,६ | ७६, ७५, ८
इस प्रकार से गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्ता स्थानों का विचार करने के बाद अब गति आदि मार्गणाओं में बंध, उदय और सत्ता स्थानों का विचार करते हैं।
१ तथाष्टोदयोनीर्थकरायोगिकेवलिनः, नवोदयस्तीर्यकरायोगिकेवलिनः ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २३४
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३४८
सप्ततिका प्रकरण.
मार्गणाओं में बन्धादिस्थान
दो छक्कटु चउपकं पण नव एक्कार छक्कगं उदया। नेरहआइसु संता ति पंच एक्कारस चउपकं ॥५१॥ ___ शहार्ष-दो कद धउनक-दो, छह, आठ और चार, पण नव एक्कार छक्कगं-पांच, नो, ग्यारह और छ, उक्याउदयस्थान, मेराइसु-नरकं आदि गतियों में, संतासत्ता, ति पंच एक्कारस घम-तीन, पांच, ग्यारह और चार।
गाथाघ-नारकी आदि (नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव) के क्रम से दो, छह, आठ और चार बन्धस्थान, पाँच, नौ, ग्यारह और छह उदयस्थान तथा तीन, पांच, ग्यारह और चार सत्तास्थान होते हैं। विशेषार्थ-इस गाथा में किस गति में कितने बन्ध, उदय और सत्तास्थान होते हैं, इसका निर्देश किया गया। नरक, तिर्यच, मनुष्य
और देव ये चार मतियां हैं और इसी क्रम का अनुसरण करके गाथा में पहले बन्धस्थानों की संख्या बतलाई है-'दो छक्कऽठ्ठ चउनको'अर्थात् नरकगति में दो, तियंचगति में छ, मनुष्यगति में आठ और देवगति में चार बन्धस्थान हैं । उदयस्थानों का निर्देश करते हुए कहा है.---'पण नव एक्कार छक्कगं उदया' | यानी पूर्वोक्त अनुक्रम से पांच, नो. ग्यारह और छह उदयस्थान हैं तथा-'ति पंच एक्कारस चउक्क'
१ तुलना कीजिये :--
दोपक्कचउपक गिरयादिमु गामबंघठाणाणि । पणणयएगारपणयं तिपंचवारसचउर्फ भ॥
-गो० कर्मकार, मा० ७१० कर्मग्रन्य में मनुष्यगति में ग्यारह सत्तास्थान हैं और गो० कर्मकांड में १२ सत्तास्थान तथा देवगति में फर्मग्रन्थ में ६ और गो० कर्मकांस में ५ उदयस्थान बतलाये हैं । इतना दोनों में अंतर हैं।
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ
३४६
तीन, पांच ग्यारह और चार सत्तास्थान हैं। जिनका विशेष स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है ।
नरकादि गलियों में अन्धस्थान
नरकगति में दो बन्धस्थान हैं- २६ और ३० प्रकृतिक । इनमें से २६ प्रकृतिक बन्धस्थान तिर्यंचगति और मनुष्यगति प्रायोग्य दोनों प्रकार का है तथा उद्योत सहित ३० प्रकृतिक बन्धस्थान तिर्यंचगतिप्रायोग्य हैं और तीर्थंकर सहित ३० प्रकृतिक बन्धस्थान मनुष्यगति प्रायोग्य है ।
तिर्यंचगति में छह बन्धम्न हैं- २३ २५ २६ २८, २६ और ३० प्रकृतिक | इनका स्पष्टीकरण पहले के समान यहाँ भी करना चाहिये, लेकिन इतनी विशेषता है कि यहाँ पर २६ प्रकृतिक बन्धस्थान तीर्थंकर सहित और ३० प्रकृतिक बन्धस्थान आहारकद्विक सहित नहीं कहना चाहिये। क्योंकि तिर्यचों के तीर्थंकर और आहारकढिक का बन्ध नहीं होता है ।
मनुष्यगति के
स्थान हैं— २३, २५, २६, २८, २६,३०, ३१ और १ प्रकृतिक | इनका भी स्पष्टीकरण पूर्व के समान यहाँ भी कर लेना चाहिये ।
देवगति में चार बन्धस्थान हैं- २५ २६ २६ और ३० प्रकृतिक | इनमें से २५ प्रकृतिक वन्धस्थान पर्याप्त, बादर और प्रत्येक के साथ एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बन्ध करने वाले देवों के जानना चाहिये । यहाँ स्थिर अस्थिर शुभ-अशुभ और यश: कीर्ति अयशः कीर्ति के विकल्प से ८ भंग होते हैं । उक्त २५ प्रकृतिक बन्धस्थान में आतप या उद्योत प्रकृति के मिला देने पर २६ प्रकृतिक बन्धस्थान होता है । २६ प्रकृतिक बन्धस्थान के १६ भंग होते हैं । २६ प्रकृतिक बन्धस्थान मनुष्यगतिप्रायोग्य या तियंचगतिप्रायोग्य दोनों प्रकार का होता है
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३५०
सप्ततिका प्रकरण तथा उद्योत सहित ३० प्रकृतिक बन्धस्थान तिर्यंचगतिप्रायोग्य है। इसके भंग ४६०८ होते हैं तथा तीर्थकर नाम सहित ३० प्रकृतिक बन्धस्थान मनुष्यगतिप्रायोग्य है । जिसके स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यश कीति-अयशःकीर्ति के विकल्प से - भंग होते हैं। __ अब नरक आदि गतियों में अनुक्रम से उदयस्थानों का विचार करते हैं कि नरकगति में २१, २५, २७, २८ और २६ प्रकृतिक, ये पांच उदयस्थान हैं। तिर्य चगति में नौ उदयस्थान है—२१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, मनुष्यगति में ग्यारह उदयस्थान हैं –२०, २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, 8 और ६ प्रकृतिक । देवगति में छह उदयम्थान है-२१, २५, २७, २८. २६ और ३० प्रकृतिक । इस प्रकार नरक आदि चारों गतियों में पांच, नौ, ग्यारह और छह उदयस्थान जानना चाहिये--- ‘पण नव एक्कार छक्कगं उदया' 1 __सत्तास्थानों को नरक आदि मतियों में बतलाते हैं कि-'संता ति रंच एक्कारस चउक' । अर्थात नरकगति में १२, ८६ और १८ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान हैं । तिर्यंचगति में पांच सत्तास्थान ६२, ८८, ८६, ८०, और ७८ प्रकृतिका हैं । मनुष्यगति में ग्यारह सत्तास्थान हैं.-६३, १२, ८६, ८८, ८६, ८०, ७६, ७६, ७५, ६ और ८ प्रकृतिक । देवमति में चार सत्तास्थान है --- ६३, ६२, ८१ और ८८ प्रकृतिक ।
इस प्रकार नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति के बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थानों को बतलाने के बाद अब उनके संवेध का विचार नरक, तिथंच, मनुष्य और देवगति के अनुक्रम से करते हैं।
मरक गति में संक्षेष-पंचेन्द्रिय तिर्यंचगति के योग्य २६ प्रकृतियों का बन्ध करने वाले नारकों के पूर्वोक्त २१, २५, २७, २८ और २६ प्रकृतिक, पाँच उदयस्थान होते हैं और इनमें से प्रत्येक उदयस्थान में ६२ और ८८ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं । तिर्यंचगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का बन्ध करने वाले जीव के तीर्थकर प्रकृति का बन्ध नहीं
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षष्ठ कर्मसन्य
होने से यहाँ ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं कहा है। मनुष्यगतिप्रायोग्य २६ प्रकृतियों का बन्ध करने वाले नारकों के पूर्वोक्त पांचों उदयस्थान और प्रत्येक उदयस्थान में ६२, ८६ और प्रकृतिक, ये तीन-तीन सत्तास्थान होते है। तीर्थंकर प्रकृति की सत्तावाला मनुष्य नरक में उत्पन्न होकर जब तक मिथ्यादृष्टि रहता है उसकी अपेक्षा तब तक उसके तीर्थंकर के बिना २६ प्रकृतियों का बन्ध होने से २६ प्रकृतिक बन्धस्थान में प्रकृति का सत्तास्थान बन
जाता है ।
|
नरकगति में ३० प्रकृतिक बन्धस्थान दो प्रकार से प्राप्त होता है - एक उद्योतनाम सहित और दूसरा तीर्थंकर प्रकृति सहित जिसके उद्योत सहित ३० प्रकृतिक बन्धस्थान होता है उसके उदयस्थान तो पूर्वोक्त पांचों ही होते हैं किंतु सत्तास्थान प्रत्येक उदयस्थान में दो-दो होते हैं-६२ और प्रकृतिक तथा जिसके तीर्थंकर सहित ३० प्रकृतिक बन्धस्थान होता है, उसके पाँचों उदयस्थानों में से प्रत्येक उदयस्थान में प्रकृतिक एक-एक सत्तास्थान ही होता है ।
इस प्रकार नरकगति में सब बन्धस्थान और उदयस्थानों की अपेक्षा ४० सत्तास्थान होते हैं, जिनका विवरण निम्न प्रकार है
बंधस्थान
२६ प्रकृतिक
भंग
२१६
उदय स्थान
२१
ܕ
२७
१८ ર્
ced
मंग
१
१
३५१
१
१
१
सत्तास्थान
ER, ê, 55
६२, ८६, ६८
£3, 58, 55
६२, ६६, ६६
ER, E, 55
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३५२
सप्तसिका प्रकरग
बंधस्थान
मंग
उगमस्थान
भंग
सत्तास्थान
३० प्रकृतिक
६२, ८६, 45 ६२, ८६, ८८ | १२, ६, ८८ |६२, ६१,८८
१२, ८६, ८८
तिर्यचगति में संवेष-छह बंधस्थानों में से २३ प्रकृतिक बंधस्थान में यद्यपि पूर्वोक्त २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये नौ ही उदयस्थान होते हैं। लेकिन इनमें से प्रारम्भ के २१, २४, २५ और २६ प्रकृतिक, इन चार उदयस्थानों में से प्रत्येक में ६२, ६, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक, ये पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं और अन्त के पांच उदयस्थानों में से प्रत्येक में ७८ प्रकृतिक के बिना चार-चार सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि २७ प्रकृतिक आदि उदयस्थानों में नियम से मनुष्यद्विक की सत्ता सम्भव है। अत: इनमें ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं पाया जाता है।
इसी प्रकार २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक बंधस्थान वाले जीवों के बारे में भी जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिप्रायोग्य २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले जीव के सब उदयस्थानों में ७ के बिना चार-चार सत्तास्थान ही सम्भव हैं। क्योंकि मनुष्यद्विक का बंध करने वाले के ७८ प्रकृतिक सत्तास्थान सम्भव नहीं है।
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षष्ठ कर्मग्रम्य
३५.३
२८ प्रकृतिक संघस्थान वाले जीव के २१, २५, २६, २७, २५, २६, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये आठ उदयस्थान होते हैं। इसके २४ प्रकृतिक उदयस्थान न होने का कारण यह है कि यह एकेन्द्रियों के ही होता है और एकेन्द्रियों के २८ प्रकृतिक बंधस्थान नहीं होता है। इन उदयस्थानों में से २१, २६, २८, २९ र ३० प्रकृतिक ये पांच उदयस्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि या मोहनीय की २२ प्रकृतियों की सत्ता वाले वेदक सम्यग्दृष्टियों के होते हैं तथा इनमें से प्रत्येक उदयस्थान में २ और प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं । २५ और २७ प्रकृतिक, ये दो उदयस्थान विक्रिया करने वाले तियंचों के होते हैं। यही भी प्रत्येक उदयस्थान में ६२ और प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं तथा ३० और ३१ प्रकृतिक, ये दो उदयस्थान सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुए सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि तियंचों के होते हैं। इनमें से प्रत्येक उदयस्थान में ६२८८ और ६ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं। लेकिन यह विशेष जानना चाहिये कि ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान मिथ्यादृष्टियों के ही होता है, सम्यग्दृष्टियों के नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि तिर्यंचों के नियम से देवद्विक का बंध सम्भव हैं ।
इस प्रकार यहाँ सब बंधस्थानों और सब उदयस्थानों की अपेक्षा २१८ सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि २३, २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक इन पांच बंधस्थानों में से प्रत्येक में से चालीस-चालीस और २८ प्रकृतिक बंधस्थान में अठारह सत्तास्थान होते हैं । अत: ४०५ + १५ = २१८ इन सब का जोड़ होता है ।
1
तिर्यंचगति सम्बन्धी नामकर्म के बंध, उदय और सत्ता स्थानों के संबंध का विवरण निम्न अनुसार जानना चाहिये -
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सप्ततिका प्रकरण
बंषस्थान
| मंग
उदयस्थान
|
मंग
ससास्थान
प्रकृतिक
६२,८८,६६, ८०, ७८ ६२,६८, ८६, ८०, ७८ ६२,१८, ६६,८०,७८ ६२, ८, ६, ८०, ७८ ६२, ८८, ८६, ८० १२. ८८, ८६, ८० १२, ८८, ६, ८० ९२, ८८, ८६, ८० | ९२, ८, ८६, ८०
११८० १७५४
प्रकृतिक
३११
६२, ८८, ६६, ६०, ७८ ६२, ८८, ८६, ८०, ७५ १२, ८८, ८६, ८०, ७८ ६२,८८, ८६, F०, ७८ १२, ८८, ८६, ८० ६२, ८८, ८६, ८० १२, १८,८६, ८० १२, ८८, ८६, ८० ६२, ८८, ८६, ८०
११८०
१७५४
प्रकृतिक
१२, ८, ८६,८०, ७८ ६.२, ८८, ८६, ६०, ७५ १२, ८८, ८६,६०, ७८ ६२,८८, ६, १०, ७८ ६२, ८, ८६, ८० ६२, ८८, ८६, १० ६.२, ८८, ८६, ५० ६२,८८,८६, 10 १२, १८, १६, ८०
५६८ ११८० १७५४
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
बंधस्थान
| मंग
उदयस्थान
मंग
सत्तास्थान
८
६२, ८८
प्रकृतिक
१२, ८८
२८
५६२ ११६८ १७३६ ११५२
६.२, ८ ६२, ६८ ६२, ६२. म८ ६२, ८८, ८६ ६२, ८८, ८६
___
६२४०
२३
प्रकृतिक
१५
१४
२, ८८, ८६, ८० ६२, ८८, ८६, ८ ६२,८८, ८६, ८० १२,८८,८६, 5. ६२, ५, ८६, ८. ६२, ८८, ८६, का ६२, ८८, ८६, ८० ६२,८८,८६, ६२,८८,८६, ८
५६E ११८० १७५४ ११६८
प्रकृतिका
१५ ३११
| ६२, ८८, ८६, र ६२,८८, ८६, १२, १५, १६, ८. ६२, ५८, १६, ६२, ८८, ८६, ८। १२, ८८, २६, ८। ६२, १८, १६, १२, ८८, ८६, ६.२, ५८, ६६, ८।
५१८ ११८० १७५४
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३५६
सप्ततिका प्रकरण मनुष्यगति में संबैध-- मनुष्यगति में २३ प्रकृतियों का बंध करने वाले मनुष्य के २१, २२, २६, २७, २८, २९, ३० प्रकृतिक, ये सात उदयस्थान होते हैं। इनमें से २५ और २७ प्रकृतिक, ये दो उदयस्थान विक्रिया करने वाले मनुष्य के होते हैं किन्तु आहारक मनुष्य के २३ प्रकृतियों का बंध नहीं होता है, अत: यहाँ आहारक के नहीं लेना चाहिये । इन दो उदयस्थानों में से प्रत्येक में १२ और ८८ प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं तथा शेष पांच उदयस्थानों में से प्रत्येक में ६२, ८८, ८६ और ८० प्रकृतिक, ये चार-चार सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार २३ प्रकृतिक बंधस्थान में २४ सत्तास्थान होते हैं ।
इसी प्रकार २५ और २६ प्रकृतिक बंधस्थानों में भी चौबीसचौबीस सत्तास्थान जानना चाहिये ।
मनुष्यगतिप्रायोग्य और तिर्यंचगतिप्रायोग्य २ प्रकृतिक बंधस्थानों में भी इसी प्रकार चौबीस-चौबीस सत्तास्थान होते हैं।
२८ प्रकृतिक बंधस्थान में २१, २५, २६, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिक, ये सात उदयस्थान होते हैं। इनमें से २१ और २६ प्रकृतिक ये दो उदयस्थान सम्यग्दृष्टि के करण-अपर्याप्त अवस्था में होते हैं। २५ और २७, ये दो उदयस्थान वैक्रिय या आहारवासंयत के तथा २८ और २६, ये दो उदयस्थान विक्रिया करने वाले, अविरत सम्यग्दृष्टि और आहारकसंयत के होते हैं। ३० प्रकृतिक उदयस्थान सम्यग्दृष्टि या मिथ्या दृष्टियों के होता है। इन सब उदयस्थानों में १२ और मम प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं। इसमें भी आहारकसंयत के एक ६२ प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है। किन्तु नरकगतिप्रायोग्य २८ प्रकृतियों का बंध करने वाले के ३० प्रकृतिक उदयस्थान में १२, ८६, ८८ और ८६ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार २८ प्रकृतिक बंधस्थान में १६ सत्तास्थान होते हैं ।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३५७ तीर्थकर प्रकृति के साथ देवगतिप्रायोग्य २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले के २८ प्रकृतिक बंधस्थान के समान सात उदयस्थान होते हैं, किन्तु इतनी विशेषता है कि ३० प्रकृतिक उदयस्थान सम्यग्दृष्टियों के ही कहना चाहिये, क्योंकि २६ प्रकृतिक बंधस्थान तीर्थंकर प्रकृति सहित है और तीर्थंकर प्रकृति का बंध सम्यग्दृष्टि के ही होता है । इन सब उदयस्थानों में से प्रत्येक में ६३ और ८९ प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं। इसमें आहारकसंयत के ६३ प्रवृत्तियों की ही सत्ता होती है। इस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति सहित २६ प्रकृतिक बंधस्थान में चौदह सत्तास्थान होते हैं।
आहारकद्विक सहित ३० प्रकृतियों का बंध होने पर २६ और ३० प्रकृतिक दो उदयस्थान होते हैं। इसमें से जो आहारकसंयत स्वयोग्य सर्व पर्याप्ति पूर्ण करने के बाद अंतिम काल में अप्रमत्तसंयत होता है. उसकी अपेक्षा २६ का उदय लेना चाहिये । क्योंकि अन्यत्र २६ के उदय में आहारकदिक के बंध का कारणभूत विशिष्ट संयम नहीं पाया जाता है। इससे अन्यत्र ३० का उदय होता है । सो इनमें से प्रत्येक उदयस्थान में १२ की सत्ता होती है।
३१ प्रकृतिक बंधस्थान के समय ३० का उदय और ६३ की सत्ता होती है तथा १ प्रकृतिक बंधस्थान के समय ३० का उदय और ६३, ६२, ६६, ८८, ८०, ७६, ७६ और ७५ प्रकृतिक, ये आठ सत्तास्थान होते हैं।
इस प्रकार २३, २५ और २६ के बंध के समय चौबीस-चौबीस सत्तास्थान, २८ के बंध के समय सोलह सतास्थान, मनुष्यगति और लियंचगति प्रायोग्य २६ और ३० के बंध में चौबीस-चौबीस सत्तास्थान, देवगतिप्रायोग्य तीर्थकर प्रकृति के साथ २६ के बंध में चौदह सत्तास्थान, ३१ के बंध में एक सत्तास्थान और १ प्रकृतिक बंध में आठ सत्तास्थान होते हैं । इस तरह मनुष्य गति में कुल १५६ सत्तास्थान होते हैं ।
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सप्ततिका प्रकरण
संस्थान जदप्रस्थान
|
!
सत्तास्थान
८६,५३
प्रकृतिक
६.२, ८८ | ६२, ८८, ८६, ८०
६२, ६८ ६२, ८, ८६, ५० । ६२, ८, १६, ५० | ६३, ८, ६, ८.८
प्रकृतिक
|६२,८८, ८६, ८० | ८२, ८८ | १२, २५, २६, ६५ | १२, ८८ | ६३, ६८, १६, २०
६६, ५८, ८६, ८७ | ६.२, ८८, ८६, ८०
"
५८४
११५२
६२, ५८, ६, ८०
राकृतिक
૨૯
५८४
1 ६२, ८८, ८६, ५०
६२, ८८ ६२,८८, ८६,८० ६५, ८१, ८६, ८० ६२.८५, ६, ६०
५८४
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________________
षष्ठ कर्मग्रन्थ
बंधस्थान
उदरस्थान
सत्तास्थान
२८
प्रकृतिक
२८८
६२, ८ ६२, ८८ ६२, ८८ ६२, ८ ६२, ८८ ६२, ८ ६२, ८६, ८५, १६
५८४ ११५२
प्रकृतिक
६ | ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०
९३,६२, ८६. २८९६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०
६२,६२, ६६, ८ ५८७ ६३, ६२, ८६, ८, ८६, ८० ५८७ १६३, ९२, ८६, ८८, ८६, ८० ११५४ ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०
प्रकृतिक
२५६
२६ ५८४
| ६२, ८५, ६, ८० ६२, ८८ ६२, ५, ६, ८० ६२, ८६ ६२, ८८, ८६, ८० १२, ८८, ८६, ८० १२.८८, ८६, ८०
३१ प्रकृतिक
१ प्रकृतिक
६२,६२.८६,८८,८०,७६,७६,७५
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________________
सप्ततिका प्रकरण
देवगति में संवेध-देवगति में २५ प्रकृतियों का बंध करने वाले देवों के देव सम्बन्धी छहों उदयस्थान होते हैं । जिनमें से प्रत्येक में हर और ८८ प्रकृतिक ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं। इसी प्रकार २६ और २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले देवों के भी जानना चाहिए। उद्योत सहित तिर्यंचगति के योग्य ३० प्रकृतियों का बंध करने वाले देवों के भी इसी प्रकार छह उदयस्थान और प्रत्येक उदयस्थान में १२ और ८८ प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं परन्तु तीर्थंकर प्रकृति सहित ६० प्रकृत्तियों का बंध करने वाले देवा के छह उदयस्थानों में से प्रत्येक उदयस्थान में १३ और १६ प्रकृतिक, ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार यहाँ कुल ६० सत्तास्थान होते हैं ।
बंधस्थान
मंग
उदयस्थान
सत्तास्थान
प्रकृतिक
Hin
६२, 55 ६२, ८ १२, ८८ ६२,८८ ६२,८ ६२, ८८
प्रकृतिक
६२, ८८ ६२, ८८ ६२, ६८ ६२,६८ ६२, ८८ ६२, ८८
12
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________________
षष्ठ कर्मग्रन्थ
बंधस्थान
उदयस्थान
मंग २१६
प्रकृतिक
rman.
सत्तास्थान ६२, ६५ ६२,८८ ६२, ८८ ६२, ८८ १२, ८८ १२, ८८
प्रकृतिक
an a
६३, ६२, ८६, ८८ ६३, ६२, ८६, ८८ ६३, ६२, ८६, ८ १३, ६२, ८६, ८८
६३,६२, ८६, ८८ | ६३, ६२, १६, ८
इस प्रकार से गतिमार्गणा में बंध, उदय और सत्ता स्थान तथा उनके संवेध का कथन करने के बाद अब आगे की गाथा में इन्द्रियमार्गणा में बंध आदि स्थानों का निर्देश करते हैं
इग विलिदिय सगले पण पंच य अट्ट अंधठाणाणि । पण छक्केक्कारक्या पण पण बारस य संताणि' ॥५२॥
१ तुलना कीजिये(क) इगि विगले पण बंधो अहवीसूणा उ अट्ठ इयरंमि । पंच छ एक्कारुदया पण पण बारस उ संताणि ॥
-पंचसंग्रह सप्ततिका गा० १३० (ख) एगे वियले सयले पण पण अज पंच छक्केगार पर्ण । पणतेरं बंधादी सेसादेसेवि इदि गेयं ।।
–गो० कर्मकांड गा० ७११ कर्भ ग्रंथ में पंचेन्द्रियों के १२ सत्तास्थान और गो० कर्मकांच में १३ सत्तास्थान बतलाये हैं।
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३६२
सप्ततिका प्रकरण
शम्वार्ष—इम विगतिविय सगले-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय (पंचेन्द्रिय) में, पण पंच में अट-पांच, पांच और आठ, संघठाणाणि-बंधस्थान, पण छमकेरकार---पांच, छह और ग्यारह, सक्या-उदयस्थान, पण-पण बारस-पाँच, पाँच और बारह, य-और, संताणि-सत्तास्थान ।
गाथार्थ-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय में अनुक्रम से पांच, पांच और आठ बंधस्थान; पांच, छह और ग्यारह उदयस्थान तथा पांच, पांच और बारह सत्तास्थान होते हैं । विशेषाय-- पूर्व गाथा में गतिमागणा के चारों भेदों में नामकर्म के बंध आदि स्थानों और उनके संवेध का कथन किया गया था। इस गाथा में इन्द्रियमार्गणा के एकेन्द्रिय आदि पांच भेदों में बंधादि स्थानों का निर्देश करते हुए अनुक्रम से बताया है कि 'पण पंच य अट्ठ बंधठाणाणि' एकेन्द्रिय के पांच, विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) के पांच तथा पंचेन्द्रिय के आठ बंधस्थान है। इसी प्रकार अनुक्रम से उदयस्थानों का निर्देश करने के लिये कहा है कि-'पण छक्केक्कारुदया'- एकेन्द्रिय के पांच. विकलेन्द्रियों के छह और पंचेन्द्रियों के म्यारह उदयस्थान होते हैं तथा 'पण पण वारस य संताणि'–एकेन्द्रिय के पांच, विकलेन्द्रियों के पांच और पंचेन्द्रियों के बारह सत्तास्थान हैं । इन सब बंध आदि स्थानों का स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है। ___कुल बंधस्थान आठ हैं, उनमें से एकेन्द्रियों के २६, २५, २६, २६
और ३१ प्रकृतिक, ये पांच बंधस्थान हैं। विकलेन्द्रियों में से प्रत्येक के भी एकेन्द्रिय के लिये बताये गये अनुसार ही पांच-पांच बंधस्थान हैं तथा पंचेन्द्रियों के २३ आदि प्रकृतिक आठों बंधस्थान हैं।
उदयस्थान बारह है। उनमें से एकेन्द्रियों के २१. २४, २५, २६ और २७ प्रकृतिक, ये पांच उदयस्थान होते हैं। विकलेन्द्रियों में से प्रत्येक के २१, २६, २८, २६.३० और ३१ प्रकृतिक, ये छह-छह उदय
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पषठ कर्मग्रन्थ
३६३ स्थान होते हैं तथा पंचेन्द्रियों के २०, २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ६ और 5 प्रकृतिक, ये ग्यारह उदयस्थान होते हैं। __सत्तास्थान कुल बारह हैं, जिनमें से एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में से प्रत्येक के १२, ८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक, ये पांच-पांच सत्तास्थान हैं तथा पंचेन्द्रियों के बारहों ही सत्तास्थान होते हैं।
इस प्रकार एकेन्द्रिय आदि में से प्रत्येक के बंध, उदय और सत्ता स्थानों को बतलाकर अब इनके संवेध का विचार करते हैं।
एकेन्द्रिय-२३ प्रकृतियों का बंध करने वाले एकेन्द्रियों के प्रारम्भ के चार उदयस्थानों में से प्रत्येक उदयस्थान में पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं तथा २७ प्रकृतिक उदयस्थान में ७८ को छोड़कर शेष चार सत्तास्थान होते हैं। इसी प्रकार २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक बंधस्थानों के भी उदयस्थानों की अपेक्षा सत्तास्थान जानना चाहिये । इस प्रकार २३ प्रकृतिक बंधस्थान में पांच उदयस्थानों की अपेक्षा प्रत्येक में २४ सत्तास्थान होते हैं, जिनका कुल जोड़ १२० है। ये सब सत्तास्थान एकेन्द्रिय के हैं। बंधस्थान ] मंग उदयस्थान | मंग
सत्तास्थान
--
.
-...
प्रकृतिक
६२, ८, ९६,८०, ७८ ६२,८८, ८६,८०, ७० ६२, 55, ८६, ८०, ७५ ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ ६२, ८८, ८६, ८०
प्रकृतिक
६२, ८, ८६, ८०, ७८ ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ ६२, ८८, ८६, ८०,७८ ६२, १८, ८६, ८०, ७८ ९२, ८८, ८६, ८०
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३६४
सप्ततिका प्रकरण
बंधस्थान
मंग
उखमस्थान
मंग
सत्तास्थान
प्रकृतिक
६२, १८, ८६,८०, ७८ ३२, ५८, २, ७८ ६२, दम, ८६, ८०, ७८ ६२, ८८, ८६, ८०, ५८ ६२, ८, ६६, ८०
२४०
प्रकृतिक
| ६२, ८८, ६, ८०, ७८
१२, ८, ८६, ८०,७८ ६२, ८८, ८६,८०, ७० ६२,८८,८६, ८०, ५८ १२,८८,८६, ८०
३०
प्रकृतिका
६२,८८, ८६, ८०, ७६ ६२,८८, ८६, ८०, ५८ ६२, ८८, ८६, ६०, ७%D ६२, ८८, ८६, ७,७७ ६२, ८८, ८६, ८०
विकलेन्द्रिय-विकलेन्द्रियों में २३ का बन्ध करने वाले जीवों में २१ और २६ प्रकृतियों के उदय में पांच-पांच उदयस्थान होते हैं तथा शेष चार उदयस्थानों में से प्रत्येक में ७८ के बिना चार-चार सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार २३ प्रकृतिक बन्धस्थान में २६ सत्तास्थान हुए। इसी प्रकार २५, २६, २६. और ३० प्रकृतिक बन्धस्थानों में भी अपने-अपने उदयस्थानों की अपेक्षा २६-२६ सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार विकलेन्द्रियों में पांच बन्धस्थान में छह उदयस्थानों के कुल मिलाकर १३० सत्तास्थान होते हैं ।
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________________
षष्ठ कर्मग्रन्ध
बंधस्थान
मंग
उदयस्थान
भंग
सत्तास्थान
प्रति
प्रकृतिक
६२,८८, ८६, ५०, ७८ | १२, ६, ८६, ८०, ७५ ६२, ८८, ८६, १० ६२, ५, ६, ८० ६२, ८, ८६, ८० ६२, ८८, ८६, १० ६२, ५, ८६, ८०, ७८ ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ ६२, ८८, ८६, ८० १२, १६, ८६, ८० ६२, , ८६, ८० ६२, ८८, ८६, ८० १२, ८८, ८६, ८०, ७८ १२,८८, ८६, ८०, ७८ ६२,८,८६,50 १२, ८८, ८६.८० ६२,८८,६,८० ६२, ८,८६,
प्रकृतिक
२४०
प्रकृतिक
६२, ८८,८६, ८०, ७८ | १२,८८,८६, ८०, ७०
१२, ८८, ८६, ८० ६२,८८,८६, ८० ६२, ५८, ६, ८० ६२, ८८, ८६.८०
10 PPY Trm m
प्रकृतिक
६२, ८८, ८६, ८०,७८ ६२,८८,६६,८०,७८ १२,८८, ८६, ८० ६२,८८, ८६, ८०
१२, ८,८६, ८० । ६२,८८,८६, ८०
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३६६
सप्ततिका प्रकरण __पंचेविय-पंचेन्द्रियों में २३ प्रकृतियों का बन्ध करने वाले के २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये छह उदयस्थान होते हैं । इनमें से २१ और २६ प्रकृतिक उदयस्थानों में पूर्वोक्त पांच-पांच और शेष चार उदयस्थानों में ७८ के बिना चार चार सत्तास्थान होते हैं । कुल मिलाकर यहाँ २६ सत्तास्थान है।
२५ और २६ का बन्ध करने वाले के २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृत्तिक, ये आठ-आठ उदयस्थान होते हैं। इनमें से २१ और २६ प्रकृतिक, इन दो उदयस्थानों में से प्रत्येक में पांच-पांच सत्तास्थान पहले बताये गये अनुसार ही होते हैं । २५ और २७ इन दो में ६२ और १८ ये दो-दो सत्तास्थान तथा शेष २८ आदि चार उदयस्थानों में ७८ के बिना चार-चार सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार २५ और प्रकृतिक बन्धस्थानों में से प्रत्येक में ३०-३० सत्तास्थान होते हैं।
२८ प्रकृतियों का बन्ध करने वाले के २१. २५, २६, २७, २८, २६ ३० और ३१ प्रकृतिक, ये आठ उदयस्थान होते हैं। ये सब उदयस्थान लियंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों संबंधी लेना चाहिये । क्योंकि २८ का बन्ध इन्हीं के होता है। यहाँ २१ से लेकर २६ तक छह उदयस्थानों में से प्रत्येक में १२ और ८८ प्रकृतिक ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं। ३० के उदय में ६२, ८६, ८८ और ८६ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान होते हैं। जिनमें से ८६ की सत्ता उस मनुष्य के जानना चाहिये जो तीर्थकर प्रकृति की सत्ता के साथ मिथ्या दृष्टि होते हुए नरकगति के योग्य २८ प्रकृतियों का बन्ध करता है तथा ३१ के उदय में ९२, १८ और ८६, ये तीन सत्तास्थान होते हैं । ये तीनों सत्तास्थान तिर्यंच पंचेन्द्रिय की अपेक्षा समझना चाहिये, क्योंकि अन्यत्र पंचेन्द्रिय के ३१ का उदय नहीं होता है । उसमें भी ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान मिथ्याष्टि तिर्यंच पंचेन्द्रियों के होता है, सम्यग्दृष्टि तिथंच पंचेन्द्रिय के नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि तिर्यंचों के नियम से देवद्विक का बन्ध होने लगता
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३६७ है अत: उनके ८६ प्रकृतियों की सत्ता सम्भव नहीं है। इस प्रकार २८ प्रकृतिक बन्धस्थान में कल १६ सत्तास्थान होते हैं।
२९ प्रकृतियों का बन्ध करने वाले के ये पूर्वोक्त आठ उदयस्थान होते हैं। इनमें से २१ और २६ प्रकृतियों के उदय में १२, ८८,१६, ८०, ७८, ६३ और ८६ प्रकृतिक ये सात-सात सत्तास्थान होते हैं । यहाँ तिर्यंचगतिप्रायोग्य २६ का बन्ध करने वालों के प्रारम्भ के पात्र, मनुष्यगतिप्रायोग्य २९ का बन्ध करने वालों के प्रारम्भ के बार और देवगतिप्रायोग्य २६ का बन्ध करने वालों के अंतिम दो सत्तास्थान होते हैं । २८, २६ और ३० के उदय में ७८ के बिना पूर्वोक्त छह-छह सत्तास्थान होते हैं। ३१ के उदय में प्रारम्भ के चार और २५ तथा २७ के उदय में १३, ६२, ८६ और ८८ प्रकृतिक, ये चार-चार सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार २६ प्रकृतिक बन्धस्थान में कुल ४४ सत्तास्थान होते हैं।
३० प्रकृतियों का बन्ध करने वाले के २६ के बन्ध के समान वे ही आठ उदयस्थान और प्रत्येक उदयस्थान में उसी प्रकार सत्तास्थान होते हैं । किन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि २१ के उदय में पहले पाँच सत्तास्थान तियंचगतिप्रायोग्य ३० का बन्छ करने वाले के होते हैं और अंतिम दो सत्तास्थान मनुष्यगतिप्रायोग्य ३० का बन्ध करने वाले देवों के होते हैं तथा २६ के उदय में ६३ और ८९ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान नहीं होते हैं, क्योंकि २६ का उदय तियंच और मनुष्यों के अपर्याप्त अवस्था में होता है परन्तु उस समय देवगतिप्रायोग्य या मनुष्यगतिप्रायोग्य ३० का बन्ध नहीं होता है, जिससे यहाँ ६३ और ८६ की सत्ता प्राप्त नहीं होती है । इस प्रकार ३. प्रकृतिक बन्धस्थान में कुल ४२ सत्तास्थान प्राप्त होते हैं।
३१ और १ प्रकृति का बन्ध करने वाले के उदयस्थानों और सत्तास्थानों का संवैध मनुष्यगति के समान जानना चाहिये।
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________________
३६८
बंध स्थान
२३ प्रकृतिक
२५ प्रकृतिक
२६ प्रकृतिक
मंग
४
२५
१६
उदय स्थान
२१
१८
२६ ५१८
२८
११५२
२६
१७२८
:
१८८०
३१
११५२
קו
मंग
२१
२५
२६
२७
२८
२६
३०
३१
२६
५
५७८
5
११६८
१७४४
२८८५
११५२
२१
२५
२६
૭
२८ ११६८
२६
१७४४
३०
३१
२६
५७८
Է
२८८६
११५६
१२,८८,८६,८०७८
६२,८८, ६, ८०, ७८
६२,६८,६६, ८०
६२,८८,८६,८०
R. 5.3.5.3
६२, ६, ८०
६२,८८
६२,६६,५६,८०७८
सप्ततिका प्रकरण
सप्तास्थान
२२,८८
८ ६२, ८६
६२,८८,८६,८०७८
१२,८६,८०, ७८
६२,८६,६६,५०,७८
१२,८८,८६,505
६२,८८,८६,८०, ७८
६२,८८,८६,८०७८
६२,८८
२,८६,८०७८
१२,८८,८६,८०
२,८८,८६,८०
२, ८६०
६२,८६,50
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
बंध स्थान मंग
२८ प्रकृतिक
२६ ६२४८ प्रकृतिक
३० प्रकृतिक
३१ प्रकृतिक
E
१ प्रकृतिक
४६४१
उवयस्थान
१
२१
२५
૨૬
२७
२८
२६
३०
३१
म
२१
२५
२६
२७
२८
E
३०
생장
३१
mnz
३०
३१
१ ३०
भंग
३०
१६ ६२,८८
A
६२८८
६२,८८
५७३
८
११५६
१७२८
२८८०
११५६
२१
२५
२६
२७
२८
११६६
२६ १७४५
२८६६
११५६
૧૭
५७८
ह.
११६६
१७४५
२८८५
११५६
२७
£
५७६
६
१४४
१४४
सत्तास्थान
ER, 55
९२ ८
१२, ८५
६२, ८६०५ ८६
६२,
८६
६२,८८,८६,८०७८ ९३, ८६ ३,६२,८६,८६ ६२,८८,८६,८०७८६३, ८६ १३ १२ प
६३, ६२, ८६, ८६, ८६, ५०
६३, ६२, ८६, ८५ ८६ ८०
६३, १२, ६, ८, १६८० £3, 55, 56, 50
३६६
६३, ६२, ८६, ६८ ६६,८०७८
Gê, ER, E, 55
६२,८८,८६,८०७८
६३, ६२, ६, ८८
2, 3, 5, 55, 5, 50 ६३, १२, ८६, ८६, ८६, ६० ६३,६२,६८,८६,८० ६३, १२,८६,55, 50
३
१३,६२,८१,८८,८०,७६,७६,७५
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सप्ततिका प्रकरण
इस प्रकार इन्द्रिय मार्गणा की अपेक्षा नामकर्म के बंध, उदर और सत्ता स्थानों तथा उनके संवेघों का कथन जानना चाहिये । ___ अब आगे की माथा में बंध आदि स्थानों के आठ अनुयोगद्वारों में कथन करने का संकेत करते हैं...
इय कम्भपगइठाणाई सुठु बंधुक्यसंतम्माणं । गइआइएहि असु चउष्पगारेण नैयाणि ॥५३॥
शवार्य-य-पूर्वोक्त प्रकार से, कम्मपगाठाणाई--कर्म प्रकृतियों के स्थानों को, सुकु अत्यन्त उपयोगपूर्वक, बंधुपपसंत
-बंध, र । पपी कर्म न पृशियों के, गहआइएहि-गति आदि मार्गणास्थानों के द्वारा, अटुसु-आठ अनुयोगहारों में, उपपगारेण--चार प्रकार से. नेवाणि-जानना चाहिये। ___लाचार्थ --ये पूर्वोक्त बंध, उदय और सत्ता सम्बन्धी कर्म प्रकृतियों के स्थानों को अत्यन्त उपयोगपूर्वक गति आदि मार्गणास्थानों के साथ आठ अनुयोगद्वारों में चार प्रकार से जानना चाहिये।
विशेषार्ष-~इस माथा से पूर्व तक ज्ञानावरण आदि आठ वार्मों की मूल और उत्तर प्रकृतियों के बंत्र, उदय और सत्ता स्थानों का सामान्य रूप से तथा जीवस्थान, गुणस्थान, गतिमार्गणा और इन्द्रियमार्गणा में निर्देश किया है। लेकिन इस गाथा में कुछ विशेष संकेत करते हैं कि जैसा पूर्व में गति आदि मार्गणाओं में कथन किया गया है, उसके साथ उनको आठ अनुयोगद्वारों में घटित कर लेना चाहिये। इसके साथ यह भी संकेत किया है कि सिर्फ प्रकृतिबंध रूप नहीं किन्तु 'चउप्पगारेण नेयाणि' प्रकृतिबंध के साथ स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप से भी घटित करना चाहिये । क्योंकि ये बंध, उदय और
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ
३७१
सत्ता रूप सब कर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार-बार प्रकार के हैं।
इन चारों प्रकार रूप कर्मों को किन में और किसके द्वारा घटित करने के लिए गाथा में संकेत किया है कि-- भासद गद्धा गति आदि घौदह मार्गणाओं के द्वारा आठ अनुयोगद्वारों में इनया चिन्तन करना है। ___मार्गणा शब्द का अर्थ अन्वेषण करना है । अत: भार्गणा का यह अर्थ हुआ कि जिनके द्वारा या जिनमें जीवों का अन्वेषण किया जाता है, उन्हें मार्गणा कहते हैं । मार्गणा के चौदह भेद इस प्रकार हैं
गाविए पकाए जोए वेए कसाय मागे ।
संजम बंसण लेता भग सम्मे सम्मि माम्हारे । १ गति, २ इन्द्रिय, ३ काय, ४ योग, ५ वेद, ६ कषाय, ७ ज्ञान, ८ संयम, दर्शन, १० लेश्या, ११ भव्यत्व, १२ सम्यक्त्व, १३ संज्ञी और १४ आहार । इनके १४ भेदों के उत्तर भेद ६२ होते हैं।
वर्णन की यह परम्परा है कि जीव सम्बन्धी जिस किसी भी अवस्था का वर्णन करना है, उसका पहले सामान्य रूप से वर्णन किया जाता है और उसके बाद उसका विशेष चिन्तन चौदह मार्गणाओं द्वारा आठ अनुयोगद्वारों में किया जाता है। अनुयोगद्दार यह अधिकार का पर्यायवाची नाम है और विषय-विभाग की दृष्टि से ये अधिकार होनाधिक भी किये जा सकते हैं। परन्तु मार्गणाओं का विस्तृत विवेचन मुख्य रूप से आठ अधिकारों में ही पाया जाता है, अत: मुख्य रूप से आठ ही लिये जाते हैं। इन आठ अधिकारों के नाम इस प्रकार हैं..
संत पयपरूवाया बम्बममाणं च हितासणा या
कालो में अंतर भाग भाव अप्पा हुं धेन' ।। १ आवश्यक नियुक्ति गा० १३
•
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३७२
सप्ततिका प्रकरण
१ सत्, संख्या, ३ क्षेत्र, ४ स्पर्शन, ५ काल, ६ अन्तर, ७ भाद और ८ अल्पबहुत्व । इन अधिकारों का अर्थ इनके नामों से ही स्पष्ट हो जाता है । अर्थात् सत् अनुयोगद्वार में यह बताया जाता है कि विवक्षित धर्म किन मार्गणाओं में है और किन में नहीं है। संख्या अनुयोगद्वार में उस विवक्षित धर्म वाले जीवों की संख्या बतलाई जाती है । क्षेत्र अनुयोगद्वार में विवक्षित धर्म बाले जीवों का वर्तमान निवास स्थान बतलाया जाता है। स्पर्शन अनुयोगद्वार में उन विवक्षित धर्म वाले जीवों ने जितने क्षेत्र का पहले स्पर्श किया हो, अब कर रहे हैं और आगे करेंगे उस सबका समुच्चय रूप से निर्देश किया जाता है | काल अनुयोगद्वार में विवक्षित धर्म पाले जीवों की जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति का विचार किया जाता है । अन्तर शब्द का अर्थ विग्रह या व्यवधान है अत: अन्तर अनुयोगहार में यह बताया जाता है कि विवक्षित धर्म का सामान्य रूप से या किस मार्गणा में कितने काल तक अन्तर रहता है या नहीं रहता है। भाव अनुयोगद्वार में उस विवक्षित धर्म के भाव का तथा अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में उसके अल्पबहुत्व का विचार त्रिया जाता है । ___यद्यपि गाथा में सिर्फ इतना संकेत किया गया है कि इसी प्रकार बंध, उदय और सत्ता रूप कर्मों का तथा उनके अवान्तर भेद-प्रभेदों का प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप से गति आदि मार्गणाओं के द्वारा आठ अनुयोगद्वारों में विवेचन कर लेना चाहिये जैसा कि पहले वर्णन किया गया है। लेकिन इस विषय में टीकाकार आचार्य मलयगिरि का वक्तव्य है कि 'यद्यपि आठों कर्मों के सत् अनुयोगद्वार का वर्णन गुणस्थानों में सामान्य रूप से पहले किया ही गया है और संख्या आदि सात अनुयोगद्वारों का व्याख्यान कर्मप्रकृति प्राभुत ग्रंथों को देखकर करना चाहिये। किन्तु कर्मप्रकृति प्राभृत आदि ग्रंथ वर्तमान काल में उपलब्ध नहीं हैं, इसलिये इन संख्यादि अनुयोग
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षष्ठ कर्मग्रन्य
३७३
द्वारों का व्याख्यान करना कठिन है। फिर भी जो प्रत्युत्पन्नमति विद्वान हैं वे पूर्वापर सम्बन्ध को देखकर उनका व्याख्यान करें।
टीकाकार आचार्यश्री के उक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि गाथा में जिस विषय की सूचना दी गई है उस विषय का प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ वर्तमान में नहीं पाये जाते हैं। फिर भी विभिन्न ग्रन्थों की सहायता से मार्गणाओं में आठ कर्मों की मूल और उत्तर प्रकृतियों के बंध, उदय और सत्ता स्थानों के संवेध का विवरण नीचे लिखे अनुसार जानना चाहिये । पहले ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र और अंतराय इन छह कर्मों के बंध आदि स्थानों का निर्देश करने के बाद मोहनीय व नाम कर्म के बंधादि स्थानों को बतलायेंगे।
मार्गणाओं में ज्ञानावरण आदि छह कर्मों के बंध आदि स्थानों का विवरण इस प्रकार है
क्रम
मार्गणा नाम
७ मूल प्रकृति बानी मंर २ दर्शना० म
| भंग ११
| वेदनीय
& 4s xl vẻ
| नरकगति तिर्यचगति मनुष्यगति देवगति एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय श्रीन्द्रिय
चतुरिन्द्रिय | पंचेन्द्रिय १० | पृथ्वीकाय ११ / अप्काय १२ | सेजःकाय १३ । वायुकाय
७ आयु० गोत्र | अंतराय
| aun xxx xxx mm x भंग २८ 2.00 Galan ... KM
G 4
NANGaladal G...
|
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३७४
你
सं०
૪
१५. श्रसफाय
मनोयोग
१६
१७ वचनयोग
१८
काययोग
२३
मार्गणा नाम
१६ स्त्रीवेध
२०
२१
२२
૨૪
वनस्पतिकाय
२५
२६
२७
२८
२६
ત
पुरुषवेद
नपुंसक वेद
क्रोष
মान
माया लोम
प्रतिज्ञान
श्रुतज्ञान अर्थ विज्ञान मनःपर्यायज्ञान केवलज्ञान
३१
मत्यशान
नैन
श्रुतअज्ञान विमंगज्ञान
३ ३
३४ सामायिक
१५
areerea ३६ परिहारविशुद्धि
३७ सूक्ष्म पराय
३.८
३८
यथाख्यात
वेदाविरत
• अविरत
४१ चक्षुदर्शन ४२ अचक्षुदर्शन
४३
अषिदर्शन केवल दर्शन
४४
मूल प्रकृति
मंग ७
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W
~
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AAAAM
४
२
२
५
ज्ञाना०
मंग २
१
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१
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सप्तसिका प्रकरण
भंग २५ आयु
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2145
२८
२८
२८
२६
२८
२८
२८
२०
२०
२०
२५
२३
२३ ५
१
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२८
२८
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६
६
२
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१२
गान मंग ७
२६
३
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५
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१
१
१
१
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अंतराष मंग २
१
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१
१
१
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१
१
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षष्ठ कर्ममन्य
३७५
काम
मार्गणा नाम
| आयु० । । मंग २८
गोत्र
अंतराय
४५
। ..ammar
४६
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३७६ . .
सप्ततिका प्रकरण . शब्दार्थ-बयस्स-उदय के, उदोरणाए-दीरणा के, सामिसाओ-स्वामित्व में, म विजा--नहीं है, विसेतो-विशेषता,
सूण-घोड़कर, 4-और, पाल-इकतालीस प्रकृतियों को, सेसार्व-बाकी की, सम्बपाई-सभी प्रकृतियों के ।
गाथार्ष--इकतालीस प्रकृतियों के सिवाय शेष सब प्रकृतियों के उदय और उदीरणा के स्वामित्व में कोई विशेषता नहीं है।
कोषा---ग में मामान, उदयन और सप्तास्थानों के साथ इन सबके संवेध का विचार किया गया। लेकिन उदय व उदीरणा में यथासम्भव समानता होने से उसका विचार नहीं किये जाने के कारण को स्पष्ट करने के लिये इस गाथा में बताया गया है कि उदय और उदीरणा में यद्यपि अन्तर नहीं है, लेकिन इतनी विशेषता है कि इकतालीस कर्म प्रकृतियों के उचय और उदीरणा में भिन्नता है। इसलिये उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में से ४१ प्रकृतियों को छोड़कर शेष ८१ प्रकृतियों के उदय और उदीरणा में समानता जाननी चाहिये।
उदय और उदीरणा के लक्षण क्रमश: इस प्रकार हैं कि कालप्राप्त कर्म परमाणुओं के अनुभव करने को उदय कहते हैं और उदयावलि के बाहर स्थित कर्म परमाणुओं को कषाय सहित या कषाय रहित योग संज्ञा बाले वीर्य विशेष के द्वारा उदयावलि में लाकर उनका उदयप्राप्त कर्म परमाणुओं के साथ अनुभव करना उदीरणा कहलाता है । इस प्रकार कर्म परमाणुओं का अनुभवन
१ इह काल प्राप्तानां परमाणू नामनुमचनमुदयः, अकालप्राप्तानामुदयावलि
काबहि:स्थितानां कषायसहितेनासहितेन बा योगसंज्ञकेन धीमविशेषण समाकृष्योदयप्राप्त: कर्मपरमाणुभि: सहानुभवनमुदीरणा।।
-- सप्ततिका प्रकरण टीका पृ०, २४२
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--.
.
-.
-
....--
षष्ठ कर्मग्रन्थ
३७७ उदय और उदीरणा में समान है। फिर भी दोनों में कालप्राप्त और अकालप्राप्त कर्म परमाणुओं के अनुभवन का अंतर है। अर्थात् उदय में कालप्राप्त कर्म परमाणु रहते हैं तथा उदीरणा में अकाल प्राप्त कर्म परमाणु रहते हैं। तो भी सामान्य नियम यह है कि जहाँ जिस कर्म का उदय रहता है वहां उसकी उदीरणा अवश्य होती है।'
लेकिन इसके सात अपवाद हैं। वे अपवाद इस प्रकार जानने चाहिये१. जिनका स्वोदय से सत्वनाश होता है उनका उदीरणा-विच्छेद
एक आवलिकाल पहले ही हो जाता है और उदय-विच्छेद एक
आवलिकाल बाद होता है। २. वेदनीय और मनुष्यायु की उदीरणा छठे प्रभत्तसंयत गुणस्थान
तक ही होती है। जबकि इनका उदय अयोगिकेवली गुणस्थान
तक होता है। ३. जिन प्रकृतियों का अयोगिकेवली गुणस्थान में उदय है.
उनकी उदीरणा सयोगिकेवली गुणस्थान तक ही होती है। ४. चारों आयुकमों का अपने-अपने भव की अंतिम आवलि में
उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है। ५. निद्रादि पांच का शरीरपर्याप्ति के बाद इन्द्रियपर्याप्ति
पूर्ण होने तक उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है। ६. अंतरकरण करने के बाद प्रथमस्थिति में एक आवली काल
शेष रहने पर मिथ्यात्व का, क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले के सम्यक्त्व का और उपशमश्रेणि में जो जिस वेद के उदय से उपशमश्रेणि पर चढ़ा है उसके उस वेद का उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है।
--
-
-
--
१ जत्य उदओ सत्य उदोरणा, जस्प उदीरणा तरप उदओ ।
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३७
छप्त
प्रकरण
७. उपशमश्रेणि के सूक्षमसंपराय गुणस्थान में भी एक आवलिकाल शेष रहने पर सूक्ष्म लोभ का उदय ही होता है उदीरणा
नहीं होती है। उक्त सात अपवादों वाली ४१ प्रकृतियां हैं, जिससे ग्रंथकार के ४१ प्रकृतियों को छोड़कर शेष सब प्रकृतियों के उदय और उदीर में स्वामित्व की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं बतलाई है।
अब आगे की गाथा में उन ४१ प्रकृतियों को बसलाते हैं जिनके उदय और उदीरणा में विशेषता है।
नाणतरायवसगं बसणनव बेयणिज्ज मिच्छत । सम्मत लोभ वेयाऽऽउगाणि नवनाम उस च ॥५॥
शब्दार्थ - मागंतरायवतम-शानावरण और अंसराय की दस, समानव-दर्षनावरण की नौ, यणिका ---वनीय की दो, मिस्वतं-मिथ्यात्व, सम्मत-सम्यक्रव मोहनीय, लोभ--संज्वलन सोम, पेयाऽऽजगाणि-तीन वेद और चार आयु, नयनाम-नाम कम की मो प्रकृति, उच्च-उपगोत्र, ब-और ।
गाथा-जानावरण और अंतराय कर्म की कुल मिलाकर दस, दर्शनावरण की नौ, वेदनीय की दो, मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, संज्वलन लोभ, तीन वेद, चार आयु, नामकर्म की नौ, और उच्च गोत्र, ये इकतालीस प्रकृतियाँ हैं, जिनके उदय और उदीरणा में स्वामित्व की अपेक्षा विशेषता है।
विशेकाप-नाथा में उदय और उदीरणा में स्वामित्व की अपेक्षा विशेषता वाली इकतालीस प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं । वे इकतालीस प्रकृतियां इस प्रकार हैं-ज्ञानावरण की मतिज्ञानावरण आदि पांच, अंतराय की दानान्त राय आदि पाँच तथा दर्शनावरण की
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पष्ठ कर्मग्रन्थ
३७६ चक्षुदर्शनावरण आदि चार, कुल मिलाकर इन चौदह प्रकृतियों की बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में एक आवलि काल शेष रहने तक उदय और उदीरणा बराबर होती रहती है । परन्तु एक आवलि काल की शेष रह जाने पर उसके बाद उक्त चौदह प्रकृतियों का उदय ही होता है किन्तु उदयावालगत कर्मदलिक सब कारणों के अयोग्य होते हैं, इस नियम के अनुसार उनकी उदीरणा नहीं होती है।
शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीयों के शरीरयाप्ति के समाप्त होने के अनन्तर समय से लेकर जब तक इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक दर्शनावरण की शेष निद्रा आदि पांच प्रकृतियों का उदय ही होता है उदीरणा नहीं होती है । इसके अतिरिक्त शेष काल में उनका उदय और उदीरणा एक साथ होती है और उनका विच्छेद' भी एक साथ होता है। __ साता और असाता वेदनीय का उदय और उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक एक साथ होती है, किन्तु अगले गुणस्थानों में इनका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है। प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाले जीव के अन्तरकरण करने के पश्चात प्रथमस्थिति में एक आवलि प्रमाण काल के शेष रहने पर मिथ्यात्व का उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है तथा क्षायिक सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाले जिस वेदक सम्यग्दृष्टि जीव ने मिथ्यात्व और सम्यगमिथ्यात्व का क्षय करके सम्यक्त्व की सर्वअपवर्तना के द्वारा अपर्धतना करके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति शेष रखी है और उसके बाद उदय तथा
१ दिगम्बर परंपरा में निद्रा और प्रचला का उदय और सवविच्छेद
भीणमोह गुणस्थान में एक साथ बतलाया है। इसलिये इस अपेक्षा से इनमें से जिस उवमगत प्रकृति की उपयम्युञ्छिति और सत्यव्युजियक्ति एक साथ होगी, उसको उदयव्युछित्ति के एक आवलिकाल पूर्व ही उदीरगा ज्युच्छिसि हो जायेगी।
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३८०
सप्ततिका प्रकरण
उदीरणा के द्वारा उसका अनुभव करते हुए जब एकः आवलि स्थिति शेष रह जाती है तब सम्यक्त्व का उदय ही होता है उदीरणा नहीं होती है । सज्वलन लोभ का उदय और उदीरणा एक साथ होती है। जब सूक्ष्मसंपराय का समय एक आवनि शेष रहता तब आवलि मात्र काल में लोभ का उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है। ___ तीन वेदों में से जिस वेद से जीव श्रेणि पर चढ़ता है, उसके अन्तरकरण करने के बाद उस वेद की प्रथम स्थिति में एक आवलि प्रमाण काल के शेष रहने पर उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है। चारों ही आयुओं का अपने-अपने भव की अन्तिम आवलि प्रमाण काल के शेष रहने पर उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती । लेकिन मनुष्यायु में इतनी विशेषता है कि इसका प्रमत्तसंयत गुणस्थान के बाद उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है। ___ मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, बस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशकीति और तीर्थंकर ये नामकर्म की नौ प्रकृतियां हैं और उच्चगोत्र. इन दस प्रकृतियों का सयोगिकेबली गुणस्थान तक उदय और उदीरणा दोनों ही सम्भव हैं किन्तु अयोगिकेवली गुणस्थान में इनका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है।'
१ अन्यच्च मनुष्यायुषः प्रमत्तगुणस्थानकाद्यमुदीरणा न मयति किन्तुदयएव केवलः ।
- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ. २४२-२४३ २ मणुयगइजाइतसबादरं च पज्जत्तसुभगमाइज्ज ।
जसकित्ती तित्यपरं नामस्स हवंति नव एया ॥ ३ ...."सयोगिकेलिगुणस्थानकं यावद पुगपद उदय-उदीरणे-अयोग्यवस्थायां तूदय एव नोदीरणा ।
-सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ. २४३
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३८१
षष्ठ कर्मग्रन्थ्य
इस प्रकार पिछली गाथा में उदय और उदीरणा में स्वामित्व की अपेक्षा जिन इकतालीस प्रकृतियों की विशेषता का निर्देश किया था। उन इकतालीस प्रकृतियों के नाम कारण सहित इस गाथा में बतलाये हैं कि इनकी उदी र णा क्यों नहीं होती है । अब आगे की गाथाओं में गुणस्थानों में प्रकृतियों के बंध को बतलाते हैं। गुणस्थानों में प्रकृतियों का बंध
तित्थगराहारगविरहियाओ अज्जेइ सव्वपगईओ। मिच्छतवेयगो सासणो वि इगुधीससेसाओ ॥५६॥
शाम्दार्थ-- तित्याराहारग-तीर्थकर नाम और आहारकडिक, विरहियाओ-बिना, अलेह-उपार्जित, बंध करता है, सम्वपगईयोसभी प्रकृतियों का. मिहत्तवेयगो-मिथ्याष्टि, सासणो–सासादन गुणस्थान याला, वि-मी, इगुवोस:-उन्नीस, सेसाओ-शेष, बाकी की।
गाथार्य-मिथ्यादृष्टि जीवं तीर्थंकर नाम और आहारकद्विक के बिना शेष सब प्रकृतियों का बंध करता है तथा सासादन गुणस्थान बाला उन्नीस प्रकृतियों के बिना शेष प्रकृतियों को बांधता है।
विशेषार्थ-गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन आदि चौदह हैं और ज्ञानावरण आदि आठ मूल कर्मों की उत्तर प्रकृतियाँ १४८ हैं। उनमें से बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या १२० मानी गई है । बंध की अपेक्षा १२० प्रकृतियों के मानने का मतलब यह नहीं है कि शेष २८ प्रकृतियाँ छोड़ दी जाती हैं । लेकिन इसका कारण यह है कि पांच बंधन और पाँच संघातन, ये दस प्रकृतियां शरीर की अविनाभावी हैं, अतः जहाँ जिस शरीर का बंध होता है, वहाँ उस बंधन और संघातन का बंध अवश्य होता है । जिससे इन दस प्रकृतियों को अलग से नहीं गिनाया
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३२
দাবি সন্ধা
जाता है । इस प्रकार १४८ में से दस प्रकृतियों को कम कर देने पर १३८ प्रकृत्तियाँ रह जाती हैं तथा वर्णचतुष्क के अवान्तर भेद २० हैं किन्तु बंध में अवान्तर भेदों की विवक्षा न करके मूल में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, ये चार प्रकृतियां ग्रहण की जाती हैं । अतएव १३० में से २०-४=१६ घटा देने पर १२२ प्रकृतियाँ शेष रह जाती हैं। दर्शन मोहनीय की सम्यक्त्व, सम्यगमिथ्यास्व और मिथ्यात्व, ये तीन प्रकृतियाँ हैं। उनमें से सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व ये दो प्रकृतियाँ बंध प्रकृतियां नहीं हैं। क्योंकि बंध मिथ्यात्व प्रकृति का होता है और जीव अपने सम्यक्त्व गुण के द्वारा ही मिथ्यात्व के दलिकों के तीन भाग बना देता है। इनमें से जो अत्यन्त विशुद्ध होता है उसे सम्यक्त्व और जो कम विशुद्ध होता है उसे सम्यगमिथ्यात्व संज्ञा प्राप्त होती है और इन दोनों के अतिरिक्त शेष अशुद्ध भाग मिथ्यात्व कहलाता है । अतः १२२ में से सम्यक्त्व व सम्यगमिथ्यात्व इन दो प्रकृतियों को घटा देने पर शेष १२० प्रकृतियाँ बंधयोग्य मानी जाती हैं ।
इन १२० प्रकृतियों में से किस गुणस्थान में कितनी-कितनी प्रकृतियों का बंध होता है, इसका विवेचन इस गाथा से प्रारम्भ किया गया है।
पहले मिथ्यात्य मुणस्थान में बंधयोग्य प्रकृतियों को बतलाने के लिये गाथा में कहा है कि तीर्थकरनाम और आहारकद्विक--आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग-इन तीन प्रकृतियों के सिवाय शेष ११७ प्रकृतियों का बंध होता है। इन तीन प्रकृतियों के बंध न होने का कारण यह है कि तीर्थकरनाम का बंध सम्यक्त्व गुण के सद्भाव में और आहारकद्धिक का बंध संयम के सद्भाव में होता है। किन्तु पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में न सम्यक्त्व है और न संयम । इसीलिये मिथ्यात्व गुणस्थान में उक्त तीन प्रकृतियों का बंध न होकर शेष ११७ प्रकृतियों का बंध होता है ।
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षष्ट कर्मग्रन्थ
सासादन गुणस्थान में-'सासणो वि इगुवीस सेसाओं' उन्नीस प्रकृतियों के बिना शेष १०१ प्रकृतियों का बंध होता है। अर्थात मिथ्यात्व गुण के निमित्त से जिन सोलह प्रकृतियों का बंध होता है, उनका सासादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का अभाव होने से बंध नहीं होता है। मिथ्यात्व के निमित्त से बंधने वाली सोलह प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं:
१ मिथ्यात्व, २ नपुंसकवेद, ३ नरकगति, ४ नरकानुपूर्वी, ५ नरकायु, ६ एकेन्द्रिय जाति,७द्वीन्द्रिय जाति, ८ श्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, १० हुंडसंस्थान, ११ सेवात संहनन, १२ आतप, १३ स्थावर, १४ सूक्ष्म, १५ साधारण और १६ अपर्याप्त । मिथ्यात्व से बंधने वाली ११७ प्रकृतियों में से उक्त १६ प्रकृतियों को घटा देने पर सासादन गुणस्थान में १०१ प्रकृतियों का बंध होता है ।
इस प्रकार से पहले, दूसरे---मिथ्यात्व, सासादन-गुणस्थान में बंधयोग्य प्रकृत्तियों को बतलाने के बाद अब आगे की गाथा में तीसरे, चौथे आदि गुणस्थानों की बंधयोग्य : कृतियों की संख्या बतलाते हैं।
छायालसेस मोसो अविरयसम्मो तियालपरिसेसा । सेवण देसविरओ विरो सगवण्णसेसाओ ॥५७॥
शम्दा-छापालसेस-छियालीस के बिना, मोसो-मिश्र गुणस्थान में, मविरमसम्मो–अविरति सम्यग्दृष्टि में, तियासपरिक्षेस --- तेतालीस के बिना, सेवण्ण-अपन, वेसविरओ-देशविरत, विरो-प्रमत्तविरत, सगमण्णसे सामो- सप्तावन के सिवाय शेष ।
गापा-मिश्र गुणस्थान में छियालीस के बिना शेष प्रकृत्तियों का, अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तेतालीस के बिना शेष प्रकृतियों का, देशविरत में तिरेपन के बिना और
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सप्ततिका प्रकरण
प्रमत्तविरत में सत्तावन के बिना शेष प्रकृतियों का बंध
होता है ।
३८४
विशेषार्थ - - पहले और दूसरे गुणस्थान में बंघयोग्य प्रकृतियों को पूर्व गाथा में बतलाया है। इस गाथा में मिश्र आदि चार गुणस्थानों की बंध प्रकियों का निर्देश करते हैं। शिवका विवरण लिखे नीचे अनुसार है
।
तीसरे मिश्र गुणस्थान में 'छायालसेस मीसो' बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से छियालीस प्रकृतियों को घटाने पर शेष रहीं १२० - ४६ = ७४ प्रकृतियों का बंध होता है। इसका कारण यह है कि दूसरे सासादन गुणस्थान तक अनन्तानुबंधी का उदय होता है. लेकिन तीसरे मिश्र गुणस्थान में अनन्तानुबंधी का उदय नहीं होता है । अतः अनन्तानुबन्धी के उदय से जिन २५ प्रकृतियों का बंध होता है, उनका यहाँ बंध नहीं है। अर्थात् तीसरे मिश्र गुणस्थान में सासादन गुणस्थान की बंघयोग्य १०१ प्रकृतियों से २५ प्रकृतियाँ और घट जाती हैं। वे २५ प्रकृतियाँ ये हैं -- स्त्यानद्धित्रिक, अनन्तानुबंधीचतुष्क, स्त्रीवेद, तियंचगति, तिचानुपूर्वी, तिर्यंचायु, प्रथम और अन्तिम को छोड़कर मध्य के चार संस्थान, प्रथम और अन्तिम को छोड़कर मध्य के चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय और नीच गोत्र । इसके अतिरिक्त यह नियम है कि मिश्र गुणस्थान में किसी भी आयु का बंध नहीं होता है अतः यहाँ मनुष्यायु और देवायु, ये दो आयु और कम हो जाती हैं। मनुष्यायु और देवायु, इन दो आयुयों को घटाने का कारण यह है कि नरकायु का बंधविच्छेद पहले और तिचा का बंधविच्छेद दूसरे गुणस्थान में हो जाता है। अतः आयु कर्म के चारों भेदों में से शेष रही मनुष्यायु और देवायु, इन दो प्रकृतियों को ही यहाँ कम किया जाता है। इस प्रकार सासा -
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1 षष्ठ कर्मप्रभ्थ
tak
दन गुणस्थान में नहीं बँधने वाली १९ प्रकृतियों में इन २५+२=२७ प्रकृतियों को मिला देने पर ४६ प्रकृतियां होती हैं जिनका मिश्र गुणस्थान में बंध नहीं होता है। किन्तु १२० प्रकृतियों में से ४६ प्रकृतियों के सिवाय शेष रही ७४ प्रकृतियों का बंध होता है ।
चौथे अविरल सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ४३ प्रकृतियों के बिना शेष ७७ प्रकृतियों का बंध होता है- 'अविरयसम्मो तियालपरिसा ।' इसका कारण यह है कि अविरतसम्यग्दृष्टि जीव के मनुष्यायु, वायु और तीर्थंकर नाम, इन तीन प्रकृतियों का बंध सम्भव है। अतः यहाँ बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से ४६ न घटाकर ४३ प्रकृतियाँ ही बटाई हैं। इस प्रकार अविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ७७ प्रकृतियों का बंध बतलाया है ।
देशविरत नामक पाँचवें गुणस्थान में ५३ के बिना ६७ प्रकृतियों का बंध बतलाया है- 'तेवरण देसविरो'। इसका अर्थ यह है कि अप्रत्यास्थानावरण कषाय के उदय से जिन दस प्रकृतियों का गंज अविरतसम्यग्दृष्टि जीव के होता है, अप्रत्यास्थानावरण कवाय का उदय न होने से उनका यहाँ बंध नहीं होता है। अतः चीचे गुणस्थान में कम की गई ४३ प्रकृतियों में १० प्रकृतियों को और ओड़ देने पर देशविरत गुणस्थान में बंध के अयोग्य ५३ प्रकृतियां हो जाती हैं और इनके अतिरिक्त शेष रहीं ६७ प्रकृतियों का बंध होता है।
अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से बंधने वाली १० प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं- अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी मनुष्यायु, औदारिक शरीर, मौवारिक अंगोपांग और बनाराच संहनन ।
श्रमतविरत गुणस्थान में ५७ के बिना ६३ प्रकृतियों का बंध होता है। इसका आशय यह है कि प्रत्याख्यानावरण के उदय से जिन
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३८६
सप्ततिका प्रकरण
प्रत्याख्यानावरण चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) का बंध देहाविरत गुणस्थान तक होता था, उनका प्रमत्तविरत गुणस्थान में बंध नहीं होता है। अत: जिन ५३ प्रकृतियों को देशविरत गुणस्थान में बंधने के अयोग्य बतलाया है, उनमें इन चार प्रकृतियों के और मिला देने पर प्रमत्तविरत गुणस्थान में ५७ प्रकृतियों बंध के अयोग्य होती हैं-'विरओ सगवण्णसेसाओ।' इसलिये प्रमत्तविरत गुणस्थान में ६३ प्रकृतियों का बंध होता है ।
अब आगे की गाथा में सातवें और आठवें गणस्थान में बंध प्रकतियों की संख्या का निर्देश करते हैं।
इगुसदिठमप्पमसो बंधइ देवाज्यस्स इयरो वि । अट्ठावण्णमपुरखो छप्पण्णं वा चि छवीसं ॥५॥
शावार्थ-इगुष्टि--उनसठ प्रकृतियों के, अप्पमतो-अप्रमत्त. संपत, धर-बंष करता है, वाउयस्स-देवायु का बंधक, इसरोत्रि - अप्रमल भी, अट्ठाषण -- अट्ठावन, अपुग्धो-- अपूर्वकरण गुणस्थान घाला, छप्पण्णं-- अप्पन, का वि--- अयवा भी, अय्वीसं-~~छत्रीस ।
गाथार्ष-अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव उनसठ प्रकृतियों का बंध करता है। यह देवायु का भी बंध करता है। अपूर्वकरण गुणस्थान वाला अट्ठावन, छप्पन अथवा छब्बीस प्रकृतियों का बंध करता है। विशेषार्थ- इस गाथा में सातवें अप्रमत्तसंयत और आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या का निर्देश किया है। लेकिन यहां कथन शैली की यह विशेषता है कि पिछली गाथाओं में तो किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बंध नहीं होता है-इसको मुख्य मानकर बंध प्रकृतियां बतलाई थीं किन्तु इस गाथा से उस क्रम को बदल कर यह बतलाया है कि किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों
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क! अंश होता है। अतः अब पापा के संकेतानुसार गुणदानों में बंध अकालियों की संख्या का निर्देश करते हैं। ___ सातद लापानविरत गुणस्थान में उनसठ प्रकृतिगों का बंध मला है- 'मरिसरमाणलो' । यह तो पहले बतलाया जा झुका है कि
प्रमत्तचिन्तत गुणस्थान में ६३ प्रकृत्तियों का बंध होता है, उनमें से असालावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश-कीति, इन छह प्रकलियों का सातवे गुणस्थान में बंध नहीं होता है, छठे गुणस्थान तक बंध होता है। अत: पूर्वोक्त ६३ प्रकृतियों में से इन ६ प्रकृतियों को कम कर देने पर. ५७ प्रभातियों शेष रहती हैं, लेकिन इस गुणस्थान में आहारकद्धिक का बंध होता है जिससे ५७ में २ प्रकृतियों को लौर मिला देने पर अप्रमत्तसंयत के ५६ प्रकृतियों का बंध कहा गया है।
उक्त प्रतियों में देतायु भी सम्मिलित है लेकिन अन्धकार में अपमतसंगत देवायु का भी बंध करता है... 'बंधइ देवालयस्स इधर नि-रा प्रकार शक से निर्देश किया है। उसका अभिप्राय यह है कडायु के संग का प्रारम्भ समतसंपत ही करता है फिर भी यह
लायु का वर करते हुए अप्रमत्तसंयत भी हो जाता है और इस प्रकार असमतपत भी देवायु का बंधक होता है। परन्तु इससे
बह न समझं कि अनमतसंयत भी देवायु के बंध का प्रारम्भ रहा है। अप्रमतसंपत देवायु के बंध का प्रारम्भ करता है। यदि यह अभिप्राय लिया जाता है तो ऐसा सोचना उचित नहीं है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये ग्रंथकार ने 'अप्रमत्तसंयत भी देवायु का बंध करता है' यह निर्देश किया है।' --- . .-.- -. .. . १ तेनैतत् सूच्यते --प्रमत्तसंयत शवायुर्वन्धं प्रधभत सारभसे, आरभ्य व
कोरिखदप्रमानाथमपि हाति, तप्त एवमप्रमत्तसंसप्तोऽषि देवायुषो बन्धको अति, न पुगरपात्तसंयत एव सन् अयरत आयुबन्धमारमत इति ।
---सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २४४
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सप्ततिका प्रकरण अपूर्वकरण नामक भाउ पुणस्थान में अट्ठावन, अप्पन और जम्बीस प्रतियों का होता है। प्रहतियों को संस्था में भिन्नता का कारण महत पूर्णकानिग में रोमेशन के हार का विन्धेर हो जाने पर अपूर्णकरण गुणस्थान बाला जीप पहले संस्थातवें भाग में ५ कृतियों का बंध करता है। अनन्तर निमा और प्रघला का अधिक हो जाने पर संश्यात भाग के शेष रहने तक ५६ प्रहतियों काम करता है और उसके बाद देवगति, देवानुपूर्वी, पपणिय जाति, क्रिय करीर, हिय अंगोपांग, आहारक शरीर, भाहारक अंगोपांग, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, पणे पसुष्क, अगुरुला, उपमात, परापात, उपवास, प्रशस्त बिहायोगति, बस, पावर, पर्याप्त, प्रत्येक, हिपर, शुभ, सुभग, सुस्बर, आदेय, निर्माण और सीकर, इन तीस प्रतियों का बंधविनोद हो जाने पर अंतिम भाग में २१ प्रकृतियों का करता है। इसी का संकेत करने
लिये गाया में निर्देश है कि-अद्वाबलमपुम्यो छप्पण्णं पर वि घनीसे।
इस प्रकार से आठ पुणस्थान तक की मेध प्रकृतियों का कथन किया जा चुका है। अब आगे की गाथा में शेष रहे छह गुणस्थानों की बेध प्रकृतियों की संख्या को पतलाते है।
बाबीसा एपूर्ण बंधा अडारसंतमनियट्टी। सत्तर मुटुमसरागो साबममोहो सबोगि ति ॥६॥
मला-बामात-माईस, पूर्व-एक एक कम, परपरसा है, महारत-अशा पन्त, अनिवडी-निमुहिवार दुमस्थान बाला, सतर--सबक मिसरायो भूकमसंपराय पुगस्म बाला, साथ-साता वेरमीय को, अबोहो-मोही (उपासमोह भीष मोह) समोमिति-शोषिकेसी स्थान तक ।
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गाथार्थ – अनिवृत्तिवावर गुणस्थान बाला बाईस का और उसके बाद एक-एक प्रकृति कम करते हुए अठारह प्र तियों का बंध करता है। सूक्ष्मरूपराम बाला समह प्रकृतियों को बांधता हूँ उपशांशी कोणी उप केवली गुणस्थान वाले सिर्फ एक सातावेदमीय प्रकृति का बंध करते हैं।
षष्ठ कर्मग्रन्थ
विशेषार्थ - मौधें अनिवृत्तिमावर गुणस्थान के पहले भाग में बाईस प्रकृतियों का बंध होता है। इसका कारण यह है कि यद्यपि आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में २६ प्रकृतियों का बंध होता है, फिर भी उसके अंतिम समय में हास्य, रति, भरत और जुगुप्सा, इन चार प्रकृतियों का बंधविच्छेद हो जाने से नौवें गुणस्थान के पहले समय में २२ प्रकृतियों का बंध बतलाया है । इसके बाद पहले भाग के अंत में पुरुषमेव का दूसरे भाग के अंत में संज्वलन क्रोध का तीसरे भाग के अंत में संज्जलन मान का, चौथे भाग के अंत में संचलन माया का बिच्छेद हो जाने से पांचवें भाग में १८ प्रकृतियों का बंध होता है, अर्थात् मौ अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के बंध की अपेक्षा पांच भाग हैं मतः प्रारंभ में तो २२ प्रकृतियों का बंध होता है और उसके बाद पहले, दूसरे, सोसरे, चौथे भाग के अंत में क्रमश: एक-एक प्रकृति का बंधविच्छेद होते जाने से २१, २०, १९ और १८ प्रकृतियों का मंच होता है। इसी आशय को स्पष्ट करने के लिये गाथा में संकेत किया है- बाबीसा एगुणं बंध अट्ठारसंतमनियट्टी ।'
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लेकिन जब अनिवृत्तिबावर गुणस्थान के पांचवें भाग के अंत में संज्वलन लोभ का बंधविच्छेद होता है तब दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में १७ प्रकृतियों का बंध बतलाया है- 'सतर सुमसरागी' ।
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सप्ततिका प्रकरण
दसवें गुणस्थान के अंत में ज्ञानावरण की पांच, दर्शगावरण की चार, अंतराय की पांच, यशःकीति और उच्च गोत्र, इन सोलह प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है। अर्थात् दसधै गुणस्थान तक मोहनीयकर्म का उपशम या क्षय हो जाने से अमोह दशा प्राप्त हो जाती है जिससे मोहनीयकर्म से विहीन जो उपशांतमोह, क्षीणमोह और सयोगि-- केवली-ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में सिर्फ एक सातावेदनीयकर्म का बंध होता है-'सायममोहो सोगि नि।'
से रहवें सयोगिकेवलि गुणस्थान के अंत में सातावेदलीय का भी बंधविच्छेद हो जाने से चौदहवें अयोमिकेवली गुणस्थान में बंध के कारणों का अभाव हो जाने से किसी भी मैं का बंध नहीं होता है : अर्थात् चौदहवां गुणस्थान कर्मबंध से रहित है।
यद्यपि गाथा में अयोगिकेवली गुणस्थान का निर्देश नहीं किया है तथापि गाथा में जो यह निर्देश किया है कि एक सातावेदनीय का बध मोहरहित और सयोगिकेवली जीव कारले हैं, उससे पह फलितार्थ निकलता है कि अयोगिफेवली गुणस्थान में बंध के मुख्य कारण कषाय और योग का अभाव हो जाता है और कारण के अभाव में कार्य नहीं होता है। अतः अयोगिकेवली गुणस्थान में कर्म का लेशमात्र भी बंध नहीं होता है।
इस प्रकार चार गाथाओं में किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बंध होता है और कितनी प्रकृतियों का बंध नहीं होता है इसका विचार किया गया। जिनका संक्षेप में विवरण इस प्रकार जानना चाहिये
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षष्ठ कर्मग्रन्य
क्रम
संख्या
१
मिथ्यात्व
२ भासादन
३
मिश्र
अविरत सम्यगृष्टि
देशविरत
६ प्रमत्तविरत
४
५
19
८
गुणस्थान
܀
अप्रमत्तविरत
अपूर्वकरण प्रथम मान
अपूर्वकरण द्वितीय माग
अपूर्वकरण तृतीय भाग
अनिवृत्तिकरण प्रथम भाग
अनिवृतिकरण द्वितीय भाग
अनिवृत्तिकरण तृतीय भाग
अनिवृत्तिकरण चतुर्थ भाग
अनिवृत्तिकरण पंचम भाग
सूक्ष्म पराय
११ उपशांतमोह
१२ क्षीणमोह
१३
१४
योगिकेवली
अमोगिकेवली
बंध
११.७
१०१
७४
७७
६७
६३
५६
५८
५६
२६
२२
२१
२०
१६
܀
१७
१
१
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०
अबंध
३
१६
४६
४३
보쿠
५७
६१
६२
६४
६४
६८
£2
१००
१०१
१०२
१०३
११६
११६
११६
१२०
बंधविच्छेद
३६१
१६
२५
6
५०
६
१
ક્
३०
'6'
१
१
१
१
१३
O
い
१
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सप्ततिका प्रकरण प्रत्येक गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बंध और विचछेद होता है और उनके नाम मावि का उल्लेख दितीय कर्मग्रंथ में विशेष रूप से किया गया है। अतः जिज्ञासु जन उसको देख लेवें।। ___ गुणस्थानों में अपस्वामित्व का उपसंहार करते हुए मार्गणाओं में भी सामान्य से बषस्वामित्व को बतलाने के लिये कहते हैं किएसो उबंधसामित्तमोषो गायाएसु वि सहेव । मोहामो साहिएजा जप महा परिसम्भाषो ॥६०॥
पा-एलोप पूपोंक्त गुणस्थान का बभव, - भोर, पितापित- पामित्व का, भौगो-कोष (सामाग्य) से, नामााए-गति मावि मार्गणामों में, वि-भी, सहब-वैसे ही, इसी प्रकार, कोप मgere, हमा पाहिये, नव-जिस मार्गणास्थान में, महा-जिस प्रकार से, पगचितामापी-महति का सम्मान ।
मानार्थ-यह पूर्वोक्त गुणस्थानों का बंधभेद, स्वामित्व का श्रीष कमन जानना चाहिये। गति आदि मार्गणाओं में भी इसी प्रकार (सामान्य से) जहाँ जितनी प्रवृत्तियों का बंध
होता है, तबनुसार यहाँ भी मोष के समान बंधस्वामित्व . का कपत करना चाहिये।।
विवा-पिछली बार गाथाओं में प्रत्येक गुणस्थान में प्रकृत्तियों संभ कर और धनहीं करने का कथन किया गया है । जिससे सामाम्पसमा स्वामिस्म का काम हो जाता है। तथापि गति आदि मारणामों में कितनी-तिमी प्रतियों का वध होता है और कितनीकितनी प्रातियों का नहीं होता है, इसको जानना शेष रह जाता है। इसका लिम गाथा में सनी पूषना दी गई है कि जहां जितनी प्रातियों का होता हो इसका विचार करके ओष के समान मागणास्थानों में भी स्वामित्व का कषम कर लेना चाहिये।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
३६३
यद्यपि उक्त संकेत के अनुसार यह आवश्यक हो जाता है कि यहाँ मार्गणाओं में बंधस्वामित्व का विचार किया जाये लेकिन तीसरे कर्मग्रंथ में इसका विस्तार से विचार किया जा चुका है अत: जिज्ञासु जन वहाँ से जान लेवे। ___ अब किस गति में कितनी प्रकृतियों की सत्ता होती है, इसका कथन आगे की गाथा में करते हैं। तिस्थगरदेवानरयाउगं च तिसु तिसु गईसु बाद्धग्वं । अवसेसा पयडीओ हवंति समासु वि गईसु॥६१॥
शगार्म-तिस्पगरवानिरवाडा....तीर्थकर, देवायु और नरकायु, 1-और, तितुति--तीन-तीन, गईमु-गतियों में, बोवश्व -मानना चाहिये, भवसेप्ता-क्षेष, बाकी की, पपडीओ-प्रकृतियाँ, हरति--होती हैं, सम्बरसु-समी, वि-मी, गईमुगतियों में ।
भावार्थ-तीर्थकर नाम, देवायु और नरकायुइनकी सत्ता तीन-तीन मतियों में होती है और इनके सिवाय शेष प्रकृतियों की सत्ता सभी गतियों में होती है।
विशेषार्ष-अब जिस गति में जितनी प्रकृतियों की सत्ता होती है, उसका निर्देश करते हैं कि तीर्थंकर नाम, देवायु और नरकायु, इन तीन प्रकृतियों की सत्ता सीन-तीन गतियों में पाई जाती है। अर्थात सीर्थकर नामकर्म की नरक, देव और मनुष्य इन तीन गतियों में सत्ता पाई जाती है, किन्तु तियंचगति में नहीं। क्योंकि तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता बाला तिथंचगति में उत्पन्न नहीं होता है, तथा तियंचगति में तीर्थकर नामकर्म का बंध नहीं होता है । अतः नरक, देव और मनुष्य, इन तीन गतियों में ही तीर्थकर प्रकृति की सत्ता वतलाई है।
तिर्यच, मनुष्य और देव गति में ही देवायु की सत्ता पाई जाती है, क्योंकि नरकगति में नारकों के देवायु के बंध न होने का नियम है।
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सप्ततिका प्रकरण
३६४
इसी प्रकार तियंच, मनुष्य और नरक गति में ही नरकायु की सत्ता होती है, देवगति में नहीं क्योंकि देवों के नरकायु का बंध सम्भव नहीं है ।
उक्त प्रकृतियों के सिवाय शेष सभी प्रकृतियों की सत्ता चारों गतियों में पाई जाती है। आशय यह है कि देवायु का बंध तो तीर्थंकर प्रकृति के बंध के पहले भी होता है और पीछे भी होता है, किन्तु नरकायु के संबंध में यह नियम है कि जिस मनुष्य ने नरकायु का बंध कर लिया है, वह सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थंकर प्रकृति का भी बंध कर सकता है। इसी प्रकार तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला जीव - देव और नारक - मनुष्यायु का ही बंध करते हैं तिर्यंचायु का नहीं. यह नियम है । अतः तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता तियंचगति को छोड़कर शेष तीन गतियों में पाई जाती है।
इसी प्रकार नारक के देवायु का देव के नरकायु का बंध नहीं करने का नियम है, अतः देवायु की सत्ता नरकगति को छोड़कर शेष तीन गलियों में और नरका की सत्ता देवगति को छोड़कर दोष तीन गतियों में पाई जाती है ।
उक्त आशय का यह निष्कर्ष हुआ कि तीर्थंकर, देवायु और नरकायु इन तीन प्रकृतियों के सिवाय शेष सब प्रकृतियों की सत्ता सब गतियों में होती है। यानी नाना जीवों की अपेक्षा नरकगति में देवायु के बिना १४७ प्रकृतियों की सत्ता होती है, तियंचगति में तीर्थंकर प्रकृति के बिना १४७ प्रकृतियों की और देवगति में नरकायु के बिना १४७ प्रकृतियों की सत्ता होती है। लेकिन मनुष्यगति में १४५ प्रकृतियों को ही सत्ता होती है।
पूर्व में गुणस्थानों में कर्म प्रकृतियों के बंध, उदय, सत्ता स्थानों का कथन किया गया है तथा गुणस्थान प्राय: उपशमश्रेणि, क्षपकश्रेणि
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पष्ठ कर्मग्रन्थ वाले हैं । अत: उपशमणि और क्षपकणि का स्वरूप बतलाना जरूरी है । यह पहले उपशमणि का स्वरूप कथन करते हैं। पक्षमफसायचउर्फ बंसतिग सत्तगा वि उवसंता ।। अधिरतसम्मत्तामो जाव नियट्टि ति नायच्या ।।६२।।
शब्दार्थ---पदमफसायचमक-प्रथम. कषाय चतुष्क (अनंतानुबंधीकषायचतुष्क), वसतिग-दर्शनमोहनीयत्रिक, ससगा विसातों प्रकृतियाँ, उपसंता-उपशान्त हुई, अविरतसम्मताओ अविरत सम्यगर ष्टि गुणस्थान से लेकर, आव नियट्टि लि---अपूर्वकरण गुणस्थान तक, नायब्वा जानना चाहिये।
गाथार्य-प्रथम कषाय चतुष्क (अनंतानुबंधी वाषाय चतुष्क) दर्शनमोहनिक, ये सात प्रकृतियां अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक नियम से उपशांत हो जाती हैं, ऐसा जानना चाहिये । विशेषार्ष-उपशमणि का स्वरूप बतलाने के लिये गाथा में यह बतलाया है कि उपशमणि का प्रारम्भ किस प्रकार होता है।
कर्म शक्ति को निष्क्रिय बनाने के लिये दो श्रेणि हैं--उपशमश्रेणि और क्षपकश्रेणि । इन दोनों श्रेणियों का मुख्य लक्ष्य मोहनीयकर्म को निष्क्रिय बनाने का है। उसमें से उपशमणि में जीव चारित्र मोहनीयकर्म का उपशम करता है और क्षपश्रेणि में जीव चारित्रमोहनीय और यथासंभव अन्य कर्मों का क्षय करता है। इनमें से जब जीव उपशमणि को प्राप्त करता है तब पहले अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का उपशम करता है, तदनन्तर दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशम करके उपशमणि के योग्य होता है । इन सात प्रकृतियों के उपशम का प्रारंभ तो अविरत सम्यादृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानों में से किसी
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३६६
सप्ततिका प्रकरण भी गुणस्थान में किया जा सकता है किन्तु अपूर्वकरण गुणस्थान में तो नियम से इनका उपशमन हो ही जाता है। ____ गाथा में अनंतानुबंधी चतुष्क आदि सात प्रकृत्तियों के उपशम करने का निर्देश करते हुए पहले अनंतानुबंधी चतुष्क को उपक्षम करने की सूचना दी है अत: पहले इसी का विवेचन किया जाता है । अनंतानुबंधी की उपशमना ____ अनंतानुबंधी चतुष्क की उपशमना करने वाले स्वामी के प्रसंग में बतलाते हैं कि अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, विरत (प्रमत्त और अप्रमत्त) गुणस्थानवी जीवों में से कोई भी जीव किसी भी योग में वर्तमान हो अथात् जिसके चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिक काययोग, इनमें से कोई एक योग हो, जो पीत, पद्म और शुक्ल, इन तीन शुभ लेश्याओं में से किसी एक लेश्या वाला हो, जो साकार उपयोग वाला (ज्ञानोपयोग वाला) हो, जिसके आयुकर्म के बिना सत्ता में स्थित शेष सात कर्मों की स्थिति अन्तःकोड़ा-कोड़ी सागर के भीतर हो, जिसकी चित्तवृत्ति अन्तर्मुहूर्त पहले से उत्तरोत्तर निर्मल हो, जो परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों को छोड़कर शुभ प्रकृतियों का ही बंध करने लगा हो, जिसने अशुभ प्रकृतियों के सत्ता में स्थित चतु:स्थानी अनुभाग को द्विस्थानी कर लिया हो और शुभ प्रकृतियों के सत्ता में स्थित द्विस्थानी अनुभाग को चतु:स्थानी कर लिया हो और जो एक स्थितिबंध के पूर्ण होने पर अन्य स्थितिबंध को पूर्व-पूर्व स्थितिबंध की अपेक्षा उत्तरोत्तर पल्य के संख्यातर्फे भाग कम बांधने लगा हो-ऐसा जीव ही अनंतानुबंधीचतुष्क को उपशमाता है ।
१ अविरतसम्याष्टि-देशविरत-विरतानामन्यतमोऽन्यतमस्मिन् योगे वर्तमान
स्तेज:-पम-शुक्लाश्याइज्यतमोरयायुक्त: साकारोपयोगोपयुक्तोस्त:सागगेपमकोटाकोटीस्थितिसस्कर्मा फरणकामात् पूर्वमपि अन्समुहूर्त कामं यावदेवदायमानचित्तसन्ततिरवतिष्ठते । तथाऽवतिष्ठमानश्च परावर्तमानाः प्रकृती:
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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अनंतानुबंधीचतुष्क की उपशमना के लिए वह जीव यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नाम के तीन करण करता । यथाप्रकरण में तो करण के पहले के समान अवस्था बनी रहती है । अपूर्वकरण में स्थितिबंध आदि बहुत-सी कियायें होने लगती हैं, इसलिये इसे अपूर्वकरण कहते हैं और अनिवृतिकरण में समान काल बालों की विशुद्धि समान होती है इसीलिये इसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं । अब उक्त विषय को विशेष स्पष्ट करते हैं कि यथाप्रवृत्तकरण में प्रत्येक समय उत्तरोतर अनंतगुणी विशुद्धि होती है और शुभ प्रकृतियों का यंत्र आदि पूर्ववत् चालू रहता है । किन्तु स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि और गुणसंकम नहीं होता है, क्योंकि यहाँ इनके योग्य विशुद्धि नहीं पाई जाती है और नाना जीवों की अपेक्षा इस करण में प्रति समय असंख्यात लोक प्रमाण परिणाम होते हैं जो छह स्थान पतित होते हैं ।
हानि और वृद्धि की अपेक्षा ये छह स्थान दो प्रकार के होते हैं१ अनंत भागहानि, २ असंख्यात भागहानि, ३ . संख्यात भागहानि ४. संख्यात गुणहानि, ५. असंख्यात गुणहानि, और ६- अनंत गुणहानि
शुभा एवं बध्नाति नाशुभाः। अशुभानां च प्रकृतीनामनुमागं चतुःस्थानकं सन्तं द्विस्वानकं करोति, शुभश्नां च द्विस्थानकं सन्तं चतुःस्थानकम् । स्थितिमधेपि पुणं पूर्ण राति अन्य स्थितिबन्धं पूर्वपूर्वस्थितिबायापेक्षया पोमसंख्येवमागहीनं करोति ।
-सहतिका प्रकरण टोका, पृ० २४६
१ यथाप्रवृत्तकरण कर दूसरा नाम पूर्व प्रवृत्तकरण भी है, दिगम्बर परम्परा में मय प्रवृत्तकरण को अधःप्रवृत्तकरण कहा गया है।
२
नव स्थितिघात रसघातं पुनर्वोनि गुणसंक्रमं वा करोति, तद्योम्बविशुद्ध भावात् ।
--सप्ततिका प्रकरण टीका,
पृ० २४६
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सप्ततिका प्रकरण
ये हानि रूप छह स्थान हैं । वृद्धि की अपेक्षा छह स्थान इस प्रकार हैं—१. अनंत भागवृद्धिः २. असंख्यात भागवृद्धि, ३. संख्यात भागति ४. संख्यात गुणवृधि, ५. असंख्मास गुणवृद्धि और ६. अन्त गुणवृद्धि । ___इन षस्थानों का आशय यह है कि जब हम एक जीव की अपेक्षा विचार करते हैं तब पहले समय के परिणामों से दूसरे समय के परिणाम अनन्तगुणी विशुद्धि को लिये हुए प्राप्त होते हैं और जब नाना जीवों की अपेक्षा से विचार करते हैं तब एक समयवर्ती नाना जीवों के परिणाम छह स्थान पतित प्राप्त होते हैं तथा यथाप्रवृत्तकरण के पहले समय में माना जीवों की अपेक्षा जितने परिणाम होते हैं, उससे दूसरे समय के परिणाम विशेषाधिक होते हैं, दूसरे समय से तीसरे समय में और तीसरे समय से चौथे समय में इसी प्रकार यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय तक विशेषाधिक-विशेषाधिक परिणाम होते हैं । इसमें भी पहले समय मे जघन्य विशुद्धि सबसे थोड़ी होती है, उससे दूसरे समय में जघन्य विशुद्धि अभंतगुणी होती है, उससे तीसरे सार में जघन्य विशुद्धि अनंतगुणी होती है । इस प्रकार यशाप्रवृत्तकरण के संख्यातवे भाग के प्राप्त होने तक यही क्रम चलता रहता है । पर यहाँ जो जघन्य विशुद्धि प्राप्त होती है, उससे पहले समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी होती है। ___ तदनन्तर पहले समय की उत्कृष्ट विशुद्धि से यथाप्रवृत्तकरण के संख्यात भाग के अगले समय की जघन्य विशुद्धि अनंतगुणी होती है। पुनः इससे दूसरे समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंत गुणी होती है । पुनः उससे यथाप्रवृत्तकरण के संख्यातवें भाग के आगे दूसरे समय की जघन्य विशुद्धि अनंतगुणी होती है।
इस प्रकार यथाप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय में जघन्य विशुद्धिस्थान के प्राप्त होने तक ऊपर और नीचे एक-एक विशुद्धिस्थान को अनंतगुणा करते जानना चाहिये, पर इसके आगे जितने विशुद्धिस्थान
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षष्ठ कर्मग्रव्य
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शेष रह गये हैं, केवल उन्हें उत्तरोत्तर अनंतगुण करना चाहिये । यथाप्रवृत्तकरण का समय अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है।
इस तरह अन्तर्मुहूर्त काल में यथाप्रवृत्तकारण समाप्त होने के बाद दूसरा अपूर्वकरण होता है । जिसका विवेचन इस प्रकार है कि इसमें प्रतिसमय असंख्यात लोक प्रमाण परिणाम होते हैं जो प्रति समय छहस्थान पतित होते हैं। इसमें जी रही समय में जघय विशुलिसबसे थोड़ी होती है जो यथाप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय में कही गई उत्कृष्ट विशुद्धि से अनन्तगुणी होती है । पुन: इससे पहले समय में ही उत्कृष्ट विशुजि अनन्तगुणी होती है । तदनन्तर इससे दूसरे समय में जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है । इस प्रकार अपूर्वकरण का अन्तिम समय प्राप्त होने तक प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर इसी प्रकार कथन करना चाहिये। ____ अपूर्वक रण के पहले समय में ही स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि, गुणसंक्रम और पूर्व स्थितिबन्ध, ये पाँच कार्य एक साथ प्रारम्भ हो जाते हैं । जिनका आशय निम्नानुसार है
स्थितिघात में सत्ता में स्थित स्थिति के अग्रभाग से अधिक से अधिक सैकड़ों सागर प्रमाण और कम से कम पल्य के संख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिखण्ड का अन्तमहतं काल के द्वारा घात किया जाता है तथा यहां जिस स्थिति का आगे चलकर बात नहीं होगा, उसमें प्रति समय दलिकों का निक्षेप किया जाता है और इस प्रकार एक अन्तमुहूर्त काल के भीतर उस स्थिति खण्ड का घात हो जाता है । अनन्तर इसके नीचे के दूसरे पत्य के संख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिखण्ड का उक्त प्रकार घात किया जाता है। इस प्रकार अपूर्वकरण के काल में उक्त क्रम से हजारों स्थितिखण्डों का घात होता है। जिससे पहले , समय की स्थिति से अन्त के समय की स्थिति संख्यातगुणी हीन रह जाती है ।
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सप्ततिका प्रकरण
स्थितिघात के आशय को स्पष्ट करने के बाद अब रसधात का
विवेचन करते हैं ।
रसघात में अशुभ प्रकृतियों का सत्ता में स्थित जो अनुभाग है, उसके अनंतवें भाग प्रमाण अनुभाग को छोड़कर शेष का अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा घात किया जाता है । अनन्तर जो अनंत भाग अनुभाग शेष रहा था उसके अनंतवें भाग को छोड़कर शेष का अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा घात किया जाता है । इस प्रकार एक-एक स्थितिखण्ड के उत्कीरण काल के भीतर हजारों अनुभाग खण्ड खपा दिये जाते हैं ।
गुणश्रेणि का रूप यह होता है कि गुणश्रेणि में अनंतानुबंधी चतुष्क की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति को छोड़कर ऊपर की स्थिति वाले दलिकों में से प्रति समय कुछ दलिक लेकर उदयावलि के ऊपर की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति में उनका निक्षेप किया जाता है। जिसका कम इस प्रकार है कि पहले समय में जो कि ग्रहण गि उनमें से सबसे कम दलिक उदयावलि के ऊपर पहले समय में स्थापित किये जाते हैं। इनसे असंख्यातगुणे दलिक दूसरे समय में स्थापित किये जाते हैं। इनसे असंख्यातमुणे दमिक तीसरे समय में स्थापित किये जाते हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल के अन्तिम समय तक उत्तरोतर असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे दलिकों का निक्षेप किया जाता है । यह प्रथम समय में ग्रहण किये गये दलिकों की निक्षेप विधि है । दूसरे आदि समयों में जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं, उनका निक्षेप भी इसी प्रकार होता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि सुश्रेणि की रचना के पहले समय में जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं वे सबसे थोड़े होते हैं। दूसरे समय में जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं वे इनसे असंख्यातगुणे होते हैं। इसी प्रकार गुणश्रेणिकरण के अन्तिम समय के प्राप्त होने तक तृतीयादि समयों में जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं वे उत्तरोतर असंख्यात युगे होते हैं । यहाँ इतनी विशेषता और है कि अपूर्वकरण
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
४.१
और अनिवृत्तिकरण का काल जिस प्रकार उत्तरोत्तर व्यतीत होता जाता है, तदनुसार गुणश्रेणि के दलिकों का निक्षेप अन्तर्मुहूर्त के उत्तरोतर शेष बचे हुए समयों में होता है, अन्तर्मुहूर्त से ऊपर के समयों में नहीं होता है। जैसे कि मान लो गुणधेणि के अन्तर्मुहुर्त का प्रमाण पचास समय है और अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण इन दोनों के काल का प्रमाण चालीस समय है। अब जो जीव अपूर्वकरण के पहले समय में गुणश्रेणि की रचना करता है वह गुणश्रेणि के सब समयों में दलिकों का निक्षेप करता है तथा दूसरे समय में शेष उनचास समयों में दलिकों का निक्षेप करता है। इस प्रकार जैसे-जैसे अपूर्वकरण का काल व्यतीत होता जाता है वैसे-वैसे दलिकों का निक्षेप कम-कम समयों में होता जाता है। ___ गुणसंक्रम में कर्म प्रकृतियों के दलिकों का संक्रम होता है। अत: गुणसंक्रम प्रदेशसंक्रम का एक भेद है। इसमें प्रतिसमय उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित क्रम से अबध्यमान अनंतानुबंधी आदि अशुभ कर्म प्रकृतियों के कर्म दलिकों का उस समय बंधने वाली सजातीय प्रकृतियों में संक्रमण होता है । यह क्रिया अपूर्वकरण के पहले समय से ही प्रारम्भ हो जाती है।
स्थितिबंध का रूप इस प्रकार होता है कि अपूर्वकरण के पहले समय से ही जो स्थितिबंध' होता है, वह अपूर्व अर्थात् इसके पहले होने वाले स्थितिबंध से बहुत थोड़ा होता है। इसके सम्बन्ध में यह नियम है कि स्थितिबंध और स्थितिघात इन दोनों का प्रारम्भ एक साथ होता है और इनकी समाप्ति भी एक साथ होती है। इस प्रकार इन पांचों कार्यों का प्रारम्भ अपूर्वकरण में एक साथ होता है ।। ____ अपूर्वकरण समाप्त होने पर अनिवत्तिकरण होता है। इसमें प्रविष्ट हुए जीवों के परिणामों में एकरूपता होती है अर्थात् इस
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सप्ततिका प्रकरण
करण में प्रविष्ट हुए जीवों के जिस प्रकार शरीर के आकार आदि में फरक दिखाई देता है, उस प्रकार उनके परिणामों में फरक नहीं होता है, यानी सम : दाले ल. साथ में पड़े हुए जीयों के परिणाम समान ही होते हैं और भिन्न समय वाले जीवों के परिणाम सर्वथा भिन्न ही होते हैं। तात्पर्य यह है कि अनिवृत्तिकरण के पहले समय में जो जीव हैं, थे और होंगे, उन सबके परिणाम एक से ही होते हैं। दूसरे समय में जो जीव हैं, थे और होंगे, उनके भी परिणाम एकसे ही होते हैं। इसी प्रकार तृतीय आदि समयों में भी समझना चाहिये । इसलिये अनिवत्तिकरण के जितने समय है, उतने ही इसके परिणाम होते हैं, न्यूनाधिक नहीं । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके प्रथम आदि समयों में जो विशुद्धि होती है, द्वितीय आदि समयों में वह उत्तरोत्तर अनंतगुणी होती है। ___अपूर्वकरण के स्थितिघात आदि पांचों कार्य अनिवृत्तिकरण में भी चालू रहते हैं। इसके अन्तर्मुहूर्त काल में से संख्यात भागों के बीत जाने पर जब एक भाग शेष रहता है तब अनंतानुबंधी चतुष्व के एक आवलि प्रमाण नीचे के निषेकों को छोड़कर अन्तर्मुहर्त प्रमाण निवेकों का अन्तरकरण किया जाता है । इस क्रिया को करने में न्यूनतम स्थितिबंध के काल के बराबर समय लगता है। यदि उदयवाली प्रकृतियों का अन्तरक रण किया जाता है तो उनकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और यदि अनुदयवाली प्रकृतियों का अन्तरक रण किया जाता है तो उनकी नीचे की स्थिति आवलि' प्रमाण छोड़ दी जाती है ।
१ स्थितिधात आदि पापों कार्यों का विवरण अपूर्वकरण के प्रसंग में बताया
जा चुका है, तदनुरूप यहाँ भी समझना चाहिये ।। २ एक आवलि या अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नीचे की और ऊपर की स्थिति को छोड़
कर मध्य में से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण दलिकों को उठाकर उनका बंधने वाली अन्य सजातीय प्रकृतियों में प्रक्षेप करने का नाम अन्तरकरण है ।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ चूंकि यहाँ अनंतानुबंधी चतुष्क का अन्तरकरण करना है किन्तु उसका चौथे आदि गुणस्थानों में उदय नहीं होता है इसलिये इसके नीचे के आवलि प्रमाण दलिकों को छोड़कर ऊपर के अन्तर्मुहुर्त प्रमाण दलिकों का अन्तरकरण किया जाता है।
अंतरकरण में अन्तर का अर्थ व्यवधान और करण का अर्थ क्रिया है । तदनुसार जिन प्रकृतियों का अन्तरकरण किया जाता है, उनके दलिकों की पंक्ति को मध्य से मंग कर दिया जाता है। इससे दलिकों की तीन अवस्थायें हो जाती हैं—प्रथम स्थिति, सान्तरस्थिति और उपरितम या द्वितीयस्थिति । प्रथम स्थिति का प्रमाण एक आवलि या एक अन्तर्मुहुर्त होता है। इसके बाद सान्त रस्थिति प्राप्त होती है । यह दलिकों से शून्य अवस्था है । इसका भी समय प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । इसके बाद द्वित्तीयस्थिति प्राप्त होती है। इसका प्रमाण दलिकों की शेषस्थिति है।
अन्तरकरण करने से पहले दलिकों की पंक्ति० ० ० ० ० ० ० ० ० ... इस प्रकार अविच्छिन्न रहती है किन्तु अन्तरकर कर लेने पर उसकी अवस्था ००००००००००० इस प्रकार हो जाती है। यहाँ मध्य में जो रिक्तस्थान दिखता है, वहाँ के कुछ दलिकों को यथासंभव बंधने वाली अन्य सजातीय प्रकृतियों में मिला दिया जाता है। इस अंतर स्थान से नीचे (पहले) की स्थिति को प्रथमस्थिति और ऊपर (बाद) की स्थिति को द्वितीय स्थिति कहते हैं । उदयबाली प्रकृतियों के अन्तरकरण करने का काल और प्रथमस्थिति का प्रमाण समान होता है किन्तु अनुदयवाली प्रकृतियों की प्रथमस्थिति के प्रमाण से अन्तरकरण करने का काल बहुत बड़ा होता है । अन्तरकरण क्रिया के चालु रहते हुए उदयबाली प्रकृतियों की प्रथम स्थिति का एक-एक दलिक उदय में आकर निर्जीर्ण होता जाता है और अनुदयवाली प्रकृतियों की प्रथम
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४०४
सप्ततिका प्रकरण स्थिति के एक-एक दलिक का उदय में आने वाली सजातीय प्रकृतियों में स्तिबुक संक्रमण के द्वारा संक्रम होता रहता है ।
यहाँ अनंतानुबंधी के उपशम का कथन कर रहे हैं किन्तु उसका उदय यही नहीं है, अत: इसके प्रथम स्थगित प्रत्येक दलिक का भी स्तिबुकसंक्रमण द्वारा पर-प्रकृतियों में संक्रमण होता रहता है। इस प्रकार अन्तरकरण के हो जाने पर दूसरे समय में अनंतानुबंधी चतुष्क की द्वितीयस्थिति वाले दलिकों का उपशम किया जाता है । पहले समय में घोड़े दलिकों का उपशम किया जाता है। दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणे दलिकों का, तीसरे समय में उससे भी असंख्यातगुणे दलिकों का उपशम किया जाता है। इसी प्रकार अन्तर्मुहतं काल तक असंख्यातगुणे-असंख्यातगुणे दलिकों का प्रतिसमय उपशम किया जाता है। इतने समय में समस्त अनंतानुबंधी चतुष्क का उपशम हो जाता है । जिस प्रकार धूलि को पानी से सींच-सौंचे कर दुरमुट से कूट देने पर वह जम जाती है, उसी प्रकार कर्म रज भी विशुद्धि रूपी जल से सींच-सोंच कर अनिवृत्तिकरण रूपी दुरमुट के द्वारा कूट दिये जाने पर संक्रमण, उदय, उदीरणा, नित्ति और निकाचना के अयोग्य हो जाती है । इसी को अनंतानुबंधी का उपशम कहते हैं।
लेकिन अन्य आचार्यों का मत है कि अनन्तानुबंधी चतुष्क का उपशमन होकर विसंयोजमा ही होती है। विसंयोजना क्षपणा का
१ कर्मप्रकृति ग्रन्थ में अनंतानुबंधी की उपशमना का स्पष्ट निषेध किया है वहाँ
बताया है कि चौथे, पांचवें और छठे गुणस्थानवर्ती यथायोग्य चारों गति के पर्याप्त जीव तीन करणों के द्वारा अनंतानुबंधी चतुष्क का विसंयोजन करते हैं । किन्तु विसंयोजन करते समय न तो अन्तरकरण होता है और न अनंतानुबंधी चतुष्क का उपशम ही होता है
चउगइया पजता तिनि वि संयोजणे वियोजति । करणेति तीहि सहिया नंतरकरणं उसमो वा ॥
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षष्ठ फर्म ग्रन्थ
४०५ ही दूसरा नाम है, किन्तु विसंयोजना और क्षपणा में सिर्फ इतना अंतर है कि जिन प्रकृतियों की विसंयोजना होती है, उनकी पुन: सत्ता प्राप्त हो जाती है, किन्तु जिन प्रकृतियों की क्षपणा होती है, उनकी पुन: सत्ता प्राप्त नहीं होती है ।
अनन्तानुबंधी की विसंयोजना अविरत सम्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक किसी एक गुणस्थान में होती है । चौथे गुणस्थान में चारों गति के जीव अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करते हैं। पांचवें गुणस्थान में तिथंच और मनुष्य अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करते हैं और छठे व सातवें गुणस्थान में मनुष्य ही अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करते हैं। इसके लिये भी पहले के समान यशात्तकरण बाद तीन बार किरे जो हैं। लेकिन इतनी विशेषता है कि विसंयोजना के लिये अन्तरकरण की आवश्यकता नहीं होती है किन्तु आवलि प्रमाण दलिकों को छोड़कर ऊपर के सब दलिकों का अन्य सजातीय प्रकृति रूप से संक्रमण करने और आवलि प्रमाण दलिकों का वेद्यमान प्रकृतियों में संक्रमण करके उनका विनाश कर दिया जाता है।
इस प्रकार अनन्तानुबन्धी की उपशमना और विसंयोजना का विचार किया गया अब दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों की उपशमना का विचार करते हैं।
माता हा
दिगम्बर परम्परा में कषायपाहुड, उसकी चूणि, पखंडागम और लक्षिसार में भी अनन्तानुबंधी के विसयोजन वाले मत का ही उल्लेख मिलता है। कर्मप्रकृति के समान कामपाहुर की पूणि में भी अनन्तानुबंधी के उपकाम का स्पष्ट निषेध किया है, लेकिन दिगम्बर परम्परा में प्रचलित सप्ततिका में उपशम याला मत भी पाया जाता है और गो० कर्मकांड से इस बात का अवश्य पता लगता है कि वे अनंतानुबंधी के उपशम वाले मत से परिचित थे ।
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४०६
सप्ततिका प्रकरण
वर्शनमोहनीय की उपशमना ___दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों की उपशमना के विषय में यह नियम है कि मिथ्यात्व, राम्यग्मिध्यात्व और सम्यक्त्व यह दर्शन भाहनोच की तीन प्रकालय है। उनमें से मिथ्यात्व का उपशम तो मिथ्याष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि जीव करते हैं, किन्तु सम्यक्त्व
और सम्यगमिथ्यात्व इन दो प्रकृतियों का उपशम वेदक सम्यग्दृष्टि जीव ही करते हैं । इसमें भी चारों गति का मिथ्यादृष्टि जीव जान्न प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है तब मिथ्याल का उपशम करता है। मिथ्यात्व के उपशम करने की विधि पूर्व में बताई गई अनन्तानुबंधी चतुष्का के उपशम के समान जानना चाहिये किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके अपूर्वकरण में गुणसंक्रम नहीं होता किन्तु स्थितिघात, रसघात, स्थितिबंध और गुणश्रेणि, ये प्यार कार्य होते हैं।
१ दिगम्बर कर्भग्रन्थों में इस विषय के निर्देश माच यह है कि मिथ्यादृष्टि
एक मिथ्यात्व का, मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्व इन दोनों का या मिथ्यात्व, सम्पमिथ्यात्व और सम्यक्त्व, इन तीनों का तथा सम्मादृष्टि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय तीनों का उपशाम करता है। जो जीव सम्पवस्व से च्युत होकर मिथ्यात्व में जाकर वेदककाल का उल्लंघन कर आता है, यह मदि सम्यक्त्व की उदवलना होने के काल में ही उपशम सम्बकाव को प्राप्त होता है तो उसके तीनों का उपशम होता है | जो जीव सम्यक्त्व की उबलना के बाद सम्यगमिथ्यात्व की उदलना होते समय यदि उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त करता है तो उसके मिथ्याब और सम्यगमिथ्यात्व इन दो का उपशम होता है और जो मोहनीय की सब्बीस प्रकृतियों की सत्ता वाला मिश्यादृष्टि होता है, उसके एक मिश्यात्व
का ही उपशम होता है। २ तत्र मिथ्यात्वस्योपशमना मिथ्यादृष् वेदकसम्यग्दृष्टेश्च । सम्यक्त्व सम्पग्मिथ्यात्वयोस्तु वेदकसम्याहाटेरेव ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २४६
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
४०७ मिथ्या दृष्टि के नियम से मिथ्यात्व का उदय होता है। इसलिये इसके गुणधेणि की रचना उदय समय से लेकर होती है । अपूर्वकरण के बाद अनिवृत्तिकरण में भी इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इसके संख्यात भागों के बीत जाने पर जब एक भाग शेष रह जाता है तब मिथ्यात्व के अन्तर्म हर्त प्रमाण नीचे के निषेकों को छोड़कर, इससे कुछ अधिक अन्नाला प्रमाण पर के निरेनों का अन्त का किया जाता है। इस क्रिया में नूतन स्थितिबंध के समान अन्तर्मुहूर्त काल लगता है। यहां जिन दलिकों का अन्त रकरण किया जाता है, उनमें से कुछ को प्रथम स्थिति में और कुछ को द्वितीय स्थिति में डाल दिया जाता है, क्योंकि मिथ्याइष्टि के मिथ्यात्व का पर-प्रकृति रूप संक्रमण नहीं होता है। इसके प्रथमास्थिति में आवलि प्रमाण काल शेष रहने तक प्रथमस्थिति के दलिकों की उदीरणा होती है किन्तु द्वितीय स्थिति के दलिकों की उदीरणा प्रथम स्थिति में दो आवलि प्रमाणकाल शेष रहने तक ही होती है। यहाँ द्वितीय स्थिति के दलिकों की उदीरणा को आगाल कहते हैं।
इस प्रकार यह जीव प्रथमस्थिति का वेदन करता हुआ जब प्रथमस्थिति के अन्तिम स्थान स्थित दलिक का बेदन करता है, तब वह अन्तरकरण के ऊपर द्वितीय स्थिति में स्थित मिथ्यात्व के दलिकों को अनुभाग के अनुसार तीन भागों में विभक्त कर देता है। इनमें से विशुद्ध भाग को सम्यक्त्व, अर्धविशुद्ध भाग को सम्पमिथ्यात्व और सबसे अविशुद्ध भाग को मिथ्यात्व कहते हैं । कर्मप्रकृति चूर्णि में कहा भी है
चरमसमममियादिङी सेकासे उपसमसम्मविट्ठी होहिह ताहे वियिठिई तिहानुभागं करेइ, संजहा.-सम्मतं सम्मामिटतं मिच्छत्तं भ ।
इस तरह प्रथमस्थिति के समाप्त होने पर मिथ्यात्व के दलिक का उदय नहीं होने से औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है । इस
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सप्ततिका प्रकरण
सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर अलब्ध पूर्व आत्महित की उपलब्धि होती है
मिनबए प्रोपे लहए सम्मत्तमोगसमियं सो।
लभेग बस्स लम्भर आपहियमलयपुवं जं ॥ यह प्रथम सम्यक्त्व का लाभ मिथ्यात्व के पूर्ण रूपेण उपशम से प्राप्त होता है और इसके प्राप्त करने वालों में से कोई देशविरत और कोई सर्वविरत होता है। अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात् संयम लाभ के लिए प्रयास किया जाता है।
किन्तु इस प्रथमोपशम सम्यक्त्व से जीव उपशमणि पर न चढ़कर द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से चढ़ता है। अत: उसके बारे में बताते हैं कि जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक का उपशम करके उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त होता है, उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । इनमें से अनन्तानुबन्धी के उपशम होने का कथन तो पहले कर आये हैं । अब यहाँ दर्शनमोहनीय के उपशम होने की विधि को संक्षेप में बतलाते हैं। ___ जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव संयम में विद्यमान है, वह दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशम करता है। इसके यथाप्रवृत्तकरण आदि तीन करण पहले के समान जानना चाहिये किन्तु इतनी विशेषता है कि अनिवृत्तिकरण के संख्यात भागों के बीत जाने पर अन्तरकरण करते समय सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति अन्तर्महुर्त प्रमाण स्थापित की जाती है, क्योंकि यह वेद्यमान प्रकृति है तथा सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति आबलि प्रमाण स्थापित की जाती है क्योंकि वेदक सम्यग्दृष्टि के इन दोनों का उदय नहीं होता है । यहाँ इन तीनों प्रकृतियों के जिन दलिकों का अंतरकरण किया जाता है, उनका निक्षेप सम्यक्त्व की प्रथमस्थिति में होता है । १ क्रमप्रकृति, मा० ३३०
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इसी प्रकार इस जीव के मिथ्यात्व और सम्यग मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति के दलिकों का सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति के दलिक में स्तिकसंक्रम के द्वारा संक्रमण होता रहता है और सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति का प्रत्येक दलिक उदय में आ-आकर निर्जीर्ण होता रहता है। इस प्रकार इसके सम्यक्त्व की प्रथमस्थिति के क्षीण हो जाने पर द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है ।
द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के प्राप्त होने के बाद चारित्र मोहनीय की उपशमना का क्रम प्रारम्भ होता है । अतः अब चारित्र मोहनीय के उपशम के क्रम को बतलाते हैं ।
चारित्र मोहनीय की उपशमना
चारित्र मोहनीय का उपशम करने के लिये पुनः यथाप्रवृत्तकरण आदि तीन करण किये जाते हैं। करणों का स्वरूप तो पूर्ववत् है लेकिन इतनी विशेषता है कि यथाप्रवृत्तकरण सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में होता है, अपूर्वकरण आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में और अनिवृत्तिकरण नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में होता है । यहाँ भी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में स्थितिघात आदि पहले के समान होते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक जो अपूर्वकरण और अभिवृत्तिकरण होते हैं, उनमें उसी प्रकृति का गुणसंक्रम होता है, जिसके सम्बन्ध में वे परिणाम होते हैं । किन्तु अपूर्वकरण में नहीं बंधने वाली सम्पूर्ण अशुभ प्रकृतियों का गुणसंक्रम होता है। अपूर्वकरण के काल में से संख्यातवाँ भाग बीत जाने पर निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है। इसके बाद जब हजारों स्थितिखंडों का घात हो लेता है, तब अपूर्वकरण का संख्यात बहुभाग काल व्यतीत होता है और एक भाग शेष रहता है। इसी बीच नामकर्म की निम्नलिखित ३० प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है
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सप्ततिका प्रकरण
देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, बैंक्रिय अंगोपांग, आहारक अंगोपांग, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु, उपधात, पराघात, उच्छवास, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थकर।।
तदनन्तर स्थितिखंड-पृथक्त्व हो जाने पर अपूर्वकरण का अंतिम समय प्राप्त होता है। इसमें हास्य, रति, भय और जुगुप्सा का बंधविच्छेद, छह नोकषायों का उदयविच्छेद तथा सब कर्मों की देशोपशमना, निधत्ति और निकाचना करणों की मुच्छित्ति होती है । इसके बाद अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश होता है । ____ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में भी स्थितिघात आदि कार्य पहले के समान होते हैं। अनिवृत्ति के संहास बहुभाग पाश के होश जाने पर चारित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियों का अंतरकरण किया जाता है। अन्त'रकरण करते समय चार संज्वलन कषायों में से जिस संज्वलन कषाय का और तीन वेदों में से जिस वेद का उदय होता है, . उनकी प्रथमस्थिति को अपने-अपने उदयकाल प्रमाण स्थापित किया जाता है अन्य उन्नीस प्रकृतियों की प्रथमस्थिति को एक आवलि , प्रमाण स्थापित किया जाता है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का उदयकाल सबसे थोड़ा है। पुरुषवेद का उदयकाल इससे संख्यातगुणा है। संज्वलन क्रोध का उदयकाल इससे विशेष अधिक है। संज्वलन मान का उदयकाल इससे विशेष अधिक है। संज्वलन माया का उदयकाल इससे विशेष अधिक है और संज्वलन लोभ का उदयकाल इससे विशेष अधिक है । पंचसंग्रह में भी इसी प्रकार कहा है
थोअपुमोरयकाला संग्जगुणो र पुरिसोयरस ।
तत्तो वि विसेसअहिओ कोहे तत्तो वि महकमसो।' १ पंचसंग्रह, ७९६
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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सद-विद हर नजर, द. के गालो मारेर का काल संख्यातगुणा है। इससे क्रोष का काल विशेष अधिक है । आगे भी इसी प्रकार यथाक्रम से विशेष अधिक काल जानना चाहिये ।
जो संज्वलन क्रोध के उदय से उपशमश्रेणि का आरोहण करता है, उसके जब तक अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और प्रत्याख्यानावरण कोष का उपशम नहीं होता तब तक संज्वलन क्रोध का उदय रहता है । जो संज्वलन मान के उदय से उपशमश्रेणि पर चढ़ता है उसके जब तक अप्रत्याख्यानावरण मान और प्रत्याख्यानावरण मान का उपशम नहीं होता, तब तक संज्वलन मान का उदय रहता है। जो संज्वलन माया के उदय से उपशमवेणि पर चढ़ता है, उसके जब तक अप्रत्याख्यानावरण माया का और प्रत्याख्यानावरण माया का उपशम नहीं होता तब तक संज्वलन माया का उदय रहता है तथा जो संज्वलन लोभ के उदय से उपशमणि पर चढ़ता है, उसके जब तक अप्रत्याख्यानावरण लोभ और प्रत्याश्यानावरण लोभ का उपशम नहीं होता तब तक संज्वलन लोभ का उदय रहता है। ___ जितने काल के द्वारा स्थितिखंड का घात करता है या अन्य स्थिति का बंध करता है, उतने ही काल के द्वारा अन्तरकरण करता है, क्योंकि इन तीनों का प्रारंभ और समाप्ति एक साथ होती है। तात्पर्य यह है कि जिस समय अंतरकरण क्रिया का आरंभ होता है, उसी समय अन्य स्थितिखंड के घात का और अन्य स्थितिबंध का भी प्रारंभ होता है और अन्तरकरण क्रिया के समाप्त होने के समय ही इनकी समाप्ति भी होती है । इस प्रकार अन्तरकरण के द्वारा जो अन्तर स्थापित किया जाता है, उसका प्रमाण प्रथम स्थिति से संख्यात गुणा है । अन्तरकरण करते समय जिन कर्मों का बंध और उदय होता है उनके अन्तरकरण संबंधी दलिकों को प्रथम स्थिति और द्वितीयस्थिति में क्षेपण करता है, जैसे कि पुरुषवेद के उदय से
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सप्ततिका प्रकरण
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श्रेणि पर चढ़ने वाला पुरुषवेद का जिन कमी का अन्तरकरण करते समय उदय ही होता है, बंध नहीं होता उनके अन्तरकरण संबंधी दलिकों को प्रथमस्थिति में ही क्षेपण करता है, द्वितीयस्थिति में नहीं, जैसे स्त्रीवेद के उदय से श्रेणि पर चढ़ने वाला स्त्रीवेद का । अन्तर करने के समय जिन कर्मों का उदय न होकर केवल बंध ही होता है, उसके अंतरकरण संबंधी दलिक को द्वितीय स्थिति में ही क्षेपण करता है, प्रथम स्थिति में नहीं; जैसे संज्वलन क्रोध के उदय से श्रेणि पर चढ़ने वाला शेष संज्वलनों का। किन्तु अन्तरकरण करने के समय जिन कर्मों का न तो बंध ही होता है और न उदय ही, उनके अन्तरकरण सम्बन्धी दलिकों का अन्य सजातीय बंधने वाली प्रकृतियों में क्षेपण करता है; जैसे दूसरी और तीसरी कषायों का।
अब अंतरकरण द्वारा किये जाने वाले कार्य का संकेत करते हैं ।
अंतरकरण करके नपुंसकवेद का उपशम करता है । पहले समय में सबसे थोड़े दलिकों का उपशम करता है, दूसरे समय में असंख्यातगुणे दलिकों का उपशम करता है। इस प्रकार अंतिम समय प्राप्त होने तक प्रति समय असंख्यातगुणे, असंख्यातगुणे दलिकों का उपशम करता है तथा जिस समय जितने दलिकों का उपशम करता है, उस समय दूसरे असंख्यातगुणे दलिकों का पर-प्रकृतियों में क्षेपण करता है, किन्तु यह क्रम उपान्त्य समय तक ही चालू रहता है। अंतिम समय में तो जितने दलिकों का पर प्रकृतियों में संक्रमण होता है, उससे असंख्यातगुणे दलिकों का उपशम करता है । इसके बाद एक अन्तर्मुहूर्त में स्त्रीवेद का उपशम करता है। इसके बाद एक अन्तमुहूर्त में हास्यादि छह का उपशम करता है । हास्यादिषट्क का
१
इस संबंधी विशेष ज्ञान के लिए कर्मप्रकृति टीका देखना चाहिये । यहाँ तो संक्षेप में प्रकाश डाला है ।
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पष्ठ कर्मग्रन्थ
४१३ उपशम होते ही पुरुषवेद के बंध, उदय और उदीरणा का तथा प्रथमस्थिति का विच्छेद हो जाता है। किन्तु आगाल प्रथम स्थिति में दो आवलिका शेष रहने तक ही होता है तथा इसी समय से छह नोकषायों के दलिकों का पुरुषवेद में क्षेपण न करके संज्वलन क्रोध आदि में क्षेपण करता है ।
हास्यादि छह का उपशम हो जाने के बाद एक समय कम दो आवलिका काल में सकल पुरुषवेद का उपशम करता है । पहले समय में सबसे थोड़े दलिकों का उपशम करता है। दूसरे समय में असंख्यातगुणे दलिकों का, तीसरे समय में इससे असंख्यातगुणे दलिकों का उपशम करता है। दो समय कम दो आलियों के अंतिम समय तक इसी प्रकार उपशम करता है तथा दो समय कम दो आवलि काल तक प्रति समय यथाप्रवृत्त सक्रम के द्वारा परप्रकृतियों में दलिकों का निक्षेप करता है। पहले समय में बहुत दलिकों का निक्षेप करता है, दूसरे समय में विशेष हीन दलिकों का निक्षेप करता है, तीसरे समय में इससे विशेष हीन दलकों का निक्षेप करता है । अंतिम समय तक इसी प्रकार जानना चाहिये।
जिस समय हास्यादिषट्क का उपशम हो जाता है और पुरुषवेद की प्रधम स्थिति क्षीण हो जाती है, उसके अनन्तर समय से अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण क्रोष और संज्वलन क्रोध के उपशम करने का एक साथ प्रारंभ करता है तथा संज्वलन क्रोध की प्रथम स्थिति में एक समय कम तीन आवलिका शेष रह जाने पर अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और प्रत्याख्यानावरण क्रोध के दलिकों का संज्वलन क्रोध में निक्षेप न करके संज्वलन मानादिक में निक्षेप करता
१ दुसु मावलियासु पढमठिईए सेसासु वि य बेझो ।
--कर्मप्रकृति गा० १०७
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सप्ततिका प्रकरण
है तथा दो आवलि काल शेष रहने पर आगाल नहीं होता है किन्तु केवल उदीरणा ही होती है और एक आवलिका काल के शेष रह जाने पर संज्वलन क्रोध के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छोंद हो जाता है और अप्रत्याख्यानावरण क्रोध तथा प्रत्यास्यानावरण क्रोध का उपशम हो जाता है उस समय संज्वलन क्रोध की प्रथम स्थितिगत एक आवलिका प्रमाण दलिकों को और उपरितन स्थितिगत एक समय कम दो आवलिका काल के द्वारा बद्ध दलिकों को छोड़कर शेष दलिक उपशांत हो जाते हैं ।।
तदनन्तर प्रथम स्थितिगत एक आवलिका प्रमाण दलिकों का स्तिबुकसंक्रम के द्वारा क्रम से संज्वलन मान में निक्षेप करता है और एक समय कम दो आवलिका काल में बद्ध दलिकों का पुरुषवेद के समान उपाम करता है और पर प्रकृति का से मंऋाण करता है। इस प्रकार अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध के उपशम होने के बाद एक समय कम दो आवलिका काल में संज्वलन क्रोध का उपवाम हो जाता है । जिस समय संज्वलन क्रोध के बंध, उदय और उदीरणा को विच्छेद होता है, उसके अनन्तर समय से लेकर संज्वलन मान की द्वितीय स्थिति से दलिकों को लेकर उनकी प्रथम स्थिति करके वेदन करता है। प्रथम स्थिति करते समय प्रथम समय में सबसे थोड़े दलिकों का निक्षेप करता है। दूसरे समय असंख्यातगुणे दलिकों का, तीसरे समय में इससे असंख्यातगुणे दलिकों का निक्षेप करता है। इस प्रकार प्रथमस्थिति के अंतिम समय तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे दलिकों का निक्षेप करता है। प्रथमस्थिति
१ तिसु आवलिमासु समऊणियासु अपडिग्गहा उ संजलणा ।
-कर्मप्रकृति गा० १०७
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I
षष्ठ कर्मग्रम्य
करने के प्रथम समय से लेकर अप्रत्याख्यानावरण मान, प्रत्याख्यानावरण मान और संज्वलन मान के उपशम करने का एक साथ प्रारंभ करता है। संज्वलन मान की प्रथमस्थिति में एक समय कम तीन आवलिका काल के शेष रहने पर अप्रत्याख्यानावरण मान और प्रत्याख्यानावरण मान के दलिकों का संज्वलन मान में प्रक्षेप न करके संज्वलन माया गाति में पक्षेप करता है दो के शेष पर आगाल नहीं होता किन्तु केवल उदीरणा ही होती है। एक आवलिका काल के शेष रहने पर संज्वलन मान के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है तथा अप्रत्याख्यानावरण मान और प्रत्याख्यानावरण मान का उपशम हो जाता है । उस समय संज्वलन मान की प्रथमस्थितिगत एक आवलिका प्रमाण दलिकों को और उपरितन स्थितिगत एक समय कम दो आवलिका काल में बद्ध दलिकों को छोड़कर शेष दलिक उपशान्त हो जाते हैं |
४१५
तदनन्तर प्रथम स्थितिगत एक आवलिका प्रमाण संज्वलन मान के दलिकों का tितबुकसंक्रम के द्वारा कम से संज्वलन माया में निक्षेप करता है और एक समय कम दो आवलिका काल में बद्ध दलिकों का गुरुषवेद के समान उपशम करता है और पर प्रकृति रूप से संक्रमण करता है। इस प्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान और प्रत्याख्यातावरण मान के उपशम होने के बाद एक समय कम दो आवलिका काल में संज्वलन मान का उपशम हो जाता है । जिस समय संज्वलन मान के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है, उसके अनन्तर समय से लेकर संज्वलन माया की द्वितीय स्थिति से दलिकों को लेकर उनकी प्रथम स्थिति करके वेदन करता है तथा उसी समय से लेकर अप्रत्याख्यानावरण माया, प्रत्याख्यानावरण माया और संज्वलन माया के उपशम करने का एक साथ प्रारंभ करता है । संज्वलन माया की प्रथमस्थिति में एक समय कम तीन
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४१६
सप्तसिका प्रकरण
आलिका काल के शेष रहने पर अप्रत्याख्यानावरण माया और प्रत्याख्यानावरण माया के दलिकों का संज्वलन माया में प्रक्षेप न करके संज्वलन लोभ में प्रक्षेप करता है। दो आवलि काल के शेष रहने पर आगाल नहीं होता किन्तु केवल उदीरणा ही होती है। एक आवलिका काल शेष रहने पर संज्वलन माया के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है तथा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण माया का उपशम हो जाता है । उस समय संज्वलन माया की प्रथम स्थितिगत एक आवलिका प्रमाण दलिकों को और उपरितन स्थितिगत एक समय कम दो आवलिका काल में बद्ध दलिकों को छोड़कर शेष दलिक उपशान्त हो जाते हैं।
अनन्तर प्रथमस्थितिगत एक आवलिका प्रमाण दलिकों का स्तिबुकसक्रम के द्वारा क्रम से संज्वलन माया में निक्षेप करता है और एक समय कम दो आवलिका काल में बद्ध दलिकों का पुरुषवेद के समान उपशम करता है और पर-प्रकृति रूप से संक्रमण करता है । इस प्रकार अप्रत्याख्यानावरण माया और प्रत्याख्यानावरण माया के उपशम होने के बाद एक समय कम दो आवलिका काल में संज्वलन माया का उपशम हो जाता है । जिस समय संज्वलन माया के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है, उसके अनन्तर समय से लेकर संज्वलन लोभ की द्वितीयस्थिति से दलिकों को लेकर उनकी लोभ वेदक काल के तीन भागों में से दो भाग प्रमाण प्रथम स्थिति करके वेदन करता है । इनमें से पहले त्रिभाग का नाम अश्वकर्णकरण काल है और दूसरे विभाग का नाम किट्टीकरणकाल है। प्रथम अश्वकर्णकरण काल में पूर्व स्पर्धकों से दलिकों को लेकर अपूर्व स्पर्धक करता है ।
स्पर्धक की व्याख्या
जीव प्रति समय अनन्तानन्त परमाणुओं से बने हुए स्कंधों को
६
३
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षष्ठ कर्मग्रन्थ कर्म रूप से ग्रहण करता है। इनमें से प्रत्येक स्कंध में जो सबसे जघन्य रस घाला परमाणु है, उसके बुद्धि से छेद करने पर सब जीवों से अनंतगुणे अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं। अन्य परमाणुओं में एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सिद्धों के अनंतवें भाग अधिक इसके अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होने तक प्रत्येक परमाणु में रस का एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद बढ़ाते जाना चाहिये । यहां जघन्य रस वाले जितने परमाणु होते हैं, उनके समुदाय को एक वर्गणा कहते हैं। एक अधिक रसवाले परमाणुओं के समुदाय को दूसरी वर्गणा कहते हैं । दो अधिक रस वाले परमाणुओं के समुदाय को ततिरी वर्गणा कहते हैं। इस प्रकार कुल बगंजायें सिद्धों के अनंतः भाग प्रमाण या अभन्यों से अनंतगुणी प्राप्त होती है। इन सब वर्गणाओं के समुदाय को एक स्पर्धक कहते हैं।
दूसरे आदि स्पर्धक भी इसी प्रकार प्राप्त होते हैं किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम आदि स्पर्धकों की अंतिम वर्गणा के प्रत्येक वर्ग में जितने अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं, दूसरे आदि स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के प्रत्येक वर्ग में सब जीवों से अनन्तगुणे रस के अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं और फिर अपने-अपने स्पर्धक की अंतिम वर्गणा तक रस का एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद बढ़ता जाता है । ये सब स्पर्धक संसारी जीवों के प्रारंभ से ही यथायोग्य होते हैं। इसलिये इन्हें पूर्व स्पर्धक कहते हैं। किन्तु यहाँ पर उनमें से दलिकों को ले-लेकर उनके रस को अत्यन्त हीन कर दिया जाता है, इसलिये उनको अपूर्व स्पर्धक कहते हैं ।
इसका तात्पर्य यह है कि संसार अवस्था में इस जीव ने बंध की अपेक्षा कभी भी ऐसे स्पर्धक नहीं किये थे, किन्तु विशुद्धि के प्रकर्ष से इस समय करता है, इसलिये इनको अपूर्व स्पर्धक कहा जाता है।
यह क्रिया पहले विभाग में की जाती है। दूसरे विभाग में पूर्व
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४१८
सप्ततिका प्रकरण
स्पर्धकों और अपूर्व स्पर्धाकों में से दलिकों को ले-लेकर प्रति समय अनन्त किट्टियां करता अर्थात् पूर्व स्पर्धकों और अपूर्व स्पर्धकों से वर्गणाओं को ग्रहण करके और उनके रस को अनन्तगुणा हीन करके रस के अविभाग प्रतिच्छेदों में अंतराल कर देता है। जैसे, मानलो रस के अविभाग प्रतिच्छेद, सो, एक सौ एक और एक सौ दो थे, उन्हें घटा कर कम से पांच, पंद्रह और पच्चीस कर दिया, इसी का नाम किट्टीकरण है।
किट्टीकरण काल के अन्तिम समय में अप्रत्याख्यानावरण लोभ, प्रत्याख्यानावरण लोभ का उपशम करता है तथा उसी समय संज्वलन लोभ का बंधविच्छेद होता है और बादर संज्वलन के उदय तथा उदीरणा के विच्छेद के साथ नौवें गुणस्थान का अंत हो जाता है। यहां तक मोहनीय की पच्चीस प्रकृतियाँ उपशांत हो जाती हैं।' अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण लोभ के उपशान्त हो जाने पर सत्ताईस प्रकृतियाँ उपशान्त हो जाती हैं। इसके बाद सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान होता है। इसका काल अन्तर्मुहूर्त है । इसके पहले समय में उपरितन स्थिति में से कुछ किट्टियों को लेकर सूक्ष्मसंपराय काल के बराबर उनकी प्रथमस्थिति करके वेदन करता है और एक समय कम दो आवलिका में बंधे हुए सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त शेष दलिकों का उपशम करता है।
तदनन्तर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्तिम समय में संज्वलन लोभ का उपशम हो जाता है। इस प्रकार मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियां उपशान्त हो जाती हैं और उसी समय ज्ञानावरण को पांच,
१ अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक उपशांत प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है
ससद्ध नय य पनरस सोलस अट्ठारसेव इगुबीसा । एगाहि दु पचवीसा पणीसा बायरे जाण ।।
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षष्ठ कर्मग्राम
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दर्शनावरण की चार, अंतराय की पांच, यश:कीति और उच्च गोत्र, इन सोलह प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है । इसके बाद दूसरे समय में ग्यारहवा गुणस्थान उपशान्तकषाय होता है। इसमें मोहनीय की सब प्रकृतियाँ उपशांत रहती हैं।' उपशांतकषाय गुणस्थान का जघन्य काल एक समय और उस्मृष्ट काम अन्तर्मुई है।
उपशमणि के आरोहक के ग्यारहवें उपशांतमोह गुणस्थान में पहुँचने पर, इसके बाद नियम से उसका पतन होता है। पतन दो प्रकार से होता है-भवक्षय से और अद्धाक्षय से । आयु के समाप्त हो जाने पर जो पतन होता है वह भवक्षय से होने वाला पतन है । भव अर्थात् पर्याय और क्षय अर्थात् विनाश तथा उपशांतकषाय गुणस्थान के काल के समाप्त हो जाने पर जो पतन होता है वह अद्धाक्षय से होने वाला पतन है। जिसका भवक्षय से पतन होता है, उसके अनन्तर समय में अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है और उसके पहले समय में ही बन्ध आदि सब करणों का प्रारम्भ हो जाता है । किन्तु जिसका अद्धाक्षय से पतन होता है अर्थात् उपशांतमोह गुणस्थान का काल समाप्त होने के अनन्तर जो पतन होता है, वह जिस क्रम से चढ़ता है, उसी क्रम से गिरता है। इसके जहां जिस करण की व्युच्छित्ति हुई, वहाँ पहुंचने पर उस करण का प्रारम्भ होता है और यह जीव प्रमत्त संयत गुणस्थान में जाकर रुक जाता है। कोई-कोई देशविरत और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान को भी प्राप्त होता है तथा कोई सासादन भाव को भी प्राप्त होता है। ___साधारणत: एक भव में एक बार उपशमणि को प्राप्त होता है। कदाचित् कोई जीव दो बार भी उपशमणि को प्राप्त होता है, ...- -. . .--- १ सत्तावीसं सुहुमे अट्ठावीस मि मोहपयडीयो।
उपसंतबीयरागे उवसंता होति नायना ।।
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४२०
सप्ततिका प्रकरण इससे अधिक बार नहीं। जो दो बार उपशमणि को प्राप्त होता है, उसके उस भव में क्षपकणि नहीं होती है लेकिन जो एक वार उपशमश्रेणि को प्राप्त होता है, उसके क्षपकणि होती भी है।
गाथा में यद्यपि सनात गुणाधी यमुना और मोहकि इस सात प्रकृतियों का उपशम कहा है और उसका क्रम निर्देश किया है. परन्तु प्रसंग से यहां टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना और चारित्र मोहनीय की उपशमना का भी विवेचन किया है।
इस प्रकार उपशमणि का कथन करने के बाद अब क्षपकश्रेणि के कथन करने की इच्छा से पहले क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति कहां और किस क्रम से होती है, उसका निर्देश करते हैं।
पढमकसायचउपकं एत्तो मिच्छत्समीससम्मत्तं । अविरय देसे विरए पमत्ति अपमत्ति खोयंति ॥६३॥
शब्दार्थ-पसमकसायचजक्कं-प्रथम कषाय चतुष्क (अनत्तानु. बन्धी कषाय चतुष्क) एत्तो-तदनन्तर, इसके बाद, मिच्छसमीससम्मत-मिथ्यात्व, मिश्र और राम्यकत्व मोहनीय का, अविरयअविरत सम्यग्दृष्टि, वेसे- देशविरत, विरए–विरत, पति अपत्ति --प्रमत्त और अप्रमत्त, खोयंति-क्षय होता है।
गाथार्थ- अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत, इन चार गुणस्थानों में से किसी एक
१ जो दुवे वारे जवसमसेविं पडिवज्जइ तस्स नियमा तम्मि भवे खवगसेढी नत्थि, जो एक्कासि उनसमसेहि पडिवज्जइ तस्स स्ववगसेती होज्ज वा ।।
-पूर्णि लेकिन आगम के अभिप्रायानुसार एक मव में एक बार होती है----
मोहोपशम एकस्मिन् भये द्वि: स्मादसन्ततः । यस्मिन् मवे तूपशमः क्षयो मोहस्य सत्र न ।।
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वष्ठ कर्मग्रन्थ
गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क का और तदनन्तर मिथ्यात्व मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय का क्रम से क्षय
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P
होता है ।
विशेष – पूर्वगाथा में उपशमश्रेणि का कथन करने के बाद इस गाथा में क्षपकश्रेणि की प्रारम्भिक तैयारी के रूप में क्षपक श्रेणि की भूमिका का निर्देश किया गया है।
उपशमश्रेणि में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम किया जाता है और क्षपकश्रेणि में उनका क्षय अर्थात् उपशमश्रेणि में प्रकृतियों की सत्ता तो बनी रहती है किन्तु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण दलिकों का अन्तरकरण हो जाता है और द्वितीयस्थिति में स्थित दलिक संक्रमण आदि के अयोग्य हो जाते हैं, जिससे अन्तर्मुहूर्त काल तक उनका फल प्राप्त नहीं होता है। किन्तु क्षपकश्रेणि में उनका समूल नाश हो जाता है। कदाचित यह माना जाये कि बंधादि के द्वारा उनकी पुन: सत्ता प्राप्त हो जायेगी सो भी बात नहीं क्योंकि ऐसा नियम है कि सम्यग्दृष्टि के जिन प्रकृतियों का समूल क्षय हो जाता है, उनका न तो बंध ही होता है और न तद्रूप अन्य प्रकृतियों का संक्रम ही । इसलिए ऐसी स्थिति में पुनः ऐसी प्रकृतियों की सत्ता सम्भव नहीं है। हां, अनन्तानुबन्धी चतुष्क इस नियम का अपवाद है, इसलिये उसका क्षय त्रिसंयोजना शब्द के द्वारा कहा जाता है। इस प्रासंगिक चर्चा के पश्चात् अब क्षपकश्रेणि का विवेचन करते हैं। सर्वप्रथम उसके कर्ता की योग्यता आदि को बतलाते हैं ।
क्षपकभेण का आरंभक
पकश्रेणि का आरम्भ आठ वर्ष से अधिक आयु वाले उत्तम संहनन के धारक, चौथे, पांचवें, छठे या सातवें गुणस्थानवर्ती जिनकालिक मनुष्य के ही होता है, अन्य के नहीं। सबसे पहले वह अनंता
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सप्ततिका प्रकरण
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नुबंधी चतुष्क का विसंयोजन करता है। तदनन्तर मिथ्यात्व, सम्यग् - मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की एक साथ क्षपणा का प्रारम्भ करता है । इसके लिये यथाप्रवृत्त आदि तीन करण होते हैं। इन कारणों का कथन पहले किया जा चुका है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपूर्वकरण के पहले समय में अनुदयरूप मिथ्यात्व और सम्य मिध्यात्व के दलिकों का गुणसंक्रम के द्वारा सम्यक्त्व में निक्षेप किया जाता है तथा अपूर्वकरण में इन दोनों का उवलना संक्रम भी होता है। इसमें सर्वप्रथम सबसे बड़े स्थितिखण्ड की उद्बलना की जाती है। तदनन्तर एक-एक विशेष कम स्थितिखण्डों की उवलना की जाती है। यह क्रम अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक चालू रहता है। इससे अपूर्वकरण के पहले समय में जितनी स्थिति होती है, उससे अन्तिम समय में संख्यातगुणहीन यानि संख्या. तवां भाग स्थिति रह जाती है।
इसके बाद अनिवृत्तिकरण में प्रवेश कर जाता है। यहां भी स्थितिघात आदि कार्य पहले के समान चालू रहते हैं। अनिवृत्तिकरण के पहले समय में दर्शनत्रिक की देशोपशमना, निर्धात्ति और निकाचना का विच्छेद हो जाता है । अनिवृत्तिकरण के पहले समय से लेकर हजारों स्थितिखण्डों का घात हो जाने पर दर्शनत्रिक की स्थितिसत्ता असंज्ञी के योग्य शेष रह जाती है। इसके बाद हजार पृथक्त्व प्रमाण स्थितिखण्डों का घात हो जाने पर चतुरिन्द्रिय जीव के योग्य स्थितिसत्ता शेष रहती हैं। इसके बाद उक्त प्रमाण स्थितिखण्डों का घात हो जाने पर श्रीन्द्रिय जीव के योग्य स्थितिसत्ता शेष रहती है। इसके बाद पुनः उक्त प्रमाण स्थितिखण्डों का घात हो जाने पर द्वीन्द्रिय जीव के योग्य स्थितिसत्ता शेष रहती है। इसके बाद पुनः उक्त प्रमाण स्थितिखण्डों का घात हो जाने पर एकेन्द्रिय जीव के योग्य स्थितिसत्ता शेष रहती है।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
४२३ तदनन्तर तीनों प्रकृतियों की स्थिति के एक भाग को छोड़कर शेष बहुभाग का घात करता है. तथा उसके बाद पुन: एक भाग को छोड़कर शेष बहुभाग का घात करता है। इस प्रकार इस क्रम से भी हजारों स्थितिखंखों का घात करता है । तदनन्तर मिथ्यात्व की स्थिति के असंख्यात भागों का तथा सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व के संख्यात भागों का घात करता है। इस प्रकार प्रभूत स्थितिखंडों के व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्व के दलिक आबलिप्रमाण शेष रहते हैं तथा सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व के दलिक पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण शेष रहते हैं। उपर्युक्त इन स्थितिखंडों का घात करते समय मिथ्यात्व सम्बन्धी पलिकों का सायमिथ्याला मान्यता है. सम्यमिथ्यात्व सम्बन्धी दलिकों का सम्यक्त्व में और सम्यवत्व सम्बन्धी दलिकों का अपने से कम स्थिति वाले दलिकों में निक्षेप किया जाता है। इस प्रकार जब मिथ्यात्व के एक आवलि प्रमाण दलिक शेष रहते हैं तब उनका भी स्तिबुकसंक्रम के द्वारा सम्यक्त्व में निक्षेप किया जाता है। तदनन्तर सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व के असंख्यात भागों का घात करता है और एक भाग शेष रहता है। तदनन्तर जो एक भाग बचता है, उसके असंख्यात भागों का घात करता है और एक भाग शेष रहता है। इस प्रकार इस क्रम से कितने ही स्थितिखंडों के व्यतीत हो जाने पर सम्यगमिथ्यात्व की भी एक आवलि प्रमाण और सम्यक्त्व की आठ वर्षे प्रमाण स्थिति शेष रहती है।
इसी समय यह जीव निश्चयनय की दृष्टि से दर्शन-मोहनीय का क्षपक माना जाता है। इसके बाद सम्यक्त्व के अन्तर्महुर्त प्रमाण स्थिति खंड की उत्कीरणा करता है । उत्कीरणा करते समय दलिक का उदय समय से लेकर निक्षेप करता है। उदय समय में सबसे थोड़े दलिकों का निक्षेप करता है । दूसरे समय में असंख्यात गुणे दलिकों का, तीसरे समय में असंख्यातगुणे दलिकों का निक्षेप करता है। इस प्रकार यह
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सप्ततिका प्रकरण
गुणश्रेणि के अन्त तक चालू रहता है। इसके आगे अन्तिम स्थिति प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर कम कम दलिकों का निक्षेप करता है ।
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यह क्रम द्विचरम स्थितिखंड के प्राप्त होने तक चालू रहता है । किन्तु द्विचरम स्थितिखंड से अन्तिम स्थितिखंड संख्यातगुणा बड़ा होता है । जब यह जीव सम्यक्त्व के अन्तिम स्थितिखंड की उत्कीरणा कर चुकता है तब उसे कृतकरण कहते हैं। इस कृतकरण के काल में यदि कोई जीव मरता है तो वह चारों गतियों में से परभव सम्बन्धी आयु के अनुसार किसी भी गति में उत्पन्न होता है ! इस समय यह शुक्ल लेश्या को छोड़कर अन्य लेश्याओं को भी प्राप्त होता है। इस प्रकार दर्शनमोहनीय की क्षपणा का प्रारम्भ मनुष्य ही करता है। किन्तु उसकी समाप्ति चारों गतियों में होती है। कहा भी है
पट्ठवगो उमणूसो, निट्ठवगो विगई।
दर्शनमोहनीय की क्षपणा का प्रारम्भ मनुष्य ही करता है किन्तु उसकी समाप्ति चारों गतियों में होती है ।
यदि बद्धायुष्क जीव क्षपकश्रेणि का प्रारम्भ करता है तो अनन्तानुबंधी चतुष्क का क्षय हो जाने के पश्चात् उसका भरण होना भी सम्भव है । उस स्थिति में मिथ्यात्व का उदय हो जाने से यह जीव पुनः अनन्तानुबंधी का बंध और संक्रम द्वारा संचय करता है, क्योंकि मिथ्यात्व के उदय में अनन्तानुबंधी की नियम से सत्ता पाई जाती है । किन्तु जिसने मिथ्यात्व का क्षय कर दिया है, वह पुनः अनन्तानुबंधी चतुष्क का संचय नहीं करता है। सात प्रकृतियों का क्षय हो जाने पर जिसके परिणाम नहीं बदले वह मरकर नियम से देवों में उत्पन्न होता
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षष्ठ कर्मनग्य है, किन्तु जिसके परिणाम बदल जाते हैं वह परिणामानुसार अन्य गतियों में भी उत्पन्न होता है।
बद्धायु होने पर भी यदि कोई जीव उस समय मरण नहीं करता तो सात प्रकृतियों का क्षय होने पर वह वहीं ठहर जाता है, चारित्र मोहनीय के क्षय का यत्न नहीं करता है
याऊ पडिवन्नो, नियमा खोम्मि सत्तए ठगा । लेकिन जो बनायु जीव सात प्रकृतियों का क्षय करके देव या नारक होता है, वह नियम से तीसरी पर्याय में मोक्ष को प्राप्त करता है और जो मनुष्य या तिर्यच होता है, वह असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों और तिर्यंचों में ही उत्पन्न होता है, इसीलिये वह नियम से चौथे भव में मोक्ष को प्राप्त होता है। __ यदि अबद्धायुष्क जीव क्षपकश्रेणि प्रारम्भ करता है तो वह सात प्रकृतियों का क्षय हो जाने पर चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय करने का यत्न करता है। क्योंकि चारित्रमोहनीय की क्षपणा करने वाला मनुष्य अबज्ञायु ही होता है, इसलिये उसके नरकायु, देवायु और तिर्यंचायु की सत्ता तो स्वभावत: ही नहीं पाई जाती है तथा अनन्तानुबंधी चतुष्क और दर्शनमोहनिक का क्षय पूर्वोक्त क्रम से हो जाता
बद्धाऊ पहिषनो पढमसायक्लए जइ मरिजा । तो मिच्छत्तोदयओ चिणिज्ज भूयो न सीपम्मि ।। तम्मि मभो जाच दिवं तप्परिणामो य सत्तए लोणे । उवरमपरिणामो पूण पच्छा नाणामईगईओ ।।
-विशेषा० गा० १३१६-१७ २ विशेषा० गा० १३२५ ३ तइय च उत्थे तम्मि व भवम्मि सिझति दसणे खीणे । जं देवनिरयऽसंखाउचरिमदेहेसु ते होति ।।
-पंचसंग्रह गा० ७७५ ४ इयरो अणुवरओ चिय, सयलं सढि समाणेइ। -विशेषा० गा० १३२५
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सप्ततिका प्रकरण
है, अतः चारित्रमोहनीय की क्षपणा करने वाले जीव के उक्त दस प्रकृतियों की सत्ता नियम से नहीं होती है।
जो जीव चारित्रमोहनीय की क्षपणा करता है, उसके भी यथाप्रवृत्त आदि तीन करण होते हैं। यहाँ यथाप्रवृत्तकरण सातवें गुणस्थान में होता है और आठवें गुणस्थान की अपूर्वकरण और नौवें गुणस्थान की अनिवृत्तिकरण संज्ञा है ही। इन तीन करणों का स्वरूप पहले बतलाया जा चुका है, तदनुसार यहाँ भी समझ लेना चाहिये । यहाँ अपूर्वकरण में यह जीब स्थितिघात आदि के द्वारा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय की आठ प्रकुतियों का इस प्रकार क्षय करता है, जिससे नौवें गुणस्थान के पहले समय में इनकी स्थिति पल्य के असंख्यातवें भाग शेष रहती है तथा अनिवृत्तिकरण के संख्यात बहुभागों के बीत जाने पर-स्त्यानद्विनिक, हाफपनि नरकानुपर्ती, तिर्यंचगति, लियंचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय आदि जातिचतुष्क, स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण, इन सोलह प्रकृतियों की स्थिति की संक्रम के द्वारा उद्वलना होने पर बह पल्य के असंख्यातवे भाम मात्र शेष रह जाती है। तदनन्तर गुणसंक्रम के द्वारा उनका प्रति समय बध्यमान प्रकृतियों में प्रक्षेप करके उन्हें पूरी तरह से क्षीण कर दिया जाता है। यद्यपि अप्रत्याख्यानाबरण और प्रत्याख्यानाबरण कषाय की आठ प्रकृतियों के क्षय का प्रारम्भ पहले ही कर दिया जाता है तो भी इनका क्षय होने के पहले मध्य में ही उक्त स्त्यानद्धित्रिक आदि सोलह प्रकृतियों का क्षय हो जाता है और इनके क्षय हो जाने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में उक्त आठ प्रकुतियों का क्षय होता है।'
१ अनियट्टिबायरे पीणगिद्धितिनिरयतिरियनामाओ । संखेज्ज इमे सेसे तप्पाओगाओ खीयंति ॥ एत्तो हणइ फसायट्ठगं पि"....
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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मतान्तर का उल्लेख
किन्तु इस विषय में किन्हीं आचार्यों का ऐसा भी मत है कि यद्यपि सोलह कषायों के क्षय का प्रारम्भ पहले कर दिया जाता है, तो भी आठ कषायों के क्षय हो जाने पर ही उक्त स्त्यानद्धित्रिक आदि सोलह प्रकृतियों का क्षय होता है। इसके पश्चात् नौ नोकषायों और चार संज्वलन, इन तेरह प्रकृतियों का अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण करने के बाद नपुंसकवेद के उपरितन स्थितिगत दलिकों का उद्वलना विधि से क्षय करता है और इस प्रकार अन्तर्मुहर्त में उसकी पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति शेष रह जाती है। तत्पश्चात् इसके (नपुंसकवेद के) दलिकों का गुणसंक्रम के द्वारा बंधने वाली अन्य प्रकृतियों में निक्षेप करता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त में इसका समूल नाश हो जाता है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि जो जीव नपुंसकवेद के उदय के साथ क्षपकणि पर चढ़ता है वह उसके अधस्तन दलिकों का वेदन करते हुए क्षय करता है । इस प्रकार नपुंसक वेद का क्षय हो जाने पर अन्तर्मुहूर्त में इसी क्रम से स्त्रीवेद का क्षय किया जाता है ! तदनन्तर छह नोकषायों के क्षय का एक साथ प्रारम्भ किया जाता है । छह नोकषायों के क्षय का आरम्भ कर लेने के पश्चात् इनका संक्रमण पुरुषवेद में न होकर संज्वलन क्रोध में होता है और इस प्रकार इनका क्षय कर दिया जाता है। सूत्र में भी कहा है
...''पच्छा नपुंसगं स्थी। तो नोकसायछक्के छुम्मा संजलगकोहम्मि । जिस समय छह नोकषायों का क्षय होता है, उसी समय पुरुषवेद के बंध, उदय और उदीरणा की व्युच्छित्ति होती है तथा एक समय कम दो आवलि प्रमाण समय प्रबद्ध को छोड़कर पुरुषवेद के शेष दलिकों
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४२८
सप्ततिका प्रकरण
का क्षय हो जाता है। यहां पुरुषवेद के उदय और उदीरणा का विच्छेद हो चुका है, इसलिये यह अपगतवेदी हो जाता है।
उक्त कथन पुरुषवेद के उदय से क्षपकणि का आरोहण करने वाले जीव की अपेक्षा जानना चाहिये । किन्तु जो जीव नपुंसकवेद के उदय से क्षपकश्रेणि पर चलता है, जह सपा और सांधेद का एक साथ क्षय करता है तथा इसके जिस समय स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का क्षय होता है, उसी समय पुरुषवेद का बंधविच्छेद होता है और इसके बाद वह अपगतवेदी होकर पुरुषवेद और छह नोकषायों का एक साथ क्षय करता है। यदि कोई जीव स्त्रीवेद के उदय से क्षपकवेगि पर चढ़ता है तो वह नपुंसक वेद का क्षय हो जाने के पश्चात् स्त्रीवेद का क्षय करता है, किन्तु इसके भी स्त्रीवेद के क्षय होने के समय ही पुरुषवेद का बंधविच्छेद होता है और इसके बाद अपगतवेदी होकर पुरुषवेद और छह नोकषायों का एक साथ क्षय करता है। पुरुषवेव के आधार से क्षपकणि का वर्णन
जो जीव पुरुषवेद के उदय से क्षपकश्रेणि पर आरोहण कर क्रोध कषाय का वेदन कर रहा है तो उसके पुरुषवेद का उदयविच्छेद होने के बाद क्रोध कषाय का काल तीन भागों में बँट जाता हैअश्वकर्णकरणकाल', किट्टीकरणकाल' और किट्टीवेदन
१ अश्वकर्गकरण काल-घोड़े के कान को अश्वकणं कहते हैं। यह मूल में
बड़ा और ऊपर की ओर क्रम से पस्ता हुआ होता है। इसी प्रकार जिस करण में क्रोध से लेकर लोम तक चारों संज्वलनों का अनुमाग उत्तरोत्तर अनंतनगुणहीन हो जाता है, उस करण को अश्वकर्णकरण कहते हैं। इसके आोलकरण और उवर्तनापवर्तनकरण, मे दो नाम और देखने को मिलते हैं। २ किट्टीकरण-किट्टी का अर्थ कृश करना है । अत: जिस करण में पूर्व
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काल' | इनमें से जब यह जीव अश्वकर्णकरण के काल में विद्यमान रहता है तब चारों संज्वलनों की अन्तरकरण से ऊपर की स्थिति में प्रतिसमय अनन्त अपूर्व स्पर्धक करता है तथा एक समय कम दो आवलिका प्रमाणकाल में बद्ध पुरुषवेद के दलिकों को इतने ही काल में संज्वलन क्रोध में संक्रमण कर नष्ट करता है। यहां पहले गुणसंक्रम होता है और अंतिम समय में सर्वसंक्रम होता है । अश्वकर्णकरण काल के समाप्त हो जाने पर किट्टीकरणकाल में प्रवेश करता है । यद्यपि किट्टियाँ अनन्त हैं पर स्थूल रूप से वे बारह हैं, जो प्रत्येक कषाय में तीन-तीन प्राप्त होती हैं। किन्तु जो जीव मान के उदय से क्षपकणि पर चढ़ता है वह उबलना विधि से क्रोध का क्षय करके शेष तीन कषायों को नौ किट्ट करता है ! यदि भाषा अध्यक्षपकणि पर चढ़ता है तो क्रोध और मान का उद्वलना विधि से क्षय करके शेष दो कषायों की छह किट्टियां करता है और यदि लोभ के उदय से क्षपकणि चढ़ता है तो उद्वलना विधि से कोष, मान और माया इन तीन का क्षय करके लोभ की तीन किट्टियां करता है । ___इस प्रकार किट्टीकरण के काल के समाप्त हो जाने पर क्रोध के उदय से क्षपक श्रेणि पर चढ़ा हुआ जीव कोष की प्रथम किट्टी की द्वितीय स्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका प्रमाणकाल के शेष रहने तक उसका वेदन करता है । अनन्तर दूसरी किट्टी की दूसरी स्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है
स्पर्घकों और अपूर्व स्पर्धकों में से दलिकों को ले-लेकर उनके अनुभाग को अनन्त गुणहीन करके अंतराल से स्थापित किया जाता है, उसको
किट्टीकरण कहते हैं। १ किट्टी वनकाल–किट्टियों के वेदन करने, अनुमव करने के कान को
किट्टीवेदनकाल कहते हैं।
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सप्ततिका प्रकरण. और एक समय अधिक एक आवलिका प्रमाणकाल के शेष रहने तक उसका वेदन करता है । उसके बाद तीसरी किट्टी की दूसरी स्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथमस्थिलि करता है और एक समय अधिक एक आवलिका प्रमाणकाल के शेष रहने तक उसका वेदन करता है तथा इन तीनों किट्टियों के वेदन काल के समय उपरितन स्थितिगत दलिक का गुणसंक्रम के द्वारा प्रति समय संज्वलन मान में निक्षेप करता है और जब तीसरी किट्टी के वेवन का अंतिम समय प्राप्त होता है तब संज्वलन कोध के बंघ, उदय और उदीरणा का एक साथ विच्छेद हो जाता है।
इस समय इसके एक समय कम दो आवलिका प्रमाणकाल के द्वारा बंधे हुए दलिकों को छोड़कर शेष का अभाव हो जाता है। तत्पश्चात् मान की प्रथम मिट्टी की दूसरीस्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथमस्थिति करता है और एक अन्तर्मुहर्त काल तक उसका बेदन करता है तथा मान को प्रथम किट्टी के वेदनकाल के भीतर ही एक समय कम दो आवलिका प्रमाणकाल के द्वारा संज्वलन क्रोध के बंधक्काल प्रमाण क्रमण भी करता है । यहां दो समय कम दो आवलिका काल तक गुणसंक्रम होता है और अंतिम समय में सर्व संक्रम होता है।
इस प्रकार मान की प्रथम किट्टी का एक समय अधिक एक आवलिका शेष रहने तक वेदन करता है और तत्पश्चात् मान की दूसरी किट्टी की दूसरी स्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथमस्थिति करता है और एक समय अधिक तक आवलिका काल के शेष रहने तक उसका वेदन करता है । तत्पश्चात् तीसरी किट्टी की दूसरीस्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथमस्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका काल के शेष रहने तक उसका वेदन करता है। इसी समय मान के बंध, उदय और
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उदीरणा का विच्छेद हो जाता है तथा सत्ता में केवल एक समय कम दो आवलिका के द्वारा बंधे हुए दलिक शेष रहते हैं और बाकी सबका अभाव हो जाता है।
तत्पश्चात् माया की प्रथम किट्टी की दूसरीस्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथमस्थिति करता है और एक अन्तर्मुहूर्त काल तक उसका वेदन करता है तथा मान के बंध आदिक के विच्छिन्न हो जाने पर उसके दलिक का एक समय कम दो आवलिका काल में गुणसंक्रम के द्वारा माया में करता है । माया की प्रथम किट्टी का एक समय अधिक एक आवलिका काल शेष रहने तक वेदन करता है। तत्पश्चात् माया की दूसरी किट्टी की दूसरी स्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथमस्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका प्रमाण काल के शेष रहने तक उसका बेदन करता है । उसके बाद माया की तीसरी किट्टी की दूसरी स्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथमस्थिति करता है और उसका एक समय अधिक एकं आवलिका काल के शेष रहने तक वेदन करता है । इसी समय माया के बंध, उदय और उदीरणा का एक साथ विच्छेद हो जाता है तथा सत्ता में केवल एक समय कम दो आवलिका के द्वारा बंधे हुए दलिक शेष रहते हैं, शेष का अभाव हो जाता है।
तत्पश्चात् लोभ की प्रथम किट्टी की दूसरीस्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और एक अन्तर्मुहूर्त काल तक उसका वेदन करता है तथा माया के बंध आदिक के विच्छिन्न हो जाने पर उसके नवीन बंधे हुए दलिक का एक समय कम दो आवलिका काल में गुणसंका के द्वारा लोभ में निक्षेप करता है तथा माया की प्रथम किट्टी का एक समय अधिक आवलिका काल के शेष रहने तक ही वेदन करता है ।
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सप्ततिका प्रकरण
अनन्तर लोभ की दूसरी किट्टी की दूसरी स्थिति में दलिक का अपकर्षण करके प्रथमस्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका काल के शेष रहने तक उसका वेदन करता है । जब यह जीव दूसरी किट्टी का वेदन करता है तब तीसरी किट्टी के दलिक की सूक्ष्म किट्टी करता है । यह क्रिया भी दूसरी किट्टी के वेदनकाल के समान एक समय अधिक एक आवलिका काल के शेष रहने तक चालू रहती है । जिस समय सूक्ष्म किट्टी करने का कार्य समाप्त होता है, उसी समय संज्वलन लोभ का बंधविच्छेद, बादरकषाय के उदय और उदीरणा का विच्छेद तथा अनिवृत्तिबादर संपराय गुणस्थान के काल का विच्छेद होता है ।
तदनन्तर सूक्ष्म किट्टी की दूसरी स्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और उसका बेदन करता है। इसी समय से यह जीव सूक्ष्मसराय कहलाता है।
सूक्षमसंपराय गुणस्थान के काल में एक भाग के शेष रहने तक यह जीव एक समय कम दो आवलिका के द्वारा बंधे हुए मूक्ष्म किट्टीगत दलिक का स्थितिघात आदि के द्वारा प्रत्येक समय में क्षय भी करता है। तदनन्तर जो एक भाग शेष रहता है, उसमें सर्वापवर्तना के द्वारा संज्वलन लोभ का अपवर्तन करके उसे सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान काल के बराबर करता है। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान का काल अन्तर्मुहुर्त ही है । यहाँ से आगे संज्वलन लोभ के स्थितिघात आदि कार्य होना बन्द हो जाते हैं किन्तु शेष कमों के स्थितिघात आदि कार्य बराबर होते रहते हैं। सर्वापवर्तना के द्वारा अपवर्तित की गई इस स्थिति का उदय और उदीरणा के द्वारा एक समय अधिक एक आवलिका काल के शेष रहने तक वेदन करता है । तत्पश्चात् उदीरणा का विच्छेद हो जाता है और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्तिम समय तक सूक्ष्मलोभ का केवल उदय ही रहता है।
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षष्ठ कर्मप्रत्य
सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्तिम समय में ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की धार, अन्तराय की पांच, यश:कीर्ति और उच्चगोत्र, इन सोलह प्रकृतियों का बंधविच्छेद तथा मोहनीय का उदय और सत्ता विच्छेद हो जाता है ।। __ इस प्रकार से मोहनीय की क्षपणा का क्रम बतलाने के बाद अब पूर्वोक्त अर्थ का संकलन करने के लिये आगे की गाथा कहते हैं
पुरिसं कोहे कोहं माणे माणं च छह इ मायाए । मायं च छुहई लोहे लोहं सुहम पि तो हणई ॥६४॥ __शम्दा-पुरिसं-पुरुषवेद को, कोहे-संध्यालन क्रोध में, कोहं-क्रोध को, मागे-संघलन मान में, माणं--मान को, और, छुहर-संक्रमित करता है, मायाए–संज्वलन माया में, मायं-माया को, ब-और, घुझा-संक्रमित करता है, लोहे--संज्वलन लोम में, लोह-लोम को, सुहम- सूक्ष्म, पि—मी, तो–उसके बाद, हणइक्षय करता है। ___गामा-पुरुषवेद को संज्वलन क्रोध में, क्रोध को संज्वलन मान में, मान को संज्वलन माया में, माया को संज्वलन लोभ में संक्रमित करता है, उसके बाद सूक्ष्म लोभ का भी स्वोदय से क्षय करता है। विशेषार्थ--गाया में संज्वलन क्रोध आदि चतुष्क के क्षय का कम बतलाया है।
इसके लिये सर्वप्रथम बतलाते हैं कि पुरुषवेद के बंध आदि का
१ तुलना कीजिये
कोहं , छुहइ माणे माणं मायाए णियमसा शुहरू । मायं घ शुइइ लोहे पंडिलोयो संकियो णस्थि ।।
-कषाय पाहम, सपणाधिकार
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सप्ततिका प्रकरण विमाछेद हो जाने पर उसका गुणसंक्रमण के द्वारा संज्वलन क्रोध में । संक्रमण करता है । संज्वलन कोष के बंध आदि का विच्छेद हो जाने पर उसका संज्वलन मान में संक्रमण करता है। संज्वलन मान के बंध आदि का विच्छेद हो जाने पर उसका संज्वलन माया में संक्रमण करता है । संज्वलन माया के भी बंध आदि का विच्छेद हो जाने पर उसका संज्वलन लोभ में संक्रमण करता है तथा संज्वलन लोभ के बंध आदि का विच्छेद हो जाने पर सूक्ष्म किट्टीगत लोभ का विनाश करता है।
इस प्रकार से संश्वलन क्रोध आदि कषायों की स्थिति हो जाने के बाद आगे की स्थिति बतलाते हैं कि लोभ का पूरी तरह से क्षय हो जाने पर उसके बाद के समय में क्षीणकषाय होता है क्षीणकषाय के काल के बहुभाग मध्यसात होने सक शेष कमां क संपतिधात आप कार्य पहले के समान चालू रहते है किन्तु जब एक भाग शेष रह जाता है तब ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की धार, अन्तराय की पांच और निद्राद्विक, इन सोलह प्रकृतियों की स्थिति का घात सपिवर्तना के द्वारा अपवर्तन करके उसे क्षीणकषाय के शेष रहे हए काल के बराबर करता है। केवल निद्राविक की स्थिति स्वरूप की अपेक्षा एक समय कम रहती है। सामान्य कर्म की अपेक्षा तो इनकी स्थिति शेष कर्मों के समान ही रहती है। सीणकषाय के सम्पूर्ण काल की अपेक्षा यह काल यद्यपि उसका एक भाग है तो भी उसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त होता है। इनकी स्थिति क्षीणकषाय के काल के बराबर होते ही इनमें स्थितिघात आदि कार्य नहीं होते किन्तु शेष कर्मों के होते हैं। निद्राद्विक के बिना शेष चौदह प्रकृतियों का एक समय अधिक एक आवलि काल के शेष रहने तक उदय और उदीरणा दोनों होते हैं। अनन्तर एक बावलि काल तक केवल उदप ही होता है। क्षीणकषाय के
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षष्ठ कर्मग्रम्प
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उपान्त्य समय में निद्राविक का स्वरूपसत्ता की अपेक्षा क्षय करता है और अन्तिम समय में शेष चौवह प्रकृतियों का क्षय करता है--
श्रीणकसायाचरिम निहा पथला प हगा बरमस्पो ।
भावरणमंसराए परमस्पो परिभसमम्मि । इसके अनन्तर समय में यह जीव सयोगिकेवली होता है। जिसे जिन, केवलज्ञानी भी कहते हैं। सयोगिकेवली हो जाने पर वह लोकालोक का पूरी तरह ज्ञाता-द्रष्टा होता है । संसार में ऐसा कोई पदार्थ न है, न हुआ और न होगा जिसे जिनदेव नहीं जानते हैं। अर्थात् वे सबको जानते और देखते हैं
सभिान पासतो मोगमलोग च सम्बो सार्थ ।
मस्मिन पासा भूयं भो भविस्स च ॥ इस प्रकार सयोगिकेवली जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक और उस्कृष्ट से कुछ कम पूर्वकोटि काल तक बिहार करते हैं। सयोगिकेवली अवस्था प्राप्त होने तक चार घासीकम-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-नि:शेष रूप से क्षय हो जाते है, किन्तु शेष वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार अघातिक शेष रह जाते हैं। अत: यदि आयुकर्म को छोड़कर शेष वेदनीय, नाम, गोत्र, इन तीन कर्मों की स्थिति आयुकर्म की स्थिति से अधिक होती है तो उनकी स्थिति को आयुकर्म की स्थिति के बराबर करने के लिये अन्त में समुद्घात करते हैं और यदि उक्त शेष तीन कर्मों की स्थिति आयुकर्म के बराबर होती है तो समुद्धात नहीं करते हैं । प्रज्ञापना सूत्र में कहा
सम्वे वि पं भंते ! केबली समुग्धा गति ? गोरमा ! मोदणष्टुं सम।
जासाउएम तुल्लाई बहिं हि य । भगोषागहम्मान समुग्धापं स च ॥
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सप्ततिका प्रकरण
अगंपूर्ण समुग्धायमणंता केवली जिणा ।
अरमरणविष्पमुक्का सिद्धि वरगई गया । समुद्घात की व्याख्या
मूल शरीर को न छोड़कर आत्म-प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना समुद्घात कहलाता है । इसके सात भेद हैं-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात, तेजससमुद्घात, वक्रिय समुद्घात, आहारकसमुद्घात और केवलिसमुद्घात । इन सात भेदों के संक्षेप में लक्षण इस प्रकार हैं___ तीव्र वेदना के कारण जो समुद्घात होता है, उसको वेदना समुद्घात कहते हैं । क्रोध आदि के निमित्त से जो समुद्घात होता है उसे कषायसमुद्घात कहते हैं । मरण के पहले उस निमित्त से जो समुद्घात होता है उसे मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं। जीवों के अनुग्रह या विनाश करने में समर्थ तैजस गरीर की रचना के लिये जो समुद्घात होता है उसे तैजससमुद्घात कहते हैं । वैक्रियशरीर के निमित्त से जो समुद्धात होता है उसे वैक्रियसमुद्घात कहते हैं, आहारकशरीर के निमित्त से जो समुद्घात होता है उसे आहारक समुद्घात कहते हैं तथा वेदनीय आदि तीन अघाति कर्मों की स्थिति आयकर्म की स्थिति के बराबर करने के लिये जिन (केवलज्ञानी) जो समुद्घात करते हैं, उसे केवलिसमुद्घात कहते हैं।
केवलिसमुद्घात का काल आठ समय है। पहले समय में रवशरीर का जितना आकार है तत्प्रमाण आत्म-प्रदेशों को ऊपर और नीचे लोक के अन्तपर्यन्त रचते हैं, उसे दण्डसमुद्घात कहते हैं। दूसरे समय में पूर्व और पश्चिम या दक्षिण और उत्तर दिशा में कपाटरूप से आत्म-प्रदेशों को फैलाते हैं। तीसरे समय में मथानसमुद्घात करते हैं अर्थात् मथानी के आकार में आठों दिशाओं में आत्म-प्रदेशों का फैलाव ।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
होता है । चौथे समय में लोक में जो अबकाश शेष रहता है उसे भर देते है। इसे लोकपूरण अवस्था कहते हैं। इस प्रकार से लोक-पूरित स्थिति बन जाने के पश्चात् पाँचवें समय में संकोच करते हैं और आत्म-प्रदेशों को मथान के रूप में परिणत कर लेते हैं। छठे समय में मंथान रूप अवस्था का संकोच करते हैं। सातवें समय में पुन: कपाट अवस्था को संकोचते हैं और आठवें समय में स्वशरीरस्थ हो जाते हैं।
इस प्रकार यह केवलिसमुद्घात की प्रक्रिया है । योग-निरोध की प्रक्रिया
जो केवली समुद्घात को प्राप्त होते हैं वे समुद्घात के पश्चात् और जो समुद्घात को प्राप्त नहीं होते हैं वे योग-निरोध के योग्य काल के शेष रहने पर योग-निरोध का प्रारम्भ करते हैं।
इसमें सबसे पहले चादर काययोग के द्वारा बादर मनोयोग को रोकते हैं। तत्पश्चात सदर वचनयोग को रोकते हैं। इसके बाद सूक्ष्म काययोग के द्वारा बादर काययोग को रोकते हैं। तत्पश्चात् सूक्ष्म मनोयोग को रोकते हैं। तत्पश्चात् सूक्ष्म बचनयोग को रोकते हैं । तत्पश्चात् सूक्ष्म काययोग को रोकते हुए सूक्ष्म क्रियाप्रतिपात ध्यान को प्राप्त होते हैं। इस ध्यान की सामर्थ्य से आत्मप्रदेश संकुचित होकर निश्छिद्र हो जाते हैं। इस ध्यान में स्थितिघात आदि के द्वाग सयोगि अवस्था के अन्तिम समय तक आयुकर्म के सिवाय भव का उपकार करने वाले शेष सब कर्मों का अपवर्तन करते हैं, जिससे सयोगिकेवली के अन्तिम समय में सब कर्मों की स्थिति अयोगिवली गुणस्थान के काल के बराबर हो जाती है। यहाँ इतनी विशेषता है कि जिन कर्मों का अयोगिकेवली के उदय नहीं होता उनकी स्थिति स्वल्प की अपेक्षा एक समय कम हो जाती है किन्तु कम सामान्य की
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सप्ततिका प्रकरण अपेक्षा उनकी भी स्थिति अयोगिकेवली गुणस्थान के काल के बराबर रहती है।
सयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में निम्नलिखित तीस प्रकृतियों का विच्छेद होता है
साता या असाता में से कोई एक वेदनीय, औदारिकशरीर, तंजसशरीर, कार्मणशरीर, छह सस्थान, पहला संहान, औदारिकअंगोपांग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, शुभअशुभ विहायोगति, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुस्वर और निर्माण ।
सयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में उक्त तीस प्रकृतियों के उदय और उदीरणा का विच्छेद करके उसके अनन्तर समय में वे अयोगिकेवली हो जाते हैं। अयोगिकेवली गुणस्थान का काल अन्तमुहूर्त है । इस अवस्था में भव का उपकार करने वाले कर्मों का क्षय करने के लिये व्युपरतक्रियाप्रतिपादि ध्यान करते हैं। वहाँ स्थितिघात आदि कार्य नहीं होते हैं। किन्तु जिन कर्मों का उदय होता है, उनको तो अपनी स्थिति पूरी होने से अनुभव करके नष्ट कर देते हैं तथा जिन प्रकृतियों का उदय नहीं होता उनका स्तिबुकसंक्रम के द्वारा प्रति समय वेद्यमान प्रकृतियों में संक्रम करते हुए अयोगिकवली गुणस्थान के उपान्त्य समय तक वेद्यमान प्रकृति रूप से वेदन करते हैं।
अब आगे की गाथा में अयोगिोवली के उपान्त्य समय में क्षय होने वाली प्रकृतियों को बतलाते हैं।
देवगइसहगयाओ दुचरम समयभनियम्मि खीयंति । सविवागेयरनामा नीयागोयं पि तत्थेव ॥६॥
शम्बा-देवगासहगयामो–देवगति के साथ जिनका बंध होता है ऐसी, बुपरमसमयभाषियम्मिको अन्तिम समय जिसके
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कर षष्ठ कर्मप्रप
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माफी हैं, ऐसे जोव के, सीयंति-क्षय होती है, सविनागेयरमामाविपाकरहित मामकर्म की प्रकृतियाँ, पीयागो-नीच गोत्र और एक वेदनीय, पि-भी, तस्व-वहीं पर ।
गापार्ष-अयोगिकेवली अवस्था में दो अंतिम समय जिसके बाकी हैं ऐसे जीव के देवगति के साथ बंधने वाली प्रकृतियों का क्षय होता है तथा विपाकरहित जो नामकर्म की प्रकृतियाँ हैं तथा नीच गोत्र और किसी एक बेदनीय का भी वहीं क्षय होता है। विशेषार्म-गाथा में अयोगिकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में क्षय होने वाली प्रकृतियों का निर्देश किया है।
जैसा कि पहले बता आये हैं कि अयोगिकेवली अवस्था में जिन प्रकृतियों का उदय नहीं होता है, उनकी स्थिति अयोगिकेवली गुणस्थान के काल से एक समय कम होती है। इसीलिये उनका उपान्त्य समय में क्षय हो जाता है । उपान्त्य समय में क्षय होने वाली प्रकृतियों का कथन पहले नहीं किया गया है, अत: इस गाथा में निर्देश किया है कि जिन प्रकृतियों का देवगति के साथ बंध होता है उनकी तथा नामकर्म की जिन प्रकृतियों का अयोगिअवस्था में उदय नहीं होता उनकी और नीच गोत्र व किसी एक वेदनीय की उपान्त्य समय में सत्ता का विच्छेद हो जाता है।
देवगति के साथ बंधने वाली प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैदेवगति, देवानुपूर्वी, वैफिय शरीर, वकिय बंधन, वैक्रिय संघात, वैक्रिय अंगोपांग, आहारक शरीर, आहारक बंधन, आहारक संघात, आहारक अंगोपांग, यह दस प्रकृतियां हैं।
गाथा में अनुदय रूप से संकेत की गई नामकर्म की पैंतालीस प्रकृतियां यह है-औदारिक शरीर, औदारिक बंधन, औदारिक संघात, तेजस शरीर, तेजस बन्धन, तेजस संघात, कार्मण शरीर, कार्मण
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सप्ततिका प्रकरण
बंधन, कार्मण संघात, छह संस्थान, छह संहनन, औदारिक अंगोपांग, वर्णचतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, पराघात, उपघात, अगुरुलघु, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, प्रत्येक, अपर्याप्त, उच्छ्वास, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, दुर्भग, अनादेय, अयश कीर्ति और ।। निर्माण ।
इनके अतिरिक्त नीच गोत्र और साता व असाता वेदनीय में से कोई एक वेदनीय कर्म। कुल मिलाकर ये सब १०+४५+२=५७ । होती है। जिनका अयोगिकेवली अवस्था के उपान्त्य समय में क्षय हो जाता है-दुचरमसमयभवियम्मि खीरहि । __ 'उक्त सत्तावन प्रकृतियों में वर्णचतुष्क में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श, यह चार मूल भेद ग्रहण किये हैं, इनके अवान्तर भेद नहीं। यदि इन मूल वर्णादि चार के स्थान पर उनके अवान्तर भेद ग्रहण किये जायें तो उपान्त्य समय में क्षय होने वाली प्रकृतियों की संख्या तिहत्तर हो जाती है। यद्यपि गाथा में किसी भी वेदनीय का नामोल्लेख नहीं किया किन्तु गाथा में जो 'पि'-शब्द आया है उसके द्वारा वेदनीय कर्म के दोनों भेदों में से किसी एक वेदनीय कर्म का ग्रहण हो जाता है।
इस प्रकार से अयोगिकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में क्षय होने वाली प्रकृतियों का उल्लेख करने के बाद अब आगे की गाथा में अन्त समय तक उदय रहने वाली प्रकृतियों को बतलाते हैं।
अन्नयरवेयणीयं मणुयाउय उपचगोय नव नामे । थएअजोगिजिणो उक्कोस जहन्न एषकारं ॥६६॥
शबाप-- अन्नयरयणीयं-दो में से कोई एक वेदनीय कर्म, मगुपाउय-मनुष्यायु, अन्धगोर-उच्चगोत्र, नव नामे-नामकर्म की नौ प्रकृतियाँ, एइवेदन करते हैं. अओगिजिणो-अयोगि
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
केवली जिन, उरकोस-उस्कृष्ट से, जहन्न-जघन्य से, एपकार.... ग्यारह ।
गाथार्थ—अयोगिजिन उत्कृष्ट रूप से दोनों वेदनीय में से किसी एक वेदनीय, मनुष्यायु, उच्चगोत्र और नामकर्म की नौ प्रकृतियाँ, इस प्रकार बारह प्रकृतियों का वेदन करते हैं तथा जघन्य रूप से ग्यारह प्रकृतियों का बेदन करते हैं।
विशेषार्य--अयोगिकेवली गुणस्थान में उपान्त्य समय तक कर्मों की कुछ एक प्रकृतियों को छोड़कर शेष प्रकृतियों का क्षय हो जाता है । लेकिन जो प्रकृतियां अन्तिम समय में क्षय होती हैं उनके नाम इस गाथा में बतलाते हैं कि किसी एक वेदनीय कर्म, मनुष्यायु, उच्च गोत्र और नामकर्म की नौ प्रकृतियों का क्षय होता है।
यहाँ (अयोगिकेवली अवस्था में) किसी एक वेदनीय के क्षय होने का कारण यह है कि तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में साता और असाता वेदनीय में से किसी एक वेदनीय का उदयविच्छेद हो जाता है। यदि साता का बिच्छेद होता है तो असाता वेदनीय का और असाता का विच्छेद होता है तो साता वेदनीय का उदय शेष रहता है। इसी बात को बतलाने के लिये माथा में 'अन्नयरवेयणीय'-अन्यतर वेदनीय पद दिया है ।
इसके अलावा गाथा में उत्कृष्ट रूप से बारह और जघन्य रूप से ग्यारह प्रकृतियों के उदय को बतलाने का कारण यह है कि सभी जीवों को तीर्थंकर प्रकृति का उदय नहीं होता है। तीर्थकर प्रकृति का उदय उन्हीं को होता है जिन्होंने उसका बंध किया हो। इसलिये अयोगिकेवली अवस्था में अधिक से अधिक बारह प्रकृतियों का और कम से कम ग्यारह प्रकृतियों का उदय माना गया है ।
बारह प्रकृतियों के नामोल्लेख में नामकर्म की नौ प्रकृतियां हैं
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सप्ततिका प्रकरण अतएव अब अगली माथा में अयोगि अवस्था में उदययोग्य नामकर्म की मी प्रकृतियों के नाम बतलाते हैं। मणुयगइ जाए तस बायरं च पज्जत्तसभगमाहजं । जस कित्ती तिस्थयर नामस्स हवंति नव एया ॥६७॥
शम्बार्थ - मणुयगा- मनुष्यगति, वाद-पंचेन्द्रिय जाति, तसबापर-प्रस बादर, च--और, परमत्त-पर्याप्त, सुभगंसुमग, आइ -आदेय, जसवित्ती—यकाकोति, सित्पयर---तीर्थकर, नामस्स-नामकर्म की, हर्षति हैं, मव-नौ, एपा-ये।
____ गाथा--मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, स, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश:कीति और तीर्थंकर ये नामकर्म नौ प्रकृतियां हैं।
विशेषार्थ-पूर्व गाथा में संकेत किया गया था कि नामकर्म की नौ प्रकृत्तियों का उदय अयोगिकेवली गुणस्थान के अंतिम समय तक रहता है किन्तु उनके नाम का निर्देश नहीं किया था। अत: इस गाथा में नामकर्म की उक्त नौ प्रकृतियों के नाम इस प्रकार बसलाये हैं.-१. मनुष्यगति, २. पंचेन्द्रिय जाति, ३. अरा, ४. बादर, ५. पर्याप्त, ६. सुभग, ७. आदेग, ८. यशःवीति, ६. तीर्थकर । ____ नामकर्म की नौ प्रकृतियों को बतलाने के बाद अब आगे की गाथा में मनुष्यानुपूर्वी के उदय को लेकर पाये जाने वाले मतान्तर का वाथन करते हैं।
तच्चाध्विसहिया तेरस भर्यासद्धियरस रिमम्मि । संतंसगमुक्कोसं जहन्नयं बारस हवंति ॥६॥
शब्दार्थ-तच्चागुपुश्यिसहिया-उस (मनुष्य की) जानुपूर्थी सहित, तेरस-तेरह, भवसिद्धियम्स-तमव मोक्षगामी जीव के, चरिमम्मि-- चरम समय में, संतसगे--कर्म प्रकृतियों की सत्ता,
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कोसं—उत्कृष्ट रूप से, सहनमं-जयन्य रूप से, पारस----झारह, हर्षति होती है ।
गापार्य-तद्भव मोक्षगामी जीव के चरम समय में उत्कृष्ट रूप से मनुष्यानुपूर्वी सहित तेरह प्रकृतियों की
और जघन्य रूप से बारह प्रकृतियों की सत्ता होती है । विशेषार्थ- इस गाथा में मतान्तर का उल्लेख किया गया है कि कुछ आचार्य अयोगिकेवली गुणस्थान के चरम समय में मनुष्यानुपूर्वी का भी उदय मानते हैं, इसलिये उनके मत से चरम समय में तेरह प्रकृतियों की और जघन्य रूप से बारह प्रकृतियों की सत्ता होती है।
पहले यह संकेत किया जा चुका है कि जिन प्रकृतियों का उदय अयोगि अवस्था में नहीं होता है, उनकी सत्ता का विच्छेद उपान्त्य समय में हो जाता है। मनुष्यानुपूर्वी का उदय पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थान में ही होता है, इसलिये इसका उदय अयोगि अवस्था में नहीं हो सकता है। इसी कारण इसकी सत्ता का विच्छेद अयोगिकेवली अवस्था के उपान्त्य समय में बतलाया है। लेकिन अन्य कुछ आचार्यों का मत है कि मनुष्यानुपूर्वी की सत्त्व-न्युच्छित्ति अयोगि अवस्था के अंतिम समय में होती है। इस मतान्तर के कारण अयोगि अवस्था के चरम समय में उत्कृष्ट रूप से तेरह प्रकृतियों की और जघन्य रूप से बारह प्रकृतियों की सत्ता मानी जाती है । इस मतान्तर का स्पष्टीकरण आगे की गाथा में किया जा रहा है।
पूर्वोक्त कथन का सारांश यह है कि सप्ततिका के कर्ता के मतानुसार मनुष्यानुपूर्वी का उपान्त्य समय में क्षय हो जाता है, जिससे अंतिम समय में उदयगत बारह प्रकृतियों या ग्यारह प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है । लेकिन कुछ आचार्यों के मतानुसार अंतिम समय में मनुष्यानुपूर्वी की सत्ता और रहती है अत: अंतिम समय में तेरह या बारह प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है।
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ช้ชะ
सप्ततिका प्रकरण
अब अन्य आचार्यों द्वारा मनुष्यानुपूर्वी की सत्ता अंतिम समय तक माने जाने के कारण को अगली गाथा में स्पष्ट करते हैं। मणुयगइसहगयाओ भवखित्तविधागजीववाग ति । बेयगियन्नयरुपचे च चरिम भविस्यस खीति ॥६॥
शवायं--मगुपगइसहगयाओ-मनुष्यगति के साथ उदय , को प्राप्त होने वाली, भवलित्तविवाग-मब और क्षेत्र विपाकी, जीववाग सि–जीवविपाकी, यणियन्नयर-अन्यतर वेदनीय (कोई एक वेदनीय कर्म), उच्वं-उच्च गोत्र, त्र-और, चरिम भवियस्सपरम समय में भव्य जीव के, खीयंति--आय होती है।
गामाई.. मनुष्यगति के साथ उदय को प्राप्त होने वाली भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियों का तथा किसी एक वेदनीय और उच्च गोत्र का तद्भव मोक्षगामी भव्य जीव के चरम समय में क्षय होता है।
विशेषार्थ-इस गाथा में बतलाया गया है कि-'मणुयगइसहगयाओ' मनुष्यगति के साथ उदय को प्राप्त होने वाली जितनी भी भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियां हैं तथा कोई एक वेदनीय और उच्च गोत्र, इनका अयोगिकेवली गुणस्थान के अंतिम समय में क्षय होता है।
भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी का अर्थ यह है कि जो प्रकृतियां नरक आदि भव की प्रधानता से अपना फल देती हैं, घे भवविपाकी कही जाती हैं, जैसे चारों आयु । जो प्रकृतियां क्षेत्र की प्रधानता से अपना फल देती हैं वे क्षेत्रत्रिपाकी कहलाती हैं, जैसे चारों आनुपूर्वी। जो प्रकृतियां अपना फल जीव में देती हैं उन्हें जीव विपाकी कहते हैं, जैसे पांच ज्ञानावरण आदि ।
यहाँ मनुष्यायु भवविपाकी है, मनुष्यानुपूर्वी क्षेत्रविपाकी और
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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पूर्वोक्त नामकर्म की नौ प्रकृतियां जीवविपाकी हैं तथा इनके अतिरिक्त कोई एक वेदनीय तथा उच्चगोत्र, इन दो प्रकृतियों को और मिलाने से कुल तेरह प्रकृतियां हो जाती हैं जिनका क्षय भव सिद्धिक जीव के अघोगिकेवली गुणस्थान के अंतिम समय में होता है । ___ मतान्तर सहित पूर्वोक्त कथन का सारांश यह है कि मनुष्यानुपूर्वी का जब भी उदय होता है तब उसका उदय मनुष्यगति के साथ ही होता है। इस नियम के अनुसार भवसिद्धिक जीव के अंतिम समय में तेरह या तीथंकर प्रकृति के बिना बारह प्रकृतियों का क्षय होता है। किन्तु मनुष्यानुपूर्वी प्रकृति अयोगिकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में लय हो जाती है इस मतानुसार मनुष्यानुपूर्वी का अयोगिकेवली अवस्था में उदय नहीं होता है अत: उसका अयोगि अवस्था के उपान्त्य समय में क्षय हो जाता है। जो प्रकृतियां उदय वाली होती हैं उनका स्तिबूकसंक्रम नहीं होता है जिससे उनके दलिक म्व-स्वरूप से अपने-अपने उदय के अंतिम समय में दिखाई देते हैं और इसलिये उनका अंतिम समय में सत्ताविच्छेद होता है 1 चारों आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी प्रकृतियां हैं, उनका उदय केवल अपान्तराल गति में ही होता है। इसलिये भवस्थ जीव के उनका उदय संभव नहीं है और इसीलिये मनुष्यानुपूर्वी का अयोमि अवस्था के अंतिम समय में सत्ताविच्छेद न होकर द्विचरम समय में ही उसका सना विच्छेद हो जाता है। पहले जो द्विधरम समय में सस्तावन प्रकृतियों का सत्ताविच्छेद और अंतिम समय में बारह या तीर्थकर प्रकृति के बिना ग्यारह प्रकृतियों का सत्ताविच्छेद बतलाया है, वह इसी मत के अनुसार बतलाया है।
१ दिगम्बर साहित्य गो० कर्मकांड में एक इसी मत का उल्लेख है कि
मनुष्यानुपूर्वी को मौदहवें गुणस्थान के अंतिम समय में सत्वय्युच्छित्ति होती है
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सप्ततिका प्रकरण नि:शेष रूप से कर्मों का क्षय हो जाने के बाद जीव एक समय में ही ऋजुगति से ऊर्ध्वगमन करके सिद्धि स्थान को प्राप्त कर लेता है । आवश्यक चूणि में कहा है.--
जसिए नीवोऽवगाखो सावइयाए ओगाहणाए उई
मुग R . 4 समय में सह अयोगि अवस्था में प्रकृतियों के विच्छेद के मतान्तर का उल्लेख करने के बाद अब आगे की गाथा में यह बतलाते हैं कि अयोगि अवस्था के अंतिम समय में कमों का समूल नाश हो जाने के बाद निष्कर्मा शुद्ध आत्मा की अवस्था कैसी होती है।
अह सुइयसयलजगसिहरमत्यनिस्वमसहायसिविसुहं । अनिहणमवाबाहं तिरयणसारं अणुहवंति ॥७०॥
शाया---ग्रह-इसके बाद (कर्म मय होने के बाव), सुइय---.. एकांत शुद्ध', सयल-- समस्त, जगसिहर जगत के सुख के शिखर तुल्प, अश्य-रोग रहित, नियम-निरुपम, उपमारहित, सहाव--स्वाभाविक, . सिविसुर---मोक्ष सुख को, अमिहर्ग-नाश रहित, अनन्त, अब्बाबाई-अव्याबाघ, लिरयणसार-रत्न त्रय के सार रूप, अणुहति–अनुभव करते हैं।
गाथार्ष-कर्म क्षय होने के बाद जीव एकांत शुद्ध, समस्त जगत के सब सुखों से भी बढ़कर, रोगरहित, उपमा रहित, स्वाभाविक, नाशरहित, बाधारहित, रत्नत्रय के सार रूप मोक्ष सुख का अनुभव करते हैं।
विशेषा---गाथा में कर्मक्षय हो जाने के बाद जीव की स्थिति का वर्णन किया है कि वह सुख का अनुभव करता है।
उदयगबार गराण सेरस चरिमम्हि वोच्छिण्णा ||३४।। किन्तु पवला प्रथम पुस्तक में सप्ततिका के समान दोनों ही मतों का सल्लेख किया है । देखो धयला, प्रथम पुस्तक, पृ. २२४ ।
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षष्ठ कर्मग्रन्म
कर्मातीत अवस्था प्राप्ति के बाद प्राप्त होने वाले सुख के क्रमशः नौ विशेषण दिये हैं । उनमें पहला विशेषण है— 'सुइयं' जिसका अर्थ होता है शुचिक टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने शुचिक का अर्थ एकान्त शुद्ध किया है। इसका यह भाव है कि संसारी जीवों को प्राप्त होने वाला सुख रागद्वेष से मिला हुआ होता है, किन्तु सिद्ध जीवों को प्राप्त होने वाले सुख में रागद्वेष का सर्वथा अभाव होता है, इसलिये उनको जो सुख होता है वह शुद्ध आत्मा से उत्पन्न होता है, उसमें बाहरी वस्तु का संयोग और वियोग तथा इष्टानिष्ट कल्पना कारण नहीं है ।
दूसरा विशेषण है- 'सयल' - सकल । जिसका अर्थ सम्पूर्ण होता है । मोक्ष सुख को सम्पूर्ण कहने का कारण यह है कि संसार अवस्था में जीवों के कर्मों का संबंध बना रहता है, जिससे एक तो आत्मिक सुख की प्राप्ति होती हो नहीं और कदाचित् सम्यग्दर्शन आदि के निमित्त से आत्मिक सुख की प्राप्ति होती भी है तो उसमें व्याकुलता का अभाव न होने से वह किचिन्मात्रा में सीमित मात्रा में प्राप्त होता है । किन्तु सिद्धों के सब बाधक कारणों का अभाव हो जाने से पूर्ण सिद्धि जन्य सुख प्राप्त होता है। इसी भाव को बतलाने के लिये 'सयल' विशेषण दिया गया है ।
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तीसरा विशेषण 'जग सिह' - जग शिखर है जिसका अर्थ है कि जगत में जितने भी सुख हैं, सिद्ध जीवों का सुख उन सब में प्रधान है । क्योंकि आत्मा के अनन्त अनुजीवी गुणों में सुख भी एक गुण है। अत: जब तक यह जीव संसार में बना रहता है, वास करता है तब तक उसका यह गुण घातित रहता है। कदाचित् प्रगट भी होता है, तो स्वरूप मात्रा में प्रगट होता है। किन्तु सिद्ध जीवों के प्रतिबन्धक कारणों के दूर हो जाने से सुख गुण अपने पूर्ण रूप में प्रगट हो जाता है, इसलिये जगत में जितने भी प्रकार के सुख हैं, उनमें सिद्ध जीवों
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सप्ततिका प्रकरण का सुख प्रधानभूत है और इसी बात को जगशिखर विशेषण द्वारा स्पष्ट किया गया है। ___ चौथा विशेषण 'अरुय'-रोग रहित है। अर्थात् उस सुख में लेश मात्र भी व्याधि-रोग नहीं है। क्योंकि रोगादि दोषों की उत्पत्ति शरीर के निमित्त से होती है और जहाँ शरीर है वहाँ रोग की उत्पत्ति अवश्य होती है--'शरीरं व्याधिमंदिरम्' । लेकिन सिद्ध जीव शरीर रहित हैं, उनके शरीर प्राप्ति का निमित्तकरण कर्म भी दूर हो गया है, इसीलिये सिद्ध जीवों का सुख रोगादि दोषों से रहित है। ___सिद्ध जीवों के सुस्त्र के लिये पांचवा विशेषण निरुक्म' दिया है पानी उपमा रहित है। इसका कारण यह है कि उप अर्थात् उपर से या निकटता से जो माप करने की प्रक्रिया है, उसे उपमा कहते हैं। इसका भाव यह है प्रत्येक वस्तु के गुण, धर्म और उसकी पर्याय दूसरी वस्तु के गुण, धर्म और पर्याय से भिन्न हैं, अत: थोड़ी-बहुत समानता को देखकर दृष्टांत द्वारा उसका परिज्ञान कराने की प्रक्रिया को उपमा कहते हैं। परन्तु यह प्रक्रिया इन्द्रियगोचर पदार्थों में ही घटित हो सकती है और सिद्ध परमेष्ठी का सुख तो अतीन्द्रिय है, इसलिये उपमा द्वारा उसका परिशान नहीं कराया जा सकता है। संसार में तत्सदृश ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिसकी उसे उपमा दी जा सके, इसलिये सिद्ध परमेष्ठि के सुख को अनुपम कहा है।
छठा विशेषण स्वभावभूत सहाव' है। इसका आशय यह है कि संसारी सुख तो कोमल स्पर्श, सुस्वादु भोजन, वायुमण्डल को सुरभित करने वाले अनेक प्रकार के पुष्प, इत्र, तेल आदि के गंध, रमणीय रूप के अवलोकन, मधुर संगीत आदि के निमित्त से उत्पन्न होता है, लेकिन सिद्ध सुख की यह बात नहीं है, वह तो आत्मा का स्वभाव है, वह बाह्य इष्ट मनोज्ञ पदार्थों के संयोग से उत्पन्न नहीं होता है ।
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४४६ सातवां विशेषण 'अनिहणं'-अनिधन है । इसका भाव यह है कि सिद्ध अवस्था प्राप्त हो जाने के बाद उसका कभी नाश नहीं होता है । उसके स्वाभाविक अनंतगुण सदा स्वभाव रूप से स्थिर रहते हैं, उनमें सुख भी एक गुण है, अतः उसका भी कभी नाश नहीं होता है ।
आठवां विशेषण है-'अधाबाह'–अव्याबाध । अर्थात बाधारहित है उसमें किसी प्रकार का अन्तराल नहीं और न किसी के द्वारा उसमें रुकावट आती है। जो अन्य के निमित्त से होता है या अस्थायी होता है, उसी में बाधा उत्पन्न होती है। परन्तु सिद्ध जीवों का सुख न तो अन्य के निमित्त से ही उत्पन्न होता है और न कोई काल के हो टिकने वाला है। वह तो आत्मा का अपना ही है और सदा-सर्वदा व्यक्त रहने वाला धर्म है । इसीलिये उसे अव्याबाध कहा है। ___ अन्तिम-नोवां विशेषण त्रिरत्नसार 'तिरमणसारं' है। यानी सम्यग्दर्शन, सम्यम्शान और सम्यक्चारित्र यह तीन रत्न हैं, जिन्हें रत्नत्रय कहते हैं । सिद्धों को प्राप्त होने वाला सुख उनका सारफल है । क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय कर्मक्षय का कारण है और कर्मक्षय के बाद सिद्ध सुख की प्राप्ति होती है। इसीलिये सिद्धि सुख को रत्नत्रय का सार कहा गया है। संसारी जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना इसीलिये करता है कि उसे निराकुल अवस्था की प्राप्ति हो। सुख की अभिव्यक्ति निराकुलता में ही है। इसी कारण से सिद्धों को प्राप्त होने वाले सुख को रत्नत्रय का सार बताया है।
आत्मस्वरूप की प्राप्ति करना जीवमात्र का लक्ष्य है और उस स्वरूप प्राप्ति में बाघक कारण कर्म है। कर्मों का क्षय हो जाने के अनन्तर अन्य कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता है। ग्रंथ में कर्म की विभिन्न स्थितियों, उनके क्षय के उपाय और कर्म क्षय के पश्चात्
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सप्ततिका प्रकरण प्राप्त होने वाली आत्मस्थिति का पूर्णरूपेण विवेचन किया जा चुका है। अत: अब ग्रंथकार ग्रंथ का उपसंहार करने के लिए गाथा कहते हैं कि-.
दुरहिगम-निउण-परमत्थ-रुइर-बहुभंगदिष्टिवायाओ । अत्था अणुसरियच्या बंधोषयसंतकम्माणं ॥७१।। ___शमा-रहिगम-अतिश्रम से जानने योग्य, मिणसूक्ष्म बुद्धिगम्य, परमस्थ-ययापस्थित अर्थवाला, चार-रुचिकर, आह्लादकारी, बहुभंगा-बहुत मंगवासा, बिट्टिनायायो-दृष्टिबाद अंग, आस्था---विशेष अर्थ वाला, अनुसरियण्या-जानने के लिये, .
पानातिकम्मा... शाम पद की। ____ यार्ष-दृष्टिवाद अंग अतिश्रम से जानने योग्य, सूक्ष्मबुद्धिगम्य, यथावस्थित अर्थ का प्रतिपादक, आह्लादकारी, बहुत भंग वाला है । जो बंध, उदय और सत्ता रूप कमों को विशेष रूप से जानना चाहते हैं, उन्हें यह सब इससे जानना चाहिये। विशेषार्थ- गाथा में ग्रंथ का उपसंहार करते हुए बतलाया है कि यह सप्ततिका ग्रंथ दृष्टिवाद अंग के आधार पर लिखा गया है। इस प्रकार से ग्रंथ की प्रामाणिकता का संकेत करने के बाद बतलाया है कि दृष्टिवाद अंग दुरभिगम्य है, सब इसको सरलता से नहीं समझ सकते हैं। लेकिन जिनकी बुद्धि सूक्ष्म है, सूक्ष्म पदार्थ को जानने के लिये जिज्ञासु हैं, वे ही इसमें प्रवेश कर पाते हैं। दृष्टिवाद अंग को दुरभिगम्य बताने का कारण यह है कि यद्यपि इसमें यथावस्थित अर्थ का सुन्दरता से युक्तिपूर्वक प्रतिपादन किया गया है लेकिन अनेक भेदप्रभेद हैं, इसीलिये इसको कठिनता से जाना जाता है। इसका अपनी बुद्धि से मंथन करके जो कुछ भी ज्ञात किया जा सका उसके आधार
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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से इस ग्रंथ की रचना की है, लेकिन विशेष जिज्ञासुजन दृष्टिवाद अंग का अध्ययन करें, और उससे बंध, उदय और सत्ता रूप कर्मों के भेदप्रभेदों को समझें। ग्रह सप्ततिका नामक ग्रन्थ तो उनके लिये मार्गदर्शक के समान हैं।
अब ग्रंथ की प्रामाणिकता, आधार आदि का निर्देश करने के बाद अंधकार अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए ग्रंथ की समाप्ति के लिए गाथा कहते हैं
जो जस्म अपडिपुनो अत्थो अप्पागमेण बद्धो ति। तं खमिऊण बहुसुया पूरेऊर्ग परिकहंतु ॥७२॥
शवार्य--ो-जिस, जत्थ-जहां, अपरियो- अपूर्ण, अस्थो- अर्थ, अप्पागमेण-अपश्रत, आगम के मल्प शाता-मैंने, बयोति-निबद्ध किया है, उसके लिये. अमिझण- क्षमा करके, बहसुपा-बहुश्रुत, परेऊणं—परिपूर्ण करफे, परिकहतु-मली प्रकार से प्रतिपादन करें।
गापा-मैं तो आगम का अल्प ज्ञाता है, इसलिए मैंने जिस प्रकरण में जितना अपरिपूर्ण अर्थ निबद्ध किया है, वह मेरा दोष-प्रमाद है। अतः बहुश्रुत जन मेरे उस दोष-प्रमाद को क्षमा करके उस अर्थ की पूर्ति करने के साथ कथन करें। विषाएं-गाथा में अपनी लघुता प्रगट करते हुए ग्रंथकार लिखते हैं कि मैं न तो विद्वान है और न बहभूत, किन्तु अल्पज्ञ है। इसलिये यह दावा नहीं करता हूँ कि ग्रंथ सर्वांगीण रूप से विशेष अर्थ को प्रगट करने वाला बन सका है। इस ग्रंथ में जिस विषय को प्रतिपादन करने की धारणा की हुई थी, सम्भव है अपनी अल्पज्ञता के कारण उसको पूरी तरह से न निभा पाया होऊं तो इसके लिये मेरा प्रमाद
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सप्ततिका प्रकरण ही कारण है और यत्र-तत्र स्खलित भी हो गया होऊ किन्तु जो बहुश्रुत जन हैं, वे मेरे इस दोष को भूल जायें और जिस प्रकरण में जो कमी रह गई हो, उसकी पूर्ति करते हुए कथन करने का व्यान रखें, यही विनम्र निवेदन है।
इTAFF हिन्द मा साहितिका कारण समाप्त हुआ।
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परिशिष्ट
1 षष्ठ कर्मग्रन्थ की मूल गाथाएँ D छह कर्मग्रन्यों में आगत पारिभाषिक
शब्दों का कोष [ कर्मग्रम्पों को गाथाओं एवं व्याख्या
में आगत पिण्ड-प्रकृति सूचक शब्दों
का कोष - गाथाओं का अकारावि अनुक्रम । कर्मग्रन्पों की व्याख्या में सहायक अन्ध-सूची
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परिशिष्ट : १
अट्ठेव
एग विमप्पी
षष्ठ कर्मग्रन्थ की मूल गाथाएं
सिद्धपए हिं महत्थं बन्षोदय सन्त पर्यावठाणाणं । चोच्छे सुण संखेवं नीसंद दिवस || १|| कइ बंधतो वेयs कइ कइ वा पर्याडसंतठाणाणि । मुलुत्त रपगईसुं भंगविगप्पा उ बोधव्वा ||२|| अविहसत्त छन्बंध गेसु एमविदे तिविगप्पो सत्तट्ठबंषअद्भुदय संत एगम्मि पंच भंगा दो भंगा हुति अट्ठसु एगविगप्पो छस्सु वि गुणसंनिएस दुविगप्पो । बंधोदयसंतकम्माणं ॥ ५ ॥
तेरससु
केवलिणी ॥४॥
पत्तेयं
पत्तेयं
उदयसंताई ।
अबंधम्मि ||३||
जीवठाणेसु ।
नाणावरणंतराइए
॥
star संसा पंच | बंधोवर मे वि तहा उदसंता हुंति पंचैव ॥ ६ ॥ बंधस्स य संतस्स य पगइट्ठाणाई तिन्नितुल्लाई । उदयट्ठाणाई दुबे चउ पण दंसणावरणे ॥७॥ जीयावरणे नवबंधगेसु चउ पंच उदय नव संता । छच्चउबंधे चेयं चल बन्धुदए छलंसा य ॥८॥ उवरयबंधे च पण नवंस चरुदय छच्च चउसंता । वेयणियाउयगोए विभज्ज मोहं परं वोच्छं ॥६॥ बावीस एक्कबीसा, सत्तरसा तेरसेव नत्र पंच । चउ तिग दुगं च एक्कं बंधट्टाणाणि मोहस्स ॥१०॥ एक्के व दो व चउरो एत्तो एक्काहिया दसुक्कोसा । ओहेण मोहणिज्जे उदयट्ठाणा नव हवति ॥११॥
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षष्ठ कर्मग्रभ्य की मूल गाथाएँ
वीसा |
एकूणा ||१२||
पनरस ।
भवे
जाग १९
अट्ठेवं ॥ १५ ॥ उदयंसा ।
मुणेो ॥ १६ ॥ सव्वे वि ।
अट्टगसत्तगद्यच्च उतिगदूगए गाहिया तेरस बारिक्कारस इत्तो पंचाइ संतस्स पगइठाणाई ताणि मोहस्स हंति बन्धोदय पुण अंग वा गृह छब्बावीसे चल इगवीसे सत्तरस तेरसे दो दो । नवबंधगे वि दोनि उ एक्केककमओ परं भंगा || १४ || दस बावीसे नव इक्क्बीस सत्ताइ उदठाणाई | छाई नव सत्तरसे तेरे पंचाइ चत्तारिमा नवबंधगेसु उक्कोस सत्त पंचविहबंबगे पुण उदओ दोपह इत्तो चउबंधाई इक्केवकुदमा हवंति बंधोवरमे वि तहा उदयाभावे वि वा होज्जा ।। १७।। एक्कग छक्केक्कारस दस सत्त चउक्क एक्का चेक । एए चवीस गया चउवीस दुगेक्कमिक्कारा ||१८|| नवपंचाणउइस एहृदयविगमेहि अउणत्तरिएगुसरिपयविदसहि नवतेसीयस एहि उदयविगमेहिं मोहिया अउणसरितीयाला पर्यावदसहि तिन्नेव य बावीसे इगवीसे अट्ठवीस सत्तरसे । छ देव तेरनवगंधगेसु पंचेव पंचविषविसुं छ छक्क सेसेसु जाण पंचेव | पत्तेयं पतेय चत्तारि य बंघवोच्छे ||२२|| दसनवपन्नरसाई बंधोदय सन्तपयडिठाणाई । भणियाई मोहणिजे इतो नामं परं वोच्छं ||२३|| तेवीस पण्णवीसा छवीसा अट्ठवीस गुणतीसा | तीसेतीसमेकं बंधट्ठाणाणि नामस्स ||२४||
मोहिया
जीवा । विन्नेया ||१६||
जीवा ।
विनेया ||२०||
ठाणाई ||२१||
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परिशिष्ट-१
चउ पणवीसा सोलस नव बाणउईसया य अडयाला । एयालुत्तर छायालसया एक्कक्क बंधविहीं ।।२५।। वीसिमवीसा चउबीसमाइ एमाहिया उ इगतीसा। उदयट्ठाणाणि भवे नव अट्ठ य हुंति नामस्स ॥२६॥ एग बियालेक्कारस तेत्तीसा छस्सयाणि तेत्तीसा । बारससत्तरससयाणहिगाणि बिपचसीईहि ॥२७।। अउणत्तीसेक्कारससयाङ्गिा सतरसपंचसट्ठीहि । इक्केक्कगं च वीसादठुदयंतेस् उदयविही ॥२८।। तिदुनउई उगुनउई अच्छलसी असीइ उगुसीई। अठ्ठयछप्पणत्तरि नव अट्ठ य नामसंताणि ।।२९।। अह य बारस बारस बंधोदयसंतपयडिठाणाणि ।
ओहेणादेसेण य जस्थ जहासंभवं विभजे ॥३०॥ नव पंचोदय संता तेवीसे पाणवीस छब्बीसे । अट्ठ च उरट्ठवीसे नव सत्तुगतीस तीसम्मि ॥३१॥ एगेगमेगतीसे एगे एगुदय अट्ठ संतम्मि । उबरयबंधे दस दस वेयगसंतम्मि ठाणागि ॥३२।। तिविगप्पपगइठाणेहिं जीवगुणसन्निएस ठाणेसु । भंगा पउंजियव्या जत्थ जहा संभवो भवइ ॥३३॥ तेरससु जीवसंखेवएसु नाणंतराय तिविगप्पो।। एक्कम्मि तिविगप्पो करणं पड़ एत्य अविगप्पो ॥३४।। तेरे नव चल पणगं नव संतेगम्मि भंगमेक्कारा । वेणियाउयगोए विभज्ज मोहं परं वोच्छं ।।३।। अट्ठसु पंचसु एगे एग दुगं दस य मोहबंधगए। तिग चङ नव उदयगए तिग तिग पन्नरस संतम्मि ॥३६।। पण दुग पणगं पण चउ पणगं पणगा हवंति तिन्नेछ । पण छ पणग छ च्छ पणगं अट्ठछ दसर्ग ति ॥३७।।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ की मूल गाथाएँ ससेष अपज्जता सामी तह सुहम बायरा चेव । विगलिदिया उ तिन्नि उ तह य असन्नी य सन्नी य ॥३८।। नाणंतराय तिविहह्मावि दससु दो होति दोसु ठाणेसुं। मिच्छासाणे बिइए नव चउ पण नव य संतंसा ॥३॥ मिस्साइ नियट्टीओ छ च्चउ पण नव य संतकम्मंसा । घउबंध तिगे चउ पण नर्वस दुसु जुयल छ स्संता ॥४०॥ उपसंते चउ पण नव खीणे चउरुदय छच्च चव संतं । वेयणियाउयगोए विभज्ज मोहं परं वोच्छे ।।४।। गुणठाणगेसु अट्ठसु एक्केयकं मोहबंधठाणेसु । पंचानियट्टिठाणे बंधोवरमो परं तत्तो ॥४२॥ सत्ताइ दस उ मिच्छे सासायणमीसए नवुक्कोसा । छाई नव उ अविरए देसे पंचाई अटूठेव ॥४३॥ विरए खओवसमिए, चउराई सस्त छच्चऽपुबम्मि । अनियट्टिबायरे पुण इक्को व दुवे व उदयंसा ॥४४।। एग सुहमस रागो वैएइ अवेयगा भवे सेसा । भंगाणं च पमाणं पुबुद्दिद्रुण नायव्वं ॥४५॥ एपर्क टुडेक्कारेक्कारसेव एक्कारसेव नव तिन्नि । एए चउवीसगया बार दुगे पंच एक्कम्मि ।।४।। जोगोवओगलेसाइपहिं गुणिया हवंति कायब्बा । जे जत्थ गुणछाणे हवंति से तत्थ गुणकारा ॥४७॥ तिपणेगे एगेगं तिम मीसे पंच चउसु नियट्टिए तिन्नि । एक्कार बायरम्मी सुहुमे चउ तिन्नि उवसंते ।।४।। छण्णव छक्क तिग सत्त कुर्ग दुग तिग दुगं तिगह चऊ । दुग छ चउ दुग पण चउ चउ दुग चउ पणग एग चक ।।४।। एगेगमछ एगेगमट्ठ छउमत्थकेवलिजिणाणं । एग चऊ एग चऊ अछ घउ दु छक्कमुदयंसा ॥५०॥
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परिशिष्ट-१
दो छक्क ऽठ चउक्कं पण नव एक्कार छक्कग उदया। नेरइआइसु संता ति पंच एक्कारस चउक्कं ॥५१॥ इग विगलिदिय सगले पण पंच य अट्ठ बंपठाणाणि । पण छक्केक्कारुदया पण पण बारस य संताणि ॥५२।। इय कम्म पराइ ठाणाई सुठु बंधुदयसंतकम्माणं । गइआइएहिं असु चउप्पगारेण नेयाणि ॥५३।। उवयस्सुदीरणाए सामित्ताओ न बिज्जइ विसेसो। मोत्तूण य र सेवा सम्म ४i नाणंतरायदसगं दसणनक वेयणिज्ज मिच्छते। सम्मत्त लोभ बेयाऽऽउगाणि नव नाम उच्वं च ।।५।। तिस्थगराहारगबिरहियाओं अज्जेइ सन्वपगईओ। मिच्छत्तवेयगो सासणो वि इगुवीससेसाओ ॥५६॥ छायालसेस' मीसो अविरयसम्मो तियालपरिसेसा । तेवण्ण देस विरओ विरओ सगवण्णसेसाओ ।।५७॥ इगुसदिठमप्पमत्तो बंधइ देवाउयस्स इयरो वि। अट्ठावण्णमपुत्रो छप्पण्णं वा वि छब्बीसं ॥५८॥ बाबीसा एगणं बंधइ अठारसंतमनियट्टी। सत्तर सुहुमसरामो सायममोहो सजोगि ति ॥५६॥ एसो उ बंधसामित्तओघो गइयाइएसु वि तहेव । भोहाओ साहिजा जत्थ जहा पगडिसम्भाबो ॥६०।। तित्थगरदेवनिरयाउगं च तिसु तिसु गईसु बोद्धव्वं । अवसेसा पयडीओ हवंति सब्यासु वि गईसु ॥६१।। पतमकसायचउक्के दंसणतिग सत्तगा वि उवसंता।। अविरतसम्मत्ताओ जाय नियट्टि ति नायम्वा ।।६।। पडमकसायचउपकं एत्तो मिच्छत्तमीससम्मत्तं । अविरय से विरए पमत्ति अपमत्ति खोयंति ॥६३।।
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षष्ठ कर्मग्रन्थ की मूल गाथाएँ
खीयंति । सत्येव
नामे |
एक्कारं ॥ ६६ ॥
पुरिसं कोहे कोहं माणे माणं च हुई मायाए । मायं व बृहद्द लोहे लोहं सुहुमं पितो हणइ ||६४|| देवगइसहगयाओ दुचरमसमय भवियम्मि सविवायरनामा नीयागोयं पि अन्नयरयणीयं मणुयाज्य उच्चगोय नव ars अजीगिजिणो उक्कोस जहन्न मणुयंगइ जाइ तस बायरं च पज्जत्तसुभगमाइज्जं । असकित्ती तिल्थयरं नामस्स हवंति नव एया ॥६७॥ तच्चाणुपुब्बिसहिया तेरस भवसिद्धियस्स चरिमम्मि । संतंग मुक्को जहन्नयं बारस हति ॥ ६८ ॥ मग सहगयाओ भवखितविबागजीवदाग त्ति । वेयणियन्नयरुच्वं च चरिम भवियरस स्वीयंति ||६६ ॥ अह सुइयसयलजम सिह मरुयनि रुवमसहाय सिद्धिसुहं । अनिणमव्वाबाह तिरयणसारं अणुहति ॥७०॥ दुरहिगम - निउण परमत्थ- रुइ र बहुभंगदिट्टिवायाओ । अत्था अणुसरियन्वा बंधोदयसंतकम्माणं ॥ ७१ ॥ जो अत्य अपडिपुन्नो अत्यो अप्पागमेण बहोति । तं खमिऊण बहुसुया. परिकहंतु ॥७२॥
-
पूरेऊणं
-
॥६५॥
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परिशिष्ट : २
छह कर्मग्रन्थों में आगत पारिभाषिक शब्दों का कोष
अंगप्रविष्ट अस्त-जिन शास्त्रों की रचना तीर्थंकरों के उपदेशानुसार गणघर
स्वयं करते हैं। अंगोपांग नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव के अंग और उपांग आदि रूप
में गृहीत पुद्गलों का परिहा है। अंगबाह्मभुत-गणपरों के अतिरिक्त अंगों का आधार लेकर स्थविरों द्वारा
प्रणीत शास्त्र । अमरान का नाम अक्षर है और शान जीव का स्वभाव होने के कारण श्रुत
ज्ञान स्वयं अक्षर कहलाता है । अक्षर पुस-अकारादि लब्ध्यारों में से किसी एक अक्षर का ज्ञान | अजरसमास भत–सत्यक्षरों के समूदाय का मान । अकाम मिर्जरा--इया के न होते हुए भी अनायास ही होने वाली कर्म
निर्जरा। अकुशल कर्म-जिसका विपाक अनिष्ट होता है। भगमिक षत-जिसमें एक सरीखे पाठ न आते हो । अगुहलघु प्रय-चार स्पर्श वाले सूक्ष्म रूपी अव्य तथा अमूर्त आकाश आदि । अपुक्लघु नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को स्वयं का शरीर वजन में
हल्का और मारी प्रतीस न होकर अगुरुलषु परिणाम वासा प्रतीत
होता है। अग्निकाम- तेज परमाणुओं से निर्मित शरीर। अग्रहणवर्गणा-जो अल्प परमाणु वाली होने के कारण जीव द्वारा ग्रहण नहीं
की जाती है। अघासो कर्म-जीव के प्रतिजीवी गुणों के घात करने वाले कर्म । उनके कारण
आत्मा को पारीर की कैद में रहना पड़ता है।
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पारिभाषिक शब्द-कोष
अमासिनी प्रकृति--जो प्रकृति आस्मिक गुणों का घात नहीं करती है। अपक्ष वर्गम-- चक्षुरिन्द्रिय को छोड़कर शेष स्पर्शन आदि इन्द्रियों और मन के
द्वारा होने वाले अपने-अपने विषयभूस सामान्य बों का प्रतिभास | अधक्षुवर्शनावरण कर्म---अचक्षुदर्शन को आवरण करने वाला कर्म । अपामस्थिक-जिनके छभों (पार पाति कर्मों) का सर्वश्रा क्षय हो गया हो । अछाममस्थिक यमास्यात संयम-- केवलज्ञानियों का संपम । अन्नधाम मंध-एक समय अधिक जघन्य बंध से लेकर उत्कृष्ट बंध से पूर्व तक
के सभी बंध । अजीव-जिसमें चेतना न हो अर्थात् जड़ हो । अज्ञान मिष्यास्व-जीवादि पदार्थों को 'यही है 'इसी प्रकार है' इस तरह विशेष
रूप से न समझना। अरबौरासी लाख भडहांग का एक अइड कहलाता है। अग्ग -चौरासी लाख वटित के समय को एक अखडांग कहते हैं। मापल्योपम-उद्धारपल्य के रोमत्रहों में से प्रत्येक रोपखंड के कल्पना के
द्वारा उतने संड करे जितने सो वर्ष के समय होते हैं और उनको पस्य में मरने को अज्ञापल्म कहते हैं। अापल्म में से प्रति समय रोमखंडों को निकालते-निकालते जितने काल में वह पल्य लाली हो, उसे असा
पल्पोपम काल कहते हैं। अवासागर-दस कोटीकोटी अद्धापल्पोपमों का एक अद्भागागर होता है । अनुवध-आगे जाकर विशिछष हो जाने वाला बंध। आवश्र्वधिनी प्रकृति-बंध के कारणों के होने पर भी जो प्रकृति बँधती भी है
और नहीं भी बंधती है । मानुषसत्ता प्रकृति- मिथ्यात्व आदि दशा में जिस प्रकृति को सत्ता का निमम
न हो यानी किसी समय सत्ता में हो और किसी समय सत्ता में न हो। अघोषया प्रकृति-उसे कहते हैं, जिसका अपने उदयकाल के अन्त तक उदय
मगासार नहीं रहता है । कमी उदय होता है और कभी नही होता है
यानी उदय-विच्छेद काल तक मी जिसके उदय का नियम न हो । मनक्षर भूत-जी शब्द अभिप्रायपूर्वक वर्णनात्मक नहीं बल्कि ध्वन्यात्मक किया
जाता है अथवा छींकना, चुटकी बजाना आदि संकेतों के द्वारा दूसरों के अभिप्राय को जानना अनक्षर श्रुत है।
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परिशिष्ट-२
अगायुगामी अवविज्ञान- उत्पत्ति स्थान में यत होकार पार्य को जानने
वाला किन्तु उत्पत्ति स्थान को छोड़ देने पर न जानने वाला अवधिज्ञान । अनम्सानम्तागु वर्गगा- अनम्तानन्त प्रदेशी स्कन्धों की वर्गणा । अनन्साणु वर्गणा --अनन्त प्रदेशी स्कन्धों की वर्गणा । अभातानुबंधी कषाय- सम्ममत्व गुण का घात करके जीव को अनंत काल तक
संसार में परिभ्रमण कराने वाली उत्कट कषाय ।। अनपवर्सनीय आयु-जो आयु किसी भी कारण से कम न हो । जितने काल तक
के लिए बांधी गई हो, उतने काल तक भोगी जाये। अनभिगृहीत मिपास्व-परोपदेश निरपेक्ष-स्वभाव से होने वाला पदार्थों का
अयथार्थ असान। अमवस्थित अवषिशान-जो जल की तरंग के समान कभी बटता है, कभी बढ़ता
है, कभी आविर्भूत हो जाता है और कभी तिरोहित हो जाता है। अनवस्थित पाय--आगे-आगे बढ़ते जाने वाला होने से निमत स्वरूप के अभाव
पाला पल्य। अनाकारोपयोग-सामान्य विशेषात्मक वस्तु के सामान्य धर्म का अवबोध करने
वाले जीव का पतन्यानुविधायी परिणाम । अनादि-अनन्स-जिस बंध या उदय की परम्परा का प्रवाह अनादि काल से
निराबाध गति से चला आ रहा है, मध्य में न कमी विच्छिन्न हुआ है
और न आगे कमी होगा, ऐसे बंध या उदय को अनादि अनंत कहते है । अनादि बंध-जो बंध अनादि काल से सतस हो रहा है। अनादि भत—जिस श्रुत की आदि न हो, उसे अनादि श्रुत कहते हैं । अनादि-सान्त-जिस बंध या उदय की परम्परा का प्रबाह अनादिकाल से
निना व्यवधान के चला आ रहा है लेकिन आगे ज्युच्छिन्न हो जायेगा,
वह अनादि-सान्त है। अनावेय नामफर्म-जिस क्रम के उदय से जीव का युक्तियुक्त अच्छा वचन भी
अनादरणीय-अग्राह्य माना और समझा जाता है। अनभिहिक मिथ्यात्व-सत्यासत्य की परीक्षा किये बिना ही सब पक्षों को
घराबर समझना। अनाभोग मिथ्यात्व-अज्ञानजन्य अवस्व रुचि ।
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पारिभाषिक शब्दकोष
अमाहारक-ओज, सोम और कवल इनमें से किसी भी प्रकार के आहार को न
करने वाले जीव अनाहारक होते हैं। अनिवृत्तिकरण- वह परिणाम जिसके प्राप्त होने पर जीप अवश्यमेव सम्यक्रव
प्राप्त करता है । अमिवृत्तिबावरसंपराय गुगस्थान- वह है जिसमें बादर (स्थूल) संपराय (कषाय)
उदय में हो तथा समसमय बता जी के परिणामों में समानता हो। समुत्कृष्ट ६ष-एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति बंध से लेकर जघन्य स्थिति बंध
तक के सभी बंध। अनुगामी अवधिशाम-जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्ति क्षेत्र को छोड़कर दूसरे
स्थान पर चले जाने पर भी विद्यमान रहता है। अनुभवयोग्या स्थिति-अबाधा काल रहिल स्थिति। अनुभाग पंप-कर्मरूप गृहीत पुद्गल परमाणुओं की फल देने की शक्ति व
उसकी तीव्रता, मंटता का निश्चय करना अनुभाग बंध कहलाता है। अभ्योग श्रुत--सत् आदि अनुयोगमारों में से किसी एक के द्वारा जीवादि
पदायों को जानना ।। अनुयोगसमास अत-एक से अधिक दो, तीन आदि अनुयोगदारों का ज्ञान | अन्तरकरण-एक आवली या अन्त महतं प्रमाण नीचे और ऊपर की स्थिति को __ छोड़कर मध्य में से अन्तमुहर्त प्रमाण दलिफों को उठाकर उनका बंधने वाली अन्य सजातीय प्रकृतियों में प्रक्षेप करने का नाम अन्तरकरण है। इस अन्तरकरण के लिये जो क्रिया की जाती है और उसमें जो काल
लगता है उसे भी उपवार से अन्तरकरण कहते हैं। अन्तराय-ज्ञानाम्पास के माधनों में विघ्न डालना, विद्यार्थियों के लिये प्राप्त
होने वाले अभ्यास के साधनों की प्राप्ति न होने देना आदि अन्तराम
कहलाता है। अम्सराय कर्म-जो कर्म आस्मा की दान, लाम, मोग, उपभोग, भीर्य रूप शक्तियों
का घात करता है । अथवा दानादि में अन्त राय रूप हो उसे अन्तराम
कर्म कहते हैं । मास:कोडाकोड़ो कुछ कम एक कोडाकोड़ी। अपर्पवसित भूत-वह श्रुत जिसका अन्त न हो । अपर्याप्त- अपर्याप्त नामफर्म के उदय बाले जीव ।
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परिशिष्ट-२
अपर्याप्त मामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण न करे । अपरावर्तमान प्रकृति--किसी दूसरी प्रकृति के बंध, उदय अथवा दोनों के बिना
जिस प्रकृति के बंध, उदय अथवा दोनों होते हैं। अपवर्तना-बड कर्मों की स्थिति तथा अनुभाग में अध्यवसाय विशेष से कमी
कर देना। अपवर्तनाकरण---जिस धीर्य विशेष से पहले बंधे हुए कम की स्थिति तथा रस
घट जाते हैं, उसे अपवर्तनाकरण कहते हैं । अपवर्तनीय वायु-चाप निमित्त से जो आयु कम हो जाती है उसे अपवर्तनीय
(अपवयं ) कहते हैं। इस आयुच्छेद को अकालमरण भी कहा जाता है । अपुण्यकर्म-ओ दुःख का वेदन कराता है. उसे अपुण्यकर्म कहते हैं । अपूर्वकरण---वह परिणाम जिसके द्वारा जीव राग-नेष की दुर्भधसन्धि को तोड़
कर सांप जाता है। अपूर्वस्मितिबंध-पहले की अपेक्षा अत्यन्त अस्प स्थिति के को को बाधना । अप्रतिपाती —िजिसका स्वमात्र पतनशील नहीं है। अप्रत्यारपानावरण कषाय-जिस कषाय के उदय से देशविरति-आंशिक त्याग __ रूप अल्प प्रत्यास्यान न हो सके। जो कषाय आत्मा के देशविरत गुण
(थावकाचार) का घात करे । अप्रमत्तसंघत गुणस्थान-जो संयत (मुनि) विकथा, कषाय आदि प्रमादों का सेतन
नहीं करते हैं वे अप्रमत्तसंयत हैं और उनके स्वरूप विशेष को अप्रमत्त
संयत गुणस्थान वाहते है। अप्राप्यकारी--पदार्थों के साथ बिना संयोग किये ही पदार्थ का ज्ञान करना। अबंष प्रकृति-विवक्षित गुणस्थान में वह कर्म प्रवृति न बने किन्तु आगे के
स्थान में उस कर्म का बंध हो, उसे अबंध प्रकृति कहते हैं । अबंधकाल-पर-भव सम्बन्धी आयुकर्म के बंधकाल से पहले की अवस्था । अमाधाकाल-बधे हुए कर्म का जितने समय तक आत्मा को शुभाशुभ फल का
वेदन नहीं होता। अभिगृहीत मिथ्यात्व-कारणवश, एकान्तिम कदाग्रह से होने वाले पदार्थ के ___ अपघार्थ श्रवान को कहते हैं । अभिनय कर्मग्रहण--जिस आकाश क्षेत्र में आत्मा के प्रदेश हैं उसी क्षेत्र में अव
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पारिभाषिक शब्द कोष
स्थित कर्म रूप में परिणत होने की योग्यता रखने वाले पुद्गल स्कन्धों कीपणाओं को कर्म रूप में परिणत कर जीव द्वारा उनका ग्रहण होना कर्म ग्रहण है ।
अमष्य के जीव जो अनादि तथाविध पारिणामिक भाव के कारण किसी भी समय मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता ही नहीं रखते ।
अम्लरस मम कर्म — जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर रस नींबू, इमली आदि खट्टे पदार्थों जैसा हो ।
मयुत-चौरासी लाख अयुतांग का एक अयुत होता है ।
१४
भयुलॉग- चौरासी लाख अर्थेनिपूर के समय को एक अयुतांग कहते हैं । अयोगिकेवली - जो केवली भगवान योगों से रहित हैं, अर्थात् जब सयोगिकेवली मन, वचन और काया के योगों का मिरोध कर, कर्म-रहित होकर शुद्ध भारमस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, तब वे अयोगिकेवली कहलाते हैं । अगिवली यात संयम अयोगिकेवली का संयम ।
जिसमें वश और
अयशः फोनिज अपकीति फैले ।
अध्यवसाय — स्थितिबंध के कारण भूत कषायजम्य आत्म-परिणाम |
अध्यवसाय स्थान कषाय के तीव्र तीव्रतर तीव्रतम तथा मन्द मन्दतर और
J
मन्सम उदय-विशेष |
मिनी – जिस कर्म के उदय से कारणवश मा बिना कारण के पदार्थों
-
से प्रीति द्वेष हो ।
अर्थनिर चौरासी लाख अर्थनियूरांग का एक अर्धनिपूर होता है । भर्वत्र रंग- चौरासी लाख नलिन के समय को अर्थनिपुरांग कहा जाता है । अमिन – विषय और इन्द्रियों का संयोग पुष्ट हो जाने पर 'यह कुछ हैं' ऐसा सो विषय का सामान्य बोष होता है उसे अर्थावग्रह कहते हैं अपचा पदार्थ के अव्यक्त ज्ञान को अर्थाविग्रह कहते हैं ।
मर्थनाररसंहनन गमकर्म जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना में एक
-
और मर्कट अंध और दूसरी ओर कीली हो ।
अनतर बंध---अधिक कर्म प्रकृतियों का बंध करके कम प्रकृतियों के बंध करने
अरूप
को अल्पसर बंध कहते हैं ।
-
- पदार्थों का परस्पर न्यूनाधिक अरुपाधिक माय ।
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परिशिष्ट-२
१५
भवक्तव्य बंष-वैष के अमाव के बाद पुनः कर्म बंघ अषवा सामान्यपने से
मंग विवक्षा को किये बिना अवक्तव्य बंध है। अवप्रह-नाम, पाति आदि की विशेष कल्पना से रहित सामाग्य सत्ता मात्र का
ज्ञान । भवभिमाम-मिथ्याख के उदय से लपी पदार्थों का विपरीत अवषिमान ।
इसका दूसरा नाम विमंगझान भी है। अवधिमाल-इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा न कर साक्षात् आत्मा
के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल, माव की मर्यादापूर्वक रूपी अर्थात मूल द्रव्य का ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। अथवा जो शान अधोतघोविस्तृत बस्तु के स्वरूप को जानने की शक्ति रखता है अथवा जिस ज्ञान में सिर्फ रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष करने की शक्ति हो अथवा बाह्य अर्थ को साक्षात्
करने के लिये जो आत्मा का व्यापार होता है, उसे अवविज्ञान कहते हैं। अवधिमानावरण कर्म-अभिज्ञान का आवरण करने वाला कर्म । अवषिर्शन-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ही आत्मा को रूपी
द्रव्यों के सामान्य धर्म का प्रतिमास । अवप्रियर्शनावरण कर्म--अवषिदर्शन को आवृत्त करने वाला कर्म । अवक-चौरासी लाख अथवांग के काल को एक अवय कहते हैं । भवांग-पौरासी लाख असर का एक अवयोग होता है। अवस्थित अवषिशान--ओ अवधिज्ञान जन्माम्सर होने पर भी आत्मा में
अवस्थित रहता है अथवा फेवलज्ञान की उत्पत्ति पर्यन्त या आजम्म
ठहरता है। अवस्थित बंध-पहले समय में जितने कर्मों का बंध किया, दूसरे समय में भी
उतने ही कर्मों का बंध करमा । मवलपिनी काल-वस कोटाकोरी सूक्ष्म अशासागरोपम के समय को एक अब
सपिणी काल कहते हैं। इस समय में जीवों की शक्ति, सुख, अवगाहना
आदि का उत्तरोत्तर ह्रास होता जाता है। अवाय-ईहा के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ के विषय में कुछ अधिक निश्चया
स्मक ज्ञान होना । अविपाक मिर्जरा- उदयावली के बाहर स्थित कर्म को तप आदि क्रियाविशेष
की सामयं से उदयावली में प्रविष्ट कराके अनुभव किया जाना ।
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पारिभाषिक शब्द-कोष
भविभाग प्रतिच्छेद-वीर्य-वामित के अदिमागी अंश या माग। धीर्य परमाणु,
__भाव परमाणु इसके दूसरे नाम है । अबिरस-बोषों से विरत न होना । यह आत्मा का वह परिणाम है जो चारित्र
ग्रहण करने में विघ्न डालता है। शविरत सम्पष्टि गुणस्थान-सम्पम्हष्टि होकर भी जो जीव किसी प्रकार के
प्रत को धारण नहीं कर सकता वह अविरत सम्यग्दृष्टि है और उसके
स्वरूप विशेष को अविरत सम्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं । मधुभ नामकर्म-जिस कर्म के उदय से नाभि के नीचे के अवयव अशुभ हों। मनुभ विहायोगति नामकर्म--जिस कर्म के उदय से जीव की चास ऊँट आदि
___ की चाल की भांति अशुभ हो । अयोनिगत ससायन सम्वाद..-को पर: टि गीर उमाण श्रेणि
पर तो चढ़ा नहीं किंतु अनतानुबंधी के उदय से सासादन मात्र को प्राप्त
हो गया उसे अणिगत सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं । असंगी-जिन्हें मनोलब्धि प्राप्त नहीं है अथवा जिन जीवों के अधिपूर्वक इष्ट
अमिष्ट में प्रवृत्ति-निवृत्ति नहीं होती है, वे असंशी हैं । असंही भुत-असंशी जीवों का अत ज्ञान । असंख्यातागु वर्गमा-असंभपात प्रदेशी स्कन्धों की वर्गणा। असत्य मनोयोग-जिस मनोयोग के द्वारा वस्तु स्वरूप का विपरीत चिन्तन हो
अथवा सत्य मनोयोग से विपरीत मनोयोग । असत्य वचनयोग--असत्य पचन वर्गणा के निमित्त से होने वाले योग अथवा
किसी वस्तु को अयथार्थ सिद्ध करने वाले वचनयोग को कहते हैं । असस्थामृषा मनोयोग-जो मन न तो सत्य हो और न मृषा हो उसे असत्या
मषा मन कहते हैं और उसके द्वारा होने वाला योग असत्याभूषा मनोयोग कहलाता है 1 अथवा जिस मनोयोग का चितम विधि-निषेध शून्य हो, जो चिंतन न तो किसी वस्तु की स्थापना करता हो ओर न निषेध,
उसे असत्यामृषा मनोयोग कहते हैं । असरयामृषा वचनयोग:-ओ बचनयोग न तो सत्य रूप हो और न मृषा रूप ही
हो । अथवा जो वचनयोग किसी वस्तु के स्थापन-उत्यापन के लिए
प्रवृत्त नहीं होता उसे असत्यामृषा बचनयोग कहते हैं। असाता बनीष कार्म--जिस फर्म के उदय से आत्मा को अनुकूल इन्द्रिय विषयों
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परिशिष्ट-२
की अप्राप्ति हो और प्रतिकूल इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति के कारण दुखका
अनुभव हो । अस्थिर मामकर्म-जिस कर्म के उदय से नाक-मी, जिल्हा आदि अवयव अस्थिर अर्थात् चपल होते हैं।
(मा) भागाल-द्वितीय स्थिति के बलिकों को अपकर्षण द्वारा प्रथम स्पिति के दसिकों
में पाईवाना। भातप मामकर्म-लिस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्वयं उष्ण न होकर
मी उष्ण प्रकाश करता है। मादेय मामकर्म-जिस कर्म के उपय से जीव का वचन सर्वमान्य हो । मानुपूर्वी नामकर्म-इसके उदय से विप्रहगति में रहा हबा जीव भाकाश प्रदेशों
की श्रेणी के अनुसार गमन कर उत्पत्ति-स्थान पर पहुंचता है। आभिपहिक मिष्यारण तत्व की परीक्षा किये बिना ही किसी एक सिद्धांत का
पक्षपात करके अन्य पक्ष का स्नान करना। माभिनिवेशिक मिन्यात्व-अपने पक्ष को असत्य जानकर भी उसकी स्थापना
करने के लिये दुरभिनिवेश (पुराग्रह) करना । भाभ्यन्तर निवृत्ति--इन्द्रियों का आंतरिक-भीतरी आकार । आरमांगुल-प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना भंगुल । इसके द्वारा अपने पारीर की
ऊँचाई नापी जाती है। मापु-कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव-देव, मनुष्य, तिथंच और नारक के म
में जीता है और उसके क्षय होने पर उन-उन रूपों का त्याग करता
है, यानी मर जाता है। माविल-जिसमें निगय-दूष, पी आदि रस छोड़बार केवल दिन में एक बार
अन्न वाया जाता है तथा गरम (प्रासुक) जम पिया जाता है। मावली-असंस्थात सषय की एक प्रावली होती है। मावश्यक बत--गुणों के द्वारा आत्मा को वश में करना आवश्यकीय है, ऐसा
वर्णन जिसमें हो उसे आवश्यक श्रुत कहते हैं । आपातमा-शानियों की मिया करमा, उनके बारे में सूठी बातें कहना, ममी
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पारिभाषिक शब्द - कोष
बातें लोक में फैलाना, उन्हें मार्मिक पीड़ा हो ऐसा कपट- जाल फैलाना शासना है ।
असम्म भव्य - निकट काल में ही मोक्ष को प्राप्त करने वाला जीव आलव - शुभाशुभ कर्मों के आगमन का द्वार ।
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आहार --- शरीर नामकर्म के उदय से देह, वचन और भ्रष्य मन रूप बनने योग्य नोक वर्गणा का जो ग्रहण होता है। उसको आहार कहते हैं । अथवा तीन पारीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पद्मलों के ग्रहण को आहार कहते हैं ।
आहार पर्याप्ति - बाह्य आहार पुद्गलों को ग्रहण करके खलभाग रसभाग में परिणामाने को जीव की शक्ति विशेष की पूर्णता ।
ब्याहार संश:- आहार की अभिलाषा, शुवा, बेदनीय कर्म के उदय से होने वाले आत्मा का परिणाम विशेष ।
आहारक - ओज, लोम और कवल इनमें से किसी भी प्रकार के जाहार को ग्रहण करने वाले जीव को आहारक कहते हैं। अपना समय-समय जो आहार करे उसे आहारक कहते हैं।
हारक अंगोपांग मामकर्म जिस कर्म के उदय से आहारक शरीर रूप परिणत पुद्गलों से अंगोपांग रूप अवयवों का निर्माण हो ।
महारत काययोग — बाहारक शरीर और आहारक शरीर की सहायता से होने वाला वीर्य-शक्ति का व्यापार ।
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आहारक कार्मणबंधन नामक - जिस कर्म के उदय से आहारक पशरीर पुदुमलों का कार्मण दुगलों के साथ सम्बन्ध हो ।
आहारकर्तजसकार्मणबंधन नामकर्म — जिस कर्म के उदम से आहारक शरीर पुद्गलों का तैजस-कार्मण मुगलों के साथ सम्बन्ध होता है । आहारकर्तजसबंधन नामकर्म-जिसके उदय से आहारक शरीर पुद्गलों का तेजस पुगलों के साथ सम्बन्ध हो । महारकमिश्र कामयोग आहारक शरीर की उत्पत्ति प्रारम्भ होने के प्रथम समय से लगाकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्त के मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीर को आहारक मिश्रकाय कहते हैं और उसके द्वारा उत्पन्न योग को आहारकमिश्र काययोग कहते हैं । अपचा आहारक और औदर
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परिशिष्ट २
'
रिक इन दो शरीरों के मिश्रत्व द्वारा होने वाले वीर्य-शक्ति के व्यापार को आहारकमिश्र काययोग कहते हैं ।
आहारक योग्य उत्कृष्ट वर्गणा - आहारकयोग्य जधन्य वर्गणा से अनन्त भाम अधिक प्रदेश वाले स्कन्धों की आहारक शरीर के ग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वगंणा होती है ।
आहारकयोग्य जग्रम्य वर्गणा वैक्रिय शरीरयोग्य उत्कृष्ट वगंगा के मनम्बर की अग्रणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा से एक प्रदेश अधिक स्कल्पों की जो वर्गणा होती है, यह आहारकयोग्य जगन्य वर्गगा कहलाती है । आहारक वर्षणा - जिन वगंणाओं से आहारक शरीर बनता है । आहारकशरीर नामकर्म - चतुवंश पूर्वघर मुनि विशिष्ट कार्य हेतु, जैसे कि.मी विषय में सन्देह उत्पन्न हो जाये अथवा तीर्थंकर को ऋद्धि दर्शन की इच्छा हो जाये, आहारक वर्गणा द्वारा जो स्व-हस्त प्रमाण पुतला शरीर बनाते हैं, उसे आहारकशरीर कहते हैं और जिस कर्म के उदय से जीव को आहारकशरीर की प्राप्ति होती है व आहारक शरीर नामकर्म है। आहारकशरीरबंधन नामकर्म — जिस कर्म के उदय से पूर्वग्रहीत आहारक शरीर पुतलों के साथ गृह्यमाण आहारकशरीर पुलों का आपस में मेल हो ।
१९
——
आहारकसंघातन नामकर्म जिस कर्म के उदय से आहारकशरीर रूप परिणल मुगलों का परस्पर सानिध्य हो ।
आहारक समुद्घात – आहारकशरीर के निमित्त से होने वाला समुद्धास ।
(इ)
--
-
इश्वरसामायिक जो अभ्यासार्थी शिष्यों को स्थिरता प्राप्त करने के लिए पहले पहल दिया जाता है। इसकी कालमर्यादा उपस्थान पर्यन्त [ बड़ी बीमा लेने तक) छह मास तक मानी जाती है ।
इग्रिय- आवरणं कर्म का क्षयोपशम होने पर स्वयं पदार्थ का ज्ञान करने में असमर्थ — ज्ञस्वभाव रूप आत्मा को पदार्थ का ज्ञान कराने में निमित्तभूत कारण, अथवा जिसके द्वारा आत्मा जाना जाये अथवा अपने-अपने स्पर्शादिक विषयों में दूसरे को (रसना आदि को ) अपेक्षा न रखकर इन्द्र के समान जो समर्थ एवं स्वतन्त्र हों उन्हें इद्रिय कहते हैं ।
इन्द्रिय पर्याप्ति- जीव की वह शक्ति जिसके द्वारा धातु रूप में परिणत आहार
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पारिभाषिक शब्द कोष
पुद्गलो में से योग्य पुद्गल इन्द्रिय रूप से परिणत किये जाते हैं। अथवा जीव की वह शक्ति है जिसके द्वारा योग्य आहार पुगलों को इन्द्रिय रूप परिणत करके इन्द्रियजन्य बोध का सामध्यं प्राप्त किया जाता है।
(f) ईहा अवग्रह के द्वारा जाने हुए पदार्थ के विषय में धर्म विषयक विचारणा
२०
कुल --- धर्म और नीति की रक्षा के संबंध में जिस कुल ने चिरकाल से प्रसिद्धि प्राप्त की है ।
उप गोत्रकर्म --- जिस कर्म के उदय से जीव उच्च कुल में जन्म लेता है । उच्छ्वास काल — निरोग, स्वस्थ, निश्चिन्त, वरुण पुरुष के एक बार दवास लेने और त्यागने का काम ।
(उ)
उच्छवास विश्वास – संख्यात आवली का एक उच्छवास निश्वास होता है । उच्छ्वास नामकर्म-जिसके उदय से व्यवायफ
होता है।
अत्कृष्ट असंख्यात संख्यात -- जवन्य असंख्यातासंस्थात की राशि का अन्योन्याभ्यास करने से प्राप्त होने वाली राशि में से एक को कम करने पर प्राप्त राशि |
उत्कृष्ट परीतामग्स - जयन्य परीतानाम्स की संख्या का अभ्योन्याभ्यास करने पर प्राप्त संख्या में से एक को कम कर देने पर प्राप्त संख्या ।
उत्कृष्ट युक्तान-जयन्य युक्तानन्त की संख्या का परस्पर गुणा करने पर प्राप्त संख्या में से एक कम कर देने पर उत्कृष्ट युक्तानन्त होता है । उत्कृष्ट परीतायात अचन्य परीतासंख्यात की राशि का अन्योन्याभ्यास फरके उसमें से एक को कम करने पर प्राप्त संख्या ।
—
--
उत्कृष्ट युक्त संख्यात - अधभ्य युक्तासंस्थान की राशि का परस्पर गुणा करने परमाप्त राशि में से एक को कम कर देने पर प्राप्त राशि |
उत्कृष्ट संपात --- अनवस्थित, शलाका, प्रतिपालाका और महाशलाका पत्यों को विधिपूर्वक सरसों के दानों से परिपूर्ण भरकर उनके दानों के जोड़ में से एक दाना कम कर लिए जाने परं प्राप्त संख्या ।
उत्कृष्ट गरम अधिकतम स्थिति बन्ध ।
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परिशिष्ट-२
उत्तर प्रकृति-कर्मों के मुख्य भेदों के अवान्तर भेद ।। उस्पाल-ौरासी लाख उत्पलांग का एका अल्पल होता है। उत्पलांग---चौरासी लाख 'हु हु के समय को एक उत्पाग कहते हैं । उतश्लक्ष्ण-श्लगिका यह अनन्त व्यवहार परमाणु की होती है । उत्सपिगी काल----इस कोटा-कोटी सूक्ष्म अढा सागरोपम का काल । इसमें
जीवों की शक्ति, बुद्धि, अवगाहना आदि की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है । उसेष गुल--आठ यव मध्य का एक उत्सेषागुल होता है। उवय-वैधे हुए कर्म दलिकों की स्वफल प्रदान करने की अवस्था अथवा काम
प्राप्त कर्म परमाणुओं के अनुभव करने को उदय कहते हैं । उत्यकालग-अबाषा काल व्यतीत हो चुकने पर जिस समय कर्म के फल का
अनुभव होता है, उस समय को उदयकाल कहते हैं । अथवा कर्म के फल
नोग के नियस कास्त्र को उपयकाल कहा जाता है। उदयविकल्प--उदयस्थानों के अंगों को उपयविकल्प कहते हैं। सयपान-जिन प्रकृतियों का उपम एक साथ पाया जामे; उनके समुदाय को
उपयस्थान कहते हैं। वारणा-उवयफाल को प्राप्त नहीं हुए कर्मों का आत्मा के अध्यवसाय-विशेष
-~प्रयत्न-विशेष से नियत समय से पूर्व उदयहेतु उदयायलि में प्रविष्ट करना, अवस्थित करना या नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में माना
अथवा अनुषयकाल को प्राप्त कर्मों को फलोदय की स्थिति में ला देना। ग्वीरगा स्थान-जिन प्रफुत्तियों की उदीरणा एक साथ पाई जाये उनके समु
वाय को उदीरणास्थान कहते हैं । चहार पाल्प- व्यवहार पल्य के एक-एक रोमखंर के कल्पना के द्वारा असंख्यात
कोटि वर्ष के समय जितने खंड करके उन सब खंगों को पल्य में मरना
उदार पल्प कहलाता है। उग्रोत नामकर्म-जिस कर्म के उदय से श्रीव का पारीर शीत प्रकाश फैलाता है। सवमना- कर्मों की स्थिति और अनुभाग में स्थितिविशेष, भावविाष
और अध्यबसायविशेष के कारण वृद्धि हो पाना । उपयसन-पपाप्रवृत्त मादि तीन करणों के बिना ही किसी प्रकृति को अन्य
प्रति रूप परिणमाना।
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पारिभाषिक शब्द-कोष
उन्मार्ग देशमा-संसार के कारणों और कार्यों का मोक के कारणों के रूप में
उपदेश देना; धर्म-विपरीत शिक्षा ! उपकरण.म्पेनिम आभ्यन्सर निवृत्ति की विषम-ग्रहण की शक्ति को अथवा जो
मिति का उपकार करती है, उसे उपकरण द्रव्येन्द्रिय कहते हैं । परवात-शानियों और ज्ञान के साधनों का नाश कर देना । सपनात नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीम अपने शरीर के अवयवों जैसे
प्रतिजिल्ला, चोर दम्स आदि से बलेश पाता है। यह उपघात नामकर्म
कहलाता है। स्पपात मम्म-उत्पत्तिस्थान में स्थित बैंक्रिय पुद्गलों को पहले-पहल शरीर
रूप में परिणत करना उपपात जन्म कहा जाता है। उपभोगातराय कर्म-उपभोग की सामग्री होते हुए भी जीव जिस कर्म के
उदय से उस सामग्री का उपभोग न कर सके। उपयोग-जीव का बोष रूप व्यापार अथवा जीव का जो भाव वस्तु के ग्रहण
करने के लिए प्रवृत्त होता है, जिसके द्वारा वस्तु का सामान्य व विशेष स्वरूप जाना जाता है; अथवा आत्मा के चतन्यानुविधायी परिणार को
उपयोग कहते हैं। उपयोग भावेमिय-सम्धि रूप भावेन्द्रिय के अनुसार आत्मा की विषय -महण में
होने वाली प्रवृति । गपरसषकाल-पर-भव सम्बन्धी आयुबन्ध से उसरकार की अवस्था। सवरेनु-आठ मण-लहिणका का एक वरेण होता है। राज्यस्पर्धा नामकर्म-जिस कर्म के चपय से जीव का शरीर आग जैसा उष्ण हो । अपशम-बारमा में कर्म की निन पक्ति का कारणवश प्रगट न होना अथवा
प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार के कर्मोदय का एक जाना जपपाम है। उपासमम-कर्म की जिस अवस्था में उदय अथवा जदीरणा संभव नहीं होती है। उपशमणि-जिस श्रेणी में मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों का उपशम किया
जाता है। उपशाम्तकवाय धीतराग छदमस्थ गुगल्यान-जन जीवों के स्वरूप विशेष को
काहसे हैं जिनके कषाय उपशान्त हुए हैं, राग का मी सर्वथा उदय नहीं
है और छदम (आवरण भूत घातिकम) लगे हुए हैं 1 उपशान्तारा-औपशभिक सम्यक्त्व के काम को उपशाला कहा जाता है ।
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परिशिष्ट-२
ऊह- — चौरासी लाख उहांग का एक कह होता है । कहांग- चौरासी लाख महा अव का समय ।
(ए)
२३
←
एकस्थानिक कर्म प्रकृति का स्वाभाविक अनुमान - फलजनक शक्ति : एकान्त मिध्यात्व — अनेक धर्मात्मक पदार्थों को किसी एक धर्मात्मक ही मानना एकान्त मिथ्यात्व है ।
एकेन्द्रिय जीव - जिनके एकेन्द्रिय जाति नामकर्म का उदय होता है और सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय ही जिनमें पाई जाती है ।
एकेन्द्रिय जाति नामकर्म — जिस कर्म के उदय से जीव को सिर्फ एक इन्द्रियस्पर्शन इन्द्रम प्राप्त हो ।
(ओ)
मन-सीखा। गुस्साए
की विवक्षा किये बिना ही सब जीवों को जो बंध कहा जाता है, उसे ओघबंध या सामान्य बंध कहते हैं ।
ओघसंज्ञा - अव्यक्त चेतना को ओषसंज्ञा कहा जाता है।
www
भोजाहार - गर्भ में उत्पन होने के समय जो शुक्रवशोषित रूप आहार कार्मणशरीर के द्वारा लिया जाता है ।
( औ)
"
औरपतिकी बुद्धि जिस बुद्धि के द्वारा पहले बिना सुने बिना जाने हुए पदार्थों के विशुद्ध अर्थ, अभिप्राय को तत्काल प्रण कर लिया जाता है ।
औयिक भाव — कर्मों के उदय से होने वाला भाव ।
-
ओकारिक अंगोपांग नामकर्म जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीर रूप में
परिणत पुगलों से अंगोपांग रूप अवयष बनते हैं ।
औषारिक औदारिकबंधन नामकर्म जिस कर्म के उदम से मौदारिक शरीर पुदगलों का औदारिक पुद्गलों के साथ सम्बन्ध हो ।
औवारिक कापयोग औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव के प्रदेशों में परिस्पन्द के कारणभूत प्रयत्न का होना अथवा औदारिक शरीर के वीर्य-शक्ति के व्यापार को औदारिक काययोग कहते हैं ।
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पारिभाषिक शब्द कोष
औवारिक कार्मणबन्धन नामकर्म -- जिस कर्म के उदम से औदारिक शरीर मुगलों का कामंण पुद्गलों के साथ हो । भारतजसका बंधन नामकर्म जिस कर्म के उदय से औौदारिकवारीर पुद्गलों का जिस कामंण पुगलों के साथ सम्बन्ध हो ।
औवारितं अस बंधन नामकर्म जिस कर्म के उदय से औदारिकशरीर पुगलों का तेजस वुगलों के साथ सम्बम्ध हो ।
भवारिक मिष काय - मोदारिकपारीर की उत्पत्ति प्रारम्भ होने के प्रथम समय से लगाकर अन्तर्मुहूर्स तक मध्यवर्ती काल में वर्तमान अपरिपूर्ण शरीर को कहते हैं ।
२४
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औदारिकमिश्र शामयोग — औदारिक और कार्मण इन दोनों शरीरों की सहायता से होने वाले वीर्य-शक्ति के व्यापार को अथवा औदारिक मिश्र काम द्वारा होने वाले प्रयत्नों को भवारिक मिश्र काययोग कहा जाता है। औवारिक शारीर---जिस शरीर को तीर्थंकर आदि महापुरुष धारण करते हैं, जिससे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, जो औदारिक वर्गाओं से निष्पक्ष मांस, हड्डी आदि भवयवों से बना होता है, स्थूल है आदि वह औवारिक • शरीर कहलाता है । starfreशरीर नामकर्म जिस कर्म के उदय से औदारिकशरीर प्राप्त हो । औवारिकशरीरभर नामकर्म — जिस कर्म के उदय से पूर्वग्रहीत औदारिक पुलों के साथ वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले औदारिक पुगलों का आपस में मेल होता है ।
श्रीवारिक वाजिम पुगल वर्गणाओं से औदारिक शरीर बनता है । श्रीवारिकसंचालन नामकर्म-जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीर रूप परिस पुगलों का परस्पर सान्निध्य हो ।
पपातिक क्रिय शरीर — उपपाल जन्म लेने वाले देव और मारकों को जो शरीर जन्म समय से ही प्राप्त होता है ।
अपशमिक भाव - मोहनीयकर्म के उपपाम से होने वाला माय ।
-
पशमिक धारित्र चारित्र मोहनीय की पच्चीस प्रकृतियों के उपशम से व्यक्त होने वाला स्थिरात्मक आत्म-परिणाम |
औपशमिक सम्मवस्थ - अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क और वर्षांनमोत्रिक – कुल
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परिशिष्ट-२
२५
सात प्रकृतियों के उपशम से जो तत्व रुचि व्यंजक आरम-परिणाम प्रगट होता है, वह औपशमिक सम्यक्त्व है।
कटुरस नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर-रस घिरायते, नीम
आदि जैसा टु हो। कमल-चौरासी लाख कमलांग के काल को कहते हैं । कमलांग-चौरासी लान महापान का एक कमलांग होता है । करण-पर्याप्त-ले जीष जिन्होंने इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण कर ली है अथवा अपनी
योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हैं। करण-अपर्याप्त--पर्याप्त या अपर्याप्त नामकर्म का उदय होने पर मी जब तक
करणों-शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियों की पूर्णता न हो तब तक वे जीव
करण-अपर्याप्त कहलाते हैं। करणलक्षि-अनादिकालीन मिथ्यात्व-प्रन्थि को भेदने में समर्थ परिणामों या
शक्ति का प्राप्त होना। कवलाहार-अन्न आदि खाद्य पदार्थ जो मुख द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। कर्म-मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से हुई जीव की
प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट एवं सम्बद्ध तत्योग्य पुदगल परमाणु । कर्मजा धुद्धि-उपयोगपूर्वक चिन्तन, मनन और अभ्यास करते-करते प्राप्त
होने वाली बुद्धि । कर्मयोग्य उस्कृष्ट वर्गणा--कर्मयोग्य जघन्य वर्गणाओं के अनन्तवें भाग अधिक
प्रदेश वाले स्कन्धों को कर्म ग्रहण के योग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है। कर्मयोग्य जघन्य वर्गणा-उत्कृष्ट मनोयोग्य बर्गणा के अनन्तर की अग्रहण योग्य
उत्कृष्ट वर्गणा के स्कन्ध के प्रदेशों से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों को वर्गणः
कर्मग्रहण के योग्य जघन्य वर्गणा होती है । कर्मरूप परिणमन--फर्म पुद्गलों में जीब के ज्ञान, दर्शन आदि स्वाभाविक गुणों
को आवरण करने की शक्ति का हो जाना । कर्मस्पतावस्थानलक्षणा स्थिति बंधने के बाद जब तक फर्भ आत्मा के साथ
ठहरता है, उतना काल । फर्मवगणा-कर्म कम्पों का समूह ।
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पारिमाषिक शब्द-कोष
कर्मवाण - जो तुमाल
स म तोते हैं: कर्मविषान-मिथ्यात्व आदि कारणों के द्वारा भास्मा के साप होने वाले कर्मबंध
के सम्बन्ध को कर्मविधान कहते हैं। कर्मशरोर-कर्मों का पिड। कषाय-मात्मगुणों को कषे, नष्ट करे, अषया जिसके द्वारा जम्म-मरण रूप
संसार की प्राप्ति हो अथवा जो सम्यक्त्व, देशाचारित्र, सकस चारित्र और यमास्यास चारित्र को न होने दे, वह कषाय कहलाती है।
कषाय मोहनीयकर्म के उदयजन्य, संसार-वृद्धि के कारणरूप मानसिक विकारों को कषाम कहते है।
समभाव की मर्यादा को तोड़ना, चारित्र मोहनीय के उदय से क्षमा, विनय, संतोष आव आत्मिक गुणों का प्रगट न होना या अल्पमात्रा में
प्रमट होना कषाय है। कषायरस नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर-रस अबिला, बहेड़ा
आदि जैसा कसैला हो । कवाय विजय-कोषादि कषामों के कारण उपस्थित होने पर भी उन्हें नहीं
होने देना। कषाय समुदधात-क्रोधादि के निमित्त से होने वाला समुद्धात कापोतलेश्या-कसर के मले के समान रक्त तथा कृष्ण वर्ण के लेश्याणातीम
पुरगलों के सम्बन्ध से आत्मा के ऐसे परिणामों का होना कि जिससे मन, पचन, काया की प्रवृत्ति में वक्रता हो वक्रता रहे, मरलता न रहे । दूसरों को कष्ट पहुंचे ऐसे भाषण करने की प्रवृति, नास्तिकता रहे । इन परि
गामों को कापोतनेण्या कहा जाता है। . काप-जिसकी रचना और वृद्धि औदारिक, बैंक्रिय आदि पुद्गल स्कन्धों से होती
है तथा जो पारीर मामकर्म के उदय से निष्पन्न होता है; अथवा जाति नामकर्म के अधिमाभावी अस और स्थावर नामकर्म के उदय से होने
वाली भारमा की पर्याय को काय कहते हैं। काययोग--पारीरधारी भास्मा की शाणित के व्यापार-विशेष को काययोग कहते
हैं; अथवा जिसमें आत्म-प्रदेशों का संकोच-धिकोच हो उसे काय कहते हैं और उसके द्वारा होने वाला योग काययोग कहलाता है । अथवा औदा
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परिशिष्ट-२
२७
रिक आदि सास प्रकार के कामों में जो भावय रूप से रहता है, उसे सामान्यत: काय कहते हैं और उस काय से उत्पन्न हुए आत्म-प्रदेश परि
स्पन्द लक्षण वीर्य (पाक्ति) के द्वारा जो योग होता है. यह काययोग है। कारक सम्पवस्व--जिनोक्त क्रियाओं-सामायिक, अति-श्रवण, गुरु-चंदन आदि
को करना । कामगार-कमों के समूह अथवा कार्मणशरीर मामकर्म के उदय से उत्पन्न
होने वाले काय को कार्मणकाय कहते है। नामयोगका के शाहले नाग योग अर्थात् अन्य
मौदारिक आदि शरीर वर्गणाओं के बिना सिर्फ कम से उत्पन्न हए वीर्य (शक्ति) के निमित्त से आत्म-प्रदेश-परिस्पन्दन रूप प्रयत्न होना कार्मणकाययोग कहलाता है। कार्मणशरीर की सहायता से होने वाली बास्म
शाक्ति की प्रवृत्ति को कार्मणकाययोग कहते हैं । कार्मणशरीर-शानावरण आदि कमो से बना हुआ शरीर । कार्मणशरीर नामकर्म—जिस कर्म के उदय से जीव को कार्मण-पारीर की
प्राप्ति हो । कार्मणकामणवंधम नामकर्म--जिस कर्म के उदय से कार्मणशरीर पुद्गलों
का कार्मणशारीर पुरुगलों के साथ सम्बन्ध हो। कार्मणशारीरबंधम मामकर्म-जिस कर्म के उदय से पूर्व गृहीत कार्मणशरीर
युगलों के साथ समाज काशशरीर पुनसों का आपस में मेल। कार्मणसंघातम नामकर्म--जिस कर्म के उदय से कार्मणवीर रूप में परिणत
पुद्गलों का परस्पर सानिध्य हो। काल-अनुयोग हर-जिसमें विवक्षित धर्म वाले जीवों को जघन्य व उस्कृष्ट
स्थिति का विचार किया जाता है। कोलिकासंगमम नामकर्म-जिस कर्म के उदय से एडियों की रचना में मर्कट
बंष और बेठन न हो किन्तु कोली से हटियां जुड़ी हुई हों। जसंस्थान नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर कुबड़ा हो । हुमुप--चौरासी लाल कुमुवांग के काल को कुमुद कहते है। कुसुबांग-चौरासी लाख महाकमल का एक कुमुदाग होता है। कुशल कर्म----जिसका विपाक इष्ट होता है।
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पारिभाषिक शब्द-कोष
कृतकरण सम्यक्श्व मोहनीय के अन्तिम स्थिति खण्ड को खपाने वाले क्षपक को कहते हैं ।
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कृष्णलेश्मा – काजल के समान कृष्ण वर्ण के लेश्या जातीय मुगलों के सम्बन्ध से आत्मा में ऐसे परिणामों का होना, जिससे हिंसा आदि पाँचों आस्रवों में प्रवृत्ति हो - मन, वचन, काय का संयम न रहना, गुण-दोष की परीक्षा किये बिना ही कार्य करने की आदत बन जाना, क्रूरता आ जाना आदि । कृष्णवर्ण नामकर्म --- जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर कोयले जैसा
काला हो ।
केवलज्ञान -- ज्ञानावरण कर्म का निःशेष रूप से क्षय हो जाने पर जिसके द्वारा भूत, वर्तमान और भावी कालिक सब द्रथ्य और पर्यायें जानी जाती हैं. उसे केवलज्ञान कहते हैं। किसी को सहायता के बिना सम्पूर्ण जेय पदार्थों का विषय करने का ज्ञान केवलज्ञान है ।
केवलावरण कर्म – केवलज्ञान का आवरण करने वाला कर्म । केवलर्शन- सम्पूर्ण द्रव्यों में विद्यमान सामान्य धर्म का प्रतिभासु । केवलदर्शनावरण कर्म - केवलदर्शन का आवरण करने वाला कर्म । केवली समुद्रात -- वेदनीय आदि तीन अघाती कमों को स्थिति आयुकर्म के बराबर करने के लिए केबली-जिन द्वारा किया जाने वाला समुधात
केशा--- आठ रथरेणुका देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्य का एक पान होता है । उनके आठ केशाओं का हरिवर्ष और रम्यकवर्ष के मनुष्य का एक केशाय होता है तथा उनके माठ केशाओं का हेमवत और हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्य का एक केशाय होता है, उनके आठ के शात्रों का पूर्वापर विदेह के मनुष्य का एक केशाम होता है और उनके आठ केशाग्रों का मरत, ऐरावत क्षेत्र के मनुष्य का एक केशाग्र होता है । कोड़ाकोटी - एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर प्राप्त राशि । क्रोध - समभाव को भूलकर आक्रोश में मर जाना, दूसरों पर रोष करना क्रोध है। अंतरंग में परम उपशम रूप अनन्त गुण वाली आत्मा में क्षोभ तथा बाह्य विषयों में अन्य पदार्थों के सम्बन्ध से क्रूरता, आवेश रूप विचार उत्पन्न होने को क्रोध कहते है । अथवा अपना और पर का उपघात या अनुपकार आदि करने वाला क्रूर परिणाम क्रोष कहलाता है ।
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परिशिष्ट-२ .
२६
सजाति-विकण में भोलीदक की शिनों का मूल से नाम किया
जाता है। क्षमाशीलता-बदला लेने की शक्ति होते हुए भी अपने साथ बुरा बर्ताव करने
वालों के अपराधों को सहन करना । क्रोध के कारण उपस्थित होने पर
भी क्रोधमात्र पैदा न होने देना । सय–विच्छेद होने पर पुन: बंध की सम्भावना न होमा । क्षयोपशम-दर्तमान काल में सर्वघाती स्पर्थकों का उदयाभावी संप और
आगामी काल की अपेशा उन्हीं का सस्वस्थारूप उपशाम तथा पक्षपाती स्पर्धकों का उदय क्षयोपशम कहलाता है। अर्थात् कर्म के उपयोति में प्रविष्ट मन्दरस स्पर्धक का भय और अमृदयमान सास्पर्धक की सर्वघातिनी विषाकशक्ति का निरोध मा देवापाती रूप में परिमन पतीष
शक्ति का मंदशक्ति रूप में परिणमन (उपशमन) क्षयोपाम है। सायिकमान-अपने आवरण कर्म का पूर्ण रूप से अप कर देने से उत्पन्न ने
वाना ज्ञान । सायिक भाव-कम के आत्यन्तिक सम से प्रगट होने वाला भाव । सायिक सम्यक्त्व-अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क और निमोहधिक उन मात
प्रकृतियों के क्षय से आरमा में तस्व रुचि रूप प्रगट होने वाला परिणाम । सायिक सम्पदृष्टि-सम्यमस्व की बाधा मोहनीय कम की मासो प्रतियों को
पूर्णतशा क्षम करके सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले जीव । क्षामोपशमिक ज्ञान अपने-अपने आवरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला
झान । भायोपशामिक भाष-कर्मों के क्षयोपशाम से प्रगट होने वाला भाव । सायोपामिक सम्पत्य-अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क, मिपाव और सम्यम्
मिश्यास्त्र इन छह प्रकृतियों के उदया मावी क्षय गोर इन्हीं के सदयस्पारूप उपशम से तथा देशपाती स्पर्धक वाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में आत्मा मे जो तत्त्वार्थ श्रमान रूप परिणाम होता है उसे बायोपशामिक सम्यक्त्व कहते हैं। मिथ्यास्ष मोहमीयकर्म के क्षय तथा उपशम और सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से आस्मा में होने वाले परिणाम को क्षारोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। .
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पारिभाषिक शब्दकोष
शायोपशमिक सम्यग्दृष्टि-मोहनीयफर्म की प्रकृतियों मे से क्षय योग्य प्रकृतियों
के क्षय और शेष रही हुई प्रकृतियों के उपशम करने से सम्यक्त्व प्राप्त
करने वाले जीव को कहते हैं। भोणकषाय वीतराम छमस्थ गुणस्थान-वन जीवों के रवरूप विशेष को कहते
हैं जो मोहनीयकर्म का सर्वथा क्षय कर चुके हैं फिन्त रोष छदम [वाति
कर्मों का आवरण अभी विद्यमान है। ना भव-सम्पूर्ण भकों में सबसे छोटे भव । क्षेत्र अनुयोगदार-जिस में विवक्षित धर्म वाले जीवों का वर्तमान निवास-स्थान
बतलाया जाता है, उसे क्षेत्र अनुयोगनार कहते हैं । विषाकी प्रकृति-जो प्रकृतियाँ क्षेत्र की प्रधानता से अपना फल देती हैं, उन्हें
क्षेत्रविपाको प्रकृति कहते हैं । अथवा विग्रह-गति में जो कर्म प्रकृति उदय में आती है, अपने फल का अनुभव कराती है, वह क्षेत्रविपाकी प्रकृति है ।
सरस्पर्श नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर गाय की जीम जैसा
खुरदरा, कर्कश हो । इसे कर्कशस्पर्श नामकम भी कहा जाता है ।
गंध नामकर्म-जिस कर्म के उदय से पारीर में शुम अच्छी या अशुभ बुरी गंध
पति-गति नामकर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय और जिससे जीव
मनुष्य, तिर्यच, देव या नारक व्यवहार का अधिकारी कहलाता है, उसे गति कहते है। अथवा चारों गतियो- नरकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव में
यमन करने के कारण को गति कहते हैं । गतिस-उन जीवों को कहते हैं जिनको उदय तो स्थावर नासकर्म का होता
है, किन्तु गतिक्रिया पाई जाती है । गति नामकर्म-जिसके लक्ष्य से आत्मा मनुष्यादि गतियों में गमन करे उसे गति
कहते हैं। गमिक अल-आदि, मध्य और अवसान में कुछ विशेषता से उमी सूत्र को बार
बार कहना गमिक श्रत है ।। गुणाणु-पांच शरीरों के योग्य परमाणुओं की रस-शक्ति का बुद्धि के द्वारा खंडन
करने पर जो अविभागी अंश होता है, उसे गुणा या मावाण वाहते हैं ।
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परिशिष्ट-२
गुणप्रत्यय अवधिज्ञान जो अवधिज्ञान जन्म लेने से नहीं किन्तु जन्म लेने के बाद यम, नियम और व्रत आदि अनुष्ठान के बल से उत्पन्न होता हैं, उसको क्षायोपशमिक अवधिज्ञान भी कहते हैं ।
३१
गुणस्थान -जान आदि गुणों की शुद्धि और अशुद्धि के न्यूनाधिक भाव से होने वाले जीव के स्वरूप विशेष को कहते हैं ।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि जीव के स्वभाव को गुण कहते हैं और उनके स्थान अर्थात् गुणों की शुद्धि-अशुद्धि के उत्कर्ष एवं अपकर्ष - जन्ध स्वरूप विशेष का भेद गुणस्थान कहलाता है ।
दर्शन मोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशंग, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन भावों से जीव लक्षित होते हैं, उन भागों को गुणस्थान कहते हैं ।
गणस्थान क्रम - आत्मिक गुणों के न्यूनाधिक क्रमिक विकास की अवस्था । गुणसंक्रमण - पहले की बँधी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में बंधने वाली शुभ प्रकृतियों के रूप में परिणत कर देना |
गुणभणी- जिन कर्म दलिकों का स्थितिघात किया जाता है उनको समय के क्रम से अन्तर्मुहूर्त में स्थापित कर देना गुणश्रेणी है । अथवा ऊपर की स्थिति में उदय क्षण से लेकर प्रति समय असंख्यात गुणे - असंख्यातगुणे कर्मदलिकों की रचना को गुणश्रेणी कहते हैं ।
गुणश्रणी निर्जरा-अल्प- अल्प समय में उत्तरोत्तर अधिक अधिक कर्म परमाणुओं
का क्षय करना ।
गुणहानि- प्रथम निषेक अवस्थिति हानि से जितना दूर जाकर आषा होता है उस अन्तराल को गुणहानि कहते हैं । अथवा अपनी-अपनी वर्गणा के वर्ग में अपनी-अपनी प्रथम वर्गणा के वर्ग से एक-एक अविभागी प्रतिच्छेद अनुक्रम से बंधता है ऐसे स्पर्धकों के समूह का नाम गुणहानि है । पुरुभक्ति - गुरुजनों (माता-पिता, धर्माचार्य, विद्यागुरु, ज्येष्ठ भाई-बहिन आदि की सेवा, आदर-सत्कार करना ।
गुरुलघु-आठ स्पर्ग वाले वादर रूपी द्रश्य को गुरुलघु कहा जाता है । गुरुस्पर्श नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर लोहे जैसा भारी हो । गत दो हजार धनुष का एक गव्यूत होता है ।
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पारिभाषिक शब्दकोष
गोत्रकर्म- जो कर्म जीव को उच्च-नीच गोत्र - कुल में उत्पन्न करावे अथवा जिस कर्म के उदय से जीव में पूज्यता - अपूज्यता का भाव उत्पन्न हो, जीव उच्चनीच कहलाये ।
प्रन्थि - कर्मों से होने वाले जीव के तीव्र राग-द्वेष रूप परिणाम
५२
घटिका - साढ़े अड़तीस लय का समय धातिकर्म-आत्मा के अनुजीवी गुणों करने वाले कर्म |
(घ)
। इसका दूसरा नाम 'नाली' है । का आत्मा के वास्तविक स्वरूप का घात
J
घातिमी प्रकृति- जो कर्मप्रकृति आत्मिक गुणों- ज्ञानादिव का घात करती है । घन-तीन समान संख्याओं का परस्पर गुणा करने पर प्राप्त संख्या ।
(ख)
चक्षुवर्शन-चक्षु के द्वारा होने वाले पदार्थ के सामान्य धर्म के बोध को
कहते हैं ।
दर्शकर्म होने के के ग्रहण को रोकने वाला कर्म |
चतुरिप्रियजाति नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीन को चार इन्द्रिय- शरीर, जीभ, नाक और आँख प्राप्त हों ।
चतुः स्थानिक कर्मप्रकृतियों में स्वाभाविक अनुभाग से चौगुने अनुभाग - फलजनक शक्ति का पाया जाना ।
चारित्रमोहनीय कर्म-आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति या उसमें रमण करना चारित्र है | चारित्रगुण को बात करने वाला कर्म चारित्रमोहनीयकर्म कहलाता है ।
भूमिका- चौरासी लाख धूलिकांग की एक चूलिका होती है । धूलिकांगनौरासी लाख-नयुत का एक भूतिकांग होता है ।
त्यनिया - ज्ञान, दर्शन, चारित्र संपन्न गुणी महात्मा तपरवी आदि की अथवा लौकिक दृष्टि से स्मारक, स्तूप, प्रतिमा आदि की निन्दा करना चैत्यनिंदा कहलाती है ।
छ
धास्थिक— वे जीव जिनको मोहनीयकर्म का क्षय होने पर भी अन्य मों (घातिकर्मों) का सद्भाव पाया जाता है।
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परिशिष्ट-२
छायमस्थिक यथाख्यातसंयम-ग्यारहवें (उपशांतमोह) और बारहवें (क्षीणमोह)
गुणस्थानवी जीवों को होने वाला संयम । योपस्थापनीय संयम--पूर्व संगम पर्याय को खेदकर फिर से उपस्थापन (प्रता
रोपण) करना।
जघन्य अनन्तानन्त- उत्कृष्ट युतानन्त की संख्या में एक को मिलाने पर
प्राप्त राशि। अघन्य असंख्याता संख्यात--तस्कृष्ट युक्तासंख्यात की राशि में एक को मिलाने
पर प्राप्त संख्या । अन्य परीतामन्त-उत्कृष्ट असंख्यातासंस्पात में एक को मिसा देने पर प्राप्त
राशि। जघन्य परोतासंख्यात-उत्कृष्ट संख्यात में एक को मिलाने पर प्राप्त संख्या । जघन्य युस्तामात-उत्कृष्ट परीतानन्त की संख्या में एक को मिलाने पर
प्राप्त राशि । जघन्य युक्तासल्यास- उत्कृष्ट परीतासंख्यात की राशि में एक को मिलाने पर
प्राप्त राशि। जघन्य -सबसे कम स्थिति बाला बंध । अघन्य संपात-दो की संख्या। जालकाय जलीय शरीर, मो अस परमाणुओं से बनता है। जासि—यह शब्द जिसके बोलने या सुनने से सभी समान गुणधर्म वाले पदार्थों
का प्रहण हो जाये। जाति नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव स्पर्शन, रसन आदि पाच इन्द्रियों
में से क्रमशः एक, दो, तीन, चार, पांच इन्द्रियाँ प्राप्त करके एकेन्द्रिय,
हीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय मोर पंचेन्द्रिय कहलाता है। नाति भव्य-जो भव्य मोक्ष की योग्यता रखते हुए भी उसको प्राप्त नहीं कर
पाते हैं। उन्हें ऐसी अनुकूल सामग्री नहीं मिल पाती है जिससे मोक्ष
प्राप्त कर सकें। जिन--स्वरूपोपलब्धि में बाधक राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध आदि भाव को
एवं मानावरण बादि रूप धाति दय्य कर्मों को जीतकर अपने अनन्तज्ञानदर्शन आदि आत्म-गुणों को प्राप्त कर लेने वाले जीव जिन कहलाते हैं।
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पारिभाषिक शम्द-कोष
१.
जिम निन्दा-जिन भगवान, निरावरण केवलशानी की निन्दा, गहीं करना,
असत्य दोषों का आरोपण करना । जीव-जो द्रव्य प्राण (इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास) और माय प्राण
(ज्ञान, दर्शन आदि स्वाभाषिक गुण) से जीता था, जीता है और जीयेगा,
उसे जीव कहते हैं। जीवमिपाको प्रकृति-जो प्रकृति जीव में ही उसके जानादि स्वरूप का घात
करने रूप फल देती है। नौवसमास-जिन समान पर भाप धर्मों के द्वारा सभी का संग्रह
किया जाता है, उन्हें जीवसमास या जीवस्थान कहते हैं । बुगप्सा मोहमीपकर्म—जिस कर्म के उदय से सकारण या बिना कारण के ही
वीभत्स-घृणाजनक पदार्थों को देखकर घृणा उत्पन्न होती है। शाम-जिसके द्वारा जीव त्रिकाल विषयक भूत, वर्तमान और मविष्य सम्बन्धी
समस्त पूण्य और उनके गुण और पर्यायों को आने । अथवा सामान्य विशेषात्मक वस्तु में से उसके विशेष अंश को जानने वाले आत्मा के
व्यापार को शान कहते हैं। शानावरण कर्म--शारमा के ज्ञान गुण को आच्छादित करने पाला कर्म । मानोपयोग-प्रत्येक पदार्थ को उन-उनकी विशेषताओं की मुल्पसा से विकल्प
करके पृषक् पृथक् ग्रहण करना ।
वा
विस्तारस नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का बारीर-रस सौंठ या काली
मिर्ष जैसा घरपरा हो। तिर्यच--जो मन, वचन, काय की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनके आहार आदि
संशा सुम्यक्त है, निकृष्ट अज्ञानी हैं, तिरछ गमन करते हैं और जिनमें मात्यधिक पाप की बहुलता पाई जाती है, उन्हें तिथंच कहते हैं।
बिनको तिवगति नामकर्म का उदय हो, उन्हें तिथंच कहते हैं । कति मामकर्म-जिस कर्म के उवय से होने वाली पर्याय द्वारा जीव
लियच कहलाता है। तिचायु-जिसके उदय से तिबंधगति का जीवन व्यतीत करना पड़ता है। होकर नामक-जिस कर्म के उदय से तीर्थकर पद की प्राप्ति होती है।
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परिशिष्ट २
तेजोलेश्या होते की चोंच के समान रक्त वर्ण के लेक्ष्या पुद्गलों से आत्मा में होने वाले वे परिणाम जिनसे नम्रता आती है, धर्मरुनि क होती है, दूसरे का हित करने की इच्छा होती है आदि । तेजस - कार्मगमंधन नामकर्म जिस फर्म के उदय से तेजस शरीर पुद्गलों का कार्मेण पुलों के साथ सम्बन्ध हो ।
संजस असगंध नामकर्म - जिस कर्म के उदय से
पूर्व गृहीत तेजस शरीर पुद्गलों के साथ गृह्यमाण तेजस पुगलों का परस्पर सम्बन्ध होता है । संसर्गणा - जिन वर्गेणाओं से तेजस शरीर बनता है । तैजसशरीर---तंजल पुद्गलों से बने हुए बहार को पचाने वाले और तेजोलेश्या साधक शरीर को तेजस शरीर कहते हैं ।
तैजसशरीर मामकर्म जिस कर्म के उदय से जोव को तेजस शरीर की
-
प्राप्ति हो ।
तैजसपर प्रायोग्य उत्कृष्ट वर्गमा--तेजसवारीरप्रायोग्य जघन्य वर्गणा के अनंतवें माग अधिक प्रदेश वाले स्कंधों को उत्कृष्ट वर्गणा ।
――
संसारी र प्रायोग्य जघन्य वगंणा- -आहारक शरीर की ग्रहणयोग्य उत्कृष्ट धर्मणा के अनन्तर की अग्रहण योग्य उत्कृष्ट वर्गेणा से एक प्रदेश अधिक स्कंधों की वर्गणा तेजसशरीर के योग्य अधन्य वर्गणा होती है ।
तंजस संचालन नामकर्म जिस फर्म के उदय से तेजस शरीर रूप परिणत
पुद्गलों का परस्पर साक्षिष्य हो ।
-
-
BAL
३५
-
तंजयात जीवों के अनुग्रह या विनाश करने में समर्थ तैजस पारीर की रचना के लिये किया जाने वाला समुद्घात ।
प्रकरय -- जो शरीर चल फिर सकता है और जो बस नामकर्म के उदय से प्राप्त होता है ।
अस मामकर्म -- जिस कर्म के उदय से जीव को साय की प्राप्ति होती है ।
त्रसरेणु – आठ उध्वरेणु का एक प्रसरेणु होता है । त्रिस्थानिक — कर्म प्रकृति के स्वाभाविक अनुभाग से तिगुना अनुभाग |
श्रीमि जीव-जिन जीवों को श्रीन्द्रिय जाति नामकर्म के उदय से स्पर्शन, रसन और घाण यह तीन इन्द्रियाँ प्राप्त हैं, उन्हें श्रीन्द्रिय जीव कहते हैं । त्रुटितांग- चौरासी लाख पूर्व के समय को कहते हैं ।
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३६
(ब)
वंग-सयोगिकेवली गुणस्थानवर्ती जीव के द्वारा पहले समय में
अपने वशरीर के बाल्य प्रमाण आत्म प्रदेशों को ऊपर से नीचे तक लोक पास रचने को दंड समुदघात कहते हैं ।
दर्शन सामान्य धर्म की अपेक्षा जो पदार्थ की सत्ता का प्रतिमास होता है, उसे
वम कहते हैं ।
पारिभाषिक शब्द-कोष
सामान्य विशेषाश्मक वस्तुस्वरूप में से वस्तु के सामान्य अंश के बोषरूप चेतना के व्यापार को दर्शन कहते है | अथवा सामान्य की मुस्ता पूर्वक विशेष को गौण करके पदार्थ के जानने को दर्शन कहते है -- आत्मा के दर्शन गुण को आच्छादित करने वाला कर्म । दर्शनीय सत्यार्थ श्रद्धा को दर्शन कहते हैं और उसको घात करने वाले, क्षावृत करने वाले कर्म को दर्शनमोहनीय कर्म ।
यी प्रस्येक वस्तु में सामान्य और विशेष यह दो प्रकार के धर्म पाये जाते हैं, उनमें से सामान्य धर्म को ग्रहण करने वाले उपयोग को दर्शनोपोग कहते हैं ।
वानराव फर्म- बान की इच्छा होने पर भी जिस फर्म के उदय से जीव में - दान देने का उत्साह नहीं होता ।
-
वालिको संज्ञा उस संज्ञा को कहते हैं, जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य काल संबंधी क्रमवद्ध ज्ञान होता है कि अमुक कार्य कर चुका हूँ, अमुक कार्य कर रहा है और अमुक कार्य करूँगा ।
दीपक सोनल क्रियाओं से होने वाले लाभों का समर्थन, प्रचार, प्रसार करना दीपक सभ्यमस्वलाता है ।
संग नामक - जिस कर्म के उपय से जीव उपकार करने पर भी सभी को अमिय लगता ही दूसरे जीव वात्रता एवं भाव रखें ।
शरीर में लहसुन अथवा सड़े
जिस कर्म के उदय से जीव के पदार्थों जैसी गंध हो ।
निवेश - यथार्थ वक्ता मिलने पर जो श्रद्धा का विपरीत बना रहना । मानक- जिस कर्म के उदय से व का स्वर व वचन श्रोता को समग्र व कर्कश अली ।
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परिशिष्ट-२
३७
पर भव्य-जो भग्य जीव बहुत काल के बाद मोक्ष प्राप्त करने वाला है। बेव-देवगति नामकर्म के उदय होने पर नाना प्रकार की बाय विभूति से द्वीप
समुद्र आदि अनेक स्थानों पर इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं, विशिष्ट ऐश्वयं का अनुभव करते हैं, दिव्य बस्त्राभूषणों की समृद्धि तथा अपने शरीर को
साहजिक कांति से जो दीप्तमान रहते है के देव कहलाते हैं । देवति नामकर्म-जिस कर्म के उदम से जीव को ऐसी अवस्था प्राप्त हो कि
जिससे यह देव है' ऐसा कहा जाये । वायु-जिसके कारण से देवगति का जीवन विताना पड़ता है, उसे देवायु
कहते हैं। पेशयाती प्रकृति-अपने घानने योग्य गुण का आंशिक रूप से घात करने वाली
प्रकृति । वेशाविरति-अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न होने के कारण जो जीव
देश (अंश) से पापजनक क्रियाओं से अलग हो सकते है वे देशविरत
कहलाते हैं। वैशबिरत गुणस्पान- देशविरत जीवों का स्वरूप विशेष । देशविरत संयम-कर्मबंधजनक आरंभ, समारंम से आंशिक निवृत होना, निर
पराष घस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा न करना देशविरति संयम है। प्रण्यकर्म-ज्ञानावरण आदि कर्मरूप परिणाम को प्राप्त हुए पुद्गल ।
पप्राग-इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास । प्रम्पलेश्या-वर्ण नामफर्म के उपय से उत्पन्न हुए शरीर के वर्ण को ट्रव्यलेश्या
xमवेद-मैथुनेच्छा की पूर्ति के योग्य नामकर्म के उदय से प्रगट बाह्य
बिम्ह विशेष । वीन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन और रसग यह दो इन्द्रियां हैं तथा द्वीन्द्रिय .. जाति नामकर्म का उदय है। डोम्ब्रियशति नामकम-जिस कर्म के उदय से जीव को दो इन्द्रियाँ - शरीर
(स्पर्शन) और जिह्वा (रसता) प्राप्त हों। द्वितीपस्मिति-अन्तर स्थान से ऊपर की स्थिति को कहते हैं । वितीयोपशम सम्यक्त्व-जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबंधी कषाय और
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पारिभाषिक शब्द-कोष
वर्णनमोहनीय का उपशम करके उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है,
उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । विस्थानिक-कर्म प्रकृतियों के स्वामाविक अनुमाग से दुगना अनुमाग |
धनुष-पार हाथ के माए को धनुष कहा जाता है। धारणा-अवाय के द्वारा जाने हुए पदार्थ का कालान्तर में विस्मरण न हो, इस
प्रकार के संस्कार बाले ज्ञान को धारणा कहते है। प्रवोल्या प्रकृति--अपने उदयकाल पर्यन्त प्रत्येक समय और को जिस प्रकृति
___ का उदय बराबर बिना रुके होता रहता है। अषबम्ब-जो बंध न कभी बिच्छिल हया और न होगा । यूपबंधिनी प्रकृति-योग्य कारण होने पर जिस प्रकृति का बंध अवश्य होता है । मुखसत्ताक प्रकृति----जो अनादि मिथ्यात्व जीव को निरन्तर सत्ता में होती है,
सर्वदा विद्यमान रहती है।
भासक बेद-स्त्री एवं पुरुष दोनों के साथ रमण करने की इच्छा । मयुत--चौरासी लाख नयुतांग का एक नयुक्त होता है । मयुसांग-पौरासी लाख प्रयुत के समय को कहते हैं। मरगति नामकर्म-जिसके उदय से जीव नारक कहलाता है। नरकापु-जिसके उदय से जीष को नरकगति का जीवन बिताना पड़ता है। मलिन–चौरासी लाग्न नलिनांग का एक नलिन होता है। मलिनांग-चौरासी लाख पग्न का एक नसिनांग कहलाता है । मामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीक नरफ, तिथंच, मनुष्य और देवगति प्राप्त
करके अच्छी-बुरी विविध पर्याय प्राप्त करता है, अथवा जिस कर्म से आत्मा गति आदि नाना पर्यायों को अनुभव करे अथवा शारीर आदि बने,
उसे नामकर्म कहते हैं। नारक-जिनको नरमगति नामकर्म का उदय हो । अथवा जीवों को लेश
पहुँचायें। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से जो स्वयं तथा परस्पर में प्रीति को
प्राप्त न करते हों। माराससंहना मामा-जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना में दोनों
दरफ महंट बंध हो, लेकिन वेठन और कील न हो।
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परिशिष्ट-२
३९
माली-साढ़े अड़तीस लव के समय को नाली कहते हैं । निकाचन-उद्वर्तना, अपवतंना, संक्रमण और उदीरणा इन चार अवस्थाओं के
न होने की स्थिति का नाम निकाचन है । निकाधित प्रकृति--जिस प्रकृति में कोई भी करण नहीं लगता । उसे निकाषित
प्रकृति का है। मिरा-आत्मा के साथ नीर-क्षीर की तरह आपस में मिले हुए कर्म पुद्गलों
__ का एकदेश क्षय होना। नि-जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी नींद आये कि सुखपूर्वक जाग सके,
जगाने में मेहनत करनी पड़े। निशा-निजा-जिस कर्म के उदय से जीव को जगाना दुष्कर हो, ऐसी नींद आये । मिति- कर्म की उदीरणा और संक्रमण के सर्वथा अभाव की स्थिति । निर्माण नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर में अंग-प्रत्यंग अपनी-अपनी
जगह व्यवस्थित होते हैं । निरतिबार पोपस्थापनीय संयम--जिसको इस्वर सामायिक संयम वाले बड़ी
दीक्षा के रूप में ग्रहण करते हैं। निवृत्तिबावर गुणस्थान--वह अवस्था, जिसमें अप्रमत्त आत्मा अनन्तानुबंधी,
अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण इन तीनों चतुष्क रूपी बादर कषाय से निवृत्त हो जाती है । इसमें स्थितिवात आदि का अपूर्व विधान
होने से इसे अपूर्वकरण गुणस्थान भी कहते हैं। निति प्रध्येद्रिप-इन्द्रियों की आकार-रचना । मिल्सकम भायु--जिस आयु का. अपवर्तन-घास नहीं होता। निश्मिमाम-परिहार विशुद्धि संयम को धारण करने वालों को कहते हैं । मिषिष्टकापिक-परिहारविशुदि संयम धारकों की सेवा करने वाले । निश्चय सम्पपरम-जीवादि तत्वों का पयाला से श्रद्धान। मिल-मानवश ज्ञानदाता गुरु का नाम छिपाना, अमुक विषय को जानते हुए
मी मैं नहीं जानता, उरसूत्र प्ररूपणा करना मावि लिलाव कहलाता है । मोच हुस-अधर्म और अनीति करने से जिस कुल ने चिरकाल से अप्रसिद्धि व
अपकीर्ति प्राप्त की है । मीच गोत्र कर्म-लिस कर्म के उदय से जीव नीच कुल में जन्म लेता है।
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पारिभाषिक शब्द-कोष
मोलमेश्या- अशोक वृक्ष के समान नीले रंग के लेश्या पुद्गलों से आत्मा में
ऐसा परिणाम उत्पन्न होना कि जिससे ईर्ष्या, असहिष्णुता, छल-कपट
आदि होने लगे। नीलवर्ग नामकर्म-जिस कम के उदय से जीव का शरीर तोते के पंख के जैसा
हरा हो । नोकषाय-~-जो स्वयं सो कषाय न हो किन्तु कषाय के उदय के साथ जिसका
उदय होता है अथवा कषायों को पैदा करने में, उत्तेजित करने में
सहायक हो। म्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान नामकर्म—जिस कर्म के उदय से शरीर की आकृति
न्यग्रोध (वटवृक्ष) के समान हो अर्थात् शरीर में नाभि से ऊपर के अधयय पूर्ण मोटे हों और नाभि से नीचे के अवयव हीन – पतले हों।
पंचेन्द्रिय माति नामकर्म—जिस फर्म के उदय से जीव धो पाँचों इन्द्रियाँ
प्राप्त हों। पंडित वीर्यान्तराम कर्म--सम्यग्दृष्टि साधु मोक्ष की चाह रखते हुए भी जिस
कर्म के उदय से उसके योग्य क्रियाओं को न कर सकें। पतग्रह प्रकृति--आकर पड़ने वाले कर्म दलिकों को ग्रहण करने वाली प्रकृति । पर--प्रत्येक कर्म प्रकृति को पद कहते हैं । पदवृन्द--पदों के समुदाय को पदधुन्द कहा जाता है। परथ त—अविबोधक अक्षरों के समुदाय को पद और उसके ज्ञान को पदश्च त
कहते हैं । पसमासमत-पदों के समुदाय का जान । पप-चौरासी लाख पपांग का एक पत्र होता है। परा लेश्या हल्दी के समान पीले रंग के लेल्या पुद्गलों से आत्मा में ऐसे परि
णामों का होना जिससे काषायिक प्रवृत्ति काफी अंशों में कम हो, चित्त
प्रशान्त रहता हो, आत्म-संयम और जितेन्द्रियता की वृत्ति आती हो । पाग--चौरासी लास उत्पल का एक पांग होता है। परावा नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव बड़े-बड़े बलवानों की दृष्टि में
भी अजेय मालूम हो ।
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परिशिष्ट-२
परावर्तमाना प्रकृति- किसी दूसरी प्रवृत्ति के बंध, उदय अथवा दोनों को रोक
कर जिस प्रकृति का बंत्र, उदय अथदा दोनों होते हैं। परिहारविशुद्धि संयम-परिहार का अर्थ है तपोविशेष और उस तपोविशेष
से जिस चारित्र में विशुद्धि प्राप्त की जाती है, उसे परिहारविशुद्धि संयम कहते हैं । अथवा जिसमें परिहारविशुद्धि नामक तपस्था की जाती है, वह
परिहार विशुद्धि संयम है। पर्याप्त नामकर्म-पर्याप्त नामकर्म के उदय वाले जीवों को पर्याप्त कहते हैं और
जिस कर्म के उदय से जीय अपनी पर्याप्तियों से युक्त होते हैं, वह पर्याप्त
नामकर्म है। पर्याप्ति—जीव वी वह शक्ति जिसके द्वारा पुदगलों को ग्रहण करने तथा उनको
आहार, शरीर आदि के रूप में बदल देने का कार्य होता है। पर्याप्त भूत-उत्पत्ति के प्रथम समय में लष्यपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव
के होने वाले कुथल की अंश से दूसरे समय में ज्ञान का जितना अंश बढ़ता
है, यह पर्यायच त है। पर्याय समास शुत--पर्याय अत का समुदाय । पल्य-अनाज वगैरह मरने के गोलाकार स्थान को पत्य कहते हैं। परुयोपम....काल की जिस लम्बी अवधि को पत्य की उपमा दी जाती है, उसको
पल्योपम कहते हैं । एक योजना लम्चे, एक योजन चौड़े एवं एक योजन गहरे गोलाकार वूप की उपमा से जो काल गिना जाता है उसे पल्योपम
कहते हैं। परोक्ष--मन और इन्द्रिय आदि बाह्य निमित्तों की सहायता से होने वाला
पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान । पश्चावानुसूबों-अन्त से प्रारम्भ कर आदि तक की गणना करना । पाप-छह सत्सेधांगुल का एक पाद होता है। पाप-जिसके उदय से दुःख की प्राप्ति हो; आत्मा शुभ कार्यों से पृथक रहे । पाप प्रकृति-जिसका फल अशुभ होता है । पारिणामिकी बुद्धि---दीर्घायु के कारण बहुत काल तक संसार के अनुभवों से
प्राप्त होने वाली बुग्छि । पारिणामिक भाव-जिसके कारण मूल वस्तु में किसी प्रकार का परिवर्तन न
हो किन्तु स्वभाव में ही परिणत होते रहना पारिणामिक भाव है । अथवा
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पारिमाषिक शब्द-कोष
कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशाम की अपेक्षा न रखने वाले द्रव्य की स्वाभाविक अनादि पारिणामिक शक्ति से हो आविर्भूत भाव को
पारिणामिक माव कहते हैं । पिर प्रकृति-अपने में अन्य प्रकृतियों को गर्मित करने वाली प्रकृति । पुग्ध-जिस कर्म के उदय से जीव को सुख का अनुभव होता है । पुण्य कर्म-जो कर्म मुख का वेदन कराता है।। पुण्य प्रकृति-जिस प्रकृति का विमाफ-फस शुभ होता है। पुषगलपरावर्त-ग्रहण योग्य आठ वर्गणाओं (औदारिक, क्रिय, आहारक,
तेजस शरीर, भाषा, श्वासोच्छवास, मन, कामण कणा) में से आहारक शरीर वर्गणा को छोड़कर शेष औदारिक आदि प्रकार से रूपी द्रव्यों को ग्रहण करते हुए एक जीव द्वारा समस्त लोकाकाश के पुद्गलों का
स्पर्श करना। पुगतविपाकी प्रकृति-जो कर्म प्रकृति पुद्गल में फल प्रदान करने के सम्मुख
हो अर्थात् जिस प्रकृति का फल आत्मा पुद्गल द्वारा अनुभव करे । औदारिक आदि नामकर्म के उदय से ग्रहण किये गये पुद्गलों में जो कर्म
प्रकृति अपनी शक्ति को दिखावे, यह पुदगल विपाको प्रकृति है। पुरुषवेव—जिसके उदय से पुरुष को स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो । पूर्ण--चौरासी साख पूर्वाङ्ग का एक पूर्व होता है। पूर्वधुत अनेक वस्तुओं का एक पूर्व होता है। उसमें से एक का ज्ञान पूर्वश्रुत
कहलाता है। पूर्वसमास व सदो-चार आदि चौदह पूर्वी तक का ज्ञान । पूङ्गि-पौरासी लाख वर्ष का एक पूर्वाश होता है। पूर्वान पूर्वी--जो पदार्थ जिस क्रम से उत्पन्न हुआ हो या जिस कम से सूत्रकार
के द्वारा स्थापित किया गया हो, जसकी उसी क्रम से गणना करना । पृथ्वीकाय-पृथ्वी से बनने वाला पार्थिव शरीर । प्रकृति-..-कम के स्वभाव को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति बंध-जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में भिन्न-भिन्न शक्तियों
स्वभावों का उत्पन्न होना, अथवा कर्म परमाणुओं का ज्ञानावरण आदि
के रूप में परिणत होना । प्राकृतिविकल्प–प्रकृतियों के भेद से होने वाले मंग ।
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परिशिष्ट-२
प्रकृति स्थान---दो या तीन आदि प्रकृतियों का समुदाय । प्रचला-जिस कर्म के उदय से बैठे-बैठे या खड़े-खहे ही नींद आने लगे । प्रचला-प्रचला—जिस कर्म के उदय से सलते-फिरते ही नौद आ जाये । प्रतर--णि के वर्ग को प्रतर कहते हैं । प्रतिपत्ति अत-गति, इन्द्रिय आदि द्वारों में से किसी एक द्वार के जरिए समस्त
संसार के जीवों को जानना । प्रतिपसिसमास अत—पति आदि दो-चार द्वारों के जरिए जीवों का
शान होना । प्रतिपाती अभिमान-जगमगाते दीपक के वायु के झोंके से एकाएक बुल जाने
के समान एकदम लुप्त होने वाला अवधिशान 1 प्रतिशलाका पत्य-प्रतिसाक्षीभूत सरसों के दानों से भरा जाने वाला पल्य । प्रतिश्रवणानुमति-पुत्र आदि किसी सम्बन्धी के द्वारा किये गये पाप कर्मों को
केवल सुनना और सुनकर भी उन कर्मों के करने से उनको न रोकना । प्रतिसेवनामुन्नति-अपने या दूसरे के किये हुए भोजन आदि का उपयोग करना । प्रत्यक्षा-मन, इन्द्रिय, परोपदेश आदि पद निमित्तों की अपेक्षा रखे बिना एक
मात्र आत्मस्वरूप से ही समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायों को जानना। प्रत्यनीकस्व-ज्ञान, जानी और ज्ञान के साधनों के प्रतिकूल आचरण करना । प्रत्यास्थानावरण कषाय—जिस कषाय के प्रभाव से आत्मा को सर्वविरति-चारित्र
प्राप्त करने में बाधा हो, अर्थात् श्चमणधर्म की प्राप्ति न हो।। प्रत्येक नामकर्म --जिस कर्म के उदय से एक शरीर का स्वामी एक ही जीव हो। प्रथमस्थिति--अन्तर स्थान से नीचे की स्थिति । प्रवेश----कर्मदलिकों को प्रदेश कहते हैं।
पुद्गल के एक परमाणु के अवगाह स्थान की संज्ञा भी प्रदेश है । प्रवेशबंध-जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणु पाले कम स्काघों का सम्बन्ध होना । प्रवेशोषय--बंधे हुए कर्मों का अन्य रूप से अनुभव होना । अर्थात् जिन कर्मों
के दलिक बधि हैं उनका रस दूसरे भोगे पाने वाले सजातीय प्रकृतियों के
निषेकों के साथ भोगा जाये, बद्ध प्रकृति स्वयं अपना विपाक न बता सके। प्रद्वेष--ज्ञानियों और ज्ञान के साधनों पर ष रखना, अरुचि रखना प्रष
कहलाता है।
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पारिभाषिक शब्दकोष
प्रमससंयत—जो जीव पापजनक व्यापारों से विधिपूर्वक सर्वथा निवृत्त हो जाते
हैं, वे संयत (मुनि) हैं लेकिन संपत भी जब तक प्रमाद का सेवन करते
हैं तब तक प्रमत्तसंयत कहलाले हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान---प्रमत्तसंयत के स्वरूप विशेष को कहते हैं । प्रमागांगुल-उत्सेधांगुल से अढाई गुणा विस्तार वाला और चारसौ गुण सम्बा
प्रमाणांगुल होता है । प्रमाव-आत्मविस्मरण होना, कुशल कर्मों में आदर न रखना, कर्तव्य-अमर्त्तव्य ___को स्मृति के लिए सावधान न रहना । प्रयुत-चौरासी लाख प्रयुतांग का एक प्रयुत होता है। प्रस्तांग-चौरासी लाख अयुत के समय को एक प्रयुतांग कहते हैं। प्राभत श्रुत-अनेक प्राभूत-प्राभूतों का एक प्राभूत होता है। उस एक प्राभूत
का ज्ञान । प्राभृत-प्रामृत श्रुत-दृष्टिवाद अंग में प्राभृत-प्राभृत नामक अधिकार हैं उनमें
से किसी एक का ज्ञान होना। प्राभृत-प्राभृतसमास श्रुत-यो चार प्रामृत-प्राभृतों का ज्ञान । प्रामृतसमास श्रुत-एक से अधिक प्राभूतों का ज्ञान ।
(ब) यष-मिथ्यात्व आदि कारणों द्वारा काजल से भरी हुई डिबिया के समान
पौगलिक द्रव्य से परिव्याप्त लोक में कर्मयोग्य पुद्गल अर्गणाओं का आत्मा के साथ नीर-सीर अथवा अग्नि और लोहपित्र की मोति एकदूसरे में अनुप्रवेश- अभेदात्मक एकक्षेत्रावगाह रूप संबंध होने को बंध कहते हैं । अथवा---आत्मा और कार्म परमाणुओं के संबंध विशेष को बंध कहते हैं। अपवा अभिनव नवीन कर्मों के ग्रहण को बंध
कहते हैं। बंधकास-परमव संबंधी आयु के बंधकाल की अवस्था । पंधविच्छेव---आगे के किसी भी गुणस्थान में उस कर्म का बंघ न होना । बंधस्थान –एक जीव के एक समय में जितनी कर्म प्रकृतिमों का बंध एक
साथ (युगपत्) हो उनका समुदाय । बंधहेतु-मिथ्यात्व आदि जिन वैमाविक परिणामों (कमोदय जन्य) आत्मा के
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|'
:
परिशिष्ट २
परिणाम - क्रोध आदि ) से कर्म योग्य पुद्गल कर्मरूप परिणत हो
जाते हैं। बंधनकरण आत्मा की जिस शक्ति बंधन नामकर्म - जिरा कर्म के उदय से
की
विशेष से कर्म का बंध होता है । पूर्व गृहीत मोदारिक आदि पारीर
मुगलों के साथ नवीन ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों का संबंध हो । नादर अड्डा पोपम - बादर उद्धार पल्य में से सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक केशाय निकालने पर जितने समय में वह खाली हो, उतने समय को बादर अद्धा पल्योपम कहते है ।
बादर अद्धा सागरोपम— दस कोटा कोटी बादर अद्धा पल्योपम के काल को बादर मा सामरोपम कहा जाता है ।
४५
बावर योग्केरा नि एवं योजन प्रमाण लम्बे एक योजन प्रमाण थोड़े और एक योजन प्रमाण गहरे एक गोल परुषगड्ढे को एक दिन से लेकर सात दिन तक के उसे बालायों से प्रसास भरकर कि जिसको व आग जला सके, न वायु उड़ा सके और न जल का ही प्रवेश हो सके, प्रति समय एक-एक बालाय के निकालने पर जितने समय में वह पल्य साली हो जाये, उस काल को बादर उद्धार पल्योपम कहते है ।
बादर उद्धार सागरोपम— दस कोटा कोटी बादर उद्धार पत्थोपण के काल को
-
――
कहा जाता है ।
बावर फाल युगल परावर्त - जिसमें बीस कोटा कोटी सागरोपम के एक काल चक्र के प्रत्येक समय को कम या अक्रम से जीव अपने मरण द्वारा स्पर्श कर लेता है ।
बादर क्षेत्र पुगल परावर्त - जितने काल में एक जीव समस्त लोक में रहने वाले सब परमाणुओं को आहारक शरीर वर्गणा के सिवाय शेष औदारिय शरीर आदि सातों वर्गणा रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है ।
बादर भाव पुद्गल परायर्स- - एक जीव अपने मरण के द्वारा क्रम से या बिना कम के अनुभाग बंध के कारणभूत समस्त कषाय स्थानों को जितने समय में स्पर्श कर लेता है ।
बाल तपस्वी आत्मस्वरूप को न समझकर अज्ञानपूर्वक कायक्लेश आदि तप
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४६
पारिभाषिक शब्द-कोष
सापक वीर्यानासा-शविर it पक्ष रखता हुआ भी
जीव जिसके उदय से उसका पालन न कर सके । बाल होर्यान्तराय-सांसारिक कार्यों को करने की सामर्थ्य होने पर भी जीव
जिसके उदय से उनको न कर सके । बाह्य निवृत्ति-इन्द्रियों के बाह्य आकार की रपना ।
भय मोहनीयकम-जिस कर्म के उदय से कारणवशात् या बिना कारण डर
पैदा हो। भयप्रत्यय अवधिशान--- जिसके लिए संयम आदि अनुष्ठान की अपेक्षा न हो
फिन्तु जो अवधिज्ञान उस गति में जन्म लेने से ही प्रगट होता है । भव विपाकी प्रकृति-भव की प्रधानता से अपना फल देने वाली प्रकृति । भन्य-जो मोक्ष प्राप्त करने हैं या पाने की योग्यता रखते हैं अथवा जिनमें
सम्यग्दर्शन आदि माब प्रगट होने की योग्यता है। भाव-जीव और अजीव द्रव्यों का अपने-अपने स्वमाय रूप से परिणमन
होना। भाव अनुयोगद्वार-जिसमें विवक्षित धर्म के भाव का विचार किया जाता है । भाषकर्म-जीव के मिथ्यात्व आदि वे वैमाविक स्वरूप जिनके निमित्त से कम
पुद्गल कर्म रूप हो जाते हैं। भावप्राण-ज्ञान, दर्शन, चेतना आदि जीव के गुण | भावलेश्या-मोग और संनलेश से अनुगत आत्मा का परिणाम विशेष । संक्लेश
का कारण कषायोदय है अतः कषायोदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति को भावलेश्या कहते हैं। मोहकम के उदय या क्षयोपशम या उपशाम या क्षय से होने वाली जीव के प्रदेशों में · पंचलता को भावलेश्या
कहते हैं। भाववेद---मैथनेच्छा की प्रति के योग्य नामकर्म के उदय से प्रगट बाह्म
चिन्ह विशेष के अनुरूप अभिलाषा अघवा चारित्र मोहनीय की नोकषाय को वेद प्रकृतियों के कारण स्त्री, पुरुष आदि से रमण करने की इच्छा
रूप आरम परिणाम । भावश्चत-इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होने वाला ज्ञान जो कि
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परिशिष्ट-२
निमत अर्थ को कहने में समर्थ है तथा श्रु तानुमारी (शब्य और अर्थ
के विकल्प से युक्त) है उसे भाव त कहते हैं । भावेन्द्रिय–मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न आस्म-विशुद्धि अथवा
उस विशुद्धि से उत्पन्न होने वाला ज्ञान । भाषा-शन्दोच्चार की भाषा कहते हैं । भाषा पर्याप्ति-उस शक्ति की पूर्णता को कहते हैं जिससे जीव भाषावर्गणा
के पूगलों को ग्रहण करके भाषा रूप परिण मावे और उसका आधार
लेकर अनेः परःर जी स्वाति मा भाषाप्रायोग्य उत्कृष्ट वर्गणा--भाषाप्रायोग्य जन्य वर्गणा से एक-एक प्रदेश
बढ़ते-बढ़ते जघन्य वर्गणा के अनन्तवें भाग अधिक प्रदेश वाले स्कन्धों की
माषाप्रायोग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है । भाषाप्रायोग्य जघन्य वर्गणा--तेजस पारीर की ग्रहण योग्य उत्कृष्ट वर्गणा के
बाद की अग्रहण योग्य उत्कृष्ट वर्गणा से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों की
जो वर्गणा होती है, वह भाषा प्रायोग्यजघन्य वर्गणा है। भूपस्कार बंध—पहले समय में कम प्रकृतियों का बंध करके दूसरे समय में
उससे अधिक कर्म प्रकृतियों के बंध को भूयस्कार बंध कहते हैं । भोग-उपभोग- एक बार मोगे जाने वाले पदार्थों को मोग और बार-बार मोगे
जाने वाले पदार्थों को उपभोग कहते हैं । भोगान्तराप कर्म- मोग के साधन होते हुए भी जिस कर्म के उदय से जीव
भोग्य वस्तुओं का भोग न कर सके ।
मतिजान-इन्द्रिय और मन के द्वारा यथायोग्य स्थान में अबस्थित वस्तु का
होने वाला ज्ञान । मसिमान--मिच्यादर्शन के उदय से होने वाला विपरीत मति उपयोग लप
जान । मसिङ्गामावरण कर्म-मति ज्ञान का आवरण करने वाला कर्म । मधुररस नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर-रस मिधी आदि
मोठे पदार्थों जैसा हो। मध्यम अमातामन्त--जघन्य अनन्तानन्त के धागे की सब संख्याएं।
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मध्यम असंख्यातासंख्यात-जघन्य और उत्कृष्ट असंख्यातसंख्यात के मध्य
की राशि । मध्यम परीतासंख्यात-अपन्य परीतासंख्यात को एक संख्या से युक्त करने
पर जहां तक उत्कृष्ट परीतासंख्याप्त न हो, यहाँ तक की संख्या । मध्यम परीतानन्त-जवन्य और उत्कृष्ट परीतानन्त के मध्य की संख्या । मध्यम पुक्तानन्त-जघन्य और उत्कृष्ट युक्तानन्त के बीच की संख्या । मध्यम युक्तालयात-जघन्य और उत्कृष्ट युक्तासंख्यात के बीच की संख्या । मध्यम संस्थात-दो से ऊपर (तीन से लेकर) और उत्कृष्ट संख्यात से एक
कम तक की संख्या । मग-विचार करने का साधन | मनःपर्याप जान-इन्द्रिम और मन की अपेक्षा न रखते हुए, मर्यादा के लिए
हुए संशी जीवों के गनोगत भावों को जानना मन:पर्याम शान है अथवामन के चिन्सनीय परिणामों को जिस ज्ञान से प्रत्यक्ष किया जाता है,
उसे मनःपर्याय ज्ञान करते हैं । मनःपर्याय ज्ञानापरण-मनःपर्यायज्ञान का आचरण करने वाला कर्म । मनःपर्वाक्ति-जिस शक्ति से जीव मन के योग्य मनोवर्गणा के पुद्गलों को
ब्रहण करके मन रूप परिणमन करे और उसकी शक्ति विशेष से उन
पुद्गलों को वापस छोड़े, उसकी पूर्णता को मनःपर्याप्ति कहते हैं। मसुम्प-जो मन के द्वारा नित्य ही हेग-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त-अनाप्त,
धर्म-अधर्म आदि का विचार करते हैं, कम करने में निपुण है। उत्कृष्ट मन के धारक है, विवेकशील होने से न्याय-नीतिपूर्वक आचरण करने
वाले हैं, उन्हें मनुष्य कहते हैं ! ममुष्पगति नामकर्म-जिस कर्म के उपथ से जीव को वह अवस्था प्राप्त हो
कि जिसमें 'यह मनुष्य है' ऐसा कहा जाये । मनुष्यागु-निराके उदय से मनुष्यगति में जन्म हो । मनोव्य योग्य उत्कृष्ट वर्गणा-मनोद्रव्य योग्य जघन्य वर्गणा के जार एक
एक प्रदेश बढ़ते-बढ़ते अघाम वर्गणा के रकाघ के प्रदेशों के अनन्त भाग
अधिन. प्रदेश वाले स्वन्धों की मनोद्रव्य योग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है। मनोरण्य योग्य जघन्य वर्गणा-स्वासोच्छवास योग्य उत्कृष्ट वगंणा के बाद नौ
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परिशिष्ठ-२
अग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा के स्कन्धों से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों की
मनोद्रव्ययोग्य जनन्यवर्गणा होती है। मनोयोग---जीव का वह व्यापार जो औदारिक, वैक्रिय या आहारक शरीर के
द्वारा ग्रहण किये हुए मानप्राधान्य वर्गणा को सहायता होता है। अथवा काययोग के द्वारा मनप्रायोग्य वर्गणाओं को रहण करके मनोयोग से मनरूप परिणत हुए वस्तु विचारात्मक द्वधप को मन कहते हैं और उस मन के सहचारी कारण भूत योग को मनोयोग कहते है । अथवा जिस योग का विषय मन है अथवा मनोवर्गणा से निष्पन्न हुए द्रव्य मन के अवलंबन से जीद का जो संकोच-विकोच होता है वह
मनोयोग है। महाकमल-चौरासी लाग्नु महाकमलांग का एक महाकमल होता है । महाकमलांग-चौरासी लाख कमल के समय को एक महाकमलांग
कहते हैं। महाकुमुह-चौरासी लाल महा मृदांग का एक महाकु मृद होता है । महाकमुदांग- चौरासी लाख कुमुद का एक महाकामदांग होता है। महालता--चौरससी लाख महालतांग के समय को एक महालता कहते हैं। महालतांग-चौरासी लाख लसा का एक महालतांग कहलाता है । महाशाखाका पल्य - महा साक्षीभूत सरसों के दानों काश भर जाने वाले
पल्प को महाशलाका पल्य कहते हैं। मान-निस दोष से दूसरे के प्रति नमने की वृत्ति न हो; छोटे बड़े के प्रति
उचित न अ भाव न रखा जाता हो; जाति, अल; तप आदि के अहंकार
से दूरारे के प्रति तिरस्कार रूप वृत्ति हो, उसे मान कहते हैं। माया-आत्मा का कुटिल भाव । दूसरे को ठगने के लिए जो कुटिलता या
छल आदि किये जाते हैं, अपने हृदय के विचारों को विधाने की जो चेष्टा की जाती है, वह माया है | अथवा विचार और प्रवृत्ति में
एकरूपता के अभाव को माया कहते हैं। मार्गनाश-संसार-निवृत्ति और मुक्ति प्राप्ति के मार्ग का अपलाप करना । मार्गणा- उन अवस्थाओं को कहते हैं जिनमें गति आदि अवस्थाओं को लेकर
जीव में गुणस्थान, जीवस्थान आदि की मार्गणा-विचारणा-गवेषणा की जाती है । अथवा जिन अबस्थाओं-पर्यायो आदि से जीवों को देख
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५०
पारिभाषिक शब्द-कोर
जाता है उनकी उसी रूप में विचारणा, गवेषणा करना मार्गणा
कहलाता है। मारणान्तिक समुद्यात-मरण के पहले उस निमित्त जो समुद्घात होता है,
उसे मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं । मिग्यात्प-पदार्थों का अयथार्थ श्रद्वान | मिश्यावृष्टि गुणस्थान-मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से जीव की दृष्टि (श्रद्धा,
प्रतिपनि) मिथ्या (विपरीत) हो जाना मिथ्यादृष्टि है और मिथ्यास्टि
जीव के स्वरूप विशेष को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं । मिच्यास्व मोहनीय-जिसके उदय से जीव को तस्यों के यथार्थ स्वरूप की रचि
न हो । मिथ्यात्य के अशुद्ध दलिकों को मिथ्यात्व मोहनीय कहते हैं । मिथ्यात्व बत-मिथ्याइष्टि जीवों के श्रुत को मिथ्यात्व श्रुत कहा जाता है । मित्र गुणस्थान-मिथ्यात्व के अर्ध शुद्ध पुद्गलों का उदय होने से जब जीव की
दृष्टि कुछ सम्यक (शुद्ध ) और कुछ मिथ्या (अशुद्ध) अर्थात् वित्र हो जाती है तब वह जीव मिश्नदृष्टि कहलाता है और उसके स्वरूप विशेष को मिश्र गुणस्थान कहते है। इसका दूसरा नाम सम्यग्मिथ्याष्टि
गुणस्थान भी है। मिष मनोयोग -- किसी अंश में यथार्थ और विसी अंश में अयथार्थ ऐसा चिन्तन
जिस मनोयोग के द्वारा हो उसे मिश्र मनोयोग कहते हैं। मिम मोहनीय-जिस कर्म के उदय से जीव को यथार्थ की रुचि या अरुचि न
होकर दोलायमान स्थिति रहे । मिथ्यात्व के अर्धशुद्ध दलिकों को भी
मिश्र मोहनीय कहा जाता है । मिम सम्यकस्म-सम्यग्मिथ्यात्व मोहनीयकम के उदय से तत्व और अतत्त्व
इन दोनों की रुचि रूप लेने वाला मिल परिणाम । मुक्त जीव-संपूर्ण कर्मों का क्षय करके जो अपने ज्ञान, दर्शन आदि माव
प्राणों से युक्त होकर आत्मस्वरूप में अवस्थित हैं, वे मुक्त जीव
कहलाते हैं। मुहत--दो घटिका या ४८ मिनट का समय । मूल प्रकृति-कर्मों के मुख्य भेदों को मूल प्रकृति कहते हैं ।
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५१
परिशिष्ट २
मृस्पर्श नामकर्म- - जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर मक्खन जैसा कोमल हो ।
मोक्ष - सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाना ।
मोहनीय कर्म- जीव को स्वपर विवेक तथा स्वरूप- रमण में बाधा पहुँचाने वाला कर्म अथवा आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात करने वाले कर्म को मोहनीयकर्म कहते हैं।
1
(य)
समाख्यात संगम - समस्त मोहनीयकर्म के उपशम या क्षय से जेसा जात्मा का स्वभाव बताया है, उस अवस्था रूप वीतराग संयम ।
यथाप्रवृत्त करण -- जिस परिणाम शुद्धि के कारण जीव आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की स्थिति पस्योपम के असंख्यातवें भाग कग एक कोड़ा कौड़ी सागरोपम जितनी कर देता है। जिसमें करण से पहले के समान अवस्था (स्थिति) बनी रहे, उसे यथाप्रवृत्तकरण कहते हैं ।
यत्रतत्रानुपूर्वी जहां कहीं से अथवा अपने इन्द्रित पदार्थ को प्रथम मानकर
गणना करना यत्रतत्रानुपूर्वी है ।
यवमध्यभाग --- आठ यूका का एक यवमध्यभाग होता है ।
यशः कीर्ति - किसी एक दिशा में प्रशंसा फैले उसे कीति और सब दिशाओं में प्रशंसा फैले उसे यशःकोति कहते हैं । अथवा दान तप आदि से नाम का होना कीर्ति और शत्रु पर विजय प्राप्ति से नाम का होना यश है ।
यदाः कोसि नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव की संसार में बना और
कीर्ति फैले ।
7
यावत्कथित सामायिक जो सामायिक ग्रहण करने के समय से जीवनपर्यन्त पाला जाता है ।
युग-पांच वर्ष का समय । यूका - आठ लीख की एक यूका (जूं) होती है । योग-साध्वाचार का पालन करना संयम-योग है ।
घचन,
काय
आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होने को योग कहते हैं । आत्मप्रदेशों में अथवा आत्मशक्ति में परिस्पन्दन मन द्वारा होता है, अतः मन, बचन, काय के कर्म व्यापार को अथवा पुगल
के
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पारिभाषिक शब्दकोष
विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, बचन, काय से युक्त जीव की कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति को योग कहा जाता है । योगस्थान - स्पर्द्धकों के समूह को योगस्थान कहते हैं।
योजन - बार ब्यूत या आठ हजार धनुष का एक योजन होता है ।
(र)
रति मोहनीय- जिस कर्म के उदय से सकारण या अकारण पदार्थों में रागप्रेम हो ।
૨
रपरेण -- आठ सरेणु का एक रथरेणु होता है ।
रस- गौरव - मधुर, अम्ल आदि रसों से अपना गौरव समझना ।
रसधात बंधे हुए ज्ञानावरण आदि कमों की फल देने की तीव्र शक्ति को अपवर्तनकरण के द्वारा मंद कर देना ।
रस नामक - जिस कर्म के उदय से शरीर में तिक्त, मधुर आदि शुभ, अशुभ रसों की हो
रबंध - जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में फल देने की न्यूनाधिक शक्ति का होना |
एसविपाकी - रस के आश्रम अर्थात् रस ( अनुभाग ) की मुख्यता से निर्दिश्यमान विपाक जिस प्रकृति का होता है, उस प्रकृति को रस बिपाकी कहते हैं ।
रसाणु -- पुदगल द्रव्य की शक्ति का सबसे छोटा अंश ।
रसोदय- बंधे हुए फर्मों का साक्षात् अनुभव करना ।
रा - प्रमाणांगुल से निष्पन्न असंख्यात कोटा कोटी योजन का एक राजू होता है । अथवा श्रेणि के सातवें भाग को राजू कहते हैं ।
वक्षस्पर्श नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर बालू.
जैसा रूखा
हो ।
सुमति ममः पर्यायज्ञान – दूसरों के मन मे स्थित पदार्थ के सामान्यस्वरूप को जानना ।
द्धि गौरव घन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य को ऋद्धि कहते है और उससे अपने को महत्त्वज्ञानी समझना ऋद्धि गौरव है । मनाराचसंहनन नामकर्म जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना
→
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परिशिष्ट-२
विशेष में दोनों तरफ हड्डी का मकरबंध हो, तीसरी हटो का वेठन भी
हो, लेकिन तीनों को भेदने वाली हड्डी की कील न हो। रोचक सम्यक्त्व-जिनोक्त क्रियाओं में रुपि रखना।
लघु स्पर्श नामकर्म--जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर झाक की हा जसा
हल्का हो। लता-पारामा लास्य लतांग के समक्ष को एक सता कहत है । लत--चौरासी लाख पूर्व का एक लतांग होता है। लस्थि-ज्ञानावरणकर्म के अयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं। लम्बित्रस--वे जीष जिन्हें अस नामकर्म का उदय होता है और चलते-फिरते
लमित्र पर्याप्त-वे जीव मिनको पर्याप्त नामकर्म का उदय हो और अपनी
योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके मरते हैं, पहले नहीं। लब्धि प्रत्यय दैनिय शरीर-कियलचिअन्य जिरा बैंक्रिय शरीर से मनुष्य
और तिमंचों द्वारा विषिष विक्रियायें की जाती हैं। सम्धि भावेत्रिय-- मतिज्ञानावरण कर्म के भयोपशम से चेतना शक्ति की योग्यता
विशेष । लाध्यक्षर- रामद को सुनकर या रूप को देखकर अर्थ का अनुभवपूर्वक पर्या
लोचन करना । लख्यपर्याप्स-वे जीव जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर
जाते हैं। लव-सात स्तोक का समय । लाभातराप कर्म -गिस कर्म के उदय से जीव को इष्ट वस्तु को प्राप्ति न
हो सके। लोख-मरत और ऐरारत क्षेत्र के मनुष्यों के आठ केशागों की एक लीस
होती है। लेण्या-जीव के ऐसे परिणाम जिनके द्वारा आस्मा कर्मों से लिप्त हो अथवा
कपायोदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति । सोभ-वन आदि की तीन आकांक्षा या गृद्धता; बाह्य पदार्थों में 'अह मेरा है'
इस कार को अनुराग बुद्धि, ममता आदि म परिणाम ।
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पारिभाषिक शब्द-कोष
लोमाहार-स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा ग्रहण किये जाने वाला आहार । लोहित गर्ग नामकर्म--जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर सिन्दूर जैसा लाल हो।
(य) वर्ग-समान दो संख्याओं का आपस में गुणा करने पर प्राप्त राशि ।
सजातीय प्रकृतियों के समुदाय ।
अविभागी प्रतिच्छेदों का समूह । अर्गना-समान जातीय पुद्गलों का समूह । वचनयोग--जीव के उस व्यापार को कहते हैं जो औदारिक, वैक्रिय या
आहारक शरीर की क्रिया द्वारा संचय किये हए भाषा द्रव्य की सहायता से हो.है : अदा मा गरिमा को प्राप्त हुए पुद्गल को वचन कहते हैं और उस सहकारी कारणभूत बधन के द्वारा होने वाले योग को वचनयोग कहते हैं । अथवा वचन को विजय करने वाले योग को या भाषावर्गणा सम्बन्धी पुदगल स्कन्धों के अवलंबन से जो जीव
प्रदेशों में संकोच-विकोच होता है, उसे वचनयोग कहते हैं। वशषभनाराबसंहनन नामकर्म--जिस कमे के उदय से हड्डियों की रचना
बिशेष में वन-कीली, ऋषभ-वेष्ठन, पट्टी और नाराच-दोनों ओर मर्कट बंध हो, अर्थात् दोनों ओर से मकंट बंघ से बंधी हुई दो हड्डियों पर तीसरी हड्डी का बेठन हो और उन तीनों हड्डियों को भेदने वाली हड्डी की
कोली लगी हुई हो । गर्गमामकर्म-जिस कर्म के उदय से पारीर में कृष्ण गौर आदि रंग होते हैं । वर्षमान अवविज्ञान-अपनी उत्पत्ति के समय अल्प विषय बाला होने पर भी
___ परिणाम-विशुद्धि के साथ उत्तरोत्तर अधिकाधिक विषय होने वाला । जनस्पति काय-जिन जीवों का शरीर वनस्पति मय होता है। बस्तु - अनेक प्रामृतों का एक वस्तु अधिकार होता है । एक वस्तु अघि
फार के ज्ञान को वस्तुथु त कहते हैं। मस्तु समास शुत-दो-चार वस्तु अधिकारों का ज्ञान । बामन संस्थान मामकर्म-- जिस कर्म के उदय से शरीर वामन (बौना) हो। मायुकाष-वायु से बनने वाला वायवीय शरीर ।
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परिशिष्ट-२
पिकल प्रत्यक्ष चेतना शक्ति के अपूर्ण विकास के कारण जो ज्ञान भूर्त पदार्थों
की समग्र पर्यायों मावों को जानने में असमर्थ हो। वितस्ति-- दो पाद की एक वितस्ति होती है। विमय मिपाव- सम्यग्रहष्टि और मिथ्यादृष्टि दंब', गुरु और उनके कहे हुए
शास्त्रों में समान बुद्धि रखना। विपाक-कर्मप्रकृति की विष्टि अथवा विविध प्रकार के फल देने की शक्ति
को और फल देन के आभमुख होने का विपाक कहते हैं। विपाक-फाल - कर्म प्रकृलियों का अपने पान देने के अभिमुख होने का
समय । विपरोतमिथ्यात्व - धर्मादिक के स्वरूप वो विपरीत रूप मानना । विपुलमति मनःपर्यायज्ञान-चिन्तनीय वस्तु की पर्यायों को विविध विशेषताओं
सहित रफुटता से जानना। विभंगज्ञान--मिथ्यात्व के उदय से रूसी पदार्थों के विपरीत अवधिज्ञान को
विभंगज्ञान कहते हैं। विरति-हिंसादि सावध व्यापारों अर्थात् पापजनक प्रयत्नों से अलग हो जाना । विश्व मानक भूमिसंपराग संयम-उपशमथेणि या क्षपदार्थ णि का आरोहण
करने वालों को दसवें गुणस्थान की प्राप्ति के समय होने वाला संमम । विशेषाध-किसी खास गुणस्थान या किसी खास गति आदि को लेकर जो
बंध कहा जाता है उसे विशेषबंध कहते हैं ।। विसंयोजना-प्रकृति के क्षय होने पर भी पुनः बंध की सम्भावना बनी रहे। बिहामोगप्ति नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव की चाल हाथी, बैल आदि
की चाल के समान शुभ या ऊँट, गधे की चाल के समान अशुभ होती है। बीर्यान्सरामकर्म-जिस कर्म के लक्ष्य से जीव शक्तिशाली और निरोग होते हुए
भी कार्य विशेष में पराक्रम न कर सके, शक्ति सामर्थ्य का उपयोग न
कर सके। पेव-जिसके द्वारा इन्द्रियजम्य, संयोगजन्य सुख का वेदन किया जाये । अथवा
मधुन सेवन करने की अभिलाषा को वेद कहते हैं। अथवा वेद मोहनीयकम के लक्ष्य, उदीरणा से होने वाला जीव के परिणामों का सम्मोह (चंचलता) जिससे गुण-दोष का विवेक नहीं रहता।
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पारिभाषिक शब्द-कोष
वेवक सम्यक्त्व-क्षायोपशमिक सम्यक्स्व में विद्यमान जीव सम्यनत्व मोहनीय के
अन्तिम पुद्गल के रस का अनुभव करता है उस समय के उसके परिणाम । वेवना ससुधाल-तीन वेदना के कारण होने वाला समुद्घात । वनीय कर्म-जिसके उदय से जीव को सांसारिक इन्द्रियजन्य सुख-दुःख का ___अनुमत्र हो। वैकिय अंगोपांग नामकर्म-जिस कर्म के उदय से वैक्रिय शरीर रूप परिणत
पुद्गलों से अंगोपांग रूप अवयव निर्मित होते हैं। *क्रियकाययोग-क्रिय शरीर के द्वारा होने वाले वीर्य-शक्ति के व्यापार को
वैक्रिय कापयोग कहते हैं । अथवा वैक्रिय शरीर के अवलम्बन से उत्पन्न हुए परिस्पन्द द्वारा जो प्रयत्न होता है, उसे बैंक्रियकाययोग कहा
जाता है। वैक्रियका गबंधम नामकर्म-जिस कर्म के सदम से बैंक्रिय शरीर पुद्गलों का
कार्मण पुगलों के साथ सम्बन्ध हो। *फियतमसकार्मणबंधन मामकर्म:- जिस कर्म के उदय से पैत्रिय शरीर
पुद्गलों का तेजस-कार्मण पुदगलों के साथ सम्बन्ध हो। वैक्रियनिसबंधन नामकर्म--जिस कर्म के उदय से वैक्रिय शारीर पुदगलों का
तंजस पुदगलों के साथ सम्बन्ध हो । चकियमिय काय- वैक्रिय शरीर की उत्पत्ति प्रारम्भ होने के प्रथम समय से
लगाकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्त के मध्यवर्ती अपूर्ण शरीर
को बैंक्रियमिश्र काय कहते हैं । बैंक्रियमिभ काययोग - वैक्रिय और कार्मण तथा वक्रिय और औदारिक इन दो
घो शरीरों के मिश्नरव के द्वारा होने वाला वीर्य-शक्ति का व्यापार । क्रियर्वनियबंधन नामकर्म-जिस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत वैक्रिय शरीर
पुद्गलों के साथ गृहमाण वैक्रिय शरीर पुदगलों का आपस में मेल
होता है। पंक्रिय वर्गणा-वे वर्गणाएँ जिनसे वैक्रिम शरीर बनता है। पंक्रिय शरीर-जिस शरीर के द्वारा छोटे-बड़े, एक-अनेक, विविध विचित्र रूप
बनाने की शक्ति प्राप्त हो तथा जो शरीर वैक्रिय शरीर वर्गणाओं से निष्पन्न हो ।
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परिशिष्ट २
शरीर नामकर्म जिस के सेवको प्राप्त हो ! क्रियशरीरयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा - क्रियशरीर के ग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा से उसके अनन्त माग अधिक स्कन्धों की वैक्रियशरीरयोग्य उत्कृष्ट
--
णा होती है ।
शरीरयोग्य जघन्य वर्गणा ओधारिक शरीर के अग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा के स्कन्धों से एक अधिक परमाणु वाले स्कन्धों को समूह रूप
वर्गुणा ।
...
५७
7-1
वैक्रियसंघासन नामकर्म जिस कर्म के उदय से वैक्रिय शरीर रूप परिपत पुद्गलों का परस्परसान्निध्य हो ।
वैकियसमुद्घात - वैक्रिय शरीर के निमित्त से होने वाला समुपात | वैनयिकी बुद्धि गुरुजनों आदि की सेवा से प्राप्त होने वाली बुद्धि ।
जम पदार्थ के ज्ञान को अथवा जिसके द्वारा पदार्थ का वध किया
जाता है ।
व्यंजनार - जिससे अकार आदि अक्षरों के अर्थ का स्पष्ट बोध हो । अथवा अक्षरों के उच्चारण को व्यंजनाक्षर कहते हैं ।
व्यंजनावग्रह - अभ्यक्त ज्ञान रूप अर्थावग्रह से पहले होने वाला अत्यन्त अव्यक्त
आन ।
व्यबहार परमाणु-- अनन्त निश्चय परमाणुओं का एक व्यवहार परमाणु होता है । व्यवहार सभ्यपस्व कुगुरु, फुदेव और कुमार्ग को त्याग कर सुगुरु, सुदेव और सुमार्ग को स्वीकार करना, उनकी श्रद्धा करना ।
संयुक्ता-हियादि पापों से विरत होना व्रस है। अणुव्रतों या महाव्रतों के पालन करने को व्रतयुक्तता कहते हैं । ( श )
शरीर नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव के औहारिक, वैक्रिय आदि शरीर ar अथवा औदारिक आदि शरीरों की प्राप्ति हो ।
शरीर पर्याप्ति-स के रूप में बदल दिये गये आहार को रक्त आदि साव धातुओं के रूप में परिणमने की जीव की शक्ति की पूर्णता । शलाकापल्य- जिस पत्य को एक-एक साक्षीभूत सरसों के दाने से मरा जाता है, उसे शलाकापत्य कहते हैं ।
-
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पारिभाषिक शब्द-कोष
शीतस्पर्श नामकर्म -जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर बर्फ जैसा ठंडा हो । शीर्षप्रहेलिका-चौरासी खास पीर्षप्रहेलिकांगनी एक शीर्षप्रहेलिका होती है। जोगदेलका-- रास नाक, का एक शिकांग कहलाता है । शुक्ललेश्या-शंख के समान श्वेतवर्ण के लेश्या जातीय पुगलों के सम्बन्ध से
आत्मा के ऐसे परिणामी का होना कि जिनसे कषाय उपशान्त रहती है,
वीतराग-नाब सम्पादन करने की अनुकूलता आ जाती है। शुभ नामकर्म---जिस कर्म के उपय से जीव के शरीर में नामि से ऊपर के अब
यव शुभ हो। शुभविहायोगति नामकर्म--जिस कर्म के उदय से जीव को चाल हाथी, बैल की
चाल की तरह शुम हो। व तज्ञान- जो ज्ञान श्रतानुसारी है जिसमें शब्द और अर्घ का सम्बन्ध मासित
होता है, जो मतिज्ञान के बाद होता है तथा शब्द और अर्थ को पर्यासोचना के अनुसरणपूर्वक इन्द्रिय व मन के निगित से होने वाला है।
उसे अ तज्ञान कहते हैं। अतअज्ञाम---मिथ्यात्व के उदय से सहचरित अनजान । व तमानावरगफर्म--- तज्ञान का आवरण करने वाला कर्म । भोणि-सात राजू लंबी आकाश के एक-एक प्रदेश की पंक्ति । योगिगत सासावनसम्यष्टि -वह जीव जो उपदामनगि से गिरकर सासादन
गुणस्थान को प्राप्त होता है । शैलेशी अवस्था—मेरु पर्वत के समान निश्चल अथवा सर्व संवर रूप योग निरोध
की अवस्था । शैलेशीकरण... वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन कर्मों की असंख्यात गुणणि
से और आयुकर्म की यथास्थिति से निर्जरा करना । शोकमोहनीय-जिस कर्म के उदय से कारणवश या बिना कारण ही मोक
होता है। लक्षणम्सक्षिणका--आठ उत्पलक्ष्णश्तक्षिणका की एक श्लक्ष्णश्लक्षिणका होती है । स्वासोचवास---शरीर से बाहर की वायु को नाक के द्वारा अन्दर खींचना और
अन्दर की हवा को बाहर निकालना श्वासोच्छ्वास कहलाता है।
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परिशिष्ट-२
श्वासोच्छ्वास काल — रोगरहित निश्चिन्त तरुण पुरुष के एक बार श्वास लेने और त्यागने का काल ।
श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति-दवासोच्छ्वासयोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर श्वासोच्छुवासरूप परिणत करके उनका सार ग्रहण करके उन्हें वापस छोड़ने की जीव की शक्ति को पूर्णता ।
वर्गेणा के
श्वासोच्छ्वासयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा श्वासोच्छ्वासयोग्य जघन्य ऊपर एक-एक प्रदेश बढ़ते-बढ़ते जघन्य वर्गणा के स्कन्ध के प्रदेशों के अनन्त माग अधिक प्रदेश वाले स्कन्धों की श्वासोच्छ्वासयोग्य उत्कृष्ट
गंणा होती है | श्वासोच्छ्वासयोग्य कस्य
५.६
गाभावाद की उत्कृष्ट अग्रहणयोग्य वर्गणा के स्कन्धों से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों की वर्गणा वासोच्छ्वासयोग्य जघन्य वर्गणा होती है ।
( स )
संक्लिश्याम सूक्ष्म पराय संयम - उपशमणि से गिरने वाले जीवों के दसवें गुणस्थान की प्राप्ति के रामय होने वाला संयम ।
संक्रमण – एक कर्म रूप में स्थित प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का अभ्य सजातीय कर्म रूप में बदल जाना अथवा वीर्यविशेष से कर्म का अपनी ही दूसरी सजातीय कर्म प्रकृति स्वरूप को प्राप्त कर लेना ।
संख्या - भेदों की गणना को संख्या कहा जाता है ।
संख्य अनुयोगद्वार -- जिस अनुयोग द्वार में विवक्षित धर्म वाले जीवों की संख्या का विवेचन हो ।
संख्यातादर्शणा - संख्यात प्रदेशी स्वान्धों की संख्याताणुवर्गणा होती है । संघनिया साधु साध्वी, धावक श्राविका रूप संघ की निन्दा गर्दा करने को संघनिन्दा कहते हैं ।
संघात नामकर्म - जिस कर्म के उदय से प्रथम ग्रहण किये हुए शरीर पुद्गलों पर नवीन ग्रहण किये जा रहे शरोरयोग्य मुद्गल व्यवस्थित रूप से स्थापित किये जाते हैं ।
संघात त - गति आदि चौदह मार्गणाओं में से किसी एक मागंगा का एकदेश
ज्ञान ।
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६०
संघात समासत किसी एक मार्गणा के अनेक अवयवों का शान ।
संज्वल कचाय - जिस कषाय के उदय से आत्मा को यथाख्यात चारित्र की
Auco
पारिभाषिक कोम
प्राप्ति न हो तथा सर्वविरति चारित्र के पालन में बाबा हो । संज्ञा - नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम या तज्जन्य ज्ञान को अथवा अभिलाषा की संज्ञा कहते है ।
संज्ञाक्षर-अक्षर की आकृति, बनावट, संस्थान आदि जिसके द्वारा यह जाना जाये कि यह अमुक अक्षर है ।
संशित्व - - विशिष्ट मनशक्ति, दीर्घकालिकी संज्ञा का होना ।
संशी बुद्धिपूर्वक इष्ट-अनिष्ट में प्रवृत्ति निवृत्ति करने वाले जीव | अथवा सम्यग्ज्ञान रूपी संज्ञा जिनको हो, उन्हें संज्ञी कहते हैं। जिनके लब्धि या उपयोग रूप मन पाया जाये उन जीवों को संशी कहते हैं ।
संगीत - संज्ञी जीवों का अल ।
संभव सत्ता --- किसी कर्म प्रकृति की अमुक समय में सत्ता न होने पर भी भविष्य में सत्ता की संभावना मानना ।
संयम - सावरा योगों-- पापजनक प्रवृत्तियों से उपरत हो जाना अथवा पापजनक व्यापार- आरम्भ समारम्भ से आत्मा को जिसके द्वारा संयमित नियमित किया जाता है उसे संयम कहते हैं अथवा पाँच महात्रतों रूप यमों के पालन करने या पाँच इन्द्रियों के जय को संग्रम कहते हैं । संबर - आस्रव का निरोष अंबर कहलाता है ।
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संवासानुमति – पुत्र आदि अपने सम्बन्धियों के पापकर्म में प्रवृत्त होने पर भी उन पर सिर्फ ममता रखना ।
संवेध - परस्पर एक समय में अविरोध रूप से मिलना ।
संस्थान नामकर्म --- जिस कर्म के उदय से शरीर के मिश्र मिश्र शुभ या अशुभ आकार बनें ।
संसारी भीष--जो अपने यथायोग्य द्रव्यप्राणों और ज्ञानादि भावप्राणों से युक्त होकर नरकादि चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करते हैं ।
संहनन नामकर्म -- जिस कर्म के उदय से हाड़ों का आपस में जुड़ जाना अर्थात् रचना विशेष होती है ।
सांशयिक मियात्व- समीचीन और असमीचीन दोनों प्रकार के पदार्थों में से
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परिशिष्ट-२
किसी भी एक का निश्चय न होना । अथवा संशय से उत्पन्न होने वाला
मिथ्यात्व । अथवा-देव-गुरु-धर्म के विषय में सदेहशील बने रहना । सकलप्रत्यक्ष- सम्पूर्ण पदार्थों को उनकी विकालवती पर्यायों सहित युगपत
जानने वाला शौच । सत्ता-- बंध रामय सा संक्रमण समय से लेकर जब तक उन वार्म परमाणुओं का
अन्य प्रवृति रूप से मका होता या उसी दिन नही हसीन तक उनका आत्मा से लगे रहना ।
बंपादि के द्वारा स्व-स्वरूप को प्राप्त करने वाले कर्मों की स्थिति । सत्तास्थान----जिन प्रकृतियों की सत्ता एक साथ पाई जागे उनका समुदाय । सत्य मनोयोग-जिस मनोयोग के द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप का विचार किया
जाता है । अथवा सद्भाव अर्थात् भगाचीन पदाधी को विषय करने वाले मन को सत्यमन और उसके दाग होने वाले योग को सत्य मनोयोग
कहते हैं। सत्यमृषा मनोयोग · सत्य और पृषा ( असन्य) से मिश्रित मनोयोग । सत्यमृषा चचनयोग-रात्य और भूपा से मिश्रित बचनयोग । सत्य यननयोग . जिस बचानयोग के द्वारा दल्नु के यथार्थ स्वरूप का कणव तिया
जाता है । सत्य वचन मगंणा के निमित्त से होने वाला योग । सदनुयोगद्वार- विवक्षित धर्म का मार्गणाओ में बतलाया जाना कि किग
मार्गणाओं में वह धर्म है और विन मार्गणाओं में नहीं है। सद्भाव सत्ता--जिस कर्म की सत्ता अपने स्वरूप से हो। सपर्यवसित अत-- अन्तहीन श्रुत । समचतुरस्र- गालथी मारकर बैठने पर जिस शरीर के चारों कोग मभान हों,
यानी आमा और कपाल का अन्तर, दोनों घुटनों का अन्तर, दाहिने का और बायें जानु का अन्तर, मायं कंधे और दाहिने जानू गा अन्तर
ममान हो। समुन्नतरत्र संस्थान नामकर्म- जिस कर्म के जदय से समुक्तस्त्र संस्थान की
पादित हो अथवा सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अत्र
व्यय शुम हों। समय---काल का अत्यन्त सूक्ष्म अविभागी अंश ।
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पारिभाषिक शब्द-कोष
समास-अधिक, समुदाय या संग्रह । समुद्घात- भूल शरीर में कोई बिगा है: आमा प्रदंगों का बाहर निकलना। सयोगिकेवली-वे जीव जिन्होंने चार शतिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान
और दर्शन प्राप्त कर लिया है जो पदार्थ के जानने देखने में इन्द्रिय अलोफ आदि की अपेक्षा नहीं रखते और योग (आत्मवीर्य शक्ति उत्साह
पराक्रम) से सहित हैं। सोगिकेवली गुणस्थान-सयोगिफेवली के स्वरूप विशेष को कहते हैं । सयोगिकेवली ययाख्यातसंयम -सयोगिफेवली का यथाख्यातसंयम । सम्यक् अत-- सम्यग्दृष्टि जीवों का श्रत | सम्पपरम---छह तथ्य, पंच अस्तिकाय, नव तत्वों का जिनेन्द्र देव ने जमा कथन किया है, उसी प्रकार से उनका श्रदान करना अथवा तस्वार्थ श्रद्धान् ।
मोक्ष के अविरोधी आत्मा के परिणाम को सम्मान कहते है। सम्यक्त्वमोहनीय-जिसका उदय तान्विक रुचि का निमित्त होकर भी औपशामिक या क्षायिक माव घाली तत्त्व सनि वा प्रतिबंध करता है।
सम्यक्त्व का घात करने में असमर्थ मिथ्यात्व के शुद्ध दलिकों को सम्यक्त्य मोहनीय कहते है । सविपाक निर्णरा-- यथाक्रम से परिपाक काल को प्राप्त और अनुभव के लिए
उदयावलि के रोल में प्रविष्ट हुए शुमाशुभ कर्मों का फल देकर निवृत्त
होना । सागरोपम-दस कोड़ाफोड़ी पल्पोपम का एक सागरोपम होता है। सात गौरव-शरीर के स्वास्थ्य, सौन्दर्य आदि का अभिमान करना । सातादेवनीय कर्म-जिस कर्म के उदय से आत्मा को इन्द्रिय-विषय सम्बन्धी
सुख का अनुभव हो। सातिवार छेकोपस्थापनीय संयम-जो किसी कारण से मूल गुणों-महायतों के
मंग हो जाने पर पुनः ग्रहण किया जाता है । सादि-अनन्त – जो आदि सहित होकर भी अनन्त हो । सावि बंध--वह बंध जो रुककर पुनः होने लगता है। सादिश्रुत-जिस श्वत ज्ञान की आदि (मारम्भ शुरूआत) हो । सापिसान्त-जो बंध या उदय बीच में रुककर पुन: प्रारम्म होता है और
कालान्सर में पुनः व्युस्छिन्न हो जाता है ।
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परिशिष्ट-२
साविसंस्थान नामकर्म-जिस पार्म के उदय से नामि से ऊपर के अवयव हीन
पतले और नामि से नीचे के अवयव पूर्ण मोटे हों। साधारण नामकर्म-जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवो का एक शरीर हो
अर्थात् अनन्त जीव एक शरीर के स्वामी बनें । सान्निपासिक भाव-दो या दो से अधिक मिले इए भाव । सान्तर स्थिति–प्रथम और द्वितीय स्थिति के बीच में कर्म दलिकों से शून्य
अपस्था । सामायिक-रागद्वेष के अभाव को सम भाव कहते हैं और जिस संयम से
समभाव की प्राप्ति हो अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र को सम कहते हैं और उनकी आय-लाभ प्राप्ति होने को समाय तथा समाय के भाव को अथवा
समाय को सामायिक कहा जाता है। सासादन सम्यक्त्व-उपशम सम्यक्त्व से व्युत होकर, मिथ्यात्व के अभिमुख
हुआ जीव जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता है, तब तक के उसके
परिणाम विशेष को सांसादा सायरत्व कहते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि-जो औषशामिक सम्यष्टि जीव अनन्तानुबंधी कषाय के
उदय से सम्यवस्व से न्युत होकर मिथ्यात्व की ओर अभिमुख हो रहा है, किन्तु अभी मिथ्यात्य को प्राप्त नहीं हुआ, उतने समय के लिए वह
जीव रागादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है । सासादन गुणस्थान- सासादन सम्यग्दृष्टि जीव के स्वरूप विशेष को कहते हैं। सिसवर्ण नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर शंख जैसा सफेद हो । सिख पद-जिन ग्रन्थों के सब पद सर्वजोक्त अर्थ का अनुसरण करने बाले होने
से सुप्रतिष्ठित है उन ग्रन्थों को; अथथा जीवस्थान गुणस्थानों को सिद्ध
पद कहते हैं। सुभा नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव किसी प्रकार का उपकार न
करने पर भी और किसी प्रकार का सम्बन्ध न होने पर भी सभी को
प्रिय लगता हो। सुरभिगंध नामकर्म---जिस कर्म के उदय से जीव के शारीर में कपूर, कस्तूरी
आदि पदार्थो जैसी सुगन्ध हो ।
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६४
पारिभाषिक शब्द कोष
-जिस के उदय से जीव का स्वर श्रोता को प्रिय लगता
सुस्वर नामकर्महै ।
सूक्ष्म नामकर्म - जिस क्रम के उदय से परस्पर व्याघात से रहित सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति हो। यह शरीर स्वयं न किसी से रुकता है और न अन्य किसी को रोकता है ।
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सूक्ष्म अापस्योपम - सूक्ष्म उद्धार पत्य में से सौ-सौ वर्ष के बाद केशाय का एक-एक खंड निकालने पर जितने समय में वह पश्य खाली हो जाता है उतने समय को सूक्ष्म अापल्योपम कहते हैं ।
सूक्ष्म असा सागरोपम - दस कोटा कोटी सूक्ष्म अद्धापल्योपम का एक सूक्ष्म अद्धासागरोपम कहलाता है।
सूक्ष्म उद्धार पस्योषम द्रव्य, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यातगुणी सूक्ष्म अवगाहना वाले केशाय खंडों से पल्य को साहस भरकर प्रति समय उन केशा खंडों में से एक-एक खंड को निकालने पर जितने समय में वह पत्य खाली हो, उसने समय को सूक्ष्म उद्धार गल्योग कहते है ।
सूक्ष्म उद्धार सागरोपम-दस कोटाकोटी सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का एक सूक्ष्म उद्धार सागरोषम होता है ।
लक्ष्मकाल पुद्गल परावर्त - जितने समय में एक जीव अपने मरण के द्वारा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के समयों को क्रम रो ग कर लेता है ।
सूक्ष्मक्रिया निवृति शुषलध्यान- जिरा शुक्लध्यान में सर्वेज मगत्रान द्वारा योग निरोध के क्रम में अनन्त: सूक्ष्म काययोग के आश्रय से अन्य योगों को रोक दिया जाता है ।
सूक्ष्म क्षेत्र पत्योपत्र बादर क्षेत्र पल्य के बालाओं में से प्रत्येक के असंख्यात खंड करके पश्य को ठसाठस भर दो। वे खंड उस पल्य में आकाश के जितने प्रदेशों को स्पर्श करें और जिन प्रदेशों को स्पर्श न करें, उनसे प्रति समय एक-एक प्रदेश का अवहरण करते-करते जितने समय में स्पृष्ट और अस्पृष्ट सभी प्रदेशों का अवहरण किया जाता है, उतने समय को एक सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपभ कहते हैं ।
सूक्ष्म क्षेत्र पुगल परावर्त — कोई एक जीव संसार में भ्रमण करते हुए आकाण
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परिशिष्ट-२
के किसी एक प्रदेश में मरण करके पुन: उस प्रदेश के समीपवर्ती दूसरे . प्रदेश में मरण करता है, पुनः उसके निकटवर्ती तीसरे प्रदेश में मरण करता है । इस प्रकार अगन्तर-अनन्तर प्रदेश में मरण करते हुए जब समस्त लोकाकाश के प्रदेशों में मरण कर लेता है तब उतने समय को
सूक्ष्म क्षेत्रपूगल परायते कहते हैं। सम्मक्षेत्र सागरोपम-दस कोटाकोटी सूक्ष्म क्षेत्र गल्पोपम का एक सूधमक्षेत्र
सागरोपम होता है। सक्ष्मान्य प्रगल परावर्त-जितने समय में समस्त परमाणओं को औदारिक
आदि सातो वर्गणाओ मे से किसी एक गंगा रूप से ब्रहण करके
छोड़ देता है। सूक्ष्मभावयुगल परावर्त--जितने समय में एक जीत्र अपने मरण के द्वारा
अनुमाग बंध के कारण भूत बषीयस्थानों को कम से स्पर्श कर लेता है। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान--जिसमें संपराय अर्थात् लोभ कषाय के सूक्ष्म खंडों का
ही उदय हो। सम्म राय संयम- क्रोधादि कषायों द्वारा संसार में परिभ्रमण होता है अत:,
उनको संपराय कहते है। जिस संयम में संपराय (कषाय का उदय)
सूक्ष्म (अतिस्वरूप) रहता है। सेवार्तसंहनन नामकर्म-जिस फर्म के उदय से हड्डियों की रचना में पर्कट बंध,
घेठन और कीलन न होकर दो ही हड्डियां आपस में जुड़ी हों। स्तिकसंक्रम- अनुदयवर्ती फर्म प्रकृतियों के दलिकों को सजातीय और तुल्य
स्थिलिवाली उदयवर्ती कर्गप्रकृतियों के रूप में बदलकर उनके दलिकों
के साथ भोग लेना। स्तोक-सास श्वासोच्छवास काल के समय प्रमाण को स्तोक कहते हैं। स्थाननि-जिस कर्म के उदय से जाग्रस अवस्था में सोचे हुए कार्य को निद्रा
वस्था में करने की मामथ्यं प्रकट हो जाए। अथवा जिस निद्रा के उदय से निद्रित अवस्था में विशेष बल प्रगट हो जाए । अथवा जिस निद्रा में दिन में चिन्तित अर्थ और साधन विषयक आकांक्षा का एकत्रीकरण
हो जाये । स्त्रोवेव-जिस कर्म के उदय से पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा हो ।
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पारिमाषिक शब्द-कोष
स्यावर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीच स्थिर रहे, सर्दी-गमी से बचने
का प्रयत्न करने की शक्ति न हो । स्थितकल्पो-जो बाचेलक्य, औद्देशिक, शय्यातर पिंड, राजपिट, कृतिकर्म, नत,
ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मास और पयूषण इन दस कल्पों में स्थित हैं । स्थितास्थितकल्पी-जो शय्यासरपिंड, व्रत, ज्येष्ठ और कृति कर्म इन चार कल्पों
में स्थित तथा शेष छह कल्पों में अस्थित हैं। स्थिति-विवक्षित कर्म के आत्मा के साथ लगे रहने का काल । स्थितिघात-कर्मों की बड़ी स्थिति को अपवर्तनाकरण द्वारा घटा देने अर्थात्
जो कर्म दलियः आगे उदय में आने वाले हैं उन्हें अपवर्तनाकरण के
द्वारा अपने उदय यो नियत समय से हटा देना स्थितिघात है । स्थितिबंध-जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में अमुक समय तक
अपने-अपने स्यमाव का त्याग न कर जीव के साथ रहने की काल
मर्यादा का होना । कि अक्षर-पास के क्षय से होने वाले जीव के जिन परिणाम
विशेषों से स्थितिबंध होता है, उन परिणामों को स्थितिबंष अध्यवसाय
कहते हैं । स्थितिस्थान-किसी कर्म प्रकृति की जघन्य स्थिति से लेकर एक-एक समय
बनते-बढ़ते उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त स्थिति के भेव । स्थिर नामकर्म-जिस फर्म के उदय से जीव के दांत, गुड्डी, ग्रीवा आदि शरीर
के अवयव स्थिर हों अपने-अपने स्थान पर रहें । स्निग्धस्पर्श भामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर धी के समान
चिकना हो। पर्वक-वर्गणाओं के समूह को स्परक कहते हैं। स्पर्ध मामकर्म-जिरा कर्म के उदय से शरीर का स्पर्श कर्कषा, मृदु, स्निग्ध,
रूक्ष आदि रूप हो। स्पर्शम अनुयोगद्वार - विवक्षित धर्म याले जीवों द्वाग किये जाने वाले क्षेत्र
स्पर्श का समुच्चय रूप से निर्देश करना । स्पर्शनेन्द्रिय व्यंजमावग्रह-स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा होने वाला अत्यन्त अध्यक्त
ज्ञान ।
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I
परिशिष्ट २
६७
(ह)
हाथ-दो क्तिस्ति के माप को हाथ कहते हैं ।
हारिद्रवर्ण नामकर्म -- जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर हल्दी जैसा पोला हो ।
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हास्य मोहनीय- - जिस कर्म के उदय से कारणवश अथवा बिना कारण के हंसी आती है ।
हीयमान अवधिज्ञान - अपनी उत्पत्ति के समय अधिक विषय वाला होने पर मी परिणामों की अशुद्धि के कारण दिनोंदिन क्रमश: अल्प, बल्पतर, अस्पतम विषयक होने वाला अवधिज्ञान |
इंडसंस्थान नामकर्म — जिस कर्म के उदय से शरीर के सभी अवयव बेडौल हों, प्रणयुक्त
हह-चौरासी लाख हुहु-अंग का एक हुहु होता है । -अंग - चौरासी लाख अबव की संख्या |
हेतुवायोपवेशको संज्ञा- अपने शरीर के पालन के लिए इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट वस्तु से निवृत्ति के लिए उपयोगी सिर्फ वर्तमानकालिक ज्ञान जिससे होता है, वह हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा है ।
हेतुविपाकी - पुद्गलादि रूप हेतु के आश्रय से जिस प्रकृति का विपाक--- फलानुभव होता है ।
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परिशिष्ट ३
कर्मग्रन्थों की गाथाओं एवं व्याख्या में आगत पिण्डप्रकृति-सूचक शब्दों का कोष
(अ)
अगुरुलघुचक अगुरुलघु नाम, उपधातनाम वराघातनाम उच्छ्वासनाम | अघातिचतुष्क— वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र कर्म । श्रुतअज्ञान विभंगशान ( अवधि-अज्ञान)
अज्ञानत्रिक - - प्रतिजज्ञान, अनन्तानुबंधी एकत्रिंशत्- (अनन्तानुबंधी कोष आदि ३१ प्रकृतियाँ) अनन्तानुबंधी कोष, मान, माया, लोभ न्ययोष परिमंडल, सादि, वामन, कुब्ज संस्थान;
ऋषमनाराच संहनन, ऋषभनाराच नाराच, अर्धनाराच, कोलिका संहनन: शुभ विहायोगति, नीलगोत्र, स्त्रीवेद, दुर्मग नाम, दुःस्बर नाम, अनादेश नाम, निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्मानद्धि, रोत नाम; तिर्यश्वशति, तिचानुपूर्वी तित्रायुः मनुष्याय, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी श्रदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग ।
1
J
अनन्तानुबंधी चतुविशति --- ( अनन्तानुबंधी कोष आदि २४ प्रकृतियाँ) अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ न्यग्रोव परिमंडल, सादि वामन कुब्ज संस्थान ऋषमनाराच, नाराच अर्धनाराच कीलिका संहनन अशुभ विहायोगति, नीच गोत्र, स्त्रीवेद, दुभंग नाम, दु:स्वर नाम, अनादेय नाग, निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्थान, उद्योत नाम, तिर्यंचगति, तिजापूर्वी ।
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P
7
अनन्तानुबंधीचतुष्क- अनन्तानुबंधी, क्रोध मान, माया, लोभ । अनस्तानुबंधी षविशति (अनन्तानुबंधी क्रोध आदि २६ प्रकृतियों) अनन्तानुबंधी कोध, मान, माया, लोभ; न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, वामन, कुत्र संस्थान; ऋषभनाराच नाराच अर्धनाराच कीलिका संहनन अशुभ विहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दुभंग नाम, दुःस्वर नाम, अनादेय नाम,
נ
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परिशिष्ट-३
निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, त्यानद्धि, उद्योत नाम; तिर्यंचगति, तिर्यंचा
नुपूर्वी, तिथंचायु; मनुष्यायु । अलावेयद्रिक -अनादेय नाम, अथशःकीति नाम । अंगोपांगलिक-औदारिक अंगोपांग, वैक्रिय अंगोपांग, आहारक अंगोपांग । अंतरायपंचक--दानान्तराय, लाभान्सराय, मोगान्तराय, उपभोगान्तराय,
वीर्यान्तराय। अंतिम संहननत्रिक-अर्धनाराच, कीलिका, सेवात संहनन । अप्रत्याख्यामावरणकषायचतुष्क---अप्रत्याख्यानावरण कोष, मान, माया, लोभ । अपर्याप्तषटक---अपर्याप्त सूक्ष्म एवेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय,
रिद्रय, अरनी पंचेन्द्रिय । अवषिद्विक-अवधिज्ञान, अवधिदर्शन । अस्थिरद्वि फ~-अस्थिर नाम, अशुभ नाम । अस्थिरषटक-अस्थिर नाम, अशुम नाम, दुमंग नाम, दुःस्वर नाम, अनादेय
नाम, अयश:कीति नाम ।
(आ)
अकृतिनिक-(१) समचतुरन, न्यग्रोअपरिमण्डल, सादि, वामन, पुज, हुंड
संस्थान, (२) वचऋषभनाराच, ऋषमनाशच, नाराच, अर्घनारात, कीलिका, सेवात संहनन, (३) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय,
पंचेन्द्रिय जाति । आसपतिक-आतष नाम, उद्योत नाम । आयुत्रिक-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु । अबरग-नवक-~-मति, श्रुत, अबषि, मनःपर्याय, केवल ज्ञानावरण; चक्षु, अचक्षु,
अबधि, केवल दर्शनावरण । आहारकद्विक्ष-आहारक शरीर गाम, आहारक अंगोपांग नाम । बाहरकसप्तका आहारक पारीर, आहारक अंगोपांग, आहारक संघात, आहा
रक-आहारक बंधन, आहारक-तैजस बंधन, आहारका कार्मण बंधन, आहा
रक-सैमस-कार्मण बंधन नाम । आहारकपटक-आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, देवायु, नरकति, पर
कानुपूर्वी, नरकासु ।
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________________
७०
पिणप्रकृति-सूचक शब्द-कोष
(उ)
उपवासचतुष्क-उच्छवास, आतप, उद्योत, पराघात नाम । उद्योतचतुष्क- उद्योत नाम, नियमति, लियंचायुषी, तेथेचायु । उद्योतनिक-उचोत नाम, आतप नाम, पराघात नाम । उद्योतविक-उयोत नाम, आतप नाम ।
एकेद्रियत्रिक-एकेन्द्रिय जाति, स्थापर नाम, आसप नाम ।
(औ) औवारिकरिक-औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग नाम । औपारिकसप्तक- औदारिक पारीर, औदारिक अंगोपांग, औदारिक संघात
औदारिक-औदारिक बंधन, औतारिक-तंजस बंधन, औदारिक कार्मण बंधन, औदारिक-तजस-कार्मण बंधन नाम ।
रुपायपंचविशतिः- (कषाय मोहनीय के २५ भेद) अनन्तानुबंधी कोष, मान,
माया, लोम; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, सोम, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोम; संज्वलन कोष, मान, माया, लोमा हास्य,
रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद । कषामयोजक-अनन्तानुबंधी कोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यानावरण
क्रोष, मान, माया, लोमा प्रत्यास्थानावरण कोष, मान, माया, लोभ
संज्वलन कोष, मान, माया, लोम । केवलनिक-केवलशानावरण, केवलदर्शनावरण ।
खगतितिक-शुभ विहायोगति नाम, अशुभ विहायोगति नाम ।
गप्रतिक-सुरभिगंध नाम, दूरमिगंध नाम । गतित्रिक-गति नाम, आनुपूर्वी नाम, आयुकर्म । गति विक-गति नाम, आनुपूर्वी नामकर्म । गोत्रहिफ-नीच गोत्र, उच्चगोत्र कर्म । शालत्रिक-मतिझान, श्रुतज्ञान, अवधिशाम ।
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________________
परिशिष्ट-३
भानावरणपंचक- मतिज्ञानावरण, व तज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन:पर्याय
ज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण । जानावरण-अंसरायवशक- मतिज्ञानावरण, शुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण,
मनःपर्यायज्ञानावरण, नोवल ज्ञातावरण; ज्ञानान्तराय, सामान्त राय, भोगान्तराय, उप मोगान्तराय, धीर्यान्त राय ।
घातिचतुष्क--शानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्त राय कर्म ।
जातिवतुष्क – एकेन्द्रिय जाति, हीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय बासि, चतुरिन्द्रिय
जाति । आतित्रिक-(१) एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पचन्द्रिय जाति; (२)
नरफ, नियंत्र, मनुष्य, देवतिः (३) शुभ बिहायोगति, अशुम विहायोगति । जिनपंचक-तीर्थकर नाम, देवगति, देवानुपूर्वी, वक्रिय शरीर, बैंक्रिय अंगोपांग
नाम । जिनकाव- (तीर्थकर आदि ११ प्रकृतियां) तीर्थकर नाम, देवगति, देवानुपूर्वी,
वैक्रिय शरीर, बैंक्रिय अंगोपांग, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, देवायु, नरकति, मरकानुपूर्वी, नरकायु ।
तनु-अष्टक-(१) यौदारिक, बैंक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण शरीर; (२)
औदारिक, वैक्रिय, आहारक, अंगोपांग; (३) समचतुरन, न्यग्रोषपरिमंडल, सादि, वामन, कुलज, हण्ड संस्थान; (४) बचऋषभनाराच, ऋषमनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका, सेवात संहनन; (५) एकेन्द्रिय,
रेन्नि य, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंपेन्ष्ट्रिय जाति; (६) नरक, तिथंच, मनुष्य, देवगति; (७) शुम विहायोगात, अशुभ वियोगति; (८). नर
कानुपूर्वी, तियंचानुपूर्वी, मनुष्पानुपूर्वी, देवानुपूर्वी । तनुचतुष्क-(१) औदारिक, बैंक्रिय, आहारक शरीर; (२) भौदारिक, वैकिय,
आहारक अंगोपांग, (३) सम चतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, वामन, कुष्ण, हुण्ड संस्थान; (४) बनऋषमनाराच, ऋषभनाराच, नाराच अर्धनाराच, कीलिका, सेवार्त संहनन ।
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________________
७२
तिच त्रिक--तियंच गति, तिथंधानुपूर्वी, तिचा । तिचह्निक-तिधगति, तिचानुपूर्वी ।
तृतीय कषाय- प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ ।
तेजसकामंासप्तक - तेजस शरीर, कार्मण शरीर, तेजस तेजस बंधन, तैजस
कामंण बंधन, कार्मण-कार्मण बंधन, तंजस संघातन, कार्मण संघासन | तेजसचतुष्क- तंजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण नाम ।
असचतुष्क - त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक नाम | जसत्रिक-- त्रस, बादर, पर्याप्त नाम ।
असदशक- त्रस बाहर
यशःकीर्ति नाम !
सविक अस नाम, खादर नाम |
प्रसनवक - श्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय नाम । सपटक बस नाम, बादर नाभ, पर्याप्त नाम, प्रत्येक नाम, स्थिर नाम, शुभ नाम ।
सादि बीस-स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश: कीर्ति, स्वावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अनुम, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति नाम ।
(द)
-
—
दर्शनखतुष्क क्षुदर्शन, अनशुदर्शन अवधिदर्शन केवलदर्शन ।
दर्शनत्रिक-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन
·
दर्शन कि-चक्षुदर्शन, अवक्षुदन ।
बर्शनावरण असुरक... चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण |
वर्शनावरणवक – चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, प्रचला ।
वर्शन मोहत्रिक मिध्यास्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व मोहनीय ।
दर्शन मोहतक-मिध्यात्व, सम्यग् मिध्यात्व सम्यक्त्व मोहनीय, अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ।
दुभंग धतुष्क दुभंग, दुःस्वर, अनावेय, जयशःकीति नाम |
.
पिण्डप्रकृति-सूचक दाब्द-कोय
पत्येक स्थित लुम, सुभग, सुस्वर, आदेय,
r
!
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________________
S
C.
परिशिष्ट- ३
दुर्भगणिक दुभंग नाम, दुःस्वर नाम, अनादेय नाम । द्वितीय कवाय – अप्रत्याख्यानादरण कोष, मान, माया,
-
1
वेवत्रिक – देवगति, देवानुपूर्वी, देवायु ।
कि- देवगति, देवानुपूर्वी
वो युगल - हास्य रति, शोक -अरति ।
(न)
सोम |
नरकत्रिक -- नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु । नरकद्विक – नरकगति, नरकानुपूर्वी ।
७३
नपुंसक चतुष्क नपुंसक वेद, मिथ्यात्व मोहनीय, इंडसंस्थान, सेवार्तसंहनन । नरत्रिक – मनुष्य गति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यासु । नरद्विक – मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी ।
नरक' (बच्चा – नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, सूक्ष्म, माधारण, अपर्याप्त, एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, स्थावर नाम, आतप नाम । नरमवक – नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, हीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति ।
F
मरकषोडश--- ( नरकगति आदि १६ प्रकृतियाँ) नरकगति, नरकानुपुर्वी नरकायु, एकेन्द्रिय जाति, द्विन्द्रिय जाति त्रीन्द्रिय जाति चतुरिन्द्रिय जाति, स्थावर नाम, सूक्ष्म नाम, अपर्याप्त नाम, साधारण नाम टुंड संस्थान, सेवार्त संहनन, बातप नाम, नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय
निद्राविक- निद्रा, प्रचला ।
निद्रापंचक-निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्धि । नोकषानव - हास्य, रति, बरति शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद,
J
नपुंसक वेद ।
(प)
पराघात सप्तक --- पराधात उच्छ्वास, आतप उद्योत, अनुरुलघु, तीर्थंकर, निर्माण नाम ।
प्रत्यास्थानावरणकषायंचतुष्क - प्रत्याख्यानावरण कोष, मान, माया, लोभ | प्रत्येक अष्टक - परापात, उच्छ्वास, आलप, उद्यत, अगुरुलघु, तीर्थंकर, निर्माण,
उपघात नाम ।
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________________
७k
पिण्डप्रकृति-सूचक शब्द-कोष
अंषमपंचक --औदारिक शरीर बंधन, पैत्रिय शरीर बंधन, आहारक शरीर बंधन,
तमस शरीर बंधन, कामंण शरीर बंधन नाम | पंधकपंचवश - औदारिक-औदारिक बंधन, औदारिक-तंजस बंधन, औदारिका
कामेण बंधन, औदारिक-तंजस-कार्मण बंधन, वैक्रिय-क्रिय बंधन, वैकियतैजस बंधन, वैक्रिय-कार्मण बंधन, वैक्रिय-तैजस कार्मण बंधन, आहारआहारक बंधन, आहारक-तंजस बंधन, आहारक-कार्मण बंधन, आहारकतंजस-कार्मण बंधन, तेजस-जस बंधन, संजस-कार्मण बंधन, कार्मणकामंण बंधन नाम ।
मध्यमसंस्थानचतुष्क- न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, वामन, तुम्न संस्थान । मध्यमसंहमनचतुष्क-ऋषमनाराच, नाराच, अर्धनाराघ, कीलिका संह्नन । मनुष्यत्रिक---मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी मनुष्यायु । मनुष्यहिक-मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी । मिथ्यात्वत्रिक- मिथ्यात्व, सासादन, मिथ दृष्टि । मिथ्यात्वाद्विक-मिथ्यात्व, सासादन !
रसपंचक-तिक्तरस, कट्टरस, कषायरस, अम्लरस, मधुर रस ।
वर्णचतुष्क नाम (वर्ग)-वर्णनाम, गंधनाम, रसनाम, स्पर्शनाम । वर्णपंचक-कृष्ण वर्ण, नील वर्ण, लोहित वर्ण, हारिद्र वर्ण, श्वेत वर्ण नाम | पर्णादि बीस-पांच वर्ण, पाच रस, दो गंध, आठ स्पर्श नामकर्म । विकसत्रिक-वीन्द्रिय आति, श्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति नाम । बिहायोगतिविफ-शुभ विहायोगति, अशुभ विहायोगति नाम । वेवत्रिक-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद । वेबनीयतिक-- सातावेदनीय, असातावेदनीय । वैक्रिय-अष्टक --वैफिय शरीर, वकिय अंगोपांग, देवगति, देवानुपूर्वी, देवायु,
नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु । मैक्रिय-एकादश--देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैकिय शरीर,
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________________
परिशिष्ट-३
वैकिस अंगोपांग, वैक्रिय संघात, वैक्रिय-क्रिय बंधन, क्रिय-तजस बंधन,
वैत्रिय कार्मण बंधन, वैक्रिय-तंजस-कार्मण बंधन । बक्रियविक - वैकिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग ।। क्रियषटक - वैक्रिय पारीर, वैक्रिय अंगोपांग, नरकगति, नरकानुपूर्थी, देवगति, देवानुपूर्वी।
(श) शारीरपंचक-औदारिक शरीर, वकिय शरीर, माहारक शारीर, तेजस शरीर,
कार्मण शरीर माम।
संघासनपंचक-औदारिक संघातन, वैक्रिय संघातन, आहारक संघातन, तेजस ।
संघात न, कार्मण संघातन नाम । संज्वलनकषायचतुष्क-संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोम । संज्वलनकषायत्रिक-संज्वलन कोष, मान, माया । संजीतिक-संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त, पन्द्रिय प्राप्ति । संस्थानषटक-रामचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, वामन, कुब्ज, हुंड संस्थान। संहननषदक-वजऋषमनाराच, ऋषमनाराच, नाराष, अर्धनारान, कोलिका,
सेवात संहनन । सम्यक्त्वत्रिक-औपशामिक सम्यवत्व, सायोपमिक सम्यक्त्व, क्षायिक
सम्पत्य । सम्यक्त्वतिक-- क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व । सुमगचतुष्क - सुभग नाम, सुस्वर नाम, आदेय नाम, यश:कीति नाम । मुभगत्रिक- समग नाम, सुस्वर नाम, आदेव नाम । मुरत्रिक-- देवगति, देवानुपूर्वी, देवायु । सुरखिक-देवगति, देवानुपूर्वी । सूक्ष्मत्रयोदशक-(सूक्ष्म नाम आदि १३ प्रकृसिया) सूक्ष्म नाम, साधारण नाम,
अपर्याप्त नाम, एकेन्द्रिय जाति, वौन्द्रिय जाति, श्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, स्थावर नाम, आता नाम, नपुंसकवेद, मिख्यात्न मोहनीय, हुंड
संस्थान, सेवात संहनन । सूक्मत्रिक-सूक्ष्म नाम, साधारण नाम, अपर्याप्त नाम ।
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________________
पिण्डप्रकृति-सूचक शब्द कोष
सुरेकोमविशति - (देवर्गात आदि १२ प्रकृत्तियाँ) देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग आहारक शरीर, माहारक अंगोपांग, देवायु, नरकगति, नरकानुपुर्वी, नरकायु, सूक्ष्म नाम, साधारण नाम, अपर्याप्त नाम, एकेन्द्रिय जाति, हौन्द्रिय जाति त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, स्थावर नाम, आतप नाम ।
'
७६
,
स्यानिित्रक-हत्यानद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला
हथावरचतुष्क- स्थावर नाम, सूक्ष्म नाम, अपर्याय नाम, साधारण नाम | स्थावरवशक -- स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, तुःस्वर, अनादेय नीति नाम : स्थावर ट्रिक - स्थावर नाम, सूक्ष्म नाम
!
स्पर्श-अष्टक - कर्कश स्पर्श, मृदु स्पर्श, गुरु स्पर्श लघु स्पर्श, शीत स्पर्श, स्पर्श, स्निग्ध स्पर्श, रूक्ष स्पर्श नाम ।
उष्ण
स्थिरपट्क स्थिर नाम, शुभ नाम, सुभगनाम, सुस्वर नाम, आवेय नाम, यशःकोति नाम ।
(ह)
हास्पषट्क हास्य, रति, अरति शोक, जय, जुगुप्सा मोहनीय |
-LL
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________________
सप्ततिका प्रकरण की गाथाओं का अकारावि
गाया संख्या
(ar)
२५
१२
३०
३
५
३६
६६
७०
५२
५८
$19
१३
I w ev
६
४१
१८
४६
११
२७
अतीसेवकारस
अट्ठगसत्त गच्छच्चउ
अट्टय बारस
अवित्तय
अट्ट एविगप्प
असु पंचसु एगे अनयरयणीयं
अह सुदय सयलजग
इस विलिदिय सगले गुद्रुमध्यमत्तो
इलो चबंधाई इस कम्मपदाणाई
(3)
उदयसुदीरणाए उवरयबंधे च (प्रथम पंक्ति ) उवसंतेच पण (प्रयम पंक्ति)
एक्कग छक्केवारस
एक्क डेक्कारेक्कारसेव
(इ)
एक्कं व दो व चउरो
एग बियालेक्कारस
परिशिष्ट ४
अनुक्रम
पृष्ठ संख्या
ve
७३
१८७
१७
२७
२२१
४४०
४४६
३६१
३८६
०
३७०
३७५
३६
२५५
११०
२७६
६६
१७६
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________________
গালী জা মাহি অনুক্ষণ
एग सुहमसरामो एगेगमट्ट एगेग एगेगमेगतीसे एसो उ बंधसामितओधो
२७२ ३०७
का बंधतो वेयह
गुणठाणगेसु अट्ठसु
चउ पणवीसा सोलस चत्तारमाइ नम
स्टुण्णव छक्कं तिग छब्बावीसे चन छायालसेसमीसो
३८३
जोगोवओगलेसा जो जत्य अपडिपुरानो
२८३
४५१
तवाणुपुन्विसहिया तिग्णेगे एगेग तित्थगरदेवनिरयागं तिस्थगराहारग तिदुनाई जगुमाई तिन्नेघ प बाबीसे तिबिंगप्पपगइठाणेहि तेरासु जीव तेरे नव च तेवीस पपणवीसा
४४२ ३०३ ३६३ ३५१ १५४ १२२ २००
१४२
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________________
परिशिष्ट-४
18
दसनवपन्न रसाई दस बाबीसे नव दुरहिगमनि उण देवगइसहगमाओ दो छक्कटु चउपक
११७
नवतेसीयसएहि नवपंचाणउइसए नव पंचोदय संता नाणंतराप तिनिह (प्रथम पंक्ति) नाणंतरायदसगं
१८८
२५४
३७८
१२२
३६५
पंचविह्वविहेसं पढमकसायच उक्त पहमकसायचउक्के पण दुग पाणगं पुरिसं कोहे कोहं
४२०
रस
बंधस्स य संतस्स बधोक्यसंतसा बावीसा एगणं बाचीस एक्कमीसा कीयावरणे नवबंध
३८८
३६
मणुगगइ जाइ मणुयगइसहगयाओ मिच्छासागे बिइए (द्वितीय पंक्ति) मिस्साइ नियट्टीओ
२५५
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________________
८०
So
२६
€
४१
३८
१३
४३
१
(ख)
बिरोमिए afiratसा चवी सगाइ मायगोए (द्वितीय पंक्ति) बेयणिया उपगोए (द्वित्तीय पंक्ति)
(स)
सत्तटुबंध अट्ट
सत्तेव अपज्जत्ता
संतस्स पगठाणाई
सत्ताइ दसउ मिच्छे सिद्धहि मह
गाधाओं का अकारादि अनुक्रम
ات
१५८
૪૬
२६७
२२
२२८
७३
२७२
५
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________________
परिशिष्ट ५ कर्मग्रन्थों की व्याख्या में प्रयुक्त सहायक ग्रन्थों की सूची अनुयोगद्वारसूत्र-मागमोदय समिति, सूरत अनुयोगद्वारसूत्र टीका (मलधारी हेमचन्द्र सूरि) भागमोदय समिति, सूरत आचारांगसूत्र टीका (शीलांकाचार्य) आवारांगसूत्र नियुक्ति (भद्रबाहु स्वागी) आप्तमीमांसा (स्वामि समन्तभद्र) जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता आवश्यकनियुक्ति (मद्रबा8 स्वामी) आगमोदय समिति, सूरत आवश्मकनियुक्ति टीका (हरिभद्रसूरि) आवश्यकनियुक्ति टीका (मलयगिरि) आगमोदय समिति, सूरत उत्तराध्ययनसूप उत्तराध्ययनसूत्र टीका (शांतिसूरि) उपासकदशांग सूत्र अपपालिक सूत्र-आममोदय समिति, सूरत कर्मप्रकृति ----मुक्ताबाई शान मन्दिर, इमोई कम प्रकृति पूणि-मुक्ताबाई ज्ञान मन्दिर, इमोई कर्मप्रकृति टीका (उपाध्याय यशोविजय) मुक्ताबाई जान मन्दिर, मोई कर्मप्रकृति टीका (मलयगिरि) मुक्ताबाई ज्ञान मन्दिर, अमोई कषायपाहुठ (गुणधर आचार्य) कधामपाहुड चूणि (स्थविर पतिवृषम) काललोकप्रकाश-देवचन्द लाल'माई पुस्तकोद्धार संस्था, मूरत क्षपणासार (नेमिचन्द्र सिद्धान्तवक्रवर्ती) भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था,
__कलकत्ता गोम्मटसार कर्मकाण्ड (नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती) रायचन्द जैन ग्रन्धमाला,
बाई गोम्मटसार जीवाण्ट (नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती) रायचन्द जैन ग्रन्णमाला,
बम्बई
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________________
सहायक ग्रंथ सूची
जमधवला (वीरसेन आचार्य) अम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति जम्बूदीपप्रज्ञप्ति--संस्कृत टीका जीवाभिगमसूत्र जीवस्थानचूलिका---स्थान सभुत्कीर्तन--जैन साहित्योद्धारक फंड, अमरावती ज्योतिषकरण्डक-श्री ऋषमदेवजी केशरीमलसी दवे. संस्था, रतलाम ज्ञानबिन्दु (उपाध्याय प्रशोविजय) तत्वार्यसूत्र (उमास्वाति) तत्त्वार्य राजवातिक (अकलंकदेव) श्री जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता तत्त्वार्याधिगममाष्य (जमास्वाति) त्रिलोकसार (नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती) श्री माणिकचन्द दि० जैन ग्रन्थमाला,
बम्बई द्रव्यलोकप्रकाश-देवचन्द लासमाई पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत हव्यसंग्रह (नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती) धवला उदयाधिकार (वीरसेन आचार्य) धवला उदोरणाधिकार (वीरसेन आचार्य) नन्दीसूत्र (देवर्षिणि क्षमाश्रमण) नन्दीसूत्र टीका (मलयगिरि) नवीन प्रथम कार्मग्रन्थ स्वोपक्ष टीका (देवेन्द्रसूरि) श्री आत्मानन्द जैन रामा,
भावनगर नवीन द्वितीय कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका (देवेन्द्रभूरि) श्री आरमानन्द जैन सभा,
भावनगर नवीन तृतीय कर्मग्रन्थ अनचूरिका टीका (देवेन्द्र सूरि) श्री आत्मानन्द जैन सभा,
भावनगर नधीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ्य स्वोपज्ञ टीका (देबेन्द्रमूरि) श्री आत्मानन्द जैन समा,
भावनगर नवीन पंचम कर्मग्रन्थ स्वीपज्ञ टीका (देवेन्द्र सूरि) श्री आत्मानन्द जैन समा,
प्रावनगर
नवीन कर्मग्रन्थों के टवा (जयसोमसूरि, जीवविजय)
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परिशिष्ट-५
नवीन कर्मग्रन्थों के गुजराती अनुवाद-जैन श्रेयस्कर मंडल, मेहसाना नियमसार (कुन्दकुन्दाचार्य) न्यायदर्शन (गौतम ऋषि) पंचसंग्रह (चन्द्रषि महत्तर) श्वेताम्बर संस्था, रतलाम पंचसंग्रह (अमितगति) श्री माणिकचन्द दि० जैन ग्रन्थमाला, बम्बई पंचसंग्रह टीका (मलयगिरि) मुक्ताबाई ज्ञान मन्दिर, भोई पंचसंग्रहप्राकृत पंचसंग्रह सप्ततिका-मुक्ताबाई ज्ञान मन्दिर, मोई पंचास्तिकाय (कुन्दकुन्दाचार्य) राय चन्द जैन शास्त्रमासा, बम्बई पंघाशक (हरिभद्रसूरि) श्वेताम्बर संस्था, रतलाम णतंजल योगदर्शन (पतंजलि प्रकरण रत्नाकर—भीमसी माणक, बम्बई प्रशभरति प्रकरण (उमास्वालि) प्रवचनसार टीका (अमृतचन्द्राचार्य) राषचन्द जैन शास्त्रमाला, बम्बई प्रवचनसारोद्धार—देवबन्द लाल माई पुस्तकोद्धार संस्था, सरत प्रवचनसारोबार टीका--देवचन्द लालमाई पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत प्रशस्तपादमाष्य प्रमेमकमलमार्तण्ड (प्रमाचन्द्राचार्य) निर्णयसागर प्रेस, बम्बई प्रज्ञापनासूत्र মরাণনাৱস্ব বুলি प्रज्ञापनासूत्र टीका (मलयगिरि) प्राचीन चतुर्थ कर्म ग्रन्थ (जिनवल्ल मनाथ) प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ भाष्य प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ टीका (मलयगिरि) प्राचीन चतुर्य कर्मग्रन्थ टीका (हरिभद्रसूरि) प्राचीन बंध स्वामित्व प्राचीन पंचम कर्मग्रन्थ वृहणि भगवद्गीता भगवतीसूत्र
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________________ 4 सहायक ग्रंथ सूचो ! भगवतीसूत्र टीका (अभयदेव भूरि) महाभारत (वेदव्यास) मोक्षमार्ग प्रकाश-अनन्तीति ग्रन्थमाला, बम्बई योगदर्शन भाष्य टीका आदि सहित योगवासिष्ठ लब्धिसार (नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती) भारतीय जैन सिद्धान प्रवाशिनी संस्था, कलकता लोकप्रकामा- देवचन्द साल माई पुस्तकोद्वार संस्था, सूरत विशेषावश्यक माष्य (जिनमद्रगणिक्षमाश्रपण) विशेषावश्यकमाष्य टीका (कोख्याचार्य) स्वेताम्बर संस्था, रतलाम निपाएकामाती लामा विशेषावश्यक माध्य वृहद्वृत्ति-यशोविजय ग्रन्थमाना, काशी विशेषणवती (जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण) श्वेताम्बर संस्था, रतलाम वृहत्कर्मस्तवभाष्य वृहत्संग्रहणी (जिनमद्रगणिक्षमाश्रमण) वृहत्संग्रहणी टोका (मलयगिरि) वैशेषिक दर्शन (कवाद) षट्पाहुंड (कुन्दकुन्दाचार्य) संग्रहणीसूत्र (चन्दसूरि) सप्ततिकाणि सप्ततिकाप्रकरण टीका (मलयगिरि) श्री आत्मानन्द जैन समा, भावनगर सन्मतितर्क (सिद्धसेन दिवाकर) सर्वार्थ सिद्धि (पूज्यपादाचार्य) सांख्यकारिका सांख्यदर्शन (कपिल ऋषि) सूत्रकृतांगसूत्र टीका (शीलांकाचार्य) सूत्रकृतांग नियुक्ति { भद्रबाहु स्वामी) स्वामी कीतिकेयानुप्रेक्षा (आचार्य कार्तिकेय) भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्सा