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## Sixth Karma Granth, 155
**Meaning:** There are 18 bhangs in the 28, 29, 30, and 31 natural bandha sthans, respectively, which are suitable for devagati. These bhangs are eight, eight, one, and one, respectively.
**So far, the bandha sthans and their bhangs suitable for tiyantra, manushya, and devagati have been discussed. Here, we will discuss the bandha sthans and their bhangs for narakagati.**
**There is one bandha sthans for beings who are bound by the natural qualities suitable for narakagati. This bandha sthans has 28 natural qualities, hence it is considered as one bandha sthans. This bandha sthans is only for mithyadrishti. Since all the inauspicious qualities are bound here, there is only one bhang.**
**The natural qualities that are taken in the 28 natural bandha sthans are as follows:**
* Narakati
* Narakanugu
* Panchendriya jati
* Vakriya sharir
* Bainkriya angopang
* Tejas sharir
* Karman sharir
* Hund sansthan
* Varnachatusk
* Agurul chu
* Upghāt
* Parāghāt
* Ucchvās
* Aprashasht vihayogati
* Bas
* Vādar
* Paryāpt
* Pratiyaka
* Asthir
* Ashubh
* Durbhāg
* Duḥsvar
* Anādeya
* Ayashākiiti
* Nirman
**In addition to these 23 bandha sthans, there is one more bandha sthans which occurs in the three gunasthans, Apurvakaran, etc., after the bandha vicched of the natural qualities suitable for devagati. This one natural bandha sthans only has the bandha of Yashākiiti namkarma.**
**Now, let's consider how many bhangs are there in total in each bandha sthans.**
**One bandha sthans is characterized by Yashākoti. This bandha sthans occurs in the three gunasthans, Apurvakaran, etc., after the bandha vicched of the natural qualities suitable for devagati.**
- Sapta tika Prakaran Tika, page 179
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
१५५
अर्थात्-देवगति के योग्य २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक बंधस्थानों में क्रमश: आठ, आठ, एक और एका, कुल अठारह भंग होते
है।
___ अभी तक तियंत्र, मनुष्य और देव गति योग्य बंधस्थानों और उनके भंगों का कथन किया गया । अत्र नरकगति के बंधस्थानों व उनके भंगों को बताते हैं।
नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले जीवों के एक अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इसमें अट्ठाईस प्रकृतियाँ होती हैं, अत: उनका समुदाय रूप एक बंधस्थान है। यह बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि के ही होता है। इसमें सब अशुभ प्रकृतियों का ही बंध होने से यहाँ एक ही भंग होता है। अट्ठाईस प्रकृतिक प्रस्थान में ग्रहण की गई प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-नरकति, नरकानुगु:, पंचेन्द्रिय जाति, वक्रिय शरीर, बैंक्रिय अंगोपांग, तेजस शरीर,कार्मण शरीर, हुंड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुल चु, उपघात, पराघात, उच्छवास, अप्रशस्त विहायोगति, बस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीति और निर्माण।।
इन तेईस आदि उपर्युक्त बंधस्थानों के अतिरिक्त एक और बंधस्थान है जो देवगति के योग्य प्रकृतियों का बंधविच्छेद हो जाने पर अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में होता है। इस एक प्रकृतिक बंधस्थान में सिर्फ यशःकीति नामकर्म का बंध होता है।' ___ अब किस बंधस्थान में कुल कितने भंग होते हैं, इसका विचार करते हैं
एक तु बंधस्थानं यशःकोतिलक्षणम् तच्छ देवगतिप्रायोग्य बन्थे व्यच्छिन्ने अपूर्वकारणादीनां त्रयाणामवगन्तव्यम् ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७९