Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला . संस्कृत ग्रन्थाक - 40 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग-२ [ क ➖➖ न ] क्षु. जिनेन्द्र वर्णी भारतीय ज्ञानपीठ छठा संस्करण : 2002 मूल्य 150 रुपये Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISBN 81-263-0763-3 (Set) 81-263-0764-1(Part-II) भारतीय ज्ञानपीठ (स्थापना : फाल्गुन कृष्ण 9, वीर नि. स. 2470; विक्रम सं. 2000, 18 फरवरी 1944) पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की स्मृति में साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमा जैन द्वारा सम्पोषित मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध विषयक जैन साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उनके मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की ग्रन्थसूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य पर विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन साहित्य ग्रन्थ भी इस ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं। प्रधान सम्पादक (प्रथम सस्करण) डॉ. हीरालाल जैन एव डॉ आ.ने. उपाध्ये प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110 003 मुद्रक नागरी प्रिटर्स, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110 032 © भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Moortidevi Jam Granthamala Sanskrit Grantha No 40 JAINENDRA SIDDHĀNTA KOSA [ PART-II) [ – 7] by Kshu. JINENDRA VARNI Face CHES BHARATIYA JNANPITH Sixth Edition : 2002 Price: Rs. 150 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISBN 81-263-0763 -3 (Set) 81-263-0764 - 1 (Part-II) BHARATIYA JNANPITH (Founded on Phalguna Krishna 9, Vira N Sam 2470, Vikrama Sam 2000, 18th Feb 1944) MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA FOUNDED BY Sahu Shanti Prasad Jain In memory of his illustrious mother Smt. Moortidevi and promoted by his benevolent wife Smt. Rama Jain In this Granthamala critically edited Jain agamic, philosophical, puranic, literary, historical and other original texts in Prakrit, Sanskrit, Apabhramsha, Hindi, Kannada, Tamil etc. are being published in the original form with their translations in modern languages. Catalogues of Jain bhandaras, inscriptions, studies on art and architecture by competent scholars and popular Jain literature are also being published General Editors (First Edition) Dr Hiralal Jain and Dr A N Upadhye Published by Bharatiya Jnanpith 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110 003 Printed at Nagri Printers, Naveen Shahdara, Delhi-110 032 © All Rights Reserved by Bharatiya Jnanpith Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्रस्तुति (द्वितीय भाग, द्वितीय संस्करण) इस द्वितीय भाग के प्रथम संस्करण का प्रकाशन सन् 1971 में हुआ था। पाँच भागों में नियोजित जैन साहित्य का यह ऐसा गौरव-ग्रन्थ है जो अपनी परिकल्पना मे, कोश-निर्माण कला की वैज्ञानिक पद्धति में, परिभाषित शब्दों की प्रस्तुति और उनके पूर्वापर आयामों के संयोजन में अनेक प्रकार से अद्भुत और अद्वितीय है। इसके रचयिता और प्रायोजक पूज्य क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी जी आज हमारे बीच नही हैं। उनके जीवन को उपलब्धियों का चर्मोत्कर्ष था उनका समाधिमरण जो ईसरी में, तीर्थराज सम्मेदशिखर के पादमूल मे, आचार्य विद्यासागर महाराज से दीक्षा एवं सल्लेखना व्रत ग्रहण करके श्री 105 क्षुल्लक सिद्धान्तसागर के रूप मे, 24 मई 1983 को सम्पन्न हुआ। वह एक ज्योतिपुज का तिरोहण था जिसने आज के युग को आलोकित करने के लिए जैन-जीवन और जिनवाणी की प्रकाश-परम्परा को अक्षत रखा । उनके प्रति बारम्बार नमन हमारी भावनाओं का परिष्करण है। भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक-दम्पती स्व. श्री साह शान्ति प्रसाद जैन और उनकी धर्मपत्नी स्व० श्रीमती रमा जैन ने इस कोश के प्रकाशन को अपना और ज्ञानपीठ का सौभाग्य माना था। कोश का कृतित्व पूज्य वर्णीजी की 20 वर्ष की साधना का सुफल था। मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला के प्रधान सम्पादक-द्वय स्व० डॉ. हीरालाल जैन और स्व० डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ने प्रथम संस्करण के अपने प्रधान संपादकीय मे लिखा था : ....'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' प्रस्तुत किया जा रहा है जो ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला संस्कृत सीरीज का 38वां ग्रन्थ है । यह क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी द्वारा संकलित व सम्पादित है । यद्यपि वे क्षीणकाय तथा अस्वस्थ हैं फिर भी वर्णी जी को गम्भीर अध्ययन से अत्यन्त अनुराग है। इस प्रकाशन से ज्ञान के क्षेत्र में ग्रन्थमाला का गौरव और भी बढ़ गया है। ग्रन्थमाला के प्रधान सम्पादक, क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी के अत्यन्त आभारी हैं जो उन्होने अपना यह विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ इस ग्रन्थमाला को प्रकाशनार्थ उपहार में दिया।" उक्त प्रधान सम्पादकीय को और पूज्य क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी के मुख्य 'प्रास्ताविक' को हमने प्रथम भाग के द्वितीय संस्करण मे ज्यों-का-त्यों प्रकाशित किया है। उस प्रास्ताविक में वर्णीजी ने कोश की रचना-प्रक्रिया और विषय-नियोजन तथा विवेचन-पद्धति पर प्रकाश डाला है । ये दोनों लेख महत्त्वपूर्ण और पठनीय हैं। यह कोश पिछले अनेक वर्षों से अनुपलब्ध था । यह नया संस्करण पूज्य वर्णी जी ने स्वयं अक्षरअक्षर देखकर संशोधित और व्यवस्थित किया है। प्रथम भाग के नये संस्करण में वर्णी जी ने अनेक नये शब्द जोड़े हैं, कई स्थानों पर तथ्यात्मक सशोधन, परिवर्तन, परिवर्द्धन किये हैं। 'इतिहास' तथा 'परिशिष्ट' के अन्तर्गत दिगम्बर मूल सघ, दिगम्बर जैनाभासी संघ, पट्टावलि तथा गुर्वावलियां, संवत्, गुणधर आम्नाय, नन्दिसंघादि शीर्षकों से महत्त्वपूर्ण सामग्री जोड़ी है । आगम-सूची में 147 नाम जोड़कर उनकी संख्या 651 कर दी है। इसी प्रकार आचार्य-सूची में 360 नये नाम जोड़े हैं, अतः आचार्य संख्या 618 हो गई है । पूज्य वर्णीजी ने इन चारों भागों का तो संशोधन किया ही है, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि कोश का पांचवां भाग भी वह तैयार कर गये हैं जो चारो भागों की अनुक्रमणिका है, इस कारण यह कोश सर्वांगीण हो गया है । इसकी उपयोगिता और तात्कालिक संदर्भ-सुविधा कई गुना बढ़ गई है । इस महान् कोश-ग्रन्थ के नियोजन और क्रियान्वयन में बाल-ब्रह्मचारिणी कौशल जी ने जो सहयोग दिया है, उसको स्मरण करते हुए पूज्य वर्णी जी ने इस कार्य की तत्परता के रूप में 'उनकी कठिन तपस्या' का उल्लेख किया है । भारतीय ज्ञानपीठ इसे अपना पवित्र कर्तव्य मानती है कि वह ब्रह्मचारिणी कौशलजी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करे कि उनकी निष्ठा और साधना के योगदान से यह कार्य सम्पन्न हुआ। इसे स्वीकार करते हुए वर्णीजी ने स्वयं लिखा है : 'प्रभु-प्रदत्त इस अनुग्रह को प्राप्त कर मैं अपने को धन्य समझता हूँ।' किसी अन्य के लिए इससे आगे लिखने को और क्या रह जाता है ! आरम्भ के इन दो नये संस्करणों की भांति तीसरे और चौथे भाग के संशोधित नये संस्करणों का यथाशीघ्र प्रकाशन ज्ञानपीठ के कार्यक्रम में सम्मिलित है । इसी क्रम में चारों भागों की अनुक्रमणिका से सम्बद्ध पाँचवाँ भाग भी प्रकाशित होगा । कोश का प्रकाशन इतना व्यय-साध्य हो गया है कि सीमित संख्या मे ही प्रतियाँ छापी जा रही हैं । पाँचों भागों की संस्करण-प्रतियों की संख्या समान होगी। अतः संस्थाओ और पाठकों के लिए यह लाभदायक होगा कि वह पांचों भागों के लिए संयुक्त आदेश भेज दें। पांचों भागो के संयुक्त मूल्य के लिए नियमो की जानकारी कृपया ज्ञानपीठ कार्यालय से मालूम कर लें। ज्ञानपीठ के अध्यक्ष श्री साहू श्रेयांस प्रसाद जैन और मैनेजिंग ट्रस्टी श्री अशोक कुमार जैन का प्रयत्न है कि यह बहुमूल्य ग्रन्थ संस्थाओ को विशेष सुविधा-नियमो के अन्तर्गत उपलब्ध कराया जाए। कोश के इस संस्करण के सम्पादन-प्रकाशन में 'टाइम्स रिसर्च फाउण्डेशन, बम्बई, ने जो सहयोग दिया है उसके लिए भारतीय ज्ञानपीठ उनका आभारी है । मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला के वर्तमान सम्पादक-द्वय-सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी, वाराणसी, और विद्यावारिधि डॉ. ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ, का मार्गदर्शन ज्ञानपीठ को सदा उपलब्ध है । हम उनके कृतज्ञ है। अनन्त चतुर्दशी 17 सितम्बर 1986 - लक्ष्मीचन्द्र जैन, भारतीय ज्ञानपीठ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ.ग. ...../. अन.ध..../.../... आ. अनु... आ.प..../.../... आम प... /.../.... आप्त मी.. . /.../... क.पा.../.../.../... कुरल..../... कि.क./.../.. कि.को.... सा/सु...... गुण. आ.... गो.क./.../.... गो.जो. प्र.......... गो.जो. /......... गो. जी. / जो. प्र. / ... ज्ञा..../.../... ज्ञा. सा चा.पा./.../.. ज.प....... जे.सा. .../... जे. पी... त. अनु... ...///-- त.खा..../.../... रा.सु... /... ति.प .../... सी..... त्रि.सा.... द पा./.../... द. सा... इ.सं./......... ध. प. घ....//.../..... न च. बृ..... न.प./ श्रुत......... नि.सा./मू.... नि.सा /ता.वृ./..... म्यादी. 18... /.../... स्वा. वि./.... स्वा.वि./मू./.../ + न्या. सू./मू./ / /... का./.../.. 4.10.13. पंच...... पं.वि./... पं.सं./91..../... पं.सं./सं....... संकेत-सूची अमितगति धारकाचार अधिकार सं./ श्लोक सं.. पं. २ शधर शालापुर प्र. सं. वि.सं. १६०६ अनगारधर्मामृत अधिकार सं/ श्लाक से / पृष्ठ सं... खूबचन्द शोलापुर प्र. सं. ई. १६.९६२० आत्मानुशासन श्लोक सं. अलाप पद्धति अधिकार स / सूत्र स / पृष्ठ सं, चौरासी मथुरा, प्र. सं., बी. नि. २४५६ आप्तपरीक्षा श्लोक सं./ प्रकरण सं. / पृष्ठ सं वीरसेवा मन्दिर सरसावा. प्र. स., वि. सं २००६ आप्तमीमांसा श्लोक सं. 1 इष्टोपदेश/मूल पार्टीका श्लो. सं १४ सं. (समाधिशतक के पौधे पं. आशा धरलीकृत टीका, वीरसेवा मन्दिर दिल्ली कषायपाहुड पुस्तक सं. भाग स / प्रकरण / पृष्ठसं./ति सं., दिगम्बर जनसंघ, मथुरा, प्र. सं., वि.सं. २००० कार्तिके धानुप्रेक्षा / मूल या टोका गाथा सं. राजचन्द्र ग्रन्थमाला, प्र. स. ई. १६६० कुरल काव्य परिच्छेद सं/श्लोक सं. पं. गोविन्दराज जैन शास्त्री, प्र. सं., बी.नि.सं. २४८० किपाका मुख्याधिकार स प्रकरण संश्लोक सं./पृष्ठ सं., पन्नालाल सोनी शाखी आगरा. वि. सं. १९९३ क्रियाकोश श्लोक सं, पं. दौलतराम पणसार/मूल या टीका गाथा सं./पृष्ठ से, जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकता गुणभद्र श्रावकाचार श्लोक सं. गोम्मटसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा सं/ पृष्ठ सं. जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता 19 गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्वप्रदोषिका टोका गाथा सं / पृष्ठ सं/पंक्ति सं., जैन सिद्धान्त प्रका, संस्था गोमहसार जोकर / मूल गाथा स. / पृष्ठ स जनसिद्वान्त प्रकाशिनो संस्था, कलकत्ता " गोमसार जीकाण्ड / जीव तत्त्वप्रदीपिका टीका गाथा स / पृष्ठ संसिं, जेनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था ज्ञानार्णव अधिकार सं/दोहक सं./98 सं. राजचन्द्र ग्रन्थमाला, प्र. सं. ई १३०० ज्ञानसार श्लोक सं. चारित पाहुड / मूल या टोका गाथा संपृष्ठ सं. माणिकचन्द्र प्रन्यमाता, बम्बई प्र.सं. ०.सं. १६०७ चारित्रसार पृष्ठ सं / पंक्ति मं महावीर जी प्रसं. बी.गि २४८८ जंबूदपण तिसंगी अधिकार स./गाथा सं जैन संस्कृति संरक्षण संघ सोलापुर बि. सं. २०१४ जैन साहित्य इतिहास खण्ड स / पृष्ठ सं., गणेशप्रसाद वर्णो ग्रन्थमाला, बी.नि. २४८१ जैन साहित्य इतिहास / पूर्व पीठिका पृष्ठ सं गणेशसाद वर्णो ग्रन्थमाला व नि. २४८१ यानुशासनश्लोक सं. नागसेन सूरिकृत वीर सेवा मन्दिर देहली. प्र. सं. ई. १९६२ तत्त्वावृति अध्याय सं/सूत्र सं / पृष्ठ सं सं भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र.सं. ९६४६ तत्रार्थसार अधिकार स / श्लोक सं. / पृष्ठ सं, जैन सिद्धान्त प्रकाशिनो संस्था कलकत्ता, प्रस..ई स १९२६ तत्वार्थ सूत्र अध्याय से सूत्र सं. तिलोय पण्णत्त अधिकार सं / गाथा स े ओवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर. प्र. स. वि.सं. १६६६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृष्ठ स. दि जेन विपरिषद, सागर, ई. ११०४ त्रिलोकसार गाथा सं., जैन साहित्य बम्बई प्र. स. १६१८ " " दर्शन पाहुड / मूल या टीका गाथा सं./ पृष्ठ स दर्शनसार गाथा स.. नाथूराम प्रेमी, बम्बई द्रव्यसंग्रह या टोका गाथा में पृष्ठ २. धर्म परीक्षा श्लोक सं. माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई प्र.म वि.सं. १६०० से.वि. १६७४ देहली प्र. सं. ६ १६५३ धवला पुस्तक स / खण्ड स भाग, सूत्र / पृष्ठ स / पंक्ति या गाथा सं, अमरावती, प्र. सं. • नयचक्र वृहद गाथा से प्रश्नाचार्यकृत, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई प्र. संवि. स. १६७० नवचक्रख भवन दीपक अधिकार सं / पृष्ठ सं सिद्ध सागर, शोलापुर ." नियमसार मूल या टोका गाथा सं. नियमसार / तात्पर्य वृत्ति गाथा सं/ कलश सं न्यायदीपिका अधिकार गं / प्रकरण सं / पृष्ठ संत में वीरसेवा मन्दिर देहली. प्र. सं. वि.सं २००३ न्यायबिन्दु मूल या टीका श्लोक सं.. चौखम्बा संस्कृत सीरीज, मनारस न्यायविनि/या टीका अधिकार स / स्/पृष्ठ सं./पंक्ति से ज्ञानपीठ बनारस दर्शन सूत्र वाटीका अध्याय से / आहि / सूत्र सं./ पृष्ठ स. मुजफ्फरनगर, द्वि. सं. ई. १६१४ पंचाला टीका गाथा संपृष्ठ सं. परगत प्रभावक मण्डल बम्बई. प्र. सं. वि. १९०२ पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक सं. पं. देवकीनन्दन. प्र. सं., ई. पंचाध्यायी/ उत्तरार्ध श्लोक सं. देवकीनन्दन प्र.सं. ९९२२ १६३२ पद्मनन्द पंचविंशतिका अधिकार सं / श्लोक सं जीवराज ग्रन्थमाला. शोलापुर प्र. सं., ई १६३२ .. पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार स / गाथा से ज्ञानपीठ मनारस प्र. सं. ई. १६६० पचसंग्रह / संस्कृत अधिकार स. / श्लोक सं. पं. सं. / प्रा. की टिप्पणी. प्र. सं., ई. १६६० Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प.पु..../... प.मु..../.../... प.प्र./..../../... पा.पु.../... पु.सि .. प्रसा./मू....... प्रति.सा..../... मा.अ.... बो.पा./....... वृ.जै. श... भ आ./.../ 1... भा.पा./.../... म.पु....... म...../.../... मूला.... मो.पं.... मो.पा/मू....... मो.मा.प्र. ........... यु.अन.... यो.सा.अ..../... यो सा यो.... र.क.पा.... र.सा... रा.वा..../.../.../... रा.वा ...../... ल.सा/मू.../... ला.सं..../.../... लि.पा./.../... वसुधा.... पद्मपुराण सर्ग/श्लोक सं., भारतीय ज्ञानपीठ बनारस, प्र.सं., वि.स. २०१६ परीक्षामुख परिच्छेद सं/सूत्र सं./पृष्ठ सं., स्थाद्वाद महाविद्यालय, काशी, प्र.सं. परमात्मप्रकाश/मूल या टोका अधिकार सं./गाथा सं/पृष्ठ सं., राजचन्द्र ग्रन्थमाला, द्वि.सं..वि.सं. २०० पाण्डवपुराण सर्ग सं./श्लोक सं.. जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र.सं., ई. १९६२ पुरुषाथ सिद्ध्युपाय श्लोक सं. प्रवचनसार/मूल या टोका गाथा स./पृष्ठ स, प्रतिष्ठासारोद्धार अध्याय स./श्लोक सं. मारस अजुवेकरवा गाथा सं. बोधपाहुड़ामूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं. माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र.सं., वि.सं. १९७७ बृहत जैन शब्दार्णव/द्वितीय खंड/पृष्ठ सं., मूलचंद किशनदास कापड़िया. सूरत, प्र.सं..वी.नि. २४६० भगवती आराधना/मूल बा टीका गाथा सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं., सखाराम दोशी, सोलापुर, प्र.सं., ई. १९३५ भाव पाहुड/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं.,माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र.सं., विसं. १९७७ महापुराण सर्गसं./श्लोक सं., भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र. स.,ई.१६१ महाबन्ध पुस्तक सं.प्रकरण में./पृष्ठ सं., भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र.सं.,ई. १९५१ मुलाचार गाथा सं.. अनन्तकीति ग्रन्थमाला, प्र. सं., वि. सं. १९७६ मोक्ष पंचाशिका श्लोक सं. मोक्ष पाहुड़/मूल या टीका गाना सं./पृष्ठ सं..माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र. सं..वि.सं. १९७७ मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं., सस्ती ग्रन्थमाला, देहली, वि.सं.. वि.सं. २०१० युक्त्यनुशासन श्लोक सं., वीरसेवा मन्दिर, सरसावा. प्र. सं.ई. १६५१ योगसार अमितगति अधिकार संश्लोक सं., जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता, ई.सं. १९१८ योगसार योगेन्दुधेव गाथा सं.. परमात्मप्रकाशके पीछे छपा रत्नकरण्ड प्रावकाचार श्लोक सं, रयणसार गाथा सं, राजबार्तिक अध्याय सं./सुत्र सं /१ष्ठ सं./पंक्ति सं., भारतीय ज्ञानपीठ, मनारस, प्र.स., वि.स. २००८ राजबार्तिक हिन्दी अध्याय सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं. लब्धिसार मूल या टीका गाथा सं./पृष्ठ सं., जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकसा, प्र.सं. लाटी संहिता अधिकार संश्लोक सं./पृष्ठ स. लिंग पाहड़/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं., माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, प्र.सं., वि.सं. १९७७ बसुनन्दि श्रावकाचार गाथा सं, भारतीय ज्ञानपीठ बनारस, प्र. सं..वि. सं. २००७ वैशेषिक दर्शन/अध्याय स./आदिकासूत्र स./पृष्ठ सं . देहली पुस्तक भण्डार देहली, प्रसं..बि.सं.२०१७ शोल पाहुडामूल या टोका गाथा सं./पंक्ति सं., माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई, प्र.सं..वि.सं. १९७७ श्लोकवार्तिक पुस्तक सं./अध्याय सं./सूत्र सं./वातिक सं./पृष्ठ सं., कुन्थुसागर प्रन्यमाला शोलापुर, प्र.सं., ई. १६४६-१९५६ षटूबण्डागम पुस्तक सं./खण्ड सं., भाग, सूत्र/पृष्ठ सं. सप्तभङ्गीतरङ्गिनी पृष्ठ सं/पंक्ति सं , परम श्रुत प्रभावक मण्डल, द्वि,सं.. वि.सं. १९७२ स्याद्वादमञ्जरी श्लोक सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं.. परम श्रुत प्रभावक मण्डल, प्र. सं. १६१ समाधिशतक/मूल या टोका श्लोक सं./पृष्ठ सं., इष्टोपदेश युक्त, वीर सेवा मन्दिर, देहली, प्र.सं., २०२१ समयसार/मुल या टोका गाथा स./पृष्ठ सं/पंक्ति सं, अहिंसा मन्दिर प्रकाशन, देहली, प्र.सं.३१.१२.१९५८ समयसार/आत्मख्याति गाथा सं./कलश स. सर्वार्थ सिद्धि अध्याय सं./सूत्र सं./पृष्ठ स', भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र.सं. ई. १९५५ स्वयम्भू स्तोत्र श्लोक संबीरसेका मन्दिर सरसावा, प्र. सं., ई. १९५१ सागार धर्मामृत अधिकार सं./श्लोक सं. सामायिक पाठ अमितगति श्लोक सं. सिद्वान्तसार संग्रह अपार स./श्लोक सं., जीवराज जेन ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र. सं. ई. १९९७ सिद्धि विनिश्चय/मूल या टोका प्रस्ताव सं./श्लोक सं./पृष्ठ सं./पंक्ति संभारतीय ज्ञानपीठ, प्र.सं.ई.१६११ सुभाषित रत्न सदोह नोक सं. (अमितगति), जेन प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता, प्र.सं..ई. १९१७ सूत्र पाहड/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं.. माणकचन्द्र ग्रन्थमाला बन्बई, प्र.स,वि.सं. १९७७ हरिवंश पुराम सर्ग/श्लोक/म., भारतीय ज्ञानरठ, बनारस, सं. शी.पा./.../... श्लो .वा..../.../.../.../... ष.वं...//... सभ.त..../... स.म..../.../... स.श./मू..../.. स.सा./मू..../.../.... स.सा./आ..../क स.सि..../.../... स. स्तो... सा.ध..../... सा.पा... सि.सा.सं..../... सि.वि./मू..../.../.../... सु.र.सं.... सू.पा./मू........ नोट: भिन्न-भिन्न कोष्ठकों व रेखाचित्रों में प्रयुक्त संकेतों के अर्थ मसे उस उस स्थल पर ही दिये गये है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश [क्षु० जिनेन्द्र वर्णी] भावि मरणकी आशंकासे देवकीके छ. पुत्रोंको मार दिया (३४/७)। अन्तमें देवकीके वें पुत्र कृष्ण द्वारा मारा गया (१६/४५) । ४ श्रुताकंचन-१. सौधर्मस्वर्गका हवाँ पटल-दे० स्वर्ग/५३२, कंचन कूट वतारके अनुसार आप पाँचवें ११ अंगधारी आचार्य थे। समय-वी. व देव आदि-दे० कांचन। नि. ४३६-४६८ (ई० पू०६१-५६)-दे० इतिहास/४/४। कंजा-भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी नदी-दे० मनुष्य/४। कंसक वर्ण-एक ग्रह -दे० ग्रह । कजिक व्रत-समय--६४ दिन । विधि-किसी भी मासकी कच्छ-१. भरत क्षेत्र आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । पडवासे प्रारम्भ करके ६४ दिन तक केवल कांजी आहार (जल व कच्छ परिगित-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१। भात ) लेना। शक्ति हो तो समयको दुगुना तिगुना आदि कर लेना। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करना। (वर्द्धमान पुराण), (व्रत कच्छवद-पूर्व विदेहस्थ मन्दर वक्षारका एक कूट-दे० लोक/५/४५ विधान संग्रह/पृ० १००)। कच्छविजय-मान्यवान् गजदन्तस्थ एक कूट व उसका रक्षक देव कंटक द्वीप-लवण समुद्र में स्थित एक अन्तर्वीप-दे० मनुष्य/४।। -दे० लोक/५/४६ कंडरा-औदारिक शरीरमें कंडराओंका प्रमाण--दे० औदारिक/१/७ कच्छा -पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक/५/२ । कच्छावती-पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक/५/२ कदक-व. १३/५.३,२६/३४/१० हस्थिधरणट्ठमोद्दिदवारिबंधो कंदओ कज्जला-सुमेरु पर्वतके नन्दनादि वनों में स्थित वापियाँ णाम । हरिण-वाराहादिमारणदुमोद्दिदकंदा वा कंदओ णाम। -हाथी के पकड़नेके लिए जो वारिबन्ध बनाया जाता है उसे कंदक कहते -दे० लोक५/६॥ हैं। अथवा हिरण और सूअर आदिके मारनेके लिए जो फदा तैयार कज्जलाभा-कज्जलावत् । -दे० लोक/५/६ ॥ किया जाता है उसे कन्दक कहते है। कज्जली-एक ग्रह-दे० ग्रह। कंदमूल-१. भेद-प्रभेद--दे० वनस्पति/१ । २. भक्ष्याभक्ष्य विचार कटक-ध. १४/५,६,४२/४०/१ वंसकंबीहि अण्णोण्णजणणाए जे -दे० भक्ष्याभक्ष्य/४। किज्जति घरावणादिवारणं ढंकणहूँ ते कड्या णाम । बाँसकी कमदप-स.सि./७/३२/३६६/१४ रागोद्रेकात्महासमिश्रोऽशिष्टवाक्प्रयोग' चियोके द्वारा परस्पर बुनकर घर और अवन आदिके ढाँकनेके लिए कन्दर्पः। -रागभावकी तीव्रतावश हास्य मिश्रित असभ्य वचन जो बनायी जाती हैं, वे कटक अर्थात् चटाई कहलाती हैं। बोलना कन्दर्प है। (रा. वा./७/३२/१/५५६), (भ. आ./वि./१८०/३६८/९)। कटु कटु संभाषणकी कथंचित् इष्टता-अनिष्टता-दे० सत्य/२। कंदपदेव-मू. आ./११३३ कंदप्पभाभिजोगा देवीओ चावि आरण कट्ठ-पंजाब देश (यु. अनु./प्रा.३६/५० जुगल किशोर )। चुदोत्ति.../११३३ । -कन्दर्प जातिके देवोंका गमनागमन अच्युतकणाद-१. वैशेषिकसूत्रके कर्ता -दे० वैशेषिक । २. एक अज्ञानस्वर्ग पर्यन्त है। वादी-दे० अज्ञानवाद। कस-१. एक ग्रह-दे० ग्रह । २. तोलका एक प्रमाण-दे. गणित/- कण्व-एक अज्ञानवादी-दे० अज्ञानवाद । I/२/२ ३.(ह. पु./पर्व श्लो०) पूर्वभव सं०२ में वशिष्ठ नामक तापस कथंचित्-द्र सं./टी./अधिकार रकी चूलिका/५/६ । परस्परसापेथा (३३/३६)। इस भवमें राजा उग्रसेनका पुत्र हुआ (३३/३३)। क्षत्वं कथंचित्परिणामित्वशब्दस्यार्थः । परस्पर अपेक्षा सहित होना, मज्जोदरोके घर पला (१६/१६)। जरासंधके शत्रुको जीतकर जरा यही 'कथंचित् परिणामित्व' शब्दका अर्थ है। संधकी कन्या जीवशाको विवाहा ( ३३/२-१२,१४)। पिताके पूर्व व्यवहारसे क्रुद्ध हो उसे जेलमें डाल दिया (३३/२७)। अपनी बहन २. कथंचित् शब्दको प्रयोग-विधि व माहात्म्य देवकी वसुदेवके साथ गुरु दक्षिणाके रूपमें परिणायी ( ३३/२६)। -दे० स्याद्वाद/४. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा कथा (सत्कथा व विकथा आदि) कथा (न्याय)-न्या. दी./प्र.४१ की टिप्पणी-नानाप्रवक्तृत्वे सति तद्विचारवस्तुविषया वाक्यसंपदलब्धिकथा । = अनेक प्रवक्ताओके विचारका जो विषय या पदार्थ है, उनके वाक्य सन्दर्भका नाम कथा है। यायसार पृ०१५ वादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रह कथा। बादी प्रतिवादियों के पक्षप्रतिपक्षका ग्रहण सो कथा है । २. कथाके भेद न्या. सु./भाष्य/१-१/४१/४१/१८ तिख' कथा भवन्ति वादो जल्पो वितण्डा चेति। -- कथा तीन प्रकारकी होती है-बाद, जल्प व वितण्डा। न्यायसार पृ० १५ सा द्विविधा-बोतरागकथा विजिगीषुकथा चेति । - वह दो प्रकार है--वीतरागकथा और विजिगीषुकथा। ३. वीतराग व विजिगीषु कथाके लक्षण न्या.वि/म् /२/२१३/२४३ प्रत्यनीकव्यवच्छेदप्रकारेगैकसिद्धये वचन साधनादीनां वादं सोऽयं जिगीषितो ।२१३॥ --विरोधी धर्मों मेंसे किसी एकको सिद्ध करनेके लिए, एक दूसरेको जीतनेकी इच्छा रखनेवाले वादी और प्रतिवादी परस्पर में जो हेतु व दूषण आदि देते हैं, वह वाद कहलाता है। या.दी./३/६३४/७६वादिप्रतिवादिनो स्वमतस्थापनार्थं जयपराजयपर्यंत परस्पर प्रवर्तमानो वाग्व्यापारो विजिगीषुकथा । गुरुशिष्याणां विशिष्टविदुषां वा रागद्वेषरहितानां तत्त्वनिर्णयपर्यन्तं परस्पर प्रवर्तमानो वाग्व्यापारो बोतरागकथा। तत्र विजिगीषुकथा वाद इति चोच्यते ।... विजिगोषुवारव्यवहार एव वादत्वप्रसिद्धः। यथा स्वामिसमन्तभद्राचायः सर्वे सर्वथैकान्तवादिनो वादे जिता इति ।वादी और प्रतिवादीमे अपने पक्षको स्थापित करनेके लिए जीत-हार होने तक जो परस्परमें वचन प्रवृत्ति या चर्चा होती है वह विजिगीषु-कथा कहलाती है और गुरु तथा शिष्यमे अथवा रागद्वेष रहित विशेष विद्वानो में तत्त्वके निर्णय होने तक जो चर्चा चलती है वह वीतराग कथा है। इनमे विजिगीषु कथाको वाद कहते हैं। हार जीतकी चर्चाको अवश्य वाद कहा जाता है। जैसे-स्वामी समन्तभद्राचार्यने सभी एकान्तवादियोंको वादमे जीत लिया। *विजिगीषु कथा सम्बन्धी विशेष-दे. वाद । कथा (सत्कथा व विकथा आदि)-म. पु/१/१९८ पुरुषार्थोपयोगित्वात्निवर्गकथन कथा। =मोक्ष पुरुषार्थ के उपयोगी होनेसे धर्म, अर्थ और कामका कथन करना कथा कहलाती है । २. कथाके भेद म. पु./१/११८-१२०--(सत्कथा, विकथा व धर्म कथा )। भ. आ./मू /६५५/८५२ आक्खेवणी य विक्खेवणी य संवेगणी य णिवे प्रणी य खवयस्स। आक्षेपिणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निर्वेजनीऐसे (धर्म) कथाके चार भेद हैं। (ध. १११,१,२/१०४/६), (गो. जी / जी. प्र./३५७/७६५/१८) (अन घ./७/८८/७१६)। ३.धर्मकथा व सत्कथाके लक्षण ध.६/४,१५५/२६३/४ एक्कंगस्स एगाहियारोवसंहारो धम्मकहा। तस्थ जो उवजोगो सो वि धम्मकहा त्ति घेत्तव्यो। -एक अंगके एक अधिकारके उपसंहारका नाम धर्मकथा है। उसमें जो उपयोग है वह भी धर्मकथा है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। (ध. १४/५.६.१४/६/६ ) । म. पु./१/१२०,११८ यतोऽभ्युदयनि श्रेयसार्थ संसिद्धिरञ्जसा। सद्धर्मस्तन्नि बदा या सा सद्धर्मकथा स्मृता ।१२०...। तत्रापि सत्कार धामामनन्ति मनीषिणः ।११८१ = जिसपे जीवों को स्वर्गादि अभ्युदय तथा मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है, वास्तव में वही धर्म कहलाता है। उससे सम्बन्ध रखने वाली जो कथा है उसे सद्धर्मकथा कहते है ।१२०॥ जिसमें धर्मका विशेष निरूपण होता है उसे बुद्धिमान् पुरुष सत्कथा कहते हैं ।११८॥ गो क/जी.प्र./८८/७४/८ अनुयोगादि धर्मकथा च भवति ।-प्रथमानुयोगादि रूप शास्त्र सो धर्मकथा कहिए । ४, आक्षेपणी कथाका लक्षण भ. आ /म. ब बि./५५६/८५३ आक्खेवणी कहा सा विज्जाचरणमुवदिस्सदे जत्थ । . १६५६। आक्षेपणी कथा भण्यते। यस्यां कथायां ज्ञान चारित्रं चोपदिश्यते। जिसमें मति आदि सम्यग्ज्ञानोका तथा सामायिकादि सम्यग्चारित्रोका निरूपण किया जाता है वह आक्षेपणी कथा है। ध. १/१,१,२/१०/१ तथा श्लो.७५/१०६ तत्थ अक्खेवणोणाम छद्दव्वणवपयत्थाण सरूवं दिगंतर-समयांतर-णिराकरणं मुद्धि करती पसवेदि। उक्तं च-आक्षेपणी तत्त्वविधानभूता ...१७५/-जो नाना प्रकारकी एकान्त दृष्टियोका और दूसरे समयोंका निराकरण पूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नौ प्रकारके पदार्थोका प्ररूपण करती है उसे आक्षेपणी कथा कहते है ।.. कहा भी है-तत्त्वोंका निरूपण करनेवाली आक्षेपणी कथा है। गो जी /जी प्र./३५७/७६५/१६ तत्र प्रथमानुयोगकरणानुयोगचरणानुयोगद्रव्यानुयोगरूपपरमागमपदार्थानां तीथंकरादिवृत्तान्तलोकसंस्थानदेशसकलयतिधर्मपंचास्तिकायादीनां परमताकारहितं कथनमाक्षेपणी कथा-तहाँ तीर्थ करादिके वृत्तान्तरूप प्रथमानुयोग, लोकका वर्णनरूप करणानुयोग, श्रावक मुनिधर्मका कथनरूप चरणानुयोग, पंचास्तिकायादिकका कथनरूप द्रव्यानुयोग, इनका कथन अर परमतकी शका दूर करिए सो आक्षेपणी कथा है। अन. ध /9/८८/७१६ आक्षेपणी स्वमतसंग्रहणी समेक्षी,...|-जिसके द्वारा अपने मतका संग्रह अर्थात् अनेकान्त सिद्धान्तका यथायोग्य समर्थन हो उसको आक्षेपणी कथा कहते हैं । ५. विक्षेपणी कथाका लक्षण भ. आ / मू.व.वि /६५६/८५३ ससमयपरसमयगदा कथा दु विक्खेवणी णाम ।६५६१-या कथा स्वसमयं परसमयं वाश्रित्य प्रवृत्ता सा विझेपणी भण्यते। सर्वथानित्यं.. इत्यादिकं परसमयं पूर्वपक्षीकृत्य प्रत्यक्षानुमानेन आगमेन च विरोध प्रदर्श्य कथंचिन्नित्यं...इत्यादि स्वसमयनिरूपणा च-विक्षेपणी। जिस कथामें जैन मतके सिद्धान्तोंका और परमतका निरूपण है उसको विक्षेपणी कथा कहते हैं । जैसे 'वस्तु सर्वथा नित्य ही है' इत्यादि अन्य मतोंके एकान्त सिद्धान्तोंको पूर्व पक्षमें स्थापित कर उत्तर पक्षमें वे सिद्धान्त प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमसे विरुद्ध हैं, ऐसा सिद्ध करके, वस्तुका स्वरूप कथंचित नित्य इत्यादि रूपसे जैनमतके अनेकान्तको सिद्ध करना यह विक्षेपणी कथा है। ध. १/१,१,२/१०५/२ तथा श्लो. नं. ७५/१०६ विक्वेवणी णाम पर-समएण स-समयं दूसंती पच्छा दिगंतरसुद्धि करे तो स-समय थावंती छदव-प्रणव-पयत्थे परूवेदि ।...उक्तं च-विक्षेपणी तत्त्वदिगन्तरशुद्धिम् ।.. १७५- जिसमें पहले परसमयके द्वारा स्वसमयमें दोष बतलाये जाते हैं। अनन्तर परसमयकी आधारभूत अनेक एकान्त दृष्टियोंका शोधन करके स्वसमयकी स्थापना की जाती है और छहद्रव्य नौ पदार्थोंका प्ररूपण किया जाता है उसे विक्षेपणी कथा कहते है। कहा भी है-तत्त्वसे दिशान्तरको प्राप्त हुई दृष्टियोंका शोधन करनेवाली अर्थात् परमतकी एकान्त दृष्टियोंका शोधन करके स्वसमयकी स्थापना करनेवाली विक्षेपणी कथा है। (गो.जी./जी.प्र./ ३५७/७६/२०) (अन. ध./७/८८/७१६)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा कथाकोश ६. संवेजनी कथाका लक्षण भ, आ./भू. व. वि./६५७/८५४ संवेयणी पुण कहा णाणचरित्तं तबवीरिय इगिदा /६५७/...संवेजनी पुन' कथा ज्ञामचारित्रतपोभावनाजनितशक्तिसंपनिरूपणपरा ।- ज्ञान, चारित्र, तप व वीर्य इनका अभ्यास करने से आत्मामें कैसी-कैसी अलौकिक शक्तियों प्रगट होती हैं इनका खुलासेवार वर्णन करनेवाली कथाको संवेजनी कथा कहते हैं। ध.१/१,१,२/१०/४ तथा श्लो. ७५/१०६ संवेयणी णाम पुण्य-फल संकहा। काणि पुण्य-फलाणि। तिस्थयर-गणहर-रिसिचक्कवट्टिबलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहररिद्धीओ...उक्त च-'संवेगनी धर्मफलप्रपश्चा...१७॥ - पुण्यके फलका कथन करनेवाली कथाको संवेदनी कथा कहते हैं। पुण्यके फल कौनसे हैं 1 तीर्थकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ति, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरोंकी ऋद्धियाँ पुण्यके फल हैं। कहा भी है-विस्तारसे धर्मके फलका वर्णन करनेवाली संवेगिनी कथा है। (गो.जी./जी. प्र./३५७/७६६/१) (अन, ध/ ७/८/७१६ )। ७.निर्वजनी कथाका लक्षण भ. आ.मू.व.वि./६५७/८५४ णिवेयणी पुण कहा सरीरभोगे भवोधे य । १६५७१...निर्वजनी पुनः कथा सा। शरीरेभोगे, भवसंततौ च परा मुखताकारिणी शरीराण्यशुचीनि...अनित्यकायस्वभावाः प्राणप्रभृतः इति शरीरतत्त्वाश्रयणात् । तथा भोगा दुर्लभा'.. लब्धा अपि कथं चिन्न तृप्ति जनयन्ति । अलाभे तेषां, लब्धायां वा विनाशे शोको महानुदेति । देवमनुजभवावपि दुर्लभौ, दुःखबहुलौ अल्पमुखौ इति निरूपणात ।-शरीर. भोग और जन्म परम्परामें विरक्ति उत्पन्न करनेवाली कथाका निर्वेजनो कथा ऐसा नाम है। इसका खुलासाशरीर अपवित्र है, शरीरके आश्रयसे आत्माकी अनित्यता प्राप्त होती है। भोग पदार्थ दुर्लभ हैं। इनकी प्राप्ति होनेपर आत्मा तृप्त होता नहीं। इनका लाभ नहीं होनेसे अथवा लाभ होकर विनष्ट हो जानेसे महात् दुःख उत्पन्न होता है। देव व मनुष्य जन्मकी प्राप्ति होना दुर्लभ है। ये बहुत दुखोंसे भरे हैं तथा अल्प मात्र सुख देनेवाले हैं। इस प्रकारका वर्णन जिसमें किया जाता है वह कथा निर्वेजनी कथा कहलाती है ( अन. ध./9/८८/७१६) । घ. १/१,१,२/१०५/५ तथा श्लोक ७/१०६ णिब्वेयणी णाम पावफल संकहा। काणि पावफलाणि । णिरय-तिरय-कुमाणुस-जोणीसु जाइजरा-मरण-बाहि-वेयणा-दालिद्दादीणि। संसार-सरीर-भोगेसु वेरम्गुप्पाइणी णिन्वेयणी णाम। उक्तं च-निर्वे गिनी चाह कथा विरागाम् ॥७१-पापके फलका वर्णन करनेवाली कथाको निर्वेदनी कथा कहते हैं। पापके फल कौनसे हैं 1 नरक, तिथंच और कुमानुषकी योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र आदिकी प्राप्ति पापके फल हैं। -अथवा संसार, शरीर और भोगोंमें वैराग्यको उत्पन्न करनेवाली कथाको निर्वेदनी कथा कहते हैं। कहा भी हैवैराग्य उत्पन्न करनेवाली निर्वेगिनी कथा है। (गो.जी./जी.प्र./३५७/ ७६६/१)। ८. विकथाके भेद नि. सा./मू./६७ थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहे उस्स ।...|-पाप के हेतुभूत ऐसे स्त्रीकथा, राजकथा. चोरकथा, भक्तकथा इत्यादिरूप वचनोंका त्याग करना वचनगुप्ति है। मू. आ./मू./८५५-८५६ इत्थिकहा अत्थकहा भत्तकहा खेडकबडाणं च । रायकहा चोरकहा जणवदणयरायरकहाओ।८५ णडभडमल्लकहाओ मायाकरजल्लमुट्ठियाणं च। अजउललं घियाण कहासु ण विरज्जए धीराः ८५६-स्त्रीकथा, धनकथा, भोजनकथा, नदी पर्वतसे घिरे हुए स्थानकी कथा, केवल पर्वतसे घिरे हुए स्थानकी कथा, राजकथा, चोरकथा, देश-नगरकथा, खानि सम्बन्धी कथा1८५॥ नटकथा, भाटकथा, मल्लकथा, कपदजीवी व्याध व ज्वारीकी कथा, हिसकोंकी कथा, ये सब लौकिकी कथा (विकथा) हैं। इनमें वैरागी मुनिराज रागभाव नहीं करते।८५६। गो. जी./जी प्र./४४/८४/१७ तद्यथा-स्त्रीकथा अर्थ कथा भोजनकथा राजकथा चोरकथा वैरकथा परपारखण्डकथा देशकथा भाषाकथा गुणबन्धकथा देवीकथा निष्ठुरकथा परपैशुन्यकथा कन्दर्पकथा देशकालानुचितकथा भंडकथा मूर्खकथा आत्मप्रशंसाकथा परपरिवाद कथा परजुगुप्साकथा परपीडाकथा कलहकथा परिग्रहकथा कृष्याद्यारम्भकथा सगीतवाद्यकथा चेति विकथा पञ्चविंशति--स्त्रीकथा. अर्थ (धन) कथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा, वैरकथा, परपाखंडकथा, देशकथा. भाषा कथा ( कहानी इत्यादि ), गुणप्रतिबन्धकथा, देवीकथा. निष्ठुरकथा, परपैशुन्य (चुगली) कथा, कन्दर्प (काम) कथा, देशकालके अनुचित कथा, भंड (निर्लज्ज ) कथा, मूर्खकथा, आत्मप्रशंसा कथा, परपरिवाद (परनिन्दा) कथा, पर जुगुप्सा (घृणा) कथा, परपीड़ाकथा, कलहकथा, परिग्रहकथा, कृषि आदि आरम्भ कथा, संगीत वादित्रादि कथा-ऐसे विकथा २५ भेद संयुक्त हैं। ९. स्त्री कथा आदि चार विकथाओंके लक्षण नि. सा./ता. वृ./६७ अतिप्रवृद्धकामै कामुकजनैः स्त्रीणां संयोगविप्र लम्भजनितविविधवचनरचना कर्त्तव्या श्रोतव्या च सैव स्त्रीकथा। राज्ञा युद्धहेतूपन्यासो राजकथाप्रपञ्चः। चौराणां चौरप्रयोगकथनं चौरकथाविधानम् । अतिप्रवृद्धभोजनप्रीत्या विचित्रमण्डकावलीखण्डदधिखण्डसिताशनपानप्रशंसा भक्तकथा।-जिन्होके काम अति वृद्धिको प्राप्त हुआ हो ऐसे कामी जनों द्वारा की जानेवाली और सुनी जानेवाली ऐसी जो स्त्रियोंकी संयोग वियोगजनित विविधवचन रचना, वही स्त्रीकथा है। राजाओंका युद्धहेतुक कथन राजकथा प्रपंच है। चोरोका चोर प्रयोग कथन चोरकथाविधान है। अति वृद्धिको प्राप्त भोजनकी प्रीति द्वारा मैदाकी पूरी और शकर, दहीशक्कर, मिसरी इत्यादि अनेक प्रकारके अशन-पानकी प्रशंसा भक्त कथा या भोजन कथा है। १०.अर्थ व काम कथाओंमें धर्मकथा व विकथापना म पु/१/११६ तत्फलाभ्युदयाङ्गत्वादर्थकामकथा । अन्यथा विकथैवासावपुण्याखवकारणम् ।११६। धर्मके फलस्वरूप जिन अभ्युदयोकी प्राप्ति होती है, उनमें अर्थ और काम भी मुख्य हैं, अत' धर्मका फल दिखानेके लिए अर्थ और कामका वर्णन करना भी कथा (धर्म कथा ) कहलाती है। यदि यही अर्थ और कामकी कथा धर्मकथासे रहित हो तो विकथा ही कहलावेगी और मात्र पापासवका ही कारण होगी ।११६॥ * किसको कब कौन कथाका उपदेश देना चाहिएदे० उपदेश ३ कथाकोश-१.आ. हरिषेण (ई: ६३१)कृत 'बृहद कथा कोश' नामका मूल संस्कृत ग्रन्थ है। इसमें विभिन्न१५७कथाएँ निबद्ध हैं। २. आ. प्रभा- चन्द्र (ई. १५०-१०२०) की भी 'गद्य कथाकोश' नामकी ऐसी ही एक रचना है । ३.आ. क्षेमन्धर (ई. १०००) द्वारा संस्कृत छन्दोंमें रची 'बृहद् कथामञ्जरी' भी एक है। ४, आ. सोमदेव (ई. १०६१-१०८१) कृत 'बृहत्कथासरित्सागर' है । ५. आ. ब्रह्मदेव (ई० श०१६मध्य ) ने एक 'कथा कोश' रचा था। ६. आ. श्रुतसागर (ई. १४८७.१४६६) कृत दो कथा कोश प्राप्त है-वत कथा कोश और बृहद् कथा कोश । ७.नं.१ वाले कथा कोशके आधार पर ब. नेमिदत्त (ई. १५१८) ने 'आराधना कथा कोश' की रचना की थी। इसमें १४४ कथाएँ निबद्ध हैं। ८ आ. देवेन्द्रकीति (ई. १५८३-१६०५) कृत कथाकोष। अपभ्रंश कवि मुनि श्रीचन्द (ई०२०१९ उत्तरार्ध) कृत ५३ कथाओं वाला कथाकोष । (ती०४/१३५) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदंब करण कदंब-गन्धव नामा व्यन्तर देवोंका एक भेद-दे० गधर्व। कदब वश-कर्णाटकके उत्तरीय भागमें, जिसका नाम पहिले बनवास था, कदम्ब वश राज्य करता था, जिसको चालुक्यवंशी राजा कीर्तिवर्मने श-५०० (ई.५७८ ) में नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। समय लगभग-(ई ४५०-५७८ ) (घ. १/प्र.३२/ H-L. Jain ) कदलीघात-दे० मरण/४। कनक-दक्षिण क्षौद्रवर द्वीप तथा घृतवर समुद्रके रक्षक व्यन्तर । देव-दे० व्यन्तर/४। कनककट-रुचक पर्वत, कुण्डल पर्वत, सौमनस पर्वत, तथा मानुषोत्तर पर्वतपर स्थित कूट-दे० लोक ५/१३,१२,४,१०) कनकचित्रा-रुचक पर्वतके नित्यालोक कूटकी निवासिनी विद्यु स्कुमारी देवी-दे० लोक /१/१३ । कनकध्वज-(पा.पु/१७/ श्लोक) दुर्योधन द्वारा घोषित आधे राज्यके लालचसे इसने कृत्या नामक विद्याको सिद्ध करके ( १५०१५२) उसके द्वारा पाण्डवोंको मारनेका प्रयत्न किया, परन्तु उसी विद्यासे स्वयं मारा गया (२०६-१६) । कनकनन्दि-१. आप इन्द्रनन्दि सिद्वान्त चक्रवर्तीके शिष्य तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके सहधर्मा थे।कृति-५० गाथा प्रमाण सत्व स्थान त्रिभंगी नामक ग्रन्थ । समय- इन्द्र नन्दि के अनुसार लगभग वि०६६ (ई. १३६) दे० इन्द्रनन्दि (गो.क. ३६६) (ती./२/४५०) (जै/१/१८३, ४४२) २. नन्दि मंधके देशीय गणके अनुसार आप माघनन्दि कोल्लापुरीयके शिष्य थे। इन्होने बौद्र चार्वाक व मोमांसकों को अनेकों बादोंमें परास्त किया। समय-ई. ११३३-११६३।-दे० इतिहास /७/५। (प. ख. २/मा ४/ H. L. Jan). कनकप्रभ-कुण्डल पर्वतका एक कूट- दे० लोक/७/१२ ॥ कनकसेन-आप आ बलदेवके गुरु थे। उनके अनुसार आपका समय लगभग वि०६८२ ( ई.६२६) आता है । (श्रवणबेलगोलाके शिलालेख नं ०१५ के आधारपर, भ. आ./प्र.१६/प्रेमी जो ). कनका-रुचक पर्वत निवासिनी एक दिनकुमारी-दे० लोक/१३ । कनकाभ-उत्तर क्षौद्रवर द्वीप तथा घृतवर समुद्रके रक्षक व्यन्तर देव-दे० व्यन्तर/४। कनकावला-१.(ह. पु/३४/७४-७१) समय ५२२ दिन; उपवास४३४, पारणा-८८ । यंत्र-१,२, ६ बार ३./१, वृद्धिक्रमसे १ से लेकर १६ तक, ३४ बार ३. एक हानिक्रमसे १५से लेकर १तक, हवार३,२.१ । विधि-उपरोक्त यंत्रके अनुसार एक-एक बार में इतने-इतने उपमास करे। प्रत्येक अन्तराल में एक पारणा करे। नमस्कार मंत्रका त्रिकाल जाप्य करे । यह बृहद् विधि है। (बत विधान संग्रह/पृ.७८)। २. समय एक वर्ष । उपवास ७२। विवि-एक वर्ष तक बराबर प्रतिमासकी शु०१,५.१० तथा कृ०२,६,१२ इन ६ तिथियों में उपवास करे। नमस्कार मंत्रका त्रिकाल जाप्य रे। (व्रत-विधान संग्रह/.७८) (किशन सिंह/क्रियाकोश)। कनकोज्जत्रल-म.पू/७४/२२०-२२६). महावीर भगवान्का पूर्वका नवमा भव । एक विद्याधर था। कनिष्क-इतिहासकारोके अनुसार कुशान वंश (भृत्य वंश) का तृतीय राजा था । बड़ा पराक्रमी था। इसने शकोको जीतकर भारतमें एकच्छत्र गणतन्त्र राज्य स्थापित किया था। समय वी. नि/६४६६८ (ई. १२०-१६२)-(दे० इतिहास/३/४)। कन्नाज-कुरुक्षेत्र देशका एक नगर । पूर्व में इसका नाम कान्यकुब्ज था। (म.पु./प्र.४६/पं. पन्नालाल )। कपाटसमुद्घात-दे० केवली/७ । कपित्थमुष्टि--कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । कापल--१. ( प. पु./३५/श्लोक) एक ब्राह्मण था, जिसने बनवासी रामको अपने घरमे आया देखकर अत्यन्त क्रोध किया था (८-१३)। पीछे जङ्गलमें रामका अतिशय देखकर अपने पूर्व कृत्यके लिए रामसे क्षमा मांगी ( ८४,१४५,१७७ ) । अन्तमें दीक्षा धार ली (१९०-१६२)। २. सांख्य दर्शनके गुरु-दे० सारख्य। कपिशा-वर्तमान 'कोसिया' नामक नदी (म. पु./४६/५० पन्नालाल)। कपीवती-पूर्वी मध्य आर्यखण्डकी नदी-दे० मनुष्य/४! कफ-शरीरमें कफ नामक धातुका निर्देश-दे० औदारिक/१ । कमठ--(म.पू./७३/श्लोक ) भरतक्षेत्रमें पोदनपुर निवासी विश्वभूति ब्राह्मणका पुत्र था । (७-६)। अपने छोटे भाई मरुभूतिको मारकर उसकी स्त्रीके साथ व्यभिचार किया (११)। तत्पश्चात-प्रथम भवमें कुक्कुट सर्प हुआ (२३)। द्वितीय भवमे धूमप्रभा नरकमे गया (२६) तीसरे भवमें अजगर हुआ (३०) चौथे भवमें छठे नरकमे गया (३३) पाँचवे भवमें कुरंग नामक भील हुआ (३७) छठे भवमें सप्तम नरकका नारकी हुआ (६७) सातवें भवमें सिंह हुआ (६७) आठवें भवमें महीपाल नामक राजा हुआ (१७.११५) और नवें भवमे शम्बर नामक ज्योतिष देव हुआ, जिसने भगवान् पार्श्वनाथ पर घोर उपसर्ग किया। ( इन नौ भवोंका युगपत कथन-म.पु./७२/१७०) । कमल-~१. लोककी रचनामें प्रत्येक बावडीमें अनेकों कमलाकार द्वीप स्थित है, जिन्हें कमल कहा गया है। इनपर देवियाँ व उनके परिवारके देव निवास करते हैं। इनका अवस्थान व विस्तार आदि-देनोका/ ये कमल बनस्पतिकायके नहीं बल्कि पृथिवी कायके हैं-दे० वृक्ष । २ काल का एक प्रमाण-दे० गणित /I/१/४॥ कमलभव--ई. १२३५ के एक कवि थे, जिन्होने शान्तीश्वर पराणको रचना की थी। ( वरांग चरित्र/प्र.२२/पं. खुशालचन्द ) (ती./४/३९९) कमलांग--कालका एक प्रमाण-दे० गणित /I/१/४ । कमेकुर--मध्य आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । करकंड चरित्र--१. मुनि कन काम (ई० १६५-१०५१) कृत अपभ्रंश काव्य (ती०४/१६१।२.आ.शुभचन्द्र (ई० १५५४)की एक रचना ती० ३/३६६)। करण--१. अंतरकरण व उपशमकरण आदि-दे० वह वह नाम । २. अवधिज्ञानके करण चिह्न-दे० अवधिज्ञान/। ३. कारणके अर्थ में करण-दे०निमित्त/१। ४. प्रमाके करणको प्रमाण कहने सम्बन्धीदे० प्रमाण । ५. मिथ्यात्वका त्रिधा करण-दे० उपशम/२। ६.अधः करण आदि त्रिकरण व दशकरण-दे० आगे करण करण-जीवके शुभ-अशुभ आदि परिणामोंकी करण संज्ञा है। सम्यक्त्व व चारित्रकी प्राप्तिमें सर्वत्र उत्तरोत्तर तरतमता लिये तीन प्रकारके परिणाम दर्शाये गये हैं-अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । इन तीनोंमें उत्तरोत्तर विशुद्धिकी वृद्धिके कारण कर्मोके मन्धमें हानि तथा पूर्व सत्तामें स्थित कर्मोंकी निर्जरा आदिमें भी विशेषता होनो स्वाभाविक है। इनके अतिरिक्त कर्म सिद्धान्तमें बन्ध उदयसत्व आदि जो दस मूल अधिकार हैं उनको भी दशकरण कहते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण २. दशकरण निर्देश करण सामान्य निर्देश करणका अर्थ इन्द्रिय व परिणाम । २ इन्द्रिय व परिणामोको करण करने हेतु। दशकरण निर्देश दशकरणों के नाम निर्देश। कम प्रकृतियोंमें यथासम्भव १० करण अधिकार निदेश। गुणस्थानों में १० करण सामान्य व विशेषका अधिकार निर्देश । | अपूर्वकरण व अयःप्रवृत्तकरणमें कथचित् समानता |व असमानता। ६ । अनिवृत्तिकरण निर्देश अनिवृत्तिकरणका लक्षण । अनिवृत्तिकरणका काल । अनिवृत्ति करणमें प्रतिसमय एक ही परिणाम मम्भव है। परिणामोंकी विशुद्धतामें वृद्धिक्रम । नाना जीवों में योगोंकी सदृशताका नियम नहीं है। नाना जीवों में काण्डक घात आदि तो समान होते है, पर प्रदेशबन्ध असमान ।। अनिवृत्तिकरण के चार आवश्यक। अनिवृत्तिकरण व अपूर्वकरणमें अन्तर । परिणामोंकी ममानताका नियम समान समयवर्ती जीवों में ही है । यह कैसे जाना । गुणश्रेणी आदि अनेक कार्योंका कारण होते हुए भी परिणामों में अनेकता क्यों नही। त्रिकरण निर्देश त्रिकरण नाम निर्देश। सम्यक्त्व व चारित्र प्राप्ति विधिमें तीनों करण अवश्य होते है। मोहनीयके उपशम क्षय व क्षयोपशम विधि में त्रिकरणोंका स्थान -दे० वह वह नाम अनन्तानुबन्धीकी रिसयोजनामें त्रिकरणों का स्थान -दे० विसंयोजना त्रिकरणका माहात्म्य। ४ तीनों करणोंके कालमें परस्पर तरतमता। तीनों करणों की परिणामविशुद्वियों में तरतमता। तीनों करणों का कार्य भिन्न-भिन्न कैसे है। अधःप्रवृत्तकरण निर्देश अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण । अधारवृत्तकरणका काल । प्रति समय सम्भव परिणामों की संख्या सदृष्टि व यत्र।। परिणाम संख्या में अंकुश व लांगल रचना। परिणामोंकी विशुद्धताके भविभाग प्रतिच्छेद, सदृष्टि व यंत्र। परिणामोंकी विशुद्धताका अल्पवदुत्व व उसकी सर्पवत् चाल अध:प्रवृत्तकरणके चार आवश्यक । सम्यक्त्व प्राप्तिमे पहले भी सभी जीवोंके परिणाम अधःकरण रूप ही होते है। १. करणसामान्य निर्देश १. करणका लक्षण परिणाम व इन्द्रियरा. वा/६/१२/१/५२३/२६ करणं चक्षुरादि । चक्षु आदि इन्द्रि प्रोको करण कहते है। ध, १/१.१.१६/१८०/१ करणा परिणामा' । = करण शब्दका अथ परिणाम है। २. इन्द्रियों व परिणामोंको करण संज्ञा देने में हेतुध. ६/१,१-८/३/२१/५ कचं परिणामाणं करणं सण्णा। ण एस दोसो, असि-वामीणं व सहायतमभावविवक्रवाए परिणामाणं करणतबलंभादो।- प्रश्न-परिणामोंकी 'करण' यह संज्ञा कैसे हुई 1 उत्तरयह कोई दोष नहीं; क्योंकि, असि ( तलवार ) और वासि ( वसूला) के समान साधकतम भावकी विवक्षामें परिणामोके करणपना पाया जाता है। भ. आ./वि./२०/७१/४ क्रियन्ते रूपादिगोचरा विज्ञप्तय एभिरिति करणानि इन्द्रियाण्युच्यन्ते कचित्करणशब्देन । =क्योंकि इनके द्वारा रूपादि पदार्थोंको ग्रहण करनेवाले ज्ञान किये जाते है इसलिए इन्द्रियोको करण कहते हैं। अपूर्वकरण निर्देश अपूर्वकरणका लक्षण । अपूर्वकरणका काल प्रतिसमय सम्भव परिणामोंकी सख्या । परिणामोंकी विशुद्धतामें वृद्धिकम अपूर्वकरणके परिणामों की सदृष्टि व यत्र । | अपूर्वकरणके चार पावश्यक । २. दशकरण निर्देश १. दशकरणों के नाम निर्देश गो.क./मू /४३७/५६१ बंधुक्कट्टणकरणं सकममोकट टुदीरणा सत्तं । उदयुवसामणिधत्ती णिकाचणा होदि पडिपयडी।४३७१-बन्ध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा. सत्त्व, उदय, उपशम, निधत्ति और नि काचना ये दश करण प्रकृति प्रकृति प्रति संभवे हैं। २. कर्मप्रकृतियोंमें यथासम्भव दश करण अधिकार निर्देश गो क./म./४४१,४४४/५६३,५६५ संकमणाकराणा णवकरणा होति सब आऊणं । सेसाणं दसकरणा अपव्यकरणोक्ति दसकरणा ॥४४॥ बंधु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण ३. त्रिकरण निर्देश गुणस्थान कर्म प्रकृति सम्भवकरण ।१-११ उपरोक्त ११ क्षयदेश पर्यन्त अपकर्षण क्षपक कट्टणकरणं सगसगबंधोत्ति होदि णियमेण। संकमणं करणं पुण सगसगजादीण बंधोत्ति ।४४४। च्यार आयु तिनिकै संक्रमण करण बिना नव करण पाइए हैं जात चाखौ आयु परस्पर परिणमें नाही। अवशेष सर्व प्रकृतिनिकै दश करण पाइये हैं।४४१। बन्ध करण अर उत्कर्षण करण ये तो दोऊ जिस जिस प्रकृतिनिकी जहाँ बन्ध व्युच्छित्ति भई तिस तिस प्रकृतिका तहाँ ही पर्यन्त जानने नियमकरि। बहुरि जिस जिस प्रकृतिके जे जे स्वजाति हैं जैसे ज्ञानावरणकी पाँचों प्रकृति स्वजाति हैं ऐसे स्वजाति प्रकृतिनिकी बन्धकी व्युच्छित्ति जहाँ भई तहाँ पर्यन्त तिनि प्रकृतिनिके संक्रमण करण जानना ।४४४ (विशेष देखो उस उस करणका नाम) ३. गुणस्थानोंमें १. करण सामान्य व विशेषका अधिकार निर्देश ( गो. क /४४१-४५०/५६३-६६६) १. सामान्य प्ररूपणा उपरोक्त २० स्व स्व क्षयदेश पर्यन्त अप कर्षण ११ उपश० स० मिथ्यात्व व मिश्रमोह। | उपशम, नित्ति व निः कांचित बिना ७ | ११क्षा.स. उपरोक्त रके बिना शेष १४६ संक्रमण रहित उपरोक्त-६ १२ ५ ज्ञाना०, ५ अन्तराय, ४ स्व स्व क्षयदेश पर्यन्त अपदर्शना०निद्रा व प्रचला-१६ कर्षण अयोगीकी सत्त्ववाली ६५ अपकर्षण जिस प्रकृतिकी जहाँ व्युच्छित्ति वहाँ पर्यन्त बन्ध और उत्कर्षण स्व जाति प्रकृतिकी बन्ध व्यु० पर्यन्त संक्रमण १-१३ गुणस्थान ___करण व्युच्छित्ति सम्भव करण x दशो करण उपशम, निधत्त, निःकांचित शेष ७ संक्रमण संक्रमणरहित ६+ मिथ्यात्व व मिश्र प्रकृतिका संक्रमण भी-७ | संक्रमण रहित-६ बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण उदीरणा X उदय व सत्त्व-२ ३. त्रिकरण निर्देश ..त्रिकरण नाम निर्देश ध.६/१, ६-८,४/२१४/५ एत्य पढमसम्मतं पडिबज्जंतस्स अधापवत्तकरण अपुवकरण-अणियट्टीकरणभेदेन तिविहाओ विसोहीओ होति। - यहॉपर प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके भेदसे तीन प्रकारकी विशुद्धियाँ होती हैं । (ल सा./मू./३३/६६).(गो. जी./मू /४७/६६) ( गो. क./मू./८६६/१०७६ ) । गो. क./जी.प्र/८/८१७/१०७६/४ करणानि त्रीण्यधःप्रवृत्ताप्रमिवृत्तिकरणानि । करण तीन हैं-अधःप्रवृत्त, अपूर्व और अनिवृत्तिकरण । २. सम्यक्त्व व चारित्र प्राप्ति विधिमें तीनों करण अवश्य २.विशेष प्ररूपणा गुणस्थान कर्म प्रकृति सम्भवकरण सातिशय / मिथ्यात्व मि० एक समयाधिक आवलीतक उदीरणा सत्त्व, उदय, उदीरणा-३ नरकायु १-१ तियंचायु | अनन्तानुबन्धी चतुष्क स्व स्व विसंयोजना तक उत्कर्षण उदीरणा अपकर्षण गो. जी./जी. प./६५१/११००/६ करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात् तथापि सम्यक्त्वग्रहणे चारित्रग्रहणे च। -करणलब्धि भव्यकै ही हो है। सो भी सम्यक्त्व और चारित्रका ग्रहण विष ही हो है। ३. त्रिकरणका माहात्म्य ल. सा./जी प्र/३३/६६ क्रमेणाधःप्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं च विशिष्टनिर्जरासाधनं विशुद्धपरिणामं । क्रमश अधःप्रवृत्तकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीनों विशिष्ट निर्जराके साधनभूत विशुद्ध परिणाम है ( तिन्हें करता है)। ४. तीनों करणों के काल में परस्पर तरतमता ल. सा/मू व. जी. प्र./३४/७० अंतोमुत्तकाला तिण्णिवि करणा हवंति पत्तेयं । उवरीदो गुणियकमा क्मेण संखेज्जरूवेण ॥३४॥ एते त्रयोऽपि करणपरिणामा' प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तकाला भवन्ति । तथापि उपरित अनिवृत्तिकरणकालारक्रमेणापूर्व करणाधःकरणकालौ संख्येयरूपेण गुणितक्रमौ भवति । तत्र सर्वत स्तोकान्तर्मुहूर्तः अनिवृत्तिकरणकाल, ततः संख्येयगुण' अपूर्वकरणकाल', तत' संख्येयगुणः अधःप्रवृत्तकरणकालः। मातीनों ही करण प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त कालमात्रस्थितियुक्त हैं तथापि ऊपर ऊपरतै संख्यातगुणा क्रम लिये है। अनिवृत्तिकरणका काल स्तोक है। तातै अपूर्वकरणका संख्यात गुणा है। तातें अधःप्रवृत्तकरणका संख्यातगुणा है। (तीनौका मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण सूक्ष्मलोभ देवायु (सामान्य) उपशामक नरक द्वि. तिर्य द्वि: ४ जाति:स्त्यान त्रिक, आतप, उद्योत, सूक्ष्म, साधारण, स्थावर, दर्शनमोहत्रिक-१६ अपकर्षण अप्रत्या० व प्रत्या. चतु संज्ष क्रोध, मान, माया; स्व स्व उपशम पर्यन्त अपनोकषाय-२० कर्षण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण ४. अध.प्रवृत्तकरण निर्देश है। सो अधकरण माडै कोई जीवको स्तोक काल भया. कोई जीवको बहुत काल भया। तिनिके परिणाम इस करणविषै संख्या व विशुद्धताकरि (अर्थात दोनों ही प्रकारसे) समान भी हो है ऐसा जानना। क्योंकि इहाँ निचले समयवर्ती कोई जीवके परिणाम ऊपरले समयवर्ती कोई जीवके परिणामके सदृश हो हैं तातें याका नाम अधःप्रवृत्तकरण है। ( यद्यपि वहाँ परिणाम असमान भी होते हैं, परन्तु 'अध प्रवृत्त करण' इस संज्ञा में कारण नीचले व ऊपरले परिणामों की समानता ही है असमानता नहीं)। (गो, जी./मू./४८॥ १००), (गो. क./म./८१८/१०७६ ) । और भी दे० अध प्रवृत्तिकरण ५. तीनों करणोंकी परिणाम विशुद्धियों में तरतमता ध.६/१,६-८,५/२२३।४ अधापवत्तकरणपढमसमयदिदिबंधादो चरिमसमयदिदिबंधो संखेज्जगुणहीनो। एत्थेव पढमसम्मत्तसंजमासंजमाभिमुहस्स दिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो, पढ़मसम्मत्तसंजमाभिमुहस्स अधापवत्तकरण चरिमसमयट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो। · एवमधापवत्तकरणस्स कज्जपरूपणं कदं। ध.६/१,६-८,१४/२६६/५ तत्थतण अणियट्टीकरणट्टिदिघादादो वि एत्थतणअपुव्यकरणट्ठिदिपादस्स बहुवयरत्तादो बा। ण चेदमपुवकरणं पढमसम्मत्ताभिमुहमिच्छाइटिअपुवकरणेण तुम्लं, सम्मत्त-संजमसंजमासंजमफलाणं तुल्लत्तविरोहा। ण चापुवकरणाणि सब्वअणियट्टी करणे हितो अणतगुणहीणाणि त्ति नवोत्तुं जुत्तं तदुप्पायणमुत्ताभावा। -१ अध प्रवृत्तिकरणके प्रथम समय सम्बन्धी स्थिति-बन्धसे उसीका अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यात गुणाहीन होता है। यहाँपर ही अर्थात अवःप्रवृत्तकरणके चरम समयमें ही प्रथमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके जो स्थितिबन्ध होता है, उससे प्रथम सम्यक्त्व सहित संयमासंयमके अभिमुख जीवका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होन होता है । इससे प्रथम सम्यक्त्व सहित सकलसंयमके अभिमुख जीवका अध प्रवृत्तकरणके अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। .. इस प्रकार अध प्रवृत्तकरणके कार्यों का निरूपण किया। २. वहाँके अर्थात प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिके, अनिवृत्तिकरणसे होनेवाले स्थितिघातकी अपेक्षा यहाँके अर्थात् संयमासंयमके अभिमुख मिथ्यादृष्टिके, अपूर्वकरणसे होनेवाला स्थितिधात बहुत अधिक होता है । तथा, यह अपूर्वकरण, प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिके अपूर्वकरण के साथ समान नही है क्योंकि सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयमरूप फलवाले विभिन्न परिणामों के समानता होनेका विरोध है। तथा, सर्व अपूर्वकरण परिणाम सभी अनिवृत्तिकरण परिणामोसे अनन्त गुणहीन होते है, ऐसा कहना भी युक्त नही है; क्योंकि, इस यातका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका अभाव है। भावार्थ -( यद्यपि सम्यक्त्व, संयम या संयमासंयम आदि रूप किसी एक ही स्थानमें प्राप्त तीनों परिणामों की विशुद्धि उत्तरोत्तर अनन्तगुणा अधिक होती है, परन्तु विभिन्न स्थानोंमें प्राप्त परिणामों में यह नियम नहीं है। वहाँ तो निचले स्थानके अनिवृत्तिकरणकी अपेक्षा भी ऊपरले स्थानका अधःप्रवृत्त करण अनन्तगुणा अधिक होता है।) ६. तीनों करणोंका कार्य मिन्न कैसे है ध. ६/१,६-८.१४/२८६/२ कथं ताणि चेव तिण्णि करणाणि पुध-पुध कज्जुप्पायणाणि । ण एस दोसो, लक्रवणसमाणत्तेण एयत्तमावण्णाणं भिण्णकामविरोहितणेग भेदमुवगयाणं जोवपरिणामाणं पुध पृध कज्जुवपायणे विरोहाभावा ।-प्रश्न-वे हो तोन करण पृथक-पृथक कार्योंके (सम्यक्त्व, संयम, संयमासंयम आदिके) उत्पादक कैसे हो सकते हैं। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, लक्षणकी समानतासे एकत्वको प्राप्त, परन्तु भिन्न कर्मोंके विरोधी होनेसे भेदको भी प्राप्त हुए जोव परिणामोके पृथक्-पृथक् कार्यके उत्पादनमें कोई विरोध २. अधःप्रवृत्तकरणका काल गो. जी //४६/१०२ अंतोमुहुत्त मेत्तो तत्कालो होदि तत्थ परिणामा। गो. जी./जो.प्र./४६।१०२/५ स्तोकान्तर्मुहूर्तमात्रात अनिवृत्तिकरणकालात संख्यातगुण' अपूर्वकरणकाल'; अतः संख्यातगुणः अधःप्रवृत्तकरणकालः सोऽप्यन्तर्मुहूर्त मात्र एव। तीनों करणनिविषै स्तोक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अनिवृत्तिकरणका कान है। यातें संख्यातगुणा अपूर्वकरणका काल है। यात संख्यातगुणा इस अध प्रवृत्तकरणका काल है। सो भी अन्तर्मुहर्त मात्र ही है। जात अन्तर्मुहूर्तके भेद बहुत है। (गो. क./म्./८88/१०७६ ) । ३. प्रति समय सम्भव परिणामोंकी संख्या संदृष्टि व यन्त्र गो. जो./जी. प्र./४६/१०२-१०६/६ तस्मिन्नध प्रवृत्तकरणकाले त्रिकालगोचरनानाजीवसंबन्धिनो विशुद्धपरिणामाः सर्वेऽपि असंख्यातलोकमात्राः सन्ति । २। तेषु प्रथमसमयसंबन्धिनो यावन्त सन्ति द्वितीयादिसमयेषु उपर्युपरि चरमसमयपर्यन्तं सदृशवृद्धया वर्धिताः सन्ति ते च तावदसंदृष्ट या प्रदर्यते-तत्र परिणामा' वासप्तत्युत्तरत्रिसहस्त्री ३०७२।अध प्रवृत्तकरणकाल षोडशसमया ।१६। प्रतिसमयपरिणामवृद्धिप्रमाणं चत्वारः ।४।...एकस्मिन् प्रचये ४ वर्धिते सति द्वितीयतृतीयादिसमयवर्तिपरिणामाना संख्या भवति । ताः इमा'-१६६,१७०,१७४, १७८,१२,१८६,१६०,१६४,१६८,२०२,२०६.२१०,२१४,२१८,२२२ । एतान्युक्तधनानि अध प्रवृत्तकरणप्रथमसमयाञ्चरमसमयपर्यन्तमुपर्युपरि स्थापयितव्यानि । अथानुकृष्टिरचनोच्यते-तत्र अनुकृष्टि म अधस्तनसमयपरिणामखण्डाना उपरितनसमयपरिणामखण्डैः सादृश्यं भवति (१००६) अब सर्वजधन्यखण्डपरिणामानां ३६ सर्वोत्कृष्टखण्डपरिणामानां ५७ च कैरपि सादृश्यं नास्ति शेषाणामेवोपर्यधस्तनसमयवर्तिपरिणामपुञ्जानां यथासंभवं तथासंभवात् । .. अथ अर्थसंदृष्ट्या विन्यासो दृश्यते-तद्यथा-त्रिकालगोचरनानाजीवसंबन्धिनः अधःप्रवृत्तकरणकालसमस्तसमयसंभविन' सर्वपरिणामा असंख्यातलोकमात्राः सन्ति । ।अधःप्रवृत्तकरणकालो गच्छ: (१०३/४)। अथाध:प्रवृत्तकरणकालस्य प्रथमादिसमयपरिणामानां मध्ये त्रिकालगोचरनानाजीवसंबन्धिप्रथमसमयजघन्यमध्यमोत्कृष्टपरिणामसमूहस्याध प्रवृत्त । करणकालसंख्यातकभागमात्रनिर्वर्गणकाण्डकसमयसमानानि २२२ रखण्डानि क्रियन्ते तानि चयाधिकानि भवन्ति । अव॑रचनाचये अनुकृष्टिपदेन भक्ते लग्धमनुकृष्टि चयप्रमाणं भवति । (१०४/१३)। पुनः द्वितीयसमयपरिणामप्रथमखण्डप्रथमसमयप्रथमरवण्डाद्विशेषाधिकम् । (१०५/१४)। द्वितीयसमयप्रथमवंडप्रथमसमयद्वितीयरवण्डं च द्वे सहशे तथा द्वितीयसमयद्वितीयादिरखण्डानि प्रथमसमयतृतीयादिखण्डैः सह सहशानि किंतु द्वितोयसमयचरमखण्डप्रथमसमयखण्डेषु केनापि सह सदशं नास्ति। अतोऽ...अधःप्रवृत्तकरणकालचरमसमयपर्यन्तं नेतव्यानि(२०६/११) - "तोहि अधःप्रवृत्त करणके कालविर्ष अतीत अनागत वर्तमान त्रिकालवर्ती नानाजीव सम्बन्धी विशुद्धतारूप इस करणके सर्व परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण हैं।...बहुरि तिनि परिणामनिविर्षे ४. अधःप्रवृत्तकरण निर्देश १. अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण ल. सा./म. व. जी. प्र./३५/७० जह्मा हेट्ठिमभावा उवरिमभावेहिं सरिसगा होति । तसा पढमं करणं अधापत्तोत्ति णिहिटुं ।३५॥ संख्यया विशुवया च सदृशा भवन्ति तस्मात्कारणात्प्रथम' करणपरिणामः अध:प्रवृत्त इत्पन्वर्थतो निर्दिष्टः । करणनिका नाम नाना जीव अपेक्षा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण ४. अधःप्रवृत्तकरण निर्देश तेस अध प्रवृत्तकरणकालका प्रथमसमयसम्बन्धी जेते परिणाम हैं अनेक जीवनिकै जे परिणाम सम्भवै तिनिके समूहको द्वितीय समयतेनित लगाय द्वितीयादि समयनिविर ऊपर-ऊपर अन्त समय परिणामपुंज कहिये । ऐसे क्रमत अंतसमय पर्यंत जानना। पर्यन्त समान वृद्धि ( चय) कर वर्द्धमान है ( पृ० १२०)। अंक तहाँ प्रथमादि समय सम्बन्धी परिणाम पुंजका प्रमाण श्रेढी संदृष्टिकरि कल्पना रूप परिमाण लीएं दृष्टान्त मात्र कथन करिए है । गणित व्यवहारका विधान करि पहिले जुदा जुदा कह्या है। सो सर्व सर्व अधकरण परिणामनिको संख्यारूप सर्वधन ३०७२ । बहुरि अध:- सम्बन्धी पुजनिको जोड़े असंख्यात लोकमात्र (३०७२ ) प्रमाण होई करणके कालके समयनिका प्रमाणरूप गच्छ १६ । बहुरि समय समय है । बहुरि इस अधःप्रवृत्तकरणकालका प्रथमादि समय सम्बन्धी परिपरिणामनिकी वृद्धिका प्रमाणरूप चय ४। (पृ० १२२)। तहां (१६ णामनिके विष त्रिकालवर्ती नानाजीव सम्बन्धी प्रथम समयके जघन्य समयनिविर्षे) क्रमतें एक-एक चय बधती परिणामनिकी संख्या हो मध्यम उत्कृष्ट भेद लिये जो परिणाम पुज कह्या (३६,४०...५७ तक), है-१६२, १६६, १७०, १७४, १७८, १२, १८६, ११०. १६४, १६८, ताके अध प्रवृत्तकरणकालके जेते समय तिनिको संख्यातकर भाग दिये २०२, २०६, २१०, २१४, २१८, २२२ (सबका जोड़-३०७२) । जेता प्रमाण आवे तितना खण्ड करिये। ते खण्ड निर्वर्गणा काण्डकके ये उक्त राशियें अध प्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लगाकर उसके चरम जेते समय तितने हो है (४)। वर्गणा कहिये समयनिकी समानता समय पर्यन्त ऊपर-ऊपर स्थापन करने चाहिए। (पृ० १२४) । तोहिं करि रहित जे उपरि ऊपरि समयवर्ती परिणाम खण्ड तिनिका आगे अनुकृष्टि कहिये है। तहाँ नीचेके समय सम्बन्धी परि- जो काण्डक कहिए सर्वप्रमाण सो निर्वर्गणा काण्डक है। (चित्रमें णामनिके जे खण्ड ते परस्पर समान जैसे होइ तैसे एक समयके चार समयों के १६ परिणाम खण्डोका एक निर्वगणा काण्डक है)। परिणामनि विर्ष खण्ड करना तिसका नाम अनुकृष्टि जानना । ए खण्ड तिनि निर्वर्गणा काण्डकके समयनिका जो प्रमाण सो अध प्रवृत्तकरणएक समयविषे युगपद (अर्थात् एक समयवर्तो त्रिकालगोचर ) अनेक रूप जो ऊर्ध्व गच्छ (अन्तर्मुहुर्त अथवा १६) ताके संख्यातवें भाग जीवनिके पाइयै तातै इनिको बरोबर स्थापन किए है (देखो आगे मात्र है (१६/४ =४ )। सो यह प्रमाण अनुकृष्टि गच्छका ( ३६ से ४२ संदृष्टिका यन्त्र) । (प्रथम समयके कुल परिणामोंको संख्या १६२ कह तक-४) जानना। इस अनुकृष्टि गच्छ प्रमाण एक एकसमय सम्बन्धी आए हैं। उसके चार खण्ड करने पर अनुकृष्टि रचनामें क्रमसे ३६,४०, परिणामनि विष खण्ड हो है (चित्र में प्रदर्शित प्रत्येक समय सम्बन्धी ४९.४२ हो है . इनका जोड १६२ हो है। इतने इतने अंक बरोबर परिणाम पुज जो ४ है सो यथार्थ में संख्यात आवली प्रमाण है, क्योंकि स्थापन किये। इसी प्रकार द्वितीय समयके चार खण्ड ४०,४१, ४२, अन्तर्मुहूर्त-मख्यात-संख्यात आवली) ते क्रम जानना। पृ० १२८ ४३ हो है। इनका जोड़ १६६ हो है । और इसी प्रकार आगे भो खण्ड महरि इहां द्वितीय समयके प्रथम खण्ड अर प्रथम समयका करते-करते सोलवें समयके १४, १५,५६,५७ खण्ड जानने ) इहाँ सर्व द्वितोय खण्ड (४०) ये दोऊ समान हो है। तैसे हो द्वितीय समयजघन्य खण्ड जो प्रथम समयका प्रथम खण्ड ३६ ताकै परिणाम निकै का द्वितीयादि खण्ड अर प्रथम समपका तृतीयादि खण्ड दोऊ समान अर सर्वोत्कृष्ट अन्त समयका अन्त खण्ड '५७ ताके परिणाम निकै हो हैं। इतना विशेष है कि द्वितोप समयका अन्त खण्ड सो प्रथम किसी ही खण्डके परिणामनिकरि सहश समानता नाहीं है, जाते समयका खण्डनिविर्षे किसो हो करि समान नाहीं।...ऐसे अधःअवशेष समस्त ऊपरके व निचले समयसम्बन्धी खण्डनिका परिणाम प्रवृत्त करणकालका अन्तसमय पर्यंत जानने । (पृ० १२६ )... पंजनिकै यथा सम्भव समानता सम्भव है। (पृ० १२५-१२६ ) । ऐसे तिर्यगरचना जो बरोबर (अनुकृष्टि) रचना तीहि विषै अब यथार्थ कथन करिये है...त्रिकालवर्ती नाना जोव सम्बन्धी एक एक समय सम्बन्धी खण्डनिके परिणामनिका प्रमाण कह्या। समस्त अध प्रवृत्तकरणके परिणाम असंख्यात लोकमात्र है, सो सर्व- -पूर्व अधकरणका एक एक समय विषे सम्भवतै माना जीवनिके धन जानना ( सहनानो ३०७२) बहुरि अध प्रवृत्तकरणका काल परिणामनिका प्रमाण कह्या था। अत' तिस विषे जुदे जुदे सम्भवते अन्तर्महर्तमात्र । ताके जेते समय होइ सो इहाँ गच्छ जानना (सह- ऐसे एक एक समय सम्बन्धो खण्डनि वि परिणामनिका प्रमाण इहाँ नानी १६) । श्रेणो गणित द्वारा चय व प्रथमादि समयोंके परिणामों- कहा है। 1ऊारिके ओर नोचे के समय सम्बन्धो खण्डनि विर्षे की संख्या तथा अनुकृष्टिगत परिणाम पुंज निकाले जा सकते हैं।) परस्पर समानता पाइये है, ताते अनुकृष्टि ऐसा नाम इहां सम्भवे हैं। (दे० 'गणित'/II/R)। (पृ० १२७) जितनो सख्या लोए ऊरिके समय विबै कोई परिणाम खण्ड हो है तितनो संस्था लोए निचले समय विष भो परिणाम खण्ड हो हैं। ऐसे १६ १५ १४ १३ ९२ ११ /१० ६ ५ ४ ३ २ १ | समय | निचले सम सम्बन्धो परिणाम खण्डत ऊपरिके समय सम्बन्धी परिणाम खण्ड विषै समानता जानि इसका नाम अब प्रवृत्तकरण कहा ९४ /१३५२५१०४६/४८४७४६ ४५४४४३ ४२४१ ४० ३६ प्र० खण्ड Polits ५४ ५३ ५२११०४६४८४७४६ ४५ ४४४३ ४२४१३० द्वि.खण्ड ४. परिणाम संख्यामें अंकुश व लांगल रचना ५६ ५५ ५४ ३ २ १९ १० १४६४८ ४७ ४६४५४४ ४३ ४२ ४१ तृ० खण्ड गो. जो./जो. प्र/४/१०८/६प्रथमसम पानुकृष्टिप्रथमसर्वजघन्यखण्डस्य ३६ ५७ ५६ ५५ ५४३ ५२ ११५०४६४८४७४६४५ | ४४४३ ४२ च० खण्ड चरिमसमयपरिणामानां चरमानुकृष्टिसर्वोत्कृष्टरवण्डस्य ५७ च कुत्रापि२२२/२१८२१४२११२०६/२०२/१९८१६४१६०१८६१८२१७८९७४१७०१६६१६२ सर्व धन, सादृश्यं नास्ति शेषोपरितनसमयवतिरखण्डानामधस्तनसमयवर्तिखण्डैः, अथवा अधस्तनसमपवतिखण्डानां उपरितनसमयतिरखण्डैः सह चतुर्थ । | तृतीय तृतीय | द्वितीय | । प्रथम निर्वर्गणा यथासंभव सादृश्यमस्ति । द्वितीयसमया ४० द्विचरमसमयपर्यन्तं १३ काण्डक प्रथमप्रथमखण्डानि चरमसमयप्रथमखण्डाद द्विचरमसमयपर्यंतखण्डानि च ५४/२५/५६ । स्वस्वोपरितनसमयपरिणामैः सह सादृश्याभावात विशुख परिणामनिको संख्या त्रिकालवर्ती नाना जोवनिकै असदृशानि । इयम कुशरचनेत्युच्यते । तथा द्वितोयसमया ४३ द्विअसंख्यात लोकमात्र है। तिनि विर्ष अधःप्रवृत्त करण मांडे पहिला चरमसमय १६ पर्यन्तं चरमचरमरवण्डानि प्रथमसमयप्रथमखण्डं ३६ समय है ऐसे त्रिकाल सम्बन्धी अनेक जीवनिकै जे परिणाम सम्भव वजितशेषरखण्डानि च स्वस्वाधस्तनसमयपरिणामेः सह सारश्याभावाड़ तिनिके समूहको प्रथम समय परिणामपुंज कहिये है। बहुरि जिनि विसदृशानि इयं लागलरचनेत्युच्यते। बहुरि इहाँ विशेष है सो जीवनिको अधःकरणमाडै दूसरा समय भया ऐसे त्रिकाल सम्बन्धी कहिये है-प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड (३६) सौ सर्वसे जघन्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण ४. अधःप्रवृत्तकरण निर्देश RFA समय खण्ड है। महरि अन्त समय सम्बन्धी अन्तका अनुकृष्टि खण्ड (१७) सो सर्वोत्कृष्ट है। सो इन दोऊनिकै कहीं अन्य खण्डकरि समानता नाहीं है। महरि अवशेष ऊपरि समय सम्बन्धी खण्डनिकै नीचले समय सम्बन्धो खण्डनि सहित अथवा नीचले समय सम्बन्धी खण्डनिकै ऊपरि समय सम्बन्धी खण्डनि सहित यथा सम्भव समानता है। तहां द्वितीय समयत लगाय द्विचरम समय पर्यंत जे समय (२ से १५ तक के समय) तिनिका पहिला पहिला खण्ड (४०-५३); अर अंत (२०१६) समयके प्रथम खण्डत लगाय द्विचरम ग्वण्ड पर्यंत (१४-५4) अपने अपने उपरिके समय सम्बन्धी वण्डनिकरि समान नाहीं है, तातै असदृश हैं । सो द्वितीयादि चरम समय पर्यंत सम्बन्धी खण्डनिकी ऊर्ध्व रचना कीएं उपरि अन्त समयके प्रथमादि द्विचरम पर्यंत वण्डनिकी तिर्यक रचना कोएं अंकुशके आकारकी रचना हो है। तातै यात अंकुश रचना कहिये । बहुरि द्वितीय समयतै लगाई द्विचरम समय पर्यंत सम्बन्धी अंत अंतके खण्ड अर प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड (३६) बिना अन्य सर्व खण्ड ते अपने अपने नीचले समय सम्बन्धी किसी ही खण्डनिकरि समान नाहीं तातै असदृश है। सो इहाँ द्वितीयादि द्विचरम पर्यन्त समय सम्बन्धी अंत अंत खण्डनिको ऊर्ध्व रचना कोएं अर नीचे प्रथम समयके द्वितीयादि अंत पर्यत खण्डनिकी तिर्यक रचना कोए, हलके आकार रचना हो है। ताते या लागल चित्र कहिये । बहुरि जघन्य उत्कृष्ट खण्ड अर उपरि नोचै समय सम्बन्धी खण्डनिकी अपेक्षा कहे असदृश |४० ४१ ४२ खण्ड तिनि खण्डनि बिना अवशेष सर्वखण्ड अपने ऊपरिकै और नीचले समयसम्बन्धी खण्डनिकरि यथा सम्भव समान है। (पृ०१३०१३१) । ( अंकुश रचनाके सर्व परिणाम यद्यपि अपनेसे नीचेवाले समयोंके किन्ही परिणाम खण्डोंसे अवश्य मिलते हैं, परन्तु अपनेसे ऊपरवाले समयोंके किसी भी परिणाम खण्डके साथ नहीं मिलते। इसी प्रकार लांगल रचनाके सर्व परिणाम यद्यपि अपनेसे ऊपरवाले समयोंके किन्हीं परिणाम खण्डोंसे अवश्य मिलते हैं, परन्तु अपनेसे नीचेवाले समयोंके किसी भी परिणाम खण्डके साथ नहीं मिलते। इनके अतिरिक्त बोचके सर्व परिणाम खण्ड अपने ऊपर अथवा नीचे दोनों ही समपोंके परिणाम खण्डोंके साथ बराबर मिलते ही हैं। (ध.६/१,६-८,४/२१७/१)। स्थानवृद्धिवर्धिताः प्रथमखण्डपरिणामा सन्ति । एवं तृतीयसमयादिचरमसमयपर्यन्त चयाधिका प्रथमखण्डपरिणामा' सन्ति तथा प्रथमादिसमयेषु द्वितीयादिरखण्डपरिणामा' अपि चयाधिकाः सन्ति । - अब विशुद्धताके अविभाग प्रतिच्छेदनिकी अपेक्षा वर्णन करिए है। तिनिको अपेक्षा गणना करि पूर्वोक्त अधःकरण निके खण्डनि विष अल्पबहुत्व वर्णन कर है-तहां अध. प्रवृत्तकरणके परिणामनिविषै प्रथम समय सम्बन्धी परिणाम, तिनिके खण्डनिविर्षे जे प्रथम खण्डके परिणाम तै सामान्यपनै असंख्यातलोकमात्र (३९) है। तथापि पूर्वोक्त विधानके अनुसार...संख्यात प्रतरावलीको जाका भाग दीजिए ऐसा असंख्यातलोक मात्र हैं (अर्थात् असं/सं. प्रतरावली-लोकके प्रदेश )। ते ए परिणाम अविभाग प्रतिच्छेदनिकी अपेक्षा जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेद लिये है । क्रमतै प्रथम परिणामतै लगाइ इतने परिणाम ( देखो एक षट् स्थान पतित हानि-वृद्धिका रूप) भए पीछे एक बार पट्स्थान वृद्धि पूर्ण होते ( अर्थात पूर्ण होती है)। (ऐसी ऐसी) असंख्यात लोकमात्र बार षट् स्थान पतित वृद्धि भए तिस प्रथम खण्डके सब परिणामनिकी संख्या (३४) पूर्ण होई हैं। ( जैसे संदृष्टि = सर्व जघन्य विशुद्धि-८; एक षट्स्थान पतित वृद्धि-६ असंख्यात लोक-१०। तो प्रथम खण्डके कुल परिणाम ६x६४१०-४८०। इनमें प्रत्येक परिणाम षट् स्थान पतित वृद्धि में बताये अनुसार उत्तरोतर एक-एक वृद्धिगत स्थान रूप है) यात असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान पतित वृद्धि करि वर्द्ध मान प्रथम खण्डके परिणाम हैं। पृ० १३२ । तैसे ही द्वितीय समयके प्रथम खण्डका परिणाम (४०) अनुकृष्टि चयकरि अधिक है। तै जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेट लिये हैं। सो ये भी पूर्वोक्त प्रकार असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान पतित वृद्धिकरि वर्द्धमान है। (एक अनुकृष्टि चयमें जितनी षट् स्थानपतित वृद्विध सम्भवे है) तितनी बार अधिक षट्स्थानपतित वृद्धि प्रथम समयके प्रथम खण्डत द्वितीय समयके प्रथम खण्डमें सम्भवै है। ( अर्थात यदि प्रथम विकल्प में ६ बार वृद्धि ग्रह्ण की थी तो यहाँ ७ बार ग्रहण करना)। ऐसे ही तृतीय आदि अन्तपर्यन्त समयनिकै प्रथम खण्डके परिणाम एक अनुकृष्टि चयकरि अधिक है। बहुरि ते से ही प्रथमादि समयनिक अपने अपने प्रथम खण्डत द्वितीय आदि खण्डनिके परिणाम भी कमतै एक एक चय अधिक है। तहाँ यथा सम्भव षट् स्थान पतित वृद्धि जेती बार होइ तितना प्रमाण ( प्रत्येक खण्डके प्रति ) जानना । ( पृ० १३३)। अंकुश रचना सांगल रचना max M ५. परिणामोंकी विशुद्धताके अविभाग प्रतिच्छेद, अंक संशष्टि व यंत्र गो. जी./जो. प्र./४६/१०६/१ तत्राधःप्रवृत्तकरणपरिणामेषु प्रथमसमयपरिणामखण्डाना मध्ये प्रथमरवण्डारिणामा असंख्यातलोकमात्रा:...अपवतितास्तदा संख्यातप्रतरावलिभक्तासंख्यातलोकमात्रा भवन्ति । अमी च जवन्धमध्यमोत्कृष्टभेवभिन्नाना... द्वितीयसमयप्रथमखण्डपरिणामाश्चमाधिका जन्यम प्रमोत्कृष्टविकल्पा प्रारबदसंख्यातलोकपटे स्व कृत संदृष्टि व यन्त्र-उपरोक्त कथनके तात्पर्यपरसे निम्न प्रकार संदृष्टि की जा सकती है।-सर्व जघन्य परिणामकी विशुद्धि८ अविभाग प्रतिच्छेद; तथा प्रत्येक अनन्तगुणवृद्धि -१ की वृद्धि । यन्त्रमें प्रत्येक खण्डके जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्तके सर्व परिणाम दर्शानके लिए जघन्य व उत्कृष्टवाले दो ही अंक दर्शाये जायेंगे। तहाँ बीचके परिणामोंकी विशुद्धता कमसे एक-एक वृद्धि सहित योग्य प्रमाणमें जान लेना। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ الغلط العلمي द्वितीय प्रथम करण समय प्रथम खण्ड 10m 1 कुल परिणाम परिणाम १३ १७० ४१ ज० से० उ० विशुद्धता | १६६४० १९२६२३६ परिणाम द्वि० [० खण्ड ज० से० उ० विशुद्धता तृ० खण्ड परिणाम १६२२२५४ ६६८-७५१ ५५ ७५२-८०६ ५६ | ८०७-८६२ ५७ | ८६३-६१६ ११५ २१८५३६४५-६६७२६४ ६६८-७५१ ५५ ७५२-८०६ ५६८०७ ८६२ १४२११५२२१२६४४ २३ ६४५-६६७ २४ ६६०-७५१ २५ ७५२००६ १३ २१०१११ ३४२ ३२ १२ ५१३-६४४५३६४५-६६७ ५४ १२ २०६५० | ४६२-६४१५१४४२५११ २२ २६३-६४४ २३ ६०-७५१ ६४५-६०० ५६३-६४४ १११ २०२४६ ४४३-४२१ ५० ४६२ - ५४१ ५१ ५४२-५६२ ५२ ४६२-५४१ ३१ १० १६८४८ ३६५-४४२ ४६ ६ ११६४४७ ३४८-३६४ ४८ ४४३- ४११५० ३१५-४४२ १४६ | ४४३-४११ ५० १८६४५ २५७ - ३०१ ४६ (१८२४४ २१३-२५६ ४५ ५ १७८४३ | १७०-२१२ ४४ ५४२-५६२ ४६२-५४१ ३६५४४२ ४१ ४४३ ४११ ३०२-३४७ ४७ ३४८-३६४ ४८ ३६५-४४२ २५७-३०१ ४६ | ३०२-३४७ ४७ ३४८-३१४ २१३-२५६ ४५ | २५७-३०१ ४६ । ३०२-३४७ १७६४२११८-१६६ ४३ १००-२१२ ४४ २९३-२५६ ४४ ८७-१२७ ४२ २३७ - ३०९ १२८- १६६४३ | १७०-२९२ ४४ २१३-२५६ १२८ - १६६ ४३ १७०-२१२ ८७-१२७४२ १२८-१६६ ४७-८६ ४१ ८७-१२७४२ ८-४६ ४० ४७- ८६ ४१ २०२-२४०४०२४०-३४४ ज० से० उ० विशुद्धता चतु० खण्ड ० ० ० विशुद्धता यहाँ स्पष्ट रीति से ऊपर और नीचे समयोंके परिणामों की विशुद्धता यथायोग्य समानता देखी जा सकती है । जैसे ठे समयके द्वितीय खण्ड के ४५ परिणामों से नं० १ वासा परिणाम २५७ अविभाग प्रतिच्छेदवाला है यदि एकको बृद्धिके हिसाब से देखें तो इस ही का नं० २५वाँ [२५७ + ( २५-१)] २८१ है । इसी प्रकार चौथे समयके चौथे खण्डका परिणाम भी २८९ अभिभाग प्रतिदाता है। इसलिए समान है। १० ६. परिणामों की विशुद्धताका अल्पबहुत्व तथा उसकी सर्पवत् चाल गो. जी./जी. प्र / ४६ / ११० /१ तेषां विशुद्धयल्पम हुत्वमुच्यते तद्यथा-प्रथमसमयप्रथमखण्डअन्यपरिणामविशुद्धिः सर्वत स्तोकापि जीवराशितोऽनन्तगुणा अविभागप्रतिवेदसग्रहारिमका भवति १६ अतस्तदुत्कृष्टपरिणाम विशुद्धिरनन्तगुणा । ततो द्वितीयखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा सतत्तगुरकृष्टपरिणाम विशुदिरनन्तगुणा एवं तृतीयादिण्डेनापि जन्यपरिणामविशुद्धयोऽनन्तगुणानतारमण्डोर परिणाम विशुद्विपयतं वर्तन्ते पुन प्रथमसमय मखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्ध द्वितीयसमयप्रथमण्डजधन्यपरि नामविशुद्धिरनन्तगुणा । ततस्तदुत्कृष्टपरिणाम विनिता । ४. अधः प्रवृत्तकरण निर्देश 1 1 ततो द्वितीयखण्डन्यपरिणामविशुद्धिरमन्तगुणा उतस्तदुष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा । एवं तृतीयादिखण्डेष्वपि जघन्योत्कृष्टपरिणामविशुद्धयोऽनन्तगुणितक्रमेण द्वितीयसमयचरमपण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिपर्यन्तं गच्छन् अनेन मार्गेण तृतीयादिसमवैष्यपि निर्वणकाण्डकडिचरममपर्यन्त जन्योत्कृष्टपरिणाम विशुद्धयोऽनन्तगुणतक्रमेण नेतव्या । प्रथमनिर्वर्गणकाण्डकचरमसमयप्रथमखण्डजघन्यपरिगामविशुद्धितः प्रथमसमयचरमखण्डोत्कृष्ट परिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततो द्वितीयनिर्वर्गणकाण्डकप्रथमसमयप्रथमखण्डजघन्यपरिणामविशुद्विरनन्तगुणा ततस्तत्प्रथम निर्वणकण्डकद्वितीयसमयचरम खण्डोरटपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा ततो द्वितीयनिर्वणकण्डकद्वितीयसम |यप्रथमखण्डजधन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा । ततः प्रथमनिर्वणका ण्डकतृतीयसमयचरमखण्डोत्कृष्ट परिणामविशुद्धिरनन्तगुणा एवमहिगया जघन्यादुत्कृष्टं उत्कृष्टजघन्यमिय्यनन्तगुणितमेण परिणामवि शुद्धिर्नोत्वा चरमनिर्वर्गणकाण्डक चरम समयप्रथमखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तानन्तगुणा । कुत'। पूर्वपूर्व विशुद्धितोऽनन्तानन्तगुणा सिद्धत्वात् । ततश्चरमनिर्वगणकाण्डकप्रथमसमयचर मखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा । ततस्तदुपरि चरमनिर्वर्गपकाण्डचरमसमयपरमलण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिपर्यन्ता उत्कृष्टखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धयोऽनन्तगुणितक्रमेण गच्छन्ति । तन्मध्ये या जघन्योत्कृष्टपरिणामविशुद्धयोऽनन्तानन्यगुणिताः सन्ति तान विवक्षिता इति ज्ञातव्यम् । -अब तिनि निकै विशुद्धताका अभिभाग प्रतिच्छेदनिकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहिए है - प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्डका जघन्य परिणामकी विशुद्धता अन्य सर्व ते स्वोक है तथापि जीन राशिका जो प्रमाण ता बनगुणा अविभाग प्रतिवेदनकै समूहको धा है । बहुरि यातै तिसही प्रथम समयका प्रथम खण्डका उत्कृष्ट परिनामकी विशुद्धता अनन्तगुणी है। तावे द्वितीय खण्डकी जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। ताते तिस ही का परिणामकी विशुद्धता अनन्तगुणी है। ऐसे ही क्रमते तृतीयादि खण्डनिविषै भी जघन्य उत्कृष्ट परिणामनिकी विशुद्धता अनन्तगुणी अनन्तगुणी अन्तका खण्डको उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धि पर्यंत प्रवर्त्ते है । ( पृ० १३३) । बहरि प्रथम समयसम्बन्धी प्रथम खण्डको परिणाम विशुद्धता द्वितीय समयके प्रथम खण्डकी जघन्य परिणाम विशुद्धता ( प्रथम समयके द्वितीय खण्डवत् । अनन्त गुणी है । ताते तिस ही की उत्कृष्ट विशुद्धता अनन्तगुणी है ताते तिस ही के द्वितीय खण्डकी जब परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है ताते तिस ही को उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। ऐसे तृतीयादि खण्डनिविषै भी जयग्य उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी अनुक्रमकरि, द्वितीय समयका अन्त खण्डको उत्कृष्ट विशुद्धता पर्यन्त प्राप्त हो है (५० १३३) बहुरि इस ही मार्गकरि तृतीयादि समयामण्डन भी पूर्वोक्त लक्षणयुक्त जो निर्वर्गणा काण्डक ताका द्विचरम समय पर्यन्त जघन्य उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्त गुणानुक्रमकरि क्यावनी । बहुरि प्रथम निर्वणा काण्डकका अन्त समय सम्बन्धी प्रथमखण्डक जघन्य विशुद्धता प्रथम समयका अन्त खण्डकी उत्कृष्ट परिणाम अनन्त है। ताते दूसरे निर्वर्गेणा काण्डका प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्डकी जयम्य परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है । ताते तिस प्रथम निर्वर्गणा काण्डकका द्वितीय समय सम्बन्धी अन्त खण्डकी उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है । ताते द्वितीय निर्वर्मणा काण्डकका द्वितीय समय सम्बन्धी प्रथम खण्डकी जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है । तातै प्रथम निर्वर्गणा काण्डकका तृतीय समय सम्बन्धी अन्त खण्डकी उत्कृष्ट विशुद्धता अनन्त गुणी है या प्रकार जैसे सर्पको पात इधर उधर और उधर इधर पलटन रूप हो है तैसे जघन्यते उत्कृष्ट और उत्कृष्टते जयम्य ऐसे पलहनि विषे अनन्तगुणो अनुक्रमकरिता प्राप्त करिए । 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण १. अपूर्वकरण निर्देश उ. 7 " उ.. उ. B न प ४१ ज - ज ज. % 3ज. पीछे अन्तका निर्वर्गणा काण्डकका अन्त समय सम्बन्धी प्रथम रखण्डकी जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तानन्तुगुणी है । काहै तै । यातै पूर्व पूर्व विशुद्धतातै अनन्तानन्तगुणापनौ सिद्ध है। बहुरि तातै अन्तका निर्वर्गणा काण्डकका प्रथम समय सम्बन्धी अन्त खण्डकी उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। ताकै ऊपरि अन्तका निर्वर्गणा काण्डकका अन्त समय सम्बन्धी अन्तखण्डकी उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यन्त अनन्तगुणा अनुक्रमकरि प्राप्त हो है। तिनि विष जे ( ऊपरिक ) जघन्यतै ( नीचेके ) उत्कृष्ट परिणामनिकी विशुद्धता अनन्तानन्तगुणी है ते इहाँ विवक्षा रूप नाहीं है, ऐसे जानना। (ध.६/१.६-८,४/२१८-२१६) । (ऊपर ऊपर के समयों के प्रथम खण्डों की जघन्य परिणाम विशुद्धिसे एक निर्वर्गणा काण्डक नीचेके अन्तिम समयसम्बन्धी अन्तिम खण्डको उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धि अनन्तगुणी कही गयी है।) उसकी संदृष्टि-(ध.६/१,६-८,४/२१९) (गो.जी.जी.प्र व भाषा/ ४६/१२०)। स्थितिबन्धका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। एक एक स्थिति बन्धकाल के पूर्ण होनेपर पत्योपमके संख्यातवें भागसे हीन अन्य स्थितिको बान्धता है (दे० अपकर्षण/३ )। इस प्रकार संख्यात सहस्र बार स्थिति बन्धापसरणों के करनेपर अध प्रवृत्तकरणका काल समाप्त होता है। ____ अधःप्रवृत्त करणके प्रथमसमय सम्बन्धी स्थितिबन्धसे उसीका अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। यहाँ पर ही अर्थात अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमें, प्रथमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके जो स्थितिबन्ध होता है. उससे प्रथम सम्यवस्व सहित संयमासंयमके अभिमुख जीवका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। इससे प्रथमसम्यक्त्व सहित सकलसंयमके अभिमुख जीवका अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। (इस प्रकार इस करणमें चार आवश्यक जानने-१. प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि; २. अप्रशस्त प्रकृतियोंका केवल द्विस्थानीय बन्ध और उसमें भी अनन्तगुणी हानिः ३. प्रशस्त प्रकृतियों के चतु'स्थानीय अनुभागबन्धमें प्रतिसमय अनन्तगुणी वृद्धिः ४. स्थितिबन्धापसरण) (ल. सा./न./३७-३६/७२), (क्ष.सा./मू./३६३/४८५)/(गो.जी./जी. प्र./४६/११०/१४)/(गो. क./जो.प्र /५५०/७४३/६)। ८. सम्यक्त्व प्राप्तिसे पहले मी सर्व जीवोंके परिणाम अधःकरण रूप ही होते हैं। ध. ६/१,६-८,४/२१७/७ मिच्छादिट्ठीआदोणं द्विदिबंधादिपरिणामा वि हेट्ठिमा उवरिमेसु, उवरिमा हेछिमेसु अणुहरं ति, तेसिं अधावत्तसण्णा किण्ण कदा । ण, इठ्ठत्तादो । कथं एद णव्वदे । अंतदीवयअधापवत्तणामादो।-प्रश्न-मिथ्यादृष्टि आदि जीवोंके अधस्तनस्थितिबन्धादि परिणाम उपरिम परिणामों में और उपरिम स्थितिबन्धादि परिणाम अधस्तन परिणामों में अनुकरण करते है, अर्थात परस्पर समानताको प्राप्त होते हैं। इसलिए इनके परिणामोंकी 'अधः प्रवृत्त' यह संज्ञा क्यों नहीं की 1 उत्तर-नहीं, क्योंकि यह बात इष्ट है। प्रश्न-यह कैसे जाना जाता है ! उत्तर-क्योंकि 'अधः प्रवृत्त' यह नाम अन्तदीपक है। इसलिए प्रथमोपशमसम्यक्त्व होनेसे पूर्व तक मिथ्यादृष्टि आदिके पूर्वोत्तर समयवर्ती परिणामों में जो सदृशता पायी जाती है, उसकी अधः प्रवृत्त संज्ञाका सूचक है। ज.ज.ज. ज.ज.ज.ज.ज.ज.ज.ज.ज.ज.ज. ज.ज. ७. अधःप्रवृत्तकरणके चार आवश्यक ६/९-६-८,५/२२२/६ अापत्रत्त करणे ताव ठिदिखंडगो वा अणुभागखंडगो का गुणसेडी बा गुणसंकमो वा णत्थि। कुदो। एदेसि परिणामाणं पुव्वुत्तचउबिहकज्जुप्पायणसत्तीए अभावादो। केवलमणंतगुणाए विसोहीए पडिसमयं विसुज्झतो अप्पसत्थाणं कम्माणं बेठ्ठाणियमणुभागं समयं पडि अणंतगुणहीणं बंधदि, पसत्थाणं कम्माणमणुभागं चदुट्ठाणियं समयं पडि अणंतगुणं मंधदि। एत्थडिदिबंधकालो अंतोमुत्तमेत्तो। पुण्णे पुण्णे ठिदिबंधे पलिदोव- मस्स संखेज्जदिभागेणूणियमण्णं दिदि बंधदि । एवं संखेजसहस्सवार द्विदिबंधोसरणेसु कदेसु अधापवत्तकरणद्धा समप्पदि । अधापत्तकरणपतमसमयट्ठिदिबंधादो चरिमसमयििदबंधो संखेज्जगुणहीणो। एत्थेत्र पढमसम्मत्तसंजमासंजमाभिमुहस्स हिदिबंधो संखज्जगुणहोणो, पढमसम्मत्तसंजमाभिमुहस्स अधापवत्तकरणचरिमसमयििदबंधो संखेज्जगुणहीणो ।" अध.प्रवृत्तकरणमें स्थित्तिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणी, और गुण संक्रमण नहीं होता है। क्योंकि इन अध-प्रवृत्त परिणामोंके पूर्वोक्त चतुर्विध कार्योके उत्पादन करनेकी शक्तिका अभाव है।-१. केवल अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा प्रतिसमय विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ यह जीव-२ अप्रशस्त कर्मोके द्विस्थानीय अर्थात निब और काजीररूप अनुभागको समय समयके प्रति अनन्तगुणित हीन बान्धता है;-३. और प्रशस्त कोंके गुड़ खाण्ड आदि चतुःस्थानीय अनुभागको प्रतिसमय अनन्तगुणित बान्धता है। ४, यहाँ अर्थात अधःप्रवृत्तकरण कालमें, ५. अपूर्वकरण निर्देश 1. अपूर्वकरणका लक्षणध. १/१,१,१७/गा. ११६-११७/१८३. भिण्ण-समय-ट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सम्बदा सिरसो। करणेहि एकसमयट्ठिएहि सरिसो विसरिसो य ।११६। एदम्हि गुणट्ठाणे विसरिस-समय-ट्ठिएहि जीवेहि । पुवमपत्ता जम्हा होंति अपुव्वा हु परिणामा ।११७।। ध.१/१,१,१६/१८०/१ करणाः परिणामा' न पूर्वाः अपूर्वा । नाना जीवापेक्षया प्रतिसमयमादितः क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकपरिणामस्यास्य गुणस्यान्तर्विवक्षितसमयवतिप्राणिनो व्यतिरिच्यान्यसमयवर्तिप्राणिभिरप्राप्या अपूर्वा अत्रतनपरिणामैरसमाना इति यावत् । अपूर्वाश्च ते करणाश्चापूर्वकरणाः।"-- १. अपूर्वकरण गुणस्थानमें भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों की अपेक्षा कभी भी सदृशता नहीं पायी जाती है, किन्तु एक समयवर्ती जीवोंके परिणामों की अपेक्षा सदृशता और विसदृशता दोनों ही पायी जाती है ।११६। (गो. जी./मू /१२/१४०) इस गुणस्थानमें विसदृश अर्थात भिन्न-भिन्न समयमें रहनेवाले जीव, जो पूर्व में कभी भी प्राप्त नही हुए थे, ऐसे अपूर्व परिणामोंको ही धारण करते हैं। इसलिए इस गुणस्थानका नाम अपूर्वकरण है ।११७४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण (गो.जी. / मू. ५१ / १३६) । २. करण शब्दका अर्थ परिणाम है, और ort पूर्व अर्थात् पहिले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा आदिसे लेकर प्रत्येक समय में क्रम से मढते हुए सवातलोक प्रमाण परिणामवाले इस गुणस्थानके अन्तर्गत विवक्षित समयवर्ती जीमोको छोड़ कर अन्य समयवर्ती जीवोंके द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं अर्थात् विवक्षित समयम जीवोंके परिणामोंसे भिन्न समयी जीवों के परिणाम असमान अर्थात विलक्षण होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में होनेवाले अपूर्व परिणामोंको पूर्वकरण कहते है (यहाँ अपूर्वकरण नामक गुणस्थान की अपेक्षा कथन किया गया है, परन्तु सर्वत्र ही अपूर्वकरणका ऐसा क्षण जानना) (रा. वा./६/१/१२१५८६/४ ) ( ल. सा. मू./५१/८३) । और भी ० अपूर्वकरण २. अपूर्वकरणका काल ध. ६/१०६ ८.४/२२०/१ अपुत्रकरणद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ता होदिति । अपूर्व काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है। (मो.जी. २३/१४१) (गी. क /मू./११०/२०१४ 4 ३. अपूर्वकरणमें प्रतिसमय सम्भव परिणामोंकी संख्या ध. ६/१-१-८४/२२०/१ अपुव्यकरणढा अंतीमुत्तमेत्ता होदि सि अंतमुत्तमे समयानं पढमं रचणा कायया । तत्थ पञ्चमसमयपाओविस ही पमाणमसंलेजा लोगा। विदियसमयपाओग्गविसोहीण पमाणमसंखेज्जा लोगा । एवं णेयव्वं जाव चरिमसमओ त्ति = पूर्वकरणका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है, इसलिए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण समयोंकी पहले रचना करना चाहिए। उसमें प्रथम समयके योग्य विशुद्धियोंका प्रमाण असंख्यात लोक है, दूसरे समयके योग्य विशुद्धियोंका प्रमाण असंख्यात लोक है। इस प्रकार यह क्रम अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। (यहाँ अनुकृष्टि रचना नहीं है ) । गो.जी./मू./५३/१४९ अंतोमुहुत्तमे से पडियसमयमसंखलोग परिणामा । कमउड हा पुध्वगुणे अनुकर ठीधि जिसमे ॥ ५३ अन्तर्मुहूर्त मात्र जो पूर्वकरणका काल तीहिविषे समय-समय प्रति क्रमतें एक-एक बंधा असंख्यात लोकमात्र परिणाम है। तहाँ नियमकरि पूर्वापर समय सम्बन्धी परिणामनिकी समानताका अभाव अनुकृष्टि विधान नाही है। - इहाँ भी अंक संदृष्टि करि दृष्टांत मात्र प्रमाण कल्पनाकरि रचनाका अनुक्रम दिखाये है- अपूर्व करण के परिणाम ४०६६; अपूर्वकरणका काल - समय; संख्यातका प्रमाण ४: चय १६. । इस प्रकार प्रथम समयसे अन्तिम आठवें समय तक क्रमसे एक एक (१६) मते- ४३६४०२४०८,०४,२०५३६.५४९ और ५६८ परिणाम हो है । सर्वका जोड़ - ४०६६ (गो.क./मू./१०/२०१४ ) । ४. परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम घ. ६/१.१-८/४/२२०/४ सोहि विदिवसमयसी विसेसोहियाओ । एवं वेदव्त्रं जाव चरिमसमओत्ति । बिसेसो पुण अंतोमुत्तपडिभागिओ । एदेसि करणार्ण तिब्व-मंददाए अप्पात्रहुगं उच्चदे । तं जधा - अपुव्यकरणस्य पढमसमयजहण विसोही थोवा । तत्व उसाहो अतगुणा विदियमा बसो अनंतगुणा । तत्थेन उद्धस्सिया विखोहरे अगुणा तदियसमयजहणिया विसोही गुथेकसिया विसोही अनंतगुणा एवं णेपव्वं जाव अपुत्रकरणचरिमसमओ त्ति - प्रथम समयको विशुद्धियोसे दूसरे समयकी विशुद्धियों विशेष अधिक होती हैं। इस प्रकार यह क्रम अपूर्व करण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यहाँपर विशेष प्रतिभागी है। इन करलोकी, अर्थात् पूर्वकरण कालके विभिन्न समयवर्ती परिणामको तीन १२ ५. अपूर्वकरण निर्देश मन्दताका अन्य कहते है वह इस प्रकार है-अपूर्वकरणकी प्रथम समयसम्बन्धी जघन्य विशुद्धि सबसे कम है । वहाँ पर ही उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणित है । प्रथम समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे द्वितीय समयकी जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणित है। पर ही उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणित है तृतीय मी जय विशुद्ध द्वितीय समयको उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है। वहाँ पर ही उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणित है ।... इस प्रकार यह क्रम पूर्वकरण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए (त.सा./मू./ ५२०४) (गो. जी. जी. २/५३/१४२) (गो.क.सू.ब.जी.प्र. १९१०/९०६४) (रा.वा./१/१/१२/२८६/२)। ५. अपूर्वकरण के परिणामों की संदृष्टि व यन्त्र कोशकार - अपूर्वकरणके परिणामोंकी संख्या व विशुद्धियोंको दर्शाने लिए निम्न प्रकार संदृष्टि की जा सकती है ६८ ५५२ ५३६ ५२० ५०४ ३ ४८८ २ ४७२ १ ४५६ ४०१६ ७ प्रतिसमय वर्ती कुल परिणाम ५ ४ ज. से. उ, विशुद्धियाँ ४४४६-५०१६ ३८६७-४४४८ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३३६१-३८१६ २४१-३३६० २३३७-२८४० १०४१-२१३६ Pre-paye १२१-१३७६ सर्व परिणाम कुल परिणाम - ४०६६, अनन्त गुणी वृद्धि - १ चय सर्व जघन्य परिणाम = अधकरणके उत्कृष्ट परिणाम ११६ से आगे अनन्तगुणा- १२१ ॥ यहाँ एक ही समय जीवोंके परिणामों में यद्यपि समानता भी पायी जाती है, क्योंकि एक ही प्रकारकी त्रिशुद्धिवाले अनेक जीव होने सम्भव है । और विस्टशता भी पायी जाती है, क्योंकि एक समययत परिणाम विशुद्धियोंकी संख्या असंख्यात लोक प्रमाण है । परन्तु भिन्न समयवर्ती जोवोके परिणामोंमें तो सर्वथा असमानता ही है, समानता नहीं; क्योंकि यहाँ अधःकरणवत् अनुकृष्टि रचनाका अभाव है । ६. अपूर्वकरणके चार आवश्यक स.सा./मू./१३-५४/०४ गुणमेढीगुणसं कमठिदिरसा अपुन करणादो। गुणसंकमेण सम्मा मिस्सान पुरणोति हवे ॥ ५३० ठिदि बंबोत्सरणं ग अथावत्तावरणोति हवे ठिदिबंधदिक्कीरणकाला समा होति ॥५४॥ अपूर्व करणके प्रथम समय लगाय यावत् सम्यक्खमोहनी मिश्रमोहनीका पूरणकाल, जो जिस काल विगुणकरि ferent सम्यक्यमोहनी मिश्रमोहनी रूप परिणमा है, तिस कालका अन्त समय पर्यन्त १. गुणश्रेणी, २. गुणसंक्रमण, ३. स्थिति खण्डन और ४, अनुभाग खण्डन ए च्यार आवश्यक हो हैं । ५३॥ बहुरि स्थिति बंधापसरण है सो अध प्रवृत्त करणका प्रथम समयतें लगाय तिस गुणसंक्रमण पूरण होनेका काल पर्यंत हो है । यद्यपि प्रायोग्य सन्धितें ही स्थितिबंधासरण हो है. तथापि प्रायोग्य लब्धिके सम्यक्त्व होनेका अनवस्थितपना है। नियम नाहीं है । तातें ग्रहण न कीया । बहुरि स्थिति बंधा सरण काल अर स्थितिकांडकोत्करणकाल ए दो समान अन्तर्मुहूर्त मात्र है (विशेष देखो अपकर्षण / ३, ४ ) ( यद्यपि प्रथमसम्यक्त्वका आश्रय करके कथन किया गया है पर सर्वत्र ये चार आवश्यक यथासम्भव जानना ।) (ध. ६/१, ६-८ ५/२२४/१ तथा २२७/७ ) (क्ष. सा./मू./३६७/४८७), गो. जी./जी ५४/९४७)। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण ७. अपूर्वकरण व अधः प्रवृत्तकरण में कथंचित् समानता असमानता प. २/९.९.१०/१००/४ एतेनापूर्व विशेषेण अत्र प्रवृत परिणामम्युदासः कृत इति व्यतत्रतनंपरिणामानाम पूर्वत्वाभावाद। इसमें दिये गये अपूर्व विशेषणसे अधःप्रवृत परिणामों का निराकरण किया गया है; ऐसा समझना चाहिए; क्योंकि, जहाँ पर उपरितनसमयवर्ती जोवोके परिणाम अधस्तनसमयवर्ती जीवो के परिणामोंके साथ सदृश भी होते हैं और विसदृश भी होते है ऐसे अधःप्रवृत्त में होनेवाले परिणामो में अपूर्वता नही पायी जाती (ऊपर ऊपर समयो में नियमसे अनन्तगुण विशुद्ध विसदृश ही परिणाम अपूर्व कहला सकते है ) । स.सा./सू./५२०८४ निदियकरणादिसमपादतिमसमओति अवरवरद्ध। हिमदिया सबे होति अरोण गुणियकमा ५२ दूसरे करणका प्रथम समयतै लगाय अन्त समयपर्यन्त अपने जघन्यते अपना उत्कृष्ट अर पूर्व समयके उत्कृष्टतै उत्तर समयका जघन्य परिणाम क्रमतें अनन्तगुणी विशुद्धता ती सर्वकी चाल जानने । ( विशेष देखो करण १५/४ तथा करण |४/६ ) । ६. अनिवृत्तिकरण निर्देश १. अनिवृत्तिकरणका लक्षण 1 = ध. १/१.१.१०/१११-१२० / १८६ एक्कम्मिकालसमए संठाणादीहि जह णिवति । ण णित्रति तह चिय परिणामेहि मिहो जे हु ॥ ११६ ॥ होति अभियहिगोते पंडिसमय जे सिमेकपरिणामा विमलयर झाणवह सिहाहि निकम्मा १२०० अन्तर्मुहूर्त मात्र अनि वृत्तिकरण के काल में से किसी एक समयमें रहनेवाले अनेक जीव जिस प्रकार शरीर के आकार, वर्ग आदि नाह्यरूपसे और ज्ञानोपयोगादि अन्तरंग रूपसे परस्पर भेदको प्राप्त होते हैं, उस प्रकार जिन परिनामोंके द्वारा उनमें भेद नहीं पाया जाता है उनको अनिवृतिकरण परिणामवाले कहते है और उनके प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर अनन्त गुणी विशुद्धिसे बढ़ते हुए एकसे ही ( समान विशुद्धिको लिये हुए ही परिणाम पाये जाते है । तथा वे अत्यन्त निर्मल ध्यानरूप अग्निकी शिखाओंसे कर्मवनको भस्म करनेवाले होते हैं । १११-१२० । (गो. जी./मू./५६-५७/१४६) ( गो ./मू./१९९-६९२/१०६०). (ल. सा. / जी. प्र./३६/०१ 1 ब. २/१.१.१०/१०३०१९ समानसमयावस्थितजीयपरिणामानां निर्भेदेन वृत्तिः निवृत्ति । अथवा निवृत्तिर्व्यावृत्ति न विद्यते निवृत्तिर्येषां तेऽनिवृत्तयः । = समान समयवर्ती जीवोंके परिणामों की भेद रहित वृद्धिको निवृत्ति कहते हैं अथवा निवृत्ति शब्दका अर्थ व्यावृत्ति भी । अतएव जिन परिणामोंकी निवृत्ति अर्थात् व्यावृत्ति नहीं होती ( अर्थात् जो छूटते नहीं ) उन्हे ही अनिवृत्ति कहते हैं । और भी हे० अनिवृधिकरण २. अनिवृत्तिकरणका काल घ. ६/९.१४/२२१/- अभिपट्टीकरणा अंतोसमेत होदि चि तिस्से अद्राए समया रचेव्त्रा । - अनिवृत्तिकरणका काल अन्तमुहूर्तमात्र होता है। इसलिए उसके कालके समयोंकी रचना करना चाहिए। ३. अभिवृत्तिकरण में प्रति समय एक ही परिणाम सम्भव है घ. ६/ १९.१-८/२२९/१ र समर्प पछि एक्केको एक सिमरजपुक्कस्सपरिणामभेदाभावा अनिवृत्तिकरणमें, एक एक समय के प्रति एक-एक ही परिणाम होता परिणाम होदि यहाँ पर अर्थात् १३ ६. अनिवृत्तिकरण निर्देश है; क्योंकि यहाँ एक समय जघन्य और उत्कृष्ट परिणामोंके भेदका अभाव है। (रा.सा./मू./८३९१८ तथा जी. प्र. २६/०९ ) । ४. अनिवृत्तिकरणके परिणामोंकी विशुद्धता वृद्धिक्रम घ. ६/१,६८,४/२२२/११ एदासि ( अनियट्टीकरणस्स) विसोही तिथ्य-मंददाए अप्पाबाहुर्ग उपपदे पढ़मसमय विसोही धोना । विदियसमयविसोही अण तगुणा । तत्तो तदियसमय विसोही अजहण्णुकस्सा अनंतगुणा एवं यव्वं जान अणियट्टीकरणद्वार परिमसमओ ति अब अनिवृत्तिकरण सम्बन्धी विशुद्धियाँको तीनता मन्दताका अल्पबहुत्व कहते हैं - प्रथम समय सम्बन्धी विशुद्धि सबसे कम है। उससे द्वितीय समयकी विशुद्धि अनन्तगुणित है। उससे तृतीय समयकी शुद्ध अजयग्योत्कृष्ट अनन्तगुपित है। इस प्रकार यह क्रम अनिवृत्तिकरणकाल अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। । ५ नाना जीवों में योगोंकी सदृशताका नियम नहीं है। ध. १/१,१,२७/२२०/५ ण च तेसि सव्वेसि जोगस्स सरिसत्तणे नियमो अस्थि लोगपुरणहियिकेवलीणं व तहा पहिमालय मुस्ताभावादो = अनिवृत्तिकरण के एक समयवर्ती सम्पूर्ण जीवों के योगकी सदृशताका कोई नियम नहीं पाया जाता। जिस प्रकार लोकपूरण समुद्वातमें स्थित केवलियों के योगकी समानताका प्रतिपादक परमागम है उस प्रकार अनिवृत्तिकरणमें योगकी समानताका प्रतिपादक परमागमका अभाव है । ६. नाना जीवोंमें काण्डक घात आदिकी समानता और प्रदेश बन्धकी असमानता घ. १/१,१.२०/२२०/ प अभियहि पदेसबंध एवं समयन्हि - माणसव्वजीवाणं सरिसो तस्स जोगकारणत्तादो । - तदो सरिसपरिगामत्तादो सम्बेसिमणिपट्टीगं समानसमयसंठिया दि भागवादत्त - बंधोसरण गुण सेढि - णिज्जरासंकमणं सरिसत्तणं सिद्धं । परन्तु इस कथन से अनिवृत्तिकरण के एक समय में स्थित सम्पूर्ण जीवोके प्रदेशबन्ध सदृश होता है, ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए; क्योंकि, प्रदेशमन्ध योगके निमित्तसे होता है और वहाँ योगों के सदृश होनेका नियम नहीं है (देखो पहले नं० ५ वाला शीर्षक ) । ...इसलिए समान समय में स्थित सम्पूर्ण अनिवृतिकरण गुणस्थानवाले जीवोंके सदृश परिणाम होनेके कारण स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, बन्धापसरण, गुणश्रेणी निर्जरा और संक्रमण में भी समानता सिद्ध हो जाती है । क्ष. सा. / . /४१२४९३/४६६ बाहरपड मे पढमं ठिदिखंडविसरिसं तु विदियादि । ठिदिखंडयं समाणं सव्वस्स समाणकालम्हि |४१२ | पल्लस्स संखभागं अवरं तु वरं तु संखभागहियं । घादादिमठिदिखंडो सो सम्बस सरिसा हु ॥ ४१३| = अनिवृत्तिकरणका प्रथम समय विषै पहिला स्थिति खण्ड है सो तो विसदृश है, नाना जीवनिकैं समान नाहीं है। बहुरि द्वितीयादि स्थितिखण्ड हैं ते समानकाल वि सर्वजीवनिके समान हैं। अनिवृतिकरणमा जिनको समान काल भया तिनकैं परस्पर द्वितीयादि स्थितिकाण्डक आयामका समान प्रमाण जानना । ४१२ । सो प्रथम स्थिति खण्ड जधन्य तो पत्यका असंख्यातवाँ भाग मात्र है। उत्कृष्ट ताका संख्यातवाँ भाग करि अधिक है। बहुरि अवशेष द्वितीयादिखण्ड सर्व जीवनिके समान हो हैं। अपूर्वकरणका प्रथम समय से लगाय अनिवृत्तिकरण याद प्रथम खण्डका घात न होइ तावत् ऐसे ही संभवे (अर्थात किसीके स्थिति खण्ड जघन्य होइ और किसीके उत्कृष्ट ) बहुरि तिस प्रथम - काण्डकका घात भए पीछे समान समयनिविषै प्राप्त सर्व जीवनिकै स्थिति सत्वको समानता हो है, तातै द्वितीयादि काण्डक आयामकी भी समानता जाननी १४१३ | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण करुणा ७. अनिवृत्तिकरणके चार आवश्यक ध. ६/१,६-८,५/२२६/८ ताधे चेब अण्णो ठिदिखंडओ अण्णो अणुभाग खंडओ, अण्णो ट्ठिदिबंधी च आढत्तो। पुबोकडि डदपदेसग्गादो असंखेज्जगुणं पदेसमोकड्डिदूण अप्रत्रकरणो व्य गलिदसेसं गुणसे दि करेदि। ...एवं ट्ठिदिबंध-ठिदिखंडय-अणुभागवंडयसहस्सेसु गदेसु अणियट्टीअधाए चरिमसमयं पावदि। उसी ( अनिवृत्तिकरणको प्रारम्भ करनेके ) समयमें ही१, अन्य स्थितिखण्ड, २. अन्य अनुभाग खण्ड और ३. अन्य स्थिति बन्ध (अपसरण) को आरम्भ करता है। पूर्वमें अपकर्षित प्रदेशाग्रसे असंख्यात गुणित प्रदेशका अपकर्षण कर अपूर्वकरणके समान गलितावशेष गुणश्रेणीको करता है। ...इस प्रकार सहस्रों स्थितिबन्ध, स्थितिकाण्डकघात, और अनुभागकाण्डकघातोंके व्यतीत होनेपर अनिवृत्ति करणके कालका अन्तिम समय प्राप्त होता है। (ल. सा./ /८३-८४/११८), (क्ष. सा./म् /४११-४३१४६५)। ८. अनिवृत्तिकरण व अपूर्वकरणमें अन्तर ५ १/१.१.१७११८४/१ अपूर्वकरणाश्च तादृक्षा' केचित्सन्तीति तेषामध्ययं व्यपदेश' प्राप्नोतीति चेन्न, तेषां नियमाभावाचा प्रश्न-अपूर्वकरण गुणस्थानमे भी कितने ही परिणाम इस प्रकारके होते हैं (अर्थात् समान समयवर्ती जोबोके समान होते हैं और असमान समयवर्तीक भी परस्पर समान नहीं होते) अतएव उन परिणामोको भी अनिवृत्ति संज्ञा प्राप्त होनी चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योंकि, उनके निवृत्ति रहित ( अर्थात समान ) होनेका कोई नियम नहीं है। ल. सा./जो. प्र./३६/७१/१६ अनिवृत्तिकरणोऽपि तथैव पूर्वोत्तरसमयेषु संख्याविशुद्धिसादृश्याभावाद भिन्नपरिणाम एव । अयं तु विशेष'प्रतिसमयमेकपरिणामः जघन्यमध्यमोत्कृष्टपरिणामभेदाभावात् । यथाध प्रवृत्तापूर्वकरणपरिणामाः प्रतिसमयं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदादसंख्यातलोकमात्र विकल्पाः षट्स्थानवृद्ध्या वर्द्धमामा' सन्ति न नथानिवृत्तिकरणपरिणामाः तेषामेकस्मिन् समये कालत्रयेऽपि विशुद्धिसादृश्यादै क्यमुपचर्यते । यद्यपि अपूर्वकरणकी भॉति अनिवृत्तिकरणमें भी पूर्वोत्तर समयोमे होनेवाले परिणामोंकी संख्या व विशुद्धि सदृश न होने के कारण भिन्न परिणाम होते हैं, परन्तु यहाँ यह विशेष है कि प्रतिसमय एक ही परिणाम होता है, क्योंकि यहाँ जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट परिणामरूप भेदका अभाव है। अर्थात जिस प्रकार अध.प्रवृत्त करण और अपूर्वकरणके परिणाम प्रतिसमय जवन्य मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे असख्यात लोकमात्र विकल्पसहित षट्स्थान वृद्धिसे बद्धं मान होते है, उस प्रकार अनिवृतिकरणके परिणाम नहीं होते; क्योंकि, तीनों कालोमें एक समयवर्ती उन परिणामोमें विशुद्धिकी सदृशता होनेके कारण एकता कही गयी है। १०. गुणश्रेणी आदि अनेक कार्योका कारण होते हुए भी इसके परिणामों में अनेकता क्यों नहीं कहते। ध. १/१,१,२७/२११/२ कज्ज-णाणत्तादो कारणणाणत्तमणुमाणिज्जदि इदि एदमविण घडदे, एयादो मोग्गरादो बहकोडिकवालोवलं भा। तत्थ वि होदु णाम मोग्गरो एओ, ण तस्स सत्तीणमेयत्तं, तदो एयक्वप्परुप्पत्ति-प्पसंगादो इदि चे तो क्वहि एत्थ वि भवदु णाम द्विदिकंडयघाद-अणुभागकंडयधाद - ट्ठिदिबंधोसरण - गुणसंकम-गुणसेढी-द्विदिअणुभागमंध-परिणामाणं णाणत्तं तो वि एग-समयसंठियणाणाजीवाणं सरिसा चेव, अण्णहा अणियट्टिविसेसणाणुववत्तीदो। जइ एवं, तो सम्वेसिमणियट्टी-णमेय-समयम्हि वट्टमाणाणां छिदि-अणुभागधादाण सरिसत्तं पावेदि तिचे ण दोसो, इट्टत्तादो। पढम-ट्ठिदिअणुभाग-खंडदाण-सरिसत्त णियमो णत्थि, तदो णेदं घडदि त्ति चे ण दोसो, हद सेस-द्विदि अणुभागाणं एय-पमाण-णियमदंसणादो ।-प्रश्न-अनेक प्रकारका कार्य होनेसे उनके साधनभूत अनेक प्रकारके कारणोंका अनुमान किया जाता है। अर्थात अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें प्रतिसमय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा, स्थितिकाण्डकघात आदि अनेक कार्य देखे जाते हैं, इसलिए उनके साधनभूत परिणाम भी अनेक प्रकारके होने चाहिए ! उत्तरयह कहना भी नही बनता है, क्योंकि, एक मुद्गरसे अनेक प्रकारके कपालरूप कार्यकी उपलब्धि होती है। प्रश्न-वहॉपर मुद्गर एक भले ही रहा आवे, परन्तु उसकी शक्तियों में एकपना नहीं बन सकता है। यदि मुद्गरकी शक्तियों में भी एकपना मान लिया जावे तो उससे एक कपालरूप कार्यकी ही उत्पत्ति होगी। उत्तर यदि ऐसा है तो यहॉपर भी स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, स्थितिबन्धापसरण, गुणसंक्रमण, गुणश्रेणीनिर्जरा, शुभ प्रकृतियोके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके कारणभूत परिणामोमें नानापना रहा आवे, तो भी एक समयमें स्थित नाना जीवोके परिणाम सदृश ही होते है, अन्यथा उन परिणामोके 'अनिवृत्ति' यह विशेषण नहीं बन सकता है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो एक समयमे स्थित सम्पूर्ण अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवालोके स्थितिकाण्डकधात और अनुभागकाण्डकयातकी समानता प्राप्त हो जायेगी। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह बात तो हमें इष्ट ही है-दे० करण/4/६ । प्रश्न-प्रथम स्थितिकाण्डक और प्रथम अनुभागकाण्डककी समानताका नियम तो नहीं पाया जाता है, इसलिए उक्त कथन घटित नहीं होता है। उत्तर--यह भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रथम स्थितिके अवशिष्ट रहे हुए खण्डका और उसके अनुभाग खण्डका अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले प्रथम समयमे ही घात कर देते हैं, अतएव उनके द्वितीयादि समयोमे स्थितिकाण्डकोंका और अनुभागकाण्डकोका एक प्रमाण नियम देखा जाता है। करण लब्धि-दे०लब्धि/४ । करणानुयोग-दे० अनुयोग। करभवेदिनी-भरत आर्य खण्डको एक नदी-दे० मनुष्य/४ । करीरी-भरत आर्यखण्डकी एक नदो-दे० मनुष्य/४ । करुणास, सि./११/३४६/८ दीनानुग्रहभाव' कारुण्यम् । =दीनों पर दयाभाव रखना कारुण्य है। (रा वा./७/११/३/५३८/१६) (ज्ञा /२७/८-१०) भ. आ /वि /१६६६/१५६६/१३ शारीरं, मानसं, स्वाभाविकं च दुखमसह्याप्नुबतो दृष्ट्वा हा बराका मिथ्यादर्शनेनाविरच्या कषायेणाशुभेन योगेन च समुपार्जिताशुभकर्मपर्यायपुद्गलस्कन्धतदुपोद्भवा विपदो विवशा' प्राप्नुवन्ति इति करुणा अनुकम्पा । = शारीरिक, मानसिक, ९. यहाँ जीवोंके परिणामोंकी समानताका नियम समान समयबालोंके लिए ही है, यह कैसे कहते हो ? ध. १/१.१.१७/१८१/२ समानसमयस्थितजोवपरिणामानामिति कथमधिगम्यत इति चेन्न, 'अपूर्वकरण' इत्यनुवर्तनादेव द्वितीयादिसमयवर्तिजीव सह परिणामापेक्षया भेदसिद्ध । - प्रश्न-इस गुणस्थानमे जो जीवौके परिणामोंकी भेदरहित वृत्ति बतलायी है, वह समान समयवर्ती जीवों के परिणामोंकी ही विवक्षित है यह कैसे जाना" उत्तर--'अपूर्वकरण' पद की अनवृत्तिसे ही यह सिद्ध होता है कि इस गुणस्थानमें प्रथमादि समयवर्ती जीवोका द्वितीयादि समयवर्ती जोवोके साथ परिणामोकी अपेक्षा भेद है। जनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा और स्वाभाविक ऐसी असह्य दुखराशि प्रायोको सता रही है, यह देखकर "अह इन दोन प्राणियो मिध्यादर्शन, अविरति कषाय और अशुभयोगसे जो उत्पन्न किया था; वह कर्म उदयमें आकर इन जीवको दुःख दे रहा है। ये कर्मवश होकर दुःख भोग रहे हैं। इनके दुखसे दुखित होना करुणा है। भ. आ /वि [१८३६/१६५० / ३ दया सर्वप्राणिविषया। =सर्व प्राणियोके ऊपर उनका दुःख देखकर अन्त करण आर्द्रा होना दयाका लक्षण है । ★ अनुकम्पाके भेद व लक्षण दे०] अनुकम्पा । २. करुणा जीवका स्वभाव है ग्रह ध. १२/२-२४८/०६९/१४ करुणार कारण कम्मे करुणेति कि ण करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो । अकरुणाए कारण कम्मं वसव्वं । ण एस दोसो, संजमघादिकम्माणं फलभावेण तिस्से अग्भुवगमादो । प्रश्न- करुणाका कारणभूत कर्म करुणा कर्म है. क्यो नहीं कहा ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, करुणा जीवका स्वभाव है, अतएव उसे कर्मजनित माननेमें विरोध आता है। प्रश्न- तो फिर अकरुणाका कारण कर्म कहना चाहिए ! उत्तर - यह कोई दोष नही है, क्योंकि, उसे संयमपाती कमक फलरूपसे स्वीकार किया गया है। २. करुणा धर्मका मूल कुल २४/२मीक्ष्येन दयां चित्तेन पालयेत् सर्वे धर्मा हि भाषन्ते दया मोक्षस्य साधनम् |२| ठीक पद्धतिसे सोच-विचारकर हृदयमें दया धारण करो, और यदि तुम सर्व धर्मोसे इस मारेमें पूछकर देखोगे तो तुम्हें मालूम होगा कि दया ही एकमात्र मुक्तिका साधन है। पं. /ि६/३० मे जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते चिते जीवरा नास्ति तेषां धर्मः कुतो भवेत् । ३अ मूलं धर्म तरोराया बतानां धाम संपदाम् । गुणानां निधिरित्यङ्गिदया कार्या विवेकिभिः ॥ ३८ ॥ - जिन भगवानके उपदेश दयालुतरूप अमृत से परिपूर्ण जिन श्रावकों हृदयमें प्राणिदया आविर्भूत नहीं होती है उनके धर्म कहाँसे हो सकता है |३०|] प्राणिया धर्मरूपी पक्षी है तो मुख्य है. सम्पत्तियोंका स्थान है और गुणोंका भण्डार है। इसलिए उसे विवेकी जनको अवश्य करना चाहिए |३८| ४. करुणा सम्यक्त्वका चिह्न है। का.अ./४१२/पं. जयचन्द "दश लक्षण धर्म दया प्रधान है और दया सम्यक्त्वका चिह्न है । ( और भी देखो सम्यग्दर्शन / I / २ । प्रशम संवेग आदि चिह्न) । ५. परन्तु निश्चयसे करुणा मोहका चिह्न है। प्र.सा./मू./८५ अट्ठे अजधागहण करुणाभावश्च तिर्यमनुजेषु । विषयेषु च प्रसङ्गो मोहस्यैतानि लिङ्गानि ॥८५ = पदार्थ का अयथार्थ और तिर्यच मनुष्यों के प्रति करुणाभाव तथा विषयोंप्रहण की संगति (इष्ट विषयोंमें प्रीति और अनिष्ट विषयोंमें अपीति ) ये सब मोहके चिह्न है । प्र.सा.// मनुष्येषु प्रेक्षार्हष्वपि कारुण्यमुवाच मोह... कति त्रिभूमिकोऽपि मोही निहन्तव्यः तिर्यग्मनुष्य प्रेक्षायोग्य होनेपर भी उनके प्रति करुणाबुद्धिसे मोहको जानकर, तत्काल उत्पन्न होते भो तीनों प्रकारका मोह ( दे० ऊपर मूलगाथा ) नष्ट कर देने योग्य है । १५ कर्ता प्र सा./ता.वृ./८५ शुद्धात्मोपलक्षणपरमो पेक्षा ममाद्विपरीत करुणाभावो दयापरिणामश्च अथवा व्यवहारेण करुणाया अभाव । केषु विषयेषु । तिर्यग्मनुजेषु इति दर्शनमोहचिह्न । = शुद्धात्माकी उपलब्धि है लक्षण जिसका ऐसे परम उपेक्षा संयमसे विपरीत करुणाभाव या दयापरिणाम अथवा व्यवहारसे करुणाका अभाव, किनमेंतिच मनुष्यो मे दर्शनमोहक चित्र है। ― ६. निश्चयसे वैराग्य ही करुणा । - स.म./१०/१०८/१३ कारुणिकत्वं च वैराग्याद् न भिद्यते । ततो युक्तमुक्तम् अहो विरक्त इति स्तुतिकारणोपहासवचनम् करुणा और वैराग्य अम अलग नहीं हैं। इसलिए स्तुतिकारने (दे० स श्लोक नं ० १० ) 'अहो विरक्त" ऐसा कहकर जो उपहास किया है सो ठीक है । तकिया व इति क्रियामें परस्पर विरोध - दे० चेतना / ३ । करोति कर्कराज गुर्जर नरेन्द्र राजा जगतुइके छोटे भाई इन्द्रराज पुत्र था। इसकी सहायतासे ही श. सं. ७५७ (ई. ३५ ) मे अमोघवर्ष प्रथम राष्ट्रकूटोंको जीतकर उनके राष्ट्र देशपर अधिकार किया था। अमोघवर्ष के अनुसार इनका समय ई० ८९४-८७८ आता है। - दे० इतिहास /३/४ कर्कोटक कंटक द्वीपमें स्थित एक पर्वत मनुष्य ४ कर्णइन्द्रिय-०/१ कर्णगोभि - ईश. ७-८ के एक बौद्ध नैयायिक थे। इनने धर्मकीर्ति कृत 'प्रमाणवार्तिक' की स्ववृत्ति नामकी टीका लिखी है। (सि./१०/ महेन्द्रकुमार ) कर्ण ( राजा ) - ( पा. पु / सर्ग / श्लो०) - पाण्डुका पुत्र था । कुँवारी कुन्तीसे उत्पन्न हुआ था। ( ७/२३७-६७) । चम्पा नगरीके राजा भानुके यहाँ पत्ता (७२) महाभारत युद्ध में कौरव के पक्ष लडा ( १६ / ७१ ) । अन्तमें अजुन द्वारा मारा गया । (२० / २६३) । कर्णविधि - Diagonal method (ज. (प्र.१०१) । कर्ण सुवर्णा वर्तमान बनसोगा नामका ग्राम जो पहले बंग ( बंगाल ) देशको राजधानी थी। ( म पु / प्र.४६ / पं. पन्नालाल ) । कर्तव्य का कर्तव्य कर्तव्य०धर्म कर्ता- “यद्यपि लोकमें 'मैं घट, पट आदिका कर्ता हूँ ऐसा ही व्यव हार प्रतित है परन्तु परमार्थ में प्रत्येक पदार्थ परिणमन स्वभावी होने तथा प्रतिक्षण परिणमन करते रहने के कारण वह अपनी पर्यायका ही कर्ता है। इस प्रकारका उपरोक्त भेद कर्ता कर्म भाव विश्वात्मक होने के कारण परमार्थ मे सर्वत्र निषिद्ध है। अभेद कर्ता कर्म भावका विचार ही ज्ञाता द्रष्टाभाव में ग्राह्य है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता १. कर्ताकर्म सामान्य निर्देश १ निश्चय कर्ताकारकका लक्षण व निर्देश | २ निय कर्मकारकका ३ क्रिया सामान्यका " 99 ૪ कर्मकारक प्राप्य विकार्य आदि तीन भेदोंका worm * ૪ ५ २. निश्चय कर्ता कर्म भाव निर्देश १ निश्वपसे कर्ता कर्म व अधिकर हमें अमेद है। ६ लक्षण व निर्देश 1 आचार्यका कर्ता गुण। ५ ८ 93 " निश्चयसे कर्ताव करने मेद -दे०प्रकुर्सी । निश्वपसे कर्ता कर्म व करवाने मेद है। निश्चयसे वस्तुका परिणामी परिणाम सम्बन्ध ही उसका कर्ता कर्म भाव है । एक हो वस्तु कर्ता और कर्म दोनों बातें कैसे हो सकती हैं? व्यवहार से भिन्न वस्तुओं में भी कर्ता कर्म व्यपदेश किया जाता है। षट्- द्रव्योंमें परस्पर उपकार्य उपकारक भाव । १ वास्तबनें व्याप्यव्यापकरूप ही कर्ता कर्म भाव अध्यात्ममें रह है। निवसे प्रत्येक पदार्थ अपने ही परिणामका कर्ता है दूसरेका नहीं । एक दूसरेके परिणामका कर्ता नहीं हो सकता निमित्त न दूसरेको अपने रूप परिचमन करा सकता है, न स्वय दूसरे रूपसे परियमन कर सकता है, न किसी में अनहोनी शक्ति उत्पन्न कर सकता है बल्कि निमित्त सद्भावमें उपादानस्य परियमन करता है । -दे० कारण II /१ 1 एक द्रव्य दूसरेको निमित्त हो सकता है पर कर्ता नहीं। - दे० कारण / III १ - दे० द्रव्य /३१ षट् द्रव्यों में कर्ता कर्ता विभाग । मिश्रय व्यवहार कर्ताकर्मभावकी कथंचित् सत्यार्थता असत्यार्थता । निमित्तनैमिचिक भाग ही कर्ताकर्म भाग है -३० कारण /11/९/४ निमित्त भी द्रम्यरूपले कर्ता है दो नहीं, पर्याय रूपसे हो तो हो । निमित्त किसीके परिणामोंके उत्पादक नहीं होते। स्वयं परिणामने वाले द्रव्यको निमित्त बेचारा क्या परिणमावे | एकको दूसरेका कर्ता कहना उपचार वा व्यवहार है परमार्थ नहीं १६ १. कर्ता व कर्म सामान्य निर्देश १० पकको दूसरेका कर्ता कहना लोकप्रसिद्ध रूढ़ि है । वास्तवमें एकको दूसरेका कर्ता कहना असत्य है । ११ एकको दूसरेका कर्ता माननेमें अनेक दोष भाते हैं। १२ २कको दूसरेका कर्ता माने सो महानी है। १३ एकको दूसरेका कर्ता माने सो मिथ्यादृष्टि है । एकको दूसरेका कर्ता माने सो अन्यमती है। एकको दूसरेका कर्ता माने तो सर्व के मत से बाहर है । १४ १५. 8. निश्चय व्यवहार कर्ता कर्मभावका समन्वय १ व्यवहारसे ही निमित्तको कर्ता कहा जाता है निश्चय से नहीं । २ ३ ४ ५ ६ 19 * व्यवहारसे ही कर्ता व कर्म भिन्न दिखते हैं, निश्चयसे दोनों अभिन्न हैं । निश्चयसे अपने परिणामोंका कर्ता है पर निमित्तकी अपेक्षा पर पदार्थोंका भी कहा जाता है। भिन्न कर्ता कर्मभाव निषेधका कारण । भिन्न ककर्ममा निषेधका प्रयोजन। भिन्न कर्ता कर्म व्यपदेशका कारण । भिन्न कर्ता कर्म व्यपदेशका प्रयोजन । कर्ता कर्मभाव निर्देशका नया व मतार्थ । जीव ज्ञान व कर्म चेतना के कारण ही अकर्ता या कर्ता होता है। -३० चेतना/३। १. कर्ता व कर्म सामान्य निर्देश = जो परिणमन करता है, १. माय कर्ता कारक निर्देश स.सा./आ./८६/क.५१ य. परिणमति स कर्ता । वही अपने परिणमनका कर्ता होता है। प्र.सा.प्र./१८४ स्वतन्त्रः कुर्यास्तस्य कर्ताऽवश्यं स्वाद । = वह ( आत्मा ) उसको ( स्वभावको ) स्वतन्त्रतया करता हुआ उसका कर्ता अवश्य है । प्र.सा./ता.वृ./१६ अभिकारकचिदानन्दस्वभावेन स्वतन्त्रवाद भवति । - अभिन्नकारक भावको प्राप्त चिदानन्द रूप चैतन्य स्वस्वभावके द्वारा स्वतंत्र होनेसे अपने आनन्दका कर्ता होता है। २. निश्चय कर्मकारक निर्देश स.सि./६/१/३१८/४ कर्म क्रिया इत्यनर्थान्तरम् । कर्म और क्रिया ये एकार्थवाची नाम हैं। रा.मा./६/९/४/०४/२६ कर्तुः क्रियया अल्युमितमं कर्मकर्ताको क्रिया द्वारा जो प्राप्त करने योग्य इष्ट होता है उसे कर्म कहते हैं । (स. सा./१रि/शक्ति नं. ४९) । भ आ./वि./२०/०९/२ कर्तु क्रियाया व्याप्यत्वेन विवक्षितमपि कर्म यथा कर्मणि द्वितीयेति तथा क्रिया वचनोऽपि अस्ति किं कर्म करोषि । at क्रियामित्यर्थः । इह क्रियावाची गृहीत कर्ताकी होनेवाली क्रिया के द्वारा जो व्याप्त होता है, उसको कर्मकारक कहते है। कर्म की व्याकरण शास्त्र में द्वितीया (विभक्ति) होती है । जैसे 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 1 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता 'कर्मणि द्वितीया' यह सूत्र है। कर्म शब्दका 'क्रिया' ऐसा भी अर्थ' है । यहाँ कर्म शब्द क्रियावाची समझना । स. सा./आ /८६/क. ५१ य परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । (परिणमित होने वाले कर्ता रूप द्रव्यका) जो परिणाम है सो उसका कर्म है। प्र. सा./त.प्र / १६ शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मफल- शुद्ध अनयुक्त हामरूपसे परिमित होने के स्वभावके कारण स्वयं ही प्राप्य होनेसे ( आत्मा ) कर्मत्वका अनुभव करता है । प्र. सा./त.प्र. ११७ क्रिया खत्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म । = क्रिया वास्तव में आत्मा के द्वारा प्राप्त होनेसे कर्म है । ( प्र सा./त.प्र./१८४ ). प्र. सा./ता.वृ./१६ नित्यानन्दं कस्वभावेन स्वयं प्राप्यत्वात् कर्मकारकं भवति । = नित्यानन्दरूप एक स्वभावके द्वारा स्वयं प्राप्य होनेसे ( आत्मा ही ) कर्म कारक होता है। ३. क्रिया सामान्य निर्देश स.सि./६/९/३१८/४ कर्म क्रिया इत्यनर्थान्तरम् । कर्म और क्रिया एकार्थ वाचो नाम है । स. सा. / आ / ८६ / क. ५१ या परिणतिक्रिया । ( परिणमित होनेवाले कर्ता रूप द्रव्य की ) जो परिणति है सो उसकी क्रिया है । प्र. सा./त. प्र / १२२ यश्च तस्य तथाविधपरिणाम सा जोवमय्येव क्रिया सर्वद्रव्याणां परिणामलक्षणं क्रियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात् । जो उस ( आत्मा ) का तथाविध परिणाम है वह जोवमयी हो क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्योकी परिणाम लक्षण क्रिया आत्ममयतासे स्वीकार की गयी है । प्र. सा. १९६२ क्रिया हि तावच्चेतनस्व पूर्वोतरदशानिशिष्टचैतन्यपरिणामारिका आमाको किया चैतनको पूर्वोतर दशासे विशिष्ट चैतन्य परिणाम स्वरूप होती है । ४. कर्म कारक के प्राप्य विकार्य आदि तीन भेदका निर्देश रा. वा /६/९/२/२०१ / १७ निर्वस्य विकार्य प्राप्यं चेति तव त्रितयमपि कर्तुरन्यत् ।यह कर्म कारक निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य तीन प्रकारका होता है। ये तीनों कर्म कर्तासे भिन्न होते हैं । ससा / आ / ७६ यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्य च व्याप्यलक्षणं पुद्गलपरिणामं कर्म स्वयमन्यपिकेन वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं... ...। प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाला पुद्गलका परिणाम स्वरूप कर्म (कर्ताका कार्य ) उसमें पुद्गल द्रव्य स्वयं अन्तर्व्यापक होकर, आदि मध्य और अन्तमे व्याप्त होकर उसे ग्रहण करता हुआ, उस रूप परिणमन करता हुआ, और उस रूप उत्पन्न होता हुआ, उस पुद्गल परिणामको करता है। भावार्थ पं० जयचन्द्र - सामान्यतया कर्ताका कर्म तीन प्रकारका कहा गया है-निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य कर्ताके द्वारा जो पहिले न हो ऐसा नवीन कुछ उत्पन्न किया जाये सो कान कर्म है जैसे पट बनाना) कसके द्वारा पदार्थ में विकार - (परिवर्तन ) करके जो कुछ किया जाये वह कर्ताका विकार्य कार्य है (जैसे दूध से दही बनाना) कर्ता जो नया उत्पन्न नहीं करता, तथा विकार करके भी नहीं करता, मात्र जिसे प्राप्त करता है ( अर्थात् स्वयं उसकी पर्याय ) वह कर्ताका प्राप्य कर्म है। टिप्पणी- अन्य प्रकार से भी इन तीनोंका अर्थ भासित होता हैद्रव्यकी पर्याय दो प्रकारकी होती है- स्वाभाविक व विभाविक । विभावक भी दो प्रकारकी होती है- प्रदेशात्म द्रव्यपर्याय तथा भावात्मक गुणपर्याय स्वाभाविक एक हो प्रकारकी होती है-पट् गुण हानिवृद्धिरूपा तहाँ प्रदेशात्म विभावद्रव्य पर्याय द्रव्प्रका न कर्म है, क्योंकि निर्वर्तनका व्यवहार पदार्थ के भा० २-३ N १७ २. निश्चय व व्यवहार कर्ता कर्म भाव निर्देश संस्थान आदि बनानेमे होता है जैसे घट बनाना। विभाव गुण पर्याय द्रव्यका विकार्य कर्म है, क्योंकि अन्य द्रव्यके साथ सयोग होनेपर गुण जो अपने स्वभावसे च्युत हो जाते है उसे ही विकार कहा गया है - जैसे दूध से दही बनाना । और स्वभाव पर्यायको प्राप्य कर्म कहते है. क्योंकि प्रतिक्षण वे स्वत' द्रव्यको प्राप्त होती रहती हैं। न उनमें कुछ प्रदेशात्मक परिस्पन्दनकी आवश्यकता होती है और न अन्य द्रव्योंके संयोगकी अपेक्षा होती है। २. निश्चय व व्यवहार कर्ता कर्म भाव निर्देश १. निश्चय कर्ता कर्म व अधिकरणमें अभेद ससा / आ /८५ इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न परिणामतोऽस्ति भिज्ञा परिणामोऽपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात्परिणामिनो न भिन्नस्ततो या काचन क्रिया किल सकलापि सा क्रियावतो न भिन्नेति जगत्मे जो क्रिया है सो सब ही परिणाम स्वरूप होनेसे वास्तव में परिणामसे भिन्न नही है । परिणाम भी परिणामोसे भिन्न नहीं है, क्योंकि परिणाम और परिणामो अभिन्न वस्तु हैं, इसलिए जो कुछ क्रिया है वह सब ही क्रियावानसे भिन्न नहीं है । प्र. सा / प्र / १६ यथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा कार्तस्वरात् पृथगनुपलभ्यमाने कर्तृकरणाधिकरणरूपेण पीततादिगुणानां कुण्डलादिपर्यायाणां च स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य यदस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभावः तथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रण वा कालेन वा भावेन वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमाने कर्तृ करणाधिकरणरूपेण गुणाना पर्यायाच स्वरूपमुपादाय प्रर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्यस्ति द्रव्यस्य स स्वभाव : जैसे द्रव्य क्षेत्र काल या भावसे स्वर्णसे जो पृथक् दिखाई नहीं देते. कर्ता-करण अधिकरण रूपसे पीतवादि गुणोंके और कुण्डलादि पर्यायोंके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान सुवर्णका जो अस्तित्व है वह उसका स्वभाव है; इसी प्रकार द्रव्यसे, क्षेत्र से, कालसे या भावसे जो द्रव्य से पृथक् दिखाई नही देते, कर्ताकरण अधिकरण रूपसे गुणोके और पर्यायोंके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान जो द्रव्यका अस्तित्व है । वह स्वभाव है। प्र. सा /त.प्र / ११३ तत परिणामान्यत्वेन निश्चीयते पर्यायस्वरूपकर्तृकरणाधिकरणभृतत्वेन पर्यायेभ्योऽपृथग्भूतस्य द्रव्यस्यासदुत्पाद. | = इसलिए पर्यायोंकी ( व्यतिरेकी रूप ) अन्यताके द्वारा द्रव्यकाजो कि पर्यायोंके स्वरूपका कर्ता, करण और अधिकरण होनेसे अपृथक है, असत् उत्पाद निश्चित होता है । २. निश्चय कर्ता कर्म व करण में अभेद प्र.सा /मू / १२६ कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो । परिणमदि व अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्ध । १२६ । यदि भ्रमण कर्ता, कर्म, करण और फल आत्मा है' ऐसा निश्चय वाला होता हुआ, अन्य रूप परिणमित नहीं ही हो तो वह शुद्ध आत्माको उप लब्ध करता है । - प्र. सा.// १५ समस्तज्ञेयान्तर्व विज्ञानस्वभावमात्मानमारमा पयोगप्रसादादेवासादयति । समस्त ज्ञेयोके भीतर प्रवेशको प्राप्त ज्ञान जिसका स्वभाव है, ऐसे आत्माको आत्मा शुद्धोपयोगके ही ( आत्मा के ही ) प्रसादसे प्राप्त करता है। प्र. सा./त.प्र./३० संवेदनमप्यात्मनोऽभिन्नत्वात् कर्जनात्मतामापन करणक्षितानामापन्न करानामधन कार्या समस्तयाकारानभिव्याप्य वर्तमान कार्यकारणत्वेनोपचयं ज्ञानममिभिवर्तत इत्यमानं संवेदन (शुद्धोपयोग ) आकार व भी आमा अभिन्न होने का अंश अमताको प्राप्त होता हुआ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता २. निश्चय व व्यवहार कर्ता कर्म भाव निर्देश ज्ञानरूप करण अंशके द्वारा कारणभूत पदार्थोके कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारोमे व्याप्त हुआ वतता है, इसलिए कार्यमे कारणका (ज्ञयाकारो मे पदार्थोका ) उपचार करके यह कह्नमे विरोध नहीं आता कि ज्ञान पदार्थोंमे व्याप्त होकर वर्तता है। स. सा/आ/२६४ आरमबन्धयोद्विधाकरणे कार्य कर्तरात्मन' करणमीमासार्या निश्चयत स्वतो भिन्न करणासंभवात भगवती प्रज्ञेव छेदनात्मक करणं । आत्मा और बन्धके द्विधा करनेरूप कार्यमे कर्ता जो आत्मा उसकी करण सम्बन्धी मीमासा करनेपर, निश्चयत. अपनेसे भिन्न करणका अभाव होनेसे भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है। परिणमनमेव कतृ त्वं सर्वत्र ज्ञातव्यमिति। पुद्गलादीना पञ्चद्रव्याणां च स्वकीयस्वकीयपरिणामेन परिणमनमेव कतृत्वं । वस्तुवृत्त्या पुन' पुण्यपापादिरूपेणाकतृ स्वमेव । -अशुद्ध निश्चय नयसे शुभाशुभ परिणामोका परिणमन ही कर्तापना है। सर्वत्र ऐसा ही जानना चाहिए । पुलादि पाँच द्रव्योके भी अपने-अपने परिणामोंके द्वारा परिणमन करना ही कर्तृत्व है। वस्तुवृत्तिसे अर्थात् शुद्ध निश्चय नयसे तो पुण्यपापका अकर्तापना ही है। (द्र.सं/अधिकार २ की चूलिका/७८/९)। प.ध./उ /१५२ तद्यथा नव तत्त्वानि केवलं जीवपुद्गलौ। स्वद्रव्याद्यैरनन्यत्वाद्वस्तुतः कतृ कर्मणो' ।१५२१-ये नव तत्व केवल जीव व पुद्गल रूप है, क्योकि वास्तवमे अपने द्रव्य क्षेत्रादिके द्वारा कर्ता तथा कर्ममे अनन्यत्व होता है। ३. निश्चयसे कर्ता व करणमें अभेद रा.वा./१/१/५/४/२६ कर्तृ करणयोरन्यत्वादन्यत्वमात्मज्ञानादीनां परश्वादिवदिति चेत; न; तत्परिणामादग्निवत् । -प्रश्न-कर्ता व करण तो देवदत्त व परशुकी भाँति अन्य होते हैं। इसी प्रकार आत्मा व ज्ञान आदिमे अन्यत्व सिद्ध होता है। उत्तर-नहीं, जैसे अग्निसे उसका परिणाम अभिन्न है उसी प्रकार आत्मासे उसका परिणाम जो ज्ञानादि वे भी अभिन्न है। प्र.सा/त.प्र /३५ अपृथग्भूतकर्तृ करणत्वशक्तिपारमैश्वर्ययोगित्वादात्मनो य एव स्वयमेव जानाति स एव ज्ञानमन्तर्लीनसाधकलयोष्णत्वशक्ते स्वतन्त्रस्य जातवेदसो दहन क्रियाप्रसिद्ध रुष्णव्यपदेशवत् ।- आत्मा अपृथग्भूत कर्तृत्व और करणत्वकी शक्तिरूप पारमैश्वर्यवान है, इसलिए जो स्वयमेव जानता है (ज्ञायक है ) वही ज्ञान है। जैसेजिसमें साधकतम (करणरूप) उष्णत्व शक्ति अन्तर्लीन है ऐसी स्वतन्त्र अग्निके दहन क्रियाकी प्रसिद्धि होनेसे उष्णता कही जाती है। १. निश्चयसे वस्तुका परिणामी परिणाम सम्बन्ध ही उसका कर्ता कर्म भाव है। रा. वा./२/७/१३/११२/३ कतृत्वमपि साधारणं क्रियानिष्पत्तौ सर्वेषां स्वातन्त्र्यात । ननु च जीवपुद्गलानां क्रियापरिणामयुक्तानां कतृ एवं युक्तम्, धर्मादीनां कथम् । तेषामपि अस्त्यादि क्रियाविषयमस्ति कर्तृत्वम् । == कर्तृत्व नामका धर्म भी साधारण है क्योंकि क्रियाकी निष्पत्तिमे सभी द्रव्य स्वतन्त्र हैं। प्रश्न-क्रिया परिणाम युक्त होने के कारण जीव व पुद्गलमें कर्तृत्व धर्म कहना युक्त है, परन्तु धर्मादि द्रव्यों में वह कैसे घटित होता है। उत्तर-उनमें भी अस्ति आदि क्रियाओंका ( अर्थात् षट् गुण हानि वृद्धि रूप उत्पाद व्यय का) अस्तित्त्व है ही। स.सा./आ./८६/क ५१ यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया १५११ जो परिणमित होता है सो कर्ता है, ( परिणमित होनेवालेका) जो परिणाम है सो कर्म है और जो परिणति है सो क्रिया है। ये तीनों वस्तुरूपसे भिन्न नहीं हैं। स.सा./आ.३११ सर्वव्याणां स्त्रपरिणामै. सह तादात्म्यात कडकणादिपरिणामै काञ्चनवत् । सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पाद्योत्पादकभावाभावात् कतृ कर्मणोरनन्यापेक्षसिद्धत्वात् जीवस्याजीवकत त्वं न सिध्यति । जेसे सुवर्ण का कंकण आदि पर्यायोके साथ तादात्म्य है उसी प्रकार सर्व द्रव्यों का अपने परिणामोके साथ तादात्म्य है। क्योकि सर्व द्रव्योंका अन्य द्रव्यके साथ उत्पाद्य-उत्पादक भावका अभाव है, इसलिए कर्ता कर्मकी अन्य निरपेक्षता सिद्ध होनेसे जीवके अजोक्का कतृत्व सिद्ध नही होता है। स.सा./आ/३४१-३५५ ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कत कर्मभोक्तृभोग्यत्व निश्चयः। = इसलिए परिणाम-परिणामीभावसे वही (एक ही द्रव्यमें) कर्ता कर्मपनका और भोक्तृभोग्यपनका निश्चय है। पं.का./ता.वृ /२७/चूलिका/५७।१७ अशुद्धनिश्चयेन...शुभाशुभपरिणामानां ५. एक ही वस्तुमें कर्ता व कर्म दोनों बातें कैसे हो सकती हैं स सि /१/१/६/२ नन्वेवं स एव कर्ता स एव करणमित्यायातम् । तच्च विरुद्धम् । सत्यं स्वपरिणामपरिणामिनो दविवक्षाया तथाभिधानात् । यथाग्निर्दहतीन्धन दाहपरिणामैन । = प्रश्न-दर्शन आदि शब्दोंकी इस प्रकार व्युत्पत्ति करनेपर कर्ता और करण एक हो जाता है। किन्तु यह बात विरुद्ध है ? = उत्तर-यद्यपि यह कहना सही है, तथापि स्वपरिणाम और परिणामीमे भेदकी विवक्षा होनेपर उक्त प्रकारसे कथन किया गया है। जैसे 'अग्नि दाह परिणामके द्वारा ईंधनको जलाती है। यह कथन भेद-विवक्षाके होने पर बनता है। रा वा./१/२६/२/८८/३० द्रव्यस्य पर्यायाणां च कथंचिद्भदे सति उक्तः कतृ'कर्मव्यपदेश. सिद्धयति । = एक ही द्रव्य स्वयं कर्ता भी होता है और कर्म भी, क्योंकि उसका अपनी पर्यायोके साथ कथंचित भेद है। श्लो. वा २/१/६/२८-२६/३७८/३ ननु यदेवार्थस्य ज्ञानक्रियायां ज्ञानं करणं सैव ज्ञानक्रिया, तत्र कथं क्रियाकरणव्यवहारः प्राती तिक' स्याद्विरोधादिति चेन्न, कथंचिद्भदात् । प्रमातुरात्मनो हि वस्तुपरिच्छित्तौ साधकतमत्वेन व्यापृतं रूपं करणमा निर्व्यापार तु क्रियोच्यते, स्वातन्त्र्येण पुनाप्रियमाणः कर्तात्मेति निर्णीतप्रायम् । तेन ज्ञानात्मक एवात्मा ज्ञानात्मनार्थं जानातोति कर्तृ करणक्रियाविकल्प प्रतीतिसिद्ध एव । तद्वत्तत्र कर्मव्यवहारोऽपि ज्ञानात्मात्मानमात्मना जानीतीति घटते । सर्वथा कतृ करणकर्म क्रियानामभेदानम्युपगमात, तासां कर्तृत्वादिशक्तिनिमित्तत्वात कथंचिद्भेदसिद्ध। = प्रश्न-जो ही अर्थकी ज्ञान क्रिया करने में करण है वही तो ज्ञान क्रिया है। फिर उसमें क्रियापने और करणपनेका व्यवहार कैसे प्रतीत हो सकता है। इसमे तो विरोध दीख रहा है। उत्तरनहीं, इन दोनोंमे कथंचित् भेद है। प्रमितिको करनेवाले आत्माके वस्तुकी इप्ति करनेमे साधकतमरूपसे व्यापतको करण ज्ञान कहते हैं। और व्यापार रहित शुद्ध ज्ञानरूप धात्वर्थको ज्ञप्ति क्रिया कहते है। स्वतन्त्रता से व्यापार करने में लगा हुआ आत्मा कर्ता है। इस प्रकार ज्ञानात्मक ही आत्मा अपने ज्ञानस्वभाव करके अर्थ को ज्ञानस्वरूपपने जानता है। इस प्रकार कर्ता कर्म और क्रियाके आकारों का विकल्प करना प्रतीतियोसे सिद्ध ही है। तिन ही के समान उस ज्ञानमें कर्म पनेका व्यवहार भी प्रतीतिसिद्ध समझ लेना चाहिए। सर्वथा कर्ता करण कर्म और क्रियापनका अभेद हम स्वीकार नहीं करते हैं, क्योंकि उनका न्यारी-न्यारी कर्तृत्वादि शक्तियो के निमित्तसे किसी अपेक्षा भेद भी सिद्ध हो रहा है। ध. १३/६,३.६/१ कधमेक्कम्हि कम्म कत्तारभावो जुजदे । ण सुज्जेदुरखज्जोअ-जलण-मणि-णखतादिसु उभयभाबुवलं भादो।=प्रश्न-एक ही स्पर्श शब्दमें कर्मत्व व कर्तृत्व दोनो कैसे बन सकते हैं । उत्तर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता ३. निश्चय व्यवहार कर्ता कर्म भावकी कथंचित... नहीं, क्योंकि, लोकमे सूर्य, चन्द्र, खद्योत, अग्नि, मणि और नक्षत्र आदि ऐसे अनेक पदार्थ है जिनमे उभय भाव देखा जाता है। उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए।" ६. व्यवहारसे भिन्न वस्तुओंमें भी कर्ता कम व्यपदेश किया जाता है स.सा./मू /8८ वबहारेण दु आदा करेदि घडपडरथाणि दव्याणि । कर णाणि य कम्माणि य णोकम्मागीहि विविहाणि ।६८ =व्यवहारसे अर्थात लोकमे आत्मा घट, पट, रथ इत्यादि वस्तुओको, इन्द्रियोंको, अनेक प्रकारके क्रोधादि द्रव्य कर्मोको और शरीरादि नोकर्मीको करता है । (द्र.सं./मू /८)। म.च.बृ /१२४-१२५ देहजुदो सो भुत्ता भुत्ता सो चेव होइ इह कत्ता। कत्ता पुण कम्मजुदो जीओ संसारिओ भणिओ ।१२४। कम्मं दुविहवियप्पं भावसहावं च दबसम्भावं। भावे सो णिच्छायदो कत्ता ववहारदो दवे ।१२३॥ - देहधारी जीव भोक्ता होता है और जो भोक्ता होता है वही कर्ता भी होता है। जो कर्ता होता है वह कर्म संयुक्त होता है । ऐसे जीवको संसारी कहा जाता है ।१२४। वह कर्म दो प्रकारका है-भाव-कर्म और द्रव्य-कर्म । निश्चयसे वह भावकर्मका कर्ता है और व्यवहारसे द्रव्य कर्मका /१२५/ (द्र.स/म./- ) (और भी देखो कारण/III/५)। प्र.सा./त.प्र/३० संवेदनमपि कारणभूतानामर्थानां कार्यभूतान समस्त ज्ञयाकारानभिव्याप्य वर्तमान कार्यकारणत्वेनोपचर्य ज्ञानमर्थानभिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिषिध्यते। = संवेदन (ज्ञान) भी कारणभूत पदार्थोके कार्यभूत समस्त ज्ञ याकारों में व्याप्त हुआ वर्तता है, इसलिए कार्यमे कारणका उपचार करके यह कहनेमें विरोध नहीं आता कि ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है। पं.का./त.प्र./२७/५८ व्यवहारेणात्मपरिणामनिमित्तपौद्गलिककर्मणां कतत्वात्कर्ता । व्यवहारसे जीव आत्मपरिणामोके निमित्तसे होनेवाले कर्मोको करनेसे कर्ता है। आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण। इसलिए (अर्थात् अपने परिणामों रूप कर्मसे अभिन्न होनेके कारण ) आत्मा परमार्थतः अपने परिणामस्वरूप भावकर्मका ही कर्ता है, किन्तु पुद्गलपरिणामात्मक द्रव्य कर्मका नहीं। इसी प्रकार परमार्थ से पुद्गल अपने परिणामस्वरूप द्रव्यकर्मका ही कर्ता है किन्तु आत्माके परिणामस्वरूप भावकर्मका नहीं। स.सा./आ /८६ यथा किल कुलाल. कलशसंभवानुकूलमात्मव्यापारपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तम् - क्रियमाणं कुर्वाण. प्रतिभाति, न पुनः कलशकरणाहंकारनिर्भरोऽपि...कलश-परिणामं मृत्तिकायाः अव्यतिरिक्तं . क्रियमाणं कुर्वाण' प्रतिभाति; तथारमापि पुद्गलकर्मपरिणामानुकूलमज्ञानादारमपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तम् - क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभातु, मा पुन पुद्गलपरिणामकरणाहंकारनिर्भरोऽपि स्वपरिणामानुरूपं पुद्गलस्य परिणाम पुद्गलादव्यतिरिक्त क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभातु = जैसे कुम्हार घड़ेकी उत्पत्तिमें अनुकूल अपने व्यापार परिणामको जो कि अपनेसे अभिन्न है, करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु घडा बनानेके अहंकारसे भरा हुआ होने पर भी अपने व्यापारके अनुरूप मिट्टीसे अभिन्न मिट्टीके घट परिणामको करता हुआ प्रतिभासित नही होता; उसी प्रकार आत्मा भी अज्ञानके कारण पुद्गल कर्मरूप परिणामके अनुकूल, अपनेसे अभिन्न, अपने परिणामको करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु पुद्गलके परिणामको करनेके अहंकारसे भरा हुआ होते हुए भी, अपने परिणामके अनुरूप पुद्गलके परिणामको जो कि पुद्गलसे अभिन्न है, करता हुआ प्रतिभासित न हो। ( स.सा /आ/८२) स.सा. आ./८६/क ५३-५४ नोभौ परिणामतः खलु परिणामो नोभयो. प्रजायेत । उभयोन परिणति स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा ।५३। नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणी न चैकस्य। नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात् ५४=जो दो वस्तुएँ हैं वे सर्वथा भिन्न ही है, प्रदेश भेद वाली ही है। दोनो एक होकर परिणमित नही होती, एक परिणामको उत्पन्न नहीं करती और उनकी एक क्रिया नहीं होती. ऐसा नियम है। यदि दो द्रव्य एक होकर परिणमित हों तो सर्व द्रव्योंका लोप हो जाये ।५३। एक द्रव्यके दो कर्ता नहीं होते और एक द्रव्यके दो कर्म नहीं होते, तथा एक द्रव्यकी दो क्रियाएँ नहीं होती, क्योंकि एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप नहीं होता ॥५४॥ ३. निश्चय व्यवहार कर्ता कर्म भावकी कथंचित् सत्यार्थता असत्यार्थता १. वास्तवमें व्याप्यव्यापकरूप ही कर्ता कर्म भाव अध्यात्ममें इष्ट है स.सा/आ/७५/क ७६ व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृ कर्म स्थिति'।== व्याप्यव्यापक भावके अभावमे कर्ता कर्मकी स्थिति कैसी । प्र.सा./त प्र./१८५ यो हि यस्य परिणामयिता दृष्ट' स न तदुपादानहान शून्यो दृष्टः, यथाग्निरय पिण्डस्य 1 =जो जिसका परिणमन करनेवाला देखा जाता है, वह उसके ग्रहग त्यागसे रहित नहीं देखा जाता है । जैसे-अग्नि लोहेके गोले में ग्रहण त्याग रहित होती है। (और भी दे० कर्ता /२/४) २. निश्चयसे प्रत्येक पदार्थ अपने ही परिणामका कर्ता है दूसरे का नहींप्र.सा/मू /१८४ कुत्रं सभावपादा हदि कित्ता सगस्स भावस्स । पोग्गल दब्वमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाण ११८४। अपने भावको करता हुआ दमा वारतवमे अपने भाबका कर्ता है, परन्तु पुद्गलद्रव्यमय सर्व भावोंका कर्ता नहीं है। प्र.सा./न./प्र /१२२ ततस्तस्य परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भाव कर्मण एव कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण। परमार्थात पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता न तु ३. एक द्रव्य दूसरेके परिणामोंका कर्ता नहीं हो सकतास सा./५ /१०३ जो जम्हि गुणे दवे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दवे । सो अण्णमसंकेतो कह तं परिणामए दव्वं ।१०३। जो वस्तु जिस द्रव्यमें और गुणमे वर्तती है वह अन्य द्रव्यमे तथा गुणमें संक्रमणको प्राप्त नहीं होती ( अदलकर उसमे नहीं मिल जाती)। और अन्य रूपसे संक्रमणको प्राप्त न होती हुई वह अन्य वस्तुको कैसे परिणमन करा सकती है ।१०। ( स.सा/आ/१०४ ) क पा/१/१२८३/३१८/४ तिहं सद्दणयाणं.. कारणस्स होदि ; सगसरूवादो उप्पण्णस्स अण्णे हितो उत्पत्तिविरोहादो। तीनो शब्द नयोकी अपेक्षा कषायरूप कार्य कारण का नहीं होता, अर्थात् कार्यरूप भावकषायके स्वामी उसके कारण जीवद्रव्य और कर्मद्रव्य कहे जा सकते है, सो भी बात नहीं है, क्योकि कोई भी कार्य अपने स्वरूपसे उत्पन्न होता है। इसलिए उसकी अन्यसे उत्पत्ति माननेमे विरोध आता है। यो सा/अ/२/१८ पदार्थानां निमग्नानां स्वरूप परमार्थतः। करोति कोऽपि, कस्यापि न किंचन कदाचन ॥१८॥ यो सा/अ./३/१६ नान्यद्रव्यपरिणाममन्यद्रव्यं प्रपद्यले । स्वान्यद्रव्यव्यवस्थेय परस्य घटते कथम् ।१६।-संसारमें समस्त पदार्थ अपनेअपने स्वरूपमे मग्न है। निश्चयनयसे कोई भी कभी कुछ भी उनके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता ३. निश्चय व्यवहार कर्ता कर्म भावकी कथंचित् " परिणामके फलको नहीं जानते हुए भी पुद्गल द्रव्यका जीवके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है ।७१। स.सा./आ./३२३/क २०० नास्ति सर्वोऽपि संबन्ध' परद्रव्यात्मतत्त्वयो । कत कर्मत्वसबन्धाभावे तत्कतृता कुत' १२००। परद्रव्य और आत्मव्यका ( कोई भी) सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार कतृ कर्मत्वके सम्बन्धका अभाव होनेसे आत्माके परद्रव्यका कतृत्व कहाँसे हो सकता है। पं/का./त प्र./६२ कर्म खलु...स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानं न कारकान्तरमपेक्षते। एवं जीवोऽपि...स्वयमेव षटकारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षते। अतः कर्मण' कर्तुर्नास्ति जीवः कर्ता, जीवस्य कर्तुर्नास्ति कर्मकर्तृ निश्चयेनेति ।-कर्म वास्तवमें षट् कारकी रूपसे वर्तता हुआ अन्य कारकको अपेक्षा नहीं रखता। उसी प्रकार जीव भी स्वयमेव षट्कारक रूपसे बर्तता हुआ अन्य कारकको अपेक्षा नहीं रखता। इसलिए निश्चयसे कर्मरूप कर्ताको जीवकर्ता नहीं है और जीवरूप कर्ताको कर्मकर्ता नहीं है। स्वरूपको नवीन नहीं बना सकता ।१८। जो परिणाम एक द्रव्यका है वह दूसरे द्रव्यका परिणाम नहीं हो सकता। अन्यथा संकर दोष आ जानेसे निजदव्य और अन्य द्रव्यकी व्यवस्था ही न बन सकेगी।१६। स सा./आ./१०४ यथा कलशकार', 'द्रव्यान्तरसंक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुन' परिणमयितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो न तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभाति तथा पुद्गलमयज्ञानावरणादौ कर्मणि... वात्मा न खल्बाधत्ते-द्रव्यान्तरसंक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुनः परिणमयितुमशक्यत्वादुभयं तु तस्मिन्ननादधान कथं नु तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभायात् । तत. स्थित खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता। जैसे कुम्हार द्रव्यान्तर रूपमें संक्रमण प्राप्त किये बिना अन्य वस्तुको परिणमन करना अशक्य होनेसे अपने द्रव्य और गुण दोनोंको उस घटरूपी कर्ममे न डालता हुआ परमार्थ से उसका कर्ता प्रतिभासित नहीं होता। इसी प्रकार पुद्गलमयी ज्ञानावरणादि कर्मोंका, द्रव्यान्तररूपमें संक्रमण किये बिना अन्य वस्तुको परिणमित करना अशक्य होनेसे अपने द्रव्य और गुण दोनो को उन ज्ञानावरणादि कर्मों में न डालता हुआ वह आत्मा परमार्थ से उसका कर्ता कैसे हो सकता है। इसलिए आत्मा पुद्गल कर्मोंका अकर्ता सिद्ध हुआ ( स.सा/आ./७५,८३) स.सा./आ /३७२ एवं च सति मृत्तिकाया. स्वस्वभावानतिक्रमान्न कुम्भकार' कुम्भस्योत्पादक एव; मृत्तिकैव कुम्भकारस्वभावमस्पृशन्ती स्वस्वभावेन कुम्भभावेनोत्पद्यते । एवं च सति सर्वद्रव्याणां न निमित्तभूतवान्तराणि स्वपरिणामस्योत्पादकान्येवः सर्वद्रव्याण्येव निमितभूतद्रव्यान्तरस्वभावमस्पृशन्ति स्वस्वभावेन स्वपरिणामभावेनोत्पद्यन्ते । अतो न परद्रव्यं जीवस्य रागादीनामुत्पादकमुत्पश्यामो यस्मै कुप्याम ।-मिट्टी अपने स्वभावको उल्लंघन नही करती इसलिए कुम्हार घडे का उत्पादक है ही नहीं; मिट्टी ही कुम्हारके स्वभावको स्पर्श न करती हुई अपने स्वभावसे कुम्भभावसे उत्पन्न हुई। इसी प्रकार सर्व पोके निमित्तभूत अन्य द्रव्य अपने परिणामोके ( अर्थात् उन सर्व द्रव्योंके परिणामों के ) उत्पादक है ही नहीं; सर्व द्रव्य हो निमित्तभूत अन्यद्रव्यके स्वभावको स्पर्श न करते हुए अपने स्वभावसे अपने परिणामभावसे उत्पन्न होते हैं। इसलिए हम जीवके रागादिका उत्पादक परदव्यको नही देखते, कि जिस पर कोप करे। स,सा /आ./२६२ य एव हिनस्मीत्यह काररसनिर्भरो हिंसायामध्यवसाय' स एव निश्चयतस्तस्य बन्धहेतु , निश्चयेन परभावस्य प्राणव्यपरोपस्य परेण कर्तुमशक्य त्वात् ।="मै मारता हूँ" ऐसा अहंकार रससे भरा हुआ हिसाका अध्यवसाय ही निश्चयसे उसके बन्धका कारण है, क्योंकि निश्चयसे परका भाव जो प्राणोंका व्यपरोप वह दूसरेसे किया जाना अशक्य है। ४. एक द्रव्य दूसरेको निमित्त हो सकता है पर कर्ता नहीं पं का./मू./६० भावो कम्मणि मित्तो कम्म पुण भावकारणं भवदि । ण दु तेसिं खलु कत्ताण विणा भूदा दु कत्तार ६० जीवभावका कर्म निमित्त है और कर्मका जीव भाव निमित्त है। परन्तु वास्तव में एक दूसरेके कर्ता नहीं हैं। कर्ता के बिना होते हों ऐसा भी नहीं है। (क्योंकि आत्मा स्वयं अपने भावका कर्ता है और पुद्गल कर्म स्वयं अपने भावका ६१-६२) गो. जी./म./५७०/१०१५/१ ण य परिणमदि सयं सो ण या परिणामेइ अण्णमण्णेहि । विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेदू ।५७०। काल द्रव्य स्वयं अन्य द्रव्य रूप परिणमन करता नहीं, न ही अन्य द्रव्यको अपने रूप परिणमाता है। नाना प्रकार परिणामों रूप से द्रव्य जब स्वयं परिणमन करते है, तिनको हेतु होता है अर्थात उदासीनरूपसे निमित्त मात्र होता है। स. सा/आ/८२ जीवपुद्गलयो' परस्पर व्याप्यव्यापकभावाभावाज्जीवस्य पुद्गलपरिणामानां पुद्गलकर्मणापि जीवपरिणामानां क्त कर्मत्वासिद्धौ निमित्तनैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वादितरेतरनिमित्तमात्रीभावेनैव द्वयोरपि परिणाम । - जीव और पुद्गलमें परस्पर व्याप्य व्यापकभावका अभाव होनेसे जीवको प्रदगल परिणामोके साथ और पुद्गल कर्मको जीव परिणामों के साथ, कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि होनेसे, मात्र निमित्त नैमित्तिकभावका निषेध न होनेसे, परस्पर निमित्तमात्र होनेसे ही दोनोके परिणाम ( होता है)। पं.ध./पू/५७६ इदमत्र समाधानं कर्ता यः कोऽपि सः स्वभावस्य । पर भावस्य न कर्ता भोक्ता वा तन्निमित्तमात्रेऽपि । -जो कोई भी कर्ता है वह अपने स्वभावका ही कर्ता है किन्तु परभावमे निमित्त होनेपर भी, परभावका न कर्ता है और न भोक्ता। स.सा/आ /३५५/क २१३ वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो, येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत् । निश्चयोऽयमपरो परस्य का, कि करोति हि बहिर्चउन्नपि ।२१३१- इस लोकमे एक वस्तु अन्य वस्तुकी नहीं है, इसलिए वास्तवमे बस्तु वस्तु ही है-यह निश्चय है। ऐसा होनेसे कोई अन्य वस्तु अन्य वस्तुके बाहर लोटती हुई भी उसका क्या कर सकती है । स सा /आ./७८-७६ प्राप्य विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणाम कर्माकुर्वाणस्य सुरखदु खादिरूपं पुद्गलकर्मफलं जानतोऽपि ज्ञानिनः पुदगलेन सह न कतृ कर्मभाव. १७८1. जीवपरिणाम स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानत. पुद्गलदव्यस्य जीवेन सहन कर्तृकर्मभाव. 1981 प्राप्य विकार्य और निर्वर्ण्य ऐसा जो व्याप्य लक्षणबाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले उस ज्ञानीका, पुद्गलकमके फल को जानते हुए भी कर्ताधर्मभाव नहीं है ।७८। (और इसी प्रकार ) अपने परिणामको, जोधके परिणामको तथा अपने पं. घ./उ./१०७२-१०७३ अन्तर्दृष्टया कषायाणां कर्मणां च परस्परम् । निमित्तने मित्तिको भाव' स्यान्न स्याजोवकर्मणो । १०७२। यतस्तत्र स्वयं जीवे निमित्ते सति कर्मणाम् । नित्या स्यात्कता चेति न्यायान्मोक्षो न कस्यचित ।१०७३। अन्तष्ठिसे कषायोका और कर्मोंका परस्परमें निमित्तनैमित्तिकभाव है किन्तु जीव (द्रव्य ) तथा कर्मका नही है ।१०७२। क्योंकि उनमेसे जीवको कर्मोका निमित्त माननेपर जीवमे सदैव ही क्तृत्वका प्रसंग आवेगा और फिर ऐसा होनेपर कभी भी किसी जीवको मोक्ष नही होगा ।१०७३। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता ५. निमित्त भी द्रव्यरूपसे तो कर्ता है ही नहीं पर्याय रूपसे हो तो हो स सा./आ./१०० यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषङ्गाद् व्याप्यव्यापकभावेन तावन्न करोति, नित्यकर्तृत्वानुषङ्गान्निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न तत्कुर्यात् । अनित्यो योगयागावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारो । वास्तवमे जो घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्य स्वरूप कर्म है उन्हे आत्मा (द्रव्य ) व्याप्यव्यापकभावसे नही करता, क्योंकि यदि ऐसा करे तो तन्मयताका प्रसंग आ जावे, तथा वह निमित्त नैमित्तिक भावसे भी (उनको) नही करता, क्योंकि, यदि ऐसा करे तो सर्व अवस्थाओं में कतु त्व होनेका) प्रसंग आ जायेगा। अनित्य ( जो सर्व अवस्थाओमे व्याप्त नही होते ऐसे ) योग और उपयोग हो निमित्त रूप से उसके (परद्रव्यस्वरूप कर्म के) कर्ता है। (पं. ध /उ. / २०७३) २१ प्र. सा /त प्र / १६२ न चापि तस्य कारणद्वारेण कतृ ' द्वारेण कर्तृ प्रयोजकद्वारेण कर्त्रतुमन्तृवारेण या शरीरस्य कर्ताहमस्मि मम अनेक परमाणु पिण्डपरिणामात्मकशरीरकतु स्वस्य सर्वधा विरोधात उस शरीर के कारण द्वारा या कर्ता द्वारा या कर्ता के प्रयोजक द्वारा या कर्ता अनुमोदक द्वारा शरीरका कर्ता मै नहीं हूँ क्योंकि मेरे अनेक परमाणु द्रव्योके एक पिण्ड पर्यायरूप परिणामात्मक शरीरका कर्ता होने में सर्वथा विरोध है । ६. निमित्त किसीके परिणामों के उत्पादक नहीं हैं रा.वा./१/२/११/२०१५ स्पावेत-स्वपरनिमित्त उत्पादो दृष्टो किं कारणम् । उपकरणमात्रत्वात् । उपकरणमात्रं हि बाह्यसाधनम् । = प्रश्न- उत्पत्तिस्त्र व पर निमित्तोसे होती देखी जाती है, जैसे कि मिट्टी व दण्डादिसे पडेकी उत्पत्ति उत्तर-नहीं, क्योंकि निमित्त तो उपकरण मात्र होते हैं अर्थात् केवल बाह्य साधन होते है । ( अत. सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिने आत्मपरिगमन ही मुख्य है निमित्त नहीं ) स.सा./अ./३०२ एवं च सति सर्वथा न निमितान्तराणि स्वपरिणामस्योत्पादकान्येव । ऐसा होनेपर, सब द्रव्योंके, निमित्तभूत अन्यद्रव्य अपने ( अर्थात उन सर्वद्रव्योके) परिणामोके उत्पादक हैं। ही नहीं। = 1 प्र.सा./त प्र. / १८५ यो हि यस्य परिणमयिता दृष्ट स न तदुत्पादहानशून्यो दृष्ट, यथाग्निरय पिण्डस्य । ततो न स पुद्गलानां कर्मभावेन परिणमयिता स्यात् । जो जिसका परिणमन करानेवाला देखा जाता है वह उसके प्रत्यागसे रहित नहीं देखा जाता; जैसे अग्नि लोके गोले ग्रहण त्याग रहित है इसलिए वह (आत्मा) लोका कर्मभावसे परिमित करनेवाला नहीं है। पं.प./२५४-२५५ अर्धा स्पर्शादिय स्वरं ज्ञानमुत्पादयन्ति चैव घटादी ज्ञानशून्ये च तत्कि नोत्पादयन्ति ते । ३५४ | अथ चेच्चेतने द्रव्ये ज्ञानस्योत्पादका' कचित् । चेतनत्वात्स्वयं तस्य कि तत्रोत्पादयन्ति वा ३५५१ = यदि रपर्शादिक विषय स्वतन्त्र बिना आत्माके ज्ञान उत्पन्न करते हते तो वे ज्ञानशून्य घटादिको में भी वह ज्ञान क्यों उत्पन्न नही करते है | ३५४ | और यदि यह कहा जाय कि चेतन द्रव्य में कहीं पर ये ज्ञानको उत्पन्न करते है, तो उस आत्माके, स्वयं चेतन होनेके कारण, वहाँ वे नवीन क्या उसन्न करेगे । ७. स्वयं परिणमनेवाले इभ्यको निमित्त बेचारा क्या परिणमावे स.सा./११६] विपरिणममानं परिणममा पागलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयेत् । न तावनत्यमपरिणममानं परेण परिणमवित पार्मे न हि शक्तिपाते। २.निश्चय व्यवहार कर्ता कर्म भावकी कथंचित्""" स्वयं परिणममानं तु न पर परिणमयितारमपेक्षेत न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षते । तत पुद्गलद्रव्य परिणामस्वभाव स्वयमेवास्तु | = क्या जीव स्वयं न परिणमते हुए पुद्गलद्रव्यको कर्मभावरूपसे परिणामाता है या स्वयं परिणमते हुए को स्वयं अपरिणमते हुएको दूसरे द्वारा नहीं परिणमाया जा सकता, क्योंकि जो शक्ति ( वस्तुमे ) स्वयं न हो उसे अन्य कोई नही उत्पन्न कर सकता । और स्वयं परिणमते हुएको अन्य परिणमानेवालेकी अपेक्षा नहीं होती, क्योंकि वस्तुकी शक्तियों परकी अपेक्षा नही रखती। अत पुद्गल द्रव्य परिणमनस्वभावाला स्वयं हो (पं.ध../६२) ( (स्या.म /५/३०/११) F १/१.१.१.१६३/४०३/१) प्र.सा./त.प्र./६७ एवमस्यात्मन' संसारे मुक्तौ वा स्वयमेव सुखतया परिणममानस्य मुखसाधनधिया अनुधैर्मुपाध्यास्यमाना अपि विषया कि हि नाम कुर्युः । यद्यपि अज्ञानी जन 'विषय सुख के साधन है' ऐसी बुद्धिके द्वारा व्यर्थ ही विषयोंका अध्यास आश्रय करते हैं, तथापि संसार में या मुक्तिमें स्वयमेव सुखरूप परिणमित इस आत्माका विषय क्या कर सकते है। (पं. ध. /उ / ३५३) पका /त.प्र / ६२ स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकातरमपेक्षते । स्वयमेव षट्कारको रूप वर्तता हुआ या ( जोव ) अन्य कारककी अपेक्षा नहीं रखता। = पं. ध. / पू. / ५७१ अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमस्ति मिथः । न यतः स्वतो स्वयं वा परिणममानस्य कि निमित्ततया । यदि कदाचिद यह कहा जाये कि इन दोनों ( आत्मा व शरीरमे ) परस्पर निमित्तनैमित्तिकपना अवश्य है तो इस प्रकारका कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि स्वयं अथवा स्वतः परिणममान वस्तुके निमित्तकारणसे क्या प्रयोजन है । ८. एकको दूसरेका कर्ता कहना व्यवहार व उपचार परमार्थ नहीं स.सा./मू./१०५-१०७ जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं । जीवेग क क] यदि उवयारमण | १०३ जु राएण कर्दति जंपदे लोगो । ववहारेण तह कद णाणावरणादि जीवेण | १०६ । उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिण्हदि य । आदा पुग्गलदव्वं ववहारणयस्स वत्तव्य ॥१०७॥ = जीव निमित्तभूत होनेपर कर्मबन्धका परिणाम होता हुआ देखकर 'जीवने कर्म किया' इस प्रकार उपचारमात्रसे कहा जाता है । १०८ । योद्धाओके द्वारा युद्ध किये जानेपर राजाने युद्ध किया इस प्रकार लोक व्यवहारसे) कहते है। उसी प्रकार 'ज्ञानावरणादि कर्म जीवने किया ऐसा व्यवहारसे कहा जाता है । १०६ । "आत्मा पुइगल द्रव्य को उत्पन्न करता है, बाँधता है, परिणमन कराता है और ग्रहण करता है - यह व्यवहार नयका कथन है । सा.आ./१०५ पौगलिकर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मनादेरज्ञानातनिमित्तभूतेनाहानभावेन परिणममीभूते सति संपद्यमनस्वात् पौगलिक कमरमा कृतमिति निर्विकल्पविज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्प । स तूपचार एव न तु परमार्थ । इस लोकमे वास्तव में आत्मा स्वभाव से पौगलिक कर्मका निमित्तभूत न होनेपर भी, अनादि अज्ञानके कारण पौगलिक कर्मको निमित्तरूप होते हुए अज्ञानमाचमे परिणमता होनेसे निमित होनेपर पोसिक धर्म उत्पन्न होता है. इसलिए 'पौसिक धर्म आरमाने किया ऐसा निर्विकल्प विज्ञानघन्ते भ्रष्ट विकल्पपरायण अज्ञानियोका विकल्प है: वह विकल्प उपचार ही है. परमार्थ नहीं । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता ३. निश्चय व्यवहार की कर्म भावकी कथंचित्"" मानता है वही मारते है, स सा /आ/३५५ ततो निमित्तने मित्तिकभावमात्रेणेव तेत्र कतृ कर्म भोक्तृभोग्यव्यवहार । • मला इसलिए निमित्तने मित्तिक भावमात्रसे ही बहाँ कतृ कम और भोक्तृभोग्यका व्यवहार है। प्र.सा./त.प्र./१२१ तयारमा चात्मपरिणाम कतृत्वाद् दव्यकर्मकर्ताप्युप चाराव। आत्मा भी अपने परिणाम का कर्ता होनेसे द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचारसे है। प्र.सा./११८/प, जयचन्द "कर्म जीवके स्वभावका पराभव करता है ऐसा कहना सो तो उपचार कथन है । ५. एकको दूसरेका का कहना लोकप्रसिद्ध रूढ़ि है स.सि //२२/२६१/७ यद्य व कालस्य क्रियावत्वं प्राप्नोति। यथा शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयतीति । नैष दोषः, निमित्तमात्रेऽपि हेतुकतृ व्यपदेशो दृष्ट । यथा कारीषोऽग्निरध्यापयति । एवं कालस्य हेतुकतृ'ता। प्रश्न-यदि ऐसा है (अर्थाद द्रव्योकी पर्याय बदलनेवाला है) तो काल क्रियावान द्रव्य प्राप्त होता है। जैसे शिष्य पढता है और उपाध्याय पढाता है. यहाँ उपाध्याय क्रियावान द्रव्य है । उत्तर-यह कोई दाष नहीं है, क्योकि निमित्तमात्रमे भी हेतुकारूप व्यपदेश देखा जाता है जैसे कण्डेको अग्नि पढाती है। यहाँ कण्डेकी अग्नि निमित्तमात्र है। उसी प्रकार काल भो हेतुकर्ता है। रा. वा./१/६/११/४६/३२ लोके हि करणत्वेन प्रसिद्धरयासे, तत्पशसापरायामभिधानप्रवृतौ समीक्षिताय तेक्ष्यगौरबकाठिन्याहितविशेषोऽयमेव छिनत्ति' इति कतृ धर्माध्यारोप. क्रियते। -करणरूपसे प्रसिद्ध तलवार आदिको तोश्णता आदि गुगोको प्रशसामे 'तलबारने छेद दिया' इस प्रकारका कतृ स्वधर्म का अध्यारोपण करके कतृ साधन प्रयोग होता है। स.सा /आ./८४ कुलाल. कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादि रूढाऽस्ति त बयवहारः" कुम्हार धडे का कर्ता है और भाक्ता है ऐसा लोगोंका अनादिसे रूढ़ व्यवहार है। १०. वास्तनमें एकको दूसरेका कर्ता कहना असत्य है स.सा./मू./११६ वह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गल दव्यं । जोवा परिणामभदे कम्म कामत्तमिदि मिच्छा ।११। - अथवा यदि पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मभाबसे परिणमन करता है ऐसा माना जाये तो 'जोव कर्मको अर्थात् पुद्गलद्रव्यको कर्मरूप परिणमन कराता है, यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है। प्र.सा./१६/प, जयचन्द क्यो कि वास्तवमे कोई द्रव्य किसो द्रव्यका कर्ता व हर्ता नहीं है, इसलिए व्यवहारकारक असत्य है, अग्नेको आप ही कर्ता है इसलिए निश्चयकारक सत्य है। ११. एकको दूसरेका कर्ता माननेमे अनेक दोष आते हैं यो.सा./अ./२/३० एवं सपद्यते दोष सर्वथापि दुरुनर' । चेतनाचेतनद्रव्यविशेषाभावलवण. (३० = यदि कर्मको चेतनका और चेतनको कर्मका कर्ता माना जाये तो दोनो एक दूसरे के उपादान बन जानेके कारण (२७-२६), कौन चेतन और कौन अचेतन यह बात हो सिद्ध न हो सकेगी।३० स.सा./आ/३२ यो हि नाम फनदानसमर्थतया प्रादुर्भुय भावकत्वेन भवन्तमपि दूरत एव तदनुवृत्तरात्मनो भाव्यस्य व्यावत नेन हठान्माह न्यकृत्योपरत समस्तभाव्यभावकसकरदोपत्वेन टोत्कीर्ण आत्मान संचेतयते स खलु जितमोहो । महकर्म फल देनेकी सामर्थ्य से प्रगट उदयरूप होकर भावकपनेसे प्रगा हाता है, तथापि तदनुसार जिपको प्रवृत्ति है ऐसा जा आता आरमा-भाव्य, उसको भेदज्ञानके बल द्वारा दूरसे ही अलग करनेसे इस प्रकार बलपूर्वक मोहका तिररकार करके, समस्त भाव्यभावक स करदोष दूर हो जानेसे एकत्व मे टंकोत्कीर्ण अपने आत्माको जो अनुभव करते हैं वे निश्चयसे जितमोह है। पं.का./ता.वृ/२४/५१/५ अन्यद्रव्यस्य गुणोऽन्यद्रव्यस्य कतु नायाति संकर व्यतिकरदोषप्राप्ते । -अन्य द्रव्यके गुण अन्य द्रव्यके कर्ता नही हो सकते, क्योकि ऐसा माननेसे संकर व्यतिकर दोषोकी प्राप्ति होती है। पं.ध/पू /५७३ ५७४ नाभासत्वमसिद्ध स्यादपसिद्धान्तो नयस्यास्य । सदनेकरबे सति किल गुणसंक्रान्ति कुत प्रमाणाद्वा १२७३ गुणसंक्रान्तिमृते यदि कर्ता स्पा कर्मणश्च भोक्तात्मा। सर्वस्य सर्वस करदाष स्यात् सर्वशून्यदोषश्च १२७४१ =अपसिद्धान्त होनेसे इस नयको (कर्म , नोकर्मका व्यबहारसे जीव कर्ता व भोक्ता है) नयाभासपना असिद्ध नहीं है क्योकि सत्को अनेकत्व होनेपर और जीव ओर कर्मकि भिन्न-भिन्न होनेपर निश्चयसे किस प्रमाणसे गुण संक्रमण होगा ।५७३। और यदि गुणसक्रमणके बिना ही जीव कर्माका कर्ता तथा भाक्ता होगा तो सम पदार्थोमें सर्वसकरदोष और सर्वशून्यदोष हो जायेगा ।५७४। १२. एकको दूसरेका कर्ता माने सो अज्ञानी हैस.सा./मू./२४७,२५३ जो मण्णदि हिसामि य हिसिज्जामि य परेहि सत्तेहि । सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो ।२४७। जो अप्पणा दु मण्णदि दुश्विदमुहिदे करेमि सत्ते ति। सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो ।२५३। =जो यह मानता है में पर जीवोको मारता हूँ और पर जीव मुझे मारते है, वह मूढ है, अज्ञानी है। और इससे विपरीत ज्ञानी है ।२४७१ जो यह मानता है कि अपने द्वारा मै जीवोंको दुखी सुखो करता हूँ, वह मूढ है, अज्ञानी है। और इससे विपरोत है वह ज्ञानी है ।२५३। । स सा /आ/७१/क ५० अज्ञानारकत कर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न यावत् । विज्ञानाचिश्च कति क्रकचत्रदयं भेदमुत्पाद्य सद्य. १५० 'जीव पुदगलके कर्ताकर्म भाव है' ऐसी भ्रमबुद्धि अज्ञानके कारण यहाँ तक भासित होतो है कि जहाँ तक विज्ञानज्योति करवतकी भॉति निर्दयतासे जीव पुद्गलका तत्काल भेद उत्पन्न करके प्रकाशित नही होती। स.सा./आ/१७/क ६२ आरमा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम् । परभाषस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम १६२ - आत्मा ज्ञान स्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है; वह ज्ञानके अतिरिक्त अन्य क्या करे । आत्मा कर्ता, ऐसा मानना सो व्यवहारी जीवोंका मोह है। स.सा./आ./३२०/क १६६से तु करिमारमान पश्यन्ति तमसा तताः । सामान्यजनबत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम् । १६६। म जो अज्ञानांधकारमे आच्छादित होते हुए आत्माको कर्ता मानते है वे भले ही मोक्षके इच्छुक हो तभापि सामान्य जनोकी भाँति उनकी भी मुक्ति नहीं है तो १६ स सा /आ/१११ अथा तक ----पुद्गलमप्रमिथ्यात्वादीन् वेदयमानो जीव स्वयमेव मिथ्याष्टिभूया पुद्गलकर्म करोति । स किलाविवेका यतो न खल्वारमा भापभात्र कभावात् पुद्गलद्रव्यमयमिथ्यात्वादिवेदकोsपि कयं पुन पुद्गलकमंग कर्ता नाम । प्रश्न-पुद्गलमय मिथ्यात्वादि कर्मोको भागता हुआ जीव स्वयं ही मिथ्यादृष्टि होकर पुद्गल कम को करता है 1 -- उत्तर-यह तर्क वास्तवमे अविवेक है, क्योकि भावभावकभावका अभाव होनेसे आ मा निश्चयसे पुद्गलद्रव्यमय मिथ्वात्यादिका भोक्ता भी नहीं है, तब फिर पुद्गल कर्मका कर्ता कैसे हो सकता है ? रात ज्ञानी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता ४. निश्चय व्यवहार कर्ता-कर्म भावका समन्वय कभावसे उसीको भोगे, तो वह जीव अपनी व परकी एकत्रित हुई दो क्रियाओसे अभिन्नताका प्रसंग आनेपर मिथ्याष्टिताके कारण सर्वज्ञके मतसे बाहर है। १३. एकको दूसरेका कर्ता माने सो मिथ्यादृष्टि हैयो.सा /अ/४/१३ कोऽपि कस्यापि कर्तास्ति नोपकारापकारयोः। उप कुर्वेऽपकुर्वेऽई मिथ्येति क्रियते मतिः ।१३। - इस ससारमें कोई जीव किसी अन्य जीवका उपकार या अपकार नहीं कर सकता। इसलिए 'मै दूसरे का उपकार या अपकार करता हूँ' यह बुद्धि मिथ्या है। स/सा /आ./३२१,३२७ ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते; लौकिकानां परमात्मा विष्णु. सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा करोतोत्यपसिद्धान्तस्य समत्वात् ।३२११ योऽयं परद्रव्ये कर्तृ व्यवसाय' स तेषां सम्यग्दर्शनरहितत्वादेव भवति इति सुनिश्चितं जानीयात् ।३२७ =जो आत्माको कर्ता ही देखते हैं वे लोकोत्तर हो तो भी लौकिकताको अतिक्रमण नहीं करते, क्योकि, लौकिक जनोंके मतमें परमात्मा, विष्णु, देव, नारकादि कार्य करता है और उनके मतमे अपना आत्मा वह कार्य करता है। इस प्रकार ( दोनोंमें ) अपसिद्धान्त की समानता है ।३२१॥ लोक और श्रमण दोनो मे जो यह परद्रव्यभे कतृत्वका व्यवसाय है वह उनकी सम्यग्दर्शन रहितताके कारण ही है । (स.सा /मूल भो) पंध/पू./५८०-५८१ अपरे बहिरात्मनो मिथ्यावाद वदन्ति दुर्मतय. । यदबद्ध ऽपि परस्मिन् कर्ता भोक्ता परोऽपि भवति यथा।५८०। सद्वेद्योदयभावात् गृहधनधान्यं कलत्रपुत्रांश्च । स्वमिह करोति जोवो भुनक्ति वा स एव जीवश्च ।५८१३ - कोई खोटी बुद्धि वाले मिथ्यादृष्टि जीव इस प्रकार मिथ्याकथनका प्रतिपादन करते हैं, जो बन्धको प्राप्त नहीं होनेवाले पर पदार्थ के विषय में भी अन्य पदार्थ कर्ता और भोक्ता होता है ।५८०। जैसे कि साता वेदनीयके उदयसे प्राप्त होनेवाले घर, धन, धान्य और स्त्री-पुत्र वगैरहको जीव स्वयं करता है तथा वही जीव ही उनका भोग करता है ।५८१। १४. एकको दूसरेका कर्ता कहनेवाला अन्यमती है स सा./म् /८५,११६-११७ जदि पुग्गलकम्ममिणं कुम्वदि तं चेव वेदयदि आदा। दो किरियाविदिरित्तो पसजदि सो जिणावमदं ।८। जीवे ण सयं बद्र ण सयं परिणमदि कम्मभावेण । जइ पुग्गल दवमिण अप्परिणामी तदा होदि ।११६। कम्मइयवग्गणासु य अपरिणमंतीस कम्मभावेण । ससारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा १११७॥ = यदि आत्मा इस पुद्गलकर्मको करे और उसोको भोगे तो वह आत्मा दो क्रियाओसे अभिन्न ठहरे ऐसा प्रसंग आता है. जो कि जिनदेवको सम्मत नहीं हैं।८। यह पुदगल द्रव्य जीवमें स्वयं नहीं बन्धा और कर्मभावसे भी स्वयं नहीं परिणमता', यदि ऐसा माना जाये तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है; और इस प्रकार कार्मणवर्गणाएँ कर्मभावसे नहीं परिणमती होनेसे संसारका अभाव ( सदा शिवबाद ) सिद्ध होता है अथवा सारख्यमतका प्रसंग आता है १११६-११७) १५. एकको दूसरेका कर्ता कहनेवाले सर्वज्ञके मतसे बाहर हैं स.सा /आ./८५ वस्तुस्थित्या प्रतपत्यां यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च जीवस्तथाव्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात भाव्यभावकभावेन तदेवानुभवेच्च ततोऽयं स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायो प्रसजन्त्यां मिथ्यादृष्टितया सर्वज्ञावमत' स्यात् । = इस प्रकार वस्तु स्थितिसे ही, (क्रिया और कर्ताको अभिन्नता) सदा प्रगट होनेसे, जैसे जीव व्याप्यव्यापकभावसे अपने परिणामको करता है और भाव्यभावकभावसे उसीका अनुभव करता है। उसी प्रकार यदि व्याप्यव्यापकभावसे पुद्गलकर्मको भी करे और भाव्यभाव ४. निश्चय व्यवहार कर्ता-कर्म भावका समन्वय १. व्यवहारसे ही निमित्तको कर्ता कहा जाता है निश्चयसे नहीं स.सा/आ./३५५ क २१४ यत्तु वस्तु कुरुतेऽन्यवस्तुनः, किंचनापि परिणामिन. स्वयम् । व्यावहारिकदशैव तन्मतं, नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात् ।२१४। - एक वस्तु स्वयं परिणमित होतो हुई अन्य वस्तुका कुछ भी कर सकती है ऐसा जो माना जाता है, सो व्यवहारदृष्टिसे ही माना जाता है। निश्चयसे इस लोकमे अन्यवस्तुको अन्यवस्तु कुछ भी नहीं है। २. व्यवहारसे ही कर्ता कर्म भिन्न दिखते हैं निश्चयसे दोनों अभिन्न हैं स.सा /आ./३४८ क २१० व्यावहारिकदृशैव केवलं, कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते। निश्चयेन यदि वस्तु चित्यते; कर्तृ कर्म च सदै कमिष्यते १२१०। केवल व्यावहारिक दृष्टिसे ही कर्ता और कर्म भिन्न माने जाते है, यदि निश्चयसे वस्तुका विचार किया जाये तो कर्ता और कर्म सदा एक माना जाता है। ३. निश्चयसे अपने परिणामोंका कर्ता है पर निमित्तको अपेक्षा परपदार्थों का भी कहा जाता है स सा./मू./३५६-३६५ जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होइ। तह जाणओ दुण परस्स जाणओ जाणओ सो दु ।३६६। एवं तु णिच्छयणयस्स भासियं णाणदंसणचरित्ते । सुणु वबहारणयस्स य बत्तब्ब से समासेण ।३६०। जह परदव सेडयदि ह से डिया अप्पणो सहावेण । तह परदव्वं जाणइ गाया वि सयेण भावेण ।३६११ एवं बबहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते । भणिओ अण्णेसु वि पज्जएसु एमेव णायव्वा ।३६५१-जैसे खडिया पर (दीवाल आदि ) को नही है, खडिया तो खडिया है, उसी प्रकार ज्ञायक (आत्मा) परका नही है, ज्ञायक तो ज्ञायक ही है ।३५६। क्योंकि जो जिस का होता है वह वही होता है, जैसे आत्माका ज्ञान होनेसे ज्ञान आत्मा ही है ( आ ख्याति टीका)। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्रमें निश्चयका कथन है । अब उस सम्बन्धमें संक्षेपसे व्यवहार नयका कथन सुनो ।३६०। जैसे खडिया अपने स्वभावसे (दीवाल आदि ) परद्रव्यको सफेद करती है उसी प्रकार ज्ञाता भी अपने स्वभावसे परद्रव्यको जानता है ।३६१। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्रमें व्यवहारनयका निर्णय कहा है। अन्य पर्यायों में भी इसी प्रकार जानना चाहिए ।३६॥ (यहाँ तात्पर्य यह है कि निश्चय दृष्टिमें वस्तुस्वभावपर ही लक्ष्य होनेके कारण तहाँ गुणगुणी अभेदकी भॉति कर्ता कर्म भावमे भी परिणाम परिणामी रूपसे अभेद देखा जाता है। और व्यवहार दृष्टि में भेद व निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धपर लक्ष्य होनेके कारण तहाँ गुण-गुणी भेद की भॉति कर्ता-कर्म भाबमें भी भेद देखा जाता है। ) (स.सा./२२ को प्रक्षेपक गाथा) पं.का./ता.वृ./२६/५४/१८ यथा निश्चयेन पुद्गलपिण्डोपादानकारणेन समुत्पन्नोऽपि घटः व्यवहारेण कुम्भकारनिमित्तेनोत्पन्नत्वाकुम्भकारेण कृत इति भण्यते तथा समयादिव्यवहारकालो...। जिस प्रकार निश्चयसे पुदगलपिण्डरूप उपादानकारणसे उत्पन्न हुआ भी घट व्यवहारसे कुम्हारके निमित्तसे उत्पन्न होनेके कारण कुम्हारके द्वारा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता २४ कन्वय क्रिया किया गया कहा जाता है, उसी प्रकार समयादि व्यवहार काल भी अन्य वस्तुके साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध किया गया है, इसलिए ....(पं.का./त.प्र./६८) जहाँ वस्तुभेद है अर्थात भिन्न वस्तुएं हैं वहाँ कर्ताकर्म घटना नहीं ४ भिन्न कर्ता-कर्म भावके निषेधका कारण होती। इस प्रकार मुनिजन और लौकिक जन तत्वको (वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ) अक देखो, (यह श्रद्धामे लाओ कि कोई किसीका कर्ता स.सा./मू.व.आ./ यदि सो परदवाणि य करिज णियमेण तम्मओ नहीं है, पर द्रव्य परका अकर्ता ही है ) ॥ २०१॥ जो इस वस्तुहोज । जम्हा ण तम्मओ तेण सो ण तेसि हबाद कत्ता।। स्वभावसे नियमको नहीं जानते वे बेचारे, जिनका तेज ( पुरुषार्थ या परिणामपरिणामिभावान्यथानुपपत्ते नियमेन तन्मय' स्यात् । = यदि पराक्रम) अज्ञानमे डूब गया है ऐसे, कर्म को करते हैं; इसलिए भाव, आत्मा पर द्रव्योंको करे तो वह नियमसे तन्मय अर्थात परद्रव्यमय कर्मका कर्ता चेतन हो स्वयं होता है, अन्य कोई नहीं । २०२ । हो जाये किन्तु तन्मय नहीं है इसलिए वह उनका कर्ता नहीं है। ६. मिन्न कर्ताकर्म व्यपदेशका कारण (तन्मयता हेतु देनेका भी कारण यह है कि निश्च यसे विचार करते हुए परिणामी कर्ता है और उसका परिणाम उसका कर्म ) यह स सा/मू/३१२-३१३ चेया हु उ पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ । पयडी वि परिणामपरिणामीभाव क्योकि अन्य प्रकार बन नहीं सकता इसलिए चेययट्ठ उपजइ विणस्सइ । ३१२ । एवं बंधो उ दुह बि अण्णोण्णउसे नियमसे तन्मय हो जाना पड़ेगा। प्पञ्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायए। ३१३ । - स.सा/आ/७५ व्याप्यव्यापकभावाभावाव कर्तृकर्मत्वासिद्धौ। -( भिन्न तत एव च तयो कतृकर्मव्यबहार' । आ. ख्याति. टीका चेतक द्रव्योमें) व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे कर्ता कर्म भावकी अर्थात् आश्मा प्रकृति के निमित्तसे उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। असिद्धि है। तथा प्रकृति भी चेतनके निमित्तसे उत्पन्न होती है तथा नष्ट होती है। सा.सा/आ/८५६ह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतयान नाम इस प्रकार परस्पर निमित्तसे दोनों ही आत्मा का और प्रकृतिका बन्ध परिणामताऽस्ति भिन्ना, परिणामोऽपि परिणामपरिणामिनोरभिन्न होता है। और इससे संसार उत्पन्न हो जाता है। ३१२-३१३ । इस वस्तुत्वाव परिणामिनोन भिन्नस्ततो या काचन क्रिया किल सकलापि लिए उन दोनों के कर्ताकर्म का व्यवहार है। सा क्रियावतो न भिन्नेति क्रियाकोरव्यतिरिक्तताया वस्तुस्थित्या ७. भिन्न कर्ताकम व्यपदेशका प्रयोजन प्रतपत्यां यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च जोवस्तथा व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गल द्र.सं /टी /८/२२/४ यतो हि नित्यनिरज्जननिष्क्रियनिजात्मभावनाकर्मापि यदि कुर्यात् भावप्रभावकभावेन तदेवानुभवेच्च तताऽयं रहितस्य कर्मादिकर्तृत्वं व्याख्यातम्, ततस्तत्रैव निजशुद्धात्मनि स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रसजन्त्यां स्वपरयोः परस्पर भावना कर्तगा। क्योंकि नित्य निरञ्जन निष्क्रिय ऐसे अपने विभागप्रत्यस्तमनादनेकात्मकमेकमात्मानमनुभवन्मिथ्यादृष्टितया सर्व आत्मस्वरूपकी भावनासे रहित जीवके कर्मादिका कतृत्व कहा गया है, इसलिए उस निज शुद्धात्मामें ही भावना करनी चाहिए । ज्ञावमत' स्यात् । -( इस रहस्यको समझनेके लिए पहले ही यह बुद्धिगोचर करना चाहिए कि यहाँ निश्चय दृष्टिसे मोमांसा की जा ८. कर्ताकर्म भाव निर्देशका मतार्थ व नयार्थ रहो है व्यवहार दृष्टिसे नहीं। और निश्चयमे अभेद तत्वका विचार स,सा/ता.व./२२ की प्रक्षेपक गाथा-अनुपचारितासभूतव्यहारनयाद करना इष्ट होता है भेद तत्त्व या निमित्त नै मित्तिक सम्बन्ध का नही।) पुद्गलद्रव्यकर्मादीना कति =अनुपरित असद्भूत व्यवहारसे ही जगत में जा क्रिया है सो सब हो परिणाम स्वरूप होनेसे वास्तवमे आत्मा पुद्गलद्रव्यका या कर्म आदि कोका कर्ता है। परिणामसे भिन्न नहीं है ( परिणाम हो है), परिणाम भा परिणामी प. का/ता बृ./२७/६९/१० शुद्धाशुद्धपरिणामकर्तृत्वब्याख्यानं तु (द्रव्य ) से भिन्न नही है क्योकि परिणाम और परिणामी अभिन्न नित्याक वे कान्तसारख्यमतानुयायिशिष्यसबोधनार्थ, भोक्तृत्ववस्तु हैं । इसलिए ( यह सिद्ध हुआ) कि जो कुछ क्रिया है वह सब व्याख्यान कर्ता कर्म फलं न भुक्त इति बौद्धमतानुसारिशिष्यहो क्रियावात्से भिन्न नहीं है। इस प्रकार वस्तुस्थितिसे हो क्रिया प्रतिबोधनार्थम् । = शुद्ध व अशुद्ध परिणामों के कर्तापनेका और कर्ताको अभिन्नता सदा हो प्रगटित होनसे, जैसे जीव व्याप्य व्याख्यान, आत्माको एकान्तसे नित्य अकर्ता माननेवाले सारख्यव्यापकभ वसे अपने परिणामको करता है और भाव्यभावकभावसे मतानुसारी शिष्यके सम्बोधनार्थ किया गया है, और भोक्तापनेका उसीका अनुभव करता है-उसो प्रकार यदि व्याप्यव्यापकभावसे व्याख्यान, 'कर्ता स्वयं कर्म के फल को नहीं भोगता' ऐसा माननेवाले पुदगलकर्मको भो करे और भाव्यभावकभावसे उसाका भागेता वह बौद्ध मतानुसारी शिष्यके प्रतिबोधनार्थ है। जोव अपनी व परको एकत्रित हुई दो क्रियाओसे अभिन्नताका प्रसग कर्तावाद-ईश्वर कर्तावाद-दे० परमात्मा/३। आनेपर स्व-परका परस्पर विभाग अस्त हो जानेसे, अनेकद्रव्यस्वरूप एक आत्माका अनुभव करता हुआ मिथ्याष्टिताके कारण सर्वज्ञके कतत्वमतसे बाहर है। रा.वा २/७/१३/११२/३. कतृत्वमपि साधारण क्रियानिष्पत्तौ सर्वेषां स्वातन्यात् । = कर्तृत्व भी साधारण धर्म है क्योंकि अपनी-अपनी ५. भिन्न कर्ताकर्ममावके निषेधका प्रयोजन क्रियाकी निष्पत्तिमे सब द्रव्योकी स्वतंत्रता है। स सा/आ/३२१/क २००-२०२ नास्ति सर्वोऽपि संबन्ध' परद्रव्यात्म- स.सा /आ/परि./शक्ति नं०४२ भवत्तारूपसिहरूपभावभावकत्वमयी तत्त्वयोः । कतृ कमत्वसंबन्धाभावे तत्कत ता कुत'। २००। एकस्य कर्तृ शक्ति। ४२ । प्राप्त होने रूपता जो सिद्धरूप भाव है, उसके वस्तुनो ह्यन्यतरेण साधं, संबन्ध एव सवलोऽपि यतो निषिद्ध । भावकत्वमयी कतृत्वशक्ति है। तत्कर्तृ कर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे, पश्यन्त्वकत मुनयश्च जनाश्च पं.का./त.प्र./२८ समस्तवस्त्वसाधारणं स्वरूपनिर्वर्तनमात्रं कर्तृत्व । - तत्त्वम् । २०१। ये तु स्वभावनियम कलयन्ति नेममज्ञानमग्नमहसो समस्त वस्तुओंसे असाधारण ऐसे स्वरूपकी निष्पत्तिमात्ररूप बत ते बराकाः । कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म, कर्ता स्वयं भवति कतृत्व होता है। चेतन एव नान्य' ।२०२१ = परद्रव्य और आत्माका कोई भी सम्बन्ध कत नय-दे० नघ/I/५ 1 नहीं है तब फिर उनमें कर्ताकर्म सम्बन्ध कैसे हो सकता है। इस इस कत समवायिनी क्रिया-दे० क्रिया/१ । प्रकार जहाँ कर्ताकर्म सम्बन्ध नहीं है, वहाँ आत्माके परद्रव्यका । कतृ त्व कैसे हो सकता है १२०० ॥ क्योकि इस लोकमें एक वस्तुका कन्वय क्रिया---दे. संस्कार/२। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक कर्म द्रव्य भाव या अजीव जीव कर्मों के लक्षण । नोकर्मका लक्षण। गुणिक्षपित कर्माशिक -दे०क्षपित। कर्मफलका अर्थ -विशेष दे० उदय। ३ द्रव्यमाव कर्म निर्देश कर्नाटक-आन्ध्र देशमें अर्थात् गोदावरी व कृष्णा नदीके मध्यवर्ती क्षेत्रके दक्षिण-पश्चिमका 'वनवास' नामका वह भाग जिसके अन्तर्गत मैसुर भी आ जाता है। इसको राजधानियाँ मैसूर व रंगपत्तन थीं। (म. पु./प्र०/५० पं० पन्नालाल), (ध/३/प्र.४/H.L Jain)। जहाँ-जहाँ कनडी भाषा बोली जाती है वह सब कर्नाटक देश है अर्थात् मैसूरसे लेकर द्वारसमुद्र तक (द्र.सं./प्र.५/पं. जवाहर लाल)। कबूक-भरत क्षेत्र पश्चिम आर्य खण्डका एक देश-दे०मनुष्य/४ । कर्म-'कर्म' शब्दके अनेक अर्थ हैं यथा-कर्म कारक, क्रिया तथा जीबके साथ बन्धनेवाले विशेष जातिके पुदगल स्कन्ध । कर्म कारक जगत् प्रसिद्ध है, क्रियाएँ समवदान व अध'कर्म आदिके भेदसे अनेक प्रकार हैं जिनका कथन इस अधिकार में किया जायेगा। परन्तु तीसरे प्रकारका कर्म अप्रसिद्ध है। केवल जैनसिद्धान्त ही उसका विशेष प्रकारसे निरूपण करता है। वास्तवमें कर्मका मौलिक अर्थ तो क्रिया ही है। जीव-मन-वचन कायके द्वारा कुछ न कुछ करता है, वह सब उसकी क्रिया या कर्म है और मन, वचन व काय ये तीन उसके द्वार हैं। इसे जोव कर्म या भाव कर्म कहते हैं। यहाँ तक तो सबको स्वीकार है। परन्तु इस भाव कर्म से प्रभावित होकर कुछ सूक्ष्म जड़ पुद्गल स्कन्ध जोबके प्रदेशोमे प्रवेश पाते हैं और उसके साथ बंधते हैं यह बात केवल जैनागम ही बताता है। ये सूक्ष्म स्कन्ध अजीव कर्म या द्रव्य कर्म कहलाते हैं और रूप रसादि धारक मूर्तीक होते हैं। जैसेजैसे कर्म जीव करता है वैसे ही स्वभावको लेकर ये द्रव्य कर्म उसके साथ बँधते है और कुछ काल पश्चात परिपक्व दशाको प्राप्त होकर उदयमें आते हैं। उस समय इनके प्रभावसे जीवके ज्ञानादि गुण तिरोभूत हो जाते हैं। यही उनका फलदान कहा जाता है। सूक्ष्मताके कारण वे दृष्ट नहीं हैं। समवदान आदि कर्म निर्देश कर्म सामान्यका लक्षण। कमके समवदान आदि अनेक भेद। समवदान कर्मका लक्षण । अधःकर्म, ईर्यापथ कर्म, कृतिकर्म, तपःकर्म और सावधकर्म -दे० वह वह नाम । आजीविका सम्बन्धी असि मसि आदि कर्म प्रयोगकर्मका लक्षण । -दे० सावय। ५ | चितिकर्म आदि कोका निर्देश व लक्षण । जीवको ही प्रयोग कर्म कैसे कहते हो। समवदान आदि कमों में स्थित जीवों में द्रव्यार्थता व प्रदेशार्थता का निर्देश कर्म व नोकर्म पागम द्रव्य निक्षेप -दे० निक्षेप/५ । समवदान आदि कर्मों की सत्संख्या आदि आठ प्ररूपणाएँ -दे० वह वह नाम । द्रव्य भावकम व नोकर्मरूप भेद व लक्षणकर्म सामान्यका लक्षण। कर्मके भेद-प्रमेद (द्रव्यभाव व नोकर्म )। कर्मों के शाना बरणादि भेदव उनका कार्य -दे० प्रकृतिबन्ध/१। कम जगत्का स्रष्टा है। कर्म सामान्यके अस्तित्वकी सिद्धि । कर्म व नोकर्ममें अन्तर। कर्म नोकर्म द्रव्य निक्षेप व संसार -दे०निक्षेप/५व संसार/२/२ छहों ही द्रव्योंमें कथंचित् द्रव्यकर्मपना देखा बा सकता है। जीव व पुद्गल दोनोंमें कथंचित् भाव कमपना देखा जा सकता है। शप्ति परिवर्तनरूप कर्म भी संसारका कारण है। शरीरको उत्पत्ति कर्माधोन है। कर्मोंका मूर्तत्व व रसत्व आदि उसमें हेतु -दे० मूर्त । अमूर्त जीवसे मूर्तकर्म कैसे बँधे -दे० बन्ध/२ । द्रव्यकर्मको नोजाव भी कहते हैं -दे० जीव/१ । कर्म सूक्ष्म स्कन्ध हैं स्थूल नही -दे० स्कन्ध/ द्रव्यकर्मको अवधि मनःपर्यय ज्ञान प्रत्यक्ष जानते हैं -दे०बन्ध/२ व स्वाध्याय/१। द्रव्यकर्मको या जीवको ही क्रोध आदि संशा कैसे प्राप्त होती है -दे० कषाय/२। कर्म सिद्धान्तको जाननेका प्रयोजन । | अन्य सम्बन्धित विषय *कर्मों के बन्ध उदय सत्त्वको प्ररूपणाएँ -दे० वह वह नाम । कर्म प्रकृतियोंमें १० करणोंका अधिकार -दे०करण/२। कमोंके क्षय उपशम श्रादि व शुद्धाभिमुख परिणाममें केवल भाषाका भेद है -दे० पद्धति । जोव कर्म निमित्त नैमित्तिक भाव -दे० कारण/III/३,५॥ | भाव कमका सहेतुक अहेतुकपना-दे० विभाव/३-५ । अकृत्रिम कर्मोंका नाश कैसे हो -दे० मोक्ष/६ । उदीर्ण कर्म -दे० उदीरणा/१। आठ कर्मों के पाठ उदाहरण -दे० प्रकृतिबन्ध/३॥ जीव प्रदेशोंके साथ कम स्कन्ध भी चलते हैं -दे०जीव/४। किर्या के अर्थ में कर्म -दे० योग। कर्म कथंचित चेतन है और कथंचित अचेतन -२० मन.१२ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-४ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म १. समवदान आदि कर्म-निर्देश १. समवदान आदि कर्म-निर्देश १. कर्म सामान्यका लक्षण वैशे. द./१-१/१७/३१ एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति __ कर्मलक्षणम् ॥१७॥ वैशे. द./५-१/१/१५० आत्मसंयोगप्रयत्नाभ्या हस्ते कर्म -१. एक द्रव्यके थाश्रय रहनेवाला तथा अपनेमें अन्य गुण न रखनेवाला बिना किसी दूसरेकी अपेक्षाके संयोग और विभागमें कारण होनेवाला कर्म है । गुण व कर्ममें यह भेद है कि गुण तो संयोग विभागका कारण नहीं है और कर्म उनका कारण है ।१७। २. आत्माके संयोग और प्रयत्नसे हाथमें कर्म होता है ।। नोट-जैन वाड्मयमे यही लक्षण पर्याय व क्रियाके हैं -दे० वह वह नाम । अन्तर इतना ही है कि वैशेषिक जन परिणमनरूप भावास्मक पर्यायको कर्म न कहकर केवल परिस्पन्दन रूप क्रियात्मक पर्यायको ही कहता है, जबकि जैनदर्शन दोनों प्रकारको पर्यायों को। यथारा. वा./६/१/३/१०४/११ कर्मशब्दोऽनेकार्थ:-क्वचित्कर्तुरीप्सिततमे वर्तते-यथा घट करोतीति । क्वचित्पुण्यापुण्यवचन' - यथा "कुशलाकुशल कर्म" [ आप्त मी.८] इति। कचिच्च क्रियावचनः -यथा उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि [वैशे./१/१/७] इति । तत्रेह क्रियावाचिनो ग्रहणम् । =कर्म शब्दके अनेक अर्थ हैं-'घटं करोति' में कर्मकारक कर्मशब्दका अर्थ है । 'कुशल अकुशल कर्म' में पुण्य पाप अर्थ है । उत्क्षेपण अवक्षेपण आदिमें कर्मका क्रिया अर्थ विवक्षित है। यहाँ आम्रवके प्रकरणमें क्रिया अर्थ विवक्षित है अन्य नहीं ( क्योंकि वही जड़ कोक प्रवेशका द्वार है)। २. कर्मके समवदान भादि अनेक भेद (ष.वं. १३/५,४/सू.४.२८/३८-८८), प्रमाण = सूत्र/पृष्ठ संजम-जोग-कसाएहि अट्ठकम्मसरूवेण सत्तकम्मसरूवेण छकम्मसरूपेण वा भेदो समुदाणद त्ति बुत्तं होदि । -[समवदान शब्दमें 'सम्' और 'अब' उपसर्ग पूर्वक 'दाप् लबने' धातु है। जिसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-] जो यथाविधि विभाजित किया जाता है वह समवदान कहलाता है। और समवदान ही समवदानता कहलाती है। कार्मण पुदगलोका मिथ्यात्व, असंयम, योग और कषायके निमित्तसे आठ कर्मरूप, सात कर्मरूप और छह कर्मरूप भेद करना समवदानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ४. प्रयोग कर्मका लक्षण प.सं. १३/५,४/सू. १६-१७/४४ ते तिविहं-मणपयोअकम्मं वचिपओ अकम्म कायपओअकम्म।१६। तं संसारावस्थाण वा जीवाणं सजोगिकेवलीणं वा ।१७) -वह तीन प्रकारका है--मनःप्रयोगकर्म, वचनप्रयोगर्म और कायप्रयोगकर्म ।१६। वह संसार अवस्थामें स्थित जीवोंके और सयोगकेवलियोंके होता है ।१७ (अन्यत्र इस प्रयोग कर्मको ही 'योग' कहा गया है।) ५. चितिकर्म आदि कमौका निर्देश व लक्षण मू.आ./४२८/५७६ अप्पासुएण मिस्सं पासुगदव्वं तु पूदिकम तं । चुल्ली उक्खलि दव्वी भायणगंधत्ति पंचविहं ।४२८। किदियकम्मं चिदियकम्मं पूयाकम्मं च विणयकम्मं च । कादव्वं केण कस्स व कथं व कहिं व कदिखुत्तो ।५७६। = प्रासुक आहारादि वस्तु सचित्तादि वस्तुसे मिश्रित हों वह पूति दोष है-दे० आहार/II/४ ! प्रामुक द्रव्य भी पूतिकर्म से मिला पूतिकर्म कहलाता है। उसके पाँच भेद हैं-चूली, ओखली, कड़छी, पकानेके बासन, गन्धयुक्त द्रव्य । इन पाँचोंमें संकल्प करना कि चूलि आदिमें पका हुआ भोजन जब तक साधुको न दे दें तबतक किसीको नहीं देंगे। ये ही पाँच आरम्भ दोष है।४२८१ जिससे आठ प्रकारके कर्मोंका छेद हो वह कृतिकर्म है, जिससे पुण्य कर्मका संचय हो वह चित्कर्म है, जिससे पूजा की जाती है वह माला चन्दन आदि पूजा कर्म है, शुश्रूषाका करना विनयकर्म है। ६. जीवको ही प्रयोगकर्म कैसे कहते हो ध. १३/५,४,१७/४/२ कधं जीवाणं पोअकम्मववएसो। ण, पओअं करेदि त्ति पओअकम्मसद्दणिप्पत्तीए कत्तारकारए कीरमाणाए जीवाणं पि पओअकम्मत्तसिद्धीदो। -प्रश्न-जीवोंको प्रयोग संज्ञा कैसे प्राप्त होती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रयोगको करता है' इस व्युत्पत्तिके आधारसे प्रयोगकर्म शब्दकी सिद्धि कर्ता कारकमें करनेपर जीवोंके भी प्रयोगकर्म संज्ञा बन जाती है। ७. समवदान आदि कर्मों में स्थित जीवों में द्रव्यार्थता व प्रदेशार्थताका निर्देश ध. १३/५,४,३१/१३/१दव्वपमाणाणुगमे भण्णमाणे ताव दव्यद्वद-पदेसट्टदाणं अत्यपरूवणं कस्सामो । त जहा-पओअकम्म-तवोकम्मकिरियाकम्मेसु जीवाणं दव्बद्वदा त्ति सण्णा । जीवपदेसाणं पदेसद्वदा त्ति ववएसो। समोदाणकम्म-इरियावथकम्मेसु जीवाणं दबट्ठदा त्ति ववएसो। तेसु चेव जीवेसु हिदकम्मपरमाणूण...पदेसठ्ठदा त्ति सण्णा । आधाकम्मम्मि.. ओरालियसरीरणोकम्मक्रवंधाणं दव्यट्ठदा ति सण्णा । तेसु चेव ओरालियसरीरणोकम्मरबंधेस हिदपरमाणूणं...पदेसट्ठदा त्ति सण्णा । द्रव्य प्रमाणानुगमकका कथन करते समय सर्व प्रथम द्रव्यार्थताके अर्थका कथन करते हैं। यथा-- प्रयोगकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म में जीवोंकी द्रव्यार्थता संज्ञा है, और जीवप्रदेशोंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है। समवधान और ईर्यापथ कर्म एक नाम स्थापना द्रव्य प्रयोग संमत-अंध ईया-तप किया भात दान ।। पथा L 180 नोआगमक r.diheel 327 Hirite नाना 2017 उपद्रावण-आत्माधीनता नानाअ- अक्ष वराटक इत्यादि प्रदक्षिणक्य एकजी विद्रावणएक " कृतित्रय एकजीनानाअ. परितापन- अवनतित्रय मानाजी एक शिरीनतिचतुः नानाजी. आरम्भ -आवर्तद्वादश नानाअ.192/89 चित्र भिति भेड इत्यादि इत्यादि ३. समवदान कमका लक्षण ष.वं.१३/५,४/सू.२०/४५ त' अट्ठविहस्स वा सत्तविहस्स पा छब्विहस्स वा कम्मस्स समुदाणदाए गहणं पयत्तदि ते सव्वं समुदाणकम्म णाम ।२०। -यतसात प्रकारके, आठ प्रकारके और छह प्रकारके कर्मका भेदरूपसे ग्रहण होता है अत. वह सब समवदान कर्म है। ध. १३/५,४,२०/४५/६ समयाविरोधेन समवदीयते खण्ड्यत इति समवदानम्, समवदानमेव समवदानता। कम्मइयपोग्गलणं मिच्छत्ता जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म कर्ममें जीवोंकी प्रार्थता संज्ञा है, और उन्हीं जीवोंमें स्थित... कर्म परमाणुओंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है । अधः कर्म में औदारिक शरीरके नोकर्मस्कन्धों की प्रत्यार्थता संज्ञा है और उन्हीं शरीरोंमें स्थित परमाणुओंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है। २७ २. द्रव्य भाव व नोकर्म रूप भेद व लक्षण १. कर्म सामान्यका लक्षण रा.वा./६/१/७/५०४/२६ कर्मशब्दस्य कर्त्रादिषु साधनेषु संभवत्सु इच्छातो विशेषोऽव्ययः । भीर्यान्तरायज्ञानावरणक्षमक्षयोपशमापेक्षेण आत्मनात्मपरिणामः पुद्गलेन च स्वपरिणामः व्यत्ययेन च निश्चयव्यवहारयापेक्षया क्रियत इति कर्मकरणमा विवक्षायां - धर्माध्यारोपे सति स परिणामः कुशलमकुशलं मा द्रव्यभावरूपं करोंतीति कर्म आत्मनः प्राधान्यविवक्षायां तु सति परिणामस्य करणरवोपपत्ते' बहुतापेक्षया क्रियतेऽनेन कर्मेत्यपि भवति । साध्याधन भावानभिधित्सायां स्वरूपावस्थिततत्त्वकथनात् कृति: कर्मेत्यपि भवति । एवं शेषकारकोपपत्तिश्च योज्या । - कर्म शब्द कर्ता कर्म और भाव तीनों साधनोंने निष्पन्न होता है और विवक्षानुसार तीनों यहाँ (कर्मा के प्रकरणने ) परिगृहीत हैं। १. वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेवाले आरमाके द्वारा निश्चय नमसे आत्मपरिणाम और पुदगलके द्वारा डुगल परिणाम तथा व्यवहारनयसे आत्मा द्वारा मतपरिणाम और पुदगलके द्वारा आत्मपरिणाम भी जो किये जायें वह कर्म हैं। २ कारणभूत परि णामों की प्रशंसाकी विवक्षामें कर्तृ धर्म आरोप करनेपर वही परिणाम स्वयं द्रव्य और भावरूप कुशल अकुशल कर्मोंको करता है अतः वही कर्म है। 9 आमाकी प्रधानता में वह कर्ता होता है और परिणाम करण तब 'जिनके द्वारा किया जाये वह कर्म' यह विग्रह भी होता है। ४. साध्यसाधन भावको विवक्षा न होनेपर स्वरूपमात्र कथन करनेसे कृतिको भी कर्म कहते है। इसी तरह अन्य कारक भी लगा लेने चाहिए । आठप./टी./११३/६२६६ जीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति स परसन्त्री क्रियते वा यस्यानि कर्माणि जीवन या मिथ्यादर्शनादिपरिणामः क्रियन्ते इि कर्माणि । १ जीवको परतन्त्र करते है अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है उन्हे कर्म कहते हैं । २ अथवा जीवके द्वारा मिथ्यादर्शनादि परिणामोंसे जो किये जाते हैं-पति होते है वे कर्म हैं। (भ.आ./वि./२०/७१/८ ) केवल लक्षण नं. २ । २. कर्मके भेद-प्रभेद स.सा./मू./मिच्छतं पृप दुहिं जीवनजीव सहेब अण्णा अभिरदि जोगो मोहो कोहादीया इमे भावा | ७| = मिथ्यात्व अज्ञान, अविरति, योग, मोह तथा क्रोधादि कषाय ये भाव जीव और अजीव के भेद दो-दो प्रकार के हैं। = आप./मू./११३ कर्माणि द्विविधान्यत्र इन्यभावविकल्पतः। कर्म दो प्रकार के है-कर्म और भावकर्म घ. १४/५,६,७१/५२/५ दव्त्रवग्गणा दुविहा -- कम्म वग्गणा, णोकम्मवग्गणा चेति द्रव्य वर्गगा दो प्रकारकी है कर्मवगंगा और नोकमर्गणा । गो.क./मू./६/६ कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोन्ति होदि दुविहं तु । = कर्म सामान्य भावरूप कर्मत्वकरि एक प्रकारका है। बहुरि सोई कर्म द्रव्य व भावके भेद से दो प्रकारका है। २. द्रव्य भाव व नोकर्म रूप भेद व लक्षण ३. द्रव्य भाव या जीव अजीव कर्मोंके लक्षण स.सा.// पुगलकम्मं मिच्छे जोगो अविरदि अण्णापमजीवं । उवओगो अण्णाणं अविरह मिच्छं च जीवो दु । ८८/५ जो मिथ्यात्व योग अनिरति और अज्ञान अजीम है सो तो कर्म हैं और जो मिथ्यात्व अविरति और अज्ञान जीव है वह उपयोग है । ( पुद्गल या द्रव्य भाये गये कर्म अर्थात् उन फार्मन स्कन्धौकी अवस्था अजीव कर्म है और जीवके द्वारा भाये गये अर्थात् उपयोगस्वरूप राग-द्वेषादिक जीव कर्म - ( स.सा./आ./८०), (प्र.सा./त.प्र / ११७, १२४ ) । स.सि./२/२३/१०२/८ सर्वशरीरवरोहणमजतं कार्मण शरीरं कर्णेरयुच्यते राब शरीरोंकी उत्पत्ति मूलकारण कार्मण शरीरको कर्म (द्रव्यधर्म) कहते है (रा.वा./२/२२/२/१३०/६) (रा.मा./५/२४/ ६/४८८/२०) | । आप्त.प./ /१९३-१९४ प्रव्यकर्माणि जीवस्य त्तात्मान्यनेकधा । ११३० भावकर्माणि चैतन्यविवर्त्तात्मनि भान्ति नुः । क्रोधादीनि स्ववेद्यानि कथंचिदभेदतः । ११४॥ जीवके जो द्रव्यकर्म हैं वे पौगलिक हैं। और उनके अनेक भेद हैं ।११३ ॥ तथा जो भावकर्म हैं वे आत्मा चैतन्य परिणामात्मक है, क्योंकि आत्मासे कनिय अभिन्न रूपसे स्ववेद्य प्रतीत होते हैं और वे क्रोधादि रूप हैं । ११४ | ( पं. ध. /उ. /१०५८ - १०६०) ६. १४/५.६,७९/५२/५ तथ कम्मरम्गणा णाम अडुकंम्मधविवरण। - उनमें से आठ प्रकारके कर्मस्कन्धोंके भेद कर्म वर्गणा ( द्रव्य कर्मवर्गणा ) है । (नि.सा /ता.वृ./१०७) और भी (दे० कर्म /३/५) ४. नोकर्मका लक्षण .१४/५.६/०९/२६ सेस एकोणवीसवग्गगाओ लोकम्मवग्गणाओ। कार्मग वर्गणाको छोडकर शेष उनीस प्रकारको वर्गणाएँ मोकर्म वर्गणाएँ हैं (अर्थात कुल २३ प्रकारकी वर्गणाओ में से कार्माण, भाषा, मनोव से जस इन चारको छोड़कर शेष १६ वर्गगाएँ नोकर्म वर्गगाएँ हैं ।। गो.जी./मू./२४४/५०० ओरालियवेगुब्बिय आहारयामकम्मुदये। चणकम्मसरीरा कम्मे य होदि कम्म औदारिक, वैकि बिक, आहारक और तेजस नामकर्मके उदयसे चार प्रकार के शरीर होते हैं। वे नोकर्म शरीर हैं पाँचों जो कार्मण शरीर सो कर्म रूप ही है। नि.सा./ता.वृ./१०७ औदारिकवै किविकाहारकरी जसकार्मणानि शरीराणि हि नोकर्माणि । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर (1) वे नोकर्म है। गो.जी./जी.प्र./२४४/५०८/२ नोशब्दस्य विपर्यये ईषदर्थे च वृत्तेः । तेषां । 1 शरीराणां कर्मवदात्मगुणघातित्वगत्यादिपारतन्त्र्यहेतुत्वाभावेन कर्म - विपर्ययवाद कर्म सहकारित्वेन ईथरकर्मस्याश्च नोकर्मशरीरत्वसंभवात् नोइन्द्रियमत्। -नो शब्दका दोष अर्थ है- एक तो निषेधरूप और एक ईषद अर्थात् स्तोकरूप। सो इहाँ कार्माणको ज्यों से चार शरीर आमाके गुणोंको पाठे नाहीं वा त्पादिक रूप पराधीन न कर सकें तातें कर्मते विपरीत लक्षण धरनेकरि इनको अर्मशरीर कहिए । अथवा कर्मशरीरके ए सहकारी हैं तातें ईषत् कर्मशरीर कहिए । ऐसे इनिको नोकर्म शरीर कसे मनको गोन्द्र कहिए है। ५. कर्मफलका अर्थ - प्र.सा./त.प्र./ १२४ तस्य कर्मणो यज्ञियाय सुदु तत्कर्म फलम् । उस कर्म से उत्पन्न किया जानेवाला सुख-दुख कर्मफल है (विशेष देखो 'उदय' ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म ३. द्रव्यभाव कर्म निर्देश स्वतन्त्रीकरणे मूलकारणम् । तदुदयापादितः पुद्गलपरिणाम आत्मनः सुखदुःखमलाधानहेतुः औदारिक शरीरादिः ईषत्कर्म नोकर्मेत्युच्यते। कि च स्थितिभेदाभेदः । प्रश्न-कर्म और नोकर्म में क्या विशेष है। उत्तर--आत्मके योगपरिणामों के द्वारा जो किया जाता है उसे कर्म कहते हैं। यह आत्माको परतंत्र बनानेका मूलकारण है । कर्मके उदयसे होनेवाला वह औदारिक शरीर आदिरूप पुद्गलपरिणाम जो आत्माके सुख-दुःख में सहायक होता है; नोकर्म कहलाता है। स्थितिके भेदसे भी कर्म और नोकर्म में भेद है।-दे० स्थिति । ४. छहों ही द्रव्योंमें कथंचित् द्रव्य कमपना देखा जा सकता है ३. द्रव्यभाव कर्म निर्देश १. कर्म जगत्का स्रष्टा है प.पु./४/३७ विधि स्रष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम्। ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेयाः कर्मवेधसः ॥३७॥ --विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म और ईश्वर ये सब कर्म रूपी ईश्वरके पर्याय वाचक शब्द है । अर्थात् इनके सिवाय अन्य कोई लोकका बनानेवाला नहीं। २. कर्म सामान्यके अस्तित्वकी सिद्धि क.पा १/१,१/६३७-३८/५६/४ एदस्स पमाणस्स बढिहाणि-तर-तमभावो ण ताव णिकारणो; वढि हाणि हि विणा एगसरुवेगावट्ठाणप्पसंगादो। ण च एवं तहाणुवलंभादो। तम्हा सकारणाहि ताहि होदव्यं । जंतं हाणि-तर-तमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्ध' ।३७। ...कम्मं पि सहेउ तयिणासण्णाहाणुयवत्तीदो णव्वदे। ण च क्म्मविणासो असिद्धो। -ज्ञानप्रमाणका वृद्बिह्वासके द्वारा जो तरतम भाव होता है वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योकि ऐसा माननेपर उस वृद्धि हानिका ही अभाव हो जायेगा और उसके न होनेसे ज्ञानके एकरूपसे रहनेका प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि एकरूपसे अवस्थित ज्ञानकी उपलब्धि नहीं होती। इसलिए वह सकारण होना चाहिए । अतः उसमें जो हानिके तरतमभावका कारण है वह आवरण कर्म है यह सिद्ध हो जाता है।३७१ तथा कर्म भी अहेतुक नहीं है, क्योंकि उनको अहेतुक माना जायेगा तो उनका विनाश बन नहीं सकता है। कर्म का विनाश असिद्ध नहीं है। -दे० मोक्ष,-दे० राग/५/१ । प्र.सा./त.प्र./११७ क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कम, तन्निमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म, तत्कार्यभूता मनुष्यादिपर्याया जोवस्य क्रियाया मूलकारणभूतायाः प्रवृत्तत्वात क्रियाफलमेव स्युः । क्रियाभावे पुद्गलाना कर्मत्वाभावात्तत्कार्यभूतानां तेषामभावात् । अथ कथं ते कर्मणः कार्यभावमायान्ति, कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणत्वात् प्रदीपयत । तथाहि-यथा ज्योति स्वभावेन तैलस्वभावमभिभूय क्रियमाणः प्रदीपो ज्योति कार्य तथा कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्यायाः कर्म कार्यम् । =क्रिया वास्तवमें आत्माके द्वारा प्राप्त होनेसे कर्म है। उसके निमित्तसे परिणमनको प्राप्त होता हुआ पुद्गल भी कर्म है। उसकी कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायें मूलकारणभूत जीवकी क्रियासे प्रवर्तमान होनेसे क्रियाफल ही हैं, क्योंकि क्रियाके अभावमें पुद्गलोंको कर्मत्वका अभाव होनेसे उसकी कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायोंका अभाव होता है। प्रश्न-मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य कैसे हैं, उत्तर-वे कर्म स्वभावके द्वारा जीवके स्वभावका पराभव करके ही की जाती हैं। यथा-ज्योतिः (लो) के स्वभावके द्वारा तेलके स्वभावका पराभव करके किया जानेवाला दीपक ज्योतिका कार्य है, उसी प्रकार कर्मस्वभावके द्वारा जीवके स्वभावका पराभव करके की जानेवाली मनुष्यादि पर्याय कर्म के कार्य हैं। गो.क./जी.प्र./२/३/६ तयोरस्तित्वं कुतः सिद्ध। स्वतः सिद्ध । अहंप्रत्यमवेद्यत्वेन अात्मनः दरिद्रश्रीमदादिविचित्रपरिणामात् कर्मणश्च सरिसद्धेः । - प्रश्न-जीव और कर्म इन दोनोंका अस्तित्व काहे ते सिद्ध है। उत्तर-स्वतः सिद्ध है। जातै 'अहं' इत्यादिक मानना जीव बिना नाहीं सम्भवै है। दरिद्री लक्ष्मीवान इत्यादिक विचिप्रता कर्म बिना नाहों सम्भवै है । (पं.ध./उ./५०) ३. कर्म व नोकर्ममें अन्तर रा, वा./५/२४/४/४८८/२० अत्राह-कर्मनोकर्मणः कः प्रतिविशेष इति । उच्यते-आत्मभावेन योगभावलक्षणेन क्रियते इति कर्म। तदात्मनोऽ घ.वं.१३/५,४/सूत्र १४/४३ जाणि दब्वाणि सम्भावकिरियाणिप्फण्णाणि तं सव्वं दबकम्मं णाम ११४॥ घ. १३/५,४,१४/४३/७ जीवदव्वस्स णाणदंसणेहि परिणामो सब्भावकिरिया, पोग्गलदव्यस्स बण्ण-गंध-रस-फास-विसेसेहि परिणामो सम्भावकिरिया ।...एवमादीहि किरियाहि जाणि णिप्पण्णाणि सहाबदो चेव दव्वाणि तं सम्बं दबकर्म णाम। - १. जो द्रव्य सद्भावक्रियानिष्पन्न हैं वह सब द्रव्यकर्म हैं।१४। २. जीवद्रव्यका ज्ञानदर्शन आदिरूपसे होनेवाला परिणाम उसकी सद्भाव क्रिया है । पुद्गल द्रव्यका वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श विशेष रूपसे होनेवाला परिणाम उसकी सद्भाव-क्रिया है। (धर्म व अधर्म द्रव्यका जीव व पुदगलोंकी गति व स्थितिमें हेतुरूप होना तथा काल व आकाशमे सभी द्रव्योको परिणमन व अवगाहमें निमित्त रूप होनेवाला परिणाम उन-उन की सद्भाव क्रिया है ) इत्यादि क्रियाओं के द्वारा जो द्रव्य-स्वभावसे ही निष्पन्न है वह सब द्रव्य कर्म है। विशेषार्थ-मूल द्रव्य छह है और वे स्वभावसे ही परिणमनशील है। अपने-अपने स्वभावके अनुरूप उनमें प्रतिसमय परिणमन क्रिया होती रहती है और क्रिया कर्मका पर्यायवाची है। यही कारण है कि यहाँ 'द्रव्यकर्म' शब्दसे मूलभूत छह द्रव्योंका ग्रहण किया है। ५. जीव व पुद्गल दोनोंमें कथंचित् भावकर्मपना देखा जा सकता है गो, कम्./६/६ कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोत्ति होदि दुविहं तु । पोग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मं तु ।६।। गो.क./जी.प्र./६/६/६ कार्ये कारणोपचारात्तु शक्तिजमिताज्ञानादिर्वा भावकर्म भवति । कर्म सामान्यभावरूप कर्मत्व करि एक प्रकारका है। बहुरि सोई कर्म द्रव्य और भावके भेदसे दोय प्रकार है। तहाँ ज्ञानावरणादि पुद्गलद्रव्यका पिण्ड सो द्रव्यकर्म है, बहुरि तिस पिण्ड विषै फल देनेकी शक्ति है सो भाबकर्म है । अथवा कार्य विषै कारणके उपचारत तिस शक्ति उत्पन्न भए अज्ञानादिक व क्रोधादिक, सो भी भाव कर्म कहिए। स.सा./ता.वृ./१६०-१९६२ में प्रक्षेपक गाथाके पश्चावकी टीकाभावकर्म द्विविधा भवति। जीवगतं पुद्गलकर्मगत च। तथाहिभावक्रोधादिव्यक्तिरूपं जीवभावगतं भण्यते। पुद्गलपिण्डशक्तिरूपं पुद्गलद्रव्यगतं । तथा चोक्तं-(उपरोक्त गाथा) ॥ अत्र दृष्टान्तो यथा-मधुरकटुकादिद्रव्यस्य भक्षणकाले जीवस्य मधुरकटुकस्वादव्यक्तिविकल्परूपं जीवभावगतं, तद्वयक्तिकारणभूतं मधुरकटुकद्रव्यगतं शक्तिरूपं पुद्गलद्रव्यगतं । एवं भावकर्मस्वरूपं जीवगत पुद्गलगतं च द्विधेति भावकर्म व्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यम् । =भावकर्म दो प्रकारका होता है-जीवगत व पुद्गल गत । भाव क्रोधादिकी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म कारक व्यक्तिरूप जीवगत भावकर्म है और पुद्गलपिंडकी शक्तिरूप पुद्गल अव्यय भावकर्म है। कहा भी है- यहाँ उपरोक्त गाथा ही उद्धृत की गयी है। यहाँ रात देकर समझाते है जैसे कि मीठे या खट्टेको खानेके समय जीवको जो मीठे खादी व्यक्ति का विकल्प उत्पन्न होता है वह जीवगत भाव है; और उस व्यक्तिके कारण मीठे की जो शक्ति है, सो गद्रव्यगत भाव है। इस प्रकार जीवगत व पुद्गलगतके भेदसे दो प्रकार भावकर्मक स्वरूप भावकर्मका कथन करते समय सर्वत्र जानना चाहिए । ६. ज्ञप्ति परिवर्तनरूप कर्म भी संसारका कारण है | प्र. सा./त. प्र. / २३३ न च परात्मज्ञानशून्यस्य परमात्मज्ञानशून्यस्य वा मोहादिद्रव्यभावकर्मणा परिवर्तनरूपकर्मणा ना क्षपणं स्पाय तथाहि...मोहरागद्वेषादिभावे सामायो मध्याविभागा भावान्मोहादिद्रव्यभावकर्मणं न सिद्ध तथा च शेयनिष्ठतथा प्रतिवस्तु पातोत्पातपरिणतत्वेन ज्ञप्तेरासंसारात्परिवर्तमानायाः परमात्मनित्यमन्तरेणानिवार्यपरिवर्ततया इमपरिवर्तरूपकर्मणी क्षपणमपि न सिद्धयेत् । = आगमके बिना परात्मज्ञान व परमात्मज्ञान नहीं होता और उन दोनोंसे शुन्यके मोहादि द्रव्यभाव कमका या ज्ञप्ति परिवर्तन रूप कर्मों का क्षय नहीं होता। वह इस प्रकार है किमोहरागद्वेषादि भावों के साथ एकताका अनुभव करनेसे अध्यचातक के विभागका अभाव होनेसे मोहादि द्रव्य व भाव कर्मोंका क्षय सिद्ध नहीं होता । तथा ज्ञेयनिष्ठता से प्रत्येक वस्तुके उत्पाद विनाशरूप परिणमित होनेके कारण अनादि संसारसे परिवर्तनको पानेवाली जो शति, उसका परिवर्तन परमात्मनिता के अतिरिक्त अनिवार्य होनेसे परिवर्तनरूप रूमका क्षय भी सिद्ध नहीं होता। ० शरीरको उत्पत्ति कर्माधीन है। न्या या सु./मू व टी./३-२/६३/२९१ पूर्वकृतफलानुबन्धात्तदुत्पतिः । ६३ । पूर्वशरीरे या प्रवृत्तिर्वा बुद्धिशरीरारम्भलक्षणा पूर्वकर्मो ं तस्य फलं तज्जनिती धर्माधर्मी तत्फलस्यानुबन्ध आत्मसमवेतस्याव स्थानं तेन प्रयुक्तेभ्यो भूतेभ्यस्तस्योत्पत्तिः शरीरस्य न स्वतन्त्रेभ्य इति पूर्वकृत फलके अनुबन्धसे उसकी उत्पत्ति होती है । ६३ । पूर्व शरीरोमे किये मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिरूप कर्मोके फलानुबन्ध से देहकी उत्पत्ति होती है, अर्थात् धर्माधर्मरूप अदृष्टसे प्रेरित पंचभूतोंसे शरीरकी उत्पत्ति होती है भूतोंसे नहीं (रा.वा./ ५/२६/१/४८८/२१) | । ८. कर्मसिद्धान्त जाननेका प्रयोजन सम १२६ । यदि भ्रमण प्र.सा./मू./१२६ करणं क फ च अन्त परिणमदिन अदि अपर्ण दि 'कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है ऐसा निश्चयवाता होता हुआ अन्यरूप परिणमित नही ही हो तो वह शुद्ध आत्माको उपलब्ध करता है । पं.का/ता.वृ./५५/२०५/१७ अत्र यदेत्र शुद्धनिश्चयनयेन मूलोत्तर प्रकृतिरहितं वीतरागपरमाह्लादै करूपचैतन्य प्रकाशसहितं शुद्धजीवास्तिकायस्वरूपं तदेयोपादेयमिति भावार्थः यहाँ ( मनुष्यादि नामप्रकृतियुक्त जीवो के उत्पाद मिनाशके प्रकरण) जो शुखनिधयनयसे होतियो से रहित और वीतराग परमाह्लाद रूप एक चैतन्यप्रकाश सहित शुद्ध जीवास्तिकायका स्वरूप है वह ही उपादेय है. ऐसा भावार्थ है । कर्म कारक - दे० कर्ता । २९ कर्म प्राभृत टीका कर्मक्षय वृत व्रत विधान संग्रह / १२१ कुल समय - २६६ दिन कुल उपवास १४८ कुल पारणा - १४८ ॥ विधि-सात प्रकृतियोके नाशार्थं चतुर्थियों के ७ उपवास; तीन प्रकृतियोंके नाशार्थ ३ सप्तमियोंके ३ उपवास; बत्तीस प्रकृतियोंके नाशार्थ २६ नवमियोंको ३६ उपवास एक प्रकृतिके नाशार्थ १ दशमीका उपवास १६ प्रकृतियोंके नाशार्थ १६ द्वा शियो १६ उपवास और ८५ प्रकृतियोंके नाशार्थ ८५ चतुर्दशियों के ८५ उपवास । इसप्रकार कुल १४८ उपवास पूरे करे "ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं" इस मंत्र का त्रिकाल जाप्य करे । पु. / ३४ / १२९ २६६ दिन तक लगातार १ उपवास व १ पारणाके क्रम से १४८ उपवास व १४० ही पारणा करे "सर्वकर्मरहिताय सिद्धाय नमः " इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । I कर्म चूर व्रत - कुल समय २वर्ष मास अर्थात् १२ मासकी ६४६४ दिन विधि नं. १-१ प्रथम आठ अहमियोंके आठ उपवास; २. दूसरी आठ अष्टमियोंके आठ कांजिक आहार; ( भात व जल ) ३. तीसरी बाठ अष्टमियोंको केवल तंदुलाहा ४. चौथो आठ अष्टमियोंको एक ग्रासाहार; ५० पाँचवीं आठ अष्टमियोंको एक कुरही मात्र बाहार ६. छठी आठ अष्ठमियोंको एक रस व एक अन्नका आहार ७. सातवीं आठ अष्टमियोंको एकलठाने; ८. आठवीं आठ अष्टमियोंको रूक्ष अन्नका आहार । "ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिने नम इस मन्त्रका त्रिकाल विधानसंग्रह / पृ. ४८ ), ( वर्द्धमान पुराण ) । नं २ - उपरोक्त क्रममें ही - नं. १ वाले स्थानमें उपवास, नं. २ वाले में एकलटाना, नं. ३ वालेमें एक ग्रास; नं. ४ बालेमें नीरस भोजन नं. ५ वाले एक ही प्रकारके फलोंका आहार नं. ६ मालेमें केवल चावल; नं. ७ वालेमें लाडू; नं. ८ वालेमें कांजी आहार ( भात व जल ) ( व्रत विधान संग्रह / पृ १५ ) ( किशनसिह क्रिया कोश ) । कर्म चेतना - दे० चेतना । कर्मस्व ८/१२/१२ कर्म भावाद कर्म१२२ प्रत्येक कर्ममें रहनेवाला सामान्य व नित्य धर्म कर्म है। कर्म निर्जरा व्रत विधि- १. दर्शन निशुद्धिके अर्थ आषाढ शु. १४; २. सम्यग्ज्ञानकी भावनाके अर्थ श्रावण शु. १४. ३. सम्यक्चारित्रकी भावना के अर्थ भाद्रपद शु. १४ और ४. सम्य तपकी भावना के अर्थ आसोज (कार) शु. १४ । इन चार तिथियोंके चार उपवास । जाय मन्त्र --- नं. १ के लिए 'ॐ ह्रीं दर्शविशुद्धये नमः ; नं. २ के लिए 'ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय नमः नं. ३ के लिए ॐ ह्रीं सम्यचारित्राय नमः' और नं ४ के लिए 'ॐ ह्रीं सम्यक्तपाय नमः'। उस उस दिन उस उस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करना । ( व्रत - विधान संग्रह / पू. १५) (किशन सिंह किया कोटा ) | • कर्म प्रकृति का भेद ० प्रकृति ज्ञान का एक अ -१० परिशिष्ट १ दे० कर्म प्रकृति चूणि- ३० परिशिष्ट १ कर्म प्रकृति रहस्य- आ. अभयमन्दि ( ई० १३०-१५०) पृत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश एक रंचना । कर्म प्रकृति विधान बनारसीदास (ई. १६९६-१६६७) द्वारा रचित कर्म सिद्धान्त विषयक भाषा ग्रन्थ । कर्म प्रवाद- श्रुतज्ञानका ७वाँ पूर्व- दे० श्रुतज्ञान / III कर्म प्राभूत टीका-आसमन्तभद्र (ई. श. २) कृत कर्मसिद्धान्त विषयक एक संस्कृत भाषा बद्ध ग्रन्थ । - दे० समन्तभद्र | Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म फल ३० कल्की कर्म फल-दे० कर्म/२। कर्म फल देतना-दे० चेतना । कर्म भूमि-दे० भूमि/३। कर्म शक्ति-स.सा आ /शक्ति नं. ४१ प्राप्यमाणसिद्धरूपभावमयो कर्मशक्तिः। =प्राप्त किया जाता जो सिद्ध रूप भाव है उसमयी कर्म शक्ति है। विशेष दे० कर्ता/१/२। कर्मसमवायिनी क्रिया-दे० क्रिया/१ । कर्मस्तव-एक प्रसिद्ध ग्रन्थ । -दे० परिशिष्ट १॥ कर्मस्पर्श-दे० स्पर्श/१। कर्माहार-दे० आहार/I/11 कर्मोपाधि-सापेक्ष व निरपेक्ष नय –दे० नय/v/२॥ कवंट-ध.१३/५,५,६३/३३५१८ पर्वतावरुद्ध' कव्वर्ड णाम । = पर्वतों से रुके हुए नगरका नाम कर्वट है। म. पु./१६/१७५ शतान्यष्टौ च चत्वारि द्वे च स्युमिसंख्यया। राजधान्यस्तथा द्रोणमुखकर्वटयोः क्रमात् । १७॥ - एक कर्वटमें २०० ग्राम होते हैं। कलधौतनन्दिनन्दिसघ देशीयगण । समय ई० श०१०। -दे०इतिहास ७/ कलह-धि.१२/४,२,८,१०/२०१/४)-क्रोधादिवशाद सिदण्डासभ्यवचनादिभिः परसंतापजननं कलहः। -क्रोधादिके वश होकर तलबार, लाठी और असभ्य वचनादिके द्वारा दूसरोंको सन्ताप उत्पन्न करना कलह कहलाता है। कला-१. Art (ध./प्र.प्र./२७)। २. कालका एक प्रमाण विशेष ।। दे० गणित/I/१/४। कोलग-१. भरत क्षेत्र दक्षिण आय खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४। २. मद्रास प्रान्तका उत्तर भाग और उड़ीसाका दक्षिण भाग। राजधानी राजमहेन्द्री है । (म.Y /प्र.४४/पं. पन्नालाल) कलि ओज-दे० ओज । कलि चतुर्दशी व्रत विधि-आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, इन चार महीनों की शुक्ल चतुर्दशियोंको बराबर ४ वर्ष तक उपवास करना । नमस्कार मंत्रका त्रिकाल जाप्य । (बत-विधान संग्रह/पृ.१०३) (कथाकोश)। कलुषता-दे० कालुष्य। कलेवर-एक ग्रह-दे० 'ग्रह'। कल्की -जैनागममें कल्की नामके राजाका उल्लेख जैनयतियोंपर अत्याचार करनेके लिए बहुत प्रसिद्ध है। इसके व इसके पिताके विभिन्न नाम आगममें उपलब्ध होते हैं और इसी प्रकार इनके समयका भी। फिर भी वह लगभग गुप्त वंशके पश्चात प्राप्त होता है। इतिहासकारोंसे पूछनेपर पता चलता है कि भारतमें गुप्त साम्राज्यके पश्चात् एक बर्बर जंगली जातिका राज्य हुआ था, जिसका नाम 'हून' था। ई० ४३५-५४६ के १२५ वर्ष के राज्यमें एकके पीछे एक चार राजा हुए। सभी अत्यन्त अत्याचारी थे। इस प्रकार आगम व इतिहासका मिलान करनेसे प्रतीत होता है कि कल्की नामका कोई राजा न था। बतिक उपरोक्त चारों राजा ही अपने अत्याचारोंके कारण कल्की नामसे प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार उनके विभिन्न नामों व समयोंका सम्मेल बैठ जाता है । -दे० इतिहास /२ १. आगमकी अपेक्षा कल्की निर्देश ति प/४/१५०९-१५१० तत्तो वक्की जादो इंदसुतो तस्स चउमुहो णामो। सत्तरि वरिसा आऊ विगुणियइगिवीस रज्जतो ॥१५०६। आचाररांगधरादो पणहत्तरिजुत्त दुसयवासेसं । वोलीणेस बद्धो पट्टो कक्किस्स णरवइणो ।१५१०॥ = इस गुप्त राज्य (वी. नि.६५८) के पश्चात इन्द्रका सुत कल्की उत्पन्न हुआ। इसका नाम चतुर्मुख, आयु ७० वर्ष और राज्यकाल १२ वर्ष प्रमाण था ।१५०४। आचारांगधरों (वी. नि. ६८३) के २७५ वर्ष पश्चात (वी. नि. ६५८ में ) कल्कीको नरपतिका पट्ट बाँधा गया ।१५१०॥ ह.पु./६०/४६१-४१२ भद्रबाणस्य तद्राज्यं गुप्तानां च शतद्वयम् । एकविशश्च वर्षाणि कालविद्भिरुदाहृतम् ।४६१। द्विचत्वारिंशदेवातः कल्किराजस्य राजता । ... ४६२ = फिर २४२ वर्ष तक बाणभट्ट (शक वंश ) का, फिर २२१ तक गुप्तोंका और इसके बाद (वी. नि. ६५८ में ) ४२ वर्ष तक करिक राजाका राज्य होगा। म पृ/७६/३६७-४०० दुष्षमायां सहस्राब्दव्यतीतौ धर्महानित' ।३६७) पुरे पाटलिपुत्राख्ये शिशुपालमहीपतेः। पापी तनूजः पृथिवीसुन्दर्या दृर्जनादिम' 1३६८ चतुर्मुखादयः कल्किराजो वेजितभूतल । उत्पत्स्यते माघसंवत्सरयोगसमागमे ।३६६। समानां सप्ततिस्तस्य परमायुः प्रकीर्तितम् । चत्वारिंशत्समा राज्य स्थितिश्चाक्रमकारिणः ।४००। =दुषमाकाल (वी.नि.३) के १००० वर्ष बीतनेपर (वी.नि. १००३ में) धर्मकी हानि होनेसे पाटलिपुत्र नामक नगरमें राजा शिशुपालकी रानी पृथिवीसुन्दरीके चतुर्मुख नामका एक ऐसा पापी पुत्र होगा, जो कलिक नामसे प्रसिद्ध होगा। यह कल्की मघा नामके संवत्सर मे होगा। इसकी उत्कृष्ट आयु ७० वर्ष और राज्यकाल ४० वर्ष तक रहेगा। त्रि.सा./८५०-८५१ पणछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिध्वुइदो। सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहिय सगमासं १८५० सो उम्मग्गाहिंमुहो सदरिवासपरमाऊ। चालीसरज्जओ जिदभूमी पुच्छइसमंतिगणं ।८५१ =बीर भगवान्की मुक्तिके ६०५ वर्ष व महीने जानेपर शक राजा हो है। उसके ऊपर ३६४ वर्ष ७ महीने जाने पर (वी. नि. १००० में) कल्की हो है।८५०। वह उन्मार्गके सम्मुख है। उसका नाम चतुर्मुख तथा आयु ७० वर्ष है। ४० वर्ष प्रमाण राज्य कर है।८५१॥ २. इतिहासकी अपेक्षा हुन वंश यह एक बर्बर जंगली जाति थी, जिसके सरदारोंने ई० ४३२ में गुप्त राजाओंपर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया था। यद्यपि स्कन्द - गुप्तने उन्हें परास्त करके पीछे भगा दिया परन्तु ये बराबर अपनी शक्ति बढाते रहे, यहाँ तक कि ई० ५०० मे उनके सरदार तोरमाणने गुप्त राज्यको कमजोर पाकर समस्त पंजाब व मालवा प्रान्तपर अपना अधिकार जमा लिया। फिर ई० ५०७में उसके पुत्र मिहिरकुलने भानुगुप्तको परास्त करके गुप्त वंशको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसने प्रजापर बडे अत्याचार किये जिससे तंग आकर एक हिन्दू सरदार विष्णुधर्मने विरवरी हुई हिन्दू शक्तिको संगठित करके ई०५२८ मे मिहिरकुलको परास्त करके भगा दिया। उसने काश्मीरमें जाकर शरण ली और वहाँ ही ई० ५४० में उसकी मृत्यु हो गयी। ( क. पा./पु. १ प्र.५४/५० महेन्द्र) यह विष्णु यशोधर्म कट्टर वैष्णव था। इसने हिन्दू धर्मका तो बडा उपकार किया परन्तु जैन साधुओं व जैन मन्दिरोंपर बडा अत्याचार किया, इसलिए जैनियों में वह कल्की नामूसे प्रसिद्ध हुआ और हिन्दू धर्ममे उसे अन्तिम अवतार माना गया। (न्यायावतार/प्र.२ सतीशचन्द विद्याभूषण ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्की ३१ कल्याणक ३, आगम व इतिहासके निर्देशोंका समन्वय आगमके उपरोक्त उद्धरणोंमें कल्कीका नाम चतुर्मुख बताया गया है पर उसके पिताका नाम एक स्थानपर इन्द्र और दूसरे स्थानपर शिशुपाल कहा गया है। हो सकता है कि शिशुपाल ही इन्द्र नामसे विख्यात हो । इधर इतिहासमे तोरमाणका पुत्र मिहिरकुल कहा गया है। प्रतीत होता है कि तोरमाण ही इन्द्र या शिशुपाल है और मिहिरकुल ही वह चतुर्मुख है। समयको अपेक्षा भी आगमकारोका कुछ मतभेद है। तिल्लोय पण्णति व हरिवंशपुराणकी अपेक्षा उसका काल वी० नि० ६५८-१००० (ई० ४३१-४७३) और महापुराण व त्रिलोकसारकी अपेक्षा वह वी०नि० १०३०-१०७० (ई०५०३-५३३) है। इन दोनों मान्यताओमें विशेष अन्तर नहीं है । पहिलीमें कल्कीका राज्यकाल मिलाकर भगवान् के निर्वाणके पश्चात् १००० वर्ष की गणना करके दिखाई है अर्थात निर्वाणमे १००० वर्ष पश्चात् धर्म व संधका लोप दर्शाया है और दूसरी मान्यतामें वी०नि०१००० में कल्कीका जन्म बताकर ३० वर्ष पश्चात् उसे राज्यारूढ कराया गया है। दोनों ही मान्यताओमें उसका राज्यकाल ४० वर्ष बताया गया है। इतिहाससे मिलान करनेपर दूसरी मान्यता ठीक ऊंचती है, क्योंकि मिहिरकुलका काल ई०५०७-५२८ बताया गया है । ४. कल्कीके अत्याचार ति. प./४/१५११ अह सहियाण कक्को णियजोग्गे जणपदे पयत्तेण । सुक्कं जाचदि लुद्धो पिंडरगं जाव ताव समणाओ ।१५११। तदनन्तर वह कक्की प्रयत्न पूर्वक अपने योग्य जनपदोंको सिद्ध करके लोभको प्राप्त होता हुआ मुनियोंके आहारमें-से भी प्रथम ग्रासको शुल्कके रूपमें माँगने लगा ।१५११। (ति. ५/१५२३-१५२६) (म. पु./७६/४१०) (त्रि. सा./८५३, ८५६)। मिगवीस कक्की उवककी तेत्तिया य घम्माए । जम्मति धम्मदोहा जलणि हिउवमाणआउजुदो । १५३४ । वासतए अइमासे पक्खे गलिदम्मि पविसदे तत्तो । सो अदिदुस्समणामो छट्टो कालो महाविसमो। ११५३१ - इस प्रकार १००० वर्षोके पश्चात पृथक्-पृथक् एक-एक कक्की तथा ५०० वर्षोंके पश्चात् एक-एक उपकल्की होता है ।१५१६। इस प्रकार २१ कल्की और इतने ही उपकल्की धर्म के द्रोहसे एक सागरोपम आयुसे युक्त होकर धर्मा पृथिवी (प्रथम नरक) में जन्म लेते हैं ।१५३४। इसके पश्चात् ३ वर्ष ८ मास और एक पक्षके बीतनेपर महा विषम वह अतिदुषमानामका छठा काल प्रविष्ट होता है ।१५३५॥ (म. पु./७६/४३१-४४१) (त्रि. सा./८५७-८५६) । ८. कल्कीके समय चतुःसंघकी स्थिति ति. प./४/१५२१,१५३० वीरांगजाभिधाणो तक्काले मुणिवरो भवे एक्को। सव्वसिरी तह विरदी सावयजुगमग्गिदत्तपंगुसिरी ११५२१२ ताहे चत्तारि जणा चउविहआहारसगपहूदीणं । जावजीवं छंडिय सण्णासं ते कर ति य ।१५३०। - उस समय वीरांगज नामक एक मुनि, सर्वश्री नामक आयिका तथा अग्निदत्त (अग्निल और पंगुश्री नाम श्राषक युगल ( श्रावक-श्राविका ) होते है ।१५२१। तब वे चारौं जन चार प्रकारके आहार और परिग्रहको जन्म पर्यन्त छोड़कर संन्यास ( समाधिमरण ) को ग्रहण करते हैं ।१५३०। (म. पु/७६/४३२-४३६) (त्रि. सा./८५८-८५६)। ९. प्रत्येक कल्कीके काल में एक अवधिज्ञानी मुनि ति. प./४/१५१७ कक्की पडि एक्केवकं दुस्समसाहुस्स ओहिणाणं पि। संघा य चादुवण्णा थोवा जायंति तक्काले ।१५१७। प्रत्येक कलकीके प्रति एक-एक दुष्षमाकालवर्ती साधुको अवधिज्ञान प्राप्त होता है और उसके समयमें चातुर्वर्ण्य संघ भी अल्प हो जाता है ।१५१७॥" कल्प-१. साधु चर्याके १० कल्पोंका निर्देश १.-दे० साधु ।२। २. इन दसों कल्पोंके लक्षण-दे० वह वह नाम । ३. जिनकल्प-दे० जिन कल्प। ४. महाकल्प-श्रुतज्ञानका ११वाँ अंगबाह्य है-दे० श्रुतज्ञान | IIHI ५ स्वर्ग विभाग -दे० स्वर्ग १/२। कल्प काल-दे० काल /४। कल्पपुर-भरतक्षेत्रका एक नगर-दे० मनुष्य/४ । कल्पभूमि-समवशरणकी छठी भूमि-दे० समवशरण । कल्पवासी देव-दे० स्वर्ग १/३ । कल्पवृक्ष-१. कल्पवृक्ष निर्देश-दे० वृक्ष/१; । २, कल्पवृक्ष पूजा दे० पूजा/१। कल्प व्यवहार-श्रुतज्ञानका हवाँ अंग बाह्य-दे० श्रुतज्ञान | III कल्पशास्त्र-दे० शास्त्र । कल्प स्वर्ग-दे० स्वर्ग। कल्पाकल्प-श्रुतज्ञानका हवाँ अंगबाह्य-दे० श्रुतज्ञान / III कल्पातीत-स्वर्ग विभाग -दे० स्वर्ग १/३। कल्याण-श्रुतज्ञान ज्ञानका १० वाँ पूर्व-दे० श्रुतज्ञान | III कल्याणक-जैनागममें प्रत्येक तीर्थकरके जीवनकालके पाँच प्रसिद्ध घटनास्थलोंका उल्लेख मिलता है। उन्हें पंच कल्याणकके नामसे कहा जाता है, क्योंकि वे अवसर जगत्के लिए अत्यन्त कल्याण व मंगलकारी होते हैं । जो जन्मसे ही तीर्थकर प्रकृति लेकर उत्पन्न हुए हैं उनके तो ५ ही कल्याणक होते हैं, परन्तु जिसने अन्तिम भवमें ही तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया है उसको यथा सम्भव चार व तीन व दो भी होते हैं, क्योंकि तीर्थकर प्रकृतिके बिना साधारण साधकोंको ५. कल्कीकी मृत्यु ति. प.//१५१२-१५१३ दादूणं पिंडग्गं समणा कालो य अंतराणं पि। गच्छति आहिणाणं अप्पजइ तेसु एक्कम्मि ११५१२॥ अह को वि असुरदेवो ओहीदो मुणिगणाण उवसग्गं । णादूणं तं ककिं मारेदि हु धम्मदोहि त्ति ।१५१३। तब श्रमण अग्रपिण्डको शुल्कके रूपमें देकर और 'यह अन्तरायोंका काल है। ऐसा समझकर (निराहार ) चले जाते हैं। उस समय उनमें से किसी एकको अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है ।१५१२। इसके पश्चात् कोई असुरदेव अवधिज्ञानसे मुनिगणके उपसर्गको जानकर और धर्मका द्रोही मानकर उस कल्कीको मार डालता है।१५१३। (ति. प./४/१५२६-१५३३) (म.पू./७६/४१५-४१४) (त्रि. सा./८५४)। ६. कल्कीके पश्चात् पुनः धर्मकी स्थापना ति. प./४/१५१४-१५१५ कक्किसुदो अजिदंजय णामो रक्षत्ति णम दि तच्चरणे । तं रक्खदि असुरदेओ धम्मे रज्जं करेज त्ति ।१५१४। तत्तो दोवे वासा सम्मद्धम्मो पयट्टदि जणाणं । कमसो दिवसे दिवसे कालमहप्पेण हाएदे ।१५१५। तब अजितंजय नामका उस कल्कीका पुत्र 'रक्षा करो' इस प्रकार कहकर उस देवके चरणोंमें नमस्कार करता है। तब वह देव 'धर्म पूर्वक राज्य करो' इस प्रकार कहकर उसकी रक्षा करता है ।१५१४। इसके पश्चात् दो वर्ष तक लोगोंमें समीचीन धर्मप्रवृत्ति रहती है, फिर क्रमशः कालके माहात्म्यसे वह प्रतिदिन हीन होती जाती है । १५१५। (म. पु /७६/४२८-४३०) (त्रि. सा./८५५-८५६)/७. पंचम कालमें कल्कियों व उपकल्कियोंका प्रमाण ति, प./४/१५१६, १५३४,१५३५ एवं वस्ससहस्से पुह पुह ककी हवा एक्केको । पंचसयवच्छरयसं एक्केको तह य उवककी ।१५१६। एव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणक कल्याणक वे नहीं होते हैं। नवनिर्मित जिन बिम्बकी शुद्धि करनेके लिए जो पंच कल्याणक प्रतिष्ठा पाठ किये जाते है वह उसी प्रधान पंच कल्याणककी कल्पना है जिसके आरोप द्वारा प्रतिमामें असली तीर्थंकरकी स्थापना होती है। १. पंच कल्याणकों का नाम निर्देश ज. प./१३/६३ गम्भावयारकाले जम्मणकाले तहेव णिक्खमणे । केवलणाणुप्पण्णे परिणिव्वाणम्मि समयम्मि ६३ जो जिनदेव गर्भाबतारकाल, जन्मकाल, निष्क्रमणकाल, केबलज्ञानोत्पत्तिकाल और निर्वाणसमय, इन पाँच स्थानों (कालों )में पाँच महा-कल्याणकोंको प्राप्त होकर महाऋद्धियुक्त सुरेन्द्र इन्द्रोंसे पूजित हैं ।१३-६४। २. पंच कल्याणक महोत्सवका संक्षिप्त परिचय १. गर्भकल्याणक-भगवान्के गर्भ में आनेसे छह मास पूर्वसे लेकर जन्म पर्यन्त १५ मास तक उनके जन्म स्थानमें कुबेर द्वारा प्रतिदिन तीन बार ३३ करोड रत्नोंकी वर्षा होती रहती है। दिक्कुमारी देवियाँ माताको परिचर्या व गर्भ शोधन करती हैं। गर्भवाले दिनसे पूर्व रात्रिको माताको १६ उत्तम स्वप्न दीखते हैं, जिनपर भगवान्का अवतरण निश्चय कर माता पिता प्रसन्न होते हैं। (प. पु./३/११२१५७) (ह. पु. ३०/१-४७) (म. पु./१२/८४-१६५) २. जन्म कल्याणक-भगवानका जन्म होनेपर देवभवनों व स्वर्गों आदिमें स्वयं घण्टे आदि बजने लगते हैं और इन्द्रोके आसन कम्पायमान हो जाते हैं जिससे उन्हें भगवानके जन्मका निश्चय हो जाता है। सभी इन्द्र व देव भगवान्का जन्मोत्सव मनानेको बड़ी धूमधामसे पृथिवीपर आते हैं। अहमिन्द्रजन अपने-अपने स्थानपर ही सात पग आगे जाकर भगवानको परोक्ष नमस्कार करते हैं। दिक्कुमारी देवियाँ भगवान्के जातकर्म करती हैं। कुबेर नगरको अदभुत शोभा करता है। इन्द्रकी आज्ञासे इन्द्राणी प्रसूतिगृहमें जाती है, माताको माया निद्रासे सुलाकर उसके पास एक मायामयी पुतला लिटा देती है और बालक भगवान्को लाकर इन्द्रकी गोदमें दे देती है, जो उनका सौन्दर्य देखनेके लिए १००० नेत्र बनाकर भी सन्तुष्ट नहीं होता। ऐरावत हाथीपर भगवान्को लेकर इन्द्र सुमेरुपर्वतकी ओर चलता है। वहाँ पहुँचकर पाण्ड्डक शिलापर, भगवानका क्षीरसागरसे देवों द्वारा लाये गये जलके १००८ कलशों द्वारा, अभिषेक करता है । तदनन्तर बालकको वस्त्राभूषणसे अलंकृत कर नगरमें देवों सहित महान उत्सबके साथ प्रवेश करता है। बालकके अंगूठेमें अमृत भरता है, और ताण्डव नृत्य आदि अनेकों मायामयी आश्चर्यकारी लीलाएँ प्रगट कर देवलोकको लौट जाता है। दिक्कुमारी देवियाँ भी अपने-अपने स्थानोंपर चली जाती हैं। (प. पु./३/१५८-२१४) (ह.पु/३८/५४ तथा ३१/१५ वृत्तान्त) (म. पु./१३/४-२१६) (ज. प./४/१५२-२६१)। ३. तपकल्याणक-कुछ कालतक राज्य विभूतिका भोग कर लेनेके पश्चात् किसी एक दिन कोई कारण पाकर भगवानको वैराग्य उत्पन्न होता है। उस समय ब्रह्म स्वर्गसे लौकान्तिक देव भी आकर उनको वैराग्य बर्द्धक उपदेश देते हैं। इन्द्र उनका अभिषेक करके उन्हें वस्त्राभूषणसे अलंकृत करता है। कुबेर द्वारा निर्मित पालकीमें भगवान् स्वयं बैठ जाते हैं। इस पालकीको पहले तो मनुष्य कन्धोंपर लेकर कुछ दूर पृथिवीपर चलते हैं और देव लोग लेकर आकाश मार्ग से चलते हैं। तपोवन में पहुँचकर भगवान वस्त्रालंकारका त्यागकर केशोंका लुचन कर देते हैं और दिगम्बर मुद्रा धारण कर लेते हैं । अन्य भी अनेकों राजा उनके साथ दीक्षा धारण करते हैं। इन्द्र उन केशोंको एक मणिमय पिटारेमें रखकर क्षीरसागरमें क्षेपण करता है। दीक्षा स्थान तीर्थ स्थान बन जाता है। भगवान् बेला तेला आदिके नियमपूर्वक 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' कहकर स्वयं दीक्षा ले लेते हैं क्योंकि वे स्वयं जगद् गुरु हैं। नियम पूरा होनेपर आहारार्थ नगरमें जाते हैं और यथाविधि आहार ग्रहण करते हैं। दातारके घर पंचाश्चर्य प्रगट होते हैं। (प. पु /३/२६३-२८३ तथा ४/१-२०) (ह. पु./५५/१००-१२६ ) (म. पु/१७/४६-२५३)। ४. ज्ञान कल्याणक-यथा क्रम ध्यानकी श्रेणियोंपर आरूढ होते हुए चार धातिया कर्मों का नाश हो जानेपर भगवानको केवलज्ञान आदि अनन्तचतुष्टय लक्ष्मी प्राप्त होती है। तब पुष्प वृष्टि, दुन्दुभी शब्द, अशोक वृक्ष, चमर, भामण्डल, छत्रत्रय, स्वर्ण सिंहासन और दिव्य ध्वनि ये आठ प्रातिहार्य प्रगट होते है। इन्द्रकी आज्ञासे कुबेर समवशरण रचता है जिसकी विचित्र रचना से जगत चकित होता है। १२ सभाओंमें यथा स्थान देव मनुष्य तिर्यंच मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका आदि सभी बैठकर भगवानके उपदेशामृतका पान कर जीवन सफल करते हैं। भगवान्का विहार बड़ी धूमधामसे होता है । याचकोंको किमिच्छक दान दिया जाता है । भगवान्के चरणों के नीचे देव लोग सहस्रदल स्वर्ण कमलोंकी रचना करते है और भगवान् इनको भी न स्पर्श करके अधर आकाशमे ही चलते है। आगे-आगे धर्मचक्र चलता है। बाजे नगाडे बजते हैं। पृथिवी ईति भीति रहित हो जाती है। इन्द्र राजाओके साथ आगे-आगे जय-जयकार करते चलते हैं। मार्गमें सुन्दर क्रीडा स्थान बनाये जाते है। मार्ग अष्टमंगल द्रव्योंसे शोभित रहता है। भामण्डल, छत्र, चमर स्वतः साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं । इन्द्र प्रतिहार बनता है। अनेकों निधियों साथ-साथ चलती हैं। विरोधी जीव वैर विरोध भूल जाते हैं। अन्धे बहरों को भी दिखने सुनने लग जाता है। (प. पु./१।२१-५२) (ह. पु./५६/११२-११८, ५७/१, ५६/१-१२४ ) (म. पु. सर्ग २२ व २३ पूर्ण )। ५. निर्वाण कल्याणक-अन्तिम समय आनेपर भगवान योग निरोध द्वारा ध्यानमें निश्चलता कर चार अधातिया कर्मोंका भी नाश कर देते हैं और निर्वाण धामको प्राप्त होते हैं ॥ देव लोग निर्वाण कल्याणककी पूजा करते है। भगवान्का शरीर काफूरकी भाँति उड़ जाता है । इन्द्र उस स्थान पर भगवान्के लक्षणोसे युक्त सिद्धशिलाका निर्माण करता है । ( ह. पु./६५११-१७ ); (म. पु/४७/३४३-३५४)। ३. पंच कल्याणकोंमें १६ स्वर्गाके देव व इन्द्र स्वयं आते हैं ह. पु./८/१३१ स्वाम्यादेशे कृते तेन चेलुः सौधर्मवासिनः । देवैश्चाच्युतपर्यन्ताः स्वयंबुद्धा सुरेश्वरा ॥१३१०, =सेनापतिके द्वारा स्वामीका आदेश सुनाये जाते ही सौधर्म स्वर्ग में रहनेवाले समस्त देव चल पड़े। तथा अच्युत स्वर्गतकके सर्व इन्द्र स्वयं ही इस समाचारको जान देवोंके साथ बाहर निकले । (ज.प/४/२७३-२७४) । ४. पंच कल्याणकों में देवोंके वैक्रियक शरीर आते हैं देव स्वयं नहीं आते ति. प./4/१६५ गम्भावयारपहुदिसु उत्तरदेहा सुराण गच्छति । जम्मणठाणेसु सुहं मूलसरीराणि चेट्ठति ॥५६॥ =गर्भ और जन्मादि कल्याणको में देवों के उत्तर शरीर जाते है। उनके मूल शरीर सुखपूर्वक जन्मस्थानों में स्थित रहते हैं। ५. रत्नोंकी वृष्टिमें तीर्थंकरोंका पुण्य ही कारण है म. पु/४८/१८-२० तीर्थ कृन्नामपुण्यतः ॥१८तस्य शक्राज्ञया गेहे षण्मासात् प्रत्यहं मुहुः । रत्नान्यैलविलस्तित्र कोटीः साधं न्यपी पतत् ।२०। - उस महाभागके स्वर्गसे पृथिवीपर अवतार लेनेके छह माह पूर्व से जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय कल्याणक व्रत ही प्रतिदिन तीर्थकर नामक पुण्य प्रकृतिके प्रभावसे, जितशत्रुके धरमें इन्द्रकी आज्ञासे कुबेरने साढे तीन करोड रत्नोंकी वृष्टि की। 8. उन रत्नोंको याचक लोग बे-रोकटोक ले जाते थे। ह.पु/३७/३ तया पतन्त्या वसुधारयार्धभात्रिकोटिसंख्यापरिमाणया जगत । प्रतपितं प्रत्यहमर्थि सर्वत' क पात्रभेदोऽस्ति धनप्रवर्षिणाम्।३। -वह धनकी धारा प्रतिदिन तीन बार साढे तीन करोडकी संख्याका परिमाण लिये हुए पड़ती थी और उसने सब ओर याचक जगतको सन्तुष्ट कर दिया था। सो ठीक ही है। क्योंकि, धनकी वर्षा करनेवालोको पात्र भेद कहाँ होता है । * हीनादिक कल्याणकवाले तीर्थकर-दे. तीर्थंकर कल्याणक व्रत १. कल्याणक व्रत-पहले दिन दोपहरको एकलठाना (कल्याणक तिथि उपवास तथा उससे अगले दिन आचाम्ल भोजन (इमली व भात) खाये। इस प्रकार पंचकल्याणककी १२० तिथियों के १२० उपवास ३६० दिनमें पूरे करे। ( ह. पु./३४/१११-११२) । २. चन्द्र कल्याणक व्रत-क्रमश' ५ उपवास, ५ कांजिक (भात व जल );1. एकलठाना ( एक बार पुरसा); रूसाहार; मुनि वृत्तिसे भोजन (अन्तराय टालकर मौन सहित भोजन), इस प्रकार २५ दिनतक लगातार करे। (बर्द्धमान पुराण) (बत विधान संग्रह) पृ०६९) ३. निर्वाण कल्याणक व्रत-चौबीस तीर्थंकरोंके २४ निर्वाण तिथियोमे उनसे अगले दिनों सहित दो-दो उपवास करे। तिथियोंके लिए देखो तीर्थंकर ५। (वत विधान संग्रह। पृ०१२४) (किशन सिह क्रिया कोश)। ४. पंच कल्याणक व्रत-प्रथम वर्ष में २४ तीर्थकरोंकी गर्भ तिथियोके २४ उपवास, द्वितीय वर्ष में जन्म तिथियोंके २४ उपवास: तृतीय वर्ष में तप कल्याणककी तिथियोंके २४ उपवास, चतुर्थ वर्ष में ज्ञान क्ल्याणककी तिथियोके २४ उपवास और पंचम वर्ष में निर्वाण कल्याणककी तिथियों के २४ उपवास-इस प्रकार पाँच वर्ष में १२० उपवास करे। "ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तेभ्यो नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। -यह बृहद् विधि है। एक ही वर्ष में उपरोक्त सर्व तिथियोके १२० उपवास पूरे करना लघु विधि है। "ॐ ह्रीं वृषभादिचतुविशतितीर्थकराय नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (पंच कल्याणककी तिथिमें-दे० तीर्थकर ५)। (व्रत विधान संग्रह । पृ० १२६ ) (किशन सिंह कथा कोश) ५. परस्पर कल्याणक व्रत-१. बृहद् विधि--पंच कल्याणक, ८ प्रातिहार्य, ३४ अतिशय-सब मिलकर प्रत्येक तीर्थंकर सम्बन्धी ४७ उपवास होते हैं। २४ तीर्थंकरों सम्बन्धी ११२८ उपवास एकांतरा रूपसे लगातार २२५६ दिनमें पूरे करे। (ह. पु./३४/१२५) २. मध्यम विधि-क्रमशः १ उपवास, ४ दिन एकलठाना (एक बारका परोसा); ३ दिन कांजी (भात व जल );२ दिन लक्षाहार; २ दिन अन्तराय टालकर मुनि वृत्तिसे भोजन और १दिन उपवास इस प्रकार लगातार १३ दिन तक करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य दे। (बर्द्ध मान पुराण ) ( व्रत विधान संग्रह | पृ०७०) ३. लघु विधि-क्रमशः १ उपवास, १ दिन कांजी (भात व जल); १दिन एकलठाना ( एक बार पुरसा ); १ दिन रूझाहारः १ दिन अन्तराय टालकर मुनिवृत्तिसे आहार, इस प्रकार लगातार पाँच दिन करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । (वर्तमान पुराण) (व्रत विधान संग्रह/पृ०६१) ६. शोल कल्याणक व्रत-मनुष्यणी, तिर्यचिनी, देवांगना व अचेतन खो इन चार प्रकारकी स्त्रियोंमें पाँचों इन्द्रियों व मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदनासे गुणा करनेपर १८० भंग होते है। ३६० दिनमें एकान्तरा क्रमसे १८० उपवास पूरा करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (ह.पु/३४/११३) (वत विधान संग्रह/पृ०६८) (किशन सिंह क्रियाकोश) ७. ध्रुति कल्याणक व्रत-क्रमशः५ दिन उपवास, दिन कांजी (भात व जल ); ५दिन एकलठाना ( एक बार पुरसा) ५ दिन रूक्षाहार, ५ दिन मुनि बृत्तिसे अन्तराय टालकर मौन सहित भोजन, इस प्रकार लगातार २५ दिन तक करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । (वत-विधान संग्रह/पृ०६६).(किशन सिंह क्रियाकोश) कल्याणमन्दिर स्तोत्र-श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेन दिवाकर (ई०५०८) कृत ४४ श्लोक प्रमाण पार्श्वनाथ स्तोत्र । (ती० २/२१५) । कल्याणमाला-(प. पु./३४/श्लो. नं० ) बाल्यखिल्यकी पुत्री थी। अपने पिताकी अनुपस्थितिमें पुरुषवेशमें राज्यकार्य करती थी। ४०-४८ । राम लक्ष्मण द्वारा अपने पिताको म्लेच्छोकी मन्दीसे मुक्त हुआ जान (७६-१७) उसने लक्ष्मणको वर लिया (८०-११०)। कल्ली -भरत क्षेत्र पश्चिम आर्य खण्डका एक देश -मनुष्य/४ ) कवयव-एक ग्रह-दे० ग्रह। कवल-दे० ग्रास । कवलचन्द्रायण व्रत-किसी भी मासकी कृ०१५ को उपवास इससे आगे पडिमाको एक ग्रास, आगे प्रतिदिन एक-एक ग्रासकी वृद्धिसे चतुर्दशीको १४ ग्रास । पूर्णमाको पुनः उपवास । इससे आगे उलटा क्रम अर्थात कृ० १ को १४ ग्रास, फिर एक-एक ग्रासकी प्रति दिन हानिसे कृ० १४ को १ ग्रास और अमावस्याको उपवास। इस प्रकार पूरे १महीने तक लगातार करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । (ह. पु./३४/११) (बत-विधान संग्रह/पृ०१८) (किशनचन्द्र क्रियाकोश)। कवलाहार-१ कयलाहार निर्देश-दे० आहार /1/१। २. केवलीको कवलाहारका निषेध-दे० केवली/४ । कवाटक- भरतक्षेत्र आर्यखण्डमें मलयगिरि पर्वतके निकट स्थित एक पर्वत-दे० मनुष्य/४। कषाय-आत्माके भीतरी कलुष परिणामको कषाय कहते हैं। यद्यपि क्रोध मान माया लोभ ये चार ही कषाय प्रसिद्ध हैं पर इनके अतिरिक्त भी अनेकों प्रकारकी कषायोंका निर्देश आगममें मिलता है। हास्य रति अरति शोक भय ग्लानि व मैथुन भाव ये नोकषाय कही जाती हैं, क्योंकि कषायवत व्यक्त नहीं होती। इन सबको ही राग व द्वेष में गर्भित किया जा सकता है। आत्माके स्वरूपका घात करनेके कारण कषाय ही हिंसा है। मिथ्यात्व सबसे बड़ी कषाय है। एक दूसरी दृष्टिसे भी कषायौंका निर्देश मिलता है। वह चार प्रकार है-अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्यारख्यान व संज्वलनये भेद विषयोंके प्रति आसक्तिको अपेक्षा किये गये हैं और क्योंकि वह आसक्ति भी क्रोधादि द्वारा ही व्यक्त होती है इसलिए इन चारोंके क्रोधादिके भेदसे चार-चार भेद करके कुल १६ भेद कर दिये है। तहाँ क्रोधादिकी तीव्रता मन्दतासे इनका सम्बन्ध नहीं है बल्कि आसक्तिकी तीव्रता मन्दतासे है। हो सकता है कि किसी व्यक्ति में कोधादिकी तो मन्दता हो और आसक्तिकी तीव्रता। या क्रोधादिकी तीव्रता हो और आसक्तिकी मन्दता। अतः क्रोधादिकी तीव्रता मन्दताको लेश्या द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है और आसक्तिकी तीवता मन्दताको अनन्तानुबन्धी आदि द्वारा। कषायोंकी शक्ति अचिन्त्य है। कभी-कभी तीन कषायवश आत्माके प्रदेश शरीरसे निकलकर अपने बैरीका घात तक कर आते हैं, इसे कषाय समुद्धात कहते हैं । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-५ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय १. १ २ ३ ४ ५ द्द ७ ८ * ३ ४ ५ २. १ कषायों में परस्पर सम्बन्ध । २ ६ ८ * ह कषायके भेद व लक्षण कषाय सामान्यका लक्षण । कमायके भेद प्रमेद | निक्षेपकी अपेक्षा कषायके भेद | कमाय मागंणाके भेद । नोकषाय या प्रकषायका लक्षण । कषाय मार्गणाका लक्षण । तीव्र व मन्द कषायके लक्षण व उदाहरण । आदेश व प्रत्यय आदि बायो । क्रोषादिव अनन्तानुबन्ध्यादिके लक्षण । ३ कषाय निर्देश व शंका समाधान - दे० वह वह नाम । कमाय व नोकपायमें विशेषता। कषाय नोकषाय व अकषाय वेदनीय व उनके बन्ध योग्य परिणाम | -३० मोहनीय || कषाय अविरति व प्रमादादि प्रत्ययों में भेदाभेद । - दे० प्रत्यय / १ । इन्द्रिय कपाय व क्रियारूप भावमें अन्तर । -३० किया। कषाय जीवका गुण नहीं विकार है । कायका कथंचित् स्वभाव व विभावपना तथा सहेतुक अहेतुकपना | कृपाय भोविक भाव है। कषाय वास्तव में हिंसा है । मिथ्यात्व सबसे बड़ी काय है। -दे० विभाव । -३० उदय है। - दे० हिंसा / २ ० मध्यादर्शन। व्यक्ताव्यक्त कषाय । -दे० राग / ३ । जीव या द्रव्य कर्मको क्रोधादि संज्ञाएँ कैसे प्राप्त हैं । निमित्तभूत भिन्न द्रव्योंको समुत्पत्तिक कषाय कैसे कहते हो । कषायले अजीव द्रव्यों को कषाय कैसे कहते हो । प्रत्यय व समुत्पतिक कषायमें अन्तर प्रदेश कषाय व स्थापना कषायमें अन्तर । कषाय निग्रहका उपाय । - दे० संयम / २ | चारों गतियोंमें कषाय विशेषों की प्रधानताका नियम। ३. १ कपायोंकी शक्तियोंके दृष्टान्त में उनका फल | २ उपरोक वृष्टान्त स्थितिकी अपेक्षा है अनुभागकी अपेक्षा नही । उपरोक्त दृष्टान्तोका प्रयोजन । क्रोधादि कशयोंका उदयकाल । कपायों की शक्तियाँ, उनका कार्य व स्थिति ३४ ५ 8. १ २ ३ ५ ५. १ २ ३ * जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अनन्तानुबन्धी भादिका वासनाकाल । - दे० वह वह नाम । कपायों की तीव्रता मन्दताका सम्बन्ध लेख्याओंसे है अनन्तानुबन्ध्यादि अवस्थाओंसे नहीं। अनन्तानुवन्धी भादि कषायें – दे० मह नह नाम कषाय व लेश्या में सम्बन्ध | -०२। कषायोकी तीव्र मन्द शक्तियोंमें सम्भव लेश्याएँ । - ३०/३/१९ कैसी कपायसे कैसे कर्मका बन्ध होता है। - दे० वह वह कर्मका नाम कौन-सी कषायसे मरकर कहाँ उत्पन्न हो । - कषाय - दे० जन्म /५ कषायोकी बन्ध उदय सत्व प्ररूपणाएँ । कषाय व स्थिति बन्धाध्यवसाय स्थान | - दे० वह वह नाम कषायका रागद्वेषादिमें अन्तर्भाव राग-द्वेष सम्बन्धी विषय । नयोंकी अपेक्षा अन्तर्भाव निर्देश नैगम व संग्रहनयकी अपेक्षा युक्ति । व्यवहारनयकी अपेक्षा युक्ति । जुन की अपेक्षा में युक्ति । शन्दनयकी अपेक्षामें युक्ति । संज्ञा प्ररूपणाका काय मार्गणाने अन्तर्भाव । -दे० अध्यवसाय - दे० राग -६० मार्गमा कपाय मार्गणा गनियों की अपेक्षा कपायोंकी प्रधानता । गुणस्थानोंमें कषायों की सम्भावना साबुको कदाचित् कषाय आती है पर वह संयमसे च्युत नही होता। -दे० संयत / ३ अप्रमत्त गुणस्थानोंमें कषायोंका अस्तित्व कैसे सिद्ध हो । उपशान्तकपाय गुणस्थान कषाय रहित कैसे है। कषाय मार्गणा में भाव मागंवाकी इष्टता और वहाँ श्रायके अनुसार ही व्ययका नियम ३० मार्गणा कषायों में पाँच भावों सम्बन्धी शोध श्रादेश प्ररूपणाएँ । - दे० भाव काय विषय सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, - दे० वह वह नाम - भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ । कपाय विषयक गुणस्थान, मागंणा, जीवसमास आादि २० प्ररूपणाएँ । कषायमागंणा में बम्ध उदय सत्व प्ररूपणाएँ । -दे० स -- दे० वह वह नाम Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय १. कषाय के भेद व लक्षण २. कषायके भेद प्रभेद कषाय कषाय नोकषाय क्रोध मान माया लोभ कषाय समुद्घात | कषाय समुद्घातका लक्षण । यह शरीरसे तिगुने विस्तारवाला होता है। -दे० ऊपर लक्षण यह संख्यात समय स्थितिवाला है। -दे० समुद्घात इसका गमन व फैलाव सर्व दिशाओं में होता है। -दे० समुद्धात यह बद्धायुष्क व अवद्धायुष्क दोनोंको होता है। -दे० मरण//७ कषाय व मारणान्तिक समुद्घातमें अन्तर । -दे० मरण/५ कषाय समुद्घातका स्वामित्व । -दे० क्षेत्र/३ हास्य रति अरति शोक भय अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन (क्रोधादि चारोंमें से प्रत्येककी ये अनन्तानुबन्धी आदि चार-चार अवस्थाएँ हैं। १. कषायके भेद व लक्षण १. कषाय सामान्यका लक्षण प.सं./प्रा./१/१०१ मुहदुक्ख बहुसस्सं कम्मक्रिवत्तं कसेइ जीवस्स । संसारगदी मेरं तेण कसाओ त्ति णं विति ।१०६ =जो क्रोधादिक जीवके सुख-दुःखरूप बहुत प्रकारके धान्यको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूप खेतको कर्षण करते हैं अर्थात् जोतते हैं, और जिनके लिए संसारकी चारों गतियाँ मर्यादा या मेंढ रूप हैं, इस लिए उन्हें कषाय कहते हैं । (ध. १/१,१,४/१४१/५) (ध. ६/१,६-१,२३/४१/३) (ध, ७२,१.३/ ७/१) (चा. सा./८/१)। प्रमाण:१. कषाय व नोकषाय-(क. पा. १/१,१३-१४/६२८७/३२२/१) २. कषायके क्रोधादि ४ भेद-(ष. खं. १/१,१/सु. ११९/३४८) (वा, अ./४६) (रा. वा./8/9/११/६०४/७) (ध. ६/१,६-२,२३/४१/३) (द्र. सं./टी/३०/८१/७)। ३. नोकषायके नौ भेद-(त सू./८/8) (स.सि./८/४/३८५/१२) (रा. वा./८/६/४/५७४/१६) (पं.ध/उ./१०७७)। ४. क्रोधादि के अनन्तानुबन्धी आदि १६ भेद-(स.सि./८/६/३८६/ ४ ) (स. सि./८/२/३७४/८) (रा. वा. ८/६/५/५७४/२७) (न.च. वृ./३०८) ५. कषायके कुल २५ भेद-(स. सि./८/९/३७५/११) (रा. वा.//९/ २६/५६४/२६) (ध.८/३,६/२१/४) (क. पा./१/१.१३-१४/६२८७/३२२/ १) (द्र. सं./टी/१३/३८/१) (द्र. सं./टी./३०/६/७)। स. सि./६/४/३२०/8 कषाय इव कषायाः। क. उपमार्थः । यथा कषायो नयग्रोधादिः श्लेषहेतुस्तथा क्रोधादिरप्यात्मनः कर्मश्लेषहेतुत्वात कषाय इव कषाय इत्युच्यते । कषाय अर्थात् 'क्रोधादि' कषायके समान होनेसे कषाय कहलाते हैं। उपमारूप अर्थ क्या है। जिस प्रकार नै यग्रोध आदि कषाय श्लेषका कारण है उसी प्रकार आत्माका क्रोधादिरूप कषाय भी कर्मों के श्लेषका कारण है। इसलिए कषायके समान यह कषाय है ऐसा कहते हैं। ३. निक्षेपकी अपेक्षा कषायके भेद (क. पा.१/१,१३-१४/६२३५-२७६/२८३-२६३) । कषाय पृ.२८३ नाम स्थापन द्रव्य प्रत्यय समुत्पत्तिक आदेश रस भाव | |२८४ ___|३०२-३०३ रा. वा./२/4/२/१०८/२८ कषायवेदनीयस्योदयादात्मनः कालुष्यं क्रोधादिरूपमुत्पद्यमानं 'कषत्यात्मानं हिनस्ति' इति कषाय इत्युच्यते। कषायजेदनीय ( कर्म ) के उदयसे होनेवाली क्रोधादिरूप कलुषता काय कहलाती है; क्योंकि यह आत्माके स्वाभाविक रूपको कष देती है अर्थात् उसकी हिंसा करती है। (यो. सा. अ./8/४०) (पं.ध./3/१९३५)। रा. वा./६/४/२/०८/८ क्रोधादिपरिणामः कषति हिनस्त्यात्मानं कुगति- प्रापणादिति कषायः। -क्रोधादि परिणाम आरमाको गतिमें ले जानेके कारण करते है। आरमाके स्वरूपकी हिंसा करते हैं, अतः ये कषाय है। ऊपर भी रा. वा./२/६/२/१०८) (भ. आ./ वि./२७/ १०७/१६) (मो.क/जी. प्रा./३३/२६/१)। बाह्य अभ्यन्तर चित्र काष्ठ कर्म कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य __ २८५ । सर्ज सिरीष इत्यादि | । । । । । । । । एक अनेक एक अनेक एकजीव एक जीव अनेक अनेक जीव जीव जीव अजीव अजीव एक अजीव अनेक जीव एक अनेक अजीव अजीव अजीव क्रोधादि पति हिना ये कारण केवते ४. कषाय मागणाके भेद रा. बा./8/9/११/६०४/६ चारित्रपरिणामकषणात कषायः । - चारित्र परिणामको कषनेके कारण या घातनेके कारण कषाय है। (पा.सा./८८६) प. बं. १/१,१/सू. १११/३४८ “कसायाणुवादेण अत्थि क्रोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई अकसाई चेदि।"= कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और कषायरहित जीव होते है। जैनेन्द्र सिदान्त कोश Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय ३६ २. कषाय निर्देश व शंका समाधान ५. नोकषाय या अकषायका लक्षण चित्रमें अंकित ऐसा रुष्ट हुआ जीव आदेशकषायकी अपेक्षा क्रोध है । स. सि./८/६/३८६/११ ईषदर्थे नत्र' प्रयोगादीषत्कषायोऽकषाय इति । (इसी प्रकार चित्रलिखित अकडा हुआ पुरुष मान, ठगता हुआ मनुष्य =यहाँ ईषत् अर्थात् किचिद अर्थ में 'न' का प्रयोग होनेसे किचित माया तथा लम्पटताके भाव युक्त पुरुष लोभ है)। इस प्रकार काष्ठ कषायको अकषाय (या नोकषाय ) कहते है । (रा वा /८/8/३/५७४/ कर्ममे या पोतकर्म में लिखे गये (या उकेरे गये ) क्रोध, मान, माया और लोभ आदेश कषाय है । (१२६३-२६८ के चूर्ण सूत्र पृ. ३०१-३०३) १०) (ध. ६/१,६-१,२४/४६/१) (ध. १३/५,५,६४/३५९/६). (गो. क/जी.प्र./३३/२८/७)। ६. अकषाय मागणाका लक्षण २. कषाय निर्देश व शंका समाधान पं. सं / प्रा./१/११६ अप्पपरोभयबाहणबंधासजमणिमित्तकोहाई । जेसि१. कषायोंका परस्पर सम्बन्ध णत्थि कसाया अमला अकसाइ णो जीवा ।११६। जिनके अपने ध.१२/४,२,७,८६/५२/६ मायाए लोभपुरंगमत्तुवलंभादो। आपको, परको और उभयको बाधा देने, बन्ध करने और असंयमके ध.१२/४,२,७,८८/५२/११ कोधपुरंगमत्तदसणादो। आचरणमें निमित्तभूत क्रोधादि कषाय नहीं है, तथा जो बाह्य और ध.१२/४,२,७,१००/५७/२ अरदीए विणा सोगाणुप्पत्तीए । माया, लोभअभ्यन्तर मलसे रहित है ऐसे जीवोको अकषाय जानना चाहिए। पूर्वक उपलब्ध है। वह (मान) क्रोधपूर्वक देखा जाता है। अरतिके (ध. १/१,१,१११/ १७८/३५१ ) (गो.जी /मू./२८४/६१७ ।। बिना शोक नहीं उत्पन्न होता। ७. तीव्र व मन्द कषायके लक्षण व उदाहरण २. कषाय व नोकषायमें विशेषता पा. अ./मू/११-१२ सव्वत्थ वि पिय वयणं दुचयणे दुज्जणे वि खम ध. ६/१,६-१,२४/४५/५ एत्थ गोसद्दो देसपडिसेहो घेत्तव्बो, अण्णहा करणं । सव्वेसिं गुणगहणं मंदकसायाण दिट्ठता।६१। अप्पपसंसण एदेसिमकसायत्तप्पसंगादो। होदु चे ण, अकासायाणं चारित्ताबरणकरण पुज्जेसु वि दोसगहणसीलत्तं । वेरधरणं च सुइर तिव्व कसायाण विरोहा। ईषतकषायो नोकषाय इति सिद्धम् । ...कसाएहितो णोकलिंगाणि ।१२। सभीसे प्रिय वचन बोलना, खाटे वचन बोलनेपर सायाणं कधं थोवत्तं । द्विदीहितो अणुभागदो उदयदो य । उदयदुर्जनको भीक्षमा करना और सभीके गुणोको ग्रहण करना, ये मन्द कालो णोकसायाणं कसाएहितो बहुओ उवल भदि त्ति णोकसाएहितो कषायी जीवोंके उदाहरण हैं ।६। अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषोमे कसायाणं थोवत्तं किण्णेच्छदे। ण, उदयकालमहल्लत्तणेण चारित्तभी दोष निकालनेका स्वभाव होना और बहुत कालतक वैरका धारण विणासिकसाए हितो तम्मलफलकम्माणं महल्लत्ताणुववत्तीदो। नोककरना, ये तीन कषायी जीवोंके चिन्ह हैं ।। षाय शब्दमें प्रयुक्त नो शब्द, एकदेशका प्रतिषेध करनेवाला ग्रहण करना चाहिए. अन्यथा इन स्त्रीवेदादि नवों कषायोंके अकषायताका ८. आदेश व प्रत्यय आदि कषायोंके लक्षण प्रसंग प्राप्त होता है। प्रश्न होने दो, क्या हानि है ? उत्तर-महीं; क. पा. १/१,१३-१४/प्रकरण / पृष्ठ/पंक्ति "सर्जो नाम वृक्षविशेषः, तस्य क्योंकि, अकषायोंके चारित्रको आवरण करनेका विरोध है। कषायः सर्जकषाय, । शिरीषस्य कषाय शिरीषकषायः ।। २४२/२८५/ इस प्रकार ईषत् कषायको नोकषाय कहते हैं, यह ६/ पञ्चयकसायो णाम कोहवेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो कोहो सिद्ध हुआ । प्रश्न कषायोसे नोकषायोके अल्पपना कैसे है । होदि तम्हा तं कम्म पच्चयकसारण कोहो । (चूर्णसुत्र पृ. २८७)/ समु- उत्तर-स्थितियोकी, अनुभागकी और उदयकी अपेक्षा कषायोंसे त्पत्तियकसायो णाम, कोहो सिया जीवो सिया णोजोबो एवमट्ठभंगा/ नोकषायोके अल्पता पायी जाती है। प्रश्न-नोकषायोंका उदयकाल (चूर्ण सूत्र पृ. २६३ )/ मणुसस्सपडुच्च कोहो समुप्पण्णो सो मणुस्सो कषायोंका अपेक्षा बहुत पाया जाता है, इसलिए नोकषायोंकी अपेक्षा कोहो । (चूर्ण सूत्र पृ. २६५)/ कट्ठ वा लेड्डुवा पडच्च कोहो समुप्पण्णो कषायोके अल्पपना क्यों नहीं मान लेते हैं। उत्तर-नहीं, क्योंकि, तं कट्ठ' वा लेडु वा कोहो । ( चूर्णसूत्र पृ. २६८) एवं माणमाया- उदयकालकी अधिकता होनेसे, चारित्र विनाशक कषायोंकी अपेक्षा लोभाणं (पृ. ३००) । आदेसकसारण जहा चित्तकम्मे लिहिदो कोहो चारित्रमे मलको उत्पन्न करनेरूप फलवाले कर्मोकी महत्ता नहीं बन रुसिदो तिवलिदणिडालो भिउडि काऊण। (चूर्ण सूत्र/पृ ३०१)। सकती। (ध १३/५,५,६४/३५६/६) एवमेदे कट्टकम्मे वा पोत्तकम्मे वा एस आदेसकसायो णाम । (चूर्णसूत्र/पृ० ३०३) - सर्ज साल नामके वृक्षविशेषको कहते हैं। उसके ३. कषाय जीवका गुण नहीं है, विकार है कसैले रसको सर्जकषाय कहते हैं। सिरीष नामके वृक्षके कसैले ध.५/१,७,४४/२२३/५ कसाओ णाम जीवगुणो, ण तस्स विणासो अस्थि रसको सिरीषकषाय कहते हैं ( ६ २४२ ) । अब प्रत्ययकषायका स्वरूप णाणदं सणाणमिव । विणासो वा जीवस्स विणासेण होदव्यं; णाणकहते हैं-क्रोध वेदनीय कर्मके उदयसे जीव क्रोध रूप होता है, इस- दसणविणासेणेव । तदोण अकसायत्तं घडदे। इदि। होदु णाणलिए प्रत्ययकर्मकी अपेक्षा वह क्रोधकर्म क्रोध कहलाता है (२४३ का दंसणाणं विणासम्हि जीव विणासो, तेसि तल्लकखणत्तादो । ण कसाओ चूर्णसूत्र पृ. २८७) । ( इसी प्रकार मान माया व लोभका भी कथन जीवस्स लक्रवण, कम्मजणिदस्स लक्रवणत्त विरोहा। ण कसायाण करना चाहिए ) ( २४७ के चूर्ण सूत्र पृ. २८६) । समुत्पत्तिको अपेक्षा कम्मणिदत्तमसिद्ध', कसायबड्ढीए जीवलक्रवणणाणहाणिअण्णकहींपर जीव क्रोधरूप है कहींपर अजीव क्रोधरूप है इस प्रकार आठ हाणुववत्तीदो तस्स कम्मजणिदत्त सिद्धीदो। ण च गुणो गुणंतरविरोहे भंग करने चाहिए। जिस मनुष्यके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है अण्णत्थ तहाणुवलंभा ।प्रश्न-कषाय नाम जीवके गुणका है, इसवह मनुष्य समुत्पत्तिक कषायकी अपेक्षा क्रोध है। जिस लकडी लिए उसका विनाश नहीं हो सकता, जिस प्रकार कि ज्ञान और अथवा ईट आदिके टुकड़ेके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है समु- दर्शन, इन दोनो जीवके गुणोंका विनाश नहीं होता। यदि जीवके त्पत्तिक कषायको अपेक्षा व लकड़ी या इंट आदिका टुकडा क्रोध गुणोका विनाश माना जाये, तो ज्ञान और दर्शनके विनाशके समान है । ( इसी प्रकार मान, माया, लोभ का भी कथन करना जीवका भी विनाश हो जाना चाहिए। इसलिए सूत्रमें कही गयी चाहिए)। (६२५२-२६२ के चूर्ण सूत्र पृ. २६३-३००)। भौह अकषायता घटित नहीं होती। उत्तर-ज्ञान और दर्शनके विनाश चढ़ानेके कारण जिसके ललाटमें तीन बली पड गयी है होनेपर जीवका विनाश भले ही हो जावे; क्योंकि, वे जीवके लक्षण पायोंके चाईबत कभाषामाके की अपेक्षा कुदयकाल जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय ३७ २. कषाय निर्देश व शंका समाधान हैं। किन्तु कषाय तो जीवका लक्षण नहीं है, क्योकि कर्म जनित कषायको जीवका लक्षण माननेमे विरोध आता है। और न कषायोका कर्मसे उत्पन्न होना असिद्ध है, क्योकि, कषायोकी वृद्धि होनेपर जीवके लक्षणभूत ज्ञानकी हानि अन्यथा बन नहीं सकती है। इसलिए कषायका कर्मसे उत्पन्न होना सिद्ध है। तथा गुण गुणान्तरका विरोधी नहीं होता, क्योकि, अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता। है जीवको या द्रव्यकर्म दोनोंको ही क्रोधादि संज्ञाएँ कैसे प्राप्त हो सकती हैं - प्रश्न-ताडन मारण आदि व्यापारसे रहित अजीव (काष्ठ ढेला आदि । क्रोधको उत्पन्न नहीं करते हैं (फिर वे क्रोध कैसे कहला सकते हैं)। उत्तर-ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है। क्योंकि, जो कॉटा पैरको बींध देता है उसके ऊपर भी क्रोध उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है। तथा बन्दरके शरीरमें जो पत्थर आदि लग जाता है, रोषके कारण वह उसे चबाता हुआ देखा जाता है। इससे प्रतीत होता है कि अजीव भी क्रोधको उत्पन्न करता है। क.पा.१/१,१३-१४/ २६२/३००/११ "कधं णोजीवे माणस्स समुष्पत्ती। ण; अप्पणो रूवजोव्यणगव्वेण वत्थालं कारादिसु समुव्वहमाण माणस्थी पुरिसाणमुबलं भादो।"प्रश्न-अजीवके निमित्तसे मानकी उत्पत्ति कैसे होती है। उत्तर-ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि अपने रूप अथवा यौवनके गर्व से वस्त्र और अलंकार आदिमें मानको धारण करनेवाले स्त्री और पुरुष पाये जाते है। इसलिए समुत्पत्तिक कषायकी अपेक्षा वे वस्त्र और अलंकार भी मान कहे जाते हैं। क.पा.२/१,१,१३-११/६२४३-२४४/२८७-२८८/७६२४३ 'जीवो कोहो होदि' त्ति ण घडदे; दध्वस्त जीवस्स पज्जयसरूबकोहभाषावत्ति विरोहादो; ण; पज्जएहितो पुधभूदजीवदव्याणुवलं भादो । तेण 'जीवो कोहो होदि' त्ति घडदे । २४४. दव्बकम्मस्स कोहणिमित्तस्स कथं कोहभावो । ण; कारणे कज्जुवयारेण तस्स कोहभावसिद्धीदो । प्रश्न'जीव क्रोधरूप होता है' यह कहना संगत नहीं है, क्योंकि जीव द्रव्य है और क्रोध पर्याय है। अत. जीवद्रव्यको क्रोध पर्यायरूप माननेमे विरोध आता है। उत्तर-नहीं, क्योकि जीव द्रव्य अपनी क्रोधादि पर्यायोंसे सर्वथा भिन्न नहीं पाया जाता।--दे० द्रव्य/४ । अत. जीव क्रोधरूप होता है यह कथन भी बन जाता है। प्रश्नद्रव्यकर्म क्रोधका निमित्त है अत वह क्रोधरूप कैसे हो सकता है ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, कारणरूप द्रव्यमें कार्यरूप क्रोध भावका उपचार कर लेनेसे द्रव्यकर्ममे भी क्रोधभावको सिद्धि हो जाती है, अर्थात् द्रव्यकर्मको भी क्रोध कह सकते हैं। क.पा.१/१.१३-१४/१२५०/२६२/६ ण च एत्थ दव्वकम्मस्स उवयारेण कसायत्तं; उजुसुदे उवयाराभावादो। कथं पुण तस्स कसायत्तं । उच्चदे दबभावकम्माणि जेण जीवादो अपुधभूदाणि तेण दव्य कसायत्तं जुज्जदे। = यदि कहा जाय कि उदय द्रव्यकर्मका ही होता है अत' ऋजुसूत्रनय उपचारसे द्रव्य कर्म को भी प्रत्ययकषाय मान लेगा, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योकि ऋजुसूत्रनयमे उपचार नहीं होता। प्रश्न-यदि ऐसा है तो द्रव्यकर्मको कषायपना कैसे प्राप्त हो सकता है ! उत्तर-चूंकि द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनों जीवसे अभिन्न हैं इसलिए द्रव्यकर्म में द्रव्यकषायपना बन जाता है। ६. कषायले अजीव द्रव्योंको कषाय कैसे कहा जा सकता है क.पा.१/१.१३-१४/६२७०/३०६/२दव्यस्स कथं कसायववएसो;ण: कसायवदि रित्तदव्याणुलं भादो। अकसायं पि दव्वमत्थि त्ति चे; होदु णाम; कितु “अप्पियदव्वं ण कसायादो पुधभूदमस्थि' त्ति भणामो। तेण 'कसायरसं दव्वं दव्वाणि वा सिया कसाओ' त्ति सिद्ध । -प्रश्न-द्रव्यको (सिरीष आदिको) कषाय कैसे कहा जा सकता है। उत्तर- क्योंकि कषाय रससे भिन्न द्रव्य नहीं पाया जाता है, इसलिए द्रव्यको कषाय कहने में कोई आपत्ति नहीं आती है। प्रश्न-कषाय रससे रहित भी द्रव्य पाया जाता है ऐसी अवस्थामें द्रव्यको कषाय कैसे कहा जा सकता है। उत्तर-कषायरससे रहित द्रव्य पाया जाओ, इसमें कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु यहाँ जिस द्रव्यके विचारकी मुख्यता है वह कषायरससे भिन्न नहीं है, ऐसा हमारा कहना है। इसलिए जिसका या जिनका रस कसैला है उस द्रव्यको या उन द्रव्योंको कथंचित् कषाय कहते हैं यह सिद्ध हुआ । ५. निमित्तभूत भिन्न द्रव्योंको समुत्पत्तिक कषाय कैसे कह सकते हो क पा.१/१,१३-१४/२५७/२६७/१ जे मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पणो सो नत्तो पुधभूदो संतो कर्थ कोहो । होत एसो दोसो जदि संगहादिणया अवलं बिदा, कितु णइगमणओ जयिवसहाइरिएण जेणावलं विदो तेण एस दोसो। तत्थ कथं ण दोसो। कारणम्मि णिलीणकज्जब्भुवगमादो । प्रश्न-जिस मनुष्यके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न हुआ है, वह मनुष्य उस क्रोधसे अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है। उत्तर-यदि यहाँपर संग्रह आदि नयोंका अवलंबन लिया होता, तो ऐसा होता, किन्तु यतिवृषभाचार्य ने यहाँपर नैगमनयका अत्रलम्बन लिया है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न-गमनयका अवलम्बन लेनेपर दोष कैसे नहीं है। उत्तर-क्योंकि नै गमनयकी अपेक्षा कारणमें कार्यका सद्भाव स्वीकार किया गया है (अर्थात् कारणमें कार्य निलीन रहते है ऐसा माना गया है)। क. पा.१/१,१३-१५/६२५६/२६८/६ वावारविरहिओ गोजीवो कोहं ण उपादेदि त्ति णास कणिज्जं विद्धपायकंटए वि समुप्पज्जमाणकोहुबलंभादो, संगगलग्गले डुअखंडं रोसेण दसतमकडवलंभादो च । ७. प्रत्यय व समुत्पत्तिक कषायमें अन्तर क.पा.१/१,१३-१४/१२४६/२८६/६ एसो पच्चयकसाओ समुप्पत्तियकसायादो अभिण्णो त्ति पुध ण वत्तव्यो। ण; जीवादो अभिण्णो होगुण जो कसाए समुप्पादेदि सो पञ्चओ णाम भिण्णो होदूण जो समुप्पादेदि सो समुप्पत्तिओ त्ति दोण्हं भेद्वलंभादो। प्रश्न-यह प्रत्ययकषाय समुत्पत्तिककषायसे अभिन्न है अर्थात ये दोनो कषाय एक हैं (क्योंकि दोनों ही कषायके निमित्तभूत अन्य पदार्थोको उपचारसे कषाय कहते है) इसलिए इसका (प्रत्यय कषायका) पृथक् कथन नहीं करना चाहिए । उत्तर--नहीं, क्योंकि, जो जीवसे अभिन्न होकर कषायको उत्पन्न करता है वह प्रत्यय कषाय है और जो जीवसे भिन्न होकर कषायको उत्पन्न करता है वह समुत्पत्तिक कषाय है। अर्थात क्रोधादि कर्म प्रत्यय कषाय है और उनके (बाह्य) सहकारी कारण ( मनुष्य ढेला आदि ) समुत्पत्तिककषाय हैं इस प्रकार इन दोनों में भेद पाया जाता है, इसलिए समुत्पत्तिक कषायका प्रत्ययकषायसे भिन्न कथन किया है। ८. आदेशकषाय व स्थापनाकषायमें अन्तर क.पा.१/१,१३-१४/६२६४/३०१/६ आदेसकसाय-ढवणकसायाणं को भेओ। अत्थि भेओ, सम्भावट्ठवणा कषायपरूवणा कसायबुद्धी च आदेसकसाओ, कसायविसयसम्भावासभाषट्ठवणा ठवणकसाओ, तम्हाण पुणरुत्तदोसो त्ति । प्रश्न--(यदि चित्र में लिखित या काष्ठव दिमें जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय उकेरित क्रोधादि आदेश कषाय है) तो आदेशकषाय और स्थापनाकषायमें क्या भेद है। उत्तर-आदेशकषाय और स्थापनाकषाय में भेद है, क्योंकि सद्भाव स्थापना कषायका प्ररूपण करना और 'यह कषाय है इस प्रकारकी बुद्धि होना, यह बादेशरूपाय है तथा कषायडी सद्भाव और असद्भावरूप स्थापना करना स्थापनाकषाय है। तथा इसलिए आदेशकषाय और स्थापनाकषायका अलग-अलग कथन करनेसे पुनरुक्त दोष नहीं आता है। ९. चारों गतियों में कषाय विशेषकी प्रधानताका नियम पी.जी././२००/६१६ णारमतिरिक्खगरसुरगईसु उपणपालन्हि । कोहो माया माणो लोनिया मो.जी./जी.प्र./२०१६/५ नारकतिर्यग्नरसुरत्युत्पन्नजीवस्य तद्भ प्रथमकाले प्रथमसमये यथासंख्वं कोमायामालोकवावाणामुदय स्यादिति नियमवचनं कषायमाभृतद्वितीयसिद्धान्तव्याख्यायंति वृषभाचार्यस्य अभिप्रायमाश्रितं मा अथवा महाकर्मप्रकृतिप्राभृतप्रथम सिद्धान्त भूतबल्याचार्यस्य अभिप्रायेणा नियमो ज्ञातव्य प्रास्तनियमं बिना यथासंभवं कषायोदयोऽस्तीत्यर्थ । नरक, तियंच, मनुष्य व देवविषै उत्पन्न हुए जोटके प्रथम समयविक्रमसे क्रोध, माया, मान व लोभका उदय ही है। सो ऐसा नियम कषायप्राभृत दूसरा सिद्धान्तके कर्ता यतिषाचार्य अभिमापसे जानना बहुरि महाकर्म प्रकृति प्राभूत प्रथमसिद्धान्तके कर्ता भूतबलि नामा आचार्य ताके अभिप्रायकरि पूर्वोक्त नियम नहीं है। जिस तिस किसी एक कषायका भी उदय हो सकता है। घ.४/१.२.२५०/४४६/५ पिरमगहीए-उपणजीमा पठनं कोवरमलभा ।... मगुसगदीए...माणोदय ... तिरिक्खनदीए... मायोदय... देवगदीए डोहोदओ होदि चि आहरियपरं परादुवदेसा नरकगतिमें उत्पन्न जीवोंडे प्रथमसमय में क्रोधका उदय, मनुष्यगति में मानका, तियंचगति मायाका और देवगतिमें लोभके उदयका नियम है । ऐसा आचार्य परम्परागत उपदेश है । • ३. कषायों की शक्तियाँ, उनका कार्य व स्थिति १. कषायोंकी शक्तियोंके दृष्टान्त व उनका फल पं. सं. ११११११४ सितभेपुढमेवा धूलीराई य उदयराहसमा । निर-तिरि-पर-देवतं पविति जीवा कोहवा १११ सेलसमो उसको दारुसमो तह य जाग वेतसमो पिर-तिरि-परदेवतं विति जीवा हु माणसा । १२१ | वंसीमूलं मेसस्स सिंगगोमुत्तिर्य खोरूपं रि-तिरि-पर-देव उति जीवा मासा ११३० fofमरायचक्क मलकद्दमो य तह चेय जाण हारिद ं । णिर-तिरि-णरदेस' पविति जीवा लोहना ११४ हु शक्तियोंके दृष्टान्त कषायकी अवस्था क्रोध मान अस्थि अनन्तानु० शिला रेखा अप्रत्या० पृथिवी रेखा प्रत्याख्यान धूलि रेखा दारु या काष्ठ संज्वलन० जल रेखा वेत्र (वेत) दोन माया वेणु मूल मेष शृंग गोमूत्र खुरपा फल लोभ किरमजीका | रंग या दाग नरक चक्र मल तियंच कीचड "मनुष्य हल्दी देव 11 (५.१/१.१,१११/१०४-१००/३५०), (रा.ना./९/६/५/२०४/२१), (गो.जो. / यू./२-४-२८०/६१०-६१४), (पं.सं./ /१/२०८-२११) ३८ ३. कषायों की शक्तियों, उनका कार्य व स्थिति २. उपरोक्त दृष्टान्त स्थितिकी अपेक्षा है अनुभागकी अपेक्षा नहीं गो.जी./जी. प्र / २८४-२८७ /६१०-६१५ यथा शिलादिभेदानां चिरतरचिरशीमशी मतरकाले विना संधानं न घटते थोत्कृष्टादिशक्तियुक्तकोषपरिणतो जीवोऽपि तथाविधकाले विना क्षमालक्षणसंघानाहों न स्यात मृत्युपमानोपमेययोः साहस्यं संभवतीति तात्पर्यार्थः ॥ २८४॥ यथा हि चिरतरादिकाले विना दोसास्थिका नामयितु' न शक्यन्ते तथोकुष्टादिशक्तिमानपरिणती जीवोऽपि तथाविधकारी बिना मानं परिहृत्य विनयपनमनं कर्तुं न शक्नोतीति सारस्यसंभवोऽत्र शातय्यः ॥२५॥ यथादयः चिरतरादिकाले बिना स्वस्थ परि हृत्य ऋजुत्वं न प्राप्नुवन्ति तथा जीवोऽपि उत्कृष्टादिशक्तियुक्तHereषायपरिणतः तथाविधकालैर्विना स्वस्ववक्रतां परिहृत्य ऋजुपरिणामो न स्यात् इति सादृश्यं युक्तम् । २८६ | जैसे शिलादि पर उकेरी या खंची गयी रेखाएँ अधिक देरसे देरसे, जल्दी व बहुत जल्दी काल बीते बिना मिलती नहीं है, उसी प्रकार उत्कृष्टादि शक्तियुक्त क्रोधसे परिणत जीव भी उसने उसने काल भी बिना अनुसंधान या क्षमाको नहीं होता है इसलिए यहाँ उपमान और उपमेयको सदृशता सम्भव है | २४| जैसे चिरतर आदि काल बीते बिना शैल, अस्थि, काष्ठ और बेत नमाये जाने शक्य नहीं हैं वैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त मानसे परिणत जीव भी उतना उतना काल बीते बिना मानको छोड़कर विनय रूप नमना या प्रवर्तना शक्य नहीं है, अतः यहाँ भी उपमान व उपमेयमें सदृशता है । २८५॥ जैसे वेणुमूल आदि चिरतर आदि काल बीते बिना अपनी-अपनी वक्रताको छोड़कर ऋ नहीं प्राप्त करते हैं, वैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त मायासे परिणत जीव भी उतना उतना काल बीते बिना अपनीअपनी वक्रताको छोड़कर ऋजु या सरल परिणामको प्राप्त नहीं होते. अत यहाँ भी उपमान व उपमेय में सदृशता है । ( जैसे क्रमिराग आदिके रंग चिश्तर आदि का बीते भिमा छूटते नहीं हैं, जैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त लोभसे परिणत जीव भी उतना उतना काल श्री बिना लोभ परिणामको छोड़कर सन्तोषको प्राप्त नहीं होता है, इसलिए यहाँ भी उपमान व उपमेयमें सदृशता है। बहुरि इहाँ शिसाभेदादि उपमान और उत्कृष्ट शक्तियुक्त आदि क्रोधादिक उप मेय ताका समानपना अतिघना कालादि गये बिना मिलना न होनेकी अपेक्षा जानना (पृ. ६१९) । ३. उपरोक्त दृष्टान्तों का प्रयोजन गोजी/जी. २१/९६/१ प्रति शिलाभेदादिस्फुटं व्यवहाराम धारणेन भवन्ति । परमागमव्यवहारिभिराचार्यै' अव्युत्पन्नमन्दप्रज्ञशिष्यप्रतिबोधनार्थं व्यवहर्तव्यानि भवन्ति । दृष्टान्तप्रदर्शनबलेनैव हिन्दः शिष्या प्रतिबोधयितु शक्यन्तेोदशनामान्येव शिलाभेदादिशक्तीनां नामानीति रूहानि ए शिलादिके भेदरूप दृष्टान्त प्रगट व्यवहारका अवधारणकार हैं, और परमागमका व्यवहारी आचार्यनिकर बुद्धि शिष्यको अधि व्यवहार रूप की है जायें रटान्सके मलकरि ही मन्दबुद्धि सम हैं. ताटाकी मुख्यताकरि जेदन्तिके नाम प्रसिद्ध कीए हैं। ४. क्रोधादि कषायों का उदयकाल ध.४/१,५,२५४/४४७/३ कसायाणामुदयस्स अन्तोमुहुत्तादो उवरि णिच्चएण विणासो होदि ति गुरुवदेसा । = कषायों के उदयका, अन्तसे ऊपर निश्रयसे विनाश होता है, इस प्रकार गुरुका उपदेश है। (और भी देखो काल / ६) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय ४. कषायों के रागद्वेषादिमें अन्तर्भाव ५. कषायोंकी तीव्रता मन्दताका सम्बन्ध लेश्याओंसे है। अनन्तानुबन्धी आदि अवस्थाओंसे नहीं ध./१/१, १, १३६/३८८।३ षड् विधः कषायोदयः। तद्यथा तीवतमः, तीवतरः, तीवः, मन्द', मन्दतरः, मन्दतम इति । एतेभ्यः षड्म्यः कषायोदयेभ्यः परिपाट्या षट् लेश्या भवन्ति । कषायका उदय छह प्रकारका होता है। वह इस प्रकार है-तीव्रतम, तीव्रतर, तीव, मन्द, मन्दतर और मन्दतम। इन छह प्रकारके कषायके उदयसे उत्पन्न हुई परिपाटीक्रमसे लेश्या भी छह हो जाती हैं। यो. मा. प्र./२/५७/२० अनादि संसार-अवस्थाविधै इनि च्यार ही कषायनिका निरन्तर उदय पाइये है । परमकृष्णलेश्यारूप तीव्र कषाय होय तहाँ भी अर परम शुक्ललेश्यारूप मन्दकषाय होय तहाँ भी निरन्तर च्यारचौं होका उदय रहै है। जातै तीव मन्दकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी आदि भेद नहीं है, सम्यक्त्वादि घातनेकी अपेक्षा ये भेद हैं । इनिही (क्रोधादिक ) प्रकृतिनिका तीव्र अनुभाग उदय होते तीव क्रोधादिक हो है और मन्द अनुभाग उदय होत मन्द क्रोधादिक हो है। दोष है, माया पैज्ज है और लोभ पेज है। (सूत्र) क्रोध दोष है; क्योंकि क्रोधके करने से शरीरमें सन्ताप होता है, शरीर काँपने लगता है..... आदि..... माता-पिता तकको मार डालता है और क्रोध सकल अनर्थोंका कारण है। मान दोष है; क्योंकि वह क्रोधके अनन्तर उत्पन्न होता है और क्रोधके विषयमें कहे गये समस्त दोषोंका कारण है। माया पेज्ज है; क्योंकि, उसका आलम्बन प्रिय वस्तु है, तथा अपनी निष्पत्तिके अनन्तर सन्तोष उत्पन्न करती है। लोभ पेज है; क्योंकि वह प्रसन्नताका कारण है। प्रश्न--क्रोध, मान, माया और लोभ .ये चारों दोष हैं, क्योंकि वे स्वयं आस्रव रूप हैं या आसबके कारण हैं। उत्तर-यह कहना ठीक है, किन्तु यहाँ पर, कौन कषाय आनन्दकी कारण है और कौन आनन्दकी कारण नहीं है इतने मात्रकी विवक्षा है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। अथवा प्रेममें दोषपना पाया ही जाता है अत' माया और लोभ प्रेम अर्थात् पेज है। अरति, शोक, भय और जुगुप्सा दोष रूप हैं; क्योंकि ये सब क्रोधके समान अशुभके कारण हैं। हास्य, रति, खौवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद पेजरूप हैं, क्योंकि ये सब लोभके समान रागके कारण हैं। ३. व्यवहारनयकी अपेक्षामें युक्ति ४. कषायोंका रागद्वेषादिमें अन्तर्भाव १. नयोंकी अपेक्षा अन्तर्भाव निर्देश क. पा./२/१, २१/चूर्ण सूत्र व टोका/8३३५-३४१ । ३६५-३६६-- शब्द द्वेष नय कषाय नैगम संग्रह व्यवहार ऋजु सू क्रोध मान माया लोभ राग कथं चिराग हास्य-रति अरति-शोक भय-जुगुप्सा स्त्री-पु.वेद | राग नपुंसक वेद (ध. १२/४, २,८,८/२८३/८) (स सा./ता. वृ. २८१/३६१) (पं.का./ता.वृ./१४८/२१४) (द्र.सं./टी./४८/२०/8) क. पा./१/चूर्णसूत्र व टो/१-२१/३३७-३३८/३६७ ववहारणयस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोसो, लोहो पेज्ज (सू.) क्रोध-मानौ दोष इति न्याय्य तत्र लोके दोषव्यवहारदर्शनाव, न माया तत्र तद्वयवहारानुपलम्भादिति; न; मायायामपि अप्रत्ययहेतुत्व-लोकगहितत्वयोरुपलम्भाव। न च लोकनिन्दितं प्रियं भवति; सर्वदा निन्दातो दुखोत्पत्ते. (३३८)। लोहो पेज लोभेन रक्षितद्रव्यस्य सुखेन जीवनोपलम्भात् । इत्थिपुरिसवेया पेज्ज सेसणोकसाया दोसो; तहा लोए संववहारदसणादो। -व्यवहारनयकी अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया दोष है और लोभ पैज है । (सूत्र)। प्रश्न-क्रोध और मान द्वेष हैं यह कहना तो युक्त है, क्योंकि लोकमें क्रोध और मानमें दोषका व्यवहार देखा जाता है। परन्तु मायाको दोष कहना ठीक नहीं है, क्योंकि मायामें दोषका व्यवहार नहीं देखा जाता ! उत्तर-नहीं, क्योंकि, मायामें भी अविश्वासका कारणपना और लोकनिन्दितपना देखा जाता है और जो वस्तु लोकनिन्दित होती है वह प्रिय नहीं हो सकती है; क्योंकि, निन्दासे हमेशा दुख उत्पन्न होता है। लोभ पेज है, क्योंकि लोभके द्वारा बचाये हुए द्रव्यसे जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता हुआ पाया जाता है। स्त्रीवेद और पुरुषवेद पेज्ज हैं और शेष नोकषाय दोष हैं क्योंकि लोकमें इनके बारेमें इसी प्रकारका व्यवहार देखा जाता है । राग १. नैगम व संग्रह नोंकी अपेक्षामें युक्ति क. पा./१/चूर्णसूत्र व टी /१-२६/६३३५-३३६/३६५ णेगमसंगहाणं कोहो दोसो, माणो दोसो, माया पेज्जं, लोहो पेज्जं । (चूर्णसूत्र ) । ...... कोहो दोसो; अगसन्तापकम्प......पितृमात्रादिप्राणिमारणहेतुत्वात्, सकलानर्थ निबन्धनत्वात्। माणो दोसो क्रोधपृष्ठभावित्वात्, क्रोधोताशेषदोषनिबन्धनत्वात् । माया पेज्ज प्रेयोवस्त्वालम्बनत्वाद, स्व. निष्पत्त्युत्तरकाले मनस' सन्तोषोत्पादकत्वात् । लोहो पेज्जं आजादनहेतुत्वात् ( $३३५)। क्रोध-मान-माया-लोभा' दोषः आस्रवत्वादिति चेद: सत्यमेतत; किन्त्वत्र आह्लादनानाहादनहेतुमात्रं विवक्षित तेन नायं दोषः । प्रेयसि प्रविष्टदोषत्वाद्वा भाया-लोभौ प्रेयान्सौ। अरइ-सोय-भय-दुगुछाओ. दोसो; कोहोव्व असुहकारणत्तादो। हस्स-रह-इस्थि-पुरिस-णवु'सयसेया पेज्जं लोहो ब्व रायकारणत्तादो (१३३६)। -नैगम और संग्रहनयको अपेक्षा क्रोध दोष है, मान ४. ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षामें युक्ति क. पा. १/१-२१/चूर्ण सूत्र व टी./8 ३३६-२४०/३६८ उजुसुदस्स कोहो दोसो, माणो णोदोसो णोपेज्ज, माया णोदोसो णोपेज्ज, लोहो पेज्ज (चूर्ण सूत्र )। कोहो दोसो त्ति णडबदे; सयलाणत्थहेउत्तादो। लोहो पेज्जं त्ति एवं पि सुगम, तत्तो......किंतु माण-मायाओ णोदोसो णोपेज्ज त्ति एवं ण णव्वदे पेज-दोसवज्जियस्स कसायस्स अणुवलंभादो त्ति (३३१) । एत्थ परिहारो उच्चदे, माणमाया णोदोसो; अंगसंताबाईणमकारण दो। तत्तो समुप्पज्जमाणअंगसंतावादओ दीसंति ति ण पच्चवट्ठादु' जुत्त; माणणिबंधणकोहादो मायाणिबंधणलोहादो च समुप्पज्जमाणाणं तेसिमुवलंभादो।......ण च बे वि पेज्जं; तत्तो समुप्पज्जमाणआह्वादाणुवलंभादो। तम्हा माण-माया बे वि णोदोसो णोपेज्जति जुज्जदे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. कपाय समुद्घाट (३४०)। - ऋजुसूत्रनयको अपेक्षा क्रोध दोष है; मान न दोष है और न पेज्ज है; माया न दोष है और न पेज्ज है; तथा लोभ पेज है। ( सूत्र)। प्रश्न-क्रोध दोष है यह तो समझमें आता है, क्योंकि वह समस्त अनर्थोंका कारण है। लोभ पेज्ज है यह भी सरल है।......किन्तु मान और माया न दोष हैं और न पेज्ज हैं, यह कहना नहीं बनता, क्योंकि पेज्ज और दोषसे भिन्न कषाय नहीं पायी जाती है। उत्तर--ऋजुसूत्रको अपेक्षा मान और माया दोष नहीं हैं, क्योंकि ये दोनों अंग संतापादिके कारण नहीं हैं ( अर्थात् इनकी अभेद प्रवृत्ति नहीं है)। यदि कहा जाय कि मान और मायासे अंग संताप आदि उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं; सो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि वहाँ जो अंग संताप आदि देखे जाते हैं, वे मान और मायासे न होकर मानसे होनेवाले क्रोधसे और मायासे होनेवाले लोभसे ही सीधे उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं।..... उसी प्रकार मान और माया ये दोनों पेज्ज भी नहीं है, क्योंकि उनसे आनन्दकी उत्पत्ति होती हुई नहीं पायी जाती है। इसलिए मान और माया ये दोनों न दोष है और न पेज हैं, यह कथन बन जाता है। ५. शब्दनयकी अपेक्षामें युक्ति क. पा. १/१-२१/चूर्णसूत्र व टी / ३४१-३४२/३६६ सहस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोसो, लोहो दोसो। कोहो माणो माया णोपेज्ज, लोहो सिया पेज (चूर्ण सूत्र ) । कोह-माण-माया-लोहा-चत्तारि वि दोसो; अट्ठकम्मसवत्तादो, इहपरलोयविसेसदोसकारणत्तादो (8 ३४१)। कोहो माणो-माया णोपेज; एदेहितो जीवस्स संतोस-परमाणंदाणमभावादो। लोहो सिया पेज्जं, तिरयणसाहणविसयलोहादो सग्गापवग्गाणमुप्पत्तिदंसणादो। अवसेसवत्थुबिसयलोहो णोपेज्जं; तत्तो पावुप्पत्तिदसणादो। ण च धम्मो ण पेज्जं, सयलसुह-दुक्रवकारणाणं धम्माधम्माणं पेज्जदोसत्ताभावे तेसिं दोण्हं पि अभावप्पसंगादो । शब्द नयकी अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया दोष है और लोभ दोष है । क्रोध, मान और माया पेज नहीं हैं किन्तु लोभ कथचित् पेज्ज है। (सूत्र)। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों दोष हैं क्योंकि, ये आठों कर्मों के आस्रवके कारण हैं, तथा इस लोक और पर लोकमें विशेष दोषके कारण है। क्रोध, मान और माया ये तीनों पेज्ज नहीं हैं; क्यों कि, इनसे जोवको सन्तोष और परमानन्दकी प्राप्ति नहीं होती है । लोभ कथंचित पेज्ज है; क्योंकि रत्नत्रयके साधन विषयक लोभसे स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति देखी जाती है। तथा शेष पदार्थ विषयक लोभ पेज्ज नहीं हैं; क्योंकि, उससे पापकी उत्पत्ति देखी जाती है। यदि कहा जाये कि धर्म भी पेज्ज नहीं है, सो भी कहना ठीक नही है, क्योकि सुख और दुखके कारणभूत धर्म और अधर्मको पेज्ज और दोषरूप नहीं माननेपर धर्म और अधर्मके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। है। ऐसे तियंचके मायाका, मनुष्यके मानका और देवके लोभका उदय जानना । सो ऐसा नियम कषाय प्राभृत द्वितीय सिद्धान्तका कर्ता यतिवृषभाचार्य ताके अभिप्राय करि जानना । बहुरि महाकर्मप्रकृति प्राभृत प्रथम सिद्धान्तका कर्ता भूतबलि मामा आचार्य ताके अभिप्रायकरि पूर्वोक्त नियम नाही। जिस-तिस कोई एक कषायका उदय हो है। २. गुणस्थानों में कषायोंकी सम्भावना ष. वं./१/१, १/सू. ११२-११४/३५१-३१२ कोधकसाई माणकसाई मायकसाई एइंदियप्पहुडि जाव अणियहि त्ति ।११२। लोभकसाई एइंदियप्पहुडि जाव सुहुम-सांपराइय सुद्धि संजदा त्ति ।११३। अकसाई चदुसुट्ठाणेसु अस्थि उबसंतकसाय-बीयराय-छदुमत्था खीणकसायवीयराय-छदुमत्था, सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति । ११४।एकेन्द्रियसे लेकर ( अर्थात मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर ) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक क्रोधकषायी, मानकषायी, और मायाकषायी जीव होते हैं ।११२॥ लोभ कषायसे युक्त जीव एकेन्द्रियों से लेकर सूक्ष्म साम्परायशुद्धिसंयत गुणस्थान तक होते हैं ।११३। कपाय रहित जीव उपशान्तकषाय-वीतरागछद्मस्थ, क्षीण कषाय-वीतरागछद्मस्थ, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानोंमे होते हैं।११४। ३. अप्रमत्त गुणस्थानों में कषायोंका अस्तित्व कैसे सिद्ध हो ध. १/१,१,११२/३५१/७ यतीनामपूर्व करणादीनां कथं कषायास्तित्वमिति चेत्, अव्यक्तकषायापेक्षया तथोपदेशात् । प्रश्न-अपूर्वकरण आदि गुणस्थान वाले साधुओके कषायका अस्तित्व कैसे पाया जाता है ! उत्तर-नहीं, क्योंकि अव्यक्त कषायकी अपेक्षा वहाँपर कषायोंके अस्तित्वका उपदेश दिया है। ४. उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्तीको अकषाय कैसे-कैसे कह सकते हो? घ. १/१,१.११४/३५२/हउपशान्तकषायस्य कथमकषायत्वमिति चेव, कथं च न भवति । द्रव्यकषायस्यानन्तस्य सत्त्वात् । न, कषायोदयाभावापेक्षया तस्याकषायत्वोपपत्ते ।-प्रश्न-उपशान्तकषाय गुणस्थानको कषायरहित कैसे कहाप्रश्न-वह कषायरहित क्यों नहीं हो सकता है। प्रतिप्रश्न-वहाँ अनन्त द्रव्य कपायका सद्भाव होनेसे उसे कषायरहित नहीं कह सकते हैं। उत्तर--नहीं; क्योंकि, कषायके उदयके अभावकी अपेक्षा उसमें कषायोसे रहितपना बन जाता है। ६. कषाय समुद्घात ५. कषाय मार्गणा १. गतियोंकी अपेक्षा कषायोंकी प्रधानता गो. जी./मू./२८८/६१६ णारयतिरिक्खणरसुरगईम उप्पण्णपढ़मकालम्हि । कोही माया माणो लोहेदओ अणियमो वापि ॥ २८८ ॥ गो, जी,/जी. प्र./२८८/६१६/६ नियमवचन...यतिवृषभाचार्यस्य अभिप्रायमाश्रित्योक्तं । ..भूतबल्याचार्यस्य अभिप्रायेणाऽनियमो ज्ञातव्यः । - नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव वि उत्पन्न भया जीवकै पहिला समय विष क्रमतै क्रोध, माया, मान व लोभका उदय हो है। नारकी उपजै तहाँ उपजते हो पहिले समय क्रोध कषायका उदय हो १. कषाय समुद्घातका लक्षण रा. वा./१/२०/१२/७७/१४ द्वितयप्रत्ययप्रकर्षोत्पादितक्रोधादिकृतः कषायसमुद्घात । बाह्य और आभ्यन्तर दोनों निमित्तोके प्रकर्ष से उत्पादित जो क्रोधादि कषायें. उनके द्वारा किया गया कषाय समुद्घात है। ध. ४/१,३,२/२६/८ "कसायसमुग्घादो णाम कोधभयादोहि सरीरतिगुणविप्फुज्जणं ।" = क्रोध भय आदिके द्वारा जीवोंके प्रदेशोंका उत्कृष्टतः शरीरसे तिगुणे प्रमाण विसर्पणका नाम कषाय समुद्घात है। ध.७/२,६,१/२६६/८ कसायतिव्वदाए सरीरादो जीवपदेसाणं तिगुणविपुंजणं कसाय समुग्धादो णाम = कषायकी तीव्रतासे जीवप्रदेशो का अपने शरीरसे तिगुने प्रमाण फैलनेको कषाय समुद्धात कहते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय पाहुड कांडक का. अ./टी./१७६/११५/१६ तीवकषायोदयान्मूलशरीरमत्यक्त्वा परस्य घातार्थमात्मप्रदेशाना बहिनिर्गमनं संग्रामे सुभटाना रक्तलोचनादिभि' प्रत्यक्षदृश्यमानमिति कषायसमुद्घातः । =तीव कषायके उदयसे मूलशरीरको न छोड़कर परस्परमें एक दूसरेका घात करनेके लिए आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलनेको कषाय-समुद्धात कहते हैं। संग्राममें योद्धा लोग क्रोधमें आकर लाल लाल आँखें करके अपने शत्रुको ताकते है' यह प्रत्यक्ष देखा जाता है । यही कषायसमुइघातका रूप है। कषाय पाहड-यह ग्रन्थ मूल सिद्धान्त ग्रन्थ है जिसे आ० गुणधर (वि०पू००१) ने ज्ञान विच्छेदके भयसे पहले केवल १८० गाथाओं में निबद्ध किया था। आचार्य परम्परासे उसके ज्ञानको प्राप्त करके आचार्य आर्यमंच व नागहस्तिने ई०१३-१६२ में पीछे इसे २१५ गाथा प्रमाण कर दिया। उनके सान्निध्य में ही ज्ञान प्राप्त करके यतिवृषभाचार्यने ई० १५०-१८० में इसको १५ अधिकारोंमें विभाजित करके इसपर ६००० चूर्ण सूत्रों की रचना की। इन्हीं चूर्णसूत्रों के आधारसर उच्चारणाचार्य ने विस्तृत उच्चारणा लिखी। इसी उच्चारणाके आधारपर आ० बप्पदेवने ई० २०५५ में एक और भी सक्षिप्त उच्चारणा लिखी। इन्हीं आचार्य बप्पदेवसे सिद्धान्तज्ञान प्राप्त करके पीछे ई ई० ८१६ में आ० वीरसेन स्वामीने इसपर २०,००० श्लोक प्रमाण जयधवला नामकी अधूरी टीका लिखी, जिसे उनके पश्चात उनके शिष्य श्री जिनसेनाचार्य ने ई० ८३७ में १०,००० श्लोक प्रमाण और भी रचना करके पूरी की। इस ग्रन्थपर उपरोक्त प्रकार अनेकों टीकाएँ लिखी गयीं। आचार्य नागहस्ती द्वारा रची गयी ३५ गाथाओंके सम्बन्धमें आचार्योंकाकुछ मतभेद है यथा २.३५ गाथाओंके रचयिता सम्बन्धी दृष्टि भेद क. पा. १/१,१३/१४७-१४८/१८३/२ संकमम्मि वृत्तपणतीसवित्ति- गाहाओ बंधगत्थायिारपडिबद्धालो त्ति असीदिसदगाहासु पवेसिय किण्ण पइज्जा कदा । वुच्चदे, एदाओ पणतीसगाहाओ तीहि गाहाहि परूविदपंचसु अत्थाहियारेसु तत्थ बंधगोत्थि अत्थाहियारे पडि मद्धाओ। अहवा अत्थावत्तिलभाओ त्ति ण तत्थ एदाओ पवेसिय बुत्ताओ। असीदि-सदगाहाओ मोत्तूण अवसेससंबंधद्धापरिमाणणिदेस-संकमणगाहाओ जेण णागहत्थि आइरियकयाओ तेण 'गाहासदे असीदे' त्ति भणिदूण णागहत्थि आइरिएण पइज्जा कदा इदि के वि वक्रवाणाइरिया भणं ति; तण्ण धडदे; संबंधगाहाहि अद्धापरिमाणणि सगाहाहि संकमगाहाहि य विणा असीदिसदगाहाओ चेव भणं तस्स गुणहरभडारयस्स अयाणत्तप्पसंगादो। तम्हा पुठवुत्थो चैव घेत्तव्यो । प्रश्न-संक्रमण में कही गयीं पैंतीस वृत्तिगाथाएँ बन्धक नामक अधिकारसे प्रतिबद्ध हैं, इसलिए इन्हें १८० गाथाओं में सम्मिलित करके प्रतिज्ञा क्यों नहीं की ! अदि १८० के स्थानपर २१५ गाथाओंकी प्रतिज्ञा क्यों नहीं की। उत्तर-ये पैंतीस गाथाएँ तीन गाथाओके द्वारा प्ररूपित किये गये पाँच अर्थाधिकारों में से बन्धक नामके ही अर्थाधिकार में प्रतिबद्ध हैं, इसलिए इन 34 गाथाओं को १८० गाथाओमें सम्मिलित नहीं किया, क्योंकि तीन गाथाओंके द्वारा प्ररूपित अर्थाधिकारोंमें से एक अर्थाधिकारमें ही वे ३५ गाभाएँ प्रतिबद्ध हैं। अथवा यह बात अर्थापत्तिसे ज्ञात हो जाती है कि ये ३५ गाथाएँ बन्धक अधिकारमें प्रतिबद्ध हैं। ___ 'चूं कि १८० गाथाओंको छोडकर सम्बन्ध अद्धापरिमाण और संक्रमणको निर्देश करनेवाली शेष गाथाएँ नागहस्ति आचार्यने रची हैं। इसलिए गाहासदे असीदे' ऐसा कहकर नागहस्ति आचार्यने १८० गाथाओंकी प्रतिज्ञा को है, ऐसा कुछ व्याख्यानाचार्य कहते हैं, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि सम्बन्ध गाथाओं, अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली गाथाओं और संक्रम गाथाओके बिना १८० गाथाएँ ही गुणधर भट्टारकने कही हैं। यदि ऐसा माना जाय तो गुणधर भट्टारकको अज्ञपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। इसलिए पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिए। (विशेष दे० परिशिष्ट २) कषायपाहुड चूर्णि-दे० परिशिष्ट/१॥ कहाण छप्पय-आ. विनयचन्द्र (ई० श० १३) की एक प्राकृत छन्दबद्ध रचना। कांक्षा-दे० निकाक्षित। कांचनकूट-१.रुचक पर्वतका एक कूट-दे० लोक५/१३२.मेरु पर्वत के सौमनस बनमें स्थित एक कूट-दे० लोक/४ ३. शिखरी पर्वतका एक कूट-दे० लोक/५१४ कांचन गिरि-विदेहके उत्तरकुरु व देवकुरुमें सीता व सीतोदा नदीके दोनों तटोंपर पचास-पचास अथवा नदीके भीतर स्थित दसदस द्रहोंके दोनों ओर पाँच-पाँच करके, कंचन वर्णवाले कुटाकार सौ-सौ पर्वत हैं। अर्थात देवकुरु व उत्तरकुरुमें पृथक्-पृथक् सौ-सौ है।-दे० लोक/३/८। कांचन देव-शिखरी पर्वतके कांचनकूटका रक्षक देव । दे० लोक//Y कांचन द्वीप--मध्यलोकके अन्तमें नवमद्वीप-दे० लोक/१/१। कांचनपुर-१. विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। २. कलिंग देशका एक नगर-दे० मनुष्य/४। कांचन सागर-मध्य लोकका नवम सागर-दे० लोका। कांचीपुर-वर्तमान कांजीवरम् (यु. अनु०/प्र. ३६/पं. जुगल किशोर)। कांजी-आहार-केवल भात व जल मिलाकर पीना, अथवा केवल चावलोंकी मांड़ पीना। (व्रत विधान संग्रह/पृ. २६ ) । कांजी बारस व्रत-प्रतिवर्ष भाद्रपद शु. १२ को उपवास करना । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । कांडक-१. काण्डक काण्डकायाम व फालिके लक्षण क. पा.५/४,२२/१५७१/३३४/४ "किं कडयं णाम। सचिअंगूलस्स असंखे० भागो। तस्स को पडिभागो । तप्पाओग्गअसंखरूवाणि।" -प्रश्न-काण्डक किसे कहते हैं। उत्तर-सच्यंगुलके असंख्यातवें भागको काण्डक कहते है। प्रश्न-उसका प्रतिभाग क्या है ? उत्तरउसके योग्य असंख्यात उसका प्रतिभाग है। (तात्पर्य यह कि अनुभाग वृद्धियोंमें अनन्त भाग वृद्धिके इतने स्थान ऊपर जाकर असंख्यात भाग वृद्धि होने लग जाती है।) ल सा./भाषा/८९/११६/१६ इहाँ ( अनुभाग काण्डकघातके प्रकरणमें ) समय समय प्रति जो द्रव्य ग्रह्या ताका तो नाम फालि है । ऐसे अन्तमहर्तकरि जो कार्य कीया ताका नाम काण्डक है। तिस काण्डक करि जिन स्पर्धकनिका अभाव कीया सो काण्डकायाम है । ( अर्थात अन्तर्मुहर्त पर्यंत जितनी फालियोंका घात किया उनका समूह एक काण्डक कहलाता है। इसी प्रकार दूसरे अन्तर्मुहूर्त में जितनी फालियोंका धात कीया उनका समूह द्वितीय काण्डक कहलाता है। इस प्रकार आगे भी, घात क्रमके अन्त पर्यन्त तीसरा आदि काण्डक जानने।) ल सा /भाषा/१३३/१८३/८ स्थितिकाण्डकायाम मात्र निषेकनिका जो द्रव्य ताकौ काण्डक द्रव्य कहिये, ताकौं इहाँ अध,प्रवृत्त (संक्रमणके भागाहार ) का भाग दिये जो प्रमाण आया ताका नाम फालि है (विशेष देखी अपकर्षण/४/१) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-६ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कांबोज काम तत्त्व २. काण्डकोत्करण काल ल. सा./जी.प्र./०६/११४ एकस्थितिखण्डोत्करण स्थितिबन्धापसरणकालस्य संख्यातकभागमात्रोऽनुभागवण्डोत्करणकाल इत्यर्थः । अनेनानुभागकाण्डकोत्करणकालप्रमाणमुक्तम्।-जाकरि एक बार स्थिति घटाइये सो स्थिति काण्डकोत्करणकाल अर जाकरि एक बार स्थिति बन्ध घटाहये सो स्थिति बन्धापसरण काल ए दोऊ समान हैं, अन्तर्मुहूर्त मात्र हैं। बहुरि तिस एक विधें जाकरि अनुभाग सत्त्व घटाइये ऐसा अनुभाग खण्डोत्करण काल संख्यात हजार हो है, जात तिसकालै अनुभाग खण्डोरकरणका यहु काल संख्यातवें भागमात्र है। कान्यकुब्ज-कुरुक्षेत्र देश में स्थित वर्तमान कन्नौज-(म.पु./प्र.४४ पं. पन्नालाल) कापिष्ठ-आठवाँ कल्पस्वर्ग-दे० स्वर्ग/१२। कापोत-अशुभलेश्या-दे० लेश्या। काम-1. काम व काम तत्त्वके लक्षण न्या.द./४-१/३ में न्यायवार्तिकसे उद्धृत/पृ.२३० कामः स्त्रीगतोऽभि लाषः । = स्त्री-पुरुषके परस्पर संयोगकी अभिलाषा काम है। ज्ञा./२१/१६/२२७/१५ क्षोभणादिमुद्राविशेषशाली सकलजगद्वशीकरणसमर्थः-इति चिन्त्यते तदायमात्मैव कामोक्तिविषयतामनुभवतीति कामतत्त्वम् । =क्षोभण कहिए चित्तके चलने आदि मुद्राविशेषोमें शाली कहिए चतुर है, अर्थात समस्त जगतके चित्तको चलायमान करनेवाले आकारों को प्रगट करनेवाला है। इस प्रकार समस्त जगत्को वशीभूत करनेवाले कामकी कल्पना करके अन्यमती जो ध्यान करते हैं, सो यह आत्मा ही कामकी उक्ति कहिये नाम व संज्ञाको धारण करनेवाला है । (ध्यानके प्रकरणमें यह कामतत्त्वका वर्णन है)। स सा./ता.वृ/४ कामशब्देन स्पर्शरसनेन्द्रियद्वयं । = काम शब्दसे स्पर्शन व रसना इन दो इन्द्रियोंके विषय जानना । २. काम व भोगमें अन्तर मू.आ./मू./११३८ कामा दुवे तऊ भोग ईदयस्था विद्रहि पण्णत्ता। कामो रसो य फासो सेसा भोगेति आहीया ११३८ =दो इन्द्रियोके विषय काम हैं, तीन इन्द्रियों के विषय भोग हैं, ऐसा विद्वानों ने कहा है। रस और स्पर्श तो काम हैं और गन्ध, रूप व शब्द ये तीन भोग है, ऐसा कहा है । ( स. सा./ता. वृ./११३८) ३. अन्य सम्बन्धित विषय * निर्वर्गणा काण्डक-दे० करण/४ । * आबाधा काण्डक-दे० आबाधा। * स्थिति व अनुमाग काण्डक-दे० अपकर्षण/४। ४. क्रोध, मान आदिके काण्डक क्ष. सा./भाषा/४७४/५५८/१६ क्रोधद्विक अवशेष कहिए क्रोधके स्पर्ध कनिका प्रमाणको मानके स्पर्धकनिका प्रमाणविष घटाएँ जो अवशेष रहै ताका भाग क्रोधकै स्पर्धकनिका प्रमाणको दीए जो प्रमाण आवै ताका नाम क्रोध काण्डक है। बहुरि मानत्रिक विषै एक एक अधिक है। सो क्रोध काण्डकतै एक अधिकका नाम मान काण्डक है । यातै एक अधिकका नाम माया काण्डक है। यात एक अधिकका नाम लोभ काण्डक है। अंकसं दृष्टिकरि जैसे क्रोधके स्पर्धक १८, ते मानके २१ स्पर्धकनि विषै घटाएँ अवशेष ३, ताका भाग क्रोधके १८ स्पर्धकनिको दीएँ क्रोध कांडकका प्रमाण छह । यात एक एक अधिक मान, माया, लोभके काण्डकनिका प्रमाण क्रमते ७, ८, ९ रूप जानने । कांबोज-१, भरत क्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/ ४ । २. वर्तमान बलोचिस्तान (म. पु./प्र.५०/पं. पन्नालाल) काकतालीय न्यायद्र.सं./टी./३/१४४/१ परं परं दुर्लभेषु कथंचित्काकतालीयन्यायेन लब्धेष्वपि...परमसमाधिदुर्लभः । - एकेन्द्रियादिसे लेकर अधिक अधिक दुर्लभ बातोंको काकताली न्यायसे अर्थात् बिना पुरुषार्थ के स्वत. ही प्राप्त कर भी ले तो भी परम समाधि अत्यन्त दुर्लभ है। मो.मा.प्र./३/८०/१५ बहुरि काकतानीय न्यायकरि भवितव्य ऐसा ही होय और तातै कार्यकी सिद्धि भी हो जाय।। काकावलोकन-कायोत्सर्गका अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१। काकिणी-चक्रवर्तीके चौदह रत्नों में से एक -दे० शलाका पुरुष/२। कास्थ चारित्र-आ. वादिराज (ई. १०००-१०४०) द्वारा रचित संस्कृत छन्दबद्ध ग्रन्थ । काक्षी-भरतक्षेत्र पश्चिम आर्य खण्डका एक देश -दे० मनुष्य/४। कागंधुनी-भरतक्षेत्र आर्यरखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । काणोविद्ध-एक क्रियावादी। काह-महायान सम्प्रदायका एक गूढवादी बौद्र समय-डॉ. शाही दुल्लाके अनुसार ई. ७००; और डॉ० एस. के. चटर्जी के अनुसार ई. श. १२ का अन्त । (प.प्र./प्र.१०३/A.N.up.) कानना-रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी देवी -दे० लोक/९/१३ । ३. कामके दस विकार भ.आ./मू./८६३-८६५ पढमे सोयदि वेगे दटतं इच्छदे विदियवेगे। णिस्सदि तदियवेगे आरोहदि जरो चउत्थम्मि ।३। उज्झदि पंचमवेगे अंग छठे ण रोचदे भत्तं । मुच्छिज्जदि सत्तमए उम्मत्तो होइ अट्ठमए १८६४। णवमे ण किंचि जाणदि दसमे पाणेहि मुच्चदि मदंधो। संकप्पब सेण पुणो वेग्ग तिव्वा व मंदा वा १ = कामके उद्दीप्त होनेपर प्रथम चिन्ता होती है; २. तत्पश्चात् खीको देखनेकी इच्छा; और इसी प्रकार क्रमसे ३. दीर्घ नि.श्वास, ४, ज्वर,.. शरीरका दग्ध होने लगना; ६. भोजन न रुचना; ७. महामूच्छी; ८, उन्मत्तवत चेष्टा; ६ प्राणों में सन्देह; १०. अन्तमें मरण । इस प्रकार कामके ये दश वेग होते हैं। इनसे व्याप्त हुआ जीव यथार्थ तत्त्वको नहीं देखता । (ज्ञा./११/२६-३१), (भा.पा /टी./६८/२४६/पर उधृत), (अन.ध/४/६६/३६३ पर उद्धृ त), (ला.सं./२/११४-१२७) काम तत्त्वज्ञा./२१/१६ सकलजगच्चमत्कारिकार्मुकास्पदनिवेशितमण्डलीकृतरसेक्षुकाण्डस्वरसहितकुसुमसायकविधिलक्ष्यीकृत.. स्फुरन्मकरके तुः। कमनीयसकलललनावृन्दवन्दितसौन्दर्यरतिकेलिकलापदुर्ललितचेताश्चतुरश्चेष्टितभ्रूभङ्गमात्रवशीकृतजगत्त्रयस्त्रैणसाधने .. स्त्रीपुरुषभेद भिन्नसमस्तसत्त्वपरस्परमन संघटनसूत्रधारः। ...संगीतकप्रियेण.. स्वर्गापवर्गद्वारसंविघटनवज्रार्गल'।...क्षोभणादिमुद्राविशेषशाली। सकलजगद्वशीकरणसमर्थ' इति...कामतत्त्वम् । =सकल जगत् चमत्कारी, खींचकर कुण्डलाकार किये हुए इक्षुकाण्डके धनुष व उन्मादन, मोहन, संतापन, शोषण और मारणरूप पाँच बाणोसे निशाना बाँध रखा है जिसने, स्फुरायमान मकरकी ध्वजावाला, कमनीय स्त्रियों के समूह द्वारा बन्दित है सुन्दरता जिसकी ऐसी रति नामा स्वीके साथ केलि करता हुआ, चतुरोंकी चेष्टारूप भूभंगमात्रसे वशीकृत क्यिा स्त्रियों जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामदेव ४३ काय का समूह ही है साधन सेना जिसके, स्त्री-पुरुषके भेदसे भिन्न समस्त प्राणियों के मन मिलानेके लिए सूत्रधार, संगीत है प्रिय जिसको, स्वर्ग व मोक्षके द्वारमें वज्रमयी अर्गलेके समान, चित्तको चलानेके लिए मुद्राविशेष बनानेमें चतुर, ऐसा समस्त जगतको वशीभूत करनेमें समर्थ कामतत्त्व है। -दे. ध्यान/४/५ यह काम-तत्त्व वास्तव में आत्मा ही है। कामदेव-दे० शलाका पुरुष/१,८ । कामना-दे० अभिलाषा। कामपुरुषार्थ-दे० पुरुषार्थ ।। कामपुष्प-विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । कामराज जयकुमार पुराणके कर्ता एक ब्रह्मचारी। समय ई.१४६८ वि. १५५५ (म.पु.२०/पं. पन्नालाल) कामरूपित्व ऋद्धि-दे. ऋद्धि/३ । कामरूप्य-भरत क्षेत्र आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । काम्य मत्र-दे० मंत्र/१४६ काय-कायका प्रसिद्ध अर्थ शरीर है। शरीरवव ही बहुत प्रदेशोके समूह रूप होनेके कारण कालातिरिक्त जीवादि पाँच द्रव्य भी कायवान् कहलाते है। जो पंचास्तिकाय करके प्रसिद्ध है। यद्यपि जीव अनेक भेद रूप हो सकते हैं पर उन सबके शरीर या काय छह ही जाति की हैं--पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति व त्रस अर्थाव मांसनिर्मित शरीर। यह हो षट् कायजीवके नामसे प्रसिद्ध हैं। यह शरीर भी औदारिक आदिके भेदसे पाँच प्रकार हैं। उस उस शरीरके निमित्त से होनेवाली आत्मप्रदेशोंकी चंचलता उस नामवाला काययोग कहलाता है। पर्याप्त अवस्थामे काययोग होते हैं और अपर्याप्तावस्थामें मिश्र योग क्योंकि तहाँ कार्मण योगके आधीन रहता हुआ ही वह वह योग प्रगट होता है। कायमार्गणामें गुणस्थानोंका स्वामित्व । काय मार्गणा विषयक सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल । अन्तर भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ -दे० वह वह नाम काय मार्गणा विषयक गुणस्थान मार्गणास्थान । जीवसमासके स्वामित्वकी २० प्ररूपणाएँ।-दे० सत् काय मार्गणामें सम्भव कर्मों का बन्ध उदय सत्व । -दे० वह वह नाम कौन कायसे मरकर कहाँ उपजै और कौन गुणव पद तक उत्पन्न कर सके। -दे० जन्म/६ काय मार्गणामें भाव मार्गणाकी इष्टता तथा तहाँ प्रायके अनुसार व्यय होनेका नियम। -दे० मार्गणा तेजस आदि कायिकोंका लोकमें अवस्थान व तद्गत शंका समाधान। उस स्थावर आदि जीवोंका लोकमें अवस्थान । -दे० तिर्यच/३ काय स्थिति व भव स्थितिमें अन्तर । -दे० स्थिति/२ पंचास्तिकाय। -दे० अस्तिकाय | काययोग निर्देश व शंका समाधान १. काय सामान्यका लक्षण व शंका समाधान बहुप्रदेशीके अर्थ में कायका लक्षण । शरीरके अर्थमें कायका लक्षण । औदारिक शरीर व उनके लक्षण-दे० वह वह नाम । कार्मण काययोगियोंमें कायका यह लक्षण कैसे घटित होगा। २. षट्काय जीव व मार्गणा निर्देश व शंकाएँ पटकाय जीव व मार्गमाके भेद-प्रभेद । पृथिवो आदिके कायिकादि चार-चार भेद -दे० पृथिवी । जीवके एकेन्द्रियादि मेद व बस स्थावर कायमें अन्तर। -दे० स्थावर सूक्ष्म बादर काय व त्रस स्थावर काय । -दे० वह वह नाम प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक व साधारण । -दे० वनस्पति | अकाय मागणाका लक्षण । ३ । बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं। काययोगका लक्षण। काय योगके भेद। औदारिकादि काययोगोंके लक्षणादि । -दे० वह वह नाम शुभ अशुभ काययोगके लक्षण । । शुभ अशुभ काययोगमें अनन्त विकल्प कैसे सम्भव है। -दे. योग/२ जीव या शरीरके चलनेको काययोग क्यों नही कहते । काययोग विषयक गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमासके स्वामित्वकी २० प्ररूपणाएँ। -दे० सत् पर्याप्तावस्थामें कार्मणकाययोगके सद्भावमें भी मिश्रयोग क्यों नहीं कहते। अप्रमत्तादि गुणस्थानों में काययोग कैसे सम्भव है। -दे० योग/४ *मिश्र व कार्मण योगमें चक्षुदर्शन नहीं होता। -दे० दर्शन/ काययोग विषयक सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ। --दे० वह वह नाम काययोगमें सम्भव कोका बन्ध. उदय व सत्त्व। --दे० वह वह नाम मरण व व्याघात हो जानेपर एक काययोग ही शेष रहता है। --दे० मनोयोग/६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय २. षटकाय जीव व मार्गणा निर्देश व शंकाएँ १. काय सामान्यका लक्षण व शंकाएँ ४. कार्माण काययोगियोंमें यह लक्षण कैसे घटित होगा १. बहुप्रदेशीके अर्थ में कायका लक्षण ध. १/१,१,४/१३५/३. कार्मणशरीरस्थानी जीवानां पृथिव्यादिकर्म भिश्चितनोकर्मपुद्गलाभावादकायत्वं स्यादिति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणनि. सा./मू./ ३४ काया हु बहुपदेसत्तं । बहुप्रदेशीपना ही कायत्व है। स्तत्रापि सत्वतस्तद्वयपदेशस्य न्याय्यत्वात । अथवा आत्मप्रवृत्त्यु(प्र. सा/त. प्र. व ता. वृ/१३५ ).. पचितपुदगल पिण्ड. काय.। अत्रापि स दोषो न निर्वायत इति चेन्न, स. सि /१/१/२६५/५ 'काय'शब्द' शरीरे व्युत्पादित' इहोपचारादध्या- आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गल पिण्डस्य तत्र सत्वात्। आरमप्रवृत्त्युपचितरोप्यते । कुतः उपचार' । यथा शरीरं पुद्गलद्रव्यप्रचयात्मक तथा नोकर्म पुद्गलपिण्डस्य तत्रासत्त्वान्न तस्य कायव्यपदेश इति चेन्न, धर्मादिष्वपि प्रदेशप्रचयापेक्षया काया इव काया इति । व्युत्पत्तिसे तञ्चयनहेतुकमणस्तत्रास्तित्वतस्तस्य तद्व्यपदेशसिद्धेः। -प्रश्नकाय शब्द का अर्थ शरीर है तो भी यहाँ उपचारसे उसका आरोप कार्मणकाययोगमें स्थित जीवके पृथिवी आदिके द्वारा संचित हुए किया है। प्रश्न-उपचारका क्या कारण है ! उत्तर-जिस प्रकार नोकर्म पुद्गलका अभाव होनेसे अकायरव प्राप्त हो जायेगा ! उत्तरशरीर पुद्गल व्यके प्रचय रूप होता है, उसी प्रकार धर्मादिक द्रव्य ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि, नोकर्मरूप पुद्गलोंके संचयका भी प्रदेश प्रषयकी अपेक्षा कायके समान होनेसे काय कहे गये हैं। कारण पृथिवी आदि कर्मसहकृत औदारिकादि नामकर्मका सत्त्व (रा वा./५/१/७-८/४३२/२६ ) (नि. सा/ता. ३/३४ ) (द्र सं/टी./ कार्मणकाययोग अवस्थामें भी पाया जाता है, इसलिए उस अवस्थामें २४/७०/१)। भी कायपनेका व्यवहार बन जाता है। २. अथवा योगरूप आरमाकी स्या. म./२६/३२६/२० 'तेषां संधे वाचूर्वे' इति चिनोतेभि आदेशश्च प्रवृत्तिसे संचित हुए औदारिकादिरूप पुदगलपिण्डको काय कहते हैं। कत्वे कायः समूह जीवकायः पृथिव्यादि। यहाँ 'संधे वानूधै' सूत्र प्रश्न-कायका इस प्रकारका लक्षण करनेपर भी पहले जो दोष दे से 'चि' धातु से 'घ' प्रत्यय होनेपर 'च' के स्थान में 'क' हो जानेसे आये हैं वह दूर नहीं होता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, योग'काय' शब्द बनता है। अतः जीवोंके समूहको जीवकाय कहते हैं। रूप आत्माको प्रवृत्तिसे संचित हुए कर्मरूप पुद्गगलपिण्डका कार्मण काययोग अवस्थामें सदभाव पाया जाता है। अर्थात जिस समय २. शरीरके अर्थमें कायका लक्षण आत्मा कार्मणकाययोगकी अवस्थामें होता है, उस समय उसके पं.सं /प्रा./१/७५. अप्पप्पबुत्तिसंचियपुग्गल पिंड वियाण काओ त्ति। ज्ञानावरणादि आठों काँका सद्भाव रहता ही है, इसलिए इस सो जिणमयहि भणिओ पुढवा कायाइयो छद्धा ।। -योगरूप अपेक्षासे उसके कायपना बन जाता है। प्रश्न-कार्मणकाय योगरूप आरमाकी प्रवृत्तिसे संचयको प्राप्त हुए औदारिकादिरूप पुद्गल पिंड अवस्थामें योगरूप आत्माकी प्रवृत्तिसे संचयको प्राप्त हुए ( कर्मरूप पुद्गलपिण्ड भले ही रहो परन्तु) नोकर्मरूप पुदगलपिण्डका असत्त्व को काय जानना चाहिए। (ध. १/१,१,४/ ८६/१३६) (पं. सं./ होनेके कारण कार्मण काययोगमें स्थित जीवके 'काय' यह व्यपदेश सं./१/१५३ ) । नहीं बन सकता । उत्तर-नोकर्म पुद्गलपिण्डके संचयके कारणभूत घ. ७/२,१,२/६/८ "आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिण्ड' काया, पृथिवी- कर्मका कार्मणकाययोगरूप अवस्थामें भी सद्भाव होनेसे कार्मणकायकायादिनामकर्मजनितपरिणामो वा कार्य कारणोपचारेण कायः, योगमें स्थित जीवके 'काय' यह संज्ञा बन जाती है । चीयन्तै अस्मिन् जीवा इति व्युत्पत्तेर्वा कायः ।" - आरमाकी प्रवृत्ति द्वारा उपचित किये गये पुदगलपिंडको काय कहते हैं। अथवा २. षट्काय जीव व मार्गणा निर्देश व शंकाएँ पृथिवीकाय आदि नामकर्मों के द्वारा उत्पन्न परिणामको कार्यमे कारणके उपचारसे काय कहा है। अथवा, जिसमें जीवोंका संचय १. षट्काय जीव व मार्गणाके भेद-प्रभेद किया जाय' ऐसी व्युत्पत्तिसे काय (शब्द) बना है। (रा. वा./8/७ ११/६०३/३० लक्षण सं.१) (ध. १/१,१,४/१३८/१ तथा १,१.३५/३६६ ष. वं. १/१,१/ सूत्र ३६-४२/२६४-२०२" (ति. प./५/२७८-२८०) २ में लक्षण नं.१ व २)। (प - पर्याप्त; अप = अपर्याप्त ) काय ३. उपरोक्त लक्षणकी ईट पत्थरों के साथ अतिव्याप्ति पृथिवी अप तेज वायु बनस्पति त्रस अकाय । नहीं है। ध.१११.१,४/१३८/१ "चीयत इति कायः। नेष्टकादिचयेन व्यभिचारः बादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म | प्रत्येक साधारण प. अप. पृथिव्यादिकर्मभिरिति विशेषणाव। औदारिकादिकर्मभिः पुद्गल- । । । । । । । प.अप. प. अप प. अप. प. अप.प. अप. विपाकिभिश्चीयत इति चेन्न, पृथिव्यादिकर्मणां सहकारिणामभावे ततश्चयनानुपपत्तेः। -प्रश्न-जो संचित किया जाता है उसे काय मादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म कहते हैं, ऐसी व्याप्ति बना लेनेपर, कायको छोडकर ईंट आदिके संचयरूप विपक्षमें भी यह व्याप्ति घटित हो जाती है, अतः व्यभिचार प. अप. प अप प. अप. प. अप. प. अप. प. अप. दोष आता है। उत्तर-नहीं आता है; क्योंकि, पृथिवी आदि कर्मोंके उदयसे इतना विशेषण जोड़ कर ही, 'जो संचित किया जाता है' रा. वा./8/७/११/६०३/३१ तत्संबन्धिजीवः षड्विध'-पृथिवीकायिक' उसे काय कहते हैं ऐसी व्याख्या की गयी है। प्रश्न-'पुद्गलविपाकी अप्कायिक' तेजस्कायिक कायुकायिका. वनस्पतिकायिकः त्रस औदारिक आदि कर्मों के उदयसे जो संचित किया जाता है उसे काय कायिकश्चेति ।- काय सम्बन्धी जीव छह प्रकारके है-पृथिवीकहते हैं, ऐसी व्याख्या क्यों नहीं की गयी । उत्तर-ऐसा नहीं है, कायिक, अप्कायिक, तेज कायिक, बासु कायिक, बनस्पति कायिक क्योंकि, सहकारीरूप पृथिवी आदि नामकर्म के अभाव रहनेपर केवल और त्रसकायिक । ( यहाँ 'अकाय' का ग्रहण नहीं किया है, यही औदारिक आदि नामकर्म के उदयसे नोकर्म वर्गणाओंका संचय नहीं ऊपरवालेसे इसमें विशेषता है। इसका भी कारण यह है कि ऊपरहो सकता। काय मार्गणाके भेद हैं और यहाँ षट्काय जीवोके।) (मू. आ./२०४ 71 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय २०५) (पं.सं./ प्रा./१/७५), (ध. १/१,१,४/८६/१३६), (गो. जी./मू./१८१/४१४), (द्र. सं./टी./१३/३७/६)। २. अकाय मागणाका लक्षण 4.सं./प्रा./१/८७ जह कंचणमग्गियं मुच्चइ क्?िण कलियाराय । तह कायबंधमुका अकाट्टया माणजोएण 1८७१ - जिस प्रकार अग्निमें दिया गया सुवर्ण किट्टिका ( बहिरंगमल ) और कालिमा ( अन्तरग मल) इन दोनों प्रकारके मलोसे रहित हो जाता है उसी प्रकार ध्यानके योगसे शुद्ध हुए और कायके बन्धनसे मुक्त हुए जीव अकायिक जानना चाहिए। (ध. १/१,१,३६/ १४४/२६६); (गो, जी./५/२०३/४४६)। ३. बहप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं घ./१/१,१.४६/२७७/६ जीवप्रदेशप्रचयात्मकरवारिसद्धा अपि सकाया इति चेन्न, तेषामनादिबन्धनबद्धजीवप्रदेशात्मकत्वात् । अनादिप्रचयोऽपि काय' किन्न स्यादिति चेन्न, मूर्तानां पुद्गलानां कर्मनोकर्मपर्यायपरिणतानां सादिसान्तप्रचयस्य कायस्वाभ्युपगमाद । -प्रश्न-जीव प्रदेशोंके प्रचयरूप होनेके कारण सिद्ध जीव भी सकाय है, फिर उन्हें अकाय क्यों कहा ! उत्तर-नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव अनादिकालीन स्वाभाविक बन्धनसे बद्ध जीव प्रदेशस्वरूप हैं, इसलिए उसकी अपेक्षा यहाँ कायपना नहीं लिया गया है। प्रश्न- अनादि कालीन आत्मप्रदेशों के प्रचयको काय क्यों नहीं कहा। उत्तर-नहीं, क्योकि, यहाँपर कर्म और नोकर्म रूप पर्यायसे परिणत मूर्त पुद्गलोके सादि और सान्त प्रदेश प्रचयको ही कायरूपसे स्वीकार किया गया है। (किसी अपेक्षा उनको कायपना है भी। यथा-) प्र. सं./टी./२४/७०/१ कायत्वं कथ्यते-बहुप्रदेशप्रचयं दृष्ट्वा यथा शरोरं कायो भण्यते तथानन्तज्ञानादिगुणाधारभूतानी लोकाकाशप्रमितासंख्येयशुद्धप्रदेशानां प्रचयं समूह संघात मेलापकं दृष्ट्वा मुक्तात्मनि कायत्वं भण्यते। --अब इन (मुक्तात्माओं )में कायपना कहते हैं-बहुतसे प्रदेशो में व्याप्त होकर रहनेको देखकर जैसे शरीरको काय कहते हैं, अर्थात् जैसे शरीरमें अधिक प्रदेश होनेके कारण शरीर को काय कहते हैं उसी प्रकार अनन्तज्ञानादि गुणों के आधारभूत जो लोकाकाशके बराबर असंख्यात शुद्ध प्रदेश है उनके समूह, संघात अथवा मेलको देखकर मुक्त जीवमें भी कायस्व कहा जाता है। २. षट्काय जीव व मार्गणा निर्देश व शंकाएँ संक्षिपञ्चेन्द्रियत्रसकायपर्याप्त एव । असंयते उभयः, संदेशयते पर्याप्त एव । प्रमत्ते पर्याप्तः । साहारकधिस्तुभयः। अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तेषु पर्याप्त एव । सयोगे पर्याप्तः । समुद्धाते तूभयः। अयोगे पर्याप्त एव । - "णहि सासणो..." इस वचनतै पृथिवी अप प्रत्येक वनस्पति विर्षे ही सासादन मर उपजै है ( अतः तहाँ अपर्याप्तावस्था विषै दो गुणस्थान संभवै मिथ्यादृष्टि व सासादन) तहाँ मिथ्यादृष्टिविषै तौ छहो (कायवाले ) पर्याप्त वा अपर्याप्त हैं। सासादनविर्ष बादर पृथिवी, अप व वनस्पति ए-स्थावर अर उस विष बेदी तेंद्री चौद्री असैनी पंचेंद्री ए तो अपर्याप्त ही हैं और सैनी त्रसकाय पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ हैं। आगें संज्ञी पंचेंदी त्रसकाय ही है। तहाँ मिश्र विष पर्याप्त ही है। अविरत विषै दोऊ है। देश संयत विर्षे पर्याप्त ही है। प्रमत्त विषै पर्याप्त है। आहारक ( समुद्गघात) सहित दोऊ हैं । अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यन्त पर्याप्त ही है। सयोगी विषै पर्याप्त हैं। समुद्धात सहित दोऊ हैं। अयोगी विष पर्याप्त ही है। (गो. जी./मू.व.जी. प्र./६७८ ) (विशेष दे० जन्म/४) ५. तैजस आदि कायिकोंका लोकमें अवस्थान व तद्गत शंका समाधान घ.७/२,७,७१/४०१/३ कम्मभूमिपडिभागसयंभूरमणदीवद्धे चैव किर तेउकाइया होंति, ण अण्णत्थेत्ति के वि आइरिया भणं ति ।...अण्णे के वि आइरिया सव्वेसु दीवसमुद्दे सु तेउकाझ्यवादरपज्जत्ता संभवंति त्ति भणं ति। कुदो। सयंभूरमणदीवसमुहप्पण्णाण भादरते उपज्जत्ताणं वारण हिरिज्जमाणाणं कीडणसीलदेवपरतताणं वा सव्वदीवसमुस सविउब्वणाणं गमणसंभवादो। केइमाइरिया तिरियलोगादो संखेज्जगुणो फासिदो त्ति भणं ति। कुदो। सव्यपुढवीसु बादरतेउपज्जत्ताणं संभवादो। तिस वि उवदेसेसु को एत्थ गेज्झो। तइज्जो घेत्तव्यो जुत्तीए अणुग्गहित्तादो। ण च सुत्तं त्तिण्हमेवकस्स वि मुक्ककंठ होऊण परूवयमस्थि । पहिल्ली उचएसो बक्खाणे इरियेहि य संमदो त्ति एत्थ सो चेव णिहिट्ठो। -१. कर्मभूमिके प्रतिभागरूप अर्ध स्वयम्भूरमण द्वीपमें ही तैजस कायिक जीव होते हैं, अन्यत्र नहीं ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। २. अन्य कितने ही आचार्य 'सर्व द्वीपसमुद्रोंमें तेजसकायिक मादर पर्याप्त जीव संभव हैं। ऐसा कहते हैं, क्योंकि स्वयम्भूरमणद्वीप व समुद्र में उत्पन्न भादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीवोंका वायुसे ले जाये जानेके कारण अथवा क्रीडनशील देवोंके परतन्त्र होनेसे सर्व द्वीप समुद्रों में विक्रिया युक्त होकर गमन सम्भव है। ३. कितने आचार्योंका कहना है कि उक्त जीवोंके द्वारा वैक्रियकसमुद्धातकी अपेक्षा तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है, क्योंकि ( उस प्रकार ) सब द्वीप समुद्रोंमें बादर तेजसकायिक पर्याप्त जीवोंकी सम्भावना है। उपर्युक्त तीनों उपदेशोंमें-से तीसरा उपदेश यहाँ ग्रहण करने योग्य है क्योंकि वह युक्तिसे अनुगृहीत है। दूसरी बात यह है कि सूत्र इन तीन उपदेशों में से एकका भी मुक्तकण्ठ होकर प्ररूपक नहीं है। पहिला उपदेश व्याख्यानों और व्याख्यानाचार्योंसे संमत है। इसलिए यहाँ उसीका निर्देश किया गया है। ध./७/२,६,३५/३३२/६ तेउ-आउ-रुक्रवाणं कधं तत्थ संभवो । ण इंदिएहि अगेज्माणं सुट्ठुसण्हाणं पुढविजोगियाणमस्थित्तस्स विरोहाभावादो। ध./७/२,७,७८/४०५/५ "तहं जलता णिरयपुढवीसु अग्गिणो महंतीओ णईओ च णरिथ त्ति जदि अभावो बुच्चदे, तंपि ॥ घडदे--'षष्ठ ___ सप्तमयोः शीतं शीतोष्णं पञ्चमे स्मृतम् । चतुर्वयुष्णमुद्दिष्टस्ता सामेव महीगुणाः ।। इदि तत्थ वि आउ तेऊणं संभवादो। कथं पुढवीणं हेवा पत्तेयसरीराण संभवो। ण, सीएण वि सम्मुच्छिज्जमाणपगण-कुहुणादीणमुवलंभादो। कधमुण्हम्हि संभवो । ण, अच्चुण्हे वि समुप्पज्जमाणजवासपाईणमुवलंभादो।" -(पर्याप्त व अपर्याप्त ४. काय मार्गणामें गुणस्थानोंका स्वामित्व प. ख./१/१,१/४३-४६ पुढविकाझ्या आउकाइया तेउकाइया बाउकाइया वणप्फइकाइया एक्कम्मि चेय मिच्छइट्ठिट्ठाणे ४३। तसकाइया बोइंदिय-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ४४। बादरकाइया बादरे दियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ।४५॥ तेण परमकाइया चेदि ।४६ =पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पत्तिकायिक जीव मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानमें ही होते हैं ।४३। द्वीन्द्रियसे लेकर अयोगिकेवलोतक त्रस जीव होते हैं ।४४। बादर एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त जीव मादरकायिक होते हैं ।४५। स्थावर और बादरकायसे परे कायरहित अकायिक जीव होते हैं ।४६ (विशेष -दे० जन्म/४)। गी. क./जी.प्र./३०६/४३८/८ गुणस्थानद्वय। कुतः। “णहि सासणो अपुण्णे साहारणसुहमगेयतेउदुगे।' इति पारिशेष्यात पृथ्व्यपप्रत्येकबनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्तेः।" गो. जी./जी. प्र./७०३/१४ ते मिथ्यादृष्टौ पर्याप्तापर्याप्ताश्च । सासादने मादरपृथ्व्यब्वनस्पतिस्थावरकायाः द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञित्रसकायायापर्याप्ताः संज्ञित्रसकायः उभयश्चेति षड्जीव निकायः। मिश्रे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय बादर ) प्रश्न- जसकाविक जनकायिक, और वनस्पतिकायिक जीवोंकी वहाँ (भवनवासियों के विभागों व अधोलोककी आठपृथिवियोंमें सम्भावना कैसे है पर नहीं, क्योंकि, इन्द्रियोंसे अग्राह्य व अतिशय सूक्ष्म पृथिवी सम्बद्ध उन जीवोंके अस्तित्वका कोई विरोध नहीं है। प्रश्न-नरक पृथिवियोंमें जलती हुई अग्नियों और बहती हुई नदियाँ नहीं हैं ? उत्तर- इस कारण यदि उनका अभाव कहते हो, तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि छठी और सातवीं पृथिवीमें शोत, तथा पाँचवीं में शीत व उष्ण दोनों माने गये हैं। शेष चार पृथिवियोंमें अत्यन्त उष्णता है। ये उनके ही पृथिवी गुण हैं ॥१॥ इस प्रकार उन नरक पृथिवियोंमें अप्कायिक व तेजसकायिक जीवोंकी सम्भावना है। प्रश्न- पृथिवियोंके नीचे प्रत्येक शरीर जीवोंकी सम्भावना कैसे है ? उत्तर - नहीं; क्योंकि शीतसे भी उत्पन्न होनेवाले पगण और कुडुण आदि वनस्पति विशेष पाये जाते हैं। प्रश्न-उष्णता प्रत्येक शरीर जीवोंका उत्पन्न होना कैसे सम्भव है ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, अत्यन्त उष्णता में भी उत्पन्न होनेवाले जवासप आदि बनस्पति विशेष पाये जाते हैं। विशेष देखो जन्म / ४ -- ( सासादन सम्बन्धी दृष्टि भेद ) ३. काय योग निर्देश व शंका समाधान १. काय योगका लक्षण स.सि./६/१/६१६/० वीर्यान्तरायक्षयोपशमसद्भावे सति ओदारिकादिविधवाणान्यतमासम्बनापेक्ष आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः काय योगः । वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमके होनेपर औदारिकादि सप्तप्रकारकी कायवर्गाने से किसी एक प्रकारकी वर्गणाओंके आसमनसे होनेवाला आरमप्रदेश परिस्पन्द काययोग कहलाता है (रा. मा./६/१/१०/६०६/१०) 1 ६. १/१.१.६५/३०८/६ सप्तानो कायानो सामान्य काय तेन जनितेन मोर्येण जीरप्रदेशपरिस्पन्दन योगः काययोग सात प्रकारके कार्यों में जो अन्वयरूपसे रहता है उसे सामान्य काय कहते हैं । उस कायसे उत्पन्न हुए आत्मप्रदेशपरिस्पन्द लक्षण वीर्यके द्वारा जो योग होता है उसे काययोग कहते हैं। घ.७/२.१.३३/०६/१ चढव्हिसरीराणि अवलं मिय जीवपदेसार्ण संकोचविकोचो सो कायजोगो णाम । जो चतुर्विध शरीरोंके अवलम्बनसे जीवप्रदेशका संकोच विकोष होता है, वह काययोग है। घ. १०/४,२,४,१७५/४३७/११ वातपित्त संभादीहि जणिदपरिस्समेण जाव जीवपरिष्कंदो कायजोगो णाम । वात, पित्त व कफ आदिके द्वारा उत्पन्न परिश्रमले जो जीन प्रदेशोंका परिस्पन्द होता है वह काययोग कहा जाता है । ४६ - २. काययोगके भेद ब. सं. १/१,१९ / सू. ५६/२८६ कायजोगो सत्तविहो ओरालियकायजोगो ओरातियमिस्साजोगी उव्यियकायजोगो वेडव्नियमिवायजोगी आहारकायजोगो आहार मिस्सकायजोगो कम्मयका जोगो चेदि १५६ | काय योग सात प्रकारका है- औदारिककाययोग, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियिककाययोग, वै क्रियिकमिश्रकापयोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग । ( रा. वा/१/७/१४/३६/२२) (ध.८/३,६/२१/७ ) (द्र.सं./टी./१३/३७/८) २. शुभ-अशुभ काययोग के लक्षण मा.अ./१३,२४ घणछेदणमारणकिरिया सा अमुहकायेति ॥५३॥ जिनदेवादि पूजा काति म हवे पैट्ठा ॥५२॥ बन्धने छेदने और कायक्लेश मारनेकी क्रियाओंको अशुभका कहते हैं ॥ ५३॥ जिनदेव, जिनगुरु, तथा जिनशास्त्रोंकी पूजारूप कायकी चेष्टाको शुभकाय कहते हैं । रा. वा/६/३/१-२/५०६-५०७ प्राणातिपातादत्तादानमैथुन प्रयोगादिरशुभः काययोगः |२| ततोऽनन्त विकल्पादन्यः शुभः | ३ | .. तद्यथा अहिंसास्वमचर्यादिः शुभः काययोगः हिंसा, चोरी और मैथुनप्रयो गादि अनन्त विकल्परूप अशुभकाय योग है |२| तथा उससे अन्य जो अहिंसा, अस्तेय ब्रह्मचर्यादि अनन्त विकल्प वे शुभ काययोग हैं। (स.सि./६/३/३१/१०) 1 = ४. जीव वा शरीरके चलनेको काययोग क्यों नहीं कहते ध.५/१,७,४८/२२६/२ ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गलविवाहया जीवपरिफद्दणहे उत्तविरोहा । योग शरीरनामकर्मोदय-जनित भी नहीं है, क्योंकि, पुद्गलविपाको प्रकृतियोंके जीयपरिस्पन्दनका कारण होने में विरोध है। 1 २.०/२.१.३१/०७/३ न जीवे चलते जीवपदेशार्ण संकोचविकोचयिमो, सिमंतपदमसमए तो सोनं गच्म्म जीवपदेसाणं संकोचविकीचावतंभा -चलते समय जीवप्रदेशों के संकोच निकोचका नियम नहीं है, क्योंकि, सिद्ध होनेके प्रथम समयमें जब जीव यहाँसे अर्थात् मध्यलोकसे, लोकके अग्रभागको जाता है, तब उसके प्रदेशों में संकोच विकोच नहीं पाया जाता। ५. पर्याप्तावस्थामै कार्माणकायके सद्भावमें भी मिश्रयोग क्यों नहीं कहते ध.१/१.१,०६/३१६/४ पर्याप्तावस्थायां कार्मणशरीरस्य समासत्राप्युभयनिबन्धनात्मप्रदेशपरिस्पन्द इति औदारिकमिप्रकाययोगः किमु न स्वादिति चेन्न तत्र तस्य संतोऽपि जीमप्रदेशपरिस्पन्दस्याहेतुला । न पारम्पर्यकृत तज्ञधेतुत्वं तस्योपचारिकत्वात् न तदध्यविवक्षित त्वात् । प्रश्न- पर्याप्त अवस्थामें कार्मणशरीरका सद्भाव होनेके कारण वहाँपर भी कार्मण और औदारिकशरीर के स्कन्धोंके निमित्तसे आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्द होता है, इसलिए वहाँपर भी जीदारिकमिश्रकाययोग क्यों नहीं कहा जाता ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, पर्याप्त अवस्था में यद्यपि कार्मण शरीर विद्यमान है फिर भी वह जीव प्रदेशों के परिस्पन्दनका कारण नहीं है। यदि पर्याप्त अवस्थामें कार्मणशरीर परम्परा से जीन प्रदेशोंके परिस्पन्दका कारण कहा जाये, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, कार्मणशरीरको परम्परासे निमित्त मानना उपचार है। यदि कहें कि उपचारका भी यहाँ पर ग्रहण कर लिया जावे, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उपचारसे परम्परारूप निमित्तके ग्रहण करनेकी यहाँ विवक्षा नहीं है। कायक्लेश-शरीरको wagent कठिन तपस्याकी अग्निमें झोंकना कायक्लेश कहलाता है। यह सर्वथा निरर्थक नहीं है। सम्यग्दर्शन सहित किया गया यह तप अन्तरंग मलकी वृद्धि, कर्मोंकी अनन्ती निर्जरा व मोक्षका साक्षात् कारण है । १. कायक्लेश तपका लक्षण घू.आ./मू./१५६ ठाणरायणासह य विविहेहि नहिं महुरोहि 'अविचिपरिताओं कायकिलेसो हवदि एसो खड़ा रहना, एक पार्श्व मृतकी तरह सोना, वीरासनादिसे बैठना इत्यादि अनेक तरहके कारणोंगे शाखके अनुसार आतापन आदि योगोंकरि शरीरको क्लेश देना वह कायक्लेश राप है। स.सि./१/१२/४३०/११ तस्थानं वृक्षमूलनिवासी निरावरण मन बहुविधप्रतिमास्थानमित्येवमादिः कायपले. आतापनयोग, वृक्षगुलमे निवास, निरावरण शयन और नानाप्रकारके प्रतिमास्थान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायक्लेश कायक्लेश इत्यादि करना कायक्लेश है। (रा.वा/8/१६/१३/६१३/१५), (ध.१३/१४ ४,२६/५८/४), (चा.सा./१३६/२), (त.सा.७/१३) का.अ./मू./४५० दुस्सह-उवसग्गजई आतावण-सीय-वाय-खिण्णो वि। जो णवि खेदं गच्छादि कायकिलेसो तवो तस्स। -दुःसह उपसर्गको जीतनेवाला जो मुनि आतापन, शीत, वात वगैरहसे पीड़ित होनेपर भी खेदको प्राप्त नहीं होता, उस मुनिके कायक्लेश नामका तप होता है। वसु.श्रा./३५१ आयंबिल णिबियडी एयठाणं छट्ठमाइखवणेहि। जं कीरह तणुतावं कायकिलेसो मुणेयम्बो ३५१-आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, चतुर्भक्त, (उपवास), षष्ठ भक्त (बेला), अष्टम भक्त (तेला), आदिके द्वारा जो शरीरको कृश किया जाता है उसे कायक्लेश जानना चाहिए। भ.आ./वि./६/३२/१८ कायसुखाभिलाषत्यजनं कायक्लेशः। -शरीरको सुख मिले ऐसी भावनाको त्यागना कायक्लेश है। पर मिल जायें वह समपर्यकासन है; उससे उलटा असमपर्वकासन है; गोको दुहनेकी भाँति बैठना गोदोहन है; ऊपरको संकुचित होकर बैठना उत्करिकासन है; मकरमुखवस् दोनों पैरोंको करके बैठना मकरमुखासन है; हाथीकी सुंडकी तरह हाथ या पाँवको फैलाकर नैठना हस्तिदंडासन है; गौके बैठनेकी भाँति बैठना गोशय्यासन है; अर्धपर्यकासन, दोनों जंघाओंको दूरवर्ती रखकर बैठना बीरासन है। दण्डेके समान सीधा बैठना दण्डासन है। इस प्रकार आसनके अनेक भेद हैं। शयन--शरीरको संकुचित करके सोना लगडशय्या है: ऊपरको मुख करके सोना उत्तानशय्या है; नीचेको मुख करके सोना अवाक्शय्या है। शवकी तरह निश्चेष्ट सोना शवशय्या है; किसी एक करवटसे सोना एकपार्श्वशय्या है; बाहर खुले आकाशमें सोना अभ्रावकाशशय्या है। इस प्रकार शयनके भी अनेक भेद हैं । अवग्रह-अनेक प्रकारको माधाओंको जीतना अवग्रह है। थूकने, खाँसने की बाधा; छींक व जंभाईको रोकमा; खाज होनेपर न खुजाना; काँटा आदि लग जानेपर खिन्न न होना; फोड़ा, फुसी आदि होने पर दुःखी न होना; पत्थर आदि लग जानेपर या ऊंची-नीची धरती आ जानेपर खेद न मानना; यथा समय केशलौच करना; रात्रिको भी न सोना; कभी स्नान न करना; कभी दाँतोंको न माँजना; इत्यादि अवग्रहके अनेक भेद हैं। योग-ग्रीष्म ऋतुमें पर्वतके शिखर पर सूर्यके सम्मुख खड़ा होना आतापन है; वर्षा ऋतुमें वृक्षके नीचे बैठना वृक्षमूल योग है; शीतकालमें चौराहे पर नदी किनारे ध्यान लगाना शीत योग है। इत्यादि अनेक प्रकार योग होता है। (अन. ध./७/३२/६८३ में उद्धृत) २. कायक्लेशके भेद अन. ध./७/३२/६८३ ऊर्वार्काद्ययनैः शवादिशयनैीरासनाद्यासनैः, स्थान रेकपदाग्रगामिभिरनिष्ठीवाग्रमावग्रहैः । योगैश्चातपनादिभिः प्रशमिना संतापनं यत्तनोः, कायक्लेशमिदं तपोऽयुपमतौ सद्ध्यानसिद्ध्यै भजेत् ॥३२१ - यह शरीरके कदर्थ नरूप तप, अनेक उपायों द्वारा सिद्ध होता है। यहाँ छ. उपायौंका निर्देश किया है-अयन (सूर्यादिकी गति); शयन, आसन, स्थान, अवग्रह और योग । इनके भी अनेक उत्तर भेद होते हैं (देखो आगे इन भेदोंके लक्षण)। ४. कायक्लेश तपके अतिचार ३. अयनादि कायक्केशोंके भेद व लक्षण भ.आ./मू./२२२-२२७ अणुसुरी पडिसूरी पउड्ढसूरी य तिरियसूरी य । उन्भागमेण य गमणं पडिआगमणं च गंतूणं ।२२२। साधारणं सवीचार सणिरुद्ध तहेब वोस । समपादमेगपादं गिद्धोलोणं च ठाणाणि ।२२३। समपलियंक णिसेज्जा समपदगोदो हिया य उक्कुडिया। मगरमुह हत्यिसंडी गोणणिसेज्जद्धपलियंका ।२२४॥ वीरासण च दंडा य उड्ढसाई य लगडसाई य। उत्ताणो मच्छिय एगपाससाई य मडयसाई य २२५॥ अभावगाससयणं अणिरठवणा अकंडग चेव । तणफलयसिलाभूमी सेजा तह केसलोचे य २२६। अन्भुणं च रादो अण्हाणमदंतधोवर्ण चेव । कायकिलेसो एसो सीदुण्हादावणादी य ।२२७॥ अयन-कडी धूपवाले दिन पूर्व से पश्चिमकी ओर चलना अनुसूर्य है-पश्चिमसे पूर्व की ओर चलना प्रतिसूर्य है-सूर्य जब मस्तक पर चढ़ता है ऐसे समयमें गमन करना ऊर्ध्व सूर्य है, सूर्यको तिर्यक् ( अर्थात् दायें-वायें ) करके गमन करना तिर्यसूर्य है--स्वयं ठहरे हुए ग्रामसे दूसरे गाँवको विश्रान्ति न लेकर गमन करना और स्वस्थानको लौट आना या तीर्थादि स्थानको जाकर लगे हाथ लौट आना गमनागमन है। इस तरह अयनके अनेक भेद होते हैं । स्थानकायोत्सर्ग करना स्थान कहलाता है। जिसमें स्तम्भादिका आश्रय लेना पड़े उसे साधार; जिसमें संक्रमण पाया जाये उसको सविचार; जो निश्चलरूपसे धारण किया जाय उसको ससन्निरोध, जिसमें सम्पूर्ण शरीर ढीला छोड़ दिया जाय उसको विसृष्टांग; जिसमें दोनों पैर समान रखे जायें उसको समपाद; एक पैरसे खड़ा होना एकपाद, दोनों बाहू ऊपर करके खड़े होना प्रसारितमाहू। इस तरह स्थान के भी अनेक भेद हैं। आसन--जिसमें पिंडलियाँ और स्फिक मरा भ.आ./वि./४८७/७०७/११ कायवलेशस्यातापनस्यातिचारः उष्णदितस्य शीतलद्रव्यसमागमेच्छा, संतापापायो मम कथ स्यादिति चिन्ता, पूर्वानुभूतशीतलद्रव्यप्रदेशानां स्मरणं, कठोरातपस्य द्वेषः, शीतलादेशादकृतगात्रप्रमार्जनस्य आतपप्रवेशः । आतपसंतप्तशरीरस्य वा अप्रमृष्टगात्रस्य छायानुप्रवेशः इत्यादिकः । वृक्षस्य मूलमुगतस्यापि हस्तेन, पादेन, शरीरेण वाप्कायानां पीडा। कथं । शरीरावलग्नजलकणप्रमार्जनं, हस्तेन पादेन वा शिलाफलकादिगतोदकापनयन । मृत्तिकाायां भूमौ शयनं । निम्नेन जलप्रवाहागमनदेशे वा अवस्थानम् । अवग्राहे वर्षापातः कदा स्यादिति चिन्ता । वर्ष ति देवे कदास्योपरमः स्यादिति वा। छत्रकटकादिधारणं वर्षानिवारणायेत्यादिकः।-तथा अभावकाशस्थातिचारः । सचित्तायां भूमौ त्रससहितहरितसमुत्थिताय विवरवत्या शयनं । अकृतभूमिशरीरप्रमाजनस्य हस्तपादसंकोचप्रसारणं पार्वान्तरसंचरणं, कण्डूयनं वा । हिमसमीरणाभ्यां हतस्य कदै तदुपशमो भवतीति चिन्ता, वंशदलादिभिरुपरिनिपतितहिमापकर्षण, अवश्यायघट्टना वा। प्रचुरवातापातदेशोऽयमिति संक्लेशः । अग्निप्रावरणादीनां स्मरणमित्यादिकः । -आतापन योगके अतिचार--ऊष्णसे पीड़ित होनेपर ठंडे पदार्थोंके संयोगकी इच्छा करना, 'यह मेरा संताप कैसे नष्ट होगा' ऐसी चिन्ता करना, पूर्व में अनुभव किये गये शीतल पदार्थोंका स्मरण होना, कठोर धूपसे द्वेष करना, शरीरको बिना झाड़े ही शीतलता से एकदम गर्मी में प्रवेश करना तथा शरीरको पिच्छीसे न स्पर्श करके ही धूपसे शरीर संताप होनेपर छायामें प्रवेश करना इत्यादि अतिचार आतापन योगके हैं। वृक्षमूल योगके अतिचार-इस योगको धारण करनेपर भी अपने हाथ से, पाँवसे और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायक्लेश कारक शरीरसे जलकायिक जीवोंको दुख देना अर्थात् शरीरसे लगे हुए जल-कण हाथसे पोंछना, अथवा पावसे शिला या फलक पर संचित हुआ जल अलग करना, गीली मिट्टीकी जमीनपर सोना, जहाँ जलप्रवाह बहता है ऐसे स्थानमें अथवा खोल प्रदेशोंमें बैठना, वृष्टिप्रतिबन्ध होनेपर कब वृष्टि होगी' ऐसी चिन्ता करना; और वृष्टि होनेपर उसके उपशमकी चिन्ता करना, अथवा वर्षाका निवारण करनेके लिए छत्र चटाई वगैरह धारण करना। अभावकाश या शीतयोगके अतिचार-सचित्त ज़मीनपर, प्रससहित हरितवनस्पति जहाँ उत्पन्न हुई है ऐसी ज़मीनुपर, छिद्र सहित जमीनपर, शयन करना। जमीन और शरीरको पिच्छिकासे स्वच्छ किये बिना हाथ और पाँव संकुचित करके अथवा फैला करके सोना; एक करवटसे दूसरे करवटपर सोना अर्थात् करवट बदलना; अपना अंग खुजलाना; हवा और ठंडीसे पीड़ित होनेपर इनका कब उपशम होगा' ऐसा मनमें संकल्प करना; शरीरपर यदि बर्फ गिरा होगा तो बाँसके टुकड़ेसे उसको हटाना; अथवा जलके तुषारोंको मर्दन करना, 'इस प्रदेशमें धूप और हवा बहुत है' ऐसा विचारकर संक्लेश परिणामसे मुक्त होना, अग्नि और आच्छादन वस्त्रोंका स्मरण करना। ये सम अभ्रावकाशके अतिचार है। अभावियसदिनाधादिउववासादिबास्स मारणं तियअसादेण ओत्थअस्सझाणाणुवत्तीदो। प्रश्न-यह ( काय क्लेश तप) किस लिए किया जाता है। उत्तर-शीत. वात और आतपके द्वारा; बहुत उपवासोंके द्वारा; तृषा क्षुधा आदि बाधाओं द्वारा और विसंस्थुल आसनों द्वारा ध्यानका अभ्यास करनेके लिए किया जाता है; क्योंकि जिसने शीतबाधा आदि और उपवास आदिकी बाधाका अभ्यास नहीं किया है और जो मारणान्तिक असातासे खिन्न हुआ है, उसके ध्यान नहीं बन सकता। (चा, सा./१३६/३). (अन.ध./७/३२/६८२)। कायगुप्ति-दे० गुप्ति। काय बल ऋद्धि-दे० ऋद्धि/६ । काय विनय-विनय । काय शुद्धि-दे० शुद्धि । कायिकी क्रिया-दे० क्रिया/३/२ । कायोत्सर्ग-दे० व्युत्सर्ग/१ । कारक-व्याकरणमें प्रसिद्ध तथा नित्यको बोल चालमें प्रयोग किये जानेवाले कर्ता कर्म करण आदि छः कारक हैं । लोकमें इनका प्रयोग भिन्न पदार्थों में किया जाता है, परन्तु अध्यात्ममें केवल वस्तु स्वभाव लक्षित होनेके कारण एक ही द्रव्य तथा उसके गुणपर्यायों में ये छहो लागू करके विचारे जाते हैं। १. भेदाभेद षटकारक निर्देश व समन्वय 1. षटकारकोंका नाम निर्देश प्र. सा./त. प्र./१६ कतृ त्व...कर्मत्वं...करणत्वं......संप्रदानत्वं .. अपादानत्वं ...अधिकरणत्वं...। पं. जयचन्द्रकृत भाषा---कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान अपादान और अधिकरण नामक छ• कारक हैं। जहाँ परके निमित्तसे कार्य की सिद्धि कहलाती है, वहाँ व्यवहार कारक है और जहाँ अपने ही उपादान कारणसे कार्य की सिद्धि कही जाती है वहाँ निश्चय कारक हैं (व्याकरणमें प्रसिद्ध सम्बन्ध नामके सातवे कारकका यहाँ निर्देश नहीं किया गया है, क्योंकि इन छहोंका समुदित रूप ही सम्बन्ध कारक है)। .. कायक्लेश तप गृहस्थके लिए नहीं है सा.ध./७/५० श्रावको वीरचर्याह. प्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च 11 श्रावकको वीरचर्या अर्थात स्वयं भ्रामरी वृत्तिसे भोजन करना, दिनप्रतिमा, आतापन योग, आदि धारण करनेका तथा सिद्धान्तशास्त्रोंके अध्ययनका अधिकार नहीं है। ६. कायक्लेश व परिषहजय भी आवश्यक हैं चा सा./१०७ पर उद्धृत-परीषोढव्या नित्ये दर्शनचारित्ररक्षणे विरतैः । संयमतपोविशेषास्तदेकदेशाः परीषहाख्याः स्युः। -दर्शन और चारित्रकी रक्षाके लिए तत्पर रहनेवाले मुनियों को सदा परिषहोंको सहन करना चाहिए। क्योंकि ये परिषहे संयम और तप दोनोंका विशेष रूप हैं, तथा उन्हीं दोनोंका एकदेश (अंग) हैं। अन.ध./७/३२/६८२ कायक्लेशमिदं तपोऽयूपनतौ सद्ध्यानसिध्यै भजेत् ॥३२॥ --यह तप भी मुमुक्षुओंके लिए आवश्यक है अतएव प्रशान्त तपस्वियोको ध्यानकी सिद्धिके लिए इसका नित्य ही सेवन करना चाहिए। ७. कायक्लेश व परिषहमें अन्तर स.सि./१/११/४३६/१ परिषहस्यास्य च को विशेषः। यदृच्छयोपनिपतितः परिषहः स्वयं कृतः कायक्लेशः। -प्रश्न-परिषह और काय क्लेशमें क्या अन्तर है ? उत्तर--अपने आप प्राप्त हुआ परिषह और स्वयं किया गया कायक्लेश है। यही इन दोनों में अन्तर है। (रा. बा/६/१६/१५/६१६/२०) २. षट्कारकी अभेद निर्देश प्र. सा./त. प्र./१६ अयं खल्वात्मा......शुद्धानन्तशक्ति-ज्ञायकस्वभावेन स्वतन्त्रत्वाद्गृहीतकर्तृत्वाधिकारः ... विपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं कलयन् - विपरिणमनस्वभावेन साधक्तमत्वात करणत्वमनुविभ्राणः ... विपरिणमनस्वभावेन कर्मणा समाश्रियमाणत्वात् संप्रदानत्वं दधान ... विपरिणमनसमये पूर्व प्रवृत्तविकलज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्वभावेन ध्र वत्वावलम्बनादपादानत्वमुपाददान:, ... विपरिणमनस्वभावस्याधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुर्वाणः स्वयमेव षट्कारकीरूपेणोपजायमानः...स्वयंभूरिति निर्दिश्यते । -यह आत्मा अनन्तशील युक्त ज्ञायक स्वभावके कारण स्वतन्त्र होनेसे जिसने कतृ त्वके अधिकारको ग्रहण किया है, तथा ( उसी शक्तियुक्त ज्ञानरूपसे) परिणमित होनेके स्वभावके कारण स्वयं ही प्राप्य होनेसे कर्मत्वका अनुभव करता है। परिणामन होनेके स्वभावसे स्वयं ही साधकतम होनेसे करणताको धारण करता है। स्वयं ही अपने (परिणमन स्वभाव रूप) कमके द्वारा समाश्रित होनेसे सम्प्रदानताको धारण करता है। विपरिणमन होनेके पूर्व समयमें प्रवर्तमान विकल ज्ञानस्वभावका नाश होनेपर भी सहज ज्ञानस्व ८. कायक्लेश तपका प्रयोजन स.सि./६/१६/४३१/१ तत्किमर्थम् । देहदुःखतितिक्षामुखानभिष्वङ्गप्रवचनप्रभावनाद्यर्थम्। प्रश्न--यह किस लिए किया जाता है। उत्तर-यह देहदुःखको सहन करनेके लिए, सुखविषयक आसक्तिको कम करनेके लिए और प्रवचनकी प्रभावना करनेके लिए किया जाता है । (रा.वा/६/१६/१४/६१६/१७) (चा.सा./१३६/४) ध.१३/५,४,२६/५८/५ किमहमेसो करिदे । सदि-वादादवेहि बहुदोबवासेहि तिसा-छुहादिबाहाहि विसंठुलासणेहि य ज्माणपरिचयर्छ, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारक २. सम्बन्धकारक निर्देश है ऐसे अन्यपनेमें कारक व्यपदेश होता है ( उसी प्रकार अनन्यपनेमें भी होता है)। .. अभेद कारक व्यपदेशका कारण पं.ध /पू./३३१ अतदिदमिहप्रतीतौ क्रियाफलं कारकाणि हेतुरिति । तदिदं स्यादिह संविदि हि हेतुस्तत्त्वं हि चेम्मिथ' प्रेम ।३३१। - यदि परस्पर दोनों ( अन्वय व व्यतिरेकी अंशो) में अपेक्षा रहे तो 'यह वह नहीं है' इस प्रतीतिमें क्रियाफल, कारक, हेतु ये सब बन जाते है और ये वही हैं। इस प्रतीतिमे भी निश्चयसे हेतुतत्त्व ये सब बन जाते है। भावसे स्वयं ही ध वताका अवलम्बन करनेसे अपादानताको धारण करता हुआ, और स्वयं परिणमित होनेके स्वभावका आधार होनेसे अधिकरणताको आत्मसात् करता हुआ--(इस प्रकार ) स्वयमेव छह कारक रूप होनेसे अथवा उत्पत्ति अपेक्षासे स्वयमेव आविर्भूत होनेसे स्वयंभू कहलाता है। (पं. का./त, प्र./६२)। स.सा./आ./२६७ 'ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृह्णामि। यत्किल गृहामि सच्चेतनै कक्रियत्वादात्मनश्चेतय एव, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानेनैव चेतये, चेतयमानायैव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानमेव चेतये...कितु सर्व विशुद्धचिन्मात्रो भावोऽस्मि ।-( अन्यसर्व भाव क्योकि मुझसे भिन्न हैं) इसलिए मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने लिये ही, अपनेमेसे ही, अपनेमें ही अपनेको ही ग्रहण करता हूँ। आत्माकी चेतना ही एक क्रिया है इसलिए 'मैं ग्रहण करता हूँ' का अर्थ 'मैं चेतता हूँ' ही है, चेतता हुआ ही चेतता हूँ. चेतते हुएके द्वारा ही चेतता हूँ, चेतते हुएके लिए ही चेतता हूँ, चेतते हुएसे ही चेतता हूँ, चेततेमें ही चेतता हूँ, चैततेको ही चेतता हूँ ( अथवा न तो चेतता हूँ, न चेतता हुआ चेतता हूँ-- इत्यादि छहों बोल) किन्तु सर्व विशुद्ध चिन्मात्र भाव है। का./त. प्र./४६/६२ मृत्तिका घटभावं स्वय स्वेन स्वस्यै स्वस्मात् स्वस्मिन् करोतोत्यात्मात्मानमात्मनात्मने आत्मन आत्मनि जानातो त्यनन्यत्वेऽपि। - 'मिट्टो स्वय घटभावको (घडारूप परिणामको ) अपने द्वारा अपने लिए अपनेमेंसे अपनेमें करती है आत्मा आत्माको आत्मा द्वारा आरमाके लिए आत्मामेसे आत्मामें जानता है' ऐसे अनन्यपने में भी कारक व्यपदेश होता है। ८. अभेद कारक व्यपदेशका प्रयोजन प्र.सा /मू./१६० णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसि । कत्ता ण ण कारयिदा अणुमता व कत्तीणं ।१६०-मै न देह हूँ, न मन हूँ, और न वाणी हूँ, उनका कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं हूँ, करानेवाला नहीं हूँ ( और ) कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ। (अर्थात अभेद कारक पर दृष्टि आनेसे पर कारकों सम्बन्धी अहंकार टल जाता है) विशेष दे० कारक १/५। प्र.सा./मू./१२६ कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्पत्ति णिच्छिदो समणो । परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि शुद्धं ॥१२६। - यदि श्रमण 'कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है' ऐसा निश्चयवाला होता हुआ अन्य रूप परिणमित नहीं ही हो तो वह शुद्ध आरमाको उपलब्ध करता है ।१२६। प. प्र / टी/२/१६ यावत्कालमात्मा कर्ता आत्मानं कर्मतापन्न आरमना करणभूतेन आत्मने निमित्त आरमन' सकाशाद आत्मनि स्थितं न जानासि तावत्कालं परमात्मानं कि लभसे। -जन तक आत्मा नाम कर्ता, कर्मतापन आत्माको, करणभूत आत्माके द्वारा, आत्माके लिए, आत्मामें-से, आत्मामें ही स्थित रहकर न जानेगा तबतक परमात्माको कैसे प्राप्त करेगा। ३. निश्चयसे अभेद कारक ही परम सत्य है प्र. सा./१६. पं. जयचन्द-परमार्थत एकद्रव्य दूसरेकी सहायता नहीं कर सकता और द्रव्य स्वयं ही, अपनेको, अपनेसे, अपने लिए, अपनेमेंसे, अपने में करता है, इसलिए निश्चय छः कारक ही परमसत्य हैं। * कर्ता कर्म करण व क्रियामें भेदाभेद आदि --दे० कर्ता। * कारण कार्य व्यपदेश दे० कारण। * ज्ञानके द्वारा ज्ञानको जानना-दे० ज्ञान/I/३/ १. द्रव्य अपने परिणामों में कारकान्तरकी अपेक्षा नहीं करता। पं. का./त. प्र./६२ स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षते। -स्वयमेव षट्कारकी रूपसे वर्तता हुआ (द्रव्य) अन्य कारकको अपेक्षा नहीं करता । (प्र सा /त. प्र. १६ ) ९. अभेद व भेदकारक व्यपदेशका नयार्थ त अनु./२६ अभिन्नकतृ कर्मादिविषयो निश्चयो नयः । व्यबहारनयो भिन्नकतृ कर्मादिगोचरः ॥२६॥ = अभिन्न कर्ता कर्मादि कारक निश्चयनयका विषय है और व्यवहार नय भिन्न र्ता कर्मादिको विषय करता है । ( अन ध/१/१०२/१०८) * षट् द्रव्यों में उपकार्य उपकारक भाव । --दे० कारण/III/११ ५. परमार्थमें पर कारकोंकी शोध करना वृथा है प्र. सा./त.प्र./१६ अतो न निश्चयत. परेण सहात्मन' कारकत्वसंबन्धोऽ- स्ति, यत' शुद्वात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गणव्यग्रतया परतन्त्रभूयते । अतः यहाँ यह कहा गया समझना चाहिए कि निश्चयसे परके साथ आरमाका कारकताका सम्बन्ध नहीं है, कि जिससे शुद्धात्मस्वभावकी प्राप्तिके लिए सामग्री (बाह्य साधन) टूढनेकी व्यग्रतासे जोव ( व्यर्थ ही ) परतन्त्र होते हैं। २. सम्बन्धकारक निर्देश १. भेद व अभेद सम्बन्ध निर्देश स. सि./१/१२/२७७ ननु च लोके पूर्वोत्तरकालभाविनामाधाराधेयभावो दृष्टो यथा कुण्डे बदरादीनाम् । न तथाकाशं पूर्व धर्मादीन्युत्तरकालभावीनि; अतो व्यवहारनयापेक्षयापि आधाराधेयकवपनानुपपन्तिरिति । नैष दोषः, युगपदभाविनामपि आधाराधेग्रभावो दृश्यते। घटे रूपादय' शरीरे हस्तादय इति। -प्रश्न-लोकमें जो पूर्वोत्तर कालभावी होते हैं, उन्हींका आधार आधेय भाव देखा गया है । जैसे कि बेरोका आधार कुण्ड होता है। उस प्रकार आकाश पूर्वकालभावी हो और धर्मादिक द्रव्य पीछेसे उत्पन्न हुए हों ऐसा तो है नहीं; अतः व्यवहारनय की अपेक्षा भी आधार आधेय कल्पना (इन द्रव्यों में ) नही बनती उत्तर-यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि एक साथ होने ६. परन्तु लोकमें भेद षटकारकोंका ही व्यवहार होता है पं. का/त. प्र./४६/६२ यथा देवदत्त फलमडकुशेन धनदत्ताय वृक्षाद्वारि कायामवचिनोतीत्यन्यत्वे कारकव्यपदेशः। -जिस प्रकार 'देवदत्त, फलको, अङ्कुश द्वारा, धनदत्तके लिए वृक्षपरसे, बगीचेमें, तोड़ता नदी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-७ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारक कारक व्यभिचार वाले पदार्थों में भी आधार आधेय भाव देखा जाता है । यथा-एटमें रूपादिकका और शरीरमें हाथ आदिकका। प.ध./उ./२९१ व्याप्यव्यापकभाव' स्थादात्मनि नातदात्मनि । व्याप्यव्यापकताभावः स्वत सर्वत्र वस्तुषु ।२११। म अपनेमें ही व्याप्यव्यापकभाव होता है, अपनेसे भिन्नमें नहीं होता है क्योंकि वास्तविक रीतिसे देखा जाये तो सर्व पदार्थों का अपने में ही व्याप्यव्यापकपनेका होना सम्भव है। अन्यका अन्यमें नहीं। * द्रव्यगुण पर्यायमें युतसिद्ध व समवायसम्बन्धका निषेध --दे० द्रव्य/५ २. व्यवहारसे ही मिन्न द्रव्योंमें सम्बन्ध कहा जाता है तत्वत: कोई किसीका नहीं स. सा//२७ ववहारणयो भासदि जीवो देहो य वदि खलु इक्को। ण दुणिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एकट्ठो ।२७। व्यवहारनय तो यह कहता है कि जीव और शरीर एक ही है; किन्तु निश्चयनयके अभिप्रायसे जीव और शरीर कभी भी एक पदार्थ नहीं हैं। यो. सा./अ/१/२० शरीरमिन्द्रियं द्रव्यं विषयो विभवो विभुः। ममेति व्यवहारेण भण्यते न च तत्त्वतः ।२०। ='शरीर, इन्द्रिय. द्रव्य, विषय, ऐश्वर्य और स्वामी मेरे हैं' यह बात व्यवहारसे कही जाती है, निश्चयनयसे नहीं ।२०। स. सा./आ/१८१ न खत्वेकस्य द्वितीयमस्ति द्वयोभिन्नप्रदेशत्वेनै कसत्तानुपपत्ते, सदसत्त्वे च तेन सहाधाराधेयसंबन्धोऽपि नास्त्येव, ततः स्वरूपप्रतिष्ठित्वलक्षण एत्राधाराधेयसंबन्धोऽवतिष्ठते । वास्तवमें एक वस्तुकी दूसरी वस्तु नहीं है ( अर्थात् एक वस्तु दूसरीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखती) क्योंकि दोनोंके प्रदेश भिन्न हैं, इसलिए उनमें एक सत्ताकी अनुपपत्ति है ( अर्थात दोनों सत्ताएँ भिन्न-भिन्न है) और इस प्रकार जबकि एक वस्तुको दूसरी वस्तु नहीं है तम उनमें परस्पर आधार आधेय सम्बन्ध भी है ही नहीं। इसलिए स्वरूप प्रतिष्ठित वस्तुमें ही आधार आधेय सम्बन्ध है। ४. अन्य द्रव्यको अन्यका कहना मिथ्यात्व है स. सा /मू./३२५-३२६ जह को विणरो जंपइ अम्हें गामविसयणयररहूँ। ण य हुति तस्स ताणि उ भणइ य मोहेण सो अप्पा ।३२५ एमेव मिच्छदिट्ठी णाणी णीसंसयं हवइ एसो। जो परदव्वं मम इदि जाणतो अप्पणं कुणइ १३२६। -जैसे कोई मनुष्य 'हमारा ग्राम, हमारा देश, हमारा नगर, हमारा राष्ट्र,' इस प्रकार कहता है, किन्तु वास्तवमें वे उसके नहीं हैं; मोहसे वह आरमा 'मेरे हैं। इस प्रकार कहता है। इसी प्रकार यदि ज्ञानी भी 'परद्रव्य मेरा है ऐसा जानता हुआ परद्रव्यको निजरूप करता है वह नि:सन्देह मिथ्यादृष्टि होता है। (स सा./मू./२०/२२)। यो. सा./अ./३/५ मयीदं कार्मणं द्रव्यं कारणेऽत्र भवाम्यहम् । यावदेषामतिस्तावन्मिथ्यात्वं न निवर्तते ।३। 'कर्मजनित द्रव्य मेरे हैं और मै कर्मजनित द्रव्यों का हूँ', जब तक जीवकी यह भावना बनी रहती है तबतक उसकी मिथ्यात्वसे निवृत्ति नहीं होती। स. सा./आ/३१४-३१५ यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्वलक्षणमि - नातू प्रकृतिस्वभावमात्मनो अन्धनिमित्तं न मुञ्चति, तावत्...स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्याष्टिर्भवति। - जबतक यह आत्मा, (स्व व परके भिन्न-भिन्न ) निश्चित स्वलक्षणोंका ज्ञान (भेदज्ञान) न होनेसे प्रकृतिके स्वभावको, जो कि अपनेको बन्धका निमित्त है उसको नही छोड़ता, तबतक स्व-परके एकत्वदर्शनसे ( एकत्वरूप श्रद्धानसे ) मिथ्यादृष्टि है। ५. परके साथ एकत्वका तात्पर्य स. सा/ता. वृ./६५ ननु धर्मास्तिकायोऽहमित्यादि कोऽपि न ब.ते तत्कथं घटत इति । अत्र परिहार । धर्मास्तिकायोऽयमिति योऽसौ परिच्छित्तिरूपविकल्पो मनसि वर्तते सोऽप्युपचारेण धर्मास्तिकायो भण्यते । यथा घटाकारविकल्पपरिणतज्ञानं घट इति । तथा तद्धर्मास्तिकायोऽयमित्यादिविकल्पः यदाज्ञेयतत्वविचारकाले करोति जीव तदा शुद्धात्मस्वरूप विस्मरति, तस्मिन्विकल्पे कृते सति धर्मोऽहमिति विकल्प उपचारेण घटत इति भावार्थः । =प्रश्न- "मैं धर्मास्तिकाय हूँ" ऐसा तो कोई भी नहीं कहता है, फिर सूत्रमें यह जो कहा गया है वह कैसे घटित होता है। उत्तर-"यह धर्मास्तिकाय है" ऐसा जो ज्ञानका विकल्प मनमें वर्तता है वह भी उपचारसे धर्मास्तिकाय कहा जाता है। जैसे कि घटाकारके विकल्परूपसे परिणत ज्ञानको घट कहते हैं। तथा 'यह धर्मास्तिकाय है' ऐसा विकल्प, जब जीव ज्ञ यतत्त्व के विचारकालमें करता है उस समय उसे शुद्धात्माका स्वरूप भूल जाता है ( क्योंकि उपयोगमें एक समय एक ही विकल्प रह सकता है); इसलिए उस विकल्पके किये जानेपर "मैं धर्मास्तिकाय हूँ' ऐसा उपचारसे घटित होता है। ऐसा भावार्थ है। ( स. सा./ता. वृ./२६८) ६. मिन्न द्रव्योमें सम्बन्ध निषेधका प्रयोजन स सा./मू./१६-१७ एवं पराणि दब्वाणि अप्पयं कुणदि मंदबुद्धीओ। अप्पाणं अवि य पर करेइ अण्णाणभावेण ।१६। एदेण दु सो कत्ता आदा णिच्छयविदूहि परिकहिदो। एवं खलु जो जाणदि सो मुंचदि सबकत्तित्तं ।१७) = इस प्रकार अज्ञानी अज्ञानभावसे परद्रव्योको अपने रूप करता है और अपनेको परद्रव्योंरूप करता है।६। इसलिए निश्चयके जाननेवाले ज्ञानियों ने उस आत्माको कर्ता कहा है। ऐसा निश्चयसे जो जानता है वह सर्व कतृत्वको छोड़ता है ।६७। कारक व्यभिचार-दे० नय/III/६/८ । * जीव शरीर सम्बन्ध व उसकी मुख्यता गौणताका समन्वय--दे०बन्ध/४ । ३. मिन द्रव्योंमें सम्बन्ध माननेसे अनेक दोष आते हैं यो. सा /अ./३/१६ नान्यद्रव्यपरिणाममन्यद्रव्यं प्रपद्यते। स्वान्यद्रव्यव्यवस्थेयं परस्य घटते कथम् ।१६। =जो परिणाम एक द्रव्यका है वह दूसरे द्रव्यका परिणाम नहीं हो सकता। यदि ऐसा मान लिया जाये तो संकर होष आ जानेसे यह निज द्रव्य है और वह अन्य द्रव्य है, ऐसी व्यवस्था ही नहीं बन सकती। प.ध./पू./५६७-५७० अस्तिव्यवहार किल लोकानामयमलब्धबुद्धित्वात् । योऽयं मनुजादिवपुर्भवति सजीवस्ततोऽप्यनन्यवाद ।५६७५ सोऽयं व्यवहार' स्यादव्यवहारो यथापसिद्धान्तात् । अप्यपसिद्धान्तत्वं नासिद्धं स्यादनेकमित्वात् ।।६८। नाशक्यं कारण मिदमेकक्षेत्रावगाहिमात्र यत् । सर्वद्रव्येषु यतस्तथावगाहाद्भवेदतिव्याप्तिः ॥५६६। अपि भवति बन्ध्यबन्धकभावो यदि वानयोन शक्यमिति। तदनेकत्वे नियमात्तबन्धस्य स्वतोऽप्यसिद्धत्वाद ॥५७०/ - अलब्धबुद्धि जनोका यह व्यवहार है कि मनुष्यादिका शरीर ही जीव है क्योकि दोनों अनन्य हैं। उनका यह व्यवहार अपसिद्धान्त अर्थात सिद्धान्त विरुद्ध होनेसे अव्यवहार है। क्योकि वास्तवमें वे अनेकधर्मी हैं ।५६७-५६८। एकक्षेत्रावगाहीपनेके कारण भी शरीरको जीव कहनेसे अतिव्याप्ति हो जायेगी, क्योंकि सम्पूर्ण द्रव्योमें ही एकक्षेत्रावगाहित्व पाया जाता है ।५६६। शरीर और जीवमें बन्ध्यबन्धक भावकी आशंका भी युक्त नही है क्योंकि दोनों में अनेकत्व होनेसे उनका बन्ध ही असिद्ध है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण सूचीपत्र कारण कार्य के प्रति नियामक हेतुको कारण कहते हैं। वह दो प्रकारका है-अन्तरंग व बहिरंग। अन्तरंगको उपादान और बहिरंगको निमित्त कहते हैं। प्रत्येक कार्य इन दोनोंसे अवश्य अनुगृहीत होता है। साधारण, असाधारण, उदासीन, प्रेरक आदिके भेदसे निमित्त अनेक प्रकारका है। यद्यपि शुद्ध द्रव्योंकी एक समयस्थायी शुद्धपर्यायों में केवल कालद्रव्य ही साधारण निमित्त होता है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य निमित्तोंका विश्व में कोई स्थान ही नहीं है। सभी अशुद्ध व संयोगी द्रव्योंकी चिर कालस्थायी जितनी भी चिदात्मक या अचिदात्मक पर्याय दृष्ट हो रही हैं, वे सभी संयोगी होनेके कारण साधारण निमित्त (काल व धर्म द्रव्य ) के अतिरिक्त अन्य बाह्य असाधारण सहकारी या प्रेरक निमित्तोंके द्वारा भी यथा योग्य रूपमें अवश्य अनुगृहीत हो रही हैं। फिर भी उपादानकी शक्ति ही सर्वतः प्रधान होती है क्योंकि उसके अभावमें निमित्त किसीके साथ जबरदस्ती नहीं कर सकता। यद्यपि कार्यकी उत्पत्तिमै उपरोक्त प्रकार निमित्त व उपादान दोनों का ही समान स्थान है, पर निर्विकल्पताके साधकको मात्र परमार्थका आश्रय होनेसे निमित्त इतना गौण हो जाता है, मानो वह है ही नहीं। संयोगी सर्व कार्योंपर-से दृष्टि हट जानेके कारण और मौलिक पदार्थपर ही लक्ष्य स्थिर करने में उद्यत होनेके कारण उसे केवल उपादान ही दिखाई देता है निमित्त नहीं और उसका स्वाभाविक शुद्ध परिणमन ही दिखाई देता है, संयोगी अशुद्ध परिणमन नहीं । ऐसा नहीं होता कि केवल उपादान पर दृष्टिको स्थिर करके भी वह जगतके व्यावहारिक कार्योंको देखता या तत्सम्बन्धी विकल्प करता रहे । यद्यपि पूर्वमद्ध कर्मोक निमिससे जीवके परिणाम और उन परिणामोंके निमित्तसे नवीन कोका बन्ध, ऐसी अटूट शृखला अनादिसे चली आ रही है, तदपि सत्य पुरुषार्थ द्वारा साधक इस शृखलाको तोड़कर मुक्ति लाभ कर सकता है, क्योंकि उसके प्रभाव से सत्ता स्थित कोंमें महाद् अन्तर पड़ जाता है। | ३. निमित्त कारण कार्य निर्देश भिन्न गुणों या द्रव्योंमें भी कारणकार्य भाव होता है। उचित ही द्रव्यको कारण कहा जाता है जिस किसीको नहीं। कार्यानुसरण निरपेक्ष बाब वस्तुमात्रको कारण नहीं कह सकते। कार्यानुसरण सापेक्ष ही बारा वस्तुको कारणपना प्राप्त है। कार्यपर-से कारणका अनुमान किया जाता है -दे० अनुमान/२॥ अनेक कारणों में से प्रधानका ही ग्रहण करना न्याय है। षट् द्रव्योंमें कारण अकारण विभाग -दे० द्रव्य/३ । कारण कार्य सम्बन्धी नियम I | कारण सामान्य निर्देश १. कारणके भेद व लक्षण कारण सामान्यका लक्षण । कारणके अन्तरंग बहिरंग व प्रात्मभूत अनात्मभूत रूप मेद । उपरोक्त मेदोंके लक्षण। सहकारी व प्रेरक आदि निमित्तोंके लक्षण __ --दे०निमित्त/१। करणका लक्षण तथा करण व कारणमें अन्तर । -दे करण/१। उपादान कारण कार्य निर्देश कारणके बिना कार्य नहीं होता -दे० कारण/IJI/४। कारण सदृश ही कार्य होता है। कारणभेदसे कार्यभेद अवश्य होता है -दे० दान/४। कारण सदृश ही कार्य हो ऐसा नियम नही। एक कारणसे सभी कार्य नही हो सकते । पर एक कारणसे अनेक कार्य अवश्य हो सकते हैं। एक कार्यको अनेकों कारण चाहिए। | एक ही प्रकारका कार्य विभिन्न कारणोंसे होना सम्भव है। कारण व कार्य पूर्वोत्तरकालवर्ती होते हैं। दोनों कथंचित् समकालवती भी होते हैं -दे० कारण/IV/२/५ । कारण व कार्य में न्याप्ति अवश्य होती है। कारण कार्यका उत्पादक हो ही ऐसा नियम नहीं। कारण कार्यका उत्पादक न ही हो ऐसा भी नियम नही। कारणकी निवृत्तिसे कार्य की भी निवृत्ति हो जाये ऐसा नियम नही। १२ कदाचित् निमित्तसे विपरीत भी कार्य होना सम्भव कई निश्चयसे कारण व कार्य में भमेद है। द्रव्यका स्वभाव कारण है और पर्याय कार्य। त्रिकाली द्रव्य कारण है और पर्याय कार्य। पूर्ववर्ती पर्याययुक्त द्रव्य कारण है और उत्तरवर्ती पर्याययुक्त द्रव्य कार्य। वर्तमान पर्याय ही कारण है और वही कार्य। | कारण कार्य में कथंचित् मेदाभेद । II | उपादान कारणको मुख्यता गौणता उपादानकी कथंचित् स्वतन्त्रता | उपादान कारण कार्य में कथचित् भेदाभेद --दे० कारण/I/२। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण १ २ ३ ४ ५ ६ द & १ २ ३ अन्य अन्यको रूपने रूप नहीं कर सकता। अन्य स्वयं अन्य रूप नहीं हो सकता । निमित्त किसी अनहोनी शक्ति उत्पन्न नहीं कर १ सकता । स्वभाव दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखता । परिणमन करना द्रव्यका स्वभाव है । उपादान अपने परियमन स्वतन्त्र है। प्रत्येक पदार्थ अपने परिणामनका कर्ता स्वय है। पर कठो दूसरा द्रव्य उसे निमित हो सकता है नहीं । २. उपादानकी कथंचित् प्रधानता ३ सत् अहेतुक होता है । सभी कार्य कथचित् निर्हेतुक है--दे० नय/ IV/३/६ उपादानके परिणमनमें निमित्त प्रधान नही है । परिणमनमें उपादानकी योग्यता ही प्रधान है। यदि योग्यता ही कारगा है तो सभी पुद्गल युगपत् कर्मरूपसे क्यों नहीं परिणम जाते ३० भन्५ । कार्य ही कथंचित् स्वयं कारण है -- दे० नय / IV / २ / ६.३/० । काल आदि लब्धिसे स्वयं कार्य होता है। -- दे० नियति । निमित्त सद्भावमें भी परिणमन तो स्वतः ही होता है । ३. उपादानकी कथंचित् परतंत्रता -३० कर्ता । ३। --दे० सत् । उपादानके अभाव में कार्यका भी अभाव । उपादानसे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है । अन्तरंग कारण ही बलवान् है। विश्वकारी कारण भी अन्तरंग ही है। निमित साध पदार्थ अपने कार्यके प्रति स्वयं समर्थ नहीं कहा जा सकता । व्यावहारिक कार्य करनेमें उपादान निमितों के अधीन है जैसा जैसा निमित्त मिलता है सा-वैसा ही कार्य होता है । उपादानको ही स्वयं सहकारी नही माना जा सकता । ||| निमित्तकी कथचित् गोणता मुख्यता १. निमित्त कारण के उदाहरण १ पर क्योंका परस्पर उपकार्य उपकारक भाव । २ द्रव्य क्षेत्र काल भवरूप निमित्त । ५२ * * ३ ४ ५ २. निमित्तकी कथंचित् गौणता १ २ ३ ६ ८ १० ११] १२ ३. २ ४ ५ ६ --३० धर्माधर्म/२/३० बर्मास्तिकायकी प्रधानता कालयकी प्रधानता -दे० काल / २ । सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति में निमित्तों की प्रधानता -- दे० सम्यग्दर्शन / III/२ । निमित्तकी प्रेरणा से कार्य होना । निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध अन्य सामान्य उदाहरण । सूचीपत्र सभी कार्य निमित्तका अनुसरण नहीं करते । धर्मादिक द्रव्य उपकारक है प्रेरक नहीं। अन्य भी उदासीन कारण धर्म द्रव्यवत् जानने । विना उपादानके निमित कुछ न करे । सहकारीको कारण कहना उपचार है । सहकारीकारण कार्यके प्रति प्रधान नहीं है। सहकारीको कारण मानना सदोष है । सहकारीकारण अहेतुवत् होता है । सहकारीकारण निमित्तमात्र होता है। परमार्थसे निमित्त अकिंचित्कर व हेय है । भिन्नकारण वास्तव में कोई कारण नहीं । द्रव्यका परिणमन सबंधा निमित्ताधीन मानना दिया है। उपादान अपने परिणमनमें स्वतन्त्र है - दे० कारण /11/९ कर्म व जीवगत कारणकार्यमाव की गौणता जीव भावको निमितमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणामता है अनुभागोदयमें हानि वृद्धि रहनेपर भी ग्यारहवे गुणस्थानमें जीवके भाव अवस्थित रहते है। जीवके परिणामोको सर्वथा कर्माभीन मानना मिथ्या है। -३० कारण / 111/२/१२। जीव व कर्ममें बध्य घातक विरोध नही है । कर्म कुछ नहीं कराते जीव स्वयं दोषी है ० विभाव शानी कर्मके मन्द उदयका तिरस्कार करनेको समर्थ है। दे० कारण/ IT/२/७ विभाव कथंचित् अहेतुक है । -दे० विभाग/४। जीव व कर्ममें कारण कार्य सम्बन्ध मानना उपचार है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ज्ञानियोंको कर्म अकिंचित्कर है । मोक्षमार्गमै आरमपरिणामको विमा प्रधान है, कर्मके परिणामोंकी नही । क्रमोंके उपशमय उदय आदि अवस्थाएँ भी कथंचित् भयलसाध्य हैं । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण ४. निमित्तकी कथंचित् प्रधानता नितिको प्रभानताका निर्देश १ २ ३ ४ ५ १ २ ३ -दे० कारण / IIT /१ धर्म व काल द्रव्यकी प्रधानता ४ - ६० कारण / 111/१० निमित्तनैमिति सम्बन्ध वस्तुभूत है। कारण होनेपर ही कार्य होता है, उसके बिना नहीं । उचित निमित्त के सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है। उपादानको योग्यता सद्भावमें भी निमितके बिना कार्य नही होता | द्रव्य क्षेत्रादिकी प्रधानता । - दे० कारण / III/१/२ ६. निभिसके बिना कार्यकी उत्पत्ति मानना सदोष है। सभी कारण धर्मद्रव्यवत् उदासीन नहीं होते । निमिश अनुकूल मात्र नहीं होता । ३० कारण/१/२ निमित्तके बिना केवल उपादान व्यावहारिक कार्य करने को समर्थ नहीं। उपादान भी निमित्ताधीन है। दे० कारण/II/३ जैसा जैसा निमित्त मिलता है वैसा-पैसा कार्य होता है । -३० कारण/11/३ कर्म व जीवगत कारणकार्य भावकी कथंचित् प्रधानता जीव व कर्ममें परस्पर निमित्त नैमिशिक सम्बन्धका निर्देश जीव व कर्मको विचित्रता परस्पर सापेक्ष है जीवकी अवस्थाओं कर्म मूल हेतु है। विभाव भी सहेतुक है। कर्मकी बलवत्ता के उदाहरण ५ जीवकी एक अवस्थामें अनेक कर्म निमित्त होते हैं । ६ कर्मके उदयमे तदनुसार जीवके परिणाम अवश्य - दे० विभाव / ३ मोहका अन्य यद्यपि नही पर सामान्य बन्धका कारण अवश्य है । प्रकृतियन्धका कारण - दे० बन्ध/३ माय द्रव्योवर भी कर्मका प्रभाव पड़ता है। -दे० वेदनीय ८ तथा तीर्थंकर /२० ५३ IV कारण कार्यभाव समन्वय १. १ २ ४ ६ २. १ २ ३ ५ ६ ८ सूचीपत्र उपादान निमित्त सामान्य विषयक कार्य न सचा स्वतः होता है, न सर्वथा परतः । प्रत्येक कार्य अन्तर व बहिरंग दोनों कारयोंके सम्मेलसे होता है। अन्तरंग व रिग कारणोंसे होनेके उदाहरण व्यहार नवसे निमिश वस्तुभूत है और निश्चय नयसे कल्पना मात्र । निर्मित स्वीकार करनेपर भी वस्तुस्वतन्त्रता वाधित नहीं होती । कारण व कार्य परस्पर व्याप्ति अवश्य होनी चाहिए। --दे० कारन /६/४/८ उपादान उपादेय भावका कारण प्रयोजन 1 उपादानको परतंत्र कहनेका कारण प्रयोजन | निमिशको प्रधान कहनेका कारण प्रयोजन । निश्चय व्यवहारनय तथा सम्यग्दर्शन चारित्र, धर्म आदिक में साध्यसाधन भाव । -दे० वह वह नाम मिया निमित्त या संयोगवाद । -दे० संयोग २. कर्म व जीवगत कारणकार्यभाव विषयक जीव यदि कर्म न करे तो कर्म भी उसे फल क्यों दे १ कर्म जीव को किस प्रकार फल देते हैं ? अचेतन कर्म चेतनके गुणोंका घात कैसे कर सकते #! -दे० विभाव /५ वास्तवमें कर्म जीवसे येथे नहीं बल्कि सरलेश के कारण दोनोंका विभाव परिणमन हो गया है । -दे० बन्ध/४ कर्म व जीवके निमित्तनैमिलिकने हेतु । वास्तवमें विभाव व कर्मनिमित्तनैमित्तिक भाव है, जीवन कर्म नही । समकालवर्ती इन दोनोंमें कारण कार्य भाव कैसे हो सकता है ? विभावके सहेतुक अहेतुकपनेका समन्वय । -दे० विभाव /५ निश्चयसे आत्मा अपने परिणामोंका और व्यवहारसे कमका कर्ता है। - दे० कर्ता/४/३ कर्म व जीवके परसर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धसे इतरेतराश्रय दोष भी नहीं जाता। कर्मोदयका अनुसरथ करते हुए भी जीवको मोक्ष सम्भव है । जीव कर्म की सिद्धि । - दे० बन्ध/२ कर्म व जीवके निमित्त नैमित्तिकपने में कारण प्रयोजन । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I कारण (सामान्य निर्देश) ५४ २. उपादान कारणकार्य निर्देश I. कारण सामान्य निर्देश १. कारणके भेद व लक्षण स सा./आ./६५ निश्चयत कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्यन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा, यथा कनकपत्रं कनकेन क्रियमाणं कनकमेव न त्वन्यत् । -निश्चय नयसे कर्म और करणकी अभिन्नता होनेसे जो जिससे किया जाता है (होता है) वह वही है. जैसे सुवर्ण पत्र सुवर्ण से किया जाता होनेसे सुवर्ण ही है अन्य कुछ नहीं है। १. कारण सामान्यका लक्षण स.सि./१/२१/१२५/७ प्रत्ययः कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम् । प्रत्यय, कारण और निमित्त ये एकार्थवाची नाम हैं । (स.सि./१/२०/१२०/७); (रा.वा./१/२०/२/७०/३०) स.सि./१/७/२२/३ साधनमुत्पत्तिनिमित्त'। जिस निमित्तसे बस्तु उत्पन्न होती है वह साधन है। रा.वा./१/७/.../३८/१ साधनं कारणम् । -साधन अर्थात् कारण । २. कारणके भेद रा, वा/२/८/१/११८/१२ द्विविधो हेतुर्बाह्य आभ्यन्तरश्च ।...तत्र बाह्यो हेतुविविधः-आत्मभूतोऽनात्मभूतश्चेति !.. आभ्यन्तरश्च द्विविधअनात्मभूत आत्मभूतश्चेति। - हेतु दो प्रकारका है--बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य हेतु भी दो प्रकारका है--अनात्मभूत और आत्मभूत और अभ्यन्तर हेतु भी दो प्रकारका होता है-आत्मभूत और अनात्मभूत । (और भी दे० निमित्त/१) २. द्वब्यका स्वभाव कारण है और पर्याय काय है श्लो बा/२/१/७/१२/५४६/भाषाकार द्वारा उद्धृत-यावन्ति कार्याणि तावन्तः प्रत्येक वस्तुस्वभावा.। = जितने कार्य होते हैं उतने प्रत्येक वस्तुके स्वभाव होते हैं। न.च.व./३६०-३६१ कारणकज्जसहावं समयंणाऊण होइ ज्झायव्वं । कज्ज सुद्धसरूवं कारणभूदं तु साहणं तस्स ॥३६० सुद्धो कम्मखयादो कारणसमओ हु जीवसब्भावो । खय पुण सहावझाणे तम्हा तं कारणं झेयं ।३६१) =समय अर्थात आत्माको कारण व कार्यरूप जान कर ध्याना चाहिए। कार्य तो उस आत्माका प्रगट होने वाला शुद्ध स्वरूप है और कारणभूत शुद्ध स्वरूप उसका साधन है।३६०1 कार्य शुद्ध समय तो कर्मोंके क्षयसे प्रगट होता है और कारण समय जीवका स्वभाव है। कर्मोका क्षय स्वभावके ध्यानसे होता है इसलिए वह कारण समय ध्येय है। (और भी दे० कारण कार्य परमात्मा कारण कार्य समयसार ) स.सा /आ./परि/क. २६५ के आगे-आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेऽप्युपायोपेयभावो विद्यत एव । तस्यैकस्यापि स्वयं साधकसिद्धरूपोभयपरिणामित्वात् । तत्र यत्साधकं रूपं स उपाय' यत्सिद्ध रूप स उफ्य' । म आत्म वस्तुको ज्ञानमात्र होनेपर भी उसे उपायउपेय भाव है; क्योंकि वह एक होनेपर भी स्वयं साधक रूपसे और सिद्ध रूपसे दोनों प्रकारसे परिणमित होता है (अर्थात आत्मा परिणामी है और साधकरव और सिद्धत्व ये दोनों परिणाम है) जो साधक रूप है वह उपाय है और जो सिद्ध रूप है वह उपेय है। ३. कारणके भेदोंके लक्षण रा.वा/२/८/१/११८/१४ तत्रात्मना संबन्धमापन्नविशिष्टनामकर्मोपात्तचक्षुरादिकरणग्राम आत्मभूतः। प्रदीपादिरनात्मभूत.....तत्र मनोवाक्कायवर्गणालक्षणो द्रव्ययोगः चिन्ताद्यालम्बनभूत अन्तरभिनिविष्टत्वादाभ्यन्तर इति ब्यपदिश्यमान आत्मनोऽन्यत्वादनात्मभूत इत्यभिधीयते। तन्निमित्तो भावयोगो वीर्यान्तरायज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमनिमित्त आत्मनः प्रसादश्चात्मभूत इत्याख्यामह ति। (ज्ञान दर्शनरूप उपयोगके प्रकरणमें) आत्मासे सम्बद्ध शरीरमें निर्मित चक्षु आदि इन्द्रियाँ आत्मभूत बाह्यहेतु हैं और प्रदीप आदि अनारमभूत बाह्य हेतु हैं। मनवचनकायकी वर्गणाओंके निमित्तसे होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप द्रव्य योग अन्त.प्रविष्ट होनेसे आभ्यन्तर अनात्मभूतहेतु है तथा द्रव्ययोगनिमित्तक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा वीर्यान्तराय तथा ज्ञानदर्शनावरणके क्षयोपशमके निमित्तसे उत्पन्न आरमाकी विशुद्धि आभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है। ३. त्रिकाली द्रव्य कारण है और पर्याय कार्य - रावा./१/३३/१/६/४ अर्यते गम्यते निष्पाद्यते इत्यर्थकार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । जो निष्पादन या प्राप्त किया जाये ऐसी पर्याय तो कार्य है और जो परिणमन करे ऐसा द्रव्य कारण है। न. च वृ./३६५ उप्पज्जंतो कज्जं कारणमध्पा णियं तु जणयंतो। तुम्हा इह ण विरुद्ध एकस्स व कारणं कज्ज ३६५॥ = उत्पद्यमान कार्य होता है और उसको उत्पन्न करनेवाला निज आत्मा कारण होता है। इसलिए एक ही द्रव्यमें कारण ब कार्य भाव विरोधको प्राप्त नहीं होते २ स सरूवस्था सहिदो चैत्र । का.आ./मू./२३२ स सरूवस्थो जीवो कज्जं साहेदि बट्टमाणं पि। खेत्ते एकम्मि द्विदो णिय दवे संठिदो चेव ।२३२। -स्वरूपमें, स्वक्षेत्रमे, स्वद्रव्यमें और स्वकालमें स्थित जीव हो अपने पर्यायरूप कार्यको करता है। २. उपादान कारणकार्य निर्देश १. निश्चयसे कारण व कार्य में अभेद है रा.वा/१/३३/१/५/५ न च कार्यकारणयो कश्चिद्रूपभेदः तदुभयमेकाकारमेव पर्वाङ्गुलिद्रव्यवदिति द्रव्याथिक। -कार्य व कारणमे कोई भेद नहीं है। वे दोनों एकाकार ही हैं। जैसे-पर्व व अंगुली । यह द्रव्यार्थिक नय है। घ.१२/४,२,८,३/३ सबस्स सच्चकलापस्स कारणादो अभेदो सत्तादी हितो त्ति णए अवलं बिजमाणे कारणादो कजमभिण्णं ।...कारणे कार्यमस्तीति विवक्षातो वा कारणात्कार्यमभिन्नम् । = सत्ता आदिकी अपेक्षा सभी कार्यकलापका कारणसे अभेद है। इस नयका अवलम्बन करने पर कारणसे कार्य अभिन्न है, तथा कार्यसे कारण भी अभिन्न है । ...अथवा 'कारणमें कार्य है' इस विवक्षासे भी कारणसे कार्य अभिन्न है। (प्रकृतमें प्राण प्राणिवियोग और वचनकलाप चूँकि ज्ञानावरणीय बन्धके कारणभूत परिणामसे उत्पन्न होते है अतएव वे उससे अभिन्न हैं। इसी कारण वे ज्ञानावरणीयबन्धके प्रत्यय भी सिद्ध होते हैं)। ४. पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य कारण है और उत्तर पर्याय उसका कार्य है आ. मी./५८ कार्योत्पाद. क्षयो हेतुनियमाल्लक्षणात्पृथक् । न तौ जात्या द्यवस्थानादनपेक्षा' खपुष्पवत ।५८ = हेतु कहिये उपादान कारण ताका क्षय कहिए विनाश है सो ही कार्यका उत्पाद है। जाते हेतुके नियमते कार्यका उपजना है। ते उत्पाद विनाश भिन्न लक्षणतै न्यारे न्यारे हैं । जाति आदिके अवस्थानते भिन्न नाहीं हैं-कथंचित अभेद रूप हैं। परस्पर अपेक्षा रहित होय तो आकाश पुष्पवत अवस्तु होय । (अष्टसहस्री/श्लो.५८) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण (सामान्य निर्देश ) रा.वा/१/६/१४/३७/२५ सर्वेषामेव तेषां पूर्वोत्तरकालभाव्यवस्था विशेषार्पणाभेदादेकस्य कार्यकारणशक्तिसमन्वयो न विरोधस्यास्पदमित्यविरोधसिद्धिः । = सभी वादी पूर्वावस्थाको कारण और उत्तरावस्थाको कार्य मानते है अतः एक ही पदार्थ में अमनी पूर्व और उत्तर पर्यायकी दृष्टिसे कारण कार्य व्यवहार निर्विरोध रूपसे होता ही है । अष्टसहस्री / श्लो. १० टीकाका भावार्थ (इम्पाधिक उपहार नयसे मिट्टी घटका उपादान कारण है। सूत्र नयसे पूर्व पर्याय घटका उपादान कारण है। तथा प्रमाणसे पूर्व पर्याय विशिष्ट मिट्टी घटका उपादान कारण है । ) श्लो. वा. २/१/७/१२/५३६/५ तथा सति रूपरसयोरेकार्थात्मिकयोरेकद्रव्यस्यासतिरेव लिहा. कार्यकारणभावस्यानि नियतस्य तदभावेऽनुपपत्ते संतानान्तरवत् । - आप बौद्धोके यहाँ मान्य अर्थ क्रियामें नियत रहना रूप कार्यकारण भाव भी एक द्रव्य प्रत्यासत्ति नामक सम्बन्धके बिना नहीं बन सकता है। किसी एक द्रव्य में पूर्व समय के रस आदि उत्तरवर्ती पर्यायोंके उपादान कारण हो आते हैं। (रजोना ५.२/१/८/१०/५१६) अष्टसहसो / पृ. २९१ की टिप्पणी नियतवक्षणवतित्वं कारणलक्षणम्। नियतोरक्षणवतिरवं कार्यलक्षणम् नियतपूर्वक्षणवर्ती तो कारण होता है और नियत उत्तरक्षणवर्ती कार्य होता है । क पा.१/३२४५/२८१/३ पागभावो कारणं । पागभावस्स विणासो वि दव्वखेत्त-काल- भवावेक्खाए जायदे | (जिस कारण से द्रव्य कर्म सर्वदा विशिष्टपनेको प्राप्त नहीं होते है ) वह कारण प्रागभाव है। प्रागभाव की विनाश हुए बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है और प्रागभावका विनाश द्रव्य क्षेत्र काल और भवको अपेक्षा लेकर होता है. (इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्यको उत्पन्न नहीं करते हैं ।) का. अ/मू./२२२-२२३ पुव्त्रपरिणामजुत कारणभावेण वट्टदे दव्वं । उत्तरपरिणामजुद तं चित्र हवेमा | २१ | कारणकज्जविसेसा ती विकास हुंति वत्थूणं । एक्केम्मि य समए पृथ्वुत्तर- भावमासिज्ज | २२३ | = पूर्व परिणाम सहित द्रव्य कारण रूप है और उत्तर परिणाम सहित द्रव्य नियमसे कार्य रूप है | २२२] वस्तुके पूर्व और उत्तर परिणामों को लेकर तीनों ही कालोंमें प्रत्येक समयमें कारणकार्य भाव होता है | २२३॥ 1 सा./ता.वृ / ११६/१६८/२० मुक्तात्मनां य एव... मोक्षपर्यायेण भव उत्पाद: स एव निश्चयमोक्षमार्गपर्याय मिल्यो विनाशस्तीच मोक्षमोक्षमार्गपर्यायी कार्यकारणरूपेण भिन्नौ मुक्तात्माओं की जो मोक्ष पर्यायका उत्पाद है वह निश्चयमोक्षमार्गपर्यायका विलय है । इस प्रकार अभिन्न होते हुए भी मोक्ष और मोक्षमार्गरूप दोनों पर्यायों में कार्यकारणरूपसे भेद पाया जाता है (प्र. सा. ता. वृ /८/१०/११ ) ( और भी देखो ) – 'समयसार' व 'मोक्षमार्ग/३/३' ५. एक वर्तमानमात्र पर्याय स्वयं ही कारण है और स्वयं ही कार्य है ५५ रा.वा./१/३३/१/१५/६ पर्याय एवार्थ' कार्यमस्य न द्रव्यम् । अतीतानाग योनिष्टत्वेन व्यवहारामावाद, स एवैकः कार्यकारणव्यप देशमा पर्यायार्थिक पर्याय ही है अर्थ या कार्य जिसका सो पर्यायार्थिक नय है । उसकी अपेक्षा करनेपर अतीत और अनागत पर्याय विनष्ट व अनुत्पन्न होनेके कारण व्यवहार योग्य ही नहीं हैं । एक वर्तमान पर्यायही कारणकार्यका व्यपदेश होता है। ६. कारणकार्य में कथंचित् भेदाभेद आम. मी./५८ नियम लक्षणात्पृथक् । पूर्वोत्तर पर्याय विशिष्ट वे उत्पाद व विनाशरूप कार्यकारण क्षेत्रादि से एक होते हुए भी अपने-अपने लक्षणो से पृथक है । ३. निमित्त कारणकार्य निर्देश आप्त. मी./ १-१४ ( कार्य के सर्वथा भाव या अभाव का निरास ) आप्त. मी./२४-३६ ( सर्वथा अद्वैत या पृथक्त्वका निराकरण ) आ. मी १०-४५ (सर्वथा निता व अनित्यत्वका निराकरण) आप्त. मी./५७-६० (सामान्यरूपसे उत्पाद व्ययरहित है, विशेषरूपसे वही उत्पाद व्ययसहित है ) आप्त. मी / ६१-७२ ( सर्वथा एक व अनेक पक्षका निराकरण ) श्लोमा / २/९/७/१२/२२६/६ न हि कचिद पूर्वे रसादिपर्याणा पर रसादिपर्यायामुपादानं नान्यत्र द्रव्ये वर्तमाना इति नियमस्तेषामेकद्रव्यादरम्यविरहे कयंचिदुपप किसी एक दव्यमें पूर्व समयके रस आदि पर्याय उत्तरवर्ती समयमें होनेवाले रसादिपर्यायोंके उपादान कारण हो जाते है. किन्तु दूसरे ज्योंमें वर्त रहे पूर्वसमय रस आदि पर्याय इस प्रत द्रव्यमें होनेवाले रसादिक उपादान कारण नहीं है। इस प्रकार नियम करना उन-उन रूपादिकों के एक द्रव्य तादात्म्यके बिना कैसे भी नही हो सकता । ध. १२/४, २, ८, ३/२८० / ३ सव्वस्स कज्जकलावस्त कारणादो अभेदो सत्तादीहितो त्ति गए अवलं बिज्जमाणे कारणादो कज्जमभिण्णं, कज्जादो कारण पि, असदकरणाद् उपादानग्रहणात्, सर्व संभवाभावात्, शक्तस्य शक्यकरणात, कारणभावाच्च । = सत्ता आदिकी अपेक्षा सभी कार्यकलाप कारण से अभेद है । इस ( द्रव्यार्थिक ) नयका अवलम्बन करनेपर कारणसे कार्य अभिन्न है तथा कार्यसे कारण भी अभिन्न है, क्योंकि असत् कार्य कभी किया नहीं जा सकता, २. नियत उपादानकी अपेक्षा की जाती है, ३. किसी एक कारणसे सभी कार्य उत्पन्न नही हो सकते, ४ समर्थकारणके द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है, ५ तथा असत् कार्यके साथ कारणका सम्बन्ध भी नहीं बन सकता नोट- ( इन सभी का ग्रहण उपरोक्त आप्तमीमांसा उद्धरणों में तथा उसीके आधारपर (ध. १५/१७-३१) में विशद रीतिसे या गया है ) न. च. वृ / ३६५ उप्पज्जेतो कज्जं कारणमप्पा णियं तु जणयंतो । तम्हा इह ण विरुद्ध एकस्स वि कारणं कज्जं । ३६५ । उत्पद्यमान पर्याय तो कार्य है और उसको उत्पन्न करनेवाला आत्मा कारण है. इसलिए एक ही द्रव्यमें कारणकार्य भावका भेद विरुद्ध नहीं है । द्र.सं./टी./३७/६७-६८ उपादानकारणमपि मृन्मयकलशकार्यस्य मृत्पि*स्थाको कुलोपादानकारणवदिति च कार्यादेकदेशेन भिन्न भवति । यदि पुनरेकान्तेनोपादानकारणस्य कार्येष सहाभेदो भेदो वा भवति तर्हि पूर्वोर्ण मृत्तिकान्त कार्यकारणभावो न घटते । = उपादान कारण भी मिट्टीरूप घट कार्य के प्रति मिट्टीका पिण्ड, स्थास, कोश तथा कुशूलरूप उपादान कारण के समान (अथवा सुवर्णकी अधस्तन व अपरितन पाक अवस्थाओंवत् ) कार्यसे एकदेश भिन्न होता है। यदि सर्वथा उपादान कारणका कार्यके साथ अभेद या भेद हो तो उपरोक्त सुवर्ण और मिट्टी के दो दृष्टान्तोंकी भाँति कार्य और कारण भाव सिद्ध नहीं होता । ३. निमित्त कारणकार्य निर्देश १. मित्र गुणों व द्रव्यों में भी कारणकार्य भाव होता है रा.वा./१/२०/३-४/००/३३ कश्चिदाह- मतिपूर्व भूतं तदपि मध्यात्मक प्राप्नोति कारणगुणानुविधानं हि कार्य दृष्ट यथा मृन्निमित्तो घटो मृदात्मक अथातदात्मकमिष्यते तत्पूर्वकवं तहि तस्य हीयते इति ॥३॥ न ष दोष किं कारणम्। निमित्तमात्रा दण्डाविनद... मृत्पिण्ड एवमाह्मदण्डादिनिमित्तापेक्ष आम्यन्तरपरिणामसां निध्याद घटो भवति न दण्डादयः इति दण्डादीनां निमित्तमात्रम् तथा पर्यायपर्याययो' स्यादन्यत्वाद् आत्मन स्वयमन्त श्रुतभवनपरि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I कारण (सामान्य निर्देश) ३. निमित्त कारणकार्य निर्देश भावको बद्ध कहते हैं और एक दूसरेसे नहीं अँधे हुए दोनोके भावको अबद्ध कहते हैं, क्योंकि, जीवमें बन्धक शक्ति तथा कर्म में बन्धनेकी शक्तिकी परस्पर अनुकूलताई से बन्ध होता है, और दोनों के प्रतिकूल होनेपर बन्ध नहीं होता है ।१०२। अर्थात अँधे हुए कर्म ही उदय आनेपर विभावमें निमित्त होते है, विस्रसोपचयरूप अबद्ध कर्म नही। णामाभिमुख्ये मतिज्ञानं निमित्तमात्रं भवति.. अतो बाह्यमतिज्ञानादिनिमित्तापेक्ष आत्मैव...श्रुतभवनपरिणामाभिमुख्यात श्रुतीभवति, न मतिज्ञानस्य श्रुतीभवनमस्ति तस्य निमित्तमात्रत्वात् । प्रश्न-जैसे मिट्टीके पिण्डसे बना हुआ धड़ा मिट्टी रूप होता है, उसी तरह मतिपूर्वक श्रुत भी मतिरूप ही होना चाहिए अन्यथा उसे मतिपूर्वक नहीं कह सकते। उत्तर-मतिज्ञान श्रुतज्ञानमें निमित्तमात्र है, उपादान नहीं। उपादान तो श्रुत पर्यायसे परिणत होनेवाला आत्मा है। जैसे मिट्टी ही बाह्य दण्डादि निमित्तोंकी अपेक्षा रखकर अभ्यन्तर परिणामके सान्निध्यसे घड़ा बनती है, परन्तु दण्ड आदिक घडा नहीं बन जाते और इसलिए दण्ड आदिकोंको निमित्तमात्रपना प्राप्त होता है। उसी प्रकार पर्यायी व पर्यायमें कथंचित अन्यत्व होनेके कारण आत्मा स्वयं ही जब अपने अन्तरंग श्रुतज्ञानरूप परिणामके अभिमुख होता है तब मतिज्ञान निमित्तमात्र होता है। इसलिए बाह्य मतिज्ञानादि निमित्तोंकी अपेक्षा रखकर आरमा ही श्रुतज्ञानरूप परिणामके अभिमुख होनेसे श्रुतरूप होता है, मतिज्ञान नहीं होता। इसलिए उसको निमित्तपना प्राप्त होता है। (स. सि./१/२०/१२०/८) श्लो. वा./२/१/७/१३/१६३/१६ सहकारिकारणेण कार्यस्य कथं तत्स्यादेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरभावादिति चेत् कालप्रत्यासत्तिविशेषात् तसिद्धि यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमन्यत्कार्यमिति प्रतीतम् । प्रश्न-सहकारी कारणोके साथ पूर्वोक्त कार्यकारण भाव कैसे ठहरेगा, क्योंकि तहाँ एक द्रव्यकी पर्याय न होनेके कारण एक द्रव्य नामके सम्बन्धका तो अभाव है। उत्तर-काल प्रत्यासत्ति नामके विशेष सम्बन्धसे तहाँ कार्यकारणभाव सिद्ध हो सकता है। जिससे अव्यवहित उत्तरकालमें नियमसे जो अवश्य उत्पन्न हो जाता है, वह उसका सहकारी कारण है और शेष दूसरा कार्य है, इस प्रकार कालिक सम्बन्ध समको प्रतीत हो रहा है। ३. कार्यानुसरण निरपेक्ष बाह्य वस्तु मात्रको कारण नहीं कह सकते। ध.२/१, १/४४४/३ "दव्वे दियाण णिप्पत्ति पङ्गच्च के वि दस पाणे भणति । तण्ण घडदे। कुदो। भाविदियाभावादो।" -कितने ही आचार्य द्रव्येन्द्रियों की पूर्णताको (केवली भगवान्के) दश प्राण कहते हैं, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि संयोगि जिनके भावेन्द्रिय नहीं पायी जाती है। प. मु./३/६१.६३ न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धे ।६१॥ तद्वयापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ।६३। - पूर्वचर व उत्तरचर हेतु साध्यके काल में नहीं रहते इसलिए उनका तादात्म्य सम्बन्ध न होनेसे तो वे स्वभाव हेतु नहीं कहे जा सकते और तदुत्पत्ति सम्बन्ध न रहनेसे कार्य हेतु भी नहीं कहे जा सकते ६१. कारणके सद्भावमें कार्यका होना कारणके व्यापारके आधीन है।६। दे. मिथ्याष्टि/२/६ (कार्यकालमें उपस्थित होने मात्रसे कोई पदार्थ कारण नहीं बन जाता) २. उचित ही द्रव्यको कारण कहा जाता है, जिस किसी को नहीं श्लो. वा. ३/१/१३/४८/२२१/२४ तथा २२२/१६ स्मरणस्य हि न अनुभव मात्रं कारणं सर्वस्य सर्वत्र स्वानुभूतेऽर्थे स्मरण-प्रसंगात् । नापि दृष्टसजातीयदर्शनं सर्वस्य दृष्टस्य हेतोर्व्यभिचाराद। तदविद्यावासनाप्रहाणं तत्कारणमिति चेत्, सैव योग्यता स्मरणावरणक्षयोपशमलक्षणा तस्यां च सत्यो सदुपयोगविशेषा वासना प्रबोध इति नाममात्रं भिद्यते। = पदार्थोंका मात्र अनुभव कर लेना ही स्मरणका कारण नहीं है, क्योंकि इस प्रकार सभी जीवोंको सर्वत्र सभी अपने अनुभूत विषयोंके स्मरण होनेका प्रसंग होगा। देखे हुए पदार्थोंके सजातीय पदार्थोंको देखनेसे वासना उद्बोध मानो सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि, इस प्रकार अन्वय व व्यतिरेको व्यभिचार आता है। यदि उस स्मरणीय पदार्थकी लगी हुई अविद्यावासनाका प्रकृष्ट नाश हो जाना उस स्मरणका कारण मानते हो तब तो उसीका नाम योग्यता हमारे यहाँ कहा गया है। वह योग्यता स्मरणावरण कर्मका क्षयोपशम स्वरूप इष्ट की गयी है, और उस योग्यताके होते संत श्रेष्ठ उपयोग विशेषरूप वासना ( लन्धि ) को प्रबोध कहा जाता है। तब तो हमारे और तुम्हारे यहाँ केवल नामका ही भेद है। पं. ध /उ./8६,१०२ वैभाविकस्य भावस्य हेतुः स्यात्संनिकर्षतः। तत्रस्थोऽप्यपरो हेतुर्न स्यात्किवा वतेति चेताबद्ध' स्यादबद्धयोर्भाव: स्यादबद्धोऽज्यबद्धयोः । सानुकूलतया बन्धो न अन्धः प्रतिकूलयोः १०२। -प्रश्न- यदि एकक्षेत्रावगाहरूप होनेसे वह मृत द्रव्य जीवके वैभाविक भावमें कारण हो जाता है तो खेद है कि वहीं पर रहनेवाला विस्रसोपचय रूप अन्य द्रव्य समुदाय भी विभाव परिणमनका कारण क्यों नहीं हो जाता ? उत्तर-एक दूसरेसे बंधे हुए दोनोंके ४. कार्यानुसरण सापेक्ष ही बाह्य वस्तु कारण कह लाती है आप्त. मी./४२ यद्यसत्सर्वथा कार्य तन्मा जनि खपुष्पवत् । मोपादाननियामो भून्माश्वास' कार्यजन्मनि ।४२। कार्यको सर्वथा असत् माननेपर 'यही इसका कारण है अन्य नहीं' यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि इसका कोई नियामक नहीं है। और यदि कोई नियामक हो तो वह कारणमें कार्यके अस्तित्वको छोड़कर दूसरा भला कौन सा हो सकता है। (ध. १२/४, २,८,३/२८०/५) (ध १३/५२१) रा. वा /९/९/११/४६/८ दृष्टो हि लोके छेत्तुर्देवदत्ताद अर्थान्तरभूतस्य परशोः काठिन्यादिविशेषलक्षणोपेतस्य सत' करणभाव' । न च तथा ज्ञानस्य स्वरूपं पृथगुपलभामहे ।...दृष्टो हि परशोः देवदत्ताधिष्ठितोद्यमाननिपातनापेक्षस्य करणभावः, न च तथा ज्ञानेन किचिवकत साध्यं क्रियान्तरमपेक्ष्यमस्ति । किंच तत्परिणामाभावात् । होदनक्रियापरिणतेन हि देवदत्तेन तरिक्रयायाः साचिव्ये नियुज्यमानः परशु' 'करणम्' इत्येतदयुक्तम्, न च तथा आत्मा ज्ञानक्रियापरिणतः । -जिस प्रकार छेदनेवाले देवदत्तसे करणभूत फरसा कठोर तीक्ष्ण आदि रूपसे अपना पृथक् अस्तित्व रखता है, उस प्रकार ( आप बौद्धोंके यहाँ) ज्ञानका पृथक् सिद्ध कोई स्वरूप उपलब्ध नहीं होता जिससे कि उसे करण बनाया जाये। फरसा भी तम करण बनता है जब वह देवदत्तकृत ऊपर उठने और नीचे गिरकर लकड़ीके भीतर घुसने रूप व्यापारकी अपेक्षा रखता है, किन्तु ( आपके यहाँ) ज्ञानमें कर्ताक द्वारा की जानेवाली कोई क्रिया दिखाई नहीं देती, जिसकी अपेक्षा रखनेके कारण उसे करण कहा जा सके । स्वयं छेदन कियामें परिणत देवदत्त अपनी सहायताके लिए फरसेको लेता है और इसीलिए फरसा करण कहलाता है। पर ( आपके यहाँ) आत्मा स्वयं ज्ञान क्रिया रूपसे परिणति ही नहीं करता (क्योंकि वे दोनों भिन्न स्वीकार किये गये हैं)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I कारण (सामान्य निर्देश) ५७ ४. कारण कार्य सम्बन्धी नियम २. कारण सदृश ही कार्य हो ऐसा कोई नियम नहीं श्लो. वा. २/१/७/१३/५६३/२ यदनन्तर हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत्कार्यमिति प्रतीतम्। -जिससे अव्यवहित उत्तरकालमें नियमसे जो अवश्य उत्पन्न होता है, वह उसका सहकारी कारण है और दूसरा कार्य है। स. सा./आ./८४ बहिव्याप्यव्यापकभावेन कलशसंभवानुकूलं व्यापार कुर्वाण: कलशकृततोयोपयोगजां तृप्ति भाव्यभावकभावनानुभवंश्च कुलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद्वयवहारः। बाह्यमे व्याप्यव्यापक भावसे घड़ेकी उत्पत्तिमे अनुकूल ऐसे व्यापारको करता हुआ तथा घडेके द्वारा किये गये पानाके उपयोगसे उत्पन्न तृप्तिको भाव्यभावक भावके द्वारा अनुभव करता हुआ, कुम्हार घड़ेका कर्ता है और भोक्ता है, ऐसा लोगोंका अनादिसे रूढ व्यवहार है। पं. का./ता. वृ./१६०/२३०/१३ निजशुद्वात्मतत्त्वसम्यगश्रद्धानज्ञानानुष्ठान रूपेण परिणममानस्यापि सुवर्ण पाषाणस्याग्निरिव निश्चयमोक्षमार्गस्य बहिरङ्गसाधको भवतीति सूत्रार्थः। = अपने ही उपादान कारणसे स्वयमेव निश्चयमोक्षमार्गको अपेक्षा शुद्ध भावोसे परिणमता है वहाँ यह व्यवहार निमित्त कारणकी अपेक्षा साधन कहा गया है। जैसे-सुवर्ण यद्यपि अपने शुद्ध पीतादि गुणोंसे प्रत्येक आँचमें शुद्ध चोखी अवस्थाको धरे है, तथापि बहिरंग निमित्तकारण अग्नि आदिक वस्तुका प्रयत्न है । तैसे हो व्यवहार मोक्षमार्ग है। ५. अनेक कारणों में से प्रधानका ही ग्रहण करना न्याय है स. सि./१/२१/१२५ भवं प्रतीत्य क्षयोपशमः संजायत इति कृत्वा भवः प्रधानकारणमित्युपदिश्यते। = (भवप्रत्यय अवधिज्ञानमें यद्यपि भव व क्षयोपशम दोनों ही कारण उपलब्ध हैं, परन्तु ) भवका अवलम्बन लेकर (तहाँ) क्षयोपशम होता है, (सम्यक्त्व व चारित्रादि गुणों की अपेक्षासे नहीं)। ऐसा समझकर भव प्रधान कारण है, ऐसा उपदेश दिया जाता है। (कि यह अवधिज्ञान भव प्रत्यय है)। स.सि./१/२०/१२० यदि मतिपूर्व श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति 'कारणसदृशं हि लोके कार्य दृष्टम्' इति। नैतदैकान्तिकम् । दण्डादिकारणोऽयं घटो न दण्डाद्यात्मकः । =प्रश्न-यदि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है; तो वह श्रुतज्ञान भी मत्यात्मक ही प्राप्त होता है; क्योंकि लोकमें कारणके समान ही कार्य देखा जाता है। उत्तर-यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि कारणके समान कार्य होता है। यद्यपि घटकी उत्पत्ति दण्डादिसे होती है तो भी दण्डाद्यात्मक नहीं होता। (और भी दे० कारण/I/३/१) रा. वा/१/२०/५/७१/११ नायमेकान्तोऽस्ति-'कारणसदृशमेव कार्यम्' इति कुतः । तत्रापि सप्तभंगीसंभवात् कथम् । घटवत । यथा घटः कारणेन मृत्पिण्डेन स्यात्सदृश. स्यान्न सदृशः इत्यादि । मृद्रव्याजोवानुपयोगाद्यादेशात् स्यात्सदृशः, पिण्डघटसंस्थानादिपर्यादेशात् स्यान्न सदृश । "यस्यैकान्तेन कारणानुरूप कार्यम्, तस्य घटपिण्डशिवकादिपर्याया उपालभ्यन्ते । किंच, घटेन जलधारणादिव्यापारो न क्रियते मृत्पिण्डे तददर्शनात् । अपि च मृत्पिण्डस्य घटत्वेन परिणामवद् घटस्यापि घटत्वेन परिणाम' स्यात एकान्तसदृशवात। न चैवं भवति। अतो नै कान्तेन कारणसदृशत्वम्। -यह कोई एकान्त नही है कि कारण सदृश ही कार्य हो। पुदगल द्रव्यकी दृष्टिसे मिट्टी रूप कारणके समान घड़ा होता है,पर पिण्ड और घर आदि पर्यायोंकी अपेक्षा दोनों विलक्षण हैं यदि कारणके सदृश ही कार्य हो तो घट अवस्थासे भी पिण्ड शिवक आदि पर्याय मिलनी चाहिए थीं। जैसे मृपिण्डमें जल नहीं भर सकते उसी तरह घड़ेमें भी नहीं भरा जाना चाहिए और मिट्टीकी भाँति घटका भी घट रूपसे ही परिणमन होना चाहिए, कपालरूप नहीं। कारण कि दोनों सदृश जो हैं। परन्तु ऐसा तो कभी होता नहीं है अतः कार्य एकान्तसे कारण सदृश नहीं होता। ध.१२/४.२,७.१७७/८१/३ संजमासंजमपरिणामादो जेण संजमपरिणामो अगतगुणो तेण पदेसणिज्जराए वि अणंतगुणाए होदव्वं, एवम्हादो अण्णत्थ सम्बत्य कारणाणुरूवकज्जुवलंभादो त्ति । ण, जोगगुणगाराणुमारिपदेसगुणगारस्स अगंतगुणत्त विरोहादो।...ण च कज्ज कारणाणुमारी चे। इति णियमो अस्थि, अंतरंगकारणावे खाए पव्वत्तस्स कज्जस्स बहिरंगकारणाणुसारित्तणियमाणुववत्तीदो । प्रश्न-यत' संयमासंयम रूप परिणामकी अपेक्षा संयमरूप परिणाम अनन्तगुणा है अतः वहाँ प्रदेश निर्जरा भी उससे अनन्तगुणी होनी चाहिए। क्यं कि इससे दूसरी जगह सर्वत्र कारणके अनुरूप ही कार्यकी उपलब्धि होती है। उत्तर--नहीं, क्योंकि, प्रदेश निर्जराका गुणकार योगगुणकारका अनुसरण करनेवाला है, अतएव उसके अनन्त गुणे होने में विरोध आता है। दूसरे--कार्य कारणका अनुसरण करता ही हो. ऐसा भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि अन्तरंग कारणकी अपेक्षा प्रवृत्त होने वाले कार्यके बहिरंग कारणके अनुसरण करनेका नियम नहीं बन सकता। ५ १५/१६/१० ण च एयंतेण कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वं, मट्टियपिडादो मट्टिपपिडं मोत्तूण घटघटी-सरावालिंजरुट्टियादीणमणुप्पत्तिपसंगादो। सुबण्णादो सुवण्णस्स घटस्सेब उप्पत्तिदंसणादो कारणाणसारि चेव कज्जं त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, कढिणादो, सुवण्णादो जलणादिसंजोगेण सुत्रपणजलुप्पत्तिदंसणादो। कि च-कारणं व ण कज्जमुप्पज्जदि, सबप्पणा कारणसरूवमावण्णस्स उप्पत्तिविरोहादो। जदि एयंतेण [ ] कारणाणुसारि चेत्र कज्जमुप्पज्जदि तो मुत्तादो पोग्गलदवादो अमुत्तस्स गयणुप्पत्ती होज्ज, णिच्चेपणादो पोग्गलदव्वादो सचेयणस्स जीवदव्वस्स वा उप्पत्ती पावेज्ज । ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तम्हा कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वमिदि। एरथ परि ४. कारण कार्य सम्बन्धी नियम १. कारण सदृश ही कार्य होता है ध. १/१, १, ४१/२७०/५ कारणानुरूपं कार्यमिति न निषेधुं पार्यते सकलने यायिकलोकप्रसिद्धत्वात् । = कारणके अनुरूप ही कार्य होता है, इसका निषेध भी तो नही किया जा सकता है, क्योकि, यह बात सम्पूर्ण नैयायिक लोगों में प्रसिद्ध है। ध.१०/४,२,४,१७५/४३२/२ सम्वत्थकारणाणुसारिकज्जुबलभादो। सब जगह कारणके अनुसार ही कार्य पाया जाता है। न.च.व./३६८ की चूलिका-इति न्यायादुपादानकारणसदृशं कार्य भवति । इस न्यायके अनुसार उपादान सदृश कार्य होता है। (विशेष दे० 'समयसार') स.सा./आ./६८ कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा यवा एवेति। - कारण जैसा ही कार्य होता है, ऐसा समझ कर जी पूर्वक होनेवाले जो जौ (यव), वे जौ (यव) ही होते है। (स.सा./ आ./१३०-१३०) (प.ध./पू./४०६) प्र.सा./ता../८/१०/११ उपादानकारणसदृशं हि कार्यमिति। - उपादान कारण सदृश ही कार्य होता है। (पं.का./ता.व./२३/४६/१४) स.म./२०/३०४/१८ उपादानानुरूपत्वाइ उपादेयस्य । - उपादेयरूप कार्य उपादान कारण के अनुरूप होता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-८ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I कारण ( सामान्य निर्देश ) ४. कारण कार्य सम्वन्धी नियमा क्योंकि, प्राणातिपातरूप एक ही कारणके अनन्त शक्तियुक्त होनेसे वैसा होने में कोई विरोध नहीं आता। (और भी दे० वर्गणा/२/६/३ में ध./१५) हारो बुच्चदे-होदु णाम केण वि सरूवेण कज्जस्स कारणाणुसारित्तं, ण सव्वप्पणा; उप्पादवय-ट्ठिदिलक्खणाणं जीव-पोग्गल-धम्माधम्मकालागासदव्वाणं सगवइसे सियगुणा विणाभावि सयलगुणाणमपरिच्चारण पन्जायंतरगमणवं समादो। = 'कारणानुसारी ही कार्य होना चाहिए, यह एकान्त नियम भी नहीं है, क्योंकि मिट्टीके पिण्डसे मिट्टीके पिण्डको छोडकर घट, घटी, शराब, अलिजर और उष्ट्रिका आदिक पर्याय विशेषोंकी उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसंग अनिवार्य होगा। यदि कहो कि सुवर्ण से सुवर्ण के घटकी हो उत्पत्ति देखी जानेसे कार्य कारणानुसारी ही होता है, सो ऐसा कहना भी योग्य नहीं है; क्योंकि, कठोर सुवर्ण से अग्नि आदिका संयोग होनेपर सुवर्ण जलकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार कारण उत्पन्न नहीं होता है उसी प्रकार कार्य भी उत्पन्न नहीं होगा, क्योंकि कार्य सर्वात्मना कारणरूप ही रहेगा, इसलिए उसकी उत्पत्तिका विरोध है। प्रश्न- यदि सर्वथा कारणका अनुसरण करनेवाला ही कार्य नहीं होता है तो फिर मूर्त पुद्गल द्रव्यसे अमूर्त आकाशकी उत्पत्ति हो जानी चाहिए। इसी प्रकार अचेतन पुद्गल द्रव्यसे सचेतन जोव द्रव्यकी भी उत्पत्ति पायी जानी चाहिए। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता, इसलिए कार्य कारणानुसारी ही होना चाहिए ? उत्तर-यहाँ उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं। किसी विशेष स्वरूपसे कार्य कारणानुसारी भले ही हो परन्तु वह सर्वात्मस्वरूपसे वैसा सम्भव नहीं है। क्योंकि, उत्पाद, व्यय व धौव्य लक्षणवाले जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्य अपने विशेष गुणोंके अविनाभावी समस्त गुणोंका परित्याग न करके अन्य पर्यायको प्राप्त होते हुए देखे जाते हैं। ध.६/४,१,४५/१४६/१ कारणानुगुणकार्यनियमानुपलम्भात् । कारणगुणा नुसार कार्य के होनेका नियम नहीं पाया जाता। ३. एक कारणसे सभी कार्य नहीं हो सकते सांख्यकारिका/ह सर्व संभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणाव । किसी एक कारणसे सभी कार्योंकी उत्पत्ति सम्भव नहीं। समर्थ कारणके द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है । (ध.१२/४,२,८,११३/२८०/५) १. परन्तु एक कारणसे अनेक कार्य अवश्य हो सकते हैं स.सि./६/१०/३२८/६ एककारणसाध्यस्य कार्यस्यानेकस्य दर्शनात तुल्येऽपि प्रदोषादी ज्ञानदर्शनावरणासवहेतवः। =एक कारणसे भी अनेक कार्य होते हुए देखे जाते हैं, इसलिए प्रदोषादिक (कारणों) के एक समान रहते हुए भी इनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण दोनोंका आस्रष (रूप कार्य) सिद्ध होता है । (रा.वा/६/१०/१०-१२/५१८) ध.१२/४,२,८,२/२७८/१० कथमेगो पाणादिवादो अक्कमेण दोणं कज्जाणं सपादयो। ण एयादो एयादो मोर धादी वयव विभाग द्वाण संचालणखतंतरवत्तिखप्परकज्जाणमकमेणुष्पत्तिदंसणादो । कधमेगो पाणादिवादो अणते कम्मइयक्रवंधे गाणावरणीयसरूवेण अक्कमेण परिणमावेदि, बहुस एकस्स अकमेण वुत्तिविरोहादो। ण, एयस्स पाणादिवादस्स अणं तसत्तिजुत्तस्स तदविरोहादो। प्रश्न-प्राणातिपाति रूप एक ही कारण युगपत् दो कायौंका उत्पादक कैसे हो सकता है। (अर्थात् कर्मको ज्ञानावरण रूप परिणमाना और जीवके साथ उसका बन्ध कराना ये दोनों कार्य कैसे कर सकता है)। उत्तरनहीं, क्योंकि, एक मुद्गरसे घात, अवयव विभाग, स्थानसंचालन और क्षेत्रान्तरकी प्राप्तिरूप खप्पर कार्योंकी युगपत् उत्पत्ति देखी जाती है। प्रश्न-प्राणातिपात रूप एक ही कारण अनन्त कार्माण स्कन्धों को एक साथ ज्ञानाबरणीय स्वरूपसे कैसे परिणमाता है, क्यो कि, बहूतोंमें एककी युगपत् वृत्तिका विरोध है ! उत्तर-नहीं, ५. एक कार्यको अनेकों कारण चाहिए स.सि./२/१७/२८३/३ भूमिजलादीन्येव तत्प्रयोजनसमर्थानि नार्थो धर्माधर्माभ्यामिति चेत् । न साधारणाश्रय इति विशिष्योक्तत्वात । अनेककारणसाध्यत्वाच्चै कस्य कार्यस्य । -प्रश्न-धर्म और अधर्म द्रव्यके जो प्रयोजन हैं, पृथिवी और जल आदिक ही उनके करने में समर्थ है, अत' धर्म और अधर्म द्रव्यका मानना ठीक नहीं है। उत्तर-नहीं, क्योकि धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थितिके साधारण कारण है। यह विशेष रूपसे कहा गया है। तथा एक कार्य अनेक कारणोंसे होता है, इसलिए धर्म और अधर्म द्रव्यका मानना ठीक है। रा.वा/५/१७/३१/४६४/२६ इह लोके कार्यमनेकोपकरणसाध्यं दृष्टम्, यथा मृत्पिण्डो घटकार्यपरिणामप्राप्ति प्रति गृहीताभ्यन्तरसामर्थ्यः बाह्यकुलालदण्डचक्रसूत्रोदककालाकाशाद्यनेकोपकरणापेक्षः घटपर्यायेणाविर्भवति, नैक एव मृत्पिण्डः कुलालादिबाह्यसाधनसंनिधानेन बिना घटात्मनाविर्भवितु समर्थः। = इस लोकमें कोई भी कार्य अमेक कारणों से होता देखा जाता है, जैसे मिट्टीका पिण्ड घट कार्यरूप परिणामकी प्राप्तिके प्रति आभ्यन्तर सामर्थ्य को ग्रहण करके भी, बाह्य कुम्हार, दण्ड चक्र, डोरा, जल, काल व आकाशादि अनेक कारणोंकी अपेक्षा करके ही घट पर्यायरूपसे उत्पन्न होता है । कुम्हार आदिक बाह्य साधनोकी सम्निधिके बिना केवल अकेला मिट्टीका पिण्ड घट रूपसे उत्पन्न होनेको समर्थ नहीं है। पंका/ता वृ./२५/५३/४ गतिपरिणतेधर्मद्रव्यं सहकारिकारणं भवति काल द्रव्यं च, सहकारिकारणानि बहून्यपि भवन्ति यत. कारणाद् घटोपत्तौ कुम्भकारचक्रचोवरादिवत्, मत्स्यादीनां जलादिवत्, मनुष्याणां शकटादिवत्, विद्याधराणां विद्यामन्त्रौषधादिषद, देवानां विमानवदित्यादि कालद्रव्यं गतिकारणम् । = गतिरूप परिणतिमें धर्मद्रव्य भी सहकारी है और कालद्रव्य भी। सहकारीकारण बहुत होते है जैसे कि घड़ेकी उत्पत्ति में कुम्हार, चक्र, चोवर आदि, मछली आदिकोंको जल आदि, मनुष्योको रथ आदि, विद्याधरोंको विद्या, मन्त्र, औषधि आदि तथा देवोंको विमान आदि। अतः कालद्रव्य भी गतिका कारण है। (प.प्र./टी./२/२३), (द्र.स./टी./२५/७१/१२) पं.ध./पू./४०२ कार्य प्रतिनियतत्वाद्ध तुद्वैतं न ततोऽतिरिक्त चेत् । तन्न यतस्तन्नियमग्राहकमिव न प्रमाणमिह । कार्यके प्रति नियत होनेसे उपादान और निमित रूप दो हेतु ही है, उससे अधिक नहीं है, यदि ऐसा कहो तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, यहाँ पर उन दो हेतुओके ही माननेरूप नियमका ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है 1४०२॥ (पं.ध/पू /४०४) ६. एक ही प्रकारका कार्य विभिन्न कारणोंसे हो सकता है ध.७/२,१,१७/६६/५ ण च एक्कं कज्ज एक्कादो चेव कारणादो सव्वस्थ उप्पज्जदि, खइर-सिसव-धव-धम्मण-गोमय-सरयर-मुज्जकंतेहितो समुप्पज्जमाणेकग्गिकज्जुवलंभा। == एक कार्य सर्वत्र एक ही कारणसे उत्पन्न नहीं होता, क्योकि खदिर, शोसम, धौ, धामिन, गोबर, सूर्यकिरण, व सूर्यकान्तमणि, इन भिन्न-भिन्न कारणों से एक अग्निरूप कार्य उत्पन्न होता पाया जाता है। ध.१२/४,२,८,११/२८६/११ कधमेयं कज्जमणेगेरिता उप्पज्जदे । ण, एगादो कुंभारादो उप्पण्णघडस्स अण्णादो वि उप्पत्तिदंसणादो । परिसं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण ( सामान्य निर्देश ) ४. कारण कार्य सम्बन्धी नियम पडि पुध पुध उप्पज्जमाणा कुंभोदंचणसरावादओ दीसंति तिचे। ण, एरथ वि कमभाविकोधादीहितो उपज्जमाणणाणावरणीयस्स दव्वादिभेदेण भेदुवलंभादो। णाणावरणीयसमाणतणेण तदेक्कं चे। ण, बहू हितो समुप्पज्जमाणघडाणं पि घडभावेण एयत्तवलं भादो। -प्रश्न-एक काये अनेक कारणोंसे कैसे उत्पन्न होता है। (अर्थात् अनेक प्रत्ययोंसे एक ज्ञानावरणीय ही वेदना कैसे उत्पन्न होती है)। उत्तर-नहीं, क्योंकि. एक कुम्भकारसे उत्पन्न किये जानेवाले घटकी उत्पत्ति अन्यसे भी देखी जाती है। प्रश्न-पुरुष भेदसे पृथक्-पृथक उत्पन्न होने वाले कुम्भ, उदंच, व शराव आदि भिन्न-भिन्न कार्य देखे जाते हैं ( अथवा पृथक्-पृथक् व्यक्तियोसे बनाये गये घड़े भी कुछ न कुछ भिन्न होते ही हैं।) ? उत्तर-तो यहाँ भी क्रमभावी क्रोधादिकोंसे उत्पन्न होने वाले ज्ञानावरणीयकर्मका द्रव्यादिकके भेदसे भेद पाया जाता है। प्रश्न-ज्ञानावरणीयत्वकी समानता होनेसे वह ( अनेक भेद रूप होकर भी) एक ही है। उत्तर-इसी प्रकार यहाँ भी बहुतोंके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले घटोके भी घटत्व रूपसे अभेद पाया जाता है। व्यतिरेक कार्यके व्यवस्थित होते हैं, अर्थाद जो जिसका कारण होता है उसके साथ अन्वय व्यतिरेक अवश्य पाया जाता है। ध/पु.७/२, १, ७/१०/५ जस्स अण्ण-विदिरेगेहि णियमेण जस्सण्णयविदिरेगा उवलंभंति तं तस्स कज्जमियरं च कारणं । = जिसके अन्वय और व्यतिरेकके साथ नियमसे जिसका अन्यय और व्यतिरेक पाये जावें वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है। (ध./८/३, २०/५१/३)। ध./१२/४, २,८,१३/२८९/४ यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिदि न्यायाद-ज) जिसके होनेपर ही होता हैन होने पर ही यह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है । (ध./१४/५, ६, ६३/१२) ९. कारण अवश्य कार्यका उत्पादक हो ऐसा कोई नियम ७. कारण कार्य पूर्वोत्तर कालवी ही होते हैं ध./१२/४, २, ८, १३/२८६/८ नावश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्ति, कुम्भमकुर्वत्यपि कुम्भकारे कुम्भकारव्यवहारोपलम्भाव। - कारण कार्यवाले अवश्य हों ऐसा सम्भव नहीं, क्योंकि, घटको न करनेवाले भी कुम्भकारके लिए 'कुम्भकार' शब्दका व्यवहार पाया जाता है। भ. आ./वि/१६४/४१०/१ न चावश्यं कारणानि कार्यवन्ति । धूमजनयतोऽप्यग्नेर्दर्शनात् काष्ठाद्यपेक्षस्य। -कारण अवश्य कार्यवान होते ही हैं, ऐसा नियम नहीं है, काष्ठादिकी अपेक्षा रखनेवाला अग्नि धूमको उत्पन्न करेगा ही, ऐसा नियम नहीं। न्या. दी./३/१५६/६६ ननु कार्य कारणानुमापकमस्तु कारणाभावे कार्यस्यानुपपसेः। कारणं तु कार्यभावेऽपि संभवति, अथा धूमाभावेऽपि वह्निः सुप्रतीतः । अतएव वह्निर्न धूमं गमयतीति चेत्, तन्न; उन्मीलितशक्तिकस्य कारणस्म कार्याव्यभिचारित्वेन कार्य प्रति हेतुत्वाविरोधात। = प्रश्न- कारण तो कार्यका ज्ञापक (जनानेवाला) हो सकता है, क्योंकि कारणके बिना कार्य नहीं होता किन्तु कारण कार्यके बिना भी सम्भव है, जैसे-धूमके बिना भी अग्नि देखी जाती है । अतएव अग्नि धूमकी गमक नहीं होती, (धूम हो अग्निका गमक होता है), अत' कारणरूप हेतुको मानना ठीक नहीं है । उत्तर-नहीं, जिस कारणकी शक्ति प्रकट है-अप्रतिहत है, वह कारण कार्यका व्यभिचारी नहीं होता है। अत ( उत्पादक न भी हो, पर) ऐसे कारणको कार्यका ज्ञापक हेतु माननेमें कोई दोष नहीं है। दे. मंगल/२/६ (जिस प्रकार औषधियोंका औषधित्व व्याधियोंके शमन न करनेपर भी नष्ट नहीं होता इसी प्रकार मंगलका मंगलपना विघ्नोंका नाश न करनेपर भी नष्ट नहीं होता)। श्लो.वा२/१/१/२३/१२१/१६ य एव आत्मन' कर्मबन्धविनाशस्य कालः स एव केवलवारख्यमोक्षोत्पादस्येति चेत्, न. तस्यायोगकेवलिचरमसमयत्वविरोधात पूर्वस्य समयस्यैव तथात्वापत्ते । =यदि इस उपान्त्य समयमें होने वाली निर्जराको भी मोक्ष कहा जायेगा तो उससे भी पहले समयमें परमनिर्जरा कहनी पड़ेगी। क्योंकि कार्य एक समय पूर्व में रहना चाहिए। प्रतिबन्धकोंका अभावरूप कारण भले कार्यकालमें रहता होय किन्तु प्रेरक या कारक कारण तो कार्य के पूर्व समयमें विद्यमान होने चाहिए-( ऐसा कहना भी ठीक नहीं है ) क्योंकि इस प्रकार द्विचरम, त्रिचरम, चतुश्चरम आदि समयोंमें मोक्ष होनेका प्रसंग हो जायेगा; कुछ भी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अत' यही व्यवस्था होना ठीक है कि अयोग केवलीका चरम समय ही परम निर्जराका काल है और उसके पीछेका समय मोक्षका है। ध.१/१,१,४७/२७६/७ कार्यकारणयोरेककालं समुत्पत्तिविरोधात् । - कार्य और कारण इन दोनोंकी एक कालमें उत्पत्ति नहीं हो सकती है। ध.६/४,१.१/३/८ ण च कारणपुव्वकालभावि कज्जमस्थि, अणुवलं भादो। कारणसे पूर्व कालमें कार्य होता नहीं है, क्योकि वैसा पाया नहीं जाता। स्या.म./१६/१६६/२२ न हि युगपदुत्पद्यमानयोस्तयोः सव्येतरगोविषाणयोरिव कारणकार्यभावो युक्तः । नियतप्राक्कालभावित्वात् कारणस्य । नियतीत्तरकालभावित्वात कार्यस्य। एतदेवाहुः न तुल्यकाल. फलहेतुभाव इति । फलं कार्य हेतु कारणम्, तयोर्भावः स्वरूपम्, कार्यकारणभावः । स तुल्यकालः समानकालो न युज्यत इत्यर्थः । = प्रमाण और प्रमाणका फल बौद्ध लोगोके मतमें गायके बायें और दाहिने सींगोंकी तरह एक साथ उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें कार्यकारण सम्बन्ध नहीं हो सकता। क्योंकि नियत पूर्वकालवर्ती तो कारण होता है और नियत उत्तरकालवर्ती उसका कार्य होता है। फल कार्य है और हेतु कारण । उनका भाव या स्वरूप ही कार्यकारण भाव है। वह तुल्यकालमें नहीं हो सकता। का गमक हो, जिस कारण नहीं होता है। मानने में के १०. कारण कार्यका उत्पादक न ही हो यह भी कोई नियम नहीं ध./६/४, १, ४४/११७/१० ण च कारणाणि कज्जं ण जणेति चेवेति णियमो अस्थि, तहाणुवलं भादो। कारण कार्यको उत्पन्न करते ही नहीं हैं, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। अतएव किसी कालमें किसी भी जीवमें कारणकलाप सामग्री निश्चयसे होना चाहिए। ८. कारण व कार्य में व्याप्ति आवश्यक होती है आप्त,प./8/४१/२ तरकारणकत्वस्य तदन्वयव्यतिरेकोपलम्भेन व्याप्तत्वात कुलालकारणकस्य घटादेः कुलालान्वयव्यतिरेकोपलम्भप्रसिद्धे. । - जैसे कुम्हारसे उत्पन्न होनेवाले घड़ा आदिमें कुम्हारका अन्वय व्यतिरेक स्पष्टतः प्रसिद्ध है। अतः सब जगह बाधकोंके अभावसे अन्वय ११. कारणकी निवृत्तिसे कार्यकी भी निवृत्ति हो ऐसा कोई नियम नहीं रा.वा./१०/३/१/६४२/१० नायमेकान्तः निमित्तापाये नैमित्तिकानां निवृत्तिः इति । -निमित्तके अभावमें नैमित्तिकका भी अभाव हो ही ऐसा कोई नियम नहीं है । (जैसे दीपक जला चुकनेके पश्चात् जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. उपादानकी कथंचित् स्वतन्त्रता II कारण ( उपादानकी मुख्यता गौणता) उसके कारणभूत दियासलाईके बुझ जानेपर भी कार्यभूत दीपक बुझ नहीं जाता)। १२. कदाचित् निमित्तसे विपरीत भी कार्यकी सम्भावना ध./२/१, १, ५०/२८३/६ किमिति केवलिनो वचनं संशयानध्यवसायजनकमिति चेत्स्वार्थानन्त्याच्छ्रोतुरावरणक्षयोपशमातिशयाभावात् । -- केवलीके ज्ञानके विषयभूत पदार्थ अनन्त होनेसे और श्रोताके । आवरण क्षयोपशम अतिशयतारहित होनेसे केवली के वचनोके निमित्तसे (भी) संशय और अनध्यवसायकी उत्पत्ति हो सकती है। JI. उपादान कारणकी मुख्यता गौणता १. उपादानकी कथंचित् स्वतन्त्रता . अन्य अन्यको अपने रूप नहीं कर सकता यो. सा./अ./६/४६ सर्वे भावाः स्वस्वभावव्यवस्थिता। न शक्यन्तेऽन्यथा क्तु ते परेण कदाचन ।४६। -समस्त पदार्थ स्वभावसे ही अपने स्वरूपमें स्थित हैं, वे कभी पर पदार्थ से अन्यथा रूप नहीं किये जा सकते अर्थात् कभी पर पदार्थ उन्हें अपने रूपमें परिणमन नहीं करा सकता। तथा अपनी अनेक प्रकारको पर्यायोंसे और उत्पाद व्यय प्रौव्यसे द्रव्यका जो अस्तित्व है वह वास्तवमें स्वभाव है। प्र. सा/त. प्र./६६ गुणेभ्यः पर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृ कर णाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्ति युक्तैर्गणैः पर्यायैश्च . यदस्तित्वं स स्वभाव । =जो गुणों और पर्यायोंसे पृथक नहीं दिखाई देता, कर्ता करण अधिकरणरूपसे द्रव्यके स्वरूपको धारण करके प्रवर्त्तमान द्रव्यका जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है। ६. उपादान अपने परिणमनमें स्वतन्त्र है त. सा //३१ जं कुणइ भावमादा कत्ता स होदि तस्स भावस्स । कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं पुग्गलं दब्वं । - आत्मा जिस भावको करता है, उस भावका बह कर्ता होता है । उसके कर्ता होनेपर पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्म रूप परिणमित होता है। (स. सा./4./०-६१); ( म. सा./आ /१०५); (पु. सि. उ./१२); (और भी देखो कारणIII/३/१)। स मा./मू /११६ अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गलं दव्वं । जीवो परिणामयदे कम्म कम्मत्तमिदि मिच्छा ।११।। -अथवा यदि पुद्गलद्रव्य अपने आप ही कर्मभावसे परिणमन करता है ऐसा माना जाये, तो जीव कर्मको अर्थात पुद्गलद्रव्यको परिणमन कराता है यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है "ततः पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु" अतः पुद्गलद्रव्य परिणामस्वभावी स्वयमेव हो ( आत्मख्याति)। प्र. सा././१५ उवओगविसुद्धो जो विगदावरणातरायमोहरओ। भदो सयमेवादा जादि पार णेयभूदाणं ॥१५॥ =जो उपयोग विशुद्ध है, वह आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय रजसे रहित स्वयमेव होता हुआ शेयभूत पदार्थोके पारको प्राप्त होता है। प्र. सा./मू./१६७ दुपदेसादी खंधा मुहुमा वा बादरा स संठाणा । पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामे हिं जायते। ='द्विप्रदेशादिक स्कन्ध जो कि सूक्ष्म अथवा बादर होते हैं और संस्थानों (आकारों ) सहित होते हैं, वे पृथिवी, जल, तेज और वायुरूप अपने परिणामों से २. अन्य स्वयं अन्य रूप नहीं हो सकता रा. बा./१/8/१०/४५/२० मनश्चेन्द्रियं चास्य कारणमिति चेत् । न : तस्य तच्छक्यभावात् । मनस्तावन्न कारणम् विनष्टत्वात् । नेन्द्रियमप्यतीतम् तत एव । मनरूप इन्द्रियको ज्ञानका कारण कहना उचित नहीं है, क्योंकि उसमें वह शक्ति ही नहीं है। 'छहों ज्ञानों के लिए एक क्षण पूर्वका ज्ञान मन होता है' यह उन बौद्धोका सिद्धान्त है। इसलिए अतीतज्ञान रूप मन इन्द्रिय भी नही हो सकता। (विशेष देखो कर्ता/३) ३. निमित्त किसीमें अनहोनी शक्ति उत्पन्न नहीं करा सकता ध/१/१, १, १६३/४०४/१ न हि स्वतोऽसमर्थोऽन्यत' समर्थो भवत्यतिप्रसंगात। -(मानुषोत्तर पर्वतके उस तरफ देवोंकी प्रेरणासे भी मनुष्योंका गमन नहीं हो सकता, क्योकि ऐसा न्याय है कि ) जो स्वयं असमर्थ होता है वह दूसरोंके सम्बन्धसे भी समर्थ नहीं हो सकता। स. सा /आ/१९८-९९६ न हि स्वतोऽसती शक्ति' कर्तृमन्येन पार्यते । जो शक्ति (वस्तुमें) स्वतः न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। (पं.ध./उ./६२) ४. स्वभाव सरेकी अपेक्षा नहीं करता स. सा./आ/११६ न हि वस्तु शक्तय' परमपेक्षन्ते। -वस्तुकी शक्तियाँ परकी अपेक्षा नहीं रखती। प्र. सा./त. प्र./१६ स्वभावस्य तु परानपेक्षवादिन्द्रियविनाप्यात्मनो ज्ञानानन्दौ संभवतः। -( ज्ञान और आनन्द आत्माका स्वभाव ही है: और ) स्वभाव परकी अपेक्षा नहीं करता इसलिए इन्द्रियों के बिना भी ( केवलज्ञानी) आत्माके ज्ञान आनन्द होता है । (प्र. मा./त. प्र.) ५. और परिणमन करना द्रव्यका स्वभाव है प्र.सा.//६६ सब्भावो हि सभावो गुणेहिं सगपज्जएहिं चित्तेहि। दबस्स सबकाल उप्पादब्बयधुवत्तेहि ।। = सर्व लोकमें गुण का. अ./मू /२१६ कालाहनद्धि जुत्ता णाणा सप्तीहि संजुदा अस्था। परिणममाणा हि सयं ण सक्दे को वि वारेदु। -काल आदि लब्धियों से युक्त तथा नाना शक्तियोंवाले पदार्थोंको स्वयं परिणमन करते हुए कौन रोक सकता है। पं.ध./७६० उत्पद्यते विनश्यति सदिति यथास्वं प्रतिक्षणं यावत् । व्यवहारविशिष्टोऽयं नियतमनित्यनय' प्रसिद्ध स्यात ७६०। -सत् यथायोग्य प्रतिसमयमें उत्पन्न होता है तथा विनष्ट होता है यह निश्चयसे व्यवहार विशिष्ट अनित्य नय है । पं. /उ./६३२ तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धान्तो दृड्मोहस्येतरस्य वा। उदयोऽनुदयो वाथ स्यादनन्यगति' स्वतः। -इसलिए यह सिद्धान्त सिद्ध होता है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही स्वयं अनन्यगति है अर्थात अपने आप होते हैं, परस्परमें एक दूसरेके निमित्तसे नहीं होते। ७. उपादानके परिणमममें निमिसको प्रधानता नहीं होती रा. वा /१/२/१२/२०/१६ यदिदं दर्शनमोहाव्यं कर्म तदात्मगुणधाति, कुतश्चिदात्मपरिणामादेवोपक्षीणशक्तिकं सम्यक्त्वाख्या लभते। अतो न तदात्मपरिणामस्य प्रधानं कारणम्, आत्मैव स्वशवल्या दर्शनपर्यायेणोत्पद्यत इति तस्यैव मोक्षकारणत्वं युक्तम् । दर्शनमोहनीय नामके कर्मको आत्मविशुद्धिके द्वारा ही रसघात करके स्वल्पघाती क्षीणशक्तिक सम्यक्त्व कम मनाया जाता है। अतः यह सम्यक्त्वप्रकृति आत्मस्वरूप मोक्ष का प्रधान कारण नहीं हो सक्ती। आत्मा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 कारण ( उपदानकी मुख्यता गौणता ) ही अपनी शक्ति दर्शन पर्यायको धारण करता है अतः वही मोका कारण है । रा. बा./२/१/२०/४३४/२४ धर्माधर्माकापुद्गलाः इति बहुवचनं स्वातप्रतिपत्यर्थं द्रष्टव्यम् । किं पुनः स्वातन्त्र्यम् । धर्मादयो गत्याद्यपग्रहात् प्रति वर्तमानाः स्वयमेत्र तथा परिणमन्ते न परप्रत्ययाधीना तेषां प्रवृत्तिः इत्येतदत्र विवक्षितं स्वातन्त्र्यम् । ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातन्त्र्ये सति विरुध्यत इतिः नैष दोष: बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । न हि गत्यादिपरिणामिनो जीवपुद्गला' गत्याद्य, पग्रहे धर्मादीनां प्रेरकाः । =सूत्रमें 'धर्माधर्माकाशपुः यहाँ बहुवचन स्वातन्त्र्यको प्रतिपत्ति लिए है । प्रश्न -- वह स्वातन्त्र्य क्या है ? उत्तर- इनका यही स्वशतय है कि ये स्वयं गति और स्थिति रूपसे परिणत जीव और लौकी गति और स्थिति में स्वयं निमित्त होते हैं, जीन या गल इन्हें उकसाते नहीं हैं। इनकी प्रवृत्ति पराधीन नहीं है। प्रश्न- बाह्य द्रव्यादिके निमित्तसे परिणामियोंके परिणाम उपलब्ध होते हैं, और वह इस स्वातन्त्र्य के माननेपर विरोधको प्राप्त होता है ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बाह्य वस्तुएँ निमित्त मात्र होती हैं, परिणामक नहीं । 1 • श्लो. वा./२/२/६/४०-४२/३१४ चरादिप्रमापेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित' सदा |४०| चितस्तु भावनेत्रादेः प्रमाणत्वं न वार्यते । तत्साधकतमत्वस्य कथं चिदुपपत्तित ॥४१॥ वैशेषिकाकि लोग नेत्र आदि इन्द्रियोंको प्रमाण मानते हैं, परन्तु उनका कहना ठीक नहीं है; क्योंकि नेत्रादि जड़ हैं, उनके प्रमितिका प्रकृष्ट साधकपना सर्वदा नहीं है । प्रमितिका कारण वास्तवमें ज्ञान ही है। जब इन्द्रिय के करण कदापि नहीं हो सकते हो भावेन्द्रियों के सामने की सिद्धि किसी प्रकार हो जाती है, क्योंकि भावेन्द्रिय चेतनस्वरूप हैं और चेतनका प्रमाणपना हमें अभीष्ट है । ( श्लो. वा./२/१/६/२६/३७७/२३); ( प. मु./२/६-६ ); (स्वा. म. / १६ / २०० / २३) ( न्या. दी /२/११/२०) । यो.मा.आ./५/१८-१नवारण पन्ते नागोचरे कि पन्ते न च गुर्वा सेव्यमानैरनारतम् ॥१८॥ उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति जीवस्य परिणामिनः । ततः स्वयं स दाता न परतो न कदाचन |१६| - ज्ञान दर्शन और पारिका न तो यो हरण होता है और न गुरुओकी निरन्तर सेवासे उनकी उत्पत्ति होती है, किन्तु इस जीवके परिणमनशील होनेसे प्रति समय इसके गुणोंकी पर्याय प टती हैं इसलिए मतिज्ञान आदिका उत्पाद न तो स्वयं जीव ही कर सकता है और न कभी पर पदार्थ से ही उनका उत्पाद विनाश हो सकता है। इ.स.टी./२२/६०/३ तदेव ( निश्चय सम्ययमेव ) काश्येऽपि त कारणम् । कालस्तु तदभावे सहकारिकारणमपि न भवति । वह निश्चय सम्यक्त्व ही सदा तीनो कालोंमें मुक्तिका कारण है । काल तो उसके अभाव में बीतराग चारित्रका सहकारीकारण भी नहीं हो सकता । ८. परिणमनमें उपादानकी योग्यता ही प्रधान है प्र.सा././व रा.प्र./१६६ कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणई पप्पा गच्छेति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिमिदा ( जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मस्वपरिणमयोगिनः गलस्कन्धाः स्वयमेन कर्मभावेन परिणमति कर्मके योग्य स्कन्ध जीवको परिणतिको प्राप्त करके कर्मभानको प्राप्त होते है. जीव उनको परिणमाता नहीं । ९६१| अर्थात् जीव उसको परिणमानवाला नहीं होनेपर भी, । ६१ १. उपादानकी कथंचित् स्वतन्त्रता कर्मरूप परिणमित होनेवालेकी योग्यता या शक्तिवाले पुद्गल स्कन्ध स्वयमेव कर्मभाव परिणमित होते हैं। इ. उ. / . /२ सोम्योपादानयोगेन दृषदः स्वर्णता मता इम्पादिस्वादिसंपत्तावात्मनोऽप्यात्मता मता |२| जिस प्रकार स्वर्ण रूप पाषाण में कारण, योग्य उपादानरूप करणके सम्बन्धसे पाषाण भी स्वर्ण हो जाता है, उसी तरह पादिचतुष्टयरूप सुयोग्य सम्पूर्ण सामग्रीके विद्यमान होनेपर निर्मत चैतन्य स्वरूप आत्माकी उपलब्धि हो जाती है (मो.पा./२४) 1 प्र.सा./१/४४ केलिन प्रमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासालात स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एवं प्रवर्तते। - केवली भगवानके बिना ही प्रयत्नके उस प्रकारकी योग्यताका सद्भाव होनेसे खड़े रहने, बैठना, विहार और धर्म देशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते है । = प./२/१ स्यावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थ उपयस्थापयति ।। जाननेरूप अपनी शक्तिके क्षयोपशमरूप अपनी योग्यतासे ही ज्ञान घटपटादि पदार्थों की खुदी ही रीतिसे व्यवस्था कर देता है। इसलिए विषय तथा प्रकाश आदि उसके कारण नहीं है। (रतो. मा/२/२/६/२०-४९/३१४) (स्लोबा/२/६/२६/३०७/२३ ) ( प्रमाण परीक्षा/पृ.२.६७); (प्रमेय कमल मार्तण्ड पृ. १०५): (ग्या.वी./२/१५/२०); (स्या.म./१६/२०६/१० ) पं. का/ता.वृ./१०६/१६८/१२ शुद्धात्मस्वभाव रूपव्यक्तियोग्यतासहितानां भव्यानामेव न च शुद्धात्मरूपव्यक्तियोग्यता रहितानामभव्यानाय । शुद्धात्मस्वभावरूप व्यक्तियोग्यता सहित भव्योंको ही वह चारित्र होता है, शुद्धात्मस्वभावरूप व्यक्तियोग्यता रहित अभक्योंको नहीं। गो.जी./जी.प्र./१८०/९०२२/१० में उत-निमित्तान्तर योग्यता वस्तुनि स्थिता बहिनिश्चयकालस्तु निश्चितं समदर्शिभिः ॥१॥ सोहि वस्तुविषे विठती परिणमनरूप जो योग्यता सो अन्तरंग निर्मित है बहुरि तिस परिणमनका निश्चयकाल माह्य निमित्त है, ऐसे तत्त्वदर्शीनिकरि निश्चय किया है। ९. निमित्तके सद्भावमें भी परिणमन तो स्वतः ही होता है प्र.सा./त.प्र./६५ द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचित हिरङ्गसाधनसंनिधिसद्भावे विचित्रत्र हुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरणसामर्थ्यस्वभावेनान्तरसाधनतामुपागतेनानुगृहीतमुत्तरावस्थयत्पद्यमानं तेनोत्पादन लक्ष्यते । जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सानिध्य सद्भाव में अनेक प्रकारकी बहुत-सी अवस्थाएँ करता है यह अन्तरंग साधन स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरण के सामर्थ्यरूप स्वभावसे अनुगृहीत होनेपर उत्तर अवस्था उत्पन्न होता हुआ उत्पादने लक्षित होता है (प्र. सा./त.प्र./ ६६, १२४ ) । पं.का./त.प्र./०६ शब्द योग्यवर्गगाभिरन्योन्यमनुप्रविश्य समन्ततोऽभिव्यान्य पूरितेऽपि सकले लोके यत्र यत्र बहिरङकारणसामग्री समुदेति तत्र तत्र ताः सन्दरमेन स्वयं व्यपरिणमन्त इति शब्दस्य नियतमुत्पाद्यत्वात । स्कन्धमभवत्वमिति एक दूसरेमें प्रविष्ट होकर सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित ऐसी जो स्वभाव निष्पन्न अनन्तपरमाणुमयी शब्दयोग्य वर्गणाएँ उनसे समस्त लोक भरपूर होनेपर भी जहाँ-जहाँ महिरंग कारणसामग्री उचित होती है वहाँ वहाँ के वर्गणाएँ शब्दरूपसे स्वयं परिणमित होती है; इसलिए शब्द नियतरूपसे उत्पाद होनेसे स्कन्धजन्य है ( और भी दे० कारण / IIT /३/१ ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश B Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. उपादानकी कथंचित् परतन्त्रता II कारण ( उपादानकी मुख्यता गौगता) २. उपादानको कथंचित् प्रधानता १. उपादानके अभाव में कार्यका भी अमाव घ./६/४, १, ४४/११५/७ ण चोवायाणकारणेण विणा कज्जुप्पत्ती, विरोहादो। = उपादान कारणके बिना, कार्यकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा होनेमें विरोध है। पं. का./ता. वृ./६०/११२/१२ परस्परोपादानकतृत्व खलु स्फुटम् । नैव विनाभूते संजाते तु पुनस्ते द्रव्यभावकर्मणी द्वे । के विना । उपादानकर्तारं विना, कितु जीवगतरागादिभावानां जीव एव उपादानकर्ता द्रव्यकर्मणां कर्मवर्गणायोग्यपुद्गल एवेति । =जीव व कर्म में परस्पर उपादान कर्तापना स्पष्ट है, क्योंकि विना उपादानकतकि वे दोनों द्रव्य व भाव कम होने सम्भव नहीं हैं। तहाँ जीबगत रागादि भावकर्मोका तो जीव उपादानकर्ता है और द्रव्य कर्मोंका कर्मवर्गणा योग्य पुद्गल उपादानकर्ता है। प्र.सा./त.प्र./२३८ आगमज्ञानतत्त्वार्थ श्रद्धानसंयतत्वयोगपद्य'ऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् । == आगम ज्ञान तन्वार्थ श्रद्वान और संतत्वकी युगपतता होनेपर भी आत्मज्ञानको ही मोक्षमार्गका साधकतम संमत करना। स्या.म./७/६३/२२ पर उधृत-अव्यभिचारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोsन्तरङ्गश्च । - अव्यभिचारी, अविकल, असाधारण और अन्तरंग अर्थ को मुख्य कहते हैं। स्व. स्तो./५६ की टीका पृ. १५६ अनेन भक्तिलक्षणशुभपरिणामहीनस्य पूजादिकं न पुण्यकारणं इत्युक्तं भवति। तत अभ्यन्तरङ्गशुभाशुभजीवपरिणामलक्षणं कारणं केवलं बाह्यवस्तुनिरपेक्षम् । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि भक्तियुक्त शुभ परिणामोंसे रहित पूजादिक पुण्यके कारण नहीं होते हैं। अतः बाह्य वस्तुओसे निरपेक्ष जीवके केवल अन्तरंग शुभाशुभ परिणाम ही कारण है। ४. विघ्नकारी कारण भी अन्तरंग ही हैं प्र.सा./त,प्र/१२ यदयं स्वयमात्मा धर्मो भवति स खलु मनोरथ एव, तस्य त्वेका बहिर्मोदृष्टिरेव विहन्त्री। -यह आत्मा स्वयं धर्म हो, यह वास्तवमें मनोरथ है। इसमें विघ्न डालने वाली एक बहिर्मोदृष्टि २. उपादानसे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है घ./६/१,६-६/१६/१६४ तम्हा कम्हि वि अंतरंगकारणादो चेव कज्जु'प्पत्ती होदि त्ति णिच्छओ कायव्वो। - कही भी अन्तरंग कारणसे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है, ऐसा निश्चय करना चाहिए ( क्योंकि बाह्यकारणोंसे उत्पत्ति माननेमें शालोके बीजसे जौकी उत्पत्तिका प्रसंग होगा। ३. अन्तरंग कारण ही बलवान है द्र.सं./टी./३५/१४४/२ परमसमाधिदुर्लभ'। कस्मादिति चेत्तत्प्रतिबन्धकमिथ्यात्वविषयकषायनिदानबन्धादिविभावपरिणामानां प्रबलत्वादिति । = परमसमाधि दुर्लभ है। क्योंकि परमसमाधिको रोकनेवाले मिथ्यात्व, विषय, कषाय, निदानबन्ध आदि जो विभाव परिणाम है, उनकी जीवमें प्रबलता है। द्र. सं./टी./१६/२२६५ नित्यनिरञ्जननिष्क्रियनिजशुद्धात्मानुभूतिपति बन्धकं शुभाशुभचेष्टारूप कायव्यापार.. वचनव्यापारं...चित्तव्यापारच किमपि मा कुरुत हे विवेकिजना। -नित्य निरञ्जन निष्क्रिय निज शुद्धात्माकी अनुभूतिके प्रतिबन्धक जो शुभाशुभ मन वचन कायका व्यापार उसे हे विवेकीजनो । तुम मत करो। घि ) अनुभाता परिणाम उत्कृष्ट जाता ३. उपादानकी कथंचित् परतन्त्रता १. निमित्तकी अपेक्षा रखनेवाला पदार्थ उस कार्य के प्रति स्वयं समर्थ नहीं हो सकता ध./१२/४, २,७४८/३६/६ ण केवलमकसायपरिणामो चेव अणुभागधादस्स कारणं, कि पयडिगयससिसव्वपेक्रवो परिणामो अणुभागवादस्स कारणं । तत्थ वि पहाणमंतरंगकारण, तम्हि उक्कस्से सते बहिरंगकारणे थोवे वि बहुअणुभागघाददं सणादो, अंतरंगकारणे थोवे संते बहिरंगकारणे बहुए संते वि बहुअणुभागधादाणुवलंभादो। - केवल अकषाय परिणाम ही (कर्मों के ) अनुभागघातका कारण नहीं है, किन्तु प्रकृतिगत शक्तिको अपेक्षा रखनेवाला परिणाम अनुभागधातका कारण है। उसमें भी अन्तरंग कारण प्रधान है, उसके उत्कृष्ट होनेपर बहिरंगकारणकै स्तोक रहनेपर भी अनुभाग घात बहुत देखा जाता है। तथा अन्तरंग कारणके स्तोक होनेपर बहिरंग कारणके बहुत होते हुए भी अनुभागधात बहुत नहीं उपलब्ध होता। घ./१४१५, ६,६३/१०/१ ण बहिरंगहिंसाए आसवत्ताभावो। तं कुदो णव्वदे। तदभावे वि अंतरंगहिंसादो चेव सिस्थमच्छस्स बंधुवलंभादो। जेण विणा जंण होदि चेव तं तस्स कारणं । तम्हा अंतरंग हिंसा चेव सुद्धगएण हिंसा ण बहिरंगा त्ति सिद्ध । ण च अंतर गहिंसा एत्य अस्थि कसायासंजमाणमभावादो। -(अप्रमत्त जनौको) बहिरंग हिंसा आस्रव रूप नहीं होती। प्रश्न-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? उत्तर-क्योंकि बहिरंग हिसाका अभाव होनेपर भी केवल अन्तरंग हिसासे सिक्थमत्स्यके बन्धकी उपलब्धि होती है। जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है, इसलिए शुद्ध नयसे अन्तरंग हिसा ही हिंसा है, महिर ग मही यह भ त सिद्ध होती है । यहाँ ( अप्रमत्त साधुओंमें ) अन्तरंग हिंसा नही है, क्योंकि कषाय और असंयमका अभाव है। प्र.सा./त.प्र./२२७ यस्य सकलाशनसृष्णान्यत्वात स्वयमनशन एव स्वभावः। तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽन्तरङ्गस्य बलीयस्त्वात... । -समस्त अनशनकी तृष्णासे रहित होनेसे जिसका स्वयं अमशन ही स्वभाव है, वही उसके अनशन नामक तप है. क्योंकि अन्तरंगकी विशेष बलवत्ता है। स्या.म./५/३०/११ समर्थोऽपि तत्तत्सहकारिसमवधाने तं समर्थ करोतीति चेत्, न तहिं तस्य सामर्थ्यम; अपरसहकारिसापेक्षवृत्तित्वात् । सापेक्षमसमर्थम् इति न्यायात। -यदि ऐसा माना जाये कि समर्थ होनेपर भी अमुक सहकारी कारणो के मिलनेपर ही पदार्थ अमुक कार्यको करता है तो इससे उस पदार्थकी असमर्थता ही सिद्ध होती है, क्योंकि वह दूसरों के सहयोगको अपेक्षा रखता है, न्यायका वचन भी है कि "जो दूसरों की उपेक्षा रखता है । वह असमर्थ है। २. व्यावहारिक कार्य करनेमें उपादान निमित्तों के आधीन है त सू./१०/८ धर्मास्तिकायाभावात् । -धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे ___ मोघ लोकान्तसे ऊपर नहीं जाता। (विशेष दे० धर्माधर्म) पभू./सू./१/६६ अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयह वि मज्मि जिय विह आणइ विहि णेइ ।६६। हे जीव । यह आत्मा पंगुके समान है। आप न कहीं जाता है, न आता है। तीनों लोकोंमें इस जीबको कर्म ही ले जाता है और कर्म ही ले आता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III कारण ( निमित्तकी गौणता मुख्यता) ६३ १. निमित्तके उदाहरणा क जीवोंके सर्व भेद प्रभेद स्वतः नहीं है, क्योंकि परको अपेक्षाके अभावमें उन भेवो की व्यक्तिका अभाव है। इसलिए अनन्त परिणामी द्रव्य ही उन-उन सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूपसे व्यवहारमें आता है। यह बात न स्वतः होती है और न परकृत ध./१२/४, २, १३, २४३/४५३/७ कधमेगो परिणामो भिण्ण कज्जकारो। ण सहकारिकारणसंबंधभेएणतस्स तदविरोहादो। -प्रश्न-एक परिणाम भिन्न कार्योंको करनेवाला कैसे हो सकता है (ज्ञानावरणीयके बन्ध योग्य परिणाम आयु कर्मको भी कैसे माँध सकता है): उत्तर-नहीं, क्योकि, सहकारी कारणोके संबन्धसे उसके भिन्न कार्योक करनेमें कोई विरोध नही है। (पं. का./त. प्र./98/११४) -(दे० पीछे कारण/11/१/। १. उपादानको ही स्वयं सहकारी मानने में दोष आप्त. मी./२१ एवं विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत । नेत्ति चेन्न यथा कार्य बहिरन्तरुपाधिभिः ।२१। -पूर्वोक्त सप्तभंगी विष विधि निषेधकरि अनवस्थित जीवादि वस्तु हैं सो अर्थ क्रियाको करै हैं। बहुरि अन्यवादी केवल अन्तरंग कारणसे ही कार्य होना माने तैसा नाही है। वस्तु को सर्वथा सत या सर्वथा असत् माननेसे, जैसा कार्य सिद्ध होना बाह्य अन्तरंग सहकारीकारण अर उपादान कारणनि करि माना है तैसा नाही सिद्ध होय है। तिसकी विशेष चर्चा अष्टसहस्री ते जानना । (दे० धर्माधम/३ तथा काल/२) यदि उपादानको ही सहकारी कारण भी माना जायेगा तो लोक में जीव पुद्गल दो ही द्रव्य मानने होगे। आप्त. प/११४-११५/३२६६-२६०/२४६-२४७ जीव परतन्त्रोकुर्वन्ति, स परतन्त्रोक्रियते वा यस्तानि कर्माणि। तानि च पुद्गल परिणामात्मकानि जीवस्य पारतन्यनिमित्तत्वात्, निगडादिवत् । क्रोधादिभिव्यभिचार इति चेत्, न, पारतन्ध्यं हि क्रोधादिपरिणामो न पुनः पारतन्त्र्यनिमित्तम् । २६६ । ननु च ज्ञानावरण. जोवस्वरूपधातित्वात्परतन्न्यनिमित्त-वं न पुनर्नामगोत्रसद्वद्यायुषाम् तेषामात्मस्वरूपाघातित्वारपारतन्त्र्यनिमित्तत्वासिझेरिति पक्षाव्यापको हेतुः । ...न, तेषामपि जीवस्वरूपसिद्वत्वप्रतिबन्धत्वात्पारतन्त्र्यनिमित्तत्वोपपत्ते । कथमेवं तेषामघातिकमवं । इति चेत्, जोवन्मुक्तलक्षणपरमार्हन्त्यलक्ष्मीधातित्वाभावादिति न महे ।।२१७ । जो जोवको परतन्त्र करते है अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है उन्हे म कहते है। वे सब पुद्गलपरिणामात्मक है, क्योंकि वे जीवकी परतन्त्रतामें कारण हैं जैसे निगड (बेडी) आदि । प्रश्नउपर्यक्त हेतु क्रोधादिके साथ व्यभिचारी है। उत्तर-नहीं, क्योंकि जीवके क्रोधादि भाव स्वयं परतन्त्रता है, परतन्त्रताका कारण नहीं। ६२६६। प्रश्न-ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्म ही जीवस्वरूप घातक होनेसे परतन्त्रताके कारण है, नाम गोत्र आदि अधाति कर्म नहीं, क्योकि वे जीवके स्वरूपधातक नहीं हैं। अतः उनके परतन्त्रताको कारणता असिद्ध है और इसलिए ( उपरोक्त) हेतु पक्षव्यापक है। उत्तर-नही, क्योकि नामादि अघातीकर्म भी जीव सिदत्वस्वरूपके प्रतिबन्धक है, और इसलिए उनके भो परतन्त्रताकी कारणता उपपन्न है। प्रश्न- तो फिर उन्हे अघाती कर्म क्यों कहा जाता है। उत्तर--जीवन्मुक्तिरूप आहन्त्यलक्ष्मीके घातक नही हैं, इसलिए उन्हे हम अघातिकर्म कहते है। (रा. वा./५/२४/६/४८८/२०), (गो.जी./जो. प्र/२४४/५०८/२)। स. सा./आ./२७६/क २७५ न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्त । तस्मिन्निमित्तं परसंग एव, वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ।२७॥ - सूर्यकान्त मणिकी भॉति आत्मा अपनेको रागादिका निमित्त कभी भी नही होता। (जिस प्रकार वह मणि सूर्यके निमित्तसे ही अग्नि रूप परिणमन करती है, उसी प्रकार आत्माको भो रागादिरूप परिणमन करनेमे ) पर-संग ही निमित्त है। ऐसा वस्तुस्वभाव प्रकाशमान है। प्र. सा/ता. वृ/५ इन्द्रियमन परोपदेशावलोकादिबहिरङ्गनिमिसभूतात ...उपलब्धेरावधारणरूप.. यद्विज्ञानं तत्पराधीनत्वात्परोक्षमित्युच्यते। - इन्द्रिय, मन, परोपदेश तथा प्रकाशादि बहिरंग निमित्तोंसे उपलब्ध होनेवाला जो अर्थावधारण रूप विज्ञान वह पराधीन होने के कारण परोक्ष कहा जाता है। द्र. सं./टी./१४/४४/१० (जोवप्रदेशानां) विस्तारश्च शरीरनामकर्माधीन एव न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति । -(जीवके प्रदेशोका संहार तथा) विस्तार शरीर नामक नामकमके आधीन है, जीवका स्वभाव नहीं है। इस कारण जीवके शरीरका अभाव होनेपर प्रदेशों का ( संहार या) विस्तार नहीं होता है। स्व. स्तो./टी./६२/१६२ "उपादानकारणं सहकारिकारणमपेक्षते । तच्चोपादानकारणं न च सर्वेण सर्व मपेक्ष्यते। किन्तु यद्यन अपेक्ष्यमाणं दृश्यते तत्ते नापेक्ष्यते।" - उपादानकारण सहकारीकारणकी अपेक्षा करता है। सर्व ही उपादान कारणोसे सभी सहकारीकारण अपेक्षित होते हो सो भी नही। जो जिसके द्वारा अपेक्ष्यमाण होता है वही उसके द्वारा अपेक्षित होता है। ३. जैसा-जैसा कारण मिलता है वैसा वैसा ही कार्य होता है III निमित्तको कथंचित् गौणता मुख्यता १. निमित्तके उदाहरण १. पदव्योंका परस्पर उपकाय उपकारक भाव त. सू./५/१७-२२ गतिस्थित्युपग्रही धर्माधर्मयोरुपकारः ।११ आकाशस्यावगाहः ।१८। शरीरवाड्मनःप्राणापाना' पुद्गला नाम ।१६। मुखदुखजोवितमरणोपग्रहाश्च ।२०। परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।२३। बर्तनापरिणामकिया परत्वापरत्वे च कालस्य ।२२। =(जीव व पुदगलकी) गति और स्थितिमें निमित्त होना यह क्रमसे धर्म और अधर्म द्रव्यका उपकार है ।१७। अवक श देना आकाशका उपकार है ।१८। शरीर, वचन, मन और प्राणापान पुद्गलोका उपकार है ।१६। सुख दुःख जीवन और मरण ये भी पुहगलोंके उपकार हैं ।२०। परस्पर निमित्त होना यह जोबोका उपकार है ।२१। वर्तना परिणाम क्रिया परत्व और अपरत्व ये कालके उपकार है ।२०। (गो. जी./मू/०५ ६०६/१०५०, १०६०), ( का अ./५/२०८-२१०) स. सि./५/२०/२८१/२ एतानि सुखादोनि जोवस्य पुद्गलकृत उपकारः, मूत्तिमद्धे तुसंनिधाने सति तदुत्पत्तेः । ...पुद्गलानां पुदगलकृत उपकार इति। तद्यथा-कंस्यादीनां भस्मादिभिर्जलादीनां कतकादिभिरय प्रभृतीनामुदकादिभिरुपकार' क्रियते। च शब्द:.. अन्योऽपि पुद्गलकृत उपकारोऽस्तीति समुच्चीयते। यथा शरीराणि एवं चक्षुरादोनीन्द्रियाण्यपीति।२०। ...परस्परोपग्रह। जीवानामुपकारः। कः पुनरसौ । स्वामी भृत्य', आचार्यः शिष्य इत्येवमादिभावेन वृत्तिः परस्परोपग्रहः । स्वामी तावद्विस्तत्यागादिना भृत्यानामुपकारे वर्तते । भृत्याश्च हितप्रतिपादनेनाहितप्रतिपेधेनच । आचार्य उपदेशदर्शनेन... क्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणामनुग्रहे वर्तते। शिष्या अपि तदानुकूलवृत्त्या आचार्याणाम् । .. पूर्वोक्तसुरवादिचतुष्टयप्रदर्शनार्थ पुनः रा. वा./४/४२/७/२५१/१२ नापि स्वत एव, परापेक्षाभावे तद्व्य क्त्यभावात् । तस्मात्तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणं प्रतीत्य तत्तद्रूपं वक्ष्यते। न तत् स्वत एव नापि परकृतमेव । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iii कारण ( निमित्तको गौणता मुख्यता ) १. निमित्तके उदाहरण ध्वनिमें प्रवृत्ति किस कारणसे होती है ? उत्तर-भव्य जीवोंके पुण्यकी प्रेरणासे। ४. निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध 'उपग्रह वचनं क्रियते। सुखादीन्यपि जीवानां जीवकृत उपकार इति ।२१ -ये सुखादिक जीवके पुद्गलकत उपकार हैं, क्योंकि मूर्त कारणोंके रहनेपर हो इनको उत्पत्ति होती है । (इसके अतिरिक्त) पुद्गलोंका भी पुद्गलकृत उपकार होता है। यथा-कांसे आदिका पदयकोला _माहिका राख आदिके द्वारा, जल आदिका कतक आदिके द्वारा और लोहे आदिका जल आदिके द्वारा उपकार किया जाता है। पुद्गलकृत और भी उपकार हैं, इसके समुच्चयके लिए सूत्रमें 'च' शब्द दिया है। जिस प्रकार शरीरादिक पुद्गलकृत उपकार हैं उसी प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी पुदगलकृत उपकार हैं। परस्परका उपग्रह करना जोवोंका उपकार है। जैसे स्वामी तो धन आदि देकर और सेवक उसके हितका कथन करके तथा अहितका निषेध करके एक दूसरेका उपकार करते है। आचार्य उपदेश द्वारा तथा क्रियामें लगाकर शिष्योका और शिष्य अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा आचार्यका उपकार करते है। इनके अतिरिक्त सुख आदिक भो जीवके जीवकृत उपकार है। (गो. जी./ जी. प्र/६०५-६०६/१०६०-१०६२) (का. अ./टी./२०८-२१०) बसु, श्रा./३४ जोवस्सुवयारकरा कारणभूया हु पंचकायाई । जोबो सत्ता भूओ सो ताणं ण कारण होइ ।३४॥ व्र.सं./टी./अधि. २ की चूलिका/०८/२ पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि व्यवहारनयेन जोवस्य शरोरवाइमन प्राणापानादिगतिस्थित्यवमाहवर्तनाकार्याणि कुर्वन्तोति कारणानि भवन्ति । जीवद्रव्यं पुनर्यद्यपि गुरुशिष्यादिरूपेण परस्परोपग्रहं करोति तथापि पुद्ग लादिपञ्चद्रव्याणां किमपि न करोतीत्यकारणम् । -पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये पाँचों द्रव्य जीवका उपकार करते हैं, इसलिए वे कारणभूत हैं, किन्तु जीव सत्तास्वरूप है उनका कारण नहीं है ।३४। उपरोक्त पानी द्रव्यों में-से व्यवहार नयकी अपेक्षा जाव के शरीर, वचन, मन. श्वास, निःश्वास आदि कार्य तो पुदगल द्रव्य करता है। और गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तनारूप कार्यक्रमसे धर्म, अधर्म, आकाश और काल करते हैं। इसलिए पुदगलादि पाँच द्रव्य कारण हैं। जीव द्रव्य यद्यपि गुरु शिष्य आदि रूप से आपसमें एक दूसरेका उपकार करता है, फिर भी पुद्गल आदि पाँचों द्रव्योंके लिए जोव कुछ भी नहीं करता, इसलिए वह अकारण है। (पं का./जा./२/५७/१२)। स. सा./मू/३१२-३१३ चेया उ पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ। पयडी वि चेयय? उप्पज्जइ विणस्सइ ।३१२। एवं वंधो उ दुण्ह बि अण्णोvणपच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे ।३१३॥ --आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे उत्पन्न होता है और नष्ट होता है तथा प्रकृति भी आत्माके निमित्तसे उत्पन्न होती है तथा नष्ट होती है। इस प्रकार परस्पर निमित्तसे दोनों ही आत्माका और प्रकृतिका बन्ध होता है, और इससे संसार होता है। ध /२/१, १/४१२/११ तथोच्छवासनिःश्वासप्राणपर्याप्तयोः कार्यकारणयोरात्मपुद्गलोपादानयोर्भेदोऽभिधातव्य इति। - उच्छ्वासनिःश्वास प्राण कार्य है और आत्मा उपादान कारण है तथा उच्छवासनिःश्वासपर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपादाननिमित्तक है। स. सा./आ./२८६-२८७ यथाध कर्म निष्पन्नमुद्दे शनिष्पन्न च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भाव न प्रत्याचष्टे.. इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पृद्धगलद्रव्यं निमित्तभूत प्रत्याचक्षाणो नै मित्तिकभूत बन्धसाधकं भाव प्रत्याचष्टे । .. एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनैमित्तिकभावः । = जैसे अध' कार्यसे उत्पन्न और उद्देश्यसे उत्पन्न हुए निमित्तभूत (आहारादि) पुद्गल द्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा न मित्तिकभूत बन्ध साधक भावका प्रत्यारव्यान नहीं करता, इसी प्रकार समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्तसे होनेवाले भावको (भी) नहीं त्यागता। ...इस प्रकार तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्यका प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा, जैसे नैमित्तिक भूत बन्धसाधक भावका प्रत्याख्यान करता है, उसी प्रकार समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान करता है। इस प्रकार द्रव्य और भावको निमित्तनैमित्तिकपना है। स. सा./आ./३१२-३१३ एवमनयोरात्मप्रकृतयो कत कर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनै मित्तिकभावेन द्वयोरपि बन्धो दृष्टः, ततः संसारः, तत एव च कतृ कर्मव्यवहार । -यद्यपि उन आत्मा और प्रकृतिके कर्ताकर्मभावका अभाव है तथापि परस्पर निमित्तनै मित्तिकभावसे दोनोके बन्ध देखा जाता है। इससे संसार है और यह हो उनके कर्ताकर्मका व्यवहार है । (प. घ/उ./१०७१) स. सा./आ./३४६-३५० यतो खलु शिल्पो सुवर्ण कारादिः कुण्डलादि परद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति...न त्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनै मित्तिकभावमात्रेणेव तत्र कतृकर्मभोक्त्रभोग्यत्वव्यवहारः। =जैसे शिल्पी (स्वर्णकार आदि ) कुण्डल आदि जो परद्रव्य परिणामात्मक कर्म करता है, किन्तु अनेक द्रव्यत्वके कारण उनसे अन्य होनेसे तन्मय नही होता; इसलिए निमित्तनै मित्तिक भावमात्रसे हो वहाँ कत-कर्मत्वका और भाक्ताभोक्तृत्वका व्यवहार है। ५. अन्य सामान्य उदाहरण स. सि./३/२७/२२३/२ किहेतु को पुनरसौ । कालहेतुको। =ये वृद्धि हास काल के निमित्तसे होते है । (रा. वा /३/२७/१६१/२६) ज्ञा /२४/२० शाम्यन्ति जन्तवः क्रूरा बद्धवैरा परस्परम् । अपि स्वार्थ प्रवृत्तस्य मुनेः साम्यप्रभावत' ।२०। -इस साम्यभावके प्रभावसे अपने स्वार्थ में प्रवृत्त मुनिके निकट परस्पर वैर करनेवाले कर जीव भी साम्यभावको प्राप्त हो जाते है। २.द्रव्य क्षेत्र काल माव रूप निमित्त क. पा. १/२४५/२८६/३ पागभावो कारणं । पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल-भवावेक्वाए जायदे। तदोण सम्बद्ध' दब्बकम्माह सगफलं कुणं ति ति सिद्ध। प्रागभावका विनाश हुए बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है और प्रागभावका विनाश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भवकी अपेक्षा लेकर होता है। इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्यको उत्पन्न नहीं करते हैं, यह सिद्ध होता है। (दे०बन्ध/३) कर्मोंका बन्ध भी द्रव्य क्षेत्र काल व भवको अपेक्षा लेकर होता है। (दे० उदय/२/३) कर्मोक्का उदय भी द्रव्य क्षेत्र काल ब भवकी अपेक्षा लेकर होता है। ३. निमित्तकी प्रेरणासे कार्य होना स. सि./५/१६/२८६/६ तत्सामोपेतेन क्रियावतात्मना प्रेर्यमाणा' पुद्गला बाक्त्वेन विपरिणमन्त इति। -इस प्रकारकी (भाव वचनकी) सामर्थ्य से युक्त क्रियावाले आत्माके द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल वचनरूपसे परिणमन करते हैं। (गो. जी./जी. प्र./६०६/१०६२/३)। ६. का./ता. वृ./१/६/१५ वीतरागसर्वज्ञदिव्यध्वनिशास्त्रे प्रवृत्ते किं कारणं । भव्यपुण्यप्रेरणात् । = प्रश्न-वीतराग सर्वज्ञ देवकी दिव्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. निमित्तकी कथंचित गौणता III कारण ( निमित्तको गौणता मुख्यता ) ६५ २. निमित्तकी कथंचित् गौणता १. सभी कार्य निमित्तका अनुसरण नहीं करते ध.६/११-६.१६/१६४/७ कुदो । पयडिबिसेसादो। ण च सव्वाई कजाई एयंतेण बज्झत्थमवेविषय चे उप्पज्जंति, सालिबोजादो जवं कुरस्स वि उप्पत्तिप्पसंगा। ण च तारिसाई दवाई तिसु वि कालेसु कहि पि अस्थि, जेसि बलेण सालिमीजस्स जवंकुरप्पायणसत्ती होज, अणबस्थापसंगादो। प्रश्न-(इन सर्व कर्मप्रकृतियौंका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध इतना इतना ही क्यों है। जीव परिणामोके निमित्तसे इससे अधिक क्यो नही हो सकता) उत्तर-क्योकि प्रकृति विशेष होनेसे सुत्रोक्त प्रकृतियोंका यह स्थिति बन्ध होता है। सभी कार्य एकान्तसे बाह्य अर्थकी अपेक्षा करके ही नहीं उत्पन्न होते हैं, अन्यथा शालिधान्यके बीजसे जौके भी अंकुरकी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु उस प्रकारके द्रव्य तीनों ही कालोंमे किसी भी क्षेत्रमें नही है कि जिनके बलसे शालिधान्यके बीजके जौके अंकुरको उत्पन्न करनेकी शक्ति हो सके । यदि ऐसा होने लगेगा तो अनवस्था दोष प्राप्त होगा। २. धर्मादि द्रव्य उपकारक हैं प्रेरक नहीं पं.का./मु /८८-८६ ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स। हबदिगदिस्स पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च ।८८। विज्जदि जसि गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि । ते सगपरिणामे हि दु गमणं ठाणं च कुब्यति ।८। -धर्मास्तिकाय गमन नहीं करता और अन्य द्रव्यको गमन नहीं कराता। वह जीवों तथा पुद्गलोको गतिका उदासीन प्रसारक ( गति प्रसारमें उदासीन निमित्त) है।। जिनको गति होती है उन्हीको स्थिति होती है । वे तो अपने-अपने परिणामों से गति और स्थिति करते है । ( इसलिए धर्म व अधर्म द्रव्य जीव पुद्गल की गति व स्थितिमे मुख्य हेतु नहीं (त, प्र.टी.)। रा.वा./५/७/४-६/४४६ निष्क्रियत्वात गतिस्थिति-अवगाहनक्रियाहेतुत्वाभाव इति चेत्न, बलाधानमात्रत्वादिन्द्रियवत् ।४। यथा दिदृक्षोश्चक्षुरिन्द्रियं रूपोपलन्धी बलाधानमात्रमिष्ट न तु चक्षुष. तत्सामर्थ्यम् इन्द्रियान्तरोपयुक्तस्य तद्भावात्। तथा स्वयमेव गतिस्थित्यवगाहनपर्यागपरिणामिनां जीवपुद्गलानां धर्माधर्माकाशद्रव्याणि गत्यादिनिवृत्तौ बलाधानमात्रत्वेन विवक्षितानि न तु स्वयं क्रियापरिणामी नि। कुत पुनरेतदेवमिति चेत् । उच्यते-द्रव्यसामथ्यात् ।। यथा आकाशमगच्छत् सर्व द्रव्य संबद्धम, न चास्य सामथ्यमन्यस्यास्ति । तथा च निष्क्रियत्वेऽप्येषां गत्यादिक्रियानिवृत्ति प्रति बनाधानमात्रस्वमसाधारणमवसेयम् । रा.वा /५/१७/१६/४६२/५ तयो. कर्तृत्वप्रसग इति चेत्, न, उपकारवचनाद् यष्टयादिवत ।१६। -जीवपुद्गलानो स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मों उपकारको न प्रेरको इत्युक्तं भवति । ततश्च मन्यामहे न प्रधानकर्तारौ इति 1१७) प्रश्न-क्रियावाले ही जलादि पदार्थ मछली आदिकी गति और स्थितिमें निमित्त देखे गये है, अत' निष्क्रिय धर्माधर्मादि गति स्थितिमे निमित्त कैसे हो सकते है । उत्तर-जे से देखने की इच्छा करनेवाले आत्माको चक्षु इन्द्रिय मलाधायक हो जाती है, इन्द्रियान्तरमे उपयुक्त आत्माको वह स्वयं प्रेरणा नहीं करती। उसी प्रकार स्वयं गति स्थिति और अवगाहन रूपसे परिणमन करनेवाले द्रव्यो की गति आदिमें धर्मादि द्रव्य निमित्त हो जाते है, स्वयं क्रिया नही करते। जैसे आकाश अपनी द्रव्य सामध्यसे गमन न करनेपर भी सभी द्रव्योसे सम्बद्ध है और सवंगत कहलाता है, उसी तरह धर्मादि द्रव्योको भी गति आदि में निमित्तता समझनी चाहिए। जैसे यष्टि चलते हुए अन्धेको उपकारक है उसे प्रेरणा नही करतो उसी प्रकार धर्मादिकोको भी उपकारक कहनेसे उनमे प्रेरक कतृत्व नहीं आ सकता। इससे जाना जाता है कि ये दोनो प्रधान कर्ता नही है। (रा.बा./२/१७/२४/४६३/३१)। गो.जी/मू./५७०/१०१५ य ण परिणमदि समं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णे हि। विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेतु ।५७०। - काल न तो स्वयं अन्य द्रव्यरूप परिणमन करता है और न अन्यको अपने रूप या किसी अन्य रूप परिणमन कराता है । नाना प्रकारके परिणामो युक्त ये द्रव्य स्वयं परिणमन कर रहे हैं, उनको काल दब्य स्वयं हेतु या निमित्त मात्र है। पं.क./ता.वृ/२४/१०/११ सर्व द्रव्याणां निश्चयेन स्वयमेव परिणम गच्छन्तां शीतकाले स्वयमेवाध्ययन क्रिया कुर्वाणस्य पुरुषस्याग्निसहकारिवत् स्वयमेव भ्रमण क्रिया कुर्वाणस्य कुम्भकारचक्रस्याधस्तनशिलासहकारिवद्गबहिरङ्गनिमित्तत्वाद्वर्तनालक्षणश्च कालाणुरूपो निश्चयकालो भवति। -सर्व द्रव्यों को जो कि निश्चयसे म्वयं ही परिणमन करते है, उनके बहिरंग निमित्त रूप होनेसे वर्तना लक्षणवाला यह कालाणु निश्चयकाल होता है । जिस प्रकार शीतकाल में स्वयमेव अध्ययन क्रिया परिणत पुरुषके अग्नि सहकारी होती है, अथवा स्वयमेव भ्रमण क्रिया करनेवाले कुम्भारके चक्रको उसकी अधस्तन शिला सहकारी होती है, उसी प्रकार यह निश्चय कालद्रव्य भी, स्वयमेव परिणमनेवाले द्रव्योंको बाह्य सहकारी निमित्त है। (पं का./ता.वृ /८/१४२/१५)। ३. अन्य भी उदासीन कारण धर्मद्रव्यवत् ही जानने इ. उ/मू /३५ नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति । निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेधर्मास्तिकायवत। जो पुरुष अज्ञानी या तत्त्वज्ञानके अयोग्य है वह गुरु आदि परके निमित्तसे विशेष ज्ञानी नही हो सकता। और जो विशेष ज्ञानी है, तत्त्वज्ञानकी योग्यतासे सम्पन्न है वह अज्ञानी नहीं हो सकता। अतः जिस प्रकार धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलोके गमनमें उदासीन निमित्तकारण है, उसी प्रकार अन्य मनुष्यके ज्ञानी करने में गुरु आदि निमित्त कारण हैं। पं का /ता वृ/८/१४२/१५ धर्मस्य गतिहेतुत्वे लोकप्रसिद्धदृष्टान्तमाह उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहर...भव्याना सिद्धगतेः पुण्यवत... अथवा चतुर्ग तिगमनकाले व्यलिङ्गादिदानपूजादिकं वा बहिरड्गसहकारिकारणं भवति ।८५। - धर्म द्रव्यके गति हेतुत्वपनेमें लोकप्रसिद्ध दृष्टान्त कहते है-जैसे जल मछलियो के गमनमें सहकारी है (और भी दे० धर्माधर्म/२), अथवा जैसे भव्योको सिद्ध गतिमें पुण्य सहकारी है. अथवा जैसे सर्व साधारण जीवोंको चतुर्गति गमनमें द्रव्य लिग व दान पूजादि बहिरंग सहकारी कारण है; (अथवा जैसे शीतकालमे स्वयं अध्ययन करनेवालेको अग्नि सहकारी है, अथवा जैसे भ्रमण करनेवाले कुम्भारके चक्रको उसकी अधस्तन शिला उदासीन कारण है (पं.का /ता वृ/५०/११-दे० पीछेवाला शीर्षक)-उसी प्रकार जोव पुद्गलकी गतिमें धर्म द्रव्य सहकारी कारण है। द्र सं/टी./१८/५६/६ सिद्धभक्तिरूपेणेह पूर्व सविकल्पावस्थाया सिद्धोऽपि यथा भव्याना बहिरंगसहकारिकारणं भवति तथै ब.. अधर्मद्रव्यं स्थिते सहकारिकारण। -सिद्ध भक्तिके रूपसे पहिले सविकल्पा वस्थामे सिद्ध भगवान भी जैसे भव्य जीवोके लिए बहिरंग सहकारी कारण होते है, तैसे ही अधर्म द्रव्य जीवपुद्गलोंको ठहरनेमें सहकारी कारण होता है। ४. बिना उपादानके निमित्त कुछ न करे ध.१/१,१.१६३/१०३/१२ मानुषोत्तरात्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात् । न हि स्वतोऽसमर्थोऽभ्यतः समर्थो भवत्यत्तिप्रसंगात । - मानुषोत्तर पर्वतके उस तरफ देवों की प्रेरणासे भी मनुष्योका गमन नहीं हो सकता। ऐसा न्याय भी है जो स्वतः असमर्थ होता है वह दूसरो के सम्बन्धसे भी समर्थ नही हो सकता। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-९ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III कारण ( निमित्तकी गौणता मुख्यता ) बोपा / ६०/५० १५३ / ९४ पं जयचन्द - अपना भला बुरा अपने भावनि के अधीन है। उपादान कारण होय तो निमित्त भो सहकारी होय । अर उपादान न होय तौ निमित्त कछू न करे है । (भापा / २ / पं. जयचन्द / पृ० १५६/२) (और भी दे० कारण/II/१/७) । ५. सहकारी कारणको कारण कहना उपचार है रा. वा. हि/६/२७/७२६ मे श्लो. वा से उद्धृत - अन्यके नेत्रनिको ज्ञानका कारण सहकारीमात्र उपचारकरि कहा है । परमार्थते ज्ञानका कारण आत्मा ही है । दे० कारण /11/१/७ में श्लो० वा० । ६. सहकारी कारण कार्यके प्रति प्रधान नहीं है सम्यग्दर्शनपरिणाम रा.वा./१२/२/१४/२०/१८ वान्यन्दर आस्मीय प्रधानम् सति तस्मिन् बाह्यस्योपावाद तो बाह्य आभ्यन्तर स्याहरू पारार्थेन वर्तत इत्यप्रधानम् सम्यग्दर्शनपरिणाम । रूप आभ्यन्तर आत्मीय भाव ही तहाँ प्रधान है कर्म प्रकृति नही । क्योंकि उस सम्यग्दर्शनके होनेपर वह तो उपग्राहक मात्र है इसलिए बाह्य कारण आभ्यन्तरका उपग्राहक होता है और परपदार्थ रूपसे वर्तन करता है. इस लिए अप्रधान होता है। ७. सहकारीको कारण मानना सदोष है स सा./आ.२६५ न च बन्धहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्य वस्तु बन्धहेतु' स्यात् ईसमितिपरिणतपाद्यमान वेगापतत्कालोदिमावस्तुनो बन्धहेतुहेतोरन्धहेतुत्वेन बन्धहेतुत्व स्थानकात । - यद्यपि बाह्य वस्तु बन्धके कारणका ( अर्थात् अध्यवसानका ) कारण है, तथापि वह बन्धका कारण नहीं है। क्योंकि ईयसमितिमे परिणमित मुनीन्द्रके चरणसे मर जानेवाले किसी कालप्रेरित जीवकी भाँति बाह्य वस्तुको बन्धका कारणत्त्र माननेमें अनैकान्तिक हेत्वाभासत्व है। अर्थात व्यभिचार आता है तो वा/२/१/६/२१/३०३/१९) प. ८०१ अभिप्रेतमे स्वस्थितिकरणं स्वत न्यायान्तरिचदत्रापि हेतुस्तत्रानव स्थिति |८०१ | = इस स्वस्थितिकरण के विषय में इतना ही अभिप्राय है कि स्थितिकरण स्वयमेव ही होता है। यदि इसका भी न्यायानुसार कोई न कोई कारण मानेगे तो अनवस्था दोष आता है | ८०१ | - ६६ ८. सहकारी कारण अहेतुवत् होता है। पं.ध. /उ./३५१,६७६ मतिज्ञानादिवेलायामात्मोपादानकारणम् । देहेन्द्रियास्तदर्थाश्च बाह्यं हेतुरहेतुवत् । ३५१ | अस्त्युपादानहेतोश्च क्षति तदति । तदापि न वहिर्वस्तु स्यात्तहेतु ६० मति ज्ञानादिके उत्पन्न होनेके समय आत्मा उपादान कारण है और इन्द्रिय तथा उन इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ केवल बाह्य हेतु है, अरा. वे अहेतुके बराबर है । ३३११ केवल अपने उपादान हेतुसे ही चारित्रको क्षति अथवा चारित्रको अक्षति होती है। उस समय भी बाह्य वस्तु उस क्षति अक्षतिका कारण नही है । और इसलिए दीक्षादेशादि देने अथवा न देनेरूप बाह्य वस्तु चारित्रको क्षति अक्षति के लिए अहेतु है | ६७ ९. सहकारी कारण तो निमित्त मात्र होता है स.सि /१/२० / १२१ / ३ ( श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमे मतिज्ञान निमित्तमात्र है ।) ( रा वा/१/२०/४/०२/२) रावा / १/२/११/२०/८ (बाह्य साधन उपकरणमात्र है ) रा. वा /५/७/४/४४६/१८ ( जीव पुद्गलको गति स्थिति आदि कराने में धर्म अधर्म आदि निष्क्रिय द्रव्य इन्द्रियवत् बलाधानमात्र है। ) २. निमित्तकी कथंचित् गीणता न च वृ./१३० मे उधृत --- ( सराग व वीतराग परिणामोको उत्पत्ति में बाह्य वस्तु निमितमात्र है।) ससा /आ /८० ( जीव व पुद्गल कर्म एक दूसरेके परिणामो मे निमित्तमात्र होते है।) (ससा आ /६१) (प्रसास १८६) (सि.उ./१२) ( ससा / ता वृ./१२५) । नं.का प्र./६० जीवके सुख-दुख में इष्टानिष्ट विषय निमित्तमात्र है का अ / मू / २१७ ( प्रत्येक द्रव्यके निज निज परिणाममे बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र है पंध. / पू / ५७६ ( सर्व द्रव्य अपने भावोके कर्ता भोक्ता है, पर भावो के मापनानिमित है।) १०. निमित्त परमार्थ में अकिंचित्कर व हेय है रावा/१/२/१३/२०/१५ ( क्षायिक सम्यक्त्व अन्तर परिणामोसे ही होता है, कर्म पुद्गल रूप बाह्य वस्तु हेय है । ससा./ता वृ/ ११६ (पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्मभावरूप परिणमित होता है । तहाँ मिति जोन पर है।) प्रसा./ता.वृ / १४३ / जीवको सिद्ध गति उपादान कारणसे ही होती है । तहाँ काल द्रव्य रूप निमित्त हेय है ) (द्र.स / टी / २२/६७/४) ११. भिन्न कारण वास्तव में कोई कारण नहीं = श्लो. वा/२/२/६/४०/३६४ चक्षुरादिप्रमाणं चेद चेतनमपीष्यते । न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित' सदा |४०| = वैशेषिक व नैयायिक लोग इन्द्रियोको प्रमितिका कारण मानकर उन्हे प्रमाण कहते है । परन्तु जड होनेके कारण वे ज्ञप्तिके लिए साधकतम करण कभी नहीं हो सकते । स. सा // २१४ आत्ममन्थयोर्द्विधा करणे कार्ये कर्तुरात्मन. करणमीमां सामा निश्चयत स्वतो भिकरणासभवाह भगवती सेनारमकं करणम् । - आत्मा और बन्धके द्विधा करनेरूप कार्य में कर्ता जो आत्मा उसके करण सम्बन्धी मीमांसा करनेपर, निश्चयसे अपने से भिन्न करणका अभाव होनेसे भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है । ससा ३०-३११ सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पादभावाभावात्। = सर्व द्रव्योका अन्य द्रव्यके साथ उत्पाद्य उत्पादक भावका अभाव है । = प.मु / २ / ६-८ नालोको कारण परिच्छेद्यत्वात्तमोत् । ६ । तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोऽण्डुक ज्ञानवन्नक्तचरज्ञानवश्च 191 अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशक प्रदीपवत् = अन्वयव्यतिरेकसे कार्यकारणभाव जाना जाता है। इस व्यवस्था के अनुसार 'प्रकाश' ज्ञानमे कारण नहीं है, क्योंकि उसके अभाव मे भी रात्रिको विचरने वाले मिली चूहे आदिको ज्ञान होता है और उसके सद्भावमें भी उस वगैरह को ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार अर्थ भी ज्ञानके प्रति कारण नहीं हो सकता, क्योंकि अर्थके अभाव मे भी शमशकादि ज्ञान उत्पन्न होता है। दीपक जिस प्रकार घटादिकोसे उत्पन्न न होकर भी उन्हें प्रकाशित करता है इसी प्रकार ज्ञान भी अर्थ से उत्पन्न न होकर उन्हें प्रकाशित करता है । (न्या. दी /२/९४-५/२६) १२. व्यके परिणमनको सर्वथा निमित्ताधीन मानना मिथ्या है ससा / मू/ १२१-१२३ण सयं बद्धो कम्मेण परिणमदि कोमादीहि । जइ एस तुझ जीमो अपरिणामी तदा होदी ११२१ अपरिणत म्ह सर्व जीवे कोहादिएहि माहि संसाररस अभागी पदे संख जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III कारण (निमितकी गौणता मुख्यता) ३. कर्म व जीवगत कारण कार्य भावकी गोणता समओ वा।१२२। सांख्यमतानुसारी शिष्यके प्रति आचार्य कहते हैं कि हे भाई! 'यह जीव कर्ममें स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भावसे स्वयं नहीं परिणमता है' यदि तेरा यह मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है और जीव स्वयं क्रोधादि भावरूप नहीं परिण - मता होनेसे संसारका अभाव सिद्ध होता है। अथवा सांख्य मतका प्रसंग आता है ।१२१-१२२१ और पुदगल कर्मरूप जो क्रोध है वह जीवको कोधरूप परिणमन कराता है ऐसा तू माने तो यह प्रश्न होता है कि स्वयं न परिणमते हुएको वह कैसे परिणमन करा सकता है।१२३॥ स.सा./आ/३३२-३३४ एवमोदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमानाः केचिच्छ्रमणाभासा' प्ररूपयन्ति; तेषां प्रकृतेरेकान्तेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकान्तेनाकतृत्वापत्तेः जीव' कर्तेति श्रुतेः कोपो दु'शक्यः परिहर्तुय । - इस प्रकार ऐसे सारख्यमतको अपनी प्रज्ञाके अपराधसे सूत्रके अर्थ को न जाननेवाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते है। उनकी एकान्त प्रकृतिके कर्तृत्वको मान्यतासे समस्त जीवोके एकान्तसे अकर्तृत्व आ जाता है। इसलिए 'जीव कर्ता है। ऐसी जो श्रुति है उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है। स.सा/आ/३७२/क.२२१ रागजन्मनि निमित्ततां पर-द्रव्यमेव कलयन्ति ये तुते। उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनी, शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः ।२२१। जो रागकी उत्पत्तिमें परद्रव्यका ही निमित्तत्व मानते है, वेजिनकी बुद्धि शुद्धज्ञानसे रहित अन्ध है मोहनदीको पार नहीं कर सकते ।२२१॥ पं.ध./पू./५६६-५७१ अथ सन्ति नयाभासा यथोपचारारब्यहेतुदृष्टान्ता'। १५६६। अपि भवति बन्ध्यवन्धकभावो यदि बानयोर्न शक्यमिति। तदनेकत्वे नियमात्तबन्धस्य स्वतोऽप्यसिद्धत्वात ५७०। अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनै मित्तिकत्वमस्ति मिथः। न यतः स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया ।५७१। = ( जीव व शरीरमें परस्पर मन्ध्यबन्धक या निमित्त नैमित्तिक भाव मानकर शरीरको व्यवहारनयसे जीवका कहना नयाभास अर्थात मिथ्या नय है, क्योकि अनेक द्रव्य होनेसे उनमें वास्तवमें बन्ध्य बन्धक भाव नहीं हो सकता। निमित्त नैमित्तिक भाव भी असिद्ध है क्योंकि स्वयं परिणमन करनेवालेको निमित्तसे क्या प्रयोजन ) ३. कर्म व जीव गत कारण कार्य भावकी गौणता १. जीवके भावको निमित्तमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमते हैं पं.का/मू./६५ अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावहि । गच्छति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा ६॥ -आत्मा अपने रागादि भावको करता है। वहाँ रहनेवाले पुद्गल अपने भावोसे जीवमें अन्योन्य अवगाहरूपसे प्रविष्ट हुए कर्मभावको प्राप्त होते है। (प्र. सा./त. प्र./९८६) स.सा./मू./८०-८१ जीवपरिणामहेदु पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तदेव जीयो वि परिणमइ ।। णवि कुबइ कम्मगुणो जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोह्र पि।८१ पुद्गल जीवके परिणामके निमित्तसे कर्मरूपमें परिणमित होते हैं और जीव भी पुद्गल कर्म के निमित्तसे परिणमन करता है 1८० जीव कर्मके गुणोको नहीं करता। उसी तरह कर्म भी जीवके गुणोंको नहीं करता। परन्तु परस्पर निमित्तसे दोनोके परिणमन जानो । ( स.सा./मू./११,१९६ ) ( स सा /आ/१०५,११६ ) (पु.सि. उ./१२) प्र.सा/त.प्र./१८७ यदायमात्मा रागद्वेषवशीकृतः शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ग्रे योगद्वारेण प्रविशन्तः कर्मपुद्गला' स्वयमेव समुपा त्तवैचित्र्यै निावरणादिभाव परिणमन्ते । अतः स्वभावकृतं कर्मणां वैचित्र्यं न पुनरात्मकृतम् । = ( मेघ जलके संयोगसे स्वत. उत्पन्न हरियाली व इन्द्रगोप आदिवत ) जब यह आत्मा रागद्वेषके वशीभूत होता हुआ शुभाशुभ भावरूप परिणमित होता है तब अन्य, योगद्वारोंसे प्रविष्ट होते हुए कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रताको प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते है। इससे कर्मोंकी विचित्रताका होना स्वभावकृत है किन्तु आत्मकृत नहीं। प्र.सा./त.प्र./१६६ जीवपरिणाममात्र बहिरङ्गसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मवपरिणमनशक्तियोगिनः पुद्गलस्कन्धा' स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति ।-बहिरंगसाधनरूपसे जीवके परिणामोंका आश्रय लेकर, जीव उसको परिणमानेवाला न होनेपर भी, कर्मरूप परिणमित होनेकी शक्तिवाले पुद्गलस्कन्ध स्वयमेव कर्मभावसे परिणमित होते है। (पं.का/त./प्र./६५-६६ ). (स.सा./आ./६१) पं.ध./उ./२६७ सति तत्रोदये सिद्धाः स्वतो नोकर्मवर्गणाः । मनो देहेन्द्रियाकारं जायते तन्निमित्ततः ॥२६७१-उस पर्याप्ति नामकर्मका उदय होनेपर स्वयंसिद्ध आहारादि नोकर्मवर्गणाएँ उसके निमित्तसे मन देह और इन्द्रियोंके आकार रूप हो जाती हैं। २. ११वें गुणस्थानमें अनुमागोदयमें हानिवृद्धि रहते हुए भी जीवके परिणाम अवस्थित रहते हैं ल. सा./जी. प्र./३०७/३८६ अत. कारणादवस्थितविशुद्धिपरिणामेऽप्यु पशान्तकषाये एतच्चतुस्त्रिशत्प्रकृतीनां अनुभागोदयस्त्रिस्थानसंभवी भवति, कदाचिद्धीयते, कदाचिद्वर्धते, कदाचिद्धानिवृद्धिभ्यां बिना एकादश एवावतिष्ठते।-(यद्यपि तहाँ परिणामोकी अवस्थितिके कारण शरीर वर्ण आदि २५ प्रकृतियें भी अवस्थित रहती हैं परन्तु) अवशेष ज्ञानावरणादि ३४ प्रकृतियें भवप्रत्यय हैं। उपशान्तकषायगुणस्थानके अवस्थित परिणामों की अपेक्षा रहित पर्यायका ही आश्रय करके इनका अनुभाग उदय इहाँ तीन अवस्था लिए है। कदाचित हानिरूप हो है, कदाचित् वृद्धिरूप हो है, कदाचित् अवस्थित जैसाका तैसा रहे है। ३. जीव व कर्म में बध्यघातक विरोध नहीं है यो. सा./अ/8/४६ न कर्म हन्ति जीवस्य न जीवः कर्मणो गुणान् । बध्यघातकभावोऽस्ति नान्योन्यं जीवकर्मणो । न तो कर्म जीवके गुणोंका घात करता है और न जीव कर्मके गुणोंका पात करता है। इसलिए जीव और कर्मका आपसमें बध्यघातक सम्बन्ध नहीं है। ४. जीव व कर्ममें कारणकार्य मानना उपचार है ध.६/१/8,१-८/११/५ मुह्यत इति मोहनीयम् । एवं संते जीवस्स मोहणी यत्तं पसज्ज दि त्ति णासंकणिज्जं, जीवादो अभिणम्हि पोग्गलदवे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तथा उत्तीदो। जो मोहित होता है वह मोहनीय कम है। प्रश्न-इस प्रकारकी व्युत्पत्ति करनेपर जीवके मोहनीयत्व प्राप्त होता है। उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए; क्योंकि, जीवसे अभिन्न और कर्म ऐसी संज्ञावाले पुद्गलकर्म में उपचारसे कर्मत्वका आरोपण करके उस प्रकारकी व्युत्पत्ति की गयी है। प्र. सात प्र /१२१-१२२ तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाइद्रव्यकर्मकर्ताप्युपचारात ।१२। परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण एवं कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मणः । .. परमार्थात पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता, न त्वात्मात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मणः ।१२२१ = आत्मा भी अपने परिणामका कर्ता होनेसे द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचारसे है ।१२१॥ परमार्थ त. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III कारण (निमितकी गौणता मुख्यता ) आरमा अपने परिणामस्वरूप भावकर्मका ही कहा है किन्तु परिणामस्वरूप प्रव्यकर्मका नही |... इसी प्रकार) परमार्थत पुदगल अपने परिणामस्वरूप उस प्रव्यकर्मका ही पता है किन्तु आत्मा के परिणामस्वरूप भावकर्मका कर्ता नही है । १२२ । (स.सा./ मु. / १०३) कि ५. ज्ञानियोंका कर्म अकिंचित्कर है। स. सा / मू/ १६६ पुढीपिडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु सरीरेण से मजा सम्ये वि शागिस्स ।१६। समस्त प्रत्यय मिट्टी के ढेलेके समान है और बे धे हुए है । (विशेष दे० विभाव /४/२ ) आ. अनु / १६२-१६३ निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवित करोति विधिस्तेषां सतां ज्ञानैकचक्षुषाम् ॥ १६२॥ जीविताशा धनाशा च तेषां येषां विधिविधि कि करोति विधामा निराशा | १६-निर्धन ही जिनका धन है और मृत्यु हो जिनका जीवन है ( अर्थात् इनमें साम्यभाव रखते हैं) ऐसे साधुओको एक मात्र ज्ञानचक्षु खुल जानेपर यह दैव या कर्म क्या कर सकता है । १६२ | जिनको जीनेकी या धनकी आशा है उनके लिए ही 'देव' देव है, पर निराशा ही जिनकी आशा है ऐसे वीतरागियोको यह देव या कर्म क्या कर सकता है | १६३॥ ६. मोक्षमार्ग में आत्मपरिणामोंकी विवक्षा प्रधान है कमकी नहीं ६८ पञ्चया तस्स । कम्मउस ज्ञानी के पूर्व कार्मण शरीर के साथ रा. वा./१/२/१०-१/१०/३ ओपशमिकादिसम्यग्दर्शन मारमपरिणामवाद मोक्षकारकत्वेन वियते न च सम्यकर्मपर्याय पौगलिकरस्य परपर्यायत्वात् ॥१०॥ स्यादेतत्सम्यग्दर्शनोत्पाद आत्मनिमित्त: सम्यक्त्वपुद्गलनिमित्तश्च तस्मात्तस्यापि मोक्षकारणत्वमुपपद्यते इति; तन्न, कि कारणम्। उपकरणमात्रत्वात् । - औपशमिकादिसम्यग्दर्शन सीधे आत्मपरिणामस्वरूप होनेत मोक्षके कारणरूप से विवक्षित होते हैं, सम्यक्त्व नाम कर्मकी पर्याय नहीं क्योकि परद्रव्यकी पर्याय होनेके कारण वह तो पौद्गलिक है। प्रश्नसम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति जिस प्रकार आत्मपरिणामसे होती है, उसी प्रकार सम्यक्त्वनामा कर्मके निमित्त से भी होती है, अत उसको भी मोक्षकारणपना प्राप्त होता है। उत्तर नही, क्योंकि वह तो उपकरणमात्र है । ७. कर्मोंकी उपशम क्षय व उदय आदि अवस्थाएँ भी कथंचित् अयन साध्य हैं स.सि./२/३/१२/१० जनादिमिध्यादृष्टे व्यस्य कर्मोद गयः दितकालये सति कुतस्तदुपशमादिनिमितवादाच स्वामव... आदिशब्देन जातिस्मरणादि परिगृह्यते पश्नअनादि मिथ्यादृष्टि भव्यके कर्मोके उदयसे प्राप्त कलुषताके रहते हुए इनका उपशम कैसे होता है ? उत्तर - काललब्धि आदिके निमित्तसे इनका उपशम होता है । अब यहाँ काललब्धिको बताते है (दे० नियति २ ) । आदि शब्द से जातिस्मरण आदिका ग्रहण करना चाहिए (दे० सम्यग्दर्शन / IIT / २ ) । स.सि /१०/२/४६६/५ कर्माभावो द्विविध-यत्नसाध्योऽयत्नसाध्यश्चेति । तत्र चरमदेहस्य नारकतिर्यग्देवायुषामभावो न यत्नसाध्य' असत्वात् । मत्नसाध्य इस ऊर्ध्वमुच्यते असयतसम्यग्दृष्टचादिषु सप्तप्रकृतिक्षयः क्रियते । = कर्मका अभाव दो प्रकारका है-यत्नसाध्य और अननसाध्य इनमें से परमदेवानेके नरकादिचा और देवायुका अभाव यत्नसाध्य नहीं है, क्योंकि इसके उनका सव ४. निमितकी कथंचित् प्रधानता उपलब्ध नहीं होता । यत्नसाध्यका अभाव इनसे आगे कहते है असंयतष्टि आदि चार गुणस्थानो में सारा प्रकृतियोका क्षय करता है। आगे भी १०वे गुणस्थानमें यथायोग्य कमका क्षय करता है (दे० सत्त्व ) । पंध /उ/३७६,३२,२६ प्रयत्नमन्तरेणापि दृडमोहोपशमो भवेत् । अन्तर्मुहूर्तमात्रं च गुणश्रेण्यनतिक्रमात् ॥ ३७६ ॥ तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धान्तो मस्येतरस्य दर उदयोऽनुदयो वा स्यादनन्य गतिः स्वत ११२ असमुदयो वथानावे स्वतश्योपशमस्तथा उदय प्रथमो भूय स्यादर्वागपुनर्भवात् ॥ २६ ॥ - उक्त कारण सामग्रीके मिलते ही ( अर्थात् देव व कालादिलब्धि मिलते ही ) प्रयत्नके बिना भी गुणगी निर्जराके अनुसार केवल अन्तर्मुहूर्त कालमे ही दर्शन मोहनीयका उपशम हो जाता है । ३७६ | इसलिए यह सिद्धान्त सिद्ध होता है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही अपने आप होते हैं, एक दूसरेके निमसे नहीं ||३२| जिस तरह अनादिकाल से स्वयं मोहनीयका उदय होता है उसी तरह उपशम भी काललब्धि के निमित्तसे स्वयं होता है। इस तरह मुक्ति होनेके पहले उदय और उपशम बार-बार होते रहते हैं । ४. निमित्तकी कथचित् प्रधानता १. निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध मी वस्तुभूत है - आप्त. मी / २४ अद्वैतं कान्तपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते । कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात् प्रजायते । २४| = अद्वैत एकान्तपक्ष होनेते ( अर्थात् जगत् एक मह्मके अतिरिक्त कोई नहीं है, ऐसा माननेसे ) कर्ता कर्म आदि कारक निकै बहुरि क्रियानिके भेद जो प्रत्यक्ष प्रमाण करि सिद्ध है सो विरोध हो है बहुरि सर्वथा यदि एक ही रूप होय तौ आप हो कर्ता आप ही कर्म होय । अर आप ही तै आपकी उत्पत्ति नाहीं होय । ( और भी दे० कारण / II / ३ /२), ( अष्टसहसी पृ० १४६.१५६ ) ( स्या. म. / १६/१६७/१७१ ) श्लो वा २/१/७/१२/२६६/९ राधे उपहारनयसनामय कार्यकारणभावो द्विष्ठ संबन्ध संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुनः कल्पनारोपित = व्यवहारनयका आश्रय लेनेपर संयोग समवाय सम्बन्धोके समान दोमें ठहरनेवाला कारणकार्य भाव सम्बन्ध भी प्रतीतियों से सिद्ध होनेके कारण वस्तुभूत ही है केवल कल्पना आरोपित ही नहीं है। २. कारणके बिना कार्य नहीं होता रा.वा./१०/२/९/६४०/२० मिध्यादर्शनादीनां पूर्वोक्तानां कर्मावहेतून निरोधे कारणाभावय कार्याभाव स्वयंभिनयकर्मादानाभावः । -- मिध्यादर्शन आदि पूर्वी आसन के हेतुओका निरोध हो जानेपर नूतन कर्मो का आना रुक जाता है' क्योंकि कारण के अभाव से कार्यका अभाव होता है । " ध. १/१.१.६२/२०६/१ अप्रमादीनां संवतानां किमित्याहारककाययोगो न भवेदिति चेन्न तत्र तदुत्थापने निमित्ताभावात् । = प्रश्नप्रमादरहित संयतोके आहारककाययोग क्यों नहीं होता है ? उत्तरक्योकि तहाँ उसे उत्पन्न करानेमें निमित्तकारणका ( असंयमकी बहुलताका) अभाव है । ध. १२/४,२, १३.१०/१८२२ च कारण बियाजमुपदि अपसंगादो कारण के बिना कहीं भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि वैसा होनेमे अतिप्रसंग दोष आता है। उत्कृष्ट समश से उत्कृष्ट प्रदेश बन्घ होनेका प्रकरण है ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III कारण ( निमित्तकी मुख्यता गौणता) ४. निमित्तकी कथंचित प्रधानता मान लेनेपर भी जीवके सम्पूर्ण प्रदेशों के द्वारा रूपादिकी उपलब्धिका प्रसंग भी नहीं आता है। क्योंकि, रूपादिके ग्रहण करने में सहकारी कारणरूप बाह्य निवृत्ति (इन्द्रिय) जीवके सम्पूर्ण प्रदेशोमे नहीं पायी जाती है। ५. निमित्तके बिना केवल उपादान व्यावहारिक काय करनेको समर्थ नहीं है घ./१.६-६/६,७/४२१/३ णेरड्या मिच्छाइट्ठी कदिहि कारणेहि पढ़मसम्मत्त मुप्पदे ति। मूलसूत्र ६। उपज्जमाण सव्वं हि कज्जं कारगादो चैव उप्पज्जदि, कारणेण विणा कज्जुप्पत्तिविरोहादो। एवं णिच्छिदकारणस्स तस्संखाविसयमिद पुच्छामुत्तं । - नारकी मिथ्यादृष्टि जीव कितने कारणो से प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते है सत्र ६।। उत्पन्न होनेवाला सभी कार्य कारणसे ही उत्पन्न होता है क्योकि कारणके बिना कार्य की उत्पत्तिका विरोध है। इस प्रकार निश्चित कारणकी संख्या विषयक यह पृच्छा सूत्र है। घ.६/१,६-६,३०/४३०/१णइसग्गिमवि पढमसम्मत्तं तच्च? उत्तं तं हि एत्थेव दट्ठवं, जाइस्सरण-जिण ब्रिबर्दसणेहि विणा उप्पजमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो। - सगिक प्रथम सम्यवत्वका भी पूर्वोक्त कारणोसे उत्पन्न हुए सम्यक्त्वमे ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिए, क्योकि जाति-स्मरण और जिनमिम्बदर्शनो के बिना उत्पन्न होनेवाला प्रथम नैसर्गिक सम्यक्त्व असम्भव है। ( सम्यक्त्वके कारणों के लिए दे० सम्यग्दर्शन/III/R) ध.७/२,१,१८/७०/६ ण च कारणेण बिणा कज्जाणामुप्पत्ती अस्थि ।... तदो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि बि अस्थि त्ति णिच्छओ कायव्यो। - कारणके बिना तो कार्योकी उत्पत्ति होती नही। इसलिए जितने कार्य हैं उतने उनके कारण रूप कर्म भो है, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए। ध.६/४,१,४४/११७/६ ण च णिक्कारणाणि, कारणेण चिणा कज्जाणमुप्पत्तिविरोहादो। ण च कारण विरोहीण तक्कज्जेहि विरोहो जुज्जदे कारणविरोहादुवारेणेव सव्वत्थ कज्जेसु विरोहुवलं भादो। यदि कहा जाय कि जन्म जरादिक अकारण है, सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि, कारणके बिना कार्योकी उत्पत्तिका विरोध है जो कारणके साथ अविरोधी हैं उनका उक्त कारण के कार्योंके साथ विरोध उचित नहीं है; क्योकि, कारणके विरोधके द्वारा ही सर्वत्र कार्यों में विरोध पाया जाता है। स्या, म /१६/९१७/१७ द्विष्ठसंबन्धसंवित्ति३ करूपप्रवेदनात्। द्वयो। स्वरूपग्रहणे सति संबन्धवेदनम् । इति वचनात् । -दो वस्तुओके सम्बन्धमें रहनेवाला ज्ञान दोनों वस्तुओके ज्ञान होनेपर ही हो सकता है। यदि दोनोमेसे एक वस्तु रहे तो उस सम्बन्धका ज्ञान नहीं होता। न्या. दी./२/६४/२७ न हि किचित्स्वस्मादेव जायते। कोई भी वस्तु अपनेसे ही पैदा नहीं होती. किन्तु अपनेसे भिन्न कारणों से पैदा होती है। दे० नय/v/६५ उपादान होते हुए भी निमित्तके बिना मुक्ति नहीं। ३. उचित निमित्तके सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है प्र.सा./त.प्र /१२ द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थ समुचितबहिरङ्गसाधनसंनिधिसद्भावे . उत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते। जिसने पूर्वावस्थाको प्राप्त किया है, ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनो के सान्निध्यके सद्भावमे उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता है ! वह उत्पादसे लक्षित होता है । (प्र. सा./त प्र./१०२.१२४) । ४. उपादानकी योग्यताके सद्भाव में भी निमित्तके बिना कार्य नहीं होता ध/१/१.१,३३/२३३/२ सत्र जीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् । न सर्वावयवैः रूपाद्य पलब्धिरपि तत्सहकारिकारणबाह्यनिवृत्तेरशेषजीवावयवव्यापित्वाभावात् । -जीवके सम्पूर्ण प्रदेशो में क्षयोपशमकी उत्पत्ति स्वीकार की है। ( यद्यपि यह क्षयोपशम ही जीवकी ज्ञानके प्रति उपादानभूत योग्यता है, दे० कारण /- ) परन्तु ऐसा ।। स्व. स्तो.मू./५६ यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेनिमित्तमभ्यन्तरमूलहेतोः । अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं न ।१=जो बाह्य वस्तु गुण दोष या पुण्यपापकी उत्पत्तिका निमित्त होती है वह अन्तरंगमे बर्तनेवाले गुणदोषोकी उत्पत्तिके अभ्यन्तर मूल हेतुकी अंगभूत होती है ( अर्थात उपादानकी सहकारीकारणभूत होती है)। उस की अपेक्षा न करके केवल अभ्यन्तर कारण उस गुणदोषकी उत्पत्तिमें समर्थ नहीं है। भ.आ./वि/१०७०/११५६/४ बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृतं रागद्वेषयोर्नीज, तस्मिन्नसति सहकारिकारणे न च कर्ममात्राद्रागद्वेषवृत्तिर्यथा सत्यपि मृत्पिण्डे दण्डाद्यनन्तरकरणवैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति मन्यते। मनमें विचारकर जब जीव बाह्य परिग्रहका स्वीकार करता है तब रागद्वेष उत्पन्न होते हैं। यदि सहकारीकारण न होगा तो केवल कर्ममात्रसे रागद्वेष उत्पन्न होते नहीं। यद्यपि मृत्पिण्डसे घट उत्पन्न होता है तथापि दण्डादिक कारण नहीं होगे तो घट की उत्पत्ति नहीं होती है। ध. १/१,१,६०/२६८/१ यतो नाहारद्धिरात्मनमपेक्ष्योत्पद्यते स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । अपि तु संयमातिशयापेक्षया तस्या समुत्पत्तिरिति ।-आहारक ऋद्धि स्वत की अपेक्षा करके उत्पन्न नहीं होती है, क्योकि स्वत से स्वत' की उत्पत्तिरूप क्रियाके होने में विरोध आता है। किन्तु संयमातिशयकी अपेक्षा आहारक ऋद्धिकी उत्पत्ति होतो है। क.पा.१/१,१३-१४/६२५६/२६५/४ ण च अण्णादो अण्णाम्म कोहो ण उप्पज्जनः अक्कोसादो जीवेकम्मकलंकंकिए कोप्पत्तिदंसणादो। ण च उबलद्वे अणुबवण्णदा, विरोहादो। ण कर्ज तिरोहियं संतं आविब्भावमुवणमइ पिडवियारणे घडोवलद्धिप्पसंगादो । ण च णिच्चं तिरोहिज्जइ; अणाहियअइसयभावादो। ण तस्स आविम्भावो वि; परिणामवज्जियस्स अवत्थं तराभावादो । ण गद्दहस्स सिगं अण्णेहितो उप्पज्जइ, तस्स विसेसेणेव सामण्णसरूवेण वि पुवमभावादो। ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ सव्व काल सबस्स उप्पत्ति-अणुप्पत्तिप्पसंगादो। णाणुप्पत्ती सव्वाभावप्पसंगादो। ण चेव (बं); उवलब्भमाणत्तादो। ण सव्वकालमुप्पत्ती वि; णिच्चस्सुप्पत्तिविरोहादो। ण णिचं पि; कमाकमेहि कज्जमकुणं तस्स पमाणविसए अवट्ठाणाणुववत्तीदो। तम्हा ज्णे हितो अण्णस्स सारिच्छ-तब्भावसामण्णेहि संतस्स विसेससरूवेण असंतस्स कज्जस्सुप्पत्तीए होदबमिदि सिद्धं । = 'किसी अन्यके निमित्तसे किसी अन्य में क्रोध उत्पन्न नहीं होता है' यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि; कर्मोंसे कलंकित हुए जीवमें कटुवचनके निमित्तसे क्रोधकी उत्पत्ति देखी जाती है। और जो बात पायी जाती है उसके सम्बन्धमें यह कहना कि यह बात नहीं बन सकती, ठीक नहीं है, क्योकि ऐसा कहने में विरोध आता है। २. यदि कार्यको सर्वथा नित्य मान लिया जावे तो वह तिरोहित नहीं हो सकता है, क्योकि सर्वथा नित्य पदार्थ में किसी प्रकारका अतिशय नहीं हो सकता है। तथा नित्य पदार्थका आविर्भाव भी नही बन सकता, क्योकि जो परिणमनसे रहित है, उसमे दूसरी अवस्था नहीं हो सकती है। ३ 'कारणमें कार्य छिपा रहता है और वह प्रगट हो जाता है। ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर मिट्टीके पिण्डको विदारनेपर घडेकी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है। ४ 'अन्य कारणोंसे गधेके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III कारण ( निमित्तकी गौणता मुख्यता ) सींगकी उत्पत्ति का प्रसंग देना भी ठीक नही है, क्योकि उसका पहिले से ही जिस प्रकार विशेषरूपसे अभाव है उसी प्रकार सामान्यरूपसे भी अभाव है। इस प्रकार जब वह सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकारसे असत् है तो उसकी उत्पत्तिका प्रश्न ही नहीं उठता । ५. तथा कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है, खाँकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्योंकी उत्त्पत्ति अथमा अनुपत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है । ६. यदि कहा जाये कि कार्यको उत्पत्तिमत होओसो भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि ( सर्वदा ) कार्यकी अनुत्पति माननेपर सभी के बभावका प्रसंग प्राप्त होता है। ७. यदि कहा जाये कि सभीका अभाव होता है तो हो जाओ' सो भी कहना ठीक नहीं है, खोकि सभी पदार्थोंकी उपायी जाती है । ८. यदि ( दूसरे पक्ष मे ) यह कहा जाये कि सर्वदा सबकी उत्पत्ति होती हो रहे' सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ कमसे अथवा युगपत् कार्यको नही करता है वह पदार्थ प्रमाणका विषय नहीं होता है। इसलिए जो सादृश्यसामान्य और तद्भाव सामान्यरूपसे विद्यमान है तथा विशेष (पर्याय रूपसे अविद्यमान है ऐसे किसी भी कार्यकी किसी दूसरे कारणसे उत्पत्ति होती है यह सिद्ध हुआ। ६. निमित्तके बिना कार्योत्पत्ति माननेमें दोष क.पा.१/१,१३/३२५६/२६५/६ ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उपपत्ति- अणुप्पत्तिप्पसंगादो । कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति मानना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्योकी उत्पत्ति अथवा अनुत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है। प.सु./६/६३ समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षवाद-यदि पदार्थ स्वयं समर्थ होकर किया करते हैं तो सपा कार्यकी उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि, केवल सामान्य आदि कार्य करनेमें किसी दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखते। ७. सभी निमित्त धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं होते .का./त.प्र./८८ यथा हि गतिपरिणत प्रभब्जनो वैजयन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथा धर्मः । स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गति परिणाममेवापद्यते । कुतोऽस्य सहकारित्वेन गतिपरिणामस्य हेतुक अपि च यथा गतिपूर्ण स्थितिपरिणतिपरिणतस्तुरगोऽश्वारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकविलोक्यते न तथाधर्म निष्क्रिय उदासीन एवासी प्रसरो भवतीति । - जिस प्रकार गतिपरिणत पवन ध्वजाओंके गतिपरिणामका हेतुकर्ता ( प्रेरक ) दिखाई देता है, उसी प्रकार धर्म नहीं है । वह वास्तव में निष्क्रिय होनेसे कभी गति परिणामको ही प्राप्त नहीं होता; तो फिर उसे ( परके) सहकारीको भाँति परके गतिपरिणामका हेतुकर्तृत्व कहाँसे होगा किन्तु केवल उदासीन ही प्रसारक है और जिस प्रकार मतिपूर्वक स्थिति परिणत अस्त्र सचारके स्थिति परिणामका हेतुकर्ता (प्रेरक ) दिखाई देता है उसी प्रकार अधर्म नहीं है। यह तो केवल उदासीन ही प्रसारक है । (तात्पर्य यह कि सभी कारण धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं है । निष्क्रियकारण उदासीन होता है और क्रियावान् प्रेरक होता है ) । ५. कर्म व जीवगत कारणकार्य भावकी कथंचित् प्रधानता १. जीव व कर्ममें परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धका निर्देश मु.आ./१६७ जीवपरिणामहेदू कम्मतम पोरगला परिणति दुगागपरिषद पुण जीवो कम्मं समादियादि । जिनकों जीव के परिणाम ७० ५. कर्म व जीवगत कारणकार्य भावकी प्रधानता कारण है ऐसे रूपादिमान परमाणु कर्मस्वरूप परिणमते हैं, परन्तु ज्ञानभावकरि परिणत हुआ जीम कर्मभावकरि को नहीं ग्रहण करता । स.सा./मू./८० जीव परिणामहेद्र कम्मतं पुग्णता परिणमति पुग्यलकम्मणिमित्तं तव जीवो वि परिणमद 150/- पुद्गल जीवके परिणाम के निमित्तसे कर्मरूपमें परिणत होते हैं और जीव भी पुद्गलकर्म के निमित्तसे परिणमन करता है ( स.सा./मू./३१२-२११), (पं.का./मू. ६० ). ( न. च.वृ./८३), (यो.सा. अ/३/९-१० ) । पं.का./मू./१२८-१३० जो संसारस्यो जीवो तत्तो हो परिणामो दु परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदौ १२ गदिमधिगस्स देहो देहादो इदियाणि जायते । तेहि कु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ १२६ ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । इदि जिणवरेहि भणिदो अणादिणिधणा सणिघणो वा ११३०१ == जो वास्तव में संसार स्थित जीव है उससे परिणाम होता है, परिणामसे कर्म और कर्म से गतियोंमें गमन होता है । १२८ । गतिप्राप्तको देह होती है, देहसे इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियों और ग्रहणसे राग अथवा द्वेष होता है | १२ | ऐसे भाव संसारचक्रमें जीवको अनादिअनन्त अथवा अनादि साम्य होते रहते हैं. ऐसा जिनमरोने कहा है। १३०३ (न.च.वृ./१२१-१३३); (यो.सा.अ./४/२६.२१ तथा २/३३); (स. अनु. / १६-१६); (सा.प./६/३१ ) और भी देखो - प्रकृति बन्ध/१/६ में परिणाम प्रत्यय प्रकृतियोंके लक्षण व भेद । पं. ./१/४११००९ जीवस्याशुद्धरागादिभावानां कर्मकारणम् कर्मणस्वस्थ रागादिभावाः प्रत्युपकारिवद ॥४१॥ अस्ति सिद्ध ततोऽन्योन्यं जीवपुद्गलकर्मणोः । निमित्तनैमित्तिको भावो यथा कुम्भ कुतायोः । ९००१। परस्पर उपकारकी तरह जीवके अशुद्ध रागादि भावका कारण द्रव्यकर्म है और उस द्रव्यकर्मके कारण रागादि भाव है | ४१ | इसलिए जिस प्रकार कुम्भ और कुम्भारमें निमित्तनैमित्तिक भाव है उसी प्रकार जीव और पुद्गलात्मक कर्ममे परस्परं निमित्तनैमिचिका है यह सिद्ध होता है । १००१ (पं.प.उ./ १०६ १३१-१३२:१०६६-१०७० ) २. जीव व कमकी विचित्रता परस्पर सापेक्ष है ६. ०७/२.१.२६/७०/१ च कारमेण विणा कागमुण्यती अस्थि । वयो कज्जमेत्ताणि चैव कम्माणि वि अस्थि त्ति णिच्छओ कायब्वो । जदि एवं तो भमर-मर कर्यनादि सम्णिदेहि वि णाममेह होदव्यमिदि । ण एस दोसो इच्छिज्जमाणादो ।" कारणके बिना तो काकी उत्पत्ति होती नहीं है। इसलिए जितने (पृथिवी, अप्, तेज आदि) कार्य हैं उतने उनके कारणरूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए। प्रश्न- यदि ऐसा है तो भ्रमर, मधुकर - कदम्ब आदिक नामोंवाले भी नाम कर्म होने चाहिए ' उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह बात तो इष्ट ही है। घ. १०/४.२.२.१/१२/० जा सा गोआगमदव्यकम्मवेयणा सा अनुविहा... कुदो । अट्ठविहस्स दिस्समाणस्स अण्णाणादं सण वीरियादिअंतरायकन्जल्स अण्णावन्तोदो कारणमेवेण दिया कलभेदो अस्थि, अग्वस्थ राहावभादो-जो वह नोआगमकर्मवेदना नही है, वह ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय आदिके भेदसे आठ प्रकार की है। योंकि ऐसा नहीं माननेपर अज्ञान अदर्शन एवं वीर्यादिके अन्तराधरूप आठप्रकारका कार्य जो दिखाई देता है वह नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि यह आठ प्रकारका कार्यभेद कारणभेद के बिना भी बन जायेगा, सो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यत्र ऐसा पाया नहीं जाता। क.पा. १/११/१३७/५६ / ४ एदस्स पमाणस्स वढिहाणितरतमभावो ण ताव णिकारणो; वडूढिहाणिहि विणा एगसरूवेणावद्वाणप्पसंगादो | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III कारण ( निमित्तको गौणता मुख्यता) ५. कर्म व जीवगत कारणकार्य भावकी प्रधानता ण च एवं तहाणुवलं भादो।तम्हा सकारणाहि ताहि होदव्याजतं वढि हाणि तरतमभावकारणं तमावरण मिदि सिद्धा-इस ज्ञानप्रमाणका वृद्धि और हानिके द्वारा जो तरतमभाव होता है, वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योंकि ज्ञानप्रमाणमें वृद्धि और हानिसे होनेवाले तरतमभावको निष्कारण मान लेनेपर वृद्धि और हानिरूप कार्यका ही अभाव हो जाता है। और ऐसी स्थितिमें ज्ञानके एकरूपसे रहनेका प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि एकरूप ज्ञानकी उपलब्धि नहीं होती है। इसलिए ये तरतमता सकारण होनी चाहिए। उसमें जो हानि वृद्धिके तरतम भावका कारण है वह आवरण कर्म है। क. पा.४/३.२२/६२६/१/ह एगहिदिबंधकालो सव्वेसिं जीवाणं समाणपरिणामो किण्ण होदि । ण, अंतरंगकारणभेदेण सरिसत्ताणुववत्तीदो। एगजीवस्स सव्वकालमेगपमाणद्धाएट्ठिदिबंधो किण्ण होदि । ण, अंतरंगकारणेसु दव्वादिसंबंधेण परियत्तमाणस्स एगम्मि चेव अंतरंगकारणे सव्यकालमवट्ठाणाभावादो।प्रश्न-सब जीवोंके एक स्थितिबन्धका काल समान परिणामवाला क्यों नहीं होता ' उत्तरनहीं, क्योंकि अन्तरंगकारणमें भेद होनेसे उसमें समानता नहीं बन सकती। प्रश्न-एक ही जीवके सर्वदा स्थितिबन्ध एक समान कालवाला क्यों नहीं होता है। उत्तर-नहीं; क्योंकि, यह जीव अन्तरंग कारणोंमें द्रव्यादिके सम्बन्धसे परिवर्तन करता रहता है, अतः उसका एक ही अन्तरंग कारणमें सर्वदा अवस्थान नहीं पाया जाता है। क.पा. ४/१,२२/६४४/२४/५ सो केण जणिदो। अणंताणुबंधीणमुदएण। अणं ताणुबंधीणमुदओ कुदो जायदे। परिणामपचएण |प्रश्न-बह ( सासादन परिणाम) किस कारणसे उत्पन्न होता है। उत्तर-- अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उदयसे होता है। प्रश्न-अनन्तानुबन्धी चतुष्कका उदय किस कारणसे होता है। उत्तर-परिणाम विशेषके कारणसे होता है। ३. जीवकी अवस्थाओंमें कम पप्र/मू./१/६६,७८ इस पंगु आत्माको कर्म ही तीनों लोकोंमें भ्रमण कराता है।६६। कर्म बलवान हैं, बहुत है, विनाश करनेको अशक्य है, चिकने है, भारी है और वज्रके समान है ।८।। रा.वा./१/१५/१३/६१/१५ चक्षुदर्शनावरण और बीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे तथा अंगोपांग नामकर्मके अवष्टम्भ(बल)से चक्षुदर्शनकी शक्ति उत्पन्न होती है। रा.वा/५/२४/६/१८८/२१ सुख दुखकी उत्पत्तिमें कर्म बलाधान हेतु हैं। आप्त प./११४-११५/२४६-२४७ कर्म जीवको परतन्त्र करनेवाले हैं। (रा.वा/५/२४/६/४८८/२०) ( गो जी/जी.प्र/२४४/५०८/२) ध. १/१,१,३३/२३४/३ कर्मोकी विचित्रतासे ही जीव प्रदेशोंके संघटनका विच्छेद व बन्धन होता है। ध.१/१,१,३३/२४२/८ नाम कर्मोदयको वशवतितासे इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। स.सा/आ /१५७-१५६ कर्म मोक्षके हेतुका तिरोधान करनेवाला है। स सा /आ./२,४,३१,३२, क ३ इत्यादि ( इन सर्व स्थलोंपर आचार्यने मोहकर्मकी बलवत्ता प्रगट की है) स.सा /आ./८६ जीवके लिए कर्म संयोग ऐसा ही है जैसा स्फटिकके लिए तमालपत्र। त.सा./८/३३ ऊर्ध्व गमनके अतिरिक्त अन्यत्र गमनरूप क्रिया कर्म के प्रतिधातसे तथा निज प्रयोगसे समझनी चाहिए। का अ/मू /२११ कर्म की कोई ऐसी शक्ति है कि इससे जीवका केवलज्ञान स्वभाव नष्ट हो जाता है। द्र.सं /टो./१४/४४/१० जीव प्रदेशोंका विस्तार कर्माधीन है, स्वाभाविक नहीं। स्या.म./१७/२३८/६ स्व ज्ञानावरणके क्षयोपशमविशेषके वशसे ज्ञानकी निश्चित पदार्थो में प्रवृत्ति होती है। पं.ध./3/९०५,३२८,६८७,८७४,६२५ जीव विभावमे कर्मकी सामर्थ्य ही कारण है ।१०। आत्माकी शक्तिकी बाधक कर्मकी शक्ति है ।३२८। मिथ्यात्व कर्म ही सम्यक्त्वका प्रत्यनीक ( बाधक ) है ।६८७। दर्शनमोहके उपशमादि होनेपर ही सम्यक्त्व होता है और नहीं होनेपर नहीं ही होता है ।८७४। कर्मकी शक्ति अचिन्त्य है ॥२५॥ स.सा./३१७/क १६८/पं. जयचन्द- जहाँ तक जीवकी निर्मलता है तहाँ तक कर्म का जोर चलता है। स.सा./१७२)क११६/पं. जयचन्द--रागादि परिणाम अबुद्धि पूर्वक भी कर्मकी बलवत्तासे होते है। -दे० विभाव/३/१-(कर्म जीवका पराभव करते हैं) रा.वा./२/२४/१/४८८।२१ तदात्मनोऽस्वतन्त्रीकरणे मूलकारणम् । वह ( कर्म ) आत्माको परतन्त्र करनेमें मूलकारण है। रा.वा./१/३/६/२३/१६ लोके हरिशालवृकभुजगादयो निसर्गतः क्रौर्यशौर्याहारादिसंप्रतिपत्तौ वर्तन्ते इत्युच्यन्ते न चासावाकस्मिकी कर्मनिमित्तत्वात् । लोकमें भी शेर, भेड़िया, चीता, साँप आदिमें शूरता-क्रूरता आहार आदि परोपदेशके बिना होनेसे यद्यपि नैसर्गिक कहलाते हैं; परन्तु वे आकस्मिक नहीं हैं, क्योंकि कर्मोदयके । निमित्तसे उत्पन्न होते हैं। दे० विभाव/३/१ (जीवकी रागादिरूप परिणतिमें कर्म ही मूल कारण है)। का.अ./सु./३१६ ण य को वि देदि लच्छी को वि जोवस्स कुणदि उवयारं । उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ३१६ - न तो कोई देवी देवता आदि जीवको लक्ष्मी देता है और न कोई उसका उपकार करता है। शुभाशुभ कर्म ही जीवका उपकार या अपकार करते हैं। 1.ध./उ./२०१ स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदया। अपने-अपने ज्ञानके घातमें अपने-अपने आवरणका उदय वास्तवमें मूलकारण है। ५. जीवकी एक अवस्थामें अनेक कर्म निमित्त होते हैं ४. कर्मकी बलवत्ताके उदाहरण स,सा./मू./१६१-१६३ ( सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्रके प्रतिबन्धक क्रमसे मिथ्यात्व, अज्ञान व कषाय नामके कर्म हैं।) भ.आ././१६१० असाताके उदयमें औषधियें भी सामर्थ्यहीन हैं। स.सि./१/२०/१०१/२ प्रबल श्रुतावरणके उदयसे श्रुतज्ञानका अभाव हो जाता है। रा.बा/१/१२/१३/६१/१५ इह चक्षुषा चक्षुर्दर्शनावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामावष्टम्भाइ अविभावितविशेषसामर्थ्येन किंचिदेतद्वस्तु इत्यालोचनमनाकारं दर्शनमित्युच्यते बालवत् । -चक्षुदर्शनावरण और वीर्यान्तराय इन दो कर्मोके क्षयोपशमसे तथा साथ-साथ अंगोपांग नामकर्मके उदयसे होनेवाला सामान्य अवलोकन चक्षुदर्शन कहलाता है। पं.ध/उ./२०१-२०२ सत्यं स्वावरणस्योच्चै मूलं हेतुर्यथोदयः । कर्मान्तरोदयापेक्षो नासिद्ध' कार्यकृयथा ।२०१। अस्ति मत्यादि यज्ज्ञानं ज्ञानावृत्युदयक्षतेः । तथा वीर्यान्तरायस्य कर्मणोऽनुदयादपि ।२०२१ -जैसे अपने-अपने घातमें अपने-अपने आवरणका उदय मूलकारण है वैसे ही वह ज्ञानावरण आदि दूसरे कम के उदयको अपेक्षा सहित कार्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IV कारण कार्यभाव समन्वय १. उपादान निमित्त सामान्य विषयक प्रत्येतव्यः। -जैसे अनन्त पुदगल सम्बन्धियोंकी अपेक्षा एक ही प्रदेशिनी अंगुली अनेक भेदोंको प्राप्त होती है, उसी प्रकार जीव भी कर्म और नोकर्म विषय उपकरणोके सम्बन्धसे जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान, दंडी, कुण्डली आदि अनेक पर्यायौंको धारण करता है । प्रदेशिनी अँगुलोमें मध्यमाकी अपेक्षा जो भिन्नता है वही अनामिकाकी अपेक्षा नहीं है, प्रत्येक पर रूपका भेद जुदा-जुदा है। मध्यमाने प्रदेशिनीमें ह्रस्वत्व उत्पन्न नहीं किया, अन्यथा शशविषाणमें भी उत्पन्न हो जाना चाहिए था, और न स्वतः ही उसमें ह्रस्वत्व था, अन्यथा मध्यमाके अभावमें भी उसकी प्रतीति हो जानी चाहिए थी। तात्पर्य यह कि अनन्त परिणामी द्रव्य हो तत्तसहकारी कारणोंकी अपेक्षा उन-उन रूपसे व्यवहारमें आता है। (यहाँ द्रव्यकी विभिन्नतामें सहकारी कारणताका स्थान दशति हुए कहा गया है कि वह न स्वतः है न परतः। इसी प्रकार क्षेत्र. काल व भावमे भी लागू कर लेना चाहिए ) २. प्रत्येक कार्य अन्तरंग व बाह्य दोनों कारणों के सम्मेल से होता है कारी होता है, यह भी असिद्ध नहीं है ।२०११ जैसे जो मत्यादिक ज्ञान ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे होता है वैसे ही वह बीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे भी होता है ।२०२। ६. कर्मके उदयमें तदनुसार जीवके परिणाम अवश्य होते हैं रा.वा/७/२१/२३/५४६/२७ यद्यभ्यन्तरसंयमघातिकर्मोदयोऽस्ति तदुदयेनावश्यमनिवृत्तपरिणामेन भवितव्यं ततश्च महावतत्वमस्य नोपपद्यत इति मतमः तन्न; किं कारणम्, उपचारात् राजकुले सर्वगतचैत्रवत् । -प्रश्न-(छठे गुणस्थानवर्ती संयतको) यदि संयमघाती कर्मका उदय है तो अवश्य हो उसे अविरतिके परिणाम होने चाहिए। और ऐसा होने पर उसके महाबतत्वपना घटित नहीं होता (अत. संज्वलनके उदयके सद्भावमें छठे गुणस्थानवर्ती साधुको महाव्रती कहना उचित नहीं है)। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि राजकुलमें चैत्र या खोजे पुरुषको सर्वगत कहनेकी भॉति यहाँ उपचारसे उसे महावती कहा जाता है। ध./१२/४,२,१३,२५४/४५७/६ ण च मुहुमसांपराश्य मोहणीय भावो अत्थि, भावेण विणा दबकम्मस्स अस्थित्तविरोहादो महुससापराइयसण्णाणुबत्तीदो वा। -सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानमें मोहनीयका भाव नहीं हो, ऐसा सम्भव नहीं है, क्योकि भावके बिना द्रव्यकर्म के रहनेका विरोध है, अथवा वहाँ भावके न मानने पर 'सूक्ष्मसांपरायिक' यह संज्ञा ही नहीं बनती है। नोट-( यद्यपि मूल सूत्र नं. २५४ "तस्स मोहणीयवेयणाभावदो णत्थि" के अनुसार यहॉ मोहनीयका भाव नहीं है। परन्तु यह कथन नय विवक्षासे आचार्य वीरसेन स्वामीने समन्वित किया है। तहाँ द्रव्यार्थिक नयको विवक्षासे सत्का ही विनाश होनेके कारण उस गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीयके भावका भी विनाश हो जाता है और पर्यायार्थिक नय असत अवस्थामें ही अभाव या विनाश स्वीकार करता होनेके कारण उसकी अपेक्षा वह मोहनीयका भाव उस गुणस्थानके अन्तिम समयमे है और उपशान्तकषाय या क्षीणकषायके प्रथम समय में विनष्ट होता है। विशेष-देखो उत्पाद/२/9) ल. सा/जी.प्र./३०४/३८४/१६ द्रव्यकर्मोदये सति संक्लेशपरिणामलक्षणभावकर्मणः संभवेन तयो. कार्यकारणभावप्रसिधेः। =(उपशान्त कषाय गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। तदुपरान्त अवश्य ही मोहकर्मका उदय आता है जिसके कारण वह नीचे गिर जाता है।) नियमकर द्रव्यकर्मके उदयके निमित्ततै संक्लेशरूप भाव कर्म प्रगट हो है । इसलिए दोनोंमें कार्यकारणभाव सिद्ध है। स्व.स्तो./मू /३३ १६.६० अलध्यशक्तिर्भवितव्यतेयं, हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा ।३३। यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेनिमित्तमभ्यन्तरमूलहेतो। अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं न ५॥ बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं, कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः । नैवान्यथा मोक्षविधिश्च सां, तेनाभिवन्यस्त्वमृषिर्बुधानाम् ।६० - अन्तरंग व बाह्य इन दोनों हेतुओके अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होनेवाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है, ऐसी यह भवितव्यता अलंघ्यशक्ति है ।३३। जो बाह्य वस्तु गुण दोष अर्थात पुण्य पापको उत्पत्तिका निमित्त होती है वह अन्तरं गमें वर्तनेवाले गुणदोषोकी उत्पत्तिके आभ्यन्तर मूलहेतुकी अंगभूत है। केवल अभ्यन्तर कारण ही गुणदोषकी उत्पत्ति में समर्थ नहीं है ।११। कार्यो में बाह्य और अभ्यंतर दोनों कारणोकी जो यह पूर्णता है वह आपके मतमें द्रव्यगत स्वभाव है। अन्यथापुरुषोंके मोक्षकी विधि भी नहीं बनती। इसीसे हे परमर्षि! आप बन्धुजनोंके वन्द्य है ।६० स सि./५/३०/३००/५ उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः भृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् । अन्तरंग और बहिरंग निमित्तके वशसे प्रतिसमय जो नवीन अवस्थाकी प्राप्ति होती है, उसे उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टीके पिण्डकी घटपर्याय । (प्र.सा/त प्र./६५,१०२) ति.प./४/२८१-२८२ सव्वाणं पयत्थाणं णियमा परिणामपदिवित्तीयो। बहिर तरंगहेदुहि सव्वन्भेदेसु वति ।२८१२ माहिरहेदू कहिदो णिच्छयकालो त्ति सव्वदरसीहि । अभंतर णिमित्तं णियणियदठवेमु चेठेदि ।२८२।- सर्व पदार्थों के समस्त भेदोंमे नियमसे बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तोंके द्वारा परिणामादिक (परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व ) वृत्तियाँ प्रवर्तती हैं ।२८१। सर्वज्ञदेवने सर्व पदार्थोंके प्रवर्तनेका बाह्य निमित्त निश्चयकाल कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने-अपने द्रव्योंमें स्थित है ।२२ IV. कारण कार्य भाव समन्वय १. उपादान निमित्त सामान्य विषयक १. कार्य न सर्वथा स्वत: होता है न सर्वथा परतः रा. बा 1/४२/9/२५१/७ पुद्गलानामानन्त्यात्तत्तवपुद्गलद्रव्यमपेक्ष्य एकपुद्गलस्थस्य तस्यैकस्यैव पर्यायस्यान्यत्वभावाद । यथा प्रदेशिन्या' मध्यमाभेदाद यदन्यत्वं न तदेव अनामिकाभेदात् । मा भूत मध्यमानामिकयोरेकत्व मध्यमाप्रदेशिन्यन्यत्वहेतुत्वेनाविशेषादिति । न तत्परावधिकमेवार्थसत्त्वम् । यदि मध्यमासामर्थ्याद प्रदेशिन्याः ह्रस्वत्वं जायते शशविषाणेऽपि स्याच्छक्रयष्टौ वा । नापि स्वत एव, परापेक्षाभावे तदव्यक्त्यभावात । तस्मात्तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणं प्रतीत्य तत्तद्रूपं वक्ष्यते । न तव स्वत एव नापि परकृतमेव । एवं जीवोऽपि कर्मनोकर्म विषयवस्तुपकरणसंबन्धभेटादाविर्भूतजीवस्थानगुणस्थानविकल्पानन्तपर्यायरूप. ३. अन्तरंग व बहिरंग कारणोंसे होनेके उदाहरण स.सा./मू /२७८-२७६ जैसे स्फटिकमणि तमालपत्रके संयोगसे परिणमती है वैसे ही जीव भी अन्य द्रव्योके संयोगसे रागादि रूप परिणमन करता है। स सा /मू /२८३-२८५ द्रव्य व भाव दोनों प्रतिक्रमण परस्पर सापेक्ष है। रावा./२/१/१४/१०१/२३ बाहरमें मनुष्य तिर्यचादिक औदयिक भाव और अन्तरंगमे चैतन्यादि पारिणामिक भाव ही जीवके परिचायक हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ १. उपादान निमित्त सामान्य विषयक IV कारण (कारण कार्य भाव समन्वय ) प्रकार भी सिद्ध नहीं होता। हाँ एक द्रव्यके अनेक परिणामोंको एक सन्तानपना अवश्य सिद्ध है। ) तहाँ द्रव्य नामक प्रत्यासत्तिको ही तिस प्रकार होनेवाले एक सन्तानपनेकी कारणता सिद्ध होती है। एक व्यके केवल परिणामों की एक सन्तान करनेमें उपादान उपादेयभाव सिद्ध नहीं होता। ७. उपादानको परतन्त्र कहनेका कारण व प्रयोजन स.सि./२/१६/१७७/३ लोके इन्द्रियाणां पारतन्त्र्यविवक्षा दृश्यते । अनेनाक्ष्णा सुष्ठ पश्यामि, अनेन कर्णेन मुष्ठु शृणोमीति । ततः पारतन्न्यात्स्पर्शनादीनां करणत्वम् । - लोकमें इन्द्रियों की पारतन्य विवक्षा देखी जाती है। जैसे इस आँखसे मैं अच्छा देखता हूँ, इस कानसे मैं अच्छा सुनता हूँ। अतः पारतन्त्र्य विवक्षामें स्पर्शन आदि इन्द्रियोंका करणपना (साधकतमपना) मन जाता है (तात्पर्य यह कि लोक व्यवहार में सर्वत्र व्यवहार नयका आश्रय होनेके कारण उपादानकी परिणतिको निमित्तके आधारपर बताया जाता है। (विशेष दे० नय/v/8) (रा वा./२/११/१/१३१/८)। स.सा./ता वृ./१६ भेदविज्ञानरहितः शुद्धबुद्ध कस्वभावमात्मानमपि च पर स्वस्वरूपाद्भिन्नं करोति रागादिषु योजयतीत्यर्थ। केन, अज्ञानभावेनेति !-भेद विज्ञानसे रहित व्यक्ति शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी आत्माको अपने स्वरूपसे भिन्न पर पदार्थ रूप करता है (अर्थात पर पदार्थोके अटूट विकल्पके प्रवाहमें बहता हुआ) अपनेको रागादिकों के साथ युक्त कर लेता है। यह सब उसका अज्ञान है। (ऐसा बताकर स्वरूपके प्रति सावधान कराना ही परतन्त्रता बतानेका प्रयोजन है।) ८. निमित्तको प्रधान कहनेका कारण प्रयोजन पं.का./त.प्र/८८ स्वतः गमन करनेवाले जीव पुदगलोंकी गति में धर्मास्ति काय बाह्य सहकारीकारण है। (द्र.सं./टी/१७) (और भी दे० निमित्त)। ४. व्यवहारनयसे निमित्त वस्तुभूत है पर निश्चयसे कल्पना मात्र है श्लो.वा.२/१/७/१३/५६१/१ व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः संबन्ध संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एवं न पुन. कल्पनारोपित' सर्वथाप्यनवद्यत्वात् । संग्रहजुसूत्रनयाश्रयणे तु न कस्यचिरकश्चित्संबन्धोऽन्यत्र कल्पनामात्रत्वात् इति सर्वमविरुद्ध। व्यवहार नयका आश्रय लेनेपर संयोग व समवाय आदि सम्बन्धोके समान दोमें ठहरनेवाला कार्यकारण भाव प्रतीतियोंसे सिद्ध होनेके कारण वस्तुभूत ही है, काल्पनिक नहीं। (क्योकि तहाँ व्यवहारनय भेवग्राही होनेके कारण असदभूत व्यवहार भेदोपचारको ग्रहण करके संयोग सम्बन्धको सत्य घोषित करता है और सद्भूत व्यवहार नय अभेदोपचारको ग्रहण करके समवाय सम्बन्धको स्वीकार करता है) परन्तु संग्रह नय और ऋजुसूत्र नयका आश्रय करनेपर कोई भी किसी का किसीके साथ सम्बन्ध नहीं है। कोरी कल्पनाएँ है। सब अपनेअपने स्वभावोंमें लीन हैं । यही निश्चय नय कहता है। । संग्रहनय मात्र अद्वैत एक महा सत् पाही होनेके कारण और ऋजुमुत्रनय मात्र अन्तिम अवान्तर सत्तारूप एकत्वग्राही होनेके कारण, दोनो ही द्विष्ठ नहीं देखते। तब वे कारणकार्यके द्वैतको कैसे अंगीकार कर सकते है । विशेष देखो 'नय')! ५. निमित्त स्वीकार करनेपर भी वस्तु स्वतन्त्रता बाधित नहीं होती रा.वा //९/२७/४३४/२६ ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातन्त्र्ये सति विरुध्यत इति: नैष दोष': बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । न हि गत्यादिपरिणामिनो जीवपुद्गला गन्याद्य पग्रहे धर्मादीनां प्रेरकाः । = (धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायकी यहाँ यह स्वतन्त्रता है कि ये स्वयं गति और स्थितिरूपसे परिणत जीव और पुद्गलोंकी गतिमें स्वयं निमित्त होते है।) प्रश्न-बाह्य द्रव्यादिके निमित्तसे परिणामियों के परिणाम उपलब्ध होते है और स्वातन्त्र्य स्वीकार कर लेनेपर यह बात विरोधको प्राप्त हो जाती है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र होते है। (यहाँ प्रकृतमें ) गति आदि रूप परिणमन करनेवाले जीव व पुद्गल गति आदि उपकार करनेके प्रति धर्म आदि द्रव्योके प्रेरक नहीं है। गति आदि करानेके लिए उन्हे उकसाते नहीं हैं। ६. उपादान उपादेय भावका कारण प्रयोजन रावा./२/३६/१८/१४७/७ यथा घटादिकार्योपलब्धैः परमाण्वनुमानं तथौदारिकादिकार्योपलब्धे. कार्मणानुमानम् "कार्य लिग हि कारणम्" (आप्त मी. श्लो,६८)। जैसे घट आदि कार्योकी उपलब्धि होनेसे परमाणु रूप उपादान कारणका अनुमान किया जाता है, इसी प्रकार औदारिक शरीर आदि कार्यों की उपलब्धि होनेसे कर्मों रूप उपादान कारणका अनुमान किया जाता है, क्योंकि कारणको कार्यलिगवासा कहा गया है। श्लो. वा. २/१/५/६६/२७१/३० सिद्धमेकद्रव्यात्मकचित्तविशेषाणामेकसंतानत्वं द्रव्यप्रत्यासत्तेरेव । -(सर्वथा अनित्य पक्षके पोषक बौद्ध लोग किसी भी अन्ययी कारणसे निरपेक्ष एक सन्ताननामा तत्त्वको स्वीकार करके जिस किस प्रकार सर्वथा पृथक-पृथक् कार्योमे कारणकार्य भाव घटित करनेका असफल प्रयास करते हैं, पर वह किसी रा.वा./१/१/१७/११/१५ तत एवोत्पत्त्यनन्तरं निरन्वयविनाशाभ्युपगमाव परस्परसंश्लेषाभावे निमित्तनै मित्तिकव्यवहारापह्नवाद'अविद्या प्रत्ययाः संस्कारा.' इत्येवमादि विरुध्यते। -जिस (बौद्ध) मतमें सभी संस्कार क्षणिक है उसके यहाँ ज्ञानादिकी उत्पत्तिके बाद ही तुरन्त नाश हो जानेपर निमित्त नैमित्तिक आदि सम्बन्ध नहीं बनेगे और समस्त अनुभव सिद्ध लोकव्यवहारोंका लोप हो जायेगा। अविद्याके प्रत्ययरूप सन्तान मानना भी विरुद्ध हो जायेगा । (इसी प्रकार सर्वथा अद्वैत नित्यपक्षवालों के प्रति भी समझना। इसीलिए निमित्त नैमित्तिक द्वैतका यथा योग्यरूपसे स्वीकार करना आवश्यक है।) ध./१२/४,२,८,४/२८१/२ एवं विहववहारो किमळं करिदे। सुहेण णाणावरणीयपच्चयबोहणट्ठ कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहद च । प्रश्न-इस प्रकारका व्यवहार किस लिए किया जाता है। उत्तरसुख पूर्वक ज्ञानावरणीयके प्रत्ययों का प्रतिबोध करानेके लिए तथा कार्यके प्रतिषेध द्वारा कारणका प्रतिषेध करनेके लिए उपयुक्त व्यवहार किया जाता है। प्र.सा./ता.कृ./१३३-१३४/१८६/११ अयमत्रार्थः यद्यपि पञ्चद्रव्याणि जीवस्योपकारं कुर्वन्ति, तथापि तानि दुःख कारणान्येवेति ज्ञात्वा। यदि वाक्षयानन्तसुखादिकारणं विशुद्धज्ञानदर्शनोपयोगस्वभाव परमात्मद्रव्यं तदेव मनसा ध्येयं वचसा वक्तव्यं कायेन तत्साधकमनुष्ठानं च कर्त्तव्यमिति । यहाँ यह तात्पर्य है कि यद्यपि पाँच द्रव्य जीवका उपकार करते हैं, तथापि वे सब दु.खके कारण हैं, ऐसा जानकर; जो यह अक्षय अनन्त सुखादिका कारण विशुद्ध ज्ञानदर्शन उपयोग स्वभावी परमात्म द्रव्य है, वह ही मनके द्वारा ध्येय है, वचनके द्वारा वक्तव्य है और कायके द्वारा उसके साधक अनुष्ठान ___ ही कर्तव्य है। प्रसा./ता. /१४३/२०३/१७ अत्र यद्यपि.. सिद्धगते: काललब्धिरूपेण बहिरङ्गसहकारी भवति कालस्तथापि निश्चयनयेन. ज्या तु निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं न च कालस्तेन कारणेन स जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-१० Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. कर्म व जीवगत कारणकार्य भाव विषयक IV कारण ( कारण कार्य भाव समन्वय ) हेय इति भावार्थः। - यहाँ यद्यपि सिद्ध गतिमे कालादि लब्धि रूपसे काल द्रव्य बहिरंग सहकारीकारण होता है, तथापि निश्चयनयसे जो चार प्रकारकी आराधना है बही तहाँ उपादान कारण है काल नही । इसलिए वह ( काल ) हेय है, ऐसा भावार्थ है। २. कर्म व जीवगत कारणकार्य भाव विषयक १. जीव यदि कर्म न करे तो कर्म मी उसे फल क्यों दे यो.मा.अ./३/११-१२ आत्मानं कुरुते कर्म यदि कर्म तथा कथम् । चेतनाय फलं दत्ते भुङ्क्ते वा चेतनः कथम् ।११। परेण विहितं कर्म परेण यदि भुज्यते । न कोऽपि सुखदुःखेभ्यस्तदानीं मुच्यते कथम् ।१२। -यदि कर्म स्वयं ही अपनेको कर्ता हो तो वह आत्माको क्यो फल देता है। वा आत्मा ही क्यों उसके फलको भोगता है ।।११। क्योकि यदि कर्म तो कोई अन्य करेगा और उसका फल कोई अन्य भोगेगा तो कोई भिन्न ही पुरुष क्यों न सुख-दुख से मुक्त हो सकेगा ।१२। यो सा. अ./५/२३-२७ विदधाति परो जीवः किंचित्कर्म शुभाशुभम् । पर्यायापेक्षया भुक्ते फलं तस्य पुन. पर' ।२३। य एव कुरुते कर्म किंचिज्जीवः शुभाशुभम् । स एव भुजते तस्य द्रव्यापेिक्षया फलम् ।२४। मनुष्यः कुरुते पुण्यं देवो वेदयते फलम् । आत्मा वा कुरुते पुण्यमात्मा वेदयते फलम् ।२५। चेतनः कुरुते भुक्ते भावैरौदयिकैरयम्। न विधत्ते न वा भुक्ते किचित्कर्म तदत्यये ।२७।= पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा दूसरा ही पुरुष कर्मको करता है और दूसरा ही उसको भोगता है, जैसे कि मनुष्य द्वारा किया पुण्य देव भोगता है। और द्रव्यार्थिक नयसे जो पुरुष कर्म करता है वही उसके फलको भोगता है, जैसे-मनुष्य भबमें भी जिस आत्माने कर्म किया था देवभवमे भी वही आत्मा उसे भोगता है ।२३-२५६ जिस समय इस आत्मामें औदयिक भावोंका उदय होता होता है उस समय उनके द्वारा यह शुभ अशुभ कर्मों को करता है और उनके फलको भोगता है। किन्तु औदयिकभाव नष्ट हो जानेपर यह न कोई कर्म करता है और न किसीके फलको भोगता है ।२७५ २. कर्म जीवको किस प्रकार फल देते हैं पाया जाता है वह उसका कारण ब दूसरा कार्य होता है. ऐसा समस्त नैयायिक जनोंमे प्रसिद्ध है। इस प्रकार प्रदेशाग्रवेदनाके समान प्रकृतिवेदना भी योग प्रत्ययसे होती है, यह सिद्ध है। २. जो जिसके होनेपर ही होता है और जिसके नहीं होनेपर नहीं होता है वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है। इस कारण ज्ञानावरणीय वेदना योग और कषायसे ही होती है, यह सिद्ध होता है। ४. वास्तवमें विमाव कर्ममें निमित्त नैमित्तिक भाव है, जीव व कममें नहीं पं.ध./उ./१०७२ अन्तदृष्ट्या कषायाणां कर्मणां च परस्परम् । निमित्तनैमित्तिको भावः स्यान्न स्याज्जीवकर्मणोः ।१०७२= सूक्ष्म तत्त्वदृष्टिसे कषायों व कर्मोंका परस्परमें निमित्त नैमित्तिक भाव है किन्तु जीवद्रव्य तथा कर्मका नहीं। ५. समकालवर्ती इन दोनों में कारणकार्य भाव कैसे हो सकता है। ध.७/२,१,३४/८१/१० वेदाभावलद्धीणं एककालम्मि चेव उप्पज्जमाणीणं कधमाहाराहेयभावो, कज्जकारणभावो वा। ण समकालेणुप्पज्जमाणच्छायंकुराणं कज्जकारणभावदंसणादो, घडुप्पत्तीए कुसलाभावदसणादो च। -प्रश्न-वेद (कर्म) का अभाव और उस अभाव सम्बन्धी लब्धि / जीव का शुद्ध भाव) ये दोनों जब एक ही कालमें उत्पन्न होते हैं, तब उनमें आधार-आधेयभाव या कार्य-कारणभाव कैसे बन सकता है ? उत्तर--बन सकता है; क्योकि, समान कालमें उत्पन्न होने वाले छाया और अंकुरमें, सवादीपक व प्रकाशमें (छहढाला) कार्यकारणभाव देखा जाता है। तथा घट की उत्पत्ति में कुसुल का अभाव भी देखा जाता है। छ, कर्म व जीवके परस्पर निमित्सनैमित्तिकपनेसे इतरेत राश्रय दोष भी नहीं आ सकता प्र.सा./त प्र./१२१ यो हि नाम संसारनामायमात्मनस्तथाविधः परिणामः स एव द्रव्यकर्मश्लेषहेतु' । अथ तथाविधपरिणामस्यापि को हेतुः । द्रव्यकर्म हेतुः तस्य, द्रव्यकर्मसंयुक्तत्वेनैवोपलम्भाव। एवं सतीतरेतराश्रयदोषः । न हि अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसंबन्धस्यात्मन' प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात। -'संसार' नामक जो यह आत्माका तथाविध परिणाम है वही द्रव्यकर्म के चिपकनेका हेतु है। प्रश्न-उस तथाविध परिणामका हेतु कौन है। उत्तर-द्रव्यकर्म उसका हेतु है, क्योंकि द्रव्यकर्मकी संयुक्ततासे ही वह देखा जाता है। प्रश्न-ऐसा होनेसे इतरेतराश्रय दोष आयेगा । उत्तर-नहीं आयेगा, क्योंकि अनादि सिद्ध द्रव्यकर्म के साथ सम्बद्ध आत्माका जो पूर्वका द्रव्यकर्म है उसका वहाँ हेतु रूपसे ग्रहण किया गया है (और नवीनबद्ध कर्म का कार्य रूपसे ग्रहण किया गया है)। ७. कर्मोदयका अनुसरण करते हुए भी जीवको मोक्ष सम्मव है यो.सा./३/१३ जीवस्याच्छादकं कर्म निर्मलस्य मलीमसम् । जायते भास्वरस्येव शुद्धस्य घनमण्डलम् ।१३। -जिस प्रकार ज्वलंत प्रभाके धारक भी सूर्यको मेघ मण्डल ढंक लेता है, उसी प्रकार अतिशय विमल भी आत्माके स्वरूपको मलिन कर्म लॅक देते है। ३. कर्म व जीवके निमित्त नैमित्तिकपनेमें हेतु रू.पा.१११-१/६४२/६०/१ तं च कम्मं सहेअं, अण्णहा णिव्यावाराण पि बंधप्पसंगादो। कम्मस्स कारणं किं मिच्छत्तासंजमकसाया होति, आहो सम्मत्तसंजद विरायदादो। = जीवसे सम्बद्ध कर्मको सहेतुक ही मानना चाहिए, अन्यथा निर्व्यापार अर्थात् अयोगियोके भी कर्मबन्धका प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। उस कमके कारण मिथ्यात्व असंयम और कषाय हैं, सम्यक्त्व, संयम व वीतरागता नही। (आप्त. प./ २/५/८) ध.१२/४,२,८,१२/२८८/६ ण, जोगेण विणा णाणावरणीयपयडीए पाद भावादसणादो। जेण विणा जं णियमेण णोवलन्भदे तं तस्स कज्ज इयरं च कारणमिदि सयलणयाइयाश्यअजणपसिद्ध। तम्हा पदेसगगवेयणा व पयडिवेयणा वि जोग पच्चएण त्ति सिद्ध। ध./१२/४,२.८,१३/२८६/४ यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिति न्यायात् । तम्हा णाणावरणीयवेयणा जोगकसाएहि चेव होदि त्ति सिद्ध। -१. योगके बिना ज्ञानावरणीयकी प्रकृतिवेदनाका प्रादुर्भाव देखा नहीं जाता। जिसके विना जो नियमसे नहीं द्र.सं./टी./३०/१५५/१० अत्राह शिष्यः-संसारिणां निरन्तर कर्मबन्धोऽस्ति, तथै वोदयोऽस्ति, शुद्धात्मभावनाप्रस्तावो नास्ति, कथं मोक्षी भवतीति । तत्र प्रत्युत्तरं । यथा शत्रोः क्षीणावस्थां दृष्ट्वा कोऽपि धीमान् पर्यालोचयत्ययं मम हनने प्रस्तावस्ततः पौरुषं कृत्वा शत्रु हन्ति तथा कर्मणामप्येकरूपावस्था नास्ति । हीयमानस्थित्यनुभागत्वेन कृत्वा यदा लधुत्वं क्षीणत्वं भवति तदा धीमान् भव्य आगमभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुषं कृत्वा कर्मशत्रु हन्तीति । यत्पुनरन्तःकोटाकोटी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण ज्ञान -- प्रमितकर्म स्थितिरूपेण तथेन ततादारस्थानीयरूपेण च कर्म स जातेऽपि सत्ययं जीम आगमभाषया अथ प्रवृत्तिकरणापूर्व कारणानिवृ त्तिकरण संज्ञामध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणतिरूपां कर्म हनमबुद्धि कापि काले न करिष्यतीति तदभव्ययस्यैव लक्षणं ज्ञातव्यमिति । प्रश्न - संसारी जीवोंके निरन्तर कर्मोका बन्ध व उदय पाया जाता है। अत: उनके शुद्धात्म ध्यानका प्रसंग भी नहीं है। तब मोक्ष कैसे होता है उत्तर-जैसे कोई बुद्धिमान शत्रुकी निर्बल अवस्था देखकर 'यह समय शत्रुको मारनेका है' ऐसा विचारकर उद्यम करता है वह अपने शत्रुको मारता है। इसी प्रकार - कर्मों की भी सदा एकरूप अवस्था नहीं रहती । स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्दकी न्यूनता (कालसन्धि) होनेपर जब धर्म लघु व क्षीण होते है, उस समय कोई भव्य जीव अवसर विचारकर आगमकथित पंचलब्धि अथवा अध्यात्म कथित निजशुद्धात्म सम्मुख परिनाम नामक निर्मल भावना विशेषरूप से पौरुष करके कर्मश को नष्ट करता है और जो उपरोक्त कावधि हो आनेपर भी अधकरण आदि त्रिकरण अथवा आत्म सम्मुख परिणाम रूप बुद्धि किसी भी समय न करेगा तो यह अभव्यत्व गुणका लक्षण जानना चाहिए। ८. कर्म व जीवके निमित्तनैमित्तिकपने में कारण व प्रयोजन १.प्र./टी./१/६६ अत्र मोदरान सदानन्दे कपासर्व प्रकारोपादेयतारपरमा मनो शुभाशुभकर्मयं राधेयमिति भावार्थः। (यहाँ जो जीवको कर्मो के सामने पंगु बताया गया है ) उसका भावार्थ ऐसा है। कि वीतराग सदा एक आनन्दरूप तथा सर्व प्रकार से उपादेयभूत जो यह परमात्म तत्त्व है, उससे भिन्न जो शुभ और अशुभ ये दोनो कर्म हैं. वे हेय हैं। कारण ज्ञान दे० उपयोग/१/९/५ कारण चतुष्ट्रय — दे० चतुष्टय | कारण जीव दे० जीव । १ । कारण परमाणु-दे० परमाणु / १ । कारण परमात्मा दे० परमात्मा / १ । कारण विपर्यय कारण विरुद्ध व अविरुद्ध उपलब्धि दे० हेतु/१। कारण समयसार - दे० समयसार । कारित-स./६/८/२२२/५ कारिताभिधानं पप्रयोग - कार्य में दूसरे के प्रयोगकी अपेक्षा दिखलाने के लिए 'कारित' शब्द रखा है। (रा.बा.६/९/८/५१४/१); (चा.सा./८/५) कारुण्य दे० 'करुणा' । कार्तिकेय - १. भगवान् वीरके तीर्थ में अनुत्तरोपपादक हुए-दे० अनुत्तरोपपादक; २. राजा क्रौचके उपसर्ग द्वारा स्वर्ग सिधारे थे । समय - अनुमानत: ई. श. एका प्रारम्भ ( का.अ./प्र, ६६ । A. N. up) २ कार्तिकेयानुप्रेक्षाके कर्ता स्वामीकुमारका दूसरा नाम था । दे० कुमार स्वामी । www कार्तिकेयानुप्रेक्षा-आ० कुमार कार्तिकेय ई००२ मध्य) द्वारा रचित वैराग्य भावनाओंका प्रतिपादक प्राकृत गाथा मद्ध ग्रन्थ । इसमें ४६९ गाथाएँ हैं। इसपर आ० शुभचन्द्र (ई. १५१६-१५६६) ने संस्कृत टीका लिखी है। तथा पं० जयचन्द छाबड़ा (ई. १८०१ ) ने भाषा टीका लिखी है । ७५ कार्मण कार्मण जीवके प्रदेशोंके साथ मन्ये अट कर्मकि सूक्ष्म पुगल स्कन्धके संग्रहका नाम कार्माण शरीर है। बाहरी स्थूल शरीरकी मृत्यु हो जानेपर भी इसकी मृत्यु नही होती। विग्रहगतिमे जीवों के मात्र कार्माण शरीरका सद्भाव होनेके कारण कार्माण काययोग माना जाता है, और उस अवस्था में नोर्मवगंगाओका ग्रहण न होनेके कारण व अनाहारक रहता है। १. कार्मण शरीर निर्देश कार्मण शरीरका लक्षण 9. प.सं. १४/५.६/२४१/१२८ सव्वकम्मा परुणुपाद मुदुक्ला बीजमिदि कम्मइयं । २४१ | = सब कर्मोका प्ररोहण अर्थात् आधार, उत्पादक और सुख-दुखका भीज है इसलिए कामणि शरीर है। स.सि /२/३६/१६१/६ कर्मणां कार्यं कार्मणम् । सर्वेषां कर्मनिमित्तत्वेऽपि रूढिवाद्विशिष्टवृत्तिरवसेयाकर्मका कार्य कामण शरीर है। यद्यपि सर्व शरीर कर्मके निमित्तसे होते हैं तो भी रूि विशिष्ट शरीरको कामण शरीर कहा है (रा.मा./२/२६/२/१३०/4 (रा.वा./२/२६/१/१४६/१३) (रा.वा./२/४६/८/१२३/१८ ) 1= १/१.१.५० / १६६/२६४ कम्मेव च कम्म-धर्म कम्मयं से....... १९६६-ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके ही कर्म स्कन्धको कामण वशरीर कहते है, अथवा जो कार्माण शरीर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होता है उसे कार्माण शरीर कहते है (ध. १/१.१.५७/२१५/१) (गो. जी./मू./२४१) 1 । घ. १४/५.६.९४२/३२८/११ कर्माणि प्ररोहन्ति अस्मिन्निति प्ररोहण कार्मणशरीरम् । सकलकर्माधार रारा एवं सुप दुखानां सह बीजमपि एतेन नामकर्मावयवस्य कार्मणशरीरस्य प्ररूपणा कृता । साम्प्रतमष्टकर्म कलापस्य कार्माणशरीरस्य लक्षणप्रतिपादकत्वेन सूत्रमिदं व्याख्यायते । तद्यथा - भविष्यत्सर्व कर्मणां प्ररोहणमुत्पाद कं त्रिकागोचरा सुख-दुखानां मी चेति कर्मका कार्मणशरीरम् कर्मणि] [भ] या कार्मण कर्मय मा कार्मणमिति कार्मण शब्दव्युत्पत्तेः कर्म] इसमें पगते हैं इसलिए कार्मण शरीर प्ररोहण कहलाता है सर्वकमका आधार हे सुख और दुखोंका बीज भी है...इसके द्वारा नामकर्मके अवयव रूप कार्मण शरीरकी प्ररूपणा की है। अब आठ कर्मोके कलाप रूप कार्माण शरीरके लक्षणके प्रतिपादकपनेकी अपेक्षा इस सूत्रका व्याख्यान करते हैं । यथा - आगामी सर्व कर्मो का प्ररोहण, उत्पादक और त्रिकाल विषयक समस्त सुखदुखका बीज है. इसलिए आठ कर्मोंका समुदाय कार्मणशरीर है, क्योकि कर्ममे हुआ इसलिए फार्म है, अथवा धर्म ही कार्मण है, इस प्रकार यह कार्मण शक्ति है। • २. कार्मण शरीरके अस्तित्व सम्बन्धी शंका समाधान रा.वा./२/३६/१०-१५/१४६ / १६ सर्वेषां कार्मणत्वप्रसङ्ग इति चेत्... दारिकशरीरनागादीनि हि प्रतिनियतानि कर्माणि सन्ति दय भेदाभेदो भवति । तत्कृतत्वेऽप्यन्यत्वदर्शनाद् घटादिवत्... अतः कार्यकारणभेदाच सर्वेषां कार्मणस्य ... कार्म नेऽप्योदारिकादीनां वैश्खसिकोपचमेनावस्थानमिति मानावं सिद्धम् कार्मणमसत् निमि साभावादिति चेन्न कि कारणं तस्यैव 1 प्रदीप मिध्यादर्शनादिनिमित्तत्वाच निमित्तिप्रश्न भावात् 1 ( कर्मों का समुदाय कार्माण शरीर है ) ऐसा लक्षण करनेसे औदारिकादि सम ही शरीरोंको कार्मणपने का प्रसंग जा जायेगा। उत्तरऔदारिकादि शरीर प्रतिनियत नामकर्मके उदयसे होते हैं, यद्यपि औदारिकादि शरीर कर्मकृत है, तथा मिट्टी से उत्पन्न होनेवाले घट पटी आदिकी भाँति फिर भी उसमें संज्ञा, लक्षण, आकार और निमित्त आदिकी दृष्टिसे भिता है। कारण कार्यको अपेक्षा भी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्मण ७६ २. कार्मण योग निर्देश कहिये आत्माके कर्म ग्रहण शक्ति धरै प्रदेशनिका चंचलपना सो कार्मणकाययोग है, सो विग्रहगति विर्षे एक, दो, अथवा तीन समय काल मात्र हो है, अर केबल समुद्धातविष प्रतरद्विक अर लोकप्तरण इन तीन समयनि विर्षे हो है, और समय विर्षे कार्मणयोग न हो है। २. कार्मण काययोगका स्वामित्व कार्मण और औदारिकादि भिन्न हैं। . कार्मण शरीरपर ही औदारिकादि शरीरोंके योग्य परमाणु जिन्हे विखसोपचय कहते है. आकर जमा होते है, इस दृष्टि से भी कार्मण और औदारिकादि भिन्न है। प्रश्न-निनिमित्त होनेमे कार्मण शरीर असद है ! उत्तर-ऐसा नहीं है। जिस प्रकार दीपक स्वपरप्रकाश है, उसी तरह कार्मणशरीर औदारिकादिका भी निमित्त है, और अपने उत्तर कार्मणका भी। फिर मिथ्यादर्शन आदि कार्मण शरीरके निमित्त हैं। ३. नोकर्मोंके ग्रहणके अमावमें भी इसे कायपना कैसे प्राप्त है ध.१/१,१,४/१३८/३ कार्मणशरीरस्थानां जीवानां पृथिव्यादिकम भिश्चितनोकर्मपुद्गलाभावादकायत्वं स्यादिति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रापि सत्त्वतस्तव्यपदेशस्य न्याय्यत्वात् । = प्रश्नकार्मणकाययोगमे स्थित जीवके पृथिवी आदिके द्वारा संचित हुए नोकर्म पुद्गलका अभाव होनेसे अकायपना प्राप्त हो जायेगा ? उत्तर-ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि नोकम रूप पुद्गलोके संचयका कारण पृथिवी । आदि कर्म सहकृत औदारिकादि नामकर्मका सत्त्व कार्मणकाययोगरूप अवस्थामें भी पाया जाता है. इसलिए उस अवस्थामें भी कायपनेका व्यवहार बन जाता है। ४. अन्य सम्बन्धित विषय १. पाँचों शरीरों में सूक्ष्मता तथा उनका स्वामित्व- दे० शरीर/१ २. कार्मण शरीर मूत है -दे० मूर्त ५ ३. कामण शरीरका स्वामित्व, अनादि बन्धन बद्धत्व व निरुपभोगत्व -दे० ते जस/१ ४. कामण शरीरकी संघातन परिशातन कृति -दे० ध,६/०५५-४११ ५. कार्मण शरीर नामकर्मका बन्ध उदय सत्त्व -दे० वह वह नाम ष वं.१/१.१/सू० ६०,६४/२६८,३०७ कम्मइयकायजोगो बिग्गहगई समावण्णाणं केवलीणं वा समुग्घाद-गदाण ।६०। कम्मइयकायजोगो एइंदिय-प्पडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।६४ = विग्रहगतिको प्राप्त चारो गतियोके जीवोके तथा प्रतर और लोकपूरण समुद्धातको प्राप्त केवली जिनके कार्मणकाययोग होता है ।६०। कार्मण काययोग ऐकेन्द्रिय जीवोसे लेकर सयोगिकेवली तक होता है। (रा.वा./१/७/ १४/३६/२४) (त.सा./२/९७) विशेष दे० उपरला शीर्षक । त.सू./२/२५/ विग्रहगतौ कर्मयोगः २५॥ विग्रहगतिमें कमयोग (कार्मण योग) होता है। २५। ध.४/विशेषार्थ (१,३,२/३०/१७ आनुपूर्वी नामकर्मका उदय कार्मणकाय योगवाली विग्रहगतिमे होता है। ऋजुगतिमें तो कार्मण काययोग न होकर औदारिकमिश्र व वैक्रियकमिश्र काययोग ही होता है। ३. विग्रहगतिमें कार्मण ही योग क्यों गो.क जी.प्र /३१८/४५१/१३ ननु अनादिसंसारे विग्रहाविग्रहगत्योमिथ्यादृष्टयादिसयोगान्तगुणस्थानेषु कार्मणस्य निरन्तरोदये सति 'विग्रहगतौ कर्मयोग' इति सूत्रारम्भ. कथं 1 सिद्ध सत्यारभ्यमाणो विधिनियमायेति विग्रहगतौ कर्मयोग एव नान्यो योग' इत्यवाधरणार्थ । -प्रश्न-जो अनादि संसार विषै विग्रहगति अविग्रहगति विषै मिथ्यादृष्टि आदि सयोग पर्यन्त सर्व गुणस्थान विर्षे कार्माणका निरन्तर उदय है. 'विग्रहगतौ कर्मयोग ' ऐसे सूत्र विर्षे कार्माणयोग कैसे कहया । उत्तर-'सिद्ध सत्यारम्भो नियमाय' सिद्ध होते भी बहुरि आरम्भ सो नियमके अर्थि है तातें इहाँ ऐसा नियम है जो विग्रहगतिविर्षे कार्मण योग ही है और योग नाहीं। ४. कार्मण योग अपर्याप्तकों में ही क्यों २. कार्मण योग निर्देश १. कामण काययोगका लक्षण 4.सं./प्रा./१/RE कम्मेव य कम्मइयं कम्मभवं तेण जो दु संजोगो । कम्मइयकायजोगो एय-विय-तियगेसु-समएस 188) = कर्मों के समूहको अथवा कार्मण शरीर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले कायको कार्मणकाय कहते हैं, और उसके द्वारा होनेवाले योगको कार्मणकाययोग कहते हैं। यह योग निग्रहगतिमें अथवा केवलिससुघातमें, एक दो अथवा तीन समय तक होता है । (ध'१/१,१,५७/१६६/ २६५) (गो.जी /मू./२४१) (पं.सं/सं./१/१७८) ध. १/१,१,५७/२६/२ तेन योगः कार्मशकाययोगः। केवलेन कर्मणा जनितवीर्येण सह योग इति यावत् । --उस ( कार्मण) शरीरके निमित्तसे जो योग होता है, उसे कामण काययोग कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि अन्य औदारिकादि शरीर वर्गणाओं के बिना केवल एक कर्म से उत्पन्न हुए वीर्यके निमित्तसे आत्मप्रदेश परिस्पन्द रूप जो प्रयत्न होता है उसे कार्मण काययोग कहते है। गो.जी.जी./२४१/५०४/१ कर्माकर्षशक्तिसंगतप्रदेशपरिस्पन्दरूपो योग' स' कार्मणकाययोग इत्युच्यते। कार्मणकाययोग. एकद्वित्रिसमयविशिष्टविग्रहगतिकालेषु केवलिसमुद्धातसंबन्धिप्रतरद्वयलोकपूरणे समयत्रये च प्रवर्तते शेषकाले नास्तीति विभाग' तुशब्देन सूच्यते। -तीहिं (कार्मण शरीर ) कार्मण स्कंधसहित वर्तमान जो सप्रयोगः ध.१११,१,६४/३३४/३ अथ स्याद्विग्रहगतौ कार्मणशरीराणां न पर्याप्तिस्तदा पर्याप्तीनां षण्णां निष्पतेरभावात् । न अपर्याप्तास्ते आरम्भारप्रभृति आ उपरमादन्तरालावस्थायामपर्याप्तिव्यपदेशात् । न चानारम्भकस्य स व्यपदेश. अतिप्रसङ्गात् । ततस्तृतीयमप्यवस्थान्तरं वक्तव्यमिति नैष दोषः तेषामपर्याप्तेष्वन्तर्भावात् । नातिप्रसङ्गोऽपि ।...ततोऽशेषसंसारिणामवस्थाद्वयमेव नापरमिति स्थितम् । = प्रश्न-विग्रहगतिमें कार्मण शरीर होता है, यह बात ठीक है। किन्तु वहाँपर कार्मण शरीरवालोके पर्याप्ति नहीं पायी जाती है, क्योंकि विग्रहगतिके काल में छह पर्याप्तियोकी निष्पत्ति नहीं होती है। उसी प्रकार विग्रहगतिमें वे अपर्याप्त भी नही हो सकते है; क्योंकि पर्याप्तियोके आरम्भसे लेकर समाप्ति पर्यन्त मध्यकी अवस्थामे अपर्याप्ति यह संज्ञा दी गयी है। परन्तु जिन्होने पर्याप्तियोका आरम्भ ही नहीं किया है ऐसे विग्रहगति सम्बन्धी एक दो और तीन समयवर्ती जीवों को अपर्याप्त संज्ञा नहीं प्राप्त हो सकती है, क्योंकि ऐसा मान लेनेपर अतिप्रसंग दोष आता है। इसलिए यहाँपर पर्याप्त और अपर्याप्तसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था ही होनी चाहिए । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ऐसे जीवोंका अपर्याप्तोंमें ही अन्तर्भाव किया गया है। और ऐसा मान लेनेपर अतिप्रसंग दोष भी नहीं आता है...अत: सम्पूर्ण प्राणियोकी दो अवस्थाएँ ही होती है। इनसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था नहीं होती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्मण काल ७७ काल ५. अन्य सम्बन्धित विषय किया जाता है। वस्तुभूत काल तो वह सूक्ष्म द्रव्य है, जिसके निमित्त से ये सर्व द्रव्य गमन अथवा परिणमन कर रहे हैं। यदि वह न हो तो १. कार्मण काययोगमें कार्यका लक्षण कैसे घटित हो इनका परिणमन भी न हो, और उपरोक्त प्रकार आरोपित कालका -दे० काय/२ व्यवहार भी न हो । यद्यपि वर्तमान व्यवहारमें सैकेण्डसे वर्ष अथवा २. कार्मणं काययोगमें चक्षु व अवधि दर्शन प्रयोग नहीं होता। शताब्दी तक ही कालका व्यवहार प्रचलित है। परन्तु आगममें उसकी जघन्य सीमा 'समय' है और उत्कृष्ट सीमा युग है। समयसे छोटा -दे० दर्शन/ काल सम्भव नहीं, क्योंकि सूक्ष्म पर्याय भी एक समयसे जल्दी नहीं ३. कार्मण काययोगी अनाहारक क्यों। -दे० आहारक/१ बदलती। एक युगमें उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी ये दो कल्प होते हैं, ४. कार्मण काययोगमें कौका बन्ध उदय सत्त्व। और एक कल्पमें दु.खसे दुःखकी वृद्धि अथवा सुखसे दुःखकी ओर -दे० वह वह नाम हानि रूप दुषमा सुषमा आदि छः छः काल कल्पित किये गये हैं। ५. मार्गणा प्रकरणमें भाव मार्गणा इष्ट है। तहाँ पायके इन कालों या कल्पोंका प्रमाण कोडाकोड़ी सागरोंमें मापा जाता है। ___ अनुसार व्यय होता है। -दे० मार्गमा ६. कार्मण काययोग सम्बन्धी गुणस्थान, जीव समास, मार्गणा- १. काल सामान्य निर्देश स्थानादि २० प्ररूपणाएँ। -दे० सत् ७. कार्मण काययोग विषयक सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, १ काल सामान्यका लक्षण । अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ। -दे० वह वह नाम निश्चय व्यवहार कालकी अपेक्षा भेद । दीक्षा-शिक्षादि कालकी अपेक्षा भेद । कार्मण काल-दे० काल/१ । निक्षेपोंको अपेक्षा कालके भेद कार्मण वर्गणा-दे० वर्गणा। स्वपर कालके लक्षण । स्वपर कालकी अपेक्षा वस्तुमें विधि निषेध कार्य-१. कर्म के अर्थ में कार्य दे०-कर्म। २. कारण कार्य भावका -दे० सप्तभंगी// विस्तार--दे० कारण। दीक्षा-शिक्षादि कालोंके लक्षण। कार्य अविरुद्ध हेतु-दे० हेतु । ग्रहण व वासनादि कालोंके लक्षण। कार्य ज्ञान-दे० उपयोग/I/१/५ । | स्थितिबन्धापसरण काल -दे० अपकर्षण/४/४ । कार्य चतुष्टय-दे० 'चतुष्टय' । स्थितिकाण्डकोत्करण काल -दे० अपकर्षण/४/४ । कार्य जीव-दे० जीव । अवहार कालका लक्षण । कार्य परमाणु-दे० परमाणु । निक्षेप रूप कालों के लक्षण । सम्यग्ज्ञानका काल नाम अंग। कार्य परमात्मा-दे० 'परमात्मा'। पुद्गल आदिकोंके परिणामकी काल संशा कैसे कार्य विरुद्ध हेतु-दे० हेतु। सम्भव है। कार्य समयसार-दे० 'समयसार' । दीक्षा-शिक्षादि कालोंमें से सर्व ही एक जीवको हों कार्यसमा जाति ऐसा नियम नहीं। न्या सू /मू. व टी/११/३७/३०४ प्रयत्नकार्यानकत्वात्कार्यसमः ॥३७॥ कालकी अपक्षा द्रव्यमें भेदाभेद -दे० सप्तभंगी// प्रयत्नानन्तरीयकत्वादनित्य' शब्द इति यस्य प्रयत्नानन्तरमात्मलाभ आबाधाकाल ~दे० 'आबाधा' स्तत वल्वभूखा भवति यथा घटादिकार्यमनित्यमिति च भूत्वा न भवतीत्येतद्विज्ञायते। एवमवस्थिते प्रयत्नकार्यानकत्वादिति प्रतिषेध उच्यते। -प्रयत्नके आनन्तरीयकत्व (प्रयत्नसे उत्पन्न होनेवाला) निश्चय काल निर्देश व उसकी सिद्धि शब्द अनित्य है जिसके अनन्तर स्वरूपका लाभ है, वह न होकर होता है, जैसे घटादि कार्य अनित्य है, और जो होकर नहीं होता है, १ निश्चय कालका लक्षण। ऐसी अवस्था रहते 'प्रयत्नकार्यानिकत्वात्' यह प्रतिषेध कहा जाता है । (श्लो.वा.न्या.४४६/५४२/५) । काल द्रव्यके विशेष गुण व कार्य वर्तना हेतुत्व है। काल द्रव्य गतिमें भी सहकारी है। काल-१, असुरकुमार नामा व्यन्तरजातीय देवों का एक भेद-दे० असुर । २ पिशाच जातीय व्यन्तर देवों का एक भेद-दे० 'पिशाच'। काल द्रव्यके १५ सामान्य-विशेष स्वभाव । ३. उत्तर कालोद समुद्रका रक्षक व्यन्तर देव-दे० व्यंतर/४ । ४. एक काल द्रव्य एक प्रदेशी असंख्यात द्रव्य हैं। ग्रह-दे० ग्रह । ५. पंचम नारद विशेष परिचय-दे० शलाकापुरुष/६ । कालद्रव्य व अनस्तिकायपना -दे० 'अस्तिकाय' ६. चक्रवर्तीकी नवनिधियों मे से एक-दे० शलाका पुरुष/२। काल द्रव्य आकाश प्रदेशोंपर पृथक् पृथक कालयद्यपि लोकमे घण्टा, दिन, वर्ष आदिको ही काल कहनेका अवस्थित है। व्यवहार प्रचलित है, पर यह तो व्यवहार काल है वस्तुभूत नहीं है। काल द्रव्यका अस्तित्व कैसे जाना जाये। परमाणु अथवा सूर्य आदिकी गतिके कारण या किसी भी द्रव्यकी समयसे अन्य कोई काल द्रव्य उपलब्ध नहीं। भूत, वर्तमान, भावी पर्यायों के कारण अपनी कल्पनाओंमें आरोपित जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ७८ सूचीपत्र समयादिका उपादान कारण तो सूर्य परमाणु आदि है, काल द्रव्यसे क्या प्रयोजन । परमाणु श्रादिकी गतिमें भी धर्मादि द्रव्य निमित्त हैं. काल द्रव्यसे क्या प्रयोजन । सर्व द्रव्य स्वभावसे ही परिणमन करते है काल द्रव्यसे क्या प्रयोजन । काल द्रव्य न माने तो क्या दोष है। अलोकाकाशमें वर्तनाका हेतु क्या ? स्वयकाल द्रव्यमें वर्तनाका हेतु क्या ? काल द्रव्यको असंख्यात माननेकी क्या आवश्यकता, एक अखण्ड द्रव्ध मानिए । काल द्रव्य क्रियावान् नही है। -दे० द्रव्य/३। कालद्रव्य क्रियावान् क्यों नहीं? कालागुको अनन्त कैसे कहते हैं ? कालद्रव्यको जाननेका प्रयोजन । काल द्रव्यका उदासीन कारणपना । -दे० कारण III/R1 ३. समयादि व्यवहार काल निर्देश व तत्सम्बन्धी शंका समाधान सुषमा दुषमा सामान्यका लक्षण । श्रवसर्षिणी कालके षट मेदोंका स्वरूप । उत्सर्पिणी कालका लक्षण व काल प्रमाण । उत्सर्पिणी कालके षट् भेदोंका स्वरूप । छह कालोका पृथक पृथक् प्रमाण । अवसर्पिणीके छह मेदों में क्रमसे जीवोंकी वृद्धि होती है। | उत्सर्पिणीके छह कालोंमें जीवोंकी क्रमिक हानि व कल्पवृक्षोंकी क्रमिक वृद्धि । युगका प्रारम्भ व उसका क्रम। कृतयुग या कर्मभूमिका प्रारम्भ -दे० भूमि/४। हुण्डावसर्पिणी कालकी विशेषताएँ। ये उत्सर्पिणी आदि षटकाल भरत व ऐरावत क्षेत्रोंमें ही होते है। मध्यलोकमें सुषमादुषमा आदि काल विभाग । छहों कालोमें सुख-दुःख आदिका सामान्य कथन । चतुर्थ कालकी कुछ विशेषताएँ। पचम काल की कुछ विशेषताएँ । पंचम कालमें भी ध्यान व मोक्षमार्ग __-दे० धर्मध्यान।। १७ | षट कालोंमें आयु आहारादिकी वृद्धि व हानि प्रद. शक सारणी। समयादिको अपेक्षा व्यवहार कालका निर्देश । समय निमिषादि काल प्रमाणोंकी सारणी -दे० गणित/1/१॥ समयादि की उत्पत्ति के निमित्त ।। परमाणुको तीव्र गतिसे समयका विभाग नही हो जाता। व्यवहार कालका व्यवहार मनुष्य क्षेत्रमें ही होता | कालानुयोगद्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम कालानुयोगद्वारका लक्षण । काल व अन्तरानुयोगद्वारमें अन्तर । कालप्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम । ओघ प्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम । अोध प्ररूपणा में नाना जोवोंकी जघन्य काल प्राप्ति विधि । ओव प्ररूपणामें नाना जीवोंकी जघन्य काल प्राप्ति विधि। प्रोष प्ररूपणामें एक जीवकी जघन्य काल प्राप्ति देवलोक आदिमें इसका धवहार मनुष्य क्षेत्रकी अपेक्षा किया जाता है। जब सब द्रव्योंका परिणमन कान है तो मनुष्य क्षेत्रमें ही इसका व्यवहार क्यों ? भूत वर्तमान व भविष्यत् कालका प्रमाण । अर्ध पुद्गल परावर्तन कालकी अनन्तता। -दे० अनन्त/२। बतमान कालका प्रमाण -दे० वर्तमान । काल प्रमाण मानने से अनादिव के लोप की आशंका निश्चय व व्यवहार काल में अन्तर । भवस्थिति व कार्यास्थतिमें अन्तर -दे० स्थिति/२। विधि। गुणस्थानों विशेष सम्बन्धी नियम । -दे० सम्यक्त्व व संयम मार्गणा। देवमतिमें मिथ्यात्वके उत्कृष्टकाल सम्बन्धी नियम । इन्द्रिय मार्गणाम उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि । कायमार्गणामें त्रसोंका उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि। योगमार्गणा में एक जीवापेक्षा जघन्य काल प्राप्ति विधि । योग मार्गणामें एक जीवापेक्षा उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि। उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश | कल्प काल निर्देश। कालके उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी दो भेद । दोनों के सुषमादि छह-छह भेद । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. काल सामान्य निर्देश काल रूप परिणमनकी विवक्षासे काल, सामान्य काल कहलाता है। तथा सत्के विवक्षित द्रव्य गुण वा पर्याय रूप अंशोके परिणमनकी अपेक्षासे जब कालको विवक्षा होती है वह विशेष काल है । वेदमागणामें स्त्रावेदियोंका उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि। वेदमार्गणामें पुरुषवेदियोंका उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि। कपाय मार्गणामें एक जीवापेक्षा जघन्य काल प्राप्ति विधि । मति, श्रुत, शानका उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि -दे० वेदक सम्यक्त्ववत् । १६ लेश्या मार्गणामें एक जीवापेक्षा एक समय जघन्य काल प्राप्ति विधि। लेश्या मार्गणामें एक जीवापेक्षा अन्तमुहूर्त जघन्य काल प्राप्ति विधि। लेश्या परिवर्तन क्रम सम्बन्धी नियम । वेदक सम्यक्त्वका ६६ सागर उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि । सासादनके काल सम्बन्धी -दे० सासाइन । २. निश्चय व्यवहार कालकी अपेक्षा भेद स.सि./५/२२/२६३/२ कालो हि द्विविध. परमार्थकालो व्यवहारकालश्च । काल दो प्रकारका है-परमार्थकाल और व्यबहारकाल । ( स.सि./ १/८/२६/७); (स.सि./४/१४/२४६/४ ); (रा.वा/४/१४/२/२२२/१); (रा वा./५/२२/२४/४८२/१) ति.प./४/२७६ कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हुवंति एदेसुं। मुक्खा धारबलेणं अमुक्खकालो पयटेदि। =कालके मुख्य और अमुख्य दो भेद हैं। इनमें से मुख्य कालके आश्रयसे अमुख्य कालकी प्रवृत्ति होती है। कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ ३. दीक्षा-शिक्षा आदि कालकी अपेक्षा भेद गो.क./मू./५८३ विग्गहकम्मसरोरे सरीरमिस्से सरीरपज्जत्ते । आणावचि पज्जते कमेण पंचोदये काला ।५८३३ =ते नामकर्मके उदय स्थान जिस-जिस काल विर्षे उदय योग्य हैं तहाँ ही होंइ तात नियतकाल है। ते काल विग्रहगति, वा कार्मण शरीरवि, मिश्रशरीरवि, शरीर पर्याप्ति विर्षे, आनपान पर्याप्ति विर्षे, भाषा-पर्याप्ति विर्षे अनुक्रमतें पॉच जानने। गो.क./भू./६१५ ( इस गाथामें ) वेदककाल व उपशमकाल ऐसे दो कालों का निर्देश है। पं.का./ता.वृ /१७३/२५३/११ दीक्षाशिक्षागणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थ भेदेन षट् काला भवन्ति । =दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषण काल, आत्मसंस्कारकाल. सल्लेखनाकाल और उक्तमार्थकालके भेदसे कालके छह भेद हैं। गो.जी/जी प्र/२६६/५८२/२ तस्थिते सोपक्रमकाल: अनुपक्रमकालश्चेति द्वौ भङ्गी भवतः। उनकी स्थिति (काल) के दोय भाग हैं-एक सोपक्रमकाल, एक अनुपक्रमकाल। सारणीमें प्रयुक्त संकेतोंका परिचय । | जीवों की काल विषयक प्रोष प्ररूपणा । जीवोंके अवस्थान काल विषयक सामान्य व विशेष आदेश प्ररूपणा। सम्यक्प्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्वको सत्त्व काल प्ररूपणा पाँच शरीरबद्ध निषेकोंका सत्ताकाल । पाँच शरीरोंकी संघातन परिशासन कृति । योग स्थानोंका अवस्थान काल । अष्टकर्मके चतुर्बन्ध सम्बन्धी रोष आदेश प्ररूपणा । ,, ,, उदोरणा सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा अप्रशम्तोपशमना है , र संक्रमण , " ,, ,, स्वामित्व ( सत्व), | मोहनीयके चतुः बन्धविषयक श्रोध आदेश प्ररूपणा । १. काल-सामान्य निर्देश १. काल सामान्यका लक्षण (पर्याय) ध.४/१,५,९/३२२/६ अणेयविहो परिणामे हितो पुधभूदकालाभावा परिणामाणं च आणं तिओवलं भा।परिणामोंसे पृथक् भूतकालका अभाव है, तथा परिणाम अनन्त पाये जाते हैं। घ.६/४,१,२/२७/११ तीदाणागयपज्जायाण.. कालत्तब्भुवगमादो । अतीत व अनागत पर्यायोंको काल स्वीकार किया गया है। घ./पू./२७७ तदुदाहरणं सम्प्रति परिणमनं सत्तयावधार्यन्त । अस्ति विवक्षितत्वादिह नास्त्यंशस्याविवक्षया तदिह ।२७७१-सद सामान्य ४. निक्षेपों की अपेक्षा कालके भेद ध.४/१.५.१/१/वणामकालो ठवणकालो दव्वकालो भावकालो चेदिकालो चउत्रिहो (३१३/११) सा दुविहा, सब्भावासभावभेदेण ।... दब्बकालो दुविहो, आगमदो णोआगमदो य...णोआगमदो दव्वकालो जाणुगसरीर-भवियतन्त्रदिरित्तभेदेण तिविहो। तस्थ जाणुगसरीरणोआगमदव्व कालो भविय-वट्टमाण-समुज्झादभेदेण तिविहो। ( ३१४/१)। भावकालो दुविहो, आगम-णोआगमभेदा । नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल और भावकाल इस प्रकारसे काल चार प्रकारका है (३१३/११) । स्थापना, सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापनाके भेदसे दो प्रकारकी है।''आगम और नोआगमके भेदसे द्रव्यकाल दो प्रकारका है। हायकशरीर, भव्य और तद्वयतिरिक्तके भेदसे नोआगम द्रव्यकाल तीन प्रकारका है, उनमें ज्ञायकशरीर नोआगम द्रव्यकाल भावी, वर्तमान और व्यक्तके भेदसे तीन प्रकारका है (३१४/१) । आगम और नोआगमके भेदसे भावकाल दो प्रकारका है। ध.४/१,५.१/३२२/४ सामण्णेण एयविहो। तीदो अणागदो वट्टमाणो त्ति तिविहो। अधवा गुणट्टिदिकालो भवढिदिकालो कम्मट्ठिदिकालो कायट्ठिदिकालो उववादकालो भवट्टिदिकालो त्ति छबिहो। अहवा अणेयविहो परिणामे हितो पुधभूतकालाभावा, परिणामाणां च आणं तिओवलंभा । सामान्यसे एक प्रकारका काल होता है। अतीतानागत वर्तमानकी अपेक्षा तीन प्रकारका होता है। अथवा गुणस्थितिकाल, भवस्थितिकाल, कस्थितिकाल, कायस्थितिकाल, उपपादकाल और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल १. काल सामान्य निर्देश भावस्थितिकाल, इस प्रकार कालके छह भेद है। अथवा काल अनेक प्रकारका है, क्योंकि परिणामोसे पृथग्भूत कालका अभाव है, तथा परिणाम अनन्त पाये जाये। ध. १२/४,२,६,१/७५-७७/४ काल भाव नाम स्थापना द्रव्य समाचार अद्धा प्रमाण | (दे.आगे) सद्भाव असद्भाव लौकिक लोकोत्तर ! पत्य सागर आदि अतीत अनागत वर्तमान आगम नोआगम औदारिकादि पाँच शरीर द्रव्य आगम नोआगम ज्ञायक शरीर भावि तद्वयतिरिक्त भूत वर्तमान व्यक्त प्रधान अप्रधान शिक्षा गृह्णाति स शिक्षाकाल; शिक्षानन्तरं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्ग स्थित्वा तदर्थिनां भव्यप्राणिगणानां परमात्मोपदेशेन यदा पोषणं करोति स च गणपोषणकाल', गणपोषणानन्तरं गणं त्यक्त्वा यदा निजपरमात्मनि शुद्धसंस्कार करोति स आत्मसंस्कारकाल', आत्मसंस्कारानन्तरं तदर्थ मेव...परमात्मपदार्थ स्थित्वा रागादिबिकल्पाना सम्यग्लेखनं तनुकरणं भावसल्लेखना तदर्थ कायक्लेशानधनानां द्रव्यसल्लेखना तदुभयाचरणं स सल्लेखनाकाल', सल्लेखनानन्तरं... बहिर्द्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूप निश्चयचतुर्विधाराधना या तु सा चरमदेहस्य तद्भवमोक्षयोग्या तद्विपरीतस्य भवान्तरमोक्षयोग्या चेत्युभयमुत्तमार्थ कालः । = जब कोई आसन्न भव्य जीव भेदाभेदरत्नत्रयात्मक आचार्यको प्राप्त करके, आत्मआराधनाके अर्थ बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रहका परित्याग करके, दीक्षा ग्रहण करता है वह दीक्षाकाल है। दीक्षाके अनन्तर निश्चय व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्मतत्त्वके परिज्ञानके लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्रकी जब शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षाकाल है। शिक्षाके पश्चात् निश्चयव्यवहार मोक्षमार्गमें स्थित होकर उसके जिज्ञासु भव्यप्राणी गणों को परमात्मोपदेशसे पोषण करता है वह गणपोषणकाल है। गणपोषणके अनन्तर गणको छोडकर जब निज परमात्मामें शुद्धसंस्कार करता है वह आत्मसंस्कारकाल है। तदनन्तर उसीके लिए परमात्मपदार्थ में स्थित होकर, रागादि विकल्पोंके कृश करनेरूप भाव सल्लेखना तथा उसीके अर्थ कायक्लेशादिके अनुष्ठान रूप द्रव्यसल्लेरखना है इन दोनों का आचरण करता है वह सल्लेखनाकाल है। सल्लेखनाके पश्चात बहिर द्रव्यों में इच्छाका निरोध है लक्षण जिसका ऐसे तपश्चरण रूप निश्चय चतुर्विधाराधना, जो कि तदभव मोक्षभागी ऐसे चरमदेही, अथवा उससे विपरीत जो भवान्तरसे मोक्ष जानेके योग्य है. इन दोनोंके होती है। वह उत्तमार्थकाल कहलाता है । २. दीक्षादि कालोंके आगमकी अपक्षा लक्षण पं.का./ता वृ./१७३/२५४/८ यदा कोऽपि चतुर्विधाराधनाभिमुखः सन् पञ्चाचारोपेतमाचार्य प्राप्योभयपरिग्रहरहितो भूत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति तदा दीक्षाकालः, दीक्षानन्तरं चतुर्विधाराधनापरिज्ञानार्थमाचाराराधनादिचरणकरणग्रन्थ शिक्षा गृह्णाति तदा शिक्षाकाल', 'शिक्षानन्तरं चरणकरणकथितार्थानुष्ठानेन व्याख्यानेन च पञ्चभावनासहितः सत् शिष्यगणपोषणं करोति तदा गणपोषणकाल' । ...गणपोषणानन्तरं स्वकीयगणं त्यक्त्वात्मभावनासंस्कारार्थी भूत्वा परगणं गच्छति तदात्मसंस्कारकाल.,आत्मसंस्कारानन्तरमाचाराराधनाकथितक्रमेण द्रव्यभावसल्लेखना करोति तदा सल्लेखनाकाल', सल्लेखनान्तरं चतुविधाराधनाभावनया समाधिविधिना कालं करोति तदा स उत्तमार्थकालश्चेति। -जब कोई मुमुक्षु चतुर्विध आराधनाके अभिमुख हुआ, पंचाचारसे युक्त आचार्यको प्राप्त करके उभय परिग्रहसे रहित होकर जिनदीक्षा ग्रहण करता है तदा दीक्षाकाल है। दीक्षाके अनन्तर चतुर्विध आराधनाके ज्ञान के परिज्ञानके लिए जब आचार आराधनादि चरणानुयोगके ग्रन्थोंकी शिक्षा ग्रहण करता है, तब शिक्षाकाल है। शिक्षाके पश्चात् चरणानुयोगमें कथित अनुष्ठान और उसके व्याख्यानके द्वारा पंचभावनासहित होता हुआ जब शिष्यगणका पोषण करता है तब गणपोषण काल है। ...गणपोषणके पश्चात अपने गण अर्थात् संघको छोडकर आत्मभावनाके संस्कारका इच्छुक होकर परसंघको जाता है तब आत्मसंस्कार काल है। आत्मसंस्कारके अनन्तर आचाराराधनामें कथित क्रमसे द्रव्य और भाव सल्लेखना करता है वह सल्लेखनाकाल है। सल्लेखनाके उपरान्त चार प्रकारको आराधनाकी भावनारूप समाधिको धारण करता है, वह उत्तमार्थकाल है। निश्चय व्यवहार ! सचित्त अचित्त मिश्र ५. स्वपर कालके लक्षण प्र.सा./ता.व./११५/१६१/१३ वर्तमानशुद्धपर्यायरूपपरिणतो वर्तमानसमयः कालो भण्यते । वर्तमान शुद्ध पर्यायसे परिणत आत्मद्रव्यकी वर्तमान पर्याय उसका स्वकाल कहलाता है। पं.ध./१/२७४,४७१ कालो वर्तनमिति वा परिणमनवस्तुनः स्वभावेन । ...|२७४। कालः समयो यदि वा तद्देशे वर्तनाकृतिश्चात् । ।४७१। -वर्तनाको अथवा वस्तुके प्रतिसमय होनेवाले स्वाभाविक परिणमनको काल कहते हैं ।...|२७४। काल नाम समयका है अथवा परमार्थ से द्रव्यके देशमें वर्तनाके आकारका नाम भी काल है।...1४७१। रा.बा./हिं./१/६/४६ गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त ( पर्याय )याका काल है। रा.वा.हि./8/७/६७२ निश्चयकालकरि वर्तया जो क्रियारूप तथा उत्पाद व्यय धौव्यरूप परिणाम ( पर्याय ) सो निश्चयकाल निमित्त संसार (पर्याय) है। रा.वा./हि./8/७/६७२ अतीत अनागत वर्तमानरूप भ्रमण सो (जीव) का व्यवहार काल ( परकाल । निमित्त संसार है। ६. दीक्षा शिक्षादि कालोंके लक्षण १. दीक्षादि कालोंके अध्यात्म अपेक्षा लक्षण पं.का./ता.वृ /१७३/११ यदा कोऽप्यासन्नभव्यो भेदाभेदरत्नत्रयात्मक माचार्य प्राप्यात्माराधनार्थ बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहपरित्यागं कृत्वा जिनदीक्षा गृह्णाति स दीक्षाकाल., दीक्षानन्तरं निश्चमव्यवहाररत्नत्रयस्य परमात्मतत्त्वस्य च परिज्ञानार्थ तत्प्रतिपादकाध्यात्मशास्त्रेषु यदा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ८१ १. काल सामान्य निर्देश लगने पर जो प्रायश्चित्तसे शुद्धि करनेके लिए कुछ दिन अनशनादि तप करना पड़ता है उसको प्रतिसेवना काल कहते है। ८. अवहार कालका लक्षण 'ध.३/१,२.५६/२६६/११ का सारार्थ भागाहार रूप कालका प्रमाण । ३. सोपक्रमादि कालोंके लक्षण ध.१४/४,२,७,४२/३२/१ पारद्वपढमसमयादो अंतोमुहूत्तेण कालो जो घादो णिप्पज्जदि सो अणुभागखंडयधादो णाम, जो पुण उक्कीरणकालेण विणा एगसमएणेव पददि सा अणुसमओवट्टणा। प्रारम्भ किये गये प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा जो घात निष्पन्न होता है वह अनुभागकाण्डकघात है। परन्तु उत्कीरणकालके बिना एक समय द्वारा ही जोधात होता है वह अनुसमयापवर्तना है । विशेषार्थ-काण्डक पोरको कहते है। कुल अनुभागके हिस्से करके एक एक हिस्सेका फालिकमसे अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा अभाव करना अनुभाग काण्डकघात कहलाता है । ( उपरोक्त कथनपरसे उत्कीरणकालका यह लक्षण फलितार्थ होता है कि कुल अनुभागके पोर या काण्डक करके उन्हें घातार्थ जिस अन्तर्मुहर्तकालमें स्थापित किया जाता है, उसे उत्कीरण काल कहते है। घ.१४/५,६,६३१/४८५/१२ प्रबन्नन्ति एकत्वं गच्छन्ति अस्मिन्निति प्रबन्धनः । प्रबन्धनश्चासौ कालश्च प्रबन्धनकाल । -बंधते अर्थात् एकत्वको प्राप्त होते है, जिसमें उसे प्रबन्धन कहते है। तथा प्रबन्धन रूप जो काल वह प्रबन्धनकाल कहलाता है । गो.क./जो.प्र ६१५/८२०/५ सम्यक्त्वमिश्रप्रकृत्या स्थितिसत्त्वं यावत्रसे उदधिपृथक्त्व एकाक्षे च पल्यासख्यातकभागोनसागरोपममवशिष्यते तावद्वेदकयोग्यकालो भण्यते। तत उपर्युपशमकाल इति। =सम्यक्त्वमोहिनी अर मिश्रमोहनी इनकी जो पूर्वे स्थितिबंधी थी सो वह सत्तारूप स्थिति त्रसक तौ पृथक्त्व सागर प्रमाण अवशेष रहै अर एकेन्द्रीकै पत्यका असंख्यातवॉ भाग करि होन एक सागर प्रमाण अवशेष रहै तावरकाल तौ वेदक योग्य काल कहिए। बहुरि ताकै उपरि जो तिसत भी सत्तारूप स्थिति धाटि होइ तहाँ उपशम योग्य काल कहिए। गो.क./भाषा/५८३/७८६ ते नामकर्म के उदय स्थान जिस जिस काल वि. उदय योग्य है तहाँ ही होइ तातै नियतकाल है। (इसको उदयकाल कहते है ) ...कार्मण शरोर जहाँ पाइए सो कार्मण काल यावत शरीर पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् शरीर मिश्रकाल, शरीर पर्याप्ति पूर्ण भएँ यावत् सांसोश्वास पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत शरोरपर्याप्ति काल, सांसोश्वास पर्याप्ति पूर्ण भएँ यावत् भाषा पर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत आनपान पर्याप्ति काल, भाषा पर्याप्ति पूर्ण भएँ पीछे सर्व अवशेष आयु प्रमाण भाषापर्याप्ति कहिए । गो. जी./जो. प्र/२६६/५८२/२ उपक्रम' तत्सहितः कालः सोपक्रमकाल' निरन्तरोत्पत्तिकाल इत्यर्थ । ...अनुपक्रमकाल' उत्पत्तिरहितः काल' | - उपक्रम कहिए उत्पत्ति तोहि सहित जो काल सो सोपक्रम काल कहिए सो आवलोके असंख्यातवें भाग मात्र है।...बहुरि जो उत्पत्ति रहित काल होइ सो अनुपक्रम काल कहिए। ल.सा./भाषा/५३/८५ अपूर्वकरणके प्रथम समय तें लगाय यावत् सम्यक्त्व मोहनी, मिश्रमोहनीका पूरणकाल जो जिस काल विर्षे गुणसंक्रमणकरि मिथ्यात्वको सम्यक्त्व मोहनीय मिश्रमोहनीरूप परिणमाव है। ९. निक्षेपरूप कालोंके लक्षण ध ४/१.५.१/३१३-३१६/१० तत्य णामकालो णाम कालसहो । ...सो एसो इदि अण्ण म्हि बुद्धोए अण्णारोवणं ठवणा णाम ।...पल्लवियं...वणसडुज्जोइयचित्तालियिवसंतो । असब्भावट्ठवणकालो णाम मणिभेद-गेरु अ-मट्टी-ठिक्करादिसु वसंतो ति बुद्धिबलेण ठविदो । बागमदो कालपाहुडजाणगो अणुवजुत्तो। ...भवियणोआगमदव्वकालोभवियणोआगमदबकालो भविस्सकाले कालपाहुडजाणओ जीवो। ववगददोगंध-पंचरसट्ठपास-पंचवण्णो कुंभारचक्कट्ठिमसिलव्व वत्तणालक्वणो अत्थो तव्वदिरित्तो आगमदव्वकालो णाम ।...जीवाजीवादिअभंगदव्वं वा णोआगमदब्बकालो ...कालपाडजाणओ उवजुत्तो जोवो आगमभावकालो। दम्बकालजणिदपरिणामो णोआगमभावकालो भण्णाद ।...तस्स समय-आवलिय-खण-लव-मुहत्तदिवस-परख-मांस-उडु-अयण-संवच्छर-जुग-पुत्र-पब-पलिदोयमसागरोवमादि-रुवत्तादो। -'काल' इस प्रकारका शब्द नामकाल कहलाता है।...'वह यही है' इस प्रकारसे अन्य वस्तुमें बुद्धिके द्वारा अन्यका आर पण करना स्थापना है ।...उनमेंसे पल्लवित.. आदि बनखण्डसे उद्योतित, चित्रलिखित बसन्तकालको सद्भावस्थापनाकाल निक्षेप कहते हैं। मणिविशेष, गैरुक, मट्टी, ठीकरा इत्यादिमें यह वसन्त है' इस प्रकार बुद्धिके बलसे स्थापना करनेको असद्भावस्थापना काल कहते हैं। .. काल विषयक प्राभृतका ज्ञायक किन्तु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित जीव आगमद्रव्य काल है।...भविष्यकाल में जो जीव कालपाभृतका ज्ञायक होगा, उसे भावीनोआगमद्रव्यकाल कहते हैं। जो दो प्रकारके गन्ध, पाँच प्रकारके रस, आठ प्रकारके स्पर्श और पाँच प्रकारके वर्ण से रहित है...वर्तना ही जिसका लक्षण है.. ऐसे पदार्थको तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यकाल कहते है ।... अथवा जीव और अजीवादिके योगसे बने हुए आठ भंग रूप द्रव्यको नोआगमद्रव्यकाल कहते हैं। काल विषयक प्राभृतका ज्ञायक और वर्तमानमें उपयुक्त जीव आगम भाव काल है। द्रव्यकालसे जनित परिणाम या परिणमन नोआगमभावकाल कहा जाता है । ...वह काल समय, आवली, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, पूर्व, पर्व, पन्योपम, सागरोपम आदि रूप है। ध.११/४,२,६,१/७६/७ तत्थ सञ्चित्तो-जहा दंसकालो मसयकालो इच्चेवमादि, दंस-मसयाणं चेव उवयारेण कालत्तविहाणादो। अचित्तकालोजहा धूलि कालो चिवल्लकालो उण्हकालो बरिसाकालो सीदकालो इच्चेवमादि । मिस्सकालो-तहा सदंस-सोदकालो इच्चेत्रमादि ।... तत्थ लोउत्तरीओ समाचारकालो-जहा बंदणकालो णियमकालो सज्मयकालो झाणकालो इच्चेवमादि । लोगिय-समाचारकालो-जहा कसणकालो लुणणकालो ववणकालो इच्चेवमादि। - उनमें दंशकाल. मशककाल इत्यादिक सचित्तकाल है, क्योंकि इनमें दंश और मशकके ही उपचारसे कालका विधान किया गया है। धूलिकाल, कर्दमकाल, उष्णकाल, वर्षाकाल एवं शीतकाल इत्यादि सब अचित्तकाल है। सदंश शीतकाल इत्यादि मिश्रकाल है। ...वंदनाकाल, नियमकाल, स्वाध्यायकाल व ध्यानकाल आदि लोकोत्तरीय समाचारकाल हैं । कर्षणकाल, लुननकाल व वपनकाल इत्यादि लौकिक समाचारकाल हैं। ७. ग्रहण व वासनादि कालोंके लक्षण गो.क जी,प्र/४६/४७/१० उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो बासनाकालः । - उदयका अभाव होत संतै भी जो कषायनिका संस्कार जितने काल तक रहे ताका नाम वासना काल है। भ.आ /भाषा/२११/४२६ दीक्षा ग्रहण कर जन तक संन्यास ग्रहण किया नहीं तब तक ग्रहण काल माना जाता है, तथा व्रतादिकोंमें अतिचार जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-११ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल १०. सम्यग्ज्ञानका कालनामा अंग म.आ./२७०-२७५ पादो सियवेरत्तियगोसग्गियकालमेव गेण्हित्ता । उभये कालम्हि पुगो समाज होदि कायो २००१ राज्झाये पणे जंघ वायं वियाग सतपर्व पुण्यहे अवरहे तामिवणे | २७१| आसाढे दुपदा छाया पुस्समासे चदुप्पदा । वड्ढदे हीयदे चावि मासे मासे दुअंगुला ॥ २०२॥ पयसत्त पंचगाहापरिमाणं दिखिविभागसोधीए । पुव्वण्हे अवरण्हे पदोसकाले य सज्झाए । २७३ | दिसदाह उक्कविवासदिच दुग्धसम्झदिनचंदग्गहसूरराहु च ॥२०॥ कलहाविधूमकेतु धरणीकंपंच अभग माया सम्झाए बजिदा दोसा ॥२०५॥ प्रदोषकाल वैरात्रिक, गोसर्गकाल - इन चारों कालोंमें से दिनरातके पूर्व काल अपरकाल इन दो कालोंमें स्वाध्याय करनी चाहिए । २७०। स्वाध्यायके आरम्भ करनेमें सूर्यके उदय होनेपर दोनों जाँघोंकी छाया सात विलस्त प्रमाण जानना । और सूर्यके अस्त होनेके काल में भी सात विलस्त छाया रहे तब स्वाध्याय समाप्त करना चाहिए । २७१ आषाढ महीने के अन्त दिवसमें पूर्वाह्नके समय दो पहर पहले जंघा छाया दोस्त अर्थाय बारह अंगुल प्रमाण होती है और पौषमासमें अन्तके दिनमें पौबीस अंगुल प्रमाण जंपदाथा होती है और फिर महीने महीने में दो-दो अंगुल बढती घटती है। सब संध्याओंमें आदि की दो दो घड़ी छोड़ स्वाध्याय काल है । २०२ दिशाओंके पूर्व आदि भेदोंकी शुद्धिके लिए प्रातः कालमें नौ गाथाओंका, तीसरे पहर सात गाथाओं का, सायंकालके समय पाँच गाथाओंका स्वाध्याय ( पाठ व जाप) करे ।२७३ | उत्पातसे दिशाका अग्नि वर्ण होना, साराके आकार गतका पड़ना बिजलीका चमकना, मेघों संघट्टसे उत्पन्न वज्रपात, ओले बरसना, धनुषके आकार पंचवर्ण पुद्गलोंका दीखना, दुर्गन्ध, लालपीलेवर्ण के आकार साँझका समय, बादलोंसे आच्छादित दिन, चन्द्रमा, ग्रह, सूर्य, राहुके विमानोंका आपस में टकराना | २७४॥ लड़ाईके वचन, लकडी आदि से झगड़ना, आकाशमें धुआँके आकार रेखाका दीखना, धरतीकंप, बादलोंका गर्जना, महापवनका चलना, अग्निदाह इत्यादि बहुत-से दोष स्वाध्याय में वर्जित किये गये हैं अर्थात् ऐसे दोषोंके होनेपर नवीन पठन-पाठन नहीं करना चाहिए 1२०५१ (भ.आ./वि./११३ / २६० ) 1 ११. पुद्गल आदिकोंके परिणामकी काळ संज्ञा कैसे सम्भव है ८२ प./४/१.२.१/३९७/१ पोग्गलादिपरिणामस्थ कर्म कालमवएसो ग एस दोसो, कज्जे कारणोवयारणिबंधणत्तादो । - प्रश्न- पुद्गल आदि द्रव्योंके परिणामके 'काल' यह संज्ञा कैसे सम्भव है ! उत्तर--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कार्य कारणके उपचार के निबन्धनसे इगलादिम्योंके परिणामके भी 'कात' संज्ञाका व्यवहार हो सकता है। = १२. दीक्षा शिक्षा आदि कालोंमेंसे सर्व ही एक जीवको हों ऐसा नियम नहीं पं.का./ता.वृ./१७३/२५३/२२ अत्र कालषटकमध्ये केचन प्रथमकाले केचन द्वितीयका केचन तृतीयादी वनमुत्पादयतीति कास नियमो नास्ति । यहाँ दीक्षादि छः कालो में कोई तो प्रथम काल में कोई, द्वित्तीय कालमें कोई तृतीय आदि काल केवलज्ञानको उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार छः कालोंका नियम नहीं है । २. निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि २. निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि १. निश्चय कालका लक्षण - पं का../२४ वणरसो बरगददोगंधफासो । अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो ति । २४॥ काल (निश्चयकाल) पाँच वर्ग और पाँच रस रहित दो गन्ध और आठ स्पर्श रहित, अगुरु अमूर्त और वर्तना लक्षण वाला है (स.सि./३/२२/२१३/२) ( ति प /४/२७८ ) स.सि./५/२२/२१९/७ स्वात्मनैव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाद्विना सहकृत्यभावावर्तनोपलक्षितः कालः (यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्याय उत्पन करनेमें) स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह माह्य सहकारी कारणके बिना नहीं हो सकती इसलिए उसे प्रयतने वाला काल है ऐसा मानकर वर्तना कालका उपकार कहा है । स.सि./५/३६/३१२/११ कालस्य पुनद्वेधापि प्रदेशप्रचयकल्पना नास्तीत्यकाय...तस्मात्पृथगि कालो देश क्रियते। अनेक सति किमस्य प्रमाणम् लोकाकाशस्य यावन्तः प्रदेशास्तावन्तः कस्लाणवो निष्क्रिया एकेकाशप्रदेशे एकेका व्याप्य व्यवस्थिताः । रूपादिगुण विरहादर्ता निश्चय और व्यवहार) दोनों ही प्रकारके कालमें प्रदेशप्रचयकी कल्पनाका अभाव है ।... काल अध्यका पृथक से कथन किया गया है। शंका-काल अनेक द्रव्य हैं इसका या प्रमाण है उत्तर जितने प्रवेश हैं उतने कालागु हैं और वे निष्क्रिय हैं। तात्पर्य यह है कि लोकाकाशके एक एक प्रदेश पर एक एक कालाणु अवस्थित है । और वह काल रूपादि गुणोंसे रहित तथा अमूर्तीक है। (रा.वा./५/२२/२४/४८२/२) रा. वा. /४/१४/२२२/१२प्यते प्रेमेन क्रिया कालः जिसके द्वारा क्रियावान द्रव्य 'यते लिप्यते प्रेते' अर्थात् प्रेरणा किये जाते हैं, वह काल द्रव्य है । स घ. ४ / १,५.१/३/३१५ ण य परिणमइ सयं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहि । विविपरिणामियाणं हवइ सुहेऊ सयं कालो |३| = वह काल नामक पदार्थ न तो स्वयं परिणमित होता है, और न अन्यको अन्यरूपसे परिणमाता है। किन्तु स्वतः नाना प्रकारके परिणामोंको प्राप्त होने वाले पदार्थोंका काल स्वयं सुहेतु होता है । ३। (ध.१९/४, २.६.९/२/०६) = ध. ४/२, ५,१/७/३१७ सम्भावसहावाणं जीवाणं तह य पोग्गलाणं च । परियट्टणसंभूओ कालो नियमेण पण्णत्तो ॥ ७॥ - सत्ता स्वरूप स्वभाव राले जीवोंके, तथैव पुगलों और 'च' शब्द धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाश द्रव्यके परिवर्तनमें जो निमित्तकारण हो, वह नियमसे कालद्रव्य कहा गया है। म पु. /३/४ यथा कुलालचक्रस्य भ्रान्तेर्हेतुरधरिशला तथा कालः पदा नांव नो मतः ॥४॥ जिस प्रकार कुम्हारके चाल के घूमने में उसके नीचे लगी हुई की कारण है उसी प्रकार पदार्थोंके परिणमन होने में कालस्य सहकारी कारण है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश न.च.वृ./१३० परमत्थो जो कालो हो चिय हेऊ हवेह परिणामो-जो निश्चय काल है वही परिणमन करनेमें कारण होता है । गो.जी./मू./५६८ त कालो बन्तणगुणमयि दव्वचियेषु खाताधारेणेव य बटूति हु सव्वदव्वाणि । ५६८६ - णिच् प्रत्यय संयुक्त धातुका कर्म वा भावना शब्द निपजे है सोयाका यह जो वर्ते वा वर्तना मात्र होइ ताक वर्तना कहिए सो धर्मादिक द्रव्य अपने अपने पर्यायनको निष्पत्ति विषै स्वयमेव वर्तमान है। तिनके बाह्य कोई कारणभूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति सभवे नाहीं, तायें तिनकें तिस प्रवृति करावने के कारण कालद्रव्य है, ऐसे वर्तना कालका उपकार है । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल २ निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि ५. काल द्रव्य एक प्रदेशी असंख्यात द्रव्य है नि.सा/ता.वृ./६/२४/४ पञ्चानां वर्तनाहेतु' काल' | =पाँच द्रव्योंका वर्तनाका निमित्त वह काल है। द्र.सं.व./मू./२१ परिणामादोलक्खो वट्टणलक्खो य परमट्रो। वर्तना लक्षण वाला जो काल है वह निश्चय काल है। द. सं. ७/टी/२१/६१ वर्तनालक्षण कालाणुद्रव्यरूपो निश्चयकाल' । -वह वर्तना लक्षणवाला कालाणु द्रव्यरूप 'निश्चयकाल' है। २. काल द्रव्यके विशेष गुण व कार्य वर्तना हेतुत्व है त. सु./१/२२, ४० वतनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ।।२२।। सोऽनन्तसमयः॥४०॥ =वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये कालके उपकार हैं ॥२२॥ वह अनन्त समयवाला है। ति.प./४/२७६-२८२ कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हवं ति एदेसु। मुक्वाधारबलेण अमुक्वकालो पयट्ट दि ॥२७॥ जीवाण पुग्गलाणं हुवंति परियट्टणाइ विविहाइ । एदाणं पज्जाया कट्ट'ते मुक्रवकाल आधारे ॥२८०॥ सव्वाण पयत्थाण णियमा परिणामपहदिवित्तीओ। माहिर तरंगहेदुहि सम्बन्भेदेसु बट्ट'ति ॥२८१० वाहिरहेदु' कहिदो णिच्छयकालोत्ति सव्वद रिसीहिं । अभंतर णिमित्तं णियणियदव्वेसु चेट्ठदि ॥२२॥ कालके मुख्य और अमुख्य दो भेद हैं। इनमेंसे मुख्य कालके आश्रयसे अमुख्य कालकी प्रवृत्ति होती है ॥२७॥ जीव और पुद्गल के विविध प्रकारके परिवर्तन हुआ करते हैं। इनकी पर्यायें मुख्य कालके आश्रयसे वर्तती हैं ॥२८०॥ सर्व पदार्थोंके समस्त भेदोंमें नियमसे बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तोंके द्वारा परिणामादिक (परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व ) वृत्तियाँ प्रवर्तती हैं ॥२८१॥ सर्वज्ञ देवने सर्वपदार्थों के प्रवर्तनेका बाह्य निमित्त निश्चयकाल कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने-अपने द्रव्यों में स्थित है। रा. वा./५/३६/२/५०१/३१ गुणा अपि कालस्य साधारणासाधारणरूपा' सन्ति। तत्रासाधारणा वर्तनाहेतुत्वम् । साधारणाश्च अचेतनत्वामूर्तत्वसूक्ष्मत्वागुरुलधुत्वादयः पर्यायाश्च व्ययोत्पादलक्षणा योज्याः। कालमें अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि साधारण गुण और वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण पाये जाते हैं। व्यय और उत्पादरूप पर्यायें भी कालमें बराबर होती रहती हैं। आ. प./२/88 कालद्रव्ये वर्तनाहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति विशेषगुणाः । -कालद्रव्यमें वर्तनाहेतुत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व ये विशेष गुण हैं । (ध.५/३३/७) प्र.सा./त. प्र./१३३-१३४ अशेषशेषद्रव्याणांगं प्रतिपर्यायं समयवृत्तिहेतुत्वं कालस्य । =( कालके अतिरिक्त ) शेष समस्त द्रव्योंकी प्रतिपर्यायमें समयवृत्तिका हेतुत्व ( समय-समयकी परिणतिका निमितत्त्व ) कालका विशेष गुण है। नि. सा./मू./२६ कालस्स ण कायत्तं एयपदेसो हवे जम्हा ॥३६॥ -काल द्रव्यको कायपना नहीं है, क्योंकि वह एकप्रदेशी है। (पं.का/त. प्र/४) (द्र सं. वृ./मू./२५) प्र. सा./त. प्र./१३५ कालाणोस्तु द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वात्पर्यायेण तु परस्परसंपर्कासंभवादप्रदेशत्वमेवास्ति। ततः कालद्रव्यमप्रदेश। -कालाणु तो द्रव्यत. प्रदेश मात्र होनेसे और पर्यायतः परस्पर सम्पर्क न होनेसे अप्रदेशी ही है। इसलिए निश्चय हुआ कि काल द्रव्य अप्रदेशी है। (प्र. सा./त. प्र./१३८) प्र. सा./त. प्र./१३६ कालजीवपुद्गलानामित्येकद्रव्यापेक्षया एकदेश अनेकद्रव्यापेक्षया पुनरञ्जनचूर्ण पूर्ण समुद्गकन्यायेन सर्व लोक एवेति ॥१३६॥ -काल, जीव तथा पुद्गल एक द्रव्यकी अपेक्षासे लोकके एकदेशमें रहते हैं, और अनेक द्रव्योंकी अपेक्षासे अंजनचूर्ण (काजल) से भरी हुई डिबियाके अनुसार समस्त लोकमें ही है। ( अर्थात द्रव्यको अपेक्षासे कालद्रव्य असंख्यात है।) गो. जी./F./५८५ एक को दु पदेसो कालाणूणं धुवो होदि ॥५८५॥ = बहुरि कालाणू एक एक लोकाकाशका प्रदेशविषै एक-एक पाइए है सो ध्रुब रूप है, भिन्न-भिन्न सत्व धरै है तातै तिनिका क्षेत्र एक-एक प्रदेशी है। ६. कालद्रव्य आकाश प्रदेशोंपर पृथक-पृथक अवस्थित है ध./४/१,५१/४/३१५ लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया दु एक्केवका । रयणाणं रासी इव ते कालाणू मुणेयव्वा ॥४-लोकाकाशके एक-एक प्रदेश पर रत्नोंकी सशिके समान जो एक एक रूपसे स्थित हैं. वे ___ कालाणु जानना चाहिए। (गो. जी./स./५८१) (द्र. सं. वृ./ मू/२२) ति.प./४/२८३ कालस्स भिण्णाभिण्णा अण्णुण्णपवेसणेण परिहोणा। पुहपुह लोयायासे चेट्ठ ते संचएण विणा १२८३॥ = अन्योन्य प्रवेशसे रहित कालके भिन्न-भिन्न अणु संचयके बिना पृथक्-पृथक् लोकाकाशमें स्थित है। (प.प्र.//२/२१) (रा. वा/५/२२/२४/४८२/३) (न. च. वृ./१३६) ७. काल दुव्यका अस्तित्व कैसे जाना जाये ३. काल द्रव्यगतिमें भी सहकारी है त. सू./५/२२ ...क्रिया....च कालस्य ॥२२॥ = क्रियामे कारण होना, यह काल द्रव्यका उपकार है। स.सि./५/२२/२६२/१ स कथं काल इत्यवसीयते । समयादीनां क्रियाविशेषाणां समयादिभिनिर्वय॑मानानां च पाकादीनां समय; पाक इत्येवमादिस्वसंज्ञारूढिसद्भावेऽपि समय. कालः ओदनपाकः काल इति अध्यारोप्यमाण' कालव्यपदेश' तव्यपदेश निमित्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति । कुतः । गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् । -प्रश्न-काल द्रव्य है यह कैसे जाना जा सकता है। उत्तर---समयादिक क्रियाविशेषों की और समयादिकके द्वारा होनेवाले पाक आदिककी समय, पाक इत्यादिक रूपसे अपनी-अपनी रौढिक संज्ञाके रहते हुए भी उसमें जो समयकाल, ओदनपाक काल इत्यादि रूपसे काल संज्ञाका अध्यारोप होता है, वह उस सज्ञाके निमित्तभूत मुख्यकालके अस्तित्वका ज्ञान कराता है, क्योंकि गौण व्यवहार मुख्यकी अपेक्षा रखता है। (रा. वा./५/२२/६/४७७/१६ ) ( गो. जी. जी. प्र./५६८/१०१३/१४ ) प्र. सा./त. प्र/१३४ अशेषशेषतव्याणां प्रतिपर्यायसमयवृत्तिहेतुर्व कारणान्तरसाध्यत्वात्समयविशिष्टाया वृत्ते. स्वतस्तेषामसभवत्काल मधिगमयति । प्र. सा/त प्र./१३६ कालोऽपि लोके जीवघुद्गलपरिणामव्यज्यमानसम यादिपर्यायत्वात् । प्र. सा/त. प्र./१४२ ती यदि वृत्यंशस्यैव किं यौगपद्य न कि क्रमेण, योगपद्यन चेत् नास्ति यौगपद्म सममेकस्य विरुद्धधर्मयोरनवतारात् । ४. काल द्रव्यके १५ सामान्य विशेष स्वभाव न. च. वृ./७० पंचदसा पुण काले दबसहावा य णायव्वा ॥७०॥ काल द्रव्यके १५ सामान्य तथा विशेष स्वभाव जानने चाहिए। (आ प/४) ( वे स्वभाव निम्न हैं-सद्, असद, नित्य, अनित्य, अनेक. भेद, अभेद, स्वभाव, अचैतन्य, अमूर्त, एकप्रदेशत्व, शुद्ध, उपचरित, अनुपचरित, एकान्त. अनेकान्त स्वभाव) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल " + क्रमेण चेट नास्तिक्रमः वृष्यंशस्य सूक्ष्मत्वेन विभागाभावात् । स्तो वृद्धिमाद कोऽभ्यवश्यमनुसर्तव्य स प समयपदार्थ एव प्र. सा./त.प्र./९४३ विशेषास्तित्वरूप सामान्यास्तिरणमन्तरेणानुपपत्तेः ॥ अयमेव च समयपदार्थस्य सिद्धयति सद्भाव १. ( कालके अतिरिक्त) शेष समस्त धोके, प्रत्येक पर्याय समयत्तिका हेतुस्व कालको बतलाता है, क्योंकि उनके, समयविशिष्ट वृत्ति कारणान्तरसे साध्य होनेसे ( अर्थात् उनके समय से विशिष्ट परिणति अन्य कारणसे होते हैं, इसलिए ) स्वतः उनके वह ( समयवृत्ति हेतुत्व | संभवित नहीं है। (१३४) (पं.का प्र. ता. २३) । २. जीव और पुद्गलों के परिणामोंके द्वारा ( कालको ) समयादि पर्यायें व्यक्त होती हैं (१३६ / (प्र.सा./त.प्र./ १३६ ) । ३. यदि उत्पाद और बिनाश नृत्यंशके । काल रूप पर्याय) हो मान जाये तो प्रश्न होता है कि:-) ( ९ ) वे युगपद हैं या (२) क्रमश. १ ( १ ) यदि 'युगपद' कहा जाय तो युगपदपना पटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एक के दो विरोधी धर्म नहीं होते। ( एक ही समय एक नृत्यंदके प्रकाश और अन्धकारको भाँति उत्पाद और विनाश-दो विरुद्ध धर्म नहीं होते । ) (२) यदि 'क्रमशः' कहा जाय तो क्रम नहीं बनता, क्योंकि वृत्त्यंशके सूक्ष्म होनेसे उसमें विभागका अभाव है इसलिए समयरूपी वृत्यंशके उत्पाद तथा विनाश होना अशक्य होनेसे ) कोई वृत्तिमान अवश्य दूँढना चाहिए और वह ( वृत्तिमान) काल पदार्थ ही है । ( १४२ ) । ४. सामान्य अस्तित्व के fear विशेष अस्तिeanी उत्पत्ति नहीं होती, वह ही समय पदार्थ के सद्भावकी सिद्धि करता है। त. सा. / परि०/१/१. १७२ पर शोलापुर वाले पं० वंशीधरजोने काफी विस्तारसे युक्तियों द्वारा छहों द्रव्योंकी सिद्धि की है। ८. समय से अन्य कोई काल अन्य उपलब्ध नहीं प्र. सा./त.प्र./ १४४ न च वृत्तिरेव केवला कालो भवितुमर्हति वृत्तेहि वृत्तिमन्तमन्तरेणानुपपछे मात्र वृद्धि ही काल नहीं हो सकती, क्योंकि वृत्तिमानके बिना वृत्ति नहीं हो सकती । पं. का./ता.वृ./२६/५५/८ समयरूप एव परमार्थ कालो न चान्यः कालाणुद्रव्यरूप इति । परिहारमाह-समयस्तावत्सूक्ष्मकालरूप प्रसिद्ध' स एव पर्याय न च द्रव्यम् । कथं पर्यायत्वमिति चेत् । उत्पन्नप्रध्वंसित्वापर्यायस्य "समओ उप्पण्णपद्ध सी" ति वचनात् । पर्यायस्तु द्रव्यं बिना न भवति द्रव्यं च निश्चयेनाविनश्वरं तच्च कालपर्यायस्योपादानकारणतं काला पुरूष कालद्रव्यमेव न च गतादि तदपि ... प्रश्न - समय रूप ही निश्चय कस्मात् । उपादानसदृशत्वात्कार्य... काल है, उस समयसे भिन्न अन्य कोई कालाणु द्रव्यरूप निश्चयकाल नहीं है 1 उत्तर - समय तो कालद्रव्यकी सूक्ष्म पर्याय है स्वयं द्रव्य नहीं है। प्रश्न - समय को पर्यायपना किस प्रकार प्राप्त है ? उत्तर = पर्याय उत्पत्ति विनाशवाली होती है “समय उत्पन्न प्रध्वंसी है" इस वचनसे समय पर्यायपना प्राप्त होता है और वह पर्याय द्रव्यके बिना नहीं होती, तथा द्रव्य निश्चयसे अनिश्वर होता है। इसलिए कालरूप पर्यायका उपादान कारणभूत कालानुरूप कालद्रव्य ही होना चाहिए न कि पुद्गलादि। क्योंकि, उपादान कारणके सदृश ही कार्य होता है। (पं.का./ता. २३/४६/८) (पं. प्र. / हो० / २ / २१/ १३६/९० ) (द्र.सं. बृ. टी / २१/६१/६ ) । ९. समय आदि का उपादान कारण तो सूर्य परमाणु आदि हैं, कालद्रव्यसे क्या प्रयोजन:-- रा. वा./५/२२/७/४७७/२० आदित्यगतिनिमित्ता द्रव्याणां वर्तनेति; तन्नः किं कारणम् गतावपि सद्भावात् सवितुरपि मज्यायां भृतादि ८४ २. निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि व्यवहारविषयभूतायां क्रिमेत्येवं रूढायां वर्तनावर्णनाथ समेतुना अन्येन कालेन भवितव्य प्रश्न- आदित्य-सूर्यकी गति द्रव्योंमे वर्तना हो जावे ? उत्तर- ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि सूर्य की गतिमे भी 'भृत वर्तमान भविष्यत' आदि कालिक व्यवहार देखे जाते है । वह भी एक क्रिया है उसकी वर्तनामें भी किसी अन्यको हेतु मानना ही चाहिए। यही कात है (पं.का./ता. ५.२५/५१/१६)। द्र. सं. वृ / टी०/२१/६२/२ अथ मतं समयादिकालपर्यायाणां कालद्रव्यमुपादानकारणं न भवति; किन्तु समयोत्पत्तौ मन्दगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुता निमेषकालोपत्तो नपुट चिट तथैव घटिकाकालपर्यायोपत्ती घटिका सामग्री राजसभाजन पुरुषहस्तादिव्यापारो, दिवसपर्याये तु दिनकर बिम्बमुपादानकारणमिति नैव यथा तदुलोपादानकारणी रपन्नस्य सदोदनपर्यायस्य कृष्णादिवर्णा सुरभ्यसुरभिगन्ध-स्निग्धरूक्षादिस्पर्शमधुरादिरस विशेषरूपा गुणर दृश्यन्ते । तथागतपरमाणुनयनपुट विघटन भाजपुरुषव्यापाराविदिनकरविरू पुद्गलपर्यायैरुपादानभूतैः समुत्पन्नानां 1 समयनिमिषत्रटिकादिकालयाणामपि शुक्लकृष्णादिगुणाः प्राप्नु वन्ति न च तथा । प्रश्न- समय, घडी आदि कालपर्यायोंका उपादान कारण काल द्रव्य नहीं है किन्तु समय रूप काल पर्यायकी उत्पत्ति में मन्दगति से परिणत पुद्गल परमाणु उपादान कारण है; तथा निमेषरूप काल पर्यायकी उत्पत्ति में नेत्रोंके पुटोंका विघटन अर्थात् पलकका गिरना-उठना उपादान कारण है; ऐसे ही घडी रूप काल पर्यायकी उत्पत्ति में घडीकी सामग्रीरूप जलका कटोरा और पुरुषके हाथ आदिका व्यापार उपादान कारण है; दिन रूप कालपर्यायकी उत्पत्तिमें सूर्यका बिम्ब उपादान कारण है। उत्तर-ऐसा नहीं है, जिस तरह चावल रूप उपादान कारणसे उत्पन्न भात पर्यायके उपादान कारणमें प्राप्त गुणो के समान ही सफेद, कालादि वर्ण, अच्छी या बुरी गन्ध; चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श; मीठा आदि इत्यादि विशेष गुण दोख पड़ते हैं, वैसे ही उगल परमाणु, नेत्र, पलक, विघटन, जल कटोरा, पुरुष व्यापार आदि तथा सूर्यका बिम्ब इन रूप जो उपादानभूत पुद्गलपर्याय है उनसे उत्पन्न हुए समय, निमिष, घडी, दिन आदि जो काल पर्याय है उनके भी सफेद, काला आदि गुण मिलने चाहिए, परन्तु समय, घड़ी आदिमें ये गुण नहीं दीख पड़ते हैं । ( रा. वा./५/२२/२६-२७/४८२-४८४ में सविस्तार कवि)। पं. का/ता.वृ./२६/५४ / १६ यद्यपि निश्चयेन द्रव्यकालस्य पर्यायस्तथापि व्यवहारेण परमाणुजलादिपुद्गलद्रव्यं प्रतीत्याश्रित्य निमित्तीकृत्य भव उत्पन्नो जात इत्यभिधीयते । =यद्यपि निश्चय से ( समय ) द्रव्य कालकी पर्याय है, तथापि व्यवहारसे परमाणु जलादि पुद्गलद्रव्य के जायते अर्थात दयको निमित करके प्रगट होती है, ऐसा जानना चाहिए। (द्र.सं./टी./१७/९३४) १०. परमाणु आदिकी गति में भी धर्म आदि द्रव्य निमित है, काल द्रव्यसे क्या प्रयोजन रा.वा./५/२२/८/४७७/२४ आकाशप्रदेशनिमित्ता वर्तना नान्यस्तद्धेतुः कालोऽस्तीति; तन्न; कि कारणम् । तां प्रत्यधिकरणभावाद् भाजनवद यथा भाजनं तण्डुलानामधिकरणं न तु देव पचति तेजसो हि स व्यापार तथा आकाशमप्यादित्यगत्यादिवर्तनायामधिकरणं न तु तदेव निर्वर्तयति । कालस्य हि स व्यापारः । =! - प्रश्न- आकाश प्रदेश के निमित्तसे द्रव्योंमें) वर्तना होती है। अन्य कोई 'काल' नामक उसका हेतु नही है उत्तर ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे वर्तन चावलों का आधार है, पर पाकके लिए तो अग्निका व्यापार ही चाहिए, उसी तरह आकाश वर्तमावाले द्रव्योंका आधार तो हो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल २. निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि सकता है, पर वह वर्तनाकी उत्पत्तिमें सहकारी नहीं हो सकता। उसमें तो काल द्रव्यका ही व्यापार है। पं.का./ता.वृ./२५/५३/३ आदित्यगत्यादिपरिणतेधर्मद्रव्यं सहकारिकारणं कालस्य किमायातम् । नैवं । गतिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं भवति काल द्रव्यं च, सहकारिकारणानि बहून्यपि भवन्ति यत् कारणाव घटोत्पत्तौ कुम्भकारचक्रचीवरादिवत् मत्स्यादीनां जलादिवत् मनुष्याणां शकटादिवत् इत्यादि कालद्रव्यं गतिकारणं । कुत्र भणितं तिष्ठतीति चेत् "पोग्गल करणा जीया खंधा खलु कालकरणेहि" क्रियावन्तो भवन्तीति कथयत्यग्रे। -प्रश्न-सूर्यकी गति आदि परिणतिमें धर्म द्रव्य सहकारी कारण है तो काल द्रव्यको क्या आवश्यकता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि गति परिणतके धर्मद्रव्य सहकारी कारण होता है तथा काल द्रव्य भी। सहकारी कारण तो बहुत सारे होते हैं जैसे घटकी उत्पत्तिमें कुम्हार चक्र चीवरादिके समान, मत्स्योंकी गतिमें जलादिके समान. मनुष्यों की गतिमें गाडीपर बैठना आदिके समान,.. इत्यादि प्रकार कालद्रव्य भी गतिमें कारण है। प्रश्न-ऐसा कहाँ है । उत्तर-धर्म द्रव्यके विद्यमान होनेपर भी जीवोंको गतिमें कर्म, नोकर्म, पुद्गल सहकारी कारण होते हैं और अणु तथा स्कन्ध इन दो भेदोंवाले पुद्गलोके गमनमें काल द्रव्य सहकारी कारण होता है। (पं.का /मू-/१८) ऐसा आगे कहेंगे। १२. काल द्रव्य न माने तो क्या दोष है नि.सा/ता.व./३२ में मार्ग प्रकाशसे उधृत-कालाभावे न भावानां परिणामस्तदन्तरात । न द्रव्यं नापि पर्यायः सर्वाभावः प्रसज्यते । -कालके अभाव में पदार्थोंका परिणमन नहीं होगा, और परिणमन न हो तो द्रव्य भी न होगा, तथा पर्याय भी न होगी। इस प्रकार सर्व के अभावका (शून्य)का प्रसंग आयेगा। गो.जी./जी.प्र /१६८/१०१३/१२ धर्मादिद्रव्याणां स्वपर्यायनिवृति प्रति स्वयमेव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाभावे तवृत्त्यसंभवात् । धर्मादिक द्रव्य अपने-अपने पर्यायनिकी निष्पत्ति विषै स्वयमेव वर्तमान है, तिनके बाह्य कोई कारण भूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति सम्भवे नाहीं। १३. अलोकाकाशमें वतनाका हेतु क्या है पं.का./ता.वृ./२४/५०/१३ लोकाकाशावहिर्भागे कालद्रव्यं नास्ति कथमाकाशस्य परिणतिरिति प्रश्ने प्रत्युत्तरमाह-यथैकप्रदेशे स्पष्टे सति लम्बायमानमहावरत्रायां महावेणुदण्डे वा-सर्वत्र चलनं भवति यथैव च मनोजस्पर्शनेन्द्रियविषयैकदेशस्पर्शे कृते सति रसनेन्द्रियविषये च सर्वाङ्गन सुखानुभवो भवति तथा लोकमध्ये रिथतेऽपि कालद्रव्ये सर्वत्रालोकाकाशे परिणतिर्भवति। कस्मात् । अखण्डैकद्रव्यत्वात् । =प्रश्न-लोकके बाहरी भागमें कालाणु द्रव्यके अभावमे अलोकाकाशमें परिणमन कैसे होता है ? उत्तर-जिस प्रकार बहुत बड़े बाँसका एक भाग स्पर्श करनेपर सारा बॉस हिल जाता है...अथवा जैसे स्पर्शन इन्द्रियके विषयका, या रसना इन्द्रियके विषयका प्रिय अनुभव एक अंगमें करनेसे समस्त शरीरमें मुखका अनुभव होता है; उसी प्रकार लोकाकाशमें स्थित जो काल द्रव्य है वह आकाशके एक देशमें स्थित है, तो भी सब अलोकाकाशमे परिणमन होता है, क्योंकि आकाश एक अखण्ड द्रव्य है । (द्र.सं.वृ./टी./२२/६४) । ११. सर्व द्रव्य स्वभावसे ही परिणमन करते हैं, काल द्रव्यसे क्या प्रयोजन रा.बा./५/२२/६/४७७/२७ सत्तानां सर्वपदार्थानां साधारण्यस्ति तद्धे'तुका वर्तनेति; तन्न; किं कारणम् । तस्या अप्यनुग्रहाद। कालानुगृहीतवर्तना हि सत्तेति ततोऽप्यन्येन कालेन भवितव्यम् । = प्रश्न--सत्ता सर्व पदार्थों में रहती है, साधारण है, अतः वर्तना सत्ताहेतुक है। उत्तरऐसा नहीं है, क्योंकि वर्तना सत्ताका भी उपकार करती है। कालसे अनुगृहीत वर्तना ही सत्ता कहलाती है। अतः काल पृथक् ही होना चाहिए। द्र.संवृ./टी./२२/६५/४ अथ मतं यथा कालद्रव्यं स्वस्योपादानकारणं परिणते. सहकारिकारणं च भवति तथा सर्वव्याणि, कालद्रव्येण कि प्रयोजनमिति । नैवम्: यदि पृथग्भूतसहकारिकारणेन प्रयोजनं नास्ति तर्हि सर्वद्रव्याणां साधारणगतिस्थित्यवगाहनविषये धर्माधर्माकाशद्रव्यैरपि सहकारिकारणभूतै. प्रयोजनं नास्ति। किंच, कालस्य घटिकादिवसादिकार्य प्रत्यक्षेणं दृश्यते; धर्मादीनां पुनरागमकथनमेव, प्रत्यक्षेण किमपि कार्य न दृश्यते; ततस्तेषामपि कालद्रव्यस्मेवाभावः प्राप्नोति । ततश्च जीवपुद्गलद्रव्यद्वयमेव, स चागमविरोधः । प्रश्न-(कालकी भाँति ) जीवादि सर्वद्रव्य भी अपने उपादानकारण और अपनेअपने परिणमनके सहकारी कारण रहें। उन द्रव्योके परिणमनमें काल द्रव्य से क्या प्रयोजन है । उत्तर-ऐसा नहीं, क्योंकि यदि अपनेसे भिन्न बहिरंग सहकारी कारणकी आवश्यकता न हो तो सब द्रव्योंके साधारण, गति, स्थिति, अवगाहनके लिए सहकारी कारणभूत जो धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य है उनकी भी कोई आवश्यकता न रहेगी। विशेष-कालका कार्य तो घडी, दिन, आदि प्रत्यक्षसे दीख पड़ता है; किन्तु धर्म द्रव्य आदिका कार्य तो केवल आगमके कथनसे ही जाना जाता है। उनका कोई कार्य प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता। इसलिए जैसे काल द्रव्यका अभाव मानते हो, उसी प्रकार उन धर्म, अधर्म, तथा आकाश द्रव्योंका भी अभाव प्राप्त होता है। और तब जीव तथा पुद्गल ये दो ही द्रव्य रह जायेंगे। केवल दो ही द्रव्योंके माननेपर आगमसे विरोध आता है। (पं.का./ता.वृ./२४/५१)। १४. स्वयं काल द्रव्यमें वर्तनाका हेतु क्या है ध.४/१,५,१/३२१/५ कालस्स कालो कि तत्तो पुधभूदो अणण्णो वा ।... अणन्भुवगमा ।...एत्थ वि एक्कम्हि काले भेदेण बबहारी जुज्जदे। -प्रश्न-कालका परिणमन करानेवाला काल क्या उससे पृथग्भूत है या अनन्य । उत्तर-हम कालके कालको कालसे भिन्न तो मानते नहीं हैं...यहाँपर एक या अभिन्न काल में भी भेद रूपसे व्यवहार बन जाता है। पं.का./ता.वृ/२४/५०/१६ कालस्य कि परिणतिसहकारिकारणमिति । आकाशस्याकाशाधारवत ज्ञानादित्यरत्नप्रदीपानां स्वपरप्रकाशवच्च कालद्रव्यस्य परिणते. काल एव सहकारिकारणं भवति । -प्रश्नकाल द्रव्यकी परिणतिमें सहकारी कारण कौन है। उत्तर-जिस प्रकार आकाश स्वयं अपना आधार है, तथा जिस प्रकार ज्ञान, सूर्य, रत्न बा दीपक आदि स्वपर प्रकाशक हैं, उसी प्रकार कालद्रव्यकी परिणतिय सहकारी कारण स्वयं काल ही है। (द्र.सं.वृ./टी./२२/६५) १५. काल द्रव्यको असंख्यात माननेकी क्या आवश्यकता, एक अखण्ड द्रव्य मानिए श्लो वा. २/भाषाकार १/४/४४-४५/१४८/१७ = प्रश्नकाल द्रव्यको असंख्यात माननेका क्या कारण है 1 उत्तर-काल द्रव्य अनेक हैं, क्योंकि एक ही समय परस्परमें विरुद्ध हो रहे अनेक द्रव्यों की क्रियाओंकी उत्पत्तिमें निमित्त कारण हो रहे हैं...अर्थाद कोई रोगी हो रहा है, कोई निरोग हो रहा है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ३. समयादि व्यवहार काल निर्देश व शंका समाधान १६, काल द्रव्य क्रियावान क्यों नहीं प्राप्तिमें उपादान कारण जाननी चाहिए, उसमे काल उपादान कारण नहीं है, इसलिए काल हेय है। स.सि !/२२/२६१/७ वर्तते द्रव्यपर्यायस्तस्य वर्तयिता कालः । यद्यब कालस्य क्रियावत्त्व प्राप्नोति । यथा शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्या- ३. समयादि व्यवहार काल निर्देश व तत्सम्बन्धी पयतीति। नैष दोषः, निमित्तमात्रेऽपि हेतुक व्यपदेशो दृष्ट. । शंका समाधान यथा कारीषोऽग्निरध्यापयति । एवं कालस्य हेतुकतॄता। द्रव्यकी पर्याय बदलती है और उसे बदलानेवाला काल है। प्रश्न-यदि १. समयादिकी अपेक्षा व्यवहार कालका निर्देश ऐसा है तो काल क्रियावान् द्रव्य प्राप्त होता है। जैसे शिष्य पढता है और उपाध्याय पढाता है यहाँ उपाध्याय क्रियावान् द्रव्य है । पंका /म./२५ समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती। उत्तर-यह कोई दोष नही है। क्योंकि निमित्तमात्रमें भी हेतुकर्ता मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति कालो परायत्तो ।२।। -समय, निमेष, रूप व्यपदेश देखा जाता है । जैसे - कण्डेकी अग्नि पढाती है। यहाँ काष्ठा, कला, घडी, अहोरात्र, मास, ऋतु, अयन और वर्ष ऐसा जो कण्डेकी अग्नि निमित्त मात्र है। उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है। काल ( व्यवहार काल ) वह पराश्रित है ॥२॥ नि.सा./मू /३१ समयावलिभेदेन दु वियप्पं अहब होइ तिवियप्पं १७. कालाणुको अनन्त कैसे कहते हैं तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु ॥३१॥ समय और आवलिके भेदसे व्यवहारकालके दो भेद हैं, अथवा (भूत, वर्तमान और स, सि./५/४०/३१५/६ अनन्तपर्यायवर्तनाहेतुत्वादेकोऽपि कालाणुरनन्त भविष्यतके भेदसे) तीन भेद है। अतीत काल संस्थानोंके और इत्युपचर्यते। -प्रश्न-[एक कालाणुको भी अनन्त संज्ञा कैसे देते संख्यात आवनिके गुणकार जितना है। हैं 1] उत्तर-अनन्त पर्याय वर्तना गुणके निमित्तसे होती है, इस सं.सि /५/२२/२६३/३ परिणामादिलक्षणो व्यवहारकाल' । अन्येन परिलिए एक कालाणुको भी उपचारसे अनन्त कहा है। च्छिन्न अन्यस्य परिच्छेदहेतुः क्रियाविशेष काल इति व्यवयिते । ह.पु./७/१०...। अनन्तसमयोत्पादादनन्तव्यपदेशिनः1१०1 -ये कालाणु स त्रिधा व्यवतिष्ठते भूतो वर्तमानो भविष्यन्निति" व्यवहारकाले अनन्त समयोंके उत्पादक होनेसे अनन्त भी कहे जाते हैं ।१०॥ भूतादिव्यपदेशो मुख्यः । कालव्यपदेशो गौण', क्रियावद्द्रव्या पेक्षत्वात्कालकृतत्वाच्च । १८. कालद्रव्यको जाननेका प्रयोजन स.सि./५/४०/३१५/४ सांप्रतिकस्यैकसमयिकत्वेऽपि अतीता अनागताश्च समया अनन्ता इति कृत्वा "अनन्तसमय' इत्युच्यते। -१. परिणा.सा./ता.व./१३६/११७/७ एवमुक्तलक्षणे काले विद्यमानेऽपि परमात्मतत्त्व मादि लक्षणवाला व्यवहार काल है । तात्पर्य यह है कि जो क्रियामलभमानोऽतीतानन्तकाले संसारसागरे भ्रमितोऽयं जीवो यतस्तत. विशेष अन्यसे परिच्छिन्न होकर अन्यके परिच्छेदका हेतु है उसमें कारणात्तदेव निजपरमात्मतन्त्वं सर्व प्रकारोपादेयरूपेण श्रद्धेयं ज्ञात काल इस प्रकारका व्यवहार किया जाता है। वह काल तीन प्रकारव्यम.. ध्येयमिति तात्पर्यम् । उपरोक्त लक्षणवाले कालके जाननेपर का है-भूत, वर्तमान और भविष्यत । ...व्यवहार कालमें भूतादिक भी इस जीवने परमात्म तत्त्वकी प्राप्ति के बिना संसार सागर में अनन्त रूप संज्ञा मुख्य है और काल संज्ञा गौण है। क्योंकि इस प्रकारका काल तक भ्रमण किया है। इसलिए निज परमात्म तत्त्वसर्व प्रकार उपा व्यवहार क्रियावाले द्रव्यकी अपेक्षासे होता है तथा कालका कार्य है। देय रूपसे श्रद्धेय है, जानने योग्य है, तथा ध्यान करने योग्य है। २. यद्यपि वर्तमान काल एक समयवाला है तो भी अतीत और यह तात्पर्य है। अनागत अनन्त समय है ऐसा मानकर कालको अनन्त समयवाला पं.का./ता वृ./२६/५/२० अत्र व्याख्यानेऽतीतानन्तकाले दुर्लभो योऽसौ कहा है। (रा.वा./५/२२/२४/४८२/8) शुद्धजीवास्तिकायस्तस्मिन्नेव चिदानन्दै ककालस्वभावे सम्यक्श्रद्धानं । घ.१९/४.२,६,२/१/७५ कालो परिणामभवो परिणामो दव्बकालरागादिभ्यो भिन्नरूपेण भेदज्ञानं . विकल्पजालत्यागेन तत्रैव स्थिर- संभूदो। दोणं एस सहाओ कालो खणभंगुरो णियदो।। -समचित्त' च कर्तव्यमिति तात्पर्यार्थ.. यादि रूप व्यवहार काल चूकि जीव व पुद्गलके परिणमनसे जाना पं.का./ता.व./१००/१६०/१२ अत्र यद्यपि काजलब्धिवशेन भेदाभेदरत्न जाता है, अत' वह उससे उत्पन्न हुआ कहा जाता है । "व्यवहारकाल त्रयलक्षणं मोक्षमार्ग प्राप्य जीवो रागादिरहितनित्यानन्दै कस्वभावमु क्षणस्थायी है। पादेयभूतं पारमार्थिकसुखं साधयति तथा जीवस्तस्योपादानकारणं न ध.४/१.५,१/३१७/११ कल्यन्ते संख्यायन्ते कर्म-भव-कायायुस्थितयोऽनेच काल इत्यभिप्रायः। --१. इस व्याख्यानमें तात्पर्यार्थ यह है कि नेति कालशब्दव्युत्पत्ते । काल' समय अद्धा इत्येकोऽर्थः । =जिसके अतीत अनन्त कालमें दुर्लभ ऐसा जो शुद्ध जीवास्तिकाय है, उसी द्वारा कर्म, भव, काय और आयुकी स्थितियाँ कल्पित या संख्यात चिदानन्दै ककालस्वभावमे सम्यश्रद्धान, तथा रागादिसे भिन्न रूपसे की जाती हैं अर्थात् कही जाती है, उसे काल कहते हैं, इस प्रकारभेदज्ञान...तथा विकल्प जाल को त्यागकर उसीमें स्थिरचित्त करना की काल शब्दकी व्युत्पत्ति है। काल, समय और अद्धा, ये सब चाहिए। २. यद्यपि जोव काल लब्धिके वशसे भेदाभेद रत्नत्रय रूप एकार्थवाची नाम हैं। (रा.वा./५/२२/२३/४८२/२१) मोक्षमार्गको प्राप्त करके रागादिसे रहित नित्यानन्द एक स्वभाव तथा न. च. वृ /१३७...परिणामो। पज्जयठिदि उवचरिदो ववहारादो य उपादेयभूत पारमार्थिक सुखको साधता है, परन्तु जीब ही उसका __णायब्बो ।१३७१ = परिणाम अथवा पर्यायकी स्थितिको उपचारसे उपादान कारण है न कि काल, ऐसा अभिप्राय है। वा व्यवहारसे काल जानना चाहिए। द्र.सं.वृ./टी./२१/६३ यद्यपि काललब्धिवशेनानन्तसुखभाजनो भवति गो.जी./मू./५७२/१०१७ ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्ति जीवस्तथापि...परमात्मतत्त्वस्य सम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठान.. तपश्च- एयट्ठो। वबहारअवठाण ट्ठिदी हु ववहारकालो दु । - व्यवहार रणरूपा या निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं ज्ञातव्यं न अर विकल्प अर भेद अर पर्याय ए सर्व एकार्थ हैं। इनि शब्दनिका च कालस्तेन स हेय इति । यद्यपि यह जीव कालल ब्धिके वशसे __एक अर्थ है तहाँ व्यंजन पर्यायका अवस्थान जो वर्तमानपना ताकरि अनन्त सुरखका भाजन होता है, तथापि • निज परमात्म तत्वका स्थिति जो कालका परिणाम सोई व्यवहार काल है। सम्यश्रद्धान, ज्ञान, आचरण और तपश्चरण रूप जो चार प्रकारकी द्र.सं./मूव टी./२१/६० दव्वपरिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो।... निश्चय आराधना है वह आराधना ही उस जीवके अनन्त सुखकी ।२१ पर्यायस्य सम्बन्धिनी याऽसौ समयघटिकादिरूपा स्थितिः सा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ८७ ३. समयादि व्यवहार काल निर्देश व शंका समाधान व्यवहारकालसंज्ञा भवति, न च पर्याय इत्यभिप्राय'। =जो द्रव्यों के परिवर्तनमें सहायक, परिणामादि लक्षणवाला है, सो व्यवहारकाल है ।२१। द्रव्यकी पर्यायसे सम्बन्ध रखनेवाली यह समय, घड़ी आदि रूप जो स्थिति है वह स्थिति ही 'व्यवहार काल' है। वह पर्याय व्यवहार काल नहीं है । (द्र.सं./टो./२१/६१) पं.ध./पू./२७७ तदुदाहरणं संप्रति परिणमनं सत्तयावधार्यत। अस्ति । विवक्षित्वादिह नास्त्यंशस्याविवक्षया तदिह ।२७७१ = अब उसका उदाहरण यह है कि सत् सामान्यरूप परिणमनकी विवक्षासे काल सामान्य काल कहलाता है। और सतके विवक्षित द्रव्य, गुण व पर्याय रूप विशेष अशोके परिणमनकी अपेक्षासे काल विशेष काल कहलाता है। २. समयादिकी उत्पत्तिके निमित्त त. स./४/१३, १४ (ज्योतिषदेवाः) मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥१३॥ तरकुत कालविभागः ॥१४॥ -ज्योतिष देव मनुष्य लोकमें मेरुकी प्रदक्षिणा करनेवाले ओर निरन्तर गतिशील है ॥१३॥ उन गमन करनेवाले ज्योतिषियोके द्वारा किया हुआ काल विभाग है ॥१४॥ प्र. सा/त. प्र./१३६ यो हि येन प्रदेशमात्रेण कालपदार्थेनाकाशस्य प्रदे शोऽभिव्याप्तस्तं प्रदेश मन्दगत्यातिकमत' परमाणोस्तत्प्रदेशमात्रातिक्रमणपरिमाणेन तेन समो य. कालपदार्थ सूक्ष्मवृत्तिरूपसमय ' स तस्य कालपदार्थस्य पर्यायः । -किसी प्रदेशमात्र कालपदार्थ के द्वारा आकाशका जो प्रदेश व्याप्त हो उस प्रदेशको जब परमाणु मन्दगतिसे उन्म घन करता है तब उस प्रदेशमात्र अतिक्रमणके परिमाणके बराबर जो काल पदार्थ की सूक्ष्मवृत्ति रूप 'समय' है, वह उस काल पदार्थकी पर्याय है। (नि. सा./ता. वृ./३१) । पं. का./त. प्र./२५ परमाणुप्रचलनायत्तः समयः। नयनपुट घटनायत्तो निमिषः । तत्सख्या विशेषतः काष्ठा कला नाली च । गगनमणिगमनायत्तो दिवारात्रः । तत्संरण्याविशेषत मास', ऋतुः, अयनं, संवत्सरमिति। =परमाणुके गमनके आश्रित समय है। ऑख मिचनेके आश्रित निमेष है; उसकी (निमेष की) अमुक संख्यासे काष्ठा, कला, और घड़ी होती है, सूर्यके गमनके आश्रित अहोरात्र होता है; और उसकी ( अहोरात्रकी) अमुक संख्यासे मास, ऋतु, अयन और वर्ष होते हैं । ( द्र. सं. वृ/टी./३५/१३४) द्र. सं. वृ./टी/२१/६२ समयोत्पत्तौ मन्दगतिपरिणतपुद्गल परमाणुस्तथा निमेषकालोत्पत्तौ नयनपुट विघटनं, तथैव घटिकाकालपर्यायोत्पत्ती घटिकासामग्रीभूतजलभाजनपुरुषहस्तादिव्यापारी, दिवसपर्याये तु दिनकरबिम्बमुपादानकारणमिति। समय रूप कालपर्यायकी उत्पत्तिमें मन्दगतिसे परिणत पुद्गल परमाणु, निमेषरूप कालको उत्पत्तिमे नेत्रों के पुटोंका विघटन, घड़ी रूप काल पर्यायकी उत्पत्तिमें घड़ोकी सामग्रीरूप जलका कटोरा और पुरुषके हाथ आदिका व्यापार दिनरूप कालपर्यायकी उत्पत्ति में सूर्यका बिम्ब उपादान कारण है। ३. परमाणुकी तीव्रगतिसे समयका विभाग नहीं हो जाता प्र. सा./त. प्र./१३६ तथाहि-यथा विशिष्टावगाहपरिणामादेकपरमाणुपरिमाणोऽनन्तपरमाणुस्कन्धः परमाणोरनंशवाद पुनरप्यनन्तांशत्वं न साधयति तथा विशिष्ठगतिपरिणामादेककालाव्याप्त काकाशप्रदेशातिक्रमणपरिमाणावच्छिन्नेनै कसमयेनै कस्माल्लोकान्ताद द्वितीयं लोकान्तमाक्रमत' परमाणोरसंख्येयाः कालाणवः समयस्यानंशवादसंख्येयांशत्वं न साधयन्ति । -जैसे विशिष्ट अवगाह परिणामके कारण एक परमाणुके परिमाणके बराबर अनन्त परमाणुओंका स्कन्ध बनता है तथापि वह स्कन्ध परमाणुके अनन्त अंशोंको सिद्ध नहीं करता, क्योकि परमाणु निरंश है; उसी प्रकार जैसे एक कालाणुसे व्याप्त एक आकाशप्रदेशके अतिक्रमणके मापके बराबर एक 'समय में परमाणु विशिष्टगति परिणामके कारण लोकके एक छोरसे दूसरे छोर तक जाता है तब ( उस परमाणुके द्वारा उल्लंधित होनेवाले ) असंख्य कालाणु 'समय'के असंख्य अंशोको सिद्ध नहीं करते, क्योंकि 'समय' निरंश है। पं.का./ता. वृ/२५/५३/८ ननु यावता कालेनै कप्रदेशातिक्रम करोति पुद्गल परमाणुस्तत्प्रमाणेन समयव्याख्यानं कृतं स एकसमये चतुर्दशरज्जु-गमनकाले यावन्त' प्रदेशास्तावन्तः समया भवन्तीति । नैवं । एकप्रदेशातिक्रमेण या समयोत्पत्तिर्भणिता सा मन्दगतिगमनेन, चतुर्द शरज्जुगमनं यदेकसमये भणितं तदक्रमेण शीघ्रगत्या कथितमिति नास्ति दोष । अत्र दृष्टान्तमाह-यथा कोऽपि देवदत्तो योजनशतं दिनशतेन गच्छति स एव विद्याप्रभावेण दिनेनैकेन गच्छति तत्र किं दिनशतं भवति नैवैकदिनमेव तथा शीघगतिगमने सति चतुर्द शरज्जुगमनेप्येकसमय एव नास्ति दोष' इति । -प्रश्नजितने कालमे "आकाशके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशमे परमाणु गमन करता है उतने काल का नाम समय है" ऐसा शास्त्रमें कहा है तो एक समयमें परमाणुके चौदह रज्जु गमन करनेपर, जितने आकाशके प्रदेश है उतने ही समय होने चाहिए । उत्तर---आगममे जो परमाणुका एक समयमे एक आकाशके प्रदेशके साथ वाले दूसरे प्रदेशपर गमन करना कहा है, सो तो मन्दगतिकी अपेक्षासे है तथा परमाणुका एक समयमें जो चौदह रज्जुका गमन कहा है वह शीघ गमनकी अपेक्षासे है। इसलिए शीघ्रगतिसे चौदह रज्जु गमन करनेमें भी परमाणुको एक ही समय लगता है। इसमें दृष्टान्त यह है कि --जैसे देवदत्त धीमी चालसे सौ योजन सौ दिनमे जाता है, वही देवदत्त विद्याके प्रभावसे शीघ्र गतिके द्वारा सौ योजन एक दिनमें भी जाता है, तो क्या उस देवदत्तको शीघ्रगतिसे सौ योजन गमन करने में सौ दिन हो गये। किन्तु एक ही दिन लगेगा। इसी तरह शीघगतिसे चौदह रज्जु गमन करनेमे भी परमाणुको एक हो समय लगेगा। (द्र. सं./टो./२२/६६/१) श्लो. वा./२/भाषाकार १/५/६६-६८/२७८/२ लोक सम्बन्धी नीचेके वात बलयसे ऊपरके वातवलयमे जानेवाला वायुकायका जीव या परमाणु एक समयमें चौदह राजू जाता है। अत एक समयके भी असंख्यात अविभाग प्रतिच्छेद माने गये हैं। संसारका कोई भी छोटेसे छोटा पूरा कार्य एक समयसे न्यून कालमें नहीं होता है। ४. व्यवहार कालका व्यवहार मनुष्य क्षेत्र में ही होता है रा. वा./२/२२/२३/१८२/२० व्यवहारकालो मनुष्यक्षेत्रे संभवति इत्युच्यते। तत्र ज्योतिषाणां गतिपरिणामात्, न बहिःनिवृक्तगतिव्यापारत्वात् ज्योतिषानाम् । = सूर्यगति निमित्तक व्यवहारकाल मनुष्य क्षेत्रमें ही चलता है, क्योकि मनुष्य लोकके ज्योतिर्देव गतिशील होते हैं, बाहरके ज्योतिर्देव अवस्थित है । ( गो. जी./म./५७७ ) ध. ४/९/५,१,३२०/५ माणुसखेत्तेक्कसुज्जमंडलेतियालगोयराणं तपज्जाएहि आबूरिदे । = त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोसे परिपूरित एक मात्र मनुष्य क्षेत्र सम्बन्धी सूर्यमण्डलमें ही काल है; अर्थात कालका आधार मनुष्य क्षेत्र सम्बन्धी सूर्यमण्डल है । ५. देवलोक आदिमें इसका व्यवहार मनुष्यक्षेत्रकी अपेक्षा किया जाता है रा, वा./५/२२/२५/४८२/२१ मनुष्यक्षेत्रसमुत्थेन ज्योतिर्गतिसमयावलिकादिना परिच्छिन्नेन क्रियाकलापेन कालवर्तनया कालाव्येन ऊर्ध्वमधस्तिर्यग् च प्राणिनां संख्येयासंख्येयानन्तानन्तकालगणनाप्रभेदेन कर्मभवकायस्थितिपरिच्छेद'। = मनुष्य क्षेत्रसे उत्पन्न आव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ८८ ४. उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश लिका आदिसे तीनों लोकों के प्राणियों की कर्म स्थिति, भवस्थिति, और कायस्थिति आदिका परिच्छेद होता है। इसीसे संख्येय असंख्येय और अनन्त आदिकी गिनती की जाती है। ध./४/३२०/६ इहत्येणेव कालेण तेसि ववहारादो। सि ववहारादा । यहाँके कालसे ही यहाक कालस ही देवलोकमे कालका व्यवहार होता है। ..काल प्रमाण स्थित कर देनेपर अनादि भी सादि बन जायेगाध.३/१,२,३/३०/५ अणाइस्स अदीदकालस्स कधं पमाणं ठविज्जदि । ण, अण्णहा तस्साभावपसंगादो। ण च अणादि त्ति जाणिदे सादितं पावेदि, विरोहा ।-प्रश्न-अतीतकाल अनादि है, इसलिए उसका प्रमाण कैसे स्थापित किया जा सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि यदि उसका प्रमाण नहीं माना जाये तो उसके अभावका प्रसंग आ जायेगा। परन्तु उसके अनादित्वका ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्वकी प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। ६. जब सब द्रव्योंका परिणाम काल है तो मनुष्य क्षेत्रमें इसका व्यवहार क्यों ध./४/१,५,१३२१/१ जीव-पोग्गलपरिणामो कालो होदि, तो सब्वेसु जीवपोग्गलेसु संठिएण कालेण होदव्वं; तदो माणुसखेत्तेक्कसुज्जमंडलट्ठिदो कालो त्ति ण घडदे। ण एस दोसो, निखज्जत्तादो। कितु ण तहा लोगे समए वा संववहारो अत्थि; अणाइणिहणरूवेण सुज्जमंडल किरियापरिणामेसु चेव कालसंववहारो पयट्ठो। तम्हा एदस्सेव गहण कायव्वं । प्रश्न-यदि जीव और पुद्गलोका परिणाम हो काल है; तो सभी जीव और पुद्गलोंमें कालको संस्थित होना चाहिए। तब ऐसी दशामें 'मनुष्य क्षेत्रके एक सूर्य मण्डल में ही काल स्थित है' यह बात घटित नहीं होती। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि उक्त कथन निर्दोष है। किन्तु लोकमें या शास्त्रमें उस प्रकारसे संव्यवहार नहीं है, पर अनादिनिधन स्वरूपसे सूर्यमण्डलकी क्रिया-परिणामोंमे ही कालका संव्यवहार प्रवृत्त है। इसलिए इसका ही ग्रहण करना चाहिए । ९. निश्चय व व्यवहार कालमें अन्तररा. वा./१/८/२०/४३/२० मुख्यकालास्तित्वसंप्रत्ययार्थ पुन' कालग्रहणम् । द्विविधो हि कालो मुख्यो व्यावहारिकश्चेति । तत्र मुख्यो निश्चयकालः । पर्यायिपर्यायावधिपरिच्छेदो व्यावहारिकः । मुख्य कालके अस्तित्वकी सूचना देनेके लिए स्थितिसे पृथक कालका ग्रहण किया है। "व्यवहार काल पर्याय और पर्यायीकी अवधिका परिच्छेद करता है। ४. उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश १. कल्पकाल निर्देश सं. सि./३/२७/२२३/७ सोभयी कल्प इत्याख्यायते । = ये दोनों ( उत्सपिणी और अवसर्पिणी) मिल कर एक कल्पकाल कहे जाते है । (रा. वा./३/२७/५/१६९/३)। ति. प./४।३१६ दोणि वि मिलिदेकप्प छन्भेदा होंति तत्थ एकेक्क.... -इन दोनोंको मिलानेषर बोस कोडाकोड़ी सागरोपमप्रमाण एक कल्पकाल होता है । (ज० प०/२/११५ ) । २. कालके उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी दो भेदस, सि /३/२७/२२३/२ स च कालो द्विविधः-उत्सर्पिणी अवसर्पिणी चेति ।वह काल (व्यवहार काल) दो प्रकारका है-उत्सर्पिणी और अवसपिणी । (ति. ५/४/३१३) (रा. वा./३/२७/३/१६१/२६ ) (क. पा. १/१५६/७४/२) ७. भूत वर्तमान व भविष्यत कालका प्रमाण नि. सा./मू. व. टी./३१, ३२ तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु ॥३९॥ अतीतकालप्रपंचोऽयमुच्यते-अतीतसिद्धानां सिद्धपायप्रादुर्भावसमयात् पुरागतो ह्यावल्यादिव्यवहारकाल स कालस्यैषां संसारावस्थानां यानि संस्थानानि गतानि तैः सदृशत्वादनन्तः। अनागतकालोऽप्यनागतसिद्धानामनागतशरीराणि यानि ते सशत्याः (1) मुक्ते' सकाशादित्यर्थः टी०॥ जीवादु पुग्गलादोऽणं तगुणा चावि संपदा समयाः । अतीतकाल ( अतोत) संस्थानोंके और संख्यात आवलिके गुणाकार जितना है ॥३॥ अतीतकालका विस्तार कहा जाता है; अतीत सिद्धोंको सिद्धपर्यायके प्रादुर्भाव समयसे पूर्व बीता हुआ जो आवलि आदि व्यवहारकाल वह उन्हें संसार दशामे जितने संस्थान बीत गये हैं उनके जितना होनेसे अनन्त है। (अनागत सिद्धोंको मुक्ति होने तकका ) अनागत काल भी अनागत सिद्धोके जो मुक्ति पर्यन्त अनागत शरीर उनके बराबर है। अब, जीवसे तथा पुद्गलसे भी अनन्तगुने समय हैं। घ.४/१,५.१/३२१/५ केवचिरं कालो। अणादिओ अपज्जव सिदो । -प्रश्न--काल कितने समय तक रहता है। उत्तर-काल अनादि और अपर्यवसित है, अर्थात् कालका न आदि है न अन्त है। घ. ४/ सर्वदा अतोत काल सर्वजीव राशिके अनन्तवें भाग प्रमाण रहता है. अन्यथा सर्व जीवों के अभाव होनेका प्रसंग आता है। गो. जी./मू./५७८, ५७६ ववहारो पुम तिविहो तीदो वदृतगो भविस्सो दु । तोदो संखेज्जावलिहदसिद्धाणं पमाणो दु ।५७८। समयो हु वट्टाणो जीवादो सव्वपुग्गलादो वि । भावी अणतगुणिदो इदि ववहारो हवे कालो ।५७६। व्यवहार काल तीन प्रकार है-अतीत, अनागत और वर्तमान । तहाँ अतीतकाल सिद्ध राशिकौं संख्यात आवलीकरि गुण जो प्रमाण होइ तितना जानना ।५७८१ बर्तमानकाल एक समयमात्र जानना। बहुरि भावो जो अनागतकाल सो सर्व जीवराशि” वा सर्व पुद्गलराशि तें भी अनंतगुणा जानना। ऐसे व्यवहार काल तीन प्रकार कहा ।५७६॥ ३. दोनोंके सुषमादि छः छः भेद स. सि./३/२७/२२३/४ तत्रावसर्पिणी षड् विधा-सुषमसुषमा सुषमा सुषमदुप्षमा दुषमसुषमा दुष्षमा अतिदुष्षमा चेति । उत्सपिण्यपि अतिदुष्षमाद्या सुषमसुषमान्ता षड् विधैव भवति । अवसर्पिणीके छह भेद है-सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुष्षमा, दुष्षमसुषमा, दुष्षमा और अतिदुष्षमा। इसी प्रकार उत्सर्पिणी भी अतिदुष्षमा लेकर सुषमसुषमा तक छह प्रकारका है। (अर्थात दुष्षमदुष्षम, 'दुष्षमा, दुष्षमसुषमा, सुषमदुषमा, सुषमा. और अतिसुषमा । (रा.वा./३/ २७/५/१६१/३१) (ति. प./8/३१६) (ति प./४/१९५५-१५५६) (क. पा. १/७५६/७४/३) (ध.१/४,१,४४/११६/१०)। ४. सुषमा दुषमा आदि का लक्षण म पु/३/१९ समाकाल विभागः स्यात् सुदुसावह गह यो.। सुषमा दुषमेत्यमतोऽन्वर्थ त्वमेतयो ।१६। =समा कालके विभागको कहते हैं तथा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ४. उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश सु और दुर् उपसर्ग क्रमसे अच्छे और बुरे अर्थ में आते हैं। सु और दुर्, उपसर्गोको पृथक् पृथक समाके साथ जोड देने तथा व्याकरणके नियमानुसार स को ष कर देनेसे सुषमा और दुःषमा शब्दोंकी सिद्धि होती है। जिनके अर्थ क्रमसे अच्छा काल और बुरा काल होता है, इस तरह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके छहों भेद सार्थक नामवाले हैं ॥१॥ ५. अवसर्पिणी कालके षट् भेदोंका स्वरूप ति.प./४/३२०-३१४ "नोट-मूल न देकर केवल शब्दार्थ दिया जाता है। १. सुषमासुषमा-(भूमि) सुषमासुषमा कालमें भूमि रज, धूम, अग्नि और हिमसे रहित, तथा कण्टक, अभ्रशिला (बर्फ) आदि एवं बिच्छू आदिक कोडोंके उपसर्गोंसे रहित होती है।३२०। इस कालमें निर्मल दर्पणके सदृश और निन्दित द्रव्योंसे रहित दिव्य बालू, तन, मन और नयनोको सुग्वदायक होती है ।३२१। कोमल घास व फलोसे लदे वृक्ष ।३२२-३२३। कमलोंसे परिपूर्ण वापिकाएँ ।३२४। सुन्दर भवन ।३२५॥ कल्पवृक्षोसे परिपूर्ण पर्वत ।३२८। रत्नोसे भरी पृथ्वी ।३२६। तथा सुन्दर नदियाँ होती हैं ।३३०। स्वामी भृत्य भाव व युद्धादिकका अभाव होता है। तथा विकलेन्द्रिय जीवोंका अभाव होता है।३३१३३२। दिन रातका भेद, शोत व गर्मीको वेदनाका अभाव होता है। परस्त्री व परधन हरण नही होता।३३३। यहाँ मनुष्य युगल-युगल उत्पन्न होते हैं ।३३४। मनुष्य-प्रकृति-अनुपम लावण्यने परिपूर्ण. सुख सागरमें मग्न, मार्दव एवं आर्जवसे सहित मन्दकषायी, सुशीलता पूर्ण भोग-भूमिमें मनुष्य होते हैं। नर व नारीसे अतिरिक्त अन्य परिवार नहीं होता ।।३३७-३४०।-वहाँ गाँव व नगरादिक सब नहीं होते केवल वे सब कल्पवृक्ष होते हैं ।३४१। मांसाहारके त्यागी, उदम्बर फलोके त्यागी, सत्यवादी, वेश्या व परस्त्रीत्यागी, गुणियोंके गुणोंमें अनुरक्त, जिनपूजन करते है। उपवासादि संयमके धारक, परिग्रह रहित यतियोंको आहारदान देने में तत्पर रहते हैं ।३६५-३६८। मनुष्य-भोगभूमिजोंके युगल कदलीघात मरणसे रहित, विक्रियासे बहुतसे शरीरोंको बनाकर अनेक प्रकारके भोगोंको भोगते हैं ।३५८। मकुट आदि आभूषण उनके स्वभावसे ही होते हैं।३६०-३६४ा जन्ममृत्यु-भोगभूमिमें मनुष्य और तिर्यचोंको नौ मास आयु शेष रहने पर गर्भ रहता है और मृत्यु समय आनेपर युगल बालक बालिका जन्म लेते हैं ।३७५ नवमास पूर्ण होने पर गर्भसे युगल निकलते हैं, तत्काल ही तब माता पिता मरणको प्राप्त होते हैं ।३७६। पुरुष छींकसे और स्त्री जंभाई आनेसे मृत्युको प्राप्त होते हैं। उन दोनोंके शरीर शरत्कालीन मेघके समान आमूल विनष्ट हो जाते हैं ।३७७ पालन-- उत्पन्न हुए बालकों के शय्यापर सोते हुए अपने अंगूठेके चूसनेमें ३ दिन व्यतीत होते हैं ।३७४। इसके पश्चात् उपवेशन, अस्थिरगमन. स्थिरगमन, कलागुणों की प्राप्ति, तारुण्य और सम्यग्दर्शनके ग्रहणकी योग्यता, इनमें क्रमशः प्रत्येक अवस्थामें उन बालकोकेतीमतीनदिन व्यतीत होते हैं ।३८०। इनका शरीरमें मूत्र व विष्ठाका आस्रव नहीं होता ।३८१॥ विद्याएँ-वे अक्षर, चित्र, गणित. गन्धर्व और शिल्प आदि ६४ कलाओं में स्वभाव से ही अतिशय निपुण होते हैं ॥३८॥ जातिभोग भूमिमें गाय, सिंह, हाथी, मगर, शूकर, सार ग, रोझ. भैंस, वृक, बन्दर, गवय, तेंदुआ, व्याघ, शृगाल, रीछ, भालू, मुर्गा, कोयल. तोता, कबूतर. राजहंस, कोरंड, काक, क्रौंच, और कंजक तथा और भी तिर्यच होते है ।३८६-३६०। योग व आहार-ये'युगल पारस्परिक प्रेममें आसक्त रहते हैं ।३८६। मनुष्योंवत् तिर्यच भी अपनी-अपनी योग्यतानुसार मांसाहारके बिना कल्पवृक्षोंका भोग करते हैं ।३६१-३६३। चौथे दिन बेरके बराबर आहार करते है ।३३४। कालस्थिति-चार कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण सुषमासुषमा कालमें पहिलेसे शरीरकी ऊँचाई. आयु, बल, ऋद्धि और तेज आदि हीनहीन होते जाते हैं ।३६४ा (ह. पु./७/६४-१०५) (म. पु./६/६३-६१) (ज. प./२/११२-१६४) (त्रि सा/७८४-७६१) २--ति प./४/३६५-४०२॥ २ सुषमा-इस प्रकार उत्सेधादिकके क्षीण होनेपर सुषमा नामका द्वितीय काल प्रविष्ट होता है ।३६५1 इसका प्रमाण तीन कोंडाकोडी सागरोपम है। उत्तम भोगभूमिवत् मनुष्य व तिर्यंच होते हैं। शरीर-शरीर समचतुरस्र संस्थान से युक्त होता है ॥३१८॥आहार '--- तीसरे दिन अक्ष (बहेडा) फलके बराबर अमृतमय आहारको ग्रहण करते हैं ।३६८। जन्म व वृद्धि-उस कालमें उत्पन्न हुए बालकोंके शय्यापर सोते हुए अपने अंगूठेके चूसनेमें पाँच दिन व्यतीत होते हैं ।३६६। पश्चात् उपवेशन. अस्थिरगमन, स्थिरगमन, कलागुणप्राप्ति. तारुण्य, और सम्यक्त्व ग्रहणकी योग्यता, इनमें से प्रत्येक अवस्थामें उन बालकोंके पाँच-पाँच दिन जाते है।४०६। शेष वर्णन सुषमासुषमावद जानना। ३. ति. प./४/४०३-५१० सुषमादुषमा-उत्सेधादिके क्षीण होनेपर सुषमादुषमा काल प्रवेश करता है, उसका प्रमाण दो कोड़ाकोडी सागरोपम है।४०३. शरीर--इस काल में शरीरकी ऊँचाई दो हजार धनुष प्रमाण तथा एक पल्यको आयु होती है।४०४। आहारएक दिनके अन्तरालसे ऑबलेके बराबर अमृतमय आहारको ग्रह्ण करते हैं ।४०६। जन्म व वृद्धि-उस काल में बालकोके शय्यापर सोते हुए सात दिन व्यतीत होते है। इसके पश्चात उपवेशनादि क्रियाओंमें क्रमशः सात सात दिन जाते हैं ।४०८। कुलकर आदि पुरुष-कुछ कम पल्यके आठवे भाग प्रमाण तृतीय कालके शेष रहने पर • प्रथम कुलकर उत्पन्न होता है ॥४२॥ फिर क्रमश चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं ।४२२-४६४। यहाँसे आगे सम्पूर्ण लोक प्रसिद्ध त्रेशठ शलाका पुरुष उत्पन्न होते है ।५१०। शेष वर्णन जो सुषमा ( बा सुषममुषमा) कालमें कह आये हैं, वही यहाँ भी कहना चाहिए ।४०६॥ ४. ति. प./४/१२७६-१२७७ दुषमा.सुषमा-ऋषभनाथ तीर्थक्रके निर्वाण होनेके पश्चात तीन वर्ष और साढे आठ मासके व्यतीत होनेपर दुषमसुषमा नामक चतुर्थकाल प्रविष्ट हुआ ।१२७६। इस कालमें शरीरकी ऊँचाई पॉच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण थी ।१२८७। इसमें ६३ शलाका पुरुष व कामदेव होते है। इनका विशेष वर्णन-दे० 'शलाका पुरुष' । १. ति प/४/१४७४-१५३५ दुषमा-वीर भगवानका निर्वाण होनेके पश्चात तीन वर्ष, आठ मास, और एक पक्षके व्यतीत हो जानेपर दुषमाकाल प्रवेश करता है ।१४७४। शरीर-इस काल में उत्कृष्ट आयु कुल १२० वर्ष और शरीरकी ऊँचाई सात हाथ होती है ।१४७५॥ श्रुत विच्छेद-इस कालमें श्रुततीर्थ जो धर्म प्रवर्तनका कारण है वह २०३१७ वर्षों मे काल दोषसे हीन होता होता व्युच्छेदको प्राप्त हो जायेगा ।१४६३। इतने मात्र समय तक ही चातुर्वर्ण्य संघ रहेगा। इसके पश्चात नही। ।१४६४। मुनिदीक्षा-मुकुटधरो में अन्तिम चन्द्र गुप्तने दीक्षा धारण की । इसके पश्चात मुकुटधारी प्रवज्याको धारण नहीं करते ।१४८१ राजवंश-इस काल में राजवंश क्रमश' न्यायसे गिरते-गिरते अन्यायी हो जाते है। अत आचारोगधरों के २७५ वर्ष पश्चात् एक कल की राजा हुआ ११४६६-१५१०। जो कि मुनियोके आहारपर भी शुल्क माँगता है। तब मुनि अन्तराय जान निराहार लौट जाते हैं ।१५१२। उस समय उनमे किसी एकको अवधिज्ञान हो जाता है। इसके पश्चात कोई असरदेव उपसर्गको जानकर धर्मद्रोही कल्कीको मार डालता है ११५१३। इसके १०० वर्ष पश्चाद एक उपककी होता है और प्रत्येक १००० वर्ष पश्चात एक काकी होता है ।१५१६। प्रत्येक कल्कीके समय मुनिको अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। और चातुर्वर्ण्य भी घटता जाता है ।१५१७। संघबिच्छेद-चाण्डालादि ऐसे बहुत मनुष्य दिखते है। ।१५१८१५१६। इस प्रकार से इक्कीसवॉ अन्तिम कल्की होता है ।१५२०॥ उसके समय में वीरांगज नामक मुनि, सर्वश्री नामक आर्यिका तथा अग्निदत्त और पंगुश्री नामक श्रावक युगल होते है। ।१५२१। उस राजाके द्वारा शुल्क माँगने पर वह मुनि उन श्रावक श्राविकाओंको दुषमा कालका अन्त आनेका सन्देशा देता है। उस समय मुनिकी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-१२ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल आयु कुल तीन दिन की शेष रहती है। तब वे चारों ही संन्यास मरण पूर्वक कार्तिक कृष्ण अमावस्या को यह देह छोड़ कर सौधर्म स्वर्ग में देव होते हैं । १५२० -१५३३। अन्त- उस दिन क्रोधको प्राप्त हुआ असुर देव कफीको मारता है और सूर्यास्तसमय अग्नि विनष्ट हो जाती है। । १९३३ | इस प्रकार धर्मद्रोही २१ कल्की एक सागर आयुसे युक्त होकर वर्मा नरकने जाते हैं । १५३४-०५१५ (म.पु./०६/ ३६० - ४३५ ) । ६- ति प /४/१५३५-१५४४ दुषमादुषमा - २१वें कल्की के पश्चात् तीन वर्ष, आठ मास और एक पलके बीत जानेपर महाविषम वह अतिदुपना नामक छठा काल प्रविष्ट होता है। १५२३० शरीर-इस कालके प्रवेशमें शरीरकी ऊँचाई तीन अथवा साढ़े तीन हाथ और उत्कृष्ट आयु २० वर्ष प्रमाण होती है । ९५३६॥ धूम वर्णके होते है। आहार- उस कालमें मनुष्यों का आहार मूल, फल और मत्स्यादिक होते हैं । १५३७| निवास- उस समय वस्त्र, वृक्ष और मकानादिक मनुष्योंको दिखाई नहीं देते । १५३०| इसलिए सब नंगे और भवनोंसे रहित होकर बनोंमें घूमते हैं। १३३८ शारीरिक दुःख मनुष्य प्रायः पशुओं जैसा आचरण करनेवाले, क्रूर, बहिरे, अन्धे, काने, गुगे, दारिद्र्य एवं क्रोधसे परिपूर्ण दीन, मन्दर जैसे रूपयाले कुमड़े मौने शरीरवाले, नाना प्रकार की व्याधि वेदनासे विकल, अतिकषाय युक्त, स्वभावसे पापिष्ठ, स्वजन आदिसे विहीन, दुर्गन्धयुक्त शरीर एवं केशोंसे संयुक्त, तथा लीख आदि आच्यन्त्र होते हैं । ९३३८- ९२४९० आगमन निर्गमन - इस कालमें नरक और तियंचगतिसे आये हु जीव ही यहाँ जन्म लेते हैं, तथा यहाँ से मरकर घोर नरक व तियंचगतिमें जन्म लेते हैं । १५४२ । हानि - दिन प्रतिदिन उन जीवोंकी ऊंचाई, आयु और वीर्य हीन होते जाते हैं । १५४३० प्रलयउनचास दिन कम इक्कीस हजार वर्षोंके बीत जानेपर जन्तुओंको भयदायक घोर प्रलय काल प्रवृत्त होता है । ११५४४ | ( प्रलयका स्वरूप दे० प्रलय । (म. पू. /०६/४३८-४५०) (त्रि सा/२०६४) षट् कालों में अवगाहना, आहारप्रमाण, अन्तराल, संस्थान व हड्डियों आदिको वृद्धिहानिका प्रमाण दे० काल/२/११ ܕ • स.सि./३/२०/२२३/३ अर्धसंज्ञ ते ६. उत्सर्पिणी कालका लक्षण व काल प्रमाण अनुभवादिभिरुत्सर्पपशीला उत्सर्पिणी । ... अवसर्पिण्या: परिमाणं दशसागरोपमकोटीकोट्यः । उत्सर्पिण्या अपि तावत्य एव । ये दोनों (उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी) काल सार्थक नामवाते हैं जिसमें अनुभव आदिकी वृद्धि होती है वह उत्सर्पिणी काल है । (रा.वा./३/२७/५/१११/३० ) अवसर्पिणी कालका परिमाण दस कोड़ाफोड़ी सागर है और उत्सर्पिणीका भी इतना ही है। (स.सि./३/३०/२३४/१) (ध.१३/२.१. २१/३१/३०१ ) (रा.वा./३/३९/०/२०८/२१) ( ति प / ४ / ३१५ ) (ज.प./२/११५) = घ. १/४.१.४४/११/१ जन्य बलाव उरहाणं उत्सप्प उड़ती होदि सो कालो उस्सप्पिणी । जिस कालमें बल, आयु व उत्सेधका उत्सर्पण अविवृद्धि होती है यह उत्सर्पिणीका है (दि.१/४/३१४९/१५५०) (क. पा. १ / ६५६/०४/३) (म.पु. /३/२०) ७. उत्सर्पिणी कालके षट् भेदोंका विशेष स्वरूप 5 उत्सर्पिणी कालका प्रवेश क्रम दे० काल /४/१२ ति.प./४/१५६३ - १५६६ दुषमादुषमा- इस कालमें मनुष्य तथा तियंच नग्न रहकर पशुओं जैसा आचरण करते हुए क्षुधित होकर वनप्रदेशोंमें धतूरा आदि वृलोक फल मूल एवं पत्ते आदि स्थाते है १४६३ शरीरकी ऊँचाई एक हाथ प्रमाण होती है। १५६४० इसके आगे तेज, बल, बुद्धि आदि सब काल स्वभावसे उत्तरोत्तर बढते जाते हैं। fo ४. उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश | १५६६। इस प्रकार भरतक्षेत्र में २९००० वर्ष पश्चात अतिदुषमा काल पूर्ण होता है । १५६६ । (म.पु. /७६/४५४-४५१) ति.प./४/१५६७ - १५७५ दुषमा- इस कालमें मनुष्य- तिर्यंचों का आहार २०,००० वर्ष तक पहले के ही समान होता है । इसके प्रारम्भ में शरीरकी ऊँचाई ३ हाथ प्रमाण होती है । ९५६८ इसका एक हकार वर्षोंके रोग रहनेपर १४ कुलकरॉकी उत्पति होने लगती है ११५६६-१५७१| कुलकर इस कालके म्लेक्ष पुरुषोंको उपदेश देते हैं ११५७५ । (म.पु / ७६/४६०-४६६) (त्रि.सा./८७१) ति.प./४/१५०५-१३१६ षमासुमा इसके पश्चात दुष्पम-पमानात प्रवेश होता है। इसके प्रारम्भमें शरीर की ऊंचाई सात हाथ प्रमाण होती है । ९२०६। मनुष्य पाँच वर्ग वाले शरीरसे युक्त, मर्यादा, विनय एवं लज्जा सहित सन्तुष्ट और सम्पन्न होते हैं । १५७७| इस कालमें २४ तीर्थंकर होते हैं। उनके समय १२ चक्रवर्ती, नौ बलदेव, मौ नारायण, नौ प्रतिनारायण हुआ करते हैं।१६७८-१२१२० एस काल अन्तमें मनुष्यों के शरीरकी ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष होती है । १५६४-१५१६० म.पू./०६/४००-४८६) (त्रि.सा./८०२०) ति. प./४/१५६६ - १५६६ सुषमादुषमा- इसके पश्चात् सुषमदुष्षम नाम चतुर्थ काल प्रविष्ट होता है। उस समय मनुष्योंकी ऊंचाई पाँचौ धनुष प्रमाण होती है। उत्तरोत्तर आयु और ऊँचाई प्रत्येक कालके मल से बढती जाती है । १५६६ - १५६७ उस समय यह पृथिवी जघन्य भोगभूमि कही जाती है । १५६८ | उस समय वे सब मनुष्य एक को से होते हैं। १७१६ (म.पु. ०६/४६०-११) ति.प./४/१५६६-१६०१ सुषमा सुष्मादुषमा कालके पश्चात् पचपना नामक काल प्रविष्ट होता है । १५६६| उस कालके प्रारम्भ में मनुष्य तिचोंकी आयु व उत्सेध आदि सुषमादुषमा कालके असमय होता है, परन्तु काल स्वभावसे वे उत्तरोत्तर बढती जाती है | १६००। उस समय के अन्तके) नरनारी दो कोस कचे, पूर्ण चन्द्रमा सहा मुखवाले विनय एवं शीलसे सम्पन्न होते हैं । १६०११ ( म.पु. /७६/४१२) ति.प./४/१६०२-१६०५ सुषमासुषमा - तदनन्तर सुषमासुषमा नामक छठा काल प्रविष्ट होता है। उसके प्रवेशमें आयु आदि सुषमाकालके अन्तबद होती हैं । १६०२ ॥ परन्तु काल स्वभावके जलसे आयु आदिक भडती जाती है। उस समय यह पृथिवी उत्तम भोगभूमिके नामसे सुप्रसिद्ध है । ९६०३। उस कालके अन्तमें मनुष्योकी ऊंचाई तीन कोस होती है। ९६०४ वे बहुत परिवारकी विक्रिया करनेमें समर्थ ऐसी शक्तियोंसे संयुक्त होते हैं। (म.पु. / ७६/४६२) छह कालों में आयु, वर्ण, अवगाहनादिकी वृद्धि व हानिकी सारणी - दे० काल /४/१६) ८. छह कालका पृथक्-पृथक् स.सि./३/२७/२२३/७ तत्र सुषमसुषमा चतस्र' सागरोपमकोटी कोट्यः । तदादौ मनुष्या उत्तरकुरुमनुष्यतुल्याः । ततः क्रमेण हानौ सत्यां सुषमा भवति तिखः सागरोपमकोटोकोटयः तदादी मनुष्या हरिवर्षमनुष्यसमा ततः क्रमेण हानौ सत्यां सुषमदुष्पमा भवति द्वे सागरोपमकोटीकोट्टयौ । तदादी मनुष्या हैमवतकमनुष्यसमाः । ततः क्रमेण हानी सत्या दुष्षमसुषमा भवति एकसागरोपमकोटाकोटी द्विहिना तादी मनुष्या निवेहजनतुल्या भवन्ति । ततः क्रमेण हानौ सत्यां दुष्षमा भवति एकविंशतिवर्षसहस्राणि । ततः क्रमेण हानी सत्यामतिदुपमा भवति एकविंशतिवर्षसहस्राणि । एवमुत्सर्पग्यपि विपरीतक्रमा वेदितव्या इसमेसे सुषमसुषमा चार कोड़ाकोड़ी सागरका होता है। इसके प्रारम्भमैं मनुष्य उत्तरकुरुके मनुष्योंके समान होते है। फिर क्रमसे हानि होनेपर तीन कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण सुषमा काल प्राप्त होता है। इसके प्रारम्भ में । - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल मनुष्य हरिवर्ष के मनुष्योंके समान होते हैं। तदनन्तर क्रमसे हानि होनेपर दो कोहाकोड़ी सागरोपम प्रमाण सुषमध्यमा काल प्राप्त होता है । इसके प्रारम्भ में मनुष्य हैमवतकके मनुष्योंके समान होते हैं । तदनन्तर क्रमसे हानि होकर ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरका दुषमसुषमा काल प्राप्त होता है। इसके प्रारम्भमें मनुष्य विदेह क्षेत्रके मनुष्योंके समान होते हैं। तदनन्तर क्रमसे हानि होकर इक्कीस हजार वर्षका दुष्षमा काल प्राप्त होता है । तदनन्तर क्रमसे हानि होकर इक्कीस हजार वर्ष का अतिदुषमा काल प्राप्त होता है। इसी प्रकार उत्सर्पिणी भी इससे विपरीत क्रमसे जानना चाहिए। (ति.प./ ४/३१७-३१६) अवसर्पिणीके छह भेदोंमें क्रमसे जीवोंकी वृद्धि होती जाती है दुस्सममुपवेस्स पढमसम ति./४/१६१२-२६१३ अक्सप्पिणी यम्मि नियतिदिवणसी वही जीवाण धोवकालम्मि । १६९२० कमसोबत विकासे मनुयतिरियाणमपि संखा तत्तो उस्स夏 पिणिए तिदए टूटंति पुवं वा । १६९३ । = अवसर्पिणी कालमें दुष्यमषमा कालके प्रारम्भिक प्रथम समयमें थोड़े ही समयके भीतर विकलेन्द्रियोंकी उत्पत्ति और जीवोंकी वृद्धि होने लगती है ।१६१२ इस प्रकार क्रमसे तीन कालोंमें मनुष्य और तिच जीवोंकी संख्या बढती ही रहती है। फिर इसके पश्चात उत्सर्पिणीके पहले तीन कालों में भी पहले के समान ही वे जीव वर्तमान रहते हैं । १६१३। १०. उत्सर्पिणीके छह कालों में जीवोंकी क्रमिक हानि व कल्पवृक्षों की क्रमिक वृद्धि ति.प./४/१६०८-१६११ उस्सप्पिणीए अज्जाखंडे अदिदुस्समस्स पढमखगे। होति हु परतिरिवाणं जीवा सम्माणि धोवाणि १६०८॥ ततो कमसो बहवा मणुवा तेरिच्छसयल वियलक्खा । उप्पज्जंति हु जाव य दुस्सम समस्स चरिमो त्ति । १६०६। णासंति एक्कसमए वियलक्खा - गिणिकुलभेया तुरिमस्स पचमसमए कप्पतरूणं पि उप्पी १६१० पचिति मधुन तिरिया पेसियमेसा जहणभोगलिर्द । तेतियमेत्ता होति हू तकाले भरहलेसम्म । १६११ - उत्सर्पिणी कालके आर्यखण्डमै अतिदुपमा कालके प्रथम क्षणमें मनुष्य और लिचोंमें से सब जीन थोड़े होते हैं । १६० इसके पश्चात फिर क्रमसे दुष्यमसुषमा कालके अन्त तक बहससे मनुष्य और सकलेन्दिय एवं विकलेन्द्रियतियंच जीव उत्पन्न होते हैं । १६०१। तत्पश्चात् एक समय में विकलेन्द्रिय प्राणियोंके समूह व कुतभेद नष्ट हो जाते है तथा चतुर्थ कालके प्रथम समय में कापवृक्षोंकी भी उत्पत्ति हो जाती है । १६१०१ जितने मनुष्य और तियंच जघन्य भोगभूमि में प्रवेश करते हैं उतने ही इस काल के भीतर भरतक्षेत्र में होते हैं । १६११। ११. युगका प्रारम्भ व उसका क्रम सि.५ /१/७० साले पाविरुद्ध सहोदरनिनो अभिजस्स पढमजोए जुगस्स आदी इमस्स पुढं 1901 -श्रावण कृष्णा पड़िवाके दिन मुहूर्त के रहते हुए सूर्यका शुभ उदय होनेपर अभिजित् नक्षत्र के प्रथम योग में इस युगका प्रारम्भ हुआ, यह स्पष्ट है। ति.प./०/३३०-३४० आसापुणिमीए जुगणिष्यसी दु साबने किण्हे अभिजिमि चंदजोगे पाडिदिवसम्मि पारंभो ||३०| पणव रिसे दुमणोगं दविखन्तराय उसु च असण आदिचरितं ॥५४७| पल्लस्सासंखभागं दक्खिण अयणस्स होदि परिमाणं । तेत्तियमेत्तं उत्तरअयणं उसुपं च तदुगुणं । ५४८| आषाढ़ S ९१ ४. उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश ... मासकी पूर्णिमाकै दिन पाँच वर्ष प्रमाण युगकी पूर्णता और श्रमणकृष्णा प्रतिपके दिन अभिजित नक्षत्र के साथ चन्द्रमाका योग होनेपर उस युगका प्रारम्भ होता है ।५३०| इस प्रकार उत्सर्पिणीके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक पाँच परिमित युगों में सूर्योके दक्षिण व उत्तर अयन तथा विषुवोंको ले आना चाहिए । ५४७| दक्षिण अयनका प्रमाण पत्यका असंख्यातवाँ भाग और इतना ही उत्तर अयनका भी प्रमाण है। विषुपोंका प्रमाण इससे दूना है । ५४८ वि. प. ४/१५५८-२३६३ पोक्रमेचा सलिल गरिसंति दिवाणि सत्त सहजगणं यज्जग्गिणिए दडवा भूमी सयला वि सीमता होदि ११६६१ वरिति खीरमेचा खीरज तेसियाणि दिवसाणि खीरजहिं भरिदा सच्छाया होदि सा भूमी | १५५६॥ तत्तो अमिदपयोदा अनिद गरिसंति सतदिवसाणि अनिवेण सितार महिए जाति लिगोमादी | १५६०। ता रसजलवाहा दिव्वरसं परिसंति सत्तदिदिबरसेगा उण्णा रसवंता होंति ते सव्ये १६१ विविहरसो सहिभरिदा घूमी सुरसादपरिषदा होदि ततो सीयशगंध णादित्ता णिस्सर ति णरतिरिया | १६६२ । फलमूलदलप्पहृदि छहिदा खादति मस्तपदी । जग्गा गोधम्मपरा परतिरिया बणपसे । १५६३॥ - उत्सर्पिणी कालके प्रारम्भने सात दिन तक पुष्कर मे खोदक जलको बरसाते हैं, जिससे बज्राग्निसे जली हुई सम्पूर्ण पृथिवी शीतल हो जाती है । ९५५८० क्षीर मेघ उतने हो दिन तक क्षीर जख वर्षा करते हैं, इस प्रकार क्षीर जलसे भरी हुई यह पृथिवी उत्तम कान्तिसे युक्त हो जाती है । १५५१ | इसके पश्चात् सात दिन तक अमृतमेव अमृतको वर्षा करते हैं। इस प्रकार अमृत से अभिषित भूमिपर लतागुण्म इत्यादि उगने लगते हैं । १५६०। उस समय रसमेष सात दिन तक दिव्य रसकी वर्षा करते हैं। इस दिव्य रससे परिपूर्ण वे सम रसवाते हो जाते हैं । १६६११ विविध रसपूर्ण औषधियों से भरी हुई भूमि सुस्वाद परिणत हो जाती है पश्चात् शीतल गन्धको ग्रहण कर वे मनुष्य और तिच गुफाओंसे बाहर निकलते हैं । १५६२| उस समय मनुष्य पशुओं जैसा आचरण करते हुए क्षुधित होकर वृक्षोंके फल मूल व पत्ते बादिको खाते हैं । १६६३। १२. हुंडावसर्पिणी कालकी विशेषताएँ सि.प./४/१६१५-१६२३ असंख्यात अवसर्पिणी कालकी शलाकाओंके बीत जानेपर प्रसिद्ध एक हुण्डावसर्पिणी आती है; उसके चिह्न ये हैं - १. इस हुण्डावसर्पिणी काल के भीतर सुषमदुष्षमा कालकी स्थिति में से कुछ कालके अवशिष्ट रहनेपर भी वर्षा आदिक पड़ने लगती है और विकलेन्द्रिय जीमोंकी उत्पत्ति होने लगती है । १६१९६० २. इसके अतिरिक्त इसी कालमे कल्पवृक्षोंका अन्त और कर्मभूमिका व्यापार प्रारम्भ हो जाता है । ३. उस कालमें प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं । १६१७१४, चक्रवर्तीका विजय भंग ५. और थोडेसे जीवोंका मोक्ष गमन भी होता है। ६. इसके अतिरिक्त चक्रवर्तीसे की गयी द्विजोंके वंशकी उत्पत्ति भी होती है | १६९८ । ७. दुष्षमसुषमा कालमें ५८ ही शलाका पुरुष होते हैं। ८. और नौवें | पन्द्रहवेंकी बजाय ] से सोलहवें तीर्थंकर तक सात तीने धर्मको उचित होती है | १६१६ (त्रि.सा./८१४) ६. ग्यारह रुद्र और कलहप्रिय नौ नारद होते हैं । १०. तथा इसके अतिरिक्त सातवें, तेईसवें और अन्तिम तीर्थकरके उपसर्ग भी होता है । १६२० ११. तृतीय, चतुर्थ व पंचम कालमें उत्तम धर्मको नष्ट करनेवाले विविध प्रकार के दुष्ट पापिष्ठ कुदेन और कुलिंगी भी दिखने लगते हैं । १२. तथा चाण्डाल, शबर, पाण (श्वपच), पुलिंद, लाहल, और किरात इत्यादि जातियों उत्पन्न होती है। १३. तथा दुषम कालमें ४२ कल्फी व उपकल्की होते हैं। १४. अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूवृद्धि (भूकंप 1 ) और वज्राग्नि आदिका गिरना, इत्यादि विचित्र जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ४. उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश अर्थात् एकसा रहता है ।१७०३१ उस ( हरि ) क्षेत्रका अवशेष वर्णन सुषमाकालके समान है। विशेष यह है कि वह क्षेत्र हानि-वृद्धिसे रहित होता हुआ सस्थितरूप अर्थात एक-सा ही रहता है ।१७४४। सुषमसुषमाकालके विषयमें जो विचित्रतर वर्णन किया गया है. वही वर्णन हानिसे रहित-देवकुरुमे भी समझना चाहिए ।२१४५॥ रमणीय रम्यकविजय भी हरिवर्ष के समान उत्तम वर्णनोसे युक्त है ।२३३५॥ हैरण्यवतक्षेत्र हैमवतक्षेत्रके समान वर्णनसे युक्त है ।२३५०। (त्रि.सा./ ७७६) ज. प./२/१६६-१७४ तदिओ दुकालसमओ असंखदीवे य हाँति णियमेण। मणुसुत्तरादु परदो णगिंदवरपव्वदो णाम ।१६६। जलणिहिसयंभूरवणे सयंभुरवणवणस्स दोवमज्झम्मि। भ्रहरणगिदपरदो दुस्समकालो समुहिट्ठो ।१७४।-मानुषोत्तर पर्वतसे आगे नगेन्द्र (स्वयंप्रभ) पर्वततक असंख्यात द्वीपों में नियमतः तृतीयकालका समय रहता है ।१६६। नगेन्द्र पर्वतके परे स्वयंभूरमण द्वीप और स्वयंभूरमण समुद्रमें दुषमाकाल कहा गया है ।१७४ (कुमानुष द्वीपों में जघन्य भोगभूमि है। ज. प./११/५४-५५) १५. छहों कालों में सुख-दुःख आदिका सामान्य कथन भेदोंको लिये हुए नाना प्रकारके दोष इस हुण्डावसपिणी कालमें हुआ करते हैं ।१६२१-१६२३। घ.३/१,२,१४/१८/४ पउमप्पहभडारओ बहसीसपरिवारो...पुठिवलगाहाए वृत्तसंजशणं पमाणं ण पावेति । तदो गाहा ण भदिएत्ति । एत्थ परिहारो बुच्चदे-सब्बोसप्पिणीहितो अहमा हुँडोसप्पिणी। तत्थतण तित्थयरसिस्सपरिवार जुगमाहप्पेण ओहट्टिय डहरभावमापणं घेत्तूण ण गाहामुत्तं दुसिदं सक्किज्जदि, सेसोसप्पिणी तित्थयरेसु बहुसोसपरिवारुवलं भादो । -प्रश्न-पद्मप्रभ भट्टारकका शिष्य परिवार...(की) संख्या पूर्व गाथामें कहे गये संयतोके प्रमाणको प्राप्त नहीं होती, इसलिए पूर्व गाथा ठीक नहीं' उत्तर-आगे पूर्वशंका का परिहार करते हैं कि सम्पूर्ण अवसपिणियोंकी अपेक्षा यह हुंडावसर्पिणो है, इसलिए युगके माहात्म्यसे घटकर ह्रस्वभावको प्राप्त हुए हुण्डावसर्पिणी काल सम्बन्धी तीर्थकरोंके शिष्य परिवारको ग्रहणकरके गाथा सूत्रको दूषित करना शक्य नहीं है, क्योकि शेष अवसर्पिणियोंके तोथंकरोंके बड़ा शिष्य परिवार पाया जाता है। १३. ये उत्सर्पिणी आदि षटकाल भरत च ऐरावत क्षेत्रों में ही होते हैं त.सू./३/२७-२८ भरतैरावतयोवृद्धिह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यव सर्पिणीभ्याम् ।२७. ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ।२८१ =भरत और ऐरावत क्षेत्रमें उत्सर्पिणीके और अवसर्पिणीके छह समयोंकी अपेक्षा वृद्धि और ह्रास होता रहता है ।२७१ भरत और ऐरावतके सिवा शेष भूमियॉ अवस्थित हैं ।२८ ति.प./४/३१३ भरहस्खेत्तमिम इमे अज्जाख डम्मि कालपरिभागा। अवसप्पिणिउस्सप्पिणिपज्जाया दोण्णि होति पुढं ।३१३-भरत क्षेत्रके आर्य खण्डों में ये काल के विभाग हैं। यहाँ पृथक्-पृथक् अवसर्पिणी और उत्सर्पिणोरूप दोनों ही कालको पर्यायें होती हैं ।३१३॥ और भी विशेष-दे० भूमि/५। १४. मध्यलोकमें सुषमा दुषमा आदि काल विभाग ति प./४/गा, नं. भरहस्खेत्तम्मि इमे अज्जाखंडम्मि कालपरिभागा। अक्सप्पिणिउस्सपिणिपज्जाया दोणि होति पुढं (३१३ ) दोणि वि मिलिदे कप्पं छठभेदा होति तत्थ एक्केक्कं ।... (३१६) पणमेच्छखयरसेढिसु अवसप्पुस्सप्पिणीए तुरिमम्मि । तदियाए हाणिञ्चयं कमसो पढमादु चरिमोत्ति (१६०७) अवसेसवण्णणाओ सरि साओ सुसमदुस्समेणं पि। णवरि यवट्ठिदरूवं परिहीणं हाणिबड्डीहिं (१७०३) असेसवण्णणाओ सुसमस्स व होति तस्स खेत्तस्स । णवरि य संठिदरूवं परिहीणं हाणिवड ढीहि (१७४४ ) रम्मकविजओ रम्मो हरिवरिसो व वरवण्णणाजुत्तो ।...(२३३५) सुसमसुसमम्मि काले जा मणिदावण्णा विचित्तपरा। सा हाणीए विहीणा एदस्सि णिसहसेले य (२१४५ ) । विजओ हेरण्णवदो हेमवदो वप्पवण्णणाजुतो ।...(२३५०)-भरत क्षेत्रके [वैसे ही ऐरावत क्षेत्रके ] आर्यखण्डमें...उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों ही कालकी पर्याय होती हैं ।३१३॥ उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में से प्रत्येकके छहछह भेद हैं ।३१६। पाँच म्लेक्षरखण्ड और विद्याधरों की श्रेणियों में अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी कालमें क्रमसे चतुर्थ और तृतीय कालके प्रारम्भसे अन्ततक हानि-वृद्धि होती रहती हैं। [अर्थात इन स्थानों में अवसर्पिणीकालमें चतुर्थकालके प्रारम्भसे अन्ततक हानि और उत्सपिणी कालमें तृतीयकालके प्रारम्भसे अन्ततक वृद्धि होती रहती है। यहाँ अन्य कालौकी प्रवृत्ति नहीं होती। १६०७। इसका (हेमवत क्षेत्र )का शेष वर्णन सुषमदुषमा कालके सदृश है। विशेषता केवल यह है कि यह क्षेत्र हानिवृद्धिसे रहित होता हुआ अवस्थितरूप ज. प./२/१६०-१६१ पढमे विदये दिये काले जे होति माणुसा पवरा । ते अवमिच्चुविहूणा एयंतसुहेहिं संजुत्ता १६०। चउथे पंचमकाले मणुया सुहदुक्रवसंजुदा णेया। छट्ठमकाले सव्वे णाणाविहदुक्खस जुत्ता ।१६१- प्रथम, द्वितीय और तृतीय कालों में जो श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं वे अपमृत्युसे रहित और एकान्त सुरवसे संयुक्त होते हैं ।१६० चतुर्थ और पंचमकालमें मनुष्य सुख-दुःखसे संयुक्त तथा छठेकालमें सभी मनुष्य नानाप्रकारके दुखों से संयुक्त होते है, ऐसा जानना चाहिए ।११। और भी-दे० भूमि/8। १३. चतुर्थकालकी कुछ विशेषताएँ ज. प./२/१७६-१८५ एदम्मि कालसमये तित्थयरा सयलचक्कवट्टीया। मलदेववासुदेवा पडिसत्तू ताण जायं ति १७६३ रुद्दा य कामदेवा गणहरदेवा य चरमदेहधरा। दुस्समसुसमे काले उष्पत्ती ताण मोद्धव्वा १९८१-इस कालके समयमें तीर्थंकर, सकलचक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और उनके प्रतिशत्रु उत्पन्न होते हैं ।१७१। रुद्र, कामदेव, गणधरदेव, और जो चरमशरीरी मनुष्य है. उनकी उत्पत्ति दुषमसुषमा कालमें जाननी चाहिए ।१८॥ १७. पंचमकालकी कुछ विशेषताएँ म. पु./४१/६३-७६ का भावार्थ-भगवान ऋषभदेवने भरत महाराजको उनके १६ स्वप्नोका फल दर्शाते हुए यह भविष्यवाणी की–२३वें तीर्थकरतक मिथ्या मतोंका प्रचार अधिक न होगा।६३॥ २४वें तीर्थकरके कालमें कुलिंगी उत्पन्न हो जायेंगे।६। साधु तपश्चरणका भार बहन न कर सकेंगे।६६। मूल व उत्तरगुणोंको भी साधु भंग कर देंगे १६॥ मनुष्य दुराचारी हो जायेगे।६८ नीच कुलीन राजा होंगे।६। प्रजा जैनमुनियोंको छोड़कर अन्य साधुओंके पास धर्म श्रवण करने लगेगी ७० व्यन्तर देवोंकी उपासनाका प्रचार होगा ७१। धर्म म्लेक्ष खण्डों में रह जायेगा ।७२। ऋद्धिधारी मुनि नहीं होंगे।७३। मिथ्या ब्राह्मणोंका सत्कार होगा 1७४। तरुण अवस्थामें ही मुनिपदमें ठहरा जा सकेगा 1७५॥ अवधि व मनःपर्यय ज्ञान न होगा।७६। मुनि एकल विहारी न होंगे ७७ केवलज्ञान उत्पन्न न होगा ७८ प्रजा चारित्रभ्रष्ट हो जायेगी, औषधियोंके रस नष्ट हो जायेगे ७६॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ४. उत्सपिणी आदि काल निर्देश १४. षटकालोंमें आयु, आहारादिकी वृद्धि व हानि प्रदर्शक सारणी प्रमाण--(ति.प./४/गा.); (स.सि./३/२७-३१,३७); (त्रि.सा./७८०-७६१,८८१-८८४); (रा.वा./३/२७-३१,३७/१६१-१६२,२०४); (महा.पु./३/२२-५५) (हरि.पु/७/६४-७०); (जं.प./२/११२-१५५) संकेत-को.को.सा. = कोडाकोड़ी सागर; ज.जधन्य; उ.- उत्कृष्टः पू.को पूर्व कोडि । प्रमाण सामान्य षटकालों में वृद्धि-ह्रास की विशेषताएं विषय ज.प./२/गा. निति.प. सुषमा सुषमाति.प सुषमा ति.प. सुषमा दुषमा ति.प. दुषमा मुषमाति.प. दुषमा ति.प. दुषमा दुषमा काल प्रमाण ११२-११४ ३१६, ४को को सा. ३१६, ३को को सा. ३९७, को को सा., ३१७ कोको सा.से ३१८ २१००० वर्ष ३१६ २१००० वर्ष | ३६४ ४०३/ ४२००० वर्ग " (उ.) । आदि हड्डियाँ आयु (ज.) ke | २ पन्य १६०० १ ल्य १५६६१ पू० को० | १५७६ / १२० वर्ष १९६० २० वर्ष १५६४/१५-१६ वर्ष , (उ.) १२०-१२३ । ३३४ | ३ पल्य ३६६ | २ पल्य ४०४, १ पत्य | १२७७, १ पू० को, १४७५/ १२० वर्ष १५३६| २० वर्ष १७८,१८६ १५६८ अवगाहना ३६६ | ४००० धनुष १६०० २००० धनुष १५६७ ५०० धनुष | १५७६ ७ हाथ १५६८३या३३ हाथ १५६४ १ हाथ १६०१ १७७,१८६ ३३५१६००० धनुष ३६६, ४००० धनुष ४०४, २००० धनुष १२७७, ५०० धनुष १४७५/७ हाथ १५३६३ या हाथ | १२०-१२३ १५६६ १ ५६५ आहार प्रमाण १२०-१२३ | ३३४/बे प्रमाण ३१८ बहेडा प्रमाण ४०६ आंवलाप्रमाण ,, अन्तराल ७८५, ३दिन .. | २ दिन , १ दिन त्रि.सा. प्रति दिन त्रि.सा अनेक बार त्रिसा, बारम्बार विहार ३६ | अभाव ३३६ | अभाव ३३६ | अभाव संस्थान ३४१ | समचतुरस्र ३१८ समचतुरस्र ४०६ | समचतुरस्त्र १५३६/ कुबड़े बौने संहनन १२४ | बज्रऋषभना.(ज.प) वज्र ऋषभ ज.प. वज्र ऋषभ ३३७ २५६ ३६७१२८४०५ ६४ १२७७, ४८-२४ १४७१ २४-१२ १५३६ १२ (शरीर के पृष्ठमें) शरीरका रंग रा.वा स्वर्ण बत् रा.वा शंख वन रा.वा नील कमल ७८४ सूर्य वत् चन्द्र वव हरित श्याम पाँचों वर्ण - कान्ति हीन धुंवे वत पंचवर्ण श्याम बल १५५ 8000 हाथि- ६०००गज वत ६०००गज बत यों का संयम अभाव अभाव मरण समय रा. वा पुरुषके छींक स्त्रीको जमाई अपमृत्यु हरि.पु/२/३१ अभाव | | अभाव अभाव मृत्यु पश्चात् रा. वा. | कर्पूर बत् उड़ जाता है शरीर उपपाद रा.वा. (सम्यक्त्व सहित सौधर्म ईशानमें, मिथ्यात्व सहित भवनत्रिकमें) भूमि रचना रा. वा. ८८१ | उत्तम भोग । मध्यम भोग|१५६८| जघन्य भोग| । कर्म भूमि कर्मभूमि कर्मभूमि वकुभोगभूमि अन्य भूमियों ति. १./२/१९६९१८,१६६,१७४; ३/२३४-२३५); (त्रि.सा./८८२-८८३); (रा.वा.); (गो.जी./१४८) में काल अव रा.वा उत्तर कुरु हरि वर्षक्षेत्र । हैमवत् क्षेत्रति प/४-| विदेह क्षेत्र भरत क्षेत्र भरत क्षेत्र स्थान १६०७ देव कुरु रम्यक क्षेत्रहरण्यवत क्षेत्र त्रि.सा. हरण्यवत क्षेत्र त्रि.सा./ भरतऐरावत ऐरावत क्षेत्र ऐरावत क्षेत्र ८८३ के म्लेक्ष रखण्ड अन्तर्वीप व म.पु/१४/ विजयाई मानुषोत्तरसे ६-१० | में विद्याधर स्वयंभूरमणज.प/२/- श्रेणियाँ पर्वत तक ११६ हरि.पु./- स्वयंभूरमण चतुर्गतिमें | ति.प./२/- ४ देव गति १/७३० पर्वतसे आगे काल विभाग १७५ नरक गति अभाव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ९४५. कालानुयोग द्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम ५. कालानुयोगद्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम ५. ओघ प्र. में नानाजीवोंकी जघन्यकाल प्राप्ति विधि १. कालानुयोगद्वारका लक्षण ध. ४/१.५,१/३३६/६ दो वा तिणि वा एगुत्तरवडीए जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा उसमसम्मादिष्टिणो उवसमसमत्तद्वाए रा.वा./१/८14/४२/३ स्थितिमतोऽर्थस्यावधिः परिच्छेत्तव्य.। इति एगो समओ अत्थि त्ति सासणं पडिवण्णा एगसमय दिट्ठा । विदिएकालोपादानं क्रियते। किसी क्षेत्रमें स्थित पदार्थ की काल मर्यादा समये सव्वं वि मिच्छतं गदा, तिसु वि लोएस सासणमभावो जादो निश्चय करना काल है। त्ति लद्धो एगसमओ। =दो अथवा तीन, इस प्रकार एक अधिक घ.१/१,१,७/१०३/१५६ कालो द्विविअवधारणं .......११०३। वृद्धिसे बढ़ते हुए पलयोपमके असंख्यातवे भागमात्र उवसमसम्यग्दृष्टि घ.१/१.१,७/१५८/६ तेहितो अवगय-संत-पमाण-उत्त-फोसणाणं द्विदि जीव उपशम सम्यक्त्वके कालमें एक समय मात्र (जघन्य ) काल परूवेदि कालाणियोगो। -१. जिसमें पदार्थोंकी जघन्य और अवशिष्ट रह जानेपर एक साथ सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए एक उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन हो उसे काल प्ररूपणा कहते हैं ।१०३१ समयमें दिखाई दिये। दूसरे समयमें सबके सब युगपत) मिथ्यात्व २. पूर्वोक्त चारों ( सद, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन ) अनुयोगोंके द्वारा जाने को प्राप्त हो गये। उस समय तीनों ही लोकों में सासादन सम्यग्दृष्टि गये सर-संख्या-क्षेत्र और स्पर्श रूप द्रव्योंकी स्थितिका वर्णन जीवोंका अभाव हो गया। इस प्रकार एक समय प्रमाण सासादन कालानुयोग करता है। गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा (जघन्य ) काल प्राप्त हुआ। २. काल व अन्तरानुयोगद्वारमें अन्तर नोट-इसी प्रकार यथायोग्य रूपसे अन्य गुणस्थानोंपर भी लागू कर लेना चाहिए। विशेष यह है कि उस उस गुणस्थानका एक जीवापेक्षा ध. १/१,१,७/१५८/६ तेहितो अवगय-संत-पमाण-खेत्त-फोसणाणं ट्ठिदि जो जघन्य काल है उस सहित ही प्रवेश करना । परूवेदि कालाणियोगो। तेसिं चेव विरह परूवेदि अंतराणियोगो। चारों ( सत, संख्या, क्षेत्र व म्पर्शन) अनुयोगोंके द्वारा जाने गये ६. ओघ प्र. में नाना जीवोंकी उस्कृष्ट काल प्राप्ति विधि सव-संख्या-क्षेत्र और स्पर्श रूप द्रव्योंकी स्थितिका वर्णन कालानुयोग घ./४/१,५,६३४०/२ दोणि वा, तिणि वा एवं एगुत्तरवड्ढीए जाव द्वार करता है। जिन पदार्थोंके अस्तित्व, संख्या, क्षेत्र, स्पर्श और पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेसा वा उवसमसम्मादिट्टिणो एगस्थितिका ज्ञान हो गया है उनके अन्तरकालका वर्णन अन्तरानुयोग समयादि कादूण जावुक्कस्सेण छआवलिओ उवसमताद्वाए अस्थि त्ति करता है। सासणतं पडिवण्णा। जाव ते मिच्छत्तं ण गच्छति ताव अण्णे वि ३. काल प्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम अण्णे वि उवसमसम्मदिहिणो सासणत्तं पडिवज्जति । एवं गिम्ह कालरुक्रवछाहीव उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं कालं ध.७/२.८,१७/४६६/२ किंतु जस्स गुणट्ठाणस्स मग्गणट्ठाणस्स वा एगजीवा- जीवेहि असुण्णं होदूण सासाणगुणट्ठाणं लब्भदि । दो, अथवा तीन, बट्ठाणकालोदोपवेसंतरकालो बहुगो होदि तस्सण्णयवोच्छेदो। जस्स अथवा चार, इस प्रकार एक-एक अधिक वृद्धि द्वारा पल्योपमके पुण कयानि ण बहुओ तस्स ण संताणस्स वोच्छेदो। जस्स पूण कयामि असंख्यातवें भागमात्र तक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव एक समयको आदि ण बहुओ तस्मण संताणस्स वोच्छेदो ति घेत्तत्वं । = जिस गुणस्थान करके उत्कर्ष से छह आवलियाँ उपशम सम्यक्त्वके कालमें अवशिष्ट अथवा मार्गणा स्थानके एक जीवके अवस्थान कालसे प्रवेशान्तरकाल रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए। वे जब तक मिथ्यात्वको बहुत होता है, उसकी सन्तानका व्युच्छेद होता है। जिसका वह प्राप्त नहीं होते हैं, तब तक अन्य-अन्य भी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव काल कदापि बहुत नहीं है, उसकी सन्तानका व्युच्छेद नहीं होता, सासादन गुणस्थानको प्राप्त होते रहते हैं। इस प्रकारसे ग्रीष्मकाल के ऐसा ग्रहण करना चाहिए। वृक्षकी छायाके समान उत्कर्षसे पत्योपमके असंख्यातवें भागमात्र १. ओघ प्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम कालतक जीवोंसे अशुन्य ( परिपूर्ण) होकर, सासादन गुणस्थान पाया जाता है । ( पश्चात् वे सर्वजीव अवश्य ही मिथ्यात्वको प्राप्त होकर ध. ३/१,२,८/६०/३ अपमत्ताद्धादो पमत्तद्धाए दुगुणत्तादो। - अप्रमत्त उस गुणस्थानको जीवोंसे शून्य कर देते हैं) नोट-इसी प्रकार संयतके कालसे प्रमत्त संयतका काल दुगुणा है । यथायोग्य रूपसे अन्य गुणस्थानोंपर भी लागू कर लेना। विशेष यह घ.१/१,६,२५०/१२५/४ उसमसेढि सव्वद्धाहिंतो पमत्तद्धा एक्का चेव है कि उस उस गुणस्थान तकका एक जीवापेक्षया जो भी जघन्य या संखेज्जगुणा त्ति गुरुवदेसादो। उत्कृष्ट कालके विकल्प हैं उन सबके साथ वाले सर्व ही जीवोंका घ. ५/१,६,१४/१८/८ एक्को अपुवकरणो अणियट्टिउवसामगो मुष्ठमउव- प्रवेश कराना। सामगो उवसंत-कसाओ होदूण पुणो वि सुहमउवसामगो अणियट्टिउवसामगो होदूण अपुठवउवसामगो जादो। एदाओ पंच वि अद्धाओ ७. भोध प्र० में एक जीवकी जघन्यकाल प्राप्ति विधि एक्कट्ठ कवे वि अंतोमुहुत्तमेव होदि त्ति जहण्णं तरमंतोमुहूत्तं होदि । ध./४/१,५.७/३४१-३४२ एक्को उवसमसम्मादिट्ठी उवसमसमत्तद्वाए ४१. उपशम श्रेणी सम्बन्धी सभी ( अर्थात् चारों आरोहक व तीन एगसमओ अस्थिति सासणं गदो।...एगसमयं सासाणगुणेण सह ट्ठिदो, अवरोहक) गुणस्थानों सम्बन्धी कालोंसे अकेले प्रमससंयतका काल विदिए समए मिच्छत्तं गदो । एवं सासाणस्स लद्धो एगसमओ ।... ही संख्यातगुणा होता है। २. एक अपूर्वकरण उपशामक जीव, ध./४/१,९,१०/३४४-३४५ । एक्को मिच्छदि विसुज्झमाणे सम्मामिच्छत्त अनिवृत्ति उपशामक, सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक और उपशान्त- पडिवण्णो। सबलहुमंतोमुहुसकाल मिच्छिदूण विसुज्झमाणे चेव कषाय उपशामक होकर फिर भी सूक्ष्म साम्पराधिक उपशामक और सासंजमं सम्मत्तं पडिवण्णो । .. अधवा वेदगसम्मादिट्ठी संकलिस्सअनिवृत्तिकरण उपशामक होकर अपूर्वकरण उपशामक हो गया। इस माणगोसम्मामिच्छत्तं गदो, सब्बलहुमंतोमुहुत्तकालमिच्छिदूण पकार अन्तमुहर्त्तकाल प्रमाण जघन्य अन्तर उपलब्ध हुआ। ये अविणसं किलेसो मिच्छदं गदो।...एवं दोहि पयारेहि सम्माअनिवृत्तिकरणसे लगाकर पुनः अपूर्वकरण उपशामक होनेके पूर्व तक- मिच्छत्तस्स जहण्णकालपरूवणा गदा। के पाँचों ही गुणस्थानोंके कालोंको एकत्र करनेपर भी वह काल 2./३/१,१,२४/३५३ एक्को अणियहि उवसामगो एगसमयं जीविदमस्थि अन्तर्मुहुर्त ही होता है. इसलिए जघन्य अन्तर भी अन्तर्मुहर्त ही त्ति अपुव्व उवसामगो जादो एवासमयं विट्ठो. विदियसमए मदो होता है। लयसत्तमो देवो जादो-१ एक उपशम सम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ काल क्त्वके काल में एक समय अवशिष्ट रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ ।... एकसमय मात्र सासादन गुणस्थानके साथ दिखाई दिया। ( क्योंकि जितना काल उपशमका शेष रहे उतना ही सासादनका काल है ), दूसरे समय में मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया । २. एक मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्ध होता हुआ सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । पुन' सर्व लघु अन्तर्मुहूर्त काल रहकर विशुद्ध होता हुआ असंयत सहित सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ ।... अथवा संक्लेशको प्राप्त होनेवाला वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हुआ और महाँ पर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रह करके अभिनष्ट सस्तेशी हुआ ही मिथ्यात्वको चला गया। इस तरह दो प्रकारो से सम्यग मिथ्यात्व के जघन्यकाल की प्ररूपणा समाप्त हुई । ३. एक अनिवृत्तिकरण उपशामक जीव एकसमय जीवन शेष रहनेपर अपूर्वकरण उपशामक हुआ, एक समय दिखा, और द्वितीय समयमें मरणको प्राप्त हुआ । तथा उत्तम जातिका विमानवासी देव हो गया। नोट-इसी प्रकार अन्य गुणस्थानों में भी यथायोग्य रूपसे लागू कर लेना चाहिए। ८. देवगतिमें मिथ्यात्वके उत्कृष्टकाल सम्बन्धी नियम तो ४/१५२२२/४६२६ मिलादिट्ठो जहि महंत करेदि पत्तिदोषमस्स असं सेज्जविभागन्धधियवेसागरोवमाणि करेदि । सोहमे उपजमाणमिष्यादिद्वीर्ण एवम्हारो हिमाल बने सीए अभावा । .... • अंतोद्वाज्जसागरोपमे उप्पण्णसम्मादिहिस्स सोहम्मणिनासिरस मिस्तगमणे संभवाभावो भवणादिसहस्सारत देवेसु मिच्छाइट्टिस्स दुविहाउट्ठिदिपरूवण्णा हाणुववसीदो - मिध्यादृष्टि जीव यदि अच्छी तरह खूब बड़ी भी स्थिति करे तो पत्योपमके असंख्यात भागसे अभ्यधिक दो सागरोपम करता है, क्योकि सौधर्म कल्प में उत्पन्न होनेवाले मिध्यादृष्टि जीवोंके इस उत्कुष्ट स्थिति से अधिक आयु की स्थिति स्थापन करनेकी शक्तिका अभाव है।''अन्तर्मुहुर्त कम बाई सागरोपमकी स्थितिवाले देवीने उत्पन्न हुए सौधर्म निवासी सम्मन्दष्टि देवके मिध्यात्वमें जानेकी सम्भावनाका अभाव है।... अन्यथा भवनवासियोंसे लेकर सहसार तक्के देनोंमें मिध्यादृष्टि जीमो के दो प्रकारकी आयु स्थितिकी प्ररूपणा हो नहीं सकती थी । 1 ९. इन्द्रिय मार्गणामै उत्कृष्ट भ्रमणकाळ प्राप्ति विधि ध.१/४,१,६६/१२६-१२७/२६५ न इनकी टीकाका भावार्थ - "सौधम्मे माहिदेही होदि चदुगुणिदं । बम्हादि आरणच्युद पुडीगं होदि पंचगुणं ॥ १२६ ॥ पढमपुढवीए चदुरोपण ( पण ) सेसासु होंति पृथ्वी च च देवेश भया बाबीसं ति सदधतं ३१२०० - प्रथम पृथिवीमें ४ बार = १x४ = ४ सागर; २ से ७वीं पृथिवीमें पाँच-पाँच बार - ५५३, ५४७,५×१०,५१७, ५x२२, ५३३ - १५+३५ ५०+ ८५ + ११० + १६५ ४६० सागर; सौधर्म व माहेन्द्र युगलोंमें चार-चार बार=४×२, ४×७–८+२८३६ सागर: ब्रह्मसे अच्युत तकके स्वर्गों में पाँच-पाँच बार = ५×१० + ५× १४ + ५×१६ +५×१८+ ५×२० + ५× २२=५०+७०+८०+१०+१००+११००५०० सागर। इन सर्व के ७१ अन्तरालोंमें पंचेन्द्रिय भवोंकी कुल स्थिति पूर्व पृथक्त्व है। अत चेन्द्रियोंमें यह सब मिलकर कुल परिभ्रमण काल पूर्वकोटि पृथक्स्प अधिक १००० सागर प्रमाण है । १२६ । अन्य प्रकार प्रथम पृथिवी चार बार उपरोक्त प्रकार ४ सागर; २०७ पृथिवीमें पाँच-पाँच बार होनेसे उपरोक्त प्रकार ४६० सागर और सौधर्म से अच्युत युगल पर्यन्त चारचार बार उपरोक्तवत ४३६ सागर अन्तरालोंके ७१ भवकी कुल स्थिति पूर्वको इस प्रकार कुल स्थिति पूर्वकोडि पृथक्व अधिक ६०० सागर भी है । १२७ ५. कालानुयोग द्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम १०. काय मार्गणा में नसोंकी उत्कृष्ट भ्रमण प्राप्ति विधि घ. १/४.१.६६/ १२८-९२१/२२८६ इनकी टीकाका भावार्थ-सोहम्मे माहिंदे पढमढवी होदि चदुगुणिदं । बम्हादि आरणच्द पुढवीणं हो |२८| विगु उरिम एगज्जे दोणि सहस्साणि भवे कोडियुधत्तेण अहियाणि | १२ | "कल्पों में सौधर्म माहेन्द्र युगलों में चार-चार बार = (४x२) + (४X७) = ८ + २८ = ३६ सागर, ब्रह्मसे अच्युत तकके युगलोमें आठ-आठ बार - ८×१०+ ८×१४+८x१६ + ८x१८ + ८x२० + ८x२२=८० + ११२+१२८+ १४४ + १६० + १७६ = ८०० सागर । उपरिम रहित ८ प्रैवेयकोंमें दो-दो बार =२x२१२ (२३ + २४ + २५+२६+२७+२८+२६+३०=४२४ सागर | प्रथम पृथिवी में चार बार = ४४१ = ४ सागर । २ ७ पृथिवियों में आठ-आठ बार ८३ + ८X७ + ८×१० + ८x१७+२२ + ३३ २४+६+०+१६+१०६ + २६४७३६ सागर अन्तरालके जस भवोंकी कुल स्थिति-पूर्व कोडि पृथक्त्व । कुल काल - २००० सागर पूर्वकोटि धनल ११. योग मार्गणामै एक जीवापेक्षा जघन्यकाल प्राप्ति विधि .४/१.२.१६२/४०२/१० "गुणद्वाणाणि अस्सिन एगसमयपरूनणा कीरदे । एत्थ ताव जोगपरावत्ति गुण परावत्ति मरण - वाघादेहि मिच्छतगुगड्डाणस्स एगसमओ पदे १. को सासणो सम्मानियारिडी असं जदसम्मादिट्ठी संजा संजदो पमतसंजदो वा मणजोगेण अच्छिदो । एगसमओ मणजोगाए अस्थिति मिच्छतं गदो एमसमयं मगजोगेण सह मिच्छतं दि । विदियसमए मिच्छादिट्ठो चेव, किन्तु वचिजोगी कायजोगी व जादो। एवं जोगपरिवत्तीए पंचविहा एगसमयपरूवणा कदा । ( ५ भंग ) २. गुणपरावन्त्तीए एगसमओ वुञ्चदे तं जहा एक्को सिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो । तस्स वचिजोगद्धा कायजो गद्धासु खीणासु मणजोगो आगदो । मणजोगेण सह एगसमयं मिदिमदियसमर नि मगजोगी चैव तु सम्माि च्छत्तं वा असंजमेण सह सम्मत्तं वा संजमासंजम वा अपमत्तभावेण संजम वा पडिवण्णो । एवं गुणपरावत्तीए चउव्विहा एगसमयपरूवणा कदा । (४ भंग ) । ३. एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो तेखिएन मगजोगो आग्दो एगसमयं मगोगेण सह मिच्छत्तं दिट्ठ । विदियसमए मदो । जदि तिरिक्खेसु वा मणुसेसु वा उपयो तो कम्मामजोगी मा जादो एवं मरणे लस ए भंगे। ४. वाघादेण एषको मिच्छादिट्ठी बचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो। तैसि वचि कायजोगाणं खएण तस्स मणजोगो आगदो । एगसमयं मनजोगेण मिच्छदि निदियसमए बाचादिदो कामजोगी जादो लदो एगसमओ एत्थ उज्जती गाहा-गुणजोग परावती वाघादो मरणमिदि हु चत्तारि । जोगेसु होंति ण वरं पच्छिल्लद्गुण का जोगे | ३६ | नोट - एदम्हि गुणहाणे ट्ठिदजीवा इमं गुणठाणं परिवति पविति ति नादून गुणपछिमा वि इमं गुण ठाणं गच्छति, ण गच्छति त्ति चितिय असंजदसम्मादिटि-संजदासंजद- पमन्तसंजदाणं च विहा एगसमयपरूवणा परूविदव्वा । एवमप्पमत्तसंजदाणं । वरि वाघादेण विना तिविधा एगसमयपरूवणा कादव्वा । मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानको आश्रय करके एक समयकी प्ररूपणा की जाती है - उनमेंसे पहले योग परिवर्तन, गुणस्थान परिवर्तन, मरण और व्याघात, इन चारोंके द्वारा मिथ्यात्व गुणस्थानका एक समय प्ररूपण किया जाता है। वह इस प्रकार है- योगपरिवर्तन पाँच भंग- सासादन सम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ९६ ५. कालानुयोग द्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम संयत (इन पाँचों) गुणस्थानवी कोई एक जीव मनोयोगके साथ विद्यमान था। मनोयोगके कालमें एक-एक समय अवशिष्ट रहनेपर वह मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वहाँपर एक समय मात्र मनोयोगके साथ मिथ्यात्व दिखाई दिया। द्वितीय समयमें वही जीव मिथ्यादृष्टि ही रहा, किन्तु मनोयोगीसे वचनयोगी हो गया अथवा काययोगी हो गया । इस प्रकार योग परिवर्तनके साथ पाँच प्रकारसे एक समयकी प्ररूपणा की गयी। (योग परिवर्तन किये बिना गुणस्थान परिवर्तन सम्भव नहीं है-दे० अन्तर २). २.गुणस्थान परिवर्तनके चारभंगअब गुणस्थान परिवर्तन द्वारा एक समयकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचनयोगसे अथवा काययोगसे विद्यमान था। उसके वचनयोग अथवा काययोगका काल क्षीण होनेपर मनोयोग आ गया और मनोयोगके साथ एक समयमें मिध्यादृष्टि गोचर हुआ। पश्चात द्वितीय समयमें भी वह जीव यद्यपि मनोयोगी ही है, किन्तु सम्यग्मिध्यात्वको अथवा असंयमके साथ सम्यक्त्वको अथवा संयमासंयमको अथवा अप्रमत्त संयमको प्राप्त हुआ। इस प्रकार गुणस्थान परिवर्तनके द्वारा चार प्रकारसे एक समयको प्ररूपणा की गयी। (एक विवक्षित गुणस्थानसे अविवक्षित चार गुणस्थानोंमें जानेसे चार भंग)। ३. मरणका एक भंगकोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचन योगसे अथवा काययोगसे विद्यमान था पुनः योग सम्बन्धी कालके क्षय हो जानेपर उसके मनोयोग आ गया। तब एक समय मनोयोगके साथ मिथ्यात्व दिखाई दिया और दूसरे समयमें मरा । सो यदि वह तिर्यचोंमें या मनुष्योमें उत्पन्न हुआ तो कार्माण काययोगी अथवा औदारिक मिश्र काययोगी हो गया। अथवा यदि देव और नारकियों में उत्पन्न हुआ तो कार्माण काययोगी अथवा वै क्रियक मिश्र काययोगी हो गया। इस प्रकार मरणसे प्राप्त एक भंग हुआ। ४. व्याघातका एक भंग-अब व्याघातसे लब्ध होनेवाले एक भंगकी प्ररूपणा करते हैं-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव बचनयोगसे अथवा काययोगसे विद्यमान था। सो उन वचन अथवा काययोगके क्षय हो जानेपर उसके मनोयोग आ गया तब एक समय मनोयोगके साथ मिथ्यात्व दृष्ट हुआ और दूसरे समय वह व्याघातको प्राप्त होता हुआ काययोगी हो गया, इस प्रकारसे एक समय लब्ध हुआ। भंगोंको यथायोग्य रूपसे लागू करना- इस विषयमें उपयुक्त गाथा इस प्रकार है-'गुणस्थान परिवर्तन, योगपरिवर्तन, व्याघात और मरण ये चारों बातें योगोंमें अर्थात तीन योगोंके होनेपर हैं। किन्तु सयोग केवलीके पिछले दो अर्थात मरण और व्याघात तथा गुणस्थान परिवर्तन नहीं होते १३६।' इस विवक्षित गुणस्थानमें विद्यमान जीव इस अविवक्षित गुणस्थानको प्राप्त होते हैं या नहीं, ऐसा जान करके तथा गुणस्थानोंको प्राप्त जीव भी इस विवक्षित गुणस्थानको जाते हैं अथवा नहीं ऐसा चिन्तवन करके असंयत सम्यगदृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्त संयतोंको चार प्रकारसे एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए। इसी प्रकारसे अप्रमत्त संयतोंकी भी प्ररूपणा होती है, किन्तु विशेष मात यह है कि उनके व्याघातके बिना तीन प्रकारसे एक समयकी प्ररूपणा करनी चाहिए। क्योंकि अप्रमाद और व्याघात इन दोनोंका सहानवस्था लक्षण विरोध है। (अतः चारों उपशामकों में भी अप्रमत्सब ही तीन प्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए तथा क्षपकों में मरण रहित केवल दो प्रकारसे ही।) ५. भंगोंका संक्षेप-(अविवक्षित मिथ्यादृष्टि योग परिवर्तन कर एक समयतक उस योगके साथ रहकर अविवक्षित सम्यग्मिथ्यात्वी, या असंयतसम्यग्दृष्टि, या संयतासंगत, या अप्रमत्त संयत हो गया। विवक्षित सासादन, या सभ्यग्मिध्यात्व, या असंयत सम्यग्दृष्टि, या संयतासंयत, या प्रमत्तसंयत विवक्षित योग एक समय अवशिष्ट रहनेपर अविवक्षित भिध्यादृष्टि होकर योग परिवर्तन कर गया। विवक्षित स्थानवर्ती योगपरिवर्तन कर एक समय रहा, पीछे मरण या व्याघात पूर्वक योग परिवर्तन कर गया।) १२. योग मार्गणामें एक जीवापेक्षा उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि ध.७/२,२.६८/१५२/२ अणप्पिदजोगादो अप्पिदजोगं गंतूण उक्कस्सेण ___ तत्थ अंतोमुहुत्ताबट्ठाण पडि विरोहाभावादो। ध. ७/२,२,१०४/१५३/७ बावीसवाससहस्साउअपुढवीकाइएस उपज्जिय सव्वजहण्णेण कालेण ओरालयमिस्सद्धं गमिय पज्जत्तिगदपढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तूणबावीसवाससहस्साणि ताव ओरा लयकायजोगुवलं भादो। ध.७/२,२,१०७/१५४/६ मणजोगादो बचिजोगादो वा वेविय-आहारकायजोगं गंतूण एटबुक्कस्सं अंतोमुत्तमच्छिय अण्णजोगं गदस्स अंतोमुत्तमेत्तकालुवलंभादो, अणप्पिदजोगादो ओरालियमिस्सजोगं गंतूण सव्वुक्कस्सकालमच्छिय अण्णजोग गदस्स ओरालियमिस्सस्स अंतोमुहुत्तमेतुक्कस्सकालुबलभादो। = १. ( मनोयोगी तथा वचनमोगी) अविवक्षित योगसे विवक्षित योगको प्राप्त होकर उत्कर्ष से वहाँ अन्तर्मुहर्त तक अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं है। २ (अधिक से अधिक बाईस हजार वर्ष तक जीव औदारिक काययोगी रहता है। (ष.ख./ ७/२.२/सू. १०५/१५३ ) क्योंकि, बाईस हजार वर्षकी आयु वाले पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होकर सर्व जघन्य कालसे औदारिकमिश्र कालको बिताकर पर्याप्तिको प्राप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कम माईस हजार वर्ष तक औदारिक काययोग पाया जाता है। ३. मनोयोग अथवा बचनयोगसे वैक्रियक या आहारककाययोगको प्राप्त होकर सर्वोत्कृष्ट अन्तमहंत काल तक रह कर अन्य योगको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहर्त मात्र काल पाया जाता है, तथा अविवक्षित योगसे औदारिकमिश्रयोगको प्राप्त होकर व सर्वोत्कृष्ट काल तक रहकर अन्य योगको प्राप्त हुए जीवके औदारिकमिश्रका अन्तर्मुहूर्त मात्र उत्कृष्ट काल पाया जाता है। न करके तथा गुणस्या रसा चिन्तवना र प्रकार से एक सप १३. वेद मार्गणामें स्त्रीवेदियोंकी उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि ध./४,१,६६/१३०-१३१/३०० सोहम्मे सत्तगुणं तिगुणं जाव दू समुक्क कप्पो त्ति । सेसेमु भवे विगुणं जाव दु आरणच्चुदो कप्पो ।१३०॥ पणगादी दोही जुदा सत्तावीसा ति पल्लदेवीणं । तत्तो सत्त तरिय जाव दुजारणच्चुओ कप्पो ।१३१। = सौधर्म में सात बार-७४५ पत्य । ईशानसे महाशुक्र तक तीन तीन बार -३ (७+६+११+१३+ १५+१+१+२१+२३) =२१+ २७+३३+३६+४५+५१+ ५७+६३+६९-४०५ पक्य । शतारसे अच्युत तक दो दो बार -२ ( २५+२७+३४+४१+४८+५५) =५०+५४+६+२+१६ +११०-४६० पल्य। अन्तरालोंके स्त्री भवोंकी स्थिति-1 कुल काल १०० पल्य+1 १४. वेद मार्गणामें पुरुषवेदियोंकी उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि ध.६/४,१,६६/१३२/३०० पुरिसेसु सदपुधत्तं असुरकुमारेसु होदि तिगुणेण । तिगुणे वगेवज्जे सग्गठिदी छग्गुणं होदि ।१३२॥ - असुरकुमारमें ३ बार ३४१३ सागर । नव ग्रं वेयकों में तीन बार ३ (२४+२७+३०) = ७२+१+६०-२४३ सागर । आठ करप युगलों अर्थात् १६ स्वर्गोंमें छ' छ. बार ०६ (२+७ +१०+ १४+१६+१+२०+२२) १२+४+६+४+६६ +१००+१२०+१३२ ६५४ सागर। अन्तरालोंके भवोंकी कुल स्थिति=1 । कुल काल-१०० सागर +'। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ५. कालानुयोग द्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम १५. कषाय मार्गणामें एक जीवापेक्षा जघन्यकाल प्राप्ति विधि व्याघातका एक इस प्रकार चारोंके ११ भंग यथायोग्य रूपसे लागू करना । विशेष इतना कि वृद्धिगत गुणस्थान लेश्याको भी वृद्धिगत और हीयमान गुणस्थानोंके साथ लेश्याको भी हीयमान रूप परिवर्तन कराना चाहिए। परन्तु यह सब केवल शुभ लेश्याओं के साथ लागू होता है, क्योंकि अशुभ लेश्याओंका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । ष. खं./७/२,२/सू. १२६/१६० जहण्णेण एयसमओ ॥१२॥ ध.७/२,२,११६/१६०/१० कोधस्स बाधादेण एगसमओ णस्थि, माधादिदे वि कोधस्सेव समुप्पत्तीदो। एवं सेसतिर्ह कसायाणं पि एगसमयपरूवणा कायव्वा । णवरि एदेसि तिण्हं कसायाणं वाधादेण वि एगसमयपरूवणा कायव्वा । कमसे कम एक समयतक जीव क्रोध कषायी आदि रहता है ( योगमार्गणावत् यहाँ भी योग परिवर्तनके पाँच, गुणस्थान परिवर्तनके चार मरणका एक तथा व्याघातका एक इस प्रकार चारोंके.११ भंग यथायोग्यरूपसे लागू करना। विशेष इतना कि क्रोधके व्याघातसे एक समय नहीं पाया जाता, क्योंकि व्याघातको प्राप्त होनेपर भी पुन' क्रोधको उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार शेष तीन कषायोके भो एक समयको प्ररूपणा करना चाहिए ( विशेष इतना है कि इन तीन कषायोके व्याघातसे भी एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए। क पा. १/१३६८/चूर्ण सू /३८५ दोसो केवचिरं कालादो होदि । जहण्णुका स्सेण अंतोमुहुत्तं । क पा. १/६३६९-३८५/१० कुदो। मुदे वाधादिदे वि कोहमाणाणं अंतो मुहुत्तं मोतूण एग-दोसमयादीणमणुवलं भादो। जीवट्ठाणे एगसमओ काल म्मि परूविदो, सोकधमेदेण सह ण विरुज्झदे; ण; तस्स अण्णाइरियउवएसत्तादो। कोहमाणाणमेगसमयमुदओ होदूण विदियसमयकिण्ण फिट्टदे। ण; साहावियादो । प्रश्न-दोष कितने कालतक रहता है । उत्तर-जधन्य और उत्कृष्ट रूपसे दोष अन्तर्मुहूर्स कालतक रहता है। प्रश्न-जघन्य और उत्कृष्टरूपसे भी दोष अन्तर्मुहूर्त कालतक ही क्यो रहता है। उत्तर-क्यो कि जीवके मर जानेपर या बी'चमें किसी प्रकारकी रुकावट के आ जानेपर भी क्रोध और मानका काल अन्तर्मुहूर्त छोडकर एक समय, दो समन, आदि रूप नही पाया जाता है। अर्थात् किसी भी अवस्थामें दोष अन्तर्मुहूर्त से कम समयतक नहीं रह सकता। प्रश्न-जीवस्थानमै कालानुयोगद्वारका वर्णन करते समय क्रोधादिकका काल एक समय भी कहा है, अत. वह कथन इस कथनके साथ विरोधको क्यो प्राप्त नही होता है। उत्तरनहीं, क्योंकि जीवस्थानमे धादिकका काल जो एक समय कहा है वह अन्य आचार्य के उपदेशानुसार कहा है। प्रश्न-क्रोध और मानका उदय एक समयतक रहकर दूसरे समयमे नष्ट क्यों नही हो जाता । उत्तर -- नहीं, क्योकि अन्तर्मुहूर्ततक रहना उसका स्वभाव है। ध.४/१०५,२६७/४६७/३ एगो मिच्छादिही असंजदसम्मादिही वा वड्ढमाणपम्मलेस्सिओ पम्मलेस्सद्धार एगो समओ अस्थि त्ति संजमासंजमं पडिवण्णो। विदिएसमए संजमासंजमेण सह सकलेस्सं गदो। एसा लेस्सापरावत्ती (३)। अधवा बडूढमाणतेउलेस्सिओ संजटासंजदो तेउलेस्साए खरण पम्मलेस्सिओ जादो। एगसमयं पम्मलेस्साए सह संजमासंजमं दिल, विदियसमए अप्पमत्तो जादो । एसा गुण परावत्ती। अधवा संजदासंजदो होयमाणसुकलेस्सिओ मुक्कलेस्सद्धारखएण पम्मलेस्सिओ जादो । विदियसमए पम्मलेस्सिओ चेव, किंतु असंजदसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिठी सासणसम्मादिठी मिच्छादिट्ठी वा जादो । एसा गुणपरावती (४)। ध. ४/२,५,३०७/४७५/१ ( एको) अप्पमत्तो होयमाणसुक्कलेरिसगो मुक्कालेस्सद्धाए सह पमत्तो जादो। विदियसमये मदो देवतं गदो (३)। -१. वर्धमान पद्मलेश्यावाला कोई एक मिथ्यादृष्टि अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि जीव, पद्मलेश्याके काल में एक समय अवशेष रहनेपर संयमासंयमको प्राप्त हुआ। द्वितीय समयमें संयमासयमके साथ ही शुक्ललेश्याको प्राप्त हुआ। यह लेश्या परिवर्तन सम्बन्धी एक समयकी प्ररूपणा हुई । अथवा, वर्धमान तेजोलेश्यावाला कोई संयतासंयत तेजोलेश्याके काल के क्षय हो जानेसे पद्मलेश्यावाला हो गया। एक समय पद्मलेश्याके साथ संयमासंग्रम दृष्टिगोचर हुआ। और वह द्वितीय समयमें अप्रमत्तसंयत हो गया। वह गुणस्थान परिवर्तनकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा हुई। अथवा, होयमान शुक्ललेश्यावाला कोई संयतासंयत जीव शुक्ललेश्याके काल के पूरे हो जानेपर पद्मलेश्यावाला हो गया। द्वितीय समयमें वह पद्मलेश्यावाला ही है, किन्तु असयतसम्यग्दृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा सासादन सम्यग्दृष्टि, अथवा मिथ्यादृष्टि हो गया। यह गुणस्थान परिवर्तनकी अपेक्षा एक समयको प्ररूपणा हुई (४)। २. हीयमान शुक्ललेश्यावाला कोई अप्रमत्तसंयत, शुक्ललेश्याके ही कालके साथ प्रमत्तसंयत हो गया, पुन' दूसरे समयमे मरा और देवत्वको प्राप्त हुआ। (यह मरणकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा हुई।) नोट-इस प्रकार यथायोग्य रूपसे सर्वत्र लागू कर लेना। १७. लेश्या मार्गणागे एक जीवापेक्षा अन्तर्मुहूर्त जघ. न्यकाल भी है १६. लेश्या मागणामें एक जीवापेक्षा एक समय जघन्यकाल प्राप्ति विधि ध.४/१.५.२६६/४६६-४७५ का भावार्थ (योग मार्गणावत् यहाँ भी लेश्या परिवर्तनके पाँच, गुणस्थान परिवर्तनके चार, मरण का एक और यह काल अशुभलेश्याकी अपेक्षा है क्योंकिध.४/१,५,२८४/४५६/१२ एत्थ ( अमुहलेस्साए) जोमस्सेव एगसमओ जहण्णकालो किण्ण लम्भदे। ण, जोगकसायाणं व लेस्साए तिस्सा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-१३ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ९८ - परावती गुणापत्तीए मरणेण बाधादेण वा एक्समयकालत्सासंभवा । ण ताव लेस्सापरावत्तीए एगसमओ लम्भदि, अप्पिदलेस्साए परिणमिदविदियसमए तिस्से विवासाभावा, गुणंतरं गदस्स विदिय समर तेस्संतरगमणाभावादो च न गुणपराबसीर, अदिलेस्साए परिणदविदियसमए गुणंतरगमणाभावा । ण च वाघादेण, तिस्से वाघादाभावा । ण च मरणेण, अप्पिदलेस्साए परिणदविदियसमए मरणाभावा । प्रश्न- यहाँपर ( तीनों अशुभ लेश्याओंके प्रकरण में) योगपरावर्तन के समान एक समय रूप जघन्यकाल क्यों नहीं पाया जाता है " उत्तर नहीं। क्योंकि, योग और कषायोंके समान लेश्यामेंश्याका परिवर्तन, अथवा गुणस्थानका परिवर्तन, अथवा मरण और व्याघातसे एक समयकालका पाया जाना असम्भव है। इसका कारण यह कि न तो लेश्या परिवर्तनके द्वारा एक समय पाया जाता है, क्योंकि विवक्षित लेश्यासे परिणत हुए जीवके द्वितीय समय में उस लेश्या के विनाशका अभाव है। तथा इसी प्रकार से अन्य गुणस्थानको ये हुए जीवके द्वितीय समयमें अन्य लेश्याओंमें जानेका भो अभाव है । न गुणस्थान परिवर्तनकी अपेक्षा एक समय सम्भव है, क्योंकि विवक्षित लेश्या परिणत हुए जीवके द्वितीय समय में अन्य गुणस्थानके गमनका अभाव है। न व्याघातकी अपेक्षा ही एक समय सम्भव है, क्योंकि, वर्तमान लेश्या के व्याघातका अभाव है। और न मरणकी अपेक्षा ही एक समय सम्भव है, क्योंकि, विवक्षित देश्याते परिपत हुए जीवके द्वितीय समय में मरणका प्रभाव है ( . ४ / १.२.२६६/ ४६५/६ ) १८. या परिवर्तन क्रम सम्बन्धी नियम घ. ४/१.१.२०४/२६६/३ किन्लेस्साए परिणदस्य जीवस्स अतरमेव काउलेस्सापरिणमणसत्तीए असंभवा । = घ. ८/३.२.१८/३२२/७ कलेस्साए उिदो पम्म- ते काहीसा परिणमीय पच्छा किनलेस्सापसारण परिणमवगमादो कृष्ण लेश्या परिणत जीवके तदनन्तर ही कापोत लेश्यारूप परिणमन शक्तिका होना असम्भव है। शुक्सलेश्या क्रमा पद्मपीठ कापोत और नीच वेश्याओं में पश्चिमन करके पीछे कृष्ण लेश्या पर्याय से परिणमन स्वीकार किया गया है। १९. बेदक सवस्वका ६६ सागर उत्कृष्टकाल प्राप्ति विधि घ. ७/२.२.१४२/९६४/११ वेक्रस रस्समा पडिवम्णजनसमसम्म सह समुदिर-ओ-पास वेदसम्म पडिवज्जिय ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ अविणट्ठतिणाहि तोमुहतमच्छिय एवे तो गुणकोडर अमस्सेववजय पुणो बीस सागरोन भए दे कोहाउस मस्सेधजिव मामीसागरोवमी देवेन वज्जिदृण पुणो पुव्वकोडाउएस मणुस्सेसुववज्जिय खइयं पट्ठविय चवीस सागरोवमादिवि देवेनजित पुणेो पुण्यको उपसू मस्सेववज्जिय थोवावसेसे जीविए केवलणाणी होदूण अबंधगतं गदस्स चदुहि पुत्रकोडीहि सादिरेयछावट्ठिसागरोवमाण मुवलं - भादो | = देव अथवा नारकीके प्राप्त हुए उपशम सम्यक्त्वके साथ मति, श्रुत व अवधि ज्ञानको उत्पन्न करके, वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर, अनिष्ट तीनों शानोंके साथ अन्तर्मुहूर्तकाल तक रह इस अन्तर्मुहूर्त से हीन पूर्व कोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर, पुन श्रीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले देवों में उत्पन्न होकर पुन भाईस सागरोपम आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर, पुन पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योमें उत्पन्न होकर क्षायिक सम्यक्त्वका प्रारम्भ करके, चौबीस सागरोमम आयुनाले देवों में उत्पन्न होकर पुन पूर्वकोटि आयुष मनुष्यों में उत्पन्न होकर जीवितके थोड़ा शेष रहनेपर केवलज्ञानी होकर अन्धक अवस्थाको प्राप्त होनेपर चार पूर्वकोटियोसे अधिक छयासठ सागरोपम पाये जाते हैं। ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ १. सारणी में प्रयुक्त संकेतोंका परिचय अप० अव ० जर्स० उत० उप० तिर्य० लध्यपर्याप्त अवसर्पिणी असंख्यात उत्सर्पिणी उपशम तिर्यञ्च प० पर्याप्त पल्य / असं० पत्यका असंख्यातवाँ भाग पृथिवी पृ० मनु० मनुष्य मिथ्या० मिथ्यात्व सम्य० सम्यक्त्व सा० सागर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश को० पू० को पूर्व पृ० [को०] पूर्व क्रोड १,२,३,४ वह वह गुणस्थान २५ ज० २८ प्रकृतियोंकी सत्ता वाला कोई मिथ्यादृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सामान्य $$$*****...** वर्ष अन्तर्मु० अन्तर्मुहूर्त कोको, सा, कोड़ाकोडी सागर ज० उ० जघन्य उत्कृष्ट Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल २. जीवोंकी कालविषयक ओघप्ररूपणा प्रमाण-१. (ष. ख. ४/१,५,२-३२/३२३-३५७); (गो.जी./भाषा/१४५/३५६/१) संकेत-दे० काल ६१ काल विशेषों को निकालनेका स्पष्ट प्रदर्शन-दे० काल/५ नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया प्रमाण गुण स्थान नं०१/सू. जघन्य विशेष उत्कृष्ट विशेष जघन्य विशेष उत्कृष्ट विशेष | २-४ सर्वदा | विच्छेदाभाव सर्वदा | अनादि मिथ्यात्वी सर्वप्रथम सम्यक्त्व पाकर गिरे। विच्छेदाभाव अन्तर्मुहूर्त ३, ४, ५ या वें स्थानसे गिरे, अर्ध पुद्गल मिथ्यात्व हो, पुन' ३,४,५ या । ६४ को प्राप्त हो ६ आवली स्थितिवाले । १ समय | उपशम सम्यक्त्व में एक समय ६आवली २,३ या ४थे स्थानवाले शेष रहनेपर सासादनको प्राप्त हो जीवोंका प्रवेश क्रमन २ ५-६ उपशम सम्यक्त्व में ६ आवली शेष रहने पर सासादनको प्राप्त हो एक समय | २ या ३रेके १ समय पल्य/असं स्थितिवाले सर्वजीव एकदम सासादन पूर्वक मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाय। प्रवेश क्रम न टूटे चढने व गिरने वाले दोनों की अपेक्षा |अन्तम हूतं मिथ्यात्वसे चढ़कर ३रे को प्राप्त । अन्त गिरनेवाले की अपेक्षासे नही। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ६-१२ अन्तर्महत २८/ज वाले ७ या ८ जीव १,४,५ या छठे से युगपद गिरे १३-१५ । सर्वदा । विच्छेदाभाव ४ सर्वदा विच्छेदाभाव २८/ज वाला १,३,५ या ६ स्थान ३३ सागर+१ श्वाँ, ६ठा स्थानधारी या उपशम सम्यसे गिरने ब चढ़ने दोनोंकी अपेक्षा कोडपूर्व क्त्वी मनुष्य अनुत्तर विमानोंमें समय कम ३३ सागर रहकर पूर्वकोड आयु वाला मनुष्य हो संयम धरे। २८/ज वाला १,४ या ईठे स्थानसे १कोडपूर्व- सम्मुलिम संज्ञी पर्याप्त तिर्यच, मच्छ, अवरोहण या आरोहण करनेकी | अन्तर्मुहूर्त । मेंढक आदिक भवके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् अपेक्षा । आरोहण करे तो १ या संयतासंयत हो। ४ये से वें पूर्वक ७वेको प्राप्त हो ६ठे को नहीं। ६ १९-२१ १ समय ठेवं में परस्पर आरोहण व अबरोहण करता १ समय गुणस्थान विशेष में रहकर मरे | सबोत्कृष्ट कालपर्यन्त प्रमत्त रहकर मिथ्यात्वी होनेवाले की अपेक्षा ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ उपरोक्तवत् पर अप्रमत्तसे मिथ्यात्वी होने वाला Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया काल गुण स्थान प्रमाण न०१/मू. जघन्य विशेष उत्कृष्ट विशेष जघन्य विशेष उत्कृष्ट विशेष उपश मकः | १समय 1२ या ३ अवरोहक- अन्तर्मुहूर्त ७.८ या ५४ तक जीव | १ समय २२-२५ |१समय जीवन शेष रहनेपर वे अन्तम हुर्त ७ से ८वे मे वव मे से ८वे मे तथा उपशामक व से वे व १०वे स्थानोमे से वे में या वे से हवे में, १वें इसी प्रकार सर्वत्र आरोहण या अव८वे में आ १ समय परस्पर अवरोहण व सेहवें मे वा वे से १०वेमे: ११वे रोहण द्वारा प्रवेश कर अन्तमुहर्त रह पश्चात् युगपद मरे। आरोहण रे । ११वे में से १०व में या १०वे से ११वे में | गुणस्थान परिवर्तन करे। हवे व १०वे मे भी केवल आरोहण करके आ १ समय पश्चात मरे। उपरोक्तवत् पर अब गुणस्थान बदले। फिर रोहण व आरोहण | अवश्य विरह होता है। दोनोकी अपेक्षा। ११वे में केवल आरो ह्णकी अपेक्षा २६-२६ | अन्तमुहूतं ७,८ या १०८ जीव | अन्तमुहूत जघन्यवत् अन्तर्मुहूर्त | ७३ स्थानसे क्षपक श्रेणी चढ जघन्यवाद ज्वे स्थानसे क्षपक क्रमेण अयोगी स्थानको प्राप्त हुआ श्रेणी चढ़ क्रमेण युगपत् अयोगी स्थानको प्राप्त ३०-३२ | सर्वदा | विच्छेदाभाव विच्छेदाभाव १२खें से १३ में आ समुद्धात कर | १ कोड पूर्व | १ पूर्वकोडकी आयुवाला मनुष्य ७ मास अयोगी स्थानको प्राप्त हुआ (७ वर्ष व ७ गर्भ में रहा, ८ वर्ष आयुपर दीक्षा ले अन्तर्मुहूर्त अप्रमत्त हुआ। ७ अन्तर्मुहूर्तोमे क्रमसे सर्व गुणस्थानोको पार कर सयोगी स्थानको प्राप्त हुआ। शेष आयु पर्यन्त वहाँ रहा । अन्त मे अयोगी हुआ। क्षपक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ००४ सर्वदा १४ । २६-२६ । अन्तर्मुहूर्त | उपरोक्त क्षपकोंवत् | अन्तर्मुहूर्त | उपरोक्त क्षपकवत् । अन्तर्मुहूर्त | उपसर्गकेवली १३-१४ उपरोक्त क्षपकोंवत् (क० पा/पु१पृ० ३४२) - अन्तर्मुहूर्त । उपरोक्त क्षपकोंबत् (क. पा./पु१/पृ० ३६०) ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल ३. जीवों के अवस्थान काल विषयक सामान्य व विशेष आदेश प्ररूपणा प्रमाण-१. (ष.ख.४/१,५,३३-३४२/३५७-४८८); २. (प.ख./२,८,१-५५/पु.७/पृ.४६२-४७७); ३. (प.ख ७/२.२,१-२१६/११४-१८५) संकेत-दे० काल/६/१ काल विशेषोको निकालनेका स्पष्ट प्रदर्शन-दे० काल/१ मार्गणा - गुण एक जीवापेक्षया नाना जीवापेक्षया विशेष प्रमाण जघन्य स्थान। उत्कृष्ट विशेष पत्र । प्रमाण नं०१ नं०३ विशेष नं०१ नं०२ विशेष उत्कृष्ट १. गतिमार्गणा नरक गतिनरकगतिसामान्य ... श्लो पृथिवी २-७ , नरक सामान्य २-३ सर्वदा (प्रवेशान्तर काल सर्वदा विच्छेदाभाव से अवस्थान । - काल अधिक है। » विच्छेदाभाव -६ पुनः चढे मूलोपक्व मुलोधवत् ३६ सर्वदा । विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव ३८-३६ - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १०००० वर्ष ३३ सागर १ सागर १-२२ सागर क्रमश १.३,७,१०,२२ सागर | ३-३३ सागर क्रमश. ३,७,१०,१७,२२,३३ सागर अन्तर्मु० | २८/ज ३ या ४थे से गिरकर ३३ सागर वे नरककी पूर्ण आयु मिथ्यात्व सहित बोते मूलोघवत् मूलोघवत् २८/ज १ले ३रे से ४थेमे जा | ३३ सागर- |७वे नरकमे उत्पन्न २८/ज.मिथ्याह पुनः गिरे ६ अन्तर्मु. पर्याप्तिपूर्ण कर वेदकसम्यक्त्वी हो अन्तम आयु शेष रहनेपर पुन. मिथ्यात्वी हुआ नरक सामान्यवत् क्रमशः १,३,७.१० नरक सामान्यवत् १७,२२,३३सागर मुलोघवत् अन्तर्मु० नरक सामान्यवत् क्रमश.१,३.७,१०० नरक सामान्यवद १७सा.२२सा.अ./ पूर्ण स्थितिसे पर्याप्तिकाल व अन्तिम | ३३सा.-६अन्तर्मु० अन्तर्मुहूर्त हीन)। |१-७ पृथिवी - मूलोघवत् ४३ सर्वदा| विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव ४५-४६ २.तियंचगति |तियंच सामान्य 07१। पंचेन्द्रिय सामा. • पर्याप्त |, योनिगति नपुंसक वेदी . लब्ध्यपर्याप्त तिथंच सामान्य ४-५ | सर्वदा प्रवेशान्तर काल सर्वदा विच्छेदाभाव ११-१२ | १क्षुद्रभव | मनुष्यसे आकर कर्मभूमिमें | असं. पु. परि. अन्य गतियोंसे आकर कर्मभूमिज से अवस्थानकाल उपजे तो तिर्यंचोंमें परिभ्रमण अधिक है | अपर्याप्तककी अपेक्षा ३पल्य+६५को.पू/परिभ्र केपश्चा.उत्तमभोगभू में देव हुआ मु० | पर्याप्तक की अपेक्षा ३पल्य+४७को.पू उपल्य+१५को.पू ८ कोड़ पूर्व परिभ्रमण ( कर्मभूमिमें) सर्वदा तिर्य० सावत् सर्वदा विच्छेदाभाव १७-१८ / क्षुद्रभव अविवक्षि.तियं.पर्या से आना अन्तर्मुहूर्त अविवक्षि.तियं.से आकर पंचे. होना विच्छेदाभाव " ४८-४६ अन्तर्मु० | २८/ज. ३,४,५३ से १ला हो असं.पुद्गलपरिव अनादि मिथ्यादृष्टि तिर्यचोंमें उपज पुन ऊपर चढे वहाँ इतने काल पर्यत परिभ्रमण कर अन्य गतिको प्राप्त हुआ ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक जीवापेक्षया काल मार्गणा | मार्गणा स्थान प्रमाण नाना जीवापेक्षया प्रमाण स्थान | नं.१1 नं.२ | जघन्य विशेष उत्कृष्ट विशेष प्रमाण नं.१ नं.३ जघन्य विशेष उत्कृष्ट विशेष - मूलोधवत् सर्वदा / विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव ५२-५३ पंचेन्द्रिय सामान्य सर्वदा | विच्छेदाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव ५८-५६ re जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मूलोघवत् सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव ६२-६३ मूलोघवत पंचेन्द्रिय सामान्यवर मूलोघवत् पंचेन्द्रिय सामान्यवत् मूलोघवत् ०१.३.५मेंसे ४थेमें आ पुन.लौटे ३ पल्यबद्धायुष्कक्षा.सभ्य भोगभूमि,तिर्य हुआ उपरोक्तवत् पर २८/ज. की १को.पू.-३अन्तम २८/ज.सम्मूच्छिम पर्याप्त मच्छमेंढक अपेक्षा आदिकहो अन्त में पर्याप्तिपूर्ण कर संयतासंय,हो भवके अन्त तक रहा तिथंच सामान्यवत ३ पन्य+को. संज्ञी, असंज्ञी व तीनों वेद इन पू.+ अन्तर्मुहूर्त स्थानोमेंसे प्रत्येकमें८को०पू० =४८ को०पू०; ल०अप०में अन्तर्मु०,पुन. उपरोक्तवत् ३ वेदोंमे ४७को० पू० फिर भोगभूमिमें उपजा मूलोघवत् | अन्तर्मु. | तिर्यंच सामान्यवत् ३ पल्य तिथंच सामान्यवत् मूलोघवत् पंचेन्द्रिय सामान्यवत् पल्य+४७को. सविशेष पंचेन्द्रिय सामान्यवत मूलाधवत् पंचेन्द्रिय सामान्यवत् पंचेन्द्रिय सामान्यवत् ३पन्य +१५को. सविशेष पंचेन्द्रिय सामान्य वन् पचेन्द्रिय सामान्यवत् ३पल्य-२मास व २८/ज.मिथ्यात्वी भोगभूमिज तिय.मुहूर्त पृथक्त्व में उपजा/२ मास गर्भ में बीते/जन्म के मुहू. पृथक्त्व पश्चात् वेद. सम्य, पंचेन्द्रिय सामान्य वत् अविवक्षि.पर्या.से आ पुन, लोट अन्तर्मुहूर्त जघन्यवत् पंचेन्द्रिय पर्याप्त १ २-३ पंचेन्द्रिय योनिमति ६२-६३ | सर्वदा विच्छेदाभाव । सर्वदा विच्छेदाभाव ६६-६७ / पंचे. ल. अप. ३. मनुष्यगतिमनुष्य सामान्य वंदाविच्छेदाभाव सर्वदा बिच्छेदाभाव २०-२१ क्षुद्रभव , पर्याप्त अन्तमं. अपर्याप्त की अपेक्षा उपत्य+४०को.प्र कमभूमिजमे भ्रमणकाल ४०को०पू./ फिर भोगभूमिज पर्याप्त होकर इतने कालसे , +२३को.पू कर्मभूमिजमें भ्रमणकाल २३को पू./ पहले न मरे फिर भोगभूमिज पर्याप्त होकर इतने कालसे | .. +७को.पू. कर्मभूमिजमे भ्रमणकाल ७ को०पू./ पहले न मरे फिर भोगभूमिज कदली घातसे मरण कर | अन्तर्महर्त । भ्रमण पर्याय परिवर्तन ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ मनुष्यणी प. । मनुष्य ल.अप. २३-२४ पल्य/ संतान क्रम | असं. क्षुद्रभव Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल मार्गणा गुण नाना जीवापेक्षया | स्थान प्रमाण ... जघन्य विशेष | ०१ नं०२ । उत्कृष्ट विशेष प्रमाण ..जघन्य । एक जीवापेक्षया विशेष उत्कृष्ट विशेष मनुष्य सामान्य १ ६८ सर्वदा | विच्छेवाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव अन्तर्म. ३,४,१वें से १ला, पुन' ३,४ या ५३पल्य+४७को.पू तीनों वेदोंमे-से प्रत्येक प्को०पू० +अन्तर्मुहूर्त २४को०पू०; फिर ल अप०में अन्त०; फिर स्त्री व नपं० वेदमें ८,८ को० पू०-१६ को०पू०; फिर पुरुषवेदमें ७ को० पू० इस प्रकार ४७ को०पू० कर्मभूमिमें भ्रमण कर भोगभूमिमे उपजे | २ ७१-७२ १समय ६ आवली उपशम सम्यक्त्वमें ६ आवली काल दोष रहनेपर सासादनमें प्रवेश | समय उप. सम्य.७,८, अन्तर्मु. संख्यातमनु-७३-७४ | मनुष्यका सम्य. काउप.सम्या में १समय शेष में ६याव.शेष रहते युग. प्रवेश रहते युग.प्रवे| उपशम सम्यक्त्वमे १ समय | काल शेष रहने पर सासादनमें प्रवेश अन्तम जघन्यवत् जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अन्तर्म २८/ज १,४,५,६ठे अन्तर्मु. जघन्यवत् ७७-७८ से पीछे आये सं मनु-युगपत् लौटे | २८/ज. १,४,५.६ठे से ३रे में | आ०, अन्तर्मु. वहाँ रह पुन. लौट जायें मनुष्य स न्य ४ ७६ | सर्वदा | विच्छेदाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाष ८०-२ अन्तर्मु० २८/ज. १,३,५,६ठे से ४थे में । ३पल्य+देशोन १ को० पू० में त्रिभाग शेष रहनेपर आ. पुन' लौटकर गुणस्थान पूर्व कोडमनुष्यायुको बाँध क्षायिक सम्यपरिवर्तन करे क्त्वी हो भोगभूमिमें उपजे। मूलोधवत् मनुष्य सामान्यवव ८२ ५-१४८२ १-१४ ६८-८२ मुलोधवत् मनुष्य सामान्य मनुष्य पर्याप्त ६८-८२/ बत् मनुष्यणी १-३६८-७८ | ४ ७६ ६८-७८ सर्वदा विच्छेदाभाव | सर्वदा बिच्छेदाभाव ८०-८१ अन्तर्मुः । मनुष्य सामान्यवर | ३ पल्य-मास | २८/ज. भोग भूमिया मनुष्यणी हो व ४६ दिन हमास गर्भ में रह ४६ दिनमें पर्याप्ति | पूर्ण कर सम्यक्त्वी हो। मनुष्य सामान्य ८२ मनुष्य सामान्यवत् ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ बद मनुष्य ल० अप० १ परिभ्रमण अन्तर्मुहूर्त क्षुद्रभव परिभ्रमण ८३-८४ क्षुद्रभव अनेक जीवोका पत्य/अ. सतति क्रम ८५-८६ युगपत प्रवेश व न टूटे निर्गमन Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण एक जीवापेक्षया प्रमाण [ प्रमाण मागणा नाना जीवापेक्षया विशेष उत्कृष्ट | विशेष स्थान नं०/१ नं ०२ | जघन्य ०/१ न०/३) जघन्य विशेष उत्कृष्ट विशेष ४ देवगतिदेव सामान्य भवन वासी १३सागर व्यन्तर २६-३० पल्य ज्योतिषी सौधर्मसे सहस्रार सर्वदा विच्छेदाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव २६-२७१०,००० वर्ष | देवकी जघन्य आयु |३३ सागर देवको उत्कृष्ट आयु २६-३० १३पल्य (ध./१४/३३१) आ./असं सोपक्रम काल । १२मुहूर्त अनुपक्रम काल जघन्य आयु १३पल्य उत्कृष्ट आयु ३२-३३/१३पल्य क्रमशः प्रत्येक युगलमें | २३ सा.- | प्रत्येक युगलमें क्रमश. २३, ७३, १६३सागर १३ पल्य, २३, ७३, १८३ सा. १०३, १४३, १६३ व १८३ १०३,१४३,१६३ सागर सागर ३५-३६१८३२०सा. दो युगलोंमें क्रमश १८३२० सा. २२ सा. दोनों युगलोंमें क्रमशः २० व २२ | व २० सागर , २२-३०सा. प्रत्येक ग्रं वेयकमे क्रममाः | २३ से ३१ सागर | प्रत्येक ग्रेवेयकमें क्रमशः २३,२४, २५ २२,२३, २४, २५, २६, २७, २६, २७,२८, २९, ३०, ३१ सागर २८,२६, ३० सागर आनत-अच्युत सागर नव वेयक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १०४ ३१ सागर | प्रत्येक में बराबर ३२ सागर प्रत्येकमें बराबर नव अनुदिश विजय से अपराजित सर्वार्थ सिद्धि ३२ सागर ३३ सागर १३सागर ३३ सागर देव सामान्य सर्वदा विच्छेदाभाव सवदा विच्छेदाभावा८८-८६ उपरिम अवेयकमें जा मिथ्यात्व सहित रहे। मुलोधवत सर्बदा विच्छेदाभाव | अन्तर्मुः | २८/ज ३,४थे से १ ले में गुण स्थान परिवर्तन करे मूलोघवत् न्तर्म० १,३रे से ४थे में जा स्थान | ३३ सागर परिवर्तन करे सर्वदा | विच्छेदाभाव ११-१२ सर्वार्थ सिद्धिमे जा सम्यक्त्व सहित रहे| भवन बासी १ सागर +पल्य/ मिथ्यात्व सहित कुल काल बिताया। अंसख्यात ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएं ६७ मूलोधवद मूलोघवत् Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया प्रमाण काल गुण मार्गणा स्थान विशेष विशेष मा०२-१४ नं० १ नं० २ | जयन्य विशेष उत्कृष्ट | विशेष । न०१. नं०३ | जघन्य | सू० । सू० सर्वदा| विच्छेदाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव १५-६६ भवनवासी | देव सामान्यवद स्थान परि० १२ सागर |सम्यक्त्व सहित पूरा काल विता -१ अन्त० । संयत मनुने वैमानिककी आयु बाँधी ...-४ अन्त० | पीछे अपवर्तना घात द्वारा भवनवासी | की रह गयी। वहाँ ६ पर्याप्ति प्राप्तकर सम्यक्त्वी हो रहा। १३पज्य-१अन्त० मिथ्यात्व सहित पूर्ण काल बिताया मूलोघवद देव सामान्यवत् स्थान परि०१३पत्य-४अन्त भवनवासीवत व्यन्तरवव व्यन्तर ७ मूलोघवद सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव ३१-६६ - | व्यन्तरवत् ६४ १-४६४-६ ज्योतिषी - | सौधर्म-सहस्रार १ सर्वदा विच्छेदाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव -६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १०५ मूलोघवत् सर्वदा बिच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव ६५-६६ आनत-अच्युत -१०० ० | देव सामान्यवत् स्थान परि०पल्य/असं अधिका अद्घायुष्ककी अपेक्षा (मिथ्यात्वसे २-१८ सागर | अद्धायुका अपवर्तना घात कर मरे तो) क्रमशः २,७,१०,१४,१६,१८ सागर+ पत्य/अंसंख्यात मूलोघवत् अन्त मुं० | देव स मान्यवत् स्थान परि० क्रमशः अन्त०कम क्रमश. २३, ७३, १०३, १४३ | २३, १८३१६३, १८३ सागरसे अन्तर्मु. कम क्र.२० व २२सा | उत्कृष्ट आयु पर्यन्त वहाँ रहे मूलोधवत ० | देव सामान्यवत स्थान परि० क्र. २० व २२सा० उत्कृष्ट आसु पर्यन्त वहाँ रहे क्र. २३-३१ सा० नौ वेयकों में क्रमशः २३,२४,२५,२६ २७,२८,२६.३० व ३१ सागर मूलोषवद अन्तर्मु० देव सामान्यवर स्थान परि०क्रमशः२३-३१सा. इसीके १ले गुण स्थानवत [ ३१ सा०+ मिथ्यात्व गुणस्थानका अभाव ३२ सागर उत्कृष्ट आयु १समय ३२ सागर ३३ सागर मूलोधवत सर्वदा | विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव ६६-१०० " १६-१०० नव वेयक . | मूलोषवद दा| विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव १६-१०० नव अनुदिश | - १०४ विजय अपराजित ४ : : : ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ १०४ | सर्वार्थ सिद्धि | ३३ सागर | जघन्य उत्कृष्ट दोनों समान ३३ सागर Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गा २. इन्द्रिय मार्गणा एकेन्द्रिय सामान्य " सा० पर्याप्त "" ल० अप० " ना० सा० 19 03 पर्याप्त "" ले० अप " सू० सा० ११ १३ पर्याप्त "" ल० अप विकलेन्द्रिय सा पर्याप्त अपर्याप्त पंचेन्द्रिय सा० पर्या " ल० अप उपरोक्त सर्व विकल्प पर्याप्त " ल० अपर्याप्त ,, बा० सामा ११ पर्या .. ल० अप० " सू० सामान्य | १३८ पंचेन्द्रिय पर्याप्त २-४४ १३७ ३. काय मार्गणा पृथि-अप रोजवायु चारों सामान्य पर्याप्त " ल० अप० [१] [११] प्रमाण गुण स्थान नं ०/१ नं०/२ जघन्य १ सू. सू. | १०७ [१२-१३ सर्वदा विभा :: ::: SFER:: .:: * : : 19 ::::: "" "" ::: FAX::: ::: ::: नानाजीवापेक्षया विशेष उत्कृष्ट विशेष " :: " 22 2 " "" " 22 2 -मूलोघवत् 222 "" 33 כ "" सर्वदा विदाभा 33 ::: "1 १४-१५ सदा मिच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव "" FREE: 19 11 99 ::: ::: ::: :: " .: F ::::: ::: ::F ::: :: प्रमाण नं०/१ नं ०/३ ४०-४१ ४६-४० अन् ४६-५० ४३-४४ ४६-४७ ४६-५० ५२-५३ "1 ६४-६५ ६०-६८। ७०-७१ १०७ १५-५६ अन्तर्मुहूर्त 5-48 क्षुद्रभव ६१-६२ १३८ १३४ जघन्य ७३-७४ ७६-८० ८२-८३ ८४ क्षुद्रभव :: क्षुद्रभव क्षुद्रभव अन्तर्मुहूर्त क्षुद्रभव क्षुद्रभव ७६-८० अन्तर्मुहूर्त | ८२-८३ क्षुद्रभव ७६-७७ क्षुद्रभव अन्तर्मुहूर्त क्षुद्रभव अन्तर्मुहूर्तं क्षुद्रभव अन्तर्मुहूर्त | क्षुद्रभव क्षुद्रभव अन्तर्मुहूर्त क्षुद्रभव विशेष एकजीवापेक्षया उत्कृष्ट असं पु० परि० स्व मार्गणामें परिभ्रमण (सू० व बा०) सं० सहस वर्ष अन्तर्मुहूर्त असं उत्सर्प ० अवस ०. वर्ष सं सहस अन्तर्मुहूर्त असं लोक प्रमाण समय अन्तर्मुहूर्त सं० सहस्र वर्ष अन्तर्मुहूर्त १००० सा० + को० पृ० शत पृथक्त्व सागर अन्तर्मुहूर्त -उपरोक्त सर्व विकल्पोंके ओमवद - मूलोधवत् - असं लोक प्रमाण समय विशेष सं सहस्र वर्ष अन्तर्मुहूर्त ७० कोड़ा कोड़ी सागर सं० सहस्र वर्ष अन्तर्मुहूर्त असं लोक प्रमाण समय अन्तर्मुहूर्त " 99 11 19 11 19 +7 सर्व स्थान सम्भव नहीं सू० मा / पर्याप्त अपर्याप्त सर्व विकल्पों 11 स्व मार्गणा परिभ्रमण (पू अपर्या०) 11 11 काल १०६ ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश बनस्पति सा पर्याप्त , ल० अप० बन० प्रत्येक सा " पर्याप्त .. ल० अप० बन० साधारण निगोद: 19 "1 ::: मार्गणा ::: " === 13 19 सामान्य पर्याप्त पर्याप्त ". " ल० अप " सू० सा० ल० अप० वा० सा० " पर्याप्त "" ल० अप त्रस सामान्य पर्याप्त 11 ल० अप० स्थावरके सर्व त्रिकल्प त्रस सामान्य पर्याप्त ". ,, ल० अप० गुण प्रमाण स्थान नं ०/१ नं ०/२ जघन्य सू ⠀⠀⠀⠀ ... ... !! ... ⠀⠀⠀ ⠀⠀⠀ ... *** ii १ १ ~*~ १३६ १५६ १५७ १५६ १ र २-१४ १६० " सू. १४-१५ सर्वदा विच्छेदाभाव כג " 32 22. 13 RRR 12 39 " 11 11 17 "" " 17 " ::: ## नानाजीवापेक्षया विशेष " 13 » . " " "3 " " 13 " " 35 " 39 " लोधमद सर्वदा विच्छेदाभाव उत्कृष्ट सर्वदा विच्छेदाभाव 11 " विशेष 17 P 555 11 ま - प्रमाण मं०/१ नं०/३ सू. सू. ск "> १३६ १५६ १५७ १५६ सर्वदा विदभाव १६१ 12 ७६-७७ ८७-८८ ८६ ७१-८० अन्तर्मुहूर्त ८२-८३ क्षुद्रभव 99 ८६ ८४ . * ६१-६२ जघन्य क्षुद्रभव अन्तर्मुहूर्त क्षुद्रभव क्षुद्रभव " क्षुद्रभव अन्तमु० क्षुद्रभव क्षुद्रभव अन्तर्मु क्षुद्रभव क्षुद्रभव अन्तर्मु क्षुद्रभव : अन्तर्मुहूर्त ६४-६५ क्षुद्रभव अन्तर्मुο 3 क्षुद्रभव विशेष |- स्व स्व उपरोक्त ओघवत् क्षुद्रभवसे असं गुणा -सोधनद एकजीवापेक्षा ४. योग मार्गणाः- संकेत -१ समय सम्बन्धी प्ररूपणाके ११ भंगों का विस्तार पहले सारणी सम्बन्धी नियमोंमें दिया गया है। वहाँसे देख लें । - दे० काल / ५ उत्कृष्ट अ० पु० परि० स्व मार्गणा परिभ्रमण सं० सहस्र वर्ष अन्तर्मुहूर्त ७० कोड़ा कोडी सागर सं० सहस्र वर्ष अन्तर्मुहूर्त २३५० परिवर्तन सं० सहस्र वर्ष अन्तर्मुहूर्त ७० कोड़ा कोड़ी सागर सं० सहस्र वर्ष अन्तर्मुहूर्त जसं खोक प्रमाण समय अन्तर्मुहूर्त २००० सा+ १३० को ० २००० सा० बन्तर्मुहूर्त २००० सा+ २००० सागर अन्तर्मुहूर्त " 19 " :: 3 3 3 3 17 97 विशेष 19 19 •. (रा. ना./३/३६/६/२१०) ,, ( ध० / प्र १० / पृ. ३४ / १० ) स्व मार्गमा परिभ्रमण विकल व पंच इन्द्रियोंके निरन्तर भव कमे८०,६०,४०.२४ प्रमाण परिभ्रमण काल १०७ 3 ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाए Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ गावापक्षया मार्गणा नानाजोवापेक्षया विशेष उत्कृष्ट विशेष काल प्रमाण नं०१ २०२ जधन्य | जघन्य । विशेष ___ उत्कृष्ट विशेष -१७ | सर्वदा | विच्छेदाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव पाँचों मनोयोगी ., वचन योगो काय योगी सा योग परिवर्तनकर मरण व | अन्तर्मुहुर्त व्याघात | योग परिवर्तन १००- अन्तमुं० औदारिक... १०३ १समय १०४ औदारिक मिश्र १०६१०७ | इससे कमकाल परिभ्रमणका आ. असं. पु. एकेन्द्रियों में परिभ्रमण अभाव परिवर्तन योग परिवर्तनकर मरण या | २२००० वर्ष पृथिवी कायिकोंमें परिभ्रमण व्याघात दण्ड कपाट समुद्धातमें | पूर्व भवोंमें इतना ही उत्कृष्ट है| अधिक नहीं योग प्राप्तकर मृत्यु या व्याघात मिश्र योगमें मरण नहीं | असमुहूर्त इससे अधिक काल अवस्थावका अभाव वैक्रियक " वैक्रियक मिश्र १०६ तर्मु० १५-२० अन्तर्मु. २ विग्रह सहित | पत्य/ रविग्रहसहित | देवों में उत्पत्ति- असं देवोंमें उत्प का प्रवाह क्रम त्तिका प्रवाह २१० ... आहारक २१-२३ २१-२३ १ समय एक जीववत् अन्तर्मु एक जीववव १०६-. समय | योग प्राप्तकर दूसरे समय अन्तर्मुहूर्त शरीर प्रवेश १०७ १०६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अधिकसे अधिक इतने काल पश्चात शरीर प्रवेश आहारक मिश्र २४-२६ अन्तर्मु. कार्माण १६-१७ सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव ११२ १समय तीन विग्रह पूर्वक जन्मधारण केवल योग परिवर्तन सर्वदा सर्वदा पाँचों मनो वचन योगी १ विग्रहपूर्वक जन्म धारण | ३ समय यथायोग्य ३योग परिवर्तन, | अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान परिवर्तन, मरण व व्याघातके पूर्व ११ भंग दिखो काल/) ६ आवली अन्तमुहूर्त १समय १ समय १ समय मूलोघवत पत्य/असं मूलोघवत १६॥ , ११ भंगोंसे । अविच्छिन्न १६८-- योग परिवर्तन प्रवाह १६ सर्वदा विच्छेदाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव १६३ | इतने काल पश्चात् योग परिवर्तन उपरोक्तवत् परन्तु अप्रमत्तके व्याघात बिनाके १०भंग १ समय व्याघात बिना उपरोक्त १० भंग ११ भंगोंसे योग परिवर्तन अन्तर्मु. योगपरिवर्तन १७२ १७३ ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाए सर्वदा | विच्छेदाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव १६३ योग व गुणस्थान परिवर्तन | के भंग १ समय | विवक्षित योगसहित प्रवेश | अन्तर्मुहूर्त १ समय पीछे योग परिवर्तन Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानाजीवापेक्षया मार्गणा | गुण स्थान प्रमाण नं. १ नं० २ जघन्य प्रमाण काल विशेष उत्कृष्ट विशेष | जघन्य । एकजीवापेक्षया उत्कृष्ट । विशेष विशेष काययोगसामान्य १ १७४ सर्वदा| विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव १७५ १ समय मरण व व्याघात रहित हभंग असं.पु परिवर्तन | एकेन्द्रियों में परिभ्रमण २-१३ | - मनोयोगीव औदारिक सर्वदा विच्छेदाभाव | सर्वदा मनोयोगीवत् - १८१ औदारिक मिश्र १ १८२ सर्वदा विच्छेदाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव १८३ २ १८७ १ समय एक जीववत् ही पत्य/ ७ या ८ जीवोंकी असं । युगपत् प्ररूपणा मनोयोगीबत ३,४य में मरण व व्याघात रहित हभंग तथा २.५.६ठेमें केवल व्याघात रहित भी मनोयोगवत् १ समय । मनोयोगीवत ११ भंग | २२००० वर्ष-1 पृथिवीकायमें परिभ्रमण अप० काल मनो- व्याघातवाले भंगका कहीं मनोयोगीवत् योगीवद भी अभाव नहीं क्षुद भवसे | ३ विग्रहसे उत्पन्न क्षुद्र भव- | अन्तर्मुहूर्त ल० अप० के संख्यातभव करके पर्याप्त ३ समयक्रम धारी हो गया १ समय सासादन दृष्टि एक जीव १ समयकम जघन्यवत स्वकालमें एक समय शेष|६ आवली रहनेपर मिभ योगी हो द्वितीय समय मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। अन्तर्मुठी पृथिवीसे आ मनुष्य अन्तर्मुहुर्त जघन्यवत् परन्तु सर्वार्थ सिद्धिसे हुबा गर्भमे अल्प अन्तर्मुहूर्त आकर कालतक ही अपर्याप्त रहा, फिर पर्याप्त हो गया प्रवाह जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ४ १८६ अन्तर्मु.७ या८ असंयत अन्तम. जवन्यवत-१६१नारकी औ० पर देव, १६२ मि० योगी हो नारको व पर्याप्त हुए । मनुष्य तीनों | की अपेक्षा प्ररूपणा १ समय | दण्ड समुद्धातसे सं०समय दण्डव कपाट १६५कपाटको प्राप्त | में परिवर्तन १६६ हो पुनः दण्डको करने अनेक प्राप्त हुआ जीव सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव १६७ १समय जधन्यवत दण्ड-कपाट समुद्धातमें आरोहण व अवतरण करते हुए कपाट समुद्धात गत केवली ____ वैक्रियक १ समय अन्तर्मुहुर्त १९६ विवक्षित गुणस्थानमें ही योगपरिवर्तन करे मनो या वचन योगी विवक्षित गुणस्थानवी वैक्रि. काय योगी हो १ समय पवाद या तो मर जाये या गुणस्थान परिवर्तन करे व्याघात रहित १० भंग ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएं Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा पंजियक वैक्रियकमिश्र आहारक गुण प्रमाण स्थान नं० १ | नं०२ जघन्य प कामण २ २०० ११६ ४ ३ mr x १ cr २ ४ आहारकमिश्र ६ १ २, ४ सू. १६६ १३ २०१२०२ २०५२०६ २०१२०२ २०६ - २१० २१३ २१४ २१७ २२० २२१ २२४ २२५ १ समय ११ भंग = 1 नाना जीवापेक्षया विशेष जा इतनेकाल पश्चात पर्याप्त हुआ १ समय गुणस्थान में १ २०० स्व मिथ्यादृष्टि १६७ बत् १६८ अन्तर्मु. ७ या द्रव्य पश्य । ७ या ८ जीव २०३ लिंगी मुनि उपरिम मैवेयकमे असं १ समय पक्य । समय शेष रहने- असं पर देवों में उपज सब मिथ्यात्वी हो गये क्य अन्तर्मु संयत २ विग्रह सर्वार्थसिद्धि अ उपज पर्याप्त हुए ३ समय उत्कृष्ट १ समय एक जीववत् युग- अन्तर्मु. पत् नाना जीव अन्तर्मु - सर्वदा विच्छेदाभाव १ समय एक जीवव पचय / प्रवाह असं 93 " विशेष : प्रमाण २०१ २०३ देव या नरक २०४ में जा इतने जघन्यवत प्रवाह क्रम १६६ काल पश्चात पर्याप्त हुए जघन्यवत् पर २०७१ समयसे ६२०८ जनतापोष रहते उत्पत्ति की प्ररूपणा उपरोक्त मिध्यादृष्टि वत् " "" २०३२०४ २११२१२ २१५ २१६ सर्वदादिभाव २१ २१६ २२३ २२६ आ० / जघन्यवत् २२२असं प्रवाह सं. समय । जवन्य १ समय १ समय विशेष स्वमिध्या अन्तर्मु० उपरिम चैवेयक उपजने अन्तर्मुहूर्त वाला द्रव्य लिंगी मुनि सर्व लघुकाल पश्चात् पर्याप्त हुआ ९ समय एक जीवापेक्षया | उत्कृष्ट ३ समय ११ भंग लागू करने (देखो ६ आवली काल/५) अन्तर्मुहूर्त सासादनमें एक समय शेष रहनेपर देवों में उत्पन्न हुआ द्वितीय समय मिथ्यादृष्टि हो गया अन्तर्मु कोई मुनि २ निग्रहसे सर्वार्थ अन्तर्मुहूर्त सिद्धि उपना इतनेकाल पश्चादपर्यात हुआ १ समय कम आवसी अभिमत विवक्षित योग | अन्तर्मुहूर्त में आकर १ समय पश्चात् मूल शरीर प्रवेश देखा है मार्ग जिन्होंने ऐसा जीन सर्वलघुकालमें पर्याप्त होता है मारगान्तिक रुमुद्धात पूर्वक समय १ निग्रहसे जन्म एक विग्रहसे उत्पन्न होने २ समय बाला जीव कपाटसे क्रमशः प्रतर लोक- ३ समय पूर्ण - प्रतर विशेष स्वकालमें ६ बा० रहनेपर विवक्षित योगमें प्रवेश इतने काल पीछे योग परिवर्तन मनुष्य व तिर्यच मिध्यादृहि जी पृथिवीमें उपज इतने काल पश्चात् पर्याप्त हुआ उपशम सम्यक्त्व के कालमें छः आवली शेष रहनेपर कोई मनुष्य या तिच सासादनको प्राप्त हुआ । एक समय पश्चात् देव हुआ । १ समयकम छः आवली पश्चात् मिथ्यादृष्टि हो गया। बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम पृथिवीमें उपजा । इतनेकाल पश्चात पर्याप्त हुआ। जमन्यवय नहीं देखा है मार्ग जिसने ऐसा जीव इससे पहिले पर्याप्त न हो जघन्यवत पर ३ विग्रह से जन्म २ विग्रहसे उत्पन्न होनेवाला जीव जघन्यवत् काल ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मार्गणा ५ वेद मार्गणा स्त्री वेद पुरुष द नपुंसक वेद अपगत वेद उप : स्त्री वेद पुरुष द क्षपक गुण स्थान : १ २२७ २-३ २३० २३१ २३२ 20 ४ ५ ६-६ प्रमाण नं०/१ | नं०/२ | जघन्य ބނ २-४ ५ ६-६ २३५ २३५ २३६ २३६ 11 २४-२८ सर्वदा विच्छेदाभाव = い : : | 11 "" : = नानाजीवापेक्षा विशेष उत्कृष्ट विशेष I । ।।। 11 मूलोघवत् सर्वदा विच्छेदाभाव : मूलोघवत् सर्वदा महाभाव तोपनय स्त्रीदवद गुलोपपद : : T २३१ सर्वदा विच्छेदाभाव २३३ २३४ : | प्रमाण 이 아이 २२८ २२६ २३० ।।। ।।। २२५ सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव २३७ २३८ २३६ २३५ जघन्य १२११२२ १२४ १ समय ११५११६ - ११६ उपशम श्रेणीसे उतर सवेदी हो द्वितीय समय मृत्यु ११० अन्तर्मु० उपशम श्रेणी उतर सवेदी १०० सागर होकर पुनः अवेदी हुआ । मृत्यु होनेपर तो पुरुष बेदी देव ही नियमसे होगा अतः समयकी प्ररूपणा नहीं की स्त्री वेदवत १ समय 99 १२५ १२०- बन्ार्मु● १२८ I विशेष अन्तर्मु एकेन्द्रियोंमें परिभ्रमण स्त्री व नपुंसक वेद सहित उपशम श्रेणी चढ़े तो । कुछ कम कोडि सर्व जघन्य काल में संयम घर अवेदी हुआ और उत्कृष्ट आयुपर्यन्त रहा अन्तर्मुहूर्त गुणस्थान प्रवेश कर पुनः लौटे पदात पृथनत्व वेद परिवर्तन करके पुनः सीटे लोभनद अन्तर्मुο एकजीवापेक्षया अवेदी उपराम श्रेणीमें बदी होकर पुनः सवेदी हो जाना गुणस्थान परिवर्तन - लोपद उत्कृष्ट स्त्रीवेदवत ३०० से ६०० अविवक्षित वेदसे आकर तहाँ परिपल्य तक असं ० पु० परिवर्तन अन्तर्मुहूर्त ३ अन्तर्मुकम ५५ पल्य विशेष श्मास + मुहूर्त ० पृथक्त्व कम १ को० पूर्व सागरशत पृथक्त्व भ्रमण । नपुंसकसे आ पुरुष हो यहाँ परिभ्रमण अविवक्षित वेदी ५५ पल्य आयु वाली देवियोंमें उपज अन्तर्मु० से पर्याप्त पूरीकर सम्यक्वी हुआ। २८/ज श्री बेरी मर्कट आदिकमें उपजा २ मास गर्भ में रहा। निकलकर मुहूर्त पृथक्त्वसे संयता संयत हो रहा (ओघमें सम्मुनिका ग्रहण किया है) स्त्रीवेदवत काल १११ ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण - प्रमाण नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया मार्गणा কতি प्रमाण विशेष नं०/१ नं०/३] जघन्य स्थान नं०१ नं०/२ जघन्य विशेष उत्कृष्ट विशेष उत्कृष्ट विशेष नपुंसक वेद १२४ सर्बदा | विच्छेदाभाव अन्तर्मु. बीवेदवत् जीवेदवद असं० पु. परिवर्तन २-३ । २४ - मूलोधव सर्वदा विच्छेदाभाव २४१ २४२ - २४३ २४४ सर्वदा विच्छेदाभाव २४६ २४७ मूलोघवत् २४४ सर्वदा विच्छेदाभाव अन्तम० स्त्रीवेदवत् ६ अन्तर्मुः कम, २८/ज. ७ वी पृथिवीमें जा ६ मुहूर्त ३३ सागर | पीछे पर्याप्त व विशुद्ध हो सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। | ५-६ | २४८ १०-१४ । २४९ मुलोधवत् मूलोघवत अपगत वेदी २४६ ६ कषाय मार्गणाः चारों कषाय (२६-३० सर्वदा। विच्छेदाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अकषाय उप० , क्षपक चारों कषाय कषाय । १ । २५० १२६- १ समय | क्रोधमें केवल मृत्यु वाला | अन्तर्मुहूर्त कषाय परिवर्तन भंग और शेष तोनमें मृत्यु व व्याघात वाले दोनों भंग अपगत वेदीवत् अपगत वेदीवर अन्तर्मुक कुछ कम पूर्णको १ समय | कषाय, गुणस्थान परिवर्तन| अन्तर्मुहूर्त स्व गुणस्थानमें रहते हुए ही कषाय व मरणके सर्व भंग-काला | परिवर्तन क्रोधके साथ व्याघात नहीं होता शेष तीनके साथ होता है। मरणकी प्ररूपणामें क्रोध कषायीको नरकमें उत्पन्न कराना, मान कषायीको नरकमें, माया कषायीको तिर्यचमें और लोभ कषायी को देवोंमें। इस प्रकार यथा योग्य रूपसे सर्व हो गुण स्थानोंमें लगाना। १ समय ६ आवली अन्तर्मुहूर्त | उपरोक्तवत् परन्तु ७ वें में त्र्याघात नहीं ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ له فه १ समय मुलोधववत् पव्य/अ० मूलोघ वत् | , २१ भंगोंसे परि० , अविच्छिन्न -दे० काल/५ | प्रवाह सर्वदा | विच्छेदभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव * Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानाजीवापेक्षया गुण मार्गणा एकजीवापेक्षया - प्रमाण प्रमाण काल स्थान नं०१/ नं०/२/ जघन्य विशेष उत्कृष्ट विशेष न०१ नं०/३ | जघन्य विशेष उत्कृष्ट विशेष भा०२-१५ १ समय १जीववत् क्रोध मान माया| ६-६ | २५१- (उप०) | २५२ अन्तमु० जघन्यवर २५३ प्रवाह २८४ १ समय अन्तर्मुहुर्त सर्वोत्कृष्ट स्थिति ८६.१० में अवरोहक और १,१० में आरोहक व अवरो. हक के प्रथम समय में मरण २१७ | लोभ कषाय ८-१० (क्षप०) क्रोध मान माया ८.६ २५५ (क्षप०) | २५६ लोभ ८-१० (उप०) अकषायी |११-१४/२५६ जधन्यसे संगुणा अन्तर्म २५८ मरण रहित शेष भंग | उपरोक्तवत् (दे० कास/) - मूलोघवत् । - । मुखोववव ७ शान मार्गणा मति श्रुतअज्ञान ३१-३२ सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा बिचोदाभाव - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अन्तर्मुः , सादि सान्स विभंग सामान्य .. (मन्नु० तिर्य०) . . . . घ/81 ३६७ ३१-३२] मतिश्रुत अवधिझान १३३- | अनन्त अनादि अनन्त व अनादि अनन्त जघन्यवद सान्त ज्ञान परिवर्तन कुछ कम अर्ध सम्यक्त्वसे मिथ्यात्व फिर सम्मक्स्व पु० परि० देव नारकीमें उपरोक्त प्रकार १३९- १समय उप० सम्य० देव नारकी-अन्तम० कम १४० द्विती. समय सासा.हो मरे। ३३ सा० घ/8/- समय | औदारिक शरीरकी संघा- अन्तर्मुहर्त तनपरिशातन कृति देव नारकी सन्यक्त्वी हो ६६ सागर+४ पुनः मिथ्या। पूर्व को० ( देखो काल/५) ० इतने काल पश्चात् मरण ८ वर्ष कम १८ वर्ष में दीक्षा लेकर शेष उत्कृष्ट को०पू० आयु पर्यन्त | अन्तर्मुहूर्त ( दे० दर्शन/३/२) मूलोधवत् १४३ मनःपर्यय ३१-३२ सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव १४ केवलज्ञान (क.पा.) - २६१/ मलिश्रुत अज्ञान| १-२ | २६०- विभंग ज्ञान १ | २६२ । क. । . - स्लोघवत् । २६१ विच्छेदाभाव । सर्वदा बिच्छेदाभाव। २६३ ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएं अन्तर्मु० गुणस्थान परिवर्तन । २६४ |३३ सागर से सप्तम पृथिवीको अपेक्षा अन्तम० कम अन्तमुहत | मनुष्य तियंचकी अपेक्षा - - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण प्रमाण एकजीवापेक्षया नानाजीवापेक्षया नं०१ | २०२ जघन्य विशेष ।। काल मार्गणा स्थान नं० जघन्य विशेष न०१ नं०३ | जघन्य । विशेष विशेष उत्कृष्ट मूलोधवत मूलोघवद २ २१५ मति श्रुत शान ४-१२ / २६६ अवधि शान १-४ - मूलोधवत १४ अंत० कम | ओघ से १ अन्तर्मु और भी कम है। | क्योंकि सम्यक्त्व अवधि धारनेमें १ अन्तर्मुलगा मूलोघवत् मन.पर्यय ६-१२/ २६७ केरल १३-१४,२६८ ८. संयम मार्गणा संयम सामान्य ३३-३४ सर्वदा | विच्छेदाभाव | सबदा विच्छेदाभाव | संयमोसे असंयमी १४६ वर्ष कम १ ८ वर्ष की आयुमें संयम धार उत्कृष्ट पूर्व कोड़। मनुष्य आयु पर्यन्त संयम सहित रहे| , सामायिक छेदो १ समय उपशम श्रेणीसे उतरते हुए मृत्यु | परिहार विशुद्धि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १४६ ११४ ३८ वर्ष कम १ सर्व लघु काल ८ वर्ष में संयम धार ३० साल पश्चात् तीर्थकरके पादमूलमें प्रत्याख्यान पूर्वको पढ़कर | परिहार विशुद्धि संयत हुआ। प्रथम समय प्रवेश द्वितीय अन्त इससे अधिक न रहे समय मरण मरणका यहाँ अभाव है सूक्ष्म साम्पराय उप० ३५-७१ समय १जीववत् अन्तम० जघन्यवत प्रवाह १५५ ३३-३४ सर्वदा विच्छेदाभाव १७) यथाख्यात | उप० ३५-३११ समय १जीववत् अन्तर्मु० जघन्यवत् प्रवाह क्षप० ३३-३४ सदा विच्छेदाभाव । सर्वदा विच्छेदाभाव प्रथम समय प्रवेश द्वितीय समय मरण अन्तम० मरणका अभाव ८ वर्ष कम १ संयम सामान्यवद पर यथा योग्य | पूर्व कोड़ अन्त० अन्त० पश्चात् यथारख्यात धारण करे अन्तर्मुः कम १ सम्मूच्छिम तियंच मेंढकादिकी। पूर्व कोड़ अपेक्षा अनादि अनन्त सादि सान्त संयतसे असंयत हो पुनः संयत अनादि सान्त | प्रथम बार संयम धारे तो संयतासंयत १४८ - १४६ असं यत (अभ०) (भव्य) ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ (सादि सान्त) अन्तर्मुः अर्ध० पु. परि० इतने काल मिथ्यात्वमें रहकर पुनः सं० संयम सामान्य | ६-१४ / २६६ मूल ओघवत् २६६ मूलओघवत् Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नानाजीवापेक्षया काल गण एकजीवापेक्षया विशेष मार्गणा प्रमाण उत्कृष्ट विशेष जघन्य जघन्य विशेष स्थान । प्रमाण नं०१०३ नं०१ नं०२ विशेष । मूलोधवत २७० मूलोधवद २७१ २७२ २७३ सामायिक छेदो०६-१ | २७० परिहार विशुद्धि ६-७ | २७१ सूक्ष्म साम्पराय उप.प. २७२ यथारख्यात । १३-१४ २७३ संयतासंयत ५ | २७४ असंयत ।१-४ | २७५ ९. दर्शन मार्गणा :चक्षुदर्शन ३८-३६ सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव | अचक्षुदर्शन अन्तर्मुः । चतुरिन्द्रिय पर्याप्त क्षायोप- ( २००० सागर (क्षयोपशमापेक्षा परिभ्रमण शमापेक्षा उपयोगापेक्षा अन्तर्मुहुर्त | उपयोग अपेक्षा १७३ अनादि अभव्य क्षयोपशमापेक्षा अनादि अनन्त | अभव्य क्षयोपशमापेक्षा अनन्त १७४ अनादि भव्य क्षयोपशमापेक्षा | अनादि सान्त भव्य क्षयोपमापेक्षा सान्त १७०- अन्तर्मु० उपयोगापेक्षा अन्त उपयोगापेक्षा ११५ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १७२ अवधि दर्शन केवलदर्शन चक्षु दर्शन अवधिज्ञानवद केवलज्ञानवत् अन्तर्मु० गुण स्थान परिवर्तन २००० सागर परिभ्रमण मूलोघवत् मूलोघबद २-१४ अचच दर्शन |१-१४ | २८० अवधि दर्शन |४-१२/ २८१ केवल दर्शन १३-१४ / २२ १०. लेश्या मार्गणा :कुष्ण अवधिज्ञानवत केवलज्ञानव अवधि ज्ञानवत केवल ज्ञानव ४०-४१ सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा बिच्छेदाभाव अन्तम १७८ नीलसे कृष्ण पुनः वापिस |३३ सा.+अंत० विवक्षित लेश्या सहित मनुष्य या तियंचमें अन्तर्मुहुर्त रहा। फिर मर कर नरकमें उपजा कापोत या कृष्णसे नील पुनः १७ सा.+ अंत. , (पंचम पृथिवीमें) वापिस नील या तेजसे कापोत पुनः ७ सा. + अंतर्मु. " (तीसरी " ") वापिस पद्मसे तेज फिर वापिस | २ सा.+ अंतर्मु. उपरोक्तवत् परन्तु देवों में उत्पत्ति नोल ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएं कापोत तेज Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश / मार्गणा पद्म शुक्ल कृष्ण नील कापोत तेज गुण प्रमाण स्थान | नं ० १ | नं ० २ | जघन्य २-३ ४ १ २-३ ४ १ Bir २-३ ४ १ २-३ ४ २८३ २०६ २८७ २८८ २८३ २८६ २८७ २८८ २८३ २८६ २७ २८८ २६१ २६४ २६५ २११ ५-६ २६६ I सू. ४०-४१ सदा विच्छेदाभाव 1 15 35 नानाजीवापेक्षया सर्बदा विशेष उत्कृष्ट विशेष मूलोवद विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव : 23 C :: २९४ २८५ २६२८७ समदा विच्छेदाभाव २८१ २६० सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव २८४ २५ २८६ 1 गुलोद २८७ सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव २६ २६० - 1 ; मूलोद २८७ सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव २८ प्रमाण नं.०१/०२ 1 " - मूलोद २६४ २६५ सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव २६२ - २६३ ॐ ༢- सू. १९१- अन्तर्मुः शुक्र या तेजसे पद्म फिर वापिस १८ सा. उपरोक्त परन्तु देवो में उत्पत्ति १८२ पद्म शुक्ल फिर वापिस नीलसे कृष्ण पुनः वापिस २९४२८६ २८६ २१० २२ २६३ २१७२६० 1 I 1 जघन्म 1 मूलोघवत् अन्तर्मुοमोलले कृष्ण फिर वापिस अन्तर्मुहूर्त कृष्ण या कापोती नील पुनः वापिस अन्तर्मुहूर्त विशेष अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त १ समय - मूलोषवत् स्व मिध्यादृष्टिवद - मूलोघवत् एकजीवापेक्षया उत्कृष्ट मिथ्यादृष्टिवद या परिवर्तन या गुणस्थान परिवर्तन से दोनों विकल्प (देखो काल / ५) ३३ सा + अंत ३३ + उपरोक्त स्वय नील या तेजसे कापोत पुनः वापस - मूलोघवद स्वमिष्याविद ७ सागरसे ३ अन्तर्मु० कम पद्मसे तेज फिर कापोर सागरपश्य असं० ३३ सागर से ६७ पृथिवी में (भधारण ५ अन्तर्ग अन्तर्मु० कम पश्चात्से लेकर भवान्तके १ अतर्भु पहिलेतक भवान्तमें नियमसेमिध्यात्व ५ वीं पृथिवीमें (स्व मद १७ सागर + २ अन्तर्मुहूर्त विशेष १७ सागर से कृष्णवत् पर भवान्तमें सम्यक्त्व ३ अन्तर्मु• कम सहित मर कर मनुष्यों में उत्पत्ति (५वीं पृथिवी ) स्व ओपन (३री पृथिवीमें) ७ सागर + ९. अन्तर्मु २५ सागरसे १ अन्तर्मु० कम अन्तर्मुहूर्त नीलबदरी पृथिवीमें मरण से अन्तर्मु० पहिले कापोतसे तेज सौधर्म में उत्पत्ति / मरण समय रोश्णा परिवर्तन | मिथ्यादविन्द पर अगले भ उसी लेश्या के साथ गया / १ अन्तर्मु० तक वहाँ भी वही लेश्या रही विवक्षित लेश्या विवक्षित गुण स्थान में रहकर अविवक्षित लेश्याको प्राप्त हुआ काल ११६ ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएं Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकजीवापेक्षया काल मार्यमा उत्कृष्ट विशेष नानाजीवापेक्षया । प्रमाण प्रमाण जघन्य । नं०१ नं०२ विशेष स्थान नं०१/०२/ जघन्य सर्वदा विच्छेदाभाव । सर्वदा विच्छेदाभाव, २६२-। | अन्तर्मुहूर्त | शुक्लसे पद्म फिर तेज २६३ मूलोघवत् २६४ -मूलोघवत् पद्म १८ सा०+पच्य/ तेजवत् परन्तु तेजसे पद्म व सहस्रार असं० में उत्पत्ति सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वना विच्छेदाभाव २१२ २६३ अन्तर्मुहूर्त | मिथ्यादृष्टिवत् तेजवत् अन्तर्मुहूर्त कम १८३सा० । अन्तर्मुहूर्त " २६७ १समय तेजवत तेजवत २६८ __. १ २६६ सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाष ३०० ३०१ । पद्मसे शुक्ल फिर पद्म ३१ सा०+अन्त- द्रव्यलिगी मुनि स्व आयुमें अन्तर्नु । शेष रहनेपर शुक्ललेश्या धार उपरिम ग्रे वेयकमें उपजा -भूलोघवत् - मूलोधवत् - ३०२ ३०३ सर्बदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव ३०४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अन्तर्मु पद्मसे शुक्ल फिर पद्म ३३ सागर + | अनुत्तर विमानोसे आकर मनुष्य | १ अन्तर्मुहूर्त हुआ। अन्तर्मु. पश्चात् लेश्या परिवर्तन | अन्तर्मुहुर्त तेजवद " सवंदा ३०६ १समय तेजवत् . ३०७ मूलोधवद ३०५ --मूलोधवत् ११ भव्यत्व मार्गणा भव्य ४२-४३ सर्वदा विच्छेदाभाव सबंदा विच्छेदाभाव' ३१० १४ अभव्य भव्य (सादिसान्त) ३०६ अन्तर्मुः अनादि सान्त ( अयोग केवलीके अन्तिम समय तक) सादिसान्त (सम्यक्त्वोत्पत्ति के पश्चाव वाले विशेष भव्यत्वकी अपेक्षा) अनादि अनन्त गुण स्थान परिवर्तन कुछ कम अर्ध मूलोधवत पु० परि० -मूलोषवत्-- अनादि अनन्त २-१४ ३१४ | मूलोधवत सर्वदा विच्छेदाभाग ३१६ अभव्य ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ | १२ सम्यक्त्व मागणा सम्यक्त्वसामान्यो ... सर्वदा बिच्छेदाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव १८६ अन्तर्मुः ६६ सा०+४ को पूर्व (दे० काल/11 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानाजीवापेक्षया गुण एकजीवापेक्षया काल मार्गणा स्थान प्रमाण जघन्य विशेष उत्कृष्ट विशेष प्रमाण ... अधन्य नं०१ । नं०३ | विशेष उत्कृष्ट । विशेष क्षायिक सम्य० सर्वदा सर्वदा| विच्छेदाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव अन्तर्मु० वेदक सम्य० ८ वर्ष कम २ को कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि देव या| पूर्व +३३ सागर नारकी मनुष्योंमें उपजा/सर्व लघु | कालसे क्षायिक सम्यक्त्व सहित संयता होकर रहा/मरकर सर्वार्थ सिद्धिमें | | गया/वहाँसे आ पुनः को० पूर्व आयु वाला मनुष्य हो मुक्त हुआ। ६६ सा०+४ (दे० काला) पू० को स्वकाल पूर्ण होने पर अवश्य अन्तर्मुहूर्त जघन्यवद 'सासादन गुणस्थान परिवर्तन । उपशम सम्यक्त्व में १ समय आवली | उपशममें ६ आवली शेष रहनेपर शेष रहने पर सासादन सासादन अनादि अनन्त उपशम .. ४६-४८ अन्तर्मु० सासादन पल्य/ १६८ " असं० सम्यग्मिध्यात्व सासादन " , गुण स्थान परि ४६-५१ १ समय, मूलोश्वव ४४-४५ सर्वदा विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मिथ्यात्व (अभव्य) (भव्य) (सादि सान्त) ११८ | अनादि सान्त व सादि सान्त - कुछ कम अर्ध पु० परि० मूलोषवद मूलोधपद सम्यग्दृष्टि |४-१४ | ३१७ | - | - सामान्य क्षायिक सम्य०४ - मूलोधवत +- सम्य० देव या नारकी मनुष्यों में वर्ष कम १ कोड़ा उपजा/३ अन्तर्मुः गर्भ काल, ८ वर्ष पूर्व पश्चात संयमासंयम १ अन्तर्मु० विश्राम, १ अन्तर्मु० क्षपणा काल १ पूर्व कोड़की उत्कृष्ट आयु तक रहकर मरा - मूलोधवत वेदक सम्य०४-७। उपशम सम्य०४-५ | ३१८ अन्तर्मु० गुण स्थान परि० पन्य// प्रवाह क्रम | ३२१- (एक जीववव) असं०] (जघन्यवत) ३२२ | अन्तर्मु० मिथ्यासे उप० सम्य० असंयत अन्तर्मुहुर्त | जघन्यवर पर सम्यग्मिथ्यात्व, अथवा संयतासंयत पुनः सा मिथ्या० या वेदक सम्यक्रवको प्राप्त सादन पूर्वक मिथ्या कराना सासादन नहीं ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण एकजीवापेक्षया मार्गणा गुण | प्रमाण | स्थान नं०/१/०२ जघन्य नानाजीमापेक्षया विशेष । उत्कृष्ट विशेष नं०/ १ ० /३/ जघन्य विशेष विशेष ३२३३२४ १ समय १जीववद जघन्यवर अन्तम ० प्रवाहक्रम | ३२५ (जघन्यवद), ३२६ १ समय यथा योग्०, आरोहण व अवरोह अन्तर्मुहूर्त क्रममें मरणस्थान वालाभंग (दे० काल/) मूलोघवत ३२७ । मूलोधवत् ३२७ ३२८ सासादन २ । सम्यग्मिथ्यात्व ३ । मिथ्यादृष्टि १ । ३२६ १३ संशी मार्गणा संज्ञी ३२६ ५२-५३| सर्वदा | विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव २० परिभ्रमण असंही २०६ २०८ एकेन्द्रियोंमें परिभ्रमण २०६ संज्ञी शुद्रभव भव परिवर्तन सागर शत पृथक्त्व | अर० पु. परिवर्तन अन्तमुं० भव या गुणस्थान परिवर्तन सागर शत पृथक्त्व मूलोधवत् शुद्रभव भव परिवर्तन असे० पु० परिवर्तन परिभ्रमण २-१४ | ३३३ - १ ३३४ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३३२ - - |- | मूलोधवद सर्वदा। विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव ३३५ असंही एकेन्द्रियोंमें परिभ्रमण १४ आहारक मार्गणा आहारक १४-१५ सर्वदा | विच्छेदाभाव | सर्वदा विच्छेदाभाव २११-३समय कम अद्रभव १समय असंख्याता संख्यात असं.उत्.अवसर्पि ३ समय अनाहारक विग्रह गति विग्रह गति आहारक १ । ३३७ २३८ " अन्तर्मुहूर्त अयोग केवली | गुण स्थान या भव परि- असं.उत.अवसर्पि १समयके विग्रह सहित भ्रमण वर्तन कर विग्रह मूलोघवव मारणान्तिक समुद्घात ३समय जघन्यवत पर ३ विग्रहसे जन्म पूर्वक १ विग्रहसे जन्म एक विग्रहसे जन्म २ समय २ विग्रहसे उत्पन्न अनाहारक (कार्मा.काययोग) मूलोघवत ३४० सर्वदा| विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव २१८ २९६ १ समय एक जीववव | आ०/- जघन्यवद २२२ १ समय ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएं २२३ २२६ । ३ समय प्रवाह " . सं. जधन्यवर ३ समय । कपाटसे क्रमशः प्रतर, , ३ समय लोकपूर्ण पुनः प्रतर मूलोधवत मूलोधवत् Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल १२० ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएं १. सम्यक्प्रकृति व सभ्यग्मिथ्यात्वकी सत्त्व काल प्ररूपणा प्रमाण १. (क.पा./२.२२/२/१२८६-२६४/२५३-२५६); २. (क.पा./२,२२/२/६१२३/२०५) विशेषोंके प्रमाण उस उस विशेष के ऊपर दिये हैं। जघन्य - उत्कृष्ट विषय |प्रमाण नं० | काल विशेष काल विशेष २६ प्रकृति स्थान १समय अर्ध पु० परि० पल्य/अरं० साधिक १३२ सागर २८" " (क.पा.२/२.२२/११८ व १२३/१०० व १०८ मिथ्यात्वं से प्रथमोपशम सम्य के पश्चात् मिथ्याखकोप्राप्त पल्य/असं पश्चात् पुनः उपशम सम्यक्त्वी हुआ।२८ कीसत्ताबनायी पश्चात मिथ्यात्वमें जा वेदक सम्य० धारा।६६ सा० रहा । फिर मिथ्यात्वमें पत्य/असं० रहकर पुन' उपशम पूर्वक वेदकमें ६६ सा० रहकर मिथ्याष्टि हो गया और पत्य/अंस० में उद्वेलना द्वारा २६ प्रकृति स्थान को प्राप्त । १ अवस्थित विभक्ति स्थान - १ समय (क.पा-२/२,२२/६४२७/३६०) उपशम सम्यक्त्व सम्मुख जो जीव अन्तरकरण करनेके अनन्तर मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके द्वि चरम समयमें सम्यक्त्व प्रकृतिकी उद्वेलना करके २७ प्रकृति स्थानको प्राप्त होकर १ समय तक अल्पतर विभक्ति स्थानवाला होता है। अनन्तर मिथ्याष्टिके अन्तिम समय से २७ प्रकृति स्थानके साथ १ समय तक रहकर मिथ्यात्वके उपान्य समयसे तीसरे समयमें सम्य०को प्राप्तकर २८ प्रकृतिस्थानवाला हो जाता है। उसके अल्पतर और भुजगारके मध्यमें अवस्थित विभक्ति स्थानका जघन्य काल १ समय देखा जाता है। एकेन्द्रियोंमें | सम्यक्प्रकृति 1 २८ प्रकृति स्थान २ १ पत्य/असं० समय (क.पा.२/२/२२/१२१/१०४) उद्वेलनाके काल में एक समय शेष रहनेपर अविवक्षितसे विवक्षित मार्गणामें प्रवेश करके उद्वेलना करे (क. पा. २/२,२२/११२३/२०५) क्योंकि यहाँ उपशम प्राप्तिकी योग्यता नहीं है इसलिए इस कालमें वृद्धि नहीं हो सकती। यदि उपशम सम्यक प्राप्त करके पुनः इन प्रकृतियों की नवीन सत्ता मना ले तो क्रम न टूटने से इस कालमें वृद्धि हो जाती। तब तो उत्कृष्ट १३२ सा० काल बन जाता जैसा कि ऊपर दिखाया है पल्य/असं० | सम्यग्मिथ्यात्व २१ समय (२७ प्रकृति स्थान)। अन्य कर्मोंका उदय काल शोक (ध.१४/५७१८) १ छः मास जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएं जघन्य प्रमाण घ./१४ विषय । विशेष काल उस्कृष्ट विशेष काल आवाधा काल नहीं है स्व भुज्यमान आयु ५. पाँच शरीरबद्ध निषेकोंका सत्ता काल ध./१४/२४६-२४८ औदारिक १ समय वैक्रियक आहारक तेजस २४८ कार्माण १ समय+ १ आवली ३ पत्य ३३ सागर अन्तर्मु० ६६ सागर ७० को-को सागर २४७ आबाधा काल सहित .. पाँच शरीरोंकी संघातन परिशातन कृति (ध.६/४,१,७१/३८०-४०१) नोट-(देखो वहाँ ही) ७. योगस्थानोंका अवस्थान काल (गो. जी./जो. प्र./२४२/२३३/१) उपपाद स्थान १ समय एकान्तानुवृद्धि परिणाम योग २ समय १समय विग्रह गति ८समय केवलि समुद्धात एकजीवापेक्षया उत्तर प्रकृति । मूल प्रकृति १/४१-८३/४५-६८ विषय नानाजीवापेक्षया || विषय पद विशेष । मूल प्रकृति उत्तर प्रकृति ४. अष्टकर्मके चतुर्बन्ध सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा (म.म./पु.न..../.../पृष्ठ नं०...) १. प्रकृति ज. उ. पद १/३३२-३६४/२३६-२४६ भुजगारादि हानि-वृद्धि २. स्थिति | ज. उ. पद २/१८७-२०३/११०-११८ ३/५२२-५५४/२४३-२५६ भुजगारादि २/३१६-३२५/१६६-१६६ ३/७५ ३७६-३८० हानि-वृद्धि २/४०१-४०२/२०१-२०२ / ३/...(ताड़पत्र नष्ट) ३. अनुभाग ज. उ. पद ४/२४०-२५३/१०६-११६ । १/४०५-४०६/२११-२१६ भुजगारादि ४/२६८-२६६/१३७-१३८ ५३८-५४१/३०६-३१२ हानि-वृद्धि ४/३६५ /१६६ १/६२२ /३६७-३६८ ४. प्रदेश ज. उ, पद ६/६४४८-१० भुजगारादि ६/१३७-१३६/७३-७६ हानि-वृद्धि २/६७-६६/४७-५८ २/२७५-२८०/१४८-१५१ | २/३६७-३६६/१८७-१८८ ४/८०-१९७/२६-४३ ४/१७२- (१२६-१२७ । ४/३५७-३५८/१२-१३ ६/६०-८६/२८-४५ ६/१०४-१०६/५५-५७ २/१४६-२१६/३१४-३६५ ३/७२०-७३२/३३३-३३६ ३/८७६-८८१/४१७-४१८ ४/४७७-५५४/२३८-३१४ १/४५७- /२४४ ५/३१५ ३६१ ६/२२५-२४७/१३४-१५४ | १. अष्टकर्मके चतुःउदोरणा सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा १ प्रकृति | ज. उ. पद घ. १५/४७ ध. १५/७३ भुजगारादि ध. १५/५२ ध.१५/१७ हानि-वृद्धि ध.१६/१७ भंगापेक्षा ज,उ.पद | ध, १५/५० घ. १५/८५ ध. १५/४४ ध. १५/५१ ध. १५/६१ ध.१५/८७ ध. १६/१७ ध. १५/३ ध १५/४६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-१६ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल १२२ ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएं एकजीवापेक्षया नानाजीवापेक्षया उत्तर प्रकृति उत्तर प्रकृति मूल प्रकृति ध.१५/१४१ ध.१३/१४१ मूल प्रकृति ध.-१५/११६-१३० ध. १५/१९७-१६१ ध.१३/११६-१३० ध. १५/१५७-१६१ विषय | विषय | पद विशेष २ | स्थिति ज. उ. पद भुजगारादि हानि-वृद्धि भंगापेक्षा ज. उ. ३ अनुभाग ज. उ. पद भुजगारादि हानि-वृद्धि भंगापेक्षा ज.उ. पद ४ प्रदेश ज. उ. पद भुजगारादि हानि-वृद्धि | भंगापेक्षा ज उ. पद ध. १५/२०५-२०८ ध. १५/२३५ ध.१६/१६०-१६६ घ.१५/२३२-२३३ ध. १५/२६१ ध. १५/२६१ ध. १५/२६१ ध.१५/२६१ ध. १५/२७३-२७४ १०. अष्टकर्मके चतु: उदय सम्बन्धी ओध आदेश प्ररूपणा ध, १५/२८५ ध. १५/२८८ घ, १५/२८५ ध. १५/२८८ १। प्रकृति जघन्य उत्कृष्ट पद । भुजगारादि पद हानि वृद्धि पद वृद्धि पद |२| स्थिति जघन्य उत्कृष्ट पद भुजगारादि पद हानि वृद्धि पद वृद्धि पद ३ अनुभाग जघन्य उत्कृष्ट पद भुजगारादि पद हानि वृद्धि पद वृद्धि पद ४ प्रदेश । जघन्य उत्कृष्ट पद । भुजगारादि पद हानि वृद्धि पद वृद्धि पद ध. १/२६२ ध.१५/२६४ घ. १५/२६४ ध.१/२६४ ध. १५/२६६ घ.१५/२६६ ध. १५/२६६ घ. १५/२६६ ध. १५/२६६ ध. १५/२६६ ध. १५/२६६ ध. १५/२६६ ध. १५/२६५ ध. १५/२६५ ध १५/२६५ ध, १५/२६५ ध. १५/२६६ ध, १५/२६६ ध. १५/२६६ घ. १५/२६६ घ. १५/३०६ ध. १३/३२६ ध.१५/२६१ ध. १५/२६४ ध. १५/२६४ ध. १५/२६४ ध. १५/२६६ ध. १५/२६६ ध.१५/२६६ ध.१५/२६६ ध. १५/२६६ ध.१३/२६६ ध. १५/२६६ ध. १५/२६६ ध. १६/२६५ ध.१५/२६५ ध.१५/२६५ घ.१५/२६५ घ. १५/२६६ ध.१५/२६६ घ. १५/२६६ ध, १५/२६६ ध. १६/३०६ ध, १५/३२५-३२६ ११. अष्ट कर्मके चतु:भप्रशस्तोपशमना सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा १। प्रकृति । जघन्य उत्कृष्ट पद | भुजगारादि पद वृद्धि हानि पद स्थिति जघन्य उत्कृष्ट पद भुजगारादि पद वृद्धि हानि पद ।३ अनुभाग जघन्य उत्कृष्ट पद भुजगारादि पद वृद्धि हानि पद |४| प्रदेश जघन्य उत्कृष्ठ पद भुजगारादि पद | वृद्धि हानि पद | ध. १५/२७७ ध. १५/२७७ ध. १५/२७७ ध. १५/२८१ ध. १५/२८१ ध.१५/२८१ ध. १५/२८२ ध. १५/२८२ घ. १५/२८२ ध. १५/२८२ ध. १५/२८२ ध.१५/२८२ ध १५/२७८-२८० ध.१९/२७८-२८० ध.१५/२७८-२८० ध. १५/२८१ ध १/२८१ ध. १५/२८१ ध. १५/२८२ ध. १५/१८२ ध. १५/२८२ घ. १५/२८२ ध. १५/२८२ ध. १४२८२ घ. १५/२७७ घ. १५/२७७ ध. १५/२७७ घ. १५/२८१ घ. १५/२८१ ध.१५/२८१ ध. १५/२८२ घ. १५/२८२ ध १५/२८२ ध. १६/२८२ घ १५/२८२ ध. १५/२८२ ध.१६/२७८-२८० ध.१४/२७८-२८० ध. १५/२७८-२८० घ. १५/२८१ ध.१५/२८१ ध, १५/२८१ घ. १५/२८२ व.१५/२८२ घ. १५/२८२ ध. १५/२२ ध.१४२८२ ध. १५/२८२ - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल १२३ ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ विषय पद विशेष नानाजीवापेक्षया मूल प्रकृति उत्तर प्रकृति एकजीवापेक्षया उत्तर प्रकृति विषय मूल प्रकृति २ स्थिति १२. अष्ट कर्मके चतुःसंक्रमण सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा (ध. १५/२८३-२८४) चारों भेद सर्वविकल्प ( देखो वहाँ ही) १३. अष्ट कर्मके चतुःस्वामित्व ( सत्त्व ) सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा चारों भेद सर्वविकल्प ( देखो 'स्वामित्व') १४. मोहनीयके चतुः सत्त्व विषयक ओध आदेश प्ररूपणा ___(क०पा०/पु.../S--:/पृष्ठ नं....) | प्रकृति ( जघन्य उत्कृष्ट पद पेज्ज दोष अपेक्षा १/३१० /४०५-४०६ १/३48-३७२/३८६-३८६) प्रकृति अपेक्षा २/८१-६८/७१-७३ | २/१८३- १७१-१७३ | २/४८-६३/२७-४४ २/११८-१३७/६१-१२३ २४-२८ प्रकृति स्थानापेक्षा २/३७०-३७७/३३४-३४४ २/३७०-३७७/३३४-३४४ २/२६८-३०७/२३३-२८१ / २/२६८-३०७/२३३-२८१ | भुजगारादि पद । प्रकृतिकी अपेक्षा | २/४६०-४६३/४१४-४१६ | २/४६०-४६३/४१४-४१६ | २/४२२-४३७/३८७-३६७ | २/४२२-४३७/३८७-३६७ (हानि वृद्धि पद प्रकृतिकी अपेक्षा | २/५२५-५२८/४७०-४७५ / २/१२५-५२८/४७०-४७५ | २४८६-४६७/४४२-४४८ | २/४८६-४६७/४२२-४४८ जघन्य उत्कृष्ट पद पेज दोष अपेक्षा प्रकति अपेक्षा ३/१४२-१५४/१६०-१८७ | ३/६४७-६७२/३८७-४०६ ३/४४-८२/२५-४७ ३/४७७-५३७/२६६-३१६ २४-२४प्रकृति स्थानापेक्षा भुजगारादि पद प्रकृति अपेक्षा ३/२१३-२१७/१२१-१२३/४/१२६-१४२/६७-७४ | ३/१७४-१८७/६८-१०८ ४/२५-७०/१४-४२ हानि वृद्धि पद प्रकृति अपेक्षा | ३/३१४-३२७/१७५-१८०४/ २५१-२६० ३ /२४१-२७२/१४१-१४६/४/२७४-३१४/१६४-१६१ |३ अनुभाग जघन्य उत्कृष्ट पद पेज्ज दोष अपेक्षा प्रकृति अपेक्षा | १/१२१-१३०/७७-८५ | /३६८-३६०/२३३-२४० | ५१२६-५६/२०-४३ | ५४२७७-३२०/१८५-२०१ २४-२८प्रकृति स्थानापेक्षा भुजगारादि पद प्रकृति अपेक्षा १४१५७-१८/१०४-१०५२५०१-५०४/२६३-२६५ /१४३-१४६/६३-६६ /४७६-४८०/२७६-२८० हानि वृद्धि पद प्रकृति अपेक्षा ५१८२- (१२२-१२३ ५/५५८-५६१/३२४-३२६ | १/१७२-१७३/११४-११६ ५३६-५३६/३०१-३१२ जघन्य उत्कृष्ट पद पेज दोष अपेक्षा प्रकृति अपेक्षा २४-२८प्रकृति स्थानापेक्षा भुजगारादि पद प्रकृति अपेक्षा हानि वृद्धि पद प्रकृति अपेक्षा ولع سی ४/प्रदेश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालक १२४ किनर प्रसिद्ध कवि थे। कृति-१. शकुन्तला. विक्रमोर्वशी, मेघदूत, रघुवंश, कुमारसम्भव, मालविकाग्निमित्र । .. ज्ञा./प्र.१ पं. पन्नालाल बाकलीवाल 'राजाके दरबार में एक रत्न थे। आप शुभचन्द्राचार्य प्रथमके समकालीन थे। आपके साथ भक्तामर स्तोत्रके रचयिता आचार्य श्री मानुतंगका शास्त्रार्थ हुआ था। समय-ई. १०२१ कालक-एक ग्रह-दे० 'ग्रह'। कालकूट-भरत क्षेत्र आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । कालकेतु-एक ग्रह-दे० 'ग्रह'। कालकेशपुर-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर । -दे० 'विद्याधर' कालक्रम-दे० 'क्रम'। कालतोया-पूर्व आर्य खण्डस्थ एक नदी-दे० मनुष्य/४। कालनय-दे० नय/ काल परिवर्तन-दे० संसार/२। काल प्रदेश-Time instant (ध./५/प्र० २७) कालमही-पूर्व आर्य खण्डस्थ एक नदी-दे० मनुष्य/४ । कालमुखी-एक विद्या-दे० 'विद्या'। काललब्धि-दे. नियतिरि। कालवाद-कालवादका मिथ्या निर्देश गो.क./मू /८७४/१०६५ कालो सव्वं जणयदि कालो सब्व विणस्सदे भूदं । जागत्ति हि सुत्तेसु वि ण सक्कदे वंचिदु कालो ८७६ -- काल ही सर्वकौ उपजावै है काल ही सर्वको विनाशै है। सूताप्राणिनि विर्षे भी काल ही प्रगट जागे है कालके दिगनेकौं बंचनेकौं समर्थ न होहए है। जैसे कालही करि सबकौं मानना सो कालबादका अर्थ जानना।८७१। * कालवादका सम्यक् निर्देश दे० नय/1।। कालव्यभिचार-दे० नय/III/६] । कालशुद्धि-दे० 'शुद्धि'। कालसंवर-ह.पु./४३/श्लोक-मेधकूट नगरका राजा (४६-५०) असुर द्वारा पर्वतपर छोड़े गये कृष्णके पुत्र प्रदयुम्नका पालन किया था। (४३/५७-६१) कालातीत हेत्वाभास-दे० 'कालात्ययापदिष्ट' । कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास न्या.सू./म्.ब.टी /१/२/६/४७/१५ कालात्ययापदिष्टः कालातीतः ।।... निदर्शनं नित्यः शब्दः संयोगव्यङ्ग्यवाद रूपवत । साधन कालके अभाव हो जानेपर प्रयुक्त किया हेतु कालात्ययापदिष्ट है हा.. जैसेशब्द नित्य है संयोग द्वारा व्यक्त होनेसे रूपकी नाई। (श्नो.वा./४/न्या.२७३/४२६/२७) न्या.दी./३/६४०/८७/३ बाधित विषयः कालात्ययापदिष्टः । यथा-अग्निरनुष्ण पदार्थत्वात् इति । अत्र हि पदार्थत्वं हेतुः स्वविषयेऽनुष्णत्वे उष्णत्वग्राहकेण प्रत्यक्षेण बाधिते प्रवर्तमानोऽबाधितविषयत्वाभावा. कालात्ययापदिष्टः । = जिस हेतुका विषय-साध्य प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे बाधित हो वह कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास है । जैसे-'अग्नि ठण्डी है क्योंकि वह पदार्थ है' यहाँ 'पदार्थ स्व' हेतु अपने विषय ठण्डापनमें,' जो कि अग्निकी गर्मीको ग्रहण करनेवाले प्रत्यक्षसे बाधित है, प्रवृत्त है। अत अबाधित विषयता न होनेके कारण पदार्थत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट है। (पं.ध./पू./४०५) कालिदास-१. राजा विक्रमादित्य नं.१ के दरबारके नवरत्नोंमेंसे एक थे। समय-ई.पू. ११७-५७ (ज्ञा./प्र.१ पं. पन्नालाल बाकलीबाल ) २. वर्तमान इतिहास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ई. ३७५-४१३ के कालो-१. भगवान् पुष्पदन्तकी शासक यक्षिणी- तीर्थंकर/५/३ २ एक विद्या-दे० 'विद्या' । कालोघट्टपुरो-वर्तमान कलकत्ता । (म.पु./प्र.६/पं. पन्नालाल) कालुष्य-पं.का./मू./१३८ कोधो व जदा माणो माया लोभो व चित्तमासेज । जीवस्स कुणदि खोट्ट कलुसो त्ति य तं बुधा वेंति ११३८। -जब क्रोध, मान, माया अथवा लोभ चित्तका आश्रय पाकर जीवको क्षोभ करते हैं, तब उसे ज्ञानी 'कलुषता' कहते हैं। नि. सा./ता. वृ./६६/१३० क्रोधमानमायालोभाभिधान श्चतुभिः कषायैः क्षुभितं चित्तं कालुष्यम् । =क्रोध, मान, माया और लोभ नामक चार कषायोंसे क्षुब्ध हुआ चित्त सो कलुषता है। कालेयक-औदारिक शरीरमें कालेयकों का प्रमाण --दे औदारिक/१/७। कालोव-मध्यलोकका द्वितीय सागर-दे० लोकल/३ । कालोल-दूसरे नरकका नवमा पटल-दे० नरका ५११९ । काव्यानुशासन-१. हेमचन्द्र सूरि (ई० १०८८-११७३) कृत और २. वाग्भट्ट द्वारा (वि०श०१४ मध्य) में रचित काव्य शिक्षा ग्रन्थ । (दे०बह वह नाम) काव्यालंकार टीका-पं. आशाधर (ई०११७३-१२४३) कृत एक काव्य शिक्षा विपयक ग्रन्थ ---दे० आशाधर । काशमार-१. म.पू./प्र.४४ पं. पन्नालाल 'भारतके उत्तरमें एक देश है। श्रीनगर राजधानी है। वर्तमानमें भी इसका नाम काशमीर ही है। २. भरतक्षेत्र आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४। काशी-भरतक्षेत्र मध्य आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४। काष्ठकर्म-दे० निक्षेप/४। काष्ठा-कालका एक प्रमाण विशेष -दे० गणित/I/१/४ । काष्ठासंघ-दिगम्बर साधुओंका संघ-दे० इतिहास/८/४। काष्ठी-एक ग्रह -दे० 'ग्रह'। किनर-१. किंनरदेवका लक्षण ध.१३/५,५,१४०/३६१/८ गीतरतयः किन्नरः। -गानमें रति करनेवाले किन्नर कहलाते हैं। * व्यन्तर देवोंका एक भेद है-दे० व्यं तर/१२ २. किमार देवके भेद ति.प./६/३४ ते किंपुरिसा किंणरहिदयंगमरुवपालि किंणरया। किणरणिदिदणामा मणरम्मा किंणरुत्तमया ।३४। रतिपियजेट्ठा। -कि पुरुष, 'किन्नर, हृदयंगम, रूपपाली, किन्नरकिन्नर, अनिन्दित, मनोरम, किन्नरोत्तम, रतिप्रिय और ज्येष्ठ, ये दश प्रकारके किन्नर जातिके देव होते हैं । (ति.सा./२५७-२५८) * किंनर देवोंके वर्ण परिवार व अवस्थानादि -दे० व्यन्तर/२/१। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किनर १२५ कोतिषण त सा./२२३-२२४ का भावार्थ-बहुरि जैसे गायक गावने आदि क्रियातें आजीविकाके करन हारे तैसें किल्विषक हैं। * किल्विष देव सामान्यका निर्देश:-दे० देव /II/21 * देवोंके परिवार में किल्विष देवोंका निर्देशादि-दे० भवनवासी आदि भेद । ३. किंनर व्यपदेश सम्बन्धी शंका समाधान रा.वा./४/११/४/२१७/२२ किंपुरुषान् कामयन्त इति किंपुरुषाः, ...तन्न, कि कारणम् । उक्तत्वात । उक्तमेतत्-अवर्णवाद एष देवानामुपरीति । कथम् । न हि ते शुचिचै क्रियकदेहा अशुच्यौदारिकशरीरान् नरान् कामयन्ते। -प्रश्न-खोटे मनुष्योंको चाहनेके कारणमे किनर...यह संज्ञा क्यों नहीं मानते ? उत्तर-यह सम देवोंका अवर्णवाद है। ये पवित्र वैक्रियक शरीरके धारक होते हैं, वे कभी भी अशुचि औदारिक शरीरवाले मनुष्य आदिकी कामना नहीं करते। किनर-अनन्तनाथ भगवान्का शासक यक्ष-दे० तीर्थकर/५/३ । किनरगीत-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर -दे०विद्याधर। किनरोद्गीत-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर -दे० विद्याधर। किनामित-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर -दे० 'विद्याधर'। किंपुरुष-1. किंपुरुष देवका लक्षणध.१३/५,५,१४०/३६१/८ प्रायेण मैथुनप्रियाः किंपुरुषाः । प्रायः मैथुनमें रुचि रखनेवाले किंपुरुष कहलाते हैं। * व्यन्तर देवोंका एक भेद है-दे० व्यन्तर/१/२१ २. किंपुरुष व्यन्तरदेवके भेद ति.प./६/३६ पुरुसा पुरुसुत्तमसप्पुरुसमहापुरुसपुरुसपभणामा । अति- पुरुसा तह मरुओ मरुदेवमरुप्पहा जसोवंता।३६। -पुरुष, पुरुषोत्तम, सत्पुरुष, महापुरुष, पुरुषप्रभ, अतिपुरुष, पुरु, पुरुदेव, मरुप्रभ और यशस्वान्, इस प्रकार ये किपुरुष जातिके देवोंके दश भेद हैं। (त्रि.सा./२५) * किंपुरुष देवका वर्ण परिवार व अवस्थानादि -दे० 'व्यंतर'/२/१। * किंपुरुष व्यपदेश सम्बन्धी वांका समाधान रा.वा /४/११/४/२१७/२१ क्रियानिमित्ता एवैताः संज्ञा,...किंपुरुषात् कामयन्त इति किंपुरुषा ।...; तन्न कि कारणम् । उक्तत्वात् । उक्तमेतत--अवर्णवाद एष देवानामुपरीति । कथम् । न हि ते शुचिर्वक्रियकदेहा अशुच्यौदारिकशरीरात नरान् कामयन्ते । =प्रश्नकुत्सित पुरुषों की कामना करनेके कारण किंपुरुष.. आदि कारणोंसे ये संज्ञाएँ क्यों नहीं मानते ! उत्तर-यह सब देवोंका अवर्णवाद है। ये पवित्र वैक्रियक शरीरके धारक होते हैं वे कभी भी अशुचि औदारिक शरीरवाले मनुष्य आदिकी कामना नहीं करते। किंपुरुप-धर्मनाथ भगवान्का एक यक्ष -दे० तीर्थंकर/५/३ । किंपुरुषवषं-ज.प./प्र.१३६ सरस्वतीके उद्गम स्थानसे लेकर यह बस्ती तिब्बत तक फैली हुई है। किलकिल-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । फिल्विष-१. किल्विष जातिके देवका लक्षण स.सि./४/४/२३६/७ अन्तेवासिस्थानीया. किल्बिषिकाः । किविवर्ष पापं येषामस्तीति किल्वि षिकाः । जो सीमाके पास रहनेवालों के समान हैं वे किस्विषक कहलाते हैं। किरिवष पापको कहते है। इसकी जिनके बहुलता होती है वे किल्विषक कहलाते हैं। (रा. वा./४/४/१० /२१३/१४); (म, पु./२२/३०); ति. प/३/६८-सुरा हवं ति किब्बिसया ॥६-किग्विष देव चाण्डालकी उपमाको धारण करने वाले हैं। २. किल्विषी भावना का लक्षण भ. आम./१८१ गाणस्स केवलीणं धम्मस्साइरिय सव्वसाहणं । माझ्य अवण्णवादी खिब्भिसियं भावणं कुणइ ॥१८१॥ श्रुतज्ञानमें, केवलियों में, धर्ममें, तथा आचार्य, उपाध्याय, साधुमें दोषारोपण करनेवाला, तथा उनकी दिखावटी भक्ति करनेवाला, मायावी तथा अवर्णवादी कहलाता है। ऐसे अशुभ विचारोंसे मुनि किल्मिष जातिके देवोंमें उत्पन्न होता है, इन्द्रकी सभामें नहीं जा सकता। (मू. आ०/६६) किष्किध-१. भरतक्षेत्रस्थ विन्ध्याचलका एक देश-दे० मनुष्य/४; २. भरत क्षेत्र मध्य आर्यखण्ड मलयगिरि पर्वतके निकटस्थ एक पर्वत-दे० मनुष्य | ४३. प्रतिचन्द्रका पुत्र तथा सूर्यरजका पिता वानरवंशी राजा था-दे० इतिहास/७/१३ । किष्किविल-भगवान् वीरके तीर्थ में अन्तकृत केवली हुए-दे० 'अन्तकृत' किष्कु-क्षेत्रका प्रमाण विशेष । अपरनाम रिक्कु या गज़-दे० गणित/ I/१। काचक-पा. पृ./१७/श्लोक-चुलिका नगरके राजा चुलिकका पुत्र द्रौपदीपर मोहित हो गया था (२४५) तब भीम (पाण्डव) ने द्रौपदीका रूप धर इसको मारा था (२७८-२६) अथवा ( हरिवंशपुराणमें) भीम द्वारा पीटा जानेपर विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली। अन्तमें एक देव द्वारा परीक्षा लेनेपर चित्तकी स्थिरतासे मोक्ष प्राप्त किया। (ह. पु./४६/३४) कीतिकूट-नील पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/५/४ । कोतिदेवो-नील पर्वतस्थ केसरीसद व उसकी स्वामिनी देवी दे० लोक/७। कातिधर-१. प. पु०/मु०/१२३/१६६ के आधारपर; प. पू./प्र २१/ पं. पन्नालाल-बड़े प्राचीन आचार्य हुए हैं। कृति-रामकथा (पद्मचरित)। इसीको आधार करके रविषेणाचार्यने पद्मपुराण की और स्वयम्भू कविने पउमचरिउकी रचना की। समय-ई० ६०० लगभग । २. प. पु./२१ श्लोक "सुकौशल स्वामोके पिता थे। पुत्र सुकौशलके उत्पन्न होते ही दोक्षा धारण की ( १५७-१६) तदनन्तर स्त्रीने शेरनी बनकर पूर्व बैरसे खाया, परन्तु आपने उपसर्ग को साम्यसे जीत मुक्ति प्राप्त की (२२/१८)। कोतिधवल-प.प्र./सर्ग/श्लोक-राक्षस वंशीय घनप्रभ राजाका पुत्र था (५/४०३.४०४) इसने श्रीकण्ठको वानर द्वीप दिया था, जिसकी पुत्र परम्परासे वानर वंशकी उत्पत्ति हुई (६/८४)।-दे० इतिहास/ ७/१२। कीर्तिमति-रुचक पर्वत निवासिनी दियकुमारी देवी। -दे०लोक/५/१३ । कोतिवर्म-जैन सिद्धान्त प्रकाशिनीके समयमाभृतमें K. B. Pathak. "चालुक्य वंशी राजा थे। बादामी नगर में श० सं० ५०० (वि०६३५ ) में प्राचीन कदम्ब बंशका नाश किया। समय-श. ५०० ( ई०५७८) कोतिषण-ह. पु./६६/२५-३२; म. पु./प्र. ४८ पं. पन्नालाल-पुन्नाट संघकी गुर्वावलोके अनुसार (इतिहास/७/E) आप अमितसेनके शिष्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोलित संहनन तथा हरिवंशपुराणकार श्री जिनषेणके गुरु थे । समय - वि. ८२०८०० ई० ०६३-१३) कीलित संहनन - - दे० ' संहनन' कंचितसा अतिचार-०१। कुंजरावर्त - विजयार्ध की दक्षिण श्रेणिका एक नगर - दे० 'विद्याधर'। कुंड प्रत्येक क्षेत्र में दो दो कुण्ड हैं जिनमें कि पर्वतसे निकलकर नदियों पहले उन कुण्डोमे गिरती हैं। पीछे उन कुण्डों में से निकलकर क्षेत्रों में बहती है। प्रत्येक कुण्डमें एक एक द्वीप है। दे० लोक / २ /१० कुंडलक कूटस्थ एक कूट-३०/२/१३ । कुंडलगिरि - इसके बहु मध्य भागमें एक कुण्डलाकार पर्वत है, जिसपर आठ चैत्यालय हैं । १३ द्वीपके चैत्यालयों में इनकी गणना है । ० लोक ४/६ कुंडलपुर दे०टिनपुर | कुंडलवर द्वीप - मध्य लोकका ग्यारहवाँ द्वीप व सागर-३० लोक/४/६ । कुंडला पूर्वविदेहस्थ वसा क्षेत्रकी मुख्य नगरी ३० लोक/२/२ कुंडिनपुर - १. म. पु. / ४६ पं. पन्नालाल - विदर्भ ( बरार ) देशकी प्राचीन राजधानी / ; २. वर्दा नदीपर स्थित एक नगर-दे० मनुष्य / ४ । कुंतल भरत क्षेत्र दक्षिण आर्य खण्डका एक देश दे० मनुष्य ४ कुंती पा, पु० / सर्ग / श्लोक- राजा अन्धकमकी पुत्री तथा वसुदेव की बहन थी (७/११२-१३८) कम्यावस्थामै पाण्डुसे 'वर्ग' नामक पुत्र उत्पन्न किया (७/२६३) पाण्डुसे विवाह पश्चात् युधिि भोम व अर्जुन पुत्रीको जन्म दिया (०/२४- १४३) अन्तमें दीक्षा धारणकर सोलहवें स्वर्ग में देवपद प्राप्त किया ( २५/१५.१४१ ) । कुंथनाथम, पु /६४/श्लोक "पूर्वभव नं. ३ में वत्स देशकी सीमा के राजा सिंहरथ थे ( २-३ ) फिर दूसरे भव में सर्वार्थसिद्धिमें देव हुए (१०) वर्तमान भव में १७ वें तीर्थंकर हुए |५| विशेष परिचयदे० तीर्थ कर/२/ कुंद निजवाको उत्तर श्रेणीका एक नगर दे० 'विद्याधर'। - سبا कुंदकुंद दिगम्बर आम्नाय के एक प्रधान आचार्य जिनके विषयमें विद्वानोंने सर्वाधिक खोज की मूसरी धमें आपका स्थान दे हास /७/१) । २. कुन्दकुन्दका वंश व ग्राम दे० नं - जै० / २ / १०३ कौण्डकुण्डपुर गाँव के नामपर से पद्मनन्दि 'कुन्दकुन्द' नाम सेख्यात हुए। पी०मी० देसाई कृत 'जैनिज्म के अनुसार यह स्थान गण्टाकल रेलवे स्टेशन से चार मील दक्षिण की खर कोनकोण्डल नामक गाँव प्रतीत होता है। यहाँ से अनेकों शिलालेख प्राप्त हुए हैं। ० आगे शीर्षक २०१० इन्द्रनन्दितावतार के अनुसार पुनि कौosकुण्डपुर में सिद्धान्त को जानकर 'परिकर्म' नामक टीका लिखी थी। मा/प्र/मोजी-द्रविड़ देशस्थ 'कोण्डकुण्ड' नामक स्थानके रहनेबाले थे और इस कारण कोण्डकुन्द नामसे प्रसिद्ध थे। मन्दिसंप बलात्कार गणकी गुर्वावलीके अनुसार (दे० 'इतिहास') आप द्रविड़संघ के आचार्य थे। श्री जिनचन्द्रके शिष्य तथा श्री उमास्वामीके गुरु थे । यथा सू. /प्र.११ जिनदास पार्श्वनाथ फुडले पद्मनन्दिगुरुतो मला कारगणाग्रणीः । (इत्यादि देखो आगे 'उनका श्वेताम्बरोंके साथ बाद' ) १२६ कुंदकुंद ३. अपर नाम " F 1 मूल नन्दिसंधी पासी तदीये मुनिमान्यवृत्ती जनादिचण्ड समभूदन्द्रः । ततोऽभवत पश्च सुनामधामा, श्री पद्मनन्दि" मुनिचक्रवर्ती आचार्य कुन्दकुन्दाख्यो' 'धीनो' महामतिः। 'श्ताचार्यो' पृच्छन्दविसायसे उस पर सुनिमान्य जिनचन्द्र आचाय हुए और उनके पश्चात् पद्मनन्दि नामके मुनि चक्रवर्ती हुए। उनके पाँच नाम थे— कुन्दकुन्द क्रीम, एखाचार्य गृच्छ और गृद्धपृच्छ पद्मनन्दि | पं.का./ता.वृ./१ मंगलाचरण- श्रीमन्दकुन्दाचार्यदेवैः पद्मनन्याय पराभिधेयैः । श्रीमद कुन्दकुन्दाचार्यदेव जिनके कि पद्मनन्दि आदि अपर नाम भी थे। FLL चन्द्रगिरि शिलालेख ४५/६६ तथा महानवमीके उत्तरमें एक स्तम्भपर"श्री पद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्य शब्दोत्तरकाण्डकुन्दः - श्री पद्मनन्दि ऐसे अनवद्य नामवाले आचार्य जिनका नामान्तर कौण्डकुन्द था । प. प्रा. / मो / प्रशस्ति पृ. ३७६ इति श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवा'पासाचार्य पिध्वाचार्य नामपञ्चक विराजितैन... इस प्रकार श्री पदिकुदकुन्दाचार्य, वळीवाचार्य, एताचार्य, गृपाचार्य नामपंचकसे विराजित्... ४. नामों सम्बन्धी विचार पचनन्दिनन्दिसंपकी पट्टावलीमें जिनचन्द्र आचार्य के पश्चात पद्मनन्दिका नाम आता है। अतः पता चलता है कि पद्मनन्दि इनका दीक्षाका नाम था। २. कुन्दकुन्द तावतार / १६०-११ गुरुराया ज्ञातः सिद्धान्तः कोण्डकुण्डपुरे । १६०| श्रीपद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वाददशसहस्रपरिमाणः । ग्रन्थपरिकर्मकर्ता पट्खण्डाखण्ड १६१- गुरु परिपाटी से आये हुए सिद्धान्तको जानकर कोण्डकुण्डपुर में श्री पचनन्दि सुनिके द्वारा १२००० श्लोक प्रमाण 'परिकर्म' नामका ग्रन्थ षट्खण्डागमके आद्य तीन खण्डोंकी टीकाके रूपमें रचा गया। इसपरसे जाना जाता है तथा प्रसिद्धि भी है कि आप कोण्डकुण्डपुर के निवासी थे । इसी कारण आपको कुन्दकुन्द भी कहते थे । (ष प्रा./प्र. ३ प्रेमीजी ) ३. एलाचार्य - प. प्रा. प्र. ३ प्रेमीजी - ई०श० १ के आसपास मदुरा के कवि सम्मेलन में पेश करने के लिए रचित तमिलवेद या 'थिरुक्कुरल' के रचयिता ऐलाचार्य को श्री एम० ए० रामास्वामी आयंगर कुन्दकुन्द का अपर नाम मानते है। ( आ / प्र ६ जिनदास पार्श्वनाथ फडक्ले) पं. कैलाश चन्दजी के अनुसार यह नाम धवलाकार श्री वीरमेन स्वामी के गुरुका था जिनके पास उन्होंने सिद्धान्त ग्रन्थोंका अध्ययन किया था । इन्द्रनन्दि श्रुतावतार तथा धमलाको प्रशस्तिसे इस बात की पुष्टि होती है। वीरसेन स्वामी क्योंकि कुन्दकुन्दके बहुत पीछे हुए हैं इसलिये यह नाम इनका नहीं हो सकता। (जै० सा०/२/१०१) प. जुगल किशोर मुख्तार भी इसे कुन्दकुन्दका नामान्तर स्वीकार नहीं करते। जे००/२/११६) ४. पृच्छ (सू.अ./ प्र.१०/ जिनदास पार्श्वनाथ फडकते) गृपृच्छ नामका हेतु ऐसा है कि विदेह क्षेत्र से लौटते समय रास्तेमें इनकी मयूर पुच्छिका गिर गयी | तब यह गीधके पिच्छ (पंख) हाथ में लेकर लौट आये। अतः afreछ ऐसा भी इनका नाम हुआ । श्रवणबेलगोला से प्राप्त अनेकों शिलालेखों यह नाम उमास्वामी के लिये आया है और उन्हें कुन्द कुन्दके अम्वका बतलाया गया है । इनके शिष्यका नाम भी बलाकपिच्छ है । इसपर से पं. कैलाश चन्द्रजी के अनुसार यह उमास्वामी - का नामान्तर है न कि कुन्दकुन्दका । (जै.सा./२/१०२) ५. वक्रग्रीवइस शब्द परसे अनुमान होता है कि सम्भवतः आपकी गर्दन टेढ़ी हो और इसी कारण से आपका नाम वकग्रीव पड़ गया हो। परन्तु पं० कैलाशचन्दजी के अनुसार क्योंकि ई० ११३७ और ११५८ के शिला जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंदकुंद कुंदकुंद लेखोंमें यह नाम अकलंकदेवके पश्चात् आया है, इसलिये ये कोई एक स्वतंत्र महान् आचार्य हुए हैं, जिनका कुन्दकुन्दके साथ कोई सम्बन्ध नहीं (जै सा,/२/१०१)। ५. श्वेताम्बरोंके साथ वाद (म.आ./प्र./११./जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले) भगवस्कुन्दकुदाचार्यका गिरनार पर्वतपर श्वेताम्बराचार्योंके साथ बड़ा वाद हुआ था, उस समय पाषाण निर्मित सरस्वतीको मूतिसे आपने यह कहला दिया था कि दिगम्बर धर्म प्राचीन है।-यथा-"पद्मनन्दिगुरुर्जातो बलास्कारगणाग्रणी । पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती।-गुर्वावली। कुन्दकुन्दगणी पैनोज्जयन्तगिरिमस्तके । सोऽवतावादिता माही पाषाणघटिता कलौ।" (आचार्य शुभचन्द्र कृत पाण्डवपुराण)-ऐसे अनेक प्रमाणों से उनकी उद्भट विद्वत्ता सिद्ध है। नोट-यद्यपि सूत्र पाहूड़ से इस बात की पुष्टि होती है और दर्शन सारमें भी दिगम्बर श्वेताम्बर भेद वि.सं.१३६ में मताया गया है (दे० श्वेताम्बर); परन्तु ६० कैलाशचन्द जीके अनुसार यह विवाद पचनन्दि नामके किसी भट्टारकके साथ हुआ था कुन्दकुन्दके साथ नहीं। (जै.सा./२/११०,११२) ६. ऋद्धिधारी थे अंगुल ऊपर चलते थे। ष.प्रा./मो/प्रशस्ति/पृ.३७६ नामपञ्चकविराजितेन चतुरगुलाकाशगमनदिना पूर्व विदेहपुण्डरीकिणीनगरवन्दितसीमन्धरजिनेन...। = नाम पंचक विराजित (श्री कुन्दकुन्दाचार्य) ने चतुरंगुल आकाशगमन ऋद्धि द्वारा विदेह क्षेत्रकी पुण्डरीकिणी नगरमें स्थित श्री सीमन्धर प्रभुकी वन्दना की थी। मू.आ./प्र.१० जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले-भद्रबाहु चरित्रके अनुसार राजा चन्द्रगुप्तके सोलह स्वप्नोंका फल कथन करते हुए भद्रबाहु आचार्य कहते हैं कि पंचम कालमें चारण ऋद्धि आदिक ऋद्धियाँ प्राप्त नहीं होती, और इस लिए भगवान् कुन्दकुन्द को चारण ऋद्धि होनेके सम्बन्धमें शंका उत्पन्न हो सकती है। जिसका समाधान यों समझना कि चारण ऋद्धिके निषेधका वह सामान्य कथन है। पंचम कालमें ऋद्धिप्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है यही उस का अर्थ समझना चाहिए । पंचम कालके प्रारम्भमें ऋद्धिका अभाव नहीं है परन्तु आगे उसका अभाव है ऐसा समझना चाहिए। यह कथन प्रायिक व अपवाद रूप है । इस सम्बन्धमें हमारा कोई आग्रह नहीं है । श्रवणबेलगोलामें अनेकों शिलालेख प्राप्त हैं जिनपर आपकी चारण ऋद्धि तथा चार अंगुल पृथिवीसे ऊपर चलना सिद्ध है। यथाजैन शिलालेख संग्रह/शिलालेख नं०/पृष्ठ नं०४०/६४./तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः। श्रीकोण्डकुन्दादिमुनीश्वरस्य सत्संयमादुद्गतचारणद्धिः ॥६॥ ४२/६६ श्री पद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः । द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसंजातसुचारणद्धिः ।४।-श्री चन्द्रगुप्त मुनिराजके प्रसिद्ध वंशमें पद्मनन्दि संज्ञावाले श्री कुन्दकुन्द मुनीश्वर हुए हैं। जिनको सत्संयमके प्रसादसे चारण ऋद्धि उत्पन्न हो गयी थी।४। श्री पवनन्दि है अनवद्य नाम जिनका तथा कुन्दकुन्द है अपर नाम जिनका ऐसे आचार्यको चारित्रके प्रभावसे चारण ऋद्धि उत्पन्न हो गयी थी।४२॥ २. शिलालेख नं. ६२.६४,६६,६७,२५४,२६१ पृ. २६३-२६६ कुन्दकुन्दा चार्य वायु द्वारा गमन कर सकते थे। उपरोक्त सभी लेखोंसे यही घोषित होता है। ३. चन्द्रगिरि शिलालेख/नं.५४/पृ.१०२ कुन्दपुष्पकी प्रभा धरनेवाले, जिसकी कीर्ति के द्वारा दिशाएं विभूषित हुई हैं, जो चारणों के चारण शनिधारी महामुनियोंके सुन्दर हस्तकमलका भ्रमर था और जिस पवित्रात्माने भरत क्षेत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा करी है वह विभु कुन्दकुन्द इस पृथिवीपर किससे वन्द्य नहीं है। ४. जैन शिलालेख संग्रह/पृ.११७-१६६ रजोभिरस्पष्टतमत्वमन्तर्बाह्यापि सव्यजयितु यतीशः। रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः॥ यतीश्वर श्री कुन्दकुन्ददेव रजस्थानको और भूमितलको छोडकर चार बगुल ऊंचे आकाशमें चलते थे। उसके द्वारा मैं यो समझता हूँ कि वह अन्दरमें और माहरमें रजसे अत्यन्त अस्पृष्टपनेको व्यक्त करता हुआ।" ५. मद्रास व मैसुर प्रान्त प्राचीन स्मारक पृ.३१७-३९८ (६६) लेख नं. ३५। आचार्यकी वंशावलीमें-( श्री कुन्दकुन्दाचार्य भूमिसे चार अंगुल ऊपर चलते थे।) हल्ली नं. २१ ग्राम हेग्गरेमें एक मन्दिरके पाषाणपर लेख-“स्वस्ति श्री वनमानस्य शासने । श्रीकुन्दकुन्दनामाभूत चतुरङ्गुलधारणे।"-श्री वर्तमान स्वामीके शासनमें प्रसिद्ध श्री कुन्दकुन्दाचार्य भूमिसे चार ७. विदेहक्षेत्र गमन १.द.सा /मू./४३. जइ पउमणं दिणाहो सीमंधरसामिदिव्यणाणेण। ण विवोहेइ तो समणा कहं मुमग पयाणंति ॥४३॥ - विदेहक्षेत्रस्थ श्री सीमन्धर स्वामीके समवशरणमें जाकर श्री पद्मनन्दि नाथने जो दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था, उसके द्वारा यदि वह बोध न दे तो, मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते। २.पं. का /ता.वृ /मंगलाचरण/१ अथ श्रीकुमारनन्दिसिद्धान्तदेवशिष्यैः प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्व विदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञश्रीमंदरस्वामितीर्थकरपरमदेवं दृष्ट्वा तन्मुखकमल विनिर्गतदिव्यवाणीश्रवणावधारितपदार्थाच्छदात्मतत्त्वादिसारार्थ गृहीत्वा पुनरप्यागतैः श्रीकुण्डकुन्दाचार्यदेवैः पद्मनन्द्याद्यपराभिधेयै...विरचिते पश्चास्तिकायप्राभृतशास्त्रे ...तात्पर्यव्याख्यानं कथ्यते। अब श्री कुमारनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य, जो कि प्रसिद्ध कथाके अनुसार पूर्वविवेहमें जाकर वीतरागसर्वज्ञ तीर्थकर परमदेव श्रीमन्दर स्वामी के दर्शन करके, उनके मुखकमलसे विनिर्गत दिव्य वाणीके श्रवण द्वारा अवधारित पदार्थसे शुद्धात्म तत्त्वके सारको ग्रहण करके आये थे, तथा पद्मनन्दि आदि हैं दूसरे नाम भी जिनके ऐसे कुन्दकुन्द आचार्यदेव द्वारा विरचित पंचास्तिकाय प्राभृतशास्त्रका तात्पर्य व्याख्यान करते हैं। ३. ष,प्रा./मो./प्रशस्ति/पृ.३७६ श्री पद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्य.. नामपञ्चकविराजितेन चतुरङ्गुलाकाशगमनर्चिना पूर्व विदेहपुण्डरीकणीनगरवंदित सीमन्धरापरनामस्वयंप्रभजिनेन तच्छ्र तज्ञानसंबोधितभरतवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनचन्द्रभट्टारकपट्टाभरणभृतेन कलिकालसर्वज्ञन विरचिते षट् प्राभृतग्रन्थे...| श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य देव जिनके कि पाँच नाम थे, चारण ऋद्धि द्वारा पृथिवीसे चार अंगुल आकाशमें गमनकरते पूर्व विदेहकी पुण्डरीकणी नगर में गये थे। तहाँ सीमन्धर भगवान जिनका कि अपर नाम स्वयंप्रभ भी है, उनकी वन्दना करके आये थे। बहाँसे आकर उन्होंने भारतवर्ष के भव्य जीवों को सम्बोधित किया था। वे श्री जिनचन्द्र भट्टारकके पट्टपर आसीन हुए थे, तथा कलिकाल सर्वज्ञके रूपमें प्रसिद्ध थे। उनके द्वारा विरचित षट्पाभृतग्रन्थमें। ४.मू.आ./प्र./१० जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले = चन्द्र गुप्तके स्वप्नोंका फलादेश बताते हुए आचार्य भद्रबाहुने (भद्रबाहु चरित्रमें ) कहा है कि पंचम कालमें देव और विद्याधर भी नहीं आयेंगे, अतः शंका होती है कि भगवान् कुन्दकुन्दका विदेह क्षेत्र में जाना असम्भव है। इसके समाधानमें भी ऋद्धिके समाधानवव ही कहा जा सक्ता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंदकुंद - .सा./१/१०८, १०३ (२०) शिलालेखों में फद्धिप्राप्ति की चर्चा अवश्य है। परन्तु किसी में भी उनके विदेहगमन का उल्लेख नहीं है, जबकि एक शिला में 'पूज्यपाद के लिये ऐसा लेख पाया जाता है । (दे० पूज्यपाद ) । स्वयं कुन्दकुन्द ने भी इस विषय में कोई चर्चा नहीं की है। ८. कलास कहलाते वे १. प. प्रा / मो / प्रशस्ति पृ. ३७१ श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्य... कलिकालसर्वज्ञेन विरचितेन पद्प्राभृतग्रन्थे। कलिकाल सर्वज्ञ श्रीपद्ममन्दि अपर नाम कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचित पट्प्राभूत प्रथमे = ९. गुरु सम्बन्धी विचार मा० पा० / ६२ बारस अंगवियाणां चउदस पृवं गविउ लवित्थरण 1 माभिगमगुरू भययओं जयक-११ ग १४ पूर्वके ज्ञाता गमक गुरु भगवान् भद्रबाहु जयवत वर्ता । पं.का./टी. श्रीकुमारनन्दि सिद्धान्तदेव शिष्ये... श्रीकुडकुन्दाचार्यदेवे :.... शिवकुमारमहाराजा विसंक्षेपरुचिशिष्यप्रभोधनार्थ विरचितं वास्तिकायः--]] - कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव के (शिष्य श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव के द्वारा शिवकुमार महाराज आदि संक्षेप रुचि शिष्यों के प्रबोधनार्थ विरचित पञ्चास्तिकाय... नन्दिसंपकी पावती 1 = श्रीमूतसंथेऽवनि नन्दिसं वस्तस्मिन्मसात्कारणोऽतिरम्य । तत्राभनव पूर्वपदशिवेदी श्रीमाघनन्दी नरदेववन्द्यः ॥ पदे तदीये मुनिमान्यवृत्ती जिनादिचन्द्रः समभूवन्द्र तोऽभवनामधामा श्री पद्मनन्दी मुनिचक्रवर्ती ॥ श्री मूलधर्मे नन्दिसंघ तथा उसमें बलात्कारगण है। उसमें पूर्वपदधारी श्री मामनन्दि मुनि हुए जो कि नर सुर द्वारा वन्य हैं । उनके पदपर मुनि मान्य श्री जिनचन्द्र हुए और उनके पश्चात् पंच नामधारी मुनिचक्रवर्ती श्रीपद्मनन्दि हुए। प्रा/मो/ प्रशस्ति / २०१ श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्य नाम प विराजितेन... श्री जिनचन्द्रसूरिभट्टारक पट्टाभरणेन.... श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य जिनके पाँच नाम प्रसिद्ध है तथा जो श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारकके पदपर आसीन हुए थे। • नोट :- आचार्य परम्परा से आगत ज्ञान का श्रेय होने से श्रुत केबली भद्रबाहु प्र० को गमकगुरु कहना न्याय है। इनके साक्षात गुरु (दीक्षा गुरु जिनचन्द्र ही थे । १०७ कुमारनन्दि के साथ भी इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। १०४ । (जै० सा० / २ / पृष्ठ) (हो सकता है कि ये इनके शिक्षा गुरु रहे हों। । १०. रचनाएँ इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार / श्ल० न०२- एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन् गुरुपरिपाटया ज्ञातः सिद्धान्तः कोण्डकुण्डपुरे ।। १६० ।। श्रीपद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाणः । ग्रन्थ परिकर्म कर्ता पटखण्डाद्यखण्डस्य | १६१ - इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकारके ज्ञानको प्राप्त करके गुरु परिपाटीसे आये हुए सिद्धान्तको जानकर श्रीपद्मनन्दि मुनिने कोण्टकुण्ड पुर ग्राम में १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्म नामकी षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डोंकी व्याख्या की । इसके अतिरिक्त ८४ पाहुड जिनमें से १२ उपलब्ध हैं; समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकाय और दर्शन पाहड़ आदि से समवेत अष्टपाहुड़ और भी बारस अणुवेक्खा, तथा साधु जनों के नित्य क्रियाकलाप में प्रसिद्ध सिद्ध, सुद, आइरिय, जोई, व्विाण, पंचगुरु और तिरथयर भक्ति । 1 १२८ ११. काल विचार संकेत :- प्रमाण जै./२/पृष्ठ; तो०/२/१०७-१११ । प्रमाण सधाता विद्वान् काल विक्र. ११३ | के.मी. पाठक ११५ डा० चक्रवर्ती ११२ पं. जुगलकिशोर ११८ २२२ श. ३ अन्त. श. २ मुख्तार ११२ नाथूराम प्रेमी ११६ डा० उपाध्ये नन्दि सघ पट्टावती २०५ ४१ शीर्षक १८४ २३६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १२५ पं० कैलाश चन्द १८४-८ २३० हेतु ७ शिवकुमार शक ४५० के शिव मृगेश - ई० श०१ के पल्लव वंशी शिवस्कन्द ७ कुंभ - असुरकुमार ( भवनवासी) – दे० असुर । कुंभक कुत्स् W खण्डमलि बी० नि० ६३३-६६३(० १६३)४ श्वे० उत्पत्ति- शक १३६ (बि. २७१ ४ श्वे० उत्पत्ति (वि० १३६); भद्रबाहु ८ प्र० परम्परा गुरु षट्खण्ड टीका कुन्दकीर्ति । षट्खण्ड रचना - वी. नि. ६५० । कषायपाहुड कर्ता यतिवृषभ वि. श. ३ प्र० चरण । शिष्य उमास्वामी - वि० ३०० 1 दे० कोश खण्ड १ में परिशिष्ट ३ ./२१/२ निरुणद्धि स्थिरीकृत्य घसनं नाभिकुम्भसोऽयं कुम्भः परिकीर्तित। पूरक पवनको स्थिर करके नाभि कमल से पढेको भरे तेसे रोकें (भा) नाभिसे अन्य :) जगह चलने न दें सो कुम्भक कहा है। ★ कुम्भक प्राणायाम सम्बन्धी विषय २० प्राणायाम | कुंभकटक द्वीप - भरतक्षेत्रका एक देश-३० मनुष्य ४ । कुंभकर्ण - प. प. पु. / ७ / श्लोक - रावणका छोटा भाई था ( २२२ ) । रावणकी मृत्यु पश्चाद विरक्त हो दीक्षा धारण कर (७८ / ०१) अन्तमें मोक्ष प्राप्त की ( ८० / १२६ ) । कुंज - ज. प / प्र./ १४० A, N, up H. L, वर्तमान काराकोरम देश ही पुराणों का कुंज या मुंजवान है। इसीका वैदिक नाम यूजवान था आज भी उसके अनुसार यूजताग कहते हैं। तुर्की भाषा के अनुसार इसका अर्थ पर्वत है। कुअवधिज्ञान दे० अवधिज्ञान । कुगुरु — कुगुरुकी विनयका निषेध व कारणादि- दे० विनय / ४ । कुट्टक - घ ५/प्र. २७ Indetrminte equation कुडई-प. १४/५.६.४२/४२/२ जिगरपरायणाणं निओसिसीओ कुट्टा नाम जिनगृह, घर और अपनी जो भी मनायो जाती हैं. उन्हे कहते हैं। = कुडद्याश्रित-त्सर्गका अतिचार-२०१ कुणिक - म. पु. / ७४ ४१४ यह मगधका राजा था। राजा श्रेणिकका पिता था। राजा श्रेणिकके समयानुसार इसका समय - ई० पू० ५२५५४६ माना जा सकता है । कुणी वान - भरत क्षेत्र मध्य आर्य खण्डका एक देश-३० मनुष्य ४ ॥ कुत्सा - दे० जुगुप्सा । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुदेव कुयुधर तथा तार्किक थे । आ० विद्यानन्द ने अपने ग्रन्थों में इनकी कारिकायें उद्धत की हैं। समय-अकलंक तथा विद्यानन्दि के मध्य ई. श ८-६ का मध्य । (ती/२/३५०,४४८)।६. पंचस्तूप संघ की गुर्वावली के अनुसार द्वि० कुमारसेन विनयसेन के शिष्य थे। नाथूराम जी प्रेमी के अनुसार ये काष्ठा संघ के संस्थापक थे। समयवि०८४५-19 ई०७८८-८९) । परन्तु सि० वि/प्र० ३८/५० महेन्द्र कुमार के अनुसार ई० ७२०-८००। ७. नन्दिसंघदेशीयगण के अनुसार आविद्धकरण पद्यनन्दि न०२ का नाम कोमार देव था। समय ई०६३०-१०३०/दे. इतिहास/७/५ । ८ कुमार पण्डित जिनका समय ई० १२३६ है (का० अ०/प्र०७१/ A.N.up ) | कूदेव-१. कुदेवको विनयका निषेध-दे० विनय/४ । २. कुदेवकी विनयादिके निषेधका कारण-दे० अमूढदृष्टि/३ । कूधर्म-१, कुधर्मकी विनयका निषेध-दे० विनय/४ । २ कुधर्म के निषेधका कारण-दे० अमूढदृष्टि/३। कुपात्र-दे० पात्र । कूप्य-स, सि./७/२६/३६८/8 कुप्यं क्षौमकापसिकौशेयचन्दनादि । रेशम, कपास और कोसाके वस्त्र तथा चन्दन आदि कुप्य कहलाता है। (रा. वा /७/२६/१/५५५/१०) । कुबेर-१, अरहनाथ भगवान्का शासक यक्ष-दे०तीर्थं कर/५/३ । २. दे. लोकपालदेव । कुथुमि-एक अज्ञानवादी-दे० अज्ञानवाद । कुब्जक संस्थान-दे० संस्थान। कुब्जा -भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । कुभोगभूमि-दे० भूमि। कुमति-दे० मतिज्ञान । कुमानुष-दे० म्लेक्ष/अन्तपिज । कुमार-१. श्रेयांसनाथ भगवान्का शासक यक्ष-दे० तीर्थंकर/५/३ । २. आत्म- प्रबोध/प्र. पं० गजाधरलाल-आप कविवर थे। द्विजवंशावतस विद्वदर गोविन्दभट्टके ज्येष्ठ पुत्र थे व प्रसिद्ध कवि हस्तिमालके ज्येष्ठ भ्राता थे। समय-ई० १२६० वि० १३४७ । कृति-आत्मप्रबोध। कुमार-इस नामके अनेकों आचार्य, पंडित व कवि आदि हुए है जैसे कि -१. नागर शाखाके आचार्य कुमारनन्दि जिन्होंने मथुरा के सरस्वती आन्दोलन मे ग्रन्थ निर्माण का कार्य किया था। नागर शाखा ई श. १ में विद्यमान थी। (जै./२/१३५) २.द्वि. कुमारनन्दिका नाम कुन्दन्कुद के शिक्षागुरु के रूप में याद किया जाता है । लोहाचाप तथा माघनाद के समकालीन अनुमान किये जाते हैं । (पं का/ता-वृ./मंगलाचरण/१): (का० अ०/प्र. ७०/A.N.up)। माघनम्दि के अनुसार आप का काल बी नि ५७५-६१४ (ई.४८८७)। दे०--इतिहास/७/४।-नन्दिसध बलात्कारगण के अनुसार विक्रम शक स० ३६-४० ( ई० ११४-११८ । । श्रुतावतारके अनुसार वि०नि०५६३-६१४ (ई. ६६-८७) नन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावलीके अनुसार (दे० इतिहास) आप वजनन्दिके शिष्य तथा लोकचन्द्रके गुरु थे -विक्रम शक सं०३८६-४२७ (ई० ४६४-५०५) । समय -- ४१ वर्ष आता है। ३. कार्तिकेयानु प्रेक्षा के कर्ता कुमार स्वामी उमा स्वामी के समकालीन या उनके कुछ उत्तरवर्ती हैं। का० अ०/३६४ की टीका में जो ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि "स्वामी कार्तिकेयमुनि' क्रौञ्चराजकृतोपसर्गसो ढ्वासाम्यपरिणामेण देवलोके प्राप्त।" यह सम्भवतः किसी दूसरे व्यक्ति के लिये लिखा गया प्रतीत होता है। भ० अ०/१५४६ में क्रौच पक्षी कृत उपसर्ग को प्राप्त एक व्यक्ति का उल्लेख मिलता है । उमास्वामी के अनुसार कुमार स्वामी का समय वि० श०२-३ (ई० श०२ का मध्य) आता है। (जै०/२/१३४, १३८) । ४. कुमार सेन गुरु चन्द्रोदय के कर्ता आ०, प्रभाचन्द के गुरु थे। आपने मूलकुण्ड नामक स्थान पर समाधिमरण किया था। वि०७५३ में आपने काष्ठा संघ की स्थापना की थी। तदनुसार इनका समय वि० श०८ (ई. श०८ पूर्व) कतिपत किया जा सकता है । (ती/२/३५१); (इतिहास/७/88) कुमार नन्दि आचार्य बादन्याय''ग्रन्थ के रचयिता एक महान् जैन नैयायिक कुमारगुप्त-मगध देशकी राज्य वंशावली के अनुसार (दे० इतिहास) यह गुप्तवशका पाँचवाँ राजा था। "जैनहितैषी भाग १३ अंक १२ में प्रकाशित "गुप्त राजाओका काल, मिहिरकुल व कल्की" नामके लेख में श्री के० बी० पाठक बताते हैं कि यह राजा वि०४६३ ( ई० ४३६ ) मे राज्य करता था। और उस समय गुप्त संवत् ११७ था। समय--ई० ४३५-४६० विशेष--दे० इतिहास/३/४ । कुमारिल (भट्ट)-१. मीमांसक मतके आचार्य थे। सि वि /२५ ५० महेन्द्र के अनुसार-आपका समय--ई० श० ७ का पूर्वार्ध । (विशेष दे० मीमांसा दर्शन) । २ वर्तमान भारतका इतिहास--हिन्दू धर्मका प्रभावशाली प्रचारक था। समय---ई० श०८। कुमुद-१. विजयाध की उत्तर श्रेणीका एक नगर - दे० विद्याधर, २. देव कुरु का दिग्गजेन्द्र पर्वत- दे० लोक/५/३ । एक कूट व उसका रक्षक -दे०ल क । ७। ३. रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक ५/१३ ४. कालका एक प्रमाण विशेष--दे० गणित/I/१/४। कुमुदप्रभा-सुमेरु पर्वतके नन्दनादि वनो में स्थित एक वापी--दे० लोक/५/६। कुमुदवती-पा. पु/८/१०८-१११ देवकराजकी पुत्री पाण्डुके भाई विदुरसे विवाही गयी। कुमुदौल-भद्रशाल बनमे स्थित एक दिग्गजेन्द्र पर्वत--दे० लोक/७। कुमुदांग-कालका परिमाण विशेष--दे० गणित। [१/४ । कुमुदा-सुमेरु पर्वतके नन्दनादि वनों में स्थित एक वापी--दे० लक/५/६ कुरलकाव्य-आ० एलाचार्य अपरनाम कुन्दकुन्द (ई. शताब्दि २) कृत अध्यात्म नीति विषयक तामिल भाषामे रचित एक ग्रन्थ है दक्षिण देशमें यह तामिलवेदके नामसे प्रसिद्ध है, और इसकी जैनेतर लोगो में बहुत मान्यता है। इसमें १०,१० श्लोक प्रमाण १०८ परि च्छेद है। कुरु-१ भरत क्षेत्र आर्य खण्डका एक दश--दे० मनुष्/४ । २. 'म पु/प्र/४८६. पन्नालाल-सरस्वती नदीके बॉयी और का कुरजांगल देश । हस्तिनापुर इसकी राजधानी है । ३. देव व उत्तर फुर-(दे० लोक/३/११) कुरुवंश-१ पुराणको अपेक्षा कुरवंश-दे० इतिहास /१०/५। २. इतिहासकी अपेक्षा कुरुवंश--दे० इतिहास/३।२। कुयंधर-पा पु /२५/श्लोक -दुर्योधनका भानजा था (५६-५७) इसने पांचो पाण्डवों को ध्यानमग्न देख अपने मामाकी मृत्युका बदला लेनेके लिए उनको तपे लोहेके जेवर पहनाये थे (६२-६५) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-१७ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० कुशील कुल-स. सि.//२४/४४२/१ दीक्षकाचार्यशिष्यसंस्त्याय' कुलम् । -दीक्षकाचार्य के शिष्य समुदायको कुल कहते है। (रा. वा./४/२४/ ६/६२३); (चा. सा./१५१/३ ) प्र. सा /ता. वृ./२०३/२७६/७ लोकदुर्गुच्छारहितत्वेन जिनदीक्षायोग्य कुल भण्यते । लौकिक दोषोंसे रहित जो जिनदीक्षाके योग्य होता है उसे कुल कहते हैं। मू, आ./भाषा./२२१ जाति भेदको कुल कहते हैं। २. १९९१ लाख कोड़की अपेक्षा कुलोंका नाम निर्देशमू. आ./२२१-२२५ बावीससत्ततिण्णि अ सत्तय कुलकोडि सद सहस्साई । णेयापुढ विदगागणिवाऊकायाण परिसंखा १२२१॥ कोडिसदसहस्साई सत्तट्ट व णव य अठवीसं च । बेइं दियतेई दियचउरिदियहरिदकायाणं ।२२२१ अद्धत्तेरस मारस दसर्य कुलकोडिसदसहस्साई। जलचरपक्खिचउप्पयउरपरिसप्पेसु णव होति ।२२३। छव्वीसं पणवीस चउदसकुलकोडिसदसहस्साई। सुरणेरइयणराणं जहाकम होइ णायव्वं ।२२४। एया य कोडिकोडी णवणवदीकोडिसदसहस्साई। पण्णारसं च सहस्सा संवग्गोणं कुलाण कोडोओ ।२२५॥ अर्थ-एकेन्द्रियोंमें १. पृथिविकायिक जीवोंमे लाख क्रोड कुल २. अपकायिक ३. तेजकायिक ४. वायुकायिक ५. वनस्पतिकायिक . २८ " . विकलत्रय १. द्विइन्द्रिय जीवोंमें २. त्रिइन्द्रिय , ३. चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय १. पंचेन्द्रिय जलचर जीवोंमें २. खेचर , भूचर चौपाये,, ४. , सादि ,, ५. नारक जीवोंमें ६. मनुष्यों में =१४ लाख क्रोड कुल ७. देवोमें कुल सर्व कुल -- १६६३ लाख क्रोडकुल ३. १९७३ लाख कोड़की अपेक्षा कुलोका नाम निर्देश नि.सा./टी०/४२/२७६/७ पूर्वोक्तवत् ही है, अन्तर केवल इतना है कि बहॉ मनुष्यों में १४ लाख क्रोड कुल कहे हैं, और यहाँ मनुष्योमें १२ लाख कोड़ कुल कहे हैं। इस प्रकार २ कोड़ कुलका अन्तर हो जाता है। (त.सा./२/११२-११६); (गो.जी.मू./१६३-११७) ४. कुल व जातिमें अन्तर गो. जी/भाषा./१९७/२७८/६ जाति है सो तौ योनि है तहाँ उपजनेके स्थान रूप.पुद्गल स्कंधके भेदनिका ग्रहण करना। बहुरि कुल है सो जिनि पुद्गलकरि शरीर निपजे तिनिके भेद रूप हैं। जैसे शरीर पुद्गल आकारादि भेदकरि पंचेन्द्रिय तिर्यचबिक हाथी, घोड़ा इत्यादि भेद हैं ऐसे सो यथासम्भव जानना । कुलकर म.पु./२११-२१२ प्रजानां जीवनोपायमननान्मनवो मताः । आर्याणां कुल संस्त्यायकृते. कुलकरा इमे ।२११॥ कुलानां धारणादेते मताः कुलधरा इति । युगादिपुरुषाः प्रोक्ता युगादौ प्रभविष्णवः ।२१२१ - प्रजाके जोवनका उपाय जाननेसे मनु तथा आये पुरुषोंको कुल की भाँति इकट्ठे रहनेका उपदेश देनेसे कुलकर कहलाते थे। इन्होंने अनेक वंश स्थापित किये थे, इसलिए कुलधर कहलाते थे, तथा युगके आदिमें होनेसे युगादि पुरुष भी कहे जाते थे। (२११/२१२/त्रि.सा./०६४) १४ कुलकर निदेश-दे० शलाका पुरुष/ह। कुलकुण्ड पार्श्वनाथ विधान-आ० पद्मनन्दि (ई० १२८० १३३०) कृत पूजापाठ विषयक संस्कृत ग्रन्थ है । कुलगिरि-दे० वर्षधर। कुलचन्द्र-पख /प्र.२/प्र.H. L.Jain नन्दिसंघके देशीय गणके अनुसार (दे० इतिहास ) यह कुलभूषणके शिष्य तथा माघनन्दि मुनि कोल्लापुरीयके गुरु थे । समय-वि. ११३५-१९६५ ( ई० १०७८ ११०८)-दे०-इतिहास ७/५॥ कूलचर्या क्रिया-दे० संस्कार/२ । कुलधर-दे० कुलकर। कुलभद्राचार्य-सारसमुच्चय टीका/प्र. ४ ब्र. शीतलप्रसाद--आप सारसमुच्चय ग्रन्थके कर्ता एवं आचार्य थे। आपका समय वी. सं./२४६३ से १००० वर्ष पूर्व वी. १४६३, ई० ६३७ है। कुलभूषण-१--प.प्र/३६/श्लोक...वंशधर पर्वत पर ध्यानस्थ इनपर अग्निप्रभ देवने घोर उपसर्ग किया (१५) मनवासी रामके आनेपर देव तिरोहित हो गया (७३) तदनन्तर इनको केवलज्ञानकी प्राप्ति हो गयी (७५)1 २-नन्दिसंघके देशीयगणकी गुर्वावलीके अनुसार(दे०इतिहास) आविद्ध करण पद्मनन्दि कौमारदेव सिद्धान्तिक के शिष्य तथा कुलचन्द्रके गुरु थे। समय-१०८०-११५५ (ई० १०२३-१०७८) (ष.वं । २ H. L. Jain) दे० इतिहास/७/५ । कुलमद-दे० मद । कुलविद्या-दे० विद्या। कुलसुत-भाविकालीन सातवें तीर्थकर थे। अपरनाम कुलपुत्र, प्रभोदय, तथा उदयप्रभ है । दे० तीथ कर/५॥ कुलोत्तंग चोल-क्षत्र चूड़ामणि/प्र./७ प्रेमीजी, स्याद्वाद सिद्धि/ प्र.२०६०दरबारीलाल कोठिया-चोलदेशका राजा था। समय-- वि. ११२७-११७५ ( ई० १०७०-१११८ ) । कुवलयमाला-आ० द्योतन सूरि (ई०७७८) की रचना है। कुश-प.पु./सर्ग/श्लोक · रामचन्द्रजीके पुत्र थे (१००/१७) मारदकी प्रेरणासे रामसे युद्ध किया (१०२/४१-७४) अन्तमे पिताके साथ मिलन हुआ (१०३/४१,४७) अन्त में क्रमसे राज्य (११६/१-२) व मोक्ष प्राप्ति की। (१२३/८२)। कुशपुर-१. भरत क्षेत्र मध्य आर्य खण्डका एक देश । दे० मनुष्य/४ । २. म.पु /प्र.४६/पं० पन्नालाल-वर्तमान कुशावर ( पंजाबका एक प्रसिद्ध नगर)। कुशाग्रपुर-दे० कुशपुर । कुशानवश-भृत्यशका अपरनाम था--दे० इतिहास/३/४ । कुशील-दे० ब्रह्मचर्य । هالع जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशील संगति कुशील संगति-मुनियोंको कुशीत संगति निषेध-० संगति । कुशील साधु-१. कुशील साधुका लक्षण भ.आ./मू./१३०१-१३०२ इंदियचोरपरद्धा कसायसावदभरण वा केई । उम्मम्गेण पाति साधुसर दूरेण ॥१३०१। तो ते कुसीलपडिसेबशाम उप धाता सण्णापदीस पडिदा किलेस ईति | १३०२ | कितनेक मुनि इन्द्रिय चोरोसे पीडित होते हैं और कषाय रूप श्वापदों से ग्रहण किये जाते है, तब साधुमार्गका त्याग कर उन्मार्ग में पलायन करते है । १३०१। साधुसार्थ से दूर पलायन जिन्होंने किया है ऐसे वे मुनि कुशीत प्रतिसेवनाशी नामक भ्रष्टमुनिके सदोष आचरणरूप मनमें उन्मार्ग से भागते हुए आहार, भय, मैथुन और परिग्रहकी बछारूपी नदीमें पड़कर दुखरूप प्रवाहमें डूमते हैं। १३०२ | स.सि./६/०६/४६०/८ द्विविधाप्रतिसेवनाकशीसा कषायकुशोला इति । अविविक्तपरिग्रहाः परिपूर्णोभया कथं चिदुत्तरगुणविराधिनः प्रतिसेवनाकुशोताः वशीकृतान्यकषायोदया संज्वलनमात्रतन्त्राः कषायकुशीलाः । स.सि./६/४०/४६९/१४ प्रतिसेवनाकुशीत सूतगुणानविराधयन्नुत्तरगुणेषु कांचिद्विधनां प्रतिसेवते । कषायकुशीलप्रतिसेवना नास्ति । १. कुशील दो प्रकार के होते हैं - प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील । जो परिग्रहसे घिरे रहते हैं, जो मूल और उत्तर गुणों में परिपूर्ण हैं, लेकिन कभी-कभी उत्तर गुणों की विराधना करते हैं वे प्रतिसेवना कुशील है। जिन्होंने अन्य कपायोंके उदयको जीत लिया है और जो केवल संज्यतन कषायके आधीन हैं मे कषायकुशील कहलाते हैं (रा.वा./१ ४६/६/६३६/२४) (पा.सा./१०१/४) २. प्रतिसेवना कुशीत मूलगुणोंकी निराधना न करता हुआ उत्तरगुणों की विराधनाको प्रति सेवना करनेवाला होता है। कषाय कुशील...के प्रतिसेवना नहीं होती । रा.वा./१/४६/३/६३६/२६ ग्रीष्मे जहामक्षातनादिसेवनाद्वशीकृतान्य कक्षायोदयाः संयतनमात्रात् कषायकुशीताः । ग्रीष्म कालमें वासन आदिका सेवन करनेकी इच्छा होनेसे जिनके संज्वलनकषाय जगती है और अन्य कषायें वशमें हो चुकी हैं वे कषायकुशील हैं । । भा.पा./टी./१४/१३०/१६ कोधादिकभाषितात्मा गुणशीले व्रतगुणशीलैः परिहीन संघस्याविनयकारी, कुशीत उच्यते क्रोधादि कषायों से मा मत गुण और झीलोंसे जो रहित है, और संघका अविनय करनेवाले हैं वे कपाय कुशील कहलाते है। रा.वा./१/०६/०६४ "यहाँ परिग्रह शब्दका वर्ष गृहस्थत नहीं लेना । मुनिनिके कमण्डल पीछी पुस्तकका आलम्बन है, गुरु शिष्यानिका सम्बन्ध है, सो ही परिग्रह जानना । २. कुशील साधु सम्बन्धी विषय० । कुश्रुत - दे० श्रुतज्ञान | कुष्मांड - पिशाच जातीय व्यंतर देवोंका भेद-दे० मनुष्य / ४ । कुसंगति ० संगति कुसुमले पर एक नदी ३० मनुष्य ४ । कुछ - भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी एक नदी- दे० मनुष्य / ४ | कूट- ४.१२/५.१.२१/३४/८ का बुरा विवरण मोदिदं कुरं नाम - चूहा आदिके धरनेके लिए जो बनाया जाता है उसे कूट कहते हैं । १३१ कृतांतवक्त्र ध./४/५,६,६४९/४६५/५ मेरु- कुलसेल बिक- सज्झादिपव्वया कूडाणि नाम- मेरुपर्वत, पर्वत, विन्ध्यपर्वत और सह्यपर्वत आदि कूट कहलाते हैं । कूट- १. पर्वतपर स्थित चोटियोंको कूट कहते हैं। २. मध्य आर्य खण्डका एक देश - दे० मनुष्य / ४३. विभिन्न पर्वतोंपर कूटका अब स्थान व नाम आदि- दे० लोक /५ । कूटमातंगपुर - विजयार्थको दक्षिण श्रेणीका एक नगर-३० विद्याधर । कूटलेख क्रिया दे० क्रिया/ कूर्मोशत योनि - दे० योनि । कूष्मांडगणमाता एक निया है दे० दिया। कृत् स.सि./६/०/२५/४ वचनं स्वयप्रतिपत्यर्थकर्ता की कार्य विषयक स्वतन्त्रता खानेके लिए सूत्रमें कृत वचन दिया है (रा. वा./६/८/२०१५९४ ) रा.वा./६/८/७/५१४/७ स्वातन्त्र्य विशिष्टेनात्मना यत्प्रादुर्भावितं तत्कृतमित्युच्यते । आत्माने जो स्वतन्त्र भावसे किया वह कृत है (चा. सा./५) कृतंक - स.म. आपेक्षिसपरव्यापारो हि भावः स्वभाव निष्पक्षी कृतमित्युच्यते । जो पदार्थ अपने स्वभावकी सिद्धि में दूसरेके व्यापारकी इच्छा करता है, उसे कृतक कहते हैं । कृतकृत्य भगवान्की कृतकृत्यतादि. १/१/१णिट्ठयकज्जा.......।१। जो करने योग्य कार्योंको कर चुके है वे कृतकृत्य हैं। पं.वि./१/२ नो चित्रकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किचिकशोर श् स्पन कर्णयोः महि श्रव्यमप्यस्ति न तेनातपाणिरुज्झितगतिर्नासाग्रदृष्टी रह। संप्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानैकठानी जिन 12 हाथो से कोई भी करने योग्य कार्य शेष न रहनेसे जिन्होने अपने हाथों को नीचे लटका रखा है, गमनसे प्राप्त करने योग्य कुछ भी कार्य न रहनेसे जो गमन रहित हो चुके है, नेत्रों के देखने योग्य कोई भी वस्तु न रहनेसे जो अपनी दृष्टिको नासाग्रपर रखा करते हैं, तथा कानोके सुनने योग्य कुछ भी शेष न रहनेसे जो आकुलता रहित होकर एकान्त स्थानको प्राप्त हुए थे; ऐसे वे ध्यान में एकचित्त हुए भगवान् जयवन्त होवे । कृतकृत्य छपस्थ (क्षीणमोह ) दे० कृतकृत्य मिध्यावृष्टि ०यारष्टि कृतकृत्य वेदक- ३० सम्यग्दर्शन / IV/ दे० ४ कृतनाशहेत्वाभास रखो. वा./२/२/७/२१/१ भट फा भवितृनानात्वे कृतनाश करें कोई और फल कोई भोगे सो कृतनाश दोष है । कृतमातृकधारा कृतमाला - भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी एक नदी ३० मनुष्य ४ कृतमाल्य-विजयार्थं पर्यंतस्थ तमिल कूटका स्वामी देव-दे लोक/५/४। दे० गणित / II/५। कृतांतवक्त्र- प.पु सर्ग / लोक रामचन्द्रजीका सेनापति था (हप ४४) दीक्षा ले, मरणकर देवपद प्राप्त किया (१०७/१४-१६ ) अपनी प्रतिज्ञानुसार लक्ष्मणकी मृत्युपर रामचन्द्रको सम्बोधक्र उनका मोह दूर किया (१००/१९०-९९६) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति १३२ कृतिकर्म कति-,. किसी राशिके वर्ग या Squard अपने वर्गमूलको कम कर पा ०६६।२७४ एक कृति-१. किसी राशिके वर्ग या Square को कृति कहते है। विशेष-दे० गणित II/१/७२. प. ख./5/सू६६/२७४ जो राशि वर्गित होकर बृद्धिको प्राप्त होती है। और अपने बर्गमेसे अपने वर्गमूलको कम करके पुनः वर्ग करनेपर भी वृद्धिको प्राप्त होती है उसे कृति कहते है। '१' या २'ये कृति नहीं है। '३' आदि समस्त संख्याएँ कृति है। ३. प. वं./8/सू०६६/२७४ 'एक' संख्याका बर्ग करनेपर वृद्धि नहीं होती तथा उसमेंसे ( उसके ही) वर्गमूलके कमकर देने पर वह निर्मूल नष्ट हो जाती है। इस कारण 'एक' संख्या नोकृति है। कृति १. कृतिके भेद प्रभेद ष. खं /१/१,१/मू · २३७-४५१ कृति । आगम पोतकर्म जित- आमदार भावि ख्यातिरिक्त नामकृति एकजीव एक अजीव च अनेकजीव अनेक अजीवस्कजीव र एकअजीव) एकजीव । अनेकअजीव अनेकजीव रक अजीवा अनेकजीव अनेक अजीवा LELआदारिक -वैक्रियका CONSIS अन्तरस भूत पूस्मि- बहुव बाह स्थापना दिव्य पू.ग्रन्थ करण भाव काष्ठकम आगम आगम स नोआंगम नोकृति अवक्तव्य कृ चित्रकर्म स्थित भाव द्रव्य आगम नो7 संख्या - लेप्यकर्म परिजित न माविता आगम नोआगम उत्तर, लयनकर्म- वाचनो स्थित- . स्पर्शन- सायक- मावि तव्यतिरिक्त में शैलकर्म- पगठन जित काल- बुननागन्थना आदि गृहकर्म- सूत्रस भत नोभूत भित्तिकर्मन अर्थसम वाचनोन पाइम - भावन दन्तकर्म ग्रन्थसम- पगत" वेदिम अल्प- लौकिक वैदिक सामायिय संघातम परिशासन उभय परिधातना उभय भेडकर्म- नामसमः सूत्रसम पू. ऋतिकृति कृति कृति कृति अक्षव। घोषसम अर्थसमर संघातिम अभ्यन्तर पृ.१३९ वराटका उपयोग अहोदिम क्षेत्र - मिथ्यात्व कषायनो उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट अंजघन्य जघन्य इत्यादि नामसम णिकरवो वास्तु धन - इत्यादि ओलिम धान्य अवेलिम द्विपदवर्ण - चतुष्पदना चूर्ण न यानगन्ध शयनविलेपन आसनइत्यादि कुप्यन भाण्ड ग्रन्थसम यावर काय जाय) सु218 Hशलाका वेम मृतिका नालिका योषसम्म चक्र कुदारी इत्यादि उदकादिक परशु TTT वाचना पृच्छना प्रतिच्छना परिवर्तना अनुप्रेक्षा स्तिव स्तुति धर्मकथा -इत्यादि भेद व लक्षण कृतिकर्मका लक्षण। कृतिकर्म स्थितिकल्पका लक्षण । कृतिकर्म निर्देश २ कृति सामान्यका लक्षण ध/६/४.१.६८/३२६/१ "क्रियते कृतिरिति व्युत्पत्ते अथवा मूलकरण मेव कृति , क्रियते अनया इति व्युत्पत्ते । जो किया जाता है वह कृति शब्द की व्युत्पत्ति है, अथवा मूल कारण हो कृति है, क्योंकि जिसके द्वारा किया जाता है वह कृति है, ऐसी कृति शब्दको व्युत्पत्ति है । * नक्षेपरूप कृतिके लक्षण -दे. निक्षेप। * स्थित जित आदि कृति-निक्षेप/५॥ * वाचना पृच्छना कृति-दे० वह वह नाम । * ग्रन्धकृति-दे० ग्रन्थ । * संघातन परिशातन कृति-दे० वह वह नाम । कृतिकर्म-द्रव्यश्रुतके १४ पूत्रों मेंमे बारहवें पूर्व का छहों प्रकीर्णक --दे० श्रुतज्ञान/I11/१।। कृतिकम-दनिकादि क्रियाओं मे साधुओको किस प्रकारके आसन, मुदा अदिका ग्रहण करना चाहिए तथा किस अवसरपर कौन भक्ति व पाठादिका उच्चारण करना चाहिए, अथवा प्रत्येक भक्ति आदिके साथ किस प्रकार आवर्त, नति व नमस्कार आदि करना चाहिए, इस सब विधि विधानको कृतिकर्म कहते हैं। इसी विषयका विशेष परिचय इस अधिकारमें दिया गया है। > कृतिकमके नौ अधिकार। कृतिकर्मके प्रमुख अंग। कृतिकर्म कौन करे ( स्वामित्व )। कृतिकर्म किसका करे। किस-किस अवसर पर करे। नित्य करनेकी प्रेरणा। कृतिकर्मकी प्रवृत्ति आदि व अन्तिम तीथों में ही कही. गयी है। आवर्तादि करने की विधि। प्रत्येक कृतिकर्ममें आवर्त नमस्कारादिका प्रमाण -दे० कृतिकर्म/२/१ " o v जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतिकर्म १३३ १. भेद व लक्षण 'कृतिकर्मके अतिचार -दे० व्युत्सर्ग/१ । अधिक बार आवर्तादि करनेका निषेध नही। ३ | कृतिकर्म व ध्यान योग्य द्रव्य क्षेत्रादि योग्य मुद्रा व उसका प्रयोजन । योग्य आसन व उसका प्रयोजन । योग्य पीठ। ४ | योग्य क्षेत्र तथा उसका प्रयोजन । योग्य दिशा। | योग्य काल -(दे० वह वह विषय )। | योग्य भाव आत्माधीनता । योग्य शुद्धियाँ। | आसन क्षेत्र काल आदिके नियम अपवाद मार्ग हैं उत्सर्ग नहीं। ४ कृतिकर्म विधि १ साधुका दैनिक कार्यक्रम । कृतिकर्मानुपूर्वी विधि। प्रत्येक क्रियाके साथ भक्तिके पाठोंका नियम। अन्य सम्बन्धित विषय कृतिकर्म विषयक सत् ( अस्तित्व ), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ । प्ररूपणाएँ -दे० वह वह नाम। कृतिकर्मकी संघातन परिशातन कृति-दे० वह वह नाम । २. कृतिकर्म निर्देश१ कृतिकर्मके नौ अधिकारमू आ./५७५-५७६ किदियम्म चिदियम्म पूयाकम्मं च विणयकम्मं च । कादव्वं केण कस्स कथं व कहि कदि खुत्तो ।५७६। कदि ओणदं कदि सिर' कदिए आवत्तगेहि परिसुद्ध' । कदि दोसविप्पमुक्क किदियम्म होदि कादव्वं ।५७७।-जिससे आठ प्रकारके कर्मोंका छेदन हो वह कुतिकर्म है, जिससे पुण्यकर्मका संचय हो वह चितकर्म है, जिससे पूजा करना वह माला चन्दन आदि पूजाकर्म है, शुश्रूषाका करना विनयकर्म है। १ वह क्रिया कर्म कौन करे, २. किसका करना, ३. किस विधिसे करना, ४. किस अवस्थामे करना. ५. कितनी बार करना, (कृतिकर्म विधान); ६. कितनी अवनतियोसे करना,७. कितनी बार मस्तकमें हाथ रख कर करना; ८. कितने आर्वतोसे शुद्ध होता है; ६. कितने दोष रहित कृतिकर्म करना (अतिचार) इस प्रकार नौ प्रश्न करने चाहिए (जिनको यहाँ चार अधिकारोमें गर्भित कर दिया गया है।) .. कृतिकर्मके प्रमुख अंगप.वं./१६/५.४/सू.२८/८८ तमादाहीणं पदाहीणं तिरबुत्तं तियोणदं चदुसिर बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम ।-आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना तीन बार करना (त्रि'कृत्वा), तीन बार अबनति (या नमस्कार), चार बार सिर नवाना (चतु.शिर), और बारह आवर्त ये सब क्रियाकर्म हैं । (समवायांग सूत्र २) (क.पा./१/१,१/६१/११८/२) (चा सा./१५७/१) (गो. जी०/जी.प्र./३६७/ ७१०/५) मू. आ./६०१,६८६ दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य । चदुस्सिर तिसुद्ध' च किदियम्म पउजदे ।६०१। तियरणसम्वबिसुद्धो दब खेत्ते जधुत्तकालम्हि । मोणेणधारिखप्तो कुज्जा आवासया णिच्च । ऐसे क्रियाकर्म को करे कि जिसमें दो अवनति (भूमिको छूकर नमस्कार) हैं, बारह आवर्त हैं, मन बचन कायकी शुद्धतासे चार शिरोनति हैं इस प्रकार उत्पन्न हुए बालकके समान करना चाहिए ।६०११ मन, वचन काय करके शुद्ध, द्रव्य क्षेत्र यथोक्त काल में नित्य ही मौनकर निराकुल हुआ साधु आवश्यकोको क्रें।६८४। (भ. आ./११६/२७५/११ पर उद्धृत) (चा सा /२५७/६ पर उद्धृत) अन ध./८/७८ योग्यकालासनस्थानमुद्रावर्तशिरोनति । विनयेन यथाजात. कृतिकर्मामलं भजेत् ।७८-योग्य काल, आसन, स्थान (शरीरको स्थिति वैठे हुए या खड़े हुए), मुद्रा, आवर्त, और शिरोनति रूप कृतिकर्म विनय पूर्वक यथाजात रूपमें निर्दोष करना चाहिए। ३- कृतिकर्म कौन करे (स्वामित्व)मू, आ /५६० पंचमहव्वदगुत्तो संविग्गोऽणालसो अमाणी य। किदियम्म णिज्जरट्ठी कुणइ सदा ऊणरादिणिओ।५६०1 = पंच महावतोके आचरणमे लीन, धर्म में उत्साह वाला, उद्यमी, मानकषाय रहित, निर्जराको चाहने वाला, दीक्षासे लघु ऐसा संयमी कृतिकर्मको करता है । नोट-- मूलाचार ग्रन्थ मुनियोके आचारका ग्रन्थ है, इसलिए यहाँ मुनियोंके लिए ही कृतिकर्म करना बताया गया है। परन्तु श्रावक व अविरत सम्यग्दृष्टियोको भी यथाशक्ति कृतिकर्म अवश्य करना चाहिए। ध./५,४,३१/१४/४ किरियाकम्मदव्वट्ठदा असंखेज्जा । कुदो। पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत सम्माइट्ठीस चेव किरियाकम्मुवलं - भादो। क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता (द्रव्य प्रमाण) असंख्यात है, क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवे भाग मात्र सम्यग्दृष्टियो में ही क्रियाकर्म पाया जाता है। १. भेद व लक्षण 1. कृतिकर्मका लक्षण प. ख/१२/५,४/सू.२८/८८ तमादाहीणं पदाहिणं तिक्खुत्तं तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम/२८/1-आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार करना (त्रि'कृत्वा) तीन बार अवनति (नमस्कार ), चार बार सिर नवाना (चतुः शिर) और १२ आवर्त ये सब क्रियाक्रम कहलाते हैं । ( अन.ध/8/१४)। क.पा/१/१,१/११/११८/२ जिण सिद्धाइरियं बहुसुदेसु वदिज्जमाणेसु । जं कीरइ कम्मं तं किदियम्म णाम ।-जिनदेव, सिद्ध, आचार्य और उपाध्यायकी ( नब देवता को) बन्दना करते समय जो क्रिया की जाती है, उसे कृतिकर्म कहते हैं । (गो. जी./जी.प्र./३६७/७६०/५) मू.आ /भाषा./५७६ जिसमें आठ प्रकारके कर्मों का छेदन हो वह कृति . कृतिकर्म स्थितिकल्पका लक्षण भ.पा./टी./४२१/६१५/१० चरणस्थेनापि विनयो गुरूणां महत्तराणां शुश्रूषा च कर्तव्येति पञ्चम' कृतिकर्मसंज्ञितः स्थितिकलपः।-चारित्र सम्पन्न मुनिका, अपने गुरुका और अपनेसे बड़े मुनियों का विनय करना शुश्रूषा करना यह कर्तव्य है। इसको कृतिकर्म स्थितिकल्प कहते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतिकर्म १३४ ३. कृतिकर्म व ध्यानयोग्य द्रव्य क्षेत्रादि रूप सामग्री चा.सा./१५८/६ सम्यग्दृष्टीनां क्रियाय भवन्ति। चा. सा./१६६/४ एवमुक्ताः क्रिया यथायोग्य जघन्यमध्यमोत्तमश्रावकै संयतैश्च करणीयाः।-सम्यग्दृष्टियों के ये क्रिया करने योग्य होती हैं । इस प्रकार उपरोक्त क्रियाएँ अपनी-अपनी योग्यतानुसार उत्तम, मध्यम, जघन्य श्रावकोंको तथा मुनियों को करनी चाहिए। अन.ध./८/१२६/८३७ पर उद्धृत--सव्याधेरिव कल्पत्वे विदृष्टेरिव लोचने। जायते यस्य संतोषो जिनवक्त्रविलोकने । परिषहसहः शान्तो जिनसूत्र विशारद.। सम्यग्दृष्टिरनाविष्टो गुरुभक्तः प्रियंवदः ॥ आवश्यकमिदं धीर' सर्वकर्मनिषूदनम् । सम्यक् कर्तुमसौ योग्यो नापरस्यास्ति योग्यता । रोगीको निरोगताकी प्राप्तिसे; तथा अन्धेको नेत्रोंकी प्राप्तिसे जिस प्रकार हर्ष व संतोष होता है, उसी प्रकार जिनमुख विलोकनसे जिसको सन्तोष होता हो २. परीषहोंको जीतनेमें जो समर्थ हो, ३, शान्त परिणामी अर्थात् मन्दकषायी हो: ४. जिनसूत्र विशारद हो; ५. सम्यग्दर्शनसे युक्त हो; ६. आवेश रहित हो; ७. गुरुजनोंका भक्त हो; ८. प्रिय वचन बोलने वाला हो; ऐसा बहो धीर-वीर सम्पूर्ण कर्मोंको नष्ट करने वाले इस आवश्यक कर्मको करनेका अधिकारी हो सकता है। और किसीमें इसकी योग्यता नहीं रह सकती। ४. कृतिकर्म किसका करेमू.आ./५६१ आइरियउवज्झायाणं पवत्तपत्थेरगणधरादीणं । एदेसि किदियम्मं कादयं णिज्जरहाए ।५११- आचार्य, उपाध्याय, प्रवतक, स्थविर, गणधर आदिकका कृतिकर्म निर्जराके लिए करना चाहिए, मन्त्रके लिए नहीं। (क.पा./१/१,१/११/११८/२) गो.जी./जी.प्र./३६७/७१०/२ तच्च अर्ह स्सिद्धाचार्यबहुश्रुतसाध्वादिनवदेवतावन्दनानिमित्त क्रियां विधानं च वर्ण यति । = इस ( कृतिकर्म प्रकीर्ण कमें ) अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु आदि नवदेवता (पाँच परमेष्ठी, शास्त्र, चैत्य, चैत्यालय तथा जिनधर्म) की वन्दनाके निमित्त क्रिया विधान निरूपित है। ५. किस किस अवसर पर करेमू.आ०/१EE आलोयणायकरणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए अवराधे य गुरूणं बंदणमेदेसु ठाणेसु ॥५६६।- आलोचनाके समय, पूजाके समय, स्वाध्यायके समय, क्रोधादिक अपराधके समय-इतने स्थानों में आचार्य उपाध्याय आदिको वंदना करनी चाहिये। भ.आ./वि./११६/२७८/२२ अतिचारनिवृत्तये कायोत्सर्गा बहुप्रकारा भवन्ति। रात्रिदिनपक्षमासचतुष्टयसंवत्सरादिकालगोचरातिचारभेदा पेक्षया। - अतिचार निवृत्ति के लिए कायोत्सर्ग बहुत प्रकारका है। रात्रि कार्योत्सर्ग, पक्ष, मास, चतुर्मास और संवत्सर ऐसे कायोत्सर्ग के बहुत भेद हैं । रात्रि, दिवस, पक्ष, मास, चतुर्मास, वर्ष इत्यादिमें जो बतमें अतिचार लगते हैं उनको दूर करनेके लिए ये कायोत्सर्ग किये जाते हैं। ६. नित्य करनेकी प्रेरणाअन ध./८/७७ नित्येनेत्थमथेतरेण दुरितं निर्मूलयन् कर्मणा,.../. शुभगं कैवल्यमस्तिस्नुते ।७७ नित्य नैमित्तिक क्रियाओं के द्वारा पाप कर्मोंका निर्मूलन करते हुए.. कैवल्य ज्ञानको प्राप्त कर लेता है। ७. कृतिकर्मकी प्रवृत्ति आदि व अन्तिम तीर्थों में ही कही गयी हैम.आ /६२६-६३० मज्झिमया दिढ़बुद्धी एयग्गमा अमोहलक्खा य । तह्माहु जमाचरंति तं गरहंता वि सुज्झति ।६२६॥ पुरिमचरिमादु जहमा चलचित्ता चेव मोहलकवा य। तो सव्वपडिक्कमणं अंधलघोडय दिट्टतो।६३०॥ - मध्यम तीर्थंकरोंके शिष्य स्मरण शक्तिवाले हैं, स्थिर चित्त वाले हैं, परीक्षापूर्वक कार्य करने वाले हैं, इस कारण जिस दोषको प्रगट आचरण करते हैं, उस दोषसे अपनी निन्दा करते हुए शुद्ध चारित्रके धारण करने वाले होते हैं ।६२९॥ आदि-अन्तके तीर्थंकरोंके शिष्य चलायमान चित्त वाले होते हैं, मूढबुद्धि होते हैं, इसलिए उनके सब प्रतिक्रमण दण्डकका उच्चारण है। इसमें अन्धे घोड़ेका दृष्टान्त है। कि-एक वैद्यजी गाँव चले गये। पीछे एक सेठ अपने घोड़ेको लेकर इलाज करानेके लिए वैद्यजीके घर पधारे। वैद्यपुत्रको ठीक औषधिका ज्ञान तो था नहीं। उसने आलमारी में रखी सारी ही औषधियोंका लेप घोड़ेकी आँखपर कर दिया। इससे उस घोड़ेकी आँखें खुल गई। इसी प्रकार दोष व प्रायश्चित्तका ठीक-ठीक ज्ञान न होनेके कारण आगमोक्त आवश्यकादिको ठीक-ठीक पालन करते रहनेसे जीवनके दोष स्वत' शान्त हो जाते हैं। (भ.आ./वि./४२१/६१६/५) ८. आवर्तादि करनेकी विधिअन.ध./८/८ त्रिः संपुटीकृतौ हस्तौ भ्रमयित्वा पठेत् पुनः। साम्य पठित्वा भ्रमयेत्तौ स्तवेऽप्येतदाचरेत् । आवश्यकोंका पालन करनेवाले तपस्वियोंको सामायिक पाठका उच्चारण करनेके पहले दोनों हाथोंको मुकुलित बनाकर तीन बार धुमाना चाहिए । घुमाकर सामायिकके णमो अरहताण' इत्यादि पाठका उच्चारण करना चाहिए। पाठ पूर्ण होनेपर फिर उसी तरह मुकुलित हाथोंको तीन बार घुमाना चाहिए । यही विधि स्तव दण्डकके विषयमे भी समझनी चाहिए। ९. अधिक बार भी आवर्त आदि करनेका निषेध नहींध.१३/५,४,२८/८/१४ एवमेगं किरियाकम्मं चदुसिर होदि । ण अण्णस्य णवणपडिसेहो ऐदेण कदो, अण्णत्थणवणियमस्स पडिसेहाकरणादो। - इस प्रकार एक क्रियाकर्म चतुःसिर होता है। इससे अतिरिक्त नमनका प्रतिषेध नहीं किया गया है, क्योंकि शास्त्रमें अन्यत्र नमन करनेके नियमका कोई प्रतिषेध नहीं है । (चा सा./१५७.५); (अन.ध./८/६१) ३. कृतिकर्म व ध्यान योग्य द्रव्य क्षेत्रादि रूप सामग्री १. योग्यमुद्रा व उसका प्रयोजन १. शरीर निश्चल सीधा नासाग्रहदृष्टि सहित होना चाहिए भ.आ./मू./२०८१/१८०३ उज्जुअआयददेहो अचल बंधेत पलिअंक। == शरीर व कमरको सीधी करके तथा निश्चल करके और पर्यकासन बाँधकर ध्यान किया जाता है। रा. वा./६/४४/१/६३४/२० यथासुखमुपविष्टो बद्धपत्यङ्कासनः समृर्ज प्रणिधाय शरीरयष्टिमस्तब्धा स्वाङ्क वामपाणितलस्योपरि दक्षिणपाणितलमुत्तल समुपादाय(नेते)नात्युन्मीलन्नातिनिमीलन दन्तर्दन्ताग्राणि संदधानः ईषदुन्नतमुखः प्रगुणमध्योऽस्तब्धमूतिः प्रणिधानगम्भीरशिरोधर प्रसन्नवक्त्रवर्ण : अनिमिषस्थिरसौम्यदृष्टिः विनिहित निद्रालस्यकामरागरत्यरतिशोकहास्यभयद्वेषविचिकित्सः मन्दमन्दप्राणापानप्रचार इत्येवमादिकृतपरिकर्मा साधुः।-सुखपूर्वक पल्यं कासनसे बैठना चाहिए। उस समय शरीरको सम ऋजु और निश्चल रखना चाहिए। अपनी गोद में बायें हाथके ऊपर दाहिना हाथ रखे। नेत्रन अधिक खुले न अधिक बन्द । नीचेके दाँतोंपर ऊपरके दाँतोंको मिलाकर रखे । मुहको कुछ ऊपरकी ओर किये हुए तथा सीधी कमर और गम्भीर गर्दन किये हुए, प्रसन्न मुख और अनिमिष स्थिर सौम्य दृष्टि होकर (नासाग्र दृष्टि होकर (ज्ञा./२८/३५); मिद्रा, आलस्य, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतिकर्म १३५ ३. कृति कर्म व ध्यान योग्य द्रव्य क्षेत्रादि काम, राग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदिको छोड़कर मन्द मन्द श्वासोच्छवास लेनेवाला साधु ध्यानकी तैयारी करता है। (म.पु /२१/६०-६८); (चा.सा./१७१/६); (ज्ञा./२/ ३४-३७); (त. अनु./१२-६३) म.पु/२९/६६ अपि व्युत्सृष्टकायस्य समाधिप्रतिपत्तये। मन्दोच्छवासनिमेषादिवृत्ते स्ति निषेधनम् १६६% (प्राणायाम द्वारा श्वास निरोध नहीं करना चाहिए दे० प्राणायाम), परन्तु शरीरसे ममत्व छोड़नेवाले मुनिके ध्यानकी सिद्धिके लिए मन्द-मन्द उच्छ्वास लेनेका और पलकोंकी मन्द मन्द टिमकारका निषेध नहीं किया है। २. निश्चल मुद्राका प्रयोजन म.पु./२१/६७-६८ समावस्थितकायस्य स्यात समाधानमनिनः । दुःस्थिताङ्गस्य तद्भङ्गाद भवेदाकुलता धियः ।६७। ततो तथोक्तपक्यलक्षणासनमास्थितः । ध्यानाभ्यासं प्रकुर्वीत योगी व्याक्षेपमुत्सृजन् ।८।। ध्यानके समय जिसका शरीर समरूपसे स्थित होता है अर्थात ऊँचानीचा नहीं होता है, उसके चित्तकी स्थिरता रहती है, और जिसका शरीर विषमरूपसे स्थित है उसके चित्तकी स्थिरता भंग हो जाती है, जिससे बुद्धिमें आकुलता उत्पन्न होती है, इसलिए मुनियोको ऊपर कहे हुए पर्यकासनसे बैठकर और चित्तको चंचलता छोड़कर ध्यानका अभ्यास करना चाहिए। ३. अवसरके अनुसार मुद्राका प्रयोग अन.ध./८/८७ स्वमुद्रा वन्दने मुक्ताशुक्तिः सामायिकस्तवे। योगमुद्रास्यया स्थित्या जिनमुद्रा तनुज्झने । = ( कृतिकर्म रूप) आवश्यकोंका पालन करनेवालोंको वन्दनाके समय वन्दना मुद्रा और 'सामायिक दण्डक' पढ़ते समय तथा 'थोस्सामि दण्डक' पढ़ते समय मुक्ताशुक्ति मुद्राका प्रयोग करना चाहिए। यदि बैठकर कायोत्सर्ग किया जाये तो जिनमुद्रा धारण करनी चाहिए। (मुद्राओं के भेद व लक्षण-- दे० मुद्रा) २. योग्य आसन व उसका प्रयोजन१. पर्षक व कायोत्सर्गकी प्रधानता व उसका कारण मू.आ./६०२ दुविठाण पुनरुत्तं ।दो प्रकारके आसनोंमेंसे किसी एक से कृतिकर्म करना चाहिए। भ.आ./मू./२०८६/१८०३ अंधेत्तु पलिअंकं ।-पत्यकासन बान्धकर किया जाता है। (रा.वा./१/४४/१/६३४/२०); (म.पु./२१/६०) म पु./२१/६९-७२ पत्यक इव दिध्यासोः कायोत्सर्गोऽपि संमतः। संप्र. युक्त सङ्गिो द्वात्रिंशद्दोषवर्जित ।६। विसंस्थुलासनस्थस्य धवं गात्रस्य निग्रहः । तन्त्रिग्रहान्मन.पीडा ततश्च विमनस्कता ७०। वैमनस्यै च किं ध्यायेत् तस्यादिष्टं सुखासनम् । कायोत्सर्गश्च पर्यङ्कः ततोऽन्यद्विषमासनम् ।७१। तदवस्थाद्वयस्यैव प्राधान्यं ध्यायतो यतेः। प्रायस्तत्रापि पल्यङ्कम आममन्ति सुखासनम् १७२ ध्यान करनेकी इच्छा करनेवाले मुनिको पर्यंक आसनके समान कायोत्सर्ग आसन करनेकी भी आज्ञा है। परन्तु उसमें शरीरके समस्त अंग सम व ३२ दोषोंसे रहित रहने चाहिए (दे० व्युत्सर्ग १/१०) विषम आसनसे बैठने वालेके अवश्य ही शरीरमे पीड़ा होने लगती है। उसके कारण मनमें पीडा होती है और उससे व्याकुलता उत्पन्न हो जाती है । ७०। आकुलता उत्पन्न होनेपर क्या ध्यान दिया जा सकता है। इसलिए ध्यानके समय सुखासन लगाना ही अच्छा है। कायोत्सर्ग और पर्यक ये दो सुखासन हैं। इनके सिवाय माकोके सम बासन विषम अर्थात् दुःख देनेवाले हैं ।७१। ध्यान करने वालेको इन्हीं दो आसनोंकी प्रधानता रहती है। और उन दोनोमें भी पर्यकासन अधिक सुखकर माना जाता है ।७२ (ध. १३/१४.२६/ ६६/२); (ज्ञा/२८/१२-१३,३१-३२) (का. अ/मू/३५५); (अन. ध/-/८४) २. समर्थ जनोंके लिए आसनका कोई नियम नहीं: ध. १३/५,४,२६/१४/६६ जच्चिय देहावत्था जया ण झाणावरोहिणी होइ। झाएज्जो तदवत्थो दियो णिसण्णो णिवणणो वा-जैसी भी देहकी अवस्था जिस समय ध्यानमें बाधक नहीं होती उस अवस्थामें रहते हुए खड़ा होकर या बैठकर ( या म.पु.के अनुसार लेट कर भी) कायोत्सर्ग पूर्वक ध्यान करे। (म.पु/२१/७५); ( ज्ञा /२८/११) भ. आ./मू./२०१०/१८०४ वीरासणमादीयं आसणसमपादमादियं ठाणं । सम्म अधिदिट्ठो अध वसेजमुत्ताणसयणादि ।२०६०।- वीरासन आदि आसनोसे बैठकर अथवा समपाद आदिसे खड़े होकर अर्थात कायोत्सर्ग आसनसे किवा उत्तान शयनादिकसे अर्थात लेटकर भी धर्मध्यान करते हैं ।२०६० म.पु/२१/७३-७४ वज्रकाया महासत्त्वा' सर्वावस्थान्तरस्थिताः । श्रूयन्ते ध्यानयोगेन संप्राप्ता. पदमव्ययम् १७३। बाहुण्यापेक्षया तस्माद अवस्थाद्वयसंगर. । सक्तानी तूपसर्गाद्य तद्वैचित्र्यं न दुष्यति ।७४। - आगममें ऐसा भी सुना जाता है कि जिनका शरीर वज्रमयी है, और जो महाशक्तिशाली है, ऐसे पुरुष सभी आसनों से (आसनके वीरासन, कुक्कुटासन आदि अनेको भेद--दे० आसन ) विराजमान होकर ध्यानके बलसे अविनाशीपदको प्राप्त हुए हैं ७३। इसलिए कायोत्सर्ग और पर्यक ऐसे दो आसनोका निरूपण असमर्थ जीवोंकी अधिकतासे किया गया है। जो उपसर्ग आदिके सहन करने में अतिशय समर्थ हैं, ऐसे मुनियोंके लिए अनेक प्रकारके आसनोंके लगाने में दोष नहीं है ।७४। (ज्ञा/२८१३-१७) अन,ध/८/८३ त्रिविध पद्मपर्यवीरासनस्वभावकम् । आसनं यत्नतः कार्य विदधानेन बन्दनाम् । -वन्दना करनेवालोंको पद्मासन पर्यकासन और वीरासन इन तीन प्रकारके आसनोंमेंसे कोई भी आसन करना चाहिए। ३. योग्य पीठ रा. वा./६/४४/१/६३४/१६ समन्तात् बाह्यान्तःकरणविक्षेपकारणविरहिते भूमितले शुचावनुकूलस्पर्श यथासुखमुपविष्टो। सब तरफसे बाह्य और आभ्यन्तर माधाआसे शून्य, अनुकूल स्पर्शवाली पवित्र भूमिपर मुख पूर्वक बैठना चाहिए । (म.पु./२१/६०) ज्ञ./२८/६ दारुपट्टे शिलापट्टे भूमौ वा सिकतास्थले। समाधिसिद्धये धोरो विदध्यात्सुस्थिरासनम् ।।धीर वीर पुरुष समाधिकी सिद्धिके लिए काष्ठके तख्तेपर, तथा शिलापर अथवा भूमिपर बा बालू रेतके स्थानमें भले प्रकार स्थिर आसन करै । (त. अनु./१२) अन. घ./८/८२ विजन्त्वशब्दमच्छिद्रं मुखस्पर्शमकीलकम् । स्थेयस्तार्णा द्यधिष्ठेयं पीठं विनयवर्धनम् । = विनयकी बृद्धिके लिए, साधुओंको तृणमय, शिलामय या काष्ठमय ऐसे आसनपर बैठना चाहिए, जिसमें क्षुद्र जीव न हों, जिसमे चरचर शब्द न होता हो, जिसमें छिद्रन हो, जिसका स्पर्श सुखकर हो, जो कील या कांटे रहित हो तथा निश्चल हो, हिलता न हो। ४. योग्य क्षेत्र तथा उसका प्रयोजन १. गिरि गुफा आदि शून्य व निर्जन्तु स्थान : र. क. श्रा/EE एकान्ते सामायिक नियक्षेपे वनेषु वास्तुषु च । चैत्याल येषु वापि च परिचेत्यं प्रसन्नधिया। क्षुद्र जीवोंके उपद्रव रहित एकान्तमें तथा वनोंमें अथवा घर तथा धर्मशालाओं में और चैत्यालयोंमे या पर्वतकी गुफा आदिमें प्रसन्न चित्तसे सामायिक करना चाहिए । (का. अ./मू./६५३ ). (चा. सा/११/२) रा.वा./8/४४/१/६३४/१७ पर्वतगुहाकन्दरदरीद्रुमकोटरनदीप्रलिनपितवनजीर्णोद्यानशून्यागारादीनामन्यतमस्मिन्नवकाशे... | -पर्वत, गुहा, वृक्षकी कोटर, नदीका तट, नदीका पुल, श्मशान, जीर्णोद्यान और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतिकर्म ३. कृति कर्म व ध्यान योग्य क्षेत्रादि शून्यागार आदि किसी स्थानमें भी ध्यान करता है। (ध.१३/५,४, २६/६६/१), (म.पू./२१/५७), (चा सा /१७१/३), (त अनु./80) ज्ञा./२८/१-७ सिद्धक्षेत्रे महातीर्थ पुराणपुरुषाश्रिते। कल्याणकलिते पुण्ये ध्यानसिद्धि प्रजायते ।१सागरान्ते बनान्ते वा शैलशृङ्गान्तरेऽथवा । पुलिने पद्मवण्डान्ते प्राकारे शालसंकटे ।२। सरितां संगमे द्वीपे प्रशस्ते तरुकोटरे। जीर्णोद्याने श्मशाने वा गुहागर्भे विजन्तुके ।३. सिद्धकूटे जिनागारे कृत्रिमेऽकृत्रिमेऽपि वा । महर्दिकमहाधीरयोगिसंसिद्धवाञ्छिते ४ = सिद्धक्षेत्र, पुराण पुरुषों द्वारा सेवित, महा तीर्थक्षेत्र, कल्याणकस्थान ।। सागरके किनारे पर वन, पर्वतका शिखर, नदीके किनारे, कमल वन, प्राकार (कोट ), शालवृक्षोंका समूह. नदियोंका संगम, जलके मध्य स्थित द्वीप, वृक्षके कोटर, पुराने वन, श्मशान, पर्वतको गुफा, जोवरहित स्थान, सिद्धकूट, कृत्रिम व अकृत्रिम चैत्यालय,-ऐसे स्थानों मे ही सिद्धिकी इच्छा करनेवाले मुनि ध्यानको सिद्धि करते हैं । (अन.ध /८/८१) (दे० वसतिका/४) २. निर्बाध व अनुकूल भ.आ./मू./२०८६/१८०३ सुचिए समे विचित्त देसे णिज्जतुए अणुणाए १२०८१। पवित्र, सम, निर्जन्तुक तथा देवता आदिसे जिसके लिए अनुमति ले ली गयी है, ऐसे स्थानपर मुनि ध्यान करते है। (ज्ञा /२७/३२) ध./१३/५,४,२६/१६-१७/६६ तो जत्य समाहाणं होज मणोवयण कायजोगाणं । भूदोवधायरहिओ सो देसो उझायमाणस्स ।१६। णिच्चं वियजुवइपसूणवंसयकुसीलवजियं जइणो। ट्ठाण बियणं भणिय विसेसदो ज्माणकालम्मि ।१७ =मन, वचन व कायका जहाँ समाधान हो और जो प्राणियोके उपधातसे रहित हो वही देश ध्यान करनेवालोंके लिए उचित है ।१६। जो स्थान श्वापद, स्त्री, पशु, नपुंसक ओर कुशील जनोसे रहित हो और जो निजन हो, यति जनोंको विशेष रूपसे ध्यानके समय ऐसा ही स्थान उचित है । १७॥ (दे० वसतिका/३ व ४) रा. वा/६/४४/१/६३४/१८ व्यालमृगपशुपक्षिमनुष्याणामगोचरे तत्रत्यैरागन्तुभिश्च जन्तुभिः परिवजिते नात्युष्णे नातिशीते नातिवाते वर्षातापवर्जिते समन्तात बाह्यान्त करणविक्षेपकारणविरहिते भूमितले । - व्याघ, सिह, मृग, पशु, पक्षी, मनुष्य आदिके अगोचर, निर्जन्तु, न अति उष्ण और न अति शीत, न अधिक वायुवाला, वर्षा-आतप आदिसे रहित, तात्पर्य यह कि सब तरफसे बाह्य और आभ्यन्तर बाधाओसे शुन्य ऐसे भूमितलपर स्थित होकर ध्यान करे। (म.पु./ २१/५८-५६,७७); (चा.सा./१५१/४); (ज्ञा /२७/३३), (त अनु./१०-११); (अन.ध./८/८१) ३. पापी जनोंसे संसक्त स्थानका निषेध ज्ञा./२७/२३-३० म्लेच्छाधमजन र्जुष्ट' दुष्टभूपालपालितम् । पाषण्डिमण्डलाकान्तं महामिथ्यात्ववासितम ।२३। कौलिकापालिकावासं रुदक्षुद्रादिमन्दिरम् । उद्भ्रान्तभूतवेतालं चण्डिकाभवनाजिरम् ।२४। पण्यस्त्रोकृतसंकेत मन्दचारित्रमन्दिरम् । क्रूरकर्माभिचाराट्य' कु. शास्त्राभ्यासवञ्चितम् ।२५। क्षेत्रजातिकुलोत्पन्नशक्तिस्वीकारदर्पितम् । मिलितानेकदुःशीलकल्पिताचिन्त्यसाहसम् ।२६। द्यूतकारसुरापानविटवन्दिवजान्वितम् । पापिसत्त्वसमाक्रान्तं नास्तिकासारसेवितमा२७॥ क्रव्याद कामुकाकोणं व्याधविध्वस्तश्वापदम् । शिल्पिकारुकविक्षिप्लमग्निजीवजनाश्चितम् ।२८) प्रतिपक्षशिर शुले प्रत्यनीकावलम्बितम् । आत्रेयीखण्डितव्यङ्गसंसृतं च परित्यजेत् ।२६। विद्रवन्ति जनाः पापाः सचरन्त्य भिसारिका' । क्षोभयन्तोगिताकार यत्र नार्योपशङ्किता' ।३०। ध्यान करनेवाले मुनि ऐसे स्थानों को छोड़े-म्लेच्छ व अधम जनोंसे सेवित, दुष्ट राजासे रक्षित, पाखण्डियोंसे आक्रान्त, महामिथ्यात्वसे वासित ।२३। कुलदेवता या कापालिक (रुद्र) आदि का वास व मन्दिर जहाँ कि भूत वेताल आदि नाचते हो अथवा चण्डिकादेवीके भवनका आँगन ।२४। व्यभिचारिणी स्त्रियों के द्वारा संकेतित स्थान, कुचारित्रियों का स्थान, क्रूरकर्म करने वालोसे सचारित, कुशास्त्रोका अभ्यास या पाठ आदि जहाँ होता हो ।२५। जमींदारी अथवा जाति व कुलके गर्व से गर्वित पुरुष जिस स्थानमें प्रवेश करनेसे मना करे, जिसमे अनेक दुशील व्यक्तियोने कोई साहसिक कार्य किया हो ।२६। जुआरी, मद्यपायी, व्यभिचारी, बन्दीजन आदिके समूहसे युक्त स्थान पापी जीवों से आक्रान्त, नास्तिकों द्वारा सेवित ।२७। राक्षसों व कामी पुरुषों से व्याप्त, शिकारियोंने जहाँ जीव वध किया हो, शिल्पी, मोचो आदिकोंसे छोडा गया स्थान, अग्निजीवी (लुहार, ठठेरे आदि ) से युक्त स्थान ।२८। शत्रुको सेनाका पडाव, रजस्वला, भ्रष्टाचार', नपंसक व अंगहीनोंका आवास ।२६। जहाँ पापी जन उपद्रव करे, अभिसारिकाएं जहाँ विचरती हों, स्त्रियाँ नि.शंकित होकर जहाँ कटाक्ष आदि करती हो ।३०। (वसतिका/३) ४. समर्थजनोंके लिए क्षेत्रका कोई नियम नहीं ध.१३/५,४/२६/१८/६७ थिरकयजोगाणं पुण मुणोण माणेसु णिच्चलमणाणं। गामम्मि जणाइण्णे सुण्णे रणे य ण विसेसो।।८। = परन्तु जिन्होंने अपने योगोंको स्थिर कर लिया है और जिनका मन ध्यानमें निश्चल है, ऐसे मुनियों के लिए मनुष्योसे व्याप्त ग्राममे और अन्य जंगल में कोई अन्तर नहीं है। (म पु /२१/८०), (ज्ञा /२८/२२) ५. क्षेत्र सम्बन्धी नियमका कारण व प्रयोजन म.पु./२९/७८-७६ बसतोऽस्य जनाकीर्णे विषयानभिपश्यत । बाहुल्यादिन्द्रियार्थानां जातु व्यग्रीभवेन्मन: ७८१ ततो विविक्तशायित्वं बने वासश्च योगिनाम् । इति साधारणो मार्गो जिनस्थविरकल्पयो ।। जो मुनि मनुष्योसे भरे हुए शहर आदिमे निवास करते हैं और निरन्तर विषयोको देखा करते है, ऐसे मुनियों का चित्त इन्द्रियोके विषयोकी अधिकता होनेसे कदाचित व्याकुल हो सकता है ।७८॥ इसलिए मुनियों को एकान्त स्थानमे ही शयन करना चाहिए और वनमे ही रहना चाहिए यह जिनकल्पी और स्थविरकल्पी दोनों प्रकारके मुनियोंका साधारण मार्ग है ।७१। (ज्ञा./२७/२२) ५. योगदिशा ज्ञा./२०/२३-२४ पूर्व दिशाभिमुग्नः साक्षादुत्तराभिमुखोऽपि वा। प्रसन्नवदनो ध्याता ध्यानकाले प्रशस्यते ।२३। -ध्यानी मुनि जो ध्यानके समय प्रसन्न मुख साक्षात पूर्व दिशामे मुख करके अथवा उत्तर दिशामें मुख करके ध्यान करे सो प्रशसनीय कहते है ।२१। (परन्तु समर्थ जनोके लिए दिशाका कोई नियम नहीं।२४।। नोट--(दोनों दिशाओंके नियमका कारण-दे० दिशा) ६. योग्य माव आत्माधीनता ध.१३/१,४,२८/८८/१० किरियाकम्मे की रिमाणे अपायत्तं अपरवसत्तं आदाहीणं णाम। पराहीणभावेण किरियाकम्म किण्ण कोरदे। ण, तहा किरियाकम्म कुणमाणस्स कम्मरवयाभावादो जिणिदादि अच्चासणदुवारेण कम्मबंधसंभवादो च। -क्रियाकर्म करते समय आत्माधीन होना अर्थात् परवश न होना आत्माधीनता है। प्रश्न-- पराधीन भावसे क्रियाकर्म क्यो नहीं किया जाता • उत्तर-नहीं, क्योंकि उस प्रकार क्रियाकर्म करनेवालेके कर्मों का क्षय नहीं होगा और जिनेन्द्रदेवकी आसादना होनेसे कर्माका बन्ध होगा। अन.ध./८/६६ कालुष्यं येन जात तं क्षमयित्वैव सर्वत.। सगाच चिन्ता व्यावर्य क्रिया कार्या फलार्थिना ।६६ -मोक्षके इच्छुक साधुओंको सम्पूर्ण परिग्रहो की तरफसे चिन्ताको हटाकर और जिसके साथ किसी तरहका कभी कोई कालुष्य उत्पन्न हो गया हो, उसके क्षमा कराकर ही आवश्यक क्रिया करनी चाहिए। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतिकर्म १३७ ४. कृतिकर्म-विधि तक ७. योग्य शुद्धियाँ (अन, ध.६/१-१३/३४-३५) (द्रव्य--क्षेत्र-काल व भाव शुद्धि; मन-वचन व काय शुद्धि, ईर्यापथ न समय क्रिया शुद्धि, विनय शुद्धि, कायोत्सर्ग-अवनति-आवर्त व शिरोनति आदि १ सूर्योदय से लेकर २ घडी तक देववन्दन, आचार्य की शुद्धि-इस प्रकार कृतिकर्ममें इन सब प्रकारकी शुद्धियोंका ठीक वन्दना व मनन २ सूर्योदयके २ घड़ी पश्चादसे मध्याह्न पूर्वाह्निक स्वाध्याय प्रकार विवेक रखना चाहिए। (विशेष--दे० शुद्धि)। के २ घडी पहले तक 1३ | मध्याह्नके २ घड़ी पूर्वसे २ घड़ी | आहारचर्या (यदि उपपश्चात् तक वासमुक्त है तो क्रम से आचार्य व देव८. आसन, क्षेत्र, काल आदिके नियम अपवाद मार्ग है वन्दना तथा मनन) उत्सर्ग नहीं | आहार से लौटने पर मंगलगोचर प्रत्याख्यान 14 मध्याह्नके २ घडी पश्चात्से सूर्यास्तके | अपराह्निक स्वाध्याय ध.१३/१,४,२६/१५,२०४६६ सव्वासु वट्टमाणा जं देसकालचेट्ठासु । वर २ घड़ी पूर्व तक केवलादिलाह पत्ता हु सो ख वियपावा ।१॥ तो देसकालचेट्ठाणियमो १६ सूर्यास्तके २ घड़ी पूर्व से सूर्यास्त तक देवसिक प्रतिक्रमण व ज्झाणस्स पत्थि समयम्मि। जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइ. रात्रियोग धारण | सूर्यास्तसे लेकर उसके २ घड़ी पश्चात् आचार्य व देववन्दना यव ।२० -सब देश सब काल और सब अवस्थाओं { आसनों ) में तक तथा मनन विद्यमान मुनि अनेकविध पापोंका क्षय करके उत्तम केवलज्ञानादि- 1८ सूर्यास्तके २ घडी पश्चातसे अर्धरात्रि । पूर्वरात्रिक स्वाध्याय को प्राप्त हुए ।१५। ध्यानके शास्त्र में देश, काल और चेष्टा (आसन)का के २ घडी पूर्व तक भी कोई नियम नहीं है। तत्त्वत, जिस तरह योगोका समाधान हो अर्धरात्रिके २ घडी पूर्व से उसके २ घडी चार घड़ी निद्रा पश्चात तक उसी तरह प्रवृत्ति करनी चाहिए ।२०। (म पु/२१/८२-८३); १० अर्धरात्रिके २ घडी पश्चादसे सूर्योदय- वैरात्रिक स्वाध्याय (ज्ञा./२८/२१) के २ घडी पूर्व तक ११ सूर्योदयके २ घड़ी पूर्वसे सूर्योदय रात्रिक प्रतिक्रमण म. पु./२१/७६ देशादिनियमोऽप्येवं प्रायोवृत्तिव्यपाश्रयः । कृतात्मना तु सर्वोऽपि देशादिनिसिद्धये ।७६। =देश आदिका जो नियम कहा | नोट-रात्रि क्रियाओंके विषयमें देवसिक क्रियाओंकी तरह गया है वह प्रायोवृत्तिको लिये हुए है, अर्थात् होन शक्तिके धारक समयका नियम नहीं है। अर्थात हीनाधिक भी कर सकते है।४४॥ ध्यान करनेवालोंके लिए ही देश आदिका नियम है, पूर्ण शक्तिके धारण करनेवालों के लिए तो सभी देश और सभी काल आदि ध्यानके साधन हैं। २. कृतिकर्मानुपूर्वी विधि और भी दे० कृतिकर्म/३/२,४ ( समर्थ जनोंके लिए आसन व क्षेत्रका कोषकार--साधुके दैनिक कार्यक्रम परसे पता चलता है कि केवल चार कोई नियम नहीं) घडी सोनेके अतिरिक्त शेष सर्व समयमे वह आवश्यक क्रियाओंमें ही उपयुक्त रहता है। वे उसकी आवश्यक क्रियाएँ छह कही गयी हैंदे० वह वह विषय-काल सम्बन्धी भी कोई अटल नियम नहीं है। सामायिक, वन्दना, स्तुति स्वाध्याय, प्रत्याख्यान व कायोत्सर्ग। अधिक बार या अन्य-अन्य कालोंमें भी सामायिक, वन्दना, ध्यान कहीं-कहीं स्वाध्यायके स्थान पर प्रतिक्रमण भी कहते हैं। यद्यपि ये छहों क्रियाएँ अन्तरंग व बाह्य दो प्रकारकी होती है। परन्तु आदि किये जाते हैं। अन्तरंग क्रियाएँ तो एक वीतरागता या समताके पेटमें समा जाती हैं। सामायिक व छेदोपस्थापना चारित्रके अन्तर्गत २४ घण्टों ही होती रहती हैं। यहाँ इन छहोंका निर्देश बाच सिक व कायिकरूप ४. कृतिकर्म-विधि बाह्य क्रियाओंकी अपेक्षा किया गया है अर्थात् इनके अन्तर्गत मुखमे कुछ पाठादिका उच्चारण और शरीरसे कुछ नमस्कार आदिका करना होता है। इस क्रिया काण्डका ही इस कृतिकर्म अधिकार में निर्देश १. साधुका दैनिक कार्यक्रम किया गया है। सामायिकका अर्थ यहाँ 'सामायिक दण्डक' नामका एक पाठ विशेष है और उस स्तवका अर्थ 'थोस्सामि दण्डक' मू-आ./६०० चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सज्झाए । नामका पाठ जिसमें कि २४ तीर्थंकरोंका संक्षेपमें स्तवन किया गया पुटवण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोहस्सा होंति ।६००। प्रतिक्रमण है। कायोत्सर्गका अर्थ निश्चल सीधे खड़े होकर १ बार णमोकार कालमें चार क्रियाकर्म होते हैं और स्वाध्यायकालमें तीन क्रियाकर्म मन्त्रका २७ श्वासोंमें जाप्य करना है। बन्दना, स्वाध्याय, प्रत्या ख्यान, व प्रतिक्रमणका अर्थ भी कुछ भक्तियोंके पाठोंका विशेष होते हैं। इस तरह सात सवेरे और सात सॉझको सब १४ क्रियाकर्म क्रमसे उच्चारण करना है, जिनका निर्देश पृथक् शीर्षकमें दिया गया होते हैं। है। इस प्रकारके १३ भक्ति पाठ उपलब्ध होते हैं-१. सिद्ध भक्ति, - - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मा०२-१८ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतिकर्म १३८ ४. कृतिकर्म-विधि २. श्रुत भक्ति, ३. चारित्र भक्ति, ४. योग भक्ति, ५. आचार्य भक्ति, ६. निर्वाण भक्ति, ७. नन्दीश्वर भक्ति, ८. वीर भक्ति ६. चतुर्विंशति तीर्थकर भक्ति, १०. शान्ति भक्ति, ११ चैत्य भक्ति, १२. पंचमहागुरु भक्ति व १३. समाधि भक्ति। इनके अतिरिक्त ईर्यापथ शुद्धि, सामायिक दण्डक व थोस्सामि दण्डक ये तीन पाठ और भी है। दैनिक अथवा नैमित्तिक सर्व क्रियाओंमे इन्हीं भक्तियोंका उलटपलट कर पाठ किया जाता है, किन्हीं क्रियाओं में किन्हींका और किन्हीं में किन्हींका । इन छहों क्रियाओं में तीन ही वास्तबमें मूल हैं-देव या आचार्य बन्दना, प्रत्याख्यान, स्वाध्याय या प्रतिक्रमण । शेष तीनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। उपरोक्त तीन मूल क्रियाओंके क्रियाकाण्डमें ही उनका प्रयोग किया जाता है। यही कृतिकर्मका विधि विधान है जिसका परिचय देना यहाँ अभीष्ट है। प्रत्येक भक्ति के पाठके साथ मुखसे सामायिक दण्डक ३ थोस्सामि दण्डक (स्तव) का उच्चारण; तथा कायसे दो नमस्कार, ४ नति व १२ आवर्त करने होते है। इनका क्रम निम्न प्रकार है-(चा. सा /१५७/१ का भावार्थ )। (१) पूर्व या उत्तराभिमुख खडे होकर या योग्य आसनसे बैठकर "विवक्षित भक्तिका प्रतिष्ठापन या निष्ठापन क्रियायां अमुक भक्ति कायोत्सग करोम्यहम्" ऐसे वाक्यका उच्चारण । (२) पंचांग नमस्कार; (३) पूर्व प्रकार खड़े होकर या बैठकर तीन आवर्त व एक नति; (४) 'सामायिक दण्डक'का उच्चारण: (1) तीन आवत व एक मतिः (६) कायोत्सर्ग: (७) पंचांग नमस्कारः (८) ३ आवर्त व एक मति: (8) थोस्सामि दण्डकका उच्चारण ; (१०) ३ आवर्त व एक नति : (११) विवक्षित भक्ति के पाठका उच्चारण; (१२) उस भक्ति पाठको अंचलिका जो उस पाठके साथ ही दी गयी है। इसीको दूसरे प्रकारसे यों भी समझ सकते हैं कि प्रत्येक भक्ति पाठसे पहिले प्रतिज्ञापन करनेके । पश्चात् सामायिक व थोस्सामि दण्डक पढ़ने आवश्यक हैं। प्रत्येक सामायिक व थोस्सामि दण्डकसे पूर्व ब अन्तमें एक एक शिरोनति की जाती है । इस प्रकार चार नति होती हैं। प्रत्येक नति तीन-तीन आवर्त पूर्वक ही होनेसे १२ आवर्त होते है। प्रतिज्ञापनके पश्चात् एक नमस्कार होता है और इसी प्रकार दोनों दण्डकोंकी सन्धिमें भी। इस प्रकार २ नमस्कार होते है। कहीं कहीं तीन नमस्कारोंका निर्देश मिलता है। तहाँ एक नमस्कार वह भी जोड़ लिया गया समझना जो कि प्रतिज्ञापन आदिसे भी पहिले बिना कोई पाठ बोले देव या आचार्यके समक्ष जाते ही किया जाता है। (दे० आवर्त व नमस्कार ) किस क्रियाके साथ कौन कौन-सी भक्तियाँ की जाती हैं, उसका निर्देश आगे किया जाता है । ( दे नमस्कार 1५) (II) अपूर्व चैत्य क्रिया--सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति, सालोचना चारित्र भक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति । अष्टमी आदि क्रियाओंमें या पाक्षिक प्रतिक्रमणमें दर्शनपूजा अर्थात अपूर्व चैत्य क्रियाका योग हो तो सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति करे। अन्तमें शान्तिभक्ति करे। (केवल क्रि० क०) (III) अभिषेक धन्दना क्रिया--सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्ति भक्ति। (IV) अष्टमी क्रिया--सिद्ध-भक्ति, श्रुतभक्ति, सालोचना चारित्रभक्ति, शान्ति भक्ति । (विधि नं०१), सिद्ध भक्ति, श्रुत्तभक्ति, चारित्रभक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्तिभक्ति । (विधि नं०२) (V) अष्टाह्निक क्रिया-सिद्धभक्ति, नन्दीश्वर 'चैत्यभक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्ति कि। (VI) आचार्य पद प्रतिष्ठान क्रिया-सिद्धभक्ति, आचार्यभक्ति, शान्ति भक्ति । (VII) आचार्य वन्दना.--लघु सिद्ध, श्रुत व आचार्य भक्ति । (विशेष दे० वन्दना) केश लोंच क्रिया-ल. सिद्ध-ल. योगि भक्ति । अन्त में योगिभक्ति। (VIII) चतुर्दशी क्रिया-सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, श्रुतभक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्तिभक्ति, (विधि नं०१)। अथवा चैत्य भक्ति, श्रुतभक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्तिभक्ति (विधि नं०२) (IX) तीर्थकर जन्म क्रिया-दे० आगे पाक्षिको क्रिया। (X) दीक्षा विधि ( सामान्य ) (१) सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति, लोंचकरण (केशलूंचण), नामकरण, नाग्न्य प्रदान, पिच्छिका प्रदान, सिद्ध भक्ति। (२)-उसी दिन या कुछ दिन पश्चात बतदान प्रतिक्रमण। (XI) दीक्षा विधि (क्षुल्लक), सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति, शान्ति भक्ति, समाधि भक्ति, 'ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं नमः' इस मंत्रका २१ मार या १०८ बार जाप्य । विशेष दे० ( क्रि० क०/पृ०३३७) (XII) दीक्षा विधि (बृहत):--शिष्य-(१) बृहत्प्रत्याख्यान क्रियामें सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति, गुरुके समक्ष सोपवास प्रत्याख्यान ग्रहण । आचार्य भक्ति, शान्ति भक्ति, गुरुको नमस्कार । (२)-गणधर बलय पूजा। (३)-श्वेत वस्त्र पर पूर्वाभिमुख बैठना। (४) केश लोंच क्रियामें सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति । आचार्य-मन्त्र विशेषों के उच्चारण पूर्वक मस्तकपर गन्धोदक घ भस्म क्षेपण व केशोरपाटन । शिष्य-केश लोच निष्ठापन क्रियामें सिद्ध भक्ति, दीक्षा याचना । आचार्य-विशेष मव विधान पूर्वक सिर पर 'श्री' लिखे व अंजलीमें तन्दुलादि भरकर उस पर नारियल रखे। फिर व्रत दान क्रियामें सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति, योगि भक्ति, व्रत दान, १६ संस्कारारोपण, नामकरण, उपकरण प्रदान, समाधि भक्ति । शिष्य- सर्व मुनियोको वन्दना। आचार्य-वतारोपण क्रियामें रत्नत्रय पूजा, पाक्षिक प्रतिक्रमण । शिष्य-मुख शुद्धि मुक्त करण पाठ क्रियामें सिद्ध भक्ति, समाधि भक्ति । विशेष दे० (क्रि.क./पृ. ३३३) । देव बन्दनाः-ईर्यापथ विशुद्धि पाठ, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्ति भक्ति । ( विशेष दे०वंदना)। पाक्षिकी क्रियाः-सिद्ध भक्ति चारित्र भक्ति, और शान्ति भक्ति । यदि धर्म व्यासंगसे चतुर्दशीके रोज क्रिया न कर सके तो पूर्णिमा और अमावसको अष्टमी क्रिया करनी चाहिए। (विधि नं.१)। सालोचना चारित्र भक्ति, चैत्य पंचगुरु भक्ति, शान्ति भक्ति ( विधि नं.२)। (XIII) पूर्व जिन चैत्य क्रियाः-विहार करते करते छः महीने पहले उसी प्रतिमाके पुनः दर्शन हो तो उसे पूर्व जिन चैत्य कहते हैं। उस पूर्व जिन चैत्यका दर्शन करते समय पाक्षिकी क्रिया करनी चाहिए। (केवल क्रि. क.)। ३. प्रत्येक क्रियाके साथ मक्ति पाठोंका निर्देश (चाल्सा/१६०-१६६/६; क्रि०क०/४ अध्याय) (अन० ध०/६/४५-७४; ८२-८५) संकेत-ल-लघु; जहाँ कोई चिह्न नहीं दिया वहाँ वह बृहत् भक्ति समझना। १. नित्य व नैमित्तिक क्रियाकी अपेक्षा (1) अनेक अपूर्व चैत्य दर्शन क्रिया-अनेक अपूर्व जिन प्रतिमाओं को देखकर एक अभिरुचित जिनप्रतिमामें अनेक अपूर्व जिन चैत्य वन्दना करे। छठे महीने उन प्रतिमाओंमें अपूर्वता सुनी जाती है। कोई नयी प्रतिमा हो या छह महीने पीछे पुनः दृष्टिगत हुई प्रतिमा हो उसे अपूर्व चैत्य कहते हैं। ऐसी अनेक प्रतिमाएँ होनेपर स्व रुचिके अनुसार किसी एक प्रतिमाके प्रति यह क्रिया करे। ( केवल क्रि० के०) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतिकर्म १३९ ४. कृतिकर्म-विधि (५) आचार्य सम्बन्धी-सिद्ध-योगि-आचार्य-शान्ति भक्ति । (६) कायक्लेशमृत आचार्य-सिद्ध-योगि-आचार्य व शान्ति भक्ति। (विधि नं०१) सिद्ध-योगि-आचार्य-चारित्र व शान्ति भक्ति । (७) सिद्धान्त वेत्ता आचार्य-सिद्ध-श्रुत-योगि-आचार्य शान्ति भक्ति । (८) शरीरक्लेशी व सिद्धान्त उभय आचार्यः-सिद्ध-श्रुत-चारित्र योगि-आचार्य व शान्ति भक्ति। (XIV) प्रतिमा योगी मुनिक्रियाः--सिद्धभक्ति योगी भक्ति, शान्ति भक्ति । (XV) मंगल गोचार मध्याह्न बन्दना क्रिया -सिद्ध भक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्ति भक्ति। (XVI) योगनिद्रा धारण क्रिया'-योगि भक्ति । (विधि न.१)। (XVII) वर्षा योग निष्ठापन व प्रतिष्ठापन क्रियाः-(सिद्धभक्ति, योग भक्ति, 'यावन्ति जिनचैत्यायतनानि', और स्वयम्भूस्तोत्रमें से प्रथम दो तीर्थकरोंकी स्तुति, चैत्य भक्ति । (२) ये सर्व पाठ पूर्वादि चारों दिशाओं की ओर मुख करके पढ़ें, विशेषता इतनी कि प्रत्येक दिशामें अगले अगले दो दो तीर्थकरोंकी स्तुति पढ़ें। (३) पंचगुरु भक्ति व शान्ति भक्ति। नोट -आषाढ शुक्ला १४ की रात्रिके प्रथम पहरमें प्रतिष्ठापन और कार्तिक कृष्णा १४ की रात्रिके चौथे पहर में निष्ठापन करना । विशेष दे० पाद्य स्थिति कल्प। वीर निर्वाण क्रिया-सिद्ध भक्ति, निर्वाण भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्ति भक्ति । श्रुत पंचमी क्रिया -सिद्ध भक्ति. श्रुत भक्ति पूर्वक वाचना नामका स्वाध्याय ग्रहण करना चाहिए। फिर स्वाध्याय कर श्रुत भक्ति और आचार्य भक्ति करके स्वाध्याय ग्रहण कर श्रुत भक्ति कर स्वाध्याय पूर्ण करे। समाप्तिके समय शान्ति भक्ति करे। संन्यास क्रियाः-(१) सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति, कर वाचना ग्रहण, (२) -श्रुत भक्ति, आचार्य भक्ति कर स्वाध्याय ग्रहण कर श्रुत भक्तिमें स्वाध्याय पूर्ण करे। (३) वाचनाके समय यही क्रिया कर अन्तमें शान्ति भक्ति करे। (४) संन्यासमें स्थित होकर-बृहत् श्रुत भक्ति, बृ० आचार्य भक्ति कर स्वाध्याय ग्रहण, बृ० श्रूत भक्तिमे स्वाध्याय करें। (विधि नं०१) । संन्यास प्रारम्भ कर सिद्ध व श्रुत भक्ति, अन्तमें सिद्ध श्रुत व शान्ति भक्ति। अन्य दिनोमें बृ० भूत भक्ति, बृ० आचार्य भक्ति पूर्वक प्रतिष्ठापना तथा बृ० श्रुत भक्ति पूर्वक निष्ठापना । सिद्ध प्रतिमा क्रिया'-सिद्ध भक्ति । ४. स्वाध्यायकी अपेक्षा सिद्धान्ताचार वाचन क्रियाः-(सामान्य) सिद्ध-श्रुत भक्ति करनी चाहिए, फिर भूत भक्ति व आचार्य भक्ति करके स्वाध्याय करें, तथा अन्तमें श्रुत-व शान्ति भक्ति करें। तथा एक कायोत्सर्ग करें। (केवल. चा० सा०) विशेषः-प्रारम्भमें सिद्ध-श्रत भक्ति तथा आचार्य भक्ति करनी चाहिए तथा अन्तमें ये हो क्रियाएँ तथा छह छह कायोत्सर्ग करने चाहिए। पूर्वाह्न स्वाध्याय -श्रुतभक्ति, आचार्य भक्ति अपराह्न ५ - १ पूर्वरात्रिक , - " " वैरात्रिक - ५. प्रत्याख्यान धारणकी अपेक्षा भोजन सम्बन्धी -ल० सिद्ध भक्ति । उपवास सम्बन्धी यदि स्वयं करे तो-ल० सिद्ध भक्ति। यदि आचार्य के समक्ष करे तो-सिद्ध व योगि भक्ति । मंगल गोचर बृहत् प्रत्याख्यान क्रिया'-सिद्ध व योगि भक्ति...(प्रत्या ख्यान ग्रहण )-आचार्य व शान्ति भक्ति। २. पंचकल्याणक वन्दना की अपेक्षा (१) गर्भकल्याणक वन्दनाः-सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति, शान्ति भक्ति ।। (२) जन्म कल्याणक वन्दनाः-सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति व शान्ति भक्ति। (३) तप कल्याणक वन्दना'-सिद्ध-चारित्र-योगि व शान्ति भक्ति । (४) ज्ञान कल्याणक वन्दना'-सिद्ध-भूत-चारित्र-योगि व शान्ति भक्ति । (३) निर्वाण कल्याणक बन्दना-सिद्ध-श्रुत-चारित्र-योगिनिर्वाण व शान्ति भक्ति। (६) अचलजिन बिम्ब प्रतिष्ठा'-सिद्ध व शान्ति भक्ति ।...(चतुर्थ दिन अभिषेक वन्दना में:--सिद्ध-चारित्र चैत्य-पंचगुरु व शान्ति भक्ति (विधि न०१)। अथवा सिद्ध, चारित्र, चारित्रालोचना व शान्ति भक्ति । (७) चल जिन निम्ब प्रतिष्ठा'-सिद्ध व शान्ति भक्ति ।...( चतुर्थ दिन अभिषेक वन्दनामें)-सिद्ध-चैत्य-शान्ति भक्ति । ६. प्रतिक्रमणकी अपेक्षा देवसिक व रात्रिक प्रतिक्रमणः-सिद्ध-व प्रतिक्रमण-निष्ठित चारित्र व चतुर्विशति जिन स्तुति पढे। (विधि नं०१)। सिद्ध-प्रतिक्रमण भक्ति अन्तमें वीर भक्ति तथा चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति (विधि नं०२। यतिका पाक्षिक, चातुर्मासिक व सांवत्सारिक प्रतिक्रमण-सिद्ध-प्रतिक्रमण तथा चारित्र प्रतिक्रमणके साथ साथ चारित्र-चतुर्विंशति तीर्थकर भक्ति, चारित्र आलोचना गुरु भक्ति, बडी आलोचना गुरु भक्ति, फिर छोटो आचार्य भक्ति करनी चाहिए (विधि न०१)(१) केवल शिष्य जनः-ल. श्रुत भक्ति, ल० आचार्य भक्ति द्वारा आचार्य वन्दना करें। (२) आचार्य सहित समस्त संघ:-वृ० सिद्ध भक्ति, आलोचना सहित बृ० चारित्र भक्ति । (३) केवल आचार्य:-ल० सिद्ध भक्ति, ल. योग भक्ति, 'इच्छामि भंते चरित्तायारो रह बिहो' इत्यादि देवके समक्ष अपने दोषोंकी आलोचना व प्रायश्चित्त ग्रहण । 'तीन बार पंच महावत' इत्यादि देवके प्रति गुरु भक्ति । (४) आचार्य सहित समस्त संध-लसिद्ध भक्ति, ल० योगि भक्ति तथा प्रायश्चित्त ग्रहण । (२) केवल शिष्यल० आचार्य भक्ति द्वारा आचार्य वन्दना। (६) गाधर वलय, प्रतिक्रमण दण्डक, वीरभक्ति, शान्ति जिनकीर्तन सहित चतुर्विशति जिनस्तव, ल० चारित्रालोचना युक्त बृ० आचार्य भक्ति, बृ० आलोचना युक्त मध्याचार्य भक्ति, ल० आलोचना सहित ल. आचार्य भक्ति, समाधि भक्ति । श्रावक प्रतिक्रमणः--सिद्ध भक्ति. श्रावक प्रतिक्रमण भक्ति, वीर भक्ति, चतुर्विशति तीर्थ कर भक्ति, समाधिभक्ति । ३. साधुके मृत शरीर व उसकी निषधका की वन्दनाकी अपेक्षा (१) सामान्य मुनि सम्बन्धी:-सिद्ध-योगी व शान्ति भक्ति । (२) उत्तर व्रती मुनि सम्बन्धी'- सिद्ध-चारित्र-योगि व शान्ति भक्ति । (३) सिद्धान्त वेत्ता मुनि सम्बन्धीः-सिद्ध-श्रुत-योगिव शान्ति भक्ति । (४) उत्तरवती व सिद्धान्तवेत्ता उभयगुणी साधु-सिद्धश्रुत-चारित्र- योगि व शान्ति भक्ति। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतिकार्य १४० कृष्टि कृ कृतिकार्य-अपर नाम क्षत्रिय था-दे० क्षत्रिय । कृतिधारा-दे० गणित/II/५।२ । -किसी राशिके Square root को कृतिमूल कहते है -दे० गणित/II/१/७। कृत्तिका-एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र । कृत्स्न -स०सि०/५/१३/२७८/१० कृत्स्नवचनमशेषव्याप्तिप्रदर्शनम्। = सबके साथ व्याप्ति दिखलानेके लिए सूत्रमें 'कृत्स्न' पद रखा है। कृषिकर्म-दे० सावध/३ । कृषिव्यवसाय-कुरलकाव्य/१०४/१ नरो गच्छतु कुत्रापि सर्वत्रान्नमपेक्षते । तसिद्धिश्च कृषस्तस्मात् सुभिक्षेऽपि हिताय सा आदमी जहां चाहे घूमे पर अन्तमे अपने भोजनके लिए हल का सहारा लेना ही पड़ेगा। इसलिए हर तरहकी सस्ती होनेपर भी कृषि सर्वोत्तम उद्यम है। कृष्टि-कृष्टिकरण विधानमें निम्न नामवाली कृष्टियोंका निर्देश प्राप्त होता है-कृष्टि, बादर कृष्टि, सूक्ष्मकृष्टि, पूर्व कृष्टि, अपूर्वकृष्टि, अधस्तनकृष्टि, संग्रहकृष्टि, अन्तरकृष्टि, पार्श्व कृष्टि, मध्यम रखण्ड कृष्टि, साम्प्रतिक कृष्टि, जघन्योत्कृष्ट कृष्टि, घात कृष्टि । इन्हींका कथन यहां क्रमपूर्वक किया जायेगा। तहाँ सबसे नीचे लोभकी (लोभके स्पर्धकोंकी) प्रथम संग्रहकृष्टि है तिसविषै अन्तरकृष्टि अनन्त है। तातै ऊपर लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टि हे तहाँ भी अन्तरकृष्टि अनन्त है। तातै ऊपर लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टि है तहाँ भी अन्तरकृष्टि अनन्त है। तातै ऊपर मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टि है तहाँ भी अन्तरकृष्टि अनन्त है। इसी प्रकार तातै ऊपर मायाकी द्वितीय, तृतीय संग्रहकृष्टि व अन्तरकृष्टि है। इसी क्रमसे ऊपर ऊपर मानकी ३ और क्रोधकी ३ संग्रहकृष्टि जानना। २. स्पर्धक व कृष्टिमें अन्तर क्ष. सा./५०६/भाषा-अपूर्व स्पर्धककरण कालके पश्चात् कृष्टिकरण काल प्रारम्भ होता है । कृष्टि है ते तो प्रतिपद अनन्तगुण अनुभाग लिये है। प्रथम कृष्टिका अनुभाग ते द्वितीयादि कृष्टिनिका अनुभाग अनन्त अनन्तगुणा है। बहुरि स्पर्धक हैं ते प्रतिपद विशेष अधिक अनुभाग लिये हैं अर्थात् स्पर्धकनिकरि प्रथम वर्गणा तै द्विती. यादि वर्गणानि विषै कछू विशेष-विशेष अधिक अनुभाग पाइये है। ऐसे अनुभागका आश्रयकरि कृष्टि अर स्पर्धकके लक्षणों में भेद हैं। द्रव्यकी अपेक्षा तो चय घटता क्रम दोअनि विष ही है। द्रव्यको पंक्तिबद्ध रचनाके लिए-दे० स्पर्धक । ३. बादरकृष्टि क्ष, सा./४६० की उत्थानिका ( लक्षण)-संज्वलन कषायनिके पूर्व अपूर्व स्पर्धक. जैसे-ईटनिकी पंक्ति होय ते से अनुभागका एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद बधती लोएँ परमाणूनिका समूहरूप जो वर्गणा तिनके समूह रूप हैं । तिनके अनन्तगुणा घटता अनुभाग होनेकर स्थूल-स्थूल खण्ड करिये सो बादर कृष्टिकरण है। बादरकृष्टिकरण विधानके अन्तर्गत संज्वलन चतुष्कको अन्तरकृष्टि व मंग्रहकृष्टि करता है। द्वितीयादि समयोंमें अपूर्व व पार्श्वकृष्टि करता है। जिसका विशेष आगे दिया गया है। বির অরি-নিরীব অম্বিক বল কি १. कृष्टि सामान्य निर्देश ध. ६/१,६-८,१६/३३/३८२ गुणसेडि अणं तगुणा लोभादीकोधपच्छिमपदादो। कम्मस्स य अणुभागे किट्टीए लक्वर्ण एदं ।३३१ जघन्यकृष्टिसे लेकर.. अन्तिम उत्कृष्ट कृष्टि तक यथाक्रमसे अनन्तगुणितगुणश्रेणी है । यह कृष्टिका लक्षण है। ल. सा./जी.प्र./२८४/३४४/५ 'कर्शनं कृष्टिः कर्मपरमाणुशक्तेस्तनूकरणमित्यर्थः । कृश तनूकरणे इति धात्वर्थ माश्रित्य प्रतिपादनाद । अथवा कृष्यते तनूक्रियते इति कृष्टि' प्रतिसमय पूर्वस्पर्धकजधन्यवर्गणाशक्तेरनन्तगुणहीनशक्तिवर्गणाकृष्टिरिति भावार्थः। -कृश तनूकरणे इस धातु करि 'कर्षणं कृष्टिः जो कर्म परमाणुनिकी अनुभाग शक्तिका घटावना ताका नाम कृष्टि है। अथवा 'कृश्यत इति कृष्टिः' समय-समय प्रति पूर्व स्पः ककी जघन्य वर्गणा तें भी अनन्तगुणा घटता अनुभाग रूपं जो वर्गणा ताका नाम कृष्टि है। (गो.जी./ भाषा./५/१६०/३) (क्ष. सा. ४६० को उत्थानिका)। क्ष. सा./४६०. कृष्टिकरणका काल अपूर्व स्पर्धक करणसे कुछ कम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। कृष्टिमें भी संज्वलन चतुष्कके अनुभाग काण्डक व अनुभाग सत्त्वमें परस्पर अश्वकर्ण रूप अल्पबहुत्व पाइये है। ताते यहाँ कृष्टि सहित अश्वकरण पाइये हैं ऐसा जानना। कृष्टिकरण कालमें स्थिति बन्धापसरण और स्थिति सत्त्वापसरण भी बराबर चलता रहता है। क्ष. सा./४६२-४६४ "संज्वलन चतुष्ककी एक-एक कषायके द्रव्यको अपकर्षण भागाहारका भाग देना, उसमें से एक भाग मात्र द्रव्यका ग्रहण करके कृष्टिकरण किया जाता है ॥४१॥ इस अपकर्षण किये द्रव्यमें भी पत्य/अंस० का भाग देय बहुभाग मात्र द्रव्य बादरकृष्टि सम्बन्धी है। शेष एक भाग पूर्व अपूर्व स्पर्धकनि विषै निक्षेपण करिये (४६३) द्रव्यको अपेक्षा विभाग करनेपर एक-एक स्पर्धक विषै अनन्ती वर्गणाएँ हैं जिन्हें वर्गणा शलाका कहते हैं। ताकै अनंतवें भागमात्र सर्व कृष्टिनिका प्रमाण है ॥४१४॥ अनुभागको अपेक्षा विभाग करनेपर एकएक कषाय विषै संग्रहकृष्टि तीन-तीन है, बहुरि एक-एक संग्रहकृष्टि विषै अन्तरकृष्टि अनन्त है। ४. संग्रह व अन्तरकृष्टि क्ष. सा./४६४-१०० भाषा-एक प्रकार बंधता ( बढता ) गुणाकार रूप जो अन्तरकृष्टि, उनके समूहका नाम संग्रहकृष्टि है ।४६४। कृष्टिनिक अनुभाग विषै गुणाकारका प्रमाण यावत् एक प्रकार बढता भया तावत सो ही संग्रहकृष्टि कही । बहुरि जहाँ निचली कृष्टि तै ऊपरली कृष्टिका गुणाकार अन्य प्रकार भया तहाँ तै अन्य संग्रहकृष्टि कही है। प्रत्येक संग्रहकृष्टिके अन्तर्गत प्रथम अन्तरकृष्टिसे अन्तिम अन्तरकृष्टि पर्यन्त अनुभाग अनन्त अनन्तगुणा है। परन्तु सर्वत्र इस अनन्त गुणकारका प्रमाण समान है, इसे स्वस्थान गुणकार कहते हैं। प्रथम संग्रहकृष्टिके अन्तिम अन्तरकृष्टिसे द्वितीय संग्रहकृष्टिकी प्रथम अन्तरकृष्टिका अनुभाग अनन्तगुणा है। यह द्वितीय अनन्त गुणकार पहलेबाले अनन्त गुणकारसे अनन्तगुणा है, यही परस्थान गुणकार है। यह द्वितीय संग्रह कृष्टिकी अन्तिम अन्तरकृष्टिका अनुभाग भी उसकी इस प्रथम अन्तरकृष्टिसे अनन्तगुणा है। इसी प्रकार आगे भी जानना ।४६८। संग्रह कृष्टि विर्षे जितनी अन्तर कृष्टिका प्रमाण होइ तिहिका नाम संग्रहकृष्टिका आयाम है ।४६।चारों कषायोंकी लोभसे क्रोध पर्यन्त जो १२ संग्रहकृष्टियाँ हैं उनमें प्रथम संग्रहकृष्टिसे अन्तिम संग्रहकृष्टि पर्यन्त पल्य/ अंस० भाग कम करि घटता संग्रहकृष्टि आयाम जानना ।४६६। नौ कषाय सम्बन्धी सर्वकृष्टि क्रोधकी संग्रहकृष्टि विषै हो मिला दी गयी है।४६६ क्रोधके उदय सहित श्रेणी चढनेवालेके १२ संग्रह कृष्टि होती है। मानके उदय सहित चढनेवालेके , मायावालेके ६; और लोभवालेके केवल ३ ही संग्रहकृष्टि होती है, क्योकि उनसे पूर्व पूर्वकी कृष्टियाँ अनन्तगुणा है । टिका प्रमाण ह क्रोध पर्य जनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्टि १४१ कृष्टि अपनेसे अगलियोमें संक्रमण कर दी गयी हैं।४१७। अनुभागकी अपेक्षा १२ संग्रह कृष्टियोमें लोभकी प्रथम अन्तरकृष्टिसे क्रोधकी अन्तिम अन्तरकृष्टि पर्यन्त अनन्त गुणित क्रमसे (अन्तरकृष्टिका गुणकार स्वस्थान गुणकार है और संग्रहकृष्टिका गुणकार परस्थान गुणकार है जो स्वस्थान गुणकारसे अनन्तगुणा है-(दे० आगे कृष्टचन्तर) अनुभाग बढता बढ़ता हो है ।४६। द्रव्यकी अपेक्षा विभाग करनेपर क्रम उलटा हो जाता है। लोभकी जघन्य कृष्टिके द्रव्यतें लगाय क्रोधकी उत्कृष्ट कृष्टिका द्रव्य पर्यन्त (चय हानि) हीन क्रम लिये द्रव्य दीजिये ।५००। उपान्त कृष्टियों निचली कहलाती हैं। उदयके समय निचले निषेोंका उदय पहले आता है और ऊपरलोका बादमें । इसलिए अधिक अनुभाग युक्त प्रथमादि कृष्टिये नीचे रखी जाती हैं, और हीन अनुभाग युक्त आगेकी कृष्टिये ऊपर । अत. वही प्रथमादि ऊपर वाली कृष्टिये यहाँ नीचे वाली हो जाती है और नीचे वाली कृष्टिये ऊपरवाली बन जाती है। ५. कृष्टयन्तर क्ष.सा./388/भाषा-संज्वलन चतुष्ककी १२ संग्रह कृष्टियाँ हैं। इन १२ को पंक्तिके मध्य में ११ अन्तराल है। प्रत्येक अन्तरालका कारण परस्थान गुणकार है। एक संग्रहकृष्टिकी सर्व अन्तर कृष्टियाँ सर्वत्र एक गुणकारसे गुणित है। यह स्वस्थान गुणकार है। प्रथम संग्रहकृष्टिको अन्तिम अन्तरकृष्टिसे द्वितीय संग्रहकृष्टिको प्रथम अन्तरकृष्टिका अनुभाग अनन्तगुणा है। यह गुणकार पहलेवाले स्वस्थान गुणकारसे अनन्तगुणा है। यहो परस्थान गुणकार है। स्वस्थान गुणकारसे अन्तरकृष्टियोका अन्तर प्राप्त होता है और परस्थान गुणकारसे संग्रहकृष्टिका अन्तर प्राप्त होता है। कारणमें कार्यका उपचार करके गुणकारका नाम ही अन्तर है। जैतै अन्तराल होइ तितनी बार गुणकार होइ। तहाँ स्वस्थान गुणकारनिका नाम कृष्टयन्तर है और परस्थान गुणकारनिका नाम संग्रहकृष्टान्तर है। ८. कृष्टिकरण विधानमें अपकृष्ट द्रव्यका विभाजन १. कृष्टि द्रव्य.-क्ष.सा./५०३/ भाषा-द्वितीयादि समयनिविषै समय समय प्रति असख्यात गुणा द्रव्यको पूर्व अपूर्व स्पर्धक सम्बन्धी द्रव्यतै अपकर्षण कर है। उसमेसे कुछ द्रव्य तो पूर्व अपूर्व स्पर्धक को ही देवै है और शेष द्रव्यकी कृष्टिय करता है । इस द्रव्यको कृष्टि सम्बन्धी द्रव्य कहते है। इस द्रव्यमें चार विभाग होते हैं-अधस्तन शीर्ष द्रव्य, अधस्तन कृष्टि द्रव्य, मध्य खण्ड द्रव्य, उभय द्रव्य विशेष । २. अधस्तन शीर्ष द्रव्यः-पूर्व पूर्व समय विषै करि कृष्टि तिनि विषै प्रथम कृष्टितै लगाय (द्रव्य प्रमाणका) विशेष घटता क्रम है। सो पूर्व पूर्व कृष्टिनिको आदि कृष्टि समान करनेके अर्थ घटे विशेषनिका द्रव्यमात्र जो द्रव्य तहां पूर्व कृष्टियो में दीजिए बह अधस्तन शीर्ष विशेष द्रव्य है। ३. अधस्तन कृष्टि द्रव्य'-अपूर्व कृष्टियोंके द्रव्यको भी पूर्व कृष्टियोंकी आदि कृष्टिके समान करनेके अर्थ जो द्रव्य दिया सो अधस्तन कृष्टि ६. पूर्व, अपूर्व, अधस्तन व पार्श्वकृष्टि कृष्टिकरणकी अपेक्षा क्ष. सा./५०२ भाषा-पूर्व समय विषै जे पूर्वोक्त कृष्टि करी थी (दे० संग्रहकृष्टि व अन्तरकृष्टि) तिनि विषै १२ संग्रहकृष्टिनिकी जे जघन्य ( अन्तर ) कृष्टि, तिनत (भो) अनन्तगुणा घटता अनुभाग लिये, (ताकै ) नीचे केतीक नवीन कृष्टि अपूर्व शक्ति लिये युक्त करिए है । याही ते इसका नाम अधस्तन कृष्टि जानना । भावार्थजो पहलेसे प्राप्त न हो बल्कि नवीन की जाये उसे अपूर्व कहते है। कृष्टिकरण कालके प्रथम समयमें जो कृष्टियों की गयीं वे तो पूर्वकृष्टि हैं। परन्तु द्वितीय समयमें जो कृष्टि की गयीं वे अपूर्व कृष्टि हैं, क्योंकि इनमें प्राप्त जो उत्कृष्ट अनुभाग है वह पूर्व कृष्टियो के जघन्य अनुभागसे भी अनन्तगुणा घटता है। अपूर्व अनुभागके कारण इसका नाम अपूर्व कृष्टि है और पूर्वकी जघन्य कृष्टिके नीचे बनायी जानेके कारण इसका नाम अधस्तनकृष्टि है । पूर्व समय विषै करी जो कृष्टि, तिनिके समान ही अनुभाग लिये जो नवीन कृष्टि, द्वितीयादि समयोंमे की जाती है वे पार्श्व कृष्टि कहलाती हैं, क्योकि समान होनेके कारण पंक्ति विषै, पूर्वकृष्टिके पार्श्वमें ही उनका स्थान है। ७. अधस्तन व उपरितन कृष्टि कृष्टि वेदनकी अपेक्षा क्ष.सा./५१५/भाषा-प्रथम द्वितीयादि कृष्टि तिनको निचली कृष्टि कहिये । बहुरि अन्त, उपान्त आदि जो कृष्टि तिनिको ऊपरली कृष्टि कहिये। क्योकि कृष्टिकरणसे कृष्टिवेदनका क्रम उलटा है। कृष्टिकरणमें अधिक अनुभाग युक्त ऊपरली कृष्टियो के नीचे हीन अनुभाग युक्त नवीन-नवीन कृष्टियाँ रची जाती हैं। इसलिए प्रथमादि कृष्टियाँ ऊपरली और अन्त ४. उभय द्रव्य विशेष'-पूर्व पूर्व कृष्टियों को समान कर लेनेके पश्चाव अब उनमें स्पर्धकोकी भॉति पुनः नया विशेष हानि उत्पन्न करनेके अर्थ जो द्रव्य पूर्व व अपूर्व दोनों कृष्टियों को दिया उसे उभय द्रव्य विशेष कहते है। ५. मध्य खण्ड द्रव्य'-इन तीनों की जुदा किये अवशेष जो द्रव्य रहा ताको सर्व कृष्टिनि विषै समानरूप दीजिए, ताकी मध्यखण्ड द्रव्य कहते हैं। इस प्रकारके द्रव्य विभाजनमें २३ उष्ट्रकूट रचना होती है। ९. उष्ट्र कूट रचना क्ष.सा./५०५/भाषा-जैसे ऊँटकी पीठ पिछाडी तौ ऊँची और मथ्य बिषै नीची और आगै ऊँची और नीची हो है तैसे इहाँ (कृष्टियोंमें अपकृष्ट द्रव्यका विभाजन करनेके क्रममें) पहले नवीन (अपूर्व) जघन्य कृष्टि विषै बहुत, बहुरि द्वितीयादि नवीन कृष्टिनि विषै क्रम घटता द्रव्य दै हैं। आगे पुरातन (पूर्व) कृष्टिनि विषै अधस्तन शीर्ष विशेष द्रव्य कर बँधता और अधस्तन कृष्टि द्रव्य अथवा उभय द्रव्य विशेषकरि घटता द्रव्य दीजिये है। तातै देयमान द्रव्यविषै २३ उष्ट्रकूट रचना हो है। (चारों कषायों में प्रत्येककी तीन इस प्रकार पूर्व कृष्टि १२ प्रथम संग्रहके बिना नवीन संग्रह कृष्टि ११) । १०. दृश्यमान द्रव्य क्ष.सा./५०५] भाषा-नवीन अपूर्व कृष्टि विषै तौ विवक्षित समय विषै दिया गया देय दव्य ही दृश्ययान है, क्योंकि, इससे पहले अन्य द्रव्य तहाँ दिया ही नहीं गया है, और पुरातन कृष्टिनिविर्षे पूर्व समयनिविषै दिया द्रव्य और विवक्षित समय विर्षे दिया द्रव्य मिलाये दृश्यमान द्रव्य हो है। ११. स्थिति बन्धापसरण व स्थिति सत्वापसरण क्ष.सा/५०६-५०७/भाषा-अश्वकर्ण कालके अन्तिम समय संज्वलन चतुष्क का स्थिति बन्ध आठ वर्ष प्रमाण था। अब कृष्टिकरणके अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त बराबर स्थिति बन्धापसरण होते रहनेके कारण वह घटकर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्टि १४२ इसके अन्तिम समयमें केवल अन्तर्मुहूर्त अधिक चार वर्ष प्रमाण रह गया। और अवशेष कर्मोकी स्थिति संख्यात हजार वर्ष मात्र है । मोहनीयका स्थिति सत्त्व पहिले संख्यात हजार वर्ष मात्र था जो अब घट र अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष मात्र रहा। शेष तीन घातियाका संख्यात हजार वर्ष और अधातियाका असंख्यात हजार वर्ष मात्र रहा । १२. संक्रमण क्ष. सा. / ५१२ / भाषा - नवक समय प्रबद्ध तथा उच्छिष्टावली मात्र निषेकको छोड़कर अन्य सर्व निषेक कृष्टिकरण कालके अन्त समय विषै ही कृष्टि रूप परिणमै हैं । क्ष. सा० / ५१२ / भाषा -- अन्त समय पर्यन्त कृष्टियोके दृश्यमान द्रव्यकी हानि क्रम युक्त एक गोपुच्छा और स्पर्धकनिकी भिज्ञचय हानि कम युक्त दूसरी गोखा है परन्तु कृष्टिकाली समाप्तता के अनन्तर सर्व ही द्रव्य कृष्टि रूप परिणमै एक गोपुच्छा हो है । । १३. घातकृष्टि क्ष. सा / ५२३ / भाषा -- जिन कृष्टिनिका नाश किया तिनका नाम घात कृष्टि है । १४. कृष्टि वेदनका लक्षण व काल क्ष.सा./११०-१११/भाषा-कृष्टिकरण काल पर्यन्त क्षपक, पूर्व, अपूर्व स्पर्धकनिके ही उदयको भोगता है परन्तु इन नवीन यंत्र की हुई कृष्टिनिको नहीं भोगता अर्थात् कृष्टिकरण काल पर्यन्त कृष्टियों का उदय नहीं आता । कृष्टिकरण कालके समाप्त हो जानेके अनन्तर कृष्टि वेदन काल आता है, तिस छाल निषै तिष्ठति कृष्टिनिको प्रथम स्थिति निषेकम प्राप्त कर भोग है तिस भोगवे ही का नाम कृष्टि वेदन है । इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । क्ष.सा./११३ / भाषा-कुष्टिकरणकी अपेक्षा वेदनमें उल्टा कम है वहाँ पहले लोभकी और फिर माया, मान व क्रोधकी कृष्टि की गयी थी । परन्तु यहाँ पहले क्रोधकी, फिर मानकी, फिर मायाकी, और फिर लोभकी कृष्टिका वेदन होनेका क्रम है। (ल. सा / ५१३) कृष्टिकरण मे तीन संग्रह कृष्टियों यहाँ जो अन्तिम कृष्टि थी वह यहाँ प्रथम कृष्टि है और वहाँ जो प्रथम कृष्टि थी वह यहाँ अन्तिम कृष्टि है, क्योंकि पहले अधिक अनुभाग बुक कृष्टिका उदय होता है पीछे हीन हीन का । १५. क्रोधकी प्रथम कृष्टि वेदन ४.सा./११४-३१५/भाषा अब तक अश्मक रूप अनुभागका काण्डक घात करता था. अब समय प्रतिसमय अनन्तगुणा घटता अनुभाग होकर अपवर्तना करें है। नवीन कृष्टियोका जो बन्ध होता है वह मी पहिले अनन्तगुणा बात अनुभाग युक्त होता है। क्ष. सा / ५१५ / भाषा - क्रोधकी कृष्टिके उदय काल में मानादिकी कृष्टिका उदय नहीं होय है । क्ष.सा./५१८/भाषा--प्रतिसमय बन्द व उदय विषै अनुभागका पटना हो है। सा/२२-२२६/भाषा-अन्य कृष्टियों संक्रमण करके कृष्टियोंका अनुसमयापवर्तना घात करता है । क्ष.सा./५२७-५२८/भाषा कृष्टिकरणवत् मध्यखण्डादिक द्रव्य देनेकरि पुन सर्व कृष्टियोंको एक गोपुच्छाकार करता है । क्ष. सा. / ५२६-५३५ / भाषा-संक्रमण द्रव्य तथा नवीन बन्धे द्रव्यमें यहाँ श्री कुष्टिकरण नवीन संग्रह व अन्तरकृष्टि अथवा पूर्व व अपूर्व कृष्टियोंकी रचना करता है। तहाँ इन नवीन कृष्टियोमें कुछ तो कृष्टि पहली दृष्टियोंके नीचे बनती है और कुछ पहले वाली पंक्तियों के अन्तरासों में बनती है। क्ष.सा./५३६-३१८/भाषा- पूर्व अपूर्व कृष्टि का अपकर्षण द्वारा घात करता है । क्ष. सा. / ५३१-५४० भाषा - क्रोध कृष्टिवेदन के पहले समय में ही स्थितिबन्धापसरण व स्थितिसत्त्वासरण द्वारा पूर्वके स्थितिबन्ध व स्थितिसत्यको घटाता है। तहाँ संचलन चतुष्कका स्थितिबन्ध ४ वर्ष घटकर ३ मास १० दिन रहता है। शेष घातीका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्ष घटकर अन्त ते घात दशवर्षमात्र रहता है और अघाती कर्मोका स्थितिबन्ध पहिलेसे संख्यातगुणा घटता संख्यात हजार वर्ष प्रमाण रहा। स्थितिसत्त्व भी घातिया का संख्यात हजार और अघातियाका असंख्यात हजार वर्ष मात्र रहा। सा/२४१-५४३/भाषा-क्रोधकृष्टि वेदनके द्वितीयादि समय में भी पूर्व कृष्टिपात व नवीन कृष्टिकरण तथा स्थितिनन्दापसरण आदि जानने। 4 इ.सा./२४०-२४४/ भाषाकोधकी द्वितीयादि कृष्टियोंके वेदनाका भी विधान पूर्ववत् ही जानना । १६. मान, माया व लोभका कृष्टिवेदन .सा./५२५-३६२/भाषा मान व मायाकी ६ कृष्टियोंका बेदन भ क्रोधवत् जानना । क्ष. सा. / ५६३-५६४ / भाषा -- क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिके वेदन कालमें उसकी द्वितीय व तृतीय संग्रहकृष्टिसे द्रव्यका अपकर्ष र सोभकी सूक्ष्म कृष्टि करे है। इस समय केवल संज्वलन लोभका स्थितिबंध हो है । उसका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व यहाँ आकर केवल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रह जाता है। तीन घातियानिका स्थितिबन्ध पृथक्त्व दिन और स्थिति सत्व संख्यात हजार वर्ष मात्र रहता है। अघातिया प्रकृतियोका स्थितिबन्ध पृथक्व वर्ष और स्थितित्व यथायोग्य असंख्यात वर्ष मात्र है। क्ष.सा./५०१-४८९ / भाषा-लोभकी द्वितीय संग्रह कृष्टिकी प्रथम स्थिति विषै समय अधिक आवली अवशेष रहे अनिवृत्तिकरणका अन्त समय हो है। तहाँ लोभका जघन्य स्थिति बन्ध व सत्त्व अन्तर्मुहूर्त मात्र है। यहाँ मोह बन्धकी व्युच्छित्ति भई तीन घातियाका स्थितिबन्ध एक दिनसे कुछ कम रहा। और सत्व यथायोग्य संख्यात हजार वर्ष रहा। तीन अघातियाका ( आयुके बिना ) स्थिति सत्त्व थायोग्य असंख्यात वर्ष मात्र रहा। क्षसा / २८२ / भाषा अनिवृत्तिकरणका अन्त समय के अनन्तर सूक्ष्म कुहि को वेदता हुआ सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानको प्राप्त होता है। १७. सूक्ष्म कृष्टि क्ष सा. / ४१० की उत्थानिका ( लक्षण ) - सज्वलन कषायानके स्पर्धकोंकी जो बादर कृष्टियें; उनमे से प्रत्येक कृष्टि रूप स्थूलखंडका अनन्त गुणा घटता अनुभाग करि सूक्ष्म सूक्ष्म खण्ड करिये जो सूक्ष्म कृष्टिकरण है । स.सा./२६२-२६६ भाषा अनिवृत्तिकरण के सोमकी प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदन कालमें उसकी द्वितीय व तृतीय संग्रहकृष्टिसे द्रव्यको अपकर्षण करि लोभको नवीन सूक्ष्मकृष्टि करे है. जिसका अवस्थान सोमकी तृतीय बादर संग्रह कृष्टिके नीचे है। सो इसका अनुभाग उस बादर कृष्टि से अनन्तगुणा घटता है । और जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त अनन्तगुणा अनुभाग लिये है । अ. खा / ६६६-३०१ /भाषा उहाँ ही द्वितीयादि समयभिये अपूर्व सूक्ष्म कृष्टियों की रचना करता है। प्रति समय सूक्ष्मकृष्टिको दिया गया द्रव्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण असंख्यात गुणा है । तदनन्तर इन नवीन रचित कृष्टियों में अपकृष्ट द्रव्य देने करि यथायोग्य घट-बढ़ करके उसकी विशेष हानिक्रम रूप एक गोपुच्छा बनाता है। इ.स २०० भाषा अनिवृतिकरण कासके अन्तिम समयमे लोक तृतीय कृष्टिका तो सारा यक्ष्मष्ट रूप परिणम चुका है और द्वितीय संग्रहकृष्टिमें केवल समय अधिक उच्छिष्टावली मात्र निषेक शेष है । अन्य सर्व द्रव्य सूक्ष्मकृष्टि रूप परिणमा है। .सा./५८२ / भाषा-अनिवृत्तिकरणका अन्त समयके अनन्तर सूक्ष्मकृष्टिको वेदता हुआ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानको प्राप्त होता है। यहाँ सूक्ष्म कृष्टि विप्रा मोहके सर्व द्रव्यका अपकर्षण कर गुणश्रेणी करें है। क्ष.सा./५६७ / भाषा - मोहका अन्तिम काण्डकका घात हो जानेके पश्चाद जो मोहकी स्थितिविशेष रही, ता प्रमाण ही अब सूक्ष्मसाम्परायका काल भी शेष रहा, क्योकि एक एक निषेकको अनुभवता हुआ उनका अन्त करता है । इस प्रकार सूक्ष्म साम्परायके अन्त समयको प्राप्त होता है। डा.सा./२१८- ६०० / भाषा यहाँ आकर सर्व कमका अक्षम्य स्थितिमन्ध होता है। तोन बाटियाका स्थिति सफल अन्तर्मुहूर्त मात्र रहा है। मोहक स्थिति सत्त्वक्षयके सम्मुख है। अघातियाका स्थिति सत्त्व असंख्यात वर्ष मात्र है । याके अनन्तर क्षीणकषाय गुणस्थानमें प्रवेश बरे है। १९. साम्प्रतिक कृष्टि .सा./६९६ / भाषा-साम्प्रतिक कहिए वर्तमान उत्तर समय सम्बन्धी अन्तको केवल उदयरूप उत्कृष्ट कृष्टि हो है । २०. जघन्योत्कृष्ट कृष्टि .सा./११ / भाषा की सर्व स्तोक अनुभाग लिये प्रथम कृष्टि सो यष्टिकहिये ते अधिक अनुभाग लिये जन्कृष्टि सो उत्कृष्ट कृष्टि हो है। 1 | कृष्ण ह.पू./वर्ग/ श्लोक "पूर्वके चौथे भगने अमृतरसायन नामक मांस पाचक थे (३३/९५१) फिरतोस भन लोसरे नरकमे गये (२३/ १५४) वहाँ आकर यक्षत्तिक नामक वैश्य पुत्र हुए (३३ / १५८) फिर पूर्व के भने निर्नामिक राजपुत्र हुए ( २२ / ९४४) वर्तमान भवमें सुदेव के पुत्र थे (३५/१६) । नन्दगोपके घर पालन हुआ (३५/२८) । कंसके द्वारा छल से बुलाया जाने पर ( ३५/७५ ) इन्होने मल्लयुद्ध में कंस को मार दिया ( ४१/१८) । रुक्मिणीका हरण किया (४२ / ७४ ) तथा अन्य अनेकों कन्याएँ विवाह कर (४४ सर्ग) अनेकों पुत्रोंको जन्म दिया ( ४८ /६६) महाभारत के युद्धने पाण्डवोंका पक्ष लिया तथा जरासंधको मार कर (२२/०३) नव में नारायण के रूपमें प्रसिद्ध हुए (२२/१७) अन्तमे भगवाद नेमिनाथकी भविष्यवाणीके अनुसार ( ५५/ १२) द्वारकाका विनाश हुआ (६१/४८ ) और ये उत्तम भावनाओंका चिन्तन करते, जरत्कुमारके तीरसे मरकर नरकमें गये (६२/२३) विशेष दे० ताकापुरुष भावि चोमोसोमें निर्मल नामके सोलहवें तीर्थकर होंगे। दे० कर कृष्ण गंगा - ज. प . / प्र. १४१ A. N. up & H L यह हरमुकुटं पर्वतकी प्रसिद्ध गगाल झीलसे निकलती है। कश्मीर में बहती है। इसे आज भी वहाँ के लोग गंगाका उद्गम मानते हैं । इस गंगाके रेतमें सोना भी पाया जाता है, इसी लिए इसका नाम गांगेय है। इस नदीका नाम जम्बू भी है। जम्बू नदोसे निकलनेके कारण सोनेको जम्बूनद कहा जाता है । केतुमाल कृष्णदास - म.पु. / प्र. २० पं० पन्नालाल - आप ब्रह्मचारी थे। कृतिमुनिसुव्रत नाथ पुराण, विमल पुराण । समय-वि. १६०४ ई० १६१७ | ग्रथ का रचना काल वि० १६८९ (तो. /४/१८४) । कृष्णपंचमी व्रत १४३ बर्द्धमान पुराण/१ कुल समय = ५ वर्ष; उपवास ५ । व्रतविधान संग्रह / १०९ विधि - पाँच वर्ष तक प्रतिवर्ष ज्येष्ठ कृष्णा ५ को उपवास करे । जाप्य - नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप । कृष्णमति - भूतकालीन बीसवें तीर्थंकर – दे० तीर्थंकर / ५ | कृष्णराज — १, ह.पु./६६/५२-५३; (ह. पु. / प्र.५ पं० पन्नालाल ) (स्याद्वाद सिद्धि / प्र./२५ पं० दरबारी लाल ) दक्षिण लाट देशके राजा श्रीवल्लभके पिता थे । आपका नाम कृष्णराज प्रथम था। आपके दो पुत्र थे- श्रीवल्लभ और धवराज । आपका राज्य लाट देशमें था तथा शत्रु भयंकरकी उपाधि प्राप्त थी। बड़े पराक्रमी थे। आचार्य पुष्यसेनके समकालीन थे। गोविन्द प्रथम आपका दूसरा नाम था । समय ०६४ १०७५६-७७२ आता है। विशेष दे० इतिहास ३/४ १२. कृष्णराज प्रथमके पुत्र ध वराजके राज्य पर आसीन होनेके कारण राजा अकालवर्षका ही नाम कृष्णराज द्वितीय था (दे० अकालवर्ष) विशेष इतिहास / ३ / ४ २. यज्ञस्तिलक / प्र. २० पं० शुन्दर लाल - राष्ट्रकूट देशका राठौर वंशी राजा था। कृष्णराज द्वि० (अकालवर्ष) का पुत्र था । इसलिए यह कृष्णराज तृतीय कहलाया । अकालवर्ष तृतीयको हो अमोघवर्ष तृतीय भी कहते हैं । ( विशेष दे० इतिहास / २/४) यशस्तिलक चम्पूके कर्ता सोमदेन सुरिके समकालीन थे। समय- भ० १००२-१०२१ ( ई० १४५-६०२) अकालवर्ष के अनुसार (ई० ११२-१७२ ) जाना चाहिए। कृष्णलेश्या -- दे० लेश्या । कृष्णवर्मा - समय १४०२३०४६६) (द. सा. प्र.३८ प्रेमीजी) ( Royal Asiatic Society Bombay Journal Vol. 12 के आधार पर ) कृष्ण वर्मा - आर्यखण्डकी एक नदी – ३० मनुष्य ४ ॥ केंद्रवर्ती वृत - Inital Circle, Central Core (ध./पु. ५/प्र २७ ) केकय१ पंजाब प्रान्तकी वितस्ता ( जेहलुम) और चन्द्रभागा ( चिनाब ) नदियोका अन्तरालवर्ती प्रदेश। इसकी राजधानी गिरिवज्ज ( जलालपुर ) थी । ( म. पु/प्र.५० पं० पन्नालाल ); २. भरत क्षेत्र आर्यखण्डका एक देश । अपरनाम कैकेय था । - दे० मनुष्य / ४ । केकयी - १. पु. / सर्ग / श्लोक- शुभमति राजाकी पुत्री ( २४/४ ) राजा दशरथकी शमी (२४/१२) व भरतकी माता थी (२५/२५) पुत्र के वियोगसे दुखित होकर दीक्षा ग्रहण कर ली ( ८६ / २४ ) । केतवा - भरत क्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी - दे० मनुष्य ४ ॥ केतु एक ग्रह दे० ग्रह । केतुभद्रवंशी था। कलिंग देशका राजा था। कलिंग राजका संस्थापक था । महाभारत युद्धमें इसने बड़ा पराक्रम दिखाया था । समय ई० पू० १४६० (खारयेलकी हाथी गुफाका शिलालेख उड़ीसा 1 ) --- - केतुमति -प.पु./१५/६-८ हनुमानकी दादी थी। केतुमाल - १. विजयार्थी उत्तर श्रेणीका एक नगर ० घर । २. बैक्ट्रिया और एरियाना प्रदेश ही चतु द्वीपी भूगोलका केतुमाल द्वीप है। (ज.प./प्र. १४० A.N. up. & H.L. ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केरल केरल - १. कृष्णा और तुङ्गभद्राके दक्षिण में विद्यमान भूभाग, जो आजकल मद्रासके अन्तर्गत है । पाण्ड्रय केरल और सतीपुत्र नामसे प्रसिद्ध है ।२. मध्य हा एक देश दे० मनुष्य /४ । केवल मो.पा./टी./६/३०२/११ केवलोऽसहाय केवलज्ञानमयो वा के परनिनिकस्वभावे आत्मनि मलमनन्तवीर्यं यस्य स भवति केवलः, अथवा केवले सेवते निजामनि एक्लोसीभावेन तिष्ठतीति केवल 1 == केवलका अर्थ असहाय या केवलज्ञानमय है । अथवा 'क' का अर्थ परब्रह्म या शुद्ध बुद्धरूप एक स्वभाववाला आत्मा है उसमें है बल अर्थात् अनन्तवीर्य जिसके । अथवा जो केवते अर्थात् सेवन करता है-- अपनी आत्मामे एकलोलीभावसे रहता है वह केवल है। केवलज्ञान जीवन्मुक्त योगियोंका एक निर्विकल्प अतीन्द्रिय अतिशय ज्ञान है जो बिना इच्छा व बुद्धिके प्रयोग के सर्वाग सर्वकाल व क्षेत्र सम्बन्धी सर्व पदार्थोंको हस्तामलकवत टंकोत्कीर्ण प्रत्यक्ष देखता है। इसीके कारण वह योगी सर्वज्ञ कहाते है। स्व व पर ग्राही होनेके कारण इसमें भी ज्ञानका सामान्य लक्षण घटित होता है । यह ज्ञानका स्वाभाविक व शुद्ध परिणमन है । * 9 १ २ * ३ केवलज्ञान एक ही प्रकारका है। केवलवान गुण नहीं पर्याय है। ५ ६ * * - * केवलज्ञान निर्देश केवलज्ञानका व्युत्पत्ति अर्थ । केलान निरपेक्ष व असहाय है। केवलज्ञान विकल्पका कथंचित् सद्भाव दे० वि केवलज्ञान भी ज्ञान सामान्यका अंश है । -दे० ज्ञान / I/४/१-२ यह मोह व ज्ञानावरणीयके क्षयसे उत्पन्न होता है । केवलज्ञान निर्देशका मतार्थ 1 केबलज्ञान कथंचित् परिणामी है । - दे० केवलज्ञान/५/३ वानमें शुद्ध परिणमन होता है। दे०] परिणमन यह शुद्धात्मोंमें ही उत्पन्न होता है । - दे० केवलज्ञान / 2/4 सभी मार्गणास्थानों में आयके अनुसार ही व्यय । - दे० मार्गणा । तीसरे व चौबे कालमें ही होना संभव है। -३० मोक्ष/४/३। लहान विषयक गुणस्थान, मार्गणास्थान, व जीवसमास आदिके स्वामित्व विषयक २० प्ररूपणा ३० स केवलज्ञान विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व - दे० वह वह नाम । केवलज्ञान निसर्गज नहीं होता - दे० अधिगम / १० केवलज्ञानकी विचित्रता सर्वको जानता हुआ भी व्याकुल नहीं होता । २ १ २ सर्वांगसे जानता है। ४ ५ ५ ६. केवलज्ञानकी सर्वग्राहकता सब कुछ जानता है । २ समस्त लोकालोकको जानता है। ३ सम्पूर्ण द्रव्य क्षेत्र काल भात्रको जानता है । सर्व द्रव्यों व उनकी पर्यायोंको जानता है। त्रिकाली पर्यायोंको जानता है। ४ सद्भूत व असद्भूत सब पर्यायोंको जानता है । अनन्त व असंख्यातको जानता है - दे० अनन्त / २/४.५ ७ प्रयोजनभूत व अप्रयोजनभूत सबको जानता है । इससे भी अनंतगुणा जाननेको समर्थ है। इसे समर्थ न माने सो अज्ञानी है। केवलज्ञान ज्ञानसामान्यके बराबर है । ८ - दे० ज्ञान / I / ४ | २ ३ ८ ९ प्रतिविम्वत् जानता है। टकोत्कीर्णनद जानता है । केवलज्ञानकी सिद्धिमें हेतु १ यदि सर्वको न जाने तो एकको भी नहीं जान सकता। यदि त्रिकालको न जाने तो इसकी दिव्यता ही क्या। अपरिमित विषय ही तो इसका माहात्म्य है। सर्वशत्वका अभाववादी क्या स्वयं सर्वज्ञ है ? बाधक प्रमाणका अभाव होनेसे सर्वशत्व सिद्ध है। अतिशय पूज्य होनेसे सर्वशत्व सिद्ध है। केवलज्ञानका अश सर्वप्रत्यक्ष होनेसे यह सिद्ध है । मति आदि ज्ञान के अंश है। १ अक्रमरूपसे युगपत् एकक्षणमें जानता है। तात्कालिक जानता है। सर्वयोको पृथक् पृथक् जानता है। ३ केवलज्ञान - दे० ज्ञान / /४ । सर्वपल सिद्ध है। सूक्ष्मादि पदार्थ प्रमेव होनेसे कर्मों व दोषोंका अभाव होनेसे सर्वशत्व सिद्ध है । कर्मों का अभाव सम्भव है। ० मो रागादि दोषोंका अभाव सम्भव है। दे० राग / ५ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश केवलज्ञान विषयक शंका समाधान केवलज्ञान असहाय कैसे है ? विनष्ट व अनुत्पन्न पदार्थों का ज्ञान कैसे सम्भव है ? अपरिणामी केवलज्ञान परिणामी पदार्थोंको कैसे जान सकता है ? अनादि व अनन्त ज्ञानगम्य कैसे हो ? दे० अनंत/२ । केवलज्ञानीको प्रश्न सुननेकी क्या आवश्यकता ? केवलज्ञानको प्रत्यक्षता सम्बन्धी शकाऍ - दे० प्रत्यक्ष । सर्ववके साथ वक्तृत्वका विरोध नहीं है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान २. केवलज्ञानकी विचित्रता अर्हन्तोंको ही क्यों हो, अन्यको क्यों नहीं। सर्वज्ञत्व जाननेका प्रयोजन । अपेक्षासे रहित है। अथबा केवलज्ञान आत्मा और अर्थसे अतिरिक्त किसी इन्द्रियादिक सहायककी अपेक्षासे रहित है, इसलिए भी वह केवल अर्थात् असहाय है । इस प्रकार केवल अर्थात् असहाय जो ज्ञान है उसे केवलज्ञान कहते हैं। ३. केवलज्ञान एक ही प्रकारका है ध. १२/४,२,१४,५/४८०/७ केवलणाणमेयविधं, कम्मक्खएण उप्पज्जमाणत्तादो। केवलज्ञान एक प्रकारका है, क्योंकि, वह कर्म क्षयसे उत्पन्न होनेवाला है। केवलज्ञानका स्वपरप्रकाशकपना निश्चयसे स्वको और व्यवहारसे परको जानता है। निश्चयसे परको न जाननेका तात्पर्य उपयोगका परके । साथ तन्मय न होना है। आत्मा शेयके साथ नहीं पर शेयाकारके साथ तन्मय होता है। आत्मा शेयरूप नहीं पर शेयाकाररूपसे अवश्य परिणमन करता है। ज्ञानाकार व शेयाकारका अर्थ । वास्तवमें शेयाकारोंसे प्रतिबिम्बित निज आत्माको देखते हैं। शेयाकारमें शेयका उपचार करके शेयको जाना कहा जाता है। छद्मस्थ भी निश्चयसे स्वको और व्यवहारसे परको जानते है। केवलज्ञानके स्वपरप्रकाशकपनेका समन्वय । ज्ञान और दर्शन स्वभावी आत्मा ही वास्तवमें स्वपर | प्रकाशी है। -दे० दर्शन/२/६ । । | * | यदि एकको नहीं जानता तो सर्वको भी नहीं जानता -दे० श्रुतकेवलो ४. केवलज्ञान गुण नहीं पर्याय है ध.६/१,९-१,१७/३४/३ पर्यायस्य केवलज्ञानस्य पर्यायाभावतः सामर्थ्यद्वयाभावात् ।- केवलज्ञान स्वयं पर्याय है और पर्यायके दूसरी पर्याय हातो नहीं है। इसलिए केवलज्ञानके स्व व पर को जाननेवाली दो शक्तियोंका अभाव है। ध ७/२,१,४६/८८/११ ण पारिणामिएण भावेण होदि, सब्जीवाणं केवलणाणुप्पत्तिप्पसंगादो।प्रश्न-जीव केवलज्ञानी कैसे होता है। ( सूत्र ४६) । उत्तर-पारिणामिक भावसे तो होता नही है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो सभी जीवोंके केवलज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग आ जाता। ५. यह मोह व ज्ञानावरणीयके क्षयसे उत्पन्न होता है त. सू./१०/१ मोहमयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । = मोह का क्षय होनेसे तथा ज्ञानावरण दर्शनावरण व अन्तराय कर्मका क्षय होनेसे केवलज्ञान प्रगट होता है। ६. केवलज्ञानका मतार्थ ध.६/१,६-६,२१६/४६०/४ केवलज्ञाने समुत्पन्नेऽपि सर्व न जानातीति कपिलो व्रते। तत्र तन्निराकरणार्थ बुद्धयन्त इत्युच्यते। कपिलका कहना है कि केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर भी सब वस्तुस्वरूपका ज्ञान नहीं होता। किन्तु ऐसा नहीं है, अतः इसोका निराकरण करनेके लिए 'बुद्ध होते है' यह पद कहा गया है। प.प्र/टो./१/१/७/१ मुक्तात्मनां सुप्तावस्थाबद्दहि यविषये परिज्ञानं नास्तीति सारख्या वदन्ति, तन्मतानुसारि शिष्यं प्रति जगत्त्रयकालत्रयवतिसर्व पदार्थयुगपत्परिच्छित्तिरूपकेवलज्ञानस्थापनार्थ ज्ञानमयविशेषणं कृतमिति । - 'मुक्तात्माओंके सुप्तावस्थाकी भॉति बाह्य ज्ञेय विषयोका परिज्ञान नहीं होता' ऐसा सांख्य लोग कहते हैं। उनके मतानुसारो शिष्यके प्रति जगतत्रय कालत्रयवर्ती सर्वपदार्थोंको युगपद जाननेवाले केवलज्ञानके स्थापनार्थ 'ज्ञानमय'यह विशेषण दिया है। १. केवलज्ञान निर्देश .. केवलज्ञानका व्युत्पत्ति अर्थ स. सि /९/8/१४/६ बाह्येनाभ्यन्तरेण च तपसा यदर्थमर्थिनो मार्ग केवन्ते सेवन्ते तत्केवलम् = अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और अभ्यन्तर तपके द्वारा मार्गका केवन अर्थात् सेवन करते हैं वह केवलज्ञान कहलाता है। (रा. वा./१/४/६/४४-४५) (श्लो. वा ३/१/६/८/५) २. केवलज्ञान निरपेक्ष व असहाय है स.सि./९/8/8४/७ असहायमिति वा । केवल शब्द असहायवाची है, इसलिए असहाय ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं। मो. पा./टो.६/ ३०८/१३ (श्लो. वा/३/१/8/८/५) ध.६/१,६-१,१४/२६/५ केवलमसहायमिदियालोयणिरवेक्रवं तिकालगोयराण तपज्जायसमवेदाणं तवत्थुपरिमसंकड़ियमसबत्तं केवलणाणं । केवल असहायको कहते है। जो ज्ञान असहाय अर्थात् इन्द्रिय और आलोकको अपेक्षा रहित है, त्रिकालगोचर अनन्तपर्यायोंसे समवायसम्बन्धको प्राप्त अनन्त वस्तुओंको जाननेवाला है, असंकुटित, अर्थात सर्व व्यापक है और असपत्न अर्थात प्रतिपक्षी रहित है उसे केवलज्ञान कहते हैं । (ध. १३/५,५,२१/२१३/४ ) क. पा./१/१,१/१/२१,२३ केवलमसहायं इन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षस्वात् ।। -आत्मार्थव्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवलमसहायम् । केवलं च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानम्।असहाय ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार अर्थात् मनोव्यापारको २. केवलज्ञानको विचित्रता १. सर्वको जानता हुआ भी व्याकुल नहीं होता ध/१३/५,४,२६/८६/५ केवलिस्स विसईकयासेसदव्यपज्जायस्स सगसम्बद्धाए एगरूवस्स अणिदियस्स।केवली जिन अशेष द्रव्य पर्यायों. को विषय करते है, अपने सब काल में एकरूप रहते हैं और इन्द्रियज्ञानसे रहित है। प्र सा./त प्र/३२ युगपदेव सर्वार्थसार्थसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात संभावितग्रहणमोक्षणक्रियाविराम' प्रथममेव समस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतत्वात् पुनः परमाकारान्तरमपरिणममानः समन्ततोऽपि विश्वमशेषं पश्यति जानाति च एवमस्यात्यन्तविविक्तत्वमेव । एक साथ ही सर्व पदार्थोके समूहका साक्षात्कार करनेसे, ज्ञप्ति परिवर्तनका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-१९ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान अभाव होनेसे समस्त परिछेद्य आकारोंरूप परिणत होनेके कारण जिसके ग्रहण त्याग कियाका अभाव हो गया है, फिर पररूपसे-आकारान्तररूप नहीं परिणमित होता हुआ सर्व प्रकार से अशेष विश्वको ( मात्र) देखता जानता है। इस प्रकार उस आत्माका (ज्ञेयपदार्थोंसे ही है। प्रा. 1 ६० केवलस्यापि परिणामद्वारेण वेदस्य संभवादकान्तिकसुखत्वं नास्तीति प्रत्याचष्टे । (उत्थानिका ) । यतश्च त्रिसमयामनिपदार्थ परिकार खानास्पद चित्रभित्तिस्थानीयमनन्तस्वरूप स्वमेव परिणमत्वमेव परिणाम ततो कुतोऽन्य' परिणामो यद् द्वारेण खेदस्यात्मलाभ । प्रश्न- केवलज्ञानको भी परिणाम (परिणमन) के द्वारा वेदका सम्भव है, इसलिए केवलज्ञान एकान्तिक सुख नहीं है। उत्तर-तीन कालरूप तोन भेद जिसमें किये जाते हैं ऐमे समस्त पदार्थोंकी ज्ञेयाकाररूप विविधताको प्रकाशित करनेका स्थानभूत केवलज्ञान चित्रित दोवारकी भाँति स्वयं ही अनन्तस्वरूप परिणमत होता है, इसलिए केवलज्ञान (स्वयं) ही परिणमन है । अन्य परिणमन कहाँ है कि जिससे खेदकी उत्पत्ति हो । नि. सा./ता.वृ./१७२ विश्वमश्रान्तं जानन्नपि पश्यन्नपि वा मनःप्रवृत्तेभावादपूर्वकं वर्तनं न भवति तस्य विश्वको निर न्तर जानते हुए और देखते हुए भी केवलीको मन प्रवृत्तिका अभाव होनेसे इच्छा पूर्वक वर्तन नहीं होता । स्वा.म./६/४८/२ अथ युष्मत्पक्षेऽपि यदा ज्ञानात्मा सर्व जगत्त्रयं व्याप्नोतीत्युच्यते तदाशुचिरसास्वादादीनामप्युपालम्भसंभावनात नरकादिदु-स्वस्वरूपसंवेदनात्मकतया दुःखानुभवप्रसंगाचच अनिष्टापत्तिवेति चेत् तदुपपतभि प्रतिकर्तुमशक्तस्य टिभिरिवाकरणम्। यतो ज्ञानमप्राप्यकारि स्वस्थानस्थमेव विषयं परिच्छिनत्ति न पुनस्तत्र गत्वा तत्कुतो भवदुपालम्भ समोचोन' । प्रश्न- ज्ञानकी अपेक्षा जिनभगवानको जगत्त्रयमें व्यापी माननेसे आप जैन लोगोंके भगवान्को भी ( शरीरव्यापी भगवान्वद ) अशुचि पदार्थोंके रसास्वादनका ज्ञान होता है तथा नरक आदि दु.खोके स्वरूपका ज्ञान होनेसे दुःखका भी अनुभव होता है, इसलिए अनिष्टापत्ति दोनोंके समान है । उत्तर - यह कहना असमर्थ होकर धूल फेंकने के समान है। क्योंकि हम ज्ञानको कार मानते है अर्थात् ज्ञान आत्मामें स्थित होकर ही पदार्थों को जानता है, शेयपदार्थोंके पास जाकर नहीं। इसलिए आपका दिया हुआ दूषण ठोक नही है । २. केवलज्ञान सर्वांगसे जानता है। ध. १/१,१,१/२७/४८ सव्वावयवेहि दिदुसव्वट्टा । जिन्होंने सर्वांग सर्व पदार्थोंको जान लिया है ( वे सिद्ध है ) । क. पा. १/१,९/६४६/६५/२. ण चेगावयवेण चैव गेहदि; सयलावयवगयआवरणस्स णिसिंगारोव ग्रहणविरोहादो दो पत्तमपत्तं च अक्कमेण सयलावयवेहि जाणदि त्ति सिद्ध' । = यदि कहा जाय कि केवली आत्मा एक पदार्थोंका ग्रहण करता है. सो भो कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आमाके सभी प्रदेशों में विद्यमान आवरणकर्म के निर्मूल विनाश हो जानेपर केवल उसके एक अवयव से पदार्थोंका ग्रहण माननेमें विरोध आता है। इसलिए प्राप्त और अप्राप्त सभी पदार्थोंको युगपट्ट अपने सभी अयमोसे केवली जानता है, यह सिद्ध हो जाता है । मात् प्र. सा./त.प्र./४० सर्वतो विशुद्धस्य प्रतिनियतदेशविशुद्धेरन्त समन्ततोऽपि प्रकाशते । = (क्षायिक ज्ञान) सर्वत विशुद्ध होनेके कारण प्रतिनियत प्रदेशोंकी विशुद्धि ( सर्वतः विशुद्धि) के भीतर म जानेसेब सर्वतः सर्वात्मप्रदेशों से भी) प्रकाशित करता है (प्र.सा./ त. प्र. / २२ ) । १४६ २. केवलज्ञान प्रतिविम्ववत् जानता है ..जो अन्य जागिण जगु जागिर हवेश अप्पहँ करे‍ rass fife जेण वसेइ || = अपने आत्मा के जाननेसे यह तीन लोक जाना जाता है, क्योंकि आत्मा के भावरूप केवलज्ञानमें यह लोक प्रतिबिम्बित हुआ बस रहा है। [...] प्र. सा./त प्र /२०० अथैकस्य ज्ञायकभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वाद ... प्रतिबिम्बवत्तत्र.. समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एव प्रत्यक्ष्यन्तं .. एक ज्ञायकभावका समस्त ज्ञेयोंको जाननेका स्वभाव होनेसे, समस्त द्रव्यमात्रको, मानों वे द्रव्य प्रतिबिम्बवत् हुए हों, इस प्रकार एक क्षण में ही जो प्रत्यक्ष करता है। २. केवलज्ञानको विचित्रता ४. केवलज्ञान कोरकीर्णवत् जानता है प्र सात परिच्छेद प्रति नियतस्त्राव ज्ञानप्रक्षतामनुभवन्त शिलास्तम्भोत्कीर्ण [भूतभाविदेव प्रकम्पातिस्वरूपा । ज्ञानके प्रति नियत होनेसे (सर्व पर्यायें ज्ञानप्रत्यक्ष वर्तती हुई पाषाणस्तम्भमें उत्कीर्ण भूत और भावि देवोंकी भाँति अपने स्वरूपको अकम्पतया अर्पित करती है। प्र. सा./त. २०० खकस्यायस्वभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावया प्रकीर्णलिनिखातकीलितमज्जिमानतित समस्तमषि द्रव्यजातमेकक्षण एव प्रत्यक्ष्यन्तं । - एक ज्ञायकभावका समस्त योंको जानने का स्वभाव होनेसे, समस्त द्रव्यमात्रको, मानो वे द्रव्य हायक उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हो, कीलित हो गये हों डूब गये हों, समा गये हों, इस प्रकार एक क्षण में ही जो प्रत्यक्ष करता है । प्र. सा./त. प्र. / ३७ चित्रपटस्थानीयवाद संविद यथा हि चित्रपट यामतिवाहितानामनुपस्थितानां वर्तमानानां च वस्तूनामालेस्याकारा साक्षादेकक्षण एवावभासन्ते तथा संविद्भितावपि। ज्ञान चित्रपटके समान है। जैसे चित्रपटमें अतीत अनागत और वर्तमान वस्तुओं आलेल्याकार साला एक समयमे भासित होते है । उसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्तिमे भी भासित होते है । ५. केवलज्ञान अक्रम रूपसे जानता है। ष. वं. १३/५५/ सू. ८२ / ३४६ सव्वजोवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदिति ८२ - केवलज्ञान) सम जीवों और सर्व भावको सम्यक प्रकारसे युगप जानते हैं, देखते हैं और बिहार करते है। (प्र.सा./मू./४७); (बो. सा. अ./२६) (प्र.सा./त.प्र./ ५२/४) (प्र.सा./त.प्र./३२.२१) (.६/४.२.४५/२०/९४२) भ. जा././२१४२ भावे सगसिया सुरो युगवं जहा पयासे तहान केला पारीदि जैसे सूर्य अपने प्रकाशमें जितने पदार्थ समाविष्ट होते है उन सबको युगपदप्रकाशित करता है, वे सिद्ध परमेशीका ज्ञान सम्पूर्ण ज्ञेयोको युगपत् जानता है। (प. प्र./टी./१/६/७/३ ); (पं.का./ता. [./२२४/९०) (प्र.सं./टी./१४/४/० सहस्री / निर्णय सागर बम्बई / पृ. ४६. न खलु स्वभावस्य कश्चिदगोचरोऽस्ति । यन्न क्रमेत तत्स्वभावान्तरप्रतिषेधात 'ज्ञ' स्वभावको कुछ भी अगोचर नहीं है, क्योंकि वह क्रमसे नहीं जानता, तथा इससे अन्य प्रकारके स्वभावका उसमे निषेध है । प्र.सा/मू. व. त प्र / २१ सो व ते विजानदि उग्गहपुव्बाहि किरियाहि । २१ । ततोऽस्याक्रमसमाक्रान्त · सर्व द्रव्यपर्याया प्रत्यक्षा एव भवन्ति । = वे उन्हें अवग्रहादि क्रियाओंसे नही जानते ।... अतः अक्रमिक ग्रहण होनेसे तमक्ष सवेदनको आलम्बनभूत समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान १४७ ३. केवलज्ञानकी सर्वग्राहकता प्र. सा./त.प्र./३७ यथा हि चित्रपटयाम.. वस्तूनामालेख्याकाराः साक्षादेकक्षण एवावभासन्ते तथा संविद्भित्तावपि ।। जैसे चित्रपटमें वस्तुओंके आलेख्याकार साक्षात एक क्षणमें ही भासित होते हैं, इसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्तिमें भी जानना । (ध ७/२.१,४६/६/६), (द्र.सं./टी/५१/२१६/१३), (नि.सा./ता.व./४३) । ६. केवलज्ञान तात्कालिकवत् जानता है प्र.सा./मू./३७ तत्कालिगेव सव्वे सदसम्भूदा हि पज्जया तासि । बट्टन्ते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं ।३७) =उन द्रव्य जातियों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्याये तात्कालिक पर्यायोंकी भॉति विशिष्टता पूर्वक ज्ञान में वर्तती हैं। (प्र.सा./मू.४७) ७. केवलज्ञान सर्व ज्ञेयोंको पृथक्-पृथक् जानता है प्र. सा./मु./३७ बट्टते ते णाणे विसेसदो दध्वजादीण ।३७१ -द्रव्य जातियोंकी सर्व पर्यायें ज्ञानमें विशिष्टता पूर्वक वर्तती है। प्र.सा./त.प्र./१२/क४ ज्ञेयाकारां त्रिलोकी पृथगपृथगथ द्योतयत् ज्ञानमूर्ति 18 - ज्ञे याकारोंको (मानो पी गया है इस प्रकार समस्त पदार्थोंको) पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है। ३. केवलज्ञानकी सर्वग्राहकता १. केवलज्ञान सब कुछ जानता है प्र.सा./मू/४७ सव्व अत्यं विचित्त विसमं तं गाणं खाइयं भणियं।" -विचित्र और विषम समस्त पदार्थोंको जानता है उस ज्ञानको क्षायिक कहा है। नि. सा./म./१६७ मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सग च सव्वं च । पेच्छ तस्स दुणाणं पच्छवावमाणिदियं होइ १६७४ - मूर्त-अमूर्त, चेतनअचेतन, द्रव्योंको, स्वको तथा समस्तको देखनेवालेका ज्ञान अतीन्द्रिय है, प्रत्यक्ष है । (प्र.सा./मू /५४); (आप्त. प./३९/१२६/१०१/६); स्व. स्तो./मू./१०६ "यस्य महर्षेः सकलपदार्थ-प्रत्यवबोधः समजनि साक्षात् । सामरमत्यं जगदपि सर्व प्राञ्जलि भूत्वा प्रणिपतति स्म ।" -जिन महर्षिके सकल पदार्थोंका प्रत्यवबोध साक्षात रूपसे उत्पन्न हुआ है, उन्हे देव मनुष्य सब हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं । (पं. सं.१/१२६ ); (ध.१०/४,२,४,१०७/३१६/५)। क.पा.१/१,१/६४६/६४/४ तम्हा णिरावरणो केवली भूदं भव्वं भवतं सुहम ववहियं विप्पइट्ठच सव्वं जाणदि त्ति सिद्धा- इसलिए निरावरण केवली.. सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट सभी पदार्थोंको जानते हैं। घ.१/१,१,१/४५/३ स्वस्थिताशेषप्रमेयत्वतः प्राप्तविश्वरूपाः। -अपनेमें ही सम्पूर्ण प्रमेय रहनेके कारण जिसने विश्वरूपताको प्राप्त कर लिया है। ध.७/२,१,४६/६/१० तदणवगत्थाभावादो। = क्योंकि, केवलज्ञानसे न जाना गया हो ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है। पं.का/मू.४३की प्रक्षेपक गाथा नं.५ तथा उसकी ता. वृ.टी/८७/६ णाणं यणिमित्तं केवलणाणं ण होदि मुदणाणं। णेयं केवलणाणं णाणागाणं च णत्थि केबलिणो।५।--न केवले तज्ञानं नास्ति केवलिना शानाज्ञानं च नास्ति क्वापि विषये ज्ञान क्वापि विषये पुनरज्ञानमेव न किन्तु सर्वत्र ज्ञानमेव । - ज्ञेयके निमित्तसे उत्पन्न नहीं होता इसलिए केवलज्ञानको श्रुतज्ञान नहीं कह सकते। और न ही शानाज्ञान कह सकते है। किसी विषयमें तो ज्ञान हो और किसी विषयमें अज्ञान हो ऐसा नहीं, किन्तु सर्वत्र ज्ञान ही है। २. केवलज्ञान समस्त लोकालोकको जानता है भ.आ./मू./२१४१ पस्सदि जाणदि य तहा तिण्णि वि काले सपज्जए सवे। तह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो। -वे (सिद्ध परमेष्ठी) सम्पूर्ण द्रव्यों व उनकी पर्यायोंसे भरे हुए सम्पूर्ण जगत्को तीनों कालोंमें जानते हैं। तो भी वे मोहरहित ही रहते है। प्र.सा./मू /२३ आदा णाणपमाणं गाणं णेयप्पमाणमुट्ठि। णेयं लोया लोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।२३। -आत्मा ज्ञानप्रमाण है, ज्ञानज्ञेयप्रमाण है, ज्ञेय लोकालोक है, इसलिए ज्ञान सर्वगत है। (ध.१/ १,१,१३६/१६८/३८६); (नि.सा./ता.व./१६१/क.२७७)। पं.स./प्रा /१/१२६ संपुण्णं तु समग्गं केवलमसपत्त सव्वभावगयं । लोया लोय वितिमिरं केवलणाण मुणेयव्वा ।१२६। -जो सम्पूर्ण है, समग्र है, असहाय है, सर्वभावगत है, लोक और अलोकोंमें अज्ञानरूप तिमिरसे रहित है, अर्थात् सर्व व्यापक व सर्वज्ञायक है, उसे केवलज्ञान जानो। (घ. १/१,१,११६/ १८६/३६०); (गो. जी./मू./४६०/८७२)। द्र.सं./मू./५१ णट्ठट्टकामदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा । - नष्ट हो गयी है अष्टकर्मरूपी देह जिसके तथा जो लोकालोकको जानने देखनेवाला है ( वह सिद्ध है ) (द्र.सं./टी./१४/४२/७ ] गया हैअष्टक प. प्र./टी /88/१४/८ केवलज्ञाने जाते सति . सर्व लोकालोकस्वरूपं विज्ञायते। केवलज्ञान हो जाने पर सर्व लोकालोकका स्वरूप जानने में आ जाता है। ३. केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रव्य क्षेत्र काल मावको जानता है ष. रवं.१३/५,५/सू. ८२/३४६ सई भयवं उप्पण्णणणदरिसी सदेवासुरमाणुसस्स लोगस्स अगदि गदि चयणोववाद बंध मोक्रवं इड्ढि हिदि जुदि अणुभागं तक' कलं माणो माणसियं भुत्तं कद' पडिसे विदं आदिकम्म अरहकम्म सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्म समं जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति ।। -स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शनसे युक्त भगवान् देवलोक और असुरलोकके साथ मनुष्यलोककी अगति, गति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तक, क्ल, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरह कर्म, सब लोकों, सब जीवों और मब भावोंको सम्यक प्रकारसे युगपत् जानते है, देखते हैं और विहार करते हैं। ध.१३/५,५,६२/३५०/१२ संसारिणो दुविहा तसा थावरा चेदि ।...तत्थ वणप्फदिकाझ्या अणंतवियप्पा; सेसा असंखेजवियप्पा। एदे सव्वजीवे सबलोगठ्ठिदे जाणदि त्ति भणिदं होदि। -जीव दो प्रकारके हैं-वस और स्थावर । ...इनमेंसे वनस्पतिकायिक अनन्तप्रकारके हैं और शेष असंख्यात प्रकारके है ( अर्थात् जोवसमासोकी अपेक्षा जीव अनेक भेद रूप हैं)। केवली भगवान् समस्त लोकमें स्थित, इन सब जीवों को जानते हैं । यह उक्त कथनका तात्पर्य है। प्र. सा./त. प्र./५४ अतीन्द्रियं हि ज्ञानं यदमूतं यन्मूर्तेष्वप्यतीन्द्रिय यत्प्रच्छन्न च तत्सकलं स्वपरविकल्पान्तःपाति प्रेक्षत एव। तस्य खल्वमूर्तेषु धर्माधर्मादिषु, मूर्तेष्वप्यतीन्द्रियेषु परमाण्वादिषु द्रव्यप्रच्छन्नेषु कालादिषु क्षेत्रप्रच्छन्नेष्वलोकाकाशप्रदेशादिषु, कालप्रच्छम्नेस्वसांप्रतिकपर्या येषु, भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायान्तीनसूक्ष्म पर्यायेषु सर्वेष्वपि स्वपरव्यवस्थाव्यवस्थितेष्वम्ति द्रष्टव्यं प्रत्यक्षत्वात् । जो अमूर्त है, जो मूर्त पदार्थो में भी अतीन्द्रिय है, और जो प्रच्छन्न (लॅ का हुआ) है, उस सबको, जो कि स्व व पर इन दो भेदों में समा जाता है उसे अतीन्द्रिय ज्ञान अवश्य देवता है। अमूर्त द्रव्य धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आदि, मुर्त पदार्थो में भी अतीन्द्रिय परमाणु इत्यादि, तथा द्रव्यमें प्रच्छन्न काल इत्यादि, क्षेत्रमें प्रच्छन्न अलोकाकाशके प्रदेश इत्यादि, कालमे प्रच्छन्न असाम्प्रतिक ( अतीतअनागत ) पर्यायें, तथा भाव प्रच्छन्न स्थूलपर्यायोंमे अन्तर्लीन सूक्ष्म जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान पर्यायें हैं उन सबको जो कि स्व और परके भेद से विभक्त हैं उन सबका वास्तवमे उस अतीन्द्रियज्ञानके दृष्टपना है। प्र. सा / त प्र. / २१ तोऽस्माकममान्त समस्त द्रव्यक्षेत्रात भावतया समक्षस वेदनालम्बनभूता सर्वद्रव्यपर्याया प्रत्यक्षा एव भवन्ति । = इसलिए उनके समस्त द्रव्य क्षेत्र काल और भावका अक्रमिक ग्रहण होनेसे समक्ष संवेदन ( प्रत्यक्ष ज्ञान ) को आलम्बनभूत समस्त हो है (इ.सं./टी./३/२०१६) प्र. सा./त.प्र./४७ बलमधातिविस्तरेण अनिवारितसर प्रकाशशालि क्षयज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वधा सर्वमेव जानीयाद = अथवा अतिविस्तारसे बस हो- जिसका अनिवार फैलाव है, ऐसा प्रकाशमान होनेसे क्षायिकज्ञान अवश्यमेव, सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्वको जानता है । ४. केवलज्ञान सर्व द्रव्य व पर्यायोंको जानता है प्र.सा./मू./४६० अणं तपज्जय मेगमणं ताणि दव्त्रजादाणि । ण बिजाणादि जदि जुगव कि सो सव्वाणि जाणादि । यदि अनन्त पर्यायवाले एक द्रव्यको तथा अनन्त द्रव्य समूहको नहीं जानता तो वह सब अनन्त द्रव्य समूहको कैसे जान सकता है । भ.आ./मू./२९४०-४१ सव्वेहि पज्जएहि य संपुण्णं सव्वदत्वेह | २१४०/-..राह का लोग पर गिदोहो ।२१४१-सम्पूर्ण और उनकी सम्पूर्ण पोसे भरे हुए सम्पूर्ण जगत्को सिद्ध भगवाद देखते हैं, तो भी वे मोहरहित ही रहते है। त.सू./१/२६ सर्व द्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । स.सि./१/२/१३७/८ सर्वेषु प्रन्येषु सर्वेषु पर्यायध्विति जीवाणि तावदनन्तानन्तानि, पुद्गलद्रव्याणि च ततोऽप्यनन्तानन्तानि अणुस्कन्धभेदभिन्नानि धर्माधर्माकाशानि त्रीणि कालश्चासंख्येयस्तेषां पर्यायाश्च त्रिकाल प्रत्येकमनन्तानन्तास्तेषु द्रव्यं पर्यायान किंचित्वज्ञानस्य विषयभावमतिक्रान्तमस्ति अपरिमितमाहात्म्यं हि तदिति ज्ञापनार्थ सर्वद्रव्यपर्यायेषु इत्युच्यते । केवलज्ञानकी प्रवृत्ति सर्व द्रव्यों और उनकी सर्व पर्यायोंमें होती है। जीव द्रव्य अनन्तानन्त है, पुद्गलद्रव्य इनसे भी अनन्तानन्तगुणे हैं जिनके अणु और स्कन्ध ये भेद है। धर्म अधर्म और आकाश ये तीन है, और काल असंख्यात हैं । इन सब द्रव्योकी पृथक पृथकू तीनों कालों में होनेवाली अनन्तानन्त पर्याये हैं । इन सत्रमें केवलज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। ऐसा न कोई द्रव्य है और न पर्याय समूह है जो केवल ज्ञानके विषयके परे हो । केवलज्ञानका माहात्म्य अपरिमित है इसी माता ज्ञान कराने के लिए सूत्रमे 'सर्वद्रव्याययेषु' कहा है (रा. ना २/२६/६/१०/४) अती का १०६/निर्णयसागर बम्बई- साक्षात्कृतेरेव सर्वद्रव्यपर्यायाद परिच्छिनत्ति (केवलाव्येन प्रत्यक्षेण केवली ) नान्यत ( नागमात् ) इति । = केवली भगवान् केवलज्ञान नामवाले प्रत्यक्षज्ञानके द्वारा सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायोंको जानते है, आगमादि अन्य ज्ञानोंसे नहीं । घ./१/१ १ १/२७/४०/४ सन्चालयहि दिसव्वा जिन्होने सम्पूर्ण पर्यायों सहित पदार्थोंको जान लिया है। = प्र. सा /त प्र/२१ सर्वद्रव्यपर्याया' प्रत्यक्षा एव भवन्ति । ( उस ज्ञानके) समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही है । नि. सा./ता वृ / ४३ त्रिकालत्रिलोकवर्तिस्थावरजंगमात्मकनिखिल द्रव्यगुणयेनपरिचितिसमर्थ सकल विमल केवलज्ञानावस्था ढश्च। तीन काल और तीन लोकके स्थावर जंगमस्वरूप समस्त द्रव्य-गुण- पर्यायोंको एक समय में जाननेमें समर्थ सकल विमल केवलज्ञान रूपसे अवस्थित होनेसे आत्मा निर्मूढ है । १४८ ५. केवलज्ञान त्रिकाली पर्यायोंको जानता है ध. १/१,१,१३६/१६६/३८६ एय-दवियम्मि जे अत्थ-पज्जया वयणपज्जया वाबि । तीदाणागदभूदा तावदियं तं हवइ दव्वं । एक द्रव्य में अतीत अनागत और गाथामे आये हुए अपि शब्द से वर्तमान पर्यायरूप जितनी अर्थ पर्याय और व्यंजनपर्याय हैं तत्प्रमाण वह द्रव्य होता है जो नाव गो.जी./२८२/२०२३) तथा (क.पा.१/११/१९६/२२/२), (क.पा./१/१.९/१४६/६४/४) (म.सा./त.प्र./ ५२/४) (प्र.सा.प्र./३६,२००) .१/४,१,४५/५०/१४२ क्षायिकमेकमनन्तं निरतिशयमस्य ३. केवलज्ञानकी सर्वग्राहकत कालसर्वार्थ युगपदवभास ॥ ५० जना ज्ञान क्षायिक, एक अर्थात् असहाय, अनन्त, तीनों कालों के सर्व पदार्थों को युगपत् प्रकाशित करनेवाला निरतिशय, विनाशसे रहित और व्यवधानसे नियुक्त है (.१/१.१.१/२४/१०२३), (४.११.१.२/१५) १) (. १/१.१.११४/३६८३), (५.६/९.१.१.१४/२१/२) (घ. ११/ १.२.१/२४५/८) (.१६/४/६): (पा.१/११/१२८/४१/६) (प्र.सा./त.प्र. २६/३०/६०) (प.प्रा.टी./११/११/१०) (न्याय बिन्दु / २६१-२६२ चौखम्बा सौरीज) ६. केवलज्ञान सद्भूत व असद्भूत सब पर्यायों को जानता है प्र.सा./मू./३७ तक्कालिगेव सव्वे सदसम्भूदा हि पज्जया तासि । वट्टते ते गाणे विसेसदो दव्वजादीणं |३७| उन जीवादि द्रव्य जातियोकी समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक पर्यायोंकी भाँति शिष्टता पूर्वका ती है (प्र.1//२०.३८,२१.४१) यो सा /अ/१/२८ अतीता भाविनश्चार्थाः स्वे स्वे काले यथाखिलाः । वर्त - मानास्ततस्तद्वद्वेत्ति तानपि केवलं । २८| भूत और भावी समस्त जिस रुपये अपने अपने कालमें मर्तमान रहते है, केवल हान उन्हे भी उसी रूपसे जानता है। ७. प्रयोजनभूत व अप्रयोजनभूत सबको जानता है ध. १/४, १,४४/११८/८ ण च खीणावरणो परिमियं चेव जाणदि, णिष्पडिबंधस्स सयलत्थावगमणसहावस्स परिमियस्थावगमबिरोहादो | अत्रोपयोगी श्लोक –'ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबंधरि । दाह्येऽग्निर्दाको न स्यादसति प्रतिबंधरि ।" २६ । - आवरण के क्षीण हो जाने पर आत्मा परिमितको ही जानता हो यह तो हो नहीं सकता क्योंकि, प्रतिबन्धसे रहित और समस्त पदार्थोंके जानने रूप स्वभाव से संयुक्त उसके परिमित पदार्थोंके जाननेका विरोध है । यहाँ उपयोगी श्लोक - "ज्ञानस्वभाव आत्मा प्रतिबन्धकका अभाव होनेपर ज्ञे विषयमें ज्ञानरहित कैसे हो सकता है ? क्या अग्नि प्रतिबन्धकके अभाव मे दाह्यपदार्थका दाहक नहीं होता है। होता ही है । (क. पा. १/१,१६४६/१३/६६) स्वा./१/०५/१२ मध्येवास्तु अनन्तविज्ञानमित्यतिरिच्यते । दोषात्ययेऽवश्यं भावित्वादनन्तविज्ञानत्वस्य । न । चोपाभावेऽपि सदनभ्युपगमात् । तथा च बेोधनचम् "सर्व पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्ट' तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञान स्कोप' तस्मादनुष्ठानगसं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । प्रमाणं दूरदर्शी देते गृधानुपास्महे ।" सम्मतव्यपोहार्थ मनन्त विज्ञानमित्यदुष्टमेव विज्ञानानन्त्यं बिना एक्स्याप्यर्थस्य यथावत परिज्ञानाभावाद तथा चार्ष ३० केली/२/प्रश्न- केवलोके साथ 'अतीत दोष' विशेष देना ही पर्याप्त है, 'अनन्तविज्ञान' भी कहनेकी क्या आवश्यकता ' कारण कि दोषोंके नष्ट होनेपर अनन्त विज्ञानकी प्राप्ति अवश्यंभावी है। उत्तर- कितने ही वादी दोषोका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान नाश होने पर भी अनन्तविज्ञानकी प्राप्ति स्वीकार नहीं करते एव 'अनन्तविज्ञान' विशेषण दिया गया है। वैशेषिकों का मत है कि "ईश्वर सर्व पदार्थोंको जाते अथवा न जाने, वह इष्ट पदाथको जाने इतना ही बस है। यदि ईश्वर कीडोंकी संख्या गिनने बैठे तो वह हमारे किस कामका " तथा "अतएव ईश्वरके उपयोगी ज्ञानकी ही प्रधानता है, क्योंकि यदि दूर तक देखनेवाले को ही प्रमाण माना जाये तो फिर हमें गीच पक्षियों की भी पूजा करनी चाहिए। इस मतका निराकरण करनेके लिए ग्रन्थकारने अनन्तविज्ञान विशेषण दिया है और वह विशेषण ठीक ही है, क्योंकि अनन्तज्ञानके बिना किसी वस्तुका भी ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता। आगमका वचन भी है-"जो एकको जानता है वही सर्वको जानता है और सर्व को जानता है वह एकको जानता है ।" ८. केवलज्ञानमें इससे भी अनन्तगुणा जानने की सामर्थ्य है रा.वा./९/२६ / ६ / ६०/५ वायोकाल कस्वभावोऽनन्तः तावन्तोऽनन्ता भन्या यद्यपि स्पु तानपि ज्ञातुमस्य सामर्थ्य मस्तीत्यपरिमितमाहात्म्यं तव केवलज्ञानं वेदितव्यम्। जितना यह लोकालोक स्वभाव से ही अनन्त है, उससे भी यदि अनन्तानन्त विश्व है तो उसको भी जाननेकी सामर्थ्य केवलज्ञानमें है, ऐसा केवलज्ञानका अपरिमित माहात्म्य जानना चाहिए। आ.अ./२१६ वसति भुवि समस्तं सापि संधारितान्यः उदरमुपनिविश सा च ते वा परस्य । तदपि किल परेषां ज्ञानकोणे निलीनं वहति कथमिहाग्यो गर्व मारमाधिकेषु । २११ - जिस पृथिवीके ऊपर सभी पदार्थ रहते है वह पृथिवी भी दूसरोंके द्वारा - अर्थात् घनोदधि, धन और तनुवातबलयोके द्वारा धारण की गयी है। वे पृथिवी और वे तीनों वातवलय भी आकाशके मध्य में प्रविष्ट हैं, और वह आकाश भी केवलियोंके ज्ञानके एक मध्यमे निलीन है। ऐसी अवस्थामें यहाँ दूसरा अपनेसे अधिक गुणोंवालेके विषयमें कैसे गर्व धारण करता है ' ९. केवलज्ञानको सर्व समर्थ न माने सो अज्ञानी है स.सा./आ./४१५/२५५ स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनात्. get पशुः प्रणश्यति चिदाकारा सहामद। स्याद्वादी तु बस स्वधामनि परक्षेत्रे विनास्तितां पार्थोऽपि न वृच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान् । २५५। - एकान्तवादी अज्ञानी, स्वक्षेत्रमें रहनेके लिए भिन्न-भिन्न परक्षेत्रों में रहे हुए शेयपदार्थोंको घोरापदार्थों के साथ चैतन्यके आकारोका भी वमन करता हुआ तुच्छ होकर नाशको प्राप्त होता है और स्याद्वादी तो स्वक्षेत्रमें रहता हुआ. परक्षेत्र में अपना नास्ति जानता हुआ, ज्ञेय पदार्थोंको छोड़ता हुआ भी पर-पदार्थोंसे चैतन्यके आकारों को पता है, इसलिए को प्राप्त नहीं होता । • ता = " ४. केवलज्ञान की सिद्धिमें हेतु १. यदि अर्वको नहीं जानता तो एकको भी नहीं जान सकता प्र.सा./४००४१ जो विजागदि जुग अस्मे तिस्कासि तिहुये। जादु तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्यमेगं वा ॥४८॥ दव्वं अनंतपज्जयमेगमाथि दादाणि न विजानदि जदि जुग कि सो सम्माणि जागादि ४-जो एक ही साथ त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ पदार्थोंको नहीं जानता, उसे पर्याय सहित एक आत्म-टीका) द्रव्य १४९ ४. केवलज्ञानको सिद्धिमें हेतु जो भी जानना शक्य नहीं ।४८। यदि अनन्त पर्यायवाले एक द्रव्यको तथा अनन्त द्रव्य समूहको एक ही साथ नही जानता तो वह सबको कैसे जान सकेगा |४| (यो.सा./अ/१/२६-३० ) नि.सा./ /९६० ततदव्यं पाणागुणपण संजु पेसम्म परोक्खदिटी हवे तस्स / १६८ / - विविध गुणों और पर्यायोंसे संयुक्त पूर्वोक्त समस्त द्रव्योंको जो सम्यक् प्रकारसे नहीं देखता उसे परीक्ष दर्शन है। स.सि./९/१२/१०४३/८ यदि प्रत्यर्थमवति सर्वज्ञस्वमस्य नास्ति योगिन', यस्यानन्ध्यात् यदि प्रत्येक पदार्थको (एक एक करके) क्रमसे जानता है तो उस योगी के सर्वज्ञताका अभाव होता है क्योंकि शेय अनन्त है। स्या. म./१/५/२१ मे उधृत - जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ । ( आचारांग सूत्र / १/३/४ / सूत्र १२२ ) । तथा एको भावः सर्वथा येन दृष्ट सर्वे भावा सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा एको भाव सर्वथा तेन दृष्टः । =जो एकको जानता है वह सर्व को जानता है और जो सर्व को जानता है वह एकको जानता है। तथा जिसने एक पदार्थ को सब प्रकारसे देखा है उसने सब पदार्थो को सब प्रकारसे देखा है। तथा जिसने सब पदार्थोंको सब प्रकारसे जान लिया है, उसने एक पदार्थको सव प्रकारसे जान लिया है। श्लो. वा./२/१/५/१४/१६२/१७ यथा वस्तुस्वभावं प्रत्ययोत्पत्तौ कस्यचिनाञ्चनन्तवस्तुप्रत्ययप्रसंगात...जैसी वस्तु होगी वैसा ही हूबहू ज्ञान उत्पन्न होवे तब तो चाहे जिस किसीको अनादि अनन्त वस्तुके ज्ञान होनेका प्रसंग होगा क्योंकि अनादि अनन्त पर्यायोंसे सममेत ही सम्पूर्ण वस्तु है)। ज्ञा./३४/१३ में उद्धृत -- एको भावः सर्वभावस्वभावः, स भावा एकभावस्वभावाः । एको भावस्तत्त्वतो येन बुद्धः सर्वे भावास्तव बुद्धा' । = एक भाव सर्वभावोंके स्वभावस्वरूप है और सर्व भाव एक भाव के स्वभाव स्वरूप है; इस कारण जिसने तत्त्वसे एक भावको जाना उसने समस्त भावोको यथार्थतया जाना । नि. सा./ता.वृ./१६०/ २०४ यो नैव पश्यति जगत्त्रयमेकदेव कालप्रयं च तरसा सकतज्ञमानी प्रत्यक्षदष्टितुला न हि तस्य नित्यं सर्वज्ञता कथमिहास्य जडात्मनः स्यात् । सर्वज्ञताके अभिमानवाला जो जीव शीघ्र एक ही कालमें तीन जगत्‌को तथा तीन कालको नहीं देखता, उसे सदा ( कदापि ) अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है; उस डात्माको सर्वज्ञता किस प्रकार होगी । २. यदि त्रिकालको न जाने तो इसकी दिव्यता ही क्या प्र. सा./मू./३६ जदि पञ्चवस्वमजायं पजायं पलहर्यं च णाणस्स । ण हमदम तं दिव्यं ति हि के परुनेति यदि अनुत्पन्न पर्याय गाणं । - नष्ट पर्यायें ज्ञानके प्रत्यक्ष हाँ तो | = उस ज्ञानको दिव्य कौन कहेगा ' ३. अपरिमिति विषय ही तो इसका माहात्म्य है स.सि./१/२६/१३५/११ अपरिमितमाहात्म्यं हि तदिति ज्ञापनार्थं 'सर्व द्रव्यपर्यायेषु' इत्युच्यते = केवलज्ञानका माहात्म्य अपरिमित है, इसी बात का ज्ञान करानेके लिए सूत्र में 'सर्वद्रव्य पर्यायेषु' पद कहा है (रा./बा./१/२/६/१०/4 ) ४. सर्वज्ञत्वका अभाव कहनेवाला क्या स्वयं सर्वश नहीं है सि.वि./मू./८/१५-१६ सर्यात्मज्ञानविज्ञेयत्वं विनो वेrयं तस्य सर्वशाभावविव्स्थय ॥१३॥ तज्ज्ञे यज्ञाचे कल्याइ यदि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान १५० ४. केवलज्ञानको सिद्धि हेतु आप्त.प / मू./६६-११० सुनिश्चितान्वयाधेितोः प्रसिद्धव्यतिरेकत । ज्ञाताऽहन् विश्वतत्त्वानामेवं सिद्ध्येदबाधित' ६६.. एवं सिद्धः सुनिर्णीतासंभवबाधकत्वतः । मुखबईविश्वतत्त्वज्ञ सोऽर्हन्नेव भवानिह ।१०१४-प्रमेयपना हेतुका अन्वय अच्छी तरह सिद्ध है और उसका व्यतिरेक भी प्रसिद्ध है, अतः उससे अर्हन्त निर्वाधरूपसे समस्त पदार्थोंका ज्ञाता सिद्ध होता है ।१६ (१)-त्रिकाल त्रिलोकको न जाननेके कारण इन्द्रिय प्रत्यक्ष बाधक नहीं है ।हए। (२)-केवल सत्ताको विषय करनेके कारण अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और आगम भी बाधक नहीं है । ६८४ (३)-अनै कान्तिक होनेके कारण पुरुषत्व व वक्तृत्व हेतु(अनुमान) बाधक नहीं है-(दे० केवलज्ञान/५) १६६-१०० ।।४) सर्व मनुष्यों में समानताका अभाव होनेसे उपमान भी बाधक नहीं है ।१०११; (५)-अन्यथानुपपत्ति से शून्य होनेसे अापत्ति बाधक नहीं है ।१०। (६)-अपौरुषेय आगम केवल यज्ञादिके विषयमें प्रमाण है, सर्व ज्ञकृत आगम बाधक हो नहीं सकता और सर्वज्ञकृत आगम स्वत' साधक है ।१०३-१०४; (७)-सर्वज्ञत्वके अनुभव व स्मरण विहीन होनेके कारण अभाव प्रमाण भी बाधक नहीं है अथवा असर्वज्ञत्वकी सिद्धिके अभावमे सर्वज्ञत्वका अभाव कहना भी असिद्ध है ।१०५-१०८। इस प्रकार बाधक प्रमाणोंका अभाव अच्छी तरह निश्चित होनेसे सुखकी तरह विश्वतत्त्वोंका ज्ञाता-सर्वज्ञ सिद्ध होता है ।१०। बुध्येतन स्वयम् ।...| नर' शरीरी वक्ता वासकलझं जगद्विदन्। सर्वज्ञः स्यात्ततो नास्ति सर्वज्ञाभावसाधनम् ।१६। सब जीवों के ज्ञान तथा उनके द्वारा ज्ञेय और अज्ञेय तत्त्वोंको प्रत्यक्षसे जाननेवाला क्या स्वयं सर्वज्ञ नहीं है । यदि वह स्वयं यह नहीं जानता कि सन जीव सर्वज्ञके ज्ञानसे रहित है तो वह स्वयं कैसे सर्वज्ञके अभावका ज्ञाता हो सकता है। शायद कहा जाये कि सब आत्माओंकी असर्वज्ञता प्रत्यक्षसे नही जानते किन्तु अनुमानसे जानते है अत' उक्त दोष नहीं आता। तो पुरुष विशेषको भी वक्तृत्व आदि सामान्य हेतुसे असर्वज्ञत्वका साधन करनेमें भी उक्त कथन समान है क्योंकि सर्वज्ञता और वक्तृत्वका कोई विरोध नहीं है सर्वज्ञ वक्ता हो सकता है । न्याय. वि./वृ./३/११/२८६ पर उधृत (मीमांसा श्लोक चोदना/१३४ १३५) "सर्वत्रोऽयमिति ह्येवं तस्कालेऽपि बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ॥१३४। कल्पनीयाश्च सर्वज्ञा भवेयुर्वहवस्तव । य एव स्यादसर्वज्ञः स सर्वज्ञं न बुध्यते ।१३॥"-उस काल में भी जो जिज्ञासु सर्वज्ञके ज्ञान और उसके द्वारा जाने गये पदार्थोके ज्ञानसे रहित है वे 'यह सर्वज्ञ है ऐसा कैसे जान सकते है। और ऐसा माननेपर आपको बहुतसे सर्वज्ञ मानने होगे क्योंकि जो भी असर्वज्ञ है वह सर्वज्ञको नहीं जान सकता। द्र. सं./टी./१०/२११/५ नास्ति सर्वज्ञोऽनुपलब्धे । खर विषाणवत् । तत्र प्रत्युत्तर-किमत्र देशेऽत्र काले अनुपलब्धेः, सर्वदेशे काले वा । यद्यत्र देशेऽत्र काले नास्ति तदा सम्मत एव । अथ सर्वदेशकाले नास्तीति भण्यते तज्जगत्रयं कालत्रयं सर्वज्ञरहितं कथं ज्ञात भवता। ज्ञातं चेत्तहिं भवानेव सर्वज्ञः । अथ न ज्ञातं तर्हि निषेधः कथं क्रियते ११...यथोक्तं खरविषाणवदिति दृष्टान्तवचनं तदप्यनुचितम् । खरे विषाणं नास्ति गवादौ तिष्ठतीत्यत्यन्ताभावो नास्ति यथा तथा सर्वज्ञस्यापि नियतदेशकालादिष्वभावेऽपि सर्वथा नास्तित्वं न भवति इति दृष्टान्तदूषणं गतम् । = प्रश्न-सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधेके सींग । उत्तर-सर्वज्ञकी प्राप्ति इस देश व इस काल में नहीं है वा सब देशों व सन कालों में नहीं है। यदि कहो कि इस देश व इस काल में नहीं तब तो हमें भी सम्मत है ही। और यदि कहो कि सब देशों व सब कालोंमें नहीं है, तब हम पूछते हैं कि यह तुमने कैसे जाना कि तीनों जगत व तीनों कालो में सर्वज्ञ नहीं है। यदि कहो कि हमने जान लिया तब तो तुम ही सर्वज्ञ सिद्ध हो चुके और यदि कहो कि हम नहीं जानते तो उसका निषेध कैसे कर सकते हो। (इस प्रकार तो हेतु दूषित कर दिया गया) अब अपने हेतुकी सिद्धि में जो आपने गधेके सींगका दृष्टान्त कहा है वह भी उचित नहीं है, क्योंकि भले ही गधेको सींग न हों परन्तु बैल आदिको तो हैं ही। इसी प्रकार यद्यपि सर्वज्ञ का किसी नियत देश तथा काल आदिमें अभाव हो पर उसका सर्वथा अभाव नहीं हो सकता। इस प्रकार दृष्टान्त भी दूषित है । ( पं. का./ ता. वृ./२६/६/११) ५. बाधक प्रमाणका अभाव होनेसे सर्वज्ञश्व सिद्ध है सि. वि /मू./८/६-७/५३७-५३८ "प्रामाण्यमक्षबुद्धेश्चेद्यथाऽबाधाविनिश्चयाव । निर्णीतासंभवबाधः सर्वज्ञो नेति साहसम् ।६। सर्वशेऽस्तीति विज्ञानं प्रमाणं स्वत एव तत् । दोषवत्कारणाभावाद बाधकासंभवादपि "-जिस प्रकार बाधकाभावके विनिश्चयसे चक्षु आदिसे जन्य ज्ञानको प्रमाण माना जाता है उसी प्रकार बाधाके असंभवका निर्माण होनेसे सर्वज्ञके अस्तित्वको नहीं मानना यह अति साहस है ६। 'सर्वज्ञ है इस प्रकारके प्रवचनसे होने वाला ज्ञान स्वतःही प्रमाण है क्योंकि उस ज्ञानका कारण सदोष नहीं है। शायद कहा जाये कि 'सर्बज्ञ है' यह ज्ञान बाध्यमान है किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उसका कोई बाधक भी नहीं है। (द्र.सं./टी./१०/२१३/७) (पं. का./ता. वृ./२६/६६.१३)। ६. अतिशय पूज्य होनेसे सर्वज्ञत्व सिद्ध है ध.६/४,१,४४/११३/७ कधं सव्वणहू व ढमाणभयवंतो .. णवकेवललद्धीओ...च्छतएण सोहम्मिदेण तस्स कयपूजण्णहाणूववत्तीदो। ण च विजावाइपूजाए वियहिचारो...साहम्माभावादो.. बधम्मियादो वा। -प्रश्न-भगवान बर्द्धमान सर्वज्ञ थे यह कैसे सिद्ध होता है। उत्तर-भगवान में स्थित ना केवल लग्धिको देखनेवाले सौधर्मेन्द्र द्वारा की गयी उनकी पूजा क्योंकि सर्वज्ञताके बिना मन नहीं सक्ती। यह हेतु विद्यावादियोंकी पूजासे व्यभिचरित नहीं होता, क्योंकि व्यन्तरों द्वारा की गयी और देवेन्द्रों द्वारा की गयी पूजामें समानता नहीं है। ७. केवलज्ञानका अंश सर्व प्रत्यक्ष होनेसे केवलज्ञान सिद्ध है क.पा.१/१/६३१/४४ ण च केवलणाणमसिद्धं : केवलणाणसस्स ससंवेयणपञ्चवखेण णिव्वाहेणुवलं भादो। ण च अवयवे पच्चवखे संते अवयवी परोक्खो त्ति जुत्त; चविखदियविसयीकयअवयवत्थं भस्स वि परोवरखप्पसंगादो। यदि कहा जाय कि केवलज्ञान असिद्ध है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा केवलज्ञानके अंशरूप ( मति आदि) ज्ञानकी निर्बाध रूपसे उपलब्धि होती है। अवयवके प्रत्यक्ष हो जाने पर सहवर्ती अन्य अवयव भले परोक्ष रहें, परन्तु अवयवी परोक्ष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर चक्षुइन्द्रियके द्वारा जिसका एक भाग प्रत्यक्ष किया गया है उस स्तम्भको भी परोक्षताका प्रसंग प्राप्त होता है। स्या,म /१७/२३७/६ तरिसद्धिस्तु ज्ञानतारतम्य क्वचिद विश्राग्तम. तारतम्यत्वात आकाशे परिणामतारतम्यवत् । = ज्ञानकी हानि और वृद्धि किसी जीवमें सर्वोत्कृष्ट रूपमे पायी जाती है. हानि, बृद्धि होनेसे। जैसे आकाशमें परिणामकी सर्वोत्कृष्टता पायी जाती है वैसे ही ज्ञानकी सर्वोत्कृष्टता सर्वज्ञमें पायी जाती है। कृष्ट रूपमै यवत् । बार आकाशमें जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ केवलज्ञान विषयक शंका-समाधान केवलज्ञान ८. सूक्ष्मादि पदार्थोंके प्रमेय होनेसे सर्वज्ञत्व सिद्ध है । भ. आ./वि./५१/१७३/१५ प्रत्यक्षस्यावध्यादे. आत्मकारणत्वादसहायता स्तोति केवलत्वप्रसंग स्यादिति चेन्न रूढेनिराकृताशेषज्ञानावरणस्योआप्त.मी./५ सूक्ष्मान्तरितदूरार्था. प्रत्यक्षा. कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतो पजायमानस्यैव बोधस्य केवल शब्दप्रवृत्ते । प्रश्न-प्रत्यक्ष अवधि sन्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ।। - सूक्ष्म अर्थात् परमाणु आदिक, व मन'पर्यय ज्ञान भी इन्द्रियादिको अपेक्षा न करके केवल बात्माके अन्तरित अर्थात कालकरि दूर राम रावणादि और दूरस्थ अर्थात् आश्रयसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनको भी केवलज्ञान क्यो नहीं क्षेत्रकरि दूर मेर आदि किसी न किसीके प्रत्यक्ष अवश्य हैं, क्योंकि कहते हो ? उत्तर-जिसने सर्व ज्ञानावरणकर्मका नाश किया है, ऐसे ये अनुमेय हैं। जैसे अग्नि आदि पदार्थ अनुमानके विषय है सो ही केवलज्ञानको ही 'केवलज्ञान' कहना रूढ है, अन्य ज्ञानो में केवल' किसी के प्रत्यक्ष भी अवश्य होते हैं। ऐसे सर्वज्ञका भले प्रकार निश्चय शब्दकी रूढि नहीं है। होता है। (न्या.वि./म./३/२६/२६८) (सि.वि./मू./८/३१/५७३) (न्या. घ./१/१,१,२२/१९६/१ प्रमेयमपि मैवमै क्षिष्टासहायत्वादिति चेन्न, तस्य वि././३/२०/२८८ मे उद्धृत) (आप्त.प.मू./८८-११)(काव्य मीमांसा तत्स्वभावत्वात् । न हि स्वभावाः परपर्यनुयोगार्हा. अव्यवस्थापत्ते. १) (द्र.सं./टी./५०/२१३/१०) (पं.का./ता बृ./२६/६६/१४) (सा म./१७/ रिति । -प्रश्न-यदि केवलज्ञान असहाय है, तो वह प्रमेयको भी २३७/७) (न्या.दी./२/६२१-२३/४१-४४) मत जानो। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि पदार्थों का जानना उसका स्वभाव है। और वस्तुके स्वभाव दूसरों के प्रश्नोंके योग्य नहीं हुआ ९. प्रतिबन्धक कर्मोंका अभाव होनेसे सर्वज्ञत्व करते है। यदि स्वभाव में भी प्रश्न होने लगें तो फिर वस्तुओको सिद्ध है व्यवस्था ही नहीं बन सकती। २. विनष्ट व अनुत्पन्न पदार्थों का ज्ञान कैसे सम्मव है सि.वि./म./८-६ ज्ञानस्यातिशयात् सिध्येद्विभुत्वं परिमाणवत। वैषद्य कचिद्दोषमलहानेस्तिमिराक्षवत् 1८1 माणिक्यादेर्मलस्यापि व्यावृत्ति क.पा.१/१,१/६१५/२२/२ असति प्रवृत्तौ खरविषाणेऽपि प्रवृत्तिरस्त्विति रतिशयवतो। आत्यन्तिकी भवत्येव तथा कस्यचिदात्मनः।-जैसे चेत; नः तस्य भूतभविष्यच्छत्तिरूपतयाऽप्यसत्त्यात। वर्तमानपर्यापरिमाण अतिशययुक्त होनेसे आकाशमें पूर्णरूपसे पाया जाता है, वैसे णामेव किमित्यर्थत्वमिष्यत इति चेत्, न; 'अर्यते परिच्छिद्यते' ही ज्ञान भी अतिशययुक्त होनेसे किसी पुरुष विशेषमें विभु-समस्त इति न्यायतस्तत्रार्थत्वोपलम्भात् । तदनागतातीतपयिष्वपि समानशेयोका जाननेवाला होता है। और जैसे अन्धकार हटनेपर चक्षु मिति चेतः नः तद्ग्रहणस्य वर्तमानार्थ ग्रहणपूर्वकत्वात् । -प्रश्नस्पष्ट रूपसे जानतो है, वैसे ही दोष और मलकी हानि होनेसे वह यदि विनष्ट और अनुत्पन्नरूपसे असत् पदार्थोंमे केवलज्ञानको प्रवृत्ति ज्ञान स्पष्ट होता है । शायद कहा जाये कि दोष और मलको आत्य होती है, तो खरविषाणमें भी उसकी प्रवृत्ति होओ ! उत्तर-नहीं, न्तिक हानि नहीं होती तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे क्योंकि खरविषाणका जिस प्रकार वर्तमानमें सत्त्व नहीं पाया जाता माणिक्य आदिसे अतिशयवाली मलकी व्यावृत्ति भी आत्यन्तिकी है, उसी प्रकार उसका भूतशक्ति और भविष्यत् शक्तिरूपसे भी सत्त्व होतो है उसके मल सर्वथा दूर हो जाता है उसी तरह किसी आरमासे नहीं पाया जाता है। प्रश्न-यदि अर्थ में भूत और भविष्यत् पर्याय भो मलके प्रतिपक्षी ज्ञानादिका प्रकर्ष होनेपर मलका अत्यन्ताभाव शक्तिरूपसे विद्यमान रहती है तो केवल वर्तमान पर्यायको ही अर्थ हो जाता है ।७-८ (न्या.वि./मू /३/२१-२५/२६१-२६५), (ध.६/- क्यों कहा जाता है। उत्तर-नहीं, क्योकि, 'जो जाना जाता है उसे ४,१,४४/२६/तथा टीका पृ.११४-११८), (क.पा.१/१,१/९३७-४६/१३ अर्थ कहते है' इस व्युत्पत्तिके अनुसार वर्तमान पर्यायोंमें ही अर्थतथा टीका पृ. ५६-६४), (राग/५-रागादि दोषोंका अभाव असंभव पना पाया जाता है। प्रश्न-यह व्युत्पत्ति अर्थ अनागत और अतीत नहीं है), ( मोक्ष/६-अकृत्रिम भी कर्ममल का नाश सम्भव है); पर्यायों में भी समान है • उत्तर--नहीं, क्योंकि उनका ग्रहण वर्त(न्या.दी./२/७२४-२८/४४-५०), (न्याय बिन्दु चौखम्बा मान अर्थ के ग्रह्ण पूर्वक होता है। सीरीज/श्लो, ३६१-३६२) ध.६/१,६-१,१४/२६/६ गट्ठाणुप्पण्ण अत्थाणं कधं तदो परिच्छेदो। ण, केवलत्तादो बज्झत्थावेक्वाए विणा तदुप्पत्तीए विरोहाभावा। ण तस्स विपज्जयणाणत्तं पसज्जदे, जहारूवेण परिच्छित्तीदो। ण गद्दह५. केवलज्ञान विषयक शंका-समाधान सिंगेण विउचारो तस्स अच्चंताभावरूवत्तादो।-प्रश्न--जो पदार्थ नष्ट हो चुके हैं और जो पदार्थ अभी उत्पन्न नही हुए हैं, उनका केवल१. केवलज्ञान असहाय कैसे है ? ज्ञानसे कैसे ज्ञान हो सकता है। उत्तर--नहीं, क्योंकि केवलज्ञानके सहाय निरपेक्ष होनेसे बाह्य पदार्थों की अपेक्षाके बिना उनके, क.पा.१/१,१/३१५/२१/१ केवलमसहायं इन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्ष- (विनष्ट और अनुत्पन्नके) ज्ञानकी उत्पत्तिमें कोई विरोध नहीं है। स्वात । आत्मसहायमिति न तत्केवलमिति चेत; न; ज्ञानव्यतिरिक्ता- और केवलज्ञानके विपर्ययज्ञानपनेका भी प्रसंग नहीं आता है, क्योंकि स्मनोऽसत्त्वात् । अर्थसहायत्वान्न केवलमिति चेद; न; विनष्टानुत्पन्ना- वह यथार्थ स्वरूपको पदार्थों से जानता है। और न गधेके सींगके तोतानागतेऽर्थेष्वपि तत्प्रवृत्त्युपलम्भाव । -असहाय ज्ञानको साथ व्यभिचार दोष आता है, क्योंकि वह अत्यन्ताभाव रूप है। केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनोव्यापार- प्र.सा./त.प्र /३७ न खत्वेतदयुक्तं--दृष्टाविरोधात । दृश्यते हि छद्मस्थकी अपेक्षासे रहित है । प्रश्न-केवलज्ञान आत्माकी सहायतासे स्यापि वर्तमानमिव व्यतीतमनागतं वा वस्तु चिन्तयत. संविदाउत्पन्न होता है, इसलिए इसे केवल नहीं कह सकते। उत्तर-नहीं, लम्बितस्तदाकार । किंच चित्रपटीयस्थानत्वात् संविद.। यथा हि क्योंकि ज्ञानसे भिन्न आत्मा नहीं पाया जाता है, इसलिए इसे असर चित्रपटबामतिवाहितानामनुपस्थितानां वर्तमानानां च वस्तूनामाहाय कहने में आपत्ति नही है। प्रश्न-केवलज्ञान अर्थकी सहायता लेख्याकाराः साक्षादेकक्षण एवावभासन्ते, तथा संविभित्तावपि । लेकर प्रवृत्त होता है, इसलिए इसे केवल (असहाय) नहीं कह किच सर्वज्ञ याकाराणां तदात्विकत्वाविरोधात । यथा हि प्रध्वस्तानासकते । उत्तर-नहीं, क्योंकि नष्ट हुए अतीत पदार्थोंमें और उत्पन्न मनुदितानां च वस्तूनामालेरख्याकारा वर्तमाना एव तथातीतानामन हुए अनागत पदार्थों में भी केवलज्ञानकी प्रवृत्ति पायी जाती है, इस- नागतानां च पर्यायाणां ज्ञयाकारा वर्तमाना एव भवन्ति। यह लिए यह अर्थ की सहायतासे होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। (तीनों कालोंकी पर्यायों का वर्तमान पर्यायो वव ज्ञानमें ज्ञात होना) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान १५२ ६. केवलज्ञानका स्वपर-प्रकाशकपना वक्तापन आदिका प्रकर्ष होनेपर भी ज्ञानकी हानि नहीं होती। (और भी दे० व्यभिचार/४ ) । अयुक्त नहीं है, क्योंकि १. उसका दृष्टके साथ अविरोध है । (जगतमें) दिखाई देता है कि छद्मस्थके भो, जैसे वर्तमान बस्तुका चिन्तवन करते हुए ज्ञान उसके आकारका अवलम्बन करता है, उसी प्रकार भूत और भविष्यत् वस्तुका चिन्तवन करते हुए (भी) ज्ञान उसके आकारका अवलम्बन करता है । २. ज्ञान चित्रपटके समान है। जैसे चित्रपटमें अतीत अनागत और वर्तमान वस्तुओंके आलेख्याकार साक्षात एक क्षण में ही भासित होते है, उसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्तिमें भी अतीत अनागत पर्यायोंके ज्ञयाकार साक्षाद एक क्षणमें हो भासित होते हैं । ३. और सर्व जयाकारों की तात्कालिकता अविरुद्ध है । जैसे चित्रपटमें नष्ट व अनुत्पन्न (बाहूबली, राम, रावण आदि ) वस्तुओके आलेख्याकार वर्तमान ही है, इसी प्रकार अतीत और अनागत पर्यायोके ज्ञयाकार वर्तमान ही है। ३. अपरिणामी केवलज्ञान परिणामी पदार्थों को कैसे जाने ६. अर्हन्तोंको ही केवलज्ञान क्यो अन्यको क्यों नहीं आप्त, मी /मू./६,७ स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्ध न न बाध्यते ।६। त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथै कान्तवादिनाम। आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टादृष्टेन बाध्यते ।७। -हे अर्हन् । वह सर्वज्ञ आप हो है, क्योंकि आप निर्दोष हैं। निर्दोष इसलिए हैं कि युक्ति और आगमसे आपके वचन अविरुद्ध हैं और वचनोमें विरोध इस कारण नहीं है कि आपका इष्ट ( मुक्ति आदि तत्त्व ) प्रमाणसे बाधित नहीं है। किन्तु तुम्हारे अनेकान्त मतरूप अमृतका पान नहीं करनेवाले तथा सर्वथा एकान्त तत्त्वका कथन करनेवाले और अपनेको आप्त समझनेके अभिमानसे दग्ध हुए एकान्तवादियोंका इष्ट (अभिमत तत्त्व ) प्रत्यक्षसे बाधित है। (अष्टसहस्रो ) (निर्णय सागर बम्बई /पृ.६६-६७) (न्याय. दो/२/२४२६/४४-४६ ) । घ. १/१,१,२२/१९८/५ प्रतिक्षणं विवर्तमानानर्थानपरिणामि केवलं कथं परिच्छिनत्तीदि चेन्न, ज्ञ यसमविपरिवर्तिन. केवलस्य तदविरोधात । ज्ञयपरतन्त्रतया परिवर्तमानस्य केवलस्य कथ पुनर्नवोत्पत्तिरिति चेन्न, केवलोपयोगसामान्यापेक्षया तस्योत्पत्तरभावात। विशेषापेक्षया च नेन्द्रियालोकमनोभ्यस्तदुत्पत्तिविंगतावरणस्य तद्विरोधात् । केवलमसहायत्वान्न तत्सहायमपेक्षते स्वरूपहानिप्रसंगात् । -प्रश्न-अपरिवर्तनशील केवलज्ञान प्रत्येक समयमे परिवर्तनशील पदार्थोंको कैसे जानता है । उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योकि, ज्ञेय पदार्थोंको जाननेके लिए तदनुकूल परिवर्तन करनेवाले केवलज्ञानके ऐसे परिवर्तनके मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता। प्रश्न-ज्ञ यकी परतंत्रतासे परिवर्तन करनेवाले केवलज्ञानकी फिरसे उत्पत्ति क्यो नहीं मानी जाये ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, केवलज्ञानरूप उपयोग-सामान्यकी अपेक्षा केवलज्ञान की पुन: उत्पत्ति नही होती है। विशेषकी अपेक्षा उसकी उत्पत्ति होते हुए भी वह ( उपयोग) इन्द्रिय, मन और आलोकसे उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि, जिसके ज्ञानावरणादि कर्म नष्ट हो गये हैं, ऐसे केवलज्ञानमें इन्द्रियादिकी सहायता मानने में विरोध आता है। दूसरी बात यह है कि केवलज्ञान स्वयं असहाय है, इसलिए वह इन्द्रियादिकोंकी सहायताकी अपेक्षा नहीं करता है, अन्यथा ज्ञानके स्वरूपको हानिका प्रसंग आ जायेगा। ७. सर्वज्ञत्व जाननेका प्रयोजन पं. का./ता. वृ./२६/६७/१० अन्यत्र सर्वज्ञसिद्धौ भणितमास्ते अत्र पुनरध्यात्मग्रन्थत्वान्नोच्यते। इदमेव वीतरागसर्वज्ञस्वरूपं समस्तरागादिविभावत्यागेन निरन्तरमुपादेयत्वेन भावनीयमिति भावार्थ: । सर्वज्ञ कीसिद्धिन्यायविषयक अन्य ग्रन्थों में अच्छी तरह की गयी है। यहाँ अध्यात्मग्रन्थ होनेके कारण विशेष नहीं कहा गया है। ऐसा वीतराग सर्वज्ञका स्वरूप ही समस्त रागादि विभावोंके त्याग द्वारा निरन्तर उपादेयरूपसे भाना योग्य है, ऐसा भावार्थ है। ४. केवलज्ञानीको प्रश्न पूछने या सुनने की आवश्यकता क्यों म. पु /१/१८२ प्रश्नाद्विनैव तद्भाव जानन्नपि स सर्ववित् । तत्प्रश्नान्तमुदै क्षिष्ट प्रतिपत्रनिरोधतः ।१८२। - संसारके सब पदार्थोंको एक साथ जाननेवाले भगवान् वृषभनाथ यद्यपि प्रश्नके विना ही भरत महाराजके अभिप्रायको जान गये थे तथापि वे श्रोताओंके अनुरोधसे प्रश्नके पूर्ण होनेको प्रतीक्षा करते रहे। ५. सर्वज्ञत्वके साथ वक्तृत्वका विरोध नहीं है आप्त. प./मू./88-१०० नाहं निःशेषतत्त्वज्ञो वक्तृत्व-पुरुषत्वतः। ब्रह्मादिवदिति प्रोक्तमनुमानं न बाधकम् ।। हेतोरस्य विपक्षेण विरोधाभावनिश्चयात् । वक्तृत्वादेः प्रकर्षेऽपि ज्ञानानिसिसिद्धित. १००/प्रश्न-अर्हन्त अशेष तत्त्वोका ज्ञाता नहीं है क्योंकि वह वक्ता है और पुरुष है। जो वक्ता और पुरुष है, वह अशेष तत्त्वों का ज्ञाता नही है, जसे ब्रह्मा वगैरह । उत्तर-यह आपके द्वारा कहा गया अनुमान सर्वज्ञका बाधक नहीं है, क्योंकि, वक्तापन और पुरुषपन हेतुओंका, विपक्षके (सर्वज्ञताके ) साथ विरोधका अभाव निश्चित है, अर्थात् उक्त हेतु सपक्ष व विपक्ष दोनोंमे रहता होनेसे अनै कान्तिक है । कारण ६. केवलज्ञानका स्वपर-प्रकाशकपना १. निश्चयसे स्वको और व्यवहारसे परको जानता है नि सा./मू. १५६ जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।१५६ = व्यवहार नयसे केवली भगवान सबकोजानते है और देखते हैं; निश्चयनयसे केवलज्ञानी आत्माको जानता है और देखता है। (प. प्र./टो./१/५२/५०/८ ( और भी दे० श्रुतकेवलो/३)/ प प्र/मू./१/५ ते पुणु बंदउँ सिद्धगण जे अप्पाणि वसंत/लोयालोउ वि सयल इहु अच्छहि विमल णियंत ।। मैं उन सिद्धोको वन्दता हूँ, जो निश्चय करके अपने स्वरूपमें तिष्ठते हैं और व्यवहार नयकरि लोकालोकको संशयरहित प्रत्यक्ष देखते हुए ठहर रहे हैं । २. निश्चयसे परको न जाननेका तात्पर्य उपयोगका पर के साथ तन्मय न होना है प्र. सा./त.प्र./१२/क-४ जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भावि भूतं समस्तं, मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति पर नैव निलू नकर्मा । तेनास्ते मुक्त एक प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीतज्ञ याकार त्रिलोकी पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः ।४। -जिसने कर्मोको छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, भविष्यत् और वर्तमान समस्त विश्वको एक ही साथ जानता हुआ भी मोहके अभावके कारण पररूप परिणमित नहीं होता, इसलिए अब, जिसके (समस्त) ज्ञेयाकारों को अत्यन्त विकसित ज्ञप्तिके विस्तारसे स्वयं पी गया है ऐसे तीनों लोकके पदार्थोंको पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान १५३ ६. केवलज्ञानका स्वपर-प्रकाशकपना प्र. सा./त. प्र/३२ अपं रखत्वात्मा स्वभावत एव परद्रव्यग्रहणमोक्षण परिणमनाभावात्स्वतत्त्वभूतकेवलज्ञानस्वरूपेण विपरिणम्य समस्तमेव नि शेषतयात्मानमात्मनात्मनि संचेतयते। अथवा युगपदेव सर्वार्थसार्थसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात् संभाषितग्रहणमोक्षणक्रियाविराम....विश्वमशेष पश्यति जानाति च एवमस्यात्यन्तविविक्तत्वमेव । यह आत्मा स्वभावसे ही परद्रव्योंके ग्रहण-त्यागका तथा परद्रव्यरूपसे परिणमित होनेका अभाव होनेसे स्वतत्त्वभूत केवलज्ञानरूपसे परिणमित होकर, निशेषरूपसे परिपूर्ण आत्माको आत्मासे आत्मामे संचेतता जानता अनुभव करता है। अथवा एक साथ ही सर्व पदार्थोके समूहका साक्षात्कार करनेसे ज्ञप्तिपरिवर्तनका अभाव होनेसे जिसके ग्रहणत्यागरूप क्रिया विरामको प्राप्त हुई है, सर्वप्रकारसे अशेष विश्वको देखता जानता ही है। इस प्रकार उसका अत्यन्त भिन्नत्व ही है । भावार्थ-केवली भगवान् सर्वात्म प्रदेशोंसे अपनेको ही अनुभव करते रहते है, इस प्रकार वे परद्रव्योसे सर्वथा भिन्न है। अथवा केवलीभगवान्को सर्व पदार्थीका युगपत् ज्ञान होता है। उनका ज्ञान एक शेयको छोड़कर किसी अन्य विवक्षित ज्ञेयाकारको जाननेके लिए भी नहीं जाता है, इस प्रकार भी वे परसे सर्वथा भिन्न है। प्र. सा./ता. वृ/३७/५०/१६ अयं केवली भगवान् परद्रव्यपर्यायान् परिच्छित्तिमात्रेण जानाति न च तन्मयत्वेन, निश्चयेन तु केवलज्ञानादिगुणाधारभूतं स्वकीयसिद्धपर्यायमेव स्वसंवित्त्याकारेण तन्मयो भूत्वा परिच्छिनत्ति जानाति। यह केवली भगवान परद्रव्य व उनकी पर्यायोंको परिच्छित्ति ( प्रतिभास) मात्रसे जानते है: तन्मयरूपसे नहीं। परन्तु निश्चयसे तो वे केवलज्ञानादि गुणोंके आधारभूत स्वकीय सिद्धपर्यायको हो स्वसवित्तिरूप आकारसे अर्थात् स्वसंवेदन ज्ञानसे तन्मय होकर जानता है या अनुभव करता है । स. सा /ता. वृ/३५६-३६५ श्वेतमृत्तिकादृष्टान्तेन ज्ञानात्मा घटपटादिज्ञेयपदार्थस्य निश्चयेन ज्ञायको न भवति तन्मयो न भवतीत्यर्थः तहि किं भवति । ज्ञायको ज्ञायक एव स्वरूपे तिष्ठतीत्यर्थः । तथा तेन श्वेतमृत्तिकादृष्टान्तेन परद्रव्यं घटादिकं ज्ञेयं वस्तुव्यवहारेण जान ति न च परद्रव्येण सह तन्मयो भवति । = जिस प्रकार खडिया दीवार रूप नहीं होती बल्कि दीवार के बाह्य भागमें ही ठहरती है इसी प्रकार ज्ञानात्मा घट पट आदि शेयपदार्थों का निश्चयसे ज्ञायक नहीं होता अर्थात उनके साथ तन्मय नहीं होता, ज्ञायक ज्ञायकरूप ही रहता है। जिस प्रकार खडिया दीवारसे तन्मय न होकर भी उसे श्वेत करती है, इसी प्रकार वह ज्ञानात्मा घट पट आदि परद्रव्यरूप ज्ञयवस्तुओंको व्यवहारसे जानता है पर उनके साथ तन्मय नहीं होता। प.प्र./टी/१/५२/५०/१० कश्चिदाह। यदि व्यवहारेण लोकालोक जानाति तहि व्यवहारनयेन सर्वज्ञत्व, न च निश्चयनयेनेति। परिहारमाह-यथा स्वकीयमात्मानं तन्मयत्वेन जानाति तथा परद्रव्य तन्मयत्वेन न जानाति, तेन कारणेन व्यवहारो भण्यते न च परिज्ञानाभावात् । यदि पुननिश्चयेन स्वद्रव्यवत्तन्मयो भूत्वा परद्रव्यं जानाति तर्हि परकीयमुखदुःख रागद्वेषपरिज्ञातो सुखी दुखी रागी द्वेषी च स्यादिति महदूषण प्राप्नोतीति । - प्रश्न-यदि केवली भगवान व्यवहारनयसे लोकालोकको जानते है तो व्यवहारनयसे ही उन्हें सर्वज्ञत्व भी होओ परन्तु निश्चयनयसे नहीं ! उत्तर-जिस प्रकार तन्मय होकर स्वकीय आश्माको जानते हैं उसी प्रकार परद्रव्यको तन्मय होकर नहीं जानते, इस कारण व्यवहार कहा गया है. न कि उनके परिज्ञानका ही अभाव होनेके कारण। यदि स्त्र द्रव्यको भाँति परद्रव्यको भी निश्चयसे तन्मय होकर जानते तो परकीय सुख व दुःखको जाननेसे स्वयं सुखी दुःखी और परकीय रागद्वेषको जाननेसे स्वयं रागी द्वेषी हो गये होते। और इस प्रकार महत दूषण प्राप्त होता । (प. प्र/टी./११/१९) और भी दे० मोक्ष/६ व हिंसा/४/५ में इसी प्रकारका शंका-समाधान ) । ३. आत्मा ज्ञेयके साथ नहीं पर ज्ञेयाकारके साथ तन्मय होता है रा. वा./१/१०/१०/५०/१६ यदि यथा बाह्य प्रमेयाकारात् प्रमाणमन्यत् तथाभ्यन्तरप्रमेयाकारादप्यन्यत् स्यात्, अनवस्थास्य स्यात ।१०. स्यादन्यत्वं स्यादनन्यत्वमित्यादि। संज्ञालक्षणादिभेदात स्यादन्यत्वम्. व्यतिरेकेणानुपलब्धेः स्यादनन्यत्वमित्यादि ।१३। -जिसप्रकार बाह्य प्रमेयाकारोसे प्रमाण जुदा है, उसी तरह यदि अन्तरंग प्रमेयाकारसे भी वह जुदा हो तब तो अनवस्था दोष आना ठीक है, परन्तु इनमें तो कथंचित् अन्यत्व और कथंचित् अनन्यत्व है। संज्ञा लक्षण प्रयोजनकी अपेक्षा अन्यत्व है और पृथक् पृथक रूपसे अनुपलब्धि होने के कारण इनमें अनन्यत्व है । (प्र.सा./त प्र./३६) । प्र.सा/त. प्र/२६,३१ यथा चक्षु रूपिद्रव्याणि स्वप्रदेशरसंस्पृशदप्रविष्टं परिच्छेद्यमाकारमात्मसारकुर्वन्न चाप्रविष्टं जानाति पश्यति च, एवमारमापि. ज्ञेयतामापन्नानि समस्तवस्तूनि स्वप्रदेशैरसंस्पृशन्न प्रविष्टः समस्तज्ञ याकारानुन्मूल्य इव कलयन्न चाप्रविष्टो जानाति पश्यति च। एवमस्य विचित्रशक्तियोगिनो ज्ञानिनोऽर्थेष्वप्रदेश इव प्रवेशोऽपि सिद्धिमवतरति ।२६...यदि खलु.. सर्वा न प्रतिभान्ति ज्ञाने तदा तन्न सर्वगतमभ्युपगम्येत । अभ्युपगम्येत वा सर्वगतम् । तहि साक्षात् संवेदनमुकुरुन्दभूमिकावतीर्ण प्रतिबिम्बस्थानीयस्वसवेद्याकारणानि परम्परया प्रतिबिम्बस्थानीयसंवेद्याकारकारणानीति कथं न ज्ञानस्थायिनोऽर्था निश्चीयन्ते। =जिस प्रकार चक्षु रूपीद्रव्योंको स्वप्रदेशोंके द्वारा अस्पर्श करता हुआ अप्रविष्ट रहकर ( उन्हे जानता देखता है), तथा ज्ञयाकारोको आत्मसात्कार करता हुआ अप्रविष्ट न रहकर जानता देखता है, उसी प्रकार आत्मा भी ज्ञयभूत समस्त वस्तुओंको स्वप्रदेशोंसे अस्पर्श करता है, इसलिए अप्रविष्ट रहकर ( उनको जानता देखता है ), तथा वस्तुओमें वर्तते हुए समस्त ज्ञयाकारोको मानो मूल मेसे ही उखाडकर ग्रास कर लिया हो, ऐसे अप्रविष्ट न रहकर जानता देखता है । इस प्रकार इस विचित्र शक्तिवाले आत्माके पदार्थमे अप्रवेशकी भाँति प्रवेश भी सिद्ध होता है ।२१। यदि समस्त पदार्थ ज्ञानमें प्रतिभासित न हो तो वह ज्ञान सर्वगत नही माना जाता। और यदि वह सर्वगत माना जाय तो फिर साक्षात् ज्ञानदर्पण भूमिकामे अवतरित बिम्बकी भाँति अपने अपने ज्ञयाकारोके कारण ( होनेसे), और परम्परासे प्रतिबिम्बके समान ज्ञयाकारों के कारण होनेसे पदार्थ कैसे ज्ञानस्थित निश्चित नहीं होते।३१। (प्र./सा/त प्र/३६ ) (प्र. सा./पं. जयचन्द/१७४) ४. आत्मा ज्ञेयरूप नहीं पर शेयके आकार रूप अवश्य परिणमन करता है स. सा/आ./४६ सकलज्ञ यज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्रसपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वय रसरूपेणापरिणमनाच्चारस - (उसे समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परन्तु ) सकल ज्ञ यज्ञायकके तादात्म्यका निषेध होनेसे रसके ज्ञानरूपमें परिणमित होनेपर भी स्वयं रस रूप परिणमित नहीं होता, इसलिए (आत्मा) अरस है। ५ ज्ञानाकार व ज्ञेयाकार का अर्थ रा. बा./१/६/५/२४/२६ अथवा, चेतन्यशक्तावाकारौ ज्ञानाकारो ज्ञयाकारश्च । अनुपयुक्तप्रतिबिम्बाकारादर्शतलवत् ज्ञानाकार', प्रतिबिम्बाकारपरिणतादर्शतलवत् ज्ञयाकार' । = चैतन्य शक्तिके दो आकार है ज्ञानाकार और ज्ञ याकार । तहां प्रतिबिम्बशून्य दर्पणतलबत् तो ज्ञानाकार है और प्रतिबिम्ब सहित दर्पणतलवत ज्ञयाकार है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-२० Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान १५४ ६. केवलज्ञानका स्वपर-प्रकाशकपना ६. वास्तवमें ज्ञेयाकारोंसे प्रतिबिम्बित निजात्माको देखते हैं देता है, उसी प्रकार संवेदना (ज्ञान) भी आत्मासे अभिन्न होनेसे समस्त ज्ञयाकारोमे व्याप्त हुआ वर्तता है, इसलिए कार्य में कारणका उपचार करके यह कहने में विरोध नहीं आता, कि ज्ञान पदार्थो में व्याप्त होकर वर्तता है । ( स.सा./पं जयचन्द/६) स.सा./ता.व./२६८ घटाकारपरिणतं ज्ञानं घट इत्युपचारेणोच्यते।-घटाकार परिणत ज्ञानको ही उपचारसे घट कहते है। ८. छमस्थ मी निश्चयसे स्वको और व्यवहारसे परको जानता है प्र.सा./ता.व./३६/५२/१६ यथायं केवली परकीय द्रव्यपर्यायान् यद्यपि परिच्छित्तिमात्रेण जानाति तथापि निश्चयनयेन सहजानन्दै कस्वभावे स्वशुद्धात्मनि तन्मयत्वेन परिच्छित्ति करोति, तथा निर्मल विवेकिजनोऽपि यद्यपि व्यवहारेण परकीयद्रव्यगुण पर्यायपरिज्ञानं करोति, तथापि निश्चयेन निर्विकारस्वसंवेदनपर्याये विषयत्वात्पर्यायेण परिज्ञानं करोतीति सूत्रतात्पर्यम् । जिस प्रकार केवली भगवाद परकीय द्रव्यपर्यायोंको यद्यपि परिच्छित्तिमात्ररूपसे जानते हैं तथापि निश्चयनयसे सहजानन्दरूप एकस्वभावी शुद्धात्मामें ही तन्मय होकर परिच्छित्ति करते है, उसी प्रकार निर्मल विवेकीजन भी यद्यपि व्यवहारसे परकीय द्रव्यगुण पर्यायोंका ज्ञान करता है परन्तु निश्चयसे निर्विकार स्वसंवेदन पर्यायमें ही तद्विषयक पर्यायका ही ज्ञान करता है। रा. वा /१/१२/१५/५६/२३ अथ द्रव्पसिद्धिर्माभूदिति 'आकार एव न ज्ञानम्' इति कलप्यते; एवं सति कस्य ते आकारा इति तेषामप्यभाव: स्यात् । यदि (बौद्ध लोग) अनेकान्तात्मक द्रव्यसिद्धिके भयसे केवल आकार हो आकार मानते हैं, पर ज्ञान नहीं तो यह प्रश्न होता है कि वे आकार किसके हैं. क्योंकि निराश्रय आकार तो रह नहीं सकते हैं। ज्ञानका अभाव होनेसे आकारोका भो अभाव हो जायेगा। ध. १३/५.५,८४/३५३।२ अशेषवाह्यार्थग्रहणे सत्यपि न केवलिनः सर्वज्ञता, स्वरूपपरिच्छित्यभावादियुक्त आह-'पस्सदि' त्रिकालगोचरानन्तपर्यायोपचितमात्मानं च पश्यति।केवली द्वारा अशेष बाह्य पदार्थोंका ज्ञान होनेपर भी उनका सर्वज्ञ होना सम्भव नहीं है, क्योंकि उनके स्वरूपपरिच्छित्ति अर्थात स्वसंवेदनका अभाव है: ऐसी आशंकाके होनेपर सूत्रमें 'पश्यति' कहा है। अर्थात वे त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे उपचित आत्माको भी देखते हैं। प्र.सा./त प्र./४६ आत्मा हि तावत्स्वयं ज्ञानमयत्वे सति ज्ञातृत्वात् ज्ञानमेव । ज्ञानं तु प्रत्यात्मवर्ति प्रतिभासमयं महासामान्यम् । तत्तु प्रतिभासमयानन्तविशेषव्यापि। ते च सर्वद्रव्यपर्यायनिबन्धना. । अथ य... प्रतिभासमयमहासामान्यरूपमात्मानं स्वानुभवप्रत्यक्षं न करोति स कथ...सर्व द्रव्यपर्यायान प्रत्यक्षीकुर्यात् । एवं च सति ज्ञानमयत्वेन स्वसचेतकत्वादात्मनो ज्ञातृशेययोर्वस्तुत्वे नान्यत्वे सत्यपि प्रतिभासप्रतिभास्यमानयो स्वस्यामवस्थायामन्योन्यसंमलनेनात्यन्तमशक्यविवेचनत्वात्सर्वमात्मनि निखातमिव प्रतिभाति । यद्य व न स्यात् तदा ज्ञानस्य परिपूर्णात्मसंचेतनाभावात परिपूर्णस्यैकस्यात्मनोऽपि ज्ञान न सिद्धयेत् । पहिले तो आत्मा वास्तव में स्वयं ज्ञानमय होनेसे ज्ञातृत्वके कारण ज्ञान ही है और ज्ञान प्रत्येक आत्मामें वर्तता हुआ प्रतिभासमय महासामान्य है, बहु प्रतिभास अनन्त विशेषों में व्याप्त होनेवाला है और उन विशेषोंके निमित्त सर्व द्रव्यपर्याय हैं। अब जो पुरुष उस प्रतिभासमय महासामान्यरूप आत्माका स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं करता वह सर्व द्रव्य पर्यायोंको कैसे प्रत्यक्ष कर सकेगा ! अतः जो आत्माको नहीं जानता व सबको नहीं जानता। आत्मा ज्ञानमयताके कारण संचेतक होनेसे, ज्ञाता और ज्ञेयका वस्तुरूपसे अन्यत्व होनेपर भो, प्रतिभास और प्रतिभास्य मानकर अपनी अवस्थामें अन्योन्य मिलन होनेके कारण, उन्हें (ज्ञान व ज्ञेयाकारको) भिन्न करना अत्यन्त अशक्य है इसलिए, मानो सबकुछ आत्मामें प्रविष्ट हो गया हो इस प्रकार प्रतिभासित होता है। यदि ऐसा न हो तो ज्ञानके परिपूर्ण आत्मसंचेतनका अभाव होनेसे परिपूर्ण एक आत्माका भी ज्ञान सिद्ध न हो। (प्र.सा./त.प्र./४८), (प्र.सा./ता-वृ./३५), (पं.ध./पू /६७३) स.सा./परिशिष्ट/कर५१ ज्ञेयाकारकलड्कमेचकचिति प्रक्षालन कल्पयन्नेकाकारचिकीर्षया स्फुटमपि ज्ञानं पशनच्छति ।..१२५११-ज्ञेयाकारोंको धोकर चेतनको एकाकार करनेकी इच्छासे अज्ञानीजन वास्तव में ज्ञानको ही नहीं चाहता। ज्ञानी तो विचित्र होनेपर भी ज्ञानको प्रक्षालित हो अनुभव करता है। ९. केवलज्ञानके स्वपर-प्रकाशकपनेका समन्वय नि.सा./मू./१६६-१७२ अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोय ण केवली भगवं। जह कोइ भणइ एवं तस्स य कि दूसणं होइ।१६६। मुत्तममुत्तं दवं चेयणमियर सगं च सव्वं च । पेच्छतस्स दुणाणं पञ्चवरखमाणिदियं होइ ।१६७। पुवुत्तसयलदव्वं णाणागुण पज्जएण संजुत्त । जो ण य पैच्छइ सम्म परोक्रवदिट्ठी हवे तस्स ।१६। लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं । जो केइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ।१६। णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणइ अप्पर्ग अप्पा। अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित्तं ॥१७०। अप्पाणं विणु णाणं णाणं विणु अप्पगो ण संदेहो। तम्हा सपरपयासं जाणं तह दसणं होदि ।१७११ जाणतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। केवलणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो ।१७२। प्रश्न-केवली भगवान आत्मस्वरूपको देखते हैं लोकालोकको नहीं, ऐसा यदि कोई कहे तो उसे क्या दोष है ।।१६६। उत्तर-पूर्त, अमूर्त, चेतन व अचेतन दव्योंको स्वको तथा समस्तको देखनेवालेका ही ज्ञान प्रत्यक्ष और अनिश्चय कहलाता है। विविध गुणों और पर्यायों से संयुक्त पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को जो सम्यक् प्रकार नहीं देखता उसकी दृष्टि परोक्ष है ।१६७-१६८० प्रश्न-(तो फिर) केवली भगवान् सोकालोकको जानते हैं आत्माको नहीं ऐसा यदि कहें तो क्या दोष है ।१६। उत्तरज्ञान जीवका स्वरूप है, इसलिए आत्मा आत्माको जानता है, यदि ज्ञान आत्माको न जाने तो वह आत्मासे पृथक सिद्ध हो। इसलिए तू आत्माको ज्ञान जान और ज्ञानको आत्मा जान । इसमें तनिक भी सन्देह न कर। इसलिए ज्ञान भो स्वपरप्रकाशक है और दर्शन भी (ऐसा निश्चय कर)-(और भी दे० दर्शन/२/६)१७०-१७११ प्रश्न(परको जाननेसे तो केवली भगवान्को बन्ध होनेका प्रसंग आयेगा, क्योंकि ऐसा होनेसे वे स्वभावमें स्थित न रह सकेंगे। उत्तर-- केवलीका जानना देखना क्योंकि इच्छापूर्षक नहीं होता है, (स्वाभाविक होता है । इसलिए उस जानने देखनेसे उन्हें बन्ध नहीं है ।१७२। नि.सा/ता वृ./गा.स भगवान्.. सच्चिदानन्दमयमात्मानं निश्चयतः पश्य तीति शुद्धनिश्चयनयविवक्षयाय' कोऽपि शुद्धान्तस्तत्त्ववेदी परमजिनयोगीश्वरो बक्ति तस्य च न खलु दूषणं भवतीति ।१६६। पराश्रितो व्यवहार इति मानाद् व्यबहारेण व्यवहारप्रधानत्वात् निरुपरागशुद्धा ७. ज्ञेयाकारमें ज्ञेयका उपचार करके ज्ञेयको जाना कहा জানা ই प्र.सा./त.प्र./३० यथा किलेन्द्रनीलरत्नं दुग्धमधिवसत्स्वप्रभाभारेण तदभिभूय वर्तमाने, तथा संवेदनमध्यात्मनोऽभिन्नत्वात्.. समस्तज्ञयाकारानभिव्याप्य वर्तमान कार्यकारणत्वेनोपर्य ज्ञानमनिभिभूय वर्तत इत्युच्यमान न विप्रतिषिध्यते।-जैसे दूधमें पड़ा हुआ इन्द्रनीलरत्न अपने प्रभावसमूहसे दूधमें व्याप्त होकर वर्तता हुआ दिखाई जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञानावरण केवली कदाचित उपदेश देनेवाले और मूक केवली । मूक केवली बिलकुल भी उपदेश आदि नहीं देते। उपरोक्त सभी केवलियों की दो अवस्थाएँ होती है-सयोग और अयोग। जब तक बिहार व उपदेश आदि क्रियाएँ करते है, तबतक सयोगी और आयुके अन्तिम कुछ क्षणों में जब इन क्रियाओंको त्याग सर्वथा योग निरोध कर देते हैं तब अयोगी कहलाते हैं। २ त्मस्वरूपं नैव जानाति (लोकालोकं जानाति) यदि व्यवहारनयविवक्षया कोऽपि जिननाथतत्त्व विचारलब्ध. कदाचिदेवं वक्ति चेव तस्य न खलु दूषणमिति।१६। केवलज्ञानदर्शनाम्यां व्यवहारनयेन जगत्त्रयं एकस्मिन् समये जानाति पश्यति च स भगवान परमेश्वरः परम, भट्टारक; पराश्रितो व्यवहारः इति वचनाद। शुद्धनिश्चयतः...निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्यपरमात्मापि जानाति पश्यति च । कि कृत्वा, ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्वपरप्रकाशकत्वं प्रदीपवत् ।.."आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च परंज्योतिःस्वरूपत्वाव स्वयंप्रकाशास्मकमात्मानं च प्रकाशयति । अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येति सततनिरुपरागनिरञ्जनस्वभावनिरतत्वात् स्वाश्रितो निश्चय. इति वचनात् । सहजज्ञानं तावदात्मनः सकाशात संज्ञालक्षणप्रयोजनेन...भिन्न भवति न वस्तुवृत्त्या चेति, अतः कारणात एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिक जानाति स्वारमानं कारणपरमात्मस्वरूपमपि जानाति ।१५६।- वह भगवान आत्माको निश्चयसे देखते हैं" शुद्धनिश्चयनयकी विवक्षासे यदि शुद्ध अन्तस्तत्त्वका वेदन करनेवाला अर्थात ध्यानस्थ पुरुष या परम जिनयोगीश्वर कहें तो उनको कोई दूषण नहीं है ।१६६। और व्यवहारनय क्योंकि पराश्रित होता है, इसलिए व्यवहारनयसे व्यवहार या भेदकी प्रधानता होनेके कारण 'शुद्वारमरूपको नहीं जानते, लोकालोकको जानते हैं। ऐसा यदि कोई जिननाथतत्त्वका विचार करनेवाला अर्थात् विकल्पस्थित पुरुष व्यवहारनयकी विवक्षासे कहे तो उसे भी कोई दूषण नहीं है ।१६। अर्थात विवक्षावश दोनो ही बातें ठीक हैं। (अब दूसरे प्रकारसे भी आत्माका स्वपरप्रकाशकत्व दर्शाते हैं, तहाँ व्यवहारसे तथा निश्चयसे दोनों अपेक्षाओंसे ही ज्ञानको व आत्माको स्वपरप्रकाशक सिद्ध किया है ।) सो कैसे-केवलज्ञान व केवलदर्शनसे व्यवहारनयको अपेक्षा वह भगवान् तीनों जगत्को एक समयमें जानते हैं, क्योंकि व्यवहारनय पराश्रित कथन करता है। और शुद्धनिश्चयनयसे निज कारण परमात्मा व कार्य परमात्माको देखते व जानते हैं (क्योंकि निश्चयनय स्वाश्रित कथन करता है । दीपकवत स्वपरप्रकाशक पना ज्ञानका धर्म है।१६। इसी प्रकार आत्मा भी व्यवहारनयसे जगत्रय कालत्रयको और पर ज्योति स्वरूप होनेके कारण (निश्चयसे ) स्वयं प्रकाशात्मक आत्माको भी जानता है ।१५६। निश्चय नयके पक्षमें भी ज्ञानके स्वपरप्रकाशकपना है। (निश्चय नयसे ) वह सतत निरुपराग निरंजन स्वभावमें अवस्थित है, क्योंकि निश्चय नय स्वाश्रित कथन करता है। सहज ज्ञान संज्ञा, लक्षण व प्रयोजनकी अपेक्षा आत्मासे कथंचिद्न भिन्न है, वस्तुवृत्ति रूपसे नहीं। इसलिए वह उस आत्मगत दर्शन, सुख, चारित्रादि गुणोंको जानता है, और स्वात्माको भो कारण परमात्मस्वरूप जानता है। (इस प्रकार स्व पर दोनोको जानता है।) (और भो दे० दर्शन/२/६) (और भी देखो नय/V/७/१) तथा (नय/V/8/४ ) । केवलज्ञानावरण-दे० ज्ञानावरण । केवलदर्शन-दे० दर्शन/१ केवलदर्शनावरण-दे० दर्शनावरण । केवललब्धि -दे० लब्धि/१॥ केवलाद्वैत-दे० नय III/४/५ कवला-केवलज्ञान होनेके पश्चात् वह साधक केवली कहलाता है। इसीका नाम अर्हन्त या जीवन्मुक्त भी है। वह भी दो प्रकारके होते हैं-तीर्थकर व सामान्य केवली । विशेष पुण्यशाली तथा साक्षात् उपदेशादि द्वारा धर्मको प्रभावना करनेवाले तीर्थकर होते हैं, और इनके अतिरिक्त अन्य सामान्य केली होते हैं। वे भी दो प्रकारके होते हैं, भेद व लक्षण केवली सामान्यका लक्षण व भेद निदेश सयोगी व अयोगी दोनों अर्हन्त हैं दे. अर्हन्त/२। अहंत. सिद्ध व तीर्थकर अंतकृत् व श्रुतकेवली -दे० वह वह नाम । तद्भवस्थ व सिद्ध केवलीके लक्षण । सयोग व अयोग केवलोके लक्षण । २ केवली निर्देश केवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वश होता है। * | सर्वज्ञ व सर्वशता तथा केवलीका शान -दे० केवलज्ञान/४,५॥ २ सयोग व अयोगी केवलीमें अन्तर। सयोगीके चारित्रमें कथंचित् मलका सद्भाव -दे० केवली/२/२। सयोग व अयोग केवलीमें कर्म क्षय सम्बन्धी विशेष । केवलीके एक क्षायिक भाव होता है। केवलोके सुख दुःख सम्बन्धी -दे० सुख। छमस्थ व केवलीके आत्मानुभवकी समानता । -दे० अनुभव/1 केवलियोंके शरीरकी विशेषताएँ। तीर्थकरोंके शरीरकी विशेषताएँ -दे० तीर्थकर/१। केवलज्ञानके अतिशय -दे० अहंत /६। केवलीमरण -दे० मरण/१। तीसरे व चौथे कालमें ही केवली होने सभव है। -दे० मोक्ष/४/३। * प्रत्येक तीर्थकरके तीर्थ में केवलियोंका प्रमाण -दे० तीथंकर/५१ * | सभी मार्गणाओंमें आयके अनुसार ही व्यय होने सम्बन्धी नियम-दे० मार्गणा/। * * * * * * शंका-समाधान ईर्यापथ आस्रव सहित भी भगवान् कैसे हो सकते हैं। कवलाहार व परीषह सम्बन्धी निर्देश व शंका-समाधान केवलीको नोकर्माहार होता है। समुद्वात अवस्थामें नोकर्माहार भी नहीं होता। केवलीको कवलाहार नहीं होता। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली केवली मनुष्य होनेके कारण के वलीको भी कवलाहारी होना चाहिए। ५ सयमकी रक्षाके लिए भी केवलीको कवलाहारकी आवश्यकता थी। औदारिक शरीर होनेसे केवलोको कवलाहारी होना चाहिए। आहारक होनेसे केवलीको कवलाहारी होना चाहिए । परिषहोंका सद्भाव होनेसे केवलीको कवलाहारी होना चाहिए। ९, केवली भगवान्को क्षुधादि परिषह नहीं होती। १० केवलीको परीषद कहना उपचार है। | असाताके उदयके कारण केवलीको क्षधादि परीषह होनी चाहिए। १ घाति व मोहनीय कर्मकी सहायता न होनेसे असाता अपना कार्य करनेको समर्थ नहीं है। २. साता वेदनीयके सहवतापनेसे असाताकी शक्ति अनन्तगुणी क्षीण हो जाती है। ३ असाता भी सातारूप परिणमन कर जाता है। | १२ | निष्फल होनेके कारण असाताका उदय ही नहीं कहना | चाहिए। इन्द्रिय व मन, योग सम्बन्धी निर्देश व शंका-समाधान w, vre * ध्यान व लेश्या आदि सम्बन्धी निर्देश व शंका-समाधान | केवलीके समुद्घात अवस्थामें भी भावसे शुक्ललेश्या है; तथा द्रव्यसे कापोत लेश्या होती है। -दे० लेश्या /३ ! केवलीके लेश्या कहना उपचार है तथा उसका कारण। केवलीके संयम कहना उपचार है तथा उसका कारण। केवली के ध्यान कहना उपचार है तथा उसका कारण। केवलीके एकत्व वितर्क विचार ध्यान क्यों नहीं कहते। तो फिर केवली क्या ध्याते है। केवलीको इच्छाका अभाव तथा उसका कारण । केवलीके उपयोग कहना उपचार है। ७ केवली समुद्धात निर्देश केवली समुद्वात सामान्यका लक्षण । भेद-प्रमेद। दण्डादि भेदोंके लक्षण । | सभी केवलियों के होने न होने विषयक दो मत । * | केवली समुद्धातके स्वामित्वको ओघादेश प्ररूपणा। -दे० समुद्रात | आयुके छः माह शेष रहनेपर होने न होने विषयक दो मत । कदाचित् आयुके अन्तर्महूर्त शेष रहनेपर होता है। आत्म प्रदेशोंका विस्तार प्रमाण । कुल आठ समय पर्यन्त रहता है। प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधिक्रम । दण्ड समुद्घातमें औदारिक काययोग होता है शेषमें नहीं। कपाट समुद्घातमें औदारिक मिश्र काययोग होता है शेषमें नहीं। -दे० औदारिक/२। * | लोकपूरण समुद्घातमें कार्माण काययोग होता है शेषमें नहीं -दे० कार्माण/२। ११ प्रतर व लोकमें आहारक शेषमें अनाहारक होता है। १२ | केवली समुद्घातमें पर्याप्तापर्याप्त सम्बन्धी नियम । * केवलीके पर्याप्तापर्याप्तपने सम्बन्धी विषय। -दे० पर्याप्ति/३॥ पर्याप्तापर्याप्त सम्बन्धी शंका-समाधान । समुद्वात करनेका प्रयोजन। इसके द्वारा शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग बात नहीं होता। जब शेष कर्मों की स्थिति आयुके समान न हो। तब उनका समीकरण करनेके लिए होता है। कर्मोंकी स्थिति बराबर करनेका विधि क्रम। स्थिति बराबर कर नेके लिए इसकी आवश्यकता क्यो। समुद्धात रहित जीवकी स्थिति कैसे समान होती है। ९वे गुणस्थानमें ही परिणामोंकी समानता होनेपर स्थितिकी असमानता क्यों। द्रव्येन्द्रियोंकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रियत्व है भावेन्द्रियोंकी ___ अपेक्षा नहीं। २ | जाति नामकमोदयकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रियत्व है। पञ्चेन्द्रिय कहना उपचार है। इन्द्रियोंके अभावमें शानकी सम्भावना सम्बन्धी शकासमाधान -दे० प्रत्य:/२ भावेन्द्रियोके अभाव सम्बन्धी शंका समाधान । केवलीके मन उपचारसे होता है। | केवलीके द्रव्यमन होता है भाव मन नहीं । तहा मनका भावात्मक कार्य नहीं होता पर परिस्पन्द रूप कार्य होता है। भावमनके अभाव में बचनकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? मन सहित होते हुए भी केवलीको सही क्यों नहीं कहते। १० योगोंके सद्भाव सम्बन्धी समाधान । ११ केवली के पर्याप्ति योग तथा प्राण विषयक प्ररुपणा। द्रव्येन्द्रियोकी अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते? १३ समुद्वातगत केवलीको चार प्राण कैसे कहते हो? अयोगीके एक आबु प्राण होनेका क्या कारण है ? | * योग प्राण तथा पर्याप्ति की प्ररूपणा -दे० वह वह नाम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली १५७ २. केवली निर्देश १.भेद व लक्षण ४. सयोग व अयोग केवलीके लक्षण पं. सं./प्रा./१/२०-३० केवलणाणदिवायर किरणकलावप्पणासि अण्णाओ। ..केवली सामान्यका लक्षण णवकेवल धुग्गमपावियपरमप्पववएसी ।२७ असह यणाण-दसण सहिओ वि हु केवली हु जोएण। जुत्तो त्ति सजोइजिणो अणाइणिह१. केवली निरावरण ज्ञानी होते है णारिसे बुत्तो ।१२।। सेले सिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेस आसओ जीवो। मू. आ./५६४ सव्वे केवल कप्पं लोग जाणं ति तह य पस्सं ति । केवल कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होई ॥३०१ =जिसका केवलीणाणचरित्ता तम्हा ते केवली होति ।।६४! - जिस कारण सब केवल ज्ञानरूपी सूर्यको किरणोसे अज्ञान विनष्ट हो गया है। जिसने केवलज्ञानका विषय लोक अलोकको जानते हैं और उसी तरह देखते हैं। लब्धि प्राप्त कर परमात्म संज्ञा प्राप्त की है, ह असहाय ज्ञान और तथा जिनके केवलज्ञान ही आचरण है इसलिए वे भगवान केवली है। दर्शनसे युक्त होने के कारण कवली, तीनों योगोंसे युक्त होनेके कारण स. सि /६/१३/३३१/११ निराबरणज्ञाना केवलिन'। सयोगी और घाति कर्मोंसे रहित होनेके कारण जिन कहा जाता स. सि /8/३८/४५३/४ प्रक्षीणसकलज्ञानावरणस्य केवलिन' सयोगस्या है, ऐसा अनादि निधन आपमें कहा है। ( २७, २८) जो अठारह योगस्य च परे उत्तरे शुक्लध्याने भवतः। =जिनका ज्ञान आवरण हजार शीलोके स्वामी है, जो आसवोसे रहित है, जो नूतन बंधने रहित है वे केवली कहलाते है। जिसके समस्त ज्ञानावरणका नाश हो वाले कर्मरजसे रहित है और जो योगसे रहित है, तथा केवलज्ञानसे गया है ऐसे सयोग व अयोग केवली... (घ./१/१,१,२१/१६१/३) । विभूषित है, उन्हे अयोगी परमात्मा कहते हैं ।३०। (ध.१/१,१२१/ १२४-१२६/११२) (गो जी /मू./६३-६) (पं सं/सं/१/४६-५०) रा वा./६/१३/१/५२३/२६ करणक्रमव्यवधानातिबतिज्ञानोपेता. केवलिन' प.सं./प्रा/१/१०० जेसि ण सति जोगा सुहामहा पुण्णपापसंजणया। ते ११ करणं चक्षुरादि, कालभेदेन वृत्ति. क्रम', कुड्यादिनान्तर्धानं होति अजोइजिणा अणोवमाणं तगुणकलिया ।१००। -जिनके पुण्य व्यवधानम्, एतान्यतीत्य वर्तते, ज्ञानावरणस्यात्यन्तसंक्षये आविभृत और पापके संजनक अर्थात् उत्पन्न करने वाले शुभ और अशुभ योग मात्मन' स्वाभाविकं ज्ञानम्, तद्वन्तोऽर्हन्तो भगवन्त' केवलिन इति नहीं होते है, वे अयोगि जिन कहलाते है, जो कि अनुपम और व्यपदिश्यन्ते। -ज्ञानावरणका अत्यन्त क्षय हो जानेपर जिनके अनन्त गुणोसे सहित होते है । (ध.१/१,१,५६/१५४/२८०) (गो जी./ स्वाभाविक अनन्त ज्ञान प्रकट हो गया है. जिनका ज्ञान इन्द्रिय काल मू./२४३) (पं.सं/सं./१/१८०) क्रम और दूर देश आदिके व्यवधानसे परे हैं और परिपूर्ण है वे ध.७/२,१,१५/१८/२ सहिददेसमछंडिय छद्दित्ता वा जीवदबस्स । सावकेवली हैं ( रा. वा./४/१/२३४५६०)। यवेहिं परिप्फंदो अजोगो णाम, तस्स कम्मरवयत्तादो। =स्व स्थित २. केवली आत्मज्ञानी होते हैं प्रदेशको न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीव द्रव्यका अपने अबस सा./मू./जो हि सुएण हि गच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्र । तं सुय यवों द्वारा परिस्पन्द होता है वह अयोग है, क्योकि वह कर्मक्षयसे उत्पन्न होता है। केवलिमिसिणो भणं ति लोयप्पईवयवा ।। -जो जीव निश्चयसे ज.१/१,१,२९/१६१/४ योगेन सह वर्तन्त इति सयोगाः । सयोगाश्च ते श्रुतज्ञानके द्वारा इस अनुभव गोचर केवल एक शुद्ध आत्माको सम्मुख केवलिनश्च सयोगकेवलिनः । हाकर जानता है, उसको लोकको प्रगट जाननेवाले ऋषिवर श्रुतकेवली हैं। ध १/१,१,२२/१६२/७ न विद्यते योगो यस्य स भवत्ययोगः। केवलमस्या स्तीति केवली। अयोगश्चासौ केवली च अयोगकेवली। जो योगप्र. सा./त प्र/३३ भगवान् केवलस्यात्मन आत्मनात्मनि संचेतनात के साथ रहते हैं उन्हें सयोग कहते है, इस तरह जो सयोग होते केवली । भगवान् • आत्माको आत्मासे आत्मामें अनुभव करनेके हुए केवली है उन्हें सयोग के बली कहते है। जिसके योग विद्यमान कारण केवली हैं। (भावार्थ-भगवान् समस्त पदार्थो को जानते है, नहीं हैं उसे अयोग कहते हैं। जिसके केवलज्ञान पाया जाता है उसे मात्र इसलिए ही वे केवलो' नही कहलाते, किन्तु केवल अर्थात केबली कहते है, जो योगरहित होते हुए केवली होता है उसे अयोग शुद्वात्माको जानने--अनुभव करनेसे केवली कहलाते है)। केवली कहते हैं । (रा.वा./६/१/२४/५६/२३) मो. पा./टी०/६/३०८/११ केवते सेवते निजात्मनि एकलोलीभावेन तिष्ठ द्र.सं /टी./१३/३५ ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायत्रयं युगपदेकसमयेन तीति केवल । जो निजात्मामें एकीभावसे केवते हैं, सेवते हैं या निर्मूल्य मेघपञ्जरविनिर्गतदिनकर इव सकल विमलकेवलज्ञानज्ञानठहरते है वे केवली कहलाते हैं। किरण र्लोकालोकप्रकाशकास्त्रयोदशगुणस्थानवतिनो जिनभास्करा भवन्ति। मनोवचनकायवर्गणालम्बनकर्मादाननिमितात्मप्रदेशपरि२. केवलीके भेदोंका निर्देश स्पन्दलक्षणयोगरहितश्चतुर्दशगुणस्थानवर्तिनोऽयो गिजिना भवन्ति। क. पा/१/१.१६/६ ३१२/३४२ /२५ विशेषार्थ-तद्भवस्थकेबल और सिद्ध समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनोंको एक केवलोके भेदसे केवली दो प्रकार के होते है। साथ एक काल में सर्वथा निर्मूल करके मेधपटलसे निकले हुए सूर्यके सत्ता स्वरूप/३८ सात प्रकारके अर्हन्त होते हैं। पाँच, तीन व दो समान केवलज्ञानकी किरणोसे लोकालोकके प्रकाशक तेरहवे गुणकल्याणक युक्त, सातिशय केवली अर्थात् गन्धकुटी युक्त केवली. स्थानवर्ती जिनभास्कर (सयोगी जिन) होते हैं । और मन वचन, सामान्य केवली अर्थात् मूककेवली, (दो प्रकार हैं-तीर्थ कर । काय वर्गणाके अवलम्बनसे कर्मोंके ग्रहण करने में कारण जो आत्माके सामान्य केवलो) उपसर्ग केवली और अन्त- कृद केवली। प्रदेशोका परिस्पन्दन रूप योग है, उससे रहित चौदहवे गुणस्थान बर्ती अयोगी जिन होते है। ३. तद्भवस्थ व सिद्ध केवलीका लक्षण २. केवली निर्देश १. कंवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वज्ञ होता है क. पा. १/१,१६/६ ३११/३४/२६ विशेषार्थ-जिस पर्यायमे केवलज्ञान प्राप्त हुआ उसो पर्यायमे स्थित केत्रलोको तद्भवस्थ केबली कहते है ___ स.स्तो टी./५/१३ ननु तव ( कर्म ) प्रक्षये तु जड़ो भविष्यति..बुद्धि और सिद्ध जीवोको सिद्ध केवली कहते है। आदि-विशेषगुणानामत्यन्तोच्छेदात् इति योगा। चैतन्यमात्ररूपं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली १५८ ३. शंका-समाधान ध १/१,१,२१/१६४/२ पञ्चसु गुणेषु कोऽत्र गुण इति चेत्, क्षीणाशेषघातिकर्मत्वानिरस्यमानाद्याप्तिकर्मत्वाच्च क्षायिको गुण । -१. चारों घातिया कर्मों के क्षय कर देनेसे, वेदनीय कर्मके निशक्त कर देनेसे, अथवा आठों ही कर्मों के अवयव रूप साठ उत्तर प्रकृतियों के नष्ट कर देनेसे इस गुणस्थानमें क्षायिक भाव होता है । २. प्रश्न-पाँच प्रकार के भावों में इस ( अयोगो) गुणस्थानमें कौन-सा भाव होता है। उत्तर--सम्पूर्ण पातिया कर्मोके क्षीण हो जानेसे और थोडे ही समयमें अधातिया कर्मोंके नाशको प्राप्त होनेवाले होनेसे इस गुणस्थानमें क्षायिक भाव होता है। प्र. सा./मू./४५ पुण्णफला अरहंता तेसि किरिया पुणो हि ओदइया। मोहादीहि विरहिया तम्हा सा वाइग त्ति मदा। -अरहन्त भगवान् पुण्य फलवाले है और उनकी क्रिया औदयिकी है, मोहादिसे रहित है इसलिए वह क्षायिकी मानी गयी है। इति सांख्या । सकल विप्रमुक्त सन्नात्मा समग्रविद्यात्मवपुर्भवति न जड़ो, नापि चैतन्यमात्ररूप । -प्रश्न-१. कर्मोका क्षय हो जानेपर जीव जड़ हो जायेगा, क्योकि उसके बुद्धि अदि गुणोंका अत्यन्त उच्छेद हो जायेगा। ऐसा योगमत वाले कहते है। २. वह तो चेतन्य मात्र रूप है, ऐसा सांख्य कहते है। उत्तर-सकल कर्मोसे मुक्त होने पर आत्मा सम्पूर्णतः ज्ञानशरीरी हो जाता है जड़ नहीं, और न ही चैतन्य मात्र रहता है। २. सयोग व अयोग केवली में अन्तर द्र.सं./टी./१३/३६ चारित्रविनाशकचारित्रमोहोदयाभावेऽपि सयोगिकेवलिनां निष्क्रियशुद्धात्माचरण विलक्षणो योगत्रयव्यापारश्चारित्रमलं जनयति, योगत्रयगते पुनरयोगिजिने चरमसमयं विहाय शेषाधातिकर्मतीव्रोदयश्चारित्रमलं जनयति, चरमसमये तु मन्दोदये सति चारित्रमलाभावात् मोक्षं गच्छति । =सयोग केवलीके चारित्रके नाश करने वाले चारित्रमोहके उदयका अभाव है, तो भी निष्क्रिय आत्माके आचरणसे विलक्षण जो तीन योगीका व्यापार है वह चारित्रमें दूषण उत्पन्न कहता है। तीनों योगोसे रहित जो अयोगी जिन हैं उनके अन्त समयको छोड़कर चार अघातिया कर्मोंका तीन उदय चारित्रमें दूषण उत्पन्न करता है और अन्तिम समयमें उन अघातिया कर्मोका मन्द उदय होने पर चारित्रमें दोषका अभाव हो जानेसे अयोगी जिन मोक्षको प्राप्त हो जाते है। श्लो. वा/१/१/१/४/४८४/२६ स्वपरिणामविशेष' शक्तिविशेषः सोऽन्तरङ्ग' सहकारी निःश्रेयसोत्पत्तौ रत्नत्रयस्य तदभावे नामाद्यघातिकर्मत्रयस्य निर्जरानुपपत्तेनिःश्रेयसानुत्पत्ते....तदपेक्षं क्षायिकरत्नत्रयं सयोगकेवलिनः प्रथमसमये मुक्ति न संपादयत्येव, तदा तत्सहकारिणोऽसत्त्वात । वे आत्माकी विशेष शक्तियाँ मोक्षकी उत्पत्तिमें रत्नत्रयके अन्तरंग सहकारी कारण हो जाती हैं। यदि आत्माकी उन सामथ्यौंको सहकारी कारण न माना जावेगा तो नामादि तीन अघाती कर्मोंकी निर्जरा नही हो सकती थी। तिस कारण मोक्ष भी नहीं उत्पन्न हो सकेगा, क्यो कि उसका अभाव हो जायेगा। उन आत्माके परिणाम विशेषों की अपेक्षा रखने वाला क्षायिक रत्नत्रय सयोग केवली गुणस्थानके पहले समयमें मुक्तिको कथमपि प्राप्त नहीं करा सकता है। क्योंकि उस समय रत्नत्रयका सहकारी कारण वह आत्माकी शक्ति विशेष विद्यमान नहीं है। ३. सयोग व अयोग केवलीमें कर्मक्षय सम्बन्धी विशेषताएँ ध.१/१,१,२७/२२३/१० सयोगकेवली ण किचि कम खवेदि । = सयोगी जिन किसी भी कर्मका क्षय नहीं करते। ध.१२/४,२,७,१५/१८/२ रवीणकषाय-सजोगीसु डिदि-अणुभागघादेसु संतेस वि सहाणं पयडीणं अणुभागघादो णत्थि त्ति सिद्ध अजोगिम्हि विदि-अणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुक्कस्साणुभागो होदि त्ति अत्थावत्तिदिद्ध। -क्षीणकषाय और सयोगी जिनका ग्रहण प्रगट करता है कि शुभ प्रकृतियों के अनुभागका घात विशुद्धि, केवलिसमुद्धात अथवा योग निरोधसे नहीं होता। क्षीण कषाय और सयोगी गुणस्थानों में स्थितिघात व अनुभागघातके होने पर भी शुभ प्रकृतियों के अनुभागका घात वहाँ नहीं होता, यह सिद्ध होने पर स्थिति व अनुभागसे रहित अयोगी गुणस्थानमे शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग होता है, यह अर्थापत्तिसे सिद्ध है। ४. केवलीको एक क्षायिक भाव होता है व १/१,१,२१/१६१/६ गिताशेषघातिकमत्वान्निशक्तीकृतवेदनीयत्वान्नष्टाष्टक वयवष्टिकर्मत्वाद्वा क्षायिकगुण । ५. केवलियोंके शरीरकी विशेषताएँ ति.प./४/७०५ जादे केवलणाणे परमोरालं जिणाण सव्वाणं । गच्छदि उपरि चावा पंच सहस्साणि वसुहाओ७०५॥ केवलज्ञानके उत्पन्न होने पर समस्त तीर्थंकरोंका परमौदारिक शरीर पृथिवीसे पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है ।७०५॥ ध.१४/५,६,६१/८१/८ सजोगि-अजोगिकेवलिणी च पत्तेय-सरीरा बुच्चंति एदेसि णिगोदजीवेहि सह संबंधाभावादो। ध.१४/५.६,११६/१३८/४ रवीणकसायम्मि बादरणिगोदवग्गणार संतीए केवलणाणुप्पत्तिविरोहादो। =१. संयोगवली और अयोगिकेवली ये जीव प्रत्येक शरीरवाले होते हैं, क्योंकि इनका निगोद जीवों के साथ सम्बन्ध नहीं होता। २. क्षीण कषायमें बादर निगोद वर्गणाके रहते हुए केवलज्ञानकी उत्पत्ति होनेमें विरोध है। (यहाँ बादरनिगोद वर्गणासे बादर निगोद जीवका ग्रहण नहीं है, बल्कि केवलीके औदारिक व कार्माण शरीरो व विस्त्रसोपचयोंमें बंधे परमाणुओंका प्रमाण बताना अभीष्ट है। ) निगोद से रहित होता है। ३. शंका-समाधान १. ईर्यापथ आस्रव सहित मी भगवान् कैसे हो सकते ध.१३/५,४,२४/१२/८ जलमज्झणिवदियतत्तलोहुंडओ त्व इरियावहकम्म जलं सगसव्वजीवपदेसेहि गेण्हमाणो केवली कधं परमप्पएण समाणत पडिवज्जदि त्ति भणिदे तण्णियस्थमिदं बुच्चदे-इरियावहकम्म गहिद पि तण्ण गहिदं...अणंतरसंसारफल णिवत्तणसत्तिविरहादो... बद्धपि तण्ण बद्ध चेत्र, विदियसमए चेव णिज्जरुवलं भादो पुणो... पुट्ठपि तण्ण पुढचेव; इरियावहबंधस्स संतसहावेण...अवट्ठणाभावादो।...उदिण्णमपि तण्ण उदिण्णं दद्धगोहमरासिव्व पत्तणिब्बीयभावत्तादो। -प्रश्न-जलके बीच पड़े हुए तप्त लोह पिण्डके समान ईर्यापथ कर्म जलको अपने सर्व जीव प्रदेशों द्वारा ग्रहण करते हुए केवली जिन परमात्माके समान कैसे हो सकते हैं। उत्तर--ईर्यापथ कर्मगृहीत होकर भी वह गृहीत नहीं है...क्योंकि वह संसारफलको उत्पन्न करनेवाली शक्तिसे रहित है। बद्ध होकर भी वह बद्ध नहीं है, क्योकि दूसरे समयमें ही उसकी निर्जरा देखी जाती है।...स्पृष्ट होकर भी वह स्पृष्ट नहीं है, कारण कि ईर्यापथ बन्धका सत्त्व रूपसे उनके अवस्थान नहीं पाया जाता.. उदीर्ण होकर भी उदीर्ण नहीं है, क्योंकि वह दग्ध गेहूँके समान निर्बीज भावको प्राप्त हो गया है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली ४. कवलाहार व परीषह सम्बन्धी निर्देश व शंका समाधान १. केवलीको नोकर्माहार होता है क्ष.सा./६१८ पडिसमयं दिव्वतमं जोगी णोकम्मदेहपडिबद्ध । समयपबद्ध अंधदि गलिदवसेसाउमेस ठिदी ६१८ सयोगी जिन है सो समय समय प्रति नोर्म जो औदारिक तीहि सम्बन्धी जो समय प्रभ ताक ग्रहण कर है । ताकी स्थिति आयु व्यतीत भए पीछे जेता अबशेष रहा तावन्मात्र जाननी । सो नोकर्म वर्गणाके ग्रहण ही का नाम आहार मार्गणा है ताका सहभाव केवली कैं है । ६. समुद्घात अवस्थामें नोकर्माहार भी नहीं होता ष. ख. १/१,१/सू. १७७/४१० अणाहारा केवलीणं वा समुग्धाद-गदाणं अगदि । १०० ध.२/१,१/६६६/५ कम्मग्गहणमत्थित्तं पडुच्च आहारितं किण्ण उच्चदित्ति भणिदे ग उच्चदि आहारस्स तिधिसमयविरहकाशोवसद्धीदो। - १. समुद्रातगत केवलियोंके सयोगकेवली और अयोगकेवली अनाहारक होते है । २ प्रश्न- कार्माण काययोगोको अवस्थामें भी कर्म वर्गणाओंके ग्रहणका अस्तित्व पाया जाता है, इस अपेक्षा कामण काययोगी जीवोको आहारक क्यों नहीं कहा जाता उत्तर- उन्हें आहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि कार्माण काययोगके समय नोकर्मणाओंके आहारका अधिक से अधिक तीन समय तक विरहकाल पाया जाता हैं । = .सा / ६११ र समुग्वादगदे पदरे तह सोगपुरणे पदरे परिथतिसमये णियमा फोकम्माहारयं तत्यसमुहातको प्राप्त केली विषै दोय तौ प्रतरके समय अर एक लोक पूरणका समय इनि तीन समयानिमिये नौकर्मका आहार नियमते नहीं है। ३. केवलीको कवलाहार नहीं होता स.सि /८/१/१०५ केवली कवलाहारी विपर्यय केवलीको कालाहारी मानना विपरीत मिध्या-दर्शन है। ... |= ४. मनुष्य होनेके कारण केवलीको मी कवलाहारी होना चाहिए स्व. स्तो./मू./७५ मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् ! देवतास्वपि च देवता यत । तेन नाथ परमासि देवता, श्रेयसे जिनवृष । प्रसीद नः ॥५॥ - हे नाथ" चूंकि आप मानुषी प्रकृतिको अतिक्रास कर गये हैं और देवताओं में भी देवता हैं, इसलिए आप उत्कृष्ट देवता हैं, अतः हे धर्म जिन आप हमारे कल्याणके लिए प्रसन्न होवें ॥७५॥ (बो.पा./ टी./१४/१०१) १५९ प्र.सा./ता.वृ/२०/२१/१२ केत्र लिनो कवलाहारोऽस्ति मनुष्यत्वात् वर्तमानमनुष्यवत् तदप्ययुक्तम् तर्हि पूर्वकालपुरुषाणां सर्वशत्वं नास्ति, रामरावणादिपुरुषाणां च विशेषसामध्ये नास्ति वर्तमानमनुष्यत् । न च तथा । = प्रश्न – केवली भगवान्‌के कवलाहार होता है, क्योंकि महमनुष्य है, वर्तमान मनुष्यकी भाँति उत्तर-ऐसा कहना मुक्त नहीं है। क्योंकि अन्यथा पूर्वकालके पुरुषों में सर्वज्ञता भी नहीं है। अथवा राम रावणादि पुरुषोंमें विशेष सामर्थ्य नहीं है, वर्तमान मनुष्यकी भाँति । ऐसा मानना पड़ेगा। परन्तु ऐसा है नहीं। (अत केवली कलाहारी नहीं है। ) ४. कवलाहार व परीपह सम्बन्धी निर्देश.... ५. संयम की रक्षा के लिए भी केवलीको कवलाहारकी आवश्यकता थी " 1 1 कपा १/१.९/६३२ / किंतु तिरयद्रुमिदि वो जुत्तं तत्थ पत्तासेसरुम्मि तदसंभवादो । तं जहा ण तार णाणट्ठ भुंजइ, पत्तकेवलणाणभावादो। ण च केवलणाणादो अहियमण्णं पत्थणिज्जं णाणमत्थि जेण तदट्ठ केवली भुजेज । ण संजमट्ठ, पत्तजहाक्रखादजमादो | ण ज्झाणट्ठ; विसईकयासेस तिहुवणस्स न्याभावादो । भुज केवली भुतिकारणाभावादी सि सिद्ध । क.पा.१/११/१६३/०१/१ अह जइ सो मुंह तो बलाउ सासरी रुचयतेज-नज संसारिजानो ए च एवं समोहस्स केवलजाणावयत्तदो ग प अकेलियणमागमो रागदो समोहकलंक किए ....सच्चाभावादो । आगमाभावेण तिरयणपउत्ति त्ति तित्थवोच्छेदो तित्थस्स णिव्वाहबोहविसयीकयस्स उवलं भादो। = १. प्रश्न -- यदि कहा जाय कि केवली रत्नत्रयके लिए भोजन करते हैं। उत्तर -- यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि केवली जिन पूर्णरूपसे आत्मस्वभाव को प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए वे 'रत्नत्रय अर्थात् ज्ञान, संयम और ध्यानके लिए भोजन करते हैं. यह बात संभव नहीं है इसीका स्पष्टीकरण करते है- केवली जिन ज्ञानकी प्राप्तिके लिए तो भोजन करते नहीं है, क्योंकि उन्होंने केवलज्ञानको प्राप्त कर लिया है तथा केवलज्ञानसे बडा और कोई दूसरा ज्ञान प्राप्त करने योग्य नहीं है, जिससे उस ज्ञानकी प्राप्तिके लिए भोजन करे। न ही संयमके लिए भोजन करते हैं क्योंकि उन्हे यथाख्यात संयमकी प्राप्ति हो चुकी है तथा ध्यानके लिए भी भोजन नहीं करते क्योंकि उन्होंने त्रिभु बनको जान लिया है, इसलिए इनके ध्यान करने योग्य कोई पदार्थ ही नहीं रहा है । अतएव भोजन करनेका कोई कारण न रहने केवली जिन भोजन नहीं करते हैं, यह सिद्ध हो जाता है । २. यदि केवली जिन भोजन करते है तो संसारी जीवोके समान बल, आयु. स्वादिष्ट भोजन, शरीरकी वृद्धि, तेज और मुखके लिए ही भोजन करते हैं ऐसा मानना पड़ेगा, परन्तु ऐसा है नहीं, क्योकि ऐसा मानने पर वह मोहयुक्त हो जायेंगे और इसलिए उनके केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। यदि कहा जाये कि जिनदेवको केवलज्ञान नहीं होता तो केवलज्ञानसे रहित जीवके वचन ही आगम हो जावें । यह मी ठीक नहीं क्योंकि ऐसा माननेपर राग, द्वेष, और मोहसे कांकित जीवोंके सत्यताका अभाव होनेसे उनके वचन आगम नहीं कहे जायेंगे। आगमका अभाव होनेसे रत्नत्रयकी प्रवृत्ति न होगी और तीर्थका म्युच्छेद हो जायेगा परन्तु ऐसा है नहीं, खोंकि निर्बाध बोधके द्वारा ज्ञात तोर्थ की उपलब्धि बराबर होती है । न्यायकुमुद चन्द्रिका/पृ. ०५२। प्रमेय मार्तण्ड ३०० कवलाहारित्वे चास्य सरागत्यप्रसंगः। = केवली भगवान्को कबलाहारी माननेपर सरागत्वका प्रसंग प्राप्त होता है। ६. श्रदारिक शरीर दोनेसे केवलीको कवळाहारी होना चाहिए प्र. सा./ता /वृ/२०/२८/७ केवलिनां भुक्तिरस्ति, औदारिकशरीरसद्भावात् । ...अस्मदादिवत् । परिहारमाह-तद्भगवतः शरीरमौदारिकं न भवति किन्तु परमोदारिक शुरफटका तेजोमूर्तिमयं ay' । जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् । प्रश्न- केवली भगवाद भोजन करते है औवारिक शरीरका सज्ञान होनेसे हमारी भाँति उत्तर-- भगवादका शरीर औदारिक नहीं होता अपितु परमोदारिक है। कहा भी है कि 'दोषोंके विनाश हो जानेसे शुद्ध स्फटिकके सदृश सात धातुसे रहित तेज मूर्तिमय शरीर हो जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश , - - Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली १६० ४. कवलाहार व परीषह सम्बन्धी निर्देश.. ७. आहारक होनेके कारण केवलीको कवलाहार होना चाहिए ध./१/१,१,१७३/४०६/१० अत्र कवललेपोष्ममन'कर्माहारात् परित्यज्य नोकर्माहारो ग्राह्य, अन्यथाहारकालविरहाम्या सह विरोधात आहारक मार्गणामें आहार शब्दसे कवलाहार, लेपाहार.. आदि को छोडकर नोकर्माहारका ही ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा आहारकाल और विरहके साथ विरोध आता है। प्र. सा०/२०/२०/२१ मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवलि पर्यन्तास्त्रयोदशगुणस्था नवर्तिनो जीवा आहारका भवन्तोत्याहारकमार्गणायामागमे भणितमास्ते, ततः कारणात केत्र लिनाम'हारोऽस्तीति । तदध्ययुक्तम् । परिहार"यद्यपि षट्प्रकार आहारो भवति तथापि नोकर्माहारपेक्षया केवलिनामाहारकत्वमवबोद्धव्यम् । न च कवलाहारापेक्षया । तथाहिसूक्ष्माः सुरसा सुगन्धा अन्यमनुजानामसभविन' कवलाहारं विनापि किंचिदूनपूर्वकोटिपर्यन्तं शरीरस्थितिहेतवः सप्तधातुरहितपरमौदारिकशरोरनोकर्माहारयोग्या लाभान्तरायकर्मनिरवशेषक्षयात् प्रतिक्षणं पुद्गला आस्रवन्तीति.. ततो ज्ञायते नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वम् । अथ मतम्-भवदीयकल्पनया आहारानाहारकत्वं नोकर्माहारपेक्षया. न च कवलाहारापेक्षया चेति कथं ज्ञायते । नैवम् । "एक द्वौ त्रीन् वानाहारक" इति तत्त्वार्थ कथितमास्ते। अस्य सूत्रस्यार्थः कथ्यते--भवान्तरगमनकाले. विग्रहगतौ शरीराभावे सति नूतनशरीरधारणार्थ त्रयाणां षण्णां पर्याप्तीना योग्यपुद्गल पिण्डग्रहण नोकर्माहार उच्यते । स च विग्रहगतौ कर्माहारे विद्यमानेऽप्येकद्वित्रिसमयपर्यन्तं नास्ति । ततो नोकर्माहारापेक्षयाहारानाहारकत्वमागमे ज्ञायते । यदि पुनः कवलाहारापेक्षया तहि भोजनकालं विहाय सर्वदेवानाहारक एव, समयत्रयनियमो न घटते। = प्रश्न- मिथ्यादृष्टि आदि सयोग केवलो पर्यन्त तेरह गुणस्थानवी जीव आहारक होते हैं ऐसा आहारक मार्गणामे आगममें कहा है। इसलिए केवली भगवान्के आहार होता है । उत्तर--ऐसा कहना युक्त नहीं है । इसका परिहार करते हैं। यद्यपि छह प्रकारका आहार होता है परन्तु नोकर्माहारको अपेक्षा केवलीको आहारक जानना चाहिए कबलाहारकी अपेक्षा नहीं। सो ऐसे है-लाभान्तराग्र कर्म का निरवशेष विनाश हो जानेके कारण सप्तवातुरहित परमौदारिक शरीरके नोकर्माहारके योग्य शरीरकी स्थितिके हेतुभूत अन्य मनुष्यों को जो असंभव है ऐसे पुद्गल किचिदून पूर्वकोटि पर्यन्त प्रतिक्षण आते रहते है, इसलिए जाना जाता है कि केवली भगवानको नोकर्माहारकी अपेक्षा आहारकत्व है। प्रश्न----यह आपकी अपनी कल्पना है कि आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहारकी अपेक्षा है कवलाहारकी अपेक्षा नहीं। कैसे जाना जाता है। उत्तर--ऐसा नहीं है। एक दो अथवा तीन समय तक अनाहारक होता है। ऐसा तत्वार्थ सूत्रमे कहा है। इस सूत्र का अर्थ कहते है ---एक भवसे दूसरे भव में गमनके समय विग्रहगतिमे शरीरका अभाव होनेपर नवीन शरीरको धारण करनेके लिए तीन शरीरोकी पर्याप्तिके योग्य पुद्गल पिण्डको ग्रहण करना नोकर्माहार कहलाता है। वह कर्माहार विग्रहगतिमे विद्यमान होनेपर भी एक, दो, तीन समय पर्यन्त नही होता है। इसलिए आगममें आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है ऐसा जाना जाता है। यदि कवलाहारकी अपेक्षा हो तो भोजनकालको छोड़कर सर्वदा अनाहारक हो होबे, तीन समयका नियम घटित न होवे। (बो. पा./टो०/३४/१०१/१५)। ८. परिषहोंका सद्भाव होनेसे कवलीको कवलाहारी होना चाहिए ध. १२/४,२,७,२/२४/७ असादं वेदयमाणस्स सजोगिभयवंतस्स भुक्खातिसादीहि एक्कारसपरोसहेहि बाहिज्जमाणस्स कधं ण भुत्ती होज्ज । ण एस दोसो, पाणोयणेसु जादतण्हाए स समोहस्स मरणभएण भुजंतस्स परीसहेहि पराजियस्स केवलितविरोहादो। -प्रश्न--असाता वेदनीयका वेदन करनेवाले तथा क्षुधा तृषादि ग्यारह परिषहो द्वारा बाधाको प्राप्त हुए ऐसे सयोग केवली भगवान्के भोजनका ग्रहण कैसे नही होगा। उत्तर---यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो भोजन पानमें उत्पन्न हुई इच्छासे मोह युक्त है तथा मरणके भयसे जो भोजन करता है, अतएव परीषहोंसे जो पराजित हुआ है ऐसे जीवके केवली होने मे विरोध है। प्र.सा./ता.वृ/२०/२८/१२ यदि पुनर्मोहाभावे पि क्षुधादिपरिषहं जनयति तहि वधरोगादिपरिषहमपि जनयतु न च तथा । तदपि कस्मात् । "भुक्त्युपसभावात्" इति वचनाद अन्यदपि दूषणमस्ति। यदि क्षुपानाधास्ति तर्हि क्षुधाक्षीणशक्तेरनन्तवीय नास्ति । तथैव दुखितस्थानन्तसुखमपि नास्ति । जिहन्द्रियपरिच्छित्तिरूपमतिज्ञानपरिणतस्य केवलज्ञानमपि न सभवति । यदि केवली भगवान को मोहका अभाव होनेपर भी क्षुधादि परिषह होती है, तो वध तथा रोगादि परिषह भो होनी चाहिए। परन्तु ये होती नही है, वह भी कैसे "भुक्ति और उपसर्गका अभाव है" इस वचनसे सिद्ध होता है। और भी दूषण लगता है। यदि केवली भगवान् को क्षुधा बाधा हो तो क्षुधाको बाधासे शक्ति क्षीण हो जानेसे अनन्त वीर्यपना न रहेगा, उसोसे दुखी होकर अनन्त सुख भी नहीं बनेगा। तथा जिला इन्द्रियकी परिच्छित्ति रूप मतिज्ञानसे परिणत उन केवली भगवान्को केवलज्ञान भी न बनेगा । (बो. पा/टी/३४/१०१/२२) । ९. केवली मगवान्को क्षुधादि परिषह नहीं होती ति. प./२/१६ चउबिहउक्सग्गेहि णिचविमुक्को कसायपरिहीणो। छुहपहुदिपरिसहेहि परिचत्तो रायदोसेहि ५११- देव, मनुष्य, तियंच और अचेतनकृत चार प्रकारके उपसर्गोसे सदा विमुक्त है. क्षायोंसे रहित हैं, क्षुधादिक बाईस परोषहों व रागद्वेषसे परित्यक्त है। १०. केवलीको परिषद कहना उपचार है स सि./६/११/४२६/८ मोहनीयोदयसहायाभावारक्षुदादिवेदनाभावे परिषहव्यपदेशो न युक्त । सत्यमेवमेतत्--वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसभावापेक्षया परिषहोपचार क्रियते। -प्रश्न-मोहनीयके उदयकी सहायता न होनेसे क्षुधादि वेदनाके न होनेपर परिषह सज्ञायुक्त नहीं है ? उत्तर ----यह कथन सत्य हो है तथापि वेदनाका अभाव होनेपर द्रव्यकर्म के सद्भावकी अपेक्षासे यहां परीषहोंका उपचार किया जाता है । ( रा वा./६/१९/२/६१४/१)। ११. असाता वेदनीय क्मकं उदयके कारण केवलीको क्षुधादि परिषह होनी चाहिए १. पाति व मोहनीय कर्मकी सहायता न होनेसे असाता अपना कार्य करनेको समर्थ नहीं है:रा, वा./६/११/१/६१३/२७ स्थान्मतम्-बातिकर्मप्रक्षयानिमित्तोपरमे सति नारन्यरतिस्त्रोनिषद्याक्रोशयाचनालाभसत्कार पुरस्कार प्रज्ञाज्ञानदर्श - नानि मा भूवत्, अमी पुनर्वेदनीयाश्रया' खलु परीषहा' प्राप्नुवन्ति भगवति जिने इति; तन्न, कि कारणम् । घातिकर्मोदयसहायाभावाव तत्सामर्थ्य विरहात्। यथा विषद्रव्यं मन्त्रौषधिबलादुपक्षीणमारणशक्तिकमुपयुज्यमानं न मरणाय कल्प्यते तथा ध्यानानल निर्दग्धघातिकर्मेन्धनस्यानन्ताप्रतिहतज्ञानादि चतुष्टयस्यान्तरायाभावान्निरन्तरमुप - चीयमान शुभपुद्गलसंततेवेंदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहार बलं स्वयोग्यप्रयोजनोत्पादनं प्रत्यसमर्थमिति क्षुधाद्यभाव, तत्सद्भावोपचाराइ ध्यानकल्पनवत्।-प्रश्न-केवल मे घातियाकर्म का नाश होनेसे निमित्तके हट जानेके कारण नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलो ४. कवलाहार व परोषह सम्बन्धी निर्देश... याचना, अलाभ, सत्कार. पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन परीषहें न हो, पर वेदनीय कर्मका उदय होनेसे तदाश्रित परीषहें तो होनी ही चाहिए। उत्तर-धातिया कर्मोदय रूपी सहायकके अभावसे अन्य कर्मोंकी सामर्थ्य नष्ट हो जाती है। जैसे मन्त्र औषधीके प्रयोगसे जिसकी मारण शक्ति उपक्षीण हो गयी है ऐसे विषको खानेपर भो मरग नहीं होता, उसो तरह ध्यानाग्निके द्वारा धाति कर्मेन्धनके जल जानेपर अनन्तचतुष्टयके स्वामी केवलीके अन्तरायका अभाव हो जानेसे प्रतिक्षण शुभकर्म पुद्गलोंका संचय होते रहनेसे प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। इसलिए केवलोमें क्षुधादि नही होते। (ध. १३/५,४,२४/५३/१); (ध १२/ ४,२,७.२/२४/११); ( क.पा. १४१.१४६६१/६६/१); (चा.सा./१३१/२); (प्र. सा./ता. वृ./२०/२८/१०)। गो.क./मू व जी.प्र/२७३ णट्ठा य रायदोसा इंदियणाणं च केवलिम्हि जदो। तेण दुसादासादजसुदुक्ख णस्थि इंदियज ।२७३। सहकारिकारणमोहनीयाभावे विद्यमानोऽपि न स्वकार्यकारीत्यर्थः। =जातै सयोग केवलीकै घातिकर्मका नाश भया है तातें राग व द्वेषको कारणभूत क्रोधादि कषायोंका निमूल नाश भया है। बहुरि युगपत सकल प्रकाशो केवलज्ञान विर्षे क्षयोपशमरूप परोक्ष मतिज्ञान और श्रुतज्ञान न संभवै तातै इन्द्रिय जनित ज्ञान नष्ट भया तिस कारण करि केवलिक साता असाता वेदनीयके उदयतें सुख दुख नाही है जातें सुख-दुख इन्द्रिय जनित है बहुरि बेदनीयका सहकारी कारण मोहनीयका अभाव भया है तातै वेदनीयका उदय होत संतै भी अपना सुख-दुख देने रूप कार्य करनेकौ समर्थ नाहीं। (क्ष.सा./मू./ ६१६/७२८) प्रमेयकमलमार्तण्ड/पृ ३०३ तथा असातादि वेदनीयं विद्यमानोदयमपि, असति मोहनीये, निसामर्थ्यवान्न क्षुद्दु'खकरणे प्रभु सामग्रीत कार्योत्पत्तिप्रसिद्द । - असातादि वेदनीयके विद्यमान होते हुए भी, मोहनीयके अभावमें असमर्थ होनेसे, वे केवली भगवान्को क्षुधा सम्बन्धी दुःखको करनेमें असमर्थ हैं। २. साता वेदनीयके सहवतापनेसे असाताकी शक्ति अनन्तगुणी क्षीण हो जाती है रा.वा /६/११/१/६१३/३१ निरन्तरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेवेंदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनं प्रत्यसमर्थ मिति । -- अन्तरायकर्मका अभाव होनेसे प्रतिक्षण शुभकर्म पुद्गलोका संचय होते रहनेमे प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। (चा.सा./१३१/३) ध.२/१,१/४३३/२ असादावेदणीयस्स उदीरणाभावादो आहारसण्णा अप्पमत्तसंजदस्स णस्थि । कारणभूत-कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भयमेहुण-परिग्गहसण्णा अस्थि । =असाता वेदनीय कर्मकी उदीरणाका अभाव हो जानेसे अप्रमत्त संयतके आहार संज्ञा नहीं होती है। किन्तु भय आदि संज्ञाओके कारणभूत कर्मोंका उदय सम्भव है, इसलिए उपचारसे भय, मैथुन और परिग्रह सज्ञाएँ हैं। प्र.सा /ता.वृ./२०/२८/१६असद्वद्योदयापेक्षया सद्वेद्योदयोऽनन्तगुणोऽस्ति। तत कारणात शर्कराराशिमध्ये निम्बकणिकावदसद्वद्योदयो विद्यमानोऽपि न ज्ञायते। तयैवान्यदपि बाधकमस्ति-यथा प्रमत्तसंयतादि तपोधनानां वेटोदये विद्यमानेऽपि मन्दमोहोदयत्वादखण्डब्रह्मचारीणां त्रिपरीषहबाधा नास्ति । यथैव च नवप्रै वेयकाद्यहमिन्द्रदेवानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मन्दमोहोदयेन स्त्रीविषयबाधा नास्ति, तथा भगवत्यसद्वद्योदये विद्यमानेऽपि निरवशेषमोहाभावात् क्षुधाबाधा नास्ति। और भी कारण है, कि केवली (भगवान्के ) असाता वेदनीयके उदयकी अपेक्षा साता वेदनीयका उदय अनन्तगुणा है। इस कारण खण्ड (चोनो)को बड़ो राशिके बीच में नीमकी एक कणिकाको भाँति असातावेदनीयका उदय होनेपर भी नहीं जाना जाता है । और दूसरी एक और बाधा है-जैसे प्रमत्तसंयत आदि तपोधनों के वेदका उदय होनेपर भी मोहका मन्द उदय होनेसे उन अखण्ड ब्रह्मचारियोंके स्त्रोपरोषहरूप बाधा नहीं होती, और जिस प्रकार नवग्रंवेयकादिमें अहमिन्द्रदेवोके वेदका उदय विद्यमान होनेपर भी मोहके मन्द उदयसे खो-विषयक बाधा नहीं होती, उसी प्रकार भगवानके असातावेदनीयका उदय विद्यमान होनेपर भी निरवशेष मोहका अभाव होनेसे क्षुधाकी बाधा नहीं होती। (और भी-दे० केवली/४/१२) ३. असाता भी सातारूप परिणमन कर जाता है गो. क /मू. व जी. प्र./२७४/४०३ समयट्टिदिगो बंधो सादस्सुदयप्पिगो जदो तस्स । तेण असादस्सुदओ सादसरूवेण परिणदि ।२७४। यतस्तस्य केवलिन' सातवेदनीयस्य बन्धः समयस्थितिक तत' उदयात्मक एव स्यात् तेन तत्रासातोदय सातास्वरूपेण परिणमति कुत. विशिष्टशुद्ध तस्मिन् असातस्य अनन्तगुणहीनशक्तित्वसहायरहित्वाभ्यां अव्यक्तोदयत्वात् । वध्यमानसातस्य च अनन्तगणानुभागत्वात तथात्वस्यावश्यभावात् । न च तत्र सातोदयोऽसातस्वरूपेण परिणमतीति शक्यते वक्तुं द्विसमयस्थितिकत्वप्रसङ्गात अन्यथा असातस्यैव बन्ध प्रसज्यते। =जात तिस केवलोक साता वेदनीयका बन्ध एक समय स्थितिको लिये है ताते उदय स्वरूप ही है तातै केवलीकै असाता वेदनीयका उदय सातारूप होइकरि परिनमैं है । काहैं तै । केवलीके विष विशुद्धता विशेष है तात असातावेदनीयकी अनुभाग शक्ति अनन्तगुणी हीन भई है अर मोहका सहाय था ताका अभाव भया है तातै असातावेदनीयका अप्रगट सुक्ष्म उदय है। बहुरि जो सातावेदनीयबन्धै है ताका अनुभाग अनन्तगुणा है जात, साता वेरनीयकी स्थितिकी अधिकता तो संक्लेश तातै हो है अनुभागकी अधिकता विशुद्धतातै हो है सो केवलोके विशुद्धता विशेष है तातै स्थितिका तौ अभाव है बन्ध है सो उदयरूप परिणमता ही हो है अर ताकै सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा हो है ताहीत जो असाता का भी उदय है सो सातारूप होइकरि परिनमै है। कोऊ कहै कि साता असातारूप होइ परिनमै है ऐसे क्यो न कहो' ताका उत्तर--- ताका स्थितिबन्ध दोय समयका न ठहरे वा अन्य प्रकार कहै असाता ही का बन्ध होइ तात तें कह्या कहना संभवै नाहीं। १२. निष्फल होनेके कारण असाताका उदय ही नहीं कहना चाहिए घ १३/४,२,७,२/२४/१२ णिप्फलस्स परमाणपंजस्स समयं पडि परिसरंतस्स कधं उदयववएसो । ण, जोव-कम्मविवेगमेत्तफलं दट्ठूण उदयस्स फलत्तब्भुवगमादो। जदि एव तो असादवेदणीयोदयकाले सादावेदणीयस्स उदओ णस्थि, असादावेदणीयस्सेव उदओ अस्थि त्ति ण बत्तन्वं, सगफलाणुप्पायणेण दोण्णं पि सरिसत्तवलं भादो। ण, असादपरमाणूणं व सादपरमाणूण सगसरूवेण णिजराभावादो। सादपरमाणओ असादसरूवेण विणस्सतावत्थाए परिणमिदूण विणस्संते दट्ठूण सादावेदणीयस्स उदओ णस्थि त्ति वुच्चदे । ण च असादावेदणीयस्स एसो कमो अस्थि, [ असाद ]-परमाणूणं सगसरूवेणेव णिज्जरूवलं भादो। तम्हा दुरवरूवफलाभावे वि असादावेदणीयस्स उदयभावो जुज्जदि त्ति सिद्ध। - प्रश्न-बिना फल दिये ही प्रतिसमय निर्जीर्ण होनेवाले परमाणु समूहकी उदय संज्ञा कैसे हो सकती है । उत्तर-नहीं, क्योंकि, जीव व कर्मके विवेकमात्र फलको देखकर उदयको फलरूपसे स्वीकार किया गया है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो असातावेदनीयके उदय कालमें साता वेदनीयका उदय नहीं होता, केवल असाता वेदनीयका ही उदय रहता है ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि अपने फलको नही उत्पन्न करनेकी अपेक्षा दोनोमें ही समानता पायी जाती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-२१ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली १६२ ५. इन्द्रिय, मन व योग सम्बन्धी निर्देश घ./१/१,१/३७/२६३/५ केवलिनां निर्मुलतो विनष्टान्तरडगेन्द्रियाणां प्रहतबाह्येन्द्रियव्यापाराणां भावेन्द्रियजनितद्रव्येन्द्रियसत्त्वापेक्षया पन्चेन्द्रियत्वपतिपादनाद । केवलियोंके यद्यपि भावेन्द्रियाँ समूल नष्ट हो गयी है, और बाह्य इन्द्रियोंका व्यापार भी बन्द हो गया है, तो भी ( छद्मस्थ अवस्थामें ) भावेन्द्रियोंके निमित्त से उत्पन्न हुई द्रव्येन्द्रियोंके सदभाधकी अपेक्षा उन्हे पञ्चेन्द्रिय कहा गया है। गो.जी./जी./प्र./७०१/११३१/१२ सयोगिजिने भावेन्द्रियं न, द्रव्येन्द्रियापेक्षया षट पर्याप्तयः।-सयोगी जिनविर्षे भावेन्द्रिय तौ है नाही, द्रव्येन्द्रियको अपेक्षा छह पर्याप्ति है। २. जातिनाम कर्मोदयकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय हैं ध.१/१,१,३६/२६४/२ पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्मोदयात्पञ्चेन्द्रियः । समस्ति च केवलिना...पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्मोदयः । निरवद्यत्वात व्याख्यानमिदं समाश्रयणीयम् । == पञ्चेन्द्रिय नामकर्म के उदयसे पञ्चेन्द्रिय जीव होते हैं। व्याख्यानके अनुसार केवलोके भो...पञ्चेन्द्रिय जाति नामकर्मका उदय होता है। अत: यह व्याख्यान निर्दोष है । अतएव इसका आश्रय करना चाहिए । (ध.७/२,१,६/१६/५) उत्तर-नहीं, क्योंकि, तब असातावेदनीयके परमाणुओंके समान सातावेदमीयके परमाणुओकी अपने रूपसे निर्जरा नहीं होती। किन्तु विनाश होनेकी अवस्थामें असाता रूपसे परिणमकर उनका विनाश होता है यह देखकर सातावेदनीयका उदय नहीं है, ऐसा कहा जाता है। परन्तु असाता वेदनीयका यह क्रम नहीं है, क्योंकि तम असाताके परमाणुओंकी अपने रूपसे हो निर्जरा पायी जाती है । इस कारण दुःखरूप फलके अभावमें भी असातावेदनीयका उदय मानना युक्तियुक्त है, यह सिद्ध होता है। ध.१३/५,४,२४/५३/५ जदि असादावेदणीयं णिष्फलं चेव, तो उदओ अस्थि त्ति किमिदि उच्चदे। ण, भूदपुव्वणयं पडुच्च तदुत्तीदो। किच ण सहकारिकारणघादिकम्माभावेणेव सेसकम्माणिव्व पत्तणिव्वीयभावमसादावेदणीयं, किंतु सादावेदणीयबंधेण उदयसरूवेण उदयागदउकसाणुभागसादावेदणीयसहकारिकारणेण पडिहयउदयत्तादो वि। ण च बंधे उदयसरूवे संते सादावेदणीयगोवुच्छा थिउक्कसंकमेण असादावेदणीयं गच्छदि, बिरोहादो। थिउसंकमाभावे सादासादाणमजोगिचरिमसमए संतवोच्छेदो पसज्जदि त्ति भणिदे-ण, वोच्छिण्णसादबंधम्मि अजोगिम्हि सादोदयणियमाभावादो। सादावेदणीयस्स उदयकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो फिट्टिदूण देसूणपुव्वकोडिमेत्तो होदि चे–ण, अजोगिकेवलिं मोत्तण अण्णस्थ उदयकालस्स अंतोमुत्तणियमन्भुवगमादो। ...सादावेदणीयस्स बंधो अत्थि त्ति चे ण, तस्स ट्ठिदि-अणुभागबंधाभावेण.. बंधववएसविरोहादो । -प्रश्न-यदि असातावेदनीय कर्म निष्फल ही है तो वहाँ उसका उदय है, ऐसा क्यों कहा जाता है । उत्तर--नहीं, क्योंकि, भूतपूर्व नयकी अपेक्षासे वैसा कहा जाता है। दूसरे...वह न केवल निर्बीज भावको प्राप्त हुआ है किन्तु उदयस्वरूप सातावेदनीयका बन्ध होनेसे और उदयागत उत्कृष्ट अनुभाग युक्त साता वेदनीय रूप सहकारी कारण होनेसे उसका उदय भो प्रतिहत हो जाता है। प्रश्न-बन्धके उदय स्वरूप रहते हुए साता वेदनीयकर्मकी गोपुच्छा स्तिवुक संक्रमणके द्वारा असाता वेदनीयको प्राप्त होती होगी • उत्तर-ऐसा माननेमें विरोध आता है। प्रश्न--यदि यहाँ स्तिवुक संक्रमणका अभाव मानते है, तो साता और असाताको सत्त्व व्युच्छिति अयोगीके अन्तिमसमय मे होनेकाप्रसंग आता है: उत्तर--नहीं,क्योंकि साताके बन्धकी व्युच्छित्ति हो जानेपर अयोगी गुणस्थानमें साताके उदयका कोई नियम नही है। प्रश्न-इस तरह तो सातावेदनीयका उदयकाल अन्तर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण प्राश होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि अयोगिकेवली गुणस्थानको छोड़कर अन्यत्र उदयकालका अन्तर्मुहर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है।...। प्रश्न-वहाँ सातावेदनीयका बन्ध है ! उत्तर--नहीं क्योंकि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके बिना.. सातादनीय कर्म को 'बंध' संज्ञा देनेमें विरोध आता है। ५. इन्द्रिय, मन व योग सम्बन्धी निर्देश व शंकासमाधान १. द्रव्येन्द्रियोंकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रियत्व है भावेन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रा. वा./१/३०/६/११/१४ आष हि सयोग्ययोगिकेवलिनोः पञ्चेन्द्रियत्वं द्रव्येन्द्रिय प्रति उक्तं न भावेन्द्रिय प्रति। यदि हि भावेन्द्रियमभविष्यत् अपि तु तहि असंक्षीणसकलावरणत्वात सर्वज्ञतवास्य न्यवतिष्यव। -आगममें सयोगी और अयोगो केवलोको पश्चेन्द्रियत्व कहा है वहाँ द्रव्येन्द्रियों की विवक्षा है, ज्ञानाबरणके क्षयोपशम रूप भावेन्द्रियोंकी नहीं। यदि भावेन्द्रियोंकी विवक्षा होती तो ज्ञानावरणका सदभाव होनेसे सर्वज्ञता हो नहीं हो सकतो थो। ३. पञ्चन्द्रिय कहना उपचार है ध. १/१,१,३७/२६३/५ केवलिना पञ्चेन्द्रियत्व.. भूतपूर्वगतिन्यायसमाश्रयणाद्वा । केवलीको भूतपूर्वका ज्ञान करानेवाले न्यायके आश्रयसे पञ्चेन्द्रिय कहा है। घ.७/२,१,१५/६७/३ एइंदियादोणमोदइयो भावो वत्तव्यो, एइंदियजादिआदिणामकम्मोदएण एईदियादिभावोवलंभा । दि एवं ॥ इच्छिज्जदि तो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिदियत्तं ण लब्भदे, खोणावरणे पंचण्हमिदियाणं खओवसमा भावा । ण च तेसि पंचिदियत्ताभावो पंचिदिएमु समुग्धादपदेण असंखेज्जेषु भागेस सब्बलोगे वा त्ति सुत्तविरोहादो। एत्थ परिहारो बुच्चदे.. सजोगिअजोगिजिणाणं पंचिदियत्तजुज्जदि त्ति जीवट्ठाणे पि उबवण्णं । कितु खुद्दाबंधे सजोगि-अजोगिजिणाणं सुद्धणएणाणिदियाणं पंचिदियत्तं जदि इच्छिज्जदि तो बवहारणएण बत्तव्यं । तं जहा-पंचसु जाईसु जाणि पडिबद्धाणि पंच इंदियाणि ताणि खोवसमियाणि त्ति काऊण उवयारेण पंच वि जादीओ खओवसमियाओ त्ति कटु सजोगि-अजोगिजिणाणं खओवसमियं पंचिदियत्तं जुज्जदे । अधवा वीणावरणे ण? वि पंचिंदियखओवसमे खओवसमजणिद णं पंचण्ह वज्झिदियाणमुवयारेण लखओवसमसण्णाणमस्थित्तदसणादो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिदियत्तं साहेयव्वं प्रश्न-एकेन्द्रियादिको औदयिक भाव कहना चाहिए, क्योंकि एकेन्द्रिय जाति आदिक नामकर्मके उदयसे एकेन्द्रियादिक भाव पाये जाते हैं। यदि ऐसा न माना जायेगा तो सयोगी और अयोगी जिनोंके पंचेन्द्रिय भाव नहीं पाया जायेगा, क्योंकि, उनके आवरणके क्षीण हो जानेपर पाँचो इन्द्रियों के क्षयोपशमका भो अभाव हो गया है। और सयोगी और अयोगी जिनोंके पंचेन्द्रियत्वका अभाव होता नहीं है, क्योंकि वैसा माननेपर "पंचेन्द्रिय जीवोंकी अपेक्षा समुद्घातपदके द्वारा लोकके असख्यात बहुभागों में अथवा सर्वलोकमें जीवोंका अस्तित्व है" इस सूत्रसे विरोध आ जायेगा । उत्तर--यहाँ उक्त शंकाका परिहार करते हैं · सयोगी और अयोगी जिनोंका पंचेन्द्रियत्व योग्य होता है, ऐसा जीवस्थान खण्डमें स्वीकार किया गया है। (पं. वं./१/१,१/सू.३७/२६२) किन्तु इस क्षुद्रकबंध खण्डमें शुद्ध नयसे अनिन्द्रिय कहे जानेवाले सयोगी और अयोगो जिनोंके यदि पंचेन्द्रियत्व कहना है, तो वह केवल व्यवहार नयसे ही कहा जा सकता है। वह इस प्रकार है--पाँच जातियों में जो. क्रमशः पाँच इन्द्रियाँ सम्बद्ध हैं वे क्षायोपशमिक हैं ऐसा मानकर और उपचारसे पाँचों जातियोंको भी क्षायोपशमिक स्वीकार करके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलो योगी और अयोगी जिनके सामने जाता है। अगवा, आवरणके क्षीण होनेसे पंचेद्रियों नष्ट हो जानेपर भी क्षयोपशम उत्पन्न और उपचार क्षायोपशमिक संज्ञाको प्राप्त पाँचो माहोन्द्रियोंका अस्तित्व पाये जानेसे योगी और अयोगी जिनकेन्द्रियत्न सिद्ध कर लेना चाहिए। ४. भावेन्द्रियके अमाव सम्बन्धी शंका-समाधान २/ १२ / ४४४/५ भाविवायाभावादी भाविदियं ग्राम पंचण्डमिंदियाणं खओवसमो। ण सो खीणावरणे अस्थि । सयोगी जिनके भावेन्द्रियाँ नहीं पायी जाती हैं। पाँचों इन्द्रियावरण कर्मोके क्षयोपशमको भावेन्द्रियाँ कहते है । परन्तु जिनका आवरण समूल नष्ट हो गया है उनके वह क्षयोपशम नहीं होता । ( ध / २ / १,१/६५८/४ ) ५. केवळीके मन उपचारसे होता है। घ. १/१,१,५२/२८५/३उपचारतस्तयोस्ततः समुत्पत्तिविधानात् । - उपचार - से मनके द्वारा (केवलीके) उन दोनों प्रकारके वचनोंकी उत्पत्तिका विधान किया गया है । सिद्ध हो के गो. जी./मू./२२८ मणसहियाणं वयणं दिट्ठ तप्पुन्नमिदि सजोगहि उत्ती मणोययारेणिदिणाण होमम्मि २२८१ इन्द्रिय ज्ञानियोंके वचन मनोयोग पूर्वक देखा जाता है। इन्द्रिय ज्ञानसे रहित केवली भगवान् के मुख्यपनें तो मनोयोग नहीं है, उपचार से कहा है। ६. केवलीके द्रव्यमन होता है मावमन नहीं = घ. १/१,१.५०/२८४/४ अतीन्द्रियज्ञानत्वान्न केवलिनो मन इति चेन्न, द्रव्यमनसः सत्त्वात् । - प्रश्न - केवलोके अतीन्द्रिय ज्ञान होता है, इसलिए उनके मन नहीं पाया जाता है उत्तर नहीं, क्योंकि, उनके द्रव्य मनका सद्भाव पाया जाता है। ww ७. तहाँ मनका भावात्मक कार्य नहीं होता पर परिस्पन्दन रूप द्रव्यात्मक कार्य होता है। घ. १/१,१.५०/२८४/५ भवतु द्रव्यमनस' सत्त्वं न तत्कार्यमिति चेद्भवतु तत्कार्यस्य क्षायोपशमिक्ज्ञानस्याभानः, अपि तु तदुत्पादने प्रयत्नोस्त्येव तस्य प्रतिबन्धकत्वाभावात् । तेनात्मनो योगः मनोयोगः । विद्यमानोऽपि तदुत्पादने प्रयत्नः किमिति स्वकार्य न विदध्यादिति चेन्न, तत्सहकारिकारणश्योपशमाभावात् । प्रश्न- केवली के द्रव्यमनका सद्भाव रहा आवे, परन्तु वहाँ पर उसका कार्य नहीं पाया जाता है ? उत्तर - द्रव्यमनके कार्य रूप उपयोगात्मक क्षायोपशमिक ज्ञानका अभाव भले ही रहा आवे, परन्तु द्रव्य मनके उत्पन्न करनेमें प्रयत्न तो पाया ही जाता है, क्योंकि, मनकी वर्गमाओं को लानेके लिए होनेवाले प्रयत्न में कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं पाया जाता है। इस लिए यह सिद्ध हुआ कि उस मनके निमित्तसे जो आत्माका परिस्पन्द रूप प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। प्रश्न- केवलीके द्रव्यमनको उत्पन्न करनेमें प्रयत्न विद्यमान रहते हुए भी वह अपने कार्य को क्यों नहीं करता है उत्तर नहीं, क्योंकि मेली मानसिक ज्ञानके सहकारी कारणरूप क्षयोपशमका अभाव है, इसलिए उनके मनोनिमिक ज्ञान नहीं होता है। (च. १/१.१,२२/१६०-३६०/० ); (गो०जी०/५० १० जी० १० / २२६) । ८. भावमनके अभाव में क्चनकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है म. १/१,१.१२३/६/३ रात्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य सोऽपि मिति चेन्न, तस्य ज्ञानकार्यत्वात् । अक्रमज्ञानात्कर्थं क्रमवतां वचना १६३ ५. इन्द्रिय मन व योग सम्बन्धी निर्देश ..... 1 नामुत्पत्तिरिति चेन्न, घटविषयाक्रमज्ञानसमवेतकुम्भकारार्द्धटस्य क्रमेणोत्पलम्भाद् मनोयोगाभावे सुत्रेण सह विरोध स्थादिति चेन्न, मन' कार्यप्रथमचतुर्थ वचसोः सत्त्वापेक्षयोपचारेण तत्सत्त्वोपदेशाद जीवप्रदेशपरिस्पन्दहेतु नोकर्मजनितशक्त्यस्तित्वापेक्षया ना तत्सत्त्वान्न विरोध प्रश्न - अरहन्त परमेष्ठीमें मनका अभाव होनेपर मनके कार्यरूप वचनका सद्भाव भी नहीं पाया जा सकता है । उत्तर- नहीं, क्योंकि, वचन ज्ञानके कार्य हैं, मनके नहीं। प्रश्न--- अक्रम ज्ञानसे क्रमिक वचनोंकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तरनहीं, क्योकि घट विषयक अक्रम ज्ञानसे युक्त कुम्भकार द्वारा क्रमसे टको उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञानसे क्रमिक वचनोको उत्पत्ति मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है। प्रश्न-सयोगिकेवलीके मनोयोगका अभाव माननेपर "सक्षम अस मसणजोगो सणिमिच्छाइट्ठिप्पहूडि जाव सजोगिकेवल त्ति । ( ष० खं०/१/१,१/५०/२८२ ) इस सूत्र के साथ विरोध आ जायेगा उत्तर नहीं, क्योंकि, मनके कार्यरूप प्रथम और पशु भाषाके सद्भाव की अपेक्षा उपचारसे मनके सद्भाव मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है। अथवा, जीवप्रदेशोंके परिस्पन्दके कारणरूप मनोजणारूप नोकर्मसे उत्पन्न हुई शक्तिके अस्तित्वकी अपेक्षा सयोगि केवली मे मनका सद्भाव पाया जाता है ऐसा मान लेनेमें भी कोई विरोध नहीं आता है । (ध. १/१,१,५०/२८५/२) (ध. १/११, १२२ / ३६८/२ ) । ९. मन सहित होते हुए भी केवलीको संज्ञी क्यों नहीं कहते 1 ध. १/१,१,१७२/४०८/१० समनस्कत्वात्सयोगिकेवलिनोऽपि संज्ञिन इति पेन तेषां क्षीणाचरणानां मनोऽवष्टम्भवलेन बाह्यार्थग्रहणाभावतस्तदस्वात् तर्हि भवतु केसिनोऽचिन इति चेन्न साक्षात्कृतशेष पदार्थानामसंविविरोधात् असंहिन' केवलिनो मनोऽमपेक्ष्य बाह्यार्थग्रहणाद्विकलेन्द्रियवदिति चेद्रवमेवं यदि मनोऽनपेक्ष्य ज्ञानोत्यत्तिमात्रमा भविस्य निबन्धनमिति चेन्मनसोऽभाइचतिशयाभाव', ततो नानन्तरोक्तदोष इति । प्रश्न-मन सहित होनेके कारण सयोगकेवली भी संज्ञी होते हैं। उत्तर- नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से रहित उनके मनके अवलम्बन से बाह्य अर्थका ग्रहण नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हें संज्ञी नहीं कह सकते। प्रश्नतो केवली अशी रहे आयें उत्तर नहीं क्योंकि जिन्होंने समस्त पार्थोको साक्षात् कर लिया है. उन्हे असंही माननेमें विरोध आता है प्रश्न केवली असंही होते है, क्योंकि, वे मनकी अपेक्षाके बिना ही विकलेन्द्रिय जीवों की तरह बाह्य पदार्थोंका ग्रहण करते हैं ? उत्तर - यदि मनकी अपेक्षा न करके ज्ञानकी उत्पत्ति मात्रका आश्रय करके ज्ञानोत्पत्ति असंज्ञीपनेकी कारण होती तो ऐसा होता । परन्तु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि कदाचित मनके अभाव से विकलेन्द्रिय जीवो की तरह केमलोके बुद्धिके अतिशयका अभाव भी कहा जायेगा। इसलिए केवली के पूर्वोक्त दोष लागू नहीं होता। १०. योगोंके सद्भाव सम्बन्धी समाधान स.सि /६/१/३१९/१ क्षयेऽपि त्रिविधवर्गणापेक्षः सयोगकेवलिन. आत्मप्रदेशपरिस्वदी योगी वेदितव्यः नर्यान्तराम और ज्ञानावरण कर्मके लय हो जानेपर भी सयोगकेवली के जो तीन प्रकारकी वर्गमाओको अपेक्षा आत्मप्रदेश परिस्पन्द होता है वह भी योग है ऐसा जानना चाहिए। ध. १/१.१.१२३/३६/९) घ. १/१,१.२७/२२०/५१ अस्थि सोगपुरणम्हि द्वियवती लोक पूरण समुदात में स्थित केनलियोके भी योग प्रतिपादक उपलब्ध है। आगम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली ६. ध्यानलेश्या आदि सम्बन्धी निर्देश... ११. केवलीके पर्याप्ति, योग तथा प्राण विषयक प्ररूपणा (ध.२/११/४४४.३+४४६४-६५८७+ ४१६.१६); (गो० जी०/जी० प्र०/७०१/११३५.१२, ७२६/११६२ १) निर्देश प्राण (दे० उपर्युक्त प्रमाण) पर्याप्ति (दे० पर्याप्ति/३ पर्याप्तापर्याप्त विचार आहारकत्व पर्याप्तापर्याप्त ० आहारक । दे० नीचे याग दे० योग/ ४ आहा संद विवरण स० विवरण पर्या, अप. पर्याप्त अपर्याप्त ४ वचन, काय, आयु. श्वास ४ २ आयु तथा श्वास हो पाप्त, अप ६, पर्याप्ति .. अपर्याप्ति सयोग केवलीसामान्य पर्याप्त अपर्याप्त समुद्घात केवली- प्र.समय दण्ड, द्वि० ,, कपाट तृ० , प्रत्तर चतु० लोक आहा., अना आहारक अनाहारक (दे० केवली/७/०१२,१३) औदारिक आहारक ओदा, मिश्र, कार्मण अनाहारक पर्यास्त अपर्याप्त ३ काय, आयु, श्वास २ काय तथा आयु १ आयु ६ छहों पर्याप्ति १ आहार पर्याप्ति ६ छहों अपर्याप्ति आहारक पंचम , प्रतर षष्टम , कपाट सप्तम ॥ दण्ड अष्टम , शरीर औदा, मिश्र औदारिक पर्याप्त २ | काय, आयु, श्वास ३ काय, आयु, श्वास ४ वचन, काय, आयु. श्वास १ आहार पर्याप्ति. ६ छहों पर्याप्ति ६ . प्रवेश पर्याप्त अयोग केवलो- दे० प्राण तथा पर्याप्ति विषयक द्वि० त० कोष्टक) प्रथम समय आहारक ६ काय, वायु, श्वास ६ छहों पर्याप्ति | (बचन निरोध) अन्तिम समय x अनाहारक आयु, (श्वास निरोध) *-७ योग-सत्य ता अनुभव मन तथा वचन, औदा. द्विक, कार्मण योग-उक्त २ मन, २ वचन औदारिक काय ३ योग-उक्त २ मन, औदारिक काय २ योग-औदारिक मिश्र तथा कार्मण १२.'दव्येन्द्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते घ २/१,१/४४४/६ अध दबिदियस्स जदि गहण कीरदि तो सण्णीणमपज्जतकाले सत्त पाणा पिडिदूण दो चेव पाणा भवंति। पंचण्ह दवेंदियाणमभावादो। तम्हा सजोगिकेवलिस्स चत्तारि पाणा दो पाणा वा प्रश्न-द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यो नही कहते । उत्तर--यदि प्राणों में द्रव्येन्द्रियोंका ही ग्रहण किया जाये तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणो के स्थानपर कुल दो ही प्राण कहे जायेगे, क्योकि, उनके द्रव्येन्द्रियो का अभाव होता है। अत' यह सिद्ध हुआ कि सयोगी जिनके चार अथवा दो ही प्राण होते हैं। (ध. २/१,१६५८/५)। १३. समुद्धात गत केवलीको चार प्राण कैसे कहते हो ध. २/१,१/६५६/१ तेसि कारणभूद-पज्जत्तीओ अत्थि त्ति पुणो उपरिमछट्ठसमयपडि बचि-उस्सासैपाणाणं समणा भवदि चत्तारि वि पाणा हवं ति । = समुद्घातगत केवलीके वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणोकी कारणभूत वचन और आनपान पर्याप्तियाँ पायी जाती है, इसलिए लोकपूरण समुद्धातके अनन्तर होनेवाले प्रतर समुद्धातके पश्चात् उपरिम छठे समयसे लेकर आगे वचनबल और श्वासोच्छवास प्राणोंका सद्भाव हो जाता है, इसलिए सयोगिकेवलीके औदारिकमिश्र काययोगमे चार प्राण भी होते है। वरण-खोवसम-लक्षण-पचि दियपाणा तत्थ सति, खीणावरणे खओंवसमाभावादो। आणावाणभासा-मणपाणा वि णस्थि, पज्जात्त-जणिदपाण-सण्णिद-सत्ति-अभावादो। ण सरीर-बलपाणो वि अस्थि, सरीरोदय-जणिद-कम्म-णोकम्मागमाभावादो तदो एक्को चेव पाणो। = ( अयोग केवली के ) एक आयु नामक प्राण होता है। प्रश्न-एक आयु प्राणके होनेका क्या कारण है। उत्तर-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमस्वरूप पाँच इन्द्रिय प्राण तो अयोगकेवलीके है नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मोके क्षय हो जानेपर क्षयोपशमका अभाव पाया जाता है। इसी प्रकार आनपान, भाषा और मन प्राण भी उनके नहीं है, क्योकि पर्याप्ति जनित प्राण संज्ञावाली शक्तिका उनके अभाव है। उसी प्रकार उनके कायबल नामका भी प्राण नहीं है, क्योकि उनके शरीर नामकर्मके उदय जनितकर्म और नोकर्मोके आगमनका अभाव है। इसलिए अयोगकेवलीके एक आयु ही प्राण होता है। ऐसा समझना चाहिए। ६. ध्यानलेश्या आदि सम्बन्धी निर्देश व शंकासमाधान १.केवलीके लेश्या कहना उपचार है तथा उसका कारण स.सि /२/६/१६०/१ ननु च उपशान्तकषाये क्षीणकषाये सयोगकेवलिनि च शुक्ललेश्यास्तीत्यागम । तत्र कषायानरञ्जनाभावादौदयिकत्वं नोपपद्यते। नैष दोषः; पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया यासौ योगप्रवृत्तिः कषायानुरञ्जिता से वेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते। तदभावादयोग ०९ ननु च तत्र कषायावक्षया यासो १४. अयोगीके एक आयु प्राण होनेका क्या कारण है ध.२/१.१/४४५/१० आउअ-पाणो एक्को चेव। केण कारणेण । ण ताव णाणा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली ६. ध्यान, लेश्या आदि सम्बन्धी निर्देश केवत्यकेवल्यलेश्य इति निश्चीयते। -प्रश्न-उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थानमे शुक्ल लेश्या है ऐसा आगम है, परन्तु वहाँपर कषायका उदय नहीं है इसलिए औदयिकपना नही बन सकता ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि जो योग प्रवृत्ति वायके उदयसे अनुरंजित है वही यह है इस प्रकार पूर्व भावप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानोमें भी लेश्याको औदयिक कहा गया है। (रा.वा./२/६/-/R0828)(गो.जी./ मू./५३३ )। ध,७/१,१,६१/१०४/१२ जदि कसाओदएण लेस्साओ उच्चति तो खीणकसायाण लेस्साभावो पसज्जदे। सच्चमेदं जदि कसाओदयादो चेव लेस्सुप्पत्ती इच्छिज्जदि । कितु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगो वि लेस्सा त्ति इच्छिज्जदि, कम्मबंधणिमित्तत्तादो। तेण कसाये फिट्ट वि जोगो अस्थि त्ति खीणकसायाणं लेस्सत्तं ण बिरुज्झदे। -- प्रश्न-यदि कषायोंके उदयसे लेश्याओं का उत्पन्न होना कहा जाता है तो नारा गुणस्थानवी जीवोके लेश्याके अभावका प्रसग आता है। उत्तर-सचमुच ही क्षीण कषाय जीवोमें लेश्याके अभावका प्रसंग आता यदि केवल कषायोदयसे ही लेश्याकी उत्पत्ति मानी जाती। किन्तु शरीर नामकर्मोदयसे उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योकि वह भी कर्म के बन्ध में निमित्त होता है। इस कारण कषायके नष्ट हो जानेपर भी चूकि योग रहता है, इसलिए क्षीणकषाय जीबोके लेश्या माननेमे कोई विरोध नहीं आता । (गो.जी /मू /५३३ )। २. केवलीके संयम कहना उपचार है तथा उसका कारण ध. १/१.१,१२४/३७४/३ अथ स्यात् बुद्धिपूर्विका सावद्यविरति संयम', अन्यथा काष्ठादिष्वपि संयमप्रसङ्गात । न च केवलीषु तथाभूता निवृत्तिरस्ति ततरतत्र संयमो दुर्घट इति नैष दोषः, अघातिचतुष्टयविनाशापेक्षया समयं प्रत्यसंख्यातगुणश्रेणिकर्म निर्जरापेक्षया च सकलपापक्रियानिरोधलक्षणपारिणामिकगुणाविर्भावापेक्षया वा, तत्र संयमोपचारात । अथवा प्रवृत्त्यभावापेक्षया मुख्यसंयमोऽस्ति (न काष्ठेन व्यभिचारस्तत्र प्रवृत्त्यभावतस्तन्निवृत्त्यनुपपत्ते. । प्रश्न--बुद्धिपूर्वक सावद्य योगके त्यागको संयम कहना तो ठीक है। यदि ऐसा न माना जाये तो काष्ठ आदिमें भी संयमका प्रसंग आ जायेगा। किन्तु केवलीमें बुद्धिपूर्वक सावद्ययोगको निवृत्ति तो पायी नहीं जाती है इसलिए उनमें संयमका होना दुर्घट ही है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, चार अघातिया कर्मोके विनाश करनेकी अपेक्षा और समय-समयमें असंख्यात गुणी श्रेणी रूपसे कर्म निर्जरा करनेकी अपेक्षा सम्पूर्ण पापक्रियाके निरोधस्वरूप पारिणामिक गुण प्रगट हो जाता है, इसलिए इस अपेक्षासे वहाँ संयमका उपचार किया जाता है। अतः वहाँपर संयमका होना दुर्घट नहीं है। अथवा प्रवृत्तिके अभावकी अपेक्षा वहॉपर मुख्य संयम है। इस प्रकार जिनेन्द्रमे प्रवृत्यभाव से मुख्य संयमकी सिद्धि करनेपर काष्ठसे व्यभिचार दोष भी नही आता है, क्योंकि, काष्ठमें प्रवृत्ति नहीं पायी जाती है, तब उसकी निवृत्ति भी नहीं बन सकती है। मणणिरोहाभावादो। ण च मणणिरोहेण विणा झाणं संभवदि । ण एस दोसो; एगवत्थुम्हि चिताणिरोहो ज्झामिद जदि घेपदि तो होदि दोसो। ण च एवमेत्थ घेपदि । · जोगा उवयारेण चिंता; तिस्से एयग्गेण णिरोहो विणासो जम्मितं ज्माण मिदि एत्थ घेत्तव्वं । ध. १३/५,४,२६/८७/१३ कधमेत्य झाणववएसो 1 एयग्गेण चिताए जीवस्स गिरोहो परिप्फंदाभावो ज्माणं णामा-१. प्रश्न-इस योग निरोधके कालमे केवली जिन सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यानको ध्याते है, यह जो कथन किया है वह नहीं बनता, क्योंकि केवली, जिन अशेष द्रव्य पर्यायोंको विषय करते हैं, अपने सब कालमें एक रूप रहते है और इन्द्रिय ज्ञानसे रहित हैं; अतएव उनका एक वस्तुमें मनका निरोध करना उपलब्ध नहीं होता। और मनका निरोध किये बिना ध्यानका होना सम्भव नहीं है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि प्रकृतमे एक वस्तुमें चिन्ताका निरोध करना ध्यान है, ऐसा ग्रहण किया जाता है तो उक्त दोष आता है। परन्तु यहाँ ऐसा ग्रहण नहीं करते है। यहाँ उपचारसे योगका अर्थ चिन्ता है। उसका एकाग्र रूपसे निरोध अर्थाद विनाश जिस ध्यानमे किया जाता है, वह ध्यान है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। २. प्रश्न----यहाँ ध्यान संज्ञा किस कारणसे दी गयी है । उत्तर-एकाग्ररूपसे जीवके चिन्ताका निरोध अर्थात् परिस्पन्दका अभाव होना हो ध्यान हैं, इस दृष्टिसे यहाँ ध्यान संज्ञा दी गयी है। पं. का /ता.वृ./१५२/२१८/१० भावमुक्तस्य केवलिनो.. स्वरूपनिश्चलत्वाद.. पूर्व सचितकर्मणां ध्यानकार्यभूतं स्थितिविनाश गलनं च दृष्ट्वा निर्जरारूपध्यानस्य कार्यकारणमुपचर्योपचारेण ध्यानं भण्यत इत्यभिप्रायः। =स्वरूप निश्चल होनेसे भावमुक्त केवलीके ध्यानका कार्यभूत पूर्वसंचित कर्मों की स्थितिका विनाश अर्थात गलन देखा जाता है। निर्जरारूप इस ध्यानके कार्य-कारणमें उपचार करनेसे केवलीको ध्यान कहा जाता है ऐसा समझना चाहिए। (चा. सा/१३१/२)। ४. केवलीके एकत्व वितर्क ध्यान क्यों नहीं कहते ध. १३/५,४,२६/७५/७ आवरणाभावेण असेसदबपज्जए उवजुत्तस्स केवलोपजोगस्स एगदव्वम्हि पजाए वा अवट्ठाणाभावद ठूणं तज्झाणाभावस्स परूवित्तादो-आवरणका अभाव होनेसे केवली जिनका उपयोग अशेष-द्रव्य पर्यायोमें उपयुक्त होने लगता है। इसलिए एक द्रव्यमें या एक पर्यायमें अवस्थानका अभाव देखकर उस ध्यानका ( एकत्ववितर्क अविचार ) अभाव कहा है। ७. तो फिर केवली क्या ध्याते हैं ३. केवलीके ध्यान कहना उपचार है तथा उसका कारण रा.वा./२/१०/५/१२५/८ यथा एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमिति छद्मस्थे ध्यानशब्दार्थो मुख्यश्चिन्ताविक्षेपवतः तन्निरोधोपपत्र, तदभावाद' केवलिन्युपचरित फलदर्शनात। =एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान छद्मस्थों में मुख्य है, केवलीमें तो उसका फल कर्मध्वंस देखकर उपचारसे ही वह माना जाता है। ध. १३/५४.२६/८६/४ एदम्हि जोगणिरोहकाले सुहमकिरियमप्पण्डिवादि ज्माणं झायदि त्ति ज भणिदं तण्ण घडदे, केवलिस्स विसईकयासेसदव्यपज्जायस्स सगसव्वदाए एगरूवस्स अणि दियस्स एगवत्थुम्हि प्र. सा./मू /१६७-१६८ णिहदघणघादिकम्मो पञ्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू । णेयंतगदो समणो झादि कमळं असंदेहो।१६। सव्वबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्रवणाणड्ढो। भूदो अवरवातीदो झादि अणक्खो पर सोकरवं ।१६८ = प्रश्न-जिसने धनधाति कर्मका नाश किया है, जो सर्व पदार्थोंको प्रत्यक्ष जानते हैं, और ज्ञेयोंके पारको प्राप्त हैं, ऐसे संदेह रहित श्रमण क्या ध्याते है । उत्तर - अनिन्द्रिय और इन्द्रियातीत हुआ आत्मा सर्व बाधा रहित और सम्पूर्ण आत्मामें समंत ( सर्व प्रकारके, परिपूर्ण ) सौख्य तथा ज्ञानसे समृद्ध रहता हुआ परम सौख्यका ध्यान करता है। ६. केवलीको इच्छाका अभाव तथा उसका कारण नि सा /मू./१७२ जाणं तो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो ।१७२। -- जानते और देखते हुए भी, केवलीको इच्छापूर्वक (वर्तन ) नहीं होता; इसलिए उन्हे केवलज्ञानी' कहा है। और इसलिए अबन्धक कहा है। (नि. सा /मू./१७५) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली १६६ ७. केवली समुद्धात निर्देश ध.१३/२/६१/३००/६ दंड-कवाड-पदर-लोगपूरणाणि कवलिसमुग्घादो णाम । दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण रूप जीव प्रदेशोंको अवस्थाको केवलिसमुद्धात कहते हैं। (प का /ता.वृ./१५३/२२१) २. भेद-प्रभेद ध.४/,१,३,२/२८/८ दंडकवाड-पदर-लोकपूरणभेएण चउबिहो । -दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणके भेदसे केवलीसमुद्रात चार प्रकार अष्टसहस्री./पृ.७२ (निर्णय सागर बम्बई) वस्तुतस्तु भगवतो बीतमोह- स्वान्मोहपरिणामरूपाया इच्छाया तत्रासंभवात्। तथाहिनेच्छा सर्व विद' शासनप्रकाशननिमित्तं प्रणष्टमोहत्वात् । वास्तवमें केवली भगवानके वीतमोह होनेके कारण, मोह परिणामरूप जो इच्छा है वह उनके असम्भव है। जैसे कि-सर्वज्ञ भगवान्को शासनके प्रकाशनकी भी कोई इच्छा नहीं है, मोहका विनाश हो जानेके कारण । नि. सा./ता वृ./१७३-२७४ परिणामपूर्वक वचनं केवलिनो न भवति... केवलीमुखारविन्दविनिर्गतो दिव्यध्वनिरनीहात्मकः । = परिणाम पूर्वक वचन तो केवलीको होता नहीं है। केवलीके मुखारविन्दसे निकली दिव्यध्वनि समस्तजनोके हृदयको आल्हादके कारणभूत अनिच्छात्मक होती है। प्र.सा./त.प्र./४४ यथा हि महिलाना प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यता सद्भावात स्वभावभूत एव मायोपगुण्ठनागुण्ठितो व्यवहार. प्रवर्तते, तथा हि केवलिनां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासहभावात् स्थानासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवतन्ते। अपि चाविरुद्धमेतदम्भोघरदृष्टान्ताद। यथा खत्वम्भोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुवर्ष च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्त, तथा केवलिना स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यन्ते । प्रश्न-(बिना इच्छाके भगवान्को विहार स्थानादि क्रियाएँ कैसे सम्भव हैं)। उत्तर-जैसे स्त्रियोके प्रयत्नके बिना भी, उस प्रकारकी योग्यताका सदभाव होनेसे स्वभावभूत हो मायाके ढक्कनसे ढका हुआ व्यवहार प्रवर्तता है, उसी प्रकार केवली भगवानके, बिना ही प्रयत्नके उस प्रकारको योग्यताका सद्भाव होनेसे खड़े रहना, बैठना, बिहार और धर्मदेशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं। और यह (प्रयत्नके बिना ही विहारादिका होना ) बादलके दृष्टान्तसे अविरुद्ध है। जैसे बादलके आकाररूप परिणमित पुदगलोंका गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुषप्रयत्नके बिना भी देखी जाती है, उसीप्रकार केवलो भगवान्के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धि पूर्वक ही (इच्छाके बिना ही ) देखा जाता है। गो. जी /जी. प्र./५४४/१५३/१४ केवलिसमुद्धात' दण्डकबाट प्रतरलोक पूरणभेदाच्चतुर्धा । दण्डसमुद्रातः स्थितोपविष्टभेदाद द्वधा। कवाटसमुद्धातोऽपि पूर्वाभिमुखोत्तराभिमुखभेदाभ्यां स्थितः उपविष्टश्चेति चतुर्धा। प्रतरलोकपूरणसमुद्धातावेवैककावेव। - केवली समुद्धात च्यारि प्रकार दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण । तहाँ दंड दोय प्रकार एक स्थिति दंड. अर एक उपविष्ट दण्ड । बहुरि कपाट चारि प्रकार पूर्वाभिमुखस्थितकपाट, उत्तराभिमुखस्थितकपाट, पूर्वाभिमुख उपविष्टकपाट, उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट । बहुरि प्रतर अर लोकपूरण एक एक ही प्रकार है। ५, दण्डादि भेदोंके लक्षण ध.४/१,३,२/२८/८ तत्थ दण्डसमुग्घादो काम पुठबसरीरबाहल्लेण वा तत्तिगुणबाहल्लेण वा सविक्वंभादो सादिरेयतिगुणपरिठ्ठएण केवलिजीवपदेसाणं दंडागारेण देसूणचोहसरज्जुविसप्पणं । कवाडसमुग्धादो णाम पुबिल्लबाहक्लायामेण वादवलयबदिरितसव्वखेत्तावूरणं । पदरसमुग्धादो णाम केवलिजीवपदेसाणं बाद वलयरुद्धलोगखेतं मोत्तूण सठवलोगावूरणं । लोगपूरणसमुग्धादो णाम केवलिजीवपदेसाणं घणलोगमेत्ताण सव्वलोगावूरणं । -- जिसकी अपने विष्कंभसे कुछ अधिक तिगुनी परिधि है ऐसे पूर्व शरीरके बाहत्यरूप अथवा पूर्व शरीरसे तिगुने बाहल्यरूप दण्डाकारसे केवलीक जीव प्रदेशोंका कुछ कम चौदह राजू उत्सेधरूप फैलनेका नाम दण्ड समुद्धात है। दण्ड समुद्धातमें बताये गये बाहल्य और आयामके द्वारा पूर्व पश्चिममें वातवलयसे रहित सम्पूर्ण क्षेत्रके व्याप्त करनेका नाम कपाट समुद्घात है। केवली भगवान्के जीवप्रदेशोंका वातवलयसे रुके हुए क्षेत्रको छोड़कर सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त होनेका नाम प्रतर समुद्धात है। धन लोकप्रमाण केवली भगवानके जीवप्रदेशों का सर्वलोकके व्याप्त करनेको लोकपूरण समुद्धात कहते हैं। (ध./१३/५/४/२६/२) ७. केवलीके उपयोग कहना उपचार है रा, वा./२/१०/१२५/१० तथा उपयोगशब्दार्थोऽपि संसारिषु मुख्य' परिणामान्तरसंक्रमात, मुक्तेषु तदभावाद्ध गौणः कल्प्यते उपलब्धिसामान्यात् ।-संसारी जीवोंमें उपयोग मुख्य है, क्योंकि बदलता रहता है। मुक्त जीवों में सतत एकसी धारा रहनेसे उपयोग गौण-है वहाँ तो उपलब्धि सामान्य होती हैं। ७. केवली समुद्धात निर्देश 1. केवली समुद्धात सामान्यका लक्षण स. सि./8/४४/४५७/३ लघुकर्मपरिपाचनस्याशेषकर्मरेणुपरिशातनशक्तिस्वाभाव्याद्दण्डकपाटप्रतरलोक पूरणानि स्वात्मप्रदेशविसर्पणत' ...। समुपहतप्रदेशविसरण' । -जिनके स्वल्पमात्रामें कर्मों का परिपाचन हो रहा है ऐसे वे अपने ( केवली अपने ) आत्मा प्रदेशोंके फैलनेसे कर्म रजको परिशातन करनेकी शक्तिवाले दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धातको...करके अनन्तरके विसर्पणका संकोच करके..। रा. वा./१/२०/१२/७७/१६ द्रव्यस्वभावत्वात सुराद्रव्यस्य फेनवेगबुदबुदाविर्भावोपशमनबद्ध देहस्थात्मप्रदेशाना बहि समुद्घातनं केवलिसमुद्धातः। - जैसे मदिरामें फेन आकर शान्त हो जाता है उसी तरह समुद्रातमें देहस्थ आरमप्रदेश बाहर निकलकर फिर शरीरमें समा जाते है, ऐसा समुद्रात केवली करते है। ४. समी केवलियोंको होने न होने विषयक दो मत भ.आ./मू /२१०६ उक्कस्सएण छम्मासाउगसेसम्मिवली जादा। बच्चंति समुग्धादं सेसा भज्जा समुग्धादे ।२१०१। =उत्कर्षसे जिनका आयु छह महीनेका अवशिष्ट रहा है ऐसे समयमें जिनको केवल ज्ञान हुआ है वे केवली नियमसे समुद्घातको प्राप्त होते हैं। बाकीके केवलियोंको आयुष्य अधिक होनेपर समुद्घात होगा अथवा नहीं भी होगा, नियम नहीं है। (प. सं./प्रा.१/२००); (ध. १/१,१,३०/१६७); (झा./४२/४२); (वसु.भा./५३०) ध.१/१,१,६०/३०२/२ यत्तिवृषभोपदेशात्सर्वधातिकर्मणां क्षीणकषायचरमसमये स्थिते. साम्याभावात्सर्वेऽपि कृतसमुदधाताः सन्तो निवृत्तिमुपढौकन्ते । येषामाचार्याणी लोकव्यापिकेवलिषु विशतिसंख्यानियमस्तेषां मतेन केचित्समुद्धातयन्ति । के न समुद्धातयन्ति । -यतिवृषभाचार्यके उपदेशानुसार क्षीणकषाय गुणस्थानके चरमसमयमें सम्पूर्ण अघातिया कर्मोकी स्थिति समान नहीं होनेसे सभी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली केवली समुद्घात करके ही मुक्तिको प्राप्त होते है । परन्तु जिन आचार्योंके मतानुसार लोकपूरण समुद्रघात करनेवाले केवलियोकी बोस संख्याका नियम है, उनके मतानुसार कितने ही केवली समुघात करते हैं और कितने नही करते हैं । घ. १३/८.४.२९/१२९/१३ सम्मेसि निगम ताणं केवलिरुमुग्धादाभावादो। =मोक्ष जानेवाले सभी जीवोंके केवलि समुद्घात नही होता । ५. आयुके छह माह शेष रहनेपर होने न होने सम्बन्धी दो मत ४. १/१.१.६०/१६७/२०३ धम्मासा उनसे से उप्प जस्स केवलगा । स-समुग्धाओ सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्धाए | १६७ एदिस्से गाहाए उपरसे कष्ण गहिओ ण भज्जत्ते कारणापुलं भादो प्रश्नछह माह प्रमाण आयुके शेष रहनेपर जिस जोवको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है वह समुद्घाटको करके ही मुक्त होता है। शेष जो सगु घात करते भी हैं और नहीं भी करते है । १६७ (भ.आ./मू./२१०६) इस पूर्वोक्त गाथाका अर्थ क्यों नहीं ग्रहण किया है ' उत्तर- नहीं, क्योकि इस प्रकार विकल्पके माननेमें कोई कारण नहीं पाया जाता है, इसलिए पूर्वोक्त गाथाका उपदेश नहीं ग्रहण किया है। ६. कदाचित् आके अन्तर्मुह शेष रहनेपर होता है भ.// २९९२ अंतरासे से जंति समुग्धादमा २११२ -आमुक जब अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है तब केवसी समुद्रात करते हैं । ( स सि./१/४४/४५७/१); (ध.१३/५,४,२६/०४/१); (क्ष. सा. /६२०); (प्र.सा/ता.वृ./१५३/१३९) । 租 ७. आत्मप्रदेशोंका विस्तार प्रमाण स.सि./१/८/२०४/११ यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मन्दरस्यावश्चित्र वज्रपटलमध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशा व्यवतिष्ठन्ते । इतरे ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते । = केवलिसमुद्घात के समय जब यह (जीव ) लोकको व्यापता है उस समय जीवके मध्य के आठ 'प्रवेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथिवीके वजनय पटल के मध्य में स्थित हो जाते है और शेष प्रदेश ऊपर नीचे और तिरछे समस्त लोकको उपाप्त कर लेते है। (रा.वा./५/८/४/४५०/१) घ. १९/४.२.५.१०/३/११ केवली दंड करेमागो सो सरीरगुणाहरुले (ण) कुणदि, वेणाभावादो । को पुण सरीरतिगुणबाहल्लेण दंड कुणइ । पलियंकेण णिसण्णकेवली । दण्ड समुद्घातको करनेवाले सभी केवल शरीर से तिगुणे माहत्यले उक्त समुद्रघातको नहीं करते, क्योंकि उनके वेदनाका अभाव है। प्रश्न- तो फिर कौनसे केवली शरीरसे तिगुणे माहत्य से दण्डसमुद्रघातको करते है उत्तर पक वासन स्थित केवसी उक्त प्रकारसे दण्ड समुदघातको करते हैं। गो.ज./सी.प्र./४/१५३ केवल भाषार्थ-दष्ट-स्थितिदण्डसमुद्रात वि एक जीवके प्रदेश के बिना लोककी ऊंचाई किचित् जन चौदह राजू प्रमाण है सो इस प्रमाण लंबे बहुरि मारह अंगुल प्रमाण चौड़े गोल आकार प्रदेश है। स्थितिदण्डके क्षेत्रको नवगुणा कीजिए तब उपविष्टदण्ड विषै क्षेत्र हो है । सो यहाँ ३६ अंगुल पौड़ाई है। कपाट पूर्वाभिमुख स्थित कराट समुद्रपातविये एक जीवके प्रदेश वातवलय बिना लोक प्रमाण तो लम्बे हो हैं सो किचित ऊन चौदह राजू प्रमाण तो लम्बे हो है, बहुरि उत्तर-दक्षिण दिशाविधे लोकको चौडाई प्रमाण चौड़े हो है सो उत्तर-दक्षिण दिशाविषैलोक सर्वत्र सात राजू चौडा है तात सात राजू प्रमाण चौड़े हो है । बहुरि बारह अंगुल प्रमाण पूर्व पश्चिम विषे ऊँचे हो है । ७. केवली -- समुद्घात निर्देश पूर्वाभिमुख स्थित कपाटके क्षेत्र से सिगुना पूर्वाभिमुख विष्ट कपाट विषै क्षेत्र जानना । उत्तराभिमुख स्थित कपाटके चौदह राजू प्रमाण तो लम्बे पूर्व-पश्चिम दिशा निर्दे लोकको चौडाईके प्रमाण चीड़े हैं। उतर-दक्षिण विक्रमसे सात एक पाँच और एक राजू प्रमाण चौड़े है। उत्तराभिमुख उपवि कपाट विषै ताते तिगुनी बची अंगुली ऊँचाई है। प्रतर बहुरि प्रतर समुहात व तीन वलय बिना सर्व लोक विषै प्रदेश व्याप्त हैं तातें तीन वातवलयका क्षेत्रफल लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। लोकपुरणमहुरि लोकरण व सर्व लोकाकाश विषै प्रदेश व्यास हो हैं या लोकप्रमाण एक जोव सम्बन्धी लोकपूरण विषै क्षेत्र जानना । ६.सा./६२३/०३/११ भाषार्य कायोत्सर्ग स्थित केरतीके दण्ड समुद्रात उत्कृष्ट १०८ प्रमाण अंगुल ऊँचा, १२ प्रमाणांगुल चौड़ा और सूक्ष्म परिधि २०६१ प्रमाणांगुल युक्त है । पद्मासन स्थित (उपविष्ट) दण्ड समुद्धात विषै ऊँचाई ३६ प्रमाणांगुल, और सूक्ष्म परिधि ११३११ प्रमाणांगुल युक्त है। १६७ ८. कुल आठ समय पर्यन्त रहता है रा.वा./१/२०/१२/०७/२० केलिसमुहात अष्टसामयिक दण्डकार प्रतरलोकपूरणानि चत समयेषु पुनः प्रतरकाण्डस्वशरीरानुप्रवेशाचतुर्षु इति । == केवलि समुद्घातका काल आठ समय है । दण्ड, कवाट प्रतर, लोकपूरण, फिर प्रतर कपाट, दण्ड और स्व शरीर प्रवेश इस तरह आठ समय होते हैं । ९. प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधिक्रम पं.सं / प्रा./११७-१९८ पढमे दंडं कुणइ य विदिए य कवाड्यं तहा समए । तइए पयर चैव य चउत्थए लोयपूणर्य ॥१६७॥ विवरं पंच समए जोई माण तो सतम से कवाई संपरइ सदोमेड | १६८ | = समुद्घातगत केवली भगवान् प्रथम समय में दण्डरूप समुघात करते हैं । द्वितीय समय में कपाटरूप समुद्घात करते हैं । तृतीय समय में प्रतररूप और चौथे समयमें लोक- पूरण समुद्घात करते है । पाँचवे समयमें वे सयोगिजिन लोकके विवरगत आत्मप्रदेशका संवरण (संकोच करते है पुन छठे समय मन्धान ( प्रतर) गत आत्म-प्रदेशका संवरण करते है। सातवें समय कपाट गत आत्म-प्रदेशोंका संवरण करते हैं और आठवें समय में दण्डसमुद्रालगत आत्म-प्रदेशका संचरण करते हैं (भ आ././२११५) (सा./मू./६२०) (सा/भा/६२३)। क्ष सा./मू./६२९ हेट्ठा दंडस्सं तो मुहुत्तमावज्जिद हवे करणं । तं च समु ग्वादस् य अभावो जिदिस्स | ६२१ | दण्ड समुद्घात करनेका काल अन्तर्मुहूर्त काल आधा कहिए पहले आवर्जित नामा करण हो है सी जिनेन्द्र देवकें जो समुइयात क्रियाको सम्मुखपना सोई आवजितकरण कहिए । १०. दण्ड समुदात में औदारिक काययोग होता है शेष मैं नहीं = केवलि समुद्घातके उक्त पं.सं./प्रा / १६६ दंडदुगे ओलं ......१९६६ बाठ समयोमे से दण्ड द्विक अर्थात पहले और सातवें समय के दोनों समुद्रात बीदारिक काययोग होता है (४.४/१.४,८०/२६३/१) ११. प्रतर व लोकपूरण में अनाहारक शेषमें आहारक होता है क्ष. सा / ६१६ वरि समुग्धादगदे पदरे तह लोग पूरणे पदरे । णत्थि तिसमये णियमा गोकम्माहारयं तस्य ॥ ६१६। केवल समुद्धातकी प्राप्त केवलि वि दोय तौ प्रतर के समय अर एक लोक पूरणका समय इन तीन = जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली १६८ समयनि विषै नोकर्मका आहार नियमतें नाही है अन्य सर्व योगी जिनका काका बाहार है। १२. केवली समुद्रात पर्याप्तापर्याप्त सम्बन्धी नियम गो.जी./जी. ७०३/१९३०/११ सयोगे च समुदाते भय योगे पर्याप्त एवं सयोगी व पर्याप्त है, समुदात सहित दो पर्याप्त व अपर्याप्त ) है। अयोगी विषै पर्याप्त ही है। - गोक / जी.प्र./५८७/७६१ / १२ दण्डद्वये कालः औदारिकशरीर पर्याप्तिः, युगले समयः प्रतरयोर्लोकपूरणे च कार्मण इति ज्ञातव्य मूल शरीरप्रथमसमयात्संज्ञिवत्पर्याप्तय पूर्यन्ते । दण्डका करने वा समेटने रूप युगल औदारिक शरीर पर्याप्त काल है। कपाटका करने समेटनेरूप युगल विषे ओदारिकर्मिणशरीर काल है अर्थात् अपर्या काल है। प्रतरका करना ना समेटनाविये अर सोरवि कार्याणकाल है। वृत्तशरीरभि प्रवेश करनेका प्रथम समय से लगाय संशी पञ्चेन्द्रियवत, अनुक्रमतैं पर्याप्त पूर्ण करे है। १३. पर्याप्तापर्याप्त सम्बन्धी शंका-समाधान ध २/१, १/४४१-४४४/१ केवली कबाड- पदर- लोगपूरणगओ पज्जन्तो अपज्जत्तो वा । ण ताव पज्जत्तो. 'ओरालियमस्सकाग्रजोगो अपज्जताणं.' इच्चेदेण सुतेण तम्स अपज्जत्तसिद्धीदो। सजोगि मोसण अप्पे बोरानियमिज असा 'सम्माभिव्याहद्रि जदाद मागि अहारमिस्सकायजोगपमत्तसंजदाणं पिपज्जन्त्तयत्त प्पसंगादो। ण च एवं आहार मिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं' त्ति सुत्तेण तस्स अपज्जन्तभाव - सिद्धादो। अणवगासत्तादो एदेण सुत्तेण 'संजदट्ठाणे नियमा पज्जत्ता' त्ति एवं सुत्तं बाहिज्जदित्ति अणेयंतियादो ।... किमेदेण जाणाविज्जदि । "त्ति एवं सुत्तमणिचमिदि ण च सजोगम्मि सरीरपट्टणमपि तदो रास्स अपजसमिदि परजति सत्तिवज्जियस्स अपज्जन्त ववएसादो । • प्रश्न- कपाट प्रतर और लोकपूरण समुदायको प्राप्त केली पर्याप्त है या अपर्याप्त उत्तर- उन्हे पर्याप्त तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि, 'चौहारिक निकाययोग अपको होता है। इससे उनके अपना सिद्ध है, इसलिए वे अपर्याप्त ही हैं। प्रश्न- “सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयतासंयत और संतोंके स्थान में जीव नियमसे पर्याप्तक होते है" इस प्रकार सूत्र निर्देश होनेके कारण यही सिद्ध होता है कि सयोगीको छोड़कर अन्य औदारिक मिश्रकाययोगवाले जीव अपर्याप्तक हैं। उत्तर-ऐसा नही है। क्योंकि ( यदि ऐसा मान लें ). तो आहारक मिश्रकाययोगाले प्रमत्तसंयतों को भी अपर्याप्तक ही मानना पड़ेगा, क्योंकि वे भी संयत है। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, 'आहारकमिय काययोग अपतौके होता है इससे वे अपर्याप्त ही सिद्ध होते है। प्रश्न- यह सूत्र अनवकाश है, (क्योंकि) इस सुजसे यतोके स्थान में औच नियमसे पर्याप्त होते हैं, यह सूत्र बांधा जाता है। उत्तर- इस कथनमें अनेकान्तदोष आ जाता है। ( क्योंकि अन्य सूत्रोंसे यह भी बाधा जाता है। प्रश्न ( सूत्रमें पडे ) इस नियम शब्दसे क्या ज्ञापित होता है। उत्तर- इसमे ज्ञापित होता है कि यह सूत्र अनिश्य है । "कहीँ प्रवृत्त हो और कहीं न हो इसका नाम अनित्यता है । प्रश्न- सयोग अवस्थामें ( नये ) शरीरका आरम्भ तो होता नहीं; अत सयोगीके अपर्याप्तपना नहीं बन सकता। उत्तर-नहीं, क्योंकि, कपाटादि समुद्धात अवस्थामें सयोगी छह पर्याप्ति रूप शक्तिसे रहित होते हैं, अतएव उन्हे अपर्याप्त कहा है । १४. समुद्रात करनेका प्रयोजन - भ.आ./मू./२११२-२१९६ ओलं संत निरन्तिर्द जमा संवेदियं तु तधा तधेव कम्मं पि णादव्वं ॥ २१९३ | दिदिबंधस्स ७. केवली समुद्घात निर्देश सिमेोहेद्रवीषि सो समुहवस्य सउदिय स्त्रीगसिपे सेर्स बप्पी होदि २११४४ सेलेसिमन्स जोगणिरोध तदो कुदि | २११६। - गीला वस्त्र पसारनेसे जल्दी शुष्क होता है. परन्तु वेष्टित वस्त्र जल्दी सूखता नही उसी प्रकार बहुत कालमे होने योग्य स्थिति अनुभागघात केवली समुद्वातद्वारा शोध हो जाता है | २११३ | स्थिति बन्धका कारण जो स्नेहगुण वह इस समुद्धात से नष्ट होता है, और स्नेहगुण कम होनेने उसकी अन्य स्थिति होती है ।२११४ अन्त में योग निरोध वह धीर मुक्तिको प्राप्त करते हैं । २११६ पं.का./न./१५३/२२२/- संसारस्थितिविनाशार्थ केला । = संसारकी स्थितिका विनाश करनेके लिए केवली समुद्धात करते हैं । - . १५. इसके द्वारा शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग घात नहीं होता भ. १२/४.२.७.२४/१०/२ सुहाणं परीणं विसोहीदो केवलमुग्धा जोगपिरोहेण वा अणुभागादो पत्थि त्ति-शुभ प्रकृतियोंके अनुभागका पातविशुद्धि केवलसमुद्रात अथवा योगनिरोधसे नहीं होता है । १०. जब शेष कमकी स्थिति आयुके समान न हो तब उनका समीकरण करनेके लिए किया जाता है भ आ /मू / २११०-२१११ जेसि अउसमाई णामगोटाई वेदणीयं च । ते अकदसमुग्धादा जिणा उवणमंति सेलेसि । २११०| जैसि हवं ति बिसमाथिपामगोदावेदनीयाणि ते दु कदसमुग्धादा जिला वनमंत सेलेसि । २११११ = आयुके समान ही अन्य कर्मोकी स्थितिको धारण करनेवाले केपली समुद्रात किये बिना सम्पूर्ण शीलोंके धारक बनते २११० जिनके बेदनीय नाम व गोत्रकर्म की स्थिति अधिक रहती है केवली भगवा धातके द्वारा आयुकर्मी बराबरीकी स्थिति करते है. इस प्रकार वे सम्पूर्ण शीलोंके धारक बनते है । २१११ | ( स सि ( . १/१.१.६०/१६०२/३०४) (. ४२/४२); (पं का./ता वृ / १५३/७) १/१.१.६०/३०२ / ६ के म समुचातयन्ति मे संसृतिव्यक्ति कर्मस्थित्या समाना से न समुहयातयन्ति शेषा समुद्रघातयन्ति । = प्रश्न -- कौनसे केवली समुद्रघात नहीं करते है । उत्तर- जिनकी संसार व्यक्ति अर्थात् संसारमे रहनेका काल वेदनीय आदि तीन कर्मों की स्थिति के समान है वे समुद्घात नहीं करते हैं, शेष केवली करते हैं। १७. कमकी स्थिति बराबर करनेका विधिक्रम ध. ६/१,६-८,१६/४१२-४१७/४ पढमसमए ट्ठिदिए असंखेज्जे भागे हणदि । सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्याणमणं ते भागे हणदि (४१२/४ ) विदियसमए 'तम्हि सेसिगाए हिंदीए बसंस्थेज्जे भागे हणदि । सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणं ते भागे हणदि । तदो तदियसमए मंथ करेदि । द्विदि-अणुभागे तहेव गिज्जरयदि । तदो चउत्थसमए··· लोगे पूण्णे एक्का वग्गणा जोगस्स समजोगजादसमए । द्विदिअणुभागे तब णिज्जरयदि। लोगे पुण्णे, अंतोमुहुत्तट्ठिदि (४१२/१) वेदि संखेज्जगमा आयो। एसो मेसिया द्विदीए संखेज्जे भागे हणदि । एतो अंत्तोमुहुत्तं गंतूण कायजोग' 'वचिजोगं मुहमउस्सास भिदि ( ४१४/९)। तदो अंशो म इमाणि करणाणि करेदि - पढमसमय अपूव्वफद्दयाणि करेंदि पुब्बफयाण हेट्ठादो (४१५/१ ) एतो अंतोमुहूत्तं किट्टोओ करेदि ( ४१६/ १) जोगहि हिमाम्माण भाषेति (४१७/९) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली समुद्घात केशलोंच - प्रथम समयमें "आयुको छोड़कर शेष तीन अधातिया कर्मोंकी स्थितिके असंख्यात बहु भागको नष्ट करते हैं इसके अतिरिक्त क्षीणकषायके अन्तिम समयमें घातनेसे शेष रहे अप्रशस्त प्रकृति सम्बन्धी अनुभागके अनन्त बहुभागको भी नष्ट करते हैं। द्वितीय समयमें-शेष स्थितिके असंख्यात बहुभागको नष्ट करते हैं, तथा अप्रशस्त प्रकृतियोंके शेष अनुभागके भी अनन्त बहुभागको नष्ट करते हैं। पश्चात तृतीय समयमें प्रतर संज्ञित मन्थसमुद्घातको करते हैं। इस समुद्घातमें भी स्थिति व अनुभागको पूर्वके समान ही नष्ट करते हैं। तत्पश्चात् चतुर्थ समयमें.. लोकपूरण समुद्घातमें समयोग हो जानेपर योगकी एक वर्गणा हो जाती है। इस अवस्थामें भी स्थिति और अनुभागको पूर्वके हो समान नष्ट करते हैं। लोकपूरणसमुद्धातमें आयुसे संख्यातगुणी अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितिको स्थापित करता है। ...उतरनेके प्रथम समयसे लेकर शेष स्थितिके संख्यात बहुभागको, तथा शेष अनुभागके अनन्त बहुभागको भी नष्ट करता है। यहाँ अन्तर्मुहूर्त जाकर तीनों योग उच्छ्वासका निरोध करता है । पश्चात अपूर्व स्पर्धककरण करता है । पश्चात "अन्तर्मुहूर्त काल तक कृष्टियोंको करता है ।...फिर अपूर्व स्पर्धकोंको करता है।"योगका निरोध हो जानेपर तीन अघातिया कर्म आयुके सदृश हो जाते हैं। (ध. ११/४,२.६,२०/१३३-१३४ ); (क्ष.सा /६२३-६४४ )। २०, ९वें गुणस्थानमें ही परिणामोंकी समानता होनेपर स्थितिकी असमानता क्यों ? ध./१/१,१,६०/३०२/७ अनिवृत्त्यादिपरिणामेषु समानेषु सत्सु किमिति स्थित्योर्वेषम्यम् । न, व्यक्तिस्थितिघातहेतुष्वनिवृत्तपरिणामेषु समानेषु सत्सु संसृतेस्तत्समानत्वविरोधाद।-प्रश्न-अनिवृत्ति आदि परिणामों के समान रहनेपर ससार-व्यक्ति स्थिति और शेष तीन कर्मोंकी स्थितिमें विषमता क्यों रहती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि संसारकी व्यक्ति और कर्मस्थितिके घातके कारणभूत परिणामोंके समान रहनेपर संसारको उसके अर्थात् तीन कर्मों की स्थितिके समान मान लेने में विरोध आता है। केवली समुद्घात-दे० केवली/७। केश-एक ग्रह दे० 'ग्रह' । केशलोंच-साधुके २८ मूलगुणोंमें-से एक गुण केशलौच भी है। जघन्य ४ महीने, मध्यम तीन महीने, और उत्कृष्ट दो महीनेके पश्चात वह अपने बालोंको अपने हाथसे उखाडकर फेक देते है। इस परसे उसके आध्यात्मिक बलकी तथा शरीरपरसे उपेक्षा भावकी परीक्षा होती है। १. केशलोंच विधि १८ स्थिति बराबर करनेके लिए इसकी आवश्यकता क्यों ध.१/१,१.६०/३०२/६ संसार विचिछत्तेः किं कारणम् । द्वादशाङ्गावगमः तत्तीवभक्तिः केवलिसमुद्धातोऽनिवृत्तिपरिणामाश्च । न चैते सर्वेषु संभवन्ति दशनवपूर्वधारिणामपि क्षपकश्रेण्यारोहणदर्शनात । न तत्र संसारसमानकर्म स्थितयः समुद्घातेन बिना स्थितिकाण्डकानि अन्तमुहूर्तेन निपतनस्वभावानि पत्योपमस्यासंख्येयाभागायतानि संख्येयावलिकायतानि च निपातयन्तः आयु समानि कर्माणि कुर्वन्ति। अपरे समुद्रातेन समानयन्ति । न चैष संसारघातः केवलिनि प्राक संभवति स्थितिकाण्डघातवत्समानपरिणामत्वात्। -प्रश्न-संसारके विच्छेदका क्या कारण है। उत्तर-द्वादशांगका ज्ञान, उनमें तीव भक्ति, केबलिसमुद्घात और अनिवृत्तिरूप परिणाम ये सब संसारके विच्छेदके कारण हैं। परन्तु ये सब कारण समस्त जीवोंमें सम्भव नहीं है, क्योकि, दशपूर्व और नौपूर्वके धारी जीवोंका भी क्षपक श्रेणीपर चढना देखा जाता है। अत. वहाँपर संसार-व्यक्तिके समान कर्म स्थिति पायी नहीं जाती है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त में नियमसे नाशको प्राप्त होनेवाले पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण या संख्यात आवली प्रमाण स्थिति काण्डकोंका विनाश करते हुए कितने ही जीव समुद्घातके बिना ही आयुके समान शेष तीन कर्मोको कर लेते हैं। तथा कितने ही जीव समुद्घातके द्वारा शेष कर्मोको आयुके समान करते हैं । परन्तु यह संसारका घात केवलीसे पहले सम्भव नहीं है, क्योंकि, पहले स्थिति काण्डकके घातके समान सभी जीवोंके समान परिणाम पाये जाते हैं। मू. आ./२६.../सपडिक्कमणे दिवसे उबवासेणेव कायम्बो ।२६। प्रतिक्रमण सहित दिनमें उपवास किया हो जो अपने हाथसे मस्तक दाढी व मूंछके केशोंका उपाडना बह लोंच नामा मूल गुण है। (अन. ध./8/ ८६); (क्रि. क./४/२६/१)। प. प्र./मू./२/१० केण वि अप्पउ वंचिउ सिरूलु चिधि छारेण...1801 -जिस किसीने जिनवरका वेश धारण करके भस्मसे शिरके केश लौंच किये ।..|[यहाँ भस्मके प्रयोगका निर्देश किया गया है। भ. आ./वि०८६/२२४/२१ प्रादक्षिणावर्त केशश्मश्रुविषय हस्ताङ्गुलीभिरेव संपाद्य... - मस्तक, दाढी और मूंछके केशोंका लौंच हाथोंकी अंगुलियों से करते हैं। दाहिने बाजूसे आरम्भकर बायें तरफ आवर्त रूप करते हैं। २. केश लौंचके योग्य उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य अन्तर काल १९. समुदुधात रहित जीवकी स्थिति समान कैसे होती है घ. १३/५.४,३१/१५२/१ केवलिसमुग्घादेण विणा कधं पलिदोवमस्स असंखेज्ज दिभागमेत्तद्विदीए घादी जायदे । ण छिदिखंडयघादेण तपधादुववत्तीदो। -प्रश्न-जिन जीवोंके केवलिसमुद्धात नहीं होता उनके केवलिसमुद्घात हुए बिना पत्यके असंख्यातवें भागमात्र स्थितिका घात कसे होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि स्थितिकाण्डक घातके द्वारा उक्त स्थितिका घात बन जाता है। मू.आ./२१विय-तिय-चउक्कमासे लोचो उक्कस्समझिमजहण्णो। केशों का उत्पाटन तीन प्रकारसे होता है-उत्तम, मध्यम व जघन्य । दो महीनेके अन्तरसे उत्कृष्ट, तीन महीने अन्तरसे मध्यम, तथा जो चार महीनेके अन्तरसे किया जाता है वह जघन्य समझना चाहिए। (भ. आ/वि./८/२२४/२०); (अन. ध /६/८६); (क्रि. क./४/२६/१)। ३. केशलोंचकी आवश्यकता क्यों ? भ./आ./८८-८९ केसा संसज्जति हु णिप्पडिकारस्स दुपरिहारा य । सयणादिसु ते जीवा दिट्ठा अगं तुया य तहा।८८ जूगाहिं य लिक्वाहि य बाधिज्जंतस्स संकिलेसों य । संघट्टिज्जति य ते कंडयणे तेण सो लोचो।८-तेल लगाना, अभ्यंग स्नान करना, सुगन्धित पदार्थ से केशोंका संस्कार करना, जलसे धोना इत्यादि क्रियाएँ न करनेसे केशोंमें युका और लिखा ये जन्तु उत्पन्न होते हैं, जब इनकी उत्पत्ति के शोंमे होती है, तब इनको वहाँसे निकालना बड़ा कठिन काम है।८८ जू और लिखाओंसे पीडित होनेपर मनमें नवीन पापकर्म का आगमन करानेवाला अशुभ परिणाम-संक्लेश परिणाम हो जाता है। जीवोंके द्वारा भक्षण किया जानेपर शरीरमें असह्य वेदना होती है, तब मनुष्य मस्तक खुजलाता है। मस्तक खुजलानेसे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-२२ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशलोंच कोकिल पंचमी व्रत जूलिखादिकका परस्पर मर्दन होनेसे नाश होता है। ऐसे दोषों से बचनेके लिए मुनि आगमानुसार केशलौच करते हैं। पं. वि /१/४२ काकिण्या अपि संग्रहो न विहितः क्षौरं यया कार्यते चित्तक्षेपकृदस्त्रमात्रमपिवा तत्सिद्धये नाश्रितम। हिंसाहेतुरहो जटाद्यपि तथा यूकाभिरप्रार्थनै । वैराग्यादिविवर्धनाय यतिभि केशेषु लोचः कृतः।४।-मुनिजन कौडी मात्र भी धनका संग्रह नहीं करते जिससे कि मुण्डनकार्य कराया जा सके; अथवा उक्त मुण्डन कार्यको सिद्ध करनेके लिए वे उस्तरा या कैंची आदि औजारका भी आश्रय नहीं लेते, क्योंकि उनसे चित्तमें क्षोभ उत्पन्न होता है। इससे वे जटाओंको धारण कर लेते हों सो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्थामें उनके उत्पन्न होनेवाले जू आदि जन्तुओंकी हिंसा नही टाली जा सकती है। इसलिए अयाचन वृत्तिको धारण करनेवाले साधुजन वैराग्यादि गुणोंको बढ़ानेके लिए बालोंका लोच किया करते हैं। १. केशलोंच सर्वदा आवश्यक ही नहीं ति.प./8/२३ आदिजिणप्पडिमाओ ताओ जडमउडसेहरिल्लाओ। पडिमोवरिम्मि गंगा अभिसित्तु मणा व सा पउदि ।२३०१ =वे आदि जिनेन्द्रकी प्रतिमाएँ जटामुकुट रूप शेखरसे सहित हैं। इन प्रतिमाओंके ऊपर वह गंगा नदी मानो मनमें अभिषेककी भावनाको रखकर ही गिरती है। प. पु./३/२८७-२८८ ततो वर्षार्द्धमात्र स कायोत्सर्गेण निश्चल'। धरा धरेन्द्रवत्तत्स्थी कृतेन्द्रियसमस्थितिः।२८७१ वातोद्धृता जटास्तस्य रेजुराकुलमूर्तयः। धूमात्य इव सध्यानवह्निसक्तस्य कर्मणः ।२८८ - तदनन्तर इन्द्रियों की समान अवस्था धारण करनेवाले भगवान ऋषभदेव छह मास तक कायोत्सर्गसे सुमेरु पर्वतके समान निश्चल खड़े रहे ।२८७ हवासे उड़ी हुई उनकी अस्त-व्यस्त जटाएँ ऐसी जान पडती थीं मानो समीचीन ध्यानरूपी अग्निसे जलते हुए कर्मके धूमकी पंक्तियाँ ही हो ।२८। (म.पु./९/९); (म.पु./१८/७५-७६); (पं.वि. १३/१८)। प. पु./४/५ मेरुकूटसमाकारभासुरांस. समाहितः । स रेजे भगवान दीर्घजटाजालहतांशुमान् । उनके कन्धे मेरु पर्वतके शिखरके समान ऊँचे तथा देदीप्यमान थे, उनपर बड़ी-बड़ी जटाएँ किरणोंकी भॉति सुशोभित हो रही थीं और भगवान् स्वयं बडी सावधानीसे ईर्या समितिसे नीचे देखते हुए विहार करते थे। म. पु./३६/१०६ दधानः स्कन्धपर्यन्तलम्बिनीः केशवल्लरीः। सोऽन्वगादूढकृष्णाहिमण्डलं हरिचन्दनम् ।१०।-कन्धों पर्यन्त लटकती हुई केशरूपी लताओंको धारण करनेवाले वे बाहुबली मुनिराज अनेक काले सर्पोके समूहको धारण करनेवाले हरिचन्दन वृक्षक। अनुकरण कर रहे थे। * भगवान्को जटाएँ नहीं होती -दे०/चेत्य/१/१२ । ५. भगवान् आदिनाथने भी प्रथम बार केशलोंच किया होइ ण सुहे य संगमुवयादि । साधीणदा य णिद्दोसदा य देहे य णिम्ममदा ६१ आणविदा य लोचेण अप्पणो होदि धम्मसड्ढा च । उग्गो तबो य लोचो तहेब दुक्खस्स सहणं च ।।२। - शिरोमुंडन होनेपर निर्विकार प्रवृत्ति होती है। उससे वह मुक्तिके उपायभूत रत्नत्रयमे खूब उद्यमशील बनता है, अतः लौच परम्परा रत्नत्रयका कारण है। केशलौंच करनेसे और दुख सहन करनेकी भावनासे, मुनिजन आत्माको स्ववश करते हैं, सुखोंमें वे आसक्ति नहीं रखते है। लौच करनेसे स्वाधीनता तथा निर्दोषता गुण मिलता है तथा देहममता नष्ट होती है ।१०-११श इससे धर्मके-चारित्रके ऊपर बड़ी भारी श्रद्धा व्यक्त होती है। लौच करनेवाले मुनि उग्रतप अर्थात कायक्लेश नामका तप करके होनेवाला दुख सहते है । जो लौच करते है उनको दुःख सहनेका अभ्यास हो जाता है ।। * शरीरको पीडाका कारण होनेसे इससे पापात्रव होना चाहिए-दे० तप/५। * केशलोच परीषह नहीं है-दे० परीषह/३ । केशव-म.पू./सर्ग/श्लोक पूर्व विदेहमें महावत्स देशकी सुसीमा नगरीके राजा सुविधिका पुत्र था (१०/१४५) पूर्वभवके संस्कारसे पिताको (भगवाद ऋषभका पूर्व भव ) विशेष प्रेम था (१०/१४७)। अन्तमे दीक्षा धारणकर अच्युत स्वर्गमें प्रतीन्द्र हुआ (१०/१७१) । यह श्रेयांस राजाका पूर्वका पाँचवा भव है। -दे० श्रेयांस । केशव वणी-१. यह ब्रह्मचारी थे। कृति-गोम्मटसारकी संस्कृत टीका (लघु गो.सा./प्र./१ मनोहर लाल) १२. गुरुका नाम अभयचन्द्र सूरि सिद्धान्त चक्रवर्ती । कृति-गोम्मटसारको कर्णाटक वृत्ति समय-वि. १४१६ ई. १३५६ में वृत्ति पूरी की। (जै./१/४६४)। केशव सेन-आप एक कवि थे। कृति-कर्णामृतपुराण । समय वि सं. १६८८ ई. १६३१ ।(म.पु./प्र. २० पं. पन्नालाल )। केशाग्र-क्षेत्रका एक प्रमाण विशेष । अपरनाम बालाग्र-दे० गणित/i/१। केशावाप क्रिया-दे० संस्कार/२ । केसरोहद-नील पर्वतस्थ एक हृद। इसमेसे सीता व नरकान्ता नदियों निकलती हैं। कोर्तिदेवी इसमें निवास करती है। दे० लोक/३/६ कैकेय देश-दे० केकय ।। कैटभ-म. पु/सर्ग/श्लोक अयोध्या नगरीमें हेमनाभ राजाका पुत्र तथा मधुका छोटा भाई था (१६०) अन्तमें दीक्षा धारण कर ( २०२) घोर तपश्चरण पूर्वक अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुआ ( २१६) । यह कृष्णके पुत्र 'शम्ब' का पूर्वका तोसरा भव है-दे० 'शंव'। कैरल-दे० करल। कैलास-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० 'विद्याधर'। कोकण-पश्चिमी समुद्र तट पर यह प्रदेश सुरतसे रत्नगिरि तक विस्तृत है। बम्बई व कल्याण भी इसी देशमें है। (म.पु./प्र.४६ पं. पन्नालाल)। कोका-मथुरा नगरीका दूसरा नाम है । ( मदन मोहन पंचशती/प्र०) कोकिल पंचमी व्रत व्रत विधान संग्रह- गणना-कुल समय ५ वर्षतक; उपवास २५ । किशनसिंह क्रियाकोश विधि-पाँच वर्ष तक प्रतिवर्ष आषाढ़ कृ०५ था म. पु./२०/६६ क्षुरक्रियायां तद्योग्यसाधनार्जनरक्षणे । तदपाये च चिन्ता स्यात् केशोत्पाटमितीच्छते।६। यदि रा आदिसे बाल बनवाये जायेगे तो उसके साधन छुरा आदि लेने पड़ेंगे, उनकी रक्षा करनी पड़ेगी, और उनके खो जानेपर चिन्ता होगी ऐसा विचार कर जो भगवान हाथसे हो केशलोंच करते थे। ६. रत्नत्रय ही चाहिए केशलोचसे क्या प्रयोजन भ. आ././E0-६२ लोचकदे मुंडत्तं मुंडत्ते होइ णिब्वियारत्तं । तो णिब्बियारकरणो परगहिददर परक्कम दि 10 अप्पा दमिदो लोएण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोट १७१ क्रम S से कार्तिक कृ०५ ( चतुर्मास ) की पंचमीको उपवास करे । जापनमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य। कोट-Boundary wall. कोटिशिला-प. पु./४८/श्लोक यह वह शिला है जिसपरसे करोड़ों मुनि सिद्ध पदको प्राप्त हुए हैं। रावणको वही मार सकता है जो इसको उठावेगा ऐसा मुनियोंका वचन था ( १८६) । लक्ष्मणने इसको उठाकर अपनी शक्तिका परिचय दिया था (२१४ )। कोटेश्वर-कृति-जीवन्धर पाट पदी (कन्नड़) समय-ई. १५०० । पिताका नाम-तम्मण । बहदुरका सेनापति था। जीवन्धर चम्पू/प्र. १० A.N. up. (ती./४/३११) । कोरिकल-एक क्रियावादी-दे० क्रियावाद । कोप्पण-निजाम हैदराबाद स्टेटके रायचूर जिलेमें वर्तमान कोप्पल नामका ग्राम । वर्तमानमें वहाँ एक दुर्ग तथा चहार दीवारी है जो चालुक्य कालीन कलाकी द्योतक समझी जाती है । (ध./२/प्र./१३) कोश-क्षेत्रका प्रमाण विशेष । अपरनाम गव्युति-दे० गणित/Ik/s कोशल-दे० कोसल। कोष्ठ बुद्धि ऋद्धि-दे ऋद्धि/२! कोष्टा-ष. खं./१३/५,६/४०/२४३ धरणी धारणा ट्ठवणा कोठा पदिट्ठा ।४०= धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा ये एकार्थ नाम हैं ।४०। और भी-दे० ऋद्धि/२ । कोसल-१.भरत क्षेत्रस्थ मध्य आर्य खण्डका एक देश अपरनाम कौशल व कौशल्य । दे० मनुष्य/४ । २. उत्तरकोसल और दक्षिणकोसलके भेदसे इसके दो भाग थे। अयोध्या, शरावती (श्रावस्ती) लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) आदि इसके प्रसिद्ध नगर हैं। यहाँ गोमती, तमसा और सरयू नदियाँ बहती हैं। कुशावतीका समीपवर्ती प्रदेश दक्षिणकोसल था। और अयोध्या, लखनऊ आदिके समीपवर्ती प्रदेशका नाम उत्तरकोसल था। कोत्कुच्य-स. सि./9/३२/३६६/१४ तदेवोभयं परत्र दुष्टकायकर्म प्रयुक्त कौत्कुच्यम् । परिहार और असभ्यवचन इन दोनों के साथ दूसरेके लिए शारीरिक कुचेष्टाएँ करना कौत्कुच्य है। (रा. वा/७/ ३२/२/५५६)। कौमार सप्तमी व्रत-वत विधान संग्रह/पृ. १२६ । भादो सुदी सप्तमीके दिनां, खजरी मण्डप पूजे जिना। (नवल साहकृत क्रियाकोष)। वर्षका देश निकाला दिया (१६/१०५) । सहायवनमें पाण्डवोंके आनेपर अर्जुनके शिष्योंने दुर्योधनको बाँध लिया ( १७/१०२-) परन्तु अर्जुनने दयासे उसे छोड़ दिया (१७/१४० )। इससे दुर्योधनका क्रोध अधिक प्रज्वलित हुआ। तब आधे राज्यके लालचसे कनकध्वज नामक व्यक्तिने दुर्योधनकी आज्ञासे पाण्डवों को मारनेकी प्रतिज्ञा की, परन्तु एक देवने उसका प्रयत्न निष्फल कर दिया (१७/१४५-)। तत्पश्चात विराट नगरमें इन्होंने गोकुल लूटा उसमें भी पाण्डवों द्वारा हराये गये (१४/१५२ ) । इस प्रकार अनेकों बार पाण्डवों द्वारा इनको अपमानित होना पड़ा। अन्तमें कृष्ण व जरासन्धके युद्धमें सब पाण्डवोंके द्वारा मारे गये ( २०/२६६)। कौशल्य-दे० कोसल । कौशांबी-वर्तमान देश प्रयागके उत्तर भागकी राजधानी । वर्तमान नाम कोसम है । ( म. पु /प्र.४६ पं. पन्नालाल )। कौशिक-विजयाको उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० 'विद्याधर'। -पूर्व आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । भ-लवण समुद्र में स्थित पर्वत-दे० लोक/VE। भाभास-लवण समुद्र में स्थित पर्वत--दे० लोक/५/६ । क्रतु-म. पु./६७/१६३ यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याध्वरो मखः मह इत्यापि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः ।१६३। =याग, यज्ञ, ऋतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख, और मह ये सब पूजाविधिके पर्याय वाचक शब्द हैं ।१३। क्रम-वस्तुमें दो प्रकारके धर्म हैं क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती। आगे-पीई होनेके कारण पर्याय क्रमवर्ती धर्म है और युगपत पाये जानेके कारण गुण अक्रमवर्ती या सहवर्ती धर्म है। क्रमवर्तीको ऊर्ध्व प्रचय और अक्रमवर्तीको तिर्यक् प्रचय भी कहते हैं। १. क्रम सामान्यका लक्षण रा.वा./६/१३/१/५२३/२६ कालभेदेन वृत्तिः क्रम । = काल भेदसे वृत्ति होना क्रम कहलाता है। स्या.म./१/३३/१६ क्रमो हि पौर्वापर्यम् । = पूर्वक्रम और अपरक्रम। स. भ. त./३३/१ यदा तावदस्तित्वादिधर्माणां कालादिभिर्भेदविवक्षा, तदास्त्यादिरूपैकशब्दस्य नास्तित्वाद्यनेकधर्मबोधने शक्त्यभावारक्रम । --जब अस्तित्व और नास्तित्व आदि धर्मोंकी देश काल आदिके भेदसे कथनकी इच्छा है तब अस्तित्व आदि रूप एक ही शब्दको नास्तित्व आदि रूप अनेक धर्मोके बोधन करने में शक्ति न होनेसे नित्य पूर्वापर भाव वा अनुक्रमसे जो निरूपण है, उसको क्रम कहते हैं। पं.ध./पू./१६७ अस्त्यत्र यः प्रसिद्धः क्रम इति धातुश्च पाद-विक्षेपे। क्रमति क्रम इति रूपस्तस्य स्वार्थानतिक्रमादेषः । = यहाँ पर पैरोंसे गमन करने रूप अर्थ में प्रसिद्ध जो क्रम यह एक धातु है उस धातुका ही पादविक्षेप रूप अपने अर्थको उल्लंघन करनेसे "जो क्रमण करे सो क्रम" यह रूप सिद्ध होता है। २. क्रमके भेदोंका निर्देश स.म./१/३३/२० देशक्रम' कालक्रमश्चाभिधीयते न चेकान्तविनाशिनि सास्ति । - सर्वथा अनित्य पदार्थ में देशक्रम और कालक्रम नहीं हो सकता। पं../पू./१७४ विष्कम्भ क्रम इति वा क्रमः प्रवाहस्य कारणं तस्य । -प्रतिसमय होनेवाले द्रव्यके उस उत्पाद व्ययरूप प्रवाहक्रममें जो कारण स्वकालरूप अंशकल्पना है अथवा जो विष्कम्भरूप क्रम है ।...१७४। कौरव-पा. पु./सर्ग/श्लोक धृतराष्ट्रके दुर्योधनादि १०० पुत्र कौरव कहलाते थे (८/२१७) भीष्म व द्रोणाचार्यसे शिक्षा प्राप्त कर (८/२०८) राज्य प्राप्त किया। (१०/३४) । अनेकों क्रीड़ाओंमें इनको पाण्डवों द्वारा पराजित होना पड़ा था (१०/४०) । इससे यह पाण्डवोंसे क्रुद्ध हो गये। भरी सभामें एक दिन कहा कि हमें सौको आधा राज्य और इन पाँचको आधा राज्य दिया गया यह हमारे साथ अन्याय हुआ (१२/२५ ) । एक समय कपटसे लाखका गृह बनाकर दिखावटी प्रेमसे पाण्डवोंको रहनेके लिए प्रदान किया ( १२/६०) और अकस्मात मौका देख उसमें आग लगवा दी। (१२/११५) । परन्तु सौभाग्यसे पाण्डव वहाँसे गुप्त रूपमें प्रवासमें रहने लगे ( १२/२३५ ) । और ये भी दिखावटी शोक करके शान्ति पूर्वक रहने लगे ( १२/२२६ ) । द्रौपदीके स्वयंवरमें पाण्डवोंसे मिलाप होनेपर ( १५/१४३ ) आधा राज्य बाँटकर रहने लगे (१६/२) दुर्योधनने ईर्ष्यापूर्वक (१६/१४) युधिष्ठिरको जुएमें हराकर १२ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम १७२ क्रम ३. पर्याय व गुणके अर्थमें क्रम अक्रम शब्दका प्रयोग स, सा./आ./२ क्रमाक्रमप्रवृत्त विचित्रभावस्वभावत्वादुत्संगितगुणपर्यायाः । =वह क्रमरूप (पर्याय) अक्रमरूप (गुण) प्रवर्तमान अनेकों भाव जिसका स्वभाव होनेसे जिसने गुण और पर्यायोंको अंगीकार किया हो -ऐसा है। १. क्रमवत्तित्वका लक्षण पं.ध./पू./१६९.१७५ अयमर्थः प्रागेकं जातं उच्छिद्य जायते चैक. । अथ नष्टे सति तस्मिन्नन्योऽप्युत्पद्यते यथादेशम् ।१६६। क्रमवर्तित्वं नाम व्यतिरेकपुरस्सरं विशिष्टं च । स भवति भवति न सोऽयं भवति तथाथ च तथा न भवतीति ।१७। क्रमशब्दके निरूक्त्यं शका सारांश यह है कि द्रव्यत्वको नहीं छोड करके पहले होनेवाली एक पर्यायको नाश करके और एक अर्थात दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है, तथा उसके नाश होनेपर और अन्य पर्याय उत्पन्न होती है। इस क्रममें कभी भी अन्तर नहीं पडता है, इस अपेक्षा पर्यायोंको क्रमवर्ती कहते हैं ।१६६। यह वह है किन्तु वह नहीं है अथवा यह वैसा है किन्तु वैसा नहीं है इस प्रकारके क्रममे व्यतिरेक पुरस्सर विशिष्ट ही क्रमवर्तित्व है ।१७॥ ५. देश व कालक्रमके लक्षण स्या, म./५/३३/२० नानादेशकालव्याप्तिदेशक्रम' कालक्रमश्च । - अनेक देशों में रहनेवाला देशक्रम और अनेक कालोमें रहनेवाला कालक्रम। शेष द्रव्योंका ऊर्ध्वप्रचय है, और समयोंका प्रचयकाल द्रव्यका ऊर्ध्वप्रचय है; क्यों कि शेष द्रव्योंकी वृत्ति समयसे अर्थान्तरभूत (अन्य ) है, इसलिए वह ( वृत्ति ) समय विशिष्ट है, और कालकी तो स्वतः समयभूत है, इसलिए वह समयविशिष्ट नहीं है। प.मु /५/४-५ सदृशपरिणाम स्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् ।४। परापरविर्वतव्यापिद्रव्यमूर्खता मृदिव स्थासादिषु ।। -समान परिणामको तिर्यक् सामान्य कहते हैं, जैसे-गोत्व सामान्य क्यों कि खाडी मुंडी आदि गौवों में गोत्व सामान्य समानरी तिसे रहता है। स. भ. त./०७/१० में उद्धृत तथा पूर्व और उत्तर पर्यायों में रहनेवाले द्रव्यको ऊर्ध्वतासामान्य कहते हैं जैसे--मिट्टी । क्योंकि स्थास, कोश, कुसूल आदि जितनी पर्याय है उन सबमें मिट्टो अनुगत रूपसे रहती है। प्र.सा./ता.व./१३/१२०/१३ एककाले नानाव्यक्तिगतोऽन्वयस्तिर्यग्सामान्य भण्यते । तत्र दृष्टान्तो यथा-नानासिद्धजीवेषु सिद्धोऽयं सिद्धोऽयमित्यनुगताकार. सिद्धजातिप्रत्ययः। नानाकालेष्वेकव्यक्तिगतोऽन्वय ऊर्ध्वतासामान्य भण्यते। तत्र दृष्टान्तो यथा--य एव केवलज्ञानोत्पत्तिक्षणे मुक्तात्मा द्वितीयादिक्षणेष्वपि स एवेति प्रतीति । = एक कालमें नाना व्यक्तिगत अन्वयको तिर्यक सामान्य कहते हैं जैसेनाना सिद्ध जीवोंमें 'यह भी सिद्ध है, यह भी सिद्ध है? ऐसा अनगताकार सिद्ध जाति सामान्यका ज्ञान । नाना कालोमें एक व्यक्तिगत अन्वयको ऊर्ध्वसामान्य कहते हैं। जैसे-केवलज्ञानके उत्पत्तिक्षणमें जो मुक्तात्मा हैं वही द्वितीयादि क्षणोमें भी हैं ऐसी प्रतीति । प्र.सा./ता.वृ./१३१/२००/६ तिर्यकप्रचयाः तिर्यक्सामान्यमिति विस्तार सामान्यमिति क्रमानेकान्त इति च भण्यते । " ऊर्ध्वप्रचय इत्यूर्वसामान्यमित्यायतसामान्यमिति क्रमानेकान्त इति च भण्यते। -तिर्यक् प्रचयको तिर्यक्सामान्य, विस्तारसामान्य और अक्रमानेकान्त भी कहते हैं ।.. ऊर्ध्वप्रचयको ऊर्ध्वसामान्य, आयतसामान्य वा क्रमानेकान्त भी कहते हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड/पृ २७६ महेन्द्रकुमार काशी-प्रत्येकं परिसमाप्तया पक्तिषु वृत्ति अगोचरत्वाच्च अनेक सदृशपरिणामात्मकमेवेति तिर्यक् सामान्यमुक्तम् । = अनेक व्यक्तियों में, प्रत्येकमें समाप्त होनेवाली वृत्तिको देखनेसे जो सदृश परिणामात्मकपना प्राप्त होता है, वह तिर्यक्सामान्य है। ७. क्रमवर्ती व अक्रमवर्तीका समन्वय ६. अर्ध्व व तिर्यग प्रचयका लक्षण यु. अ./माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई पृ०१० तत्र ऊर्ध्वतासामान्य क्रमभाविषु पर्यायेष्वेकत्वान्वयप्रत्ययग्राह्यं द्रव्यम् । तिर्यक्सामान्य नानाद्रव्येषु पर्यायेषु च सादृश्यप्रत्ययग्राह्य सदृशपरिणामरूपम् । -क्रमभावी पर्यायों में एकत्वरूप अन्वयके प्रत्यय ( ज्ञान ) द्वारा ग्राह्य जो द्रव्य सामान्य है वही ऊर्ध्वता सामान्य है। और अनेक द्रव्यों में अथवा अनेक पर्यायों में जो सादृश्यताका बोध करानेवाला सदृश परिणाम होता है वह तिर्यक् सामान्य है। प्र'सा./त.प्र./१४१ प्रदेशप्रचयो हि तिर्यक्प्रचयः समय विशिष्टवृत्तिप्रचयस्तूर्ध्व प्रचयः। तत्राकाशस्यावस्थितानन्तप्रदेशत्वाद्धर्माधर्मयोरवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वाज्जीवस्यानवास्थतासंख्येयप्रदेशत्वात पुद्गगलस्य द्रव्येणानेकप्रदेशत्वशक्तियुक्तै कप्रदेशत्वात्पर्यायेण द्विबहुप्रदेशत्वाच्चास्ति तिर्थक्प्रचय' ! न पुनः कालस्य शक्त्या व्यक्त्या चैकप्रदेशत्वात् । ऊध्र्वप्रचयस्तु त्रिकोटिस्पशित्वेन सांशत्वाइद्रव्यवृत्तेः सर्वद्रव्याणामनिवारित एव । अयं तु विशेषसमयविशिष्टवृत्तिप्रचयः शेषद्रव्याणामूध्वंप्रचयः समयप्रचयः एव कालस्योर्वप्रचय' । शेषद्रव्याणां वृत्तेहि समयादर्थान्तरभूतत्वादस्ति समय विशिष्टत्वम् । कालवृत्तेस्तु स्वतः समयभूतत्वात्तन्नास्ति। प्रदेशोंका समूह तिर्यक् प्रचय और समय विशिष्ट वृत्तियोंका समूह ऊर्ध्वप्रचय है। वहाँ आकाश अवस्थित (स्थिर ) अनन्तप्रदेश वाला है। धर्म तथा अधर्म अवस्थित असंख्य प्रदेश वाले हैं। जीव अनवस्थित असंख्य प्रदेशी है और पुद्गल द्रव्यतः अनेक प्रदेशित्वकी शक्तिसे युक्त एक प्रदेशवाला है, तथा पर्यायतः दो अथवा बहुत प्रदेशवाला है, इसलिए उनके तिर्यक्प्रचय है; परन्तु कालके (तिर्यक्प्रचय ) नहीं है, क्योंकि वह शक्ति तथा व्यक्तिकी अपेक्षासे एक प्रदेशवाला है। ऊर्ध्वप्रचय तो सब द्रव्यों के अनिवार्य ही है, क्योंकि द्रव्यकी वृत्ति तीन कोटियों (भूत, वर्तमान, भविष्यत् ऐसे तीन कालों) को स्पर्श करती है, इसलिए अंशोसे युक्त है। परन्तु इतना अन्तर है कि समय विशिष्ट वृत्तियोंका प्रचय ( कालको छोड़कर) पं.ध./पू./४१७ न विरुद्ध क्रमवति च सदिति तथानादितोऽपि परि णामि । अक्रमवर्ति सदित्य पि न विरुद्ध सदैकरूपत्वात् ।।१७। -सद क्रमवर्ती है यह भी विरुद्ध नहीं है क्योंकि वह अनादिकालसे क्रमसे परिणमनशील है और सत अक्रमवर्ती है यह भी विरुद्ध नहीं है क्यों कि परिणमन करता हुआ भी सत एकरूप है- सदृश है। ८. अन्य सम्बन्धित विषय १. सहभाव व अविनाभाव -दे० अविनाभाव। २. उपक्रम, देयक्रम, अनुलोमक्रम, प्रतिलोमक्रम -दे० वह वह नाम। ३. वस्तुमें दो प्रकारके धर्म होते हैं-सहभावी व क्रमभावी -दे० गुण/३/२। ४. पर्याय वस्तुके क्रमभावी धर्म हैं -दे० पर्याय/२॥ ५, गुण वस्तुके सहभावी या अक्रमभावी धर्म हैं -दे० गुण/३ । ६. सत् वही जो मालाके दानों वत् क्रमवर्ती परिणमन करता रहे -दे० परिणाम/१ क। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम करण १७३ क्रिया पं.ध./पू./१३४ तत्र क्रियाप्रदेशो देशपरिस्पन्दलक्षणो वा स्यात ।-प्रदेश परिस्पन्द हैं लक्षण जिसका ऐसे परिणमन विशेषको क्रिया कहते है। (पं.ध./३/३४)। पं.का/त.प्र./६८ प्रदेशान्तरप्राप्तिहेतुः परिस्पन्दरूपपर्यायः क्रिया । प्रदेशान्तर प्राप्तिका हेतु ऐसा जो परिस्पन्दरूप पर्याय वह क्रिया है। पं. का./ता वृ./२७/५७/८ क्षेत्रात् क्षेत्रान्तरगमनरूपपरिस्पन्दवती चलन वती क्रिया। -एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें गमनरूप हिलनेवाली अथवा चलनेवाली जो क्रिया है । (द्र.सं./टी./२ अध्यायकी चलिका/पृ.७७)। * परिणतिके अर्थमें क्रिया -दे० कर्म। २. गतिरूप क्रियाके भेद स, सि./५/२२/२६२/८ सा द्विविधा-प्रायोगिकवैससिकभेदात । वह परिस्पन्दात्मक क्रिया दो प्रकारकी है-प्रायोगिक और वैससिक। (रा. वा./५/७/१७/४४८/१७) (रा.वा./५/२२/१६/४८१/१२)। रा. वा./५/२४/२१/४६० सा दशप्रकारप्रयोगवन्धाभावच्छेदाभिघाता वगाहनगुरुलघुसंचारसंयोगस्वभावनिमित्तभेदाता-अथवा वह क्रिया, प्रयोग; २ बन्धाभाव; ३ छेद; ४ अभिधात; ५ अवगाहन; ६ गुरु; ७ लघु; ८ संचारः संयोग; १० स्वभाव निमित्त के भेद से दस प्रकारकी है। क्रिया देशोत्तरप्राप्ति स. सि./५/७/२७२/१० द्रव्य परिणति स. सा/आ०/क०५१ जीव मयी अजीवमयी क्रमकरण-क्ष.सा/४२२-४२७का सारार्थ-चारित्रमोहक्ष पणा विधानके अन्तर्गत अनिवृत्तिकरणके काल में जो स्थितिबन्धापसरण व स्थितिसत्त्वापसरण किया जाता है, उसमें एक विशेष प्रकारका क्रम पड़ता है। मोहनीय तोसिय, बीसिय, वेदनीयनाम, गोत्र, इन प्रकृतियों के स्थितिबन्ध व स्थिति सत्त्वमे परस्पर विशेष क्रम लिये अल्पबहूत्व रहता है। प्रत्येक संख्यात हजार स्थिति बन्धोके बीत जानेपर उस अल्पबहुत्वका क्रम भी बदल जाता है। इस प्रकार स्थिति बन्ध व सत्त्व घटते-धटते अन्तमें ।४२२-४२॥ नाम व गोत्रसे वेदनीयका ड्योढा स्थितिबन्धरूप क्रम लिये अस्पबहूत्व होना, सोई क्रमकरण कहिए ।४२६। इसी प्रकार नाम व गोत्रसे वेदनीयका स्थिति सत्त्व साधिक भया तब मोहादिक के क्रम लिये स्थिति सत्त्वका क्रमकरण भया ।४२७० दे० अपकर्षण/३/२ । क्रमण-मानुषोत्तर पर्वतस्थ कनककूटका स्वामी भवनवासी सुपण- कुमार देव-दे० भवन/४, लोक/५११०॥ क्रमबद्ध-दे० नियति। क्रमभाव-दे. अविनाभाव । क्रियावान् द्रव्य-दे० द्रव्य/३ । क्रियागमन कम्पन आदि अर्थों में क्रिया शब्दका प्रयोग होता है। जीव व पुद्गल ये दो ही द्रव्य क्रिया शक्ति सम्पन्न माने गये हैं। संसारी जीवोंमें, और अशुद्ध पुद्गलोंकी क्रिया वैभाविक होती है। और मुक्तजीवों व पुद्गल परमाणुओंकी स्वाभाविक। धार्मिक क्षेत्रमें श्रावक व साधुजन जो कायिक अनुष्ठान करते हैं वे भी हलन-चलन होनेके कारण क्रिया कहलाते है। श्रावककी अनेकों धार्मिक क्रियाएँ आगममें प्रसिद्ध हैं। १. क्रिया सामान्य निर्देश १. गणितविषयक क्रिया ध./५/प्र २७ Operation २. किया सामान्यके भेद व लक्षण रा. वा./५/१२/७/४५५/४ क्रिया द्विविधा-कतृ समवायिनी कर्मसम वायिनी चेति । तत्र कतृ'समवायिनी आस्ते गच्छतीति । कर्मसमवाथिनी ओदनं पचति, कुशूलं भिनत्तीति। -- क्रिया दो प्रकारको होती है-कतृ समवायिनी क्रिया और कर्मसमवायिनी। आस्ते गच्छति आदि क्रियाओंको कतृ समवायिनी क्रिया कहते हैं। और ओदनको पकाता है, घड़ेको फोड़ता है आदि क्रियाओंको कर्मसमवायिनी क्रिया कहते हैं। २. गतिरूप क्रिया निर्देश १. क्रिया सामान्यका लक्षण स. सि./२/७/२७२/१० उभ पनिमित्तवशादुत्पद्यमानः पर्यायो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतु क्रिया । अन्तरंग और बहिरंग निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली जो पर्याय द्रव्यके एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें प्राप्त करानेका कारण है वह क्रिया कहलाती है। रा. वा./२/२२/११/४८१/११ द्रव्यस्य द्वितीयनिमित्तधशाव उत्पद्यमाना परिस्पन्दात्मिका क्रियेत्यवसीयते। बाह्य और आभ्यन्तर निमित्तसे द्रव्यमें होनेवाला परिस्पन्दात्मक परिणमन क्रिया है। (रा. वा./५/७/ १/४४६/१) (त.सा./२/४७)। घ. १/१,१,१/१८/३ किरियाणाम परिप्फंदणरूवा-परिस्पन्द अर्थात् हलन चलन रूप अवस्थाको क्रिया कहते हैं। (प्र. सा./त.प्र./१२६)। ज्ञप्ति क्रिया ज्ञेयार्थ परिणति करोति क्रिया प्र. सा./त प्र./५२ प्र. सा./त. प्र./५२ ३. स्वभाव व विमाव गति क्रियाके लक्षण नि. सा /ता. वृ./१८४ जीवानां स्वभावक्रिया सिद्धिगमनं विभावक्रिया षट्कायक्रमयुक्तत्वं, पुद्गलानां स्वभाव क्रिया परमाणुगतिः विभाव. क्रिया द्वय णुकादिस्कन्धगति। -जीवोंकी स्वभाव क्रिया सिद्धिगमन है और विभाव क्रिया ( अन्य भवमें जाते समय ) छह दिशामें गमन है; पुद्गलोंकी स्वभावक्रिया परमाणुकी गति है और विभावक्रिया द्वि-अणुकादि स्कन्धोंकी गति है। ४. प्रायोगिक व वैनसिक क्रियाओंके लक्षण स. सि./३/२२/२१२/८ तत्र प्रायोगिकी शकटादोनास, वैससिकी मेघादीनाम् । गाड़ी आदिकी प्रायोगिकी क्रिया है। और मेघ आदिककी वैससिकी। (रा. वा./२/२२/११/४८१/११)। ५. क्रिया व क्रियावती शक्तिका लक्षण प्र. सा /मू०/१२६ उत्पादडिदिभंगा पोग्गलजीवप्पगस्स लोगस्स । परिणामादो जायते संघादादो व भेदादो।१२। पुद्गल जीवात्मक लोकके परिणमनसे और संघात (मिलने ) और भेद (पृथक् होने ) से उत्पाद धौव्य और व्यय होते हैं। स. सि./५/७/२७३/१२ अधिकृतानां धर्माधर्माकाशानां निष्क्रियरवेऽभ्युपगते जीवपुद्गलानां सक्रियत्वमर्थादापन्नम् । = अधिकार प्राप्त धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यको निष्क्रिय मान लेनेपर जीव और पुद्गल सक्रिय हैं, यह प्रकरणसे अपने आप प्राप्त हो जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया १७४ ३. श्रावकको क्रियाओका निर्देश रा, वा./१/८/२/४१ क्रिया च परिस्पन्दात्मिका जीवपुद्गलेषु अस्ति न इतरेषु । परिस्पन्दात्मक क्रिया जीव और पुद्गल में ही होती है अन्य द्रव्यों में नहीं। स, सा /आ०/परि०नं.४० कारकानुगतभवत्तारूपभावमयी क्रियाशक्ति । -कारकके अनुसार होनेरूप भावमयी चालीसवीं क्रियाशक्ति है। नोट-क्रियाशक्तिके लिए और भी दे० क्रिया/२/१। ६. अन्य सम्बन्धित विषय १. गमनरूप क्रिया का विषय विस्तार--दे० गति । २. क्रिया व पर्याय में अन्तर-दे० पर्याय/२ । ३. षट् द्रव्योंमें क्रियावान् अक्रियावान् विभाग-दे० द्रव्या३ । ४. ज्ञाननय व क्रियानयका समन्वय-दे० चेतना/३/८ । ५. शप्ति व करोति क्रिया सम्बन्धी विषय विस्तार-दे० चेतना/३॥ ६. शुद्ध जीववत् शुद्ध परमाणु निष्क्रिय नहीं-दे० परमाणु/२ । ३. श्रावकको क्रियाओंका निर्देश १. श्रावककी २५ क्रियाओंका नाम निर्देश दे० अगला शीर्षक पच्चीस क्रियाओंको कहते है-१ सम्यक्त्व क्रिया; २ मिथ्यात्व क्रिया; ३ प्रयोगक्रिया; ४ समादानक्रिया; ५ ईर्यापथक्रिया; ६ प्रादोषिकी क्रिया, ७ कायिकी क्रिया; ८ अधिकारिणिकी क्रिया; पारितापिकी क्रिया; १० प्राणातिपातिकी क्रिया; ११ दर्शनक्रियाः १२ स्पर्शनक्रिया; १३ प्रात्ययकीक्रिया; १४ समन्तानुपातक्रिया; १५ अनाभोगक्रियाः १६ स्वहस्तक्रिया; १७ निसर्ग क्रिया; १८ विदारणक्रिया; १६ आज्ञाव्यापादिकी क्रिया; २० अनाकांक्षक्रिया; २१ प्रारम्भक्रिया; २२ परिग्रहिकी क्रिया; २३ माया क्रिया; २५ मिथ्यादर्शनक्रिया; २५ अप्रत्याख्यानक्रिया, (रा. वा./ ६/५/७-११/५०६-५१०)। २. श्रावककी २५ क्रियाओंके लक्षण स.सि./६/५/३२१-३२३/११ पञ्चविंशतिः क्रिया उच्यन्ते-चैत्यगुरुप्रवचन पूजादिलक्षणा सम्यक्त्ववर्धनीक्रिया सम्यक्त्व क्रिया । अन्यदेवतास्तवनादिरूपामिथ्यात्वहेतुकी प्रवृत्तिमिथ्यात्व क्रिया। गमनागमनादिप्रवर्तनं कायादिभिः प्रयोगक्रिया [वीर्यान्तरायज्ञानावरण योपशमे सति अङ्गोपाङ्गोपष्टम्भादात्मन' कायवाड्मनोयोगनिवृत्तिसमर्थपुदगलग्रहणं वा ( रा.वा./६/२) संयतस्य सतः अविरति प्रत्याभिमुख्य समादानक्रिया । ईर्यापथनिमित्तर्यापथक्रिया । ता एता पञ्चक्रिया । क्रोधावेशात्प्रादोषिकी क्रिया। प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्येमः कायिकीक्रिया। हिंसोपकरणादानादाधिकरणिकी क्रिया। दुःखोत्पत्तितन्त्रत्वात्पारितापिकी क्रिया । आयुरिन्द्रियबलोच्छ्वासनि श्वासप्राणानां वियोगकरणात्प्राणातिपातिकी क्रिया । ता एताः पञ्चक्रियाः। रागार्दीकृतत्वात्प्रमादिनोरमणीयरूपालोकनाभिप्रायो दर्शन किया। प्रमादवशास्पृष्टव्यसनचेतनानुबन्धः स्पर्शनक्रिया । अपूर्वाधिकरणोत्पादनात्प्रात्यायिकी क्रिया। स्त्रीपुरुषपशुसम्पातिदेशेऽन्तर्मलोत्सर्गकरणं समन्तानुपातक्रिया । अप्रमृष्टादृष्टभूमौ कायादि निक्षेपोऽनाभोगक्रिया। ता एताः पञ्चक्रियाः। या परेण निर्वया क्रियां स्वयं करोति सा स्वहस्तक्रिया। पापादानादिप्रवृत्ति विशेषाभ्यनुज्ञानं निसर्ग क्रिया। पराचरितसावद्यादिप्रकाशनं विदारणक्रिया, यथोक्तागमाज्ञावश्यकादिषु चारित्रमोहोदयात्कर्तुमशक्नुवतोऽन्यथा प्ररूपणादाज्ञाव्यापादिकी क्रिया। शाठ्यालस्याभ्यां प्रवचनोपदिष्टविधिकर्तव्यतानादरोऽनाकाङ्क्षक्रिया। ता एताः पञ्च क्रिया' । छेदनभेदनविशसनादि क्रियापरत्वमन्येन वारम्भे क्रियमाणे प्रहर्ष प्रारम्भ क्रिया। परिग्रहाविनाशार्था पारिग्राहिकी क्रिया। ज्ञानदर्शनादिषु निकृतिर्वश्चनमाया क्रिया। अन्य मिथ्यादर्शनक्रियाकरणकारणाविष्टं प्रशंसादिभि दृढयति यथा साधु करोषोति सा मिथ्यादर्शनक्रिया। संयमघातिकर्मोदयवशाद निवृत्तिरप्रत्याख्यान क्रिया । ता एताः पञ्चक्रिया। समुदिताः पञ्चविशतिक्रियाः। चैत्य, गुरु और शास्त्रकी पूजा आदि रूप सम्यक्त्वको बढानेवाली सम्यक्त्व क्रिया है। मिथ्यात्वके उदयसे जो अन्य देवताके स्तवन आदि रूप क्रिया होती है वह मिथ्यात्व क्रिया है। शरीर आदि द्वारा गमनागमन आदि रूप प्रवृत्ति प्रयोग क्रिया है। [अथवा वीर्यान्तराय ज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर अंगोपांग नामकर्म के उदयसे काय, वचन और मनोयोगकी रचनामें समर्थ पुद्गलोंका ग्रहण करना प्रयोगक्रिया है। (रा.वा./६/५/७/ ५०६/१८)] संयतका अविरतिके सन्मुख होना समादान क्रिया है। ईर्यापथकी कारणभूत क्रिया ईर्यापथ क्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं। क्रोधके आवेशसे प्रादोषिकी क्रिया होती है । दुष्टभाव युक्त होकर उद्यम करना कायिकी क्रिया है। हिसाके साधनोंको ग्रहण करना आधिकरणिकी क्रिया है। जो दुःखकी उत्पत्तिका कारण है वह पारितापिको क्रिया है। आयु, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वास रूप प्राणोंका वियोग करनेवाली प्राणातिपातिकी क्रिया है । ये पाँच क्रिया हैं । रागवश प्रमादीका रमणीय रूपके देखनेका अभिप्राय दर्शनक्रिया है। प्रमादवश स्पर्श करने लायक सचेतन पदार्थका अनुबन्ध स्पर्शन क्रिया है। नये अधिकरणोंको उत्पन्न करना प्रात्ययिकी क्रिया है। स्त्री, पुरुष और पशुओंके जाने, आने, उठने और बैठनेके स्थानमें भीतरी मलका त्याग करना समन्तानुपात क्रिया है। प्रमार्जन और अवलोकन नहीं की गयी भूमिपर शरीर आदिका रखना अनाभोगक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं । जो क्रिया दूसरों द्वारा करनेकी हो उसे स्वयं कर लेना स्वहस्त क्रिया है। पापादान आदिरूप प्रवृत्ति विशेषके लिए सम्मति देना निसर्ग क्रिया है। दूसरेने जो सावद्यकार्य किया हो उसे प्रकाशित करना विदारणक्रिया है । चारित्रमोहनीयके उदयसे आवश्यक आदिके विषयमें शास्त्रोक्त आज्ञाको न पाल सकनेके कारण अन्यथा निरूपण करना आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है। धूर्तता और आलस्यके कारण शास्त्रमें उपदेशी गयी विधि करनेका अनादर अनाकाक्षक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं। छेदना-भेदना और रचना आदि क्रियाओमे स्वयं तत्पर रहना और दूसरेके करनेपर हर्षित होना प्रारम्भक्रिया है । परिग्रहका नाश न हो इसलिए जो क्रिया की जाती है वह पारिग्राहिकी क्रिया है। ज्ञान, दर्शन आदिके विषयमे छल करना मायाक्रिया है। मिथ्यादर्शनके साधनोंसे युक्त पुरुषको प्रशंसा आदिके द्वारा दृढ करना कि 'तू ठीक करता है' मिथ्यादर्शनक्रिया है। संयमका घात करनेवाले कर्मके उदयसे त्यागरूप परिणामोंका न होना अप्रत्याख्यानक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं। ये सब मिलकर पच्चीस क्रियाएँ होती हैं । (रा. वा /६/५/७/१६)। ३. श्रावककी अन्य क्रियाओंका लक्षण स सि /७/२६/३६६/६ अन्येनानुक्तमननुष्ठित यत्किचित्परप्रयोगवशादेव तेनोक्तमनुष्ठितमिति वचनानिमित्तं लेखन कूटलेखक्रिया ।-दूसरेने तो कुछ कहा और न कुछ किया तो भी अन्य किसीकी प्रेरणासे उसने ऐसा कहा है और ऐसा किया है इस प्रकार छलसे लिखना कूट लेखक्रिया है। नि. सा./ता. वृ./१५२...निश्चयप्रतिक्रमणादिसत्क्रिया कुर्वन्नास्ते । महामुमुक्षु.. निश्चयप्रतिक्रमणादि सक्रियाको करता हुआ स्थित है। (नि. सा/ता वृ./१५५)। यो सा अ/८/२० आराधनाय लोकानां मलिनेनान्तरात्मना । क्रियते या क्रिया बालैर्लोकपक्तिरसौ मता ।२०- अन्तरात्माके मलिन होनेसे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया ऋद्धि १७५ क्रोध मूर्ख लोग जो लोकके रजायमान करनेके लिए क्रिया करते हैं उसे बाल अथवा लोक पंक्तिक्रिया कहते है। ४. २५ क्रियाओं, कषाय व अवतरूप आनवोंमें अन्तर रा. वा./६/५/१५/५१०/३२ कार्यकारणक्रियाकलापविशेषज्ञापनाथ वा ॥५॥ निमित्तनै मित्तिकविशेषज्ञापनार्थ तहि पृथगिन्द्रियादिग्रहणं क्रियते; सत्यमः स्पृशत्यादय' ध्यादय' हिनस्त्यादयश्च क्रिया आसव' इमा' पुनस्तत्प्रभवाः पञ्चविंशतिक्रिया' सत्स्वेतेषु त्रिषु प्राच्येषु परिणामेषु भवन्ति यथा मूर्छा कारणं परिग्रहं कार्य तस्मिन्सति पारिग्राहिकीक्रिया न्यासरक्षणाविनाशसंस्कारादिलक्षणा। -निमित्त नैमित्तिक भाव ज्ञापन करनेके लिए इन्द्रिय आदिका पृथक् ग्रहण क्रिया है। छूना आदि और हिंसा करना आदि क्रियाएँ आस्रव है। ये पच्चीस क्रियाएँ इन्हींसे उत्पन्न होती हैं। इनमें तोन परिणमन होते है। जैसे-मूच्र्छा-ममत्व परिणाम कारण हैं, परिग्रह कार्य हैं। इनके होने पर पारिग्राहिकी क्रिया होती है जो कि परिग्रहके संरक्षण अविनाश और संस्कारादि रूप है इत्यादि...। वादियों के अन्य नयपक्षों का निराकरण करके केवल दर्शन (श्रद्धा) से ही मुक्ति होनी कही है। गो. क./भाषा/८७८/१०६४/११ क्रियावादीनि वस्तु कू अस्तिरूप ही मानकरि क्रियाका स्थापन करें है। तहाँ आपत कहिये अपने स्वरूप चतुष्टयकी अस्ति मान है, अर परतै कहिए परचतुष्टयतै भी अस्तिरूप माने हैं। भा. पा./भाषा/१३७ पं. जयचन्द-केई तो गमन करना, बैठना, खडा रहना, खाना, पीना सोवना उपजनां, विनसना, देखना, जाननां, करना, भोगना, भूलना, याद करना, प्रीति करना, हर्ष करना, विषाद करना, द्वेष करना, जीवना, मरना इत्यादि क्रिया हैं तिनि... जोवादिक पदार्थ निकै देखि कोई केसी क्रियाका पक्ष किया है, कोई कैसी क्रियाका पक्ष किया है। ऐसे परस्पर क्रियावाद करि भेद भये है तिनिकै संक्षेप करि एक सौ अस्सी भेद निरूपण किये हैं, विस्तार किये बहुत होय है। * क्रियावादका सम्यक रूप-दे० चारित्र/६ । ५. अन्य सम्बन्धित विषय * कर्म के अर्थ में क्रिया-दे० योग । १. श्रावककी ५३ क्रियाएँ--दे० श्रावक/४। २. साधुको १० या १३ क्रियाएँ-दे० साधु /२। ३. धार्मिक क्रियाएँ- दे० धर्म/१। क्रिया ऋद्धि-क्रिया ऋद्धिके चारण व आकाशगामित्व आदि बहुत भेद हैं-दे० ऋद्धि/४। क्रियाकलाप-१. दे० कृतिकर्म । २. अमरकोषपर पं. आशाधरजी (ई. ११७३-१२४३ ) कृत टीका है (दे० आशाधर)। क्रियाकलाप ग्रन्थ-साधुओंके नित्य व नैमित्तिक प्रतिक्रमणादि क्रियाकर्म सम्बन्धी विषयोंका प्रतिपादक एक संग्रह ग्रन्थ है। यह पं. पन्नालालजो सोनोने किया है। इस ग्रन्थके प्रथम अध्यायका संग्रह तो पण्डितजी का अपना किया हुआ है और शेष संग्रह काफी प्राचीन है। सम्भवतः इसके संग्रहकर्ता पं. प्रभाचन्द हैं (ई. श. १४-१७)। उनके अनुसार इस ग्रन्थमें संगृहीत सर्वत्र प्राकृत भक्ति पाठ तो आ० कुन्दकुन्दके हैं और संस्कृत भक्ति पाठ आ० पूज्यपादके हैं। शेष भक्तिये भो वि. १४ वी शताब्दोके पूर्व कभो लिखी गयी हैं। (स. सि./प्र.८८/पं. फूलचन्द्र )। क्रियाकांड-दे० कृतिकर्म ।। क्रियाकोश-१५० किशन सिंह (ई. १७२७ कृत २६०० हिन्दी छन्दबद्ध तथा २.५० दौलतराम (ई०१७३८) कृत हिन्दी छन्दबद्ध श्रावक-क्रिया प्रतिपादक ग्रथ । (ती./४/२८०, २८२)। क्रिया नय-दे० नय/I/५ । क्रिया मंत्र-दे० मंत्र/९/६,७ । क्रियावाद-1. क्रियावादका मिथ्या रूप रा. वा./भूमिका/६/२/२२ अपर आहुः-क्रियात एव मोक्ष इति नित्यकर्म हेतुकं निर्वाणमिति वचनात् । कोई क्रियासे हो मोक्ष मानते हैं। क्रियावादियोंका कथन है कि नित्य कर्म करनेसे ही निर्वाणको प्राप्त होता है। भा.पा./टो /१३५/२८३/१५ अशोत्यग्रं शतं क्रियावादिना श्राद्धादिक्रियामन्यमानानां ब्राह्मणानां भवति । क्रियावादियों के १८० भेद हैं। वे श्राद्ध आदि क्रियाओंको माननेवाले ब्राह्मणोंके होते है। ज्ञा./४/२५ केश्चिञ्च कीर्तिता मुक्तिदर्शनादेव केवलम् । वादिना खलु सर्वेषामपाकृत्य नयान्तरम् ।२४।-और कई वादियों ने अन्य समस्त २. क्रियावादियोंके १८० भेद रा.वा./१/२०/१२/७४/३ कौत्कल-काणेविद्धि-कौशिक-हरिस्मश्रु-मांछपिकरोमश-हारीत-मुण्डाश्वलायनादीनां क्रियावाददृष्टीनामशीतिशतम् । -कौत्कल, काणेविद्धि, कौशिक, हरिस्मश्रु, मांछपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड, आश्वलायन आदि क्रियावादियोके १८० भेद है । (रा. वा./८/१/६/५६२/२); (घ.६/४,१,४५/२०३/२); (गो.जी./जी.प्र./ ३६०/७७०/११) ह पु/१०/४8-११ नियतिश्च स्वभावश्च कालो देवं च पौरुषम् । पदार्था नव जीवाद्या स्वपरौ नित्यतापरौ ।४६। पञ्चभिनियतिष्टैश्चतुर्भि. स्वपरादिभिः । एकैकस्यात्र जीवादेोगेऽशीत्युत्तर शतम् ।१०। नियत्यास्ति स्वतो जाव. परतो नित्यतोऽन्यत.। स्वभावारकालतो देवात पौरुषाच्च तथेतरे ॥ (अस्ति) (स्वत'. परतः, 'नित्य, अनित्य )। (जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्य, संवर, निर्जरा, मोक्ष), ( काल, ईश्वर, आत्म, नियति, स्वभाव ), इनमें पदनिके बदलनेतें अक्ष संचार करि १xxxEx५ के परस्पर गुणनरूप १८० क्रियावादिनि के भंग है। (गो.क./मू./८७७) । क्रियाविशाल-द्रव्य श्रुतज्ञानका २२वाँ पूर्व-दे० श्रुतज्ञान/III क्रिस्तो संवत्-दे० इतिहास/२। क्रीडापवंत-तुलसी स्याम नामक पर्वतको लोग श्रीकृष्णका क्रीड़ा पर्वत कहते हैं। इसपर रूठी रुक्मिणीकी मूर्ति बनी हुई है । (नेमि चरित प्रस्तावना-प्रेमीजी)। क्रांत-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/2। २. वस्तिकाका __ एक दोष-दे० वस्तिका। क्रोध-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४। २. बस्तिकाका एक दोष-दे० वस्तिका। क्रोध-१. क्रोधका लक्षण रा.वा.//६/५/५७४/२८ स्वपरोपघातनिरनुग्रहाहितक्रौर्यपरिणामोऽमर्षः क्रोधः। स च चतुःप्रकारः-पर्वत-पृथ्वी-बालुका-उदकराजितुल्यः । =अपने और परके उपघात या अनुपकार आदि करनेके क्रूर परिणाम क्रोध हैं । वह पर्वतरेखा, पृथ्वीरेखा, धूलिरेखा और जलरेखाके समान चार प्रकारका है। ध ६/१,६,१,२३/४१/४ क्रोधो रोष. संरम्भ इत्यनर्थान्तरम् । क्रोध, रोष और संरम्भ इनके अर्थ में कोई अन्तर नहीं है। (ध.१/१,१, १११/३४६/६) ध. १२/४,२,८,८/२८३/६ हृदयदाहाङ्गकम्पाक्षिरागेन्द्रियापाटवादि निमित्तजीवपरिणामः क्रोधः। = हृदयदाह, अंगकम्प, नेत्ररक्तता और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रौंच १७६ क्षपित काशिक इन्द्रियोंको अपटुता आदिके निमित्तभूत जीवके परिणामको क्रोध २.क्षपकके भेद कहा जाता है। स. सा./ता. वृ./१६६/२७४/१२ शान्तात्मतत्त्वात्पृथग्भूत एष अक्षमारूपो ध.७/२,१,१/१/८ जे खवया ते दुविहा-अपुव्वकरणखवगा अणियट्टिकरणभावः क्रोधः।-शान्तात्मासे पृथग्भूत यह जो क्षमा रहित भाव है वह खवगा चेदि । जो क्षपक हैं वे दो प्रकारके हैं-अपूर्वकरण-क्षपक और क्रोध है। अनिवृत्तिकरण क्षपक। द्र.सं./टी./३०/८८/७ अभ्यन्तरे परमोपशममूतिकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्व- क्षपकश्रेणी-दे० श्रेणी/२। भावपरमात्मस्वरूपक्षोभकारकाः बहिर्विषये तु परेषां संबन्धित्वेन क्रूरत्वाद्यावेशरूपाः क्रोध । - अन्तरंगमें परम-उपशम-मृति केवल क्षपण-दर्शनमोह व चारित्रमोह क्षपणा विधान । दे० क्षय/२,३ । ज्ञानादि अनन्त, गुणस्वभाव परमात्मरूपमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाले क्षपणसार-आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (ई०६१)। तथा बाह्य 'विषयमें अन्य पदार्थोके सम्बन्धसे क्रूरता आवेश रूप द्वारा रचित मोहनीयकमके क्षपण विषयक ६५३ गाथा क्रोध प्रमाण प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है । इसके आधारपर माधव चन्द्र विद्य* क्रोध सम्बन्धी विषय-दे० कषाय । देवने एक स्वतन्त्र क्षपणसार नामका ग्रन्थ संस्कृत गद्यमें लिखा था। *जीवको क्रोधी कहनेकी विवक्षा-दे० जीव/१ । इसकी एक टीका पं० टोडरमलजी ( ई०१७६०) कृत उपलब्ध है। क्षपित कर्माशिक - १. लक्षण क्राच-यह एक राजा थे। जिन्होंने स्वामी कार्तिकेयपर उपसर्ग किया था । समय-अनुमानतः वि० श०१ के लगभग, ई० श०१ का कर्मप्रकृति/१४-१००/पृ.६४ पल्लासंखियभागेण कम्मटिइमच्छिओ णिगोपूर्व भाग । (का.आ./प्र.६६ P. N. up.) एसु। सुहमेस (सु.) भवियजोगं जहण्णयं कट्टु निग्गम्म ६४ जोग्गेस (सु.) संखवारे सम्मत्तं लभिय देसवीरियं च । अ टुक्खुत्तो क्लश-स सि./७/११/३४६/१० असद्वद्योदयापादितक्लेशाः क्लिश्य विरई संजोयणट्ठा य तइवारे ।। मानाः। = असातावेदनीयके उदयसे जो दुखी हैं वे क्लिश्यमान पडसवसमित्तु मोह लहु खतो भवे खवियकम्मो ।१६। हस्सगुणकहलाते हैं। संकमद्धाए पूरयित्वा समीससम्मत्तं । चिरसंमत्ता मिच्छत्तंग्गयस्सुब्बरा.वा./७/११/७/५३८/२७ असद्वद्योदयापादितशारीरमानसदुःखसन्तापात लणथोगो सि ।१००१ - जो जीव पत्यके असंख्यातवें भागसे हीन क्लिश्यन्त इति क्लिश्यमानाः। -आसातावेदनीय कर्म के उदयसे, सत्तरकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कालतक सूक्ष्म निगोद पर्यायमें जो शरीर और मानस, दु खसे संतापित है वे क्लिश्यमान कह रहा और भव्य जीवके योग्य जघन्य प्रदेश कर्मसंचयपूर्वक सूक्ष्म लाते हैं। निगोदसे निकलकर बादर पृथिवी हुआ और अन्तर्मुहूर्त कालमें क्वाथतोय-भरतक्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/। निकलकर तथा साल माहमें ही गर्भसे उत्पन्न होकर पूर्वकोटि आयुक्षणलव प्रतिबुद्धता-दे० प्रतिबुद्धता। वाले मनुष्योमें उत्पन्न और विरतियोग्य त्रसोंमें हुआ तथा आठ वर्षमें क्षणिकउपादान कारण दे० उपादान । संयमको प्राप्त करके संयमसहित ही मनुष्यायु पूर्ण कर पुनः देव, बादर, पृथिवी कायिक व मनुष्योमें अनेक बार उत्पन्न होता हुआ पल्योपमके क्षत्रवती-भरतक्षेत्र पूर्व आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात बार सम्यक्त्व, उससे स्वक्पक्षत्रिय-म.पु /१६/२८४, २४३ क्षत्रियाः शस्त्रजीवितम् ।१४। स्व कालिक देश विरति, आठ बार विरतिको प्राप्त कर व आठ ही बार दोभ्यां धारयन् शस्त्रं क्षत्रियानसृजद् विभुः। क्षतास्त्राणे नियुक्ता हि अनंतानुबन्धीका विसंयोजन व चार बार मोहनीयका उपशम कर क्षत्रियाः शस्त्रपाणय' ।२४३३ - उस समय जो शस्त्र धारण कर शीघ्र ही कोका क्षय करता है, वह उत्कृष्ट क्षपित काशिक होता आजीविका करते थे वे क्षत्रिय हुए १२८४। उस समय भगवान्ने अपनी है। (ध.६/१,६-८/१२/२५७ को टिप्पणीसे उद्धृत) दोनों भुजाओंमें शस्त्र धारण कर क्षत्रियोंकी सृष्टि की थी, अर्थात २. गुणित कांशिकका लक्षण उन्हे शस्त्र विद्याका उपदेश दिया था, सो ठीक ही है. जी हाथोंमे हथियार लेकर सबल शत्रुओंके प्रहारसे निर्बलोंकी रक्षा करते है वे ही ___ कर्मप्रकृति/गा. ७४-८२/पृ. १८७-१८६ जो बायरतसकालेणूणं कम्मट्टिइं क्षत्रिय कहलाते हैं ।२४३। (म.पु./१६/१८३ ); (म.पु./३८/४६) तु पुढवीए । बायरा(रि) पज्जत्तापज्जत्तगदीहेर रद्धासु ७४ जोगकसाक्षत्रिय-श्रुतावतारकी पट्टावलीके अनुसार (दे० इतिहास ) आप उकोसो बहुसो निच्चमवि आउबंधं च । जोगजपणेणुवरिल्लठिइणिसेगं भद्रबाहु प्रथम ( श्रुतकेवली ) के पश्चात तृतीय ११ अंग व चौदह पूर्व बहु' किच्चा ७५ बायरतसेसु तकालमेव मते य सत्तमरिवईए सव्वलहू धारी हुए हैं। अपरनाम कृतिकार्य था। समय-बी०नि० १६१-२०८; पज्जत्तो जोगकसायाहिओ बहुसो ७६॥ जोगजवमझुवरि मुहुत्तई० पू० ३३६-३१६५० कैलाश चन्द जी की अपेक्षा थी. नि. २५१-२६८ मच्छित्तु जीवियवसाणे। तिचरिमदुचरिमसमए पुरित्तू कसायउक्कस्सं १७७) जोगुकोसं चरिम-दुचरिमे समए य चरिमसमर्याम्म । संपुण्ण (दे० इतिहास/४/४) क्षपक-१. क्षपकका लक्षण गुणियकम्मो पगयं तेणेह सामित्त ।७। संछोभणाए दोहं मोहाणं स.सि./8/४/१५६/४ स एव पुनश्चारित्रमोहक्षपणं प्रत्यभिमुख परिणाम वेयगस्स खणसेसे। उप्पाइय सम्मत्तं मिच्छत्तगए तमतमाए ।१२। विशुद्धया वर्द्धमान' क्षपकव्यपदेशमनुभवः। -पुनः वह ही ( उप -जो जीव अनेक भवोंमें उत्तरोत्तर गुणितक्रमसे कर्म प्रदेशोका शामक ही) चारित्रमोहकी क्षपणाके लिए सन्मुख होता हुआ तथा बन्ध करता रहा है उसे गुणितकांशिक कहते हैं। जो जीव उत्कृष्ट परिणामोंकी विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होकर क्षपक संज्ञाको अनुभव योगों सहित बादर पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त भवोंकरता है। से लेकर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण बादर ध,१/१.१,२७/२२४/८ तत्थ जे कम्म-करखवणम्हि बावादा ते जीवा रखवगा त्रसकायमें परिभ्रमण करके जितने बार सातवीं पृथिवीमें जाने योग्य उच्चति । जो जीव कर्म-क्षपणमें व्यापार करते हैं उन्हें क्षपक होता है उतनी बार जाकर पश्चात् सप्तम पृथिवीमें नारक पर्यायको कहते हैं। धारण कर शीघ्रातिशीघ्र पर्याप्त होकर उत्कृष्ट योगस्थानों व उत्कृष्ट क.पा./१/१,१८/१३१५/३४७/४ खवयसेढिचढमाणेण मोहणीयस्स अंतर- कषायों सहित होता हुआ उत्कृष्ट कर्मप्रदेशोंका संचय करता है और करणे कदे 'खतओं त्ति भण्ण दि। -क्षपक श्रेणीपर चढ़नेवाला जीव अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुके शेष रहनेपर विचरम और द्विचरम समयमें चारित्रमोहनीयका अन्तरकरण कर लेनेपर क्षपक कहा जाता है। वर्तमान रहकर उत्कृष्ट संक्लेशस्थानको तथा चरम और द्विचरम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा १७७ समयमें उत्कृष्ट योगस्थानको भी पूर्ण करता है, वह जोव उसी नारक पर्यायके अन्तिम समयमें सम्पूर्ण गुणितकर्माशिक होता है। (ध.६/१,६,८,१२/२५७ को टिप्पणी व विशेषार्थ से उद्धृत) गो.जी./मू./२५१ आवासया हु भव अद्धाउस्सं जोगसं किलेसो य । ओकटू टुकट्टणया छच्चेदे गुणिदकम्मंसे ।२५१। -गुणित कर्माशिक कहिए उत्कृष्ट ( कर्म प्रदेश ) संचय जाकै होइ ऐसा कोई जीव तीहि विषै उत्कृष्ट संचयको कारण ये छह आवश्यक होइ । ३. गुणित क्षपित घोलमानका लक्षण ध.६/१,६,८,१२/२५८/१९ विशेषार्थ-जो जीव उपर्युक्त प्रकारसे न गुणित कर्माशिक है और न क्षपित काशिक हैं, किन्तु अनव स्थितरूपसे कर्मसंचय करता है वह गुणित क्षपित घोलमान है। ४. क्षपित कर्णाशिक क्षायिक श्रेणी ही मांडता है पं.सं./प्रा./५/१८८ टोका -क्षपित कर्माशो जीवः उपरि नियमेन क्षपक श्रेणिमेवारोहति। -क्षपित कौशिक जीव नियमसे क्षपक श्रेणी ही मांडता है। ५. गुणित कर्माशिकके छह आवश्यक गो.जी./मू./२५१ आवासया हु भवअदाउस्संजोगसं किलेसो य । ओक टुटुकाट्टणया छच्चेदे गुणिदकम्मंसे। -गुणित कांशिक कहिए उत्कृष्ट संचय जाकै होय ऐसा जो जीव तीहि विष उत्कृष्ट संचय को कारण ये छह आवश्यक होइ, तातै उत्कृष्ट संचय करनेवाले जीवके ये छह आवश्यक कहिये-भवादा, आयुर्वल, योग, संक्लेश, अपकर्षण, उत्कर्षण। ६. गुणित कर्माशिक जीमोंमें उत्कृष्ट प्रदेशघात एक समय प्रबद्ध ही होता है इससे कम नहीं ध.१२/४,२.१३,२२२/४४६/१४ गुणिदकम्म सियम्मि उक्कस्सेण जदि खओ होदि तो एगसमयपबद्धो चेव झिज्जदि त्ति गुरूवदेसादो। गुणित कर्माशिक जीबमें उत्कृष्ट रूपसे यदि क्षय होता है तो समय प्रबद्धका ही क्षय होता है। ऐसा गुरुका उपदेश है। क्षमा-१. उत्तम क्षमाका व्यवहार लक्षण बा.अनु./७१ कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंग जदि हवेदि सक्खादं । ण कुणदि किचिवि कोहं तस्स खमा होदि धम्मोत्ति ७१। -क्रोधके उत्पन्न होनेके साक्षात् बाहिरी कारण मिलनेपर भी जो थोडा भी क्रोध नहीं करता है, उसके ( व्यवहार ) उत्तम क्षमा धर्म होता है। (भा.पा./मू./१०७). (का.आ./मू./३६४); (चा.सा./११/२) नि. सा./ता, वृ./११५ अकारणादप्रियवादिनो मिथ्यादृष्टेरकारणेन मा त्रासयितुमुद्योगो विद्यते, अयमपगतो मत्पुण्येनेति प्रथमा क्षमा। अकारणेन संत्रासकरस्य ताडनबधादिपरिणामोऽस्ति, अयं चापगतो मत्सुकृतेनेति द्वितीया क्षमा । -बिना कारण अप्रिय बोलनेवाले मिथ्यादृष्टिको बिना कारण मुझे त्रास देनेका उद्योग वर्तता है, वह मेरे पुण्यसे दूर हुआ ऐसा विचारकर क्षमा करना वह प्रथम क्षमा है। मुझे बिना कारण त्रास देनेवालेको ताडन और वधका परिणाम वर्तता है, वह मेरे सुकृतसे दूर हुआ, ऐसा विचारकर क्षमा करना वह द्वितीय क्षमा है। २. उत्तम क्षमाका निश्चय लक्षण स. सि./६/६/४१२/४ शरीरस्थितिहेतुमार्गणार्थ परकुलान्युपगच्छतो भिक्षोदुष्टजनाक्रोशप्रहसनावज्ञाताडनशरीरव्यापादनादीनां संनिधाने कालुष्यानुत्पत्तिः क्षमा। -शरीरको स्थितिके कारणकी खोज करनेके लिए परकुलोंमें जाते हुए भिक्षुको दुष्टजन गाली-गलौज करते हैं, उपहास करते हैं, तिरस्कार करते हैं, मारते-पीटते हैं और शरीरको तोड़ते-मरोड़ते हैं तो भी उनके कलुषताका उत्पन्न न होना क्षमा है। (रा.वा./४/६/२/५६५/२१); (भ.आ./वि./४६/१५४/१२); (चा.सा./५६/१); (पं.वि./१/८२) नि.सा./ता वृ./११५ वधे सत्यमूर्तस्य परमब्रह्मरूपिणो ममापकारहानिरिति परमसमरसी भावस्थितिरुत्तमा क्षमा। -(मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा बिना कारण मेरा) बध होनेसे अमूर्त परमब्रह्मरूप ऐसे मुझे हानि नहीं होती-ऐसा समझकर परमसमरसी भावमें स्थित रहनां वह उत्तम क्षमा है। ३. उत्तम क्षमाकी महिमा कुरल का./१६/२,१० तस्मै देहि क्षमादानं यस्ते कार्यविघातकः। विस्मृतिः कार्यहानीना यद्यहो स्यात् तदुत्तमा ।२। महान्तः सन्ति सर्वेऽपि क्षीणकायास्तपस्विनः । क्षमावन्तमनुख्याताः किन्तु विश्वे हि तापसा' ।१० - दूसरे लोग तुम्हें हानि पहुचायें उसके लिए तुम उन्हें क्षमा कर दो, और यदि तुम उसे भुला सको तो यह और भी अच्छा है ।२। उपवास करके तपश्चर्या करने वाले निस्सन्देह महाच हैं, पर उनका स्थान उन लोगोंके पश्चात ही है जो अपनी निन्दा करने वालोंको क्षमा कर देते हैं। भा.पा./भू./१०८ पावं खबइ असेसं खमायपडिमडिओ य मुणिपवरो। खेयरअमरणराणं पसंसणीयो धुर्व होइ ।१०८। जो मुनिप्रवर क्रोधके अभावरूप क्षमा करि मंडित है सो मुनि समस्त पापकू क्षय करै है, बहुरि विद्याधर देव मनुष्यकरि प्रशंसा करने योग्य निश्चयकरि होय है। अन.ध./६/५ यः क्षाम्यति क्षमोऽप्याशु प्रतिकतु कृतागस' । कृतागसं तमिच्छन्ति क्षान्तिपीयूषसंजुषः।। -अपना अपराध करनेवालोंका शीघ्र ही प्रतिकार करने में समर्थ रहते हुए भी जो पुरुष अपने उन अपराधियों के प्रति उत्तम क्षमा धारण करता है उसको क्षमारूपी अमृतका समीचीनतया सेवन करनेवाले साधुजन पापोंको नष्ट कर देनेवाला समझते हैं। ४. उत्तम क्षमाके पालनाथ विशेष भावनाएं भ.आ./मू./१४२०--१४२६ जदिदा सवति असंतेण परो तं णस्थि मेत्ति खमिदव्वं । अणुकंपा वा कुज्जा पावइ पावं वरावोत्ति ।। =सत्तो बि ण चेव हदो हृदो वि ण य मारिदो ति य खमेज्ज । मारिज्जंतो विसहेज्ज चेव धम्मो ण णट्ठोत्ति ।१४२२३ पुवं सयभुवभुतं काले णाएण तेत्तियं दव्यं । को धारणीओ धणियस्स दितओ दुविवओ होज्ज ।१४२५॥ --मैंने इसका अपराध किया नहीं तो भी यह पुरुष मेरे पर क्रोध कर रहा है, गाली दे रहा है, मैं तो निरपराधी हूँ ऐसा विचार कर उसके ऊपर क्षमा करनी चाहिए। इसने मेरे असहोषका कथन किया लो मेरी इसमें कुछ भी हानि नहीं है, अथवा क्रोध करनेपर दया करनी चाहिए, क्योंकि यह दीन पुरुष असत्य दोषोंका कथन करके व्यर्थ ही पापका अर्जन कर रहा है। यह पाप उसको अनेक दुःवोंको देनेवाला होगा ।१४२०। इसने मेरेको गाली ही दी है, इसने मेरेको पीटा तो नहीं है, अर्थात न मारना यह इसमें महान् गुण है। इसने गाली दी है परन्तु गाली देनेसे मेरा तो कुछ भी नुकसान नहीं हुआ अतः इसके ऊपर क्षमा करना ही मेरे लिए उचित है ऐसा विचार कर क्षमा करनी चाहिए। इसने मेरेको केवल ताडन ही किया है. मेरा बध तो नहीं किया है। वध करनेपर इसने मेरा धर्म तो नष्ट नहीं किया है, यह इसने मेरा उपकार किया ऐसा मानकर क्षमा ही करना योग्य है ।१४२२। ऋण चुकानेके समय जिस प्रकार अवश्य साहूकारका धन वापस देना चाहिए उसी प्रकार मैंने पूर्व जन्ममें पापोपार्जन किया था अब यह मेरेको दुःख दे रहा है यह योग्य ही है। यदि मैं इसे शान्त भावसे सहन करू गा तो पाप जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मा०२-२३ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमावणी व्रत १७८ क्षय ऋणसे रहित होकर सुखी होऊँगा। ऐसा विचार कर रोष नहीं करना चाहिए । (रा.वा./६/६/२७/५६६/१); (चा सा./५६/३); (पं.वि./१/८४); (ज्ञा /१६/१६); (अन.ध /६/७-८); (रा.वा.हि./8/4/६६५-६६६) * दश धर्मो की विशेषताएं--(दे० धर्म/८) क्षमावणी व्रत-व्रतविधानसं०/पृ. १०८ आसोज कृ.१ को सबसे क्षमा माँगकर कुछ फल बाँटे तथा उपवास रखे। क्षमाश्रमण-१. श्वेताम्बराचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमणको ही कदाचित् अकेले क्षमाश्रमण नामसे कहा जाता है। -दे० जिनभद्रगणी; २-यद्यपि श्वेताम्बराचार्य देवधिकी भी क्षमाश्रमण उपाधि थी, परन्तु अकेले क्षमाश्रमण द्वारा उनका ग्रहण नहीं होता। क्षय-कर्मोंके अत्यन्त नाशका नाम क्षय है । तपश्चरण व साम्यभावमें निश्चलताके प्रभावसे अनादि कालके अँधे कर्म क्षण भरमें विनष्ट हो जाते हैं, और साधककी मुक्ति हो जाती है। कसैका क्षय हो जानेपर जीवमें जो ज्ञाता द्रष्टा भाव व अतीन्द्रिय आनन्द प्रकट होता है वह क्षायिक भाव कहलाता है। १. लक्षण व निर्देश स्पर्धकोंमें परिणत होकर उदयमें आते हैं। उन सर्वघाती स्पर्धकोंका अनन्तगुण हीनत्व ही क्षय कहलाता है। (ध.५/१,७,३६/२२०/११)। * अपक्षयका लक्षण दे० अपक्षय । ४. अष्टकर्मोंके क्षयका क्रम त.सू./१०/१ मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । = मोह का क्षय होनेसे तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका क्षय होनेसे केवलज्ञान प्रकट होता है। क, पा ३/३,२२/२४३/५ मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ते खड्य पच्छा सम्मत्तं खबिज्जदि त्ति कम्माणकवमणकम। - मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वको क्षय करके अनन्तर सम्यक्त्वका क्षय होता है। त. सा./६/२१-२२ पूर्वाजितं क्षपयतो यथोतैः क्षयहेतुभिः। संसारबीजं कात्स्यैन मोहनीय प्रहीयते ॥२१॥ ततोऽन्तरायज्ञाननिदर्शनध्नान्यनन्तरम् । प्रहीयन्तेऽस्य युगपत् त्रीणि कर्माण्यशेषतः ।२२। -पूर्वमें कहे हुए कर्म क्षपणके हेतुओके द्वारा सबसे प्रथम मोहनीय कर्मका क्षय होता है। मोहनीय कर्म हो सब कर्मोंका और संसारका असली कारण है। मोह क्षय हुआ कि बादमें एक साथ अन्तराय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण ये तीन घाती कर्म समूल नष्ट हो जाते हैं। ६. मोहनीयकी प्रकृतियों में पहले अधिक अप्रशस्त प्रकृ तियोंका क्षय होता है क. पा./२/३,२२/६४२८/२४३/७ मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तेसु के पुब्व खधिज्जदि । मिच्छत्तं । कुदो, अच्चमहत्तादो ।-प्रश्न-मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वमे पहले किसका क्षय होता है। उत्तर-पहले मिथ्यात्वका क्षय होता है। प्रश्न-पहले मिथ्यात्वका क्षय किस कारणसे होता है ? उत्तर-क्योंकि मिथ्यात्व अत्यन्त अशुभ प्रकृति है। ७. अप्रशस्त प्रकृतियोंका क्षय पहले होना कैसे जाना जाता है क.पा ३/३,२२/४२८/८ असुहस्स कम्मस्स पुव चवखवणं होदि त्ति कुदो णव्बदे। सम्मत्तस्स लोहसंजलणस्स य पच्छा खयण्ण हाणूवत्तीदो। -प्रश्न-अशुभ कर्मका पहले ही क्षय होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है । उत्तर-अन्यथा सम्यक्त्व व लोभ सज्वलनका पश्चात क्षय बन नहीं सकता है, इस प्रमाणसे जाना जाता है कि अशुभ कर्मका क्षय पहले होता है। *कर्मों के क्षयकी ओघआदेशप्ररूपणा-दे० सत्त्व । * स्थिति व अनुभाग काण्डक धात-दे. अपकर्षण।। १. क्षयका लक्षण स, सि./२/१/१४६/६ क्षय आत्यन्तिकी निवृत्तिः। यथा तस्मिन्नेवाम्भसि शुचिभाजनान्तरसंक्रान्ते पडूस्यात्यन्ताभावः । =जैसे उसी जलको दुसरे साफ बर्तनमें बदल देनेपर कोचडका अत्यन्त अभाव हो जाता है. वैसे ही कर्मोका आत्मासे सर्वथा दूर हो जाना क्षय है। ध.१/१,१,२७/२१५/१ अट ठण्डं कम्माणं मूलुत्तरभेय...पदेसाणं जीवादो जो णिस्सेस-विणासो त खवणं णाम । = मूलप्रकृति और उत्तर प्रकृतिके भेदसे...आठ कर्मोका जीवसे अत्यन्त विनाश हो जाता है उसे क्षपण (क्षय) कहते हैं। पं.का./त.प्र./५६ कर्मणां फलदानसमर्थत... अत्यत्तविश्लेष. क्षयः ।। कर्मों का फलदान समर्थ रूपसे.. अत्यन्त विश्लेष सो क्षय है। गो.क./जी. प्र./८/२६/१४ प्रतिपक्षकर्मणां पुनरुत्पन्यभावेन नाश क्षयः। -प्रतिपक्ष कर्मोंका फिर न उपजें ऐसा अभाव सो क्षय है। . . २. क्षयदेशका लक्षण गो.क./जी.प्र./४४५/५६६/४ तत्र क्षयदेशो नाम परमुखोक्येन विनश्या चरमकाण्डकचरमफालि., स्वमुखोदयेन बिनश्यता च समयाधिकावलिः । =जे, प्रकृति अन्य प्रकृति रूप उदय देह विनसें हैं ऐसी परमुखोदयी हैं तिनकें तो अन्त काण्डककी अन्त फालि क्षयदेश है। बहुरि अपने ही रूप उदय देह विनसै है ऐसी स्वमुखोदयी प्रकृति तिनके एक-एक समय अधिक आवली प्रमाण काल क्षयदेश है। गो. क./भाषा,/४४६/५६७/७ जिस स्थानक क्षय भया सो क्षयदेश कहिए है। २. दर्शनमोह क्षपणा विधान १. छहों कालों में दर्शनमोहनी क्षपणा सम्भव नहीं है ३. उदयाभावी क्षयका लक्षण रा, वा./२/५/३/१०६/३० यदा सर्वघातिस्पर्धकस्योदयो भवति तदेषदप्यात्मगुणस्याभिव्यक्तिनास्ति तस्मात्तदुदयस्याभावः क्षय इत्युच्यते। जब सर्वघाति स्पर्धकोंका उदय होता है तब तनिक भी आत्माके गुणकी अभिव्यक्ति नहीं होती, इसलिए उस उदयके अभावको उदयाभावी क्षय कहते हैं। ध./७/२.१,४६/१२/६ सव्वधादिफद्दयाणि अणंतगुणहीणाणि होदूण देसघादिफद्दयत्तणेण परिणमिय उदयमागच्छति, तेसिमर्णतगुणहीणत्तं खओ णाम ।-सर्वघाती स्पर्धक अनन्तगुणे हीन होकर और देशघाती ध. ६/१.६-८,१२/२४७/२ एदेण वक्रवाणाभिप्पारण दुस्सम-अइदुस्समसुसमसुसम-सुसमकालेमुप्पण्णाणं व दसणमोहणीयरवषणा णस्थि, अवसेसदोसु वि कालेसुष्पण्णाणमस्थि । कुदो। एइंदियादो आगंतूण तदियकालुप्पण्णबद्धणकुमारादीण दसणमोहरववणदंसणादो। एदं चेवेत्थ वक्खाणं पधाणं कादव्वं । - दुषमा, अतिदुषमा, सुषमसुषमा और सुषमा कालों में उत्पन्न हुए जीवोके ही दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नहीं होती है अवशिष्ट दोनों कालोमें उत्पन्न हुए जीवों के दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होती है। इसका कारण यह है कि एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर (इस अवसर्पिणीके) तीसरे कालमें उत्पन्न हुए वर्द्धमानकुमार आदिकों के दर्शनमोहकी क्षयणा देखी जाती है। यहाँपर यह व्याख्यान ही प्रधानतया ग्रहण करना चाहिए। विशेष दे० मोक्ष/४/३ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षय 1 -(अनन्तश्चात अनिवाडकर शेष सर्व हिजार वर्षाको १७९ चारित्रमोह क्षपणा विधान * अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना-दे० विसंयोजना । समयमनन्तगुणितक्रमेण प्रवर्त मानेन प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशविनाश पूर्वक प्रतिसमयमैकैकनिषेकं गालयित्वा तदनन्तरसमये क्षायिकसम्यग* समुद्रोंमें दर्शनमोहक्षपण कैसे सम्भव है-दे० मनुष्य/३॥ दृष्टिर्जायते जीव। -अनुभाग तो अनुसमय अपवर्तनकरि अर कर्म २. दर्शनमोह क्षपणाका स्वामित्व परमाणूनिकी उदीरणा करि यह कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी रही थी जो सम्यक्त्व मोहनीकी अन्तमुहर्त स्थिति वामै उच्छिष्टावली मिना ४-७ गुणस्थान पर्यन्त कोई भी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव, त्रिकरणपूर्वक सर्व स्थिति है सो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशनिका सर्वथा नाश अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके दर्शनमोहनीयकीक्षपणा प्रारम्भ लीए' जो एक-एक निषेकका एक-एक समयविर्षे उदय रूप होइ करता है। (दे० सम्यग्दर्शन/IVE) निर्जरना ताकरि नष्ट हो है, बहुरि ताका अनन्तर समयविर्षे *त्रिकरण विधान-दे० करण/३ । उच्छिष्टावलो मात्र स्थिति अवशेष रहै उदीरणाका भी अभाव भया, केवल अनुभागका अपवर्तन है...उदय रूप प्रथम समयतें लगाय ३. दर्शन मोहकी क्षपणाके लिए पुनः निकरण करता है समय-समय अनन्तगुणा क्रमकरि वर्ते है ताकरि प्रकृति स्थिति अनुगो.क./जी.प्र /५५०/७४४/६, तदनन्तरमन्तर्मुहूर्त विश्रम्यानन्तानुबन्धि भाग प्रदेशनिका सर्वथा नाश पूर्वक समय-समय प्रति उच्छिष्टावलीके चतुष्कं विसंयोज्यान्तर्मुहूर्तानन्तरं करणत्रयं कृत्वा। - बहुरि ताके एक-एक निषको गालि निजरा रूप करि ताका अनन्तर समय विष अनन्तरि अन्तर्मुहूर्त विश्राम लेइकरि अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो है : ( अधिक विस्तारसे ध.६/१,६-८,१२/ कीए' पीछे अन्तर्मुहूर्त भया तब बहुरि तीन करण करै । (ल.सा/ २४८-२६६) मू./११३) ७. दर्शनमोहकी क्षपणामें दो मत ४. दर्शनमोहकी प्रकृतियोंका क्षपणाक्रम ध.६/९.६-८,१२/२५८/३ ताधे सम्मत्तम्हि अहवस्साणि मोत्तूण सव्वगो.क./जी.प्र./५५०/७४४/६ अनिवृत्तिकरणकाले संख्यातबहुभागे गते मागाइदं । संस्खज्जाणि वाससहस्साणि मोत्तूण आगाइदमिदि भणंता शेषै कभागे मिथ्यात्वं ततः सम्यग्मिथ्यात्वं ततः सम्यक्त्वप्रकृति च वि अस्थि । -(अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना तथा दर्शन मोहके क्रमेण क्षपयति, दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भप्रथमसमयस्थापितसम्यक्त्व- स्थिति काण्डक घातके पश्चात अनिवृत्तिकरणमें उस जीवने ) सम्यप्रकृतिप्रथमस्थित्यामान्तर्मुहूर्तावशेषे चरमसमयप्रस्थापकः । अनन्तर- क्रवके स्थिति सत्त्वमें आठ वर्षोंको छोडकर शेष सर्व स्थिति सस्त्वको समयादाप्रथमस्थितिचरमनिषेकं निष्ठापकः । =अनिवृत्तिकरण काल- (घातार्थ ) किया। सम्यक्त्वके स्थिति सत्यमें संख्यात हजार वर्षोंको का संख्यात भागनिमें एक भाग बिना बहुभाग गये एक भाग अवशेष छोड़कर शेष समस्त स्थिति सत्त्वको ग्रहण किया इस प्रकारसे कहनेरहैं पहिलं मिथ्यात्वकौं पीछे सम्यग्मिथ्यात्वकौं पीछे सम्यक्त्व वाले भी कितने ही आचार्य हैं। प्रकृतिकौं अनुक्रमतें क्षय कर है। तहाँ दर्शन मोहको क्षपणाका प्रारम्भका प्रथम समयविः स्थायी जो सम्यक्त्व मोहनीकी प्रथम स्थिति ताका काल विर्षे अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहें तहाँका अन्तसमय पर्यन्त तौ प्रस्थापक कहिए। बहुरि तिसके अनंतरि समयतें प्रथम स्थितिका * दर्शनमोह क्षपणामें मृत्यु सम्बन्धी दो मतअन्तनिषेकपर्यन्त निष्ठापक कहिए। (गो.जी./जी.प्र./३३५-३३६/ दे० मरण/३ । ४८६ ); (ल.सा./जी.प्र./१२२-१३०) * नवक समय प्रबद्धका एक आवली पर्यन्त क्षपण ५. कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होनेका क्रम संभव नहीं दे० उपशम/४/३। ल.सा./जी.प्र./१३१४१७२/३ यस्मिन् समये सम्यक्त्वप्रकृतेरष्टवर्ष मात्रस्थितिमवशेषयन् चरमकाण्डकचरमफालिद्वयं पातयति तस्मिन्नेव ३. चारित्रमोह क्षपणा विधान समये सम्यक्त्वप्रकृत्यनुभागसत्त्वमतीतानन्तरसमयनिषकानुभाग १. क्षपणाका स्वामित्व सत्त्वादनन्तगुणहीनमवशिष्यते । ल.सा./जी प्र/१४५/२००/१० प्रागुक्तविधानेन अनिवृत्तिकरणचरमसमये क्ष.सा./भाषा./३१२/४८०/१३ तीन करण विधान से क्षायिक सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वप्रकृतिचरमकाण्डकचरमफालिद्रव्ये अघोनिक्षिप्ते सति तद- होइ.. चारित्रमोहकी क्षपणाको योग्य जे विशुद्ध परिणाम तिनि करि नन्तरोपरितनसमयात.. कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिरिति जीवः संज्ञायते । सहित होह तै प्रमत्ततें अप्रमत्त वि. अप्रमत्त प्रमत्त विर्षे हजारों०१. जिस समय विर्षे सम्यक्त्वमोहनीकी अष्टवर्ष स्थिति शेष राखी वार गमनागमनकरि...क्षपकश्रेणीको सन्मुख...सातिशय प्रमत्तगुणअर मिश्रमोहनी सम्यक्त्वमोहनीका अन्तकाण्डककी दोय फालिका स्थान विर्षे अधःकरण रूप प्रस्थान करै है। पतन भया तिसही समयवि सम्यक्त्व मोहनीका अनुभाग पूर्वसमय २.क्षपणा विधिके १३ अधिकार के अनुभागते अनन्तगुणा घटता अनुभाग अवशेष रहै है। २. अनिवृत्तिकरणके अन्त समयविष सम्यक्त्वमोहनीका अन्तकाण्डककी अन्त- क्ष. सा./न./३९२ तिकरणमुभयो सरण कमकरणं खणदेसमंतरयं । संकम फालीका द्रव्यको नीचले निषेकनिविर्षे निक्षेपण किये पीछे अनन्तर अपुवफड्ढयाकिट्टीकरणाणुभवणखमणाये। अधःकरण; अपूर्वकरण, समय लगाय 'कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी हो है। अनिवृत्तिकरण, बंधापसरण, सत्त्वापसरण, क्रमकरण अष्ट कषाय सोलह प्रकृतिनिको क्षपणा, देशघातिकरणं, अंतरकरण, संक्रमण, ६. तत्पश्चात् स्थिति के निषेकोका क्षयक्रम अपूर्व स्पर्धककरण, अन्तर कृष्टिकरण, सूक्ष्म-कृष्टि-अनुभवन, ऐसे ये ल.सा./जी.प्र /१५०/२०५/२० एवमनुभागस्यानुसमयमनन्तगुणितापवर्तनेन चारित्र मोहकी क्षपणाविर्षे अधिकार जानने । कर्मप्रदेशानां प्रतिसमयमसंख्यातगुणितोदीरणया च कृतकृत्यवेदक ३. क्षपणा विधि सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वप्रकृतिस्थितिमन्तर्मुहूर्तायामुच्छिष्टायलि मुक्त्वा सर्वा प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशविनाशपूर्वक उदयमुखेन गालयित्वाक्ष.सा./भाषा/१/३६२-६००-१. यहाँ प्रथम ही अधःप्रवृत्तिकरण रूप तदनन्तरसमये उदीरणारहितं केवलमनुभागसमयापवर्तनेन व प्रति- परिणामों को करता हुआ सातिशय अप्रमत्त संज्ञाको प्राप्त होता है । इस जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षय ३. चारित्रमोह क्षपणा विधान ७वें गुणस्थानके कालमें चार आवश्यक है-१ प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिः २ प्रशस्त प्रकृतियोंका अनन्तगुण क्रमसे चतुस्थानीय अनुभाग बन्ध; ३ अप्रशस्त प्रकृतियोका अनन्तवें भागहीन क्रमसे केवल द्विस्थानीय अनुभाग अन्ध, और ४ पल्य/असं.हीन क्रमसे संख्यात सहस्रबन्धापसरण ।३६२-३६६। तिस गुणस्थानके अन्तमें स्थिति बन्ध व सत्त्व दोनों ही घटकर केवल अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण रहती है।४६४.२. तदनन्तर अपूर्वकरण गुणस्थानमें प्रवेश करके तहॉके योग्य चार आवश्यक करता है-१. असंख्यात गुणक्रमसे गुण श्रेणी निर्जरा; २. असंख्यात गुणा क्रमसे ही गुण संक्रमण; ३. सर्व ही प्रकृतियोंका स्थितिकाण्डक घात औरः ४. केवल अप्रशस्त प्रकृतियोका धात । यहाँ स्थिति काण्डकायाम पत्य/सं. मात्र है, और अनुभाग काण्डक घातमें केवल अनन्त बहुभाग क्रम रहता है। इसके अतिरिक्त पक्य/सं. हीनक्रमसे संख्यात सहस स्थिति बन्धापसरण करता है 1३६७-४१०। इस गुणस्थानके अन्तमें स्थितिबन्ध तो घटकर पृथक्त्व सहस्र सागर प्रमाण और स्थिति सत्त्व घटकर पृथक्त्व लक्ष सागर प्रमाण रहते हैं ।४१४। ३. तदनन्तर अनिवृतिकरण गुणस्थानमे प्रवेश करके तहकि योग्य चार आवश्यक करता है-१. असंख्यात गुणसे गुणश्रेणी निर्जरा; २. असंख्यात गुणाक्रमसे ही गुण संक्रमण; ३. पन्य/असं. आयामवाला स्थिति काण्डक घात; ४. अनन्त बहुभाग क्रमसे अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग काण्डकघात। यह पल्य/असं. व अनन्त बहुभाग अपूर्वकरण वालोकी अपेक्षा अधिक है।४११। इसके प्रथम समयमें नाना जोवोंके स्थिति खण्ड असमान होते हैं परन्तु द्वितीयादि समयों में सर्व के स्थिति सत्त्व व स्थिति खण्ड समान होते हैं।४१२-४१३२ यहाँ स्थिति बन्धापसरणमें पहले पत्य/सं.होनक्रम होता है, तत्पश्चात् पत्य/सं. बहुभाग हीनक्रम और तत्पश्चात पसय/असं. बहुभाग हीनक्रम तक हो जाता है। इस प्रकार विशेष हीनक्रमसे घटतेघटते इस गुणस्थानके अन्तमें स्थितिबन्ध केवल पल्य/असं. वर्ष मात्र रह जाता है ।४१४-४२१। स्थिति सत्त्व भी उपरोक्त क्रमसे ही परन्तु स्थिति काण्डक घात द्वारा घटता घटत: उतना ही रह जाता है ।४१६-४२१। तीन करणों में ही नहीं बल्कि आगे भी स्थिति४-५. बन्ध व सत्त्वका अपसरण बराबर हुआ ही करै है। ३६५-४१८ । 4. अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें ही क्रमकरण द्वारा मोहनीय, तीसिय, बोसिय, वेदनीय, नाम व गोत्र, इन सभी प्रकृतियोंके स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्वके परस्थानीय अल्प-बहुत्वमें विशेष क्रमसे परिवर्तन होता है, अन्तमें नाम व गोत्रकी अपेक्षा वेदनीयका स्थितिबन्ध व सत्त्व ड्योढा रह जाता है ।४२२-४२७१७. क्षपणा अधिकारमें मध्य आठ कषायों ( प्रत्य., अप्रत्या.) की स्थितिका संज्वलन चतुष्ककी स्थिति में संक्रमण करनेका विधान है। यही उन आठोंका परमुखरूपेण नष्ट करना है।४२६। तत्पश्चात ३ निद्रा और १३ नामकर्मकी, इस प्रकार १६ प्रकृतियोंको स्वजाति अन्य प्रकृतियोंमें संक्रमण करके नष्ट करता है ।४३०। ८. तदनन्तर मति आदि चार ज्ञानावरण, चक्षु आदि तीन दर्शनावरण और ५ अन्तराय इन १२ प्रकृतियोको सर्वघातीकी बजाय देशघाती अनुभाग युक्त बन्ध व उदय होने योग्य है। ४३१-४३२।६। अनिवृत्तिकरणका संख्यात भाग शेष रहनेपर ४८४! चार संज्वलन और नव नोकषाय इन १३ प्रकृतियोंका अन्तरकरण करता है । ४३३-४३३ । १०. संक्रमण अधिकारमें प्रथम ही सप्तकरण करता है। अर्थात्-१-२. मोहनीयके अनुभाग बन्ध व उदय दोनोको दारुसे लता स्थानीय करता है । ३. मोहनीयके स्थिति बन्धको पल्य/ असं. से घटाकर केवल संरख्यात वर्ष मात्र करता है; ४. मोहनीयके पूर्ववर्तीय यथा तथा संक्रमणको छोडकर केवल आनुपूर्वीय रूप करता है;. लोभका जो अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता था वह अब नहीं होता; ६. नपुंसक वेदका अधःप्रवृत्ति संक्रमण द्वारा नाश करता है; ७. संक्रमगसे पहले-आवलोमात्र आवाधा व्यतीत भये उदीरणा होती थी वह अब छह आवली व्यतीत होनेपर होती है।४३६-४३७१ सप्तकरणके साथ ही संज्वलन क्रोध, मान, माया व नव नोकषायों, इन १२ प्रकृतियोंका आनुपूर्वी क्रमसे गुण संक्रमण व सर्व संक्रमण द्वारा एक लोभमें परिणमाकर नाश करता है। उसका क्रम आगे कृष्टिकरण अधिकारके अनुसार जानना ।४३८-४४०। यहाँ स्थितिअन्धापसरणका प्रमाण नवीनस्थिति मन्धसे संरण्यातगुणा घाट होता है । ४४१-४६१। ११. अनिवृत्तिकरणके इस कालमें संज्वलन चतुष्कका अनुभाग प्रथम काण्डकका पात भये पीछे क्रोधसे लगाय लोभ पर्यन्त अनन्त गुणा घटता और लोभसे लगाय क्रोध पर्यन्त अनन्तगुणा बधता हो है। इसे ही अश्वकर्ण करण कहते हैं। तहॉसे आगे अब उन चारोंमें अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है जिससे उनका अनुभाग अनन्त गुणा क्षीण हो जाता है । विशेष-दे० स्पर्धक व अश्वकर्ण ।४६५-४६६। १२० तननन्तर उसी अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके कालमें रहता हुआ इन अपूर्व स्पर्धकोंका संग्रहकृष्टि व अन्तरकृष्टि करण द्वारा कृष्टियों में विभाग करता है। साथ ही स्थिति व अनुभागका बरावर काण्डक घात द्वारा क्षीण करता है। अश्वकर्ण कालमें संज्वलन चतुष्ककी स्थिति अठ वर्ष प्रमाण थी, वह अब अन्तर्मुहूतं अधिक चार वर्ष प्रमाण रह गयी। अवशेष कर्मोंकी स्थिति संख्यात महस्रवर्ष प्रमाण है। संज्वलनका स्थितिसत्त्व पहले संख्यात सहस्रवर्ष था, वह अब घटकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष मात्र रहा और अघातियाका संख्यात सहस्रवर्ष मात्र रहा। कृष्टिकरणमें ही सर्व संज्वलन चतुष्कके सर्व निषेक कृष्टिरूप परिणामे 1४६०-५१४। विशेष—दे० कृष्टि । १३. कृष्टिकरण पूर्ण कर चुकनेंपर वहाँ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके चरम भाग; रहता हुआ इन आदर कृष्टियोको क्रोध, मान; माया व लोभके क्रमसे वेदना करता है । तिस कालमें अपूर्व कृष्टि आदि उत्पन्न करता है । क्रोधादि कृष्टियोंके द्रव्यको लोभकीकृष्टि रूप परिणमाता है। फिर लोभको संग्रहकृष्टिक द्रव्यको भी सूक्ष्म कृष्टि रूप करता है। यहाँ केवल संज्वलन लोभका ही अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितिबन्ध शेष रह जाता है । अन्तमें लोभका स्थिति सत्त्व भी अन्तर्मुहूर्त मात्र रह जाता है, और उसके बन्धकी पुच्छित्ति हो जाती है। शेष घातिमाका स्थितिबन्ध एक दिनसे कुछ कम और स्थिति सत्त्वसंख्यात सहस्र वर्ष प्रमाण रहा।५१४-५७१। विशेष-दे० कृष्टि। १४. अब सूक्ष्म कृष्टिको वेदता हुआ सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानमें प्रवेश करता है। यहाँ सर्व ही कोका जघन्य स्थिति बन्ध होता है। तीन धातियाका स्थिति सत्त्व अन्तर्महुर्त मात्र रहता है। लोभका स्थिति सत्त्व क्षयके सम्मुख है । अघातियाका स्थिति सत्त्व असंख्यात वर्ष मात्र है। याके अनन्तर लोभका भी क्षय करके क्षीणकषाय गुणस्थानमें प्रवेश करै है।५८२-६००। विशेष-दे० कृष्टि । ४. चारित्रमोह क्षपणा विधानमें प्रकृतियोंके क्षय सम्बन्धी दो मत घ/१/१,१,२७/२१७/३ अपुवकरण-विहाणेण गमिय अणियट्टिअद्वाए सखेज्जदि-भागे सेसे...सोलस पयडीओ खवेदि। तदो अंतोमुहत्तं गंतूण पच्चक्रवाणापञ्चक्खाणावरणकोध-माण-माया-लोभे अक्कमेण खवेदि । एसो संतकम्म-पाहुड़-उवएसो। कसाय-पाहुड-उवएसो। पुण अछ कसारसु खीणेसु पच्छा अंतोमुहूतं गतूण सोलस कम्माणि खविजंति त्ति । एदे दो वि उवएसा सञ्चमिदि केवि भण्णं ति, तण्ण घडदे, विरुद्वात्तादो मृत्तादो। दो वि पमाणाई ति क्यणमवि ण घडदे पमाणेण पमाणा विरोहिणा होदव्य' इदि णायादो । -अनिवृत्तिकरणके कालमें संरख्यात भाग शेष रहनेपर. सोलह प्रकृतियोंका क्षय करता है। फिर अन्तर्मुहर्त व्यतीत कर प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्यारण्यानावरण सम्बन्धी क्रोध, जैनेन्द्र सिदान्त कोश Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षय १८१ ४. क्षायिक भाव निर्देश मान, माया और लोभ इन आठ प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है यह सत्कर्म प्राभृतका उपदेश है। किन्तु कषाय प्राभृतका उपदेश तो इस प्रकार है कि पहले आठ कषायोके क्षय हो जानेपर पीछेसे एक अन्तर्मुहूर्त में पूर्वोक्त सोलह कर्म प्रकृतियाँ क्षयको प्राप्त होती है। ये दोनों ही उपदेश सत्य हैं, ऐसा कितने ही आचार्योंका कहना है। किन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि, उनका ऐसा कहना सूत्रसे विरुद्ध पड़ता है। तथा दोनों कथन प्रमाण हैं, यह वचन भी घटित नहीं होता है, क्यों कि 'एक प्रमाणको दूसरे प्रमाणका विरोधी नहीं होना चाहिए' ऐसा न्याय है। (गो. क./मू./ ३८६, ३६१) * चारित्रमोह क्षपणामें मृत्युकी संभावना-दे० मरण/३ । ४. क्षायिक भाव निर्देश १. क्षायिक मावका लक्षण स. सि./२/१/१४६/६ एवं क्षायिक । = जिस भावका प्रयोजन अर्थात कारण क्षय है वह क्षायिक भाव है। ध./१/१,१,८/१६१/१ कर्मणाम् "क्षयाक्षायिक' गुणसहचरितत्वादात्मापि गुणसंज्ञा प्रतिलभते । जो कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होता है उसे क्षायिक भाव कहते हैं । ...गुणके साहचर्यसे आत्मा भी गुणसंज्ञाको प्राप्त होता है । (ध.५/१,७,१/१८५/१); (गो. क./मू-1८१४)। घ.१/१,७,१०/२०६/२ कम्माणं खए जादो खइओ, खयर्छ जाओ वा खइओ भावो इदि दुविहा सद्दउप्पत्ती घेत्तत्वा। कर्मोके क्षय होनेपर उत्पन्न होनेवाला भाव क्षायिक है, तथा कर्मोके क्षयके लिए उत्पन्न हुआ भाव क्षायिक है, ऐसी दो प्रकारकी शब्द व्युत्पत्ति ग्रहण करना चाहिए। पं का./त.प्र./५६ क्षयेण युक्तः क्षायिकः । -क्षयसे युक्त वह क्षायिक है। गो. जी./जी.प्र./८/२६/१४ तस्मिन् (क्षये) भवः क्षायिकः । -ताको (क्षय ) होते जो होइ सो क्षायिक भाव है। पं.ध./उ./६६८ यथास्वं प्रत्यनीकानां कर्मणां सर्वतःक्षयात । जातो यः क्षायिको भावः शुद्धः स्वाभाविकोऽस्य सः ६६८ प्रतिपक्षी कर्मों के यथा-योग्य सर्वथा क्षयके होनेसे आत्मामें जो भाव उत्पन्न होता है वह शुद्ध स्वाभाविक क्षायिक भाव कहलाता है ।। स. सा./ता. वृ./३२०/४०८/२१ आगमभाषयौपशमिकक्षायोपश मिकक्षायिक भावत्रयं भण्यते। अध्यात्मभाषया पुनः शुद्धात्माभिमुखपरिणामः शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसंज्ञा लभते । आगममें औपशमिक, क्षायोपशमिक व क्षायिक तीन भाव कहे जाते हैं । और अध्यात्म भाषामें शुद्धआत्माके अभिमुख जो परिणाम है, उसको शुद्धोपयोग आदि नामोंसे कहा जाता है। २. क्षायिक मावके भेद त. सू./२/३-४ सम्यक्त्वचारित्रे ।३। ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ।४। क्षायिक भावके नौ भेद हैं-क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र । (ध.१/१,७,१/११०/११); (न. च./३७२); (त. सा./२/६); (नि. सा./ता.व./४१); (गो.जी./मू-३००): (गो. क./मू./८१६)। ष. खं/१४/५,६/१८/१५ जो सो खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णि सो-से खीणकोहे खीणमाणे खीणमाये खोणलोहे खोणरागे खोणदोसे, खीणमोहे स्त्रीणकसायवीयरायछदुमत्थे खइयसम्मत्तं खाइय चारित्तं खड्या दाणलद्धी खड्या लाहलद्धी खश्या भोगलद्धी वइया परिभोगलद्धी खइया की रियलद्धी केवलणाणं केवलदसणं सिद्धे बुद्धे परिणिव्वुदे सम्बदुक्खाणमंतयडेत्ति जे चामण्णे एवमादिया खड्या भावा सो सब्बो खझ्यो अविवागपञ्चइयो जीवभावबंधो णाम ।१८। -जोक्षायिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावमन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है-क्षीणक्रोध, क्षीणमान, क्षीणमाया, क्षीणलोभ, क्षीणराग, क्षीणदोष, क्षीणमोह, क्षीणकषाय-वीतराग छद्मस्थ, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दानलब्धि, क्षायिक लाभलब्धि, क्षायिक भोगलन्धि, क्षायिक परिभोगलब्धि, क्षायिक वीर्य लब्धि, केवलज्ञान, केवलदर्शन, सिद्ध-बुद्ध, परिनिवृत्त, सर्वदुःख अन्तकृद, इसी प्रकार और भी जो दूसरे क्षायिक भाव होते हैं वह सम क्षायिक अविपाक-प्रत्ययिक जीवभावयन्ध है।१८ ३. नीच गतियों आदिमें शायिक भावका अभाव है ध.११,७,२८/२१/१ भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसिय-विदियादिछपुढविणेरड्य-सब्बविगलिदिय-लद्भिअपज्जत्तिस्थीवेदेस सम्मादिट्ठीणमुववादाभावा, मणुसगइवदिरित्तण्णगईसु दंसणमोहणीयस्स खवणाभावा च । -भवनवासी. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क देव, द्वितीयादि छह पृथिवियोंके नारकी, सर्व विकलेन्द्रिय, सर्व लब्ध्यपर्याप्तक, और स्त्रीवेदियों में सम्यग्दृष्टि जीवोंकी उत्पत्ति नहीं होती है, तथा मनुष्यगतिके अतिरिक्त अन्य गतियोंमें दर्शन मोहनीय कर्मको क्षपणाका अभाव है। ४. क्षायिक मावमें मी कथंचित् कर्म जनितस्व पं. का./मू./१८ कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विजदे उवसमं वा । खइयं खोबसमियं तम्हा भाव तु कम्मकदं ।। पं. का./ता.व./५६/१०६/१० क्षायिकभावस्तु केवलज्ञानादिरूपो यद्यपि वस्तुवृत्त्या शुद्धबुद्ध कजीवस्वभावः तथापि कर्मक्षयेणोत्पन्नत्वादुपधारेण कर्मजनित एव । -१. कर्म बिना जीवको उदय, उपशम, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक भाव नहीं होता, इसलिए भाव (चतुर्विध जीवभाव ) कर्मकृत हैं ।५८ (पं.का./त.प्र./५८) २. क्षायिकभाव तो केवलज्ञानादिरूप है। यद्यपि वस्तु वृत्तिसे शुद्ध-बुद्ध एक जीवका स्वभाव है, तथापि कर्मके क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण उपचारसे कर्मजनित कहा जाता है। ५, अन्य सम्बन्धित विषय १. अनिवृत्तिकरण आदि गुणस्थानों व संयम मार्गणामें क्षायिक भाव सम्बन्धी शंका समाधान। -दे० वह वह नाम २. क्षायिकभावमें आगम व अध्यात्मपद्धतिका प्रयोग -दे० पद्धति ३. क्षायिक भाव जीवका निज तत्व है -दे० भाव/R ४. अन्तराय कमके क्षयसे उत्पन्न भावों सम्बन्धी शंका-समाधान -दे० वह वह नाम ५. मोहोदयके अभावमें भगवान्की औदयिकी क्रियाएँ भी क्षायिकी -दे० उदय/ ६. क्षायिक सम्यग्दर्शन -दे० सम्यग्दर्शन/IVI क्षयोपशम-कर्मोके एकवेश क्षय तथा एकवेश उपशम होनेको क्षयोपशम कहते हैं। यद्यपि यहाँ कुछ कर्मोंका उदय भी विद्यमान रहता है परन्तु उसकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जानेके कारण व जीवके गुणको घातनेमें समर्थ नहीं होता। पूर्ण शक्तिके साथ उदयमें न आकर, शक्ति क्षीण होकर उदयमें आना ही यहाँ क्षय या उदयाभावी क्षय कहलाता है, और सत्तावाले सर्वघाती काँका अकस्मात उदयमें नाना ही उनका सदवस्थारूप उपशम है । यद्यपि क्षीण शक्ति या देश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षयोपशम १८२ १. भेद व लक्षण निर्देश घाती कर्मोंका उदय प्राप्त होनेकी अपेक्षा यहाँ औदायिक भाव भी कहा जा सकता है, परन्तु गुणके प्रगट होनेवाले अंशकी अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव ही कहते हैं, औदयिक नहीं, क्योंकि कर्मोंका उदय गुणका घातक है साधक नहीं। ५.गुणका एकदेश क्षय ध.७/२,१,४५/८७/३ णाणस्स विणासो खओ णाम, तस्स उवसमो एकदेसक्खओ, तस्स खओवसमसण्णा। -ज्ञानके विनाशका नाम क्षय है, उस क्षयका उपशम (अर्थात् प्रसन्नता) हुआ एकदेशक्षय। इस प्रकार ज्ञानके एकवेशीय क्षयकी क्षयोपशम संज्ञा मानी जा सकती है। १. भेद व लक्षण निर्देश २. पाँचों लक्षणों के उदाहरण १. क्षयोपशमका लक्षण १. उदयाभाव क्षय आदि स.सि./२/५/१५७/३ सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमाहेश घातिस्पर्द्धकानामुदये क्षायोपशमिको भावो भवति ।-वर्तमान कालमें सर्वघाती स्पर्द्धकोंका उदयाभावी क्षय होनेसे और आगामी कालकी 'अपेक्षा उन्हींका सदवस्थारूप उपशम होनेसे देशघाती स्पर्द्धकोंका उदय रहते हुए क्षायोपश मिक भाव होता है । (स.सि./१/२२/१२७/१), (रा.वा./१/२२/१/६१); (रा.वा./२/५/३/१०७/१); (द्र.सं./टी./३०/६E/R)। पं.का./त.प्र./५६ कर्मणां फलदानसमर्थतयों.'उभूत्यनुदभूती क्षयोप शमः। फलदानसमर्थ रूपसे कर्मों का उद्भव तथा अनुभव सो क्षयोपशम है। २. क्षय उपशम आदि रा.वा./२/१/३/१००/१६ यथा प्रक्षालन विशेषात क्षीणाक्षीणमदशक्तिकस्य कोद्रवस्य द्विधा वृत्तिः, तथा यथोक्तक्षयहेतुसंनिधाने सति कर्मण एकदेशस्य क्षयादेकदेशस्य च वीर्योपशमादात्मनो भाव उभयात्मको मिश्र इति व्यपदिश्यते । = जैसे कोदोंको धोनेसे कुछ कोदोकी मदशक्ति क्षीण हो जाती है और कुछकी अक्षीण, उसी तरह परिणामोंकी निर्मलतासे कर्मोंके एकदेशका क्षय और एकदेशका उपशम होना मिश्रभाव है। इस क्षयोपशमके लिए जो भाव होते हैं उन्हें क्षायोप शमिक कहते हैं । (स.सि./२/९/१४६/७)। घ. १/१,१,८/१६१/२ तत्क्षयादुपशमाच्चोत्पन्नो गुणः क्षायोपशमिकः । -कर्मोंके क्षय और उपशमसे उत्पन्न हुआ गुण क्षायोपशमिक कहलाता है। घ.७/२.१,४४/१२/७ सव्वघादिफद्दयाणि अणंतगुणहोणाणि होदूण देस घादिफद्दयत्तणेण परिणमिय उदयमागच्छति, तेसिमणतगुणहीणतं खओ णाम । देसघादिफद्दयसरूवेणवट्ठाणमुवसमो। तेहि खओवसमेहिं संजुत्तोदो खओवसमो णाम् । -सर्वघाति स्पर्धक अनन्तगुणे हीन होकर और देशघाती स्पर्धक्कों में परिणत होकर उदयमें आते हैं। उन । सर्वघाती स्पर्धकोंका अनन्तगुण होनत्व ही क्षय कहलाता है, और उनका देशघाती स्पर्धकोंके रूपसे अवस्थान होना उपशम है। उन्हीं क्षय और उपशमसे संयुक्त उदय क्षयोपशम कहलाता है। (ध. १४/ ५,६,१३/१०/२)। ३. आवृत भावमें शेष अंश प्रगट ध.१/१,७,१/१८५/२ कम्मोदए संते विजं जीवगुणवरवंडमुवलंभदि सो खओवसमिओ भावो णाम । -कर्मोके उदय होते हुए भी जो जीबगुणका खंड (अंग) उपलब्ध रहता है वह क्षायोपशम भाव है। (ध.७/२,१,४५/८७/१); (गो.जी./जी.प्र./८/२६/१४); (द्र.सं./टी./३४/ ११/)। ४. देशपातीके उदयसे उपजा परिणाम ध. ५/१,७,५/२००/३ सम्मत्तस्स देसधादिफयाणमुदएण सह वट्टमाणो सम्मत्तपरिणामो खोवसमिओ । सम्यक्त्वप्रकृतिके देशधाती। स्पर्धकोंके उदयके साथ रहनेवाला सम्यक्त्व परिणाम क्षायोपशमिक कहलाता है। (द्र.सं./टी./३४/88/8)। १. उदयाभावी क्षय आदिकी अपेक्षा दे० मिश्र/२/६/१ मिथ्यात्वका उदयाभावी क्षय तथा उसीका सदयस्थारूप उपशम तथा सम्यक्त्वके सर्वधाती स्पर्धकोंका उदय, इनसे होनेके कारण मिश्र गुणस्थान क्षायोपशमिक है। दे. मिश्र/२/६/२ सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदयरूप क्षयसे उसीके सदवस्थारूप उपशमसे तथा उसके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे होनेके कारण मिश्र गुणस्थान क्षायोपशमिक है। दे. संयत/२/३/१ प्रत्याख्यानावरणीयके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावी क्षयसे, उसीके सदवस्थारूप उपशमसे और संज्वलनरूप देशघातीके उदयसे होनेके कारण प्रमत्त व अप्रमत्त गुणस्थान क्षायोपशमिक हैं। दे. संयतासंयत/७.१. अनन्तानुबन्धी व अप्रत्याख्यानावरणके उदयाभावी क्षयसे, उन्हीके सदवस्थारूप उपशमसे तथा प्रत्याख्यानावरणीय, संज्वलन और नोकषायरूप देशघाती कर्मोके उदयसे होनेके कारण संयतासंयत गुणस्थान क्षायोपशमिक है। २. अथवा अप्रत्यारण्यानावरणके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावी क्षयसे तथा उसीके सदवस्थारूप उपशमसे और प्रत्याख्यानावरणरूप देशघाती कर्म के उदयसे होनेके कारण संयतासंयत गुणस्थान क्षायोपशमिक है। दे. योग/३/४ वीर्यान्तराय कर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावी क्षयसे, उसीके सदवस्थारूप उपशमसे तथा उसीके देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे होनेके कारण योग क्षायोपशमिक है। २. क-क्षय व उपशम युक्त उदयकी अपेक्षा दे. संयत/२/३/२ नोकषायके सर्वघाती स्पर्धकोंकी शक्तिका अनन्तगुणा क्षीण हो जाना सो उनका क्षय, उन्होंके देशघाती स्पर्धकौंका सदवस्थारूप उपशम, इन दोनोंसे युक्त उसीके देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे होनेके कारण प्रमत्त व अप्रमत्त संयत गुणस्थान क्षायोपशमिक हैं। दे.सयत/२/३/३ प्रत्याख्यानावरणकी देशचारित्र विनाशक शक्तिका तथा संज्वलन व नोकषायोंकी सकलचारित्र विनाशक शक्तिका अभाव सो ही उनका क्षय तथा उन्हींके उदयसे उत्पन्न हुआ देश व सकल चारित्र सो ही उनका उपशम (प्रसन्नता)। दोनोंके योगसे होनेके कारण संयतासंयत आदि तीनों गुणस्थान क्षायोपशमिक हैं। दे. क्षयोपशम/२/१ मिथ्यात्वकर्मकी शक्तिका सम्यक्त्वप्रकृतिमें क्षीण हो जाना सो उसका क्षय तथा उसीकी प्रसन्नता अर्थात उसके उदयसे उत्पन्न हुआ कुछ मलिन सम्यक्त्व, सोही उसका उपशम। दोनों के योगसे होनेके कारण वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक है। २. ख-उद्रय व उपशमके योगकी अपेक्षा दे.क्षयोपशम/२/२ सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेसे वेदक सम्यक्त्व औदयिक है और सर्वघाती स्पर्धाका उदयाभाव होनेसे औपशमिक है। दोनों के योगसे वह उदयोपशमिक है। दे. मिश्र/२/६/४ सम्यग्मिथ्यात्वके देशघाती स्पर्धकोंका उदय और उसीके सर्वघाती स्पर्धकोंका उदयाभावी उपशम। इन दोनोंके योगसे मिश्रगुणस्थान उदयोपशमिक है। दे. मतिज्ञान/२/४ अपने-अपने कर्मोंके सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी रूप उपशमसे तथा उन्हींके देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण मति आदि ज्ञान व चक्षु आदि दर्शन क्षायोपशमिक हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षयोपशम २. आवृतभाव गुणांशकी उपलब्धि दे. मिश्र / २ / सम्यग्मिध्यात्व कर्म में सम्यक्त्वका निरन्वय घात करनेकी शक्ति नहीं है। उसका उदय होनेपर जो शबलित श्रद्धान उत्पन्न होता है, उसमें जितना श्रद्धाका अंश है वह सम्यक्त्वका अवयव है । इसलिए मिश्रगुणस्थान क्षायोपशमिक है। ४. देशात उदय मात्रकी अपेक्षा ३. योपशम /२/५ सम्यक् श्रद्धानको पातनेमें असमर्थ सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे होनेके कारण वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक है। दे/२/६/सम्यग्मिथ्यात्व के उदयसे मित्रगुणस्थान होता है, क्योंकि यहाँ मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी और सम्यक्त्वप्रकृति, इनमें से किसीका भी उदयाभावी क्षय नहीं है। दे संयतासंयत / ०] [संज्वलन व मोकषायके क्षयोपशम संज्ञाषाले देशपाती स्पर्धकोंके उदयसे होनेके कारण संयतासंयत गुणस्थान क्षायोपशमिक है । दे. मतिज्ञान / २/४ मिध्यात्वके सर्वपाठी स्पर्धकोंके उदयसे तथा अपनेअपने ज्ञानावरणीयके देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे होनेके कारण मति अज्ञान आदि तीनों अज्ञान क्षायोपशमिक हैं। ५. गुणके एक देशक्षयकी अपेक्षा (दे० उपशीर्षक नं० २ क व २ ख ) ६. क्षायोपशमिकको औदयिक आदि नहीं कह सकते दे, क्षयोपशम / २/३ देश संयत बादि दोन गुणस्थानोंको उदयोपशमिक कहनेवाला कोई उपदेश प्राप्त नहीं है। क्षयोपशम /२/४ मिध्यास्त्र, अनन्तानुबन्धी और सम्यक्प्रकृति इन तीनोंका सदवस्थारूप उपशम रहनेपर भी मिश्र गुणस्थानको औपशमिक नहीं कह सकते । ३. मिश्र/२/१० सम्यग्मिध्यानके उदयसे होनेसे मित्रगुणस्थान औदमिक नहीं हो जाता । दे. संयत / २/४ संनके उदयसे होनेपर भी संयत गुणस्थानको बदयिक नहीं कह सकते । ३. क्षयोपशमिक भावके भेद ष. खं./१४/५,६/११/१८ जो सो तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो णाम तस्स हमो पिसो खओवसामय एईदियलद्धित्ति या सओक्सनियं बीइं दिलद्धिसिना खओवसमियं सीईदियलद्धि विना खओवसमियं चउरिदियतद्विति वा खओवसमियं पंचिदियलद्धित्तिमा खओवसमियं मदिअण्णाणि त्ति वा खओवसमियं सुदअण्णाणि ति या ओवसमये विहंगमाथि सिवा खओवसमिर्य आभिणिबोहियशाणितया खजीव समियं सुरणानिति वा स्वओवसमियं बोहि णाणित्तिमा स्वोवसमियं मणपज्जनणाणि ति वा स्वओवसमियं समिति वा खओवसमिर्य अच्चमद समितिमा खजोनसमियं ओसिणि त्ति वा खओवसमियं सम्ममिच्छत्तलद्धि त्ति वा ओसमियं सम्मद्धितिया जोक्स मिर्य संणमासंमलद्धि चिवा खओवसमियं संजमलद्धित्ति वा खओवसमियं रागलद्धिति माओवसमय लाहल वा खओवसमियं भोगत दिवा खओवसनियं परिभोगलद्धि सिमा खओवसमि मोरियल माओवसमियं से आयारघरे तिवा खओवसमियं सूदयधरे न्ति वा खओवसमियं ठाणधरेत्ति वा खओवसमियं समवायघरे त्ति वा खओयसमियं विग्राहकणघरे ति वा खओवसमियं माहधम्मधरे ति या जोक्समियं उनारायणरेति वा खवसमियं अंधरे ति वा खओवसमियं अतरोववादियदसमरे ति वा खओअसमियं पण्णजागरणपरेति वा खओवसमियं विवागतधरे सिमा खओवसमिय 7 - २. क्षयोपशमके लक्षणोंका समन्वय 23 दिट्टिवादधरेति वा खओवसमिथ गणि त्ति वा खओवसमियं वाचगे त्ति वा खओक्समियं दसपुव्वहरे त्ति वा खओवसमियं चोइसपुव्वहरे त्ति वा जे चामण्णे एवमादिया खओवसमियभावा सो सव्वो तदुभयपच्चइओ जीवभावबंधो णाम | १६ | । * जो तदुभय ( क्षायोपशमिक ) atarnaa है उसका निर्देश इस प्रकार है। एकेन्द्रियलब्धि, द्वीन्द्रिय सन्धि श्री पंचेन्द्रियन्धि मध्यज्ञानी बता श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, पदर्शनी अचदर्शनी अवधिदर्शनी, सम्यग्मिध्यात्वलब्धि, सम्यक्त्वलब्धि, संयमासंयमलब्धि, संयमलब्धि, दानसन्धि सामलन्धि भोगलब्धि, परिभोगलब्धि, वीर्य, आचारघर सूत्रस्थानवर, समयायधर, व्याख्याभिधर, नाथधर्मघर उपासकाध्ययनधर, अन्तर अनुत्तरोपनादिकदशधर प्रश्नव्याकरणधर, विपाक प्रधर दृष्टिवादवर, मणी, वाचक, दशपूर्वर तथा क्षायोपशमिक चतुर्दश पूर्वधर; ये तथा इसी प्रकारके और भी दूसरे जो क्षायोपशमिक भाव है वह सब तदुभयप्रत्ययिक जीव भावबन्ध हैं। रा. सू./२/५ ज्ञानाज्ञानदर्शनसम्ययश्चतुस्त्रित्रिभेदाः सम्यतमचारिसंयमासंयमाथ 12 क्षायोपशमिक भावके १८ भेद हैं-चार ज्ञान, • तीन अज्ञान, तीन दर्शन पाँच दानादि सन्धि, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम (प. २/१.७१/८/१६९) (६.५/११२/१.७१/ १११/३); (न.च./३०९) (त.सा./२/४-५ ) ( गो ./मू./१००); (गो.क./मू./०१०)। ४. क्षयोपशम सर्वात्मप्रदेशों में होता है। १८३ ध. १/१,१,२३/२३३ / २ सर्व जीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् । - जीवके सम्पूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशमकी उत्पत्ति स्वीकार की है। ५. अन्य सम्बन्धित विषय १. गुणस्थानों व मार्गणा स्थानोंमें क्षायोपशमिक भावोंका सत्व । -दे० भाव / २ २. गुणस्थानो व मार्गणा स्थानों में क्षायोपशमिक भावों विषयक शंका-समाधान | - दे० वह वह नाम ३. क्षायोपशमिक भावका कथंचित् मूर्तत्व । ४. क्षायोपशमिक भाव बन्धका कारण नहीं, -दे० मूर्त /८ औदयिक है । - दे० भाव / २ - दे० भाव/२ ५. क्षायोपशमिक भान जीवका निज तत्व है। ६. मिय्याशानको क्षायोपशमिक कहने सम्बन्धी । -३० ज्ञान / III/३/४ -दे० भाव/२ ७. क्षायोपशमिक भानको मिश्र भाव कहते हैं। ८. क्षायोपशमिक भावको मिश्र कहने सम्बन्धी शंका-समाधान । -दे० मिश्र/२ २. क्षयोपशमके लक्षणों का समन्वय ★ वेदक सम्यग्दर्शन – दे० सम्यग्दर्शन / IV / ४ | - २. वेदक सम्यग्दर्शनको क्षयोपशम कैसे कहते हो, औदविक क्यों नहीं ध. ५/१,७,५/२००/७ कधं पुण घडदे । जहट्ठियट्ठसद्दहणघायण सत्ती सम्मतफखीणाति तेसिं खइयसण्णा । खयाणमुवसमो पस दाखक्समो । तरपुष्पण्णादी स्वओोमसमियं वेदसम्मत मदि घडदे । = प्रश्न – ( क्षयोपशमके प्रथम लक्षण के अनुसार ) वेदक सम्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षयोपशम १८४ २. क्षयोपशमके लक्षणोंका समन्वय पडेगा। प्रश्न-तो तीसरे गुणस्थानमें औपशमिक भाव भी मान लिया जावे 1 उत्तर-नहीं, क्योंकि, तीसरे गुणस्थानमें औपशमिक भावका प्रतिपादन करनेवाला कोइ आर्ष वाक्य नहीं है। ५. फिर वेदक व क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमें क्या अन्तर त्वमें क्षयोपशम भाव कैसे ? उत्तर-यथास्थित अर्थ के श्रद्धानको घात करनेवाली शक्ति जब सम्यक्त्व प्रकृतिके स्पर्धकोंमें क्षीण हो जाती है, तब उनकी क्षायिक संज्ञा है । क्षीण हुए स्पर्धकोंके उपशमको अर्थात प्रसन्नताको क्षयोपशम कहते हैं । उसमें उत्पन्न होनेसे वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक है। ध. ७/२,१,७३/१०८/७ सम्मत्तदेसघादिफयाणमणतगुणहाणीए उदयमागदाणमइदहरदेसधादित्तणेण उवसंताणं जेण खओवसमसण्णा अत्थि तेण तत्थुप्पणजोवपरिणामो खओवसमलद्धी सण्णिदो। तीए खबोबसमलद्धीए वेदगसम्मत्तं होदि ।-अनन्तगुण हानिके द्वारा उदयमें आये हुए तथा अत्यन्त अल्प देशधातित्वके रूपसे उपशान्त हुए सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृतिके देशघातिस्पर्धकोंका चकि क्षयोपशम नाम दिया गया है, इसलिए उस क्षयोपशमसे उत्पन्न जीव परिणामको क्षयोपशमलब्धि कहते हैं। उसी क्षयोपशम लब्धिसे वेदक सम्यक्त्व होता है। २. क्षयोपशम सम्यग्दर्शनको कथंचित् उदयोपशमिक भी कहा जा सकता है ध./१४/५.६.१९/२१/११ सम्मत्तदेसघादिफद्दयाणमुदएण सम्मत्तुप्पत्तीदो ओदइयं। ओवसमियं पितं. सव्वधादिफद्दयाणमुदयाभावादो। - सम्यक्त्वके देशवाति स्पर्धकोंके उदयसे सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है, इसलिए तो वह औदयिक है। और वह औपशमिक भी है, क्योंकि वहाँ सर्वघाति स्पर्धकोका उदय नहीं पाया जाता। (दे० मिश्र/२/६/४)। ३. क्षायोपशमिक भावको उदयोपशमिकपने सम्बन्धी ध.४१,७,७/२०३/६ उदयस्स विज्जमाणस्स खयव्यवएसविरोहादो। तदो एदे तिण्णि भावा उदोवसमियत्तं पत्ता। ण च एवं, एदेसिमुद ओवसमियत्तपदुप्पायणमुत्ताभावा ।-प्रश्न-जिस प्रकृतिका उदय विद्यमान है, उसके क्षय संज्ञा होनेका विरोध है । इसलिए ये तीनों ही भाव ( देशसंयतादि) उदयोपशमिकपनेको प्राप्त होते हैं। उत्तरनहीं. क्योंकि इन गुणस्थानोंको उदयोपशमिकपना प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका अभाव है। *क्षायोपशमिक भावको औदयिक नहीं कह सकते -दे०मिश्र/२ ध. १/१,१,११/१७२/६ "उप्पज्जइ जदो तदो वेदयसम्मत्त खओवसमियमिदि केसिंचि आइरियाणं वक्खाणं तं किमिदि णेच्छिज्जदि, इदि चेत्तण्ण, पुव्वं उत्तु त्तरादो। ध. १/१,१,११/१६६/५ वस्तुतस्तु सम्यमिथ्यात्वकर्मणो निरन्वयेनाप्ता गम पर्यायविषयरुचिहननं प्रत्यसमर्थस्योदयात्सदसद्विषयश्रद्धोत्पद्यत इति-१. प्रश्न-जब क्षयोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न होता है तब उसे वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं। ऐसा कितने ही आचार्योंका मत है, उसे यहाँ पर क्यों नहीं स्वीकार किया गया है । उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इसका उत्तर पहले दे चुके हैं । २. यथा-वास्तवमें तो सम्यगमिथ्यात्व कर्म निरन्वय रूपसे आप्त, आगम और पदार्थविषयक श्रद्धाके नाश करनेके प्रति असमर्थ है, किन्तु उसके उदयसे सत्-समीचीन और असत-असमीचीन पदार्थको युगपत् विषय करने वाली श्रद्धा उत्पन्न होती है। ध.१/१,१,१४६/३६८/१कथमस्य वेदकसम्यग्दर्शनव्यपदेश इति चेदुच्यते। दर्शनमोहवेदको वेदक., तस्य सम्यग्दर्शनं वेदकसम्यग्दर्शनम् । कथं दर्शनमोहोदयवर्ता सम्यग्दर्शनस्य सम्भव इति चेन्न, दर्शनमोहनीयस्य देशघातिन उदये सत्यपि जीवस्वभावश्रद्धानस्यैकदेशे सत्यविरोधात् । =प्रश्न-क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनको वेदक सम्यग्दर्शन यह संज्ञा कैसे प्राप्त होतो है । उत्तर-दर्शनमोहनीय कर्मके उदयका बेदन करनेवाले जीवको वेदक कहते हैं, उसके जो सम्यग्दर्शन होता है उसे वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं। प्रश्न-जिनके दर्शनमोहनीय कर्मका उदय विद्यमान है, उनके सम्यग्दर्शन कैसे पाया जाता है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, दर्शनमोहनीयको देशघाति प्रकृतिके उदय रहनेपर भी जीवके स्वभावरूप श्रद्धानके एकदेश रहने में कोई विरोध नहीं आता है। गो.जी./जी.प्र./२/५०/१८ सम्यक्त्वप्रकृत्युदयस्य तत्त्वार्थ श्रद्धामस्य मलजननमात्र एवं व्यापाराव ततः कारणात् तस्य देशघातित्वं भवति। एवं सम्यक्त्वप्रकृत्युदयमनुभवतो जीवस्य जायमानं तत्त्वार्थश्रद्धान वेदकसम्यक्त्वमित्युच्यते । इदमेव क्षायोपशमिकसम्यक्त्वं नाम, दर्शनमोहसर्वघातिस्पर्धकानामुदयाभावलक्षणक्षये देशधातिस्पर्धकरूपसम्यक्त्वप्रकृत्युदये तस्यैवोपरितनानुदयप्राप्तस्पर्धकाना सदवस्थालक्षणोपशमे च सति समुत्पन्नत्वात् । -सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयका तत्त्वार्थ श्रद्धान कौ मल उपजाबने मात्र ही विर्षे व्यापार है तीहिं कारणते तिस सम्यक्त्वप्रकृतिक देशघातिपना हैं ऐसे सम्यक्त्वप्रकृतिक उदयकों अनुभवता जीवके उत्पन्न भया जो तत्त्वार्थ श्रद्धान सो वेदक सम्यक्त्व है ऐसा कहिए है। यह ही वेदक सम्यक्त्व है सो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ऐसा नाम धारक है जात दर्शनमोहके सर्वघाति स्पर्धकनिका उदयका अभावरूप है लक्षण जाका ऐसा क्षय होते महुरि देशवातिस्पर्धकरूप सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होते बहुरि तिसहीका वर्तमान समय सम्बन्धीत ऊपरिके निषेक उदयकौं न प्राप्त भये तिनिसम्बन्धी स्पर्धकनिका सत्ता अवस्था रूप उपशम होते वेदक सम्यक्त्व हो हैं तात याहीका दूसरा नाम क्षायोपशमिक है भिन्न नाहीं है। * कम क्षयोपशम व आत्माभिमुख परिणाममें केवल भाषाका भेद है-दे० पद्धति । ४ परन्तु सदवस्थारूप उपशमके कारण उसे औपशमिक नहीं कह सकते ध.१/१/१,११/१६६/७ [उपशमसम्यग्दृष्टौ सम्यग्मिथ्यात्वगुणं प्रतिपन्ने सति सम्यग्मिध्यात्वस्य क्षायोपशमिकत्वमनुपपन्न तत्र सम्यग्मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिनामुदयक्षयाभावात् । तत्रोदयाभावलक्षण उपशमोऽस्तीति चेन्न, तस्यौपशमिकत्वप्रसङ्गात् । अस्तु चेन्न, तथाप्रतिपादकस्यार्षस्याभावात्। - [उपशम सम्यग्दृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होनेपर उस सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें क्षयोपशमपना नहीं बन सकता है, क्योंकि, उपशम सम्यक्त्वसे तृतीय गुणस्थानमें आये हुए जीवके ऐसी अवस्थामें सम्यक्-प्रकृति, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन तीनोंका उदयाभावी क्षय नहीं पाया जाता है। ] प्रश्न-उपशम सम्यवरवसे आये हुए जीवके तृतीय गुणस्थानमें सम्यकप्रकृति, मिथ्यात्व और अनन्तानुमन्धी इन तोनोंका उदयाभाव रूप उपशम तो पाया जाता है । उत्तर-नहीं, क्योंकि इस तरह तो तोसरे गुणस्थानमें औपशमिक भाव मानना जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षयोपशम ३. क्षयोपशम सम्यक्त्व व संयमादि आरोहण विधि १. क्षयोपशम सम्यक्त्व आरोहणमें दो करण हो हैं सा./जी.अ./१०२/२२४६ कर्मणा क्षयोपशमनविधाने निर्मुलक्षयविधाने चानिवृत्तिकरणपरिणामस्य व्यापारो न क्षयोपशम विधाने इति प्रवचने प्रतिपादितत्वात् । कर्मोंके उपशम वा क्षय विधान ही विषै अनिवृत्तिकरण हो है । क्षयोपशम विषै होता नाहीं । ऐसा प्रवचनमें कहा है । १८५ २. संयमासंयम आरोहणमें कथंचित् ३ व २ करण घ. /६/१,६-८,१४/२७०/१० पढमसम्मत्तं संजमासंजमं च अकमेण पडि जावितिणि वि करणानि कुजदि जम्मादिट्ठी अट्ठावीससंतकमियवेदगासम्म पाओणमच्यादिट्ठी वा जदि स मासजमं पडिवज्जदि तो दो चैव करणाणि, अनियट्टीकरणस्स अभावादो । - प्रथमोपशमं सम्यक्त्वको और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त होने वाला जीव भी तीनों ही करणों को करता है । असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियो की सत्तावाला वेदकसम्यक्त्व प्राप्त करनेके योग्य मिथ्यादृष्टि जीव यदि संयम संयमको प्राप्त होता है, तो उसके दो ही करण होते, हैं क्योंकि उसके अनियत्तिकरण नहीं होता है। (६/१.१.१४/२६/१/ (.सा./मू./१०९)। घ. ६/१.१८.१४/२०१६ जरि संजमासजमादो परिणामपवरण णिग्गदो संतो पुणरवि अंतोमुहुत्तेण परिणामपच्चएण आणीदो संजमा संजमं पडवज्जदि, दोह करणाणमभावादो तत्थ णत्थि ट्ठिदिधादो अणुभागदादो वा कुदो पृथ्धं दोहि करहियादिददि अनुभागान बड्डीहि विमा संक्रमास जनस्स पुगरागतादो यदि परिणामौके योगसे संग्रमासंयमसे निकला हुआ, अर्थात् गिरा हुआ, फिर भी अन्तर्मुहूर्त के द्वारा परिणामों योगले लाया हुआ संयमायमको प्राप्त होता है तो अधकरण और अपूर्वकरण. इन दोनों करणीका अभाव होनेसे वहाँ पर स्थितिघात व अनुभाग घात नही होता है। क्योकि पहले उक्त दोनो करणीके द्वारा घात किये गये स्थिति और अनुभागो की वृद्धि बिना वह संग्रमास यमको पुन प्राप्त हुआ है । ल. सा./मू./१००-१७१ मिच्छो देसचरितं वेदगसम्मेण गेण्हमाणो हु दुकरणपरिमे गेहादि गुणसेवी परिच तस्कर सम्पत्ति वा थोच होदि करणार्ण ठिदिवंटसहरुसग अव्यकरणं समपदि हु । १७१। अनादि वा सादि मिध्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व सहित देश चारित्रको गृहै है सो दर्शनमोहका उपशम विधान जैसे पूर्वे वर्णन किया ते से ही विधान करि तीन करणनिकी अन्त समय विषै देश चारित्रको गृहे है ।१७०| सादि मिथ्यादृष्टि जीव वेदक सम्यक्व सहित देश चारित्रको ग्रहण करें ताके अधकरण और अपूर्वकरण से ही ही करण होड, तिनि विधै गुणश्रेणी निर्जरान होड़।०९। 1 ३. संयमासंयम आरोहण विधान लगा/जी.प./१०० १०६ सारा सादि अथवा अनादि मिध्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व सहित जन ग्रहण करता है तब दर्शनमोह विधानवत तैसे विधान करके तीन करणनिका अन्त समयविषै देशचारित्र ग्रहै है १९७०॥ सादि मिध्यादृष्टि जीव वेदक सम्यक्त्व सहित देश चारित्रको ग्रहै है ता अधःकरण अपूर्वकरण ए दोय ही करण होय तिनवि गुणश्रेणी निर्जरा न हो है अन्य स्थिति खण्डादि सर्व कार्योंको करता हुआ अपूर्वकरणके अन्त समय में युगपद क अर देशचारित्रकोण पर है। महाँ अनिवृत्तिकरण के बिना भा० २-२४ ३. क्षयोपशम सम्यक्त्व व संयमादि आरोहण विधि भी इनकी प्राप्ति संभव है। बहुरि अपूर्व करणका कालविषै संख्यात हजार स्थिति खण्ड भयें अपूर्वकरणका काल समाप्त हो है । असंयत वेदक सम्यग्दृष्टि भी दोय करणका अंतसमय विषै देशचारित्रको प्राप्त हो है। मिथ्यादृष्टिका व्याख्यान तैं सिद्धान्त के अनुसारि असंयतका भी ग्रहण करना । १७१-१७२। अपूर्वकरणका अन्त समय के अनन्तरवर्ती समय विषै जीव देशबती होइ करि अपने देश का काल विषे आयुके बिना अन्य कर्मनिका सर्व सत्त्व द्रव्य अपकर्षणकरि उपरितन स्थिति विषै अर बहुभाग गृणश्रेणी आयाम विषै देना ११७३| देशसंयत प्रथम समय लगाय अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त समय-समय अनन्तगुणा विशुद्धता करि बंधे है सोयाको एकान्तवृद्धि देशसंयत कहिये । इसके अन्तर्मुहूर्त काल पश्चात् विशुद्धताको वृद्धि रहित हो स्वस्थान देशसंयत होड़ याकौ अथाप्रवृत्त देशसंयत भी कहिये । १७४ | अथाप्रवृत्त देशसंयत जीव सो कदाचित् विशुद्ध होइ कदाचित संक्लेशी होइ तहाँ विवक्षित कर्मका पूर्व समयनिये जो अपकर्षण कीया तातें अनन्तर समय विशुद्धताकी वृद्धिके अनुसारि चतु स्थान पतित वृद्धि लिये गुणश्रेणि विषै निक्षेपण करें है। ४. क्षायोपशमिक संयममें कथंचित् ३ व २ करण घ. ६/१.६-८,१४/२८१ / १ तत्थ ओबसमचारिसपविवहा उच्चदे । तं जहा - पढमसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवज्जमाणो तिष्णि विकरणाणि काऊण पडिवज्जदि ।...जदि पुण अट्ठावीससंतकम्मओ मियादिट्ठी असदसम्माहट्टी जहाज वा संज पडिवज्जदि तो दो चैव करणाणि, अणियट्टीकरणस्स अभावादो । ...जमादो विग्दो अज दिद्विदितक्रमेण अडिदेण पुणो संजमं पडिवज्जदि तस्स संजमं पडिवज्जमाणस्स अपुठवकरणाभाषादो र द्विविधादो अणुभागवादो वा असंजम मंतृण मतावितिदि अणुभागसंतकम्मस्स दो वि वादा मोहि करणेहि विणा तस्स संजमग्गहणाभावा । क्षायोपशमिक चारित्रको प्राप्त करनेका विधान कहते हैं। वह इस प्रकार है - प्रथमोपशम सम्यare और संयमको एक साथ प्राप्त करनेवाला जीव तीनोंही क्रणों को करके ( संयम को ) प्राप्त होता है पुनः मोहनीयकर्म की लड़ाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंत जीव संयमको प्राप्त करता है, तो दो ही करण होते हैं, क्योंकि, उसके अनिवृत्तिकरणका अभाव होता है. संयमसे निकलकर और असंयमको प्राप्त होकर यदि अवस्थित स्थिति सबके साथ पुनः संयमको प्राप्त होनेवाले उस जीव के अपूर्वकरणका अभाव होनेसे न तो स्थिति घात होता है और न अनुभाग घात होना है । ( इसलिए वह जीव संयमासंयमवत् पहले ही दोनों करणों द्वारा घात किये गये स्थिति और अनुभागकी वृद्धिके बिना ही करणोंके संयमको प्राप्त होता है) किन्तु असंयमको जाकर स्थिति सत्त्व और अनुभाग सत्त्वको बढानेवाला जीवके दोनों ही घात होते हैं क्योंकि दोनों करणों के बिना उसके संयमका ग्रहण नहीं हो सकता । ५. क्षायोपशमिक संयम आरोहण विधान .सा./१०१११० सवनचरितं तहिं समयसम एक्स खइयं च । सम्मन्तुवन्ति वा उवसमसम्मेण गिरहदो पढमं । १८६६ वेदकजोगो मिच्छो अविरददेसो य दोणि करणेण । देसवदं वा गिहृदि गुणसेढी णत्थि तवकरणे ॥ ११०॥ स सा./जी. १/१२९/२४२/ ३ः परमण्यमहुत्पर्यन्तं देश याशी प्रक्रिया तादृश्येवात्रापि सकलसंयते भवतीति ग्राह्यम् । अयं तु विशेषयत्र यत्र देशसंयत इत्युच्यते तत्र तत्र स्थाने विरत इति वक्तव्यं भवति । १. सकल चारित्र तीन प्रकार हैं- क्षायोपशमिक, औपशमिक व क्षाकि वहाँ पहला क्षायोपशमिक चारित सातवा छठे गुणस्थान - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षाति १८६ क्षीणकषाय क्षायोपशमिकलब्धि-लब्धि/२। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन-दे० सम्यग्दर्शन/IV/ ४ | क्षार राशि-एक ग्रह -दे० ग्रह। क्षिातशयन-साधका एक मूलगुण-दे०निद्रा/२ । क्षिप्र-दे. मतिज्ञान/४। क्षीणकषाय १. क्षीण कषाय गुणस्थानका लक्षण विष पाइये है ताकौ जो जीव उपशम सम्यक्त्व सहित ग्रहण करै है सो मिथ्यात्व ते ग्रहण करैं हैं ताका तो सर्व विधान प्रथमोपशम सम्यक्त्ववत् जानना। क्षयोपशम सम्यक्त्वको ग्रहता जीव पहले अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त हो है ।१८। वेदक सम्यक्त्व सहित क्षयोपशम चारित्रको मिथ्याष्टि, वा अविरत, व देशसंयत जीव देशवत ग्रहणवत् अध प्रवृत्त वा अपूर्वकरण इन दोय करण. करि ग्रहे है। तहाँ करण विर्षे गुणश्रेणी नाही है। सकल संयमका ग्रहण समय तें लगाय गुणश्रेणी हो है ।१०। २. = इहाँ ते ऊपर अल्प-बहुत्व पर्यन्त जैसे पूर्व देश विरतविर्षे व्याख्यान किया है तैसे सर्व व्याख्यान यहाँ जानना । विशेषता इतनी-वहाँ-जहाँ देशविरत कह्या है इहाँतहाँ सकल विरत कहना। ६. क्षयोपशम भावमें दो ही करणोंका नियम क्यों ल. सा /जो प्र./१७२/२२४/६ अनिवृतिकरणपरिणाम विना कथं देश चारित्रप्राप्तिरित्यपि नाशडूनीयं कर्मणां सर्वोपशमन विधाने निर्मलक्षय विधाने चानिवृत्तिकरणपरिणामस्य व्यापारो न क्षयोपशमविधाने इति प्रवचने प्रतिपादित्वात् । = प्रश्न--अनिवृत्तिकरण परिणामके बिना देशचारित्रकी प्राप्ति कैसे हो सकती है। उत्तर-ऐमो आशंका नही करनी चाहिए, क्योकि कर्मोके उपशमवलय विधानमे ही अनिवृत्तिकरण परिणामका व्यापार होता है, क्षयोपशम विधानमे नहीं, ऐसा प्रवचन में प्रतिपादित किया गया है। ७. उत्कृष्ट स्थिति व अनुभागके बन्ध वा सत्त्वमें संयमासंयम व संयमकी प्राप्ति संभव नहीं ध. १२/४,२,१०२/३०३/१० उक्कस्सट्ठिदिसते उक्कस्साणुभागे च संते बज्झमाणे च सम्मत्त-संजम-संजमोसंजमाणं गहणाभावादी। उत्कृष्ट स्थिति सत्त्व और उत्कृष्ट अनुभाग सत्त्वके होनेपर तथा उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागके बंधनेपर सम्यक्त्व, सयम एवं सयमासंयमका ग्रहण सम्भव नहीं है। क्षांति-सं.स्तो/१६/३४क्षान्ति क्षमा।क्षमा व शान्ति एकार्थ वाची है। स. सि./६/१२/३३१/५ क्रोधादिनिवृति' क्षान्ति' । क्रोधादि दोषोका निराकरण करना शान्ति है। (रा.वा./६/१२/१/५२३/१); (गो. / जी.प्र./८०१/१८०/१४)। क्षायिक उपभोग-दे० उपभोग। क्षायिक चारित्र-दे० चारित्र/१। क्षायिक दान-दे० दान । क्षायिक भाव-दे०क्षय/४ । क्षायिक भोग-दे० भोग। क्षायिक लब्धि-लब्धि/१। क्षायिक लाभ-दे० लाभ । क्षायिक वीर्य-दे० वीर्य : क्षायिक सम्यक्त्व-दे० सम्यग्दर्शन । क्षायिक सम्यग्ज्ञान-दे० सम्यग्ज्ञान । क्षायिक सम्यग्दृष्टि-दे० सम्यग्दृष्टि/५/१ । क्षायिक सम्यग्दर्शन-दे० सभ्यग्दर्शन/IV| ५ | क्षायोपशमिक अज्ञान-दे० अज्ञान । क्षायोपशमिक ज्ञान-दे० ज्ञान । ६.सं./प्रा./१/२५-२६ णिस्सेसरवीण मोहो फलिहामलभायणुदयसमचित्तो। वीणकसाओ भण्णइ णिग्गंथो वीयराएहि ।२५। जह सुद्धफलिहभायणरिवत्तं णीर खु हिम्मलं सुद्ध। तह णिम्मलपरिणामो स्त्रीणकसाओ मुणेयव्यो ।२६ = मोह कर्म के नि शेष क्षीण हो जानेसे जिसका चित्त स्फटिकके निर्मल भाजनमे रखे हुए सलिल के समान स्वच्छ हो गया है, ऐसे निर्ग्रन्थ साधुको वीतरागियोने क्षीणकषाय संयत कहा है। जिस प्रकार निर्मली आदिसे स्वच्छ किया हुआ जल शुद्ध-स्वर स्फटिकमणिके भाजनमें नितरा लेनेपर सर्वथा निर्मल एवं शुद्ध होता है, उसी प्रकार क्षीणकषाय संयतको भी निर्मल, स्वच्छ एवं शुद्ध परिणाम वाला जानना चाहिए ।२५-२६॥ (ध. १/१, १.२१/१२३/११०), (गो.ज./म/६२), (पं.संस/१/४८)। रा, वा/8/१/२२/५६० सर्वस्य. सपणाच्च...क्षीणकषाय' । समस्त मोहका क्षय करनेवाला क्षीणकषाय होता है। ध १/१,१,२०/१८१/८क्षीणः कषायो येषां ते क्षीणकषायाः। क्षीणकषायाश्च ते वीतरागाश्च क्षीणकषायवीतरागा । छद्मनि आवरणे तिष्ठन्तीति छद्मस्था' । क्षीण कषायवीतरागाश्च ते छद्मस्थाश्च क्षीणकषायवीतरागछद्मस्था'।= जिनकी कषाय क्षीण हो भनी है उन्हे क्षीणकषाय कहते हैं। जो क्षीणकषाय होते हुए वीतराग होते है उन्हें क्षीणकषाय-वीतराग कहते हैं। जो छद्म अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शना. वरणमे रहते हैं उन्हे छद्मस्थ कहते हैं। जो क्षीणकषाय वीतराग होते हुए छद्मस्थ होते हैं उन्हे क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ कहते है। द्र सं/टी०/१३/३३/४ उपशमश्रेणिविलक्षणेन क्षपकश्रेणिमार्गेण निष्कषायशुद्धात्मभावनाबलेन क्षीणकषाया द्वादशगुणस्थानवर्तिनो भवन्ति । - उपशम श्रेणीसे भिन्न क्षपक श्रेणी के मार्ग से कषाय रहित शुद्धात्माकी भावनाके बलसे जिनके समस्त कपाय नष्ट हो गये हैं वे बारहवें गुणस्थानवर्ती होते हैं। २. सम्यक्त्व व चारित्र दोनोंकी अपेक्षा इसमें क्षायिक भाव है ध/१/१,१,२०/१६०/४ पञ्चसु गुणेषु कस्मादस्य प्रादुर्भाव इति चेद द्रव्यभाववैविध्यादुभयात्मकमोहनीयस्य निरन्वयविनाशारक्षायिक. गुणनिबन्धन' ।-प्रश्न-पाँच प्रकार के भावों मेंसे किस भावसे इस गुणस्थानकी उत्पत्ति होती है ! उत्तर-मोहनीयकर्मके दो भेद हैद्रव्यमोहनीय और भावमोहनीय । इस गुणस्थानके पहले दोनों प्रकारके मोहनीयकर्मका निरन्वय (सर्वथा) नाश हो जाता है, अतएव इस गुणस्थानकी उत्पत्ति क्षायिक गुणसे है। ३. शुम प्रकृतियोंका अनुभाग घात नहीं होता ध. १२/४,२.७.१४/१८/२ खीणकसाय-सजोगीसु द्विदि-अणुभागघादेसु सतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो त्थि त्ति सिद्धे । क्षीणकषाय और सयोगी गुणस्थानों में स्थिति धात व अनुभाग घात होनेपर भी शुभ प्रकृतियों के अनुभागका धात वहाँ नहीं होता। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीणकषाय ४. क्षीणकषाय गुणस्थान में जीवोंका शरीर निगोद राशिसे शून्य हो जाता है १८७ ष खं / १४ / ५-६ / ३६२/४८७ सब्बुक्कस्सियाए गुणसेडीए मरणेण मदाण सरचिरेण कालेन पिल्ले विज्यमाणा तेसि चरिमसमए मदावसिद्रा आलिया अखंखेज्जदिमागमेचो गिगोदाणं ॥ ६३२॥ 1 .. घ. १४/५.६.६३/०५/१ खीणकायस्स पढमसमए अनंता बावरणिगोदजीवा मति । विदियसमर विसेसाहिया जीना मर ति...एवं तदिवसमयादिवितेसाहिया मिसेसाहिया मरंति जान खीपकसायद्धाए पढमसमय पहुडि आवलियपुधत्तं गदं त्ति । तेण परं संज्जदि भागव्भहिया संखेज्जदि भागम्भहिया मरंति जान योगसायचा आवलियाए अज्जदि भागो सेसो सि सदो उवरिमाणतरसमए असंखेज्जगुणा मरंति एवं असंखेज्जगुणा असखेज्जगुणा मरंति जाव खीणकसायच रिमसमओ ति । एवमुवरि पि जागिण मत जाम लीकसायचरिमसमओ १ि. सर्वोत्कृष्ट गुणश्रेणि द्वारा मरणसे मरे हुए तथा सबसे दीर्घकालके द्वारा निर्लेप्य होनेवाले उन जीवोके अन्तिम समयमें मृत होनेसे बचे हुए निगोदोका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। | ३६२ । २ क्षीणकषाय हुए जीवके प्रथम समयमें अनन्त बादर निगोद जीव मरते है। दूसरे समय मे विशेष अधिक जीव मरते है |... इसी प्रकार तीसरे आदि समयों विशेष अधिक विशेष अधिक जीव मरते हैं। यह क्रम क्षीणकषायके प्रथम समयसे लेकर आवलि पृथक्त्व काल तक चालू रहता है। इसके आगे संख्यात भाग अधिक संख्यात भाग अधिक जीव मरते है । और यह क्रम क्षीणकषाय कालमें आवलिका संख्यातवाँ भाग काल शेष रहने तक पाद रहता है। इसके आगे के लगे हुए समयमे असंख्यात गुणे जीव मरते है । इस प्रकार क्षीण कषायके अन्तिम समय तक असंख्यातगुणे जीव मरते हैं ।... इसी प्रकार आगे भी क्षीणकषायके अन्तिम समय तक जानकर कथन करना चाहिए। ( ध १४ / ५,६,/६३२/४८२/१० ) । १४/५.६०६३/११/१ संपहि खोजकसापहमसमहुड ताब बारणिगोदजीवा उपज्जेति जाव तेसि चैव जहणाउवकालो सेसो त्ति | ते पर ण उप्पज्जेति । कुदो । उप्पण्णाणं जीवणीयकालाभावादो । तेण कारणेण बादरणिगोदजीवा एतो प्पहुडि जाव खीणकसायचरिमसमओ ति ताव सुद्धा मरंति चेत्र । घ. १४/१६.१२/१३८/३ खीसावा ओग्गबादरणिगोदवसज्य कालमाभावादी भावे वाण कस्स वि वि होण सायम्मि बादरणिगोदासंतीए केवल गुप्पत्तिविरोहादो।" १. क्षीणकषायके प्रथम समयसे लेकर बादर निगोद जीव तबतक उत्पन्न होते हैं जबतक क्षीणकषायके कालमें उनका जघन्य आयुका काल शेष रहता है। इसके बाद नही उत्पन्न होते; क्योकि उत्पन्न होनेपर उनके जीवित रहनेका काल नहीं रहता, इसलिए बादरगिगोदजोब यहाँ से लेकर श्रीयके अन्तिम समय तक केवल मरते हो है। २. क्षीणकषाय प्रायोग्य बादर निमोदवर्गणाओंका सर्वदा अवस्थान नहीं पाया जाता। यदि उनका अवस्थान होता है तो किसी भी जीवको मोक्ष नहीं हो सकता है, क्योकि श्रीण कषायमे बादर निगोदवर्गणाके रहते हुए केवलज्ञानकी उत्पत्ति होनेमे विरोध है । ५. हिंसा होते हुए भी महावती कैसे हो सकते हैं घ. १४/५.६.१२/८६/६ किमटूलमेदे एत्थ मर ति । ज्झाणेण णिगोदजीवप्पत्तिदि उदारण पिरोहादो का वर्ग तातीरासह सागं कर्म अप्पारा से करे वा कथमहिसालमपंच महव्वयसभवी । ण, बहिरंग हिमाए आसवत्ताभावादो । - प्रश्न- ये निगोद जीव यहाँ क्यो मरणको प्राप्त होते है ? उत्तर- क्योकि ध्यान से निगोदजीवीको उत्पत्ति और उनकी स्थितिके कारणका निरोध क्षुधापरीषह हो जाता है। प्रश्न-ध्यानके द्वारा अनन्तानन्त जीवराशिका हनन करनेवाले जीवोको निर्वृत्ति कैसे मिल सकती है। उत्तर- अप्रमाद होनेसे । प्रश्न- हिंसा करनेवाले जीवोंके अहिसा लक्षण पाँच महावत ( आदिरूप अप्रमाद ) कैसे हो सकता है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि बहिरंग हिसासे, आसव नहीं होता। अन्य सम्बन्धित विषय * क्षपक श्रेणी -दे० श्रेणी/२ । * इस गुणस्थानमें योगकी सम्भावना व तत्सम्बन्धी शंका-समाधान - दे० योग / ४ । * इस गुणस्थानके स्वामित्व सम्बन्धी जीवसमास, मार्गणास्थानादि २० प्ररूपणाएँ - दे० सत् । • इस गुणस्थान सम्बन्धी सत् ( अस्तित्व ) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाऍ - दे० ० वह वह नाम 1 सत्त्व । * इस गुणस्थानमें प्रकृतियोंका बन्ध, उदय व * सभी मार्गणास्थानोंमें आयके अनुसार ही - दे० वह वह नाम । व्यय होनेका नियम - दे० मार्गणा । क्षीरकदंबपु. / ११ / श्लोक, नारद व वसुका गुरु तथा नारदका पिता था। (१६) / शिष्योके पढाते समय मुनियोंकी भविष्यवाणी सुनकर दीक्षा धारण कर ली (२४) / (म. पु./६७/२५८-३२६) । क्षीररसक्षीरवर- मध्यलोकका पंचम द्वीप व सागर-दे० लोक /५/१। क्षीरस्रावी ऋद्धि-३०/८ एक ग्रह दे० ग्रह | - क्षीरोदा- अपर विदेहस्थ एक विभंगा नदी - दे० लोक / ७/८ क्षुद्रभव-एक अन्तर्मुहूर्त में सम्भव भय प्रमाण–०७ क्षुद्र हिमवान्- दे० हिमवान् । द्रहका कूट- दे० लोक /५/७ । क्षुधापरीषह- १. लक्षण स.सि./६/१/४२०/६ भिक्षोर्नियाहारगवेषणस्तदा पला अनिवृत्तवेदनस्याकाले देश भिक्षा प्रतिनिवृसंभ्रा ष्ट्रपतिततमिन्दुकतिपययत्सहसा परिशुष्कपानस्योदीर्णदस्थापि सतो सतोभिक्षालाभादलाभमधिकगुणं मन्यमानस्य क्षुद्बाधाप्रत्यचिन्तनं क्षुद्विजयः । = जो भिक्षु निर्दोष आहारका शोध करता है। जो भिक्षा के नहीं मिलने पर या अल्प मात्रामे मिलनेपर क्षुधाको वेदनाको प्राप्त नही होता, अकालमे या अदेशमें जिसे भिक्षा लेनेकी इच्छा नहीं होती जयन्तु गर्म भाण्डमें गिरी हुई जलकी कतिपय दो समान जिसका जलपान भूख गया है, और क्षुधा वेदनाकी उदीरणा होनेपर भी जो भिक्षा लाभकी अपेक्षा उसके अलाभको अधिक गुणकारो मानता है, उसका युवाजन्य बाधाका चिन्तन नहीं करना क्षुधापरोपहजय है । (रावा./१/६/२/६०८); (चा. सा. / १०८/५ ) । २. क्षुधा और पिपावामें अन्तर रामा /१/६/२/६० / ३२ पिपासयो पृथग्वचनमनर्थकम् । कुत" । ऐकादिति तन, कि कारण सामर्थ्यभेदात् अन्यधिः सामर्थ्यमन्यपिपासाया अभ्यवहारसामान्यात् कार्यमिति तदपि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुल्लक -- न युक्तम्: कुत' । अधिकरणभेदाद । अन्यद्धि क्षुध प्रतीकाराधिकरणम्, अन्यत् पिपासाया । प्रश्न-क्षुधा परीषह और पिपासा परीषहको पृथक्-पृथक् कहना व्यर्थ है, क्योंकि दोनोंका एक ही अर्थ है। उत्तर- ऐसा नहीं है क्योंकि भूख और प्यासको सामर्थ्य जुदी-जु है। प्रश्न - अभ्यवहार सामान्य होनेसे दोनों एक ही है। उत्तरऐसा कहना भी ठीक नही है, क्योकि दोनोमे अधिकरण भेद है अर्थात् दोनोकी शान्तिके साघन पृथक पृथक है । क्षुल्लक क्षुल्लक 'शब्दका अर्थ छोटा है। छोटे साधुको क्षुल्लक कहते है अथवा भावकको ११ भूमिकाओ में सर्वोत्कृष्ट भूमिकाका नाम क्षुल्लक है। उसके भो दो भेद है-एक क्षुल्लक और दूसरा ऐल्लक | दोनों हो साबुन भिक्षावृति भोजन करते है, पर के पास एक कौपीन व एक चादर होती है, और ऐलकके पास केवल एक कोपीन लक भर्तगोमे भोजन कर लेता है पर ऐसा पाणिपात्रमेही करता है। शुल्क केशतोष भी कर लेता है और कैचोसे भी बाल कटवा लेता है पर ऐलक केश लोच हो करता है । साधु व ऐलकमे लंगोटीमात्रका अन्तर है । १ १ शुल्लक शब्दका अर्थ छोटा 1 उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाका लक्षण । - दे० उद्दिष्ट । दे०/१ 1 उत्कृष्ट आवकके दो भेदोंका निर्देश शूदको शुल्क दीक्षा सम्बन्धी दे० वर्ण व्यवस्था/४। क्षुल्लकका स्वरूप । ३ क्षुल्लकको श्वेत वस्त्र रखना चाहिए, रंगीन नही । ४ क्षुल्लकको शिखा व यज्ञोपवीत रखनेका निर्देश | ५ क्षुल्लकको मयूरपिच्छाका निषेध 1 ६ क्षुल्लक घरमें भी रह सकता है। ७ शुल्क निर्देश क्षुल्लक क्षुल्लक गृहत्यागी ही होता है। पाणिपात्र वा पात्रमे भी भोजन करता है। शुल्ककी केश उतारनेकी विधि। १०को एकमुक्ति न पोपवासका नियम । ११ कके भेद । १२ एकगृहभोजी का रूप । १३ अनेक गृहभोजी क्षुल्लकका स्वरूप । १४ अनेक गृहभोजीको आहारदानका निदेश १५ शुल्लकको पात्र प्रशासनादिनिया करनेका विधान । १६ क्षुल्लकको भगवान्की पूजा करनेका निर्देश । १७ साधनादि शतकोंका निर्देश व स्वरूप | १८ल्क दो भेदोंका इतिहास व समन्वय । ८ ९ ऐलक निर्देश -दे० ऐनक ऐलक का स्वरूप | १] शुल्लक व लक रूप दो का इतिहास व समन्यय । १८८ क्षुल्लक १. शुल्लक शब्दका अर्थ छोटा - अमरकोष /१४२/१६ निवर्ण पामरो नीच प्राकृतरच पृथग्जनः। निहोनोसोलकरचेतरश्च सः विवर्ण, पामर, नीच, प्राकृत और पृथग्जन, निहीन, अपसद, जाम और सुख मे एकार्थमाथी शब्द है । स्व. स्तो./५ स विश्वचक्षुवृषभोऽचित सतो, समग्र विद्यात्मवपुनिरंजन' पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो जिनोजियादि शासन ॥२॥ जो सम्पूर्ण कर्म शत्रुओंको जीतकर 'जिन' हुए, जिनका शासन क्षुल्लकवादियो के द्वारा अजेय और जो सर्वदर्शी है, सर्व विद्यात्म शरीर है, जो सत्पुरुषोंसे पूजित है, जो निरंजन पदको प्राप्त है। वे नाभिनन्दन श्री ऋषभदेव मेरे अन्त. करणको पवित्र करे । * उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाका लक्षण दे० उ * उत्कृष्ट श्रावकके दो भेदोंका निर्देश दे० भावक / १ । * शुद्धकी लक दीक्षा सम्बन्धो ६० वर्ण व्यवस्था/४ २. लकका स्वरूप साध / ७/३८ कौपीनसंख्यान ( घर ) - पहला ( श्रावक ) क्षुल्लक लंगोटी और कोपीनका धारक होता है। • ला. स /७/६३ क्षुल्लक कोमलाचार । एकवस्त्रं सकोपीनं... क्षुल्लक श्रावक ऐलककी अपेक्षा कुछ सरल चारित्र पालन करता है एक वस्त्र, तथा एक कोपीन धारण करता है। ( भावार्थ - एक वस्त्र रखनेका अभिप्राय खण्ड वस्त्रसे है । दुपट्टाके समान एक वस्त्र धारण करता है । 301 २. क्षुल्लकको श्वेत वस्त्र रखना चाहिए, रंगीन नहीं १. १००/३६ अंशुकेोपनीतेन सितेन प्रचतात्मना। मृगालकाण्डजालेन नागेन्द्र इव मन्थर | ३६ | = ( वह क्षुल्लक ) धारण किये हुए सफेद चञ्चल वस्त्रसे ऐसा जान पड़ता था मानो मृणालोके समूहसे वेष्टित मन्द मन्द चलनेवाला गजराज ही हो । माघ / ७/३८ । सितकौपीनसंव्यान |३८| पहला क्षुल्लक केवल सफेद लंगोटी बनी रखता है ( जसहर चरित्र (पुष्पदन्तकृता) / धर्मग्रा/८/६९) ४ क्षुल्लकको शिखा व यज्ञोपवीत रखनेका निर्देश लास ०/६३ शुलक कोमलाचार शिखामुत्राङ्कित भवेत। यह क्षुल्लक श्रावक चोटी और यज्ञोपवीतको धारण करता है | ६३ | | दशवीं प्रतिमामे यदि यज्ञोपवीत व चोटोको रखा है तो हक अवस्थामै भी नियम रखनी होगी। अन्यथा इच्छानुसार कर लेता है। ऐसा अभय है। लास / ०/६३ का भावार्थ ) ] ५. क्षुल्लक के लिए मयूरपिच्छका निषेध सा. ध/७/३६ स्थानादिषु प्रतिलिखेद्, मृदूपकरणेन स | ३६ | वह प्रथम उत्कृष्ट श्रावक प्राणियोको बाधा नहीं पहुँचानेवाले कोमल वस्त्रादिक उपकरणसे स्थानादिकमे शुद्धि करे |११| जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ला म. / ७ /६३ । वस्त्र पिच्छकमण्डलुम् | ६३| वह क्षुल्लक श्रावक स्त्री पछी रखता है। [ वस्त्रका छोटा टुकड़ा रखता है उसीसे पीछीका सब काम लेता है। पीछोका नियम ऐलक अवस्थामे है इसलिएको की ही पोछी रखने को कहा है। (ना. सं०/६३ का भावार्थ ) ) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लक १८९ क्षुल्लक ६. क्षुल्लक घरमें भी रह सकता है म पु/१०/१५८ नृपस्तु सुविधि' पुत्रस्नेहाद गार्हस्थ्यमत्यजन् । उत्कृष्टो पासकस्थाने तपस्तेपे सुदुश्चरम् ।१५८। = राजा सुविधि ( ऋषभ भगवान्का पूर्वका पाँचवाँ भाव ) केशव पुत्रके स्नेहसे गृहस्थ अवस्थाका परित्याग नही कर सका था, इसलिए श्रावकके उत्कृष्ट पदमें स्थित रहकर कठिन तप तपता था ।१५८। (सा. ध /9/२६ का विशेषार्थ) ७. क्षुल्लक गृहत्यागी ही होता है र क. श्रा./१४७ गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य ।। भेक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधर. ।१४७१ == जो घरसे निकलकर मुनिबनको प्राप्त होकर गुरुसे व्रत धारण कर तप तपता हुआ भिक्षाचारी होता है और वह खण्डवस्त्रका धारक उत्कृष्ट श्रावक होता है। सा. ध /७/४७ बसेन्मुनिवने नित्यं, शुश्रूषेत गुरुश्चरेत् । तपो द्विधापि दशधा, वैयावृत्यं विशेषत.। क्षुल्लक सदा मुनियोके साथ उनके निवास भूत वनमें निवास करे। तथा गुरुओको सेवे, अन्तरंग व बहिरंग दोनों प्रकार तपको आचरे। तथा खासकर दश प्रकार वैयावृत्यको आचरण करे।४७१ ८. पाणिपात्र में या पात्र में भी भोजन कर सकता है सू. पा./मू./२१ । भिक्ख भमेइ पत्ते समिदीभासेण मोणेण ।२। उत्कृष्ट श्रावक भ्रम करि भोजन करै है, बहुरि पत्ते कहिये पात्रमैं भोजन कर तथा हाथमै कर बहुरि समितिरूप प्रवर्त्तता भाषा समितिरूप बोले अथवा मौनकरि प्रवर्ते । (व.सु.श्रा /३०३ ); ( सा. ध./७/४०) ला, सं./७/६४ भिक्षापात्रं च गृहणीयारकास्यं यद्वाप्ययोमयम् । एषणादोषनिमुक्तं भिक्षाभोजनमेकशः ६४। यह क्षुल्लक श्रावक भिक्षाके लिए कॉसेका अथवा लोहेका पात्र रखता है तथा शास्त्रोमें जो भोजनके दोष बताये है, उन सबसे रहित एक बार भिक्षा भोजन करता है। ९. क्षुल्लककी केश उतारने की विधि म. पु/१००/३४ प्रशान्तबदनो धीरो लुञ्चरञ्जितमस्तक. । . 1३४। -लक, कुशका विद्या गुरु सिद्धार्थ नामक क्षुल्लक, प्रशान्त मुख था, धीर-वीर __ था, केशलुंच करनेसे उसका मस्तक सुशोभित था। व.सु. श्रा./३०२ धम्मिल्लाणं चयणं करेइ कत्तरि छरेण वा पढमो। ठाणा इसु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा ।३०२१ - प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (जिसे क्षुल्लक कहते है) धम्मिलोका चयन अर्थात, हजामत कैंचीसे अथवा उस्तरेसे कराता है।...१३०२२ (सा. ध./७/३८); (ला. सं. तो वह मुनियों की गोचरी जानेके पश्चात् चर्याके लिए प्रवेश करे, अर्थात् एक भिक्षाके नियमवाला उत्कृष्ट श्रावक चर्याके लिए किसी श्रावक जनके घर जावे और यदि इस प्रकार भिक्षा न मिले तो उसे प्रवृत्तिनियमन करना चाहिए।३०। पश्चात गुरुके समीप जाकर विधिपूर्वक चतुर्विध प्रत्याख्यान ग्रहणकर पुन: प्रयत्नके साथ सर्व दोषोकी आलोचना करे ।३१०। (सा.ध./७/४६ ) और भी दे० शीर्षक नं०७। १३. अनेकगृहभोजी क्षुल्लकका स्वरूप वसु. श्रा./३०४-३०८ पक्वालिऊण पत्त पविसइ चरियाय पंगणे ठिच्चा । भणिऊण धम्मलाई जायइ भिवं सयं चेव ।३०४। सिग्धं लाहालाहे अदीणवयणो णियत्तिऊण तओ। अण्णमि गिहे बच्चइ दरिसइ मोणेण कार्य वा ।३०। जइ अद्भवहे कोइ वि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणह । भोत्तूण णियम भिवरवं तस्सएण भुंजए सेसं ।३०६। अहं ण भणइ तो भिरवं भमेज्ज णियपोट्टपुरणपमाणं। पच्छा एयम्मि गिहे जारज्ज पासुगं सलिलं ।३०७। जं कि पि पडिय भिक्खं भूजिज्जो सोहिऊण जत्तेण । पक्रवालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरुसयासम्मि ।३०।- ( अनेक गृहभोजी उत्कृष्टश्रावक) पात्रको प्रक्षालन करके चर्याक लिए श्रावकके घरमे प्रवेश करता है, और आँगनमें ठहरकर 'धर्म लाभ' कहकर ( अथवा अपना शरीर दिखाकर) स्वयं भिक्षा मांगता है।३०४। भिक्षा-लाभके अलाभमें अर्थात् भिक्षा न मिलनेपर, अदीन मुख हो वहाँसे शीघ निकलकर दूसरे घरमें जाता है और मौनसे अपने शरीरको दिखलाता है ।३०। यदि अर्ध-पथमें-यदि मार्गके बीचमें ही कोई श्रावक मिले और प्रार्थना करे कि भोजन कर लीजिए तो पूर्व घरसे प्राप्त अपनी भिक्षाको खाकर, शेष अर्थात् जितना पेट खाली रहे, तत्प्रमाण उस श्रावकके अन्नको खाये ३०६। यदि कोई भोजनके लिए न कहे, तो अपने पेटको पूरण करनेके प्रमाण भिक्षा प्राप्त करने तक परिभ्रमण करे, अर्थात् अन्य-अन्य श्रावकोंके घर जाबे । आवश्यक भिक्षा प्राप्त करनेके पश्चात किसी एक घर में जाकर प्रामुक जल मॉगे ।३०७। जो कुछ भी भिक्षा प्राप्त हुई हो, उसे शोधकर भोजन करे और यत्नके साथ अपने पात्रको प्रक्षालन कर गुरुके पास जावे ।३०८, (प, पु./१००/३३-४१); (सा. ध./७/४०-४३); (ल. सं०७)। १४. अनेकगृहभोजीको आहारदानका निर्देश ला.स./६७-६८ तत्राप्यन्यतमगेहे दृष्ट वा प्रासुकमम्बुकम् । क्षणं चातिथिभागाय संप्रक्ष्याध्वं च भोजयेत् ।६७। दैवात्पात्रं समासाद्य दद्यादानं गृहस्थवत् । तच्छेषं यत्स्वयं भुक्ते नोचेत्कुर्यादुपोषितम् 1६८ वह क्षुल्लक उन पाँच घरोमेसे ही किसी एक घर में जहाँ प्रासुक जल दृष्टिगोचर हो जाता है, उसी घरमे भोजनके लिए ठहर जाता है तथा थोडी देर तक वह किसी भी मुनिराजको आहारदान देनेके लिए प्रतीक्षा करता है, यदि आहार दान देनेका किसी मुनिराजका समागम नहीं मिला तो फिर वह भोजन कर लेता है । ६७ यदि देवयोगसे आहार दान देनेके लिए किसी मुनिराजका समागम मिल जाये अथवा अन्य किसी पात्रका समागम मिल जाये, तो बह क्षुल्लक श्रावक गृहस्थके समान अपना लाया हुआ भोजन उन मुनिराजको दे देता है। पश्चात् जो कुछ बच रहता है उसको स्वय भोजन कर लेता है, यदि कुछ न बचे तो उस दिन नियमसे उपवास करता है ।६८। १५. क्षुल्लकको पात्रप्रक्षालनादि क्रिया करनेका विधान सा,ध /७/४४ आकाड्भन्स यमं भिक्षा-पात्रप्रक्षालनादिषु । स्वयं यतेत चादर्प., परथासंयमो महान् ।४४। -वह क्षुल्लक संयमकी इच्छा करता हुआ, अपने भोजनके पात्रको धोने आदिके कार्य मे अपने तप और विद्या आदिका गर्व नहीं करता हुआ स्वयं ही यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करे नही तो बड़ा भारी असंयम होता है। १०. क्षुल्लकको एकभुक्ति व पर्वोपवासका नियम वसु श्रा./३०३ भंजेइ पाणिपत्तम्मि भायणे वा सइ समुबइहो । उपवास पुण णियमा नउबिह कुणइ पव्वेसु ३०३। क्षुल्लक एक बार बैठकर भोजन करता है किन्तु पोंमे नियमसे उपवास करता है। ११. क्षुल्लक श्रावकके भेद सा. ध./७/४०-४६ भावार्थ, क्षुल्लक भी दो प्रकारका है, एक तो एकगृहभोजी और दूसरा अनेकगृह भोजी । (ला.सं./७/६५) १२. एकगृहमोजी क्षुल्लकका स्वरूप वसु. श्रा/३०४-३१० जइ एवं ण रअज्जो काउंरिस गिहम्मि चरियाए । पविसति एतभिक्ख पवित्तिणियमणं ता कुज्जा ।३०६। गंतूण गुरुसमीवं पञ्चक्रवाणं चउबिहं विहिणा । गहिऊण तओ सव्वं आलोचेन्जा पयत्तेण ।३१०। - यदि किसीको अनेक गृहगोचरी न रुचे, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लक भव ग्रहण or wrm-sur १ भेद व लक्षण क्षेत्र सामान्यका लक्षण। क्षेत्रानुगमका लक्षण। क्षेत्र जीवके अर्थमें। क्षेत्रके भेद (सामान्य विशेष)। लोककी अपेक्षा क्षेत्रके भेद । क्षेत्रके भेद स्वस्थानादि। निक्षेपोंकी अपेक्षा क्षेत्रके भेद । स्वपर क्षेत्रके लक्षण। सामान्य विशेष क्षेत्रके लक्षण । क्षेत्र लोक व नोक्षेत्रके लक्षण । स्वस्थानादि क्षेत्रपदोके लक्षण । समुद्वातोमें क्षेत्र विस्तार सम्बन्धी-दे० वह वह नाम । निष्कुट क्षेत्रका लक्षण। निक्षेपोंरूप क्षेत्रके लक्षण -दे० निक्षेप। नोआगम क्षेत्रके लक्षण। १६. क्षुल्लकको भगवान्की पूजा करनेका निर्देश ला,सं ७/६६ किच गन्धादिद्रव्याणामुपलब्धौ समिभिः । अर्ह द्विम्बादिसाधूनां पूजा कार्या मुदात्मना ।६६ = यदि उस क्षुल्लक श्रावकको किसी साधर्मी पुरुषसे जल, चन्दन, अक्षतादि पूजा करनेकी सामग्री मिल जाये तो उसे प्रसन्नचित्त होकर भगवान् अर्हन्तदेवका पूजन करना चाहिए। अथवा सिद्ध परमेष्ठी वा साधुकी पूजा कर लेनी चाहिए । १७. साधकादि क्षुल्लकों का निर्देश व स्वरूप ला.सं./9/७०-७३ किच मात्र साधका. केचित्केचिद् गूढालया' पुनः । वाणप्रस्थारख्यका. केचित्सर्वे तद्वेषधारिण. १७०। क्षुल्लकीव क्रिया तेषां नात्युग्रं नातीव मृदु । मध्यावर्तिवतं तद्वत्पञ्चगुर्वात्मसाक्षिकम १७१। अस्ति कश्चिद्विशेषोऽत्र साधकादिषु कारणात् । अगृहीतवता' कुर्युव ताभ्यास व्रताशया १७२। समभ्यस्तवता केचिद् व्रतं गृह्णन्ति साहसात् । न गृह्णन्ति वत केचिद् गृहे गच्छन्ति कातरा' १७३। ८ क्षुल्लक श्रावकोके भी कितने ही भेद है। कोई साधक क्षुल्लक है, कोई गूढ क्षुल्लक होते है और कोई बाणप्रस्थ क्षुल्लक होते हैं। ये तीनो ही प्रकारके क्षुल्लक वल्लकके समान वेष धारण करते हैं ७०। ये तीनो हो क्षुल्लककी क्रियाओका पालन करते है। ये तीनो ही न तो अत्यन्त कठिन व्रतो का पालन करते है और न अत्यन्त सरल, किन्तु मध्यम स्थिति के व्रतोका पालन करते है तथा पञ्च परमेष्ठीकी साक्षीपूर्वक व्रतोको ग्रहण करते है 1७१। इन तीनो प्रकारके क्षुल्लकोंमें परस्पर विशेष भेद नही है। इनमेसे जिन्होने क्षुल्लकके व्रत नही लिये हैं किन्तु वत धारण करना चाहते हैं, वे उन नतोका अभ्यास करते है ।७२। तथा जिन्होंने व्रतोको पालन करनेका पूर्ण अभ्यास कर लिया है वे साहसपूर्वक उन व्रतोको ग्रहण कर लेते है। तथा कोई कातर और असाहसी ऐसे भी होते है जो चतोको ग्रहण नही करते किन्तु घर चले जाते है ।७३। १८. क्षुल्लक दो भेदोंका इतिहास व समन्वय वसु.श्रा./प्र /पृ. ६२ जिनसेनाचार्यके पूर्व तक शूद्रको दीक्षा देने या न देने का कोई प्रश्न न था। जिनसेनाचार्य के समक्ष जब यह प्रश्न आया तो उन्होने अदीक्षा और दीक्षार्ह कुलोत्पन्नोका विभाग किया।... क्षुल्लकको जो पात्र रखने और अनेक घरोसे भिक्षा लाकर खानेका विधान किया गया है वह भी सम्भवतः उनके शूद्र होनेके कारण ही किया गया प्रतीत होता है। * ऐलकका स्वरूप-दे० ऐलक । ११. क्षुल्लक व ऐलक रूप दो भेदोंका इतिहास व समन्वय बसु./श्रा /प्र/६३ उक्त रूप वाले क्षुल्लकोको किस श्रावक प्रतिमामे स्थान दिया जाये, यह प्रश्न सर्वप्रथम वसुनन्दिके सामने आया प्रतीत होता है, क्योंकि उन्होने ही सर्वप्रथम ग्यारहवी प्रतिमाके भेद किये है। इनसे पूर्ववर्ती किसी भी आचार्य ने इस प्रतिमाके दो भेद नहीं किये। १४वौं १५वी शताब्दी तक (वे) प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट रूपसे चलते रहे । १६वी शताब्दीमे पं० राजमल्लजीने अपनी लाटी संहितामे सर्व प्रथम उनके लिए क्रमश क्षुल्लक और ऐलक शब्दका प्रयोग किया। क्षुल्लक भव ग्रहण-दे० भव । क्षेत्र-मध्य लोकस्थ एक-एक द्वीपमे भरतादि अनेक क्षेत्र है। जो वर्षधर पर्वतोके कारण एक-दूसरेमे विभक्त है-दे० लोक/७ । क्षेत्र-क्षेत्र नाम स्थानका है। किस गुणस्थान तथा मार्गणा स्थानादि वाले जीव इस लोकमे कहाँ तथा क्तिने भागमे पाये जाते हैं, इस बात का ही इस अधिकारमे निर्देश किया गया है । क्षेत्र सामान्य निर्देश क्षेत्र व अधिकरणमें अन्तर । क्षेत्र व स्पर्शनमे अन्तर। वीतरागियों व सरागियोके स्वक्षेत्रमे अन्तर । X** Mr orm or * क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम गुणस्थानोरे सम्भव पदोंकी अपेक्षा । गतिमार्गणामे सम्भव पदोंकी अपेक्षा । नरक, तिर्यच, मनुष्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष, वैमानिक व लोकान्तिक देवोंका लोकमें अवस्थान । -दे० वह वह नाम । जलचर जीवोका लोकमें अवस्थान ।-दे० तिर्यंच/३ । भोग व कर्मभूमिमें जीवोका अवस्थान -दे० भूमि/८। मुक्त जीवोका लोकमें अवस्थान -दे० मोक्ष/५ । इन्द्रियादि मार्गणाआसे सम्भव पदोकी अपेक्षा--- १ इन्द्रियमार्गणा, २ कार्यमार्गणा; ३ योग मार्गणा, ४ वेद माणा, ५ ज्ञानमार्गणा, ६ संयम मार्गणा; ७ सम्यक्त्व भार्गणा, ८ आहारक मार्गणा। एकन्द्रिय जीवोंका लोकमे अवरथान -दे० स्थावर । *विकलेन्द्रिय व पञ्चन्द्रिय जीवोंका लोकमें अवस्थान । -दे० तिर्यश्च/31 * | तेज व अपकायिक जीबोका लोकमें अवरथान । -दे० काय/२/५ * | बस, स्थावर, सूक्ष्म, वादर, जीवोंका लोकमे अवस्थान -दे० वह वह नाम । ४ | मारणान्तिक समुद्घातके क्षेत्र सम्बन्धी दृष्टिभेद । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र १. भेद व लक्षण क्षेत्र प्ररूपणाएँ सारणीमें प्रयुक्त संकेत परिचय । जीवोंके क्षेत्रकी ओष प्ररूपणा । | जीवोंके क्षेत्रकी आदेश प्ररूपणा । अन्य प्ररूपणाएँ १. अष्टकर्मके चतुःबन्धकी अपेक्षा ओष आदेश | प्ररूपणा। २. अष्टकर्म सत्वके स्वामी जीवौकी अपेक्षा ओघ ! आदेश प्ररूपणा। ३. मोहनीयके सत्त्वके स्वामी जीवांकी अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा। ४. पोचों शरीरों के योग्य स्कन्धोकी संघातन परिशातन कृतिके स्वामी जीवोकी अपेक्षा ओष आदेश प्ररूपणा। ५ पाँच शरीरमेिं २,३,४ आदि मंगोके स्वामी जीवोंकी अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा । ६. २३ प्रकारकी वर्गणाओकी जघन्य, उत्कृष्ट क्षेत्र प्ररूपणा। ७ प्रयोग समवदान, अधः, तप, ईर्यापथ व कृतिकर्म इन पट् कर्मोंके स्वामी जीवोकी अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा। उत्कृष्ट आयुवाले तिर्यचौक योग्य क्षेत्र -दे० आयु/६/१। ३. क्षेत्र जीवके अर्थमें म. पु./२४/१०५ क्षेत्रस्वरूपमस्य स्यात्तज्ज्ञानात् स तथोच्यते ॥१०॥ -इसके (जीवके ) स्वरूपको क्षेत्र कहते है और यह उसे जानता है इसलिए क्षेत्रन भी कहलाता है। ४. क्षेत्रके भेद ( सामान्य विशेष) पं.ध/५/२७० क्षेत्रं द्विधावधानात् मामान्यमथ च विशेषमात्रं स्यात् । तत्र प्रदेशमात्रं प्रथम प्रथमेतरं तदंशमयम् ।२७०/-विवक्षा वशसे क्षेत्र सामान्य और निशेष रूप इस प्रकारका है। ५. लोककी अपेक्षा क्षेत्रके भेद ध.४/१,३,१/८/६ दबटियणयं च पडुच्च एगविधं । अथवा पओजण मभिसमिच्च दुविह लोगागासमलोगागासं चेदि । · अथवा देसभेएण तिबिहो, मंदर लियादो उबरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेला अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति । -द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षा क्षेत्र एक प्रकारका है। अथवा प्रयोजनके आश्रयसे (पर्यायार्थिक नयसे ) क्षेत्र दा प्रकारका है-लोकाकाश व अलोकाकाश ... अथवा देशके भेदसे क्षेत्र तोन प्रकारका है = मन्दराचन ( सुमेरुपर्वत) की चूलिकासे ऊपरका क्षेत्र ऊर्वलोक है, मन्दराचलके मूलसे नीचेका क्षेत्र अधोलोक है, मन्दराचनमे परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है। ६. क्षेत्रके भेद- स्वस्थानादि ध.४/१,३,२/२६/१ मन्यजीवाणमवत्था तिबिहा भवदि, सत्थाणसमुग्धादुववादभेदेण । तत्य सत्थाणं दुविह, मत्थाणसत्थाण विहारव दिसत्थाणं चेदि। समुग्धादो सत्तविधो, वेदणसमुग्धादो कसायसमुग्धादो वे उब्वियसमुग्धादो मारणांतियसमुग्धादो तेजासरीरसमुग्धादो आहार समुग्बादो केवलिसमुग्धादो चेदि । स्वस्थान, समुद्धात और उपपादके भेदसे सर्व जीवोकी अवस्था तीन प्रकारकी है। उनमेसे स्वस्थान दो प्रकारका है-स्वस्थानस्वस्थान, बिहारवरस्वस्थान। समुद्घात मात प्रकारका है-वेदना समुद्घात, कषाय समुसमुद्धात, वै क्रियक समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात, तैजस शरीर समुद्धात, आहारक शरीर समुद्रात और केबली समुद्धात । (गो. जी./जी प्र/५४३/६३६/१२)। ७. निक्षेपोंकी अपेक्षा क्षेत्रके भेद ध.४/१,३,१/१ ३-७। पृ.३१ क्षेत्र १.भेद व लक्षण १.क्षेत्र सामान्यका लक्षण स. सि /१/८/२६/७ "क्षेत्र निवासो वर्तमानबालविषय ।" स. सि /१/२१/१३२/४ क्षेत्रं यत्रस्थान्भावान्प्रतिपद्यते । वर्तमान काल विषयक निवासको क्षेत्र कहते है। (गो जी./जी.प्र/५४३/६३६/१०) जितने स्थानमें स्थित भावोको जानता है वह ( उस उस ज्ञानका ) नाम क्षेत्र है। (रा. वा./१/२५ 1.-१५/८६)। क. पा/२/२,२२/११/१/७ वेत्तं खलु आंगासं तविवरीयं च हवदि णोखेत्तं/१ । क्षेत्र नियमसे आकाश है और आकाशसे विपरीत नोक्षेत्र है। ध. १३/१,३,८/६/३ क्षियन्ति निवसन्ति यस्मिन्पुद्गलादयस्तत् क्षेत्रमाकाशम् । =क्षि धातुका अर्थ 'निवास करना है। इसलिए क्षेत्र शब्दका यह अर्थ है कि जिसमे पुद्गलादि द्रव्य निवास करते हैं उसे क्षेत्र अर्थात् आकाश कहते है । ( म पु./४/१४ ) २. क्षेत्रानुगमका लक्षण ध. १/१,१,७/१०२/१५८ अस्थित्तं पुण मतं अत्थित्तस्स यत्तदेव परिमाण । पच्चप्पणं खेत्तं अदीद-पदुप्पणाणं फसणं ।१०२५ घ.१/१,१,७/१५६/१णिय-संखा-गुणिदोगाहणखेतं खेत्तं उच्चदे दि । -- १. वर्तमान क्षेत्रका प्ररूपण करनेवाली क्षेत्र प्ररूपणा है। अतीत स्पर्श और वर्तमान स्पर्शका कथन करनेवाली स्पर्शन प्ररूपणा है। २. अपनी अपनी संख्या गुणित अवगाहनारूप क्षेत्रको ही क्षेत्रानुगम कहते है। नाम स्थापना द्रव्य भाद _ पृ.५/२१/ पृ.७/१३ । । । सद्भाव असद्भाव आगम नोआगम आगम नोआगन ज्ञायक शरीर भावि तद्व्यतिरिक्त भावि वर्तमान अतीति कर्म नोकर्म च्युत च्यावित त्यक्त ओपचारिक पारमार्थिक ८. स्वपर क्षेत्रके लक्षण प. का./त.प्र/४३ द्वयोरप्यभिन्नप्रदेशत्वेनै कक्षेत्रत्वात् । - परमार्थ से गुण और गुणी दोनों का एक क्षेत्र होनेके कारण दोनों अभिन्नप्रदेशी हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र १९२ अर्थात् द्रव्यका क्षेत्र उसके अपने प्रदेश हैं. और उन्ही प्रदेशों में हो गुण भी रहते है। प्र. सा./ता वृ / ११५ / १६१/१३ लोककाशप्रमिताः शुद्धासंख्येयप्रदेशाः क्षेत्र भव्यते । लोकाकाश प्रमाण जीवके शुद्ध असंख्यात प्रदेश उसका क्षेत्र कहलाता है । ( अर्थापत्तिसे अन्य द्रव्योंके प्रदेश उसके क्षेत्र है। ( पं. ध. / पू / १४८, ४४६ अपि यश्चैको देशों यावदभिव्याप्य वर्तते क्षेत्रम् । तत्तत्क्षेत्रं नान्यद्भवति तदन्यश्च क्षेत्रव्यतिरेकः । १४८ ॥ क्षेत्र इति वा सर्वभिष्ठानं च भूर्नियासश्च तदपि स्वयं सदेव स्यादपि यावन्न सत्प्रदेशस्थम् ।४४६। =जो एक देश जितने क्षेत्रको रोक करके रहता है वह उस देशका द्रव्यका क्षेत्र है, और अन्य क्षेत्र उसका क्षेत्र नहीं हो सकता । किन्तु दूसरा दूसरा ही रहता है, पहला नहीं। यह क्षेत्र व्यतिरेक है | १४८ | प्रदेश यह अथवा सत्का आधार और सतकी भूमि तथा सत्का निवास क्षेत्र है और वह क्षेत्र भी स्वयं सत् रूप ही है किन्तु प्रदेशों में रहनेवाला जितना सत् है उतना वह क्षेत्र नही है ।४४६| रा. वा./हि. /९/६/४६ देह प्रमाण संकोच विस्तार लिये ( जीव प्रदेश ) क्षेत्र है। रा.वा./१/७/२७२ जन्म योनिके भेद कर (जीव) लोक उपजे लोक के स्पर्धे सो परक्षेत्र संसार है। ९. सामान्य विशेष क्षेत्रके लक्षण पं. ध. पू. /२०० तंत्र प्रदेशमा प्रथमं प्रथमेव सर्वशमयम्- केवल 'प्रदेश' यह तो सामान्य क्षेत्र कहलाता है। तथा यह वस्तुका प्रदेशरूप अंशमयी अर्थात अमुक द्रव्य इसने प्रदेशवाला है इत्यादि विशेष क्षेत्र कहलाता है । १०. क्षेत्र लोक व नोक्षेत्रके लक्षण 1 = ध. ४/१.३१/३-४/७ खेतं खलु आगा यदिरितच होदि गोखे । जीवा य पोग्गला वि य धम्माधम्मत्थिया कालो |३| आगास सर्पदर्स तु उद्वाधो तिरियो विथ चलोगं वियागाहि अण तजिण देसिदं |४| आकाश द्रव्य नियममे तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र कहलाता है और आकाश द्रव्यके अतिरिक्त जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय तथा का द्रव्य क्षेत्र कहलाते है | ३ | आकाश सप्रदेशी है, और वह ऊपर नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है उसे ही क्षेत्र लोक जानना चाहिए उसे जिन भगवान्ने अनन्त कहा है। (क.पा.२/२.२२/१११/६/१) ११. स्वस्थानादि क्षेत्र पर्दोंके लक्षण घ. ४/१,२,२/२६/२ सत्याण सत्थाणणाम अप्पणी उप्पणण्णामे णयरे रणे वा सयण- णिसीयणचं कमणादिवावारजुत्तेणच्छणं । विहारवदिसत्याणं णाम अप्पणी उप्पण्णगाम-णयर रण्णादीणि छड्डय अण्णस्थ सण- णिसीयण- चंकमणादिवावारेणच्छणं । ध. /४/१.३,२/२६/६ उववादो एयविहो । सो वि उप्पण्णपदमसमए चेत्र होदि । = १. अपने उत्पन्न होनेके ग्राममें, नगर में, अथवा अरण्यमें.सोना, बैठना, चलना आदि व्यापारसे युक्त होकर रहनेका नाम स्वस्थान स्वस्थान अवस्थान है। (ध.४ / १.३,६८ / १२१/३) उत्पन्न होने के ग्राम, नगर अथवा अरण्यादिको छोडकर अन्यत्र गमन, निषोदन और परिभ्रमण आदि व्यापारसे युक्त होकर रहनेका नाम विहारवतस्वस्थान है। (घ /०/२६.१/२००५) (गो. जो/जो / ४४३/६३६ ११) । २. उपपाद ( अवस्थान क्षेत्र ) एक प्रकारका है। और वह उत्पन्न होने (जन्मने के पहले समय में ही होता है-इसमे जोन के समस्त प्रदेशोंका सकोच हो जाता है। १२. निष्कुट क्षेत्रका लक्षण ससि /२/२/टिप्पणी पृ. १०० जगरूपसहायकृतशोका प्रकोणं निष्कुटक्षेत्रं । लोक शिखरका कोण भाग निष्कुट क्षेत्र कहलाता है। (विशेष दे० विग्रह गति / ६ ) २. क्षत्र सामान्य निदेश १३. नो आगम क्षेत्रके लक्षण भ.४ / १.१.१/८/६ दिसम्म स्तं वेदि तत्थ कम्मदव्य पोम्मदव्य पाणावरणादिनिहम्मद | लोकम्मदव्यखेत्तं तु दुविहं, ओवयारियं पारमत्थियं चेदि । तत्थ ओवयारियं णोकम्मदव्वखेत्तं लोगपसिद्ध सालिखेत्तं बीहिखेत्तमेवमादि। पारमत्थियं णोकम्मदव्त्रवेत्तं आगासद्रव्यं । ध.४/१.३.१/८/२ आगासं गगणं देवपथं गोज्झगाचरिदं अवगाहणल क्खणं आधेयं वापगमाधारो भूमि ति एयो १ जो पतिरिक्त नोआगम द्रव्य क्षेत्र है वह कर्मद्रव्यक्षेत्र और नोकर्म द्रव्य क्षेत्रके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मद्रव्यको कर्मद्रव्यक्षेत्र कहते हैं क्योंकि जिसमे जीव निवास करते है, इस प्रकारको निरुक्तिके बलसे कर्मोंके क्षेत्रपना सिद्ध है ) । नोकर्मद्रव्य क्षेत्र भी औपचारिक और पारमार्थिक के भेदसे दो प्रकार है। उनमें से लोकमे प्रसिद्ध शालि क्षेत्र, मीहि (धान्य) क्षेत्र इत्यादि औपचारिक नोकर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम-द्रव्यक्षेत्र कहलाता है। आकाश द्रव्य पारमार्थिक नोकयतिरिक्त नोखागमद्रव्यक्षेत्र है। २. आकाश, गगन, देवपथ, गुह्यकाचरित ( यक्षो के विचरणका स्थान ) अवगाहन लक्षण, आधेय, व्यापक, आधार और भूमि ये सब नोआगमद्रव्य के क्षेत्र एकार्थनाम हैं। 1 २. क्षेत्र सामान्य निर्देश १. क्षेत्र व अधिकरणमें अन्तर रावा/१/८/१६/४३/६ स्यादेतत्-यदेवाधिकरणं तदेव क्षेत्रम्, अतस्तयोरभेदात् पृथग्रहणकमिति तन्नः कि कारणम् । उत्तार्थस्वाद । उक्तमेतत् सर्वभावाचिगमार्थत्वादिति प्रश्न जो अधिकरण है वही क्षेत्र है, इसलिए इन दोनों में अभेद होनेके कारण यहाँ क्षेत्रका पृथक् धग अनर्थक है उत्तर-अधिकृत और अनधित सभी पदार्थोंका क्षेत्र बतानेके लिए विशेष रूप से क्षेत्रका ग्रहण किया गया है। २. क्षेत्र व स्पर्शनमें अम्बर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश । - • रावा | १/८/१७-१६/४२२६ यथेह सति घंटे क्षेत्रे अम्बुनोऽवस्थानाद नियमाद पटस्पर्शनम् न होतदस्ति घंटे अम्बु अनि घट स्पृशति' इति । तथा आकाशक्षेत्रे जीवावस्थाना नियमादाकाशे स्पर्शनमिति क्षेत्राभिधानेने व स्पर्शनस्यार्थ गृहीताला पृणम नर्थकम्। न वैष दोष कि कारणम्। विषयाचा विषय याची क्षेत्रशब्दः यथा राजा जनपदसेवेऽवतिष्ठते न च कृत्स्नं जनपदं स्पृशति । स्पर्शनं कृत्स्नविषयमिति । यथा साम्प्रतिकेनाम्ना समितिक घटक्षेत्रं स्पृष्टं नातीतानागतम्, नेवमात्मन सांप्रतिकक्षेत्रस्पर्शने स्पर्शनाभिप्राय, स्पर्शनस्य त्रिकाल गोचरत्वात् १७-१८। - प्रश्न- जिस प्रकार से घट रूप क्षेत्रके रहनेपर ही जलका उसमें अवस्थान होने के कारण. नियमसे जलका घटके साथ स्पर्श होता है। ऐसा नहीं है कि घटमें जलका अवस्थान होते हुए भी, वह उसे स्पर्श न करें। इसी प्रकार आकाश क्षेत्रमे जीवोके अवस्थान होनेके कारण नियमसे उनका आकाशसे स्पर्श होता है। इसलिए क्षेत्र के कथन से ही स्पर्शके अर्थका ग्रहण हो जाता है। अत स्पर्शका पृथक् ग्रहण करना अनर्थक है ' उत्तर - यह कोई दोष नहीं है. क्योकि क्षेत्र शब्द विषयवाची है, जैसे राजा जनपदमें रहता है। यहाँ राजाका विषय Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र - जनपद है न कि यह सम्पूर्ण जनपदके स्पर्श करता है। स्पर्शन तो सम्पूर्ण विषय होता है। दूसरे जिस प्रकार वर्तमान जलके द्वारा मानकालवर्ती घट क्षेत्रका हो स्पर्श हुआ है, अतीत व अनागत कालगत क्षेत्रका नहीं, उसी प्रकार मात्र वर्तमान कालवर्ती क्षेत्रके साथ जीवका स्पर्श वास्तव में स्पर्शन शब्दका अभिधेय नहीं है। क्योंकि क्षेत्र तो केवल वर्त मानवाची है और स्पर्श त्रिकालमोचर होता है। ध. १/१,९,७/१५६/८ वट्टमाण- फासं वण्णेदि खेत्तं । फोसणं पुण अदीदं महमाणं च मम्णैदि क्षेत्रानुगम वर्तमानकालीन स्पर्शका पर्शन करता है। और स्पर्शनानुयोग अतीत और वर्तमानकालीन स्पर्शका वर्णन करता है। ध. ४/१,४,२/१४५/८ खेत्ताणिओगद्दारे सव्वमग्गणट्ठाणाणि अस्सिदूण सम्यगुणागणं मागका निसिखे पदुष्पादि संपदि पोसणा गरे कि पवि चोइस मग्यानानि अस्सिसमुद्वाणानं अदीदकाल विरोसिदले फोसणं मुच्चदे एल्प वट्टमाणखेत्तं परूवणं पि सुत्तनिबद्धसेव दोसदि । तदो ण पोसणमदीदकालविसिखेत्तपद पाइयं, किंतु बट्टमाणादीदकाल विसेसिदखेत्तपायमिदि एत्थ न तव पुत्ताणिगदार विदातं संभराविय अदीदकालविसि उस्ले तपष्यायण तस्मादाणा तदो फोसणमदीदकात निसेसिले पाइयमेवेति सिद्ध' प्रश्न -- क्षेत्रानुयोग ने सर्व मार्गणास्थानका आश्रय लेकर सभी गुणस्थानों के वर्तमानकालविशिष्ट क्षेत्रका प्रतिपादन कर दिया गया है । अब पुनः स्पर्शनायोग द्वारसे क्या प्ररूपण किया जाता है । उत्तर- चौदह मार्गणास्थानोंका आश्रय लेकरके सभी गुणस्थानोंके अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्रको स्पर्शन कहा गया है। अतएव यहाँ उसीका ग्रहण किया गया समझना। प्रश्न- यहाँ स्पर्शनानुयोगद्वार में वर्तमानकाल सम्बन्धी क्षेत्रको प्ररूपणा भी सूत्र निवद्ध ही देखी जाती है, इसलिए स्पर्शन अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्रका प्रतिपादन करनेवाला नहीं है, किन्तु वर्तमानकाल और अतीतकाल से विशिष्ट क्षेत्रका प्रतिपादन करनेवाला है ' उत्तर - यहाँ स्पर्शनानुयोगद्वार में वर्तमान काली प्ररूपणा नहीं की जा रही है, किन्तु पहले क्षेत्रानुयोग द्वार में प्ररूपित उस उस वर्तमान क्षेत्रको स्मरण कराकर अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्रके प्रतिपादनार्थ उसका ग्रहण किया गया है। अतएव स्पर्शनानुयोगद्वार अतीतकालसे विशिष्ट क्षेत्रका ही प्रदिपादन करनेवाला है, यह सिद्ध हुआ । ३. वीतरागियों व सरागियोंके स्वक्षेत्र में अन्तर ६.४/१.१.३८/१२९/२ चममेवुद्धीए पडिगहिदपदेसो सत्मार्ग, अजोगहि स्त्रीणमोहम्हि ममेदंबुद्धीए अभावादोति ण एस दोस्रो वीदरागाणं अप्पणो अच्छिदपदेसस्सेव सत्थाणववएसादो । ण सरागाणामेस णाओ, तत्थ ममेदभावसंभवदो । - - प्रश्न- इस प्रकारस्वस्थान पद अयोगकेवली में नहीं पाया जाता, क्योंकि क्षणमोही अयोगी भगवान् ममेदंबुद्धिका अभाव है ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वीतरागियों के अपने रहने के प्रदेशको ही स्वस्थान नामसे कहा गया है। किन्तु सरागियों के लिए यह न्याय नहीं है. क्योंकि इसमें ममेदभाव सम्भव है। ( ध ४ / १,३,३/४७/८) । ३. क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम १. गुणस्थानों में सम्भव पदकी अपेक्षा १. निष्यादृष्टि प. ४/१.२.२/३/१ मिच्हसि मेस तिथि विसामि संत तस्कारणसं जमादिगुणाणामभावादी निध्यादृष्टि जीवराशिके शेष तीन विशेषण अर्थात आहारक समुद्धात, तैजस समुद्वात, और भा० २-२५ ३. क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम केवली समुद्धात सम्भव नहीं है, क्योंकि इनके कारण संयमादि गुणों का मिथ्यादृष्टिके अभाव है। 1 २. सासादन ६.४/१.३.३/११/१ साराणसम्माविडी सम्मामिच्छादट्टी बसंजदसम्मादिट्ठी-सत्थाणसत्याण-विहारवदिसत्थाण- वेदणकसाय-वेउव्वियसमुवादपरिणदा केवड खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे । घ.४/१ २.३/४१/१ मारणातिय उरवारनद सासणसम्मादिट्ठिी असंजदसम्माि १९३ घ.४/१.४.४/१०/१ सजीवविरहिदे असंखेज्ने समुद्र सु गरि सासणा । वेरियतरदेवे हि वित्ताणमत्थि संभवो णवरि ते सत्थाणत्या ण होंति विहारेण परिणत्तादो। प्रश्न- १. स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुखात काय समुदाय और वैक्रियक समुदात रूप परिणत हुए सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यरमिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें होते हैं ' उत्तर - लोकके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्र में अर्थात् सासादनगुणस्थानमें यह पाँच होने सम्भव है । २. मारणान्तिक समुद्धात और उपपाद सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टियोंका इसी प्रकार कथन करना चाहिए। अर्थात् इस गुणस्थानमे ये दो पद भी सम्भव है । (विशेष दे० सासादन |१| १०) ३. जो विरहित (मानुषोत्तर व स्वयंप्रभ पर्वतोके मध्यवर्ती) असंख्यात समुद्रोंमें सासादन सम्यग्दृष्टि जोव नहीं होते । यद्यपि वैर भाव रखनेवाले व्यन्तर देवोंके द्वारा हरण करके ले जाये गये जीबोंकी वहाँ सम्भावना है। किन्तु वे वहाँ पर स्वस्थान स्वस्थानस्थान नहीं कहलाते हैं क्योंकि उस समय वे विहार रूपसे परिणत हो जाते है। ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि .४/१.३.२/४४/५ सम्मानिष्याद्रियस्स मारणं तिय-नवादा गरिय तागुणरस सहनिरोहितादो। सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद नहीं होते हैं, क्योंकि, इस गुणस्थानका इन दोनों प्रकारकी अवस्थाओंके साथ विरोध है। नोटस्वस्थान- स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय व वैक्रियक समुद्रात ये पाँचों पद यहाँ होने सम्भव हैं । दे० - ऊपर सासादनके अन्तर्गत प्रमाण नं० १ । ४. असंयत सम्यग्दृष्टि, ( स्वस्थान- स्वस्थान, विहारवत स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियक व मारणान्तिक समुद्रघात तथा उपपाद, यह सातों ही पद यहाँ सम्भव हैं - दे० ऊपर सासादन के अन्तर्गत / प्रमाण नं० १) " ५. संयतासंयत घ. ४ / १.३.३ / ४४/६ एवं संजदासंजदाणं । णवरि उववादो णत्थि, अपज्जतकाले संजमा संजम गुणस्स अभावादी संजदासंजदाणं कथं वेउव्वियसमुग्धादस्स संभव । ण, ओरालियसरीरस्स विउब्वणप्पयस्स विण्डुकुमारादिशु सणादो। ध. ४/१,४,८/१६६/७ कधं संजदामंजदाणं सेसदीव - समुद्द सु संभवो ण, पुनरिव सत्य विताएँ संभव पटविरोधाभाया। १. इसी प्रकार ( असंयत सम्यग्दृष्टिवत् ) संयतासंयतोका क्षेत्र जानना चाहिए। इतना विशेष है कि संयतासंयतोके उपपाद नही होता है, क्योकि अपर्याप्त काल में संयमासंयम गुणस्थान नहीं पाया जाता है। ... प्रश्न- संयता- संयतो के वैक्रियक समुद्घात कैसे सम्भव है । उत्तर- नहीं, क्योकि विष्णुकुमार मुनि आदि विक्रियात्मक जीवा रिक शरीर देखा जाता है। २ प्रश्न मानुषोत्तर पर्वत से परभावर्ती स्वप्रभातसे पूर्व भागवत शेष द्वीपसमूहों संयतासंयत जीयोंकी संभावना कैसे है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि पूर्व भव के बैरी देवोंके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र १९४ ३. क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम द्वारा वहाँ ले जाये गये तिर्यञ्च संयतासयत जीवोंकी सम्भावनाको अपेक्षा कोई विरोध नहीं है। (ध १/१,१,१५८/४०२/१); (ध ६/१, ६-६,१८/४२६/१०) ६. प्रमत्तसंयत ध.४/१,३,३/४५-४७/सारार्थ-प्रमत्त संयतोंमे अप्रमत्तसंयतकी अपेक्षा आहारक व तैजस समुद्रात अधिक है, केवल इतना अन्तर है। अतः दे०--अगला 'अप्रमत्तसंयत' ७. अप्रमत्तसंयत ध.४/१,३,३/४७/४ अप्पमत्तसंजदा सत्थाणसत्याण-विहारवदिसत्थाणत्था केवडिखेत्ते...मारणं तिय-अप्पमत्ताण पमत्तसजदभंगो । अपमत्ते सेसपदा णत्थि । स्वस्थान स्वस्थान और बिहारवत् स्वस्थान रूपसे परिणत अप्रमत्त संयत जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ।...मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त हुए अप्रमत्त संयतोंका क्षेत्र प्रमत्त संयतोके समान होता है । अप्रमत्त गुणस्थानमें उक्त तीन स्थानको छोड़कर शेष स्थान नहीं होते। १४. अयोग केवली ध.४/१,३,५७/१२०/8 सेसपदसंभवाभावादो सत्थाणे पदे । -अयोग केवलीके विहारवव स्वस्थानादि घोष अशेष पद सम्भव न होनेसे वे स्वस्थानस्वस्थानपदमें रहते है। घ.४/१,३,५७/१२१/१ ण च ममेदं बुद्धोए पडिगहिपदेसो सत्थाणं, अजोगिम्हि खीणमोहम्हि ममेदं बुद्धीए अभावादो त्ति । ण एस दोसो, वीदरागाणं अपणो अच्छिदपदेसस्सेन सस्थाणवबएसादो। ण सरागाणमेस णाओ, तत्थ ममेदं भावसंभवादो। प्रश्न-स्वस्थानपद अयोग केबलीमे नहीं पाया जाता, क्योंकि क्षीणमोही अयोगी भगवाहमें ममेदंबुद्धिका अभाव है, इसलिए अयोगिकेवलीके स्वस्थानपद महीं बनता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं. क्योंकि, वीतरागियोंके अपने रहनेके प्रदेशों को ही स्वस्थान नामसे कहा गया है। किन्तु सरागियोंके लिए यह न्याय नहीं है । क्योंकि इनमें ममेदं भाव संभव है। २. गति मार्गणामें सम्भव पदोंकी अपेक्षा ८. चारों उपशामक घ.४/१,३,३/४७/६ चदुव्हमुबसमा सत्थाणसत्थाण-मारणं तियपदेसु पमत्तसमा णित्थि वृत्तसेसपदाणि । --उपशम श्रेणीके चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव स्वस्थानस्वस्थान और मारणान्तिक समुद्घात, इन दोनों पदोंमे प्रमत्तसंयतोंके समान होते है। (इन जीवोंमे) उक्त स्थानोके अतिरिक्त शेष स्थान नहीं होते है। [स्वस्थान स्वस्थान सम्बन्धी शंका समाधान दे० अगला क्षपक ] ९. चारों क्षपक घ. ४/१,३,३/४७/७ चदुण्ह खवगाणं.. सत्थाणसस्थाणं पमत्तसमं । खब गुक्सामगाणं णस्थि वृत्तसेसपदाणि । खवगुवसामगाणं ममेदंभावविरहिदाणं कधं सत्थाणसत्थाणपदरस संभवो । ण एस दोसो, ममेदं - भावसमण्णिदगुणेसु तहा गहणादो । एस्थ पुण अवठ्ठाणमेक्तगहणादो। - अपक श्रेणोके चार गुणस्थानवर्ती क्षपक जीवोका स्वस्थान स्वस्थान प्रमत्तसंयतोके समान होता है। क्षपक और उपशामक जीवोके उक्त गुणस्थानोके अतिरिक्त शेष स्थान नहीं होते है । प्रश्नयह मेरा है, इस प्रकारके भावसे रहित क्षपक और उपशामक जीवों के स्वस्थानस्वस्थान नामका पद कैसे सम्भव है. उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योकि, जिन गुणस्थानों में यह मेरा है' इस प्रकारका भाव पाया जाता है, वहाँ वैसा ग्रहण किया है। परन्तु यहॉपर तो अवस्थान मात्रका ग्रहण किया है। ध ६/१.६-६,११/२४५/६ मणुसैमुष्पण्णा कधं समुद्देमु ईसणमोहस्त्रवणं पट्ठति । ण, विज्जादिवसेण तत्थागदाणं दंसणमोहक्खवणसंभवादो। -प्रश्न-मनुष्योमें उत्पन्न हुए जीवममुद्रोंमे दर्शनमोहनीयको क्षपणाका कैसे प्रस्थापन करते है । उत्तर-नही, क्योकि, विद्या आदिके वशमे समुद्रोमें आये हुए जीबोके दर्शनमोहका क्षपण होना संभव है। १३ सयोगी केवली ध.१/१,३,४/४/३ एरथ सजोगिकेवलियस्स सस्थाणसत्थाण-विहारबादिसत्थाणाणं पमत्तमंगो । दंगदोकेवन्नी ( पृ०४८) वाइगदो केवली पृ ४६. पदरगदो केवली ( पृ. ५०) • लोगपूरणगदो केवली (पृ०५६) केवडि खेत्ते । - सयोग केचनीका स्वस्थानस्वस्थान और विहारबत्स्वस्थान क्षेत्र प्रमत्त संयतों के समान होता है । दण्ड समु घातगत केवनी, कपाट समुद्रातगत केवन्नी.. प्रतर समुद्घतगत केवनी और नोक्पूरण समुद्घातगत वेवनी क्तिने क्षेत्रमें रहते है। १ नरक गति ध.४/१,३,५/६४/१२ एवं सासणस्स । णवरि उववादो णत्थि। ध४/१,३.६/६५/8 ण विदियादिपंचपुढवीणं परूवणा ओघालवणाए पदंपडितुल्ला,तत्य असंजदसम्माइट्ठीणं उववादाभावादो। ण सत्तमपुढविपरूवणा वि णिरओघपरूवणाए तुल्ला, सासणसम्माइट्ठिमारगंतियपदस्स असं जदसम्माइट्ठिमारणं तिय उववादपदाणं च तत्थ अभावादो। १. इसी प्रकार (मिथ्यावृष्टिवत ही) सासादन सम्यगदृषि नारकियोंके भी स्वस्थानस्वस्थानादि समझना चाहिए। इतनी 'विशेषता है कि उनके उपपाद नहीं पाया जाता है। ( अर्थात् यहाँ केवल स्वस्थानस्वस्थान, बिहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, बै क्रियक व मारणान्तिक समुद्धात रूप छ' पद ही सम्भव हैं। २. द्वितीयादि पाँच पृथिवियोंकी प्ररूपणा ओघ अर्थात नरक सामान्यकी प्ररूपणाके समान नहीं है, क्योकि इन पृथिवियोमें असंयत सम्यग्दृष्टियोका उपपाद नहीं होता है। सातवीं पृथिवीकी प्ररूपणा भी नारक सामान्य प्ररूपणाके तुल्य नहीं है, क्योकि, सातबी पृथिवीमें सासादन सम्यग्दृष्टियों सम्बन्धी मारणान्तिक पदका और असयत सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी मारणान्तिक और उपपाद (दोनो) पदका अभाव है। २ तिर्यच्च गति ध.१/१,२,८५/३२७/१ न तिर्यसूत्पन्ना अपि क्षायिकसम्यग्दृष्टयोऽणुव्रता-- न्यादधते भोगभूमावुत्पन्नानां तदुपादानानुपपत्ते. । तियंचोमें उत्पन्न हुए भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव अणुव्रतोको नही ग्रहण करते है, क्योकि, (बद्धायुष्क) क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव यदि तिर्यचों में उत्पन्न होते हैं तो भोगभूमिमें ही उत्पन्न होते है: और भोगभूमिमें उत्पन्न हुए जीबोके अणुव्रतोका ग्रहण करना बन नहीं सकता। (ध.१/१,१, १५६/४०२/६), परवं. ४/१,३/सू.१०/७३ पंचिंदियतिरिक्वअपजना...। ध /१,३,१०/७३/५ विहारवदिसत्थाणं वेउब्बियसमुग्धादो य णत्यि।' ध.४/१,३,६/७२/८ णवरि जोणिणीमु असंजदसम्माट्ठीणं उबवादो णस्थि । ध.४/१,३.२१/८७/३ सत्याण-वेदण-कमायसमुग्धादगदपंचिदियअप जत्ता ..मारणांतियउववादगदा । -१-२. पंचेन्द्रिय तियंच अपर्याप्त जीवोके बिहारबत् स्वस्थान और वै क्रियक समुद्रात नही पाया जाता (७३)। ३. योनिमति तिय चो में असंयत सम्यग्दृष्टियों का उपपाद नहीं होता है। ४. स्वस्थानस्वस्थान, वेदना ममुद्धात, कषाय समुदुधात, मारणान्तिक समुद्रात तथा उपक्गत ५ चेन्द्रिय अपर्याप्त ( परन्तु वै क्रियक समुद्घात नहीं होता)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र २. मनुष्य गति नवं-४/१.३/१२/०८ मधुसअपलता केहि खेते लोगस्स असंदिभागे ॥१३॥ 9 ध. ४/१,३,१२/०६/२ सरयाण केदण कसाय समुग्यादेहि परिणदा. मारणंतिसमुग्धादो।...एवमुववादस्सावि । =अपर्याप्त मनुष्य स्वस्थानस्वस्थान, वेदना व कषाय समुद्घातसे परिणत, मारणान्तिक समुघातगत तथा उपपादमें भी होते है । ( इसके अतिरिक्त अन्य पदोमें नहीं होते । घ. ४/१,३,१२/०५/० मधुसिणी असंजदसम्मादिठीणं उववादो गरिव । पमते तेजाहारसमुग्धादा गरिब मनुष्यनियोंमें असंयत सम्पदृष्टियोके उपपाद नहीं पाया जाता है। इसी प्रकार उन्हींके प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तेजस व आहारक समुद्घात नहीं पाया जाता है। ४. देव गति ४. ४/१.३.१६/०६/३ परि असंजदसम्माट्ठी बनादो णत्थि । बागवे तर जोसियाणं देवोपयो गरि असंजदसम्माहट्टी उववादो णत्थि । =असंयत सम्यग्दृष्टियोंका भवनवासियोंमें अपपाद नहीं होता । वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंका क्षेत्र देव सामान्यके क्षेत्र के समान है। इतनी विशेषता है कि असंयत सम्यग्दटियोंको वानव्यन्तर और ज्योतिषियों में उपपाद नहीं होता है । ३. इन्द्रिय आदि शेष मार्गणाओं में सम्भव पदकी अपेक्षा १. इन्द्रिय मार्गणा च.नं. ४/९.३ / १०/०४-सीदिय-नीदिय चरिंदिया तस्सेव पज्जता अपजत्ता ११८| बेदण-कसाय समुग्धाद बादरे दियमंगो परि त्रिपदं णत्थि । हुमेइं दिया तेसिं चैव पज्जत्तापज्जत्ता य सत्याणवेद कसाय मारणांतिय उपमादगदा सम्म २.२. दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तथा उनके पर्याय व अपयजीव स्वस्थान स्वस्थान, वेदना व कषायसमुद्घात तथा मारणान्तिक व उपपाद (पद में होते हैं। क्रियक समुहमा परिणत नहीं होते । ३. मादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका क्षेत्र बादर एकेन्द्रिय ( सामान्य ) के समान है । इतनी विशेषता है कि बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तको के वैक्रियक समुद्रघात पद नही होता है । (तेजस, आहारक, केवली व वैक्रियक समुइषारा तथा बिहारवत्स्यस्थानके अतिरिक्त सर्वपद होते है) स्वस्थानस्वस्थान, बेदनासघात, कषायसमुद्रपाठ, मारणान्तिकसमुद्रघात, और उपपादको प्राप्त हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय जोव और उन्होंके पर्याप्त जीव सर्व लोक रहते है। प. ४/१,३,१८/८५/१ सत्थाणसत्याण परिणदा मारणांतिय उववादगदा । ध. ४ / १.२.१७/०४/६ नावरेदिय अपना १९५ • २. काय मार्गणा घ.४/१.२.२२/१२/२एवं वाइरतेजकाइयाणं गुस्सेव अपव्यत्ताणं च परि वेवियपदमत्थि । एवं वाउकाइयाणं तेसिमपज्जत्ताणं च । सव्व अपनतेपदं निइसी प्रकार (अर्थाद नादर अप्कायिक व हनी के अपर जीवीके समान भावर तेजसकायिक और उन्हीके अपर्याप्त जीवोकी (स्वस्थानस्वस्थान, बिहारपरस्यस्थान, वेदना व कपाय समुद्रात मारणान्तिक व उपपाद पद सम्बन्धी ) प्ररूपणा करनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि बादर जसकाधिक जीवों के क्रियक समुहात पद भी होता है। इसी प्रकार सादर वायुकायिक और उन्होंने अपर्याप्त जीवोके पदका कथन करना चाहिए। सर्व अपर्याप्तक जीवोमें वैकियक समुदघात पद नही होता । ३. क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ ३. योग मार्गणा घ.४/१,१.२६/१०३/१ ममवचिजोगे उववादो पत्थि । मनोयोगी और वचनयोगी जीवोंमें उपपाद पद नहीं होता । नियम ष. वं. ४/२,३ / सू. ३३/१०४ ओरालियकाजोगीसु मिच्छाइट्ठी ओषं |३३|... उनवांदो गरि ( घनता टी० ) । घ. ४/१,३,३४/१०५/३ ओरालियकायजोगे सासणसम्मादिठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमुववादो परिच पमन्ते आहारसमुग्धादो परिय 1 घ. ४ / १.२.२६/९०६/४ ओरालिय मिस्सजोगिभिच्छाइट्ठी सम्बलोगे | बिहार दिराण उव्वयसमुदादा मत्थितेन तेखि विरोहा। घ. ४/१,२,३६/१००० ओरालियनिस्सम्हि व्दिाणमोरालियमस्स कायजोगेसु उववादाभावादो। अधवा उववादो अस्थि, गुणेण सह अक्कमेण उपात्तभवसरीरपढमसमए उवलंभादो, पंचावत्थावदिरित्तोलियमस्सजीवाणमभावादशे च १. औदारिक काययोगियोंमें मिध्यादृष्टि जोवोंका क्षेत्र मूल बोचके समान सर्वलोक है |३३| किन्तु उक्त जीवोंके उपपाद पर नहीं होता है। २. औदारिक काययोगमै सासादन सम्पदृष्टि और असंयतसम्यग् जीवोंके उपपाद पद नहीं होता है। प्रमत्तगुणस्थान में आहारक समुहयात पद नहीं होता है। २. औदारिक मिश्र कायगी मिध्यादृष्टि जीन सर्व लोकमे रहते हैं। यहाँ पर विहारपद स्वस्थान और वैयिक स्वस्थान ये दो पद नहीं होते हैं, क्योंकि औदारिक मिश्र काययोगके साथ इन पदोंका विरोध है। ४. बौदारिक- मिश्र काययोगमें स्थित जीमोंका पुनः औदारिकमिश्र काययोगियोंमें उपपाद नहीं हो है । ( क्योंकि अपर्याप्त जीव पुन नहीं मरता) अथवा उपपाद होता है, क्योंकि, सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानके साथ अक्रमसे उपात्त भव शरीरके प्रथम समय में ( अर्थात पूर्व भवके शरीरको छोडकर उत्तर भवके प्रथम समय में ) उसका सद्भाव पाया जाता है। दूसरी बात यह है, कि स्वस्थान- स्वस्थान, वेदनासमुइपात कषायमुपात केमतिसमुद्रमात और उपपाद इन पाँच स्था अतिरिक्त औदारिकमित्र काययोगी जीवोंका अभाव है। ". . . ७/२६/२६६९/३४३ बेडन्नियकायजोगी सत्य पोष समुग्धादेण केवड खेत्ते । । ५६ । उववादो णत्थि ॥ ६१॥ घ. ४ / १,३,३७/१०१/३ ( वेदव्ययकायजोगी) सम्बन्ध उनादो णत्थि । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश घ. ७/२,३,६४/३४४/६ नेजियमिस्सेण सह-मारणातिय उववादेहि सह विरोहो । १. वैकियक काययोगी जीवोंके उपपाद पद नहीं होता है । २. वैक्रियक काययोगियोंमें सभी गुणस्थानों में उपपाद नहीं होता है । ३. वैक्रियक मिश्रयोगके साथ मारणान्तिक व उपपाद पोका विरोध है। आहारमिस्सकायजोगिणी ध. ४ / १,३,३६/११०/३ सत्थाणगदा । घ. ७/२६.६५/२३४५/१० (आहारकायजोगी)- सत्याण-विहारवदि सत्या परिणदा... मारणं तिरसमुग्वादगदा आहार मिश्रका योगी स्वस्थानस्वस्थान गत ( ही है। अन्य पदोंका निर्देश नहीं है) २ आहारकाययोगी स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्व स्थानसे परिणत तथा मारणान्तिक समुद्घातगत ( से अतिरिक्त अन्यपदोंका निर्देश नहीं है।) । पमन्त संजड़ा... घ. ४/९.३,४०/११०/७ सत्थाण- वेदण-कसाय-उववादगदाकम्मइयकायजोगिमिच्छादिट्टिणो । स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्रघात, और उपपाद इन पदोंको प्राप्त कार्माण काययोगी मिथ्यादृष्टि तथा अन्य गुणस्थानवर्ती में भी इनसे अतिरिक्त अन्यपदोंमें पाये जानेका निर्देश नहीं मिलता ) | Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र १९६ ४. क्षेत्र प्ररूपणाएँ होता है । किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, वह 'उपपादस्थानका अतिक्रमण करके गमन नहीं करता' इस परम्परागत उपदेशसे सिद्ध है। ४. वेद मार्गणा ध.४/१,३४३/१११/- इत्थिवेद.. असदसम्मादिम्हि उववादो णत्थि । पमत्तसंजदे ण होंति तेजाहारा। ध. ४/१,३,४४/११३/१ (णवंसयवेदेसु) पमते तेजाहारपदं णस्थि। -१. असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्त्रीवेदियोके उपपाद पद नहीं होता है। तथा प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें तैजस समुद्वघात नहीं होते हैं। २. प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें नसकवेदियोके तैजस आहारक समुद्घात ये दो पद नहीं होते हैं। (असंयत सम्यग्दृष्टि में उपपाद पदका यहाँ निषेध नहीं किया गया है।) ५ शान मार्गणा ध/४/१,३,५३/११८/विभंगण्णाणी मिच्छाइट्ठी...उववाद पदं णत्थि। सासणसम्मदिट्ठी...वि उववादो णस्थि ।-विभं गज्ञानी मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों में उपपाद पद नहीं होता। ६. संयम मार्गणा ध./४/१,६१/१२३/७ ( परिहारविसुद्धिसंजदेसु (मूलसूत्रमें ) पमत्तसंजदे तेजाहारं त्थि - परिहार विशुद्धि संयतोंमें प्रमत्त गुणस्थानवर्तीको तैजस समुद्धात और आहारक समुद्धात यह दो पद नही होते हैं। स ४. क्षेत्र प्ररूपणाएं १. सारणीमें प्रयुक्त संकेत परिचय सर्व लोक । त्रिलोक अर्थात् सर्वलोक तिर्यक्लोक ( एक राजूx०० योजना) ऊर्ध्व व अधो दो लोक। चतु लोक अर्थात मनुष्य लोक रहित सर्व लोक मनुष्य लोक या अढ़ाई द्वीप। असंख्यात। संख्यात। संख्यात बहुभाग। संख्यात धनांगुल। । भाग गुणा। पल्योपमका असंख्यात बहुभाग। पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग। स्व औध गुणस्थान निरपेक्ष अपनी अपनी सामान्य प्ररूपणा। मूलोघ गुणस्थानों की मूल प्रथम प्ररूपण। और भी देखो आगे। नोट --के २ इत्यादि को क इत्यादि रूप ग्रहण करो जीवोंकी स्व स्व ओघराशिx-xxसं. प्रतरांगुलx१ राजू क २ मारणान्तिक समुद्घात सम्बन्धी क्षेत्र । ७. सम्यक्त्व मार्गणा ध. ४/१,३,८२/१३५/६ पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजाहारं णत्थि। ' = प्रमत्त संयतके उपशम सम्यक्त्वके साथ तैजस समुद्रात और आहारक समुद्धात नहीं होते हैं। ८. आहारक मार्गणा ष. वं. ४/१३./सू ८८/१३७ आहाराणुवादेण...८८ । ध.४/१,३,८४/१३७/६ सजोगिकेवलिस्स वि पदर-लोग-पूरणसमुग्धादा वि णत्थि, आहारित्ताभावादो। आहारक सयोगीकेवलीके भी प्रतर और लोकपूरण समुद्रात नहीं होते है; क्योंकि, इन दोनों अवस्थाओंमे केवलीके आहारपनेका अभाव है। ष, ख./४/३/सू.१०/१३७ अणाहारएसु...1801 ध.४/१,३/१२/१३८/८ पदरगतो सजोगिकेवली...लोकपूरणे-पुण.. भवदि । - अनाहारक जीवों में प्रतर समुद्धातगत सयोगिकेवली तथा लोकपूरण समुद्धातगत भी होते है। जीवोंकी स्व स्व ओघ राशिक-xसं प्रतरांगुल४१ राजू-उप उप/क- क२ पाद क्षेत्र। तिर्यचोकी स्व स्व ओघराशि.... शxक-१४सं.प्रतरांगुलx१राजू मारख २ णान्तिक समुद्घात सम्बन्धी क्षेत्र । ४. मारणान्तिक समुद्धातके क्षेत्र सम्बन्धी दृष्टिभेद ध ११/४,२,५.१२/२२/७ के वि आइरिया एवं होदि त्ति भणं ति। तं जहा अवरदिसादो मारणं तियसमुग्धाद कादूण पुन्वदिसमागदो जाव लोगणालीए अंतं पत्तो त्ति। पुणो विग्गहं करिय हेठा छरज्जुपमाणं गंतूण पुणरवि विग्गहं करिय वारुण दिसाए अघरज्जुपमाणं गंतूण अवहिठाणभिम उप्पण्णस्स खेत्तं होदि त्ति । एवं ण घडदे, उववादठाणं बोलेदूण गमणं णत्थि त्ति पवाइज्जत उबदेसेण सिद्धत्तादो। -ऐसा कितने ही आचार्य कहते है-यथा पश्चिम दिशासे मारणान्तिक समुद्घातको करके लोकनालीका अन्त प्राप्त होने तक पूर्व दिशामें आया। फिर विग्रह करके नीचे छह राजू मात्र जाकर पुन: विग्रह करके पश्चिम दिशामें (पूर्व पश्चिम) (इस उप/वतियंचोकी प्रतरांगुल४३ तिर्यंचोकी स्व स्व ओघराशि . xक-६xसंख्यात ख ३ राजू-उपपाद क्षेत्र। मनुष्योकी स्व स्व अघोराशि... धाराशिxक-१४संख्यात प्रतरांगुलx१ राजू करख मारणान्तिक समुद्रात सम्बन्धी क्षेत्र । उप/गमनुष्योंकी प्रकार ) आध गजू प्रमाण जाकर अवधिस्थान नरकमें उत्पन्न होनेपर उसका (मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त महा मत्स्यका) उत्कृष्ट क्षेत्र मनुष्यों की स्व स्व ओधराशिक-१xसंख्यात प्रतरांगुल १राजू करख २ उपपाद क्षेत्र। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २. जीवोंके क्षेत्रकी ओष प्ररूपणा संकेत- ३० क्षेत्र/४/१- प्रमाण १. प. ४/१.२,२-१२/१०-१३८) २. (४/२११-१२४/२६-२६६) प्रमाण नं. १ नं. २ पृ. पू. १०-४३ ३६-४३ :: ४४ E ४७ 19 " ४८ मार्गणा ५७-६६ मिथ्यादृष्टि सासादन सम्यग्मिध्याल असंयत सम्यक्त्व संयतासंयत प्रमत्त संयत अप्रमत्त संयत उपशामक क्षपक योग केवली नरक गति ३०१ - सामान्य ३०३ गुण स्थान १० पृथिवी सामान्य १ २ ३ ४ ५ ८-११ ८-१२ १३ १४ स्वस्थानस्वस्थान १ सर्व (पृ. ३६ (देवसामान्य प्रधान) त्रिअर्स पृ.४० (सौधर्मे शान- प्रधान) 99 च/असं म/सं :::: बिहारवस्वस्थान च/जर्स मरअर्स सभ. संच. च/अतं; मxसं ति/सं हि असं म त्रि/असं सं प म त्र/असं संघ मध्यसं ::: अयोग केवली ३. जीवोंके क्षेत्रको आदेश प्ररूपणा संकेत - दे० क्षेत्र /४/१. प्रमाण -- १. (ध. ४ / १,३,२-१२/१०-१३८ ); २. ( घ. ७/२,६,१-१२४/२६६-३६६ ). १. गति मार्गणा च/असम/सं असं म/सं वेदना व कषाय समुद्धात ति/सं च/ असं मxअसं सं. सं. च/असं नरसं 19 च/ असं म/सं च/असं मxअसं सं. सं. च/ असं मxi वैक्रियक समुद्धात मारणान्तिक समुहात सर्व ति/सं: हि/असं मxअसं (ज्योतिष देवों प्रधान ) त्रि/असंxसंघ: मxअसं 11 99 (विष्णुकुमार मुनिवत्) च/असं म/सं. च / असं मXअसं सं. सं. 17 च/असं म त्रि/असं म त्रि/असं मxअसं च/अर्स न/असं च / असं सं, "" उपपाद च/ असं तिxअसं मx सं मारणान्तिकवत् F :: मxअसं मारणान्तिकवत सं. 19 तेजस, आहारक ब केवली समुद्रात आहारक: च / असं. म/सं तेजस आहारक / असं केवली दण्ड च / असं; मxअसं कपाट ति/सं: मxअसं प्रतर वातावलय हीन सर्व लोकपूर्ण सर्व १९७ ४. क्षेत्र प्ररूपणाएँ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश / नं. १ पृ. + + + 33: : : : : : ६१ ६१ ५७ ६५ 11 प्रमाण " " ६६ ६८ ६७ ६८ ७० ७०-७ १७ " ७० ७०-७२ नं. २ पृ. :: ३०८ प्रथम पृथिवी २-६ पृथिवी मार्गणा सप्तम पृथिवी ३०४ २०६ पंचेन्द्रियतिर्यसामान्य तिर्यंच गति सामान्य 11 पर्याप्त योनिमति लब्ध्यपर्याप्त सामान्य पंचेन्द्रिय सामान्य "1 पंचेन्द्रि पर्याप्त योनिमति गुण स्थान २ ३ १-४ १ २ ३ ४ १ २ ३-४ १ २ ३ ४ ५ १ २ ३ ४ १-५ १-३ ४-५ स्वस्थान स्वस्थान च/ असं मसं 11 च/ असं मxसं 11 11 सर्व त्रि/जर्स; असं 11 च/ असं मxअसं सर्व च/ असं मxअसं ::: त्रि/असं ति / सं; मxअसं ::: [1]: विहारवत् स्वस्थान च/असं मxसं च/असं मर्स ति/सं; त्रि/असं मxअसं त्रि/असं मxअसं ति/सं द्वि/अर्स 'च / असं मxअसं स्वस्थानसे कुछ कम ::: ।।।" वेदना व कषाय समुद्धात च/ असं सं सर्व ति/अस, मxअसं 11 स्व ओघ ( नारकी सामान्य ) वत् च/ असं; मxसं. च/असं मxसं च/असं; मxअसं ति/द्वि/अ च/ असं मxअसं #: स्वस्थान से कुछ कम वैक्रियक समुद्धात मारणान्तिक समुद्धात : ।। च/ असं मxसं च/ असं, मxअसं ति / असं मx असं : ति/असं असं असं ::: : 11 च/असं मx असं च/अस; मxअसं स्व ओघ ( तियंच सामान्य) बत I च/असं मxअसं च/असं म सर्व विअर्स त्र/अर्स, मxअसं मा./क. 7 : उपपाद मा.क. मा/क: च असं मxअसं च/असं मxअसं पा/ख. ( ति / असं, मारणान्तिकवत् तिर्स मारणान्तिकवत् मारणान्तिक्द 111: मारणान्तिकद :: :::::::: मा/ख (त्रि/अर्स मारणान्तिकत तिxअस ) ।।।। तेजस, आहारक व केवली समुद्धात क्षेत्र १९८ ४. क्षेत्र प्ररूपणाएँ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश प्रमाण नं० १ नं० २ पृ पृ ७३ ७४ " ७५ ૭૪ ७५ 6 : : : : 6 ७४-७५ ७६ ३०६ ३०१ ३१० ३११ मागणा • पर्या मनुष्य गति - सामान्य ३१५ मनुष्य पर्याप्त मनुष्यो अध्यपर्याप्त सामान्य मनुष्य पर्या मनुष्यणी लब्ध्यपर्याप्त देवगति ३१४ सामान्य ३१५ (ज्योतिषी प्रधान) भवनवासी ३१७ व्यन्तर ज्योतिषी सौधर्म-ज्ञान ३१५ ३१६ सनत्कुमार- अपराजित गुण स्थान ... ३ ४ ८-१३ १-१३ १-५ ६ ७-१३ १ स्वस्थान स्वस्थान जि/असं मय च/असं " असं म ::: :| ! ! ! ! च/असम/सं मx अस संबं च / असं संबं त्रि/अर्स ति/सं संब. TIT मx असं स. विहारवत् स्वस्थान न/अ : असं म/सं. 1 1 1 1 1= जि/असा सं म x असं ति/सं सं सं. च/अर्स मध्य संच. संब. ।।। वेदना व कषाय समुदघात त्रि /असं मxअसं असं म : 19 च/असं; पxअसं च/असं म/सं 39 मूलोघवत् स्व ओघवत् मूलोघवत् च/ असं म/ सं० शि/ति/सं सं० 1 मार्स सं० सं० च/असं सं देव सामान्यवत् भवनवासी वत् वैक्रियक समुद्घात असं मर्स : च/असम/सं ::: मxअसं च/असं; सं० सं० मx असं सं० मारणान्तिक समुद्रघात म अस सं 111 मा/ख (त्रि/अर्स मारणान्तिकवद मX असं ) त्रि/अर्स तियर्स असं असं म त्रि/असं ति असं मxअसं :: मxअ | | | | | F1 1 1 1 1 11 त्रि/अर्स तिर्स त्रि/अर्स लि/सं० ति/असं तिमसं. सं० स मध्यर्स उपपाद ८ 111 3 " त्रि/असं, ति असं; मारणान्तिक वद म असं :: गुणस्थान भी उपपाद नहीं है। : ।।। तेजस, आहारक मुलोषपद मूलोघवत् क्षेत्र १९९ ४. क्षेत्र प्ररूपणाएँ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण नं०१०२ पृ पृ मार्गणा स्वस्थान स्वस्थान बिहारवत स्वस्थान वेदना व कषाय समुधात वैक्रियक समुद्रात मारणान्तिक समुद्धात उपपाद तेजस आहारक व केवली समु० स्थाना - म/सं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २०० ३१६ सर्वार्थसिद्धि म+सं/सं.ब म+स/सं म+सं/सं म+सं/सं म+सं/सं मारणान्तिकवत् सामान्य | १ |त्रि/असं ति/सं; मxअसं त्रि/असं; ति/सं; मरअर्स | त्रि/असं ति/अस; | त्रि/असं/ति/सं; त्रि/असं; ति/सं; मxअसं मxअसं मरअसं २-४ । मूलोघवत् |७७-७६ भवनवासी १ च/असं, ति/असं, मxअसंच/असं, ति/असं, मxअस त्रि/असं. तिxअसं, च/असं, ति/असं, च/असं, ति/असं, मारणान्तिकवत मxअसं मxअसं मरअसं । ७६ मूलोघवत - ये गुणस्थानमें व्यन्तर ज्योतिषी स्वओघ (देवसामान्य) वत् | उपपाद नहीं ७१-८० सौधर्म ईशान भवनवासी वत् स्वोध ( दे० मारणान्तिकवत) स्वओघ (देवसामान्य) वत्-- सनत्कुमार से 11 उपरिमग्रेवेयक । मूलोघवत अनुदिशसे जयन्त च/असं, मxअसं च/असं,मxअसंच/असं, मxअसंच /असं. म असं च/असं, मxअसं मारणान्तिकवत । सर्वार्थसिद्धि म/सं म/सं २. इन्द्रिय मार्गणा:३२१ । एकेन्द्रिय सामान्य सर्व च/असं सू०प०अप० वा०प० अप० त्रि/सं. तिxअसं, मxअसं त्रि/असं. तिxअसं, पर्याप्त में च/असं व म x अर्स अप० मेx ३२४ विकलेन्द्रिय सामान्य त्रि/असं; ति/सं, मxअसं त्रि/असं, ति/सं, मरअसं त्रि/असं, ति/सं, त्रि/सं, तिxअसं, मxअसं मxअसं पर्याप्त विकलेन्द्रिय सामान्य | अपर्याप्त च/असं,मxअसं । च/असं, मxअसं च /असं, मxअसं त्रि/असं, ति/असं, मारणान्तिकवत ३२६ । पंचेन्द्रिय सामान्य त्रि/असं, ति/सं, मxअसं त्रि/असं, ति/सं. मxअसं! त्रि/असं,ति/सं, त्रि/असं, ति/सं, | मxअसं मxअसं । । मरअसं । पर्याप्त " अपयांप्त च/असं,मxअसं च/असं,मxअसं एकेन्द्रिय सर्व विकल्प १ स्व सामान्यवर विकलेन्द्रिय, १ । पंचेन्द्रिय सा०व प० १ त्रि/असे, ति/सं, मxअसं त्रि/असं, ति/सं, मxअसं त्रि/असं, ति/सं, | त्रि/असं, ति/सं, | त्रि/असं, तिxअसं, मारणान्तिकवद | मरअसं मxअसं मxअसं मूलोघवत् पचेन्द्रिय अपर्याप्त च/असं, मXअसं च/असं, मxअसं त्रि/असं, तिxअसं, म रणान्तिकवत मxअसं मूलोधवत - ४. क्षेत्र प्ररूपणाएँ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा० २-२६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश प्रमाण नं० १ नं० २ पृ. पृ. २. काय मागणा ३२६ ३३४ ३३० ३३३ ३२६ "" "" ३३५ ३३० " 꾸꾸미 ३३०३३३ ३३७ ३३६ :::: पृथिवी सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त " बादर पर्याप्त अपर्याप्त 11 :::: मार्गणा ३३० ३३६ | वायु सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त मादर पर्याप्त अपर्याप्त अप. के सर्व विकल्प सूक्ष्मपर्या :: " अपर्याप्त " बादर पर्याप्त अपर्याप्त 19 "1 "" २४६ ३३५ मन- अप्रतिष्ठित 11 "" 14 " प्रत्येक पर्याप्त , अपर्याप्त ११. प्रतिष्ठित सू. पर्याप्त अपर्याप्त ना० पर्याप्त अपर्याप्त 19 41 41 41 • साधारण निगोद | सूर्या अपशि 11 44 19 " " " " बा० पर्याप्त अपर्याप्त 15 41 19 41 29.95 39 सके सर्व विकल्प गुण स्थान स्वस्थान स्वस्थान सर्व च/असम त्रि/असं तसं, मअर्स सर्व / असं सर्व त्रि/अर्स, तिवस, मअर्स ति / सं त्रि/असं दिसे मज ::: 1::: विहारवद स्वस्थान 11 1 [ वेदना व कषाय समुद्धात सर्व 91 च असं म त्रि/असं, तिxi, मx अस पृथिवी बद सर्व पृथिवी बद सर्व अ पृथिवी वत् सर्व पृथिवी वद त्रि/अतिअसं मxअसं त्रि/सं, तिxअसं, मजर्स ति/सं पृथिवी वत् त्रि/असं, तिसं ::: " मx असं " पंचेन्द्रिय वत् वैक्रियक समुद्धात मारणान्तिक समुद्धात उपवाद सर्व / असं सर्व/असं ति/सं च/असं प/अस T सर्व 11 त्रि / असं तिxअसं, मxअसं सर्व । सर्व / असं मxअसं त्रि/सं, तिxअसं, मxअर्स सर्व मारणान्तिक वद त्रि/स, विकास, मारणान्तिक वद मxअसं 1 मारणान्तिक वद F मारणान्तिक मद मारणान्तिक व त्रि/असं, तिxसं, मारणान्ति वद मx असं :::| 19 तेजस आहारक व केवली समुद्धात II I क्षेत्र २०१ ४. क्षेत्र प्ररूपणाएँ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र प्रमाण । गुण वेदना व कषाय तैजस आहारक नं०१ नं०२ मार्गणा स्वस्थान स्त्रस्थान विहारवत् स्वस्थान वैक्रियक समुद्धात मारणान्तिक समुद्धात उपवाद समुद्धात व केवली समुद्धात पृ. । पृ. स्थावरके सर्व विकल्प १ स्व स्व ओष वन १०१ त्रस काय पर्याप्त १ त्रि/असं, ति/सं, मxअसं| त्रि/असं, ति/सं, मxअसं त्रि/असं, ति/सं, | त्रि/असं, ति/सं, | त्रि/असं, तिxअसं मारणान्तिक व मxअसं मरअसं २-१४ । मूलोष बत । अपर्याप्त । १ च/असं, मxअसं । च/असं, मxअसं त्रि/असं, तिxअसं मारणान्तिक व ४. योग मार्गणा ३४१ । पाँचों मनोयोगी त्रि/असं, ति/सं, मxअसं त्रि/असं, ति/सं, मxअसं त्रि/असं, ति/सं.. त्रि/असं, ति/सं, त्रि/असं, तिxबस, 5 तैजस आहारक मxअसं मxअसं मxअसं 11 मूलोघ वत् [., बचन योगी । ३४१- काय योगो सामान्य मारणान्तिक वत, तीनों मूलोघ वत् | केवल दण्ड समु ३४२- औदारिक काय योगी च/अर्स, मxअसं . प्रतर . ३४१- मिश्र , मारणान्तिक वत् जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३४३ | वैक्रियक काय योगी त्रि/असं, ति/सं. मxअसं त्रि/अर्स, ति/सं, म असं त्रि/असं, ति/सं, मxअसं त्रि/असं, ति/सं, मxअसं २०२ त्रि/असं. तिरअसं. मxअसं मिश्र, च/असं, म/सं. च/असं, म/सं च/असं, मxअसं सर्व प्रतर व लोक पूर्ण कार्माण काय योगो पाँचों मनो योगी १०२ १०३ १०२१०३ स्व बोष बत् मूलोष बत मनोयोगी वद पाँचौ वचन योगी १-१३ काय योगी सामान्य १ स्व ओघ वत् मूलोष वत १०३ औदारिक काय योगी १ २-४ त्रि/असं, मरअसं | स्व ओघ वत् त्रि/असं,सं,ध, मxअसं त्रि/असं,सं.घ.मरअसं त्रि/असं, सं, घ, मरअसं मूलोघवत सर्व त्रि/असं, संघ, मxअसं ५-१३ ४. क्षेत्र प्ररूपणाएँ सर्व सर्व औदारिक मिश्र काय योगी मारणान्तिक वन Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त को प्रमाण नं० १ नं ०२ पु. १०७ " १०८ १०६ 19 : ११० ११० 39 १११ १११ 29. ११२ = = = = ५. वेद मार्गणा ११३ ११४ मार्गणा 'वैयिक मिश्र काय योगी ३४७ वैक्रियक काय योगी १ २-४ १-२ काय योगी कार्माण काययोगी २४० खीवेदी (देवी प्रधान) ४ आहारक काय योगी ६ आहारक मिश्र पुरुष वेदी २४० नपुंसक बेदी गुण स्थान अपगत बेदी स्त्री वेदो २ पुरुषी नपुंसक वेदी अपगद बेदी (उप०) ( क्षपक ) १३ १ २,४ १३ १ २-६ १ २-६ १ २-६ ६-११ ६-१२ १३-१४ स्वस्थान स्वस्थान च/असंमजस च/असं म ।।। असं म च/ असं मxअसं सर्व च / असं, म / सं विहारवत स्वस्थान ।।। च/असं, म / सं स्व ओघ बत च/ असं मxअसं यस । । । । । । । 1 1 1 1 1 1 वेदना व कषाय समुद्धात 1 चअर्स म जि/असं ति/सं मxसंत्र /असं ति/सं असं त्रि/असं ति/सं मxअर्स प/असं म/सं स्व ओघ वद मुली वय स्व ओघवत् असं म स्व ओघवत् I सर्व स्व ओघ वद मूलोघ वत् स्व ओघ वत मूतोब बद स्व ओघवत् मूली पत् मूलोध वत वैकियक समुद्धारा मारणान्तिक समुद्रात ।।। || त्रि/जर्स, ति/सं मxअस # 19 त्रि/असं, ति / सं मx असं ! ! ! 1 ! I | 111 | | 1 : 11 सर्व च/ असं मxअसं | | | | 11 त्रि/अर्स, तिवस, मारणान्तिकम मxअसं च/ असं, मxअसं उपपाद 1 PFC । । । मारणान्तिक वत च/ असं मxअसं ।। "1 11 ।।।।। चौथे उपपा नहीं } तेजस, आहारक व केवली समुद्धात www bre Www सुलोपपद केवल कपाट ।। ओघ वत तर व पूर्ण केवल तेजस व आहा. मूलोघ वद केवल से० आ० क्षेत्र २०३ ४. क्षेत्र प्ररूपणाएँ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण नं०१ नं०२ मार्गणा गुण स्थान स्वस्थान स्वस्थान विहारवत् स्वस्थान वेदना व कषाय | वै क्रियक समुद्धात मारणान्तिक समुद्धात समुद्धात उपपाद तैजस, आहारक व केवली समुद्धात ६. कषाय मार्गणा 1३५० /चारों कषाय सर्व त्र /असं, ति/सं, मxअसं सर्व त्रि/असं, ति/सं, मxअसं मारणान्तिक वत् (केवल तै० अ० 17 मूलोघ वत् अकषाय चारों कषाय अपगत वेदी वत् स्व ओघ वत् च/असं, मxअसं - २.४ च/असं, मरअसं च/असं,मxअसं च/असं, मxअसं , च/असं,मxअसं मारणान्तिक बत - - च/असं, मxअसं च/असं,म/सं यथायोग्य च/सं.म/सं यथायोग्य च/असं, यथायोग्य च/असं. म/सं म/सं (केवल तै० आ० मूलोघ वत् १० त्रि/असं लोभ कषाय अकषाय ११-१३ मूलोध वद ७. शान मार्गणा 1 ३५० मति श्रुत अज्ञान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश सर्व त्रि/असं.ति/सं,मxअसं सर्व मारणान्तिक वव २०४ ३५१ विभंग ज्ञान त्रि/असं,ति/सं,मxअसं त्रि/असं,ति/सं,मxअसं त्रि/असं,ति/सं, मxअसं च/असं,मx असं च/असं, म x असंच/असं, म x असं ति/असं, ति/स, सर्व मx असं त्रि/असं, ति/सं, त्रि/असं, तिxअसं मx असं मxअसं च/असं, मxअसंच/असं, मxअसं मारणान्तिक वद केवल ते. आ. मूलोध वद, " | मति श्रुत ज्ञान अवधि ज्ञान मनः पर्यय ज्ञान ३५२ । केवल ज्ञान च/असं, म/असं |च/असं, म/असं च/असं, म/सं च/असं, मxअसं (केवल केवली समुद्धात र मूलोष वत मति श्रुत अज्ञान । १ सर्व त्रि/असं,ति/सं,द्वि/असं त्रि/असं, ति/सं, मारणान्तिक वन द्वि/असं विभंग ज्ञान मूलोघ वत स्व ओघ वद असं.म २ च/असं, म अर्सच /असं. म. असंच | च/असं, मxअसं |च/असं, तिxअसं मxअसं मूलोघ वत् मति श्रुत ज्ञान अवधि ज्ञान मनः पर्यय ज्ञान केवल ज्ञान ४. क्षेत्र प्ररूपणाएँ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश प्रमाण नं. १ नं. २ पृ. पृ. ८. संयम मार्गणा १२१ १२२ १२३ १२४ 13 19 १२६ १२७ ३५४ 99 כל ३५२ "3 २५५ ३५५ ९. दर्शन मागेणा ३५७ : संयम सामान्य सामायिक छेदोप० परिहार विशुद्धि मार्गणा सूक्ष्मसाम्पराय यथाख्यात ३५८ संयतासंयत असंयत संयत सामान्य सामायिक छेदोप० परिहार विशुद्धि सूक्ष्म साम्पराय ३५६ चक्षुदर्शन यथाख्यात संयमासंयम असंयम दर्शन अवधिदर्शन केवल दर्शन चक्षुर्दर्शन 11 १०. लेश्या मार्गणा ३५७ अचक्षुदर्शन अनधिदर्शन केवलदर्शन कृष्णनील कापोत रोज देवप्रधान) गुण स्थान ६×१४ ६-६ 4-0 १० ११-१४ ५ १-४ १ २-१२ १-१४ ४-१२ स्वस्थान स्वस्थान १३-१४१ च/असं म/सं " "3 29 चप्रसंग/सं त्रि/असं, मxअसं सर्व │││││| | | विहारवत् स्वस्थान ।।।।।।।। च/ असं म/सं 53 33 च/ असं म/सं त्रि/असं म ||||||| जि/अर्स, सि/सं. मबसं त्रि/अर्स, ति / म त्रि/असं ति/सं. मxअसं | | | | | | | वेदना व कषाय समुद्धात त्रि/अर्स, ति/सम च/ असम/सं च/असं म त्रि/असं मध्य नपुंसक वेद ग शोषवत् 33 नपुंसक वेद वद अवधि ज्ञान व केवल ज्ञान वस स्व ओघ वत् सोद अवधि ज्ञान वद केवल ज्ञान वत् त्रि/असं ति/सं. असं त्रि/अ/ति/सं मध्य त्रि/असं ति/सं. नवसं वैक्रियक समुद्धात मारणान्तिक समुद्धात चर्स म/सं R असम/सं ||||| त्रि / असं मxअसं त्रि / असं मxअसं मx असं चमसं | | | | | | | | 32 त्रि./असं ति/सं मजर्स त्रि/अर्स, ति/सं मजर्स च/अर्स मध्य च/असं म fa/sret, falet. त्रि/अर्स, तियर्स मxअसं | | | | | | | | 1 1 1 1 1 1 1 14 त्रि/असं तिजसं म असं उपपाद ।।।।। 1-1 मारणान्तिक 'वत् केवल लयपेक्षा | | | | | | | | मारणान्तिक मद तैजस आहारक ब [केसी समुद्रात लोष बद केवल तै. आ. मूलोघवत् केवल केवली समु मूलोष व ०न० ओ केवली समुद्धात नहीं ।।। 1 1 1 1 क्षेत्र २०५ ४. क्षेत्र प्ररूपणाएँ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश प्रमाण नं. १ नं. २ पृ. पू. ३५६ १२८ ~ : : १२६ १३० १३३ 14 # "" "" १३४ पद्म शुक्ल ११. भव्यत्व मार्गेणा गुफ्त कृष्णनील कापोत तेज १३१ १३२ १२. सम्यक्त्व मार्गणा ३६१ === मार्गणा पद्म भव्य अभव्य भव्य अभव्य सम्यक्त्व सामान्य क्षायिक ३६२ वेदक उपशम सासादन ३६४ सम्यग्मिथ्यात्व मिथ्यात्व सम्यक्त्व सामान्य क्षाचिक वेदक गुण स्थान १ २-७ १ २-७ १ २-१३ १-१४ १ १ २-४ असं मर्स ४-१४ ४ ५. ६-१४ स्वस्थान स्वस्थान 61-8 च/असं अस ( तियंच प्रधान) त्रि/ असं ति / सं, मअसं त्रि/असं ति / सं प / असं नय म x असं सर्व | | | | | 1 I 1 असं मा "1 च/असं, मxअसं विहारवत् स्वस्थान :।।।।।। च/ असं मx असं - च/अर्स अ ।।' च/असं म II असं असं वेदना व कषाय समुद्रात असं म | 11 | 11 च/ असं, मxअसं स्व ओघ वद च/असं म स्व ओघ वद मूस ओघ वद स्व ओध बद लोद स्व ओष वत् मूलोध वद मूलोव वद सर्व मूलोध वत् स्व ओघ वद च/ असं, म असं 11 19 वैकियक समुदात मारणान्तिक समुद्धात "1 नपुंसक वेद वद सोच बद मुलाबद मनुष्य पर्याप्त नय मूलोघ वत सनत्कुमार माहेन्द्र प्रधान) जसम सं I ।।।।।। |||||| च/असं मध्यसं ।। त्रिअस अस मारणान्तिक ब मxअसं सं च/ असं, मxअसं मारणान्तिक व | | | | | | । । । सर्व उपपाद 19 1: | | | | | │ | | | | | | मारणान्तिक बत उपशम सम्यग्दृष्टि संख्या में वेदकसे कुछ कम है अतः वेदक मद अर्थात उससे किचित उन उनका क्षेत्र है च/ असं मxअर्स च/अर्स म च/असं मXअसं मारणान्तिक वत् [I च/ असं मxअसं च/असे मअसं मारणान्तिकलो द " 99 सेज आहारक केवली समुदघात 1 1 1 1 1 1 मूलोघ वत् | | | | 'केवल तैजस व आहा (एक यूलोष नव ।।।।। क्षेत्र २०६ ४. क्षेत्र प्ररूपणाएं Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश प्रमाण नं०१ नं० २ पृ० १३५ १२६ १३५ 91 " १२६ "1 " १२. संघ मार्गणा १३७ ཀྑཱུ་ ::: पृ० " मार्गणा उपशम : सासादन सम्यग्मध्यादृष्टि मिथ्यादृष्टि ३६४ । संज्ञी ३६५ 93 १४. आहारक मार्गणा ३६६ 99 संशो संज्ञी असंज्ञी - अहारक अनाहारक आहारक अनाहारक गुण स्थान ४ ५ ६-११ २ ३ १ vo to २-४ १ २-४ १ २-४ १३ स्वस्थान स्वस्थान असं म सर्व । । । ॐ सर्व सर्व विहारवत् स्वस्थान 11 च/ असं, मxअसं | | | | 4 त्र/असति/सम/असतिसिस त्रि/अर्स, ति / सं मxअसं वेदना व कषाय समुद्धात ।।। 1 1 घ/ असं, असं च/असं म मूलोघ वद 93 सर्व स्व ओघ वत् शोध द स्व ओघ वद त्रि/असं, ति / सं, मxअसं सर्व वैक्रियक समुद्धात मारणान्तिक समुद्धात उपपाद स्व ओध वत् मूलोघ वत | | | | 3 त्रि/असं ति/सं. मxअसं त्रि/असं ति/सं. मxअसं 11 च/ असं, मxअसं मारणान्तिक वत् 1 1 1 1= त्रि/असं तिजसं, मारणान्तिक वद मxअसं ।।।, सर्व | | | | ।। ।।। मारणान्तिक बद सर्व समयमें मूलोष वद सम च/ असं, मxअसं तेजस आहारक व केवली समुद्धात Ma । । । मुलीबद 111 शरीर ग्रहण केवल दण्ड व प्रतर के प्रथम मूलोघ वद केवल दण्ड कपाट समु तो बद केवल प्रशर व लोक पू मूलोघ वद प्रतर व लोक पूर्ण मूलोष वद क्षेत्र २०७ ४. क्षेत्र प्ररूपणाएँ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ४. अन्य प्ररूपणाएँ पद विशेष १ ज. उ. पद २ भुजगारादिपद ३ वृद्धि हानि मूल प्रकृति (१) अष्टकमक बन्धके स्वामी जोकी अपेक्षा ओष आदेश क्षेत्र प्ररूपणा प्रमाण - (म. ब/पु.नं ०/३/पृ० सं० १९ ज उ. पद २ ३ वृद्धि हानि जना पद प्रकृति उत्तर प्रकृति (२) अष्ट कर्म सत्यके खामी जीवों की अपेक्षा ओष आदेश क्षेत्र प्ररूपणा प्रमाण- (म.न.पु.न.इ... ००...) म १ पेज्ज दो सामान्य) १ / ३८३/३६८-३१६ २ २४, २८ आदि स्थान ३ ज. उ. पद ४ भुजगारादिपद २/४४३/४०० ४०६ ५ वृद्धि हानि २५९४५९०५४६३ (३) मोहनीयके सत्त्वके स्वामी जीवोंकी अपेक्षा ओघ आदेश क्षेत्र प्ररूपणा प्रमाण (क.पा./पु.न //.नं.--) २/२०१/१६२-१६३ २/ ३०/११७-१८ २/१६०-३६९१/३२४-३२६ २/०७-०३-१० २/१०५/१६३-१६४ १/२०१-२६२/१०१-११०/२/१६१-१६१/६२-१०१ | ३/४०१-४००/२१३-२१०] ४/२०१-२००/२७-११ ३२००२-४०४/३६५-३६०४/२०१/१३४ ३/१२६-६१२/४५१-४५५५/३६३/१६५ स्थिति उत्तर प्रकृति घूस कृति २/ २०३ - २०५/११६-११०४/१९४-१९०१५६-१० ३/११२~११८/६४-६८ २/६१६-६२१/३६४-२६८ ५/१८-२०२/६२-६२ ३/२०६-३०७/१६८- १६६ ४ / ३७४ / २३१ अनुभाग ५/१५५/१०३ ५/१०/१२१ उत्तर प्रकृति ५/३३८-२४०/१४२-१११ ५/६२०/३६५ ५/४१०-११२/२०१-२०५६/१११-१२२/६१-०१ ५/३३७-३८५/३२६-३२७ ५/४६६/२६०-२६१ ५/५५३/३२९ (४) पाँचों शरीरोंके योग्य कोंकी संचालन परिशाउन कृतिके स्वामी जीवोंकी अपेक्षा ओव आदेश क्षेत्र प्ररूपणा (देखो १/१. २६४-३००) (४) पाँच शरीरं २,३,४ आदि गंगा स्वामी जीनोंको अपेक्षा ओष आदेश क्षेत्र प्ररूपणा (देखो १४ / २६१२६६ (६) २३ प्रकार वर्गणाओंकी जघन्य उत्कृष्ट क्षेत्र प्ररूपणा ..१४/१/१.१४६/१ (७) प्रयोग, समवदान, अथः, तप, ईयांपय व कृति कर्म इन पट्कम स्वामी जीवोंकी अपेक्षा ओष आदेश क्षेत्र प्ररूपणा (देखो ध.४/पृ. ३६४-३००) प्रदेश मूल प्रकृति व. १९/५१-०४ उत्तर प्रकृति क्षेत्र २०८ ४. क्षेत्र प्ररूपणाएँ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र आर्य २०९ खरकर्म क्षेत्र आर्य-दे० आर्य। क्षेमचन्द-दिगम्बर मुनि थे। इनकी प्रार्थनापर शुभचन्द्राचार्य ने क्षेत्र ऋद्धि-दे० ऋद्धिा । अपनी कृति अर्थात कार्तिकेयानुप्रेक्षाको टीका पूर्ण को थी। समय वि० १६१३-१६५७, ई० १५५६-१६०१ । क्षेत्रज्ञ-जीवको क्षेत्रज्ञ कहनेकी विवक्षा ( दे० जीव/१/२.३) क्षेमपुर-विजयाको दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । क्षेत्र परिवर्तन-दे० संसार/२। क्षेमपुरी-पूर्व विदेहस्थ सुकच्छ देशको मुख्य नगरी-दे० लोक/५/२॥ क्षेत्रप्रदेश Locations Pointing Plares ध/२/२७ । क्षेमा-पूर्व विदेहस्थ कच्छ देशकी मुख्य नगरी-दे० लोक/५/२। क्षेत्रप्रमाणके भेद क्षोभ-प्रसा./ता. व 10/8/१३ निर्विकारनिश्चल चित्तवृत्तिरूपचारिरा. वा./३/३८/७/२०८/३० क्षेत्रप्रमाणं द्विविध-अवगाहक्षेत्रं विभागनि त्रस्य विनाशकश्चारित्रमोहाभिधान' क्षोभ इत्युच्यते। - निर्विकार पन्नक्षेत्रं चेति । तत्रावगाहक्षेत्रमनेकविधम्-एकद्वित्रिचतु.संख्येयाऽ निश्चल चित्तकी वृत्तिका विनाशक जो चारित्रमोह है वह क्षोभ संख्येयाऽनन्तप्रदेशपुद्गलद्रव्यावगाह्येकाद्यसंख्येयाकाशप्रदेशभेदाव । कहलाता है। विभागनिष्पन्नक्षेत्र चानेकविधम्--असंख्येयाकाशश्रेणयः क्षेत्रप्रमाणा वेलौषध-दे० ऋद्धि। झुलस्यैकोऽसंख्येयभागः, असख्येयाः क्षेत्रप्रमाणाङ्गलासंख्येयभागाः क्षेत्रमाणाङ्गुलमेकं भवति । पादवितस्त्यादि पूर्ववद्वेदितव्यम् । क्षेत्र प्रमाण दो प्रकारका है-अवगाह क्षेत्र और विभाग निष्पन्न क्षेत्र । अवगाह क्षेत्र एक, दो, तीन, चार, संख्येय, असंख्येय और अनन्त प्रदेशवाले पुद्गलद्रव्यको अवगाह देनेवाले आकाश प्रदेशोकी दृष्टि से खड-१. उभय व मध्य खण्ड कृष्टि -दे० कृष्टि । २. अखण्ड द्रव्यमें अनेक पकारका है। विभाग निष्पन्नक्षेत्र भी अनेक प्रकारका है-असं रखण्डत्व अखण्डत्व निर्देश-दे० द्रव्य/४ । ३. आकाशमें ग्वण्ड कल्पनारूपात आकाशश्रेणी: प्रमाणाडुलका एक असल्यातभाग, असख्यात क्षेत्र प्रमाणांगुलके असंख्यात भाग; एकक्षेत्र प्रमाणाङ्गुल; पाद, वितस्त दे० आकाश/२। ४. परमाणुमें खण्ड कल्पना-दे० परमाणु/३ । ( वालिस्त) आदि पहलेकी तरह जानना चाहिए । विशेष दे० खंडप्रपात कट-विजया पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/१४ । गणित/I/१। खंडप्रपात गुफा-विजया पर्वतकी एक गुफा, जिसमेसे सिन्धु क्षेत्र प्रयोग-Method of application of area (ज. ___नदी निकलती है --दे० लोक/३१५ । प/प्र/१०६ )। खंडशलाका-Piece log ज. प./प्र. १०६ । क्षेत्रफल-Area ज दे० शुद्धि । खेंडिका-विजयार्धको उत्तर श्रेणीका एक नगर -दे० विद्याधर । क्षेत्रमिति-Mensuratioin ./५/प्र २७ । खंडित-गणितकी भागहार विधि भाज्य राशिको भागहार द्वारा क्षेत्रवान्-षड् द्रव्योंमें क्षेत्रवान व अक्षेत्रवान् विभाग (दे० द्रव्य/३) __खण्डित किया गया कहते हैं -दे० गणित/11/१/६ । क्षेत्रविपाकी प्रकृति-दे० प्रकृतिबंध/२। ख-अनन्त । क्षेत्र शुद्धि- दे० शुद्धि। खचर-भा.पा./टी./७५/२१८/४ खे चरन्त्याकाशे गच्छन्तीति खचरा क्षेत्रोपसंपत-दे० समाचार । विद्याधरा उभयश्रेणिसंबन्धिन' - आकाशमे जो चरते है, गमन करते है वे खचर कहलाते है, ऐसे विजयाकी उभय श्रेणि सम्बन्धी क्षप-१. गो. क /भाषा./८३४/१००८/२ जिसको मिलाइए किसी अन्य विद्याधर (खचर कहलाते है)। राशिमें जोडिए ताको क्षेप कहिए । २. अपकृष्ट द्रव्यका क्षेप करनेका खड-चतुर्थ नरकका षष्ठ पटल-दे० नरक/५/११॥ विधान -दे० अपकर्षण/२ । खडखड-चतुर्थ नरकका सातवॉ पटल -दे० नरक/५/११॥ क्षमकर-१ यह तृतीय कुलकर हुए हैं। विशेष परिचय--दे० शलाकापुरुष/१ । २. विजयाधंकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० खडा-दूसरे नरकका पाँचवॉ पटल -दे० नरक/५/११॥ विद्याधर। ३. लौकान्तिक देवोंका एक भेद-दे० लौकान्तिक । ४. खडका-दूसरे नरका सातवाँ पटन - दे० लोक/५/११६ लौकान्तिक देवोका अवस्थान-दे० लोक/७ । खड्ग -१. चक्रवर्तीके चौदह रत्नोमें से एक है-दे० शलाकापुरुष/२/२ क्षेमंधर-१. वर्तमान कालीन चतुर्थ कुलकर । विशेष परिचय-दे० २. भरतक्षेत्र पूर्व आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४। शलाकापुरुष/६ । २ कृति- बृहत्कथामजरो; समय-ई० १००० । पूर्व विदेहस्थ आर्वतदेशकी मुख्य नगरी-दे० लोक/५/२० ( जीवन्धर चम्पू/प्र.१८)। खड्गा -- अपर विदेहस्थ सुबल्गु देशको मुख्य नगरी-दे० लोक/१/२० क्षेम-ध.१३/५,५,६३/८ मारोदि-डमरादोणमभावो खेम णाम तबिव खड्गसेन-नारनौल वासीन्छृणराज के पुत्र एक हिन्दी कवि जो पीछे रीदमक्खेमं । मारी, ईति व राष्ट्रविप्लव आदिके अभाव का नाम क्षेम है । तथा उससे विपरीत अक्षेम है । (भ. आ./त्रि.१५६/३७२/५) । लाहौर रहने लगे थे। वि० १७१३ में त्रिलोक दर्पण लिखा। समय वि०१६६०-१७२० (ई०१६०३-२६६३) । (तो०/४/२८०) । क्षेमकोति-काष्ठासंघको गुर्वावलोके अनुसार (दे० इतिहास) खादरसार - म.प्र/७/ श्लोक विन्ध्याचल पर्वतपर एक भील था। यह यश कीतिके शिष्य थे। समय-वि०१०४ ई०६६८ (प्रद्युम्न मुनिराजके समीप कौवेके मासका त्याग किया (३८६-३६६) प्राण जाते चरित्र/प्र. प्रेमीजी); (ला. सं /१/६४-७०)। दे० इतिहास/७४। भो नियम का पालन किया। अन्तमे मरकर सौधर्मस्वर्गमे देव हुआ २. यश कीर्ति भट्टारकके शिष्य थे। इनके समयमें ही पं० राजमल्लजी (४१०-) । यह श्रेणिक राजाका पूर्व का तीसरा भर है। -दे० श्रेणिक ने अपनी लाटी संहिता पूर्ण की थी। समय वि०१६४१ ई० १५८४ । खरकर्म-दे० सावद्य/२/५ । (स.सा./कलश टी०/प्र०व० शीतल)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-२७ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरदूषण २१० खरदूषण - प० पु०/ ६ / श्लोक मेघप्रभका पुत्र था (२२) । रावणकी बहन चन्द्रनखाको हर कर (२५) उससे विवाह किया (१०/२८ ) । खरभाग १ लोक प्रारम्भ स्थित पृथ्वी विविध प्रकारके रनोंसे युक्त है. इसलिए उसे चित्रा पृथिवी कहते है। चित्राके सौन भाग है; उनमें से प्रथम भागका नाम खरभाग है। विशेष - दे० रत्नप्रभा/२ २. अधोलोक में खर पंकादि पृथिवियोका अवस्थान - दे० भवन / ४॥ खवंट -- दे० कर्मट । खलोनित - कायोत्सर्गका अतिचार - दे० व्युत्सर्ग/ १ । खातिकाणी द्वितीयण । के खाद्य . आ /६४४ .../ खादति वादियं पू---६४४) जो लावा जाये रोटी लड्डू आदि खाद्य है (अन. ७/१२/२६०); (ला. सं./ २/१६-१७) । खारवेल - - कलिंग देशका कुरुवंशी राजा था। समय-- ई पू. १६० ॥ खारीका प्रमाण निशेष गति / २/१/२० खुशाल चन्द सांगानेर निवासी खण्डेलवाल जैन सांगानेरवासी 4० तखमीदासके शिष्य थे दिलो जसपुरा वि० सं० १७८० ई० १७२३ में प्र० जिनदास हरिवंश के अनुसार हरिवंशपुराणका पद्यानुवाद किया है। इसके अतिरिक्त, पद्मपुराम उसरपुराण, धन्यकुमार चरित्र जम्परित्र यशोधर चरित्र और व्रतकथा कोष । समय- वि० श० १८ उत्तरार्ध । (ती./४/३०३) | टिति प /४/१३३८. सिरिदपरिवेट ... पर्वत और नदीसे घिरा हुआ महलाता है। ६. १२/१४.६३/३३/० सरितपर्वतावरुद्ध छे नाम-नदो और पर्वतसे अवरुद्ध नगर की खेट संज्ञा है । (म. पु. / १६/१६१); (त्रि सा./६७६) । खेद - नि. सा. ( ता.वृ./६/१४/४) अनिष्टलाभः खेद' । - अनिष्टकी प्राप्ति ( अर्थात् कोई वस्तु अनिष्ट लगना) वह खेद है। स्त " - [TT] गंगदेव-तावतार के अनुसार आपका नाम (दे० इतिहास) देन था। आप भद्रबाहु प्रथम ( श्रुतकेवली ) के पश्चात दसवें ११वें अंग पूर्वधारी हुए थे। समय बी०नि० २१६-३२६ (ई० पू० ११२१९८ ) । (दे० इतिहास ४/४ ) | गंगराज पोरल नरेश विष्णुवर्धन के मन्त्री मे ००१०५ अपने गुरु शुभचन्द्रको निषद्यका बनवायी थी। तथा श० सं० १०३७ चिराजकी समाधि की स्मृतिमें स्तम्भ खडा कराया था। समयश० १०१५-१०५० ( ई० १०१३-११२८ ); ( घ./२/प्र. ११ ) । गंगा-१. पूर्वीमध्य आर्य की एक नदी ३०/३/१९८१. कश्मीरने महनेवाली कृष्ण गंगा ही पौराणिक गंगा नदी हो सकती है । (ज. प./ प्र १३६ A N. up and H 1 ) -- दे० कृष्ण गंगा । गंगाकुण्ड - भरतक्षेत्रस्थ एक कुण्ड जिसमे से गंगा नदी निकलती है। दे० लोक/३/१० गंगाकूटस्थ एक फूट] दे० लोक ३/४ गंगादेवी गगाकुण्ड तथा गंगाटकी स्वामिनी देवी-दे० लोक /७ । गंगा नदी - भरत क्षेत्रकी प्रधान नदी -दे० लोक/७ ॥ - गंडरादित्य शिलाहार राजा थे। निम्ब समय- श० १०३०-१०५८९ ई० ११०८-११३६ /ष Jain ). गंडविमुक्तदेव मन्दिसंप के देशीयम के अनुसार मामनन्दि मुनि कोल्हापुरी के शिष्य तथा भानुकोति व कीर्ति के गुरु थे। समय वि० १९६०-१९१० ई० ११३३-१९६३) (व.सं. २/४ HI.Jain ) दे० इतिहास / ७ / १२ नन्दिसंध देशीय गणके अनुसार (दे० इतिहास ) माघनन्दि कोल्लापुरीयके शिष्य देवकीर्तिके शिष्य थे अपरनाम वादि चतुर्मुख था। इनके अनेक श्रावक शिष्य थे । यथा = १ माणिक्य भण्डारी मरियानी दण्डनायक, २. महाप्रधान सर्वाधिकारी ज्येष्ठ ज्येष्ठ दण्डनायक भरतिमय्यः ३ हेडगे बुचिमरयंगल, ४. जगदेकदानी हेडगे कोरय्य । तदनुसार इनका समय-- ई० ११५८-११८२ होता है । दे० इतिहास / ७/५ । गंध-१. गन्धका लक्षण गंध स. सि / २ /२०/१७८/६ गन्ध्यत इति गन्ध: - गन्धनं गन्धः । स.सि./ ५ / २३/२६४ / १ गन्ध्यते गन्धनमात्रं वा गन्धः । - १. जो सूंघा जाता है वह गन्ध है ...गन्धन गन्ध है । २ अथवा जो सुँघा जाता है अथवा पन्ध कहते हैं। ( रा ०/२/१०/१/११२/११); (ध. १/१,१,३३/२४४/१ ); (विशेष - दे० वर्ण / १) | ० निक्षेप / ५/६ ( बहुत द्रव्योंके संयोगसे उत्पादित द्रव्य गन्ध है ) । इसने सामन्त थे। खं. २ / १०६ H. L. २. गन्ध के भेद स.सि./५/२३/२४/९ द्वेषाः सुरभिरसुरभिरिति एते मूलभेदाः प्रत्येकं संख्ये या संख्येयानन्तभेदाश्च भवन्ति । - सुगन्ध और दुर्गन्धके भेद से वह दो प्रकारका है. ये तो मूल भेद है। वैसे प्रत्येक के संख्यात, असंख्यास और अनन्त भेद होते है। रामा ४८५); ( प प्र / टी / १/२१/२६/१ ); (द्र. सं/टी /७/१६/१२); (गो. जी /जी. प्र. /४७६/८८५/१५ ) । ३. गन्ध नामकर्मका लक्षण स.सि / ८ / ११ / ३१०/१० यदुदयप्रभवो गन्धस्तद् गन्धनाम । -जिसके उदयहोती है वह गन्ध नाम/१२ १०/१००/१६) (गो.जी. ४/११/२/१३)। घ. ६९.११.२०५६ जस्स कम्मर उदव जीवसरी जादिपणियों गंध उपनदि तर कम्मर गधा नार कारणे कज्जुनधारादो जिससे जीवके शरीर में जातिके प्रति नियत गन्ध उत्पन्न होता है उस कर्मस्कन्धकी गन्ध यह संज्ञा कारण कार्य के उपचार की नयी है। (१३/२५० १०२/३६४/७ ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १. गन्ध नामकर्मके भेद . . ६/१६-१/१८/०४ गधणामकम्मं त दुनिहं सुरहिगंध दूरहिगंधं चैव ॥२८॥ जो गन्ध नामकर्म है यह दो प्रकारका हैसुरभि गन्ध और दुरभि गन्ध (प.. १३/५/सू. १९१/३००); (पं. स. प्र./२/५/०७/३१) (स. सि./८/११/२६०/९१) (रा. बा./ सं. ); (रा.वा./ ८/११/१०/५७७/१७ ) ( गो. क/जी. प्र./३२/२६/१, ३३ / २६ /१४ ) । * नामकमोंके गन्ध आदि सकारण है या निष्कारण --- ३० वर्ण १४ । * जल आदिमें भी गंधकी सिद्धि -२०१० Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंध २११ गजाधरलाल __ * गन्ध नामकर्मके बन्ध, उदय, सत्त्व --दे० वह वह नाम। गध-तिल्लोयपण्णतिके अनुसार नन्दीश्वर द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव; त्रि सा. व ह. पु. के अनुसार इक्षुवर समुद्रका रक्षक व्यन्तर देव-दे० व्यन्तर/४। गंधअष्टमी व्रत-३१२ दिन तक कुल २८८ उपवास तथा ६४पारणा। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । विधि--(तविधान संग्रह/ पृ. ११०)। गंधकूट-शिखरो पर्वतस्थ एक कूट व उसकी स्वामिनी देवी-दे० लोक/१/४। गधकुटा-समवशरणके मध्य भगवान्के बैठनेका स्थान। -दे० समवशरण। गंधमादन-१. विजयाको उत्तर श्रेणी में एक नगर-दे० विद्याधर । २. एक गजबन्त पर्वत दे० लोक/५/३,३. गन्धमादन पर्वतस्थ एक कूट व उसका रक्षक देव --दे० लोक/४/४,४. अन्धकवृष्णिके पुत्र हिमवान्का पुत्र नेमिनाथ भगवान का चचेरा भाई --दे० इतिहास१०/१० । ५. हालार और वरडों प्रान्तके बीचकी पर्वत श्रेणीको 'बरडों' कहते हैं । सम्भवतः इसी श्रेणीके किसी पर्वतका नाम गन्धमादन है। गंधमालो-गन्धमादन गजदन्तके गन्धमाली कूटका स्वामीदेव -दे० लोक/७। गन्धमालिनी--१. अपर विदेहस्थ एक क्षेत्र --दे० लोक५/२२. देवमाल वक्षारका एक कूट-दे० लोक/४,३. देवमाल वक्षारके गन्धमालिनी कूटका रक्षक देव-दे० लोक/४ ४. विदेह क्षेत्रस्थ एक विभंगा नदी-दे. लोकश, ५. गन्धमादन विजयाध पर्वतस्थ एक कूट -दे० लोक/४। गंधर्व-१. कुन्थुनाथका शासक यक्ष-दे० तीर्थ कर/५/३,पा. पु/१७/ श्लोक-अर्जुनका मित्र व शिष्य था (६५-६७)। बनवासके समय सहायवनमें दुर्योधनको युद्ध में बाँध लिया था ( १०२-१०४ ) । गंधर्व-१. गंधर्वके वर्ण परिवार आदि-दे० व्यन्तर /१२। (ई० पू० १८२-८२)।-दे० इतिहास ३/४ गंधवान्-हैरण्यवत क्षेत्रके मध्यमे कूटाकार एक वैताढ्य पर्वत -दे० लोक/६/३। गंधसमृद्ध-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर--दे० विद्याधर । गंधहस्ती-१. आचार्य समन्तभद्र ( ई० श०२) कृत- तत्त्वार्थ सूत्र (मोक्षशास्त्र) पर संस्कृत भाषामें १६००० श्लोक प्रमाण विस्तृत भाष्य है ।२सिद मेन गाणी का अपर नाम । (३० परिशिष्ट २॥ गंधा-अपर विदेहस्थ एक क्षेत्र अपर नाम वल्गु --दे० लोक/५/२। गंधिला-१.अपर विदेहस्थ एक क्षेत्र --दे० लोक/२/२ २. देवमाल वक्षारका एक कूट व उसका रक्षक देव --दे० लोक/५/४। गंभीर-महोरग नामा जाति व्यन्तर देवका एक भेद- दे० महोरग। गंभीरमालिनी-अपरविदेहस्थ एक विभंगा नदी/अपरनाम गन्ध___ मालिनी --दे० लोकाशा गंभीरा-पूर्व आर्य खण्डस्थ एक नदी--दे० मनुष्य/४ । गगनचरी-विजया की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । गगननंदन-विजयाध की उत्तर श्रेणीका एक नगर--दे० विद्याधर । गगनमंडल-विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। गगनवल्लभ-विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। गच्छ-ध. १३/१,४,२६/६३/८ तिपुरिसओ गणो । तदुवरि गच्छो। -तीन पुरुषोके समुदायको गण कहते है और इससे आगे गच्छ कहलाता है। गच्छपद- Number of Terms ,ज. प्र./प्र /१०६) विशेष-दे० गणित/11/५/३/४ । गज-१. सौधर्म स्वर्गका २६ वॉ पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग ५/३ । २ चक्रवर्तीके चौदह रत्नोमेसे एक-दे० शलाकापुरुष/२ । ३. क्षेत्र का प्रमाण विशेष/अपरनाम रिक्कू या किष्कु -दे० गणित/1/१/३। गजकुमार-(ह. पु./सर्ग/श्लोक-वसुदेवका पुत्र तथा कृष्णका छोटा भाई था (६०/१२६)। एक ब्राह्मणकी कन्यासे सम्बन्ध जुडा ही था कि मध्यमे ही दीक्षा धारण कर ली (६१/४)। तब इनके ससुरने इनके सरपर क्रोधसे प्रेरित होकर आग जला दी। उस उपसर्गको जोत मोक्षको प्राप्त किया ( ६१/५-७)। गजदंत-१. विदेह क्षेत्रस्थ सुमेरु पर्वतकी चारो विदिशाओमे सौमनस, विद्य प्रभ, गन्धमादन, माल्यवान नामक चार गजदन्ताकार पर्वत है। दो पर्वत सुमेरुसे निकलकर निषध पर्वत तक लम्बायमान स्थित है। और दो पर्वत सुमेरुसे निकल कर नील पर्वत पर्यन्त लम्बायमान स्थित है। विशेष-दे० लोक/३/११ । २. गजदन्तका नकशा -दे०लोक/८ । गजपुर-भरत क्षेत्रका एक नगर-दे० मनुष्य/४ । गजवती- भरतक्षेत्रके वरुण पर्वतस्थ एक नदी-दे० मनुष्य/४। गजाधरलाल- आगरा जिलेके जटौआ ग्राममे जन्म हुआ था। पिताका नाम चुन्नीलाल जैन पद्मावतीपुरवाला था। कृति--पंचविशतिका, श्रेणिक चरित्र, तत्त्वार्थ राजवातिक; ४ अध्याय; विमलपुराण, मल्लिनाथ पुराण । स्वर्गवास-ई० १६६३ बाबई ( तत्त्वानुशासन/प्र०७० श्री लाल) ..गवपकमत २. गन्धर्व देवका लक्षण ध, १३/५,५,१४०/३६१/8 इन्द्रादीनां गायका गन्धर्वा: ।-इन्द्रादिकोके गायकोंको गन्धर्व कहते हैं। ३. गन्धर्वके भेद ति. प./६/४० हाहाहूहूणारदतुंवरवासवकदंबमहसरया । गीदरदीगीदरसा वइरवतो हों ति गंधव्वा ।४01 =हाहा, हह, नारद, तुम्बर, वासव, कदम्ब, महास्वर, गीतरति, गीतरस और वज्रवान् ये दस गन्धर्वोके भेद हैं । (त्रि. सा./२६३)। गन्धर्वगुफा-समेरुपर्वतके नन्दनादिवनोंके पश्चिममें स्थित एक गुफा। इसमें वरुणदेव रहता है। --दे० लोक/३/६४|| गंधर्वपुर-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर ---दे० विद्याधर । गन्धर्व विवाह-दे० विवाह । गधवसन-१. हिन्दू धर्म के भविष्य पुराणके अनुसार राजा विक्रमादित्यके पिताका नाम गन्धर्वसेन था। (ति. प./प्र. १४ H. L Jain.) २.शकवंशी राजा गर्दभिल्ल का अपर नाम । मालवा (मगध) देशमें गन्धर्वके स्थानपर श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार गर्द भिल्लका नाम आता है । अथवा गर्दभी विद्या जाननेके कारण यह राजा गर्दभिल्लके नामसे प्रसिद्ध हो गया था। समय-वी.नि० ३४५-४४५ जनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गड्डी . १४/२६.४१/८/१० हरदीपनाओं पण्णादिद । माओ गड़ीओ नाम जिनके दो चक्के होते है, और जो धान्यादि हलके भार के ढोनेमे समर्थ है वे गड्डी कहलाती है। गण - स. सि /९/२४/४४२/६ गण स्थविरसंतति । स्थविरों की सन्ततिको गण कहते है । (रा. वा /६/२४/८/६२३/२०/ ). ( चा सा /१५१/३) गड्डो घ. १२/१४.२६/६३/- रिओ गणो तीन पुरुषो के समुदायको गण कहते है । २. निज परगणानुपस्थापना प्रायश्चित्त दे० परिहार प्रायश्चित्त । गणधर - १. गणधर देवोंके गुण व ऋदियाँ ति./१६७ वे गणधरदेवा सज्ये मिहु अहरिद्विपणा ये सही गणधर अष्टद्धियों सहित होते है। (घ १/४.१.४४/गा. ४२ / १२८ ) ६. ३/४ १.४४/१२७/० पंचमहन्वपचारओ तिगुसित पंचसमिदो - मदो मुकसत्तभओ बीजकोट्ठ पदानुसारि स भिण्णसोदारत्तुवलविओ उकर ठोहिणा पण उत्सबलादो नीहारविवजिओ दिततत्तद्विगुणेग सरकारलोपवासो वि संतो सरीरतेोयदस दिसो सोहि द्धिगुणेण सह तलादो कर गुलिया तिहूगणतो अमियासयोगले अंजखिणविताहारे अमियम परिमलमो महात्वगुणेपण कप्पर महाण सक्लीगल मिलेग सुगृहस्थ णिम दिदाहाराणामुपाय अघोरतवमाहप्पेण जीवाणं मण वयण कायगया सेस दुत्थियत्तणिवारओ सयलविज्जाहि सवियपादमूला आयासचारणगुणेण रक्खियासेसजीवशिवो वायाए गणेश व संयतत्वसंपादक्खनो अणिमादिअट्टगुणेहि जयदेव वायाए मणेण य समत्तसंपादन] अणिमादि गुणेहि जियासेस देवविहो तिहुणजगजेठओ परोसेगविणा अक्खराणक्खरसरूवासेसभासतरकुसली समवसरणजणमेत्तत्रधारित अम्हम्हाणं भासाहि अम्हम्हाणं चैव कहदित्ति सव्वेसि पच्चउपाय समवसरणजणसोदिदिए सगमुहविणिग्गयायभासाणं संकरेण पवेसस्स विणिवारओ गणहरदेवो गंथकत्तारी, अण्णहा गंथस्स पाणविरोहाद धम्मरसायणेण समोसरपणावतीदो पाँच महावती धारक, दोन गुझियोसे रक्षित, पाँच समितियों से युक्त, आठ मासे रहित, सत भयों से मुक्त, मीज, कोष्ठ, पदानुसारी भिन्नतृत्व बुद्धियो से उपलक्षित, प्रत्यक्षभूत उत्कृष्ट अवधिज्ञानसे युक्त तप्त तपलब्धि प्रभावसे मल, मूत्र रहित, दीप्त तपलब्धि के मलले सर्वकाल उपवासयुक्त होकर भी शरीरके तेजसे दशों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले, सर्वोषधि सन्धिके निमित्त समस्त औष धियों स्वरूप, अनन्त बलयुक्त होनेसे हाथकी कनिष्ठ अंगुली द्वारा तीनों लोकों को चलायमान करने में समर्थ अमृत आसनादिद्धियों के बलसे हस्तपुटमें गिरे हुए सर्व आहारोंको अमृतस्वरूपसे परिणामे में समर्थ, महातप गुणसे कल्पवृक्षके समान, अक्षीणमहानस लब्धि के बल से अपने हाथ गिरे आहारकी अक्षयताके उत्पादक अोरत के माहात्म्यसे जीवोके मन, वच एवं कायगत समस्त कष्टोंके 'दूर करनेमाले सम्पूर्ण विद्याओके द्वारा सेमित चरण से संयुक्त आकाशचारण गुणसे सब जीव समूहकी रक्षा करनेवाले, वचन और मनसे समस्त पदार्थो के सम्पादन करनेमें समर्थ, अणिमादिक आठ गुणों के द्वारा सब देव समूहको जीतनेवाले, तीनो लोको के जनों में श्रेष्ठ, परोपदेशके बिना अक्षर व अनक्षर रूप सब भाषाओं में कुशल, समपसरणमें स्थित जनमात्रके रूपके धारी होनेसे 'हमारी हमारी भाषाओ से हम हमको ही कहते हैं" इस प्रकार सबको विश्वास करानेबाले, तथा समवसरणस्थ जनोंके कर्ण इन्द्रियों में अपने मुँह से निकली हुई अनेक भाषाओंके सम्मिश्रित प्रवेशके निवारक ऐसे गणधरदेव " २१२ ग्रन्थकर्ता है, क्योंकि ऐसे स्वरूप बिना इन्धकी प्रामाणिक्साका विरोध होनेसे धर्म रसायन द्वारा समवसरण के जनोंका पोषण बन नहीं गणधर सक्ता । म. ४२ / ६० पतुर्भिरधिकाशीतिरिति सष्टुर्गणाधिपा एते संयुक्ताः सर्वे वेनुमादिनः ॥६०॥ ऋषभदेव के सर्व (४) गणधर सातो ऋद्धियो से सहित थे और सर्वज्ञ देवके अनुरूप थे । ( ह. पु / ३ / ४४ ) २. गणधरोंकी ऋद्धियोंका सद्भाव कैसे जाना जाता है घ ६/४, १,७/५८ /६ गणहरदेवेसु चत्तारि बुद्धिओ, अण्णहा दुवालसँगाणमष्यसिप गावो कई तावत्थ को बुद्धीअभावो उप्पण्ण दणाणस्स अट्ठाणेण विणा विणा सप्पस गादो । विमाययत्ययस्वणविनिमय अनख राममखरपयमनिसिगिय बीजपदा मगहर देवाणं दुवाल संगाभावप्पस गादीच त्य पदानुसारिसणिदणाणाभावो, बीजबुद्धीए अवगयसरूवेहितो कोट्टबुद्धि पत्ताट्टाणे हितो बीजपदेहितो ईहावाएहि विणा बीजपदुभयदिसावर पदमरायवाप्पती अयमतोदो। ण सम्भिण्णसोदारत्तस्स अभावो, तेण विणा अवखराणक्वप्पाए सत्तसदट्ठारसकुभास - भाससरूवाए णाणाभेद भिण्णबीजपदसरूवाए पक्खिण मण्णष्णभावसुवगच्छंतीए दिव्वज्भुणीए गहणाभावादो दुवासंगुप्पत्तीए अभावप्यसंगो त्ति । गणधर देवोंके चार बुद्धियों होती है, क्योंकि, उनके बिना बारह अंगोकी उत्पत्ति न हो सकने ' का प्रसंग आवेगा । प्रश्न - बारह अंगोकी उत्पत्ति न हो सकनेका 'प्रसंग कैसे आवेगा ? उत्तर- गणधरदेवो में कोष्ठ बुद्धिका अभाव नहीं हो सकता, क्योकि ऐसा होनेपर अवस्थानके मिना उत्पन्न हुए त ज्ञानके विनाशका प्रसंग आवेगा। क्योकि उसके बिना गणधर देवोको तीर्थकर से निकले हुए और अनहार स्वरूप महुत लिगादिक बीज पदोका ज्ञान न हो सक्नेसे द्वादशांगके अभावका प्रसंग आयेगा। भीमबुद्धिके बिना भी द्वादशांगको उत्पत्ति न हो सक्ती कोकि ऐसा मानने में अतिप्रसंग योग आयेगा उनमें पादानुसारी नामक ज्ञानका अभाव नहीं है, क्योकि बीजबुद्धिसे जाना गया है स्वरूप जिनका तथा कोष्ठबुद्धिसे प्राप्त किया है अवस्थान जिन्होंने ऐसे भीजपदो ईहा और अमायके बिना पदकी उम दिशा विषयक श्रुतज्ञान तथा अक्षर, पद, वाक्य और उनके अर्थ विषकश्रुतज्ञानकी उत्पत्ति बन नही सकती । उनमें संभिन्नश्रोतृत्वका अभाव नहीं है, क्योंकि उसके बिना अक्षरानक्षरात्मक, सात सौ कुभाषा और अठारह भाषा स्वरूप, नाना भेदोंसे भिन्न बीजपदरूप, व प्रत्येक क्षण में भिन्न-भिन्न स्वरूपको प्राप्त होनेवाली ऐसी दिव्यध्वनिका ग्रहण न हो सकनेसे द्वादशांगकी उत्पत्तिके अभावका प्रसंग होगा (अतः उनमें उपरोक्त बुद्धियाँ हैं) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३. भगवान् ऋषभदेवके चौरासी गणधरोंके नाम म. पु. / ४३/५४-६६ से उदधृत - ९. वृषभसेन; २. कुम्भ; ३. दृढरथ; ४. शतधनुः ५. देवशर्मा; ६. देवभाव; ७ नन्दन सोमदत्त; ६. सूरत: १०. वायुशर्मा ११. शोमा १२. देवा १३. अग्निदेव; १४. अग्निगुप्त १५. मित्राग्नि; १६. हलभृत; १७. महीधर; १८. महेन्द्र; १६. वसुदेव; २०. वसुंधर; २१. अचल; २२. मेरु; २३. मेरु २४. मेरुति १५ सर्व २८ सर्वतः २७ सर्वप्रियः २८. सर्वदेवः २१ सर्वयज्ञ ३० सर्वविजय ३१. विजय, १२. विजय मित्र; ३३. विजयिल; ३४, अपराजित; ३५ वसुमित्र ३६. विश्वसेन; ३७. साधुसेन; ३८. सत्यदेव; ३६. देवसत्य; ४०. सत्यगुप्त; ४१. सत्यमित्र. ४२. निर्मल; ४३. विनीत ४४ संवर; ४५. मुनिगुप्त; ४६. मुनिदत्त ४७ मुनियज्ञः ४८. मुनिदेव ४६. गुप्तयज्ञः ५०. मित्रयज्ञ: ताए Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर वलययंत्र ५१. स्वयंभूः ५२. भगदेव; ५३. भगदत्त; ५४; भगफल्गु; ५५. गुप्तफल्गु; २६ मित्रन् ५० प्रजापति: २८ सर्व संच ५१. रु ६०. धनपालक ६१. मघवान्; ६२. तेजोराशि, ६३. महावीर ६४. महारथ; ६५. विशालाक्ष, ६६. महाबाल; ६७. शुचिशाल, ६८. वज्रः ६६. वज्रसार: ७०. चन्द्रचूल : ७१. जय, ७२. महारस; ७३ कच्छ ७४ महाकच्छ, ७५, नमि; ७६. विनमि, ७७ बल ७८ अतिबल ७६. भद्रबल ८० नन्दी, ८१. महीभागी; ८२. नन्दिमित्र ८३. कामदेव; ८४. अनुपम । इस प्रकार भगवान् ऋषभदेवके चौरासी गणधर थे । ४. भगवान् महावीरके ११ गणधरोंके नाम २१३ ह. पू./१/४१-४३] इन्द्रभूतिरिति प्रोत प्रथमो गणधारिणाम् । अग्निभूति द्वितीयच वायुतिस्तृतीयक ॥४१॥ शुचिदत्तस्तुरीयस्तु सुधर्म' पञ्चमस्ततः । षष्टो माण्डव्य इत्युक्तो मौर्यपुत्रस्तु सप्तमः ॥ ४२ ॥ अष्टमोऽकम्पनाख्यातिरपलो नवमो मतः । मेदाय दशमोऽन्त्यस्तु प्रभास सर्व एव ते |४३| उन ग्यारह गणधरो में प्रथम इन्द्रभूति थे । फिर २ अग्निभूति, ३ वायुभूति ४ शुचिदत्त ५. सुधर्म ६. माण्डव्य, ७ मौर्यपुत्र, अकम्पन ६. अचल: १०. मैदार्य और अन्तिम प्रभास थे। ( म. पु. / ७४ / ३४३-३७४ ) ५. उक्त ११ गणधरोंकी आयु म. पु / ६०/ ४८२-४८३ वीरस्य गणिनां वर्षाण्यायुद्वनवतिश्चतु । विशतिः सप्रति स्थादशीतितमेव ४२ प्रयोऽशीतिथ नमतिः भि. साहसति द्वाभ्यां च सप्तति पतित्वारिंशन संयुताः १४८३॥ महावीर भगवान् गणधरोंकी आयु कम २ वर्ष २४ वर्ष, ७० वर्ष ८० वर्ष, १०० वर्ष वर्ष १५ वर्ष, ७८ वर्ष ७२ वर्ष ६० वर्ष और ५० वर्ष है ★ २४ तीर्थंकरोंके गणधरोंकी संख्या -- दे० तीर्थंकर / ५ । * गणधरका दिव्यध्वनिमें स्थान - दे० दिव्यध्वनि । गणधर वलययंत्र - दे० यत्र । गणना - संख्यात, असंख्यात व अनन्तकी गणना- दे० वह वह नाम | गणनानंत - Numerical infinite (ज. प . / १०६ ) | गणनाप्रमाणगणित / १ । गणपोषणकाल - दे० काम/१। गणोपग्रहण क्रिया दे० संस्कार/२ गणित - यद्यपि गणित एक लौकिक विषय है परन्तु आगम के करणायोग विभागमे सर्वत्र इसकी आवश्यकता पड़ती है। कितनी ऊँची श्रेणीका गणित वहाँ प्रयुक्त हुआ यह बात उसको पढ़ने से ही सम्बन्ध रखती है । यहाँ उस सम्बन्धी ही गणितके प्रमाण, प्रक्रियाएँ व सहनानी आदि संग्रह की गयी है। - १. दे० प्रमाण / ५ । २० गणना प्रमाण निर्देश- दे० 1 गणित विषयक प्रमाण 9 १ ३ ४ ५ ६ २ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ २ ३ ४ १ २ ३ ४ ३ गणित प्रक्रियाओंकी अपेक्षा सहनानियाँ परिकर्माष्टकको अपेक्षा सहनानियो । लघुरिक्थ गणितकी अपेक्षा सहनानियों । श्रेणी] गणितकी अपेक्षा सहनानियाँ षट् गुणवृद्धि हानिकी अपेक्षा सहनानियों । 1 ? २ ३-४ ५-६ द्रव्य क्षेत्रादिके प्रमाणोंका निर्देश संख्याको अपेक्षा द्रव्य प्रमाण निर्देश । संख्यात, असंख्यात व अनन्त --दे० वह वह नाम । लौकिक व लोकोत्तर प्रमाणोंके भेदादि - दे० प्रमाण / ५१ तौकी अपेक्षा इन्यप्रमाण निर्देश । क्षेत्रके प्रमाणोंका निर्देश । राजू विषयक विशेष विचार सामान्य कालप्रमाण निर्देश । ७ उपमा कालप्रमाण निर्देश । उपमा प्रमाणकी प्रयोग विधि | यक्ष प्रादि प्रमाणोंकी अपेक्षा सहनानियाँ लौकिक संख्याओंकी अपेक्षा सहनानियों अलौकिक संख्याओं की अपेक्षा सहनानियों । द्रव्य गणनाको अपेक्षा सहनानियाँ । पुद्गलपरिवर्तन निर्देशकी अपेक्षा सह० । एकेन्द्रियादि जीवनिर्देशकी अपेक्षा सह० । कर्म व स्पर्धकादि निर्देशकी अपेक्षा सह० । क्षेत्र प्रमाणों की अपेक्षा सहनानियाँ। कालप्रमाणोंकी अपेक्षा सहनानियों । II गणित विषयक प्रक्रियाएँ परिकर्माष्टक गणित निर्देश अंकों की गति वाम भागसे होती है। परिकर्माष्टकके नाम निर्देश । संकलन व व्यकलनको प्रक्रियाएँ। --दे० राजू । अक्षर व अंकक्रमकी अपेक्षा सहनानियाँ अक्षर क्रमकी अपेक्षा सहनानियों अंककमकी अपेक्षा सहनानियों। आंकडों की अपेक्षा सहनानियाँ । कर्मोकी स्थिति न अनुभागकी अपेक्षा सह० । गणित गुणकार व भागहारकी प्रक्रियाएँ । विभिन्न भागहारोका निर्देश वर्ग व वर्गमूलको प्रक्रिया। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश --दे० संक्रमण | Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २१४ गणित विषयक प्रमाण १०० धन व घनमूलकी प्रकिया । | विरलन देय घातांक गणितकी प्रक्रिया। भिन्न परिकाष्टक ( fraction ) की प्रक्रिया । शून्य परिकर्माष्टककी प्रक्रिया। | अर्द्धच्छेद या लघुरिक्थ गणित निर्देश अर्द्धच्छेद आदिका सामान्य निर्देश। लघुरिक्थ विषयक प्रक्रियाएँ। अक्षसंचार गणित निर्देश अक्षसंचार विषयक शब्दोंका परिचय । | अक्षसंचार विधिका उदाहरण। प्रमादके ३७५०० दोषोंके प्रस्तार यन्त्र । नष्ट निकालनेकी विधि। समुद्दिष्ट निकालनेकी विधि । | राशिक व संयोगी भंग गणित निर्देश द्वित्रि आदि संयोगी भंग प्राप्ति विधि । | त्रैराशिक गणित विधि । श्रेणी व्यवहार गणित सामान्य श्रेणी व्यवहार परिचय। सर्वधारा आदि श्रेणियोका परिचय । सर्वधन आदि शब्दोंका परिचय। संकलन व्यवहार श्रेणी सम्बन्धी प्रक्रियाएँ । गुणन व्यवहार श्रेणी सम्बन्धी प्रक्रियाएँ। मिश्रित श्रेणी व्यवहारकी प्रक्रियाएँ । | द्वीप सागरोमें चन्द्र-सूर्य आदिका प्रमाण निकालनेकी प्रक्रिया । गुणहानि रूप श्रेणी व्यवहार निर्देश गुणहानि सामान्य व गुणहानि आयाम निर्देश । गुणहानि सिद्धान्त विषयक शब्दोंका परिचय । गुणहानि सिद्धान्त विषयक प्रक्रियाएँ । कर्मस्थितिकी अन्योन्याभ्यस्त राशिएँ। षट् गुण हानि वृद्धि -दे० वह वह नाम। गिणित विषयक प्रमाण १. द्रव्य क्षेत्रादिके प्रमाणोंका निर्देश १. संख्याको अपेक्षा द्रव्यप्रमाण निर्देश (ध.५/प्र./२२) १. एक १६. निरब्बुद ११०,०००,०००) २. दस १७. अहह (१०,०००,०००१० ३ शत १८. अबब (१०,००० ०००)११ ४. सहस्र १००० १६. अटट (१०,०००,०००)१२ ५. दस सह० १०,००० २०. सोगन्धिक (१०,०००,०००)१३ ६. शत सह १००,००० २१. उप्पल (१०,०००,०००)१४ ७. दसशत सहस्र १,०००,००० २२. कुमुद (१०,०००,०००)१५ ८. कोटि १०,०००,००० है. पकोटि (१०,०००,०००)२ २३. पुंडरीक (१०,०००,०००)१६ १०. कोटिप्प २४. पदुम (१०,०००,०००)१७ कोटि (१०,०००,०००)३ | २५. कथान (१०,०००,०००) ११ नहुत (१०,०००,०००) २६. महाकथान (१०,०००,०००)१६ १२. निन्नहुत (१०,०००,०००)५ २७. असंख्येय (१०,०००,०००)२० १३. अखोभिनी (१०,०००,०००१६ | २८ पुणट्ठी == (२५६) - ६५५३६ १४. बिन्दु (१०,०००,०००) २६. बादाल = पणट्ठी १५. अब्बुद (१०,०००,०००) । ३०. एकट्ठी -बादाल ति.प./४/३०६-३११; (रा.वा./३/३/१/३०६/१७); (त्रि.सा.२८-५१) १. जघन्य संख्यात -२ २. उत्कृष्ट संरख्यात जघन्य परीतासंख्यात-१ ३. मध्यम संख्यात -(जघन्य +१) से (उत्कृष्ट-१) तक नोट-आगममें जहाँ संख्यात कहा जाता है वहाँ तीसरा विकल्प समझना चाहिए। ४. जघन्य परीतासंख्यात-अनवस्थित कुण्डों में अघाऊरूपसे भरे सरसोंके दानोंका प्रमाण १६६७११२६३८४५१३१६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६ ३६३६३६३ १ (दे० असंख्यात/8) ५. उत्कृष्ट परीतासंख्यात-जघन्य युक्तासंख्यात-१ ६. मध्यम परीतासंख्यातम् (जघन्य+१) से (उत्कृष्ट -१) तक ७. जघन्य युक्तासंख्यात यदि जघन्य परीतासंरख्यात के (a ), (दे० असंरण्यात IS) क्षेत्रफल आदि निर्देश चतुरस्र सम्बन्धी। वृत्त circle) सम्बन्धी। | धनुष (arc) सम्बन्धी। वृत्तवलय (ring) सम्बन्धी। विवक्षित द्वीप सागर सम्बन्धी। बेलनाकार (cylinderical) सम्बन्धी। ७ | अन्य आकारों सम्बन्धी। ८. उत्कृष्ट युक्तासंरख्यात -जघन्य असंख्यातासंख्यात-१ ६. मध्य युक्तासंख्यात - (जघन्य +१) से (उत्कृष्ट - १) तक १०. जघन्य असंख्याता- =(जघन्य युक्ता)जघन्य युक्ता. संख्यात (दे० असंख्यात/६) ११. उत्कृष्ट असंख्याता० =जधन्य परीतानन्त-१ १२, मध्यम असंख्याता० = (जघन्य+१) से (उत्कृष्ट-१) तक १३. जघन्य परीतानन्त -जघन्य असंख्यातासंख्यातको तीन बार वर्गित संवर्गित करके उसमें द्रव्यों के प्रदेशों आदि रूपसे कुछ राशियाँ जोड़ना (दे० अनन्त१४) १४. उत्कृष्ट परीतानन्त -जघन्य युक्तानन्त-१ १५. मध्यम परीतानन्त - (जघन्य+१) से (उत्कृष्ट-१) तक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित १६. जघन्य युक्तानन्त १७ उत्कृष्ट युक्तानन्त १८. मध्यम युक्तानन्त १६. जघन्य अनन्तानन्त रा.वा./२/१८/२०५/२६ ४ महा अधिक तृण फल १६ श्वेत सक्षम फल २ धान्यमाष फल २ फ ८ = ( जघन्य युक्ता०) (दे० १० अनन्त ७) २०. उत्कृष्ट अनन्तानन्त - जघन्य अनन्तानन्तको तीन बार वर्गित संवर्गित करके उसमें कुछ राशिमें मिलान (दे० अनन्त), २१. मध्यम अनन्तानन्त = ( जघन्य + १) से (उत्कृष्ट - १) तक २. तौलकी अपेक्षा द्रव्यप्रमाण निर्देश १३ रूप्यमाष फल २३ धरण ४] सुवर्ण या ४ स १०० पल ३ तुला या ३ अर्धकंस ४ कुडन (पुसेरे) ४ प्रस्थ (सेर) ४ आढक १६ द्रोण २० खारी द्रव्यका अवि भागी अंश परमाणु अनन्तानन्त परमा० अवसन्नासन्न ८ सन्नासन्न त्रुटरेणु सरेषु ३ क्षेत्रके प्रमाणों का निर्देश वि. प./१/१०२-१९६ ( रा. वा/२/१८/६/२००/२६) (ह.पु/०/३६-४६ ) ( जं प . / १३ / १६-३४ ); ( गो. जी./जी. प्र. / ११८ की उत्थानिका या उपोदघात / २८५/७); (प./३/५/३६ ) । माला ८ लीख - जधन्य अनन्तानन्त - १ = ( जघन्य + १) से (उत्कृष्ट - १) तक (जयन्य युक्ता०) १ अवसन्नासन्न - = जघन्य परीतानन्तकी दो बार वर्गित संगित राशि (दे० अनन्त १ सन्नासन्न १ त्रुटरेण = १ श्वेत सर्षप फल = १ धान्यमाष फल = १ गुंजाफल - १ रूप्यमाष फल (व्यमहाराष्ट्र) = १ त्रसरेणु ( त्रस जीवके पाँबसे उड़नेवाला अ १रथरे रसे उड़नेवाली धूल बालाय. - १ लिक्षा (सील) = १ जू १ धरण - १ सुवर्ण या १ कंस १ पल - - १ तुला या १ अर्धकंस - एक कुडब ( पुसेरा ) ९ प्रस्थ (सेर) १ आढक एवरे का अणु.) -उत्तम भोगभूमिजका वालाग्र. उ.भो.भू.बा. = मध्यम भो. भू. मा. मो. भू. बा. = जघन्य भो. भू. मा. ...मा. कर्मभूमि का - १ द्रोण - १ खारी - १ वाह २१५ ངཡཱ ८ यव = १ यव - १ उत्सेधांगुल ५०० उ. अंगुल = १ प्रमाणां गुल आत्मगुल - भरत ऐरावत (ति. १/२/९०६/१३) क्षेत्र चक्रवर्तीका अंगुल ६ विवक्षित - १ विवक्षित अंगुल २ वि. पाद पाद = १ वि. वितस्ति २ वि. वितस्ति १ वि. हस्त 3200 =१ वि. कि २ वि. हस्त २ किष्कु - युग, १ दंड, धनुष, मूसल या नाली नाही, २००० दण्ड या धनु = १ कोश ४ कोश = १ योजन नोट- उरांगुल से मानव या व्यवहार योजन होता है और प्रमाण गुलसे प्रमाण योजन। (वि.प./१/१११-१२२). (रा बा./३/३०/०/२०८/१०,२३) ५०० मानव योजन १ योजन १ प्रमाण योजन गोल व गहरे कुण्डले उत्पन (१ अद्धापल्य या प्रमाण योजन३ ) जब कि छे अद्धापल्यकी = अर्द्धछेद राशि या log२ I गणित विषयक प्रमाण पल्य (श्रेणी)२ (जगत् श्रेणी) ३ (प./६/४.१.२/३६/४) = १ प्रमाण योजन ( महायोजन या दिव्य योजन ) ८० लाख गज ४५४५.४५ मील ०६८००० अंगुल = १ अद्वापत्य ( दे० पस्य ) १ सूच्यंगुल -प्रतर्रा गुल -१ घनांगुल ( १ घनांगुल) अद्धापल्य + असं = जगत्श्रेणी (प्रथम मत असे असंख्यात = १ सूच्यंगुल (गजी जी.प्र./पृ. २८/४) (ध./३/१.२४/२४/२० + = जगत् श्रेणी (द्वि मत) (१ घनांगुल) (छे व असं. दे० ऊपर) = (ध. /३/१,२४/३४/१) जगत्श्रेणी - -७ १ रज्जू (दे० राजु - १ जगत्प्रतर १ जगत्त्रन या घनलोक (आवली + असं) आवली + असं (आवती आवली के समय प्रमाणआकाश प्रदेश) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ४. सामान्य काल प्रमाण निर्देश १. प्रथम प्रकारसे काल प्रमाण निर्देश ति १/४/२८५१०६ (रावा /३/२०/७/२००/२५) (६.५/०/२८-३९) (प./३/१.२.६/गा. २४-२४/६५-६६) (/४/१५.८/६९८/२) (म. / ३/२१०-२२७) (मं.पी./१२/४-१५). (गो.जी./मू./५०४-२०१/२०१ १०२८); (चा.पा./टी./१०/४० पर उद्धृत) नोट-तिपना अनुयोगद्वार आदि प्रयुक्त नामक कम कुछ अन्तर है वह भी नीचे दिया गया है (ति.प / Fo/HI. Jam) ( जं. प./ के अन्त में प्रो. लक्ष्मीचन्द ) पि. रा.मा. आदिमें पूर्व पूर्वांगसे लेकर अन्तिम अवतारमवाले विकल्प तक गुणाकारसे कुछ अन्तर दिया है वह भी नीचे दिया जाता है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित | गणित विषयक प्रमाण नामक्रम भेद : क्रम क्रमाक २ स्तोक लव मुहूर्त नाली दिवस पूर्वांग नव ऋतु STA वर्षे वर्धशत पूर्व ति.प./४/ अनुयोग द्वार जंप/दिग/ जं.प./श्वे/पृ. उयो क./८-11४५ महालतांग महालतांग शीर्षप्रहे२८५-३०६ सूत्र ११४- १३/४-१४ | ३६-४०अनु.सू १०:२६-३१ लिकांग १३७ पृ. ३४२-३४३ । ६२-७१ || महालता चूलिका महालता शीर्षप्रहे१) समय । समय। । समय समय समय लिका २ आवलि | आनलिका आवली आवली उच्छवास || ४७ श्रीकल्प शीर्ष प्रहेलिकांग शीर्षक पित |...] ३ उच्छ्वास आन उच्छ्वास आनप्राण स्तोक ४ प्राण प्राणु स्तोक स्तोक लव ४८ हस्तप्रहेलित | शीर्ष प्रहेलिका (निश्वास) - स्तोक लव नालिका ||४६ अचलात्म अचलात्म नाली मुहूते अहोरात्र अहोरात्र | मुहूर्त पक्ष दिवस अहोरात्र मास मास मास पक्ष काल प्रमाण - ऋतु ऋतु संवत्सर मास मास अयन अयन सवत्सर पूर्व पूर्वोक्त प्रमाणोमेंसे- सर्व प्रमाण ); (ध./३/३४/ H. L,Jain ) अयन अयन युग लतांग दशवर्ष वर्षशत लता १ समय एक परमाणुके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशपर मन्दगतिसे जानेका युग वर्षसहस्र महालतांग काल। वर्षदशक वर्षसहस्र वर्षशतसहस्त्र महालता वर्षशत वर्षशत दशवर्षसहस्र पूर्वांग । नलिनांग २. ज. युक्ता. असंख्यात समय- ... =१ आवली वर्ष सहस्र वर्षसहस्र वर्षशतसहस्र नलिन ३-४ संख्यात आवली दशवर्षसह -३७ सैकेण्ड =१ उच्छवास या. प्राण ___.. पूर्वाग त्रुटितांग महानलिनांग २० वर्ष लक्ष वर्षशतसह० पूर्व । त्रुटित महानलिन ५. ७उच्छ्वास -५45 सेकेण्ड -१ स्तोक २१ पूर्वांग पूर्वाग पर्वांग अडडांग पद्मांग । २२ पूर्व अडड पद्म ६. ७ स्तोक = ३७९७ सैकेण्ड१ लव नियुतांग त्रुटितांग नयुतांग अक्वांग महापद्मांग ७. ३८३ लव २४ मिनिट -१ नाली ( घडी) नियुत त्रुटित नयुत अवव महापद्म २५ कुमुदांग अटटांग कुमुदांग हूहू अंग कमलांग । ८. २ नाली (घडी) = ४८ मिनट =१ मुहूर्त २६ कुमुद अटट कमल । १५१० निमेष ३७७३ उच्च्छ वास ( दे० मुहूर्त) २७ पद्मांग अवर्वाग पद्मांग उत्पलांग महाकमलांग अवव पद्म * मुहूर्त-१ समय उत्पल महाकमल -१ भिन्न मुहूर्त २४ नलिनांग | हर कांग नलिनांग पद्मांग | * ( भिन्न मुहूर्त-१ समय ) = १ अन्तर्मुहूर्त ३० नलिन । हूहक नलिन पद्म से ( आवली + १ समय ) तक ३१ कमलांग | उत्पलांग कमलांग नलिनांग महाकुमुदाग ३२कमल ६. ३० मुहूर्त २४ घण्टे उत्पल | महाकुमुद = १ अहोरात्र (दिवस) ३३/ त्रुटितांग | पद्मांग। त्रुटितांम अस्थिनेपुररांग त्रुटितांग | १०.१५ अहोरात्रि =१ पक्ष ३४ त्रुटित अस्थिनेपुर , त्रुटित । ३१ अटटोग नलिनांग अटटाग आउअंग महात्रुटितांग (अयुतांग) पूर्वोक्त प्रमाणोंमेंसे --नं० १, २.३,४,७, (घ./५/२१/H. L Jan) ३६ अटट नलिन । अटट | आउ (अयुत) महात्रुटित ३७ अममांग अर्थ निपुरांग अमांग नयुतांग अडडांग ३८, अमम अर्थनिपुर अमम नयुत अडड ११. २ पक्ष -१ मास १५. ५ वर्ष =१ युग हाहांग अयुतांग हाहांग प्रयुतांग महाअडडांग ४० हाहा १२. २ मास = १ ऋतु १६. १० व १०० वर्ष = १ वर्ष दशक व अयुत हाहा महाअडड ४१ हूड्वंग नयुतांग हुहू उंग। चूलितांग । उहाँग १ वर्ष शतक हूहु । चूलित ऊह १३. ३ ऋतु = १ अयन १८ १०००,१०,०००; - १ वर्ष सहरूक ४३ लताग प्रयुतांग लतांग शीर्षप्रहेलिकांग महाऊहाग -१ वर्षदश सहस्र ४४ लता प्रयुत लता | शीर्षप्रहेलिका महाऊह १४. २ अयन -१ संवत्सर २०.१००,००० वर्ष -१ वर्ष लक्ष (वर्ष) २८ पद्म कुमुर्दाग | कमल नलिन । त्रुटित नयुत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २१७ गणित विषयक प्रमाण ५. उपमा कालप्रमाण निदेश १पर्व १ त्रुटितांग क्रम रा.वा ; ह. पु.; ज.प. | ति. प; महापुराण | प्रमाण निर्देश ८४ लाख वर्ष ८४ लाख वर्ष ५ पूर्वांग ८४ लाख पूर्वांग ८४ लाख पूर्वांग ८४ पूर्व १पांग ८४ लाख पर्वांग ८४ लाख पूर्व ८४ पर्व १नियुतांग ८४ लाख नियुतांग ८४ लाख नियुतांग १नियुत ८४ लाख नियुत ८४ नियुत १ कुमुदांग ८४ लाख कुमुदांग ८४ लाख कुमुदांग १ कुमुद ४ लाख कुमुद ८४ कुमुद १पद्मांग ८४ लाख पांग ८४ लाख पद्मांग १पद्य ८४ लाख पद्म ८४ पद्म १ नलिनांग ८४ लाख नलिनांग ८४ लाख नलिनांग १ नलिन ८४ लाख नलिन ८४ नलिन १ कमलांग ८४ लाख कमलांग ८४ लाख कमलांग १ कमल ८४ लाख कमल ८४ कमल ८४ लाख त्रुटितांग ८४ लाख त्रुटितांग १त्रुटित ८४ लाख त्रुटित ८४ त्रुटित १अटटांग ८४ लाख अटटांग ८४ लाख अटटांग |१अटट ८४ लाख अटट ८४ अटट ११अममांग ८४ लाख अममांग ८४ लाख अममांग १ अमम ८४ लाख अमम ८४ अमम १हाहांग ८४ लाख हाहांग ८४ लाख हाहांग १हाहा ८४ लाख हाहा ८४ हाहा ८४ लाख हहू अंग ८४ लाख हूहू अंग १हूहू ८४ लाख हूहू १लतांग ४४. ८४ लाख लतांग ८४ लाख लतांग |१ लता ८४ लाख लता ८४ लता १महालतांग ८४ लाख महालतांग | ८४ लाख म. लतांग १महालता ति.प.रा.वा; ह.पु.ज.प म. पु. प्रमाण निर्देश | ८४ लाख महालता ८४ महालता १ श्रीकल्प ४८ ८४ लाख श्रीकल्प | ८४ लाख श्रीकल्प हस्तप्रहेलित 8 | ८४ लाख हस्तप्रहेलित | ८४ हस्त प्रहेलित १ अचलात्म १. पल्य सागर आदिका निर्देश ति. प./१/१४-१३०; ( स. सि/२/३८/२३३/५); (रा. का/३/३८/७/२०८/७); (ह. पु/७/४७-५६ ): (त्रि. सा/१०२); (ज. प./१३/३५-४२) (मो.जी./3; जी. प्र./११८ का उपोद्भात/पृ. ८६/४)। व्यवहार पत्यके -१ प्रमाण योजन गोल व गहरे गर्त में १-७दिन तकके उत्तम भोगभूमिया भेड़के भच्चेके बालोंके अग्रभागोंका प्रमाण १०० वर्ष = x ४३ ४२०००३ ४२३ ४२३ ४२३ ४२२x६३ x००३ x x८३ ४८३ ५.३ ५८३४८३ ५८३ -४५ अक्षर प्रमाण बालाग्र ४१०० वर्ष अथवा-४१३४,५२६३,०३०८,२०३१, ७७७४, १५१२, १९२००००००००००००००००००x१०० वर्ष व्यवहार पत्यके = उपरोक्त प्रमाण वर्ष x २४३४ २४२४१५४३०४ समय २४३८३४७४७(आवलोप्रमाण संख्यात जिघन्य युक्तासंख्यात)समय उद्धार पत्यके- उपरोक्त ४५ अक्षर प्रमाण रोमराशि प्रमाण असंसमय ख्यात क्रोड़ वर्षीक समय)। अदापल्यके - उद्धार पत्मके उपरोक्त समयxअसंख्य वोके समय समय। व्यवहार उद्धार मा अद्धासागर =१० कोडाकोड़ी विवक्षित पत्य ति. प./४/३१५-३१६: (रा. वा/३/३८/७/२०८/२०) १० कोड़ाकोड़ी अद्धासामर-अक्सपिणीकाल या१उत्सर्पिणीकाल १ अवसर्पिणी या १ उत्सर्पिणी- एक कल्प काल २ कल्प (अव०+उत०)- १ युग एक उत्सर्पिणी या एक छह काल-सुषमासुपमा, सुषमा, सुषमा दुषमा, अबसर्पिणी दुषमा सुषमा, दुषमा, दुषमा दुषमा । सुषमा मुषमा काल-४ कोड़ कोड़ी अद्धा सागर सुषमाकाल ३ " सुषमा दुषमा काल-२ . . . दुषमा सुपमा काल-१ को. · को. अद्धासागर-४२००० वर्ष दुधमाकाल -२१००० वर्ष दुषमा दुषमा काल =२१००० वर्ष १ हूहू अंग ति.प्र./४/३०८ अचलात्म-(८४)३१४ (१०)८०वर्ष - निमष । २. क्षेत्र प्रमाणका काल प्रमाणके रूपमें प्रयोग २. दूसरे प्रकारसे काल प्रमाण निर्देश पं.का/ता. वृ/२५/५२/५ असंरण्यात समय-निमेष एक मिनट -६० सैकेंड १५निमेष =१काष्ठा २४ सैकेड - १पल (२ सैकेंड) ६० पल (२४ मिनिट)-१घड़ी ३० काष्ठा -१कला ___ शेष पूर्ववत् (मिनट) एक मिनिट-५४०००० प्रति(कुछ अधिक २० कला (२४ मिनट) विपलांश (महाभारतको - १घटिका ६० प्रतिविषलांश-प्रतिविपल (अपेक्षा १५ कला) (घड़ी) ६० प्रतिविपल -१विपल ६० विपल = १ पल (२ बड़ी ( महाभारतकी अपेक्षा ६० पल = १घड़ी १३ कला+३ काष्ठा) =१ मुहूर्त शेष पूर्ववत् - ( आगे पूर्ववत : घ. १०/४:२,४.३२/११३/१ अंमुलस्स असंखेजविभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ भागाहारो होदि । अंगुलके असंस्थातवें भाग प्रमाण है जो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणोके समय, उतना भाषाहार है । (ध. १०४.२,४,३२/१२)। गो जी./भाषा/११७ का उपोद्घात/३२४/२ कालपरिमाणविर्ष जहाँ लोक परिमाण कहें तहाँ लोकके जितने प्रदेश होंहि तितने समय जानने। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-२८ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २१८ गणित विषयक प्रमाण ६. उपमा प्रमाणको प्रयोग विधि नन्त लिया जाता है। जहाँ अनन्तानन्तका प्रकरण आता है वहाँ अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त लेना चाहिए। ह, पु./७/२२ 'सोवा द्विगुणितो रज्जुस्तनुवातोभयान्तभाग्। निष्पद्यते त्रयो लोका प्रमीयन्ते बुधैस्तथा ।।२। द्वीपसागरोके एक दिशाके विस्तारको दुगुना करनेपर रज्जुका प्रमाण निकलता है। यह रज्जु दोनों दिशाओं में तनुवातवलयके अन्त भागको स्पर्श करती है। विद्वान् लोग इसके द्वारा तीनों लोकोंका प्रमाण निकालते है। १६० द्वीप, समुद्र इन सबका प्रमाणभरी, युग २. द्रव्य क्षेत्रादि प्रमाणोंकी अपेक्षा सहनानियाँ १. लौकिक संख्याओंकी अपेक्षा सहनानियाँ ति.प./१/११०-११३ उस्सेहअंगुलेणं सुराणणरतिरियणारयाण च। उस्सेहंगुलमाणं चउदेवणिदेणयराणि ॥११०। दीवो दहिसेलाणं वेदीण णदीण कुंडनगदीणं । वस्साणं च पमाणं होदि पमाणुंगलेणेव ॥१११२ । भिंगारकलसदप्पणवेणुपडहजुगाणसयणसगदाणं । हलमूसलसत्तितोमरसिंहासणबाणणालिअक्वाणं ।११। चामरदंदुहिपीढच्छत्ताणं नरणिवासणगराणं । उज्जाणपह दियाण संस्खा आदंगुलं णेया।११३। नत्सेधांगुलसे देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकियोंके शरीरकी ऊँचाईका प्रमाण और चारों प्रकारके देवोंके निवास स्थान व नगरादिकका प्रमाण जाना जाता है ।११०॥ द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुण्ड या सरोवर, जगती और भरतादि क्षेत्र इन सबका प्रमाण प्रमाणागुलसे ही हुआ करता है ।१११। झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट ( गाडी या रथ ) हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दंदुभी, पीठ, छत्र ( अर्थात् तीर्थंकरों व चक्रवर्तियों आदि शलाका पुरुषोंकी सर्व विभूति) मनुष्यों के निवास स्थान व नगर और उद्यान आदिकोकी संख्या आत्मागुल से समझना चाहिए ।१११-११३. ( रा. वा./३/३८/६/२०७/३३) ति.प./१/६४ ववहारुद्वारद्धातियपल्ला पढमयम्मि संखाओ। विदिये दीवसमुद्दा तदिये मिज्जेदि कम्मठिदि।१४। व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य और अद्धापल्य ये पत्यके तीन भेद हैं। इनमें से प्रथम पस्यसे संख्या (द्रव्य प्रमाण ); द्वितीयसे द्वीप समुद्रादि ( की संख्या ) और तृतीयसे कर्मोंका (भव स्थिति, आयु स्थिति, काय स्थिति आदि काल प्रमाण लगाया जाता है। (ज. प./१३/३६); (त्रि. सा./६३) स. सि./३/३८/२३३/५ तत्र पल्यं त्रिविधम-व्यवहारपत्यमुद्धारपत्यमद्धापल्यमिति । अन्वर्थसंज्ञा एताः। आद्य व्यवहारपल्यमित्युच्यते, उत्तरपन्यद्वयव्यवहारबीजत्वात् । नानेन किंचित्परिच्छेद्यमस्तीति। द्वितीयमुद्धारपत्यम् । तत उद्धृतैर्लोमकच्छेदैर्वीपसमुद्रा' संख्यायन्त इति । तृतीयमद्धापल्यम् । अद्धा कालस्थितिरित्यर्थः।"अर्धतृतीयोद्वारसागारोपमाना यावन्तो रोमच्छेदास्तावन्तो द्वीपसमुद्रा। ""अनेनाद्धापन्येन नारकर्यग्योनीनां देवमनुष्याणां च कर्म स्थितिभवस्थितिरायुःस्थितिः कायस्थितिश्च परिच्छेत्तव्या। = पत्य तीन प्रकारका है-व्यवहारपल्य, उद्धारपस्य और अद्धापल्य । ये तीनो सार्थक नाम हैं। आदिके पल्यको व्यवहारपत्य कहते हैं; क्यों कि यह आगेके दो पत्योंका मूल है। इसके द्वारा और किसी वस्तुका प्रमाण नहीं किया जाता । दूसरा उद्धारपत्य है। उद्धारपल्यमेंसे निकाले गये रोमके छेदों द्वारा द्वीप और समुद्रों की गिनती की जाती है। तीसरा अद्भापत्य है। अद्धा और काल स्थिति ये एकार्थवाची शब्द हैं।...ढाई उद्धार सागरके जितने रोम खण्ड हों उतने सब द्वीप और समुद्र हैं।.. अद्धापत्यके द्वारा नारकी, तिर्यच, देव और मनुष्योंकी कर्म स्थिति, भवस्थिति, आयुस्थिति और कायस्थितिकी गणना करनी चाहिए। (रा. वा./३/३८/७/२०८/७,२२ ) ( ह. पु./ ७/५१-५२); (ज. प./१३/२८-३१) रा. वा./२/३८/१/पृष्ठ/पंक्ति यत्र संख्येन प्रयोजग तत्राजघन्योत्कृष्टसंख्येयग्राह्यम् ।२०६/२६ । यत्रावलिकाया कार्य तत्र जघन्ययुक्तासख्येयग्राह्यम् ।२०७।३ । यत्र संख्येयासंख्येया प्रयोजनं तत्राजघन्योस्कृष्टासंख्येयासंख्येयं ग्राह्यम् ।२०७/१३। अभव्यराशिप्रमाणमार्गणे जघन्ययुक्तानन्तं ग्राह्यम् ।२०७/१६) यत्राऽनन्तानम्तमार्गणा तत्राजघन्योत्कृष्टाऽनन्ताऽनन्तं ग्राह्यम् ।५०७/२३/ - जहाँ भी संख्यात शब्द आता है। वहाँ यही अजघन्योत्कृष्ट संरख्यात लिया जाता है। जहाँ आवलीसे प्रयोजन होता है, वहाँ जघन्य युक्तासंख्येय लिया जाता है। असंख्यासंख्येयके स्थानोंमें अजघन्योत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय विवक्षित होता है। अभव्य राशिके प्रमाण में जघन्य युक्ता गो. जी./अर्थ संदृष्टि/पृ.१/१३ तहाँ कहीं पदार्थ निके नाम करि सहनानी है। जहाँ जिस पदार्थका नाम लिखा होई तहाँ तिस पदार्थकी जितनी संख्या होइ तितनी सरव्या जाननी । जैसे-विधु-१ क्योंकि दृश्यमान चन्द्रमा एक है। निधि-६ क्योंकि निधियोंका प्रमाण नौ है। ___बहुरि कहीं अक्षरनिकौ अंकनिकी सहनानीकरि संख्या कहिए हैं। ताका सूत्र-कटपयपुरस्थवर्णैर्नवनवपश्चाष्टकल्पितैः क्रमशः। स्वरव्यअनशून्यं संख्यामात्रोपरिमाक्षरं त्याज्यम् । अर्थात् क, ख, ग, घ. ङ, च, छ, ज, झ (ये नौ), ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द,ध (ये नौ) १२ ३ ४ ५ ६ ७ ८६ प, फ, ब, भ, म (ये पाँच ), य, र, ल, व, श, ष, स, ह (ये आठ.) १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ बहुरि अकारादि स्वर वा 'ब' वा 'न' करि बिन्दी जाननी। वा अक्षरकी मात्रा वा कोई ऊपर अक्षर होइ जाका प्रयोजन किच्छु ग्रहण न करना। (तात्पर्य यह है कि अंकके स्थानपर कोई अक्षर दिया हो तो तहाँ व्यब्जनका अर्थ तो उपरोक्त प्रकार १, २ आदि जानना। जैसे कि-ड, ण, म, श इन सबका अर्थ है । और स्वरोका अर्थ बिन्दी जानना। इसी प्रकार कही बया न का प्रयोग हुआ तो वहाँ भी बिन्दी जानना। मात्रा तथा संयोगी अक्षरोको सर्वथा छोड़ देना। इस प्रकार अक्षर परसे अक प्राप्त हो जायेगा। (गो. सा /जी. का/को अर्थ संदृष्टि) लक्ष :ल जघन्य ज्ञान :ज. ज्ञा. कोटि (क्रोड) : को. लक्षकोटिल. को, (जघन्यको आदि कोडाकोडी :को. को. 17 लेकर अन्य भी : जम् अन्तःकोटाकोटि : अं. को. को 5६५ को आदि लेकर जघन्य ज० अन्य भी उत्कृष्ट : उ० एकट्ठी :१८% अजघन्य :अज० बादाल :४२साधिक जघन्य: ज पणही :६५नोट-इसी प्रकार सर्वत्र प्रकृत नामके आदि अक्षर उस उसकी सह नानी है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २१९ गणित विषयक प्रमाण ala) A (राशि २. अलौकिक संख्याओंकी अपेक्षा सहनानियाँ ७. क्षेत्रप्रमाणोंकी अपेक्षा सहनानियाँ ( गो.सा/जी.का/की अर्थ संदृष्टि) (ति प./६/६३; १/३३२) सख्यात जघन्य अनन्तानन्त : ज.जु.अ.व सूच्यंगुल (जघन्य युक्ता० का वर्ग) असं वात प्रतरांगुल प्र ४ अनन्त (उत्कृष्ट अनन्तानन्त जघन्य संख्यात 11 केवल ज्ञान) घनांगुल २ : के जगश्रेणी जघन्य असंख्यात :२ (मध्यम अनन्तानन्त उत्कृष्ट असंख्यात १५ (सम्पूर्ण जीव राशि):१६ जगत्प्रतर जघन्य अनन्त १६ संसारी जीव राशि : १३ लोकप्रतर : लो.प्र. : == उत्कृष्ट अनन्त के सिद्ध जीव राशि :३ धनलीक : लो :: जघन्य परीतासंख्यातः १६ पुद्गल राशि गो. सा.व. ल.सा की अर्थ संदृष्टि उत्कृष्ट परीतासंख्य. :२१ (सम्पूर्ण जीव राशिका : जगश्रेणी : र :१६ख जघन्य युक्तासंख्यात : २ अनन्तगुणा) काल समय राशि :१६खख उत्कृष्ट युक्तासंख्यात: ४१. आकाश प्रदेश राशि: १६ख स्व.ख रज्जूप्रतर : रज्जू : (७)२ : जघन्य असंख्यातासं.:४ (केवलज्ञानका प्रथम रज्जू घन उत्कृष्ट असंख्यातासं. : २५६१ - : रज्जू .(७) ३ : ३३ जघन्य परीतानन्त : २५६ (सूच्यंगुलकी अर्धच्छेद (पत्यकी अर्धच्छेद केवलज्ञानका द्वि, मूल · के.मूर उत्कृष्ट परीतानन्त : ज.जु.अ.१ केवलज्ञान राशि राशि)२ :: छे छे जघन्य युक्तानन्त : ज.जु.अ. ध्रुव राशि : २५६/१३ (सूच्यं गुलको वर्गशलाका (पत्यकी वर्गशलाका उत्कृष्ट युक्तानन्त : ज.जु.अ.ब. राशि असंख्यात लोक राशि)२ प्रमाण राशि (प्रतरीगुलकी अर्धच्छेद (सूच्यंगुलकी अर्धच्छेद : छे छे. (ग राशिx२) (प्रतरांगुलकी वर्गशलाका (१६२२ या १६/६) राशि ३. द्रव्य गणनाकी अपेक्षा सहनानियाँ (घनांगुलकी अर्धच्छेद (गो.सा/जी.का/की अर्थ संदृष्टि) सम्पूर्ण जीव राशि : १६ पुद्गल राशि : १६व. संसारी जीवराशि : १३ काल समय राशि । १६ख ख. (घनांगुलकी वर्गशलाका मुक्त जीव राशि : ३ (आकाश प्रदेश १६ख.ख ख. (राशि राशि (जगश्रेणीको अर्धच्छेद (पल्यकी अर्धच्छेद राशि : छे छे छे. ४. पुद्गल परिवर्तन निर्देशकी अपेक्षा सहनानियाँ राशि + असं)x(घनागुलकी या विछेछ, (गो.सा/जी.का/की अर्थ संदृष्टि) अर्धच्छेद राशि) (यदि वि-विरलन गृहीत द्रव्य .१ मिश्र द्रव्य राशि) अगृहीत द्रव्य अनेक बार गृहीतः (दो बार (जगश्रेणीकी वर्गशलाका घनांगुलकी वर्गशलाका+ अगृहीत या मिश्र लिखना (राशि पल्यको वर्ग. श. द्रव्यका ग्रहण ज. परी.असं४२ ५. एकेन्द्रियादि जीव निर्देशकी अपेक्षा या व२x२ १६/२ (गो.सा/जो का/की अर्थ संदृष्टि) (जगत्प्रतरकी अर्धच्छेद : जगश्रेणीकी अर्धच्छेद एकेन्द्रिय छे छे छ। संज्ञी विकलेन्द्रिय वि पर्याप्त राशि राशिx२ पंचेन्द्रिय अपर्याप्त (जगत्प्रतरको वर्गशलाका : जगश्रेणीकी वर्गअसंज्ञी राशि शलाका+१ बादर ६. कर्म व स्पर्धकादि निर्देशकी अपेक्षा (घनलोककी अर्धच्छेद छे छे छे, : वि छे छे (गो.सा./जो. का/की अर्थ संदृष्टियाँ) राशि (यदि वि-विरलन राशि) समय प्रबद्धस स्पधक शलाका ६ (घनलोकको वर्गशलाका : उत्कृष्ट समय प्रबद्ध ! स३२ एक स्पर्धकविषै जघन्य वर्गणा वर्गणाएँ र राशि :ब :४ :व. राशि या व +4 J मा. ब. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २२० | गणित विषयक प्रमाण सूच्यं गुलकी अ. छे = (पल्यको अर्धच्छेद राशि)२ सूच्यंगुलकी व.श. = पत्यकी व.श.४ २. प्रतरांगुलकी अ.छे-सूच्यंगुलको अ. छे ४२ छे छे वर :छे छ, २ : २९ ८. कालप्रमाणों की अपेक्षा सहनानियाँ (गो.सा/जी.का/को अर्थ संदृष्टि ) आवली : आ अन्तर्मुहूर्त : संख्यात आ पल्य (ध.३/पृ.८८) सागर : सा. प्रतरावली : आवली२ :३२ धनावली : आवली३ : २३८ पल्यकी अर्धच्छेद राशि :छे पल्यको वर्ग शलाका राशि : व सागरको अर्धच्छेद राशि : अथवा संख्यात आवली प्रतरांगुलकी व.श =सूच्यं गुलकी व. श.+१ व घनांगुलकी अ.छे-सूच्यं गुलकी अ. छे x ३. : छे छे.. घनांगुलकी व. श. ( जातै द्विरूप वर्गधारा विष जेते स्थान गये सूच्यंगुल हो है तेते ही स्थान गये द्विरूप धन धारा विषै धनांगुल हो है :व, नछे छे छे जगश्रेणीकी अ. छे = धल्यकी अ, छे+असं/अथवा : तोहि प्रमाण विरलन राशि, ताके आगे धनांगुलकी अ. छ का गुणकार जानना। विछे छे. २१ जगश्रेणीको र.श. (घनांगुलको व.श.+ज.परीता)x: १६/२ २ वर जगप्रतरकी अ.छे-जगश्रेणी की अ. छे४२ a ३. गणितकी प्रक्रियाओंकी अपेक्षा सहनानियां १. परिकर्माष्टककी अपेक्षा सहनानियाँ (गो.सा./जी.का./को अर्थ संदृष्टि) नोट--यहाँ 'x' को सहनानीका अंग न समझना। केवल आँकड़ोंका अवस्थान दर्शानेको ग्रहण किया है। व्यकलन (घटाना) . जगप्रतरकी व. श=जगश्रेणीकी व. श+१ गुणा घनलोककी अ. छे -सूच्यंगुल की अ. छेx३ : छे छे छे. घनलोककी व. शजातै द्विरूप बर्ग धाराविषै जेते स्थान गये जगश्रेणी हो है, तेते ही स्थान गये द्विरूप धनधारा: विष घनलोक हो है। व.म. (i संकलन (जोड़ना) :x किंचिदून एक घाट किंचिदधिक (संकलने में एक दो तीन आदि राशियाँ : ऋण राशि पाँच घाट लक्ष : ल५ वर्ग मूल प्रथम वर्गमूल द्वितीय वर्गमूल घनमूल : २ ३. श्रेणी गणितकी अपेक्षा सहनानियाँ विरलन राशि : वि. (विशेष देखो गणित /III) या ल.) : ना (गो. सा/जी. का/की अर्थ संदृष्टि) एक गुणहानि :८ । नाना गुणहानि एक गुणहानि (किंचिदून ड्योढ़ Lविषै स्पर्धक 3(द्वयर्ध.) गुणहानि ड्योढ़ गुणहानि : १२ गुणित समयप्रबद्ध दो गुणहानि (निषेकाहार) : १६/ उत्कृष्ट समयप्रबद्ध १२ : स३२ २. लघुरिक्थ गणितकी अपेक्षा सहनानियाँ (गो.सा./ओ.का./को अर्थ संदृष्टि) संकेत-अ.के : अर्धच्छेद राशि व.श : वर्ग शलाका राशि r पल्यको अर्ध- : log, of पक्ष्य :प, (गो.क/ च्छेद राशि पृ.३६)-छे पल्यकी व.श. log log, of पल्य व L(जघन्य वर्गणा) सागरको अ.छे :पण्यकी अर्धच्छेद+संख ४. षटगुणवृद्धि हानिकी अपेक्षा सहनानियाँ {गो सा/जी. का/की अर्थसंदृष्टि) अनन्तभागउ असंख्यात भाग संख्यातभाग | संख्यातगुण असंख्यातगुण ५) अनन्त गुण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ গলিৰ ४. अक्षर व अंकक्रमकी अपेक्षा सहनानियाँ I गणित विषयक प्रमाण २. अंककमकी अपेक्षा सहनानियाँ ल ल068 FFERE लो - 1900 १. अक्षरक्रमकी अपेक्षा सहनानियाँ (पूवोक्त सर्व सहनानियों के आधार पर) १ : गृहीत पुद्गल प्रचय ६. एक गुणहानि विषै (पूर्वोक्त सर्व सहनानियोंके आधार पर) २ जघन्य संरण्यात, ___ स्पर्धक, स्पर्धकशलाका जघन्य असंख्यात, * ड्योढ गुणहानि संकेत-अ. छे-अर्धच्छेद राशि: व श-वर्गशलाका राशि प्र=प्रथम; जघन्य युक्तासंख्यात, : संसारीजीव राशि द्वि-द्वितीय; जजधन्य; उ = उत्कृष्ट; सूच्यंगुल, आवली । उत्कृष्ट असंख्य, २१ : अंतर्मुहूर्त, संख्य.आव १६ : जघन्य अनन्त, ३१० : उत्कृष्ट परीतासंख्या. सम्पूर्ण जीवराशि, अ को को : अंत कोटाकोटी । ज प्र :जगत्प्रतर दोगुणहानि, निषेकाहार अ : असंज्ञी : नानागुणहानि ३ : सिद्धजीव राशि १६ख : पुद्गल राशि • उत्कृष्ट, अनन्त : असंख्यात भाग : पल्य भाग, अपकर्षण प्रतरांगुल जघन्य असंख्याता- १६ ख ख : काल समय राशि संख्य०, एक स्पर्धक १६खखस्व: आकाशप्रदेश भागाहार मादर • एकेन्द्रिय विष वर्गणा, प्रतरां- १८ एकट्ठी गुल प्रतरावली। ४२ • केवलज्ञान, उत्कृष्ट मादाल : प्रथम मूल अनन्तानन्त : संख्यात भाग रजत प्रतर द्वितीय मूल : संख्यात गुण, ६५ : पणट्ठी के यू : 'के'का प्र. वर्गमूल | : लक्ष घनांगुल मु२ : 'के'का द्वि. वर्गमूल | ल को :लक्ष कोटि : असंख्यात गुण ३४३ रज्जूधन को कोटि (क्रोड) : लोक २५६ जघन्य परीतानन्त को. को. • कोटाकोटी लोप्र : लोक प्रतर : रज्जूप्रतर : वर्ग,जघन्य वर्गणा, २१६१- उत्कृष्ट असंख्याताख अनन्त ख ख ख : अनन्तानन्त पल्मको वर्ग श. : रज्जूधन संख्यात अलोकाकाश : प्रतरांगुलकी व.श. ८ : अनन्तगुण, एक २५६ : अब राशि , घन, धनांगुल : घनांगुलकी व.श. गुणहानि, धनावली घनमूल वर घलो घनलोक सूच्यंगुलकी व.श. अर्द्धच्छेद तथा | L१६२ : जगश्रेणीको व.श. ३. आँकड़ोंकी अपेक्षा सहनानियाँ पत्यकी अ.छे.राशि सूच्यंगुलकी अ.छे. (पूर्वोक्त सर्व सहनानियोंके आधारपर) छे प्रतरांगुल की अ.छ.. जगत्पतरकी व.श. छ. . धनागुलकी अ.छे. नोट-यहाँ 'x' को सहनानीका अंग न समझना। केवल आंकड़ोंका ___ अवस्थान दर्शानेको ग्रहण किया है। ३ : जगश्रेणीको अ.छे. १६२ : घनलोककी ब. श. X । संकलन (जोड़ना) ज जृ अ-: उत्कृष्ट मुक्तानंत ६ : अगरप्रतरकी अ.छे. व.म. वर्गमूल x- : किंचिदून साधिक जघन्य व.मू.१ : प्रथम वर्गमूल : ब्यकलन ( घटाना) सूच्यंगुलकी वर्गघनलोककी अ.छे. क.मू.२ : द्वितीय वर्गमूल शलाका : विरलन राशि : जगत्प्रतरकी वर्ग: जघन्य, जगश्रेणी सं संज्ञी र : किंचिदधिक शलाका ; साधिक जघन्य स : समय प्रबद्ध III: संकलनमें एक, दो, : जगश्रेणी ज- जघन्यको आदि । स ३२ । उत्कृष्ट समयप्रबद्ध तीन आदि राशियाँ : जगप्रतर लेकर अन्य भी ज जु अ : घनलोक ० : ज. युक्तानन्त : अगृहीत वर्गणा : सागर x : मिन्न वर्गणा जजु अ-: उ. परीतानन्त : सूक्ष्म, सूच्यंगुल ज जु अव : ज. युक्तानन्तका : उत्कृष्ट परीतासंख्या. वर्ग,ज.अनन्तानन्त : (सूच्यंगुल )२ : रज्जू प्रतर ज जु अव : उस्कृष्ट युक्तानन्त प्रतरांगुल १२ : उत्कृष्ट युक्तासंख्य. ज. ज्ञा. : जघन्य ज्ञान । सूर (सूच्यंगुल), धनांगुल २५६१९ : उ. संख्यातासंख्य. | ३४३ :: रन्जू धन जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश aa छेछ . जगरप्रतर छे छह धन . : एक घाट वि १६/२ - | || | | | Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २२२ II. गणित विषयक प्रक्रियाएं a . La १२ संख्यात rछे छे छे: धनलोककी अर्धच्छेद : असंख्यात | सागरकी अर्धच्छेद रा० rछेछेछ३ :जगश्रेणीको अर्धच्छेद रा० हानि गुणित समय प्रबद्ध छे छे छ। जगत्पतरकी अर्थच्छेद रा० : अन्तर्मुहूर्त, संरख्यात आवली ३. संकलनकी प्रक्रिया गो.जी./पूर्व परिचय/पृ./पं. किसी प्रमाणको किसी प्रमाणविषै जोड़िये सो संकलन कहिये ।५६-४। (जिसमे जोडा जाये उसे मूल राशि कहते हैं )। जोड़ने योग्य राशिका नाम धन है। मूलराशिको तिस करि अधिक कहिए ।५६-१६ गो.जी./अर्थ संदृष्टि-जोडते समय धनराशि ऊपर और मूलराशि नीचे लिखी जाती है। (जब कि अगरेजी विधिमें मूलराशि ऊपर और धनराशि नीचे लिखकर जोडा जाता है)। यथा १०००-१०००+५=१००५ या १०००-१०००+५१००५ ४. कर्मोकी स्थिति व अनुमागकी अपेक्षा सहनानियाँ (ल. सा. की अर्थसंदृष्टि) अचलावली या अनुभाग विषे अविभाआबाधा काल गीप्रतिच्छेदनिके प्रमाण की समानता लिये एक : क्रमिक हानिगत निषेक, उदयावली, एक वर्ग वर्गणा विषै उच्छिष्टावली पाइये तिस वर्गणाकी संदृष्टि : कर्म स्थिति (आमाधावलीके वर्गनिका प्रमाण ऊपर निषेक रचना) वर्गणाविषै क्रमतै हानिरूप होय। : आवाधा काल+ उदयावली उपरितन स्थिति+-उच्छिष्टावली कर्मानुभाग ४. व्यकलनकी प्रक्रिया गो.जी./पूर्व परिचय/पृ./पं. किसी प्रमाणको किसी प्रमाण विषै घटाइये तहां व्यकलन कहिये ।५६-21 (जिस राशिमेंसे घटाया जाये उसे मूलराशि कहते हैं)। घटावने योग्य राशिका नाम ऋण है। मूल राशिको तिसकरि हीन, वा न्यून, वा शोधित वा स्फोटित कहिए ६०-२॥ गो.जी./अंक संदृष्टि-घटाते समय निम्न विधियोंके प्रयोगका व्यवहार II. गणित विषयक प्रक्रियाएँ १. परिकर्माष्टक गणित निर्देश १. अंकोंकी गति वाम भागसे होती है गो.जी./पूर्व परिचय/६०/१८ अङ्कानां वामतो गतिः। - अंकनिका अनुक्रम बाई तरफसेती है। जैसे २५६ के तीन अंकनिविषै छक्क आदि (इकाई) अंक, पांचा दूसरा ( दहाई ) अंक, दूवा अंत (सैंकड़ा) अंक कहिये। ( यद्यपि अंकोंको लिखते समय या राशिको मुंहसे बोलते समय भी अंक बायेसे दायेको लिखे या बोले जाते हैं जैसे दो सौ छप्पनमें दोका अंक अन्तमें न बोलकर पहिले बोला या लिखा गया, परन्तु अक्षरों में व्यक्त करनेसे उपरोक्त प्रकार पहिले इकाई फिर दहाई रूपमें इससे उलटा क्रम ग्रहण किया जाता है।) २. परिकर्माष्टकके नाम निर्देश गो.जी./पूर्व परिचय/पृ.पं. परिकर्माष्टकका वर्णन इहाँ करिए हैं। तहाँ संकलन, व्यकलन, गुणकार, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन और धनमूल ए आठ नाम जानने 1५८-१७ अब भिन्न परिकर्माष्टक कहिये हैं। तहां अंश और हारनिका संकलनादि ( उपरोक्त आठौं) जानना (दे० आगे नं०१०)। अब शून्य परिकर्माष्टक कहिए है। (बिन्दीके संकलनादि उपरोक्त आठों शून्य परिकष्टिक कहलाते हैं। (दे० आगे नं० १९) ६८-१७४ (१)-(१००४)- १०००-५-६६५॥ (२)-(क)-एक घाट कोटि। (३)-(११)-एक घाट लक्ष ॥ (४)- )-एक घाट लक्ष । (१) (ल-२)-२ घाट लक्ष ॥ (६) (लmm२)-२ घाट लक्ष । (७)(७)-(ख-)-किचिद्गन अनन्त ॥ (८)-(ल-२)-(ल-२-२) ॥ (६)-(ल-५)-५ घाट लक्ष ॥ (१०)-(6)५ घाट लक्ष । (११)- (छे व छे) - पत्यकी अर्धच्छेदराशिमें-से पल्यकी वर्गशलाकाराशि घटाओ। ५. गुणकार प्रक्रिया गो.जी./पूर्व परिचय/पृ./पं. किसी प्रमाणको किसी प्रमाणकरि गुणिए तहां गुणकार कहिए ।५8-७। गुणकारविष जाको गुणिए ताका नाम गुण्य कहिए । जाकरि गुणिए ताका नाम गुणकार या गुणक कहिए। गुण्य राशिको गुणकार करि गुणित, हत वा अभ्यस्त व धनत कहिए है। ...गुणनेका नाम गुणन वा हनन वा धात इत्यादि कहिए है ६०-४। गो.जी./अर्थसंदृष्टि-गुणा करते समय गुणकारको ऊपर तथा गुण्यको नीचे लिख निम्न प्रकार स्खण्डों द्वारा गुणा करनेका व्यवहार था। यथा २५६ १४२-२ ६४२-१२ ३२ ४००६ ४०० १x६= ६ ६x६-३६ २५६ १६४ २५६ -४०६६ ३२५६ ४००६ । फल ४०६६ ६. भागहार प्रक्रिया गो.जी./पर्व परिचय/प./पं.किसी प्रमाणको किसी प्रमाणका जहाँ भाग दीजिए तहाँ भागहार कहिए।५६-८] जा विर्ष भाग दीजिए ताका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित नाम भाज्य वा हार्य इत्यादि है । और जाका भाग दीजिए ताका नाम भागहार, हार, वा भाजक इत्यादि है। भाज्य राशिकौ भागहारकरि करि भाजित भक्त वाहत वा खण्डित इत्यादि कहिए। भागहारका भाग देइ एक भाग ग्रहण करना होइ तहां तेथवां भाग वा एक भाग कहिए । ६०-८| + गो. जी / अर्थ संदृष्टि - भाग देते समय भाज्य ऊपर व भागहार नीचे लिखा जाता है। यथा कोको कोटिका पाँचवाँ भाग / ४०१६ ४०६६ १६ १६ या १ / ३ = १३ भाजन विधिः = २५६ या ४०१६ १६४२३२ ८६६ प्रथम घनमूल १६ × ५ = ८० CE ६६ १६ के तीनों गुणकारों को क्रमसे लिखनेपर २,५,६ - २५६ लब्ध आ जाता है। ६६ १६x६ = ६६ = Division by Ratio - गो.जी. - प्रक्षेप योगोदधृत मिश्रपिण्ड' प्रक्षेपकाणां गुणको भवेदिति । क्षेपको मिलाकर मिश्र पिंडका भाग जो प्रमाण होइ ताको प्रक्षेपकरि गुण अपना-अपना प्रमाण होइ । यथा.१०००ः५:७:८-१३०°×५; 150 ×७; २००८ = २५० : ३५, ४०० ७. वर्ग व वर्गमूलकी प्रक्रिया गो.जी./ पूर्व परिचय / पृ./पं. किसी प्रमाणको दोय जायगां मांडि परस्पर णिए तहां तिस प्रमाणका वर्ग कहिए । बहुरि जो प्रमाणका जाका कीए होय तिस प्रमाणका सो वर्ग कहिए जैसे पश्चीस पांचा वर्ग की हो ताते २५ का वर्ग है ।२६ १०० महरि वर्गका नाम कृति भी है। महूर वर्गमूलका नाम कृतिमा मूल वा पाद वा प्रथम मूल भी है। (तहां प्रथम बार वर्ग करने को प्रथम वर्ग कहिए । तिस वर्गको पुन वर्ग करनेको द्वितीय वर्ग कहिए । इसी प्रकार तृतीय चतुर्थ आदि वर्ग जानना ) बहुरि प्रथम मूलके मूलको द्वितीय मूल कहिए । द्वितीय मूलके मूलको तृतीय मूल कहिए । ( इसी प्रकार तृतीय चतुर्थ आदि मूल जानने ) । ६०-१४। ध. ५/प्र. ७- प्रथम वर्ग - अरे वि. वर्ग (१ )२ - - = अ प्रथम वर्गसूल-अरे ; द्वि. वर्ग- ( अ )-रे २२३ १ 9 ¡-q32; fz‚««qu−(„3)31„„ अ; द्वि. घनमूल = :( - o ८. घन व घनमूल प्रक्रिया गो.जी./पूर्व परिचय / किसी प्रमाणको तीन जागी मांड परस्पर गुणै तिस प्रमाणका घन कहिए। बहुरि जो प्रमाण जाका घन कीए होइ तिस प्रमाणका सो घनमूल कहिए। जैसे १२५ पांचका घनमूल कोए होइ सात १९२ का ५१-१४ गो.जी. / अर्थ संदृष्टि - गुणन विधि आदि सर्व गुणकारवत् जानता । यथा- ४ / ३= ४३ या ४४४-४३ ६४ वर्गवर्ग भाँति यहाँ भी प्रथम, द्वितीय आदि घन तथा प्रथम, द्वितीय आदि घनमूल जानने । यथा प्रथम घन = अ ; द्वि, घन ( अ ) ३ = अर्ड अ ९. विरलन देय या घातांक गणितकी प्रक्रिया ध. ५/प्र.धवला ( व गोमट्टसार आदि कर्णानुयोगके ग्रन्थों) में बिरलन देय 'फैलाना और देना' नामक प्रक्रियाका उल्लेख आता है । किसी संख्याका विरलन करना व फैलाना अर्थात उस संख्याको एक-एक में अलग-अलग करना । जैसे न के विरलनका अर्थ है - १.१. १.१ र देव का अर्थ है उपर्युक्त अंकोंगे प्रत्येक स्थानपर एककी जगह 'न' अथवा किसी भी विवक्षित संख्याको रख देना (लिखने में मिलनराशि ऊपर लिखी जाती है और देय मीथे जैसे ६४ में ६ देय है और ४ विरलन ) । फिर उस विरलन - देयसे उपलब्ध संख्याओंको परस्पर गुणा कर देनेसे उस संख्याका वर्गितसंवर्गित प्राप्त हो जाता है और यही उस संख्याका प्रथम वर्गसंवर्गित कहलाता है। जैसे नका प्रथम विनिन । विरलन- देयकी एक बार पुन प्रक्रिया करनेसे, अर्थात् नन को लेकर 11 गणित विषयक प्रक्रियाएँ वही विधान फिर करनेसे द्वितीय वर्गित संवर्गित (मन) नो प्राप्त है। इसी विधानको पुनः एक बार करनेसे 'न'का तृतीय वर्गित ({tenf lear}) धवलामें उक्त प्रक्रियाका प्रयोग तीन बारसे अधिक अपेक्षित नहीं हुआ है, किन्तु तृतीय रति संवर्गितका उल्लेख अनेक बार (६.३/१.२.२/२० आदि) बड़ी संख्याओं व असंख्यात व अनमाके सम्बन्धमें किया गया है। इस प्रक्रियासे कितनी बडी संख्या प्राप्त होती है, इसका ज्ञान इस बातसे हो सकता है कि २ का तृतीय वार वर्गित संवर्गित रूप २५६२५६ हो जाता है । उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि धवलाकार आधुनिक वातकि सिद्धान्त (Theory of indices या Powers) से पूर्णत परिचित थे । यथा X (४) यदि १÷२ - Y तथा २ (५) यदि २* -Y तथा २ (त्रि. सा. / ११०-१९९ ) X-P संवर्गित प्राप्त होता है (१) कम इन अम+न. (२) अम / अने-अन (१) (अम) नमन - ( त्रि.सा./ १०५-१००) X + P जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश -Q P QoT YAR-Q तो X-p-Q १०. मिन्न परिकर्माष्टक प्रक्रिया गो.जी./पूर्व परिचय /६६/९२ अन भिन्न परिकर्माष्टक कहिए हैं। उहाँ अंश अर हारनिका संकलन व्यकलन आदिक ( पूर्वोक्त आठों बातें ) जानना । अंश अर हार कहा सो कहिए। तहाँ छह का पाँचवाँ भाग (ई) में छः को अंश व लब इत्यादि कहिये और २ को हार मा हर वा छेद आदि कहिए। तहाँ भिन्न संकलन व्यकलनके अर्थ भाग जाति, प्रभाग जाति, भागानुबंध, भागापवाह ए च्यारि जाति हैं । तिनिधिषे इहाँ विशेष प्रयोजन समच्छेद विधि लिये भाग जाति कहिए है । जुदे-जुदे अंश अर तिनिके हार लिखि एक-एक हारको अन्य हारीनके अंशनिकरि गुणिए और सर्व हारनिको परस्पर गुणिए । ( यथा— है + + में ६ को २ व ३ के साथ गुणे; ३ को ५ व ३ के साथ; ४ को ५ व २ के साथ। और तीनों हारोंको परस्पर गुणे ६×३x४ = ७२ । उपरोक्त रूपसे गुणित सर्व अंशोंका समान रूपसे यह Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २२४ II गणित विषयक प्रक्रियाएँ (४) यदि -क, तो ..न-क-न ब एक ही हार होता है । यथा (+3+1)(32+३+3) इस प्रकार सर्व राशियोंके हारोंको समान करना समच्छेद कहलाता है) अब संकलन करना होइ तो परस्पर अंशनिको जोड़ दीजिए और व्यकलन करना होइ मूल राशिके अंशनिविष अणराशिके अंश घटाइ दीजिए । अर हार सबनिके समान भए । ताते हार परस्पर गुणे जेते भए तेते ही राखिए। ऐसे समान हार होनेते याका नाम समच्छेद विधान है। उदाहरणार्थ ५४ ६०+४+१४ .. -क + न-१ के (५) -कतो -- कता बस - क- - आर और +१ २ ३ ६० ४८ ५४ ६०+४८-५४ (६) यदि -क और - क+स, तो कोई सम्भवतः प्रमाणका भाग देइ भाज्य व भाजक (अंश व हार) राशिका महत् प्रमाणकौं थोरा कीजिए वा निःशेष कीजिए तहाँ अपवर्तन संज्ञा जाननी। -क-स, तो ब' म+ ___(७) यदि - क और बा दूसरा भिन्न है, तो गुणकार विषै गुण्य और गुणकारके अंशको अंशकरि और हारको हारकरि गुणन करना। यथा ५४३४३%3%D8 भागहार विषै भाजकके अंशको हार कीजिए और हारनिको अंश कीजिये । ऐस पलटि भाज्य भाजकका गुण्य गुणकारवत (उपरोक्त) विधान करना। वर्ग और घनका विधान गुणकारवत हो जानना। अर्थात अंशों वहारोंका पृथक्-पृथक् वर्ग व घन करके अंशके वर्ग या धनको लब्धका अंश और हारके वर्ग या घनको लब्धका हार जानना । (८) यदि - क और अल-क+स, तो (e) यदि अ - क और सब-क+स. तो यथा (4) अथवा (५) २६ वर्गमूल व घनमूल का विधान भी वर्ग व धनवत जानना अंशका वर्ग या घन तो लब्धका अंश है और हारका वर्ग या धन लब्धका हार है। (१०) यदि अ - क और * - का, तो मन्या (¥)-२१अमा () - (१) यदि 4 और 24-७, तो २१४3 कस क' - क +4-स भिन्न परिकाष्टक विषयक अनेकों प्रक्रियाएँ ५.३/१,२,५/गा.२४-३२/४६ तथा (ध.५/प्र.११) ११. शून्य परिकर्माष्टककी प्रक्रियाएँ गो. जी /पूर्व परिचय/६८/१७ अब शून्य परिकर्माष्टक लिखिए है। शुन्य नाम बिन्दीका है। ताके संकलनादिक (पूर्वोक्त आठों) कहिए है। यदि म - क और दर - क तो दर मलिक) या एक बार (३) यदि म = क और मक संकलन =अंक+0== अंक व्यकलन - अंक-0= अंक गुणकार - अंक x 00 वर्ग - (०)२ वर्गमूल - घन - (०)३ -. घनमूल -(0) भागहार - अंक-0cc (अक्क्तव्य) तो (क-क)+म-म जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २२५ II गणित (प्रक्रियाएँ) २. लधुरिक्थ विषयक प्रक्रियाएँ २. अर्द्धच्छेद या लघुरिक्थ गणित निर्देश १. अर्द्धच्छेद आदिका सामान्य निर्देश ध.५/प्र.६-११ (ध.३/१.२,२-५/पृष्ट ): (त्रि. सा./गा.) (१) लरि २म -म (राशिको जितनी बार आधा (किया जा सके ), (त्रि.सा/७६ ) (२) लरि (२)२ त्रि.सा./७६ दलवारा होंति अच्छिदी। राशिका दलवार (अर्थात् जितनी बार राशिको आधा-आधा करनेसे एक रह जाय) तितना तिस राशिका अर्द्धच्छेद जानना । जैसे २म के अर्द्धच्छेद म है। (गो. जी /भाषा/११८ का उपोद्धात/पृ. ३०३/७) । त्रि.सा /७५ वग्गसला रूवहिया सपदे पर सम सवग्गसलमत्तं । दुगमाहदमच्छिदी तम्मेत्तदुगे गुणे रासी ७५॥ = अपनी वर्गशलाकाका जेता प्रमाण तितना दूबा मांड परस्पर गुणें अर्द्धच्छेद होंहि । जैसे (२)म के अर्द्धच्छेद =२। (३) २ लरिम -२1 वर्गशलाका प्रमाण दूवोंका पर स्पर गुणनफल (त्रि.सा./७५) =म (राशिके अर्द्धच्छेद (लरि म) प्रमाण दूवोंका परस्पर गुणनफल घ५५) =लरि म+लरि न (त्रि. सा./१०५) =लरि म -लरि न (ध. ६०; त्रि. १०६ ) (४) लरि ( मन ) (५) लरि (म-न) ध./प्रह (अँगरेजी में इसका नाम logarithm to the base २ अर्थात् लघुरिक्थ, है। ) अर्द्धच्छेदका संकेत 'अछे' मान कर इसे आधुनिक पद्धतिमें इस प्रकार रख सक्ते सक्ते है। 'क' का अछे ( या अछे 'क' ) - लरि, क । यहाँ लधुरिक्थका आधार दो है । (६) लरि (कख) =ख लरि क (त्रि. सा/१०७) (७) लरि ( कख )२ -२ ख लरि क (ध २१) (८) लरि (कख त्रि.सा./७६ वग्गिदवारा बग्गसला रासिस्स अद्धच्छेदस्स। अद्धिदवारा वा खलु १७६। स राशिका जो वर्गितवार (दोयके वर्ग” लगाइ जितनी बार कीए विवक्षित राशि होइ (गो जी./भाषा/११८ का उपोद्धात/३०३/२) तितनी वर्गशलाका राशि जाननी। अथवा राशिके जेते अर्द्धच्छेद होंहि तिनि अर्द्धच्छेदनिके जेते अर्द्धच्छेद हो हि तितनी तिस राशिकी वर्गशलाका जाननी। =ख खलरि क (ध २१) (E) लरि लरि (२) २-म (त्रि. सा/७६ ) (१०) लरि लरि (करख ) - लरि ( २ ख लरि क ) =लरि ख+लरि २+लरि लरि क -लरि ख+१+लरि लरि क (ध २१) (११) मान लो 'अ' एक संख्या है, तो--- 'अ' का प्रथम वर्गित संवर्तित - अ-ब ( मान लो) ध/प्र जैसे 'क' की वर्गशलाका-वश के अछे अछे कलरि, लरि, क । यहाँ भी लघुरिक्थका आधार २ है । जितनी बार एक संख्या उत्तरोत्तर तीनसे विभाजित की जाती है उतने उस संख्याके त्रिकच्छेद होते हैं। जैसे-'क' के त्रिकच्छेद -त्रिछे क = ल रि, क। यहाँ लघुरिक्थका आधार ३ है। (ध.१/ १,२,५/५६)। जितनी बार एक संख्या उत्तरोत्तर ४ से विभाजित की जा सकती है उतने उस संख्याके चतुर्थच्छेद होते हैं। जैसे 'क' के चतुर्थ च्छेद-चछे कल रि, क । यहाँ लघुरिक्थका आधार ४ है। (ध.३/१,२.५/५६)। धवलामें इस सम्बन्धमें निम्न परिणाम दिये हैं(ध.३/१,२,२/२१-२४) ( क ) लरिब -अ लरि अ (दे. ऊपर नं ६) (ख ) लरि लरि ब-लरि अ+लरि लरि अ (ग) लरि भ म लरि ब (घ)) लरि लरि भ -लरि ब+लरि लरिब -लरि अ+लरि लरि अ+अल रिअ (ड) लरि म भ लरि भ (च) लरि लरि म = लरि भ+लरि लरि भ इत्यादि नोट-और इस प्रकार लघुरिक्थका आधार हीन या अधिक कितना भी रखा जा सकता है। आजकल प्रायः १० आधार वाला लघुरिक्थ व्यवहारमे आता है। इसे फ्रैंच लॉग कहते है। २ के आधार वाले लघुरिक्थका नाम नैपीरियन लॉग प्रसिद्ध है। जैनागम मे इसीका प्रयोग किया गया है। क्योंकि तहाँ अर्द्धच्छेद व वर्गशलाका विधिका ही यत्रतत्र निर्देश मिलता है। अत इन दोनों सम्बन्धी ही कुछ आवश्यक प्रक्रियाएँ नीचे दी जाती हैं। (१२) लरि लरि म< २ (ध २४) इस असाम्यतासे निम्न असाम्यता आती है बलरि न+लरि ब+लरि लरि ब<बर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-२९ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २२६ HH गणित (प्रक्रियाएँ) (१३) वर्गधारा, धनधारा और धनाधनधारा ( दे. गणित/II/५/२) विषै स्वस्थानमें तो उत्तरोत्तर ऊपर-ऊपरके स्थानमे दुगुने-दुगुने अर्धच्छेद हों है और परस्थान विषै तिगुने अर्धच्छेद हो है। जैसे वर्गधाराके प्रथम स्थानकी अपेक्षा तिसहीके द्वितीय स्थानमे दुगुने अर्धच्छेद है, परन्तु बर्गधाराके प्रथमस्थानकी अपेक्षा धनधाराके द्वितीयस्थानमें तिगुने अर्धच्छेद है। (त्रि.सा/७४) (१४) वर्गशलाका स्वस्थानविषै एक अधिक होइ परन्तु परस्थानविषै अपने समान होय है। जैसे वर्गधारा ( दे. ऊपर नं०१३ ) के प्रथमस्थानकी अपेक्षा तिसही के द्वितीयस्थानमे एक अधिक वर्गशलाका होती है। परन्तु वर्गधाराके प्रथमस्थानमे और धनधाराके भी प्रथम स्थानमे एक-एक ही होने के कारण दोनो स्थानोमे वर्गशलाका समान है। (त्रि. सा/७१) कारित, ३. वचन अनुमोदित। १ काय कृत, २. काय कारित व ३. काय अनुमोदित। या कूल ६ भंग हुए सो संख्या है। इन नौ भंगोके नाम अक्ष है। इनकी ऊपर नीचे करके स्थापना करना सो प्रस्तार है। जैसे मन१ वचन २ काय ३ कृत० कारित ३ अनुमोदित ६ मनो अनुमोदित तक आकर पुन वचन कृतसे प्रारम्भ करना परिवर्तन है। सातवॉ भंग बताओ : 'कायकृत'; ऐसे संख्या धरकर अक्षका नाम बताना नष्ट है और वचन अनुमोदित कौन-सा भंग है। 'छठा'। इस प्रकार अक्षका नाम बतार संख्या लाना समुद्दिष्ट है। ३ प्रमादके ३७५०० दोषोंके प्रस्तार यंत्र (१५)वश जगश्रेणी व श धनांगुल, वश "(२४ जघन्य परी. असं) (वंश=वर्गशलाका ), (त्रि सा/१०६) ३. अक्षसंचार गणित निर्देश १. प्रथम पस्तार-(प्रमादोके भेद प्रभेद-दे वह बह नाम ) १ प्रमाण-(गो. जी /जी. प्र. व भाषा/१४/पृ ८६-६१) २. संकेत-अनं - अनन्तानुबन्धी; अप्र. = अप्रत्याख्यान; प्र.-प्रत्या ख्यान, सं.- संज्वलन. १. अक्षमंचार विषयक शब्दोंका परिचय प्रणय स्नेह मोह to राज neslola ४० गो. जी./म् ब जी. प्र /३५/६५ संखा तह पत्थारो परियट्टण पट्ट तह समुद्दिट्ट । एदे पंचपयारा पमंदसमुवित्तणे णेया ॥३॥ प्रमादालापोत्पत्तिनिमित्ताक्षसंचारहेतुविशेष संख्या, एषां न्यास प्रस्तार', अक्षसंचार परिवर्तन, संरव्यां धृत्वा अक्षानयन नष्टं अक्षं धृत्वा संख्यानयनं समुद्दिष्टं । एते पंचप्रकारा' प्रमादसमुत्कीर्तने झया भवन्ति । व संख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट, समुद्दिष्ट ए पॉच प्रकार प्रमादनिका व्याख्यानविर्षे जानना। (ऐसे ही साधुके ८४००'००० उत्तर गुण अथवा ८०,००० शीलके गुण इत्यादिमे भी सर्वत्र ये पाँच बात' जाननी योग्य हैं। यहाँ प्रमादका प्रकरण होनेसे केवल प्रमादके आधारपर कथन किया गया है।) तहाँ प्रमादनिका आलापको कारणभूत जो अक्षसंचारके निमित्तका विशेष सो संख्या है। बहुरि इनिका स्थापन करना सो प्रस्तार है। बहुरि अक्षसंचार परिवर्तन है। संख्या धर अक्षका व्यावना नष्ट है। अक्ष धर संख्याका व्यावना समुद्दिष्ट है। इहॉ भंगको कहनेको विधान सो आलाप है। बहुरि भेद व भंगका नाम अक्ष जानना। बहुरि एक भेद अनेक भंगनिविषै क्रमत पलट ताका नाम अक्षसंचार जानना। बहुरि जेथवाँ भंग होइ तीहि प्रमाणका नाम सरख्या जानना । कथा कषाय | इन्द्रिय | निद्रा पा स्त्री अन कोध । ग्यजन त्यानदि अर्थ अनः भान १५०० १० भोजन अन माया মাহ प्रचनाचला ३००० q20 अन लोग ४५०० १८० चोर अप्र.क्रोध भीत्र ६००० -280 अप्र-मान ३०० परपारखण्डाप्रमाया ९००० ३६० देश अप्रलोम १५०० ४२० भाषा चक्रोध q2000 __४८० गुणमन्चा प्रसान ३४०० देवी प्रमाया 44000 ६०० निष्र प्रलीम १६५०० ६६० परशन्यास-क्रोध १३॥ १८०do020 केन्दस पान १९५०० ८०० १५दिशकालानुचितासमाया २१008 ० का भंड १६२२५०० so १० मुर्छ । हास्य । १९ घरपखित अरहि। २० परसा पोळ ३०० च्या २२ कलह जरमा २. अक्षसंचार विधिका उदाहरण मन वचन कायके कृत कारित अनुमोदनाके साथ क्रमसे पलटनेसे तीन-तीन भंग होते है। यही अक्ष संचार है। जैसे १, मनो कृत, २. मनो कारित, ३, मनो अनुमोदित । १. वचन कृत, २ वचन जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 2 ३ 8 ५ ६ ७ て 99 १२ गणित २. द्वितीय प्रस्तार स्त्री अर्थ 22 | २३ 2 28 २५ भोजन ३ राज चोर वैर e भाषा १० गुणबन्ध १० 群 परपारखण्ड ما देश १८ परपरिवाद। १९ ୨୧ २० परजुगुप्सा २१ परपीडा 129 कलह 32 १३ परिग्रह २३ अन. क्रोध। स्पर्शन स्त्यानगृध्दि स्नेह मोह १८७५० अने-मान २५ अनं-माया ५० प्रमान २२५ प्र· माया २५० निष्ठुर प्रलोभ २०५ १३ पर पैशुन्यस क्राध १३ १४ कन्दुर्प ३०० समान ३२५ देशकालानुचित समाया १५ १५ १४ ३५० स लोभ १६ २७५ ਮੰਡ 92 मूर्ख ६० १८ आत्म प्रशंसा १७ अन लोभ ७५ अप्र. क्रोध 900 'अप्र· मान १२५ अप्र· माया १५० अप्र लभि १७५ प्र क्रोध 300 हास्य ४०० रति ४२५ अरति ४५० शोक ४७५ 200 जुगुप्सा ५२५ विद | कृष्याधारंभ पुरुष वेद २४ ५७५ संगीत वाद्य नपुंसक वेद ६०० २५ रसना ६२५ प्राण १२५० चक्षु १८७ श्रोत्र २५०० मन ३१२५ निद्रा निद्रा ३७५० प्रचलाप्रचना ७५०० निद्रा 99220 अचला १५००० ४. नष्ट निकालने की विधि गो. जी / जी. प्र. / ४४/८४/१० व भाषा / ४४ /११ / ६का भावार्थ :- जिस संख्याका नष्ट निकालना इष्ट है उसे भाज्य रूपसे ग्रहण करना और प्रमाद के विकथा आदि पाँच भेदोंकी अपनी-अपनी जो भेद संख्या हो सो भागहार रूपसे ग्रहण करना । यथा विकथाकी संख्या २५ है सो भागहार है। प्रणयकी संख्या २ है सो भागहार है । विवक्षित प्रस्तार के क्रमके अनुसार ही क्रम से उपरोक्त भागहारों को ग्रहण करके भाज्यको भाग देना । जैसे प्रथम प्रस्तारकी अपेक्ष प्रणयवाला भागाहार प्रथम है और विकथाबाला अन्तिम तथा द्वितीय प्रस्तारकी अपेक्षा विथावाला प्रथम है और प्रणयवाला अन्तिम " विक्षित रम्याको पहिले प्रथम भामहार या प्रभावको भेद संख्याभाग पुनः जो अन्ध आने उसे दूसरे भागाहारी भाग है, पुनः जो लब्ध आवे उसे तीसरे भाग्राहारसे भाग दें...इत्यादि क्रमसे बराबर अन्तिम प्रस्तार तक भाग देते जायें। द्वितीयादि बार भाग कैसे पूर्व सन्धराशि में जोड़ दें। परन्तु यदि अवशेष बचा हो तो कुछ न जोड़े। प्रत्येक स्थान में क्या अवशेष बचता है, इसपर से ही उस प्रस्तारका विवक्षित अक्ष जाना जाता है। यदि ० बचा हो तो उस प्रस्तारका २२७ 11 गणित ( क्रियाएँ) अन्तिम भेद या अक्ष जानना और यदि कोई अंक शेष बचा हो तो तेथनॉ अक्ष जानना । दे० पहिले यन्त्र । नं० १ २ ३ ४ ५ १. प्रथम प्रस्तारकी अपेक्षा नं. 'प्रस्तार उदाहरणार्थ ३५०००व आलाप बताओ । १ प्रणय मित्रा इन्द्रिय प्रस्तार विकथा कषाय इन्द्रिय निद्रा प्रणय भाज्य २ ३ ४ कषाय ५! विकथा अतः इष्ट आलाप मोही प्रचलायुक्त रसना इन्द्रियके वशीभूत प्रत्याख्यानक्रोधवाला कृष्याधारंभ करता हुआ । २. द्वितीय मस्तारको अपेक्षा ३५०००+ ० joçooto ३५०० + ० ५८३+१ २५ २३+१ २५ भाज्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३५०००+ ० १४००० भागहार लब्ध शेष १६+0 २ १+१ २+० २५ २५ ६ १७५००० मोह ३५०० 0 प्रचला ५८ ३ २ रसना R3 ह प्र. क्रोध २४ कृष्याद्यारम्भ भाजक लब्ध शेष अक्ष ० संगीतवाच नपुं वेद रसना २ १४०० अक्ष ० ० प्रचला १ ० मोह अतः दृष्ट आला-संगीतवाद्यालाची नपुंसकमेदो, रसना के मला मोही । ५६ 0 ६ २ २ ५. समुद्दिए निकालने की विधि गो.जी./जी. प्र.४४/४/१५ व भाषा / ४४/१२/२ का भावार्थयत्री अपेक्षा साधना हो तो इष्ट आलापके अक्षोके पृथक् पृथक् कोठो में दिये गये जो अंक उनको केवल जोड़ दीजिये। जो लब्ध आवे तेथ अक्ष जानना । - दे० पूर्वोक्त यन्त्र । गणितकी अपेक्षा साधना हो तो नष्ट प्राप्ति विधि से उलटी विधिका ग्रहण करना । भागहारके स्थानपर गुणकार विधिको अपनाना। प्रस्तार क्रम भी उलटा ग्रहण करना । अर्थात् प्रथम प्रस्तारकी अपेक्षा faकथा पहिले है और प्रणय अन्तमे । द्वितीय प्रस्तारकी अपेक्षा प्रणय पहिले है और विकथा अन्तमे । गुणकार विधि में पहिले '१' का अंक स्थापो। इसे प्रथम विवक्षित प्रस्तारकी भेद संख्या से गुणा करो विवक्षित असके आगे जितने कोठे या मंग शेष रहते है (दे०पूर्वोक्त यंत्र) तितने अंक लब्धमेसे घटावे । जो शेष रहे उसे पुन' द्वितीय विविक्षित प्रस्तारकी भेद संख्या से गुणा करे । लब्धमे से पुनः पूर्ववत् अक घटावें । इस प्रकार अन्तिम प्रस्तार तक बराबर गुणा करना व घटाना करते जायें । अन्त मे जो लग्ध हो सो हो इष्ट अक्षको संख्या जाननी । उदाहरणार्थ स्नेही निद्रा युक्त, मेनके वशीभूत अनन्तानुबन्धी क्रोधवाला मूर्ख कथालापीकी संख्या लानी हो तो - यन्त्रकी अपेक्षा - प्रथम प्रस्तार के कोठो में दिये गये अक निम्न प्रकार है (देखो पूर्वोक्त यन्त्र ) - स्नेह - १; निद्रा - ६: मन - ५०; अनन्त कोष = ० मूर्खकथा - २४००० । सब अंकोको जोड़े - २४०५७ = पाया । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २२८ 11 गणित (प्रक्रियाएँ) गणितको अपेक्षा प्रथम प्रस्तारमे ११ (स्थापा )x२५ (विकथाकी संख्या )}-८ (मूर्व कथासे आगे ८ कोठे या भंग शेष है) = १७ इसी प्रकार १७४२५ ( कषाय )-२४ -४०१ ४०१x६ (इन्द्रिय)-१ -२४०६ २४०६४५ (निद्रा) -१ = १२०२६ १२०२६४२ (प्रणय)-१ = २४०५७ वॉ अक्ष इसी प्रकार द्वितीय प्रस्तारमे भी जानना। केवल क्रम बदल देना । पहिले प्रणयको २ संख्यासे '१' को गुणा करना, फिर निद्राकी पाँच संख्यासे इत्यादि। तहाँ (२४२)-१-१; (१४५)-१-४; (४४६)-०-२४, (२४४२५)-२४-५७६ (५७६४२५)- ८=१४३६२ ४. त्रैराशिक व संयोगी भंग गणित निर्देश १. द्वि नि आदि संयोगी भंग प्राप्ति विधि गो. क./जी. प्र/GEE/१७७ का भाषार्थ-जहाँ प्रत्येक द्विसयोगी त्रिसंयोगी इत्यादि भेद करने होंहि तहाँ विवक्षितका जो प्रमाण होहि तिस प्रमाणत लगाय एक एक घटता एक अंक पर्यत अनुक्रमत लिखने, सो ए तौभाज्य भए । अर तिनिके नीचे एक आदि एक एक बॅधता तिस प्रमाणका अक पर्यत अंक क्रमतें लिखने, सो ए भागहार भए । सो भाज्यनिकौ अंश कहिए भागहारनिको हार कहिए। क्रमतें पूर्व अशनिकरि अगले अंशको और पूर्व हारनिकरि अगले । हारको गुणि ( अर्थात पूर्वोक्त सर्व अंशोको परस्पर तथा हारोको परस्पर गुणा करनेसे उन उनका जो जो प्रमाण आवै) जो जो अंशनिका प्रमाण होइ ताकौ हार प्रमाणका भाग दीए जो जो प्रमाण आवै तितने तितने तहाँ भंग जानने। ___ उदाहरणार्थ-(षट् काय जीवोंकी हिसाके प्रकरणमें किसी जीवको एक कालमे किसी एक कायकी हिसा होती है, किसीको एक कालमे दो कायकी हिसा होती है। किसीको ३ की इत्यादि। वहाँ एक द्वि त्रि आदि सयोगो भंग निम्न प्रकार निकाले जा सकते है। २. त्रैराशिक गणित विधि गो, जी./पूर्व परिचय/ ७०/१३ त्रैराशिकका जहाँ तहाँ प्रयोजन जान स्वरूप मात्र कहिए है। तहाँ तीन राशि हो है-प्रमाण, फल व इच्छा। तहाँ तिस विवक्षित प्रमाणकरि जो फल प्राप्त होइ सो प्रमाण राशि व फल राशि जाननी। बहुरि अपना इच्छित प्रमाण होइ सो इच्छाराशि जाननी। तहाँ फलको इच्छाकरि गुणि प्रमाणका भाग दीए अपना इच्छित प्रमाणकरि जो फल ताका प्रमाण आवै है । इसका नाम लब्ध है। इहाँ प्रमाण और इच्छाकी एक जाति जाननी । बहुरि फल और लब्धकी एक जाति जाननी। __उदाहरणार्थ-पाँच रुपयाका सात मण अन्न आवै तौ सात रुपयाका केता अन्न आवै ऐसा त्रैराशिक कीया। इहाँ प्रमाण राशि ५ (रुपया) फल राशि ७ (मण) है, इच्छा राशि ७ (रुपया) है। तहाँ फलकरि इच्छाको गुणि प्रमाणका भाग दीए ४७-४६१४ . मन मात्र लब्धराशि भया।--अर्थात फल इच्छा प्रमाण (ध/३/१.२,६/६६ तथा १,२.१४/१०० ). ५. श्रेणी व्यवहारगणित सामान्य १. श्रेणी व्यवहार परिचय संकलन व्यकलन आदि पूर्वोक्त आठ बातोंका प्रयोग दो-चार राशियों तक सीमित न रखकर धारावाही रूपसे करना श्रणी व्यवहार गणित कहलाता है। अर्थात् समान वृद्धि या हानिको लिये अनेकों अंकों या राशियों की एक लम्बी अटूट धारा यो श्रेणीमे यह गणित काम आता है। यह दो प्रकारका है-संकलन व्यवहार श्रेणी ( Arathematical Progression) और गुणन व्यवहार श्रेणी (Geometrical Progression ) - तहाँ प्रथम विधिमें१,२,३,४... इस प्रकार एकवृद्धि क्रमवाली, या २,४,६,८ . इस प्रकार दोवृद्धि क्रमवाली, या इसी प्रकार ३,४,५ संख्यात, असंख्यात व अनन्त बृद्धि क्रमवाली धाराओंका ग्रहण किया जाता है, जो सर्वेधारा, समधारा आदि अनेकों भेदरूप हैं। द्वितीय विधिमे १,२,४,८...८ इस प्रकार दोगुणकारवाली, या १,३, ६,२७... इस प्रकार तीनगुणकारवाली, या इसी प्रकार ४,५,६, संख्यात, असंख्यात व अनन्त गुणकार वृद्धि क्रमवाली धाराओं का ग्रहण किया जाता है, जो कृतिधारा, घनधारा आदि अनेक भेदरूप है। इन सब धाराओका परिचय इस अधिकारमें दिया जायेगा। समान-वृद्धि क्रमवाली ये धाराएँ कहींसे भी प्रारम्भ होकर तत्पश्चात नियमित समान-वृद्धि क्रमसे कहीं तक भी जा सकती हैं। उस धारा या श्रेणीके सर्व स्थानों में ग्रहण किये गये अंकों या राशियोंका संकलन या गुणनफल 'सर्वधन' कहलाता है। उसके सर्व स्थान 'गच्छ', तथा समान वृद्धि 'चय' कहलाता है। इन 'सर्वधन' आदि सैद्धान्तिक शब्दोंका भी परिचय इस अधिकारमें आगे दिया जायेगा। दो-चार अंकों या राशियोंका संकलन या गुणन तो सामान्य विधिसे भी किया जाना सम्भव है, परन्तु पचास, सौ, संख्यात, असंख्यात व अनन्त राशियोवाली अटूट श्रेणियोंका संकलन आदि सामान्य विधिसे किया जाना सम्भव नहीं है। तिसके लिए जिन विशेष प्रक्रियाओंका प्रयोग किया जाता है, उनका परिचय भी इस अधिकारमें आगे दिया जानेवाला है। २. सर्वधारा आदि श्रेणियोंका परिचय त्रि. सा./मू./५३-६१ धारेत्थ सव्वसमदिधणमाउगइदरवेकदो विदं । तस्स घणाघणमादी अंतं ठाणं च सव्वत्थ ॥५३॥ -- चौदह धाराएँ हैं | भाज्य या अंश | ६ | ५ | ४ | ३ | २ | १ || | भाजक या हार | १ | २ | ३ | ४ | ३|६|| एक संयो० अंश नं.,१ हार नं.१ द्वि० संयोगी अंश नं १४२ हार नं १४२ त्रि० संयोगी-बंश नं १४२४३ ६४५४४ हार नं १४२४३ १४२४३ चतु०संयोगी-अंश नं १४२४३४४ ६x५४४४३ हार नं १४२४३४४ १४२४३४४ पंच संयोगी - अंश नं १४२४३४४४५६४५४४४३४२ हार नं १४२४३४४४५ १४२४३४४४५ छ. संयोगी- अंश नं. १४२४३xxx५४६६xxxx३४२४१ हार नं. १४२४३xxx५४६ । १४२४३xxx५४६ कुल भंग -६+१५+२०+१५+६+१ ६३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २२९ II गणित (प्राक्रयाएँ) ३. सर्वधन आदि शब्दोंका परिचय गो. जी./भाषा/४९/१२१ १. सर्वधारी, २. समधारा, 3. विषमधारा, ४. कृतिधारा, ५. अकृति- धारा, ६. घनधारा,७. अघनधारा, ८. कृतिमातृकधारा, ६.अकृतिमातृकधारा, १०, धनमातृकधारा, ११. अधनमातृकधारा, १२. द्विरूपवर्गधारा, १३. द्विरूपधनधारा, १४. द्विरूपधनाधनधारा। इनके आदि अर अंत स्थानभेद है ते सर्वत्र धारानि विषै कहिए है। (गो. जी./भाषा/२१८ का उपोद्घात पृ. २६६/१०)। संकेत- केवलज्ञानप्रमाण उ. अनन्तानन्त । (संकलन व्यव---४+८+१२+१६+२०+२४+२८+३२-१४४ रहारकी श्रेणी & ८४ d.२ | R क्रम धाराका नाम विशेषता. कुलस्थान १ सर्वधारा | १,२,३,४........... a २ समधारा २,४,६,८................ विषमधारा १,३,५,७..... ............. ४) कृतिधारा | १,४,६,१६ ( १२ , २२ , ३२ , ४२)... (३) अकृतिधारा| कृतिधाराकी राशियों से हीन सर्वधारा अर्थात्x,२,३,४,५,६,७,८४,१०............ ६. धनधारा | १.८,२७ ( १३ , २३ , ३३ ) (43)| a3 अघनधारा धनधाराकी राशियोसे हीन सर्वधारा अर्थात्x,२,३,४,५,६,७,४,६,१० ... ..... Jara.3 । कृतिमातृक | १,२,३ १( १२ ) ३, ( २२ ), धारा अकृतिमातृक २ +१, २ +२, ४३ +३......... -३ धारा (कृतिमातृकसे आगे जितने स्थान तक शेष रहे वे सर्व ) | १० घन मातृक १,२,३, ( १३)3 ; ( २३ ); १० घन मातृक १.२ धारा गुणन व्यव- =४+१६+६४+ १२० + २५६+ ५१२+ १०२४ । हारकी श्रेणी २०४८-४०५२ । स्थान प्रथम अंकसे लेकर अन्तिम तक पृथक-पृथक अंकोंका अपना-अपना स्थान । पदधन या -विवक्षित सर्व स्थानकनि सम्बन्धी सर्व द्रव्य र सर्वधन जोडनेसे जो प्रमाण आवे । जैसे उपरोक्त श्रेणियो में-१४४, ४०५२। पद, गच्छ स्थानकनिका प्रमाण। यथा उपरोक्त श्रेणियों में ८ रस्थान (स्थान) (मुख, आदि, आदि स्थान विषै जो प्रमाण होइ। जैसे उपरोक्त प्रथम श्रेणियों में ४। भूमि या अन्त-अन्त स्थान विषै जो प्रमाण होइ। जैसे उपरोक्त श्रेणियोंमे ३२,२०४८ मध्यधन -सर्व स्थानकनिके बीचका स्थान । जहाँ स्थानकनिका प्रमाण सम होइ तहाँ बीचके दोय स्थानकनिका द्रव्य जोड आधा कीए जो प्रमाण आवे तितना मध्य धन है। जैसे उपरोक्त श्रेणी नं.१ मे १६+२०-१८ २१८ आदिधन -जितना मुखका प्रमाण होइ तितना तितना सर्व स्थानकनिका ग्रहण करि जोड जो प्रमाण होई। जैसे ऊपरोक्त श्रेणी नं.१ मे (४४८)-३२।। उत्तर, चय =स्थान-स्थान प्रति जितना-जितना बधै । जैसे वृद्धि, विशेष उपरोक्त श्रेणी नं.१ मे ४। (उत्तरधन या सर्व स्थानकनिविषै जो-जो चय बधै उन सब (चयधन चयों को जोड जो प्रमाण होइ । जैसे उपरोक्त श्रेणी नं.१ मे १४४-३२-११२ । धारा मथ्य चयधन- बोचके स्थानपर प्रथम स्थानकी अपेक्षा वृद्धि । या मध्यमधन जैसे उपरोक्त श्रेणी नं.१ मे मध्यधन १८ है। (ज.प/१२/४८) तहाँ प्रथमकी अपेक्षा १४ की वृद्धि है। ११अघन मातृक धनमातृकसे आगे जितने स्थान 4 तक शेष | रहे वे सर्व अर्थात् 4.3 +९,43 +२, a3 +३.. ... ... a. la-0.3 १२ द्विरूप वर्ग धारा २२ , २२४२, २२४२४२....२ लरि लरि लरि लरिक्ष १३ द्विरूप घन- २३, २२४३.२२४२४३......... या २२२१२२४२२२२२४२४२+४३ २२x२x२x२+८ .....२ लरि लरित (लरि १४ द्विरूपधना-(२६),( २९ )२४२.४ २६ )२४२४२ एलरिघनधारा Ca.४ १६ अर्धच्छेद- =२,४,८,१६,३२,६४......१६. धारा ४.संकलन व्यवहार श्रेणी ( Arithematical Progression ) सम्बन्धी प्रक्रियाएँ (त्रि.सा/गा.नं); ( गो जी/भाषा/४६/१२१-१२४ उद्धृतसूत्र ) लरिव राशि १.सर्वधन निकालो (i) यदि आदिधन और उत्तरधन दिया हो तोआदिधन+उत्तरधन =सर्वधन (ii) यदि मध्यधन और गच्छ दिया हो तोमध्यधन गच्छ == सर्वधन १६ वर्गशलाका =४,१६,२५६, पणट्ठी......d. लरि लरित जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २३० il गणित (प्रक्रियाएँ) (111) यदि, मुख, गच्छ और चम दिया हो तो "पदमेगेण विहीणं दुभाजिदं उत्तरेण संगुणिदं । पभवजुदं पदगुणिदं पदगुणिदं तं विजाणीहि (त्रि. सा/१६४)। (४) मुख या आदि निकालो यदि सर्वधन, उत्तरधन व गच्छ दिया हो तो (1) वेगपदं चयगुणिदं भूमिम्हि रिणधणं चकए। (त्रि.सा./१६३) । भूमि -चय (गच्छ - १)-T.-d (n--1) -मुख [{गच्छ-चय } +मुख ] » गच्छ-सर्वधन २ गच्छ ( iv) यदि मुख भूमि और गच्छ दिया हो तो"मुखभूमिजोगदले पदगुणिदे पदधनं होदि" (त्रि सा/१६३) मुख भूमि सर्वधन ( सर्वधन =S , गच्छ -n; मुख=Tभूमि-T; चय=d) तो s - +(T+d)+(T, +२d ) + (T, +३d )+ । (T -३d ) + (Tn -२d) + ( T. -d)+Tr २९. - TET, + T+T, + T+T, + T, +7, ... T, +T, +7, +T. + T, +T, + T+T. -n(T+T). T+T. मुख+भूमि on- २ - = -~xगच्छ। (11) सर्वधन-उत्तरधन - - गच्छ (गो.जी./भाषा/४६/१२२/६) । (५) अन्त या भूमि निकालो (1) यदि गच्छ, चम, व मुख दिया हो तोव्येकं पदं चयाभ्यस्तं तदादिसहितं अंतधनं (गो.जी./भाषा/ ४६/१२२) (गच्छ -१) चय+मुख -T, +d (n-1) - भूमि (६) उत्तरधन निकालो (i) यदि गच्छ व चय दिया हो तोव्येकपदार्थप्नचयगुणो गच्छ उत्तरधनं । (गो.जी./भाषा/४६/१२३) - -xचयगच्छ- 7.nd=चयधन । (11) यदि गच्छ, चय व मुरब दिया हो तो पदमेगेण विहीणं दुभाजिदं उत्तरेण संगुणिदं । पभवजुदं पदगुणिदं पदगुणिदं होदि सव्वत्थ । (गो.क./भाषा/६०४/१०८१) S(गच्छ - १)xचय + चय?x गच्छ- -उत्तरधन (७) आदिधन निकालो यदि गच्छ व मुख दिया हो तो(1) पदहतमुखमादिधनं । (गोजो./भाषा/४६/१२२) मुखरगच्छ == आदिधन n 1 STम (१) गच्छ निकालो (i) यदि मुख भूमि और चय दिया हो तो "आदी अंते सुद्ध' बढिहिदे इगिजुदे ठाणा । ( त्रि,सा/५७)" भूमि - मुख T.-T. 7 -+1= गच्छ (1) २ + चय १४ ग +१०n-T चय (३)चय निकालो (1) यदि गच्छ और सर्वधन दिया हो तो "पदकदिसंखेण भाजियं पचयं ।' (गो.जी./भाषा/४६/१२३) सर्वधन -चय (d) (1) यदि सर्वधन, आदिधन व गच्छ दिया हो तो "आदिधनोन गुणितं पदोनपद कृतिदलेन सभाजतं पचयं (गो. जी./भाषा/४६/१२३) गच्छ२ -संख्यात ५.गुणन व्यवहार श्रेणी (Geometrical Progression ) सम्बन्धी प्रक्रियाएँ (१) गुणकाररूप सर्वधन निकालो अंतधणं गुणगुणिय आदिविहीणं रुऊणुत्तरपदभजियं-- गुणकार करता अंतविधैं जो प्रमाण होइ ताको जितनेका गुणकार होइ ताकरि गुणिए, तिस विषै पहिले जितना प्रमाण होइ सो घटाइए। जो प्रमाण होइ ताको एकघाटि गुणकारका भाग दीजिये। यो करता जो प्रमाण होइ सो ही गुणकार रूप सर्व स्थाननिका जोड जानना। २ ( सर्वधन-आदिधन) - गच्छ --चय (4) (सर्वधन - Sn; मुख = T, भूमि =T, ; गच्छ =n; चय=d s. T, + Than "T, +T, + d(n-')} ___.2T +n(n-1d T, =T.xn-l 7-1 2nt .+(n - 2 -n NT ) s, T, (1 -") or 7, (n" -1 ) । यथाSa = a+ar+ar" + ars . art-1 r. Sa = ar+at+6, +a, ... a"-1+a Sn - r. S. a-ar" Sn ( 1-7 } = a ( 1-," ) (11) यदि सर्वधन, मुख व गच्छ दिया हो तो चय 1- 1-1 Where a =T1 = मुख; = गुणाकार जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २३१ II गणित (प्रक्रियाएँ) अपने अपने योग्य अन्तर्महत के जेते समय होइ तितना गुणहानिका आयाम जानना । यथा ६. मिश्रित श्रेणी व्यवहारकी प्रक्रियाएँ जैसे a+(a+d)rt(a+2d):-... {+(1-1)dan-1 T. =(4r.T.),"-1 गुणहानि न० गुणहानि आयाम समय ७. द्वीप समुद्रोंमें चन्द्र-सूर्यादिका प्रमाण निकालनेकी प्रक्रिया ५१२ ४८० २४० ४४८ २०८ Home Rd. ३८४ ३५२ ३२० २८८ १४४ सर्व द्रव्य | ३२०० १६०० । ८०० ४०० २०० १०० | चय३२ । १६ । ८ ४ २ १ (ध.६/१६-६,६/९५४); (गो जी /भाषा/५/१५८) ज.प./१२/१४-६१ मध्य लोकमे एक द्वीप व एक सागरके क्रमसे जम्बूद्वीप व लवणसागरसे लेकर स्वयंभूरमण द्वीप व स्वयंभूरमण सागर पर्यत असरल्यात द्वीप सागर स्थित है। अगला अगला द्वीप या सागर पिछले पिछलेकी अपेक्षा दूने दूने विस्तारवाला है। तहाँ प्रथम ही अढाई द्वीपके पाँच स्थानोमे तो २,४,१२,४२ व ७२ चन्द्र व इतने ही सूर्य है। इससे आगे अर्थात मानुषोत्तर पर्वतके परभागमे स्वयंभूरमण सागर पर्यंत प्रत्येक द्वीप व सागर में चन्द्र व सूर्योके अनेकों अनेको वलय है। प्रत्येक वलयमें अनेको चन्द्र व सूर्य है। सर्वत्र सूर्यों की सख्या चन्द्रों के समान है। तहाँ आदि स्थान अर्थात पुष्कराध द्वीपमे आधा द्वीप होनेके कारण १६ के आधे ८ वलय है परन्तु इससे आगे अन्त पर्यंत १६ के दुगुने, चौगुने आदि क्रमसे वृद्धि गत होते गये हैं। अर्थात पूर्वोक्त श्रेणी नं०२ (देरखो गणित 10/५/३) के अनुसार गुणन क्रमसे वृद्धिगत है। यहाँ गुणकार २ है। तहाँ भी प्रत्येक द्वीप या सागरके प्रथम बलयमें अपनेसे पूर्व द्वीप या सागरके प्रथम वलयसे दुने दूने चन्द्र होते है। तत्पश्चात् उसीके अन्तिम बलय पर्यत ४ चयरूप वृद्धि क्रमसे वृद्धिगत होते गये है। तिनका प्रमाण निकालने सम्बन्धी प्रक्रियाएं - पूष्करार्ध द्वीपके ८ वलयोंके कुल चन्द्र तो क्यों कि १५४, १४८, १५२ "इस प्रकार केवल संकलन व्यवहार श्रेढोके अनुसार वृद्धिगत हए है अत: तहाँ उसी सम्बन्धी प्रक्रियाका प्रयोग किया गया है। अर्थात-- २. गुणहानि सिद्धान्त विषयक शब्दोंका परिचय सर्वधन - [{ गच्छ-१४ चय } + मुख गच्छ -[{१४४ } +rad] x ८ = ९२६४ परन्तु शेष द्वीप समुद्रोमें आदि (मुरब ) व गच्छ उत्तरोत्तर दुगुने दुगुने होते है और चय सर्वत्र चार है। इस प्रकार संकलच व्यवहार और श्रेणी व्यवहार दोनोंका प्रयोग किया गया है। (विशेष देखो यहाँ हो अर्थात् ग्रन्थमे ही) प्रमाण-१. (गो.जी./भाषा/५६/१५५/१२); २. (गो.क./भाषा/१२२/११०५); ३. (गो.क /भाषा/६५५/११८१), ४. (गो.क /भाषा/१०५-६०६/१०८२); ५ (ल.सा/जी प्र/४३/७७)। प्रमाण नं० १. प्रथम गुणहानि-अपनी अपनी द्वितीयादि वर्गणाके वर्ग विर्षे अपनी अपनी प्रथम वर्गणाके वर्गत एक एक अविभागप्रतिच्छेद बंधता अनुक्रमैं जानना। ऐसे स्पर्धकनिके समूहका नाम प्रथम गुणहानि है। हिती गणानि स प गानिके प तितीजेता रूप पाइये है तिनितें एक एक चय प्रमाण घटते द्वितीयादि बर्गणानिविषै बर्ग जानने। ऐसे क्रमतें जहाँ प्रथम गुणहानिका प्रथम वर्गणाके वर्गनितें आधा जिस वर्गणाविर्षे वर्ग होइ तहाँ तै दूसरी गुणहानिका प्रारम्म भया। तहाँ-द्रव्य चय आदिका प्रमाण आधा आधा जानना। १. नाना गुहानि-इस क्रमतें जेती गुण हानि सर्व कर्म परमाणूनिविषै पाइए तिनिके समूहका नाम नाना गुणहानि है। (जैसे उपरोक्त यंत्रमें नाना गुणहानि छह है।)। १. गुणहानि आयाम-एक गुणहानिविषै अनंत वर्गणा पाइये (अथवा जितना द्रव्य या काल एक गुणहानिविष पाइए) सो गुणहानि आयाम जानना। १. दो गुणहानि-याको (गुणहानि आयामको) दूना कीए जो प्रमाण होइ सो दो गुणहानि है। * ज्योढगुणहानि या द्वयर्धगुणहानि -(गुणहानि आयामको ड्योढा कीए जो प्रमाण होड)। १ अन्योन्याभ्यस्त राशि-नानागुण हानि प्रमाण दुये मांडि परस्पर गुण जो प्रमाण होइ सो अन्योन्याभ्यस्त राशि है। २ निषेकहार-निषेकच्छेद कहिए दो गुणहानि।। । अनुकृष्टि - प्रतिसमयपरिणामखण्डानि-प्रति समय परिणामोमें जो रखण्ड उपलब्ध होते है वे अनुकृष्टि कहलाते हैं ( अर्थात मुख्य गुण हानि के प्रत्येक समयके अन्तर्गत इनकी पृथक् पृथक् उत्तर गुण-हानि रूप रचना होती है ) । (दे० करण/१/३)। ६. गुणहानि रूप श्रेणीव्यवहार निर्देश १. गुणहानि सामान्य व गुणहानि आयाम निर्देश ध ६/१,६-६६/१५१/१० पढमणिसेओ अवठ्ठिदहाणीए जेत्तियमद्धाणं गंतूण अद्ध होदि तमद्धाणं गुणहाणि त्ति उच्चदि । -प्रथम निषेक अवस्थित हानिसे जितनी दूर जाकर आधा होता है उस अध्वान (अन्तराल या कालको ) 'गुणहानि' कहते है। गो.जी./भाषा/२५३/५२६ पूर्व पूर्व गुणहानितें उत्तर उत्तर गुणहानिविषै गुणहानिका वा निषेकनिका द्रव्य दणा दूणा घटता होइ है, तातै गुणहानि नाम जानना । • गुण हानि यथायोग्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित २३२ II गणित (प्रक्रियाएँ) ४. कम स्थितिकी अन्योन्याभ्यस्त राशियाँ प्रमाण नं० * तिर्यक् गच्छ-नाना गुणहानियोंका प्रमाण । ४ ऊर्ध्वगच्छ-गुणहानि आयाममे समयों या वर्गणाओं आदि का प्रमाण। ४ अनुकृष्टि गच्छ-ऊर्ध्व गच्छ+ संख्यात । * ऊर्धचय-ऊर्ध्व गच्छमे अर्थात् मुल गुणहानिमें चय। ४ अनुकृष्टि चय-ऊर्ध्वचय- अनुकृष्टि गच्छ विवक्षित सर्वधनगुणहानिका कोई एक विवक्षित समय सम्बन्धी द्रव्य । गो. क /मु./६३७-६३६/११३७ इसलायपमाणे दुगसंवरगे कदे दु इट्ठस्स । पयडिस्स य अण्णोण्णाभत्थपमाण हवे णियमा । अपनी अपनी इष्टशलाका प्रमाण मांडि परस्पर गुणे अपनी इष्ट प्रकृतिका अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण हो है ।१३७॥ नं० प्रकृति उत्कृष्ट स्थिति | अन्योन्याभ्यस्त राशि ३. गुणहानि सिद्धान्त विषयक प्रक्रियाएँ / ज्ञानावरण । ३०-को-को-सा पस्य हैं - (पत्य )असं ख्यात 1 (१) अन्तिम गुणहानिका द्रव्य दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय ७० को को सा. (पल्य-लरि लरि पत्य) ३३ सागर राशिक विधिसे मोहनीयवत् आयु २० को को सा पल्य४ xअसंख्यात नाम गोत्र ८) अन्तराय ३० को को सा ज्ञानावरणवत्र ७. क्षेत्रफल आदि निदंश गो. क/भाषा/६५२/११७३ से उद्धृत-रूऊणण्णोण्णबभवहिददब्वं । सर्व द्रव्य - (अन्योन्याभ्यस्त राशि-१) (२) प्रथम गुणहानिका द्रव्य गो क/भाषा/६५२/११७३/१० ___अन्त गुणहानि का द्रव्यx( अन्योन्याभ्यस्त -२)। (३) प्रथम गुणहानिकी प्रथम वर्गणाका द्रव्य गो. जी /भाषा/५६/१५६/११ दिवड्ढ गुणहाणिभाजिदे पढमा। सर्व द्रव्य+साधिक ड्योढ गुणहानि । गो. क./भाषा/१५६/१४/११ पचयं तं दो गुणहाणिणा गणिदे आदि णिसेयं ततो विसेसहीणकमं । चयxढो गुणहानि । (४) विवक्षित गुणहानिका चय (1) यदि अन्तिम या प्रथम निषेक तथा गुणहानि आयाम दिया हो तो अन्तिम वर्गणाका द्रव्य-दो गुणहानि (या निषेकहार) ( गो जी /भाषा/५६/१५६/१३)। अथवा-प्रथम निषेक - (गुणहानि आयाम+१) (गो. जी./भाषा/१५१/११६३/७) (11) यदि सर्वद्रव्य या मध्यधन व गुण हानि आयाम (गच्छ) दिया हो तो गो. क./भाषा/१५६/१६४/१० तं रूऊणद्धाणण ऊणेण णिसेयभागहारेण मज्झिमधणमवहरदे पचयं । १. चतुरस्त्र सम्बन्धी क्षेत्रफल परिधि घन फल -लम्बाईxचौडाई = ( लम्बाई+चौडाई )x२ = लम्बाईxचौडाईxऊँचाई २. वृत्त (circle) सम्बन्धी (१) बादर परिधि - ३ व्यास अर्थात ३dia (त्रि.सा./३११) मध्यधन+ ईदो गुणहानि- गुणहानि आयाम-} (गो.क./भाषा/१५३/११७३/१६); (ल० सा/जी. प्र./७२/१०६)। (गो. क/भाषा/६३०/११९३/११)। नोट-मध्यधनके लिए देखो नीचे (५) विवक्षित गुणहानिका मध्यधन गो क./भाषा/१५६/११४/१० अद्वाणेण सब्बधणे खंडिदे-मज्झिमधणमागच्छदि । विवक्षित गुणहानिका सर्वद्रव्य-+-गुणहानि आयाम । (६) अनुकृष्टि चय गो. क /भाषा/६५५/११८२/४ विवक्षित गुणहानिका ऊर्वचय+ अनुकृष्टि गच्छ। (७) अनुकृष्टि के प्रथम खण्डका द्रव्य गो. क./भाषा/९५५/११८१/१४ तथा ११८२/१ (विवक्षित गुणहानिका सर्व द्रव्य-उसही का आदिधन+अनकृष्टि गच्छ)। (२) सूक्ष्म परिधि- ( व्यासx१०)२ अर्थात् । (त्रि. सा./१६); (ज.प/१/२३:४/३४); (ति.प./१/११७) (३) बादर या सूक्ष्म क्षेत्र फल बादर या सूक्ष्म परिधिxव्यास अर्थाता, (ति, प./१/११७ ): ( ज प./१/२४,४/३४ ); (त्रि.सा/६६, ३११) (३) वृत्त विष्कम्भ या व्यास { diameter) (1) ४ वाण२ + जीवा२ . ४ वाण (त्रि. सा/७६१,७६३) (ज, प/६/७ ). (1) वाण+- जीवा या ( ज. प./६/१२) (धनुष पृष्ठ (1) (धनुष पृष्ठ -बाण)-वा बाण)-वाण (त्रि.सा/७६५). जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणित ३. धनुष ( arc ) सम्बन्धी (१) जीवा ( chord ) - (1) V (ब्यास- बाण) ४ बाण (ज. १/६/६) (i) (ii) ( धनुष पृष्ठ – ६ बाण? (ii) (11) (२) बाण ( depth of the arc ) (i) (३) धनुष पृष्ठ (arc ) (iii) व्यास + { (त्रि सा/७६५) । {( धनुष पृष्ठ े – जीवा' ) + ६)}रे - (प्रि. सा/०३). व्यास - ( व्यास जीवा२ ) २ (त्रि सा/ ०६४ ); (ज. १/६/१९१) (प्यास+), (४) धनुषा क्षेत्रफल (ii) सूक्ष्म क्षेत्रफल: (i) बादर क्षेत्रफल = बाणx S (त्रि, सा/७६२ ) )? ( त्रि. सां/ ७६२ ) धनुष पृष्ठ था. ४ बाण (६ मा + जीवा ) २ (ज. प./६/१०); (जि. सा/०६०) (1) क्षेत्र या पतकी चूलिका बडी जीवा - छोटी जीवा २ (ज. १/२/३९) भा० २-३० धनुष पृष्ठ २ -है वाण जीवा } (त्रि. सा / ७६६ ) जीवा + बाण २ -1-1-117 - व्यास (जि. सा/७६६) चापः २३३ बड़ी जीवा छोटी जीवा ४. वृत्त वलय (ring ) सम्बन्धी अभ्यंतर सूची या सूची व्यास मध्यम सूची या सूची व्यास बाह्य सूची या सूची व्यास (१) अभ्यन्तर सूची या व्यास २ वलय व्यास - ३००,००० ( त्रि. सा / ३१० ) वलय व्यास (२) मध्यम सूची या व्यास (३) बाह्य सूची या व्यास ३ बलय व्यास - ३००,००० १०४ ४ वलय व्यास - ३००,००० (त्रि सा/३१०) (४) वृत्त वलयका क्षेत्रफल - (1) भावर क्षेत्रफल ३ ( अभ्यंतर सूची + बाह्य सूची ) x ( त्रि. सा / ३१५ ) सूक्ष्म क्षेत्र फल वलय व्यास २ १० सूचीमा सूचीय व्यास २ (जि. सा/२९६) (2) वृत लयकी बाह्य परिधि अभ्यन्तर परिधिx जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ( त्रि. सा / ३१० ) (त्रि.सा./३९४) (२) विवक्षित द्वीप सागरकी सूची ( II गणित ( प्रक्रियाएँ) बाह्य सूची अभ्यन्तर सूची ५. विवक्षित द्वीप सागर सम्बन्धी (१) जम्बू द्वीपकी अपेक्षा विवक्षित द्वीप सागरकी परिधि जम्बूद्वीपको परिधिसूची जम्बूद्वीपका व्यास (त्रि.सा./ २०१) द + १५०००,००० ) - वलय (१) विवक्षित द्वीप सागरका वलय व्यास (३ - १५१००,०००)-० ' (Fx.41./608) - ३००,००० } Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T गणितज्ञ . (४) विवक्षित द्वीप सागरके क्षेत्रफलमें जम्बूद्वीप समान खण्ड (1) बाह्य सूची - अभ्यन्तर सूची२ ___ जम्बूद्वीपका व्यास (त्रि.सा./३१६) बलय व्यासकी शलाका- १२ वलय व्यास (शलाका जैसे २००,००० की शलाका-२) (त्रि. सा /३१८) (बाह्य सूची-वलय व्यास )x४ वलय व्यास १००,०००२ (त्रि. सा./३१७) (५) विवक्षित द्वीप या सागरकी बाह्य परिधिसे घिरे हुए सर्व क्षेत्रमें जम्बू द्वीप समान खण्ड (बाह्य सूचीको शलाका)२ (शलाका जैसे २००,००० की शलाका-२) (त्रि. सा./३१७) * * *MS Kan गमनार्थ गति निर्देश गति सामान्यका लक्षण । गतिके भेद व उसके लक्षण। ऊर्ध्वगति जीवकी स्वभावगति है। पर ऊर्ध्वगमन जीवका त्रिकाली स्वभाव नहीं। दिगन्तर गति जीवकी विभाव गति है। पुद्गलोंकी स्वभाव विभाव गतिका निर्देश। सिद्धोंका ऊर्ध्वगमन। -दे० मोक्ष/५। विग्रह गति। -दे० विग्रहगति। जीव व पुद्गलकी स्वभावगति तथा जीवकी भवान्तरके प्रति गति अनुश्रेणी ही होती है। -दे० विग्रह गति । * जीव व पुद्गलकी गमनशक्ति लोकान्ततक सीमित | नहीं है बल्कि असीम है। -दे० धर्माधर्म/२/३ । ६.बेलनाकार (cylinderical) सम्बन्धी (१) क्षेत्र फल-गोल परिधि ऊँचाई (२) घन फल-मूल क्षेत्रफलxऊँचाई ( अर्थात् area of thebasexheight) ७. अन्य आकारों सम्बन्धी (१) मृदंगाकारका क्षेत्रफल मुख ____ मुख+भूमि २-xऊंचाई भूमि (ति. प./१/१६६) (२) शंखका क्षेत्रफल २ मोटाईलम्बाई मुख व्यास' ७ जीवको भवान्तरके प्रति गति छह दिशाओंमें होती है। ऐसा क्यों। गमनार्थगतिकी ओघ आदेश प्ररूपणा-दे० क्षेत्र/३,४ । नामकर्मज गति निर्देश गतिसामान्यके निश्चय व्यवहार लक्षण। गति नामकर्मका लक्षण। क, ख-गति व गति नामकर्मके भेद । नरक, तियच, मनुष्य व देवगति । -दे० 'वह वह नाम। सिद्ध गति। -दे० मोक्ष। जीवकी मनुष्यादि पर्यायोको गति कहना उपचार है। कम दयापादित भी इसे जीवका भाव कैसे कहते हो। यदि मोहके सहवर्ती होनेके कारण इसे जीवका भाव कहते हो तो क्षपक आदि जोवोंमें उसकी व्याप्ति कैसे होगी। -दे० क्षेत्र/३/१। प्राप्त होनेके कारण सिद्ध भी गतिवान् बन जायेंगे। प्राप्त किये जानेसे द्रव्य ब नगर आदिक भी गति बन जायेंगे। गतिकर्म व आयुबन्धमें सम्बन्ध । -देव आयु/६ । गति जन्मका कारण नहीं आयु है। - आयु/२ । कौन जीव मरकर कहों उत्पन्न हो ऐसी गति अगति सम्बन्धी प्ररूपणा। -दे० जन्म/६॥ गति नामकमकी बन्ध-उदय-सत्त्व प्ररूपणाएँ। -दे० 'वह वह नाम'। सभी मार्गणाओंमें भावमार्गणा इष्ट होती है तथा | वहाँ आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम है। -दे० मार्गणा। चारों गतियोंमें जन्मने योग्य परिणाम । -दे० आयु/३ । (त्रि. सा./३२७) गणितज्ञ-Mathematicians (ध./५/प्र./२७) गणित शास्त्र-Mathematics (घ./५/प्र./२१) गणितसार संग्रह-महावीराचार्य (ई. ८००-८३० ) द्वारा संस्कृत भाषामै रचित गणित विषयक एक ग्रन्थ । (ती./३/३६)। गणा-(ध./१४/५,६,२०/२२/७) एकादशांगविद्गणी । -ग्यारह अंगका ज्ञाता गणी कहलाता है। गात-गति शब्दका दो अर्थोंमे प्रायः प्रयोग होता है-गमन व देवादि चार गति। छहों द्रव्यों में जीव व पुदगल ही गमन करनेको समर्थ हैं। उनकी स्वाभाविक व विभाविक दोनों प्रकारको गति होती है। नरक, तिथंच, मनुष्य व देव ये जीवोंकी चार प्रसिद्ध गतियाँ हैं, -जिनमे संसारी जीव नित्य भ्रमण करता है। इसका कारणभूत कर्म गति नामकर्म कहलाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ १. गमनार्थ गति निर्देश १. गमनार्थ गति निर्देश से ही नीचे तिरछे और ऊपरको जाती है उसी तरह आत्माकी स्वभावतः ऊर्ध्वगति ही होती है। क्षीणकर्मा जीवोंकी स्वभावसे ऊर्ध्वगति ही होती है। (त.सा./८/३१-३४); (पं.का/त.प्र./२८) द्र.से./मू./२ सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई। =जीव स्वभावसे ऊर्ध्व-गमन करनेवाला है। नि.सा./ता,वृ./१८४ जीवानां स्वभावक्रिया सिद्धिगमनं । जीवों की स्वभाव क्रिया सिद्धिगमन है। १. गति सामान्यका लक्षण स सि./४/२१/२५२/५ देशाद्देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गतिः। - एक देशसे दूसरे देशके प्राप्त करनेका जो साधन है उसे गति कहते है। (स.सि./२/१७/ २८९/१२), (रावा./४/२१/१/२३६/३); (रा.वा/१/१७/१/४६०/२२); (गो.जी./जी.प्र./६०५/१०६०/३) रा.वा/४/२१/१/२३६/३ उभयनिमित्तवशाव उत्पद्यमानः कायपरिस्पन्दो गतिरित्युच्यते। बाह्य और आम्यन्तर निमित्तके वशसे उत्पन्न होनेवाला कायका परिस्पन्दन गति कहलाता है। २. गतिके भेद व उनके लक्षण रा.वा/५/२४/२१/४६०/२१ सैषा क्रिया दशप्रकारा वेदितव्या । कुत। प्रयोगादि निमित्तभेदात । तद्यथा, इष्वेरण्डबीजमृदङ्गशब्दजतुगोलकनौद्रव्यपाषाणालासुराजलदमारुतादीनाम् । इषुचक्रकणयादीनां प्रयोगगतिः। एरण्डतिन्दुकबीजान बन्धाभावगतिः। मृदङ्गभेरीशङ्खादिशब्दपुद्गलानां छिन्नानां गतिः छेदगतिः। जतुगोलककुन्ददारुपिण्डादीनामभिघातगतिः । नौद्रव्यपोतकादीनामवगाहनगति । जलदरथमुशलादीनां वायुवाजिहस्तादीनां संयोगनिमित्ता संयोगगतिः। मारुतपावकपरमाणु सिद्धज्योतिष्कादीनां स्वभावगतिः । - क्रिया प्रयोग बन्धाभाव आदिके भेद से दस प्रकारकी है। नाण चक्र आदिकी प्रयोगगति है। एरण्डबीज आदिकी अन्धाभाव गति है। मृदंग भेरी शंखादिके शब्द जो दूर तक जाते हैं पुद्गलोंको छिन्नगति है। गेंद आदिकी अभिधात गति है। नौका आदिकी अवगाहनगति है। पत्थर आदिकी नीचेकी ओर (जानेवाली) गुरुत्वगति है। तुंबड़ी रूई आदिकी ( ऊपर जानेवाली) लघुत्वगति है। सुरा सिरका आदिकी संचारगति है। मेघ, रथ, मूसल आदिकी क्रमशः वायु, हाथी तथा हाथके संयोगसे होनेवाली संयोगगति है। वायु, अग्नि, परमाणु, मुक्तजीव और ज्योतिर्देव आदिकी स्वभावगति है। ४. पर ऊव गमन जीवका त्रिकाली स्वभाव नहीं रा.वा/१०/७/१-१०/६४५/३३ स्यान्मतम्-यथोष्णस्वभावस्याग्नेरीष्ण्याभावेऽभावस्तथा मुक्तस्योर्ध्वगतिस्वभावत्वे तदभावे तस्याप्यभोव' प्राप्नोतीति । तन्नः किं कारणम् । गत्यन्तरनिवृत्त्यर्थत्वात । मुक्तस्योर्ध्वमेव गमन न दिगन्तरगमनमित्ययं स्वभावी नोर्ध्वगमनमेवेति । यथा ऊर्ध्व ज्वलनस्वभावत्वेऽप्यग्नेर्वेगवद् द्रव्याभिधातात्तिर्यग्ज्वलनेऽपि नाग्नेविनाशो दृष्टस्तथा मुक्तस्योर्ध्वगतिस्वभावत्वेऽपि तदभावे नाभाव इति । प्रश्न-सिद्धशिलापर पहुँचनेके बाद चू कि मुक्त जीवमें ऊर्ध्वगमन नहीं होता, अतः उष्णस्वभावके अभाव में अग्निके अभावकी तरह मुक्तजीवका भी अभाव हो जाना चाहिए। उत्तर-'मुक्तका ऊर्ध्वही गमन होता है, तिरछा आदि गमन नहीं' यह स्वभाव है न कि ऊर्ध्वगमन करते ही रहना । जैसे कभी ऊर्ध्वगमन नहीं करती, तब भी अग्नि बनी रहती है, उसी तरह मुक्तमें भी लक्ष्यप्राप्तिके बाद ऊर्ध्वगमन न होनेपर भी उसका अभाव नहीं होता है। ५. दिगन्तर गति जीवकी विमाव गति है रा. वा./१०/६/१४/६४६ पर उद्धृत श्लोक नं. १५-१६ अतस्तु गतिवैकृत्यं तेषो यदुपलभ्यते। कर्मणः प्रतिघाताच्च प्रयोगाच तदिष्यते ॥१५॥ स्यादस्तिर्यगूध्वं च जीवानां कर्मजा गति.। = जीवोंमें जो विकृत गति पायी जाती है, वह या तो प्रयोगसे है या फिर कर्मोके प्रतिघातसे है ।१५। जीवों के कर्मवश नीचे, तिरछे और ऊपर भी गति होती है।१६। (त.सा./८/३३-३४) पं.का./मू. व त.प्र./७३ सेसा विदिसावज्जं गदि जति १७३। बद्धजीवस्य षड्गतयः कर्मनिमित्ताः। नि. सा./ता. वृ./१८४ जीवानां...विभावक्रिया षटकायक्रमयुक्तत्वम् । १. शेष (मुक्तोंसे अतिरिक्त जीव भवान्तर में जाते हुए) विदिशाएँ छोड़कर गमन करते हैं।७३, बद्धजीवको कर्मनिमित्तक षदिक गमन होता है । २. जीवोकी विभाव क्रिया (अन्य भव में जाते समय) छह दिशामें गमन है। द्र, सं./टी/२/8/8 व्यवहारेण चतुर्गतिजनककर्मोदयवशेनोवधिस्ति र्यग्गतिस्वभावः । = व्यवहारसे चार गतियोंको उत्पन्न करनेवाले (भवान्तरों को ले जानेवाले) कर्मोके उदयवश ऊँचा, नीचा, तथा तिरछा गमन करनेवाला है। ३. अर्ध्वगति जीवकी स्वभाव गति है पं.का/मू./७३ बंधेहि सव्वदो मुक्को। उड् गच्छदि। -बन्धसे सर्वांग मुक्त जीव ऊपरको जाता है। त.सू./१०/६ तथागतिपरिणामाच्च । -स्वभाव होनेसे मुक्त जीव ऊर्ध्व गमन करता है। रा.वा/२/७/१४/११३/७ ऊर्ध्वगतित्वमपि साधारणम् । अग्न्यादीनामूर्ध्व- गतिपारिणामिकत्वावा तश्च कर्मोदयापेक्षाभावात् पारिणामिकम् । एवमन्ये चात्मनः साधारणा: पारिणामिका योज्याः। रा.वा/१०/७/४/६४५/१८ ऊर्ध्वगौरवपरिणामो हि जीव उत्पतयेव । रा.वा/९/२४/२१/४६०/१४ सिद्ध्यतामूर्ध्वगतिरेव । -१. अग्नि आदिमें भी ऊर्ध्वगति होती है, अत' ऊर्ध्वगतित्व भी साधारण है। कमों के उदयादिकी अपेक्षाका अभाव होनेके कारण वह परिणामिक है। इसी प्रकार आत्मामें अन्य भी साधारण पारिणामिक भाव होते हैं। २. क्योंकि जोबौंको ऊर्वगौरव धर्मवाला बताया है, अतः वे ऊपर ही जाते हैं। ३. मुक्त होनेवाले जीवों की ऊर्ध्वगति ही होती है। रा.वा/१०/६/१४/६४६ पर उद्धृत श्लोक न. १३-१६ ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवा इति जिनोत्तमैः।-१६॥ यथाधस्तिर्यगूध्वं च लोष्टवाय्वग्निदीप्तयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ले तथोर्ध्वगतिरात्मनाम् ।१४। ऊर्ध्वगतिमेव स्वभावेन भवति क्षीणकर्मणाम् ॥१६॥ = जीव ऊर्ध्वगौरवधर्मा बताया गया है। जिस तरह लोष्ट, वायु और अग्निशिखा स्वभाव ६. पुद्गलोकी स्वभाव विमाच गतिका निर्देश रा. वा /१०/६/१४/६४६ पर उद्धृत श्लोक न. १३-१४ अधोगौरवधर्माणः पुद्गला इति चोदितम् ॥१३॥ यथाधस्तिर्यवं च लोष्टवाय्वग्निदीप्तय. । स्वभावतः प्रवर्तन्ते...१४॥ पुद्गल अधोगौरवधर्मा होते है, यह बताया गया है ।१३। लोष्ट, वायु और अग्निशिखा स्वभावसे ही नीचे-तिरछे व ऊपरको जाते हैं ।१४। (त. सा./८/३१-३२) रा.वा./२/२६/६/१३८/३ पुगतानामपि च या लोकान्तप्रापिणी सा नियमावनुश्रेणिगतिः। या त्वन्या सा भजनीया। -पुदगलोंकी (परमाणुओंकी) जो लोकान्त तक गति होती है वह नियमसे अनुश्रेणी ही होती है। अन्य गतियों का कोई नियम नहीं है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति २३६ २. नामकर्मज गति निर्देश रा. वा./५/२४/२१/४६०/१२ मारुतपावकपरमाणुसिद्धज्योतिष्कादीनां स्वभावगति'। वायोः केवलस्य तिर्यग्गतिः। भस्त्रादियोगादनियता गतिः। अग्नेरूर्ध्वगतिः कारणवशाइदिगन्तरगतिः। परमाणोरनियता । .."ज्योतिषां नित्यभ्रमणं लोके। वायु, अग्नि, परमाणु, मुक्तजीव और ज्योतिर्देव आदिकी स्वभाव गति है। ( तहाँ ) अकेली वायुकी तिर्यक गति है। भखादिके कारण वायुकी अनियत गति होती है। अग्निकी स्वाभाविक ऊर्ध्वगति है । कारणवश उसकी अन्य दिशाओं में भी गति होती है। परमाणुकी अनियत गति है। ज्योतिषियोका लोकमें नित्य भ्रमण होता है। ७. जीवोंका भवान्तरके प्रति गमन छह दिशाओमें ही होता है। ऐसा क्यों? गति नामकर्म है और जिस कारण से गति चार हैं. तिस कारणसे वह नामकर्म भी चार प्रकारका कहा जाता है।०६। आत्मा दैवयोगसे इस नामकर्म के उदयके कारण उस गतिमें प्राप्त होनेवाले यथायोग्य शरीरोमें-से किसी एक भी शरीरको पाकर सामान्य तथा उस गतिके योग्य जो औदयिकभाव होते हैं तिन्हे धारण करता है ।१७७। जैसे कि तिर्यच अवस्थामें तिर्यचौकी तरह तिर्य चपर्यायके अनुरूप जो भावसंतति होती है वह उस तिर्यच गतिमें अवश्य ही होती है, दूसरी गतिमें नहीं होती है।१७८। इसी तरह यह बात स्पष्ट है कि देव, मनुष्य व नरकगति सम्बन्धी शरीरमें होनेवाले अपने-अपने औदायिक भाव स्वतः परस्परमें असाधारणके समान होते हैं, अर्थात उनमें अपनी-अपनी जुदी विशेषता पायी जाती है। २. व्यवहार लक्षण ध. ४/३,१,४३/२२६/२ छक्कावक्कमणियमे संते पंच चोद्दसभागफोसणं ण जुज दि त्ति णासंकणिज्ज, चदुण्डं दिसाणं हेट ठुवरिमदिसाणं च गच्छतेहिं तदा मारणं पडिविरोहाभावादो। का दिसा णाम । सगट्ठाणादो कंडुज्जुवा दिसा णाम । ताओ छच्चेव, अण्णेसिमसंभवादो। का विदिसा णाम। सगट्ठाणादो कण्णायारेण द्विदखेत्तं विदिसा। जेण सव्वे जीवा कण्णायारेण ण जंति तेण छक्कावकमणियमो जुज्जदे ।-प्रश्न-छहों दिशाओं में जाने-आनेका नियम होनेपर सासादन गुणस्थानवर्ती देवोंका स्पर्शनक्षेत्र ४१४ भागप्रमाण नहीं बनता है। उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि चारों दिशाओंको और ऊपर तथा नीचेकी दिशाओंको गमन करनेवाले जीवोंके मारणान्तिक समुद्घातके प्रति कोई विरोध नहीं है। प्रश्नदिशा किसे कहते हैं। उत्तर-अपने स्थानसे वाणकी तरह सीधे क्षेत्रको दिशा कहते हैं। वे दिशाएँ छह ही होती हैं, क्योंकि अन्य दिशाओंका होना असम्भव है। प्रश्न-विदिशा किसे कहते हैं । उत्तर-अपने स्थानसे कर्ण रेखाके आकारसे स्थित क्षेत्रको विदिशा कहते हैं। चूंकि मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत सभी जीव कर्ण रेखाके आकारसे अर्थात तिरछे मार्ग से नहीं जाते हैं, इसलिए छह दिशाओंके अपक्रम अर्थात गमनागमनका नियम बन जाता है। पं. सं./प्रा./१/५६ जीघा हु चाउरंगं गच्छति हु सा गई होइ ।५।। ___ =अथवा जिसके द्वारा जीव नरकादि चारो गतियीमे गमन करता है, वह गति कहलाती है। (च. १/१,१,४/गा. १८४/१३५); (पं.सं./ सं/१/१३६); (गो.जी/मू./१४६/३६८) ध.१/१,१,४/१३५/३ भवाद्भवसंक्रान्तिा गतिः । = अथवा एक भवसे दूसरे भवको जानेको गति कहते हैं। (ध.७/२,१,२/६/६ ) २. गति नामकर्मका लक्षण स. सि./८/११/३८६/१ यदुदयादात्मा भवान्तरं गच्छति सा गतिः। सा चतुर्विधा । जिसके उदयसे आत्मा भवान्तरको जाता है, वह गति है। वह चार प्रकारकी है। (रा. वा./८/११/१/६/६७६/५); (गो.क/ जी.प्र./३३/२८/१३) ध.६/१,६-१,२८/५०/११ जम्हि जीवभावे आउकम्मादो लद्धावट्ठाणे संते सरीरादियाई कम्माइमुदयं गच्छति सो भावो जस्स पोग्गलवखंधस्स मिच्छत्तादिकारणेहि पत्तस्स कम्मभावस्स उदयादो होदि तस्स कम्मक्खंधस्स गति त्ति सण्णा । जिस जीवभावमें आयुकर्म से अवस्थानके प्राप्त करनेपर शरीरादि कर्म उदयको प्राप्त होते हैं, वह भाव मिथ्यात्व आदि कारणोके द्वारा कर्मभावको प्राप्त जिस पुद्गलस्कन्ध से उत्पन्न होता है, उस कर्म-स्कन्धकी गति' संज्ञा है। घ. १३/५०५,१०१/३६३/६ जं णिरय-तिरिक्ख-मणुस्सदेवाणं णिव्यत्तय कम्मं तं गदि णाम। -जो नरक, तियंच, मनुष्य और देव पर्यायका बनानेवाला कर्म है वह गति नाम कर्म है। २. नामकर्मज गति निर्देश १. गति सामान्यके निश्चय व्यवहार लक्षण १. निश्चय लक्षण पं. स./प्रा./१/१६ गइकम्मविणिवत्ता जा चेट्ठा सा गई मुणेयव्वा । गति नामा नामकर्मसे उत्पन्न होनेवाली जो चेष्टा या क्रिया होती है उसे गति जानना चाहिए। (ध.१/१,१,४/गा ८४/१३५); (.सं./सं./ स. सि./२/६/१५६/३ नरकगतिनामकर्मोदयानारको भावो भवतीति नरकगतिरोदयिकी। एवमितरत्रापि । नरक गति नामकर्म के उदयसे नारकभाव होता है, इसलिए नरक गति औदयिकी है। इसी प्रकार शेष तीन गतियोंका भी कथन करना चाहिए। ध. १/१,१,४/१३४/४ “गम्यत इति गतिः " = जो प्राप्त की जाये उसे गति कहते है । (रा.वा./8/9/११/६०३/२७) (नोट-यहाँ कषाय आदिको प्राप्तिसे तात्पर्य है-दे० आगे गति/२/६) प.ध./उ./९७६-१७६ कर्मणोऽस्य विपाकाद्वा देवादन्यतमं वपुः । प्राप्य तत्रोचितान भावात् करोत्यात्मोदयात्मनः ॥६७७१ यथा तिर्यगवस्थायां तद्वया भावसंतति । तत्रावश्यं च नान्यत्र तत्पर्यायानुसारिणी।६७८ एवं देवेऽथ मानुष्ये नारके वपुषि स्फुटम् । आत्मीयात्मीयभावाश्च संतत्यसाधारणा इव ।१७६! =नामकमके उत्तरभेदोमें प्रसिद्ध एक ३ क. गतिके भेद ष, ख.१/१,१/सू.२४/२०१ आदेसेण गदियाणुवादेण अस्थि णिरयगदी तिरिक्वगदी मणुस्सगदी देवगदी सिद्धगदी चेदि ।२४। -आदेशप्ररूपणाकी अपेक्षा गत्यनुवादसे नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति और सिद्धगति है। स. सि./२/६/१५६/२ गतिश्चतुर्भदा-नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिदेवगतिरिति। -गति चार प्रकारकी है-नरकगति, तिर्यचगति, मनुष्यगति और देवगति। रा.वा/8/७/११/६०३/२७ सा द्वेधा-कर्मोदयकृता क्षायिकी चेति । कर्मोदयकृता चतुर्विधा व्याख्याता-नरकगतिः, तिर्यग्गतिः, मनुष्यगतिः देवगतिश्चेति । क्षायिकी मोक्षगतिः। - वह गति दो प्रकारकी हैकर्मोदयकृत और क्षायिकी। तहाँ कर्मोदयकृत गति चार प्रकारकी कही गयी है-नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति और देवगति । क्षायिकी गति मोक्षगति है। ध,७/२,११:१/५२०/४ गइ सामण्णेण एगविहा । सा चेव सिद्धगई (असिद्धगई ) चेदि दुविहा । अहवा देवगई अदेवगई सिद्धगई चेदि तिविहा । अहवा णिरयगई तिरिक्रवगई मणुसगई देवगई चेदि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति लिहा बहना सिद्धगए सह पंचविह एवं गइसमासो अमेयभेयभिण्णो । घ. ७/२.१९/७/२२/२] ताओ चैन नदीओ मसिणी मधुस्सा, पेरा तिरिया पंचिदियतिरिवोमिओ देवा देवीबी सिद्धा ति अट्टहवंति । - १, गति सामान्यरूपसे एक प्रकार है। वही गति सिद्धगति और असिदगति इस तरह दो प्रकार है अथवा देवगति अदेवगति और सिद्धगति इस तरह तीन प्रकार है । अथवा नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति, इस तरह चार प्रकार है । अथवर सिद्धगतिके ( उपरोक्त चार मिलकर ) पाँच प्रकार है । इस प्रकार गतिसमास अनेक भेदोसे भिन्न है । २. वे ही गतियाँ मनुष्यणी, मनुष्य, नरक, तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति, देव aar और सिद्ध इस प्रकार आठ होती हैं। ३. गति नामकर्मके भेद ..६/१५१-१/२१/६०० जे I दारिद णामं तिरिक्रगदगामं मसुस्तगविणामं देवगदिणामं चेदि जो गतिनामधर्म है यह चार प्रकारका है, नरकगतिनामकर्म विच गति नामकर्म, मनुष्य गति नामकर्म और देवगति नामकर्म । (/१२/०४/१०२/३०) (पं. सं/प्रा./२/४/४६) (स.सि./१/१२/२०६ १); (रा. वा/८/११/१/५७६/८); (म.ब / १/६६/२८); (गो.क./जी. प्र/३३ / २८/१३) गो./जी. ५/३३। ४. जीवको मनुष्यादि पर्यायोंको गति कहना उपचार ध.१/१,१.२४/२०२/१ अशेषमनुष्य पर्याय निष्पादिका मनुष्यगतिः । अथवा मनुष्यगतिकर्मोदयापादितमनुष्यपर्यायकलापः कार्ये कारणोपचारान्मनुष्यगतिः ।.... ध.१/१.१.२४/२०१४ देवानां गतिर्देवगति अथवा देवगतिनामकमदोऽणिमादिदेशभिधानप्रत्यय व्यवहार निषधपर्यायोपादको देवगतिः । देवगखिनामकमदयजन्तिपर्यायो या देवगतिः कार्ये कारणोप चारात्१. जो मनुष्यकी सम्पूर्ण पर्यायान कराती है उसे मनुष्यगति कहते हैं। अथवा मनुष्यगति नामकर्मके उदयसे प्राप्त हुए मनुष्य पर्यायोंके समूहको मनुष्य गति कहते हैं। यह लक्षण कार्य मे कारणके उपचारसे किया गया है। २. देवोंकी गतिको देव कहते हैं । अथवा जो अणिमादि ऋद्धियोंसे युक्त 'देव' इस प्रकारके शब्द, ज्ञान और व्यवहारमे कारणभूत पर्यायका उत्पादक है ऐसे देवगति नामकर्मके उदयको देवगति कहते हैं । अथवा देवगति नामकर्मके उत्पन्न हुई देवगति कहते हैं। यहाँ कार्यने कारणके उपचारसे यह लक्षण किया गया है । ५. कर्मोदयापादित भी इसे जीवका भाव कैसे कहते हो ? पं. घ. /उ. १८०-११०:१०९५ ननु देशदिपर्यायी नामकर्मोदयात्परम्। arar जीवभावस्य हेतु' स्यादधातिकर्मवत् । ६८० सत्यं तन्नामकलाकारवत्। नूनं राहूदेहमात्रादि निर्मापयति चित्र[] २८११ अस्ति तत्रापि मोहस्य भैरन्तर्योदयासा। तस्मादीदथिको भाग स्थात्तदेह किप्राकृति। ननु मोहोदयो नूनं स्वायतीऽस्त्येक धारया । तत्तद्वपु क्रियाकारो नियतोऽय कुतो नयात् श नैवं यतोऽसि मोहस्योदभवे तत्रापि बुद्धिपूर्व वाबुद्धि पूर्वे स्वलक्षणात ८४ तथा दर्शनमोहस्य कर्मणस्तुदयादिह। अपि यावदनात्मीयमरमीयं मनुते कर 2201 तप्यस्ति विवेकोऽयं २३७ २. नामकर्मज गति निर्देश श्रेयानत्रादितो यथा भाषा सर्वोऽपि लौकिक: ११०२५१ - प्रश्न- जब देवादि पर्यायें केवल नामकर्मके उदयसे होती हैं तो यह नामकर्म कैसे पातिया कर्मकी तरह जीवके भाव में हेतु हो सकता है । ६८०1 उत्तर- ठीक है, क्योंकि, वह नामकर्म भी चित्रकारकी तरह गतिके अनुसार केवल जीनके शरीराविका ही निर्माण करता है |१| परन्तु उन शरीरादिक पर्यायोंमें भी वास्तवमे मोहका गत्यनुसार निरन्तर उदय रहता है। जिसके कारण उस उस शरीरादिककी क्रियाके आकार के अनुकूल भाव रहता है । ६८२ प्रश्न- यदि मोहनीयका उदय प्रतिसमय निर्विच्छिन्न रूपसे होता रहता है तब यह उन उन शरीरोकी क्रियाके अनुकूल किस न्यायसे नियमित हो सकता है | ६८३ | उत्तर - यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि तुम उन गतियो में मोहोदय लक्षणानुसार बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक होनेवाले मोहोदय से अनभिज्ञ हो । ६८४ उसके उदयसे जीव सम्पूर्ण परपदार्थों ( इन शरीरादिकों ) को भी निज मानता है । ६० घातिया अघातिया कर्मोके उदयसे होनेवाले औदयिक भावोंमें यह बात विशेष है कि मोहजन्य भाव ही सच्चा विकारयुक्त भाव है और सम तो सौकिक रूडिसे (अथवा कार्यमें कारणका उपचार करनेसे ) औदयिक भाव कहे जाते हैं । १०२५ । कारण सिद्ध भी गतिवान् बन ६. प्राप्त होनेके जायेंगे : घ. ९/९.९.४/९३४ इति गतिः । नातिव्याप्तिदशेषः सिद्धः प्राप्य गुणाभावात् । न केवलज्ञानादयः प्राप्यास्तथात्मकैकस्मिद प्राप्यप्रापकभावविरोधात् । कषायादयो हि प्राप्याः औपाधिकत्वात् । - जो प्राप्त की जाय उसे गति कहते है । गतिका ऐसा लक्षण करनेसे सिद्धोंके साथ अतिव्याप्ति दोष भी नहीं आता है, क्योंकि सिद्धों के द्वारा प्राप्त करने योग्य गुणोंका अभाव है। यदि केवलज्ञानादि गुणोंको प्राप्त करने योग्य कहा जाये, सो भी नहीं बन सकता, क्योंकि केवलज्ञान स्वरूप एक आत्मामे प्राप्य प्रापक भावका विरोध है । उपाधिजन्य होनेसे कषायादिक भावों को ही प्राप्त करने योग्य कहा जा सकता है । परन्तु वे सिद्धों में पाये नहीं जाते हैं । ७. प्राप्त किये जानेसे द्रव्य व नगर आदि भी गति बन जायेंगे - ६. १/१.१.४/१३४/६ गम्यत इति गतिरिष्युच्यमाने गमन क्रियापरिणाजीवध्यद्रव्यादीनामपि गतिव्यपदेशः स्यादिति चेन्न गतिकर्मणः समुत्पन्नस्यात्मपर्यायस्य ततः कचिदभेदादविरुद्धमासितः प्रार्मभावस्य गतियाभ्युपगमे पूर्वोत्तदोषानृपतेः पश्न जो प्राप्त की जाये उसे गति कहते हैं, गतिका ऐसा लक्षण करनेपर गमनरूप क्रियामे परिणत जीवके द्वारा प्राप्त होने योग्य द्रव्यादिकको भी 'गति' यह संज्ञा प्राप्त हो जायेगी, क्योंकि गमनक्रियापरिणत जीवके द्वारा द्रव्यादिक हो प्राप्त किये जाते हैं। उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि गति नामकर्म के उदयसे जो आत्मा के पर्याय उत्पन्न होती है, वह आत्मा कथंचित् भिन्न है, अतः उसकी प्राप्ति अविरुद्ध है । और इसीलिए प्रारूप क्रिया को प्राप्त नरकादि आत्मपर्यायके गतिपना माननेमें पूर्वोक्त दोष नहीं आता है। घ. /७/२.१,२/६/४ गम्यत इति गति । एदीए णिरुत्तीए गाम-णयरं-खेडकव्वाणं पि गदितं सजदे ण सडिवलेण गदिणामकम्मणिपाइपज्जायम गदिसपती दो गदिकम्मोदयाभावा सियगदी अगदी अथवा भवाद भवसंक्रान्तिर्गतिः, असंक्रान्तिः सिद्धगति' । प्रश्न-'जहाँको गमन किया जाये वह गति है' गतिकी ऐसी निति करनेसे तो ग्राम नगर, खेडा, कट आदि स्थानोको भी गति माननेका प्रसंग आता है। उत्तर- नहीं आता, क्योंकि रूढिके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्यकथाकोश २३८ गांधार बलसे नामकर्म द्वारा जो पर्याय निष्पन्न की गयी है, उसीमें गति शब्दका प्रयोग किया जाता है। गति नामकर्म के उदयके अभावके कारण सिद्धगति अगति कहलाती है। अथवा एक भवसे दूसरे भवको संक्रान्तिका नाम गति है, और सिद्ध गति असंक्रान्ति रूप है। गद्यकथाकोश-दे० कथाकोश। गचितामणि-आ. वादीभसिंह ओडयदेव ( ई० ७७०-८६०) द्वारा रचित यह ग्रन्थ संस्कृत गद्ममें रचा गया है और जीवधर चारित्रका वर्णन करता है। (ती./३/३३)। गमन-दे० गति/१॥ गरिमा ऋद्धि-दे० ऋद्धि/३ । गरुड़-१. सनत्कुमार स्वर्गका चौथा पटल-दे० स्वर्ग/१/३२. शान्ति नाथ भगवान्का शासक यक्ष-दे० यक्ष । तीर्थकर/५/३ । घ.१३/५.१.१४०/३६१/४ गरुडाकारविकरणप्रिया. गरुडा । -जिन्हें गरुड़के आकाररूप विक्रिया करना प्रिय है वे गरुड़ (देव) कहलाते हैं। ज्ञा./२१/१५ गगनगोचरामूर्तजयविजयभुजङ्गभूषणोऽनन्ताकृतिपरमविभुनभस्तलनिलीनसमस्ततत्त्वात्मकः समस्तज्वररोगविषधरोड्डामरडाकिनीग्रहयक्षकिन्नरनरेन्द्रारिमारिपरयन्त्रतन्त्रमुद्रामण्डलज्वलनहरिशरभशार्दूलद्विपदैत्यदुष्टप्रभृतिसमस्तोपसर्ग निर्मूलनकारिसामर्थ्य परिकलितसमस्तगारुडमुद्राडम्बरसमस्ततत्वात्मक सन्नात्मै व गारुडगीर्गोचरत्वमवगाहते। इति वियत्तत्त्वम् । = आकाशगामी दो सर्प है भूषण जिसके; आकाशवत सर्वव्यापक; लीन हैं पृथिवी, वरुण, वह्नि व वायुनामा समस्त तत्त्व जिसमें; (नीचेसे लेकर घुटनों तक पृथिवी तत्त्व, नाभिपर्यंत अपतत्त्व, हृदय पर्यत वह्नि तत्त्व और मुख में पवनतत्त्व स्थित है ) रोग कृत, सर्प आदि विषधरो कृत, कुत्सित देवी. देवताओंकृत, राजा आदि शत्रुओकृत, व्याघ्रादि हिल पशुओं कृत, समस्त उपसर्गोंको निर्मूलन करनेवाला है मामर्थ्य जिसका, रचा है समस्त गारुडमण्डलका आडम्बर जिसने तथा पृथिवी आदि तत्त्वस्वरूप हुआ है आत्मा जिसका ऐसा गारुडगीके नामको अवगाहन करनेवाला गारुड तत्त्व आत्मा ही है। इस प्रकार वियत्तत्त्वका कथन हुआ (और भी-दे० ध्यान/४/५)। गरुडध्वज-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। गरुडपञ्चमी व्रत-पाँच वर्ष तक प्रतिवर्ष श्रावण शु.५ को उपवास करना । ॐ ह्रीं अर्हद्भ्यो नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । गरुडेन्द्र-(प.पु./३६/२३०-३१) वंशधर पर्वतपर पूर्व भवके पुत्र देश भूषण व कुलभूषण मुनियोंका राम लक्ष्मण द्वारा उपसर्ग निवारण किया जानेपर गरुडेन्द्रने उनको संकटके समय रक्षा का बर दिया। गर्षि-दे० परिशिष्टा२। गर्तपूरण वृत्ति-साधुकी भिक्षावृत्तिका एक भेद-दे० भिक्षा २/७ गर्दतोय-१. लौकान्तिक देवोंका एक भेद (दे० लोकांतिक ) । २. उनका लोकमें अवस्थान-दे० लोक/७ । गर्दभिलल-मगधदेशकी राज्य वंशावलीके अनुसार यह शक जातिका एक सरदार था, जिसने मौर्यकाल में ही मगधदेशके किसी भागपर अपना अधिकार जमा लिया था। इसका असली नाम गन्धर्व था। गर्द भी विद्या जाननेके कारण गर्द भिल्ल नाम पड़ गया था। इसी कारण ह.पू./६०/४८६ में गर्दभ शब्द का पर्यायवाची रासभ शब्द इस नामके स्थान पर प्रयोग किया गया है। इन का समय बी.नि. ३४५४४५, (ई.पू. १८२-८२) है । ( इतिहास/३/४) परन्तु ( क. पा./२/६/ पं. महेन्द्र कुमार) के अनुसार वि. पू. या १३ ई. पू. १३ अनुमान किया जाता है। गर्भत.सू./२/३३ जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ।३३। - जरायुज अण्डज व पोतज जीवोंका गर्भजन्म होता है। स. सि./२/३१/१८७/४ स्त्रिया उदरे शुक्रशोणितयोर्गरण मिश्रणं गर्भः। मात्रुपभुक्ताहारगरणाद्वा गर्भः। =स्त्रीके उदरमें शुक्र और शोणितके परस्पर गरण अर्थात् मिश्रणको गर्भ कहते हैं। अथवा माताके द्वारा उपभुक्त आहारके गरण होनेको गर्भ कहते हैं। (रा. वा./२/३१) २-३/१४०/२५)। गो.जी./जी.प्र./८३/२०१/१ जायमानजीवेन शुक्रशोणितरूपपिण्डस्य गरणं-शरीरतया उपादानं गर्भः। -माताका रुधिर और पिताका वीर्यरूप पुद्गलका शरीररूप ग्रहणकरि जीवका उपजना सो गर्भ जन्म है। गर्भज जीव-दे जन्म/२। गर्भाधान क्रिया-दे० संस्कार/२। गर्भान्वय की ५३ क्रियाएँ-(दे० संस्कार /२) । गर्व-दे० गारव । गहण-१. निन्दन गर्हण ही सम्यग्दृष्टिका चारित्र है-दे० सम्यग दृष्टि/५ । २. स्व निन्दा-दे० निन्दा। गहीं-(स. सा./ar../३०६)-गुरुसाक्षिदोषप्रकटन गरे । = गुरुके समक्ष अपने दोष प्रगट करना गर्दा है। प.ध./उ./४७४ गर्हणं तत्परित्यागः पञ्चगुरिमसाक्षिकः। निष्प्रमादतया नूनं शक्तितः कर्महानये ।४७४ - निश्चयसे प्रमाद रहित होकर अपनी शक्तिके अनुसार उन कर्मोके क्षयके लिए जो पंचपरमेष्ठीके सामने आत्मसाक्षिपूर्वक उन रागादि भावोंका त्याग है वह गर्दा कहलाती है। गहित वचन-दे० वचन। गलितावशेष-गलितावशेष गुणश्रेणी आयाम-दे० संक्रमण/८ । गवेषणा-ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा-और मीमांसा, ये ईहाके पर्याय नाम हैं। -दे०-ऊहा ध.१३/१,५,१८/२४२/१० गवेष्यते अनया इति गवेषणा । -जिस (ज्ञान) के द्वारा गवेषणा की जाती है वह गवेषणा है। गव्यूति-क्षेत्रका एक प्रमाण-दे० गणित/I/१ अपर नाम कोश है। गांगय-(पा.पु /सर्ग/श्लोक) इनका अपर नाम भीष्माचार्य था और राजा पाराशरका पुत्र था (७/८०)। पिताको धीवरकी कन्यापर आसक्त देख धीवरकी शर्त पूरी करके अपने पिताको सन्तुष्ट करनेके लिए आपने स्वयं राज्यका त्याग कर दिया और आजन्म ब्रह्मचर्य से रहनेको भीष्म प्रतिज्ञा की (७/१२-१०६)। कौरवों तथा पाण्डवोंको अनेको उपयोगी विषयोंकी शिक्षा दी (८/२०८)। कौरवों द्वारा पाण्डवोंका दहन सुन दु:खी हुए (१२२१८६) । अनेकों बार कौरवोंकी ओरसे पाण्डवोके विरुद्ध लड़े। अन्तमें कृष्ण जरासन्ध युद्ध में राजा शिखण्डी द्वारा मरणासन्न कर दिये गये। तब उन्होंने जीवनका अन्त जान सन्यास धारण कर लिया (१६/२४३)। इसी समय दो चारण मुनियोके आजानेपर सल्लेखनापूर्वक प्राण त्याग ब्रह्म स्वर्ग में उत्पन्न हुए (१६/२५४-२७१) । गांधार-१. एक स्वर-दे० स्वर । २. वर्तमान कन्धार या अफगानिस्तान देश। यह देश सिन्धु नदी व कश्मीरके पश्चिममें जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांधारी स्थित है। इसकी प्राचीन राजधानियों पुरुषपुर (पेशावर) और पुष्करा (हस्तनागपुर) थी (म.पु. प्र.५०/ पन्नालाल ) ३. सिकन्दर द्वारा भाजित पंजाबका जेहलुमसे पश्चिमका भाग गांधार था ( वर्तमान भारत इतिहास ) ४. भरत क्षेत्र उत्तर आर्यखण्डका एक देश - दे० मनुष्य / ४ | - गांधारी- १. ( पां. पु. / सर्ग / श्लोक ) भोजकवृष्णिकी पुत्री थी और धृतराष्ट्रसे विवाही गयी थी। (८/१००-१११) इसने दुर्योधन आदि सौ पुत्रोंको जन्म दिया जो कौरव कहलाये । ( ८ / १८३-२०५ ) । २. भगवान् विमलनाथकी शासक यक्षिणी-दे० यक्ष । ३. - एक विद्याधर विद्या- दे० विद्या । २३९ गारव - (भा.पा./ टी / १५७ / २६६२१) गारवं शब्दगारवर्द्धिगारवसातगारवमेदेन त्रिविधं । तत्र शब्दगारवं वर्णोच्चारगर्वः, ऋद्धिगारवं शिष्यपुस्तक कमण्डलुपिच्छ पट्टादिभिरामोद्भावनं, सातगारवं भोजनपानादिसमुत्पन्नसौम्यतीनामदस्त मोहमदगारः । - गारव तीन प्रकारका - शब्द गारव, ऋद्धि गारव और सात गारव । तहाँ वर्ण के उच्चारणका गर्व करना शब्द गारव है। शिष्य पुस्तक कमण्डलु पिच्छी या पट्ट आदि द्वारा अपनेको ऊँचा प्रगट करना ऋद्धि गारखं है। भोजन पान आदिसे उत्पन्न सुखकी लीलासे मस्त होकर मोहमद करना सात गारव है। (मो पा./टी./२७/३२२/१) १ २. न्याय विषयक गारव दोष- दे० अति प्रसंग । ३. कायोत्सर्गका अतिचार दे० ज्युस ९ । फ गारवातिचार दे० अतिचार/ २० गार्ग्य - एक अक्रियावादी- दे० अक्रियावाद । गार्हपत्य अग्नि ३० अग्नि । - गिरनार - भरत क्षेत्रका एक पर्वत । अपर नाम ऊर्जयंत। सौराष्ट्र देश जूनागढ़ स्टेटमें स्थित है---दे० मनुष्य ४ । गिरिकूट - ऐरावती नदीके पास स्थित भरत क्षेत्रका एक पत -३० मनुष्य ४ गिरिवज्रपंजाब देशका पर्तमान जलालपुर नगर ५०/पं. पन्नालाल ) । गिरिशिखर - विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका एक नगर । --दे० विद्याधर । गोतरति - गन्धर्व जातिके व्यन्तर देवोंका एक भेद--दे० गंधर्व । गीतरस- गन्धर्व जातिके व्यन्तर देवोंका एक भेद-दे० गंधर्व । गुंजाफल का एक प्रमाण० गणित //१/२ गुडव तौलका एक प्रमाण -- दे० गणित / I / १ । गुण-जैन दर्शनमें 'गुण' शब्द वस्तुको किन्ही सहभावी विशेष काक है। प्रत्येक इयमें अनेकों गुण होते हैं-कुछ साधारण कुछ असाधारण कुछ स्वाभाविक और कुछ विभाविक । परिणमनशील होनेके कारण गुणोंकी अखण्ड शक्तियोंकी व्यक्तियों में नित्य हानि वृद्धिरणित होती है, जिसे मापनेके लिए उसमें अविभागी प्रतिच्छेदों या गुणांशोंकी कल्पना की जाती है। एक गुणमें आगे पीछे अनेकों से देखी जा सकती है; परन्तु एक गुममें कभी भी अन्य गुण नहीं देखे जा सकते हैं । -- म.पू./प्र. १ १ २ ३ ३ -दे० गुण /३/सामान्य विशेषादि गुणोंके उत्तर भेद ३० गुण /३। -दे० स्वभाव विभाव गुणोंके लक्षण । । * गुणको स्वभाव कह सकते हैं पर स्वभावको गुण नहीं। - दे० स्वभाव / २ । २ गुण-निर्देश १ * गुणके भेद व लक्षण गुण सामान्यका लक्षण । " द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः " ऐसा लक्षण १० ११ १२ गुणके साधारण असाधारणादि मूल-मेद । साधारण असाधारण गुणोंके लक्षण । अनुजीपी व प्रतिजीवी गुणोंके लक्षण । मूलगुण व उत्तर गुण । पंच परमेष्ठीके गुण | ५ ६ ५ ६ ७ 4 ९. गुणोंमें परस्पर कचित् भेदाभेद । समन्वय । गुणांशोंमें कथंचित् अन्वय व्यतिरेक । 'गुण' का अनेक अर्थ प्रयोग । गुणा के अर्थ में गुण शब्दका प्रयोग । एक अखण्ड गुणमें अभिभांगी प्रतिच्छेद रूप खण्ड कल्पना । उपरोक्त खण्ड कल्पना में हेतु तथा भेद - अभेद - दे० गुण / ३/४ | -दे० वह वह नाम । - दे० वह यह नाम । गुणका परिणामीपना तथा तद्गत शंका गुणका अर्थ अनन्त पर्यायोंका पिण्ड । ३ द्रव्य-गुण सम्बन्ध परिणमन करे पर गुणान्तररूप नहीं हो सकता । प्रत्येक गुण अपने-अपने रूपसे पूर्ण स्वतंत्र है । गुणों में कथंचित् नित्यानित्यात्मकता । ज्ञानके अतिरिक्त सर्व गुण निर्विकल्प है। * १ गुण वस्तुके विशेष है। २ गुण द्रव्यके सहभावी विशेष हैं । ३ गुण द्रव्यके अन्ययी विशेष है। ४ गुण - दे० सप्तभंगी /५/८१ सामान्य गुण द्रव्यके पारिणामिक भाव है। सामान्य व विशेष गुणों का प्रयोजन । द्रव्यांश होनेके कारण गुण भी वास्तवमें पर्याय है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश द्रव्यके आश्रय गुण रहते हैं पर गुणके आश्रय अन्य गुण नहीं रहते। द्रव्योंमें सामान्य गुणोंके नाम निर्देश । द्रव्योंमें विशेष गुणोंके नाम निर्देश । प्रत्येक द्रव्यमें अवगाहन गुण । - दे० अवगाहन | Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण २. गुण निर्देश | द्रव्यमें साधारणासाधारण गुणोंके नामनिर्देश । * | आपेक्षिक गुणों सम्बन्धी। -दे० स्वभाव। जीवमें अनेकों विरोधी धर्मोंका निर्देश।-दे०जीव/३ । द्रव्योंमें अनुजीवी और प्रतिजीवी गुणोंके नाम | निर्देश। द्रव्यमें अनन्त गुण हैं। जीव द्रव्यमें अनन्त गुणोंका निर्देश । गुणोंके अनन्तत्व विषयक शंका व समन्वय । द्रव्यके अनुसार उसके गुण भी मूर्त या चेतन आदि कहे जाते हैं। गुण-गुणीमें कथंचित् भेदाभेद।। गुणका द्रव्यरूपसे और द्रव्य व पर्यायका गुणरूपसे उपचार। ---दे० उपचार/३। साधारणा इतिजीवस्य मतिज्ञामाणी र १. गुणके भेद ब लक्षण १. गुण सामान्यका लक्षण स.सि./२/३८/३०६ पर उद्धृत गुण इदि दव्वविहाण। - द्रव्यमें भेद करनेवाले धर्मको गुण कहते हैं। आ.प./६ गुण्यते पृथक्क्रयते द्रव्यं द्रव्यान्तराद्य स्ते गुणाः। =जो द्रव्य को द्रव्यान्तरसे पृथक् करता है सो गुण है। भ्या.दी./२/१७८/१२१ यावद्रव्यभाविनः सकलपर्यायानुवर्तिनो गुणाः वस्तुत्वरूपरसगन्धस्पर्शादयः। जो सम्पूर्ण द्रव्यमें व्याप्त कर रहते हैं और समस्त पर्यायोंके साथ रहनेवाले हैं उन्हें गुण कहते हैं । और वे वस्तुत्व, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादि हैं। प.ध./पू./४८ शक्तिलक्ष्मविशेषो धर्मो रूपं गुण' स्वभावश्च । प्रकृतिशील चाकृतिरेकार्थवाचका अमी शब्दाः ४८ पं.ध./उ./४७८ लक्षणं च गुणश्चाड्गं शब्दाचै कार्थवाचकाः ।४७८३ मा १. शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृति, शील और आकृति ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं ।४। २. लक्षण, गुण और अंग ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं। ३. साधारण व असाधारण या सामान्य व विशेष गुणों के लक्षण प.प्र./टी./१/५८/५८/८ ज्ञानसुखादयः स्वजातौ साधारणा अपि विजातौ पुनरसाधारणा' । - ज्ञान सुरवादि गुण स्वजातिकी अर्थात् जीवकी अपेक्षा साधारण है और विजाति द्रव्योंकी अपेक्षा असाधारण है। अध्यात्मकमल मार्तण्ड/२/७-८ सर्वेष्वविशेषेण हि ये द्रव्येषु च गुणाः प्रवर्तन्ते । ते सामान्यगुणा इह यथा सदादिप्रमाणतः सिद्धम् ।। तस्मिन्नेव विवक्षितवस्तुनि मग्नाः इहेदमिति चिज्जाः। ज्ञानादयो यथा ते द्रव्यप्रतिनियतो विशेषगुणाः ।। =सभी द्रव्योंमें विशेषता रहित जो गुण ,वर्तन करते हैं, ते सामान्य गुण है जैसे कि सद आदि गुण प्रमाणसे सिद्ध हैं।७। उस हो विवक्षित वस्तुमें जो मग्न हो तथा 'यह वह है' इस प्रकारका ज्ञान करानेवाले गुण विशेष हैं। जैसे-द्रव्यके प्रतिनियत ज्ञानादि गुण ।। ४. स्वमाव विभाव गुणोंके लक्षण प.प्र/टी./२/५७/५६/१२ जीवस्य यावत्कथ्यन्ते । केवलज्ञानादयः स्व भावगुणा असाधारणा इति । अगुरुलघुका स्वगुणास्ते "सर्वद्रव्यसाधारणा' । तस्यैव जीवस्य मतिज्ञानादिविभावगुणा...इति । इदानी पुद्गलस्य कथ्यन्ते। तस्मिन्नेव परमाणौ वर्णादयः स्वभावगुणा इति। ...यणुकादिस्कन्धेषु वर्णादयो विभावगुणाः इति भावार्थ.। धर्माधर्माकाशकालानां स्वभावगुणपर्यायास्ते च यथावसरं कथ्यन्ते । -जीवकी अपेक्षा कहते हैं। केवलज्ञानादि उसके असाधारण स्वभाव गुण है और अगुरुलघु उसका साधारण स्वभाव गुण है। उसी जीवके मतिज्ञानादि विभावगुण हैं। अब पुद्गलके कहते हैं। परमाणुके वर्णादिगुण स्वभावगुण है और द्वयणुका दि स्कन्धों के विभावगुण है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्योके भी स्वभाव गुण और पर्याय यथा अवसर कहते है। २. गुण निर्देश १. गुणका अनेक अर्थों में प्रयोग रा. वा./२/३४/२/४६८/१७ गुणशब्दोऽनेकस्मिन्नर्थे दृष्टप्रयोगः कश्चिद्रूपादिषु वर्तते-रूपादयो गुणा इति क्वचिद्भागे वर्तते द्विगुणा यवास्त्रिगुणा यवा इति । क्वचिदुपकारे वर्तते- गुणज्ञ साधुः उपकारज्ञ इति यावत् । क्वचिद्रव्ये वर्वते-गुणवानयं देश इत्युच्यते यस्मिन् गावः शस्यानि च निष्पद्यन्ते। क्वचित्समेष्ववयवेषु-द्विगुणा रज्जु. त्रिगुणा रज्जुरिति । क्वचिदुपसजने-गुणभूता वयमस्मिन् ग्रामे उपसर्जनभूता इत्यर्थः।- गुण शब्दके अनेक अर्थ है-जैसे रूपादि गुण (रूप रस गन्ध स्पर्श इत्यादि गुण ) में गुणका अर्थ रूपादि है। 'दोगुणा यव त्रिगुणा यव' में गुणका अर्थ भाग है। 'गुणज्ञ साधु' में या 'उपकारज्ञ' में उपकार अर्थ है। ‘गुणवानदेश' में द्रव्य अर्थ है, क्योंकि जिसमें गौयें या धान्य अच्छा उत्पन्न होता है वह देश गुणवान कहलाता है। द्वि गुण रज्जु त्रिगुणरज्जु' में समान अवयव अर्थ है। 'गुणभूता वयम्' में गौण अर्थ है। (भ. भा./वि./७/३७/४)। ध./१/१,१,८/गा. १०४/१६१ जेहि दु लक्विजंते उदयादिसु संभवेहि भावेहि। जीवा ते गुणसण्णा णिहिट्ठा सव्वद रिसीहि ।१७४। रा, वा./७/११/६/४३८/२५ सम्यग्दर्शनादयो गुणाः। ध. १५/१७४/१ को पुण गुणा ' संजमो संजमासजमो वा। ध. १/१.१,८/१६१/३ गुणसहचरित्वादारमापि गुणसंज्ञा प्रतिलभते। ध.१/१,१,८/१६०/७ के गुणाः। औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिक पारिणामिका इति गुणा । प्र. सा./त. प्र./६५ गुणा विस्तारविशेषा' ।१५। २. गुणके साधारण असाधारणादि मूल भेद न.च.व./११ दवाणं सहभूदा सामण्णविसेसदो गुणा णेया। - द्रव्योंके सहभूत गुण सामान्य व विशेषके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। प्र.सा./त.प्र./E५ गुणा विस्तारविशेषाः, ते द्विविधाः सामान्यविशेषा त्मकरवात। - गुण द्रव्यके विस्तार विशेष हैं। वे सामान्य विशेषात्मक होनेसे दो प्रकारके हैं । (पं.ध./पू./१६०-१६१) प.टी./१/१८/५८/७ गुणास्त्रिविधा भवन्ति । केचन साधारणाः केचना साधारणा', केचन साधारणासाधारणा इति । - गुण तीन प्रकारके हैंकुछ साधारण हैं, कुछ असाधारण हैं और कुछ साधारणासाधारण है। श्लो.वा./भाषा २/१/४/५३/१५८/११ अनुजीवी प्रतिजीवी, पर्यायशक्ति- रूप और आपेक्षिक धर्म इन चार प्रकारके गुणोंका समुदाय रूप ही वस्तु है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण २४१ वसु. श्र. / ५१३ अणिमा महिमा लघिमा पागम्म वसित कामरूवित्तं । ईस पावणं तह अट्टगुणा वणिया समए । ५१३। १. कर्मके उदय उपशमादिसे उप जिन परिणामोंसे युक्त जो जीव देखे जाते हैं. उसी गुण संज्ञावाले कहे जाते हैं । १०४| ( गो . क./मू./१२/१७)। २. सम्यग्दर्शनादि भी गुण हैं । ३. संजम व संजमासंजम भी गुण कहे जाते हैं । ४. गुणोके सहवर्ती होनेसे आत्मा भी गुण कह दिया जाता है । ५. औदयिक औपशमिक आदि पाँच भाव भी गुण कहे गये हैं । ६. गुणको विस्तार विशेष भी कहा जाता है । ७, अणिमा महिमा आदि ऋद्धियाँ भी गुण कहे जाते हैं। २. गुणांशके अर्थ में गुण शब्दका प्रयोग त. सू./५/३३-३६ स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ॥३३॥ न जघन्यगुणानां ॥३४॥ गुणसाम्ये सदृशाम् ॥३५॥ द्वयधिकादि गुणानां तु ॥ ३६ ॥ स.सि./५/२६/३००/१० गुणसाम्यग्रहणं तुल्यभागसंप्रत्ययार्थए । रा. वा./५/३४/२/४६८/२१ तत्रेह भागे वर्तमानः परिगृह्यते । जघन्यो गुण येषां ते जघन्यगुणास्तेषां जघन्यगुणानां नास्ति बन्ध । घ. १४/५.६५३६/४५०/५ एमपूर्ण ति किं घेप्यदि जहण्णगुणस्स ग सोच म्यगुणो अर्थ तेहि अभिभागपडिदेहि पिण घ. १४/५.६,२४०/४५१/२ गुणस्स विदियअत्यावसेो विदिगुणो नाम । तदियो अवस्थाविसेसो तदियगुणो णाम । = १. स्निग्धव और रूक्षत्वसे बन्ध होता है ||३३| जघन्य गुणवाले पुद्गलोंका बन्ध नहीं होता है ॥ ३४ ॥ समान गुण होनेपर तुल्य जातिवालोंका बन्ध नही होता है । ३५। दो अधिक गुणवालोका बन्ध होता है | ३६ | २. तुल्य शक्तयं शोंका ज्ञान करानेके लिए 'गुणसाम्य' पदका ग्रहण किया है । ३. यहाँ भाग अर्थ विवक्षित है। जिनके जघन्य (एक) गुण होते हैं वे जघन्य गुण कहलाते हैं। उनका बन्ध नहीं होता । ४. एक गुणसे जघन्य गुण ग्रहण किया जाता है जो अनन्त अविभागी प्रतिच्छेदों से निष्पन्न है । ५. उसके ऊपर एक आदि अविभागी प्रतिछेदकी वृद्धि होनेपर गुणकी द्वितीयादि अवस्था विशेषोंकी द्वितीयगुण तृतीयगुण आदि संज्ञा होती है [501] ३. एक अखण्ड गुणमें अविभागी प्रतिच्छेदरूप खण्ड कल्पना घ. १४/५.६.३१/४५०/६ सोच जमतो तेहि अविभागदेहि पिण्णी । - वह जघन्यगुण अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदो से निष्पन्न होता है । पं. ध./५३ तासामन्यतरस्या भवन्त्यनन्ता निरंशका अंशा । उन अनन्त शक्तियों या गुणोंमे से प्रत्येक शक्तिके अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद होते है। (अध्यात्मममार्तण्ड /२/६) ४. उपरोक्त खण्ड कल्पना हेतु तथा भेद-अभेद समन्वय घ. १४/५, ६,५३६/४५०/७ तं कथं गव्वदे । सो अनंत विस्सासुवचरहि चिदन्ति हावयन्तदोच एकम्म- अभिभागपडि एनविसारचर्य मोल अण ताणं तनिस्सा मुरचयाणं तत्थ संभव अस्थि, तेसिं संबंधम्स णिप्पच्चत्तयप्पसंगादो। ण च तस्स विस्सासुचरहि बंधी वि अस्थि जहण्णवज्जे ति सुत्तेण सह विरोहादो । प्रश्न- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ( कि पुद्गल के बन्ध योग्य एक जघन्य गुण अनन्त अविभागी प्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न है ) ' उत्तर - वह अनन्त विखसोपचयोंसे उपचित है' यह सूत्र ( ष. वं. १४ / ५, ६ / सू. ५३६/४५० ) अन्यथा बन नहीं सकता है, इससे जाना जाता है कि वह अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न भा० २०११ २. गुण होता है । प्रश्न - अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदके रहते हुए वहाँ केवल एक विसोपचय (अन्ययोग्य परमाणु) न होकर अनन्त विससोपचय संभव हैं ( या हो जायेंगे ) ? उत्तर - यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्थामें उनका सम्बन्ध ( उन परमाणुओंका बन्ध ) बिना कारण होता है, ऐसा प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाये कि उसका विस्रसोपचयोंके साथ बन्ध भी होता है, सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि 'जघन्य गुणवालेके साथ बन्ध नहीं होता' ('न जघन्य गुणानांत सू./५/३४) इस के साथ विरोध आता है। पं. प.पू./५६.२१ देश हि यथा न तथा छेदो भवेद्गुणांशस्य । विष्कम्भस्य विभागात्स्थूलो देशस्तथा न गुणभागः ॥ ५६॥ तेन गुणांदोन पुनर्गपिताः सर्वे भवन्त्यनन्तास्ते तेषामात्मा गुण इति न हि तै गुणतः पृथक्त्वसत्ताकः । ५६१ = जैसे चौड़ाईके विभागसे देशका छेद होता है वैसे गुणांका घेर नहीं होता। क्योंकि जैसे वह देश देशांश स्थूल होता है वैसे गुणांशस्थूल नहीं होता । ५६ । उस जघन्य विभाग प्रतिच्छेद यदि सब गुणांश गिने जावे तो वे अनन्त होते हैं. और उन सब गुणांशका आत्मा ही गुण कहलाता है। तथा वे सर्व गुणांश निश्चयसे गुमसे पृथक सत्तावाले नहीं हैं ॥५६ निर्देश ५. गुणका परिणामीपना तथा तद्गत शंका अध्यात्मकमल मार्तण्ड / २ / ६ अन्वयिनः किल नित्या गुणाश्च निर्गुणाऽवयवा ह्यनन्तांशाः । द्रव्याश्रया विनाशप्रादुर्भावाः स्वशक्तिभि शश्वत् ॥ ६ ॥ गुणोंमें नित्य ही अपनी शक्तियों द्वारा विनाश व प्रादुर्भाव होता रहता है। " पं. ०/४/९९२-९३ वस्तु यथा परिणामी उन परिणामो गुणाचापि । तस्मादुपादव्ययद्वयमपि भवति हि गुणानां तु ॥ ११२ ॥ ननु निरमा हि गुणा अपि भवन्त्यनित्यास्तु पर्यया सर्वे । तत्कि द्रव्यवदिह किल नित्यानित्यात्मकाः गुणाः प्रोक्ताः ॥ ११५ ॥ सत्यं तत्र यतः स्यादिदमेव विवक्षितं यथा येन गुणेभ्यः पृथगिह सविति द्रव्यं पर्यायाचेति । ११६। अयमर्थः सन्ति गुणा अपि किल परिणामिनः स्वतः सिद्धा । नित्यानित्यत्वादप्युत्पादित्रयात्मकाः सम्यक् । १५६ | -जैसे वस्तु परिणमनशील है वैसे ही गुण भी परिणमनशील है, इसलिए निश्चय करके गुणके भी उत्पाद और व्यय ये दोनों होते 裊 १९९२ प्रश्न गुण नित्य होते हैं और सम्पूर्ण पर्यायें अनित्य होती हैं, तो फिर क्यों इस प्रकरण में द्रव्यकी तरह गुणोंको नित्यानित्यात्मक कहा है ' उत्तर-ठीक है, क्योंकि तहाँ यही विवक्षित है। कि जैसे प्रपने जो 'सत' है, वह सद् गुणोंसे पृथक नहीं है वैसे ही द्रव्य और पर्यायें भी गुणोसे पृथक नहीं हैं । ।११६ । गुण स्वयंसिद्ध है और परिणामी भी है, इसलिए वे निलम और अनित्य रूप होनेसे उपव्ययीव्यात्मक भी हैं । १४६ ६. गुणका अर्थ अनन्त पर्यायका समूह प्र. सा./त.प्र./१६ गुणा विस्तारविशेषाः गुण विस्तार विशेष हैं। श्लो. वा. / भाषा/२/१/६/५६/५०३/७ कालत्रयवर्ती अनंतानंत पर्यायका ऊर्ध्वाश समुदाय एक गुण है जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ७. परिणमन करे पर गुणान्तर रूप नहीं हो सकता रा.वा./२/२४/२५/४१०/२८ स्पर्शादीनां गुणानां परिणाम एकजातीय इत्येतस्यार्यस्य स्थापनार्थं च कियते पृथग्रहणस् तद्यथा स्पर्श एको गुणः काठिन्यलक्षणः स्वजात्यपरित्यागेन पूर्वोत्तरस्वगतभेदनिरोभोजननतरया वर्तनाद द्वित्रिचतुः संख्ये या संख्येयानन्तगुणस्पर्शपर्यायैरेव परिणमते न मृदुगुरूष्यादिस्पर्शे एवं योऽपि या रसश्च तिक्त एक एवं गुणः रसजातिमजद पूर्वमन्नाशोत्पा दाननुभवद्विचिचतुः संख्ये वासवेयानन्त गुणति फररीरेव परिणमते Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण 1 न कटुकादिरसैः । एवं कटुकादयो वेदितव्या । अथ यदा कठिनस्पर्शो] मृदुस्पर्शेन गुरुपुना, स्निग्धो रूक्षेण, शीत उष्णेन परिणमते fare कटुकाविभिइतरे चेहरे, संयोगे च गुणान्तरं स्तदा तत्रापि कठिनस्पर्शः स्पर्शात मृदुस्पर्शेनैव विनाशोरपादी अनुभवत् परिणमते नेरा, एवमितरत्रापि योज्यम् । - स्पर्शादि गुणोका एकजातीय परिणमन होता है इसकी सूचना करनेके लिए पृथन् सूत्र बनाया है जैसे कठिनस्पर्श अपनी जातिको न छोड़कर पूर्व और उत्तर स्वगत भेदोंके उत्पाद विनाशको करता हुआ दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्त गुण स्पर्श पर्यायोंसे ही परिणत होता है, मृदु गुरु लघु आदि स्पर्शोसे नहीं । इसी तरह मृदु आदि भी । तिक्त रस रसजातिको न छोड़कर उत्पाद विनाशको प्राप्त होकर भी दो तीन चार संख्यात असंख्यात अनन्त गुण तिक्तरसरूप ही परिणमन करेगा कटुक आदि रसोसे नहीं। इसी तरह कटुक आदिमें भी समझना चाहिए। (इसी प्रकार ग्रन्ध व वर्ण गुण भी लागू कर लेना) प्रश्न- जब कठिन स्पर्श मृदुरूपमें, गुरु लघुरूपमें, स्निग्ध रुक्षमें, और शीत उनमें बदलता है. इसी तरह तिल कठिनादि रूपसे तथा और भी परस्पर संयोगसे गुणान्तर रूपमें परिणमन करते हैं, तब यह एकजातीय परिणमनका नियम कैसे रहेगा ? उत्तर- ऐसे स्थान में कठिन स्पर्श अपनी स्पर्श जातिको न छोड़कर ही मृदु स्पर्शसे विनाश उत्पादका अनुभव करता हुआ परिणमन करता है अन्य रूपमें नहीं। इसी तरह अन्य गुणोंमे भी समझ लेना चाहिए। २४२ 10 ८. प्रत्येक गुण अपने-अपने रूपसे पूर्ण स्वतन्त्र है पं.ध. /उ./१०१२-१०१३ न गुणः कोऽपि कस्यापि गुणस्यान्तर्भवः कचित् । नाधारोऽपि च नाधेयो हेतुर्नापीह हेतुमाइ ॥ १०१२ | किन्तु सर्वेऽपि स्वामीयाः स्वात्मीयशक्तियोग नानारूपा हानेवेऽपि सता सम्मिलिता मिथः । १०१३ | = प्रकृतमें कहीं भी कोई भी गुण किसी भी गुणका अन्तर्भावी नही है, आधार नहीं है, आधेय भी नहीं है, कारण और कार्य भी नहीं है ११०१२। किन्तु अपनी अपनी शक्तिको धारण करनेकी अपेक्षासे सब गुण अपने अपने स्वरूप में स्थित हैं। इस लिए यद्यपि के नानारूप व अनेक हैं तथापि निश्चयपूर्वक वे सब गुण परस्पर में एक ही सत्के साथ अन्वयरूपसे सम्बन्ध रखते हैं । उपादान निमित्त चिट्ठी (पं. बनारसी दास) - ज्ञान चारित्रके आधीन नहीं, चारित्र ज्ञानके आधीन नहीं। दोनों असहाय रूप है। ऐसी तो मर्यादा है। ९. गुणों में परस्पर कथंचित् भेदाभेद .पू./१२ हरणं चैतज्जीने मदर्शनं मुखश्चैकः तन्न ज्ञानं न सुखं चारित्रं वा न कश्चिदितरश्च ॥१॥ एवं यः कोऽपि गुण. सोऽपि च न स्यात्तदन्यरूप वा । स्वयमुच्छल न्ति तदिमा मिथो विभिन्नाश्च शरूयोऽनन्ताः ॥५२॥ = जीवमें जो दर्शन नामका एक गुण है, वह न ज्ञान गुण है, न सुख है, न चारित्र अथवा कोई अन्य गुण हो हो सकता है। किन्तु यह 'दर्शन' दर्शन ही है ॥५१॥ इसी तरह द्रव्यका जो कोई भी गुण है, वह भी उससे भिन्न रूपवाता नहीं हो सकता है अर्थात सब गुण अपने अपने स्वरूप में ही रहते हैं, इसलिए ये परस्पर भिन्न अनन्त ही शक्तियाँ द्रव्यमें स्वयं उछलती हैं--प्रतिभासित होती है ए १०. ज्ञानके अतिरिक्त सर्व गुण निर्विकल्प हैं पं... /६६२.३१२ नाकारः स्यादनाकारो वस्तुतो निर्मिता । शेषानन्तगुणानां तल्लक्षणं ज्ञानमन्तरा ॥३६२॥ ज्ञानादिना गुणाः सर्वे प्रोक्ताः स लक्षणाङ्किता । सामान्याद्वा विशेषाद्वा सत्यं नाकारमात्रका. ३. द्रव्य गुण सम्बन्ध | ३६५ | जो आकार न हो सो अनाकार है। इसलिए वास्तव में ज्ञानके बिना शेष अनन्त गुणोंमे निर्मिकता होती है। इसलिए ज्ञानके बिना शेष सब गुणोंका लक्षण अनाकार होता है | ३६२| ज्ञानके बिना शेष राम गुण केवल सवरूप लक्षणसे हो लक्षित है। इसलिए सामान्य अथवा विशेष दोनों ही अपेक्षासे वास्तव में अनाकार रूप ही होते है॥३६॥ " ११. सामान्य गुण द्रव्यके पारिणामिक भाव है स.सि./२/०/१६१/२ ननु चास्तित्वनित्यत्वप्रदेशवस्वादयोऽपि भावाः पारिणामिका सन्ति तेषामिह ग्रहणं कर्तव्यम् न कर्तव्यः कृतमेव । कथम् ! 'च' शब्देन समुच्चितत्वात् । यद्येवं त्रय इति सख्या विरुध्यते । न विरुध्यते, असाधारणा जीवस्य भात्राः पारिनामिकास्त्रय एव । अस्तित्वादयः पुनर्जीवाजीव विषयत्वात्साधारणा इति च शब्देन पृथग्गृह्यन्ते प्रश्न अस्तित्व, नित्यत्व, और । - - प्रदेशत्व आदिक भी पारिणामिक भाव हैं। उनका इस सूत्र में ग्रहण करना चाहिए। उत्तर- उनका ग्रहण पहले ही 'च' शब्द द्वारा कर लिया गया है, अतः पुन' ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं। प्रश्नयदि ऐसा है तो 'तीन' संख्या ( जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व ) विरोधको प्राप्त होती है उत्तर नहीं होती, क्योंकि जीव के असाधारण पारिणामिक भाव तीन ही है। अस्तित्वादिक तो जीव और अजीब दोनों के साधारण है। इसलिए उनका 'च' शब्दके द्वाराअलग से ग्रहण किया गया है। १२. सामान्य व विशेष गुणका प्रयोजन - प्र.सा./त.प्र./१४ चैतन्यपरिणामी चैतमत्वादेव शेषद्रव्याणामसंभव जीवमधिगमयति । एवं गुणविशेषाद्रव्यविशेषोऽधिगन्तव्यः । चेतना गुणा जीवका ही है। शेष पाँच द्रव्योंमें असम्भव होनेसे जीवको ही प्रगट करता है । इस प्रकार विशेष गुणोके भेदसे द्रव्योंका भेद जाना जाता है। पं.ध./पू./१६२ तेषामिह वक्तव्ये हेतुः साधारण गुणै र्यस्मात् । द्रव्यत्वमस्ति साध्यं द्रव्य विशेष साध्यते वितरे. १९६१ - यहॉपर उन गुणों के कहने में प्रयोजन यह है कि जिस कारण से साधारण गुणोंके द्वारा तो केवल प्रव्यत्व सिद्ध किया जाता है और विशेष गुणोंके द्वारा द्रव्य विशेष सिद्ध किया जाता है । ३. द्रव्य गुण सम्बन्ध ५. गुण वस्तुके विशेष हैं = पं.ध.पू./१८ अ चैन से प्रदेशाः सविशेषा द्रव्यसंहया भगिता अपि विशेषाः सर्वे गुणसंज्ञास्ते भवन्ति यावन्तः |३८|- विशेष गुणसहित वे प्रदेश ही द्रव्य नामसे कहे गये हैं और जितने भी विशेष है ये सम गुण कहे जाते हैं। २. गुण द्रव्यके सहभावी विशेष हैं। " १.प्र./मू./१/५७ सह-भुन जामहि ठाउँ गुण कमभुवपज्जत वृत्तु । सहस्रको तो गुण जानों और क्रमभूको पर्याय । (पं.का./त.प्र./६); (पं.का./ ता.वृ./१/१४/६); (प्र.सा./ता.वृ./१३/१२९/१९) (नि.सा./ता.वृ./१०७): (त. अनु. / ११४) (पं.भ./पु. ९३८) । प्रसा/त.प्र./२३५ सहक्रमप्रवृतानेकधर्म व्यापकानेकान्तमयः । (विचित्र गुणपर्याय विशिष्ट द्रव्य) सह-कम-प्रत अनेक धर्मो व्यापक अनेकान्तमय है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण न च वृ./११ दव्त्राणं सहभूदा सामण्णविसेसदो गुणा गेया । = सामान्य विशेष गुण द्रव्यो सह जानने चाहिए। सहभूत आप./६ सहभावा गुणाः । गुण द्रव्यके सहभाव होते हैं। = २. गुण द्रव्यके अन्वयी विशेष हैं स./ सि./५/३८/३०६/५ अन्वयिनो गुणा । गुण अन्वयी होते है । (१.)टी/१/४०/५4) (प्र.सा./ता वृ/१२/१२९/९१), (अध्यात्म कमल मार्त०४/२/६), (पं.अ./पू./१६८० प्र. सा /त.प्र./८० तत्रान्वयो द्रव्यं, अन्वयविशेषणं गुण. । = वहाँ अन्वय द्रव्य है । अन्वयका विशेषण गुण है। २४३ ४. द्रव्यके आश्रय गुण रहते हैं पर गुणके आश्रय अन्य गुण नहीं रहते येथे द०/१-२ / सूत्र १४ प्रन्याश्रयगुणवात् संयोगविभाष्यकारणमनपे इति गुणलक्षणम् ।१६। द्रव्यके सहारे रहनेवाला हो, जिसमें कोई अन्य गुण न हो, और वस्तुओं के संयोग व विभाग में कारण न हो। क्रिया व विभागकी अपेक्षा न रखता हो । यही गुणका लक्षण है 1 त. सू. /५/४१ द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ।४१। जो निरन्तर द्रव्यमे रहते है और अन्य गुण रहित है वे गुण है। ( अध्यात्म कमल मार्तण्ड / २ / ६ ) प्र. सा. वि.प./ १२० व्यमावि परानाश्रयत्वेन वर्तमाने चि गम्यते द्रव्यमेतैरिति लिङ्गानि गुणा । द्रव्यका आश्रय लेकर और परके आश्रयके बिना प्रकर्तमान होनेसे जिनके द्वारा द्रव्य निगित ( प्राप्त ) होता है, पहचाना जा सकता है, ऐसे लिंग गुण हैं । (प्र. सा./त.प्र./०७) ५. द्रव्यों में सामान्य गुणोंके नाम निर्देश न. च.वृ./११ - १६ सव्वेसि सामण्णा दह...|११| अत्थित्तं वत्युत्तं दव्वत्तं पय अगुरुगुतं । देसतं चेदपिदरं मुत्तममुखं विधाणेहि । १२ एक्क्का अट्टा सामण्णा हुंति सव्वदव्वाणं |१५| १ न. च. वृ./१६ को टिप्पणी - कौ द्वौ द्वौ गुणौ होनौ । जीवद्रव्येऽचेतनत्वं मूर्त त्वं च नास्ति, पुद्गलद्रव्ये चेतनत्वममूर्तत्वं च नास्ति । धर्माधर्माकाशकालद्रव्येषु चैतनत्वममूर्तत्वं च नास्ति । एवं द्विद्विगुणजिले अटो अष्टी सामान्यगुणा प्रत्येक भवति सर्वही सामान्य गुण दस है-अस्तित्व, वस्तुत्व द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुसत्य प्रवेशत्व चैतगल अचेतनत्य मूर्त अमूर्त। इनमें से प्रत्येक द्रव्यमें आठ आठ होते हैं। प्रश्न-वे दो दो गुण कौनसे कम है उत्तरजीव्य में अचेतन नर्त नहीं है। पुद्गल इन्यमें चेतनत्व व अमूर्तत्व नहीं हैं। धर्म, अधर्म, आकाश व काल द्रव्योमें चेतनत्व व मूर्तश्व नहीं हैं। इस प्रकार दो गुण वर्जित आठ-आठ सामान्य गुण प्रत्येक द्रव्यमे है । ( आ. १/२ ); (प्र. प / टी०/१/५८/ ५९/८ ) । प्र. खा./त.प्र १५ तत्रास्तित्वं नास्तित्वमेकमन्यदपत्यं पर्यासर्वगत्सर्वगतत्वं प्रदेश प्रदेशस्वं मूर्त मूर्त सकि यत्वमकिचेनमन तुम भोक्तृत् 1= C गुरु पादय सामान्यगुणा । ( तहाँ दो प्रकारके गुणों में ) अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, सर्वगतत्व, असर्वगतत्व, सप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, मूर्तख, अमूर्तत्व, सक्रियत्व, अक्रियत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकतृत्व, भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व, अगुरुलघुत्व इत्यादि सामान्य गुण हैं । (नोट -- इनमें कुछ आपेक्षिक धर्मोक भी नाम है-जैसे नास्तिल, एकल अभ्या कर्तृव अतु, भीमतृत्व अभ " ३. द्रव्य गुण सम्बन्ध ६. द्रव्यों में विशेष गुणक नाम निर्देश नच. वृ/ ११,१३, १५ सव्वेसि सामण्णा दह भूणिया मोलस बिसेसा | ११ | मासमहतिरूपरफास हिंदी गाणहेडं मुत्तम मुत्तं खलु चेदणिदरं च । १३। छवि जीवपोग्गलाणं इयराण वि सेस सितिमेवा - सर्व इन्होने विशेष गुण सोलह कहे हैं११० - ज्ञान, दर्शन, सुख, बीर्य, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्य वर्तन हेतु अजगाहनाहेतुल, मूर्तल, अमूर्त चेतन और अचेतनत्य ॥१३॥ तिनिमे से जीव गमे तो ह छह है और शेष चार द्रव्योमें तीन-तीन ( विशेष देखो उस उस द्रव्यका नाम ); ( आ. प / २ ) । . " प्र. सा/त.प्र / ६५ अवगाहनाहेतुत्य गतिनिमित्तता स्थितिकारणत्वं वर्तनायतनवं रूपादिमत्ता चेतनत्वमिष्याविशेषगुणा-अबमानातुल, गतिहेतु, स्थितिहेतुत्व, वर्तनात् रूपरसगन्धा दिमसां चेतनत्वमादि विशेष गुण है। ७. द्रव्योंमें साधारणासाधारण गुणोंके नामनिर्देश न. च. वृ/१६ चेदणमचेदणा तह मुत्तममुत्ता वि चरिमे जे भणिया । समण्णा सजाई तेवि मिसेसा बजाई १६। अन्तमे कहे गये जो चार सामान्य या विशेष गुण, अर्थात् मूर्तत्व, अमूर्तत्व, चेतनत्व अचेतनत्व ये स्वजातिकी अपेक्षा तो साधारण हैं और विजातिकी अपेक्षा विशेष हैं। यथा-( देखो निचला उद्धरण ) । प. प्र. /टी/१/५८/५८/८ जीवस्य तावदुच्यन्ते । ज्ञानसुखादय स्वजातौ साधारणा अपि विजात पुनरसाधारणा अमूर्त त्वं पुद्गलद्रव्यं प्रत्यसाधारणमाकाशादिकं प्रति साधारणम् । प्रदेशत्वं पुन कालद्रव्यं प्रति पुद्गलपरमाणुद्रव्यं च प्रत्यसाधारणं शेषद्रव्यं प्रति साधारणमिति संक्षेपव्याख्यान एवं शेषव्याणामपि यथासंभवं ज्ञातव्यमिति भावार्थ- पहले जीनकी अपेक्षा कहते हैं।... ज्ञानसुखादि गुण स्वजातिकी अपेक्षा साधारण होते हुए भी विजातिकी अपेक्षा असाधारण हैं । ( सर्व जीवों में सामान्यरूपसे पाये जानेके कारण जीव द्रव्यके प्रति साधारण है और शेष द्रव्योंमें न पाये जानेसे उनके प्रति असाधारण हैं ) । अमूर्तस्व गुण पुद्गलद्रव्य के प्रति असाधारण है। परन्तु आकाशादि अन्य द्रव्योंके प्रति साधारण है। प्रदेशत्व गुण काल द्रव्य व पुद्गल परमाणुके प्रति साधारण है परन्तु शेष द्रव्योंके प्रति असाधारण है । इस प्रकार जीवके गुणोंका संक्षेप व्याख्यान किया। इसी प्रकार अन्य द्रव्योंके गुणोंका भी यथासंभव जानना चाहिए । ८. योंमें अनुजीव और प्रतिभीवी गुणोंके नाम निर्देश ७४. अस्ति वैभाविक शक्तिस्योपजीविनी । ज्ञानानन्दी पितो धर्मो निस्यो द्रव्योपजीविनी देहेन्द्रियाद्यभावेऽपि नाभावस्तरिति 10 वैभाविकी शक्ति उस उस द्रव्यके अर्थात् जीव और पुद्गल के अपने अपने लिए उपजीविनी है |७४ | ज्ञान व आनन्द ये दोनों चेतन-धर्म नित्य द्रव्योपजोवी हैं, क्योंकि देह व इन्द्रियोंका अभाव हो जानेपर भी उसका अभाव नहीं हो जाता । ३७१। जैन सिद्धान्त प्रवेशिका / १०८ १०६. भावस्वरूप गुणोंको अनुजीवीगुण कहते है जैसे सम्यक् चारित्र मुख्य चेतना, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदिक ॥१७८॥ वस्तुके अभावस्वरूप धर्मको प्रतिजीवी गुण कहते हैं। जैसे अन श्लो. वा./भाषा/१/४/५३/१५८/८ प्रागभाव प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव ये प्रतिजीवी गुणस्वरूप अभाव अंश माने जाते है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण २४४ गुणनंदि ९. द्रव्यमें अनन्त गुण हैं लिए है। मध्यम रुचिवाले शिष्योंके प्रति विशेष भेदनयके अव लम्बनसे गति रहितता, इन्द्रियरहितता, आयुरहितता आदि विशेष ध ६/४,१.२/२७/६ अणं तेसु बट्टमाणपजाएमु तत्थ आवलियाए असं गुण और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादि सामान्य गुण, खेज दिभागमेत्तपज्जाया जहण्णोहिणाणेण विसईकया जहण्णभावो। इस तरह जैनागमके अनुसार अनन्त गुण जानने चाहिए। के वि आइरिया जहण्णदव्वस्सुवरिद्विदरूव-रस-गंध-फासादिसव्व पंध/उ./६४३ उच्यतेऽनन्तधर्माधिरूढोऽप्येक सचेतन.। अर्थजातं पजाए जाणदि त्ति भणं ति । तण्ण घडदे, तेसिमाणं तियादो। ण हि यतो यावत्स्यादनन्तगुणात्मकम् ।१४३। - एक ही जीव अनन्त धर्म ओहिणाणमुक्कस्सं पि अणं तसंखावगमरवमं, आगमे तहोवदेसा युक्त कहा जाता है, क्योकि, जितना भी पदार्थ का समुदाय है वह भावादो। उस (द्रव्य) की अनन्त वर्तमान पर्यायोमेसे जघन्य सब अनन्त गुणात्मक होता है। अवधिज्ञानके द्वारा विषयीकृत आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पर्यायें जघन्य भाव है। कितने आचार्य 'जघन्य द्रव्यके ऊपर स्थित ११. गुणोंके अनन्तत्व विषयक शंका व समन्वय रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श आदि रूप सब पर्यायौंको उक्त अवधिज्ञान स सा./आ./क२/पं जयचन्द-प्रश्न-आत्माको जो अनन्त धर्मवाला जानता है' ऐसा कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, कहा है, सो उसमे वे अनन्त धर्म कौनसे हैं । उत्तर-वस्तुमे अस्तित्व, वे अनन्त है। और उत्कृष्ट भी अवधिज्ञान अनन्त संख्याके जानने में वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूतित्व, अमूर्तित्व समर्थ नहीं है, क्योंकि, आगममें वैसे उपदेशका अभाव है। (नोट इत्यादि (धर्म) तो गुण है और उन गुणोंका तीनो कालो में समय अनन्त गुणोंकी ही एक समयमें अनन्त पर्यायें होनी संभव है)। समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, जो कि अनन्त है। और वस्तुमें न. च वृ/48 इगवीसं तु सहावा जीवे तह जाण पोग्गले णयदो। एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, शुद्धत्व, इयराणं संभवादो णायव्वा णाणवतेहिं । -जीव व पुदगल में २१ अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म है। वे सामान्यरूप धर्म तो वचन गोचर स्वभाव जानने चाहिए और शेष संभव स्वभावोंको ज्ञानियोसे है, किन्तु अन्य विशेषरूप अनन्त धर्म भी हैं, जो कि वचनके विषय जानना चाहिए। नहीं है, किन्तु वे ज्ञानगम्य हैं। आत्मा भी वस्तु है इसलिए उसमें ल. सा./१/३७-वस्तुनोऽनन्तधर्मस्य प्रमाणव्यञ्जितात्मनः । अनन्त धर्म भी अपने अनन्त धर्म है। या गुणोके समुदायरूप वस्तुका स्वरूप प्रमाण द्वारा जाना जाता है। का. आ./टी./२२४/१५६/११ सर्वद्रव्याणि-- त्रिष्वपि कालेषु.. अनन्ता १२. द्रव्यके अनुसार उसके गुण भी मूर्त या चेतन नन्ता सन्ति, अनन्तानन्तपर्यायात्मकानि भवन्ति, अनन्तानन्तसदसन्नित्यानित्याद्यनेकधर्म विशिष्टानि भवन्ति। अतः सर्व..द्रव्यं आदि कहे जाते हैं जिनेन्द्रैः...अनेकान्तं भणितं ।-तीनो ही कालोमे सर्व द्रव्य प्रसा, मू./१३१ मुत्ता इंदियगेझा पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा। अनन्तानन्त हैं; अनन्तानन्त पर्यायात्मक होते है; अनन्तानन्त, सत, दवाणममुत्ताण गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा ।१३११ - इन्द्रियग्राह्य मूर्त गुण असव, नित्य, अनित्यादि अनेक धर्मोंसे विशिष्ट होते है। इसलिए पुद्गलद्रव्यात्मक अनेक प्रकारके हैं। अमूर्तद्रव्यो के गुण अमूर्त जानना जिनेन्द्र देवीने सर्व द्रव्यों को अनेकान्त स्वरूप कहा है। चाहिए। ध/पू /४६ देशस्यैका शक्तिर्या काचित सा न शक्तिरन्या स्यात् । क्रमतोपं.का./त प्र/४६ मूर्तद्रव्यस्य मूर्ता गुणा' । - मूर्त द्रव्यके मूर्त गुण वितर्यमाणा भवन्त्यनन्ताश्च शक्तयो व्यक्ताः ४-द्रव्यकी एक __होते है। विवक्षित शक्ति दूसरी शक्ति नहीं हो सकती अर्थात सब अपने-अपने नि सा /ता वृ./१६८ मूर्तस्य मूर्त गुणाः, अचेतनस्याचेतनगुणाः, अमूर्तस्वरूपसे भिन्न-भिन्न है, इस प्रकार क्रमसे सब शक्तियोका विचार स्यामूर्तगुणा', चेतनस्य चेतनगुणाः। = मूर्त द्रब्यके मूर्त गुण होते किया जाय तो प्रत्येक वस्तुमें अनन्तों ही शक्तियाँ स्पष्ट रूपसे प्रतीत हैं, अचेतनके अचेतन गुण होते है, अमूर्त के अमूर्त गुण होते है, चेतनहोने लगती हैं। (पं.ध./पू/५२) । के चेतनगुण होते हैं। पं.ध./उ./१०१४ गुणानां चाप्यनन्तत्वे वाग्व्यवहारगौरवात्। गुणाः केचित्समुदृिष्टाः प्रसिद्धा पूर्वसूरिभि. ११०१४। = यद्यपि गुणोमें गुणक-जिस राशि द्वारा किसी अन्य राशिको गुणा किया जाये अनन्तपना है तो भी प्राचीन आचार्योने अति ग्रन्थ विस्तारसे गौरव -दे० गणित/U/१५ दोष आता है इसलिए संक्षेपसे प्रसिद्ध-प्रसिद्ध कुछ गुणोंका नामोल्लेख गुणकार-गुणकवन । गणित/I1/९/५ । किया है। गुणकोति-१.श्रेणिक पुराण, धर्मामृत, रुकमणि हरण, पद्म पुराण और रामचन्द्र हलदुलि के रचयिता एक मराठी कवि । (ती./४/३१६) १०. जीव द्रव्यमें अनन्तगुणोंका निर्देश २.देशीयगण के आचार्य । समय-ई.६६०-१०४५ । दे इतिहास/७/५ । स सा./आ./क.२ अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः। अनेकान्तमयी गुणत्व-(वैशे. द./१-२/सूत्र १३ तथा गुणेषु भावात गुणत्वम् ॥१३॥ मूर्तिनित्यमेव प्रकाशिताम् ।२। = सम्पूर्ण गुणो में रहनेवाला गुणत्व द्रव्य गुण कर्म से पृथक् है । स.सा./आ./परि, अत एवास्य ज्ञानमात्रेकभाषान्त पातिन्योऽनन्ता. शक्तय उत्प्लवन्ते । । - १. जिसमें अनन्त धर्म है ऐसे जो ज्ञान तथा गुणधर-दिगम्बर आम्नाय धरसेनाचार्य की भाँति आपका स्थान वचन तन्मयी जो मूर्ति (आत्मा) सदा ही प्रकाशमान है ।२। २. अत पूर्व विदों की परम्परा में है। आपने भगवान वीर से आगत 'पेज्ज एव उस ( आरमा) में ज्ञानमात्र एक भावकी अन्त'पातिनी अनन्त दोसपाहुड' के ज्ञान को १८० गाथाओं में बद्ध किया जो आगे जाकर शक्तियाँ उछलती है। आचार्य परम्परा द्वारा यतिवृषभाचार्य को प्राप्त हुआ। इसी को द्र.सं./टो./१४/४३/६ एवं मध्यमरुचिशिष्यापेक्षया सम्यक्त्वादि गुणाष्टक विस्तृत करके उन्होंने 'कषाय पाहूड' की रचना की। समय-बी भणितम् । मध्यमरुचिशिष्यं प्रति पुनर्विशेषभेदेन येन निर्गतित्वं, नि.श. का पूर्वार्ध (वि. पू. श. १) । (विशेष दे. कोश /परिशिष्ट/ निरिन्द्रियत्वं,...निरायुषत्वमित्यादिविशेषगुणास्तथै वास्तित्ववस्तृत्वप्रमेयत्वा दिसामान्यगुणा' स्वागमाविरोधेनानन्ता ज्ञातव्या.। = इस गणनाद १-नन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावलीके अनुसार प्रकार (सिद्धोमें ) सम्यक्त्वादि आठ गुण मध्यम रुचिवाले शिष्योके आप जयनन्दिके शिष्य तथा वज्रनन्दिके गुरु थे। समय वि. शक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान गुणन स. ३५८-३६४ (ई. ४३६-४४२) । (-दे० इतिहास/७/२)। मर्कराके ताम्रपटमे इनका नाम कुन्दकुन्दान्वयमे लिया गया है। अन्वयमे छह आचार्योंका उल्लेख है, तहाँ इनका नाम सबके अन्तमे है । ताम्रपटका समय-श. ३८८ (ई.४६६) है। तदनुसार भी इनका समय ऊपरसे लगभग मेल खाता है। (क.पा १/प्र.६१/पं महेन्द्र)। २. गुणनन्दि नं. २, नन्दिसंघके देशीय गणके अनुसार अकलंकदेवकी आम्नायमें देवेन्द्राचार्य के गुरु थे। समय-वि.सं. १००-६३० (ई. ८४३-८७३) । (ष.रवं२/प्र.१०/ H.L. Jain); (दे०-इतिहास/७/१)। गुणन-गणित विधिमें गुणा करनेको गुणन कहते हैं-दे० गणित / II/१/५ । गुणनाम-दे० नाम । गुणपर्याय-दे० पर्याय । गुणप्रत्यय-दे० अवधिज्ञान। गुणभद्र-१.१चस्तूप सघी, तथा महापुराण और जयधवला शेष के रचयिता आ. जिनसेन द्वि० के शिष्य । कृति-अपने गुरु कृत महापुराण को उत्तरपुराण की रचना करके पूरा किया। आत्मानुशासन, जिनदत्त चरित । समय-शक ८२० में उत्तर पुराण की पूर्ति (ई. ८७०-११०)। (ती./३/८, ६।२ माणिक्यसेन के शिष्य सिद्धान्तवेत्ता। कृति-धन्यकुमार चरित, ग्रन्थ रचना काल चन्देलवंशी राजा परमादि देव के समय (ई. ११८२) । (ती/४/५६) ३. काष्ठा संघ माथुर गच्छ मलय कीति के शिष्य 'रइधु के समकालीन अपभ्रंश कवि। कृति-सावण बारसि विहाण कहा, पक्वइ क्य कहा, आयास पंचमी कहा, चंदायण वय कहा इत्यादि १५ कथायें। समय-वि.श. १५ का अन्त १६ का पूर्व (ई. श. १५ उत्तरार्ध) (ती./४/२१६)। गुणयोग-दे० योग। गुणवता-(पा प्र./७/१०७-११७) वृक्ष के नीचे पड़ी एक धीवरको मिली। रत्नपुरके राजा रत्नांगदकी पुत्री थी। धीवरके धर पली। भीष्मके पिताके साथ इस शर्त पर विवाही गयी कि इसकी सन्तान ही राज्यकी अधिकारिणी होगी। इसे योजनगंधा भी कहते है। 'व्यासदेव' इसीके पुत्र थे। गुणवम-पुष्पदन्तपुराणके कर्ता। समय ई० १२३०। (वरांग चरित्र/ प्र.२२/पं. खुशालचन्द) (ती/४/३०६) गुणवत-१. लक्षण र.क.पा./६७ अनुहणाद् गुणानामाख्यायन्ति गुणवतान्यार्या ।६७। गुणोंको बढानेके कारण आचार्यगण इन बतोंको गुणवत कहते हैं। सा,ध./१/१ यद्गुणायोपकारायाणवतानां व्रतानि तत् । गुणवतानि । ये तीन बत अणुवतोंके उपकार करनेवाले हैं, इसलिए इन्हे गुणवत कहते हैं। अनर्थ दण्डवत ये तीन गुणवत है। कोई कोई आचार्य भोगोपभोग परिमाण वतको भी गुणव्रत कहते है। [देश व्रतको शिक्षावतोमे शामिल करते हैं ] ॥१६॥ गुणश्रेणी-दे० संक्रमण/८ । गुण संक्रमण-दे० संक्रमण/७ । गुणसेन-१ लाडबागड सघकी गुर्वावलोके अनुसार आप वीरसेन स्वामीके शिष्य तथा उदयसेन और नरेन्द्रसेनके गुरु थे। समय वि, ११३० ( ई १०७३) -दे० इतिहास /७/१०। २. लाड़बागड़संधकी गुर्वावलोके अनुसार आप नरेन्द्रसेनके शिष्य थे। समय चि, ११८० (ई ११२३ )-दे० इतिहास/७/१० । गुणस्थान-मोह और मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिके कारण जीवके अन्तरंग परिणामोमें प्रतिक्षण होनेवाले उतार चढावका नाम गुणस्थान है। परिणाम यद्यपि अनन्त है, परन्तु उत्कृष्ट मलिन परिजामोंसे लेकर उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामो तक तथा उससे ऊपर जघन्य बीतराग परिणामसे लेकर उत्कृष्ट वीतराग परिणाम तककी अनन्तो वृद्धियोके क्रमको वक्तव्य बनानेके लिए उनको १४ श्रेणियों मे विभाजित किया गया है। वे १४ गुणस्थान कहलाते हैं। साधक अपने अन्तरंग प्रबल पुरुषार्थ द्वारा अपने परिणामोको चढाता है, जिसके कारण कर्मों व संस्कारोंका उपशम. क्षय वा क्षयोपशम होता हुआ अन्तमे जाकर सम्पूर्ण कर्मोका क्षय हो जाता है, वही उसकी मोक्ष है। गुणस्थानों व उनके भावोंका निर्देश गुणस्थान सामान्यका लक्षण । गुणरथानोंकी उत्पत्ति मोह और योगके कारण होती है। १४ गुणरथानोके नाम निर्देश पृथक् पृथक् गुणस्थान विशेष। -दे० वह वह नाम सर्व गुणस्थानों में विरताविरत अथवा प्रमत्ताप्रमत्तादिपनेका निर्देश। ऊपर के गुणस्थानों में कषाय अव्यक्त रहती है। -दे० रण/३ अप्रमत्त पर्यन्त सब गुणस्थानोंमें अधःप्रवृत्तिकरण परिणाम रहते हैं। -दे० करण/४। चौथे गणस्थान तक दर्शनमोहकी और इससे ऊपर चारित्रमोहकी अपेक्षा प्रधान है। संयत गुणस्थानका श्रेणी व अश्रेणी रूप विभाजन । उपशम व क्षपक श्रेणी -दे० श्रेणी। गणस्थानोमें यथा सम्भव भाव। -दे० भाव/२ जितने परिणाम है उतने ही गणस्थान क्यों नहीं । गुणस्थान निर्देशका कारण प्रयोजन । २. भेद भ.आ./मू./२०८१ जं च दिसावेरमणं अणत्थदंडेहि जं च वेरमणं । देसावगासियं पि य गुणव्वयाई भवे ताई।२०८१३ -दिग्व्रत. देशवत और अनर्थदण्ड व्रत ये तीन गुणवत है । (स.सि./७/२१/३५६/६); (वसु. श्रा./ २१४-२१६)। र.क.श्रा./६७ दिग्बतमनर्थदण्डवतं च भोगोपभोगपरिमाणं । अनुवृहणाद गुणानामारल्ययान्ति गुणव्रतान्यार्या । = दिग्वत, अनर्थदण्डवत और भोगोपभोग परिमाण बत ये तीनों गुणव्रत कहे गये है। महा.पु./१०/१६५ दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरति. स्यादणुबतम् । भोगो पभोगसंख्यानमध्याहुस्तद्गुणवतम् ॥१६॥ = दिग्वत, देशव्रत और गुणस्थानों सम्बन्धी कुछ नियम गणस्थानोमें परस्पर आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी नियम । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान २४६ १. गुणस्थानों व उनके भावोंका निर्देश सापराइय-पविट्ठसुद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा ।१७। मुहुम-सांपराइय-पविट्ठ-सुद्धिसंजदेसु अस्थि उवसमा खवा ।१८। उवसंत-कसायवीयराय-छदुमत्था ।११। खीण-कसाय-वीयराय-छदुमत्था ॥२०॥ सजोगकेवली ।२१। अजोगकेवली ।२२१-(गुण स्थान १४ होते है)मिथ्यावृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि या मिश्र, असंयत या अविरत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत या देशविरत, प्रमत्तसंयत या प्रमत्तविरत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण या अपूर्वकरण-प्रविष्टशुद्धिसंयत, अनिवृत्तिकरण या अनिवृत्तिकरणबादरसाम्पराय-प्रविष्टशुद्धि संयत, सूक्ष्मसाम्पराय या सूक्ष्म साम्पराय प्रविष्ट शुद्धि संयत, उपशान्तकषाय या उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय या क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, सयोगकेवली और अयोगकेवली (मु. आ/११६५-१९६६), (पं.सं /प्रा/१/४-५), (रा.वा/१/१/१२/ ५८८/८), (गो. जी /मू /8-१०/३०) (पं. सं/सं./२/१५-१८)। * प्रत्येक गुणस्थान पर आरोहण करनेके लिए त्रिकरणों | का नियम - दे० उपशम, क्षय व क्षयोपशम । | दर्शन व चारित्रमोहका उपशम व क्षपण विधान। -दे० उपशम व क्षय | गुणस्थानामे मृत्युकी सम्भावना असम्भावना सम्बन्धी । नियम। -दे० मरण/३ | कौन गुणस्थानसे मरकर कहाँ उत्पन्न हो, और कौन सा गुण प्राप्त कर सके इत्यादि -दे० जन्म/६। गुणस्थानोंमें उपशमादि १० करणोंका अधिकार । -दे० करण/२। सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम -दे० मार्गणा/६। १४ मार्गणाओं, जीवसमासों आदिमें गुणस्थानोंके स्वामित्वको २० प्ररूपणाएँ। - दे० सत्/२॥ गुणस्थानोंकी सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ । -दे० वह वह नाम * | पर्याप्तापर्याप्त तथा गतिकाय आदिमें पृथक् पृथक् गण स्थानोंके स्वामित्वकी विशेषताएँ - दे० वह वह नाम बद्धायुष्ककी अपेक्षा गुणस्थानों का स्वामित्व।। -दे० आयु/६। गुणरथानोंमें सम्भव कर्मोंके बन्ध, उदय, सत्त्वादिकी प्ररूपणाएँ। -दे०वह वह नाम। १. गुणस्थानों व उनके भावोंका निर्देश १. गुणस्थान सामान्यका लक्षण पं.सं./प्रा/१/३ जेहिं दु लक्विज्जते उदयादिनु संभवेहि भाषेहि । जोवा ते गुणसण्णा णिहिट्ठा सव्वदरिसीहि ।३। -दर्शनमोहनीयादि कर्मोंकी उदय, उपशम, क्षय. क्षयोपशम आदि अवस्थाओके होनेपर उत्पन्न होनेवाले जिन भावोंसे जीव लक्षित किये जाते हैं, उन्हें सर्वदशियोंने 'गुणस्थान' इस संज्ञासे निर्देश किया है। (पं. सं/सं/१/ १२) (गो. जी./मू./८/२६) । २. गुणस्थानोंकी उत्पत्ति मोह और योगके कारण होती ४. सर्वगुणस्थानोंमें विरताविरतपनेका अथवा प्रमत्ता प्रमत्तपने आदिका निर्देश ध. १/१.१,१२-२१/पृष्ठ/पंक्ति 'असजद' इदि जं सम्मादि हिस्स विसेसणवयणं तमंतदीवयत्तादो हेडिल्लाण सयल-गुणट्ठाणाणमसंजदत्तं परूवेदि । उवरि असंजदभावं किण्ण परूवेदि त्ति उत्ते ण परूवेदि, उवरि सव्वत्थ संजमासंजम-संजम-विसेसणोवलंभादो ति। (१७२/८) । एदं सम्माइछि वयणं उप रिम-सव्व-गुणाणेसु अणुवाइ गंगा-गईपवाहो व्व (१७३/७)। प्रमत्तवचनमन्तदीपकत्वाच्छेषातीतसर्वगुणेषु प्रमादास्तित्वं सूचयति। (१७६/६)। बादरग्रहणमन्तदीपकत्वाद् गताशेषगुणस्थानानि बादरकषायाणीति प्रज्ञापनार्थम्, 'सति संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद्भवति' इति न्यायाद । (१८५/१)। छद्मस्थग्रहणमन्तदीपकत्वादतीताशेषगुणानां सावरणत्वस्य सूचकमित्यवगन्तव्यम् (१९०२)। सयोगग्रहणमधस्तनसकलगुणानां सयोगत्वप्रतिपादकमन्तदीपकत्वात् (१६१/५) । -सूत्रमें सम्यग्दृष्टिके लिए जो असंयत विशेषण दिया गया है, वह अन्तदीपक है, इसलिए वह अपनेसे नीचेके भी समस्त गुणस्थानोंके असंयतपनेका निरूपण करता है। (इससे ऊपरवाले गुणस्थानों में सर्वत्र संयमासंयम या संयम विशेषण पाया जानेसे उनके असंयमपनेका यह प्ररूपण नहीं करता है। (अर्थात चौथे गुणस्थान तक सब गुणस्थान असंयत हैं और इससे ऊपर संयतासंयत या संयत/ (१७२/८) । इस सूत्रमें जो सम्यग्दृष्टि पद है, वह गंगा नदीके प्रवाहके समान ऊपरके समस्त गुणस्थानों में अनुवृत्तिको प्राप्त होता है। अर्थात् पाँचवें आदि समस्त गुणस्थानोंमें सम्यग्दर्शन पाया जाता है। ( १७३/७) । यहाँ पर प्रमत्त शब्द अन्तदीपक है, इसलिए वह छठवें गुणस्थानसे पहिलेके सम्पूर्ण गुणस्थानों में प्रमादके अस्तित्वको सूचित करता है । ( अर्थात् छठे गुणस्थान तक सब प्रमत्त हैं और इससे ऊपर सातवें आदि गुणस्थान सब अप्रमत्त है। (१७६/६ ) ॥ सूत्रमे जो बादर' पदका ग्रहण किया है, वह अन्तदीपक होनेसे पूर्ववर्ती समस्त गुणस्थान बादरकषाय है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए ग्रहण किया है, ऐसा समझना चाहिए; क्योंकि जहॉपर विशेषण संभव हो अर्थात् लागू पडता हो और न देनेपर व्यभिचार आता हो, ऐसी जगह दिया गया विशेषण सार्थक होता है, ऐसा न्याय है (१८५/१)। इस सूत्रमें आया हुआ छद्मस्थ पद अन्तदीपक है, इसलिए उसे पूर्ववर्ती समस्त गुणस्थानों के सावरण (या छद्मस्थ )पनेका सूचक समझना चाहिए (१९०/२) । इस सूत्र में जो सयोग पदका ग्रहण किया है, वह अन्तदीपक होनेसे नीचेके सम्पूर्ण गुणस्थानोंके सयोगपनेका प्रतिपादक है (१९१/५) । गो. जी./मू./३/२२ संखेओ ओघोत्ति य गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा ।। --संक्षेप, ओघ ऐसी गुणस्थानकी संज्ञा अनादिनिधन ऋषिप्रणीत मार्ग विषै रूढ है। बहुरि सो संज्ञा दर्शन चारित्र मोह और मन वचन काय योग तिनिकरि उपजी है। ३. १४ गुणस्थानोंके नाम निर्देश ष. व १/१,१/सू ६-२२/१६१-१९२ ओघेण अस्थि मिच्छाइट्ठी ।। सासणसम्माइट्ठी ।१० सम्मामिच्छाइट्ठी ।१श असंजदसम्माइट्ठी ॥१२॥ संजदासजदा ।१३। पमत्तसंजदा ।१४। अप्पमत्तसंजदा १५॥ अपुबकरण-पविट्ठ-सुद्धि संजदेसु अस्थि उवसमा खवा।१६। अणिय टि-बादर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादि गुणस्थान २४७ गुण्य ५. चौथे गुणस्थान तक दर्शनमोहकी तथा इससे ऊपर पर्यन्त प्राप्त हो हैं। बहुरि अपूर्वकरणादिक तीन उपशमधाले तीन तीनको, उपशान्त कषायवाले दोय गुणस्थानकनिको प्राप्त हो है चारित्रमोहकी अपेक्षा प्रधान है १५५६। वह कैसे सो आगे कोष्ठकोंमें दर्शाया है-इतना विशेष है कि गो.जी./मू /१२-१३/३५ एदे भावा णियमा दंसणमोहं पडुच्च भणिदा हु। उत्कृष्ट अनुभागके साथ आयुके बाँधनेपर (अप्रमत्तादि गुणस्थानौसे) चारित्तं णत्थि जदो अविरद अंतेसु ठाणेसु ।१२। देसविरदे पमत्ते इदरे । अधस्तन गुणस्थानोंमें गमन नहीं होता है ।। य खओवसमिय भावो दु । सो खलु चरित्तमोहं पडुच्च भणियं तहा नोट-निम्नमेंसे किसी भी गुणस्थानको प्राप्त कर सकता है। उवरि ।१३। - (मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें क्रमशः जो औदयिक, पारिणामिक, क्षायोपशमिक व औपशमिकादि तीनो भाव बताये गये है। प्रा.११३) वे नियमसे दर्शन गुणस्थान आरोहण क्रम अवरोहणक्रम मोहको आश्रय करके कहे गये हैं। प्रगटपर्ने जाते अविरतपर्यन्त च्यारि गुणस्थानविषै चारित्र नाहीं हैं। इस कारण ते चारित्रमोहका आश्रय- १ मिथ्यादृष्टि करि नाही कहे हैं ।१२। देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत विषै अनादि उपशम सम्य, सहित क्षायोपशमिकभाव है, वह चारित्रमोहके आश्रयसे कहा गया है। तैसे ४,५,७ ही ऊपर भी अपूर्व करणादि गुणस्थाननिविर्षे चारित्रमोहको आश्रयकरि भाव जानने ॥१३॥ २. सासादन मिश्र ६. संयत गुणस्थानोंका श्रेणी व अश्रेणी रूप विभाजन असंयतरा.वा./४/१/१६/५८४/३० एतदादीनि गुणस्थानानि चारित्रमोहस्य उपशम साम्य. सासादन पूर्वक १ क्षयोपशमादुपशमात् क्षयाच्च भवन्ति । क्षायिक रा.बा./६/१/१८/५६०/७ इत ऊध्वं गुणस्थानाना चतुर्णा द्वे श्रेण्यौ भवत. क्षायोपशामिक उपशमकश्रेणी क्षपकश्रेणी चेति । = १. संयतासंयत आदि गुणस्थान संयतासंयत ४,३,२,१ चारित्रमोहके क्षयोपशमसे अथवा उपशमसे अथवा क्षयसे उत्पन्न होते प्रमत्तसंयत ५,४,३,२,१ हैं। ( तहाँ भी) २. अप्रमत्त संयतसे ऊपरके चार गुणस्थान उपशम अप्रमत्त , ६ (मृत्यु होनेपर देवोंमें या क्षपक श्रेणीमे ही होते हैं। जन्म चौथा स्थान) ७. जितने परिणाम हैं उतने हो गुणस्थान क्यों नहीं ८ | अपूर्वकरण (, , .) ह अनिवृत्तिकरण ध.१/१,१,१७/१८४/८ यावन्त. परिणामास्तावन्त एवं गुणाः किन्न १० सूक्ष्मसापराय ११,१२ भवन्तीति चेन्न, तथा व्यवहारानुपपत्तौ द्रव्यार्थिकनयसमाश्रयणात् । | १२ उप-कषाय १०६ ,, ,, ,,) प्रश्न-जितने परिणाम होते है उतने ही गुणस्थान क्यो नहीं होते १२ क्षीण है। उत्तर--नहीं, क्योंकि, जितने परिणाम होते हैं, उतने ही गुण- १३ सयोगी स्थान यदि माने जायें तो ( समझने समझाने या कहनेका ) व्यवहार | १४ अयोगी सिद्ध ही नहीं चल सकता है, इसलिए द्रव्याथिकनयको अपेक्षा नियत संख्यावाले ही गुणस्थान कहे गये है। ८. गुणस्थान निर्देशका कारण प्रयोजन गुणहानि-१. गुणहानि श्रेढी व्यवहार-दे० गणित/II/६/१२. षट् गुण हानि वृद्धि-दे० षट्गुण हानि वृद्धि। रा.वा./६/१/१०/५८८/६ तस्य संवरस्य विभावनाथ गुणस्थानविभागवचन गुणा-Multiplication (ध.५/प्र./२७) क्रियते। =संवरके स्वरूपका विशेष परिज्ञान करनेके लिए चौदह गुणस्थानोंका विवेचन आवश्यक है। गुणाधिक स.सि /9/११/३४६/६ सम्यग्ज्ञानादिभिः प्रकृष्टा गुणाधिकाः । - जो २. गुणस्थानों सम्बन्धी कुछ नियम सम्यग्ज्ञानादि गुणों में बढे-चढे हैं वे गुणाधिक कहलाते है। गुणारोपण-दे० प्रतिष्ठा विधान । १. गुणस्थानों में परस्पर आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी गुणार्थिक-गुणार्थिक नयनिर्देशका निषेध -(दे० नय/I/१६) नियम गुणित-गुणकार विधिमें गुण्य गशिको गुणकार द्वारा गुणित कहा गो.क /मू./५५६-५५६/७६०.७६२ चदुरेक्कदुपण पंच य छत्तिगठाणागि __जाता है-दे० गणित/II/१/५ । अप्पमत्ता। तिसु उवसमगे संतेत्ति य तियतिय दोण्णि गच्छति गुणित कमाशिक-दे० क्षपित । १५५६। सासणपमत्तर्वज्जं अपमत्ततं समल्लियइ मिच्छो। मिच्छत्त बिदियगणो मिस्सो पढ़मं चउत्थं च ५५७। अविरदसम्मा देसो -की अपेक्षा वस्तुमें भेदाभेद-दे० सप्तभंगी/५१८१ पमत्तपरिहीणमपमत्ततं । छट्ठाणाणि पमत्तो छट्ठगुणं अप्पमत्तो दु गी नय-दे० नय//५। १५५८। उवसामगा दु सेढि आरोहंति य पडंति य कमेण । उवसामगेनु गुणोत्तर श्रेढी-Geometrical Progression (ज.प./प्र.१०६)। भरिदो देवतमत्तं समल्लियई ।५५६। ध १२/४,२.७,१६/२०/१३ उक्कस्साणुभागेण सह आउवबंधे संजदासंज इस संबन्धी प्रक्रियाएँ (दे० गणित /11/2/५)। दादिहेडिमगुणट्ठाणाणं गमणाभावादो। मिथ्यादृष्ट्यादिक निज निज गुण्य-जिस राशिको किसी अन्य राशि द्वारा गुणा किया जाये गुणस्थानको छे. अनुक्रमते ४,१.२.५.५,६,३ गुणस्थाननिको अप्रमत्त -दे० गणित /II/१/५॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश S7 | 0 % * * * Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त वंश २४८ गुप्ति गुप्त वंश-दे० इतिहास/३/४! गुप्तसंघ-दे० इतिहास /५/८ । गुप्तसंवत्-दे० इतिहास /२। गुनि-मन, वचन व कायकी प्रवृत्तिका निरोध करके मात्र ज्ञाता, द्रष्टा भावसे निश्चयसमाधि धारना पूर्ण गुप्ति है, और कुछ शुभराग मिश्रित विकल्पों व प्रवृत्तियों सहित यथा शक्ति स्वरूपमे निमग्न रहनेका नाम आंशिकगुप्ति है। पूर्ण गुप्ति हो पूर्ण निवृत्ति रूप होनेके कारण निश्चयगुप्ति है और आंशिकगुप्ति प्रवृत्ति अशके साथ वर्तने के कारण व्यवहारगुप्ति है। द्र. सं./टी/३५/१०९/६ व्यवहारेण बहिरङ्गसाधनाथ मनोवचनकायव्यापारनिरोधो गुप्ति ।-व्यवहार नयसे बहिरंग साधन (अर्थात धर्मानुष्ठानों) के अर्थ जो मन वचन कायकी क्रियाको (अशुभ प्रवृत्ति से ) रोकना सो गुप्ति है। अन. ध/४/१५४ गोप्तुं रत्नत्रयात्मानं स्वात्मानं प्रतिपक्षता। पापयोगानिगृहीयाल्लोकपडक्यादिनिस्पृहः ॥१५४॥ = मिथ्यादर्शन आदि जो आत्माके प्रतिपक्षी, उनसे रत्नत्रयस्वरूप अपनी आत्माको सुरक्षित रखने के लिए ख्याति लाभ आदि विषयों में स्पृहा न रखना गुप्ति है। ३. गुप्तिके भेद स. सि./६/४/४११/६ सा त्रितयी कायगुप्तिग्गुिप्तिर्मनोगुप्तिरिति । वह गुप्ति तीन प्रकारकी है-काय गुप्ति, वचन गुप्ति और मनोगुप्ति । (रा. वा/8/४/४/५६३/२१)। १. गुप्तिके भेद, लक्षण व तद्गत शंका १. गुप्ति सामान्यका निश्चय लक्षण स. सि./8/२/४०६/७ यत' संसारकारणादात्मनो गोपनं सा गुप्तिः । - जिसके बलसे संसारके कारणोंसे आत्माका गोपन अर्थात् रक्षा होती है वह गुप्ति है । (रा. वा./६/२/१/५६१/२७) (भ. आ/वि/११५/ २६६/१७)। द्र. सं/टी/३/१०१/५ निश्चयेन सहजशुद्धात्मभावनालक्षणे गूढस्थाने संसारकारणरागादिभयादात्मनो गोपनं प्रच्छादनं झम्पनं प्रवेशण रक्षणं गुप्ति'-निश्चयसे सहज-शुद्ध-आत्म-भावनारूप गुप्त स्थानमें संसारके कारणभूत रागादिके भयसे अपने आत्माका जो छिपाना, प्रच्छादन,झपन, प्रवेशन, या रक्षण है सो गुप्ति है। प्र. सा/ता. वृ/२४०/३३३/१२ त्रिगुप्त' निश्चयेन स्वरूपे गुप्त' परिणतः । -निश्चयसे स्वरूपमें गुप्त या परिणत होना ही त्रिगुप्तिगुप्त होना है। स. सा/ता. व/३०७ ज्ञानिजीवाश्रितमप्रतिक्रमण तु शुद्धात्मसम्यश्रद्धान ज्ञानानुष्ठानलक्षणं त्रिगुप्तिरूपं । ज्ञानीजनोंके आश्रित जो अप्रतिक्रमण होता है वह शुद्धात्माके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व अनुष्ठान ही है लक्षण जिसका, ऐसी त्रिगुप्तिरूप होता है। २. गुप्ति सामान्यका व्यवहार लक्षण म. आ./३३१ मणवचकायपवुत्ती भिक्खू सावज्जकजसंजुत्ता। विप्पं णिवारयंतो तीहिं दु गुत्तो हव दि एसो।३३११ - मन वचन व कायको सावध क्रियायोंसे रोकना गुप्ति है। (भ. आ/वि/१६/६१/३०)। त. सू./8/४ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति । -( मन वचन काय इन तीनों) योगोंका सम्यक् प्रकार निग्रह करना गुप्ति है। स. सि/६/४/४११/३ योगो व्याख्यातः 'कायवाङ्मनःकर्म योगः' इत्यत्र । तस्य स्वेच्छाप्रवृत्तिनिवर्तनम् निग्रहः विषयसुखाभिलाषार्थ प्रवृत्तिनिषेधार्थ सम्यग्विशेषणम् । तस्मात्सम्यगविशेषणविशिष्टात् संक्लेशाप्रादुर्भावपराव कायादियोगनिरोधे सति तन्निमित्तं कर्म नासवतीति । -मन वचन काय ये तीन योग पहिले कहे गये हैं। उसकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको रोकना निग्रह है। विषय सुखकी अभिलाषाके लिए की जानेवाली प्रवृत्तिका निषेध करनेके लिए 'सम्यक् ' विशेषण दिया है। इस सम्यक् विशेषण युक्त संक्लेशको नहीं उत्पन्न होने देनेरूप योगनिग्रहसे कायादि योगोंका निरोध होनेपर तन्निमित्तक कर्मका आत्रव नहीं होता है। (रा. वा/८/४/२-४/५६३/१३), (गो. क/जी. प्र/५४७ ७१४/४)। रा. बा/8/4/8/५६४/३२ परिमितकालविषयो हि सर्वयोगनिग्रहो गुप्ति'। =परिमित कालपर्यन्त सर्व योगोका निग्रह करना गुप्ति है। प्र. सा//ता. वृ/२४०/३३३/१२ व्यवहारेण मनोवचनकाययोगत्रयेण गुप्त' त्रिगुप्तः । व्यवहारसे मन वचन काय इन तीनों योगोसे गुप्त होना सो त्रिगुप्त है। ४. मन वचन काय गुप्लिके निश्चय लक्षण नि. सा./मू./६९-७० जो रायादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्ती। अलियादिणियत्ती वा मणं वा होइ वदिगुती ६॥ नि. सा./ता. वृ./६९-७० निश्चयेन मनोवा गुप्तिसूचनेयम् । निश्चयशरीरगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत । काय किरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती। हिसाइणियत्ती वा सरीरगुत्तीत्ति णिहिट्ठा ७०। -रागद्वेषसे मन परावृत्त होना यह मनोगुप्तिका लक्षण है। असत्यभाषणादिसे निवृत्ति होना अथवा मौन धारण करना यह वचनगुप्तिका लक्षण है। औदारिकादि शरीरकी जो क्रिया होती रहती है उससे निवृत्त होना यह कायगुप्तिका लक्षण है, अथवा हिसा चोरी वगैरह पापक्रियासे परावृत होना कायगुप्ति है । ( ये तीनों निश्चय मन वचन कायगुप्तिके लक्षण हैं। (मू. आ/२३२-२३३) (भ. आ./मू /११८७११८८/११७० )। घ.१/१.१२/११६/६ व्यलीकनिवृत्तिर्वाचा संयमत्वं वा वाग्गुप्तिः । असत्य नहीं बोलनेको अथवा वचनसंयम अर्थात मौनके धारण करनेको वचनगुप्ति कहते हैं। ज्ञा /१८/१५-१८ विहाय सर्वसंकल्पान् रागद्वेषावलम्बितान् । स्वाधीन कुरुते चेत समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ।१५। सिद्धान्तसूत्रविन्यासे शश्वत्प्रेरयतोऽथवा । भवत्यविकला नाम मनोगुप्तिर्मनीषिणः ।१६। साधुसंवृत्तबारवृत्तमौनारूढस्य वा मुने । संज्ञादिपरिहारेण वाग्गुप्ति' स्यान्महामुने ।१७। स्थिरीकृतशरीरस्य पर्यकसंस्थितस्य वा । परीषहप्रपातेऽपि कायगुप्तिर्मता मुने ।१८। -रागद्वेषसे अवलम्बित समस्त संकल्पों को छोडकर जो मुनि अपने मनको स्वाधीन करता है और समता भावमें स्थिर करता है, तथा सिद्धान्तके सूत्रको रचनामें निरन्तर प्रेरणारूप करता है, उस बुद्धिमान मुनिके सम्पूर्ण मनोगुप्ति होती है ।१५-१६। भले प्रकार वश करी है वचनोंकी प्रवृत्ति जिसने ऐसे मुनिके तथा संज्ञादि का त्याग कर मौनारूढ होनेवाले महामुनिके वचनगुप्ति होती है ।१७। स्थिर किया है शरीर जिसने तथा परिषह आजानेपर भी अपने पर्यकासनसे ही स्थिर रहे, किन्तु डिगे नहीं, उस मुनिके ही कायगुप्ति मानी गयो है ।१८। ( अन.ध./४/१५६/४८४) नि. सा./ता. वृ/६९-७० सकलमोहरागद्वेषाभावादरखण्डाद्वैतपरमचि पे सम्यगवस्थितिरेव निश्चयमनोगुप्ति' । हे शिष्य त्वं तावन्न चलितां मनोगुप्तिमिति जानीहि । निखिलावृतभाषापरिहृतिर्वा मौनवतं च । ... इति निश्चयवाग्गुप्तिस्वरूपमुक्तम् ६। सर्वेषां जनानां कायेषु बच. क्रिया विद्यन्ते, तासां निवृत्तिः कायोत्सर्गः, स एव गुप्तिर्भवति । पञ्चस्थावराणां त्रसानां हिसानिवृत्ति कायगुप्तिर्वा। परमसंयमधरः परमजिनयोगोश्वर' य. स्वकीयं वपुः स्वस्य वपुषा विवेश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ १. गुप्तिके भेद लक्षण व तद्गत शंकाएँ गुसि तस्यापरिस्पन्दमूतिरेव निश्चयकायगुप्तिरिति 1७०।-सकल मोहरागद्वेष के अभावके कारण अखण्ड अद्वैत परमचिद्रूपमे सम्यक रूपसे अवस्थित रहना ही निश्चय मनोगुप्ति है। हे शिष्य। तू उसे अचलित मनोगुप्ति जान । समस्त असत्य भाषाका परिहार अथवा मौनबत सो वचनगुप्ति है। इस प्रकार निश्चय वचनगुप्तिका स्वरूप कहा है।६। सर्वजनीको काय सम्बन्धी बहुत क्रियाएँ होती है, उनकी निवृत्ति मो कायोत्सर्ग है। वही ( काय ) गुप्ति है। अथवा पाँच स्थावरों की और त्रसोंकी हिसानिवृत्ति सो कायगुप्ति है। जो परमसंयमधर परमजिनयोगीश्वर अपने (चैतन्यरूप) शरीरमे अपने (चैतन्यरूप ) शरीरसे प्रविष्ट हो गये, उनकी अपरिस्पन्द मूति ही निश्चय कायगुप्ति है 1901 (और भो देखो व्युत्सर्ग/१ में कायोत्सर्ग)। अपाय कहते हो तो उसका परिहार शक्य नहीं है, क्योकि, समुद्रकी तर गोवत् सदा ही आत्मामे अनेको ज्ञान उत्पन्न होते रहते है, उनके अविनाश होने का अर्थात स्थिर रहनेका जगतमे कोई उपाय ही नही है और यदि रागादिकोसे व्यावृत्त होना मनोगुप्तिका लषण कहते हो तो वह भी योग्य नहीं है क्योकि इन्द्रियजन्य ज्ञान रागादिकोसे युक्त ही रहता है । (तब वह मनोगुप्ति क्या चीज है') उत्तर--मनोमति ज्ञान रूप भावमनको हम मन कहते है, वह रागादि परिणामोके साथ एक कालमे हो आत्मामे रहते हैं। जब वस्तुके यथार्थ स्वरूपका मन विचार करता है तब उसके साथ रागद्वेष नहीं रहते है, तब मनोगुप्ति आत्मामें है ऐसा समझा जाता है। अथवा जो आत्मा विचार करता है, उसको मन कहना चाहिए. ऐसा आत्मा जन रागद्वेष परिणामसे परिणत नहीं होता है तब उसको मनोगुप्ति कहते है। अथवा यदि आप यह कहो कि सम्यक् प्रकार योगोंका निरोध करना गुप्ति कहा गया है, तो तहाँ ख्याति लाभादि दृष्ट फल की अपेक्षाके बिना वीर्य परिणामरूप जो योग उसका निरोध करना, अर्थात रागादिकार्योके कारणभूत योगका निरोध करना मनोगुप्ति है, ऐसा समझना चाहिए। ५. मन वचन कायगुप्तिके व्यवहार लक्षण नि.सा./मू /६६-६८ कालुस्समोहसण्णारागहोसाइअसुहभावाणं । परिहारी मणुगुत्तो ववहारणयेण परिकहियं ।६६। थोराजचोरभत्तकहादिययणस्स पावहे उस्स । परिहारो बचगुत्ती अलोयादिणियत्तिवयणं वा ।६७॥ बंधणछेदणमारणआकुंचण तह पसारणादीया कायकिरियाणियत्ती णि हिट्ठा कायगुत्तित्ति ६८। कलुपता, मोह, राग, द्वेष आदि अशुभ भावोंके परिहारको व्यवहार नयसे मनोगुप्ति कहा है।६६। पापके हेतुभूत ऐसे स्त्रोकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा इत्यादिरूप वचनोंका परिहार अथवा असत्यादिकको निवृत्तिवाले बचन, वह वचनगुप्ति है।६७ बन्धन, छेदन, मारण, आकुंचन (संकोचना ) तथा प्रसारणा (फैलाना) इत्यादि कायक्रियाओकी निवृत्तिको कायगुप्ति कहा है।६। ६. मनोगुप्तिके लक्षण सम्बन्धी विशेष विचार भ.आ./वि./११८७/११७७/१४ मनसो गुप्तिरिति यदुच्यते कि प्रवृत्तस्य मनसो गुप्तिरथाप्रवृत्तस्य । प्रवृत्तं चेदं शुभं मन' तस्य का रक्षा। अप्रवृत्तं तथापि असत का रक्षा।-किंच मन शब्देन किमुच्यते द्रव्य-मन उत भावमन। द्रव्यवर्गणामनश्चेत् तस्य कोऽपायो नाम यस्य परिहारो रक्षा स्यात् । “अथ नोइन्द्रियमतिज्ञानावरणक्षयोपशमसंजातं ज्ञानं मन इति गृह्यते तस्य अपाय क.। यदि विनाशः स न परिहतुं शक्यते। "ज्ञानानीह.बोचय इवानारतमुत्पद्यन्ते न चास्ति तदविनाशोपायः । अपि च इन्द्रियमतिरपि रागादिव्यावृत्तिरिष्टैव किमुच्यते रागादिणियत्ती मणस्स' इति। अत्र प्रतिविधीयतेनोइन्द्रियमतिरिह मन शब्देनोच्यते। सा रागादिपरिणामैः सह एककालं आत्मनि प्रवर्तते ।.. वस्तुतत्त्वानुयायिना मानसेन ज्ञानेन समं रागद्वेषौ न वर्तते।...तेन मनस्तत्त्वावग्राहिणो रागादिभिरसहचारिता या सा मनोगुप्तिः ।.. अथवा मनःशब्देन मनुते य आत्मा स एव भण्यते तस्य रागादिभ्यो या निवृत्तिः रागद्वेषरूपेण या अपरिणति. सा मनोगुप्तिरित्युच्यते । अथैवं वषे सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः दृष्टफलमनपेक्ष्य योगस्य बीर्यपरिणामस्य निग्रहो रागादिकार्यकरण निरोधो मनोगुप्तिः । - प्रश्न-मनकी जो यह गुप्ति कही गयो है, तहाँ प्रवृत्त हुए मनको गुप्ति होती है अथवा रागद्वेषमे अप्रवृत्त मनकी होती है । यदि मन शुभ कार्य में प्रवृत्त हुआ है तो उसके रक्षण करनेकी आवश्यकता हो क्या । और यदि किसी कार्य में भी वह प्रवृत्त ही नहीं है तो वह अस दूप है। तब उसकी रक्षा ही क्या। और भी हम यह पूछते हैं कि मन शब्दका आप क्या अर्थ करते है-द्रव्यमन या भावमन । यदि द्रव्य वर्गणाको मन कहते हो तो उसका अपाय क्या चीज है, जिससे तुम उसको बचाना चाहते हो ! और यदि भावमनको अर्थात मनोमति ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न ज्ञानको मन कहते हो तो उसका अपाय ही क्या ! यदि उसके नाशको उसका ७. वचनगुप्तिके लक्षण सम्बन्धी विशेष विचार भ.आ/वि./११८७/११७८/५ ननु च वाचः पुद्गलत्वात...न चासौ सवरणे हेतुरनात्मपरिणामत्वात् ।...यां बाचं प्रवर्तयन् अशुभं कर्म स्वीकरोत्यात्मा तस्या वाच इह ग्रहणं, वाग्गुप्तिस्तेन वाग्विशेषस्यानुत्पादकता वाचः परिहारो बारगुप्तिः। मौनं वा सकलाया वाचो या परिहति. सा बाग्गुप्तिः । = प्रश्न-बचन पुद्गलमय हैं. वे आत्माके परिणाम (धर्म) नही हैं अत' कर्मका संवर करनेको वे समर्थ नहीं हैं। उत्तर-जिससे परप्राणियों को उपद्रव होता है, ऐसे भाषणसे आत्माका परावृत्त होना सो वाग्गुप्ति है, अथवा जिस भाषणमे प्रवृत्ति करनेवाला आत्मा अशुभ कर्मका विस्तार करता है ऐसे भाषणसे परावृत्त होना बाग्गुप्ति है। अथवा सम्पूर्ण प्रकारके वचनोंका त्याग करना या मौन धारण करना सो बाग्गुप्ति है । और भी दे–'मौन'। ८. कायगुप्तिके लक्षण सम्बन्धी विशेष विचार भ.आ./वि./११८८/११८२/२ आसनस्थानशयनादीनां क्रियावाद सा चात्मन' प्रवर्तकत्वात् कथमात्मना कार्या क्रियाभ्यो व्यावृत्तिः । अथ मत कायस्य पर्यायः क्रिया, कायाच्चान्तरात्मा ततो द्रव्यान्तरपर्यायात् द्रव्यान्तरं तत्परिणामशून्यं तथापरिणत व्यावृत्तं भवतीति कायक्रियानिवृत्तिरात्मनो भण्यते। सर्वेषामात्मनामित्थं कायगुप्ति स्यात् न चेष्टेति । अत्रोच्यते-कायस्य सम्बन्धिनी क्रिया कायशब्देनोच्यते । तस्याः कारणभूतात्मन. क्रिया कायक्रिया तस्या निवृत्ति । काउस्सग्गो कायोत्सर्ग तद्गगतममतापरिहार. कायगुप्ति.। अन्यथा शरीरमायुः शृङ्खलावबद्धं त्यक्तुं न शक्यते इत्यसंभव. कायोत्सर्गस्य ।। गुप्तिनिवृत्सिवचन इहेति सूत्रकाराभिप्रायो।"कायोत्सर्गग्रहणे निश्चलता भण्यते। यद्यवं 'काय किरियाणिवत्ती' इति न वक्तव्यं, कायोत्सर्गः कायगुप्तिरित्येतदेव वाच्यं इति चेत न कायविषयं ममेदभावरहितत्वमपेक्ष्य कायोत्सर्गस्य प्रवृत्तेः। धावनगमनलइनादि क्रियासु प्रवृत्तस्यापि कायगुप्तिः स्यान्न चेष्यते। अथ कायक्रियानिवृत्तिरित्येतावदुच्यते मूच्छ परिगतस्यापि अपरिस्पन्दता विद्यते इति कायगुप्तिः स्यात। तत उभयोपादानं व्यभिचारनिवृत्तये। कर्मादान निमित्तसकलकायक्रियानिवृत्तिः कायगोचरममतात्यागपरा वा नायगुप्तिरिति सूत्रार्थः । -प्रश्न-आसन स्थान शयन आदि क्रियाओका प्रवर्तक होनेसे आत्मा इनसे कैसे परावृत्त हो सकता है। यदि आप कहो कि ये क्रियाएँ तो शरीरकी पर्यायें हैं और आत्मा शरीरसे भिन्न है। और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-३२ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० २. गुप्ति निर्देश द्रव्यान्तरसे द्रव्यान्तरमें परिणाम हो नहीं सकता। और इस प्रकार गरोद्गारो गिरः सविकथादरः। हंकारादिक्रिया वा स्याद्वारगुप्तेकायकी क्रियासे निवृत्ति हो जानेसे आत्माको कायगुप्ति हो जाती स्तद्वदत्ययः ।१६०।- (मनोगुप्तिका स्वरूप पहिले तीन प्रकारसे बताया है, परन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेसे तो जा चुका है-रागादिकके त्यागरूप, समय या शास्त्रके अभ्यासरूप, सम्पूर्ण आत्माओंमे कायगुप्ति माननी पड़ेगी ( क्योंकि सभीमें शरीर और तीसरा समीचीन ध्यानरूप। इन्हीं तीन प्रकारोंको ध्यानमें की परिणति होनी सम्मव नहीं है ) उत्तर-यहाँ शरीर सम्बन्धी जो रखकर यहाँ मनोगुप्तिके क्रमसे तीन प्रकारके अतिचार बताये गये क्रिया होती है उसको 'काय' कहना चाहिए। (शरीरको नहीं)। हैं। )-रागद्वेषादिरूप कषाय व मोह रूप परिणामों में वर्तन, इस क्रियाको कारणभूत जो आत्माकी क्रिया (या परिस्पन्दन या शब्दार्थज्ञानकी विपरीतता, आर्त रौद्र थ्यान ।१६। चेष्टा) होती है उसको कायक्रिया कहना चाहिए ऐसी क्रियासे (पहिले वचनगुप्तिके दो लक्षण बताये हैं-दुर्वचनका त्याग व मौन निवृत्ति होना यह कायगुप्ति है । प्रश्न-कायोत्सर्गको कायगुप्ति कहा धारण । यहाँ उन्हींकी अपेक्षा वचनगुप्तिके दो प्रकारसे अतिचार गया है । उत्तर-तहाँ शरीरगत ममताका परिहार कायगुप्ति है ऐसा समझना चाहिए । शरीरका त्याग नहीं, क्योंकि आयुकी शृंखलासे बताये गये है)-भाषासमितिके प्रकरणमें बताये गये कर्कशादि जकड़े हुए शरीरका त्याग करना शक्य न होनेसे इस प्रकार कायोत्सर्ग वचनों का उच्चारण अथवा विकथा करना यह पहिला अतिचार है। ही असम्भव है। यहाँ गुप्ति शब्दका निवृत्ति' ऐसा अर्थ सूत्रकारको और मुरवसे हुंकारादिके द्वारा अथवा खकार करके यद्वा हाथ और इष्ट है। प्रश्न-कायोत्सर्गमें शरीरकी जो निश्चलता होती है उसे भृकुटिचालन क्रियाओंके द्वारा इङ्गित करना दूसरा अतिचार कायगुप्ति कहें तो ? उत्तर-तो गाथामें "कायकी क्रियासे निवृत्ति" है।१६० ऐसा कहना निष्फल हो जायेगा। प्रश्न कायोत्सर्ग ही कायगुप्ति है ऐसा * व्यवहार व निश्चय गुप्तिमें आस्रव व संवरके अंश कहें तो 1 उत्तर-नहीं, क्योंकि, शरीर विषयक ममत्व रहितपनाकी दे० संबर /२। अपेक्षासे कायोत्सर्ग ( शब्द ) की प्रवृत्ति होती है। यदि इतना (मात्र २. सम्यग्गुप्ति ही गुप्ति है ममतारहितपना) ही अर्थ कायगुप्तिका माना जायगा तो भागना, जाना, कूदना आदि क्रियायों में प्राणीको भी कायगुप्ति माननी पड़ेगी पू.सि.उ./२०२ सम्यग्दण्डो वपुषः सम्यग्दण्डस्तथा च वचनस्य। मनसः (क्योंकि उन क्रियाओंको करते समय कायके प्रति ममत्व नहीं होता सम्यग्दण्डो गुप्तीनां त्रितयमेव गम्यम् । शरीरका भले प्रकारहै। प्रश्न-तब 'शरीरको क्रियाका त्याग करना कायगुप्ति है ऐसा पाप कार्योसे वश करना तथा वचनका भले प्रकार अवरोध करना, मान लें उत्तर-नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेसे मूच्छित व अचेत और मनका सम्यकतया निरोध करना. इन तीनों गुप्तियों को जानना व्यक्तिको भी कायगुप्ति माननी पड़ेगी। प्रश्न-(तम काय गुप्ति चाहिए । अर्थात् ख्याति लाभ पूजादिकी वांछाके बिना मनवचनकिसे कहें :) उत्तर-व्यभिचार निवृत्ति के लिए दोनों रूप ही काय- कायकी स्वेच्छाओं का निरोध करना ही व्यवहार गुप्ति कहलाती है। गुप्ति मानना चाहिए-कर्मादानकी निमित्तभूत सकल कायकी क्रियासे (भ.आ/वि/११५/२६६/२०) निवृत्तिको तथा साथ साथ कायगत ममताके स्यागको भी। ३. प्रवृत्तिके निग्रहके अर्थ ही गुप्तिका ग्रहण है २. गुप्ति निर्देश स.सि/६/६/४१२/२ किमर्थमिदमुच्यते। आद्य प्रवृत्तिनिग्रहार्थव । -प्रश्न-यह किसलिए कहा है । उत्तर-संवरका प्रथम कारण (गुप्ति) १. मन वचन कायगुप्तिके अतिचार प्रवृत्तिका निग्रह करनेके लिए कहा है । (रा.वा/६/६/१/५६६/१८) भ.आ./वि./१६/६२/१० असमाहितचित्ततया कायक्रियानिवृत्तिः कायगु- ४. वास्तव में आत्मसमाधिका नाम ही गति है प्तेरतिचारः। एकपादादिस्थानं वा जनसंचरणदेशे, अशुभध्यानाभिनि प.प्र/मू/२/३८ अच्छइ जित्तउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलीणु । संवर विष्टस्य वा निश्चलता । आप्ताभासप्रतिबिम्बाभिमुखतावातदाराधना णिज्जर जाणि तुहुँ सयल-वियप्प विहीणु ॥३८॥ व्यापृत इवावस्थानं । सचित्तभूमौ संपतत्सु समंततः अशेषेषु महति प्र.प/टी/१/१५/ निश्चयेन परमाराध्यत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तपरमवा वाते हरितेषु रोषाद्वा दत्तूष्णी अवस्था निश्चला स्थिति. कायो समाधिकाले स्वशुद्धात्मस्वभाव एव देव इति । १. मुनिराज जगतक त्सर्गः। कायगुप्तिरित्यस्मिन्पले शरीरममताया अपरित्यागः कायो शुद्धात्मस्वरूपमें लीन हुआ रहता है उस समय हे शिष्य ! तू समस्त त्सर्गदोषो वा कायगुप्तेरतिचारः । रागादिसहिता स्वाध्याये वृत्तिर्म विकल्प समूहोंसे रहित उस मुनिको संवर निर्जरा स्वरूप जान नोगुप्तेरतिचारः । मनकी एकाग्र ताके बिना शरीरकी चेष्टाएँ बन्द 1३८२. निश्चयनयकर परम आराधने योग्य वीतराग निर्विकल्प करना कायगुप्तिका अतिचार है। जहाँ लोक भ्रमण करते हैं ऐसे त्रिगुप्तिगुप्त परमसमाधिकालमें निज शुद्धात्मस्वभाव ही देव है। स्थानमें एक पाँव ऊपर कर खड़े रहना, एक हाथ ऊपर कर खड़े ५. मनोगुप्ति व शौच धर्ममें अन्तर रहना, मनमें अशुभ संकल्प करते हुए अनिश्चल रहना, आप्ताभास रा.वा/8/4/१६५/३० स्यादेतत्-मनोगुप्तौ शौचमन्तर्भवतीति पृथगस्य हरिहरादिककी प्रतिमाके सामने मानो उसकी आराधना ही कर रहे हों इस ढंगसे खड़े रहना या बैठना । सचित्त जमीनपर जहाँ कि ग्रहणमनर्थ कमिति; तन्नः किं कारणम् । तत्र मानसपरिस्पन्दप्रति षेधात् । तत्रासमर्थेषु परकीयेषु वस्तुषु अनिष्टप्रणिधानोपरमार्थबोज अंकुरादिक पड़े हैं ऐसे स्थलपर रोषसे, वा दर्पसे निश्चल बैठना अथवा खड़े रहना, ये कायगुप्तिके अतिचार है। कायोत्सर्गको भी मिदमुच्यते । = प्रश्न-मनोगुप्तिमें ही शौच धर्मका अन्तर्भाव हो गुप्ति कहते हैं, अतः शरीरममताका त्याग न करना, किंवा कायो जाता है, अतः इसका पृथक् ग्रहण करना अनर्थक है। उत्तर-नहीं, त्सर्गके दोषोंको (दे० व्युत्सर्ग/१) न त्यागना ये भी कायगुप्तिके क्योंकि, मनोगुप्तिमें मनके व्यापारका सर्वथा निरोध किया जाता अतिचार हैं। (अन.ध/४/१६१) है । जो पूर्ण मनोनिग्रहमें असमर्थ हैं । पर-वस्तुओं सम्बन्धी अनिष्ट रागादिक विकार सहित स्वाध्यायमें प्रवृत्त होना, मनोगुप्तिके अति विचारों को शान्तिके लिए शौच धर्मका उपदेश है। चार हैं। ६. गुप्ति समिति व दशधर्ममें अन्तर अन. घ/४/१५६-१६० रागाद्यनुवृत्तिा शब्दार्थज्ञानवैपरीत्य वा। स.सि/६/६/४१२/२ किमर्थमिदमुच्यते । आद्य ( गुप्तादि ) प्रवृत्तिनिग्रहादुष्प्रणिधानं वा स्यान्मलो यथास्वं मनोगुप्तेः ।१५। कर्कश्यादि- र्थम् । तत्रासमर्थानां प्रवृत्त्युपायप्रदर्शनार्थ द्वितीयम् ( एषणादि ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुति २५१ इदं पुनर्दशविधधर्माख्यानं समितिषु प्रवर्तमानस्य प्रमादपरिहारार्थ वेदितव्यम् । प्रश्न-यह (दशधर्मविषयक सूत्र) किसलिए कहा है : उत्तर-संवरका प्रथम कारण गुप्ति आदि प्रवृत्तिका निग्रह करनेके लिए कहा गया है जो वैसा करने में असमर्थ है उन्हें प्रवृत्तिका उपाय दिखलानेके लिए दूसरा कारण (ऐषणा आदि समिति) कहा गया है। किन्तु यह दश प्रकारके धर्मका कथन समितियों में प्रवृत्ति करनेवाले के प्रमादका परिहार करनेके लिए कहा गया है। (रा.वा/8/4/१/ ५६५/१८) ७.गुप्ति व ईर्याभाषा समितिमें अन्तर रा.वा/8/V8/५६४/३० स्यान्मतम् ईर्यासमित्यादिलक्षणावृत्तिः वाक्कायगुप्तिरेव, गोपनं गुप्तिः रक्षणं प्राणिपीडापरिहार इत्यनान्तरमिति। तन्न; किं कारणम् । तत्र कालविशेषे सर्व निग्रहोपपत्तेः । परिमितकालविषयो हि सर्वयोगनिग्रहो गुप्तिः। तत्रासमर्थस्य कुशलेषु वृत्ति. समिति. प्रश्न-ईर्या समिति आदि लक्षणवाली वृत्ति ही वचन व काय गुप्ति है, क्योंकि गोपन करना, गुप्ति, रक्षण, प्राणीपीडा परिहार इन सबका एक अर्थ है। उत्तर-नहीं; क्योंकि; वहाँ कालविशेषमें सर्व निग्रहकी उपपत्ति है अर्थात् परिमित कालपर्यंत सर्व योगोंका निग्रह करना गुप्ति है। और वहाँ असमर्थ हो जानेवालों के लिए कुशल कर्मों में प्रवृत्ति करना समिति है। भ.आ/वि/१९८७/११७८/९ अयोग्यवचनेऽप्रवृत्तिः प्रेक्षापूर्वकारितया योग्यं तु वक्ति वा न वा । भाषासमितिस्तु योग्यवचसः कतृता ततो महान्भेदो गुप्तिसमित्योः। मौनं वाग्गुप्तिरत्र स्फुटतरो वचोभेदः । योग्यस्य वचसः प्रवर्तकता। वाचः कस्याश्चित्तदनुत्पादकतेति । (वचन गुप्तिके दो प्रकार लक्षण किये गये हैं-कर्कशादि वचनोंका त्याग करना व मौन धारना) तहाँ-१.जो आत्मा अयोग्य वचनमें प्रवृत्ति नहीं करता परन्तु विचार पूर्वक योग्य भाषण बोलता है अथवा नहीं भी बोलता है यह उसकी वाग्गुप्ति है। परन्तु योग्य भाषण बोलना यह भाषा समिति है । इस प्रकार गुप्ति और समितिमें अन्तर है। २. मौन धारण करना यह वचन गुप्ति है। यहाँ-योग्य भाषणमें प्रवृत्ति करना समिति है। और किसी भाषाको उत्पन्न न करना यह गुप्ति है । ऐसा इन दोनों में स्पष्ट भेद है। ८.गुति पालनेका आदेश यू.आ/३३४-३३९ खेत्तस्स वई णयरस्स खाइया अहव होइ पायारो। तह पापस्स णिरोहो ताओ गुत्तीओ साहुस्स १३३४॥ तम्हा तिविहेण तुम णिच्च मणवयणकायजोगेहि। होहिमु समाहिदमई णिरंतर माणसज्माए ३३९१-- जैसे खेतकी रक्षाके लिए बाड होती है, अथवा नगरकी रक्षारूप खाई तथा कोट होता है, उसी तरह पापके रोकनेके लिए संयमी साधुके ये गुप्तियाँ होती हैं ।३३४। इस कारण हे साधु ! तू कृत कारित अनुमोदना सहित मन वचन कायके योगोंसे हमेशा ध्यान और स्वाध्यायमें सावधानीसे चित्तको लगा।३३॥ (भ.आ/ मू/११८६-११६०/११८४) [ऋद्धि-पुन्नाटसंघकी गुर्वावलीके अनुसार आप गुप्तिश्रुतिके शिष्य तथा शिवगुप्तिके गुरु थे। समय-बी. नि. ५५० (ई० २३) -दे० इतिहास /७/८ । गुप्तिगुप्त-श्रूतावतार में कथित अर्ह वलीका अपर नाम जिनका स्मरण नन्दिसघ बलात्कार गणकी गुर्वावली में आ भद्रबाहू द्वि० के पश्चात और माघनन्दि से पूर्व किया गया है। वास्तव में नन्दि संध के साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। विशेष दे० कोश खण्ड १ परिशिष्ट/२/७। समय बी. नि. ५६५-५७५ (ई ३८-४८) (दे० इतिहास/७/२)। समय-शक सं २६-३६ (ई० १०४-११४)- दे० इतिहास /५/१३ । गुप्तिश्रुति-पुन्नाटसंघको गुर्वावलीके अनुसार आप विनयंधरके शिष्य तथा गुप्तिऋद्धिके गुरु थे। समय-वी. नि. ५४० (ई० १३) दे० इतिहास /७/८ । ग्रमानाराम-पं. टोडरमलजीके पुत्र थे । गुमानी पन्थकी अति १३ पन्थ शुद्धाम्नायकी स्थापना की। समय–वि. १८३७ (ई १७८०)। गुरु-गुरु शब्दका अर्थ महान होता है। लोकमें अध्यापकों को गुरु कहते हैं । माता पिता भी गुरु कहलाते हैं। परन्तु धार्मिक प्रकरणमें आचार्य, उपाध्याय व साधु गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे जीवको उपदेश देकर अथवा विना उपदेश दिये ही केवल अपने जीवनका दर्शन कराकर कल्याणका वह सच्च। मार्ग बताते हैं, जिसे पाकर वह सदाके लिए कृतकृत्य हो जाता है। इसके अतिरिक्त विरक्त चित्त सभ्यग्दृष्टि श्रावक भी उपरोक्त कारणवश हो गुरु संज्ञाको प्राप्त होते है। दीक्षा गुरु, शिक्षा गुरु, परम गुरु आदिके भेदसे गुरु कई प्रकारके होते है। १.गुरु निर्देश १. अर्हन्त भगवान् परम गुरु हैं प्र. सा./ता. वृ./७४/ प्रक्षेपक गाथा २/१००/२४ अनन्तज्ञानादिगुरुगुणैस्त्रैलोकस्यापि गुरुस्तं त्रिलोकगुरु, तमित्थंभूतं भगवंतं...1=अनन्तज्ञानादि महान गुणों के द्वारा जो तीनों लोकों में भी महान है वे भगवान् अर्हन्त त्रिलोक गुरु हैं । (प.ध./उ /६२०) । २. आचार्य उपाध्याय साधु गुरु हैं भ. आ /वि /३००/५११/१३ सुस्सुसया गुरूणं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैगुरुतया गुरव इत्युच्यन्ते आचार्योपाध्यायसाधवः ।- सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इन गुणों के द्वारा जो बड़े बन चुके हैं उनको गुरु कहते हैं। अर्थात् आचार्य उपाध्याय और साधु ये तीन परमेष्ठी गुरु कहे जाते हैं। ज्ञा, सा./५ पञ्चमहावतकलितो मदमथनः क्रोधलोभभयत्यक्तः । एष गुरुरिति भण्यते तस्माज्जानीहि उपदेशं । पाँच महाव्रतधारी, मदका मथन करनेवाले, तथा क्रोध लोभ व भयको त्यागने वाले गुरु कहे जाते हैं। पं.ध./उ/६२१,६३७ तेभ्योऽगिपि छद्मस्थरूपास्तद् रूपधारिणः । गुरवः स्युर्गुरोायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।६२१॥ अथास्त्येक स सामान्यात्सद्विशेष्यस्त्रिधा मतः। एकोऽप्यग्निर्यथा तार्यः पार्यो दाळस्त्रिधोच्यते ।६३७१ =उन सिद्ध और अर्हन्तोंकी अवस्थाके पहिले की अवस्थावाले उसी देवके रूपधारी छठे गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहनेवाले मुनि भी गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे भी भावी नैगम नयकी अपेक्षासे उक्त गुरुकी अवस्था-विशेषको धारण करनेवाले हैं, अगुरु नहीं हैं ।६३१। वह गुरु यद्यपि सामान्य रूपसे एक प्रकारका है परन्तु सत्की विशेष अपेक्षासे तीन प्रकारका माना गया है-(आचार्य, उपाध्याय व साधु) जैसे कि अग्नित्व सामान्यसे २. अन्य सम्बन्धित विषय १. श्रावकको भी यथा शक्ति गुप्ति रखनी चाहिए-दे० श्रावक/४।। २. संयम व गुप्तिमें अन्तर-दे० संयम्/२।। ३. गुप्ति व सामायिक चारित्रमें अन्तर-दे० सामायिक /४ । ४. गुप्ति व सूक्ष्म साम्परायिक चारित्रमें अन्तर -दे० सूक्ष्म साम्पराय /४ । ५, कायोत्सर्ग व काय गुप्तिमें अन्तर-दे० गुप्ति /१/८ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु २५२ २. गुरु शिष्य सम्बन्ध अग्नि एक प्रकारकी होकर भी तृणकी, पत्रकी तथा लकडीकी अग्नि इस प्रकार तीन प्रकारकी कही जाती है । ६३७॥ * आचार्य उपाध्याय व साधु-दे० वह वह नाम । ३. संग्रत साधुके अतिरिक्त अन्यको गरु संज्ञा प्राप्त नहीं अ.ग. श्रा/१/४३ ये ज्ञानिनश्चारुचारित्रभाजो ग्राह्या गुरूणां बचनेन तेषा। संदेहमत्यस्य बुधेन धर्मो विकल्पनीयं वचनं परेषां ॥४३जे ज्ञानवान सुन्दर चारित्रके धरनेवाले हैं, तिनि गुरूनिके वचननिकरि सन्देह छोड धर्म ग्रहण करना योग्य है। बहुरि ऐसे गुरुनि बिना औरनिका वचन सन्देह योग्य है। पं ध/उ./६५८ इत्युक्तवततप.शीलसंयमादिधरो गणी। नमस्यः स गुरुः साक्षादन्यो न तु गुरुर्गणी ६५८१ = इस प्रकार जो आचार्य पूर्वोक्त तपशील और संयमादिको धारण करनेवाले है, वही साक्षात् गुरु है, और नमस्कार करने योग्य है, किन्तु उससे भिन्न आचार्य गुरु नहीं हो सकता। र. क आ/टी./१/१०६. सदासुखदास-जो विषयनिका लम्पटी होय सो ओर निकू विषयनित छडाय वीतराग मार्गमे नाही प्रवर्तावै । ससारमार्गमे लगाय संसार समुद्र में डुबोय देय है । तातै विषयनिकी आशाकै बश नही होय सोही गुरु आराधन करने व बन्दने योग्य है। जातै विषयनिमे जाकै अनुराग होय सो तो आत्मज्ञानरहित बहिरात्मा है, गुरु कैसे होय । बहुरि जिसके त्रस स्थावर जीवनिका घातक आरम्भ होय तिसकै पापका भय नहीं, तदि पापिष्ठकै गुरुपना कैसे सम्भबे । बहुरि जो चौदह प्रकार अन्तरंग परिग्रह और दस प्रकार बहिरंग परिग्रहकरि सहित होय सो गुरु कैसै होय ! परिग्रही तो आप ही संसारमे फंस रह्या, सो अन्यका उद्धार करनेवाला गुरु कैसे होय। दे. विनय/४ असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि साधु आदि बन्दने योग्य नहीं है। * मिथ्यादृष्टि साधुको गुरु मानना मूढ़ता है-दे० मूढता। * कुगुरु निषेध-दे० कुदेव । स. श./७५ नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च । गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः ।७।-आत्मा ही आत्माको देहादिमें ममत्व करके जन्म मरण कराता है, और आत्मा ही उसे मोक्ष प्राप्त कराता है। इसलिए निश्चयसे आत्माका गुरु आत्मा ही है, दूसरा कोई नहीं। ज्ञा /३२/८१ आत्मात्मना भव मोक्षमात्मन' कुरुते यत.। अतो रिपुर्गुरुश्चायमात्मैव स्फुटमात्मनः।। -यह आत्मा अपने ही द्वारा अपने संसारको या मोक्षको करता है। इसलिए आप ही अपना शत्रु और आप ही अपना गुरु है। प.ध./उ./६२८ निर्जरादिनिदानं यः शुद्धो भावश्चिदात्मनः । परमाई: स एवास्ति तद्वानात्मा परं गुरुः ॥६२८=वास्तवमें आत्माका शुद्धभाव ही निर्जरादिका कारण है, वही परमपूज्य है, और उस शुद्धभावसे युक्त आत्मा ही केवल गुरु कहलाता है। ७. उपकारी जनोंको भी कदाचित् गुरु माना जाता है ह पु./२१/१२८-१३१ अक्रमस्य तदा हेतुं खेचरौ पर्यपृच्छताम् । देवा वृषिमतिक्रम्य प्राग्नतौ श्रावकं कुत ।१२। त्रिदशाबूचतुर्हेतुं जिनधर्मोपदेशकः । चारुदत्तो गुरु. साक्षादावयोरिति बुध्यताम् ।१२।। तत्कथं कथमित्युक्तं छागपूर्व' सुरोऽभणीत । श्रूयतां मे कथा तावत् कथ्यते खेचरौ । स्फुटम् ।१३०। -( उस रत्नद्वीपमें जब चारण मुनिराजके समक्ष चारुदत्त व दो विद्याधर विनय पूर्वक बैठे थे, तब स्वर्गलोकसे दो देव आये जिन्होने मुनिको छोड़कर पहिले चारुदत्सको नमस्कार किया) विद्याधरोंने उस समय उस अक्रमका कारण पूछा कि हे देवो, तुम दोनों ने मुनिराजको छोडकर श्रावकको पहिले नमस्कार क्यों किया? देवोंने इसका कारण कहा कि इस चारुदत्तने हम दोनोंको जिन धर्मका उपदेश दिया है, इसलिए यह हमारा साक्षात गुरु है । यह समझिए ।१२८-१२६॥ यह कैसे ? इस प्रकार पूछने पर जो पहिले मकराका जीव था वह बोला कि हे विद्याधरो। सुनिए मैं अपनी कथा स्पष्ट कहता हूँ।१३०॥ म.पु./६/१७२ महाबलभवेऽप्यासीत् स्वयंबुद्धो गुरो स नः । वितीर्य दर्शनं सम्यक् अधुना तु विशेषतः ।१७२१= महाबलके भवमें भी वे मेरे स्वयंबुद्ध (मन्त्री) नामक गुरु हुए थे और आज इस भव में भी सम्यग्दर्शन देकर (प्रीतंकर मुनिराजके रूपमें ) विशेष गुरु हुए हैं ।१७२। * अणुव्रती श्रावक भी गृहस्थाचार्य या गुरु संज्ञाको प्राप्त हो जाता है। -दे० आचार्य । * गुरुकी विशेषता-दे० वक्ता/४ । २. गुरु शिष्य सम्बन्ध 1. शिष्यके दोषोंके प्रति उपेक्षित मृदु भी 'गुरु' गुरु नहीं मू.आ./१६८ जदि इदरो सोऽजोग्गो छेदमुवठ्ठावणं च कादव्वं । अदि णेच्छदि छडेज्जो अह गेहादि सोवि छेदरिहो ।१६८ -आगन्तुक साधु या चरणकरणसे अशुद्ध हो तो संघके आचार्यको उसे प्रायश्चित्तादि देकर छेदोपस्थापना करना योग्य है। यदि वह छेदोपस्थापना स्वीकार न करे तो उसका त्याग कर देना योग्य है। यदि अयोग्य साधुको भी मोहके कारण ग्रहण करे और उसे प्रायश्चित्त न दे तो वह आचार्य भी प्रायश्चित्तके योग्य है। भ.आ./मू./४८१/७०३ जिन्भाए वि लिहतो ण भद्दओ जत्थ सारणा णत्थि। - जो शिष्यों के दोष देखकर भी उन दोषोंको निवारण नहीं करते और जिह्वासे मधुर भाषण बोलते हैं तो भी वे भद्र नहीं है अर्थात उत्तम गुरु नहीं है। आ.अनु /१४२ दोषान् काश्चन तान्प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं, साधं तैः सहसा प्रियेद्यदि गुरुः पश्चात् करोत्येष किम् । तस्माम्मे न ४. सदोष साधु मी गुरु नहीं है पं. ४ |उ./६५७ यता मोहात्प्रमादाद्वा कुर्याद्यो लौकिकी क्रियाम्।। तावत्काल सनाचार्योऽप्यस्ति चान्त ताच्च्युत' १६५७/ जो मोहसे अथवा प्रमादसे जितने काल तक लौकिक क्रियाको करता है, उतने काल तक वह आचार्य नहीं है और अन्तरंगमें व्रतोंसे च्युत भी है ।६५७४ ५. निर्यापकाचार्यको शिक्षा गरु कहते हैं प्र. सा/ता, वृ/२१०/२८४/१५ छेदयोर्ये प्रायश्चित्तं दत्वा संवेगवैराग्यजनकपरमागमवचन' संवरणं कुर्वन्ति ते निर्यापकाः शिक्षागुरवः श्रुतगुरवश्चेति भण्यते ।- देश व सकल इन दोनों प्रकारके संयमके छेदकी शुद्धिके अर्थ प्रायश्चित्त देकर संवेग व वैराग्य जनक परमागमके वचनो द्वारा साधुका संवरण करते हैं वे निर्यापक हैं। उन्हें ही शिक्षा गुरु या श्रुत गुरु भी कहते हैं। १. निश्चयसे अपना आत्मा ही गुरु है इ. उ./३४ स्वस्मिन्सदाभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः । स्वयं हि प्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः ।३४। वास्तवमें आत्माका गुरु आत्मा ही है, क्योकि वही सदा मोक्षकी अभिलाषा करता है, मोक्ष सुखका ज्ञान करता है और स्वयं ही उसे परम हितकर जान उसकी प्राप्तिमें अपनेको लगाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ गुहिल गुरुर्गुरुगुरुतरान् कृत्वा लघूश्च स्फुटं, व ते य सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खलः सद्गुरु ।१४२। - जो गुरु शिष्योके चारित्रमें लगते हुए अनेक दोषों को देखकर भी उनकी तरफ दुर्लक्ष्य करता है व उनके महत्त्वको न समझकर उन्हे छिपाता चलता है वह गुरु हमारा गुरु नहीं है। वे दोष तो साफ न हो पाये हो और इतनेमे ही यदि शिष्य का मरण हो गया तो वह गुरु पीछेसे उस शिष्यका सुधार कैसे करेगा. किन्तु जो दुष्ट होकर भी उसके दोष प्रगट करता है वह उसका परम कल्याण करता है। इसलिए उससे अधिक और कौन उपकारी गुरु हो सकता है। २. शिष्यके दोषोंका निग्रह करनेवाला कठोर म भ.आ./मू./४७१-४८३ पिल्लेदूण रडत पि जहा बालस्स मुहं विदारित्ता। पज्जेइ घदं माया तस्सेब हिदं विचितंती ७ तह आयरिओ वि अणुज्जस्स खवयस्स दोसणीहरणं । कुण दि हिदं से पच्छा होहिदि कडुओसहं वत्ति 101.1 पाएण वि ताडितो स भद्दओ जत्थ सारणा अस्थि ।। आदमेव जे चितेदुमुठ्ठिदा जे परट्ठमबि लोगे। कड्डय फरसेहि ते हु अदिदुल्लहा लोए ।४८३। -जो जिसका हित करना चाहता है वह उसको हितके कार्यमे बलात्कारसे प्रवृत्त करता है, जैसे हित करनेवाली माता अपने रोते हुए भी बालकका मुंह फाड कर उसे घी पिलाती है ।४७६। उसी प्रकार आचार्य भो मायाचार धारण करनेवाले क्षपकको जबरदस्ती दोषोकी आलोचना करने में बाध्य करते हैं तब वह दोष कहता है जिससे कि उसका कल्याण होता है जैसे कि कड़वी औषधी पीनेके अनन्तर रोगीका कल्याण होता है ।४८० लातोंसे शिष्योको ताडते हुए भी जो शिष्यको दोषोंसे अलिप्त रखता है वही गुरु हित करनेवाला समझना चाहिए 1४८१ जो पुरुष आत्महितके साथ-साथ, कटु व कठोर शब्द बोलकर परहित भी साधते हैं वे जगत में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।४८३। * कठोर व हितकारी उपदेश देनेवाला गुरु श्रेष्ठ है -दे० उपदेश/३। ३. गुरु शिष्यके दोषोंको अन्यपर प्रगट न करे भ.आ /मू./४८८ आयरियाणं वीसत्थदाए भिक्रवू कहेदि सगदोसे। कोई पुण णिद्धम्मो अण्णेसि कहेदि ते दोसे १४८८] - आचार्य पर विश्वास करके ही भिक्षु अपने दोष उससे कह देता है। परन्तु यदि कोई आचार्य उन दोषों को किसी अन्यसे कहता है तो उसे जिनधर्म बाह्य समझना चाहिए। * गुरु विनयका माहात्म्य -दे० विनय/२ । ३. दीक्षागुरु निर्देश १. दीक्षा गुरुका लक्षण प्र.सा /मू./२१० लिगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि ।...। प्र. सा./त.प्र./२१० लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपाद कत्वेन यः किलाचार्यः प्रवज्यादायक. स गुरु. । प्र.सा./ता.वृ./२१०/२८४/१२ योऽसौ प्रवज्यादायक' स एव दीक्षागुरुः । -१. लिग धारण करते समय जो निर्विकल्प सामायिक चारित्रका प्रतिपादन करके शिष्यको प्रवज्या देते हैं वे आचार्य दीक्षा गुरु हैं। २. दीक्षा गुरु ज्ञानी व वीतरागी होना चाहिए प्र.सा./मू./२५६ छदुमत्यविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो । ण लहदि अपुणब्भावं सादप्पगं लहदि ।२५६। प्र.सा./ता वृ./२५६/३४६/१५ ये केचन निश्चयव्यवहारमोक्षमार्ग म जानन्ति पुण्यमेव मुक्तिकारणं भणन्ति ते छद्मस्थशब्देन गृह्यन्ते न च गणधरदेवादयः । तै श्छद्मस्थै रज्ञानिभि. शुद्धात्मोपदेशशून्यैर्ये दीक्षितास्तानि छद्मस्थविहितवस्तूनि भण्यन्ते। - जो कोई निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गको तो नहीं जानते और पुण्यको ही मोक्षका कारण बताते हैं वे यहाँ 'छद्मस्थ' शब्दके द्वारा ग्रहण किये गये है। (यहाँ सिद्धान्त ग्रन्थो में प्ररूपित १२वे गुणस्थान पर्यन्त छद्मस्थ संज्ञाको प्राप्त) गणधरदेवादिसे प्रयोजन नहीं हैं। ऐसे शुद्धात्माके उपदेशसे शून्य अज्ञानी छद्मस्थों द्वारा दीक्षाको प्राप्त जो साधु हैं उन्हें छद्मस्थ विहित वस्तु कहा गया है। ऐसी छद्मस्थ विहित वस्तुओं में जो पुरुष व्रत, नियम, पठन, ध्यान, दानादि क्रियाओ युक्त है वह पुरुष मोक्षको नहीं पाता किन्तु पुण्यरूप उत्तम देवमनुष्य पददीको पाता है। * व्रत धारणमें गुरु साक्षीकी प्रधानता-दे० व्रत/११६ । ३. स्त्रीको दीक्षा देनेवाले गुरुकी विशेषता मू.आ./१८३-१८५ पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो। संगहणुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो ।१८३। गंभीरो दुद्धरिसो 'मदवादी अप्पकोदुहल्लो य । चिरपब्वइ गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि ।१८४ा आर्यकाओका गणधर ऐसा होना चाहिए, कि उत्तम क्षमादि धर्म जिसको प्रिय हों, दृढ धर्मवाला हो, धर्म में हर्ष करनेवालाहो, पापसे डरता हो, सब तरहसे शुद्ध हो अर्थात् अखण्डित आचरणवाला हो, दीक्षाशिक्षादि उपकारकर नया शिष्य बनाने व उसका उपकार करनेमें चतुर हो और सदा शुभ क्रियायुक्त हो हितोपदेशी हो ।१८३। गुणोंकर अगाध हो, परवादियोंसे दबनेवाला न हो, थोड़ा बोलनेवाला हो, अल्प विस्मय जिसके हो, बहुत कालका दीक्षित हो, और आचार प्रायश्चित्तादि प्रन्थोंका जाननेवाला हो, ऐसा आचार्य आर्यकाओंको उपदेश दे सकता है ।१८४। इन पूर्वकथित गुणोसे रहित मुनि जो आर्यकाओका गणधरपना करता है उसके गणपोषण आदि चारकाल तथा गच्छ आदिकी विराधना होती है ।१८५। गुरुतत्त्व विनिश्चय-श्वेताम्बराचार्य यशोविजय (ई.१६३८. १६८८) द्वारा संस्कृत भाषामें रचित न्याय विषयक ग्रन्थ । गुरुत्व-(त.सा./भाषा/३२ )-कुछ लोग गुरुत्व शब्दका अर्थ ऐसा करते हैं कि जो नीचेकी तरफ चीजको गिराता है वह गुरुत्व है, परन्तु हम इसका अर्थ करते है कि जो किसी भी तरफ किसी चीजको ले जाये वह गुरुत्व है। वह चाहे नीचेकी तरफ ले जानेवाला हो अथवा ऊपरकी तरफ। नीचेकी तरफ ले जानेका सामर्थ्य तथा ऊपरकी तरफ ले जानेका सामर्थ्य उसी गुरुत्वके उत्तर भेद हो सकते है। (जैसे)-पुद्गल अधोगुरुत्व धर्मवाले होते हैं और जीव ऊर्च गुरुत्व धर्म वाले होते हैं। गुरु परम्परा-दे० इतिहास/४ । गुरु पूजन क्रिया-दे० क्रिया/३ । गुरु मत-दे० मीमांसा दर्शन । गुरु मूढता-दे० मूढता। गुरु स्थानाभ्युपगमन क्रिया-दे० क्रिया/३ । गुर्जर नरेन्द्र-जगतुङ्ग अर्थाद गोविन्द तृतीयका अपर नाम (क.पा.१/प्र.७३/पं. महेन्द्र कुमार)। मुर्वावली-दे० इतिहास/४,५ । गुल्म-सेनाका एक अंग-दे० सेना। गुहिल सम्भवतः यही जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके कर्ता आचार्य शक्ति कुमार हैं । (ति.प./प्र.८/A-N.up ); (जैन साहित्य इतिहास/ पृ.५७१) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुह्यक २५४ गोशाल गुह्यक भगवान् महावीरका शासक यक्ष-दे० तीर्थकर १/३। गूढ ब्रह्मचारी-दे० ब्रह्मचारी। गद्धापच्छ-१. कुन्दकुन्दका अपर नाम-दे० कुन्दकुन्द । २. उमा स्वामीका अपर नाम (ध.१/५६) H.I. Jain); (तत्त्वार्थ सूत्र प्रशस्ति) (विशेष वे कोश भाग १ परिशिष्ट/४/४) गद्धपिच्छ मरण-दे० मरण/१। गृह-(ध.१४/५,६,४१/३६/३) कट्ठियाहि बद्धकुडा उवरि वंसिकच्छण्णा गिहा णाम । जिसकी भींत लकड़ियोंसे बनायी जाती हैं। और जिसका छप्पर बाँस और तृणसे छाया जाता है, वह गृह कहलाता हैं। गह कर्म-दे० निक्षेप/४। -दे० संस्कार /२। गृहपति-चक्रवर्तीका एक रत्न-दे० शलाका पुरुष /२॥ गृहस्थ धर्म-दे० सागार। गृहस्थाचार्य-दे० आचार्य २ । गृहीत मिथ्यात्व-दे० मिथ्यादर्शन /१। गृहीता स्त्री-दे० स्त्री। गृहीशिता क्रिया-दे० संस्कार (२। गोक्षीर फेन-विजयाको उत्तर श्रेणीका एक नगर--दे० । विद्याधर। गोचरी वृत्ति-दे० भिक्षा /११७ । गोणसेन-द्रविड संघकी गुर्वावलीके अनुसार आप सिद्धान्त देवके शिष्य तथा अनन्तवीर्य के गुरु थे। समय-ई० ६६०-१००० -दे. इतिहास/६३ चक्रवर्ती ( ई० श ११ पूर्वार्ध) द्वारा रचित कर्म सिद्धान्त प्ररूपक प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है-जीवकाण्ड व कर्मकाण्ड । जीवकाण्डमे जीवका गति आदि २० प्ररूपणाओं द्वारा वर्णन है और कर्मकाण्डमें कर्मोंकी ८ व १४८ मूलोत्तर प्रकृतियोंके बन्ध, उदय, सत्त्व आदि सम्बन्धी वर्णन है। कहा जाता है कि चामुण्डराय जो आ. नेमिचन्द्रके परम भक्त थे, एक दिन जब उनके दर्शनार्थ आये तब वे धवला शास्त्रका स्वाध्याय कर रहे थे। चामुण्डरायको देखते ही उन्होंने शास्त्र बन्द कर दिया। पूछनेपर उत्तर दिया कि तुम अभी इस शास्त्रको पढ़नेके अधिकारी नहीं हो। तब उनकी प्रार्थनापर उन्होंने उस शास्त्रके संक्षिप्त सारस्वरूप यह ग्रन्थ रचा था। जीवकाण्डमें २० अधिकार और ७३५ गाथाएं हैं तथा कर्मकाण्डमें ८ अधिकार और १७२ गाथाएँ हैं। इस प्रन्थपर निम्न टीकाएँ लिखी गयौं-१. अभयनन्दि आचार्य (ई. श. १०-११) कृत टीका । २. चामुण्डराय (ई. श. १०-११) कृत कन्नड़ वृत्ति 'वीर मार्तण्डी।' ३. आ. अभयचन्द्र (ई० १३३३-१३४३) कृत मन्दप्रबोधिनी नामक संस्कृत टीका । ४. न. केशव वर्णी ( ई० १३५६)कत कर्णाटक वृत्ति। ५. आ. नेमिचन्द्र नं०५ (ई. श. १६ पूवाध) कृत जीवतत्त्व प्रमाधिनी नामकी संस्कृत टीका । ६.५० हेमचन्द्र(ई०१६४३-१६७०) कृत भाषा वचनिका । ७.५० टोडरमल्ल (ई०१७३६) द्वारा रचित भाषा वचनिका। (जै./१/३८१, ३८५-३६३) । गोमट्टसार पूजा-पं० टोडरमल्ल ( ई० १७३६) कृत गोमट्टसार ग्रन्थको भाषा पजा। गोमती-भरतक्षेत्र पूर्वी मध्य आर्यखण्डकी एक नदी।-दे० मनुष्य /४। गोमूत्रिका-दे० विग्रहगति /२ । गामष-नमिनाथ भगवानका शासक यक्ष-दे० तीर्थ कर//३ गोरस-दे० रस। गोरस शुद्धि-दे० भक्ष्याभक्ष्य /३। गोलाचार्य-नन्दिसंघ देशीयगणकी गुर्वावलीके अनुसार आप देशीय गण के अग्रणी थे। गोलव देशके अधिपति होनेके कारण आपका नाम गोलाचार्य प्रसिद्ध हुआ। आप त्रैकाल्य-योगीके गुरु और आविद्धकरण-पद्मनन्दि-कौमारदेव-सैद्धान्तिकके दादा गुरु थे । समय-वि०६५७-१७७ (ई०१००-१२०)।-दे० इतिहास /७५ । गोत्र कर्म-दे० वर्ण व्यवस्था ।। गोदावरी-भरत क्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य /४ । गापसन-लाडबागडसंघकी पट्टावलीके अनुसार आप शान्तिसेनके शिष्य और भावसेनके गुरु थे। समय-वि, १००५ ( ई०६४८)-दे० इतिहास /७/१०। गोपुच्छक-दिगम्बर साधुओं का एक संघ-दे० इतिहास / गोपुच्छा -क्ष सा/भाषा/५६३)-(गुणश्रेणी क्रमको छोड़) जहाँ विशेष (चय ) घटता क्रम लीएँ ( अल्पबहुत्व) होइ तहाँ गोपुच्छा संज्ञा है । (क्ष.सा/भाषा/५२४)-विवक्षित एक संग्रह कृष्टिविषै जो अन्तरकृष्टीनिके विशेष (चय) घटता क्रम पाइये है सो यहाँ स्वस्थान गोपुच्छा कहिए है। और निचली विवक्षित संग्रह कृष्टिकी अन्तकृष्टितै ऊपरकी अन्य संग्रहकृष्टिकी आदि कृष्टिके विशेष घटता क्रम पाइए है सो यहाँ परस्थान गोपुच्छा हिए। गोपुर-ध./१४।५,६,४२/३६/४ पायाराणं वारे घडिदगिहा गोवुर णाम । कोटोंके दरवाजोंपर जो घर बने होते हैं-वह गोपुर कहलाते है। गोप्य-दिगम्बर साधुसंघ-दे० इतिहास /६/७ । गोमट्ट-दे० चामुण्डराय। गोमट्टसार-मन्त्री चामुण्डरायके अर्थ आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्त गोवदन-भगवान् ऋषभदेवका शासक यक्ष-दे० तीर्थकर/५/३ गोवद्धन-श्रुतावतारको गुर्वावली के अनुसार भगवान् वीरके पश्चात चौथे श्रुतकेवली हुए। समय-वी. नि ११४-१३३ (ई० पू० ४१३ ३६४)-दे० इतिहास /४/४। गोवर्द्धन दास-पानीपत निवासी एक प्रसिद्ध पण्डित थे। पिता नन्दलाल थे। शिष्यका नाम लक्ष्मीचन्द था। शकुन विचार' नामकी एक छोटी-सी पुस्तक भी लिखी है। समय वि० १७६२ (ई० १७०५) । (हिन्दी जैन साहित्य इतिहास पृ १७६/ कामताप्रसाद)। गाविन्द-१-कृष्णराज प्रथमका ही दूसरा नाम गोविन्द प्रथम थादे० कृष्णराज प्रथम । २-राजा कृष्णराज प्रथमका पुत्र 'श्री वल्लभ' गोविन्द द्वि० प्रसिद्ध हुआ-दे० श्री वल्लभ । ३-गोविन्द द्वि० के राज्यपर अधिकार कर लेनेके कारण राजा अमोघवर्ष के पिता जगतुंगको गोविन्द तृ० 'जगतुंग' कहते हैं। (दे० जगतुंग)। ४-शंकराचार्य के गुरु । समय-ई०७८०-दे० वेदांत । गोशाल- एक मिथ्यामत प्रवर्तक-दे० पूरनकश्यप। जैनेन्द्र सिदान्तकोश Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोशीर्ष २५५ ज्ञानका सूचीपत्र गोशीर्ष-भरतक्षेत्रके मध्य आर्यखण्डमें मलयगिरिके निकट स्थित एक पर्वत-दे० मनुष्य ।। गोसग काल-म.बा/भाषाकार/२७०) दो घड़ी दिन चढ़नेके बादसे लेकर मध्याह्नकालमे दो घड़ी कम रहें उतने कालको गोसर्गिक काल कहते है। गोड़-१. भरतक्षेत्र आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४) । २. वर्तमान बंगालका उत्तर भाग । अपर नाम पुण्ड्र'। (म.पू /प्र.४८/पं पन्नालाल)। गोड़पाद शंकराचार्यके दादा गुरु/समय-ई०७८०/-दे० वेदांत। गौण-गौणका लक्षण व मुख्य गौणव्यवस्था-दे० स्याद्वाद/३ । गातम-१. श्रुतावतारकी गुर्वावलीके अनुसार भगवाच वीरके पश्चाव प्रथम केवली हुए। आप भगवानके गणधर थे। आपका पूर्वक नाम इन्द्रभूति था।-दे० इन्द्रभूति । समय-वी०नि०-१२ (ई०पू०५२७५१५) ।।-दे० इतिहास /४/४। २. (ह पू./१८/१०२-१०६) हस्तिनापुर नगरीमें कापिष्ठलायन नामक ब्राह्मणका पुत्र था। इसके उत्पन्न होते ही माता पिता मर गये थे। भूखा मरता फिरता था कि एक दिन मुनियोंके दर्शन हुए और दीक्षा ले ली (श्लो ५०)। हजारवर्ष पर्यन्त तप करके छठे अवेयकके सुविशाल नामक विमानमें उत्पन्न हुआ। यह अन्धकवृष्णिका पूर्व भव है-दे० अन्धक वृष्णि । गौतम ऋषि-नैयायिक मतके आदि प्रवर्तक थे। 'न्यायसूत्र' ग्रन्थकी रचनी की।- दे० न्याय /१/७। गौरव-दे० गारव । गौरिकूट-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । गौरिव-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर ।- दे० विद्याधर । गोरा-१. भगवान वासुपूज्यकी शासक यक्षिणी-दे. तीर्थ कर ५/३ । २. एक विद्याधर विद्या। -दे० विद्या। ज्ञ-जीवको 'ज्ञ' कहनेको विवक्षा-दे० जीव /१/२.३ । ज्ञाप्त-ज्ञप्ति क्रियाका लक्षण-दे० चेतना /१ । ज्ञप्ति व करोति क्रियामें परस्पर विरोध-दे० चेतना ३ ।। ज्ञात-(रा.बा./६/६/३/५१२/१) हिनस्मि इत्यसति परिणामे प्राणव्यपरोपणे ज्ञातमात्रं मया व्यापादित इति ज्ञातम् । अथवा 'अय प्राणी हन्तव्यः' इति ज्ञात्वा प्रवृत्ते. ज्ञातमित्युच्यते । मारनेके परिणाम न होनेपर भी हिंसा हो जानेपर 'मैंने मारा' यह जान लेना ज्ञात है। अथवा, 'इस प्राणीको मारना चाहिए' ऐसा जानकर प्रवृत्ति करना ज्ञात है। ज्ञात कथाग-द्वादशांग श्रुतज्ञानका छठा अंग-दे० श्रुतज्ञान/ III ज्ञान-ज्ञान जीवका एक विशेष गुण है जो स्व व पर दोनोंको जानने में समर्थ है । बह पाँच प्रकारका है-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय व केवलज्ञान । अनादि कालसे मोहमिश्रित होनेके कारण यह स्व व परमें भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थोंको ही निजस्वरूप मानता है, इसीसे मिथ्याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्यक्त्वके प्रभावसे परपदार्थोसे भिन्न निज स्वरूपको जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्यग्ज्ञान है । ज्ञान वास्तवमें सम्यक मिथ्या नहीं होता, परन्तु सम्यक्त्व या मिथ्यात्वके सहकारीपनेसे सम्यक् मिथ्या नाम पाता है। सम्यग्ज्ञान ही श्रेयोमार्गकी सिद्धि करने में समर्थ होनेके कारण जीवको इष्ट है। जीवका अपना प्रतिभास तो निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उसको प्रगट करनेमें निमित्तभूत्त आगमज्ञान व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहलाता है। तहाँ निश्चय सम्यग्ज्ञान ही वास्तवमें मोक्षका कारण है, व्यवहार सम्यग्ज्ञान नहीं। ज्ञान सामान्य भेद व लक्षण शान सामान्यका लक्षण । शानका लक्षण बहिचित्प्रकाश-दे० दर्शन/२/३५। भूतार्थ ग्रहणका नाम शान है। | मिथ्यावृष्टिका शान भूतार्थ ग्राहक कैसे है ? अनेक अपेक्षाओंसे शानके भेद । क्षायिक व क्षयोपशमिक रूप भेद ___-(दे० क्षय व क्षयोपशम) सम्यक् व मिथ्यारूप भेद -दे० ज्ञान/III/१। स्वभाव विभाव तथा कारण-कार्य ज्ञान -दे० उपयोग/I/१। स्वार्थ व परार्थशान-दे० प्रमाण/१ व अनुमान/१। प्रत्यक्ष परोक्ष व मति श्रुतादि शान-दे० वह वह नाम । धारावाहिक शान-दे० श्रुतज्ञान /I १॥ ज्ञान निर्देश शान व दर्शन सम्बन्धी चर्चा-दे० दर्शन (उपयोग)/२५ शानकी सत्ता इन्द्रियोंसे निरपेक्ष है। श्रद्धान, शान, चारित्र तीनों कथंचित् शानरूप है -दे० मोक्षमार्ग/३/३ । श्रद्धान व शनमें अन्तर-दे० सम्यग्दर्शन/I/४ | प्रश व शानमें अन्तर -दे० ऋद्धि/२। शान व उपयोगमें अन्तर-दे० उपयोग/I/२। शानोपयोग साकार है-दे० आकार/१/५ । शानका कथंचित् सविकल्प व निर्विकल्पपना -दे० विकल्प। प्रत्येक समय नया ज्ञान उत्पन्न होता है -दे० अवधिज्ञान/२। अर्थ प्रतिअर्थ परिणमन करना शानका नहीं राग का कार्य है -दे० राग/२। शानकी तरतमता सहेतुक है-दे० मर्म ।३/21 शानोपयोगमें ही उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्धि सम्भव है -दे० विशुद्धि। क्षायोपशमिक शान कथंचित् मूर्तिक है-दे० मूर्त/७। शानका शेयार्थ परिणमन सम्बन्धी-दे० केवलज्ञान/६ । शानका शेयरूप परिणमनका तात्पर्य -दे० कारक/२/५ । शान मार्गणामें अज्ञानका भी ग्रहण क्यों। -दे० मार्गणा/७॥ शानके अतिरिक्त सर्वगुण निर्विकल्प है। -दे० गुण/२/१०। | ज्ञानका स्वपरप्रकाशकपना स्वपरप्रकाशकपनेकी अपेक्षा शानका लक्षण । स्वपरप्रकाशक शान ही प्रमाण है। *. . जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान २५६ ज्ञानका सूचीपत्र स्वभाव भेदसे ही भेद ज्ञानकी सिद्धि है। संशा लक्षण प्रयोजनकी अपेक्षा अभेदमें भी भेद । परके साथ एकत्वका अभिप्राय-दे० कारक/२ । दो द्रव्योमें अथवा जीत्र व शरीरमें भेद-दे० कारक/२ । निश्चय सम्यग्दर्शन ही भेद शान है। -दे० सम्यग्दर्शन II/१। प्रमाण स्वयं प्रमेय भी है। निश्चय व व्यवहार दोनों शान कथंचित् स्वपर प्रकाशक है। ज्ञानके स्व-प्रकाशकत्वमें हेतु। ज्ञानके पर-प्रकाशकत्वकी सिद्धि । शान व दर्शन दोनों सम्बन्धी स्वपरप्रकाशकत्वमें हेतु व समन्वय । -दे० दर्शनं (उपयोग)/२। निश्चयसे स्वप्रकाशक और व्यवहारसे परप्रकाशक कहनेका समन्वय -दे० केवलज्ञान/६ । स्व व पर दोनोंको जाने विना वस्तुका निश्चय ही नही हो सकता-दे० सप्तभंगी/४/१॥ ज्ञानके पाँचों भेदों सम्बन्धी पॉचों ज्ञानोंके लक्षण व विषय --दे० वह वह नाम । शानके पॉचों भेद पर्याय हैं। पाँचों शानोंका अधिगमज व निसर्गजपना। -दे० अधिगम। २ | पाँचों भेद ज्ञानसामान्यके अंश है। पॉचोंका ज्ञानसामान्यके अंश होनेमें शंका । मति आदि शान केवलज्ञानके अंश हैं। मति आदिका केवलशानके अंश होनेमें विधि साधक शंका समाधान। मति आदि शान केवलशानके अंश नहीं हैं। मति आदिका केवलज्ञानके अंश होने व न होनेका समन्वय। ८ सामान्य ज्ञान केवलज्ञानके बराबर है। ९ | पाँचों शानोंको जाननेका प्रयोजन । पांचों शानोंका स्वामित्व । | एक जीवमें युगपत् सम्भव ज्ञान । शान मार्गणामें आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम -दे० मार्गणा। शानमार्गणामें गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदिके स्वामित्व विषयक २० प्ररूपणाएँ-दे० सत् । शानमार्गणा सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ । -दे०वह वह नाम। कौन ज्ञानसे मरकर कहाँ उत्पन्न हो ऐसी गति अगति प्ररूपणा -दे०जन्म/६॥ सम्यक मिथ्याज्ञान भेद लक्षण सम्यक् व मिथ्याको अपेक्षा शानके भेद । सम्यग्ज्ञानका लक्षण । ( चार अपेक्षाओंसे) । मिथ्याज्ञान सामान्यका लक्षण । श्रुत आदि ज्ञान व अशानोके लक्षण -दे०वह वह नाम । सम्यक् व मिथ्याज्ञान निर्देश सम्यग्ज्ञानके आठ अगोंका नाम निर्देश । आठ अंगोंके लक्षण आदि ।-दे० वह वह नाम । सम्यग्ज्ञानके अतिचार-दे० आगम/१ । सम्यग्ज्ञानकी भावनाएँ। ३ । पाँचों ज्ञानोंमें सम्यक् मिथ्यापनेका नियम । * | शानके साथ सम्यक् विशेषणका सार्थक्य । -दे० ज्ञान/I11/१/२ में सम्यग्ज्ञानका लक्षण/२ । सम्यग्ज्ञानमें चारित्रकी सार्थकता-द्रे, चारित्र/२ । सम्यग्दशन पूर्वक ही सम्यग्शान होता है। सम्यग्दर्शन भी कथंचित् शान पूर्वक होता है। सम्यग्दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञानकी व्याप्ति है पर शानके साथ सम्यग्दर्शनकी नहीं। सम्यक्त्व हो जानेपर पूर्वका ही मिथ्याशान सम्यक् हो जाता है। वास्तवमे,शान मिथ्या नहीं होता, मिथ्यात्वके कारण ही मिथ्या कहलाता है। मिथ्यादृष्टिका शास्त्रज्ञान भी मिथ्या है। मिथ्यादृष्टिका ठीक-ठीक जानना भी मिथ्या है। -दे० ऊपर नं०८। सम्यग्ज्ञानमें भी कदाचित् संशयादि-दे० नि शंकित । सम्यग्दृष्टिका कुशास्त्रज्ञान भी कथंचित् सम्यक है। सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिथ्यात्वको जानता है। भूतार्थ प्रकाशक ही शानका लक्षण है -दे० ज्ञान/I/१ सम्यग्ज्ञानको ही शात संज्ञा है। मिथ्याशानकी अशान संज्ञा है-दे० अज्ञान/२ । सम्यक् व मिथ्याशानोंकी प्रामाणिकता व अप्रामाणिकता -दे० प्रमाण/४/२। शाब्दिक सम्यग्शान -दे० आगम। १० | II भेद व अभेद ज्ञान भेद व अभेद ज्ञान निर्देश भेद ज्ञानका लक्षण । अभेद शानका लक्षण। भेद शानका तात्पर्य षट्कारकी निषेध । भेद ज्ञानका प्रयोजन। -दे० ज्ञान/IV/३/१ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ I ज्ञान सामान्य I ज्ञान सामान्य १. भेद व लक्षण सम्यग्ज्ञान प्राप्तिमें गुरु विनयका महत्त्व -दे० विनय/२। सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्र ज्ञान -देव मिश्र/७। ज्ञानदान सम्बन्धी विषय -दे० उपदेश/३ । रत्नत्रयमें कथचित् भेद व अभेद-दे० मोक्ष मार्ग/२,३ । सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमे अन्तर -दे० सम्यग्दर्शन/I/४ । सम्यक व मिथ्याज्ञान सम्बन्धी शंका समाधान व समन्वय | तीनों अशानोंमे कौन-कौन सा मिथ्यात्व घटित होता * * अज्ञान कहनेसे क्या ज्ञानका अभाव इष्ट है ? मिथ्याशानको मिथ्या कहनेका कारण -दे० ज्ञान/III/२/८ । मिथ्याज्ञानकी अज्ञान संज्ञा कैसे है। सम्यग्दृष्टिके शानको अज्ञान क्यो नहीं कहते -दे० ज्ञान/II/२/८ शान व अशानका समन्वय-दे० सम्यग्दृष्टि/१ में ज्ञानी। मिथ्याज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है? मिथ्याज्ञान दर्शानेका प्रयोजन । * * १. ज्ञानका सामान्य लक्षण स.सि /१/२/६/१ जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञाप्तिमात्र वा ज्ञानम् । = जो जानता है वह ज्ञान है ( कतृ साधन); जिसके द्वारा जाना जाय सो ज्ञान है (करण साधन), जाननामात्र ज्ञान है (भाव साधन) । (रा.वा./ १/१/२४/६/१; २६/४/१२), (ध.१/१,१,११५/३५३/१०);(स्या.म /१६/ २१५/२७)। रा.वा./१/१/१/११ एवंभूतनयवक्तव्यवशात ज्ञानदर्शनपर्यायपरिणतात्मैव ज्ञानं दर्शनं च तत्स्वभाव्यात् । = एवं भूतनयकी दृष्टिमे ज्ञानक्रियामें परिणत आत्मा ही ज्ञान है, क्योंकि, वह ज्ञानस्वभावी है। दे० आकार/५ साकारोपयोगका नाम ज्ञान है। दे० विकल्प/२ सविकल्प उपयोगका नाम ज्ञान है। दे० दर्शन/१/३ बाह्य चित्प्रकाशका तथा विशेष ग्रहणका नाम ज्ञान है। २. भूतार्थ ग्रहणका नाम ज्ञान है ध १/१,१४/१४२/३ भूतार्थप्रकाशनं ज्ञानम् । अथवा सद्भाव विनिश्च योपलम्भकं ज्ञानम् ।...शुद्धनयविवक्षायां तत्त्वार्थोपलम्भकं ज्ञानम् ।... द्रव्यगुणपर्यायाननेन जानातीति ज्ञानम्। १. सत्यार्थ का प्रकाश करनेबाली शक्ति विशेषका नाम ज्ञान है। २. अथवा सद्भाव अर्थात् वस्तुस्वरूपका निश्चय करनेवाले धर्मको ज्ञान कहते है। शुद्धनमकी विवक्षामे वस्तुस्वरूपका उपलम्भ करनेवाले धर्मको ही ज्ञान कहा है। ३. जिसके द्वारा द्रव्य गुण पर्यायोको जानते हैं उसे ज्ञान कहते है। (प.७/२,१,३/७२) । स्या,म/१६/२२१/२८ सम्यगवै परीत्येन विद्यतेऽवगम्यते वस्तुस्वरूपमनयेति सवित् । -जिससे यथार्थ रीतिसे वस्तु जानी जाय उसे संवित् (ज्ञान ) कहते हैं। दे० ज्ञान/III/२/११ सम्यग्ज्ञान की ही ज्ञान संज्ञा है। ३. मिथ्यादृष्टिका ज्ञान भतार्थ ग्राहक कैसे हो सकता है ध.१/९/१,१,४/१४२/३ मिथ्यादृष्टीना कथं भूतार्थप्रकाशकमिति चेन्न, सम्यमिथ्यादृष्टीना प्रकाशस्य समानतोपलम्भाद। कथं पुनस्तेऽज्ञानिन इति चेन्न (दे० ज्ञान/III/३/३)-विपर्यय. कथं भूतार्थप्रकाशकमिति चेन्न, चन्द्रमस्युपलभ्यमान द्वित्वस्यान्यत्र सत्त्वस्तस्य भूतत्वोपपत्तेः। = प्रश्न-मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान भूतार्थ प्रकाशक कैसे हो सकता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्यो कि, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के प्रकाशमे समानता पायी जाती है। प्रश्न-यदि दोनोके प्रकाशमे समानता पायी जाती है तो फिर मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञानी कैसे हो सकता है ! उत्तर-(दे० पृ. २६६ ब ) प्रश्न-(मिथ्याष्टिका ज्ञान विपर्यय होता है) वह सत्याथेका प्रकाशक कैसे हो सकता है। उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, चन्द्रमामे पाये जानेवाले द्वित्वका दूसरे पदार्थोंमे सत्व पाया जाता है। इसलिए उस ज्ञानमे भूतार्थता बन जाती है। ४. अनेक प्रकारसे ज्ञान के भेद १. ज्ञान मागणाकी अपेक्षा आठ भेद ष. ख/१/१,१/१ ११५/३५३ णाणाणुवादेण अस्थि मदिअण्णाणी सुद अण्णाणी विभगणाणी आभिणिबोहियणाणी सुदणाणी ओहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलणाणी चेदि । - ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिक ज्ञानी (मति ज्ञानी), शुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन पर्य यज्ञानी और केवलज्ञानी * * * निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान निश्चय सम्यग्ज्ञान निर्देश | मार्गणामें भावशान अभिप्रेत है—दे॰ मार्गणा। निश्चयज्ञानका माहात्म्य । भेद विज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। जो एकको जानता है वही सर्वको जानता है -दे० श्रुत केवली निश्चयज्ञान ही वास्तवमे प्रमाण है---दे० प्रमाण/४ । अभेद ज्ञान या इन्द्रियज्ञान अज्ञान है। आत्मशानके विना सर्व आगमशान व्यर्थ है। निश्चयशानके अपर नाम-दे० मोक्षमार्ग/२/५ । स्वसंवेदन ज्ञान या शुद्धात्मानुभूति-दे० अनुभव । व्यवहार सम्यग्ज्ञान निर्देश व्यवहारज्ञान निश्चयज्ञानका सावन है तथा इसका कारण। आगमज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहना उपचार है। व्यवहार ज्ञान प्राप्तिका प्रयोजन । निश्चय व्यवहार ज्ञान समन्वय निश्चयज्ञानका कारण प्रयोजन । व्यवहार ज्ञानका कारण प्रयोजन -दे० ज्ञान/IV/२/३। निश्चय व्यवहार शानका समन्वय । * * w * ww जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-३३ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान २५८ Iज्ञान सामान्य इसलिए इन्द्रियोंसे ज्ञानको उत्पत्ति मान लेनेपर उनसे जीवकी भी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है। प्रश्न-यदि यह प्रसंग प्राप्त होता है तो होओ। उत्तर-नहीं; क्योंकि अनेकान्तात्मक जात्यन्तर भावको प्राप्त और ज्ञानदर्शन लक्षणवाले जीवमें एकान्तवादियोद्वारा माने गये सर्वथा उत्पाद व्यय व ध्र वत्वका अभाव है। जीव होते हैं । (मू.आ./२२८ ) (पं.का /मू./४१); (रा.बा./६/७/११/ ६०४/८) (द्र.सं./टो./४२) । २. प्रत्यक्ष परोक्षकी अपेक्षा भेद ध. १/१,९,११६/पृ./पं. तदपि ज्ञानं द्विविधम् प्रत्यक्ष परोक्षमिति । परोक्ष द्विविधम, मतिः श्रुतमिति । (३५३/१२) । प्रत्यक्षं त्रिविधम्, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञानं, केवलज्ञानमिति । (१५८५१) १४ वह ज्ञान दो प्रकारका है-प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्षके दो भेद हैं-मतिज्ञान व श्रुतज्ञान । प्रत्यक्षके तीन भेद हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । (विशेष देखो प्रमाण/१ तथा प्रत्यक्ष व परोक्ष)। ३. निक्षेपोंकी अपेक्षा भेद घ.९/४,१,४५/१८४/७ णामट्ठवणादव्यभावभेएण चविहं णाणं ।-नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे ज्ञान चार प्रकारका है-(विशेष दे०निक्षेप। ४. विभिन्न अपेक्षाओंसे मेद रा.वा./१/६/५/३४/२६ चैतन्यशक्तविकारौ ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च । रा.वा./२/५/१४/४१/२ सामान्यादेकं ज्ञानम् प्रत्यक्षपरोक्षभेदार द्विधा. द्रव्यगुणपर्यायविषयभेदाद विधा नामादिविकल्पाच्चतुर्धा, मत्यादिभेदात् पञ्चधा इत्येवं संख्येयासंख्येयानन्तविकल्पं च भवति ज्ञेयाकारपरिणतिभेदात्। -चैतन्य शक्तिके दो आकार हैं-ज्ञानाकार और झेयाकार ।...सामान्यरूपसे ज्ञान एक है, प्रत्यक्ष व परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है, द्रव्य गुण पर्याय रूप विषयभेदसे तीन प्रकारका है। नामादि निक्षेपोंके भेदसे चार प्रकारका है। मति आदिकी अपेक्षा पाँच प्रकारका है। इस प्रकार ज्ञेयाकार परिणतिके भेदसे संख्यात असंख्यात व अनन्त विकल्प होते हैं। द्र.सं./टी./४२/१८३/५ संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारज्ञानमिति । संक्षेपसे हेय व उपादेय भेदोंसे व्यवहार झान दो प्रकारका है। ३. ज्ञानका स्वपर प्रकाशकपना .. स्वपर प्रकाशकपनेकी अपेक्षा ज्ञानका लक्षण प्र.सा/त.प्र/१२४ स्वपरविभागेनावस्थिते विश्वं विकल्पस्तदाकाराव भासनं । यस्तु मुकुरुहृदयाभाग इव युगपदवभासमानस्वपराकारार्थविकल्पस्तन ज्ञान -स्वपरके विभागपूर्वक अवस्थित विश्व 'अर्थ' है। उसके आकारोंका अवभासन 'विकल्प' है। और दर्पणके निजविस्तारको भाँति जिसमें एक ही साथ स्व-पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थ विकल्प 'ज्ञान' है । (पं.ध/पू/५४१) (पं.ध/उ./३६१, ८३७)। २. स्वपर प्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है स.सि/१/१०/६८/४ यथा घटादीनां प्रकाशने प्रदीपो हेतुः स्वस्वरूपप्रका शनेऽपि स एव, न प्रकाशान्तरं मृग्य तथा प्रमाणमपीति अवश्य चैतदभ्युपगन्तव्यम् । जिस प्रकार घटादि पदार्थोके प्रकाश करने में दीपक हेतु है, और अपने स्वरूपके प्रकाश करने में भी वही हेतु है. इसके लिए प्रकाशान्तर नहीं ढूंढना पड़ता। उसी प्रकार प्रमाण भी है, यह बात अवश्य मान लेनी चाहिए । (रा.वा/१/१०/२/१६/२३)। . प.मु/१/१ स्वापूर्थिव्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण /१/-स्व व अपूर्व (पहिलेसे जिसका निश्चय न हो ऐसे ) पदार्थ का निश्चय करानेवाला ज्ञान प्रमाण है। (सि.वि/म१/३/१२) । प्रमाणनयतत्त्वालोकालं कार-स्वपरव्यवसायि ज्ञान प्रमाणम् । स्व-पर व्यवसायी ज्ञानको प्रमाण कहते है। न.दी/१/६२८/२२ तस्मात्स्वपरावभासनसमर्थ सविकल्पकमगृहीतग्राहक सम्यग्ज्ञानमेवाज्ञानमर्थे निवर्त यत्प्रमाणमित्याहतं मतम् । अत. यही निष्कर्ष निकला कि अपने तथा परका प्रकाश करनेवाला सविकल्पक और अपूर्वार्थ ग्राही सम्यग्ज्ञान ही पदार्थोंके अज्ञानको दूर करनेमें समर्थ है। इसलिए वही पमाण है। इस तरह जैन मत सिद्ध हुआ। ३. प्रमाण स्वयं प्रमेय भी है ग.वा./१/१०/१३/५०/३२ तत' सिद्धमेतत -- प्रमेयम् नियमात प्रमेयम्, प्रमाणं तु स्यात्प्रमाणं स्यात्प्रमेयम् इति।= निष्कर्ष यह है कि 'प्रमेय' नियमसे प्रमेय ही है, किन्तु 'प्रमाण' प्रमाण भी है और प्रमेय भी। विशेष दे० प्रमाण ४. निश्चय व व्यवहार दोनों ज्ञान कथंचित् स्वपर प्रकाशक हैं नि.सा/ता.वृ/१५६ अत्र ज्ञानिन. स्वपरस्वरूपप्रकाशकत्वं कथं चिदुक्तम् । ...पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात् ।. ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्वपरप्रकाशकत्वं प्रदीपवद । घटादिप्रमिते. प्रकाशो दीपस्तावद्भिन्नावपि स्वयं प्रकाशस्वरूपत्वात स्वं परं च प्रकाशयति । आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च परं ज्योति.स्वरूपत्वात स्वयंप्रकाशात्मकमात्मानं च प्रकाशयति । अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येवेति सततनिरुपरागनिरंजनस्वभावनिरतत्वात् स्वाश्रितो निश्चय. इति वचनाद । सहजज्ञानं तावत आत्मन' सकाशात संज्ञालक्षणप्रयोजनेन भिन्नाभिधानलक्षणलक्षितमपि भिन्नं भवति न वस्तुवृत्त्या चेति । अतः कारणात एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिक २. ज्ञान निर्देश १. ज्ञानकी सत्ता इन्द्रियोंसे निरपेक्ष है क.पा/१/१,१/६३४/४६/४ करणजणिदत्तादो णेदं णाणं केवलणाणमिदि चे; ण; करणवावारादो पुव्वं णाणाभावेण जीवाभावप्पसंगादो । अत्थि तत्थणाणसामण्ण' ण णाणविसेसो तेण जीवाभावो ण होदि ति चेण; तब्भावलक्रवणसामण्णादो पुधभुदणाणविसेसाणुवलं भादो । - प्रश्नइन्द्रियोस उत्पन्न होनेके कारण मतिज्ञान आदिको केवलज्ञान (के अंश --दे० आगे ज्ञान /I/8/) नहीं कहा जा सकता ? उत्तर-नहीं, क्योंकि यदि ज्ञान इन्द्रियोंसे ही पैदा होता है, ऐसा मान लिया जाये, तो इन्द्रिय व्यापारके पहिले जीवके गुणस्वरूप ज्ञानका अभाव हो जानेसे गुणी जीवके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। प्रश्न-इन्द्रिय व्यापारके पहिले जीवमें ज्ञानसामान्य रहता है, ज्ञानविशेष नहीं, अत. जीवका अभाव नहीं प्राप्त होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, तद्भावलक्षण सामान्य से अर्थात् ज्ञानसामान्यसे ज्ञान विशेष पृथग्भूत नहीं पाया जाता है। क.पा/१/१-१/१४/३ जीवदव्वस्स इंदिएहितो उप्पत्ती मा होउ णाम, किंतु तत्तो णाणमुप्पज्जदि त्ति चे; ण; जोववदिरित्तणाणाभावेण जीवस्स वि उप्पत्तिप्पसंगादो । होदु च, ण: अणेयंतप्पयस्य जीवदव्वस्स पत्तजच्चंतरभावस्स णाणदसणलक्रवणस्स एअंतवाइविसईकय-उप्पायवयधुत्ताणमभावादो।-प्रश्न-इन्द्रियोसे जीव द्रव्यकी उत्पत्ति मत होओ, किन्तु उनसे ज्ञानको उत्पत्ति होती है, यह अवश्य मान्य है। उत्तर-नहीं, क्योकि, जीवसे अतिरिक्त ज्ञान नहीं पाया जाता है, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान २५९ I ज्ञान सामान्य ६. ज्ञानके परप्रकाशकपनेकी सिद्धि प. मु./१/८-६ घटमहमात्मना वेछि। कर्मवत्कत करणक्रियाप्रतीते ।। - मै अपने द्वारा घटको जानता हूँ इस प्रतीतिमें कर्मकी तरह कर्ता, करण व क्रियाकी भी प्रतीति होती है। अर्थात् कर्मकारक जो 'घट' उसही की भॉति कर्ताकारक 'मैं' व 'अपने द्वारा जानना' रूप करण व क्रिया की पृथक् प्रतीति हो रही है। जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपमपि जानाति । यहाँ ज्ञानीको स्व-पर स्वरूपका प्रकाशकपना कथंचित कहा है। पराश्रितो व्यवहारः' ऐसा वचन होनेसे 'इस ज्ञानका धर्म तो, दीपककी भॉति स्वपर प्रकाशकपना है। घटादिकी प्रमितिसे प्रकाश व दीपक दोनों कथ' चित भिन्न होनेपर भी स्वयं प्रकाशस्वरूप होनेसे स्व और परको प्रकाशित करता है; आत्मा भी ज्योति स्वरूप होनेसे व्यवहारसे त्रिलोक और त्रिकाल रूप परको तथा स्वयं प्रकाशस्वरूप आरमाको प्रकाशित करता है। अब ‘स्वाश्रितो निश्चय.' ऐसा वचन होनेसे सतत निरूपरागनिरंजन स्वभावमे लीनताके कारण निश्चय पक्षसे भी स्वपरप्रकाशकपना है ही। (वह इस प्रकार) सहजज्ञान आत्मासे संज्ञा लक्षण और प्रयोजनकी अपेक्षा भिन्न जाना जाता है, तथापि वस्तुवृत्तिसे भिन्न नहीं है। इस कारणसे यह आत्मगत दर्शन मुख चारित्रादि गुणों को जानता है और स्वात्माको अर्थात कारण परमात्माके स्वरूपको भी जानता है। (पं.ध/उ./३६७-३६४) (और भी दे० अनुभव/१२) पं.घ/पू/६६५-६६६ विधिपूर्वः प्रतिषेधः प्रतिषेधपुरस्सरो विधिस्त्वनयोः। मैत्री प्रमाणमिति वा स्वपराकारावगाहि यज्ज्ञानम् ॥६६॥ अयमर्थोऽर्थविकल्पो ज्ञानं किल लक्षणं स्वत्तस्तस्य। एकविकल्पो नयसादुभयविकल्प. प्रमाणमिति बोधः ।६६६१ = विधि पूर्वक प्रतिषेध और प्रतिषेध पूर्वक विधि होती है, किन्तु इन दोनों नयोंकी मैत्री प्रमाण है । अथवा स्वपर व्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण है।६६॥ सारांश यह है कि निश्चय करके अर्थ के आकार रूप होना जो ज्ञान है वह प्रमाणका स्वयसिद्ध लक्षण है । तथा एक (स्व या परके) विकल्पात्मक ज्ञान नयाधीन है और उभयविकल्पात्मक प्रमाणाधीन है । दे० दर्शन२/६-ज्ञान व दर्शन दोनों स्वपर प्रकाशक हैं। ५. ज्ञानके स्व प्रकाशकत्वमें हेतु स.सि/१/१०/६८/६ प्रमेयवत्प्रमाणस्य प्रमाणान्तरपरिकल्पनायां स्वाधिगमाभावाव स्मृत्यभावः। तदभावाद्व्यवहारलोप: स्याद यदि प्रमेयके समान प्रमाणके लिए अन्य प्रमाण माना जाता है तो स्वका ज्ञान नहीं होनेसे स्मृतिका अभाव हो जाता है। और स्मृतिका अभाव हो जानेसे व्यवहारका लोप हो जाता है। लघीयस्त्रय/५६ स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिछेद्यः स्वतो यथा। तथा ज्ञानं स्वहेतूत्थं परिच्छेदात्मकं स्वत. 1-अपने ही कारण उत्पन्न होनेवाले पदार्थ जिस प्रकार स्वतः ज्ञेय होते हैं, उसी प्रकार अपने कारणसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान भी स्वतः ज्ञेयात्मक है। (न्या.वि/१/३/ ६८/१५)। प.मु/१/६-७,१०-१२ स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसाय: ।। अर्थस्मेव तदुन्मुखतया ।७। शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवद ।१० को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छस्तदेव तथा नेच्छेद ।११। प्रदीपवत ।१२। -जिस प्रकार पदार्थकी ओर झुकनेपर पदार्थका ज्ञान होता है, उसी प्रकार ज्ञान जिस समय अपनी ओर झुकता है तो उसे अपना भी प्रतिभास होता है। इसीको स्व व्यवसाय अर्थात ज्ञानका जानना कहते है।६-७ जिस प्रकार घटपटादि शब्दोंका उच्चारण न करनेपर भी घटपटादि पदार्थोंका ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार 'ज्ञान' ऐसा शब्द न कहने पर भी ज्ञानका ज्ञान हो जाता है ।१० घटपटादि पदार्थों का और अपना प्रकाशक होनेसे जैसा दीपक स्वपरप्रकाशक समझा जाता है, उसी प्रकार ज्ञान भी घट पट आदि पदार्थों का और अपना जाननेवाला है. इसलिए उसे भी स्वपरस्वरूपका जाननेवाला समझना चाहिए । क्योंकि ऐसा कौन लौकिक व परीक्षक है जो ज्ञानसे जाने पदार्थको तो प्रत्यक्षका विषय माने और स्वयं ज्ञानको प्रत्यक्षका विषय न माने ।११-१२। ४. ज्ञानके पांचों भेदों सम्बन्धी १.ज्ञानके पाँचों भेद पर्याय हैं ध. १/१,९,१/३७/१ पर्यायत्वात्केवलादीनां - केवलज्ञानादि (पाँचोंज्ञान ) पर्यायरूप है... २. पाँचों भेद ज्ञानसामान्यके अंश हैं घ. १/१,१,१/३७/१ पर्यायत्वारकेवलादीनां न स्थितिरिति चेन्न, अत्रुट्यज्ज्ञानसंतानापेक्षया तत्स्थैर्यस्य विरोधाभावात् । प्रश्न-केवलज्ञानादि पर्यायरूप हैं, इसलिए आवृत अवस्थामें उसका (केवलज्ञानका) सदभाव नहीं बन सकता है 1 उत्तर-यह शंका भी ठीक गहीं है, क्योंकि, कभी भी नहीं टूटनेवाली ज्ञानसन्तानकी (ज्ञान सामान्यकी ) अपेक्षा केवलज्ञानके सदभाव मान लेने में कोई विरोध नही आता है । (दे० ज्ञान/I/४/७)। स. सा./आ/२०४ यदेतत्तु ज्ञानं नामैकं पदं स एष परमार्थः साक्षान्मोक्षोपायः। न चाभिनिबोधिकादयो भेदा इदमेकं पदमिह भिन्दन्ति कितु तेपीदमेवैकं पदमभिनन्दन्ति । -यह ज्ञान (सामान्य) नामक एक पद परमार्थ स्वरूप साक्षात् मोक्षका उपाय है । यहाँ मतिज्ञानादि (ज्ञानके ) भेद इस एक पदको नहीं भेदते किन्तु वे भी इसी एक पदका अभिनन्दन करते हैं । (ध.१/१,१,१/३७/५)। ज्ञानबिन्दु / पृ. १ केवलज्ञानावरण पूर्ण ज्ञानको आवृत करनेके अतिरिक्त मन्दज्ञानको उत्पन्न करनेमें भी कारण है। ३. ज्ञान सामान्यके अंश होने सम्बन्धी शंका ध. ६/१,६-१,५/७/१ ण सव्वावयवेहि णाणस्सुवलंभो होदु त्ति वोत्तुं जुत्तं, आवरिदणाणभागाणमुवलं भविरोहा। आवरिदणाणभागा सावरणे जीवे किमत्थि आहो णत्थि त्ति ।...दनट्ठियणए अवलं बिजमाणे आवरिदणाणभागा सावरणे वि जीवे अस्थि जीवदव्वादो पुधभूवणाणाभावा, विज्जमाणणाणभागादो आवरिदणाणभागाणमभेदादो वा । आवरिदाणावरिदाणं कधगत्तमिदि चे ण, राहु-मेहेहि आवरिदाणावरिदमुज्जिदुमंडलभागाणमेगत्तवलंभा। प्रश्न-यदि सर्व जीवोंके ज्ञानका अस्तित्व सिद्ध है, तो फिर सर्व अवयवोके साथ ज्ञान उपलम्भ होना चाहिए। उत्तर-यह कहना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि, आवरण किये गये ज्ञानके भागोका उपलम्भ मानने में विरोध आता है । प्रश्न-आवरणयुक्त जीवमें आवरण किये गये ज्ञानके भाग है अथवा नहीं है (सत है या असव है)। उत्तर-द्रव्यार्थिक नयके अबलम्बन करनेपर आवरण किये गये ज्ञानके अंश साबरण जीवमें भी होते हैं, क्योकि, जीवसे पृथग्भूत ज्ञानका अभाव है। अथवा विद्यमान ज्ञानके अंशसे आवरण किये गये ज्ञानके अंशोंका कोई भेद नहीं है। प्रश्न-ज्ञानके आवरण किये गये और आवरण नहीं किये गये अंशोके एकता कैसे हो सकती है । उत्तर-नही, क्योकि, राहु और मेघोके द्वारा सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डलके आवरित और अनावरित भागोके एकता पायी जाती है। (रा. वा/८/६/४ ५/५७१/४ )। ४. मतिज्ञानादि भेद केवल ज्ञानके अंश हैं क. पा./१/१,१/६३१/४४/४ ण च केवलणाणमसिद्धः केवलणाणस्स ससवेयणपच्चवखेण णिआहेणुवलं भादो। यदि कहा जाय कि केवल जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान २६० । ज्ञान सामान्य ज्ञान असिद्ध है, सो भी बात नहीं है, क्योकि, स्वस वेद्य प्रत्यक्षके द्वारा केवलज्ञानके अंशरूप ज्ञानकी (मति आदि ज्ञानोको) निधि रूपसे उपलब्धि होती है। क. पा १/१,१/३३७/५६/७ केवलणाणसेसावयवाणमस्थित गम्मदे। तदो आव रिदावयवो सबपज्जवो पच्चक्खाणुमाविसओ होदूण सिद्धो। का केवलज्ञानके प्रगट अशो ( मतिज्ञानादि ) के अतिरिक्त शेष अश्यबोका अस्तित्व जाना जाता है। अत सर्वपर्यायरूप केवलज्ञान अवयवी जिसके कि प्रगट अंशोके अतिरिक्त शेष अवयव आवृत है, प्रत्यक्ष और अनुमानके द्वारा सिद्ध है। अर्थात् उसके प्रगट अंश ( मतिज्ञानादि) स्वसवेदन प्रत्यक्षके द्वारा सिद्ध हैं और आवृत अंश अनुमान प्रमाणके द्वारा सिद्ध हैं। नन्दि सूत्र/४५ केवलज्ञानावृत केवल या सामान्य ज्ञानकी भेद-किरणे भो मत्यावरण, श्रुतावरण आदि आवरणोसे चार भागोमे विभाजित हो जाती है, जैसे मेघ आच्छादित सूर्यको किरणे चटाई आदि आबरणोसे छोटे बड़े रूप हो जाती है । ( ज्ञान बिन्दु/पृ. १)। ५. मतिज्ञानादिका केवलज्ञानके अंश होनेकी विधि साधक शका समाधान सतुवलंभादो। जीवम्मि एक्कं केवलणाणं, तं च णिस्सेसमावरिदं । कत्तो पुण चदुण्णं णाणाणं संभवो। ण, छारण्णच्छग्गीदो अप्फुप्पत्तीए इव सव्वधादिणा आवरणेण आवरिदकेवलणाणादो चदुण्णं णाणाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो। प्रश्न--जीव क्या पाँच ज्ञान स्वभाववाला है या केवलज्ञान स्वभाववाला है। उत्तर-जीव केवलज्ञान स्वभाववाला ही है। फिर भी ऐसा माननेपर आवरणीय शेष ज्ञानोंका (स्वभाव रूपसे ) अभाव होनेसे उनके आवरण कर्मोका अभाव नहीं होता, क्योकि केवलज्ञानावरणीयके द्वारा आवृत हुए भी केवलज्ञानके (विषयभूत) रूपी द्रव्योको प्रत्यक्ष ग्रहण करनेमें समर्थ कुछ ( मतिज्ञानादि ) अवयवोको सम्भावना देखी जाती है।.. इन चार ज्ञानों के जो जो आवरक कर्म है वे मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय और मन.पर्ययज्ञानावरणीय कर्म कहे जाते हैं। इसलिए केवलज्ञानस्वभाव जीवके हनेपर भो ज्ञानावरणीयके पाँच भेद है, यह सिद्ध होता है । प्रश्न केवलज्ञानावरणीय कम क्या सर्वघाती है या देशघाती। उत्तर-केवल ज्ञानावरणीय देशघाती तो नहीं है, किन्तु सर्वधाती ही है, क्योंकि वह केवलज्ञानका नि.शेष आवरण करता है। फिर भी जीवका अभाव नहीं होता, क्योकि केवल ज्ञानके आवृत होनेपर भी चार ज्ञानोंका अस्तित्त्र उपलब्ध होता है । प्रश्न-जीवमें एक केवलज्ञान है। उसे जब पूर्णतया आवृत कहते हों, तब फिर चार ज्ञानोका सद्भाव कैसे सम्भव हो सकता है। उत्तरनही, क्योकि जिस प्रकार राखसे ढकी हुई अग्निसे वाष्पकी उत्पत्ति होती है उसी प्रकार सर्वघाती आवरणके द्वारा केवलज्ञानके आवृत होनेपर भी उससे चार ज्ञानोकी उत्पत्ति होनेमे कोई विरोध नहीं आता है। दे ज्ञान/२/१ प्रश्न-इन्द्रिय ज्ञानसे उत्पन्न होनेवाले मतिज्ञान आदिका केवलज्ञानके अंश नहीं कह सकते ? उत्तर-(ज्ञान सामान्यका अस्तित्व इन्द्रियोकी अपेक्षा नहीं करता।) ध. १/१,१,१/३७/४ रजोजुषां ज्ञानदर्शने न मगलीभूतके वलज्ञानदर्शनयोरवयवाविति चेन्न, ताभ्यां व्यतिरिक्तयोस्तयोरसत्त्वात् । मत्यादयोऽपि सन्तोति चेन्न तदवस्थानां मत्यादिव्यपदेशात् । तयोः केवलज्ञानदर्शाङ्करयोर्मगलत्वे मिथ्यादृष्टिरपि मंगलं तत्रापि तौ स्त इति चेभवतु तद्रूपतया मंगलं, न मिथ्यात्वादीनां मंगलम् । कथं पुनस्तज्ज्ञानदर्शनयोर्मगलत्वमिति चेन्न .. पापक्षयकारित्वतस्तयोरुपपत्ते । प्रश्न-आवरणसे युक्त जीवो के ज्ञान और दर्शन मगलीभूत केवलज्ञान और केवलदर्शनके अवयव ही नहीं हो सकते हैं। उत्तर ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योकि, केवलज्ञान और केवलदर्शनसे भिन्न ज्ञान और दर्शनका सद्भाव नहीं पाया जाता । प्रश्न-उनसे अतिरिक्त भी ज्ञानादि तो पाये जाते हैं। इनका अभाव कैसे किया जा सकता है । उत्तर-उस ( केवल ) ज्ञान और दर्शन सम्बन्धी अवस्थाओकी मतिज्ञानादि नाना संज्ञाएँ है। प्रश्न-केवलज्ञानके अंकुररूप छद्मस्थोके ज्ञान और दर्शनको मगलरूप मान लेनेपर मिथ्यादृष्टि जीव भी मंगल संज्ञाको प्राप्त होता है, क्योकि , मिथ्यादृष्टि जीवमें भी वे अंकुर विद्यमान है। उत्तर-यदि ऐसा है तो भले ही मिथ्यादृष्टि जीयको ज्ञान और दर्शनरूपसे मंगलपना प्राप्त हो, किन्तु इतनेसे ही ( उसके) मिथ्यात्व अविरति आदिको मगलपना प्राप्त नहीं हो सकता है। प्रश्न-फिर मिथ्यादृष्टियो के ज्ञान और दर्शनको मंगलपना कैसे है । उत्तर-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियोके ज्ञानदर्शनकी भॉति मिथ्यादृष्टियो के ज्ञान और दर्शनमें पापका क्षयकारीपना पाया जाता है। ध. १३/५.५,२१/२१३/६ जीवो कि पंचणाणसहावो आहो केवलणाणसहावो त्ति ।...जीवो केवलणाणसहावो चेव । ण च सेसावरणाणमावरणिज्जाभावेण अभावो, केवलणाणवरणीएण आवरिदस्स वि केवलणाणस्स रूविदवाणं पच्चक्रवग्गहणक्रवमाणमवयवाणं संभवदंसणादो ..एदेसि चदुणं णाणाणं जामावारयं कम्मं तं मदिणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं ओहिणाणावरणीयं मणपज्जवणाणावरणीयं च भण्णदे । तदो केवलणाणसहावे जीवे सते विणाणावरणीयपंच भावो त्ति सिद्ध । केवलणाणावरणीय कि सबघादी आहो देसघादी।...ण ताव केवलणाणावरणीयं देसघादो, कितु सव्वषादी चेष, णिस्सेमावरिदकेबल णाणत्तादो। ण च जीवाभावो, केवलणाणेण आवरिदेवि चण्णं णाणाण ६ मत्यादि ज्ञान कंवलज्ञानके अंश नहीं हैं ध७/२,१,४७/६०/३ ण च छारेणोठ्ठद्धग्गिविणिग्गयबप्फाए अग्गिववएसो अग्गिबुद्धी वा अग्गिववहारो वा अत्थि अणुवलं भादो। तदो णेदाणि णाणाणि केवलणाणं । भस्मसे ढकी हुई अग्नि (देखो ऊपरवाली शका) से निकले हुए वाष्पको अग्नि नाम नहीं दिया जा सक्ता, न उसमें अग्निकी बुद्धि उत्पन्न होती है, और न अग्निका व्यवहार ही, क्यो कि वैसा पाया नहीं जाता। अतएव ये सब मति आदि ज्ञान केवलज्ञान नहीं हो सकते। ७. मत्यादि ज्ञानोंका केवलज्ञानके अंश होने व न होने का समन्वय । घ १३/११.२१/२१५/४ एदाणि चत्तारि विणाणाणि केवलणाणस्स अवयवा ण होति, विगलाणं परोक्रवाणं सक्खयाणं सवड्ढीणं सगलपच्चवरखक्खयबडि ढहाणिविवज्जिदकेवलणाणस्स अवयवत्तविरोहादो। पुवं केवलणाणस्स चत्तारि वि णाणाणि अवयवा इदि उत्तं, तं कधं धडदे । ण, णाणसामण्णयवेक्खिय तदवयवक्त पडि विरोहाभावादो। =प्रश्न-ये चारों ही ज्ञान केवलज्ञानके अवयव नहीं, क्योंकि ये विकल हैं, परोक्ष है, क्षय सहित है और वृद्धिहानि युक्त हैं। अतएव इन्हे सकल, प्रत्यक्ष तथा क्षय और वृद्धिहानिसे रहित केवल ज्ञानके अवयव मानने में विरोध आता है। इसलिए जो पहिले केवलज्ञानके चारों ही ज्ञान अवयव कहे हैं, वह कहना कैसे बन सकता है। उत्तर-नहीं; क्योकि, ज्ञानसामान्यको देखते हुए चार ज्ञानको उसके अवयव मानने में कोई विरोध नहीं आता। -दे० ज्ञान/I/२/१ । ८. सामान्य ज्ञान केवलज्ञानके बराबर है प्रसा./त प्र./४८ समस्तं ज्ञेयं जानन् ज्ञाता समस्तज्ञे यहेतुकसमस्तज्ञेयाकारपर्यायपरिणतसकलै कज्ञानाकारं चेतनत्वात् स्वानुभवप्रत्यक्षमात्मानं परिणमति । एवं किल द्रव्यस्वभाव.। =(समस्त दाह्याकार जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान २६१ II भेद व अभेद ज्ञान पर्यायरूप परिणमित सकल एक दहन वत) समस्त ज्ञेयको जानता हुआ ज्ञाता (केवलज्ञानी) समस्त ज्ञेयहेतुक समस्तज्ञेयाकारपर्यायरूप परिणमित सकल एक ज्ञान जिसका (स्वरूप) है, ऐसे निजरूपसे जो चेतनाके कारण स्वानुभव प्रत्यक्ष है, उसरूप परिणमित होता है। इस प्रकार वास्तवमे द्रव्यका स्वभाव है। पं.ध./पू./१६०-१९२ न घटाकारेऽपि चित. शेषांशानां निरन्बयो नाश । लोकाकारेऽपि "चितो नियतांशानां न चासदुत्पत्ति । - ज्ञानको घटके आकारके बराबर होनेपर भी उसके घटाकारसे अतिरिक्त शेष अंशोका जिस प्रकार नाश नहीं हो जाता। इसी प्रकार ज्ञानके नियत अंशोंको लोकके बराबर होनेपर भी असतकी उत्पत्ति नहीं होतो 1१६१। किन्तु घटाकार वही ज्ञान लोकाकाशके बराबर होकर केवलज्ञान नाम पाता है ।१०।। ९. पाँचों ज्ञानोंको जाननेका प्रयोजन नि.सा./ता.वृ./१२ उक्तेषु ज्ञानेषु साक्षान्मोक्षमूलमेकं निजपरमतत्वनिष्ठ सहजज्ञानमेव । अपि च पारिणामिकभावस्वभावेन भव्यस्य परमस्वभावत्वात् सहजज्ञानादपरमुपादेयं न शमस्ति । = उक्त ज्ञानों में साक्षात मोक्षका मूल निजपरमतत्त्वमें स्थित ऐसा एक सहज ज्ञान ही है। तथा सहजज्ञान पारिणामिक्भावरूप स्वभावके कारण भव्यका परमस्वभाव होनेसे, सहजज्ञानके अतिरिक्त अन्य कुछ उपादेय नहीं है। II भेद व अभेद ज्ञान १.भेद व अभेद ज्ञान १. भेद ज्ञानका लक्षण स. सा./मू /१८१-१८३ उवओगे उवओगो कोहादिनु णरिथ को वि उवओगो। कोहो कोहो चेव हि उबओगे णस्थि खलु कोहो ।१८१। अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उबओगो। उवओमम्मि य कम्म गोकम्मं चावि णो अत्थि ।१८२। एयं दु अविवरीदं णाणे जइया दु होदि जीवस्स । तइया ण किचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा 1१८३ स.सा./आ./१८१-१८३ ततो ज्ञानमेव ज्ञाने एव क्रोधादय एव क्रोधादिप्वेवेति साधु सिद्धभेद विज्ञानम् । = उपयोग उपयोगमें है क्रोधादि (भावकों) में कोई भी उपयोग नहीं है। और क्रोध (भाव कर्म) क्रोधमें ही है, उपयोगमे निश्चयसे क्रोध नहीं है ।१८। आठ प्रकारके (द्रव्य ) कर्मोमें और नोकर्ममें उपयोग नही है और उपयोगमें कर्म तथा नोकर्म नही है ।१८। ऐसा अविपरीत ज्ञान जब जीवके होता है तब वह उपयोगस्वरूप शुद्धात्मा उपयोगके अतिरिक्त अन्य किसी भी भावको नहीं करता ।१८३। इसलिए उपयोग उपयोगमें ही है और क्रोध क्रोधमें ही है, इस प्रकार भेदविज्ञान भलीभॉति सिद्ध हो गया। चा.पा./मू./३८ जीवाजीवविहत्ती जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी। रायादिदोसरहिलो जिणसासणे मोक्रवमग्गुत्ति ।३८ -- जो पुरुष- जीव और अजीव (दव्य कर्म, भावकर्म व नोकर्म) इनका भेद जानता है वह सम्यग्ज्ञानी होता है। रागादि दोषोसे रहित वह भेद ज्ञान हो जिनशासनमे मोक्षमाग है । (मो.पा./मू./४१)। प्र.सा/ता.व./५/६/१६ रागादिभ्यो भिन्नोऽयं स्वात्मोत्थसुखस्वभावः परमात्मेति भेदविज्ञानं । -रागादि भिन्न यह स्वात्मोत्थ सुखस्व भावी आत्मा है, ऐसा भेद विज्ञान होता है। स्व.स्तो/टी./२२/५५जीवादितत्त्वे सुखादिभेदप्रतीतिर्भ दज्ञानं । जीवादि सातों तत्वोमें सुखादिकी अर्थात् स्वतत्त्वकी स्वसंवेदनगम्य पृथक् प्रतीति होना भेदज्ञान है। १०. पाँचों ज्ञानोंका स्वामित्व (ष. वं.१/१०१/सू.११६-१२२/३६१-३६७) सूत्र ज्ञान जीव समास गुणस्थान १-२ १२० मति कुमति व कुश्श्रुति | सर्व १४ जीवसमास १-२ ११०-११८ | विभंगावधि संज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त । मति, श्रुति, अवधि | संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच व मनुष्य पर्या. अपर्या. |४-१२ मन. पर्यय संज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त मनु ६-१२ १२२ केवलज्ञान | संज्ञी पर्याप्त, अयोगी- १३,१४, | की अपेक्षा सिद्ध ११६ मति, श्रुत, अवधि संज्ञो पर्याप्त ज्ञान अज्ञान मिश्रित १२१ 3 . २. अभेद ज्ञानका लक्षण वृ द्र.सं./टी./२२/५५ सुखादौ, बालकुमारादौ च स एवाहमित्यात्मद्रव्यस्याभेदप्रतीतिरभेदज्ञानं । - इन्द्रिय सुख आदिमें अथवा बाल कुमार आदि अवस्थाओमें, 'यह ही मै हूँ' ऐसी आत्मद्रव्यकी अभेद प्रतीति होना अभेद ज्ञान है। (विशेष-दे० सत्)। ११. एक जीवमें युगपत् सम्भव ज्ञान त.सू./१/३० एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः ॥३०॥ रा.वा/६/३०/४,६/६०-६१ एते हि मतिश्रुते सर्वकालभव्यभिचारिणी नारदपर्वतवत । (४/१०/२६)। एकस्मिन्नात्मन्येकं केवलज्ञानं क्षायिकत्वात् ।(१०/११/२४)। एकस्मिन्नात्मनि द्वे मतिश्रुते । कचित् त्रीणि मतिश्रुतावधिज्ञानानि, मतिश्रुतमनःपर्ययज्ञानानि वा कचिच्चत्वारि मतिश्रुताव धिमन पर्ययज्ञानानि । न पञ्चै कस्मिन् युगपद संभवन्ति 118/8१/१७) -१. एकको आदि लेकर युगपत एक आत्मामे चार तक ज्ञान होने सम्भव है। २. वह ऐसे-मति और श्रुत तो नारद और पर्वतकी भॉति सदा एक साथ रहते है । एक आत्मामें एक ज्ञान हो तो केवल ज्ञान होता है क्योकि वह क्षायिक है, दो हों तो मतित: तीन हों तो मति, श्रुत, अवधि अथवा मति, श्रुत, मन पर्यय; चार हो तो मति, श्रुत, अवधि, और मनःपर्यय। एक आत्मामे पाँचों ज्ञान युगपत् कदापि सम्भव नही है । ३. भेद ज्ञानका तात्पर्य षटकारकी निषेध प्र.सा./मू./१६० णाहं देहो ण मणो ण चैव वाणी ण कारणं तेसि । कत्ता ण ण कारयिदा अणूमता णेव कत्ताणं ।१६०।-मैं न देह हूँ, न मन हूँ, और न वाणी हूँ। उनका कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं हूँ, करानेवाला नहीं हूँ और कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ। (स.श./मू./५४)। स./सा/i/३२३/क २०० नास्ति सर्वोऽपि संबन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः । कर्तृ कर्मत्वसंबन्धाभावे तत्क्तृता कुतः ।२००। स.सा/आ/३२५/क२०१ एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्ध. संबन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्ध । तत्क्र्तृ कर्म घटनास्ति न वस्तुभेदः पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।२०१। पर द्रव्य और आत्मतत्त्वका कोई भी सम्बन्ध नही है, तब फिर उनमें कर्ताकर्म सम्बन्ध कैसे हो सकता है। और उसका अभाव होनेसे आत्माके परद्रव्यका कर्तृत्व कहाँसे हो सकता है ।२००। क्योकि इस लोकमें एक बस्तुका अन्य वस्तुके साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध किया गया है. इसलिए जहाँ वस्तुभेद है अर्थात् भिन्न वस्तुएं हैं यहाँ कर्ताकर्म पना जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान २६२ III सम्यक् मिथ्या ज्ञान धटित नहीं होता। इस प्रकार मुनि जन और लौकिकजन तत्त्वको अकर्ता देखो ।२०१। ४. स्वभावभेदसे ही भेद ज्ञानकी सिद्धि है स्या.म/१६/२००/१३ स्वभावभेदमन्तरेणान्यव्यावृत्तिभेदस्यानुपपत्ते । वस्तुओंमें स्वभावभेद माने बिना उन वस्तुओंमें व्यावृत्ति नहीं बन सकती। ५. संज्ञा लक्षण प्रयोजनकी अपेक्षा अभेदमें भी भेद पं.का/ता.वृ/५०/६६/७ गुणगुणिनोः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि प्रदेश भेदाभावादपृथग्भूतत्वं भण्यते।=गुण और गुणी में संज्ञा लक्षण प्रयोजनादिसे भेद होनेपर भी प्रदेशभेदका अभाव होनेसे उनमें अपृथकभूतपना कहा जाता है। पं.का/ता.वृ/१५४/२२४/११ सहशुद्धसामान्यविशेषचैतन्यात्मकजीवास्तित्वात्सकाशात्संज्ञालक्षणप्रयोजनभेदेऽपि द्रव्यक्षेत्रकालभावैरभेदादिति -सहज शुद्ध सामान्य तथा विशेष चैतन्यात्मक जीवके दो अस्तित्वोंमें (सामान्य तथा विशेष अस्तित्वमे) संज्ञा लक्षण व प्रयोजनसे भेद होनेपर भी द्रव्य क्षेत्र काल व भावसे उनमे अभेद है । (प्र.सा/त.प्र/९७) III सम्यक मिथ्या ज्ञान १. भेद व लक्षण १. सम्यक् व मिथ्याकी अपेक्षा ज्ञानके भेद त.सू/१/१,३१ मतिश्रुतावधिमन.पर्ययकेवलानि ज्ञानम् । मतिश्रुताव धयो विपर्ययश्च ।३१मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान हैं ।। मति श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान विपर्यय अर्थात मिथ्या भी होते हैं ।३१। (पं.का/म/४१/) । (द्र.सं/म/)। गो.जी/मू/३००-२०११६५० चेव होंति णाणा मदिसुदओहिमणं च केवलयं । खयउक्स मिया चउरो केवलणाण हवे खइयं ।३००। अण्णाणतियं होदि हुसण्णाणतियं खुमिच्छ अणउदये ।...३०११-मति, श्रुत, अवधि, मन.पर्यय और केवल ये सम्यग्ज्ञान पाँच ही हैं। जे सम्यग्दृष्टिक मति श्रुत अवधि ए तीन सम्यग्ज्ञान हैं तेई तीनों मिथ्यात्व वा अनन्तानुबन्धी कोई कषायके उदय होते तत्वार्थका अश्रद्धानरूप परिणया जीव के तीनों मिथ्याज्ञान हो है। उनके कुमति, कुश्रुत और विभंग ये नाम हो है। २. सम्यग्ज्ञानका लक्षण १. तत्त्वार्यके यथार्थ अधिगमकी अपेक्षा पं.का/मू./१०७ तेसिमधिगमो णाणं ।...१०७। उन नौ पदार्थोंका या सात तत्त्वोंका अधिगम सम्यग्ज्ञान है । (मो.पा./मू./३८)। स.सि./१/१/५/६ येन येन प्रकारेण जीवादयः पदार्था व्यवस्थितास्तेन तेनावगम सम्यग्ज्ञानम् ।-जिस जिस प्रकारसे जीवादि पदार्थ अवस्थित हैं उस उस प्रकारसे उनका जानना सम्यग्ज्ञान है। (रा वा/१/ १/२/४/६) । (प.प्र /मू/२/२६) (ध.१/१,१,१२०/३६४/५) । रा.वा /१/१/२/४/३ नयप्रमाणविकल्पपूर्वको जीवाद्यर्थयाथात्म्यावगम. सम्यग्ज्ञानम् । -नय व प्रमाणके विकल्प पूर्वक जीवादि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। (न.च वृ./३२६) । स.सा./आ./१५५ जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम् । जीवादि पदार्थोके ज्ञानस्वभावरूप ज्ञानका परिणमन कर सम्यग्ज्ञान है। २. संशयादि रहित शानकी अपेक्षा र.क.पा./४२ अन्यूनमन तिरिक्त याथातथ्यं विना च विपरीता। निःसंदेहं वेद यंदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ।४२। जो ज्ञान वस्तुके स्व रूपको न्यूनतारहित तथा अधिकतारहित, विपरीततारहित, जैसाका तैसा, सन्देह रहित जानता है, उसको आगमके ज्ञाता पुरुष सम्यग्ज्ञान कहते हैं। स.सि./१/१/५/७ विमोहसंशयविपर्ययनिवृत्त्यर्थ सम्यग्विशेषणम्। - ज्ञानके पहिले सम्यग्विशेषण विमोह (अनध्यवसाय) संशय और विपर्यय ज्ञानोंका निराकरण करनेके लिए दिया गया है। (रा.वा/१/ १/२/४/७) । (न.दी./१/8418)। द्र.सं./मू/४२ संसयविमोहविन्भमविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स। गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु।४।आत्मस्वरूप और अन्य पदार्थके स्वरूपका जो संशय विमोह और विभ्रम (विपर्यय) रूप कुज्ञानसे रहित जानना है वह सम्यग्ज्ञान है । (स.सा /ता.वृ./१५५) । ३. भेद शानकी अपेक्षा मो.पा./मू/४१ जीवाजीवविहत्ती जोइ जाणेइ जिणवरमएणं । ते सण्णाणं भणियं भवियत्यं सव्वदरिसीहिं ।४। जो योगी मुनि जीव अजीव पदार्थ का भेद जिनवरके मतकरि जाणे है सो सम्यग्ज्ञान सर्वदर्शी कह्या है सो ही सत्यार्थ है। अन्य छद्मस्थका कह्या सत्यार्थ नाहीं। (चा.पा./५/३८)। सि.वि./वृ./१०/१६/६८४/२३ सदसद्व्यवहारनिबन्धनं सम्यग्ज्ञानम् । सत् और असत् पदाथोंने व्यवहार करनेवाला सम्यग्ज्ञान है। नि.सा /ता.वृ./५१ तत्र जिनप्रणीतइयोपादेयतत्त्वपरिच्छित्तिरेव सम्य रज्ञानम् । जिन प्रणीत हेयोपादेय तत्त्वों का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। द्र.सं./टी./४२/१८३/३ सप्ततत्त्वनवपदार्थेषु 'मध्य' निश्चयनयेन स्वकीयशुद्धात्मद्रव्यं...उपादेय'। शेषं च हेयमिति संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारज्ञानमिति । =सात तत्त्व और नौ पदार्थों में निश्चयनयसे अपना शुद्धात्मद्रव्य ही उपादेय है। इसके सिवाय शुद्ध या अशुद्ध परजीव अजीव आदि सभी हेय है। इस प्रकार संक्षेपसे हेय तथा उपादेय भेदोसे व्यवहार ज्ञान दो प्रकारका है। सं.सा./ता.व./१५५ तेषामेव सम्यकपरिच्छित्तिरूपेण शुद्धात्मनो भिन्नत्वेन निश्चय' सम्यग्ज्ञानं । उन नवपदार्थोंका ही सम्यक् परिच्छित्ति रूप शुद्धात्मासे भिन्नरूपमें निश्चय करना सम्यग्ज्ञान है। और भी देखो ज्ञान /II/१-(भेद ज्ञानका लक्षण) ४. स्वसंवेदकी अपेक्षा निश्चय लक्षण त.सा./१/१८ सम्यग्ज्ञानं पुनः स्वार्थव्यवसायात्मकं विदुः ।...|१८| - ज्ञानमें अर्थ (विषय) प्रतिबोधके साथ-साथ यदि अपना स्वरूप भी प्रतिभासित हो और वह भी यथार्थ हो तो उसको सम्यग्ज्ञान कहना चाहिए। प्र. सा./त.प्र.५ सहजशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावात्मतत्त्वश्रद्धानावबोधलक्षण सम्यग्दर्शनज्ञानसंपादकमाश्रम...|= सहज शुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाववाले आत्मतत्त्वका श्रद्धान और ज्ञान जिसका लक्षण है, ऐसे सम्यग्द र्शन और सम्यग्ज्ञानका सम्पादक है... नि.सा/ता.वृ./३ ज्ञानं तावत तेषु त्रिषु परद्रव्यनिरवलम्बनत्वेन निःशेषतान्तर्मुखयोगशक्तेः सकाशात निजपरमतत्त्वपरिज्ञानम् उपादेयं भवति। -परद्रव्यका अवलम्बन लिये बिना निशेष रूपसे अन्तर्मुख योगशक्तिमे-से उपादेय ( उपयोगको सम्पूर्ण रूपसे अन्तर्मुख करके ग्रहण करने योग्य ) ऐसा जो निज परमात्मतत्त्वका परिज्ञान सो ज्ञान है। स.सा./ता.वृ/३८ तस्मिन्नेव शुद्धात्मनि स्वसंवेदन' सम्यग्ज्ञानं । उस शुद्धात्ममें हो स्वसंवेदन करना सम्यग्ज्ञान है। (प्र.सा./ता.व./२४०/ ३३३/१६)। द्र.सं./टी./४२/१८४/४ निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानमेव निश्चयज्ञान भण्यते। -निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान ही निश्चयज्ञान है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान प्र.सं./टी./५/२/२१०/१९१ तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वसंवेदनक्षमभेदज्ञानेन मिध्यात्वरागादिपरभावेभ्य पृथक्परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञान :उस शुद्धात्माको उपाधिरहित स्वसंवेदनरूप भेदज्ञानद्वारा मिध्यारागादि परभावोसे भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है । द्र. सं /टी./४०/१६३/११ तस्यैव सुखस्य समस्त विभावेभ्यः पृथक् परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानम् | उसी (अतीन्द्रिय) सुखका रागादि समस्त विभावोंसे स्वसंवेदन ज्ञानद्वारा भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है । दे० अनुभव /९/२ (स्मसंवेदनका लक्षण)। ३. मिध्याज्ञान सामान्यका लक्षण स.सि /१/३१/१३७/३ विपर्ययो मिथ्येत्यर्थः । कुतः पुनरेषां विपर्यय' । मिथ्यादर्शनेन सहैकार्थ समयायात् सरजस्ककटुकालाडुगतदुग्ध्वस ('मतिश्रुता विपर्ययश्च ) हस सूत्रमे जाये हुए विपर्यय शब्दका अर्थ मिथ्या है । मति श्रुत व अवधि ये तीनों ज्ञान मिथ्या भी हैं. और सम्यक् भी। प्रश्न- ये विपर्यय क्यों है ? उत्तर - क्योंकि मिथ्यादर्शन के साथ एक आत्मा में इनका समवाय पाया जाता है। जिस प्रकार रज सहित कडवी तू बडी में रखा दूध कडवा हो जाता है उसी प्रकार मिथ्यादर्शनके निमित्तसे ये मिथ्या हो जाते हैं । ( रा. वा./१/३१/१/११/३० ) । २६३ श्लो. वा. ४/१/३१/८/१९५ स च सामान्यतो मिथ्याज्ञानमत्रोपवर्ण्यते । किन संगृहीयते सूत्र में विपर्यय शब्द सामान्य रूप से सभी मिथ्याज्ञानो स्वरूप होता हुआ मिथ्याज्ञानके संशय विपर्यय और अनध्यवसाय इन तीन भेदोंके संग्रह करनेके लिए दिया गया है। घ. १२/४,२,८,१०/२८६/५ बौद्ध-नैयायिक-सांख्य-मीमांसक - चार्वाक - वैशेषिकादिदर्शनरुच्यतुविद ज्ञानं मिथ्याज्ञानम् - नया यिक, सांख्य, मीमांसक, चार्वाक और वैशेषिक आदि दर्शनोंकी रुचिसे सम्बद्ध ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है । न. च. वृ / २३८ ण मुणह वत्थुसहावं अहविवरीयं णिखक्खदो मुणइ । तं इह मिच्छणाणं विवरीयं सम्मरूव खु । २३८ | = जो वस्तुके स्वभावको नहीं पहचानता है अथवा उलटा पहिचानता है या निरपेक्ष पहिचानता है वह मिथ्याज्ञान है। इससे विपरीत सम्यग्ज्ञान होता है । नि. सा/ ता. वृ/११ तत्रैवावस्तुनि वस्तुबुद्धिर्मिप्याज्ञानं । अथवा स्वात्मपरिज्ञानविमुखत्वमेव मिध्याज्ञान उसी (अर्हन्तमार्ग से प्रतिकूल मार्ग में ) कही हुई अवस्तुमें वस्तुबुद्धि वह मिथ्याज्ञान है, अथवा निजात्माके परिज्ञानसे विमुखता वही मिथ्याज्ञान है । द्र. सं/ टी / ५ /१४/१० अष्टविकल्पमध्ये मतिश्रुतावधयो मिथ्यात्वोदयवशाद्विपरीताभिनिवेशरूपाण्यज्ञानानि भवन्ति उन आठ प्रकारके ज्ञानमति श्रुत, तथा अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्यात्व के उदयसे विपरीत अभिनिवेशरूप अज्ञान होते है । " २. सम्यक व मिथ्याज्ञान निर्देश १. सम्यग्ज्ञानके आठ अंगका नाम निर्देश सू. आ./२६६ काले विगए उहाले महगाने सहेब हिन पंज अन्य तदुभयं पापाचारी दुअविहो [२०] स्वाध्यायका मनवचन कायसे शास्त्रका विनय, यत्न करना पूजासत्कारादिसे पाठादिक करना, तथा गुरु या शास्त्रका नाम न छिपाना, वर्ण पद वाक्यको शुद्ध पढना, अनेकान्त स्वरूप अर्थ को ठीक ठीक समझना, तथा अर्थको ठीक ठीक समझते हुए पाठादिक शुद्ध पढना इस प्रकार (क्रम से काल, विनय, उपधान, बहुमान, तथा निह्नव, व्यञ्जन शुद्धि, अर्थ III सम्यक् मिथ्या ज्ञान शुद्धि, तदुभय शुद्धि; इन आठ अंगोंका विचार रखकर स्वाध्याय करना मै) ज्ञानाधारके आठ भेद है। (और भी दे० विनय /२/६ (पु. सि. उ. ३६) १ २. सम्यग्ज्ञानकी भावनाएँ पु. २९/१६ मा सानुप्रेक्षणं परिवर्तन सम्रदेशनं चेति ज्ञातव्या ज्ञानभावना | ६| जैन शास्त्रोंका स्वयं पढना, दूसरों से पूछना, पदार्थ के स्वरूपका चिन्तवन करना, श्लोक आदि कण्ठ करना तथा समीचीन धर्मका उपदेश देना ये पॉच ज्ञानको भावनाएँ जाननी चाहिए। नोट- (इन्हीं त.सू./६/२४ मे स्वाध्याय के भेद कहकर गिनाया है।) ३. पाँचों ज्ञानों में सम्यग्मिथ्यापनेका नियम त.सू./१/१,११ मतिभूताधिमनः पर्वतानि ज्ञानम् मतिश्रुता विपर्ययश्च ॥ ३१॥ मति श्रुत अवधि मनपर्यय व केवल ये पाँच ज्ञान हैं। इनमें से मति श्रुत और अवधि ये तीन मिथ्या भी होते है और सम्यक भी शेष दो सम्यक ही होते है | ११ | स्लोवा./४/१/३१/३-१०/११४ मादयः समाख्यातास्तएवेत्यवधा रणात् गृह्यते कदाचिन्न मन परयकेवले ॥३॥ नियमेन तयोः सम्यग्भावनिर्णयत सदा । मिथ्यात्व कारणाभावाद्विशुद्धात्मनि सम्भवाद 181 मताविज्ञान किं तु स्यात्कदाचन। मिथ्येति ते व निर्दिष्टा विपर्यय इहाङ्गिनाम् || समुच्चिनोति चस्तेषां सम्यक्त्वं व्यवहारिक मुख्यं तदनुक्ती तु तेषां मिध्यात्वमेव हि ते विपर्यय एवेति सूत्रे चेन्नावधार्यते । चशब्दमन्तरेणापि सदा सम्यवत्वमत्वतः | १०|-मति आदि तीन ज्ञान ही मिथ्या रूप होते है: मनःपर्यय व केवलज्ञान नहीं, ऐसी सूचना देनेके लिए ही सूत्र में अवधारणार्थ 'च' शब्दका प्रयोग किया है 1३1 - वे दोनो ज्ञान नियम से सम्प ही होते हैं, क्योंकि मिध्यात्व के कारणभूत मोहनीयकर्मका अभाव होनेसे विशुद्धात्मामें ही सम्भव है |४| मति, श्रुत व अवधि ये तोन ज्ञान तो कभी कभी मिथ्या हो जाते है। इसी कारण सूत्रमे उन्हें विपर्यय भी कहा है 191 'च' शब्द से ऐसा भी संग्रह हो जाता है कि यद्यपि मिध्यादृहिके भी मति आदि ज्ञान व्यवहारमें समीचीन कहे जाते है, परन्तु मुख्यरूपसे तो वे मिथ्या ही हैं | यदि सूत्रमें च शब्दका ग्रहण न किया जाता तो वे तीनों भी सदा सम्यकरूप समझे जा सकते वे विपर्यय और इन दोनो शब्दोंसे उनके मिथ्यापकी भी सूचना मिलती है | १०| ४. सम्यग्दर्शन पूर्वक हो सम्यग्ज्ञान होता है ? रसा./४७ सम्भविणा सण्णानं सच्चारित न होइ नियमेण सम्यग्दर्शनके बिना सम्यग्ज्ञान व सम्यचारित्र नियमसे नहीं होते हैं। स.सि / २ /१/७/२ कथमम्यहि हानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वाद कथमभ्यर्हितत्वं । प्रश्न- सम्यग्दर्शन पूज्य क्यो है उत्तर- क्योकि सम्यग्दर्शनसे ज्ञानमें समीचीनता आती है। (पं. घ. / इ./७६७) । .सि./२९.३२त्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखितयत्नेन तस्मि सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च । २१। पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य लक्षणभेदेन यतो नानाखं संभवरपनयो । ३२ = इन तीनों दर्शन ज्ञान चारित्रमें पहिले समस्त प्रकार के उपायोंसे सम्यग्दर्शन भलेप्रकार अंगीकार करना चाहिए, क्योंकि इसके अस्तित्व में ही सम्यग्ज्ञान और सम्यग्वारित्र होता है ॥२१॥ यद्यपि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ये दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं, तथापि इनमें लक्षण भेदसे पृथक्ता सम्भव है ॥ ३२ ॥ = = जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान २६४ III सम्यक मिथ्या ज्ञान अन.ध./३/१५/२६४ आराध्य दर्शनं ज्ञानमाराध्यं तत्फलत्वतः । सहभावेऽपि ते हेतुफले दीपप्रकाशवत् ।१५। -सम्यग्दर्शनकी आराधना करके ही सम्यग्ज्ञान की आराधना करनी चाहिए, क्योंकि ज्ञान सम्यग्दर्शनका फल है। जिस प्रकार प्रदीप और प्रकाश साथ ही उत्पन्न होते हैं, फिर भी प्रकाश प्रदीपका कार्य है, उसी प्रकार यद्यपि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान साथ साथ होते है, फिर भी सम्यरज्ञान कार्य है और सम्यग्दर्शन उसका कारण । ५. सम्यग्दर्शन भी कथंचित् ज्ञानपूर्वक होता है स.सा./मू./१७-१८ जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सदहदि । तोतं अणुचरदि पुणो अस्थत्थीओ पयत्तेण ।१७। एवं हि जीवराया णादव्यो तह य सद्दहदब्बो । अणुचरिदव्यो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण ।१८। जैसे कोई धनका अर्थी पुरुष राजाको जानकर (उसकी) श्रद्धा करता है और फिर प्रयत्नपूर्वक उसका अनुचरण करता है अर्थात उसकी सेवा करता है, उसी प्रकार मोक्षके इच्छुकको जीव रूपी राजाको जानना चाहिए, और फिर इसी प्रकार उसका श्रद्धान करना चाहिए। और तत्पश्चात् उसी का अनुचरण करना चाहिए अर्थात अनुभवके द्वारा उसमें तन्मय होना चाहिए । न.च.वृ/२४८ सामण्ण अह विसेस दठवे गाणं हवेइ अबिरोहो । साहइ तं सम्मत्तं णहू पुण तं तस्स विवरीयं ।२४८१= सामान्य तथा विशेष द्रव्य सम्बन्धी अविरुद्धज्ञान ही सम्यक्त्वकी सिद्धि करता है। उससे विपरीत ज्ञान नहीं। ६. सम्यग्दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञानकी व्याप्ति है पर ज्ञानके साथ सम्यक्त्वकी नहीं। भ.आ./म् /४/२२ दंसणमाराहतेण णाणमाराहिद भवे णियमा ।...। णाणं आराहतस्स देसणं होइ भयणिज्जं ।४। -सम्यग्दशनकी आराधना करनेवाले नियमसे ज्ञानाराधना करते हैं, परन्तु ज्ञानाराधना करनेबालेको दर्शनकी आराधला हो भी अथवा न भी हो। विपर्ययः। तथा हि, सम्यग्दृष्टिर्यथा चक्षुरादिभी रूपादीनुपलभते तथा मिथ्यादृष्टिरपि मत्यज्ञानेन यथा च सम्यग्दृष्टिः श्रुतेन रूपादीन जानाति निरूपयति च तथा मिथ्यावृष्टिरपि श्रुताज्ञानेन। यथा चावधिज्ञानेन सम्यग्दृष्टिः रूपिणोऽनिवगच्छति तथा मिथ्यादृष्टिविभज्ञानेनेति। अत्रोच्यते-"सदसतोरविशेषाद्यहच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत (त.सू./१/३२)"...तथा हि, कश्चिन्मिथ्यादर्शनपरिणाम आरमन्यवस्थितो रूपाद्य पलब्धौ सत्यामपि कारण विपर्यासं भेदाभेदविपर्यासं स्वरूपविपर्यासं च जानाति । ...एवमन्यानपि परिकल्पनाभेदान् दृष्टेष्टविरुद्धान्मिथ्यादर्शनोदयात्कल्पयन्ति तत्र च श्रद्धानमुत्पादयन्ति । ततस्तन्मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभंगज्ञानं च भवति । सम्यग्दर्शनं पुनस्तत्त्वार्थाधिगमे श्रद्धानमुत्पादयति । ततस्तन्मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं च भवति । -प्रश्न-यह (मति, श्रुत व अवधिज्ञान ) विपर्यय क्यों है। उत्तर~-क्योकि मिथ्यादर्शनके साथ एक आत्मामें इनका समवाय पाया जाता है । जिस प्रकार रजसहित कडवी तू बडीमें रखा गया दूध कडवा हो जाता है, उसी प्रकार मिथ्यादर्शनके निमित्तसे यह विपर्यय होता है। प्रश्न-कडवी तूंबडीमे आधारके दोषसे दूधका रस मीठेसे कडवा हो जाता है यह स्पष्ट है, किन्तु इस प्रकार मत्यादि ज्ञानोंकी विषयके ग्रहण करनेमें विपरीता नहीं मालूम होती। खुलासा इस प्रकार हैजिस प्रकार सम्यग्दृष्टि चक्षु आदिके द्वारा रूपादिक पदार्थोको ग्रहण करता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी मतिज्ञानके द्वारा ग्रहण करता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि श्रुतके द्वारा रूपादि पदार्थोंको जानता है और उनका निरूपण करता है, उसी प्रकार मिथ्याष्टि भी श्रुत अज्ञानके द्वारारूपादि पदार्थों को जानता है और उनका निरूपण करता है । जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञानके द्वारारूपी पदार्थोंकोजानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी विभंग ज्ञानके द्वारा रूपी पदार्थोंको जानता है। उत्तर-इसीका समाधान करनेके लिए यह अगला सूत्र कहा गया है कि "वास्तविक और अवास्तविकका अन्तर जाने बिना, जब जैसा जीमे आया उस रूप ग्रहण होनेके कारण, उन्मत्तवन उसका ज्ञान भी अज्ञान ही है।" ( अर्थात वास्तवमें सत क्या है और असत क्या है, चैतन्य क्या है और जड क्या है, इन बातोका स्पष्ट ज्ञान न होनेके कारण कभी सतको असद और कभी असतको सत् कहता है । कभी चैतन्यको जड़ और कभी जड ( शरीर ) को चैतन्य कहता है। कभी कभी सतको सत और चैतन्यको चैतन्य इस प्रकार भी. कहता है। उसका यह सब प्रलाप उन्मत्तकी भॉति है। जैसे उन्मत्त माताको कभी स्त्री और कभी स्त्रीको माता कहता है। वह यदि कदाचित माताको माता भी कहे तो भी उसका कहना समीचीन नहीं समझा जाता उसी प्रकार मिथ्याष्टिका उपरोक्त प्रलाप भले ही ठीक क्यों न हो समीचीन नहीं समझा जा सकता है) खुलासा इस प्रकार है कि आत्मामें स्थित कोई मिथ्यादर्शनरूप परिणाम रूपादिककी उपलब्धि होनेपर भी कारणविपर्यास, भेदाभेद विपर्यास और स्वरूपविपर्यासको उत्पन्न करता रहता है । इस प्रकार मिथ्यादर्शनके उदयसे ये जीव प्रत्यक्ष और अनुमानके विरुद्ध नाना प्रकारकी कल्पनाएँ करते है, और उनमे श्रद्धान उत्पन्न करते हैं। इसलिए इनका यह ज्ञान मतिअज्ञान. श्रुत-अज्ञान और विभंग ज्ञान होता है। किन्तु सम्यग्दर्शन तत्त्वार्थ के ज्ञानमे श्रद्धान उत्पन्न करता है, अत: इस प्रकारका ज्ञान मति ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होता है। (रा.वा./१/३१/२-३/ १२/१ ) तथा ( रा.वा./१/१२/पृ.१२); (विशेषावश्यक भाष्य/११५ से स्याद्वाद मंजरी/२३/२७४ पर उद्धृत) (पं.वि./१/७७)। ध.७/२,१,४४/८५/५ किमट्ठं पुण सम्माइट्ठीणाणस्स पडिसेहो ण कीरदे विहि-पडिसेहभावेण दोण्हणाणणं विसेसाभावा । ण परदो वदिरिभावसामण्णमवेविरवय एस्थ पडिरहो होज्ज, 'क्तुि अप्पणो अवगयरेथे जम्हि जीवे सद्दहण ण बुप्पज्जदि अवगयत्यविवरीयसइधुप्पायणमिच्छत्तुदयमलेण तत्थ ज णाणं तमण्णाणमिदि भण्णइ,णाणफलाभावादो। ७. सम्यक्त्व हो जाने पर पूर्वका ही मिथ्याज्ञान सम्यक हो जाता है स.सि /१/१/६/७ ज्ञानग्रहणमादौ न्याय्य, दर्शनस्य तत्पूर्वकत्वात् अल्पाक्षरत्वाच्च । नैतद्य क्तं, युगपदुत्पत्ते. । यदा. आत्मा सम्यग्दर्शनपर्यायेणाविर्भवति तदैव तस्य मत्यज्ञानश्रुताज्ञाननिवृत्तिपूर्वकं मतिज्ञानं श्रतज्ञानं चाविभवति घनपटल विगमे सवितु. प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवद । = प्रश्न-सूत्रमें पहिले ज्ञानका ग्रहण करना उचित है, क्योकि एक तो दर्शन ज्ञानपूर्वक होता है और दूसरे ज्ञानमें दर्शन शब्दकी अपेक्षा कम अक्षर हैं। उत्तर-यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि दर्शन और ज्ञान युगपत् उत्पन्न होते हैं। जैसे मेघ पटलके दूर हो जाने पर सूर्य के प्रताप और प्रकाश एक साथ प्रगट होते है, उसी प्रकार जिस समय आत्माकी सम्यग्दर्शन पर्याय उत्पन्न होती है उसी समय उसके मति-अज्ञान और श्रुत अज्ञानका निराकरण होकर मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान प्रगट होते है। (रा.वा/१/१/२८-३०/६/१६) (पं.ध./३/ १. वास्तव में ज्ञान मिथ्या नहीं होता. मिथ्यात्वके कारण ही मिथ्या कहलाता है। स.सि./१/३१२/१३७/४ कथं पुनरेषां विपर्ययः । मिथ्यादर्शनेन सहकार्य समवायात् सरजस्ककटुकालाबुगतदुग्धवत् । ननु च तत्राधारदोषाद दुग्धस्य रसविपर्ययो भवति । न च तथा मत्यज्ञानादीनां विषयग्रहणे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान २६५ III सम्यक् मिथ्या ज्ञान ९. मिथ्याष्टिका शास्त्रज्ञान भी मिथ्या व अकिंचि दे. ज्ञान/IV/१/४-[आत्मज्ञानके बिना सर्व आगमज्ञान अकिंचि धड-पड़त्थंभादिसु मिच्छाइट्ठीणं जहावगम सद्दहणमुवलम्भदे चे; ण, तत्थ वि तस्स अणभवसायदसणादो। ण चेदमसिद्ध 'इदमेवं चेवेति' णिच्छयाभावा। अधवा जहा दिसामूढो वण्ण-गंध-रस-फासजहावगम सद्दतो वि अण्णाणी कुच्चदे जहावगमदिससदहणाभावादो, एवं थंभादिपयत्थे जहावगमं सहहंतो वि अण्णाणी बुच्चदे जिणवयणेण सद्दहणाभावादो।प्रश्न-यहाँ सम्यग्दृष्टिके ज्ञानका भी प्रतिषेध क्यों न किया जाय, क्योकि, विधि और प्रतिषेध भावसे मिथ्यादृष्टिज्ञान और सम्यग्दृष्टिज्ञानमें कोई विशेषता नहीं है 1 उत्तर-यहाँ अन्य पदार्थोमें परत्वबुद्धिके अतिरिक्त भावसामान्यकी अपेक्षा प्रतिषेध नहीं किया गया है, जिससे कि सम्यग्दृष्टिज्ञानका भी प्रतिषेध हो जाय। किन्तु ज्ञात वस्तुमें विपरीत श्रद्धा उत्पन्न करानेवाले मिथ्यात्वोदयके बलसे जहॉपर जीवमें अपने जाने हुए पदार्थ में श्रद्धान नहीं उत्पन्न होता, वहाँ जो ज्ञान होता है वह अज्ञान कहलाता है, क्योंकि उसमें ज्ञानका फल नहीं पाया जाता। शंका-धट पट स्तम्भ आदि पदार्थों में मिथ्यादृष्टियोंके भी यथार्थ श्रद्धान और ज्ञान पाया जाता है । उत्तर-नहीं पाया जाता, क्योंकि, उनके उसके उस ज्ञानमें भी अनध्यवसाय अर्थात अनिश्चय देखा जाता है। यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, 'यह ऐसा ही है ऐसे निश्चयका यहाँ अभाव होता है। अथवा, यथार्थ दिशाके सम्बन्धमें विमूढ जीव वर्ण. गंध, रस और स्पर्श इन इन्द्रिय विषयोंके ज्ञानानुसार श्रद्धान करता हुया भी अज्ञानी कहलाता है, क्योंकि, उसके यथार्थ ज्ञानकी दिशामें श्रद्धानका अभाव है। इसी प्रकार स्तम्भादि पदार्थों में यथाज्ञान श्रद्धा रखता हुआ भी जीव जिन भगवान्के वचनानुसार श्रद्धानके अभावसे अज्ञानी ही कहलाता है। स.सा./आ/७२ आकुलत्वोत्पादकत्वाद्दुःखस्य कारणानि खस्वास्रवाः, भगवानात्मा तु नित्यमेवानाकुलत्वस्वाभावेनाकार्यकारणत्वाद्दुरवस्याकारणमेव । इत्येवं विशेषदर्शनेन यदैवायमात्मास्रवयोर्भेदं जानाति तदैव क्रोधादिभ्य आस्रवेभ्यो निवर्तते, तेभ्योऽनिवर्तमानस्य पारमार्थिकतन्दज्ञानसिद्ध ततः क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनाभाविनो ज्ञानमात्रादेवाज्ञानजस्य पौद्गलिकस्य कर्मणो बन्धनिरोधः सिध्येत । = आस्रव आकुलताके उत्पन्न करनेवाले हैं इसलिए दुःखके कारण हैं, और भगवान् आत्मा तो, सदा ही निराकुलता-स्वभावके कारण किसीका कार्य तथा किसीका कारण न होनेसे, दुःखका अकारण है।' इस प्रकार विशेष ( अन्तर) को देखकर जब यह आत्मा, आत्मा और आस्रवोंके भेदको जानता है, उसी समय क्रोधादि आस्रवोंसे निवृत्त होता है, क्योंकि, उनमे जो निवृत्ति नहीं है उसे आत्मा और आस्रवों के पारमार्थिक भेदज्ञानकी सिद्धि ही नहीं हुई। इसलिए क्रोधादि आस्रवोंसे निवृत्तिके साथ जो अविनाभावी है ऐसे ज्ञानमात्रसे ही, अज्ञानजन्य पौद्गलिक कर्म के बन्धका निरोध होता है। (तात्पर्य यह कि मिथ्यादृष्टिको शास्त्रके आधारपर भले ही आस्त्रवादि तत्त्वोंका ज्ञान हो गया हो पर मिथ्यात्ववश स्वतत्त्व दृष्टिसे ओझल होनेके कारण वह उस ज्ञानको अपने जीवनपर लागू नहीं कर पाता। इसीसे उसे उस ज्ञानका फल भी प्राप्त नहीं होता और इसीलिए उसका वह ज्ञान मिपा है । इससे विपरोत सम्यग्दृष्टिका तत्त्वज्ञान अपने जीवन पर लागू होनेके कारण सम्यक है)। स सा./पं.जयचन्द/७२ प्रश्न-अविरत सम्यग्दृष्टिको यद्यपि मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोंका आस्रव नहीं होता. परन्तु अन्य प्रकृतियोका तो आस्रव होकर बन्ध होता है। इसलिए ज्ञानी कहना या अज्ञानी? उत्तर-सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानी ही है, क्योंकि वह अभिप्राय पूर्वक आत्रवोंसे निवृत्त हुआ है। और भी दे० ज्ञान/III/३/३ मिथ्याष्टिका ज्ञान भी भूतार्थ ग्राही होनेके कारण यद्यपि कथंचित् सम्यक है पर ज्ञानका असली कार्य (आसव निरोध) न करनेके कारण वह अज्ञान ही है। दे. राग/६/१ [ परमाणु मात्र भी राग है तो सर्व आगमधर भी आत्माको नहीं जानता] स.सा./मू /३१७ ण मुयह पयडिमभव्यो मुठ वि अज्झाइऊण सत्थाणि । गुइदुद्धपि पिबंता ण पण्णया णिविवसा हूँति । -भलीभाँति शास्त्रोंको पढकर भी अभव्य जीव प्रकृतिको ( अपने मिथ्यात्व स्वभावको) नहीं छोड़ता। जैसे मीठे दूधको पीते हुए भी सर्प निर्विष नहीं होते। ( स. सा./मू./२७४) द. पा./मू./४ समत्तरयणभट्ठा जाणता बहुविहाई सत्थाई। आराहणाविरहिया भमति तत्थैव तत्थेव ।४। सम्यक्त्व रत्नसे भ्रष्ट भले ही बहुत प्रकारके शास्त्रोको जानो परन्तु आराधनासे रहित होने के कारण संसारमें ही नित्य भ्रमण करता है।। यो. सा. अ./७/४४ संसारः पुत्रदारादिः पुंसां संमूढचेतसाम् । ससारो विदुषां शास्त्रमध्यात्मरहितमात्मनाम् ।४४ - अज्ञानीजनोंका संसार तो पुत्र स्त्री आदि है और अध्यात्मज्ञान शून्य विद्वानोका संसार शास्त्र है। द्र. सं./५०/२१५/७ पर उद्धृत-यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण' कि करिष्यति । -जिस पुरुषके स्वयं बुद्धि नहीं है उसका शास्त्र क्या उपकार कर सकता है। क्योंकि नेत्रोंसे रहित पुरुषका दर्पण क्या उपकार कर सकता है । अर्थात कुछ नहीं कर सकता। स्या. म /२३/२७४/१५ तत्परिगृहीतं द्वादशाङ्गमपि मिथ्याश्रुतमामनन्ति । तेषामुपपत्ति निरपेक्ष यदृच्छया वस्तुतत्त्वोपलम्भसंरम्भात् । -मिथ्यादृष्टि बारह (1) अंगोको पढकर भी उन्हें मिथ्या श्रुत समझता है, क्योंकि, वह शास्त्रोंको समझे बिना उनका अपनी इच्छाके अनुसार अर्थ करता है। (और भी देखो पीछे इसीका नं०८) पं. ध./उ./७७० यत्पुनद्रव्यचारित्रं श्रुतज्ञानं विनापि दृक् । न तज्ज्ञान न चारित्रमस्ति चेत्कर्मबन्धकृत् ।७७०। जो सम्यग्दर्शनके बिना द्रव्यचारित्र तथा श्रुतज्ञान होता है वह न सम्यग्ज्ञान है और न सम्यग्चारित्र है। यदि है तो वह ज्ञान तथा चारित्र केवल कर्मबन्धको ही करनेवाला है। १०. सम्यग्दृष्टिका कुशास्त्र ज्ञान मी कथंचित् सम्यक है स्या. म /२३/२७४/१६ सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं तु मिथ्याश्रुतमपि सम्यक् श्रुततया परिणमति सम्यग्दृशाम् । मर्व विदुण्देशानुसारिप्रवृत्तितया मिथ्याशुतोक्तस्याप्यर्थस्य यथावस्थितविधिनिषेधविषयतयोन्नयनात । -सम्यग्दृष्टि मिथ्याशास्त्रोंको पढकर उन्हे सम्यकश्रुत समझता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि सर्वज्ञदेवके उपदेशके अनुसार चलता है, इसलिए वह मिथ्या आगमोका भो यथोचित विधि निषेधरूप अर्थ करता है। ११. सम्यग्ज्ञानको ही ज्ञान संज्ञा है मू आ./२६७-२६८ जेण तच्च बिबुज्झेज जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झज्ज त णाणं जिणसासणे ।२६७। जेण रागा विरज्जेज्ज जेण सेएम रज्जदि । जेण मेत्ती पभावेज्ज तं णाणं जिणसासणे।२६८। -जिससे वस्तुका यथार्थ स्वरूप जाना जाय, जिससे मनाका व्यापार रुक जाय, जिससे आत्मा विशुद्ध हो, जिनशासनमें उसे ही ज्ञान कहा गया है ।२६७। जिससे रागसे विरक्त हो, जिससे श्रेयस मार्ग में रक्त हो, जिससे सर्व प्राणियों में मैत्री प्रवत, बही' जिनमतमें ज्ञान कहा गया है ।२६८॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-३४ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान २६६ III सम्यक् व मिथ्या ज्ञान पं. स./प्रा /१/११७.जाणइं तिकालसहिए दव्वगुणपज्जए बहुब्भेए । पच्चक्रवं च परोवरवं अणेण णाण त्तिणं विति ।११७ = जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक सर्व द्रव्य, उनके समस्त गुण और उनकी बहुत भेदवाली पर्यायोंको प्रत्यक्ष और परोक्षरूपसे जानता है. उसे निश्चयसे ज्ञानीजन ज्ञान कहते है । (ध. १/१,१,४/गा ६१/१४४), (पं.त. स./२/ २९३), (गो, जी/मू./२६६/६४८) स. सा/पं.जयचन्द/७४ मिथ्यात्व जानेके बाद उसे विज्ञान कहा जाता __ है। (और भी दे. ज्ञानीका लक्षण) ३. सम्यक् व मिथ्याज्ञान सम्बन्धी शंका-समाधान व समन्वय १. तीनों अज्ञानोंमें कौन-कौन-सा मिथ्यात्व घटित होता है श्लो. वा. ४/१/३१/१३/११८/६ मतौ श्रुते च त्रिविधं मिथ्यात्वं बोद्धव्यं मतेरिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तकत्वनियमाव । श्रुतस्यानिन्द्रियनिमित्तकत्व नियमाइ द्विविधमवधौ संशयाद्विना विपर्ययानध्यवसायाधित्यर्थः। = मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें तोनो प्रकारका मिथ्यात्व ( संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय) समझ लेना चाहिए । क्यों कि मतिज्ञानके निमित्तकारण इन्द्रिय और अनिन्द्रिय हैं ऐसा नियम है तथा श्रुतज्ञानका निमित्त नियमसे अनिन्द्रिय माना गया है। किन्तु अवधिज्ञानमें संशयके बिना केवल विपर्यय व अनध्यवसाय सम्भवते है ( क्योकि यह इन्द्रिय अनिन्द्रियकी अपेक्षा न करके केवल आत्मासे उत्पन्न होता है और संशय ज्ञान इन्द्रिय व अनिन्द्रियके बिना उत्पन्न नही हो सकता।) .. अज्ञान कहनेसे क्या यहाँ ज्ञानका अभाव इष्ट है ध.७/२,१,४४/८४/१० एत्य चोदओ भणदि-अण्णाणमिदि बुत्ते किं णाणस्स अभावो घेप्पदि आहो ण घेप्पदि त्ति । णाइल्लो पक्खो मदिणाणाभावे मदिपुव्वं सुदमि दि कट्टु सुदणाणस्स वि अभावप्पसंगादो। ण चेदं पिताणमभावे सबणाणाणमभावप्पसंगादो। णाणाभावे ण दसणं पि दोण्णमण्णोणाविणाभावादो। णाणदं सणाभावे ण जीवो वि, तस्स तल्लक्खणत्तादो त्ति। ण विदियपक्रवो वि, पडिसेहस्स फलाभावप्पसंगादो त्ति। एत्थ परिहारो बुच्चदे–ण पढमपक्रवदोससंभवो, पसज्जपडिसेहेण एस्थ पओजणाभावा। ण विदियपक्रनुतदोसो वि, अप्पे हितो विदिरित्तासेसदव्वोतु सविहिबहसंठिएसु पडिसेहस्स फलभाबुवलंभादो। किमळं पुण सम्माइट्ठीणाणस्स पडिसेहो ण कीरदे। प्रश्न-अज्ञान कहनेपर क्या ज्ञानका अभाव ग्रहण किया है या नहीं किया है। प्रथम पक्ष तो बन नहीं सकता, क्योंकि मतिज्ञानका अभाव माननेपर ‘मतिपूर्वक ही श्रुत होता है। इसलिए श्रुतज्ञानके अभावका भी प्रसंग आ जायेगा । और ऐसा भी नही माना जा सकता है, क्योंकि, मति और श्रृत दोनों ज्ञानों के अभावमें सभी ज्ञानोके अभावका प्रसंग आ जाता है। ज्ञानके अभावमें दर्शन भी नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान और दर्शन इन दोनोका अविनाभावी सम्बन्ध है। और ज्ञान और दर्शनके अभावमें जीत्र भी नहीं रहता, क्योंकि जीवका तो ज्ञान और दर्शन ही लक्षण है । दूसरा पक्ष भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि, यदि अज्ञान कहनेपर ज्ञानका अभाव न माना जाये तोफिर प्रतिषेधके फलाभावका प्रमग आ जाता है । उत्तर-प्रथम पक्ष में कहे गये दोषको प्रस्तुत पक्ष में सम्भावना नहीं है, क्योकि यहॉपर प्रसज्यप्रतिषेध अर्थात अभाव मात्रसे प्रयोजन नहीं है। दूसरे पक्षमें कहा गया दोष भी नही आता, क्योकि, यहाँ जो अज्ञान शब्दसे ज्ञानका प्रतिषेध किया गया है, उसकी, आत्माको छोड अन्य समीपवर्ती प्रदेश में स्थित समस्त द्रव्योमे स्व व पर विवेकके अभावरूप सफलता पायी जाती है। अर्थात स्व पर विवेकसे रहित जो पदार्थ ज्ञान होता है उसे हो यहाँ अज्ञान कहा है। प्रश्न-- तो यहाँ सम्यग्दृष्टिके ज्ञानका भी प्रतिषेध क्यो न किया जाय। उत्तर-दे० ज्ञान/III/२/८ । ३. मिथ्याज्ञानकी अज्ञान संज्ञा कैसे है? ध. १/१.१,४/१४२/४ कथं पुनस्तेऽज्ञानिन इति चेन्न, मिथ्यात्वोदयात्प्रतिभासितेऽपि वस्तुनि संशयविपर्ययानध्यवसायानिवृत्तितरतेषामज्ञानितोक्त. । एवं सति दर्शनावस्थायां ज्ञानाभावः स्यादिति चेन्नैष दोषः, इष्टत्वात ।...एतेन संशयविपर्ययानध्यवसायावस्थासु ज्ञानाभाव. प्रतिपादित. स्यात्, शुद्धनविवक्षाया तत्त्वार्थोपलम्भकं ज्ञानम् । ततो मिथ्यादृष्टयो न ज्ञानिनः । = प्रश्न-यदि सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि दोनों के प्रकाशमे ( ज्ञानसामान्यमे ) समानत पायी जाती है, तो फिर मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञानी कैसे हो सकते है। उत्तर-यह शंका ठीक नही है, क्योकि मिथ्यात्वकर्म के उदयसे वस्तुके प्रतिभासित होनेपर भी सशय, विपर य और अनध्यवसायकी निवृत्ति नहीं होनेसे मिथ्याष्टियोको अज्ञानी कहा है। प्रश्न- इस तरह मिथ्यादृष्टियोको अज्ञानी माननेपर दर्शनोपयोगकी अवस्थामें ज्ञानका अभाव प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योकि, दर्शनोपयोगकी अवस्थामे ज्ञानोपयोगका अभाव इष्ट ही है। यहाँ संशय विपर्यय और अनध्यवसायरूप अवस्थामें ज्ञानका अभाव प्रतिपादित हो जाता है। कारण कि शुद्धनिश्चयनयको विवक्षामे बरतुस्वरूपका 'उपलम्भ करानेवाले धर्मको हो ज्ञान कहा है। अतः मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञानी नहीं हो सकते हैं। ध/१७,४५/२२४/३ कध मिच्छादिट्ठिणाणस्स अण्णाणत्तं । णाणक्जाकरणादो। किं णाणकज्जं । णादत्थसद्दहणं । ण ते मिच्छादिलिम्हि अत्यि । तदो णाणमेत्र अणाण, अण्णहा जोबविणासप्पसगा । अवगयदवधम्मणाहसु मिच्छादिद्विम्हि सद्दहणमुवतंभए चे ण, अत्तागमपयत्थसद्दणणविरहियस्स दवधम्मणासु जहठसद्दहणविरोहा । ण च एस ववहारो लोगे अपसिद्धो, पुत्तजमकुणते पुत्ते वि लोगे अपुत्तवहारदसणादो। प्रश्न-मिथ्यादृष्टि जीवों के ज्ञानको अज्ञानपना कैसे कहा । उत्तर-क्यो कि, उनका ज्ञान ज्ञानका कार्य नहीं करता है। प्रश्न-ज्ञानका कार्य क्या है । उत्तर-जाने हुए पदार्थका श्रद्धान करना ज्ञानका कार्य है। इस प्रकारका ज्ञान मिश्यावृष्टि जीवमे पाया नहीं जाता है। इसलिए उनके ज्ञानको ही अज्ञान कहा है। अन्यथा जीवके अभावका प्रसंग प्राप्त होगा। प्रश्न--दयाधर्मको जाननेवाले ज्ञानियों में वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीवमें तो श्रद्धान पाया जाता है । उत्तर-नहीं, क्योंकि. दयाधर्म के ज्ञाताओ मे भी, आप्त आगम और पदार्थ के प्रति श्रद्धानसे रहित जीवके यथार्थ श्रद्धानके होनेका विरोध है । ज्ञानका कार्य नहीं करनेपर ज्ञानमे अज्ञानका उपबहार लोकमे अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योकि, पुत्र के कार्यको नहीं करनेवाले पुत्रमें भी लोकके भीतर अपुत्र कहनेका व्यवहार देखा जाता है । (ध.१/१,१,११५/ ३५३/७)। ४. मिथ्याज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है? ध.७/२ १.१५/८६/७ कधं मदिअण्णाणिम्स खवोवस मिया लद्धो । मदिअण्णाणावरणम्स देसघादिफयाणमुदएण मदिअणाणित्तवलं भादो। जदि देसघादिफयाणमुदएण अण्णाणित्तं होदि तो तस्स ओदइयत्तं पसज्जदे। ण, सम्बधादिफद्दयाणमुदयाभावा। कधं पुण खओवसमियत्तं (दे०क्षयोपशम/१ में क्षयोपशमके लक्षण) =प्रश्न-मति अज्ञानी जोबके क्षायोपशामिक लब्धि कैसे मानी जा सकती है। उत्तर- क्योकि, उस जीवके मति अज्ञानावरण कर्मके देशघाती स्पर्धको के उत्पये मति अज्ञानिव पाया जाता है। प्रश्न-यदि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान २६७ देशघाती स्पर्धको के उदयसे अज्ञानित्व होता है तो अज्ञानिको औदयिक भाव माननेका प्रसंग आता है ? उत्तर- नहीं आता, क्योंकि, वहाँ सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयका अभाव है। प्रश्न- तो फिर अज्ञानिरोप मिकरण क्या है उत्तर- (दे० क्षयोपशमका लक्षण ) । ५. मिथ्याज्ञान दशोनेका प्रयोजन ससा ता.वृ/२२/२१/१ एममज्ञानिज्ञामिजीगत क्षणं इला निर्विकारस्वसंवेदन भेदज्ञाने स्थिखा भावना कार्येति तामेव भावनां हृदयति । = इस प्रकार ज्ञानी ओर अज्ञानी जीवका लक्षण जानकर, निर्विकार स्वसंवेदन लक्षणता जो भेदज्ञान, उसमें स्थित होकर भावना करनी चाहिए तथा उसी भावनाको दृढ करना चाहिए। IV निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान १. निश्चय सम्यग्ज्ञान निर्देश १. निश् य सम्यग्ज्ञानका माहात्म्य प्र. सा. / / ८० जो जाणदि अरहंत दव्बत्त गुणत्त पज्जतेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादु तस्स लयं १८०१ = जो अर्हन्तको द्रव्यपने, गुणपने ओर पर्यायपने जानता है, वह आत्माको जानता है और उसका मोह अवश्य लयको प्राप्त होता है । र. सा./१४४ हजार परसमयस समयादिविभे । परसमयससमयादिविभेयं अप्पान जागर सागम्हणाय होई ॥१४४॥ आत्माके हो भेद दव्वगुणपज्जएहि हैं - एक स्त्रसमय और दूसरा परसमय। जो जीव इन दोनों को द्रव्य, गुण व पर्यायसे जानता है, वह ही वास्तवमे आत्माको जानता है। वह जोब ही शिवपथका नायक होता है । भ.आ./मू./१६८-७६६ णाणुज्जोवो जोवो णाणुज्जीवस्स णत्थि पादो दीने सूरो णा जगनसे १७६८ पयासजा स्रोत संगम व गुतिय तिष्ठपि समाओगे मोक्खो जिनसासणे दिट्ठा ॥७६ । = ज्ञानप्रकाश ही उत्कृष्ट प्रकाश है, क्योंकि किसीके द्वारा भो इसका प्रतिघात नहीं हो सकता । सूर्यका प्रकाश यद्यपि उत्कृष्ट समझा जाता है, परन्तु वह भी अल्पमात्र क्षेत्रको ही प्रकाशित करता है। ज्ञान प्रकाश समस्त जगत्को प्रकाशित करता है | ७६८ | ज्ञान संसार और मुक्ति दोनोंके कारणोकों प्रकाशित करता है । व्रत, तप, गुप्ति व सयमको प्रकाशित करता है, तथा तीनोके संयोगरूप जिनोपदिष्ट मोक्षको प्रकाशित करता है । ७६६। यो.सा.अ./१/३९ अनुष्ठानास्पदं ज्ञानं ज्ञानं मोहतमोऽहम् पुरुषार्थ करें ज्ञानं ज्ञानं निर्वृतिसाधनम् ॥३१३- 'ज्ञान' अनुष्ठानका स्थान है, मोहान्धकारका विनाश करनेवाला है, पुरुषार्थ का करनेवाला है, और मोका कारण है । दीपिका ज्ञानमाराधय 1 ज्ञा. / ७ / २१-२३ यत्र बालश्चरत्यस्मिन्पथि तत्रैव पण्डितः । बाल स्वमपि बध्नाति मुच्यते तनविध वम् | २१| दुरिततिमिरहंसं मोक्षलक्ष्मीसमदनमहसि व्यसनपनसमोर विश्व॥२२॥ अस्मिन्संसारवले यमभुजग विद्याकानि पश्ये कोष से कुटिलगसिरि पातसंतापभीमे महान्धा संचरन्ति स्लटनरिता प्राणिनस्तान देते, यावद्विज्ञानभानुर्भवभयदमिदं नोच्छिनत्यन्धकारम् ||२३| -- जिस मार्ग मे अज्ञानी चलते हैं उसी मार्ग मे जिन चलते हैं. परन्तु अज्ञानी तो अपनी आत्माको बाँध लेता है और तत्त्वज्ञानी बन्धरहित हो जाता है, यह ज्ञानका माहात्म्य है | २१| हे भव्य तू ज्ञानका आराधन कर, क्यो कि, ज्ञान पापरूपी तिमिर नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है और मोहरूपी लक्ष्मी के निवास करनेके लिए कमल के समान है। कामरूपी सर्प के कीलने मन्त्र के समान है, ममरूपी हस्तोको सिंहके समान है, आपदारूपी मेत्रोंको उडानेके लिए पवन के IV निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान समान है, समरत तत्त्वोको प्रकाश करनेके लिए दीपकके समान है तथा विषयरूपी मत्स्योंको पकड़नेके लिए जालके समान है | २२ | जब इस ससाररूपी मनमे सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य उदित होकर संसारभयदायक अज्ञानान्धकारका उच्छेद नहीं करता तबतक ही मोहान्ध प्राणी निज स्वरूपसे च्युत हुए गिरते पड़ते चलते है। कैसा है संसाररूपी वन - जिसमें कि पापरूपी सर्पके विषसे समस्त प्राणी व्याप्त है, जहाँ क्रोधादि पापरूपी बडे-बडे पर्वत हैं, जो वक्र गमनबाली दुर्गतिरूपी नदियों में गिरनेसे उत्पन्न हुए सन्तापसे अतिशय भयानक हैं । ज्ञानरूपी सूर्यके प्रकाश होनेसे किसी प्रकारका दुख व भय नहीं रहता है | २३ | 7 २. भेदविज्ञान ही सम्यग्ज्ञान ६. उ० / ३३ गुरूपदेशादभ्यासात्संविते स्वपरान्तरम् जानाति यस जानाति मोक्षसीवं निरन्तरम् ॥३३३- जो कोई प्राणी गुरूपदेशसे अथवा शास्त्राभ्याससे या स्वात्मानुभवसे स्व व परके भेदको जानता है वही पुरुष सदा मोक्ष जानता है। ससा / आ./२०० एवं सम्यग्दृष्टि सामान्येन विशेषेण च, परस्वभावेभ्यो भावेभ्यो सर्वेभ्याऽपि विविच्य टड्कोत्कीर्णे कज्ञायकभावस्वभावमात्मनस्तत्त्व विजानाति । स. सा./आ /३१४ स्वपरयोर्विभागज्ञानेन ज्ञायको भवति । - इस प्रकार सम्यग्दृष्टि सामान्यतया और विशेषतया परभावस्वरूप सर्व भावो से विवेक (भेदज्ञान ) करके टंकोरकीर्ण एक ज्ञायकभाव जिसका स्वभाव है ऐसा जो आत्मतत्त्व उसको जानता है । आत्मा स्व परके भेदविज्ञान ज्ञायक होता है। ३. अभेद ज्ञान या इन्द्रियज्ञान अज्ञान हैं। स. सा. / ३१४ स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायको भवति । स्व परके एकत्व ज्ञानसे आत्मा अज्ञायक होता है । प्र.सा./त.प्र./५५ परोक्ष हि ज्ञानं आत्मनः स्वयं परिच्छेत्तम मरा मम्योपान्तानुपात प्रत्यय सामग्री मार्गगव्यास यात्यन्त विठुराय मलम्बमानमनन्ताया' इते परमार्थतोऽर्हति । अतस्तय - परोक्षज्ञान आत्मपदार्थको स्वयं जानने में असमर्थ होनेसे उपास और अनुपात परपदार्थ रूप सामग्री को ढूँढनेकी उपग्रताले अत्यन्त चंचल-सरल अस्थिर पर्तता हुआ, अनन्त शक्तिसे च्युरा होनेसे अत्यन्त नि होता हुआ परमार्थतः अज्ञानमें गिने जाने योग्य है; इसलिए वह है है । . ४. आत्म ज्ञानके विना सर्व आगमज्ञान अकिचिकर है मो. पा/मू./१०० जदि पढदि बहुसुदाणि य जदि काहिदि बहुविहेय चारिते। बालसुदं चरण हवेइ अप्पस्स विवरीयं | १०० = आत्म स्वभाव से विपरीत बहुत प्रकारके शास्त्रोंका पढना और बहुत प्रकार के चारित्रका पालन भी बाल श्रुते बालचरण है । (मू आ./८७) । भू. आ / ०६४ धीरो वहरागपरो थोवं हिय सिक्खिदूण सिज्झदि हु । प हि सिझहि वैरग्गविहीन पडदूग ससत्या धीर और वैराग्यपरायण तो अल्पमात्र शास्त्र पढा हो तो भी मुक्त हो जाता है. परन्तु वैराग्य विहीन सर्व शास्त्र भी पढ़ ले तो भी मुक्त नहीं होता । सा./१४ विदिताशेषशास्त्रोऽपि न जानपि मुच्यते देहात्मदृष्टि तारमा सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते । ६४ । = शरीरमे आत्मबुद्धि रखनेबाला महिरात्मा सम्पूर्ण शास्त्रोको जान लेनेयर भी मुक्त नहीं होता और हमे भिन्न आत्माका अनुभव करनेवाला अन्तरात्मा सोता और उन्मत्त हुआ भी मुक्त हो जाता है । ( यो सा. यो / १६ ) ( ज्ञा / 12/800) 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान २६८ IV निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान आस्तिक्य ही परमगुण है। किन्तु परद्रव्यमे वह आस्तिक्य केवल स्वानुभू तिरूप हो अथवा न भी हो। और भी दे ज्ञान/III/२/१ (मिथ्याष्टिका आगमज्ञान अकिंचित्कर प.प्र./म् /२/८४ बोह णिमित्त सत्थु किल लोइ पढिज्जइ इत्थु । तेण वि मोहु ण जासु बरु सो किं मूढ ण तत्थु ।८४। इस लोकमें नियमसे ज्ञानके निमित्त शास्त्र पढे जाते है परन्तु शास्त्रके पढनेसे भी जिसको उत्तम ज्ञान नहीं हुआ, वह क्या मूढ नहीं है । है ही। प.प्र/म् २/१९१ धोरु करन्तु वि तवचरणु सयल वि सत्थ मुणंतु । परमसमाहि-विवज्जियउ णवि देवरवइ सिउ संतु १९११- महा दुर्धर तपश्चरण करता हुआ और सब शास्त्रों को जानता हुआ भी, जो परम समाधिसे रहित है वह शान्तरूप शुद्धारमाको नहीं देख सकता। न.च.वृ/२८४ मे उद्धृत "णियदव्व जाणणळू इयर कहियं जिणेहि छदव्यं । तम्हा परछद्दव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं!"जिनेन्द्र भगवान्ने निजद्रव्यको जाननेके लिए ही अन्य छह द्रव्योका कथन किया है, अत' मात्र उन पररूप छ' द्रव्योंका जानना सम्यग्ज्ञान नहीं है। आराधनासार/मू/१११, ५४ अति करोतु तप. पालयतु संयमं पठतु सकलशास्त्राणि । यावन्न ध्यायत्यात्मानं तावन्न मोक्षो जिनो भवति १११। सकलशास्त्रसेवितां सूरिसंघानदृढयतु च तपश्चाभ्यस्तु स्फीतयोगम् । चरतु विनयवृत्ति बुध्यतां विश्वतत्त्वं यदि विषयविलास सर्वमेतन्न किचित ।।४।" तप करो, सयम पालो, सकल शास्त्रोंको पढो परन्तु जबतक आत्माको नहीं ध्याता तबतक मोक्ष नहीं होता ।११। सकलशास्त्रों का सेवन करनेमें भले आचार्य संघको दृढ करो, भले हो योगमे दृढ होकर तपका अभ्यास करो, विनयवृत्तिका आचरण करो, विश्वके तत्त्वोको जान जाओ, परन्तु यदि विषय विलास है तो सबका सब अकिचित्कर है ॥५४॥ यो.सा. अ/७/१३ आत्मध्यानरतिज्ञेयं विद्वत्तायाः परं फलम् । अशेषशास्त्रशास्तृत्वं संसारोऽभाषि धीधन' १४३।-- विद्वान् पुरुषोंने आत्मध्यानमें प्रेम होना विद्वत्ताका उत्कृष्ट फल बतलाया है और आत्मध्यानमे प्रेम न होकर केवल अनेक शास्त्रोंको पढ़ लेना संसार कहा है । (प्रसा /त, प्र/२७१) स. सा/आ/२७७ नाचारादिशब्दश्रुतमेकान्तेन ज्ञानस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धारमाभावेन ज्ञानस्याभावात मात्र आचाररांगादि शब्द श्रुत हो (एकान्तसे ) ज्ञानका आश्रय नहीं है, क्योकि उसके सद्भावमे भी अभव्योंको शुद्धात्माके अभावके कारण ज्ञानका अभाव है। का. अ/मू/४६६ जो णवि जाणदि अप्पं णाणसरूवं सरीरदी भिण्णं । सो णवि जाण दि सत्य आगमपाढं कुणतो वि ।४६६/- जो ज्ञानस्वरूप आत्माको शरीरसे भिन्न नही जानता वह आगमका पठनपाठन करते हुए भी शास्त्रको नहीं जानता। स, सा/ता. वृ/ १०१, पुद्गलपरिणामः... "व्याप्यव्यापकभावेन... न करोति...इति यो जानाति...निर्विकल्पसमाधौ स्थितः सन् स ज्ञानी भवति। न च परिज्ञान मात्रेणेव । - 'आत्मा व्याप्यव्यापकभावसे पुद्गलका परिणाम नहीं करता है' यह बात निर्विकल्प समाधिमें स्थित होकर जो जानता है वह ज्ञानी होता है। परिज्ञान मात्रसे नहीं। प्र. सा. ता. वृ/२३७ जोवस्यापि परमागमाधारेण सकलपदार्थ ज्ञेया कारकरावलम्बितविशदे कज्ञानरूपं स्वात्मानं जानतोऽपि ममात्मैवोपादेय इति निश्चयरूपं यदि श्रद्धानं नास्ति तदास्य प्रदीपस्थानीय आगम किं करोति न किमपि । = परमागमके आधारसे, सकलपदार्थोके ज्ञेयाकारसे अवलम्बित विशद एक ज्ञानरूप निजआत्माको जानकर भी यदि मेरी यह आत्मा ही उपादेय है ऐसा निश्चयरूप श्वद्वान न हुआ तो उस जोवको प्रदीपस्थानीय यह आगम भी क्या करे। पं. ध/उ./४६३ स्वात्मानुभूतिमात्र स्थादास्तिक्यं परमो गुणः । भवेन्मा वा परद्रध्ये ज्ञानमात्र परत्वतः ।४६३ केवल स्वात्माकी अनुभूतिरूप २ व्यवहार सम्यग्ज्ञान निर्देश १. व्यवहारज्ञान निश्चयका साधन है तथा इसका कारण न. च वृ/२६७ ( उद्धृत) उक्तं चान्यत्र ग्रन्थे-दब्बसुयादो भावं तत्तो उहयं हवेइ संवेदं । तत्तो संवित्ती खलु केवलणाणं हवे तत्तो २६७/"-अन्यत्र ग्रन्थमे कहा भी है कि द्रव्य श्रुतके अभ्याससे भाव होते हैं, उससे बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकारका संवेदन होता है, उससे शुद्धात्माकी संवित्ति होती है और उससे केवलज्ञान होता है। द्र.सं./टी/४२/१८३/६. तेनैव विकल्परूपव्यवहारज्ञानेन साध्यं निश्चयज्ञानं कथ्यते।-निर्विकल्प तसंवेदनज्ञानमेव निश्चय ज्ञान भण्यते (पृ० १८४६४)। उस विकल्परूप व्यवहार ज्ञानके द्वारा साध्य निश्चय ज्ञानका कथन करते है। निर्विकल्प स्वस वेदन ज्ञानको ही निश्चयज्ञान कहते है। (और भो दे० समयसार)। २. आगमज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहना उपचार है प्र सा/त. प्र/३४ श्रुतं हि तावत्सूत्रम् । तज्ज्ञप्तिहि ज्ञानम् । श्रुतं तु तत्कारणत्वात् ज्ञानत्वेनोपर्यत एव ।"= श्रुत ही सूत्र है। उस (शब्द ब्रह्मरूप सूत्र ) की ज्ञप्ति सो ज्ञान है । श्रुत ( सूत्र) उसका कारण होनेसे ज्ञानके रूपमें उपचारसे ही कहा जाता है। ३. व्यवहारज्ञान प्राप्तिका प्रयोजन स. सा/मू/४१५ जो समयपाहुडमिणं पढिउण अत्थतच्चओ णाउं । अत्थे वट्टी चेया सो होही उत्तम सोवरवं ॥४१५॥ ॥ जो आत्मा इस समयप्राभृतको पढकर अर्थ और तत्त्वको जानकर उसके अर्थ मे स्थित होगा, वह उत्तम सौख्यस्वरूप होगा। प्र. सा/मू ८८, १५४, २३२ जो मोहरागदोसो गिहणदि उपलब्भ जोण्हमुबदेस । सो सव्वदुक्खमोक्वं पाव दि अचिरेण कालेण । सम्भावणिबद्धं सव्वसहावं तिहा समक्खादं । जाणदि जो सवियपंण मुहदि सो अण्णद वियम्मि १५४। एयग्गदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्येसु । णिच्छित्ती आगमदो आगम चेट्ठा ततो चेट्ठा ।२३२॥ -जो जिनेन्द्रके उपदेशको प्राप्त करके मोह, राग, द्वेषको हनता है वह अल्पकाल में सर्व दुःखोसे मुक्त होता है ।८८। जो जीव उस अस्तित्वनिष्पन्न तीन प्रकारसे कथित द्रव्यस्वभावको जानता है वह अन्य द्रव्यमें मोहको प्राप्त नहीं होता ।१५४. श्रमण एकाग्रताको प्राप्त होता है, एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवानके होती है, निश्चय आगम द्वारा होता है अत' आगममें व्यापार मुख्य है ।२३२॥ प्र. सामू/१२६ कत्सा करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो । परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्ध'।१२६। - यदि श्रमण कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है, ऐसा निश्चयवाला होता हुआ अन्य रूप परिणमित न ही हो तो वह शुद्ध आत्माको उपलब्ध करता है । (प्र. सा/मू/१६०). पं. का/मू/१०३ एवं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं वियाणित्ता । जो मुयदि रागदोसे सा गाहदि दुक्खपरिमोक्वं ।१०३।" - इस प्रकार प्रवचनके सारभूत 'पंचास्तिकायसंग्रह' को जानकर जो रागद्वेषको छोडता है वह दुःखसे परिमुक्त होता है। न. च, वृ/२८४ मे उद्धृत-णियदबजाणण? इयरं कहियं जिणेहि छहव्वं ।-निज द्रव्यको जाननेके लिए ही जिनेन्द्र भगवान्ने अन्य छह द्रव्योंका कथन किया है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान २६९ IV निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान आ. अनु/१७४-११५ ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युति.। तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावयेज्ज्ञानभावनाम् ।१७४। ज्ञानमेव फलं ज्ञाने ननु श्लाघ्यमनश्वरम् । अहो मोहस्य माहात्म्यमन्यदप्यत्र मृग्यते ॥१७॥मुक्तिकी अभिलाषा करनेवालेको मात्र ज्ञानभावनाका चिन्तवन करना चाहिए कि जिससे अविनश्वर ज्ञानकी प्राप्ति होती है परन्तु अज्ञानी प्राणी ज्ञानभावनाका फल ऋद्धि आदिकी प्राप्ति समझते हैं, सो उनके प्रबल मोहकी महिमा है। स. सा/आ/१५३/क १०५ यदेतद् ज्ञानारमा ध्र वमचलमाभाति भवनं, 'शिवस्यायं हेतु. स्वयमपि यतस्तच्छिव इति । अतोऽन्यद्बन्धस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत्. ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम् ।१०५ - जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्र वरूपसे और अचलरूपसे ज्ञानस्वरूप होता हुआ या परिणमता हुआ भासित होता है, वही मोक्षका हेतु है, क्योंकि वह स्वयमेव मोक्षस्वरूप है । उसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ है वह बन्धका हेतु है, क्योंकि वह स्वयमेव बन्धस्वरूप है। इसलिए आगममें ज्ञानस्वरूप होनेका अर्थात अनु भूति करनेका ही विधान है। पं. का/त. प्र/१७२ द्विविधं किल तात्पर्यम्-सूत्रतात्पर्य शास्त्रतारपर्यं चेति । तत्र सूत्रतात्पर्य प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम् । शास्त्रतात्पय त्विदं प्रतिपाद्यते । अस्य खलु पारमेश्वरस्य शास्त्रस्य साक्षान्मोक्षकारणभूतपरमवीतरागत्वविश्रान्तसमस्तहृदयस्य, परमार्थतो वीतरागत्वमेव तात्पर्यमिति । -तात्पर्य दो प्रकारका होता हैसूत्र तात्पर्य और शास्त्र तात्पर्य । उसमें सूत्र तात्पर्य प्रत्येक सूत्र में प्रतिपादित किया गया है और शास्त्र तात्पर्य अब प्रतिपादित किया जाता है। साक्षात् मोक्षके कारणभूत परमवीतरागपने में जिसका समस्त हृदय स्थित है ऐसे इस (पंचास्तिकाय, षद्रव्य सप्ततत्त्व व नत्रपदार्थके प्रतिपादक ) यथार्थ पारमेश्वर शास्त्रका, परमार्थ से वीतरागपना ही तात्पर्य है । (नि. सा./ता. वृ./१८७)। प्र. सा./त प्र./१४ सूत्रार्थज्ञानबलेन स्वपरद्रव्य विभागपरिज्ञानश्रद्धानविधानसमर्थत्वात्सुविदितपदार्थसूत्र. । - सूत्रोके अर्थ के ज्ञानबलसे स्वद्रव्य और परद्रव्यके विभागके परिज्ञानमें, श्रद्धानमें और विधानमें समर्थ होनेसे जो श्रमण पदार्थोंको और सूत्रोको जिन्होने भलीभाँति जान लिया है...। पं. का./त. प्र./३ ज्ञानसमयप्रसिद्धयर्थं शब्दसमयसंबोधनार्थसमयोऽभिधातुमभिप्रेत.। - ज्ञानसमयकी प्रसिद्धिके लिए शब्दसमयके सम्बन्घसे अर्थसमयका कथन करना चाहते हैं। प्र. सा./ता. वृ /८१,६०/१११/१६ ज्ञानात्मकमात्मानं जानाति यदि । पर च यथोचितचेतनाचेतनपरकीयद्रव्यत्वेनाभिसंबद्धम् । कस्मात निरच प्रत. निश्चयानुक्लं भेदज्ञानमाश्रित्य । यः स •मोहस्य क्षयं करोतीति सूत्रार्थः । अथ पूर्वसूत्रे यदुक्तं स्वपरभेद विज्ञानं तद'गमत' सिद्धयतीति प्रतिपादयति। यदि कोई पुरुष ज्ञानात्मक आत्माको तथा यथोचितरूपसे परकीय चेतनाचेतन द्रव्योंको निश्चयके अनुकूल भेदज्ञानका आश्रय लेकर जानता है तो वह मोहका क्षय कर देता है। और यह स्त्र-परभेद विज्ञान आगमसे सिद्ध होता है। पं. का /ता वृ./१७३/२५४/१६ श्रुतभावनाया' फलं जोवादितत्त्व विषये सक्षेपेण हेयोपादेयतत्त्वविषये वा संशत्रविमोह विभ्रमरहितो निश्चलपरिणामो भवति। - श्रुतभावनाका फल, जोवादि तत्त्वोके विषयमे अथवा हेयोपादेय तत्त्वके विषयमें संशय विमोह व विभ्रम रहित निश्चल परिणाम होना है। द्र स./टो /१/७/७ प्रयोजनं तु व्यवहारेण षड्व्यादिपरिज्ञानम्, निश्चयेन निजनिरञ्जनशुद्वात्मस वित्तिसमुत्पन्नपरमानन्दै कलक्षणसुखामृतरसास्वादरूपं स्वसंवेदनज्ञानम् । = इस शास्त्रका प्रयोजन व्यवहारसे तो षद्रव्य आदिका परिज्ञान है और निश्चयसे निज निरंजनशुद्वात्मसंवित्तिमे उत्पन्न परमानन्दरूप एक लक्षणवाले सुखा मृतके रसास्वादरूप स्वसवेदन ज्ञान है। द्र सं /टो /२/१०/६ शुद्धनयाश्रितं जीवस्वरूपमुपादेयं शेष चहेयम् । इति हेयोपादेयरूपेण भावार्थोऽप्यवनोद्धव्यः । - शुद्ध नयके आश्रित जो जीवका स्वरूप है, वह तो उपादेय है और शेष सब हेय है। इस प्रकार हेयोपादेय रूपसे भावार्थ भी समझना चाहिए। ३. निश्चय व्यवहार ज्ञानका समन्वय १. निश्चय ज्ञानका कारण प्रयोजन स. सा./आ/२६५ एतदेव किलात्मबन्धयोद्विधाकरणस्य प्रयोजन यद्गबन्धत्यागेन शुद्धात्मोपादानम् । वास्तवमें यही आत्मा और बन्धके द्विधा करनेका प्रयोजन है कि बन्धके त्यागसे शुद्धात्माको ग्रहण करना है। पं. का./त. प्र /१२७ एवमिह जीवाजीवयोर्वास्तवो भेद' सम्यग्ज्ञानिनां ___ मार्गप्रसिद्धयर्थ प्रतिपादित इति । = इस प्रकार यहाँ जीव और अजीवका वास्तविक भेद सम्यग्ज्ञानियोके मार्गकी प्रसिद्धिके हेतु प्रतिपादित किया गया है। स. सा/ता. वृ /२५ एवं देहात्मनो दज्ञानं ज्ञात्वा मोहोदयोत्पन्नसमस्तविकल्पजालं त्यक्त्वा निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्रे निजपरमात्मतत्त्वे भावना कर्तव्ये ति तात्पर्यम् । इस प्रकार देह और आत्माके भेदज्ञानको जानकर, महके उदयसे उत्पन्न समस्त विकल्पजालको त्यागकर निर्विकार चैतन्यचमत्कार मात्र निजपरमात्म तत्त्वमे भावना करनी चाहिए, ऐसा तात्पर्य है। प्र. सा./ता. वृ/१८२/२४६/१७ भेदविज्ञाने जाते सति मोक्षार्थी जीवः स्वद्रव्ये प्रवृत्ति परद्रव्ये निवृत्ति च करोतीति भावार्थ-भेद विज्ञान हो जानेपर मोक्षार्थी जीव त्वद्रव्यमे प्रवृत्ति और परद्रव्यमें निवृत्ति करता है. ऐसा भावार्थ है। द्र.सं/टी/४२/१८३/३ निश्चयेन स्वकीयशुद्धात्मद्रव्यं...उपादेय. । शेष च हेयमिति संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारज्ञानमिति ।... तेनैव विकल्परूपव्यवहारज्ञानेन साध्यं निश्चयज्ञान ... स्वस्य सम्यग निर्विकल्परूपेण वेदनं...निश्चयज्ञानं भण्यते। -निश्चयसे स्वकीय शुद्धात्मद्रव्य उपादेय है और शेष सब हेय है। इस प्रकार संक्षेपसे हेयोपादेयके भेदसे दो प्रकार व्यवहारज्ञान है। उसके विकल्परूप व्यवहारज्ञानके द्वारा निश्चयज्ञान साध्य है। सम्यक व निर्विकल्प अपने स्वरूपका वेदन करना निश्चयज्ञान है। २. निश्चय व्यवहारज्ञानका समन्वय प्र. सा./ता. वृ /२६३/३५४/२३ बहिरङ्गपरमागमाभ्यासेनाभ्यन्तरे स्वसवे___दनज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् । बहिरंग परमागमके अभ्याससे अभ्यन्तर स्वसंवेदन ज्ञानका होना सम्यग्ज्ञान है।। प. प्र / टी /२/२६/१४६/२ अयमत्र भावार्थः। व्यवहारेण सविकल्पा वस्थाया तत्वविचारकाले स्वपरपरिच्छेदकं ज्ञानं भण्यते। निश्चयनयेन पुनर्वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकाले बहिरुपयोगो यद्यप्यनीहितवृत्त्या निरस्तस्तथापीहापूर्वकविकल्पाभावाद्गौणत्वमिति कृत्वा स्वसवेदनज्ञानमेव ज्ञानमुच्यते । यहाँ यह भावार्थ है कि व्यवहारनयसे तो तत्त्रका विचार करते समय सविकल्प अवस्थामें ज्ञानका लक्षण स्वपरपरिच्छेदक कहा जाता है। और निश्चयनयसे वीतराग निविकल्प समाधिके समय यद्यपि अनी हित वृत्तिसे उपयोगमे से बाह्यपदार्थोंका निराकरण किया जाता है फिर भी ईहापूर्वक विकल्पोंका अभाव होनेसे उसे गौण करके स्वसंवेदन ज्ञानको ही ज्ञान कहते है। स.सा/ता. वृ/१६/१५४/८ हे भगवन्, धर्मास्तिकायोऽयं जीवोऽयमित्यादिज्ञेयतत्त्वविचारकाले क्रियमाणे यदि कर्मबन्धो भवतीति तहि ज्ञेयतत्त्व विचारो वृथेति न कर्तव्य' । नैवं वक्तव्यं । त्रिगुप्तिपरिणतनिवि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानज्ञेय अद्वैतनय २७० १. ज्ञानावरणीय कर्म निर्देश ज्ञानशद्धि- ना ज्ञानसमय-दे० समय । ज्ञानसागर-काष्ठा संघ नन्दितट गच्छ । गुरु परम्परा-वैश्वसेन विद्याभूषण, ज्ञान सागर । एक ब्रह्मचारी थे। कृतियें-अक्षर बावनी आदि हिन्दी रचनायें, कथा संग्रह तथा ब. मतिसागर के पठनार्थ एक गुटका। समय-वि.श. १७ (ई. श. १७ पूर्व)। (ती/३/४४२), (हिन्दी जैन साहित्य इतिहास/३७/डा० कामता प्रसाद)। कल्पसमाधिकाले यद्यपि न कत व्यस्तथापि तस्य त्रिगुप्तिध्यानस्याभावे शुद्धात्मानमुपादेयं कृत्वा आगमभाषया पुनः मोक्षमुपादेयं कृत्वा सरागसम्यक्त्वकाले विषयकषायवञ्चनार्थ कर्तव्य प्रश्न-हे भगवन् । 'यह धर्मास्तिकाय है, यह जीव है' इत्यादि ज्ञेयतत्त्वके बिचारकाल में किये गये विकल्पोसे यदि कर्मबन्ध होता है तो ज्ञेयतत्त्वका विचार करना वृथा है. इसलिए वह नहीं करना चाहिए। उत्तर-ऐसा नही कहना चाहिए। यद्यपि त्रिगुप्तिगुप्तनिर्विकल्पसमाधिके समय वह नहीं करना चाहिए तथापि उस त्रिगुप्तिरूप ध्यान्का अभाव हो जानेपर शुद्धात्मको उपादेय समझते हुए या आगमभाषामे एक मात्र मोक्षको उपादेय करके सरागसम्यक्त्वके काल मे विषयकषायसे बचनेके लिए अवश्य करना चाहिए।(न च. लघु/७)। और भी दे० नय/VIE/४ (निश्चय व व्यवहार सम्यग्ज्ञानमे साध्य साधन भाव )। ज्ञानज्ञेय अद्वतनय-दे० नय/11५। ज्ञानचन्द्र-वि०१७७५ (ई० १७१८) के एक भट्टारक। आपने पचा स्तिकायकी टीका लिखी है। (प का./प्र ३/प पन्नालाल )। ज्ञानचेतना-दे० चेतना । ज्ञानदान-दे० दान। ज्ञानदीपक-आ० ब्रह्मदेव (ई०१२६२-१३२३) द्वारा संस्कृत भाषामें रचा गया एक आध्यात्मिक ग्रन्थ । ज्ञानदीपिका-पं० आशाधर (ई०११७३-१२४३) की संस्कृत भाषा बद्ध एक आध्यात्मिक रचना। ज्ञाननय-दे० नय/I/४। ज्ञानपंचमो-कवि विद्धणु (ई०१३६६) कृत हिन्दी छन्दबद्ध रचना, जिसमें श्रुतपचमी बतका माहात्म्य दर्शाया है। ज्ञानपच्चीसी व्रत-चौदह पूर्वोकी १४ चतुर्दशी और ग्यारह अंगोकी ११ एकादशी इस प्रकार २५ उपवास करने। ॐ ह्रीं द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञानाय नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । (वत विधान संग्रह। पृ० १७३ ) (किशन सिह क्रियाकोश)। ज्ञान प्रवाद-अंग द्रव्यश्रुतज्ञानका पाँचवॉ पूर्व -दे० श्रतज्ञान/IIII ज्ञानभूषण-१. नन्दिसंघ ईडरगद्दी। पहले विमलकीर्ति के और पीछे भुवनकीर्ति के शिष्य हुए । कृतिया-आरम सम्बोधन काव्य तत्त्वज्ञान तरंगिनी, नेमि निर्वाण काव्य की पञ्जिका टीका, पूजाष्टक टीका, भक्तामर पूजा, श्रुतपूजा, सरस्वती पूजा. समयतत्वज्ञान तरंगिनी का रचना काल वि. १५६० भट्टारक काल वि. १५००-१९६२ (ई. १४४३-१५०५)। दे. इतिहास/७/४ । (ती./३/३४८) । २. सुरतगद्दी बीरचन्द के शिष्य/सुमति कीति की कृतियों का शोधन तथा उनके साथ कर्म प्रकृति, टीका लिखी। समय वि. १५८५-१६१६/ दे. इतिहास/७/४ । जै। ज्ञान मति-भूतकालीन २१वें तीर्थ कर-दे० तीर्थकर/५ ॥ ज्ञानमद-दे० मद । ज्ञानवाद-० वाद। ज्ञानविनय-विनय । ज्ञानशक्ति-(स.सा./आ/प्रशस्ति/शक्ति नं०४) साकारोपयोगमयी ज्ञानशक्तिः।- (ज्ञेय पदार्थोके विशेष रूपमें उपयुक्त होनेवाली आत्माकी एक ) साकारोपयोगमयी शक्ति अर्थात ज्ञान । ज्ञानसार-१. आ० देवसेन (ई०६३३-६५५) द्वारा रचित प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ । २. मुनि पद्यसिंह (ई. १०८६) कृत ६३ गाथा और ७४ श्लोक प्रमाण ग्रन्थ । विषय-कर्महेतुक संसार भ्रमण । (ती./३/ ज्ञानाचार-दे० आचार। ज्ञानाणव-आ० शुभचन्द्र (ई० १००३-११६८) द्वारा संस्कृत श्लोकोमे रचित एक आध्यात्मिक व ध्यान विषयक ग्रन्थ है। इसमें ४२ प्रकरण है और कुल २५०० श्लोक प्रमाण है। इस ग्रन्थपर निम्न टोकाए लिखी गयी-(१) आ० श्रुतसागर ( ई, १४८१-१४६६) ने 'तत्त्वत्रा प्रकाशिका टीका इसके गद्यभागपर लिखी, जिसमें शिवतत्त्र, गरुडतत्व और कामतत्त्व इन तीनों तत्त्वोका वर्णन है।(२) ५० जयचन्द छाबडा ( ई० १८१२) कृत भाषा वचनिका। ज्ञातावरण-जीवके ज्ञानको आवत करनेवाले एक कर्म विशेषका नाम इानावरणीय है। जितने प्रकारका ज्ञान है, उतने ही प्रकारके ज्ञानावरणीय कर्म भी है और इसीलिए इस कर्म के संख्यात व असख्यात भेद स्वीकार किये गये है। १. ज्ञानावरणीय कर्म निर्देश १. ज्ञानावरणीय सामान्यका लक्षण स. सि./८/४/३८०/३ आवृणोत्यात्रियतेऽनेनेति का आवरणम् । स सि/4/2/३७८/१० ज्ञानावरणस्य का प्रकृतिः । अर्थानवगमः। - जो आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह आवरण कहलाता है।४। ज्ञानावरण कर्मकी क्या प्रकृति ( स्वभाव) है । अर्थका ज्ञान न होना । (रा. वा./८/४/२/५६७/३२), (८/३/४/५६७/२) ध १/१,१,१३१/३८१/६ बहिरङ्गार्थविषयोपयोगप्रतिबन्धकं ज्ञानावरणमिति प्रतिपत्तव्यम् । = बहिर ग पदार्थको विषय करनेवाले उपयोग का प्रतिबन्धक ज्ञानावरण कर्म है, ऐसा जानना चाहिए। ध.६/१६-१,५/६/८ णाणमवबोहो अवगमो परिच्छेदो इदि एयो । तमावरेदि त्ति णाणावरणीयं कम्मं । -ज्ञान, अवबोध, अवगम, और परिच्छेद ये सब एकार्थवाचक नाम है. उस ज्ञानको जो आवरण करता है, वह ज्ञानावरणीय कम है। द्र, सं/टी/३१/१०/१ सहजशुद्धकेवलज्ञानमभेदेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूत ज्ञानशब्दवाच्य परमात्मानं वा आवृणोतीति ज्ञानावरणं । - सहज शुद्ध केवल ज्ञानको अथवा अभेदनयसे केवलज्ञान आदि अनन्तगुणोके आधारभूत 'ज्ञान' शब्दसे कहने योग्य परमात्माको जो आवृत करै यानि ढकै सो ज्ञानाबरण है। *ज्ञानावरण कर्मका उदाहरण-दे० प्रकृति बन्ध/३ । हा २. ज्ञानावरण कर्मके सामान्य पाँच भेद ष. खं १३/५.५/सू २१/२०१ णाणावरणीयस्स कम्मरस पंच पयडीओ आभिणियोहियणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं, ओहिणाणावरणीय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानावरण मणपजवणाणवारणीयं केवलणाणावरणीयं चेदि |२१| = ज्ञानावरण फर्मी पाँच प्रकृतियों है-अभिनिबोधिक (मति) ज्ञानावरणीय श्रुतज्ञानावरणीय अवधिज्ञानावरणीय, मन:पर्ययज्ञानावरणीय और ज्ञानावरणीय | २१.६/११-१२/१४/१५), (. आ./ १२२४ ); (त. सू./८/६ ), ( पं. सं / प्रा. / २/४ ), ( त सा / ५ / २४ ) * ज्ञानावरण व मोहनीयमें अन्तर दे० मोहनीय /१ ३. ज्ञानावरणके संख्यात व असंख्यात भेद १. ज्ञानावरण सामान्यके असंख्यात भेद ष. खं. १२ / ४,२,१४ / सू. ४/४७६ णाणावरणीयदं सणावरणीयकम्मरस असंखेज्जलोगपयडीओ |४| = ज्ञानावरण और दशनावरणकी असंख्यात प्रकृतियों है ( रा. वा/९/१३/१३/६१/३०), (रा. वा / ८/१३/२/५८९१/४ ). २७१ ध. १२/४.२.१४,४/४७६/४ कुदो एत्तियाओं होंति त्ति णव्वदे। आवरपिज्जा- सागमखेोगमेतदुभादो प्रश्न उनकी प्रकृतियाँ इतनी हैं, यह कैसे जाना ? उत्तर- चूँकि आवरण के योग्य ज्ञान व दर्शन के असंख्यात लोकमात्र भेद पाये जाते है । स्याम /१०/२३८/०स्वानावरणनीयन्तरायक्षयोपशम विशेषादेवास्य मै मत्येन प्रवृज्ञानावरण और गोमन्तराय कर्मके क्षयोपदाम होनेपर उनकी (प्रत्यक्ष, स्मृति, शब्द व अनुमान प्रमाणोकी) निश्चित पदार्थोंमें प्रवृत्ति होती है। अर्थाद जिस समय जिस विषयको रोकनेवाला कर्म नष्ट हो जाता है उस समय उसी विषयका ज्ञान प्रकाशित हो सकता है, अन्य नही । ) २. मतिज्ञानावरणके संख्यात व असंख्यात भेद ष. ख. १३/५,५/सू. ३५/२३४ एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स कम्मस्स चविहं वा चदुवीसदिविधं वा अट्ठावीसदिविधं वा बत्तीसदिवि वा अदालोसविधं वा चोदा-सदविधं वादनिर्भया मामउदि सदविधं वा सद-अठासीदिवि मा सिद छत्तौसदिविधं वा तिसद चुलसीदिविध वा णादव्वाणि भवंति |३४| = इस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्मके चार भेद (अवग्रह, हा अनाथ धारणावरणीय); चौबीस ( उपरोक्त चारोको ६ इन्द्रियोंसे गुणा करनेसे २४) अट्ठाईस भेद बचीस भेद, अडताटीस भेद १४४ मे १४८ मे ११२ मे २४० भेद, २३६ भेद और ३०४ भेद ज्ञातव्य है (विशेष देखा मतिज्ञान/१) 1 घ. १२/४.२.१५,४/५०१/१३ मदिणाणावरणीयपयडीओ...असंखेज्जलोग्गमेत्ताओ। मतिज्ञानाबरणकी प्रकृतियाँ असंख्यात लोकमात्र है । म.पु. /११/०९ सम्पनोधर्मतिज्ञानस्योपमा १ मतिज्ञानके = I क्षयोपशम से युक्त होकर आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया। प.प. /उ. ४००,८५२.८२६ (स्वानुयावरण कर्म) । ३. श्रुतशनावरणीय संख्यात व असंख्यात मेद . ११/५.५/४४.४५.४८,२४० २६० दणाणावरणीयस्स कम्मस्स संखेज्जाओ पयडीओ | ४४ | जावदियाणि अक्खराणि अक्खरसंजोगा वा ४५० तस्सेव दणाणावरणीयस्स कम्मरस मीसदिविधा पहला कायव्वा भवदि |४७ | पज्जयावरणीयं पज्जयसमासावरणीयं अवखरावरणीयं अक्खरसमासावरणीयं पदावरणीयं पदसमासावरणीयं संवादावरणीय संघासमासावरणीय पश्वितावरणीय परिवतिसमासावरणीयं अणियोगद्दारावरणीय अणियोगद्दारसमासावरणीयं पाहुडपाहुडावरणीयं पाहुडपाहुडसमासावरणीयं पाहुडावरणीयं पाहुडसमासावरणीयं वत्थु आवरणीयं वत्थुसमासावरणीयं पुव्त्रावरणीयं - समासाभरणीयं ॥४८। - श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी संख्या तियाँ है ॥४४॥ जितने अक्षर हैं और जितने अक्षर संयोग है ( दे० १. ज्ञानावरणीय कर्म निर्देश अक्षर) उतनी श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ हैं ।४५। उसी त ज्ञानावरणीयकी २० प्रकारको प्ररूपणा करनी चाहिए 180 पर्याया वरणीय पर्यायसमासावरणीय, अक्षरात्ररणीय, अक्षरसमासावरणीय, पदावरणीय, पदसमासावरणीय, संघातावरणीय, संघातसमासावरपीय प्रतिपत्ति आवरणीय प्रतिपति समासावरणीय, अनुयोगद्वारामरणीय. अनुयोगद्वारसमासावरणीय प्राभृतप्राभृतावरणीय प्राभूतप्राभृतसमासावरणीय प्राभृताभरणीय, प्राभृतसमासावरणीय वस्तुआवरणीय वस्तुसमासावरणीय पूर्वावरणीय, पूर्वसमासावरणीय, ये श्रुतज्ञानावरण के २० भेद है। घ. १२/५.२.९५.४/५०२/२ दणाणावरणीयपयडीओ असं जालोगमेत्ताओ। श्रुतज्ञानावरणीयको प्रकृतियाँ असंख्यात लोकमात्र हैं । ४ अवधिज्ञानावरणीय के सख्यात व असंख्यात भेद ष, खं. १३/५.५/ सूत्र ५२ / २८६ ओहिणाणावरणीयस्स कम्मस्स असंखेजाओ यडीओ ॥३२ - ध. १३/५.५.५२ / २८१ / १२ असंखेज्जाओ त्ति कुदोवगम्मदे । आवरणिजस्स बहिणाणस्स असखेज्ज विपन्यत्तादो अवधिज्ञानावरण कर्म की । - असंख्यात प्रकृतियों है । १२ प्रश्न- असंख्यात है. यह किस प्रमाणसे जाना जाता है, उत्तर- क्योंकि, आवरणीय अवधिज्ञानके असंख्यात विकल्प हैं विशेष दे० अनि भेद) ध.१२/४.२-१५.४ (२०१/११) ५. मनः पर्यवदानावरणीयके संख्यात व असंख्यात भेद:१३/५/ सूत्र ६०-६२,७०/३२८-२२१.३४०| मन:पर्ययज्ञानावरणीय मन } ऋजुमति 1 वचन i काय 1 = जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ऋजु 1 1 मन विपुलमति अनऋजु घ. १२/४.२.१४.४/०२/३ मगज्जव मागावरणीय अससेज्जकल्पनेत्ताओ। मन पर्ययज्ञानावरणीय की प्रकृतियाँ असंख्यात कल्पमात्र है । 1 वचन काय ४. केवलज्ञानावरणकी एक ही प्रकृति है। . /१३/५.५/ सूत्र ८०/३४५ केवलणाणावरणीयस्स कम्मस्स एया चेव पपड़ी |८०| केवलज्ञानावरणीय कर्मको एक ही प्रकृति है। ५. ज्ञानावरण व दशनावरणके बन्ध योग्य परिणाम दे० वचन । १- ( अभ्याख्यान आदि वचनोंसे ज्ञानावरणीयकी वेदना होती है। व. सू. /६/१० रामदोषनियमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शना वरणयो |१०| स /सि/६/१०/३२८/५ एतेन ज्ञानदर्शनवत्सु तत्साधनेषु च प्रदोषादयो योज्यानिमित्वात् ज्ञानविषयाः प्रदोषादयो ज्ञानावरणस्य । दर्शनमिषाः प्रदोषाश्यों दर्शनावरणस्यैति ज्ञान और दर्शनके विषय में प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, आसादन, और ६ उपघात यज्ञानावरण और दर्शनावरण के आसन हैं |१०| ज्ञान और दर्शनवालोंके विषय में तथा उनके साधनोके विषय में प्रदोषादिकी योजना करनी चाहिए, क्योंकि ये उनके निमित्तसे होते हैं। अथवा ज्ञान सम्बन्धी प्रदोषादिक ज्ञानावरणके आस्रव हैं और दर्शन सम्बन्धी प्रदोषादिक दर्शनावरण के आसव हैं (मो.क./मू./८०० / १०६) Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानावरण २७२ २. ज्ञानावरणीय विषयक शंका-समाधान रा.वा./६/१०/२०/५१६/१० अपि च, आचार्योपाध्यायप्रत्यनीकत्वअकालाध्ययन-श्रद्धाभाव-अभ्यासालस्य-अनादरार्थ-श्रावण-शीर्थोपरोधबहुश्रुतगर्व-मिथ्योपदेश-बहुश्रुतावमान-स्वपक्षपरिग्रहपण्डितत्वस्व - पक्षपरित्याग-अवद्धप्रलाप-उत्सूत्रवाद-साध्यपूर्व कज्ञानाधिगमशारत्रविक्रय-प्राणातिपातादय ज्ञानावरणस्यास्रवा' । दर्शनमात्स र्यान्तराय-नेत्रोत्पाटनेन्द्रियप्रत्यनीकत्व-दृष्टिगौरव-आयतस्वापितादिवाशयनालस्य-नास्तिक्यपरिग्रह-सम्यग्दृष्टिसंदूषण-कृतीर्थ प्रशंसा, प्राणव्यपरोपण-यतिजनजुगुप्सादयो दर्शनावरणस्यास्रवाः, इत्यस्ति आस्रवभेदः।-( उपरोक्तसे अतिरिक्त और भी ज्ञानावरण व दर्शनाधरणके कुछ आसवोंका निर्देश निम्न प्रकार है ) ७. आचार्य और उपाध्यायके प्रतिकूल चलना;८. अकाल अध्ययनः ६. अश्रद्धा: १० अभ्यासमें आलस्यः ११. अनादरसे अर्थ सुनना; १२. तीर्थोपरोध अर्थात दिव्यध्वनिके समय स्वयं व्याख्या करने लगनाः १३. बहुश्रुतपनेका गर्वः १४. मिथ्योपदेश:१५ बहुश्रुतका अपमान करना; १६. स्वपक्षका दुराग्रहः १७. दुराग्रहवश असम्बद्ध प्रलाप करना १८ स्वपक्ष परित्याग या सूत्र विरुद्धबोलना:१६असिद्धसे ज्ञानप्राप्ति २० शास्त्रविक्रय और २ १.हिंसादिज्ञानावरणके आसबके कारण हैं। ७. दर्शन मात्सर्य: ८ दर्शन अन्तरायःह. आँखें फोडना;१०.इन्द्रियोंके 'विपरीत प्रवृत्ति;११.दृष्टिका गर्व,१२.दीर्घ निद्रा:१३.दिनमेंसोना; १४. आलस्य; १५. नास्तिकता; १६. सम्यग्दृष्टिमे दूषण लगाना; १७. कुतीर्थकी प्रशंसा; १८. हिंसा; और १६. यतिजनों के प्रति ग्लानिके भाव आदि भी दर्शनावरणीयके आसबके कारण है। इस प्रकार इन दोनोंके आस्रवमें भेद भी है। (त. सा./४/१३-१६) । * ज्ञानावरण प्रकृतिकी बन्ध उदय सत्व प्ररूपणा -दे० वह वह नाम * ज्ञानावरणका सर्व व देशघातीपना-दे० अनुभाग आवरणं भवेत, असतो वेति । किं चात' यदि सतामः परिप्राप्तात्मलाभत्वाव सत्त्वादेव आवृत्तिर्नोपपद्यते। अथासताम: नन्वावरणाभावः । न हि खरविषाणवदसदात्रियते ।४। न वैष दोषः। कि कारणम् । आदेशवचनात् ।...द्रव्यार्थादेशेन सतां मत्यादीनामावरणम्, पर्यायादिशेनासताम् ।...न कुटोभूतानि मत्यादीनि कानिचित् सन्ति येषामावरणात् मत्याद्यावरणानाम् आवरणत्वं भवेत् किन्तु मत्याद्यावरणसनिधाने आत्मा मत्यादिज्ञानपर्याय!त्पद्यते इत्यतो मत्याद्यावरणानाम् आवरणत्वम् ।६।-प्रश्न-कर्म विद्यमान मत्यादिका आवरण करता है या अविद्यमानका यदि विद्यमानका तो जब वह स्वरूपलाभ करके विद्यमान ही है तो आवरण कैसा ! और यदि अविद्यमानका तो भी खरविषाणकी तरह उसका आवरण कैसा उत्तर-द्रव्यार्थदृष्टिसे सत और पर्यायदृष्टिसे असद मति आदिका आवरण होता है। अथवा मति आदिका कहीं प्रत्यक्षीभूत ढेर नहीं लगा है जिसको ढक देनेसे मत्यावरण आदि कहे जाते हों, किन्तु मत्यावरण आदिके उदयसे आत्मामें मति आदि ज्ञान उत्पन्न नही होते इसलिए उन्हे आवरण संज्ञा दो गयी है। (प्रत्याख्यानाबरणकी भॉति)। (ध.६/१,६-१,५/७/३)। * आवृत व अनावृत ज्ञानांशोंमें एकत्व कैसे --दे० ज्ञान//४/३॥ * भभव्यमें केवल व मनःपर्यय ज्ञानावरणका सश्व कैसे -दे० भव्य/३/१। ३. सात ज्ञानोंके सात ही आवरण क्यों नहीं ध, ७/२,१,४५/८७/७ सत्तण्हं णाणाणं सत्त चेव आवरणाणि किण्ण होदि चे। ण, पंचणाणवदिरित्तणाणाणुवलंभा । मदि अण्णाण-सुदअण्णाणविभंगणाणमभावो वि णस्थि, जहाकमेण आभिणियोहिय-सुद ओहिणाणेसु तेसिमंतभावादो।प्रश्न-इन सातो ज्ञानोके सात हो आवरण क्यों नही । उत्तर नहीं होते, क्योकि, पाँच ज्ञानोके अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञान पाये नहीं जाते। किन्तु इससे मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञानका अभाव नहीं हो जाता, क्योंकि, उनका यथाक्रमसे आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, और अवधिज्ञानमे अन्तर्भाव होता है। २. ज्ञानावरणीय विषयक शंका-समाधान १. ज्ञानावरणको ज्ञान विनाशक कहें तो? ध.६/१,६-१,५/६/६ णाणविणासयभिदि किण्ण उच्चदे । ण, जीवलक्ख णाणं णाणद सणाणं विणासाभावा। विणासे वा जीवस्स वि विणासो होज्ज, लक्खणरहियलक्खाणुवलं भा। णाणस्स विणासाभावे सठबजीवाणं णाण त्थित्तं पसज्जदे चे, होदु णाम विरोहाभावा; अक्खरस्स अणतभाओ णिच्चुग्घाडियओ इदि सुत्ताणुकूलत्तादो वा । ण सव्वाबयवेहि णाणस्मुवलं भोहोदु त्ति बोत्तं जुत्तं, आव रिदणाणभागाणमुवलंभविरोहा ।-प्रश्न-'ज्ञानावरण' नामके स्थानपर 'ज्ञानविनाशक' ऐसा नाम क्यों नहीं कहा • उत्तर-नहीं, क्योंकि, जीवके लक्षणस्वरूप ज्ञान और दर्शनका विनाश नहीं होता है। यदि ज्ञान और दर्शनका विनाश माना जाये, तो जीवका भी विनाश हो जायेगा, क्योंकि, लक्षणसे रहित लक्ष्य पाया नहीं जाता। प्रश्न-ज्ञानका विनाश नहीं माननेपर सभी जीवोंके ज्ञानका अस्तित्व प्राप्त होता है ? उत्तरज्ञानका विनाश नहीं माननेपर यदि सर्व जीवोके ज्ञानका अस्तित्व प्राप्त होता है तो होने दो, उसमें कोई विरोध नहीं है। अथवा 'अक्षरका अनन्तवॉ भाग ज्ञान नित्य उद्घाटित रहता है' इस सूत्रके अनुकूल होनेसे सर्व जीवों के ज्ञानका अस्तित्व सिद्ध है। प्रश्न-तो फिर सर्व अवयवोंके साथ ज्ञानका उपलम्भ होना चाहिए (होन ज्ञानका नहीं)। उत्तर-यह कहना उपयुक्त नहीं है. क्योंकि, आवरण किये गये ज्ञानके भागोंका उपलम्भ मानने में विरोध आता है। २. ज्ञानावरण कम सद्भूतज्ञानांशका आवरण करता है या असदुभूतका रा. वा./८/६/४-६/५७१/४ इदमिह संप्रधार्यम्-सां मत्यादीनां कर्म ४. ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रवों में समानता कैसे हो सकती है रा.वा./७/१०-१२/५१८/४ स्यान्मतम्-तुल्यास्रवत्वादनयारेकरवं प्राप्नोति, तुल्यकारणानां हि लोके एकत्वं दृष्टमिति; तन्न; किं कारणम् । तुल्यहेतुत्वेऽपि वचनं स्वपक्षस्य साधकमेव परपक्षस्य दूषकमेवेति न साधकदूषकधर्मयोरेकत्वमिति मतम् ।१०... यस्य तुल्यहेतुकानामेकत्वं यस्य मृत्पिडादितुल्यहेतुकाना घटशरावादीना नानात्वं व्याहन्यत इति दृष्टव्याघात १२.. आवरणात्यन्तसंक्षये केवलिनि युगपत् केवलज्ञानदर्शनयोः साहचर्य भास्करे प्रतापप्रकाशसाहचर्यबत् । ततश्चानयोस्तुल्य हेतुत्वं युक्तम् ॥१३॥- प्रश्न-ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रवके कारण तुल्य है, अतः दोनों को एक ही कहना चाहिए, क्योंकि, जिनके कारण तुल्य होते हैं वे एक देखे जाते हैं। उत्तर-- तुल्य कारण होनेसे कार्यक्य माना जाये तो एक हेतुक होनेपर भी वचन स्वपक्षके हो साधक तथा परपक्षके ही दूषक होते हैं इस प्रकार साधक और दूषक दोनों धर्मोमे एकत्व प्राप्त होता है। एक मिट्टी रूप कारणसे ही घट घटी शराव शकोरा आदि अनेक कार्योंकी प्रत्यक्ष सिद्धि है। आवरणके अत्यन्त संक्षय होनेपर केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों, सूर्य के प्रताप और प्रकाशकी तरह प्रगट हो जाते हैं, अत' इनमें तुल्य कारणोंसे आस्रव मानना उचित है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानो २७३ ग्रन्थ २. ग्रन्थके भेद-प्रभेदध.६/४,१,६७/३२२-३२३ ग्रन्थकृति नाम स्थापना भाव नोआगम आगम नोआगम आगम ज्ञायकशरीर भावी तद्वयतिरिक्त नोश्रुत च्युत - च्यावित-- त्यक्त गून्थना बुनना वेष्टित | करना पूरना इत्यादि _लौकिक - -वेदिक - --सामायिक ज्ञानी-१. लक्षण स. सा/मू/७५ कम्मरस य परिणाम णोकम्मस्स य तहेव परिणाम । ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हव दि णाणी । -जो आत्मा इस कमके परिणामको तथा नोकर्म के परिणामको नहीं करता किन्तु जानता है. वह ज्ञानी है। आ. अनु/२१०-२११ "रसादिराद्यो भाग स्याज्ज्ञानावृत्त्यादिरन्वत । ज्ञानादयस्तृतीयस्तु ससार्येवं त्रयात्मक ।२१०। भागत्रयमयं नित्यमात्मानं बन्धवतिनम् । भागद्वयात्पृथक्कर्त यो जानाति स तत्त्ववित (२११। संसारी प्राणीके तीन भाग हैं-सप्तधातुमय शरीर, ज्ञानावरणादि कर्म और ज्ञान ।२१०। इन तीन भागोंमें से जो ज्ञानको अन्य दो भागोंसे करनेका विधान जानता है वह तत्त्वज्ञानी है।२११॥ स. सा./प. जयचन्द/१७७-१७८ ज्ञानी शब्द मुख्यतया तीन अपेक्षाओ को लेकर प्रवृत्त होता है-(१) प्रथम तो जिसे ज्ञान हो वह ज्ञानी कहलाता है, इस प्रकार सामान्य ज्ञानकी अपेक्षासे सभी जीव ज्ञानी हैं। (२) यदि सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानकी अपेक्षासे विचार किया जाय तो सम्यग्दृष्टिको सम्यग्ज्ञान होता है, इसलिए उस अपेक्षासे वह ज्ञानी है, और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है। (३) सम्पूर्ण ज्ञान और अपूर्ण ज्ञानकी अपेक्षासे विचार किया जाय तो केवली भगवान् ज्ञानी हैं और छद्मस्थ अज्ञानी हैं। * जीवको ज्ञानी कहने की विवक्षा-दे० जीव/१/२,३ । * ज्ञानीका विषय-दे० सम्यग्दृष्टि। * श्रुतज्ञानी-दे० श्रुतकेवली।। *ज्ञानीकी धार्मिक क्रियाए-दे० मिथ्याष्टिा४। ज्ञानेश्वर-भूतकालीन १७वं तीर्थ कर। दे० तीर्थंकर/५ । ज्ञायक-१ ज्ञायक शरीर-दे० निक्षेप/५ । २. ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध । दे० सम्बन्ध। बाह्य आभ्यन्तर द्रव्य भाव शयनासन - वास्तु क्षेत्र चतुष्पद धान्य धन द्विपद यान कुप्य भाण्ड ।।।।।। ।।।।।। मिथ्यात्व - स्त्री वेद पुरुष वेद नपुंसक वेद जुगुप्सा - क्रोध रति अरति शोक भय मान माया लोभ ज्ञय-१. ज्ञानमे ज्ञेयोका आकार । दे० केवलज्ञान/६। २ ज्ञान ज्ञेय सम्बन्ध । दे० संबन्ध । ज्ञेयार्थ-१.नेयार्थ परिणमन क्रिया-दे० परिणमन । ग्रन्थ-१. ग्रन्थ सामान्यका लक्षण ध.६/४,१,५४/२५६/१० “गणहरदेव विरइददचसुदं गंथो" गणधर देवसे रचा गया द्रव्पश्रुत ग्रन्थ कहा जाता है। ध.६/४,१,६७/३२३/७ ववहारणयं पडच्च खेत्तादी गंथो, अग्भतरगंथकारणन्तादो । एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं । णिच्छयणयं पडच मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारण तादो। तेसिं परिच्चागो णिग्गंधत्तं। - व्यवहार नयकी अपेक्षा क्षेत्रादि ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे अभ्यन्तर ग्रन्थके कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है । निश्चयनयकी अपेक्षा मिथ्यात्वादिक ग्रन्थ है, क्योंकि. वे कर्मबन्धके कारण है और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है। भ आ./वि /४३/१४१/२० ग्रन्यन्ति रचयन्ति दीर्थीकुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्थाः। मिथ्यादर्शनं मिथ्याज्ञानं असंयम' कषाया' अशुभयोगत्रयं चेप्यमी परिणामा । - जो संसारको गूथते हैं अर्थात् जो संसारको रचना करते हैं, जो संसारको दीर्घकाल तक रहनेवाला करते है, उनको ग्रन्थ कहना चाहिए। (तथा )-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, असंयम, कषाय, अशुभ मन बचन काय योग, इन परिणामोंको आचार्य ग्रन्थ कहते है। (मू.आ./४०९-४०८); (भ.आ./मू /१११८-१११६/११२४ ); (पु.सि.उ. ११६ मे केवल अन्तरंगवाले १४ भेद); (ज्ञानार्णव/१६/४+६मे उधृत)। त. सू./७/२६ क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमा' १२६ - क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य इन मौके परिमाणका अतिक्रम करना परिग्रह प्रमाणवतके पाँच अतिचार हैं । (प.प्र./पू /२/४६) द.पा./टी./१४/१५ पर उधृत = क्षेत्रं वास्तु धन धान्यं द्विपदं च चतुष्पदं । कुप्य भाण्डं हिरण्यं च सुवर्ण च बहिर्दश ।१! -- क्षेत्र-वास्तु: धन-धान्य द्विपद-चतुष्पद: कुष्य-भाण्ड; हिरण्य-सुवर्ण-ये दश बाह्य परिग्रह है। ३. ग्रन्थके भेदोंके लक्षण ध.१/४,१,६७/३२२/१० हस्त्यश्व-तन्त्र-कौटिल्य-वात्सायनादिबोधो लौकिकभावश्रुतग्रन्थः । द्वादशाङ्गादिबोधो वैदिकभावश्रुतग्रन्थः । नैयायिकवैशेषिकलोकायतसांख्यमीमांसकबौद्धादिदर्शनविषयबोधः सामायिकभावश्रुतग्रन्थ । एदेसि सद्दपर्वधा अक्रवरकबादीणं जा च गंथरयणा अक्षरकाव्यैर्ग्रन्थरचना प्रतिपाद्यविषया सा सुदर्गथकदी णाम । == (नाम स्थापना आदि भेदों के लक्षणोंके लिए दे० निक्षेप)हाथी, अश्व, तन्त्र, कौटिल्य, अर्थशास्त्र और वात्सायन कामशास्त्र आदि विषयक ज्ञान लौकिक भावश्रुत ग्रन्थकृति है। द्वादशागादि विषयक बोध वैदिक भाव श्रुत ग्रन्थकृति है। तथा नैयायिक वैशेपिक, लोकायत, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध इत्यादि दर्शनोंको विषय करनेवाला बोध सामायिक भावभुत ग्रन्थकृति है। इनको शब्द सन्दर्भ रूप अक्षरकाव्यों द्वारा प्रतिपाद्य अर्थको विषय करनेवाली जो ग्रन्थरचना की जाती है । वह श्रुतग्रन्थकृति कही जाती है। (निक्षेपों रूप भेदों सम्बन्धी-दे० निक्षेप)। * परिग्रह सम्बन्धी विषय -दे० परिग्रह । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-३५ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थसम ग्रन्थसम-द्रव्य निक्षेपका एक भेद दे० निक्षेप /५/८ । ( एक ग्रह - दे० प्रह । ग्रन्थिग्रन्थिम द्रव्य निक्षेपका एक भेद - दे० निक्षेप /५/६ । ग्रह -- १. अठालो ग्रहोंका नाम निर्देश ति.प./०/१५-२२ का भाषार्थ १. २. २. बृहस्पतिः ४, मंगल ५. शनि; ६. कालः ७ लोहित ८ कनक; ६. नील; १० विकाल; ११ केश ( कोश ); १२. कवयव ( कचयव ); १३. कनक संस्थान; १४. दुन्दुभक (दुन्दुभि); १५. रक्तनिभ: १६. नीलाभास; १७. अशोक संस्थानः १ स ११. रूपनिम (रूपनिर्भास) २०. समर्थ (कंस वर्ग ) २१. शंखपरिणामः २२ तिलपुरुष २३ २४ कर्ण (उदय) २५. पंचवर्ण २६. उत्पात २७ धूमकेतुः २८. वि; २६. नभः ३०, क्षाराशि: १९. विजिष्णु (विजविष्णु ): १२. सह ३३ संधि (शान्ति) २८ लेवर २२. अभिन ( अभिन्न सन्धि ); ३६. ग्रन्थि; ३७. मानवक ( मान ) ३८ कालक; ३६. कालकेतु; ४०. निलय; ४१ अनय ४२ विद्य, ज्जिह: ४३. सिंह: ४४. अलक; ४५. निर्दुःख, ४६. काल; ४७. महाकाल ४८. रुद्र; ४६. महारुद्र, ५०. सन्तानः ५१. विपुल; ५२. संभव; ५३. स्वार्थी; १४. सेम (लेमंकर); १५. र ६ निर्मन्त्रः ४०, ज्योतिष्माणः ४०. दिवस स्थित (दिशा) ५१. मिरत (विरज); ६०० वीतशोक; ६९. निश्चल २. ६२. भासुर: ६४. स्वयंप्रभः ६५. विजय ६६. वैजयन्त ६० सीमंजर ६८ अपराजित ६१- जयन्त ७०. विमल; ७१. अभयंकर; ७२. विकस; ७३. काष्ठी ( करिकाष्ठ ); ७४. ७५. ७८. अग्निज्वाल ७०. अशोक केतुः ७६. क्षीररस; ८०. अघ; ८१. श्रवण ८२. जलकेतुः ८३. केतु ( राहु ); ८४. अंतर ८५. एकसंस्थान; ६. अश्वः ८७ भावग्रहः महाग्रह, इस प्रकार ये ग्रहोंके नाम हैं। नोट- व्रकेटमें दिए गए नामें त्रिलोक सारकी अपेक्षा है । नं. १७; २६; ३८ : ३६; ४४; ५१: ५५ ७५ ७७ ये नौ नाम त्रिसा में नहीं है । इनके स्थानपर अन्य नौ नाम दिये हैं- अश्वस्थान; धूमः अक्ष; चतुपाद; वस्तून; त्रस्त; एकजटी; श्रवण ( त्रि. सा / ३६३ - ३७० ) * ग्रहोंकी संख्या व उनका लोकमें अवस्थान--- (दे० ज्योतिष देव/२)। ग्रहण- १. ज्ञानके अर्थमै F रा.वा./१/१/१/३/२५ हितमात्मसात्कृतं परिगृहीतम् इत्यनर्थान्तरम् । = आहित, आत्मसात् किया गया या परिगृहीत ये एकार्थवाची हैं । २. इन्द्रियके अर्थ में रा. वा /२/८/११/१२२/२५ यान्यमूनि ग्रहणानि पूर्व कृतकर्मनिर्वर्तितानि हिस्कृत स्वभावसामर्थ्यजनितभेदानि रूपरसगन्धस्पर्शशब्दग्राहकाणि रसनालागि जो यह पूर्व कृतकर्म निर्मित रूप रस, गन्ध, स्पर्श व शब्दको ग्रहण करनेवाली, चक्षु रसन घाण त्वक् और श्रोत्र रूप 'ग्रहणानि' अर्थात् इन्द्रियाँ हैं । ३. सूर्य व चन्द्र ग्रहणके अर्थ में त्रि. सा. / ३३६ / भाषा टीका- राहू तो चन्द्रमाको आच्छादे है और केतु सूर्यको अच्छा है. माहीको नाम ग्रहण कहिए है। विशेष ० ज्योतिष /८ * ग्रहण के अवसर पर स्वाध्याय करनेका निषेध ग्रहावती २७४ - दे० स्वाध्याय / २ - पूर्व विदेहकी एक विभंगा नदी- दे० लोक / ७ । घनमूल ग्राम - ( ति प /४/१३६८), वडपरिवेढो गामो । वृत्ति ( बाड ) से येष्टि ग्राम होता है। (४ १३/२२.६४/२३६/२) (/०६) म.पू./११/१६४-१६६ ग्रामवृत्तिपरिलेपमात्रा: स्युरुपिता थियाः शूद्रवर्षष्ठाः सारामाः जलाशयाः ॥ १६४॥ ग्रामा कुलतेनेष्टो निकृष्टः समधिष्ठित । परस्तरपञ्च स्यादसमृद्रकृत ॥१६५॥ क्रोश द्विकोशसीमानो ग्रामा. स्युरधमोत्तमा । संपन्नसस्यसुक्षेत्रा' प्रभूतवोदका ॥१६६॥ जिसमें माइसे घिरे हुए घर हों, जिसने अधिक तर और किसान लोग रहते हों तथा जो बगीचा और " बोसे सहित हो उन्हें ग्राम कहते हैं। १४ जिसमे सौ पर हॉ उसे छोटा गॉव तथा जिसमें ५०० घर हों और जिसके किसान धनसम्पन्न हों उसे बडा गाँव कहते हैं ।१६५। छोटे गाँवकी सीमा एक फोकी और बड़े गाँवकी सीमा दो कोकी होती है । १६६६ ग्रास (ह. पु / ११ / १२५ ) सहस्र सिक्थ कवलो । १००० चावलोंका एक कवत होता है। (१३/५.४,२६/२६/६) * स्वस्थ मनुष्योंके आहार में प्रासोका प्रमाण -३०/1/ = ग्राह्य -१ ग्राह्य ग्राहक संबंध दे० संबंध । २ ग्राह्य वर्गणा(दे० वर्मा)। ग्रीवावनमन --- कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ ग्रीवोन्नमन - कायोत्सर्गका एक अतिचार दे० व्युत्सर्ग / १ | ग्रैवेयक कल्पातीत स्वर्गोका एक भेट - दे० स्वर्ग /१/४ : ५/२ | रावा. /४/११/२/२० लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थानीयत्वात् ग्रीवाः, ग्रीवासु भवानि चैवेयकाणि विमानानि तासापर्यात् इन्द्रा अपिवेका। पुरुषमकी तरह वेवक है। जीवामें स्थित हों वे डोक विमान है। उनके साहचर्य से महक इन्द्र भी हैं। ग्लान (स.सि /६/२४/४४२ / ८) रुजादि क्लिष्टशरीरो ग्लानः- रोग आदिमे कान्त शरीरवाला ग्लान कहलाता है। ( रा. वा./१/२४/७/ ६२३/१६) ( सा ९५९/३) ग्लानि १. घृणा या ग्लानिका निषेध दे० निर्विचिकित्सा । २. मोक्ष मार्ग में जुगुप्साकी कर्मचा अनिष्टता दे० सूतक [घ] घटा - चौथे नरकका ७ पटल- दे० नरक/५/११ । घटिका घड़ी परस्पर गुणना । घन - Cube अर्थात् किसी राशिको तीन बार घनधारा- १. घनधारा, २. द्विरूप घनधारा ३. धनमातृकाधारा; ४. द्विरूप घनाघनधारा- दे० गणित / II /५/२ घन प्रायोगिक शब्द - (दे० शब्द ) | -कालका एक प्रमाण ( अपर नाम घडी या नाली ) - दे० गणित / I / १ / ४ । कालका एक प्रमाण ( अपर नाम घटिका या नाली ) • - दे० गणित //१/४ । घनफल - (ज. प./प्र./ १०६ ) Volume - दे० गणित / II / ७ / १ । घनफल निकालनेका प्रक्रिया दे०/II/७/१ । घनमूल - Cube root-३० गणित / 13/१/८ ( प्र प्र १०६) (5, 1/920) 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घनलोक घनलोक Volume of Uraverse (दे० गणित/1/९/३)(दे० प्रमाण /५). (ज. १०६) - घनवात - Atmosphere दे० घनांगुल (a ) -- दे० मगित / 1 / 21 घातायुष्क दे० मिथ्यादृष्टि । --- घनाकार - Cube ( ज. प . / प्र १०६ ) । घनाघन -द्विरूप घनाघनधारा- दे० गणित II / ५ । घनोदधि वात -- दे० वातवलय । धम्मा-प्रथम नरककी पृथिवी दे० रत्नप्रभा तथा सरक /५/९ । घाटा - चौथे नरकका ६ठा पटल- दे० नरक /५/११ घात - १. दूसरे नरकाका ५वॉ पटल - दे० नरक / ५/११२. परस्पर गुणा करना -- दे० गणित / II/१/५ । ३. घात निकालना = Raising of numbes to given Power ध / पु. ५/प्र २७ । * अनुभाग व स्थिति काण्डका घातकृष्टि - ३० कृष्टि घातांक - Theory of indices या Powers, (ध. / ५५/प्र.२७) विशेष ३० गणित / IT/RE - - वलय ) .. १०६ घाती- १. घाती, देशवाती व सर्वघाती प्रकृतियाँ- दे० अनुभाग । २. देश व सर्वघाती स्पर्धक - दे० स्पर्धक । घुटुक ( पा. पु. / सर्ग / श्लो. ) । विद्याधर कन्या हिडिम्बा से भीमका पुत्र था ( १४/५९-६५) महाभारत युद्धमें अश्वत्थामा द्वारा मारा गया (२०/२१८-२१) " घोर पराक्रम -- दे० ऋद्धि/५ । -- ३० अपकर्षण / ४ । । घृणा करनेका निषेध दे० निर्विचिकित्सा मोक्षमार्ग मे जुगुप्सा भावकी कथंचित् इष्टता अनिष्टता- दे० सूतक । घृतवर -- १. मध्यलोकका ६टाँ द्वीप व सागर - दे० लोक /५ । २. उत्तर धृतवरद्वीपका अधिपति व्यंतर देव - दे० व्यंतर / ४ । घृतस्रावी -दे० अखि ऋद्धि । घोटकपाद कायोत्सर्गका अतिचार-दे० व्युत्सर्ग / १ । घोटमान० दे० घोलमान । घोर गुण ब्रह्मचयं दे० ४/५ । घोर तप दे० /१ । घोलमान-हानि वृद्धि सहित अनवस्थित भावका नाम पोसमान है— निशेष देखो पोसमान योगस्थान दे० योग/१ और गुणित क्षपित घोलमान कर्माशिक ( क्षपित ) । २७५ = 1 घोष - घ. १३/४,५,६३/३३६/२ घोषो नाम ब्रज । घशेषका अर्थ बज है । म../१६/१०६ तथा पोषकरादीनामपि लक्ष्य विकल्प्यताम् । - इसी प्रकार घोष तथा आकर आदिके लक्षणोंकी भी कल्पना कर लेनी चाहिए, अर्थात् जहाँ पर बहुत घोष ( अहीर ) रहते हैं उसे ( उस ग्राम को) घोष कहते है । घोष प्रायोगिक शब्द — दे० शब्द | घोषसम द्रव्यनिक्षेप - दे०/ चंद्रकीर्ति घ्नत गणितकी गुणकार विधिमे गुण्यको गुणकार द्वारा घ्नत किया कहा जाता है - दे० गणित / II / १ / ५ । घ्राण - दे० इन्द्रिय / १ । [ चंचत -- सौधर्म स्वर्गका ११ व पटल-दे० स्वर्ग /५/३ । चंड - ई० पू० ३ का एक प्राकृत विद्वान् जिन्होने 'प्राकृत लक्षण' नामका एक प्राकृत व्याकरण लिखा है । (ष. प्र. ११८ ) । चंडवेगा-भरत क्षेत्रके वरुण पर्वत पर स्थित एक नदी -३० मनुष्य ४ । चंडशासन - ( म. पु./६० / ५२-५३ ) मलय देशका राजा था। एक समय पोदनपुर के राजा वसुषेण से मिलने गया, तब वहाँ उसकी रानीपर मोहित होकर उसे हर ले गया । चंद । -अपर विदेहस्य देवमाल वक्षारका कूट व देव-दे० लोक / ७ । चंदन कथा - ० शुभचन्द्र (३० १२९६ ९२२६) द्वारा रचित -- संस्कृत छन्दबद्ध ग्रन्थ । (दे० शुभचन्द्र ) - ६ चंदन षष्ठो व्रत ६ वर्ष तक प्रतिवर्ष भाद्रपद कृष्णा की छपवास करे। उस दिन तीन काल नमस्कार मंत्र का जाप्य करे। श्वेताम्बरों की अपेक्षा उस दिन उपवासकी बजाय चन्दन चर्चित भोजन किया जाता है। ( व्रत- विधान संग्रह / पृ, ८६, १२६ ) ( किशन सिंह क्रिया कोश ) ( नवल साहकृत वर्धमान पुराण ) । ०१ चंदना (म. पु/७५/ श्लोक नं) - पूर्वभव न०२ मे सोमिला आणी भी 1०३ पूर्व न०२ में कंडा नामकी राजपुत्री थी १८२॥ पूर्वभव में लता नामकी राजपुत्री की वर्तमान भव मे चन्दना नामकी राजपुत्री हुई । १७०| वर्तमान भव में राजा चेटककी पुत्री थी, एक विद्याधर कामसे पीडित होकर उसे हर ले गया और अपनी स्त्रीके भय से महा अटवीमें उसे छोड़ दिया। किसी भीलने उसे वहाँ से उठाकर एक सेठको दे दी। सेठकी स्त्री उससे शंकित होकर उसे कोजो मिश्रित कोदोंका आहार देने लगी। एक समय भगवान् महावीर सौभाग्य से चयति लिए आये तब चन्दनाने उनको कोदोका ही आहार दे दिया, जिसके प्रतापसे उसके सर्व बन्धन टूट गये तथा वह सर्वागसुन्दर हो गयी (म.पु. ०४/१३०-३४७) तथा ( म.पू./०५/२००,३५०००) ( म.पू. / ०३ / श्लो. नं.) स्त्रीलिंग ग भवमें अच्युत स्वर्गदेव हुआ । १७३१ महाँसे चलकर मनुष्य भव धारण कर मोक्ष पाएगा ।१७७ (ह.पु. /२/७०) । - चंद्र १. अपर विदेहस्थ देवमाल वक्षारका एक कूट व उसका रक्षक देव; - (दे० लोक / ५ / १०२. सुमेरु परंतुके नन्दन आदि के उत्सर भागमे स्थित कुबेरका गुफादे० लोक/३/६४२ रुप पका एक कूट० सोम /२/१३ ४. सोच स्वर्गकारावा पटल दे० स्वर्ग//३४. दक्षिण अमरीका रक्षक उपग्तर देन - दे० व्यन्तर /४, ६. एक ग्रह । दे० ग्रह । 1 २. चन्द्रग्रह सम्बन्धी विषय दे० ज्योतिष देव / ४ । चंद्र महत्तर दे परिशिष्ट चंद्रकल्याणक व्रत - दे० कल्याणक व्रत । चंद्रकीर्ति - १. नन्दिसंघके देशीयगणकी गुर्वावली के अनुसार आप मल्लधारी देवके शिष्य और दिवाकर नन्दिके गुरु थे। समय- वि. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रगिरि २७६ चक्रवान् ११००-११३० ( ई० १०४३-१०७३ )-दे० इतिहास/0/५। २ वि -दे० इतिहास/0/५। २ वि १६५४ -१६८१(ई० १५१७ -११२४) के एक भट्टारक थे जिन्होने वृपभ देवपुराण, पद्मपुराण पार्श्व पुराण और पार्श्व पूजा लिखे । (ती./२/४४१) चंद्रगिरि- श्रवणबेलगोलामे दो पर्वत स्थित हैं-एक विन्ध्य और दूसरा चन्द्र गिरि । इस पर्वतपर आचार्य भद्रबाहू द्वितीय और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त ( सम्राटू ) की समाधि हुई थी। चन्द्रगुप्त १-मालवा के राजा थे जिन्होंने मन्त्री शाकटाल तथा चाणक्य की सहायता से बो. नि. २१५ में नन्दवंश का नाश करके मौर्यवंश की स्थापना की थी। (भद्रमाहु. चारित्र/३/८) । (दे, इतिहास/३/४)। ई.पू. ३०५ (वि. नि. २२२) में पजाब प्रान्त में स्थित सिकन्दर के सूबेदार सिलोकस को परास्त करके उसकी कन्या से विवाह किया था। ति. प./४/१४८१ के अनुसार ये अन्तिम मुकुटधारी राजा थे जिन्होंने जिनदीक्षा धारण की थी। हरिषेण कृत कथा कोष में कथा नं० १३१ के अनुसार आप पंचम श्रुतकेवली भद्रबाहु प्र के शिष्य विशाखाचार्य थे। (कोश १ परिशिष्ट/२/३) तिल्लोय पण्णति में तथा नन्दि संघ को पट्टावली में कथित श्रुतधरी की परम्परा से इस मत की पुष्टि होती है। (दे. इतिहास/४/४)। श्रवण बेल गोल से प्राप्त शिलालेख नं. ६४ में भी इन्हें भद्रबाहु प्र का शिष्य बताया गया है (ष. ख, २/प्र.४/H. L. Jain) सम्भवत. जैन होने के कारण इनको हिन्दू पुराणों ने मुरा नामक दासी का पुत्र कह दिया है, और मुद्रा राक्षस नाटक में चाणक्य के मुख से इन्हे वृषल कहलाया गया है। परन्तु वास्तव में ये ब्राह्मण थे। (जै०/पी./३५२) । इनसे पूर्ववर्ती नन्द वंश के राजाओं को भी शुद्राका अथवा नाई का पुत्र कहा गया है । दे आगे नन्दवंश । समय -जैनागम के अनुसार मो. नि. २१५-२५५ (ई०पू० ३१२-२७२); जैन इतिहास के अनुसार ई. पू. ३२६-३०२, भारतीय इतिहास के अनुसार ई.पू ३२२-२६८ । (दे० इतिहास/३/४) । चन्द्रगुप्त २-मगध सम्राट अशोक के प्रपौत्र सम्प्रतिका अपर नाम । समय-जैन इतिहास के अनुसार ई.पू. २२०-२११ (दे. इति/३/४ चंद्रप्रज्ञप्ति- अंग, वद्रप्रज्ञाप्त-१. अंग श्रुतज्ञानका एक भेद-दे० श्रुतज्ञान III/ १/४२ । २. सूर्य प्रज्ञप्ति की नकल मात्र एक श्वेताम्बर ग्रन्थ । जै./२/ १६.६०) ३. आ० अमितगति (ई०६१३-२०१६) द्वारा रचित सस्कृत ग्रन्थ। चंद्रप्रभ-आप जयसिह सुरिके शिष्य थे। आपने प्रमेयरस्नकोष तथा दर्शनशुद्धि नामक न्याय विषयक ये दो ग्रन्थ लिखे है। समय ई० ११०२-(पायावतार/४/ सतीशचन्द्र विद्या भूषण )। चंद्रप्रभ चरित्र.-१ आ. वीरनन्दि (ई. १५०-६EE) कृत महर काव्य (तो /३/१५) २. आ. श्रीधर (ई० श०१४ ) का प्राकृत रचना। ३. आ. शुभचन्द्र (ई० १५१६-१५५६) की संस्कृत रचना (ती/३६७) चंद्रप्रभु-(म.पु./५४/श्लोक न.) पूर्वभव नं०७ मे पुष्वरद्वीप पूर्वमेरु के पश्चिममें सुगन्धि देशके श्रीवर्मा नामके राजा थे।७३-७६। पूर्व भव नं०६ मे श्रीप्रभ विमानमे श्रीधर नामक देव हुए ।८पूर्वभव नं०५ मे धातकीरखण्ड द्वीप पूर्वमेरुके भरत क्षेत्रमें अलकादेशरथ अयोध्याके अजितसेन नामक राजा हुए 1६६-६७) पूर्वभव न०४ मे अच्युतेन्द्र हुए ।१२२-१२६। पूर्व भव न ० ३ मे पूर्वधातकीरवण्डमे मंगलावती देशके रत्नसंचय नगरके पद्मनाभ नामक राजा हुए ।१४३। पूर्व भव नं०२ मे वैजयन्त विमानमे अहमिन्द्र हुए ।१५८-१६२। और वर्तमान भवमे आठवें तीर्थ कर चन्द्रप्रभुनाथ हुए- दे० तीर्थकर/५ । चंद्रभागा-पंजाबको वर्तमान चिनाब नदी (म.पु /प्र.५०/पं. पन्नालाल)। चंद्रवंश-दे० इतिहास/RBT चंद्रशेखर--(पा.पु./१७/श्लोक नं) विशालाक्ष विद्याधरका पुत्र था 1४६। अर्जुनने वनवास के समय इसक) हराकर अपना सारथी बनाया था ।३७-३८ तब इसकी सहायतारो विजया पर राजा इन्द्रकी सहायता की थी। चंद्रसेन-पंचस्तुप संघकी गुर्वावलीके अनुसार आप आर्य नन्दिके गुरु थे। समय-ई० ७४२-८७३ । ( आ. अनु/प्र ८JA, N Up); (सि.वि /प्र./४२ पं महेन्द्र), (और भी दे० इतिहास/9/७)। चंद्राभ-१ विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । २, लौकान्तिक देवोंकी एक जाति-दे० लौकान्तिक । ३. ११वें कुलकर-दे० शलाका पुरुष/६ । चन्द्रगुप्त ३-गुप्तव श का प्रथम राजा जिसने गुप्तों की बिखरी हुई शक्ति को समेट कर मगध को विस्तृत भूमि पर एक छत्र साम्राज्य की स्थापना की और उसके उपलक्ष्य में गुप्त संवत् प्रचलित किया। समय-ई. ३२०-३३० । (दे. इतिहास/३/४) चन्द्रगुप्त ४-गुप्त वंश का तृतीय पराक्रमी सम्राट, अपर नाम विक्रमादित्य । समय---बी. मि. १०१-१३६ (ई. ३७५-४१३) । (दे० इतिहास/३/४)। चंद्रबह-उत्तरकुरुके दस बहोमेसे दोका नाम चन्द्र है-दे० लोक/१६ चद्रनदि-१. भगवती आराधनाकार शिवार्य के दादागुरु। अपर नाम कर्म प्रकृत्याचार्य। समय-ई. श. १ का प्रारम्भ । (भ. आ./ प्र १६/प्रेमी जी) । २. कुमारनन्दि के गुरु । शक ६३८ (ई.७१६)।। (जै ०/२/८७)। चंद्रोदय---आ. प्रभाचन्द्र नं. ६ ( ई०७६७)का न्याय विषमक ग्रन्थ । चंपा-१. विजया की उत्तरश्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । २. वर्तमान भागलपुर (म.पु./प्र.४६/पं. पन्नालाल)। चक्र-१, सनत्कुमार स्वर्गका प्रथम पटल-दे० स्वर्ग 1४३:२, चक्रवर्ती का एक प्रधान रन-दे० शलाका पुरुष/२, ३. धर्मचक्र-दे० धर्मचक्र । चक्रक-वादोका बात करते हुए पुनः-पुनः घूमकर वहीं आ जाना चक्रक दोष है : ( श्लो. वा/४/न्या. ४५६/५५५) । चक्रपुर-भरतक्षेत्रका एक नगर- दे. मनुष्य ४ । चक्रपुरी-अपर विदेहके वल्गु क्षेत्रकी प्रधान नगरी-दे० लोक/५/२। चक्रवर्ती-बारह चक्रवर्तियो का परिचय-दे० शलाकापुरुष/ । चक्रवान-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। चंद्रनखा-(पपु./७/२२५ ) रत्नप्रवाकी पुत्रो और रावणकी बहन थी । ( प.पु/७/४३ ) खरदूषण की स्त्री थी। (प पु/७८/६५) रावणको मृत्युपर दीक्षा धारण कर ली। चंद्रपर्वत--विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । चंद्रपुर-विजया की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रायुध २७७ चतुष्टय चक्रायुध १-(म पु/सर्ग/श्लोक न.)। पूर्वभव नं १३ मे मगध देशके राजा श्रीपेणकी स्त्री आनन्दिता थी। (६२/४० )। पूर्वभव नं १२ मे भोमिज आर्य था। (६२/३५७-३५८ ) । पूर्वभव नं. ११ मे सोधर्म स्वर्गमे विमलप्रभ देव हुआ। (६२/३७६ ) । पूर्व भव नं. १० मे त्रिपृष्ठ नारायणका पुत्र श्रीविजय हुआ। (६२/१५३)। पूर्व भव न. हमे तेरहवें स्वर्ग मे मणिचूलदेव हुआ। (६२/४११) पूर्वभवं नं. ८ में वत्सकावतो देशको प्रभाकरी नगरीके राजा स्तिमितसागरका पुत्र नारायण 'अनन्तवीर्य' हुआ । (६२/४१४)। पूर्वभव न 0 में रत्नप्रभा नरकमे नारकी हुआ। (६/२५)। पूर्वभत्र नं. ६ मे विजयार्धपर गगनवल्लभनगरके राजा मेघाहनका पुत्र मेबनाद हुआ। (६३/ २८-२६) । पूर्व भव नं. ५ मे अच्छत स्वगमे प्रतीन्द्र हुआ (६३/३६) । पूर्वभव न. ४ मे बज्रायुधका पुत्र सहस्रायुध हुआ।। ६३/१५) पूर्वभव नं.३ में अधोग्रे वेयकमे अहमिन्द्र हुआ। (६३/१३८ १४१)। पूर्वभव नं.२ मे पुष्कलावती देशमे पुण्डरीकनी नगरी के राजा धनरथका पुत्र दृढरथ हुआ। (६३/१४२-१४४ ) । पूर्व भव नं १ में सर्वार्थ सिद्रिमे अहमिन्द्र हुआ। (६३/३३६-३७)। वर्तमान भवमे राजा विश्वसेनका पुत्र शान्तिनाथ भगवान्का सौतेला भाई (६३/४१४) हुआ। शान्तिनाथ भगवान के साथ दीक्षा धारण की (६३/४७६)। शान्तिनाथ भगवान के प्रथम प्रधान गणधर बने । (६३/४८६) । अन्तमें मोक्ष प्राप्त किया ( ६३/५०१)। (म. पु./६३/५०५-५०७ ) मे इनके उपरोक्त सर्व भवोंका युगपत् वर्णन किया है। चक्रायुधर-(म पु/५/श्लोक न)-प्रवभव नं ३. मे भद्र मित्र सेठ: पूर्वभव नं. २ मे सिंहचन्द्र, पूर्व भव नं १ मे प्रीतिकर देव था। ( ३१६ ) । वर्तमान भवमें जम्बूद्वीपके चक्रपुर नगरका राजा अपराजितका पुत्र हुआ।२६६। राज्यकी प्राप्ति कर 1२४४। कुछ समय पश्चात् अपने पुत्र रत्नायुधको राज्य दे दीक्षा धारण कर मोक्ष प्राप्त की ।२४५॥ चक्रायुध ३-स्व. चिन्तामणिके अनुसार यह इन्द्रायुधका पुत्र था. वत्सराजके पुत्र नागभट्ट द्वि.ने इसको युद्धमे जीतकर इससे कन्नौजका राज्य छीन लिया था। नागभट्ट व इन्द्रायुधके समयके अनुसार इसका समय वि ८४०-८५७ (ई. ७८३-८००) आता है। ( ह. पु/प्र ५/पं पन्नालाल ।। चक्रेश्वरो-भगवान् ऋषभदेवकी शासक यक्षिणी-दे० तीर्थकर १३ चक्षु-१. चक्षु इन्द्रिय-दे० इन्द्रियः २. चक्षुदर्शन-दे० दर्शना ५ । ३. चश्नु दर्शनावरण-दे० दर्शनाबरण । चक्षुष्मान्-१. दक्षिण मानुषोत्तर पर्वतका रक्षक व्यन्तर देव-दे० का 14 व्यन्तर देव-दे. व्यन्तर ।४।२ अपर पुष्कराधका रक्षक व्यन्तर देव-दे० व्यन्तर ४) ३ आठवें कुलकर-दे० शलाका पुरुष ।।। चतुरक-ध. १२/8,२,७,२१४/१७०/६ एत्य अस खेज्जभागवड्ढीएचत्तारि अंको । असंख्यातभाग वृद्धिकी चतुरंक संज्ञा है। (गो. जी./मू./३२५/६८४)। चरिद्रिय-१ चतुरिन्द्रिय जीव-दे. इन्द्रिय ।४।२.चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्म-दे० जाति १। चतुर्थच्छे द-Number of times that a number can be _devided by 4 (ध / ५/प्र.२७ ) विशेष-- दे० गणित/II/२/१। चतुर्थभक्त-एक उपवास-दे० प्रोषधोपवास ।। चतुर्दश-१. चतुर्दश गुणस्थान-दे० गुणस्थानः २. चतुर्द श जीब समास-दे० समास; ३. चतुर्दश पूर्व-दे० श्रुतज्ञान /III/ ४. चतुर्दश पूवित्व ऋद्धि-दे० ऋद्धि ।। ५. चतुर्दश पूर्वी-दे० श्रुतकेवली; ६. चतुर्दश मार्गणा-दे० मार्गणा । त-१४ वर्ष पर्यन्त प्रतिमासकी दोनों चतुर्दशियोंको १६ पहरका उपवास करे। लोदके मासों सहित कुल ३४४ उपवास होते है । ॐ ह्रीं अनन्तनाथाय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । (चतुर्दशी व्रत कथा ), (बत विधान संग्रह/पृ. १२४ ) । चोप-भारतके सीमान्तपर तीन और देश माने जाते हैसोदिया, बैक्ट्रिया, सरियाना। भारत सहित यह चारो मिलकर चतुर्कीप कहलाते है। तहाँ सोदिया तो 'भद्राश्व' द्वीप है, और बैक्ट्रिया, एरियान व उत्तरकुरुमे 'केतुभाल' द्वीप है। (ज. प./प्र. १३८/A N. Up व. H. L. Jain). चतुर्भुज-यह जयपुर निवासी थे। बैरागीके नामसे प्रसिद्ध थे। प्रायः लाहौर जाते थे, तब वहाँ कवि खरगसेनसे मिला करते थे। समय-वि. १६८५ (ई १६२८ ) मे लाहौर गये थे। (हि. जैन, साहित्य इतिहास/पृ. १५५/ कामता प्रसाद )। चतभेज समलम्ब-Trapezium. (ज. प./प्र.१०६ )। १. साधुओके लिए चतुर्मास करनेकी आशा-दे० पाद्य स्थिति कल्प; २. चतुम सधारण विधि-दे० कृतिकर्म/४ । चतुमुखभा. पा./टी./१४६/२६३/१२ चतुर्दिक्षु सर्वसभ्यानां सन्मुखस्य दृश्यमानत्वात् सिद्धावस्थायां तु सर्वत्राबलोकनशीलत्वात चतुर्मुख' । अर्हन्त अवस्थामे तो समवशरण मे सर्व सभाजनौको चारों ही दिशाओमें उनका मुख दिखाई देता है इसलिए तथा सिद्धावस्थामे सर्वत्र सर्व दिशाओमे देखनेके स्वभाववाले होनेके कारण भगवान् का नाम चतुर्मुख है। चतुमुंख-मगधकी राज्य वंशावलीके अनुसार यह राजा शिशुपाल का पुत्र था। वी. नि. १००३ में इसका जन्म हुआ था। ७० वर्षकी कुल आयु थी। ४० वर्ष राज्य किया। अत्यन्त अत्याचारी होनेके कारण करकी कहलाता था। हूणवंशी मिहिर कुल ही चतुर्मुख था। समय-वी. नि. १०३३-१०७३ (ई. ५०६-५४६) 1-दे० इतिहास/३/२, व-पदुपचासी और हरिवंश पुर।णके कर्ता एक अपभ्रश कवि । समय- कवि स्वयम्भू (ई ७३४) से पूर्ववर्ती (ती./४/१४)1 चतुर्मुख पूजा-दे० पूजा/१ । -विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । चविंशति-१. चतुर्विशति तीर्थकर (दे० तीर्थ कर ।। २. चत्विशति पूजा-दे० पूजा ); ३. चतुर्विशति स्तव द्रव्यश्रुतज्ञानका दूसरा अंग बाह्य--दे० श्रुतज्ञान/III/१/३।४ चतुविशतिस्तक विधि -दे० भक्ति /३। चतःशिर-शिरोनतिके अर्थ में प्रयुक्त होता है-दे० नमस्कार । चतुष्टय-चतुष्टय नाम चौकड़ीका है। आगममे कई प्रकारसे चौकडिया प्रसिद्ध हैं - द्रव्यके स्वभावभूत स्त्र चतुष्टय, द्रव्यमे विरोधी धर्मो रूप युग्म चतुष्टय, जीवके ज्ञानादि प्रधान गुणों की अनन्त शक्ति व व्यक्ति रूप कारण अनन्त चतुष्टय व कार्य अनन्त चतुष्टय । १. स्वचतुष्टयके नामनिर्देश पं.ध/पू /२६३ अथ तयथा यदस्ति हि तदेव नास्तीति तश्चतुष्कं च । द्रव्येग क्षेत्रेण च कालेन तथाऽथवाऽपिभावेन ।२६३१द्रव्यके द्वारा, क्षेत्रके द्वारा, कालके द्वारा और भावके द्वारा जो है वह परद्रव्य क्षेत्रादिसे नहीं है, इस प्रकार अस्ति नास्ति आदिका चतुष्टय हो जाता है । और भी दे० श्रुतज्ञान/ITI में समवायांग। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्टय २७८ चरम २. स्वपरचतुष्टयके लक्षण व उनको योजना विधि रा. वा./४/४२/१५/२५४/१५ यदस्ति तत् स्वायत्तद्रव्यक्षेत्रभावरूपेण भवति नेतरेण तस्याप्रस्तुतत्वात । यथा घटो द्रव्यतः पार्थिवत्वेन, क्षेत्रतया इहत्यतया, कालतो वर्तमानकालसंबन्धितया, भावतो रक्तत्वादिना, न परायत्त व्या दिभिस्तेषामप्रसक्तत्वात् इति ।... कथम् १... -जो अस्ति है वह अाने द्रव्य क्षेत्रकाल भावसे ही है, इतर द्रव्यादिसे नही क्यो कि वे अप्रस्तुत है। जेसे घडा पार्थिवरूपसे, इस क्षेत्रसे, वर्तमानकाल या पर्यायरूपसे तथा रक्तादि वर्तमान भावोसे है पर अन्यसे नहीं क्योंकि वे अपरस्तुत हैं। (अर्थात् जलरूपसे, अन्यक्षेत्रसे, अतीतानागत पर्यायोरूप पिण्ड कपाल आदिसे तथा श्वेतादि भावोंसे नहीं है। यहाँ पृथिवी उसका स्व द्रव्य है और जलादि पर द्रव्य, उसका अपना क्षेत्र स्वक्षेत्र है और उससे अतिरिक्त अन्य क्षेत्र पर क्षेत्र, वर्तमान पर्याय स्वकाल है और अतीतानागत पर्याय पर काल, रक्तादि भाव स्वभाव है और श्वेतादि भाव परभाव)। (विशेष देखो 'द्रव्य', 'क्षेत्र', 'काल' व 'भाव' ।)। ३. स्वपरचतुष्टय की अपेक्षा वस्तमें भेदाभेद तथा अस्तित्व नास्तित्व-दे० सप्तभंगी/५ । ४. स्वकाल और स्वभाव में भिन्नत्व एकत्व ध.६/१,१,२/२७/११ तीदाणागदपज्जायाणं किण्ण भावववएसो । ण, तेसिं कालत्तभुवगमादो । = प्रश्न-अतीत और अनागत पर्यायोकी भाव संज्ञा क्यों नहीं है । उत्तर नहीं है, क्योकि, उन्हें काल स्वीकार किया गया है। ध.१/४,१,३/४३/४ होदु कालपत्रणा एसा, ण भावपरूवणा; कालभावाणमेयत्तविरोहादो। ण एस दोसो, अदीदाणागयपज्जया तीदाणागयकालो बट्टमाणपज्जया बट्टमाणकालो। तेसिं चेत्र भावसण्णा वि, वर्तमानपर्यायो पलक्षितं द्रव्यं भाव.' इदि पओअसणादो । तोदाणागएकाले हितो बट्टमाणकालो भावसण्णिदो कालत्तणेण अभिग्णो त्ति काल-भावाणमेयत्ताविहादो । प्रश्न-यह काल प्ररूपणा भले ही हो, किन्तु भाव प्ररूपणा नहीं हो सक्ती, क्योकि, काल और भावकी एकताका विरोध है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्यो कि, अतीत और अनागत पर्यायें अतीत अनागत काल है, तथा वर्तमान पर्यायें वर्तमान काल हैं। उन्हीं पर्यायोकी ही भाव संज्ञा भी है, क्योंकि 'वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्य भाव है। ऐसा प्रयोग देखा जाता है.। अतीत और अनागतकालसे चूकि भाव संज्ञा वाला वर्तमान कालस्वरूपसे अभिन्न है, अत: काल और भावकी एकतामें कोई विरोध नहीं है। ५. स्वपर चतुष्टय ग्राहक द्रव्यार्थिक नय (दे० नय/IV/२) ६. युग्मचतुष्टय निर्देश व उनकी योजना विध -दे० अनेकान्त/४, ५ । ७. कारण कार्यरूप अनन्त चतुष्टय निर्देश नि. सा/ता. वृ. १५ सहजशुदनिश्चयेन अनाद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजज्ञान-सह जदर्शन-सहजचारित्र-सहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्धान्तस्तस्वस्वरूपस्वभावानन्त चतुष्टयस्वरूपेण । साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसभूतव्यवहारैण केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुरखकेबलशक्तियुक्तफलरूपानन्तचतुष्टयेन... सहज शुद्ध निश्चयनयसे, अनादि-अनन्त, अमूर्त-अतीन्द्रिय स्वभाववाले और शुद्ध ऐसे सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र और सहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्ध अन्त.तत्त्वस्वरूप जो स्वभाव अनन्तचतुष्टयका स्वरूप...। तथा सादि, अनन्त, अमूर्त, अतोन्द्रियस्वभाववाले शुद्धसभूत व्यवहारसे केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलमुख, केवलशक्तियुक्त फलरूप अनन्त चतुष्टयः । ८. अनन्त चतुष्टयमें अनन्तत्व कैसे है-दे अनन्त/२। चमकदशमी व्रत-चमक दशमि और चमकाय । जो भोजन नहि तो अन्तराय । (यह बत श्वेताम्बर व स्थानकवासी आम्नायमें प्रचलित है। (बत विधान संग्रह/पृ० १३०) ( नवलसाह कुत बर्द्धमान पुराण)। चमत्कार-२. लौकिक चमत्कारोंसे विमोहित होना सम्यग्दर्शनका दोष है-दे० 'अमूढदृष्टि' का व्यवहार लक्षण । २. लौकिक चमत्कारोंके प्रति आकर्षित होना लोकमूढता है-दे० मूढता। चमर-विजयाको उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । चमरन्द्र-(प.प./सर्ग/श्लोक नं ) शत्रघ्न द्वारा राजा मधुके मारे जाने पर अपने शूलरत्नको विफल हुआ देख । (६०/३) इसने क्रोधवश मथुरामें महामारो रोग फैलाया था। (६०/२२)। जो पीछे सप्त ऋषियोके आगमनके प्रभावसे नष्ट हुआ। (६२/६)। चमू-सेनाका एक अंग-दे० सेना। चय-( Common difference ) (ज. प./प्र १०६) विशेष देखो गणित/II/५/३)। चयधन-दे० गणित/1/५३ । चरण-दे० चारित्र। चरणसार-आ० पद्मनन्दि (ई. श. ११ उत्तरार्ध) कृत प्राकृत ग्रन्थ । ग-दे० अनुयोग/१। चरम-१. चरमोत्तम देह स.सि./२/५३/२०१/४ चरमशब्दोऽन्दयवाची । उत्तम उत्कृष्टः । चरम उत्तमो देहो येषां ते चरमोत्तमदेहाः । परीतसंसारास्तज्जन्मनिर्वाणाऱ्या इत्यर्थः। चरम शब्द अन्त्यवाची है। उत्तम शब्दका अर्थ उत्कृष्ट है। जिनका शरीर चरम और उत्तम है वे चरमोत्तम देहवाले कहे जाते हैं। जिनका संसार निकट है अर्थात उसी भवसे मोक्षको प्राप्त होनेवाले जीव चरमोत्तम देहवाले कहलाते है। (रा. वा/२/५३/ २/१५७/१६)। २.द्विचरम देह रा. वा./४/२६/२-५/२४४/२० चरमशब्द उक्तार्थः । द्वौ चरमौ देही येषां ते द्विचरमाः, तेषां भावो द्विचरमत्वम् । एतन्मनुष्यदेहद्वयापेक्षमवगन्तव्यम् । विजयादिभ्य' च्युता अप्रतिपतितसम्यक्त्वा मनुष्येषूत्पद्य सयममाराध्य पुनर्विजयादिषुत्पद्य च्युता मनुष्यभवमवाप्य सिद्धयन्ति इति द्विचरमदेहत्वम् । कुतः पुनः मनुष्यदेहस्य चरमत्व मिति चेत् । उच्यते ॥२॥ यतो मनुष्यभवाप्य देवनारकतैर्यग्योना. सिध्यन्ति न तेभ्य एवेति मनुष्यदेहस्य चरमत्वम् ।३। स्यान्मतम्-एकस्य भवस्य चरमत्वम् अन्त्यत्वात, न द्वयोस्ततो द्विचरमत्वमयुक्तमिति: तन्न; कि कारणमः औपचारिकत्वात् । येन देहेन साक्षान्मोक्षोऽवाप्यते स मुख्यश्चरमः तस्य प्रत्यासन्नो मनुष्यभवः तत्प्रत्यासत्तेश्चरम इत्युपचर्यते 14 - स्यान्मतम्-विजयादिषु द्विचरमत्वमार्षविरोधि । कुतः । त्रिचरमत्वात ।...सर्वार्थ सिद्धाः च्युता मनुष्येषत्पद्य तेनैव भवेन सिध्यन्तीति, न लौकान्तिकवदेकभविका एवेति विजयादिषु द्विचरमत्वं नार्षविरोधि, कल्पान्तरोत्पत्त्यनपेक्षत्वाद, प्रश्नस्येति ।। -चरमका अर्थ कह दिया गया है अर्थात् अन्तिम । दो अन्तिम देह हो सो द्विचरम है। दो मनुष्य देहों की अपेक्षा यहाँ द्विचरमत्व समझना जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चा २७९ चामुंडराय चाहिए, विजयादि विमानोंसे च्युत सम्यक्त्व कटे बिमामनुष्यो में उत्पन्न हो संयम धार पुन विजयादि विमानो में उत्पन्न हो, वहाँसे चयकर पुन' मनुष्यभव प्राप्त कर मुक्त होते है, ऐसा द्विचरम देहत्वका अर्थ है । प्रश्न-मनुष्यदेहके ही चरमपना कैसे है ? उत्तर-क्योकि तीनों गतिके जीव मनुष्यभवको पाकर हो मुक्त होते हैं, उन उन भवों से नहीं, इसलिए मनुष्यभवके द्विचरमपना है। प्रश्नचरम शब्द अन्त्यवाची है इसलिए एक ही भव चरम हो सकता है दो नहीं, इसलिए द्विचरमत्व कहना युक्त नहीं है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, यहाँ उपचारसे द्विचरमत्व कहा गया है । चरमके पासमें अव्यवहित पूर्वका मनुष्यभव भी उपचारसे चरम कहा जा सकता है । प्रश्न-विजयादिकोंमें द्विचरमत्व कहने में आर्ष विरोध आता है। क्योंकि, उसे त्रिचरमत्व प्राप्त है । उत्तर-सर्वार्थसिद्धिसे च्युत होनेवाले मनुष्य पर्यायमें आते है तथा उसी पर्यायसे मोक्ष लाभ करते हैं। विजयादिक देव लौकान्तिककी तरह करते है। विजयादिक देव लौकान्तिककी तरह एकभविक नहीं हैं किन्तु द्विभविक है। इसके बीच में यदि कल्पान्तरमें उत्पन्न हुआ है तो उसकी विवक्षा नहीं है। * चरमदेहीको उत्पत्ति योग्य काल-दे० मोक्ष/४/३ । चचा-१. वीतराग व विजिगीषु कथाके लक्षण-दे० कथा; २. वाद सम्बन्धी चर्चा-दे० वाद। ३. चौथे नरकका चतुर्थ पटल -दे० नरक/५/१९॥ चाचका-कालका प्रमाण विशेष । अपरनाम अचलात्म व अचलाप्त -दे० गणित//१॥ चर्म-चक्रवर्तीका एक रत्न-दे० शलाका पुरुष/२ । चर्मण्वती-भरतक्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी-दे. मनुष्य/४ । चर्या-म.पु./३६/१४७-१४८ चर्या तु देवतार्थ वा मन्त्रसिद्ध्यर्थमेव वा । औषधाहारक्लुप्त्यै वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ।१४७। तत्राकामकृतेः शुद्धिः प्रायश्चित्तै विधीयते। पश्चाश्चात्मालय सूनी व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ।१४८१-किसी देवताके लिए, किसी मन्त्रकी सिद्धिके लिए, अथवा किसी ओषधि या भोजन बनवानेके लिए मै किसी जीवकी हिसा नहीं करूंगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना चर्या कहलाती है ।१४७। इस प्रतिज्ञामें यदि कभी इच्छा न रहते हुए प्रमादसे दोष लग जावे तो प्रायश्चित्तसे उसको शुद्धि की जाती है ।१४८॥ चर्या परिषहप. सि/E/8/४२३/४ निराकृतपादावरणस्य परुषशर्कराकण्टकादिव्यधन जातचरणखेदस्यापि सतः पूर्वोचितयानवाहनादिगमनमस्मरतो यथाकालमावश्यकापरिहाणिमास्कन्दतश्चर्यापरिषहसहनमबसेयम् । जिसका शरीर तपश्चरणादिके कारण अत्यन्त अशक्त हठे गया है, जिसने खड़ाऊँ आदिका त्याग कर दिया है, तीक्ष्ण कंकड़ और काँटे आदिके बिधनेसे चरण में खेदके उत्पन्न होनेपर भी पूर्व में भोगे यान और वाहन आदिसे गमन करनेका जो स्मरण नहीं करता है, तथा जो यथाकाल आवश्यकोंका परिपूर्ण परिपालन करता है उसके चर्या परिषहजय जानना चाहिए । (रा. वा./8/8/१४/६१०/१६ ) (चा. सा. ११८/१)। २. चर्या निषद्या व शय्या परिषहमें अन्तर यादरप्रवृत्त्यर्थ मौपोद्वातिक प्रकरणमुक्तम् । प्रश्न-चर्या आदि तीन परीषह समान हैं, एक साथ नहीं हो सकती, क्योंकि वैठनेमें परीषह आनेपर सो सकता है, सोनेमें परीषह आनेपर चल सकता है, और सहनविधि एक जैसी है, तब इन्हे एक परिषह मान लेना चाहिए और इस प्रकार २२ की बजाय १६ परीषह कहनी चाहिए। उत्तर--अरति यदि रहती है, तो परीषहजय नहीं कहा जा सकता। यदि साधु चर्याकष्टसे उद्विग्न होकर बैठ जाता है या बैठनेसे उद्विग्न होकर लेट जाता है तो परीषह जय कैसा' यदि परीषहोंको जीतू गा इस प्रकारकी रुचि नहीं है, तो वह परीषहजयी नहीं कहा जा सकता। अत' तीनों क्रियाओं के कष्टोंको जीतना और एक्के कष्टके निवारण के लिए दूसरेकी इच्छा न करना ही परीषहजय है । चर्या श्रावक-दे० श्रावक/१॥ चल--सम्यग्दर्शनका चल दोष गो.जी./जी प्र/२५/५१/५ में उद्धृत-नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं स्मृतम्। लसत्कललोलमालासु जलमेकमवस्थितम्। नानात्मीयविशेषेषु आप्तागमपदार्थ श्रद्धानविकल्पेषु चलतीति चलं स्मृतं । तद्यथास्वकारितेऽहंच्चैत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते। अन्यस्यायमिति भ्राम्यत् मोहाच्छ्राद्धोऽपि चेष्टते। = नानाप्रकार अपने ही विशेष कहिए आप्तआगमपदार्थरूप श्रद्धानके भेद तिनिविर्ष जो चलै चंचल होइ सो चल कह्या है सोई कहिए है। अपना कराया अहंतप्रतिबिंबादिकविर्षे यह मेरा देव है ऐसे ममत्वकरि, बहुरि अन्यकरि कराया अर्हतप्रतिबिबादिकविः यहु अन्यका है ऐसे परका मानकरि भेदरूप करै है ताते चल कह्या है । इहाँ दृष्टान्त कहै हैं-जैसे नाना प्रकार कल्लोल तरंगनिकी पंक्तिविर्षे जल एक ही अवस्थित है. तथापि नानारूप होइ चल है तैसे मोह जो सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय ताते श्रद्धान हैं सो भ्रमणरूप चेष्टा करै है। भावार्थ-जैसे जल तरंगनिविषं चंचल होइ परन्तु अन्यभावकौं न भजे, तैसे वेदक सम्यग्दृष्टि अपना वा अन्यका कराया जिनबिबादि विष यह मेरा यह अन्यका इत्यादि विकल्प करै परन्तु अन्य देवादिककौं नाही भजे है। (अन.ध./२/६०-६१/१८३)। अन.ध/२/६१/१८४/पर उद्धृत-कियन्तमपि यत्काल स्थित्वा चलति तच्चलम् । = जो कुछ कालतक स्थिर रहकर चलायमान हो जाता है उसको चल कहते हैं। चल शोलभ.अ./वी./१८०/३६८/२ कंदर्पकोत्कुच्याभ्यां चलशीलः । -वंदर्प और कौत्कुच्य इन दो प्रकारके वचनोंका पुनः पुनः प्रयोग करना चल शोलता है। चलसंख्या -Varriable quantities in the equation as in (ax' +bx+c=0) a, b, care constant and 'x' is _varriable. चलितंप्रदेश-दे० जीव/४! चलितरस-दे० भक्ष्याभक्ष्य/२ । चल्लितापी-भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । चांदराय-माण्वके राजा थे। समय-ई० १४२८ (प.प्र /प्र.१२१/ A. N. UP)। चातुर्मास-दे० वर्षायोग। चाप-arc या धनुष पृष्ठ । १-आपका घरू नाम गोमट्ट था, गो. जी. ७३४ में आपको इस नाम से आशीर्वाद दिया गया है। इसीके कारण रा.वा./8/१७/७/६१६/११/ स्थान्मतम् --चर्यादीनां त्रयाणां परीषहाणामविशेषादेकत्र नियमाभावादेकत्वमित्येकानविंशतिवचनं क्रियते इति; तन्न, किं कारणम् । अरतौ परीषहजयाभावात् । यद्यत्र रतिर्नास्ति परीषहजय एवास्य व्युच्छिद्यते। तस्माद्यथोक्तप्रतिद्वन्द्विसांनिध्यात परीषहस्वभावाश्रयपरिणामात्मलाभनिमित्तविचक्षणस्य तत्परित्यागा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र ११ चामुंडराय २८० श्रवणबेलगोलपर इनके द्वारा स्थापित विशालकाय भगवान बाहुबली की प्रतिमाका नाम गोमटेश्वर पड गया, और इनकी प्रेरणासे आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा रचित सिद्धान्त ग्रन्थ का नाम भी गोमट्टसार पड़ गया ( गो क /मू /६६७-६७१), (जे /१/३८६), ती./४/ २७)। आप गगवंशी राजा राजमल्लके मन्त्री थे, तथा एक महान योद्धा भी। आप आचार्य अजितसेनके शिष्य थे तथा स्वयं बहे सि द्वान्तवेत्ता थे। पीछेसे आ. नेभिचन्द्रके भी शिष्य रहे हैं। इन्हींके निमित्त गोमट्टसार ग्रन्थकी रचना हई थी ।निग्न रचनाएँ इनकी अपूर्व देन हैं-वीरमातण्डी (गोमट्टसारकी कन्नड वृत्ति); तत्त्वार्थ राजबार्तिक संग्रह; चारित्रसार; त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित । समय-१. राजा राजमल्ल (विसं. १०३१-१०४०) के समयके अनुसार आपका समय वि.श ११का, पूर्वाध (ईदा०१०-११ आता है। २. बाहबलि चरिन श्लोन ०४३ मे कल्की शक सं ६००(ई. १८१ मे बाहुबनी भगवान्की प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करानेका उल्लेख है । उसके अनुसार भी लगभग सही समय सिद्ध होता है, क्योंकि एक दृष्टि से कलको का राज्य वी नि १०८ मे प्रारम्भ हुआ था । (तो/४/२७) । ३. शक स० ६०० (ई. १७८) में लिखा इनका चामुण्डराय पुराण प्रसिद्ध है । (ती./४/२८)। ४. परन्तु थामस सी राइसके अनुसार इनके द्वारा मैसूर प्रान्त में विल्लाल नामक राज्यवश की स्थापना घरित नहीं हाती क्योंकि उस काअस्तित्व ई. ७१४ में पाया जाता है (जन साहित्य इति /पृ. २६७) । चामुंडराय पुराण-शक स ६०० (ई.६७८) में लिखित चामुंड राय की एक कृति । (ती /४/२८) (म.पू /प्र. २०) । चार-चारकी संख्या कृति कहलाती है-दे० कृति । चारक्षेत्र-Motuon space (ज.प./प्र १०६) । चारण ऋद्धि-दे० ऋद्धि/४। चारणकट व गुफा-सुमेरु पर्वतके नन्दन आदिक वनोंके दक्षिण मे स्थित यमदेवका कूट व गुफा-दे० लोक/७ ॥ चारित्र-चारित्र मोक्षमार्गका एक प्रधान अंग है। अभिप्रायके सम्यक् व मिथ्या होनेसे वह सम्यक व मिथ्या हो जाता है। निश्चय, व्यवहार सराग, वीतराग, स्थ, पर आदि भेदोसे वह अनेक प्रकार से निर्दिष्ट किया जाता है, परन्तु वास्तवमे वे सब भेद प्रभेद किसी न 'किसी एक वीतरागता रूप निश्चय चारित्रके पेटमे समा जाते हैं। ज्ञाता द्रष्टा मात्र साक्षीभाव या साम्यताका नाम वीतरागता है। प्रत्येक चारित्रमे उसका अंश अवश्य होता है। उसका सर्वथा लोप होनेपर केवल बाह्य बस्तुओका त्याग आदि चारित्र संज्ञाको प्राप्त नहीं होता। परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि बाह्य बतत्याग आदि बिलकुल निरर्थक है, वह उस वीतरागताके अविनाभावी है तथा पूर्व भूमिका वालों को उसके साधक भी। सम्यग्चारित्रके अतिचार-दे० व्रत समिति गुप्ति आदि । चारित्र जीरना स्वभाव है, पर संयम नहीं। चारित्र अविगमज ही होता है-दे० अधिगम । | शानके अतिरिक्त सर्व गुण निर्विकल्प है --दे० गुण/२। चारित्रमे कथंचित् ज्ञानपना-दे० ज्ञान/१२। स्व-पर चारिन अथवा सम्यक् मिथ्याचारित्र नितेश -भेद निर्देश। स्वपर चारित्रके लक्षण । सम्यक् व मिथ्याचारित्रके लक्षण । निश्चय व्यवहार चारित्र निर्देश (भेद निर्देश)। निश्चय चारित्रका लक्षण १. बाह्याम्गंतर क्रियासे निवृत्ति; २. ज्ञान व दर्शनकी एकता, ३, साम्यता, ४. स्वरूपमे चरण; ५. स्वात्म स्थिरता। १२ व्यवहार चारित्रका लक्षण । १५ सराग वीतराग चारित्र निर्देश व उनके लक्षण । स्वरूपाचरण व संयमाचरण चारित्र निर्देश । -दे० संयम/१ * संयमाचरणके दो मेद-सकल व देश चारित्र --दे० स्वरूपाचरण स्वरूपाचरण बसम्यक्त्वाचरण चारित्र -दे० स्वरूपाचरण अधिगत अनधिगत चारित्र निर्देश व लक्षण । २१ क्षायिकादि चारित्र निर्दैश व लक्षण उपशम व क्षायिक चारित्रकी विशेषताएँ--दे० श्रेणी। क्षायोपभिक चारित्रकी विशेषताएँ—दे० संयत। चारित्रमोहनीयकी उपशम व क्षपण विधि -दे० उपशम क्षय। क्षायिक चारित्रमे भी कथंचित् मलका सद्भाव -दे० केवली/२/२॥ सामायिकादि चारित्रपचक निर्देश । पांचोंके लक्षण -दे० वह वह नाम । भक्त प्रत्याख्यान, इगिनी व प्रायोपगमन -दे० सल्लेखना/३ । अथालन्द व जिनकल्प चारित्र-दे० वह यह नाम । चारित्र निर्देश * चारित्रसामान्य निर्देश चरण व चारित्र सामान्यके लक्षण । चारित्रके एक दो आदि अनेको विकल्प चारित्रके १३ अंग। समिति गुशि व्रत आदिके लक्षण व निर्देश -दे० वह वह नाम । ५ चारिक्की भावनाएँ। मोक्षमागेमें चारित्रकी प्रधानता सयम मार्गणामें भाव संयम इष्ट है-दे० मार्गणा। चारित्र ही धर्म है। चारित्र साक्षात् मोक्षका कारण है। चारित्राराधनामें अन्य सब आराधनाएँ, गर्भित हैं रत्नत्रयमें कथंचित् भेद व अभेद-दे० मोक्षमार्ग/३४ । चारित्र सहित ही सम्यक्त्व ज्ञान व तप सार्थक है सम्यक्त्व होनेपर ज्ञान व वैराग्यकी शक्ति अवश्य प्रगट हो जाती है -दे० सम्यग्दर्शन/I/४ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २८१ सूचीपत्र ५ । चारित्र धारना ही सम्यग्ज्ञानका फल है। चारित्रमें सम्यक्त्वका स्थान सम्यक्चारित्रमें सम्यक्पदका महत्त्व । चारित्र सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही होता है। चारित्र सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है। | सम्यक् हो जानेपर पहला ही चारित्र सम्यक् हो जाता है। ५ । सम्यक् हो जानेके पश्चात् चारित्र क्रमशः स्वतः हो जाता है। सम्यग्दर्शन सहित ही चारित्र होता है। सम्यक्त्व रहितका 'चारित्र' चारित्र नहीं। सम्यक्त्वके बिना चारित्र सम्भव नहीं। सम्यक्त्व शन्य चारित्र मोक्ष व आत्मप्राप्तिका कारण नहीं। १० | सम्यक्त्व रहित चारित्र मिथ्या है अपराध है। व्यवहार चारित्रकी कथंचित् प्रधानता व्यवहार चारित्र निश्चयका साधन है। व्यबहार चारित्र निश्चयका या मोक्षका परम्परा कारण है। ३ दीक्षा धारण करते समय पंचाचार अवश्य धारण किये । जाते हैं। व्यवहारपूर्वक ही निश्चय चारित्रकी उत्पत्ति का | क्रम है। ५ / तीर्थंकरों व भरत चक्रीको भी चारित्र धारण करना पड़ा था। व्यवहार चारित्रका फल गुणश्रेणी निर्जरा। व्यवहार चारित्रकी इष्टता। मिथ्यादृष्टियोंका चारित्र भी कथंचित् चारित्र है। बाह्य वस्तुके त्यागके बिना प्रतिक्रमणादि सम्भव नहीं। -दे० परिग्रह/१२। बाह्य चारित्रके बिना अन्तरंग चारित्र सम्भव नहीं। -दे० वेद/७/४। ७ निश्चय व्यवहार चारित्र समन्वय निश्चय चारित्रकी प्रधानता शुभ अशुभसे अतीत तीसरी भूमिका ही वास्तविक चारित्र है। | चारित्र वास्तवमें एक ही प्रकारका होता है। निश्चय चारित्र साक्षात् मोक्षका कारण है -दे० चारित्र/२/२। निश्चय-चारित्रके अपरनाम-दे० मोक्षमार्ग/२/11 निश्चय चारित्रसे ही व्यवहार चारित्र सार्थक है, अन्यथा वह अचारित्र है। निश्चय चारित्र ही वास्तवमें उपादेय है। पंचम काल व अल्प भूमिकाओंमें भी निश्चय चारित्र कथंचित् सम्भव है -दे० अनुभव/१। निश्चय चारित्रकी प्रधानताका कारण । व्यवहार चारित्रकी गौणता व निषेधका कारण व प्रयोजन। व्यवहारको निश्चय चारित्रका साधन कहनेका कारण । व्यवहार चारित्रको चारित्र कहनेका कारण । व्यवहार चारित्रको उपादेयताका कारण व प्रयोजन । बाह्य और अभ्यन्तर चारित्र परस्पर अविनाभावी हैं। एक ही चारित्रमें युगपत् दो अंश होते हैं। सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के चारित्रमें अन्तर -दे० मिथ्यादृष्टि/४॥ उत्सर्ग व अपवादमार्गका समन्वय व परस्पर सापेक्षता -दे० अपवाद/४। निश्चय व्यवहार चारित्रको एकार्थताका नयार्थ । सामायिकादि पॉचों चारित्रोंमें कथंचित् भेदाभेद -दे० छेदोपस्थापना। सविकल्प अवस्थासे निर्विकल्पावंस्थापर आरोहणका क्रम -दे० धर्म/६/४। शप्ति व करोति क्रियाका समन्वय-दे० चेतना/३/८ । | वास्तवमे व्रतादि बन्धके कारण नही बल्कि उनमें अध्यवसान बन्धका कारण है। व्रतोंको छोड़नेका उपाय व क्रम । कारण सदृश कार्यका तात्पर्थ-दे० समयसार। कालके अनुसार चारित्रमें होनाधिकता अवश्य आती है -दे०निर्यापक/१ में भ. आ./६७१। चारित्र व संयममें अन्तर--दे० संयम/२ । व्यवहार चारित्रकी गौणता व्यवहार चारित्र वास्तवमें चारित्र नहीं। व्यवहार चारित्र वृथा व अपराध है। मिथ्यादृष्टि सांगोपांग चारित्र पालता भी संसारमें भटकता है -दे० मिथ्याष्टिा२। व्यवहार चारित्र बन्धका कारण है। प्रवृत्ति रूप व्यवहार संयम शुभास्रव है संवर नही -दे० संवर/२। ४ । व्यवहार चारित्र निर्जरा व मोक्षका कारण नहीं। व्यवहार चारित्र विरुद्ध व अनिष्ट फलप्रदायी है। व्यवहार चारित्र कथंचित् हेय है। * जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-३६ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र १. चारित्र निर्देश (१) चारित्र सामान्य निर्देश १. चरणका लक्षण पं. ध. / उ / ४१२-४१३ चरणं क्रिया ॥४१२ चरणं वाक्कायचेतोभिर्व्यापार शुभकर्मसु । ४१३। - तत्त्वार्थ की प्रतीतिके अनुसार क्रिया करना चरण कहलाता है । अर्थात मन, वचन, कायसे शुभ कर्मोने प्रवृत्ति करना चरण है । २. चारित्र सामान्यका लक्षण स.सि./१/१/६/२ चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम् | जो आचरण करता है, अथवा जिसके द्वारा आचरण किया जाता है। अथवा आचरण करना मात्र चारित्र है । ( रा. वा / १/१/४/२५; १/१ २४/८/३४; १/१/२६/१/१२ ) ( गो.क./सी.प्र./३३/२०/२३)। भ.आ./वि/९/४९/११ चरति याति तेन हितप्राप्ति अहितनिवारण चैति चारित्रम् चर्यते सेव्यते सज्जनेरिति वा चारित्रं सामायि कादिकम् | जिससे हितको प्राप्त करते हैं और अहितका निवारण करते है, उसको चारित्र कहते है । अथवा सज्जन जिसका आचरण करते है, उसको चारित्र कहते हैं, जिसके सामायिकादि भेद हैं। और भी देखो चारित्र ९/११/१ संसारको कारणभूत बाह्य और अन्तरंग क्रियाओंसे निवृत्त होना चारित्र है । २८२ ३. चारित्र के एक दो आदि अनेक विकल्प रावा / १/७/१४/४१/- चारित्रनिर्देश: सामान्यादेकस्, द्विधा माह्याअन्तरनिवृत्ति मेदात त्रिवा औपशमिकक्षा कक्षायोपशमिकविकलपाय, चतुर्धा चतुर्यमभेदाय, पञ्चधा सामाविकानिक इत्येवं संख्येयासंख्येयानन्तविक च भगति परिणामभेदात । रा.वा./६/१७/७/६१६/१८ यदवोचाम चारित्रम्, तचारित्रमोहोपशमक्षयक्षयोपशमलणामविशुद्धिसम्धिसामान्यापेक्षा एक प्राणिपीडापरिहारेन्द्रियदर्पनिग्रहशकिभेदाद्विविधम् उत्कृष्टमध्यमजयन्यवि शुद्धप्रकर्षापकर्षंयोगात्तृतीयमवस्थानमनुभवति । विकलज्ञानविषयसरागधीतराग-सकलानीधगोचरंस योगायोगनिकरपाचातुविध्यमध्यश्नुते । पञ्चतयी च वृत्तिमास्कन्दति तद्यथा-त. सू. /६/१८ सामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिमचिराय यवापातमिति चारित्र १९८१ - सामान्यपने एक प्रकार चारित्र है अर्थात चारित्रमोहके उपशम क्षय व क्षयोपशम से होनेवाली आरमविशुद्धिको दृष्टिसे चारित्र एक है। बाह्य व अभ्यन्तर निवृत्ति अथवा व्यवहार व निश्चयकी अपेक्षा दो प्रकारका है। या प्राणसंयम व इन्द्रियसंयमकी अपेक्षा दो प्रकारका है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकके भेद से तीन प्रकारका है; अथवा उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य विशुद्धिके भेदसे तीन प्रकारका है। चार प्रकारके यतिकी दृष्टि या चतुर्यमकी अपेक्षा चार प्रकारका है, अथवा छद्मस्थोंका सराग और वीतराग तथा सर्वज्ञोंका सयोग और अयोग इस तरह चार प्रकारका है । सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यातके भेदसे पाँच प्रकारका है। इसी तरह विविध निवृत्ति रूप परिणामोंकी दृष्टि संख्यात असंख्यात और अनन्त विकल्परूप होता है । जैनसिद्धान्त प्र. / २२२ चार हैं- स्वरूपाचरण चारित्र. देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यात चारित्र । ४. चारित्र के १३ अंग प्र.सं./मू./४५ समिदिगुत्तिरूवं महारणयादु जिणणियस्यह चारित्र व्यवहारनयसे पाँच महावत, पाँच समिति और तीन गुप्ति इस प्रकार १३ भेद रूप है । = ५. चारित्रकी भावनाएँ । म.पू. २१/१८ ईर्ष्यादिविषयायना मनोवाक्कायशय परीषहसहिष्णुत्वम् इति चारित्रभावना | १८| = चलने आदिके विषयमे यत्न रखना अर्थात् ईर्यादि पाँच समितियोका पालन करना, मन, वचन व कायकी गुप्तियो का पालन करना, तथा परीषहोंको सहन करना । ये चारित्र की भावनाएँ जाननी चाहिए। I १. चारित्र जीवका स्वभाव है पर संयम नहीं घ. ७/२.१.३६/१६/९ संजमो गाम जीवसहानो, सदो न सो बन्गेहि विणासिजदि तब्विणासे जीवदम्यस्स वि विणाससंगादी प जोगस्सेव संजमस्स जीवस्स लक्खणत्ताभावादो। प्रश्न-संयम तो जीवका स्वभाव ही है, इसीलिए वह अन्यके द्वारा अर्थात् कर्मोंके द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसका विनाश होनेपर जीव द्रव्यके भी विनाशका प्रसंग आता है ? उत्तर- नहीं आयेगा, क्योंकि, जिस प्रकार उपयोग जीवका लक्षण माना गया है, उस प्रकार संयम जीवका लक्षण नहीं होता । प्र. सा./त.प्र./७ स्वरूपे चरणं चारित्रं स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थ तदेव वस्तुस्वभावत्वाद्धर्म' | स्वरूपमे रमना सो चारित्र है । स्वसमय मे अर्थात् स्वभाव में प्रवृत्ति करना यह इसका अर्थ है । यह वस्तु (आत्मा) का स्वभाव होनेसे धर्म है । पु. सि. उ. / २६ चारित्रं भवति यक्ष समस्तसाद्ययोगपरिहरणात्। सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तद क्योकि समस्त पापयुक्त मन, वचन, कायके योगोंक स्थानसे सम्पूर्ण कपायोंसे रहित अतएव, निर्मल, परपदार्थोंसे विरक्ततारूप चारित्र होता है, इसलिए वह आत्माका स्वरूप है । १. चारित्र निर्देश ०. स्वव पर अथवा सम्यक मिथ्याचारित्र निर्देश नि.सा./मू./११ मियादंसणगाण चरितं सम्मन्तणाणचरणं । मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र सम्यग्दर्शनाचारित्र पं. का./त.प्र./१५४ द्विविधं हि किल संसारिषु चरितं - स्वचरितं परचरितं च स्वसमयपरसमयावित्यर्थः ॥ ससारियोंका चारित्र वास्तवमें दो प्रकारका है- स्वचारित्र अर्थात् सम्यचारित्र और परचारित्र अर्थात् मिथ्याचारित्र । स्वसमय और परसमय ऐसा अर्थ है । (विशेष समय ) ( यो सा./अ./८/१६) " ८. स्वपर चारित्रके लक्षण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पं.का./मू./१५६-१५१ जो पर अहं रागेण कृपद जदि भाव । सो सगचरितभट्ठो परचरियचरो हर्वाद जीवो ११४६। आसवदि जेण पुण्णं पाव वा अप्पणोध भावेण । सो तेण परचरितो हवदि ति जिणा परूवंति । १५७॥ जो सव्वस गमुक्को णण्णमणो अप्पणं सहावेग जादि पस्सदि नियई सो सगचरियं चरदि जीवो ॥१६८॥ चरि चरदि सगँ सो जो परदव्याभावदिप्पा दंसणणागबियपं अविमयं चरदि अप्पादो । १२६॥ जो राग परद्रव्यमें शुभ या अशुभ भाव करता है वह जीव स्वचारित्र भ्रष्ट ऐसा परचारित्रका आचरणकरनेवाला है ।१५६। जिस भावसे आत्माको पुण्य अथवा पाप आसनित होते हैं उस भाव द्वारा वह (जीव ) परचारित्र है | १५०० जो सर्व संयुक्त और अन्य मनवाला मर्दता हुआ आमाको ज्ञानदर्शनरूप) स्वभाव द्वारा नियत रूपसे जानता देखता है वह जीव स्वचारित्र आचरता है । १५८१ जो परद्रव्यात्मक भावोसे रहित स्वरूप वाला वर्तता हुआ, दर्शन ज्ञानरूप भेदको आत्मासे अभेदरूप आचरता है यह चारित्रको आचरता है । १५६४ (वि./१/२२) .का./९४ तत्र स्वभावावस्थितास्तित्वस्वरूपं स्वचरि परभावावस्थितारितत्स्वरूपं परचरितम् । तहाँ स्वभाव में अब Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र - स्थित अस्तित्वस्वरूप वह स्वचारित्र है और परभावमें अवस्थित अस्तित्वस्वरूप यह परचारित है। पं.का./१५६ १५१ यः कर्ता...शुद्धात्मद्रव्यात्परिभ्रष्ट भूला.... रागभावेन परिणम्य... शुद्धोपयोगाद्विपरीत. समस्त परद्रव्येषु शुभम - शुभं वा भावं करोति स ज्ञानानन्द कस्वभावात्मा स्वकीय चारिवाइ भ्रष्ट सह स्वसंवित्यनुष्ठानविलक्षणपरचारित्रचरो भक्तीति सूत्राभिप्राय. ११२६। निजशुद्धात्म स विश्यनुचरणरूपं परमागमभाषया मीतराग परमसामायिकसंज्ञं स्वचरितम् ॥१५८ ॥ पूर्वं सविकल्पावस्थायां शाखाएं शहमिति यकल्पये सर्विस माधिकालेऽनन्त ज्ञानादिगुणस्वभावादात्मनः सकाशादभिन्न चरतीति सूत्रार्थः ॥१५६॥ - जो व्यक्ति शुद्धात्म द्रव्यसे परिभ्रष्ट होकर, रागभाव रूपसे परिणमन करके, शुद्धोपयोगसे विपरीत समस्त परद्रव्योंमें शुभ व अशुभ भाव करता है, वह ज्ञाननन्दरूप एकस्वभावात्मक स्वकीय चारित्रसे भ्रष्ट हो, स्वसंवेदन से विलक्षण परचारित्रको आचरनेवाला होता है, ऐसा सूत्रका तात्पर्य है ।१३। निज शुद्धात्मा संवेदन में अनुचरण करने रूप अथवा आगमभाषामे वीतराग परमसामायिक नामवाला अर्थात् समता भावरूप स्वचारित्र होता है ।१३८ । पहले सविकल्पावस्था में 'मैं ज्ञाता हूँ, मैं द्रष्टा हूँ' ऐसे जो दो विकल्प रहते थे वे अब इ निर्विकल्प समाधिकाल में अनन्तज्ञानादि गुणस्वभाव होने के कारण आत्मासे अभिन्न ही आचरण करता है, ऐसा सूत्रका अर्थ है । १५६ | और भी देखो 'समय' के अन्तर्गत स्वसमय व परसमय । • सम्यक् व मिथ्या चारित्रके लक्षण मो.पा. सू./१०० जदि काहि बहुविय चारिते। तं बात चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं । =बहुत प्रकारसे धारण किया गया भी चारित्र यदि आत्मस्वभावसे विपरीत है तो उसे बालचारित्र अर्थाव मिथ्याचारित्र जानना । नि.सा./ता.वृ./११ भगव रई स्परमेश्वर मार्ग प्रतिकूल मार्गाभास सन्मार्गा चरणं मिथ्याचारित्रं च । अथवा स्वात्म अनुष्ठानरूपविमुखत्वमेव मिथ्या चारित्रं भगवान् अहं परमेश्वर के मार्ग प्रतिकूल मार्गा भासमे मार्गका आचरण करना वह मिथ्याचारित्र है । अथवा निज आत्मा के अनुष्ठान के रूपसे विमुखता वही मिथ्याचारित्र है । नोट: सम्यचारिके लक्षण के लिए देखो चारित्र सामान्यता अथवा निश्चय व्यवहार चारित्रका अथवा सराग वीतराग चारित्रका लक्षण | १०. निश्चय व्यवहार चारित्र निर्देश २८३ • चारित्र यद्यपि एक प्रकारका है परन्तु उसमें जीवके अन्तरंग भाव व बाह्य त्याग दोनों बातें युगपत उपलब्ध होने के कारण, अथवा पूर्व भूमिका और ऊँची भूमिकाओमे विकल्प व निर्विकल्पताकी प्रधानता रहने के कारण, उसका निरूपण दो प्रकारसे किया जाता है- निश्चय चारित्र व व्यवहारचारित्र । तहाँ जीवकी अन्तरंग विरागता या साम्यता तो निश्चय चारित्र और उसका बाह्य वस्तुओंका ध्यानरूप व्रत, बाह्य क्रियाओं मे यत्नाचाररूप समिति और मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको नियन्त्रित करने रूप गुप्तिये व्यवहार चारित्र हैं। व्यवहार चारित्रका नाम सराग चारित्र भी है। और निश्चय चारित्रका नाम वीतराग चारित्र | निचती भूमिकाओमे व्यवहार चारित्रको प्रधानता रहती है और ऊपर ऊपरकी ध्यानस्थ भूमिकाओमे निश्चय चारित्रकी। ११. निश्चय चारित्रका लक्षण १. बाह्याभ्यन्तरकियाओंसे निवृत्ति मो.पा./ यू./३० तच्चारितं भवियं परिहारी पुग्णावानं पुण्यव पाप दोनोंका त्याग करना चारित्र है । (न.च.वृ/ ३७८ ) । १. चारित्र निर्देश स.सि./१/१/५/- संसारकारण निवृत्ति प्रत्या पूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादानकिषोरम' सम्यग्वारिजम् ।जो ज्ञानी पुरुष संसारके कारणोंकी दूर करनेके लिए उद्यत है उसके कमोंके ग्रहण करनेमें निमित्तभूत किया यागको चारित्र कहते हैं (रा.वा./१/१/३/४/११/०१ १४/४१/५); (भ. आ / वि /६/३२/१२ ) ( पं. ध /उ. / ७६४ ) (ला. सं/ ४/२६३/१६९) । प्र.सं./२६ व्यवहारचारित्रेण साध्यं निश्चयचारित्रं निरूपयतिमहिरभतर किरियारोहो भवकारणप्पणास शाणिस्स जंजिषुतं तं परमं सम्मचारितं |४६ | = व्यवहार चारित्रसे साध्य निश्चय चारित्रका निरूपण करते हैं-ज्ञानी जीवके जो संसारके कारणोंको नष्ट करनेके लिए बाह्य और अन्तरंग क्रियाओंका निरोध होता है वह उत्कृष्ट सम्यक् चारित्र है । प.वि/१/०२ चारि विरति प्रमादवितसत्कम वियोगिनां - योगियों का प्रमादसे होनेवाले कर्मापसे रहित होनेका नाम चारित्र है। २. ज्ञान व दर्शनकी एकता ही चारित्र है चापा./मू./३ जं जाणइ तं गाणं पिच्छह तं च पिच्छयस्य समवण्णा होइ चारितं । ३। बहुरि जो देखे सो दर्शन है, ऐसा कहता है के समायोग से चारित्र होय है। ३. साम्यता या ज्ञाता द्रष्टाभावका नाम चारित्र है - प्र. सा./मू./० चारितं खलु धम्मम्म जो सो समो तिििो । मोहक्खहविहीणी परिणामी अप्पणी हु समो | ७| चारित्र वास्तवमें धर्म है जो धर्म है वह साम्य है. ऐसा कहा है। साम्य मोह शोभ रहित आत्माका परिणाम है 1७1 ( मो. पा./मू./५० ); ( पं. का. / भू / १०७) । म.पु / २४/१९६ माध्यस्यलक्षणं प्राश्चारित्रं वितृषो मुने । मोक्षकामस्य निर्मुकश्चेतसाहस्य त ।९१६४ अनिष्ट पदार्थोंने समता भाव धारण करनेको सम्पचारित्र कहते हैं। वह सम्यग्वारि यथार्थ रूपसे तृषा रहित, मोक्षकी इच्छा करनेवाले वस्त्ररहित और हिसाका सर्वथा त्याग करनेवाले मुनिराज के ही होता है। न. च. वृ./ ३५६ समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायतं । तह चारित धम्मो सहाव आराहणा भणिया | ३५६ =समता, माध्यस्थ्य, शुद्धोपयोग वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभावकी आराधना मे सब एकार्थवाची हैं। (४) (/४/२६३ / ९६१) प्र. सा./त.प्र./२४२ ज्ञेयज्ञातृ क्रियान्तरनिवृत्तिसूत्रयमाणद्रष्टृ ज्ञातृत्व वृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण शेय और शासकी क्रियान्तरले अर्थात् अन्य पदार्थों के जानने रूप क्रियासे निवृत्तिके द्वारा रचित दृष्टि ज्ञातृतत्त्वमे (ज्ञाता द्रष्टा भाव में ) परिणति जिसका लक्षण है वह चारित्र पर्याय है । दंसणं भणियं । णाणस्स जो जाने सो ज्ञान है, बहुरि ज्ञान और दर्शन ४. स्वरूपमें चरण करना चारित्र है स. सा/आ./३६ स्वस्मिन्नेव ज्ञानस्वभावे निरन्तरचरणाचारित्र भवति। अपने अर्थात ज्ञानस्वभावमें ही निरन्तर चरनेसे चारित्र है। 1 प्र.सा./त.प्र० स्वरूपे चरणं चारित्रं स्यसमप्रवृत्तिरित्यर्थः । देव वस्तुस्वभावत्वाद्धर्मः स्वरूपमे चरण करना चारित्र है, स्वसमय में प्रवृत्ति करना इसका अर्थ है । यहीं बस्तुका ( आत्माका ) स्वभाव होनेसे धर्म है। का./वा/१६४ / २२४/१४ जानस्वभावनियतचारित्र भवति रादपि कस्मात् । स्वरूपे चरणं चारित्रमिति वचनात् । जोव स्वभावमें अवस्थित रहना ही चारित्र है, क्योकि, स्वरूपमें चरण करनेको चारित्र कहा है ब्र. सं./टी./३३/१४०/३) 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २८४ १. चारित्र निर्देश र. क. श्रा/४६ हिसानृतचौर्येभ्यो मैथुन सेवापरिग्रहाभ्यां च। पाप - प्रणालिकाभ्यो विरति. संज्ञस्य चारित्रं ४३ = हिसा, असत्य, चोरी, तथा मैथुन सेवा और परिग्रह इन पाँचों पापोकी प्रणालियोसे विरक्त होना चारित्र है । (ध. ६/१,६-१,२२/४०/५), (नि. सा./ता.वृ./५२), (मो. पा/टी./३७,३८/३२८) यो. सा./अ/८/६५ कारणं निवृतेरेतच्चारित्रं व्यवहारतः ।।१५। बतादिका आचरण करना व्यवहार चारित्र है। पु. सि. उ./३६ चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ।३१। -समस्त पापयुक्त मन, बचन, कायके त्यागसे सम्पूर्ण कषायोसे रहित अतएव निर्मल परपदार्थोसे विरक्ततारूप चारित्र होता है। इसलिए वह चारित्र आत्माका स्वभाव है। भ आ./वि./६/३३/१ एवं स्वाध्यायो ध्यानं च अविर तिप्रमादकषायत्यजनरूपतया। इत्थं चारित्राराधनयोक्तया...। = अविरति, प्रमाद, कषायोका त्याग स्वाध्याय करनेसे तथा ध्यान करनेसे होता है, इस वास्ते वे भी चारित्र रूप हैं। द्र सं./मू./४५ असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वद समिदिगुत्तिरूवववहारणयादु जिण भणियं ।४५। -अशुभ कार्योसे निवृत्त होना और शुभकार्यों में प्रवृत्त होना है, उसको चारित्र जानना चाहिए । व्यवहार नयसे उस चारित्रको व्रत, समिति और गुप्तिस्वरूप कहा है। त. अनु./२७ चेतसा वचसा तन्वा कृतानुमतकारितै । पापक्रियाणां यस्त्याग, सञ्चारित्रमुषन्ति तत् ।२७। मनसे, वचनसे, कायसे, कृत कारित अनुमोदनाके द्वारा जो पापरूप क्रियाओंका त्याग है उसको सम्यग्चारित्र कहते हैं। १३. सराग वीतराग चारित्र निर्देश ५. स्वात्मामें स्थिरता चारित्र है पं. का./मू./१६२ जे चरदिणाणी पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमय । सो चारित्तं गाणं दंसणमिदि णिच्छिदो होदि ।१६। - जो (आत्मा) अनन्यमय आत्माको आत्मासे आचरता है वह आत्मा ही चारित्र है। मो. पा./मू./८३ णिच्छयणयस्स एवं अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सुचरित्तो जोइ सो लहइ णिव्याणं ।३। -जो आत्मा आत्मा ही विषे आपहीकै अथि भले प्रकार रत होय है। यो योगी ध्यानी मुनि सम्यग्चारित्रवान् भया संता निर्वाण · पावै है। स. सा./आ./१५५ रागादिपरिहरणं चरणं । = रागादिकका परिहार करना त्रित्र है । (ध १३/३५८/२) प. प्र./मू./२/३० जाणवि मण्णवि अप्पपरु जो परभाउ चएहि । सो णियसुद्धउ भावडउ णाणिहि चरणु हवेड्।३०। - अपनी आत्माको जानकर व उसका श्रद्धान करके जो परभावको छोड़ता है, वह निजात्माका शुद्धभाव चारित्र होता है। (मो. पा./न./३७) मोक्ष. पचाशत्/मू /४५ निराकुलत्वजं सौरव्य स्वयमेवावतिष्ठतः । यदात्मनैव संवेद्य चारित्रं निश्चयात्मकम् ।४५ =आत्मा द्वारा संवेद्य जो निराकुलताजनक सुख सहज ही आता है, वह निश्चयात्मक चारित्र है। न. च. वृ./३५४ सामण्णे णियबोहे बियलियपरभावपरमसम्भावे । तत्था राहणजुत्तो भणिओ खलु सुद्धचारित्ती। = परभावोसे रहित परम स्वभावरूप सामान्य निज बोधमें अर्थात शुद्धचैतन्य स्वभावमें तत्त्वाराधना युक्त होनेवाला शुद्ध चारित्री कहलाता है। यो. सा.अ./८/६५ विविक्तचेतनध्यान जायते परमार्थतः । --निश्चयनयसे विविक्त चेतनध्यान-निश्चय चारित्र मोक्षका कारण है। (प्र. सा./ता. वृ/२४४/३३६/१७ ) का. अ./7/१९ अप्पसरूवं वत्यु चत्तं रायादिएहिं दोसेहि । सज्झाणम्मि णिलीण त जाणसु उत्तम चरणं हा = रागादि दोषोसे रहित शुभ ध्यानमें लीन आत्मस्वरूप वस्तुको उत्कृष्ट चारित्र जानों नि. सा./ता. वृ./५५ स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपं सहजनिश्चयचारित्रम् । -निज स्वरूपमें अविचल स्थितिरूप सहज निश्चय चारित्र है। (नि. सा/ता. वृ/३) प्र.सा./ता. वृ./६/७/१४ आत्माधीनज्ञानसुखस्वभावे शुद्धारमद्रव्ये यनि- श्चलनिर्विकारानुभूतिरूपमवस्थानं, तल्लक्षणनिश्चयचारित्राज्जीवस्य समुत्पद्यते। - आत्माधीन ज्ञान व सुखस्वभावरूप शुद्वात्म द्रव्यमें निश्चल निर्विकार अनुभूतिरूप जो अवस्थान है, वही निश्चय चारित्रका लक्षण है। (स. सा./ता, वृ./३८), (सा.सा./ता.व./१५५), (द्र. सं./टी./४६/११७/८) द्र. सं /टी./१०/१६३/१३ संकल्पविकल्पजालत्यागेन तत्रैव सुखे रतस्य संतुष्टस्य तृप्तस्यैकाकारपरमसमरसीभावेन द्रवीभूतचित्तस्य पुनः पुनः स्थिरीकरणं सम्यक्चारित्रम् । समस्त संकल्प विकल्पोके त्याग द्वारा, उसी (बीतराग) सुख में सन्तुष्ट तृप्त तथा एकाकार परम समता भावमे द्रवीभूत चित्तका पुन पुन. स्थिर करना सम्यकचारित्र है। (प. प्र./टी./२/३० को उत्थानिका) १२. व्यवहार चारित्रका लक्षण स./सा./मू./३८६ णिच्चं पञ्चक्रवाणं कुव्वइ णिच्च पडिकम्मदि यो य । णिच्च आलोचेयइ सो हु चारित्तं हवइ चेया 1३८६। =जो सदा प्रत्याख्यान करता है, सदा प्रतिक्रमण करता है और सदा आलोचना करता है, वह आत्मा वास्तव में चारित्र है ।३८६। भ. आ./मू /8/४५ कायव्यमिणमकाययत्ति णाऊण होइ परिहारो। -यह करने योग्य कार्य है ऐसा ज्ञान होनेके अनन्तर अकर्तव्यका त्याग करना चारित्र है। [वह चारित्र अन्य प्रकारसे भी दो भेद रूप कहा जाता हैसराग व वीतराग। शुभोपयोगी साधुका व्रत, समिति, गुप्तिके विकल्पोंरूप चारित्र सराग है, और शुद्धोपयोगी साधुके वीतराग सवेदनरूप ज्ञाता द्रष्टा भाव वीतराग चारित्र है।] १४. सराग चारित्रका लक्षण स, सि./६/१२/३३१/२ संसारकारणविनिवृत्ति प्रत्यागूर्णोऽक्षीणाशयः सराग इत्युच्यते। प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तविरतिः संयमः । सरागस्य संयमः सरागो वा संयमः सरागसंयमः । = जो संसारके कारणों के त्यागके प्रति उत्सुक है, परन्तु जिसके मनसे रागके संस्कार नष्ट नहीं हुए हैं, वह सराग कहलाता है। प्राणी और इन्द्रियों के विषयमें अशुभ प्रवृत्तिके त्यागको संयम कहते हैं ।सरागी जीवका संयम सराग है। (रा. वा./६/१२/५-६/५२२/२१) न, च, वृ./३३४ मूलुत्तरसमणण्णुणा धारण कहणं च पंच आयारो। सो ही तहव सणिट्ठा सरायचरिया हवइ एवं ।३३४। -श्रमण जो मूल व उत्तर गुणोंको धारण करता है तथा पंचाचारों का क्थन करता है अर्थात उपदेश आदि देता है, और आठ प्रकारकी शुद्धियोंमें निष्ठ रहता है, वह उसका सराग चारित्र है। द्र. सं./मू./४५/१६४ वीतरागचारित्रस्य साधक सरागचारित्रं प्रतिपाद यति ।.."असुहादो विणिवत्ती सुहे पवित्तीय जाण चारित्त । बदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियं ।४।-वीतराग चारित्रके परम्परा साधक सराग चारित्रको कहते हैं-जो अशुभ कार्यसे निवृत्त होना और शुभकार्य में प्रवृत्त होना है, उसको चारित्र जानना चाहिए, व्यवहार नयसे उसको व्रत, समिति, गुप्ति स्वरूप कहा है। प्र. सा./ता.वृ./२३०/३१५/१० तत्रासमर्थः पुरुष'-शुद्धात्मभावना सहकारिभूतं किमपि प्रासुकाहारज्ञानोपकरणादिकं गृह्णातीत्यपवादो 'व्यवहारनय'एकदेशपरित्यागस्तथा चापहृतसंयमः सरागचारित्रं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २८५ २. मोक्षमार्गमें चारित्रकी प्रधानता शुभोपयोग इति यावदेकार्थः । वीतराग चारित्रमे असमर्थ पुरुष शुद्वात्म भावनाके सहकारीभूत जो कुछ प्रासुक आहार तथा ज्ञानादि के उपकरणोंका ग्रहण करता है, वह अपवाद मार्ग,-व्यवहार नय या व्यवहार चारित्र, एकदेश परित्याग, अपहृत सयम, सराग चारित्र या शुभोपयोग कहलाता है। यह सब शब्द एकार्थवाची है। नोट'-और भी-दे० चारित्र/१/१२ मे व्यवहार चारित्रसंयम/१ मे अपहृत संयम, 'अपवाद' मे अपवादमार्ग। १५. वीतराग चारित्रका लक्षण न. च.व./३७८ सुहअसुहाण णि वित्ति चरणं साहूस्स वीयरायरस । - शुभ और अशुभ दोनो प्रकारके योगोसे निवृत्ति, वीतराग साधुका चारित्र है। नि. सा/ता वृ./१५२ स्वरूपविश्रान्तिलक्षणे परमवीतरागचारित्रे। ___ =स्वरूपमे विश्रान्ति सो ही परम वीतराग चारित्र है। द्र सं./टी./५२/२१९/१ रागादिपिकल्पोपाधिरहितस्वाभाविकसुखस्वादेन निश्चलचित्तं वीतरागचारित्रं तत्राचरणं परिणमनं निश्चयचारित्राचार'= उस शुद्धात्मामें रागादि विकल्परूप उपाधिसे रहित स्वाभाविक सुरखके आस्वादनसे निश्चल चित्त होना वीतराग चारित्र है। उसमे जो आचरण करना सो निश्चय चारित्राचार है। (स.सा/ता. वृ/२/८/१०) (द्र. सं./टी./२२/६७/१)। प्र. सा./ता वृ./२३०/३१५/८ शुद्धात्मन' सकाशादन्यबाह्याभ्यन्तरपरिग्रह रूपं सर्व त्याज्यमित्युत्सर्गो 'निश्चय नयः' सर्वपरित्याग' परमोपेक्षासंयमो वीतरागचारित्तं शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थ · । शुद्धात्मा के अतिरिक्त अन्य बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह रूप पदार्थोका त्याग करना उत्सर्ग मार्ग है। उसे ही निश्चयनय या निश्चयचारित्र व शुद्धोपयोग भी कहते है, इन सब शब्दोका एक ही अर्थ है। नोटः-और भी देखे चारित्र/१/११ में निश्चय चारित्र; संयम/१ मे उपेक्षा संयम; अपवाद में उत्सर्ग मार्ग । १८. क्षायिकादि चारित्र निर्देश ध.६/१,१-८,१४/२८१/१ सयल चारित्तं तिविह खओवसमियं, ओबसमियं खइयं चेदि । क्षयोपशमिक, औपशमिक व क्षायिकके भेदसे सकल चारित्र तीन प्रकारका है । ( ल. सा./म् /१८६/२४३ ) । ११. औपशमिक चारित्रका लक्षण रा. वा /२/२/३/१०५/१७ अष्टाविश तिमोहविकल्पोपशमादौपशमिक चारित्रम् अनन्तानुबन्धी आदि १६ कषाय और हास्य आदि नव नोकषाय, इस प्रकार २५ तो चारित्रमोहकी और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यकप्रकृति ये तीन दर्शनमोहनीयकी-ऐसे मोहनीयकी कुल २८ प्रकृतियोंके उपशमसे औपशमिक चारित्र होता है । ( स. सि./२/३/१५३/७ ) । २०. क्षायिक चारित्रका लक्षण रा. वा /२/४/७/१०७/११ पूर्वोक्तस्य दर्शनमोहत्रिकस्य चारित्रमोहस्य च पञ्चविंशतिविकल्पस्य निरवशेषक्षया क्षायिके सम्यक्त्वचारित्रे भवत.। पूर्वोक्त ( देखो ऊपर औपशमिक चारित्रका लक्षण ) दर्शन मोहको तीन और चारित्रमोहकी २५; इन २८ प्रकृतियों के निरवशेष विनाशसे क्षायिक चारित्र होता है । ( स. सि./२/४/१५५/१) २१. क्षायोपशमिक चारित्रका लक्षण स.सि./२/५/१५७/८ अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानद्वादशकषायोदयक्षयात्सदुपशमाच्च संज्वलनकषायचतुष्टयान्यतमदेशघातिस्पधकोदये नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च निवृत्तिपरिणाम आत्मनः क्षायोपशामिकं चारित्रम्- अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान और प्रत्यारण्यानावरण इन बारह कषायोके उदयाभावी क्षय होनेसे और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम होनेसे तथा चार संज्वलन कषायोंमेसे किसी एक देशघाती प्रकृतिके उदय होनेपर और नव नोकषायोंका यथा सम्भव उदय होनेपर जो त्यागरूप परिणाम होता है, वह क्षायोपशमिक चारित्र है । (रा. वा./२/१/८/१०८/३) इस विषयक विशेषताएंव तर्क आदि । दे० क्षयोपशम । २२. सामायिकादि चारित्र पञ्चक निर्देश त. सू./8/१८ सामायिकछेदोपस्थानापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसापराययथा ख्यातमिति चारित्रम् = सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथास्यात-ऐसे चारित्र पॉच प्रकारका है। (और भी-दे० संयम/१। १६. स्वरूपाचरण व सयमाचरण चारित्र निर्देश चा. पा./मू ५ जिणाणाण दिद्विसुद्धपढम सम्मत्तं चरणचारित्तं । विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि ।। - पहला तो, जिनदेवके ज्ञान दर्शन व श्रद्धाकरि शुद्ध ऐसा सम्यक्त्वाचरण चारित्र है और दूसरा संयमाचरण चारित्र है। चा. पा/टो./३/३२/३ द्विविधं चारित्रं-दर्शनाचारचारित्राचारलक्षणं । दर्शनाचार और चारित्राचार लक्षणवाला चारित्र दो प्रकारका है। जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/२२३ शुद्धात्मानुभवनसे अविनाभावी चारित्रविशेषको स्वरूपाचरण चारित्र कहते है। १७. अधिगत व अनधिगत चारित्र निर्देश व लक्षण रा, वा./३/३६/२/२०१/८ चारित्रार्या द्वेधा अधिगतचारित्रार्या अनधिगतचारित्रार्याश्चेति । तद्भेद' अनुपदेशोपदेशापेक्षभेदकृतः । चारित्रमोहस्योपशमात क्षयाच्च बाह्योपदेशानपेक्षा आत्मप्रसादादेव चारित्रपरिणामास्कन्दिन' उपशान्तकषायाः क्षीणकषायाश्चाधिगतचारित्रार्याः अन्तश्चारित्रमोहक्षयोपशमसद्भावे सति बाह्योपदेश निमित्तविरतिपरिणामा अनधिगमचारित्रार्याः । =असावद्यकर्यि दो प्रकार के हैं-अधिगत चारित्रार्य और अनधिगत चारित्रार्य। जो बाह्य उपदेशके बिना स्वयं ही चारित्रमोहके उपशम वा क्षयसे प्राप्त आत्म प्रसादसे चारित्र परिणामको प्राप्त हुए है, ऐसे उपशान्तकषाय और क्षीण कषाय गुणस्थानवी जीव अधिगत चारित्रार्य हैं। और जो अन्दरमें चारित्रमोहका क्षयोपशम होनेपर बाह्योपदेशके निमित्तसे विरति परिणामको प्राप्त हुए हैं वे अनधिगत चारित्रार्य है। तात्पर्य यह है कि उपशम व क्षायिकचारित्र तो अधिगत कहलाते हैं और क्षयोपशम चारित्र अनधिगत । २. मोक्षमार्गमें चारित्रको प्रधानता १. चारित्र ही धर्म है प्र. सा./मू/७ चारित्तं खलु धम्मो-चारित्र वास्तवमे धर्म है ( मो. __ पा./मू./५०) (पं. का./मू०/१०७ )। २. चारित्र साक्षात् मोक्षका कारण है चा. पा./मू०८-६ तं चेच गुण विसुद्ध जिणसम्मत्तं मुमुकवठाणाय । जं चरइ णाणजुत्त पढम सम्मत्त चरण चारित्तं ॥८॥ सम्मत्तचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा। णाणी अमूढदिट्ठी अचिरे पावं ति णिव्वाणं ॥६॥- प्रथम सम्यक्त्व चरणचारित्र मोक्षस्थानके अर्थ है ॥८॥ जो अमूढष्टि होकर सम्यक्त्वचरण और संयमाचरण दोनोंसे विशुद्ध होता है, वह शीघ्र ही निर्वाणको प्राप्त करता है। स सि./१/१८/४३६/४ चारित्रमन्ते गृह्यन्ते मोक्षप्राप्ते. साक्षात्करणमिति ज्ञापनार्थ चारित्र मोक्षका साक्षात् कारण है यह बात जाननेके लिए सूत्रमें इसका ग्रहण अन्तमें किया है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २८६ ३. चारित्रमें सम्यक्त्वका स्थान स.सा./आ./७२ यत्त्वात्मासवयोर्भेदज्ञानमपि नासवेभ्या निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवतीति । -यदि आत्मा और आसवोका भेदज्ञान होनेपर भी आस्रवोसे निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं है। प्र.सा./ता.वृ./२३७ अयं जीवः श्रद्धानज्ञानसहितोऽपि पौरुषस्थानीय चारित्रमलेन रागादिविकल्परूपादसंयमाद्यपि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं ज्ञानं वा किं कुर्याग्न किमपि। यह जीव श्रद्धान या ज्ञान सहित होता हुआ भी यदि चारित्ररूप पुरुषार्थ के बलसे रागादि विकल्परूप असयमसे निवृत्त नहीं होता तो उसका वह श्रद्धान ब ज्ञान उसका क्या हित कर सकता है । कुछ भी नहीं। मो पा./पं. जयचन्द/८ जो ऐसे श्रद्धान करै, जो हमारे सम्यक्त्व तो है ही, बाह्य मूलगुण बिगड़े तो बिगड़ी, हम मोक्षमार्गी ही हैं, तो ऐसे श्रद्धान तै तौ जिनाज्ञा होनेते सम्यक्त्वका भंग होय है। तब मोक्ष कैसे होय। शी.पा./पं. जयचन्द/६८ सम्यक्त्व होय तब विषयनित विरक्त होय ही होय । जो विरक्त न होय तो संसार मोक्षका स्वरूप कहा जानना। ५. चारित्रधारणा ही सम्यग्ज्ञानका फल है ध.१/१,१,११५/३५३/८ किं तद्ज्ञानकार्यमिति चेत्तत्त्वार्थे रुचिः प्रत्ययः श्रद्धा चारित्रस्पर्शनं च।-प्रश्न-ज्ञानका कार्य क्या है ? उत्तर-- तत्त्वार्थ में रुचि, निश्चय, श्रद्धा और चारित्रका धारण करना कार्य है। द्र सं./टी./३६/१५३/५ यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति रागादिक त्यजति तस्य भेद विज्ञानफलमस्ति । -जो रागादिकका भेद विज्ञान हो जानेपर रागादिकका त्याग करता है, उसे भेद विज्ञानका फल है। ३.चारित्रमें सम्यक्त्वका स्थान प्र. सा./त. प्र./६ संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्षः। तत एव च सरागाददेवासुरमनुजराजविभवक्लेशरूपो बन्ध-दर्शन ज्ञान प्रधान चारित्रसे यदि वह वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है, और उससे ही यदि वह सराग हो तो देवेन्द्र, असुरेन्द्र, व नरेन्द्रके वैभव क्लेशरूप बन्धकी प्राप्ति होती है, (यो. सा. अ/६/१२) प, ध/उ./७५६ चारित्र निर्जरा हेतुायादप्यस्त्यबाधितम् । सर्वस्वार्थक्रियामहर , सार्थनामास्ति दीपवत् ॥७५६॥ वह चारित्र (पूर्व श्लोकमें कथित शुद्धोपयोग रूप चारित्र) निर्जराका कारण है, यह बात न्यायसे भो अबाधित है। वह चारित्र अन्वर्थ क्रियामें समर्थ होता हुआ दीपककी तरह अन्वर्थ नामधारी है। ३. चारित्राराधनामें अन्य सर्व आराधनाएँ गर्मित हैं भ. आ./मू./८/४१ अहवा चारित्राराहणाए आहारियं सव्वं । आराहणाए सेसस्स चारित्राराहणा भज्जा = चारित्रकी आराधना करनेसे दर्शन, ज्ञान व तप, यह तीनों आराधनाएं भी हो जाती हैं। परन्तु दर्शनादिकी आराधनासे चारित्रकी आराधना हो या न भी हो। १. चारित्रसहित ही सम्यक्त्व, ज्ञान व तप सार्थक है शी.पा./मू./५ णाणं चरित्तहोणं लिगगहणं च दसणबिहणं । संजमहीणो य तबो तइ चरइ णिरत्ययं सव्वं ॥५॥-चारित्ररहित ज्ञान और सम्यक्त्वरहित लिग तथा संयमहीन तप ऐसे सर्वका आचरण निरर्थक है । (मो. पा./मू /५७,५६,६७) (मू. आ./६५०) (अ. आ./मू./ ७७०/६२8): (आराधनासार/५४/१२६)। मू.आ./८६७ थोवम्मि सिक्रिवदे जिणइ बहुसुदं जो चारित्त । संपुण्णो जो पुण चरित्तहीणो किं तस्स सुदेण बहुएण ८६७।-जो मुनि चारित्रसे पूर्ण है, वह थोडा भी पढ़ा हुआ हो तो भी दशपूर्व के पाठीको जीत लेता है । (अर्थात वह तो मुक्ति प्राप्त कर लेता है, और संयमहीन दशपूर्वका पाठो संसारमें ही भटकता है ) क्योंकि जो चारित्ररहित है, वह बहुतसे शास्त्रोंका जाननेवाला हो जाये तो भी उसके बहुत शास्त्र पढ़े होनेसे क्या लाभ (मू.आ./८६४) । भ.आ./मू./१२/५६ चक्खुस्स दंसणस्स य सारो सम्पादिदोसपरिहरणं । चक्खू होइ णिरत्यं दठ ठूण बिले पडतस्स ॥२२॥ भ.आ./वि./१२/५६/१७ ननु ज्ञानमिष्टानिष्टमार्गोपदर्शि तद्य क्तं ज्ञानस्यो पकारित्वमभिधातुं इति चेन्न ज्ञानमात्रेणेष्टार्थीसिद्धिः यतो ज्ञानं प्रवृत्तिहीनं असत्समं। = नेत्र और उससे होनेवाला जो ज्ञान उसका फल सर्पदंश, कंटकव्यथा इत्यादि दु.खों का परिहार करना है । परन्तु जो बिल आदिक देखकर भी उसमें गिरता है, उसका नेत्र ज्ञान वृथा है ।२। प्रश्न-ज्ञान इश्ट अनिष्ट मार्गको दिखाता है, इसलिए उसको उपकारपना युक्त है (परन्तु क्रिया आदिका उपकारक कहना उपयुक्त नहीं)। उत्तर-यह कहना योग्य नहीं है, क्योंकि ज्ञान मात्रसे इष्ट सिद्धि नहीं होती, कारण कि प्रवृत्ति रहित ज्ञान नहीं हुएके समान है। जैसे नेत्रके होते हुए भी यदि कोई कुएँ में गिरता है, तो उसके नेत्र व्यर्थ हैं। स.श./८१ शृण्वन्नप्यन्यतः कामं वदन्नपि कलेवरात् । नात्मानं भावयेद्भिन्नं यावत्तावन्न मोक्षभाक् १८१। आत्माका स्वरूप उपाध्याय आदिके मुखसे खूब इच्छानुसार सुननेपर भी, तथा अपने मुखसे दूसरोंको बतलाते हुए भी जबतक आत्मस्वरूपकी शरीरादि परपदार्थोसे भिन्न भावना नहीं की जाती, तबतक यह जीव मोक्षका अधिकारी नहीं हो सकता।। प.प्र./मू./२/८१ बुज्झइ सत्थई तउ चरइ पर परमत्थु ण वेइ । ताव ण मुंचइ जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ ।२। शास्त्रोंको खूब जानता हो और तपस्या करता हो, लेकिन परमात्माको जो नहीं जानता या उसका अनुभव नहीं करता, तबतक वह नहीं छूटता। १. सम्यक् चारित्रमें सम्यक् पदका महत्त्व स.सि./१/१/१VE अज्ञानपूर्वकाचरणनिवृत्त्यर्थं सम्यग्विशेषणम् । - अज्ञान पूर्वक आचरणके निराकरणके अर्थ सम्यक विशेषण दिया गया है। २. चारित्र सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही होता है स.सा./मू./१८,३४ एवं हि जीवराया णादव्यो तह य सद्दहदम्यो। अणु चरिदब्यो य पुणो सो चेव दु मोक्वकामेण ।१८। सव्वे भावे जम्हा पच्चक्रवाई परे त्ति णादूर्ण । तम्हा पचक्खाणं णाणं णियमा मुणेयव्या ।३४-मोक्षके इच्छुकको पहले जीवराजाको जानना चाहिए, फिर उसी प्रकार उसका श्रद्धान करना चाहिए, और तत्पश्चात उसका आचरण करना चाहिए।१८। अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थ पर है, ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है, अतः प्रत्याख्यान ज्ञान ही है (पं.का./ मू./१०४)। स.सि./१/१/७/३ चारित्रात्पूर्व ज्ञान प्रयुक्त, तत्पूर्वकत्वाच्चारित्रत्य । -सूत्रमे चारित्रके पहले ज्ञानका प्रयोग किया है, क्योकि चारित्र ज्ञानपूर्वक होता है । (रावा./१/१/१२/६/३२), (पु.सि.उ./३८) । ध १३/१.५,५०/२८८/६ चारित्राच्छ्र तं प्रधानमिति अग्रथम् । कथं तत् श्रुतस्य प्रधानता। श्रुतज्ञानमन्तरेण चारित्रानुपपत्तेः । चारित्रसे श्रुत प्रधान है, इसलिए उसकी अग्रच संज्ञा है। प्रश्न-चारित्रसे श्रुतकी प्रधानता किस कारणसे है । उत्तर- क्योकि श्रुतज्ञानके बिना चारित्रकी उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए चारित्रकी अपेक्षा श्रुतकी प्रधानता है। स.सा./आ./३४ य एवं पूर्व जानाति स एव पश्चात्प्रत्याचष्टे न पुनरन्य.. प्रत्याख्यान ज्ञानमेव इत्यनुभवनीयम्। -जो पहले जानता है वही त्याग करता है, अन्य तो कोई त्याग करनेवाला नहीं है, इसलिए प्रत्याख्यान ज्ञान ही हो। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २८७ ३. चारित्रमें सम्यक्त्वका स्थान ३. चारिन्न सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है चा.पा./मू./८ जं चरइ णाणजुत्तं पढम सम्मत्तचरणचारित्ता। चा.पा./टी/८/३५/१६ द्वयोर्दर्शनाचारचारित्राचारयोर्मध्ये सम्यक्त्वाचारचारित्रं प्रथम भवति । - दर्शनाचार और चारित्राचार इन दोनोंमे सम्यक्त्वाचरण चारित्र पहले होता है। र.सा./७३ पुव्वं सेवइ मिच्छामलसोहणहेउ सम्मभेसज्जं। पच्छा सेवइ कम्मामयणासणचरियसम्मभेसज्ज १७३। भव्य जीवोंको सम्यक्त्वरूपी रसायन द्वारा पहले मिथ्यामलका शोधन करना चाहिए, पुनः चारित्ररूप औषधका सेवन करना चाहिए। इस प्रकार करनेसे कर्मरूपी रोग तत्काल ही नाश हो जाता है। मो मा./मू / तं चैव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुबवठाणाय । जं चरइ णाणजुत्तं पढम सम्मत्तचरणचारित्तं जिनकासम्यक्त्वविशुद्धहोय ताहि यथार्थ ज्ञान करि आचरण करै, सो प्रथम सम्यक्त्वाचरण चारित्र है, सो मोक्षस्थानके अर्थ होय है। स.सि./२/३/१५३/७ सम्यक्त्वस्यादौ वचनं, तत्पूर्वकत्वाच्चारित्रस्य । ='सम्यक्त्वचारित्रे' इस सूत्रमें सम्यक्त्व पदको आदिमे रखा है, क्योकि चारित्र सम्यक्त्वपूर्वक होता है। (भ आ /वि./११६/२७३/१०)। रा वा /२/३/४/१०/२१ पूर्व सम्यक्त्वपर्यायेणाविर्भाव आत्मनस्ततः क्रमाच्चारित्रपर्याय आविर्भवतीति सम्यक्त्वस्यादौ ग्रहणं क्रियते । = पहले औपशमिक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। तत्पश्चात् क्रमसे आत्मामे औपशमिक चारित्र पर्यायका प्रादुर्भाव होता है, इसीसे सम्यक्त्वका ग्रहण सूत्र के आदिमे किया गया है। प्र.सि.उ./२१ तत्रादौ सम्यक्त्व समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन । तस्मिन्स- त्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च ।२१। - इन तीनों (सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र) के पहले समस्त प्रकारसे सम्यग्दर्शन भले प्रकार अंगीकार करना चाहिए, क्योंकि इसके अस्तित्व होते हुए ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होता है। आ.अनु./१२०-१२१ प्राक प्रकाशप्रधानः स्यात् प्रदीप इव संयमी। पश्चात्तापप्रकाशाभ्यां भास्वानिव हि भासताम् ।१२०। भूत्वा दीपोपमो धीमान ज्ञानचारित्रभास्वर । स्वमन्यं भासयत्येष प्रोद्वत्कर्मकज्जलस ११२१। - साधु पहले दीपके समान प्रकाशप्रधान होता है। तत्पश्चात वह सूर्य के समान ताप और प्रकाश दोनोसे शोभायमान होता है ११२०। वह बुद्धिमान साधु (सम्यक्त्व द्वारा) दीपकके समान होकर ज्ञान और चारित्रसे प्रकाशमान होता है, तब वह कर्म रूप काजलको उगलता हुआ स्वके साथ परको प्रकाशित करता है। ४. सम्यक्त्व हो जानेपर पहला ही चारित्र सम्यक् हो जाता है पं.ध./उ./७६८ अर्थोऽयं सति सम्यक्त्वे ज्ञानं चारित्रमत्र यत् । भूतपूर्व भवेत्सम्यक् सूते वाभूतपूर्वकम् ।७६८। - सम्यग्दर्शनके होते ही जो भूतपूर्व ज्ञान व चारित्र था, वह सम्यक् विशेषण सहित हो जाता है। अतः सम्यग्दर्शन अभूतपूर्वके समान ही सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र को उत्पन्न करता है, ऐसा कहा जाता है। ५. सम्यक्त्व हो जानेके पश्चात् क्रमशः चारित्र स्वतः हो जाता है पं. ध./उ./६४० स्वसंवेदनप्रत्यक्षं ज्ञानं स्वानुभवायम् । वैराग्य भेदविज्ञानमित्याद्यस्तीह कि बहु ९४० सम्यग्दर्शनके होनेपर आत्मामें प्रत्यक्ष, स्वानुभव नामका ज्ञान, वैराग्य और भेद विज्ञान इत्यादि गुण प्रगट हो जाते हैं। शी. पा./पं. जयचन्द/४० सम्यक्त्व होय तो विषयनितें विरक्त होय ही होय। जा बिरक्त न होय तौ संसार मोक्षका स्वरूप कहा जान्या. ६. सम्यग्दर्शन सहित ही चारित्र होता है चा. पा./मु. ३ णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं । बो. पा./मू.२० संजमसंजुतस्स य सुज्माणजोयस्स मोक्खमग्गस्स । णाणेण लहदि लक्वं तम्हा णाणं च णायव्यं । ज्ञान और दर्शनके समायोगसे चारित्र होता है।३। संयम करि संयुक्त और ध्यानके योग्य ऐसा जो मोक्षमार्ग ताका लक्ष्य जो अपना निज स्वरूप सो ज्ञानकरि पाइये है तातै ऐसे लक्षकू जानने... ज्ञानकू जानना ।२०॥ ध. १२/४,२,७,१७७/८१/१० सो संजमो जो सम्माविणाभावीण अण्णो। तत्थ गुणसेडिणिज्जराकज्जणुवलंभादो। तदो संजमगहणादेव सम्मत्तसहायसंजमसिद्धी जादा । संयम वही है, जो सम्यक्त्वका अविनाभावी है, अन्य नहीं। क्योकि. अन्यमें गुणश्रेणी निर्जरारूप कार्य नहीं उपलब्ध होता। इसलिए संयमके ग्रहण करनेसे ही सम्यक्त्व सहित संयमको सिद्धि हो जाती है। ७. सम्यक्त्व रहितका चारित्र चारित्र नहीं है स. सि./६/२१/३३६/७ सम्यक्त्वाभावे. सति तस्यपदेशाभावात्तदुभयमप्यत्रान्तर्भवति । सम्यक्त्वके अभावमें सराग संयम और संयमासंयम नहीं होते, इसलिए उन दोनोंका यही ( सूत्रके 'सम्यक्त्व' शब्दमें ) अन्तर्भाव होता है। रा.वा./4/२१/२/५२८/४ नासतिसम्यक्त्वे सरागसंयम-संयमासंयमव्यपदेश इति ।- सम्यक्त्वके न होनेपर सरागसंयम और संयमासंयम ये व्यपदेश ही नहीं होता । (पु. सि. उ./३८)। श्लो. वा./संस्कृत/६/२३/७/प्र.५५६ संसारात भीरुताभीक्ष्णं संवेगः। सिद्धयताम् यतः न तु मिथ्यादृशाम् । तेषाम् संसारस्य अप्रसिद्धितः । = बुद्धिमानोंमे ऐसी सम्मति है कि संसारभीरु निरन्तर संविग्न रहता है। परन्तु यह बात मिथ्याष्टियों में नहीं है। उन बुद्धिमानोंमें संसारकी प्रसिद्धि नहीं है। ध. १/१,१,४/१४४/४ संयमनं संयमः । न द्रव्ययमः संयमस्तस्य 'सं' शब्देनापादित्वात् । - संयमन करनेको संयम कहते हैं, संयमका इस प्रकार लक्षण करनेपर द्रव्य यम अर्थात भाव चारित्र शून्य द्रव्य चारित्र संयम नहीं हो सकता। क्योंकि संयम शब्दमें ग्रहण किये गये 'सं' शब्दसे उसका निराकरण कर दिया गया है । (ध.१/१,१,१४/१७७/४)। प्र. सा./ता. बृ./२३६/३२६/११ यदि निर्दोषिनिजपरमात्मवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वं नास्ति तर्हि...पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषषड्जीववधव्यावर्तोऽपि संयतो न भवति ।-निर्दोष निज परमानन्द ही उपादेय है, यदि ऐसा रुचि रूप सम्यक्त्व नहीं है, तब पंचेन्द्रियोंके विषयोंकी अभिलाषाका त्याग रूप इन्द्रिय संयम तथा षट्कायके जीवों के बधका त्यागरूप प्राणि संयम ही नहीं होता। मार्गणा-[ मार्गणा प्रकरणमें सर्वत्र भाव मार्गणा इष्ट है ] । ८. सम्यक्स्वके बिना चारित्र सम्भव नहीं र.सा./४७ सम्मत्तं विणा सण्णाणं सच्चारित्तं ण होइ णियमेण । -सम्यग्दर्शनके बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र नियम पूर्वक नहीं होते हैं ।४७। (और भी- दे० लिंग/२) ( स. सं/६/२१/३३६/७); (रा. वा./६/२१/२/५२८/४)। ध.१/१,१,१३/१७५/३ तान्यन्तरेणाप्रत्याख्यानस्योत्पत्तिविरोधात् । सम्यक्त्वमन्तरेणापि देशयतयो दृश्यन्त इति चेन्न, निर्गतमुक्तिकाक्ष - स्यानिवृत्तविषयपिपासस्याप्रत्याख्यानानुपपत्ते। ध.१/१,१,१३०/३७८/७ मिथ्यादृष्टयोऽपि केचित्संयतो दृश्यन्त इति चेन्न, सम्यक्त्वमन्तरेण संयमानुपपत्तेः । = १. औपमिक, क्षायिक ब क्षायोपश मिक इन तीनों में से किसी एक सम्यग्दर्शनके बिना अप्रत्याख्यान चारित्रका (संयमासयमका) प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। प्रश्नसम्यादर्शनके बिना भी देश संयमी देखनेमें आते हैं ? उत्तर-नहीं, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २८८ ४. निश्चय चारित्रकी प्रधानता क्योंकि जो जीव मोक्षकी आकांक्षासे रहित हैं, और जिनकी विषयम. पु./२४/१२२ चारित्रं दर्शनज्ञामविकलं नार्थ कृन्मतम् । प्रमातायैव पिपासा दूर नहीं हुई है, उनको अप्रत्याख्यान संयमकी उत्पत्ति नहीं तद्धि स्यात् अन्धस्येव विवल्गितम् ॥१२२। सम्यग्दर्शन और सम्यहो सकती। प्रश्न-कितने ही मिथ्या दृष्टि संयत देखे जाते हैं। ग्ज्ञानसे रहित चारित्र कुछ भी कार्यकारी नहीं होता, किन्तु जिस उत्तर-नहीं; क्योंकि सम्यग्दर्शनके बिना संयमकी उत्पत्ति नहीं हो प्रकार अन्धे पुरुषका दौडना उसके पतनका कारण होता है उसी सकती। प्रकार वह उसके पतनका कारण होता है अर्थाद नरकादि गतियोमे भ. आ./वि./८/४१/१७ मिथ्यादृष्टिस्त्वनशनादावुद्यतोऽपि न चारि- परिभ्रमणका कारण होता है। त्रमाराधयति । न. च. लघु / बुज्झहता 'जिणवयणं पच्छा णिजकजसंजुआ होह । भ. आ./वि./११६/२७३/१० न श्रद्धानं ज्ञानं चान्तरेण संयम' प्रवर्तते। अहबा तंदुलरहियं पलालसंधुणाणं सब । पहिले जिन-वचनोंको अजानतः श्रद्धानरहितस्य वासंयमपरिहारो न संभाव्यते । १. जानकर पीछे निज कार्यसे अर्थात चारित्रसे संयुक्त होना चाहिए, मिथ्याष्टिको अनशनादि तप करते हुए भी चारित्रकी आराधना अन्यथा सर्व चारित्र तप आदि तन्दुल रहित पलाल कूटनेके समान नहीं होती। २. श्रद्धान और ज्ञानके बिना संयमकी प्रवृत्ति ही नहीं व्यर्थ है। होती, । क्योंकि जिसको ज्ञान नहीं होता, और जो श्रद्धान रहित है, न. च /श्रुत/पृ. ५२ स्वकार्यविरुद्धा क्रिया मिथ्याचारित्रं । निजकार्यसे वह असंयमका त्याग नहीं करता है। विरुद्व क्रिया मिथ्याचारित्र है। प्र.सा./त. प्र./२३६ इह हि सर्वस्यापि "तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणया दृष्टया स. सा./आ./३०६ अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीया भूमिस्तु.. साक्षात्स्वय शून्यस्य स्वपरविभागाभावात् कायकषायैः सहैक्यमध्यवसतो... ममृतकुम्भो भवति। तथैव च निरपराधो भवति चेतयिता । तदसर्वतो निवृत्त्यभावात् परमात्मज्ञानाभावाद: ज्ञानरूपात्मतत्त्वैकाग्रय- भावे द्रव्यप्रतिक्रमणादिरप्यपराध एव । जो अप्रतिक्रमणादि रूप प्रवृत्त्यभावाच्च संयम एव न तावत् सिद्धयेत् । - इस लोकमें वास्तवमें अर्थात् प्रतिक्रमण आदिके विकल्पोंसे रहित) तीसरी भूमिका है वह तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षणवालो दृष्टिमे जो शून्य है, उन सभीको संयम स्वयं साक्षात अमृत कुम्भ है। उससे ही आत्मा निरपराध होता है। हो सिद्ध नहीं होता, क्योंकि स्वपर विभागके अभावके कारण काया उसके अभावमें द्रव्य प्रतिक्रमणादि भी अपराध ही है। और कषायोकी एकताका अध्यवसाय करनेवाले उन जीवोंके सर्वतः पं.वि./१/७० .."दर्शनं यद्विना स्यात् । मतिरपि कुमतिर्नु दुश्चरित्रं 'निवृत्तिका अभाव है, तथापि उनके परमात्मज्ञानके अभावके कारण चरित्र ।७०।-वह सम्यग्दर्शन जयवन्त वर्तो, कि जिसके बिना मती आत्मतत्त्वमें एकाग्रताकी प्रवृत्तिके अभाव में संयम ही सिद्ध नहीं होता। भी कुमति है और चारित्र भी दुश्चरित्र है। ९. सम्यक्त्व शून्य चारित्र मोक्ष व आत्मप्राप्तिका ज्ञा./४/२७ मे उद्धृत-हतं ज्ञानं क्रिया शून्यं हता चाज्ञानिनः क्रिया। धावन्नप्यन्धको नष्ट. पश्यन्नपि च पंगुकः । = क्रिया रहित तो ज्ञान कारण नहीं है नष्ट है और अज्ञानीकी क्रिया नष्ट हुई। देखो दौड़ता दौडता तो चा. पा./मू./१० सम्मत्तचरणभट्टा संजमचरणं चरंति जे विणरा। अन्धा (ज्ञान रहित क्रिया ) नष्ट हो गया और देखता देखता पंगुल अण्णाणणाणमूढा-तह वि ण पावंति णिव्वाणं ।१०= जो पुरुष (क्रिया रहित ज्ञान) नष्ट हो गया। सम्यक्त्व चरण चारित्र (स्वरूपाचरण चारित्र) करि भ्रष्ट हैं, अर अन. ध./४/३/२७७ ज्ञानमज्ञानमेव यद्विना सद्दर्शनं यथा। चारित्रमयसंयम आचरण करें हैं तोऊ ते अज्ञानकरि मूढ दृष्टि भए सन्ते निर्वा चारित्रं सम्यग्ज्ञानं विना तथा २ = जिस प्रकार सम्यग्दर्शनके णकू नहीं पावें हैं। बिना चारित्र भी अचारित्र ही माना जाता है। १. प्र./मू./२/८२ बुज्झइ सत्थई तउ चरई पर परमत्थु ण वेइ । ताव ण मुंचइ जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ ।। = शास्त्रों को जानता है, ४.निश्चय चारित्रकी प्रधानता तपस्या करता है, लेकिन परमात्माको नहीं जानता, और जबतक पूर्व प्रकारसे उसको नहीं जानता तबतक नहीं छूटता। १. शुम-अशुमसे अतीत तीसरी भूमिका ही वास्तविक यो. सा./अ./२/५० अजीवतत्त्वं न विदन्ति सम्यक् यो जीवत्वाद्विधिना- चारित्र है विभक्तं । चारित्रवतोऽपि न ते लभन्ते विविक्तमानमपास्तदोषम् । स.सा./आ /३०६ यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादि स शुद्धात्मजो विधि पूर्वक जीव तत्त्वसे सम्यक् प्रकार विभक्त (भिन्न किये सिद्धाभावस्वभावत्वेन स्वमेवापराधत्वाद्विषकुम्भ एव; कि तस्य गये ) अजीव तत्त्वको नहीं जानते वे चारित्रवन्त होते हुए भी निर्दोष विचारेण । यस्तु द्रव्यरूप. प्रक्रमणादिः स सर्वापराधदोषापकर्षणपरमात्मतत्त्वको नहीं प्राप्त होते। समर्थत्वेनामृतकुम्भोऽपि प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणादिविलक्षणाप्रतिक्रमपं. वि./७/२६/ भाषाकार-मोक्षके अभिप्रायसे धारे गये व्रत ही सार्थक हैं। णादिरूपां तार्तीयिकी भूमिमपश्यतः स्व कार्याकारित्वाद्विषकुम्भ एव दे. मिथ्यादृष्टि/४ (सांगोपांग चारित्रका पालन करते हुए भी मिथ्या स्यात् । अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीया भूमिस्तु स्वयं शुद्धात्मसिद्धिरूपदृष्टि मुक्त नहीं होता)। स्वेन सर्वापराध विषदोषाणां सर्वकषत्वात साक्षात्स्वयममृतकुम्भो १०. सम्यक्त्व रहित चारित्र मिथ्या है अपराध है भवतीति ।-प्रथम तो अज्ञानी जनसाधारणके प्रतिक्रमणादि ( असंयइत्यादि मादि ) है वे तो शुद्धात्माकी सिद्धिके अभावरूप स्वभाववाले है। इसलिए स्वयमेव अपराध रूप होनेसे विषकुन्भ ही है। उनका स. सा./मू./२७३ बदसमिदिगुत्तीओ सीलतवं जिनवरेहिं पण्णत्तं । विचार यहाँ करनेसे प्रयोजन हो क्या -और जो द्रव्य प्रतिकुव्बंतो वि अभवो अण्णाणी मिच्छादिट्ठी दु ।२७३- जिनेन्द्र देवके क्रमणादि हैं वे सब अपराधरूपी विषके दोषको (क्रमशः) कम द्वारा कथित व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तप करता हुआ भी करनेमे समर्थ होनेसे यद्यपि व्यवहार आचारशास्त्रके अनुसार अमृत अभव्य जीव अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि है। (भ. आ./मू./७७१/१२९) । कुम्भ है तथापि प्रतिक्रमण अप्रतिक्रमणादिसे विलक्षण ( अर्थात् प्रतिमो पा./मू./१०० जदि पढदि बहुसुदाणि जदि कहिदि बहुविहं य क्रमणादिके विकल्पोसे दूर और लौकिक असंयमके भी अभाव स्वरूप चारित्तं । तं बालसुदचरणं हवेइ अप्पस्स क्विरीदं । जो आत्म पूर्ण ज्ञाता द्रष्टा भावस्वरूप निर्विकल्प समाधि दशारूप) जो तीसरी स्वभावसे विपरीत बाह्य बहुत शास्त्रोंको पढेगा और बहुत प्रकारके साम्य भूमिका है, उसे न देखनेवाले पुरुषको वे द्रव्य प्रतिक्रमणादि चारित्रको आचरेगा तो वह सब भालश्रुत व बालचारित्र होगा। ( अपराध काटनेरूप ) अपना कार्य करनेको असमर्थ होनेसे और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २८९ ५. व्यवहार चारित्रकी गौणता विपक्ष (अर्थात बन्धका) कार्य करते होनेसे विषकुम्भ ही हैं।-जो अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमि है वह स्वयं शुद्धात्माकी सिद्धिरूप होनेके कारण समस्त अपराधरूपी विषके दोषों को सर्वथा नष्ट करनेवाली होनेसे, साक्षात स्वयं अमृत कुम्भ है । २. चारित्र वास्तवमें एक ही प्रकारका है प, प्र,/टी /२/६७ उपेक्षासंयमापहृतसंयमौ वीतरागसरागापरनामानौ तावपि तेषामेन ( शुद्धोपयोगिनामेव) संभवतः । अथवा सामायिकछेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातभेदेन पञ्चधा संयमः सोऽपि लभ्यते तेषामेव । "येन कारणेन पूर्वोक्ता सयमादयो गुणाः शुद्धोपयोगे लभ्यन्ते तेन कारणेन स एव प्रधान उपादेयः।" - उपेक्षा संयम या वीतराग चारित्र और अपहृत संयम या सराग चारित्र ये दोनों भी एक उसी शुद्धोपयोगमें प्राप्त होते हैं। अथवा सामायिकादि पाँच प्रकारके संयम भी उसीमें प्राप्त होते हैं। क्योकि उपरोक्त संयमादि समस्त गुण एक शुद्धोपयोगमें प्राप्त होते है, इसलिए वही प्रधानरूपसे उपादेय है। प्र. सा./ता. वृ./११/१३/१६ धर्मशब्देनाहिसालक्षणः सागारानागाररूपस्त थोत्तमक्षमादिलक्षणो रत्नत्रयात्मको वा, तथा मोहक्षोभरहित आत्मपरिणामः शुद्धवस्तुस्वभावश्चेति गृह्यते। स एव धर्मः पर्यायान्तरेण चारित्र भण्यते। -धर्म शब्दसे-अहिंसा लक्षणधर्म, सागार-अनागारधर्म, उत्तमक्षमादिलक्षणधर्म, रत्नत्रयात्मकधर्म, तथा मोह क्षोभ रहित आत्माका परिणाम या शुद्ध वस्तु स्वभाव ग्रहण करना चाहिए। वह ही धर्म पर्यायान्तर शब्द द्वारा चारित्र भी कहा जाता है। ३. निश्चय चारित्रसे ही व्यवहार चारित्र सार्थक है, अन्यथा वह अचारित्र है प्र. सा./म./७६ चत्ता पावारंभो समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्हि । ण जहादि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्ध' ७१ पापारम्भको छोड़कर शुभ चारित्र में उद्यत होनेपर भी यदि जीव मोहादिको नहीं छोड़ता है तो वह शुद्धारमाको नहीं प्राप्त होता है। नि. सामू /१४४ जो चरदि संजदो खलु सुहभावो सो हवेइ अण्णवसो। तम्हा तस्स दु कम्म आवासयलक्रवण ण हवे ११४४६ - जो जीव संयत रहता हुआ वास्तवमें शुभभावमें प्रवर्तता है, वह अन्यवश है। इसलिए उसे आवश्यक स्वरूप कर्म नहीं है ।१४४। (नि. सा./ता. वृ / १४८) स. सा./मू./१५२ परमट्ठम्हि दु अहिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई । तं सव्वं बालतवं बालवदं विति सव्वण्ह ११५२। =परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है. उसके उन सब तप और व्रतको सर्वज्ञदेव बालतप और बालवत कहते है। र. सा./७१ उवसमभवभावजुदो णाणी सो भावसंजदो होई। णाणी कसायवसगो असंजदो होइ स ताव ।७१। - उपशम भावसे धारे गये व्रतादि तो संयम भावको प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु कषाय वश किये गये व्रतादि असंयम भावको ही प्राप्त होते हैं। (प. प्र./मू./२/४१) मू. आ./EEL भावविरदो दु विरदो ण दव्य विरदस्स सुगई होई। विस यबणरमणलोलो धरियन्वो तेण मणहत्थी 881 -जो अन्तरंगमें विरक्त है वही विरक्त है, बाह्य वृत्तिसे विरक्त होनेवालेकी शुभ गति नही होती। इसलिए मनरूपी हाथीको जो कि क्रीड़ावन में लंपट है रोकना चाहिए । प. प्र/मू./३/६६ वंदिउ जिंदउ पडिकमउ भाव असद्धउ जासु । पर तसु संजमु अस्थि णवि जं मणसुद्धि ण तास ।६६-निःशंक वन्दना करो, निन्दा करो. प्रतिक्रमणादि करो लेकिन जिसके जबतक अशुद्ध परिणाम है, उसके नियमसे संयम नहीं हो सकता।६६। स.सा./आ./२७७ शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रयः षड्जीवनिकायसद भावेऽसदभावे वा तत्सदभावेनैव चारित्रस्य सद्भावात् । स. सा./आ./२७३ निश्चयचारित्रोऽज्ञानी मिथ्यावृष्टिरेव निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धानशुन्यत्वात् । = शुद्ध आरमा ही चारित्रका आश्रय है, क्योंकि छह जीव निकायके सदभावमें या असहभावमें उसके सद्भावसे ही चारित्रका सदभाव होता है ।२७७१ -निश्चय चारित्रका अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है, क्योंकि वह निश्चय चारित्रके ज्ञान श्रद्धानसे शून्य है। स.सा/आ/३०६ अप्रतिक्रमणादितृतीयभूमिस्तु" साक्षात्स्वयममृतकुम्भो भवतीति व्यवहारेण द्रव्यप्रतिक्रमणादेरपि अमृतकुम्भत्वं साधयति । तदभावे द्रव्यप्रतिक्रमणादिरप्यपराध एव। -अप्रतिक्रमणादिरूप जो तीसरी भूमि है, वही स्वयं साक्षात् अमृतकुम्भ होती हुई, द्रध्यप्रतिक्रमणादिको अमृत कुम्भपना सिद्ध करती है। अर्थात विकल्पात्मक दशामें क्येि गये द्रव्यप्रतिकमणादि भी भी अमृतकुम्भरूप हो सकते है जब कि अन्तरंगमें तीसरी भूमिका अंश या झुकाव विद्यमान हो। उसके अभाबमें द्रव्य प्रतिक्रमणादि भी अप राध है। प्र. सा./त प्र./२४१ ज्ञानात्मन्यात्मन्यचलितवृत्तेर्य क्लि सर्वत' साम्यं तत्सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यस्य संयतस्य लक्षणमालक्षणीयम् । - ज्ञानात्मक आत्मामें जिसकी परिणति अचलित हुई है, उस पुरुषको वास्तबमें जो सर्वतः साम्य है, सो संयतका लक्षण समझना चाहिए, कि जिस संयतके आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान संयतत्वकी युगपतताके साथ आत्म ज्ञानकी युगपतता सिद्ध हुई है। ज्ञा./२२/१४ मनःशुद्धयैव शुद्धिः स्याह हिना नात्र संशयः। वृथा तद्वयतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ।१४। -निःसन्देह मनकी शुद्धिसे ही जीवोंके शुद्धता होती है, मनकी शुद्धिके बिना केवल कायको क्षीण करना वृथा है। दे, चारित्र/३/८ (मिथ्यादृष्टि संयत नहीं हो सकता )। ४. निश्चय चारित्र वास्तव में उपादेय है ति.प./६/२३ णाणम्मि भावना खलु कादव्वा दसणे चरित्ते य । ते पुण आदा तिणि वि तम्हा कुण भावणं आदो ।२३॥ --ज्ञान, दर्शन और चारित्रमे भावना करना चाहिए, चूकि वे तीनों आत्मस्वरूप हैं, इसलिए आत्मामें भावना करो। प. सा./त. प्र/६ मुमुक्षुणेष्टफलत्वाद्वीतरागचारित्रमुपादेयम् । = मुमुच जनौंको इष्ट फल रूप होनके कारण वीतरागचारित्र उपादेय है। {प्र. सा/त. प्र./१,११)(नि. सा./ता. वृ./१०५)। पं. ध./उ./७६१ नासौ वरं वरं यः स नापकारोपकारकृत। यह ( शुभोपयोग अन्धका कारण होनेसे) उत्तम नहीं है, क्योंकि जो उपकार व अपकार करनेवाला नहीं है, ऐसा साम्य या शुद्धोपयोग ही उत्तम है। ५. व्यवहार चारित्रकी गौणता १. व्यवहार चारित्र वास्तव में चारित्र नहीं प्र सात प्र/२०२ अहो मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारण पञ्चमहानतोपेतकायवाड्मनोगुप्तीर्याभाषणादाननिक्षेपणप्रतिष्ठापनलक्षणचारित्राचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि । = अहो । मोक्षमार्ग में प्रवृत्तिके कारणभूत पंच महावत सहित मनवचनकाय-गुप्ति और ईर्यादि समिति रूप चारित्राचार । मैं यह निश्चयसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्माका नही है ? जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-३७ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २९० ६. व्यवहार चारित्रकी कथंचित् प्रधानता पं.ध./उ./७६० रूढेः शुभोपयोगोऽपि ख्यातश्चारित्रसंज्ञया। स्वार्थ- क्रियामकुर्वाणः सार्थनामा न निश्चयात ७६०। यद्यपि लोकरूढिसे शुभोपयोगको चारित्र नामसे कहा जाता है, परन्तु निश्चयसे वह चारित्र स्वार्थ क्रियाको नहीं करनेसे अर्थात आत्मलीनता अर्थका धारी न होनेसे अन्वर्थनामधारी नहीं है। २. व्यवहार चारित्र वृथा व अपराभ है न.च.वृ./३४५ आलोयणादि किरिया जं विसकभेति सुद्धचरियस्स। भणियमिह समयसारे तं जाण एएण अत्येण ।- आलोचनादि क्रियाओं को समयसार ग्रन्थमें शुद्धचारित्रवान के लिए विषकुम्भ कहा है, ऐसा तू श्रुतज्ञान द्वारा जान (स.सा./आ./३०६); (नि.सा./ता वृ/३१२); (नि. सा./ता. वृ./१०६/ कलश १५९) और भी दे० चारित्र/४/३। यो, सा./अ//७१ रागद्वंषप्रवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा। रागद्वेषाप्रवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा ।-राग-द्वेष करके जो युक्त है उनके लिए प्रत्याख्यानादिक करना व्यर्थ है। और राग-द्वेष करके जो रहित है उनको भी प्रत्याख्यानादिक करना व्यर्थ है। ३. व्यवहार चारित्र बन्धका कारण है रा. वा./८/ उत्थानिका/५६१/१३ षष्ठसप्तमयो. विविधफलानुग्रहतन्त्रा. सवप्रकरणवशात् सप्रपञ्चात्मनः कर्मबन्धहेतवो व्याख्याता' विविध प्रकारके फलों को प्रदान करनेवाले आस्रव होनेके कारण, जिनका छटे मातवें अध्यायमे विस्तारसे वर्णन किया गया है वे (वतादि भी) आत्माको कर्मबन्धके हेतु हैं। क. पा./१/१-१/३/८/७ पुण्णबंधहेउत्त' पडिविसे साभावादो। देशव्रत और सरागसंयममे पुण्यबन्धके कारणोके प्रति कोई विशेषता नही है। त. सा./४/१०१ हिंसानृतचुराब्रह्मसंगसंन्यासलक्षणम् । वतं पुण्यासवोस्थानं भावेनेति प्रपञ्चितम् ॥१०॥ हिंसा, झूठ, चोरी कुशोल, परिग्रहके त्यागको व्रत कहते हैं, ये व्रत पुण्याखवके कारणरूप भाव समझने चाहिए। प्र. सा /त. प्र/५ जीवत्काषायकणतया पुण्यबन्धसप्राप्तिहेतुभूतं सराग चारित्रम् । = जिसमें कषायकण विद्यमान होनेसे जीवको जो पुण्य बन्धकी प्राप्तिका कारण है ऐसे सराग चारित्रको-(प्र. सा./त. प्र/६) द्र.सं /टी/८/१५६/२ पुण्यं पापं च भवन्ति खलु स्फुटं जीवा. । कथं भूता. सन्त, . पञ्चवतरक्षा कोपचतुष्कस्य निग्रहं परमम् । दुर्दान्तेन्द्रियविजयं तप.सिद्धिविधौ कुरूद्योगम् ॥२॥ इत्याद्वियकथितलक्षणेन शुभोपयोगपरिणामेन तद्विलक्षणा शुभोपयोगपरिणामेन च युक्ता. परिणता.। - कैसे होते हुए जोव पुण्य-पापको धारण करते हैं। 'पचमहाबतोका पालन करो, क्रोधादि कषायोका निग्रह करो और प्रबल इन्द्रिय शत्रुओंको विजय करो तथा बाह्य व अभ्यन्तर तपको सिद्ध करने में उद्योग करो इस आर्या छन्दमें कहे अनुसार शुभाशुभ उपयोग रूप परिणामसे युक्त जीव है वे पुण्य-पापको धारण करते है। प. ध /उ./७६२ विरुद्धकार्यकारित्वं नास्त्यसिद्ध विचारणात् । अन्धस्यै कान्ततो हेतु शुद्धादन्यत्र संभवात् । नियमसे शुद्ध क्रियाको छोडकर शेष क्रियाएँ बन्धकी ही जनक होती हैं, इस हेतुसे विचार करने पर इस शुभोपयोगको विरुद्ध कार्यकारित्व असिद्ध नही है। ५. व्यवहार चारित्र विरुद्ध व अनिष्टफल प्रदायी है प्र. सा./त. प्र./६,११ अनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् ॥६॥ यदा तु धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभोपयोगपरिणत्या संगच्छते तदा सप्तत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणासमर्थः कथंचिद्विरुद्धकार्यकारिचारित्रः शिरिखतप्तघृतोपशक्तिपुरुषो दाहदुःखमिव स्वर्गसुखबन्धमवाप्नोति ॥११॥ = अनिष्ट फलप्रदायी होनेसे सराग चारित्र हेय है ॥६॥ जो वह धर्म परिणत स्वभाव वाला होनेपर भी शुभोपयोग परिणतिके साथ युक्त होता है, तब जो विरोधी शक्ति सहित होनेसे स्वकार्य करने में असमर्थ है, और कथं चिद विरुद्ध कार्य ( अर्थात् बन्धको) करनेवाला है ऐसे चारित्रसे युक्त होनेसे, जैसे अग्निसे गर्म किया धी किसी मनुष्यपर डाल दिया जाये तो वह उसकी जलनसे दुखी होता है, उसी प्रकार वह स्वर्ग सुखके बन्धको प्राप्त होता है। (पं. का./त. प्र./१६४ ); (नि. सा./ता. वृ./१४७)। ६. व्यवहार चारित्र कथंचित् हेय है भा. पा./मू /१० भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणमक्कडं पयत्तण । मा जणरंजणकरण बाहिखवयबेस तं कुणम् ॥१०॥ इन्द्रियोंकी सेनाको भजनकर, मनरूपी बन्दरको वशकर, लोकरजक बाह्य वेष मत धारण कर। स श./मू./८३ अपुण्यमवते. पुण्यं वतै मोक्षस्तयोर्व्यय । अवतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥८३॥ हिसादि पॉच अवतोसे पाँच पापका और अहिसादि पाँच व्रतोसे पुण्यका बन्ध होता है। पुण्य और पाप दोनों कर्मोंका विनाश मोक्ष है, इसलिए मोक्षके इच्छुक भव्य पुरुषको चाहिए कि अवतोंकी तरह व्रतोको भी छोड दे।(दे० चारित्र/४/१); (ज्ञा./३२/८७); (द्र. सं./टो/५७/२२६/५) न.च.बृ./३८१ णिच्छयदो खलु मोक्खो बन्धो ववहारचारिणो जम्हा । तम्हा णिव्वुदिकायो बबहारो चयदु तिव्हेिण ॥३८१॥ = निश्चय चारित्रसे मोक्ष होता है और व्यवहार चारित्रसे बन्ध । इसलिए मोक्षके इच्छुकको मन, वचन, कायसे व्यवहार छोड़ना चाहिए। प्र. सा /त. प्र./६ अनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् । अनिष्ट फल वाला होनेसे सराग चारित्र हेय है। नि. सा./ता, वृ/१४७/क. २५५ यद्येवं चरणं निजात्मनियत ससारदुखापह, मुक्तिप्रीललनासमुद्भत्रसुखस्योच्चैरिदं कारणम् । बुद्धत्थं समयस्य सारमनपं जानाति यः सर्वदा, सोऽयं त्यक्तक्रियो मुनिपति. पापाटकोपावक. ॥२५५॥ = जिनात्मनियत चारित्रको, संसारदुख नाशक और मुक्ति श्रीरूपी सुन्दरीसे उत्पन्न अतिशय सुखका कारण जानकर, सदैव समयसारको ही निष्पाप माननेवाला, बाह्य क्रियाको छोडनेवाला मुनिपति पापरूपी अटवौको जलानेवाला होता है ।२५॥ ४. व्यवहार चारित्र निजरा व मोक्षका कारण नहीं पं. ध /3/७६३ नोहय प्रज्ञापराधत्व निर्जराहेतुर शतः । अस्ति नाबन्धहेतुर्वा शुभो नाप्यशुभावहात्। बुद्धिको मन्दतासे यह भो आशका नहीं करनी चाहिए कि शुभोपयोग एक देशसे निर्जराका कारण हो सकता है, कारण कि निश्च यनयसे शुभोपयाग भी संसारका कारण होनेसे निर्जरादिकका हेतु नहीं हो सकता है। ६. व्यवहार चारित्रको कचित् प्रधानता १. व्यवहार चारित्र निश्चयका साधन है न. च. बृ./३२६ णिच्छय सज्झसरूवं सराय तस्सेव साहणं चरणं । निश्चय चारित्र साध्य स्वरूप है और सराग चारित्र उसका साधन है। (द्र सं./टी./४५-४६ की उत्थानिका १६४, १९७) २. व्यवहार चारित्र निश्चयका या मोक्षका परम्परा कारण है द्र, स./टी./४५/१६४ को उत्थानिका-वीतरागचारित्र्यस्य पारम्पर्येण साधकं सरागचारित्रं प्रतिपादयति । वीतराग चारित्रका परम्परा साधक सराग चारित्र है। उसका प्रतिपादन करते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र प्र. सा./ता.वृ./६/८/१ सरागचारित्रात • मुख्यवृत्त्या विशिष्टपुण्यबन्धो भवति, परम्परया निर्माणं चेति । सराग चारित्रसे मुख्य वृत्तिसे विशिष्ट पुण्यका बन्ध होता है और परम्परासे निर्वाण भी । देखो धर्म ७/१२ परम्परा कारण कहनेका प्रयोजन । ३. दीक्षा धारण करते समय पंचाचार अवश्य धारण किया जाता है प्र. सा./मू./ २०२ आपिच्छ बंधुवरगं विमोचिदो गुरुकलत्त पुत्ते हि । आसिज्ज णाणदंसणचारित्ततववीरियायारं ॥ २०२॥ = ( श्रामण्यार्थी ) बन्धुवर्ग से विदा माँगकर महोसे तथा स्त्रीसे और पुत्रसे मुक्त होता हुआ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार तपाचार और वीर्याचारको अंगीकार करके... ४. व्यवहारपूर्वक ही निश्चय चारित्र की उत्पत्तिका क्रम है 1 स.श./मू./६७ अमतानि परित्यज्य वतेषु परिनिष्ठितः त्यजेतान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मन ॥८४॥ अत्रती व्रतमादाय व्रती ज्ञानपरायण । परात्मज्ञानसंपन्न. स्वयमेव परो भवेत । - हिसादि पाँच adit छोडकर अहिंसादि पाँच व्रतों में निष्ठ हो, पीछे आत्माके राग-द्वेषादि रहित परम वीतराग पदको प्राप्त करके उन बतोको भी छोड़ देवे ॥८४॥ अतोंमें अनुरक्त मनुष्यको ग्रहण करके अवतावस्थामें होनेवाले विकल्पोंका नाश करे और फिर अरहन्त अवस्थामें केवलज्ञान से युक्त होकर स्वयं ही बिना किसीके उपदेशके सिद्धपदको प्राप्त करे |६| ५. तीर्थकरों व भरत चकीने भी चारित्र धारण किया था मो. पा./मू./६० धुवसिद्धी तित्थयरो चरणाणजुदो करेइ-तवयरणं । णाऊण धुवं उज्जा तवयरणं णाणजुत्तो वि । ६०|- देखो -- जिसको नियमसे मोक्ष होती है और चार ज्ञान कर युक्त है, ऐसा तीर्थंकर भी तपश्चरण करे है। ऐसा निश्चय करके ज्ञान युक्त होते हुए भी तप करना योग्य है । द्र.सं./टो / ५७/२३१ योऽपि घटिकाद्वयेन मोक्षं गतो भरतचक्री सोऽपि जिनदीक्षां गृहोत्वा विषयकषायनिवृत्तिरूपं क्षणमात्रं व्रतपरिणाम कृत्वा पश्चाद्रोपयोगत्वरूप रत्नत्रयात्मके निश्चयव्रताभिधाने वीतरामसामायिक निर्विकल्पसमाधी स्थिरमा लहान लग्धनानिति पर किन्तु तस्य स्तोकसत्वान्तोका परिणाम म जानन्तीति । जो दीक्षाके पश्चात् दो घड़ी कालमें भरतचक्रीने मोक्ष प्राप्त की है, उन्होंने भी जिन दीक्षा ग्रहण करके, थोड़े समय तक विषय और क्योंकी निवृत्तिरूप जो उसका परिणाम है उसकी करके तदनन्तर शुद्धोपयोगरूप, रत्नत्रय स्वरूप निश्चय व्रत नामक वीतराग सामायिक नाम धारक निर्विकल्प ध्यानमें स्थित होकर हुए हैं किन्तु भरतके जो थोडे समय मत परि णाम रहा, इस कारण लकि उनके व्रत परिणामको जानते नहीं है । (प प्र./टी./२/५२/९०४/२) ६. व्यवहार चारित्रमै गुणश्रेणी निर्जरा क.पा.१/१-१/६३/६/१ सरागसंजमो गुणसेढिणिज्जराए कारणं तेण बंधादो मोक्खो असोति सरागयंजने सुनी वहणं उत्तमिति पचा काय अरहंतणमोरो सपहियधादो अज्जगुणकम्मयकारी सि तत्य नि गुणी गादो यदि कहा जाये कि सराग सयम गुणश्रेणी निर्जराका कारण है, क्योंकि, २९१ ६ व्यवहार चारित्रको कथंचित् प्रधानता उससे बन्धकी अपेक्षा मोक्ष अर्थात कर्मोंकी निर्जरा असंख्यात गुणी होती है, अत अहंत नमस्कारकी अपेक्षा सराग संयममें ही मुनियों की प्रवृत्तिका होना योग्य है, सो ऐसा भी निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि अर्हन्त नमस्कार तत्कालीन बन्धकी अपेक्षा असंख्यात गुणी कर्म निर्जराका कारण है, इसलिए सराग संयमके समान उसमें भी मुनियोंकी प्रवृत्ति प्राप्त होती है। ७. व्यवहार चारित्रकी इष्टता मो.पा./२१ मवेहि सम्भो मा दुक्स होउ जिरह इयरेहि छायातट्ठियाणं पडिवालं ताण गुरुभेयं ॥२५॥ - व्रत और तपसे स्वर्ग होता है और अवत व अपसे नरकादि गतिमें दुख होते हैं । इसलिए व्रत श्रेष्ठ है और अवत श्रेष्ठ नहीं है। जैसे कि छाया व आतप में खडे होनेवाले प्रतिपालक कारणोंमें महा भेद है (इ.ज./३) प्र.सा./त.प्र./२०२ अहो मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारण चारित्रचार न शुद्धस्वात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यायावादात्मानमुपलभे । अहो ! मोक्षमार्गमे प्रवृत्तिके कारणभूत (महावत समिति गुरू १३) पारिवाचार में यह निश्चयसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्माका नहीं, तथापि तुझे तभी तक अंगीकार करता जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्माको उपलब्ध लू। सा./२/७७ यावन्न सेव्या विषयास्तावत्तानप्रवृत्तित । व्रतयेत्सव्रतो तोमुत्राचेन्द्रिय सम्बन्धी स्त्री आदिक विषय जब तक या जबसे सेवनमें आना शक्य न हो तब तक या तबसे उन विषयोंको फिरसे उन विषयों में प्रवृत्ति न होनेके समय तक छोड देना चाहिए। क्योंकि व्रत सहित मरा हुआ व्यक्ति परलोकमें सुखी होता है। प.प./टी./२/५२/१०४/१ कश्चिदाह मतेन किं प्रयोजनमारमभावनया मोक्षो भविष्यति । भरतेश्वरेण कि व्रतं कृतम् । घटिकाद्वयेन मोक्षं गत इति । अथ परिहारमाह ।··· अथेदं मतं वयमपि तथा कुर्मोऽवसानकाले । नैवं वक्तव्यम् । यद्य कस्यान्धस्य कथं चिन्निधानलाभो जाहि कि सर्वे भवतीति भावार्थः प्रश्न तसे क्या प्रयोजन भावना मात्रसे मोक्ष हो जायेगी। क्या भरतेश्वरने व्रत धारण किये थे । उसे दो घडीमे बिना व्रतोके ही मोक्ष हो गयी उत्तर- भरतेश्वर ने भी व्रत अवश्य धारण किये थे पर स्तोक काल होनेसे उसका पता न चला (दे० चारित्र ६/५) प्रश्न - तब तो हम भी मरण समय थोडे कालके लिए व्रत धारण कर लेंगे। उत्तर- यदि किसी अन्धेको किसी प्रकार निधिका लाभ हो जाय तो क्या सबको हो जायेगा । ८. मिध्यादृष्टियोंका चारित्र भी कथंचित् चारित्र है रा.वा /७/२१/२५/५४६/३३ एव च कृत्वा अभव्यस्यापि निर्ग्रन्थलिड्गधारिणः एकादशाङ्गाध्यायिनो महानतपरिपालनादेश यस यताभावस्यापि परिवेयक विमानयासितोपपन्ना भवति इसलिए निय गिधारी और एकादशनिपाठी अभव्यकी भी बाह्य महामत पालन करनेसे देशसंयत भाव और संयतभावका अभाव होनेपर भी उपरिम ग्रैवेयक तक उत्पत्ति बन जाती है। = ध. ६/१.६-१,१३३/४६५/८ उबरि किण्ण गच्छति । ण तिरिक्खसम्माइट्ठीसु सजमाभावा । सजमेण विणा ण च उवरि गमणमत्थि । ण मिच्याइडीहि सत्पज्जतेहि विचारो सेसि पि भावसजमेण बिया मस्स संभवा प्रश्न संख्यात वर्षायुष्क असंयत सम्यग्दृष्टि मरकर आरण अच्युत कल्पसे ऊपर क्यों नही जाते ? उत्तर- नहीं, क्योकि तिर्यच सम्यग्दृष्टि जीवोमें असयमका अभाव पाया जाता है, और संयम के बिना आरण अच्युत कल्पसे ऊपर गमन जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र होता नहीं है । इस कथनसे आरण अच्युत कल्पसे ऊपर उत्पन्न होनेवाले मिध्यादृष्टि जीवो के साथ व्यभिचार दोष भी नहीं आता, क्योंकि उन मिथ्यादृष्टियों के भी भाव संयम रहित द्रव्य संयम पाया जाता है। गो.क./जी.प्र./२००/०३/१३ यः सम्यग्जयः स केवल सम् साक्षाद महामते देवायुमाति यो मिथ्याष्टिर्जीव स उपचारापुजतमहान सतपसा अकामनिर्जरया च देवायुध्नाति । = सम्यग्दृष्टि जीव तो केवल सम्यक्त्व द्वारा अथवा साक्षात् अणुव्रत व महावतों द्वारा देवायु बाँधता है, और मिथ्यादृष्टि जीव उपचार अणुव्रत महावतों द्वारा अथवा बालतप और अकामनिर्जरा द्वारा देवा बाँधता है ( और भी दे० आयु / ३ / ११) । २९२ ७. निश्चय व्यवहार चारित्र समन्वय १. निश्चय चारित्रको प्रधानताका कारण न.च.वृ./३४४,३६६ जह सुह णासह असुहं तहवासुद्धं सुद्ध ेण खलु चरिए । तम्हा सुधुवजोगी मा वट्टउ णिदणादीहि । ३४४ | असुद्धसंवेयणेण अप्पा अंधेर कम्मलोकम्मसंयोग अप्पा मुंह कम्मं पोचम्म | ३६६ | जिस प्रकार शुभोपयोगी अशुभोपयोगका नाश होता है। उसी प्रकार शुद्ध चारित्र अशुद्धका नाश होता है. इसलिए शुद्धो पयोगीको आलोचना, निन्दा, गर्हा आदि करनेकी कोई आवश्यकता नहीं । १४४॥ अशुद्ध संवेदनसे आत्मा कर्म व नोकर्मका बन्ध करता है, और शुद्ध संवेदनसे कर्म व नोकर्म से छूटता है । ३६६॥ । २. व्यवहार चारित्रके निषेधका कारण व प्रयोजन प.प्र./टी./२/५२ में उद्धृत रागद्वेषी प्रवृत्तिः स्यान्निवृतिस्तन्नि देवन तो बाह्यार्थ संबन्ध तस्मासांस्तु परित्यजेद राग और द्वेष दोनों प्रवृत्तियाँ है तथा इनका निषेध वह निवृत्ति है । ये दोनों (राग व द्वेष) अपने नहीं हैं, अन्य पदार्थ के सम्बन्धसे है । इस लिए इन दोनों को छोडो। द्र सं./टी./४५-४६/११६,१६७ पञ्चमहावतपञ्चसमिति त्रिगुप्तिरूपमप्यपहृतसंयमारम्भपयोग सरागचारित्राभिधानं भवति १४५ - १६दी महिषि शुभाशुभचनकायव्यापाररूपस्य तथैवाभ्यन्तरे शुभाशुभमनोविकल्परूपस्य च क्रियाव्यापारस्य योऽसौ निरोधस्त्यागः स च किमर्थ... संसारस्य व्यापारकारणभूतो योऽसौ शुभाशुभकर्मावस्तस्य प्रणाशार्थम् । पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति रूप, अपहृत संयम नामवाला शुभोपयोग लक्षण सराग चारित्र होता है। प्रश्न-बाह्य विषयों में शुभ व अशुभ वचन व कायके व्यापार रूप और इसी तरह अन्तरंग शुभ-अशुभ मनके विकल्प रूप क्रियाके व्यापारका जो निरोध है, वह किस लिए है? उत्तर- संसारके व्यापारका कारणभूत शुभ अशुभ कर्मासन, उसके बिनाशके लिए है। द्र.सं./ टी / ५७/२३०/२ अयं तु विशेष : - व्यवहाररूपाणि यानि प्रसिद्धान्यैकदेशजतानि तानि रक्तानि यानि पुनः सर्वशुभाशुभ निवृत्तिरूपाणि निश्चयवानि तानि त्रिगुप्टिलक्षणस्मशुद्धात्मसंवितिरूपनिर्विकल्पध्याने स्वकृतान्येव न च त्यक्तानि । = व्रतोके त्याग में यह विशेष है कि ध्यानावस्थामै व्यवहार रूप प्रसिद्ध एकदेश का अर्थात महावतों का (दे० बत) त्याग किया है । किन्तु समस्त त्रिगुप्तिरूप स्वशुद्धरूप निर्विकल्प ध्यान में शुभाशुभकी निवृत्तिरूप निश्चय स्वीकार किये गये है। उनका त्याग नहीं किया गया है। - ३. व्यवहारको निश्चय चारित्रका साधन कहनेका कारण द्र.सं./टी./४५-४६/१६६ / १० ( व्रत समिति आदि ) शुभोपयोगलक्षणं सरागचारित्राभिधानं भवति तत्र योऽसौ बहिर्विषये पञ्च न्द्रियविषय ७. निश्चय व्यवहार चारित्र समन्वय परागः उपचरितासन व्यवहारेण यच्चाम्यन्तररागादिपरिहार: स पुनरशुद्ध निश्चयनयेनेति नयविभागो ज्ञातव्य । एवं निश्चयचारित्रसाधकं व्यवहारचारित्रं व्याख्यातमिति रोनेन व्यवहारचारि त्रेण साध्यं परमोपैक्षा तक्षणसुद्धोपयोगाभिना परमं सम्यकचारित्रं ज्ञातव्यम् । = ( व्रत समिति आदि ) शुभोपयोग लक्षणवाला राग चारित्र होता है । ( उसमें युगपत् दो अंग प्राप्त हैंएक बाह्य और एक आभ्यन्तर ) तहाँ बाह्य विषयोंमे पांचों इन्द्रिय विषयादिका त्याग है यो उपचारित असजद व्यवहार नयसे चारित्र है । और जो अन्तर गर्ने रागादिकका त्याग है वह अशुद्ध निश्चय नयसे चारित्र है । इस तरह नय विभाग जानना चाहिए । ऐसे निश्चय चारित्रको साधनेवाले व्यवहार चारित्रका व्याख्यान किया। अब उस व्यवहार चारित्रसे साध्य परमोपेक्षा लक्षण शुद्धोपयोगसे अविनाभूत होनेसे उत्कृष्ट सम्यग्वारित्र जानना चाहिए। ( अर्थात् व्यवहारचारित्र के अभ्यास द्वारा क्रमशः बाह्य और आभ्यन्तर दोनों क्रियाका रोध होते-होते अन्तमें पूर्ण निदिशा प्राप्त हो जाती है। यही इनका साध्यसाधन भाव है । ) प्र.सं./टी./३५/१४६/१२ त्रिगुझिसक्षम निर्विकल्पसमाधिस्थानां यतीनां तमेव पूर्वते तत्रासमर्थनां पुनर्भप्रकारेण संपरप्रतिपक्षभूत मोहो विजृम्भते तेन कारणेन प्रतादिविस्तरं ययाचार्याः । मन, वचन काय इन तीनोंकी गुप्ति स्वरूप निर्विकल्प ध्यानमे स्थित गुनिके तो उस संगर अनुप्रेक्षासे ही संबर हो जाता है, किन्तु उसमे असमर्थ जोनोके अनेक प्रकारसे संवरका प्रतिपक्षभूत मोह उत्पन्न होता है, इस कारण आचार्य व्रतादिका कथन करते है । पं.का./ता.१००१०१/१२ व्यवहारचारित्रं बहिरगावेन मीतरागचारित्रभावनोत्पन्नपरमामृततृप्तिरूपस्य निश्चयसुखस्य बीजं, तदपि निश्चयसुखं पुनरक्षयानन्तसुखस्य बीजमिति । अत्र यद्यपि साध्यसाधकभावज्ञापनार्थ निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गस्यैव मुख्यश्यमिति भावार्थ: । = व्यवहार चारित्र बहिरंग साधक रूपसे वीतराग चारित्र भावना से उत्पन्न परमात्म तृप्तिरूप निश्चय सुखका बीज है। और वह निश्चय सुख भी अक्षयानन्त सुखका बीज है। ऐसा निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्ग में साध्यसाधक भाव जानना चाहिए। ( और [भी] दे० शीर्षक नं० १०) । L - ४. व्यवहार चारित्रको चारित्र कहनेका कारण २. क. ४०४ मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादासंज्ञानः रागद्वेषनिवृत्ये चरणं प्रतिपचते साधुः 1881 रागद्वेषनिवृत हिसा विनिय कुता भन्ति अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुष सेवते नृपतीन् ॥४८॥ - सम्यग्दृष्टि जीव रागद्वेषको निवृत्ति के लिए सम्यग्वारिशको धारण करता है और रागद्वेषादिकी निवृत्ति हो जानेपर हिंसादिते निवृत्ति पूर्ण हो जाती है, क्योंकि नहीं है आजीविकाकी इच्छा जिसको ऐसा कौन पुरुष है, जो राजाओंकी सेवा करे । स.सा./ता.वृ./२०६ पजीवनिकायरक्षा चारित्रयहेतुवाद उपवहारेण चारित्रे भरत एवं पराश्रितत्वेन व्यवहारमोक्षमार्गः प्रोक्त इति । चारित्रका ( अर्थात रागद्वेषसे निवृत्ति रूप बोतरागताका ) आश्रय होनेके कारण छह कायके जीवोंकी रक्षा भी व्यवहार से चारित्र कहलाती है । पराश्रित होनेसे यह व्यवहार मोक्षमार्ग है । ५. व्यवहार चारित्रकी उपादेयताका कारण व प्रयोजन र. क. था. / ४६ रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधु ४६| = सम्यग्दृष्टि to राग-द्वेषी निवृत्ति के लिए सम्यग्चारित्रको धारण करता है । प्र. सा.स.प २०२ अहो मोक्षमार्ग प्रवृत्तिकारणमहामतोि .. समितिलक्षणचारित्राचार न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र २९३ ७. निश्चय व्यवहार चारित्र समन्वय मुपलभे। अहो, मोक्षमार्गमे प्रवृत्तिके कारणभूत, पंचमहावत सहित गुप्ति समिति स्वरूप चारित्राचार । मै यह निश्चमसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्माका नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लू। नि.सा./ता,वृ/१४८ अत्र व्यवहारनयेनापि समतास्तुतिवन्दनाप्रत्यारख्यानादिषडावश्यकपरिहीणः श्रमणश्चारित्रभ्रष्ट इति यावत् । = (शुद्धोपयोग सम्मुरव जीबको शिक्षा दी जाती है कि) यहाँ ( इस लोकमे ) व्यवहार नयसे भी समता, स्तुति, बन्दना, प्रत्याख्यानादि छह आवश्यकसे रहित श्रमण चारित्रपरिभ्रष्ट (चारित्रसे सर्वथा भ्रष्ट ) है। देखो चारित्र/७/३/द्र, सं/टी० त्रिगुप्तिमें असमर्थ जनों के लिए व्यवहार चारित्रका उपदेश किया जाता है। ६. बाह्य व आभ्यन्तर चारित्र परस्पर अविनामावी हैं प्र सा /मू./गा. चरदि निबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसणसुहम्मि । पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपण्णसामण्णो ।२१४। पंचसमिदो तिगुत्तो पंचिदिसंबुडो जिदकसाओ। दसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो ।२४०। समसत्तु बंधुबग्गो समसुहदुक्रवो पस्सणिदसमो। समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समे समणो ।२४१। - जो श्रमण सदा ज्ञान व दर्शनमे प्रतिबद्ध तथा मूलगुणोंमे प्रयत्नशील है वह परिपूर्ण श्रामण्य वाला है ।२१४। पाँच समिति, पंचेन्द्रिय संवर व तीन गुप्ति सहित तथा कषायजयी और दर्शन ज्ञानसे परिपूर्ण जो श्रमण है वह संयत माना गया है ।२४०। शत्रु व बन्धुवर्गमे, सुख व दुःखमे, प्रशंसा व निन्दामें, लोहे ब सोनेमें तथा जीवन व मरणमें जो सम है वह श्रमण है ।२४१ चा. पा./मू./६ सम्मत्तचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्ध । णाणी अमूढदिट्ठी अचिरे पावेति णिव्वाणं ।।जो ज्ञानी अमृदृष्टि होकर सम्यक्त्वचरण चारित्रसे शुद्ध होते हैं वे यदि संयमचरण चारित्रसे भी शुद्ध हो जायें तो शीघ्र ही निर्वाणको प्राप्त होते हैं ।।। न, च. वृ/३५३ हेयोपादेयविदो संजमतववीयरायसंजत्तो । जियदुक्रवाइ तहं चिय सामग्गी सुद्धचरणस्स ।३५३। - हेय व उपादेयको जाननेवाला हो संयम तप व वीतरागता संयुक्त हो, दुःखादिको जीतनेवाला हो अर्थात सुख दुःख आदिमें सम हो, यह सब शुद्ध चारित्रकी सामग्री है। न. च. वृ/२०४ जं बिय सरायचरणे [ सरागकाले भेदुवयारेण भिण्ण चारित्तं । तं चेव वीयराये विपरीयं होइ कायव्वं । उक्तं च-चरिय चरदि सग सो जो परदव्यप्पभावरहिदप्पा । दसणणाणवियप्पा अवियप्पं चावियप्पादो। सराग अवस्थामें भेदोपचार रूप जिस चारित्रका आचरण किया जाता है, उसोका वीतराग अवस्थामें अभेद व अनुपचारसे करना चाहिए। (अर्थात् सराग व वीतराग चारित्रमें इतना ही अन्तर है कि सराग चारित्रमें बाह्य क्रियाओं का विकल्प रहता है और वीतराग अवस्थामें उनका विकल्प नहीं रहता, सराग चारित्रमे वृत्ति बाह्य त्यागके प्रति जाती है और वीतर ग अवस्थामें अन्तरंगकी ओर ) कहा भी है कि स्व चारित्र अर्थात वीतराग चारित्रका आचरण वही करता है जो परद्रव्य के प्रभावसे रहित हो, तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्रके विकल्पोंसे जो अविकल्प हो गया हो। ध. १/१,१,४/१४४/४ संयमनं संयम । न द्रव्ययम' संयमस्तस्य 'सं' शब्देनापादितत्वात् । यमेन समितयः सन्ति, तास्वसतीषु संयमोऽनुपपन्न इति चेन्न, 'संशब्देनात्मसात्कृताशेषसमितित्वात । अथवा बतसमितिकषायदण्डेन्द्रियाणां धारणानुपालननिग्रहत्यागजयाः संयम' | 'संयमन करनेको संयम कहते है' संयमका इस प्रकार लक्षण करनेपर भाव चारित्र शून्य द्रव्य चारित्र संयम नहीं हो सकता, क्योंकि 'सं' शब्दसे उसका निराकरण कर दिया गया। प्रश्न-यहाँ पर 'यम' से समितियोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि समितियों के नहीं होनेपर संयम नहीं बन सकता। उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है क्योंकि 'सं' शब्दसे सम्पूर्ण समितियोंका ग्रहण हो जाता है। अथवा पाँच व्रतोंका धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, क्रोधादि कषायोंका निग्रह करना, मन, बचन और काय रूप तीन दण्डोंका त्याग करना और पाँच इन्द्रियों के विषयोंका जीतना संयम है। प्र. सा/त. प्र./२४७ शुभोपयोगिनां हि शुद्धात्मानुरागयो गिचारित्रतया समधिगतशुद्धात्मवृत्तिषु श्रमणेषु बन्दननमस्करणाभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिप्रवृत्तिः शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्ताश्रमापनयनप्रवृत्ति च न दुष्येत् । - शुभोपयोगियोंके शुद्धात्माके अनुरागयुक्त चारित्र होता है, इसलिए जिनने शुद्धात्म परिणति प्राप्त की है ऐसे श्रमणोके प्रति जो वन्दन-नमस्कार-अभ्युत्थान, अनुगमन रूप विनीत वर्तनकी प्रवृत्ति तथा शुद्धात्मपरिणतिकी रक्षाकी निमित्तभूत जो श्रम दूर करनेकी (वैयावृत्ति रूप) प्रवृत्ति है, वह शुभोपयोगियोंके लिए दूषित नहीं है। प्र. सा /त. प्र/२००/क. १२ द्रव्यानुसारि चरणं चरणानुसारि द्रब्य मिथो द्वयमिदं ननु सव्यपेक्षम्। तस्मान्मुमुक्षुरधिरोहतु मोक्षमार्ग द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य ।१२। =चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुसार होता है, इस प्रकार वे दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। इसलिए या तो द्रव्यका अर्थात् अन्तरंग प्रवृत्तिका आश्रय लेकर अथवा चरणका अर्थात बाह्य निवृत्तिका आश्रय लेकर मुमुक्षु मोक्षमार्गमें आरोहण करो। और भी देखो चारित्र/४/२ (चारित्रके सर्व भेद-प्रभेद एक शुद्धोपयोगमें समा जाते हैं।) ७. एक ही चारित्रमें युगपत् दो अंश होते हैं मो. पा / जयचन्द/४२ चारित्र निश्चय व्यवहार भेदकरि दो भेद रूप है। तहाँ महाबत समिति गुप्तिके भेद करि कह्या है सो तो व्यवहार है। तिनिमें प्रवृत्ति रूप क्रिया है सो शुभ बन्ध करै है, और इन क्रियानिमें जैता अंश निवृत्तिका है ताका फल बन्ध नाहीं है। ताका फल कर्मकी एक देश निर्जरा है। और सर्व कर्म से रहित अपना आत्म स्वरूपमें लीन होना सो निश्चय चारित्र है, ताका फल कर्मका नाश ही है। और भी देखो उपयोग/II/3/२ (जितना रागांश है उतना बंध है, और जितना वीतरागांश है उतना संवर निर्जरा है।) और भी देखो बत/३/७६ ( सम्यग्दृष्टिकी बाह्य प्रवृत्तिमें अवश्य निवृत्तिका अंश विद्यमान रहता है।) और भी देखो उपयोग/II/३/१ ( शुभोपयोगमें अवश्य शुद्धोपयोगका वंश मिश्रित रहता है।) ८. निश्चय व्यवहार चारित्रकी एकार्थताका नयाथ नि. सा./ता. वृ./१४८ व्यवहारनयेनापि षडावश्यकपरिहीणः श्रमणश्चारित्रपरिभ्रष्टः इति यावत, शुद्धनिश्चयेन...निर्विकल्पसमाधिस्वरूपपरमावश्यकक्रियापरिहीणश्रमणो निश्चयचारित्रभ्रष्ट इत्यर्थः । पूर्वोक्तस्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयावश्यकक्रमेण स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपेण सदावश्यकं करोतु परममुनिरिति । व्यवहार नयसे तो छह आवश्यकोंसे रहित श्रमण चारित्र परिभ्रष्ट है और शुद्ध निश्चयनयसे निर्विकल्प- समाधि स्वरूप परमावश्यक क्रियासे रहित श्रमण निश्चय चारित्र भ्रष्ट है । ऐसा अर्थ है । ( इसलिए ) स्व वश परमजिन योगीश्वरके निश्चय आवश्यकका जो क्रम पहले कहा गया है (आत्मस्थितिरूप समता, वन्दना, प्रतिक्रमणादि) उस क्रमसे स्वात्माश्रित ऐसे निश्चय धर्म जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र पाहुड़ २९४ चार्वाक ध्यान तथा निश्चयशुक्लध्यानस्वरूपसे परम मुनि सदा आवश्यक करो। १. व्रतादि बन्धके कारण नहीं बल्कि उनमें अध्यवसान ही बन्धका कारण है स सा./मू/२६४, २७० तह विय सच्चे दत्ते बंभे अपरिगहत्तणे चेव । कोरइ अज्झवसाणं जं तेण दु वज्झर पुण्णं ।२६४ एदाणि णस्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । तं असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति १२७०१ - इसी प्रकार ( हिसादि पॉचों अवतोवत् ही) सत्यमे, अचौयमें, ब्रह्मचर्यमे और अपरिग्रहमें जो अध्यवसान किया जाता है उससे पुण्यका बन्ध होता है ।२६४। ये ( अवतों और व्रतोंवाले पूर्व कथित) तथा ऐसे हो और भी, अध्यवसान जिनके नहीं है, वे मुनि अशुभ या शुभ कर्मसे लिप्त नहीं होते।२७०। ( मो. मा. प्र./७/३७३/३) १०. ब्रतोंको त्यागनेका उपाय व क्रम स श,/८४, ८६ अवतानि परित्यज्य वतेषु परिनिष्ठित.। त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मन' 1८४ा अवतो बतमादाय व्रती ज्ञानपरायण । परात्मज्ञानसंपन्न. स्वयमेव परो भवेत् ॥८६॥ हिसादि पाँच अवतोको छोड करके अहिसादि व्रतोंका दृढ़तासे पालन वरे। पीछेसे आत्माके परम वीतराग पदको प्राप्त करके उन व्रतोको (बतोके जध्यवसानको ) भी छोड देवे।४। हिंसादि पाँच अवतोंमें अनुरक्त हुआ मनुष्य पहले बतोंको ग्रहण करके बती बने। पीछे ज्ञान भावनामें लीन होकर केवलज्ञानसे युक्त हो स्वयं ही परमात्मा हो जाता है । ( ज्ञा०/३२२८८); (द्र. सं /टी./५७/२२६/१०); (प. प्र. टी./ २/५/१७७/४) नि.सा /ता, वृ /१०३ भेदोपचारचारित्रम्, अभेदोपचारं करोमि, अभेदो पचारम् अभेदानुपचार करोमि, इति त्रिविध सामायिकमुत्तरोत्तरस्वीकारेण सहजपरमतत्त्वाविचलस्थितिरूपसहजचारित्रं, निराकारतत्वनिरतत्वान्निराकारचारित्रमिति । -भेदोपचारित्रको अभेदोपचार करता हूं। तथा अभेदोपचार चारित्रको अभेदानुपचार करता हूँ-इस प्रकार त्रिविध सामायिकको (चारित्रको) उत्तरोत्तर स्वीकृत करनेसे सहज परम तत्त्वमें अविचल स्थितिरूप सहज निश्चय चारित्र होता है, कि जो निराकार तत्त्वमें लीन होनेसे निराकार चारित्र है। (और भी दे० धर्मध्यान/६/६) द्र, सं/टी/५७/२३०/८ त्याग' कोऽर्थः । यथैव हिसादिरूपावतेषु निवृत्तिस्तथै कदेशवतेष्वपि। कस्मादिति चेत्-त्रिगुप्तावस्थायां प्रवृत्ति-निवृत्तिरूपविकल्पस्य स्वयमेवावकाशो नास्ति ।-प्रश्न-- व्रतोंके त्यागका क्या अर्थ है ? उत्तर-गुप्तिरूप अवस्थामें प्रवृत्ति तथा निवृत्तिरूप बिकल्पको रंचमात्र स्थान नहीं है। अहिसादिक महावत विकल्परूप हैं अत: वे ध्यान में नहीं रह सकते। चारित्र पाहड़-आ. कुन्दकुन्द (ई. १२७-१७६ ) द्वारा रचित सम्यरचारित्र विषयक, ४४ प्राकृत गाथाओंमें निबद्ध एक ग्रन्थ । इस पर आ. श्रुतसागर (ई०१४८१-१४६६) कृत संस्कृत टीका तथा पं. जयचन्द छाबड़ा (ई० १८१०) कृत भाषा वचनिका उपलब्ध हैं। चारित्र भूषण-इनके मुखसे ही स्वामी समन्तभद्र कृत देवागम स्तोत्रका पाठ सुनकर श्लोकवातिककार श्री विद्यानन्दि आचार्य जिन दीक्षित हो गये थे। आ० विद्यानन्दिजीके अनुसार आपका समय ई० ७५०-८१५ आता है। चारित्र मोहनीय-मोहनीयकर्मका एक भेद-दे० मोहनीय/१। चारित्र लब्धि-दे. लब्धि । चारित्रवाद-दे० क्रियावाद । चारित्र विनय-दे० विनय । चारित द्धि-दे० शुद्धि। द्व व्रत-चारित्रके निम्न १२३४ अंगोके उपलक्ष में एक उपवास एक पारणा क्रमसे ६ वर्ष, १० मास ८ दिनमै १२३४ उपवास पूरे करे-(१) अहिंसावत-१४ जीव समासxनवकोटि (मन वचन कायxकृत कारित अनुमोदना-१२६ । (२) सत्य व्रत- भय, ईर्ष्या, स्वपक्षपात, पैशुन्य, क्रोध, लोभ, आत्मप्रशंसा और परनिन्दा ये Sxe कोटि =७२ । (३) अचौर्य व्रत-ग्राम, अरण्य, खल, एकान्त, अन्यत्र, उपधि, अमुक्त, पृष्ठ ग्रहण ऐसे ८ पदार्थx कोटि-७२ । (४) ब्रह्मचर्य = मनुष्यणी, देवांगना, तिर्यचिनी व अचेतनी ये चार स्त्रियॉx कोटिx५ इन्द्रिय = १८० 1 (५) परिग्रह त्याग=२४ प्रकार परिग्रह कोदि=२१६ । (६) गुप्ति =३५३ कोटि =२७ । (७) समिति ईर्या, आदान-निक्षेपण व उत्सर्ग ये ३४३ कोटि =२७+भाषा समिति के १० प्रकार सत्यर कोटि- 30+ एषणा समितिके ४६ दोषx कोटि = ४१४ - १२३४ ओं ह्रीं असि आ उ सा चारित्रशुद्धिव्रतेभ्यो नम' इस मंत्रका त्रिकाल जाप्य करे (ह.पु./३४/१००-११०), (वत विधान संग्रह/पृ.५६)। चारित्रसार-चामुण्डराय (ई०श०१०-११) द्वारा रचित, संस्कृत गद्यबद्ध ग्रन्थ । इसमें मुनियोंके आचारका संक्षिप्त वर्णन है। कुल ६००० श्लोक प्रमाण है। (ती./४/२८)। चारित्राचार-दे० आचार । चारित्राराधना-दे० आराधना । चारित्रार्य-दे० आर्य । चारुदत्त-(ह पु/२१/श्लोक नं०) भानुदत्त वैश्यका पुत्र (६-१०); मित्रावतीसे विवाह हुआ (३८); संसारसे विरक्त रहता था (३६); चचा रुद्रदत्तने उसे वेश्याम आसक्त कर दिया (४०-६४); अन्तमें तिरस्कार पाकर वेश्याके घरसे निकला और अपने घर आया (६४-७४); व्यापारके लिए रत्नद्वीपमें गया (७५); मार्गमे अनेकों कष्ट सहे (११२); वहाँ मुनिराजके दर्शन किये (११३-१२६), बहुत धन लेकर घर लौटा (१२७)। चारुदत्त चरित्र-आ. सोमकीर्ति भट्टारक( ई०१४७४) कृत संस्कृत भाषामे रचा गया ग्रन्थ है। तत्पश्चात् इसके आधारपर कई रचनाएँ हुई-१. कवि भारामल ( ई० १७५६ ) ने चौपाई-दोहेमे एक कृति रची। चार्वाक १. सामान्य परिचय स्था.म./परि. छ /१४३-४४४= सर्वजनप्रिय होनेके कारण इसे 'चार्वाक' सज्ञा प्राप्त है। सामान्य लोगोंके आचरणमे आनेमें कारण इसे 'लोकायत'कहते हैं । आत्मा व पुण्य-पाप आदिका अस्तित्व न माननेके कारण यह मत 'नास्तिक' कहलाता है ।वधार्मिक क्रियानुष्ठानोंका लोप करने के कारण अक्रियावादी'। इसके मूल प्रवर्तक बृहस्पति आचार्य हुए है, जिन्होने बृहस्पति सूत्रकी रचना की थी। आज यद्यपि इस मतका अपना कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है, परन्तु ई० पूर्व ५५०-५०० के अजितकेश कम्बली कृत बौद्ध सूत्रोंमें तथा महाभारत जैसे प्राचीन ग्रन्थोमे भी इसका उल्लेख मिलता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालिसिय २९५ 1 इनके साधु कापालिक होते है अपने सिद्धान्त के अनुसार मे मद्य व मासका सेवन करते है । प्रतिवर्ष एकत्रित होकर स्त्रियोंके साथ क्रीडा करते है । ( षड्दर्शन समुच्चय / ८०-८२/७४-७७)। २. जैनके अनुसार इस मतकी उत्पत्तिका इतिहास धर्म परीक्षा / १८/५६-५६ भगवान् आदिनाथके साथ दीक्षित हुए अनेक राजा आदि जब क्षुधा आदिको बाधा न सह सके तो भ्रष्ट हो गये । कच्छ - महाकच्छ आदि राजाओंने फल-मूल आदि भक्षण करना प्रारम्भ कर दिया और उसीको धर्म बताकर प्रचार किया। शुक्र बृहस्पति राजाओं ने चार्वाक मतकी प्रवृत्ति की । और ३. इस मसके भेद ये दो प्रकार के सुशिक्षित पहले तो पृथिवी के अतिरिक्त आत्माको सर्वथा मानते ही नही और तत्व स्वीकार करते हुए भी मृत्युके समय शरीर के भी विनष्ट हुआ मानते है (स्या. मं./ परि. छ. / पृ.४४३) । ४. प्रमाण व सिद्धान्त आदि भूतदूसरे उसका साथ उसको केवल इन्द्रिय प्रत्यक्षको ही प्रमाण मानते है, इस लिए इस लोक तथा ऐन्द्रिय सुखको ही सार मानकर खाना-पीना व मौज उडाना ही प्रधान धर्म मानते है (स्या.मं./परि छ / पृ. ४४४ ) । यु. अनु. / ३५ मद्याङ्गबद्ध तसमागमे ज्ञ, शक्त्यन्तर- व्यक्तिरदैवसृष्टिः । इत्यात्म शिश्नोदरपुष्टितुष्टेनिभये । मृदवः प्रलब्धाः १३५ ॥ - जिस प्रकार मद्यागोके समागमपर मदशक्तिकी उत्पत्ति अथवा आनिति होती है उसी तरह पृथिवी, जल आदि पंचभूतों के समागम पर चैतन्य अभिव्यक्त होता है, कोई देवी सृष्टि नहीं है। इस प्रकार यह जिन (चापको का मत है, उन अपने शिश्न और उदरकी पुष्टिमे ही सन्तुष्ट रहनेवाले, अर्थात् खाओ, पीओ, मौज उडाओ के सिद्धान्तवाले, उन निर्लज्जों तथा निर्भयों द्वारा हा । कोमलबुद्धि ठगे गये हैं (दर्शनसमुच्चय / ८४-८५/७०) (सं.भत / १२ / ९) । दे० अनेकात/२/१ (यह मत व्यवहार नयाभासी हैं)। चालिसिय- (ल. सा / भाषा / २२८/२८५/३) जाकी चालीस कोडाकोडी सागरको उत्कृष्ट स्थिति ऐसा चारित्रमोह ताको चालिसिय कहिए । चालुक्य जयसिंह ६० १०२४ के एक राजा (सिभि७२/ -- शिलालेख ) । चिता-१. लक्षण चिन्तन करना चिन्ता है। रा.सू./१/१३ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । = मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ये पर्यायवाची नाम है (.. १३/२०३ / ४१/२४४) । स.सि./१/१२/१०६/५ चिन्तनं चिन्ता (ध.१३/१,१.४१/२४४/३) । स.सि./६/२०/४४४/७ नानावलम्बनेन चिन्ता परिस्पन्दवती - माना पदार्थोका अवलम्बन लेनेसे चिन्ता परिस्पन्दवती होती है। रामा ६/२७/२/६२५/२५ अन्तःकरणस्य वृत्तिर्येषु चिन्तेत्युच्यते । - अन्तकरणकी वृत्तिका पदार्थोंमे व्यापार करना चिन्ता कहलाती है । ६. १३/५४.६३/३२२/१ मागस्य निरायम दिणाण विसेदिजीवो चिंता णाम । = वर्तमान अर्थको विषय करनेवाले मतिज्ञानसे विशेषित जीनकी चिन्ता संता है। स.सि./पं. जयचन्द /१/१२/२३४ किसी चिह्नको देखकर यहाँ इस चि वाला अवश्य होगा ऐसा ज्ञान, तर्क, व्याप्ति वा ऊह ज्ञान चिन्ता है । चित्रकूट २. स्मृति चिन्ता आदि ज्ञानोंको उत्पत्तिका क्रम व इनकी एकार्थता दे० मतिज्ञान / ३ । - ३. चिन्ता व ध्यानमें अन्तर ३० धर्मध्यान चितागति (म.पु/०० श्लोक नं.) पुष्करार्ध द्वीपके पश्चिम के पास गन्धिल नामके देशके विजयार्थी उत्तर श्रेणी में सूर्यप्रभ नगरके राजा सूर्यप्रभका पुत्र था ॥ ३६- २८ । अजितसेना नामा कन्या द्वारा गतियुद्धमें हरा दिया जानेपर | ३०-३१। दीक्षा धारण कर ली और स्वर्ग में सामानि देव हुआ । ३६-३७। यह नेमिनाथ भगवानका पूर्वका सातनों भव है। चिकित्सा - १. आहारका दोष (दे० आहार/11/४ ) २ वस्तिकाका दोष दे० अस्तिका चित् न्या.वि /बृ./१/८/१४८/६ चिदिति चिच्छत्तिरनुभव इत्यर्थः । = चित् अर्थावदि शक्ति या अनुभव। अन. ध. /२/३४/९६१ अन्तिमहमिकाया प्रतिनियतावभासियो । प्रतिभासमानमखिर्यद्वपं वेद्यते सदा सा पिय अन्वित और 'अहम्' इस प्रकारके सवेदनके द्वारा अपने स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले जिस रूपका सदा स्वयं अनुभव करते हैं उसीको चित्र या चेतन कहते हैं। चिति-- (सं.सा./आ./परि. / शक्ति नं. २) अजड़त्वात्मिका चतिशक्तिः। अर्थात् चेतन स्वरूप चितिशक्ति है। चित्त स.सि./२/१२/१००/१० आत्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम्-आत्माके चैतन्यविशेषरूप परिणामको चित्त कहते है (रा.वा/२/३२/१४९१/ २२) । सि.वि./वृ/७/२२/४६२ /२० स्वसंवेदनमेव लक्षणं चित्तस्य । - चित्तका लक्षण स्वसंवेदन ही है । नि.सा./ता.वृ / ११६ घो ज्ञानं चित्तमित्यनर्थान्तरम् । =बोध, ज्ञान पित्त में भिन्न पदार्थ नहीं है। ब्र.सं./टी./१४/४६/१० हेयोपादेय विचारकचित्त हेयोपादेयको विचारनेवाला चिय होता है। सं. श. / टी /५/२२५/३ चित्तं च विकल्पः । • विकल्पका नाम चित्त है । २. मक्ष्यामक्ष्य पदार्थोंका सचिताचित विचार - दे० सचित्त । चित्प्रकाश- अन्तर चित्प्रकाश दर्शन है और बाह्य चित्प्रकाश ज्ञान है - दे० दर्शन / २ | चित्र - व्या. वि./१/१/८/१४८/१ चिदिति चितिरनुभन इत्यर्थः । सेव प्राण त्रा परिरक्षणं यस्य तच्चित्रम् ।... अनुभवप्रसिद्धं खलु अनुभवपरिरक्षितं भवति । चितशक्ति या अनुभवका नाम चित्र है। वह चित् ही जिसका प्राण या रक्षण है, उसे चित्र कहते हैं। अनुभव प्रसिद्ध होना ही अनुभव परिरक्षित होना है। चित्रकर्म - ०४ ॥ - दे० । चित्रकारपुर - भरतक्षेत्रका एक नगर चित्रकूट - १. पूर्व निदेहका एक नक्षार ३० मनुष्य ४ पर्वत तथा उसका स्वामी देव दे० लोक१/२ २. विजयार्थी दक्षिण क्षेणीका एक नगर-दे० जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रगुप्त २९६ चेतना विद्याधर । ३. वर्तमानका 'चित्तौड़गढ़ नगर' (पं.सं./प्र. ४१/A.N. Up. तथा H. L.Jain. चित्रगुप्त-भावी १७वे तीर्थकर-दे. तीर्थकर/५। चित्रगुप्ता-रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी देवो-दे० लोक/२/१३ । चित्रभवनसमेरु पर्वतके नन्दन आदि बनों में स्थित कुबेरका भवन व गुफा-दे० लोक/३/६४। चित्रवती-पूर्व आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । चित्रांगद-(पा. पु /१७/श्लोक नं.) अर्जुनका प्रधान शिष्य था (६५); वनवासके समय सहाय वनमें नारद द्वारा, पाण्डवोंपर दुर्योधनकी चढाईका समाचार जानकर (८६) उसे वहाँ जाकर बाँध लिया। चित्रा-१. एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र २. रुचक पर्वतके विमल कूटपर बसनेवाली एक विद्य त्कुमारी देवी-दे० लोक ५/१३ ३.रुचक पर्यत निवासिनी एक दिक्कुमारी-दे० लोक५/१३ ४.अनेक प्रकारके वर्षों से युक्त धातुएँ), वप्रक (मरकत), बकमणि (पुष्पराग), मोचमणि ( कदलीवर्णाकार नीलमणि) और मसारगल्ल ( विद्रुमवर्ण मसृणपाषाण मणि) धातुएँ हैं, इसलिए इस पृथिवोका 'चित्रा' इस नामसे वर्णन किया गया है। ( अर्थात् मध्य लोक की १००० योजन मोटी पृथिवो चित्रा कहलाती है।)-दे० रत्नप्रभा। चिद्विलास-पं.दीपचन्दजी शाह (ई० १७२२) द्वारा रचित हिन्दी भाषा बद्ध आध्यात्मिक ग्रन्थ । इसपर कवि देवदास ( ई० १७ १५-१७६७) ने भाषा वचनिका लिखी है । (तो./४/२६३) चिन्ह--१. Trace-(ध./पु.५/प्र. २७)। २. चिन्हसे चिन्हीका ज्ञान-दे० अनुमान । ३. चिन्ह नामक निमित्त ज्ञान-दे० निमित्त/ २: ४. अबधिज्ञानकी उत्पत्तिके स्थानभूत करण चिन्ह-दे० अवधि स. सा./ता. वृ. ३२१ विशेषव्याख्यानं उक्तानुक्तव्याख्यानं, उक्तानुक्त संकीर्णव्यारव्यानं चेति त्रिधा चूलिकाशब्दस्यार्थो ज्ञातव्य' विशेष व्याख्यान, उक्त या अनुक्त व्यारव्या अथवा उक्तानुक्त अर्थका संक्षिप्त व्याख्यान (Summary), ऐसे तीन प्रकार चूलिका शब्द का अर्थ जानना चाहिए। (गो. क./जी, प्र.३६८/५६३/७); (द्र.सं./टी /अधि कार २ की चूलिका पृ. ८०/३) । चेटक-म प./७/श्लोक नं.) प्रर्य भव नं. २मे विद्याधर (११६), पूर्वभव नं. १ में देव ( १३१-१३५) वर्तमान भवमें वैशाली नगरीका राजा चन्दनाका पिता (३-८,१६८ ) । चेटिका-दे० स्त्री। चेतन-द्रव्यमे चेतन अचेतनकी अपेक्षा भेद-दे० द्रव्य/३ । चेतना स्वसंवेदनगम्य अन्तरंग प्रकाशस्वरूप भाव विशेषको चेतना कहते है। वह दो प्रकारकी है-शुद्ध व अशुद्ध। ज्ञानी व वीतरागी जीवोंका केवल जानने रूप भाव शुद्धचेतना है। इसे ही ज्ञान चेतना भी कहते है। इसमे ज्ञानकी केवल ज्ञप्ति रूप क्रिया होती है। ज्ञाता द्रष्टा भावसे पदार्थोंको मात्र जानना, उनमें इष्टानिष्ट बुद्धि न करना यह इसका अर्थ है । अशुद्ध चेतना दो प्रकारकी है-कर्म चेतना व कर्मफल चेतना । इष्टानिष्ट बुद्धि सहित परपदार्थोमे करने-धरनेके अहंकार सहित जानना सो कर्म चेतना है और इन्द्रियजन्य सुरख-दुःखमे तन्मय होकर 'सुखी दुखी' ऐसा अनुभव करना कर्मफल चेतना है। सर्व संसारी जीवोंमें यह दोनों कर्म व कर्मफल चेतना ही मुख्यतः पायी जाती है। तहाँ भी बुद्धिहीन असंज्ञी जीवोंमें केवल कर्म फल चेतना है, क्योकि वहाँ केवल सुख-दुखका भोगना मात्र है, बुद्धि पूर्वक कुछ करनेका उन्हें अवकाश नहीं। चिलात-उत्तर भरतक्षेत्रके मध्यम्लेक्षखण्डका एक देश-दे० । मनुष्य/४। चिलात पुत्र-भगवान् वीरके तीर्थ के एक अनुत्तरोपपादक साधु दे० अनुत्तरोपपादक। चुलुलित-कायोत्सर्गका एक अतिचार- दे० व्युत्सर्ग/१ । चूड़ामणि- दे० परिशिष्ट १। चूर्ण--१. द्रव्य निक्षेपका एक भेद-दे० निक्षेप//६ । २. आहारका । एक दोष-दे० आहार/II/४,३. वस्तिकाका एक दोष-दे० वस्तिका । चूर्णी-दे० परिशिष्ट १। चूर्णोपजीवन-वस्तिकाका एक दोष-दे० वस्तिका। चूलिका-१. पर्वतके ऊपर क्षुद्र पर्वत सरीखी चोटी; Top (ज. प./ प्र. १०६): २. दृष्टिप्रवाद अंगका वा भेद-दे० श्रुतज्ञान/III | ३.. घ.७/२,११,१/५७५/७ ण च एसो णियमो सव्वाणिोगद्दारसूइदत्थाणं विसेसपरूविणा चूलिया णाम, किंतु एक्केण दोहि सब्बेहि वा अणि ओगहारेहिं सुइदत्थाणं विसेसपरूविणा चूलिया णाम सर्व अनुयोगद्वारोंसे सुचित अर्थों को विशेष प्ररूपणा करनेवाली ही चूलिका हो, यह कोई नियम नहीं है, किन्तु एक, दो अथवा सब अनुयोगद्वारोंसे सुचित अर्थोंकी विशेष प्ररूपणा करना चूलिका है (ध. ११/४,२,६,३६/ १४०/११)। १. भेद व लक्षण १.चेतना सामान्यका लक्षण रा, वा./१/४/१४/२६/११ जीवस्वभावश्चेतना।" यासंनिधानादात्मा ज्ञाता द्रष्टा कर्ता भोक्ता च भवति तल्लक्षणो जीवः । जिस शक्तिके सान्निध्यसे आत्मा ज्ञाता, द्रष्टा अथवा कर्ता-भोक्ता होता है वह चेतना है और वही जीवका स्वभाव होनेसे उसका लक्षण है। न. च. वृ./६४ अणुहवभावो चेयणम् । = अनुभवरूप भावका नाम चेतन है। ( आ. प/६ ) (नय चक्र श्रुत/५७) । स. सा/आ./२६८-२६६ चेतना तावत्प्रतिभासरूपा; सा तु तेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात् द्वै रूप्यं नातिकामति । ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने ।- चेतना प्रतिभास रूप होती है। वह चेतना द्विरूपताका उल्लंघन नहीं करती, क्योकि समस्त वस्तुएँ सामान्य विशेषात्मक है। उसके जो दो रूप है वे दर्शन और ज्ञान है। पं. का./त. प्र./३६ चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात् । चेतना, अनुभूति, उपलब्धि, वेदना इन सबका एक अर्थ है। २. चेतनाके भेद दर्शन व ज्ञान स. सा/आ /२६८-२६६ ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने।उस चेतनाके जो दो रूप हैं वे दर्शन और ज्ञान हैं। * उपयोग व लब्धि रूप चेतना-दे० उपयोग/I । ३.चेतनाके भेद शुद्ध व अशुद्ध आदि प्र. सा./मू./१२३ परिणमदि चेदणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा। सा पुण णाणे कम्मे फल म्मि वा कम्मणो भणिदा। -आत्मा चेतना रूपसे परिणमित होता है। और चेतना तीन प्रकारसे मानी गयी हैज्ञानसम्बन्धी, कर्मसम्बन्धी अथवा कर्मफलसम्बन्धी। (पं. का/ मू./२८) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना च । - स. सा./आव, ता. वृ/३८७ ज्ञानाज्ञानभेदेन चेतना तावद्विविधा भवति (ता. वृ.) । अज्ञानचेतना । सा द्विधा कर्म चेतना कर्मफलचेतना - ज्ञान और अज्ञानके भेदसे चेतना दो प्रकार की है। तहाँ अज्ञान चेतना दो प्रकार की है-कर्मचेलना और कर्मफलचेतना । प्र. सा./ता.वृ./१५४ अथ ज्ञानकर्मकर्मफलरूपेण त्रिया चेन विशेषेण विचारयति । ज्ञान मत्यादिभेदेनाष्टविकल्पं भवति ।... ..कर्म शुभाशुभशुद्धोपयोगभेदेनानेकविधं त्रिविधं भणितम् । ज्ञान, कर्म व कर्मफल ऐसी जो तीन प्रकार चेतना उसका विशेष विचार करते हैं । ज्ञान मतिज्ञान आदि रूप आठ प्रकारका है। कर्म शुभ अशुभ व शुद्धोपयोग आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है अथवा इन्हीं तीन भेदरूप है। पंध. / उ / ११२-१६५ स्वरूपं चेतना जन्तोः सा सामान्यात्सदेकधा । द्विशेषादपि द्वेधा क्रमात्सा नाक्रमादिह । ११२ । एकधा चेतना शुद्धाशुद्धस्यैकविधरमत शुद्धाशुद्धोपसयाज्ञानचेतना ॥१६४॥ अशुद्धा चेतना द्वेधा तद्यथा कर्मचेतना । चेतनत्वात्फलस्यास्य स्यात्कर्म फल चेतना ॥ ११३॥ जीवके स्वरूपको चेतना कहते हैं, और वह सामान्यरूपसे अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे सदा एक प्रकारकी होती है । परन्तु विशेषरूपसे अर्थात् पर्याय दृष्टितेबह ही दो प्रकार होती हैशुद्ध चेतना और अशुद्ध चेतना । १६२॥ शुद्धात्माको विषय करनेवाला शुद्धज्ञान एक ही प्रकारका होनेसे शुद्ध चेतना एक ही प्रकारकी है। १६४ | अशुद्धचेतना दो प्रकारकी है-कर्मचेतना व कर्मफल चेतना ॥१६५॥ चेतना के लक्षण ४. ज्ञान व अज्ञान स. सा /आ /गा. नं. ज्ञानी हि... ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वास्कर्मबन्धं कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति । ३१६ | चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भावः । ३८६ । ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनं अज्ञानचेतना । ३८७ = ज्ञानी तो ज्ञानचेतनामय होनेके कारण केवल ज्ञाता ही है, इसलिए वह शुभ तथा अशुभ कर्मबन्धको तथा कर्मफलको मात्र जानता ही है | २११ चारित्रस्वरूप होता हुआ वह आत्मा) अपनेको अर्थात् ज्ञानमात्रको चेतता है इसलिए स्वयं ही ज्ञानचेतना है हानसे अन्य ( भावों में ) 'यह मैं हूँ ऐसा अनुभव करना सो अज्ञानचेतना है। पंध /उ. / १६६-१६७ अत्रात्मा ज्ञानशब्देन वाच्यस्तन्मात्रत स्वयं । स चेत्यते अनया शुद्ध. शुद्धा सा ज्ञानचेतना | १६६ | अर्थाज्ज्ञानं गुणः सम्यक् प्राप्तावस्थान्तरं यदा दारमोपलब्धिरूपं स्यादुच्यते ज्ञानचेतना | १६७१ - इस ज्ञानचेतना शब्दमें ज्ञानशब्द से आत्मा वाच्य है, क्योंकि वह स्वयं ज्ञानस्वरूप है और वह शुद्धात्मा इस चेतनाके द्वारा अनुभव होता है, इसलिए वह ज्ञान चेतना शुद्ध कहलाती है । १६६। अर्थात् मिथ्यात्वोदय के अभाव में सम्यक्त्व युक्त ज्ञान ज्ञानचेतना है ५. शुद्ध व अशुद्ध चेतनाका लक्षण । पं.का./प्र./ १६ हानानुभूतिलक्षणा शुद्धचेतना कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना ज्ञानानुभूतिस्वरूप शुद्ध चेतना है और कार्यानुभूतिस्वरूप तथा कर्मफलानुभूति स्वरूप अशुद्धचेतना है। . सं/टी./१५/२०/८ केवलज्ञानरूपा शुद्धचेतना केवलज्ञानरूप शुद्ध चेतना है । B पं. घ. /उ. / ११३ एका स्याच्चेतना शुद्धा स्यादशुद्धा परा ततः । शुद्धा स्यादात्मनस्तव मस्त्य शुद्धात्मकर्मजा । १६३॥ एक शुद्ध चेतना है और उससे विपरीत दूसरो अशुद्ध चेतना है उनमें से शुद्ध चेतना आत्माका स्वरूप है और अशुद्ध चेतना आत्मा और कर्मके संयोग से उत्पन्न होनेवाली है । भा० २-३८ २९७ - २. ज्ञान अज्ञान चेतना निर्देश पं. ध. /उ. / ११६,२१३ शुद्धा सा ज्ञानचेतना | १६६। अस्त्यशुद्धोपलब्धि. सा ज्ञानाभासादिन्यात् न ज्ञानचेतना किन्तु कर्म तत्फल चेतना २१३नचेतना कहलाती है ।११६। अशुद्धात्माआभासरूप होती है । चिदन्यसे अशुद्धात्माके प्रतिभासरूप होनेसे ज्ञानचेतनारूप नहीं कही जा सकती है, किन्तु कर्मचेतना तथा कर्मफल चेतना स्वरूप कही जाती है । २१३ | ६. कर्मचेतना व कर्मफल चेतना के लक्षण स. सा.आ./३०० ज्ञानादम्यत्रेदमहं करोमोसि चेतनं कर्म चेतना । ज्ञानादयेदमिति चेतन कर्मफलचेतना छानसे अन्य ( भावों में ) ऐसा अनुभव करना कि 'इसे मैं करता हूँ' सो कर्म चेतना है, और ज्ञानसे अन्य ( भावों में ) ऐसा अनुभव करना कि 'इसे मैं भोगता हूँ सो कर्म पेना है। प्र. सा .. १२३-१९४ कर्मपरिणति कर्म चेतना, कर्मफलपरिसि कर्मफलचेतना | १२३ | क्रियमाणमात्मना वर्म ।" तस्य कर्मणो त्रिज्या सुखदुख सत्कर्मफलम् ॥ १२४॥ कर्म परिणति कर्मचेतना और कर्मफलपरिणतिक चेतना है ।१२३॥ आत्मा द्वारा किया जाता है वह कर्म है और उस कर्मसे उत्पन्न किया जानेवाला सुखकर्मफल है | १२४ | द्र. सं./टी./१५/५०/६ अव्यक्तसुखदुखानुभवनरूपा कर्मफल चेतना । .. स्वेहापूर्वेष्टानिष्टविकल्प रूपेण विशेषरागद्वेषपरिणमन कर्मचेतना | = अव्यक्तसुखदुखानुभव स्वरूप कर्मफल चेतना है, तथा निजचेष्टापूर्वक अर्थात बुद्धिपूर्वक हट अनि विपरूपसे विशेष रागद्वेषरूप जो परिणाम है वह कर्मचेतना है। २. ज्ञान अज्ञान चेतना निर्देश १. सम्यग्दृष्टिको ज्ञानचेतना ही इष्ट पं. ध. /उ. / ८२२ प्रकृतं तद्यथास्ति स्वं स्वरूपं चेतनात्मनः । सा त्रिधात्राप्युपादेया सरनचेतना चेतना निजस्वरूप है और वह तीन प्रकारकी है। तो भी सम्यग्दर्शनका लक्षण करते समय सम्यग्दृष्टिको एक ज्ञानचेतना ही उपादेय होती है । ( स. सा. / आ / ३८७) २. ज्ञानचेतना सम्यग्टष्टिको ही होती है पं. ध. /उ. / १६८ सा ज्ञानचेतना नूनमस्ति सम्यग्यगात्मनः । न स्यान्मिथ्यादृशः क्वापि तदात्वे तदसंभवात् । निश्चयसे वह ज्ञानचेतना सम्यग्दृष्टि जीव के होती है, क्योंकि, मिध्यात्वका उदय होनेपर उस आत्मोधका होना असम्भव है, इसलिए वह ज्ञानचेतना मिथ्यादृष्टि जीव के किसी भी अवस्थामें नहीं होती । ३. निजात्म तत्त्वको छोड़कर ज्ञानचेतना अन्य अर्थों में नहीं प्रवर्तती पं. ध.५० सयं हेतोर्विषये वृतिवापभिचारिता यतोऽत्रन्यात्मनोऽन्यत्र स्वात्मनि ज्ञानचेतना । ठीक है - हेतुके विपक्षमें वृत्ति होनेसे उसमे व्यभिचारीपना आता है क्योंकि परस्वरूप परपदार्थ से भिन्न अपने इस स्वात्मामें ज्ञानचेतना होती है। ४. मिथ्यादृष्टिको कर्म व कर्मफल चेतना ही होती है पं. ध. /उ. / २२३ यद्वा विशेषरूपेण स्वदते तत्कुदृष्टिनाम् । अर्थाद सा चेतना नूनं कर्मकार्येse कर्मणि ॥ २१३ - अथवा मिध्यादृहियोको ॥ ॥ विशेषरूप से अर्थात् पर्यायरूपसे उस सत्का स्वाद आता है, इसलिए वास्तव में उनकी वह चेतना कर्मफलमें और कर्म में ही होती है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना २९८ ३. ज्ञातृत्व कर्तृत्व विचार ५. अज्ञानचेतना संसारका बीज है स. सा./आ./३८७-३८६ सा तु समस्तापि संसारबीजं. संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो बीजत्वात्। -वह समस्त अज्ञान चेतना ससारका बीज है, क्योंकि संसारके बीजभूत अष्टविध कर्मोंकी वह बोज है। इ.स स्थावर आदिकी अपेक्षा तीनों चेतनाओंका स्वामित्व पं.का./मू-/३६ सब्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदं । पाणित्तमदिक्कता णाणं विदति ते जीवा। -सर्व स्थावर जीव वास्तवमें कर्मफलको वेदते हैं, उस कर्म व कर्मफल इन दो चेतनाओंको वेदते है और प्राणित्वका अतिक्रम कर गये हैं ऐसे केवलज्ञानी ज्ञानचेतनाको वेदते हैं। स.सा/आ./६७ .येनायमज्ञानात्परात्मनोरेकत्वविकरुपमात्मनः करोति तेनात्मा निश्चयत' कर्ता प्रतिभाति · आसंसारप्रसिद्धेन मिलितस्वादस्वादनेन मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिरनादित एव स्यात: ततः परात्मनावेकत्वेन जानाति, तत' क्रोधोऽहमित्यादि विकल्पमात्मन' करोति; ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञानघनात्प्रभ्रष्टो बार वारमनेक विकल्पै. परिणमनकर्ता प्रतिभाति। क्योंकि यह आत्मा अज्ञानके कारण परके और अपने एकत्वका आत्मविकल्प करता है, इसलिए वह निश्चयसे कर्ता प्रतिभासित होता है। अनादि संसारसे लेकर मिश्रित स्वादका स्वादन या अनुभवन होनेसे जिसकी भेद संवेदनको शक्ति संकुचित हो गयी है ऐसा अनादिसे ही है। इसलिए वह स्वपरका एकरूप जानता है; इसलिए मैं क्रोध हूँ इत्यादि आत्मविकल्प करता है; इसलिए निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानधन (स्वभाव) से भ्रष्ट होता हुआ, बारम्बार अनेक विकल्परूप परिणमित होता हुआ कर्ता प्रतिभासित होता है । (स.सा /आ./१२,७०,२८३-२८५)। . पं.का./ता.वृ/१४७/२१३/१५ यदायमात्मा निश्चयनयेन शुद्धबुद्ध कस्वभावोऽपि व्यवहारेणानादिबन्धनोपाधिवशाद्रक्त' सन् निर्मलज्ञाननन्दादिगुणास्पदशुद्धात्मस्वरूपपरिणतेः पृथग्भूतामुदयागतं शुभाशुभं वा स्वसंवित्तिश्च्युतो भूत्वा भावं परिणाम करोति तदा स आत्मा तेन रागपरिणामेन कतृ भूतेन बन्धो भवति । यद्यपि निश्चयनयसे यह आत्मा शुद्धबुद्ध एकस्वभाव है, तो भी व्यवहारसे अनादि बन्धकी उपाधिके वशसे अनुरक्त हुआ, निर्मल ज्ञानानन्द आदि गुणरूप शुद्धात्मस्वरूप परिणतिसे पृथग्भूत उदयागत शुभाशुभ कर्मको अथवा स्वसंवित्तिसे च्युत होकर भावों या परिणामोंको करता है, तब वह आत्मा उस कर्ताभूत रागपरिणामसे बन्धरूप होता है। ७. अन्य सम्बन्धित विषय १. शान चेतनाकी निर्विकल्पता-दे० विकल्प। २. सम्यग्दृष्टिकी कर्म व कर्मफल चेतना भी ज्ञान चेतना ही है -दे० सम्यग्दृष्टि/२ । ३. लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टिको शान चेतना रहती है -दे० सम्यग्दृष्टि/२ । ४. सम्यग्दृष्टिको शान चेतना अवश्य होती है-दे० अनुभव/५ । ५. शुद्ध व अशुद्ध चेतना निर्देश-दे० उपयोग/II | ६. शप्ति व करोति क्रिया निर्देश-दे० चेतना/३/५ । दहिको शानदेश- ५ । ३. ज्ञातृत्व कर्तृत्व विचार १ज्ञान क्रिया व अज्ञान क्रिया निर्देश स.सा./आ./७० आत्मज्ञानयोरविशेषाभेदमपश्यन्ननिश्शङ्कमात्मतया ज्ञाने वर्तते तत्र वर्तमानश्चज्ञानक्रियाया स्वभावभूतत्वेनाप्रतिषिद्धत्वाज्जानाति । तदत्र योऽयमात्मा स्वयमज्ञानभवने. ज्ञानभवनव्याप्रियमाणत्वेभ्यो भिन्न क्रियमाणत्वेनान्तरुत्प्लवमान प्रतिभाति क्रोधादि तत्कर्म । -आत्मा और ज्ञानमें विशेष न होनेसे उनके भेदको न देखत हुआ नित्यपने ज्ञानमें आत्मपनेसे प्रवर्तता है, और वहाँ प्रवर्तता हुआ वह ज्ञानक्रियाका स्वभावभूत होनेसे निषेध नहीं किया गया है, इसलिए जानता है, जानने रूपमें परिणमित होता है ।...जो । यह आत्मा अपने अज्ञानभावसे ज्ञानभवनरूप प्रवृत्तिसे भिन्न जो क्रियमाणरूपसे अन्तरंग उत्पन्न होते हुए प्रतिभासित होते है ऐसे । क्रोधादि वे (उस आत्मारूप कर्ताके) कर्म है। २. परद्रयों में अध्यवसान करनेके कारण ही जीव कर्ता प्रतिमासित होता है न.च.व./३७६ भेदुवयारे जइया वट्टदि सो विय सुहासुहाधीणो। तइया । कत्ता भणिदो संसारी तेण सों आदा ।३७६। = शुभ और अशुभके आधीन भेद उपचार जबतक वर्तता है तबतक संसारी आत्मा कर्ता कहा जाता है। (ध.१/१,१,२/११६/३) । स,सा./आ./३१२-३१३ अयं हि आसंसारत एव प्रतिनियतस्वलक्षणानि निन परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणारकर्ता । - यह आत्मा अनादि संसारसे ही अपने और परके भिन्न-भिन्न) निश्चित स्वलक्षणोंका ज्ञान न होनेसे दूसरे का और अपना एकत्वका अध्यास करनेसे कर्ता होता है। (स.सा./आ./३१४-३९५) (अन ध/८/६/७३४) । ३. स्वपर भेद ज्ञान होनेपर वही ज्ञाता मात्र रहता हुआ अकर्ता प्रतिभासित होता है न.च.व./३७७ जइया तब्विवरीए आदसहावेहि संठियो होदि । तइया किच ण कुव्व दि सहावलाहो हवे तेण ।३७७१ म उस शुभाशुभ रूप भेदोपचार परिणतिसे विपरीत जब वह आत्मा स्वभाव में स्थित होकर कुछ नहीं करता तब उसे स्वभाव (ज्ञाताद्रष्टापने) का लाभ होता है। स.सा./आ/३१४-३१५ यदा त्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षण निर्ज्ञानात्... परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति । जब यही आत्मा ( अपने और परके भिन्न-भिन्न ) निश्चित स्वलक्षणों के ज्ञान के कारण स्व परके एकत्वका अध्यास नहीं करता तब अक्र्ता होता है। स सा./आ./६७ ज्ञानी तु सन्.. निखिलरसान्तरविविक्तात्यन्तमधुरचैतन्यैकरसोऽयमामा भिन्नरसा' कषायास्तैः सह यदेकत्वविकल्पकरणं तदज्ञानादित्येवं नानात्वेन परात्मानौ जानाति, ततोऽकृतकमेक ज्ञानमेवाहं न पुन' कृतकोऽनेकः क्रोधादिरपीति ततो निर्विकल्पोडकृतक एको विज्ञानधनो भूतोऽत्यन्तमकर्ता प्रतिभाति । =जब आत्मा ज्ञानी होता है तब समस्त अन्य रसोंसे विलक्षण अत्यन्त मधुर चैतन्य रस हो एक जिसका रस है ऐसा आत्मा है और कषायें उससे भिन्न रसवाली हैं, उनके साथ जो एकत्वका विकल्प करना है वह अज्ञानसे है, इस प्रकार परको और अपनेको भिन्नरूप जानता है, इसलिए अकृत्रिम (नित्य) एक ज्ञान हो मैं हूँ, किन्तु कृत्रिम (अनित्य) अनेक जो क्रोधादिक है वह मैं नहीं हूँ ऐसा जानता हुआ; निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक, विज्ञानघन होता हुआ अकर्ता प्रतिभासित होता है। (स.सा./भा /६३;७१,२८३-२८५)। स.सा./आ./१७/क.५६ ज्ञानाद्विवेचकया तु परात्मनोर्यो, जानाति हंस इव वा. पयसोविशेषम् । चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो, जानीत एव हि करोति न किंचनापि । = जैसे हंस दूध और पानीके विशेषको जानता है, उसी प्रकार जो जीव ज्ञानके कारण विवेकवाला होनेसे परके और अपने विशेषको जानता है, वह अचल चैतन्य धातुमें जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना २९९ ३. ज्ञातृत्व कर्तृत्व विचार आरूढ होता हुआ, मात्र जानता ही है, किंचित मात्र भी कर्ता नहीं होता। स.सा./आ./७२/क. ४७ परपरिणतिमुज्झत खण्डयद्भदवादानिदमुदितम खण्डं ज्ञानमुच्चण्डमुच्चे'। ननु कथमवकाशः कतृ कर्मप्रवृत्तेरिह भवति कथं वा पौद्गल. कर्मबन्ध.। = परपरणतिको छोड़ता हुआ, भेदके कथनों को तोड़ता हुआ, यह अत्यन्त अखण्ड और प्रचण्ड ज्ञान प्रत्यक्ष उदयको प्राप्त हुआ है। अहो । ऐसे ज्ञानमे कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका अवकाश कैसे हो सकता है । तथा पौद्गलिक कर्मबन्ध भी कैसे हो सकता है। ६. कर्मधारामें ही कर्तापना है ज्ञानधारामें नहीं स.सा./आ./३४४/क.२०५ माकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुष सोख्या इवाप्याहता', कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः । ऊ तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं, पश्यन्तु च्युतकतृ भावमचलं ज्ञातारमेकं परम् । = यह जैनमतानुयायी सांख्यमतियोंकी भाँति आत्माको ( सर्वथा ) अकर्ता न मानो। भेदज्ञान होनेसे पूर्व उसे निरन्तर कर्ता मानो, और भेदज्ञान होनेके बाद, उद्धत ज्ञानधाम (ज्ञानप्रकाश ) में निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्माको कतृत्व रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही देखो। ७. जब तक बुद्धि है, तब तक भज्ञानी है स.सा./मू./२४७ जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहि सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो। -जो यह मानता है कि मैं परजीवोको मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं, वह मूढ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत ज्ञानी है। स. सा./आ./७४/क ४८ अज्ञानोत्थितकतृ कर्मकलनात् क्लेशान्निवृत्तः स्वयं ज्ञानीभूत इतश्चकास्ति जगत' साक्षी पुराणः पुमान् ॥४॥ - अज्ञानसे उत्पन्न हुई कर्ताकमकी प्रवृत्तिके अभ्याससे उत्पन्न बलेशोंसे निवृत्त हुआ. स्वयं ज्ञानस्वरूप होता हुआ जगतका साक्षी पुराण पुरुष अब यहाँसे प्रकाशमान होता है। स.सा./आ./२५६/क.१६४ अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य, पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम् । कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते, मिथ्यादृशो 'नियतमात्महनो भवन्ति। -इस अज्ञानको प्राप्त करके जो पुरुष परसे परके मरण, जीवन, दुःख, सुखको देखते हैं, वे पुरुषजो कि इस प्रकार अहंकाररससे कर्मोको करनेके इच्छुक है, वे नियमसे मिथ्यादृष्टि हैं, अपने आत्माका घात करनेवाले हैं। स.सा./आ./३२१ ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते। -जो आत्माको कर्ता ही देखते हैं, वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकताको अतिक्रमण नहीं करते। ४. ज्ञानी जीव कर्म कर्ता हुआ मी अकर्ता ही है स.सा./आ./२२७/क.१५३ त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं, कित्वस्यापि कुतोऽपि किचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो, ज्ञानी कि कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः ॥१५३। जिसने कर्मका फल छोड दिया है, वह कर्म करता है ऐसी प्रतीति तो हम नहीं कर सकते। किन्तु वहाँ इतना विशेष है कि-उसे ( ज्ञानीको) भी किसी कारणसे कोई ऐसा कर्म अवशतासे आ पड़ता है। उसके आ पड़नेपर भी जो अकम्प परमज्ञानमे स्थित है, ऐसा ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है। यो.सा /अ./E/५६ य' कर्म मन्यते कर्माऽकर्म वाऽकर्म सर्वथा। स सर्वकर्मणां कर्ता निराकर्ता च जायते ॥५६॥ =जो बुद्धिमान पुरुष सर्वथा कर्म को कर्म और अकर्मको अकर्म मानता है वह समस्त कर्मोंका कर्ता भी अकर्ता है। सा.ध./१/१३ शूरेवादिसदृक्षायवशमो यो विश्वदृश्वाज्ञया, हेयं वैषयिक सुखं निजमुपादेयं त्विति श्रद्दधत् । चौरो मारयितुं धृतस्तलवरेणेवात्मनिन्दादिमान, शर्माक्षं भजते रुजत्यपि पर नोत्तप्यते सोऽप्यधैः।। - जो सर्वज्ञदेवकी आज्ञासे वैषयिक सुखोको हेय और निजात्म तत्त्वको उपादेय रूप श्रद्धान करता है। कोतवाल के द्वारा पकड़े गये चोरकी भॉति सदा अपनी निन्दा करता है। भूरेखा सदृश अप्रत्याख्यान कर्मके उदयसे यद्यपि रागादि करता है तो भी मोक्षको भजनेवाला वह कर्मोसे नहीं लिपता। पं.ध./उ./२६५ यथा कश्चित्परायत्तः कुर्वाणोऽनुचिता क्रियाम् । कर्ता तस्या. 'क्रियायाश्च न स्यादस्ताभिलाषवान् । =जैसे कि अपनी इच्छाके बिना कोई पराधीन पुरुष अनुचित क्रियाको करता हुआ भी। वास्तबमें उस क्रियाका कर्ता नहीं माना जाता, (उसी प्रकार सम्यग् - दृष्टि जीव कर्मोके आधीन कर्म करता हुआ भी अकर्ता ही है।) और भी दे० राग/६ (विषय सेवता हुआ भी नहीं सेवता )। ५. वास्तवमें जो करता है वह ज्ञाता नहीं और जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं स.सा./आ./१६-१७ यः करोति स करोति केवलं, यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलम् । य' करोति न हि वेत्ति स क्वचित, यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ।।६। ज्ञप्तिः करोतौ न हि भासतेऽन्तः, ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः । ज्ञप्तिः करोतिश्च ततो विभिन्ने, ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च ।। =जो करता है सो मात्र करता ही है। और जो जानता है सो जानता ही है। जो करता है वह कभी जानता नहीं और जो जानता है वह कभी करता नहीं ६६ करनेरूप क्रियाके भीतर जानने रूप क्रिया भासित नहीं होती और जानने रूप क्रियाके भीतर करनेरूप क्रिया भासित नहीं होती। इसलिए ज्ञप्ति क्रिया और करोति क्रिया दोनों भिन्न है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है ।। ८. वास्तव में ज्ञप्तिक्रियायुक्त ही ज्ञानी है स.सा./आ/१६१-१६३/क१११ मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञान न जानन्ति यन्मग्ना ज्ञाननयेषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः। विश्वस्योपरिते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं, ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ॥११॥ =कर्मनयके आलम्बनमें तत्पर पुरुष डूबे हुए हैं, क्योंकि वे ज्ञानको नहीं जानते। ज्ञाननयके इच्छक पुरुष भी डूबे हुए हैं, क्योंकि वे स्वच्छन्दतासे अत्यन्त मन्द उद्यमी हैं। वे जीव विश्वके ऊपर तैरते हैं, जो कि स्वयं निरन्तर ज्ञानरूप होते हुए (ज्ञानरूप परिणमते हुए ) कर्म नहीं करते और कभी प्रमादके वश भी नहीं होते। स. सा./आ /परि./क. २६७ स्याद्वादकौशलसुनिश्चितसंयमाभ्यो, यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्त' । ज्ञानक्रियानयपरस्परतीवमैत्रीपात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमा स एकः। =जो पुरुष स्याद्वादमें प्रवीणता तथा सुनिश्चल संयम-इन दोनोंके द्वारा अपने में उपयुक्त रहता हुआ प्रतिदिन अपनेको भाता है, वही एक ज्ञाननय और क्रियानयकी परस्पर तीच मैत्रीका पात्ररूप होता हुआ, इस भूमिकाका आश्रय करता है। १. कर्ताबुद्धि छोड़नेका उपाय स.सा./आ./७१ ज्ञानस्य यद्भवनं तत्र क्रोधादेरपि भवनं यतो यथा ज्ञानभवने, ज्ञानं भवद्विभाव्यते न तथा क्रोधादिरपि, यत्तु क्रोधादेर्भवनं तन्न ज्ञानस्यापि भवनं यतो यथा क्रोधादिभवने क्रोधा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चदि चैत्य चैत्यालय है, ऐसे निर्ग्रन्थ संयमस्वरूप प्रतिमा है सो व दिबे योग्य है ।११। जो निरुपम है, अचल है. अक्षोभ हैं, जो जंगमरूपकरि निर्मित है, अर्थात् कर्मसे मुक्त हुए पीछे एक समयमात्र जिनको गमन होता है, बहुरि सिद्धालयमे विराजमान, सो व्युत्सर्ग अर्थात कायरहित प्रतिमा है। द. पा./मू-/३५/२७ विहरदि जाव जिणिदो सहसवसुलक्षणेहि संजुत्तो। चउतीसअइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिया ॥३॥ द. पा./टी./३/२७/११ सा प्रतिमा प्रतियातना प्रतिबिम्ब प्रतिकृति' स्थावरा भणिता इह मध्यलोके स्थितत्वाव स्थावरप्रतिमेत्युच्यते । मोक्षगमनकाले एकस्मिन् समये जिनप्रतिमा जड्गमा कथ्यते । केवलज्ञान भये पीछे जिनेन्द्र भगवान् १००८ लक्षणोसे युक्त जेतेकाल इस लोकमें विहार करते हैं तेतै तिनिका शरीर सहित प्रतिबिम्ब, तिसकू 'थावर प्रतिमा' कहिए ॥३५॥ प्रतिमा, प्रतियातना, प्रतिबिम्ब, प्रतिकृति ये सब एकार्थ वाचक नाम हैं। इस लोकमें स्थित होनेके कारण वह प्रतिमा स्थावर कहलाती है और मोक्षगमनकालमें एक समयके लिए वही जंगम जिनप्रतिमा कहलाती है। लोके स्थिताना प्रतिव दयो भवन्तो विभाव्यन्ते न तथा ज्ञानमपि इत्यात्मनः क्रोधादीनां च न खल्वेकवस्तुत्वं इत्येवमात्मास्त्रवयोविशेषदर्शनेन यदा भेद जानाति तदास्यानादिरप्यज्ञानजा कतृ कर्मप्रवृत्तिनिवर्तते। =जो ज्ञानका परिणमन है वह क्रोधादिका परिणमन नहीं है, क्योकि जैसे ज्ञान होने पर ज्ञान ही हुआ मालूम होता है वैसे क्रोधादिक नहीं मालूम होते। जो क्रोधादिका परिणमन है, वह ज्ञानका परिणमन नहीं है, क्योकि, क्रोधादिक होनेपर जैसे क्रोधादिक हुए प्रतीत होके हैं वैसे ज्ञान हुआ प्रतीत नहीं होता। इस प्रकार क्रोध ( राग, द्वेषादि ) और ज्ञान इन दोनोंके निश्चयसे एक वस्तुत्व नहीं है। इस प्रकार आत्मा और आस्रवोका भेद देखनेसे जिस समय भेद जानता है उस समय इसके अनादिकालसे उत्पन्न हुई परमें कर्ता कर्मकी प्रवृत्ति निवृत्त हो जाती है। चौद-१. मालवा प्रान्त ( इन्दौर आदि ) की वर्तमान चन्देरी नगरी के समीपवर्ती प्रदेश। अब यह गवालियर राज्यमें है। (म.पू./प्र.५०/ पं. पन्नालाल )। २. भरतक्षेत्र आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । ३. विन्ध्याचल पर स्थित एक नगर -दे० मनुष्य/४। चेर-मध्य आर्यखण्डका एक देश -दे० मनुष्य/४।। चेलना-१. (म.पु./७५/श्लोक नं.) राजा चेटककी पुत्री थी।६-८ राजा श्रेणिकसे विवाही गयी, तथा उसकी पटरानी बनी।३४।। २. (बृहत्कथाकोश/कथा नं. ८/पृ. नं. २६) वैशाख नामा मुनि राजगृहमें एक महीनेके उपवाससे आये। मुनिकी स्त्री जी व्यन्तरी हो गयी थी, उसने मुनिराजके पडगाहनेके समय उनकी इन्द्री बढा दी। तब चेलनाने उनके आगे कपडा ढंककर उनका उपसर्ग व अवर्णवाद दूर करके उनको आहार दिया 1२१॥ चष्टा-न्या.क./भा./१-१/११/१८ ईप्सितं जिहासितं वा अर्थमधिकृत्येप्साजिहासाप्रयुक्तस्य तदुपायानुष्ठानलक्षणसमोहा चेष्टा । -किसी वस्तु के लेने व छोड़नेको इच्छासे उस वस्तुमें ग्रहण करने या छोडनेके लिए जो उपाय किया जाता है उसको चेष्टा कहते हैं। चैत्य चैत्यालय-जिन प्रतिमा व उनका स्थान अर्थात् मन्दिर चैत्य व चैत्यालय कहलाते हैं। ये मनुष्यकृत भी होते हैं और अकृत्रिम भो। मनुष्यकृत चैत्यालय तो मनुष्यलोकमें ही मिलने सम्भव है, परन्तु अकृत्रिम चैत्यालय चारों प्रकारके देवोंके भवन प्रासादों व विमानोमें तथा स्थल-स्थल पर इस मध्यलोकमें विद्यमान है। मध्यलोक के १३ द्वीपोमे स्थित जिन चैत्यालय प्रसिद्ध हैं। २. व्यवहार स्थावर जंगम चैत्य या प्रतिमा निर्देश भ. आ./वि./४६/१४४/४ चैत्यं प्रतिबिम्ब इति यावत । कस्य । प्रत्यासत्ते। श्रुतयोरेवास्तसिद्धयो प्रतिबिम्बग्रहणं। = चैत्य अर्थात प्रतिमा। चैत्य शब्दसे प्रस्तुत प्रसंगमें अर्हत असिद्धों के प्रतिमाओं का ग्रहण समझना। द. पा./टी./३५/२७/१३ व्यवहारेण तु चन्दनकनकमहामणिस्फटिकादि घटिता प्रतिमा स्थावरा। समवशरणमण्डिता जंगमा जिनप्रतिमा प्रतिपाद्यते। =व्यवहारसे चन्दन कनक महामणि स्फटिक आदिसे घड़ी गयी प्रतिमा स्थावर है और समवशरण मण्डित अहंत भगवान् सो जंगम जिनप्रतिमा है। १ चैत्य या प्रतिमा निर्देश १. निश्चय स्थावर जंगम चत्य या प्रतिमा निर्देश ३. व्यवहार प्रतिमा विषयक धातु-माप-आकृति व अंगोपांग आदिका निर्देश बसुनन्दि प्रतिष्ठापाठ/मू./परि. ४/श्लो. नं. अथ बिम्बं जिनेन्द्रस्य कर्त्तव्यं लक्षणान्वितम्। ऋज्वायतसुसंस्थानं तरुणाड्गं दिगम्बरम ।। श्रीवृक्षभूभूषितोरस्कं जानुप्राप्तकराग्रजम् । निजाडगुलप्रमाणेन साष्टाङ्गुलशतायुतम् ।। मानं प्रमाणमुन्मानं चित्रलेपशिलादिषु । प्रत्यड्गपरिणाहोवं यथासंरख्यमुदीरितम् ।३। कक्षादिरोमहीनाड्गं श्मश्रुरेखाविवर्जितम् । ऊर्ध्व प्रलम्बकं दत्वा समाप्त्यन्तं च धारयेत् ।४। तालं मुखं वितस्ति. स्यादेकार्थ द्वादशाङ्गुलम् । तेन मानेन तद्विबं नवधा प्रविकल्पयेत् ।। लक्षणैरपि संयुक्त बिम्ब दृष्टिविवर्जितम् । न शोभते यतस्तस्मात्कुर्या दृष्टिप्रकाशनम् ।७२। नात्यन्तोन्मीलिता स्तब्धा न विस्फारितमीलिता। तिर्यगूर्व मधो दृष्टिं वर्जयित्वा प्रयत्नतः ।७३। नासाग्रनिहिता शान्ता प्रसन्ना निर्विकारिका । वीतरागस्य मध्यस्था कर्त्तव्याधोत्तमा तथा ७४ - (१) लक्षण-जिनेन्द्रको प्रतिमा सर्व लक्षणोसे युक्त बनानी चाहिए। वह सीधी, लम्बायमान, सुन्दर संस्थान, तरुण अंगवाली व दिगम्बर होनी चाहिए ।। श्रीवृक्ष लक्षणसे भूषित वक्षस्थल और जानुपर्यंत लम्बायमान बाहूवाली होनी चाहिए ।२। कक्षादि अंग रोमहीन होने चाहिए तथा मूछ व झुर्रियों आदिसे रहित होने चाहिए।४। (२) माप-प्रतिमाकी अपनी अंगुलीके मापसे वह १०८ अंगुलकी होनी चाहिए।२। चित्रमें या लेपमें या शिला आदिमे प्रत्येक अंगका मान, प्रमाण व उन्मान नीचे व ऊपर सर्व ओर यथाकथित रूपसे लगा लेना चाहिए।३। ऊपरसे नीचेतक सौल डालकर शिलापर सीधे निशान लगाने चाहिए।४। प्रतिमाकी तौल या माप निम्न प्रकार जानने चाहिए। उसका मुख उसकी अपनी अंगुलीके मापसे १२ अंगुल या एक बालिश्त होना चाहिए। और उसी मानसे बो पा./मू./६,१० चेइय बंधं मोक्खं दुक्ख सुक्खं च अप्पय तस्स ह। सपरा जंगमदेहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं । णिग्गंथवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा ।१० =बन्ध, मोक्ष, दुःख व सुखको भोगनेवाला आत्मा चैत्य है ।।। दर्शनज्ञान करके शुद्ध है आचरण जिनका ऐसे बीतराग निर्ग्रन्थ साधुका देह उसकी आत्मासे पर होनेके कारण जिनमार्ग में जंगम प्रतिमा कही जाती है। अथवा ऐसे साधुओंके लिए अपनी और अन्य जीवोंकी देह जंगम प्रतिमा है। मो.पा./मू /११,१३ जो चरदि सुद्धचरणं जाणइ पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं । सो होइ वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा।११। णिरुवममचलमखोहा णिम्मिविया जंगमेण रूवेण । सिद्धठाणम्मि ठिय वोसरपडिमा धुवा सिद्धा /१३। जो शुद्ध आचरणको आचरै, बहुरि सम्यग्ज्ञानकरि यथार्थ वस्तुकू जान है, बहुरि सम्यग्दर्शनकरि अपने स्वरूपकं देखे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्य चैत्यालय ३०१ १. चैत्य या प्रतिमा निर्देश केवल पिच्छी कमण्डलु सहित साधुकी प्रतिमा होती है। शेष कोई भेद नहीं है)। अन्य भी नौ प्रकारका माप जानना चाहिए। (३) मुद्रा-लक्षणोंसे संयुक्त भी प्रतिमा यदि नेत्ररहित हो या मुन्दी हुई ऑखवाली हो तो शोभा नहीं देती, इसलिए उसे उसकी आँख खुली रखनी चाहिए ७२। अर्थात् न तो अत्यन्य मुन्दी हुई होनी चाहिए और न अत्यन्त फटी हुई। ऊपर नीचे अथवा दाये-बायें दृष्टि नहीं होनी चाहिए ७३। बल्कि शान्त नासाग्र प्रसन्न व निर्विकार होनी चाहिए। और इसी प्रकार मध्य व अधोभाग भी वीतराग प्रदर्शक होने चाहिए।७४। ७. शरीर रहित सिद्धोंकी प्रतिमा-कैसे सम्मव है भ, आ./वि./४६/१५३/१६ ननु सशरीरस्थात्मनः प्रतिबिम्ब युज्यते, अशरीराणां तु शुद्धात्मनां सिद्धाना कथं प्रतिबिम्बसभव । पूर्वभावप्रज्ञापन नयापेक्षया...शरीरसंस्थानवच्चिदात्मापि संस्थानवानेव संस्थानवतोऽव्यतिरिक्तत्वाच्छरीरस्थात्मवत् । स एव चायं प्रतिपत्रसम्यक्त्वाद्यगुण इति स्थापनासंभवः । =प्रश्न-शरीरसहित आत्माका प्रतिविम्ब मानना तो योग्य है, परन्तु शरीर रहित शुद्धात्मस्वरूप सिद्धोंकी प्रतिमा मानना कैसे सम्भव है। उत्तर-पूर्वभावप्रज्ञापन नयको अपेक्षासे सिद्धोंकी प्रतिमाएँ स्थापना कर सकते हैं, क्योकि जो अब सिद्ध हैं वही पहले सयोगी अवस्थामें शरीर सहित थे। दूसरी बात यह है कि जैसी शरीरकी आकृति रहती है वैसी ही चिदात्मा सिद्धकी भी आकृति रहती है। इसलिए शरीरके समान सिद्ध भी संस्थानवान है। अत. सम्यक्त्वादि अष्टगुणोसे विराजमान सिद्धोकी स्थापना सम्भव है। ८. दिगम्बर हो प्रतिमा पूज्य है ४. सदोष प्रतिमासे हानि वसुनन्दि प्रतिष्ठापाठ/परि. ४/श्लो. नं. अर्थनाशं विरोध च तिर्यग्दृष्टि भयं तथा । अधस्तात्सृतनाशं च भार्यामरणमूर्ध्वगा ।७५। शोकमुद्वेगसतापं स्तब्धा कुर्याद्धनक्षयम् . शान्ता सौभाग्यपुत्रार्थाशाभिवृद्धिप्रदा भवेत् ७६। सदोषार्चा न कर्तव्या यतः स्यादशुभावहा । कुर्याद्रौद्रा प्रभोनशिं कृशाङ्गी द्रव्यसंक्षयम् ।७७) संक्षिप्ताङ्गी क्षयं कुर्याच्चिपिटा दुखदायिनी। विनेत्रा नेत्रविध्वंसं हीनवक्त्रा स्वशोभनी ७८। व्याधि महोदरी कुर्याद हृद्रोगं हृदये कृशा। अंसहीनानुजं हन्याच्छ्ष्क जधा नरेन्द्रही ७४ा पादहीना' जनं हन्यात्कटिहोना च वाहनम् । ज्ञात्वैवं कारयेज्जैनी प्रतिमा दोषवर्जिताम् ।८० =दायीं-बायीं दृष्टिसे अर्थका नाश, अधो दृष्टिसे भय तथा ऊर्ध्व दृष्टिसे पुत्र व भार्याका मरण होता है।७। स्तब्ध दृष्टि से शोक, उद्वेग, संताप तथा धनका क्षय होता है । और शान्त दृष्टि सौभाग्य, तथा पुत्र व अर्थकी आशामे वृद्धि करनेवाली है ७६। सदोष प्रतिमाकी पूजा करना अशुभदायी है, क्योंकि उससे पूजा करनेवालेका अथवा प्रतिमाके स्वामीका नाश, अंगोंका कृश हो जाना अथवा धनका क्षय आदि फल प्राप्त होते हैं । ७७१ अंगहीन प्रतिमा क्षय व दुखको देनेवाली है। नेत्रहीन प्रतिमा नेत्रविध्वंस करनेवाली तथा मुग्वहीन प्रतिमा अशुभकी करनेवाली है ।७८। हृदयसे कृश प्रतिमा महोदर रोग या हृदयरोग करती है। अंस या अंगहीन प्रतिमा पुत्रको तथा शुष्क जंघावाली प्रतिमा राजाको मारती है ।७१। पाद रहित प्रतिमा प्रजाका तथा कटिहीन प्रतिमा वाहनका नाश करती है। ऐसा जानकर जिनेन्द्र भगवान्की प्ततिमा दोषहीन बनानी चाहिए ।८० ५. पाँचों परमेष्ठियोंकी प्रतिमा बनाने का निर्देश भ आ./वि./४६/१५४/४ कस्य । प्रत्यासत्ते श्रुतयोरेवाह सिद्धयोः प्रतिबिम्बग्रहणं । अथवा मध्यप्रक्षेप' पूर्वोत्तरगोचरस्थापनापरिग्रहार्थस्तेन साध्वादिस्थापनापि गृह्यते । = प्रश्न-प्रतिबिम्ब किसका होता है। उत्तर-प्रस्तुत प्रसंगमें अहंत् और सिद्धोंके प्रतिमाओका ग्रहण समझना चाहिए। अथवा यह मध्य प्रक्षेप है, इसलिए पूर्व विषयक और उत्तर विषयक स्थापनाका यहाँ ग्रहण होता है। अर्थात् पूर्व विषय तो अहंत और सिद्ध है ही और उत्तर विषय ( इस प्रकरणमें आगे कहे जानेवाले विषय ) श्रुत, शास्त्र, धर्म, साधु, परमेष्ठी, आचार्य, उपाध्याय बगैरह है। इनका भी यहाँ संग्रह होनेसे, इनकी भी प्रतिमाएँ स्थापना होती है। चैत्यभक्ति/३२ निराभरणभासुर विगतरागवेगोदयान्निरम्बरमनोहर प्रकृतिरूपनिर्दोषतः । निरायुध निर्भयं विगत हिस्यहिसाक्रमानिरामिषसुतृप्ति द्विविधवेदनाना क्षयात् ॥३२॥ --हे जिनेन्द्र भगवान् । आपका रूप रागके आवेगके उदयके नष्ट हो जानेसे आभरण रहित होनेपर भी भासुर रूप है; आपका स्वाभाविक रूप निर्दोष है इसलिए वस्त्ररहित नग्न होनेपर भी मनोहर है; आपका यह रूप न औरोंके द्वारा हिस्य है और न औरोंका हिसक है, इसलिए आयुध रहित होने पर भी अत्यन्त निर्भय स्वरूप है; तथा नाना प्रकार की क्षुत्पिपासादि वेदनाओके विनाश हो जानेसे आहार न करते हुए भी तृप्तिमान है। बो, पा./टी./१०/७८/१८ स्वकीयशासनस्य या प्रतिमा सा उपादेया ज्ञातव्या । या परकीया प्रतिमा सा हेया न वन्दनीया। अथवा सपरा-स्वकीयशासनेऽपि या प्रतिमा परा उत्कृष्टा भवति सा वन्दनीया न तु अनुत्कृष्टा । का उत्कृष्टा का वानुत्कृष्टा इति चेदुच्यन्ते या पञ्चजैनाभासैरञ्जलिकारहितापि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता भवति सा न वन्दनीया न चर्चनीया च । या तु जैनाभासरहितः साक्षादाईसंधैः प्रतिष्ठिता चक्षुःस्तनादिषु विकाररहिता समुपन्यस्ता सा वन्दनीया। तथा चोक्तम् इन्द्रनन्दिना भट्टारकेण-चतुःसंघसंहिताया जैनं बिंबं प्रतिष्ठितं । नमेन्नापरसंघाया यतो न्यासविपर्ययः ।। -स्वकीय शासनकी प्रतिमा ही उपादेय है और परकीय प्रतिमा हेय है, बन्दनीय नहीं है । अथवा स्वकीय शासनमे भी उत्कृष्ट प्रतिमा वन्दनीय है अनुत्कृष्ट नहीं। प्रश्न-उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रतिमा क्या उत्तर-पच जैनाभासोंके द्वारा प्रतिष्ठित अंजलिका रहित तथा नग्न भी मूर्ति बन्दनीय नही है। जैनाभासोंसे रहित साक्षात् आईत सघोंके द्वारा प्रतिष्ठित तथा चक्षु व स्तन आदि विकारोंसे रहित प्रतिमा ही बन्दनीय है। इन्द्रनन्दि भट्टारक ने भी कहा हैनन्दिसंघ, सेनसघ, देवसंघ और सिंहसघ इन चार संघोंके द्वारा प्रतिष्ठित जिनबिन ही नमस्कार की जाने योग्य है, दूसरे संघोंके द्वारा प्रतिष्ठित नहीं, क्योंकि वे न्याय व नियमसे विरुद्ध है। ९. रंगीन अगोपांगों सहित प्रतिमाओंका निर्देश ति. प /१/१८७२-१८७४ भिण्णिदणीलमरगयकुंतलभूवग्गदिण्णसोहाओ। फलिहिदणीलणिम्मिदधवलासिदणेत्तजुयलाओ ।१८७२। वज्जमयदंतपंतीपहाओ पल्लवसरिच्छअधराओ। हीरमयबरणहाओ पउमा ६. पाँचों परमेष्ठियोंकी प्रतिमाओंमें अन्तर वसुनन्दि प्रतिष्ठापाठ/परि. ४/६९-७० प्रातिहार्याष्टकोपेत संपूर्णावयवं शुभम् । भावरूपानुविद्धाड्गं कारयेद्विम्बमहत ६६। प्रातिहार्येविना शुद्ध' सिद्ध बिम्बमपीदृशम् । सूरीणां पाठकानां च साधूनां च यथागमम् । =आठ प्रातिहार्योसे युक्त तथा सम्पूर्ण शुभ अवयवोंवाली, वीतरागताके भावसे पूर्ण अर्हन्तको प्रतिबिम्ब करनी चाहिए।६। प्रातिहार्योसे रहित सिद्धोंकी शुभ प्रतिमा होती है। आचार्यों, उपाध्यायों व साधुओंकी प्रतिमाएं भी आगमके अनुसार बनानी चाहिए 1७०। (वरहस्त सहित आचार्यकी. शास्त्रसहित उपाध्यायकी तथा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्य चैत्यालय ३०२ २. चैत्यालय निर्देश रुणपाणिचरणाओ १८७३। अट्ठम्भहियसहस्सप्पमाणबंजणसमूहसहिदाओ। बत्तीसलक्खणेहि जुत्ताओ जिणेसपडिमाओ ।१८७४। == ( पाण्डुक वनमें स्थित) ये जिनेन्द्र प्रतिमाएँ भिन्नइन्द्रनीलमणि ब मरकतमणिमय कुंतल तथा भृकुटियोंके अग्रभागसे शोभाको प्रदान करनेवाली, स्फटिक व इन्द्रनोलमणिसे निर्मित धवल व कृष्ण नेत्र युगलसे सहित, बज्रमय दन्तपंक्तिकी प्रभासे संयुक्त, पल्लवके सदृश अधरोष्ठसे सुशोभित, हीरेसे निमित उत्तम नखोसे विभूषित, कमलके समान लाल हाथ पैरोसे विशिष्ट, एक हजार आठ व्यंजनसमूहोंसे सहित और बत्तीस लक्षणोंसे युक्त है। (त्रि. सा./६८५) रा वा/३/१०/१३/१७८/३४ कनकमयदेहास्तपनीयहस्तपादतलतालुजिह्वालोहिताक्षमणिपरिक्षिप्ता कस्फटिकमणिनयना अरिष्टमणिमयनयनतारकारजतमयदन्तपड्क्तयः विद्रुमच्छायाधरपुटा अब्जनमूलमणिमयाक्षपक्ष्मभूलता नीलमणिविरचितासिताञ्चिकेशाः भव्यजनस्तवनवन्दनपूजनाचीं अर्हत्प्रतिमा अनाद्यनिधना---(सुमेरु पर्वतके भद्रशाल बनमें स्थित चार चैत्यालयोमें स्थित जिनप्रतिमाओं) की देह कनकमयी है; हाथ-पाँवके तलवे-तालु व जिहा तपे हुए सोनेके समान लाल हैं; लोहिताक्ष मणि हुकमणि व स्फटिकमणिमयी आँखें है; अरिष्टमणिमयी आँखोंके तारे हैं; रजतमयी दन्तपंक्ति हैं: विद्रुममणिमयी होंठ है; अंजनमूल मणिमयी आँखोकी पलकें व भूलता है; नीलमणि रचित सरके केश हैं। ऐसी अनादिनिधन तथा भव्यजनोंके स्तवन, वन्दन, पूजनादिके योग्य अईत्प्रतिमा है। १०. सिंहासन व यक्षों आदि सहित प्रतिमाओंका निर्देश ति.प./३/५२ सिहासणादिसहिदा चामरकरणागजक्वमिहुणजुदा। णाणाविहरयणमया जिणपडिमा तेसु भवणेसं २ -उन (भवनवासी देवोंके ) भवनोमें सिंहासनादिकसे सहित, हाथमें चमर लिये हुए नागयक्षयुगलसे युक्त और नाना प्रकारके रत्नों से निर्मित, ऐसी जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं । (रा.वा/३/१०/१३/१७६/२); (ह.पु // ३६३), (त्रि.सा./१८६-९८७) ११. प्रतिमाओंके पासमें अष्ट मंगल द्रव्य तथा १०० उपकरण रहनेका निर्देश ति. प/१/१८७६-१८८० ते सव्वे उवयरणा घंटापहूदीओ तह य दिव्वाणि । मंगलदव्याणि पुढं जिणिदपासेसु रेहति । १८१६३ भिंगारकलसदप्पणचामरधयवियणछत्तमुपयट्ठा । अठुत्तरसयसखा पत्तेक मंगला तेसुं १८८० -घंटा प्रभृति वे सब उपकरण तथा दिव्य मंगल द्रव्य पृथक्-पृथक् जिनेन्द्रप्रतिमाओके पासमें सुशोभित होते हैं ।१८७१। भृगार, कलश, दर्पण, चवर, ध्वजा, बीजना, छत्र और मुप्रतिष्ठ-ये आठ मंगल द्रव्य हैं, इनमेंसे प्रत्येक वहाँ १०८ होते हैं १८८०। ( ज.प./१३/११२-अहं तके प्रकरणमें अष्ट मंगलद्रव्य ); (त्रि.सा./६८६); (द.पा./टी./३५/२६/३) अहतके प्रकरण में अष्टद्रव्य। ह.पु./५/३६४-३६५ भृगारकलशादर्शपात्रीशङ्का समुद्गकाः। पालिकाधूपनीदीपकूर्चा पाटलिकादयः ।३६४। अष्टोत्तरशतं ते पि कंसतालनकादयः। परिवारोऽत्र विज्ञेयः प्रतिमानों यथायथम् ।६३५॥ -- झारी कलश, दर्पण, पात्री, शंख, सुप्रतिष्ठक, ध्वजा, धूपनी, दीप, कूर्च, पाटलिका आदि तथा झांझ, मजीरा आदि १०८ उपकरण प्रतिमाओके परिवारस्वरूप जानना चाहिए, अर्थात ये सब उनके समीप यथा योग्य विद्यमान रहते हैं। १२. प्रतिमाओंके लक्षणोंकी सार्थकता ध.६/१,१.४४/१०७/४ कधमेदम्हादो सरीरादो गंथस्स पमाणत्तमव- गम्मदे । उच्चदे-णिराउहत्तादो जाणाविदकोह-माण-माया-लोह जाइ-जरा-मरण-भय-हिंसाभावं, णिफंदक्खेवरवणादो जाणाविदतिवेदोदयाभाव । णिराहरणत्तादो जाणाविदरागाभा, भिउडिविरहादी जाणाविदकोहाभावं । बग्मण-णचण-हसण-फोडणवरखमुत्त-जडामउड-णरसिरमालाधरण विरहादो मोहाभाव लिगं । णिरं बरत्तादो लोहाभावलिगं । .. अग्गि-विसासणि-वज्जाउहादीहि बाहाभावादो घाइकम्माभावलिगं। ...बलियावलोयणाभावादो सगासेसजीवपदेसट्ठियणाण-दसणावरणाणं णिस्सेसाभावलिगं । ""आगासगमणेण पहापरिवेढेण तिहुवणभवणबिसारिणा ससुरहिसांधेण च जाणाविदअमाणुसभावं। ...तदो एदं सरीरं राग-दोस-मोहाभावं जाणावेदि। - प्रश्न-इस (भगवान महावीरके) शरीरसे ग्रन्थकी प्रमाणता कैसे जानी जाती है। उत्तर-(१) निरायुध होनेसे क्रोध मान माया लोभ, जन्म, जरा, मरण, भय और हिसाके अभावका सूचक है। (२) स्पन्दरहित नेत्र दृष्टि होनेसे तीनो वेदोंके उदयके अभावका ज्ञापक है। (३) निराभरण होनेसे रागका अभाव । (४) भृकुटिरहित होनेसे क्रोधका अभाव। (५) गमन, नृत्य, हास्य, विदारण, अक्षसूत्र, जटा मुकुट और नरमुण्डमालाको न धारणा करनेसे मोहका अभाव । (६) वस्त्ररहित होनेसे लोभका अभाव । (७) अग्नि, विष, अशनि और बज्रायुधादिकोसे बाधा न होनेके कारण घातिया कोंका अभाव । (८) कुटिल अवलोकनके अभावसे ज्ञानावरण व दर्शनावरणका पूर्ण अभाव। (१) गमन, प्रभामण्डल, त्रिलोकव्यापी सुरभिसे अमानुषता। इस कारण यह शरीर राग-द्वेष एवं मोहके अभावका ज्ञापक है। (इस वीतरागतासे ही उनकी सत्य भाषा व प्रामाणिकता सिद्ध होती है)। १३. अन्य सम्बन्धी विषय १. प्रतिमामें देवत्व-दे० देव/I/१/३ २. देव प्रतिमामें नहीं हृदयमें है-दे० पूजा/३ ३. प्रतिमाको पूजाका निर्देश-दे० पूजा/३ ४. जटा सहित प्रतिमाका निर्देश-दे० केश लौच/४ २. चैत्यालय निर्देश १. निश्चय व्यवहार चैत्यालय निर्देश मो.पा./मू./८/९ बुद्ध चं बोहंतो अप्पाणं चेतयाई अण्णं च । पंचमहब्बयसुद्धणाणमयं जाण चेइहर/८/ चेइहर जिणमग्गे छक्कायहियंकर भणियं ।। बो.पा./टी./८/७६/१३ कर्मतापन्नानि भव्यजीववृन्दानि बोधयन्तमात्मान चैत्यगृहं निश्चयचैत्यालय हे जीव ! त्वं जानीहि निश्चयं कुरु ।... व्यवहारनयेन निश्चयचैत्यालयप्राप्तिकारणभूतेनान्यच्च दृषदिष्टकाकाष्टादिरचिते श्रीमद्भगवत्सर्वज्ञवीतरागप्रतिमाधिष्ठितं चैत्यगृहं । -स्व ब परकी आत्मा को जाननेवाला ज्ञानी आत्मा जिसमें वसता हो ऐसा पंचमहावत संयुक्त मुनि चैत्यगृह है। जिनमार्गमें चैत्यगृह षट्काय जीवोंका हित करनेवाला कहा गया है ।। कर्मबद्ध भव्यजीवोंके समूहको जाननेवाला आत्मा निश्चयसे चैत्यगृह या चैत्यालय है तथा व्यवहार नयसे निश्चय चैत्यालयके प्राप्तिका कारणभूत अन्य जो इट, पत्थर व काष्टादि से बनाये जाते हैं तथा जिनमें भगवत् सर्वज्ञ बीतराग की प्रतिमा रहती है वह चैत्यगृह है। * चैत्यालयमें देवत्व-दे० देव/I/१/३ २. मवनवासी देवोंके चैत्यालयोंका स्वरूप ति.प./३/गा.नं./भावार्थ-सर्व जिनालयों में चार चार गोपुरोंसे युक्त तीन कोट, प्रत्येक बीथी ( मार्ग ) में एकमें एक मानस्तम्भ व नौ स्तूप तथा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्य चैत्यालय ३०३ ३. चैत्यालयोंका लोकमें अवस्थान"" ( कोटोंके अन्तरालमे) क्रमसे वनभूमि, ध्वजभूमि और चैत्यभूमि होती है।४४। वन भूमिमे चैत्यवृक्ष है।४। ध्वज भूमिमें गज आदि चिन्हो युक्त ८ महा ध्वजाएँ है। एक एक महाध्वजाके आश्रित १०८ क्षुद्र ध्वजाएँ है।६४। जिनमन्दिरों मे देवच्छन्दके भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वान्ह तथा सनत्कुमार यक्षोंकी मूर्तियाँ एवं आठ । मंगल द्रव्य होते है ।४८। उन भवनोंमे सिंहासनादिसे सहित हाथमें चवर लिये हुए नाग यक्ष युगलसे युक्त और नाना प्रकारके रत्नोंसे निर्मित ऐसी जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं ।५२) ३. व्यंतर देवोंके चैत्यालयोंका स्वरूप ति.प./६/गा.नं./सारार्थ-प्रत्येक जिनेन्द्र प्रासाद आठ मंगल द्रव्योंसे युक्त है।१३। ये दुंदुभी आदिसे मुखरित रहते हैं ।१४। इनमें सिंहासनादि सहित, प्रातिहार्यो सहित, हाथमें चॅवर लिये हुए नाग यक्ष देवयुगलोंसे संयुक्त ऐसी अकृत्रिम जिनप्रतिमाएँ हैं ॥१५॥ ति.प.//गा.न ./सारार्थ- प्रत्येक भवनमें ६ मण्डल हैं। प्रत्येक मण्डलमे राजांगणके मध्य (मुख्य) प्रासादके उत्तर भागमें सुधर्मा सभा है। इसके उत्तरभागमें जिनभवन है ।११०-२००। देव नगरियोंके बाहर पूर्वादि दिशाओंमे चार वन खण्ड है । प्रत्येकमें एकएक चैत्य वृक्ष है। इस चैत्यवृक्षकी चारों दिशाओमें चार जिनेन्द्र प्रतिमाएँ है ।२३०॥ ७. जिन भवनों में रति व कामदेवकी मूर्तियाँ तथा उनका प्रयोजन ह.पु./२६/२-५ अत्रैव कामदेवस्य रतेश्च प्रतिमा व्यधात्। जिनागारे समस्तायाः प्रजायाः कौतुकाय सः ।२। कामदेवरतिप्रेक्षाकौतुकेन जगज्जनाः । जिनायतनमागत्य प्रेक्ष्य तत्प्रतिमाद्वयम् ॥३॥ संविधानकमाकर्ण्य तद् भाद्रकमृगध्वजम् । बहव. प्रतिपद्यन्ते जिनधर्ममहर्दिवस १४ प्रसिद्ध गृहं जैनं कामदेवगृहारख्यया। कौतुकागतलोकस्य जातं जिनमताप्तये ।। - सेठने इसी मन्दिरमें समस्त प्रजाके कौतुकके लिए कामदेव और रतिकी भी मूर्ति बनवायी।२। कामदेव और रतिको देखनेके लिए कौतूहलसे जगतके लोग जिनमन्दिरमें आते हैं और वहाँ स्थापित दोनों प्रतिमाओंको देखकर मृगध्वज केवली और महिषका वृत्तान्त सुनते हैं, जिससे अनेकों पुरुष प्रतिदिन जिनधर्मको प्राप्त होते हैं ।३-४। यह जिनमन्दिर कामदेवके मन्दिरके नामसे प्रसिद्ध है। और कौतुकवश आये हुए लोगों के जिनधर्मकी प्राप्तिका कारण है ।। ८. चैत्यालयों में पुष्पवाटिकाएँ लगानेका विधान ति.प./४/१५७-१५६ का संक्षेपार्थ-उज्जाणेहि सोहदि विविहेहिं जिणि दपासादो १५७। तस्सि जिणिदपडिमा...१५६। -(भरत क्षेत्रके विजयार्धपर स्थित) जिनेन्द्र प्रासाद विविध प्रकारके उद्यानोंसे शोभायमान है ।१५७। उस जिनमन्दिरमें जिनप्रतिमा विराजमान है ।१५६। सा.ध./२/४० सत्रमप्यनुकम्प्यानां सृजेदनजिघृक्षया । चिकित्साशालवदुष्येन्नेज्यायै वाटिकाद्यपि ।४०। =पाक्षिक श्रावकोंको जीव दयाके कारण औषधालय खोलना चाहिए, उसी प्रकार सदावत शालाएँ व प्याऊ खोलनी चाहिए और जिनपूजाके लिए पुष्पवाटिकाएँ बावड़ी व सरोबर आदि बनवाने में भी हर्ज नहीं है। ४. कल्पवासी देवोंके चैत्यालयोंका स्वरूप ति.प.//गा.नं./सारार्थ-समस्त इन्द्र मन्दिरोंके आगे न्यग्रोध वृक्ष होते है, इनमें एक-एक वृक्ष पृथिवी स्वरूप व पूर्वोक्त जम्बू वृक्षके सदृश होते हैं।४०॥ इनके मूलमे प्रत्येक दिशामें एक एक जिन प्रतिमा होती है ।४०६। सौधर्म मन्दिरको ईशान दिशामें सुधर्मा सभा है 1४०७। उसके भी ईशान दिशामें उपपाद सभा है ।४१०। उसी दिशामें पाण्डुक बन सम्बन्धी जिनभवनके सदृश उत्तम रत्नमय निनेन्द्रप्रासाद है ।४११॥ ३. चैत्यालयोंका लोकमें अवस्थान, उनकी संख्या व विस्तार ५. पांडक वनके चैत्यालयका स्वरूप ह.पु./५/३६६-३७२ का संक्षेपार्थ-यह चैत्यालय झरोखा, जाली, झालर, मणि व घंटियो आदिसे सुशोभित है। प्रत्येक जिनमन्दिरका एक उन्नत प्राकार ( परकोटा) है। उसकी चारों दिशाओं में चार गोपुर द्वार हैं। चैत्यालयकी दशों दिशाओं में १०८,१०८ इस प्रकार कुल १०८० ध्वजाएँ हैं। ये ध्वजाएँ सिंह, हंस आदि दश प्रकारके चिन्होंसे चिन्हित हैं। चैत्यालयोके सामने एक विशाल सभा मण्डप (सुधर्मा सभा) है। आगे नृत्य मण्डप है। उनके आगे स्तूप हैं। उनके आगे चैत्य वृक्ष है। चैत्य वृक्षके नीचे एक महामनोज्ञ पर्यक आसन प्रतिमा विद्यमान है। चैत्यालयसे पूर्व दिशामें जलचर जीवों रहित सरोवर है। (ति.प./४/१८५५-१६३५); (रा.वा./३/१०/१३/१७८/२५), (ज.प./४/ ४६-५३,६६), (ज प./५/१/५६), (त्रि.सा./६८३-१०००) । १. देव भवनोंमें चैत्यालयोंका अवस्थान व प्रमाण ति.प. अधि./गा.नं. संक्षेपार्थ-भवनवासीदेवों के ७,७२०००,०० भवनों की वेदियोंके मध्य में स्थित प्रत्येक कूटपर एक एक जिनेन्द्र भवन है। (३।४३) (त्रि.सा./२०८) रत्नप्रभा पृथिवीमें स्थित व्यन्तरदेवोंके ३०,००० भवनों के मध्य वेदीके ऊपर स्थित कूटोंपर जिनेन्द्र प्रासाद हैं (६।१२) । जम्बूद्वीपमें विजय आदि देवोंके भवन जिनभवनोंसे विभूषित हैं (१८१)। हिमवान पर्वतके १० कूटोंपर व्यन्तरदेवोंके नगर हैं, इनमें जिन भवन है (४।१६५७) । पद्म ह्रदमें कमल पुष्पोंपर जितने देवोंके भवन कहे हैं उतने ही वहीं जिनगृह है (४।१६१२)। महाह्रदमें जितने ही देवीके प्रासाद हैं उतने ही जिनभवन हैं (४।१७२१)। लवण समुद्र में ७२०००+४२०००+२८००० ब्यंतर नगरियाँ है। उनमें जिनमन्दिर है (४।२४५५)। जगत्प्रतरके संख्यात भागमें ३०० योजनों के वर्गका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना व्यन्तर लोकमें जिनपुरों का प्रमाण है (६।१०२)। व्यंतर देवोंके भवनों आदिका अवस्थान व प्रमाण-(दे० व्यंतर/४) ज्योतिष देवोंमें प्रत्येक चन्द्र विमानमें (७।४२); प्रत्येक सूर्यविमानमें (७७१); प्रत्येक ग्रह विमानमें (७।८७); प्रत्येक नक्षत्र विमानमें (७।१०६); प्रत्येक तारा विमानमें (१५३); राहुके विमान में (७।२०४); केतु विमानमें (७५२७५) जिनभवन स्थित हैं। इन चन्द्रादिकोंकी निज निज राशिका जो प्रमाण है उतना ही अपने-अपने नगरों व जिन भवनोंका प्रमाण है (७११४)। इस प्रकार ज्योतिष लोकमें असंरण्यात चैत्यालय १. मध्य लोकके अन्य चैत्यालयोंका स्वरूप ज.प.//गा.नं. का संक्षेपार्थ-जम्बूद्वीपके सुमेरु सम्बन्धी जिनभवनोंके समान ही अन्य चार मेरुओंके, कुलपर्वतोंके, वक्षार पर्वतोंके तथा नन्दन वनोके जिनभवनोंका स्वरूप जानना चाहिए ८-१०। इसी प्रकार ही नन्दीश्वर द्वीपमें, कुण्डलवर द्वीपमें और मानुषोत्तर पर्वत व रुचक पर्वतपर भी जिनभवन है। भद्रशाल वनवाले जिनभवनके समान ही उनका तथा नन्दन, सौमनस व पाण्डक बनोंके जिनभवनों का वर्णन जानना चाहिए ।१२०-१२३॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्य चैत्यालय हैं। चन्द्रादिकोंके विमानोंका प्रमाण (३० योतिष १२४वासी समस्त इन्द्र भवनोंमे जिनमन्दिर है ( ८1४०५-४११) (त्रि. सा. / ५०२५०३) कल्पवासी इन्द्रों व देवो आदिका प्रमाण व अवस्थान - ३० स्वर्ग । ea द्रह २. मध्य लोक चैत्यालयोंका अवस्थान व प्रमाण सि.प /४/२३६२-२२१३ कुंडल उसरियासुरणयरी सेतोरणद्वारा। बिज्जाहर से ही गरजणारीओ | २३१२ दह चार विदेहगानादिमतीला जैसिथ मेत्ता जंयुक्वायरोशिया जिलानिकेदा | २११३॥ कुण्ड, बन समूह, नदियों, देव नगरियाँ, पर्वत, तोरणद्वार विद्याधर बेशियोंके नगर आर्यखण्डकी नगरियों, वह पंचक, पूर्वापर विवेक ग्रामादि, शामली और जम्बू जिसने है उतने ही जिनभवन भी है । २३६२-२२१३॥ विशेषार्थ जम्बूद्वीप कुण्ड - ६०; नदी - १७६२०६० देव नगरियाँ - असंख्यातः पर्वत३११, विद्याधर श्रेणियोके नगर - ३७४०; आर्यखण्डकी प्रधान नगरियाँ - ३४; द्रह = २६ पूर्वापर विदेहोके ग्रामादि = संख्यात; शाल्मली व जम्बू वृक्ष- २ कुल प्रमाण १७६६२६३ + संख्यात + असंख्यात । धातकी व पुष्करार्ध द्वीपके सर्व मिलकर उपरोक्त से पंचगुणे अर्थात् ८६८१४६५ + संख्यात + असंख्यात । नन्दीश्वर द्वीपमें ५२, रुचकवर द्वीपमें ४ और कुण्डलवर द्वीपमे ४ । इस प्रकार कुल ८१८१७२५ + संख्यात + असंख्यात चैत्यालय हैं। विशेष - दे० लोक / १. ४। सुमेरु के १६यायलो २/६.४। त्रि.सा./२६१-६२ नमह गरतोयजिणवर चचारि साणि दविहीणाणि । गावरणं चच मंदीर रुपये ॥३१९॥ मंदरकुनखारि मसु तररुप्यजंबुसामलिखु सीदी तीसं तु सयं चउ चउ सत्तरिसयं दुपणं ॥५६॥ मनुष्य लोकविषे जिनमन्दिर है- नन्दीश्वर द्वोपमे ५२ ; कुण्डलगिरिपर ४ रुचकगिरिपर ४; पाँचों मेरुपर ८०; तीस वालों पर १० मीस गजदन्तोंपर २० अस्सी क्षारोंपर ८० चार कृष्णकारोंपर ४ मानुषोसरपर ४ एक सौ सत्तर विजयाधपर १०० जम्बू पर और शामती वृक्षपर कुल मिलाकर २१८ होते हैं । ३. अकृत्रिम चैत्यालयोंके व्यासादिका निर्देश दा त्रि. सा./१७८-१०२ आयमदर्श मासं उभयदत्तं जिगपराणमुख दयास आणदाराणि तस्सद्ध । वरमज्झिम अवराणं दलवा भइसालणं दणगा। पं दीसरगनिमाणजालया हाँसि जेट्ठा हु |२०१ सोमणरुषगड लक्खारिगारमाणुमुत्तुरगा कुलगिरिजा निय मज्झिम जिणालया पांडुगा अवरा । ६८० जोयणसयआयाम दलगाढं सोलसं तु दारुदयं । जेट्ठाणं गिहपासे आणिद्दाराणि दो दो दु १६८१| वेयड्ढजंबुसान लिजिणभवणाणं तु कोस आयामं । सेसाणं सगजोग्गं आयाम होदिजिदि ८२ ति. प./४/१७१० उच्छेहप्पहूदीसु' संपहि अम्हाण णत्थि उवदेसो । १. सामान्य निर्देश उत्कृष्टादि चेष्यालयों का जो आयाम, ताका आधा तिनिका व्यास है और दोनों ( आयाम व व्यास) को मिलाय ताका आधा उनका उच्चत्व है । ७८ उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य चैत्यालय निका व्यासादिक क्रम तै आधा आधा जानहु ६७६ उत्कृष्ट जिनालयनिका आयाम १०० योजन प्रमाण है, आध योजन अवगाध कहिये पृथिवी माही नॉन है ६ योजन उनके द्वारोंका उच्च अकृत्रिम चौकी विस्तारकी अपेक्षा तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है -- उत्कृष्ट, मध्य व जघन्य । उनकी लम्बाई चौडाई व ऊँचाई क्रम से निम्न प्रकार बतायी गयी है - = - ३०४ = उत्कृष्ट १०० योजनx० योजन४०१ योजन। मध्यम = ५० योजन×२५ योजन× ३७३ योजन । जघन्य - २५ योजन× १२३ योजन १८३ योजन । चैत्यालयोंके द्वारोंकी ऊँचाई व चौडाई उत्कृष्ट १६ योजन४८ योजन मध्यमः = योजनx४ योजन जघन्य = ४ योजन×२ योजन वैश्यालयोंकी नव- उत्कृष्ट x २ कोश, मध्यम = १ कोश; जघन्य - 2 1 चौतीस अतिशय व्रत २. देवोंके चैत्यालयों का विस्तार वैमानिक देवों के विमानोने तथा द्वीपो में स्थित उसके आवासों आदि प्राप्त जिनालय उत्कृष्ट विस्तारवाले हैं ७६ २. जम्मूदीपके चैत्यालयों का विस्तार = नन्दनवनस्थ भद्रशालवन के चैत्यालय - उत्कृष्ट सौमनस बनका चैय्यासम कुलाचल व वक्षार गिरि = मध्यम - मध्यम = पाण्डुक बन • जघन्य निजयार्ध पर्वत तथा जम्मू व शाल्मली वृक्षके चैत्यालयका विस्तार -१ कोश ई कोश को (../६/२४-३५१) (पा.१/ ५/५,६४, ६५ ); (ज. प / ५/६ ) ( त्रि. सा / ९७६-६८१) । गजदन्त व यमक पर्वतके चैत्यालय - जघन्य ( ति प /४/२०४१-२००७) ( सि. १/४/२९१०)-उत्कृष्ट दिग्गजेा पर स्थित ४. धातकी खण्ड व पुष्करार्थं द्वीपके चैत्यालय इष्वाकार पर्वत चैखालय (जि. सा. १८०) मध्यम शेष सर्व चैत्यालय = जम्बूद्वीपमें कथित उस उस चैत्यालयसे दूना विस्तार (ह. पू./५/२००-३११) । मानुषोत्तर पर्वतश्यालय (त्रि सा / १०० ) - मध्यम । ५. नन्दीश्वर द्वीपके चैत्यालयों का विस्तार जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अञ्जनगिरि, रतिकर व दधिमुख तीनो के चैत्यालय = उत्कृष्ट (ह. पृ./५/६७७); ( ति सा / ६७६ ) । ६. कुण्डलवर पर्यंत व रुचकर पर्वत के चैत्यालय उत्कृष्ट (जि.सा./१००) (ह. पू./५/६६६,७२८)। चैत्यप्रासाद भूमि समवशरणकी प्रथम भूमि चैत्य वृक्ष दे० वृक्ष | चोर कथा - दे० कथा । चोरी — दे० अस्तेय | चोल- मध्य आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य ४ . कर्णाटकका दक्षिणपूर्व भाग अर्थात् मद्रास नगर, उसके उत्तरके कुछ प्रदेश और मैसूर स्टेटका बहुत कुछ भाग पहिले चोल देश कहलाता था(म. प्र. ध. / ५० / पं० पन्नालाल ) । ३. राजा कुलोत्तुंगका अपरनाम - दे० कुलोत्तुंग | चौंतीस अतिशय*१. भगवान् के चौतीस अतिशय - दे० अहंत / ६ चौंतीस अतिशय व्रत -- निम्न प्रकार ६५ उपवास कुल २ वर्ष मास १५ दिनमें पूरे होते हैं। (१) जन्म १० अतिशयोके लिए १० दामियों (२) ज्ञान के १० अतिशयों के लिए १० दशमिय = Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसी पूजा ३०५ छल (३) देवकृत १४ अतिशयोंके लिए १४ चतुर्दशियाँ; (४) चार अनन्त चतुष्टयोंके लिए ४ चौथ; (५) आठ प्रातिहार्योंके लिए ८ अष्टमियॉ; (६) पंच ज्ञानोके लिए ५ पचमियाँ; (७) तथा ६ पष्ठियाँ-इस प्रकार कुल ६५ उपवास । 'ओहाँ णमो अहंताणं' मंत्रका त्रिकाल जाप्य । (बत विधान संग्रह, पृ. १०६), (किशन सिह क्रिया कोश)। चौबीसी पूजा-दे० पूजा। च्यवन कल्पभ, आ./मू./२८५/५०१/८ वर्जय अतिचारप्रकार ज्ञानदर्शनचारित्रविषयं ...च्यवनकल्पेनोच्यन्ते।-दर्शन ज्ञान चारित्रके अतिचारोंका टालना च्यवनकल्पके द्वारा कहा जाता है। च्यावित शरीर-दे० निक्षेप/५ । च्युत शरीर-दे० निक्षेप/५ । [छ] छंदन-दे० समाचार । छंद बद्ध चिट्ठी-पं० जयचन्द छाबडा ( ई० १८३३) द्वारा लिखा गया अध्यात्म रहस्यपूर्ण एक पत्र । छंद शतक-कवि वृन्दावन ( ई० १८००-१८४८) द्वारा रचित भाषा पद संग्रह। छंद शास्त्र-जैनाचार्योने कई छन्दशास्त्र रचे है। (१) आ० पूज्यपाद ( ई० श०५) द्वारा रचितः (२) श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र सूरि (ई०१०८८-१९७३) कृत काव्यानुशासन; (३) व्यारण्यालंकार पर पं० आशाधर ( ई० ११७३-१२४३) कृत एक टीका; (४) पं० राजमल (ई० १५७५-१५६३) द्वारा रचित 'पिंगल' नामका ग्रन्थ । छत्र-१. चक्रवर्तीके चौदह रत्नों में से एक-दे० शलाका पुरुष/२)। २. भगवान्के आठ प्रातिहार्यों में से एक-दे० अर्हन्त । छत्र चूड़ामणि-बादीभ सिंह ओडयदेव ( ७७०-८६०) कृत जीवन्धर स्वामी की कथा। विस्तार ६२५ श्लोक, ११ लम्ब । (ती०/३/३१) । छत्रपति-आप एक कवि थे। कोका ( मथुरा) के पद्मावतीपुरवार थे। कृतियाँ-१. द्वादशानुप्रेक्षा, २. उद्यमप्रकाश, ३. शिक्षाप्रधान पद्य; ४.मनमोदन पंचशती। समय -मनमोदन पंचशतीकी प्रशस्तिके अनुसार वि० १९१६ पौष शु. १ है। (मन मोदन पचशती/प्र० सोनपाल | प्रेमीजीके आधार पर)। छद्म-(ध, १/१,१,११/१८८/१०) छद्म ज्ञानदृगावरणे-ज्ञानावरण और दर्शनावरणको छद्म कहते हैं। (ध/११/४,२,६/४५ ॥ ११६/८) (द्र, सं/टी/१४/१८६/३ )। छद्मस्थ-१. लक्षण ध./१/१,१,१६/१८८/१० छद्म ज्ञानहगावरणे, तत्र तिष्ठन्तीति छद्मस्था'। - छद्म ज्ञानावरण और दर्शनावरणको कहते हैं। उसमें जो रहते हैं, उन्हें छमस्थ कहते है। (ध. ११/४,२.६.१५/११६/८), (द्र, सं./टी./ ४४/१८६/३)। ध./१२/५,४ १७/४४/१० संसरन्ति अनेन धातिकर्मकलापेन चतसृषु गतिविति घातिकर्मकलापः संसार। तस्मिन् तिष्ठन्तीति संसारस्था' छद्मस्था'। जिस घातिकर्मसमूहके कारण जीव चारों गतियोमें संसरण करते हैं वह घातिकर्मसमूह संसार है। और इसमें रहनेवाले जीव संसारस्थ या छद्मस्थ हैं। २. छमस्थके भेद (छद्मस्थ दो प्रकारके है--मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि । सर्वलोकमें मिथ्यादृष्टि छद्मस्थ भरे पडे है। सम्यग्दृष्टि छ यस्थ दो प्रकारके है-सराग व वीतराग । ४-१० गुणस्थान तक सराग छद्मस्थ है। और ११-१२ गुणस्थानवाले वीतराग छदास्थ हैं। ध/७/२,१,१/५/२ छदुमत्था ते दुविहा-उवसंतकसाया वीणक्साया चेदि । -(वीतराग ) छद्मस्थ दो प्रकारके है-उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय। ३. कृतकृत्य छद्मस्थ क्ष सा /६०३ चरिमे खंडे पडिदे कदकर णिज्जोत्ति भण्णदे ऐसो । - (क्षीणकषाय गुणस्थानमे मोहरहित तीन घातिया प्रकृतियोका काण्डक घात होता है। तहाँ अंत काडकका घात होते याकौं कृतकृत्य छद्मस्थ कहिये। ( क्योंकि तिनिका कांडकघात होनेके पश्चात भी कुछ द्रव्य शेष रहता है, जिसका काण्डकधात सम्भव नहीं। इस शेष द्रव्यको समय-समय प्रति उदयावलीको प्राप्त करके एक-एक निषेकके क्रमसे अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा अभाव करता है। इस अन्तर्मुहूर्त कालमें कृतकृत्य छद्मस्थ कहलाता है। छल-१. छल सामान्यका लक्षण न्या. सू./मु./१-२/१० बचन विघातोऽर्थ विकल्पोपपत्त्या छलम । वादीके वचनसे दूसरा अर्थ कल्पनाकर उसके वचनमे दोष देना छल है। (रा वा /१/६/८/३६/३); (श्लो वा. १/न्या २७८/४३०/१६); (सि. वि./वृ./५/२/३१५/७); । स्या, म/१०/१११/१६); (स भ. त.. ७६/११) २. छलके भेद न्या. सू /मू /१-२/११ तत्रिविध वाक्छल सामान्यच्छलमुपचारच्छल चेति ।११। = वह तीन प्रकारका है-वाक्छल, सामान्य छल व उपचार छल । (श्लो वा./४/न्या २७८/४३०/२१). (सि. वि./वृ./ ५/२/३१७/१३); (स्या म./१०/१११/१६) ३. वाकछलका लक्षण न्या. सू /मू./१-२/१२ अविशेषाभिहितेऽर्थे वक्तुरभिप्रायादर्थान्तरकल्पना __ वाक्छलम् । यथास्या म./१०/११२/२१ नवकम्मलोऽयं माणवक इति नूतनविवक्षया कथिते, पर' मंख्यामारोप्य निषेधति कुतोऽस्य नव कम्बला' इति । =वक्ताके किसी साधारण शब्दके प्रयोग करनेपर उसके विवक्षित अर्थकी जानबूझकर उपेक्षा कर अर्थान्तरकी कल्पना करके वक्ताके वचनके निषेध करनेको वाक्छल कहते है। जैसे वक्ताने कहा कि इस ब्राह्मण के पास नवकम्बल है। यहाँ हम जानते है कि 'नव' कहनेसे वक्ताका अभिप्राय नूतनसे है, फिर भी दुर्भावनासे उसके वचनोंका निषेध करनेके लिए हम 'नव' शब्दका अर्थ 'नौ संख्या' करके पूछते है कि इस ब्राह्मणके पास नौ कंबल कहाँ हैं । (श्लो. वा. ४/न्या. २७६/४११/ १२). (सि. वि./ /३/२/३१७/१४ ) ४. सामान्य छलका लक्षण न्या.सू./मू./१-२/१३/५० संभवतोऽर्थस्यातिसामान्ययोगादसंभूतार्थ कल्पना सामान्यत्छलम् ।१२। न्या. सू /भा /१-२/१३/५०/४ अहो खत्वसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्न इत्युत्ते कश्चिदाह संभवति ब्राह्मणे विद्याचरणसंपदिति । अस्य वचनस्य विधातोऽर्थ विकल्पोपपत्त्या सभूतार्थ कल्पनया क्रियते । यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपत्संभवति व्रात्येऽपि संभवेत बात्योऽपि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-३९ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छहगाला छेदना सभवइ य परिसुद्ध सो पुण धम्मम्मि छेउत्ति।" जिन बाह्यक्रियाओंसे धर्म में बाधा न आती हो, और जिससे निर्मलताकी वृद्धि हो उसे छेद कहते है। भ. आ./वि./६/३२/२१ असंयमजुगुप्सार्थ मेन असंयम के प्रति की जुगुप्सा ही छेद है। १. संयम सम्बन्धी छेदके भेद व लक्षण प्र.सा/त.प्र/२११-२१२ द्विविध' किल संयमस्य छेदः, बहिरङ्गोऽन्तरङ्गश्च । तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरङ्ग. उपयोगाधिकृतः पुन रन्तरङ्ग । प्र. सा/त. प्र./२१७ अशुद्धोपयोगोऽन्तरगच्छेदः परप्राणव्यपरोपो बहिरङ्गः । =संयमका छेद दो प्रकारका है; बहिरंग और अन्तरंग। उसमें मात्र कायचेष्टा सम्बन्धी बहिरंग है और उपयोग सम्बन्धी अन्तरंग ।२११-२१२१ अशुद्धोपयोग अन्तर गछेद है; परप्राणोंका व्यप रोप बहिरंगच्छेद है। छेद गणित-Logarithm (ज. प./प्र.१०६ )(गणित/11/१/१०)। छेदना-१. छेदना सामान्यका लक्षण ध. १४/५,६,५१३/४३५/७ छिद्यते पृथक्क्रियतेऽनेनेति छेदना। जिसके द्वारा पृथक किया जाता है उसकी छेदना संज्ञा है। ब्राह्मण सोऽप्यस्तु विद्याचरणसंपन्न इति। -सम्भावना मात्रसे कही गयी बातको सामान्य नियम बनाकर वक्ताके वचनोंके निषेध करनेको सामान्यछल कहते हैं। जैसे 'आश्चर्य है, कि यह ब्राह्मण विद्या और आचरणसे युक्त है,' यह कहकर कोई पुरुष ब्राह्मण की स्तुति करता है, इसपर कोई दूसरा पुरुष कहता है कि विद्या और आचरणका ब्राह्मण में होना स्वाभाविक है। यहाँ यद्यपि ब्राह्मणत्वका सम्भाबनामात्रसे कथन किया गया है, फिर भी छलवादी ब्राह्मण में विद्या और आचरणके होनेके सामान्य नियम बना करके कहता है, कि यदि ब्राह्मणमे विद्या और आचरणका होना स्वाभाविक है, तो विद्या और आचरण वात्य ( पतित ) ब्राह्मणमें भी होना चाहिए, क्योंकि व्रात्यब्राह्मण भी ब्राह्मण है । (श्लो. बा.४/न्या. २६६/४४५/४), (सि. वि./ वृ//५/२/३१७/१६) ५. उपचारछलका लक्षण न्या. सू./म्.१-२/१४/५१ धर्म विकल्पनिर्देशेऽर्थसद्भावप्रतिषेध उपचार च्छलम् ॥१४॥ न्या. सू./भा./१-२/१४/५१/७ यथा मञ्चा' क्रोशन्तीति अर्थ सद्भावेन प्रतिषेध' । मञ्चस्था. पुरुषाः क्रोशन्ति न तु मञ्चा' क्रोशन्ति । = उपचार अर्थमे मुख्य अर्थका निषेध करके वक्ताके वचनोंको निषेध करना उपचार छल है। जैसे कोई कहे, कि मंच रोते हैं, तो छलवादी उत्तर देता है, कहीं मंच जैसे अचेतन पदार्थ भी रो सकते हैं, अतएव यह कहना चाहिए कि मंचपर बैठे हुए आदमी रोते हैं। (श्लो. वा. ४/ न्या. ३०२/४४८/२१), (सि. वि./वृ,/५/२/३१७/२६) छहढाला-५० दौलतराम (ई १७६८-१८६६) कृत तात्त्विक रचना (दे. दौलतराम)। छहार दशमीव्रत-बहार दशमिवत इह परकार। छह सुपात्रको देय आहार। (यह बत श्वेताम्बर आम्नायमें प्रचलित है) । (बत विधान संग्रह/पृ० १३०), (नवलसाह कृत वर्द्धमान पुराण) छाया-(रा. वा./५/२४/१६-१७/४८४/8)...प्रकाशावरणं शरीरादि यस्या निमित्तं भवति सा छाया ।१६। सा छाया द्वेधा व्यवतिष्ठते। कुतः। तद्वर्णादिविकारात प्रतिबिम्बमात्रग्रहणाच्च । आदर्शतलादिषु प्रसन्नद्रव्येषु मुखादिच्छाया तद्वर्णादिपरिणता उपलभ्यते। इतरत्र प्रतिबिम्बमात्रमेव । -प्रकाशके आवरणभूत शरीर आदिसे छाया होती है। छाया दो प्रकारकी है-दर्पण आदि स्वच्छ द्रव्योमे आदर्शके रंग आदिकी तरह मुखादिका दिखना तद्वर्ण परिणता छाया है, तथा अन्यत्र प्रतिबिम्बमात्र होती है। (स सि २/२४/२६६/२), (त. सा./३/६९); (द्र. सं./टी./१६/५३/१०) छाया संक्रामिणी विद्या-दे०विद्या।। छिन्ननिमित्त ज्ञान-दे निमित्त२। छूआछूत-(१) सूतकपातक विचार-(दे० सूतक ), (२) जुगुप्सा भावका विधि निषेध-(दे० सूतक)। (३) शूद्रादि विचार-(दे० वर्ण व्यवस्था)। छेद-१ Section. (ज. प./प्र. १०६ ) २. छेद सामान्यका लक्षण स. सि /७/२५/३६६/३ कर्ण नासिकादीनामवयवानामपनयनं छेद' । कान और नाक आदि अवयवोंका भेदना छेद है। (रा. वा/७/ २५/३/५५३/२०) ३. धर्मसम्बन्धी छेदका लक्षण रमा. प./३२/३४२/२१ पर उद्धृत हरिभद्रसूरिकृत पञ्चवस्तुक चतुर्थद्वारका श्ल।. नं.-"बज्माणुट्ठाणेणं जेण ण बाहिज्जए तयं णियमा। २. छेदनाके भेद ष. खं. १४/५,६/सू. ५१३-५१४/४३५ छेदणा पुण दसविहा ।।१३। णाम ट्ठवणा दवियं सरीरबंधणगुणप्पदेसा य । वल्लरि अणुत्तडेसु य उप्पइया पण्णभावे य ५१४। -छेदना दस प्रकार की है।५१३-नामछेदना, स्थापनाछेदना, द्रव्यछेदना. शरीरबन्धनगुण छेदना, प्रदेशछेदना, बल्लरिछेदना, अणुछेदना, तटछेदना उत्पातछेदना, और प्रज्ञाभावछेदना ।५१४॥ ३. छेदनाके भेदोंके लक्षण घ. १४/५,६,५१४/४३४/११ तत्थ सचित्त-अचित्तदव्याणि अण्णे हितो पुध काऊण सण्णा जाणावेदि त्ति णामच्छेदणावणा दुविहा सब्भावासब्भाव ठवणभेदेण । सा वि छेदणा होदि, ताए अण्णेसि दव्वाण सरूवावगमादो। दवियं णाम उप्पादादिभंगलवरवणं। तं पि छेदणा होदि, दव्वादो दव्वंतरस्स परिच्छेददं सणादो। ण च एसो असिद्धो दंडादो जायणादीणं परिच्छेदुवलं भादो। पंचण सरीराणं बंधणगुणो वि छेदणाणाम, पण्णाए छिजमाणसादो, अविभागपडिच्छेदपमाणेण छिज्जमाणत्तादो वा। पदेसो वा छेदणा होदि, उड्ढाहोमज्झादिपदेसेहि सव्वदवाणं छेददसणादो। कुडारादीहि अडइरुक्खादिखंडणं वल्लरिच्छेदो णाम। परमाणुगदएगादिदव्वसंखाए अण्णेसि कवाण संखावगमो अणुच्छेदो णाम। अथवा पोग्गलागासादीणं णिविभागच्छेदो अणुच्छेदो णाम । दो हि वि तडेहि णदीपमाणपरिच्छेदो अथवादव्वाण सममेव छेदो तडच्छेदो णाम । रत्तीए इंदाउहधूमकेउआदीणमुप्पत्ती पडिमारोहो भूमिकप-रुहिरबरिसादओ च उप्पाइया छेदणा णाम, एतैरुत्पात राष्ट्रभड्ग नृपपातादितर्कणात् । मदिसुदओहिमणपज्जवकेवलणाणेहि छद्दव्वावगमो पपणभावच्छेदणा णाम । - १. सचित्त और अचित्त द्रव्योंको अन्य द्रव्योंसे पृथक करके जो संज्ञाका ज्ञान कराती है वह नाम छेदना है। २. स्थापना दो प्रकारकी है-सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना । वह भी छेदना है, क्योंकि, उस द्वारा अन्य द्रव्यों के स्वरूपका ज्ञान होता है। ३. जो उत्पाद स्थिति और व्यय लक्षणवाला है वह द्रव्य कहलाता है। वह भी छेदना है, क्योकि एक द्रव्यसे दूसरे द्रव्यका ज्ञान होता हुआ देखा जाता है । यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, दण्डसे योजनादिका परि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेद प्रायश्चित्त ३०७ ज्ञान होता हुआ उपलब्ध होता है । ४. पाँच शरीरोंका बन्धुनगुण भी छेदना है, क्योंकि, उसका प्रज्ञा द्वारा छेद किया जाता है। या अविभागप्रतिच्छेद के प्रमाणसे उसका छेद किया जाता है । ५. प्रदेश भी छेदना होती है, क्योंकि, ऊर्ध्व प्रदेश, अथ प्रदेश और मध्य प्रदेश आदि प्रदेशोके द्वारा सब द्रव्योंका छेद देखा जाता है । ६. कुठार आदि द्वारा जंगल के वृक्ष आदिका खण्ड करना वल्लरिछेदना कहलाती है।७ परमाणुगत एक आदि अन्योंकी संख्याद्वारा अन्य द्रव्योकी संख्याका ज्ञान होना अणुच्छेदना कहलाती है । अथवा पुद्गल और आकाश आदि निर्विभाग छेदका नाम अणुच्छेदना है। दोनों ही तटोके द्वारा नदीके परिमाणका परिच्छेद करना अथवा द्रव्यों का स्वयं ही छेद होना तटच्छेदना है . रात्रिमे इन्द्रधनुष और धूमकेतु आदी उत्पत्ति तथा प्रतिमारोध, भूमिकम्प और रुधिरकी वर्षा आदि उत्पादछेदना है, क्योकि इन उत्पातो के द्वारा राष्ट्रभंग और राजाका पतन आदिका अनुमान किया जाता है । १०. मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिलान, मन:पर्ययज्ञान यौर केवलज्ञानके द्वारा छह द्रव्योंका ज्ञान होना प्रज्ञाभावछेदना है । • ४. तट वल्लरि व अणुच्छेदना में अन्तर घ.१४/२-६-२१४/४३६/७ पा च पवेच्छेने एसो पददि रास्स बुद्धिकज्ज ताण बसरिच्छेदे पददि, तस्स पउरूसेयतादी गा पददि, परमाणुपज्जं तच्छेदाभावादो। इस (तटच्छेदना) का प्रदेशवेदने अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि वह बुद्धिका कार्य है। बल्ल रिच्छेदनामे भी अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि वह पौरुषेय होता है । अणुच्छेद में भी अन्तर्भाव नहीं होता, क्योकि इसका परमाणु पर्यत छेद नहीं होता । छेद प्रायश्चित्त-- १. छेद प्रायश्चित्तका लक्षण . स.सि /१/२२/४४०/६ दिवसपक्षमासादिना प्रवर्ज्याहापनं छेद = दिवस, पक्ष, महीना आदिकी प्रवज्याका छेद करना छेदप्रायश्चित्त है । (रा.वा / १/२२/८/६२१/३०): (भ.आ /वि./६/३२/२१), (त.सा./७/२६), (चा. सा./१४३ / १) | घ. १३/४.४.२६/६९/८ दिवस-पल मास-उद्-अ-संररादिपरिया घेवून इतिपरियायादो हेट्मिभूमी उन दो शाम पायछित्तं । = = एक दिन, एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, एक अयन और एक वर्ष आदि तककी दीक्षा पर्यायका छेद कर इच्छित पर्याय नीचेकी भूमिकामे स्थापित करना छेद नामका प्रायश्चित्त है । २. छेद प्रायश्चित्तके अतिचार भ.आ./वि./४००/००७/२४ एवं स्थाविचार म्यूनो जातोऽहमिति संक्लेश; | = = 'मै न्यून हो गया हूँ' ऐसा मनमें संक्लेश करना छेद प्रायश्चित है। ३. छेद प्रायश्चित्त किसको किस अपराध में दिया जाता है - दे० प्रायश्चित्त / ४ | छेव विधि Mediation Methiod ( प/प्र.१०६). छेदोपस्थापक यो. सा / अ. ८/६ प्रवज्यादायकः सूरि संयतानां निगीर्यते । निर्यापकाः पुन शेषाश्छेदोपस्थापका मता ॥ ६॥ जो मुनि इतर मुनियोको दीक्षा प्रदान करता है वह आचार्य कहा जाता है और शेष मुनि छेदोपस्थापक कहे जाते है (विशेष देखो छेदोपस्थापना) (दे निर्मापक / २ ). छेदोपस्थापना छेदोपस्थापनापि दीक्षा धारण करते समय सामु पूर्णतया साम्य रहनेको प्रतिज्ञा करता है, परन्तु पूर्ण निर्मिताने अधिक देर टिकने में समर्थ न होनेपर व्रत समिति गुति आदि रूप व्यवहार चारित्र तथा कियानुानो में अपने को स्थापित करता है। पुनः कुछ समय पश्चात् अवकाश पाकर साम्यतामें पहुंच जाता है और पुनः परिणामोंके गिरनेपर विकल्पोंमें स्थित होता है। जबतक चारित्रमोहका उपशम या क्षय नहीं करता तबतक इसी प्रकार झूले में झूलता रहता है। तहाँ निर्विकल्प व साम्य चारित्रका नाम सामायिक या निक्षय चारित्र है, और विकल्पात्मक पारिका नाम छेदोपस्थापना या व्यवहार चारित्र है । . १. छेदोपस्थापना चारित्रका लक्षण प्र. सा // २०१ ए खलु मूलगुणा समगाणं जिगनरेहि पण्णत्ता ते पत्तो समणो छेदोवावगो होदि । २०६१ = ये ( व्रत समिति आदि ) वास्तव में श्रमणो के मूलगुण हैं, उनमें प्राप्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक है ( यो सा/अ/८/८/ ). पं.सं./१/१२० ण य परिया पोरानं जो हमे अप्पा पंचमे धम्मे सो छेदोवट्ठागो जीवो । १३०| = सावद्य पर्यायरूप पुरानी पर्यायको छेदकर अहिसादि पाँच प्रकारके यमरूप धर्ममें अपनी आत्माको स्थापित करना छेदोपस्थापना संयम है। ( ध.१/१/१/१२३ । गा०] १०० / ३७२) (. सं. सं. १/२४०) (गो. जी // ४०९/८८०). स.सि /४/११/४३६/७ प्रभावकृतानर्थ प्रबन्धमितीचे सम्यक्प्रतिक्रिया दोस्थापनापनिवृत्ति प्रमाद अनर्थप्रबन्धका अर्थात् हिसादिक अनुष्ठानका वित्तोष अर्थात सर्वथा या करनेपर जो भले प्रकार प्रतिक्रिया अर्थात् पुनः व्रतोंका ग्रहण होता है वह दोपस्थापना चारित्र है. अपना विकल्पोंकी निवृत्तिका नामोपस्थापना चारित्र है (रा. २/६/१८/६०/६१०/११) (चा. सा/ ८३/४ ) (गो० क / जी. प्र/२४७/७९४/4). यो.सा./यो / १०१ हिसादि उपरिहारु करि जो अप्पा हु ठवेइ । सो बियऊ चारितु मुनि जो पंचमग मे २०११ हिसाविकका याग कर जो आत्माको स्थिर करता है, उसे दूसरा ( छेदोपस्थापना ) समझो। यह पचम गतिको ले जाने वाला है। घ. १/१.१.१२३/३००/१] सस्यैकस्य तस्य द्वित्र्यादिभेदेनोपस्थापन व्रतसमारोपणं छेदोपस्थापनशुद्धिसंयमः = उस एक ( सामायिक ) व्रतका छेद करनेको अर्थात् दो तीन आदिके भेदसे उपस्थापन करनेको अर्थात् प्रतीके आरोपण करनेको धेोपस्थापना-वृद्धि-संयम कहते है। 1 तसा / ४/४६ यत्र हिसादिभेदेन स्याग सायकर्मण शुद्धि छेदोपस्थापनं हि तत् |४६| = जहॉपर हिंसा चोरी इत्यादि विशेष रूपसे भेदपूर्वक पाप क्रियाका त्याग किया जाता है और व्रत भंग हो जानेपर उसकी प्रात्तादि ) शुद्धि की जाती है उसको छेदो पस्थापना कहते है । प्र. सात / २०१ मा निमावि संयमाथि रुचेनान स्तनपानाति तदा केवलकल्याणमात्रार्थिनः कुण्डवसयाङ्गुलीयादिपरिग्रह किल श्रेयान् न पुनः सर्वथा कल्याणलाभ एवेति संप्रधार्य विकल्पेनात्मानमुपस्थापयन् पापको भवति ।जब ( श्रमण ) निर्विकल्प सामायिक संयममें आरूढता के कारण जिसमें ल्पिक अभ्यास (सेवन) नहीं है ऐसी दशा च्युत होता है. राम केवल सुवर्णमात्र के अर्थीको कुण्डल कंकण अगूठी आदिको ग्रहग करना ( भी ) श्रेय हैं, किन्तु ऐसा नहीं है कि ( कुण्डल इत्यादिका ग्रहण कभी न करके ) सर्वथा सुवर्णकी ही प्राप्ति करना श्रेय है, ऐसा विचारे । इसी प्रकार वह श्रमण मूलगुणोमे विकल्परूपसे (भेदरूपसे ) अपनेको स्थापित करता हुआ छेदोपस्थापक होता है (अन० प ४/१७६/५०६). जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदोपस्थापना ३०८ छेदोपस्थापना द्र सं/टी/३५/१४७/८ अथ छेदोपस्थापनं कथयति-यदा युगपत्समस्तविकल्पत्यागरूपे परमसामायिके स्थातुमशक्तोऽयं जीवस्तदा-पञ्चप्रकारविकल्पभेदेन व्रतच्छेदेन रागादिविकल्परूपसावद्यभ्यो विवयं निजशुद्धात्मन्यात्मानमुपस्थापयतीति छेदोपस्थापनम्। अथवा छेदे बतखण्डे सति निर्विकारसंबित्तिरूपनिश्चयप्रायश्चित्तेन तत्साधकबहिरङ्गव्यवहारप्रायश्चित्तेन वा स्वात्मन्युपस्थापनं छेदोपस्थानमिति । - अब छेदोपस्थापनाका कथन करते है-जब एक ही समय समस्त विकल्पोके त्यागरूप परम सामायिकमें, स्थित होने में यह जीव असमर्थ होता है, तब विकल्प भेदसे पाँच बतोंका छेदन होनेसे ( अर्थात् एक सामायिक व्रतका पाँच व्रतरूपसे भेद हो जानेके कारण ) रागादि विकल्परूप सावधोसे अपने आपको छडाकर निज शुद्धात्मामें उपस्थापन करना; -अथवा छेद यानी व्रतका भंग होनेपर निधिकार निज आत्मानुभवरूप निश्चय प्रायश्चित्तके बलसे अथवा व्यवहार प्रायश्चित्तसे जो निज आत्मामे स्थित होना सो छेदोपस्थापना है। चाहिए और यदि पाँच यमरूप है तो छेदोपस्थापनामें अन्तर्भाव होना चाहिए। संयमको धारण करनेवाले पुरुषके द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक नयकी अपेक्षा इन दोनों संयमोसे भिन्न तीसरे संयमको सम्भावना तो है नहीं, इसलिए परिहार शुद्धि संयम नहीं बन सकता। उत्तर--नहीं, क्योकि, परिहार ऋद्धि रूप अतिशयकी उत्पत्तिकी अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापनासे परिहारविशुद्धि संयमका कथंचित् भेद है। प्रश्न-सामायिक और छेदोपस्थापनारूप अवस्थाका त्याग न करते हुए ही परिहारशुद्धिरूप पर्यायसे यह जीव परिणत होता है, इसलिए सामायिक और छेदोपस्थापनासे भिन्न यह संयय नही हो सकता। उत्तर-नहीं, क्योकि, पहिले अविद्यमान परन्तु पीछेसे उत्पन्न हुई परिहार ऋद्धिकी अपेक्षा उन दोनों संयमोसे इसका भेद है, अत' यह बात निश्चित हो जाती है कि सामायिक और छेदोपस्थापनासे परिहारशुद्धि संयम भिन्न है। १. सामायिक छेदोपस्थापना व सूक्ष्मसाम्परायमें कथंचित् भेद व अभेद २. सामायिक व छेदोपस्थापनामें कथंचित् भेद व अभेद ध.१/१,९,१२३४३७०/२. सकलवतानामेकत्वमापाद्य एकयमोपादानाद् द्रव्याथिकनय. सामायिकशुद्धिसंयमः । तदेवैकं बतं पञ्चधा बहुधा वा विपाटय धारणात् पर्यायार्थिकनयः छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयम' । निशितबुद्धिजनानुग्रहार्थ द्रव्याथिकनयादेशना, मन्दधियामनुग्रहार्थ पर्यायाथिकनयादेशना । ततो नानयोः संयमयोरनुष्ठानकृतो विशेषोऽस्तीति द्वितयदेशेनानुगृहीत एक एव संयम इति चेष दोषः, इष्टत्वात् । सम्पूर्ण बतोको सामान्यकी अपेक्षा एक मानकर एक यमको ग्रहण करनेवाला होनेसे सामायिक-शुद्धिसंयम द्रव्यार्थिकनयरूप है, और उसी एक व्रतके पाँच अथवा अनेक प्रकारके भेद करके धारण करनेवाला होनेसे छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयम पर्यायाथिकनयरूप है। यहॉपर तीक्ष्ण बुद्धि मनुष्योके अनुग्रहके लिए द्रव्यार्थिक नयका उपदेश दिया गया है ओर मन्द बुद्धि प्राणियों का अनुग्रह करनेके लिए पर्यायाथिक नयका उपदेश दिया गया है। इसलिए इन दोनों संयमोमें अनुष्ठान कृत कोई विशेषता नहीं है । प्रश्न-तत्र तो उपदेशकी अपेक्षा संयमको भले ही दो प्रकारका कह लिया जावे पर वास्तव में तो बह एक ही है ! उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह कथन हमे इष्ट ही है। (देखो आगे नं०४ भी); (स सि/७/१/३४३/५); (रा. वा/७/१/४/५३४/१२) (ध.३/१,२,१४६/४४७/७)। ध. ३/१२.१४६/४४६/१ तदो जे सामाझ्यसुद्धिसंजदा ते चेय छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा होति । जे छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा ते चेय सामाइयसुद्धिसंजदा होति त्ति । - इसलिए जो सामायिकशुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत होते हैं। तथा जो छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही सामायिकशुद्धिसंयत होते हैं । ३. सामायिक व छेदोपस्थापनाका परिहारविशुद्धिसे कथंचित् भेद ध १/१,१,१२६/३७५/७ परिहारशुद्धिसंयत किमु एकयम उत पञ्चयम इति । किं चातो यद्येकयम सामायिकेऽन्तर्भवति । अथ यदि पंचयमः छेदोपस्थापनेऽन्तर्भवति । न च संयममादधानस्य पुरुषस्य द्रव्यपर्यायाथिकाभ्या व्यतिरिक्तस्यास्ति संभवस्ततो न परिहारसंयमोऽस्तोति न, परिहारर्द्धय तिशयोत्पत्त्यपेक्षया ताभ्यामस्य कथंचिदभेदात। तद्पापरित्यागेनैव परिहारद्धिपर्यायेण परिणतत्वान्न ताभ्यामन्योऽन्यं संयम इति चेन्न, प्रागविद्यमानपरिहारर्द्धयपेक्षया ताभ्यामस्य भेदात। ततः स्थितमेतत्ताभ्यामन्यः परिहारसंयमः इति । -प्रश्न-परिहारशुद्धि सयम क्या एक यमरूप है या पॉच यमरूप ? इनमेंसे यदि एक यमरूप है तो उसका सामायिकमे अन्तर्भाव होना ध. १११,१,१२७/३७६/७ सूक्ष्मसापरायः किमु एकयम उत पञ्चयम इति । किंचातो यद्य कयमः पञ्चयमान्न मुक्तिरुपशमश्रेण्यारोहणं वा सूक्ष्मसापरायगुणप्राप्तिमन्तरेण तदुदयाभावात् । अथ पञ्चयमः एकयमानां पूर्वोक्तदोषौ समाढौकेते। अथोभययमः एकयमपञ्चयमभेदेन सूक्ष्मसापरायाणां द्वैविध्यमापतेदिति । नाद्यौ विकल्पावनभ्युपगमात् । न तृतीयविकल्पोक्तदोषः संभवति पञ्चै कयमभेदेन संयमभेदामावात् । यद्य कयमपञ्चयमौ संयमस्य न्यूनाधिकभावस्य निबन्धनाबेवाभविष्यतां संयमभेदोऽप्यभविष्यत् । न चैवं संयम प्रतिद्वयोरविशेषात् । ततो न सूक्ष्मसांगरायसंयमस्य तद्वद्वारेण द्वैविध्यमिति । तद्वारेण संयमस्य द्वैविध्याभावे पञ्चविधसंयमोपदेश कथं घटत इति चेन्मापटिष्ट । तर्हि कतिविधः संयमः । चतुर्विधः पञ्चमस्य संयमस्यानुपलम्भात् । -प्रश्न-सूक्ष्मसापरायसंयम क्या एक यमरूप ( सामायिक रूप) है अथवा पचयमरूप (छेदोपस्थापनारूप) इनमेसे यदि एकयमरूप है तो पंचयमरूप छेदोपस्थापनासे मुक्ति अथवा उपशमश्रेणीका आरोहण नहीं बन सकता है, क्योंकि, सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानकी प्राप्तिके विना ये दोनों ही बातें नहीं बन सकेंगी। यदि यह पंचयमरूप है तो एकयमरूप सामायिकसंयमको धारण करनेवाले जीवो के पूर्वोक्त दोनो दोष प्राप्त होते है। यदि इसे उभय यमरूप मानते हैं तो एक यम और पंचयमके भेदसे इसके दो भेद हो जायेगे? उत्तर-आदिके दो विकल्प तो ठीक नहीं है, क्योंकि, वैसा हमने माना नहीं है ( अर्थाद वह केवल एक यमरूप या केवल पंचयमरूप नहीं है)। इसी प्रकार तीसरे विकल्पमे दिया गया दोष भी सम्भव नहीं, क्योंकि, पंचयम और एकयमके भेदसे संयममें कोई भेद ही सम्भव नहीं है। यदि एकयम और पंचयम. संयमके न्यूनाधिकभावके कारण होते तो संयममें भेद भी हो जाता। परन्तु ऐसा तो है, नहीं, क्योंकि, सयमके प्रति दोनोमें कोई विशेषता नहीं है। अत. सूक्ष्मसांपराय संयमके उन दोनों (एकयमरूप सामायिक तथा पंचयमरूप छेदोपस्थापना) की अपेक्षा दो भेद नही हो सकते। प्रश्न-तो पाँच प्रकारके संयमका उपदेश कैसे बन सकता है। उत्तर-यदि पाँच प्रकारका संयम घटित नहीं होता है तो मत होओ। प्रश्न-तो संयम कितने प्रकारका है। उत्तर-संयम चार प्रकारका है, क्योकि पाँचवॉ संयम पाया ही नहीं जाता है। बिशेषार्थ-सामायिक और छेदोपस्थापना स यममें विवक्षा भेदसे ही भेद है, वास्तवमें नहीं. अतः वे दोनों मिलकर एक और शेष तीन (परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथारख्यात) इस प्रकार संयम चार प्रकारके होते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदोपस्थापना ३०९ जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति ५. सामायिक व छेदोपस्थापनाका स्वामित्व सामान्य ष. ख १/१,१/सूत्र १२५/३७४ सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धि-संजदा पमत्तसंजद-प्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति । सामायिक और छेदोपस्थापना रूप शुद्धिको प्राप्त संयत जीव प्रमत्तसयतसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं । (गो. जी./म्./४६७/८७८, ६८६/११२८ ) ( द्र. सं/ टी./३/१४८/8) म. पु/७४/३१४ चतुर्थज्ञाननेत्रस्य निसर्गबलशालिनः। तस्याद्यमेव चारित्रं द्वितीयं तु प्रमादिनाम् ।१४। मन'पर्ययज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले और बलसे सुशोभित उन भगवान्के पहिला सामायिक चारित्र ही था, क्योंकि दूसरा छेदोपस्थापना चारित्र प्रमादी जोवोके ही होता है । ( म. पु/२०/१७०-१७२ )। (देखो अगला शीर्षक) ( उत्तम संहननधारी जिनकल्पी मुनियोको सामायिक चारित्र होता है तथाहीनसंहनन वाले स्थविरकल्पीमुनियोंको छेदोपस्थापना)। ८. अन्य सम्बन्धित विषय १. दोनोंमे क्षयोपशम ब उपशम भावके अस्तित्व सम्बन्धी शंका । -(दे० संयत/२)। २. इस संयममें आयके अनुसार ही व्यय होता है। __ -(दे० मार्गणा)। ३. छेदोपरथापनामें गुणस्थान मार्गणास्थान आदिके अस्तित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ। -(दे० सत) । ४. सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। -- दे वह वह नाम) । ५. इस संयममे कर्मोके बन्ध उदय सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ। -(दे० वह वह नाम)। ६. कालकी अपेक्षा सामायिक व छेदोपस्थापनाका स्वामित्व जंघाचारण-दे० ऋद्धि/४ जंतुम.पु/२४/१०३.१०५ जीन प्राणी च जन्तुश्च क्षेत्रज्ञ पुरुषस्तथा । पुमानात्मान्तरामा चज्ञो ज्ञानीत्यस्य पर्ययाः ११०३। जन्तुश्च जन्मभाक् ।१०।-जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमार, आत्मा, अन्तरारमा, ज्ञ और ज्ञानी ये सब जीवके पर्यायवाचक नाम है ।१०३। क्योकि यह बार बार अनेक जन्म धारण करता है, इसलिए इसे जन्तु कहते हैं ॥१०॥ स सा./२/१० भव्याभव्यविभेदेन द्विविधाः सन्ति जन्तवः । भव्य और अभव्यके भेदसे जन्तु या जीव दो प्रकारके है। गो.जी./जी.प्र./३६५/७७६/११ चतुर्गतिसंसारे नानायोनिषु जायत इति जन्तुःसंसारी इत्यर्थ: । चतुर्गतिरूप संसारकी नाना योनियोमें जन्म धारण करता है, इसलिए संसारी जीवको जन्तु कहा जाता है। ध.१/१,१,२/१२०/२)। जंबदीव पण्णत्ति-१. आ. पद्मनन्दि नं.४ (ई०६७७-१०४३) द्वारा रचित, लोकस्वरूप प्रतिपादक, २४२६ प्राकृत गाथाबद्ध, १३ अधिकारो युक्त ग्रन्थ । (जै./२/७५, ७६) । मू.आ./५३३-५३५ बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उव दिसति । छेदुवठ्ठावणिय पुण भयवं उसहो य वीरो य ।५३३। आदीए दुधिसोधण णिहणे तह सुट्छु दुरणुपाले य। पुरिमा य पच्छिमा वि हु कप्पाकप्पण जाणंति ।५३५॥ =अजितनाथको आदि लेकर भगवान् पार्श्वनाथ पर्यंत बावीस तीर्थंकर सामायिक संयमका उपदेश करते हैं और भगवान् ऋषभदेव तथा महावीर स्वामी छेदोपस्थापना संययका उपदेश करते है ।५३३। आदि तीर्थ में शिष्य सरलस्वभावी होनेसे दुःख कर शुद्ध किये जा सकते हैं। इसी तरह अन्तके तीर्थ में शिष्य कुटिल स्वभावी होनेसे दुखकर पालन कर सकते हैं। जिस कारण पूर्व कालके शिष्य और पिछले कालके शिष्य प्रगटरीतिसे योग्य अयोग्य नही जानते इसी कारण अन्त तीर्थ मे छेदोपस्थापनाका उपदेश है ।५३५। ( अन.घ/४/८/६१७ ) ( और भी दे प्रतिक्रमण/२) गो.क /जो.प्र./५४७/७१४/५ तत एव श्रीवर्द्ध मानस्वामिना प्रोक्तनोत्तमसंहननजिनकल्पाचरणपरिणतेषु तदेकधा चारित्रं । पञ्चमकालस्थविरकल्पाल्पसंहननसंयमिषु त्रयोदशधोक्तं =ताहीत श्रीवर्द्धमान स्वामी करि पूर्वले उत्तम सहननके धारी जिनकल्प आचरणरूप परिणए मुनि तिनके सो सामायिकरूप एक प्रकार ही चारित्र कहा है। बहुरि पंचमकाल विषै स्थविरकलपी हीनसंहनन के धारी ति निको सो चारित्र तेरह प्रकार कह्या है। दे० निर्यापक/१ में भ० आ././६७१ कालानुसार चारित्रमें हीनाधिकता आती रहती है। ७. जघन्य व उत्कृष्ट लब्धिकी अपेक्षा सामायिक छेदोपस्थापनाका स्वामित्व ध.७/२,११,१६८/०६४/३ एवं सव्वजण्णं सामाइयच्छेदोवछावणसुद्धिसंजमस्स लट्ठिाणं कस्स होदि मिच्छत्तं पडिबज्जमाणसंजदस्स चरिम समए। घ.७/२,११,१७१/५६६/८ एसा कस्स होदि । चरिमसमयअणियट्टिस्स ।। प्रश्न--सामायिक-छेदोपस्थापना-शुद्धिसयमका यह सर्व जघन्य लब्धिस्थान किसके होता है ! उत्तर-यह स्थान मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवालेसंयतके अन्तिम समयमें होता है। प्रश्न-(सामायिक-छेदोपस्थापना शुद्धिसयमकी) यह ( उत्कृष्ट ) लब्धि किसके होती है । उत्तर-अन्तिम समयवर्ती अनिवृत्तिकरणके होती है। दोव संघायणो-श्वेताम्बराचार्य श्रीहरिभद्रसूरि (ई०४८०५२८) कृत, लोकस्वरूप प्रतिपादक, प्राकृत गाथाबद्ध एक ग्रन्थ । जंबूद्वीप-१. यह मध्यलोकका प्रथम द्वीप है (देखो लोक/३/१)1 २. जम्बू द्वीप नामकी सार्थकता स.सि./३/६/२१२/८ कोऽसौ । जम्बूद्वीप। कथं जम्बूद्वीप' । जम्बूवृक्षोपलक्षितत्वात् । उत्तरकुरूणां मध्ये जवृक्षोऽनादिनिधनः पृथिवीपरिणामोऽकृत्रिमः सपरिवारस्तदुपलक्षितोऽयं द्वीपः । प्रश्न-इसे जम्बूद्वीप क्यो कहते है। उत्तर-उत्तरकुरुमे अनादिनिधन पृथिवीमयी अकृत्रिम और परिवार वृक्षोंसे युक्त जम्बूवृक्ष है, जिसके कारण यह जम्बूद्वीप कहलाता है। (रावा./३/७/१/१६६/१४)। जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति-१. अंग श्रुतज्ञानका एक भेद-दे० श्रुतज्ञान/III २. आ. अमितगति (ई०६६३-१०१६) द्वारा रचित, लोकस्वरूप जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूद्वीप समास जन्म ३१० जटाय-(प. पु./४१(श्लोक न०) सीता द्वारा बनमें श्री सुगुप्ति मुनि राजके आहारदानके अवसरपर (२४) वृक्षपर बैठे गृद्ध पक्षीको अपने पूर्व भव स्मरण हो आये (३३) भक्तिसे आकर वह मुनिराजके चरणोंमे गिर पड़ा और उनके चरण प्रक्षालनका जल पीने लगा।४२-४३। सीताके पूछने पर मुनिराजने उसके पूर्व भव कहे। और पक्षीको उपदेश दिया ।१४६। तदनन्तर मुनिराजके आदेशानुसार रामने उसका पालन किया ।१५० मुनिराजके प्रतापसे उसका शरीर स्वर्णमय बन गया और उसमें से किरणें निकलने लगीं। इससे उसका नाम जटायु पड गया ।१६४। फिर रावण द्वारा सीता हरणके अवसर पर सीताकी सहायता करते हुए रावण द्वारा शक्तिसे मारा गया। ६५-८४। जटासिंहनन्दि- जटासिंहनन्दिका दूसरा नाम जटाचार्य भी था। आपके सरपर अवश्य हो लम्बी लम्बी जटाएँ रही होंगी, जिससे कि इनका नाम जटासिह पड़ा था। आप 'कोषण' देशके रहने वाले थे। वहाँ 'पल्लव' नामकी 'गुण्ड' नामकी पहाडीपर आपके चरण बने हुए है। आप अपने समयमें बहुत प्रसिद्ध विरागी थे। इसीलिए आपका स्मरण जिनसेन नयसेन आदि, अनेको प्राचीन आचार्यों ने किया है। कृति-वराग चारित्र । समय-कवि भारवी (ई. श. ७) के पश्चात और उद्योतन सूरि (ई श.) के पूर्व । अत ई. श ७-८ के मध्य । (ती./२/२६२-२६४)। प्रतिपादक, संस्कृत श्लोकबद्ध, एक ग्रन्थ। ३. आ. शक्तिकुमार (ई० श.११) द्वारा रचित लोकस्वरूप प्रतिपादक, संस्कृतश्लोक बद्ध एक ग्रन्थ। जंबद्वीप समास-आ. उमास्वामी ( ई० श० १-२) कृत, लोक स्वरूप प्रतिपादक, संस्कृत गद्यमें रचित एक ग्रन्थ । जंबमति-भरतक्षेत्र आर्यखण्डकी नदी-दे० मनुष्य/४। जंबवक्ष-१. जम्बूद्वीपके उत्तरकुरुमे स्थित एक अनादिनिधन वृक्ष तथा इसका परिवार । दे लोक/३/१३ । २. यह वृक्ष पृथिवीकायिक है बनस्पतिकायिक नहीं-दे० वृक्ष । जंबुशंकपुर-विजयाधको दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । जंबस्वामी-(म पु./७६/श्लोक नं०) पूर्वभवमें ब्रह्मस्वर्गका इन्द्र (३१) वर्तमान भवमे सेठ अर्हदासका। माता पिता भोगो में फंसानेका प्रयत्न करते है, पर स्वभावसे ही विरक्त होनेके कारण भोगोंकी बजाय जिनदीक्षाको धारण कर अन्तिम केवली हुए (३६-१२२ ) । श्रुतावतारकी पट्टावलीके अनुसार आप भगवान् वीरके पश्चात तृतीय केवली हुए । समय-वी. नि. २४-६२ (ई० पू०५०३-४६५।-दे० इतिहास/४/४ जंबस्वामी चरित्र-पं० राजमल्ल (ई० १५७५-१५६३) द्वारा रचित संस्कृत काव्य । २४०० पद १३ सर्ग । (ती/४/७३)। जगजीवन-बादशाहजहाँगीरके समयमें हुएथे। वि.१७०१ में आपने ५० बनारसीदासजी बिखरी हुई कविताओंका'बनारसी विलास के रूपमें संग्रह किया है। समय-वि. श. १७ का अन्त १८ का पूर्व । (ती/४/२६०) जगत-लोक । जगत कुसुम-रुचक पर्वतका एक कूट ( दे० लोक ५/१३ / जगतघन-(जगत श्रेणी) =३४३ राजू । (रा. बा./३/३८/७/२०८/ २८) (ज.प्र./प्र /२०६) (ध, ४/पृ० १२/विशेषार्थ)। जगतप्रतर-(जगत श्रेणी)-४६ राजू World surface, a measure of area. ( रा. वा /३/३८/७/२०८/२८ ) (ज. प्र./प्र/२०६) (ध.४/पृ० ११/विशेषार्थ)। जगतश्रेणी-७ राजू प्रमाण लोक पंक्ति (ध.४/पृ० ११/विशेषार्थ ) (ज. प./प्र/२०६ )। रावा./३/३८/७/२०८/६६ धनांगुल ( अद्धापल्य/असं-वर्षके समय)। जगतसुंदरीप्रयोगमाला-आ. यशःकीति (ई० श० १३) को एक रचना। जगतंग-राष्ट्रकूटका राजा था । इसने अपने भाई इन्द्रराजको सहा यतासे कृष्णराज प्रथमके पुत्र श्रीवल्लभ ( गोविन्द द्वितीय) को युद्धमें परास्त करके श. सं ७१६ में उसका राज्य (बर्द्धमानपुरकी दक्षिण दिशा) छीन लिया था। इसीलिए इसका नाम गोविन्द तृतीय भी कहा जाता है। अमोघवर्ष प्रथम इसीका पुत्र था। राज्यकाल -श. सं. ७१६-७३५ ( ई० ७१४-८१३)-दे० इतिहास /२/५॥ (ष. खें /प्र. 1/A.N. up); (प.वं १/प्र.३६/H.L. Jain (आ. अनु/प्र. १०/A.N. up & H.L.Jain); (क. पा. १/प्र. ७३/पं० महेन्द्र ) (म.पु. प्र/प्र४१/५० पन्नालाल )। जाटल-म./७४/६८) एक ब्राह्मण पुत्र। यह वर्तमान भगवानका दूरवर्ती पूर्व भव है। देखो 'बर्द्धमान' । जड़-जीवको कथं चित् जड कहना-दे० जीव/१/३ । जतुकर्ण-एक विनयवादी-दे० वैनयिक । जनक-१-(प.पु /२६/१२१ ) मिथिलापुरीके राजा सीताके पिता। २-विदेहका राजा था। अपर नाम उग्रसेन था। समय-ई.पू. १४२० (भारती इतिहास/पु.१/पृ २८६) जनकपुरो-मिथिलापुरी जो अब दरभंगा ( विदेह ) में है । (म.पु / प्र.५०/पं. पन्नालाल )। जनपदध.१३/५.६,६३/३३५/५ देसस्स एगदेसो जणवओ णाम, जहा सरसेणगान्धार-कासी-अवन्ति-आदओ। -(अंग, बंग आदि देश कहलाते हैं ) देशका एकदेश जनपद कहलाता है। यथा-शूरसेन, गान्धार, काशी, अवन्ती आदि। जनपद सत्य-दे० सत्य/१। जन्नाचार्य-रत्न तथा पौन्न के समकक्ष कन्नड कवि । कृति अनन्त नाथ पुराण । समय-ई. ११७०-१२२५ (ती./४/३०६)। जन्म-जीवोंका जन्म तीन प्रकार माना गया है, गर्भज, संमूर्छन व उपपादज । तहाँ गर्भज भी तीन प्रकारका है जरायुज, अण्डज, पोतज। तहाँ मनुष्य तिर्यंचोंका जन्म गर्भज व संमूर्च्छन दो प्रकारमे होता है और देव नारकियोंका केवल उपपादज । माताके गर्भसे उत्पन्न होना गर्भज है, जो जेर सहित या अण्डे में उत्पन्न होते हैं वे जरायुज व अण्डज है, तथा जो उत्पन्न होते ही दौडने लगते है वे पोतज हैं। इधर-उधरसे कुछ परमाणुओंके मिश्रणसे जो स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं जैसे मेंढक, वे संमूर्च्छन हैं। देव नारको अपने उत्पत्ति स्थानमें इस प्रकार उत्पन्न होते हैं, मानो सोता हुआ व्यक्ति जाग गया हो, वह उपपादज जन्म है। सम्यग्दर्शन आदि गुण विशेषोंका अथवा नारक, तियचादि पर्याय विशेषों में व्यक्तिका जन्म के साथ क्या सम्बन्ध है वह भी इस अधिकारमें बताया गया है। जगदेकमल्ल-ई० १०२४ के एक राजा थे (सि. वि./प्र./०५/ शिलालेख । जगमोहनदास-धर्मरत्नोद्योतके कर्ता, आरा निवासीएक हिन्दी कवि । समय-लगभग वि १८६५ (ई. १८०७)। (ती/४/३०५)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म सूचीपत्र जन्म सामान्य निर्देश जन्मका लक्षण। योनि व कुल तथा जन्म व योनिमें अन्तर -दे० योनि, कुल । जन्मसे पहले जीव-प्रदेशोंके संकोचका नियम । विग्रह गतिमें हो जीवका जन्म नहीं मान सकते। आयके अनुसार ही व्यय होता है -दे० मार्गणा। गतिबन्ध जन्मका कारण नही आयु है।। -दे० आयु/२। चारों गतियोंमें जन्म लेने सम्बन्धी परिणाम । -दे० आयु/३। जन्मके पश्चात् बालकके जातकर्म आदि -दे० संस्कार/२। २ | गर्भज आदि जन्म विशेष का निर्देश जन्मके भेद। बोये गये बीजमें बीजवाला ही जीव या अन्य कोई भी जीव उत्पन्न हो सकता है। उपपादज व गर्भज जन्मोंका स्वामित्व। सम्मूच्छिम जन्म -दे० सम्मूर्छन। उपपादज जन्मकी विशेषताएँ। वीर्य प्रवेशके सात दिन पश्चात् तक जीव गर्भमें आ सकता है। इसलिए कदाचित् अपने वीर्यसे स्वयं अपना भी पुत्र होना सम्भव है। गर्भवासका काल प्रमाण। रज व वीर्यसे शरीर निर्माणका क्रम । सासादन गुणस्थानमें जीवोंके जन्म सम्बन्धी मतभेद नरकमें जन्मका सर्वथा निषेध है। अन्य तीन गतियोंमें उत्पन्न होने योग्य काल विशेष पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें गर्भज संशी पर्याप्तमें ही जन्मता है, अन्यमें नहीं। असंशियोंमें भी जन्मता है। विकलेन्द्रियों में नहीं जन्मता। विकलेन्द्रियोंमें भी जन्मता है। एकेन्द्रियोंमें जन्मता है। एकेन्द्रियोंमे नहीं जन्मता। बादर पृथिवी, अप व प्रत्येक बनस्पतिमें जन्मता है अन्य कायोंमें नहीं। बादर पृथिवी आदि कायिकोंमें भी नहीं जन्मता। द्वितीयोपशमसे प्राप्त सासादन वाला नियमसे देवोंमें उत्पन्न होता है -दे० मरण/३। एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न नहीं होते बल्कि उनमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं। दोनों दृष्टियोंका समन्वय । ५ वा सम्यग्दर्शनमें जीवके जन्म सम्बन्धी नियम अबद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि उच्चकुल व गतियों आदिमें ही जन्मता है, नीचमें नहीं। बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टियोंकी चारों गतियोंमें उत्पत्ति सम्भव है। परन्तु बद्धायुष्क उन-उन गतियोंके उत्तम स्थानों में ही उत्पन्न होता है नीचोंमें नहीं। बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों गतियोंके उत्तम स्थानोमें उत्पन्न होता है। नरकादि गतियोंमें जन्म सम्बन्धी शंकाएँ -दे०वह बह नाम। कृतकृत्यवेदक सहित जीवोंके उत्पत्ति क्रम सम्बन्धी नियम । उपशमसम्यक्त्व सहित देवगतिमें ही उत्पन्न होनेका नियम। -दे० भरण/३। सम्यग्दृष्टि मरनेपर पुरुषवेदी ही होते हैं । जीवोंके उपपाद सम्बन्ध कुछ नियम ३ तथा ५-१४ गुणस्थानों में उपपादका अभाव -दे० क्षेत्र/३। मार्गणास्थानोंमें जीवके उपपाद सम्बन्धी नियम व प्ररूपणाएँ -दे० क्षेत्र/३,४। चरम शरीरियों व रुद्रादिकोंका जन्म चौथे कालमें ही होता है। अच्युतकल्पसे ऊपर संयमी ही जाते है। लौकान्तिकदेबोंमें जन्मने योग्य जीव । संयतासंयत नियमसे स्वर्गमें जाता है। निगोदसे आकर उसी भवसे मोक्षकी सम्भावना । कौनसी कषायमें मरा हुआ कहाँ जन्मता है। लेश्याओंमें जन्म सम्बन्धी सामान्य नियम । महामत्स्यसे मरकर जन्म धारने सम्बन्धी मतभेद -दे० मरण/५/६। नरक व देवगतिमें जीवोंके उपपाद सम्बन्धी अन्तर प्ररूपणा। -दे० अन्तर/४। सत्कर्मिक जीवोंके उपपाद सम्बन्धी -दे० वह वह कर्म। | गति अगति चूलिका १ तालिकाओंमें प्रयुक्त संकेत । २ | किस गुणस्थानसे मरकर किस गतिमें उपजे। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म ३ मनुष्य बतियंचगतिसे चयकर देवगति में उत्पत्ति सम्बन्धी । नरकगति उत्पत्तिकी विशेष प्ररूपणा । ४ ५ गतियों में प्रवेश व निर्गमन सम्बन्धी गुणस्थान । गतिमार्गणाकी अपेक्षा गति प्राप्ति । इन्द्रिय काय व योगकी अपेक्षा गति प्राप्ति । -दे० जन्म / ६/६ में चिति । जन्न /६/५। वेद मार्गणाको अपेक्षा गति मासि कषाय मार्गणाकी अपेक्षा गति प्राप्ति * * - दे० जन्म /५/६१ ज्ञान व संगम मार्गणाकी अपेक्षा गति प्राप्ति - दे० जन्म /६/३। लेश्याको अपेक्षा गति प्राप्ति सम्यक्त्न मार्गणाकी अपेक्षा गति माप्त - दे० जन्म /३/४ भव्यत्व, संज्ञित्व व आहारकत्वकी अपेक्षा गति प्राप्ति -दे० जन्म /६/६ । ८ संहननकी अपेक्षा गति प्राप्ति शलाका पुरुषोंकी अपेक्षा गति प्राप्ति । ९ १० नरकगति पुनः पुनः भयधारणको सीमा * पर्यातको पुनः पुनः भवधारणकी सीमा -दे० आयु/७ सम्यग्दृष्टिकी भवधारण सीमा - ३० सम्यग्दर्शन ॥ सल्लेखनागत जीवकी भवधारण सीमा - दे० सल्लेखना / १ । ११ गुणोत्पादन तालिका किस गतिसे किस गतिमें उत्पन्न होकर कौन गुण उत्पन्न करे १. जन्म सामान्य निर्देश १. जन्मका लक्षण रा. वा / २ / ३४/१/५ देवादिशरीरनिवृत्तौ हि देवादिजन्मेष्टम् | = = देव आदिकोंके शरीरकी निवृत्तिको जन्म कहा जाता है। रा. वा/४/४२/४/२५०/१५ उभयनिमित्तवशादात्मापयमान भावः जायत इत्यस्य विषयः । यथा मनुष्य गत्यादिनामकर्मोदयापेक्षया आत्मा मनुष्यादित्वेन जायत इत्युच्यते । बाह्य आभ्यन्तर दोनों निमित्तों से आत्मलाभ करना जन्म है, जैसे मनुष्यगति आदिके उदयसे जीव मनुष्य पर्यायरूपसे उत्पन्न होता है । भ, आ / वि / २५/०५/१४ प्राणग्रहणं जन्म प्राणोंको ग्रहण करना जन्म है। = ३१२ २. जन्म धारणमे पहिले जीवप्रदेशों के संकोचका नियम ध. ४ / १.३,२/२९/६ उववादो एयविहो । सो कि उप्पण्णपढमसमए चैव होदित्य उगदीए उपमा सेन्तं बहु सम्यदि, संको चिदासेसजीवपदेसादो । उपपाद एक प्रकारका है, और वह भी २. गर्भज आदि जन्म विशेषोंका निर्देश उत्पन्न होनेके पहिले समयमें ही होता है । उपपाद में ऋजुगतिसे उत्पन्न हुए जीवोंका क्षेत्र बहुत नहीं पाया जाता है, क्योंकि इसमें जीव के समस्त प्रदेशोंका संकोच हो जाता है । ३. विग्रहगति में ही जीवका नवीन जन्म नहीं मान सकते रा. या/२/३४/९/१४२/३ मनुष्यस्तैर्यग्योनो या विनायुः कार्मणकामयोगस्थो देवादिगत्युदयाद् देवादिव्यपदेशभागिति कृत्वा तदेवास्य जन्मेति मतमिति तत्र किं कारणम् शरीरनिर्वा देवानिवृती हि देवादिष्टम् पश्नमनुष्य व सि पायुके चिन्न हो जानेपर कार्मगकाययोगमे स्थित अर्थात् विग्रह गति में स्थित जीवको देवगतिका उदय हो जाता है; और इस कारण उसको देवसंज्ञा भी प्राप्त हो जाती है। इसलिए उस अवस्थामे ही उसका जन्म मान लेना चाहिए। उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योंकि शरीरयोग्य पुद्गलोंका ग्रहण न होनेसे उस समय जन्म नहीं माना जाता। देवादिकों के शरीरकी निष्पत्तिको ही जन्म संज्ञा प्राप्त है । २. गर्भज आदि जन्म विशेषोंका निर्देश १. जन्मके भेद 1 रा.सू / २ / ११ सम्म नगद जन्म ३१ स.सि./ २ / ३१/२८७/५ एते त्रयः संसारिणां जीवानां जन्मप्रकाराः । = सम्मूर्च्छन, गर्भज और उपपादज ये ( तीन ) जन्म है । संसारी जीवों में तीनों जन्म के भेद है (रा. वा/२/३१/४/१४०/३०). २. बोये गये बीज बीजवाला ही जीव या अन्य कोई जीव उत्पन्न हो सकता है गो.जी./मू./१००/४२८ भीजे जोगी जीवो चंकमदि सो व अग्गो था। जेवि यमुनादीया ते पसेमा पदमदार मूलको आदि देवर जिसने वीज कहे गये हैं वे जीवके उपजनेके योनिभूत स्थान हैं। उसमें जल व काल आदिका निमित्त पाकर या तो उस बीज वाला ही जीव और या कोई अन्य जीव उत्पन्न हो जाता है। 1 २. उपपादन व गर्भज जन्मोंका स्वामित्व सि./४/२४ पती मन्जसम्म खुद मेदा २६४८ ति.प./५/२१३ उत्पत्ती तिरियाणं गन्भजसम्मुच्छिम त्ति पत्तेक्कं । मनुष्यों का जन्म गर्भ व सम्मान के मेदसे दो प्रकारका है १२१४ तिर्यचौकी उत्पत्ति गर्म और सम्मान जन्मने होती है ११६३१ गो.जी.सु / १०-१२ /२१२ वादा सुरणिरिया गन्जसमुचिमा पर तिरिया |... | पंचितिरिगन्जसम्मुचिश्मा तिरिक्वाणं । भोगभूमा गन्भभवा णरपुण्णा गन्भजा चैव ॥११॥ उबवादगन्भजेसु य लद्विअप्पज्जत्तगा ण नियमेण ।...|हरा = देव और नारकी उपपाद जन्मसंयुक्त है | मनुष्य और तियंच 'यथासम्भव गर्भज और सम्पूर्च्छन होता है। पंचेन्द्रिय तिरंच गर्भय और सम्फन दोनों प्रकारके होते हैं (विकलेन्द्रिय व एकेन्द्रिय सम्मूर्च्छन ही होते हैं ) तिर्यञ्च योनिमें भोगभूमिया तियंच गर्भज ही होते हैं और पर्याप्त मनुष्य भी गर्भज ही होते हैं। उपपादण और गर्भज जीवों में नियमसे नहीं है सम्मोही होते हैं। सू./२/३४ देवनारकाणामुपपादः १३४) - देव व नारकियोंका जन्म उपपाद ही होता है। ( मू. आ / ११३१ ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ ३. सम्यग्दर्शनमें जीवके जन्म सम्बन्धी नियम ४. उपपादज जन्मकी विशेषताएँ ति प./२/३१३-३१४ पावेणं गिरयबिले जादूर्ण ता मुहुत्तगंमेत्ते । छप्पज्जत्ती पात्रिय आकस्सियभयजुदो होदि ।३१३॥ भीदीए कंपमाणो चलिदं दुक्खेण पट्ठिओ संतो। छत्तीसाऊहमज्झे पडिदूर्ण तत्थ उप्पलइ ॥३१॥ -- नारकी जीव पापसे नरकबिलमें उत्पन्न होकर और एक मुहूर्त मात्र कालमे छह पर्याप्तियोंको प्राप्त कर आकस्मिक भयसे युक्त होता है ।३१३। पश्चात् वह नारकी जीव भयसे काँपता हुआ बड़े कष्टसे चलनेके लिए प्रस्तुत होकर और छत्तीस आयुधोके मध्य में गिरकर वहाँसे उछलता है ( उछलनेका प्रमाण-दे० नरक/२)। ति प /८/९६७ जायते सुरलोए उबबाद पुरे महारिहे सयणे । जादा य मुहत्तेण एप्पज्जत्तीओ पार्वति ५६७।- देव सुरलोकके भीतर उपपादपुर में महाध शय्यापर उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होने पर एक मुहूर्त मे ही छह पर्याप्तियोको भी प्राप्त कर लेते हैं १५६७५ प्रवेश होनेपर वीर्यका कलल बनता है, जो दस दिन तक काला रहता है और अगले १० दिनतक स्थिर रहता है ।१००७१ दूसरे मास वह बुदबुदरूप हो जाता है, तीसरे मासमें उसका घट्ट बनता है और चौथे मासमें मांसपेशीका रूप धर लेता है ।१००८) पाँचवें मास उसमें पाँच 'लव ( अंकुर ) उत्पन्न होते हैं। नीचेके अंकुरोंसे दो पैर, ऊपर के अंकुरसे मस्तक और बीचके अंकुरोंसे दो हाथ उत्पन्न होते हैं। छठे मास उक्त पाँच अंगोंकी और आँख, कान आदि उपांगोंकी रचना होती है ।१००६। सातवें मास उन अवयवोंपर चर्म व रोम उत्पन्न होते हैं और आठवें मास वह गर्भमें ही हिलने-डुलने लगता है। नवमें या दसवें मास बह गर्भसे बाहर आता है ।१०१०। आमाशय और पक्वाशयके मध्य बह जेरसे लिपटा हुआ नौ मास तक रहता है ।१०१२। दाँतसे चबाया गया कफसे गीला होकर मिश्रित हुआ ऐसा. माता द्वारा भुक्त अन्न माताके उदरमें पित्तसे मिलकर कडया हो जाता है । १८१५॥ वह कड्डा अन्न एक-एक बिन्दु करके गर्भस्थ बालकपर गिरता है और वह उसे सर्वांगसे ग्रहण करता रहता है ११०१६। सातवें महीनेमें जब कमलके डंठलके समान दीर्घ नाल पैदा हो जाता है तब उसके द्वारा उपरोक्त आहारको ग्रहण करने लगता है। इस आहारसे उसका शरीर पुष्ट होता है ।१०११ ५. वीर्यप्रवेशके सात दिन पश्चात तक जीव गम में आ सकता है यशोघर चरित्र/ पृ० १०६ वीर्य तथा रज मिलनेके पश्चात् ७ दिन तक जीव उसमें प्रवेश कर सकता है, तत्पश्चात वह स्त्रवण कर जाता है। ३. सम्यग्दर्शन में जीवके जन्म सम्बन्धी नियम ३. इसलिए कदाचित् अपने वीर्यसे स्वयं भी अपना पुत्र होना सम्मव है यशोधर चरित्र | पृ० १०६. अपने वीर्य द्वारा बकरी के गर्भ में स्वयं मरकर उत्पन्न हुआ। ७. गर्भवासका काल प्रमाण ध १०/४,२,४,५८/२७८/८ गभम्मिपदिदपढमसमयप्पहाडि के वि सत्तमासे गन्भे अच्छिदूण गम्भादो हिस्सरं ति, केवि अट्ठमासे, केवि णवमासे, के वि दसमासे, अच्छिदूण गन्भादो णिप्फिडं ति ।-गर्भ में आनेके प्रथम समयसे लेकर कोई सात मास गर्भ में रहकर उससे निकलते है, कोई आठ मास, कई नौ मास और कोई दस मास रहकर गर्भसे निकलते हैं। १. अबद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि उच्च कुल व गतियों आदिमें ही जन्मता है नीच में नहीं र. क.श्रा/३५-३६ सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यड्नसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रता च ब्रजन्ति नाप्यवतिकाः।३। ओजस्तेजो विद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथाः। महाकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूता. १३६-जो सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हैं वे बतरहित होनेपर भी नरक, तियच, नपंसक व स्त्रीपनेको तथा नीचकुल, विक्लांग, अल्पायु और दरिद्रपनेको प्राप्त नहीं होते हैं ।३५॥ शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव कान्ति, प्रताप, विद्या, वीर्य, यशकी वृद्धि, विजय विभवके स्वामी उच्चकुली धर्म, अर्थ, काम, मोक्षके साधक मनुष्योंमें शिरोमणि होते हैं ।३६। (द्र. सं./टी./४१/१७८/८ पर उदधृत)। द्र. सं./टी./४१/१७८/७ इदानीं येषां जीवानां सम्यग्दर्शनग्रहणात्पूर्वमायुर्वन्धो नास्ति तेषां व्रताभावेऽपि नरनारकादिकुत्सितस्थानेषु जन्म ने भवतीति कथयति ।- अब जिन जोवोंके सम्यग्दर्शन ग्रहण होनेसे पहले आयुका बन्ध नहीं हुआ है, वे बत न होनेपर भी निन्दनीय नर नारक आदि स्थानों में जन्म नहीं लेते, ऐसा कथन करते हैं। ( आगे उपरोक्त श्लोक उद्धृत किये हैं। अर्थात् उपरोक्त नियम अबद्धायुष्कके लिए जानना बद्धायुष्कके लिए नहीं)। का. अ./मू /३२७ सम्माइट्ठी जोवो दुग्गदि हेर्दू ण बंधदे कम्म । बहु भवेस बददुसम्म तं पि णासेदि ।३२७१ =सम्यग्दृष्टि जीव ऐसे कर्मोका बन्ध नहीं करता जो दुर्गतिके कारण हैं बल्कि पहले अनेक भवोमें जो अशुभ कर्म बाँधे हैं उनका भी नाश कर देता है। ८. रज व वीर्यसे शरीर निर्माणका क्रम भ.आ /भू./१००७-१०१७ कललगद दसरतं अच्छदि कलुसकिद च दसरतं । थिरभूदं दसरतं अच्छवि गभम्मि तंबीयं ।१००७) तत्तो मासं बुढचुदभूदं अच्छदि पुणो बिघणभूदं। जायदि मासेण तदो मंसपेसी य मासेण ।१००८। मासेण पंचपुलगा तत्तो हुति हु पुणो वि मासेण । अंगाणि उबंगाणि य णरस्स जायं ति गम्भम्मि ।१००४॥ मासम्मि सत्तमे तस्स होदि चम्मणहरोमणिप्पत्ती। फंदणमट्ठममासे णवमे इसमे य णिग्गमणं ।१०१०। आमासयम्मि पक्कासयस्स उवरि अमेझमज्झभिम । वस्थिपडलपच्छण्णो अच्छइ गम्भे हु णवमासं ११०१२॥ दन्तेहिं चविदं बोलणं च सिभेण मेलिदं संत। मायाहारिपमण्णं जुत्तं पिरोण कडुएण ११०११ बमिगं अमेझसरिसं बादविओजिदरस खलं गन्भे। आहारेदि समंता उबरि थिप्पंतग णिच्च ११०१६ तो सत्तमम्मि मासे उप्पलणालमरिसी हवह णाही। तत्तो पाए बमिय तं आहारेदि णाहीए ११०१७१ -माताके उदरमें वीर्यका २. बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टिकी चारों गतियों में उत्पत्ति संभव है गो. जी./जी. प्र./१२७/२३८/१५ मिथ्यादृष्टयसंयतगुणस्थानमृताश्चतुनतिषु...चोत्पद्यन्ते । -मिथ्यादृष्टि और असंयत गुणस्थानवर्ती चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-४० Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म ३१४ ४. सासादनमे जीवोंके जन्मसम्बन्धी मतभेद ३. परन्तु बद्धायुष्क उन-उन गतियोंके उत्तम स्थानों में ही उत्पन्न होते हैं नीच!में नही *.सं. प्रा./१/१६३ छसु हेट्टिमासु पुढवीसु जोइसवणभवणसव्व इत्थीसु । बारस मिच्छावादे सम्माइट्ठीसु णस्थि उववादो। प्रथम पृथिवियोंके बिना अधस्थ छहों पृथिवियों में, ज्योतिषी व्यन्तर भवन-वासी देवों में सर्व प्रकारकी स्त्रियों में अर्थात् तिर्यचिनी मनुष्यणी और देवियों में तथा बारह मिथ्यावादोंमें अर्थात् जिनमें केवल मिथ्यात्व गुणस्थान ही सम्भव है ऐसे एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रिय तियचोके बारह जीवसमासोंमें, सम्यग्दृष्टि जीवका उत्पाद नहीं है, अर्थात् सम्यक्त्व सहित ही मरकर इनमे उत्पन्न नहीं होता है। (ध. १/१,१.२६/गा. १३३/२०६); (गो.जी./मू./१२६/३३६) । द्र.सं./टी./४१/१७६/२ इदानीं सम्यक्त्वग्रहणात्पूर्व देवायुष्कं विहाय ये बतायुष्कास्तान् प्रति सम्यक्त्वमाहात्म्यं कथयति । हेछिमछप्पुढवीणं जोइसवणभवणसव्वइच्छीणं । पुण्णिदरे ण हि समणो णारयापुण्णे । (गो. जी./मू./१३८/३३६) । तमेवार्थ प्रकारान्तरेण कथयतिज्योतिर्भावनभौमेषु षट्स्वधः श्वभ्रभूमिषु । तिर्यक्षु नृसुरस्त्रीषु सद्दृष्टिनेव जायते। अब जिन्होंने सम्यवत्व ग्रहण करनेके पहले ही देवायुको छोडकर अन्य किसी आयुका बन्ध कर लिया है उनके प्रति सम्यक्त्वका माहात्म्य कहते हैं। ( यहाँ दो गाथाएँ उद्धृत की हैं)। (गो. जी./मू /१२८/३३६ से)-प्रथम नरकको छोडकर अन्य छह नरकों में ज्योतिषी, व्यन्तर व भवनवासी देवोंमें, सब स्त्री लिंगों में और तिर्यचोंमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते। (गो. जी./ मू./१२८) । इसी आशयको अन्य प्रकारसे कहते हैं-ज्योतिषी, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें, नीचेके ६ नरकोंकी पृथिवियोंमें, तिथंचोंमें और मनुष्यणियों व देवियों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते। ५. कृतकृत्य वेदक सहित जीवोंके उत्पत्ति क्रम सम्बन्धी नियम क. पा/२/२-/६२४२/२१५/७ पढमसमयकदकरणिज्जो जदि मरदि णियमो देवेसु उध्वज दि । जदि णेरइएसु तिरिक्वेसु मणुस्सेसु वा उववज्जदि तो णियमा अंतोमुत्तकदकरणिज्जो त्ति जइवसहाइरियपरूविद चुष्णिमुत्तादो।- कृतकृत्यवेदक जीव यदि कृतकृत्य होनेके प्रथम समयमें मरण करता है तो नियमसे देवों मे उत्पन्न होता है। किन्तु जो कृतकृत्यवेदक जीव नारकी तियंचों और मनुष्योंमे उत्पन्न होता है वह नियमसे अन्तर्मुहूर्त काल तक कृतकृत्यवेदक रहकर ही मरता है। इस प्रकार यतिवृषभाचार्य के द्वारा कहे चूर्ण सूत्रसे जाना जाता है। ध.२/१,१/४८१/४ तत्थ उप्पज्जमाण कदरणिज्ज पडुच्च वेदगसम्मत्तं लब्भदि । - उन्हीं भोग भूमिके तिर्यचोंमें उत्पन्न होनेवाले (बद्धायुष्क -देखो अगला शीर्षक ) जीवोके कृतकृत्य वेदकको अपेक्षा वेदक सम्यक्त्व भी पाया जाता है। गो. क./म./५६२/७६४ देवेसु देवमणुवे सुरणरतिरिये चउगईसुंपि । कदकरणिज्जुष्पत्ती कमसो अंतोमुहुत्तेण ।५६२कृतकृत्य वेदकका काल अन्तर्मुहूर्त है। ताका चार भाग कीजिए। तहाँ क्रमतें प्रथमभागका अन्तर्मुहूर्त करि मरया हुआ देवविधै उपजे है, दूसरे भागका मरा हुआ देववियु व मनुष्यविषै, तीसरे भागका देव मनुष्य व तियंचविषै, चौथे भागका देव, मनुष्य, तिर्यंच व नारक (इन चारोंमें से) किसी एक विषै उपजै है। (ल, सा./५/१४६/२००)। ६. सम्यग्दृष्टि मरनेपर पुरुषवेदी ही होता है ४. बद्घायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों ही गतियोंके उत्तम स्थानों में उत्पन्न होता है ध.२/१,१/५१०/१० देव णेरइय मणुस्स-असजदसम्माइद्विणो जदि मणुस्सेस उप्पज्जति तो णियमा पुरिसवेदेसु चेव उप्पंज्जति ण अण्णवेदेसु तेण पुरिसवेदो चेव भणिदो। देव नारकी और मनुष्य असंयत सम्यरदृष्टि जीव मरकर यदि मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, तो नियमसे पुरुषवेदी मनुष्योंमे ही उत्पन्न होते है; अन्य बेदवाले मनुष्योंमें नहीं। इससे असंयत सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तके एक पुरुषवेद ही कहा है (विशेष दे० पर्याप्ति)। घ १/१,१,६३/३३२/१० हुण्डावसर्पिण्या स्त्रीषु सम्यग्दृष्टय' किन्नोत्पद्यन्ते इति चेन्न, उत्पद्यन्ते । कुतोऽवसीयते । अस्मादेवालि । -प्रश्नहुण्डा सर्पिणीकाल सम्बन्धी स्त्रियों में सम्यगदृष्टि जीव क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं। उत्तर-नहीं, क्योंकि उनमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं । प्रश्न-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है। उत्तर-इसी (ष.खं.) आगमप्रमाणसे जाना जाता है। क. पा./२/२/१२४०/२१३/३ खीणदंसणमोहणीयं चउग्गईम उप्पजमाण पेक्विदूण। जिनके दर्शनमोहनीयका क्षय हो गया है ऐसे जीव चारों गतियों में उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं। ध. २/१,१/४८१/१ मणुस्सा पुबबद्ध-तिरिक्खयुगापच्छा सम्मत्तं घेत्तूण दसणमोहणीय खविय खइय सम्माइट्ठी होदूण असंखेज-वस्सायुगे तिरिक्खेसु उप्पज्जंति ण अणस्थ। = जिन मनुष्योंने सम्यग्दर्शन होनेसे पहले तिर्यचायुको बाँध लिया के पीछे सम्यक्त्वको ग्रहण कर और दर्शनमोहनीयका क्षपण करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर असंख्यात बर्षकी आयुवाले भोगभूमिके तिर्यंचोंमे ही उत्पन्न होते हैं अन्यत्र नहीं। (विशेष दे० तिर्यच/२)। ध. १/१,१,२५/२०१८ सम्यग्दृष्टीना बद्घायुषां तत्रोत्पत्तिरस्तीति तत्रासंयतसम्यग्दृष्टयः सन्ति । - बद्धायुक (क्षायिक) सम्यग्दृष्टियोंकी नरकमें उत्पत्ति होती है, इसलिए नरकमें असंयत सम्यग्दृष्टि पाये जाते हैं। ध. १/१,१,२५/२०७/१ प्रथमपृथिव्युत्पत्ति प्रति निषेधाभावात् । प्रथमपृथिव्यामिव द्वितीयादिषु पृथिवीषु सम्यग्दृष्टयः किन्नोत्पद्यन्त इति चेन्न, सम्यक्त्वस्य तत्रतन्न्यापर्याप्ताद्धया सह विरोधात् ।- सम्यग्दृष्टि मरकर प्रथम पृथिवीमें उत्पन्न होते हैं. इसका आगममे निषेध नहीं है। प्रश्न--प्रथम पृथिवी की भौति द्वितीयादि पृथिवियों में भी वे क्यों उत्पन्न नहीं होते हैं। उत्तर-नहीं, क्यो कि, द्वितीयादि पृथि - वियोंकी अपर्याप्त अवस्थाके साथ सम्यग्दर्शनका विरोध है । ( विशेष -दे० नरक/४ । ४. सासादन गुणस्थानमें जीवोंके जन्म सम्बन्धी मतभेद १. नरकमें जन्मनेका सर्वथा निषेध है ध.६/१,६-६/४७/४३८/८ सासणसम्माइट्ठीणं च णिरयगदिम्हि पवेसो त्थिा एत्थ पवेसापदुप्पायण अण्णहाणुववत्तीदो।-सासादन सम्यग्दृष्टियोंका नरकगतिमें प्रवेश ही नहीं है, क्योंकि यहाँ प्रवेशके प्रतिपादन न करनेकी अन्यथा उपपत्ति नहीं बनती। (सूत्र नं.४६ मे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म ४. सासादनमे जीवोंके जन्मसम्बन्धी मतभेद ४ असंज्ञियों में भी जन्मता है मिथ्यादृष्टिके नरक में प्रवेश विषयक प्ररूपणा करके सूत्र नं०४७ में सम्यग्दृष्टिके प्रवेश विषयक प्ररूपणा की गयी है। बीचमे सासादन व मिश्र गुणस्थानकी प्ररूपणाएँ छोड दी हैं)। ध.१/१,१,२५/२०११ न सासादनगुणवतांतत्रोत्पत्तिस्तद्गुणस्य तत्रोत्पत्त्या सह विरोधात् । . किमित्यपर्याप्तया विरोधश्चेत्स्वभावोऽयं, न हि स्वभावाः परपर्यनुयोगार्हा. I = सासादन गुणस्थानका नरक में उत्पत्ति के साथ विरोध है । प्रश्न-नरकगतिमे अपर्याप्तावस्थाके साथ दूसरे (सासादन) गुणस्थानका विरोध क्यों है ? उत्तर-यह नारकियों का स्वभाव है, और स्वभाव दूसरेके प्रश्नके योग्य नहीं होते। गो.क./जी.प्र./१२७/३३०/१५ सासादनगुणस्थानमृता नरकवजितगतिषु पोरपद्यन्ते। -सासादन गुणस्थानमे मरा हुआ जीव नरक रहित शेष तीन गतियोंमे उत्पन्न होते है। गो. जी./जी.प्र /६६५/११३१/१३ सासादने ... संझ्यसंयपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ता....। दितीयोपशम सम्यक्त्वविराधकस्य सासादनत्वप्राप्तिपक्षेच संक्षिपर्याप्तदेवापर्याप्ताविति द्वौ। सासादन विषै जीवसमास असंज्ञी अपर्याप्त और संज्ञी पर्याप्त व अपर्याप्त भी होते है और द्वितीयोपशम सम्यक्त्वत पड़ जो सासादनको भया होइ ताकि अपेक्षा तहाँ सैनी पर्याप्त और देव अपर्याप्त ये दो ही जीव समास है। (गो.जी./जी.प्र./ ७०३/११३७/१४); (गो क./जी.प्र./५५१/७५३/४) । २. अन्य तीन गतियों में उत्पन्न होने योग्य कालविशेष ५. विकलेन्द्रियों में ही जन्मता ध.६/१,६-६/सू.१२०/४५६ तिरिक्वेसु गच्छता एइंदिए पंचिदिएसु गच्छति णो विगलि दिएसु ।१२० = तिर्यंचों में जानेवाले संरण्यातवर्षायुष्क सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यच एकेन्द्रिय व पंचेन्द्रियों में जाते हैं प विकले न्द्रियों में नहीं ।१२०॥ ध.६/१,६-६/सूत्र ७६-७८; १५०-१५२:१७५ ( नरक, मनुष्य व देवगतिसे आकर तिर्यंचोमे उपजनेवाले सासादन सम्यग्दृष्टियोंके लिए भी उपरोक्त ही नियम कहा गया है)। ध,२/१,१/५७६,५८० ( विकलेन्द्रिय पर्याप्त ब अपयाप्त दोनों अवस्थाओमें एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही कहा गया है)। (दे० इन्द्रिय/४/४) विकलेन्द्रियोंमें एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही कहा गया है। ध.५/१६,३८/३५/३ सासणं एडिवण्णविदिए समए जदि मरदि, तो णियमेण देवगदीए उववज्ज दि । एवं जाब आवलियाए असंखेज्जदिभागो देवगदिपाओग्गो कालो होदि । तदो उवरि मणुसगदिपाओग्गो आवलियाए असंखेज दिभागमेत्तो कालो होदि । एवं सण्णिपंचिदियतिरिक्ख-चउरिदिय-तेई दिय-वेइंदिय-एइंदियपाओग्गो होदि । एसो णियमो सव्वत्थ सासणगुणं पडिवज्जमाणाणं । सासादन गुणस्थानको प्राप्त होनेके द्वितीय समयमें यदि वह जीव मरता है तो नियमसे देवगतिमें उत्पन्न होता है। इस प्रकार आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाणकाल देवगतिमें उत्पन्न होने के योग्य होता है। उसके ऊपर मनुष्यगति ( मे उत्पन्न होने ) के योग्यकाल आवलीके असंख्यातवेंभाग प्रमाण है। इसी प्रकारसे आगे-आगे संज्ञी पंचेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियोंमे उत्पन्न होने योग्य (काल) होता है। यह नियम सर्वत्र सासादन गुणस्थानको प्राप्त होनेवालोंका जानना चाहिए । ६. विकलेन्द्रियों में भी जन्मता है पं.स/प्रा./४/५६ मिच्छा सादा दोण्णि य इगि वियले होति ताणि णायव्वा। पं.सं./प्रा.टी./४/RE/RE/१ तेदेकेन्द्रियविकले न्द्रियाणां पर्याप्तकाले एक मिथ्यात्वम् । तेषां केषांचित् अपर्याप्त काले उत्पत्तिसमये सासादनं संभवति । - इन्द्रिय मार्गणाको अपेक्षा एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवोमें मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त जीवोमें सासादन गुणस्थान निवृत्त्यपर्याप्त दशामे ही सम्भव है अन्यत्र नहीं, क्योंकि पर्याप्त दशामें तो तहाँ एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही पाया जाता है। गो.जी./जी.प्र./६६५/११३१/१३ सासादने बादरै कद्वित्रिचतारान्द्रय संख्यसंयपर्याप्तसज्ञिपर्याप्ताः सप्त । -सासादन विषै बादर एकेन्द्रीमेंद्री तेंद्री चौइंद्री व असैनी तो अपर्याप्त और सैनी पर्याप्त व अपर्याप्त ए सात जीव समास होते हैं । (गो.जी./जी.प्र./७०३/११३७/११). (गो.क./ जी.प्र./५५९/७५३/४)। ३. पंचेन्द्रिय तियचों में गर्मज संज्ञी पर्याप्तमें ही जन्मता है अन्यमें नहीं ष.व./६/१,६-६/सू. १२२-१२५/४६१ पंचिदिए गच्छता सण्णीसु गच्छति, णो असण्णीम् ।१२२॥ सण्णीसु गच्छता गम्भोवक्कं तिएसु गच्छता, णो सम्मुच्छिमेसु ।१२३। गम्भोवक्कतिएम् गच्छता पज्जयत्तएससु, णो अप्पज्जत्तएसु ।१२४. पज्जत्तएम् गच्छता संखेज्जवासाउएसु वि गच्छति असंखेज्जवासाउवेस वि ।१२। -तियंचोमे जानेवाले संख्यात वर्षायुष्क सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यच ॥११॥ पंचेन्द्रियों में भी जाते हैं ।१२० पंचेन्द्रियोंमें भी संज्ञियो मेंहीजाते है असंज्ञियीमें नहीं।१२२॥ संज्ञियोंमे भी गर्भजोंमें जाते हैं संमूच्छिमोमे नहीं ।१२३। गर्भजोमे भी पर्याप्तकों में जाते हैं अपर्याप्तको में नहीं ११२४। पर्याप्तकोमें जानेवाले वे संख्यात वर्षायुष्कोंमें भी जाते है और असंख्यात वर्षायुष्कोंमे भी ।१२। (देखो आगे गति अगति चूलिका नं. ३ शेष गतियोंसे आनेवाले जीवोंके लिए भी उपरोक्त ही नियम है।) (ध.२/१,१/४२७)। ७. एकेन्द्रियों में जन्मता है प.बं.६/१,६-६/सूत्र १२०/४५६ तिरिक्वेसु गच्छंता एई दिया पंचिदिएस गच्छति, णो विगलिं दिएसु ।१२० =तियचों में जानेवाले संख्यात वर्षायुष्क सासादन सम्यग्दृष्टि तियंच एकेन्द्रिय व पञ्चेन्द्रियमें जाते है, परन्तु विकलेन्द्रियमें नहीं जाते। प.वं.६/१,६-६/सूत्र ७६-७८; १५०-१५२; १७५ सारार्थ (नरक मनुष्य व देवगतिसे आकर तिर्यचों में उत्पन्न होनेवाले सासादन सम्यग्दृष्टियों के लिए भी उपरोक्त ही नियम कहा गया है)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म गो.जी./जी.प्र./६६५/१९३१ / १३ सासादने बावरे द्विपरिन्द्रियसंइयसंश्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ताः सप्त । सासादनमें बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवसमास भी होता है (गो.जी./जी. ७०३/१२२७/१९) (गो.क./जी. १/३२१/०५३/४) । ८. एकेन्द्रियोंमें नहीं जन्मता दे० इन्द्र/२/४ एकेन्द्रिय विकले पर्याप्त व अपर्याप्त सममें एक मिथ्यात्व गुणस्थान बताया है । ६.४/१,४,५/१६५/० जे पुण देवसासणा पतित भति सिमभिप्यारण, बारहमोसभागा देगा उनवाद फोसणं होदि. एवं पि वक्खाणं संत दव्वमुत्तविरुद्धं ति ण घेत्तव्वं । जो ऐसा रहते हैं कि सासादनसम्यग्दृष्टि देव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं, उनके अभिप्रायसे कुछ कम १२/१४ भाग उपपादपदका स्पर्शन होता है। किन्तु यह भी व्याख्यान सत्प्ररूपणा और द्रव्यानुयोगद्वारके सूत्रो के विरुद्ध पड़ता है, इसलिए उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए। घ. ०/२७.२६२/४०/२ण सासमागमेह दिवस उनवादाभावादो। - सासाइन सम्यग्दृष्टियोंकी एकेन्द्रियोंमें उत्पत्ति नहीं है। ३१६ ९. बादर पृथिवी अप व प्रत्येक वनस्पतिमें जन्मता है अन्य कार्यों में नहीं ६/१६-६/सूत्र १२१/४५० एदिए गामादरीकाइया बादरआउक्काइया बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीर पज्जत्तरसु गच्छेति णो अप्पज्जत्तेसु । १२१॥ एकेन्द्रियों में जानेवाले वे जीव (संख्यात वर्षायुष्क सासादन सम्यदचि मादर पृथिवीकायिक भावर जलकारिक मादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्यातकों में ही जाते है अपर्याप्तोमें नहीं । - ष. खं. ६ / १,६ - ६/ सू. / १५३, १७६ मनुष्य व देत्र गति से आनेवालोंके लिए भी उपरोक्त ही नियम है। सं.प्रा.४/५६-६० भूदयहरिए दोणि परमाणि ॥५१॥ का feel...1401 पं. सं. प्रा./टी./४/६०/१६/५ तयोरेकं कथम् । सासादनस्थो जीवो मृत्वा वायुकायिकयोर्मध्ये न उत्पद्यते इति हेतोः । = काय मार्गणाकी अपेक्षा पृथिवीकायिक, जलकायिक और बनस्पतिकायिक जीवोमें आदिके दो गुणस्थान होते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक में एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है, क्योंकि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मरकर तेज व वायुकामिकोंमें उत्पन्न नहीं होते। गो.क./मू./११३/१०५ ण हि सामणो अपुष्णे साहारणसुमनेय ते दुगे ।११३१ सन्धि अपर्याप्त साधारणशरीरयुक्त, सर्व सूक्ष्म जीव तथा बातकायिक तेजस्कायिक विषै सासादन गुणस्थान न पाइए है। गो. क./जी. प्र. / ३०९ / ४३८ /६ गुणस्थानद्वयं । कुतः । "ण हि सासणी अपुणे..." इति पारिशेषात् पृथ्व्यैकवनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्तेः प्रश्न पृथिवी आदिकोंमें दो गुणस्थान कैसे होते हैं। । = उत्तर" हि सासन अपुणो-" इत्यादि उपरोक्त गाथा नं. ११५. में अपर्याप्तकादि स्थानोंका निषेध किया है। परिवशेष न्यायसे उनसे यो पृथिवी, अप और प्रत्येक मनस्पतिकासिक उनमें सासादनकी उत्पत्ति जानी जाती है (पी. जी. जी. ७०२/११२०/१४) (गो. क./जी. प्र./५६१/०६२/४ ) ४. सासादनमें जीवोंके जन्मसम्बन्धी मतभेद १०. बादर पृथिवी आदि कायिकों में भी नहीं जन्मते २/११/६००,६९०.६१२ सारार्थ (भादरपृथिवीकायिक, मारवा कायिक व प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में सर्वत्र एक मिथ्यात्व ही गुणस्थान बताया गया है। ) दे. काय / २/४ पृथिवी आदि सभी स्वावर कायिकोमें केवल एक मिथ्यास्वगुणस्थान ही बताया गया है। ११. एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते बल्कि उनमें मारणान्तिक समुद्वात करते हैं . घ. ४/१.४.४ / १६२ / १० जदि सासणा एईदिएस उपज्जेति तो तत्थ दो गुण ठाणाणि होति । ण च एवं संताणिओगद्दारे तत्थ एक मिच्छादिट्ठगुणप्पदुप्पायणादो दव्वाणिओगद्दारे वि तत्थ एगगुणट्ठाणदव्वस्स पमाणपरूवणादो च । को एवं भणदि जधा सासणा एवं दियपतिति तु ते मारतियं मेसि सि अम्हा णिच्छओ। ण पुण ते तत्थ उप्पज्जेति त्ति, छिण्णाउकाले तत्थ सायणगुणापुल भादो जराणानादो पत्थि तर विजदि सासणा मारणं तियं मेल्लं ति, तो सत्तमपुढविणेरइया वि सासणगुणेण सह पंचिदियतिरिक्स मारणं तियं मेल्लंतु, सासणत्तं पडि विसेसाभावादो। ण एस दोसो, भिण्णजादित्तादो। एवे सत्तमपुढविणेरड्या पंचिदियतिरि गन्भोववकलिए पेष उपाय से पुण देवा पंचिदिए एईदिए य उपज्जसहावा, तो समाजादीया | ...सम्हा सत्तमपुरिया सासणगुणेण सह देवा हय मारणं तियं ‍ करेंति ति सिद्ध ।... बाउकाइएसु सासणा मारणं तियं किष्ण करें ति । सयलसारणार्थ देवा व ते बाउका मारणं शियाभावाद 1 विपरिणाम विमागतल सिहा पंभ-धूत उसात जिया कुड-तोरणादीर्णं तदुप्पत्ति जोगाणं दंसणादो च । प्रश्न- यदि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियो में उत्पन्न होते हैं तो उनमें वहाँपर दो गुणस्थान प्राप्त होते हैं किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि पणा अनुयोग द्वारमें एकेन्द्रियोंमें एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान ही वहा गया है, तथा द्रव्यानुयोगद्वारमें भी उनमें एक ही गुणस्थानके द्रव्यका प्रमाण प्ररूपण किया गया है। उत्तर-कौन ऐसा कहता है कि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियोंमें होते हैं । किन्तु वे उस एकेन्द्रिय में मारणान्तिक समुद्धातको करते हैं; ऐसा हमारा निश्चय है। न कि वे अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं। क्योंकि उनमें आयुके दिन होनेके समय सासादन गुणस्थान नहीं पाया जाता है। प्रश्न -- जहाँपर सासादनसम्यग्दृष्टियों का उत्पाद नहीं है, वहाँ पर भी यदि (वे देव ) सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मारणान्तिक समुद्धाको करते हैं, तो सातवीं पृथिवीके नारकियोंको सासादन गुणस्थानके साथ पंचेन्द्रिय तिर्यों में मारणान्तिक समुद्धात करना चाहिए, क्योंकि, सासादन गुणस्थानकी अपेक्षा दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, देव और नारकी इन दोनोंकी भिन्न जाति है, ये सातवीं पृथिवीके नारकी गर्भ जन्मवाले पंचेन्द्रियोंमें ही उपजनेके स्वभाववाले हैं, और वे देव पंचेन्द्रियों तथा एकेन्द्रियो में उत्पन्न होनेरूप स्वभाववाले हैं, इसलिए दोनों समान जातीय नहीं हैं। इसलिए सातवीं पृथिवीके नारकी देवोंकी तरह मारणान्तिक समुद्धात नहीं करते हैं। प्रश्नसासादन सम्यग्दृष्टि जीव वायुकायिकोंने मारणान्तिक समुद्धात क्यों नहीं करते 1 उत्तर - नहीं, क्योंकि, सकल सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका देनोंके समान तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवोंमे मारणान्तिक समुद्वातका अभाव माना गया है। और पृथिवी के विकाररूप विमान, शय्या, शिला, स्तम्भ और स्तूप, इनके तलभाग तथा खड़ी हुई शालभंजिका (मिट्टीकी पुतली) मिति और तोरणादिक उनकी उत्पत्ति के योग्य देखे जाते हैं । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म ३१७ ५. जीवोके उपपाद सम्बन्धी कुछ नियम १२. दोनों दृष्टियोंमे समन्वय उत्तर-नहीं, क्योंकि, तियच सम्यग्दृष्टि जीवों में संयमका अभाव पाया जाता है। और संयमके बिना आरण अच्युत कनपसे ऊपर गमन होता नहीं है। इस कथनसे आरण अच्युत करपसे ऊपर (नवग्रैवेयक पर्यन्त ) उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवों के साथ व्यभिचार दोष भी नहीं आता, क्योंकि, उन मिथ्याष्टियों के भी भावसयम रहित द्रव्य संयम होना सम्भव है । घ.७/२,७,२५६/४५७/२ सासणाणमेइंदिएम उववादाभावादो। मारणंतियमेहं दिएसु गदसासणा तत्थ किण्ण उप्पज्जति । ण मिच्छत्तमार्गतूण सासणगुणेण उप्पत्तिविरोहादो। सासादनसम्यग्दृष्टियोकी एकेन्द्रियों में उत्पत्ति नहीं है। प्रश्न-एकेन्द्रियो में माग्णान्तिक समुद्भातको प्राप्त हुए सासादन सम्यग्दृष्टि जीव उनमें उत्पन्न क्यो नहीं होते ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, आयुके नष्ट होनेपर उक्त जीव मिथ्यात्व गुणस्थानमे आ जाते है, अत: मिथ्यात्व में आकर सासादन गुणस्थानके साथ उत्पत्तिका विरोध है। ध.६/१,६,६,१२०/४५६/८ जदि एई दिएसु सासणसम्माइट्ठी उप्पज्जदि तो पुढत्रीकायादिसु दो गुणट्ठाणाणि होति त्ति चे ण, छिण्णाउअपढमसमए सासणगुणविणासादो।-प्रश्न-यदि एकेन्द्रियोंमे सासादन सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं तो पृथिवीकायिकादिक जीवोंमें मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होने चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि, आयु क्षीण होनेके प्रथम समय में ही सासादन गुणस्थानका विनाश हो जाता है । ध./१/१,१,३६/२६१/८ एइदिएसु सासणगुणष्ठाणं पि सुणिज्जदि तं कधं घडदे । ण एदम्हि सुत्ते तस्स णि सिद्धत्तादो। विरुद्धाणं कथं दोण्हं पि सुत्ताणमिदि ण, दोण्ह एक्कदरस्स सुत्तादो। दोण्हं मज्झे इद सुत्तमिदं च ण भवदीदि कधं णयदि। उवदेसमंतरेण तदवगमाभावा दोण्हं पि संगहो काययो । प्रश्न-एकेन्द्रिय जीवों में सासादनगुणस्थान भी सुननेमें आता है, इसलिए उनके केवल एक मिथ्याष्टि गुणस्थान के कथन करनेसे वह कैसे बन सकेगा। उत्तर--नहीं, क्योंकि, इस खण्डागम सूत्र में एकेन्द्रियादिकोंके सासादन गुणस्थानका निषेध किया है। प्रश्न-जब कि दोनों वचन परस्पर विरोधी हैं तो उन्हें सूत्रपना कैसे प्राप्त हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि दोनों वचन सूत्र नहीं हो सकते हैं, किन्तु उन दोनों वचनोंमेंसे किसी एक बचनको ही सूत्रपना प्राप्त हो सकता है। प्रश्न-दोनों बचनोंमे यह सूत्ररूप है और यह नहीं, यह कैसे जाना जाये। उत्तर-उपदेशके । बिना दोनोमेसे कौन वचन सूत्ररूप है यह नहीं जाना जा सकता है, इसलिए दोनों बचनोंका संग्रह करना चाहिए (आचार्योपर श्रद्धान करके ग्रहण करने के कारण इससे संशय भी उत्पन्न होना सम्भव नही। -दे० श्रद्धान/३)। ३. लौकान्तिक देवों में जन्मने योग्य जीव ति.प./८/६४५-६५१ भत्तिपसत्ता सज्झयसाधीणा सम्बकालेसं ६४॥ इह खेत्ते वेग्गं बहुभेयं भाविदूण बहुकाल ६४६। थुइणिदास समाणो सुदुक्खेसं सबंधुरिउवग्गे।६४७१ जे हिरवेक्वा देहे णिहदा णिम्ममा णिरारंभा। णिरवज्जा समणवरा ..६४८। संजोगविप्पयोगे लाहालाहम्मि जीविदे मरणे ।६४६अणवरदसमं पत्ता संजमसमिदीसुं झाणजोगेस । तिब्बतवचरणजुत्ता समणा ।६० पंचमहन्वय सहिदा पंचसु समिदीसु चिरम्मि चेट्ठति । पंचक्रवविसयविरदा रिसिणो लोयंतिया होंति ६५१॥ =जो भक्तिमें प्रशक्त और सर्वकाल स्वाध्यायमें स्वाधीन होते हैं।६४॥ बहुत काल तक बहुत प्रकारके वैराग्यको भाकर संयमसे युक्त होते हैं।६४६। जो स्तुति-निन्दा, मुख दुख और बन्धु-रिपुमें समान होते हैं।६४७। जो देहके विषयमें निरपेक्ष निर्द्वन्द, निर्मम, निरारम्भ और निरवद्य हैं ।६४८। जो संयोग व वियोगमें, लाभ व अलाभमें तथा जीवित और मरणमें सम्यग्दृष्टि होते है ।६४६। जो संयम, समिति, ध्यान, समाधि व तप आदिमें सदा सावधान हैं।६५० पंच महावत, पंच समिति, पंच इन्द्रिय निरोधके प्रति चिरकाल तक आचरण करनेवाले हैं, ऐसे विरक्त ऋषि नौकान्तिक होते हैं।६१॥ ४. संयतासंयत नियमसे स्वर्गमें जाता है म. पु /२६/१०३ सम्यग्दृष्टिः पुनर्जन्तुः कृत्वाणु व्रतधारणम् । लभते परमा भोगान्धवं स्वर्ग निवासिनाम् ।१०३। -यदि सम्यग्दृष्टि मनुष्य अणुव्रत धारण करता है तो वह निश्चित ही देवोंके उत्कृष्ट भोग प्राप्त करता है । और भी (दे० जन्म/६/३)। ५. निगोदसे आकर उसी भवसे मोक्षकी सम्भावना ५ जोवोंके उपपाद सम्बन्धी कुछ नियम १. चरम शरीरियोंका व रुद्र आदिकोंका उपपाद चौथे काल में ही होता है ज.प./२/१८५ रुद्दा य कामदेवा गणहरदेवा व चरमदेहधरा दुस्समसुसमे काले उप्पत्ती ताण बोद्धब्बो।१८५। रुद्र, कामदेव, गणधरदेव और जो चरमशरीरी मनुष्य हैं, उनकी डत्पत्ति दुषमसुषमा कालमे जानना चाहिए। भ-आ./मू /१७/६६ दिट्ठा अणादिमिच्छादिट्ठी जम्हा खणेण सिद्धा य। आरणा चरित्तस्स तेण आराहणा सारो।११ भ.आ./वि/१७/६६/६ भद्दणादयो राजपुत्रास्तस्मिन्नेव भवे त्रसतामापन्नाः अतएव अनादिमिथ्यादृष्टयः प्रथमजिनपादमूले श्रुतधर्मसाराः समारोपितरत्नत्रयाः,..क्षणेन क्षणग्रहणं कालस्याल्पत्वोपलक्षणार्थ म्...सिद्धाश्च परिप्राप्ताशेषज्ञानादिस्वभावाः 'दृष्टाः आराधनासंपादकाः, चारित्रस्य। -चारित्रकी आराधना करनेवाले अनादिमिथ्यादृष्टि जीव भी अल्पकालमें सम्पूर्ण कर्मोंका नाश करके मुक्त हो गये ऐसा देखा गया है । अतः जीवोंको आराधनाका अपूर्व फल मिलता है ऐसा समझना चाहिए। अनादिकालसे मिथ्यात्वका तीव्र उदय होनेसे अनादिकालपर्यन्त जिन्होंने नित्य निगोदपर्यायका अनुभव लिया था ऐसे ६२३ जीव निगोदपर्याय छोड़कर भरत चक्रवर्तीके भद्रविवर्धनादि नाम धारक पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे इसी भवसे त्रस पर्यायको प्राप्त हुए थे । भगवान् आदिनाथ के समवशरणमें द्वादशांग वाणीका सार सुनकर रत्नत्रयकी २. अच्युत कल्पसे ऊपर संयमी ही जाते हैं ध.६/१,६-६,९३३/४६५/६ उवरि किण्ण गच्छति । ण तिरिक्वसम्माइट्ठीसु संजमाभावा। संजमेण विणा ण च उवरि गमणमत्थि। ण मिच्छाइट्ठीहि तत्थुप्पज्जतेहि विउचारो, तेसि पि भावसंजमेण विणा दबसंजमस्स संभवा । -प्रश्न--संख्यात वर्षायुष्क असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंच मर कर आरण अच्युत कल्पसे ऊपर क्यों नहीं जाते ? जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म आराधना अल्पकालमें ही मोक्ष प्राप्त किया है। ध. ६/१,६०,११/ २४७/४ ) । ब्र.सं./टी./३६/१०६/६ अनुपमद्वितीयमनादिमिध्यादृशोऽपि भरतपुत्रास्त्रयो विशत्यधिकन शतपरिमाणास्ते च निव्यनिगोदवासिनः क्षपितकर्माणः इन्द्रगोपा' संजातास्तेषां च भूतानामुपरि भरतहस्तिना पादो दन्तस्ततर मुख्मापि न मानकुमारादयो भरतपुत्रा जातास्ते... तपो गृहीत्वा क्षणस्तोककालेन मोक्षं गताः । यह वृत्तान्त अनुपम और अद्वितीय है कि नित्य निगोदवासी अनादि मिध्यादृष्टि १२३ जीन कर्मोकी निर्जरा होनेसे इन्द्रगोप हुए सो उन सबके डेरपर भरतके हाथीने पैर रख दिया। इससे वे मरकर भरतके वर्द्ध मान कुमार आदि पुत्र हुए। वे तप ग्रहण करके थोड़े ही कालमें मोक्ष चले गये । ३१८ देखो ६/११ सूक्ष्मध्यपर्यात व निगोदको आदि लेकर सभी ३४ प्रकारके तियंच अनन्तर भयमे मनुष्यपर्याय प्राप्त करके मुक्त हो सकते है, पर शलाकापुरुष नहीं बन सकते ) । ध./१०/४,२,४,५६/२७६/४ मुहुमणिगोदेहितो अण्णस्थ अणुपज्जिय मणुस्से उष्पण्णस्स संजमा संजम समन्ताणं चेत्र गाहणपाओग्गसुबल भादो .... सुन गिदेहिको विग्गयरस सख्य हुए कालेय, संजमा जम ग्रहणाभावादो। सूक्ष्म निगोद जीवोंमेंसे अन्यत्र न उत्पन्न होकर मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीन के संयमासंयम और सम्यकरण के ही ग्रहण की योग्यता पायी जाती है। सूक्ष्म निगोदोमेंसे निकले हुए जीवके सर्वलघु काल द्वारा संयमासंयमका ग्रहण नहीं पाया जाता । 8. कौनसी कषायमै मरा हुआ जीव कहाँ जन्मता है ध./४/१.५,२५०/४४५/५ को मदो पिरयगदीए. उप्पादे दो तत् पणजीमा पठ कोधोदयस्तंभा गाणेण मदो मगुरुगदीए ण उपवेदव्यपणा पढमसमर मानोदय नियमोसा मायाए मदो तिरिक्खगदी ण उप्पादेदव्वो, तत्युप्पणाण पढमसमए मायोदय जियमोसा सोमेण मदो देवी उप्पादेदव्बो, तत्ध्यपानं पर्म पेय सोहाइओ होदिति आइरियपरंपरागदुदेसा कोष क्रोध कषाय के साथ मरा हुआ जीव नरक गतिमें नहीं (1) उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि नरकोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सर्व प्रथम क्रोध कषायका उदय पाया जाता है। मानकषायसे मरा हुआ जीव मनुष्यगति नहीं (1) उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि मनुष्यो में उत्पन्न हुए के प्रथम समय में मानकषायके उदयका उपदेश देखा जाता है । माया कषाय से मरा हुआ जीव तिर्यग्गतिमे नही (1) उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि तिर्यंचोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमे माया कषाय के उदयका नियम देखा जाता है। लोभकषायसे मरा हुआ जीव देवगति में नहीं (1) उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि उनमें उत्पन्न होनेवाले जीवों के सर्वप्रथम लोभ कषायका उदय होता है; ऐसा आचार्य परम्परागत उपदेश हैं । देखो जन्म / ६ / ११ ( सभी प्रकारके सूक्ष्म या बादर तिर्यच अनन्तर भव से मुक्ति के योग्य हैं ।) देखो कषाय / २ / ६ उपरोक्त कषायोके उदयका नियम कषायप्राभृत सिद्धान्त के अनुसार है, भूतत्रलिके अनुसार नहीं | नोट - (उपरोक्त कथनमें विरोध प्रतीत होता है। सर्वत्र हो 'नहीं' शब्द नहीं होना चाहिए ऐसा लगता है। शेष विचारज्ञ स्वयं विचार ले । ) ६. गति अगति चूलिका ७. लेश्याओंमें जन्म सम्बन्धी सामान्य नियम गो.जी./भाषा/२०/३२६/१० जिस गति सम्बन्धी पूर्वी आयु मान्दा होद तिस ही गति बिषे जो मरण होते लेश्या हो ताके अनुसार उप है, जैसे मनुष्य पूर्वे देवासुका बन्ध भया, बहुरि मरण होते कृष्णादि अशुभ लेश्या होइ तौ भवनत्रिक विषै ही उपजे है, ऐसे ही अन्यत्र जानना । दे. सल्लेखना / २/२ [जिस लेश्या सहित जीवका मरण होता है, उसी लेश्या सहित उसका जन्म होता है ।] ६. गति अगति चूलिका १. ताहिकाओं में प्रयुक्त संकेत प. पर्या - सू. -सूक्ष्म: एके. एकेन्द्रिय; चतु चतुरिन्द्रिय; जल-अप् वन. वनस्पति; मनु. मनुष्यः प्र. = प्रत्येकः वि. विकलेन्द्रि संख्य संख्यातवर्षायुष्क अर्थात् कर्मभूमिज । असंख्य असंख्यात वर्षायुष्क अर्थात भोगभूमिज । सी-सौधर्म; सौ. द्विसौधर्म, ईशान स्वर्ग E एम गुण स्थान नरक गति २. गुणस्थानसे गति सामान्य अर्थात् - किस गुणस्थानसे मरकर किस गतिमें उत्पन्न हो सकता है। और किसमें नहीं। संख्या मिथ्या हाँ हाँ सासा.. दृष्टि. १.x दृष्टि. २. x मिश्र अविरत प्रथम हाँ अप. अपर्याप्त; सं, संज्ञी; तिर्वच गति असंख्या हॉ x एके, पृ, अप हॉ प्र-वन, वि. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश X नरक देशविरत x X प्रमत्त X X ७-१२ ही. हीन्द्रियः पं. पंचेन्द्रिय; से. तेज; 5 = सं. असं पंचें मरणका अभाव X X X पंच. हॉहॉ मरणका अभाव बा. = बादर असं. असंज्ञी श्री. प्रीन्द्रिय मनु गति | देव गति सं- असं- सामा विशेष ख्या ख्या न्य हॉ हॉ हॉ हॉ the the X X पृ०-पृथिवी वायुवायु ति. = तियंच ग. गर्भज X X हाँ हाँ हाँ X ho ho ho x हॉ विशेष देखो आगे जन्म ६/३. देखो गोजी/जी प्र १२७/३३८ मरण / ३ जन्म / ३ जन्म /५ नरकगतिकी विशेष प्ररूपणा के लिए देखो आगे ( जन्म / ६ / ४ ) Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान उत्कृष्ट به مه سه له | अप चरक जन्म ६. गति अगति चूलिका ३. मनुष्य व तिथंच गतिसे चयकर देवगतिमें उत्पत्ति १. नरकगतिमें उत्पत्तिकी विशेष प्ररूपणा की विशेष प्ररूपणा (म्.आ./११५३-११५१ ); (ति.प./२/२८४-२८६); ( रा.वा./३/६/७/ अर्थात-किस भूमिका वाला मनुष्य या तिथंच किस प्रकारके देवों १६८/१५); ( ह.पु./४/३७३-३७७ ), (त्रि.सा/२०५ ) । में उत्पन्न होता है। अर्थात्-किस प्रकारका मनुष्य या तिथंच किस नरकमें उपजै और उत्कृष्ट कितनी बार उपज किस मू. आ/| ति. ५/ रा. वा। ह. पु./ त्रि./सा./ प्रकारका | ११६६- ८/५५६-४/२१/१० /१०३- ५४५ कौन जीव नरक कौन जीव नरक FI जीव । ११७७ । १६४ । ५३७/५ । १०७ १४७ । बार १ संज्ञी- भ०,व्यन्तर भवनत्रिक सहस्रार असं. पं. ति. भुजंगादि सामान्य (३/२००) तक सरीसृप. सिंहादि सं.ति. - सहस्रारतक (गोह, केटा स्त्री असंख्या, भवनत्रिक - भवन त्रिक - भवन त्रिक आदि) असंज्ञी भ०,व्यन्तर भवनत्रिक भ०,व्यन्तर --- पक्षी (भेरुण्ड मनुष्य व निर्ग्रन्थ उपरि. प्रैवे. उपरि. ग्रैवे. उपरि प्रैवे. उपरि, प्रैवे. प्रैवेयक आदि) मत्स्य दूषित धरित्री ऋद्धिक क्रूरउन्मार्गों सनिदान मन्दकषायी ५. गतियों में प्रवेश व निर्गमन सम्बन्धी गुणस्थान मधुरभाषी भवनसे ब्रह्मोत्तर अर्थात्-किस गतिमें कौन गुणस्थान सहित प्रवेश सम्भव है, तथा ब्रह्मतक किस विवक्षित गुणस्थान सहित प्रवेश करने वाला जीव वहाँसे किस परिबाजक ब्रह्मतक ब्रह्मतक ब्रह्मतक गुणस्थान सहित निकल सकता है। (प.वं.६/१,६-६/सू.४४-७५/ संन्यासी ४३७-४४६); (रा.बा/३/६/७/१६/१८) । आजीवक | सहसार भवनसे सहसार सहस्रार अच्युत तक अच्युत तक तक तक तापस भवनत्रिक भवनत्रिक | ज्योतिषी 'भवनत्रिक || निर्गमन गति 15 विशेष FE गुणस्था. गुणस्था. २ ति संख्या जन्म/६/६ सहसारतक ति.असंख्य भवनत्रिक नरक गतिमनु. संख्य ग्रैवेयक तक म प्रथम ४४-४६१ ६१ मनुष्यणी ६१-६३ १ | १,२,४ मनु.असंख्य भवनत्रिक ३ सं.पं.ति. | सौधर्मसे - अच्युत संख्य० जन्म ६/६ अच्युत देवगतिअसंख्य - देव - सौधर्म सौधर्म- || तियंच गति भवनत्रिक ६१-६३११,२,४ ति जन्म ६/६ ईशान द्विक |10 पं. ति. ५३-१५ १ देव देवियों ६४ | २ मनु-संख्यः " - सर्वार्थ सिद्रितक पं.ति.प. ५६-५७ २ सौधर्मद्वि. __ - सौधर्म द्विकतक ६० पं.ति.अप ५७४ की देवियाँ अच्युत । सौधर्मसे । सौधर्म से । सौधर्मसे, अच्युत १.ति. | (श्रावक)| तक अच्युत अच्युत अच्युत कल्प ६५-६४ १ | १,२,४ ६६) सौधर्मसे -८१ | १.२,४ | योनिमति । स्त्री अच्युततक - - - वेयक ६-७१/२ ७२-७४४ सामान्य उ.ग्रे.से. उz.से. उगै.से, उ.प्रै से उ.. से. अप. पृ.४४४१ सर्वार्थ सि. सर्वार्थसि. सर्वार्थ सि. सर्वार्थ सि. सर्वार्थ सि. दशपूर्वसौधर्मसे - मनुष्यगति-- ५) अनूदिशसे । ७५४ | ४ धर सर्वार्थ ६) मनुष्य सा.६६-६८ १ १,२,४ सर्वार्थ चतुर्दश लान्तवसे । - मनु. प. ६९-७१२ १,२,४ पूर्वधर सर्वार्थ मनु. अष. १७२-७४/४ | १,२,४ तक । निर्गमन गति प्रवेशकालीन गुणस्थान विशेष प्रवेशकालीन गुणस्थान ह कालीन मनु.असंख्य ७ पुलाकवकुश || आदि दे, साधु/५. - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म ३२० ६. गति-अगति चूलिका निर्गमन IA गुणस्थान १३४ XXX नरक गति गुणस्थान देव सूत्र नं. * १० orm ६. गतिमार्गणाकी अपेक्षा गति प्राप्ति प्राप्तव्य गति विशेष अर्थात्-- कौन जीव किस गतिसे किस गुणस्थान सहित निकल कर तियच । मनुष्य | देव गति गति सूत्र नं गति गति किस गतिमे उत्पन्न होता है। (ष,खं.६/१,६-४/सू ७६-२०२/४३७- विशेष ४८४); असख्या१1१३५-१३६ भवनत्रिक निर्गमन प्राप्तव्य गति विशेष F| तिर्यच |४|१:१-१४० x सौ० द्वि० F विशेष गति ! गति नरकगति-(रा वा/३/६/७/१६८/२३); (ह पू./४/३७८); (त्रि.सा./२०३) मनुष्यगति १४१ संख्या० | ११४२-१४६ / सर्व सर्व सर्व गवेग्रकनक ६२ १-६ | १| ७६-८५ | | पं.सं.ग.प.- ग.प.- 1 x संख्या० संख्या ||१४७संख्य० अप० २ १५१-१६०, एके (बा पृ.-ग. प. भवनसे नव मरण भाव (दे० मरण/३) जल. वन-प्र-संख्य वेयस्तक प.) पं संग-असंख्य ८८-११ |x प संख्यक संख्या० असंख्य ६३/७ १ ।। ६४-६8x पं .सं.ग.प.- x । संख्या ॥१६१ सख्या ३१६२ -मरणाभाव (दे मरण/३)९६३ संख्य० ४ १६४-१६५/ x x xसौ० से (मू.आ./११५६)-श्वापद, भुजंग, व्याघ, सिह, सर्वार्थ सुकर, गीध आदि होते हैं, तथा(ह.पु./४/३७८)-पुनः तीसरे भवमें नरक जाता है। ||९६६ असंख्य ० १ १६७-१६८/x মনকি तिर्यंचगति |३, १६६ - मरणाभाव (देखो मरण/३)सं.पं प. | १ | १०२-१०६ सर्व सर्व भवनसे । १७० |४|१७१-१७२ x x x | सौ. दि. संख्यक सहस्रार कुमानुष --ति.प/४/२५१५-२५-१५-उपरोक्त असंख्यातचत्--- १०७ असं.पं.प. १ | १०८-१११ प्रथ. सर्व संख्य० सर्व- भवन व देवगतिसंख्य व्यन्तर ||१६०/- भवनत्रिक १७८-१८३ / ४ एके(वा. पृ. | ग. प. x जल. वन) संख्य ११२ पं.सं.असं. १ ११३-११४ |x सं.पं.गप प.व अप. पृ.जल वन १ - मरणाभाव (दे. मरण/३) , १८६-१८१ संख्य बा.सू.प. व अप. सनत्कुमार सहस्रार संख्य० संख्या वन,बा.प्र. १ प. व अप. --मरणाभाव ( दे मरण/३) xxx xxx १६६ १७३/ सौ. कि x , १८ x " निगोद xxxx xxxxxx ___ । विकलत्रय१|| x Ixxxxx संरूया 1१२ x | " आनतसे १ नव वेयक तेज, वायु, | १ ११६-११७ x बा.सू.प. व अप. به سد १६७ १६३-१६६ २ १११-१२६ IPER ११८, सं.पं. प. संख्यक भवनसे सहस्रार एके (पृ- ग.प.-1 जल, वन- संख्या प्र.बा.सू.) असंपंसं.ग.प.- ख्या संख्यक परणाभाव (देखो मरण/३) 1 ग. प.! संख्या x १६८ अनुदिशसे | ४ | १६६-२०२४ सर्वार्थ सि० १३० मरणाभाव (दे० मरण/३) १३७ संख्य० १३७ असंख्य ०३ संख्य०४ -५ १३२-१३३/ x x सौ-अच्युत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म ६. गति-अगति चूलिका ९. शलाका पुरुषों की अपेक्षा गति प्रालि ७. लेश्याकी अपेक्षा गति प्राप्ति अर्थात्-किस लेश्यासे मरकर किस गतिमें उत्पन्न हो। (रा.वा./४/२२/१०/२००/६) (गो.जी./म्/५१६-५२८/१२०-६२६ ) अर्थात्-शलाका पुरुष कौन गति नियमसे प्राप्त करते है(ति.प./8/गा.नं.)। १४२३-प्रति नारायण =नरकगति। १४३६-नारायण =नरकगति। इन्द्रकमें -बलदेव -स्वर्ग व मोक्ष। १४४२-रुद्र -नरकगति। १४७०- नारद नरकगति। निर्गमन निर्गमन देवगति देव व लेश्यांश लेश्यांश नरकगति तिर्यच | शुक्ललेश्या कृष्णलेश्याउत्कृष्ट | सर्वार्थ सिद्धि | उत्कृष्ट | ७वीं पृ० के अप्रतिष्ठान मध्यम आनतसे अपराजित जघन्य शुकसे सहस्रारतक | मध्यम | छठी प्र. के प्रथम पटल | भवनपद्मलेश्या से ७वीं के श्रेणी बद्ध त्रिक उत्कृष्ट सहस्रारतक तक यथामध्यम ब्रह्मसे शतारतक योग्य जघन्य सानत्कुमार माहेन्द्र पाँचौ तक स्थावर पीतलेश्या- जघन्य ५वीं पृ. के चरम पटलतक उत्कृष्ट सानत्कुमार माहेन्द्र नीललेश्या के चरम पटलतक उत्कृष्ट ५वी पृ. के द्विचरम मध्यम सानत्कुमार माहेन्द्रके पटलतक द्विचरम पटलतक मध्यम वीं पृ.के तीसरे पटलसे | , तथा ३री पृ.के २रे पटलतक भवन त्रिक व यथा- जघन्य | | ३री पृ. के १ले पटलतक योग्य पाँचौं स्था- कापोतलेश्यावरोंमें उत्कृष्ट | श्री पृ. के चरम पटलमें जघन्य | सौधर्मद्विकके मध्यम ३री पृ. के द्विचरम पटल १ले पटल तक से १ली पृ के ३रे पटल तक जघन्य श्लो पृ. के १ले पटलतक १०. नरकगतिमें पुनः पुनर्मव धारणकी सीमा - - ध./७/२,२,२७/१२७/११ देव णेरइमाण भोगभूमितिरिक्वमणुस्साणं च मुदाणं पुणो तत्थे बाणं तरमुप्पत्तीए अभावादो। - देव, नारकी, भोगभूमिज तिर्यच और भोगभूमिज मनुष्य, इनके मरनेपर पुनः उसी पर्यायमें उत्पत्ति नहीं पायी जाती, क्योंकि, इसका अत्यन्त अभाव है। नोट-परन्तु बीचमें एक-एक अन्य भव धारण करके पुनः उसी पर्यायमें उत्पन्न होना सम्भव है । वह उत्कृष्ट कितनी बार होना सम्भव है, वही बात निम्न तालिकामें बतायो जाती है। ८.संहननकी अपेक्षा गति प्राप्ति अर्थात-किस संहननसे मरकर किस गतितक उत्पन्न होना सम्भव है। (गो.क./मू./२६-३१/२५) ( गो.क./जी.प्र./५४६/७२५/१४ ) संकेत-१-वज्रऋषभनाराच; २-वज्रनाराच; ३ नाराच; ४ अर्धनाराच, ५-कीलित:६-सपाटिका। प्रमाण-ति.प./२/२८६-२८७, रा.वा./३/६/७/१६८/१२वें (इसमें केवल अन्तर निरन्तर भव नहीं ); ह. पु./४/३७१, ३७५-३७७; त्रि.सा /२०५२०६ संहनन प्राप्तव्य स्वर्ग संहनन विशेष प्राप्तव्य | नरक पृ० नरक कितनी बार उत्कृष्ट अन्तर नरक कितनी बार उत्कृष्ट अन्तर १ ४ बार २मास पंच अनुत्तरतक नव अनुदिशतक १,२,३ | नव ग्रेवेयकतक। १,२,३,४ अच्युततक १-५ सहस्रारतक १-६ सौधर्मसे कापिष्ट २४ मुहूर्त |पंचम पृ. ७ दिन ४ मास मनु व मत्स्य वीं पृ. तक स्त्री+ उपरोक्तठी पृ. तक प्रथम पृ. ८ बार | सिंह+उपरोक्त सर्व ५वीं पृ. तक ७ बार भुजंग+ ४थी पृ. तक | पक्षी+ , ३री पृ. तकात. पृ. ६ बार सरीसृप+ , | असंज्ञी+, ली. पृ. तक | ३ बार २बार | सप्तम पृ. ६ मास री पृ. तक चतु पृ. ५ बार १मास जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-४१ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म ३२२ ६. गति-अगति चूलिका ११.गुणोत्पादन सारणी- अर्थात कौन गतिसे किस गतिमें उत्पन्न होकर कौन-कौनसे गुण उत्पन्न करनेके योग्य होना सम्भव है तथा शलाका पुरुषों में से क्या-क्या बनना सम्भव है। संकेत- ४-नहीं होता; उ.-उत्पन्न कर सकते हैं; नि.उ.नियमसे उत्पन्न करते हैं। नि.र-नियमसे रहता है; वि.र. विकल्पसे रहता है। शेष संकेतोंके लिए देखो जन्म/६/१। कौनसे गुण उत्पन्न कर सकता है किस ज्ञान सम्यक्त्व संयम शलाका पुरुष किस गतिमें आकर गतिसे ष.ख./६ मा योग जोड मति श्रुत अवधि मन.पर्यय केवल सम्यक मिथ्यात्वे सम्यक्त्व संयमासंयम संयम बलदेव वासुदेव चक्रवर्ती तीर्थकर x x x x x x x १. नरक गतिसे-(प.ख.६/१,६-६/सूत्र २०३-२२०/४८४-४६२); (म.आ./११५५-११६१); (रा.बा./३/६/७११६८/३०); (ह.पु./४/३७६-३८२); (त्रि.सा./२०४)। २०३-२०४ | सप्तम पृथिवीसेतियंच २०५ | xxx २०६-२०७ षष्ट पृथिवीसे (तियच २०८ उ. 1 मनुष्य २०६-२१० पंचम पृथिवीसे (तियंच र मनुष्य २१२ | .. २१३-२१४ चतुर्थ पृथिवीसे (तियंच २१५ , । मनुष्य २१६, २१७-२१८ तृ० द्वि० प्र० पृथिवीसे (तियंच मनुष्य २२० | " " | उ. उ. " " " ' उ. | | २. तिर्यंच गतिसे-(प.व./६/१,६-६/सूत्र २२१-२२५/४६२-४६३); (ति.प./५/३१०-३१४); (त्रि.सा./५४६) २२१-२२२ । सामान्य ति. संख्य० नरक २२३| उ. | उ. | उ.| उ ४] ४| तियच मनुष्य xxx xxx x x xxxxx xxxx xxxxxxxxx x x x x x xxxxxxxxxxxxx x । xxx x; : xxx । । xxxx देव xx x x x 4x4xx 'नारक x ति.प./ सभी ३४ प्रकारके मनुष्य १/३१४ एम. बा. आदि ति. संख्य. --xx x xउ, | | (दे०जीव समास) - ति. असंख्य ० दे ति. संख्यावत ही जानना ३. मनुष्य गतिसे-(प.स्व.६/१,६-४/सूत्र २२१-२२५/४६२-४६३) २२१-२२२ । | चारों । - उपरोक्त तियंचवत --- ४. देवगतिसे- (प.ख.६/१,६-६/सूत्र २२६-२४३/४६४-५००) २२६-२२७ । देव सामान्य I तिर्यंच, २२८ उ. | उ. | उ. | ४ | Ixxxxxx 7 मनुष्य २२६, २३०-२३१ (भवनत्रिक देवदेवी तिर्यच सौधर्म द्विको देवी 1 मनुष्य | २३४ (सौधर्मसे शतार | तियंच सहस्रार तकके देव | 1 मनुष्य २३५-२३६ | आनतसे अन्त ग्रैवे. मनुष्य २३८-२३६ अनुदिशसे अपराजित २४० नि र.नि.र. वि.र २४१-२४२ सर्वार्थ सिद्धि देव 24x4xx x xxxbE xx xb ::: ::. :::xx x xxx xxx xx x :: xx X : h : . जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मेजय ३२३ जयसिंह भाग 'मतसमुच्चय' (वि. १८७४), आप्त मीमांसा (वि. १८८६), धन्य कुमार चरित, सामायिक पाठ। इनके अतिरिक्त हिन्दी भाषा में अपनी स्वतंत्र रचनायें भी की। यथा-पदसंग्रह. अध्यात्म रहस्यपूर्ण चिट्ठी (वि. १८७०) समय-वि. १८२०-१८८६ (ई. १७६३-१८२६) । (हि. जै.सा.इ./पृ. १८६/कामताप्रसाद ); (र.क.पा./प्र. पृ.१६/पं. परमानन्द); (न.दी./प्र.७/ रामप्रसाद जैन बम्बई)। (ती./४/२६०) जन्मजय-कुरुवंशी राजा परीक्षितका पुत्र और शतानीकका पिता था। पांचालदेश (कुरुक्षेत्र) का राजा था। समय-ई० पू० १४५०१४२० (विशेष-दे० इतिहास/३/२); (भारतीय इतिहास/पु.१/पृ २८६)। जयंत-१. कल्पातीत देवोंका एक भेद-दे० स्वर्ग२/१२. इन देवोंका लोकमें अबस्थान-दे० स्वर्ग/५/४ ३. एक ग्रह-दे० ग्रह। ४. एक यक्ष -दे० यक्ष। ५. जम्बुद्वीपकी वेदिकाका पश्चिम द्वार-दे० लोक३/१ ६. विजयार्धकी दक्षिण व उत्तर श्रेणीके दो नगर-दे० विद्याधर। जयत भट्ट-ई०८४० के 'न्याय मंजरी' ग्रन्थके कर्ता नैयायिक विद्वान् । आपने मीमांसकोंका बहुत खण्डन किया है (सि.वि./प्र.३०! पं. महेन्द्र कुमार); (स्याबाद सिद्धि/प्र.२२/पं. दरबारीलाल कोठिया)। जयतिकी-रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी महत्तरिका -दे० लोक/५/१३ । जयंती-१.रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी देवी-दे० लोक ५/१३,२. नन्दीश्वरद्वीपकी पश्चिम दिशामें स्थित वापी -दे० लोक५/११,३.अपर विदेहस्य महावप्र क्षेत्रकी मुख्य नगरी -दे० लोक ५/२४. भरतक्षेत्रका एक नगर-दे० मनुष्य/४१. एक मन्त्रविद्या-दे० विद्या। जय-न्याय सम्बन्धी वादमे जय-पराजय व्यवस्था-दे० न्याय/२ । जय-१. भाविकालीन २१वें तीर्थकर-दे० तीर्थकर/१२. (वृ. कथा कोश/कथा नं ६/पृ) सिहलद्वीपके राजा गगनादित्यका पुत्र था (१७) पिताकी मृत्युके पश्चात् उसके एक मित्र उज्जयिनी नगरीके राजाके पासमें रहने लगा। वहाँ एक दिन भोजन करते समय अपने भाईके मुखसे सुना कि यह भोजन 'विषान्न' है। 'विषान्न' कहनेसे उसका तात्पर्य पौष्टिकका था, पर वह इसका अर्थ विषमिश्रित लगा बैठा और इसीलिए केवल विष खानेको कल्पनाके कारण मर गया ।१७-१८। जयकीति-अपर नाम प्रश्नकीर्ति था। आप भाविकालीन १०वें तीर्थकर हैं-दे० तीर्थंकर/५ । जयकुमार-(म पु./सर्ग/श्लोक ) कुरुजांगल देशमें हस्तिनागपुरके राजा व राजा श्रेयांसके भाई सोमप्रभके पुत्र थे (४३/७४) । राज्य पानेके पश्चात् (४३/८७) आप भरत चक्रवर्तीके प्रधान सेनापति बन गये। दिग्विजयके समय मेघ नामा देवको जीतनेके कारण आपका नाम मेघेश्वर पड़ गया (३२/६७-७४; ४३/३१२-१३)। राजा अकम्पनकी पुत्री सुलोचनाके साथ विवाह हुआ (४३/३२६-३२६) । सुलोचनाके लिए भरतके पुत्र अकं कीतिके साथ युद्ध किया (४४/७१-७२)। जिसमे आपने अर्ककीतिको नागपाशमें बाँध लिया (४४/३४४-३४५)। अकम्पन व भरत दोनोंने मिलकर उनका मनमिटाव कराया (४५/१०-७२) । एक देवी द्वारा परीक्षा किये जानेपर भी शीलसे न डिगे (४७/२६-७३)। अन्तमें भगवान ऋषभदेवके ७१वें गणधर बने (४७/२८५-२८६)। पूर्व भव नं. ४ में आप सेठ अशोकके पुत्र सुकान्त थे (४६/१०६,८८)। पूर्व भव नं.३ में 'रतिवर' (४६/८८)। पूर्व भव नं.२ में राजा आदित्यगतिके पुत्र हिरण्यवर्मा (४६/१४५-१४६)। और पूर्व भव न.१ में देव थे (४६/२५०-२५२)। नोट-युगपत पूर्व भक्के लिए (दे० ४६/३६४-६८) जयचंदजयपुर के पास फागी ग्राम में जन्मे। पं० टोडरमल का प्रवचन सुनने जयपुर आये। अपने पुत्र नन्दलाल से एक विदेशी विद्वान को परास्त कराया। ढुंढारी भाषा में अनेक ग्रन्थो पर वच निकायें लिखी यथा-सर्वार्थ सिद्धि (वि. १८६१), प्रमेघरत्नमाला (वि. १८६३), कार्तिकेयानुप्रेक्षा (वि. १८६३), द्रव्य संग्रह (वि १८६३), समयसार (वि. १८६४). अष्ट पाहुड (वि. १८६७), ज्ञानार्णव (वि १८६६) भक्तामर कथा (वि० १८७०), चन्द्र प्रभचरित के द्वि सर्ग का न्याय जयद्रथ-(पा. पु./सर्ग/श्लोक ) कौरवोकी तरफसे पाण्डवोंके साथ लडा था (१६/५३) । युद्धमें अभिमन्युको अन्याय पूर्वक मारा (२०/३०) । अर्जुनकी जयद्रथ वधकी प्रतिज्ञासे भयभीत हो जानेपर ( २०/६८) द्रोणाचार्यने धैर्य बंधाया (२०/६८) । अन्तमें अर्जुन द्वारा मारा गया। (२०/१६८)। जयधवला-आ. यतिवृषभ (ई.१५०-१८०) कृत कषाय पाहुड़ ग्रन्थकी ६०,००० श्लोक प्रमाण विस्तृत टीका है। इसमेंसे २०,००० श्लोक प्रमाण भाग तो आ. वीरसेन स्वामी (ई.७७०-८२७) कृत है और शेष ४०,००० श्लोक प्रमाण भाग उनके शिष्य आ. जिनसैन स्वामी ने ई. ८३७ में पूरा किया। (दे. परिशिष्ट १) । जयनंदिनन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावलीके अनुसार आप देवनन्दिके शिष्य तथा गुणनन्दिके गुरु थे। समय-विक्रम शक सं. ३०८-३५८ (ई ३८६-४३६ )-दे० इतिहास/७/२ । जयपाल-श्रुतावतारकी पट्टावलीके अनुसार आप ११ अंगधारियों में द्वितीय थे। अपर नाम यशपाल या जसपाल था । समय-वी. नि, ३६३-३८३ (ई.पू. १६४-१४४ )-दे० इतिहास/४/४। जयपुर-भरत क्षेत्रको एक नगर-दे० मनुष्य/४ । -विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । जयबाहु-श्रुतावतारकी पट्टावलीके अनुसार आप आठ अंगधारी थे। दूसरी मान्यताके अनुसार आप केवल आचारांगधारी थे। अपर नाम भद्रबाहु या यशोबाहु था। (विशेष देखो भद्रबाहु-द्वितीय)। जयमित्र-सप्त ऋषियोंमेसे एक-दे० सप्त ऋषि । जयराशि- ई. ७२५-८२५ के, 'तत्त्वोपप्लव सिंह' के कर्ता एक ___अजैन नैयायिक विद्वान् । जयवराह-पश्चिममे सौराष्ट्र देशका राजा था। अनुमानतः चालुक्यवंशी था। इसीके समय श्री श्रीजिनसेनाचार्यने अपना हरिवंशपुराण (श ७०५ में) लिखना प्रारम्भ किया था। समयश. सं.७००-७२५ ( ई. ७७८-८०३ ); ( ह. पु/६६/५२-५३); (ह. पु./ प्र.६/पं. पन्नालाल)। जयवमो-(म.पु./५/ श्लोक नं.) गन्धिला देशमें सिंहपुरनगरके राजा श्रीषेणका पुत्र था ।२०५॥ पिता द्वारा छोटे भाईको राज्य दिया जाने के कारण विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली ।२०७-२०८। आकाशमैसे जाते हुए महीधर नामके विद्याधरको देखकर विद्याधरोंके भोगोंकी प्राप्तिका निदान किया। उसी समय सर्पदंशके निमित्तसे मरकर महाबल नामका विद्याधर हुआ ।२०६-२११। यह ऋषभदेवके पूर्वका दसवाँ भव है-दे० ऋषभ। जयवान-सप्त ऋषियोंमेसे एक-दे० सप्त ऋषि । जयविलास-श्वेताम्बराचार्य यशोविजय (ई. १६३५-१६८८ ) द्वारा रचित भाषा पदसंग्रह । जयोसह-१ जयसिहराज प्रथम भोजवंशी राजा थे। भोजवंशकी वंशावली के अनुसार यह राजा भोजके पुत्र व उदयादित्य के पिता थे। इनका देश मालवा ( मगध ) तथा राजधानी उज्जैनी (धारा नगरी) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयसेन जल थी। समय-वि.-१११२-१११५. ( ई.१०५५-१०५८)।--विशेष दे० इतिहास/३/१ (स.श./प्र./२६/ पं. जुगल किशोर )। २. जयसिंहराज द्वि. भोजवंशी राजा थे। भोजवंशकी वंशावलीके अनुसार राजा देवपालके पुत्र थे। अपर नाम जैतुगिदेव था। इनका देश मालवा (मगध ) तथा राजधानी उज्जैनी (धारा नगरी ) थी। समय-वि० १२८५-१२६६ (ई. १२२८-१२३६)-दे० इतिहास/३/१३. सिद्धराज जय सिह गुजरात देशकी राजधानी अणहिल्लपुर पाटणके राजा थे। आप पहले शैव मतावलम्बी थे, पीछे श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रसे प्रभावित होकर जैन हो गये थे। समय-ई. १०८८-११८३। (स. म./प्र. ११)। ४. जयसिंह सवाई जय पुरके राजा थे। वि. १७८४ में आपने ही जयपुर नगर बसाया था। समय-वि. १७६०-१८०० (ई. १७०३-१७४३) ( मो. मा. प्र./प्र.१७/पं. परमानन्द)। जयसन-१. (म.प्र./१८/श्लो नं.)। जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्सकावतीका राजा था ।५८ पुत्र रतिषणको मृत्युपर विरक्त हो दीक्षा धर ली/६२-६७ । अन्तमें स्वर्गमें महाबल नामका देव हुआ/६८ । यह सगर चक्रवर्तीका पूर्व भव नं. २ है।-दे० सगर । २. (म पु./६६/श्लो. नं.) पूर्व भव नं.२ में श्रीपुर नगरका राजा वसुन्धर था ।७४। पूर्वभव नं. १ मे महाशुक्र विमानमें देव था ७७। वर्तमान भवमें ११वाँ चक्रवर्ती हुआ ।७८। अपर नाम जय था।-दे० शलाका पुरुष/२।। कर ली। (६६/३)। २. द्वारका दहनके पश्चात कलिगका राजा हुआ। इसकी सन्ततिमें ही राजा वसुध्वज हुए।-दे० इतिहास ७/१० । जरा(नि. सा/ता. वृ/६ ) तिर्यड्मानवानां वय कृतदेहविकार एव जरा। - तियंचों और मनुष्योंका आयुकृत देहविकार जरा है। जरापल्ली-जरापल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र भट्टारक पद्मनन्दि नं.१० (ई. १३२८-१३६३) की एक१०पयों वाली रचना है । (ती /३/३२३)। जरायु-(स. सि/२/३३/१८६/१२) यज्जालवत्प्राणिपरिवरणं विततमांसशोणित तज्जरायुः । = जो जालके समान प्राणियोका आवरण है और जो मांस और शोणितसे बना है उसे जरायु कहते हैं ( रा. वा/२/३३/१/१४३/३०); ( गो. जी./जी प्र./८४/२०७/४ ). जरासंध-(ह. पु/सर्ग/श्लोक )-राजगृह नगरके स्वामी बृहद्रथका पुत्र था (१८/२१-२२)। राजगृह नगरका हरिवंशीय राजा था। (३३/२) । अपनी पुत्री जीवद्यशाका विवाह केसके साथ करके उसे अपना सेनापति बना लिया (३३/२४)। कृष्ण द्वारा कंस मारा गया।(३६/४५) । युद्धमें स्वयं भी कृष्ण द्वारा मारा गया (१२/८३-८४) । यह तीन खण्डका स्वामी वॉ प्रतिनारायण था ( १८/२३) विशेष दे० शलाका पुरुष/५)। जल-जैनाम्नायमें जलको भी एकेन्द्रिय जीवकाय स्वीकार किया गया है। १. जलके पर्यायगत भेद मू.आ/२१० ओसाय हिमग महिगा हरदणु सुद्धोदगे घणुदुगे य । ते जाण आउजीवा जाणित्ता परिहरेदब्वा ।२१०। ओस, बर्फ, धुआँके समान पाला, स्थूलबिन्दु रूपजल, सूक्ष्म बिन्दु रूप जल, चन्द्रकान्त मणिसे उत्पन्न शुद्ध जल, झरनेसे उत्पन्न जल, मेघका जल वा घनोदधिवात जल-ये सब जल कायिक जीव हैं । (पं.स./प्रा./१/७८); (ध./१/१,१,४२ गा१५०/२७३), (भ.आ/वि/६०८/८०५/१७); (त.सा/२/६३) । जयसन-१. श्रुतावतारको पट्टावलीके अनुसार आप भद्रबाहू श्रुतकेवलीके पश्चात् चौथे ११ अंग व १४ पूर्वधारी थे । समय-वी. नि. २०८-२२६ ( ई. पू./३१९-२६८ ) दृष्टि नं ३ के अनुसार वी. नि. २६८२८६१-दे० इतिहास/४/४।२ पुन्नाटसंघ- की गुर्वावली के अनुसार आप शान्तिसेनके शिष्य तथा अमितसेनके गुरु थे । समय-वि.७८०. ८३० ( ई. ७२३-७७३ )।-दे० इतिहास/७/८ ।३. पंचस्तूप संघकी गुर्वावलीके अनुसार आप आर्यनन्दिके शिष्य तथा धवलाकार श्री वीरसेनके सधर्मा थे। समय-ई. ७७०-८२७ -दे० इतिहास/७/७ । ४. लाड़बागड संघकी गुर्वावलोके अनुसार आप भावसेनके शिष्य तथा ब्रह्मसेनके गुरु थे। कृति-धर्म-रत्नाकर श्रावकाचार । समय--- वि.१०५५( ई.६६८)।-दे०इतिहास/७/१०। जे/१/३७५) ५-आचार्य वसुनन्दि (वि. ११२५-११७५, ई. १०६८- १११८) का अपर नाम । प्रतिष्ठापाठ आदिके रचयिता।-दे० वसुनन्दि/३ ६.लाड़बागड़संघकी गुर्वावलीकेअनुसार आप नरेन्द्रसेनकेशिष्य तथा गुणसेन नं.२ व उदयसेन नं. २ के सधर्मा थे। समय-वि. ११८०-दे० इतिहास७/१०। वीरसेन के प्रशिष्य सोमसेन के शिष्य । कृतिये-समयमार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय पर सरल संस्कृत टीकायें। समय-t. कैलाश चन्द जी के अनुसार बि. श. १३ का पूर्वाध, ई. श. १२ का उत्तरार्ध । डा० नेमिचन्द के अनुसार ई. श. ११ का उत्तरार्ध १२ का पूर्वाध । (जै /२/१६४), (तो,/३/१४३)। जया-१. अरहनाथ भगवानकी शासक यक्षिणी-दे० तीर्थकर//३ २. एक विद्याधर विद्या,व एक मन्त्र विद्या-दे०विद्या। ३. वाचना या व्याख्याका एक भेद-दे० वाचना। २. प्राणायाम सम्बन्धी अपमण्डल ज्ञा./२६/२० अर्द्धचन्द्रसमाकारं वारुणाक्षरलक्षितम् । स्फुरत्सुधाम्बुसं सिक्तं चन्द्राभ वारुणं पुरम् १२० - आकारतो आधे चन्द्रमाके समान, वारुण बीजाक्षरसे चिह्नित और स्फुरायमान अमृतस्वरूप जलसे सींच। हुआ ऐसा चन्द्रमा सरीखा शुकवर्ण वरुणपुर है । यह अप-मण्डलका स्वरूप कहा। ३. अन्य सम्बन्धित विषय १. जलके काय कायिकादि चार भेद-दे० पृथिवी। २. बादर जलकायिकोंका भवनवासी देवोंके भवनों तथा नरक पृथिवियोंमें अवस्थान ।-दे० काय/२/५ । ३. जलमें पुद्गलके सर्वगुणोंका अस्तित्व ।-३० पुद्गल/११ ४. मार्गणा प्रकरणमें भावमार्गणाकी इष्टता तथा वहाँ आयके अनुसार ही व्ययका नियम ।-दे० मार्गणा। ५. जलकायिक सम्बन्धी गुणस्थान, मार्गणास्थान व जीवसमास आदि २० प्ररूपणाएँ-दे० सत् ।। ६. जलकायिक सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्प-बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ--दे० वह-वह नाम । ७. जलकायिक नामकर्मका बन्ध उदयसत्व -दे. वह-वह नाम । ८. जलका वर्ण धवल ही होता है-दे० लेश्या/३ ) जयावह-विजया की उत्तरश्रेणीका एक नगर ।-(दे. विद्याघर ). जरत्कुमार-१.( ह. पु/सर्ग/श्लोक )-रानी जरासे बसुदेवका पुत्र था। (४८/६३) भगवान् नेमिनाथके मुखसे अपनेको कुष्णकी मृत्युका कारण जान जंगल में जाकर रहने लगा (६१/३०) द्वारिका जलनेपर जब कृष्ण वनमे आये तो दूरसे उन्हें हिरन समझकर बाण मारा, जिससे वह मर गये (६२/२७-६१)। पाण्डवोंको जाकर सब समाचार बताया (६३/४६)। और उनके द्वारा राज्य प्राप्त किया (६३/७२) । इनसे यादव वंशकी परम्परा चली। अन्तमें दीक्षा धारण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलकाय व जलकायिक जलकाय व जलकायिक-३०। - जल केतु एक प्रदे० ग्र जलगता चूलिका शाग राज्ञानका एक भेद ---- - जल गति - एक औषधि विद्या० विद्या जल गालन - जैन मार्गमे जलको छानकर ही प्रयोगमे लाना, यह एक बड़ा गौरवशाली धर्म समझा जाता है। जलकी शुद्धि अशुद्धि सम्बन्धी नियम इस प्रकरण मे निर्दिष्ट है । १. प्रासुक जल निर्दश १. वर्षाका जल प्रासुक -- दे० श्रुतज्ञान / III | है भा.पा/टी / १११/२६१/२१. वर्षाकाले तरुमुले तिष्ठ वृक्षोपरि पतित्वा जलपरिपतति तस्य प्राद्विराधान न भवति । यतिन वर्षाऋतु योग धारण करते है। = मे वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करते है । उस समय वृक्षके पत्तो पर पड़ा हुआ वर्षाका जो जल यतिके शरीरपर पड़ता है उससे उसको अपकायिक जीवोंकी विराधनाका दोष नहीं लगता, क्योंकि वह जल प्राशुक होता है। २. रूप रस परिणत ही ठण्डा जल प्रासुक होता है दे. आहार / II/४/४/३ तिल, चावल, तुष या चना आदिका धोया हुआ जल अथवा गरम करके ठण्डा हो गया जल या हरड आदिसे अपरिणत जल, उसे लेनेसे साधुको अपरिणत दोष लगता है । भ.आ.हि.पं. दौलतराम / २५० /१० १२६ या पृ० ११० सिनिके प्रक्षालनका जल तथा चावल धोवनेका जल तथा जो जल तप्त होय करि ठण्डा हो गया होय तथा चणाके धोवनेका जल तथा तुष धोवनेका जल तथा हरडका चूर्ण जामे मिला हाय, ऐसा जो आपका रस गन्धकुं नही पलटा, सो अपरिणत दोष सहित है। अर जो वर्ण रस गन्ध इत्यादि जापटि गया होय सो परिणत है, सानुके लेने योग्य है। * गर्म जल प्रासुक होता है-३० जल गालन/१/४ | ३२५ ३. शौच व स्नानके लिए तो ताड़ित जल या बावड़ीका ताजा जल भी प्रासुक है रत्नमाला / ६३-६४ पाषाणोरस्करितं तोयं घटीयन्त्रेण ताडितम् । सद्यः संतापीनां प्राशुक जलमुच्यते ॥ ६३॥ देवर्षीणां प्रशौचाय स्नानाय च गृहस्थिनाम् अकं परं वारि महातीर्थ जमध्यद ६४ पाषाणको फोडकर निकला हुआ अर्थाद पर्वतीय झरनोका, अथवा रहट द्वारा ताड़ित हुआ और वायोका गरम-गरम ताजा जल प्रामुक है । इसके सिवाय अन्य सब जल, चाहे महातीर्थ गंगा आदिका क्यों न हो, अमुक है । ६३० यह जल देवर्षियोंको तो शौच के लिए और गृहस्थोंको मानके लिए वर्जनीय नहीं है ॥६४॥ ४. जलको प्रासुरु करने की विधि व उसकी मर्यादा व्रत विधान संग्रह / ३१ पर उधृत रत्नमालाका श्लोक मुहूर्त लि तोयं प्राकं प्रहरद्वयम् । उष्णोदमहोरात्रमगालितमिबोच्यते । - छना हुआ जल दो घडी तक, हरडे आदिसे प्रामुक किया गया (देखो ऊपर नं० २) दो पहर या छह घण्टे तक तथा उबाला हुआ जल २४ घण्टे तक प्राक या पीने योग्य रहता है, और उसके पश्चात् बिना छनेके समान हो जाते है । ★ जलका वर्ण धवल ही होता है - दे० लेश्या / ३ । जल गालन २. जल गालन निर्देश १. सभी तरल पदार्थ छानकर प्रयोग में लाने चाहिए सं./२/२२ गालि रमस्त्रेण सर्पिस्तेले पयो द्रव तोयं जिनागमाम्नायाहारेल्स न चान्यथा ॥२३॥ [षी तेस, दूध, पानी आदि पतले पदार्थो को बिना छाने कभी काममें नहीं लाना चाहिए । 1 1 २. दो घड़ी पीछे पुनः छानने चाहिए सा.ध / ३ / १६ मुहूर्त युग्मोर्ध्वमगालनम्। छने हुए पानीको भी दो मुहूर्त अर्थात् चार घडी पीछे छाना हुआ नहीं मानना चाहिए । रतो.वा./२/९/२/१२/१३/२८ / भाषाकार पं. माणिकचन्द दो घड़ी पीछे जलको पुनः छानना चाहिए। ३. जल छानकर उसकी जिवानी करनेकी विधि सा./१/१६ अन्यत्र वा गालितशेषितस्य भ्यासों निपानेऽस्य न तदव्रतेऽर्च्य | १६ | = छाननेके पश्चात् शेष बचे हुए जलको जिस स्थानकाजल है उसमें न डालकर अन्य जलाशय में छोड़ना ( या वैसे ही नाली मे बहा देना ) जलगालनवतमें योग्य नहीं । ४. छलनेका प्रमाण व स्वरूप सा. ध. / ३ / ९६ वा दुर्वाससा गालनमम्युनोस ततेऽर्य छोटे छेदवाले या पुराने कपड़े मे छानना योग्य नहीं । ला. सं . / २ / २३ गालितं दृढवस्त्रेण । घी, तेल, जल आदिको दृढ वस्त्रमेंसे छानना चाहिए । व्रत विधानसंग्रह / ३० पर उधृत षट् त्रिशदडगुलं वस्त्रं चतुर्विंशतिविस्तृतम् । तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्य तोयं तेन तु गालयेत् । = ३६ अंगुल लम्बे और २४ अंगुल चौड़े वस्त्रको दोहरा करके उसमेंसे जल छानना चाहिए। क्रिया को राम / २४४ रंगे वस्त्र न खाने गोरा पहिरे वस्त्र न गाले वीरा | २४४ | = रंगे हुए वा पहने हुए वस्त्रमेंसे जल नहीं छानना चाहिए। ५. जब गाळनके अतिचार = सा.ध. /३/१६ मुहूर्त युग्मोर्ध्वमगालनं वा दुर्वाससा गालनमम्बुनो वा । अन्यत्र वा गालितशेषितस्य न्यासो निपाने । छने हुए पानीको भी दो मुहूर्त अर्थात चार घडी पीछे नहीं जानना, तथा छोटे वाले मैले, और पुराने कपड़े छानना और धाननेके पश्चात बचे हुए पानीको किसी दूसरे जलाशय में डालना। ये जलगालन व्रतके अतिचार हैं. दार्शनिक श्रावकको ये नहीं लगाने चाहिए । ६. जळ गाळनका कारण जल में सूक्ष्म जीवोंका सद्भाव व्रत विधान संग्रह ३१ पर उद्धृत - एक बिन्दूद्भवा जीवा' पारावत्समा यदि त्योच्चरति चेज्जम्बूद्वीपोऽपि पूर्वते प की एक दमे जिसने जीव है वे करके बराबर होकर यदि उहें तो उनके द्वारा यह जम्बूद्वीप लबालब भर जाये । जगदीशचन्द्र बोस- (एक बूँद जलमें आधुनिक विज्ञानके आधारपर उन्होंने १६४५० पटेरिया जीवोंकी सिद्धि की है। इनके अतिरिक्त जिन जलकायिक जीवोंके शरीररूण नहु मिन्दु है वे उनकी दृष्टिका विषय ही नहीं है। उनका प्रमाण अँगुल असं आगममें कहा गया है ) । ७. जळ गालनका प्रयोजन राग व हिंसाका वर्जन सा.ध./२/१४ रागजीववधापायं भूयस्त्वात्तद्वदुत्सृजेत् । रात्रिभक्तं तथा ज्यान्न पानीयमगालितम् ॥१४॥ धर्मात्मा पुरुषोंको मद्यादिकी तरह, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल चारण ३२६ जाति ( नामकर्म) राग तथा जीबहिसासे बचनेके लिए रात्रिभोजनका त्याग करना चाहिए । जो दोष रात्रि भोजनमे लगते हैं वही दोष अगालित पेय पदार्थों में भी लगते है, यह जानकर बिना छने जल, दूध, घी, तेल आदि पेय पदार्थोका भी उनको त्याग करना चाहिए। और भी दे० रात्रि भोजन । जल चारण-दे० ऋद्धि/४। जलपथ-पा.प्र./१६/७ प्रवाससे लौटनेपर पाण्डव नकुल जलपथ नगरमें रहने लगे। नोट-कुरुक्षेत्रके निकट होनेसे वर्तमान पानीपत ही 'जलपथ' प्रतीत होता है। जल शुद्धि-दे० जल गालन । जलावत-विजयाकी दक्षिणश्रेणीका एक नगर-दे०विद्याधर। जलौषध-दे० ऋद्धि/७ । जल्प-१. लक्षण न्या.सू मू./२-२/२ यथोक्तोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपलम्भो जल्प/२। न्या.सू./भा/२-२/२/४३/१० यत्तत्प्रमाणैरर्थस्य साधनं तत्र छलजातिनिग्रहस्थानामङ्गभावो रक्षणार्थत्वात् तानि हि प्रयुज्यमानानि परपक्षविधातेन स्वपक्षं रक्षन्ति । - पूर्वोक्त लक्षणसहित 'छल' 'जाति और 'निग्रहस्थान' से साधनका निषेध जिसमे किया जाये उसे जाप कहते हैं। यद्यपि छल, जाति व निग्रहस्थान साक्षात् अपने पक्षके साधक नहीं होते, तथापि दूसरेके पक्षका खण्डन करके अपने पक्षकी रक्षा करते हैं, इसलिए नैयायिक लोग उनका प्रयोग करके भी दूसरेके साधनका निषेध करना न्याय मानते है । इसी प्रयोगका नाम जल्प है। सि.वि./मू./३/२/३११ समर्थवचन जल्पम् । सि.वि./वृ./५/२/३११/१६ छलजातिनिग्रहस्थानानां भेदो लक्षणं च नेह प्रतभ्यते ।- (जिनमार्गमे क्योकि अन्यायका प्रयोग अत्यन्त निषिद्ध है, इसलिए यहाँ जल्पका लक्षण नैयायिकोसे भिन्न प्रकारका है।) समर्थवचनको जल्प कहते हैं। यहाँ छल, जाति व निग्रहस्थानके भेद रूप लक्षण इष्ट नही किया जाता है। २. जल्पके चार अंग सि.वि./मू./२/२/३११ जल्पं चतुरङ्ग विदुर्बुधाः । सि.वि./व./५/२/३१३/१२ तत्राह 'चतुरङ्गम्' इति । चत्वारि वादि प्रतिवादि-प्राश्निक-परिषद्विलक्षणानि अगानि, नावयवाः, वचनस्य तदनवयवत्वात । = विद्वान् लोग जम्पको चार अंगवाला जानते हैं। वे चार अंग इस प्रकार है-वादी, प्रतिवादी, प्राश्निक और परिषद् या सभासद् । इन्हे अवयव नहीं कह सकते है क्योकि अनुमानके वचन या वाक्यकी भॉति यहाँ वचनके अवयव नहीं होते। ३. जल्पका प्रयोजन व फल दे० वितंडा । नैयायिक लोग केवल जीतनेकी इच्छासे जल्प व वितण्डाका प्रयोग भी न्याय समझते है। (परन्तु जैन लोग।) सि.वि./मू./२/२८/३६६ तदेवं जल्पस्वरूपं निरूप्य अधुना सदसि तदुपन्यासप्रयोजनं दर्शयन्नाह -स्याद्वादेन समस्तवस्तुविषयेणकान्तवादेवभिध्वस्तेष्वेकमुखीकृता मतिमतां नैयायिकी शेमुषी। तत्त्वार्थाभिनिवेशिनी निरूपणं चारित्रमासादयन्यद्धानन्तचतुष्टयस्य महतो हेतुर्विनिश्चीयते ।२८१ सि.वि./मू./५/२/३११ पक्षनिर्णयपर्यन्तं फलं मार्गप्रभावना। इस प्रकार जलपस्वरूपका निरूपण करके अब उसका कथन करनेका प्रयोजन दिखाते है-समस्त वस्तुको विषय करनेवाले तथा समस्त एकान्तवादों का निराकरण करनेवाले स्याद्वादके द्वारा अन्य कथाओसे निवृत्त होकर बुद्धिमानोकी बुद्धि एक विषयके प्रति अभिमुख होती है। और न्यायमे नियुक्त होकर तत्त्वका निर्णय करनेके लिए वादी और प्रतिवादी दोनोके पक्षोमें मध्यस्थताको धारण करती हुई शीघ्र ही अनुपम तत्त्वका निश्चय कर लेती है ।२८। पक्षका निर्णय जब तक नहीं होता तब मार्ग प्रभावना होती है। यही जल्पका प्रयोजन व फल है ।। ४. अन्य सम्बन्धित विषय १. जय पराजय व्यवस्था-दे० न्याय/२ । २. वाद जल्प व वितंडामें अन्तर-दे० वाद । ३. बाह्य और अन्तर जल्प-दे० वचन/१। ४. नैयायिकों द्वारा जल्प प्रयोगका समर्थन-दे० वितंडा । जल्पनिर्णय-आ, विद्यानन्दि (ई० ७७५-८४०) द्वारा संस्कृत भाषामें रचित न्याय विषयक एक ग्रन्थ । जसफल-दे० जयपाल । जांबूनदा-एक विद्या-दे० विद्या। जागृत-दे० निद्रा/१/३ जाति(सामान्य)-१. लक्षण न्याय,सू./मू./२/२/६६ समानप्रवासात्मिका जाति ६६।-द्रव्योंके आपस मे भेद रहते भी जिससे समान बुद्धि उत्पन्न हो उसे जाति कहते है। रा.वा./१/३३/५/५/२६ बुद्धचभिधानानुप्रवृत्तिलिङ्ग सादृश्य स्वरूपानुगमो वा जातिः, सा चेतनाचेतनाद्यात्मिका शब्दप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन प्रतिनियमात स्वार्थव्यपदेशभाक् । = अनुगताकार बुद्धि और अनुगत शब्द प्रयोगका विषयभूत सादृश्य या स्वरूप जाति है। चेतनकी जाति चेतनत्व और अचेतनकी जाति अचेतनत्व है क्योंकि यह अपने-अपने प्रतिनियत पदार्थ के ही द्योतक है। ध./१/१,१,१/१७/५ तत्थ जाईं तब्भवसारिच्छ-लक्षण-सामण्णं । ध./९/१,१.१/१८/३ तत्थ जाइणिमित्तं णाम गो-मणुस्स-घड-पड-त्थंभ वेत्तादि । तद्भव और सादृश्य लक्षणवाले सामान्यको जाति कहते हैं । गौ, मनुष्य, घट, पट, स्तम्भ और वेत इत्यादि जाति निमित्तक नाम है। २. जीवोंकी जातियोंका निर्देश घ./२/१,१/४१६/४ एइंदियादी पंच जादीओ, अदीदजादि विअस्थि । एकेन्द्रियादि पाँच जातियाँ होती हैं और अतीत जातिरूप स्थान भी है। ३. चार उत्तम जातियोंका निर्देश म पु/३६/१६८ जातिरैन्द्री भवेदिव्या चक्रिणां विजयाश्रिता। परमा जातिराहन्त्ये स्वारमोत्था सिद्धिमीयुषाम् । =जाति चार प्रकारकी हैं-दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा। इन्द्रके दिव्या जाति होती है, चक्रवर्तियोके विजयाश्रिता, अर्हन्तदेवके परमा और मुक्त जीवोंको स्वा जाति हाती है।। जाति ( नामकर्म)-१. लक्षण स, सि/८/११/३८६/३ तासु नरकादिगतिष्वव्यभिचारिणा सादृश्येने की कृतोऽत्मिा जातिः। तन्निमित्तं जाति नाम ।उन नारकादि गतियोमे जिस अव्यभिचारी सादृश्यसे एकपनेका बोध होता है, वह जाति है। और इसका निमित्त जाति नामकम है। (रा. वा/८/११/ २/५७६/१०); (गो.क./जी.प्र./३३/२८/१६) घ.६/१,६-१,२८/५१/३ तदो जत्तो कम्मरवधादो जीवाणं भूओ सरिसत्तमुप्पज्जदे सो कम्मक्रवंधो कारणे कज्जुवयारादो जादि त्ति भण्णदे। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाति ( नामकर्म ) - जिस कर्मस्कन्धसे जीवोंके अत्यन्त सदृशता उत्पन्न होती है, वह कर्मस्कन्ध कारणमें कार्यके उपचारसे 'जाति' इस नामवाला कहलाता है। ६/१३/२२.१०१/३६३/६ इंदिय-वेदितेदिय चरिदिय पंचि दिभावविर्य जं समं तं जादि नार्म जो कर्म एकेन्द्रिय हीन्द्रिय द्रय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय भावका मनानेवाला है वह जाति नामकर्म है । २. नामकर्मके भेद प.सं. ६/११-१/२०/६० तं जादिणामकम्मं तं पंच दिय जादिणामकम्म, वीइंदियजादिनामकम्मं, तीहंदिदिणामक चरिदियजादिणामकम्मं पंचिदियजादिणामकम्मं चेदि जो जाति नामकर्म है वह पाँच प्रकारका है-एकेन्द्रियजातिनामकर्म, इन्द्रियजातिनामकर्म त्रीन्द्रियजातिनाम, चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म और पंचेन्द्रियजातिनामकर्म (प. नं. १३/५.६/१०३/३६०): (पं.सं./ /२/४/४६/२०) (स.सि./९/११/२०१/४ ) ( रा. वा. // १९/२/०६/११) (गो, क/जी. प्र./२३/२/१८) और भी-३० नाम कर्म-असं रूपात भेद हैं- ३. एकेन्द्रियादि जाति नामकमोंके लक्षण स. सि/ ०/११/३८१/५ यदुदवारमा एकेन्द्रिय इति शम्यते तदेकेन्द्रियजातिनाम । एवं शेषेष्वपि योज्यम् । -जिसके उदयसे आत्मा एकेन्द्र कहा जाता है वह एकेन्द्रिय जाति नामकर्म है। इसी प्रकार शेष जातियों में भी लागू कर लेना चाहिए। ( रा. वा./८/११/२/ ५७६ / १३ ) । ३२७ जाति (न्याय) आकारवाले हो जायेगे । किन्तु इस प्रकार है नहीं, क्योंकि, इस प्रकारके वे पाये नहीं जाते तथा प्रतिनियत सदृश परिणामो में अवस्थित वृक्ष आदि पाये जाते है। घ. १३/५,५/१०९ / ३६३/१० जादी णाम सरिसप्पच्चयगेज्मा । ण च तुणतरुमरे सरिसत्तमस्थि, दो चिडियासु (1) सरिसभानावर्सभादो 1 ण जलाहारग्गहणेण दोष्णं पि समाणत्तदंसणादो । प्रश्नजाति तो से ग्राह्य है. परन्तु तृण और मुंहोंने समानता है नहीं 1 उत्तर - नहीं, क्योंकि जल व आहार ग्रहण करनेकी अपेक्षा दोनोंमें ही समानता देखो जाती है। ५. एकेन्द्रिय जातिके बन्धयोग्य परिणाम = पं. का./ता. वृ/१९१०/१७५/१० स्पर्शनेन्द्रियविषयलाम्पट्यपरिणतेन जीवेन यदुपार्जित स्पर्शनेन्द्रियजनमेवेद्रियजातिनामकर्म स्पर्शनेन्द्रिय विषयकी सम्पतरूपसे परिगत होनेके द्वारा जीव स्पर्शनेन्द्रिय जन एकेन्द्रिय जाति नामकर्म बाँचता है। ६. अन्य सम्बन्धित विषय १. जाति नामकर्म की बन्ध उदय सत्त्वरूप प्ररूपणाए ४. जाति नामकर्मके अस्तित्व की सिद्धि 9 " घ. ६/१.११.२०/२१/४ जदि परिणामिओ सरिसपरिणामी परिथ तो सरिसपरिणामकज्जन्हापुनवत्तदो तस्कारणमस्स अत्थितं सिन्। किंतु गंगाभावादिपरिणामिओ सरिसपरिणामो उवलम्भदे, तदो अयंतियादो सरिसपरिणामो अप्पणी कारणीभूदकम्मस्स अत्थितं ण साहेदिति । ण एस दोसो गंगाबा आणं पुद्धविकाश्यणामकम्मोदएण सरिसपरिणामत्तन्भुवगमादो ।... किं च जदि जीव डिग्गहिदपोग्गलक्खं दस रिसपरिणामो पारिणामिओ वि अस्थि, तो हेऊ अणेयंतिओ होज्ज । ण च एवं तहाणुवलंभा । जदि जीवाणं सरिसपरिणामो कम्मायतो न हो तो चठरिदिया हयहरिथ-वय-वग्घ छवल्लादि संठाणा होज्ज, पंचिदिया वि भमर-मक्कुणसहिदगोव-ल-रुक्लठाणा होज्ज गचैवमनसंभा पछिविदसरिसपरिणामे अब द्विदरुवखादीणमुवाच प्रश्न- यदि पारिणामिक अर्थात् परिणमन करानेवाले कारणके सदृश परिणाम नहीं होता है, तो सदश परिणामरूप कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता, इस अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुसे उसके कारणभूत कर्मका अस्तित्व भले ही सिद्ध होवे । किन्तु गंगा नदोकी बालुका आदिमें पारिणामिक (स्वाभाविक) सह परिणाम पाया जाता है, इसलिए हेतु अनेकान्तिक होनेसे सहा परिणाम अपने कारणीभूत कर्मके अस्तित्वको नहीं सिद्ध करता । उत्तर- यह कोई दोष नहीं. क्योंकि, गंगानदीकी बालुकाके (भी) पृथिवीकायिक नामकर्मके उदयसे सदृश परिणामता मानी गयी है |... दूसरी बात यह है, कि यदि जीवके द्वारा ग्रहण किये गये पुडुगल-स्कन्धौका सदशपरिणाम पारिणामिक भी हो, तो हेतु अनैकान्तिक होवे । किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, उस प्रकारका अनुपलम्भ है। यदि जीवोंका सदृश परिणाम कर्मके अधीन म होने, तो चतुरिन्द्रिय जीम मोड़ा हाथी भेड़िया, नाम और चवत आदि आकारवाले हो जायेंगे तथा पंचेन्द्रिय जीव भी भ्रमर मत्कुण, शलभ, इन्द्रगोप, क्षुल्लक, अक्ष और वृक्ष आदिके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - दे० वह वह नाम । जाति ( न्याय ) १. लक्षण न्या. सू. सू./१/२/१८ साधर्म्यम्य प्रत्यवस्थानं जातिः १८। साधर्म्य और वैधर्म्य से जो प्रत्यवस्थान (दूषण) दिया जाता है उसको जाति कहते हैं ( श्लो. वा. / ४ / न्या / ३०६/४५६. ) न्या. वि./मू./२/२०३ / २३३ मिध्योत्तर जातिः यथानेका विि षाम् ] २०३ । न्या. वि./ /२/२०३/२३३/३ मानोपपन्ने साये धर्मे यस्मिद् मिथ्योतर भूतदोषस्योद्भावयितुमशक्यत्वेना सदूषणोद्भावनं सा जातिः । = एकान्तवादियोंकी भाँति मिथ्या उत्तर देना जाति है । अर्थात् प्रमाणसे उपपन्न साध्यरूप धर्ममें सद्भूत दोषका उठाना तो सम्भव नहीं है. ऐसा समझ कर अदभूत हो दोष उठाते हुए मिथ्या उत्तर देना जाति है। क्लो. वा. /२/ प्या. ४५८/५५०१६). स्या. म. / १० / ११२/१८ सम्यगृहेतौ हेत्वाभासे वा वादिना प्रयुक्ते, झटिति तद्दोषतत्त्वाप्रतिभासे हेतु प्रतिबिम्बनप्रायं किमपि प्रत्यवस्थानं जातिः दूषणाभास इत्यर्थः । वादी के द्वारा सम्यग् हेतु अथवा लामासके प्रयोग करनेपर, वादी के हेतुकी सदोषताकी विना परीक्षा किये हुए हेतुके समान मातृम होनेवाला शोधता कुछ भी कह देना जाति है। २. जातिके भेद न्या. सू./मू./५/२/१/५८६ साधर्म्यवैधम्र्योत्कषायकर्ष वर्ण्यवर्ण्यविकल्पसाभ्यामतिप्रसङ्गप्रतिदृष्टान्तामुत्पन्तिसंशयप्रकरण हाय विशेषन्ध्यनुपलब्धिनित्यानित्यकार्यसमाः |१| जाति २४ प्रकार की है- १. साधर्म्यसमः २. वैधर्म्यसमः ३. उत्कर्षसम; ४. अपकर्षसमः ५. वर्ण्यसमः ६, अवर्ण्यसम; ७. विकल्पसम ८ साध्यसम ६ प्राप्तिसम: १० अप्राप्तिसमः ११. प्रसंगसम; १२. प्रतिष्टान्तसम: ११. अनुत्पत्तिसमः १४. संशयसमः ११. प्रकरणसमः १६. हेतुसम १०. अतिसमः १८ अविशेषसमः ११. उपपत्तिसमः २०. उपलब्धिसमः २९, अनुपलब्धिराम २२. नित्यसमा २३. अनित्यसम और २४ कार्यसम । ( श्लो० वा. ४/ न्या. ३९६/४६१/३ ). न्या. वि./मू./२/२००/२२४ मिष्योत्तराणामानन्याच्या वा विस्तरोतितः । साधर्म्यादिसमत्वेन जातिर्ने प्रतन्यते । २०७१ (जैन मैयायिक जातिके २४ भेद ही नहीं मानते ) क्योंकि मिथ्या उत्तर अनन्त Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाति आर्य हो सकते हैं, जिनका विस्तार श्री पात्रकेसरी रचित त्रिलक्षण कदर्थशास्त्रमें दिया गया है। अतः यहाँ उसका विस्तार नहीं किया गया है । ३. उपरोक्त २४ जातियोंके लक्षण दे० वह वह नाम । जाति आर्य ३० आर्य । जाति-विजाति उपचार- दे० उपचार । जाति मंत्र - दे० मन्त्र १/६ । जाति मद - दे० मद । जालंधर (पा./१०/ श्लोक नं.), अर्जुन द्वारा कीचकले मारे जानेपर पाण्डवोंके विनाशके लिए जालन्धर युद्धको प्रस्तुत हुआ | १३ | तहाँ पाण्डवोंने राजा विराटको युद्धमें बाँध लिया | २२ | और गुप्तवेदी अर्जुन द्वारा बाँध लिया गया |४०|. 1 जाल-बारिक शरीरमें जालोंका प्रमाण दे० औदारिक/१/७ जिज्ञासातत्त्वाधिगमभाष्य/१/१५ ईहा जहा तर्क परीक्षा विचारणा जिज्ञासा इत्यनन्तरम्। ईहा, कहा, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा ये सम एकार्थाची है। न्या. दर्शन/भाष्य /१/२/२२/२३/१० तत्राप्रतीयमाने प्रार्थस्य प्रमत्तिका जिज्ञासा । प्रज्ञात पदार्थके जाननेकी इच्छाका नाम जिज्ञासा है। जित कषाय- सा/ता. वृ/२४०/३३३/१४ व्यवहारेण क्रोधादिकषायजयेन जितकषाय निश्चयेन चाकषायात्मभावनारतः । - व्यवहारसे क्रोधादि कषायोंके जीतनेसे और निश्चयसे अकषाय स्वरूप भारत रहनेसे जिसकपाय है। ३२८ - जितदंड - पुनाट संघकी गुर्वावलोके अनुसार आप नागहस्ती के शिष्य तथा नन्दिषेणके गुरु थे । दे० इतिहास / ७/८ । जित द्रव्य निक्षेप दे०/५ जितमोह (स.सा./१२) जो मोठं तुला जागसहायाधियं सुज आई। जिदमोह साडू परमदुनियामा विति। जो मुनि मोहको जीतकर अपने आत्माको ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्य द्रव्यभावों से अधिक जानता है, उस मुनिको परमार्थके जाननेवाले जितमोह कहते हैं । जितशत्रु-१६. पु/१४/लो. नं.) पूर्वभवनं भानुका पुत्र शूरसेन था । ६७-६८ । पूर्वभव नं. २ में चित्रचूल विद्याधरका पुत्र हिमचूल था । ९३२-१९३३ । पूर्वभव नं. १ में राजा गङ्गदेवका पुत्र नन्दिषेण था । १४२ - १४३ । ( ह. पु. / सर्ग / श्लो. नं. ) - वर्तमान भव में में सुदेवका पुत्र (३५/०) देवने जन्मते ही सुदृष्टि सेठके यहाँ पहुँचा दिया (१३/०) वहीं पर पोषण हुआ पीछे दीक्षा धारण कर ली (५६ / ११५-२० ) । घोर तप किया ( ६० / ७) । अन्तमें गिरनार पर्वतसे मोक्ष सिधारे (६५/१६-१७) २. (ह. ५/६६/५-१०) जितशत्रु भगवान् महावीरके पिता राजा सिद्धार्थ की छोटी बहनसे विवाहे गये थे। इनको यशोधा नामकी एक कन्या थी, जिसका विवाह उन्होंने भगवान् वीरसे करना चाहा। पर भगवान् ने दीक्षा धारण कर ली। पश्चात् ये भी दीक्षा धार मोक्ष गये । ३. द्वितीय रुद्र थे- दे० शलाका पुरुष / ७ । जितेन्द्रियस.सा./११ जो इंदिये जिपिता नागसहायाधिवं मुगदि आई। तं खलु जिदिदियं ते भांति जे णिच्छिदा साहू | ३११ - जो इन्द्रियोंको - जिन जीतकर ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्य द्रव्य से अधिक आत्माको जानते हैं, उन्हें जो निश्चयनयमे स्थित साधु है वे वास्तवमे जितेन्द्रिय कहते हैं। त. अनु / ७६ इन्द्रियाणां प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मनः प्रभु' । मन एव जयेतस्मारितेतस्मिन् जितेन्द्रियः । इन्द्रियो की प्रवृति और । ७६ निवृत्ति दोनों में मन प्रभु है, इसलिए मनको ही जीतना चाहिए । मनके जीतनेवर मनुष्य जितेन्द्रिय होता है। २. इद्रिय व मनको जीनका उपाय ०२ जिन - १. जिन सामान्यका लक्षण मू. आ./ १६१ जिदको हमाणमाया जिदलोहा तेण ते जिणा होंति । क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायोंको जीत लेने के कारण अर्हन्त भगवाद जिन है [म. सं. डी./१४/०७/१० भ. आ / वि / ३१८/५३१/२२ कर्मैकदेशानां च जयात धर्मोऽपि कर्माण्यभिभवति इति जनशब्देनोच्यते । =धर्म भी कर्मोंका पराभव करता है अत उसको भी जिन कहते है । नि.सा./ता.वृ./१ अनेकजन्मापहेतु समस्तमोहरागद्वेपारीच जयतीति जिनः । = अनेक जन्मरूप अटवीको प्राप्त करानेके हेतुभूत समस्त मोहरागद्वेषादिरूको जो जीत लेता है वह जिन है। पं.का./ता.वृ./१/४/१० या कमरातीन् जयतीति जिन' । अनेक भवोंके गहन विषयोंरूप संकटों की प्राप्तिके कारणभूत कर्मरूपी शत्रुओंको जीतता है, वह जिन है । (स.श./टी./२/२२३/५ ) । २. जिनके भेद १. विदेशजन ध. ६/४,१, १/१०/७ जिणा दुविहा सयलदेस जिणभेएण । सकलजिन व देश जिनके भेदगे जिन दो प्रकार हैं । २. निक्षेप मैद घ. १/४.१.१/६०० (निक्षेप सामान्यके भेदोके अनुरूप है। ३. सकल व देश जिनके लक्षण 1= घ. ६/४.१, १/१० / ७ खवियघाइकम्मा सयलजिणा। के ते अरहंत सिद्धा । अवरे आइरिय उवज्झाय साहू देसजिणा तिव्वकसाई दिय- मोहविजयादो । जो घातिया कर्मोंका क्षय कर चुके हैं वे सकल जिन हैं । वे कौन हैं-- अर्हन्त और सिद्ध इतर आचार्य, उपाध्याय और साधु तीव्र कषाय, इन्द्रिय एवं मोहके जीत लेनेके कारण देश जिन हैं । - नि. सा./ता.वृ./ २४३.२६३ स्वमक्ष जीमयुक्त को जिनेश्रादेषः । २४३ ॥ सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः । न कामपि भियां क्वापि तां विद्मो हा जडा वयम् । २५३ - जो जीव स्ववश हैं वे जीवन्मुक्त हैं, जिनेश्वरसे किंचित् न्यून है । २४३ | सर्वज्ञ वीतराग में और इस स्ववश योगी में कभी कुछ भी भेद नहीं है, तथापि अरेरे! हम जड़ हैं कि उनमें भेद मानते हैं ॥ २५३॥ प्र. सा./ता.वृ./ २०१ / २७१/१३ सासादनादिक्षीणकषायान्ता एकदेश जिना उच्यन्ते । = सासादन गुणस्थान से लेकर क्षीण कषाय गुणस्थान पर्यन्त एकदेश जनहलाते हैं। द्र. सं./टी./१/५/१० जितमिथ्यात्वरागादिश्वेन एकदेश जिना असंयतसम्यग्दृष्ट्यादय । मिथ्यात्व तथा रागादिको जीतनेके कारण असंयत सम्यग्दृष्टि आदि ( देश संयत श्रावक व सक्ल संयत साधु ) एकदेश जिन है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प ३२९ जिनमुखावलोकनव्रत ४. अवधि व विद्याधर जिनोंके लक्षण ध.६/४,१.१/४०/५ अवधयश्च ते जिनाश्च अवधिजिना.। ध.६/४,१,१/७५/७ सिद्धविज्जाणं पेसणं जे ण इच्छति केवल धरति चेव अण्णाणणिवित्तीए ते विज्जाहरजिणा णाम । अवधिज्ञान स्वरूप जो जिन वे अवधि जिन है । जो सिद्ध हुई विद्याओंसे काम लेनेकी इच्छा नहीं करते, केवल अज्ञानकी निवृत्तिके लिए उन्हे धारण करते है, वे विद्याधर जिन हैं। ५. निक्षेपों रूप जिनोंके लक्षण ध.६/४,१,१/६-८ सारार्थ (निक्षेपोके लक्षणोके अनुरूप हैं)। ६. पाँचों परमेष्ठी तथा अन्य सभी सम्यग्दृष्टियों को जिन संज्ञा प्राप्त है-दे० जिन/३। जिनकल्प-१. जिनकल्प साधुका स्वरूप भ, आ./वि./१५५/३५६/१७ जिनकल्पो निरूप्यते-जितरागट्टेषमोहा उपसर्गपरीषहारिवेगसहाः, जिना इव विहरन्ति इति जिनकल्पिका एक एवेत्यतिशयो जिनकल्पिकानाम् । इतरो लिङ्गादिराचार. प्रायेण व्यानणितरूप एव । = जिन्होंने राग-द्वेष और मोहको जीत लिया है, उपसर्ग और परीषहरूपी शत्रुके वेगको जो सहते है, और जो जिनेन्द्र भगवान्के समान विहार करते है, ऐसे मुनियों को जिनकल्पी मुनि कहते हैं। इतनी ही विशेषता इन सुनियों में रहती है। बाकी सब लिंगादि आचार प्राय जैसा पूर्व में वर्णन किया है, वैसा ही इनका भी समझना चाहिए। (अर्थात अहाईस मूल गुण आदिका पालन ये भी अन्य साधुओंवत् करते हैं।) (और भी-दे० एकल विहारो)। २. जिनकल्पी साधु उत्तम संहनन व सामायिक चारित्र पाला ही होता है गो, क.,जो प्र./५४७/७१४/५ श्रीवर्द्धमानस्वामिना प्राक्तनोत्तमसंहननजिनकल्पचारपापरिणतेषु तदेकधा चारित्रम् । = श्री वर्द्धमानस्वामीसे पहिले उत्तम संहननके धारी जिनकल्प आचरणरूप परिणते मुनि तिनके सामाधिकरूप एक ही चारित्र कहा है। जिनगुण संपत्ति व्रत इस व्रतको तीन विधि है-उत्तम, मध्य व जघन्य, १. उत्तम विधि-अर्हन्त भगवान के १. जन्मके १० अतिशयोंकी १० दशगियाँ २. केवलज्ञानके १० अतिशयोंकी दश दशमियाँ: ३. देवकृत १४ अतिशयोकी १४ चतुर्दशियाँ, ८ प्रातिहार्योंकी ८ अष्ठमियाँ, षोडशकारण भावनाओ की १६ प्रतिपदाएँ;६. पाँच कल्याणकोंकी। पंचमियॉ; इस प्रकार ६३ तिथियोके ६३ उपवास १० मास में पूरे करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (ह. पु/३४/१२२); बत विधान संग्रह/पृ. ६४); (किशनसिंह क्रियाकोश)। २. मध्यम विधि-६६ दिनमे निम्नक्रमसे ३६ उपवास ब ३० पारणा करे। 'ओ ह्रीं अर्हन्त परमेष्ठिने नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। क्रम(व, के स्थान पर पारणा समझना-२,१,१,१,१,१,२,१.१,१,१,१७ २,१,१,१,१,१२,१,१.१.१,१२,१,१,१,१.१। (वर्द्ध मान पुराण); (वत विधान संग्रह/पृ. ६५)। ३. जघन्य विधि-उपरोक्त ६३ गुणों के उपलक्ष्य में ६३ दिन तक एकाशना करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । (बत-विधान संग्रह/पृ.६६); (किशन सिह क्रियाकोश)। थे। समय-प्र० दृष्टि के अनुसार श सं. ४०-४६ (वी. नि. ६४५६५४) । द्वि० दृष्टि के अनुसार वी. नि. ६१४-६५४। दूसरी ओर एक जिन चन्द्र भद्रबाहु गणी के प्रशिष्य थे जिन्होंने वि स. १३६ (बी नि ६०६) में श्वेताम्बर संघ की नींव डाली थी। विशेष दे. कोश १/परिशिष्ट ४/३)। २ मुनि चन्द्र नन्दि के शिष्य । कन्नड कवि पोन्न के शान्ति पुराण में उल्लिखित । पोन्न (वि. १००७, ई. १५०) से पूर्व । जै./२/३६५) । ३. भास्कर नन्दि के गुरु । कृतिसिद्धान्तसार । ई. श, ११ का उत्तरार्ध १२ का पूर्व । (ती./३/१८६)। ४. श्रवण बेल के शिलालेस्व नं०५५ या ६६ (वि १९५७) में माघनन्दि (वि. १२५०) के पश्चात् उल्लिखित । त्रि. १२७५ (ई. १२१८) । (जै./२/३६६)। ५. तत्त्वार्थ सूत्र की सुखबोधिनी टीका के रचयिता। समय-लगभग वि. १३५३ (ई. १२६६)। (जै./१/४५१)। ६. नन्दिसंघ बलात्कारगण दिल्ली गद्दी के भट्टारक। कृति-सिद्धान्तसार चतुर्विशति स्तोत्र । समय-वि १५०७-१५७१ (ई. १४५०-१५१४) । (ती/३/३८१)। जिनदत्त चरित्र-आ० गुणभद्र (ई.८७०-११०) द्वारा रचित संस्कृत श्लोकबद्ध एक रचना । इसमें , सन्धि, व ८०० श्लोक हैं। पीछे दिल्ली निवासी पं० बखतावर सिंहने इसका भाषामें पद्यानुवाद किया है। (दे. गुण भद्र)। (ती./३/१४) । जिनदास १. नन्दि सघ बलात्कार गण ईडरगद्दी सकल कीति के शिष्य एक मुनि । कृतियें-- जम्बू स्वामी चरित, राम चरित, हरिवंश पुराण, पुष्पाञ्जलिव्रत कथा; जलयात्रा विधि, सार्द्धद्वय द्वीप पूजा, सप्तषि पूजा: ज्येष्ठ जिनवर पूजा, गुरु पूजा, अनन्तवत पूजा। वि. १४५०. १५२५ (ई १३६३-१४६८)। ती./३/३३८)। २. आयुर्वेद के पण्डित । कृतियें-हेलीरेणुका चरित, ज्ञानसूर्योदय । वि. १६००.१६५० (ई०१५४३-१५६३) । (ती/४/८३) । ३. मराठी के प्रथम ज्ञात कवि । भुवनकीर्ति के शिष्य । कृति-हरिवंश पुराण । समय बि० १७७८१७१७ (ई १७२१-१७४०) (ती./४/३१८)। ४. स्वर्गगत मित्र से प्राप्त आकाशगामी विद्या सेठ सोमदत्त को दी। (वृहद कथा कोष/४)। जिननंदि (आर्य)-भगवतो आराधनाके कर्ता शिवकोटिके गुरु थे। समय-ई श. १ का पूर्वपाद । (भ.आ./प्र.२.३/प्रेमीजी) जिनपालित-षटखण्डागमके कर्ता पुष्पदन्त आचार्यके मामा थे। आप बनवास देशके राजा थे। पीछे पुष्पदन्त आचार्य द्वारा सम्बोधित होकर दीक्षा ले लो। तदनुसार आपका समय-बी.नि. ६३३ वि.६३ (ई.६) के आसपास आता है (दे. (पुष्पदन्त) जिनपूजा-पुरंदरवत-किसी भी मासकी शुक्ला १ से लेकर ८ तक उपवास या एकाशना करे । नमस्कार मन्त्र का त्रिकाल जाप्य करे। (बत विधान संग्रह/पृ.६२); (किशन सिंह क्रियाकोश) जिनभद्र-आप एक श्वेताम्बराचार्य थे। गणी व क्षमाश्रमणकी उपाधिसे विभूषित थे। निम्न रचनाएँ की हैं-१. विशेषावश्यक भाष्य, २. बृहत्क्षेत्रसमास, ३. बृहत्संग्रहिणी विशेषवती आदि । ( वर्तमानमें उपलब्ध बृहत्संग्रहिणी चन्द्रमहर्षि कृत है। समयविशेषावश्यक भाष्य का रचनाकाल वि.६५०, अक्सान काल वि. श,७ का अन्त । अतः ई.५६०-६४३। (जै./२/६२)। जिनचन्द्र १. नन्दिसंघ की पट्टावली के अनुसार आप भद्रवाह द्वि० के प्रशिष्य आ० माघनन्दि थे और उनके शिष्य जिनचन्द्र कुन्दकुन्द के गुरु जिनमुखावलोकनवत-भाद्रपद कृ.१से आसौज कृ.१ तक, एक मास पर्यन्त प्रति दिन प्रातः उठकर अन्य किसीका मुख देखे बिना भगवान के दर्शन करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (बतविधान संग्रह/पृ.१०); (किशनसिंह क्रियाकोश)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-४२ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमुद्रा जिनमुद्रा — दे० मुद्रा | जिनयज्ञ कल्प दे० पूजा पाठ --- जिनरात्रि व्रत १४ वर्षपर्यन्त प्रत्येक वर्ष फाल्गुन कृ. १४ को उपवास करे। रात्रिको जागरण करे। पहर पहर में जिनदर्शन करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (वर्द्धमान पुराण), (व्रतविधान संग्रह / पृ.११) । जिनरूपता क्रिया०क्रम/३ | जिनवर वृषभ । प्र. सा./ता.वृ/२०१/२०१ / ११ सासादनादिक्षीणकायान्ता एकदेश जिना उच्यन्ते, पोषाधानगारकेवसिनो जिनदरा भव्यन्ते तीर्थंकरपरमदेवाश्च जिनवरवृषभा ॥ सासादनादि क्षीणकषायपर्यन्त एकदेश जिन कहलाते है, शेष अनगार केवली अर्थात् सामान्य केली जिनवर तथा तीर्थंकर परमदेव जिनवर वृषभ कहलाते हैं । .सं./टी./१/५/१० एकदेशजिना असंयतसम्यग्दृष्टपादयस्तेषां नराः गणधर देवास्तेषां जिनवराणां वृषभ प्रधानो जिनवरवृषभस्तीथ कर परमदेवः । = असंयत सम्यग्दृष्टि आदि एकदेश जिन हैं। उनमें जो वर श्रेष्ठ हैं वे जिनवर यानी गणधरदेव हैं । उन जिनवरोंमें भी जो प्रधान हैं, वे जिनवरवृषभ अर्थात् तीर्थंकर परमदेव है। जिनसंहिता - आ. देवसेन कृत दर्शनसारकी भाषा बच निका । जिन सहस्रनाम दे० म.पू./२५/१००-२१७ जिनसागर देवेन्द्र कीति के शिष्य कृतियें जीवन्दर पुरान जिन कथा पद्यावती कथा आदि । वि. १७८१-१८०१ । (ती./३/४४६) । जिनसेन १. पुन्नाटसंघकी गुर्वावली के अनुसार आप आ. भीमसेनके शिष्य तथा शान्तिसेनके गुरु थे। समय ई. श. ७ का अन्त - दे० इतिहास /७/०५ २. पुन्नाट संघकी गुर्वावली के अनुसार आप श्री कीर्तिषेणके शिष्य थे। कृति--हरिवंश पुराण । समय-ग्रन्थ का रचनाकाल शक सं० ७०५ (ई ७८३) । अत लगभग ई. ७४८-८१८ । (तो. / ३/३) । (दे० इतिहास / ७ / ८) ३. पंचस्तु स वीरसेन स्वामी के शिष्य आगर्भ दिगम्बर। कृतियें - अपने गुरु की २०००० श्लोक प्रमाण अधूरी जयधवला टीका को ४०००० श्लोक प्रमाण अपनी टीका द्वारा पूरा किया। इनकी स्वतन्त्र रचना है आदि पुराण जिसे इनके शिष्य गुणभद्र ने उत्तर पुराण रचकर पूरा किया। इसके अतिरिक्त पावभ्युदय तथा बर्द्धमान पुराण । समय- जयधवला का समाप्तिकाल शक सं, ७५६ । उत्तर पुराण का समाप्तिकाल शक सं. ८२० । अतः शक सं. ७४०-८०० (ई ८१८८७८) । (ती./ २ / ३३१-३४०) । (दे० इतिहास / ०/०) ४. भट्टारक महा कीर्ति के शिष्य कृतिनेमिनाथ रास । ग्रन्थ रचना काल बि. १५५८ (ई. १५०१) (ती./३/ ३८६) । ५. सेनसंघी सोमसेन भट्टारक के शिष्य । समय- शक १५७७ - १५८०, १५८१ में मुर्तियें प्रतिष्ठित कराई। अतः शक सं १५००-१५०५ (१० १४११-१६२८) (ती /३/३०६) (दे इति ०/६) जिनस्तुति शतक १. आ. समन्तभद्र (ई.स. २) कृत संस्कृत / छन्दबद्ध एक ललित स्तोत्र जिसमें १०० श्लोकों द्वारा जिनेन्द्र भगबाका स्तवन किया गया है । २. आ. वसुनन्दि (ई. १०४३ - १०५३) द्वारा भी एक 'जिन शतक' नामक स्तोत्रकी रचना हुई थी। जिनेंद्र बुद्धि । । बुद्धि - आ. पूज्यपादका अपर नाम - दे० ! पूज्यपाद ३३० जीव जिवानी -जलको छानकर उसके गालितशेषको तिस ही जलाशय में पहुँचाना। विशेष दे० जलगालन / २ । जिह्वा-१. दूसरे नरकका ज्यों पट ३० मर/५/११/२, रसना - इन्द्रिय- दे० रसना । जिह्निक-१. १. दूसरे नरकका टवॉ पटल- दे० नरक / ५ /११ / २. गंगा नदीका वृषभाकार कूट- दे० वृषभ । जीत-शास्त्रार्थमे जीत-हार सम्बन्धी ० न्याय/२ जीरापल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र --- दे. जरापल्ली । जीवंधर (म.पु./०३/पलो. नं.) राजा सत्यन्धरका पुत्र था। हम ज्ञानमें जन्म हुआ था, गन्धोत्कट सेठ अपने मृत पुत्रको छोडकर वहाँ से इनको उठा लाया । आ. आर्यवर्मासे शिक्षा प्राप्त की । अनेकों कन्याओको स्वयंवरोंमें जीता २२८ ॥ पिताके घातक मन्त्री काष्ठांगारको मारकर राज्य प्राप्त किया । ६६६। अन्तमे दीक्षाधार (६७६६०२) मोक्ष सिधारे (४०-१००) पूर्व भय नं. २ में आप पुण्डरीकिणी नगरीके राजा जयन्धरके 'जयद्रथ' नामके पुत्र थे। इन्होने एक हंसके बच्चेको आकाशसे पकड़ लिया था तथा उसके पिता ( हंस ) को मार दिया था। उसीके फलस्वरूप इस भवमे जन्मते ही इनका पिता मारा गया, तथा १६ वर्ष तक माता से पृथक् रहना पड़ा । ५३४२४२३- तहाँसे चयकर पूर्वभव नं. १ मे महार स्वर्गदेन हुए १५४२-२४४। और वर्तमान भवने जीवेन्धर हुए । जीवंधर चंपू उपरो जीवन्धर स्वामी के चरित्रको वर्णन करने वाले कई प्रन्थ है आ.वादीमसिंह सूरि नं. २ (ई.७७०-६०) द्वारा रचित गणचूड़ामणि तथा छत्रचूडामणिके आधारपर कवि हरिचन्द ( ई. श १० का मध्य ) ने जीवन्धर चम्पूकी रचना की। इसमें संस्कृतका काव्य सौन्दर्य कूट-कूटकर भरा हुआ है। इसमे ११ आश्वास है तथा ८०४ श्लोक प्रमाण हैं । इतना ही गद्यभाग भी है । (ती०/४/२० ) । जीवंधर चरित्र- १. कवि रश्धू (ई. १४३६) कृत अपभ्र श काव्य ग्रन्थ । २. आ. शुभचन्द्र (ई. १५४६ ) कृत संस्कृत छन्द - बद्ध ग्रन्थ । (ती /४/३६७) । जीवंधर पुराण -आ. जिनसागर (ई. १७३० ) की एक रचना । जीवंधर शतपदी - आ. कोटेश्वर (ई. १५००) की एक रचना । जीव-संसार या मोक्ष दोनोंमें जीव प्रधान तत्त्व है । यद्यपि ज्ञानदर्शन स्वभावी होनेके कारण वह आत्मा ही है फिर भी संसारी दशामें प्राण धारण करनेसे जीव कहलाता है। वह अनन्तगुणों का स्वामी एक प्रकाशात्मक अमूर्तीक सत्ताधारी पदार्थ है, कल्पना मात्र नहीं है, न ही पंचोंके मिश्रण उत्पन्न होनेवाला कोई संयोगी पदार्थ है संसारी दशा में शरीरमें रहते हुए भी शरीरसे पृथक लौकिक विषयोंको करता व भोगता हुआ भी वह उनका केवल ज्ञाता है। वह यद्यपि लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है परन्तु संकोपविस्तार शक्तिके कारण शरीरप्रमाण होकर रहता है। कोई एक ही सर्वव्यापक जीव हो ऐसा जैन दर्शन नहीं मानता। वे अनन्तानन्त हैं । उनमें से जो भी साधना विशेषके द्वारा कर्मों व संस्कारों का क्षय कर देता है वह सदा अतीन्द्रिय आनन्दका भोक्ता परमात्मा बन जाता है । तब वह विकल्पोंसे सर्वथा शून्य हो केवल ज्ञाता द्रष्टाभाव में स्थिति पाता है। जैनदर्शनमें उसीको ईश्वर या भगवान् स्वीकार किया है उससे पृथक किसी एक ईश्वरको वह नहीं 1 मानता । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव ३३१ सूचीपत्र r जीव एक ब्रह्मका अंश नहीं है। पूर्वोक्त लक्षणोंके मतार्थ । जीवके भेद-प्रमेदादि जाननेका प्रयोजन । , ३। जीवके गुण व धर्म o r w * * * * * १ । जीवके २१ सामान्य विशेष स्वभाव । जीवके सामान्य विशेष गुण । जीवके अन्य अनेकों गुण व धर्म । शानके अतिरिक्त सर्वगुण निर्विकल्प हैं -दे० गुण/२ जीवका कथंचित् कर्ता अकर्तापना -दे० चेतना/३ जीवमें सूक्ष्म, महान् आदि विरोधी धर्म। विरोधी धर्मोंकी सिद्धि व समन्वय -दे० अनेकान्त/५ जीवमें कथंचित् शुद्धत्व व अशुद्धत्व । जीव ऊर्ध्वगमन स्वभावी है -दे० गति/१ जीव क्रियावान् है। --दे० द्रव्य/३ जीव कथंचित् सर्वव्यापी है। जीव कथंचित् देह प्रमाण है। सर्वव्यापीपनेका निषेध व देहप्रमाणत्वकी सिद्धि । जीव संकोच विस्तार स्वभावी है। संकोच विस्तार धर्मकी सिद्धि । जीवकी स्वभावव्यंजनपर्याय सिद्धत्व है -दे० सिद्धत्व जीवमें अनन्तों धर्म हैं -दे० गुण/३/१० * भेद. लक्षण व निर्देश जीव सामान्यका लक्षण। जीवके पर्यायवाची नाम। जीवको अनेक नाम देनेकी विवक्षा। जीवके भेदप्रभेद ( संसारी, मुक्त आदि )। जीवोके जलचर थलचर आदि भेद । जीवोंके गर्भज आदि भेद । गर्भज व उपपादज जन्म निर्देश -दे० जन्म सम्मूर्छिम जन्म व जीव निर्देश -दे० संमूर्छन जन्म, योनि व कुल आदि दे वह वह नाम मुक्त जीवका लक्षण व निर्देश -दे० मोक्ष | संसारी, स, स्थावर व पृथिवी आदि -दे० वह वह नाम संशी असंशी जीवके लक्षण व निर्देश -दे० संज्ञी षटकाय जीवके भेद निर्देश -दे० काय/२ सूक्ष्म-बादर जीवके लक्षण व निर्देश -दे० सूक्ष्म एकेन्द्रियादि जीवोंके भेद निर्देश -दे० इन्द्रिय/४ प्रत्येक साधारण व निगोद जीव -दे० वनस्पति कार्यकारण जीवका लक्षण । पुण्यजीव व पापजीवके लक्षण । | नो जीवका लक्षण। षद्रव्योंमे जीव-अजीव विभाग -दे० द्रव्य/३ जीव अनन्त है। -दे० द्रव्य/२ अनन्त जीवोंका लोकमें अवस्थान -दे० आकाश/३ जीवके द्रव्य भाव प्राणों सम्बन्धी -दे० प्राण/२ जीव अस्तिकाय है __-दे०अस्तिकाय जीवका स्व व परके साथ उपकार्य उपकारक भाव -दे० कारण/III/R | संसारी जीवका कथंचित् मूर्तत्व -दे० मूर्त।१० जीव कर्मके परस्पर बन्ध सम्बन्धी -दे० बन्ध जीव व कर्ममें परस्पर कार्यकारण सम्बन्ध -दे० कारण/III/३.५ *जीव व शरीरकी भिन्नता -दे० कारक/२ जोवमें कथंचित् शुद्ध अशुद्धपना तथा सर्वगत व दहप्रमाणपना -दे० जीव/३ * जीव विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व -दे० वह वह नाम * * . जीवके प्रदेश जीव असंख्यात प्रदेशी है। जीवके प्रदेश कल्पना में युक्ति -दे० द्रव्य/४ संसारी जीवके आठ मध्यप्रदेश अचल है और शेष चल व अचल दोनों प्रकारके। | शुद्धद्रव्यों व शुद्धजीवके प्रदेश अचल ही होते हैं। विग्रहगतिमें जीव प्रदेश चल ही होते हैं। जीवपदेशोंके चलितपनेका तात्पर्य परिस्पन्दन व भ्रमण आदि । जोवप्रदेशोंकी अनवस्थितिका कारण योग है। अचलप्रदेशोंमें भी कर्म अवश्य बॅधते हैं -दे० योग/२ चलाचल प्रदेशों सम्बन्धी शंका समाधान । जीव प्रदेशोंके साथ कर्मप्रदेश भी तदनुसार चल अचल होते है। जीव प्रदेशोंमें खण्डित होने की सम्भावना -दे० वेदनासमुद्धात/४ २ निर्देश विषयक शंकाएँ व मतार्थ आदि मुक्तमें जीवत्व वाला लक्षण कैसे घटित हो। | औपचारिक होनेसे सिद्धोंमें जीवत्व नहीं है। ३ मार्गणास्थान आदि जीवके लक्षण नहीं हैं। ४. तो फिर जीवकी सिद्धि कैसे हो। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव ३३२ १. भेद, लक्षण व निर्देश १. भेद, लक्षण व निर्देश १. जीव सामान्यका लक्षण १. दश प्राणोंसे जीवे सो जीव प्र. सा./मू./१४७ पाणेहि चदुहिं जीवदि जी विस्सदि जो हि जीविदो पुन्च । सो जीवो पाणा पुण पोग्गलदम्वेहि णिवत्ता १४७ । - जो चार प्राणोंसे (या दश प्राणोंसे ) जीता है, जियेगा, और पहले जीता था वह जीव है, फिर भी प्राण तो पुद्गल द्रव्योंसे निष्पन्न है। (पं. का./मू/३०); (ध./१/१,१,२/११४/३); (म.पु/२४/१०४); (न. च. वृ./११०); (द्र. सं./मू/३); (नि. सा./ता/वृ.78); (पं. का./ता, वृ/२७/१६/१७); (द्र.सं./टी./२/८/६); (स्या० म./२६/ ३२६/१६)। रा. वा./१/४/७/२५/२७ दशसु प्राणेषु यथोपात्तप्राणपर्यायेण त्रिषु कालेषु जीवनानुभवनात 'जीवति, अजीवीव, जीविष्यति' इति वा जीवः । -दश प्राणोंमेंसे अपनी पर्यायानुसार गृहीत यथायोग्य प्राणोंके द्वारा जो जीता है. जीता था व जीवेगा इस त्रैकालिक जीवनगुणवालेको जीव कहते हैं। २. उपयोग, चैतन्य, कर्ता, भोक्ता आदि पं. का./मू./२७ जोवो त्ति हवदि चेदा उवोगविसेसिदो... आत्मा जीव है, चेतयिता है, उपयोग विशेष वाला है। (पं. का.मू-/१०६) (प्र. सा./मू./१२७ )। स. सा./मू./४६ अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसह । जाण अलिगग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंट्ठाणं ।४।। हे भव्य ! तू जीवको रस रहित रूप रहित, गन्ध रहित, अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियसे अगोचर, चेतनागुणवाला, शब्द रहित, किसी भी चिह्नको अनुमान ज्ञानसे ग्रहण न होनेवाला और आकार रहित जान । (प.का./भू/१२७); (प्र. सा मू/१७२ ); ( भा. पा./मू /६४ ) (ध. ३/१,२,१/गा.१/२ ) । भा. पा./मू./१४८ कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य । दसणणाणुवओगो णिद्दिवो जिणबरिंदेहि ।१४।-जोध कर्ता है, भोक्ता है, अमूर्तीक है, शरीरप्रमाण है, अनादि-निधन है, दर्शन ज्ञाद उप. योगमयी है. ऐसा जिनवरेन्द्र द्वारा निर्दिष्ट है । (पं. का./ मू./२७); (प. प्र./८/१/३१); (रा. वा /९/४/१४/२६/११); (म. पु /२४/१२); (ध. १/१.१.२/गा. १/११८): (न.च, वृ/१०६); (द्र.सं./मू./२); त. सू./२/८ उपयोगो लक्षणम् ।- उपयोग जीवका लक्षण है । (न.च.वृ/११६)। स, सि./२/४/१४/३ तत्र चेतनालक्षणो जीवः । -जीवका लक्षण चेतना है। (ध. १५/३३/६)। म. च. बृ./३६० लक्खणमिह भणियमादाज्झेओ सन्भावसंगदो सोवि । चेयण उवलद्धी दंसण णाणं च लश्वर्ण तस्स ।- आत्माका लक्षण चेतना तथा उपलब्धि है, और वह उपलब्धि ज्ञान दर्शन लक्षणवाली है। द्र. सं./मू./३ णिच्छयणयदो दु. चेदणा जस्स ॥३-निश्चय नयसे जिसके ___ चेतना है वही जीव है। द्र, सं./टी./२/८/५ शुद्धनिश्चयनयेन.. शुद्धचैतन्यलक्षणनिश्वयप्राणेन यद्यपि जीवति, तथाप्यशुद्धनयेन...द्रव्यभावप्राणैर्जीवतीति जीवः -- शुद्ध निश्चयसे यद्यपि शुद्धचेतन्य लक्षण निश्चय प्राणों से जीता है, तथापि अशुद्धनयसे द्रव्य व भाव प्राणोंसे जीता है । (पं. का./ता. वृ./२७/५६/ १६, ६०/६७/१२)। गो. जी./जो.प्र./२/२१/८ कर्मोपाधिसापेक्षज्ञानदर्शनोपयोगचैतन्यप्राणेन जीवन्तीति जीवाः । (अशुद्ध निश्चयनयसे) कर्मोपाधि सापेक्ष ज्ञानदर्शनोपयोग रूप चैतन्य प्राणों से जीते हैं वे जीव है। (गो. जी.। जी./प्र./१२६/३४१/३)। ३. औपशमिकादि भाव ही जीव है रा, वा./१/9/३:८/३८ औपशमिकादिभावपर्यायो जीवः पर्यायादेशात ३. पारिणामिकभावसाधनो निश्चयतः ।। औपशमिकादिभावसाधनश्च व्यवहारतः ।।। - पर्यायाथिक नयसे औपशमिकादि भावरूप जीव है।३। निश्चयनयसे जीव अपने अनादि पारिणामिक भावोंसे ही स्वरूपलाभ करता है ।। व्यवहारनयसे औपश मिकादि भावोसे तथा माता-पिताके रजवीर्य आहार आदिसे भी स्वरूप लाभ करता है। त. सा./२/२ अभ्यासाधारणा भावाः पञ्चौपशमिकादयः। स्वतत्त्वं यस्य तत्त्वस्य जोवः स व्यपदिश्यते ।२।-औपशमिकादि पाँच भाव (दे० भाव ) जिस तत्त्वके स्वभाव हों वही जीव कहाता है। २. जीवके पर्यायवाची नाम ध. १/१,१,२/गा. ८१,८२/११८-११६ जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो। वेदो विण्हू सयंभू य सरीरी तह माणवो। सत्ता जंतु य माणी य माई जोगी य संकड़ो। असंकडो य खेत्ताह अंतरप्पा तहेव य ।। - जीव कर्ता है, वक्ता है, प्राणी है, भोक्ता है, पुद्गलरूप है, वेत्ता है, विष्णु है, स्वयंभू है, शरीरी है, मानव है, सक्ता है, जन्तु है, मानी है, मायाबी है, योगसहित है, संकुट है, असंकुट है, क्षेत्रज्ञ है और अन्तरात्मा है ।८१-८२० म.पू./२४/१०३ जीवः प्राणी च जन्तुश्च क्षेत्रज्ञः पुरुषस्तथा। पुमानात्मान्तरात्मा च ज्ञो ज्ञानीत्यस्य पर्ययः ।१०३। -जीव, प्राणी, जन्तुं, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान्, आत्मा, अन्तरात्मा, ज्ञ और ज्ञानी ये सब जीवके पर्यायवाचक शब्द हैं। ३. जीवको अनेक नाम देनेकी विवक्षा १. जीव कहनेकी विवक्षा दे० जीवका लक्षण नं. १। २, अजीव कहनेको विवक्षा दे. जोव/२/१ में ध./१४ "सिद्ध' जीव नहीं है, अधिकसे अधिक उनको जीवितपूर्व कह सकते हैं। न.च.वृ /१२१ जो हु अमुत्तो भणिओ जीवसहावो जिणेहिपरमत्थो। उवयरियसहावादो अचेयणो मुत्तिसंजुत्तो ।१२११ - जीवका जो स्वभाव जिनेन्द्र भगवान् द्वारा अमूर्त कहा गया है वह उपचरित स्वभावरूपसे मूर्त व अचेतन भी है, क्योंकि मूर्तीक शरीरसे संयुक्त है। ३. जड़ कहनेकी विवक्षा प.प्र./म./१/५३ जे णियबोहपरिट्ठियहँ जीवहँ तुट्टइ णाणु । इंदिय जणियउ जोइया ति जिउ जड्डु वि बियाणु ॥५३॥ =जिस अपेक्षा आत्मा ज्ञानमें ठहरे हुए (अर्थात समाधिस्थ) जीवोंके इन्द्रियजनित ज्ञान नाशको प्राप्त होता है, हे योगी। उसी कारण जीवको जड भी जानो। आराधनासार/८१ अद्वैतापि हि वेत्ता जगति चेत् दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेद, तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्सास्तित्वमेव त्यजेत् । तत्त्यागं जड़ता चितोऽपि भवति व्याप्यो बिना व्यापक. । .८१३ -इस जगत् में जो योगी अद्वैत दशाको प्राप्त हो गये हैं, वे दर्शन व ज्ञानके भेदको ही त्याग देते हैं, अर्थात् वे केवल चेतनस्वरूप रह जाते हैं। और सामान्य (दर्शन) तथा विशेष (ज्ञान) के अभावसे वे एक प्रकारसे अपने अस्तित्वका ही त्याग कर देते है। उसके त्यागसे चेतन भी वे जड़ताको प्राप्त हो जाते हैं क्योकि व्याप्यके बिना व्यापक भी नहीं होता। द्र. सं./टी./१०/२७/२ पञ्चेन्द्रियमनोविषयविकल्परहितसमाधिकाले स्वसंवेदनलक्षणबोधसद्भावेऽपि बहिर्विषयेन्द्रियबोधाभावाज्जड., न च सर्वथा सारख्यमतवत् । पाँचों इन्द्रियों और मनके विषयों के विकल्पोंसे रहित समाधिकालमें,आत्माके अनुभवरूप ज्ञानके विद्यमान होनेपर भी बाहरी विषयरूप इन्द्रियज्ञानके अभावसे आत्मा जड़ माना गया है, परन्तु सारख्यमतकी तरह आत्मा सर्वथा जड़ नहीं है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव १. भेद, लक्षण व निर्देश ४. शून्य कहनेकी विवक्षा प.प्र./मू./१/१५ अठ्ठ वि कम्मइँ बहुविह िणवण,व दोस ण जेण । सुद्धह एक्कु वि अस्थि णवि सुण्णु वि बुच्चइ तेण । -जिस कारण आठो ही अनेक भेदोंवाले कर्म तथा अठारह दोष, इनमें से एक भी शुद्धात्माओंके नहीं है, इसलिए उन्हे शून्य भी कहा जाता है। दे० शुक्लध्यान/१/४ [ शुक्लध्यानके उत्कृष्ट स्थानको प्राप्त करके योगी शून्य हो जाता है, क्योंकि, रागादिसे रहित स्वभाव स्थित ज्ञान ही शून्य कहा गया है। वह वास्तव में रत्नत्रयकी एकता स्वरूप तथा बाह्य पदार्थोंके अवलम्बनसे रहित होनेके कारण ही शून्य कहलाता है।) त.अनु./१७२-१७३ तदा च परमैकाग्रयाइबहिरर्थेषु सत्स्वपि। अन्यत्र किचनाभाति स्वमेवात्मनि पश्यतः ॥१७२। अतएवान्यशून्योऽपि नारमा शून्यः स्वरूपतः । शून्याशून्यस्वभावोऽयमात्मनैवोपलभ्यते ।१७३। उस समाधिकालमे स्वात्मामें देखनेवाले योगीकी परम एकाग्रयताके कारण बाह्यपदार्थों के विद्यमान होते हुए भी उसे आत्माके अतिरिक्त और कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता ।१७२। इसीलिए अन्य बाह्यपदार्थोसे शून्य होता हुआ भी आत्मा स्वरूपसे अन्य नहीं होता। आत्माका यह शून्यता और अशुन्यतामय स्वभाव आत्माके द्वारा ही उपलब्ध होता है। द्र.सं./टी./१०/२७/३ रागादिविभावपरिणामापेक्षया शून्योऽपि भवति न चानन्तज्ञानाद्यपेक्षया बौद्धमतवत् । -आत्मा राग, द्वेष आदि विभाव परिणामोकी अपेक्षासे शून्य होता है, किन्तु बौद्धमतके समान अनन्त ज्ञानादिकी अपेक्षा अन्य नहीं है। कुडो क्षेत्रं स्वरूपं जानातीति क्षेत्रज्ञः।अठ्ठ-कम्मभंतरो त्तिअंतरप्पा। सत्य, असत्य और योग्य, अयोग्य वचन बोलनेसे वक्ता है; दश प्राण पाये जानेसे प्राणी है; चार गतिरूप संसारमें पुण्यपापके फलको भोगनेसे भोक्ता है; नाना प्रकारके शरीरों द्वारा छह संस्थानोंको पूरण करने व गलानेसे पुद्गल है; सुख और दुःखका वेदन करनेसे वेद है; अथवा जाननेके कारण वेद है; प्राप्त हुए शरीरको व्याप्त करनेसे विष्णु है, स्वतः ही उत्पन्न होनेसे स्वयंभू है; संसारावस्थामें शरीरसहित होनेसे शरीरी है; मनु ज्ञानको कहते हैं, उसमें उत्पन्न होनेसे मानव है; स्वजन सम्बन्धी मित्र आदि वर्गमे आसक्त रहनेसे सक्ता है; चतुर्गतिरूप संसारमें जन्म लेनेसे जन्तु है।मान कषाय पायी जानेसे मानी है; माया कषाय पायी जानेसे मायी है; तीन योग पाये जानेसे योगी है। अतिसूक्ष्म देह मिलनेसे संकुचित होता है, इसलिए संकुट है; सम्पूर्ण लोकाकाशको व्याप्त करता है, इसलिए असकुट है; लोकालोकरूप क्षेत्रको अथवा अपने स्वरूपको जाननेसे क्षेत्रज्ञ है; आठ कर्मों में रहनेसे अन्तरात्मा है (गो.जी./जी/३६५-३६६/७७६/२)। दे० चेतना/३ (जीवको कर्ता व अकर्ता कहने सम्बन्धी-) १. जीवके भेद प्रभेद १. संसारी व मुक्त दो भेद त.सू /२।१० संसारिणो मुक्ताश्च ।१०। - जीव दो प्रकारके हैं संसारी और मुक्त । (पं.का./मू./१०६), (मू.आ/२०४), (न.च. वृ/१०५)। २. संसारी जीवोंके अनेक प्रकारसे भेद त.सू /२/११-१४,७ जीवभव्याभव्यत्वानि च ७ समनस्कामनस्काः ॥११॥ ससारिणस्त्रसस्थावरा ।१२। पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ।१३। द्वीन्द्रियादयस्त्रसा, ।१४। जीव दो प्रकारके है भव्य और अभव्य १७ (प.का./मू./१२०) मनसहित अर्थात् संज्ञी और मनरहित अर्थात असंज्ञीके भेदसे भी दो प्रकारके है ।११। (द्र.सं/मू./१२/२९) संसारी जीव त्रस और स्थावरके भेदसे दो प्रकारके हैं (न.च./q./१२३) तिनमें स्थावर पाँच प्रकारके हैं-पृथिवी, अप, तेज, वायु, व वनस्पति ॥१३॥ (और भी देखो 'स्थावर') त्रस जीव चार प्रकार है-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय ।१४। (और भी दे० इन्द्रिय/४)। रा. वा /५/१५/५/४५८/६ द्विविधा जीवा' बादराः सूक्ष्माश्च । -जीव दो प्रकारके है-बादर और सूक्ष्म-(दे० सूक्ष्म )। दे. आत्मा-बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्माकी अपेक्षा ३ प्रकार हैं। दे. काय/२/१ पाँच स्थावर व एक त्रस, ऐसे कायकी अपेक्षा ६ भेद हैं। दे. गति /२/३ नारक, तिर्यच, मनुष्य व देवगति की अपेक्षा चार प्रकार ४. प्राणी, जन्तु आदि कहनेकी विवक्षा म.पु./२४/१०५-१०८ प्राणा दशास्य सन्तीति प्राणी जन्तुश्च जन्मभाक् । क्षेत्र स्वरूपमस्य स्यात्तज्ज्ञानात स तथोच्यते ॥१०॥ पुरुष' पुरुभोगेषु शयनात परिभाषितः । पुनात्यात्मानमिति च पुमानिति निगद्यते ११०६। भवेष्वतति सातत्याइ एतीत्वात्मा निरुच्यते । सोऽन्तरात्माप्टकर्मान्तर्वतित्वादभिलप्यते ।१०७ ज्ञ. स्याज्ज्ञानगुणोपेतो ज्ञानी च तत एव स. । पर्यायशब्दै रेभिस्तु निर्णेयोऽन्यैश्च तद्विधैः। =दश प्राण विद्यमान रहनेसे यह जीव प्राणी कहलाता है, बार-बार जन्म धारण करनेसे जन्तु कहलाता है। इसके स्वरूपको क्षेत्र कहते हैं, उस क्षेत्रको जाननेसे यह क्षेत्रज्ञ कहलाता है ।१०। पुरु अर्थात् अच्छे-अच्छे भौगोमे शयन करनेसे अर्थात् प्रवृत्ति करनेसे यह पुरुष कहा जाता है, और अपने आत्माको पवित्र करनेसे पुमान कहा जाता है ।१०६। नर नारकादि पर्यायोमे 'अतति' अर्थात् निरन्तर गमन करते रहनेसे आत्मा कहा जाता है। और ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंके अन्तर्वर्ती होनेसे अन्तरात्मा कहा जाता है ।१०७। ज्ञान गुण सहित होनेसे 'ज्ञ' और ज्ञानी कहा जाता है। इसी प्रकार यह जीव अन्य भी अनेक शाब्दोंसे जानने योग्य है ।१०८। ५. कर्ता भोक्ता आदि कहनेकी विवक्षा ध.१/१.१.२/११६/३ सच्चमसच्चं संतमसतं वददीदि बत्ता । पाणा एयस्स सतीति पाणी। अमर-णर-तिरिस-णारय-भेएण चउविहे संसारे कुसलमकुसलं भुजदि त्ति भोत्ता। छबिह-संठाणं बहुविह-देहेहि पूरदि गलदि त्ति पोग्गलो। सुख-दुक्खं वेदेदि त्ति वेदो, वेत्ति जानातीति वा वेद । उपात्तदेहं व्याप्नोतीति विष्णुः । स्वयमेव भूतवानिति स्वयंभू । सरीरमेयस्स अस्थि त्ति सरीरी। मनुः ज्ञान तत्र भव इति मानव. । सजण-संबंध-मित्त-वग्गादिसु संजदि त्ति सत्ता। चउग्गइ-संसारे जायदि जणयदि त्ति जंतू। माणो एयस्स अस्थि त्ति माणी । माया अस्थि त्ति मायी। जोगो अस्थि त्ति जोगी। अइसण्हदेह-पमाणेण संकुडदि त्ति संकुडो। सव्वं लोगागासं वियापदि त्ति असं गो. जी./मू. ६२२/१०७५ पुण्यजीव व पापजीवका निर्देश है। (दे० आगे पुण्य व पाप जीवका लक्षण )। ष. रवं./१२/४/२.६/सू. ३/२६६ सिया णोजीवस्स वा/३/- 'कथंचित् वह नोजोवके होती है इस सूत्रमें नोजीवका निर्देश किया गया है। दे० पर्याप्त-जीवके पर्याप्त, निवृत्त्यपर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त रूप तीन भेद है। दे. जीवसमास-एकेन्द्रिय आदि तथा पृथिवी अप् आदि तथा सूक्ष्म बादर, तथा उनके ही पर्याप्तापर्याप्त आदि विकल्पोंसे अनेकों भंग बन जाते हैं। ध.१/४,१,४५/गा. ७६-७७/१८ एको चेव महप्पा सो दुवियप्पो त्ति लवरवणो भणिदो। चदुसंकमणाजुत्तो पंचग्गगुणप्पहाणो य ७६। छक्कापक्कमजुत्तो उवजुत्तो सत्तभंगिसब्भावो । अट्ठासवो णवट्ठो जीवो दस जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव ३३४ २. निर्देश विषयक शंकाएँ व मतार्थ आदि २. निर्देश विषयक शंकाएं व मतार्थ आदि १.मुक्त जीवमें जीवत्ववाला लक्षण कैसे घटित होता है रा.वा./१/8/9/२५/२७ तथा सति सिद्धानामपि जीवत्वं सिद्धजीवितपूर्वत्वात। संप्रति न जीवन्ति सिद्धा भूतपूर्वगत्या जीवत्वमेषामोपचारिकत्वं. मुख्यं चेष्यते; नैष दोष" भावप्राणज्ञानदर्शनानुभवनाव सांप्रतिकमपि जीवत्वमस्ति। अथवा रूढिशब्दोऽयम् । रूढो वा क्रिया व्युत्पत्त्यथे वेति कादाचित्कं जीवनमपेक्ष्यं सर्वदा वर्तते गोशब्दवत् । -प्रश्न-'जो दशप्राणोसे जीता है...'आदि लक्षण करनेपर सिद्धोंके जीवत्व घटित नहीं होता। उत्तर-सिद्धोंके यद्यपि दशप्राण नहीं हैं, फिर भी वे इन प्राणोंसे पहले जीये थे, इसलिए उनमे भी जीवत्व सिद्ध हो जाता है । प्रश्न-सिद्ध वर्तमानमे नहीं जीते। भूतपूर्वगतिकी उनमें जीवत्व कहना औपचारिक है ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भावप्राणरूप ज्ञानदर्शनका अनुभव करनेसे वर्तमानमें भी उनमें मुख्य जोवत्व है। अथवा रूढिवश क्रियाकी गौणतासे जीव शब्दका निर्वचन करना चाहिए। रूढिमें क्रिया गौण हो जाती है। जैसे कभी-कभी चलती हुई देखकर गौमे सर्वदा गो शब्दकी वृत्ति देखी जाती है, वैसे ही कादाचित्क जीवनकी अपेक्षा करके सर्वदा जीव शब्दकी वृत्ति हो जाती है। ( भ. आ. वि./३७/१३१/१३) (म. पु./२४/१०४)। ठाणिो भणिदो ।७७॥ -- वह जीव महात्मा चैतन्य या उपयोग सामा- न्यकी अपेक्षा एक प्रकार है । ज्ञान. दर्शन, या संसारी-मुक्त, या भव्यअभव्य, या पाप-पुण्यकी अपेक्षा दो प्रकार है । ज्ञान चेतना, कर्म चेतना कर्मफल चेतना, या उत्पाद, व्यय ध्रौव्य, या द्रव्य-गुण पर्यायकी अपेक्षा तीन प्रकार है। चार गतियोमे भ्रमण करनेकी अपेक्षा चार प्रकार है।। औपशमिकादि पाँच भावोकी अपेक्षा या एकेन्द्रिय आदिकी अपेक्षा पाँच प्रकार है। छह दिशाओमें अपक्रम युक्त होनेके कारण छह प्रकारका है । सप्तभंगीसे सिद्ध होनेके कारण सात प्रकारका है। आठकर्म या सम्यक्त्वादि आठ गुणयुक्त होनेके कारण आठ प्रकारका है । नौ पदार्थोरूप परिणमन करनेके कारण नौ प्रकार का है। पृथिवी आदि पाँच तथा एकेन्द्रियादि पॉच इन दस स्थानोंको प्राप्त होनेके कारण दस प्रकारका है। ५. जीवोंके जलचर, स्थलचर आदि भेद मू. आ./२१६ सकलिदिया य जलथलखचरा...|-पंचेन्द्रिय जीव जल चर, स्थलचर व नभचरके भेदसे तीन प्रकार हैं। (पं. का/मू./११७) (का. अ./मू./१२६ )। ६. जीवोंके गर्मज आदि भेद पं.सं./प्रा./९/७३ अंडज पोदज जरजा रसजा संसेदिमा य सम्मुच्छा। उभिदिमोववादिम णेया पंचिदिया जीवा ।७३। -अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, स्वेदज, सम्मूछिम, उद्भेदिम और औपपादिक जीवों को पंचेन्द्रिय जानना चाहिए । (ध.१/१,१,३३/गा.१३६/२४६), (का. अ./मू./१३०)। ७. कार्य कारण जीवके लक्षण नि. सा./ता. व./ शुद्धसदभूतव्यवहारेण केवलज्ञानादिशुद्धगुणानामाधारभूतत्वात्कार्यशुद्धजीव । .. शुद्धनिश्चयेन सहजज्ञानादिपरमस्वभावगुणानामाधारभूतत्वात्कारणशुद्धजीवः । शुद्ध सदभूत व्यवहारसे केवल ज्ञानादि शुद्ध गुणोका आधार होनेके कारण कार्य शुद्धजीव' (सिद्ध पर्याय) है। शुद्ध निश्चयनयसे सहजज्ञानादि परमस्वभावगुणोंका आधार होनेके कारण (त्रिकाली शुद्ध चैतन्य) कारण शुद्धजीव है। 6. पुण्य-पाप जीवका लक्षण गो. जी./मू./६२२-६२३/१०७५ जीवदुर्ग उत्तट्ट जीवा पुण्णा हु सम्म गुणसहिदा । बदसहिदा वि य पावा तव्विवरीया हवं ति त्ति। मिच्छाइट्ठी पावा ताणता य सासणगुणा वि। गो. जी./जी, प्र./६४३/१०६५/१ मिश्राः पुण्यपापमिश्रजीवाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्रपरिणामपरिणतत्वात । -पहले दो प्रकारके जीव कहे गये हैं। उनमेसे जो सम्यक्त्व गुण युक्त या व्रतयुक्त होय सो पुण्य जीव हैं और इनसे विपरीत पाप जीव है। मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवर्ती जोव पापजीव हैं । सम्यक्त्वमिथ्यात्वरूप मिश्रपरिणामोंसे युक्त मिश्र गुणस्थानवर्ती, पुण्यपापमिश्र जीव हैं। १.नोजीवका लक्षण ध. १२/४,२,६,३/२६६/८ णोजीवो णाम अणंताणंत विस्सासुवचरहिं उपचिदकम्मपोग्गलबंधो पाणधारणाभावादो णाणदंसणाभावादो वा । तत्थतणजीवो वि सिया णोजोवो, तत्तो पुधभूतस्स तस्स अणुवलंभादो।-अनन्तानन्त विनसोपचयोसे उपचयको प्राप्त कर्मपुद्गलस्कन्ध (शरीर) प्राणधारण अथवा ज्ञानदर्शनसे रहित होनेके कारण नोजीव कहलाता है। उससे सम्बन्ध रखनेवाला जीव भी कथंचित नोजीव है, क्योंकि, वह उससे पृथग्भूत नहीं पाया जाता है। २. औपचारिक होनेसे सिद्धोंमें जीवत्व नहीं है। ध. १४/५,६,१६/१३/३ तं च अजोगिचरिमसमयादी उबरि णत्थि, सिद्धेसु पाणणिबंधणठ्ठकम्माभावादो। तम्हा सिद्धाण जीवा जीविदपुब्बा इदि । सिद्धाणं पि जीवत्तं किण्ण इच्छज्जदे। ण, उवयारस्स सच्चत्ताभावादो। सिद्ध सु पाणाभावण्णहाणुववत्तीदो जीवत्तं ण पारिणामियं किंतु कम्मविवागज । = आयु आदि प्राणोका धारण करना जीवन है। वह अयोगीके अन्तिम समयसे आगे नहीं पाया जाता, क्योंकि, सिद्धों के प्राणोके कारणभूत आठों कर्मों का अभाव है। इसलिए सिद्ध जीव नहीं है, अधिकसे अधिक वे जीवितपूर्व कहे जा सकते हैं। प्रश्न-सिद्धोंके भी जीवत्व क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, सिद्धोंमे जीवत्व उपचारसे है, और उपचारको सत्य मानना ठीक नहीं है। सिद्धो में प्राणोंका अभाव अन्यथा बन नहीं सकता, इससे मालूम पड़ता है, कि जीवत्व पारिणामिक नहीं है, किन्तु वह कर्मोके विपाकसे उत्पन्न होता है। ३. मार्गणास्थानादि जीवके लक्षण नहीं है यो. सा./अ./१/१७ गुणजीवादयः सन्ति विशतिर्या प्ररूपणा । कर्मसंबन्धनिष्पन्नास्ता जीवस्य न लक्षणम् ॥५७-गुणस्थान जीवसमास, मार्गणास्थान, पर्याप्ति आदि जो २० प्ररूपणाएँ है वे भी कमके संबन्धमे उत्पन्न है, इसलिए वे जीवका लक्षण नही हो सकती। ४. तो फिर जीवकी सिद्धि कैसे हो स. सि./११/२८८/८ अत एवात्मास्तित्वसिद्धि। यथा यन्त्रप्रतिमा चेष्टित प्रयोक्तुरस्तित्वं गमयति तथा प्राणापानादि कर्मोऽपि नियावन्तमात्मानं साधयति । -इसोसे आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि होती है। जैसे यन्त्रप्रतिमाकी चेष्टाएँ अपने प्रयोक्ताके अस्तित्वका ज्ञान कराती है उसी प्रकार प्राण और अपान आदिरूप कार्य भी क्रियावाले आरमाके साधक है । ( स्या. म./७/२३४/२०) । रा, बा /२/८/१८/१२१/१३ 'नास्त्यात्मा अकारणत्वाव मण्डूकशिखण्डबत्' इति । हेतुर यमसिद्धो विरुद्धोऽनै कान्तिकश्च । कारणवा नेवात्मा इति निश्चयो न', नरकादिभवव्यतिरिक्तद्रव्यार्थाभावात, तस्य च जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव ३३५ २. निर्देश विषयक शंकाएं व मतार्थ आदि मिथ्यादर्शनादिकारणत्वाद सिद्धता। अतएव द्रव्यार्थाभावात् च पर्यायान्तरानाश्रयत्वाद आश्रयाभावादप्यसिद्धता। अकारणमेव ह्यस्ति सर्व घटादि, तेनायं द्रव्यार्थिकस्य विरुद्ध एव । सतोऽकारणत्वाव यदस्ति तन्नियमेनैवाकारणम्, न हि किचिदस्ति च कारणवच्च । यदि तदस्त्येव किमस्य कारणेन नित्यवृत्तत्वात् । कारणवत्वं चाप्तत एवं कार्यार्थत्वात कारणस्येति विरुद्धार्थता। मण्डूकशिखण्डकादीनाम असत्प्रत्ययहेतुत्वेन परिच्छिन्नसत्त्वानामभ्युपगमात्तेषां च कारणाभावात् उभयपक्षवृत्तेरनै कान्तिकत्वम् । दृष्टान्तोऽपि साध्यसाधनोभयधर्मविकलः ... एकजीवसंबन्धित्वात मण्डूकशिखण्ड इत्यस्ति ।... नास्त्यात्मा अप्रत्यक्षत्वाच्छशशृङ्गवदिति; अयमपि न हेतुः असिद्धविरुद्धानै कान्तिकत्वाप्रच्युतेः । सकलविमलकेवलज्ञानप्रत्यक्षत्वाच्छद्वात्मा प्रत्यक्षः, कर्मनोकर्मपरतन्त्रपिण्डात्मा च अवधिमनःपर्ययज्ञानयोरपि प्रत्यक्ष इति 'अप्रत्यक्षत्वात्' इत्यसिद्धो हेतु.। इन्द्रियप्रत्यक्षाभावादप्रत्यक्ष इति चेत्, न; तस्य परोक्षत्वाभ्युपगमात् । अप्रत्यक्षा घटादयोऽग्राहकनिमित्तग्राह्यत्वाद् धूमाद्यनुमिताग्निवत ।" असति च शशशृङ्गादौ सति च विज्ञानादौ अप्रत्यक्षत्वस्य वृत्तेरने कान्तिकता। अथ विज्ञानादेः स्वसंवेद्यत्वात यो गिप्रत्यक्षत्वाञ्च हेतोरभाव इति चेत; आत्मनि कोऽपरितोष । दृष्टान्तोऽपि साध्यसाधनोभयधर्मविकल' पूर्वोक्तेन विधिना अप्रत्यक्षत्वस्य नास्ति स्वस्थ चासिद्ध। रा.वा./२/८/१२/१२२/२५ ग्रहणविज्ञानासंभविफलदर्शनाद् गृहीतृसिद्धिः ।१६। यान्यमूनि ग्रहणानि...यानि च ज्ञानानि तत्सं निकर्षजानि तानि, तेष्वसंभविफलमुपलभ्यते । कि पुनस्तव । आत्मस्वभावस्थानज्ञानविषयसंप्रतिपत्तिः । तदेतद् ग्रहणानां तावन्न संभवतिः अचेतनत्वात, क्षणिकत्वाच्च ततो व्यतिरिक्तेन केनचिद्भवितव्यमिति गृहीतृसिद्धिः। रा.वा./२/८/२०/१२३/१ योऽयमस्माकम् 'आत्माऽस्ति' इति प्रत्ययः स स शयानध्यवसायविपर्ययसम्यकप्रत्ययेषु यः कश्चित् स्यात, सर्वेषु च विकल्पेष्विष्ट' सिध्यति। न तावत्संशय निर्णयात्मकत्वात् । सत्यपि संशये तदालम्बनात्मसिद्धिः। न हि अवस्तुविषयः संशयो भवति । नाप्यनध्यवसायो जात्यन्धवधिररूपशब्दवतः अनादिसंप्रतिपत्तेः। स्याद्विपर्ययः; एवमप्यात्मास्तित्वसिद्धिः पुरुष स्थाणुप्रतिपत्ती स्थाणुसिद्धिवत् । स्यात्सम्यक्प्रत्ययः; अविवादमेतव-आत्मास्तित्वमिति सिद्धो न पक्ष । -प्रश्न-उत्पादक कारणका अभाव होनेसे, मण्डूकशिखावत आत्माका भी अभाव है। उत्तर-आपका हेतु असिद्ध, विरुद्ध व अनैकान्तिक तीनों दोषोंसे युक्त है। (१) नरनारकादि पर्यायोसे पृथक् आत्मा नहीं मिलता, और वे पर्याएँ मिथ्यादर्शनादि कारणोंसे होती हैं, अतः यह हेतु असिद्ध है। पर्यायों को छोड़कर पृथक आत्मद्रव्यकी सत्ता न होनेसे यह हैतु आश्रयासिद्ध भी है। (२) जितने घटादि सत पदार्थ हैं वे सब स्वभावसे ही सत् है न कि किसी कारण विशेषसे। जो सत् है वह तो अकारण ही होता है। जो स्वयं सत् है उसकी नित्यवृत्ति है अत: उसे अन्य कारणसे क्या प्रयोजन । जिसका कोई कारण होता है वह असव होता है, क्योंकि वह कारणका कार्य होता है, अतः यह हेतु विरुद्ध है। (३) मण्डूकशिखण्ड भी 'नास्ति' इस प्रत्ययके होनेसे सद तो है पर इसके उत्पादक कारण नहीं है, अत' यह हेतु अनै कान्तिक भी है। मण्डूकशिरखण्ड दृष्टान्त भी साध्य, साधन व उभय धर्मोंसे विकल होनेके कारण दृष्टान्ताभास है। क्योंकि उसके भी किसी अपेक्षासे कारण बन जाते हैं और वह कथंचित सत्र भी सिद्ध हो जाता है। प्रश्न-आत्मा नहीं है, क्योंकि गधेके सींगवत् वह प्रत्यक्ष नहीं है। उत्तर-यह हेतु भी असिद्ध, विरुद्ध व अनै कान्तिक तीनों दोषोसे दूषित है। (४) शुद्धामा तो सकल विमल केवलज्ञान के प्रत्यक्ष है और कर्म नोकर्म संयुक्त अशुद्धात्मा अवधि व मन.पर्यय ज्ञानके भी प्रत्यक्ष है अत उपरोक्त हेतु असिद्ध है। प्रश्न--इन्द्रिय प्रत्यक्ष न होनेसे वह अप्रत्यक्ष है । उत्तर-ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योकि इन्द्रिय प्रत्यक्षको परोक्ष ही माना गया है। घटादि परोक्ष हैं क्योंकि वे अग्राहक निमित्तसे ग्राह्य होते हैं, जैसे कि धूमसे अनुमित अग्नि। असद्भूत शशशृङ्गादि तथा सद्भूत विज्ञानादि दोनों ही अप्रत्यक्ष हैं, अतः उपरोक्त हेतु अनैकान्तिक है। यदि बौद्ध लोग यह कहें कि विज्ञान तो स्वसवेदन तथा योगियोके प्रत्यक्ष है इसलिए आपका हेतु ठीक नहीं है, तो हम कह सकते है कि फिर आत्माको ही स्वसंवेदन व योगिप्रत्यक्ष मानने में क्या हानि है। शशशृगका दृष्टान्त भी साध्य, साधन व उभय धर्मोसे विकल होनेके कारण दृष्टान्ताभास है, क्योकि मण्डूक शिरवाबत शशशृग भी कथाचित् सत् है। इसलिए उसे अप्रत्यक्ष कहना असिख है। (३) इन्द्रियो और तजनित ज्ञानोमें जो सम्भव नहीं है ऐसा जो, 'जो मैं देखनेवाला था वही चलनेवाला हूँ' यह एकत्वविषयक फल सभी विषयों व ज्ञानोमें एकसूत्रता रखनेवाले गृहीता आत्माके सद्भावको सिद्ध करता है। आत्मस्वभावके होनेपर ही ज्ञानकी व विषयों की प्राप्ति होती है, इन्द्रियोके उसका संभवपना नहीं है, क्योंकि वे अचेतन व क्षणिक है। इसलिए उन इन्द्रियो से व्यतिरिक्त कोई न कोई ग्रहण करनेवाला होना चाहिए, यह सिद्ध होता है। (स्या.म./१७/२३३/१६); (६) यह जो हम सबको 'आत्मा है' इस प्रकारका ज्ञान होता है, वह संशय, अनध्यवसाय, विपर्यय या सम्यक इन चार विकल्पों में से कोई एक तो होना ही चाहिए। कोई सा भी विकल्प हमारे इष्टकी सिद्धि कर देता है। यदि यह ज्ञान संशयरूप है तो भी आत्माकी सत्ता सिद्ध होती है, क्योंकि अवस्तुका संशय नहीं होता। अनादिकालसे प्रत्येक व्यक्ति आत्माका अनुभव करता है, अतः यह ज्ञान अनध्यवसाय नहीं हो सकता। यदि इसे विपरीत कहते हैं, तो भी आत्माकी क्वचिव सत्ता सिद्ध हो जाती है, क्योंकि अप्रसिद्ध पदार्थका विपर्यय ज्ञान नहीं होता। और सम्यक रूपमें तो आत्मसाधक है ही। स्या.म./१७/२३२/५ अहं सुखी अहं दुःखी इति अन्तर्मुखस्य प्रत्ययस्य आत्मालम्बनतयैवोपपत्तेः .. यत्पुनः अहं गौर' अहं श्याम इत्यादि बहिर्मुख. प्रत्यय स खल्वात्मोपकारकत्वेन लक्षणया शरीरे प्रयुज्यते । यथा प्रियभृत्येऽहमिति व्यपदेश'। स्या.म/१७/२३२/२६ यच्च, अहं प्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् तत्रेयं वासना। ...यथा बीज...न तस्याङ्कुरोत्पादने कादाचित्केऽपि तदुत्पादनशक्तिरपि कायाचित्की। तस्याः कथं चिन्नित्यत्वात। एवमात्मा सदा संनिहितत्वेऽप्यहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् । रूपाद्य पल ब्धिः सकतृ का, क्रियात्वाद, छिदि क्रियावत । यश्चास्याः कर्ता स आत्मा। न चात्र चक्षुरादीनां कतृत्वम् । तेषां कुठारादिवत् करणत्वेनास्वतन्त्रत्वात् । करणत्वं चैषां पौद्गलिकत्वेनाचेतनत्वात, परप्रेर्यत्वात, प्रयोक्तृव्यापारा निरपेक्षप्रवृत्त्यभावात् । स्या,म./१७/२३४/२० तथा च साधनोपादानपरिवर्जनद्वारेण हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्था चेष्टा प्रयत्नपूर्विका, विशिष्ट क्रियात्वात, रथक्रियावत् । शरीरं च प्रयत्नवदधिष्ठितम, विशिष्टक्रियाश्रयत्वात, रथवत् । यश्चास्याधिष्ठाता स आत्मा, सारथिवत् । स्या.म/१७/२३४/१४ तथा प्रेय मनः अभिमतविषयसंबन्धनिमित्तक्रियाश्रयत्वाद, दारकहस्तगतगोलकवत् । यश्चास्य प्रेरकः स आत्मा इति।... तथा अस्त्यात्मा, असमस्तपर्यायवाच्यत्वात् । यो योऽसाङ्क तिकशुद्धपर्यायवाच्या, स सोऽस्तित्वं न व्यभिचरति, यथा घटादिः ।...तथा सुखादीनि द्रव्याश्रितानि, गुणत्वाद, रूपवत् । योऽसौ गुणी स आत्मा। इत्यादिलिगानि । तस्मादनुमानतोऽप्यात्मा सिद्ध.। (७) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव - मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ ऐसे अन्तर्मुखी प्रत्ययोंकी आत्मा के आल ही उत्पत्ति होती है। और मैं गोरा, मैं काला ऐसे बहिर्मुखी भी शरीर मात्रके सूचक नहीं हैं, क्योंकि प्रिय नौकरमे अहं बुद्धिकी भाँति यहाँ भी अहं प्रत्ययका प्रयोग आत्माके उपकार करनेवालेमें किया गया है । ( पं. ध. /उ. / ५.५० ); ( ) अहं प्रत्यय में कादाचित्कत्वके प्रति भी उत्तर यह है कि जिस प्रकार बीजमें अंकुरको अनित्यताको देखकर उसमें अंकुरोत्पादनकी शक्तिको कादाचित्क नहीं कह सकते, उसी प्रकार अहंप्रत्यय के अनित्य होनेसे उसे कादाचित्क नहीं कह सकते हैं (अर्थात भले हो उपयोग में अहं प्रत्यय कादाचित्क हो, पर लन्धरूप से वह नित्य रहता है)। (६) क्रिया होनेके कारण रूपादिकी उपलब्धिका कोई कर्ता होना चाहिए. जैसे कि लकड़ी काटनेरूप क्रियाका कोई न कोई कर्ता अवश्य देखा जाता है। जो इसका कर्ता है - वही आत्मा है यहाँ आदि इन्द्रियों में कर्तापना नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे तो ज्ञान के प्रति करण होनेसे परतन्त्र है. जैसे कि घेवनक्रियाके प्रति कुठारादि। इनका करणत्व भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि पौगलिक होनेके कारण ये अचेतन हैं और परके द्वारा प्रेरित की जाती हैं। इसका भी कारण यह है कि प्रयोक्ता के व्यापारसे निरपेक्ष करणकी प्रवृत्ति नहीं होती । (१०) हितरूप साधनोका ग्रहण और अहितरूप साधनोंका त्याग प्रयत्नपूर्वक ही होता है, क्योंकि यह क्रिया है, जैसे कि रथकी क्रिया विशिष्ट क्रियाका आश्रय होने शरीर प्रयत्नवान्का आधार है जैसे रथ सारथीका आधार है। और जो इस शरीर की क्रियाका अधिष्ठाता है वह आत्मा है, जैसे कि रथकी क्रियाका अधिष्ठाता सारथी है। (११) जिस प्रकार बालक के हाथका पत्थरका गोला उसकी प्रेरणासे ही नियत स्थानपर पहुँच सकता है, उसी प्रकार नियत पदार्थों की ओर दौडनेवाला मन आमाकी प्रेरणा से ही पदार्थों की ओर जाता है। अतएव मनके प्रेरक आत्माको स्वतन्त्र द्रव्य स्वीकार करना चाहिए। (१२) 'आत्मा' शुद्धनिर्विकार पर्यायका वाचक है, इसलिए उसका अस्तित्व अवश्य होना चाहिए । जो शब्द बिना संकेतके शुद्ध पर्यायके वाचक होते हैं। उनका अस्तित्व अवश्य होता है, जैसे घट आदि । जिनका अस्तित्व नहीं होता उनके वाचक शब्द भी नहीं होते । (१३) सुख-दुख आदि किसी द्रव्यके आश्रित हैं. क्योंकि वे गुण हैं। जो गुण होते हैं वे द्रव्यके आधित रहते हैं, जैसे रूप जो इन गुणोंसे शुरू है नही आत्मा है । इत्यादि अनेक साधनों से अनुमान द्वारा आत्माकी सिद्धि होती है। 1 ५. जीव एक ब्रह्मका अंश नहीं है पं. का./ता.वृ./७१/१२३/२१ कश्चिदाह । यथै कोऽपि चन्द्रमा बहुषु जलघटेषु भिन्नभिन्नरूपो दृश्यते तमेोऽपि जीव शरीरेषु भिन्नभिन्नरूपेण दृश्यत इति परिहारमाह। महुषु जलघटेषु चन्द्रकिरणो पाधिवशेन जलपुद्गला एव चन्द्राकारेण परिणता न चाकाशस्थचन्द्रमा अत्र दृष्टान्तमाह यथा मुखोपाधनो नानादर्पमानो पुइगडा एवं नानामुखाकारेण परिणमन्ति न च देवदत नानारूपेण परिणमति यदि परिणमति तदा दर्पणस्थ प्रतिभिन्नं चैतन्यं प्राप्नोतिः न च तथा । तथैकचन्द्रमा अपि नानारूपेण न परिणमतीति । किं च । न चैकब्रह्मनामा कोऽपि दृश्यते प्रत्यक्षेण यश्चद्रवन्नानारूपेण भविष्यति इत्यभिप्रायः 14 प्रश्न- जिस प्रकार एक ही चन्द्रमा महुतसे जल में भिन्न-भिन्न रूपसे दिखाई देता है, जैसे एक भी जो बहुतसे शरीरों में भिन्न-भिन्न रूपसे दिखाई देता है। ३३६ २. निर्देश विषयक शंकाएं व मतार्थ आदि उत्तर-महुलसे जलने पहोंने तो वास्तव में चन्द्रकिरणों की उपाधिके निमित्तसे जलरूप पुद्गल ही चन्द्राकार रूपसे परिणत होता है, आकाशस्थ चन्द्रमा नहीं। जैसे कि देवदत्तके मुखका निमित्त पाकर नाना दर्पणोंके पुद्गल ही नाना मुखाकार रूपसे परिणमन कर जाते हैं न कि देवता मुख स्वयं नाना रूप हो जाता है । यदि ऐसा हुआ होता तो दर्पणस्थ मुखके प्रतिबिम्बों को चैराग्यपना प्राप्त हो जाता, परन्तु ऐसा नहीं होता है । इसीप्रकारएक चन्द्रमाका नानारूप परिणमन नहीं समझना चाहिए दूसरी बात यह भी तो है कि उपरोक्त दृष्टान्तो में तो चन्द्रमा व देवदत्त दोनो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, तब उनका प्रतिबिम्ब जल व दर्पण मे पडता है, परन्तु ब्रह्म नामका कोई व्यक्ति तो प्रत्यक्ष दिखाई ही नहीं देता, जो कि चन्द्रमाकी भाँति नानारूप होवे । ( प. प्र / टी / २ / ६६ ). ६. पूर्वोक्त लक्षणका मतार्थ पं.का./मू. ३७ तथा ता.वृ. में उसका उपोद्घात /७६/८ अथ जीवाभावो मुक्तिरिति सौगतमतं विशेषे निराकरोति "सरसदमध उत्त भलमभयं च सुग्मनिदर षं विष्णाणमण्यिा व कुजदि असदि सम्भावे |३७| " 1 सर्वज्ञ पं. का/ता, वृ./२०/६१/६ सामान्य चेतना व्याख्यान सर्वसाधारण ज्ञातव्यम्; अभिन्नज्ञानदर्शनोपयोगव्याख्यानं तु नैयायिकमतानुसारिशिष्यप्रतिबोधनार्थ मीमायाख्यानं बीरागसपणीत वचनं प्रमाणं भवतीति "श्वनदिन दिनदहि पड़ दापासरुम्पक लिउ अगणि सविता जाशु" इति दोह सूत्रकनिष्टान्तं भयानकमाश्रिता शिष्यापेक्षया सिद्धार्थ शुद्धाशुद्धपरिणामक व्याख्यानं तु नित्यसांख्यमतानुयायिशिष्योधनार्थपव्याख्या कर्ता वर्म फलं न भुङ्क्त इति बौद्धमतानुसारिशिष्यप्रतिबोधनार्थ; स्वदेहप्रमाण व्याख्यानं मैकिमीमांसककपत मतानुसारिशिष्यसंदेहविनाशार्थ: अमूर्त स्वव्याख्यानं भट्टचार्या कमतानुसारिशिष्य संबोधनार्थः व्यभावकर्मसंयुक्तम्याख्यान व सदामुतनिराकरणार्थमिति मतार्थो ज्ञातव्य -१, जीवका अभाव ही मुक्ति है ऐसा माननेवाले सौगत (बौद्धमत का निराकरण करने के लिए कहते है कि यदि मोक्षमें जीवका सद्भाव न हो तो शाश्वत या नाशवंत, भव्य या अभव्य, शुन्य या अशुन्य तथा विज्ञान या अभिज्ञान घटित ही नहीं हो सकते |३७| अथवा कर्ता स्वयं अपने कर्म के फलको नहीं भोगता ऐसा माननेवाले बौद्धमतानुसारी शिष्य के जीमको भोक्ता कहा गया है। २. सामान्य चैतन्यका व्याख्यान सर्वमत साधारण के जानने के लिए २. अभिज्ञानदर्शनोपयोगका व्याख्यान नैयायिक मतानुसारी शिष्य के प्रतिमोधनार्थ है क्योंकि के ज्ञानदर्शनको जीवसे पृथक् मानते हैं ४, स्मदेह प्रमाणका व्याख्यान में यायिक, मीम में कपिल ( सारख्य) मतानुसारी शिष्यका सन्देह दूर करनेके लिए है, ( क्योंकि वे जीवको विभु या अणु प्रमाण मानते है ) । ५. शुद्ध व अशुद्ध परिणामोके कर्तापनेका व्याख्यान सांख्यमतानुयायी शिष्यके संबोधनार्थ है, क्योंकि वे जीव या पुरुषको नित्य अकर्ता या अपरिशामी मानते है) 4. द्रव्य व भावकर्मोंसे संयुक्तपनेका व्याख्णन सदाशिव वादियोंका निराकरण करनेके लिए है, (क्योंकि वे जीवको सर्वथा शुद्ध व मुक्त मानते है) । ७. मोक्षोपदेशक, मोक्षसाधक, प्रभु, तथा वीतराग सर्वज्ञके वचन प्रमाण होते है, ऐसा व्याख्यान; अथवा रत्न, दीप, सूर्य, दही, दूध, घी, पाषाण, सोना, चाँदी, स्फटिकमणि और अग्नि जीवके नो दृष्टान्त चान् माथि शिष्यकी अपेक्षा सर्वज्ञकी सिद्धि करनेके लिए किये गये हैं । अथवा - अमूर्तलका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 1 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव ३. जीवके गुण व पर्न व्यारम्यान भी उन्हींके सम्बोधनार्थ किया गया है। (क्योंकि वे किसी चेतन व अमूर्त जोबको स्वीकार नहीं करते, मक्कि पृथिवी आदि पाँच भूतोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाला एक क्षणिक तत्त्व २. वीर्य अवगाह आदि सामान्य गुण पं.ध./उ./६४६ वीर्य सूक्ष्मोऽवगाहः स्यादव्यामाधश्चिदात्मकः । स्यादगुरुलघुसझं च स्युः सामान्यगुणा इमे । - चेतनारमक वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अव्यावाधरव और अगुरुलधुत्व ये पाँच जीवके सामान्यगुण हैं। दे० मोक्ष/३ (सिद्धोंके आठ गुणोंमें भी इन्हें गिनाया है)। ७. जीवके भेद-प्रभेदादि जाननेका प्रयोजन पं.का./ता.क./१२/६६/१८ अत्र जीविताशारूपरागादिविकल्पत्यागेन सिद्धजीवसहशः परमाहादरूपसुखरसास्वादपरिणतनिजशुब्रजीबास्तिकाय एवोपादेयमिति भावार्थः।- यहाँ (जीवके संसारी * मुक्तरूपभेदों मेंसे) जीनेकी आशारूप रागादि विकल्पोंका त्याग करके सिद्धजीव सदृश परमाहादरूप सुखरसास्वादपरिणत निजशुद्धजीवास्तिकाय हो उपादेय है, ऐसा अभिप्राय समझना। (द्र. सं./टो/२/१०11)। ३. जीवके गुण व धर्म जीवके सामान्य विशेष स्वमावों का नाम निर्देश आ.प./ स्वभावाः कष्यन्ते-अस्तिस्वभावः, नास्तिस्वभावः, नित्यस्वभावः, अनित्यस्वभावः, एकस्वभावः, अनेकस्वभावः, भेदस्वभाव, अभेदस्वभावः, भव्यस्वभावः, अभव्यस्वभावः, परमस्वभावः-द्रव्याणामेकादशसामान्यस्वभावाः । चेतनस्वभावः, अचेतनस्वभावः, मूर्तस्वभावः, अमूर्त स्वभावः, एकप्रदेशस्वभावः, अनेकप्रदेशस्वभावः, विभावस्वभावः, शुबस्वभाव', अशुद्धस्वभावः, उपचरितस्वभाव:एते द्रव्याणी दश विशेषस्वभावाः । जीवपुदगलयोरेकविंशतिः । 'एकविशतिभावाः स्युर्जीवपुद्गलयोर्मता ।' टिप्पणी-जीवस्याप्यसहभूतव्यवहारेणाचेतनस्वभावः, जोवस्याप्यसदभूतव्यवहारेण मूर्तत्वस्वभावः । तत्कालपर्ययाक्रान्तं वस्तुभावोऽभिधीयते । तस्य एकप्रदेशसंभवात् । - स्वभावोंका कथन करते हैं-अस्तिस्वभाव, नास्तिस्वभाव, नित्यस्वभाव, अनित्यस्वभाव, एकस्वभाव, अनेकस्वभाव, भव्यस्वभाव, अभव्यस्वभाव, और परमस्वभाव ये ग्यारह सामान्य स्वभाव है। और-चंतनस्वभाव, अचेतनस्वभाव, मूर्तस्वभाव, अमूर्त स्वभाव, एकप्रदेशस्वभाव, अनेकप्रदेशस्वभाव, विभावस्वभाव, शुखस्वभाव, अशुद्धस्वभाव और उपचरित स्वभाव ये दस विशेष स्वभाव है। कुल मिलकर २१ स्वभाव हैं। इनमेंसे जीव व पुदगलमें २१ के २९ हैं। प्रश्न-(जीवमें अचेतन स्वभाव, मूर्तस्वभाव और एक प्रदेशस्वभाव कैसे सम्भव है)। उत्तर-असदभूत व्यवहारनयसे जीवमें अचेतन व मूर्त स्वभाव भी सम्भव है क्योंकि संसारावस्थामें यह अचेतन व मूर्त शरीरसे मर रहता है। एक प्रदेशस्वभाव भावकी अपेक्षासे है। वर्तमान पर्यायाक्रान्त वस्तुको भाव कहते हैं । सूक्ष्मताकी अपेक्षा वह एकप्रदेशी कहा जा सकता है। जीवके अन्य भनेकों गुण व धर्म पं.का./म् /२७ जोवो त्ति हवदि चेदा उबओगविसेंसिदो पह कत्ता भोचा य देहमेत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंपत्तो १२ -आत्मा जोब है. चेतयिता है, उपयोगलक्षिता है, प्रभु है, कर्ता है, भोक्ता है, देहप्रमाण है. अमूर्त है और कर्मसंयुक्त है। (पं.का./म./१०६): (प्र.सा./म./१२७); (भा पा./मू./१४८); (प.प्र./मू./१/३१) (रा.वा./९/४/२४/८/११): (म.पु./२४/१२): (न च../१०६); (इ.सं./मू./२)। स-सा./बा./परि.-अत एवास्य ज्ञानमात्रैकभावान्तःपातिन्योऽनन्ताः शक्तयः उत्प्लवन्ते--उस (आत्मा) के ज्ञानमात्र एक भावकी अन्त:पातिनी (ज्ञान मात्र एक भावके भीतर समा जानेवाली) अनन्त शक्तियाँ उछलती हैं उनमें से कितनी ही (४७) शक्तियाँ निम्न प्रकार हैं-१. जोवत्व शक्ति, २.चितिशक्ति, ३. रशिशक्ति. ४.ज्ञानशक्ति, ५. मुखशक्ति, ६. वीर्यशक्ति, ७.प्रभुत्वशक्ति, ८. विभुत्वशक्ति, ६. सर्वदर्शित्वशक्ति, १०. सर्वहत्वशक्ति, ११. स्वच्छत्लशक्ति १२. प्रकाशशक्ति, १३. असंकुचितविकाशवशक्ति, १४. अकार्यकारणशक्ति, १५. परिणम्यपारिणामकत्वशक्ति, १६. त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति, १७. अगुरुलघुत्वशक्ति, १८. उत्पादव्यमनौव्यत्वशक्ति, १६. परिणामशक्ति, २०. अमूर्तत्वशक्ति, २१. अकर्तृत्वशक्ति, २२. अभोक्तृत्वशक्ति, २३. निष्क्रियत्वशक्ति, २४. नियतप्रदेशत्वशक्ति, २५. सर्वधर्मव्यापकत्वशक्ति, २६. साधारण असाधारण साधारणासाधारण धर्मत्वशक्ति, २७. अनन्तधर्मत्वशक्ति, २८. बिल्वधर्मत्वशक्ति, २६. तत्त्वशक्ति, ३०. अतत्त्वशक्ति, ३९. एकत्वशक्ति, ३२. अनेकत्वशक्ति, ३३. भावशक्ति, ३४. अभावशक्ति, ३५. भाषाभावशक्ति, ३६.अभावभावशक्ति, ३७. भावभावशक्ति, ३८.अभावाभावशक्ति, ३६. भावशक्ति, ४०. क्रियाशक्ति, ४१. कर्मशक्ति, ४२. कर्तृ शक्ति, ४३. करणशक्ति, ४४. सम्प्रदानशक्ति, ४५. अपादानशक्ति, ४६. अधिकरणशक्ति, ४७. सम्बन्धशक्ति। नोट-इन शक्तियोंके अर्थोके लिए-३० वह बह नाम । दे. जीव/१/२-३ कर्ता, भोक्ता, विष्णु, स्वयंभू, प्राणी, जन्तु आदि अनेकों अन्वर्थक नाम दिये है। नोट-उनके अर्थ जीव/१/३ में दिये हैं। दे. गुण/३. जीवमें अनन्त गुण है। १. जीवके गुणों का नाम निर्देश १. शान दर्शन आदि विशेष गुण दे० जीव/१/१ (चेतना व उपयोग जीवके लक्षण है)। आ.प./२ षोडशविशेषगुणेषु जीवपुदगलयोः षडिति । जीवस्य ज्ञानदर्शनसुखबीर्याणि चेतनत्वममूर्तत्वमिति षट्। -सोलह विशेष गुणोंमेंसे (दे० गुण/३) जीव व पुदगल में छह छह हैं। तहाँ जीवमें ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व और अमूर्तत्व ये छह हैं। पं.ध./उ./६४५ तद्यथायथं जीवस्य चारित्रं दर्शन सुखम् । झाम सम्यक्वमित्येते स्युविशेषगुणाः स्फुटम् ।६४५-चारित्र, दर्शन, सुख, ज्ञान और सम्यक्ख ये पाँच स्पष्ट रीतिसे जीवके विशेष गुण है। जीवमें सूक्ष्म महान् आदि विरोधी धोका निर्देश पं. वि/८/१३ यत्सूक्ष्मं च महच्च अभ्यमपि यन्नो शून्यमुत्पद्यते, नश्यत्येव च नित्यमेव च तथा नास्त्येव चास्त्येव च । एक यद्यदनेकमेव तदपि प्राप्त प्रतीति दृढां, सिद्धज्योतिरमूर्तिचित्सुखमयं केनापि तल्लक्ष्यते ॥१३॥जो सिद्धज्योति सूक्ष्म भी है और स्थूल भी है. शून्य भी है और परिपूर्ण भी है, उत्पादविनाशवाली भी है और नित्य भी है. सद्भावरूप भी है और अभावरूप भी है, तथा एक भी है और अनेक भी है, ऐसी वह दृढ़ प्रतीतिको प्राप्त हुई अमूर्तिक, चेतन एवं सुखस्वरूप सिद्धज्योति किसी बिरले ही योगी परुषके द्वारा देखी जाती है ।१३। (पं वि/१०/१४)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-४३ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोव ३३८ ३. जीवके गुण व धर्म ५. जीवमें कथंचित् शुद्धत्व व अशुद्धत्वका निर्देश दोनोकी भी कोई योजना न बन सकती, क्योंकि पुण्य-पाप पूर्वक ही संसार होता है और उनके अभावसे मोक्ष । श्लो वा./२/१/४ श्लो, ४५/१४६ क्रियावान पुरुषोऽसर्वगतद्रव्यत्वतो यथा। पृथिव्यादि स्वसवेद्यसाधनं सिद्धमेव नः।४॥ आत्मा क्रियावान् है, क्योंकि अव्यापक है, जैसे पृथिवी जल आदि। और यह हेतु स्वसंवेदनसे प्रत्यक्ष है। प्र. सा./त. प्र./१३७ अमूर्त संवर्त विस्तारसिद्धिश्च स्थूलकृशशिशुकुमार शरीरव्यापित्वादस्ति स्वसंवेदनसाध्यैव । अमूर्त आत्माके संकोच विस्तारकी सिद्धि तो अपने अनुभवसे ही साध्य है, क्योंकि जीव स्थूल तथा कृश शरीरमें तथा बालक और कुमारके शरीरमें व्याप्त होता है। का. अ./मू-/१७७ सव्व-गओ जदि जीवो सब्वत्थ वि दुक्खसुवरवसंपत्ती। जाइज्ज ण सा दिट्ठी णियतणुमाणो तदो जीवो। यदि जीव व्यापक है तो इसे सर्वत्र सुखदु.खका अनुभव होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता । अतः जीव अपने शरीरके बराबर है। अन. घ./२/३१/१४६ स्वाङ्ग एव स्वसं वित्त्या स्वारमा ज्ञानसुखादिमान् । यतः संवेद्यते सर्वैः स्वदेहप्रमितिस्तत. ३१ = ज्ञान दर्शन मुरब आदि गुणों और पर्यायोसे युक्त अपनी आत्माका अपने अनुभवसे अपने शरीरके भीतर ही सब जीवोको संवेदन होता है। अत. सिद्ध है कि जीव शरीरप्रमाण है। द्र. सं./मू./१३ मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। विष्णेया संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ।१३। संसारी जीव अशुद्धनयकी दृष्टि से चौदह मार्गणा तथा चौदह गुणस्थानोसे चौदह-चौदह प्रकारके होते है और शुद्धनयसे सभी मंसारी जीव शुद्ध हैं । ( स. सा/मू./३८-६८)। प्र..सा/ता, वृ/८/१०/११ तच्च पुनरुपादानकारणं शुद्धाशुद्धभेदेन द्विधा । रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनशानआगमभाषया शुक्लध्यानं वा केवलज्ञानोत्पत्तौ शुद्धोपादानकारणं भवति । अशुद्धात्मा तु रागादिना अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानकारणं भवतीति सूत्रार्थः।वह उपादान कारणरूप जीव शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकारका है। रागादिविकल्प रहित स्वसंवेदज्ञान अथवा आगम भाषाकी अपेक्षा शुक्लध्यानकेवलज्ञानकी उत्पत्तिमें शुद्धउपादानकारण है और अशुद्धनिश्चनयसे रागादिसे अशुद्ध हुआ अशुद्ध आत्मा अशुद्ध उपादान कारण है । ऐसा तात्पर्य है। ६. जीव कथंचित् सर्वव्यापी है प्र. सा/२३,२६ आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुट्ठि । णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सवगर्य ।२३. सव्वगदो जिणवसहो सब्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा। णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिया ।२६।- १. आत्मा ज्ञानपमाण है, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण कहा गया है, ज्ञेय लोकालोक है, इसलिए ज्ञान सर्वगत है ।२३। (पं. वि/८/५) २. जिनवर सर्वगत हैं और जगतके सर्वपदार्थ जिनवरगत हैं; क्योंकि जिन ज्ञानमय हैं, और वे सर्वपदार्थ ज्ञानके विषय हैं, इसलिए जिनके विषय कहे गये है ( का, अ/म्/२५४/२५३)। प.प्र./मू.//९/५२ अप्पा कम्मविवज्जियउ केवलणाणेण जेण । लोयालोउ वि मुणइ जिय सव्वगु वुच्चइ तेण ॥५२॥ - यह आत्मा कर्मरहित होकर केवलज्ञानसे जिस कारण लोक और अलोकको जानता है इसी लिए हे जीव ! वह सर्वगत कहा जाता है। दे. केवलो ७/७ ( केवली समुद्घातके समय आत्मा सर्वलोकमें व्याप जाता है)। ७. जीव कथंचित् देह प्रमाण है पं.का./मू./३३ जह पउमरायरयणं वित्तं खीरे पभासयदि वीरं । तह देही देहत्थो सदेहमित्तं पभासयदि ॥३३॥- जिस प्रकार पद्मरागरत्न दूधमें डाला जानेपर दूधको प्रकाशित करता है उसी प्रकार देही देहमें रहता हुआ स्वदेहप्रमाण प्रकाशित होता है। स. सि./१/८/२७४/8 जोबस्तावत्प्रदेशोऽपि संहरणविसर्पणस्वभावत्वारकर्म निर्वतितं शरोरमणुमहद्वाधितिष्ठस्तावदवगाह्य वर्तते।यद्यपि जीवके प्रदेश धर्म व अधर्म या लोकाकाशके बराबर हैं, तो वह संकोच और विस्तार स्वभाववाला होनेके कारण, कर्मके निमित्त से छोटा या बड़ा जैसा शरीर मिलता है, उतनी अवगाहनाका होकर रहता है। (रा. वा./५/८/४/४४६/३३); (का. अ./मू./१७६ )। पं. का./ता. वृ./३४/७२/१३ सर्वत्र देहमध्ये जीवोऽस्ति न चैकदेशे। 20 देहके मध्य सर्वत्र जीव है, उसके किसी एकदेशमें नहीं। ८. सर्वव्यापीपनेका निषेध व देहप्रमाणपनेको सिद्धि रा. वा/१/१०/१६/१२/१३ यदि हि सर्वगत आत्मा स्यात्; तस्य क्रियाभावात् पुण्यपापयोः कर्तृत्वाभावे तत्पूर्व कसंसारः तदुपरतिरूपश्च । मोक्षो न मोक्ष्यते इति । यदि आत्मा सर्वगत होता तो उसके क्रियाका अभाव हो जानेके कारण पुण्य व पापके ही कर्तृत्वका अभाव हो जाता। और पुण्य व पापके अभावसे संसार व मोक्ष इन ९. जीव संकोच विस्तार स्वभावी है त.सू./५/१६ प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् । दीपके प्रकाशके समान जीवके प्रदेशोंका सकोच विस्तार होता है। (स.सि./५/८/२७४/९); ( रा.वा./५/८/४/४४६/३३); (प्र.सा./त.प्र./१३६,१३७), (का. अ./म./१७६) १०. संकोच विस्तार धर्मकी सिद्धि रा.वा./५/१६/४-६/४५८/३२ सावयवत्वात प्रदेश विशरणप्रसंग इति चेतः न; अमूर्त स्वभावापरित्यागात् ।।.. अनेकान्ताव ।५। यो ह्येकान्तैन संहारविसर्पवानेवात्मा सावयवश्चेति वा ब्र यात तं प्रत्ययमुपालम्भो घटामुपेयात् । यस्य त्वनादिपारिणामिकचैतन्यजीवद्रव्योपयोगादिद्रव्यार्थादेशात स्यान्न प्रदेशसंहारविसर्पवान, द्रव्यार्थादेशाच्च स्यान्निरवयवः, प्रतिनियतसूक्ष्मबादरशरीरापेक्षनिर्माणनामोदयपर्यायार्थादेशात् स्यात प्रदेशसंहारविसर्पवान्, अनादिकर्मबन्धपर्यायार्थादेशाच्च स्यात् सावयवः, तं प्रत्यनुपालम्भः । किच-तत्प्रदेशानामकारणपूर्वकत्वादणुवत ६ - प्रश्न-प्रदेशोंका संहार व विसर्पण माननेसे आत्माको सावयव मानना होगा तथा उसके प्रदेशोका विशरण (झरन) मानना होगा और प्रदेश विशरणसे शून्यताका प्रसंग आयेगा। उत्तर-१.बन्धकी दृष्टिसे कार्मण शरीरके साथ एकत्व होनेपर भी आत्मा अपने निजी अमूर्त स्वभावको नहीं छोड़ता, इसलिए उपरोक्त दोष नहीं आता। २. सर्वथा संहारविसर्पण व सावयव माननेवालोंपर यह दोष लागू होता है, हमपर नहीं। क्योंकि हम अनेकान्तवादी हैं । पारिणामिक चैतन्य जीवद्रव्योपयोग आदि द्रव्यार्थदृष्टिसे हम न तो प्रदेशोंका संहार या विसर्प मानते हैं और न उसमें सावयवपना। हाँ, प्रतिनियत सूक्ष्म बादर शरीरको उत्पन्न करनेवाले निर्माण नामकर्मके उदयरूप पर्यायको विवक्षासे प्रदेशोंका संहार व विसर्प माना गया है और अनादि कर्मबन्धरूपी पर्याया देशसे सावयवपना। और भी-३. जिस पदार्थ के अवयव कारण पूर्वक होते हैं उसके अवयवविशरणसे विनाश हो सकता है जैसे तन्तुविशरणसे कपड़ेका। परन्तु आत्माके प्रदेश अकारणपूर्वक होते हैं, इसलिए अणुप्रदेशवत् वह अवयवविश्लेषसे अनित्यताको प्राप्त नहीं होता। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव ३३९ ४. जीवके प्रदेश ४. जीवके प्रदेश अर्थात् संसारी जीवके तीन प्रकारके होते हैं-चलित, अचलित व चलिताचलित। ३. शुद्ध द्रव्यों व शुद्ध जीवके प्रदेश अचल ही होते १. जीव असंख्यात प्रदेशी है त.सू./१८ असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवानाम् ।। =धर्म, अधर्म और एकजीव द्रव्यके असंख्यात प्रदेश हैं । (नि.सा./मू./३५), (प.प्रा./मू./२/२४); (द्र.सं./मू./२५) प्र. सा./त.प्र./१३५ अस्ति च संवर्त विस्तारयोरपि लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशापरित्यागाजीवस्य ।मंकोच विस्तारके होनेपर भी जीव लोकाकाश तुल्य असंख्य प्रदेशोंको नहीं छोड़ता, इसलिए वह प्रदेशबान है । (गो.जी.//५८४/१०२५) रा.वा./५/८/१६/४५१/१३ में उद्धृत-केवलिनामपि अयोगिनां सिद्धानां च सर्वे प्रदेशा स्थिता एव । =अयोगकेवली और सिद्धोंके सभी प्रदेश स्थित है। ध.१२/४,२,११.५/३६७/१२ अजोगिकेवलि म्मि जीवपदेसाणं संकोचविको चाभावेण अवठ्ठाणुवल भादो। अयोग केवली जिनमें समस्त योगोके नष्ट हो जानेसे जीव प्रदेशोंका संकोच व विस्तार नहीं होता है, अतएव वे वहाँ अवस्थित पाये जाते हैं। गो.जी./मू./५६२/१०३१ सबमरूबी दबं अवठ्ठिदं अचलिआ पदेसावि । रूबी जीवा चलिया तिवियप्पा हो तिहु पदेसा ।५६२। गो.जी./जी.प्र./५६२/१०३१/१५ अरूपिद्रव्यं मुक्तजीवधर्माधर्माकाशकाल भेदं सर्वम-अबस्थितमेव स्थानचलनाभावात् । तत्प्रदेशा अपि अचलिताः स्युः । - सर्व अरूपी द्रव्य अर्थात् मुक्तजीव और धर्म-अधर्म आकाश व काल, ये अवस्थित हैं, क्योंकि ये अपने स्थानसे चलते नहीं हैं । इनके प्रदेश भी अचलित ही है। २. संसारी जीवके अष्ट मध्यप्रदेश अचल हैं और शेष चल व अचल दोनों प्रकारके ष. खं, १४/५.६/सू.६३/४६ जो अणादियसरीरिबंधो णाम यथा अण्णं जीवनज्मपदेसाणं अण्णोण्णपदेसबंधो भवदि सो सम्बो अणादियसरीरिबंधोणाम ६३। -जो अनादि शरीरबन्ध है। यथा-जीवके आठ मध्यप्रदेशोंका परस्पर प्रदेशबन्ध होता है, यह सब अनादि शरीरबन्ध है। ष. ख.१२/४,२,११/सूत्र५-७/३६७ वेयणीयवेयणा सिया द्विदा।। सिया अद्विदा ।६। सिया ठ्ठिदाठ्ठिदा ७४ -वेदनीय कर्मकी वेदना । कथ चित् स्थित है ।। कथंचित वे अस्थित हैं ।६। कथंचित् वह स्थितअस्थित है। ध.१/११,३३/२३३/१ में उपरोक्त सुत्रोंका अर्थ ऐसा किया है-कि 'आत्म प्रदेश चल भी है, अचल भी है और चलाचल भी है'। भ.आ./मू./१७७६ अट्ठपदेसे ‘मुत्तूण इमो सेसेसु सगपदेसेसु । तत्तंपि । अदरणं उव्वत्तपरत्तणं कुणदि ।१७७६! = जैसे गरम जलमें पकते हुए चावल ऊपर-नीचे होते रहते हैं, वैसे ही इस संसारी जीवके आठ रुचकाकार मध्यप्रदेश छोड़कर बाकीके प्रदेश सदा ऊपर-नीचे घूमते है। रा.वा./५/८/१६/४५१/१३ में उद्धृत-सर्वकालं जीवाष्टमध्यप्रदेशा निर पवादाः सर्वजीवानां स्थिता एव, ...व्यायामदु खपरितापोद्रेकपरिणताना जीवानां यथोक्ताष्टमध्यप्रदेशवर्जितानाम् इतरे प्रदेशाः अस्थिता एव, शेषाणां प्राणिनां स्थिताश्चास्थिताश्च' इति वचनान्मुख्याः एव प्रदेशाः। जीवके आठ मध्यप्रदेश सदा निरपवादरूपसे स्थित ही रहते हैं । व्यायामके समय या दुःख परिताप आदिके समय जीवोंके उक्त आठ मध्यप्रदेशोंको छोड़कर बाकी प्रदेश अस्थित होते हैं । शेष जोबोंके स्थित और अस्थित दोनो प्रकारके हैं। अतः ज्ञात होता है कि द्रव्योंके मुख्य ही प्रदेश हैं, गौण नहीं। ध.१२/४,२,११,३/३६६/५ वाहिवेयणासज्झसादि किलेसविरहियस्स छदुमत्यस्स जीवपदेसाणं केसि पि चलणाभावादो तस्थ ट्ठिदकम्मवखंधा वि ठ्ठिदा चेव हों ति, तत्थेव केसि जीवपदेसाणं संचालुवलंभादो तत्थ ठ्ठिदकम्मरवधा वि संचलं ति, तेण ते अदिदा त्ति भण्णं ति । -- व्याधि, वेदना एवं भव आदिक क्लेशोसे रहित छद्मस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशोंका चूकि संचार नहीं होता अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित ही होते हैं। तथा उसी छद्मस्थके किन्हीं जीवप्रदेशोंका चूकि संचार पाया जाता है. अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी संचारको प्राप्त होते है, इसलिए वे अस्थित कहे जाते हैं। गो.जी./मू./१६२/१०३१ सव्वमरूवी दव्वं अवट्ठिदं अचलिआ पदेसावि। रूवी जीवा चलिया तिवियप्पा होंति हु पदेसा ।५४२सर्व ही अरूपी द्रव्यों के त्रिकाल स्थित अचलित प्रदेश होते हैं और रूपी १. विग्रहगतिमें जीवके प्रदेश चलित ही होते हैं गो:/जी./जी प्र/५६२/१०३१/१६ विग्रहगतौ चलिताः। -विग्रह गतिमें जीवके प्रदेश चलित होते है। ५. जीवप्रदेशोंके चलितपनेका तात्पर्य परिस्पन्द व भ्रमण आदि ध.१/१,१,३३/२३३/१ वेदनासूत्रतोऽवगतभ्रमणेसु जीवप्रदेशेषु प्रचलत्सु... ध.१२/४,२,११,१/३६४/५ जीवपदेसेसु जोगवसेण संचरमाणेसु... घ.१२/४,२,११,३/१६६/ जीवपदेसाणं केसि पिचलणाभावादो केसि जीवपदेसाणं संचालुवलं भादो... ध.१२/४,२,११३/३६६/११ ण च परिप्फंदविरहियजीवपदेसेसु... ध. १२/४,२.११.५/३६७/१२ जीवपदेसाणं संकोचविकोचाभावेण" । -१. वेदनाप्राभृतके सूत्रसे आत्मप्रदेशोंका भ्रमण अवगत हो जानेपर... २. योगके कारण जीवप्रदेशोका संचरण होनेपर... ३. किन्हीं जीवप्रदेशोका क्योकि चलन नहीं होता.. किन्ही जीव प्रदेशों का क्योंकि संचालन होता है ... ४. परिस्पन्दनसे रहित जीव प्रदेशोमे ५. जीवप्रदेशोका ( अयोगीमे ) संकोच विस्तार नहीं पाया जाता." ६. जीवप्रदेशोंकी अनवस्थितिका कारण योग है ध./१२/४,२,११,१/३६७/१२ अजोगकेवलिम्मि णट्ठासेसजोगम्मि जीवपदेसाणं संकोच विकोचाभावेण अवठाणवलं भादो। - अयोगकेवली जिनमे समस्त योगोके नष्ट हो जानेसे जीवप्रदेशीका संकोच व विस्तार नहीं होता, अतएव वे वहाँ अवस्थित पाये जाते हैं । ७. चलाचल प्रदेशों सम्बन्धी शंका समाधान ध.१/१,१,३३/२३३/१ भ्रमणेषु जीवप्रदेशेषु प्रचलत्सु सर्व जीवानामान्ध्यप्रसङ्गादिति, नैष दोषः, सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात । .."कर्मस्कन्धैः सह सर्वजीवावयवेषु भ्रमत्सु तत्समवेतशरीरस्यापि तद्वभ्रमो भवेदिति चेन्न, तभ्रमणावस्थाया तत्समवाया जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव ३४० जोवत्व पाया जाता है, अतएव उनमे स्थित कर्मप्रदेश भी संचारको प्राप्त होते है, इसलिए वे अस्थित ( चलित ) कहे जाते है। जीव आत्रव-दे० आस्रव/१। जीव कर्म-दे० कर्म/२। जीव चारण ऋद्धि-दे० ऋद्धि/४/८ । जीवतत्त्व-दे० तत्त्व । जीव तत्त्व प्रदीपिका-१. आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (ई. १८१) कृत गोमट्टसार पर ब्रह्मचारी केशव वर्णी (ई.१३५१) कर्णाटक वृत्ति। २. अभयचन्द्र कृत मन्द प्रबोधिनी के आधार पर ज्ञानभूषण के शिष्य नेमिचन्द द्वारा ई. १५१५ में रचित संस्कृत की गोमट्टसार टीका। इस पर से पं० टोडर मल जी ने सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका टोका रची। (जै. १/४७०, ४७७), जावत्व-जीवके स्वभावका नाम जीवत्व है। पारिणामिक होनेके कारण यह न द्रव्य कहा जा सकता है न गुण या पर्याय । इसे केवल चैतन्य कह सकते हैं। किसी अपेक्षा यह औदयिक भी है और इसीलिए मुक्त जीवोमें इसका अभाव माना जाता है। १. लक्षण स. सि./२/७/१६१/३ जीवत्वं चैतन्यमित्यर्थः । =जीवत्वका अर्थ चैतन्य है। स. सा./आ./परि/शक्ति नं. १ आरमद्रव्यहेतुभूतचैतन्यमात्रभावधारणलक्षणा जीवत्वशक्तिः। -आत्मद्रव्यके कारणभूत ऐसे चैतन्यमात्र भावका धारण जिसका लक्षण है अर्थात स्वरूप है, ऐसी जीवत्व शक्ति है। भावात्। शरीरेण समवायाभावे मरणमाढीकत इति चेन्न, आयुषःक्षयस्य मरणहेतुत्वाव। पुन. कथं स घटत इति चेन्नानाभेदोपसहृतजीवप्रदेशानां पुनः संघटनोपलम्भाव, द्वयोमर्तयोः संघटने विरोधाभावाच्च, तत्संघटनहेतुकर्मोदयस्य कार्यवैचित्र्यादवगतवैचित्र्यस्य सत्त्वाच्च । द्रव्येन्द्रियप्रमितजीवप्रदेशानां न भ्रमणमिति किन्नेष्यत इति चेन्न, तभ्रमणमन्तरेणाशुभ्रमजीवानां भ्रमभूम्यादिदर्शनानुपपत्तेः इति। प्रश्न-जीवप्रदेशोंकी भ्रमणरूप अवस्थामें सम्पूर्ण जीवोंको अन्धपनेका प्रसंग आ जायेगा, अर्थात् उस समय चक्षु आदि इन्द्रियाँ रूपादिको ग्रहण नहीं कर सकेंगी। उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योंकि, जोवोंके सम्पूर्ण प्रदेशोमें क्षयोपशमकी उत्पत्ति स्वीकार की गयी है। प्रश्न- कर्मस्कन्धों के साथ जीवके सम्पूर्ण प्रदेशों के भ्रमण करनेपर जोवप्रदेशोंसे समवाय सम्बन्धको प्राप्त शरीरका भी जोवप्रदेशोंके समान भ्रमण होना चाहिए ! उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, जीवप्रदेशोंकी भ्रमणरूप अवस्थामें शरीरका उनसे समवाय सम्बन्ध नहीं रहता है। प्रश्न-ऐसा माननेपर मरण प्राप्त हो जायेगा ! उत्तरनहीं, क्योंकि, आयुकर्मके क्षयको मरणका कारण माना है। प्रश्नतो जीवप्रदेशोंका फिरसे समवाय सम्बन्ध कैसे हो जाता है ? उत्तर-१) इसमें भी कोई बाधा नहीं है, क्योंकि, जिन्होंने नाना अवस्थाओंका उपसंहार कर लिया है, ऐसे जीवोंके प्रदेशोंका फिरसे समवाय सम्बन्ध होता हुआ देखा ही जाता है। तथा दो मूर्त पदार्थोंका सम्बन्ध होनेमें कोई विरोध भी नहीं है। (२) अथवा, जीवप्रदेश व शरीर संघटनके हेतुरूप कर्मोदयके कार्यकी विचित्रतासे यह सब होता है। प्रश्न-द्रव्येन्द्रिय प्रमाण जीवप्रदेशोंका भ्रमण नहीं होता, ऐसा क्यों नहीं मान लेते हो। उत्तर-नहीं, क्योंकि, यदि द्रव्येन्द्रिय प्रमाण जीव प्रदेशोंका भ्रमण नहीं माना जावे, तो अत्यन्त द्रुतगतिसे भ्रमण करते हुए जीवोंको भ्रमण करती हुई पृथिवी आदिका ज्ञान नहीं हो सकता। ८. जीव प्रदेशोंके साथ कर्मप्रदेश भी तदनुसार ही चल व अचल होते हैं ध.१२/४,२,११,२/३६५/११ देसे इव जीवपदेसेसु वि अदित्ते अब्भुवगममाणे पुव्वुत्तदोसप्पसंगादो च। अट्ठणं मज्झिमजीवपदेसाणं संकोचो विकोचो वा णत्थि त्ति तत्थ ट्ठिदकम्मपदेसाणं पि अछिदत्तं णत्थि त्ति । तदो सब्वे जीवपदेसा कम्हि वि काले अठ्ठिदा होति त्ति मुत्सवयणं ण घडदे। ण एस दोसो, ते अट्ठिमज्झिमजीवपदेसे मोत्तूण सेसजीवपदेसे अस्सिदूण एदस्स मुत्तस्स पवुत्तीदो। 7.१२/४,२,११,३/३६4/५जीवपदेसाणं केसि पि चलणाभावादो तत्थ10 कम्मक्खंधा वि ठ्ठिदा चेव होंति, तत्थेव केसि जीवपदेसाणं संचालुलभादो तत्थ ठ्ठिदकम्मक्रवंधा वि संचलं ति, तेण ते अट्टिदा त्ति भण्णं ति। -दूसरे देशके समान जीवप्रदेशोंमें भी कर्मप्रवेशोंको अवस्थित स्वीकार करनेपर पूर्वोक्त दोषका प्रसंग आता है। इससे जाना जाता है कि जीव प्रदेशोंके देशान्तरको प्राप्त होनेपर उनमें कर्म प्रदेश स्थित ही रहते हैं। प्रश्न-यतः जीवके आठ मध्य प्रदेशोंका संकोच एवं विस्तार नहीं होता, अतः उनमें स्थित कर्मप्रदेशोंका भी अस्थित(चलित )पना नहीं बनता और इसलिए सब जीव प्रदेश किसी भी समय अस्थित होते हैं, यह सूत्रवचन घटित नहीं होता। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि. जीबके उन आठ मध्य प्रदेशों को छोड़कर शेष जीवप्रदेशोंका आश्रय करके इस सूत्रकी प्रवृत्ति होती है ।...किन्हीं जीवप्रदेशोका क्योंकि संचार नहीं होता, इसलिए उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित हो होते है। तथा उसी जीवके किन्हीं जीवप्रदेशोंका क्योंकि संचार २. जीवत्व भाव पारिणामिक है रा.वा/२/७/३-६/११०/२४ आयुद्रव्यापेक्षं जीवत्वं न पारिणामिकमिति चेतः न; पुद्गलद्रव्यसबन्धे सत्यन्यद्रव्यसामयाभावात् ।। सिद्धस्याजीवत्वप्रसंगात ।४। जीवे त्रिकालविषयविग्रहदर्शनादिति चेत; न; रूढिशब्दस्य निष्पत्त्यर्थत्वात् ।। अथवा, चैतन्य जीवशब्देनाभिधीयते,तच्चानादिद्रव्यभवननिमित्तत्वात पारिणामिकम्।= प्रश्नजीवत्व तो आयु नाम द्रव्यकर्मकी अपेक्षा करके वर्तता है, इसलिए वह पारिणामिक नहीं है। उत्तर-ऐसा नहीं है; उस पुद्गलात्मक आयुद्रव्यका सम्बन्ध तो धर्मादि अन्य द्रव्योसे भी है, अतः उनमें भी जीवत्व नहीं है ।३। और सिद्धोंमे कर्म सम्बन्ध न होनेसे जीवत्वका अभाव होना चाहिए। शंका--'जो प्राणों द्वारा जीता है, जीता था और जीवेगा' ऐसी जीवत्व शब्दकी व्युत्पत्ति है ! उत्तरनहीं, वह केवल रूढिसे है। उससे कोई सिद्धान्त फलित नहीं होता। जीवका वास्तविक अर्थ तो चैतन्य ही है और वह अनादि पारिणामिक द्रव्य निमित्तक है। ३. जीवत्व माव कथंचित् औदयिक है ध.१४/५,६,१६/१३/१ जीवभवाभवत्तादि पारिणामिया वि अस्थि, ते एस्थ किष्ण परूविदा । वुच्चद-आउआदिपाणाणं धारण जीवर्ण तंच अजोगिचरिमसमयादो उबरि णस्थि, सिद्ध सु पाणणिबंधणट्ठकम्माभावादो।...सिद्ध सु पाणाभावण्णहाणुववत्तीदो जीवत्तं ण पारिणामियं कि कम्म विवागज; यद्यस्य भावाभावानुविधानतो भवति तत्तस्येति बदन्ति तद्विद इति न्यायात्। ततो जीवभावो ओदइओ त्ति सिद्ध।-प्रश्न-जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व आदिक जीवभात्र पारिणामिक भी हैं, उनका यहाँ क्यों कथन नहीं किया। उत्तर-कहते हैं-आयु आदि प्राणोंका धारण करना जीवन है। वह अयोगीके अन्तिम समयसे आगे नहीं पाया जाता, क्योंकि, सिद्धोंके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवत्व ३४१ जीव समास प्राणोंके कारणभूत आठ कमीका अभाव है ।...सिद्धों में प्राणों का अभाव जोव विचय-दे० धर्मध्याना। अन्यथा बन नहीं सकता, इससे मालूम पड़ता है कि जीवत्व पारि जीव वियाकी-दे० प्रकृति बन्ध/२ । णामिक नहीं है। किन्तु वह कर्मके विपाकसे उत्पन्न होता है, क्योंकि जो जिसके सद्भाव व असद्भावका अविनाभावी होता है, वह उसका जीव संवर-दे० संवर/१ में भाव संवर। है, ऐसा कार्यकारणभावके ज्ञाता कहते हैं, ऐसा न्याय है। इसलिए जीव.समास-१. लक्षण जीवभाव (जीवत्व ) औदयिक है यह सिद्ध होता है । पं.सा /प्रा./१/३२ जेहि अणेया जीवा णज्जंते बहविहा वितज्जादी। तें ४. पारिणामिक व औदयिकपनेका समन्वय पुण संगहिवत्था जोवसमासे त्ति विण्णेया।३२-जिन धर्मविशेषों के ध.१४/५.६.१६/१३/७ तच्चत्य जे जीवभावस्स पारिणामियत्तं परविदं तं । द्वारा नाना जीव और उनको नाना प्रकारकी जातियाँ, जानी जाती पाणधारणत्तं पडुच्च ण परू विदं, किंतु चेदणगुणमवलंबिय तत्थ हैं, पदार्थों का संग्रह करनेवाले उन धर्म विशेषोंको जीवसमास जानना परूवणा कदा । तेण तं पि ण विरुज्झइ। -तत्त्वार्थ सूत्रों जीवत्वको चाहिए । (गो. जी./मू./७०/१८४)। जो पारिणामिक कहा है, वह प्राणोंको धारण करनेकी अपेक्षा न ध. १/१,१,२/१३१/२ जीवाः समस्यन्ते एष्विति जीवसमासाः । कहकर चैतन्यगुणकी अपेक्षासे कहा है। इसलिए वह कथन विरोधको ध./१/१,१,/१६०/६ जीवाः सम्यगासतेऽस्मिन्निति जीवसमासाः। क्याप्राप्त नहीं होता। सते। गुणेषु । के गुणा.। औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपपशमिकपारि५. मोक्षमें मव्यत्व मावका अमाव हो जाता है पर णामिका इति गुणाः । = १. अनन्तानन्त जीव और उनके भेद प्रभेदोंजीवत्वका नहीं का जिनमें मंग्रह किया जाये उन्हें जीवसमास कहते हैं। २. अथवा जिसमें जीव भले प्रकार रहते है अर्थात पाये जाते हैं उसे जीवसमास त.सू./१०/३ औपशमिकादिभव्यत्वानाञ्च ।३। कहते है। प्रश्न-जीव कहाँ रहते हैं ? उत्तर-गुणोंमें जीव रहते हैं । रा. वा./१०/३/१/६४२/७ अन्येषां जीवत्वादीनां पारिणामिकानों मोक्षा प्रश्न--वे गुण कौनसे हैं 1 उत्तर-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, वस्थायामनिवृत्तिज्ञापनाथ भव्यत्व-ग्रहणं क्रियते । तेन पारिणामिकेषु क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये पाँच प्रकारके गुण अर्थात् भाव हैं, भव्यत्वस्य औपशमिकादीनां च भावानामभावान्मोक्षो भवतीत्य जिनमें जीव रहते हैं। वगम्यते । भव्यत्वका ग्रहण सूत्रमे इसलिए किया है कि जीवत्वादि गो. जी.//७१/१८६ तसचदुजुगाणमझे अविरुधेहिंजुदजादिकम्मुदये । अन्य पारिणामिक भावोंकी निवृत्तिका प्रसंग न आ जावे। अत' जीवसमासा होंति हु तब्भवसारिच्छसामण्णा ७१। -बस-स्थावर, पारिणामिक भावों में से तो भव्यत्व और औपश मिकादि शेष ४ भावों बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त, प्रत्येक-साधारण ऐसी नामकर्मकी प्रकृमें से सभोंका अभाव होनेसे मोक्ष होता है, यह जाना जाता है। तियोंके चार युगलोमें यथासम्भव परस्पर विरोधरहित जो प्रकृतियाँ, उनके साथ मिला हुआ जो एकेन्द्रिय आदि जातिरूप नामकर्मका ६. अन्य सम्बन्धित विषय उदय, उसके होनेपर जो तदभावसादृश्य सामान्यरूप जीवके धर्म, वे १. मोक्षमें औदयिकभावरूप जीवत्वका अभाव हो जाता है-दे०जीव/ जीवसमास है। २/२। २. मोक्षमें भी कथंचित् जीवत्वकी सिद्धि-दे० जीव/२/११ जीवद्यशा-(ह. पू./सर्ग/श्लोक )-राजगृह नगरके राजा जरासन्ध २. जीव समासोंके अनेक प्रकार भेद-प्रभेद १,२ भादि (प्रतिनारायण) की पुत्री थी। कंसके साथ विवाही गयी। ( ३३/२४ ) अपनी ननद देवकीके रजोवस्त्र अतिमुक्तक मुनिको दिखानेपर जीवसामान्यकी अपेक्षा एक प्रकार है। मुनिने इसे श्राप दिया कि देवकीके पुत्र द्वारा ही उसका पति व पुत्र संसारी जीवके त्रस-स्थावर भेदोकी अपेक्षा २ प्रकार है। दोनों मारे जायेंगे । (३३/३२-३६)। और ऐसा ही हुआ । (३६/४५) । जीवन एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय, व सकलेन्द्रियकी अपेक्षा ३ प्रकार है। एके विक०, संज्ञी पंचे, असंज्ञी पंचें०. की अपेक्षा ४ प्रकार है। स. सि./५/२०/२८८/१३ भवधारणकारणायुराख्यकर्मोदयाइभवस्थित्यादधानस्य जीवस्य पूर्वोक्तप्राणापानक्रियाविशेषाव्युच्छेदो जीवितमि एक द्वी०, त्री०, चतु० पंचेन्द्रियकी अपेक्षा ५ प्रकार है। त्युच्यते ।- पर्यायके धारण करनेमें कारणभूत आयुकर्मके उदयसे भव- पृथिवी, अप, तेज, वायु, बनस्पति व त्रसकी अपेक्षा ६ प्रकार है। स्थितिको धारण करनेवाले जीवके पूर्वोक्त प्राण और अपानरूप क्रिया पृथिवी आदि पाँच स्थावर तथा विकलेन्द्रिय सकलेन्द्रिय ७प्रकार है विशेषका विच्छेद नहीं होना जीवित है। (रा. वा./५/२०/३/४७४/ उपरोक्त ७ में सकलेन्द्रियके संज्ञी असंज्ञी होने से ८ प्रकार है २६); (गो. जी./जी. प्र./६०६/१०६२/९५) । स्थावर पाँच तथा उसके द्वी०,त्री०, चतु व पंचे०-ऐसे प्रकार है ध, १४/५,६१६/१३/२ आउआदिपाणाणं धारणं जीवणं । आयु आदि उपरोक्त ह में पंचेन्द्रियके संज्ञी-असंज्ञी होनेसे १० प्रकार है प्राणोंका धारण करना जीवन है। ध. १३/५,५,६३/३३३/११ आउ पमाणं जीविदं णाम -आयुके प्रमाणका पाँचों स्थावरोंके बादर सूक्ष्मसे १० तथा त्रस- ११ प्रकार है नाम जीवित है। उपरोक्त स्थावरके १० + विकलें व सकलेन्द्रिय १२ प्रकार है भ.आ./वि /२५/८/ जीवितं स्थितिरविनाशोऽवस्थितिरिति यावत् । उपरोक्त १२ में सकलेन्द्रियके संज्ञी व असंझी होनेसे १३ प्रकार है ___=जीवन पर्यायके ही स्थिति, अविनाश, अवस्थिति ऐसे नाम हैं। स्थावरों के बादर सूक्ष्मसे १० तथा त्रसके द्वी०, त्री०, चतु०, जीव निर्जरा-दे० निर्जरा/१ में भाव निर्जरा। पं० ये चार मिलने से १४ प्रकार है जीवन्मुक्त-दे० मोक्ष/१। उपरोक्त १४ मे पंचेन्द्रियके संज्ञी-असंज्ञी होनेसे १५ प्रकार है पृ० अप, तेज, वायु, साधारण बनस्पतिके नित्य व इतर जीव बंध-दे० अन्ध/१। निगोद ये छह स्थावर इनके बादर सूक्ष्म-१२+ प्रत्येक जीव मोक्ष-दे० मोक्ष/१ में भाव मोक्षः बन०, विकलेन्द्रिय, संज्ञी व असंज्ञीजैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भेद १६ प्रकार है Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव समास ३४२ जीव समास ३२. भेद उपरोक्त ३० भेदोंमें बनस्पतिके २ की बजाय ३ विकल्प कर देनेसे कुल १६ । उनके पर्याप्तं व अपर्याप्त-३२ (पं.सं./प्रा./२/३७) वन स्थावरके उपरोक्त १३+ द्वी० त्री० चतु० पंचे०- १७ प्रकार है उपरोक्त १७ में पंचें के संज्ञो और असंज्ञी होनेसे १८ प्रकार है .. पृ० अप० तेज० वायु, साधारण वन०के नित्य व इतर निगोद इन छह के बादर सूक्ष्म १२+प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक ये स्थावरके १४ समास+सके द्वी०, त्री०, चतु० संज्ञो पंचें असंज्ञी पंचें १६ प्रकार है (गो. जी./मू. व जी.प्र./७५-७७/१६२)। ध. २/१,१/५९१ में थोड़े भेदसे उपरोक्त सर्व विकल्प कहे हैं। संकेत-बा-बादरः सू सूक्ष्म; पपर्याप्त; अ अपर्याप्तः पृ-पृथिवी, अप्स अप्: ते-तेज; बन-बनस्पतिः प्रत्येक प्रत्येक; सासाधारण; प्र-प्रतिष्ठित; अप्र-अप्रतिष्ठित; एके-एकेन्दिय: द्वीद्वीन्द्रिय; त्री-त्रीन्द्रिय; चतु-चतुरिन्द्रियः पं-पंचेन्द्रिय । १४. जीव समास इन्द्रिय मार्गणाको अपेक्षा प्रत्येक (साधारण .-20 १४. भेद जीव स्थावर त्रस प० टी० त्री० चतु पं० अनिन्द्रिय - वायु -- बन । । । । द्वी.त्री. चतु. पंचें. पृ. अप तेज म. २.बा ३४ ५६ संज्ञी ७ असंज्ञी साधारण प्रत्येक | ! बा. सू.बा.सू. बा.सू.मा सू. बा.सू.प्र.अप्र. संज्ञी असं. प. अ. प. अ. प. अ. प. अ. प. अ. प. अ. प. अ. (प. खं. १/११/सुत्र ३३-३५/२३१); (पं. सं./प्रा./२/३४); (रा. वा.. ६/५/४/५६४/७); (ध. २/१,१/४१६/१), (स. सा./आ./५५); (गो. जी./म./७२/१८६) २१. भेद उपरोक्त सातों विकल्पों में प्रत्येकके पर्याप्त, निवृत्त्यपर्याप्त व लन्ध्यपर्याप्त-२१ । (पं.सं./प्रा./१/३५). २४. भेद काय मार्गणाकी अपेक्षा १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ १०११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ उपरोक्त १७ विकल्पों के पर्याप्त व अपर्याप्त ३४ (ति. प./५/२७८-२८०)। ३६. भेद-उपरोक्त ३० भेदों में बनस्पतिके दो विकल्पोंकी बजाय ये पाँच विकल्प लगानेसे कुल विकल्प = १८ इनके पर्याप्त व अपर्याप्त =३६ (६. सं/प्रा./१/३८)। मन प. अप् ते वायु त्रस बन अकाय प्रत्येक साधारण प्रत्येक सा. बा. सू. बा. सू. बा. सू.बा. सू. बा. सू. नित्य निगोद निगोद सबा २ ३ ४ ५ ६ ७ ८६१० १११२ उपरोक्त १२ विकल्पोंके पर्याप्त व अपर्याप्त=२४ । (प. खं. १/१,१/सू. ३६-४२/२६४-२७२ ) १०.भेद स व स्थावरकी अपेक्षा ३०. भेद-उपरोक्त ३० भेदों में वनस्पतिके दो विकल्पोंकी बजाय ये छह विकल्प लगानेसे कुल विकल्प =१६ इनके पर्याप्त व अपर्याप्त ३८ (पं. सं/प्रा./१/३६); (गो. जी/मू./७७-७८/१९५-१६६)। वन स्थावर त्रिस प्रत्येक अप , साधारण ते. बन द्वी. बी. च. वायु बन द्वी. त्री. चतु. असंज्ञी संज्ञी प्रति अप्रति बा.सु. बा. सू.बा.सु. बा.सू.मा सू. । नित्य निगोद इतर निगोद १ १२३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ उपरोक्त १५ विकल्पोंके पर्याप्त व अपर्याप्त -३० (पं.सं/प्रा./२/३६)। बा. सू. बा. सू. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोव समास जीविका १८. भेद-३२ भेदोंवाले १६ विकल्पोंके पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त व लब्ध्य पर्याप्त-४८ । (पं.सं./प्रा./१/४०) ५४. भेद--३६ भेदों वाले १८ विकल्पोंके पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त व लन्ध्यपर्याप्त-५४ । (पं.सं./प्रा./१/४१) ५७. भेद-३८ भेदोंवाले १६ विकल्पोंके पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त व लन्ध्य पर्याप्त-५७। (पं.सं./प्रा./१/४२); (गो.जी./मू./७३/११० तथा ७८/१६६) ८५. भेद तिर्यच स्थावर त्रस 1 । पृ. अप् । । तेज वायु बन० विकलेन्द्रिय सकले न्द्रिय ४०६. भेद शुद्ध पृथिवी, खर पृथिवी, अप, तेज, वायु, साधारण बनस्पतिके नित्य व इतरनिगोद, इन सातोंके बादर व सूक्ष्म-१४; प्रत्येक वनस्पतिमें तृण, बेल, छोटे वृक्ष, बड़े वृक्ष और कन्दमूल ये। इनके प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित भेदसे १० । ऐसे एकेन्द्रियके विकल्प-२४ विकलेन्द्रियके द्वी, त्री व चतु इन्द्रिय, ऐसे विकल्प-३ इन २७ विकल्पोंके पर्याप्त, निवृत्त्यपर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त रूप तीन-तीन भेद करनेसे कुल ८१। पंचेन्द्रिय तियचके कर्मभूमिज संज्ञी-असंज्ञी, जलचर, थलचर, नभचरके भेदसे छह । तिन छहके गर्भज पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त १२ तथा तिन्हीं छहके समूच्छिम पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त १८। उत्कृष्ट मध्यम जघन्य भोगभूमिमें संज्ञी गर्भज थलचर व नभचर ये छह, इनके पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त ऐसे १२ । इस प्रकार कुल विकल्प-४२। मनुष्योंमें समूच्छिम मनुष्यका आर्यखण्डका केवल एक विकल्प तथा गर्भजके आर्यखण्ड, म्लेच्छखण्ड; उत्कृष्ट, मध्य व जघन्य भोगभूमिः तथा कुभोगभूमि इन छह स्थानों में गर्भजके पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त ये १२ । कुल विकल्प-१३ । देवोंमें १० प्रकार भवनबासी, ८ प्रकार व्यन्तर, ५ प्रकार ज्योतिषी और ६३ पटलोंके ६३ प्रकार वैमानिक। ऐसे ८६ प्रकार देवोंके पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त -१२ नारकियों में ४६ पटलोके पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त सब-८१+४२+१३+१७२+६८ -४०६ (गो.जी./म. व जी.प्र./८० के पश्चातकी तीन प्रक्षेपक गाथाएँ/२००) साधारण प्रत्येक द्वी.त्री. चतु. नित्य इतर प्रति अप्र. निगोद निगोद बा सूमा सूबा सूबा सू बा सूबा सू । १२३४५६७८६ १०१११२१३ १४ १५ १६ १७ कर्मभूमिज भोगभूमिज ३. जीवसमास बतानेका प्रयोजन असंज्ञी संज्ञी गर्भज संमूच्छिम गर्भज समूच्छिम गर्भज द्र. सं./टो./१२/३१/५ अत्रैतेभ्यो भिन्न निजशुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थः।-इन जोवसमासों, प्राणों व पर्याप्तियोंसे भिन्न जो अपना शुद्ध आत्मा है उसको ग्रहण करना चाहिए। जल थल नभ जल थल नभ जल थल नभ जल थल नभ थल नभ चर चर चर चर चर चर चर चर चर चर चर चर चर चर १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ उपरोक्त सर्व विकल्पों में स्थावर व विकलेन्द्रिय सम्बन्धी १७ विकल्प केवल समुच्छिम जन्म वाले हैं। वे १७ तथा सकलेन्द्रियके समूच्छिम वाले ६ मिलकर २३ विकल्प संमृच्छिमके है। इनके पर्याप्त, निवृत्त्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त ६६-गर्भजके उपरोक्त ८ विकल्पोंके पर्याप्त व अपर्याप्त-१६ ६१+१६-८५ (मो.जी./मू./७६/१९८); (का-आ./मू./१२३-१३१) ९८. भेद तिर्यचौमें उपरोक्त मनुष्योंमें आर्यखण्डके पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त व लम्ध्यपर्याप्त ये ३+म्लेच्छरखण्ड, भोमभूमि व कुभोगभूमिके पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त ये ३४२-६। कुल-8 देव व नारकियों में पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त (गो.जी./मू. जी.प्र./७६-८०/१६८) (का.अ./मू-/१२३-१३३) ४. अन्य सम्बन्धित विषय १. जीव समासोंका काय मार्गणामें अन्तर्भाव-दे० मार्गणा। २. जीव समासोंके स्वामित्व विषयक प्ररूपणाएँ-दे० सत् । जीवसिद्धि-आ. समन्तभद्र (ई० श०२) द्वारा रचित यह ग्रन्थ संस्कृत छन्दबद्ध है। इसमें न्याय व युक्तिपूर्वक जीवके अस्तित्वकी सिद्धि की गयी है। जीवा-Chord (ज.प./प्र.१०६) =जीवा निकालनेकी प्रक्रिया दे० गणित/II/७/३॥ जीवाराम-शोलापुरके एक धनाढ्य दोशीकुलके रत्न थे। आपका जन्म ई०१८८० में हुआ था। केवल अंगरेजीकी तीसरी और मराठीकी वीं तक पढ़े। बड़े समाजसेवी व धर्मवत्सल थे। ई०१९०८ में एक्लक पन्नालालजीसे श्रावकके व्रत लिये। ई०१६५४ में कंथलगिरिपर नवमी प्रतिमा धारण की। और ई. १९६१ में स्वर्ग सिधार गये । ई. १९४० में स्वयं ३०,०००) रु० देकर जीवराज जैन ग्रन्थमालाकी स्थापना की, जो जैन वाङ्मयकी बहुत सेवा कर रही है। जीविका-अग्निजीविका, बनजीविका, अनोजीविका, स्फोटजीविका और भाटकजीविका।-दे० सावध/२। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुगुप्सा जैन शतक जुगुप्सा-१. जुगुप्सा व जुगुप्सा प्रकृतिका लक्षण स.सि.//६/३८६/१ यदुदयादात्मदोषसंवरणं परदोषाविष्करणं सा जुगुप्सा। --जिसके उदयसे अपने दोषोंका संवरण ( ढंकना) और परदोषोंका आविष्करण (प्रगट करना) होता है वह जुगुप्सा है। .. (गो.क./जी.प्र./३३/२८/८) रा.वा/८/६/४/५७४/१८ कुत्साप्रकारो जुगुप्सा। ...आत्मीयदोषसंवरणं जुगुप्सा, परकीयकुलशीलादिदोषाविष्करणावक्षेपणभर्त्सनप्रवणा कुत्सा। =कुत्सा या ग्लानिको जुगुप्सा कहते है। तहाँ अपने दोषोंको ढाँकना जुगुप्सा है, तथा दूसरेके कुल-शील आदिमें दोष लगाना, आक्षेप करना भर्त्सना करना कुत्सा है। ध.६/१,६-१,२४/४८/१ जुगुप्सन जुगुप्सा जेसि कम्माणमुदएण दुगुंछा उप्पजदि तेसिं दुगुंछा इदि सण्णा। =ग्लानि होनेको जुगुप्सा कहते है। जिन कर्मोके उदयसे ग्लानि होती है उनको 'जुगुप्सा' यह १. अन्य सम्बन्धित विषय १. जुगुप्साके दो भेद-लौकिक व लोकोत्तर -दे० सूतक । २. मोक्षमार्गमें जुगुप्साकी इष्टता, अनिष्टता -दे० सूतक । ॐ जुगुप्सा द्वेष है --दे० कषाय/४। ४. घृणित पदार्थोंसे या परिषहों आदिसे। ५. जुगुप्सा प्रकृतिके बन्ध योग्य परिणाम --दे० मोहनीय/3/६ | ६. जुगुप्सा व घृणाका निषेध -दे० निर्विचिकित्सा। जूं-क्षेत्रका प्रमाण विशेष । अपर नाम यूक। --दे० गणित/L/१/३ । जूआ-दे० छ त। जंतुगिदेव-भोजवंशी राजा था। भोजवंशकी वंशावलीके अनुसार राजा देवपालका पुत्र था। मालवा ( मगध ) देशपर राज्य करता था। धारा या उज्जैनी राजधानी थी। इसका अपर नाम जयसिंह था । समय-वि. १२८५-१२६६ (ई. १२२८-१२३६) । --दे० इतिहास/३/१। जंन (नि. सा./ता. वृ./१३६) सकलजिनस्य भगवतस्तीर्थाधिनाथस्य पादपद्मोपजीविनो जैना', परमार्थतो गणधरदेवादय' इत्यर्थः । -- सकल जिन ऐसे भगवान् तीर्थाधिनाथके चरणकमलकी सेवा करनेवाले वे जैन हैं। परमार्थ मे गणधरदेवादि ऐसा उसका अर्थ है। प्र. सा./ता. वृ./२०६ जिनस्य संबन्धीदं जिनेन प्रोक्तं वा जैनम् । - जिन भगवान्से सम्बन्धित अथवा जिन भगवान्के द्वारा कथित (जो लिंग, वह ) जैन हैं। २. एकान्तवादी जैन वास्तवमें जैन नहीं स. सा./आ./३२१ ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते; लौकिकानां परमात्मा विष्णुः सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा तानि करोतीत्यपसिद्धान्तस्य समस्वात । -जो आत्माको कर्ता ही देखते या मानते है वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकताको अतिक्रमण नहीं करते, क्योंकि लौकिक जनोंके मतमें, परमात्मा विष्णु, नर नारकादि कार्य करता है और उनके (श्रमणोंके ) मतमें अपना आत्मा वह कार्य करता है। इस प्रकार (दोनोंमें ) अपसिद्धान्तकी समानता है। स. सा./ आ./३३२-३४४ यत एवं समस्तमपि कर्म करोति, कर्म ददाति. कर्म हरति च, तत. सर्व एव जीवा' नित्यमेवैकान्तेनाकार एवेति निश्चिनुमः ।...एवमोदृशं सारख्यसमय स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमवबुध्यमानाः केचिच्छ्रमणाभासाः प्ररूपयन्ति । तेषां प्रकृतैरेकान्तेन कतृत्वा- भ्युपगमेन सर्वेषामेव जोबानामेकान्तेनाकतृत्वापत्तेः 'जीवः कत्तति' श्रुतेः कोपो दु.शक्यः परिहर्तुम् । = इस प्रकार स्वतन्त्रतया सब कुछ कर्म हो कर्ता है, कर्म ही देता है, कर्म ही हर लेता है, इसलिए हम यह निश्चय करते है कि सभी जीव सदा एकान्तसे अकर्ता ही हैं। इस प्रकार ऐसे सांख्यमतको, अपनी प्रज्ञाके अपराधसे सूत्रके अर्थको न जाननेवाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते है। उनकी एकान्त प्रकृति कर्तृत्वकी मान्यतासे समस्त जीवोके एकान्तसे अकर्तृत्व आ जाता है । इसलिए 'जीवकर्ता है' ऐसी जो श्रुति है, उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है। जनतक-श्वेताम्बराचार्य यशोविजय (ई० १६३८-१६८८) द्वारा सस्कृत भाषामें रचित न्यायविषयक ग्रन्थ । जैनतर्क वातिक-शान्त्याचार्य ( ई० ६६३-१११८) द्वारा संस्कृत छन्दोमे रचित न्यायविषयक ग्रन्थ । जैन दर्शन-1. जैन दर्शन परिचय रागद्वेष विवजित, तथा अनन्त ज्ञान दर्शन समग्र परमार्थोपदेशक अहंत व सिद्ध भगवान ही देव या ईश्वर हैं, इनसे अतिरिक्त अन्य कोई जगतव्यापी एक ईश्वर नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति कर्मोंका समूल क्षय करके परमात्मा बन सकता है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसव, संवर, बन्ध, निर्जरा व मोक्ष-ये नौ तत्त्व या पदार्थ हैं। तहाँ चैतन्य लक्षण जीव है जो शुभाशुभ कर्मोंका कर्ता व उनके फलका भोक्ता है। इससे विपरीत जड पदार्थ अजीव है । वह भी पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व कालके भेदसे पाँच प्रकारका है। पुद्गलसे जीवके शरीरों व कर्मोंका निर्माण होता है। सत्कर्मोंको पुण्य और असस्कोको पाप कहते हैं। मिथ्यात्व व रागादि हेतुओंसे जीव पुद्गलकर्म व शरीरके साथ बन्धको प्राप्त होकर संसारमें भ्रमण करता है। तत्त्वोंका यथार्थ ज्ञान करके बाह्य प्रवृत्तिका निरोध करना संबर है। उस संवर पूर्वक मनको अधिकाधिक स्वरूप में एकाग्र करना गुप्ति, ध्यान या समाधि कहलाते हैं। उससे पूर्वबद्ध संस्कार व कर्मोंका धीरे-धोरे नाश होना सो निर्जरा है । स्वरूपमे निश्चल होकर बाह्यकी बाधाओं व परिषहों की परवाह न करना तप है, उससे अनन्तगुणी निर्जरा प्रतिक्षण होती है और लघुमात्र कालमे ही अनादिके कर्म भस्म हो जानेसे जीवको मोक्ष प्राप्त हो जाता है। फिर वह संसारमें कभी भी नहीं आता। यह सिद्ध दशा है। तत्त्वोंके श्रद्धान व ज्ञान रूप सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान सहित धारा गया चारित्र व तप आदि उस मोक्षकी प्राप्तिका उपाय है। अतः सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रत्नत्रय कहलाते हैं। सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है। वह दो प्रकार है--प्रत्यक्ष व परोक्ष । प्रत्यक्ष भी दो प्रकार है-सांव्यवहारिक व पारमार्थिक । इन्द्रिय ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है और अवधि, मनःपर्यय व केवलज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष । तिनमें भी अवधि व मनःपर्यय विकल प्रत्यक्ष है और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष । यह ज्ञान क्षीणकर्मा अर्हन्त और सिद्धोंको ही होता है। सत् उत्पादव्ययधौव्यात्मक होनेसे प्रत्येक पदार्थ अनन्तधर्मात्म है, जो प्रमाण व नयके द्वारा भली भाँति जाना जाता है। प्रमाणके अंशको नय कहते हैं, वह वस्तुके एकदेश या एकधर्मको जानता है। बिना नय विवक्षाके वस्तुका सम्यक् प्रकार निर्णय होना सम्भव नहीं है । (तत्त्वार्थ सूत्र ); (षट् दर्शन समुच्चय/४५-५८/ ३६-६२)। २ सर्वदर्शन मिलकर एक जैन दर्शन बन जाता है -दे० अनेकान्त/२/६। जैन शतक-कविवर भ्रधरदास (वि.१७४१) द्वारा १०७ भाषा छन्दोमें रचित एक आध्यात्मिक कृति (तो./४/२७३) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाभासी संघ जैनाभासी संघ ०६९ जैनाभिषेक-३० जेनेन्द्र व्याकरण करण जैमिनी - मीमांसादर्शनके आद्यप्रवर्तक । समय ई० पू २०० ॥ दे० मीमांसादर्शन जोइंदु-दे० जोड़-Addition (ध. ५/प्र.२७) प्रक्रिया ३० गणित / II ३। जोणी पाहुड - आ. धरसेन (बी. नि. ६००) कृत मन्त्र विषयक ग्रन्थ (जै./२/१२२) । जोधराज गोदी - सांगानेर निवासी थे। आपने हिन्दी पथमें निम्न कृतियाँ रखी है- १. धर्म सरोवर २. सम्यस्व कौमुदी भाष्य (वि. १०२४) २. प्रीतंकर चारित्र (वि० १०२१) ४. कथाकोश ( वि० १७२२ ); ५. प्रबचनसार; ६, भावदीपिका वचनिका ( गद्य ); ७. ज्ञान समुद्र । समय - वि० १७००-१७६०। (ती./४/३०३) (हिन्दी जैन साहित्य / पृ० १२३ कामताप्रसादजी)। जोनशाह मुहम्मद लकका दूसरा नाम जोनशाह था। इन्होंने जोनपुर बसाया था और इसलिए पं० बनारसीदास इन्हें जोनाशाह ते हैं। शेष मुहम्मद ज्यामिति - १ ज्यामिति Geometry. २. ज्यामिति अब - धारणाएँ Geometrical Concepts ३. ज्यामिति विद्याए - Geometrical methods ( ज. प / प्र. १०६) । ज्येष्ठ"किन्नर जातीय व्यन्तरदेवका एक भेद-दे० किंनर । ज्येष्ठ जिनवर व्रत उत्तम २४ मध्यम १२ वर्ष तक वर्ष तक, और जघन्य एक वर्षतक प्रति वर्ष ज्येष्ठ कृ० व शु १ को उपवास करे और उस महीनेके शेष २८ दिनोंमें एकाशना करे। ऊँ ह्री ऋषभ - जिनाय नमः ' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । ( वर्द्धमान पुराण ); विधान संग्रह / पृ. ४३ ) । । - ज्येष्ठाज्योति -- ( ज्येष्ठ स्थिति कल्प भ.आ./वि./ ४२९/६९५ / ६ पञ्चमहाव्रतधारिण्याश्विरप्रवजिताया अभि ज्येष्ठो भवति अधुना प्रवजितः पुमान् । इत्येष सप्तमः स्थितिकल्प पुरुषज्येत्थं । पुरुषत्वं नाम उपकार, रक्षा च कर्तुं समर्थः । पुरुषप्रणीतश्च धर्मः इति तस्य ज्येष्ठता । ततः सर्वाभिः संयताभिः विनयः कर्त्तव्यो विरतस्य । येन च स्त्रियो लध्व्यः परप्रार्थनीया, पररक्षोपेक्षिण्यः न तथा पुर्मास इति च पुरुषस्य उपेच 'जेणिच्छी हु लघुसिंगा परप्पसज्मा य पच्छणिज्जा थ। भीरु पररक्खणज्जेति तेण पुरिसो भवदि जेट्ठो जिसने पाँच महाव्रत धारण किये हैं वह ज्येष्ठ है और बहुत वर्षकी दीक्षित आर्यिकासे भी आजका दीक्षित मुनि ज्येष्ठ है। पुरुष संग्रह, उपकार, और रक्षण करता है, पुरुषने ही धर्मकी स्थापना की है, इसलिए उसकी ज्येष्ठता मानी है। इसलिए सर्व आर्मिकाओंको मुनिका विनय करना चाहिए। स्त्री पुरुषसे कनिष्ठ मानी गयी है. क्योंकि वह अपना रक्षण स्वयं नहीं कर सकती, दूसरों द्वारा वह इच्छा को जातो है और ऐसे अवसरों पर वह उसका प्रतिकार भी नहीं कर सकती। उनमें स्वभावतः भय व कमजोरी रहती है । पुरुष ऐसा नहीं है, अतः वह ज्येष्ठ हैं । यही अभिप्राय उपरोक्त उद्धृत सूत्रका भी समझना । = -एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र । - परम ज्योतिके अपर नाम दे० मोक्षमार्ग /२/५ । - भा० २-४४ ३४५ ज्योतिष देव ज्योतिर्ज्ञान विधि - आ. श्रीधर (ई. ७६१) कृत १० प्रकरणों में विभक्त ज्योतिष शास्त्र (ती./३/११३) । ज्योतिषकरण्ड - जिनभद्रगणी (बि. ६५०) से पूर्व बल्लभी वाचनालय के अनुयायी किसी श्वेताम्बर आचार्य द्वारा रचित ज्योतिर्लोक तथा काल गणना विषयक सूत्रबद्ध अर्धमागधी ग्रन्थ (जै./२/५६, ६०) । ज्योतिष चारण- दे.ऋद्धि / ४ । ज्योतिषदेव-ज्योतिष्माद होनेके कारण चन्द्र-सूर्यादयोतिषी कहे जाते हैं, जिनको जैन दर्शनकार देवोंकी एक जाति विशेष मानते है ये सब मिलकर असंख्यात है। । १. ज्योतिषीदेवका लक्षण स./स. ४/१२/२४४/५ ज्योतिस्वभावत्वादेषां पञ्चानामपि 'ज्योतिष्का इति सामान्यसंज्ञा अन्य सूर्यादयस्तद्विशेषसंज्ञा नामकर्मोदयप्रत्यया । ये सब पाँचों प्रकारके देव ज्योतिर्मय हैं, इसलिए इनकी ज्योतिषी यह सामान्य संज्ञा सार्थक है तथा सूर्य आदि विशेष संज्ञाएँ विशेष नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होती हैं। (ति.प. ७) ३८), (रा.वा/४/१२/१/२१८/८) २. ज्योतिषी देवोंके भेद उ.सू./४/१२ ज्योतिष्ठाः सूर्यचन्द्रमसी ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाक्षज्योतिषदेव पाँच प्रकारके होते हैं-सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे (ति.१/७/०) (त्रि.सा. ३०३) २. ज्योतिषी देवों की शक्ति उत्सेध आदि ति. प. ७/६१६ - ६१८ आहारो उस्सासो उच्च्हो ओहिणाणससीओ। उप्पलीमरणाई एकसमयम्मि । ६१६ आधणभावं दंसणगहणस्स कारणं विविहं । गुणठाणादिपवण्णणभावणलोए व्व वत्तव्वं ६१०] आहार, उच्छ्वास उत्सेध अवधिज्ञान, शक्ति, एकसमयमें जीवोंकी उत्पत्ति व मरण, आयुके बन्धक भाव, सम्यग्दर्शन ग्रहणचे विविध कारण और गुणस्थानाविकका वर्णन भावनतोक समान कहना चाहिए १७ विशेष यह है कि ज्योतिषियोंकी ऊँचाई सात धनुष प्रमाण और अवधिज्ञानका विषय उनसे असंख्यात गुणा है । ६१८| त्रि. सा. / ३४१ चंदिण बारसहस्सा पादा सीयल खरा य सुक्के दु । अड्ढाइज्जसहस्सा तिब्बा सेसा हु मंदकरा | ३४१ | चन्द्रमा और सूर्य इनके भारह-बारह हजार किरणें हैं। तहां चन्द्रमाकी किरणे शीतल है और सूर्यकी किरण तीक्ष्ण है। शुक्रकी २५०० किरणें हैं। ते उज्ज्वल है अवशेष ज्योतिषी मन्दप्रकाश संयुक्त है (ति.प./७/२० (6.8°) नोट- (उपरोक्त अवगाहना आदिके लिए दे० अवगाहना/२/४ अनधिद्वान/१/३: जन्म/ बाय / ३. सम्यग्दर्शन / IIT / ३: स प्रषणा; भवन / १ ) । ४. ज्योतिषी देवोंके इन्त्रोंका निर्देश ति.प./७/६१ सयलिदाण पडिदा एक्केक्का होंति ते वि आइञ्चा उन सम इन्द्रों (चन्द्रों) के एक-एक प्रतीन्द्र होते हैं और वे प्रतीन्द्र, सूर्य हैं। दे. इन्द्र/५ ( ज्योतिषी देवोंमें दो इन्द्र होते हैं । चन्द्र व सूर्य । ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लोक ५. ज्योतिषी देवोंका परिवार व्यन्तर त. सू. /४/५ त्रास्त्रिशलोकपालवर्ज्या व्यन्तरज्योतिष्काः । और ज्योतिषदेव प्रायस्त्रि और लोकपाल इन दो भेदोंसे रहिव है (सामानिक आदि दोष आठ विकल्प (दे० देव/१) यहाँ भी पाये जाते हैं।) (त्रि.सा./२२४) वि.प./गा. प्रत्येक चना के परिवार में एक सूर्य (१४)ग्रह (१४)। २८ नक्षत्र । (२५) । और ६६६७५ कोड़ाकोड़ी तारे होते हैं । (३१) । (.पू./६/२०-२१) (ज.प./१२/८७-८८) (त्रि.सा./३६२) ति देवका जुँगा नाम ४ २७-६३ | चन्द्र ७६-८१ सूर्य ४ ८७ ग्रह १०७ नक्षत्र देवियाँ सामा अभियोग्य अनीक निक प्रकीर्णक प्रत्येक दिशा- कुल किल्विष में विमान वाहक पट प्रत्येक देवी देवीका पारिषद परिवार | आत्मरक्ष ४००० संख्य. संख्य. ४००० ३२७ ३२* 11 19 ४००० ४००० २००० १००० अभियोगोंका निर्देश है और त्रि सा./४४० (ज.प./१०/६१२ मे ४४८ में केवल देवियोंका निर्देश है) *प्रि.सा./४४१ सम्बनिगिट्टहरामा बसीसा होति देवीओ - सबसे ३२.३२ देवांगना होती हैं। ६. चन्द्र सूर्यकी पटदेवियोंके नाम वि. प./७/१८००६ चंदासुसीमाओ पहुंकरा अधिमातीत दिपकराज सुरपहा अनि मालिनीको वि पत्ते चतारो दुमणीणं अग्गदेवीओ 1७६ | चन्द्राभा, प्रभंकरा, सुसीमा और मालिनी से उनकी (चन्द्रकी) अग्रदेवियोंके नाम है। इ ति पुति प्रभंकरा, सूर्यप्रभा और अभिमातिनी ये चार प्रत्येक सूर्यको अभियाँ होती है। त्रि.सा.४४७४४८) ७. अन्य सम्बन्धित विषय १. ज्योतिषी देवोंकी संख्या ३० ज्योतिषी २. ग्रह व नक्षत्रोंके भेद व लक्षण ३. ज्योतिषी देवोंका शरीर, आहार, सुख, दु:ख सम्यक्त्व आदि ४. ज्योतिष देवोंमें सम्भव कषाय, वेद, लेश्या, पर्याप्त आदि ५. ज्योतिषी देव मरकर कहाँ उत्पन्न हो, और कौन-सा गुण या पद पाने /२/३-41 || ८००० ४००० ९. ज्योतिष देबोंमें कमका बन्ध उदय सत्त्व ज्योतिष लोक ज्योतिष देवों के विमान - दे० वह वह नाम । - दे० देव / II / २,३ - दे० वह वह नाम । -२०६/११। -दे० अवगाहना / २० ६. ज्योतिष देवोंकी अवगाहना ७. ज्योतिष देवोंमें मार्गणा, गुणस्थान, जीव समास आदि के स्वामित्व विषयक २० प्ररूपणाएँ - दे० सद 1 ८. ज्योतिष देवों सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ -दे० वह वह नाम । दे० वह वह नाम । मध्य लोक के ही ज्योतिष लोक अन्तर्गत चित्रा पृथिवी से ७६० योजन ऊपर जाकर स्थित हैं। इनमें से कुछ चर हैं और कुछ अचर । १. ज्योतिष लोक सामान्य निर्देश स.सि./२/१२/२४४/१३ स एम ज्योतिर्गणगोचरो नमोऽवकाशो दशाधियोजना महल स्तिर्यगामाणो धनोदधिपर्यन्तः । - ज्योतिषियोंसे व्याप्त नभःप्रदेश १९० योजन मोटा और घनोदधि पर्यंत असंख्यात द्वीपसमुद्र प्रमाण सम्मा है। .प./०५८ १रा११० - अनम्यक्षेत्र १३०३२६२२०१५ योजन प्रमाण क्षेत्रमें सर्व ज्योतिषी देव रहते हैं सोकके अन्तमें पूर्वपश्चिम दिशामें घनोदधि बातमल को छूते हैं। उत्तर-दक्षिण दिशामें नहीं ते। भावार्थ-१ राजू लम्बे चौड़े सम्पूर्ण मध्यलोककी चित्रा पृथिवीसे ७६० योजन ऊपर जाकर ज्योतिष लोक प्रारम्भ होता है, जो उससे ऊपर ११० योजन तक आकाशमें स्थित है। इस प्रकार चित्रा पृथिवीसे ७६० योजन ऊपर १ राजू लम्बा, १ राजू चौड़ा ११० योजन मोटा आकाश क्षेत्र ज्योतिषी देवोंके रहने व संचार करनेका स्थान है, इससे ऊपर नीचे नहीं । तिसमें भी मध्यमें मेरुके चारों तरफ १३०३२२५०१५ योजन अगम्य क्षेत्र है, क्योंकि मेरुसे ११२१ योजन परे रहकर के संचार करते हैं, उसके भीतर प्रवेश नहीं करते। ज्योतिष लोकमें चन्द्र सूर्यादिका अवस्थान ३४६ ति. प०/७/ चित्रा पृथिवीसे ऊपर निम्न प्रकार क्रमसे स्थित है । तिसमें भी दो दरियाँ हैं दृष्टि नं. १० (स.सि./४/१२/२४४/८) (ति ५ / ०/३६-१००) (६. ५/६/१-६); (त्रि. सा / ३३२-३३४); (ज. प./१२/१४); (द्र.सं./ टी./२५/१२४/२)। दृष्टि नं. २- (रा.वा./४/१२/१०/२१६/९)। E १०८ ६ ३६ १०४ ८३ ८६ ६३ ६६ १०१ कितने ऊपर जाकर दृष्टि ०१ ७६० यो. ८०० ८८० 11 ८८४ " CKC 11 ८६१ " ८६४ " ८६७११ १०० ११ ८८८-६००, कौन विमान तारे सूर्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश चन्द्र नक्षत्र बुध शुक्र बृहस्पति मंगल शनि शेष ग्रह لامل (रा० वा. /४/१२/१०/२१६/१ ) कितने ऊपर जाकर दृष्टि नं० २७१० यो, ८०० " ८८० ११ ८८३ ८८६ ११ ८८६ ८६२" ८६६ ११ ६०० कौन विमान तारे सूर्य चन्द्र नक्षत्र बुध 힘 बृहस्पति मंगल शनि त्रि.सा./३४० राहुअरि विमाणधयादुवरि पमाणअंगुल चउक्कं । तुण ससिविमाणा सूर विमाणा कमे हौति । -राहु और केतुके विमान - निका जो ध्वजादण्ड ताके ऊपर च्यार प्रमाणांगुल जाइ क्रमकरि चन्द्र विमान र सूर्यके विमान हैं। राहु विमानके ऊपर चन्द्रमाका और केतु विमानके ऊपर सूर्यका विमान है ति १०/०/२०१, २७२ ) । नोट-विशेष के लिए दे० पृ० ३४०वाता चित्र २. ज्योतिष - विमानोंमें चर-अचर विभाग स.सि./४/१२/२४६/८ अर्थतृतीयेषु द्वीपेषु प्रयोथ समुद्रयोज्यौतिष्का निस्पगतयो नान्यत्रेति अडाई द्वीप और दो समूहों (अर्थात् Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊपर ३४७ ज्योतिष लोक मध्यलोक में ज्योतिषी विमानों का अवस्थान, संकेत:-आ. = आवर्त यो-योजन नोट:-ऊपर से मध्यळोक को देखने पर, -अचर विमान + - चर विमान - 1 शनीचर विमान अन्य ग्रह अन्य ग्रह + +अचरविमान + मगल विमान 1+अन्य ग्रह अन्य ग्रह + वृहस्पति विमान +अन्य ग्रह अन्य ग्रह + शुक्र विमान +अन्य ग्रह अन्य ग्रह + यो. ८0 यो ४ यो० ४ यो- ३यो ३ यो०३ यो३यो. यो ८० यो०३ यो०३यो०३यो | ३यो०४ यो.४ योग -९०० योजन +अन्य ग्रह बुध विमान अन्य ग्रह + नक्षत्र विमान असे आ- उत्तरोत्तर ३२ अHश दुनै जान शिना । TH आग उत्तरोत्तर अस आऊ ने शा० अस अउरीतर रजा नियम ने आ 40३२आ. उत्तरोत्तर अस आळा केतु व उससे अगुलऊपर सूर्य विमान दूने 4.1 सितारों के विमान GE0 यो ७६0 यो० | दृष्टि । दृष्टि WWWom SRAELHI कालोद घातकी खण्ड लवाद धातकी खण्ड कालादर पुष्कलराध मानुपा स्वयंभू असख्य पुष्कर रमण: समुद्र समुद्र BF आगेके असंद्वीप समुद्र --- अढाई द्वीप Lद्वीप समुद्रो के सुमेरु से पश्चिमवर्सी अदभाग + पुष्कर असंख्य स्वयंभू B समुद्र समुद्र रमण ----- आगेके असंद्वीप समुद्रम ---द्वीप समुद्रो के सुमेरु से पूर्ववर्तीमद भाग - दे० ज्योतिष/२/१० ज्योतिष दे. ज्योतिष/२/१० त्रि.सा. ३४३ नाम किरण वाहक ज्योतिष विमानोंका भाकार चन्द्र विमान- अश्वाकार ४००० वाहक मणि १२००० १६००० मंद विस्तारसे आधा । .०० . षभाकार ४०००वाही D. ५०/ Sheer RISOR Wooc este vodo a16 MPARINETRIBE (अर्ध गोलाकार-- । पति ___-विस्तार से आधा→ हर -अर्ध गोलाकार TIT . मंगल _२५० ध शनि _ नक्षत्र । सूर्यवत् , नोट-शेष ज्योतिषी विमानोंके आकार भी इसीके सदृश हैं। विशेषता यह कि उनका विस्तार, किरणें, बाहक प्रमाण व वर्ण अन्य-अन्य है यथा नोट-सर्वत्र पूर्वादि दिशाओंमें क्रमसे सिंह, हाथी, मैल व अश्वके आकारवाले वाहक देव उक्त प्रमाणसे चौथाई-चौथाई होते हैं। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लोक ३४८ ज्योतिष लोक ४. क्षेत्र व पर्वतों आदिपर ताराओंके प्रमाणका विभाग जम्बूद्वीपसे लेकर मानुषोत्तर पर्वत तकके मनुष्य लोकमें पॉचो प्रकार- के ) ज्योतिषी देव निरन्तर गमन करते रहते हैं अन्यत्र नहीं। (ति. प./७/११६); (रा. वा./४/१३/४/२२०/११)। ति. प./७/६११-६१२ सव्वे कुणं ति मेरु' पदाहिणं जंबूदीवजोदिगणा। अद्धपमाणा धादइसंडे तह पोक्खरद्धम्मि ६११। मणुस्सुत्तरादो परदो संभूरमणो त्ति दीवउवहीणं । अचरसरूवठिदाणं जोइगणाणं परवेमो 1६१२। - जम्बूद्वीपमें सब ज्योतिषीदेवों के समूह मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं, तथा धातकी खण्ड और पुष्कराध द्वीपमे आधे ज्योतिषीदेव मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं।६११॥ मानुषोत्तर पर्वतसे आगे, स्वयंभूरमण पर्यंत द्वीप समुद्रों में अचर स्वरूपसे स्थित ज्योतिषी देवोके समूहका निरूपण करते हैं (६१२। ३. ज्योतिष विमानोंका प्रमाण संकेत-सं. प्र. अं-संरख्यात प्रतरांगुल; ज. श्रे. जगश्रेणी। प्रमाण-प्रत्येक विकल्पका प्रमाण उसके निचे दिया गया है । जहाँ केवल जैकेटमें नं० दिया है वहाँ ति. प./७/गा. समझना। त्रि. सा/३७१ णउदिसयभजिदतारा सगद्गुणसलासमब्भत्था। भरहादि विदेहोत्ति य तारा वस्से य वस्सधरे। -(जम्बूदीपके कुल १३३६५० कोडाकोडी तारोंका क्षेत्रों व कुलाचल पर्वतोंकी अपेक्षा विभाग करते हैं।) जम्बूद्वीपके दो चन्द्रों सम्बन्धी तारे १३३९५० को. को. हैं। इनको ११० का भाग दीजिए जो प्रमाण होय ताको भरतादिक्षेत्र या कुनाचलकी १/२/४/८/१६/३२/६४/३२/१६/८/४/२/१ शलाका करि गुणे उन उनके ताराओंका प्रमाण होता है। अर्थात उपरोक्त सर्व ताराओंकी राशिको उपरोक्त अनुपात ( Ratio ) से विभाजित करनेपर क्रमसे भरतादि क्षेत्रों व कुलाचलोंके तारोंका प्रमाण प्राप्त होता है। लोकके चन्द्रका तारे किसम चन्द्र ग्रह क्षत्राअचकलतारे तारे कोड़ाकोड़ी प्रत्येक १ १.८८ २८ । ६६९७५. परिवार → ज्योतिषी/१/५/ - (ज्योतिषि/५/५) | [नोट-(यहाँ से आगे केवल चन्द्रव अचर ताराओंका प्रमाण दिया गया है, शेष विकल्पउपरोक्त उनपात के गुणाकार से प्राप्त हो जाते हैं (ज.प/१२/८७) जंबूद्वी २ (११६/२/१७६ ५६ ३६(४९५/१३३९५०(*) लवण. ४ (५५०)| ४ |३५२/११२ १३९(६०)२६७९०० धातकी १२ (७) १२/१०५६/३३६ /१०१००) ८०३७०० कालोद ४२(1) ४२/३६९६/११७६/४११२०६।२८१२९५० पुकराई/ ०२(1) ०२/६३३६/२०१६/५३२३०१) ४८२२२०० (ह.पु६ि/२६-२७),(ज.प/१२/(त्रि.सा | १०६-१००) (त्रिसा/३४६)7 ३४७ १३२ ११६१६/३६९६ -८८४०००० ति प/0/६०६-६०९). ५, अचर ज्योतिष विमान ह. पु./६/३१-३४ सारार्थ- मानुषोत्तर पर्वतसे ५०,००० योजन आगे चलकर सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिषी वलयके रूपमें स्थित हैं। अर्थात मानुषोत्तरसे ५०,००० यो० चलकर ज्योतिषियोंका पहला बलय है। उसके आगे एक-एक लाख योजन चलकर ज्योतिषियोंके वलय ( अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त ) है। प्रत्येक वलयमें चार-चार सूर्य और चार-चार चन्द्र अधिक हैं, एवं एक दूसरेकी किरणें निरन्तर परस्परमें मिली हुई हैं । ३१.३४ । ) (अन्तिम वलय स्वयंभूरमण समुद्रकी वेदीसे ५०,००० योजन इधर ही रह जाता है। प्रत्येक द्वीप या समुद्रके अपने-अपने वलयों में प्रथम वलयसे लेकर अन्तिम वलय तक चन्द्र व सूर्योका प्रमाण उत्तरोत्तर चार चय करि अधिक होता गया है। इससे आगे अगले द्वीप या समुद्रका प्रथम वलय प्राप्त होता है । प्रत्येक द्वीप या सागरके प्रथम वलयमें अपनेसे पूर्ववाले द्वीप या सागरके प्रथम वलयसे दुगुने चन्द्र और सूर्य होते हैं। यह क्रम अपर पुरकरार्धके प्रथम वलयसे स्वयंभूरमण सागरके अन्तिम वलय तक ले जाना चाहिए।) (ति. प./७/ ६१२-६१३ पद्य व गद्य । पृ०७६१-७६७); (ज. प./१२/१५-८६); (त्रि. सा./३४६ ३६१)। द्वीप या सागर प्रथम बलयमै प्रथम वलयमें द्वीप या सागर वलय पुष्करोद सर्वलोक 5288x2x): ३६००0000000३३२४८) (ति प/0/१२-१३) चन्द्र के बराबर(१४) १३२ (सं.प्र.x५४८६ . ५९२0000000000९६६६५६) ११, (ति प्र(७/२३) स.प्र.x१०९७३१८४१ ज.श्रे ज. axABEEE6000000000 (ति.प्र./७१-20).. ज-श्रे(स.प्रअंx२६७९ 00000000000४७२)४४९ bob8282582292 (ति-प/७/३३-३४) पुष्करार्द्ध १४४ नंदीश्वर द्वी. १४७४५६ ३२/ २८८ | नंदी सा. ३२७६८ | २६४६१२ वारुणीद्वी. ५७६ [ स्वयंभू (ज.श्रे. २२८ लाख वारुणी सा. १२८ | १९५२ | रमण सा. (+२७/४ क्षीरवर द्वी. | २५६ २३०४ (ति.प.) क्षीरवर सा. र १४लाख घृतवर द्वी. १०२४ १२१६ र बलय । -२३ घृतवर सा. | २०४८ १८४३२ । । (ति.प.) क्षौरवर द्वी. | ४०६६ ३६८६४ (ति, प./७/६५२-६१३ गद्य) क्षौरवर सा. | ८११२ ७३७२८ (त्रि. सा./३४६-३६१ गद्य) (ज. प./१२/१८-३२) (ज. प./१२१२१-४०) | *-ताराओंका विशेष अवस्थानादे.अगला शीर्षक दें।ज्योतिषी/२/९) जितने विमानआदि हैं उतने हीदेव हैं। नोट-विशेषताके लिए दे० पृष्ठ ३४७का चित्र । - - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लोक A * से बढते हुए तथा प्रत्येक सूर्य ४१६ चंद्र र बराबर ४ वृद्धिक ** सूर्य २९२ 2 चंद्र सूर्न २८८ व सूर्य १७२ चद्र सूर्य १४८ चद्र १४ अढ़ाई याप्रमाण ५०,००० यौ 900,000 यो 900,000 900,000 900,000 =१००,००० यो १००,००० यो १००,००० यो ॐ A * ह * द्वीप व ak समुद्र के प्रथ समुद्र के ६. चर ज्योतिष विमानोंका चार क्षेत्र-टिप्पण- गमनशील निम्म मनुष्यक्षेत्र अर्थात् जो पाकीखण्ड काली समुद्र और पुष्करार्धद्वीपमें ही है (स. सु.// १३-१५) (स.सि./४/१३/२४५/११) (ह.पू./६/२५); (त्रि. सा. /३४५ ); (ज. १ /१२/१३ ) । तिनमें पृथक्-पृथक् चन्द्र आदिकों का प्रमाण पहले बताया गया है ( दे. ज्योतिषी / २ / ३)। ये सभी ज्योतिषी देव १९२१ योजन छोड़कर मेरुओंकी प्रदक्षिणा रूपसे स्व-स्व मार्ग में गमन करते रहते है । ३४९ " उनके गमन करनेके मार्गको चार क्षेत्र कहते हैं अर्थात आकाशके इतने भागमें ही ये गमन करते हैं इसके बाहर नहीं । यद्यपि चन्द्रादिकी संख्या आगे-आगे द्वीपोंमें महती गयी है पर उनके चार क्षेत्रका विस्तार सर्वत्र एक ही है। दो-दो चन्द्र व सूर्य का एक ही चारक्षेत्र है। अतः चन्द्रों व सूर्योकी संख्याको दोसे भाग देनेपर उस उस द्वीप व सागरमें उनके चार क्षेत्रोंका प्रमाण प्राप्त हो जाता है। ( देखो नीचे सारिणी ) चन्द्रमा व सूर्य दोनों ही के चार क्षेत्र सर्वत्र ५१०४६ योजन चौड़े तथा उस उस द्वीप व सागरकी परिधि प्रमाण होते हैं। चन्द्रमाके प्रत्येक चार क्षेत्र में १५ तथा सूर्यके प्रत्येक चार क्षेत्रने १०४ गलियाँ कल्पित की गयी हैं। चन्द्रमाको गतियोंके बीच अन्तरास सर्वत्र ही ३५४२७ ३१४ योजन तथा सूर्यकी गलियोंके बीच २ योजन होता है, क्योंकि चारक्षेत्र समान होते हुए गलियाँ होनाधिक हैं । प्रत्येक गलीका विस्तार अपने-अपने बिम्बके विस्तारके जितना ही समझना चाहिए अर्थात् चन्द्र पथका विस्तार योजन तथा सूर्य पथका योजन चौड़ा न ऊँचा है। (२० नीचे सारिणी) विस्तार चन्द्र व सूर्य प्रतिदिन आधी-आधी गलीका अतिक्रमण करते हुए अगली - अगली गलीको प्राप्त होते रहते है शेष आधी गली में वे नहीं जाते हैं, क्योंकि वह द्वितीय चन्द्र व सूर्यसे भ्रमित होता है (ति.प./ २०) यहाँ तक कि वे दिन चन्द्रमा और १८४ दिन सूर्य अन्तिम गली में पहुँच जाते हैं वहाँसे पुनः भीतर की गलियोंकी और लौटते हैं, और क्रमसे एक-एक दिनमें एक-एक गलीका अतिक्रमण ज्योतिष लोक करते हुए एक महीने में चन्द्र और एक वर्ष में सूर्य अपने पहली गलीको पुनः प्राप्त कर लेते है । नोट-- राहुकेतुके गमनके लिए (देखो ज्योतिषी / २/८) । ति.प./०/गा / सारा सो द्वीप किये और जम्मू द्वीप सम्बन्धी सूर्य व चन्द्रमा १८० योजन ३३०.४८. योजन लवण समुद्र विविचरते हैं, पर - - ४८ अर्थात उनके ५१० यो प्रमाण चार क्षेत्रका इतना इतना भाग 1 ६९ द्वीप व समुद्रकी प्रणिधियों में पडता है । ११८,२१८ । (त्रि.सा./३७५) । (सभी द्वीपों अपने-अपने चन्द्रों से आधे एक भाग में अर्थात पूर्व दिशामें और आधे दूसरे भाग अर्थात पश्चिम दिशामें क्रम संचार करते हैं । १४१ पश्चात् चन्द्रम्म अग्निदिशासे aiser वीथीके अर्धभाग में जाता है । द्वितीय चन्द्रसे भ्रमित होनेके कारण शेष अर्ध भाग नहीं जाता | २० | ( इसी प्रकार ) अपने-अपने में से बाये एक भाग में और दूसरे आये दूसरे भाग में पंक्तिकमसे संचार करते हैं । ५७२। अर्थात प्रत्येक चन्द्र जहाँ प्रत्येक बौधीमें अठासी ग्रहाँका एक ही चार क्षेत्र है सम्बन्धी ८८ ग्रहोंका पूर्वोक्त ही चार क्षेत्र है उनके योग्य वीथियाँ हैं और परिधियाँ हैं । (चन्द्रमावाली वीथियोंके बीच में ही यथायोग्य ग्रहोकी वीथियाँ है) वे ग्रह इन परिधियों में संचार करते हैं। इनका मेरु पर्वतसे अन्तराष्ट तथा और भी जो पूर्व में कहा जा चुका है इसका उपदेश कालवश नष्ट हो चुका है ।४५७-४५८ चन्द्रकी १५ गलियोंके मध्य उन २८ नक्षत्रोंकी ८ ही गडियों होती हैं। अभिजित आदि ६ ( देखो नक्षत्र), स्वाति, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी ये १२ नक्षत्र चन्द्रके प्रथम मार्ग में संचार करते । हैं । चन्द्रके तृतीय पथमें पुनर्वसु और मघा, ७ वें में रोहिणी और चित्रा, में कृत्तिका और टवेमें विशाखा नक्षत्र संचार करता है। १० अनुराधा ११ पेक्षा और १३ मार्ग में हस्त, स पूर्वाषाढ, उत्तराषाढ, मृगशिरा, आर्द्रा, पुष्य और कारतेा ये बा नक्षत्र संचार करते हैं । (शेष २,४,५,६,१२.१३ १४ इन सात मार्गों में कोई नक्षत्र संचार नहीं करता) १४५६०४६२२ स्वाति, भरणी, गुस अभिजित और कृत्तिका मे पाँच नक्षत्र अपने-अपने मार्गने हमसे ऊर्ध्व, अधः, दक्षिण, उत्तर और मध्यमें संचार करते है |४६१| तथा (त्रि.सा./३४४) नत्र मन्दर पर्म के कमसे अपने अपने मार्गों में नित्य ही संचार करते हैं । ४६२ | नक्षत्र व विषै गमन करते हैं, अन्य अन्य वीथियोंको (त्रि.सा./१४५) । नक्षत्रों के गमनसे सब ताराओका गमन अधिक जानना चाहिए। इसके नामादिकका उपदेश इस समय नष्ट हो गया । ४६६ । वनोद आदि ज्योतिषी को कुछ विशेषताएँ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश तारे एक ही पथ प्राप्त नहीं होते हैं। जम्बूद्वीपमें सम ज्योतिषी देवोंके समूह मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं तथा धातकीखण्ड और पुष्करार्ध द्वीपमें आधे ज्योतिषी मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं (आधे नहीं करते) । ६११ । लवण समुद्र आदि चारमें जो सूर्य चन्द्र हैं उनकी किरणें अपने अपने क्षेत्रों में ही जाती हैं अन्य क्षेत्रमें कदापि नहीं जातीं ॥२८ (उपरोक्त कुल कथन त्रिसा/३७४-३०६ में भी दिया है। नोट- निम्न सारणी में व्रकेटमें रहे अंक ति.प./७/की गाथाओंको सूचित करते हैं। प्रत्येक विकल्पका प्रमाण उसके नीचे दिया गया है । संकेत - उप चन्द्र या सूर्यका अपना अपना उपरोक्त विकल्प । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लोक ३५० ज्योतिष लोक द्वीप या प्रत्येक प्रत्येक सामरकानामनदीपादि में चारक्षेत्र मे चन्द्र या सूर्य निर्देश कुल चद्र वसूर्य | कुलचारक्षेत्र । चन्द्रव सूर्य विस्तार प्रत्येक गली का विस्तार मेरुसेया अनतर एक ही दीपदसागर चारक्षेत्रो वारक्षेत्र की दोनों की की जगत्तियों से गलियों गलियों में चारक्षेत्रोंका में परस्पर परस्पर । अन्तराल अन्तराल अन्तराल यो. योजन योजन | योजन AB8t२० - ३५ जंबू द्वीप चन्द्र (११६) ०(११६) (G१६) दोनों सूर्य अभ्यन्तर वीथी से बाह्य वीथी पर्यंत ६० मुहूर्त में भ्रमण करते है ।२६७-२६८। द्वितीयादि वीथियों में चन्द्र व सूर्य दोनौका गति वेग क्रमसे बढ़ता चला जाता है, जिससे उन वीथियोंकी परिधि बढ़ जाने पर भी उनका अतिक्रमण काल वह का वह ही रहता है ।१८५-१६६ तथा २७०-२७१। ति.प./७/गा. सब नक्षत्रोंके गगनखण्ड ५४६०० (चन्द्रमासे आधे) हैं। इससे दूने चन्द्रमाके गगनखण्ड हैं और वही नक्षत्रोंकी सीमाका विस्तार है १५०४-५०॥ सूर्यको अपेक्षा नक्षत्र ३० मुहूर्त में हरे मुहूर्त अधिक वेगवाला है ।५१३ अभिजित नक्षत्र सूर्य के साथ ४ अहोरात्र व छः मुहूर्त तथा चन्द्रमाके साथ ९ मुहूर्त काल तक गमन करता है ।।१६,५२११ शतभिषक, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा तथा ज्येष्ठा येः नक्षत्र सूर्यके साथ ६ अहोरात्र २१ मुहूर्त तथा चन्द्रमाके साथ १५ मुहूर्त तक गमन करते हैं ।५१७,५२२। तीनों उत्तरा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा ये छ: नक्षत्र सूर्य के साथ २० अहोरात्र ३ मुहूर्त तथा चन्द्रमाके साथ ४५ मुहूर्त तक गमन करते हैं ।५१८,५२४॥ शेष १५ नक्षत्र सूर्यके साथ १३ अहोरात्र १२ मुहूर्त और चन्द्रके साथ ३० मुहूर्त तक गमन करते है ।५१६,५२३॥ (त्रि.सा./३६८-४०४) । लवण समुद्र, धातकीखण्ड, कालोद समुद्र, और पुष्कराद्ध द्वीपमें स्थित चन्द्रों, सूर्यों व नक्षत्रोंका सर्व वर्णन जम्बूद्वीपके समान समझना ।५७०,५६३,५१८॥ | श्यो लवण चन्द सा. में FORobh (5bb) (5bb) (b) (bc) (6h) (A) (abt) » (ORh) (boh) o (oh) 2008 (20) er (236) « (ER) (237) (601) (abt) (ERA) F (RO) F (23) (Ank) (b) F (CRA) E(89) 5 (605) B (695) (00) B (ER) (09) 8 (89b) xst (obb)Px930b0)E (ER) E (896) E (ER), (RRB) है (HR) F (898) F (Ek) , (RA) | (OBR)S66)(Ong (606)| (236)T (Emb)(23) (236) cr (en) (238) Or (Eh)| (235) 5 (80) है (535) 5 (89) (ER)| |--- (२२३) उपउप sewwwsउप (५४) । (५६३) |(५००) उप उप Beeeejeres/ उप (५७०) (५०० (५९३) ३३३३२१६६६६६५३ उप (५५७) k५६) (५) धातकी चन्द्र अन्तिम गली म. " कालोद ७२) (५०९) (५९३) heosshr prosts उप | (५५) (६५)(५००) उप १२० PTOCHAK उप (५८१) (५८१), (५३) उप ११११०४|२२२२१३४४ | उप | (५५९) |(५६६) (५००) उप उप उप ११११० THAPA KHE, उप जबूदीप ..+200,000+ttoob,000-Q-Uniqco.३० पुष्कराई | चन्द्र अन्तर पर-३५ - पेन्द्र की प्रत्या いかん! प्रत्येक गली में यो A उतार (० मेरु लवण समुद्र सूर्य चन्द्र की गतिविधिः- पलिम नवणसागर में वीबिया धातुकी रखण्ड दक्षिण लवणसाग १ इसी प्रकार ७. चर ज्योतिष विमानोंकी गति विधि ति.प./७/गा. चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारा ये सब अपने अपने पथों की प्रणिधियों ( परिधियों ) में पंक्तिरूपसे नभरखण्डोंमें संचार करते हैं ।६१०। चन्द्र व सूर्य बाहर निकलते हुए अर्थात् बाह्य मार्गकी ओर आते समय शीघ्र गतिबाले और अभ्यंतर मार्गकी ओर प्रवेश करते हुए मन्द गतिसे संयुक्त होते हैं। इसी लिए वे समान कालमें असमान परिधियोंका भ्रमण करते हैं ।१७६। चन्द्रसे सूर्य, सूर्य से ग्रह, ग्रहोंसे नक्षत्र और नक्षत्रोंसे भी तारा शीम गमन करनेवाले होते हैं 18 उन परिधियोंमेसे प्रत्येकके १०६८०० योजन प्रमाण गगनखण्ड करने चाहिए ।१८०,२६६। चन्द्र एक मुहूर्त में १७६८ गगनखण्डोंका अतिक्रमण करते हैं, इसलिए ६२३३ मुहूर्त में सम्पूर्ण गगनखण्डोंका अतिक्रमण कर लेते हैं । अर्थात् दोनों चन्द्रमा अभ्यन्तर वीथीसे बाह्य वीथी पर्यन्त इतने कालमें भ्रमण करता है ।१८१-१८३। इस प्रकार सूर्य एक मुहूर्त में १८३० गगनखण्डोंका अतिक्रमण करता है । इसलिए RA सूर्य की गति सममानाअन्तर इतना कि उसका प्रवेश ईशानव नैऋत्य दिशा सेहोता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष लोक ज्योतिष लोक ८. अमावस्या, ग्रहण, दिन-रात्रि आदिका उत्पत्ति क्रम १. अमावस्या, पूर्णिमा व चन्द्र ग्रहणति.प./७/गा. चन्द्रके नगरतलसे चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर राहु विमानके ध्वज दण्ड होते हैं । २०१३ दिन और पर्व के भेदसे राहुओंके पुरतलोंके गमन दो प्रकार होते हैं। इनमेंसे दिन राहूकी गति चन्द्र सदृश होती है ।२०। एक वीथीको लॉघकर दिन राह और चन्द्रबिम्ब जम्बूद्वीपकी आग्नेय और वायव्य दिशासे तदनन्तर वीथीमें आते हैं ।२०७। राहु प्रतिदिन एक-एक पथमें चन्द्रमण्डलके सोलह भागोंमें से एक-एक कला (भाग) को आच्छादित करता हुआ क्रमसे पन्द्रह कला पर्यत आच्छादित करता है ।२०८,२११। इस प्रकार अन्तमें जिस मार्ग में चन्द्रकी केवल एक कला दिखाई देती है वह अमावस्या दिवस होता है ।२१२। चान्द्र दिवसका प्रमाण ३१४४३ महर्त प्रमाण है ।२१३। प्रतिपदाकै दिनसे वह राहु एक-एक वीथीमें गमन विशेषसे चन्द्रमाकी एक-एक कलाको छोडता है ।२१४। यहाँ तक कि मनुष्य लोकमें उनमेंसे जिस मार्गमे चन्द्र बिम्ब परिपूर्ण दिखता है वह पूर्णिमा नामक दिवस होता है ।२०६। अथवा चन्द्र बिम्ब स्वभावरी ही १५ दिनों तक कृष्ण कान्ति स्वरूप और इतने ही दिनों तक शुक्ल कान्ति स्वरूप परिणमता है।२१५। पर्वरोहु नियमसे गतिविशेषोंके कारण छह मासोंमें पूर्णिमाके अन्तमें पृथक्-पृथक् चन्द्रबिम्बोंको आच्छादित करते हैं । ( इससे चन्द्र ग्रहण होता है ) २१६। .. ज्योतिषी देवोंके निवासों व विमानोंका स्वरूप व संख्या ति.प./७/गा, चन्द्र विमानों (नगरों) में चार-चार गोपुर द्वार, कूट, वेदी व जिन भवन हैं ।४१-४२१ विमानों के कूटोंपर चन्दोके प्रासाद होते हैं ।५०। इन भवनों में उपपाद मन्दिर, अभिषेकपुर, भूषणगृह, मैथुनशाला, क्रीड़ाशाला, मन्त्रशाला और सभा भवन हैं ।५२। प्रत्येक भवनमें सात-आठ भूमियाँ ( मंजिलें ) होती हैं ।५६। चन्द्र विमानों व प्रासादोंवत सूर्य के विमान व प्रासाद हैं ।७०-७४। इसी प्रकार ग्रहों के विमान व प्रासाद ।८६-८७ नक्षत्रों के विमान ब प्रासाद ।१०६। तथा ताराओंके विमानों व प्रासादोका भी वर्णन जानना ।११३। राहु व केतुके नगरों आदिका वर्णन भी उपरोक्त प्रकार ही जानना ।२०४, २७५। चन्द्रादिकोंकी निज-निज राशिका जो प्रमाण है, उतना ही अपने-अपने नगरों, कूटों और जिन भवनोंका प्रमाण है ।११४॥ १०. ज्योतिषी देवोंके विमानोंका विस्तार व रंग भादि(ति. प./७/गा.): (त्रि. सा./३३७-३३६) । संकेत :-यो-योजन, को-कोश । नाम प्रमाण आकार व्यास ति.प./७/गा. गहराई रंग चन्द्र अर्धगोल यो. ३७-३६ ६६-६८ मणिमय यो | १४ यो. यो. बुध ८४-८५ १/४ को स्वर्ण | रजत २.दिन व रात सूर्यके नगरतलसे चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर अरिष्ट ( केतु) विमानों के ध्वजदण्ड होते हैं ।२७२। सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहनेपर १८ मुहूर्त दिन और १२ मुहूर्त रात्रि होती है ।२७७। तदन्तर द्वितीयादि पथों में रहते हुए बराबर दिनमे २/६१ की हानि और रात्रिमें इतनी ही वृद्धि होती जाती है । २८० । यहाँ तक कि बाह्य मार्गमें स्थित रहते समय सब परिधियोंमें १८ मुहूर्त की रात्रि और १२ मुहूर्त का दिन होता है ।२७८। सूर्यके बाह्य पथसे आदि पथकी ओर आते समय पूर्वोक्त दिन व रात्रि क्रमश : (पूर्वोक्त वृद्धिसे ) अधिक व हीन होते जाते हैं ( ४५३); (त्रि. सा /३७६-३८१) । मंगल | १ को. शुक्र ६०-६१ बृहस्पति ६४-६५ ६७-६ ६६-१०१ | नक्षत्र । १०६ तारे उत्कृष्ट | १०६-११० , मध्यम १०६-१११ , जघन्य | १०६-१११ राहु २०२-२०३ २७३-२७४ १/२ को. १ को. कुछ कम१को १/२ को. स्फटिक १/२ को. | १/४ को. १/२ को. १/४ को. स्वर्ण १/२ को. सूर्यवत १ को. १/२ को. ३.को. को. | ... १/४ को. १४८ को. १यो. | २५० धनु | अंजन केतु ३. अयन व वर्ष सूर्य, चन्द्र, और जो अपने-अपने क्षेत्रमें संचार करनेवाले ग्रह हैं, उनके अयन होते हैं । नक्षत्र समूह व ताराओंका इस प्रकार अयनोंका नियम नहीं है।४। सूर्यके प्रत्येक अयनमें १८३ दिनरात्रियाँ और चन्द्र के अयनमें १३४ दिन होते हैं ।४४६। सब सूर्योका दक्षिणायन आदिमें और उत्तरायन अन्तमें होता है। चन्द्रोके अयनोंका क्रम इससे विपरीत है ।५००। अभिजित आदि दै करि पुष्य पर्यन्त जे जघन्य, मध्यम. उत्कृष्ट नक्षत्र तिनके १८३ दिन उत्तरायणके हो हैं । बहुरि इनत अधिक ३ दिन एक अयन विषै गत दिवस हो है। (त्रि. सा./४०७)। नोट-चन्द्र के आकार व विस्तार आदिका चित्र-दे० पृ०३४८ । ४ तिथियोंमें हानि-वृद्धि व अधिक (लौंद) मास त्रि. सा./गा. एक मास विषै एक दिनकी वृद्धि होइ, एक वर्ष विषै बारह दिनकी वृद्धि होइ अढाई वर्ष विषै एक मास अधिक होइ। पंचवर्षीय युग विषै दो मास अधिक हो है । ।१४०। आषाढ मास विषै पूर्णिमावे दिन अपराह्न समय उत्तरायणकी समाप्तिपर युगपूर्ण होता है ।४११॥ ज्योतिष विद्या-१. ज्योतिष देवों (चन्द्र सूर्य आदि) को गतिविधि पर से भूत भविष्यत को 'जानने वाला एक महानिमित्त ज्ञान Asfronomy (ध. /प्र -२७) । २ साधुजन को ज्योतिष विद्या के प्रयोग का कथंचित विधि निषेध ।-दे मंत्र। ज्वाला मालिनी कल्प भट्टारक इन्द्र नन्दि (वि.६६६) कृत १० परिच्छेद ३७२ पच वाला तान्त्रिक ग्रन्थ । (ती./३/१८०)। ज्वालिनी कल्प भट्टारक मक्लिषेण (ई. १०४७) कृत १४ पन्नों वाला लघुकाय तान्त्रिक ग्रन्थ । (ती./३/१७६)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झंझावात ३५२ तत्व दिगम्बर पंच संग्रहके आधारपर एक संस्कृत पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ लिखा है। समय-वि० श०१७। (पं.सं.प्र.४१/ A. N.up) वि. श, ११ पूर्वार्ध (जै./१/३७५) । ढूंढिया मत-दे० श्वेताम्बर। झझावात--(भ० आ०/ भाषा/६०८/८०६/१८)-जलवृष्टि सहित जो वायु बहती है उसे झंझावात कहते हैं। झष-वें नरकका ३रा पटल-दे० नरक/५/११ झाव दशमीव्रत-भाव दशमीत्रत दश दशपुरी। दश श्रावक दे भोजन करी। नोट-यह व्रत श्वेताम्बर व स्थानकवासी आम्नायमें प्रचलित है। (नवलसाह कृत वर्धमान पुराण ); (व्रत विधान संग्रह/पृ० १३०) झूठ-दे० असत्य। [८] णमोकार पैंतीसी व्रत-आषाढ शुरु से आसौज शु ७ तक ७ सप्तमियाँ; कार्तिक कृ०५ से पौष कृ०५ तक ५ पंचमियाँ; पौष कृ० १४ से आषाढ़ शु०१४ तक १४ चतुर्दशियाँ; श्रावण कृ०६ से आसौज कृ०६ तक हनवमियाँ. इस प्रकार ३५ तिथियों में ३५ उपवास करे। णमोकार मन्त्रकी त्रिकाल जाप्य करे। नमस्कार मन्त्रकी ही पूजा करे। (व्रत विधान संग्रह/प. ४५)। णमोकार मन्त्र-दे० मन्त्र/२ । णिक्खोदिम-दे निक्षेप//ह । टक-(ध.१४/५,६,६४१/४६08)-सिलामयपव्वएसु उक्किण्णवावीकूव-तलाय-जिणधरादीणि टंकाणि णाम |--शिलामय पर्वतोंमे उकीरे गये वापी, कुंआ, तालाब, और जिनघर आदि टंक कहलाते है। टकण-ऐरावती नदी व गिरिकूट पर्वतके निकट स्थित एक नगर -दे० मनुष्य/४। टकोत्कोण-(प्र.सा./त.प्र./५१) क्षायिकं हि ज्ञानं.. तट्टकोत्कीर्णन्यायावस्थित समस्तवस्तुज्ञेयाकारतयाधिरोपितनित्यत्वम् । = वास्तव में क्षायिक ( केवल ) ज्ञान अपने में समस्त वस्तुओके शेयाकार टंकोत्कीर्ण न्यायसै स्थित होनेसे जिसने नित्यत्व प्राप्त किया है। टिप्पणी-गणित विषयक Notes (ध.५/प्र. २७)। टीका-(क. पा. २/१,२२/5२६/१४/८) वित्तिमुत्तविवरणाए टीकाव वएसादो। वृत्तिसूत्रके विशद व्याख्यानको टीका कहते हैं।। टोडर मल-नगर जयपुर, पिताका नामजोगीदास, माताका नाम रम्भादेवी, गोत्र गोदीका (बड़ जातीया), जाति खण्डेलवाल, पंथतेरापंथ, गुरु वंशीधर थे। व्यवसाय साहूकारी था। जैन आम्नायमें आप अपने समयमें एक क्रान्तिकारी पण्डित हुए हैं। आपके दो पुत्र थे हरिचन्द व गुमानीराम। आपने निम्न रचनाएँ की है-१. गोमट्टसार; २. लब्धिसार; ३. क्षपणसार; ४. त्रिलोकसार; ५. आत्मानुशासन, ६. पुरुषार्थ सिद्धयु पाय-इन छह ग्रन्थों की टीकाएँ । ७. गोमट्टसार व लब्धिसारकी अर्थ संदृष्टियाँ, ८. गोम्मट्टसार पूजा, ६. मोक्षमार्ग प्रकाशक; १०. रहस्यपूर्ण चिट्ठी । आप शास्त्र रचनामें इतने संलग्न रहते थे कि ६ महीने तक, जब तक कि गोम्मट्टसारकी टीका पूर्ण न हो गयी, आपको यह भी भान न हुआ कि माता भोजन में नमक नहीं डालती है। आप अत्यन्त विरक्त थे। उनकी विद्वत्ता व अजेय तर्कोसे चिडकर किसी विद्वेषीने राजासे उनकी चुगुली खायी। फल स्वरूप केवल ३२ वर्ष की आयुमे उन्हे हाथीके पाँव तले रौदकर मार डालनेका दण्ड दिया गया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार हो न किया नसिक इस पापकार्यमे प्रवृत्ति न करते हुए हाथीको स्वयं सम्बोधकर प्रवृत्ति भी करायी। समयजन्म वि. १७६७ मृत्यु वि. १८२४ (ई १७४०-१७६७)। (मो. मा. प्र./प्र.६/५० परमानन्द जी शास्त्री), (ती४/२८३)। तंडुल मत्स्य-दे० सम्मुर्छन्/७ तंतुचारण ऋद्धि-दे० ऋद्धि/४ । तंत्र-दे० मंत्र। तत्र सिद्धात-तंत्र सिद्धांतके लक्षण व भेदादि-दे० सिद्धांत। तक्षशिला-वर्तमान टैक्सिला । उत्तर पंजाबका एक प्रसिद्ध नगर । (म.पु /प्र.४६ पं. पन्नालाल)। सिन्ध नदीसे जेहलम तकके समस्त प्रदेशका नाम तक्षशिला था। जिसपर सिकन्दरके समय राजा अम्भी राज्य करता था। (वर्तमान भारतका इतिहास) ततक-द्वितीय नरकका प्रथम पटल । दे० नरक/५ । तत्-स.सि./१/२//३ तदिति सर्वनामपदम्। सर्वनाम च सामान्ये वर्तते । = 'तत' यह सर्वनाम पद है। और सर्वनाम सामान्य पदमें रहता है। (रा.वा/१/२१५/१६/१६); (ध.१३/५,५०६०/२८५/११) ध.१/१,१,३/१३२/४ तच्छब्दः पूर्वप्रक्रान्तपरामर्शी इति। -'तत्' शब्द पूर्व प्रकरणमें आये हुए अर्थका परामर्शक होता है। पं.ध./३१२ 'तद...भावविचारे परिणामो "सदृशो वा । - तत्के कथनमें सदृश परिणाम विवक्षित होता है। २. द्रव्यमें तत धर्म-दे० अनेकान्त/४। तत्त्व-चौथे नरकका चौथा पटल-दे० नरक/५। तत्त्व-प्रयोजनभूत वस्तुके स्वभावको तत्त्व कहते हैं। परमार्थ में एक शुद्धामा ही प्रयोजनभूत तत्व है। वह संसारावस्थामैं कर्मोंसे बंधा हुआ है। उसको उस बन्धनसे मुक्त करना इष्ट है। ऐसे हेय व उपादेयके भेदसे वह दो प्रकारका है अथवा विशेष भेद करनेसे वह सात प्रकारका कहा जाता है। यद्यपि पुण्य व पाप दोनों ही आस्रव हैं, परन्तु संसारमें इन्ही दोनोंकी प्रसिद्धि होनेके कारण इनका पृथक निर्देश करनेसे वे तत्त्व नौ हो जाते हैं। [ढ] हडा-चित्रकूट (चित्तौड़गढ़ ) के निवासी एक पण्डित थे। श्रीपलाके पुत्र तथा प्राग्वाट (पोरवाड या परवार ) जातीय वैश्य थे। आपने जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्व ३५३ २. सप्त तत्त्व व नव पदार्थ निर्देश २. तत्त्वार्थका अर्थ नि.सा./मू./ह जीवापोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं। तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहि संजुत्ता ।। =जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म, काल और आकाश, यह तत्त्वार्थ कहे है, जो कि विविध धर्म, अधर्म कालत है। चीयत इति यातिरेकात् ।तत्वाचा १. भेद व लक्षण १. तत्त्वका अर्थ १. वस्तुका निज स्वरूप स.सि /२/१/१५०/११ तद भावस्तत्वम् । -जिस वस्तुका जो भाव है वह तत्व है। (स.सि./२/४२/३१७/५); (ध.१३/५,५,६०/२८/११); (मो.मा.प्र./४/८०/१४) रा.वा/२/१/६/१००/२५ स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वं, स्वोभावोऽसाधारणो धर्मः । -अपना तत्त्व स्वतत्त्व होता है, स्वभाव असाधारण धर्मको कहते हैं। अर्थात वस्तुके असाधारण रूप स्वतत्त्वको तत्व कहते हैं। स. श./टी./३५/२३५ आरमनस्तत्त्वमात्मनःस्वरूपम् । -आत्म तत्त्व अर्थात आत्माका स्वरूप। स. सा./आ./३५६/४६१/७ यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति...इति तत्त्व सम्बन्धे जीवति। -जिसका जो होता है वह वही होता है. ऐसा तात्त्विक सम्बन्ध जीवित होनेसे..। २. यथावस्थित वस्तु स्वभाव स.सि./१/२/८/३ तत्त्वशब्दो भावसामान्यवाची। कथम् । तदिति सर्वनामपदम्। सर्वनाम च सामान्य वर्तते । तस्य भावस्तत्त्वम् । तस्यकस्य । योऽर्थो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः। -तत्त्व शब्द भाव सामान्य वाचक है, क्योंकि 'तव' यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थमें रहता है अतः उसका भाव तत्त्व कहलाया। यहाँ तत्व पदसे कोई भी पदार्थ लिया गया है। आशय यह कि जो पदार्थ जिस रूपसे अवस्थित है, उसका उस रूप होना यही यहाँ। तत्त्व शब्दका अर्थ है । (रा.वा/१/२/९/१६/8); (रा.वा/९/२/२/१६/१8); (भ.आ./वि./१६/१५०/१६); (स्या.म./२५/२६६/१२) ३. सत्, द्रव्य, कार्य इत्यादि न.च./४ तच्च तह परमठ्ठ दव्वसहावं तहेव परमपर । धेय मुझे परमं एयछा हुति अभिहाणा ।४। - तत्त्व, परमार्थ, द्रव्यस्वभाव, परमपरम, ध्येय, शुद्ध और परम ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। गो.जी./जी.प्र./१६१/१००६ आर्या नं.१ प्रदेशप्रचयारकायाः द्रवणाद द्रव्यनामकाः । परिच्छेद्यत्वतस्तेऽर्थाः तत्त्वं वस्तु स्वरूपतः ।। - बहुत प्रदेशनिका प्रचय समूहकों धर है तातें काय कहिये। बहुरि अपने गुण पर्यायनिको द्रवे है तातै द्रव्यनाम कहिए। जीवनकरि जानने योग्य है तातै अर्थ कहिए, बहुरि वस्तुस्वरूपपनाकौं धरै है तात तत्त्व कहिए। पं.ध./पू./ तत्त्वं सल्लाक्षणिक सन्मात्रं वा यतः स्वतः सिद्धम् । तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्प च ।। -तत्त्वका लक्षण सत है अथवा सतही तत्त्व है। जिस कारणसे कि वह स्वभावसे ही सिद्ध है, इसलिए वह अनादि निधन है, वह स्वसहाय है और निर्विकल्प है। ४. अविपरीत विषय रा.वा./२/२/१/११/- अविपरीतार्थ विषयं तत्त्वमित्युच्यते। -अविप रीत अर्थ के विषयको तत्त्व कहते हैं। ५. श्रुतशानके अर्थमें ध.१३/५,९,१०/२८५/११ तदिति विधिस्तस्य भावस्तत्वम् । कथं श्रुतस्य विधिव्यपदेशः 1 सर्वनयविषयाणामस्तित्व विधायकत्वात् । तत्त्वं श्रुतज्ञानम् । ='तत' इस सर्वनामसे विधिको विवक्षा है, 'तत'का भाव तत्त्व है। प्रश्न-श्रुतकी विधि संज्ञा कैसे है। उत्तर-चू कि वह सब नयोंके विषयके अस्तित्व विधायक है, इसलिए श्रुतकी विधि संज्ञा उचित ही है। तत्त्व श्रुतज्ञान है। इस प्रकार तत्त्वका विचार किया गया है। स.सि./१/२/८/५ अर्यत इत्यर्थो निश्चीयत इति यावत् । तत्त्वेनार्थस्तत्त्वार्थ' अथवा भावेन भाववतोऽभिधानम्, तदव्यतिरेकात् । तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थः। -अर्थ शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - अर्यते निश्चीयते इत्यर्थः जो निश्चय किया जाता है। यहाँ तत्त्व और अर्थ इन दोनों शब्दोंके संयोगसे तत्त्वार्थ शब्द बना है जो 'तत्त्वेन अर्थः तत्त्वार्थ' ऐसा समास करनेपर प्राप्त होता है। अथवा भाव द्वारा भाववाले पदार्थका कथन किया जाता है, क्योंकि भाव भाववालेसे अलग नहीं पाया जाता है । ऐसी हालतमें इसका समास होगा 'तत्त्वमेव अर्थः तत्त्वार्थः।' रा.वा./९/२/६/१६/२३ अर्यते गम्यते ज्ञायते इत्यर्थः, तत्त्वेनार्थस्तत्त्वार्थः । येन भावेनार्थो व्यवस्थितस्तेन भावेनार्थस्य ग्रहणं (तत्त्वाथी)। अर्थ माने जो जाना जाये। तत्त्वार्थ माने जो पदार्थ जिस रूपसे स्थित है उसका उसी रूपसे ग्रहण । ३. तत्त्वोंके ३,७ या ९ भेद त.सू./१/४ जीवाजीवात्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ७) जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। (न.च./१५०) नि.सा./ता.वृ./५/१२/१ तत्त्वानि बहिस्तत्त्वान्तस्तत्त्वपरमात्मतत्त्वभेदभिन्नानि अथवा जीवाजीवानवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षाणां भेदात्सप्तधा भवन्ति । -तत्त्व बहिस्तत्त्व और अन्तस्तत्त्व रूप परमात्म तत्व ऐसे (दो) भेदों वाले हैं। अथवा जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ऐसे भेदोके कारण सात प्रकारके हैं। (इन्हीमें पुण्य, पाप और मिला देनेपर तत्त्व नौ कहलाते हैं )। नौ तत्त्वोंका नाम निर्देश-दे० पदार्थ। * गरुड तत्त्व आदि ध्यान योग्य तत्त्व-दे० वह वह नाम । * परम तत्वके अपर नाम-दे० मोक्षमार्ग/२/11 २. सप्त तत्त्व व नव पदार्थ निर्देश १. तत्व वास्तव में एक है स.सि./१/४/१६/१ तत्त्वशब्दो भाववाचीत्युक्तः। स कथं जीवादिभि व्यवचने. समानाधिकरण्यं प्रतिपद्यते ! अव्यतिरेकात्तभावाध्यारोपाच्च समानाधिकरण्यं भवति । यथा उपयोग एवात्मा इति । यद्यपं तत्तल्लिङ्गसङ्घयानुव्यतिक्रमो न भवति। -प्रश्न-तत्त्व शब्द भाववाची है इसलिए उसका द्रव्यवाची जीवादि शब्दोंके साथ समानाधिकरण कैसे हो सकता है। उत्तर-एक तो भाव द्रव्यसे अलग नहीं पाया जाता, दूसरा भावमें द्रव्यका अध्यारोप कर लिया जाता है इसलिए समानाधिकरण बन जाता है । जैसे-'उपयोग ही आत्मा है' इस वचनमें गुणवाची उपयोगके साथ द्रव्यवाची आत्मा शब्दका समानाधिकरण है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। प्रश्न-यदि ऐसा है, तो विशेष्यका जो लिंग और संख्या है वही विशेषणको भी प्राप्त होते हैं। उत्तर-व्याकरणका ऐसा नियम है कि 'विशेषण विशेष्य सम्बन्धके रहते हुए भी शब्द शक्तिकी अपेक्षा जिसने जो लिंग और संख्या प्राप्त कर ली है उसका उल्लंघन नहीं होता' 'अतः यहाँ विशेष्य और विशेषणके लिगके पृथक्- पृथक रहनेपर भी कोई दोष नहीं है । (रा.वा./१/४/२६-३०/२७) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-४५ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व ३५४ ३. तत्त्वोपदेशका कारण व प्रयोजन रा.वा./२/१/१६/१०१/२७ औपशमिकादिपञ्चतयभावसामानाधिकरण्या तत्त्वस्य बहुवचनं प्राप्नोतोति; तन्न, कि कारणम् । भावस्यैकत्वात, 'तत्वम्' इत्येष एको भावः। -प्रश्न-औपशमिकादि पाँच भावों के समानाधिकरण होनेसे 'तत्त्व' शब्दके बहुवचन प्राप्त होता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि सामान्य स्वतत्त्वकी दृष्टिसे यह एकवचन निर्देश है। पं.ध./३/१८६ ततोऽनन्तरं तेभ्य' 'किचिच्छुद्धमनीदृशम् । शुद्ध नव पदान्येव तद्विकाराइते परम् १८६ -शुद्ध तत्त्व कुछ उन तत्त्वोंसे विलक्षण अर्थान्तर नहीं है, किन्तु केवल नव सम्बन्धी विकारको छोडकर नव तत्त्व ही शुद्ध है। (पं.ध./उ./१५५) २. सात तत्त्व या नौपदार्थों में केवल जीव व अजीव ही प्रधान हैं स.सा./आ/१३/३१ विकार्य विकारकोभयं पुण्यं तथा पापम्, आस्राव्यानाबकोभयमात्रब', संवार्यसंवारकोभयं संवरः, निर्जर्यनिर्जरकोभयं निर्जरा, बन्ध्यबन्धकोभयं बन्धः, मोच्यमोचकोभयं मोक्ष, स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रवसवरनिर्जराबन्धमोक्षानुपपत्तेः। तदुभयं च जीवाजीवाविति।-विकारी होने योग्य और विकार करनेवाला दोनों पुण्य है तथा दोनो पाप है, आस्रव होने योग्य और आस्रव करनेवाला दोनों आस्रव है, संवर रूप होने योग्य और संवर करनेवालादोनों संवर है: निर्जरा होनेके योग्य और निर्जरा करनेवाला दोनो निर्जरा हैं बँधनेके योग्य और बन्धन करनेवाला-दोनो बन्ध है, और मोक्ष होने योग्य और मोक्ष करनेवाला----दोनो मोक्ष है; क्योंकि एकके ही अपने आप पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निजरा, बन्ध, मोक्षकी उत्पत्ति नहीं बनती। वे दोनो जीव और अजीव हैं। पं.ध/३/१५२ तद्यथा नव तत्वानि केवलं जीवपुदगलौ। स्वद्रव्याधर नन्यत्वाद्वस्तत. कतृ'कर्मणोः ११५२। ये नव तत्त्व केवल जीव और पुद्गल रूप हैं, क्योकि वास्तवमें अपने द्रव्य क्षेत्रादिकके द्वारा कर्ता तथा कर्म में अन्यत्व है-अनन्यस्व नहीं है। आस्रवादि तो जीवके अशुद्ध परिणाम है और जो अचेतन कर्मपुद्गलों की पर्याय है वे अजीवके है। आसव, बन्ध, पुण्य और पाप ये चार पदार्थ जीव और पुदगलके सयोग परिणामस्वरूप जो विभाव पर्याय है उनसे उत्पन्न होते हैं। और संवर, निर्जरा तथा मोक्ष ये तीन पदार्थ जीव और पुद्गलके संयोग रूप परिणामके विनाशसे उत्पन्न जो विवक्षित स्वभाव पर्याय है, उससे उत्पन्न होते है, यह निीत हुआ। श्लो वा २/१/४/४८/१५६/६ जीवाजीवौ हि धर्मिणौ तद्धर्मास्त्वात्रवादय इति । धमिधर्मात्मकं तत्त्वं सप्तविधमुक्तम्-सात तत्त्वोंमें जीव और अजीव दो तत्त्व तो नियमसे धर्मी हैं। तथा आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये पॉच उन जीव तथा अजीवके धर्म है। इस प्रकार दो धर्मी स्वरूप और पॉच धर्म स्वरूप ये सात प्रकारके तत्त्व उमास्वामी महाराजने कहे है। ५. जीव पुद्गलके निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धसे इनकी उत्पत्ति होती है द्र. सं./चूलिका/२८/८१-८२/६ कथं चित्परिणामित्वे सति जीवपुद्गलसंयोगपरिणतिनिवृत्तत्वादास्रवादिसप्तपदार्था घटन्ते । - इनके कथ चित् परिणामित्व (सिद्ध) होनेपर जीव और पुद्गल के संयोगसे बने हुए आसवादि सप्त पदार्थ घटित होते है। पं.ध/उ./१५४ किन्तु संबन्धयोरेव तद्द्वयोरितरेतरम् । नैमित्तिकनिमित्ताभ्यां भावा नव पदा अमी ।१४। परस्परमें सम्बन्धको प्राप्त उन दोनो जीव और पुद्गलोके ही नैमित्तिक निमित्त सम्बन्धसे होनेवाले भाव ये नव पदार्थ है। और भी -दे० ऊपर शीर्षक नं.४। ६. पुण्य पापका आस्रव बन्धमें अन्तर्माव करनेपर १ पदार्थ ही सात तत्त्व बन जाते हैं ३. शेष ५ तत्वों या ७ पदार्थो का आधार एक जीव द्र. सं./चूलिका/२८/८१/११ नव पदार्थाः । पुण्यपापपदार्थद्वयस्याभेदनयेन कृत्वा पुण्यपापयोबन्धपदार्थस्य वा मध्ये अन्तर्भावविवक्षया सप्ततत्त्वानि भण्यन्ते। - नौ पदार्थोमें पुण्य और पाप दो पदार्थोंका सात पदार्थोंसे अभेद करनेपर अथवा पुण्य और पाप पदार्थ का बन्ध पदार्थ में अन्तर्भाव करनेपर सात तत्त्व कहे जाते है। पुण्य व पापका आस्रवमें अन्तर्भाव-दे० पुण्य/२/४ । पं.ध./उ./२६ आसवाद्या यतस्तेषां जीयोऽधिष्ठानमन्वयात् । प.ध./उ./१५५ अर्थान्नवपदीभूय जीवश्चैको विराजते। तदात्वेऽपि पर शुद्धस्तद्विशिष्टदशामृते ।१५५॥ = आस्रवादि शेष तत्वोंमें जीवका आधार है ।२६। अर्थात एक जीव ही जीवादिक नव पदार्थ रूप होकरके विराजमान है, और उन नव पदार्थोंकी अवस्थामें भी यदि विशेष दशाकी विवक्षा न की जावे तो केवल शुद्ध जीव ही अनुभवमें आता है । (पं.ध./उ./१३८) १. शेष ५ तत्त्व या सात पदार्थ जीव अजीवकी ही पर्याय हैं पं.का./ता.व./१२८-१३०/१२/११ यतस्तेऽपि तयो एव पर्याया इति। -आत्रवादि जीव व अजीवकी पर्याय हैं। द्र.सं /मू. व टी./२८/८५ आसव बंधण संवर णिज्जर सपुण्णपावा जे। जीवाजीवनिसेसा तेवि समासेण पभणामो ।२८। चैतन्या अशुद्धपरिणामा जीवस्य, अचेतनाः कर्म पुदगलपर्याया अजीवस्येत्यर्थः । द्र.सं./चूलिका/२८/८५/२ .आसवबन्धपुण्यपापपदार्था जीवपुद्गलसंयोगपरिणामरूपविभावपर्यायेणोत्पद्यन्ते । संवरनिर्जरामोक्षपदार्थाः पुनजीवपुद्गलसंयोगपरिणाम विनाशोत्पन्नेन विवक्षितस्वभावपर्यायेणेति स्थितम्। -जीव, अजीवके भेदरूप जो आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोस, पुप तथा पार ऐसे सात पदार्थ है।२। चेतन्य ३. तत्त्वोपदेशका कारण व प्रयोजन १. सप्त तत्त्व निर्देश व उसके क्रमका कारण स.सि./१/४/१४/६/सर्वस्य फलस्यात्माधीनत्वात्तदनन्तरमास्रवग्रहणम् । तत्पूर्वकत्वात्तदनन्तरं बन्धाभिधानम् । संवृतस्य बन्धाभावात्तत्प्रत्यनोकप्रतिपत्त्यर्थं तदनन्तर संवरवचनम्। संवरे सति निर्जरोपपत्तेस्तदन्तिके निर्जरावचनम् । अन्ते प्राप्यत्वान्मोक्षस्यान्ते वचनम् ।... इह मोक्षः प्रकृतः सोऽवश्य निर्देष्टव्यः । स च संसारपूर्वक ससारस्य प्रधानहेतुरास्रवो बन्धश्च । मोक्षस्य प्रधानहेतु संवरो निर्जरा च। अतः प्रधानहेतुहेतुमत्फल निदर्शनार्थत्वात्पृथगुपदेशः कृतः । -सब फल जीवको मिलता है। अतः सूत्रके प्रारम्भमें जीवका ग्रहण किया है। अजीव जीवका उपकारी है यह दिखलानेके लिए जीवके बाद अजीवका कथन किया है। आस्तव जीव और अजीव दोनोंको विषय करता है अत' इन दोनोके बाद आस्रवका ग्रहण किया है। बन्ध आस्रव पूर्वक होता है, इसलिए आसबके बाद बन्धका कथन किया है। संवृत जोवके बन्ध नहीं होता, अतः सवर बन्धका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व उल्टा हुआ इस बातका ज्ञान करानेके लिए बन्धके बाद संवरका कथन किया है। संभरके होनेपर निर्जरा होती है इसलिए संबर के पास निर्जरा कही है । मोक्ष अन्तमें प्राप्त होता है । इसलिए उसका अन्तमें कथन किया है। अथवा क्योकि यहाँ मोक्षका प्रकरण है। इसलिए उसका कथन करना आवश्यक है। वह संसार पूर्वक होता है, और संसार के प्रधान कारण आसव और बन्ध हैं तथा मोक्षके प्रधान कारण संवर और निर्जरा है अतः प्रधान हेतु, हेतुवाले और उनके फलके दिखलानेके लिए अलग-अलग उपदेश किया है। (रा.वा./१/४/३/२६/६ प्र.सं./का/२८/८२/३ यथैवामेवनयेन पुण्यपापपदार्थद्वयस्यान्तर्भा जातस्तथैव विशेषाभेदनयविवक्षायामासादिपदार्थानामपि जीवाजीवद्वयमध्येऽन्तर्भावि कृते जीवाजीवी द्वावेन पदार्थानिति । तत्र परि हार हेयोपादेयतरयपरिज्ञानप्रयोजनार्थ माखवादिपदार्थाः व्याख्येया भवन्ति । तवेन कथयति उपादेयत्वमायानन्तस्य कारणं मोक्षो मोक्षस्य कारणं संवरनिर्जराद्वयं तस्य कारणं विशुद्ध निश्चयरत्नत्रय स्वरूपमात्मा । आकुलोत्पादकं नारक आदि दुःखं निश्चयेनेन्द्रियसुखं च यतत्त्वम् । तस्य कारणं संसार संसारकारणमासनमन्यपदार्थद्वयं तस्य कारणं मिथ्यादर्शमज्ञानचारित्रत्रय मिति एवं हेयोपादेयतव्याख्याने कृति सति + ... पदार्थाः स्वयमेव सिद्धाः । = प्रश्न - अभेदनयकी अपेक्षा पुण्य, पाप, इन दो पदार्थोंका सात पदार्थों में अन्तर्भाव हुआ है उसी तरह विशेष अभेद नयकी अपेक्षासे वासवादि व्यार्थीका भी इन दो पदार्थोंमें अन्तर्भाव कर लेनेसे जीव तथा अजीव दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं ? उत्तर-'कौन तत्त्व हेय है और कौन तत्त्व उपादेय है' इस विषयका परिज्ञान कराने के लिए आसवादि पदार्थ निरूपण करने योग्य है। इसीको कहते है- अविनाशी अनन्तसुख उपादेय तत्व है । उस अनन्त सुखका कारण मोक्ष है, मोक्षके कारण मंबर और निर्जरा हैं। उन संवर और निर्जराका कारण, विशुद्ध... निश्चय रत्नत्रय स्वरूप आत्मा है। अब हेयको कहते हैं-आकुलताको उत्पन्न करनेवाला नरकगति आदिका दुख तथा इन्द्रियोंनें उत्पन्न हुआ य यानी त्याज्य है, उसका कारण संसार है और उसके कारण आस्रव तथा बध ये दो पदार्थ है, और उस आसवका तथा बन्धका कारण पहले कहे हुए... मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र हैं। इस प्रकार हेय और उपादेय तत्त्वका निरूपण करनेपर सात तत्त्व तथा नौ पदार्थ स्वयं सिद्ध हो गये हैं । ( प.का /ता.वृ./१२८१३०/११२/१९) -- "" २. सप्त तत्त्व नव पदाथके उपदेशका कारण पं.का./त.प्र./११७ एवमिह जीवाजीवयोस्तो मे सम्यग्ज्ञान मार्गप्रसिद्धयर्थं प्रतिपादित इति । यहाँ जीव और अजीव का वास्तविभेद सम्पानियोंके मार्गकी प्रसिद्धि हेतु प्रतिपादित किया गया है । पं... १०१ दरसर्वस्यान, स्वारसिद्धः प्रमाणत तथा तेभ्योऽतिरिक्तस्य शुद्धस्यानुपलन्धित १०३ कथन ठीक नहीं है, क्योंकि उनका सर्वथा त्याग अर्थात् अभाव प्रमाणसे असिद्ध है तथा उन नम पदार्थोंको सर्वथा हेय माननेपर उनके बिना शुद्धात्माको उपलब्धि नहीं हो सकती है। ३. हेय तत्वोंके व्याख्यानका कारण इ.सं./टी./१४/५६/१० हेतमपरिज्ञाने सति पश्चानुपादेयस्वीकारो भवतीति । - पहले हेय तत्त्वका ज्ञान होनेपर फिर उणदेय पदार्थ स्वीकार होता है। ३५५ ३. तत्वोपदेशका कारण व प्रयोजन पं. घ. /उ. / १७६,१७८ नावश्यं वाच्यता सिद्ध्येत्सर्वतो हेयवस्तुनि । नान्धकारेऽनित्य प्रकाशानुभवो मना १९०६ न स्यातेभ्योऽतिरिक्तस्य सिद्धि' शुद्धस्य सर्वतः । साधनाभावतस्तस्य तद्यथानुपलब्धितः १७८॥ सर्वथा हेय वस्तुमें अभावात्मक वस्तुमें वाच्यता अवश्य सिद्ध नहीं हो सकती है। क्योकि अन्धकारमें प्रवेश नहीं करनेवाले मनुष्यको कुछ भी प्रकाशका अनुभव नही होता है । १०६ नौ पदार्थोंसे अतिरिक्त सर्वथा शुद्ध द्रव्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है क्योंकि साधनका अभाव होनेसे उस शुद्ध द्रव्यकी उपलब्धि नहीं हो सकती । ४. सप्त तर व नव पदार्थोंके व्याख्यानका प्रयोजन शुद्धात्मोपादेयता निसा./मू./२८ जीवादि महिन् यवादयमप्पणी जपा कम्मोपाधिसम्भवगुणपज्जा एहि वदिरित्तो |३८| जीवादि बाह्य तत्त्व हेय है, कर्मोपाधिजनित गुणपर्यायोंसे व्यतिरिक्त आत्मा आत्माको उपादेय है। इ. उ. / / ५० जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसो तत्त्वसंग्रहः । यदन्यदुच्यते किंचित सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ५०० जीव शरीरादिक गतसे भिन्न है और इस जीनसे भिन्न है यही तत्वका संग्रह है. इसके अतिरिक्त जो कुछ भी कहा जाता है वह सम सहीका विस्तार है - ३० सम्यग्दर्शन / II /६/३ ( पर व स्वमें हेयोपादेय बुद्धि पूर्वक एक शुद्धात्माका आश्रय करना) । I मोक्ष पंचा/२०१८ जीवे जीवार्पितो बन्धः परिणामनिकारकृत्। आसवादात्मनोऽशुद्ध परिणामात्प्रजायते ॥ ३॥ इति बुद्धासवं रुद्ध्वा कुरु संवरमुत्तमम् । जहीहि पूर्वकर्माणि तपसा निवृत्ति मज = जीवमें जीवके द्वारा किया गया बन्ध परिणामोमें विकार पैदा करता है और आत्मा के अशुद्ध परिणामों से कमोंका आसव होता है । ऐसा जानकर आसवको रोको, उत्तम संवरको करो. तपके द्वारा पूर्वबद्ध कर्मोकी निर्जरा करो और मोक्षको प्राप्त करो। का. अनु./मू./२०४ उत्तम गुणाण धाम सव्व दव्वाण उत्तम दव्वं । तचाण परम तच्च जीव जाणेणि णिच्छयदो । २०४ | जीव ही उत्तम गुणोका धाम है, सब द्रव्योमे उत्तम द्रव्य है और सब तत्वोंमे परम तत्त्व है, यह निश्चयसे जानो ॥२०॥ ससा /ता.वृ./३०६/४१०/८हारिकनवपदार्थ मध्ये भूतानसेन शुद्धजीव एक एव वास्तव स्थित इति व्यावहारिक पदार्थ मे निश्वयनयसे एक शुद्ध जीव ही वास्तवमे उपादेय है । पं.का./ता.वृ/१२८-१३०/१६३/११ रागादिपरिणामाना कर्मणश्च योऽसौ परस्पर' कार्यकारणभाव स एव रक्ष्यमा पुष्यादिपदार्थानां कारणमिति झाला पूर्वी सारच विनाशार्थ मध्यावाधानन्तसुखादि गुणानां चक्रभृते समूहरूने निजात्मस्वरूपे रागादिविकल्पपरिहारेण भावना कर्तव्येति । रागादि परिणामों और कर्मो का जो परस्पर में कार्यकारण भाव है वही यहाँ वक्ष्यमाण पुण्यादि पदार्थोका कारण है। ऐसा जानकर संसार चक्रके विनाश करनेके लिए अन्याबाध अनन्त सुखादि गुणोके समूह रूप निजात्म स्वरूप में रागादि भावोके परिहारसे भावना करनी चाहिए। निसा ता./१८ निजपरमात्मानमन्तरेण न किचिदुपादेयमस्तीति । - निज परमात्मा अतिरिक्त (अन्य) कुछ उपादेय नहीं है। १ १/१/७/१४/४ नवपदार्थेषु मध्ये शुद्धजीवास्तिकशुद्ध जीवद्रव्यशुद्धजीवशुद्धपदार्थ संशुद्धमभावमुपादेयतमायान्य द्वेयं । नवपदार्थोमे, शुद्ध जीवास्तिकाय निजशुद्ध जीवद्रव्य, निज जीवतरम, निज शुद्ध दाजी है, नही उपादेय है, अन्य सब त्यागने योग्य है (द्र.सं / टो./५३/२२०/८) ६.४/२/४५० त्रार्थ जीवोय. स्वयं (यं) वैद्यश्चिदात्मक सोऽहमन्ये तु रागाद्या या पौद्रगलिका अमी |४५७| = उन नव तत्वोमै जो यह जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वज्ञान तरंगिनी स्वसंवेदन प्रत्ययका विषय चैतन्यात्मक और जीव संज्ञा वाला है नह मै उपादेय हूँ तथा ये मुझसे भिन्न पौगलिक रागादिक भाव त्याज्य है । प्र. सं/लिका/२८/८२/५ हेयोपादेयतत्त्वपरिज्ञानप्रयोजनाथमासवादिपदार्था व्याख्येया भवन्ति । = कौन तत्व हेय है, और कौन तत्त्व उपादेय है इस विषय के परिज्ञान के लिए आसवादि तत्त्वोका व्याख्यान करने योग्य है। मो.मा.प्र./०/३३१/१३ जी किया है, ताका पुहगत निमित्त है, यह गलकी किया है. ताका जीन निमित्त है याद भिन्न-भिन्न भाव भासे नाही.. तातें जीव अजीब जाननेका प्रयोजन तो यही था । भा पा./टी./ ११४ पं. जयचन्द = प्रथम जीव तत्त्वकी भावना करनी, पीछे 'ऐसा मैं हूँ' ऐसे आत्मतत्वको भावना करनी। दूसरे अजीव तत्त्वकी भावना करनी जो यह मै.. नाहीं हूँ। तीसरा आल तत्त्व संसार होय है ताते तिनिका कर्ता न होना। चौथा बन्धतत्त्व है मेरे विज्ञान तथा प्रगल कर्म सर्व श्रेय है ( अतः ) राग द्वेष मोहन करना । पाँच तत्त्व संवर है सो अपना भाव है याही करि भ्रमण मिटे है ऐसे इन पाँच तत्त्वनि की भावना करनमें आत्मतत्त्व की भावना प्रधान है। ( इस प्रकार ) आत्म भाव शुद्ध अनुक्रम तै होना तो निर्जरा तत्त्व भया । और (तिन छहका फलरूप) सर्व कर्मका अभाव होना मोक्ष भया । ५. अन्य सम्बन्धित विषय १. सप्त तत्त्व नव पदार्थके व्याख्यानका प्रयोजन कर्ता कर्म रूप भेद विज्ञान -३० ज्ञान /11/१ दे० २. सप्त तत्त्व श्रद्धानका सम्यग्दर्शनमें स्थान - दे० सम्यग्दर्शन /11/ २. सम्यग्दृष्टि व मिध्यादृष्टि तत्वका कर्तृत्व -दे०४ ४. मिध्यादृष्टिका तत्व विचार मिया है ३० मिध्यादृष्टि | ३ | ५. तलका धार्थ छान करनेका उपाय - दे० न्याय । " तत्त्वज्ञान तरंगिनी - आचार्य ज्ञान (६०१४४७-१४६३) द्वारा रचित शुद्ध सम्प प्रतिपादक ग्रन्थ है इसमे १० अधिकार है तथा कुल ५३६ श्लोक है (ती./३/३५२) । तत्त्वत्रय प्रकाशिका - आचार्य शुभचन्द्र (ई० १००३ - ११८) कृत ज्ञानायके पद भागपर को गयी भट्टारक तसागर ई० १४८०-१४११) कृत संस्कृत टीका जिसमें शिवतत्त्व, गरुड़ तत्त्व और काम तत्व, इन का वर्णन है (ती./३/३३८) | तत्त्व दीपिका- आ० मनदेव (मिश १२ पूर्व) द्वारा संस्कृत ब्रह्मदेव भाषा में रचित एक आध्यात्मिक ग्रन्थ । तत्त्व निर्णय-आ० शुभचन्द्र (ई० १५१६-१५५६) द्वारा रचित न्याय विषयक ग्रन्थ तस्य प्रकाशिका -आ० योगेन्द्रदेव ( ई० श० ६) द्वारा रचित तत्वार्थ सूत्रको प्राकृत भाषा व टीका है। A तत्त्व प्रदीपिका--प्रवचनसार व पंचास्तिकाय दोनों ग्रन्थोकी आ० अमृतचन्द्र (०६२-१०३३) द्वारा रचित संस्कृत टीकाओका यही नाम है । दे, अमृत चन्द्र तत्त्ववतीधारणा -- शा./१०/२०/३०५ सप्तधातुविनिर्मुकं पूर्णचन्द्रामविषम् सर्व मात्मानं ततः स्मरति संयमी ॥ २८॥ तत्पश्चात् ( वारुणी धारणाके ३५६ तत्त्वार्थ सूत्र पश्चाद) संयमी मुनि धातुरहित पूर्णचन्द्रमा के समान है निर्मल प्रभा जिसकी ऐमे सर्वज्ञ समान अपने आत्माका ध्यान करें |२| विशेष- दे० पिडस्थ ध्यान का लक्षण । ★ ध्यान सम्बन्धी ६ तत्व दे० ध्येय । ★ प्राणायाम सम्बन्धी तरच दे० ध्येय तत्त्व शक्तिस.सा./आ./ परि० शक्ति नं० २६ तद्रूपभवनरूपा तत्त्वशक्ति' | = तत्स्वरूप होना जिसका स्वरूप है ऐसी उनतीसवीं तत्वशक्ति है, जो वस्तुका स्वभाव है उसे तत्त्व कहते हैं वही तत्त्वशक्ति है। (२) तत्त्वसार आ० देवसन ( ई० १३३-६५५) द्वारा रचित प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है । ---- तस्वानुशासन - १. बा० समन्तभद्र ( ई०श०२) द्वारा रचित यह ग्रन्थ न्याय पूर्वक तत्त्वोका अनुशासन करता है । आज उपलब्ध नहीं है। (ती./२/१८) । २. आ० रामसेन ( ई०रा० १२ उत्तरार्ध) द्वारा रचित संस्कृत छन्द बद्ध ध्यान विषयक ग्रन्थ । इसमें २५६ श्लोक हैं। (ती./३/२३८) । तत्त्वार्थ- दे० तत्त्व / १ | तत्त्वार्थ बोध - बुधजन ( ई० १८१४ ) द्वारा रचित भाषा छन्द तार्थविषयक कृति तत्त्वार्थ राजवार्तिक — दे० राजबार्तिक । तत्त्वार्थसार राजवार्तिकालंकार के आधारपर लिखा गया यह ग्रन्थ तत्त्वार्थका प्ररूपक है। आ० अमृतचन्द्र (ई० १०५- २५५) द्वारा संस्कृत श्लोकोंने रचा गया है। इसने अधिकार और कुल ७२० श्लोक हैं। ६ तत्त्वार्थसार दीपक -- आ० सकलकीर्ति ( ई० १४०६ - १४४२) कृत सप्त तत्व विवेचना। संस्कृत ग्रन्थ (ती./३/३३५) | तत्त्वार्थ सूत्र -आ० उमास्वामी ( ई. स. ३) कृत मोक्षमार्ग, तत्त्वार्य दर्शनविषयक १० अध्यायोंमें सूत्रमद्ध ग्रन्थ है। कुल सूत्र २३७ है। इसीको मोक्षशास्त्र भी कहते है। दिगम्बर श्वेताम्बर दोनोंको समान रूपसे मान्य है । जैन आम्नायमे यह सर्व प्रधान सिद्धान्त ग्रन्थ माना जाता है। जैन दर्शन प्ररूपक होनेके कारण यह जैन बाइबल के रूपमे समझा जाता है। इसके मंगलाचरण रूप प्रथम श्लोकपर ही आ० समन्तभद्र (ई०शठ २) ने आप्तमीमांसा ( देवागम स्तोत्र ) की रचना की थी, जिसकी पीछे अकलंकदेव (ई० ६२०-६८०) ने ८०० श्लोक प्रमाण अष्टशती नामकी टीका की। आगे आ० विद्यानन्द नं० १ ( ई० ७७५-८४०) ने इस अष्टशतीपर भी ८००० श्लोक प्रमाण अष्टसहस्री नामकी व्याख्या की। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थपर अनेकों भाष्य व टीकाऍ उपलब्ध है- १. श्वेताम्बराचार्य बाचक उमास्वामीकृततत्त्वार्थाभिगम भाष्य (संस्कृत); २. आ० समन्तभद्र ( ई० २) विरचित १६०० श्लोक प्रमाण गन्धहस्ति महाभाष्य; ३. श्री पूज्यपाद ( ई० श० ५०) विरचित सर्वार्थसिद्धि; ४ योगीन्द्र देव विरचित तत्त्व प्रकाशिका ( ई० श० ६ ) ५. श्री अकलंक भट्ट ( ई० ६२०-६००) विरचितार्थ राजार्तिक ६ श्री अभयनन्दि (३० श०१०-११) विरचित रचार्थ वृति: ७ श्री विद्यानन्द (३०००३-०४०) विरचित श्लोकवाकि आ० शिवकोटि (०० ११) द्वारा रचित रत्नमाला नामकी टीका । ६. आ० भास्करनन्दि ( ई० श० १२) कृत सुखबोध नामक टीका । १०० आ० बालचन्द्र ( ई० ०१३) कृत कन्नड टीका । ११. विबुधसेनाचार्य ( 1 ) विरचित सार्थ टीका १९. योग (ई. १५०६) विरचित स्वार्थ वृत्ति। १३. प्रभाचन्द्र नं० ८ (ई. १४३२) कृत तत्वार्थ रत्म प्रभाकर भट्टारक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्सेवी ३५७ श्रुतसागर (शि. १६) कृत तत्त्वार्थ वृत्ति (श्रुत सागरी) । १५. द्वितीय श्रुतसागर विरचित तत्त्वार्थ सुखबोधिनी । १६. पं. सदासुख (ई० १७६३-१८६३) कृत अर्थ प्रकाशिका नाम टीका । (विशेष दे० प शिष्ट / १) । उपर्युक्त मूल तत्वार्थ सूत्र के अनुसार प्रभाचन्द्र द्वारा रचित द्वितीय रचना (ती./३/३००) । तत्प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञान- दे० 'प्रत्यभिज्ञान' । तत्प्रदोष गो.क./जी.प्र./१००/१००/१ तत्प्रदोषतत्वज्ञाने हर्षाभावः । = तत्वज्ञानमें हर्षका न होना तत्प्रदोष कहलाता है। तत्प्रमाण ३० प्रमाण /2 तत्प्रायोगिक शब्द दे० 'शब्द'। तथाविधत्व- प्र सा./ता.वृ./१५/१२५/१५ तथाविधत्वं कोऽर्थः, उत्पादव्ययीव्यपर्यायस्वरूपेण परिणमन्ति तथा सर्वद्रव्याणि स्वकीयस्वकीययथोचितोत्पादव्ययधौव्यैस्तथैव गुणपर्यायैश्च सह यद्यपि संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभिर्मेदं कुर्वन्ति तथापि सत्तास्वरूपेण भेदं न कुर्वन्ति स्वभावत एव तथाविधत्वमवलम्बते - प्रश्नतथाविधका क्या अर्थ है ? उत्तर- (द्रव्य) उत्पाद, व्यय, धौव्य, और गुण पर्यायों स्वरूपसे परिणमन करते हैं वो ऐसे सर्व ही द्रव्य अपने-अपने यथोचित उत्पाद, व्यय, धौव्यके साथ और गुण पर्यायों के साथ यद्यपि संज्ञा, लक्षण और प्रयोजनादिसे भेदको प्राप्त होते हैं, तथापि सत्तास्वरूप व्यसे भेदको प्राप्त नहीं होते हैं। स्वभावसे ही उस स्वरूपका अवलम्बन करते हैं । तदाहृतादान - स.सि./०/२०/१६०/४ आमयुक्तेनाननुमतेन चौरेणानीतस्य ग्रहणं तदाहृतादानम् । अपने द्वारा अप्रयुक्त और असंमत चोरके द्वारा लायी हुई वस्तुका ले लेना तदाहृतादान है। (रा.वा./०/२०/१२/५/४/ तदुभय प्रायश्चित्त- -दे० प्रायश्चित्त/१ । तद्भव मरण दे० मरण / १ । तद्भवस्थ केवली- - ३० केवली / १ । तद्भाव दे० अभाव । यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप दे० निशेष/ तद्वयतिरिक्त संयमलब्धिस्थान - दे० लब्धि / ५ । तमक—दूसरे नरकाद्वितीय पदे० नरक /५/१९ । सनु वातवलय-दे० वातवलय । तप तप नाम यद्यपि कुछ भयावह प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है, यदि अन्तरग वीतरागता व साम्यताकी रक्षा व वृद्धि के लिए किया जाये तो तप एक महान् धर्म सिद्ध होता है, क्योंकि वह दुखदायक न होकर आनन्द प्रदायक होता है। इसीलिए ज्ञानी शक्ति अनुसार तप करनेकी नित्य भावना भाते रहते है और प्रमाद नहीं करते । इतना अवश्य है कि अन्तरंग साम्यता से निरपेक्ष किया गया तप कायक्लेश मात्र है, जिसका मोक्षमार्ग में कोई स्थान नहीं । तप द्वारा अनाविके बंधे कर्म व संस्कार क्षण भरमे विनष्ट हो जाते हैं। इसलिए सम्यक् तपका मोक्षमार्ग में एक बड़ा स्थान है। इसी कारण गुरुजन शिष्यो के दोष दूर करनेके लिए कदाचित् प्रायश्चित्त रूपमें भी उन्हें तप करनेका आदेश दिया करते है । 9 १ २ ३ ५ * ६ २ १ ३ ४ ५ ६ ७ ८ १ २ 60 ሪ ३ संयम बिना तप निरर्थक है। * उपके साथ चारित्रका स्थान ४ ५ ६ भेद व लक्षण तपका निश्चय लक्षण | तपका व्यवहार लक्षण । आवककी अपेक्षा तपके लक्षण । उपके भेद प्रमेद । कठिन कठिन तप बाह्य व आभ्यन्तर तपके लक्षण । तप विशेष पंचाग्नि तपका लक्षण पंचाचार बाल तपका लक्षण | सप निर्देश ૪ ५ * ६ -- दे० कायक्लेश | तप भी संयमका एक अंग है। तप मतिज्ञान पूर्वक होता है । तप मनुष्यगति में ही सम्भव है। गृहस्थ के लिए तप करनेका विधि-निषेध तप शक्तिके अनुसार करना चाहिए। तपमें फलेच्छा नहीं होनी चाहिए। पंचमकालमें तपकी अप्रधानता । तप धर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ । बाह्याभ्यन्तर तपका समन्वय सम्यक्त्व सहित ही तप तप है सम्यक्त्व रहित तप अकिंचित्कर है। सम्यग् व मिव्यादृष्टिकी कर्म क्षपणा -दे० ६० वह वह नाम । -दे० अग्नि । बाह्य तपोंको तप करनेका कारण बाह्य आभ्यन्तर तपका समन्वय । 1 अन्तर - दे० मिथ्यादृष्टि / ४ | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अन्तरंग तपके बिना बाह्य तप निरर्थक है । अन्तरंग सहित बाह्य तप कार्यकारी है। -३० चारित्र २ । दाह्य तप केवल पुण्यन्धका कारण है। में बाह्य आभ्यन्तर विशेषणोंका कारण । ४ तपके कारण व प्रयोजनादि १-२ तप करनेका उपदेश; तथा उसउपदेशका कारण । ३पको तप कहनेका कारण तपसे मलकी वृद्धि होती है। तप निर्जरा व संवर दोनोंका कारण है । तप निर्जराकी प्रधानता - दे० इनके लक्षण । तप तप दुःखका कारण नही आनन्दका कारण है । तपकी महिमा । - दे० निर्जरा । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप " 1-समाधान १ देवादि पदोंकी प्राप्तिका कारण तप निर्जराका कारण कैसे। २ ३ ६ तपकी प्रवृत्ति निवृत्तिका अंश ही संवरका कारण है -३० संवर/२/५ दुःख प्रदायक तपसे असाताका आस्रव होना चाहिए । तप से इन्द्रिय दमन कैसे होता है । * तप धर्म भावना व प्रायश्रित निर्देश धर्म से पृथक् पुनः तपका निर्देश क्यों -दे० निर्जरा/२/४ कायक्लेव तप व परिषदजय अन्तर १ शक्तितस्तप भावनाका लक्षण २ शक्तितस्तप भावना शेष १५ भावनाओंका समावेश शक्तितस्तप भावनासे ही तीर्थंकर प्रकृतिका संभव -दे० भावना/२ । - दे० कायक्लेश | ३ तप प्रायवित्तका क्षण । * तप प्रायश्चित्तके अतिचार ० वह वह नाम । तप प्रयन्त किस अपराधमें तथा किसको दिया जाता है । - दे० प्रायश्चित्त/४ । - दे० १. भेद व लक्षण १. तपका निश्रय लक्षण- १ - निरुक्तप 1 स.सि./६/६/४१२ / ११ कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तपः । - कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है वह तप है ( रा. बा./६/६/१०/५१८/२); (७. सा / ६/९८/३४४) । रा.मा./६/१६/१८/११/३९ कर्मदहनाच कर्मको दहन अव भस्म कर देनेके कारण तप कहा जाता है। .वि./१/८ कर्ममलविलयहेतोर्बोधदृशा तप्यते तपः प्रोक्तम् । = सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले साधुके द्वारा जो कर्मरूपी मैलको दूर करनेके लिए तपा जाता है उसे तप कहा गया है। ( चा. सा० / १३३ / ४ ) । ३५८ २. आत्मनि प्रतपनः बा. अ. / ७७ विसयकसायविणिग्गहभाव काउण झाणसिज्झीए । जो भाव अप्पाण तस्स तवं होदि नियमेण 1991 - पाचौं इन्द्रियोंके विषयोंको तथा चारों कषायों को रोककर शुभध्यानकी प्राधिके लिए जो अपनी आत्माका विचार करता है, उसके नियमसे तप होता है। प्र. सा./त.प्र./१४/१६/३ स्वरूपविश्रान्तनिस्तरतन्यप्रतपनाचराः । - स्परूप विश्रान्त निस्तरंग चैतन्य प्रतपन होनेसे उपयुक्त है। (प्र.सा./ता.वृ./०६/१००/१२) (सं./१२/२.१६/३) । नि.सा. २.११८, १२३ सहज निश्चवनयात्मकपरमस्वभावात्मक परमात्मनि प्रतपनं रूप ५५ प्रतिकारणपरमात्मतत्वे सदान्त मुखतया प्रतपनं यत्तत्तप । ११८ आत्मानमात्मन्यात्मना संघत्त इश्यध्यात्मं तपनम् सहज निश्चय नयात्मक परमस्वभावस्वरूप परमात्मामें प्रतपन सो तप है । ५५। प्रसिद्ध शुद्ध कारण परमात्म तत्वमे " ९. भेद व लक्षण सदा अन्तर्मुख रहकर जो प्रतपन वह तप... है ।११८ ॥ आत्माको आत्मामें आत्मासे धारण कर रखता है-टिका रखता है-जोड़ रखता है वह अध्यात्म है और वह अध्यात्म सो तप है । ३. इच्छा निरोध मोक्ष पंचाशय / ४८ तस्माद्वीर्यसमुद्रेकादिरोधस्तपो विदुः । बाह्यं बाबासंतमान्तरं मानसं स्मृतम् ॥४॥ बीर्यका उद्रेक होनेके कारण से इच्छा निरोधको तप कहते है ।... घ. १३/२.४.२६/५४/१२ तिष्णं रममाणमाविभावमिच्छागिरोहो तीनों रत्नोको प्रगट करनेके लिए इच्छा निरोधको रूप कहते हैं। (चा, सा./१३३/४)। नि.सा./ता.वृ./६/१५ में विसयजिगहो जत्य तुप यह है जहाँ विषयोंका निग्रह है। प्र. सा./ता.वृ./०६/१००/१२ समस्तभावेच्यामागेन स्वस्वरूपे प्रतपन विजयनं तपः । =भावों में समस्त इच्छाके त्यागसे स्व-स्वरूपमें प्रतपन करना, विजयन करना सो तप है। द्र.सं./ २१ / ६३ / ४ समस्त बहिर्द्रव्येच्छानिवृत्तिलक्षणतपश्चरण । संपूर्ण बाह्य द्रव्योकी इच्छाको दूर करनेरूप लक्षणका धारक तपश्चरण । (प्र. सं./३६/९६९/०); (द्र.सं./५२/२१६/३ जन. प./७/२/६५६ तपो मनोऽक्षकायाणां तपनाव संनिरोधनाय निरु ते गायाविर्भावाच्या निरोधनम् ॥२॥ तप शब्दका अर्थ समीचीनतया निरोध करना होता है। अतएव रत्नत्रयका आविर्भाव करनेके लिए इष्टानिष्ट इन्द्रिय विषयोंकी आकांक्षा निरोधका नाम तप है । ४. चारित्रमें उद्योग भ. आ./मू./१० चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो य आजगाय जो होई सो चेव जिणेहिं तवो भणिदो असढं चरं तस्स | १०| चारित्रमें जो उद्योग और उपयोग किया जाता है जिनेन्द्र भगवान् उसको ही तप कहते हैं । २. तपका व्यवहार लक्षण कुरल का./२०/१ सर्वेषामेव जोवानां हिसाया विरतिस्तथा । शास्या • हि सर्वदुःखानां सहनं तप इष्यते । शान्तिपूर्वक दुःख सहन करना और जीवहिंसा न करना, बस इन्हीं में तपस्याका समस्त सार है । स. सि. / ६ / २४ / ३१८ / १२ अनिगृहीतवीर्यस्य मार्गाविरोधिकायक्लेशस्तप' | किन छिपाकर मोक्षमार्गके अनुकूल शरीरको लेश देना यथाशक्ति है (रा.वा./१२/४/७/५२१)। रा.वा./१/११/२९/६११/३३ देहस्येन्द्रियाणां च तापं करोतीरवनशनादि[अस] तप हरमुच्यते देह और इन्द्रियोंको विषय प्रवृत्तिको रोककर उन्हें तपा देते है । अतः ये तप कहे जाते हैं । रा. वा./६/२४/१/५२६/३२ यथाशक्ति मार्गाविरोधिकायक्लेशानुष्ठानं तप इति निश्चीयते । अपनी शक्तिको न छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेश आदि करना तप है। (चा. सा./१३३/३); (भा.पा./टी./ ७७/२२१/८ ) । - का. अ./मू./४०० इह-पर-लोय-सुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि सम भावो । fara काय - कलेसं तवधम्मो णिम्मलो तस्स । -जो समभावी इस लोक और परलोक सुखकी अपेक्षा न करके अनेक प्रकारका काम क्लेश करता है उसके निर्मत तपधर्म होता है। ३. श्रावककी अपेक्षा तपके लक्षण प.पू./१२/२४२-२४३ नियमश्च तपश्चेति इयन भियते २४२॥ तेन युक्तो जनः शक्त्या तपस्वीति निगद्यते । तत्र सर्व प्रयत्नेन मतिः कार्या जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप ३५९ सुमेधसा ॥२४३॥ नियम और रूप से दो पदार्थ जुड़े जुड़े नहीं है। ॥२४२॥ जो मनुष्य नियमसे युक्त है वह शक्तिके अनुसार तपस्वी कहलाता है। इसलिए बुद्धिमान् मनुष्यको सब प्रकार से नियम अथवा तपमें प्रवृत्त रहना चाहिए । २४३ | पं.वि./६/२५ स्वयं यथाशक्ति भुतित्यागादिकं तपः। वस्त्रपूतं पिले तो रात्रिभोजनावको पर्वदिनो मी एवं चतु ईशी आदि) में अपनी शक्तिके अनुसार भोजन के परित्याग आदि रूप ( अनशनादि ) तपोंको करना चाहिए। इसके साथ ही उन्हें रात्रि भोजनको छोडकर वस्त्रसे छना हुआ जल भी पीना चाहिए । 8. तपके भेद-प्रभेद १. तप सामान्यके भेद म. आ. / ३४५ दुविहो य तवाचारो बाहिर अव्भं तरो मुणेयब्ब । एक्केको विद्धा जधाकम्मं तं परुवेमो ॥ ३४५॥ = तपाचारके दो भेद हैंबाह्य आभ्यन्तर । उनमें भी एक एकके छह-छह भेद जानना । ( स. सि./१/११ / ४३/२) (चा, सा / १३३/३) (रा. बा./१/१३ की उत्था निका/१०/११)। २. बाह्य तपके भेद छ.सू./६/११ अनशनापमोद परिसंख्यानरस परित्यागविविक्तशय्यासरकारलेशा माहां तप ११ अनशन, अनमौदर्य वृत्तिपरिसंस्थान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश यह छह प्रकारका बाह्य तप है ( पू. आ./३४६), (भ.आ./मू./२००); (द्र.सं./५०/२२८ ) । ३. आभ्यन्तर तपके भेद त. सू./१/२० प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्याययुत्सर्गध्यानान्युसर [२०] - प्रायश्चित विनय वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान यह छह प्रकारका आभ्यन्तर तप है । ( मू. आ. / ३६० ) (प्र. सं./४०/२२८)। ५. बाह्य आभ्यन्तर तपके लक्षण स.सि./१/१६/४३१/३ माहाव्यापेक्षत्वात्परत्यक्षत्वाच नाह्यत्व 1 स. सि./१/२०/४३१/६ कथमस्याभ्यन्तरत्व मनोनियमनार्थत्वात् । -पाय अवलम्बनसे होता है और दूसरोंके देखने में आता है. इसलिए इसे बाहा तप कहते हैं (रा.वा./१/१६/१७-१०/६१६/२६ ) (अन. घ. /७/६) और मनका नियमन करनेवाला होनेसे प्रायश्चित्तादिको अभ्यंतर तप कहते हैं । रा.वा./१/११/११/६१६/२६ अनशनादि हि तीयैर्गृहस्थैश्च क्रियते ततोऽप्यस्य बाह्यत्वम् रा. मा./१/२०/१-३/६२० अन्यतीर्थ्यानभ्यस्तत्वातरम् ॥१॥ अन्तःकरणव्यापारात ॥ २ ॥ बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वाच्च ॥ ३ ॥ = ( उपरोक्तके अतिरिक्त) बाह्यजन अन्य मतवाले और गृहस्थ भी चूँ कि इन तपोंको करते हैं, इसलिए हमको बाह्य तप कहते हैं (भ.आ./वि/१००/२५८/३); (अन. ध. /७/६ ) प्रायश्चित्तादि तप चूंकि बाह्य द्रव्योकी अपेक्षा नहीं करते, अन्त करणके व्यापार से होते है । अन्यमतवालों से अनभ्यस्त और अप्राप्तपार हैं अतः ये उत्तर अर्थात् अभ्यन्तर तप है। भ आ./वि./ १०७/२५४/४ सन्मार्गज्ञा अभ्यन्तराः । तदवगम्यत्वात् घटादिवसे राचरिया बाह्याभ्यन्तरमिति । रत्नत्रयको जाननेवाले मुनि जिसका आचरण करते हैं, ऐसे तम आभ्यन्तर तप' इस शब्द से कहे जाते हैं । । अन. ध. / ७/३३ बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वात् स्वसंवेद्यत्वतः परैः । अनध्यासातपः प्रायश्चित्ताद्यभ्यन्तरं भवेत् ॥ ३३॥ प्रायश्चित्तादि तपों में २. तप निर्देश माहाद्रव्यको अपेक्षा नहीं रहती है। अन्तरंग परिणामो की मुख्यता रहती है तथा इनका स्वयं ही संवेदन होता है ये देखने में नहीं जाते तथा इसको अनर्हत लोग धारण नही कर सकते, इसलिए प्रायश्चि तादिको अन्तरंग तप माना है । ६. बाल तपका लक्षण स.सा./मू./१५२ परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई । साता विति ॥१२- परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सब तपों और तो सर्वज्ञव बालतप और बालवत कहते है । स.सि./६/२०/३३६/१ निकृतिबहुलवतधारणम् । न पडनेवाले कायक्लेश बहुल मध्यादर्शनमनुपायकाशप्रचुरं निथ्यात्व के कारण मोक्षमार्ग में उपयोगी मायासे व्रतोका धारण करना बालतप है । (रा. बा. /६/२०/२/५२७/१८ ); ( गो . क./जी. प्र / ५४८ /७१७/२३ ) रा. वा./६/१२/७/२२१२ /२० यथार्थप्रतिपत्यभावादज्ञानिनो बाला मिथ्यादृष्ट्यादयस्तेषां तप बालतप अग्निप्रवेश- कारीष-साधनादि प्रतीसम् - यथार्थ ज्ञानके अभाव अज्ञानी मिध्यादृष्टियोके अग्निप्रवेश, पंचाग्नितप आदि तपको बालतप कहते हैं। स. सा./आ./१५२ अज्ञानकृतयोर्व ततपःकर्मणो बन्धहेतुत्वाद्वातव्यपदेशेन प्रतिषिद्धत्वे सति । - अज्ञानपूर्वक किये गये व्रत, तप, आदि कर्मबन्धके कारण हैं, इसलिए उन कर्मोको 'बाल' संज्ञा देकर उनका निषेध किया है। २. तप निर्देश १. तप भी संयमका एक अंग है भ.आ./मू./६/३२ संयममाराहंतेण तवो आराहिओ हवे णियमा । आराहंलेण तवं चारितं होइ भयणिज्जं ॥ ६ ॥ -जो चारित्र अर्थात् संयमकी आराधना करते हैं उनको अवश्य ही नियमसे तपकी भी आराधना हो जाती है। और जो तपकी आराधना करते हैं उनको चारित्रकी आराधना भजनीय होती है। भ.आ./५/६/२३/१ एवं स्वाध्यायो ध्यानं च अविरतिप्रमादकयायत्यजनरूपतया । इत्थं चारित्राराधनयोक्तया प्रत्येतु शक्त्या तपसाराधना--- त्रयोदशात्मके चारित्रे सर्वथा प्रयतनं संयमः स च बाह्यतप संस्कारिताम्यग्रतपसा बिना न संभवति तदुपकृतात्मकत्वात्संयम स्वरूपस्येति । = अविरति, प्रमाद, कषायोंका त्याग स्वाध्याय करनेसे तथा ध्यान करनेसे होता है इस वास्ते वे भी चारित्र रूप हैं । अतः सम पक्षा चारिणाराधना मे अन्तर्भाव हो जाता है । रह प्रकार चारित्र में सर्वथा प्रयत्न करना वह संयम है । वह संयम बाह्य व आभ्यन्तर तपसे सुसंस्कृत होता है तब प्राप्त होता है उसके बिना नहीं होता । अत: संयम बाह्य व आभ्यन्तर तपसे सुसस्कृत होता है। पु. सि. उ. / १६७ चारित्रान्तर्भावात् तपोऽपि मोक्षाङ्गमागमे गदितम् । निहितावपि निषेध्यं समाहितस्वान्तः ॥ = जैन सिद्धान्तमें चारित्रके अन्तर्वर्ती होनेसे तप भी मोक्षका अंग कहा गया है अतएव अपने पराक्रमको नहीं छिपानेवाले तथा सावधान चित्तवाले पुरुषोंको वह तप भी सेवन करने योग्य है। २. तप मतिज्ञान पूर्वक होता है ४/६/४१२/२३/३ संपदि-द-मागसवाई मदिणाणपुला इदि। अत और मन:पर्ययज्ञान तथा तपादि चूँकि मतिज्ञान = श्रुत पूर्वक होते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप ३. तप मनुष्यगति में ही सम्भव है घ. / ११ / ८४२१/११/२ पेररपल बोरा लियसरीरस्स उदयाभावादो पंचमहाभावादतिरिक्तु महत्ययाभावादो। ( नारकी देव, तथा तियंचो में तपकर्म नही होते ) क्योंकि नारकी व देवोंके औदारिक शरीरका उदय तथा पंचमहाव्रत नहीं होते तथा... तिने महान नहीं होते। ४. गृहस्थ के लिए तप करनेका विधि निषेध भ.आ./मू./७ सम्मादिस्सि वि अभिरदस्त ण सनो महागुणो होदि होदि हु हरिथहाणं चुदच्चुदगं व तं तस्स ॥७॥ अविरत सम्यग्दृष्टि पुरुषका तप महान् उपकार करनेवाला नहीं होता है, वह उसका तप हाथी के स्नान के सह होता है अथवा नम जैसे छेद पाहते करते) समय डोरी बाँधकर घुमाते है तो वह डोरी एक तरफसे खुलती है दूसरी तरफसे एड जाती है। (मु. आ./१४०) सा. ध. /७/५० श्रावको वीर्यचर्याह - प्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी... १५०६ - धावक वीर्यचर्या, दिनमें प्रतिमायोग धारण करना आदि रूप मुनियोंके करने योग्य कार्योंके विषय में... अधिकारी नहीं है और भी ० /१/३ । ५. तप शक्तिके अनुसार करना चाहिए मू आ. / ६६७ बलवोरियमासेज्ज य खेत्ते काले सरीरसंहडणं । काओसरगं कुरजा इमे दु दोसे परिहयो । मस और बारमशक्तिका आश्रयकर क्षेत्र, काल, शरीरके संहनन- इनके बल्की अपेक्षा कर कायोत्सर्ग के कहे जानेवाले दोषोंका त्याग करता हुआ कायोत्सर्ग करे। ( आ. / ६०१ ) " अन. ध. /५/६५ द्रव्यं क्षेत्रं बलं कालं भावं वीर्यं समीक्ष्य च । स्वास्थ्याय वर्ततां सर्वविद्धशुद्धाशनैः सुधीः ॥ ६५ ॥ -विचारक साधुओं को आरोग्य और आत्मस्वरूपमे अवस्थान करनेके लिए द्रव्य क्षेत्र, काल, भान बल और वीर्य इन वह मालोंका अच्छी तरह पर्यालोचन करके सर्वादान, विद्याशन और शुद्धाशनके द्वारा आहार में प्रवृत्ति करना चाहिए । ६. तपमें फलेच्छा नहीं होनी चाहिए रा, वा /१/११/१६/६११/२४ इत्यत सम्यग्ग्रहणमनुवर्त्तते, तेन दृष्टफलनिवृत्ति कृता भवति सर्वत्र 'सम्यकू' पदकी अनुवृत्ति आने से दृष्टफल निरपेक्षताका होना तपोमे अनिवार्य है । ७. पंचमकालमें तपकी अप्रधानता म.प्र. ४१/६६ भारनिर्भुग्नपृष्ठस्थाश्मस्य मीक्षणात् कृस्नाव तपोगुणान्वोढुं नालं दुष्षमसाधवः ॥ ६६ ॥ भगवान् ऋषभदेवने भरत कनके स्वप्न फल बताते हुए कहा कि 'बड़े हाथी के उठाने योग्य बोझ से जिसकी पीठ झुक गयी है, ऐसे घोड़े के देखनेसे मालूम होता है कि पचमकालके साधु तपश्चरण के समस्त गुणोंको धारण करनेमे समर्थ नही हो सकेंगे। ८. तप धर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ भ. आ // ९४५३,१४६२ अप्पा य वंचिओ ते होई निश्चि ग्रहिये भयदि सुह सीसदार जीमो मंदि असावी ॥१४५३ संसारमहाडाहेण उज्झमाणस्स होइ सीयधरं । सुत्तवोदाहेण जहा सीधरं उज्झमाणस्स || १४६२॥ शक्त्यनुरूप तपमें जो प्रवृत्ति नहीं करता है, उसने अपने आत्माको फँसाया है और अपनी शक्ति भी छिपा दी है ऐसा मानना चाहिए, सुखासक्त होनेसे जोत्रको असाता ३. बाह्याभ्यन्तर तपका समन्वय detter अनेक भव में तीव्र दुःख देनेवाला, तीव्र पापबंध होता है | १४५२] जैसे सूर्य की प्रचंड किरणोंसे संतप्त मनुष्यका शरीरदाह धारागृह नष्ट होता है वैसे संसार के महादाहसे दग्ध होनेवाले भन्योंके लिए तप अलगृहके समान शान्ति देनेशला है। तपमें सांसारिक दुख निर्मुलन करना यह गुण हैं ऐसा यह गाथा कहती है (भ.आ./टी./ १४५०-१४०५). (पं.वि./१/१८-१००) दे. तप /४/७ ( तपकी महिमा अपार है। जो तप नहीं करता वह तृणके समान है।) ३. बाह्याभ्यन्तर तपका समन्वय १. सम्यक्व सहित ही तप तप है मो.मा./मू./५६ तवरहियं जं गाणं णाणविजुतो तवो वि अकयत्थो । जो ज्ञान तप रहित है, और जो राप है सो भी ज्ञान रहित है तो दोउही अकार्य है। का.अ./१०२ भारत-विहेण तुमसा जियाग रहियस्स गिजरा होदि । वेरा भावणादी निरहंकारस्स शामिस्स | १०२ निदान रहित, निरभिमानी, ज्ञानी पुरुषके मेराग्यकी भावना से अथवा वैराग्य और भावनासे बारह प्रकारके तपके द्वारा कर्मोंकी निर्जरा होती है। २. सम्यक्व रहित तप अकिंचिकर है नि.सा./ १२४ कि काहदि वणवासी कामकलेसो विचित उपवासो अन्ययमोपपहूदी समदारहियत्स समगरस ।१२४| वनवास, कायक्लेश रूप अनेक प्रकारके उपवास, अध्ययन मौन आदि समता रहित मुनिको क्या करते हैं- क्या लाभ करते हैं । अर्थात् कुछ नहीं । ५.पा./ /सम्म बिरहिया वि उग्गं तवं परं ताणं ण सह ति मोहिलाई अविवाहस्सकोहि || सम्यस्य बिना करोड़ों वर्ष तक उम्र तप भी तो भी बोधिकी प्राप्ति नाही (मोपा./२७.५६ (रसा./१०३), (सू.बा./१००) मो.पा./१६ कि काहिदि कि कि काहिदि बहुविहं च पण तु । कि काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो | ६६ आत्म स्वभावतें विपरीत प्रतिकूल बाह्यकर्म जो क्रियाकांड सो कहा करेगा क मोक्षका कार्य ती किचिन्मात्र भी नाहीं करेगा, बहुरि अनेक प्रकार क्षमण कहिए उपवासादिक कहा करेंगा आतापनयोगादि कायक्लेश कहा करेगा ? कछू भी नांहीं करेगा। स.श./३३ यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम् । लभते स न निर्वाणं तप्त्वापि परमं तपः । ३३ | = जो अविनाशी आत्माको शरीरसे भिन्न नहीं जानता है, वह घोर तपश्चरण करके भी मोक्षको नही प्राप्त करता है (ज्ञा./१२/४७) । मो.सा.अ./६/१० माहामाम्यन्तरमा प्रत्येक कुतापः नैनो निर्जीर्यते शुद्धमात्मतत्वमजानता |१०| जो पुरुष शुद्ध आत्मस्वरूपको नहीं जानता है वह चाहें बाह्य आभ्यन्तर दोनो प्रकारके तप करे वा एक प्रकारका करे, कभी कर्मोंकी निर्जरा नहीं कर सकता । पं.वि./१/६० कालत्रये महरम स्थितिमी सातपत्रमुख परियो दुखेोपविले शकतोऽपि कायम वृधावृतिरियो तिशालिया नितीन कालोमे घर छोडकर माहिर रहने से उत्पन्न हुए वर्षा, शैत्य और धूप आदिके तीव्र दुखको सहता है यह यदि उन तीन कालो में अध्यात्म ज्ञानसे रहित होता है तो उसका यह सब ही कायवलेश इस प्रकार व्यर्थ होता है जिस प्रकार कि धान्यांकुरोसे रहित खेतों में बाँसों या काँटों आदिसे माइका निर्माण करना। (वि./२/५०) 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप ४. तपके कारण व प्रयोजनादि ३. संयम बिना तप निरर्थक है शी.पा./मू./५ संजमहीणो य तबो जइ बरइ णिरत्ययं सव्वं । बहुरि संयमरहित तप होय सो निरर्थक है। एसें ए आचरण करें तो सर्व निरर्थक है (मू.पा./७७०) । मू.आ./९४० सम्मदिहिस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि । होदि हु हथिण्हाणं चुदच्छिदकम्म तं तस्स १४० संयम रहित तप... महान् उपकारी नहीं। उसका तप हस्तिस्नानकी भॉति जानना, अथवा दही मथने की रस्सी की तरह जानना। (भ.आ./मू./७)। भ.आ./मू./७७०. संजमहीणो य तवो जो कुणदि णिरत्ययं कुणदि । - संयम रहित तप करना निरर्थक है, अर्थात उससे मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती। १. अंतरंग तपके बिना बाह्य तप निरर्थक है प.प्र./मू./१६१ घोरु करंतु वि तवचरणु सयल वि सत्य मुणतु । परम समाहिविवज्जियउ णवि देववइ सिउ संतु1१६१ - घोर तपश्चरण करता हुआ भी और सब शास्त्रोको जानता हुआ भी जो परम समाधिसे रहित है वह शान्तरूप शुद्धारमाको नहीं देख सकता। भ,आ /वि./११४८/१३०६/१ यद्धि यदर्थ तत्प्रधानं इति प्रधानताभ्यन्तरतपसः। तच्च शुभशुद्धपरिणामात्मकं तेन विना न निर्जरायै बाह्यमलम् । -आभ्यन्तर तपके लिए बाह्य तप है। अत: आभ्यन्तर तप प्रधान है। यह आभ्यन्तर तप शुभ और शुद्ध परिणामोंसे युक्त रहता है इसके बिना बाह्य तप कर्म निर्जरा करने में असमर्थ है। .सा./आ./२०४/क, १४२ क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुवै : कर्मभिः, क्लिश्यन्ता च परे महावततपो भारेण भग्नाश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमान स्वयं ज्ञानं ज्ञानगुणं बिना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते नहि ।१४२१-कोई जीव दुष्करतर और मोक्षसे पराड मुख कर्मोके द्वारा स्वयमेव क्लेश पाते है तो पाओ और अन्य कोई.जीव महाबत और तपके भारसे बहुत समय तक भग्न होते हुए क्लेश प्राप्त करें तो करो, जो साक्षात् मोक्ष स्वरूप है, निरामय पद है, और स्वयं संवेद्यमान है, ऐसे इस ज्ञानको ज्ञानगुणके बिना किसी भी प्रकारसे वे प्राप्त नहीं कर सकते। ज्ञा./२२/१४/२३४ मन.शुद्धयैव शुद्धिः स्यादहिना नात्र संशयः । वृथा तद्वयतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ।१४ - निःसन्देह मनकी शुद्धिसे ही जीवोंके शुद्धता होती है, मनकी शुद्धिके बिना केवल कायको क्षीण करना वृथा है (ज्ञा./२२/२८)। आचारांग/१११ अति करोतु तप. पालयतु संयम पठतु सकलशास्त्राणि । यावन्न ध्यात्यात्मानं तावन्न मोक्षो जिनो भणति । आ.सा./५४/१२६ सकलशास्त्र सेवितां सूरिसंघान् दृढयतुच तपश्चाभ्यस्तु स्फोतयोगं । चरतु विनयवृत्ति बुध्यतां विश्वतत्त्वं यदि विषयविलासः सर्वमेतन्न किंचित् । = १. अति तप भी करे, संयमका पालन भी करे, और सकल शास्त्रोंका अध्ययन भी करे, परन्तु जब तक आत्माको नहीं ध्याता है, तब तक मोक्ष नहीं होती है ऐसा जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है ।११। २. सकल शास्त्रको पढ़े. आचार्यके संघको दृढ़ करे, और निश्चल योगवर तपश्चरण भी करे, विनय वृत्ति धारण करे, तथा समस्त विश्वके तत्त्वौंको भी जाने, परन्तु यदि विषय विलास है तो ये सर्व निरर्थक हैं। मो.मा.प्र./9/३४०/१ जो बाह्य तप तो करै अर अन्तरंग तप न होय, तौ उपचार ते भी वाकों तप संज्ञा नहीं। मो.मा.प्र./७/३४२/८ वीतराग भावरूप तपको न जाने अर इन्हींको तप जानि संग्रह करै तो संसार ही में भ्रमै। ५. अंतरंग सहित ही बाह्य तप कार्यकारी है घ.१३/५,४,२६/५५/३ ण च चउबिहआहारपरिच्चागो चेव अणेसणं, रागादि हि सह तच्चागस्स अणेसणभावभुवगमादो। - पर इसका (अनशनादिका) यह अर्थ नहीं कि चारो प्रकारके आहारका त्याग ही अनेषण कहलाता है क्योकि रागादिके साथ ही उन चारोके (चार प्रकारका आहार) त्यागको अनेषण रूपसे स्वीकार किया है। ६. बाह्य तप केवल पुण्य बन्धका कारण है ज्ञा.1419/४३ मुगुप्तेन सुकायेन कायोत्सर्गेण वानिशम्। संचिनोति शुभ कर्म काययोगेन संयमी -भले प्रकार गुप्त रूप किये हुए, पर्याव अपने वशीभूत किय हुए कारपे तथा निरन्तर कायोत्सर्ग से संयमी मुनि शुभकर्मको संचय करते है। ७. बाह्य तपोंको तप कहनेका कारण अन.ध./७/५८ देहाक्षतपनारकर्मदहनादान्तरस्य च । तपसो वृद्धिहेतुत्वात् स्यात्तपोऽनशनादिकम् ।। बाहयैस्तपोभि कायस्य कर्शनादक्षमर्दने । छिन्वबाहो भट इव विक्रामति कियन्मन' 101 अनशनादि तप इसलिए है कि इनके होनेपर शरीर इन्द्रियाँ उद्रिक्त नहीं हो सकतीं किन्तु कृश हो जाती है। दूसरे इनके निमित्तसे सम्पूर्ण अशुभकर्म अग्निके द्वारा ईधनकी तरह भस्मसाद हो जाते हैं। तीसरे आभ्यन्तर प्रायश्चित्त आदि तपोके बढानेमे कारण है । बाह्य तपोके द्वारा शरीरका कर्षण हो जानेसे इन्द्रियोंका मर्दन हो जाता है, इन्द्रिय दलनसे मन अपना पराक्रम किस तरह प्रगट कर सकता है कैसा भी योद्धा हो प्रतियोद्धा द्वारा अपना घोडा मारा जानेपर अवश्य निर्बल हो जायेगा। मो.मा.प्र./७/३४०/१ बाह्य साधन भए अन्तरंग तपकी वृद्धि हो है । तातै उपचार करि इनको तप कहै हैं । ८. बाह्य अभ्यन्तर तपका समन्वय स्व. स्तो/३ बाह्यं तप. परमदुश्चरमाचरंस्त्व-माध्यात्मिकस्य तपसः परिवृहणार्थम् । ध्यानं निरस्य क्लुषद्वयमुत्तरस्मिन, ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने ।३। - आपने आध्यात्मिक तपकी परिवृद्धिके लिए परम दुश्चर बाह्य तप किया है। और आप आर्तरौद्र रूप दो कलुषित ध्यानोंका निराकरण करके उत्तरवर्ती दो सातिशय ध्यानों में प्रवृत्त हुए हैं । (भ.आ./वि./१३४८/१३०६/१)। भ.आ./मू./१३५० लिगं च होदि आभंतरस्स सोधीए बाहिरा सोधी। भिउडोकरणं लिंग जहसंतो जदकोधस्स ।१३५० -अभ्यंतर परिणाम शुद्धिका अनशनादि बाह्य तप चिह्न है। जैसे किसी मनुष्यके मनमें जन क्रोध उत्पन्न होता है, तब उसकी भौंहे चढती हैं इस प्रकार इन तपोंमें लिंग लिंगी भाव है। द.सं./टी./५७/२२८/११ द्वादशविधं तपः। तेनैव साध्यं शुद्धात्मस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्च । = बारह प्रकारका तप है। उसी (व्यवहार ) तपसे सिद्ध होने योग्य निज शुद्ध अन्म स्वरूपमें प्रतपन अर्थाव विजय करने रूप निश्चय तप है। मो.मा प्र.10/३४०/१ बाह्य साधन होते अंतरंग तपकी वृद्धि होती है। इससे उपचारसे उसको तप कहते हैं। परन्तु जो माह्य तप तो कर अर अतरंग तप न होय तो उपचारसे भी उसको तप संज्ञा प्राप्त नहीं। ४. तपके कारण व प्रयोजनादि १. तप करने का उपदेश मो, पा/मू./१० धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेह तवयरण। णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णागजुत्तो वि 01-आचार्य कहै हैदेखो जाकै नियमकरि मोक्ष होनी है अर च्यार ज्ञान मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय इनिकरि युक्त है ऐसा तीर्थंकर है सो भौ तपश्चरण कर है, ऐसे निश्चय करि जानि ज्ञान करि युक्त होतें भी तप करना योग्य है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-४६ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप २. तपके उपदेशका कारण भ.आ./१११,२३७-२४१ पुनमकारिदजोग्गो समाधिकामो तहा मरणकाले । ग भवदि परीसहसो विसयहपरम्मूहो जीवो |११| सो नाम बाहिरयो जेण मणो दुखं प उदि जैन यस जायदि जेण य जोगा ण हायंति । २३६ । बाहिरतवेण होदि हु सन्ना सुहसीलदा परिच्चत्ता । सन्निहिद च सरीरं ठविदो अप्पा य संवेगे | २३७॥ यदि पूर्व कालमें तपश्चरण नहीं किया होय तो मरण काल में समाधिको इच्छा करता हुआ भी परीषहोंको सहन नहीं करता है, अतः विषय सुखो में आसक्त हो जाता है । १६१। जिस तपके आचरणसे मन दुष्कर्मके प्रति प्रवृत्त नहीं होता है, तथा जिसके आचरणसे अभ्यन्तर प्रायश्चित्तादि तपों में श्रद्धा होती है जिसके आचरण से पूर्व के धारण किये हुए का नाश नहीं होता है, उसी तपका अनुष्ठान करना योग्य है | २३६ । तपसे सम्पूर्ण सुख स्वभावका त्याग होता है । बाह्य तप करने से शरीर सक्सेनाके उपायकी प्राप्ति होती है और आत्मा संसारभीरुता नामक गुणमें स्थिर होता है (भ.आ./मू./ ११३) (भ.आ./ सू. १८५) । मो.पा./६२ सुभाविदं गाणं हे जाये विशस्सदि तन्हा जहावलं जोई अप्पा दुबखेहि भावए । ६२ । जो सुखकरि भाया हुआ ज्ञान है सो उपसर्ग परीषहादिक करि दुख उपज नष्ट हो जाय है ताने यह उपदेह है जो योगी ध्यानी मुनि है सो तपश्चरणादिके कष्ट दुखसहित आत्माकू भावे । ( स. रा. / मू० / १०२ ) ( ज्ञा० / ३२ / १०२ / ३३४ ) । = अन ध./७/१ ज्ञातोऽपि तृप्यार नाप्नोति तत्पदम्। ततस्तसि द्वये धीरस्तपस्तप्येत नित्यशः |१| तत्वोंका ज्ञाता होनेपर भी, वीतरागता विना अनन्तचतुष्टय रूप परम पदको प्राप्त नहीं हो सकता । अत बीतर ताकी सिद्धि के अर्थ धीर वीर साधुओंको तपका नित्य ही संचय करना चाहिए । ३ तपको राप कहनेका कारण रा. वा /६/१६/२०-२१/६१९ / ३९ यथाग्नि संचितं तृणादि दहति तथा कर्म मिथ्यादर्शनाद्यर्जितं निर्दहतीति तप इति निरुच्यते ॥२०॥ देहेन्द्रि यतापाद्वा ।२११- जैसे अग्नि संचित मावि इन्धनको भरम कर देती है उसी तरह अनदानादि अर्जित मिथ्यादर्शनादि कर्मोंका दाह करते है तथा देह और इन्द्रियोंकी विषय प्रवृत्ति रोककर उन्हें पा देते हैं अतः ये तप कहे जाते है । - ४ तपसे वलकी वृद्धि होती है = ध. ६/४, १,२२/०६/१ आघादाउआ वि छम्मासोनवासा चैव होंति, तर किसीदो खि ण तपोमयुप्पण्णविरियंतराइम समाणं तन्मतेव मंदीच्यासादावेदनी बोदवाणमेस नियमो तथ तविरोहादो। प्रश्न- अघातायुष्क भी छह मास तक उपवास करनेवाले ही होते हैं, क्योंकि इसके आगे संक्लेश उत्पन्न हो जाता है ? उत्तर-... पके मल उत्पन्न हुए वीर्यान्तरायके क्षयोपशम संयु तथा उसके बलसे ही असातावेदनीयके उदयको मन्द कर चुकनेनाले के लिए यह नियम नहीं है क्योंकि उनमें इसका विरोध है। ५. सप निर्जरा व संवरका कारण है व सू./१/२ तपसा निर्जरा च ॥३॥ तपसे संबर और निर्जरा होती है। रा. वा./८/२३/७/५८४ पर उद्धृत - कायमणो चिगुतो जो तवसा चेदे अणेयविहं । सो कम्म णिज्जराए विपुलाए बट्टदे मणुस्सोत्ति । काय. मन और वचन गुप्तिसे युक्त होकर जो अनेक प्रकारके तप करता है वह मनुष्य मिल कर्म निर्जराको करता है। ३६२ ४. तपके कारण व प्रयोजनादि न. वि./मू./१/४/३३० सपसरच प्रभावेग निर्जीॉर्म कर्म जायते । ५४तपके प्रभाव से कर्म निर्जीर्ण हो जाते हैं । दे० निर्जरा/२/४ [ तप निर्जराका ही नहीं संवरका भी कारण है । ] । ६. तप दुखका कारण नहीं आनन्दका कारण है स. वा./३४ आत्मदेहान्तरहानजनिताद्वादनिषुतः तपसा दुष्कृतं घोरं भुञ्जानोsपि न विद्यते । ३४ - आत्म और शरीरके भेद-विज्ञानसे उत्पन्न हुए आनन्दसे जो आनन्दित है वह तपके द्वारा उदयमें लाये हुए भयानक दुष्कर्मो के फलको भोगता हुआ भी खेदको प्राप्त नहीं होता है। इ. उ. / ४८ नोहर कर्मेन्धनमनारत न पासी विद्यते योगी बहिदु खेष्वचेतन. |४| वह परमानन्द सदा आनेवाली कर्म रूपी ईंधनको जला डालता है। उस समय ध्यान मग्न योगी के बाह्य पदार्थोंसे जायमान दुखोंका कुछ भी भान न होनेके कारण कोई खेद नहीं होता। शा./२२/४०/२२४ परान्तर विज्ञानसुधास्यन्दाभिनन्दितः। नि तपः कुर्वपि क्लेशैः शरीरजे ४८ भेदविज्ञानी मुनि आत्मा और परके अन्तर्भेदी विज्ञानरूप अमृतके वेगसे आनन्दरूप होता हुआ व तप करता हुआ भी शरीरसे उत्पन्न हुए खेद नलेशादिसे लिन नहीं होता है 1851 ७. तपकी महिमा भ.आ./मू / १४७२-१४७३ तं णत्थि जं ण लब्भइ तवसा सम्मं करण पुरिसस्स । अग्गीय तणं जलिओ कम्मतणं डहदि य तवग्गी | १४७२ ॥ सम्मं कदस्स अपरिस्सस्स ण फलं तवस्स बण्णेदु । कोई अस्थि समध्ये विजयासह ११४७३॥ निर्दोष पसे जो प्रान होगा ऐसा पदार्थ जगसमें है नहीं। अर्थात पुरुषको सर्व उम पदार्थों की प्राप्ति होती है जैसे प्रति अग्नि तुमको जाती है वैसे तपरूप अग्निकर्म रूप तृणको जलाती है । १४७२ | उत्तम प्रकार से किया गया और कर्मास्रव रहित तपका फल वर्णन करनेमें जिसको हजार जिहा है ऐसा भी कोई शेषादि देव समर्थ नहीं है। (भ.आ./ मू./ १४५०-१४०५)। 1 तपस्येन कुरल०/२०/० यथा भवति तौणाग्निस्तये योज्ज्वलाच यथाकष्टं ममशुद्धिस्तथैव हि सोनेको जिस आग प है वह जितनी ही तेज होती है, सोनेका रंग उतना ही अधिक उज्ज्वल निकलता है। ठीक इसी तरह तपस्वी जितने ही बड़े कष्टोंको सहता है उसके उतने ही अधिक आत्मिक भाव निर्मल होते हैं। आराधना सार/७/२६ निकाचितानि कर्माणि तावद्भस्मवन्ति न । यावरचनेपोमहिने दीप्यते 109 - निकाचित कर्म तब तक भस्म नहीं होते हैं, जब तक कि प्रवचनमें कही गयी तप रूपी अग्नि दीप्त नहीं होती है। रावा./१/६/२०/५/११/२२ तपः सर्वार्थसाधनम् तत एव यः संजा यन्ते । तपस्विभिरध्युषितान्येव क्षेत्राणि लोके तीर्थतामुपगतानि । यस्य न विद्यते स वृक्ष्यते मुवन्ति सर्वे गुणाः नासौ मुनति संसारम् । तपसे सभी अर्थोकी सिद्धि होती है। इससे ऋद्धियोंकी प्राप्ति होती है। तपस्वियोंकी चरणरजते पवित्र स्थान ही तीर्थ बने हैं। जिसके तप नहीं वह तिनके से भी लघु हैं । उसे सब गुण छोड देते है वह संसारसे मुक्त नहीं हो सकता । । डा. अनु / ९९४ इन सहजाद रिपुन विजयते प्रकोपादिकाद, गुणाः परिणमन्ति यानभिरप्ययं वाष्यति। पुरश्च पुरुषार्थसिद्धिरचि रास्वयं थायिनी, नरोन रमते कथं तपसि सापहारिणि । १९४ - इसके अतिरिक्त वह तप इसी लोकमें क्षमा, शान्ति, एवं विशिष्ट ऋद्धि आदि दुर्लभ गुणों को भी प्राप्त कराता है। वह चूँकि परलोकमोक्ष पुरुषार्थ को सिद्ध कराता है अतएव वह परलोक में भी हितका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश = Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप साधक है। इस प्रकार विचार करके जो विवेकी जीव हैं वे उभयलोकके सन्तापको दूर करने वाले उस तपमें अवश्य प्रवृत्त होते हैं ॥ पं. वि./१/१६-१०० कषायविषयोपरतस्करीगो ३६३ हठात् तपः भोयतो दुर्जया अतो हि निरुपद्रवश्यरति तेन धर्मश्रिया यतिः समुपलक्षितः पथि विमुक्तिपुर्याः सुखम् ॥६६॥ मिथ्यावादेर्यदिह भविता मग्न तपोभ्यो जातं तस्मादककणिकेके सर्वान्धिनोरा स्तोकं तेन प्रभवमखिलं कृच्छ्रासन् नरत्ये यद्य तर्हि स्वलति तदही का क्षतिजोंय ते स्यात् ॥१००॥ जो क्रोधादि कषायों और पंचेन्द्रिय विषयोंरूपी उद्भट एवं बहुत से चोरोंका समुदाय बडी कठिनतासे जीता जा सक्ता है वह चूंकि तपरूपी सुभटके द्वारा मलपूर्वक साहित होकर नष्ट हो जाता है। अतपन उस तपसे तथा धर्मरूपी लक्ष्मीसे संयुक्त साधु मुक्तिरूपों नगरीके मार्ग में सम प्रकारकी विघ्न-बाधाओंसे रहित होकर सुखपूर्वक गमन करता है || दो मिध्यात्व आदिके निमित्तसे जो तो दुख प्राप्त होनेवाला है उसकी अपेक्षा रूपसे उत्पन्न होनेवाला दुख इतना अल्प होता है कि समुद्रके सम्पूर्ण जलकी अपेक्षा उसकी एक बूंद होती है। उस तपसे सब कुछ आविर्भूत हो जाता है। इसलिए हे जीव कसे प्राप्त होनेवाली मनुष्य पर्याय प्राप्त होनेपर भी यदि तुम तपसे भ्रष्ट होते हो तो फिर तुम्हारी कौन-सी हानि होगी। अर्थात सम सुट जायेगा ॥१००॥ ! ५. शंका समाधान १. देवादि पदकी प्रासिका कारण तप निर्जराका कारण कैसे रा. बा./१/३/४-५/२१३ तपसोऽहवाभाव इति चेद न; एकस्यानेककार्यारम्भदर्शनात् ॥४॥ गुणप्रधानफलोपपत्तेर्वा कृषीमद ॥५॥ यथा कृषीवलस्य कृषिक्रियायाः पलालशस्यफखगुणप्रधानाभिसंबन्ध तथा मुनेरपि तपरिक्रयायां प्रधानोपसर्जनाभ्युदयनियमफलाभिसंबन्धोऽभिसन्धिनशाह वेदितपः- प्रश्नतप देवादि स्थानोंकी प्राप्तिका कारण होनेसे निर्जराका कारण नहीं हो सकता 1 उत्तर - एक कारणसे अनेक कार्य होते है । जैसे एक हो अग्नि पाक और भस्म करना आदि अनेक कार्य करती है। अथवा जैसे किसान मुख्यरूपसे धान्य के लिए खेती करता है. पयात तो उसे यों ही मिल जाता है । उसी तरह मुख्यत तप क्रिया कर्मक्षय के लिए है, अभ्युदयकी प्राप्ति तो पयालकी तरह आनुषंगिक ही है, गौण है। किसीको विशेष अभिप्रायसे उसकी सहज प्राप्ति हो जाती है। २. दुख प्रदायक तबसे तो असाताका आस्रव होना चाहिए रा. मा./६/१२/१६-२०/१२९/१६ स्थादेतत्-यदि दुःखाधिकरणमा ननु नाग्न्यलोचानशनादितप करणं दुःखहेतुरिति तदनुष्ठानोपदेशनं स्वतीर्थ करस्य तदविशेषे खानानद्या व स्पायुत रिति तन्न किं कारणम् । यथा अनिष्टसंपर्का द्वेषोत्पतौ खोपतिः न तथा माह्याभ्यन्तरतपप्रवृत्ती धर्मध्यानपरिणतस्य यतेरनशनकेशनादिकरणकारणापादितकायस्लेशेऽस्ति द्वेषसंभयः तस्मान्नासयन्धोऽस्ति कोभावावेशे हि सति स्वदुखा दीनां पापालन हेतुमिष्ट' न केवलाना ...तथा अनारसांसारिकजातिजरामरणवेदना जिघांसां प्रत्यागूर्णो यति तदुप ये प्रवर्तमान' स्वपरस्य दुःखादिहेतुत्वे सत्यपि क्रोधाद्यभावात् पापस्याबन्धक' । - प्रश्न- यदि दुखके कारणो से असातावेदनीयका आस्रव होता है। तो नग्न रहना केशलु चन और अनशन आदि तपोका उपदेश भी ६. तपधर्म, भावना व प्रायश्चित निर्देश दुखके कारणोंका उपदेश हुआ उत्तर कोधादिके आवेशके कारण द्वेषपूर्वक होनेवाले स्व पर और उभयके दुखादि पापास्रव के हेतु होते है न कि स्वेच्छा से आत्मशुद्धयर्थं किये जानेवाले तप आदि । जैसे अनिष्ट द्रव्यके सम्पर्क से द्वेषपूर्वक दुख उत्पन्न होता है उस तरह बाह्य और अभ्यंतर तपकी प्रवृत्तिमें धर्म ध्यान परिणत मुनिके अनशन केशचनादि करने या करानेमें द्वेषको सम्भावना नहीं है अतः असाताका बन्ध नहीं होता । अनादि कालीन सांसारिक जन्म मरणकी वेदनाको नाश करनेकी इच्छासे तप आदि उपायोंमें प्रवृत्ति करनेवाले यति के कार्योंने स्वपर-उभय दुखहेतुता दीखनेपर भी क्रोधादि न होनेके कारण पापका बन्धक नहीं होता। (स. सि. / ६ /११/३२६/६ ) ३. तपसे इन्द्रिय दमन कैसे होता है भा/व/१००/४०६/५ ननु चानशनादी प्रवृतस्याहारदर्शने तहात श्रवणे तदासेवाया चादरो नितान्तं प्रवर्तते ततोऽयुक्तमुच्यते सपोभावनया दान्तानीन्द्रियाणीति । इन्द्रिय विषय रागकोपपरिणामानां कर्मासहेतुतया अहितत्वप्रकाशनपरिज्ञानपुरःसरतपोभावनया विषयसुख परित्यागात्मकेन अनशनादिना दान्तानि भवन्ति इन्द्रि याणि । पुन पुन सेव्यमानं विषयसुखं रागं जनयति । न भावनान्तरान्तर्हितमिति मन्यते । प्रश्न- उपवासादि तपोंमें प्रवृत्त हुए पुरुषको बाहारके दर्शनसे और उसकी कथा सुननेसे, उसको भक्षण करनेकी इच्छा उत्पन्न होती हैं । अतः तपोभावनासे इन्द्रियोंका दमन होता है। यह कहना अयोग्य है ? उत्तर- इन्द्रियों के इष्टानिष्ट स्पर्शादि विषयोंपर आत्मा रागी और द्वेषी जब होता है तब उसके राग द्वेष परिणाम कर्मागमन के हेतु बनते हैं। ये राग जीवनका अहित करते हैं, ऐसा सम्यग्ज्ञान जीवको बतलाता है। सम्यग्ज्ञान युक्त तपोभावना जो कि विषय सुखोंका श्यागरूप और अनशनादि रूप है. इन्द्रियोंका दमन करती है। पुन 'पुन विषय सुखका सेवन करने से राग भाव उत्पन्न होता है परन्तु तपोभावनासे जब आत्मा सुसंस्कृत होता है तब इन्द्रियों विषय सुखकी तरफ दौड़ती नहीं हैं। ६. तपधर्म, भावना व प्रायश्चित निर्देश १. शक्तितस्तव भावनाका लक्षण स.सि./१/२४/२३८/१२ अनिगूहितवीर्यस्य मार्गाविरोधि कायमलेशस्तुप शक्तिको न छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीरको नलेश देना यथाशक्ति तप है (भा. पाटो७७-२२१) चा सा/२४) रा.वा./६/२४/०/५२६/३० शरीरमिदं दुःखकारणमनित्यमद्युचि, नास्य योगविधिना परिपोषो युक्त अशुच्यपीद गुणरत्नसंचयोपका रोति विषय विनियतविषयमुखाभिष्वङ्गस्य स्वकार्य प्रभूत कमिव नियुज्जानस्य यथाशक्ति मार्गाविरोधि कायक्लेशानुष्ठानं तप इति निश्चीयते। अपनी शक्तिको नहीं छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेशादि करना तप है। यह शरीर दुखका कारण है, अशुचि है, कितना भी भोग भोगों पर इसकी वृद्धि नहीं होती। यह अशुचि होकर भी शीतमत आदि गुणों के संचयमें आत्माकी सहायता करता है यह विचारकर विषय विरक्त हो आत्म कार्य के प्रति शरीरका नौकर की तरह उपयोग कर लेना उचित है। अत मार्गाविरोधी कायक्लेशादि करना यथाशक्ति तप भावना है । २. एक शक्तितस्तपमें ही १५ भावनाओंका समावेश घ. ८/३. ४१/८६/११ जहाथामतवे सयलसेसतित्थयरकारणाण संभवादो, जदो जहाथामो णाम ओघबलस्स धीरस्स णाणदं सणकलिदस्स होदि पर सविदादोषमभावो, तहा सर्व रस बग्णहात्तीदो।" प्रश्न- शक्तितस्तपमें शेष भावनाएँ कैसे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश = = Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप ऋद्धि ३६४ तमक संभव हैं । उत्तर-यथाशक्ति तपमें तीर्थ कर नामकर्म के बन्धके सभी शेष कारण सम्भव है, क्योकि, यथाथाम तप ज्ञान, दर्शनसे युक्त सामान्य बलवान और धीर व्यक्तिके होता है, और इसलिए उसमे दर्शनविशुद्धतादिकोंका अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होनेपर यथाथाम तप बन नहीं सकता। ३. तपप्रायश्चित्तका लक्षण ध.८/५,४,२६/६९/५ खवणायं विलणि वियडि न पुरिमंडलेयट्ठाणाणि तवो णाम ।उपवास, आचाम्ल, निविकृति, और दिवसके पूर्वार्ध में एकासन तप (प्रायश्चित्त) है। चा, सा /१४२/५ सव्वादिगुणालंकृतैन कृतापराधेनोपवासैकस्थानाचाम्लनिर्षिकृत्यादिभिः क्रियमाणं तप इत्युच्यते। जो शारीरिक व मानसिक बल आदि गुणोंसे परिपूर्ण है, और जिनसे कुछ अपराध हुआ है ऐसे मुंनि उपवास, एकासन, आचाम्ल आदिके द्वारा जो तपश्चरण करते है उसे तप प्रायश्चित्त कहते हैं। स. सि./६/२२/४४०/८ अनशनावमौदर्यादिलक्षणं तपः। = अनशन, अवमौदर्य आदि करना तप प्रायश्चित्त है। (रा. वा./९/२२/७/६२१/२६ )। तप ऋद्धि-दे० ऋद्धि/५ । तपन-१.तीसरे नरकका तीसरा पटल-देनरक/४/११ २ विद्युत्भ गजदन्त का कूट तथा देव-दे० लोक/ ३. रुचक पर्वत का कूट-दे लोक/५/१३ । तपनतापि-आकाशोपपन्न देव-दे० देव/II/३ ॥ तपनीय-१. मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट -दे० लोक/५/१० । २. सौधर्म स्वर्गका १वॉ पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/१/३ । तप प्रायश्चित्त-दे० तप/६। तपमद-दे० मद । तपविद्या-दे० विद्या। तपविनय-दे० विनय/१। तपस्वीर क. श्रा./१०विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।१०।- जो विषयोंकी आशाके वशसे रहित हो, चौबीस प्रकार के परिग्रहसे रहित और ज्ञान-ध्यान नपमें लवलीन हो, वह तपस्वी गुरु प्रशंसाके योग्य है। स.सि./१२४/४४२/८ महोपवासाद्यनुष्ठायी तपस्वी। -महोपवासादिका अनुष्ठान करनेवाला तपस्वी कहलाता है । (रा.वा./६/२४/५/६२३); (चा.सा./१५१/१) तपाचार-दे० आचार । तपाराधना-दे० आराधना। तपित-तीसरे नरकका द्वितीय पटल-दे० नरक/५/११ । तपोनिधि व्रत-इस व्रतकी दो प्रकार विधि वर्णन की गयी है -बृहद व लघु। बृहविधि-ह.पु./३४/१२-६५ १ उपवास, १ ग्रास, २ ग्रास । इसी प्रकार एक ग्रास वृद्धि क्रमसे सातवें दिन ७ ग्रास। आठ दिनोंका यह क्रम ७ बार दोहराएँ। पीछेसे अन्तमें एक उपवास करें और अगले दिन पारणा। यह 'सप्त सप्त' तपो विधि हई। इसी प्रकार अष्टम अष्टम, नवम नवम आदि रूपसे द्वात्रिंशत द्वात्रिंशत् (३२-३२) पर्यंत करना। जेतवीं तप विधि हो उतने ही ग्रास तक वृद्धि करे, और उतनी ही बार क्रमको दोहराये। इस प्रकार करते करते सप्तम सप्तमके (Ex७)+१-५७ दिन; अष्टम अष्टमके (EXE)+१-७३ दिन; नवम नवमके (१०x४)+१११ दिन"द्वात्रिशत्तम द्वात्रिंशत्तमके (३३४३२)+१=१०५७ दिन । लघुविथि-ह.पु./३४/१२-१५ उपरोक्तवव ही विधि है। अन्तर केवल इतना है कि यहाँ उपवास का ग्रहण न करने। केवल ग्रासोंका वृद्धिक्रम ग्रहण करना। तपो भावना-दे० भावना/१ । तपोशुद्धि व्रत-ह.पु./३४/१०० मन्त्र-२,१,११५.१,१+१६,३०,१०, १,२,१। विधि-अनशनके २, अवमौदर्यका १, वृति परिसंख्यानका १; रसपरित्यागके, विविक्त शय्यासनका १; कायक्लेशका १: इस प्रकार बाह्य तपके ११ उपवास । प्रायश्चित्तके १६, विनयके ३०, वैयावृत्तिके १०, स्वाध्यायके व्युत्सर्गके २; ध्यानका १: इस प्रकार अन्तरंग तपके ६७ उपवास । कुल-७८ उपवास बीचके १२ स्थानों में एक पारणा। तप्त-१. प्रथम नरकका नवाँ पटल-देनरक/६/११ तथा रत्नप्रभा २. तृतीय पृथिवीका प्रथम पटल-दे० नरक/ तथा लोक/२/८ । तप्तजला-पूर्व विदेहकी एक विभंगा नदी-दे० लोक/५/८। तप्ततप्त ऋद्धि-दे० ऋद्धि । तम-स.सि./५/२५/२६६/८ तमो दृष्टिप्रतिबन्धकारणं प्रकाशविरोधि । =जिससे दृष्टि में प्रतिबन्ध होता और जो प्रकाशका विरोधी है वह तम कहलाता है। (रा.वा./५/२४/१५/४८६/७); (त.सा./२/६८/१६१); (द्र.सं /१६/५३/११) रा. वा./५/२४/१/४८५/१४ पूर्वोपात्ताशुभकर्मोदयात ताम्यति आत्मा, तम्यतेऽनेन, तमनमात्र वा तमः । -पूर्वोपात्त अशुभकर्मके उदयसे जो स्वरूपको अन्धकारावृत करता है या जिसके द्वारा किया जाता है, या तमन मात्रको तम कहते हैं। तमःप्रभा-क्षण व नामकी सार्थकता स.सि./३/१/२०१/8 तम प्रभासहचरिता भूमिस्तम प्रभा.। = जिसकी प्रभा अन्धकारके समान है वह तम प्रभा भूमि है। (ति.पं./२/२१); (रा.वा/३/१/३/१५६/१६) रा.वा./३/१/४-६/१५६/२१ तमः प्रभेति विरुद्धमिति चेत्, न; स्वात्मप्रभोपपत्ते पहा...न दीप्तिरूपैव प्रभा द्रव्याण स्वात्मैव मृजा प्रभा यरसंनिधानात् मनुष्यादीनामयं संव्यवहारो भवति स्निग्धकृष्णभ्रमिदं रूक्षकृष्णप्रभामिद मिति, ततस्तमसोऽपि स्वात्मैव कृष्णा प्रभा अस्तीति नास्ति विरोधः। बाह्यप्रकाशापेक्षा सेति चेत; अविशेषप्रसङ्गः स्यात् । अनादिपारिणामिकसंज्ञानिर्दशाद्वा इन्द्रगोपवत ।। भेदरूढिशब्दानामगमकत्वमवयवार्थाभावादिति चेतः नः सूत्रस्य प्रतिपादनोपायत्वात् । -प्रश्न-तमः और प्रभा कहना यह विरुद्ध है ? उत्तर-नहीं; तमकी एक अपनी आभा होती है। केवल दीप्तिका नाम ही प्रभा नहीं है, किन्तु द्रव्योंका जो अपना विशेष विशेष सलोनापन होता है, उसीसे कहा जाता है कि यह स्निग्ध कृष्णप्रभावाला है, यह रूक्ष कृष्ण प्रभावाला है। जैसे-मखमली कीड़ेकी 'इन्द्रगोप' संज्ञा रूढ है, इसमें व्युत्पत्ति अपेक्षित नहीं है । उसी तरह तमःप्रभा आदि संज्ञाएँ अनादि पारिणामिकी रूढ समझनी चाहिए । यद्यपि ये रूढ शब्द हैं फिर भी ये अपने प्रतिनियत अर्थोंको रखती है। * तमःप्रमा पृथिवीका आकार व विस्तारादि -दे. नरक/५/११। * तम.प्रभा पृथिवीका नकशा-० लोक/२/11 * अपर नाम मघवा-देनरक/५। तमक-१. चतुर्थ नरकका पंचम पटल-दे० नरक/१/११२.पाँचवें नरकका पहला पदल-दे. नरक/५/११ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमका ३६५ तार तमका-चौथे नरकका पाँचवा पटल-दे० नरक/५/११॥ ३. तर्कौ पर समयकी मुख्यतासे व्याख्यान होता है तमसा-भरतक्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । द्र. सं./टी/४४/१६२/४ तर्के मुख्यवृत्त्यापरसमयव्याख्यानं । =तर्कमें तमिस्र-१. पांचवें नरक का पांचवां पटल-दे. नरक/५/११। मुख्यतासे अन्य मतोंका व्याख्यान होता है। २. विजयाध पर्वत की गुफा-दे लोक/३/११ ४. अन्य सम्बन्धित विषय * मतिज्ञानके तर्क प्रत्यभिज्ञान आदि मेद व इनकी उत्पत्तिका तमो-पाँचवें नरकका पहला पटल-दे० नरक/॥११ क्रम। -दे० मतिज्ञान/३ तमोर दशमी व्रत-व्रतविधान सं./पृ. १३० 'तम्बोल दशमि व्रत- * आगम प्रमाणमें तर्क नहीं चलता। -दे० आगम/६ को यह बोर, दश सुपात्रको देय तमोर ।' (यह व्रत श्वेताम्बर व * आगम सुतर्क द्वारा बाधित नहीं होता। --दे० आगम/५ स्थानकवासी आनायमे प्रचलित है।) * आगम विरुद्धतर्क तर्क ही नहीं। -दे० आगम/ तर्क-का लक्षण * तर्क आगम व सिद्धान्तोंमें अन्तर । -दे० पद्धति तत्वार्थाधिगमभाष्य/१/१५ ईहा, ऊहा तर्कः परीक्षा विचारणा जिज्ञासा * स्वभावमें तर्क नहीं चलता। -दे० स्वभाव/२ इत्यनान्तरम् । = ईहा, ऊहा, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा जित-कायोत्सर्गका एक अतिचार -दे० व्युत्सर्ग/ यह सन शब्द एक अर्थवाले है। श्लो. बा./३/१/१३/११६/२६८/२२ साध्यसाधनसंबन्धाज्ञानविवृत्तिरूपे तलवर-त्रि. सा./टी./६८३ तलवर कहिये कोटवाल । साक्षात स्वार्थ निश्चयने फले साधकतमस्तकः । = साध्य और साधन- तात्पर्यवृत्ति-इस नामकी कई टीकाएँ उपलब्ध हैं-१. आ० के अविनाभावरूप सम्बन्धके अज्ञानकी निवृति करना रूप स्वार्थ अभयनन्दि (ई० ६३०-६५०) कृत तत्त्वार्थ सूत्रको टोका; २. आ० निश्चयस्वरूप अव्यवहित फलको उत्पन्न करनेमें जो प्रकृष्ट उपकारक विद्यानन्दि कृत अष्ट सहस्रोकी लघु समन्तभद्र (ई० १०००) कृत वृत्ति; है, उसे तर्क कहते है। ३. आचार्य जयसेन (ई० श०११-१२) कृत समयसार, प्रवचनसार व प.मु./३/११-१३ उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं ब्याप्तिज्ञानमूहः १११॥ इदम पंचास्तिकायको टीकाएँ। स्मिन्सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च।१२॥ यथाग्नावेव धूमस्तदभावे तादात्म्य संबन्ध-स.सा./३३/१७,६१ अग्नेरुष्णगुणेनैव म भवत्येवेति च ।१३।- उपलब्धि और अनुपलब्धिकी सहायतासे सह होनेवाले व्याप्तिज्ञानको तर्क कहते हैं, और उसका स्वरूप है कि तादात्म्यलक्षणसबन्धः ॥५७ यत्किल सर्वास्वप्यवस्था यदात्मइसके होते ही यह होता है इसके न होते होता ही नहीं, जैसे कत्वेन व्याप्त भवति तदात्मकत्वव्याप्तिशून्यं न भवति तस्य तैः सह तादात्म्यलक्षणसंबन्धः स्यात् । अग्नि और उष्णताके साथ तादात्म्य अग्निके होते ही धुआँ होता है और अग्निके न होते होता ही रूप सम्बन्ध है।५७। जो निश्चयसे समस्त ही अवस्थाओं में यदनहीं है। आत्मकपनेसे अर्थात् जिस स्वरूपपनै से व्याप्त हो और तद्-आत्मकन्या. दी./३/६१५-१६/६२/१ व्याप्तिज्ञानं तर्क. । साध्यसाधनयोर्गम्य पनेकी अर्थात उस स्वरूपपनेकी व्याप्तिसे रहित न हो उसका उनके गमकभावप्रयोजको व्यभिचारगन्धासहिष्णुः संबन्धविशेषो व्याप्तिर साथ तादात्म्य लक्षण सम्बन्ध होता है। विनाभाव इति च व्यपदिश्यते। तत्सामाखल्वग्न्यादि धूमादिरैव गमयति न तु घटादि; तदभावात् । तस्याश्चाविनाभावापर- ताप-स.सि./६/११/३२६/१ परिवादादिनिमित्तादाविलान्तःकरणस्य नाम्न्याः व्याप्तेः; प्रमितौ यत्साधकतम तदिदं तारख्यं प्रमाणमि- तीवानुशयस्तापः । -अपवाद आदिके निमित्तसे मनके खिन्न होने त्यर्थः ।...यत्र यत्र धूमवत्त्वं तत्र तत्राग्निमत्त्वमिति । -व्याप्तिके पर जो तीव्र अनुशय सन्ताप होता है, वह ताप है। (रा.वा./५/११ ज्ञानको तर्क कहते हैं। साध्य और साधनमें गम्य और गमक (बोध्य 1३/११)। और बोधक) भावका साधक और व्यभिचारीकी गन्धसे रहित स्या.म./३२/३४२/ पर उद्धृत श्लो० ३ जीवाइभाववाओ बंधाइपसाइगो जो सम्बन्ध विशेष है, उसे व्याप्ति कहते हैं। उसोको अविनाभाव इदं तावो। जीवोंसे सम्बद्ध दुख और बन्धको सहना करना भी कहते हैं। उस व्याप्तिके होनेसे अग्नि आदिको धूमादिक ही ताप है। जनाते हैं, घटादिक नहीं। क्योंकि घटादिककी अग्नि आदिके साथ व्याप्ति नहीं है। इस अविनाभाव रूप व्याप्तिके ज्ञानमें जो तापन- तीसरे नरकका चौथा पटल- दे० नरक/५/१५॥ साधकतम है वह यही तर्क नामका प्रमाण है। ...उदाहरण-जहाँ महाँ धूम होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती है। तापस-१. एक विनयवादी-दे० वैनयिक; २. भरतक्षेत्र पश्चिम स्या. म./२८/३२१/२७ उपलम्भानुपलम्भसभवं त्रिकालीकलि तसाध्य साधनमबन्धाद्यालम्बनमिदमस्मिन् सत्यैव भवतीत्याद्याकार संवेदन आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । मूहस्तर्कापरपर्यायः । यथा यावान् कश्चिद् धूमः स सर्वो बह्नौ तापी-भरत क्षेत्रस्थ आर्यखण्डकी एक नदी-दे. मनुष्य/४ । सत्येव भवतीति तस्मिन्नसति असौ न भवत्येवेति वा। - उपलम्भ तामस दान-दे० दान । और अनुपलम्भसे उत्पन्न तीन कालमें होनेवाले साध्य साधनके तामिल वेद-एलाचार्य (अपरनाम कुन्दकुन्द) द्वारा रचित कुरलसम्बन्ध आदिसे होनेवाले, इसके होनेपर यह होता है, इस प्रकारके ज्ञानको ऊह अथवा तर्क कहते हैं जैसे-अग्निके होनेपर ही धूम काव्यका अपरनाम है। होता है, अग्निके न होनेपर धूम नहीं होता है। ताम्रलिप्ती-वर्तमान ताम्रलक नगर। सुह्म देशकी राजधानी थी २. तर्कामासका लक्षण (म.पु./प्र.४६/पं. पन्नालाल)। प. मु./६/१०/५५ असंबद्ध तज्ज्ञानं तर्काभासं ॥१०॥ =जिन पदार्थोंका ताम्रा-पूर्व आर्यखण्डस्थ एक नदी-दे० मनुष्य/४। आपसमें सम्बन्ध नहीं उनका सम्बन्ध मानना तर्काभास है। तार-चतुर्थ नरकका तृतीय पटल-दे० नरक/५/११॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तारक तारक १, पिशाच जातीय व्यन्तर देवोंका एक भेद--दे० पिशाचः २. म. पु. / ५८ /६३ भरत क्षेत्रके मलय देशका राजा विन्ध्यशक्ति था । चिरकाल तक अनेकों योनियोमे भ्रमणकर वर्तमान भव में द्वितीय प्रतिनारायण हुआ। 1 विशेष [परिचय- दे० शलाकापुरुष / ५; ३. पा. ५/१०/६५ - अर्जुन (राण्डव) का शिष्य एवं मित्र था। मनवास के समय सहायवनमे दुर्योधन द्वारा चढाई करनेपर अपना शौर्य प्रगट किया । तारे- १. तारोंके नाम उपलब्ध नहीं है वि.प./०/३२ संपहि कालसेगं ताराणामाणं परिथ उवदेखो.. १३२१- इस समय काल वशसे द्वाराओंके नामका उपदेश नहीं है। ३६६ * ताराओंकी संख्या, भेद व उनका लोकर्मे अवस्थान -३० योषिदेव ताल प्रलंब भ.आ./वि./११२३/११३०/११ तालशब्दो न तरुविशेषवचनः किंतु वनस्पत्येकदेशस्तरुविशेष उपलक्षणाय वनस्पतीनां गृहीतं प्रलम्बं द्विविधं सम्वं कन्दमूलफलाख्यं भूम्यनुप्रवेशि कन्दमूलम् अङ्कुरणापत्राणि असम्मानितस्य प्र तालप्रलम्ब वनस्पतेरङ्कुरादिकं च लभ्यत इति । = - ताल प्रलम्ब इस सामासिक शब्द में जो ताल शब्द है उसका अर्थ ताडका वृक्ष इतना ही लोक नहीं समझते हैं। किन्तु वनस्पतिका एकदेश रूप जो ताड़का वृक्ष वह इन वनस्पत्तियोका उपलक्षण रूप समझकर उससे सम्पूर्ण वनस्पतिओं का ग्रहण करते हैं।.... " .. 'ताल प्रलम्ब' इस शब्द में जो प्रलम्ब शब्द है उसका स्पष्टीकरण करते हैं-- प्रलम्बके मूल प्रलम्ब, अग्र प्रलम्भ ऐसे दो भेद है । कन्दमूल और अंकुर जो भूमि प्रविष्ट हुए हैं उनको मूलप्रलम्ब कहते हैं । अंकुर, कोमल पत्ते, फल और कठोर पत्ते इनको अग्र प्रलम्ब कहते हैं । अर्थात तालप्रलम्भ इम शब्दका अर्थ उपलक्षण से वनस्पतियों के अंकुराबिक ऐसा होता है (, १/१.१.१/१ पर विशेषार्थ) । तिगिच्छ- निषेध पर्वतस्थ एक हद । इसमें से हरित व सीतोदा नदियाँ निकलती हैं। धृतिदेवी इसमें निवास करती हैं । -- दे० लोक/१/८ । तित्तिणदा-तितिणदा अतिचार सामान्य-३० अतिचार / 1 तिमिस्र - १. . विजयार्ध पर्वतकी कूट तथा देव - दे० लोक /५/४ | २. पाँचवे नरकका पाँच पट० नरक/३/११ तिरस्कारिणी- एक विद्या- दे० विद्या । तिरुत्तक्क तेवर गद्य चिन्तामणि, छत्र चूड़ामणि व जीवन्धर चम्पू के आधार पर रचित जीवक चिन्तामणि । समय-- ई श ७ । (ती./४/३१३) । · तियंच- पशु, पक्षी, कीट, पतंग यहाँ तक कि वृक्ष, जल, पृथिवी, व निगोद जीव भी तिच कहलाते है। एकेन्द्रिय पंचेन्द्रिय पर्यन्त अनेक प्रकारके कुछ जलवासी कुछ थलवासी और कुछ आकाशचारी होते हैं। इनमें से असंही पर्यन्तमसम्मूमि व मिध्यादृष्टि होते हैं । परन्तु संज्ञी तिच सम्यक्त्व व देशव्रत भी धारण कर सकते है। तियंचोंका निवास मध्य लोकके सभी असंख्यात द्वीप समुद्रोंमें है । इतना विशेष है कि अढाई द्वीपसे आगेके सभी समुद्रों में जल के अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं पाये जाते और उन द्वीपोंमें विकलत्रय नहीं पाये जाते । अन्तिम स्वयम्भूरमण सागरमें अवश्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पाये जाते है। अतः यह सारा मध्यलोक तिर्यक लोक कहलाता है । ง १ २ ३ ४ * * * * २ १ * रे ४ ५ ८ भेद व लक्षण तिर्यच सामान्यका लक्षण । जलचरादिकी अपेक्षा तिर्यथोक भेद । गर्भनादिकी अपेक्षा तिचोके भेद । मार्गणाकी अपेक्षा तिर्ययकिभेद । जीव समासोंकी अपेक्षा तिर्यचोंके भेद । २१ १२ सम्मूमितिर्वच । महामत्स्यकी विशाल काय । भोगभूमिया तिर्यंच निर्देश । - दे० जीव समास । ३० सम्मूर्च्छन । - दे० सम्मूर्च्छन । -३० भूमि तिर्यों में सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाएँ तिगति सम्यक्त्वका स्वामित्व औपशमिकादि सम्यक्का स्वामित्व । तियंच -दे० सम्यग्दर्शन / IV/ जन्म पश्चात् सम्यक्त्वग्रहणकी योग्यता । -दे० सम्यग्दर्शन /LV/२/ जन्मके पश्चात् संयम ग्रहणकी योग्यता -दे० संयम / २ | विर्य चोगे गुणस्थानों का स्वामित्व । गति - अगतिके समय सम्यक्त्व व गुणस्थान । - दे० जन्म / ६ । स्त्री, पुरुष व नपुंसकवेदी तिर्यंचों सम्बन्धी । - दे० वेद । क्षायिक सम्यग्दृष्टिसंयतासंयत मनुष्य ही होय तिर्यच नहीं । तिर्वच संयतासंयतों में शायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं। तिर्यञ्चनीमें क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं । अपर्याप्त तिर्वचिनी सम्यक्त्व क्यों नहीं। पर्याप्ता तिर्यच । - दे० पर्याप्ति । अपर्याप्त तिर्यंचोंमें सम्यक्त्व कैसे सम्भव है । अपर्याप्त विचोंमें संयमासंयम क्यों नहीं। तिचायुका बन्ध होनेपर अणुव्रत नहीं होते । - दे० आयु / ६ । -दे० ३। तिर्यंचायुके बन्ध योग्य परिणाम । ति संयत क्यों नहीं होते। १० | सर्व द्वीप समुद्रों में सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत तिर्यंच कैसे ९ सम्भव हैं। ढाई द्वीपसे बाहर सम्यक्त्वकी उत्पत्ति क्यों नहीं। कर्मभूमिया तिर्यथों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं। तिर्यच गतिके दुःख । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश -३० म.प्र./५/१००१-१३७। तिर्यंचों में संभव वेद, कषाय, लेश्या व पर्याप्ति आदि । - दे० वह वह नाम 1 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तियंच ३६७ २. तिथंचोमे सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाएँ कौन तियं च मरकर कहाँ उत्पन्न हो और क्या गुण प्राप्त करे -दे. जन्म/६। तिर्यंच गतिमें १४ मार्गणाओके अस्तित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ। -दे० सत्। तिर्यच गतिमें सत्, संख्या, क्षेत्र, पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्प-बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ -दे०वह वह नाम । तिर्य च गतिमें कर्मोका बन्ध उदय व सत्त प्ररूपणाएँ व तत्सम्बन्धी नियमादि। -दे. वह वह नाम । तियचगति व आयुकर्मकी प्रकृतियाँके बन्ध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्सम्बन्धी नियमादि । -दे० वह वह नाम । भाव मार्गणाकी इष्टता तथा उसमें भी आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम । -दे० मार्गणा। * घ./१३/५,९,१४०/३६२/२ तिरः अञ्चन्ति कौटिल्यमिति तिर्यञ्च । "तिर.' अर्थात कुटिलताको प्राप्त होते हैं वे तिर्यच कहलाते हैं। २. जलचर आदिकी अपेक्षा तियचोंके भेद रा, वा/३/३६/५/२०६/३० पञ्चेन्द्रिया' तैर्यग्योनय पञ्चविधाः-जलचरा', परिस, उरगाः, पक्षिण , चतुष्पादश्चेति । - पञ्चेन्द्रिय तिर्यच पाँच प्रकारके होते हैं-जलचर-(मछली आदि), परिसर्प (गो. नकुलादि); उरग-सर्प, पक्षी, और चतुष्पद । पं. का./ता. वृ./११८/१८१/११ पृथिव्याध केन्द्रियभेदेन शम्बूकयूकोद्द शकादिविकलेन्द्रियभेदेन जलचरस्थलचरखचर द्विपदचतु पदादिपञ्चेन्द्रियभेदेन तिर्यञ्चो बहुप्रकारा' । =तियंचगतिके जीव पृथिवी आदि एकेन्द्रियके भेदसे; शम्बूक, जूव मच्छर आदि विकलेन्द्रियके भेदसे; जलचर, स्थलचर, आकाशचर, द्विपद, चतुष्पदादि पञ्चेन्द्रियके भेदसे बहुत प्रकारके होते हैं। ३. गर्भजादिकी अपेक्षा तियचोंके भेद का, आ./१२६-१३० पंचक्खा वि य तिविहा जल-थल-आयासगामिणो तिरिया। पत्तेयं ते दुबिहा मगेण जुत्ता अजुत्ता य ।१२६॥ ते वि पुणो वि य दुविहा गब्भजजम्मा तहेव संमुच्छा। भोगभुवा गम्भ-भुवा थलयर गह-गामिणो सण्णी ।१३०। पंचेन्द्रिय तियच जीवोके भी तीन भेद है-जलचर, थलचर और नभचर । इन तीनों में से प्रत्येकके दो-दो भेद हैं-सैनी और असैनी ।१२६। इन छह प्रकारके तिर्यचोके भी दो भेद है-गर्भज, दूसरा सम्मूछिम जन्मवाले... । ४. मार्गणाकी अपेक्षा तिर्यंचोंके भेद ध. १/१,१,२६/२०८/३ तिर्यञ्चः पञ्चविधा', तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च', पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियपर्याप्ततिरश्च्यः । पञ्चेन्द्रियापर्याप्ततिर्यञ्च इति । --तिर्यंच पाँच प्रकार के होते है-सामान्य तियंच, पचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रियपर्याप्ततिर्यञ्च, पंचेन्द्रिय पर्याप्त-योनिमती, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त-तियच । (गो. जी./मू. १५०) । तिथंच लोक निर्देश तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश । तिर्यंच लोकके नामका सार्थक्य । ३ तिर्यंच लोककी सीमा व विस्तार सम्बन्धी दृष्टि भेद। विकलेन्द्रिय जीवोंका अवस्थान । | पंचेन्द्रिय तिर्य चोंका अवस्थान । जलचर जीवोंका अवस्थान । | कर्म व भोग भूगियोंमें जीवोका असस्थान। -दे० भूमि। तैजस कायिकोंके अवस्थान सम्बन्धी दृष्टि भेद। -दे० काय/२/५। मारणान्तिक समुद्धातगत महामत्स्य सम्बन्धी भेद दृष्टि । ---दे० मरण/५/६। ७ | वैरी जीवोंके कारण विकलत्रय सर्वत्र तिर्यक लोक में | होते हैं। २. तिर्यंचोंमें सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाएँ १. भेद व लक्षण १. तिथंच सामान्यका लक्षण त. सू./४/२७ औपपादिकमनुष्येभ्य शेषास्तियग्योनाय ।२७ उपपाद जन्मवाले और मनुष्योके सिवा शेष सब जीव तिर्यचयोनि वाले हैं ।२७१ घ. १/१,१.२४/गा. १२६/२०२ तिरियंति कुडिल-भावं सुवियड-सण्णाणिगिट्ठमण्णाणा। अच्चंत-पाव-बहुला तम्हा तेरिच्छया णाम । - जो मन, वचन और कायकी कुटिलताको प्राप्त हैं, जिनकी आहारादि संज्ञाएँ सुव्यक्त हैं, जो निकृष्ट अज्ञानी हैं और जिनके अत्यधिक पापकी बहुलता पायी जावे उनको तिर्यच कहते हैं ।१२।। (प. सं /प्रा./२/ ६१); ( गो जी./म् /१४८ )। रा, वा./४/२७/३/२४५/ तिरोभावो न्यग्भार उपबाह्यत्व मित्यर्थः, तत' कर्मोदयापादितभावा तिर्यग्यो निरित्याख्यायते । तिरश्चियो निर्येषां ते तिर्यग्योनयः ।-तिरोभाव अर्थात नीचे रहना-बोझा ढोनेके लायक । कर्मोदयसे जिनमें तिरोभाव प्राप्त हो वे तिर्यग्योनि है। १.तियच गतिमें सम्यक्त्वका स्वामित्व प.वं./१/१,१/सू. १५६-१६१/४०१ तिरिक्ख अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्टी असंजदसम्माइट्ठी संजदासजदा त्ति ।१५६। एवं जाव सव्व दीव-समुद्देसु ॥१५७॥ तिरिक्वा असंजदसम्माइट्ठि-हाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी ।१५८। तिरिक्खा संजदासंजदहाणे खइयसम्माइट्ठी णस्थि अवसेसा अस्थि ।१५। एवं पचि दियतिरिवा-पज्जत्ता १६० पचिदिय-तिरिक्रव-जोणिणीसु असंजदसम्माइट्ठी-संजदासंजदठाणे खइयसम्माइट ठी णत्थि, अवसेसा अस्थि ।१६१-तिर्यच मिथ्यावृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सभ्यग्मिध्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत होते हैं ।१५६। इस प्रकार समस्त द्वीप-समुद्रवर्ती तिर्यचोंमें समझना चाहिए ।१५७। तियच असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते है।१५८० तिर्यंच संयतासंयत गुणस्थानमे क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते है । शेषके दो सम्यग्दर्शनोसे युक्त होते हैं ।१५। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यच और पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियच भी होते हैं ।१६०॥ योनिमती पंचेन्द्रिय तियंचोके असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयतगुणस्थानमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते हैं। शेषके दो सम्यग्दर्शनोसे युक्त होते है ।१६१॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तियंच २.तियंचोमें सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाएँ २. तिर्यंचोंमें गुणस्थानोंका स्वामित्व ३. क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य ही होते हैं तिथंच नहीं फ. वं. १/१,१/८.८४-८८/३२५ तिरिक्खा मिच्छाइद्वि-सासणसम्माइट्ठि असंजदसम्माइदिठ- ठाणे सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता ८४ सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे-णियमा पज्जत्ता।८। एवं पंचिदिय-तिरिक्खापज्जत्ता ८६। पंचिदियतिरिक्व-जोणिणीसु मिच्छाइट्ठिसासणसम्माइटिठ-ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ (८५ सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिसंजदासंजदट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ।८८ तिथंच मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते हैं अपर्याप्त भी होते हैं।८४३ तिथंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमे नियमसे पर्याप्तक होते हैं।८। तिर्यच सम्बन्धी सामान्य प्ररूपणाके समान पंचेन्द्रिय तिर्यच और पर्याप्तपंचेन्द्रिय तिर्यच भी होते हैं।८६। योनिमती-पंचेन्द्रिय-तियंच मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते हैं और अपप्ति भी होते हैं ।८७। योनिमती तिर्यच सम्यग्मिध्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें नियमसे पर्याप्तक होते हैं ।। ध.८/३,२७८/३६३/१० तिरिवखेसु खझ्यसम्माइट्ठीसु संजदासंजदाणमणुवलंभादो। -तिर्यंच क्षायिक सम्यग्दृष्टियोमे संयतासंयत जीव पाये नहीं जाते। गो क./जी.प्र /३२६/४७१/५ क्षायिकसम्यग्दृष्टिदेशसं यतो मनुष्य एव तत. कारणात्तत्र तिर्यगायुरुद्योतस्तिर्यग्गतिश्चेति त्रीण्युदये न सन्ति । - क्षायिक सम्यग्दृष्टि देशसंयत मनुष्य ही होता है, इसलिए तिर्यगायु, उद्योत, तिर्यग्गति, पंचम गुणस्थान विषै नाहीं। ४. तिथंच संयतासंयतों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं ध.१/१,१,१५८/४०२/६ तिर्यक्षु क्षायिकसम्यग्दृष्टयः संयतासंयताः किमिति न सन्तोति चेन्न, क्षायिकसम्यग्दृष्टीना भोगभूमिमन्तरेणोत्पत्तेर भावात् । न च भोगभुमाबुत्पन्नानामणवतोपादानं संभवति तत्र तद्विरोधात। -प्रश्न-तिर्यचों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव संयतासंयत क्यों नहीं होते हैं। उत्तर-नहीं, क्योंकि, तिर्यचोंमें यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते है तो वे भोगभूमिमें ही उत्पन्न होते है दूसरी जगह नहीं। परन्तु भोगभूमिमे उत्पन्न हुए जीबोके अणुचतकी उत्पत्ति नहीं होती है, क्योकि वहॉपर अणुवतके होनेमे आगमसे विरोध आता है। (ध.१/१,१,८५/३२७/१) (ध.२/१,१/ ४८२/२). ष, वं.१/१.१/सू. २६/२०७ तिरिक्खा पंचसु हाणेसु अत्थि मिच्छाइटो सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्टि असंजदसम्माइट्ठी संजदा. संजदा त्ति ।२६। मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इन पाँच गुणस्थानोमे तिर्यच होते है ।२६॥ ति. प./५/२६६-३०३ तेतीसभेदसंजुदतिरिक्वजीवाण सम्बकालम्मि । मिच्छत्तगुणट्ठाणं बोच्छ सण्णीण तं माणं ।२६। पणपणअज्जाखंडे भरहेरावदखि दिम्मि मिच्छतं । अबरे वरम्मिपण गुणठाणाणि कयाइदीसं ति ।३०० चविदेहे सठ्ठिसमपिणदसद अज्जवरवंडए तत्तो। विज्जाहरसेढीए बाहिरभागे सयं पहगिरीदो ।३०१। सासणमिस्सविहीणा तिगुण ठाणाणि थोवकालम्मि । अवरे वरम्मि पण गुणठाणाइ कयाइ दीसं ति ।३०२। सब्वेसु वि भोगभुवे दो गुणठाणाणि थोवकालम्मिादीसंति चउत्रियप्प सव्व मिलिच्छम्मि मिच्छर ।२०३।-सज्ञी जीवोको छोड शेष तेतीस प्रकारके भेदोसे युक्त तिर्यच जीवोके सब काल में एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है। संज्ञोजीवोके गुणस्थान प्रमाणको कहते है ।२६ भरत और ऐरावत क्षेत्रके भीतर पाँच-पाँच आर्यखण्डोमे जधन्य रूपसे एक मिश्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे कदाचित् पाँच गुणस्थान भी देखे जाते हैं ३००। पाँच विदेहोके भीतर एकसौ साठ आर्यस्त्रण्डोमे विद्याधर श्रेणियोमे और स्वयंप्रभ पर्वतके बाह्य भागमें सासादन एवं मिश्र गुणस्थानको छोड तीन गुणस्थान जघन्य रूपसे स्तोक कालके लिए होते हैं। उत्कृष्ट रूपसे पाँच गुणस्थान भी कदाचित् देखे जाते है ।३०१-३०२० सर्व भोगभूमियो में दो गुणस्थान और स्तोक कालके लिए चार गुणस्थान देखे जाते है। सर्वम्लेक्षखण्डों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है।०३। ५.तियचिनीमें क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं स.सि /२/५/२३/३ तिरश्चीनां क्षायिक नास्ति । कुत इत्युक्ते मनुष्यकर्मभूमिज एव दर्शनमोहलपणापारम्भको भवति। क्षपणाप्रारम्भकालारपूर्व तिर्यक्षु. बदायुष्कोऽपि उत्कृष्टभोगन मितिर्यक् पुरुषेश्वेवोत्पद्यते न तिर्यस्त्रीषु द्रव्यवेदरत्रीणां तासां क्षायिकासंभवात् । -तिर्यचनियोमे क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है ' प्रश्न- क्यों। उत्तर-कर्मभूमिज मनुष्य हो दर्शन मोहकी क्षपणा प्रारम्भ करता है। क्षपणा कालके प्रारम्भसे पूर्व यदि कोई तिर्यंचायु बद्धायुष्क हो तो वह उत्कृष्ट भोगभूमिके पुरुषवेदी तियंचो मे ही उत्पन्न होता है, स्त्रीवेदी तिर्यचोंगे नहीं। क्योकि द्रव्य स्त्रीवेदी तियंचौके क्षायिक सम्यस्त्वको असम्भावना है। ध १/१,१,१६१/४०३/५ तत्र क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामुत्पत्तेरभावात्तत्र दर्शनमोहनीयस्य क्षपणाभावाच्च । -योनिमती पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमे शागिक सम्यग्दष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते। तथा उनमें दर्शन मोहनीयकोणाका अभाव है। घ.१/१.१२६/२०८/६ लन्थ्यपर्याप्तेषु मिथ्याष्टिव्यतिरिक्त शेषगुणासंभवात्...शेषेषु पञ्चापि गुणस्थानानि सन्ति,"तिरश्चीवपर्याप्तादायां मिथ्यादृष्टिसासादना एव सन्ति, न शेषास्तत्र तन्निरूपकार्षाभावात् । मलयपर्याप्तकोंमे एक मिथ्यावृष्टि गुणस्थानको छोडकर शेष गुणस्थान असम्भव है...शेष चार प्रकारके तियंचोमे पॉचो ही गुणस्थान होते हैं। तिर्यचनियोके अपर्याप्त कालमे मिथ्यादृष्टि और सासादन ये दो गुणस्थानवाले ही होते है, शेष तीन गुणस्थानवाले नहीं होते है। विशेष-दे० सत् । ६. अपर्याप्त तिर्थचिनी में सम्यक्त्व क्यों नहीं ध १/१,१,२६/२०४/५ भवतु नामसम्यग्दृष्टिसंयतासंग्रतानां तत्रामत्त्वं पर्याप्ताद्धायामेवेति नियमोपल भाव। कथं पुनरसंयतसम्यग्दृष्टीनामसत्वमिति न, तत्रास तसम्पर टीनामुत्पत्तेरभावात् । प्रश्नतिर्यचनियो के अपर्याप्त काल में सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत इन दो गुणस्थान पालोका अभाव रहा आवे, क्योकि ये दो गुणस्थान पर्याप्त काल में ही पाये जाते है, ऐसा नियम मिलता है। परन्तु उनके अपर्याप्त कालमे असमतसम्यग्दर जीवोका अभाव कैसे माना जा सकता है । उत्तर--नहीं. क्योकि तिथंच नियो में असंयत सम्यग्दृष्टिकी उत्पत्ति नही होती, इसलिए उनके अपर्याप्त काल में चौथा गुणस्थान नहीं पाया जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. तिथंचोंमे सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शकाएँ किन्नोत्पद्यन्ते । इति चेत किंचातोऽप्रत्याख्यानगुणस्य तिर्यगपर्याप्तेषु सत्त्वापत्ति । न, देवगतिव्यतिरिक्तगतित्रयसंबद्धायुषोपलक्षितानामणुवतोपादानबुद्धयनुत्पत्ते. ।-प्रश्न-जिन्होने मिथ्याष्टि अवस्थामे तिर्यंचायुका बन्ध करनेके पश्चात देशसंयमको ग्रहण कर लिया है और मोहकी सात प्रकृतियोंका क्षय कर दिया है ऐसे मनुष्य तियचोंमे क्यो नहीं उत्पन्न होते है । यदि होते है तो इससे तिर्यंच अपर्याप्तोमें देशसंयमके प्राप्त होनेकी क्या आपत्ति आती है। उत्तर-नहीं, क्यो कि, देवगतिको छोड़कर शेष तीन गति सम्बन्धी आयुबन्धसे युक्त जीवोंके अणुव्रतको ग्रहण करनेकी बुद्धि ही उत्पन्न नहीं होती है। ९.तियच संयत क्यों नहीं होते ध. १/१.१ १५६/४०१/८ संन्यस्तशरीरत्वात्त्यक्ताहाराणां तिरश्व किमिति संयमो न भवेदिति चेन्न, अन्तरङ्गाया' सकल निवृत्तेरभावात् । किमिति तदभावश्चेज्जातिविशेषात । प्रश्न-शरीरसे संन्यास ग्रहण कर लेनेके कारण जिन्होने आहारका त्याग कर दिया है ऐसे तियचोंके संयम क्यों नहीं होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, आभ्यन्तर सकल निवृत्तिका अभाव है। प्रश्न-उसके आभ्यन्तर सकल निवृत्तिका अभाव क्यो है1 उत्तर-जिस जातिमे वे उत्पन्न हुए हैं उसमें संयम नहीं होता यह नियम है, इसलिए उनके संयम नहीं पाया जाता है। तिर्य च ७. अपर्याप्त तिर्यंचमें सम्यक्त्व कैसे सम्भव है ध.१/१,१,८४/३२५/४ भवतु नाम मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीना तिर्यक्षु पर्याप्तापर्याप्तद्वयोः सत्त्वं तयोस्तत्रोत्पत्यविरोधात्। सम्यग्दृष्टयस्तु पुनर्नोत्पद्यन्ते तिर्यगपर्याप्तपर्यायेण सम्यग्दर्शनस्य विरोधादिति । न विरोध', अस्यार्षस्याप्रामाण्यप्रसङ्गात् । क्षायिकसम्यग्दृष्टिः सेविततीर्थकरः क्षपितसप्तप्रकृति' कथं तिर्यक्षु दुखभूयस्सूरपद्यते इति चेन्न, तिरञ्चों नारकेभ्यो दुःखाधिक्याभावात् । नारकेष्वपि सम्यग्दृष्टयो नोत्पत्स्यन्त इति चेन्न, तेषां तत्रोत्पत्तिप्रतिपादकार्थेपलम्भात । किमिति ते तत्रोत्पद्यन्त इति चेन्न, सम्यग्दर्शनोपादानात् प्राडू मिथ्यादृष्टयवस्थायां बद्धतिर्यड्नरकायुष्कत्वात् । सम्यग्दर्शनेन तव किमिति न छिद्यते। इति चेत् किमिति तन्न छिद्यते। अपि तु न तस्य निर्मूलच्छेद' । तदपि कुतः। स्वाभाव्यात् । - प्रश्न-मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंकी तिर्यचो सम्बन्धी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थामें भले ही सत्ता रही आवे, क्योकि इन दो गुणस्थानोंकी तिर्यच सम्बन्धी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थामें उत्पत्ति होने में कोई विरोध नही आता है। परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव तो तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होते है; क्योंकि तिर्यचोंकी अपर्याप्त पर्यायके साथ सम्यग्दर्शनका विरोध है। उत्तर-विरोध नहीं है, फिर भी यदि विरोध माना जावे तो ऊपरका सूत्र अप्रमाण हो जायेगा। प्रश्न-जिसने तीर्थ करकी सेवा की है और जिसने मोहनीयकी सात प्रकृतियोंका क्षय कर दिया है ऐसा क्षायिक-सम्यग्दृष्टि जीव दुख महुल तिर्यंचों में कैसे उत्पन्न होता है । उत्तर-नहीं, क्योकि तियंचों के नारकियों की अपेक्षा अधिक दुख नही पाये जाते है। प्रश्न-तो फिर नारकियोमें भी सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होंगे। उत्तरनहीं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों को नारकियों में उत्पत्तिका प्रतिपादन करनेवाला आगम प्रमाण पाया जाता है। प्रश्न-सम्यग्दृष्टि जीव नारकियोंमे क्यों उत्पन्न होते है । उत्तर-नहीं, क्योंकि जिन्होने सम्यग्दर्शनको ग्रहण करनेके पहले मिथ्यादृष्टि अवस्थामे तिर्यंचायु और नरकायुका बन्ध कर लिया है उनकी सम्यदर्शनके साथ वहाँपर उत्पत्ति मानने में कोई आपत्ति नहीं आती है। प्रश्न-सम्यग्दर्शनकी सामर्थ्य से उस आयुका छेद क्यो नही हो जाता है। उत्तर---उसका छेद क्यों नहीं होता है। अवश्य होता है। किन्तु उसका समूल नाश नहीं होता है। प्रश्न-समूल नाश क्यो नहीं होता है ! उत्तर-आगेके भवके बॉधे हुए आयुकर्मका समूल नाश नही होता है, इस प्रकारका स्वभाव ही है। ध.२/१,१/४८१/१ मणुस्सा पुवनद्ध-तिरिक्खयुगा पच्छा सम्मत्तं घेत्तूण... खझ्यसम्माइट्ठी होदूण असंखेज्ज-वस्सायुगेसु तिरिक्खेसु उप्पज्जति ण अण्णत्थ, तेण भोगभूमि-तिरिवनेमुप्पज्जमाण पेविखऊण असंजदसम्माइट्ठि-अप्पज्जत्तकाले खइयसम्मत्तं लभदि । तत्थ उप्पज्जमाण-कदकर णिज्जं पडच्च वेदगसम्मत्तं लभदि। - (इन क्षायिक व क्षायोपशमिक ) दो सम्यकरवोंके (वहाँ) होनेका कारण यह है कि जिन मनुष्योने सम्यग्दर्शन होनेके पहले तिर्यच आयुको आँध लिया है वे पीछे सम्यक्त्वको ग्रहणकर क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यचोमे ही उत्पन्न होते हैं अन्यत्र नहीं। इस कारण भोगभूमिके तिर्यचोमे उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी अपेक्षासे असंयत सम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त काल मे क्षायिक सम्यक्त्व पाया जाता है। और उन्ही भोग भूमिके तिर्यंचोमे उत्पन्न होनेवाले जीवोंके कृतकृत्य वेदककी अपेक्षा वेदक सम्यवस्व भी पाया जाता है। १०. सर्व द्वीपसमुद्रों में सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत तियंच __ कैसे सम्भव हैं ध. १/१.१,१५७/४०२/१ स्वयं प्रभादारान्मानुषोत्तरात्परतो भोगभूमिसमानत्वान्न तत्र देशवतिन' सन्ति तत् एतत्सूत्रं न घटत इति न. वैरसंबन्धेन देवैदनवैरिक्षप्य क्षिप्ताना सर्वत्र सत्त्वाविरोधात् । = प्रश्न - स्वयंभूरमण द्वीपवर्ती स्वयंप्रभ पर्वतके इस ओर और मानुषोतर पर्वतके उस ओर असंरख्यात द्वीपोमें भोगभूमिके समान रचना होनेसे वहॉपर देशवती नहीं पाये जाते हैं, इसलिए यह सूत्र घटित नहीं होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, बैरके सम्बन्धसे देवों अथवा दानवोंके द्वारा कर्मभूमिसे उठाकर लाये गये कर्मभूमिज तिर्य चोंका सब जगह सद्भाव होनेमें कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए वहॉपर तिर्यंचोंके पाँचों गुणस्थान बन जाते हैं। (ध.४/१,४,६/१६६/७ ); (ध. ६/१,६,१.२०/४२६/१०)। ११. ढाई द्वीपसे बाहर क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति क्यों नहीं घ.६/१.६-८,११/२४४/२ अढाइज्जा · दीवेसु दसणमोहणीयकम्मस्स खवणमाढवेदि ति, णो सेसदीवेसु । कुदो। सेसदीवह्रिदजीवाणं तक्खवणसतीए अभावादो। लवण-कालोदइसण्णिदेसु दोसु समुह सु दसणमोहणीय कम्मं ववे ति, णो सेससमुद्देसु. तत्थ सहकारिकारणाभावा ।... 'जम्हि जिणा तित्थयत' त्ति विसेसणेण पडिसिद्धत्तादो।अढाई द्वीपोंमे ही दर्शनमोहनीय कर्म के क्षपणको आरम्भ करता है, शेष द्वीपों में नहीं। इसका कारण यह है कि शेष द्वीपोमें स्थित जीवोंके दर्शन मोहनीय कर्मके क्षपणकी शक्तिका अभाव होता है । लवण और कालोदक संज्ञावाले दो समुद्रो में जीव दर्शनमोहनीयकर्मका क्षपण करते है, शेष समुद्रोंमे नहीं, क्योकि उनमें दर्शनमोहके क्षपण. करनेके सहकारी कारणोंका अभाव है।...'जहाँ जिन तीर्थंकर सम्भव है' इस विशेषणके द्वारा उसका प्रतिषेध कर दिया गया है। ८ अपर्याप्त तिर्यचोंमें संयमासंयम क्यों नहीं ध १/१,१,८५/३२६/५ मनुष्याः मिथ्यादृष्टयवस्थायां बद्वतिर्यगायुष' पश्चात्सम्यग्दर्शनेन सहात्ताप्रत्याख्याना' क्षपितसप्तप्रकृतयस्तिर्यक्षु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-४७ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिच १२. कर्मभूमिया तिर्यंचों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं ध. ६/१,६-८,१२/२४५/१ कम्मभूमीसु दि देव मणुस तिरिवखाणं सव्वेसि पि गहणं किरण पावेदित्ति भणिदेण पावेदि, कम्मभूमीसुप्पण्ण मनुस्साणमुवयारेण कम्मभूमीववदेसादो। तो वि तिरिक्खाणं = पावेदितेत्थिनि उपपत्तिसंभवादोग, जेखि तस्थेन उपपत्ती, ण अण्णस्थ संभवो अस्थि, तेसिं चेव मणुस्साणं पण्णारसकम्मनियसो गतिरिवाणं सर्वपदपरभागे उपज्जण सन्नहिचाराणं । प्रश्न - ( सूत्र में तो ) 'पन्द्रह 'कमभूमियोंमें' ऐसा सामान्य पद कहने पर कर्मभूमियों स्थित देव मनुष्य और तिर्यंच, इन सभीका ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होता है ? उत्तर - नहीं होता है. क्योंकि कर्मभूमियोंमे उत्पन्न हुए मनुष्योंकी उपचारसे 'कर्मभूमि' यह संज्ञा दी गयी है प्रश्न यदि कर्मभूमि में उत्पन्न हुए जीवोंको 'कर्मभूमि' यह संज्ञा है तो भी विचका ग्रहण प्राप्त होता है, क्योंकि, उनकी भी कर्मभूमिमें उत्पत्ति सम्भव है ' उत्तरनहीं, क्योंकि, जिनकी वहॉपर ही उत्पत्ति होती है, और अन्यत्र उत्पत्ति सम्भव नहीं है. उनही मनुष्योंके पन्द्रह कर्मभूमियोंका व्यपदेश किया गया है, न कि स्वयंप्रभ पर्वतके परभागमें उत्पन्न होनेसे व्यभिचारको प्राप्त तिर्यंचोके । ३. तियंच लोक निर्देश १. वियंध लोक सामान्य निर्देश स.सि./४/११/२५०/१२ माहत्येन रात्प्रमाणस्तिर्यस्तिर्यग्लोक | मेरु पर्वतको जितनी ऊँचाई है, उतना मोटा और तिरछा फैला हुआ तिर्यग्लोक है। ति प / ५ / ६-७ मंदरगिरिमूलादो इगिलक्खं जोयणाणि बहलम्मि | रज्जू रखे चिट्ठेदि तिरियलोओ ॥ ६॥ पीसकोडाकोडीपेमाण उद्धारपल्लरोमसमा । दिओवहीणसंखा तस्सद्ध दीवजल णिही कमसो 191 - मंदर पर्वतके मूलसे एक लाख योजन बाहन्य रूप राजुप्रतर अर्थात् एक राष्ट्र लम्बे चौड़े क्षेत्र सिलोक स्थित है |ई| पच्चीस कोड़ाकोडी उद्धार पत्योंके रोमोंके प्रमाण द्वीप व समुद्र दोनोंकी संख्या है। इसकी आधी क्रमशः द्वीपोंकी और आधी समुद्रों की संख्या है। (गो. जी भाषा / २४३/६४५/१८) | २. तिर्यग्लोकके नामका सार्थक्य = रा.वा./१/०/उत्थानका / १६६/१ कुतः पुनरियं प्रिवृति उच्यते - यतोऽसंख्येया स्वयंभूरमणपर्यन्तास्तिर्यक्प्रचयविशेषेणास्थिता द्वीपसमुद्रात. तिर्यग्लोक इति । प्रश्न- इसको तिर्यक्लोक क्यों कहते है उत्तर चूँकि स्वयम्वरमा पर्यन्त असंख्यात द्वीप समुद्र सिर्म-समभूमिपरे तिरछे उपस्थित है अत इसको तिर्यक् लोक कहते है । ३. तिच लोककी सीमा व विस्तार सम्बन्धी दृष्टि भेद घ.३/९.२.४/३४/४ का विशेषार्य कितने ही आचायका ऐसा मत है कि स्वयंभूरमण समुद्रकी बाह्य वेदिकापर जाकर रज्जू समाप्त होती है। तथा कितने ही आचार्योंका ऐसा मरा है कि असंख्यात द्वीपों और समुद्रोकी चौडाई रुके हुए क्षेत्र संख्यात गुणे योजन जाकर रज्जूकी समाप्ति होती है । स्वयं वीरसेन स्वामीने इस मतको अधिक महत्त्व दिया है। उनका कहना है कि ज्योतिषियोंके प्रमाणको लानेके लिए २५६ अंगुल वर्ग प्रमाण जो भागाहार बतलाया है उससे यही पता चलता है कि स्वयंभूरमण समुह संख्यातगुणे योजन जाकर मध्यलोककी समाप्ति होती है । - ३७० ३. तिर्यंच लोक निर्देश ध. ४/१,१.३/४९/५ हिं लोगाणमसंविभागे तिरियलोगो डोदि ति के वि आइरिया भवंति तं महदे तीनों लोकों सेख्यातवें भाग क्षेत्र तिर्यक लोक है। ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, परन्तु उनका इस प्रकार कहना घटित नहीं होता। भ. १९/४.२.२.९/१०/४ सयंवरमणसमुदस्स बाहिरिसतो नाम तदवय भूदबाहिर वेइयाए. तत्थ महामच्छो अच्छिदो त्ति के वि आइरिया भणति । तण्ण घडदे, 'कायलेस्सियाए लग्गो' त्ति उवरि भण्णमाणसुसंग सह विरोहादो च सर्वभुरमणसमुहमा हिरवेगार संभा तिमि विवादमा तिरियलोभस एगरज्युपमाणादऊणत्तप्पसंगादो । स्वयम्भूरमण समुद्रके बाह्य तटका अर्थ उसकी अंगसमाह्य वेदिका है. महाँ स्थित महामत्स्य ऐसा किराने ही आचार्य कहते है. किन्तु वह घटित नहीं होता क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर 'वालयले संलग्न हुआ इस सूत्र के साथ विरोध आता है। कारण कि स्वयम्भूरमणसमुद्रकी बाह्य वेदिकासे तीनों ही वातवलय सम्बद्ध नहीं हैं, क्योंकि वैसा माननेपर तिर्यग्लोक सम्बन्धी विस्तार प्रमाणके एक राजूरी हीन होनेका प्रसंग आता है। ४. विकलेन्द्रिय जीवोंका अवस्थान हy. / ५ / ६३३ मानुषोत्तरपर्यन्ता जन्तवो विकलेन्द्रियाः । अन्त्यद्वीपा - द्वैत' सन्ति परस्ताते यथा परे ॥ ६३३॥ इस ओर विकलेन्द्रिय जीव मानुषोत्तर पर्वत तक ही रहते हैं। उस और स्वयम्भूरमण द्वीपके अर्धभागसे लेकर अन्ततक पाये जाते हैं |६|श ध. ४/१,१.२/३३ / २ भोगभूमीस पुण विगसिंदिया परिथ । वचिदिया वितत्य हु थोबा, मुहम्मद जीवाणं मणामसंभवादो भोगभूमि तो किस जीव नहीं होते हैं. और वहाँ पर पं न्द्रिय जीव भी स्वरूप होते हैं, क्योंकि शुभकर्मकी अधिकता वाले बहुत जीयोंका होना असम्भव है। का. अ./टी./९४२ मिति-चरा जीवा हति नियमेण कम्मचरिमेदीने अर्थ परम-समुद्र नि सज्ये ॥१४२॥ दोइन्द्रिय, तेहन्द्रिय और भौन्द्रिय जीन नियमसे कर्मभूमिमें ही होते हैं। तथा अन्तके आधे द्वीपमें और अन्तके सारे समुद्रमें होते हैं । १४२६ भूमी ५. पचेन्द्रिय तिर्थयोंका अवस्थान ध. ७/२, ७, १६/३७६/३ अधवा सव्वेसु दीव-समुद्देसु पंचिदियतिरिक्खअपज्जता होति कुदो हरियदेवमंण कम्मभूमिपतिमाणुयदियतिखाणं एगबंधणमवज्जीवणिकाओगाढ ओशलिय देहाणं सव्त्रदीवसमुद्द ेसु पंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्ता होंति । - अथवा सभी द्वीप समुद्रो ने पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जी होते है, क्योंकि, पूर्वके मेरी देवोंके सम्बन्धसे एक बन्धनमें मद वह जीवनिकायोंसे व्याप्त औदारिक शरीरको धारण करनेवाले कर्मभूमि प्रतिभागमें उत्पन्न हुए पंचेन्द्रिय तिर्यखाँका सर्व समुद्रोंमें अवस्थान देखा जाता है। ६. जलचर जीवोंका अवस्थान मू. आ. / १०८१ लवणे कालसमुद्द े सयंभुरमणे य होंति मच्छा दु। अबसेसे समुद्दसु णत्थि मच्छा य मयरा वा ॥ १०८९॥ लवणसमुद्र और कालसमुद्र तथा स्वयंभूरमण समुद्रमे तो जलचर आदि जीव रहते हैं. और शेष समुद्रो में मन्द्रनगर आदि कोई भी जलचर जीव नहीं रहता है। (ति./२/३१) (रा. बा./३/२२/८/१४/१०) (. पु/५/६३०); (ज. प / ११ / ११ ) ( का. अ / भू. १४४ ) ति./४/२००६. भोगबलोण पदोओ सरपहूदी अलयर विहीणा । - भोगभूमियोकी नदियों, तातान आदिक जलचर जीवोंसे रहित है ११७७३ ॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यंचायु तीर्थकर तीणकर्ण-भरत क्षेत्रके उत्तर आर्य खण्डका एक देश।-दे० मनुष्य/४ तीर्थकर-महापरिनिर्वाण सुत्र, महावग्ग दिव्यावदान आदि मौर ग्रन्थों के अनुसार महात्मा बुद्धके समकालीन छह तीर्थकर थे१. भगवान महावीर; २. महात्मा बुद्ध; ३. मस्करीगोशालः ४. पूरन कश्यप..। तीर्थकर-संसार सागरको स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार करानेवाले महापुरुष तीर्थकर कहलाते हैं । प्रत्येक कलपमें वे २४ होते हैं। उनके गर्भावतरण. जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञानोत्पत्ति व निर्वाण इन पांच अवसरोंपर महान् उत्सव होते हैं जिन्हे पंच कल्याणक कहते हैं। तीर्थंकर बननेके संस्कार षोडशकारण रूप अत्यन्त विशुद्ध भावनाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, उसे तीर्थ कर प्रकृतिका बँधना कहते हैं । ऐसे परिणाम केवल मनुष्य भक्में और वहाँ भी किसी तीर्थकर वा केवलौके पादमूलमें ही होने सम्भव हैं। ऐसे व्यक्ति प्रायः देवगतिमें ही जाते हैं। फिर भी यदि पहलेसे नरकायुका बंध हुआ हो और पीछे तीर्थकर प्रकृति बंधे तो वह जीव केवल तीसरे नरक तक ही उत्पन्न होते हैं, उससे अनन्तर भवमें वे अवश्य मुक्तिको प्राप्त करते है। घ.4/ १६,२०/४२६/१० णत्थि मच्छा वा मगरा का ति जेण तस- जीवपडिसेहो भोगभूमिपडिभागिएमु समुह सु कदो, तेण तस्थ पढमसम्मत्तस्स उपपत्ती ण जुज्नुत्ति त्ति । ण एस दोसो, पृथ्ववइरियदेवेहि खित्तपंचिदियतिरिक्रवाणं तत्थ संभवादो। -प्रश्न-चंकि 'भोगभूमिके प्रतिभागी समुद्रोंमें मत्स्य या मगर नहीं हैं। ऐसा वहाँ उस जीवीका प्रतिषेध किया गया है, इसलिए उन समुद्रो में प्रथम सम्यक्षकी उत्पत्ति मानना उपयुक्त नहीं है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, पूर्व के वैरी देवों के द्वारा उन समुद्रोमें डाले गये पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंकी सम्भावना है। 'त्रि.सा./३२० जलयरजीवा लवणे कालेयंतिमसयभुश्मणे य । कम्ममही पडिबद्ध ण हि सेसे जलयरा जीवा १३२०॥ -जलचर जीव लक्षण समुद्रपिच बहुरि कालोदक विर्षे बहुरि अन्तका स्वयम्भूरमण विर्षे पाइये है। जाते ये तीन समुद्र कर्मभूमि सम्बन्धी है। बहुरि अवशेष सर्व समुद्र भोगभूमि सम्बन्धी है। भोगभूमि विर्षे जलचर जीवोंका अभाव है। तातै इन तीन बिना अन्य समुद्र विषै जलचर जीव नाही। ७. वैरी जीवोंके कारण विकलनय सर्वत्र तिर्यक् लोक में होते हैं ध.४/१, ४, ५६/२४३/- सेसपदेहि वइरिसंबंधेण विगलिदिया सव्वस्थ तिरियपदरभंतरे होति त्ति। =वैरी जीवों के सम्बन्धसे विकलेन्द्रिय जीव सर्वत्र तिर्यक्प्रतरके भीतर ही होते हैं। घ.७/२, ७, ६२/३६७/४ अधवा पुबवेरियदेवपओगेण भोगभूमि पडिभागदीव-समुद्दे पदिदतिरिखकलेबरेसु तस अपज्जत्ताणमुप्पत्ती अस्थि त्ति भणं ताणमहिप्पारण। -[विकलेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका अवस्थान क्षेत्र स्वयंप्रभपर्वतके परभागमें ही है क्योंकि भोगभूमि प्रतिभागमें उनकी उत्पत्ति का अभाव है ] अथवा पूर्व वैरीके प्रयोगसे भोगभूमि प्रतिभागरूप द्वीप समुद्रोंमें पड़े हुए तिर्यंच शरीरोंमें त्रस अपर्याप्तोंकी उत्पत्ति होती है ऐसा कहनेवाले आचार्योंके अभिप्रायसे...। तिथंचायु-दे० आयु । तिर्यचिनी-दे० वेद/३। चतुरस्त्र-Cuband (ज. प /प्र.१०६ ) तिर्यक क्रम-दे० क्रम/१। तिर्यक गच्छ-गुण हानियों का प्रमाण । विशेष -दे० गणित/ Ily तिर्यक् प्रचय-दे० क्रम/१। राजू (ध. १३/५, १, ११६/३७३/१०) तिर्यक लोक-दे० तिर्यंच/३। तिल-एक ग्रह ! -दे० 'ग्रह। तिलक-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर। -दे० विद्याधर । तिलपुच्छ-एक ग्रह। -दे० 'ग्रह' । तिल्लोय पण्णत्ति-आ० यतिवृषभ ( ई० १७६ ) द्वारा रचित लोकके स्वरूपका प्रतिपादक प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है। उसमें । अधिकार और लगभग १००० गाथाएँ हैं । (जै./२/३६,४०) । तीन-तीनकी संख्या कृति कहलाती है। -दे० कृति । तीन चौबीसी व्रत-प्रतिवर्ष तीन वर्ष तक भाद्रपद कृ० ३ को उपवास करे। तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य। (बतविधान सं./पृ०८६) किशनसिह क्रियाकोष । तीर्थकर निर्देश तीर्थ करका लक्षण। तीर्थकर माताका दूध नहीं पीते। गृहस्थावस्थामें अवधिज्ञान होता है पर उसका प्रयोग । नहीं करते। ४ | तीर्थ करोंके पॉच कल्याणक होते है। तीर्थकरके जन्मपर रत्नवृष्टि आदि अतिशय । -दे० कल्याणक। ५ | कदाचित् तीन व दो कल्याणक भी संभव है अर्थात् तीर्थकर प्रकृतिका बंध करके उसी भवसे मुक्त हो सकता है ? ६ तीर्थ करोंके शरीरकी विशेषताएँ। केवलशानके पश्चात् शरीर ५००० धनुष ऊपर चला जाता है। -दे० केक्ली । तीर्थकरोंका शरीर मृत्युके पश्चात कपूरवत् उड़ जाता है। -दे० मोक्षा। हुडावसर्पिणीमें तीर्थंकरोंपर कदाचित् उपसर्ग मी होता है। तीर्थ कर एक कालमें एक क्षेत्रमें एक ही होता है। उत्कृष्ट १७० व जघन्य २० होते है। -दे० विदेह/१ । * दो तीर्थ करोंका परस्पर मिलाप सम्भव नहीं है। -दे० शलाका पुरुष/१ । दतीसरे कालमे भी तीर्थ करकी उत्पत्ति सम्भव है। * | तीर्थ कर दीक्षित होकर सामायिक संयम ही ग्रहण करते है। -दे० छेदोपस्थापना/५॥ प्रथम व अन्तिम तीर्थोंमें छेदोपस्थापना चारित्रकी प्रधानता। -दे० छेदोपस्थापना। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर ३७२ अनुक्रम सभी तीर्थ कर आठ वर्षकी आयुमें अणुव्रती हो जाते है। * सभी तीर्थ करोंने पूर्वभवोंमें ११ अंगका शान प्राप्त किया था। -दे० वह वह तीर्थकर। * स्त्रीको तीर्थंकर कहना युक्त नहीं ---दे. वेद । * तीर्थ करोंके गुण अतिशय १००८ लक्षणादि। -दे० अर्हत/१॥ तीर्थ करोंके साता-असाताके उदयादि सम्बन्धी । -दे० केवली/४। मनुष्य व तिर्यगायुका बन्धके साथ इसकी प्रतिष्ठापना का विरोध है। | सभी सम्यक्त्रोंमें तथा ४-८ गुणस्थानोंमें बँधनेका नियम। तीर्थ कर बन्धके पश्चात् सम्यक्त्व च्युतिका अभाव । ९ बद्ध नरकायुष्क मरणकालमें सम्यक्त्वसे च्युत होता है। १० उत्कृष्ट आयुवाले जीवोंमें तीर्थकर संतकर्मिक मिथ्या दृष्टि नहीं जाते। ११ नरकमें भी तीसरे नरकके मध्यम पटलसे आगे नहीं जाते। १२ वहाँ भी अन्तिम समय नरकोपसर्ग दूर हो जाता है। | तीर्थ कर संतकर्मिकको क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति स्वतः हो जाती है। १४ | नरक व देवगतिसे आये जीव ही तीर्थकर होते है। १ तीर्थकर प्रकृति बन्ध सामान्य निर्देश तीर्थकर प्रकृतिका लक्षण । तीर्थ कर प्रकृतिकी बन्ध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ। -दे० वह वह नाम । तीर्थकर प्रकृतिके बन्ध योग्य परिणाम -दे० भावना/२॥ * | दर्शनविशुद्धि आदि भाबनाएँ -दे०वह बह नाम । इसका बन्ध तीनों वेदोंमें सम्भव है पर उदय केवल ___पुरुष वेदमें ही होता है। परन्तु देवियोंके इसका बन्ध सम्भव नहीं। ४ | मिथ्यात्वके अभिमुख जीव तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट बन्ध करता है। ५ अशुभ लेश्याओंमें इसका बन्ध सम्भव है। तीर्थकर प्रकृति संतकर्मिक तीसरे भव अवश्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है। ७ तीर्थकर प्रकृतिका महत्त्व । * | तीर्थकर व आहारक दोनों प्रकृतियोंका युगपत् सत्त्व मिथ्यादृष्टिको सम्भव नहीं - दे० सत्त्व/२ । * तीर्थ कर प्रकृतिवत् गणधर आदि प्रकृतियोंका भी __उल्लेख क्यों नहीं किया। -दे० नामकर्म। * तीर्थकर प्रकृति व उच्चगोत्रमें अन्तर । -दे० वर्णव्यवस्था/१। तीर्थकर प्रकृति सम्बन्धी शंका-समाधान मनुष्य गतिमें ही इसकी प्रतिष्ठापना क्यों ? केवलीके पादमूलमें ही बंधनेका नियम क्यों ? अन्य गतियों में तीर्थ करका बन्ध कैसे सम्भव है। तिर्यचतिमें उसके बन्धका सर्वथा निषेध क्यों ? | नरकगतिमें उसका बन्ध कैसे सम्भव है। कृष्ण व नील लेश्यामें इसके बन्धका सर्वथा निषेध न क्यों ? प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें इसके बन्ध सम्बन्धी दृष्टि-भेद ।। तीर्थकर प्रकृति बन्धमें गति, आयु व सम्य वत्व सम्बन्धी नियम तीर्थ कर प्रकृति बन्धकी प्रतिष्ठापना संबन्धी नियम । २ । प्रतिष्ठापनाके पश्चात् निरन्तर बन्ध रहनेका नियम । नरक तिर्यचगति नामकर्मके बन्धके साथ इसके बन्ध का विरोध है। ४ | इसके साथ केवल देवगति बॅधती है। इसके बन्धके स्वामी। तीर्थकर परिचय सूची भूत, भावी तीर्थं कर परिचय । २ वर्तमान चौबीसीके पूर्वभव नं० २ का परिचय । वर्तमान चौबीसीके वर्तमान भवका परिचय (सामान्य) १ गर्भावतरण। २जन्मावतरण। ३दीक्षा धारण । ४ ज्ञानावतरण । ५ निर्वाण-प्राप्ति । ६ संघ। | वर्तमान चौबीसीके आयुकालका विभाव परिचय। वर्तमान चौबीसीके तीर्थकाल व तत्कालीन प्रसिद्ध । पुरुष। ६ विदेह क्षेत्रस्थ तीर्य करोंका परिचय । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर २. तीर्थकर प्रकृति बन्ध सामान्य निर्देश १. तीर्थंकर निर्देश १. तीर्थ करका लक्षण ध.१/१,१,१/गा.४४/५८ सकलभुवनै कनाथस्तीर्थकरो वर्ण्यते मुनिवरिष्ठ । विधुधवलचामराणां तस्य स्याद्वै चतु'षष्टिः ।४४) -जिनके ऊपर चन्द्रमाके समान धवल चौसठ चंवर ठुरते हैं, ऐसे सकल भुवनके अद्वितीय स्वामीको श्रेष्ठ मुनि तीर्थकर कहते है। भ.आ./मू./३०२/५१६ णित्थयरो चदुणाणी सुरमहिदो सिज्झिदव्यय धुवम्मि । भ. आ /वि./३०२/५१६/७ श्रुतं गणधरा...तदुभयकरणात्तीर्थकरः ।... मार्गो रत्नत्रयात्मकः उच्यते तत्करणात्तीर्थकरो भवति । मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ऐसे चार ज्ञानोके धारक, स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और दीक्षा कल्याणादिकोमें चतुर्णिकाय देवोंसे जो पूजे गये हैं, जिनको नियमसे मोक्ष प्राप्ति होगी ऐसे तीर्थंकर...। श्रुत और गणधरको भी जो कारण हैं उनको तीर्थंकर कहते हैं। "अथवा रत्नत्रयात्मक मोक्ष-मार्गको जो प्रचलित करते है उनको तीर्थ कर कहते हैं। स.श./टी./२/२२२/२४ तीर्थ कृतः संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थमिव तीर्थमागमः तत्कृतवतः । = संसारसे पार होनेके कारणको तीर्थ कहते है, उसके समान होनेसे आगमको तीर्थ कहते है, उस आगमके कर्ताको तीर्थकर है। त्रि.सा./६८६ सयलभुवणेकणाहो तित्थयरो कोमुदीव कुदं वा। धवलेहि चामरेहि चउसटिहिं विजमाणो सो ६८६। - जो सकल लोकका एक अद्वितीय नाथ है। बहुरि गडूलनी समान वा कुन्देका फूलके समान श्वेत चौसठि चमरनि करि वीज्यमान है सो तीर्थ कर जानना। सौ अठतीस सत्त्व पाइये, तिसके छह महीना आयुका अवशेष रहे मनुष्यायुका बन्ध होई अर नारक उपसर्गका निवारण होइ अर गर्भ कल्याणादिक होई । (गो.क./जी.प्र./५४६/७०८/११); (गो.क /जी प्र./५४६/७०८/११) ५. कदाचित् तीन वदो कल्याणक मी सम्भव हैं गो.क./जी.प्र./५४६/७०८/११ तीर्थबन्धप्रारम्भश्चरमाङ्गाणा संयतदेश संयतयोस्तदा कल्याणानि निष्क्रमणादीनि त्रीणि, प्रमत्ताप्रमत्तयोस्तदा ज्ञाननिर्वाणे द्वे । - तीर्थंकर बन्धका प्रारम्भ चरम शरीरीनिकै असंयत देशसंयत गुणस्थानविय होइ तो तिनके तप कल्याणादि तीन ही कल्याण होइ अर प्रमत्त अप्रमत्त विर्षे होई तो ज्ञान निर्वाण दो ही कल्याण होई (गो.क./जी.प्र./३८१/५४६/५) । ६. तीर्थंकरोंके शरीरकी विशेषताएँ मो.पा./टी./३२/६८ पर उधृत-तित्थयरा तप्पियरा हलहरचक्की ये अद्धचक्की य । देवा य भयभूमा आहारो अस्थि णस्थि नीहारो।। तथा तीर्थ कराणां स्मश्रणी कूर्चश्च न भवति, शिरसि कुन्तलास्तु भवन्ति । - तीर्थंकरोके, उनके पिताओंके, बलदेवोंके, चक्रवर्तकि, अर्धचक्रवर्तीके, देवोके तथा भोगभूमिजोके आहार होता है परन्तु नीहार नहीं होता है। तथा तीर्थकरों के मूछ-दाढी नही होती परन्तु शिरपर बाल होते हैं । निगोद से रहित होता है। ७. हुंडावसर्पिणीमें तीर्थंकरोंपर कदाचित् उपसर्ग भी होता है ति.प./४/१६२० सत्तमतेवीसंतिमतित्थयराण च उबसग्गो १६२०॥ - (हुंडावसर्पिणी काल मे) सातवें, तेईसवें और अन्तिम तीर्थंकरके उपसर्ग भी होता है। ८.तीसरे कालमें भी तीर्थकरकी उत्पत्ति सम्भव ति.प./४/१६१७ तक्काले जायंते पढमजिणो पढ़मचक्की य ।१६१७५ =(हंडावसर्पिणी) कालमे प्रथम तीर्थकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं ।१६१७। ९. सभी तीर्थकर आठ वर्षकी आयुमें देशवती हो जाते हैं म.पु /५३/३५ स्वायुराद्यष्टवभ्यः सर्वेषां परतो भवेत् । उदिताष्टकषायाण तीर्थेशा देशसंयमः ॥३५॥ =जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ कषायोंका ही केवल उदय रह जाता है, ऐसे सभी तीर्थकरोके अपनी आयुके आठ वर्ष के बाद देश संयम हो जाता है। २ तीर्थकर माताका दूध नहीं पीते । म.पु./१४/१६५ धाग्यो नियोजिताश्चास्य देव्य. शक्रेण सादरम्। मज्जने मण्डने स्तन्ये संस्कारे क्रीडनेऽपि च ।१६५॥ इन्द्रने आदर सहित भगवानको स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, दूध पिलाने, शरीरके संस्कार करने और खिलानेके कार्य करने में अनेकों देवियोंको धाय बनाकर नियुक्त किया था।१६॥ ३. गृहस्थावस्थामें ही अवधिज्ञान होता है पर उसका प्रयोग नहीं करते ह.पु./४३/७८ योऽपि नेमिकुमारोऽत्र ज्ञानत्रयविलोचन । जानन्नपि न सब यान्न विद्यो केन हेतुना ७८ = [कृष्णके पुत्र प्रद्य इनके धूमकेतु नामक असुर द्वारा चुराये जानेपर नारद कृष्णसे कहता है)...यहाँ जो तीन ज्ञानके धारक नेमिकुमार (नेमिनाथ) हैं वे जानते हुए भी नहीं कहेगे। किस कारणसे नहीं कहेगे। यह मैं नहीं जानता। १. तीथंकरोंके पाँचकल्याणक होते हैं गो.जी./जी.प्र./३८१/६ अथ तृतीयभवे हन्ति तदा नियमेन देवायुरेष बध्वा देवो भवेत् तस्य पञ्चकल्याणानि स्यु' । यो बद्धनारकायुस्तीर्थसत्त्वः स प्रथमपृश्यां द्वितीयायां तृतीयायां वा जायते। तस्य षण्मासावशेषे बद्धमनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारणं गर्भावतरणकल्याणादयश्च भवन्ति । - तीसरा भव विषै घाति कर्म नाश करै तो नियम करि देवायु ही बांधें तहाँ देवपर्याय विषै देवायु सहित एकसौ अठतीस सत्त्व पाइये. तिसके छः महीना अवशेष रहैं मनुघ्यायुका बन्ध होइ अर पंच कल्याणक ताकै होइ । बहुरि जाकै मिथ्यावृष्टि विर्षे नरकायुका बंध भया था अर तीर्थ करका सत्त्व होई तो वह जीव नरक पृथ्वी विर्षे उपजै तहाँ नरकायु सहित एक २. तीर्थकर प्रकृति बन्ध सामान्य निर्देश १.तीर्थकर प्रकृतिका लक्षण स.सि./८/११/३६२/७ आईन्स्यकारणं तीर्थकरत्वनाम। -आर्हत्यका कारण तीर्थ कर नामकर्म है। (रा.बा./८/११/४०/५८०); (गो.क./जी.प्र./ ३३/३०/१२)। घ.६/१,६-१,३०/६७/१ जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स तिलोगपूजा होदि तं तित्थयरं णाम। -जिस कर्मके उदयसे जीवकी त्रिलोकमें पूजा होती है वह तीर्थंकर नामकर्म है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर - ध. १३/५,१०१/३६६/७ जस्स कम्ममुदएण जीवो पंचमहाकल्लाणाणि पानिति दुवाससंग कुदि से तित्ययरणामं जिस कर्मके उदयसे जीव पाँच महा कल्याणकोको प्राप्त करके तीर्थ अर्थात् बारह अंगों की रचना करता है वह तीर्थंकर नामकर्म है । २. इसका बन्ध तीनों वेदोंमें सम्भव है पर उदय केवल पुरुष वेदमें हो गो क./जी.प्र./११/१११/१५ स्त्रीषंढवेदयोरपि तीर्थाहारकबंधो न विरुप्यते उदयस्यैष बेदिषु नियमाय स्त्रीवेदी पर नपुंसकवेदी के तीर्थंकर अर बाहारक द्विकका उदय तो न होइ पुरुषवेदी ही के हो बरबंध होने विह्नि विरोध नाहीं । दे० वेद /७/६ षोडशकारण भावना भानेवाला सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रियों में उत्पन्न नहीं हो सकता । ३. परन्तु देवियोंके इसका बन्ध सम्भव नहीं शोक/जी.प./९९९/१६ कम्पस्त्रीषु च तीर्थवन्धाभावात् वासिनी देवांना तीर्थकर प्रकृतिका मन्ध सम्भव नाहीं (गो.क./ जी... / ११२/१६/१३) । कल्प ४. मिध्यात्व अभिमुख जीव तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट बन्ध करता है सस्स म बं / २ / ३७०/२५७/८ तित्थयरं उक्क० ठिदि० कस्स । अण्णद० मणुअर्स सम्माहिहिस्स सागार जागार० तप्पाओोगस्स० मिथ्यादिदिहस्स प्रश्न- तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थिति बन्धका स्वामी कौन है ? उत्तर--जो साकार जागृत है, त प्रायोग्य संपले परिणामवाला है और निष्यात्म के अभिमुख है ऐसा अन्यतर मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि जीव तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। ५. अशुभ लेश्याओंमें इसका बन्ध सम्भव है किणीता तिथवरं तं काव म.नं./९/१९८०/१३२/४ कृष्ण और मील में सीकर फो संयुक्त करना चाहिए। गो.क./जी.प्र./३५४/०६/८ अशुभलेश्यात्रये तीर्थबन्धप्रारम्भाभावात् । बनारकापोऽपि द्वितीयतृतीययोः कपोतलेश्ययैव गमनाय । -अशुभ संध्या निवें तीर्थंकरका प्रारम्भ न होय मरि जायें नरका बँध्या होइ सो दूसरी तीसरी पृथ्वी विषै उपजै तहाँ भी कपोत लेश्या पाइये । ६. तीर्थंकर संतकर्मिक तीसरे मव अवश्य मुक्ति प्राप्त करता है ३७४ 200 .. ६.८/३.३८/०५/१ पारद्धतित्वयरबंधभवादो सदियभने तित्ययरसंतकम्मपत्रीमा मोक्लममणियमादो जिसमें सीवर प्रकृतिका बन्ध प्रारम्भ किया है उससे तीसरे भव में तीर्थंकर प्रकृतिके सत्वयुक्त जीवोंके मोक्ष जानेका नियम है। ७. तीर्थंकर प्रकृतिका महत्व ६.पू./२/२४ नोभासयगर्भस्ता रवि प्रावृषं यथा ॥२४॥ जिस प्रकार मेघमालाके भीतर छिपा हुआ सूर्य वर्षा ऋतुको सुशोभित करता है। उसी प्रकार माता प्रियकारिणीको वह प्रच्छन्नगर्भ सुशोभित करता था । म.पू./१२/१६-६७१६३ पण्मासानिति सामप्तत् पुण्ये नाभिनुप स्वर्गावतरणाद्भर्त्तु प्राक्तरां द्य ुम्नसंततिः | १६ | पश्चाच नवमासेषु ३. तीर्थकर प्रकृति बन्धमें गति .... वसुधारा तदा मता । अहो महान् प्रभावोऽस्य तीर्थ कृत्त्वस्य भाविनः तदाप्रभृतिशासनाताः सिषेभिरे दिवकुमार्योऽचारिण्यः १६३ कुबेरने स्वामी वृषभदेव के स्वभावतरणसे छह महीने पहले से लेकर अतिशय पवित्र नाभिराजके घरपर रत्न और सुवर्ण की वर्षा को भी और इसी प्रकार गर्भावतरण से पीछे भी नौ महीने तक रत्न तथा सुवर्ण की वर्षा होती रही थी। सो ठीक है क्योंकि होनेवाले तीर्थंकरका आश्चर्यकारक बड़ा भारी प्रभाव होता है। उसी समय से लेकर इन्द्रकी आज्ञा से दिक्कुमारी देवियाँ उस समय होने योग्य कार्योंके द्वारा दासियोंके समान मरुदेवीकी सेवा करने लगीं । १६३ | और भी-दे० कल्याणक । ३. तीर्थंकर प्रकृतिबन्धमें गति, आयु व सम्यक्त्व सम्बन्धी नियम 9. तीर्थंकर प्रकृतिबन्धकी प्रतिष्ठापना सम्बन्धी नियम घ. ०/३.४० /०८/० तत्थ मनुस्सगदी पे तिरपयरकम्मस्स बंधपारंभी होदि ण अनास्थेति । मसाणोमलवियजी दस्य सहकारिकारमरस तिरथरणामयम्मबंधपारंभस् तेग बिना समुप्यतिविरोहादो । -मनुष्य गतिमें ही तीर्थकर कर्म के बन्धका प्रारम्भ होता है, अन्यत्र नहीं। क्योकि अन्य गतियोंमे उसके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता, कारण कि तीर्थंकर नामकर्मके बन्धके प्रारम्भका सहकारी कारण केवलज्ञानसे उपलक्षित जीवद्रव्य है, अतएव, मनुष्यगतिके बिना उसके बन्ध प्रारम्भकी उत्पत्तिका विरोध है। गो. क./जी. प्र. / १३/०८/७)1 .. २. प्रतिष्ठापना के पश्चात् निरन्तर बन्ध रहनेका नियम ६. ८/३.३८/०४/४ गिरतरो मंचों, सबंध कारणे संते अद्धा बंधुवरमाभावादी । बन्ध इस प्रकृतिका निरन्तर है, क्योंकि अपने कारण होने पर कालक्षयसे बन्धका विश्राम नहीं होता ! गो.क./जी.प्र./१३/०८/१० न च तिर्यग्यजिगत्रिये सीर्यवन्धाभावो ऽस्ति बन्धकस्य उत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्ताधिकान पूर्वकोटिद्वयाधिक प्रमस्त्रित्सागरोपमादतिर्यच गति बिना तीनों गति विषै तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध है । ताकौ प्रारम्भ कहिये तिस समयत लगाय समय समय विषै समयबद्ध रूप बन्ध विषै तीर्थकर प्रकृतिका भी गंध हुआ करे है हो उपने अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष घाट दोय कोडि पूर्व अधिक तेतोस सागर प्रमाणकाल पर्यन्तमय हो है ( गो . भाषा ७०५/१०/१५) (गो. भाषा १६७/५२१/८ ) । ३. नरक व तिर्यंच गति नामकर्मके बन्धके साथ इसके बन्धका विरोध है घ. ८/३.२८/०४/२ दिवसरपंचस्स गिरव-तिरिचगह सह विरो हादो | तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धका नरक व तियंच गतियोंके बन्धके साथ विरोध है । ४. इसके साथ केवल देवगति बँधती है , ६. ८/२.३८/०४/२ उवरिमा देवमहसंजुतं मधुसगदिजीवा तित्यमरमं धस्स देवराई मतृण अगईहि सह विरोहादो - उपरिम जीव देवगति से संयुक्त बाँधते हैं, क्योंकि, मनुष्यगति में स्थित जीवों तीर्थंकर प्रकृतिमन्धका देवगतिको छोड़कर अन्य पत्तियों के साथ विरोध है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर ३. ती यंकर प्रकृति बन्धमें गति.... १० उत्कृष्ट आयुवाले जीवोंमें तीर्थकर सन्तकर्मिक मिथ्यादृष्टि नहीं जाते ध. ८/३,२५८/३३२/४ ण चउक्कस्साउएस तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादो अस्थि, तहोबएसाभावादो। - उत्कृष्ट आयुवाले जीवों में तीर्थ कर सन्तकर्मिक मिथ्यावृष्टियों का उत्पाद है नहीं, क्योंकि बैसा उपदेश नहीं है। ५. इसके बन्धके स्वामी ध.८/३,३८/७४/७ तिगदि असंजदसम्मादिट्ठी सामी, 'तिरिक्रखगईए तित्थयरस्स बंधाभावादो। तीन गतियोके असंयत सम्यग्दृष्टि जीव इसके बन्धके स्वामी हैं, क्योकि तिर्यग्गतिके साथ तीर्थकरके बन्धका अभाव है। ६. मनुष्य व तिर्यगायु बन्धके साथ इसकी प्रतिष्ठापना का विरोध है गो. क./जी प्र./३६६/५२४/११ बद्धतिर्यग्मनुष्यायुष्कयोस्तीर्थसत्त्वाभावाद ।...देवनारकासंयतेऽपि तदबंध 'संभवात् । - मनुष्यायु तियचायुका पहले बन्ध भया होइ ताकै तीर्थकरका बन्ध न होइ।...देव- नारकी विषै तीर्थ करका बन्ध सम्भवै है। ७. समी सम्यक्त्वोंमें तथा ४-८ गुणस्थानों में बन्धनेका नियम गो, क./म./१३/७८ पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि। तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुर्ग ते ।३।। गो.क./जी. प्र./१२/७७/१२ तीर्थबन्ध असंयताद्यपूर्वकरणषष्ठभागान्तसम्य दृष्टिध्वेष । प्रथमोपशम सम्यक्त्व विषै वा अवशेष द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्व विषै असंयतत लगाइ अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त मनुष्य हो तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धको प्रारम्भ करे है । तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध असंयमते लगाई अपूर्वकरणका छटा । भाग पर्यन्त सम्यग्दृष्टि विष ही हो है। ..तीर्थकर बंधके पश्चात् सम्यक्त्व च्युतिका अभाव गो. क |जी, प्र./११०/७४३/३ प्रारब्धतीर्थबन्धस्य बद्धदेवायुष्कवदबद्धायुष्कस्यापि सम्यक्त्वप्रच्युत्याभावात् । देवायुका बन्ध सहित तीर्थकर बन्धवाल के जैसे सभ्यबस्वतें भ्रष्टता न होइ तैसे अबद्धायु देवके भी न होइ। गो. क./जी.प्र./०४५/६ प्रारब्धतीर्थबन्धस्यान्यत्र बद्धनरकायुष्कारसम्य क्वापच्युतिर्नेति तीर्थबन्धस्य नैरन्तर्यात् । - तीर्थकर बन्धका प्रारम्भ भये पीछे पूर्वे नरक आयु बन्ध बिना सम्यक्त्व ते भ्रष्टता न होइ थर तीमकरका बन्ध निरन्तर है। ९. बनस्कायुष्क मरण कालमें सम्यक्त्वसे च्युत होता ११. नरकमें भी तीसरे नरकके मध्यम पटलसे आगे नहीं जाते घ.८/३, २५८/३३२/३ तत्थ हेट्ठिमइंदए णीललेस्सासहिए तित्थयर संतकम्मिय मिच्छाइट्ठीणमुबबादाभावादो। कुदो तत्थ तिस्से पुढवीए उक्कस्साउदसणादो (तीसरी पृथिवी में) नील लेश्या युक्त अधस्तन इन्द्रकमें तीर्थंकर प्रकृतिके सत्त्ववाले मिथ्यादृष्टियोंकी उत्पत्तिका अभाव है। इसका कारण यह है कि वहाँ उस पृथिवीकी उत्कृष्ट आयु देखी जाती है। (ध.८/३, ५४/१०५/६); (गो. क./जी. प्र./३८१/५४६/७)। १२. वहाँ अन्तिम समय उपसर्ग दूर हो जाता है त्रि. सा./१६५ तित्थयर संतकम्मुवसग्गं णिरए णिवारयति सुरा । छम्मासाउगसेसे सग्गे अमलाणमालको ।१६। तीर्थंकर प्रकृत्तिके सत्त्ववाले जीवके नरकायु वि छह महीना अवशेष रहे देव नरक विषै ताका उपसर्ग निवारण करै है। बहुरि स्वर्ग विर्षे छह महीना आयु अवशेष रहे मालाका मलिन होना चिन्ह न हो है। गो. क./जी. प्र./३८१/५४६/७ यो बदनारकायुस्तीर्थसत्त्वः तस्य षण्मासावशेषे बदमनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारण गर्भावतरणकल्याणादयश्च भवन्ति । = जिस जीवके नरकायुका बन्ध तथा तीर्थ करका सत्त्व होइ, तिसके छह महीना आयुका अवशेष रहे मनुष्यायुका बन्ध होइ अर नारक उपसर्गका निवारण अर गर्भ कल्याणादिक होई। १३. तीर्थकर संतकर्मिकको क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति स्वतः हो जाती है ध.६/१-१-८, १२/२४७/१७ विशेषार्थ-पूर्वोक्त व्याख्यानका अभिप्राय यह है कि सामान्यतः तो जीव दुषम-सुषम कालमें तीर्थंकर, केवली या चतुर्दशपूर्बीके पादमूल में ही दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करते हैं, किन्तु जो उसी भवमे तीथ कर या जिन होनेवाले हैं वे तीर्थ करादिकी अनुपस्थितिमें तथा सुषमदुषम कालमे भी दर्शनमोहका क्षपण करते हैं। उदाहरणार्थ- कृष्णादि व वर्धनकुमार । १४. नरक व देवगतिसे आये जीव ही तीर्थकर होते हैं प. खं.६/१, ६-६/सू. २२०, २२६ मणुसेस उबवण्णलया मणुरसा.. केई तित्थयरत्तमुप्पाएं ति...॥२२०॥ मणुसेसु उबवण्णल्लया मणुसा.. केई तिस्थयरत्तमुप्पाएंति ॥२२६॥ मणुसेसु उववण्णालया मणुसा. णो तित्थयरमुप्पाएंति । - ऊपरकी तीन पृथिवियोंसे निकलकर मनुष्योमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्य.. कोई तीर्थ करत्व उत्पन्न करते हैं ॥२२०॥ देवगतिसे निकल कर मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्य.. कोई तीर्थकरत्व उत्पन्न करते हैं ॥२२६॥ भवनवासी आदि देव-देवियाँ मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्य होकर...तीर्थंकररव उत्पन्न नहीं करते हैं ॥२३३॥ [ इसी प्रकार तिर्यञ्च व मनुष्य तथा चौथी आदि पृथिवियोंसे मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्य तीर्थकरत्व उत्पन्न नहीं करते हैं। रा. पा./३/६/७/१६४/२ उपरि तिसृभ्य उद्वतिता. मनुष्येषूत्पन्ना... केचित्तीर्थकरत्वमुत्पादयन्ति। -तीसरी पृथ्वीसे निकलकर मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले कोई तीर्थकरत्वको उत्पन्न करते हैं । ध.६/३,५४/१०/ तित्थयर बंधमाणसम्माइट्ठीणं मिच्छत्तं गंतुणं तित्थयरसंतकमेण सह विदिय-तदियपुढवीम व उप्पज्जमाणाणमभावादो। तीर्थकर प्रकृतिको बाँधनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यास्वको प्राप्त होकर तीर्थ कर प्रकृतिकी सत्ताके साथ द्वितीय व तृतीय पृथिवियोंमें उत्पन्न होते हैं वैसे इन पृथिवियोंमें उत्पन्न नहीं होते। गो. क./जी. प्र./३३६/४८७/३ मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने कश्चिदाहारकद्वयमुष्य नरकायुर्ववाऽसंयतो भूत्वा तीर्थं बद्भवा द्वितीयतृतीयपृथ्वीगमनकाले पुनर्मिथ्याष्टिर्भवति । -मिथ्यात्व गुणस्थानमें आय आहारकद्विकका उद्वेलन किया, पीछे नरकायुका बन्ध किया, तहाँ पीछे असंयत्त गुणस्थानवर्ती होइ तीर्थ कर प्रकृतिका बन्ध कीया पीछ दूसरी वा तीसरी नरक पृथ्वीको जानेका कालविर्ष मिथ्या दृष्टी भया। गी.क./जी.प्र./५४६/७२५/१८ शामेघयोः सतीर्था पर्याप्तत्वे नियमन मिथ्यात्वं त्यक्त्वा सम्यग्दृष्टयो भूत्वा । वंशा मेधा विर्षे तीर्थ कर सत्त्य सहित जीय सो पर्याप्ति पूर्ण भए नियमकरि मिथ्यात्वको छोडि सम्यग्दृष्टि होइ। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर ४. तीर्थंकर प्रकृति सम्बन्धी शंका-समाधान ४. तीर्थकर प्रकृति सम्बन्धी शंका-समाधान १. मनुष्यगतिमें ही इसकी प्रतिष्ठापना क्यों जाता है ? उत्तर-ऐसा होना सम्भव नहीं है, क्योंकि जिन्होंने पूर्व में त्यिंच व मनुष्यायुका बन्ध कर लिया है उन जीवोके नरक व देव आयुओंके बन्धसे संयुक्त जीवोंके समान तीर्थ कर कर्मके बन्धका अभाव है। प्रश्न-वह भी कैसे सम्भव है। उत्तर-क्योंकि जिस भवमें तीर्थंकर प्रकृतिका बंध प्रारम्भ किया है उससे तृतीय भवमें तीर्थकर प्रकृतिके सत्त्वयुक्त जीवोंके मोक्ष जानेका नियम है। परन्तु तिथंच और मनुष्योंमें उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंकी देवों में उत्पन्न न होकर देव नारकियों में उत्पन्न हुए जीवों के समान मनुष्यों में उत्पत्ति होती नहीं, जिससे कि तिर्यच व मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंकी तृतीय भवमें मुक्ति हो सके। इस कारण तीन गतियों के असंयत सम्यग्दृष्टि ही तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धके स्वामी हैं। घ. ८/३, ४०/७८/८ अण्णगदीसु किण्ण पारंभो होदित्ति वुत्ते-ण होदि, केवलणाणोवलक्खियजीवदव्वसहकारिकारणस्स तिस्थयरणामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्तिविरोहादो। -प्रश्न-मनुष्यगतिके सिवाय अन्य गतियोंमें इसके बन्धका प्रारम्भ क्यों नहीं होता! उत्तर-अन्य गतियोमें इसके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता, कारण कि तीर्थकर नामकर्म के प्रारम्भका सहकारी कारण केवलज्ञानसे उपलक्षित जीव द्रव्य है, अतएव मनुष्य गतिके बिना उसके बन्ध प्रारम्भको उत्पत्तिका विरोध है। गो. क./जी. प्र./६३/७८/१० नरा इति विशेषणं शेषगतिज्ञानमपाकरोति विशिष्टप्रणिधानक्षयोपशमादिसामग्री विशेषाभावात् । -बहुरि मनुष्य कहनेका अभिप्राय यह है जो और गतिवाले जीव तीर्थ कर बंधका प्रारंभ न करें जातै और गतिवाले जीवनिकै विशिष्ट विचार क्षयोपशमादि सामग्रीका अभाव है सो प्रारंभ तो मनुष्य विष ही है। २. केवलोके पादमूलमें ही बन्धनेका नियम क्यों गो. क./जी. प्र/६३/७८/११ केवलिद्वयान्ते एवेति नियमः तदन्यत्र तागविशुद्धिविशेषासंभवाव । - प्रश्न-[ केवलीके पादमूलमे ही बन्धने का नियम क्यों.] उत्तर-बहुरि केवलिके निकट कहनेका अभिप्राय यह है जौ और ठिकानै ऐसी विशुद्धता होई नाही, जिस तीर्थ कर बंधका प्रारंभ होई। ५. नरकगतिमें उसका बन्ध कैसे सम्भव है। गो, क./जी. प्र./५५०/७४२/२० नन्वविरदादिचत्तारितित्थयरबंधपारंभया णरा केवलि दुगंते इत्युक्तं तदा नारकेषु तद्युक्तस्थानं कथं बध्नाति । तन्न। प्रारबद्धनरकायुषां प्रथमोपशमसम्यक्त्वे वेदकसम्यक्त्वे वा प्रारब्धतीर्थबन्धानां मिथ्यादृष्टित्वेन मृत्वा तृतीयपृथ्व्यन्तं गताना शरीरपर्याप्तरुपरि प्राप्ततदन्यतरसम्यक्त्वाना तद्भन्धस्यावश्यभावात । प्रश्न-"अविरतादि चत्तारि तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते" इस वचन ते अविरतादि च्यारि गुणस्थानवाले मनुष्य ही केवली द्विक निकटि तीर्थकर बंधके प्रारंभक कहे नरक विष कैसे तीर्थंकरका बंध है। उत्तर-जिनके पूर्व नरकायुका बंध होइ', प्रथमोपशम वा वेदक सम्यग्दृष्टि होय तीर्थकरका बन्ध प्रारम्भ मनुष्य करै पोछे मरण समय मिथ्यादृष्टि होइ तृतीय पृथ्वीपर्यंत उपजै तहो शरीर पर्याप्त पूर्ण भए पीछे तिन दोऊनि मै स्यों किसी सम्यक्त्वको पाई समय प्रबद्ध विर्षे तीर्थंकरका भी बंध करै है। १. कृष्ण व नील लेश्यामें इसके बन्धका सर्वथा निषेध क्यों ३. अन्य गतियों में तीथकरका बन्ध कैसे सम्भव है गो क./जी. प्र./५२४/१२ देवनारकासंयतेऽपि तद्बन्ध' कथं । सम्यक्त्वाप्रच्युतावुत्कृष्टतन्निरन्तरवन्धकालस्यान्तर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्ष न्यूनपूर्वको - टिद्वयाधिकत्रयस्त्रिशत्सागरोपममात्रत्वेन तत्रापि भवात् । - प्रश्नजो मनुष्य ही विर्षे तीर्थ कर बंधका प्रारम्भ कहा तो देव, नारकीकै असंयतविर्षे तीर्थ कर बन्ध कैसे कहा । उत्तर-जो पहिले तीर्थ कर बंधका प्रारंभ तौ मनुष्य ही कै होइ पीछे जो सम्यक्त्वस्यों भ्रष्ट न होइ तो समय समय प्रति अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष घाटि दोयकोडि पूर्व अधिक तेतीस सागर पर्यन्त उत्कृष्ट पनै तीर्थ कर प्रकृतिका बंध समयप्रबद्धविष हुआ करै तातै देव नारकी विर्षे भो तीर्थकरका बंध संभव है। ४. तिर्यचगतिमें उसके बन्धका सर्वथा निषेध क्यों ध.८/३, ३८/७४/८ मा होदु तत्थ तित्थयरकम्मबंधस्स पारंभो, जिणाणमभवादो। किंतु पुव्व बद्धतिरिक्खाउआणं पच्छा पडिवण्णसम्मत्तादिगुणेहि तित्थयरकम्मं बंधमाणाणं पुणो तिरिक्खेमुप्पण्णाणं तित्थयरस्स बंधस्स सामित्तं लब्भदि त्ति वुत्ते-ण, बद्धतिरिक्रवमणुस्साउआणं जीवाणं बद्धणिरय-देवाउआणं जीवाणं व तित्थयरकम्मस्स बंधाभावादो। तं पि कुदो। पारद्धतित्थयरबंधभवादो तदिय भवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमण-णियमादो। ण च तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठोणं देवेसु अणुप्पज्जिय देवणेरइएसुप्पण्णाणं व मणुस्सेसुप्पत्ती अत्थि जेण तिरिक्व-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं तदियभवे णिव्वुई होज्ज। तम्हा तिगइअसंजदसम्माइट्ठिणो चेव सामिया त्ति सिद्ध। -प्रश्न-तिर्यग्गतिमें तीर्थकर कर्म के बन्धका प्रारम्भ भले ही न हो, क्योंकि वहाँ जिनोंका अभाव है। किन्तु जिन्होंने पूर्व में तिर्यगायुको बान्ध लिया है, उनके पीछे सम्यक्त्वादि गुणोके प्राप्त हो जानेसे तीर्थ कर कर्मको बान्धकर पुनः तिर्यञ्चो में उत्पन्न होनेपर तीर्थंकरके बन्धका स्वामोपना पाया ध. ८/३, २५८/३३२/३ तत्थ हेट्ठिमइंदर णीललेस्सासहिए तित्थयरसंतकम्मियामिच्छाइटीणमुववादाभावादो। ... तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणं णेरइएसुववज्जमाणाणं सम्माइट्ठीणं व काउलेस्सं मोत्तूण अण्णलेस्साभावादो वा ण णीलकिण्हलेस्साए तित्थयरसंतकम्मिया अत्थि। =प्रश्न- [कृष्ण, नीललेश्यामें इसका बंध क्यों सम्भव नही है।] उत्तर-नील लेश्या युक्त अधस्तन इन्द्रकमे तीर्थंकर प्रकृतिके सत्त्ववाले मिथ्याष्टियोंकी उत्पत्तिका अभाव है।...अथवा नारकियों में उत्पन्न होनेवाले तीर्थ कर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि जीवोंके सम्यग्दृष्टियोंके समान कापोत लेश्याको छोड़कर अन्य लेश्याओं का अभाव होनेसे नील और कृष्ण लेश्यामें तीर्थकरकी सत्तावाले जीव नहीं होते हैं। (गो. क./जी.प्र./३५४/५०६/८) ७. प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें इसके बन्ध सम्बन्धी दृष्टि भेद गो. क./जी. प्र./१३/७८/८ अत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वे इति भिन्नविभक्तिकरणं तत्सम्यक्त्वे स्तोकान्तर्मुहूर्तकालयात षोडशभावनासमृद्ध्यभावात् तद्बन्धप्रारम्भो न इति केचित्पक्ष ज्ञापयति । -इहाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्वका जुदा कहनेका अभिप्राय ऐसा है जो कोई आचार्यनिका मत है कि प्रथमोपशमका काल थोरा अंतर्मुहर्त मात्र है तातें षोडश भावना भाई जाइ नाही, तातै प्रथमोपशम विर्षे तीर्थकर प्रकृतिके बंधको प्रारंभ नाहीं है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर ५. तीर्थंकर परिचय सारणी १. भूत भावी तीर्थकर परिचय नं० १. भूतकालीन जयसेन प्रतिष्ठा पाठ / ४००-४१३ १ निर्वाण २ सागर ३ महासाधु ४ विमलप्रभ ५ शुद्धाभदेव श्रीधर ७ श्रीदत्त ८ सियाभवेन ६ अमलप्रभ १०] उद्धारदेव ११ अग्निदेव १२) संयम १२ शिव १४ पुष्पांजलि १५ उत्साह १६) परमेश्वर १७ ज्ञानेश्वर १८] विमलेश्वर ९६ यशोधर २० कृष्णमति २१ ज्ञानमति २२ शुद्धमति २३ श्रीभद्र २४ अन भा० २-४८ ति.प./४/ १५७१-१५८१ महापद्म सुरदेव सुपार स्वयंप्रभ सर्वप्रभ देवत कुलसुत उदङ्क श्रील जयकीर्ति मुनिसुव्रत अर अपाप निःकषाय विपुल निर्मल चित्रगुप्त समाधिगुप्त स्वयम्भू अनिवर्तक जय बिमल देवपाल अनन्तवीर्य जम्बू द्वीप भरत क्षेत्रस्य चतुर्विंशतितीर्थ करोका परिचय महापद्म सुरदेव सुपार्श्व स्वयंप्रभ त्रि० सा० / ह०पु०/६०/ म०पु०/०५/ ८७३८७५ ५५८-५६२ ४७६-४८० २. भावि कालीनका नाम निर्देश सर्वात्मभूत देवपुत्र कुलपुत्र उदङ्क प्रोष्ठिल जयकीर्ति मुनिसुव्रत अर निष्पाप निः कषाय विपुल निर्मल चित्रगुप्त समाधिगुप्त स्वयम्भू अनिवर्तक जय विमल देवपाल अनन्तवीर्य महापद्म सुरदेव पा स्वयंप्रभ सर्वात्मभूत देवदेव प्रभोदय उदङ्क प्रश्नकीर्ति अपकीति सुबत अर पुण्यमूर्ति भिषाय विपुल निर्मल ३७७ चित्रगुप्त मनाधिगुप्त स्वयम्भू अनिवर्तक जय विगत दिव्यपाद अनन्तवीर्य महापद्म सुरदेव सुपा स्वयंप्रभ सर्वात्मभूत देवपुत्र कुलपुत्र उदङ्क प्रीष्टि जयकीर्ति मुनिसुवत अरनाथ अपाप निकषाय विपुल निर्मल चित्रगुप्त समाधिगुप्त स्वयम्भू अनिवर्तक विजय विमल देवपाल अनन्तवीर्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश जयसेन प्रति प्रतिष्ठा पाठ / ५२० - ५४३ महापद्म सुरप्रभ सुप्रभ स्वयंप्रभ सर्वायुध जयदेव उदयप्रभ प्रभादेव उदंक प्रश्नकीर्ति जयकीर्ति पूर्ण बुद्धि निकषाय विमलप्रभ बहुलप्रभ निर्मल चित्रगुप्ति समाधिगुप्ति स्वयम्भू कंदर्प जयनाथ विमल दिव्यवाद अनन्तवीर्य ५. तोयंकर परिचय सारणी ३. भावि तीथ करोके पूर्व अनन्त भवनाम कोणिस सुपार्श्व उ प्रोष्ठिल कृतसूय क्षत्रिय पाविल लि. १/४/ म.५/०६/ वि.प./४/ १५८३-१५८६ ४७१-४७५ २३६६ ཐཱ་ྡངཅྭ-༢¢ངརྡྭ། शङ्ख नन्द सुनन्द হাश सेवक प्रेमक अतोरण रेवत श्रेणिक पार्श्व उदङ्क प्रोष्ठिल कटप्रू क्षत्रिय श्रेष्ठी शङ्ख नन्दन सुनन्द शशाङ्क सेवक प्रेमक अतोरण रेल बासुदेव भगलि अन्य द्वीप व अन्य क्षेत्रस्थ कृष्ण सीरी भगलि बागल विगलि द्वैपायन द्वीपायन कनकपाद माणवक नारद नारद चारुपाद सुरूपदत्त सत्यकिपुत्र सत्यकिपुत्र एक कोई अन्य तोर्य का परिचय ताणं णामापहुदिसु उबदेसो संपड़ पण्णट्ठो | २३६६॥ विशेष यह कि उस (ऐरावत) क्षेत्र में जो कोई शलाका पुरुष होते है उनके नामादि विषयक उपदेश नष्ट हो चुका है। भवंति जे कोई सलागापुरिसा वरि विसेसो तस्सिं Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश नं० १ २ ४ ५ હ ハ ह २. वर्तमान चौबीसी के पूर्व मध नं २ (देवसे पूर्व) का परिचय 2 2 2 2 2 or १० १२ १३ १. मानका नाम निश ११ श्रमान्स १७ १८ १६ २० प्रमाण | (दे० अगली सूची)। बाहपूज्य निमनाथ अनन्तनाथ १४ १५ | धर्मनाथ २१ २२ २३ २४ ऋषभनाथ अजितनाथ सम्भवनाथ पद्मप्रभु सुपार्श्व चन्द्रप्रभ पुष्पदन्त शोतलनाथ १६ शान्तिनाथ अभिनन्दन ५०/६६ सुमतिनाथ ५१/८६ कुन्धु नाथ अरहनाथ मन्तिनाथ २. पूर्व भवनं० २ येन गतसे पूर्व के नाम महापुराण सर्ग / श्लो० नाम मुनिसुव्रत नमिनाथ नेमिनाथ पार्श्वनाथ वर्तमान ४७/३५७ ४८/५४ ४६/५६ वज्रनाभि विमलवाहन विमलवाहन ५५/६२ *4/43 महाबल रतिषेण 2-२/०० अपराजित २२/५६ नन्दिषेण ५४/२०६ पद्मनाभ महापद्म पद्मगुल्म नलिनप्रभ ५०/६६ ५०/५० पचोत्तर LEBR पद्मसेन ६०/४८ पद्मरथ ६१/२४ दशरथ ६३/५०४ मैचरथ सिहरव धनपति 68/18 ६५/५० 46/64 वैश्रवण ६०/६० ६६/०१ हरिवर्मा सिद्धार्थ ७२/२०७ सुप्रतिष्ठ ७३/१६६ आनन्द भारत नन्द १.१./२०/१८-२४ ६.पू./१०/ १२०-१२५ वज्रनाभि वज्रनाभि विमलवाहन विमल विख्यात विपुलवाहन विपुल वाहन महाबल अंतिमत अपराजित नन्दिषेण पद्म महापद्म पद्मोत्तर पङ्कजगुल्म नलिनगुल्म पद्मासन पद्मरथ दृढरथ महामेघरथ सिहरय श्रमण श्रीधर्म सुरश्रेष्ठ सिद्धार्थ आनन्द सुनन्द महाबल अतिनल अपराजित नन्दिवेश पद्म महापद्म पद्मगुल्म नलिनगुल्म पद्मोत्तर पद्मासन पद्म दशरथ मेघरभ सिंहरथ धनपति वैश्रवण श्रीधर्म सिद्धार्थ सुप्रतिष्ठ आनन्द नन्दन ३. क्या थे म.पु. / सर्ग / श्लो Pelkk ४८/४ ४६/२ ५०/३ 20/0 १/२ १३/२ ५४१४३ २६/२ ५६/२ 북미주 १८/२ ५६/३ ६०/३ ६१/३ ६३/१८४ ६४/२ ६५/२ ८६/२ ६०/२ ६६/६-१० 100/18 ७३/६१. ७४ / २४३ " चक्रवर्ती वज्रसेन मण्डलेश्र महातेज रिपुदम " 13 13 " 57 49 19 ४. पिताओंके नाम RRER R १.५/२०/ २५-३० स्वयंप्रभ बिमलवाहन सीमन्धर पिहितास्रव अरिन्दम युगन्धर सर्वजनानन्द अभयानन्द वज्रदन्त वज्रनाभ सर्व गुप्ति गुतिमान् चिन्तारक्ष | ( घनरथ तीर्थं कर १६४) विपुलवाहन घनरव धीर संवर त्रिलोकीय सुनन्द डामर प्रौष्ठित E.3./40/ १५८-१६३ वज्रसेन अरिन्दम स्वयंप्रभ पिहितास अरिन्दम रिदम ५. पूर्व मनके देश व नगरके मान १. प. पु. २०/१४-१० २६०/६०/१४२-१४६ म.पू./ सर्ग / स्वी० विमान ५०/२ सीमन्धर १९१/८ ४८/४ ४६/२ सुनन्द नन्द युगन्धर सर्वजन ५५/२ उभयानन्द ५६/२ ५४/११० वज्रदत्त ५७/२ वज्रनाभि १८/२ सर्व गुप्त ५६/३ ६०/२ त्रिगुप्त चित्तरक्ष चितर ६१/२ विमलवाहन ६३/१४२ दामर प्रौष्ठिल धनरथ ६४/२ संवर वरधर्म . रत्नसंचय १ सुसीमा धारा. वि. पुण्डरीकिजी १ ५१/३ ५२ / २ १३/२ ६६/२ ६६/२ 미국 ६८/२ व्यतीतशोक ७०/५० जम्बूनि पुण्डरीकगी " " सुसीमा 99 मपुरी ७३ /४१ ७४/२४२ " 31 11 " 39 " 19 रत्नसंचय १ क्षेमा पुष्कर. नि. पुण्डरीकिमी १ सेना क्षेमा "1 .. रत्नसंचय " धात, विदेह महानगर अरिष्टा • सोना जम्मू वि. पुण्डरीकिणी ::::: ..] सीमा " [१] [मपुरी " " ·· सीमा 11 सेमपुरी " " भरत चम्पापुरी कौशाम्बी 11 " सुखीमा • सेमपुरी " , वीतशोका प्रमाण विशेष न० " हस्तन। गपुर अयोध्या १ पुण्डरीकिणी १-२ १. "1 " छत्रपुर 31 २. रत्नसंचय १ रत्नसंचयपुरी १२१. माविका २. महिलपुर २ रत्नसंचय १ नागपुर तोर्थंकर ३७८ ५. तीर्थंकर परिचय सारणी Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर ३. वर्तमान भवकी जन्म नगरी १. ति.प./४/३२६-५४६ २. प.पु./२०/३६-६० ३. ह.पु/६०/१८२-२०५ ४. म.पु/ सामान्य विशेष सर्ग/श्लो नाम (प्रमाण नाम ४. चिह्न ५. यक्ष ति.प./४/६०४ / ति.प./४/ १३४-६३६ ३. वर्तमान चौबीसीके वर्तमान मवका परिचय-( सामान्य ) १. नाम निर्देश २. पूर्व भवका स्थान ( देव भव) १. नि.प./४/५१२-५१४ १. ति.प./४/५२२-५२५ २. प.पु./२०/८-१० २. प.पु./२०/३१-३६ ३. ह.पु./६०/१३८-१४१ ३. ह.पू./६०/१६४-१६८ ४. म.पु. सामान्य । विशेष म.पु./ सामान्य विशेष सर्ग/श्लो. नाम प्रमाण नाम सर्ग/श्लो नाम प्रमाण माम -मेंऋषभ ११/१११ सर्वार्थ सिद्धि २ ४८/१ अजित ४८/१३ विजय २ वैजयन्त सम्भव ४६/४ | अ. ग्रैवेयक ४५०/१ अभिनन्दन विजय |२| वैजयन्त सुमति वैजयन्त १/ जयन्त ६. यक्षिणी ति.प./४/६३७-६३६ | १ | विनीता १,२ साकेता १२/८२ अयोध्या ४८/२० ४६/१४ | श्रावस्ती ५०/१६, अयोध्या ५१/१६ बैल गज अश्व गोवदन महायक्ष त्रिमुख यक्षेश्वर चक्रेश्वरी रोहिणी प्रज्ञप्ति वज्रशृखल बज्राङ्कशा साकेता बन्दर १.२ चकवा २० ६५२/१ २१ वत्स वाराणसी ५४/१ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश कमल नन्द्यावर्त अर्धचन्द्र मगर स्वस्तिक गैंडा भद्रिल |३| सिहनादपुर ३७९ ५७/१ मातङ्ग विजय अजित ब्रह्म ब्रह्म श्वर कुमार शन्मुख पाताल किन्नर पद्मप्रभु सुपाव चन्द्रप्रभु सुविधि १ पुष्पदन्त शीतलनाथ श्रेयान्सनाथ | ३ | श्रेयोनाथ वासुपूज्य विमलनाथ अनन्तनाथ ३ अनन्तजित धर्मनाथ शान्तिनाथ कुन्थुनाथ अरनाथ ५२/१४/ ऊ. ग्रेवेयक ५३/१५/ म. ग्रैवेयक ५४/१६२/ वैजयन्त १५/२० प्राणत ५६/१८, आरण ५७/१४ पुष्पोत्तर ५८/१३ महाशुक्र ५६/६ | सहस्रार ६०/१२ | पुष्पोत्तर सर्वार्थ सि. ६३/३३७ ६४/१० ६५४८ जयन्त भैंसा अप्रतिचक्रेश्वरी पुरुषदत्ता मनोवेगा काली ज्वालामालिनी । महाकाली गौरी गान्धारी बैरोटी सोलसा(अनंत मानसी महामानसी जया ५६/१ ६०/२ |२विनीता ५२/१८ कौशाम्बी ५३/१८, काशी ५४/१६३ चन्द्रपुर |१,३/ आरण २ अपराजित ५५/२३, काकन्दी |१,३९ अच्युत ५६/२४ भद्रपुर ५७/१७ सिंहपुर कापिष्ठ चम्पा |१३ शतार २. महाशुक्र ५६/१४ | काम्पित्य |२| सहस्रार | ६०/१६ अयोध्या २ पुष्पोत्तर रत्नपुर ६३/३६३ हस्तनागपुर ६४/१२, | १ अपराजित |२. सर्वार्थ सिद्धि |२ विजय १. अपराजित ६६/२० मिथिला |२| (अपराजित ६७/२० राजगृह | ३ (सहस्रार | २ प्राणत ६६/१६ मिथिला अपराजित ७१/२८ द्वारावती (आनत (वैजयन्त |७३/७५, बनारस ३सहस्रार ७४/१५२, कुण्डलपुर ६२/१ ६४/१ ६ /१ शूकर सेही वन हरिण छाग मत्स्य गरुड गन्धर्व कुबेर मल्लिनाथ मुनिसुव्रत |१,२/ सुव्रतनाथ २-३ वरुण भृकुटि कलश कूर्म उत्पल (नीलकमल) विजया अपराजिता कुशाग्रनगर ६६/१४ अपराजित ६७/१५ प्राणत (१ आनत) अपराजित ७०/५७/ जयन्त नमिनाथ नेमिनाथ गोमेध पार्श्व १-३ शौरीपुर बहरूपिणी कूष्माण्डी م २ । ५. तीर्थंकर परिचय सारणी ७३/१ | पार्श्वनाथ ७३/६८ प्राणत له १-३, वाराणसी सर्प मातन | पद्मा वर्द्धमान २.३ महावीर ७४/२४६ पुष्पोत्तर १-३ कुण्डल पुर सिंह गुह्यक सिद्धमिनी Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ गर्भावतरण तीर्थकर ६.वंश | १०. गर्भ तिथि | ११. गर्भ-नक्षत्र १२. गर्भ-काल ७. पिताके नाम ८. माताका नाम १.ति.प./४/५२६-५४६ १. ति. प./४/५२६-५४६ २. म. पु./२०/३६-६० २. प.पु./२७/३६-६० | ३. ह. पु./६०/१८२-२०५ ३. ह. पु./६०/१२-२०५ ४. म.पु./पूर्ववद प्रमाण विशेष | ४. म.पु./पूर्ववव प्रमाण सामान्य सामान्य नं. सर्ग/श्लो. 15.48 विशेष त्रि.सा. ति.प./४/५५०८४८- म. पु./पूर्ववत -सामान्य इक्ष्वाकु १/१२/१४६-१६३ ४८/१८-२५ ३४६/१४-१६ म. पु/पूर्ववत सामान्य. उत्तराषाढ रोहिणी मृगशिरा पुनर्वसु मघा म. पु./पूर्ववत सामान्य आषाढ कृ.२ ज्येष्ठ कृ. १५ फा. शु. वैशा. शु.६ श्रा, शु.२ माघ कृ.६ ब्रह्ममुहूर्त जितारि १-३ सेना प्रातः संबर ५११/१६-२१ नाभिराय जितशत्रु दृढराज्य स्वयंवर मेघरथ धरण सुप्रतिष्ठ महासेन सुग्रीव दृढरथ मेघप्रभ २-३ सुमंगला मरुदेवी विजयसेना सुषेणा सिद्धार्था मंगला सुसोमा पृथ्वीणा लक्ष्मणा जयरामा सुनन्दा प्रातः ५३/१८-२० विशाखा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ५५/२४-२५ १०५६/२४-२६ ११ ५७/१७-१६ लक्ष्मीमती रामा मन्दा वेणुश्री २,३ र विष्णुश्री चैत्र कृ.५ फा. कृ.६ चैत्र कृ.८ ज्येष्ठ कृ.६ पिछली रात्रि प्रभात अन्तिम रात्रि प्रात. पूर्वाषाढा श्रवण ३८० ३८० विष्णु P विजया जयावती जयश्यामा अन्तिम रात्रि प्रात. वमुपूज्य कृतवर्मा सिंहसेन भानु विश्वसेन शतभिषा उत्तरभाद्रपदा रेवती शर्मा सर्वश्यामा सुप्रता (२ १२/१८/१७-१८ १३ ५६/१४-१५ १४ ६०/१६-१८ १५६१/१३-१५ १६ ६३/३८४-३८६ १७ ६४/१३-१४ १८६५/१५-१६ १६६६/२०-२२ भानुराज आषा. कृ.६ ज्येष्ठ कृ.१० काति. कृ.१ वैशा. शु. १३ भाद. कृ.७ श्रा. कृ. १० फा. कृ.३ चैत्र शु. १ अन्तिम रात्रि सूरसेन ३ सुप्रभा ऐरा श्वीकान्ता मित्रसेना प्रजावती सूर्य १-३ श्रीमती कुरु भरणी कृत्तिका रेवती अश्विनी सुदर्शन कुम्भ इक्ष्वाकु | प्रातः सोमा २०६७/२०-२१ २१ ६६/१६,२५,२६, सुमित्र विजय | १ प्रभावती २,३ । रक्षिता १-२ पद्मावती २-३ वप्रा बप्रिला यादव इक्ष्वाकु हरिवंश, श्रा. कृ.२ इक्ष्वाकु आश्वि . कृ.२ श्रवण अश्विनी महादेवी अन्तिम रात्रि २२७१/३०-३१ २३७३/७५-७६ समुद्रविजय विश्वसेन शिवदेवी ब्राह्मी यादव उन हरिवंश कार्ति.शु.६ उग्र । वैशा. कृ. २ उत्तराषाढा विशाखा ५. तीर्थकर परिचय सारणी १-३ अश्वसेन प्रात १-३ २-३ वर्मिला (नामा) वर्मा सिद्धार्थ | २४ ७४/२५२-२५४ । प्रियकारिणी नाथ नाथ उत्तराषाढा आषा. शु.६ अन्तिम रात्रि Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त श २ जन्मावतरण १ २ ३ म० पु० / ० सर्ग / स्लो० ६ १० ४ ५०/१६ माघ शु. १२ ५ ५१/२२ चैत्र शु. ११ ६ ५२/२१ = - # ज्येष्ठ. १२ ७ ५३/२२ 5 ५४/१०० पौष कृ. १९ मार्ग. . १ माघ कृ. १२ फा. कृ. ११ फा. कृ. १४ माघ शु. ४ ,, १४ ज्येष्ठ कृ. १२ ११ १२ १३ x y w 2 vw & १४ ६०/२१ teles ६३/३१७ ६४/२२ १८ ६६/२१ १५ १६ १७ १६ २० २१ २२ २३ २४ १३/२ y=/2k चैत्र कृ. ६ माघ शु. १० ४६/१८-१६ कार्ति.. १२ ५५/२७ ५६/२८ १७/२१ ५८/१६-२० ५६/२१ (प्रति, ख.ग.) १३ जन्म तिथि १. सि. प./४/२२६-५४६ २६/११-१०० २६/११ ६७/४१ सामान्य ६/३० ७१/३८ ७३/१० ७४ / २६२ माघ शु. १३ ज्येष्ठ कृ. १४ श मार्ग. शु. १४ मार्ग. शु. १९ आषा. कृ. १० श्री. शु. ६ पौष कृ. १९ चैत्र शु. १३ प्रमाण नं० १-२ १-२ १ १ १ १-२ އެ १,२ २/१६/१२ १ १-२ विशेष मार्ग. . १५ श्री. शु. ११ वि. कृ. १३ फा. शु. १४ माघ शु. १४ ज्येष्ठ शु. १२ आश्वि. शु. १२ माघ कृ. १२ आषा. शु. १० मेशा शु. १३ १४ जन्म नक्षत्र १. सि. ४/२६-५४६ २. प. पु. २०/२६-६० ३. ह. पु./६०/१८२-२०५ ४ म. पु. / पूर्ववत् सामान्य प्रमाण न. उत्तराषाढा रोहिणी ज्येष्ठा पुनव सु मघा चित्रा विशाखा अनुराधा मूल पूर्वाषाढा श्रवण पूर्व भाद्रपदा रेवती पुष्य भरणी अश्विनी चित्रा विशाखा उत्तरा ४ 20 फाल्गुनी ४ कृत्तिका रोहिणी ४ अश्विनी श्रवण २,३ २-३ ४ विशेष प्रजेशयोग पूर्वाषाढा साम्ययोग मृगशिरा चित्रा १५ योग १ म. पु. / जन्म तिथिय पुष्य स्वाति शक्र जैत्र विश्व विष्णु शतभिषा वारुण उत्तरा भाद्रपदा अहिर्बुध्न १६ १.सि./५५-५८० २.वि.स./०४ ३, प. पु. / २०/११२-११५ अदितियोग १०/२६-२७ गुरु याम्य आग्नेय ४. १/६०/३०४-३०५ ५. म.पू.// पितृ खष्ट्रयोग ५२/३५ अग्निमित्र १३/२५ ब्रह्म अनिल अर्यमा ४८/२८-३१ ४५० ४६/२६-२८ ४०० २६/११ ५७/३८ २८/२४ ५१/२४ ५०० ६५/२६ ६६/५० 4G/RE ८१/३३ ०१/२० ७३/१५ ७४/२० ३५० ३०० ៖៖៖៖៖៖៖ នំ នួ ឩ ៖ ៖ · · £ £ E · T · e T २४/९०६ १५० 21/10 २५० २०० १०० ६० co ७० ६०/२४ ५० ६९/२३ ४५ ६३/४१३ ६४/२६ ६० ४० ३५ ३० २५ २० १५ धनुष १० ::: 39 :::::::: ::::::: DESCR १७ वर्ण १. सि. १/४/५८०-८ २ त्रि. सा. / ८४७ - ८४८ ३. प. पु. /२०/६३-६६ ६ हाथ ७ ४. ह. १/६०/२१०-२१३ ५. म. पू. /उर सामान्य स्वर्ण " हरित स्वर्ण रक्त ⠀⠀ स्वर्ण नील हरित स्वर्ण प्रमाण नं! विशेष ५ २ २ बालचन्द्र दु नील कृष्ण २ कृष्ण २-४ नील, श्यामल तीर्थंकर ३८१ ५. तीर्थकर परिचय सारणी Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३ दीक्षा धारण ति. प./४/ नं० ६०७ ६११ १ २ ३ ४ ५ ७ ८ Ĉĉ १० ११ १२ ~ xx w 2 is wo १३ १४ १५ १६ १७ १६ २० १८ वैराग्य कारण २१ २२ २३ २४ नीताञ्जना ११/८ मरण उल्कापात मेघ गन्धर्व नगर जातिस्मरण १८ मेघ 19 पतझड ड़ उल्का हिमनाश पतझड जातिस्मरण म.पू./ सर्ग/रल. १२/२० ११/३८ ५०/४३ जातिस्मरण ५०/३० मेघ उल्कापात जातिस्मरण :::: ४८/३२ ५०/४५ ५३/३७ 18/30 ५६/३२ 속이 ६१/३० ६२/४६२ ६४/३६ ex ६६/४० ६०/२० विषय ३६/४५ ७२/१६४ नोलाना १०/२०३ मरण उल्कापात मेघ ऋतु परिवर्तन स्तु परि० उल्कापात हिम बसन्त - वि० चिन्तवन हिम उल्कापात दर्पण जातिस्मरण मेघ जातिस्मरण हाथीका संयम जातिस्मरण पशुक्रन्दन ७३/१९४ जातिस्मरण ७४/२१० म..पु / संग/ श्लो. ४८/३७-३६ ४३/१६-३० ५०/५१-५४ ५१/७०-७२ १२/५१-५४. ५२/४१-४२ ५४ / २१६ - २१८ २५/४६-४० २६/४४-४० ५०/४८- ५० ५८/२०-४० ५६/४०/४२ ६०/१२-२४ ६१/३०-४० 4४/३८-४९ ६५/३३०३५ ६८/४०-५० ६७/४१-४५ १६ दीक्षा तिथि १ १/४/६४४-६६० २.. पू. ६०/२२६-२३६ 48/48-46 ७९/१६१-१०६ ७३ / १२७-१३३ ७४/२०२-३०४ सामान्य चैत्र कृ. ६ माघ शु. ६ शु. १२ वैशा.शु. ६ काकृ. १३ शु. १२ पौष कृ. ११ मार्ग. शु. १ मार्ग. कृ. १२ फा. कृ. ११ फा. कृ. १४ माघ शु. १३ ६३ / ४७०-४७६ | ज्येष्ठ कृ. १४ बैशा शु. १ माघ शु. ४ ज्येष्ठ १२ मार्ग. शु. १० मार्ग. शु. ११ मेशा कृ. १० आषा. कु. १० श्रा. शु. ६ . मार्ग. कृ. १० प्रमाण १ २ २ विशेष २ १ रोहिणी १२ मार्ग सु. १५ ज्येष्ठा पुनर्वसु सु. ११ भाद्र शु १३ ज्येष्ठ कृ. १३ २० दीक्षा नक्षत्र २१ दीक्षा काल १. ति प /४/६४४-६६७ २. पू./१०/२१०-२१८ ति. प / ४ म. पु. ६४४-१६० दीक्षा तिथिवद ३. म. पु दीक्षा तिथिवत् शा.कृ.१ श्री शु.७ १६+६ उत्तराषाढा उत्तराषाढा मया चित्रा विशाखा अनुराधा मूल श्रवण विशाखा पुष्य भरणी कृतिका रेवती मार्ग. शु.१ अश्विनी म श्री. शु. ४ | अश्विनी माघ शु. ११ | चित्रा रोहिणी उ. भाद्रपदा उ. भाद्रपदा रेवती मघा चित्रा विशाखा विशाखा पूर्वाषाढा श्रवण विशाखा, पुष्य भरणी कृत्तिका रेवती अधिनी श्रवण सामान्य प्रमाण विशेष नं० अपराह्न पूर्वाह्न अनुराधा अपराह्न अश्विनी अपराह्न : पूर्वाह्न पूर्वाह्न अपराह्न ..... पुर्वा अपराह 11 पूर्वाह्न उत्तरा फा० उत्तरा फा अपराह्न 3 ३ २-३ ३ २ २-३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ 100 सायंकाल ३ ३ अपराह्न सायंकाल प्रातः सन्ध्या अपराह्न सन्ध्या सायंकाल सायंकाल प्रात: सायंकाल 11 11 19 ३ २-३ पूर्वा सायंकाल प्रातः सन्ध्या सायंकाल सन्ध्या सार्यकाल सि, १/४/ इ./पु. ६०/ ६४४-६५७ षष्ठोपवास बेला अष्ट भक्त तृतीय उप. .. " १२. दोस " भक्त 33 19 " उप. :: " उप. " भक्त एक उप. तृतीय .. 22::: भक्त 34 उप. 11 भक्त 12 भक्त " भक्त " 11::::: ::: 44 बेला षष्ठ भक्त तेला तृतीय उप. बेला १ उपवास बेला १० :: " षष्ठ भक्त एक उपवास तृतीय बेला तीर्थंकर ३८२ ५. तीर्थंकर परिचय सारणी Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ज्ञानावतरण तीर्थकर २३ दीक्षा बन २४ दीक्षा वृक्ष २५ सह दीक्षित २६ केवलज्ञान तिथि २७ केवलज्ञान नक्षत्र २८ केवलोत्पत्ति काल १.ति.प/४/६६८ म. पु./ २ ह.पु./६०/३५० म. पु/ ति. प./४/ दीक्षातिथि 4.3 दीक्षातिथि ३ म.पु/दीक्षा- सर्ग श्लो० ६४४-६६७ बत | ३६-६० | बत् TH देनं०१६ (दे० न०१६ दे० नं.१६ । ति.प./४/ ६७६-७०१ | ह.पू./४/ २५७-२६५ म. पु./ पूर्ववत् ति.प.// ६७६-७०१ म.पु./ पूर्ववत ति.प./४/ ६७६-७०१ म. पु/ पूर्ववत वट ४००० २०/२६८ फा. कृ. ११ . फा. कृ. ११ । फा. कृ. ११ उत्तराषाढा उत्तराषाढा पूर्वाल पूर्वाह्न | १००० फा. कृ. ११ अपराह्न पौष शु. १४ का. कृ.५ अपराह्न सन्ध्या सप्तपर्ण शाल्मलि असन प्रियङ्गु ४८/४२ ४६/४०-४१ ५०/५६ ५१/७५ ५२/५६-५० 18 th to का. कृ. ५ का.शु. सहेतुक पौष शु. वै. शु. सूर्यास्त अपराह । 16 सहेतुक सर्वार्थ श्रीष साय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश सिद्धार्थ | सिद्धार्थ (१७/१२) सहेतुक सहेतुक सप्तपर्ण शाल उग्र अग्रोगन सरल सहेतुक प्रियङ्गु मनोहर मनोहर प्रियङ्गु सहेतुक श्रीष सुवर्तक नाग ६ पुष्प पुष्पक साल सहेतुक | सहेतुक मनोहर | मनोहर तेन्दु पाटला १३ सहेतुक सहेतुक | जम्बू पीपल | शाल दधिपर्ण १६ आम्रवन सहस्राम्र नन्द १७ सहेतुक सहेतुक तिलक आम्र १६ शालि श्वेत अशोक २० नील नीलोद्यान | चम्पक प्लक्ष " " का. शु. पौष कृ. १४ माघ कृ. १५ माघ शु. २ पौष शु. ११ | रोहिणी रोहिणी का. कृ.४ | ज्येष्ठा मृगशिरा १४ | पुनर्वसु पुनर्वसु हस्त चित्रा चित्रा विशाखा विशाखा फा. कृ.७ अनुराधा अनुराधा का. शु.२ पौष कृ.१४ पूर्वाषाढा | पूर्वाषाढा माघ कृ. १५ | श्रवण माघ शु. २ विशाखा | विशाखा माघ शु. उत्तराषाढा| उत्तराभाद्र चैत्र कृ १५ | रेवती रेवती ३८३ bis hi ha श्रवण माध. ५४/२२३-२२४] ५५/४६ ५६/४८-४६ ५७/५१-५२ ५८/४२ ५६/४४-४५ ६०/३५-३६ ६१/४२-४३ ६३/४८१-४८२ ६४/४२-४३ ६५/३७-३८ ६६/५१-५२ ६७/४६-४७ । बेल तुम्बुर कदम्ब जम्बु अश्वत्थ सप्तच्छद नन्द्यावत तिलक | आम्र अशोक चम्पक पौष शु. १० चैत्र कृ. १५ पौष शु. १५ पौष शु. १० कृ. १५ पौष शु. १५ १६ शालि पौष शु. १५ पौष शु. ११ चैत्र शु.३ का. शु. १२ फा. कृ.१२ मागे. शु.५ । रेवती का. शु. १२ फा. कृ. फा. कृ.६ पौष शु. १० भरणी चैत्र शु. ३ कृत्तिका कृत्तिका का, शु.१२ । रेवती मार्ग. शु. ११ | अश्विनी | अश्विनी चैत्र कृ. १० श्रवण ३०० १००० अपराह्न सायं चैत्र | २२ सहकार अश्वत्थ २४ नाथ बकुल मेषशृग धव अपराह्न | पूर्वाह्न चैत्रोद्यान सहस्रार अश्ववन षण्डवन बकुल बांस पूर्वाह्न | प्रातः पव | देवदारु ३०० एकाकी ६६/५७-५६ चैत्र शु. ३ । चैत्र शु.३ मार्ग. शु. ११ | अश्विनी ७१/१७६-१८१ | आश्वि . शु.१ . आश्वि, शु.१ आश्वि. कृ.१ | चित्रा चित्रा ७३/१३४-१४३ चैत्र कृ. ४ | चैत्र कृ.४ । चैत्र कृ.४ चैत्र कृ. १३ चैत्र कृ. १३ विशाखा विशाखा । ७४/३५० | वै. शु. १० । वै. शु. १० - वै. शु. १० । मघा हस्त व उत्तराफागुनी | साल ५. तीर्थंकर परिचय सारणी साल अपराह्न अपराहू अपराह्न Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. केवल स्थान ३० केवल वन ३३. योग निवृत्ति काल तीर्थकर न० म. पु./सर्ग/श्लो. ह. पु./६०/ २५४-२५६ ३१ केवल वृक्ष (अशोक वृक्ष) । ३२ समवसरण १. ति.प./४/६६५-६६८ ति. प./४/ | म. पु./पूर्ववत ७१६-७१६ १८२-२०५ ति 4./४/ ६७१-७०१ ति. प./४/ १२०६ म.पु./पूर्ववत् | म.पू./पूर्ववत २.ह.पु/६०/ म.पु./सर्ग/श्लो. न्यग्रोध | वट १२ यो० पूर्वतालका अयोध्या श्रावस्ती अयोध्या पुरिमताल साकेत श्रावस्ती अयोध्या पुरिमताल सहेतुक १४ दिन पूर्व १४ दिन पूर्व १ मास पूर्व | १मास पूर्व Nxxx ४७/३३६ ४८/११ ४६/५५ सप्तपर्ण शाल सरल २०/२१६-२२० ४८/४० ४६/३८-४१ ५०/५४-१५ ५९/७४ ५२/५३ ५३/४३-४४ ५४/२२३ ५५/५० शाल्मलि असन प्रियंगु प्रियंगु ११/८४ उग्रवन सहेतुक मनोहर सहेतुक सर्वार्थ पुष्प | कौशाम्बी | वर्धमान व. काशी चन्द्रपुरी काकन्दी श्रीष ___x सहेतुक सुवर्तक पुष्प | श्रीष नाग ५४/२७० नाग नाग (बहेड़ा) धूलीशाल जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १मास पूर्व सहेतुक मनोहर ५६/५६-५७ ५७-६० १ मास पूर्व | 228 बेल तुम्बुर कदम्ब मनोहर १मास पूर्व पाटल ५८/४१-४२ ५६/४४ सहतक भद्रिल सिंहनादपुर चम्पापुरी कम्पिला अयोध्या रत्नपुर हस्तनागपुर सहेतुक ६०/३५ ६१/४२ xxxxxxxxxxxxxxx पीपल सप्तच्छद ५६/५४ ६०/४४ ६१/५१ ६३/४६६ " पीपल दधिपर्ण नन्दी | तिलक शाल नन्दी ६३/४८१ ६४/४२ ६५/३७ आम्रवन सहेतुक सहस्राम सहेतुक तिलक ६५४४५ " आम्र अशोक मिथिला मनोहर श्वेत आम्र कंकेलि (अशोक) चम्पक नील नील चित्र 1 चम्पक बकुल कुशाग्रनगर मिथिला गिरनार आश्रमकेस ऋजुकूला ६६/५७ ७१/१७६-१८० ७३/१३४ ७४/३४६-३५० ५. तोर्थकर परिचय सारणी गिरनार बांस ७२/२७३ सहस्रार अश्ववन षण्डवन मेषग धव शाल देवदार शाल ऋजुक्ला ७४/५१० Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा० २-४९ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ५ निर्वाण प्राप्ति मं. म.पु. / सर्ग / श्लो. १ | ४७/३३६-३३८ २ ४८/६१-५३ ३४६/२५-५६ ४ ५०/६५-६६ ५१ / ८४ ५ ६ ५२/६५-६८ ७५३/५२-५३ ८ ५४/२६६- २०१ ५५/५६-५६ १० ५६/५७-५८ ११ ५०/६०-६१ १२ ५८/५०-५३ १३ २६/५४-५५ १४ ६०/४३-४४ १५६२/५१-५२ १६६३ / ४६६-५०१ १७६४/५१-२२ १८६५/४५-४६ १६ | ६६ / ६१-६२ २० ६०/५५-५६ २१६१/६०-६८ २२ ७२/२७१-२७२ २३ | ७३ / १५६ - १५७ २४७६/५१०- ५१२ १. ति. १/४/११०३-१२०० २. ह.पु./६०/२६६-२७५ ३० म.पू. / पूर्ववद सामान्य ३४. निर्वाण तिथि माघ कृ. १४ चैत्र शु. ५ चैत्र शु. ६ वै शु. ७ चैत्र शु. १० फा. कृ. ४ " "1 भाद्र. शु. ७ आश्वि. शु. का. शु. १ - श्री. शु. १५ फा. कृ. ५ आषा. शु. ८ कृ.१२ ज्येष्ठ कृ. १४ वै. शु. १ चैत्र कृ. १५ फा. कृ. ५ फा. कृ १२ ३. रु. १४ आषा. कृ. ८ श्री शु ७ का. कृ. १४ प्रमाण চম চ २.३ ३ ord www be विशेष शु. ११ फा. कृ. ७ फा. शु. ७ भाद्र शु. शु. भाई, शु. १४ सु. ४ फा. शु. ७ माघ शु. १३ १६/०६ आषा. शु. आषा. शु. ७ ३५. १. ति . प . / ४ / २. ह. पु. / ६० / २०७ - २०८ ३. म.पू./पूर्वय सामान्य उत्तराषाढा भरणी ज्येष्ठा पुनर्वसु मघा चित्रा अनुराधा मूल धनिष्ठा अश्विनी भाद्रपद रेवती पुष्य भरणी कृतिका रोहिणी भरणी श्रवण अश्विनी चित्रा निर्वाण नक्षत्र १९८५- १२०८ विशाखा स्वाति ३ ३ २ m ma Mayaw विशेष अभिजित् रोहिणी मृगशिरा विशाखा विशाखा उत्तरा भाद्र. उत्तराषाढा रेवती पुष्य १६/०६ १. वि.५/४/१९८६-१२०८ २. ४.६०/२०६-२७६ ३. म. पु. / पूर्ववत सामान्य पूर्वाह्न 11 अपराह्न पूर्वाह्न 11 अपराह्न पूर्वाह्न अपराह्न पूर्वाह्न 93 अपराह्न सायं प्रातः सायं 99 प्रातः सायं ३६. निर्वाण काल प्रातः सायं 59 प्रातः ३ ३ Mayaw विशेष सूर्योदय प्रातः सूर्यास्त प्रातः सन्ध्या X सूर्योदय सायंकाल 95 11 प्रातः अन्तिम रात्रि पूर्व रात्रि अपर रात्रि अपराह्न १६/७६ अन्तिम रात्रि प्रात' अन्तिम रात्रि ३७. निर्वाण क्षेत्र कैलास सम्मेद :::::::: 99 चम्पापुर सम्मेद । :::::::: उर्जयन्त सम्मेद पावापुरी १०,००० १०,००८ १००० | १००० 11 " ३८. सह मुक्त ५०० 22 ३२४ ३८०० १००० 33 " १००० अनेक १००० ८०१ 1) ६०० १००० 13 ៖ ។ ६०१ ८०१ 12 ५०० १००० כן • ៖ ៖ ដំ ६४ ६०० ६०००-६०० ७००० ७००० ६१०० 32 ५०० ५०० १००० १००० 17 3 כג ८०१ ६०० כ' 33 ६०० ६००० ५३६ ३६ एकाकी २५ ५१६ १००० १००० ५००० १००० כ ५३३ २६ तीर्थंकर ३८५ ५. तीर्थंकर परिचय सारणी Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ संघ तीर्थकर म.पु./सर्ग/श्लो० । ३६. पूर्वधारी ४०. शिक्षक १. ति.प:/४/१०६८-११६१ १. ति.प./४/१०६८-११६१ २, ह.पू /६०/३५८-४३१ । २. ह.पु./६०/३५८-४३१ ३. म.पु./पूर्ववत् ३. म.पु/पूर्ववत् ४१. अवधि ज्ञानी १. ति.प./४/१०१८-१९६१ २. ह.पु./६०/३५८-४३१ ३. म.पु./पूर्ववत् ४२. केवली १. 'ति.प./४/१०६८-११६१ २. ह.पु./६०/३५८-४३१ ३. म.पु./पूर्ववत ४३. विक्रियाधारी १ ति.प./४/१०६८-११६१ २. ह.पु./६०/३५८-४३१ ३. म.पु./पूर्ववत IAlbk सामान्य विशेष प्रमाण सामान्य विशेष प्रमाण सामान्य विशेष सामान्य Intik विशेष विशेष सामान्य 4. प्रमाण १४७/२६०-२६४ ४८/४३-४८ ४७५० ३७५० ६००० ६४०० २०००० २०००० २०६०० २०४०० २१६०० २०४५० २०४०० १६६५० १६०० ३४२४३-४६ ४/५०/५७-६३ ६८०० २१५० २५०० २४०० २३०० २०३० ४००० १२६३०० २३००५० २५४३५० २६१००० २४४६२० २१०४०० १५००० १६००० १३००० १२००० ११००० १८०८८ ११००० १०००० ६००० २००० १६८०० ११००० १८४०० १६८०० १५३०० ६०० rrrrrrm ६५२/५८-६४ |२. 1२ २,३] १२८०० ११३०० १०००० ३८६ १६३०० १५१५० १०४०० १४००० ५४/२४४-२४८ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २,३ २००० | २.३ २००४०० २, ३ ८००० ३1 ७००० २ ५०००। - १५०० १४०० १३०० १२०० ११०० १००० ६५५/५२-५७ १०५६/५०-५५ ११ १७/१४-५६ 1१२५८/४४-४६ ५६/४८-५३ १४६०/३७-४२ ६१/४४ १६/६३/४७६-४६५ १७६४/४४-४६ ८४०० ७२०० ६००० ५४०० ४८०० - ४३०० ६०० १५५५०० ५१२०० ४८२०० ३१२०० ३८५०० ३६५०० ৪০৬০০ ४१८०० ४३१५० ३५८३५ २६००० २१००० १२६०० ११८०० १०६०० १३००० १२००० ११००० १०००० १००० ८००० ७००० ६००० ५१०० ४३०० २६०० २२०० ८०० ७५०० ७००० ६५५० ६००० ५५०० ५००० ৪৫০০ ४००० ३२०० २८०० २२०० १८०० १६०० १५०० १००० ७०० |२७५० |२| २६५० १४०० २०६७/४६-५३ ३००० २५०० २८०० २२०० १८०० १६०० १५०० १४०० १३०० ५०० ४५० ४०० ३५० ३०० २२/ ७१/१८२-१८७ ७३/१४६-१५३ २४/७४/३७३-३७८ ५. तीर्थकर परिचय सारणो ११०० १००० ६०० ६६०० Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर पा सम् श्लो० ४४ मन पर्ययज्ञानी १. ति प./४/१०६८-११६ २.ह.पु/६०/३५८-४३१ ३. म. पु./पूर्ववत ४६ सर्व ऋषि संख्या १.ति.प./४/१०६२-१०६७ २. ह. पु./६०/३५२-३५६ ३. म. पु./पूर्ववत् ४५ वादी १.ति.प/8/१०६८-११६१ २. ह पु./६०३४८-४३१ ३. म. पु./पूर्ववत प्रमाण सामान्य विशेष नं० नं० ४७ गणधर संख्या ४८ मुख्य गणधर १. ति.प./४/६६१-६६३ । १.ति. प./४/६६४-६६६ २ ह. पु./३४१-३४५ । २. ह पु./६०/३४६-३४६ ३. म.पु/ पूर्ववत् ३. म. पु./पूर्ववत प्रमाण । सामान्य | विशेष | साम न्य विशेष नं० (प्रमाण सामान्य विशेष सामान्य प्रमाण विशेष १ । ४७/२६०-२६४ । १२७५० १२७५० ८४००० ।३ । ८४०८४ अषभसेन । २.३ (वृषभसेन 1 .२४/१७२ सिंहसेन २,३ ४०/४३-४८ ४६/४३-४६ ५०/५७-६३ | १२४५० १२१५० २१६५० १२४०० १२००० ११६५० ३ ४ १२४०० १२००० १००० २ । १२१०० १००००० २००००० ३००००० केसरिसेन चारुदत्त वज्रचमर चारुसेन |२,३ २,३ वज्र, वज्रनाभि ।११००० ३२०००० ५१/७६-८१ २/५८-६४ १०४०० १०३०० १०४५० १६०० | २ । १०६०० २ । १००० (३ | ११० २ १६०० ८००० ३००००० जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३८७ ८ ७६०० ७६०० २ । ६५०० ७००० ६६०० ২০০ ५००० ४२०० ३६०० ३२०० २८०० २४०० २ बज्र | चमर, अमर चमर वज्रचमर ३ चामर (बलदत्त २,३ । बलि, बल बलिदत्त वैदर्भ - २,३ दत्तक, दत्त नाग(अनगार) २,३ | वैदर्भ, वि अनगार धर्म मन्दिर सुधर्म,धर्म जय मन्दरार्य, मन्दर अरिष्ट जय अरिष्टसेन चक्रायुध स्वयंभू कुम्भ । २ । कुन्थु विशाख ५४/२४४-२४८ | ८००० ५५/५२-५७ ७५०० ५६/५०-५५ |५७/४४-४६ ६००० |५८/४४-४६ ५६/४८-५३ ५५०० ६०/३७-४२ ५००० ६९/४४ ४५०० ६३/४७६-४६५, ४००० ६४/४४-४६ ३३५० २०५५ १७५० ६७/४६-५३ १५०० ६६/६०-६५ १२५० ७१/१८२-१८७ ७१/१४६-१५३ ७४/३७३-३७८ ००० सेन २५०००० २००००० १००००० ८४००० ७२००० ६८००० ६६००० ६४००० ६२००० ६०००० ५०००० ४०००० ३०००० २०००० १८००० १६००० १४००० | ३ | ३३०० २००० । ३ । २०५० १६०० २ - २२०० १४०० मल्लि १२०० १००० २ । सोमक ८०० सप्रभ वरदत्त स्वयंभू इन्द्रभूति ५. तीर्थकर परिचय सारणी ४०० Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ आयिका संख्या ५० मुख्य आर्यिका ११ श्रावक सख्या ५२ श्राविका संख्या तीर्थकर १. ति. प./४/११६६-११७६ २. ह. पु./६०/४३२-४४० ३. म. पु/पूर्ववद १. ति. प./४/११७८-११८० २. म. पु./पूर्ववत १. ति. प./४/१९८१-१९८२ २. ह. पु./६०/४४१३. म. पु./ पूर्ववत १.ति.प./४/११८३ २. ह. पु./ ६०/४४२ ३. म. पु./ पूर्ववत् सर्ग/श्लो. प्रमाण विशेष सामान्य सामान्य प्रमण विशेष सामान्य प्रमाण विशेष सामान्य प्रमाण । विशेष ३००००० ५००००० कुब्जा धर्मार्या ३२०००० १/४७/२६०-२६४ ४८/४३-४८ |४६/४३-४६ ५०/५७-६३ . ५१/७६-८१ ५२/५८-६४ ३५०००० ३२०००० ३३०००० ३३०६०० ३३०००० ४२०००० ३३०००० ब्राह्मी प्रकुब्जा धर्मश्री मेरुषेणा अनन्ता रतिषणा मीना अनन्तमती ३३०००० मोनार्या ३८०००० वरुना घोषा घोषार्या २००००० ४००००० - ३ ५००००० ३८८ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश धरणा ५४/२४४-२४८ ५५/५२-५७ ५६/५०-५५ ५७/५४-५६ १२ ५८/४४-४६ १३ ५६/४८५३ ६०/३७-४२ २,३ १२०००० धारणा सेना १३०००० १०६००० १०३००० १०८००० ६२४०० १००००० ३००००० ६०३०० ६०३५० ६०००० ५५००० ३/४७६-४६५ १७६४४४ १८६५/३१-४३ १६६६/५३-५६ | २० ६७/४६-५३ । २०६६/६०-६५ २२/ ७१/१८२-१८७ २३/७३/१४६-१५३ २४ ७४/३७३-३७८ चारणा वरसेना पद्मा सर्वश्री सुबता हरिषेणा भाविता कुन्थुसेना मधुसेना पूर्वदत्ता मार्गिणी यक्षिणी सुलोका चन्दना ५०००० यक्षिता बन्धुसेना पुष्पदन्ता म गिनी राजमती सुलोचना ४५००० ४०००० ३८००० ३६००० ५. तीर्थकर परिचय सारणी ३६००० ३५००० Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश नं० ४. वर्तमान चोवीसीके आयुकालका विभाग परिचय ला० लाख; को० कोडि; सा० सागर; प० पक्य ८ ५३. आयु 8.79.4/1/408-452 २. त्रि.सा./०१-८०६ ३. प.पु /२०/११८-१२२ ४. ६०/३१२-१६ ५. म.पु / सर्ग / श्लो० सर्ग/लो. सामान्य १ ८४ ला० पूर्व २४८ / २८-३१ ७२. ३ ४६ / २६ - २५ | ६० ४ ५०/२६-२७ ५० 8/28/ ४० ६ ५२/ २५ ५३/२५ १४/१७६ १ ५२/३० १० ५६/३१ ११ ५७/३६ १२ ५८/२४ १३ ५६/२४ १४ ६०/२४ १५६१/२२ १६६३/४१३ १०६४/२६ १६५/२५ १६६६/३७ २० ६०/२६ २९ ६६/३३ २२०६/२० २३७३/६४ २४ ७४ / २८० १० ३०, २० १ "" "" " 19 " ::: :: " ८४ ला० वर्ष ७२ " ६०," ३०, १० " :: ," 19 29 ६५००० वर्ष ८४००० " ५५०००, ३०००० " १०००० १००० १०० ७२ "1 " ५४. कुमारकाल १. ति प / ४ / ५८३-५८४ २६.५ / ६०/३२५-३३१ ३. म.पु. // श्लो सर्ग/रलो. १६/१२६ ४८/३१ ४१/२६-२८ १०/२० keikk ५२/१५-१६ ५३/२६ ५४/१६५ ५५/३० ५६/३२ ५०/३० १८/३० ५६/२५ ६०/२ ६१/२३ ६३/४५५ 61/20 ६५/२६ U २०/३० ६६/३४ ७१/१०० ७३/१९६ ७४/२६६ सामान्य २० ला० पूर्व १८ ११ १५ .. १२३ १० " ܐܘ "3 19 " ११ 11 २३... ५०००० पूर्व २५००० २१ ला० वष १८ १५ " 19 "+ 39 २३.. २५००० वर्ष " २३७५०," २१००० १०० ७५०० २५०० ३०० ३० ३० 11 37 " ५५. विशेषता १. ति.प./४/५६०-६०३ २. त्रि सा./८४८ ३.१/२०/६२-६७० ४. ६.५/६०/२०६ विवाह कुमारभ्रमण कुमारश्रमण कुमारश्रमण राज्य मण्डलीक 11 " " त्याग मण्डलीक चन 11 त्याग मण्डलीक त्याग 34 सर्ग १६/२६० ४८/२८-३१ ४६/ ५०/४५ Refe ५२/ 21/10 ५४/२०२ 28/26 ५६/१२ ५०१४३ 157 ५६/३९ ६०/२६ ६९/३० ५६. राज्यकाल ६३/४५०.४६९ ६४/२८.३२ ६५/२६-३० ६६/ ६०/३९ GE/K ७१/ १ ति प /४/२६०-६०३ २. ह. पु. / ६० / ३२५-३३१ ३.म.पु./सर्ग/ सामान्य +1 " ६३ ला पूर्व ५३ ला० पूर्व + १ पूर्वांग ४८/४२ ४४ 742.. २६ २१३. ,,+ १६, १४ ,,+२०, 19 ६३. " ११. ३० ला० १५ " "+8 ₹ ५०,००० पूर्व ४२ ला० वर्ष "+5 ,,+ १२ ,,+२४," +35 वर्ष ११ 11 " 11 १५००० वर्ष १००० 11 मण्डलेश + चक्रवर्ती (२५०००+२५००० २३७५० + २३७५० २१०००+२१००० " ५७ छद्मस्थ काल १. ति प /४/६७५-६७८ २. ह. पु / ३३० / ३३७-३४० [३] [म.पु. /सर्ग/रलो. सर्ग/शलो | सामान्य सामान्य १००० वर्ष | १४० पू०-१००० वर्ष १२ वर्ष १ ४१/४०-४११४, ५०/५५ ५१/७४ KR/KK ५३/४४ ३४/२२३ ५५/४६ ५६/४८ ५०/५१ ५८-१४९ ५६/४४ ६०/१५ ६९/४२ 속 ६४/४१ ६५/३६ 44/28 40/84 ६६/५७ ७१/१७६ ७३/१३४ ०५३४८ १८ २० " ६ मास १ वर्ष ३ मास ४ ३ *** 11 " ६ दिन ११ मास ६ वर्ष ५६ दिन ५८. केवलिकाल १. ति प /४/१४३-६६० २ ह.पु / ६०/३३२-३४० ४ मास १२ वर्ष | १ १ १ १ १ .. - (१ पूर्वाग १२..) ,, - ( ४ १४.) - ( १६, ,, - (२०,, ,, - ( २४ ११- २८ १५ २५००० पू. - ३ वर्ष २०६६६६८ वर्ष ५३६६६६६ वर्ष * १४६६६६७ * ७४६६६८ २४६६६६ २४६८४ २३७३४ २०६८४ 95 ५४६०० वर्ष - ६ दिन ,+ १ मास 1m KC ,,, - ( १२,, ७४६६ २४६१ वर्ष ६६६ ६६. ३० 15 ११ " * ". " १८) २०) ६ मास ) ६ वर्ष ) ३ मास) ४ वर्ष : हरिवंश पुराण मे सर्वत्र इन स्थानों मे वर्षकी जगह मास दिये है " १० मास ४ दिन ८ तीर्थंकर ३८९ ५. तीर्थकर परिचय सारणी Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. जन्मान्तरालकाल म.पु./सर्ग/श्लो. ६०. केवलोत्पत्ति अन्तराल १.ति.प./४/७०२-७०३ तीर्थकर १.ति.प./४/१५३-५७७ २. त्रि.सा /८०७-८८१ ६१. निर्वाण अन्तर० १. ति.प./४/१२४०-१२४६ २. त्रि.सा./८०७ ३. ह.पु /६०/४६७-४७२ ३. प.पु./२०/८३-६१ | ४. म.पु./पूर्ववत् चौथे काल में ८४ ला० पू० ३ वर्ष ८३मास शेष रहनेपर उत्पन्न हुए। ५० ला० को० सा०+१२ ला० पू० ३० , . , +१२ , | १०" " +१०५ ५० ला० को० सा० ५० ला० को० सा० ४८/२६ ४६/२६ २०/२६ ५१/२५ - ५० ला० को० सा० ३० " . " | ३० , " २० " " " - + ५० ला० को० सा०+८३६६०१२ वर्ष | ३० , ,, +३ पूर्वांग २ वर्ष ., +४ , ४, 1, +४ , २, " , +३ पूर्वांग ८३६६६०१ वर्ष " " +४ ३ |६०० , , +३ , ८३६६६१४.. १२/३४ +१० ६०,००० |१००० १०,००० १०,००० को० सा० ५३/२४ + ६०,००० , ६००० १०० ५४/१७८ + ५५/२६ + जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३९० १० ५५३६ ३३७३६०० सा० १को०सा०+१ला०पू०-. ( (१०० सा०+१५०२६००० वर्ष) ५४ सा०+१२ ला० वर्ष ३० , +१२ .. , ५८/२३ ५६/२३ ६०/२३ सा० ३० ३० , ६१/२० ६३/४११ ६४/२५ |६/२४ ४ . +२० ,, | (३ सा०६ ला० वर्ष)-३/४ पत्य १/२ पल्य+ ५००० वर्ष १/४ पल्य-RREEEEEO०० वर्ष ६ को० सा० ७४ETE पूर्व ८३६६१ पूर्वांग । ८३६६६६६ वर्ष १ को० सा.-१००सा. १ क.सा.-१०० सा. SEEEEEO० सा० २४६६६ पूर्व 7+६६२६००० वर्ष) ।।७०५५६६६१२७३६६६ वर्ष ५४ सा० ५४ सा०३३००००१ वर्ष ३०, ३६००००२ वर्ष ६ , ७४६६६६ , ४ , ४ , ४६६६६६ . ३ सा०-३/४ पत्य ३ सा०-३/४ पत्य ३ , २२५०१५ वर्ष ३/४ पत्य १/२ पल्य १/२ पल्य १/२ पल्य १२५० वर्ष १/४ प.-१००० को. वर्ष | १/४ प०-१०० को० वर्ष १/४ -RRREE8०२५० वर्षे १००० को० सा० EEEEE६६०८४ वर्ष ६ दिन ५४००००० वर्ष ५४००००० वर्ष ५४४७४०० वर्ष १० मास २४ दिन ६००००० , ६०,००,००० वर्ष (1) ६०५००८ वर्ष १ मास ५०००,००० वर्ष ५०१७६१ वर्ष ५६ दिन ८४,००० ८३७५० वर्ष ८४३८० वर्ष २ मास ४ दिन | २५० वर्ष २७६ , ८ मास ३ सा०-३/४ पल्य १/२ पत्य १/४ प०-१००० को० वर्ष १०००००२६००० वर्ष ६५८४००० वर्ष । १००० को० वर्ष १००० को० वर्ष ५४ ला० वर्ष ६७/२७ १६/३२ ७१/४६ ७३/६३ ७४/२७६ 1५४२५००० ६२०,००० ५०१००० ५०,००० " 1८४६५० ५. तीर्थकर परिचय सारणी २५० ८३७५० वर्ष २५० , |२७८ चतुर्थकालम ७५ वर्ष ८ मास शेष रहने पर उत्पन्न हुए थे। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर । ६५ मुख्य श्रोता 120/ ५. वर्तमान चौबीसीके तीर्थकाल व तत्कालीन प्रसिद्ध पुरुष संकेत-ला० लाख, को-कोडि, सा०=सागर, प०= पत्य ६२ तीर्थकाल ६३ तीर्थ व्युच्छित्ति ६४ सामयिक शलाका पुरुष १. ति. प./४/१२७६ १. ति.प./४/१२८३-१२८६, १४११-१४४३ | २. त्रि.सा./८१४ १. ति, प./४/१२५०-१२७४ नं० । | ३.ह.पु./६०/४७४-४७५ २. त्रि. सा./-४२-८४६, ३. ह. पू /६०/२६४-३०१ ४ म.पु./ नाम सर्ग/श्लो. काल चक्रवर्ती । बलदेव नारायण प्रतिनारायण तीर्थकर ५० ला० को० सा०+१ पूर्वाग १ ऋषभ भरत २ अजित ३ सम्भव १० " " " +४ ४ अभिनन्दन ५२६-५३३ मुख्य भीमावलि जितशत्रु सगर ५ सुमति |xxxxxxxxxx १०,०००" ६,००० " ६००, xxxxxxxxxx " xxxxxxxxxx मxxxxxx +४ +४ , , xxxxxxxxxxxxx ६ पद्मप्रभु ७ सुपार्श्व ८ चन्द्रप्रभु ६ पुष्पदत्त १० शीतल ११ श्रेयांस १२ वासुपूज्य १३ विमल १४ अनन्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश वैश्वानर भरत सगर सत्यवीर्य मित्रभाव मित्रवीर्य धर्मवीर्य दानवीर्य मघवा बुद्धिवीर्य सीमंघर त्रिपृष्ठ स्वयम्भू पुरुषोत्तम पुरुष पुण्डरीक सत्यदत्त - विजय अचल धर्म सुप्रभ सुदर्शन त्रिपृष्ठ द्विपृष्ठ स्वयंभू पुरुषोत्तम पुरुषसिंह अश्वग्रीव तारक मेरक मधु कै. सुप्रतिष्ठ अचल पुण्डरीक अजितंधर अजितनाभि ५८/२३ (९/३.)३/४ प०/१५ धर्म X मघवा सनत्कुमार X X स्वयं १६ शान्ति १७ कुन्थु १८ अर xxxxxx X X कुनाल नारायण x (को० सा०-१/४ प०)+ (१ ला० पूर्व-२८ पूर्वाग) ५६/३०१/४ पल्य १ को० सा०-६(१०० सा०-१/२ प०)+ __ ( २५००० पूर्व-६६२६००० वर्ष )} | ५७/३६ १/२ पल्य (५४ सा०+२१ ला० वर्ष )- ३/४ पल्य (३० सा०+१४ ला० वर्ष )-१ पत्य ५६/२३ १पल्य (टिप्पणी) (६ सा०+१५ ला० वर्ष)-३/४ पत्य ६०/२३ ३/४ पत्य (४सा०+७५०००० वर्ष )-३/४ पन्य । ६१/२०१/२ पल्य ( ३सा०+२५०००० वर्ष)-१ पत्य ६३/४११ | १/४ पल्य १/२ पत्य+ १२५० वर्ष অস্থার १/४ पल्य-REEEEE७२५० वर्ष REEER६६१०० वर्ष ২৪৮৩৪০০ বধ ६०५००० वर्ष ५०१८०० वर्ष ८४३८० वर्ष २७८ वर्ष . २१०४२ वर्ष - सुभौम xxxxxxxxx al' X X सुभम नन्दी पुण्डरीक | १६ मक्लि सार्वभौम नन्दि प्रहरण पद्म २० सुबत अजितब्जय हरिषेण IFxxxxxxxxxxxxxxx - लक्ष्मण रावण विजय ५. तीर्थकर परिचय सारणी जयसेन २१ नमि २२ नेमि २३ पार्श्व २४ वर्द्ध मान । उग्रसेन पन जरासिध कृष्ण ब्रह्मदत्त xx X महासेन श्रेणिक X X Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर ३९२ ५. तोयंकर परिचय सारणी ६. विदेहक्षेत्रस्य तीर्थकरोंका परिचय १ जयसेन प्रतिष्ठा पाठ/५४५-५६४ १. त्रि. सा./६८१ २. म. पु./७६/४६६ ३. जयसेन प्रतिष्ठा पाठ/५६५ १नाम २ चिह्न ३ नगरी ४ पिता ५ माता ६ विदेहस्थ तीर्थंकरों की संख्या सीमन्धर पुण्डरीकणी युगमन्धर श्री रह सुग्रीव माहु हरिण सुसीमा विजया सुबाहु अबध्यदेश सनन्दा सित्थद्धसयलचक्की सविसयं पुहवरेण अवरेण । वीसं वीसं सयले खेत्ते सत्तरिसयं वरदो ।६८१॥ तीथकर पृथक-पृथक् एक एक विदेह देशविषै एक एक होइ तब उत्कृष्टपनै करि एकसौ साठि होइ। बहुरि जघन्यपने करि सीता सीतोदाका दक्षिण उत्तर तट विर्ष एक एक होइ ऐसे एक मेरु अपेक्षा च्यारि होंहिं। सब मिलि करि पंच मेरुके विदेह अपेक्षाकरि बीस हो है। संजात सूर्य अलकापुरी देवसेन स्वयंप्रभ चन्द्रमा । मंगला ऋषभानन मुसीमा वीरसेना अनन्तवीर्य सूरिप्रभ ऋषभ विशालप्रभ पुण्डरीकणी वीर्य विजया वज्रधर शंख पद्मरथ सरस्वती चन्द्रानन पुण्डरीकणी दयावती कमल रेणुका चन्द्रबाहू भुजंगम चन्द्रमा महाबल मुसीमा गलसेन ईश्वर नेमिप्रभ ज्वाला १६ १७ वीरसेन पुण्डरीकणी भूमिपाल वीरसेना विजया देवराज उमा महाभद्र देवयश मुसीमा स्तवभूति | २० अजितवीर्य कमल कनक - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर बेलाव्रत तूष्णीक तीर्थकर बेलावत-व्रत विधान संग्रह/११० वृषभनाथका ७-८ का बेला तथा ६ को तीन अंजुली शर्बतका पारणा। अजितनाथका १३१४ का बेला तथा १५ को तीन अंजुलो दूधका पारणा । सम्भवनाथका ऋषभनाथवत् तथा अभिनन्दन नाथका अजितनाथवत् । इसी प्रकार आगे भी तीर्थकर नं०५,७,६,११,१३,१५,१७,१६,२१,२३ का ऋषभनाथवत् और तीर्थकर नं. ६,८,१०,१२,१४,१६,१८,२०,२२,२४ का अजितनाथवत जानना । जाप्य-“ओं ह्रीं वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकराय नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । तीर्थकरवत-वत विधान संग्रह/४८ -२४ तीर्थंकरों के नामसे २४ दिन तक लगातार २४ उपवास । जाप्य-"ओ हीं वृषभादिचतुर्विशतितीर्थ करेभ्यो नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप । तीर्थ-१. निश्चय तीर्थका लक्षण बो. पा./मू २६-२७ वयसंमत्तविसुद्ध पंचेंदियसंजदे णिरावेरखो। पहाएउ मुणी तित्थे दिक्वासिक्खा सुण्हाणेण ।२६। [शुद्धबुद्धै कस्वभावलक्षणे निजात्मस्वरूपे संसारसमुद्रतारणसमर्थ तीर्थे स्नातु विशुद्धो भवतु] जंणिम्मल सुधम्म सम्मत्त संजम जाणं । तं तिथं जिणमग्गे हबेइ जदि संतिभावेण ।२७।- सम्यक्त्व करि विशुद्ध, पॉच इन्द्रियसंयत संवर सहित, निरपेक्ष ऐसा आत्मस्वरूप तीर्थ विषै दीक्षा शिक्षा रूप स्नान करि पवित्र होओ।२६। [शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव है लक्षण जिसका ऐसे निजात्म स्वरूप रूप तीर्थ में जो कि संसार समुद्रसे पार करने में समर्थ है। स्नान करके विशुद्ध होओ। ऐसा भाव है। बो. पा./टी./२६/१२/२१) ] जिन मार्ग विर्षे जो निर्मल उत्तम क्षमादि धर्म निर्दोष सम्यक्त्व, निर्मल संयम, बारह प्रकार निर्मल तप, और पदार्थ निका यथार्थ ज्ञान ये तीर्थ है। ये भी जो शान्त भाव सहित होय कषाय भाव न होय तब निर्मल तीर्थ है। मू. आ./५५७...। 'सुदधम्मो एत्थ पुण तिथं । - श्रृत धर्म तीर्थ कहा जाता है। घ.८/३,४२/१२/७ धम्मो णाम सम्मद सण-णाणचरित्ताणि । एदेहि ससारसायर तरात त्ति एवाणि तित्थ ।-धमका अथ सम्यदशन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। चूंकि इनसे संसार सागरको तरते हैं इसलिए इन्हें तीर्थ कहा है। भ. आ./वि. ३०२/५१६/६ तरंति संसार येन भव्यास्तत्तीर्थ कैञ्चन तरन्ति श्रुतेन गणधरैलिम्बनर्भूतै रिति श्रुतं गणधरा वा तीर्थमित्युच्यते। =जिसका आश्रय लेकर भव्य जीव संसारसे तिरकर मुक्तिको प्राप्त होते हैं उसको तीर्थ कहते हैं। कितनेक भव्य जीव श्रुतसे अथवा गणधरकी सहायतासे संसारसे उत्तीर्ण होते हैं, इसलिए श्रुत और गणधरको तीर्थ कहते है। (स्व. स्तो./टी./१०६/२२६)। स. श /टो./२/२२२/२४ तीर्थ कृतः ससारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थ मिव तीर्थमागमः। संसारसे पार उतरनेके कारणको तीर्थ कहते हैं, उसके समान होनेसे आगमको तीर्थ कहते हैं। प्र. सा /ता./वृ./१/३/२३ दृष्टश्रुतानुभूतविषयसुखाभिलाषरूपनीरप्रवेशरहितेन परमसमाधिपोतेनोत्तीर्णसंसारसमुद्रत्वात, अन्येषां तरणोपायभूतत्वाच्च तोर्थम् । = दृष्ट, श्रुत और अनुभूत ऐसे विषय-सुखकी अभिलाषा रूप जलके प्रवेशसे जो रहित है ऐसी परम समाधि रूप नौकाके द्वारा जो संसार समुद्रसे पार हो जानेके कारण तथा दूसरोंके लिए पार उतरनेका उपाय अर्थात् कारण होनेसे (बर्द्धमान भगवान्) परम तीर्थ हैं। २. व्यवहार तीथका लक्षण बो. पा (टो./२७/६३/७ तज्जगत्प्रसिद्ध निश्चयतीर्थप्राप्तिकारणं मुक्तमुनिपादस्पृष्टं तोर्थ ऊर्जयन्त शत्रुजयलाटदेशपावागिरि...तीर्थंकरपञ्चकल्याणस्थानानि चेत्यादिमार्गे यानि तीर्थानि वर्तन्ते तानि कर्मक्षयकारणानि वन्दनीयानि । =निश्चय तीर्थ की प्राप्तिका जो कारण हैं ऐसे जगत प्रसिद्ध तथा मुक्तजीवोंके चरणकमलोंसे स्पृष्ट ऊर्जयन्त, शत्रजय, लादेश, पावागिरि आदि तीर्थ है। वे तीर्थकरोंके पंचकल्याणकों के स्थान हैं। ये जितने भी तीर्थ इस पृथिवीपर बर्त रहे हैं वे सब कर्मक्षयके कारण होनेसे बन्दनीय हैं। (बो. पा./भाषा./४३/१३६/१०)। ३. तीथके भेद व लक्षण मू. चा/११८-५६० दुविहं च होइ तिथं णादव्वं दव्वभावसंजुत्तं । एदेसि दोण्हपि य पत्तेय परूवणा होदि ।५५८। दाहोपसमणं तण्हा छेदो मलपंकपवहणं चेव । तिहि कारणे हि जुत्तो तम्हा तं दव्वदो तित्थं ।५५६। दंसणणाणचरित्ते णिज्जुत्ता जिणवरा दु सम्वेपि । तिहि कारणेहि जुत्ता तम्हा ते भावदो तित्थं ॥५६० तीर्थ के दो भेद हैं-द्रव्य और भाव । इन दोनोंकी प्ररूपणा भिन्न भिन्न है ऐसा जानना ।५५८। संताप शान्त होता है, तृष्णाका नाश होता है, मल पंककी शुद्धि होती है, ये तीन कार्य होते है इसलिए यह द्रव्य तीर्थ है ।५५६। सभी जिनदेव दर्शन ज्ञान चारित्र कर संयुक्त हैं। इन तीन कारणोंसे युक्त हैं इसलिए वे जिनदेव भाव तीर्थ हैं।५६०। * भगवान् वीर का धर्मतीथ-दे० महावीर/२ । तीर्थकृद् भावना क्रिया-दे० संस्कार/२ । तीव्रका लक्षणध. ११/४,२,६,२४६/३४६/१३ तिव-मंददा णाम तेसिं जहणुकस्सपरिणामाणमविभागपडिच्छेदाणमप्पाबहूगं पखवेदि। -तीव-मन्दता अनुयोग द्वार उन (स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानों) के जघन्य व उत्कृष्ट परिणामोंके अविभाग प्रतिच्छेदोंके अम्पबहुत्वकी प्ररूपणा करता है। * कषायकी.तीव्रता मन्दता-दे० कषाय । * परिणामोंकी तीव्रता मन्दता-दे० परिणाम । तासय-ल. सा/भाषा./२२६/२७६/१ जिन (कर्म नि ) की तीस कोड़ाकोडी (सागर ) की उत्कृष्ट स्थिति है ऐसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय तिनकौं तीसीय कहिये। तुंबर-गन्धर्व नामा व्यन्तर जातिका एक भेद-दे० गन्धर्व । तुबुरव-सुमतिनाथ भगवान् का शासक यक्ष-दे० तीर्थ कर/५/२। तंबूलाचार्य -आपके असली नामका पता नहीं। तुंबूलर ग्राममें रहनेके कारण आपका यह नाम ही प्रसिद्ध है। आप शामकण्ड आचार्य के कुछ पश्चात् हुए हैं। कृतिआपने षट्खण्डके प्रथम पाँच खण्डोंपर चूड़ामणि नामकी टीका लिखी है। समय-ई. श. ३-४ (ष. खं/प्र. ४६ (H.L. Jain) तुरुष्क-वर्तमान तुर्किस्तान (म: पु./प्र.५० पन्नालाल )। तुलसीदास-आपको सन्त गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं । कृति रामायण, नवदुर्गाविधान । समय-वि० १६८० (हिं. जै. सा.इ/११५ कामताप्रसाद )। तुला-तोलका प्रमाण विशेष-दे. गणित/११/२। लिंग-भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । 1-तुल्य बल विरोध-दे० विरोध । तुषित-१, लौकान्तिक देवोंका एक भेद-दे. लौकान्तिक । ग-तूर्याग जातिका कल्पवृक्ष-दे० वृक्ष/१। तूष्णीक-पिशाच जातीय व्यन्तर देवोंका एक भेद -दे० पिशाच । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-५० Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृणचारण ऋद्धि तृणचारण ऋद्धि दे० // । तृणफल - तोलका एक प्रमाण विशेष-दे० गणित / I / १1 तृणस्पर्श परिषह -स.सि./६/६/४२६/१ तृणग्रहणमुपलक्षणं कस्यचिव्यथन कारणस्य तेन शुष्कतृणरुपशर्करा आदि व्यधनकृतपादवेदनाप्राप्ती सयां तत्राप्रहितचेतसरचर्या शय्यानिया प्राणिपीडापरिहारे नित्यमप्रमत्तचेतसस्तृणादिस्पर्शवाधापरिषहविजयो वेदितव्यः । - जो कोई विधने रूप दुखका कारण है उसका 'तृण' पदका ग्रहण उपलक्षण है । इसलिए सूखा तिनका, कठोर, कङ्कड़··· आदिके विधनेसे पैरोमें वेदनाके होनेपर उसमे जिसका चित्त उपयुक्त नहीं है। तथा चर्या शय्या और निश्या प्राणि पीड़ाका परिहार करनेके लिए जिसका चित निरन्तर प्रमाद रहित है उसके तुम स्पर्शादि माधा परिषह जय जानना चाहिए। ( रा वा /६/६/२२/६११/२६ ) ( चा. सा./१२५/३) । तृतीय भक्त - दे० प्रोषधोपवास/ १ । तृषापरीषह - ३० पिपासा । तृष्णा — दे० राग तथा अभिलाषा, तेजमें तेजांग कल्पवृक्ष दे०/१० तेजोज - दे० ओज | तेला व्रत विधान सं० / २२३ पहले दिन दोपहर को एकाशन करके मन्दिरमे जाये । तीन दिन तक उपवास करे। पाँचवें दिन दोपहरको एकलठाना ( एक स्थानपर मौनसे भोजन करे ) । तेजस स्थूल शरीर में दीप्ति विशेषका कारण भूत एक अत्यन्त सूक्ष्म शरीर प्रत्येक जीवको होता है, जिसे ते जस शरीर कहते हैं। इसके अतिरिक्त सपद्धि विशेषके द्वारा भी दायें व वाये कसे कोई विशेष प्रकारका प्रज्वलित पुतला सरीखा उत्पन्न किया जाता है उसे समुद्रात कहते है ये कम्मेवाला तेजस रोग दुर्भिक्ष आदिको दूर करनेके कारण शुभ और मा कन्येवाला सामने के पदार्थों व नगरी आदि भस्म करनेके कारण अशुभ होता है । आतप तेज व उद्योतमे अन्तर- दे० आतप । २. अग्नि के अर्थ दे. अग्नि । - 9 तैजस शरीर निर्देश १ तैजस शरीर सामान्यका लक्षण । तेजस शरीरके भेद | अनिम्सरणात्मक शरीरका लक्षण | २ ३ ४ ५ ६. ८ ९ १० निःसरणात्मक शरीरका लक्षण - १० तेजस / २/२ । तैजस शरीर तप द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है। तैजस शरीर योगका निमित्त नहीं । तेजस व कार्मण शरीरका सादि अनादिना । तेजस व कामेण शरीर आत्म-प्रदेशों के साथ रहते हैं। तेजस व कार्मेण शरीर अतिपाती है। तेजस सव कार्मण शरीर का निरुपयोग तेजस व कार्मण शरीर का स्वामित्व | अन्य सम्बन्धित विषय ० शरीर/२/५। 1 ३९४ २ १ तैजस * तेजस समुद्घात निर्देश २ ३ ४ ५. ६. समुद्वात सामान्यका लक्षण । तेजस समुद्घातके भेद | अशुभ तैजस समुदुघातका लक्षण । तैजस समुद्घातका लक्षण । शुभ तेजस समुदायका वर्ण शक्ति आदि। तेजस समुद्धात का स्वामित्व । अन्य सम्बन्धित विषय १. तेजस शरीर निर्देश १. तैजस शरीर सामान्यका लक्षण तेजस प. न. १४/५.६/सू. २४०/२२ तेयगुणत मिदि तेज तेज और प्रभा रूप गुणसे युक्त है इसलिए तेजस है | २४०| स.सि./२/२/१११/- तेजोनिमित्तं तेजसि वा भयं ससेजसम् । जो दोष्टिका कारण है या रोजमें उत्पन्न होता है उसे तेजस शरीर कहते है (रा.वा./२/३६/०/९४६/१९) रा.बा/२/४१/८/१५३/१४ सेजसम् के समान शुभ्र तैजस होता है। ध.१४/५,६.२४०/३२७/१३ शरीरस्कन्धस्य पद्मरागमणिवर्णस्तेज शरीरा. निर्गतरश्मिकलाप्रभा, तत्र भवं तेजसं शरीरम् । - शरीर स्कन्ध के पद्मरागमणिके समान वर्णका नाम तेज है। तथा शरीरसे निकली हुई रश्मि कलाका नाम प्रभा है। इसमे जो हुआ है वह तेजस शरीर है। तेज और प्रभागुणसे युक्त तेजस शरीर है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। २. तेजस शरीर के भेद ध १४/५.६,४०/३२८ / १ तं तेजइयशरीरं णिस्सरणप्पयमणिस्सरणप्पयं चेदि दुविहं । तत्थ जं तं णिस्सरणप्पयं तं दुविहं - सुहमसुहं चेदि । = तैजस शरीर नि सरणात्मक और अनि. सरणात्मक इस तरह दो प्रकारका है। (रा.वा./२/२/१२३/१५) उसमे जो निसरणात्मक तेजस शरीर है वह दो प्रकारका है-शुभ और अशुभ । ( ध.४/१३,२/ २०/७) घ.०/२६.१/२००४ तेजासरीरं दुविहं पसत्यमप्यस्य चेदि तेजस शरीर प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे दो प्रकारका है । ३. अनिःसरणात्मक वैजस शरीरका लक्षण 1 ग.वा./२/४६/८/१५३/१५ औदारिकवै क्रियिकाहारकदेहाभ्यन्तरस्थं देहस्य दीप्तिहेतुर निःसरणात्मक औवारिक किसिक और आहा वैक्रियिक एक शरीर में रौनक लानेवाला अनि सरणात्मक तेजस है। । घ. १४/५.६,२४० / ३२८/८ जं समभिस्सरपण्ययं तेजइयसरीरं तं भुत्तणपाणपाचयं ह ेदूग अच्छदि अंतो । जो अनि. सरणात्मक तेजस शरीर है वह भुक्त अन्नपानका पाचक होकर भीतर स्थित रहता है । ४. तैजस शरीर तर द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता त. सू. / २ / ४८. ४६ लब्धप्रत्ययं च ॥४८॥ तैजसमपि । ४६ । ते नस शरीर पैदा होता है जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ५. तैजस शरीर योगका निमित नहीं है स. सि /२/४४/११६/३ तैजसं शरीरं योगानिमित्तमपि न भवति । - सेजस शरीर योगमें निमित्त नहीं होता। (रा.मा./२/४४/१/२५९) Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैजस ६. तैजस व कार्माण शरीरका सादि अनादिपना . /२/४१ अनादिसम्बन्धे च ॥४१॥ - तेजस और कार्माणि शरीर आत्माके साथ अनादि सम्बन्ध वाले है । रा.वा./२/४२/२-५/१४६ बन्धसंतत्यपेक्षया अनादिः संबन्धः । सादिश्व विशेषतो बीजवृक्षवत् |२| एकान्तेनादिमत्त्वे अभिनवशरीरसंबन्धाभयो निनिमित्तखात ३ मुकाममानस 181 एकान्तेनानादिवे निर्मोक प्रसाद तस्मादसा केनचित्कारेण अनादिः संबन्धः केनचित्प्रकारेणादिमानिति । ये दोनों शरीर अनादि से इस जीव के साथ है। उपचय- अपचयकी दृष्टिसे इनका सम्बन्ध भी सादि होता है। बीज और वृक्षकी भाँति । जैसे वृक्षसे बीज और बीजसे वृक्ष इस प्रकार बीज वृक्ष अनादि होकर भी सहवीज और की अपेक्षा सादि है। यदि सर्वथा आदिमान् मान लिया जाये तो अशरीर आत्मा नूतन शरीरका सम्बन्ध ही नहीं हो सकेगा, क्योकि शरीर सम्बन्धका कोई निमित्त ही नहीं है । यदि निर्निमित होने लगे तो मुक्तात्मा के साथ भी शरीरका सम्बन्ध हो येगा ।२-४ | यदि अनादि होनेसे अनन्त माना जायेगा तो भी किसीको मोक्ष नहीं हो सकेगा 121 अत सिद्ध होता है कि किसी अपेक्षा अनादि है तथा किसी अपेक्षासे सादि है । ७. तेजस व कार्माण शरीर आत्मप्रदेशोंके साथ रहते हैं रा.वा./२/४६/८/१५४/१६ तेजसकार्माणे जघन्येन यथोपात्तौदारिकशरीरप्रमाणे, उत्कर्षेण केवलिसमुद्घाते सर्वलोकप्रमाणे । =तैजस और कार्माण शरीर जघन्यसे अपने औदारिक शरीरके बराबर होते हैं। और उत्कृष्टसे केवलसमुद्घात में सर्वलोक प्रमाण होते हैं । ८. सैजस कार्याण शरीरका मिरुप मोगरव त.सू./२/४४ निरुपभोगमन्त्यम् ॥४४ | = अन्तिम अर्थाद तेजस और कार्माण शरीर उपभोग रहित हैं । स.सि./२/४४/११५/ अन्ते भयम प्रालिका शब्दादीनामुपलब्धिरूपभोग सत्यामपि इन्द्रियन्धी द्रव्येन्द्रियनि गाभावइति मनु से जसमपि निरुपभोगम् निरुपभोगमन्त्वमिति जसे शरीर योगनिमितमपि न भवति ततोऽस्योपभोगविचारेऽनधिकार । =जो अन्तमें होता है वह अन्त्य कहलाता है। प्रश्न- अन्तका शरीर कौन है ? उत्तर-कार्मण इन्द्रिय नदियों द्वारा खादिके ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं । यह बात अन्तके शरीरमे नही पायी जाती; अत वह निरुपभोग है। विग्रहगतिने तब्दिरूप भावेन्द्रियके रहते हुए भी इन्द्रियोंकी रचना न होनेसे शब्दादिकका उपभोग नहीं होता प्रश्न तेजस शरीर भी निरुपमोग है इसलिए वहाँ यह क्यों कहते हो कि वह शरीर निरुपभोग है। उत्तर- हैजस शरीर योग में निमित्त भी नहीं होता, इसलिए इसका उपभोगके विचार में अधिकार नहीं है। (रा.वा./२/४४/२-३ / १५१) ९. तेजस व कामंण शरीरोंका स्वामित्व किं तत्कर्मइन्द्र तदभावरूपभोगस् । भावाच्या प्रविश्यते 1 स.सू./२/४२ सर्वस्य 1४२ - तेजस व कार्मण शरीर सर्व संसारी जीमोंके होते हैं। मोट अस कार्मण शरीरके उरकृष्ट अनुकृत प्रदेशाथोंका स्वामिल - ३० (प.वं./१२/५.६/४५८४७८/४१६-४२२) तेजस व कार्मण शरीरोंके जघन्य व अजघन्य प्रदेशाग्रोके संचप्रका स्वामित्व । - दे० ५. ९४/५/४११-४१८/२२८) १०. अन्य सम्बन्धित विषय १. तेजस व कार्मण शरीर अमतिपाती है। - दे० शरीर/१/५ । ३९५ २. वैजस समुद्घात निर्देश २. पाँचों शरीरोंकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मता व उनका स्वामित्व । --दे० शरीर/१/५ । स्पर्शन, काल, अन्तर, - दे० वह वह नाम । ३. तैजस शरीरकी सत्, संख्या, क्षेत्र, भाव, अल्पबहुत्व आठ प्ररूपणाएँ । ४. तेजस शरीरकी संघातन परिशातन कृति । -२०६/१/२६१-४३११ ५. मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणाकी इष्टता तथा आपके अनु सार व्यय होनेका नियम - दे० मार्गणा । २. तैजस समुदघात निर्देश १. तेजस समुद्घात सामान्यका लक्षण रा.वा./१/२०/१२/७७/१६ जीवानुग्रहोपघातप्रवणतेज' शरीरनिर्वर्तनार्थस्तेजस्समुह पात. जीवोंके अनुग्रह और विनाशमें समर्थ तैजस शरीर की रचना के लिए तेजस समुद्रघात होता है। घ.४/१.३,२/२०/० तेजासरीरसमुग्धादो नाम तेजइयसरीरविउ । - शरीरके विसर्पणका नाम तेजस्कशरीरसमुहात है। * ★ तैजस समुद्घातके भेद निस्सरणात्मक तेजस शरीरवद्दे० तैजस/१/२ । २. अशुभ तैजस समुद्रातका लक्षण रा. वा. /२/४६/८/१५३/१६ यतेरुप्रचारित्रस्यातिक्रुद्धस्य जीवप्रदेशसंयुक्तं महिनिष्क्रम्य दायं परिवृत्यावतिष्ठमानं निम्पामहरिसपरिपूर्ण स्थालीभिव पचति पचनिय अपरिमनतिष्ठते अग्निदाह्यो भवति निःसरणात्मकम्। निःसरणारमक तेजस उचारियाले अोिधी यतिके शरीरसे निकलकर जिसपर क्रोध है उसे घेरकर ठहरता है और उसे शाककी तरह पका देता है, फिर वापिस होकर यतिके शरीरमें ही समा जाता है। यदि अधिक देर ठहर जाये तो उसे भस्मसात् कर देता है । ध. १४/५,६,२४१/३२८/५ कोधं गदस्स सजदस्स वामसादो बारहजोयणायामे जोयनविभेण सुचि अंगुलर संखेज्जदिभाग मारले जाणे निस्सरिग सगस्ये सम्भं सरस त्रिणा का पुणो पविसमा रेदि तमसृहं णाम | = क्रोधको प्राप्त हुए संयतके वाम कंधे से बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा और सूच्यंगुलके संख्यातवें भाग प्रमाण मोटा तथा जपाकुसुमके रंगवाला शरीर निकलकर अपने क्षेत्रके भोटर स्थित हुए जीवोंका विनाश करके पुनः प्रवेश करते हुए जो उसी संयतको व्यास करता है वह अशुभ तेजस शरीर है (ध. /४/१.३.२/२०/१) इ.सं./टी./१०/२७/८ स्वस्थ मनोऽनिष्टजन किंचित्कारणान्तरमवतो समुत्पन्नक्रोधस्य संयमनिधानस्य महामुनेर्मूलशरीरमपरित्यज्य सिर दोर्घवेन द्वादशयोजन प्रमाणः सुध्यख संरुमेय भागमूल विस्तारो नवयोजनविस्तार काहलाकृतिपुरुषो वामस्कन्धाद्रिश्य वामप्रदक्षिणेन दमे निहित विरुद्ध वस्तु भस्मसात्कृ तेनैव संयमिना सह स च भस्म व्रजति द्वीपायनमुनिवत् । असावशुभतेजः समुद्घातः । अपने मनको अनिष्ट उत्पन्न करनेवाले किसी कारणको देखकर कोधी संयम के विधान महामुनिके नायें कसे सिन्दूरके ढेर जैसी कान्तिवासा भारह योजन सम्भा सूच्यंगुल संख्यात भाग प्रमाण मूल विस्तार और नौ योजन के अग्र विस्तारवाला; काहल ( बिलाव ) के आकारका धारक पुरुष निकल करके बाय प्रदक्षिणा देकर मुनि जिसपर क्रोधी हो उस पदार्थको भस्म करके और उसी मुनिके साथ आप भी भस्म हो जावे जैसे ' द्वैपायन मुनि । सो अशुभ तैजस समुद्रघात है । 1 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ·1 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजस त्याग ३. शुम तेजप्त समुद्रातका लक्षण ध./१४/५.६,२४०/३२८/३ संजवस्स उग्गचरितस्स दयापुरंगम-अणुकंपावूरिदस्स इच्छाए दक्विणांसादो हंससखवणं हिस्सरिदूण मारीदिरमरवाहिवेयणादुब्भिवखुवसग्गादिपसमण दुवारेण सव्वजीवाणं संजदस्स' य जं सुहमुप्पादयदि तं सुई णाम । = उग्र चारित्रवाले तथा दयापूर्वक अनुकम्पासे आपूरित संयतके इच्छा होनेपर दाहिने कंधेसे हंस और शखके वर्ण वाला शरीर निकलकर मारी, दिरमर, व्याधि, बेदना, दुर्भिक्ष और उपसर्ग आदिके प्रशमन द्वारा सब जीवों और संयतके जो सुख उत्पन्न करता है वह शुभ तैजस कहलाता है। (ध. ४/१,३,२/२८/३ ) (ध.७/२,६,१/३००/५)। द्र. सं /टी /१०/२६ लोकं व्याधिदुर्भिक्षादिपीडितमवलोक्य समुत्पन्नकृपस्य परमस यमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमपरित्यज्य शुभ्राकृतिः प्रागुक्तदेहप्रमाणः पुरुषो दक्षिणप्रदक्षिणेन व्याधिदुर्भिक्षादिकं स्फोटयित्वा पुनरपि स्वस्थाने प्रविशति, असौ शुभरूपस्तेजःसमुद्धात. । जगतको रोग दुर्भिक्ष आदिसे दुःखित देखकर जिसको दया उत्पन्न हुई ऐसे परम संयम निधान महाऋषिके मूल शरीरको न त्यागकर पूर्वोक्त देहके प्रमाण, सौम्य आकृतिका धारक पुरुष दायें कन्धेसे निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा देकर रोग, दुर्भिक्षादिको दूर कर फिर अपने स्थानमें आकर प्रवेश करे वह शुभ तैजस समुद्घात है। ४. तैजस समुद्घातका वर्ण शक्ति आदि प्रमाण–दे० उपरोक्त लक्षण ४. परिहारविशुद्धि संयमके साथ तैजस व आहारक समुद्घातका विरोध। -दे० परिहारविशुद्धि। तैजसकाय-दे० अग्नि । तैजस वर्गणा-दे० वर्गणा। तैजस शरीर- दे० ते जस/१। तैजस समुद्घात-दे० तैजस/२। तैतिल-भरत क्षेत्रस्थ एक देश। -दे० मनुष्य/४ । तैला-भरत क्षेत्र आर्य खण्डस्थ एक नदी। -दे० मनुष्य/४। तलिपदेव-कल्याण (बम्बई) के राजा थे। इनके हाथसे राजा मुंजकी युद्धमें मृत्यु हुई थी। समय-वि. सं. १०५८ ( ई० ६१२१) (द. सं./प्र. ३६ प्रेमी)। तोयंधरा-नन्दनवनमें स्थित विजयकूटकी स्वामिनी दिक्कुमारी देवी। -दे० लोक/५/५ । तारण-घ,१४/५,६,११/३/४ पुराणं पुराणं पासादाणं बंदणमालबंधणठं पुरदो टूठविदरूक्वविसेसा तोरणं णाम। प्रत्येक पुर प्रासादोंपर वन्दनमाला बांधनेके लिए आगे जो वृक्ष विशेष रखे जाते हैं वह तोरण कहलाता है। तोरणाचार्य-राष्टकटवंशी राजा गोविन्द त के समयके अर्थात शक सं०७२४ व ७१६ के दो ताम्रपत्र उपलब्ध हुए है। उनके अनुसार आप कुन्दकुन्दान्वयमे से थे। और पुष्पनन्दिके गुरु तथा प्रभाचन्द्रके दादागुरु थे। तदनुसार आपका समय श० सं० ६०० (ई० ६७८) के लगभग आता है। (प. प्रा./प्र. ४-५ प्रेमीजी) (स. सा./प्र. K. B. Pathak) (जै./२/११३)। तोरमाण-मगधदेशकी राज्य वंशावलीके अनुसार (-दे० इतिहास) यह हणवंशका राजा था। इसने ई०५०० मे गुप्त साम्राज्य (भानुगुप्तकी) शक्तिको कमजोर पाकर समस्त पंजाब व मालवा प्रदेशपर अपना अधिकार कर लिया था। पीछे इसीका पुत्र मिहिरकुल हुआ। जिसने गुसवशको प्राय' नष्ट कर दिया था। यह राजा अत्यन्त अत्याचारी होनेके कारण कल्की नामसे प्रसिद्ध था। (-दे० कल्की)। समय-बी०नि० १०००-१०३३ (ई० ४७४-५०७) विशेष -दे. इतिहास/३/४। त्यक्त शरीर-दे निक्षेप/५ । त्याग-वीतराग श्रेयसमार्ग में त्यागका बड़ा महत्त्व है इसीलिए इसका निर्देश गृहस्थों के लिए दानके रूपमें तथा साधुओंके लिए परिग्रह त्यागनत व त्यागधर्मके रूपमे किया गया है। अपनी शक्तिको न छिपाकर इस धर्मकी भावना करनेवाला तीर्थ कर प्रकृतिका बन्ध करता है। विषय अप्रशस्त प्रशस्त वर्ण समर्थ जपाकुसुमवद रक्त हंसवत् धवल शक्ति भूमि व पर्वतको जलानेमें रोग मारी आदिके प्रशमन करने में समर्थ उत्पत्ति- बायां कंधा दायां कन्धा स्थान विसर्पण | इच्छित क्षेत्र प्रमाण अथवा अप्रशस्तवत १२ योरहयो. - सूच्य गुलके = संख्यात भाग प्रमाण | निमित्त | रोष प्राणियोके प्रति अनुकंपा ५. तैजस समुद्घातका स्वामित्व द्र. सं./टी./१०/२५/६ सयमनिधानस्य । = सयमके निधान महामुनिके तैजस समुद्धात होता है। घ.४/१, ३, ८२/१३५॥ई णवरि पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजाहारं णत्थि । -प्रमत्त संयतके उपशम सम्यवत्वके साथ तैजस समुद्धात ...नहीं होते हैं। ध./७/२, ६, १/२६६ तेजइयसमुग्धादी.. विणा महब्वएहि तदभावादो। -बिना महावतोंके तैजस समुद्रात नहीं होता। ६. अन्य सम्बन्धित विषय १. सातों समुद्घातोंके स्वामित्वकी ओघ आदेश प्ररूपणा। -दे० समुद्घात। २. तैजस समुद्घातका फैलाव दशौं दिशाओंमें होता है। -दे० समुद्धात। ३. तैजस समुद्घातकी स्थिति संख्यात समय है। -दे० समुद्धात। १. त्याग सामान्यका लक्षण निश्चय त्यागका लक्षण वा.अ.19८ णिवेगतियं भावइ मोह चइऊण सव्वदव्वेसु । जो तस्स हवे च्चागो इदि भणिदं जिणवरिदेहि ।७८1 = जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि, जो जीव सारे परद्रव्योके मोह छोड़कर संसार, देह और भोगोंसे उदासीन रूप परिणाम रखता है, उसके त्याग धर्म होता है। स.सि./६/२६/३४३/१० व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गस्त्याग'। -व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है। जिसका अर्थ त्याग होता है। स.सा./भाषा/३४ पं. जयचन्द-पर भावको पर जानना, और फिर परभावका ग्रहण न करना सो यही त्याग है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग त्याग २. व्यवहार त्यागका लक्षण स.सि./१६/४१३/१ संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग । = संयतके योग्य ज्ञानादिका दान करना त्याग कहलाता है (रा.वा./8/६/२०) ५६८/९३); (त.सा./६/१९/३४५)। रा.वा./8/६/१८/५६८/परिग्रहस्य चेतनाचेतनलक्षणस्य निवृत्तिस्त्याग इति निश्चीयते ।-सचेतन और अचेतन परिग्रहकी निवृत्तिको त्याग कहते हैं। भ.आ./वि./१६/११४/१६ सयतप्रायोग्याहारादिदानं त्यागः। - मुनियों के लिए योग्य ऐसे आहारादि चीजे देना सो त्यागधर्म है। पं.वि./१/१०१/४० व्याख्या यत् क्रियते श्रुतस्य यतये यहीयते पुस्तकं, स्थानं स यमसाधनादिकमपि प्रीत्या सदाचारिणा । स त्यागो...॥१०॥ - सदाचारी पुरुषके द्वारा मुनिके लिए जो प्रेमपूर्वक आगमका व्याख्यान किया जाता है, पुस्तक दी जाती है, तथा संयमकी साधनभूत पीछो आदि भी दी जाती है उसे त्यागधर्म कहा जाता है। (अन.ध./६/५२-५३/१०६)। का.अ./मू./१४०१ जो चयदि मिट्ठ-भोज्जं उवयरणं राय-दोस-संजणयं । वसदि ममत्तहेदुचाय-गुणो सो हवे तस्स । जो मिष्ट भोजनको, रागद्वेषको उत्पन्न करनेवाले उपकरणको, तथा ममत्वभावके उत्पन्न होनेमें निमित्त वसतिको छोड़ देता है उस मुनिके त्यागधर्म होता है। प्र.सा./ता.वृ./२३६/३३२/१३ निजशुद्धात्मपरिग्रह कृत्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहनिवृत्तिस्त्याग । निज शुद्धात्माको ग्रहण करके बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहकी निवृत्ति सो त्याग है। २. त्यागके भेद स.सि./8/२६/४४३/१० स द्विविधः-बाह्योपधित्यागोऽभ्यन्तरोपधित्यागश्चेति । - त्याग दो प्रकारका है-बाह्यउपधिका त्याग और आभ्यन्तरउपधिका त्याग । रा.वा./६/२६/५/६२४/३५ स पुनर्द्विविधः-नियतकालो यावज्जीब चेति । -आभ्यन्तर त्याग दो प्रकारका है-यावत् जीवन व नियत काल । पु. सि.उ./७६ कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा । औत्सर्गिकी निवृत्तिविचित्ररूपापवादिकी त्वेषा।-उत्सर्गरूप निवृत्ति त्याग कृत, कारित अनुमोदनारूप मन, वचन व काय करके नव प्रकारकी कही है और यह अपवाद रूप निवृत्ति तो अनेक रूप है। * बाह्याभ्यन्तर त्यागके लक्षण-दे० उपधि । * एकदेश व सकल देश त्यागके लक्षण-दे० संयम णाण-दसण-चरित्तादि । तस्स परिच्चागो विसज्जणं, तस्स भावो पासुअपरिच्चागदा । दयाबुद्धिये साहणं जाण-द सण-चरित्तपरिच्चागो दाणं पासुअपरिच्चागदा णाम ।साधुओंके द्वारा विहित प्रासुक अर्थात् निरवद्यज्ञान दर्शनादिकके त्यागसे तीर्थकर नामकम अन्धता है-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति और क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणोके जो साधक है वे साधु कहलाते है। जिससे आस्रव दूर हो गये है उसका नाम प्रासुक है, अथवा जो निरवद्य है उसका नाम प्रासुक है। वह ज्ञान, दर्शन व चारित्रादिक ही तो हो सकते हैं। उनके परित्याग अर्थात् विसर्जनको प्रासुकपरित्याग और इसके भावको प्रासुकपरित्यागता कहते है। अर्थात् दया बुद्धिसे साधुओके द्वारा किये जानेवाले ज्ञान, दर्शन व चारित्रके परित्याग या दानका नाम प्रासुक परित्यागता है। भा.पा./टी./७७/२२१/८ स्वशक्त्यनुरूपं दानं ।-अपनी शक्तिके अनुरूप दान देना सो शक्तितस्त्याग भावना है। ४. यह मावना गृहस्थोंके सम्भव नहीं ध.८/३,४१/०७/७ ण चेदं कारणं घरत्येसु संभवदि, तत्थ चरित्ताभावादो। तिरयणोवदेसो वि ण घरत्येस अस्थि, तेसि दिठिवादादिउवरिमसुत्तोवदेसणे अहियाराभावादो तदो एदं कारणं महेसिणं चैव होदि । - [साधु प्रासुक परित्यागता ] गृहस्थोंमें सम्भव नहीं है, क्योंकि, उनमें चारित्रका अभाव है। रत्नत्रयका उपदेश भी गृहस्थोमें सम्भव नहीं है, क्योंकि, दृष्टिवादादिक उपरिमश्रुतके उपदेश देनेमें उनका अधिकार नहीं है । अतएव यह कारण महर्षियोके ही होता है। ५. एक त्याग भावनामें शेष १५ भावनाओंका समावेश ध.4/३४१/८७/१० ण च एत्य सेसकारणाणमसंभवो। ण च अरहंतादिसु अभत्तिमंते णवपदस्थविसयसद्दहणेमुम्मुक्के सादिचारसीलव्वदे परिहीणवासए णिरवज्जो णाण-दसण-चरित्तपरिच्चागो संभवादि, बिरोहादो। तदो एदमट्ठ कारणं । - प्रश्न-शक्तितस्त्यागमें शेष भावनाएँ कैसे सम्भव हैं . ] उत्तर-इसमें शेष कारणोकी असम्भावना नहीं है। क्योंकि अरहतादिकों में भक्तिसे रहित, नौ पदार्थ विषयक श्रद्धानसे उन्मुक्त, सातिचार शीलवतोसे सहित और आवश्यकोंकी हीनतासे संयुक्त होनेपर निरवद्य ज्ञान. दर्शन व चारित्रका परित्याग विरोध होनेसे सम्भव ही नहीं है। इस कारण यह तीर्थकर नामकर्मबन्धका आठवॉ कारण है। ६. त्यागधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ रा.वा./४/६/२७/५६६/२५ उपधित्यागः पुरुषहित । यतो यतः परिग्रहादपेत' ततस्ततोऽस्य खेदो व्यपगतो भवति । निरवद्य मन प्रणिधान पुण्यविधानं । परिग्रहाशा बलवती सर्वदोषप्रसवयोनिः । न तस्या उपधिभिः तृप्तिरस्ति सलिलै रिव सलिलनिधेरिह बड़वायाः। अपि च, कः पूरयति दुःपूरमाशागर्तम् । दिने दिने यत्रास्तमस्तमाधेयमाधारत्वाय कल्पते । शरीरादिषु निर्ममत्वः परमनिवृत्तिमवाप्नोति । शरीरादिषु कृताभिष्वङ्गस्य सर्वकालमभिष्वङ्ग एव संसारे। परिग्रहका त्याग करना पुरुषके हितके लिए है । जैसे जैसे वह परिग्रहसे रहित होता है वैसे वैसे उसके खेदके कारण हटते जाते हैं। खेदरहित मनमें उपयोगकी एकाग्रता और पुण्यसंचय होता है। परिग्रहकी आशा बड़ी बलवती है। वह समस्त दोषों की उत्पत्तिका स्थान है। जैसे पानीसे समुद्रका बड़वानल शान्त नहीं होता उसी तरह परिग्रहसे आशासमुद्रकी तृप्ति नहीं हो सकती। यह आशा वा गड्डा दुष्पूर है। इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमे डाला जाता है वही समाकर मुंह बाने लगता है। शरीरादिसे ममत्वशन्यव्यक्ति परम सन्तोषको प्राप्त होता है। शरीर आदिमें राग करनेवालेके सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है (रा.वा./हि/८/६/६६५-६६६)। ३. शक्तितस्त्याग या साधुमासुक परित्यागताका लक्षण रा.वा./६/२४/६/२२६/२७ परप्रीतिकरणातिसर्जनं त्यागः ६ आहारो दत्तः पात्राय तस्मिन्नहनि तत्प्रीतिहेतुर्भवति, अभयदानमुपपादितमेकभवव्यसननोदनम्, सम्यग्ज्ञानदानं पुनः अनेकभवशतसहस्रदुःखोत्तरणकारणम् । अत एतत्रिविधं यथाविधि प्रतिपद्यमानं त्यागव्यपदेशभाग्भवति । = परकी प्रीतिके लिए अपनी वस्तुको देना त्याग है। आहार देनेसे पात्रको उस दिन प्रीति होती है। अभयदानसे उस भवका दुःख छूटता है, अतः पात्रको सन्तोष होता है। ज्ञानदान तो अनेक सहस्र भवों के दु खसे छुटकारा दिलानेवाला है। ये तीनों दान यथाविधि दिये गये त्याग कहलाते है (स सि./६/२४/३३८/११); (चा.सा./५३/६)। ध.८/३,४१/०७/३ साहूण पासुअपरिच्चागदाए-अणतणाण-दसण-वीरियविरइ-वझ्यसम्मत्तादीणं साह्या साहू णाम। पगदा ओसरिदा आसवा जम्हा तं पासु, अधवा जे हिरवज्जतं पासु। किं । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रस ३९८ २. त्रस जीव निर्देश ७. त्याग धर्मकी महिमा कुरल/३५/१,६ मन्ये ज्ञानी प्रतिज्ञाय यत किञ्चित परिमुञ्चति । तदुत्पन्नमहादुःखान्निजात्मा तेन रक्षित.।१। अहं ममेति संकल्पो गर्वस्त्रार्थित्वसंभृतः। जेतास्य याति तं लोक स्वर्गादुपपरिवर्तिनम् ।। - मनुष्यने जो वस्तु छोड दी है उससे पैदा होनेवाले द्रवसे उसने अपनेको मुक्त कर लिया है ।११ 'मैं' और 'मेरे' के जो भाव हैं, वे घमण्ड और स्वार्थ पूर्णताके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जो मनुष्य उनका दमन कर लेता है वह देवलोकसे भी उच्चलोकको प्राप्त होता है।६। ८. अन्य सम्बन्धित विषय १. अकेले शक्तितस्त्याग भावनासे तीर्थकरत्व प्रकृतिबन्धको सम्भावना। --दे० भावना/२॥ २. व्युत्सर्ग तप व त्याग धर्ममें अन्तर। -दे० व्युत्सर्ग/२॥ ३. त्याग व शौच धर्ममें अन्तर । -दे० शौच। ४. अन्तरंग व बाह्य त्याग समन्वय । -दे० परिग्रह/२/६-७। ५. दस धर्म सम्बन्धी विशेषताएँ । --दे० धर्म/८। त्रस-अपनी रक्षार्थ स्वयं चलने-फिरनेकी शक्तिवाले जीव त्रस कहलाते है। दो इन्दियसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक अर्थात् लट् . चींटी आदिसे लेकर मनुष्यदेव आदि सब स हैं। ये जीव यद्यपि अपर्याप्त होने सम्भव हैं पर सूक्ष्म कभी नहीं होते। लोकके मध्य में १राजू विस्तृत और १४ राजू लम्बी जो त्रस नाली कल्पित की गयी है, उससे बाहरमे ये नहीं रहते, न ही जा सकते हैं। ३. सकलेन्द्रिय व विकलेन्दिय के लक्षण मू.आ./२१६ संखो गोभी भमरादिआ दु विकलिदिया मुणेदव्वा । सकलि दिया य जलथलखचरा सुरणारयणराय।२१४॥ - शंख आदि, गोपालिका चीटी आदि, भौरा आदि, जीव दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चार इन्द्रिय विकलेन्द्रिय जानना। तथा सिह आदि स्थलचर, मच्छ आदि जलचर, हंस आदि आकाशचर तिर्यंच और देव, नारकी, मनुष्य-ये सब पंचेन्द्रिय है ।२१।। ४. त्रस दो प्रकार हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त प.वं./११/सू.४२/२७२ तसकाइया दुविहा, पज्जता अपज्जता ॥४२॥ वस कायिक जीव दो प्रकार होते हैं पर्याप्त अपर्याप्त । ५. स जीव बादर ही होते हैं ध.१/१,१,४२/२७२ किं वसा सूक्ष्मा उत बादरा इति । बादरा एव न सूक्ष्माः । कुत' । तत्सौम्य विधायकार्षाभावात् । प्रश्न-वस जीव क्या सूक्ष्म होते हैं अथवा बादर । उत्तर-त्रस जीव बादर ही होते हैं, सूक्ष्म नहीं होते। प्रश्न-यह कैसे जाना जाये। उत्तरक्योंकि, त्रस जीव सूक्ष्म होते है, इस प्रकार कथन करनेवाला आगम प्रमाण नहीं पाया जाता है। (ध/8/४,१,७१/३४३/६); (का, अ./मू./१२) १. त्रस जीव निर्देश १. ब्रस जीवका लक्षण स.सि./२/१२/१७१/३ त्रसनामकर्मोदयवशी कृतास्त्रसाः। -जिनके त्रस नामकर्मका उदय है वे त्रस कहलाते हैं। रा.वा./२/१२/१/१२६ जीवनामकर्मणो जीवविपाकिन उदयापादित वृत्तिविशेषा' वसा इति व्यपदिश्यन्ते। =जीव विपाकी त्रस नामकर्मके उदयसे उत्पन्न वृत्ति विशेषवाले जीव स कहे जाते है। (ध.१/१,१, ३६/२६५/८) २. त्रस जीवोंके भेद त.सू./२/१४ द्वोन्द्रियादयस्त्रसाः ॥१४॥ - दो इन्द्रिय आदिक जीव वस है ।१४। मू.आ./२६८ दुविधा तसा य उत्ता विगला सगले दिया मुणेयव्वा। विति चउरिदिय विगला सेसा सगलिदिया जीवा ।२१८। -सकाय दो प्रकार कहे हैं-विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय । दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इन तीनोको विकलेन्द्रिय जानना और शेष पंचेन्द्रिय जीवोंको सकलेन्द्रिय जानना ।२१८० (ति.प./५/२८०); (रा.वा./३/३६/ ४/२०६); (का.अ./१२८) पं. सं./प्रा./१/८६ विहि तिहि चऊहि पंचहि सहिया जे इंदिएहिं लोयम्हि । ते तस काया जीवा णेया वीरोवदेसेण ।८६। =लोकमें जो दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रियसे सहित जीव दिखाई देते हैं उन्हे वीर भगवानके उपदेशसे त्रसकायिक जानना चाहिए ।८६ (ध.१/१,१,४६/गा,१५४/२७४) (पं.सं /सं./१/१६०); (गो जी./मू./१६८); (द्र.सं./मू./११) न.च./१२३..... चदु तसा तह य ।१२३। = त्रस जीव चार प्रकार के हैं दो, तीन व चार तथा पाँच इन्द्रिय । ६. ब्रस जीवों में कथंचित् सूक्ष्मत्व ध.१०/४,२,४,१४/४७/८सुहुमणामकम्मोदयजणिद सुहमतेण विणा विग्गहगदीए बट्टमाणतसाणं सुहमत्तम्भुक्गमादो। कथं ते सुहमा। अर्णताणं तविस्ससोबचएहि उबचियओरालियणोकम्मक्खंधादो विणिग्गयदेहत्तादो। यहॉपर सूक्ष्म नामकर्म के उदयसे जो सूक्ष्मता उत्पन्न होती है, उसके बिना विग्रहगतिमें वर्तमान बसों को सूक्ष्मता स्वीकार की गयी है। प्रश्न-वे सूक्ष्म कैसे है। उत्तर- क्योंकि उनका शरीर अनन्तानन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित औदारिक नोकर्मस्कन्धोंसे रहित है, अतः वे सूक्ष्म है। ७. सोंमें गुणस्थानोंका स्वामित्व ष.रवं./१/१,१/सू.३६-४४ एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चउरिदिया असण्णिपंचिदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइटिठट्ठाणे ।३६। पंचिदिया असण्णि पंचिदिय-मिच्छत्तप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ।३७१ तसकाइयाबीइंदिया-प्पर डि जाव अजोगिकेवलि त्ति ।४४।-एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्री इन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मिथ्यावृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानमें ही होते हैं।३६ असंज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यावृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवलि गुणस्थानतक पंचेन्द्रिय जीव होते है ।३७। द्वीन्द्रिया दिसे लेकर अयोगिकेवलीतक सजीव होते हैं ।४४॥ रा.वा/8/७/११/६०५/२४ एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु एकमेव गुणस्थानमाद्यम् । पञ्चेन्द्रियेषु संज्ञिषु चतुर्दशापि सन्ति । --एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचे. न्द्रियमें एक ही पहला मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। पचेन्द्रिय संज्ञियों में चौदह ही गुणस्थान होते हैं । गो.जी./जी.प्र/६६५/११३१/१३ सासादने बादरै कद्वित्रिचतुरिन्द्रियसंझ्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ता' सप्त । - सासादन विषै बादर एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व संज्ञो और असंज्ञी पर्याप्त ए सात पाइए (गो.जी /जी.प्र./७०३/११३७/१४), (गो.क./जी.प्र./५५१/७५३/७) (विशेष दे. जन्म/४)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रस त्रायस्त्रिश ८. सके लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान रा, वा./२/१२/२/१२६/२७ स्यान्मतम्-त्रसेरुद्वेजनक्रियस्य त्रस्यन्तीति वसा इति । तन्न; कि कारणम् । गर्भादिषु तदभावात् । अत्र सत्वप्रसगात । गर्भाण्डजमूच्छितसुषुप्तादीनां त्रसानां बाह्यभयनिमिक्तोपनिपाते सति चलनाभावादत्र सत्त्वं स्यात् । कथं तहस्य निष्पत्तिः 'त्रस्यन्तीति त्रसाः' इति । व्युत्पत्तिमात्रमेव नार्थः प्राधान्येनाश्रीयते गोशब्दप्रवृत्तिवत् । -प्रश्न-भयभीत होकर गति करे सो बस ऐसा लक्षण क्यों नहीं करते ? उत्तर-नहीं, क्योंकि ऐसा लक्षण करनेसे गर्भस्थ, अण्डस्थ, मूच्छित, सुषुप्त आदिमे अत्रसत्वका प्रसंग आ जायेगा। अर्थात त्रस जीवोंमे बाह्यभयके निमित्त मिलनेपर भी हलन-चलन नहीं होता अत' इनमें अनसत्व प्राप्त हो जायेगा। प्रश्न-तो फिर भयभीत होकर गति करे सो त्रस, ऐसी निष्पत्ति क्यों की गयो। उत्तर-यह केवल रूढिवश ग्रहण की गयी है। 'जो चले सो गऊ,' ऐसी व्युत्पत्ति मात्र है। इसलिए चलन और अचलनकी अपेक्षा त्रस और स्थावर व्यवहार नही किया जा सकता। कर्मोदयकी अपेक्षासे ही किया गया है। यह बात सिद्ध है। (स.सि./ २/१२/१७१/४); (प.१/१,१,४०/२६६/२) ९. अन्य सम्बन्धित विषय १. सजीवके भेद-प्रभेदोंका लोकमें अवस्थान । -दे० इन्द्रिय, काय, मनुष्यादि । २. वायु व अग्निकायिकोंमें कथंचित् त्रसपना। -दे० स्थावर/६। ३. सजीवोंमें कर्मोंका बन्ध, उदय व सत्त्व। -दे०वह वह नाम । ४. मार्गणा प्रकरणमें भावमार्गणाकी इष्टता और वहाँ आयके ___ अनुसार ही व्यय होनेका नियम। -दे० मार्गणा । ५. त्रसजीवोंके स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान जीवसमास, मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ। -दे० सत् । ६. त्रसजीवोंमें प्राणोंका स्वामित्व। -दे० प्राण/१॥ ७. सजीवोंके सत् ( अस्तित्व ) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प-बहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ। -दे० वह वह नाम । ३. सनाली निर्देश ति.प./२/६ लोयबहुमज्झदेसे तरुम्मि सारं व रज्जुपदरजुदा। तेरसरज्जुच्छेहा किचूणा होदि तसणाली।६। = जिस प्रकार ठीक मध्यभागमें सार हुआ करता है, उसी प्रकार लोकके बहु मध्यभाग अर्थात् बीच में एक राजु लम्बी चौड़ी और कुछ कम तेरह राजु ऊँची त्रसनाली (त्रस जीवों का निवासक्षेत्र ) है। १. सजीव सनालीसे बाहर नहीं रहते ध.४/१,४,४/१४६/६ तसजीवलोगणालीए अभंतरे चेव होंति, णो बहिदा। सजीव त्रसनालीके भीतर होते है बाहर नहीं। (का. अ/मू./१२२) गो.जी./मू /१६६ उववादमारणं तियपरिणदतसमुजिमऊण सेसससा। तसणालिबाहिरम्मि य स्थित्ति जिणे हि णिहिट्छ ।१६।। - उपपाद और मारणान्तिक समुद्घातके सिवाय शेष त्रसजीव त्रसनालीसे बाहर नहीं हैं, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। ५, कथंचित् सारा लोक सनाली है। ति.प./२/८ उववादमारणं तियपरिणदतसलोयपूरणेण गदो । केवलिणो अवलं बिय सव्वजगो होदि तसनाली1८1 - उपपाद और मारणान्तिक समुद्धातमें परिणत त्रस तथा लोकप्तरण समुद्घातको प्राप्त केवलीका आश्रय करके सारा लोक ही त्रसनाली है।। * अस नामकमकी बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ -दे०वह वह नाम । * स नामकर्म के असंख्यातों भेद सम्भव हैं -दे० नामकर्म । त्रसरेणु-क्षेत्रका प्रमाण विशेष । अपरनाम त्रटरेणु -दे० गणित/I/१/३। त्रसित- प्रथम नरकका दसवाँ पटल -दे० नरक/५/११; त्रस्त-१. प्रथम नरकका दसवॉ पटल -दे० नरक/१/११:२. तृतीय नरकका दूसरा पटल -दे० नरक/५/११ / त्रायस्त्रिश-१. ब्रायस्त्रिश देवका लक्षण स.सि./४/४/३३६/३ मन्त्रिपुरोहितस्थानीयास्त्रायस्त्रिशा । त्रयस्त्रिंशदेव त्रायस्त्रिशा. । -जो मन्त्री और पुरोहितके समान हैं वे त्रायस्त्रिश कहलाते है। ये तेतीस ही होते हैं इसलिए त्रायस्त्रिश कहलाते हैं। (रा.बा./४/४/३/४१२); (म.पु./२२/२५) ति.प./३/६५...। पुत्तणिहा तेत्तीसत्तिदसा...॥६५॥ =त्रायस्त्रिश देव पुत्रके सदृश होते हैं । (त्रि.सा./२२४) * भवनवासी व स्वर्गवासी इन्द्रोंके परिवारों में बायस्त्रिश देवोंका निर्दश -दे० भवनवासी आदि भेद । २. कल्पवासी इन्द्रोंके ब्रायस्त्रिंशदेवोंका परिमाण ति.प./८/२८६,३१६ पडिइदाणं सामाणियाण तेत्तीससुखराण च । दस भेदा परिवारा णियइंदसमा य पत्तेक्क ।२८६। पडिइंदादितियस्स य णियणियईदेहि सरिसदेवीओ। संखाए णामेहि विक्किरियारिद्धि चत्तारि ।३१।। तप्परिवारा कमसो चउएक्कसहस्सयाणि पंचसया। अड्ढाईसयाणि तद्दलतेस तद्दलतेसटिबत्तीसं ।३२०। प्रतोन्द्र, सामानिक और त्रायस्त्रिश देवोमें से प्रत्येकके दश प्रकारके परिवार अपने इन्द्रके समान होते हैं ।२८६। प्रतीन्द्रादिक तीनकी देवियाँ संख्या, नाम, विक्रिया और ऋद्धि, इन चारोमे अपने-अपने इन्द्रोंके सदृश हैं ।३१।। (दे०-स्वर्ग/३)। उनके परिवारका प्रमाण क्रमसे ४०००,२०००,१०००,५००,२५०,१२५,६३,३२ हैं। २. त्रस नामकर्म व सलोक १. त्रस नामकर्मका लक्षण स. सि./८/११/३११/१० यदुदयाद् द्वीन्द्रियादिषु जन्म तत् त्रसनाम । = जिसके उदयसे द्वीन्द्रियादिकमें जन्म होता है वह उस नामकर्म है। (रा.वा/८/१२/२१/५७८/२७) (ध.६/१,६-१,२८/६१/४) (गो.क /जी.प्र./ ३३/२६/३३) ध.१३/५,५.१०१/३६५/३ जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं संचरणासंचरणभावो होदि तं कम्मं तसणाम। -जिस कर्मके उदयसे जीवोंके गमनागमनभाव होता है वह त्रस नामकर्म है। २. सलोक निर्देश ति.प./१६ मंदरगिरिमूलादो गिलबखजोयणाणि बहलम्मि। रज्जूय पदरखेत्ते चिठेदि तिरियतसलोओ।६। मन्दरपर्वतके मूलसे एक लाख योजन बाहल्यरूप राजुप्रतर अर्थात एक राजू लम्बे-चौड़े क्षेत्रमें तिर्यक् त्रसलोक स्थित है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिकच्छेद त्रिवर्णाचारदीपक ०० ००० ०००० ००० ०० ०० ००० ०००० ००००० त्रिकच्छे द-Number of times that a number can be त्रिलोक तीज व्रत-व्रत विधान सं./१०६ तीन वर्षतक प्रतिवर्ष divided by ३, (घ.५/प्र./२७) विशेष-दे० गणित/II/२/१| भाद्रपद शुक्ला तीजको उपवास । जाप--ओं ह्रौं त्रिलोक सम्बन्धी त्रिकरण-१. भरतक्षेत्रका एक पर्वत -दे० मनुष्य/४ । २. विज अकृत्रिम जिन चैत्यालयेभ्यो नमः । इस मन्त्रका त्रिकाल जाप । याध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर -दे० मनुष्य/४ । ३. पूर्व विदेह त्रिलोक बिन्दुसार-अंग श्रुतज्ञानका चौदहवाँ पूर्व ।-दे० श्रुत ज्ञान/IJIT का एक वक्षार उसका एक कूट तथा रक्षकदेव -दे० लोक/७१४, पूर्व विदेहस्थ आत्माजन वक्षारका एक कूट व उसका रक्षकदेव त्रिलोकमडन-प.प्र./सर्ग/श्लोक अपने पूर्व के मुनिभवमें अपनी -दे० लोक/७। ५. अघ करण आदि -दे० करण/३ । झूठी प्रशंसाको चुपचाप सुननेके फलसे हाथी हुआ। रावणने इसको मदमस्त अवस्थामे पकड़कर इसका त्रिलोकमण्डन नाम रखा (5/४३२) त्रिकलिंग-मध्य आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । एक समय मुनियोंसे अणुवत ग्रहणकर चार वर्ष तक उग्र तप किया त्रिकाल-श्रुतज्ञानादिकी त्रिकालज्ञता-दे० वह वह नाम । (८७-१-७)। अन्तमें सल्लेखना धारणकर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुआ (८७/७)। त्रिकृत्वा -ध.१३/५,४,२८/८/१ पदांहिणणमंसणादिकिरियाणं त्रिलोकसार-आ० नेमिचन्द्र (ई० श०११ पूर्व ) द्वारा रचित तिण्णिवारकरणं तिक्रवृत्तं णाम। अधवा एकम्मि चैव दिवसे जिण- लोक प्ररूपक प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है। गाथा प्रमाण १०१८ है। गुरुरिसिबंदणाओ तिण्णिवार किज्जति त्ति तिक्खुत्तं णाम। -प्रद- इस ग्रन्थपर निम्न टीकाएँ प्राप्त हैं-१. आ. माधवचन्द्र त्रिविद्यदेवक्षिणा और नमस्कारादि क्रियाओका तीन बार करना त्रि:- कृत संस्कृत टीका, २.५० टोडरमलजी कृत भाषा टीका (ई० १७५६)। कृत्वा है। अथवा एक ही दिनमें जिन, गुरु और ऋषियोंकी वन्दना त्रिलोकसार वत-- तीन बार की जाती है, इसलिए इसका नाम त्रिःकृत्वा है। ह. पु./३४/५६-६१ क्रमशः त्रिलोकाकार त्रिखण्ड-भरतादि क्षेत्रोमें छह-छह खण्ड हैं। विजया के एक ओर रचनाके अनुसार नीचेसे ऊपरकी तीन म्लेक्षखण्ड है और दूसरी ओर एक आर्यखण्ड व दो म्लेक्षखण्ड ओर ५,४, ३, २,१, २, ३, ४, ३, रचना हैं। इन तीन म्लेक्षरवण्डोंको ही त्रिखण्ड कहते हैं, जिसे अर्ध चक्र २,१, इस प्रकार ३० उपवास व त्रिलोकाकार वर्ती जीतता है। बीचके स्थानों में ११ पारणा। विगत-भरतक्षेत्र मध्य आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४। त्रिगुणसारवत-व्रतविधान सं./५६ क्रमशः १,१,२,३,४५,४,४, त्रिवर्ग-१. निक्षेप आदि निवर्ग निर्देश ३,२,१ इस प्रकार ३० उपवास करे। बीचके १० स्थान व अन्तमें एक-एक पारणा करे । जाप-नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । न. च. वृ १६८ णिवस्वेवणयपमाणा हव्वं सुद्ध एव जो अप्पा । तक्कं पवयणणामा अझप्पं होइ हु तिवग्गं ॥१६॥ - निक्षेप नय प्रमाण तो त्रिज्या -Radius (ध.५/प्र.२७)। तर्क या युक्ति रूप प्रथम वर्ग है। छह द्रव्योंका निरूपण प्रवचन या त्रिपर्वा एक अषधी विद्या -दे० विद्या। आगम रूप दूसरा वर्ग है। और शुद्ध आरमा अध्यात्मरूप तीसरा त्रिपातिनी-एक औषधी विद्या -दे० विद्या। वर्ग है। -भरतक्षेत्र विन्ध्याचलका एक देश-दे० मनुष्य/४ । २. धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्गका निर्देश त्रिपृष्ठ-म.पु /सर्ग/श्लोक = यह अपने पूर्वभवमें पुरुरवा नामक एक म. पु/२/३१-३२ पश्य धर्मतरोरर्थः फलं कामस्तु तद्रसः। सत्रिवर्ग त्रयस्यास्य मूलं पुण्यकथाश्रुतिः ॥३१॥ धर्मादर्थश्च कामश्च स्वर्गभील था। मुनिराजसे अणुव्रतोंके ग्रहण पूर्वक सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न श्चेत्यविमानतः । धर्मः कामार्थयो' सूतिरित्यायुष्मन्विनिश्चिनु हुआ। फिर भरत चक्रवर्तीके मरीचि नामक पुत्र हुआ, जिसने १३२॥ हे श्रेणिक । देखो, यह धर्म एक वृक्ष है। अर्थ उसका फल मिथ्या मार्गको चलाया था। तदनन्तर चिरकालतक भ्रमण कर है और काम उसके फलोंका रस है। धर्म, अर्थ, और काम इन (६२/८५-६०) राजगृह नगरके राजा विश्वभूतिका पुत्र विश्वनन्दि हुआ (५७/७२)। फिर महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ (५७/२) तत्पश्चात तीनोंको त्रिवर्ग कहते हैं, इस त्रिवर्गकी प्राप्तिका मूलकारण धर्मका वर्तमान भबमें श्रेयांसनाथ भगवान के समयमें प्रथम नारायण हुए सुनना है ॥३१॥ तुम यह निश्चय करो कि धर्म से हो अर्थ, काम(५७/८६); (८२/१०) विशेष परिचय - दे० शलाका पुरुष/४ । यह स्वर्ग की प्राप्ति होती है सचमुच यह धर्म ही अर्थ और कामका वर्धमान भगवानका पूर्वका दसवाँ भव है । (७६/५३४-५४३); उत्पत्ति स्थान है ॥३२॥ (७४/२४१-२६०) -दे० महावीर । त्रिवर्ग महेन्द्र मातलि जल्प-आ० सोमदेव ( ई० ६४३-६६८) त्रिभंगीसार- विभिन्न आचार्यों द्वारा रचित आखब बन्धसत्त्व कृत न्याय विषयक ग्रन्थ है। त्रिवर्गवाद-त्रिवर्गवादका लक्षण आदि नाम वाली ६ त्रिभंगियों का संग्रह । (जै./१/४४२) । ध./६/४, १, ४५/गा. ८०/२०८ एक्केक्कं तिण्णि जणा दो हो यण इच्छदे त्रिभुवन चूड़ामणि-भद्रशाल वनमें स्थित दो सिद्धायन कूट तिवग्गम्मि । एक्को तिणि ण इच्छइ सत्तवि पावेंति मिच्छत्तं ॥८॥ -दे० लोक/३/१२। -तीनजन त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और काममें एक-एककी इच्छा त्रिमुख-संभवनाथ भगवान्का शासक यक्ष। -दे० तीर्थ कर/५/३।। करते हैं। दूसरे तीन जन उनमें दो-दोकी इच्छा करते हैं। कोई एक तीनको इच्छा नहीं करता है। इस प्रकार ये सातोजन मिथ्यात्वको त्रिराशि गणित-दे० गणित/II/४। प्राप्त होते है। त्रिलक्षण कदथन-पात्रकेशरी नं.१ (ई.श.६-७) द्वारा त्रिवणाचार-सोमदेव भट्टारक (ई १६१०) कृत पूजा अभिषेक के संस्कृत भाषामें रचित न्यायविषयक ग्रन्थ । (ती/२/२४१)। याज्ञिक विधि विधान विषयक ग्रन्थ । (जै./१/४६३)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिवलित त्रिवलित कर स्वयं त्रिशिरा - १. कुल पर्वतस्य वज्रकूटका -३० लोक १२/१२/२.रुप कुमारी देवी । दे० लोक /२/१३ । त्रिषशिष्टलाकापुरुष चरित्र - १ चामुण्डराय द्वारा रचित संस्कृत भाषाबद्ध रचना है। समय- ( ई० श०१०-११ २, श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित समय ई १०८८-११७३ | श्रींद्रिय जीवविषयक ( नामकर्म ) दे०/४२ न्द्रिय जाति नामकर्म । - दे० जाति त्रुटरेणु क्षेत्रका एक प्रमाण त्रुटित- - कालका एक प्रमाण --- अतिचार दे० र १ । स्वामी एक नागेन्द्रदेव । पर रहनेवाली दे० गणित / 1 /९/ - दे० गणित / I/१/४ | - त्रुटिताङ्ग - कालका एक प्रमाण - दे० गणित / 1 /१/४ | त्रेपन क्रियाव्रत व्रत विधान से / ४६ ९ आठमूलगुणकी आठ अष्टमी, २. पांच अणुवतको पाँच पंचमी, ३ तोन गुणवतको तीन; तीज ४. चार शिक्षावतकी चार चौथ, ५ बारह तपकी १२ द्वादशी; ६. समता भावको १ पडिमा ७ ग्यारह प्रतिमाकी ११ एकादशी; चार दानको चार चौथ, ६ जल गालनकी एक पडिमा १० रात्रि भोजन त्यागकी एक पडिमा ११ तीन रत्नत्रयकी तीन तीज । इस प्रकार त्रेपन तिथियोके ५१ उपवास । जाप - नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप । त्रैकाल्य योगोसंदेश भा० २-५१ दे० 4 अनुसार इतिहास ) आप गोलाचार्य के शिष्य तथा अभयनन्द के गुरु मा समय वि० १२०-६०० १० ८६-०३); ( ष रखें / २ / १ / ४ H L Jam ); ( पं. वि / / २८ AN up ) -- दे० इतिहास /७/२ त्रैराशिक- - Rule of three (ध./५/प्र. २७) विशेष - दे० गणित / II / ४ । ज शिकवाद सूत्र / २३६ गोशालप्रवर्तिना पाखण्डिनस्त्रैराशिका उच्यन्ते । कस्मादिति चेदुच्यते, इह ते सर्व वस्तु त्रयात्मकमिच्छन्ति । तद्यथा जीवोऽजीवो जीवाजीवाश्च, लोका' अलोका लोकालोकाश्च, सदसत्सदसत् । नयचिन्तायामपि त्रिविधं नयमिच्छन्ति तद्यथा द्रम्यास्तिकं पर्यायास्तिकभवास्तिकं च ततस्त्रिभी राशिभिश्चरन्तीति त्रैराशिका - गोशालके द्वारा प्रवर्तित पाखण्डी आवक और त्रैराशिक कहलाते है। ऐसा क्यों कहलाते हैं क्योंकि वे सर्व ही वस्तुओंको व्यात्मक मानते हैं। इस प्रकार है जैसे कि-जीव जी व जीवाजीव लोक अलोक व लोकालोकः सत असत व सदसत् । नयकी विचारणामें तीन प्रकारकी नय मानते है । वह इस प्रकार - द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक व उभयार्थिक । इस प्रकार तीन राशियों द्वारा चरण करते हैं, इसलिए त्रैराशिक कहलाते हैं। घ./१/१.१, २/गा. ७६/११२ अट्ठासी अहियारेसु चउण्हमहियाराणमरिच पिसो गढमा विदिओ तेरासिया मो ॥७६॥ दृष्टिवाद अंगके ) सूत्र नामक अर्थाधिके अठासी अठधिकारोंका नामनिर्देश मिलता है। उसमें दूसरा वैराशिक वादियोंका जानना । त्रैलिंग - वर्तमान तैलंगदेश जो हैदराबाद दक्षिणके अन्तर्गत है । ( म. पु. / प्र / ५० पं. पन्नालाल ) त्रैविध्यदेव- - १. नन्दिसंघकै देशीयगणकी गुर्वावलीके अनुसार (दे० इतिहास / ०/ २) पांच आचार्योंकी उपाधि वैविध्यदेव थी। ४०१ दंशमशक परीषह १. मेघचन्द्र प्र ई ६३० - १५० २ मेवचन्द्र द्वि. ई. १०२०-११५५३ ३. माघनन्दि ई. १९३३ - ११६३; ४. अकलक द्वि, ई ११५८-८२ ५. रामचन्द्र ई. ११५८-११८२। इनके अतिरिक्त भी दो अन्य आचार्य इस नाम से प्रसिद्ध थे - ६ माधव चन्द्र विश. ११ का पूर्व ७ पद्मनन्दिन ०७ (वि. १३७३ में स्वर्गवास) के गुरु वि १३००-१३५० ई. १२४१-१२६) दे, इतिहास / ७/५)। त्वक् - दे० स्पर्श / १ । त्वचा १ वचा व नोत्वचाका लक्षण ध./१३/५, ३, २०/१६/- तयो णाम रूक्खाणं गच्छाणं कंधाणं वा वक्कलं । तरि पदकलाओ को सुरणतंहलद्दादीना क पपदकलाओ गोतयं णाम । = वृक्ष, गच्छ या स्कन्धोकी छालको त्वचा कहते हैं और उसके ऊपर जो परडीका समूह होता है उसे नोत्वचा कहते है । अथवा सूरण, अदरख, प्याज और हलदी आदिकी जो बाह्य पपड़ी समूह है उसे नोखचा कहते है । * श्रदारिक शरोरमें स्वचाओंका प्रमाण दे० बहारिक २० [ थ ] थिउक्क संक्रमण - दे० संक्रमण / १० । [] दंड-१, चक्रवर्तीके चौदह रत्नोमेसे एक- दे० शलाका पुरुष / २: २. क्षेत्रका प्रमाण विशेष - अपरनाम धनुष, मूसल, युग, नाली - दे० गणित //१/३। दंड - १. भेद व लक्षण चासा / ११ / ५ दण्डस्त्रिविधः मनोवाक्कायभेदेन । तत्र रागद्वेषमोहबिकपामानसो दण्डस्त्रविध अनृतोपयात शून्यपरुषाभिशंसनपरि पसिनभेदाद्वाग्दण्ड, सप्तविध प्राणिवयचौर्य मैथुनपरिवहारम्भताडनोग्रवेशविकल्पात्कायदण्डोऽपि च सप्तविध' । 1= = मन, वचन, काय भेट से दण्ड तीन प्रकारका है, और उसमे भी राग, द्वेष, मोहके भेद से मानसिक दण्डभीतीनप्रकारका है ।.. झूठ बोलना, वचन से कहकर किसीके ज्ञानका घात करना चुगली करना, कठोर वचन कहना, अपनी प्रशंसा करना, संताप उत्पन्न करनेवाला वचन कहना और हिसाके वचन कहना, यह सात तरहका वचन दण्ड कहलाता है । प्राणियों का वध करना, चोरी करना, मैथुन करना, परिग्रह रखना, आरम्भ करना, ताडन करना, और उग्रवेष ( भयानक ) धारण करना इस तरह कायदण्ड भी सात प्रकारका कहलाता है। दंडपति - त्रिसा/भाषा./६०३ दण्डपति कहिये समस्त सेनाका नायक । दंडभूत सहस्रकार है- दे०विद्या । दंडसमुद्धात केली दंडाध्यक्षगण - विद्याधर विद्या है - दे० विद्या । दंतकर्म - दे० निक्षेप १४ दंशमशक परीवह-१ का लक्षण · स.सि./६/६/४२१/१० दंशमशका हणमुपलक्षणम् ।... तेन ईशमशकमक्षिका पशुपतिका मीटपिपीलिकानृश्चिकादयो गृह्यन्ते । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्ष ४०२ दर्शन तस्कृता बाधामप्रतीकारां सहमानस्य तेषा बाधा त्रिधाप्यकुर्वाणस्य निर्वाणप्राप्तिमात्रसंकल्पप्रवणस्य तद्वेदनासहनं दंशमशकपरिषहक्षमेत्युच्यते ।- मूत्रमे 'दंशमशक' पदका ग्रहण उपलक्षण है। दंशमशक पदसे दंशमशक, मकवी, पिस्सू, छोटो मक्खी, खटमल, कीट, चींटी और बिच्छू आदिका ग्रहण होता है। जो इनके द्वारा की गयी बाधाको बिना प्रतिकार किये सहन करता है, मन, वचन और कायसे उन्हे बाधा नहीं पहुंचाता है और निर्माणको प्राप्ति मात्र संकल्प ही जिसका ओढना है उसके उनको वेदनाको सह लेना दंशमशक परीषहजय है। (रा. वा./8/8/८-६/६०८/१८); (चा. सा/११३/३)। दयासागर-- १. धर्मदत्त चरित्र के कर्ता । समय-ई.१४२६ । (जै. सा. इ.14६)। २. हनुमान पुराण के कर्ता मराठी कवि। समयशक, १७३५, ई. १८१३ । (ती./४/३२२)।। द -भ. आ/वि./६१३/८१२/३ दर्पोऽनेकप्रकार । क्रीडासंघर्ष, व्यायामकुहक, रसायनसेवा, हास्य, गीतगृङ्गारवचनं, प्लवनमित्यादिको दर्प-दर्पके अनेक प्रकार है-क्रीडा स्पर्धा, व्यायाम, कपट, रसायन सेवा, हास्य, गीत और शृगारवचन, दौडना और कूदना ये दपके प्रकार हैं। २. दंश व मशक की एकता रा. वा./६/१७/४-६/६१६ दंशमशकस्य युगपत्प्रवृत्तरेकानविशतिविकल्प। इति चेत्, न; प्रकारार्थत्वान्मशक्शब्दस्य ।४। दंशग्रहणात्तुल्यजातीयसप्रत्यय इति चेत्, न; श्रुतिविरोधात् ।।...अन्यतरेण परीषहस्य निरूपितत्वात ।६। प्रश्न-दंश और मशकको जुदी-जुदी मानकर और प्रज्ञा व अज्ञानको एक मानकर, इस प्रकार एक जीवके युगपत १६ परोषह कही जा सकती है ? उत्तर-यह समाधान ठीक नहीं है। क्योकि 'दंशमशक' एक हो परोषह है। मशक शब्द तो प्रकारवाची है। प्रश्न-दंश शब्दसे ही तुल्य जातियोका बोध हो जाता है । अतः मशक शब्द निरर्थक है । उत्तर-ऐसा कहना उचित नहीं है । क्योंकि इससे श्रुतिविरोध होता है। - दंश शब्द प्रकारार्थक तो है नहीं। यद्यपि मशक शब्दका सीधा प्रकार अर्थ नही होता, पर जब दंश शब्द डास अर्थको कहकर परीषहका निरूपण कर देता है तब मशक शब्द प्रकार अर्थका ज्ञापन करा देता है । दर्शन-१ दक्षिण धातकीरखण्डका स्वामीदेव -दे० व्यन्तर/४ । २ दर्शन ( उपयोग)-दे० आगे। दर्शन-(षड्दर्शन) १. दर्शनका लक्षण षड्दर्शन समुच्चय/पृ. २/१८ दर्शन शासन सामान्यावबोधलक्षणम् । = दर्शन सामान्यावरोध लक्षणवाला शासन है। (दर्शन शब्द 'दृश' देखना) धातुसे करण अर्थमे ल्युट्' प्रत्यय लगाकर बना है। इसका अर्थ है जिसके द्वारा देखा जाये । अर्थात जीवन व जीवन विकासका ज्ञान प्राप्त किया जाये। षड्दर्शन समुच्चय/३/१० देवतातत्त्वभेदेन ज्ञातव्यानि मनीषिभिः ।३।वह दर्शन देवता और तत्त्व के भेदसे जाना जाता है। ऐसा ऋषियोंने कहा है । और भी-दे० दर्शन (उपयोग)/१/१ २. दर्शन के भेद षड्दर्शनसमुच्चय/म./२-३ दर्शनानि षडेवात्र मूलभेदव्यपेक्षया...॥२॥ बौद्ध नैयायिक सांख्यं जैन वैशेषिक तथा। जैमिनीयं च नामानि दर्शनानाममून्यहो ।३ = मूल भेदकी अपेक्षा दर्शन छह ही होते हैं। उनके नाम यह हैं-बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक तथा जेमिनीय। षड्दर्शनसमुच्चय/टी./२/३/१२ अत्र जगति प्रसिद्धानि षडेव दर्शनानि, एव शब्दोऽवधारणे, यद्यपि भेदप्रभेदतया बहुनि दर्शनानि प्रसिद्वानि । जगत प्रसिद्ध छह ही दर्शन है। एक शब्द यहाँ अवधारण अर्थमे है। परन्तु भेद-प्रभेदसे बहुत प्रसिद्ध है। दक्ष-ह. पु/१७/श्लोक-मुनिसुवतनाथ भगवान्का पोता तथा सुव्रत राजाका पुत्र था (१-२)। अपनी पुत्रीपर मोहित होकर उससे व्यभि चार किया। (१)। दक्षिण प्रतिपत्ति-आगममें आचार्य परम्परागत उपदेशोको ऋजु व सरल होनेके कारण दक्षिणप्रतिपत्ति कहा गया है। धवलाकार श्रीवीरसेनस्वामी इसको प्रधानता देते है। (ध. ११,६,३७/३२/६); (ध.१/ ५७), (ध. २/प्र. १५) । दक्षिणाग्नि-दे० अग्नि । दत्त-म पु./६६/१०३-१०६ पूर्व के दूसरे भवमे पिताका विशेष प्रेम न था। इस कारण युवराजपद प्राप्त न कर सके। इसलिए पितासे द्वेषपूर्वक दीक्षा धारणकर सौधर्म स्वर्गमे देव हुए । वहाँसे वर्तमान भवमें सप्तम नारायण हुए।-दे० शलाका पुरुष/४ । दत्ति-दे० दान । दधिमुख-नन्दीश्वर द्वोपमें पूर्वादि चारों दिशाओं मे स्थित चार चार बावड़ियों हैं। प्रत्येक बावडीके मध्यमें एक-एक ढोलाकार ( Cylinderical) पर्वत है। धवलवर्ण होनेके कारण इनका नाम दधिमुख है। इस प्रकार कुल १६ दधिमुख हैं। जिनमेसे प्रत्येकके शीशपर एक-एक जिन मन्दिर है । विशेष -दे० लोक/४/५ । दमितारी-म. पु./६२/श्लोक-पूर्व विदेहक्षेत्रमे शिवमन्दिरका राजा था (४३४) । नारदके कहनेपर दो सुन्दर नर्तकियोके लिए अनन्तवीर्य नारायणसे युद्ध किया ( ४३६ ) । उस युद्ध में चक्र द्वारा मारा गया (४८४)। दया-दे० करुणा। दयादत्ति-दे० दान । ३. वैदिक दर्शनका परिचय वैदिक दर्शन भारतीय संस्कृति में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। आकाश की भांति विभु परन्तु एक ऐसा तत्व इसका प्रतिपाय है जो कि स्वयं निराकार होते हुए भी जगत के रूप साकार सा हुआ प्रतीत होता है, स्वयं स्थिर होता हुआ भी इस जगत के रूप अस्थिर सा हुआ प्रतीत होता है। यह अखिल विस्तार इसकी क्षुद्र स्फरण मात्र है जो सागर की तरंगों की भांति उसी प्रकार इसमें से उदित हो होकर लोन होता रहता है जिस प्रकार कि हमारे चित्त में बैकल्पिक जगत। इस प्रकार यह इस अखिल बाह्याभ्यन्तर विस्तार का मूल कारण है । बुद्धि पूर्वक कुछ न करते हुए भी इसका कर्ताधर्ता तथा संहर्ता है, धाता विधाता तथा नियन्ता है। इसलिये यह इस सारे जगत का आत्मा है, ईश्वर है, ब्रह्म है।। किसी प्राथमिक अथवा अनिष्णात शिष्य को अत्यन्त गुह्य इस तत्त्व का परिचय देना शक्य न होने से यह दर्शन एक होते हुए भी छ' भागों में विभाजित हो गया है-वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक, सांख्य, योग और वेदान्त। यद्यपि व्यवहार भूमि पर ये छहों अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखते प्रतीत होते हैं, तदपि परमार्थतः एक दूसरे से पृथक कुछ न होकर ये एक अखण्ड वैदिक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन दर्शन के उत्तरोत्तर उन्नत छः सोपान है। अपने अपने प्रतिपाद्य को सिद्ध करने में दक्ष होने के कारण यद्यपि इनके तर्क हेतु तथा युक्ति एक दूसरे का निराकरण करते है तदपि परमार्थत ये एक दूसरे के पूरक है । एक अखण्ड तत्व सहसा कहना अथवा समझना शक्य न होने से ये भेदभाव से प्रारम्भ होकर धीरे धीरे अभेदवाद की ओर जाते है, अनेक तत्त्ववाद से प्रारम्भ करके धीरे धीरे एक तत्त्ववाद की ओर जाते है । कार्य पर से प्रारम्भ होकर धीरे धीरे कारण की ओर जाते है, स्थूल पर से प्रारम्भ होकर धीरे धीरे सूक्ष्म ओर जाते है । की ४. वैदिक दर्शनोंका क्रमिक विकास वैशेषिक दर्शन इसका सर्व प्रथम सोपान है, यही कारण है कि जगत की तात्विक व्यवस्था का विधान करने के लिए इसे जड़ चेतन तथा चिदाभासी अनेक द्रव्यो की सत्ता मानकर चलना पडता है । इन द्रव्यों का स्वरूप दर्शाने के लिये भी गुण-गुणी में, अवयव अवयवी में तथा पर्याय पर्यायी में इसे भेद मानना अनिवार्य है। इसी कारण इसका 'वैशेषिक' नाम अन्वर्थक है। इसके द्वारा स्थापित तों को युक्तिपूर्वक सिद्ध करके उनके प्रति श्रद्धा जाग्रत करना 'नैयायिक' दर्शन का प्रयोजन है । इसलिये प्रमेय तथा प्रमाण के अतिरिक्त इन दोनो में कोई मौलिक भेद नहीं है। दोनों प्रायः समकक्ष हैं। १ वैशेषिक दर्शन स्थूल जगत् पृथिवीजल तेजस वायु आकाश दिक मन आत्म काल परमाणु परमाणु परमाणु परमाणु +गध + रस 1+रूप+ स्पर्श 7 T (गंध ( रस | रूप (स्पर्श { शब्द (सांख्य दर्शन तन्मात्रा तन्मात्रा (तन्मात्रा सन्मात्रा तन्मात्री पुरुष (चैतन्य) पुरुष + ब्रह्म अहंकार बुद्धि अशुद्ध प्रकृति सत्त्व तमस् रजस् सत्त्वादि गुणों की साम्यावस्था शुद्ध प्रकृति शुद्धसत्त्व ३. शैव दर्शन माया 8 अद्वैत दर्शन माया के पाँच कञ्चुक कला विद्या राग काल नियति इस अवस्थी में मैं ' और' यह दोनो समान बल वाले हैं शुद्ध विद्या या सद्विद्या (मैं यह है ) ईश्वर तत्व (यह मैं हूँ) यहाँ यह अश प्रधान और मैं अंश (गौण है ) सदाशिव तत्त्व (मै हूँ का बोध ) शक्तितत्त्व (मैं का बोध) परमं शिवतत्त्व (शिव-शक्ति का सामरस्य) यही अखण्ड तत्व है। दर्शन 'मीमांसा' दर्शन के तीन अवान्तर भेद है जो वैशेषिक मान्य भेदभाव को धीरे धीरे अभेद की ओर ले जाते हैं। अन्तिम भूमि के प्राप्त होने पर वह इतना कहने के लिये समर्थ हो जाता है कि परमार्थत' ब्रह्म ही एक पदार्थ है परन्तु व्यवहार भूमि पर धर्म धर्मी आधार व प्रदेश ऐसे चार तत्त्वों को स्थापित करके उसे समझा जा सकता है। ४०३ 'सांख्य' की उन्नत भूमि में पदार्पण हो जाने पर जड तथा चेतन ऐसे दो तत्व ही शेष रह जाते हैं। धर्म धर्मी में भेद करने की इसे आवश्यकता नहीं। 'योग' दर्शन ध्यान धारण समाधि आदि के द्वारा इन दो तत्वों का साक्षात् करने का उपाय सुझाता है। इसलिये वैशेषिक तथा नैयायिक की भांति सांख्य तथा योग भी परमार्थत समतन्त्र है। सांख्य के द्वारा स्थापित तत्व साध्य हैं और योग उनके साक्षात्कार का साधन । 'वेदान्त' इस ध्यान समाधिकी वह चरम भूमि है जहां पहुँचने पर चित्त शून्य हो जाता है। जिसके कारण सांख्य कृत जड चेतन का विभाग भी अस्ताचल को चला जाता है। यद्यपि इस विभाग को लेकर इसमें चार सम्प्रदाय उत्पन्न हो जाते हैं, तदपि अन्त में पहुंचकर ये सब अपने विकल्पो को उस एक के चरणों में समर्पित कर देते हैं । (विशेष दे. वह वह नाम ) । ५. बौद्ध दर्शन अद्वैतवादी होने के कारण भी वैदिक दर्शन के सम है। विशेषता यह है कि वैदिक दर्शन जहां समस्त भेदों तथा विशेषों को एक महा सामान्य में लीन करके समाप्त करता है वहां बौद्ध दर्शन एक सामान्य को विश्लिष्ट करता हुआ उस महा विशेष को प्राप्त करता है जिसमें अन्य कोई विशेष देखा जाना सम्भव नहीं हो सकता । इसलिये जिस प्रकार वैदिक दर्शन का तत्त्व एक अखण्ड तथा निर्विशेष है उसी प्रकार इस दर्शन का तत्व भी एक अखण्ड तथा निर्विशेष है । यह अपने तत्व को ब्रह्म न कहकर विज्ञान कहता है जो द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा एक क्षेत्र प्रमाण की अपेक्षा अणु प्रमाण, काल की अपेक्षा क्षण स्थायी और भाव की अपेक्षा स्वलक्षण मात्र है। व्यवहार भूमि पर दिखने वाला यह विस्तार वास्तव में भ्रांति है जो क्षण क्षण प्रति उत्पन्न हो होकर नष्ट होते रहने वाले विद्याओं के अटूट प्रवाह के कारण प्रीतीति की विषय बन रही है । * सर्व दर्शन किसी न किसी नयमें गर्भित हैं। ६. जैन दर्शन जैन दर्शन अपनी जाति का स्त्रयं है। यद्यपि आचार के क्षेत्र में यह भी जीव अजीव आदि साततत्त्वों की व्यवस्था करता है, तदपि दार्श निक क्षेत्र में सत्-असत्, भेद-अभेद, नित्य-अनित्य आदि पक्षों को पकडकर एक दूसरे का निराकरण करने में प्रवृत्त हुए उक्त सर्व दर्शनों मैं सामञ्जस्य की स्थापना करके मैत्रो की भावना जागृत करना इसका प्रधान प्रयोजन है। वैदिक दर्शन अपने निर्विकल्प तत्त्व का अध्ययन कराने के लिये जहां वैशेषिक आदि छ दर्शनों की स्थापना करता है, वहां जैन दर्शन स्वमत मान्य तथा अन्यमतमान्य पदार्थों में सामजस्य उत्पन्न करने के लिये दृष्टिवाद या नयवाद की स्थापना करता है। किसी भी एक पदार्थ को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने में दक्ष ये नयें एक दूसरी का निराकरण न करके परस्पर में एक दूसरी की पूरक होकर रहती हैं। इस कारण यह दर्शननवादी, अपेक्षाबादी, स्याद्वादी अथवा समन्वयवादी के नाम से प्रसिद्ध है । इसका विशाल हृदय उक्त सभी दर्शन को, किसी न किसी नय में संग्रह करके आत्मसात कर लेने के लिये समर्थ है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - (दे० अनेकान्त / २०१) । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ४०४ सूचीपत्र १ । दर्शनोपयोग निर्देश १ दर्शनका आध्यात्मिक अर्थ । दर्शनका व्युत्पत्ति अर्थ। दर्शनोपयोगके अनेकों लक्षण १. विषय-विषयी सन्निकर्षके अनन्तर 'कुछ है' इतना मात्र ग्रहण । २. सामान्यमात्र ग्राही। ३. उत्तरशानकी उत्पत्तिके लिए व्यापार विशेष । ४. आलोचना व स्वरूप संवेदन। ५. अन्तर्चित्प्रकाश। * निराकार व निर्विकल्प। --दे० आकार व विकल्प। स्वभाव-विभाव दर्शन अथवा कारण-कार्यदर्शन निदेश। -दे० उपयोग/I/१॥ सम्यक्त्व व श्रद्धाके अर्थमें दर्शन। -दे० सम्यग्दर्शन/I।।। सम्यक व मिथ्यादर्शन निर्देश। -दे० वह बह नाम । दर्शनोपयोग व शुद्धोपयोगमें अन्तर । -दे० उपयोग/I/२। शुद्धात्मदर्शनके अपर नाम। -दे० मोक्षमार्ग/२/५ । देव दर्शन निर्देश। -दे० पूजा। * २ ७. जैन दर्शन व बैदिक दशनोंका समन्वय भले ही साम्प्रदायिकताके कारण सर्वदर्शन एक-दूसरेके तत्त्वोका खण्डन करते हों। परन्तु साम्यवादी जैन दर्शन सबका खण्डन करके उनका समन्वय करता है। या यह कहिए कि उन सर्वदर्शनमयी ही जैन दर्शन है. अथवा वे सर्वदर्शन जैनदर्शनके ही अंग है। अन्तर केवल इतना ही है कि जिस अद्वैत शुद्धतत्त्वका परिचय देनेके लिए वेद कर्ताओंको पाँच या सात दर्शनोकी स्थापना करनी पड़ी, उसीका परिचय देनेके लिए जनदर्शन नयोंका आश्रय लेता है। तहॉ वैशेषिक व नैयायिक दर्शनोके स्थानपर असद्भूत व सद्भभूत व्यवहार नय है। सांख्य व योगदशेनके स्थानपर शुद्ध व अशुद्ध द्रव्याथिकनय हैं। अद्वैतदर्शनके स्थानपर शुद्ध संग्रहनय है । इनके मध्यके अनेक विकल्पोंके लिए भी अनेको नय व उपनय है, जिनसे तत्त्वका सुन्दर व स्पष्ट परिचय मिलता है। प्ररूपणा करनेके ढंगमे अन्तर होते हुए भी, दोनों एक ही लक्ष्यको प्राप्त करते हैं। अद्वैतदर्शनकी जिस निर्विकल्प दशाका ऊपर वर्णन कर आये है वही जैनदर्शनकी कैवल्य अवस्था है। पूर्वमीमांसाके स्थानपर यहाँ दान व पूजा विधानादि, मध्य मीमांसाके स्थानपर यहॉ जिनेन्द्र भक्ति रूप व्यवहार धर्म तथा उत्तरमीमांसाके स्थानपर धर्म व शुक्लध्यान है। तहाँ भी धर्मध्यान तो उसकी पहली व दूसरी अवस्था है और शुक्लध्यान उसकी तीसरी व चौथी अवस्था है। * सब एकान्तदर्शन मिलकर एक जैनदर्शन है दे० अनेकांत/२॥ दर्शन उपयोग-जीवकी चैतन्यशक्ति दर्पणको स्वच्छत्व शक्तिवत है। जैसे-बाह्य पदार्थोंके प्रतिबिम्बोंके बिनाका दर्पण पाषाण है, उसी प्रकार ज्ञेयाकारोके बिनाकी चेतना जड है। तहाँ दर्पणकी निजी स्वच्छतावत् चेतनका निजी प्रतिभास दर्शन है और दर्पणके प्रतिबिम्बोंवत् चेतनामे पडे ज्ञयाकार ज्ञान है। जिस प्रकार प्रतिबिम्ब विशिष्ट स्वच्छता परिपूर्ण दर्पण है उसी प्रकार ज्ञान विशिष्ट दर्शन परिपूर्ण चेतना है। तहाँ दर्शनरूप अन्तर चित्प्रकाश तो सामान्य व निर्विकल्प है, और ज्ञानरूप बाह्य चित्प्रकाश विशेष व सविकल्प है। यद्यपि दर्शन सामान्य होनेके कारण एक है परन्तु साधारण जनों को समझानेके लिए उसके चक्षु आदि भेद कर दिये गये हैं। जिस प्रकार दर्पणको देखनेपर तो दर्पण व प्रतिबिम्ब दोनो युगपत दिवाई देते है, परन्तु पृथक्-पृथक् पदार्थों को देखनेसे वे आगेपीछे दिखाई देते हैं, इसी प्रकार आत्म समाधिमें लीन महायोगियोंको तो दर्शन व ज्ञान युगपत् प्रतिभासित होते है. परन्तु लौकिकजनोंको वे क्रमसे होते है। यद्यपि सभी संसारी जीवोंको इन्द्रियज्ञानसे पूर्व दर्शन अवश्य होता है. परन्तु क्षणिक व सूक्ष्म होनेके कारण उसकी पकड वे नहीं कर पाते। समाधिगत योगी उसका प्रत्यक्ष करते है। निज स्वरूपका परिचय या स्वसंवेदन क्योंकि दर्शनोपयोगसे ही होता है, इसलिए सम्यग्दर्शनमें श्रद्धा शब्दका प्रयोग न करके दर्शन शब्दका प्रयोग किया है। चेतना दर्शन व ज्ञान स्वरूप होनेके कारण ही सम्यग्दर्शनको सामान्य और सम्यग्ज्ञानको विशेष धर्म कहा है। २ ज्ञान व दशनमें अन्तर दर्शनके लक्षणमें देखनेका अर्थ शान नहीं। अन्तर व बाहर चित्प्रकाशका तात्पर्य अनाकार व साकार ग्रहण है। | केवल सामान्यग्राहक दर्शन और केवल विशेषग्राहक शान हो, ऐसा नहीं है । ( इसमें हेतु)। केवल सामान्य का ग्रहण माननेसे द्रव्यका जानना ही अशक्य है। अतः सामान्य विशेषात्मक उभयरूप ही अन्तरंग व बाह्यका ग्रहण दर्शन व शान है। ज्ञान भी कथंचित् आत्माको जानता है। -दे० दर्शन/२/६। ज्ञानको ही द्विस्वभावी नहीं माना जा सकता। -दे० दर्शन// दर्शन व शानकी स्व-पर ग्राहकताका समन्वय । दर्शनमें भी कथंचित् बाह्य पदार्थका ग्रहण । दर्शनका विषय ज्ञानकी अपेक्षा अधिक है। दर्शन व शानके लक्षणोंका समन्वय । -दे० दर्शन/४/७ । दर्शन ओर अवग्रह शानमें अन्तर । दर्शन ब संग्रहनयमें अन्तर । ३ दर्शन व ज्ञानकी क्रम व अक्रम प्रवृत्ति छद्मस्थोंको दर्शन व शान क्रमपूर्वक होते हैं और केवलीको अक्रम। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ४०५ १. दर्शनोपयोग निर्देश १ केवलीके दर्शनानको अवमवृत्तिमें हेतु। | अक्रमवृत्ति होनेपर भी केवलदर्शनका उत्कृष्टकाल । अन्तर्महतं बहनेका कारण। -दे० दर्शन/३/२/४ । छद्मरथोंके दर्शनशानकी क्रमवृत्तिमे हेतु। दर्शनपूर्वक ईहा आदि शान होनेका क्रम । -दे० मतिज्ञान/३। श्रत विभंग व मनःपर्ययके दर्शनों सम्बन्धी श्रुतदर्शनके अभावमे युक्ति। विभगदर्शनके अस्तित्वका कवि विवि-निबंध । मन.पर्यय दर्शनके अभाव मे युक्ति । मतिज्ञान ही श्रुत व मन.पर्ययका दर्शन है। दर्शनोपयोग सिद्धि * दर्शन प्रमाण है। -दे० दर्शन/४/१॥ आत्मग्रहण अनध्यवसायरूप नहीं है। दर्शनके लक्षणमें सामान्यपदका अर्थ आत्मा। सामान्य शब्दका अर्थ यहो निर्विकल्परूपसे सामान्य विशेषात्मक ग्रहण है। ४ | सामान्यविशेषात्मक आत्मा केवल सामान्य कैसे कहा जा सकता है। * | दर्शनका अर्थ स्वरूप संवेदन करनेपर सभी जीव सम्यग्दृष्टि हो जायेगे। -दे० सम्यग्दर्शन/I/१। यदि आत्मग्राहक ही दर्शन है तो चक्षु आदि दर्शनोंकी बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा क्यों की। -दे० दर्शन/५/३, ४ । * | यदि दर्शन बायार्थको नहीं जानता तो सन्धित्वका । प्रसंग आता है। -दे० दर्शन/२/७। दर्शन सामान्यके अस्तित्वकी सिद्धि।। अनाकार व अव्यक्त उपयोगके अस्तित्वकी सिद्धि । --दे० आकार/२/३ । दर्शनावरण प्रकृति भी स्वरूप संवेदनको धातती है। सामान्यग्रहण व आत्मग्रहणका समन्वय । दर्शनोपयोग सम्बन्धी कुक्ल प्ररूपणाएँ ज्ञान दर्शन उपयोग व शान-दर्शनमार्गणा, अन्तर । -दे० उपयोग/I/२। दर्शनोपयोग अन्तर्मुहूर्त अवस्थायी है। लब्ध्यपर्याप्त दशामे चक्षुदर्शनका उपयोग नहीं होता पर निवृत्त्यपर्याप्त दशामें कथचित् होता है। मिश्र व कार्माणकाययोगियोमे चक्षुदर्शनोपयोगका अभाव । उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्ध परिणामोमे दर्शनोपयोग संभव नहीं। -दे० विशुद्धि। ४ | दर्शन मार्गणामे गुणस्थानोंका स्वामित्व। दर्शन मार्गणा विषयक गुणस्थान, जीवसमास, भार्गणास्थान आदिके स्वामित्वकी २० प्ररूपणा । -दे० सत्। दर्शन विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व। -दे० वह बह नाम । दर्शनमार्गणामे आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम । -दे० मार्गणा। दर्शन मार्गणामें कर्मोंका बन्ध उदय सत्व। -दे० वह बह नाम। meantanuman दशनोपयोगके भेदोंका निर्देश दर्शनोपयोगके भेदोंका नाम निर्देश। चक्षु आदि दर्शनोंके लक्षण। | बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा परमार्थसे अन्तरंग विषयको ही | बताती है। बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणाका कारण । चक्षुदर्शन सिद्धि। दृष्टकी स्मृतिका नाम अचक्ष दर्शन नहीं । पाँच दर्शनोके लिए एक अचक्षुदर्शन नाम क्यों ? चक्षु, अचक्षु व अवधिदर्शन क्षायोपशमिक कैसे है। -दे० मतिज्ञान/२/४ । केवलशान व दर्शन दोनो कथंचित् एक हैं। केवलज्ञानसे भिन्न केवलदर्शनकी सिद्धि । आवरणकर्मके अभावसे केवलदर्शनका अभाव नहीं १. दर्शनोपयोग निर्देश १. दर्शनका आध्यात्मिक अर्थ द. पा./मू. १४ दुविह पिगंथचायं तीसु वि जोएसु स जमो ठादि । णाणम्मि करणसुद्ध उब्भसणे दंसणं होई ।१४। = बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग होय, तीनों योगविषै संयम होय, तीन करण जामे शुद्ध होय, ऐसा ज्ञान होय, बहुरि निर्दोष खडा पाणिपात्र आहार कर, ऐसे मूर्तिमत दर्शन होय।। बो. पा./मू /१४ दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तसंयम सुधम्मं च । णिग्गंथणाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं ।१४।-जो मोक्षमार्गको दिखावे सो दर्शन है। वह,मोक्षमार्ग सम्यक्त्व, संयम और उत्तमक्षमादि सुधर्म रूप है। तथा बाह्य में निर्ग्रन्थ और अन्तरंगमे ज्ञानमयी ऐसे मुनिके रूपको जिनमार्ग में दर्शन कहा है। द. पा./पं. जयचन्द/१/३/१० दर्शन कहिये मत ( द. पा./पं. जयचन्द। १४/२६/३)। द. पा./प. जयचन्द/२/५/२ दर्शन नाम देखनेका है। ऐसे ( उपरोक्त प्रकार ) धर्मकी मूर्ति ( दिगम्बर मुनि) देखनेमे आवै सो दर्शन है, सो प्रसिद्धतासे जामे धर्मका ग्रहण होय ऐसा मतकू दर्शन ऐसा नाम है । होता। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ४०६ २. ज्ञान व दर्शनमें अन्तर २. दर्शनका व्युत्पत्ति अर्थ स.सि./१/१/६/१ पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्र वा दर्शनम् -दर्शन शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाय अथवा देखनामात्र । (गो. जी./जी. प्र./४८३/८८१/२)। रा. वा /१/१/ वार्तिक नं, पृष्ठ नं./पंक्ति नं. पश्यति वा येन तद् दर्शन । (१/१/४/४/२४)। एवंभूतनयवक्तव्यवशात्-दर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव...दर्शनम् (१/१/५/५/१) पश्यतीति दर्शनम्। (१/१/२४/६/१)। दृष्टिदर्शनम्/ (१/१/२६/१/१२) । जिससे देखा जाये वह दर्शन है। एवम्भूतनयकी अपेक्षा दर्शनपर्यायसे परिणत आत्मा ही दर्शन है। जो देखता है सो दर्शन है। देखना मात्र ही दर्शन है। ध. १/१.१,४/१४५/३ दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम्। जिसके द्वारा देखा जाय या अवलोकन किया जाय उसे दर्शन कहते है। स्या. म./१/१०/२२ सामान्यप्रधानमुपसर्जनीकृतविशेषमर्थ ग्रहणं दर्शनमुच्यते। तथा प्रधान विशेषमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति ।-- सामान्यकी मुख्यतापूर्वक विशेषको गौण करके पदार्थ के जाननेको दर्शन कहते हैं और विशेषकी मुख्यतापूर्वक सामान्यको गौण करके पदार्थ के जाननेको ज्ञान कहते है। ३. उत्तर ज्ञानकी उत्पत्तिके लिए व्यापार विशेष ध. १/१,१,४/१४६/१ प्रकाशवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, प्रकाशो ज्ञानम् । तदर्थ मात्मनो वृत्ति. प्रकाशवृत्तिस्तदर्शन मिति। -अथवा प्रकाश वृत्तिको दर्शन कहते हैं । इसका अर्थ इस प्रकार है, कि प्रकाश ज्ञानको कहते हैं, और उस ज्ञानके लिए जो आत्माका व्यापार होता है, उसे प्रकाश वृत्ति कहते हैं । और वही दर्शन है। ध. ३/१,२,१६१/४५७/२ उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् । - उत्तरज्ञानकी उत्पत्तिके निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदनको दर्शन माना है। (द्र. सं./टी./४४/१८६/५) ध. १/१,६-१, १६/३२/- ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनं आत्मविशेषोपयोग इत्यर्थः । नात्र ज्ञानोत्पादकप्रयत्नस्य तन्त्रता, प्रयत्नरहितक्षीणावरणान्तरङगोपयोगस्स अदर्शनत्वप्रसंगात् । - ज्ञानका उत्पादन करनेवाले प्रयत्नसे सम्बद्ध स्वसंवेदन, अर्थात् आत्मविषयक उपयोगको दर्शन कहते हैं। इस दर्शनमें ज्ञानके उत्पादक प्रयत्नकी पराधीनता नहीं है। यदि ऐसा न माना जाय तो प्रयत्न रहित क्षीणावरण और अन्तरंग उपयोगवाले केवलीके अदर्शनत्वका प्रसंग आता है। ३. दर्शनोपयोगके अनेकों लक्षण १. विषयविषयी सन्निपात होनेपर 'कुछ है' इतना मात्र ग्रहण । स. सि./१/११/१११/३ विषयविषयिसंनिपाते सति दर्शनं भवति ।विषय और विषयीका सन्निपात होनेपर दर्शन होता है। (रा वा./ १/१५/१/६०/२); (तत्त्वार्थवृत्ति/१/१५)। ध. १/१.१.४/१४६/२ विषयविषयिसंपातात पूर्वावस्था दर्शनमित्यर्थः । घ. ११/४,२,६,२०५/३३३/७ सा बज्झत्थग्गहणुम्मुहावत्था चेव दसणं, कितु बज्झत्यग्गहणुवसंहरणपढमसमयप्पहुडि जान बज्झत्थअग्गहणचरिमसमिओ त्ति दंसणुवजोगो त्ति घेत्तव्यं । -१. विषय और विषयीके योग्य देशमें होनेकी पूर्वावस्थाको दर्शन कहते हैं। बाह्य अर्थ के ग्रहणके उन्मुख होनेरूप जो अवस्था होती है, वही दर्शन हो, ऐसी बात भी नहीं है; किन्तु बाह्यार्थ ग्रहणके उपसंहारके प्रथम समयसे लेकर बाह्यार्थ के अग्रहणके अन्तिम समय तक दर्शनोपयोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। (विशेष दे० दर्शन/२/६)। स. भ.त./४७/४ दर्शनस्य किस्विदित्यादिरूपेणाकारग्रहणम् स्वरूपम् । = विशेषण विशेष्यभावसे शून्य 'कुछ है' इत्यादि आकारका ग्रहण दर्शनका स्वरूप है। २. सामान्य मात्रका ग्राही पं. सं./मू./१/१३८ जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटु आयारं । अवि सेसिऊण अत्थं दसणमिदि भण्णदे समए। = सामान्य विशेषात्मक पदार्थोके आकार विशेषको ग्रहण न करके जो केवल निर्विकल्प रूपसे अंशका या स्वरूपमात्रका सामान्य ग्रहण होता है, उसे परमागममें दर्शन कहते हैं। (ध. १/१.१४/गा. १३/१४६): (ध.७/५,५०६६/गा. १६/१००); ( प. प्र./मू./२/३४); (गो.जी.मू/१८२/८८८); (द्र.सं | मू./४३)। दे, दर्शन/४/३/ ( यह अमुक पदार्थ है यह अमुक पदार्थ है, ऐसी व्यवस्था किये बिना जानना ही आकारका न ग्रहण करना है)। गो.जी./म./४८३/८८६ भावाणं सामग्ण विसेसयाण सरूवमेत्तं जं। वण्णहीणग्गहणं जीवेण य दंसणं होदि ४८३-सामान्य विशेषात्मक जे पदार्थ तिनिका स्वरूपमात्र भेद रहित जैसे है तैसे जीवकरि सहित जो स्वपर सत्ता का प्रकाशना सो दर्शन है। द्र. सं./टी./४३/१८६/१० अयमत्र भावः-यदा कोऽपि किमप्यवलोकयति पश्यति; तदा यावत विकल्प न करोति तावत् सत्तामात्र ग्रहण दर्शन भण्यते । पश्चाच्छुछक्लादिविकल्पे जाते ज्ञानमिति। -तात्पर्य यह है कि-जब कोई भी किसी पदार्थ को देखता है, तब जब तक वह देखनेवाला विकल्प न करे तबतक तो जो सत्तामात्रका ग्रहण है उसको दर्शन कहते हैं। और फिर जब यह शुक्ल है, यह कृष्ण इत्यादि रूपसे विकल्प उत्पन्न होते हैं तब उसको ज्ञान कहते हैं। ४ आलोचन या स्वरूप संवेदन रा. वा./६/७/१२/६०४/११ दर्शनावरणक्षयक्षयोपशमावि तवृत्तिरालोचनं दर्शनम् । = दर्शनावरणके क्षय और क्षयोपशमसे होनेवाला आलोचन दर्शन है। ध. १/१,१.४/१४८/६ आलोकनवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, आलोकत इत्यालोकनमात्मा, वर्तन वृत्ति , आलोकनस्य वृत्तिरालोकनवृत्तिः स्वसंवेदनं, तद्दर्शन मिति लक्ष्यनिर्देश-आलोकन अर्थात आत्माके व्यापारको दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि जो आलोकन करता है उसे आलोकन या आत्मा कहते हैं और वर्तन अर्थात वृत्तिको आत्माको वृत्ति कहते हैं। तथा आलोकन अर्थात आत्माकी वृत्ति अर्थात वेदनरूप व्यापारको आलोकन वृत्ति या स्वसंवेदनकहते है। और उसीको दर्शन कहते हैं । यहाँपर दर्शन इस शब्दसे लक्ष्यका निर्देश किया है। ध. ११/४,२,६,२०५/३३३/२ अंतरंगउवजोगो । .....वज्झत्थगहणसंते विसिट्ठसगसरूवसंवयणं दंसणमिदि सिद्ध। = अन्तरंग उपयोगको दर्शनोपयोग कहते हैं । बाह्य अर्थका ग्रहण होनेपर जो विशिष्ट आत्मस्वरूपका वेदन होता है वह दर्शन है। (ध. ६/१,६-१,६/६/३); (ध. १५/६/१). ५ अन्तश्चित्प्रकाश ध. १/१,१.४/१४५/४ अन्तर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दशनज्ञानव्यपदेशभाजो-अन्तचित्प्रकाशको दर्शन और बहिचित्प्रकाशको ज्ञान माना है। नोट-(इस लक्षण सम्बन्धी विशेष विस्तारके लिए देखो आगे दर्शन/२। २. ज्ञान व दर्शन में अन्तर १. दर्शनके लक्षणमें देखनेका अर्थ ज्ञान नहीं है ध.१/१,१,४/१४५/३ दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् । नाक्ष्णालोकेन चातिप्रसङ्गयोरनारमधर्मत्वात् । दृश्यते ज्ञायतेऽनेनेति दर्शनमित्युच्यमाने ज्ञान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ४०७ २. ज्ञान व दर्शनमें अन्तर आम आता है । उत्तर लक्षण चला जालोक भी देखने दर्शनयोरविशेष स्यादिति चेन्न, अन्तर्ष हिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजोरेकत्वविरोधात् । = प्रश्न-'जिसके द्वारा देखा जाय अर्थात् अवलोकन किया जाये उसे दर्शन कहते है', दर्शनका इस प्रकार लक्षण करनेसे, चक्षु इन्द्रिय व आलोक भी देखने में सहकारी होनेसे, उनमें दर्शनका लक्षण चला जाता है, इसलिए अतिप्रसंग दोष आता है। उत्तर नहीं आता, क्योकि इन्द्रिय और आलोक आरमाके धर्म नहीं हैं। यहाँ चक्षुसे द्रव्य चक्षुका ही ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न-जिसके द्वारा देखा जाय, जाना जाय उसे दर्शन कहते हैं। दर्शनका इस प्रकार लक्षण करने पर, ज्ञान और दर्शनमें कोई विशेषता नहीं रह जाती है, अर्थात दोनों एक हो जाते हैं ! उत्तर-नहीं, क्योंकि अन्तर्मुख चित्प्रकाशको दर्शन और बहिर्मुखचित्काशको ज्ञान मामा है, इसलिए इन दोनोंके एक होनेमें विरोध आता है। २. अन्तर्मुख व बहिर्मुख चित्प्रकाशका तात्पर्य-अनाकार व साकार ग्रहण थ.१/१,१,४/१४५/६ स्वतो व्यतिरिक्तबाह्यार्थावगतिः प्रकाश इत्यन्तबहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्जानात्यनेनात्मानं बाह्यार्थमिति च ज्ञानमिति सिद्धत्वादेकत्वम्, ततो न ज्ञानदर्शनयोर्भेद इति चेन्न, ज्ञानादिव दर्शनात प्रतिकर्मव्यवस्थाभावात् । -प्रश्न-अपनेसे 'भिन्न बाह्यपदार्थों के ज्ञानको प्रकाश कहते है, इसलिए अन्तर्मुख चैतन्य और बहिर्मुख प्रकाशके होने पर जिसके द्वारा यह जीव अपने स्वरूपको और पर पदार्थों को जानता है उसे ज्ञान कहते हैं। इस प्रकारकी व्याख्याके सिद्ध हो जानेसे ज्ञान और दर्शनमें एकता आ जाती है, इसलिए उनमें भेद सिद्ध नहीं हो सकता है 1 उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस तरह ज्ञानके द्वारा 'यह घट है, यह पट है' इत्यादि विशेष रूपसे प्रतिनियत व्यवस्था होती है उस तरह दर्शनके द्वारा नहीं होती है, इसलिए इन दोनोंमें भेद है। क.पा १/१-१५/६३०६/३३७/२ अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स दंसणत्तब्भुव गमादो। तं कथं णव्वदे । अणायारत्तण्णहाणुववत्तीदो। -अन्तरंग पदार्थको विषय करनेवाले उपयोगको दर्शन स्वीकार किया है। प्रश्न-दर्शन उपयोगका विषय अन्तरंग पदार्थ है यह कैसे जाना जाता है। उत्तर-यदि दर्शनोपयोगका विषय अन्तरंग पदार्थ न माना जाय तो वह अनाकार नहीं बन सकता। दे० आकार/२/३('मैं इस पदार्थको जानता हूँ' इस प्रकारका पृथग्भूत कर्ता कर्म नहीं पाये जानेसे अन्तरंग व निराकार उपयोग विषया कार नहीं होता) द्र.सं./टी/१४/१८६/७ यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते, पश्चात पटपरिज्ञानार्थ चित्ते जाते सति घटविकल्पाद व्यावृत्त्य यत स्वरूपे प्रयत्नमवलोकन परिच्छेदनं करोति तदर्शनमिति। तदनन्तरं पटोऽयमिति निश्चयं यदबहिविषयरूपेण पदार्थग्रहण विकल्पं करोति तद् ज्ञान भण्यते। जैसे कोई पुरुष पहिले घटके विषयका विकल्प (मैं इस घटको जानता हूँ अथवा यह घट लाल है, इत्यादि ) करता हुआ बैठा है। फिर उसी पुरुषका चित्त जब पटके जाननेके लिए होता है, तब वह पुरुष घटके विकल्पसे हटकर जो स्वरूपमें प्रयत्न अर्थाव अवलोकन करता है, उसको दर्शन कहते हैं। उसके अनन्तर 'यह पट है' इस प्रकारसे निश्चय रूप जो बाह्य विषय रूपसे पदार्थग्रहणस्वरूप विकल्पको करता है वह विकल्प ज्ञान कहलाता है। ३. केवल सामान्य ग्राहक दर्शन और केवल विशेषग्राही ज्ञान-ऐसा नहीं है। ध.१/१,१,४/१४६/३ तस्त्व न्तर्बाह्यसामान्यग्रहणं दर्शनम्, विशेषग्रहणं ज्ञानमिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनो विक्रमेणोपलम्भात् । सोऽप्यस्तु न कश्चिद्विरोध इति चेन्न, 'हंदि दुवे गत्थि उवजोगा' इत्यनेन सह विरोधात् । अपि च न ज्ञानं प्रमाण सामान्यव्यतिरिक्तविशेषस्यार्थ क्रियाकर्तृत्वं प्रत्यसमर्थत्वतोऽवस्तुनो ग्रहणात् । न तस्य ग्रहणमपि सामान्यव्यतिरिक्ते विशेषे ह्यवस्तुनि कर्तृकर्मरूपाभावात्। तत् एव न दर्शनमपि प्रमाणम् । -प्रश्न-यदि ऐसा है तो (यदि दर्शन द्वारा प्रतिनियत घट पट आदि पदार्थोंको नहीं जानता तो) अन्तरंग सामान्य और अहिरंग सामान्यको ग्रहण करनेवाला दर्शन है, और अन्तर्बाह्य विशेषको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है, ऐसा मान लेना चाहिए। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि सामान्य और विशेषात्मक वस्तुका क्रमके बिना ही ग्रहण होता है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो होने दो, क्योंकि क्रमके बिना भी सामान्य व विशेषका ग्रहण मानने में कोई विरोध नहीं है। उत्तर-१. ऐसा नहीं है, क्योंकि, 'छद्मस्थोंके दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते है। इस कथनके साथ पूर्वोक्त कथनका विरोध आता है। (इस सम्बन्धी विशेष देखो आगे 'दर्शन/३), (ध.१३/५,५,१६/२०८/३); (घ.६/१,६-१, १६/३३/८) २. दूसरी बात यह है कि सामान्यको छोड़कर केवल विशेष अर्थ क्रिया करने में असमर्थ है। और जो अर्थ क्रिया करने में असमर्थ होता है वह अवस्तु रूप पडता है। (क पा./१/8३२२/३५१/३) (ध.१/१,१,४/१४८/२), (ध.६/१,६-१,१६/३३/६), (दे० सामान्य) ३. उस ( अवस्तु ) का ग्रहण करनेवाला ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता, और केवल विशेषका ग्रहण भी तो नहीं हो सकता है, क्योंकि, सामान्य रहित केवल विशेषमें कर्ता कर्म रूप व्यवहार (मैं इसको जानता हूँ ऐसा भेद ) नहीं बन सकता है। इस तरह केवल विशेषको ग्रहण करनेवाले ज्ञानमें प्रमाणता सिद्ध नहीं होनेसे केवल सामान्यको ग्रहण करने वाले दर्शनको भी प्रमाण नहीं मान सकते हैं। (ध.६/१,६-१,१६/३३/१०), (द्र.सं./टी./४४/१६०/८) ४. और इस प्रकार दोनों उपयोगोंका ही अभाव प्राप्त होता है। (दे० आगे शीर्षक नं. ४)१. (द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयके बिना वस्तुका ग्रहण होनेमें विरोध आता है ) (ध.१३/५,५,१६/२०८/४) घ.६/१,६-१,१६/३३/६ बाह्यार्थसामान्यग्रहणं दर्शनमिति केचिदाचक्षते; तन्न; सामान्यग्रहणास्तित्वं प्रत्यविशेषत श्रुतमन'पर्यययोरपि दर्शनस्यास्तित्वप्रसंगात् । -६. बाह्य पदार्थको सामान्य रूपसे ग्रहण करना दर्शन है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते है। किन्तु वह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि सामान्य ग्रहणके अस्तित्व के प्रति कोई विशेषता न होनेसे, श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान, इन दोनोंको भी दर्शनके अस्तित्वका प्रसंग आता है। ( तथा इन दोनोके दर्शन माने नहीं गये हैं (दे० आगे दर्शन/४ ) ४. ज्ञान व दर्शनको केवल सामान्य या विशेषग्राही माननेसे द्रव्यका जानना ही अशक्य है ध.२,१,५६/१७/१ण चासेसविसेसमेत्तग्गाही केवलणाणं चेव जेण सयलस्थसामण्ण केवलदसणस्स विसओ होज, संसारावत्थाए आवग्गवसेण कमेण पवट्टमाणणाणदं सणाणं दब्वागमाभावप्पसंगादो । कुदो। ण जाणं दव्बपरिच्छेदय, सामण्णविदिरित्तविसेसेसु तस्स बावारादो। ण दसणं पि दबपरिच्छेदयं, तस्स विसेसविदिरित्तसामण्णम्मि बाबारादो। ण केवलं संसारावत्थाए चेव दव्वरगहणाभावो, 'कितु ण केवलिम्हि वि दम्बग्गहणमत्थि, सामण्ण विसेसेसु एयंत दुरंतपंचसंठिएसु वावदाणं केवलदंसणणाणाणं दव्व म्मि, बाबारविरोहादो। ण च एयंत सामण्णविसेसा अस्थि जेण तेसि विसओ होज । असंतस्स पमेयत्ते इच्छिज्जमाणे गद्दहसिगं पि पमेयत्तमल्लिएज्ज, अभावं पडिविसेसाभावादो। पमेयाभावे ण पमाणं पि, तस्स तण्णिबंधणादो। -अशेष विशेषमात्रको ग्रहण करने वाला केवलज्ञान हो, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ४०८ २. ज्ञान ब दर्शनमें अन्तर ऐसा नही है, जिससे कि सकल पदार्थोंका ज्ञान सामान्य धर्म केवल दर्शनका विषय हो जाय । क्योंकि ऐसा माननेसे, ज्ञान दर्शनकी क्रमप्रवृत्ति धाली संसारावस्थामे द्रव्यके ज्ञानका अभाव होनेका प्रसग आता है। कैसे -ज्ञान तो द्रव्यको न जान सकेगा, क्योंकि सामान्य रहित केवल विशेष में ही उसका व्यापार परिमित हो गया है। दर्शन भी द्रव्यको नही जान सकता, क्योंकि विशेषोसे रहित केवल सामान्यमें उसका व्यापार परिमित हो गया है। केवल संसारावस्थामें ही नहीं किन्तु केवलीमें भी द्रव्यका ग्रहण नहीं हो सकेगा, क्योकि, एकान्तरूपी दुरन्तपथमें स्थित सामान्य व विशेषमें प्रवृत्त हए केवलदर्शन और केवलज्ञानका (उभयरूप) द्रव्यमात्रमें व्यापार मानने में विरोध आता है। एकान्ततः पृथक सामान्य व विशेष तो होते नहीं है, जिससे कि वे क्रमशः केवलदर्शन और केवलज्ञानके विषय हो सकें। और यदि असत्को भी प्रमेय मानोगे तो गधेका सींग भी प्रमेय कोटिमें आ जायेगा, क्योंकि अभावकी अपेक्षा दोनोंमें कोई विशेषता नही रही। प्रमेयके न होने पर प्रमाण भो नही रहता, क्योंकि प्रमाण तो प्रमेयमूलक ही होता है । (क.पा./१/१-२०/६३२२/३५३/१; ६३२४/३५६/१) ५. सामान्य विशेषात्मक उभयरूप ही अन्तरंग ग्रहण दर्शन और बाह्यग्रहण ज्ञान है घ.१४१,१,४/१४७/२ ततः सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानं तदात्मकस्वरूपग्रहणं दर्शनमिति सिद्धम् । - अत सामान्य विशेषास्मक बाह्यपदार्थको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है और सामान्य विशेषात्मक स्वरूपको ग्रहण करनेवाला दर्शन है यह सिद्ध हो जाता है। (क.पा./१/१-२०/६३२५/३५६/६) ध.१/१,१,१३१/३८०/३ अन्तरड गार्थोऽपि सामान्य विशेषात्मक इति । तद्विधिप्रतिषेधसामान्ययोरुपयोगस्य क्रमेण प्रवृत्त्यनुपपत्तेरक्रमेण तत्रोपयोगस्य प्रवृत्तिरङ्गीकर्तव्या। तथा च न सोऽन्तरङ्गोपयोगोऽपि दर्शनं तस्य सामान्य विशेषविषयत्वादिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्यात्मन' सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात् । - अन्तरंग पदार्थ मी सामान्य विशेषात्मक होता है, इसलिए विधि सामान्य और प्रतिषेध सामान्यमें उपयोगको क्रमसे प्रवृत्ति नहीं बनती है, अत' उनमें उपयोगकी अक्रमसे प्रवृत्ति स्वीकार करना चाहिए । अर्थात दोनोका युगपत् ही ग्रहण होता है। प्रश्न-इस कथनको मान लेने पर वह अन्तरंग उपयोग दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि ( यहाँ) उस अन्तरंग उपयोगको सामान्य विशेषात्मक पदार्थको विषय करनेवाला मान लिया गया है (जब कि उसका लक्षण केवल सामान्यको विषय करना है ( दे०-दर्शन/१/३/२)। उत्तर-नहीं, क्योंकि, यहाँ पर सामान्य विशेषात्मक आत्माका सामान्य शब्दके वाच्यरूपसे ग्रहण किया है। (विशेष दे० आगे दर्शन/३) ६. दर्शन व ज्ञानकी स्व-पर ग्राहकताका समन्वय नि.सा./मू./१६१-१७१ णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव । अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णदे जदि हि १६१३ णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं ।ण हव्वदि परदव्वगर्य दसणमिदि बण्णिदं तम्हा ॥१६॥ अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं । ण हवदि परदव्यगयं दंसणमिदि पण्णिदं तम्हा ।१६३। णाणं परप्पयासं ववहारणयएण दसणं तम्हा। अप्पा परप्पयासो ववहारणयएण सणं तम्हा ।१६४। णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा। अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा ॥१६॥ = एकान्तसे ज्ञानको परप्रकाशक, दर्शनको स्वप्रकाशक तथा आत्माको स्वपरप्रकाशक यदि कोई माने तो वह ठीक नहीं है, क्योकि वैसा मानने में विरोध आता है ।१६१ ज्ञानको एकान्तसे परप्रकाशक माननेपर वह दर्शनसे भिन्न ही एक पदार्थ बन बैठेगा, क्योंकि दर्शनको बह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता ।१६। इसी प्रकार ज्ञानकी अपेक्षा आत्माको एकान्तसे परप्रकाशक माननेपर भी वह दर्शनसे भिन्न हो जायेगा, क्योंकि दर्शनको वह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता ।१६३। ( ऐसे ही दर्शनको या आरमाको एकान्तसे स्वप्रकाशक मानने पर वे ज्ञानसे भिन्न हो जायेंगे, क्योंकि ज्ञानको वह सर्वथा स्वप्रकाशक न मान सकेगा। अतः इसका समन्वय अनेकान्त द्वारा इस प्रकार किया जाना चाहिए, कि -) क्योंकि व्यवहारनयसे अर्थात् भेद विवक्षासे ज्ञान व आत्मा दोनों परप्रकाशक है. इसलिए दर्शन भी पर प्रकाशक है। इसी प्रकार, क्योंकि निश्चयनयसे अर्थात् अभेद विवक्षासे ज्ञान व आत्मा दोनों स्वप्रकाशक हैं इसलिए दर्शन भी स्वप्रकाशक है।१६। (तात्पर्य यह कि दर्शन, ज्ञान व आत्मा ये तीनों कोई पृथक्-पृथक स्वतन्त्र पदार्थ तो हैं नहीं जो कि एकका धर्म दूसरेसे सर्वथा अस्पृष्ट रहे। तीनों एक पदार्थस्वरूप होनेके कारण एक रस हैं। अत' ज्ञान ज्ञाता शेयको अथवा दर्शन द्रष्टा दृश्यको भेद विवक्षा होनेपर तीनों ही परप्रकाशक है तथा उन्हीं में अभेद विवक्षा होने पर जो ज्ञान है, वही ज्ञाता है, वही ज्ञेय है, वही दर्शन है, वही द्रष्टा है और वही दृश्य है। अतः ये तीनों ही स्वप्रकाशक है।) (अथवा-जब दर्शनके द्वारा आत्माका ग्रहण होता है, तब स्वतः ज्ञानका तथा उसमें प्रतिबिम्बित पर पदार्थोका भी ग्रहण कैसे न होगा, होगा ही।) (दे० आगे शीर्षक नं०७); ( केवलज्ञान/६/8) (दे० अगले दोनों उद्धरण भी) ध.६/१,६-१,१६/३४/४ तस्मादात्मा स्वपरावभासक इति निश्चेतव्यम् । तत्र स्त्रावभासः केवलदर्शनम्, परावभासः केवलज्ञानम् । तथा सति कथं केवलज्ञानदर्शनयोः साम्यमिति इति चेन्न, शेयप्रमाणज्ञानात्मकात्मानुभवस्य ज्ञानप्रमाणत्वाविरोधात । - इसलिए (उपरोक्त व्याख्याके अनुसार ) आत्मा ही (वास्तवमे ) स्व-पर अवभासक है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। उसमें स्वप्रतिभासको केवल दर्शन कहते हैं और पर प्रतिभासको केवलज्ञान कहते हैं। (क.पा.१/१-२०/६३२६/ ३५८/२): (ध.७/२,१,१६/१६/१०) प्रश्न-उक्त प्रकारकी व्यवस्था मानने पर केवलज्ञान और केवलदर्शनमें समानता कैसे रह सकेगी। उत्तर-नहीं, क्योकि, ज्ञेयप्रमाण ज्ञानात्मक आत्मानुभवके ज्ञानको प्रमाण होनेमें कोई विरोध नहीं है । (ध.१/१,१,१३५/३८५/७) द्र.सं./टी./४४/१८६/१४अत्राह शिष्यः-यद्यात्मग्राहक दर्शनं, परगाहक ज्ञानं भण्यते, तहि यथा नैयायिकमते ज्ञानमात्मानं न जानाति; तथा जैनमतेऽपि ज्ञानमात्मानं न जानातीति दूषणं प्राप्नोति । अत्र परिहारः। नैयायिकमते ज्ञानं पृथग्दर्शनं पृथगिति गुणद्वयं नास्ति; तेन कारणेन तेषामात्मपरिज्ञानाभावदूषणं प्राप्नोति। जैनमते पुमनिगुणेन परद्रव्यं जानाति, दर्शनगुणेनात्मानं च जानातीत्यारमपरिज्ञानाभावदूषणं न प्राप्नोति। कस्मादिति चेत्-यथैकोऽप्यग्निर्दहतीति दाहक', पचतीति पाचको, विषयभेदेन द्विधा भिद्यते। तथैवाभेदेनयेनै कमपि चैतन्यं भेदनयविवक्षायां यदात्मग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तदा तस्य दर्शनमिति संज्ञा, पश्चात् यच्च परद्रव्यग्राहकत्वेन प्रवृत्त्रं तस्य ज्ञानसंज्ञे ति विषयभेदेन द्विधा भिद्यते ।-प्रश्न-यदि अपनेको ग्रहण करनेवाला दर्शन और पर पदार्थको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है, तो नैयायिकोंके मतमें जैसे ज्ञान अपनेको नहीं जानता है, वैसे ही जेनमतमे भी 'ज्ञान आत्माको नही जानता है ऐसा दूषण आता है ! उत्तर-नैयायिकमतमें ज्ञान और दर्शन दो अलग-अलग गुण नहीं माने गये हैं, इसलिए उनके यहाँ तो उपरोक्त दूषण प्राप्त हो सकता है; परन्तु जैनसिद्धान्तमें 'आत्मा' ज्ञान गुणसे तो पर पदार्थको जानता है, और दर्शन गुणसे आत्माको जानता है, इस कारण यहाँ वह दूषण प्राप्त नहीं होता। प्रश्न-यह दूषण क्यों नहीं होता ! उत्तर-जैसे कि एक ही अग्नि दहनगुणसे जलाता होनेसे दाहक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ४०९ कहलाता है, और पाचन गुणसे पकाता होनेसे पाचक कहलाता है । इस प्रकार विषय भेदसे वह एक भी दाहक व पाचक रूप दो प्रकारका है । उसी प्रकार अभेदनयसे एक ही चैतन्य भेदनयकी विवक्षामें जब आत्मग्रहण रूपसे प्रवृत्त हुआ तब तो उसका नाम दर्शन हुआ; जब परपदार्थको ग्रहण करने रूप प्रवृत्त हुआ तब उस चैतन्यका नाम ज्ञान हुआ; इस प्रकार विषयभेदसे वह एक भी चैतन्य दो प्रकारका होता है । 1 ७. दर्शन में मी कथंचित् बाह्य पदार्थोंका ग्रहण होता है द्र.सं./टी./२२/११/१ अथ मतं यदि दर्शन महिविषयेन प्रयते तदाधन सर्वजनानामन्वत्वं प्राप्नोतीति न वक्तव्य महिविषये दर्शनाभावेऽपि ज्ञानेन विशेषेण सर्वं परिच्छिनत्तीति । अयं तु विशेष - दर्शनेनात्मनि गृहीते सत्यात्माविनाभूतं ज्ञानमपि गृहीतं भवति; ज्ञानेच गृहीते सति ज्ञानविषयभूतं महिस्वपि गृहीतं भवतीति । = प्रश्न- यदि दर्शन बाह्य विषयको ग्रहण नहीं करता तो अन्धेकी तरह राम मनुष्यों के अन्धेपनेकी प्राप्ति होती है उत्तर-ऐसा नही कहना चाहिए। क्योंकि यद्यपि बाह्य विषयमें दर्शनका अभाव है, तो भी आत्मज्ञान द्वारा विशेष रूपसे सब पदार्थोंको जनाता है। उसका विशेष खुलासा इस प्रकार है, कि जब दर्शन से आत्माका ग्रहण होता है, तब आत्मा व्याप्त जो ज्ञान है, वह भी दर्शन द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है; और जब दर्शनसे ज्ञानको ग्रहण किया तो ज्ञानका विषयभूत जो बाह्य वस्तु है उसका भी ( स्वत ) ग्रहण कर लिया ( या हो गया) । ( और भी - दे० दर्शन /५/८ ) ८. दर्शनका विषय ज्ञानकी अपेक्षा अधिक है ६/९/१. १. १३/३०/- स्वीवस्वपर्यादर्शनमधिकमिति पेश, इष्टत्वात् । कथं पुनस्तेन तस्य समानत्वम् । नः अन्योन्यात्मकयोस्तदविरोधात् । - प्रश्न - ( ज्ञान केवल बाह्य पदार्थोंको ही ग्रहण करता है, आत्माको नहीं, जबकि दर्शन आत्माको व कथंचित्र बाह्यपदार्थोंको भी ग्रहण करता है तो जीनमे रहनेवाली स्वकीय पर्यायोको अपेक्षा ज्ञानसे दर्शन अधिक है। उत्तर- नहीं, क्योंकि, यह बात इष्ट ही है। प्रश्न- ज्ञानके साथ दर्शनकी समानता कैसे हो सकती है ? उत्तर - समानता नहीं हो सकती यह बात नहीं है, क्योंकि एक दूसरेकी अपेक्षा करनेवाले उन दोनोंमें ( कथंचित् ) समानता मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। ९. दर्शन और अवग्रह ज्ञान में अन्तर 1 रा. वा./१/१२/१३/६/२/१३ दाह-यदुक्तं भवता विषय-विषयसंनिपाते दर्शनं भवति तदनन्तरमवग्रहइति तदयुक्तम् अक्षम्याद ... अत्रोच्यते - नः वैलक्षण्यात् । कथम् । इह चक्षुषा 'किंचिदेतद्वस्तु' इत्यालोकमनाकार दर्शनमित्युच्यते बालवत् । यथा जातमात्रस्य बालस्य प्राथमिक उन्मेषोऽसी अविभावितरूपद व्यविशेषालोचनादर्शन विवक्षितं तथा सर्वेषाम् रातो द्वित्रादिसमभाव 'रूपमिदम्' इति विभवोऽग्रय प्रथमसमयोमेषि तस्य बालस्य दर्शनं तद् यदि अवग्रहजातीयत्वात् ज्ञानमिष्टम्; तन्मध्याज्ञानं वा स्याद, सम्यग्ज्ञान या मिथ्याहामत्वेऽपि संशयविपर्ययानध्यवसायात्मक (वा) स्यात् । तत्र न तावत् संशयविपर्ययामर्कनाऽपेष्टिः तस्य सम्यानपूर्वकत्वाद प्राथमिकत्वाच तत्रास्तीति । न वानध्यवसायरूपम् जात्यन्धवधिरशब्दवत् वस्तुमात्रप्रतिपत्ते' । न सम्यग्ज्ञानम्, अर्थाकारावलम्बनाभावात् । किं चकारण नानात्वात् कार्यनानात्वसिद्ध े । यथा मृत्तन्तुकारणभेदात घटपटकाभेदः तथा दर्शनज्ञानावरण क्षयोपशम कारणभेदाद तत्कार्यदर्शनज्ञानभेद इति । = - प्रश्न - विषय विषयीके सन्निपात होनेपर प्रथम क्षणमे भा० २-५२ ३. दर्शन व ज्ञानकी क्रम व अक्रम प्रवृत्ति दर्शन होता है और तदनन्तर अवग्रह, आपने जो ऐसा कहा है, सो युक्त नहीं है, क्योंकि दोनोंके लक्षणोंमें कोई भेद नहीं है ? उत्तर- १. नहीं, क्योंकि दोनोंके लक्षण भिन्न हैं । वह इस प्रकार कि - चक्षु इन्द्रियसे 'यह कुछ है' इतना मात्र आलोकन दर्शन कहा गया है । इसके बाद दूसरे आदि समयोमे 'यह रूप है' 'यह पुरुष है' इत्यादि रूपसे विशेषांशका निश्चय अवग्रह कहलाता है। जैसे कि जातमात्र बालकका ज्ञान जातमात्र बालकके प्रथम समय में होनेवाले सामान्यालोचन को यदि अवग्रह जातीय ज्ञान कहा जाये तो प्रश्न होता है कि कौन-सा ज्ञान है - मिथ्याज्ञान या सम्यग्ज्ञान ? मिथ्याज्ञान है तो संशयरूप है, या विपर्ययरूप, या अनध्यवसाय रूप ' तहाँ संशय और विपर्यय तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि ये दोनों ज्ञान सम्यग्ज्ञान पूर्वक होते हैं । अर्थात् जिसने पहले कभी स्थाणु, पुरुष आदिका निश्चय किया है उसे ही वर्तमान में देखे गये पदार्थने संशय या विपर्यय हो सकता है । परन्तु प्राथमिक होनेके कारण उस प्रकारका सम्यग्ज्ञान यहाँ होना सम्भव नहीं है। यह ज्ञान अनध्यवसायरूप भी नहीं है; क्योकि जन्मान्ध और जन्मवधिर की तरह रूपमात्र व शब्दमात्रका तो स्पष्ट बोध हो ही रहा है। इसे सम्यग्ज्ञान भी नहीं कह सकते, क्योंकि उसे किसी भी अर्थ विशेषके आकारका निश्चय नहीं हुआ है । (ध. ६/४,१,४५/१४५/६ ) । २. जिस प्रकार मिट्टी और तन्तु ऐसे विभिन्न कारणोसे उत्पन्न होनेके कारण घट व पट मित्र हैं, उसी प्रकार दर्शनावरण और ज्ञानावरणके क्षयोपशमरूप विभिन्न कारणो से उत्पन्न होनेके कारण दर्शन व ज्ञानमे भेद है। (और भी दे० दर्शन /५/५) | १०. दर्शन व संग्रहनयमें अन्तर श्लो. बा. २/१/१४/१५/०४६/२१ न हि सन्मायाही संग्रहो नयी दर्श स्यादित्यतिव्याप्ति शंकनीया तस्य श्रुतभेदत्वादस्पष्टावभासितया नयत्वोपपते. भूतभेदा नया इति वचनात् सम्पूर्ण वस्तुकी संग्रहीत केवल सत्ताको ग्रहण करनेवाला संग्रहनय दर्शनोपयोग हो जायेगा, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह संग्रहनय तो श्रुतज्ञानका भेद है। अविशद प्रतिभासवाला होनेसे उसे नयपना बन रहा है। और ग्रन्थोंमें श्रुतज्ञानके भेदको नयज्ञान कहा गया है। ३. दर्शन व ज्ञानको क्रम व अक्रम प्रवृत्ति १. छद्मस्थोंके दर्शन व ज्ञानक्रम पूर्वक होते हैं और केवलीको अक्रम नि. सा./मू. १६० जुगवं वट्टह णाणं केवलिणाणिस्स दंसणं च तहा । दिणयरपयासतापं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं १६०। - केवलज्ञानीको ज्ञान तथा दर्शन युगपत् वर्तते है । सूर्य के प्रकाश व ताप जिस प्रकार वर्त हों, उसी प्रकार जानना । घ. १३/२.२ ५/३६/१ धदुमत्यणापाणि इंसानि केवलमाणं पुण केवल दंसणसमकालभावी णिरावणत्तादो । छद्मस्थो के ज्ञान दर्शन पूर्वक होते है परन्तु केवलज्ञान केवलदर्शनके समान कालमें होता है; क्योंकि उनके ज्ञान और दर्शन ये दोनों निरावरण हैं। (रा.वा./२/६/३/१२/११) (१.प्र./मू./१/१५) (. ३/१.२.१६९/ ४५७/२); (द्र.सं./. ४४) । २. केवल दर्शन व केवलज्ञानकी युगपत् प्रवृति हेतु क. पा. ९/९-२० / प्रकरण / पृष्ठ / पंक्ति केवलणाम केवट समास उप जोगकालो तोहुतमेोति भनिदो तेव्हा नाद'सणाणमकमेण उत्ती होदि ति । ( ३३१६ / ३५१ / २ ) । अथ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 4 - Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ४१० ४. दर्शनोपयोग सिद्धि हुए अरहंत देव क्या जानते हैं और क्या देखते हैं । तथा उनके सर्वज्ञता भी कैसे बन सकती है ।।१४१ (और भी दे० दर्शन/२/३,४)। ३ दोनों उपयोगोकी एक साथ प्रवृत्ति मानने में विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि, उपयोगोकी क्रमवृत्ति कर्मका कार्य है. और कर्म का अभाव हो जानेसे उपयोगोको क्रमवृत्तिका भी अभाव हो जाता है, इसलिए निराबरण केवलज्ञान और केवलदर्शनकी क्रमवृत्ति के मानने में विरोध आता है। ४. प्रश्न- यदि ऐसा है तो इन दोनोका उत्कृष्ट रूपसे अन्तर्मुहूर्त काल कसे बन सक्ता है। उत्तर-चू कि, यहाँपर सिह, व्याघ, छठवल, शिवा और स्याल आदिके द्वारा खाये जानेवाले जीवोंमे उत्पन्न हुए केवलज्ञान दर्शनके उत्कृष्टकालका ग्रहण किया है, इसलिए इनका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल बन जाता है। परिहारो उच्चदे । तं जहा केवलग्राणदंसणावरणाणं किमक्कमणक्खओ, अहो कमेणेत्ति । . अक्कमेण विणासे संते केवलणाणेण सह केवलदसणेण वि उप्पज्जेय, अक्कमेण अविकल कारणे संते तेसिं कमुष्पत्तिविरोहादो। तिम्हा अक्कमेण उप्पण्णत्तादो ण केवलणाणदं सणाणं कमउत्ती त्ति। (६३२०/३५१/१ ) होउ णाम केवलणाणदंसणाणमक्कमेणुप्पत्ती; अकमेण विणट्ठावरणत्तादो, कितु केवलणाणं दसणुवजोगो कमेण चेव होंति, सामण्णविसेसयत्तण अव्बत्त बत्त-सरूवाणमकमेण पउत्तिविरोहादो त्ति । (३२१/३५२/७)। होदि एसो दोसो जदि केवलणाणं विसेसविसयं चेव केवलदसणं पि सामण्ण विसयं चेव । ण च एवं दोहं पि विसयाभावेण अभावप्पसगादो। (६३२२/३५३/१)। तदो सामण्णविसेसविसमत्ते केवलणाण-दसणाणमभावो होज्ज णिबिसयतादो त्ति सिद्ध । उत्तं च-अद्दिळं अण्णादं केवलि एसो हु भासइ सया वि। एएयसमयम्मि हंदि ह बयण विसेसी ण संभव १४०। अण्णाद पासंतो अदिदमरहा सया तो बियाणतो। किं जाणइ कि पासइ कह सव्वणहो त्ति वा होइ ।१४१॥ (१३२४/३५६/३)। ण च दोण्हमुवजोगाणमक्कमेण वुत्ती विरुद्धा; कम्मकयस्स कम्मस्स तदभावेण अभावमुवगयस्स तत्थ सत्तविरोहादो। (६३२५/३५६/१०)। एवं संते केवणणाणदंसणाणमुक्कस्मेण अंतोमुहुत्तमेत्तकालो कथं जुज्जदे । सहि बग्घ-छवल्ल-सिव-सियालाईहि खज्जमाणेसु उप्पण्ण केवलणाणदंसणुवस्सकालग्गहणादो जुज्जदे । (१३२६/३६०/६ )।-प्रश्न- कि केवलज्ञान और केवलदर्शनका उत्कृष्ट उपयोगकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है, इससे जाना जाता है कि केवलज्ञान और केवलदर्शनकी प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती। उत्तर-१. उक्त शंकाका समाधान करते हैं। हम पूछते है कि केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरणका क्षय एक साथ होता है या क्रमसे होता है । (क्रमसे तो होता नहीं है, क्योंकि आगममें ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय इन तीनों कर्मोंकी सत्त्व व्युच्छित्ति १२ वें गुणस्थानके अन्तमें युगपत बतायी है (दे० सत्त्व) । यदि अक्रमसे क्षय माना जाथे तो केवलज्ञानके साथ केवलदर्शन भी उत्पन्न होना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शनकी उत्पत्तिके सभी अधिकल कारणोके एक साथ मिल जानेपर उनकी क्रम मे उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। और क्योकि वे अक्रमसे उत्पन्न होते हैं इसलिए उनकी प्रवृत्ति भी क्रमसे नहीं बन सकती। २, प्रश्न- केवलज्ञान व केवलदर्शनकी उत्पत्ति एक साथ रही आओ क्योंकि उनके आवरणोंका विनाश एक साथ होता है। किन्तु केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग क्रमसे ही होते हैं, क्योकि केवलदर्शन सामान्यको विषय करनेवाला होनेसे .. अव्यक्तरूप है और केवलज्ञान विशेषको विषय करनेवाला होनेसे_ व्यक्त रूप है, इसलिए उनकी एक साथ प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है। उत्तर-यदि केवलज्ञान केवल विशेषको और केवलदर्शन केवल सामान्यको विषय करता, तो यह दोष सम्भव होता, पर ऐसा नहीं है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेषरूप विषयका अभाव होनेसे उन दोनों (ज्ञान व दर्शन) के भी अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। अतः जब कि सामान्य विशेषात्मक वस्तु है तो केबलदर्शनको केवल सामान्यको विषय करनेवाला और केवलज्ञानको केवल विशेषको विषय करनेवाला माननेपर दोनो उपयोगोंका अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेष रूप पदार्थ नहीं पाये जाते । कहा भी है-यदि दर्शनका विषय केवल सामान्य और ज्ञानका विषय केवल विशेष माना जाये तो जिनमें जो अदृष्ट है ऐसे ज्ञात पदार्थको तथा जो अज्ञात है ऐसे दृष्ट पदार्थको ही सदा कहते हैं, ऐसी आपत्ति प्राप्त होगी। और इसलिए एक समयमें ज्ञात और दृष्ट पदार्थको केवली जिन कहते हैं ' यह वचन ग्शेिष नहीं बन सकता है ।१४०। अज्ञात पदार्थको देखते हुए और अदृष्ट पदार्थ को जानते ३. छद्मस्थोंके दर्शनज्ञानकी क्रमवृत्तिमें हेतु ध. १/१,१,१३३/३८४/३ भवतु छद्मस्थायामप्यक्रमेण क्षीणावरणे इव तयो प्रवृत्तिरिति चेन्न, आवरणाविरुद्धाक्रमयोरक्रमप्रवृत्ति विरोधात । अस्वसंविद्रूपो न कदाचिदप्यात्मोपलभ्यत इति चेन्न, बहिरङ्गोपयोगावस्थायामन्तरगोफ्योगानुपलम्भात् । = प्रश्न--आवरण कम से रहित जीवोमें जिस प्रकार ज्ञान और दर्शनकी युगपत् प्रवृत्ति पायी जाती है, उसी प्रकार छद्मस्थ अवस्थामें भी उन दोनों की एक साथ प्रवृत्ति होओ। उत्तर-१. नहीं क्योंकि आवरण कर्म के उदयसे जिनकी युगपत् प्रवृत्ति करनेकी शक्ति रुक गयी है, ऐमे छद्मस्थ जीवोके ज्ञान और दर्शनमें युगपत् प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। प्रश्न-२, अपने आपके संवेदनसे रहित आत्माकी तो कभी भी उपलब्धि नही होती है । ( अर्थात निज संवेदन तो प्रत्येक जीवको हर समय रहता ही है) उत्तर-नहीं, क्योंकि, बहिरंग पदार्थों के उपयोगरूप अवस्थामें अन्तरंग पदार्थ का उपयोग नहीं पाया जाता है। ४. दर्शनोपयोग सिद्धि १. आत्म ग्रहण अनध्यवसाय रूप नहीं है ध.१/१,१,४/१४८/३ सत्येवमनध्यवसायो दर्शनं स्यादिति चेन, स्वाध्यबसायस्थानध्यवसितबाह्यार्थस्य दर्शनत्वात् । दर्शनं प्रमाणमेव अविसंवादित्वात, प्रभासः प्रमाणं चाप्रमाणं च विसंवादाविसंवादोभयरूपस्य तत्रोपलम्भात । प्रश्न-दर्शनके लक्षणको इस प्रकारका ( सामान्य आरम पदार्थ ग्राहक ) मान लेनेपर अनध्यवसायको दर्शन मानना पड़ेगा. उत्तर-नहीं, क्योंकि, बाह्यार्थका निश्चय न करते हए भी स्वरूपका निश्चय करनेवाला दर्शन है, इसलिए वह अनध्यघसायरूप नहीं है। ऐसा दर्शन अविसंवादी होनेके कारण प्रमाण ही है। और अनध्यवसायरूप जो प्रतिभास है वह प्रमाण भी है और अप्रमाण भी है, क्योंकि उसमें विसंवाद और अविसंवाद दोनों पाये जाते हैं । ('कुछ है ऐसा अनध्यवसाय निश्चयात्मक या अविसंवादी है और 'क्या है' ऐसा अनध्यवसाय अनिश्चयात्मक या विसंवादी है)। २.दर्शनके लक्षण में 'सामान्य' पदका अर्थ आत्मा ही है ध.१/१,१,४/९४७/३ तथा च 'जं सामण्ण' गहणं तदसणं' इति वचनेन विरोधः स्यादिति चेन्न, तत्रात्मन: सकलबाह्यार्थसाधारणत्वतः सामान्यव्यपदेशभाजो ग्रहणात ।-प्रश्न-उक्त प्रकारसे दर्शन और ज्ञानका स्वरूप मान लेनेपर अन्तरंग सामान्य विशेषका ग्रहण दर्शन, बाह्य सामान्य विशेषका ग्रहण ज्ञान (दे० दर्शन/२/३.४) 'वस्तुका जो सामान्य ग्रहण होता है उसको दर्शन कहते है' परमागमके इस जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ४. दर्शनोपयोग सिद्धि वचनके साथ (दे० दर्शन/१/३/२) विरोध आता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि, आत्मा सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों में साधारण रूपसे पाया जाता है ( अर्थात् सर्व पदार्थ प्रतिभासात्मक है), इसलिए उक्तवचनमें सामान्य संज्ञाको प्राप्त आत्माका ही सामान्य पदसे ग्रहण किया है। (ध. १/१,१,१३१/३८०/५); (ध. ७/२, १, ५६/१००/७); (ध. १३/१,६,८५/३५४/११); ( क पा १/१-२०/६३२६/३६०/३); (द्र. सं./टी/४४/१६१/६)-(विशेष दे० दर्शन/२/३,४) । ध.१/१,१,४/१४७/४ आत्मनः सकलबाह्यार्थसाधारणत्वतः सामान्यव्यपदेशभाजा। -आत्मा सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों में साधारण रूपसे पाया जाता है, इसलिए 'सामान्य' शब्दसे आत्माका व्यपदेश किया गया है। ध. ७/२,१.५६/१००/५ ण च जीवस्स सामण्णत्तमसिद्धं णियमेण विणा विसईकयत्तिकालगोयराणं तत्थवेंजणपज्जओवचियबझंतरंगाणं तत्थ सामणत्ताविरोहादो। -जीवका सामान्यत्व असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि नियमके बिना ज्ञानके विषयभूत किये गए त्रिकाल गोचर अनन्त अर्थ और व्यंजन पर्यायोंसे संचित बहिरंग और अन्तरंग पदार्थोंका, जीवमें सामान्यत्व मानने में विरोध नहीं आता। २. सामान्य शब्दका अर्थ निर्विकल्प रूपसे सामान्य. विशेषात्मक ग्रहण है ध. १/१,१,४/१४७/४ तदपि कथमवसीयत इति चेन्न, 'भावाणं णेव । कटु आयार" इति वचनात् । तद्यथा भावाना बाह्यार्थानामाकार प्रतिकर्मव्यवस्थामकृत्वा यद्ग्रहणं तदर्शनम्। अस्यैवार्थस्य पुनरपि दृढीकरणार्थ, 'अविसेसिऊण उ?' इति, अर्थानविशेष्य यद् ग्रहणं तद्दर्शनमिति । न बाह्यार्थगतसामान्यग्रहणं दर्शनमित्याशङ्कनीयं तस्यावस्तुन कर्मत्वाभावात् । न च तदन्तरेण विशेषो ग्राह्यत्वमास्कन्दतीत्यतिप्रसङ्गात् । प्रश्न -- यह कैसे जाना जाये कि यहाँपर सामान्य पदसे आत्माका ही ग्रहण किया है। उत्तर-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, ‘पदार्थों के आकार अर्थात् भेदको नहीं करके' सूत्रमें कहे गये इस वचनसे उक्त कथनकी पुष्टि होती है। इसीको स्पष्ट करते हैं, भावोंके अर्थात बाह्य पदार्थोके, आकाररूप प्रति कर्म व्यवस्थाको नहीं करके, अर्थात् भेदरूपसे प्रत्येक पदार्थको ग्रहण नहीं करके, जो ( सामान्य ) ग्रहण होता है, उसको दर्शन कहते है। फिर भी इसी अर्थको दृढ करने के लिए सूत्रकार कहते हैं (दे० दर्शन/१/३/२) कि 'यह अमुक पदार्थ है, यह अमुक पदार्थ है' इत्यादि रूपसे पदार्थोंकी विशेपता न करके जो ग्रहण होता है, उसे दर्शन कहते हैं। इस कथनसे यदि कोई ऐसी आशंका करे कि बाह्य पदार्थों में रहनेवाले सामान्यको ग्रहण करना दर्शन है, तो उसकी ऐसा आशंका करनी भी ठीक नहीं है, क्योकि विशेषकी अपेक्षा रहित केवल सामान्य अवस्तुरूप है, इसलिए वह दर्शनके विषयभावको नहीं प्राप्त कर सकता है। उसी प्रकार सामान्यके बिना केवल विशेष भी ज्ञानके द्वारा ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योंकि, अवस्तुरूप केवल सामान्य अथवा केवल विशेषका ग्रहण मान लिया जाये तो अतिप्रसंग दोष आता है। (और भी दे० दर्शन/२/३ )। ५. दर्शन सामान्यके अस्तित्वकी सिद्धि ध.७/२,१.१६/पृष्ठ/पंक्ति ण दंसणमस्थि विसयाभावादो। ण वज्जत्थसामण्णग्गहणं दंसणं, केवलदसणस्साभावप्पसंगादो। कुदो। केवलणाणेण तिकालगोयराणं तत्थवेंजणपज्जयसरूवस्स सव्वदम्वेसु अवगएसु केवलदसणस्स विसयाभावा (६६।८) । ण चासेसविसेग्गाही केवलणाणं जेण सयलत्थसामण्णं केवलदंसणस्स विसओ होज्ज । (६७।१) तम्हा ण दंसणमत्थि त्ति सिद्ध (६७१०) । ___एत्थ परिहारो उच्चदे-अस्थि दसणं, अट्ठकम्मणिदेसादो ।...ण चासते आवरणिज्जे आवयरमत्थि, अण्णत्थतहाणुवलं भादो ।...ण चावरणिज्जं णत्थि, चवखुदसणी अचवखूदंसणी ओहिदंसणी खवोसमियाए, केवलदंसणी खइयाए लद्धीए त्ति तद स्थिपटुप्पायणजिणक्यणदंसणादो -(१)। एओ मे सस्सदो अप्पा णाणदसण लक्वणो ।१६। इच्चादि उवसंहारसुत्तदंसणादो च (६८१०)। आगमपमाणेण होदु णाम दंसणस्स अत्थितं, ण जुत्तीए च । ण, जुत्ती हि आमस्स बाहाभावादो। आगमेण वि जच्चा जुत्ती ण बाहिज्ज तिचे। सच्चं ण बाहिज्जदि जच्चा जुत्ती, कितु इमा बाहिज्जदि जच्चदाभावादो। तं जहा-ण णाणेण विसेसो चेव घेप्पदि सामण्णविसेसप्पयत्तणेण पत्तजच्चतरदव्युवलंभादो (६८११०)। ___ण च एवं संते दंसणस्स अभावो, वज्झत्थे मोत्तूण तस्स अंतरंगत्थे बाबारादो। ण च केवलणाणमेव सत्तिदुवसंजुत्तत्तादो बहिरंतरंगत्थपरिच्छेदयं,' तम्हा अंतरंगोबजोगादो बहिरंगुवजोगेण पुधभूदेण होदव्वमण्णहा सव्वण्हुत्ताणुववत्तीदो। अंतरंग बहिरंगुवजोगसण्णिददुसत्तीजुत्तो अप्पा इच्छिदव्यो। 'जं सामण्णं गहणं...' ण च एदेण सुत्तेणेदं वक्रवाणं विरुज्झदे, अप्पत्थम्मि पउत्तसामण्णसद्दग्गणादो (६६७) होदु णाम सामण्णेण दसणस्स सिद्धी, केवलदसणस्स सिद्धीच, ण सेस दंसणाणं ।(१००१६)। -प्रश्न-दर्शन है ही नहीं, क्योंकि, उसका कोई विषय नहीं है। बाह्य पदार्थों के सामान्यको ग्रहण करना दर्शन नहीं हो सक्ता, क्योंकि वैसा माननेपर केवलदर्शनके अभावका प्रसंग आ जायेगा। इसका कारण यह है कि जब केवलज्ञानके द्वारा त्रिकाल गोचर अनन्त अर्थ और व्यंजन पर्याय स्वरूप समस्त द्रव्योंको जान लिया जाता है, तब केवल दर्शनके ( जाननेके ) लिए कोई विषय ही ( शेष ) नहीं रहता । यह भी नहीं हो सकता कि समस्त विशेषमात्रका ग्रहण करनेवाला ही केवलज्ञान हो, जिससे कि समस्त पदाथोंका सामान्य धर्म दशनका विषय हो जाये (क्यों कि इसका पहले ही निराकरण कर दिया गया-दे० दर्शन/२/३) इसलिए दर्शनकी कोई पृथक् सत्ता है ही नहीं यह सिद्ध हुआ ! उत्तर-१. अब यहाँ उक्त शंकाका परिहार करते हैं । दर्शन है, क्योंकि सूत्रमें आठकोंका निर्देश किया गया है। आवरणीयके अभाव में आवरण हो नही सक्ता, क्योकि अन्यत्र वैसा ४. सामान्य विशेषात्मक आत्मा केवल सामान्य कैसे कहा जा सकता है क. पा. १/१-२०/६ ३२६/६६०/४ सामगविसेसप्पओ जीवो कधं सामण्णं । ण असेसत्थपयासभावेण रायदोसाणमभावेण य तस्स समाणत्तदंसणादो । प्रश्न-जीव सामान्य विशेषात्मक है, वह केवल सामान्य कैसे हो सकता है । उत्तर-१. क्योंकि जीव समस्त पदार्थोंको बिना किसी भेद-भावके जानता है और उसमें राग-द्वेषका अभाव है, इसलिए जीवमें समानता देखी जाती है। (ध. १२/५,५, ८५/३५५/१)। द्र. सं./टो./४४/१६१/८ आत्मा बस्तुपरिच्छित्ति कुर्वन्निदं जानामौदं न जानामीति विशेषपक्षपात न करोति; किन्तु सामान्येन वस्तु परिछिनत्ति, तेन कारणेन सामान्यशब्देन आत्मा भण्यते। -वस्तुका ज्ञान करता हुआ जो आत्मा है वह 'मैं इसको जानता हूँ और 'इसको नहीं जानता हूँ', इस प्रकार विशेष पक्षपातको नहीं करता है किन्तु सामान्य रूपसे पदार्थको जानता है। इस कारण 'सामान्य' इस शब्दसे आत्मा कहा जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ४१२ ५. दर्शनोपयोगके भेदोंका निर्देश पाया नहीं जाता। (क पा.१/१-२०/६३२७/३५६/१) (और भी-दे० अगला शीर्षक)। २. आवरणीय है ही नहीं, सो बात भी नहीं है, 'चक्षुदर्शनी', अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी क्षायोपशमिक लब्धिसे और केवलदर्शनी क्षायिक लब्धिसे होते हैं (प.व.७/२,१/सूत्र ५७-५६/ १०२,१०३)। ऐसे आवरणीयके अस्तित्वका प्रतिपादन करनेवाले जिन भगवान्के वचन देखे जाते हैं। तथा-'ज्ञान और दर्शन लक्षणवाला मेरा एक आत्मा ही शाश्वत है' इस प्रकारके अनेक उपसंहारसूत्र देखनेसे भी यही सिद्ध होता है, कि दर्शन है। प्रश्न २-आगमप्रमाणसे भले ही दर्शनका अस्तित्व हो, किन्तु युक्तिसे तो दर्शनका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता ? उत्तर-होता है, क्योंकि युक्तियोंसे आगमको बाधा नहीं होती। प्रश्न-आगमसे भी तो उत्तम युक्तिकी बाधा नहीं होनी चाहिए। उत्तर-सचमुच ही आगमसे उत्तम युक्तिकी बाधा नहीं होती, किन्तु प्रस्तुत युक्तिकी बाधा अवश्य होती है, क्योंकि वह (ऊपर दी गयी युक्ति) उत्तम युक्ति नहीं है। ३. वह इस प्रकार है--ज्ञान द्वारा केवल विशेषका ग्रहण नहीं होता, क्योंकि सामान्य विशेषात्मक होनेसे ही द्रव्यका जात्यंतर स्वरूप पाया जाता है (विशेष दे० दर्शन/२/३,४)। ४. इस प्रकार आगम और युक्ति दोनों से दर्शनका अस्तित्व सिद्ध होनेपर उसका अभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि दर्शनका व्यापार बाह्य वस्तुको छोडकर अन्तरंग वस्तुमें होता है । (विशेष दे० दर्शन/२/२) । ३. यहाँ यह भी नही कह सकते कि केवलज्ञान ही दो शक्तियोंसे संयुक्त होनेके कारण, बहिरंग और अंतरंग दोनों वस्तुओका परिच्छेदक है (क्योंकि इसका निराकरण पहले ही कर दिया जा चुका है। (दे० दर्शन//९) । ६. इसलिए अन्तरंग उपयोगसे बहिरंग उपयोगको पृथक् ही होना चाहिए अन्यथा सर्वज्ञत्वकी उपपत्ति नहीं बनती। अतएव आत्माको अंतरंग उपयोग और बहिरंग उपयोग ऐसी दो शक्तियों से युक्त मानना अभीष्ट सिद्ध होता है (विशेष दे० दर्शन/२/६ )। ७. ऐसा माननेपर 'वस्तुसामान्यका ग्राहक दर्शन है' इस सूत्रसे प्रस्तुत व्याख्यान विरुद्ध भी नहीं पड़ता है, क्योकि उक्त सूत्रमै 'सामान्य' शब्दका प्रयोग आत्म पदार्थ के लिए हो किया गया है (विशेष दे० दर्शन/४/२-४)। प्रश्न-इस प्रकारसे सामान्यसे दर्शनकी सिद्धि और केवलदर्शनकी सिद्धि भले हो जाये, 'किन्तु उससे शेष दर्शनोकी सिद्धि नहीं होती, क्योंकि ( सूत्रवचनों में उनकी प्रारूपणा बाह्यार्थ विषयक रूपसे की गयी है)। उत्तर-(अन्य दर्शनोंकी सिद्धि भी अवश्य होती है, क्योंकि वहाँ की गयी बाह्या र्थाश्रित प्ररूपणा भी वास्तव में अन्तरंग विषयको ही बताती है - दे० दर्शन/१/३)। विणासणकारणादो। बहिरं गत्थगहणाभावो वि ततो चेव होदि त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, दसणाभावेण तविणासादो। किमट्ठ दसणाभावेण णाणाभावो । णिहाए विणासिद बज्झत्थगहणजणणसत्तित्तादो । ण च तज्जणणसत्ती णाणं, तिस्से दसणप्पयजीवत्तादो। प्रश्न-ये पाँचों (निद्रादि ) प्रकृतियाँ बहिरंग और अंतरंग दोनों ही प्रकारके अर्थके ग्रहण में बाधक है, इसलिए इनकी दर्शनावरण संज्ञा कैसे हो सकती है, क्योंकि दोनोंको आवरण करनेवालोंको एकका आवरण करनेवाला मानने में विरोध आता है। उत्तर-नही, ये पाँचों ही प्रकृतियाँ दर्शनावरणीय ही हैं, क्योंकि वे स्वसंवदेनका विनाश करती हैं (ध.२/११/६/१) प्रश्न-बहिरंग अर्थ के ग्रहणका अभाव भी तो उन्हीसे होता है ? उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उसका विनाश दर्शनके अभावसे होता है। प्रश्न-दर्शनका अभाव होनेसे ज्ञानका अभाव क्यों होता है । उत्तर-कारण कि निद्रा बाह्य अर्थके ग्रहणको उत्पन्न करनेवाली शक्ति (प्रयत्न विशेष) की विनाशक है। और यह शक्ति ज्ञान तो हो नहीं सकती, क्योंकि, वह दर्शनात्मक जीव स्वरूप है (दे० दर्शन/१/३/३)। ७. सामान्य ग्रहण व आत्मग्रहणका समन्वय द्र, सं./टी./४४/१९२/२ किं बहुना यदि कोऽपि तार्थ सिद्धार्थ च ज्ञात्वैकान्तदुराग्रहत्यागेन नय विभागेन मध्यस्थवृत्त्या व्याख्यान करोति, तदा द्वयमपि घटत इति । कथमिति चेत्-तर्के मुख्यवृत्त्या परसमयव्याख्यान, तत्र यदा कोऽपि परसमयी पृच्छति जैनागमे दर्शनं ज्ञानं चेति गुणद्वयं जीवस्य कथ्यते तत्कथं घटत इति। तदा तेषामात्मग्राहकं दर्शनमिति कथिते सति ते न जानन्ति । पश्चादाचार्यैस्तेषां प्रतीत्यर्थं स्थूलव्याख्यानेन बहिर्विषये यत्सामान्यपरिच्छेदनं तस्य सत्तावलोकनदर्शनसज्ञा स्थापिता, यच्च शुक्ल मिदमित्यादिविशेषपरिच्छेदनं तस्य ज्ञानसंज्ञा स्थापितेति दोषो नास्ति। सिद्धान्ते पुनः स्वसमयव्याख्यानं मुख्यवृत्त्या। तत्र सूक्ष्मव्याख्यानं क्रियमाणे सत्याचारात्मग्राहकं दर्शनं व्याख्यातमित्यत्रापि दोषो नास्ति । = अधिक कहनेसे क्या-यदि कोई भी तर्क और सिद्धान्तके अर्थ को जानकर, एकान्त दुराग्रहको त्याग करके, नयोंके विभागसे मध्यस्थता धारण करके, व्याख्यान करता है तब तो सामान्य और आत्मा ये दोनों ही घटित होते है। सो कैसे ?-तर्कमें मुख्यतासे अन्यमतको दृष्टिमे रखकर कथन किया जाता है। इसलिए उसमें यदि कोई अन्यमतावलम्बी पूछे कि जैन सिद्धान्तमें जीवके 'दर्शन और ज्ञान' ये जो दो गुण कहे जाते है, वे कैसे घटित होते हैं ! तब इसके उत्तरमें यदि उसे कहा जाय कि 'आत्मग्राहक दर्शन है' तो वह समझेगा नहीं। तन आचार्योंने उनको प्रतीति करनेके लिए विस्तृत व्याख्यानसे 'जो बाह्य विषयमें सामान्य जानना है उसका नाम 'दर्शन' स्थापित किया और जो 'यह सफेद है' इत्यादि रूपसे बाह्य में विशेषका जानना है उसका नाम 'ज्ञान' ठहराया, अतः दोष नहीं है। सिद्धान्तमें मुख्यतासे निजसमयका व्याख्यान होता है, इसलिए सिद्धान्तमें जब सूक्ष्म व्याख्यान किया गया तब आचार्योने 'आत्मग्राहक दर्शन है' ऐसा कहा । अतः इसमें भी दोष नहीं है। ५. दर्शनोपयोगके भेदोंका निर्दश १. दर्शनके भेदों के नाम निर्देश ष. वं. १३१, १/सूत्र १३१/३७८ दंसणाणुवादेण अस्थि चवखुदंसणी अचबखुदंसणी अोधिदसणी केवलदंसणी चेदि। -दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन धारण करनेवाले जीव होते हैं। (पं. का /मू./४२), (नि. सा./मू.१३/१४ ) स. सि./२/६/१६३/६ ), (रा. वा./२/६/३/१२४/१), (द्र. सं /टी./१३/३८/४), (प.प्र./२/३४/१५५४२) ६. दर्शनावरण प्रकृति भी स्वरूपसंवेदनको घातती है व.६/१,६-१,१६/३२/६ कधमेदेसि पंचण्हं दसणावरणववएसो। ण, चेयणमवहरंतस्स सव्वदं सणविरोहिणो दसणावरणत्तपडिविरोहाभावा । कि दर्शनम् ' ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनं आत्मविषयोपयोग इत्यर्थः।- प्रश्न-इन पाँचो निद्राओंको दर्शनावरण संज्ञा कैसे है । उत्तर-नहीं, क्योंकि, आत्माके चेतन गुणको अपहरण करनेवाले और सर्वदर्शनके विरोधी कर्म के दर्शनावरणत्वके प्रति कोई विरोध नहीं है। - प्रश्न-दर्शन किसे कहते हैं । उत्तर-ज्ञानको उत्पादन करनेवाले प्रयत्नसे संबद्ध स्व-संवदेन अर्थात् आत्म विषयक उपयोगको दर्शन कहते हैं। ध.७/५१,८५/३५५/२ एदासिं पंचण्णपयडीणं अहिरंतरंगत्थगहणपडिकूलाणं कधं दंसणावरणसण्णा दोण्णमावारयाणमेगावारयतविरोहादो। ण, एदाओ पंच वि पयडोओ दंसणावरणीयं चेव, सगसंवेयण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ४१३ ५. दर्शनोपयोगके भेदोका निर्देश २. चक्षु आदि दर्शनों के लक्षण पं.सं./१/१३६-१४१ चक्खूणाजं पयासइ दीसइ त चरखुदं सणं विति । से सिदियप्पयासो णायव्वो सो अचवखु त्ति ॥१३६॥ परमाणुआदियाइ अंतिमरखध ति मुत्तदव्वाइ। तं ओहिसणं पुण जं पस्सइ ताई पच्चक्रवं ॥१४०॥ बहुविह बहुप्पयारा उज्जोवा परिवियम्हि खेतम्हि । लोयालोयवितिमिरो सो केवल दंसणुज्जोवो ॥१४१॥ - चक्षु इन्द्रियके द्वारा जो पदार्थका सामान्य अंश प्रकाशित होता है, अथवा दिखाई देता है, उसे चक्षुदर्शन कहते है। शेष चार इन्द्रियोसे और मनसे जो सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए ॥ १३६॥ सवलघु परमाणुसे आदि लेकर सर्वमहान् अन्तिम स्कन्ध तक जितने मूर्तद्रव्य हैं, उन्हे जो प्रत्यक्ष देखता है, उसे अवधिदर्शन कहते है ॥१४०॥ बहुत जातिके और बहुत प्रकारके चन्द्र सूर्य आदिके उद्योत तो परिमित क्षेत्रमे ही पाये जाते हैं। अर्थात वे थोड़ेसे ही पदार्थों को अल्प परिमाण प्रकाशित करते हैं। किन्तु जो केवल दर्शन उद्योत है, वह लोकको और अलोकको भी प्रकाशित करता है, अर्थात् सर्व चराचर जगत्को स्पष्ट देखता है ।१४१॥ (ध.१/१,१,१३१/ गा १६५-१९७/३८२), (ध ७/५.६.५६/गा.२०-२१/१००), (गो. जी./ मू./४८४-४८६/८८६) । पं. का./त. प्र./४२ तदावरणक्षयोपशमाञ्चक्षुरिन्द्रियवलम्श्रान्च मूर्त्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तच्चक्षुर्दर्शनम् । यत्तदाबरणक्षयोपशमाच्चक्षुवजितेतरचतुरिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदचक्षुर्दशनम् । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदवधिदर्शनम् । यत्सकलावरणात्यन्तक्षये केवल एक मूर्त्तामूलद्रव्यं सकलं सामान्येनावबुध्यते तरस्वाभाविक केवलदर्शन मिति स्वरूपाभिधानम्। - अपने आवरणके क्षयोपशमसे और चश्चइन्द्रियके आलम्बनसे मूर्त द्रव्यको विकल रूप से ( एकदेश ) जो सामान्यतः अवबोध करता है वह चक्षुदर्शन है। उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे तथा चक्षुसे अतिरिक्त शेप चार इन्द्रियों और मनके अवलम्बनसे मूर्त अमूर्त द्रव्योंको विकल रूपसे ( एकदेश ) जो सामान्यत' अवबोध करता है, वह अचक्षुदर्शन है। उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे ही (बिना किसी इन्द्रियके अवलम्बनके ) मूर्त द्रव्यको विकलरूपसे ( एक्देश ) जो सामान्यतः अवबोधन करता है, वह अवधिदर्शन है। समस्त आवरण के अत्यंत क्षयसे केवल (आत्मा) ही मूर्त अमूर्त द्रव्यको सकलरूपसे जो सामान्यतः अवबोध करता है वह स्वाभाविक केवलदर्शन है। इस प्रकार ( दर्शनोपयोगोके भेदोंका) स्वरूपकथन है। (नि. सा./ता, वृ./१३, १४); (द्र. सं./टी /४/१३/६ ) । ३. बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा परमार्थसे अन्तरंग विषयको ही बताती है परमाण्वादिकानि आ पश्चिमस्कन्धादिति मूर्तिद्रव्याणि यस्मात पश्यति जानीते तानि साक्षात् तत् अवधिदर्शन मिति द्रष्टव्यम् । परमाणुमादि कादूण जाव पच्छिमखंधो त्ति द्विदपोग्गलदव्याणमवगमादो पचक्रवादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीविसयउवजोगो ओहिणाणुप्पत्ति णि मित्तो तं ओहिदंसण मिदि घेतव्य । अण्णहा णाणदसणाणं भेदाभावादो। -प्रश्न-इन सूत्रवचनों मे (दे० पहिलेवाला शीक नं०२) दर्शनकी प्ररूपणा बाह्यार्थ विषयक रूपसे की गयी है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, तुमने इन गाथाओका परमार्थ नहीं समझा। प्रश्न-वह परमार्थ कौन-सा है ? उत्तर-कहते है---१. ( गाथाके पूर्वार्ध का इस प्रकार है) जो चक्षुओको प्रकाशित होता अर्थात् दिखता है, अथवा ऑख द्वारा देखा जाता है. वह चक्षुदर्शन है'-इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि चक्षु इन्द्रियज्ञान से जो पूर्व ही सामान्य स्वशक्तिका अनुभव होता है, जो कि चक्षु ज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्तरूप है, वह चक्षुदर्शन है। प्रश्न--गाथाका गला न घोंटकर सीधा अर्थ क्यो नहीं करते। उत्तर नही करते, क्योकि वैसा करनेसे पूर्वोक्त समस्त दोषो का प्रसग आता है। २- गाथाके उत्तरार्ध का अर्थ इस प्रकार है- 'जो देखा गया है, अर्थात जो पदार्थ शेष इन्द्रियों के द्वारा जाना गया है उससे जो ज्ञान होता है, उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए। ( इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि- ) चक्षु इन्द्रियको छोडकर शेष इन्द्रियज्ञानोकी उत्पत्तिसे पूर्व ही अपने विषयमें प्रतिबद्ध स्वशक्तिका, अचक्षुज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत जो सामान्यसे संवेदन या अनुभव होता है, वह अचक्षुदर्शन है। ३-द्वितीय गाथाका अर्थ इस प्रकार है--- 'परमाणुसे लगाकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त जितने मूर्त द्रव्य है, उन्हें जिसके द्वारा साक्षात देखता है या जानता है, बह अवधिदर्शन है।' इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए, कि-परमाणुसे लेकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त जो पुद्गलद्रव्य स्थित है, उनके प्रत्यक्ष ज्ञानसे पूर्व ही जो अवधिज्ञानकी उत्पत्तिका निमित्तभूत स्वशक्ति विषयक उपयोग होता है, वही अवधिदर्शन है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा ज्ञान और दर्शनमें कोई भेद नहीं रहता। (ध.६/१,६-१, १६/३३/२); (ध. १३/५, ५, ८५/३५५/७ ) । ४. बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणाका कारण ध.७/२, १, ५६/१००/१२ इदि बज्झत्यविसयदंसणपरूवणादो। ण एदाणं गाहाणं परमत्थात्थाणुत्रगमादो। को सो परमत्थत्थो। वुच्चदे-यत् चक्षुषां प्रकाशते चक्षुषा दृश्यते वा तव चक्षुदर्शन मिति नवते। चक्विदियणाणादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए सामण्णए अणुहओ चक्रबुणाणुप्पत्ति णिमित्तो तं चवखुर्दसणमिदि उत्तं होदि। गाहाए जलभजणमकाऊण उज्जुवत्थो किण्ण घेप्पदि। ण, तत्थ पुवुत्तासेसदोसप्पसंगादो। शेषेन्द्रियैः प्रतिपन्नस्यार्थस्य यस्मात् अवगमनं ज्ञातव्यं तत् अचक्षुर्दशनमिति। सेसिदियणाणुप्पत्तीदो जो पुवमेव सुवसत्तीए अप्पणो विसयम्मि पडिबद्धाए सामण्णेण संवेदो अचखुणाणुप्पत्तिणिमित्तो तमचक्खुदंसणमिदि उत्तं होदि । ध.१५/8/११ पुव्वं सव्वं पिसणमझत्थ विमय मिदि पर विद, संपहि चयखुर्दसणस्स बज्झत्थविसत्तं परू विदं ति णेदं घडदे, पुब्वावरविरोहादो। ण एस दोसो, एवं विहेसु बज्झत्थेसु पडिबद्धसगसत्तिसंवेयणं चवखुदंसणं ति जाणावण?' बज्झत्थविसयपरूबणाकरणादो। = प्रश्न १-सभी दर्शन अध्यात्म अर्थको विषय करनेवाले हैं, ऐसी प्ररूपणा पहिले की जा चुकी है। किन्तु इस समय बाह्यार्थको चक्षुदर्शनका विषय कहा है, इस प्रकार यह कथन संगत नहीं है, क्योंकि इससे पूर्वापर विरोध होता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस प्रकारके बाह्यार्थ में प्रतिबद्ध आरम शक्तिका संवेदन करनेको चक्षुदर्शन कहा जाता है, यह बतलानेके लिए उपर्युक्त बाह्यार्थ विषयताकी प्ररूपणा की गई है। ध.७/२,१,५६/१०१/४ कधमंतरंगाए चक्रिख दियविसयपडिबद्धाए सत्तीए चक्खि दियस्स पउत्ती। ण अंतरंगे बहिर गत्थोवयारेण बालजणबोहणठं चक्खूणं च दिस्सदि तं चक्रवदं सणमिदि परूवणादो।प्रश्न २-उस चक्षु इन्द्रियसे प्रतिबद्ध अन्तरंग शक्तिमें चक्षु इन्द्रियकी प्रवृत्ति कैसे हो सकती है । उत्तर-नहीं, यथार्थ मे तो चक्षु इन्द्रियकी अन्तर गमें ही प्रवृत्ति होती है, किन्तु वालक जनो के ज्ञान करानेके लिए अन्तरंगमें बाह्यार्थ के उपचारसे 'चक्षुओको जो दिखता है, वही चक्षुदर्शन है, ऐसा प्ररूपण किया गया है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन क. पा. २/१-२०/१३५२/२२०/२ हवि विसयमिदि णासंकणिज्जं देसादो अण्णेण पयारेण कथमिसादो दंसणमंतर गरमविसयणिद्द सदुवारेण विसयिणिअंतरं गवियणिरूपणा प्रश्न ३- इसमें पूर्वोक्त अवधिदर्शनको व्याख्याने) दर्शनका विषय बाह्य पदार्थ बतलाया है, अतः दर्शन अन्तरग पदार्थको विषय करता है, यह कहना ठीक नहीं है ? उत्तर - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि गाथामें विषयके निर्देश द्वारा विषयीका निर्देश किया गया है। क्योंकि अन्तरंग विषयका निरूपण अन्य प्रकारसे किया नहीं जा सकता है। ४१४ ५. दर्शन सिद्धि न घ. १/१,१.१३१/३७६/१ अथ स्याद्विषयविषयिसं पातसमनन्तरमाद्यग्रहणं अनग्रहः । न तेन बाह्यार्थ गतविधिसामान्य परिचितस्यावस्तुनः कर्माभावा । तस्माद्विधिनिषेधात्मकबाह्माणमवग्रह स दर्शन सामान्यग्रहणस्य दर्शनव्यपदेशात् । ततो न चक्षुर्दर्शनमिति । अत्र प्रतिविधीयते, नेते दोषाः दर्शनमा तस्यान्तरार्थ विषयत्वात् । ... सामान्यविशेषात्मकस्यात्मनः सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात् तस्य कथं सामान्यतेति चेदुच्यते चक्षुरिन्द्रियक्षयोप शमो हि नाम रूप एव नियमितस्ततो रूपविशिष्टस्यैवार्थग्रहणस्योपलम्भात । तत्रापि रूपसामान्य एव नियमितस्ततो नीलादिष्वेकरूपेणैव विशिष्टवत्यनुपलम्भाय तस्माचक्षुरिन्द्रियक्षयोपशम रूपविशिष्टार्थं प्रति समानः बारमव्यतिरिक्तक्षयोपशमामावादात्मापि तद्वारेण समान तस्य भावः सामान्यं तदर्शनस्य विषय इति स्थितम्। । " अथ स्याच्चक्षुषा यत्प्रकाशते तद्दर्शनम् । न चात्मा चक्षुषा प्रकाशते तथानुपलम्भात् । प्रकाशते च रूपसामान्यविशेषविशिष्टार्थः । न स दर्शनमर्थस्योपयोगरूपत्वविरोधात न तस्योपयोगोऽपि दर्शनं तस्य ततो न दर्शनमिति न चतुर्दर्शनावरणीयस्य कर्मणोऽस्तित्वान्यथानुपपत्तेराधार्याभावे आधारकस्याप्यभावात् । तस्माच्चदर्शनमन्यमित्य कर्तव्यम्। प्रश्न १विषय और विषयीके योग्य सम्बन्धके अनन्तर प्रथम ग्रहणको जो अवग्रह कहा है। सो उस अवग्रहके द्वारा बाह्य अर्थ में रहनेवाले विधिसामान्यका ज्ञान तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, बाह्य अर्थ में रहनेवाला विधि सामान्य अवस्तु है । इसलिए वह कर्म अर्थात् ज्ञानका विषय नहीं हो सकता है। इसलिए विधिनिषेधात्मक बाह्यपदार्थको अवग्रह मानना चाहिए। परन्तु वह अवग्रह दर्शनरूप तो हो नहीं सकता, क्योंकि जो सामान्यको ग्रहण करता है उसे दर्शन कहा है। (दे० दर्शन / १/३/२) अतः चतुदर्शन नहीं बनता है? उत्तर- ऊपर दिये गये ये सब दोष ( दर्शनको नहीं प्राप्त होते है, क्योंकि वह अन्तरंग पदार्थको विषय करता है। और अन्तरंग पदार्थ भी सामान्य विशेषात्मक होता है ।... (दे० दर्शन / २ / ४) । और वह उस सामान्य विशेषात्मक आत्माका ही 'सामान्य' शब्दके वाच्यरूपमें ग्रहण किया है। प्रश्न २ – उस (आत्मा) को सामान्यपना कैसे है ? उत्तर - चक्षुइन्द्रियावरणका क्षयोपशम रूपमें ही नियमित है । इसलिए उससे रूपविशिष्ट ही पदार्थ का ग्रहण पाया जाता है। वहॉपर भी चक्षुदर्शन में रूपसामान्य ही नियमित है, इसलिए उससे नीलादिकमें किसी एक रूपके द्वारा ही विशिष्ट वस्तुकी उपलब्धि नहीं होती है अतावरणका क्षयोपशम रूपविशिष्ट अर्थके प्रति समान हैं। आत्माको छोडकर क्षयोपशम पाया नहीं जाता है, इसलिए आत्मा भी सयोपशमी अपेक्षा समान है। उस समानके भावको सामान्य बढ़ते हैं। यह दर्शनका विषय है। प्रश्न ५. दर्शनोपको के भेदोका निर्देश इन्द्रियसे जो प्रकाशित होता है उसे दर्शन कहते हैं परन्तु आत्मा तो चक्षु इन्द्रियसे प्रकाशित होता नहीं है, क्योंकि, चक्षु इन्द्रियसे आत्माकी उपलब्धि होती हुई नहीं देखी जाती है। ४. चक्षु इन्द्रियसे रूप सामान्य और रूपविशेष से युक्त पदार्थ प्रकाशित होता है परन्तु पदार्थ तो उपयोगरूप हो नहीं सकता.. योंकि, पार्थको उपयोगरूप माननेमें विरोध जाता है। ५. पार्थका उपयोग भी दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि उपयोग ज्ञानरूप पड़ता है। इसलिए सुदर्शनका अस्तित्व नहीं बनता है। उत्तरनहीं, क्योंकि यदि चदर्शन नहीं हो तो क्षुदर्शनावरण कर्म नहीं बन सकता है, क्योंकि, आघार्यके अभाव में आधारकका भी अभाव हो जाता है । इसलिए अन्तरंग पदार्थको विषय करनेवाला चक्षुदर्शन है, यह बात स्वीकार कर लेना चाहिए। ६. की स्मृतिका नाम अदर्शन नहीं है। - घ- १/१.१.१३१/३८३/८- दृष्टान्तस्मरममचर्यमिति केचिदाचते तत्र घटते एकेन्द्रियेषु चक्षुरभावतोऽदर्श मत्या भागासंजमनात दृश्शद उपवाचकइति चेत्र उपविषयस्मृतेर्व समरको क्रियमाणे मनसो निर्विषयतापत्तेः । ततः स्वरूपसं वेदनं दर्शनमित्यङ्गीकर्तव्यम् । - दृष्टान्त अर्थात् देखे हुए पदार्थका स्मरण करना अपनुदर्शन है. इस प्रकार कितने ही पुरुष कहते हैं, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा माननेपर एकेन्द्रियजीवों में इन्द्रियका अभाव होनेसे (पदार्थको पहिले देखना हो असम्भव होनेके कारण ) उनके अचक्षुदर्शनके अभावका प्रसंग आ जायगा । प्रश्न- दृष्टान्तमें 'दृष्ट' शब्द उपलम्भवाचक ग्रहण करना चाहिए ? उत्तर--नहीं, क्योंकि उपलब्ध पदार्थको विषय करनेवाली स्मृतिको दर्शन स्वीकार कर लेनेवर मनको विषय रहितपनेकी आपत्ति आ जाती है। इसलिए स्वरूप संवेदन (अचक्षु) दर्शन है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए । ७. पाँच दर्शनोंके लिए एक अचक्षुदर्शन नाम क्यों २.१५/१०/२ पंच समाणमचव सममिदि एगदि सो मिट्ठ दो पिचासी अस्थि त्ति जाणायण कहो। कथं तेसि पच्चासत्ती । विसईदो पृथभ्रदस्स अक्कमेण सग-परपञ्चनखस्स चवरदंसण विसयस्सेव तेसि विसयस्स परेसिं जाणावणोवायाभावं पडि समागतादो प्रश्न- (चक्षुद्र से अतिरिक्त चार इन्द्रिय व मन विषयक) पाँच दर्शनों के लिए अदर्शन ऐसा एक निर्देश किस लिए किया (अर्थात इनका भी रसना दर्शन आदि रूपसे पृथक-पृथक व्यपदेश क्यों न किया ) 1 उत्तर- उनकी परस्परमें प्रत्यासति है, इस बातके जतलाने के लिए बैसा निर्देश किया गया है। प्रश्न- उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति कैसे है ? उत्तर--विषयीसे पृथग्भूत अतएव युगपत् स्व और परको प्रत्यक्ष होनेवाले ऐसे चक्षुदर्शनके विषय के समान उन पाँचों दर्शनों के विषयका दूसरोंके लिए ज्ञान करानेका कोई उपाय नहीं है। इसकी समानता पाँचों हो दर्शनोंमें है। यही उनमें प्रत्यासति है। ८. केवल ज्ञान व दर्शन दोनों कथंचित् एक हैं क. पा. १/१-२० / गा. १४३ / ३५७ मणपज्जवणाणतो णाणस्स य दंसणस्स य विसेसो । केवलियं गाणं पुण णाणं त्ति य दंसणं त्तिय समाणं | १४३ - मन:पर्ययज्ञानपर्यन्त ज्ञान और दर्शन इन दोनों विशेष अर्थात् भेद है, परन्तु केवलज्ञानकी अपेक्षासे तो ज्ञान और दर्शन दोनों समान है। नोट- यद्यपि अगले शीर्षक नं०ह के अनुसार इनकी एकताको स्वीकार नहीं किया जाता है और उपरोक्त गाथाका भी खण्डन किया गया है, परन्तु ध./१ में इसी बात की पुष्टि की है । यथा - ) | ( ध. ६/३४/२) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ४१५ ६. श्रुतविभंग व मनःपर्ययके दर्शन सम्बन्धी ध.१/१,१,१३५/३८५/६ अनन्तत्रिकालगोचरबाह्येऽथें प्रवृत्तं केवलज्ञानं (स्वतोऽभिन्नवस्तुपरिच्छेदकं च दर्शनमिति ) कथमनयोः समानतेति चेत्कथ्यते । ज्ञानप्रमाणमात्मा ज्ञानं च त्रिकालगोचरानन्तद्रव्यपर्यायपरिमाणं ततो ज्ञानदर्शनयोः समानत्वमिति। -प्रश्न-त्रिकालगोचर अनन्त बाह्यपदार्थों में प्रवृत्ति करनेवाला ज्ञान है और स्वरूप मात्रमें प्रवृत्ति करनेवाला दर्शन है, इसलिए इन दोनों में समानता कैसे हो सकती है । उत्तर-आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान त्रिकालके विषयभूत द्रव्योकी अनन्त पर्यायोको जाननेवाला होनेसे तत्परिमाण है, इसलिए ज्ञान और दर्शनमें समानता है । (ध.७/२,१,५६/१०२/६) (ध.६/१,६-१,१७/३४/६) (और भी दे० दर्शन/२/७)। दे० दर्शन/२/८ (यद्यपि स्वकीय पर्यायोंकी अपेक्षा दर्शनका विषय ज्ञानसे अधिक है, फिर भी एक दूसरे की अपेक्षा करनेके कारण उनमें समामता बन जाती है)। आवरणकयस्स मइणाणस्सेव होउ णाम आवरणकयचक्रबुअचवखुओहिदसणाणमावरणाभावेण अभावो ण केवलदंसणस्स तस्स कम्म्मेण अजणिदत्तादो। ण कम्मणिदं केवलदंसणं, सगसरूवपयासेण विणा णिच्चेयणस्स जीवस्स णाणस्स वि अभावप्पसंगादो।-चू कि दर्शन मतिज्ञानके समान आवरणके निमित्तसे होता है, इसलिए आवरणके नष्ट हो जानेपर दर्शन नहीं रहता है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। इस विषयमें उपयुक्त गाथा इस प्रकार है-"जिस प्रकार ज्ञानावरणसे रहित जिनभगवान्में...इत्यादि'.. पर उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है, क्योकि जिस प्रकार मतिज्ञान आवरणका कार्य है, इसलिए अवरणके नष्ट हो जानेपर मतिज्ञानका अभाव हो जाता है। उसी प्रकार आवरणका अभाव होनेसे आवरणके कार्य चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शनका भी अभाव होता है तो होओ पर इससे केवल दर्शनका अभाव नहीं हो सकता है, क्योकि केवल दर्शन कर्म जनित नहीं है। उसे कर्मजनित मानना भी ठोक नहीं है, ऐसा माननेसे, दर्शनावरणका अभाव हो जानेसे भगवान्को केवलदर्शनकी उत्पत्ति नहीं होगी, और उसकी उत्पत्ति न होनेसे वे अपने स्वरूपको न जान सकेंगे, जिससे वे अचेतन हो जायेगे और ऐसी अवस्थामे उसके ज्ञानका भी अभाव प्राप्त होगा। १. केवलज्ञानसे मिन्न केवल दशनकी सिद्धि क. पा. १/१-२०/प्रकरण/पृष्ठ/पंक्ति जेण केवलणाणं सपरपयासयं, तेण केवलदंसप णत्थि त्ति के वि भणं ति। एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ"मणपज्जवणाणतो-"(8३२३४३५७/४)। एदं पि ण घडदे; केवलणाणस्स पज्जायस्स पज्जायाभावादो। ण पज्जायस्स पज्जाया अस्थि अणवत्थाभावप्पसंगादो । ण केवलणाणं जाणइ पस्सइ वा; तस्स कत्तारत्ताभावादो । तम्हा सपरप्पयासओ जीवो त्ति इच्छियव्वं । ण च दोण्डं पयासाणमेयत्तं; बज्झ तरंगत्थविसयाणं सायार-अणायारणमेन यत्त बिरोहादो। (१३२६/३५७/८) । केवलणाणादो केवलदसणमभिण्णमिदि केवलदसणस्स केवलणाणत्तं किण्ण होज्ज । ण एवं संते विसेसाभावेण णाणस्स वि दंसणप्पसंगादो (६३२७/३५८/४) । - प्रश्न-~कि केवलज्ञान स्व और पर दोनोंका प्रकाशक है, इसलिए केवल दर्शन नहीं है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। और इस विषयको उपयुक्त गाथा देते हैं-मनःपर्ययज्ञानपर्यन्त... (दे० दर्शन/५/८) उत्तरपरन्तु उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है। १. क्योंकि केवलज्ञानस्वयं पर्याय है, इसलिए उसकी दूसरी पर्याय नहीं हो सकती है। पर्यायकी पर्याय नहीं होती, क्योंकि, ऐसा माननेपर अनवस्था दोष आता है। (ध. ६/१,६-१,१७/३४/२)। (ध.७/२,१,५६//८)। २. केवलज्ञान स्वयं तो न जानता ही है और न देखता ही है, क्योंकि वह स्वयं जानने व देखनेका कर्ता नहीं है (आत्मा ही उसके द्वारा जानता है । इसलिए ज्ञानको अन्तरंग व बहिरंग दोनोंका प्रकाशक न मानकर जीव स्व व परका प्रकाशक है, ऐसा मानना चाहिए। (विशेष दे० दर्शन/२/६)। ३-केवल दर्शन व केवलज्ञान ये दोनों प्रकाश एक है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्य पदार्थोंको विषय करनेवाले साकार उपयोग और अन्तरंग पदार्थको विषय करनेवाले अनाकार उपयोगको एक माननेमें विरोध आता है। (ध. १,१,१३३/३८३/११); (ध. ७/२,१.६६/६8/R)1४. प्रश्न-केवलज्ञानसे केवलदर्शन अभिन्न है, इसलिए केवलदर्शन केवलज्ञान क्यों नहीं हो जाता ! उत्तर-नहीं, क्योंकि, ऐसा होनेपर ज्ञान और दर्शन इन दोनोंमें कोई विशेषता नहीं रहती है, इसलिए ज्ञानको भी दर्शनपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। (विशेष दे० दर्शन/२)। ६. श्रुत विभंग व मनःपर्ययके दर्शन सम्बन्धी १. श्रुतदर्शनके अमावमें युक्ति ध. १/१,१,१३३/३८४/५ श्रुतदर्शनं किमिति नोच्यते इति चेन्न, तस्य मतिपूर्वकस्य दर्शनपूर्वकत्वविरोधाव । यदि बहिरङ्गार्थसामान्यविषयं दर्शनमभविष्यत्तदा श्रुतज्ञानदर्शनमपि समभविष्यत् । -प्रश्नश्रुतदर्शन क्यों नहीं कहा ! उत्तर-१. नहीं, क्योंकि, मतिज्ञान पूर्वक होनेवाले श्रुतज्ञानको दर्शनपूर्वक माननेमें विरोध आता है। (ध. ३/ १,२,१६१/४५६/१०); (ध. १३/५,५,८५/३५६/२) (और भी दे० आगे दर्शन/६/४ ) २. दूसरे यदि बहिरंग पदार्थको सामान्य रूपसे विषय करनेवाला दर्शन होता तो श्रुतज्ञान सम्बन्धी दर्शन भी होता। परन्तु ऐसा नहीं ( अर्थात् श्रुत ज्ञानका व्यापार बाह्य पदार्थ है अन्तरंग नहीं, जब कि दर्शनका विषय अन्तरंग पदार्थ है) इसलिए श्रुतज्ञानके पहिले दर्शन नहीं होता। ध. ३/१,२,१६१/४५७/१ जदि सरूवसंवेदणं दसणं तो एदेसि पि दंसणस्स अस्थित्तं पसज्जदे चेन्न, उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् ।३. प्रश्न- यदिस्वरूपसंवेदन दर्शना है,तो इनदोनों (श्रूत व मनःपर्यय ) ज्ञानों के भी दर्शनके अस्तित्वकी प्राप्ति होती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, उत्तरज्ञानकी उत्पत्तिके निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदनको दर्शन माना गया है। ( यहाँ वह कार्य दर्शनकी अपेक्षा मतिज्ञानसे सिद्ध होता है। २. विमंग दर्शनके अस्तित्वका कथंचित् विधि निषेध १०. आवरण कर्मके अमावसे केवलदर्शनका अभाव नहीं होता क. पा. १/१-२०/8 ३२८-३२६/३५६/२ मइणाणं व जेण सणमावरणणि- बंधणं तेण वीणावरणिज्जे ण दंसण मिदि के वि भणं ति। एत्थुवउज्जंती गाहा-'भण्णइ वीणावरणे...(३२)। एदं पिण घडदे; दे. सत प्ररूपणा' (विभ गज्ञानीको अवधि दर्शन नहीं होता)। ध. १/१,१,१३४/३८५/१ विभङ्गदर्शनं किमिति पृथग नोपदिष्ठमिति चेन्न, तस्यावधिदशनेऽन्तर्भावात । विभड्ग दर्शनका पृथक रूपसे उपदेश क्यों नहीं किया। उत्तर-नहीं, क्योंकि उसका अवधि दर्शनमें अन्तर्भाव हो जाता है। (ध. १३/५,५,८५/३५६ । ध. १३/५,५,८५/३५६/४ तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्युक्तम्-अवधिविभंगयोरवधिदर्शनम्' इति । = ऐसा ही सिद्धिविनिश्चयमें भी कहा है, -'अवधिज्ञान व विभंगज्ञानके अवधिदर्शन ही होता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ४१६ ७. दर्शनोपयोग सम्बन्धी कुछ प्ररूपणाएँ ३ मनःपर्ययदर्शनके अमावमें युक्ति रा.वा./६/१० वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति-यथा अवधिज्ञानं दर्शनपूर्वक तथा मन:पर्ययज्ञानेनापि दर्शनपुरस्सरेण भवितव्यमिति चेत; तन्न; किं कारणम् । कारणाभावात् । न मन पर्ययदर्शनावस्णमस्ति । दर्शनावरणचतुष्टयोपदेशाद, तद्भावात तत्क्षयोपशमाभावे तन्निमित्तमन पर्ययदर्शनोपयोगाभावः । (११८/५१८/३२) । मनःपर्य यज्ञानं स्वविषये अवधिज्ञानवत न स्वमुखेन वर्तते। कथ' तहि । परकीयमन प्रणालिकथा। ततो यथा मनोऽतीतानागतार्थाश्चितयति न तु पश्यति तथा मन.पर्ययज्ञान्यपि भूतभविष्यन्तौ वेत्ति न पश्यति । वर्तमानमतिमनोविषयविशेषाकारेणैव प्रतिपद्यते, तत' सामान्यपूर्वकवृत्त्यभावात् मन.पर्ययदर्शनाभावः (६१६/५१६/३)।-प्रश्न-जिस प्रकार अवधिज्ञान दर्शन पूर्वक होता है, उसी प्रकार मन पर्ययज्ञानको भी दर्शन पूर्वक होना चाहिए। उत्तर-१. ऐसा नहीं है, क्योंकि, तहाँ कारणका अभाव है। मन पर्यय दर्शनावरण नहीं है, क्योंकि चक्षु आदि चार ही दर्शनावरणोंका उपदेश उपलब्ध है। और उसके अभावके कारण उसके क्षयोपशमका भी अभाव है, और उसके अभावमे तन्निमित्तक मन'पर्ययदर्शनोपयोगका भी अभाव है। २. मन पय यज्ञान अवधिज्ञानकी तरह स्वमुखसे विषयोंको नहीं जानता, किन्तु परकीय मनप्रणालीसे जानता है । अत. जिस प्रकार मन अतीत व अनागत अर्थोंका विचार चिन्तन तो करता है पर देखता नहीं, उसी तरह मन.पर्ययज्ञानी भी भूत और भविष्यतको जानता तो है. पर देखता नहीं । वह वर्तमान भी मनको विषयविशेषाकारसे जानता है, अतः सामान्यावलोकन पूर्वक प्रवृत्ति न होनेसे मनःपर्यय दर्शन नहीं बनता। घ. १/१,१,१३४/३८५/२ मनापर्ययदर्शन तहि वक्तव्यमिति चेन्न, मतिपूर्वकत्वात्तस्य दर्शनाभावात। - प्रश्न-मनापर्यय दर्शनको भिन्न रूपसे कहना चाहिए। उत्तर-३. नहीं, क्योंकि, मन पर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए मनःपर्यय दर्शन नहीं होता। (ध. ३/ १,२,१६१/४५६/१०); (घ १३/५,५,८५/३५६/५); (ध.६/१,६-१,१४/ २६/२); (ध.१/४,१,६/५३/३ ) । दे. ऊपर श्रुत दर्शन सम्बन्धी-(उत्तर ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारणभूत प्रयत्नरूप स्वसवेदनको दर्शन कहते हैं, परन्तु यहाँ उत्तर ज्ञानकी उत्पत्ति का कार्य मतिज्ञान ही सिद्ध कर देता है।) ४. मति ज्ञान ही श्रुत व मनःपर्ययका दर्शन है द्र.सं./टी./४४/१८८/६ श्रुतज्ञानमन पर्ययज्ञानजनक यदवग्रहेहादिरूपं मतिज्ञानं भणितम्, तदपि दर्शनपूर्वकत्वात्तदुपचारेण दर्शनं भण्यते, यतस्तेन कारणेन श्रुतज्ञानमनःपर्ययज्ञानद्वयमपि दर्शनपूर्वकं ज्ञातव्यमिति ।-यहाँ श्रुतज्ञानको उत्पन्न करनेवाला जो अवग्रह और मन:पर्ययज्ञानको उत्पन्न करनेवाला ईहारूप मतिज्ञान कहा है। वह मतिज्ञान भी दर्शनपूर्वक होता है इसलिए वह मतिज्ञान भी उपचारसे दर्शन कहलाता है। इस कारण श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इन दोनोंको भी दर्शन पूर्वक जानना चाहिए । दे दर्शन/३/२ ( वे वलदर्शनोपयोग भी तद्भवस्थ उपसर्ग केवलियोंकी अन्तर्मुहूर्त कालस्थायी है) नोट-( उपरोक्त अन्तर्मुहूर्तकाल दर्शनोपयोगकी अपेक्षा है और काल प्ररूपणामे दिये गये काल क्षयोपशम सामान्यकी अपेक्षासे है, अतः दोनों में विरोध नहीं है। २. लब्ध्यपर्याप्त दशामें चक्षदर्शनोपयोग संभव नहीं पर निवृत्त्यपर्याप्त दशामें संभव है ध १/१,३.६७/१२६/८ यदि एवं, तो लद्धिअपजत्ताणं पि चक्रबुदंसणित पसज्जदे । तं च णत्थि, चक्खुदंसणिअवहारकालस्स पदरंगुलस्स असंखेज दिभागमेत्तपमाणप्पसंगादो। ण एस दोसो, णिव्यत्तिअपज्जत्ताणं चवखुदंसणमत्थि; उत्तरकाले णिच्छएण चवखुदंसणोवजोगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचवखुदंसणखओवसमदंसणादो। चउरिदियचिदियलद्धिअपज्जनाणं चक्खुदंसणं णत्थि, तत्थ चक्खुदंसणोबोगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्रखुदंसणवखओवसमाभावादो।प्रश्न-यदि ऐसा है (अर्थात् अपर्याप्तककालमें भी क्षयोपशमकी अपेक्षा चक्षुदर्शन पाया जाता है) तो लब्ध्यपर्याप्तक जीर्वोमें भी चक्षुदर्शनीपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके चक्षुदर्शन होता नहीं है । यदि लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके भी चक्षुदर्शनोपयोगका सद्भाव माना जायेगा, तो चक्षुदर्शनी जीवोंके अवहारकालको प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागमात्र प्रमाणपनेका प्रसंग प्राप्त होता है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, निवृत्त्यपर्याप्त जीवोंके चक्षुदर्शन होता है। इसका कारण यह है, कि उत्तरकालमें, अर्थात अपर्याप्त काल समाप्त होनेके पश्चात् निश्चयसे चक्षुदर्शनोपयोगकी समुत्पत्तिका अविनाभावी चक्षुदर्शनका क्षयोपशम देखा जाता है। हाँ चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके चक्षुदर्शन नहीं होता, क्योंकि, उनमें चक्षुदर्शनोपयोगकी समुत्पत्तिका अविनाभावी चक्षुदर्शनावरणकर्म के क्षयोपशमका अभाव है। (ध.४/१,५,२७८/ ४५४/६)। 1. मिश्र व कार्माणकाययोगियों में चक्षदशनोपयोगका" अभाव पं. सं./प्रा /४/२७-२६ ओरालमिस्स-कम्मे मणपज्जविहंगचक्रोहीणा ते ॥२७॥ तम्मिस्से केबलदुग मणपज्जविहंगचक्खूणा ।२८। केवलदुयमणपज्जव-अण्णाणेतिएहि होंति ते ऊणा। आहारजुयलजोए...॥२६ =योगमार्गणाकी अपेक्षा औदारिक मिश्र व कार्माण काययोगमें मन:पर्ययज्ञान विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन तीन रहित ६ उपयोग होते है ।२६। वैक्रियक मिश्र काययोगमें केवल द्विक, मनःपर्पय, विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन पाँचको छोड़कर शेष ७ उपयोग होते हैं।२८। आहारक मिश्रकाय योगमें केवल द्विक, मन पर्ययज्ञान और अज्ञानत्रिक, इन छहको छोड़कर शेष छः उपयोग होते हैं (अर्थात आहारमिश्रमें चक्षुदर्शनोपयोग होता है)। ४. दर्शनमार्गणामें गुणस्थानोंका स्वामित्व ष, वं. १/१,१/सू. १३२-१३५/३८२-३८५ चक्रबुदसणी चउरिदियप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति ।१३३। अचक्रबुदंसणी एइंदियप्पहुडि जाव रखीणकसायवीयराय छदुमत्था त्ति ।१३३। ओधिदसणी असंजदसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव रवीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति ।१३४। केवलदसणी तिस ठाणेसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ।१३५।- चक्षुदर्शन उपयोगवाले जीव चतुरिन्द्रिय (मिथ्यादृष्टि) से लेकर ( संज्ञी पंचेन्द्रिय)क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं ।१३२॥ अचक्षुदर्शन उपयोगवाले जीव एकेन्द्रिय (मिथ्यादृष्टि ) से लेकर ( संज्ञी पंचेन्द्रिय) क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुण ७. दर्शनोपयोग सम्बन्धी कुछ प्ररूपणाएँ १. दर्शनोपयोग अन्तर्मुहूर्त अवस्थायी है ध. १३/१.५.२३/२१६/१३ ज्ञानोत्पत्ते' पूर्वावस्था विषयविषयिसंपात. ज्ञानोत्पादनकारणपरिणामविशेषसंतत्युत्पत्त्युपलक्षित' अन्तर्मुहूर्तकालः दर्शनव्यपदेशभाक् । ज्ञानोत्पत्तिकी पूर्वावस्था विषय व विषयीका सम्पात ( सम्बन्ध ) है, जो दर्शन नामसे कहा जाता है । यह दर्शन ज्ञानोत्पत्तिके कारणभूत परिणाम विशेषकी सन्ततिकी उत्पत्तिसे उपलक्षित होकर अन्तर्मुहूर्त कालस्थायी है।) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनकथा ४१७ दर्शनप्रतिमा स्थान तक होते है ।१३३॥ अवधिदर्शन वाले जीव (संज्ञी पंचेन्द्रिय ही) असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।१३४। केवल दर्शनके धारक जीव ( संज्ञी पंचेन्द्रिय व अनिन्द्रिय सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध इन तीन स्थानों में होते हैं ।१३५॥ दर्शनकथा-कवि भारामल (ई० १७५६ ) द्वारा हिन्दी भाषामें रचित कथा। दर्शनक्रिया-दे० क्रिया/३२१ दशेनपाहुड़-आ० कुन्दकुन्द (ई०१२७-१७६) कृतं सम्यग्दर्शन विषयक ३६ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध ग्रन्थ है। इस पर आ० श्रुतसागर ( ई० १४८१-१४६६) कृत संस्कृत टीका और प० जयचन्द छावड़ा (ई०१८००) कृत भाषा बचनिका उपलब्ध है। (तो./२/१९४), दर्शनप्रतिमा-श्रावककी ११ भूमिकाम-से पहलीका नाम दर्शन प्रतिमा है। इस भूमिकामें यद्यपि वह यमरूपसे १२ वप्तोंको धारण नहीं कर पाता पर अभ्यास रूपसे उनका पालन करता है । सम्यगदर्शनमें अत्यन्त दृढ हो जाता है और अष्टमूलगुण आदि भी निरतिचार पालने लगता है। १. दर्शन प्रतिमाका लक्षण १. संसार शरीर भोग से निर्विषण पंचगुरु भक्ति पा. सा./२/ दार्शनिकः संसारशरीरभोगनिर्विष्ण' पञ्चगुरुचरणभक्तः सम्यग्दर्शनविशुद्धश्च भवति। - दर्शन प्रतिमावाला संसार और शरीर भोगोंसे विरक्त पांचों परमेष्ठियोंके चरणकमलोंका भक्त रहता है और सम्यग्दर्श नसे विशुद्ध रहता है। २. संवेगादि सहित साष्टांग सम्यग्दृष्टि सुभाषितरत्नसन्दीह/८३३ शंकादिदोषनिर्मुक्त' संवेगादिगुणान्वितं । यो धत्ते दर्शनं सोऽत्र दर्शनी कथितो जिनः ॥३३॥ = जो पुरुष शंकादि दोषोंसे निर्दोष संवेगादि गुणोंसे संयुक्त सम्यग्दर्शनको धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि ( दर्शन प्रतिमावाला ) कहा गया है।८३३॥ २.दर्शन प्रतिमाधारीके गुण व व्रतादि १. निशि भोजनका त्यागी व. श्रा./३१४ एयारसेम पढम बि जदो णिसि भोयणं कुणतस्स। हाणं ठाइ तम्हा णिसि भुत्ति परिहरे णियमा ।३१४॥ -कि रात्रिको भोजन करनेवाले मनुष्यके ग्यारह प्रतिमाओंमें-से पहली भी प्रतिमा नहीं ठहरती है, इसलिए नियमसे रात्रि भोजनका परिहार करना चाहिए। (ला. सं./२/४५) । २. सप्त व्यसन व पंचुदंबर फलका त्यागी वसु. श्रा./२०५ पंचुंभरसहियाई परिहरेइ इय जो सत्त विसणाई। सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ ॥३०॥ = जो सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध बुद्धि जीव इन पांच उदुम्बर सहित सातों व्यसनोंका परित्याग करता है, वह प्रथम प्रतिमाधारी दर्शन श्रावक कहा गया है ॥२०॥ (वसु. श्रा./५६-५८) (गुणभद्र श्रा./११२) (गो.जी./जी, प्र/४७७/८८४ में उद्धृत) ३. मद्य मांसादिका त्यागी का. आ./पू./३२८-३२६ बहु-तस-समण्णिदं # मज्ज मंसादि णिदिदं दव्यं । जो ण य सेवदि णियद सो दंसण-साधी होदि ॥३२८॥ जो दिढचित्तो कीरदि एवं पि बयणियाणपरिहीणो। वेग्ग-भावियमणो सो वि य ईसण-गुणो होदि ॥३२६॥ बहुत सजीवोंसे युक्त मद्य, मांस आदि निन्दनीय बस्तुओंका जो नियमसे सेवन नहीं करता वह दार्शनिक श्रावक है ॥३२८॥ वैराग्यसे जिसका मन भीगा हुआ है ऐसा जो श्रावक अपने चित्तको दृढ करके तथा निदानको छोड़कर उक्त व्रतोंको पालता है वह दार्शनिक श्रावक है ॥३२॥ (का. अ./ मू./२०१)। ४. अष्टमूल गुणधारी, निष्प्रयोजन हिसाका त्यागी र. क. श्री./म./१३७ सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिर्षिण्णः । पञ्च गुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः । - जो संसार भोगोंसे विरक्त हो, जिसका सम्यग्दर्शन विशुद्ध अर्थात अतिचार रहित हो, जिसके पंचपरमेष्ठीके चरणोंकी शरण हो,तथा जोबतोंके मार्गमें भद्यत्यागादि आठ मूलगुणोंका ग्रहण करनेवाला हो, वह दर्शन प्रतिमाधारी दर्शनिक है ।१३७१ द्र. सं./टी./४५/१६५/३ सम्यक्त्वपूर्वकत्वेन मद्यमांसमधुण्यागोदुम्बरपञ्चकपरिहाररूपाष्टमूलगुणसहितः सह संग्रामादिप्रवृत्तोऽपि पापद्धर्यादिभिनिष्प्रयोजनजीवघातादेः निवृत्तः प्रथमो दार्शनिकश्रावको भण्यते । =सम्यग्दर्शन पूर्वक मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलोंके त्यागरूप आठ मूलगुणोंको पालता हुआ जो जीव मुद्धादिमें प्रवृत्त होनेपर भी पापको बढ़ानेवाले शिकार आदिके समान बिना प्रयोजन जीव घात नहीं करता, उसको प्रथम दार्शनिक श्रावक कहते हैं। ५. अष्टमूलगुण धारण च सप्त व्यसनका त्याग ला. सं.२६ अष्टमूलगुणोपेतो छ तादिव्यसनोज्झितः । नरो दार्शनिकः प्रोक्त स्याच्चेत्सद्दर्शनान्वितः ॥६॥ =जो जीव सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाला हो और फिर वह यदि आठौं मूलगुणोंको धारण कर ले तथा जूआ, चोरी आदि सातों व्यसनोंका त्याग कर दे तो वह दर्शन प्रतिमाको धारण करनेवाला कहलाता है ॥६॥ ६. निरतिचार अष्टगुणधारी सा. घ./२/७-८ पाक्षिकाचारसंस्कार-दृढीकृतविशुद्धदक् । भवाङ्गभोगनिविण्ण', परमेष्ठिपदे कधीः ॥७॥ निर्मूलयन्मलान्मूलगुणेष्वग्रगुणोसुकः । न्याय्यां वृत्ति तनुस्थित्यै, तन्वन् दार्शनिको मतः ॥८॥ - पाक्षिक श्रावकके आचरणोंके संस्कारसे निश्चल और निर्दोष हो गया है सम्यग्दर्शन जिसका ऐसा संसार शरीर और भोगोंसे अथवा संसारके कारण भूत भोगोंसे विरक्त पंचपरमेष्ठीके चरणोंका भक्त मूल गुणोंमे-से अतिचारों को दूर करनेवाला बतिक आदि पदोंको धारण करने में उत्सक तथा शरीरको स्थिर रबनेके लिए न्यायानुकूल आजीविकाको करनेवाला व्यक्ति दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक माना गया है। ७. सप्त व्यसन व विषय तृष्णाका त्यागी क्रिया कोष/१०४२ पहिलो पड़िमा धर बुद्धा सम्यग्दर्शन शुद्धा । त्यागे जो सातो व्यसना छोडे विषयनिकी तृष्णा ॥१०४२॥ प्रथम प्रतिमाका धारी सम्यग्दर्शनसे शुद्ध होता है, तथा सातों व्यसनों को और विषयोंकी तृष्णाको छोड़ता है। ८. स्थूल पंचाणुव्रतधारी र, सा./८ उहयगुणवसणभयमलवेरग्गाइचार भत्तिविग्ध था। एदे सत्तत्तरिया दंसंणसावयगुणा भणिया ॥८॥ -- आठ मूलगुण और बारह उत्तरगुणों (बारह व्रत अणुमत गुणवत्त शिक्षाबत ) का प्रतिपालन, सात व्यसन और पच्चीस सम्यक्त्वके दोषोंका परित्याग, बारह वैराग्य भावनाका चितवन, सम्यग्दर्शनके पांच अतीचारोंका परित्याग, भक्ति भावना इस प्रकार दर्शनको धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टि श्रावकके सत्तर गुण हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-५३ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन प्रतिमा ४१८ दर्शन विशुद्धि रा. वा, हिं./७/२०१५५८ प्रथम प्रतिमा विषै ही स्थूल त्याग रूप पांच अणुवतका ग्रहण है.. तहाँ ऐसा समझना जो ..पंच उदम्बर फलमे तो त्रसके मारनेका त्याग भया । ऐसा अहिसा अणुवत भया । चोरी तथा परस्त्री त्यागमे दोऊ अचौर्य व ब्रह्मचर्य अणुव्रत भये। दूत कर्मादि अति तृष्णाके त्यागते असत्यका त्याग तथा परिग्रहकी अति चाह मिटी (सत्य व परिग्रह परिणाम अणुव्रत हुए)। मांस, मद्य, शहदके त्यागते त्रस कू मारकरि भक्षण करनेका त्याग भया ( अहिसा अणुवत हुआ) ऐसे पहिली प्रतिमामें पांच अणुव्रतकी प्रवृत्ति सम्भवे है। अर इनिके अतिचार दूर करि सके नाहीं तातै व्रत प्रतिमा नाम न पावै अतिचारके त्यागका अभ्यास यहाँ अवश्य करे। ('चा. पा./ भाषा/२३)। ३. अविरत सम्यग्दृष्टि व दर्शन प्रतिमामें अन्तर प. पु./११८/१५-१६ इयं श्रीधर ते नित्यं दयिता मदिरोत्तमा। इमा तावत् पिब न्यस्तां चषके विकचोपले ॥१५॥ इत्युक्त्वा तो मुखे न्यस्य चकार सुमहादरः। कथं विशतु सा तत्र चारू संक्रान्तचेतने ॥१६॥ -हे लक्ष्मीधर । तुम्हे यह उत्तम मदिरा निरन्तर प्रिय रहती थी सो खिले हुए नील कमलसे सुशोभित पानपात्रमें रखी हुई इस मदिराको पिओ ॥१५॥ ऐसा कहकर उन्होने बडे आदरके साथ वह मदिरा उनके मुख में रख दी पर वह सुन्दर मदिरा निश्चेतन मुखमें कैसे प्रवेश करती ॥१६॥ प.प्र.टी./२/१३३ गृहस्थावस्थायां दानशील पूजोपवासादिरूपसम्यक्त्वपूर्वको गृहिधर्मो न कृतः, दार्शनिकवतिकाद्य कादशविधश्रावकधर्मरूपो वा । गृहस्थावस्थामे जिसने सम्यक्त्व पूर्वक दान, शील, पूजा, उपवासादिरूप गृहस्थका धर्म नहीं किया, दर्शन प्रतिमा व्रत प्रतिमा आदि ग्यारह प्रतिमाके भेदरूप श्रावक का धर्म नही धारण किया। वसु. श्रा/५६-५७ एरिसगुण अजुयं सम्मतं जो धरेइ दिढचित्तो। सो हवइ सम्मदिराठी सद्दहमाणो पयत्थे य ॥५६॥ पंचुंबरसहियाइ सत्त वि विसणाई जो विवज्जेइ। सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ ॥५७॥ - जो जीव दृढचित्त होकर जीवादिक पदार्थोंका श्रद्धान करता हुआ उपयुक्त इन आठ ( निशकितादि ) गुणोंसे युक्त सम्यक्त्वको धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है ॥५६॥ और जो सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध है बुद्धि जिसकी, ऐसा जो जीव पांच उदुम्चर फल सहित सातों ही व्यसनोका त्याग करता है वह दर्शन श्रावक कहा गया है ॥५७॥ ला,सं./३/१३१ दर्शनप्रतिमा नास्य गुणस्थानं न पञ्चमम् । केवल पाक्षिक' सः स्याद्गुणस्थानादसयतः ।१३। जो मनुष्य मद्यादि तथा सप्त व्यसनोंका सेवन नहीं करता परन्तु उनके सेवन न करनेका नियम भी नहीं लेता, उसके न तो दर्शन प्रतिमा है और न पाँचवाँ गुणस्थान ही होता है। उसको केवल पाक्षिक श्रावक कहते हैं, उसके असंयत नामा चौथा गुणस्थान होता है । भावार्थ-जो सम्यग्दृष्टि मद्य मासादिके त्यागका नियम नहीं लेता, परन्तु कुल क्रमसे चली आयी परिपाटीके अनुसार उनका सेवन भी नहीं करता उसके चौथा गुणस्थान होता है। का-अ./भाषा पं.जयचन्द/३०७ पच्चीस दोषोंसे रहित निर्मल सम्यग्दर्शन का धारक अविरत सम्यग्दृष्टि है तथा अष्टमूल गुण धारक तथा सप्त व्यसन त्यागी शुद्ध सम्यग्दृष्टि है। १. दर्शन प्रतिमा व व्रत प्रतिमामें अन्तर रा.वा./हि /9/२०/५५८ पहिलो प्रतिमामें पाँच अणुबतोकी प्रवृत्ति सम्भवै है अर इनके अतिचार दूर कर सके नाही तातै व्रत प्रतिमा नाम न पावै । चा.पा./पं. जयचन्द/२३/६३ दर्शन प्रतिमाका धारक भी अणुवती ही है .."याकै अणुवत अतिचार सहित होय है तातें व्रती नाम न कह्या दूजी प्रतिमामें अणुव्रत अतिचार रहित पालै तातें व्रत नाम कह्या इहाँ सम्यक्त्वकै अतोचार टाले है सम्यक्त्व ही प्रधान है तातै दर्शन प्रतिमा नाम है (क्रिया कोष/१०४२-१०४३) । ५. दर्शन प्रतिमाके अतिचार चा.पा./टी./२१/४३/१० (नोट-मूलके लिए दे० सांकेतिक स्थान )। समस्त कन्दमूलका त्याग करता है, तथा पुष्प जातिका त्याग करता है।(दे० भक्ष्याभक्ष्य/४/३४ नमक तैल आदि अमर्यादित वस्तुओंका त्याग करता है (दे०-भक्ष्याभक्ष्य/२) तथा मांसादिसे स्पर्शित वस्तुका त्याग (दे०-भक्ष्याभक्ष्य/२) एवं द्विदलका दूधके संग त्याग करता है (भक्ष्याभक्ष्य/३) तथा रात्रिको ताम्बूल, औषधादि और जलका त्याग करता है । विरात्रि भोजन) । अन्तराय टोलकर भोजन करता है। (दे० अन्तराय/२) उपरोक्त त्यागमें यदि कोई दोष लगे तो वह दर्शन प्रतिमाका अतिचार कहलाता है। विशेष दे० भक्ष्याभक्ष्य । सप्त व्यसनके अतिचार-दे० वह वह नाम । * दर्शन प्रतिमामें प्रासुक पदार्थोंके ग्रहणका निर्देश -दे० सचित्त। दर्शनमोह-दे० मोहनीय । दर्शनवाद-दे० श्रद्धानवाद । दर्शन विनय-दे० विनय/१। दर्शनविशुद्धि-तीर्थकरत्वकी कारणभूत षोडश भावनाओं में सर्व __ प्रथम व सर्व प्रधान भावना दर्शनविशुद्धि है। इसके बिना शेष १५ भावनाएँ निरर्थक है । क्योकि दर्शनविशुद्धि ही आत्मस्वरूप संवेदनके प्रति एक मात्र कारण है। सम्यग्दर्शनका अत्यन्त निर्मल व दृढ हो जाना ही दर्शनविशुद्धि है। १. दर्शनविशुद्धि भावनाका लक्षण १. तत्त्वाथेके श्रद्धान द्वारा शुद्ध सम्यग्दर्शन प्र.सा./ता.वृ /८२/१०४/१८ निजशुद्धात्मरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वसाधकेन मूढत्यादिपञ्चविशतिमलरहितेन तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणेन दर्शनेन शुद्धा दर्शनशुद्धा पुरुषा. निज शुद्धात्मकी रुचि रूप सम्यक्त्वका जो साधक है ऐसा तीन मूढताओं और २५ मलसे रहित तत्त्वार्थ के श्रद्धान रूप लक्षणवाले दर्शनसे जो शुद्ध हैं वे पुरुष दर्शनशुद्ध कहे जाते हैं। २. साष्टांग सम्यग्दर्शन रा.वा./६/२४/१/१/२६ जिनोपदिष्टे निग्रन्थे मोक्षवम॑नि रुचिः निःशडकितत्वाद्यष्टाङ्गादर्शनविशुद्धिः ॥११ =जिनोपदिष्ट निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग में रुचि तथा निशंकितादि आठ अंग सहित होना सो दर्शनविशुद्धि है (स.सि./६/२४/३३८/२)। भ, आ./वि./१६७/३८०/१० निशंकितत्वादिगुणपरिणतिर्दशन विशुद्धिः तस्यां सत्यां शड्काकाङ्क्षा विचिकित्सादीनां अशुभपरिणामान परिग्रहाणा त्यागो भवति ।-निशकित वर्ग रह गुणोकी आत्मामें परिणति होना यह दर्शनशुद्धि है। यह शुद्धि होनेसे कांक्षा, विचिकित्सा वगैरह अशुभ परिणामरूपी परिग्रहोंका त्याग होता है। ३. निदोष सम्यग्दर्शन ध,८/३.४१/७६/१ देसणं सम्मद्दसणं, तस्स विसुज्झदा दंसणविसुज्झदा, तोए दंसणविसुझदाए जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधं ति । तिमूढाबोढ-अट्ठ-मलवदिरित्तसम्मसणभावो दंसणविसुज्झदा णाम । = 'दर्शन' का अर्थ सम्यग्दर्शन है। उसकी विशुद्धताका नाम दर्शनविशुद्धता है । • उस दर्शनविशुद्धिसे जीव तीर्थंकर नामकर्मका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनविशुद्धि दर्शनावरण बन्ध करते हैं। तीन मूढताओंसे रहित और आठ मलोंसे व्यतिरिक्त एण होदि, किंतु पुग्विल्लगुणेहि सरूवं लद्धणं दिसम्मईसणस्स जो सम्यग्दर्शनभाव है उसे दर्शनविशुद्धता कहते है (चा.सा./५१/६) । साहूणं पासुअपरिच्चागे साहूण समाहिसंधारणे साहूणं वेज्जावच्चजोगे ४. अभक्ष्य भक्षणके त्याग सहित साष्टांग सम्यग्दर्शन अरहंतभत्तीए बहुसू भत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणे पट्टावणे अभिक्रवणं णाणोवजोगजुत्तत्तणे पयट्ठावणं विसुज्झदा णाम । भा. पा./टी./७७/२२१/२ एतैः (निशकितत्वादि) अष्टभिर्गुणैर्युक्तत्वं तीए दंसणविसुज्झदाए एकाए वि तित्थयरकम्मं बंधंति। चर्मजलतै लघृतभूतनाशनाप्रयोगत्वं मूलकगर्ज रसूरणकन्दगृञ्जनपला ध.८/३,४१/८६/५ अरहंतवुत्ताणुठ्ठाणाणुवत्तणं तदणुहाणपासो वा ण्डविशदौग्धिककलिड्गपञ्चपुष्पसधानककौसुम्भ पत्रपत्रशाकमासादि अरहंतभत्ती ण म । ण च एसा दसणविसुज्झदादीहि विणा संभवइ, भक्षकभाजनभोजनादिपरिहरणं च दर्शनविशुद्धिः। -सम्यग्दर्शनके विरोहादो। - प्रश्न केवल उस एक दर्शनविशुद्धतासे ही तीर्थकर आठ गुणोसे युक्त होना। चर्म की वस्तुमे रखे जल, तेल, घी आदि नामकर्मका बन्ध कैसे सम्भव है, क्योंकि, ऐसा माननेसे सब सम्यखानेकी वस्तुओका प्रयोग न करना। कन्द, मूली, गाजर आदि ग्दृष्टियोंके तीर्थकर नामकर्मके बन्धका प्रसंग आवेगा । उत्तर-इस जमीकन्द, आल्लू, बडफलादि तरबूज, पंच पुष्प, आचार, कौसुंभ पत्र शंकाके उत्तरमे कहते है कि शुद्ध नयके अभिप्रायसे तीन मूढताओं और पत्तेके शाक तथा मांसादिके खानेवालोके बर्तनोमें रखे हुए और आठ मलोसे रहित होनेपर ही दर्शनविशुद्धता नही होती, भोजनको त्यागना यह दर्शनविशुद्धि है। किन्तु पूर्वोक्त गुणोसे (तीन मूढताओ व आठ मलों रहित) अपने ५ सम्यग्दर्शनकी और अविचल झुकाव निज स्वरूपको प्राप्तकर स्थित , सम्यग्दर्शनके, साधुओको प्रामुक ध.८/३,४१/८०/२ ण तिमूढा वोढत्तट्ठमलवदिरेगेहि चेव दसणविसुज्झदा परित्याग, साधुओकी समाधिसंधारणा, साधुओंको वैयावृत्तिका सुद्धणयाहिप्णएण होदि, किंतु पुग्विल्लगुणेहि सरूव' लद्ध ण द्विद- सयोग, अरहन्त भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति, प्रवचन वत्ससम्मदंसणस्स साहूणं पासु अपरिच्चागे...पसट्ठावणं विसुज्झदा लता, प्रवचन प्रभावना, और अभीक्ष्णज्ञानोपयोग युक्ततामें प्रवर्तनेका णाम । - शुद्ध नयके अभिप्रायसे तीन मूढताओं और आठ मलोंसे नाम विशुद्धता है। उस एक ही दर्शनविशुद्धतासे ही तीर्थंकर कर्मरहित होनेपर ही दर्शनविशुद्धता नहीं होती, किन्तु पूर्वोक्त गुणोंमे को बाँधते है। (चा सा./५२/४ ) अरहन्तके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठानके अपने निज स्वरूपको प्राप्तकर स्थित सम्पग्दर्शनकी साधुओंकी अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठानके स्पर्शको अहंत भक्ति कहते प्रासुक परित्याग आदि...की युक्ततामें प्रवर्तनेका नाम विशुद्धता है। है। और यह दर्शनबिशुद्धतादिकोके बिना सम्भव नहीं है। दर्शनविशुद्धि व्रत-औपशामिकादि (उपशम, क्षयोपशम व २. सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा दर्शनविशुद्धि निर्देशका कारण क्षायिक ) तीनो सम्यक्त्वोके आठ अंगोंकी अपेक्षा २४ अग होते हैं। चा,सा /१२/१ विशुद्धि विना दर्शनमात्रादेव तीर्थंकरनगमकर्मबधो न एक उपवास एक पारणा क्रमसे २४ उपवास पूरे करे। जाप--नमोकार भवति. त्रिमूढापोढाष्टमदादिरहितत्वात उपलब्ध निजस्वरूपस्य सम्य- मन्त्रका त्रिकाल जाप, (ह. पु./३४/88)। (व्रत विधान संग्रह/१०७) ग्दर्शनस्य.. शेषभावनानां तत्रैवान्तर्भावादिति दर्शनविशुद्धता (सुदृष्टितरंगिणी/) व्याख्याता। - प्रश्न-(सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा दर्शनविशुद्धि निर्देश दर्शनशुद्धि-आ० चन्द्रप्रभ सूरि ( ई० ११०२) द्वारा रचित क्यो किया') उत्तर-क्योंकि, सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिके बिना सम्यवस्व विषयक न्यायपूर्ण ग्रन्थ न्यायावतार/०४/सतीश चन्द्र केवल सम्यग्दर्शन होने मात्रसे तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध नहीं होता। वह विशुद्ध सम्यग्दर्शनमें (चाहे तोनमेंसे कोई सा भी हो) तीन दर्शनसार-आ० देवसेन ( ई० ६३३) द्वारा रचित प्राकृत गाथा मूढता और आठ मदोसे रहित होनेके कारण अपने आत्माका निज बद्ध ग्रन्थ है। इसमे मिथ्या मतो व जैनाभासोका संक्षिप्त वर्णन स्वरूप प्रत्यक्ष होना चाहिए "बाकीकी पन्द्रह भावनाएँ भी उसी किया गया है । गाथा प्रमाण ५१ है । (ती./२/३६६), (जै/१/४२०)। एक दर्शनविशुद्धि में ही शामिल हो जाती है, इसलिए दर्शन- दर्शनाचार-दे० आचार । विशुद्धताका व्याख्यान किया। दर्शनाराधना-दे० आराधना । १.सोलह मावनाओं में दर्शनविशुद्धिकी प्रधानता दर्शनावरण-1. दर्शनावरण सामान्यका लक्षण भ.आ./मू./७४० सुद्ध सम्मत्ते अविरदो वि अज्जेदि तित्थयरणाम । स. सि./८/३/३७८/१० दर्शनावरणस्य का प्रकृतिः। अर्थानालोकनम् । जादो दु सेणिगो आगमेसि अरुहो अविरदो वि ७४०।-शका, कांक्षा स.सि./८/४/३८०/३ आवृणोत्यात्रियतेऽनेनेति वा ज्ञानावरणम् । = वगैरह अतिचारोंसे रहित अविरत सम्यग्दृष्टिकी भी तीर्थंकर नाम- दर्शनावरण कर्म की क्या प्रकृति है । अर्थका आलोकन नही होना। कर्मका बंध होता है। केवल सम्यग्दर्शनको संहायतासे ही श्रेणिक जो आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह राजा भविष्यत्कालमें अरहंत हुआ। आवरण कहलाता है। (रा. वा./८/३/२/५६७ ) । इ.स/टी./२८/१५६/४ षोडशभावनासु मध्ये परमागमभाषया पञ्चविशति- घ. १/१,१,१३१/३८१/८ अन्तरङ्गार्थविषयोपयोगप्रतिबन्धक दर्शना मलरहिता तथाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूपा सम्यक्त्व- वरणीयम् । = अन्तरंग पदार्थको विषय करनेवाले उपयोगका प्रतिभावन व मुख्येति विज्ञेयः। - इन सोलह भावनाओंमें, परमागम बन्धक दर्शनावरण कर्म है। भाषासे...२५ दोषोंसे रहित तथा अध्यारम भाषासे निजशुद्ध आत्मामें ध. ६/१,६-१,७/१०/३ एवं दसणमावारेदि ति दसणावरणीयं । जो उपादेय रूप रुचि ऐसी सम्यक्त्वकी भावना ही मुख्य है, ऐसा पोग्गलकरवंधो...जीवसमवेदो देसणगुणपडिबंधओ सो दसणावरणीयजानना चाहिए। मिदि घेतब्बो । जो दर्शनगुणको आवरण करता है, वह दर्शना४. एक दर्शनविशुद्धिसे ही तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध कैसे । वरणीय कर्म है। अर्थात जो पुद्गल स्कत्व...जीवके साथ समवाय संबन्धको प्राप्त है और दर्शनगुणका प्रतिबन्ध करनेवाला है, वह सम्मव है दर्शनावरणीय कर्म है। घ. ८/३,४१/८०/१ कधं ताए एकाए चेव तित्थयरणामकम्मस्स बंधो, गो. क./जो, प्र./२०/१३/१२ दर्शनमावृणोतीति दर्शनावरणीयं तस्य का सबसम्माइट्ठीणं तित्थयरणामकम्मबधपसंगादो त्ति । बुच्चदे- प्रकृति.। दर्शनप्रच्छादनता। किवत् । राजद्वारप्रतिनियुक्तप्रतीहारतिमूढावोढत्तमलवदिरेगेहि चेत्र दंसणविमुज्झदा सुगणयाहिप्पा- बत् ।-दर्शनको आवरै सो दर्शनावरणीय है। याकी यह प्रकृति है जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनावरण दशमिनिमानीव्रत जेसे राजद्वारविषै तिष्ठता राजपाल राजाको देखने दे नाही तैसे दर्शनावरण दर्शनको आच्छादै है। (द्र.सं./टी./३३/११/१) २. दर्शनावरणके १ भेद प. रवं. ६/१,६-१/सू. १६/३१ णिहाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी णिद्दा पयला य, चक्खुदंसणावरणीयं अचवखुदंसणावरणीयं ओहिदसणावरणीयं केवलदं सणावरणीयं चेदि ॥१६= निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला; तथा चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय , अवधिदर्शनावरणीय, और केवलदर्शनावरणीय ये नौ दर्शनावरणीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ है ।१६। (प. ख १३/५५५/ सू. ८४/३५३) (त. सू./८/७) (मू.'आ./१२२५) (पं.स./प्रा/४/४५/ ८) (मं.ब./प्र. १/५/२८/१) (त. सा /३/२५-२६.३२१) (गो. क./ जी, प्र./३३/२७/8)। ८. चक्षुरादि दर्शनावरण व निद्रादि दर्शनावरणमें अन्तर स. सि./८/9/३८३/४ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानामिति दर्शनावरणापेक्षया भेदनिर्देश चक्षुर्दर्शनावरण. निद्रादिभिर्दर्शनावरणं सामानाधिकरण्येनाभिसंबध्यते निद्रादर्शनावरणं निद्रानिद्रादर्शनावरणमित्यादि।चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलका दर्शनावरणकी अपेक्षा भेदनिर्देश किया है। यथा चक्षुदर्शनावरण इत्यादि । “यहाँ निद्रादि पदोंके साथ दर्शनावरण पदका समानाधिकरण रूपसे सम्बन्ध होता है । यथा निद्रादर्शनावरण, निद्रानिद्रादर्शनावरण इत्यादि । ३. दर्शनावरणके असंख्यात भेद ध. १२/४ २,१४,४/४७६/३ णाणावरणीयस्स दंसणावरणीयस्स च कम्मरस पयडीओ सहावा सत्तौओ.'असंखेज्जलोगमेत्ता। कुदो एत्तियाओ होति त्ति णव्वदे। आवरणिज्जणाण-दसणाणमसखेज्जलोगमेत्तभेदु वलंभादो । चूकि आवरणके योग्य ज्ञान व दर्शनके असंख्यात लोकमात्र भेद पाये जाते हैं । अतएव उनके आवरक उक्त कर्मों की प्रकृतियाँ भी उतनी ही होनी चाहिए। ४. चक्षु अचक्षु दर्शनावरणके असंख्यात भेद हैं ध. १२/४,२,१५.४/५०१/१३ चक्रबु-अचक्रवुदंसणावरणीयपयडीओ च पुधपुध असंग्वेज्जलोगमेत्ताओ होदूण । - चश्नु व अचक्षु दर्शनावरणीयकी प्रकृतियॉ पृथक् पृथक् असंख्यात लोक मात्र हैं। ९. निदानिद्रा आदिमें द्विस्वकी क्या आवश्यकता रा. वा./८/७/७/५७२/२२ वीप्साभावात असति द्वित्वे निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचलेति निर्देशो नोपपद्यत इति, तन्न; कि कारणम् । कालादिभेदाव भेदोपपत्तेः वीप्सा युज्यते ।.. अथवा मुहुर्मुहुर्वृत्तिराभीक्ष्ण्यं तस्य विवक्षायां द्वित्वं भवति यथा गेहमनुप्रवेशमनुप्रवेशमास्त इति ।प्रश्न-वीप्सार्थक द्वित्वका अभाव होनेसे निद्रानिद्रादि निर्देश नहीं बनता है । उत्तर-ऐसा नहीं है; क्योकि कालभेदसे द्वित्व होकर वीप्सार्थक द्वित्व बन जायेगा। अथवा अभीक्ष्ण-सततप्रवृत्ति-मारबार प्रवृत्ति अर्थ में द्वित्व होकर निद्रा-निद्रा प्रयोग बन जाता है जैसे कि घरमें घुस-घुसकर बैठा है अर्थात बार-बार घर में घुस जाता है यहाँ। * अन्य सम्बन्धित विषय * दर्शनावरणका उदाहरण-दे० प्रकृति बंध/३ । * दर्शनावरण कृतियोंका घातिया, सर्व धातिया व देश घातियापना। - दे० अनुभाग ४। * दर्शनावरणके बंध योग्य परिणाम-दे० ज्ञानावरण/५ । * निद्रादि प्रकृतियों सम्बन्धी-दे० निद्रा। * निद्रा आदि प्रकृतियोंको दर्शनावरण क्यों कहते है। -दे० दर्शन/४/६॥ * दर्शनावरणकी बन्ध, उदय वसत्ल प्ररूपणा-दे० वह वह नाम । ५. अवधि दशनावरणके असंख्यात भेद ध. १२/४,२,१५,४/५०१/११ ओहिदं सणावरणीयपयडीओ च पुध उध असंखेज्जलोगमेत्ता होदूण । - अबधिदर्शनावरणकी प्रकृतियाँ पृथक्पृथक असंख्यात लोकमात्र हैं। ६.केवल दर्शनावरणकी केवल एक प्रकृति है ध. १२/४,२,१५,४/५०२/8 केवलदसणस्स एक्का पयडी अस्थि 1- केवलदर्शनावरणीयकी एक प्रकृति है। ७. चक्षुरादि दर्शनावरणके लक्षण रा, बा./८/८/१२-१६/५७३ चक्षुरक्षुदर्शनावरणोदयात चक्षुरादोन्द्रियालोचन विकल' ।१२५ ‘पञ्चेन्द्रियत्वेऽप्युपहतेन्द्रियालोचनसामर्थ्यश्च भवति। अवधिदर्शनावरणोदयादवधिदर्शनविप्रमुक्तः ॥१३. केवलदर्शनावरणोदयादाविर्भूतकेवलदर्शन. १४। निद्रा-निद्रानिद्रोदयात्तेमोमहातमोऽवस्था ।१५। प्रचला-प्रचलोदयाच्चलनातिचलनभावः ।१६। -चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरणके उदयसे आत्माके चक्षुरादि इन्द्रियजन्य आलोचन नहीं हो पाता । इन इन्द्रियोंसे होनेवाले ज्ञानके पहिले जो सामान्यालोचन होता है उसपर इन दर्शनावरणोंका असर होता है । अवधिदर्शनावरणके उदयसे अवधिदर्शन और केवलदर्शनावरणके उदयसे केवलदर्शन नहीं हो पाता। निद्राके उदयसे तमअवस्था और निद्रा-निद्राके उदयसे महातम अवस्था होती है। प्रचलाके उदयसे बैठे-बैठे ही घूमने लगता है, नेत्र और शरीर चलने लगते हैं, देखते हुए भी देख नहीं पाता। प्रचला प्रचला के उदयसे अत्यन्त ऊँघता है, दल-आधा करना । दे० गणित/२/१॥ दवप्रदा कर्म-दे० सावद्य/५॥ दशकरण-दे० करण/२। दशपर्वा-एक ओषधि विद्या-दे० विद्या। दशपुर-वर्तमान मन्दौर ( म. पु /प्र. ४६ पं. पन्नालाल ) दशपूवित्व ऋद्धि-दे० ऋद्धि २ । दशपूर्वी-दे० श्रुतकेबलो। दशभक्ति-१. दे० भक्ति। २. दशभक्तिकी प्रयोगविधि । -दे० कृतिकर्म/४। दशमभक्त-चौला-दे० प्रोषधोपवास/१। दशमलव-Decimal (ज. प्र./प्र. १०७ ) । दशमान-१ Decimal Place Value Notation (ध.॥ प्र २७); २. Scaleoften (ध. प्र. २७)। दशमिनिमानीव्रत-भादों सुदी दशमीको व्रत धारण करके और फिर आदर सहित दूसरेके घर आहार करें। (यह व्रत श्वेताम्बर व जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशरथ दान साधारण व्यक्तियोको दिया जाता है जैसे समदत्ति, करुणादत्ति, औषधालय, स्कूल, सदाबत, प्याऊ आदि खुलवाना इत्यादि । निरपेक्ष बुद्धिसे सम्यक्त्व पूर्वक सद्भपात्रको दिया गया अलौकिक दान दातारको परम्परा मोक्ष प्रदान करता है। पात्र, कुपात्र व अपात्रको दिये गये दान में भावोकी विचित्रताके कारण फल में बड़ी विचित्रता पड़ती है। **GMSunn दान सामान्य निर्देश दान सामान्यका लक्षण । दानके भेद। औषधालय सदाव्रतादि खुलवानेका विधान । दया दत्ति आदिके लक्षण । सात्त्विक राजसादि दानोंके लक्षण। सात्त्विकादि दानोंमें परस्पर तरतमता। तियचोंके लिए भी दान देना सम्भव है। दान कथंचित् क्षायोपशमिक भाव है। -दे०क्षायोपशमिक । दान भी कथंचित सावध योग है। -दे० साबद्य/७ । * | विधि दान क्रिया। -दे० संस्कार/२॥ स्थानकवाली आम्नायमें प्रचलित है) (व्रतविधान संग्रह/१२६) (नवलसाहकृत बर्द्धमान पुराण )। दशरथ-१. पंचस्तूप संघको गुर्वावलीके अनुसार (दे० इतिहास) आप धवलाकार वीरसेन स्वामोके शिष्य थे। समय-ई०८२०.८७० (म. पु./प्र.३१ पं० पन्नालाल)-दे० इतिहास/७/७। २. म. पु./६१) २-६ पूर्वधातकीखण्ड द्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें वत्स नामक देशमें सुसीमा नगरका राजा था। महारथ नामक पुत्रको राज्य देकर दीक्षा धारण की। तब ग्यारह अंगोंका अध्ययन कर सोलह कारणभावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया। अन्तमें समाधिमरण पूर्वक सर्वार्थ सिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ। यह धर्मनाथ भगवानका पूर्वका तीसरा भव है। (दे० धर्मनाथ) ३. प. पु./सर्ग/श्लोक रघुवंशी राजा अनरण्यके पुत्र थे (२२/१६२)। नारद द्वारा यह जान कि 'रावण इनको मारनेको उद्यत है (२३/२६ ) देशसे बाहर भ्रमण वरने लगे । वह केकयीको स्वयवरमें जीता (२४/१०४)। तथा अन्य राजाओंका विरोध करनेपर केकयीकी सहायतासे विजय प्राप्त की, तथा प्रसन्न होकर केकयोको वरदान दिया (२४/१२०)। राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न यह इनके चार पुत्र थे (२५/२२-३६)। अन्तमे केकयोके वरके फल में रामको बनवास मांगनेपर दीक्षा धारण कर ली। ( २५/८०)। दशलक्षणव्रत-इस व्रतकी विधि तीन प्रकारसे वर्णन की गयी है-उत्तम, मध्यम ब जघन्य । उत्तम-१० वर्ष तक प्रतिवर्ष तीन बार माघ, चैत्र व भाद्रपदकी शु०५ से शु०१४ तकके दश दिन दश लक्षण धर्मके दिन कहलाते हैं। इन दश दिनों में उपवास करना। मध्यम-वर्ष में तीन बार दश वर्ष तक ५, ८, ११, १४ इन तिथियों को उपवास और शेष ६ दिन एकाशन । जघन्य-वर्ष में तीन बार दश वर्ष तक दशों दिन एकाशन करना। जाप्य-ओं ह्रीं अर्हन्मुखकमलसमुद्भूतोत्तमक्षमादिदशलक्षणे कधर्माय नमः'का त्रिकाल जाप्य । वशवकालिक द्वादशांग ज्ञानके चौदह पूर्वो में से सातवां अंग बाह्य। -दे० श्रुतज्ञान/IIII वशाणं-१. मालवाका पूर्व भाग। इस देशमें वेत्रवती ( बेतवा । नदी बहती है। कुछ स्थानोंमें दशार्ण (धसान) नदी भी बहती है और अन्तमें चलकर वेत्रवती में जा मिलती है। विदिशा ( भेलसा) इसकी राजधानी है। २. भरतक्षेत्र आर्य खण्डका एक देश -दे० मनुष्य/४ वशाणक-भरत क्षेत्र विन्ध्याचलका एक देश। -दे० मनुष्य/४ । दशोक्त-भरत क्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश । -दे० मनुष्य/४ । दही शुद्धि- दे० भक्ष्याभक्ष्य/३ दांडोक-भरत क्षेत्र दक्षिण आर्य खण्डका एक देश । -दे० मनुष्य/४। दांत-१. दांनका लक्षण दे० साधु/१ उत्तम चारित्रवाले मुनियोंके ये नाम हैं-श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदंत, दांत और यति ।... पंचेन्द्रियोंके रोकने में लीन वह दांत कहा जाता है । * औदारिक शरीर से दांतोंका प्रमाण-दे० औदारिक |१७| वाता-आहार दानके योग्य दातार - दे० आहार/11/५ । वात-वस्तिकाका एक दोष - दे० बस्तिका । दान-शुद्ध धर्मका अवकाश न होनेसे गृहस्थ धर्म में दानकी प्रधानता है । वह दान दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-अलौकिक व लौकिक । अलौकिक दान साधुओंको दिया जाता है जो चार प्रकारका है--आहार, औषध, ज्ञान व अभय तथा लौकिक दान क्षायिक दान निर्देश क्षायिक दानका लक्षण। क्षायिक दान सम्बन्धी शंका समाधान । सिद्धोंमें क्षायिक दान क्या है। GMSAnd Me गृहस्थोंके लिए दान धर्मकी प्रधानता सत् पात्रको दान देना ही गृहस्थका परमधर्म है। दान देकर खाना ही योग्य है। दान दिये बिना खाना योग्य नहीं। दान देनेसे ही जीवन व धन सफल है। दानको परम धर्म कहनेका कारण। दान दिये बिनाधनको खाना महापाप है। -दे. पूजा/२/१। दानका महत्त्व व फल पात्रदान सामान्यका महत्त्व । आहार दानका महत्व। औषध व शान दानका महत्त्व। अभयदानका महत्त्व। सत्पात्रको दान देना सम्यग्दृष्टिको मोक्षका कारण है। सत्पात्र दान मिथ्यादृष्टिको सुभोग भूमिका कारण है। कुपात्र दान कुभोग भूमिका कारण है। अपात्र दानका फल अत्यन्त अनिष्ट है। | विधि, द्रव्य, दाता व पात्रके कारण दानके फलमें विशेषता आ जाती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान ४२२ १. दान सामान्य निर्देश मन्दिरमें घंटी, चमर आदिके दानका महत्त्व व फल । -दे० पूजा/४/२। दानके प्रकृष्ट फलका कारण। विधि, द्रव्य, दात, पात्रादि निर्देश भक्ति पूर्वक ही पात्रको दान देना चाहिए । -दे० आहार/II/१ | दानकी विधि अर्थात् नवधा भक्ति। -दे० भक्ति/६। दान योग्य द्रव्य। साधुको दान देने योग्य दातार। -दे० आहार/II/५। दान योग्य पात्र कुपात्र आदि निर्देश। -दे० पात्र । दानके लिए पात्रकी परीक्षाका विधि निषेध । -दे० विनय/५। दान प्रति उपकारकी भावनासे निरपेक्ष देना चाहिए। गाय आदिका दान योग्य नही। मिथ्यादृष्टिको दान देनेका निषेध । कुपात्र व अपात्र को करुणा बुद्धिसे दान दिया जाता है। दुखित भुखितको भी करुणा वुद्धिसे दान दिया जाता है। ग्रहण व संक्रान्ति आदिके कारण दान देना योग्य नही। आहार, औषधके तथा ज्ञानके साधन शास्त्रादिक उपकरण और स्थानके (वस्तिकाके ) दानसे चार प्रकारका वैयावृत्य कहते है ।११७॥ (ज.प./२/१४८) (वसु श्रा./२३३) (पं.वि./२/५०) स.सि /६/२४/३३८/११ त्यागो दानम् । तस्त्रिविधम्-आहारदानम भयदानं ज्ञानदानं चेति। त्याग दान है। वह तीन प्रकारका है-आहारदान, अभयदान और ज्ञानदान । म.पु./३८/३५... चतुर्धा वर्णिता दत्तिः दयापात्रसमान्वये ।३५॥ दया दप्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वय दत्ति ये चार प्रकारकी दत्ति कहो गयी है। (चा.सा./४३/६) सा.ध./२/४७ में उद्धृत-तीन प्रकारका दान कहा गया है--सात्त्विक, राजस और तामस दान । ३. औषधालय सदावत आदि खुलवानेका विधान सा.ध./२/४० सत्रमप्यनुकम्प्यानां, सृजेदनुजिघृक्षया । चिकित्साशालबद्दुष्येन्नेज्जायै वाटिकाद्यपि।४० - पाक्षिक श्रावक, औषधालयकी तरह दुखी प्राणियोके उपकारकी चाहसे अन्न और जल वितरणके स्थानको भी बनवाये और जिनपूजाके लिए पुष्पवाटिकाएँ बावडी व सरोवर आदि बनवानेमें भी हर्ज नहीं है। १. दया दत्ति आदिके लक्षण म.पु /३८/३६-४१ सानुकम्पमनुग्राह्ये प्राणिवृन्देऽभयप्रदा। त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधैः ।३६। महातपोधनाचार्याप्रतिग्रहपुर सरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते ॥३७ समानायात्मनात्यस्मै क्रियामन्त्रवतादिभिः। निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ।३८॥ समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतायिते। समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता श्रद्धयान्विता ॥३६॥ आत्मान्वयप्रतिष्ठाथ सूनवे यदशेषतः । स्म समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ।४०। सैषा सकलदत्तिः...॥४१॥ सअनुग्रह करने योग्य प्राणियोंके समूह पर दयापूर्वक मन, वचन, कायकी शुद्धिके साथ उनके भय दूर करनेको पण्डित लोग दयादत्ति मानते हैं ।३६। महा तपस्वी मुनियों के लिए सत्कार पूर्वक पड़गाह कर जो आहार आदि दिया जाता है उसे पात्र दत्ति कहते है ।३७। क्रिया, मन्त्र और व्रत आदिसे जो अपने समान है तथा जो संसार समुद्रसे पार कर देने वाला कोई अन्य उत्तम गृहस्थ है उसके लिए ( कन्या, हस्ति, घोडा, रथ, रत्न (चा. सा.) पृथिवी सुवर्ण आदि देना अथवा मध्यम पात्रके लिए समान बुद्धिसे श्रद्धाके साथ जो दान दिया जाता है वह समान दत्ति कहलाता है १३८-३४: अपने वंशकी प्रतिष्ठाके लिए पुत्रको समस्त कुल पद्धति तथा धनके साथ अपना कुटुम्ब समर्पण करनेको सकल दत्ति (वा अन्वयदत्ति) कहते हैं ।४०। (चा.सा./४३/६); (सा.प./७/२७-२८) वसु.श्रा./२३४-२३८ असणं पाणं खाइयं साइयमिदि चउविहो वराहारो। पुन्बुत्त-णव-विहाणेहि तिविहपत्तस्स दायव्यो ।२३४) अइबुड्ढ-बालमूयंध-बहिर-देसतरीय-रोडाणं । जह जोगं दायव्य करुणादाणं त्ति भणिऊण ।२३॥ उववास-वाहि-परिसम-किलेस-परिपीडयं मुणेऊण । पत्थं सरीरजोग्गं भेसजदाणं पि दायव्यं ।२३६। आगम-सस्थाई लिहाविऊण दिज्जंति ज जहाजोग्गं । तं जाण सत्थदाणं जिणवयणज्मावणं च तहा ।२३७५ जं कीरइ परिरक्खा णिच्चं मरण-भयभीरुजीवाणं । तं जाण अभयदाणं सिहामणि सव्वदाणाणं ॥२३८। -अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार प्रकारका श्रेष्ठ आहार पूर्वोक्त नवधा भक्तिसे तीन प्रकारके पात्रको देना चाहिए ।२३४। अति, बालक, मूक (गूगा), अन्ध, बधिर (बहिरा ), देशान्तरीय ( परदेशी) और रोगो दरिद्री जीवोको 'करुणादान दे रहा हूँ' ऐसा कहकर अर्थात समझकर यथायोग्य आहार आदि देना चाहिए ।२३॥ उपवास, व्याधि, परिश्रम और क्लेशसे परिपीड़ित ६। दानार्थ धन संग्रहका विधि निषेध | दानके लिए धनकी इच्छा अशान है। | दान देनेकी बजाय धनका ग्रहण ही न करे। | दानार्थ धन संग्रहको कथंचित् इष्टता । आयका वर्गीकरण। १. दान सामान्य निर्देश १. दान सामान्यका लक्षण त.स./७/३८ अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥३८स्वपरोपकारोऽनुग्रह' (स.सि /9/३८)। -स्वयं अपना और दूसरेके उपकारके लिए अपनी वस्तुका त्याग करना दान है। स.सि./६/१२/३३०/१४ परानुग्रहबुद्ध्या स्वस्यातिसजनं दानम् । दुसरे का उपकार हो इस बुद्धिसे अपनी वस्तुका अर्पण करना दान है । (रा. वा-/६/१२/४/५२२) ध.१३/५,५.१३०/३८६/१२ रत्नत्रयवद्भ्य' स्ववित्तपरित्यागो दानं रत्न त्रयसाधनादित्सा वा। -रत्नत्रयसे युक्त जीवोके लिए अपने वित्तका त्याग करने या रत्नत्रयके योग्य साधनों के प्रदान करनेकी इच्छाका नाम दान है। २. दानके भेद र.क श्रा/मु./११७ आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन वैयावृत्यं व बते चतुरात्मत्वेन चतुरस्रा. ११७ - चार ज्ञानके धारक गणधर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान ४२३ ३. गृहस्थोके लिए दान-धर्मकी प्रधानता जीवको जानकर अर्थात् देखकर शरीरके योग्य पथ्यरूप औषधदान भी देना चाहिए ।२३६। जो आगम-शास्त्र लिखाकर यथायोग्य पात्रोंको दिये जाते है, उसे शास्त्रदान जानना चाहिए तथा जिनवचनोंका अध्यापन कराना पढाना भी शास्त्रदान है ।२३७) मरणसे भयभीत जीवोंका जो नित्य परिरक्षण किया जाता है, वह सब दानोंका शिखामणिरूप अभयदान जानना चाहिए ।२३८। चा.सा./४३/६ दयादत्तिरनुकम्पयाऽनुग्राह्येभ्यः प्राणिभ्यखिशुद्धि भिरभयदानं । जिस पर अनुग्रह करना आवश्यक है ऐसे दुरखी प्राणियोंको दयापूर्वक मन, वचन, कायकी शुद्धतासे अभयदान देना दयादत्ति है। प.प्र./२/१२७/२४३/१० निश्चयेन वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनपरिणामरूपमभयप्रदानं स्वकीयजीवस्य व्यवहारेण प्राणरक्षारूपमभयप्रदान परजीवानां। -निश्चयनयकर वीतराग निर्विकल्प स्वसवेदन परिणाम रूप जो निज भावोंका अभयदान निज जीवकी रक्षा और व्यवहार नयकर परप्राणियोके प्राणोको रक्षारूप अभयदान यह स्वदया परदयास्वरूप अभयदान है । ५. सात्त्विक राजसादि दानोके लक्षण सा.ध./१/४७ में उद्घृत-आतिथेयं हितं यत्र यत्र पात्रपरीक्षणं । गुणाः श्रद्धादयो यत्र तद्दानं सात्त्विक विदुः। यदात्मवर्णनप्राय क्षणिकाहार्य विभ्रमं। परप्रत्ययसंभूतं दानं तद्राजसं मतं । पात्रापात्रसमावेक्षमसत्कारमसंस्तुतं । दासभृत्यकृतोद्योगं दानं तामसमूचिरे । जिस दानमें अतिथिका कल्याण हो, जिसमें पात्रकी परीक्षा वा निरीक्षण स्वयं किया गया हो और जिसमें श्रद्धादि समस्त गुण हों उसे सात्त्विक दान कहते है। जो दान केबल अपने यशके लिए किया गया हो, जो थोड़े समयके लिए ही सुन्दर और चकित करने वाला हो और दूसरेसे दिलाया गया हो उसको राजस दान कहते हैं। जिसमें पात्र अपात्रका कुछ खयाल न किया गया हो, अतिथिका सत्कार न किया गया हो, जो निन्द्य हो, और जिसके सब उद्योग दास और सेवकोंसे कराये गये हों, ऐसे दानको तामसदान कहते हैं। ६. सात्त्विकादि दानों में परस्पर तरतमता सा.ध./५/४७ में उधृत-उत्तम सात्त्विक दानं मध्यमं राजसं भवेत् । दानानामेव सर्वषां जघन्यं तामसं पुन.। =सात्त्विक दान उत्तम है, राजस मध्यम है, और सब दानोंमे तामस दान जघन्य है। ७. तियचों के लिए मी दान देना सम्भव है ध.७/२.२.१६/१२३/४ कधं तिरिक्खेसु दाणस्स संभवो। ण, तिरिक्रवसंजदासंजदाणं सचित्तभंजणे गहिदपच्चक्रवाणं सल्लइपल्लवादि देततिरिक्वाणं तदविरोधादो। प्रश्न--तिर्यंचोंमे दान देना कैसे सम्भव हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि जो तिर्यच संयतासयत जीव सचित्त भंजनके प्रत्याख्यान अर्थात व्रतको ग्रहण कर लेते हैं उनके लिए सल्लकी के पत्तों आदिका दान करने वाले तियचोंके दान देना मान लेनेमे कोई विरोध नहीं आता। २. क्षायिक दान निर्देश १. क्षायिक दानका लक्षण स. सि./२/४/१५४/४ दानान्तरायस्यात्यन्तायादनन्तप्राणिगणानुग्रहकर क्षायिकमभयदानम् । दानान्तरायकर्मके अत्यन्त क्षयसे अनन्त प्राणियोंके समुदायका उपकार करने वाला क्षायिक अभयदान होता है। (रा.वा./२/४/२/१०५/२८) २. क्षायिक दान सम्बन्धी शंका समाधान ध.१४/५,६,१८/१७/१ अरहंता वीणदाणं तराइया सन्वेसि जीवाणमिच्छिदेत्थे किण्ण देति । ण, तेसिं जीवाणं लाइंतराइयभावादो। प्रश्न-अरिहन्तोंके दानान्तरायका तो क्षय हो गया है, फिर वे सब जीवों को इच्छित अर्थ क्यों नहीं देते। उत्तर-नहीं, क्योंकि उन जीवोंके लाभान्तराय कर्मका सद्भाव पाया जाता है। ३. सिद्धों में क्षायिक दान क्या है स.सि./२/४/१५५/१ यदि क्षायिकदानादिभावकृतमभयदानादि, सिद्धेष्वपि तत्प्रसङ्गः, नैष दोषः, शरीरनामतीर्थंकरनामकर्मोदयाद्यपेक्षस्वात। तेषां तदभावे तदप्रसन'। कथ तर्हि तेषां सिद्धेषु वृत्तिः । परमानन्दाव्याबधिरूपेणैव तेषां तत्र वृत्तिः । केवलज्ञानरूपेणानन्तवीर्यवृत्तिवत्। --प्रश्न-यदि क्षायिक दानादि भावोके निमित्त से अभय दानादि कार्य होते है तो सिद्धोंमें भी उनका प्रसंग प्राप्त होता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि इन अभयदानादिके होनेमें शरीर नामकर्म और तीर्थकर नामकर्मके उदयकी अपेक्षा रहती है। परन्तु सिद्धोंके शरीरनामकर्म और तीर्थकर नामकर्म नहीं होते अतः उनके अभयदानादि नहीं प्राप्त होते। प्रश्न-तो सिद्धोमें क्षायिक दानादि भावों का सद्भाव कैसे माना जाय । उत्तरजिस प्रकार सिद्धोंके केवलज्ञान रूपसे अनन्त वीर्यका सद्भाव माना गया है उसी प्रकार परमानन्दके अव्याबाध रूपसे ही उनका सिद्धोंके सद्भाव है। ३. गृहस्थोंके लिए दान-धर्मकी प्रधानता १. सपात्रको दान देना ही गृहस्थका धर्म है र.सा./मू./११ दाणं पूजा मुक्ख सावयधम्मे ण सावया तेणविणा ।...।११। -सुपात्र में चार प्रकारका दान देना और श्री देवशास्त्र गुरुकी पूजा करना श्रावकका मुख्य धर्म है। नित्य इन दोनोंको जो अपना मुख्य कर्तव्य मानकर पालन करता है वही श्रावक है, धर्मात्मा व सम्यग्दृष्टि है । (र.सा./मू./१३) (पं.वि/७/७) प.प्र./टी./२/१११/४/२३१/१४ गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मः।-गृहस्थों के तो आहार दानादिक ही बड़े धर्म है। २. दान देकर खाना ही योग्य है र.सा./मू./२२ जो मणिभुत्ताबसेस भुंजइसी भुंजए जिणवद्दिछ । संसारसारसोक्वं कमसो णिव्वाणवरसोक्वं । =जो 'भव्य जीव मुनीश्वरोंको आहारदान देनेके पश्चात् अवशेष अन्नको प्रसाद समझ कर सेवन करता है वह संसारके सारभूत उत्तम सुखोंको प्राप्त होता है और क्रमसे मोक्ष सुखको प्राप्त होता है। का.अ./मू /१२-१३.. लच्छी दिजउ दाणे दया-पहाणेण । जा जल-तरंगचवला दो तिण्णि दिणाइ चिठे ।१२। जो पुण लच्छि संचदि ण य...देदि पत्तेसु। सो अप्पाण वंचदि मणुयत्तं णिप्फलं तस्स ।१३। पह लक्ष्मी पानी में उठनेवाली लहरोंके समान चंचल है, दो तीन दिन ठहरने वाली है तब इसे.. दयालु होकर दान दो ।१२। जो मनुष्य लक्ष्मीका केवल संचय करता है...न उसे जघन्य, मध्यम अथवा उत्तम पात्रोमें दान देता है. वह अपनी आत्माको ठगता है, और उसका मनुष्य पर्यायमें जन्म लेना वृथा है। ३. दान दिये बिना खाना योग्य नहीं कुरला/२ यदि देवान् गृहे वासो देवस्यातिथि रूपिण.। पीयूषस्यापि पानं हि तं बिना नैव शोभते २५ -जब घरमे अतिथि हो तब चाहे अमृत ही क्यों न हो, अकेले नहीं पीना चाहिए। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान ४२४ ४.दानका महत्त्व व फल क्रिया कोष/१९८६ जानौ गृद्ध समान ताके सुतदारादिका। जो नहीं करे ।१७१ जो भव्यात्मा अपने द्रव्यको सात क्षेत्रोमे विभाजित करता है वह सुदान ताके धन आमिष समा ।१६८६। जो दान नहीं करता है पंचकल्याणक्से सुशोभित त्रिभुवनके राज्यसुखको प्राप्त होता है ।१८। उसका धन मांसके समान है, और उसे खाने वाले पुत्र स्त्री आदिक । माता, पिता, पुत्र, स्त्री, मित्र आदि कुटुम्ब परिवारका सुख और गिद्ध मण्डलीके समान है। धन-धान्य, वस्त्र-अलंकार, हाथी, रथ, महल तथा महाविभूति आदि का सुख एक सुपात्र दानका फल है ।१६। सात प्रकार राज्यके अंग, ४. दान देनेसे ही जीवन व धन सफल है नवविधि, चौदह रत्न, माल खजाना, गाय, हाथी, घोड़े, सात प्रकार का.अ./मू./१४,१५-२० जो संचिऊण लच्छि धरणियले संठवेदि अइ की सेना, षट् खण्डका राज्य और छयानवे हजार रानी ये सर्व सुपात्र दूरे । सो पुरिसो त लच्छि पाहाण-सामाणिय कुणदि ।१४। जो बड्ड दानका ही फल है ।२०। उत्तम कुल, सुन्दर स्वरूप, शुभ लक्षण, माण-लच्छि अणवरयं देदि धम्म-कज्जेसु । सो पंडिएहि थुव्वदि श्रेष्ठ बुद्धि, उत्तम निर्दोष शिक्षा, उत्तमशील, उत्तम उत्कृष्ट गुण, तस्स वि सयला हवे लच्छी।११। एवं जो जाणित्ता विहलिय-लोयाण अच्छा सम्यक्चारित्र, उत्तम शुभ लेश्या, शुभ नाम और समस्त धम्मजुत्ताणं । णिरवेक्रतो तं देदि हु तस्स हवे जीवियं सहलं ॥२०॥ प्रकारके भोगोपभोगकी सामग्री आदि सर्व सुखके साधन सुपात्र दान- जो मनुष्य लक्ष्मीका संचय करके पृथिवीके गहरे तलमे उसे गाड़ के फलसे प्राप्त होते हैं ।२१।। र. क. पा./मू./११५-११६ उच्चैर्गोत्रं प्रणतेोंगो दानादुपासनात्पूजा। देता है, वह मनुष्य उस लक्ष्मीको पत्थरके समान कर देता है ।१४। जो मनुष्य अपनी बढती हुई लक्ष्मीको सर्वदा धर्मके कामों में देता है, भक्तेः सुन्दररूपं स्तवनारकीर्तिस्तपोनिधिषु ॥११५। क्षितिगतमिव उसको लक्ष्मी सदा सफल है और पण्डित जन भी उसकी प्रशंसा वटवीजं पात्रगतं दानमल्पमति काले । फलति च्छायाविभव बहुकरते हैं ।१६। इस प्रकार लक्ष्मीको अनित्य जानकर जो उसे निर्धन फल मिष्ट शरीरभृतां ।११६।-तपस्वी मुनियोंको नमस्कार करनेसे धर्मात्मा व्यक्तियोंको देता है और बदलेमे प्रत्युपकारकी वांछा नहीं उच्चगोत्र, दान देनेसे भोग, उपासना करनेसे प्रतिष्ठा, भक्ति करनेसे करता, उसोका जीवन सफल है ।२०। सुन्दर रूप और स्तवन करनेसे कीर्ति होती है ।११५॥ जीवोंको पात्रमें गया हुआ थोडा-सा भी दान समयपर पृथ्वीमें प्राप्त हुए बट ५. दानको परम धर्म कहनेका कारण बीजके छाया विभव वाले वृक्षकी तरह मनोवांछित बहुत फलको फलता है ।११६। (पं.वि./२/८-११) । पं. वि./२/१३ नानागृहव्यतिकराजितपापपुजैः खञ्जीकृतानि गृहिणो पु.सि.उ /१७४ कृतमात्मार्थं मुनये ददाति भक्तमिति भावितस्त्यागः। न तथा व्रतानि। उच्चै, फलं विदधतीह यथै कदापि प्रीत्याति शुद्ध अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्यहिसैव ।१७४ - इस मनसा कृतपात्रदानम् ॥१३॥ = लोकमें अत्यन्त विशुद्ध मन वाले अतिथि स विभाग बतमें द्रव्य अहिंसा तो परजीवोका दुःख दूर करने गृहस्थके द्वारा प्रीति पूर्वक पात्रके लिए एक बार भी किया गया दान के निमित्त प्रत्यक्ष ही है, रहो भावित अहिसा वह भी लोभ कषायके जैसे उन्नत फलको करता है वैसे फलको गृहकी अनेक झंझटोंसे त्यागकी अपेक्षा समझनी चाहिए। उत्पन्न हुए पाप समूहोंके द्वारा कुबड़े अर्थात शक्तिहीन किये गये गृहस्थके बत नहीं करते हैं ।१३।। पं.वि./२/१५-४४ प्रायः कुतो गृहगते परमात्मबोधः शुद्धात्मनो भुवि यतः प्र/टो./२/१११.४/२३१/१५ कस्मात स एव परमो धर्म इति चेव, निर पुरुषार्थसिद्धिः । दानात्पुनर्ननु चतुर्विधत. करस्था सा लीलयैव कृतन्तरविषयकषायाधीनतया आर्तरौद्रध्यानरताना निश्चयरत्नत्रय पात्रजनानुषं गात् ।१॥ कि ते गुणा' किमिह तत्सुखमस्ति लोके सा लक्षणस्य शुद्धोपयोगपरमधर्मस्यावकाशो नास्तीति । प्रश्न किं विभूतिरथ या न वशं प्रयाति। दानवतादिजनितो यदि मानवश्रावकोंका दानादिक हो परम धर्म कैसे है। उत्तर-वह ऐसे है, कि स्य धर्मो जगत्त्रयवशीकरण कमन्त्रा' ।१६। सौभाग्यशौर्य सुखरूपये गृहस्थ लोग हमेशा विषय कषायके अधीन है, इससे इनके आर्त, विवेकिताद्या विद्यावपुर्धनगृहाणि कुले च जन्म । संपद्यतेऽखिल मिदं रौद्र ध्यान उत्पन्न होते रहते हैं, इस कारण निश्चय रत्नत्रयरूप किल पात्रदानात तस्मात् किमत्र सतत क्रियते न यत्नः ।। शुद्धोपयोग परमधर्मका तो इनके ठिकाना ही नहीं है। अर्थात् अब =जगत में जिस आत्मस्वरूपके ज्ञानसे शुद्ध आत्माके पुरुषार्थकी काश ही नहीं है। सिद्धि होतो है, वह आत्मज्ञान गृहमें स्थित मनुष्यों के प्रायः कहाँसे होती है। अर्थाद नहीं हो सकती। किन्तु वह पुरुपार्थकी सिद्धि पात्र जनोमे किये गये चार प्रकारके दानसे अनायास ही हस्तगत हो ४. दानका महत्त्व व फल जाती है ।१५। यदि मनुष्यके पास तीनों लोकोंको वशीभूत करने१. पात्र दान सामान्यका महत्त्व के लिए अद्वितीय वशीकरण मन्त्रके समान दान एवं व्रतादिसे उत्पन्न हुआ धर्म विद्यमान है तो ऐसे कौनसे गुण हैं जो उसके र.सा./१६-२१ दिण्णइ सुपत्तदाणं विससतो होइ भोगसग्ग मही। वशमे न हो सकें, तथा वह कौन-सी विभूति है जो उसके अधीन णिबाणसुहं कमसो णिविट्ठ जिणवरिदेहि ।१६। खेत्तविसमे काले न हो अर्थात धर्मात्मा मनुष्यके लिए सब प्रकारके गुण, उत्तम वविय सुवीयं फलं जहा विउलं । होइ तहा तं जाणइ पत्तविसेसेसु सुख और अनुपम विभूति भी स्वयमेव प्राप्त हो जाती है ।१६। दाणफलं ॥१७॥ इह णियसुवित्तवीयं जो ववइ जिणुत्त सत्तखेत्तेसु । सो विहुवणरज्जफलं भुज दि कल्लाणपंचफलं ।१८। मादुपिदुःपुत्तमित्तं सौभाग्य, शूरवीरता, सुख, सुन्दरता, विवेक, बुद्धि, आदि विद्या, शरीर, धन, और महल तथा उत्तम कुलमें जन्म होना यह सब कलत्त-धणधण्णवत्थु वाहण विसयं । संसारसारसोक्वं जाणउ सुपत्तदाणफल ।१६। सत्तंगरज णवणि हिभंडार सडंगवलचउद्दहरयणं । छण्णव निश्चयसे पात्रदानके द्वार ही प्राप्त होता है। फिर हे भव्य जन ! दिसहसिच्छिविहउ जाणउ सुपत्तदाणफलं ।२०। सुकलसुरूवसुलक्षण तुम इस पात्रदानके विषयमें क्यों नही यत्न करते हो।४४। सुमइ सुसिकरवा सुसील सुगुण चारित्त। मुहलेसं सुहणामं सुहसादं सुपत्तदाणफलं ।२१। -सुपात्रको दान प्रदान करनेसे भोगभूमि तथा २. आहार दानका महत्व स्वर्गके सर्वोत्तम सुखकी प्राप्ति होती है। और अनुक्रमसे मोक्ष सुख- र. क. श्रा/मू./११४ गृहकर्माणि निचितं कर्म विमाटि स्खलु गृहविको प्राप्ति होती है ।१६। जो मनुष्य उत्तम खेतमें अच्छे बीजको बोता मुक्तानां । अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ।११४। - जैसे है तो उसका फल मनवांछित पूर्ण रूपसे प्राप्त होता है। इसा प्रकार जल निश्चय करके रुधिरको धो देता है, तैसें ही गृहरहित अतिउत्तम पात्र में विधिपूर्वक दान देनेसे सर्वोत्कृष्ट सुखकी प्राप्ति होती है थियोंका प्रतिपूजन करना अर्थात् मवधाभक्ति-पूर्वक आहारदान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान ४२५ ४. दानका महत्त्व व फल करना भी निश्चय करके गृहकार्योसे संचित हुए पापको नष्ट करता है ।११४। (पं.वि./७/१३) कुरल./५/४ परनिन्दाभयं यस्य विना दानं न भोजनम् । कृतिनस्तस्य निर्बीजो वंशो नैव कदाचन ।४। कुरल./३३/२ इदं हि धर्मसर्वस्वं शास्तृणां वचने द्वयम् । क्षुधार्तेन समं भुक्तिः प्राणिनां चैव रक्षणम् ।२। जो बुराईसे डरता है और भोजन करनेसे पहले दूसरों को दान देता है, उसका वंश कभी निर्बीज नहीं होता है। क्षुधाबाधितोंके साथ अपनी रोटी बाँटकर खाना और हिंसासे दूर रहना, यह सब धर्म उपदेष्टाओके समस्त उपदेशोमें श्रेष्ठतम उपदेश है ।२। (पं.वि./६/३१) पं.वि./७/८ सर्बो वाञ्छति सौख्यमेव तनुभृत्तन्मोक्ष एव स्फुटम् । दृष्टयादित्रय एव सिद्ध्यति स तन्निग्रन्थ एव स्थितम् । तद्वृत्तिवपुषोऽस्य बृत्तिरशनात्तद्दीयते श्रावकै काले क्लिष्टतरेऽपि मोक्षपदवी प्रायस्ततो वर्तते।। - सब प्राणी सुखको इच्छा करते है, वह मुख स्पष्टतया मोक्षमें ही है, वह मोक्ष सम्यग्दर्शनादि स्वरूप रत्नत्रयके होनेपर ही सिद्ध होता है, वह रत्नत्रय साधुके होता है, उक्त साधुकी स्थिति शरीरके निमित्तसे होती है, उस शरीरकी स्थिति भोजनके निमित्तसे होती है, और वह भोजन श्रावकोंके द्वारा दिया जाता है। इस प्रकार इस अतिशय क्लेशयुक्त कालमे भी मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति प्राय: उन श्रावकोंके निमित्तसे ही हो रही है। का.अ./मू./३६३-३६४ भोयण दाणे दिण्णे तिण्णि वि दाणाणि होति दिण्णाणि । भुक्रव-तिसाए वाही दिणे दिणे होंति देहीणं ।३६३। भोयण-बलेण साहू सत्थं सेवेदि रत्तिदिवस पि । भोयणदाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया होंति ३६४। = भोजन दान देनेपर तीनों दान दिये होते हैं। क्योंकि प्राणियोको भूख और प्यास रूपी व्याधि प्रतिदिन होती है। भोजनके बलसे हो साधु रात दिन शास्त्रका अभ्यास करता है और भोजन दान देनेपर प्राणों की भी रक्षा होती है।३६३-३६४। भावार्थ-आहार दान देनेसे विद्या, धर्म, तप, ज्ञान, मोक्ष सभी नियमसे दिया हुआ समझना चाहिए। अमि.श्रा./११/२५,३० केवलज्ञानतो ज्ञानं निर्वाणसुखतः सुखम् । आहारदानतो दानं नोत्तम विद्यते परम् ॥२५॥ बहुनान किमुक्तंन बिना सकलवेदिना। फलं नाहारदानस्य परः शक्नोति भाषितुम् ।३१। -केवलज्ञानत दूजा उत्तम ज्ञान नहीं, और मोक्ष सुःखते और दूजा सुख नहीं और आहारदानते और दूजा उत्तम दान नाही ।२५। जो किछ वस्तु तीन लोकवि सुन्दर देखिये है सो सर्व वस्तु अन्नदान करता जो पुरुष ताकरि लीलामात्र करि शीघ पाइये है। (अमि.श्रा./ ११/१४-४१) । सा.ध,/पृ. १६१ पर फुट नोट-आहाराद्भोगवान् भवेत् । - आहार दानसे भोगोपभोग मिलता है। ३, औषध व ज्ञान दानका महत्व अमि,श्रा./११/३७-५० आजन्म जायते यस्य न व्याधिस्तनुतापकः। कि सुखं कथ्यते तस्य सिद्धस्यैव महात्मनः ।३७। निधानमेष कान्तीनां कीर्तीनां कुलमन्दिरम् । लावण्यानां नदीनाथो भैषज्यं येन दीयते 1३८। लभ्यते केवलज्ञानं यतो• विश्वावभासकम् । अपरज्ञानलाभेषु कीदृशी तस्य वर्णना 1४७। शास्त्रदायी सतां पूज्य सेवनीयो मनीषिणाम् । बादी बारमी कविर्माभ्य, ख्यातशिक्ष' प्रजायते ।५० जाकै जन्म से लगाय शरीरको ताप उपजावन वाला रोग न होय है तिस सिद्धसमान महात्माका सुख कहिये। भावार्थ-इहाँ सिद्ध समान कह्या सो जैसे सिद्धनिकौ रोग नाही तसे याकै भी रोग नाही, ऐसी समानता देखी उपमा दीनि है ।३७॥ जा पुरुषकरि औषध दीजिये हे सो यह पुरुष कान्ति कहिये दीप्तिनिका तौ भण्डार होय है, और कीर्तिनिका कुल मन्दिर होय है जामै यशकीत्ति सदा वसै है, बहुरि सुन्दरतानिका समुद्र होय है ऐसा जानना ।३८। जिस शास्त्रदान करि पवित्र मुक्ति दीजिये है ताकै संसारकी लक्ष्मी देते कहा श्रम है।४६। शास्त्रको देनेवाला पुरुष संतनिके पूजनीक होय है अर पंडितनिके सेवनीक होय है, वादीनिके जीतनेवाला होय है, सभाको रंजायमान करनेवाला वक्ता होय है, नवीन ग्रन्थ रचनेवाला कवि होय है अर मानने योग्य होय है अर विख्यात है शिक्षा जाकी ऐसा होय है। पं.वि./9/8-१० स्वेच्छाहारविहारजल्पनतया नीरुग्वपुर्जायते। साधूनां तु न सा ततस्तदपटु प्रायेण संभाव्यते ॥ कुर्यादौषधपथ्यवारिभिरिद चारित्रभारक्षम यत्तस्मादिह वर्तते प्रशमिनां धर्मो गृहस्थोत्तमात । व्याख्याता पुस्तकदानमुन्नतधियां पाठाय भव्यात्मना । भक्त्या यत्क्रियते श्रुताश्रयमिदं दानं तदाहुर्बुधा.। सिद्धऽस्मिन् जननान्तरेषु कतिषु त्रैलोक्यलोकोत्सवश्रीकारिप्रकटीकृताखिलजगत्कैवल्यभाजो जना. १० = शरीर इच्छानुसार भोजन, गमन और सम्भाषणसे नीरोग रहता है। परन्तु इस प्रकारकी इच्छानुसार प्रवृत्ति साधुओंके सम्भव नहीं है। इसलिए उनका शरीर प्राय अस्वस्थ हो जाता है। ऐसी अवस्थामे चूंकि श्रावक उस शरीरको औषध पथ्य भोजन और जलके द्वारा व्रतपरिपालनके योग्य करता है अतएव यहाँ उन मुनियों का धर्म उत्तम श्रावकके निमित्तसे ही चलता है ।। उन्नत बुद्धिके धारक भव्य जीवोको जो भक्तिसे पुस्तकका दान किया जाता है अथवा उनके लिए तत्त्वका व्याख्यान किया जाता है, इसे विद्वजन श्रुतदान ( ज्ञानदान) कहते हैं। इस ज्ञानदानके सिद्ध हो जानेपर कुछ थोड़ेसे ही भवोंमें मनुष्य उस केवलज्ञानको प्राप्त कर लेते हैं जिसके द्वारा सम्पूर्ण विश्व साक्षात देखा जाता है। तथा जिसके प्रगट होनेपर तीनो लोकों के प्राणी उत्सवको शोभा करते है ।१०॥ सा.ध./पृ.१६१ पर फुट नोट... आरोग्यमौषधाज ज्ञेयं श्रुतात्स्यात श्रुत केवली ॥ औषध दानसे आरोग्य मिलता है तथा शास्त्रदान अर्थात (विद्यादान) देनेसे श्रुतकेवली होता है। ४. अभयदानका महत्व मू आ./६३६ मरण भयभीरु आणां अभयं जो देदि सबजावाणं। तं दाणाणवि तं दाणं पुण जोगेसु मूलजोगपि ।६३६-मरणभयसै भययुक्त सब जीवों को जो अभय दान है वही दान सब दानोमें उत्तम है और वह दान सब आचरणोमें प्रधान आचरण है। ज्ञा./८/५४ कि न तप्तं तपस्तेन कि न दत्तं महात्मना । वितीर्ण मभर्य येन प्रोतिमालम्ब्य देहिनाम् ।५४ -जिस महापुरुषने जीवोंको प्रीतिका आश्रय देकर अभयदान दिया उस महात्माने कौनसा तप नहीं किया और कौनसा दान नहीं दिया। अर्थात् उस महापुरुषने समस्त तप, दान किया। क्योंकि अभयदानमें सब तप, दान आ जाते हैं। अमि. श्रा./१३ शरीरं धियते येन शममेव महाव्रतम् । कस्तस्याभयदानस्य फलं शक्नोति भाषितुम् ॥१३ - जिस अभयदान करि जीवनिका शरीर पोषिए है जैसे समभावकरि महाबत पोषिए तैसें सो, तिस अभयदानके फल कहनेको कौन समर्थ है ।१३।। पं.वि./७/११ सर्वेषामभयं प्रवृद्धकरुणर्य दीयते प्राणिना, दानं स्यादभयादि तेन रहित दानत्रयं निष्फलम् । आहारौषधशास्त्रदानविधिभिः क्षुद्रोगजाड्याद्भयं यत्तत्पात्रजने विनश्यति ततो दान तदेकं परम् ।११। - दयालुपुरुषों के द्वारा जो सब प्राणियोको अभयदान दिया जाता है, वह अभयदान कहलाता है उससे रहित तीन प्रकारका दान व्यर्थ होता है । चूकि आहार, औषध और शास्त्रके दानकी विधिसे क्रमसे क्षुधा, रोग और अज्ञानताका भय ही नष्ट होता है अतएव वह एक अभयदान ही श्रेष्ठ है ।११। भावार्थ-अभयदानका अर्थ प्राणियोंके सर्व प्रकारके भय दूर करना है, अत. आहारादि दान अभयदानके ही अन्तर्गत आ जाते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-५४ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान ४२६ ४. दानका महत्त्व व फल ५. सत्पात्रको दान देना सम्यग्दृष्टिको मोक्षका कारण है अमि श्रा./११/१०२,१२३ पानाय विधिना दत्वा दानं मृत्वा समाधिना । अच्युतान्तेषु कल्पेषु जायन्ते शुद्धदृष्टयः 1१०२। निषेव्य लक्ष्मी मिति शर्मकारिणी प्रथीयसी द्वित्रिभवेषु कल्मषम् । प्रदह्यते ध्यानकृशानुनाखिल श्रयन्ति सिद्धि विधुतापदं सदा १२३। - पात्रके अर्थि दान देकरि समाधि सहित मरकै सम्यग्दृष्टि जीव है ते अच्युतपर्यंत स्वर्गनिविर्षे उपजै हैं ।१०२। ( अमि, श्रा./१०२) या प्रकार सुग्वकी करनेवाली महान् लक्ष्मी को भोगके दोय तीन भवनिविर्षे समस्त कमनिको ध्यान अग्निकरि जरायके ते जीव आपदारहित मोक्ष अव स्थाकौं सदा सेवे हैं ।१२३। (प.प्र./टी./२/१११-४/२३१/१५) ।। वसु /श्रा./२४६-२६६ बदाउगा सुदिट्ठी अणुमोयणेण तिरिया वि । णियमेणुववज्जति य ते उत्तमभागभूमोसु २४६। जे पुण सम्माइट्ठी विरयाविरया वितिविहपत्तस्स। जायंति दाणफलओ कप्पेसु महड्ढिया देवा ॥२६॥ पडिबुद्धिऊण चइऊण णिव सिरि संजमं च चित्तूण । उप्पाइऊण णाणं केई गच्छति णिव्वाणं १२६८१ अण्णे उ सुदेवत्तं सुमाणुसत्तं पुणो पुगो लहिऊण । सत्तट्ठमवेहि तओ तरंति कम्मवखर्य णियमा ।२६६। बदायुष्क सम्यग्दृष्टि अर्थात् जिसने मिथ्यात्व अवस्थामै पहिले मनुष्यायुको बाँध लिया है, और पोछे सम्यग्दर्शन उत्पन्न किया है, ऐसे मनुष्य पात्रदान देनेसे और उक्त प्रकारके ही तिथंच पात्र दानको अनुमोदना करनेसे नियमसे वे उत्तम भोगभूमियोमें उत्पन्न होते है ।२४६। जो अविरत सम्यग्दृष्टि और देशसंयत जोव हैं, वे तीनों प्रकारके पात्रोको दान देनेके फलसे स्वर्गों में महद्धिक देव होते है ।२६॥ (उक्त प्रकारके सभी जीव मनुष्योमें आकर चक्रवर्ती आदि होते है। ) तब कोई वैराग्यका कारण देखकर प्रतिबुद्ध हो, राज्यलक्ष्मीको छोड़कर और संग्रमको ग्रहण कर कितने हो केवलज्ञानको उत्पन्न कर निर्वाणको प्राप्त होते हैं। और क्तिने हो जीव सुदेवत्व और समानुषत्वको पुन: पुन' प्राप्त कर सात आठ भवमें नियमसे कर्मक्षयको करते हैं (२६८-२६६)। ६. सत्पात्र दान मिथ्यादृष्टिको सुभोगभूमिका कारण है म.पु/8/८५ दानाद दानानुमोदाद्वा यत्र पात्रसमाश्रितात् । प्राणिनः सुखमेधन्ते यावज्जोवमनामयाः 11 - उत्तम पात्रके लिए दान देने अथवा उनके लिए दिये हुए दानकी अनुमोदनामे जीव जिस भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं उसमे जोवन पर्यन्त नीरोग रहकर सुख से बढते रहते है। अमि. श्रा./६२ पात्रेभ्यो य' प्रकृष्टेभ्यो मिथ्यादृष्टि प्रयच्छति । स याति भोगभूमोषु प्रकृष्टासु महोदयः १६२॥ -जो मिथ्यादृष्टि उत्कृष्ट पात्रनिके अर्थि दान देय है सो महाद है उदय जाका ऐसा उत्कृष्ट भीम भूमि को जाय है। (वसु. श्रा./२४५) बसु. श्रा./२४६-२४७ जा मज्झिमम्मि पत्तम्मि देह दाणं खु बामदिही वि। सो मज्झिमासु जीवो उप्पज्जइ भोयभूमीसु ॥२४६॥ जो पुण जहण्णपत्तम्मि देइ दाणं तहाविहो विणरो। जायइ फलेण जहण्णसु भोयभूमीसु सो जोवो ॥२४७॥ = अर जो मिथ्यादृष्टि भी पुरुष मध्यमपात्र में दान देता है वह जीव मध्यम भोगभूमिमें उत्पन्न होता है ॥२४६॥ और जो जोय तथाविध अर्थाद उक्त प्रकारका मिथ्या दृष्टि भो मनुष्य जघन्य पात्र में दानको देता है, वह जीव उस दानके फलसे जघन्य भोग भूमियोमें उत्पन्न होता है ॥२४॥ ७. कुपात्र दान कुभोग भूमिका कारण है प्र. सा./मू-/२५६ छात्यविहिदवत्थुसु वदणियमझयण झाणदाणरदो। ण लहदि अपुषभावं भावं सादप्पगं लहदि। -जो जीव छद्मस्थविहित बरतुओंमें ( देव, गुरु धर्मादिकमें ) व्रत-नियम-अध्ययन ___ ध्यान-दानमे रत होता है वह मोक्षको प्राप्त नहीं होता, (किन्तु) सातात्मक भावको प्राप्त होता है ॥२६॥ ह. पु./9/११५ कुपात्रदानतो भूत्वा तिर्यञ्चो भोगभूमिषु । संभुञ्जतेऽन्तरं द्वीपं कुमानुषकुलेषु वा ॥११॥ -कुपात्र दानके प्रभाव से मनुष्य, भोगभूमियों में तिर्यञ्च होते हैं अथवा कुमानुष कुलोमे उत्पन्न होकर अन्तर द्वीपोंका उपभोग करते हैं ।११५॥ अमि.श्रा./८४-८८ कुपात्रदानतो याति कुत्सिता भोगमेदिनीम् । उप्ते कः कुत्सिते क्षेत्रे सुक्षेत्रफलमश्नुते ।८४येऽन्तरद्वीपजाः सन्ति ये नरा म्लेच्छरवण्डजाः । कुपात्रदानतः सर्वे ते भवन्ति यथायथम् ॥८॥ वर्यमध्यजधन्यासु तिर्यश्चः सन्ति भूमिषु । कुपात्रदान वृक्षोत्थ भुज्जते तेऽखिला' फलम् ॥८६॥ दासीदासद्विपम्लेच्छसारमेयादयोऽत्र ये। कुपात्रदानतो भोगस्तेषां भोगवता स्फुटम् ॥८७॥ दृश्यन्ते नीचजातीन ये भोगा भोगिनामिह । सर्वे कुपात्रदानेन ते दीयन्ते महोदया।८८॥ =कुपात्रके दानत जीव कुभोगभूमिको प्राप्त होय है. इहाँ दृष्टांत क है है-खोटा क्षेत्रवि बीज बोये संते सुक्षेत्रके फलको कौन प्राप्त होय, अपितु कोई न होय है ॥४॥ (वसु. श्रा./२४८ )। जे अन्तरद्वीप लवण समुद्रवि वा कालोद समुद्र विषै छयानचें कुभोग भूमि के टापू परे है, तिनविषै उपजे मनुष्य हैं अर म्लेच्छ खण्ड विर्षे उपजै मनुष्य हैं ते सर्व कुपात्र दानत यथायोग होय है ॥८५॥ उत्तम, मध्यम, जघन्य भोग भूमिन विर्ष जे तिर्यच है ते सर्व कुपात्र दान रूप वृक्षत उपज्या जो फल ताहि खाय है ॥८६॥ इहां आर्य स्खण्डमें जो दासी, दास, हाथी, म्लेच्छ, कुत्ता आदि भोगवंत जीव हैं तिनको जो भोगै सो प्रगटपने कुपात्र दानते हैं, ऐसा जानना ॥८७॥ इहाँ आर्य खण्ड विषै नीच जातिके भोगी जीवनिके जे भोग महाउदय रूप देखिये है ते सर्व कुपात्र दान करि दीजिये है ॥८॥ ८. अपात्र दानका फल अत्यन्त अनिष्ट है प्र. सा./मू./२५७ अविदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगेसु पूरिसेस । जुठं कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुवेसु ॥२५७॥ -जिन्होने परमार्थको नही जाना है, और जो विषय कषायमें अधिक है, ऐसे पुरुषों के प्रति सेवा, उपकार या दान कुदेवरूपमें और कुमानुष रूपमें फलता है ॥२७॥ ह. पु./७/११८ अम्बु निम्बद्रुमे रौद्रं कोद्रवे मद कृद्ध यथा । विर्ष व्यालमुखे क्षीरमपात्रे पतितं तथा ॥११८॥ - जिस प्रकार नीमके वृक्षमें पड़ा हुआ पानी कडुवा हो जाता है, कोदो में दिया पानी मदकारक हो जाता है, और सर्प के मुख में पडा दूध विष हो जाता है, उसी प्रकार अपात्रके लिये दिया हुआ दान विपरीत फलको करनेवाला हो जाता हे ॥११८॥ (अमि. श्रा./ह-६) (वसु श्रा/२४३)। वसु. श्रा/२४२ जह उसरम्मि खित्त पडण्णनीयं ण कि पि रहेइ । फला वज्जियं वियाणइ अपत्तदिग्णं तहा दाणं ॥२४२॥ = जिस प्रकार उसर खेतमें मोया गया बीज कुछ भी नहीं उगता है, उसी प्रकार अपात्र में दिया गया दान भी फल रहित जानना चाहिए ।२४२॥ ९.विधि, द्रव्य, दाता व पात्रके कारण दानके फलमें विशेषता आ जाती है त. सु./७/३६ विधिद्रव्यदातृपात्र विशेषात्तद्विशेष ॥३६॥ -विधि, देय___ बस्तु, दाता और पात्रकी विशेषतासे दानकी विशेषता है ॥३॥ कुरल./8/७ आतिथ्यपूर्ण माहात्म्यवर्णने न क्षमा वयम् । दातृपात्रविधिद्रव्यैस्तस्मिन्नस्ति विशेषता ॥७॥ -हम किसी अतिथि सेवाके माहात्म्यका वर्णन नहीं कर सकते कि उसमें कितना पुण्य है। अतिथि यज्ञका महत्त्व तो अतिथिको योग्यता पर निर्भर है।। प्र. सा/मू./२५५ रागो पसत्यभूदो वत्थविसेसेण फलदि विवरीदं । जाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि । -जैसे इस जगत में जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान ४२७ ५. विधि द्रव्य दातृ पात्र आदि निर्देश चा. सा/२८/३ दीयमानेऽन्नादौ प्रतिगृहीतुस्तपस्वाध्यायपरिवृद्धिकरणत्वाद्रव्य विशेषः। =भिक्षामें जो अन्न दिया जाता है वह यदि आहार लेनेवाले साधुके तपश्चरण स्वाध्याय आदिको बढानेवाला हो तो वही द्रव्यकी विशेषता कहलाती है। अनेक प्रकारकी भूमियों में पड़े हुए बीज धान्य कालमे विपरोततया फलित होते हैं, उसी प्रकार प्रशस्तभूत राग वस्तु भेदसे ( पात्र भेदसे) विपरीततया फलता है ॥२५॥ स. सि./७/३६/३७३/५ प्रतिग्रहादिक्रमो विधिः। प्रतिग्रहादिष्वादरानादरकृतो भेद । तपःस्वाध्यायपरिवृद्धिहेतुत्वादिद्रव्यविशेष' । अनसूयाविषादादितृविशेषः । मोक्षकारणगुणसंयोगः पात्रविशेषः । ततश्च पुण्यफलविशेषः क्षित्यादिविशेषाद बीजफल विशेषवत् । -प्रतिग्रह आदि करनेका जो क्रम है वह विधि है ।...प्रतिग्रह आदिमें आदर और अनादर होनेसे जो भेद होता है वह विधि विशेष है। जिससे तप और स्वाध्याय आदिकी वृद्धि होती है वह द्रव्य विशेष है। अनसूया और विषाद आदिका न होना दाताकी विशेषता है। तथा मोक्ष के कारणभूत गुणोंसे युक्त रहना पात्रकी विशेषता है। जैसे पृथिवी आदिमें विशेषता होनेसे उससे उत्पन्न हुए बोजमें विशेषता आ जाती है वैसे ही विधि आदिक की विशेषतासे दानसे प्राप्त होनेवाले पुण्य फलमें विशेषता आ जाती है। (रा. वा /७/१६/१-६/१५६) (अमि. श्रा./१०१३० ) ( वसु. श्रा./२४०-२४१)। २. दान प्रति उपकारकी मावनासे निरपेक्ष देना चाहिए का. अ./२० एवं जो जाणित्ता विहलिय-लोयाण धम्मजुत्ताणं । णिरवेक्खो तं देदि हु तस्स हवे जीवियं सहलं ॥२०॥ -इस प्रकार लक्ष्मोको अनित्य जानकर जो उसे निर्धन धर्मात्मा व्यक्तियो को देता है और उसके बदलेमें उससे प्रत्युपकारकी वाञ्छा नहीं करता, उसीका जीवन सफल है ॥२०॥ ३. गाय आदिका दान योग्य नहीं पं.वि./२/१० नान्यानि गोकनकभूमिरथाङ्गनादिदानानि निश्चितमवद्य कराणि यस्मात ॥५०॥ - आहारादि चतुर्विध दानसे अतिरिक्त गाय, सुवर्ण, पृथिवी. रथ और स्त्री आदिके दान, महान फलको देनेवाले नहीं है ॥५०१ सा. ध./५/५३ हिसार्थ त्यान्न भूगेह-लोहगोऽश्वादिनैष्टिकः । न दद्याद् ग्रहसंक्रान्ति-श्राद्धादौ वा सुदृग्द्रहि ॥५३॥ -नैष्ठिक श्रावक प्राणियोंकी हिंसाके निमित्त होनेसे भूमि, शस्त्र, गौ, बैल, घोडा वगैरह है आदिमें जिनके ऐसे कन्या, सुवर्ण, और अन्न आदि पदार्थों को दान नहीं देवे। (सा, ध./8/४६-५६)। १०.दानके प्रकृष्ट फलका कारण र.क. श्रा./११६ नन्वेवं विधं विशिष्टं फलं स्वल्पं दानं कथं संपादयतीत्याशङ्काऽपनोदार्थमाह -क्षितिगतमिव बदबोजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले। फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृता ॥११६॥ -प्रश्न-स्वल्प मात्र दानतै इतना विशिष्ट फल कैसे हो सकता है। उत्तर-जीवोंको पात्र में गया हुआ अर्थात् मुनि अजिका आदिके लिए दिया हुआ थोड़ा-सा भी दान समय पर पृथ्वीमें प्राप्त हुए वट बीजके छाया विभववाले वृक्षकी तरह मनोवांछित फलको फलता है ॥११६॥ (वसु. श्रा./२४०) (चा. सा./२६/१)। पं.वि./२/३८ पुण्यक्षयारक्षयमुपैति न दीयमाना लक्ष्मीरत' कुरुत संतत- पात्रदानम् । कूपे न पश्यत जलं गृहिणः समन्तादाकृष्यमाणमपि वर्धत एव नित्यम् ॥३८॥ -सम्पति पुण्यके क्षयसे क्षयको प्राप्त होती है. न कि दान करनेसे । अतएव हे श्रावको! आप निरन्तर पात्र दान कर। क्या आप यह नहीं देखते कि कुएं से सब ओरसे निकाला जानेवाला भी जल नित्य बढता ही रहता है। ४. मिथ्यादृष्टिको दान देनेका निषेध द. पा./टी./२/३/१ दर्शनहीन'.. तस्यान्नदानाक्षिकमपि न देयं । उक्त च-मिथ्यादृरभ्यो दददान दाता मिथ्यात्ववर्धकः। -मिध्यादृष्टिको अन्नादिक दान भी नहीं देना चाहिए। कहा भी है--मिथ्याष्टिको दिया गया दान दाताको मिथ्यात्वका बढानेवाला है। अमि० श्रा०/५० तद्य नाष्टपदं यस्य दीयते हितकाभ्यया। स तस्याष्टापदं मन्ये दत्ते जीवितशान्तये।५०-जैसे कोऊ जीवनेके अर्थ काहको अष्टापद हिंसक जीवको देय तो ताका मरन ही होय है तैसैं धर्मके अर्थ मिथ्यादृष्टीनको दिया जो सुवर्ण तातै हिसादिक होने त परके वा आपके पाप ही होय है ऐसा जानना ।१०। सा. ध./२/६४/१४६ फुट नोद-मिथ्यात्वग्रस्तचित्तेसु चारित्राभास भागिषु । दोषायैव भवेद्दान पय.पानमिवाहिषु । चारित्राभासको धारण करनेवाले मिथ्यादृष्टियोको दान देना सर्पको दूध पिलानेके समान केवल अशुभके लिए ही होता है। ५. विधि द्रव्य दातृ पात्र आदि निर्देश १. दान योग्य द्रव्य र. सा./२३-२४ सीदुण्ह वाउविउल सिलेसियं तह परीसमव्याहिं । कायकिलेमुव्यासं जाणिज्जे दिण्णए दाणं ॥२३॥ हियमियमण्णपाणं णिरबज्जोसहिणिराउलं ठाणं । सयणासणमुवयरणं जाणिज्जा देइ मोक्रवरवो ॥२४॥ - मुनिराजको प्रकृति, शीत, उष्ण, वायु, श्लेष्म या पित्त रूपमें से कौन-सी है। कायोत्सर्ग वा गमनागमनसे कितना परिश्रम हुआ है, शरीरमें ज्वरादि पीडा तो नहीं है। उपवाससे कण्ठ शुष्क तो नहीं है इत्यादि बातोंका विचार करके उसके उपचार स्वरूप दान देना चाहिए ॥२३॥ हित-मित प्रासुक शुद्ध अन्न, पान, निर्दोष हितकारी ओषधि, निराकुल स्थान, शयनोपकरण, आसनोपकरण, शास्त्रोपकरण आदि दान योग्य वस्तुओको आवश्यकताके अनुसार सुपात्र में देता है वह मोक्षमार्गमें अग्रगामी होता है ॥२४॥ पु. सि. उ./१७० रागद्वेषासंयममददुःखभयादिकं न यत्कुरुते। द्रव्यं तदेव देयं सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरम् ॥१७०॥ =दान देने योग्य पदार्थजिन वस्तुओंके देनेसे राग द्वेष, मान, दुःख, भय, आदिक पापोंकी उत्पत्ति होती है, वह देने योग्य नहीं। जिन वस्तुओंके देनेसे तपश्चरण, पठन, पाठन स्वाध्यायादि कार्यों में वृद्धि होती है, वही देने योग्य हैं ॥१७०॥ (अमि. श्रा./६/४४) (सा. ध./२/४५)। ५. कुपात्र व अपात्रको करुणा बुद्धिसे दान दिया जाता है पं. ध /उ./७३० कुपात्रायाप्यपात्राय दान देयं यथोचितम् । पात्रबुद्ध्या निषिद्ध' स्यानिषिद्धन कृपाधिया ।७३०। कुपात्रके लिए और अपात्रके लिए भी यथायोग्य दान देना चाहिए क्योंकि कुपात्र तथा अपात्रके लिए केवल पात्र बुद्धिसे दान देना निषिद्ध है, करुणा बुद्धि से दान देना निषिद्ध नही है । 1७३०। (ला. सं./३/१६१) (ला. सं./५/२२५) । उसके उपचार हित-मित प्रा गरी ओषधि ६. दुखित भुखितको मी करुणाबुद्धिसे दान दिया जाता पं.ध..३०/७३१ शेषेभ्यः क्षुत्पिपासादिपीडितेभ्योऽशुभोदयात् । दीनेभ्योऽभयदानादि दातव्यं करुणार्णवै ७६१ -दयालु श्रावकोंको अशुभ कर्मके उदयसे क्षुधा, तृषा, आदिसे दुखी शेष दोन प्राणियों के लिए भी अभय दानादिक देना चाहिए।७३१ (ला, स./३/१६२)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान ४२८ दिग्नाग कथा। ७. ग्रहण व संक्रान्ति आदिके कारण दान देना योग्य नहीं मैहिकं । = गृहस्थ अपने कमाये हुए धनके चार भाग करे, उसमेंसे अमि, श्रा./६०-६१ यः संक्रान्तौ ग्रहणे वारे वित्तं ददाति मूढमति । एक भाग तो जमा रखे, दूसरे भागसे बर्तन वस्त्रादि धरकी चीजें सम्यक्त्ववन छित्त्वा मिथ्यात्ववनं वपत्येषः।६। ये ददते मृततृप्त्यै खरीदे, तीसरे भागसे धर्मकार्य और अपने भोग उपभोगमें खर्च करे बहुधादानानि नूनमस्तधियः । पल्लवयितं तरु' ते भस्मीभूतं निषि और चौथे भागसे अपने कुटुम्बका पालन करे। अथवा अपने कमाये वन्ति ।६१ =जो मूढबुद्धि पुरुष संक्रान्तिविर्षे आदित्यवारादि (ग्रण) हुए धनका आधा अथवा कुछ अधिक धर्मकार्यमें खर्च करें और बचे धार विर्षे धनको देय है सो सम्यक्त्व वनको छेदिकै मिथ्यात्व वनको हुए द्रव्यसे यत्नपूर्वक कुटुम्ब आदिका पालन पोषण करें। बोवै है ।६०। जे निर्बुद्धि पुरुष मरे जीवकी तृप्तिके अर्थ बहुत प्रकार दानकथा-कवि भारामल ( ई० १७५६ ) द्वारा हिन्दी भाषामें रचित दान देय है ते निश्चयकरि अग्निकरि भस्मरूप वृक्षकों पत्र सहित करनेकौ सींचे है।६१३ दानांतराय कर्म-दे० अन्तराय/११ सा. घ.//३ हिसार्थत्वान्न भूगेह-लोहगोऽश्वादिनैष्ठिकः । न दद्याद् दामनन्दिनन्दि संघके देशीयगण-गुणनन्दि शाखा के अनुसार ग्रहसंक्रान्ति-श्राद्धादौ वा सुदृग्गुहि ॥५३॥ =नैष्ठिक श्रावक प्राणियोंकी हिंसामें निमित्त होनेसे भूमि आदि को दान नहीं देवे। और आप सर्वचन्द्र के शिष्य और वीरनन्दिके गुरु थे। समय-वि.१०००जिनको पर्व माननेसे सम्यक्त्वका घात होता है ऐसे ग्रहण, संक्रान्ति, १०३० ई० ६४३-६७३ । २. इसी संघ की नयकीर्ति शाखा के अनुसार तथा श्राद्ध वगैरहमें अपने द्रव्यका दान नहीं देवे।।३। आप रविचन्द्र के शिष्य व श्रीधरदेव के गुरु थे।-दे०इतिहास/७/५.१ दायक-१. आहारका एक दोष । दे० आहार/I1/४, २. वस्तिकाका ६. दानार्थ धन संग्रहका विधि निषेध एक दोष । दे० वस्तिका । दारवेणी-आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । १. दानके लिए धनकी इच्छा अज्ञान है दासी-दासी पत्नी । दे० स्त्री। इ. उ./मू./१६ त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्त. संचिनोति यः । स्वशरीरं स दिक-१, दिशाएँ-दे. दिशा। २. लवण समुद्र में स्थित एक पर्वत पड्केन स्नास्यामीति विलिम्पति।१६। = जो निर्धन मनुष्य पात्रदान, दे० लोक/५/६ । देवपूजा आदि प्रशस्त कार्योंके लिए अपूर्व पुण्य प्राप्ति और पाप विनाशकी आशासे सेवा, कृषि और वाणिज्य आदि कार्योंके द्वारा दिककुमार-१. भवनवासी देवोंका एक-भेद-दे० भवन/१/४ २. धन उपार्जन करता है वह मनुष्य अपने निर्मल शरीरमे 'नहा लूगा' दिककुमार भवनवासी देवोंका अवस्थान-दे० भवन/४/१। इस आशासे कीचड़ लपेटता है ।१६। विककुमारी-१. आठ दिक्कुमारी देवियाँ नदंन वनमें स्थित आठ कूटोंपर रहती हैं-सुमेधा, मेघमालिनी, तोयंधरा, विचित्रा, मणि२. दान देनेकी अपेक्षा धनका ग्रहण हीन करे मालिनी, (पुष्पमाला) आनन्दिता, मेघकरी।-० लोका३/६४व; आ. अनु./१०२ अर्थिभ्यस्तृणवद्विचिन्त्य विषयाच कश्चिच्छ्रियं दत्तवान् लोक/७४४। दिक्कुमारी देवियाँ रुचक पर्वतके कूटोंपर निवास करती पापं तामवितर्पिणी, विगणयन्नादाद परस्त्यक्तवान् । प्रागेत्र कुशला हैं। जो गर्भके समय भगवानकी माताको सेवा करती है।-दे० विमृश्य सुभगोऽप्यन्यो न पर्यग्रहीत एते ते विदितोत्तरोत्तरवरा' लोक/४/७। कुछ अन्य देवियों के नाम निर्देश-जया, सर्वोत्तमास्त्यागिनः ।१०२= कोई विद्वान मनुष्य विषयोंको तृणके विजया, अजिता, अपराजिता, जम्भा, मोहा, स्तम्भा, स्तम्भिनी। समान तुच्छ समझकर लक्ष्मीको याचकों के लिए दे देता है, (प्रतिष्ठासारोद्धार/३/३१७-२४)। श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, कोई पाप रूप समझकर किसीको बिना दिये ही त्याग देता है। लक्ष्मी, शान्ति व पुष्टि । (प्रतिष्ठासारोद्धार/४/२७) । सर्वोत्तम वह है जो पहिलेसे ही अकल्याणकारी जानकर ग्रहण नहीं दिक्पालदेव-दे० लोकपाल । करता ।१०२॥ दिकवास-लत्रण समुद्र में स्थित एक पर्वत-दे० लोक/9/8 ३. दानार्थ धन संग्रहकी कथंचित् इष्टता दिक्वत-दे० दिग्वत। कुरल./२३/६ आर्तक्षुधाविनाशाय नियमोऽयं शुभावहः । कर्तव्यो। दिगंतरक्षित-१. एक लौकान्तिक देव-दे. लौकान्तक । धनिभिनित्यमालये वित्तसंग्रह ६ गरीबों के पेटकी ज्वालाको दिगंबर-१. अचेल मुद्रा का उपासक जिन प्रणीतमार्ग । २. मूल दि० शान्त करनेका यही एक मार्ग है कि जिससे श्रीमानों को अपने पास विशेष करके धन संग्रह कर रखना चाहिए।६। साधु संघ (दे० इतिहास/५.१).३. श्वेताम्बर मान्य नबीन उत्पत्ति -दे० श्वेताम्बर। ४. आयका वर्गीकरण दिगिद्र-दे० इन्द्र । पं. वि./२/३२ ग्रासस्तदर्धमपि देयमथार्धमेव तस्यापि संततमणुवतिना दिग्गजेंद्र-१. विदेह क्षेत्रमें सुमेरु पर्वतके दोनों ओर भद्रशाल वनमें यद्धि । इच्छानुरूपमिह कस्य कदात्र लोके द्रव्यं भविष्यति सदुत्त सीता व सीतोदा नदीके प्रत्येक तटपर दो-दो दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं। मदानहेतुः ।३२- अणुव्रती श्रावकको निरन्तर अपनी सम्पत्तिके इनके अंजन शैल, कुमुद शैल, स्वस्तिक शैल, पलाशगिरि, रोचक, अनुसार एक ग्रास, आधा ग्रास उसके भी आधे भाग अर्थात चतुर्थांश पद्मोत्तर, नील ये नाम हैं।-दे० लोक/३/८ । २. उपरोक्त कूटोंपर को भी देना चाहिए। कारण यह है कि यहाँ लोकमें इच्छानुसार दिग्गजेन्द्र देव रहते हैं।-दे० व्यतर/४/५ लोक/३/८ इनके अतिरिक्त द्रव्य किसके किस समय होगा जो कि उत्तम दानको दे सके, यह कुछ रुचक पर्वतके चार कूटोपर भी चार दिग्गजेन्द्र देव रहते हैं।-दे० नहीं कहा जा सकता ।३२॥ व्यंतर/४/लोक/४/७। सा.ध./१/११/२२ पर फुट नोट-पादमायानिधिं कुर्यात्पाद वित्ताय खट्वयेत् । धर्मोपभोगयो पादं पादं भर्तव्यपोषणे । अथवा-आयार्द्ध दिग्नाग-एक बौद्ध विद्वान् । कृति-न्यायप्रवेश। समय-ई० सं० च नियुञ्जीत धर्मे समाधिकं ततः । शेषेण शेषं कुर्वीत यत्नतस्तुच्छ- ४२५ (सि. वि./२१ पं० महेन्द्र) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिम्पट चौरासो दिग्पट चौरासी श्वेताम्बराचार्य यशोविजय (३० १६३८-१६८) द्वारा भाषा छन्दोमें रचित ग्रन्थ है । जिसमे दिगम्बर मतपर चौरासी आक्षेप किये गये हैं । दिग्विजय नारायणकी दिग्विजयका परिचय दे० - ४२९ शलाका पुरुष / २. ४ । दिग्व्रत १ दिग्बतका लक्षण र. क.आ./६८-६६ दिल परिचित कृतो हि यास्यामि । इति सकल्प दिखतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै । ६८ । मकराकर सरिदगिरिजन योजनानि मर्यादाः प्रातुर्दिशा दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि । ६ मरण पर्यन्त सूक्ष्माको विनिवृत्तिके लिए दो दिशाओंका परिमाण करके इससे बाहर मे नहीं जाऊंगा इस प्रकार संकल्प करना या निश्चय कर लेना सो दिग्वत है । ६८ । दशों दिशाओंके श्याममें प्रसिद्ध प्रसिद्ध, समुद्र, नदी, पर्वत, देश और योजन पर्यन्तकी मर्यादा कहते हैं । ६६ । ( स. सि. / ७ / २१/३५६/१० ); (रा. वा. / ०/२१/९६/६४९/२६) (सा. ६/५/२); (का.अ./मू./३४२) वसु. बा. २१४ पुसद पच्चिमा काऊन जोप पगमनादिसि विविसि गुणम्यर्थ पडर्म-पूर्व उत्तर दक्षिण ओर पश्चिम दिशाओमें योजनाका प्रमाण करके उससे आगे दिशाओ और विदिशाओं में गमन नहीं करना, यह प्रथम दिग्वत नामका गत है | २१४ | २. दिग्व्रत के पाँच अतिचार त. सू / ०/३० ऊर्णास्तिर्यग्यतिक्रम क्षेत्र वृद्विस्मृत्यन्तराधानानि ॥६०॥ - ऊम्पदिकम, अयोध्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान ये दिग्विरति व्रतके पाँच अतिचार हैं |३०| र.क. आ./०३ तिर्यग्व्यतिपात क्षेत्र विस्मरण दिग्रितेत्याशा पचमत्यन्ते 1031 अज्ञान व प्रमादसे ऊपरको ॥७३॥ नीचेकी तथा विदिशाओंकी मर्यादाका उल्लंघन करना, क्षेत्रकी मर्यादा बढ़ा देना और की हुई मर्यादाओको धूल जाना, ये पाँच दिग्वतके अतिचार माने गये हैं । ३. परिग्रह परिमाण व्रत और क्षेत्रवृद्धि अतिचार में अन्तर रा. बा./१/२०/५-६/४५३/२१ अभिगृहीताया दिशो लोभानेशादादियाभिसन्धि क्षेत्रवृद्धि १५ स्यादेतत्- इच्छापरिणामे पञ्चमेऽणुवते अस्वान्तर्भामिति न कि कारणान्याधिकरणत्वात् । इच्छापरिणामं क्षेत्रवास्त्वादिविषयम् इदं पुन. दिग्विरमार्थम् । अस्यां दिशि लाभे जो तिला मरणमतोऽन्यत्र लाभेऽपि न मिति नतु दिशि क्षेत्रादिष्विव परिग्रहवृद्धपारमसारवाद परिणामकरणमस्ति ततोऽविशेषोऽस्यावसेयः सोभ आदिके कारण स्वीकृत मर्यादाका बढा लेना क्षेत्रवृद्धि है । प्रश्न- इच्छा परिणाम नामक पाँचवें अणुवत में इसका अन्तर्भाव हो जाने के कारण इनका पुनः ग्रहण करना पुनरुक्त है ' उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि, उसका अधिकरण अन्य है । इच्छाका परिमाण क्षेत्र, वास्तु आदि विषयक है, परन्तु यह दिशा विरमण उससे अन्य है । इस दिशा में लाभ होगा अन्यत्र लाभ नहीं होगा और लाभालाभसे जीवन-मरणकी समस्या जुटी है फिर भी स्वीकृत दिशा मर्यादासे आगे लाभ होनेपर भी गमन नहीं करना दिग्विरति है । दिशाओंका क्षेत्र वास्तु आदिकी तरह परिग्रह बुद्धिसे अपने आधीन करके प्रमाण नहीं किया जाता। इसलिए इन दोनोमे भेद जानने योग्य है । दिवाकरनंदि ★ दिग्वत व देशव्रत में अन्तर : दे० देशव्रत । ४. दिग्वतका प्रयोजन व महत्त्व 1 र. क. श्रा / ७०-७१ अवधेर्व हिरणुपापप्रतिविरतेर्दिग्वतानि धारयताम् । पञ्च महाव्रत परिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते । ७० प्रत्याख्यानतनुत्वान्मन्दतराश्च चरणमोहपरिणामा । सत्वेन दुरवधारा महावताय प्रकल्प्यते |७२] = मर्यादासे बाहर सूक्ष्म पापोकी निवृत्ति (त्याग) होनेसे दिग्व्रतधारियों के अणुव्रत पंच महाव्रतो की सदृशताको प्राप्त होते है ॥७०॥ प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभके मन्द होनेसे अतिशय मन्द रूप चारित्र मोहनीय परिणाम महाव्रतकी कल्पना को उत्पन्न करते है अर्थात् महामत सरीखे प्रतीत होते है और वे परिणाम बड़े कसे जानने में आने योग्य है। अर्थात् वे कषाय परिणाम इतने सूक्ष्म होते है कि उनका अस्तित्व भी कठिनतासे प्रतीत होता है ।७१। रा.मा./७/२१/१०-११/२४८/२१ अगमनेऽपि तदन्तरास्थित विधाय नुज्ञानं प्रसक्त, अन्यथा वा दिपरिमाणमनर्थकमिति तज्ञ कि कार निवृत्त का कर्तुमशक्त्या प्राणिधविरति प्रश्णापूर्णस्य प्रागयात्रा भतुवा मा याद सत्यपि प्रयोजनभूयस्त्रे परिमितदिगम हिनस्किम्स्यामिति प्रणिधानान दोष' । प्रवृद्ध ेच्छस्य आत्मनस्तस्यां दिशि विना यत्नात् मणिरत्नादिलाभोऽस्तीत्येवम् अन्येन प्रोत्साहितस्यापि मणिरत्नादिसमाप्तितृष्णाप्राकाम्यनिरोधः कथं ततो भवेदिति दिविरति श्रेयसी । अहिसाद्यणुत्रतधारिणोऽप्यस्य परिमिताद्दिगवधे हिमनोवाक्काययोगे' कृतकारितानुमत विकल्पै. हिसादिसर्व सावद्यनिवृत्तिरिति महाजतत्वमवसेय प्रश्न- ( परिमाणित ) दिशाओंके (माहर) भागमें गमन न करने पर भी स्वीकृत क्षेत्र मर्यादावे कारण पापबध होता है इसलिए दिशाओंका परिमाण अनर्थक हो जायेगा : उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि दिग्विरतिका उद्देश्य निवृत्ति प्रधान होनेसे बाह्य क्षेत्र में हिसादिकी निवृत्ति करनेके कारण कोई दोष नहीं है । जो पूर्ण रूपसे हिंसादिकी निवृत्ति करनेमें असमर्थ है पर उस सकलविरतिके प्रति आदरशील है वह श्रावक जीवन निर्वाह हो या न हो, अनेक प्रयोजन होनेपर भी स्वीकृत क्षेत्र मर्यादाको नहीं लापता अतः हिंसा निवृत्ति हानेसे वह प्रती है। किसी परिग्रही व्यक्तिको 'इस दिशा में अमुक जगह जानेपर बिना प्रयत्नके मणि-मोती आदि उपलब्ध होते हैं, इस प्रकार प्रोत्साहित करनेपर भी दिग्बतके कारण बाहर जानेकी और मणि-मोती आदिकी सहज प्राप्तिकी लालसाका निरोध होनेसे दिग्वत श्रेयस्कर है। अहिंसाणुव्रती भी परिमित दिशाओंसे बाहर मन, वचन, काय व कृत कारित, अनुमोदना सभी प्रकारो के द्वारा हिसादि सर्व सामयों से विरत होता है। अत वहाँ उसके महावत ही माना जाता है। स.सि./७/२१/३५६/१० ततो बहिस्त्रसस्थावरव्यपरोपण निवृत्तेर्महाव्रतत्वमनसे हा सत्यपि परिणामस्य निवृतेोभनिरारच कुतो भवति । उस ( दिग्बत मे की गयी ) मर्यादाके बाहर त्रस और स्थावर हिंसाका त्याग हो जानेसे उतने अंश में महाबत होता है । और मर्यादाके बाहर उसमें परिणाम न रहनेके कारण लोभका त्याग हो जाता है। (रा.वा./०/२९/१५-१६/२४९), (पू. सि. उ. / १२८) (का. अ/मू./२४१) । - दिन-दिन-रात्रि प्रगट होनेका क्रम दे० ज्योतिष /२/८ । दिवाकर नंदि- मन्दिके देशीय को गुर्वावली अनुसार गणको (दे० इतिहास ) आप चन्द्रकीर्तिके शिष्य तथा शुभचन्द्रके गुरु थे । समय- वि० १९९५-१९६४ ई०२०६० २०६८ (२/१० HL.Jain ) दे० इतिहास / ०/२ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवाकर सेन दिव्य ध्वनि दिवाकर सेन-सेन संघकी गुरिनीके अनुसार (दे. इतिहाम) आप इन्द्रसेनके शिष्य तथा अर्हत सेनके गुरु थे। समय-वि ६४०६८० (ई.५८३-६२३); (म.पु. १२/१६७ प्रशरित); ( प. पु/प्र. १६ पं. पन्नालाल ); दे० इतिहास/७/६ । दिव्य तिलक-विजयाध की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । दिव्यध्वनि-केवलज्ञान होनेके पश्चात् अहंत भगवान के सगिसे एक विचित्र गर्जना रूप ॐकारध्वनि खिरती है जिसे दियध्वनि कहते है । भगवान् की इच्छा न होते हुए भी भव्य जीवोके पुण्यसे सहज खिरती है पर गणधर देवकी अनुपस्थितिमें नहीं रिवरती। इसके सम्बन्धमें अनेकों मतभेद हैं जेमे कि-यह मुखसे होती है, मुखसे नहीं होती, भापात्मक होती है, भाषात्मक नहीं होती इत्यादि। उन सबका समन्वय यहाँ किया गया है । १. दिव्यध्वनि सामान्य निर्देश 1. दिव्यध्वनि देवकृत नहीं होतीह. पु./1/१६-३८ केवल भावार्थ-(वहां इसके दो भेद कर दिये गये हैएक दिव्यध्वनि दूसरी सर्वमागधी भाषा। उनमे से दिव्यध्वनिको प्रातिहायों में और सर्वमागधी भाषाको देवकृत अतिशयोमें गिनाया है। और भी देखो दिव्यध्वनि/२/७ । * दिव्यध्वनि कथंचित् देवकृत है-दे० दिव्यध्वनि/२/१३ २. दिव्यध्वनि इच्छापूर्वक नहीं होती प्र. सा./म् /४४ ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य जियदयो तेसि । अरह ताणं काले मायाचारो व्व इत्थीण ॥४४॥ - उन अरहन्त भगवन्तो के उस समय खड़े रहना, बैठना, बिहार और धर्मोपदेश स्त्रियोंके मायाचारकी भॉति स्वाभाविक ही प्रयत्नके बिना ही होता है। (स्व. रतो/मू /७४). (स श./मू./२)। म. पु./२४/८४ विवक्षामन्तरेणास्य विविक्तासीव सरस्वती। -भगवान्की वह वाणी बोलनेकी इच्छाके बिना हो प्रकट हो रही थी। (म. पु./१/१८६): (नि सा/ता. वृ./१७४)। ३. इच्छाके अभावमें मी दिव्य ध्वनि कैसे सम्मव है अष्टसहस्त्री/पृ ७३ निर्णयसागर बम्बई [ इच्छामन्तरेण वाक् प्रवृत्तिन संभवति । ] न च 'इच्छामन्तरेण वाक्प्रवृत्तिर्न संभवति' इति वाच्यं नियमाभावात्। नियमाभ्युपगमे सुषुप्त्यादावपि निरभिप्रायप्रवृत्तिर्न स्यात् । न हि सुषुप्तौ गोत्रस्खलनादौ वाग्व्यवहारादिहेतुरिच्छास्ति . चैतन्यकरणपाटबयोरेव साधकतमत्वम् । .. (इच्छा वारप्रवृत्तिहेतुर्न) तत्त्रकर्षापकर्षानुविधानाभावात् बुद्ध्यादिवत् । न हि यथा बुद्ध शक्तेश्चाप्रकर्षे वाण्या' प्रर्षोऽवलप. प्रतीयते तथा दोषजातेः (इच्छाया') अपि, तत्प्रक वाचाऽप्रकति तदपकर्षे एव तत्प्रकर्षात् । यतो वक्तुर्दोपजाति' (इच्छा) अनुमीयते। .. विज्ञान गुणदोपाभ्यामेव वाग्वृत्तेर्गुणदोषवत्ता व्यवतिष्ठते न पुनर्विवक्षातो दोषजातेर्वा, तदुक्तम्-विज्ञानगुणदोषाभ्यां वाग्वृत्तगुणदोषत' । बाब्छन्तोन च वक्तार' शास्त्राणां मन्दबुद्धयः॥ न्याय विनिश्चय/३५४-६५५ विवक्षामन्तरेणापि वाग्वृत्तिनतु वीक्ष्यते। वाञ्छन्तो न वक्तार' शास्त्राणा मन्द बुद्धयः ।३५४॥ प्रज्ञा येषु पटीयस्य प्रायो बचन हेतब । विवक्षानिरपेक्षारते पुरुषार्थ प्रचक्षते ॥३५५॥ - 'इच्छाके विना वचन प्रवृत्ति नही होती' ऐसा नही कहना चाहिये क्योकि इस प्रकार के नियमका अभाव है। यदि ऐसा नियम स्वीकार करते है तो रुषुप्ति आदि में बिना अभिप्रायके प्रवृत्ति नही होनी चाहिये। सुषुप्तिमे या गात्र स्खलन आदिमे वचन व्यव्हारकी हेतु इच्छा नही है। चैतन्य और इन्द्रियोकी पटुता ही उसमें प्रमुख कारण है इत्छा वचन प्रवृत्तिका हेतु नहीं है। उसके प्रकर्ष और अपकर्ष के साथ बचन प्रवृत्ति का प्रकर्ष और अप्रकर्ष नहीं देखा जाता जैसा बुद्धिके साथ देखा जाता है। जैसे बुद्धि और शक्तिका प्रकर्ष होनेपर वाणीका प्रकर्ष और अपकर्ष होने पर अपकर्ष देखा जाता है उस प्रकार दोष जातिका नहीं। दोष जातिका प्रकर्ष होनेपर वचनका अपकर्ष देखा जाता है दोष जातिका अपकर्ष होनेपर ही वचन प्रवृत्तिका प्रकर्ष देखा जाता है इसलिए वचन प्रवृत्तिसे दोष जातिका अनुमान नहीं किया जा सकता। विज्ञानके गुण और दोषोसे ही वचन प्रवृत्तिकी गुण दोषता व्यवस्थित होती है, विवक्षा या दोष जातिसे नही। कहा है-विज्ञानके गुण और दोष द्वारा वचन प्रवृत्तिमें गुण ओर दोष होते हैं । इच्छा रखते हुए भो मन्दबुद्धिबाले शास्त्रोंके वक्ता नही होते है। कभी विवक्षा (बोलनेकी इच्छा) के बिना भी वचनकी प्रवृत्ति देखी जाती है । इच्छा रखते हुए भी मन्दबुद्धिवाले शास्त्रों के बक्ता नही होते हैं। जिनमें वचनको कारण कुशल प्रज्ञा होती है वे प्रायः विवक्षा रहित होकर भी पुरुषार्थ का उपदेश देते हैं। प्र. सा./त. प्र/४४ अपि चाविरुद्धमेतदम्भोधरदृष्टान्तात । यथा खत्वम्भोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुवर्ष च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्ते तथा केबलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यन्ते। यह (प्रयत्नके बिना ही विहारादिकका होना) बादल के दृष्टान्तसे अविरुद्ध है। जैसे बादल के आकार रूप परिणमित पुद्गलोंका गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुष प्रयत्नके बिना भी देखी जाती है उसी प्रकार केवली भगवान के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धिपूर्वक ही ( इच्छाके बिना ही । देखा जाता है। ४. केवलज्ञानियों को ही होती है। ति. प./१/७४ जादे अणं तणाणे णठे छदुमद्विदियम्मि णाणम्मि। णवबिहपदत्थसारा दिव्वझुणी वाहइ सुत्तस्थ ॥७॥ अनन्तज्ञान अर्थात केवलज्ञानकी उत्पत्ति और छमस्थ अवस्थामें रहनेवाले मति, भूत, अवधि तथा मन पर्यय रूप चार ज्ञानोंका अभाव होनेपर नौ प्रकारके पदाथोके सारको विषय करनेवाली दिव्यध्वनि सूत्रार्थ को कहती है १७४३ (ति. व./६/१२ ): (ध./१/१, १, १/गा, ६०/६४ )। ५. सामान्य केवलियोंके भी हानी सम्मव है म. प्र /३६/२०३ इत्यं स विश्वविद्विश्वं प्रीणयन् स्ववचोऽमृतः । कैलासमचलं प्रापत पूतं संनिधिना गुरोः ॥२०॥ -इस प्रकार समस्त पदार्थोको जाननेवाले बाहुबली अपने बचनरूपी अमृतके द्वारा समस्त समारको सन्तुष्ट करते हुए, पूज्य पिता भगवान् वृषभदेवके सामीप्यसे पवित्र हुए कैलास पर्वतपर जा पहुँचे ॥२०॥ म. पु./29/३६८ विहृत्य सुचिरं विनेयजनतोपकृतस्वायुषो, मुहूर्त परमास्थितौ विहितसक्रियौ विच्युतौ। -३६८॥ =चिरकाल तक विहार कर जिन्होने शिक्षा देने योग्य जनसमूहका भारी कल्याण किया है ऐसे भरत महाराजने अपनी आयुको अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति रहनेपर योग निरोध किया ।...॥३६॥ * अन्य केवलियोंका उपदेश समवशरणसे बाहर होता -दे० समवशरण । ६. मनके अभावमें वचन कैसे सम्भव है। ध. १/१, १, ५०/२८५/२ असतो मनस' कथं बच्चनद्वितयसमुत्पत्तिरिनि चेन्न, उपचारतस्तयोस्ततः समुत्पत्तिविधानात। =प्रश्न-जबकि केवलीके यथार्थ में अर्थात् क्षायोपशमिक मन नही पाया जाता है, तो उससे सत्य और अनुभय इन दो घचनोकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर-नही, क्योंकि, उपचारसे मनके द्वारा इन दोनों प्रकार के वचनोकी उत्पत्तिका विधान किया गया है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्यध्वनि घ. १/१. १. १२२ / ३६८/३ तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य वचसोऽपि न सत्त्वमिति चैत्र, तस्य ज्ञान कार्यत्वात् । प्रश्न- अरहंत परमेष्ठी में मनका अभाव होनेपर मनके कार्यरूप वचनका सद्भाव भी नहीं पाया जा सकता उत्तर नहीं, क्योंकि रतनज्ञानके कार्य हैं. मनके नहीं। ७. अक्रम ज्ञानसे क्रमिक वचनोंको उत्पत्ति कैसे सम्भव है = घ. १/१. १. १२२ / ३६-४ अक्रमज्ञानारकर्य क्रमवतां वचनानामुत्पतिरिति चैत्र पटविषयक्रमज्ञानसमवेतकुम्भकाराद्धस्य क्रमेणोपयुपसम्भाव = प्रश्न- अक्रम ज्ञानसे क्रमिक वचनोंकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है 1 उत्तर--नहीं, क्योंकि घटविषयक अक्रम ज्ञानसे युक्त कुम्भकार द्वारा क्रमसे घटकी उत्पति देखी जाती है। इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञानसे क्रमिक वचनों की उत्पत्ति मान लेनेमे कोई विरोध नहीं आता है। ★ सर्वज्ञत्व के साथ दिव्यध्वनिका विरोध नहीं है -०ज्ञान/ ८. दिव्यध्वनि किस कारण से होती है का./ता.वृ./१/६/१५ वीतरागसर्वज्ञदिव्यध्वनिशास्त्रे प्रवृत्ते कि कारणम् भव्यपुण्यप्रेरणात् पश्न- वीतराग सर्व दिव्यध्वनि रूप शास्त्रकी प्रवृत्ति किस कारण से हुई उत्तर-भव्य जीवों के पुण्यकी प्रेरणा से । ९. गणधर के बिना दिव्यध्वनि नहीं खिरती घ. १/४१ ४४ / १२०/१० किमट तथा -गमधरका अभाव होनेसे दिव्यध्वनिकी प्रवृत्ति नहीं होती है दे. निःशंकित / ३ ( गणधरके संशयको दूर करनेके लिए होती है ) । १० विपादमूलमें दीक्षित मुनिकी उपस्थिति में मी होती है। क. पा. ९/११/०६/३ समपादमूलम्म पनिमहत्वयं मोत्तूण खण मुद्दिस्सिय दिव्वणी किष्ण पयट्टदे साहावियादो प्रश्नजिसने अपने पादमूल में महाव्रत स्वीकार किया है, ऐसे पुरुषको छोड़कर अन्यके निमित्त से दिव्ययनि क्यों नहीं खिरती उत्तर-ऐसा ही स्वभाव है ( घ. १/४ १४४ / १२१/२)। ४३१ ११. दिव्यध्वनिका समय, अवस्थान अन्तर व निमित्तादि ति. प./४/१०३-१०४ पठादीए अक्खलिओ संभत्तिदय णवमुहुत्ताणि । णिस्सदि विरुवमायो दिन जान जोमयं ॥१०३॥ सेसेसुं समसुं गहरदेविदपणं पण्डापुरुषमथं दिव्यभुणी सरा भंगीहिं ॥ १०४॥ भगनाद जिनेन्द्रकी स्वभावत अस्मलित और अनुपम दिव्यध्वनि तीनों संध्याकालो न तक निकलती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। इसके अतिरिक्त गणधर देव इन्द्र अथवा चक्रवर्ती प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ महदिव्यध्वनिक्षेप समय में भी निकलती है ॥१०३-१०४॥ (क. पा. १/१, १/३६६/१२६/२) । गो. जी./जी. प्र./३५६/७६१ / १० तीर्थंकरस्य पूर्वाह्नमध्याह्नापराह्णार्धरात्रेषु षट्पटिकाकालपर्यन्तं द्वादशगणः सभामध्ये स्वभावतो दिव्ययनि रुगच्छति अन्यकालेऽपि गणधर चक्रधरमस्नानन्तरं यावद्भवति एवं दिव्यध्वनिः। तीर्थ करके पूड मध्याह, अपराह अर्धरात्रि काल में छह-छह घड़ी पर्यन्त बारह सभाके मध्य सहज ही दिव्यध्वनि होय है । बहुरि गणधर इन्द्र चक्रवति इनके प्रश्न करने हैं और काल वि भी दिव्यध्वनि होय है। * भगवान् महावीरकी दिव्यध्वनि खिरने की तिथि ३० महावीर २. दिव्य ध्वनिका भावात्मक अभाषात्मकपना २. दिव्यध्वनिका भाषात्मक व अभाषात्मकपन । १. दिव्यध्वनि मुखसे नहीं होती है। ति./१/६२ एवासि भासानं ताई तो कंठावार परिहरियं एक्क कालं भव्यजणाणं दरभासो ॥६२॥ =तालु, दन्त, ओष्ठ तथा कण्ठके हलन चलन रूप व्यापार से रहित होकर एक ही समय में भव्यजनो को आनन्द करनेवाली भाषा ( दिव्यध्वनि) के स्वामी है ॥६२॥ ( स. श. / मू./२); (ति. प./१/१०२ ); (ह. पु. /२/११३); ( ह. पु. /६/२२४ ); (8. . / २६/११६) (../१/२२३) (म. पृ/९/१४ ) ( म. पू./ २४/८१) प.का./ता.वृ./१/४/६ पर उड़त ) (पं. का./ता.वृ./ २/८/५ पर उद्धृत ) क. पा./१/११/६/१२९/१४ विशेषार्थ – जिस समय दिव्यध्वनि खिरती है उस समय भगवान्‌का मुख बन्द रहता है । २. दिव्यध्वनि मुखसे होती है रा. वा /२/११/१०/१३२० सज्ञानावरणसंशयावितातिन्द्रियमेव ज्ञानरसम्मादेव वक्तृत्वेन परिणत विष यानर्थानुपदिशति सकल ज्ञानावरणके क्षयसे उत्पन्न अतीन्द्रिय केवलज्ञान जिह्वा इन्द्रियके आश्रय मात्र से वक्तृत्व रूप परिणत होकर सकलश्रुत विषयक अर्थोके उपदेश करता है । ह. पू./२/३ तत्प्रश्नान्तरं धातुतुर्मुख विनिर्गता चतुर्मुखका साथ चतुर्णामाश्रया 121 गणधर के प्रश्नके अनन्तर दिव्यध्यनि मिरने लगी। भगवानको दिव्यानि चारों दिशाओंमें दिखनेवाले चारमुखोसे निकलती थी, चार पुरुषार्थं रूप चार फलको देनेवाली थी, सार्थक थी। म. १०/२३/६६ दिव्यमहाध्य निरस्य मुखाम्जाम्मेचराकृतिनिरगच्छत् । भव्यमनोगत मोहमध्य तमोर म. ५ / २४/८३ गिरिग्रहसमति वनिसंनिभ प्रस्पष्टवर्णो निरगाद् ध्वनिः स्वायम्भुवान्मुखात् ॥१८३॥ भगवान् के मुखरूपी कमलसे बादलोंकी गर्जनाका अनुकरण करनेवाली अमित महादिव्यध्वनि निवस रही थी और वह भव्य जीवोंके मनमे स्थित मोहरूपी अंधकारको नष्ट करती हुई सूर्यके समान सुशोभित हो रही थी ॥ ६६ ॥ जिसमें सब अक्षर स्पष्ट है ऐसी वह दिव्यध्वनि भगवान्के मुखसे इस प्रकार निकल रही थी जिस प्रकार पर्वतकी गुफा के अप्रभागसे प्रतिध्वनि निकलती है ॥ मि. सा./ता. १०/९०४ के निमुखारविन्द विनिर्गतो दिव्यध्वनिः । - केवली के मुखारविन्द की हुई दिव्यध्वनि ... | स्याम /३० / ३३५/२० उत्पादव्ययश्रौव्यप्रपञ्चः समयः । तेषां च भगवता साक्षान्मातृकादरूपाभिधानात् उत्पाद व्यय श्रव्यके वर्णनको समय पड़ते हैं, उनके स्वरूपको साझाद भगवादने अपने मुख अक्षररूप कहा । ३. दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक होती है - काला १/४/६ पर उतार्यात्महितं न वर्ण सहित जो सबका हित करनेवाली तथा वर्ण विन्याससे रहित है ( ऐसी दिव्यध्वनि... ) । .का./ता.वृ./०६/२३५/६ भाषात्मको द्विविधोऽक्षराम कोऽनक्षरारम कश्चेति । अक्षरात्मक संस्कृत अनक्षरात्मको हीन्द्रियादिशब्दरूपो दिव्यध्वनिरूपश्च । भाषात्मक शब्द दो प्रकारके होते हैं। अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक अक्षरात्मक शब्द संस्कृतादि भाषा हेतु है । अनक्षरात्मक शब्द द्वीन्द्रियादिके शब्द रूप और दिव्य ध्वनि रूप होते है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्यध्वनि ५. दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक नहीं होती , घ. १/१.१.५०/२०३/० तीर्थंकरवचनमनरवाइत एव तदेकम् । एकत्वान्न तस्य द्वैविध्यं घटत इति चेन्न तत्र स्यादित्यादि असत्यमोषवचनसत्त्वतरतस्य ध्वनेरक्ष नरत्वासिद्धे । प्रश्न- तीर्थकरके वचन अनक्षर रूप होनेके कारण ध्वनिरूप है, और इसलिए वे एक रूप हैं, और एक रूप होनेके कारण वे सत्य और अनुभय इस प्रकार दो प्रकारके नहीं हो सकते । उत्तर— नहीं, क्योंकि केवली के वचनमें 'स्यात्' इत्यादि रूपसे अनुभय रूप वचनका सद्भाव पाया जाता है, इसलिए केवलीकी ध्वनि अनक्षरात्मक है यह बात असिद्ध है । म.पु./२३/७३.. साक्षर एव च वर्णसमूहान्नैव विनार्थ गतिर्जगति स्यात् । -दिव्य ध्वनि अक्षररूप ही है, क्योंकि अक्षरोके समूह के बिना लोकमें अर्थका परिज्ञान नहीं हो सकता ॥७३॥ म.पु./१/११० यत्पृष्टमादितस्तेन तत्सर्वमनुपूर्वश । वाचस्पतिरनायासाद्भरतं प्रत्यनुबुधत् । ११०१ = भरतने जो कुछ पूछा उसको भगवान् ऋषभदेव बिना किसी कटके क्रमपूर्वक कहने लगे । २० ४३२ ५. दिव्यध्वनि सर्व भाषास्वमात्री है। स्व. स्तो./मू / ९७ तव वागमृतं श्रीमत्सर्व भाषा-स्वभावकम् । प्रीणयत्य मृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि |१२| = सर्व भाषाओ में परिणत होनेके स्वभावको लिये हुए और समवशरण सभा में व्याप्त हुआ आपका श्री सम्पन्न वचनामृत प्राणियोंको उसी प्रकार तृप्त करता है जिस प्रकार कि अमृत पान १९२ (क.पा १/११/१२६/९) (६.१ / १.१.५०/२८४/२) (चन्द्रप्रभ चरित / (८/१); (असार चिन्तामणि १/६२) ६. १/१.१.२/१२/२ योजनान्तरदूरसमीपस्थादव युत दिग्देवमनुयभाशकान्यूनाधिकभावातीतमयुर मनोहरगम्भीरविशदमागतिज्ञयसंपनः महावीरोऽयं एक याजन के भीतर दूर अथवा समीप बैठे हुए अठारह महाभाषा और सातसौ लघु भाषाओंसे युक्त ऐसे तिर्यच, मनुष्य, देवकी भाषा के रूप में परि होने वाली तथा न्यूनता और अधिकतामे रहित, मधुर, मनोहर. गम्भीर और विशद ऐसी भाषा अतिशयको प्राप्त श्री महावीर तीर्थंकर अर्थ कर्ता है । (क.पा.१/११/१५४/०२/३) (का /ता.वृ./१/४ पर उठ .. ध-१/४,१.१/६२/२ एवेहितो सासरियरवयण विणिइनसे चार अक्षौहिणी अक्षर-अक्षर भाषाओ संख्यातगुणी भाषाओं से भरी हुई तोर्थं करके मुखसे निकली दिव्यध्वनि (पं.का./ता../२/८/६ पर उद्धृत) द.पा./टी./२५/२/१२ ब च सर्वभाषात्मकं दिव्यध्वनि आधी सर्वभाषा रूप थी (३-१६/२४०/२) ६. दिव्यध्वनि एक भाषा स्वभावी है म.पु. / २३/७० एकतयोऽपि च सर्वनृभाषा । यद्यपि वह दिव्य ध्वनि एक प्रकारकी (अर्थात् एक भाषा रूप) थी तथापि भगवान् के माहात्म्यसे सर्व मनुष्यों की भाषा रूप हो रही थी। दिव्यध्वनि आधी मागधी भाषा व आधी सर्वभाषा रूप है 1 - द.पा./टी./३३/२०/१२ व भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मक अव सर्व भाषात्मकं । तीर्थंकर की दिव्यध्वनि आधी मगध देशकी भाषा रूप और आधी सर्व भाषा रूप होती है (चन्द्रप्रभचरित/१०/१) (क्रि. क./३-१६/२४८/२) । २. दिव्यध्वनिका भाषात्मक व अभाषात्मकपना ८. दिव्यध्वनि बीजाक्षर रूप होती है -जो क.पा १/१.१/६६६/१२६/२ अगं तत्थगम्भबीजपदघडियसरीरा अनन्य पदार्थोंका वर्णन करती है, जिसका शरीर बीजपदोसे गढ़ा गया है । ध. ६/४,१.४४/१२७/१ संखितसर यम तत्थावगम हे दाग लिंगसंगयं बीजपदं नाम तेमिया बीजपदार्थ युवासंगम्यमाणमद्वारससत्तसप्रभास कुभास सरुवाणं परूषओ अत्थकतारो णाम । संक्षिप्त शब्द रचना से सहित व अनन्त अर्थोक ज्ञानके हेतुभूत अनेक चिह्नोंसे सहित बीजपद कहलाता है । अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा स्वरूप द्वादशांगात्मक उन अनेक बीजपदोका प्ररूपक अर्थकर्ता है । (ध. ६/४.१.५४ / २५६/७) ९. दिव्यध्वनि मेघ गर्जना रूप होती है म पृ./२३/६६ दिव्यमहाध्वनिरस्य मुखाब्जान्मेघरवानुकृतिर्निरगच्छत् । - भगवान्मुख रूपी कमलरी बादलो की गर्जनाका अनुकरण करने वाली अतिशय युक्त महादिव्यध्वनि निकल रही थी । १०. दिव्यध्वनि अक्षर अनक्षर उमयस्वरूप थी क.पा./१/११/१६६/१२६/२ अक्खराणवरखरप्पिया । = ( दिव्यध्वनि ) अक्षर अनक्षरात्मक है । ११. दिव्यध्वनि अर्थ निरूपक है ति./४/१०५ छद्दव्वणवपयत्थे पचट्ठी काय सत्ततच्चाणि । णाणाविहदूहि दिव्वणी भणइ भव्जाण । ६०५ | - यह दिव्यध्वनि भव्य जीवोंको छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्वोंका नाना प्रकारके हेतुओ द्वारा निरूपण करतो है ० (क. पा./१/१९/३१/ १२६/२) पं.का./ता.वृ./२/८/६ स्पष्ट तसदी वस्तुकधन जो दिव्यध्वनि उस उसकी अभीष्ट वस्तुका स्पष्ट कथन करनेवाली है । १२. श्रोताओ की भाषारूप परिणमन कर जाती है ६.५/५०/१५ जनानामापि तद्वृत्तं नानापात्रगुणाश्रयम् । सभाय दृश्यते नानादिव्यधावनी |१२| जिस प्रकार आकाशसे बरसा पानी एक रूप होता है, परन्तु पृथिवी पर पड़ते ही वह नाना रूप दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार भगवान्की वह वाणी यद्यपि एक रूप थी तथापि सभाने सब जीव अपनी अपनी भाषामें उसका भाव पूर्णत समझते थे । (म.पु /१/१८७) म.पु/२२/०० क्योऽपि च सर्वनृभाषा सोन्टरनेटहूश्च कुमालाः । अप्रतिपत्तिमपास्य च एवं बोधयति स्म जिनस्य महिम्ना 1001 = यद्यपि वह दिव्यध्वनि एक प्रकारकी थी तथापि भगवाद के माहात्म्यसे समस्त मनुष्योंकी भाषाओं और अनेक कुभाषाओंको अपने अन्तर्भूत कर रही थी अर्थात् सर्वकी अपनी-अपनी भाषारूप परिणमन कर रही थी, और लोगोंका अज्ञान दूर कर उन्हें तलों बोध करा रही थी ७०। (क. पा. १/११/३५४ /७२/४ ) (ध.१/१,१.५०/२८४/२) (पै.का./ता.वृ./१/४/4) गो. जी / जी. प्र. / २२७ / ४८८ / १५ अनक्षरात्मकत्वेन श्रोतृश्रोत्र प्रदेशप्राप्तिसमयपर्यंतदनन्तरच श्रोताभिप्रेतार्थेषु संशयादिनिराकरणेन सम्यग्ज्ञानजनन सुनने वाले कर्ण प्रदेशको यावत् प्राप्त न होइ तावत् काल पर्यंत अनक्षर ही है ...जब सुनने वाले कर्णविषै प्राप्त हो है तत्र अक्षर रूप होइ यथार्थ वचनका अभिप्राय रूप संवादको दूर करे है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्यध्वनि ४३३ दिशा भाषाओमे कुशल समवसरणमे स्थित जन मात्ररूपके धारी होनेसे 'हमारी हमारी भाषासे हम हमको ही कहते है' इस प्रकार सबको विश्वास करानेवाले, तथा समवशरणस्थ जनोके कर्ण इन्द्रियोगे अपने महसे निकली हुई अनेक भाषाओके सम्मिश्रित प्रवेशके निवारक ऐसे गणधर देव ग्रन्थकर्ता है। (वास्तवमे गणधर देव ही जनताको उपदेश १३. देव उस सर्व भाषा रूप परिणमाते हैं द.पा/टो /३५/२८/१३ कथमेवं देवोपनीतत्वमिति चेत् । मागधदेवसं नि धाने तथा परिणामतया भाषया संस्कृतभाषया प्रवर्तते। = प्रश्नयह देवोपनीत कैसे है . उत्तर-यह देवोपनीत इसलिए है कि मागध देवोके निमित्तसे सस्कृत रूप परिणत हो जाती है। (कि /टी./३-१६/२४८/३) १४. यदि अक्षरात्मक है तो ध्वनि रूप क्यों कहते हैं ध.१/१,१,५०/२८४/३ तथा च कथं तस्य ध्वनित्वमिति चेन्न, एतद्भाषा रूपमेवेति निर्देष्टुमशक्यत्वत. तस्य ध्वनिस्व सिद्धे । प्रश्नजब कि वह अनेक भाषा रूप है तो उसे ध्वनि रूप कैसे माना जा सकता है। उत्तर--नहीं, केवलोके वचन इसो भाषा रूप ही है, ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता है, इसलिए उनके बचन ध्वनिरूप है, यह बात सिद्ध हो जाती है। * गणधर द्विमाषियेके रूपमें काम करते हैं -दे० दिव्यध्वनि /२/१५ दिव्ययोजन-क्षेत्रदा प्रमाण विशेष-दे० गणित/११ । दिव्यलक्षण पंक्ति व्रत-पाक्तिकता। दिव्यायध-विजया की दविण श्रेणीका एक नगर-दे०विद्याधर । दिश संस्थित-एक ग्रह-दे० ग्रह । १५. अनक्षरात्मक है तो अर्थ प्ररूपक कैसे हो सकती है। दिशा--१. दिशाका लक्षण ध.६/४,१,४४/१२६/८ वयणेण विणा अत्यपदुप्पायणं ण संभवड़, सुहम भ. आ./वि./५/१६६/३ दिमा परलोबादिगुपदर्शपर' सूरिणा स्थापितः अत्याणं सण्णाए परूषणाणुववत्तोदो ण चाणक्रवराए झुणीए अत्यण्दु भवतां दिशं मोवर्तन्याचप्रमादिशति य सुरिः स दिशा इत्युच्यते। पायणं जुज्जदे, अगरवरभासतिरिक्खे मोत्तणण्णेसि तत्तो अत्याव -दिशा अर्थात् आचार्य ने अपने स्थान पर स्थापित किया हुआ शिष्य गमाभावादो। ण च दिव्यज्झुगी अगरवर पिया चेत्र, अट्ठारस जो परलोकका उपदेश करके मोक्षमार्गमे भव्योको स्थिर करता है। सत्तसयभास-कुभासप्पियत्तादो। तेसिमणेयाण बोजपदाण दुवाल- स घाधिपति आचार्यने यावज्जोव आचार्य पदवीका त्याग करके अपने संगप्पयाण महारस-सत्तसयभास-कुभासरूवाणं परूवओ अस्थकत्तार- पदपर स्थापा हुआ और आचार्यके समान जिसका गुणसमुदाय है णाम, बोजपदणिलीणत्थपरूवयाणं दुवाल-संगाणं कारओ, गणहर ऐसा जो उनका शिष्य उनको दिशा अर्थात् बालाचार्य कहते है। भडार ओ गंथकत्तारओ त्ति अभुगमादो। -प्रश्न-वचनके बिना दिशा-१.दिशा व विदिशाका लक्षण अर्थका व्यापान सम्भव नहीं, क्योंकि सूक्ष्म पदार्थोकी सज्ञा अर्थात संकेत द्वारा प्ररूपणा नहीं बन सकती। यदि कहा जाय कि अनक्षरा- स, सि11/2/२६६/१० आदित्योदयाद्यपे-या आकाशप्रदेशपक्तिषु त्मक ध्वनि द्वारा अर्थ की प्ररूपणा हो सकती है, सो भी योग्य नहीं इत इदमित व्यवहारोपपत्ते'।-सूर्य के उदयादिककी अपेक्षा आकाशहै। क्योंकि, अनार भाषायुक्त तियंचोको छ।डकर अन्य जीवोको प्रदेश पक्तियों में यहाँसे यह दिशा है इस प्रकारके व्यवहारकी उसगे अर्थ ज्ञान नही हो सकता है। और दिव्य-अनि अनक्षगत्मक उत्पत्ति होती है। ही हो सो भी बात नहीं है, क्योंकि वह अठारह भाषा व सात सौ ध. ४/५,४,४२/२६६/४ सगट्ठाण दो कडज्जुवा दिसा णाम ।। ताओ कुभाषा स्वरूप है। उत्तर --अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा स्वरूप छच्चेव, अपणे मिमसभवाद।।.. सगठाणादो कण्णायारेण दिखेतं द्वादशांगात्मक उन अनेक बीज पदोंका प्ररूपक अर्थकर्ता है । विदिसा ।= अपने स्थानसे बाणकी तरह सीधे क्षेत्रका दिशा व हते तथा योज पदोमें लीन अर्थ के प्ररूपक बारह अंगोके क्र्ता गणधर है। ये दिशाएँ यह हो होती है, क्योंकि अन्य दिशाओका होना भट्टारक ग्रन्थकर्ता है, ऐसा स्वीकार किया गया है। अभिप्राय यह असम्भव है...अपने स्थानसे वर्ण रेखाके आकारसे स्थित क्षेत्रको है कि बोजपदोंका जो व्यारव्याता है वह ग्रन्यकर्ता कहलाता है। विदिश कहते है(और भो दे० वक्ता/३) ध.६/४,१,७/५८/१०ण बोजबुद्धीये अभावो, ताए विणा अवगयतित्थयर २. दिशा विदिशाओं के नाम व क्रम बयण विणिग्गयअक्रवराणक्खरप्पयबहूलिगयबीजपदाण गणहरदेवाण दुवालसंगा भावप्पसंगादो ।= बीजबुद्धिका अभाव नही हो सकता क्योंकि उसके बिना गणधर देवोका तीर्थकरके मुम्बसे निकले हुए अक्षर और अनक्षर स्वरूप बोजपदोका ज्ञान न होनेसे द्वादशागके अभावका प्रसंग आयेगा। १६. एक ही भापा सर्व श्रोताओंकी मापा कैसे बन सकती है पश्चिम दिशा पूर्व दिशा ध.१/४,१,४४/१२८/६ परोवदे सेण विणा अबवरणकावरसरुवासेसभासंतरकुसल) समवसरणजण मेत्तस्त्रधारित्तणेण अम्हम्हाणं भासाहि अम्हम्हाणं चेव कहदि त्ति सम्वेसि पच्चउपायओ समवसरणजणसोदिदिए सगमुहविणिग्गयाणेयभासाण संकरेण पवेसरस दक्षिण विणियारओ गणहरदेवो गंथकतारो। -प्रश्न-एक ही बीजपद दिशा रूप भाषा सर्व जोषो को उन उनकी भाषा रूपसे ग्रहण होनी कैसे सम्भव है। उत्तर-परोपदेशके बिना अर व अनदर रूप सब वायव्य वि. ७.अन्तर्दिशा दिशा ६अन्तर्दिशा १८अन्तर्दिशा ईशान.वि. १अन्तर्दिश +२अन्तर्दिशा आग्नेय विदिशा ५अन्तर्दिशा ४अन्तर्दिशा नैऋत्य विदिशा ३ अन्तर्दिशा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-५५ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशामन्त्य ४३४ दुःख ३. शुम कार्यों में पूर्व व उत्तर दिशाकी अप्रधानताका १. भेद व लक्षण कारण १. दुःखका सामान्य लक्षण भ. आ./वि./५६०/७७१/३ तिमिरापसारणपरस्य धर्मरश्मेरुदयदिगिति स. सि./५/२०/२८८/१२ सदसद्वेद्योदयेऽन्तरङ्गहेतौ सति माह्यद्रव्यादिउदयार्थी तद्वदस्मत्कार्याभ्युदयो यथा स्यादिति लोकः प्राइमुखो परिपाकनिमित्तवशादुत्पद्यमानः प्रोतिपरितापरूप परिणाम; भवति ।... उदड मुखता तु स्वयंप्रभादितीर्थकृतो विदेहस्थान चेतसि सुखदुःखमित्याख्यायते । कृत्वा तदभिमुखतया कार्यसिद्धिरिति ।- अन्धकारका नाश करने स. सि./६/११/३२८/१२ पीडालक्षण परिणामो दुःखम् । साता और वाले सूर्यका पूर्व दिशामें उदय होता है अतः पूर्व दिशा प्रशस्त है। असाता रूप अन्तरंग हेतुके रहते हुए बाह्य द्रव्यादिके परिपाकके सूर्यके उदयके समान हमारे कार्य में भी दिन प्रतिदिन उन्नति होवे निमित्तसे प्रीति और परिताप रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं, वे मुख ऐसी इच्छा करनेवाले लोक पूर्व दिशाकी तरफ अपना मुख करके और दु.ख कहे जाते है। अथवा-पीड़ा रूप आत्माका परिणाम दुःख अपना इष्ट कार्य करते हैं।...विदेहक्षेत्र में स्वयंप्रभादि तीर्थकर हो है । (रा. वा./६/११/१/११६); (रा वा/१/२०/२/४७४); (गो. जो/ गये हैं, विदेह क्षेत्र उत्तर दिशाको तरफ है अतः उन तीर्थ करोको जी. प्र./६०६/१०६२/१५)। हृदयमें धारण कर उस दिशाको तरफ आचार्य अपना मुख कार्य ध. १३/५,५,६३/३३४/५ अणिहत्थसमागमो इट्ठत्ववियोगो च दुःखं गाम। सिद्धिके लिए करते हैं। ___= अनिष्ट अर्थ के समागम और इष्ट अर्थ के वियोगका नाम दुख है। दिशामन्त्य ध. १५/६/६ सिरोवेयणादी दुवं णाम !-सिरकी वेदनादिका नाम दिशामादि- सुमेरु पर्वतके अपर नाम-दे० सुमेरु दुःख है। दिशामुत्तर २. दुःखके भेद दीक्षा-दे. प्रत्रज्या । भा, पा./म./११ आगंतुकं माणसियं सहजं सारीरियं चत्तारि । दुक्खाई...१९/- आगंतुक, मानसिक, स्वाभाविक तथा शारीरिक, दाति ह. पु./२२/५१-५५ यह धरणेन्द्रकी देवी है। इसने धरणेन्द्रकी इस प्रकार दुख चार प्रकार का होता है। न. च./६३ सहजं ..नैमित्तिकं "देहजं मानसिकम् ।।३।- दुख चार आज्ञासे तफ्भ्रष्ट नमि तथा बिनमिको विद्याएँ तथा औषधियाँ प्रकारका होता है-सहज, नैमित्तिक, शारीरिक और मानसिक । दी थीं। का. अ /मू /३५ असुरोदीरिय-दुक्रवं-सारीर-माणसं तहा तिविहः खित्तुदापचदशाह-सांगानेर (जयपुर) के निवासी एक पण्डित थे। ब्भवं च तिव्वं अण्णोण्ण-कयं च पंचविहं ।३५/- पहला असुरकुमारों के कृति-चिद्विलास, आत्मावलोकन व अनुभवप्रकाश आदि । समय- द्वारा दिया गया दुःख, दूसरा शारीरिक दुःख. तीसरा मानसिक दुःख, वि. १७७६ ई०१७२२ । (ती/४/२६) । चौथा क्षेत्रसे उत्पन्न होनेवाला अनेक प्रकारका दुःख, पाँचवाँ परस्परमें मो.मा.प्र./प्र.२ परमानन्द शास्त्री। दिया गया दुःख, ये दुःखके पाँच प्रकार हैं ।३५॥ दोपदशमो व्रत-व्रतविधान संग्रह/१३० दीपदशमी दश दीप ३. मानसिकादि दुःखोंके लक्षण बनाय, जिनहिं चढाय आहार कराय-दश दीपक बनाकर भगवान न. च./६३ सहजखुधाइजादं णयमितं सीदवादमादीहि । रोगादिआ को चढाये फिर आहार करे। यह व्रत श्वेताम्बर आम्नायमें य देहज अणिट्ठजोगे तु माणसियं ।।३। क्षुधादिसे उत्पन्न होनेवाला प्रचलित है। दुःख स्वाभाविक, शीत, वायु आदिसे उत्पन्न होनेवाला दुःख नै मित्तिक. दोपमालिका व्रत-व्रतविधान संग्रह/१०८ कार्तिक कृ० ३० को रोगादिसे उत्पन्न होनेवाला शारीरिक तथा अनिष्ट वस्तुके संयोग हो वीरनिर्वाणके दिन दीपावलि मनायी जाती है। उस दिन उपवास जानेपर उत्पन्न होनेवाला दुख मानसिक कहलाता है । करे व सायंकाल दोप जलाये। जाप:-'ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने * पीड़ारूप दुःख-दे. वेदना । नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जप करे। दोपसेन-पुन्नाट संघकी गुर्वावली के अनुसार आप नन्दिसेनके शिष्य २. दुःख निर्देश तथा धरसेन ( श्रुतावतार वालेसे भिन्न ) के गुरु थे।-दे० इतिहास १. चतुर्गतिके दुःखका स्वरूप /७/८ । भ, आ./मू./१५७४-१५६६ पगल गतरुधिरधारो पलं वचम्मो पभिन्नपोट्टदीपांग-कल्पवृक्षोंका एक भेद-दे० वृक्ष/१। सिरो। पउलिदहिदओ जं फुडिदस्थो पडिचूरियंगो च ।१५७६। ताड णतासणबंधणवाहणलंछणविहेडणं दमणं । कण्णच्छेदणणासावेहणणिदीप्ततप ऋद्धि-दे० ऋद्धिा । लंछणं चेव ।१५८२। रोगा विविहा बाधाओ तह य णिच्चं भयं च दीर्घस्वर-दे० अक्षर। सम्वत्तो। तिव्वाओ वेदणाओ धाडणपादाभिधादाओ ।१५८५। डण मुंडणताडणधरिसणपरिमोससंकिलेसा य। धणहरणदारधरिसणधरदुःख-दुःखसे सब डरते हैं । शारीरिक, मानसिक आदिके भेदसे दुःख दाहजलादिधणनासं १९६२। देवो माणी संतो पासिय देवे महदिए कई प्रकारका है। तहाँ शारीरिक दुःखको ही लोकमें दुख माना अण्णे । जं दुरवं संपत्तो घोरं भग्गेण माणेण ॥१५६६। जिसके शरीरजाता है। पर वास्तवमें वह सबसे तुच्छ दुःख है। उससे ऊपर मेंसे रक्तकी धारा बह रही है, शरीरका चमड़ा नीचे लटक रहा है. मानसिक और सबसे बड़ा स्वाभाविक दुःख होता है, जो व्याकुलता जिसका पेट और मस्तक फूट गया है, जिसका हृदय तप्त हुआ है, रूप है। उसे न जाननेके कारण ही जीव नारक, तिर्यंचादि योनियोंके आँखें फट गयी हैं, तथा सब शरीर चूर्ण हुआ है, ऐसा तू नरकमें विविध दुःखोको भोगता रहता है । जो उसे जान लेता है वह दुःखसे अनेक बार दुःख भोगता था ।१५७१। लाठी वगैरहसे पीटना, भय छूट जाता है। दिखाना, डोरी वगैरहसे भाँधना. बोझा लादकर देशान्तरमें ले जाना, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३५ 1 शंखपद्मादिक आकारसे उनके शरीरपर दाह करना, तकलीफ देना, कान नाक छेदना, अंडका नाश करना इत्यादिक दुःख तिर्यग्गति में भोगने पड़ते हैं । १२८२। इस पशुगतिने नाना प्रकारके रोग, अनेक तरहकी वेदनाएँ तथा नित्य चारों तरफसे भय भी प्राप्त होता है । अनेक प्रकारके बावसे रगड़ना ठोकना इत्यादि दुःखोंकी प्राप्ति हु पशुगति प्राप्त हुई थी । ९५०५ मनुष्यगतिने अपराध होनेपर राजाfare धनापहार होता है यह दंडन दुःख है। मस्तक के केशका मुण्डन करवा देना, फटके लगवाना, घर्षणा अर्थात् आक्षेप सहित दोषारोपण करने से मनमें दुख होता है। परिमोष अर्थात् राजा धन छुटाता है। चोर द्रव्य हरण करते हैं तब धन हरण दुःख होता है। भार्याका जबरदस्ती हरम होनेपर घर जलने से धन नष्ट होने इत्यादिक कारणोंसे मानसिक दुख उत्पन्न होते हैं । १५६२ | मानी देव अन्य ऋद्धिशाली देवोंको देखकर जिस घोर दुःखको प्राप्त होता है वह मनुष्य गतिके दुःखों की अपेक्षा अनन्तगुणित है। ऋद्धिशाली देवोंको देखकर उसका गर्न शतशः चूर्ण होनेसे वह महाष्टी होता है | १६६६ (भा पा./मू./१५) । भा.पा./मू./१०-१२ खतावणालणवेण विपाणिरोहं च । पोखि भावरहि तिरियईए चिरं कालं ॥१०॥ सुरभितमे सुरचार विओयकाले य माणसं ति । संयतोसि महाजस दुखं सुहभावणार हिओ | १२| हे जीम से तियंचगति विस्वनन, उत्तापन, ज्वलन, वेदन, व्युच्छेदन, निरोधन इत्यादि दुख बहुत काल पर्यन्त पाये। भाव रहित भया संता । हे महाजस । ते देवलोक विषै प्यारी राका वियोग काल विषै वियोग सम्बन्धी दुःख तथा इन्द्रादिक बड़े द्धिधारी निकं आपके होन मानना ऐसा मानसिक दुख, ऐसे तीव्र दुःख शुभ भावना केरि रहित भये सन्ते पाया ॥ १२ ॥ २. संशीसे असंज्ञी जीवोंमें दुःखकी अधिकता T दुःख R घ. / / ३४१ महत्संहिनां दुःख स्वयं चासंहिनां न वा । यतो नीच पदादुच्चै पदं श्रेयस्तथा भतम् । ३४१ | यदि कदाचित यह कहा जाये कि सही जीवोंको बहुत दुख होता है, और अशी जीवोंको बहुत थोड़ा दुःख होता है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि नीच पदसे वैसा अर्थात् संज्ञो कैसे ऊँच पद श्रेष्ठ माना जाता है । ३४१ | इसलिए सैनीसे असैनीके कम दुःख सिद्ध नहीं हो सकता है किन्तु उल्टा असैनीको ही अधिक दुःख सिद्ध होता है। (पं.ध. /उ./ ३४१-३४४) । २. संसारी जीवोंको अबुद्धि पूर्वक दुःख निरन्तर रहता है पं. ध. /उ. / ३१८-३१६ अस्ति संसारि जीवस्य नूनं दुःखमबुद्धिजम् । सुखस्यादर्शन स्वस्य सर्वतः कथमन्यथा ॥३१८ सोमो दुख मस्ति नूनमबुद्धिज अवश्य कर्ममदस्य नै रन्तयोंदयारितः ॥११परपदार्थ में ति संसारी जीवोंके सुखके अदर्शनमें भी निश्चयसे अपूर्व दुःख कारण है क्योंकि यदि ऐसा न होता तो उनके आत्माके सुखका अदर्शन कैसे होता क्यों होता इसलिए निश्चय करके कर्मबद्ध संसारी जीवके निरन्तर कर्मके उदय आदिके कारण अवश्य ही अबुद्धि पूर्वक दुख है, ऐसा अनुमान किया जाता है ३१६ ★ लौकिक सुख वास्तवमें दुःख है—० ४. शारीरिक दुःखले मानसिक दुःख बड़ा का. ज./मू./१० सारीरिय दुखादो मानस का हवेह अवर मानस - हि विसया वि दुहावा हंति ६० शारीरिक से मानसिक दुःखमड़ा होता है। क्योंकि जिसका मन दुखी है उसे निष्य भी दुःखदायक लगते हैं॥५०॥ सुख । । ५. शारीरिक दुःखोंकी गणना का. अ./टी./२८८/२०७ शारीरं शरीरोद्भवं शीतोष्ण तृषापञ्चकोटचष्टषष्टिक्षनवनवतिसहस्रपञ्च तचतुरशीतिव्याध्यादि शरीरसे उत्पन्न होनेवाला दुख शारीरिक कहलाता है। भूख प्यास. शीत उष्णके कष्ट तथा पाँच करोड़ अड़सठ लाख निन्यानवे हजार पाँच सौ चौरासी व्याधियों से उत्पन्न होनेवाले शारीरिक दुःख होते हैं । ३. दु:ख कारणादि ३. दुःखके कारणादि १. दुःखका कारण शरीर व बाह्य पदार्थ यवनां स. श./मू./१५ मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्तत' । प्रविशेदन्तर्म हिरव्यापृतेन्द्रिय |१५| इस जड शरीर में आत्मबुद्धिका होना ही संसारके दुःखों का कारण है। इसलिए शरीरमें आत्मव्यकी मिथ्या कल्पनाको छोडकर बाह्य विषयों में इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिको रोकता हुआ अन्तरंग प्रवेश करे १५० आ. अनु. ११५ आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि सन्ति तानि विषया विषयाश्च माने । हानिप्रयासभयपापकुयोनिदा स्युर्मूल ततस्तनुरनर्थ परं पराणाम् । १६५ = प्रारम्भमें शरीर उत्पन्न होता है, इस शरीर से दृष्ट इन्द्रियों होती है, वे अपने-अपने विषयोंको चाहती हैं और वे विषय मानहानि, परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गतिको देने बाले है। इस प्रकार से समस्त अनर्थोंकी परम्पराका मूल कारण वह शरीर ही है ।९६३॥ ज्ञा. / ७ /११ भवोद्भवानि दुःखानि यानि यानीह देहिभिः । सह्यन्ते तानि तान्युच्चैर्व पुरादाय केवलम् ।१११ - इस जगत् में संसारसे उत्पन्न जो जो दुख जीवोंको सहने पड़ते हैं, वे सब इस शरीर के ग्रहणसे हो सहने पडते हैं । इस शरीर से निवृत्त होनेपर फिर कोई भी दुख नहीं है। |११| (शा./७/१०) । २. दुःखका कारण ज्ञानका ज्ञेयार्थ परिणमन . . / . / २७८-२७९ नूनं यत्परतो ज्ञानं प्रत्यर्थं परिणामि यत् । व्याकु मोहमदुखमन २०८ सिद्ध दुरयमस्य स्वतः झापा सद्भावे सहबुभुत्सादिमा २७ - निश्चयसे जो ज्ञान इन्द्रियादिके अवलम्बनसे होता है और जो ज्ञान प्रत्येक अर्थ के प्रति परिणमनशील रहता है अर्थात प्रत्येक अर्थ के अनुसार परिणामी होता है वह ज्ञान व्याकुल तथा राग-द्वेष सहित होता है इसलिए वास्तव में वह ज्ञान दुःखरूप तथा निष्प्रयोजनके समान है | २७८ ॥ प्रत्यर्थ परिणामी होनेके कारण ज्ञानमें व्याकुलता पाथी जाती है इसलिए ऐसे इन्द्रियजन्य ज्ञान दुखपना अच्छी तरह सिद्ध होता है क्योंकि जाने हुए पदार्थ के सिवाय अन्य पदार्थोंके जाननेकी इच्छा रहती है । २०६ ३. दुःखका कारण क्रमिक ज्ञान 4 प्र.सा./त.प्र./६० खेदस्यायतनानि चातिकर्माणि न नाम के परिणाममात्रम् । घातिकर्माणि हि परिच्छेद्यमर्थं प्रत्यात्मानं यतः परिणामयति, ततस्तानि तस्य प्रत्यर्थं परिणम्य परिणम्य श्राम्यतः खेदनिदानहीं प्रतिपद्यन्ते खेदके कारण भातिकर्म है, केवल परिगमन मात्र नहीं मेघातिकर्म प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणति हो हो कर थकने वाले आत्मा के लिए खेद के कारण होते हैं । प्र.सा./ता.वृ./६०/७९/१२ क्रमकरणव्यवधानग्रहणे खेदो भवति । इन्द्रियज्ञान क्रमपूर्वक होता है, इन्द्रियोंके आश्रयसे होता है, तथा प्रकाशादिका आश्रय ले कर होता है, इसलिए दुःखका कारण है। पं. ध. /उ. / २८१ प्रमत्तं मोहयुक्तत्वान्निकृष्टं हेतुगौरवात् । व्युच्छिन्नं क्रमाकृच्छ्र चेहाथ पक्रमात् २८१ हजा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःपक्व ४३६ ह.पु./३४/११६ जघन्य व उत्कृष्ट आयुकी अपेक्षा सर्वत्र बेला होता है। तहाँ-सात नरकोंके ७ पर्याप्त-अपर्याप्तके २, पर्याप्त-अपर्याप्त मनुष्यके २; सौधर्म-ईशान स्वर्गका १, सनत्कुमारसे अच्युत पर्यन्तके १९, नवग्रैवेयकके 8 नव अनुदिशका १; पाँच अनुसरोंका एक । इस प्रकार ३४ बेले । बीचके ३४ स्थानों में एक एक पारणा। छा-दे० जुगुप्सा। दुग्धरसी व्रत-व्रत विधान सं./१०२ भाद्रपद शुक्ला १२ को केवल दूधका आहार ले। सारा समय धर्मध्यानमें व्यतीत करे। इस प्रकार १२ वर्ष पर्यन्त करे। जाप्य-नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । दुग्यशुद्धि-दे० भक्ष्याभक्ष्य/३। दुगंधा-पा.पु./२४/श्लोक-सुबन्धी नामक वैश्यकी पुत्री थी (२४-२५)। इसके स्वाभाविक दुर्गन्धके कारण इसका पति जिनदत्त इसे छोड़ कर भाग गया (४२-४४)। पीछे आर्यिकाओंको आहार दिया तथा उनसे दीक्षा धारण कर ली (६४-६७) । घोर तपकर अन्तमें अच्युत स्वर्गमें देव हुई (६८-७१)। यह द्रौपदीका पूर्वका दूसरा भव है।-दे० द्रौपदी। दुर्ग-१. भरत क्षेत्र पश्चिम आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४; २. विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । दुर्गाटबी-त्रि.सा./भाषा/६७६ पर्वतकै उपरि जो होइ सो दुर्गाटवी मोहसे युक्त होनेके कारण प्रमत्त, अपनी उत्पत्तिके बहुतसे कारणोंकी रापेक्षा रखनेसे निकृष्ट, क्रमपूर्वक पदार्थोंको विषय करनेके कारण व्युच्छिन्न और ईहा आदि पूर्वक होनेसे दुःखरूप कहलाता है ।२८१॥ १. दुःखका कारण जीवके औदयिक भाव पं.ध./उ./३२० नावाच्यता यथोक्तस्य दुःखजातस्य साधने। अर्थाद बुद्धिमात्रस्य हेतोरौद यिकत्वतः १३२० - वास्तवमें सम्पूर्ण अबुद्धि पूर्वक दुखों का कारण जीवका औदयिक भाव ही है इसलिए उपर्युक्त सम्पूर्ण अबुद्धि पूर्वक दुःखके सिद्ध करने में अवाच्यता नहीं है। * दुःखका सहेतुकपना-दे० विभाव/३ । ५. क्रोधादि माव स्वयं दुःखरूप हैं ल.सा./मू-/७४ जीवणिबद्धा एए अधुव अणिच्चा तहा असरणा य। दुक्रवा दुवखफला त्तिय णादण णिवत्तए तेहि ७४! -यह आस्रव जीवके साथ निबद्ध है, अध व है, अनित्य है तथा अशरण है और वे दुःखरूप हैं, दुःख ही जिनका फल है ऐसे हैं-ऐसा जानकर ज्ञानी उनसे निवृत्त होता है। ६. दुःख दूर करनेका उपाय स.श./मू./४१ आत्मविभ्रम दुःखमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति। नायतास्तत्र निर्यान्ति कृत्वापि परमं तपः ॥४१॥ -शरीरादिकमें आत्म बुद्धिरूप विभ्रमसे उत्पन्न होनेवाला दुःख-कष्ट शरीरादिसे भिन्नरूप आरम स्वरूपके करनेसे शान्त हो जाता है। अतएव जो पुरुष भेद विज्ञान के द्वारा आरमस्वरूपकी प्राप्तिमें प्रयत्न नहीं करते वे उत्कृष्ट तप करके भी निर्वाणको प्राप्त नहीं करते।४।। आ.अनु./१८६-९८७ हानेः शोकस्ततो दुःख लाभाद्रागस्ततः सुखम् । तेन हानावशोकः सत् सुरखी स्यात्सर्वदा सुधी.१८६.. मुखं सकलसंन्यासो मख सकलसंन्यासो दुवं तस्य विपर्ययः ।१८७१ - इष्ट वस्तुकी हानिसे शोक और फिर उससे दुःख होता है. तथा फिर उसके लाभसे राग तथा फिर उससे मुख होता है। इसलिए बुद्धिमान पुरुषको इष्टकी हानिमें शोकसे रहित होकर सदा सुखी रहना चाहिए १८६। समस्त इन्द्रिय विषयोंसे विरक्त होनेका नाम मुख और उनमें आसक्त होनेका नाम ही दुःख है । (अतः विषयोंसे विरक्त होनेका उपाय करना चाहिए)।१८७। * असाताके उदयमें औषध भादि भी सामथ्यहीन हैं -दे० कारण/III/१/४। दुःपक्व-आहारमें एक दोष-दे० भोगोपभोग /५ दुशासन-पा.पु./सर्ग/श्लोक धृतराष्ट्रका गान्धारीसे पुत्र था।(८/१२) भीष्म तथा द्रोणाचार्यसे क्रमसे शिक्षा तथा धनुर्विद्या प्राप्त की (८/२०८)। पाण्डवोंसे अनेकों बार युद्ध किया (१६/११)। अन्तमें भीम द्वारा मारा गया ।(२०/२६६)। -अनर्थदण्डका एक भेद-दे० अनर्थदण्ड । दुःस्वर-दे० स्वर। इंदभुक-एक ग्रह-दे० ग्रह। दुखमा-अपरनाम दुषमा-दे० काल/४ । दुखहरण व्रत-इस व्रतकी विधि दो प्रकार से वर्णन की गयी हैलघु व बृहत् । लघु विधि-एक उपवास एक पारण क्रमसे १२० उपवास पूरे करे । जाप्य नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य (व्रत विधान सं./ ६२) (वर्द्धमान पुराण)। दुर्दर-१. कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१, २. भरतक्षेत्र मध्य आर्यखण्डके मलयगिरिके निकटस्थ एक पर्वत-दे० मनुष्य/४। दुर्धर-विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । दुर्भग-दे० सुभग । दुर्भाषा-दे० भाषा। दुमुख-यह सप्तम नारदे थे। अपरनाम चतुमुख । विशेष -दे० शलाका पुरुष/६। टुर्योधन-पा.पु./सर्ग/श्लोक-धृतराष्ट्रका पुत्र था (८/१८३)। भीष्म तथा द्रोणाचार्यसे क्रमसे शिक्षण प्राप्त किया (८।२०८)। पाण्डवों के साथ अनेकों बार अन्यायपूर्ण युद्ध किये। अन्तमें भीम द्वारा मारा गया (२०/२६४)। दुविनीत-यह पूज्यपाद द्वितीयके शिष्य थे। गंग वंशी राजा अविनीतके पुत्र थे। समय-बि. ५३५-५७० (ई०४७८-५९३); (स.सि./प्र.६५ पं. फूलचन्द्र); (स.श./.१० पं. जुगलकिशोर); (द.सा./ प्र.३८ प्रेमी)। दुषमा-अपरनाम दुखमा-दे० काल/४ । दुष्पक्व-आहारमें एक दोष-दे० भोगोपभोग/५ दुष्प्रणिधान-सामायिक व्रतका एक अतिचार-दे० सामायिक/३। दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण-दे० अधिकरण । दूत-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४ । २. यसतिकाका एक दोष-दे० वस्तिका। दूध शुद्धि-दे० भक्ष्याभक्ष्य/३। दूरस्थ-दे० दूरार्थ। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूरात्स्पर्श ऋद्धि दृष्टान्त दूरावस्पर्श ऋद्धिदूराद् घ्राण ऋद्धिदूरदर्शन ऋद्धि- -दे० ऋद्धि/२६ । दूराद् श्रवण ऋद्धिदरापकृष्टि-१. दूरापकृष्टि सामान्य व लक्षण ला.सा./जी.प्र./१२०/१६१/६ पल्ये उत्कृष्टसंख्यातेन भक्ते यल्लब्ध तस्मादेकै क्हान्या जघन्यपरिमितासंख्यातेन भक्ते पत्ये यल्लब्ध तस्मादेकोत्तरवृद्ध्या यावन्तो विकल्पास्तावन्तो दूरापकृष्टिभेदाः । =पल्यको उत्कृष्ट असंख्यातका भाग दिये जो प्रमाण आवै तातै एक एक घटता क्रम करि पल्यको जघन्य परीतासंख्यातका भाग दिये जो प्रमाण आवै तहाँ पर्यन्त एक-एक वृद्धिके द्वारा जितने विकल्प हैं, ते सब दूरापकृष्टिके भेद हैं। २. दूरामकृष्टि स्थिति बन्धका लक्षण क्ष.सा !भाषा/४१६/५००/१५ पल्य/अंस-मात्र स्थितिबन्धको दुरापकृष्टि नाम स्थितिबन्ध कहिये । दूरार्थ-न्या. दी./२६२२/११/९ दूरा (अर्था) देशविप्रकृष्टा मेर्वादयः । -दूर वे हैं जो देशसे विप्रकृष्ट है, जैसे मेरु आदि । अर्थात् जो पदार्थ क्षेत्रसे दूर है वे दूरार्थ कहलाते हैं। पं.ध./उ./४८४ दूरार्था भाविनोऽतीता रामरावणचक्रिण | भूत भविष्यत कालवर्ती राम, रावण, चक्रवर्ती आदि काल की अपेक्षासे अत्यन्त दूर होनेसे दूरार्थ कहलाते हैं। दूरास्वादन ऋद्धि-दे० ऋद्धि /२/६ । दूष्य क्षेत्र-aubical (ज.प्र./प्र.४१०७ ) दृढरथ-म.पु./६३/श्लोक-पुष्कलावती देशमें पुण्डरी किणी नगरीके राजा घनरथका पुत्र था ( १४२-)। राज्य लेना अस्वीकार कर दीक्षा धारण कर ली (३०७-)। अन्त में एक माहके उपवास सहित संन्यास मरणकर स्वर्ग में अहमिन्द्र हुआ (३३६-)। यह शान्तिनाथ भगवानके प्रथम गणधर चक्रायुधका पूर्वका दूसरा भव है।-दे० चक्रायुध । दृश्यक्रम-क्ष.मा./४८० अपूर्व स्पर्धक करण कालका प्रथमादि समयनिविषै दृश्य कहिये देखनेमें आवै ऐसा परमाणूनिका प्रमाण ताका अनुक्रम सो दृश्यक्रम कहिये । (तहाँ पूर्व में जो नवीन देय द्रव्य मिलकर कुल द्रव्य होता है वह द्रव्य द्रव्य जानना।) प्रथम वर्गणासे लगाय अन्तिम वर्गणा पर्यन्त एक एक चय या विशेष घटता दृश्य चय होता है, तात प्रथम वर्गणात लगाय पूर्व स्पर्धकनिको अन्तिम वर्गणा पर्यन्त एक गौपुच्छा भया। दृश्यमान द्रव्य-क्ष.सा./मू./१०५ का भावार्थ-किसी भी स्पर्धक या कृष्टि आदिमें पूर्वका द्रव्य या निषेक या वर्गणाएँ तथा नया मिलाया गया द्रव्य दोनों मिलकर दृश्यमान द्रव्य होता है। अर्थात वर्तमान समयमें जितना द्रव्य दिखाई दे रहा है, वह दृश्यमान द्रव्य है। दृष्ट-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१। दृष्टान्त-हेतुकी सिद्धिमें साधनभूत कोई दृष्ट पदार्थ जिससे कि बादी व प्रतिवादी दोनों सम्मत हों, दृष्टान्त कहलाता है। और उसको बताने के लिए जिन वचनोंका प्रयोग किया जाता है वह उदाहरण कहलाता है । अनुमान ज्ञान में इसका एक प्रमुख स्थान है। १. दृष्टान्त व उदाहरणोंके भेद व लक्षण १. दृष्ट न्त व उदाहरण सामान्यका लक्षण न्या. सू./मू /१/१/२५/३० लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थ बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्त १२५ - लौकिक (शास्त्रसे अनभिज्ञ ) और परीक्षक (जो प्रमाण द्वारा शास्त्रकी परीक्षा कर सकते है) इन दोनोंके ज्ञानकी समता जिसमें हो उसे दृष्टान्त कहते हैं। न्या,वि.मू./२/२११/२४० संबन्धो यत्र निति' साथ्यसाधनधर्मयोः । स दृष्टान्तस्तदाभासाः साध्यादिविकलादयः ।२१)--जहाँ या जिसमें साध्य व साधन इन दोनों धर्मोंके अविनाभावी सम्बन्धको प्रतिपत्ति होती है वह दृष्टान्त है। न्या. दी /३/६३२/७८/३ व्याप्तिपूर्वकदृष्टान्तवचनमुदाहरणम् । न्या. दी./३/६४-६५/१०४/१ उदाहरणं च सम्यग्दृष्टान्तवचनम् । कोऽयं दृष्टान्तो नाम । इति चेत्; उच्यते; व्याप्तिसंप्रतिपत्तिप्रदेशो दृष्टान्त'..तस्याः संप्रतिपत्तिनामवादिनोद्धिसाम्यम् । सैषा यत्र संभवति स सम्प्रत्तिपत्तिप्रदेशो महानसादिह दादिश्च तत्रैव धूमादौ सति नियमेनाऽन्यादिरस्ति, अग्न्याद्यभावे नियमेन धूमादिनस्तीति संपत्तिपत्तिसंभवात् ।...दृष्टान्तौ चैतौ दृष्टावन्तौ धर्मों साध्यसाधनरूपौ यत्र स दृष्टान्त इत्यर्थानुवृत्ते । उक्त लक्षणस्यास्य दृष्टान्तस्य यत्सम्यग्वचनं तदुदाहरणम् । न च वचनमात्रमयं दृष्टान्त इति । किन्तु दृष्टान्तत्वेन वचनम् । तद्यथा-यो यो धूमवानसाबसावग्निमान् यथा महानस इति । यत्राग्निर्नास्ति तत्र घूमोऽपि नास्ति, यथा महाहुद इति च । एवं विधेनैव वचनेन दृष्टान्तस्य दृष्टान्तत्वेन प्रतिपादनसंभवात् । -व्याप्तिको कहते हए दृष्टान्तके कहनेको उदाहरण कहते हैं। अथवा-यथार्थ दृष्टान्तके कहनेको उदाहरण कहते हैं। यह दृष्टान्त क्या है। जहाँ साध्य और साधनकी व्याप्ति दिखलायी जाती है उसे दृष्टान्त कहते है ।...वादी और प्रतिवादीकी बुद्धि साम्यताको व्याप्तिको सम्प्रतिपत्ति कहते हैं। और सम्प्रतिपत्ति जहाँ सम्भव है वह सम्प्रतिपत्ति प्रदेश कहलाता है जैसेरसोई घर आदि, अथवा तालाब आदि । क्योंकि वहीं धूमादि होनेपर नियमसे अग्नि आदि पाये जाते हैं, और अग्न्यादिके अभावमें नियमसे धूमादि नहीं पाये जाते' इस प्रकारको बुद्धिसाम्यता सम्भव है । ये दोनों ही दृष्टान्त हैं, क्योंकि साध्य और साधनरूप अन्त अर्थात् धर्म जहाँ देखे जाते हैं वह दृष्टान्त कहलाता है, ऐसा 'दृष्टान्त' शब्दका अर्थ उनमें पाया जाता है। इस उपर्युक्त दृष्टान्तका जो सम्यक् वचन है-प्रयोग है वह उदाहरण है। 'केवल वचनका नाम उदाहरण नहीं है, किन्तु दृष्टान्त रूपसे जो वचन प्रयोग है वह उदाहरण है । जैसे-जो-जो धूमवाला होता है वह-वह अग्निवाला होता है, जैसे रसोईघर, और जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ धूम भी नहीं है जैसे--तालाब । इस प्रकारके वचनके साथ ही दृष्टान्तका दृष्टान्तरूपसे प्रतिपादन होता है । २. दृष्टान्त व उदाहरणके भेद न्या, वि./२/३११/२४०/२५ स च द्वेधा साधम्र्येण वैधम्र्येण च । - दृष्टान्तके दो भेद है, साधर्म्य और वैधर्म्य। प. मु./३/४७/२१ दृष्टान्तो द्वेधा, अन्वयव्यतिरेकभेदात् ।४७।- दृष्टान्तके दो भेद हैं-एक अन्वय दृष्टान्त दूसरा व्यतिरेक दृष्टान्त । (न्या. दी./३६३२/७८/७); (न्या. दी./३/६४/१०४/८ )। ३. साधम्य और वैधय सामान्यका लक्षण न्या. सू./मू.व. टी./१/१/३६/३७/३५ साध्यसाधात्तद्धर्मभावी दृष्टान्त उदाहरणम् ।३६... शब्दोऽप्युत्पत्तिधर्मकत्वादनित्यः स्थाण्यादिवदि. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टान्त ४३८ १. दृष्टान्त । उदाहरणोंके भेद व लक्षण त्युदाह्रियते ॥टीका। तद्विपर्ययाद्वा विपरीतम् ॥३७... अनित्यः शब्द उत्पत्तिधर्मकत्वात् अनुत्पतिधर्मकं नित्यमात्मादि सोऽयमात्मादिदृष्टान्तः ।-साध्यके साथ तुत्य धर्मतासे साध्यका धर्म जिसमें हो ऐसे दृष्टान्तको (साधर्म्य) उदाहरण कहते हैं ।३६। शब्द अनित्य है, क्योंकि उत्पत्ति धर्मवाला है, जो-जो उत्पत्ति धर्मवाला होता है वह-वह अनित्य होता है जैसे कि 'घट' । यह अन्वयी ( साधर्म्य ) उदाहरणका लक्षण कहा। साध्यके विरुद्ध धर्मसे विपरीत (वैधर्म्य ) उदाहरण होता है, जैसे शब्द अनित्य है, उत्पत्यर्थवाला होने से, जो उत्पत्ति धर्मवाला नहीं होता है, वह नित्य देखा गया है, जैसे-आकाश, आत्मा, काल आदि। न्या. वि./टी./२/२११/२४०/२० तत्र साधम्र्येण कृतकवादनित्यत्वे साध्ये घटः, तत्रान्वयमुखेन तयोः संबन्धप्रतिपत्तेः । वैधम्र्येणाकाशं तत्रापि व्यतिरेकद्वारेण तयोस्तत्परिज्ञानात् । = कृतक होनेसे अनित्य है जैसे कि 'घट'। इस हेतुमें दिया गया दृष्टान्त साधर्म्य है। यहाँ अन्वयकी प्रधानतासे कृतकस्व और अनित्यत्व इन दोनोंकी व्याप्ति दर्शायी गयी है । अकृतक होनेसे अनित्य नहीं है जैसे कि 'आकाश', यहाँ व्यतिरेक द्वारा कृतक व अनित्यत्व धोकी व्याप्ति दर्शायी गयी है। ( न्या. दी/३६३२/७८/७। प./मु./३/४८-४९/२१ साध्यं व्याप्त साधनं यत्र प्रदर्श्यते सोऽन्वयदृष्टान्त' ।४। साध्याभावे साधनाभावों यत्र कध्यते स व्यतिरेकदृष्टान्तः ।४६।- जहाँ हेतुकी मौजूदगीसे साध्यकी मौजूदगी बतलायी जाये उसे अन्वय दृष्टान्त कहते हैं। और जहाँ साध्यके अभावमें साधनका अभाव कहा जाय उसे व्यतिरेक दृष्टान्त कहते हैं ।४८-४६।। न्या. दी./३/१३२/७८/३ यो यो घूमवानसावसावग्निमात्, यथा महानस इति साधोदाहरणम् । यो योऽग्निमान्न भवति स स धूमवान्न भवति, यथा महाहृद इति वैधर्योदाहरणम् । पूर्वत्रोदाहरणभेदे हेतोरन्वयव्याप्ति' प्रदर्श्यते द्वितीये तु व्यतिरेकव्याप्तिः। तद्यथाअन्वयव्याप्तिप्रदर्शनस्थानमन्वयदृष्टान्तः, व्यतिरेकव्याप्तिप्रदर्शनप्रदेशो व्यतिरेकदृष्टान्त। न्या. दी./३/६४/१०४/७ धूमादौ सति नियमेनाग्न्यादिरस्ति, अग्न्याद्यभावे नियमेन धूमादिर्नास्तीति तत्र महानसादिरन्वयदृष्टान्तः । अत्र साध्यसाधनयोर्भावरूपान्वयसंप्रतिपत्तिसंभवाद हृदादिस्तु व्यतिरेकदृष्टान्तः । अत्र साध्यसाधनयोरभावरूपव्यतिरेकसंप्रतिपत्तिसंभवाव । - जो जो धूमवाला है वह वह अग्नि वाला है जैसे- रसोईघर । यह साधर्म्य उदाहरण है। जो जो अग्निवाला नहीं होता वह वह धूमवाल नहीं होता जैसे-तालाब । यह वैधर्म्य उदाहरण है। उदाहरण के पहले भेदमें हेतुकी अन्वय व्याप्ति (साध्यकी मौजूदगी में साधनकी मौजूदगी) दिखायी जाती है और दूसरे भेदमें व्यतिरेकव्याप्ति (साध्यकी गैरमौजूदगी में साधनकी गैरमौजूदगी) बतलायी जाती है। जहाँ अन्वय व्याप्ति प्रदर्शित की जाती है उसे अन्वय दृष्टान्त कहते है. और जहाँ व्यतिरेक व्याप्ति दिखायी जाती है उसे व्यतिरेक दृष्टान्त कहते हैं। धूमादिके होनेपर नियमसे अग्नि आदि पाये जाते हैं, और अग्न्यादिके अभावमें नियमसे धूमादिक नहीं पाये जाते'। उनमें रसोईशाला आदि दृष्टान्त अन्वय है, क्योंकि उससे साध्य और साधनके सद्भावरूप अन्वय बुद्धि होती है। और तालाबादि व्यतिरेक दृष्टान्त है, क्योंकि उससे साध्य और साधन के अभावरूप व्यतिरेकका ज्ञान होता है। ४. उदाहरणामास सामान्यका लक्षण व भेद म्या.दी./३/844/१०/१० उदाहरणलक्षणरहित उदाहरणवदवभासमान उदाहरणाभासः। उदाहरणलक्षणराहित्यं द्वधा संभवति, दृष्टान्तस्यासम्यग्वचनेनादृष्टान्तस्य सम्यगू बचनेन वा। -जो उदाहरणके लक्षणसे रहित है किन्तु उदाहरण जैसा प्रतीत होता है वह उदाहरणाभास है । उदाहरणके लक्षणकी रहितता ( अभाव) दो तरहसे होता है-१. दृष्टान्तका सम्यग्वचन न होना और दूसरा जो दृष्टान्त नहीं है उसका सम्यग्वचन होना। ५. उदाहरणामासके भेदोंके लक्षण न्या.दी./३/84/१०५/१२ तत्राद्य यथा, यो योऽग्निमात् स स धूमवार, यथा महानस इति, यत्र यत्र धूमो नास्ति तत्र तत्राग्निर्नास्ति, यथा महावद इति च व्याप्यव्यापकयोर्वपरीत्येन कथनम् । न्या.दी./२/९६८/१०८/७ अदृष्टान्तवचनं तु, अन्वयव्याप्ती व्यतिरेकदृष्टान्तवचनम्, व्यतिरेकव्याप्तावन्वयदृष्टान्तवचनं च, उदाहरणाभासौ। स्पष्टमुदाहरणम् । = उनमें पहलेका उदाहरण इस प्रकार है-जो-जो अग्निवाला होता है वह-वह धूमवाला हाता है. जैसे रसोईघर। जहाँ-जहाँ धूम नहीं है वहाँ-वहाँ अग्नि नहीं है जैसेतालाब । इस तरह व्याप्य और व्यापकका विपरीत (उलटा) कथन करना दृष्टान्तका असम्यग्वचन है। 'अदृष्टान्त वचन' (जो दृष्टान्त नहीं है उसका सम्यग्वचन होना) नामका दूसरा उदाहरणाभास इस प्रकार है-अन्वय व्याप्तिमें व्यतिरेक दृष्टान्त कह देना, और व्यतिरेक व्याप्तिमें अन्वय दृष्टान्त बोलना, उदाहरणाभास है, इन दोनोके उदाहरण स्पष्ट है। २. दृष्टान्ताभास सामान्यके लक्षण न्या.वि./मू./२/२११/२४० सम्बन्धो यत्र नितिः साध्यसाधनधर्मयोः । स दृष्टान्तस्तदाभासाः साध्यादिविकलादयः । =जो दृष्टान्त न होकर दृष्टान्तवत प्रतीत होवें वे दृष्टान्ताभास है। प.ध./पू./४१० दृष्टान्ताभासा इति निक्षिप्ताः स्वेष्टसाध्यशून्यत्वात् ।... ॥४१०= इस प्रकार दिये हुए दृष्टान्त अपने इष्ट साध्यके द्वारा शून्य होनेसे अर्थात अपने इष्ट साध्यके साधक न होनेसे दृष्टान्ताभास है... ४१०॥ ५. दृष्टान्ताभासके भेद न्या.वि./टी./२/२११/२४०/२६ भावार्थ-साधर्म्यदृष्टान्ताभास नौ प्रकारका है-साध्य विकल, साधन विकल, उभय विकल, सन्दिग्धसाध्य, सन्दिग्धसाधन, सन्दिग्धोभय, अन्वयासिद्ध, अप्रदर्शितान्बय और विपरीतान्वय। इसी प्रकार वैधर्म्य दृष्टान्ताभास भी नौ प्रकारका होता है-- साध्य विकल, साधन विकल, उभय-विकल सन्दिग्ध, साध्य, सन्दिग्धसाधन, सन्दिग्धोभय, अव्यतिरेक, अप्रदर्शित व्यतिरेक, विपरीत व्यतिरेक। प. मु./६/४०,४४ दृष्टान्ताभासा अन्ययेऽसिद्धसाध्यसाधनोभयाः 1801 व्यतिरेकसिद्धतद्व्यतिरेकाः ।४५ - अन्वयदृष्टान्ता भास तीन प्रकारका है-साध्यविकल, साधनविकल और उभयविकल ॥४०॥ व्यतिरेकदृष्टान्ताभासके तीन भेद हैं-साध्यव्यतिरेकविकल, साधनव्यतिरेकविकल एवं साध्यसाधन उभय व्यतिरेकविकल । 4. दृष्टान्तामासके भेदोंके लक्षण न्या.वि./वृ./२/२९१/२४०/२८ तत्र नित्यशब्दोऽमूर्तत्वादिति साधने कर्मवदिति साध्यविकलं निदर्शनम् अनित्यत्वाव कर्मणः। परमाणुवदिति साधनविकलं मूर्तत्वात परमाणूनाम् । घटवदित्युभयविकलम अनित्यत्वान्मूर्तत्वाच्च घटस्य । 'रागादिमाच सुगतः कृतकत्वाद' इत्यत्र रथ्यापुरुषवदिति संदिग्धसाध्य रथ्यापुरुष रागादिमश्वस्य निश्चेतुमशक्यत्वात प्रत्यक्षस्याप्रवृत्त व्यापारादेश्च रागादिप्रभवस्यान्यत्रापि संभवाद, बीतरागाणामपि सरागवच्चेष्टोपपत्तेः। मरणधर्माय रागादिमत्त्वात इत्यत्र संदिग्धसाधन तत्र रागादिमत्त्वाऽ जैनेन्द्र सिदान्त कोश Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टान्त निश्चयस्योत्पाद। अतर असर्वज्ञोऽयं रागादिमत्यादिश्यन्तसंदिग्धोभयम् । रागादिमत्त्वे वक्तृत्वादित्यनन्वयम् रागादिमत्त्वस्यैव तत्रासिद्धी तत्रान्वयस्यासि अप्रदर्शिताम्वयं यथा शब्दोऽ नित्य' कृतकत्वात् घटादिवदिति । न ह्यत्र ' यद्यत्कृतकं तत्तदनित्यस्' इत्यन्ययदर्शनमस्ति विपरीतान्वर्य यथा यदनित्यं तत्तकमिति । तदेवं नव साधर्म्येण दृष्टान्ताभासाः । वैधर्म्येणापि नवे । तद्यथा नित्य शब्द: अमूर्तस्वात् यदनित्यं न भवति तदमूर्तमपि न भवति परमाणुवदिति साध्यव्यावृत्तं परमाणुषु साधनव्यावृत्तावपि साध्यस्य निश्यत्वस्याव्यावृत्तेः । कर्मदिति साधनाव्यावृत्तं तत्र साध्यव्यावृत्तावपि साधनस्य अवस्थाव्यावृत्तेः आकाशमवित्युभयावृत्तम् अमूर्तस्य नित्यत्वयोरुभयोरव्याकाशादध्यावृत्तेः । संदिग्धसाध्यव्यतिरेकं यथा सुगतः सर्वज्ञोऽनुपदेशादि प्रमाणोपपन्नतत्त्ववचनात यस्तु न सर्वज्ञो नासौ 1 चनो यथा बीधी पुरुष इति तत्र सर्वज्ञस्यव्यतिरेकस्यानिश्चयात परचेतोवृत्तीनामित्यभावेन दुबोधला संदिग्ध साधनव्यतिरेकं यथा अनित्य' शब्द सत्त्वात् यदनित्यं न भवति तत्सदपि न भवति यथा गगनमिति गगने हि सत्यव्यावृत्तिरनुपलम्भात. तस्य च न गमकत्वमदृश्य विषयत्वात् । संदिग्धोभयव्यतिरेकं यथा यः संसारी स न तद्वान् यथा बुद्ध इति बुद्धात संसारित्वाविद्यादिमत्त्व व्यावृत्ते' अनवधारणात्। तस्य च तृतीये प्रस्तावे निरूपणात् । अव्यतिरेकं यथा नित्यः शब्द अमूर्तस्वात् यन्न नित्यं न तदमृतं यथा घट इति घटे साध्यनिवृत्तेभविऽपि हेतुव्यतिरेकस्य मुक्ताभावात् कर्मण्यनित्येऽप्यखभावादशितव्यतिरेकं यथा अनित्यः शब्दसखात्मे आकाशपुष्पमदिति विपरीत व्यतिरेकं यथा अत्रैव साध्ये यत्सन्न भवति तदनित्यमपि न भवति यथा व्योमेति साधनव्यावृत्त्या साध्यनिवृत्तेरुपदर्शनाव । १. अन्ययदृष्टान्ताभास के लक्षण- १. अमूर्त होनेसे शब्द अनित्य है इस हेतुमें दिया गया 'कर्मवद' ऐसा दृष्टान्त साध्यमिकल है, क्योंकि कर्म अनित्य है, नित्यत्व रूप साध्यसे विपरीत है । २. 'परमाणुवत' ऐसा दृष्टान्त देना साधन विकल्प है, क्योंकि वह मूर्त है और अमूतत्व रूप साधनसे ( हेतुसे ) विपरीत है । ३. 'घटवत्' ऐसा दृष्टान्त देना उभय विकल है। क्योंकि घट मूर्त व अनित्य है । यह अमूर्तदेवरूप साधन तथा अनित्यत्व रूप साध्यसे विपरीत है । ४. 'सुगत (देव) रागवाला है, क्योंकि यह कृतक है इस हेतुमें दिया गया- 'रथ्या पुरुषवत्' ऐसा दृष्टान्त सन्दिग्ध साध्य है, क्योंकि रथ्यापुरुषमें रागादिमत्त्वका निश्चय होना अशक्य है। उसके व्यापार या चेष्टादि परसे भी उसके रागादिमत्वकी सिद्धि नहीं की जा सकती. क्योंकि गीतरागियोंमें भी शरीरवत् चेटा पायी जाती है. वहाँ रागादिकी सिद्धिमें 'मरणधर्मापनेका दृष्टान्त देना सन्दिग्ध साधन है, क्योंकि मरणधर्मा होते हुए भी रागादिधर्मापने का निश्चय नहीं है। ६. 'सर्वपकारान्त देना सन्दिग्धसाध्य व सन्दिग्ध ४३९ 1 साधन उभय रूप है । ७. वक्तृत्वपनेका दृष्टान्त देना अनन्वय है, क्योंकि रागादिम के साथ वक्तृत्वका अन्वय नहीं है । ८. 'कृतक होनेसे शब्द अनित्य है' इस हेतुमें दिया गया 'घटवत्' यह दृष्टान्त अमदर्शिताय है क्योंकि जो जो कृतक हो वह वह नियमसे अनित्य होता है, ऐसा अन्वय पद दर्शाया नहीं गया । ६. जो जो अनित्य होता है वह यह कृतक होता है, यह विपरीतान्वय है। ए. व्यतिरेक दृष्टांतामासके स-१. 'अमूर्त होनेसे शब्द अनिय है, जो-जो नित्य नहीं होता वह वह अमूर्त नहीं होता' इस हेतुमें दिया गया 'परमाणुवत्' यह दृष्टान्त साध्य विकल है, क्योंकि परमाणु में साधनरूप अर्तवको व्यावृत्ति होनेपर भी साध्य रूप नित्यत्वको व्यावृत्ति नहीं है। २. उपरोक्त हेतुमें दिया गया 'कर्मवद' यह दृष्टान्त साधन विकल है, क्योंकि यहाँ साध्यरूप नित्यत्वकी व्यावृत्ति होनेपर भी साधन रूप अमूर्तस्वकी व्यावृत्ति नहीं है । ३ उपरोक्त १. दृष्टान्त व उदाहरणोंके भेद व लक्षण हेतुमें ही दिया गया 'आकाशवत्' यह दृष्टान्त उभय विकल है, क्योकि यहाँ न तो साध्यरूप नित्यत्वकी व्यावृत्ति है, और न साधन रूप नित्यत्वको । ४. 'सुगत सर्वज्ञ है क्योंकि उसके वचन प्रमाण हैं, जो-जो सर्वज्ञ नहीं होता, उसके वचन भी प्रमाण नहीं होते, इस हेतुमें दिया गया 'वीथी पुरुषवत्' यह दृष्टान्त सन्दिग्ध साध्य है, क्योंकि बीथी पुरुषमें साध्यरूप सर्वशत्यके व्यतिरेकका निश्चय नहीं है. दूसरे अन्य चित्तकी वृत्तियोंका निश्चय करना शक्य नहीं है । ५. 'सत्त्व होनेके कारण शब्द अनित्य है, जो जो अनित्य नहीं होता वह वह सत् भी नहीं होता' इस हेतुमें दिया गया 'आकाशवत्' यह दृष्टान्त सन्दिग्ध साधन है, क्योंकि आकाशमें न तो साधन रूप सनकी व्यावृत्ति पायी जाती है, और अष्ट होनेके कारणसे न ही उसके सवका निश्चय हो पाता है । ६. 'अविद्यामत होनेके कारण हरि हर आदि संसारी है, जो जो संसारी नहीं होता वह वह अविद्याम भी नहीं होता। इस हेतुमें दिया गया 'बुद्धवद' यह दृष्टान्त सन्दिग्धभय व्यतिरेकी है। क्योंकि बुद्ध के साथ साध्यरूप संसारीपनेको और साधन रूप' 'अविद्यामत्पने दोनों ही की उपावृत्तिका कोई निश्चय नहीं है। ७ अमूर्त होनेके कारणसे शब्द निरय हैं, जो जो नित्य नहीं होता वह वह अमूर्त भी नहीं होता, इस हेतुमें दिया गया 'घटन्तु' यह दृष्टान्त अव्यतिरेकी है, क्योंकि घटमें साध्यरूप नित्यत्वकी निवृत्तिका स्वभाव होते हुए भी साधन रूप अमूर्तकी निवृतिका अभाव है। 'सव होनेके कारण शब्द अनित्य है, जो जो अनित्य नहीं होता, वह यह सभी नहीं होता' इस हेतुमें दिया गया 'आकाशपुष्पवत्' यह दृष्टान्त अप्रदर्शित उपतिरेकी है, क्योंकि आकाश में साध्यरूप अनित्यल के साथ साधन रूप सत्त्वका विरोध दर्शाया नहीं गया है । ६. 'जो जो सत् नहीं होता, वह वह अनित्य नहीं होता, इस हेतुमें दिया गया आकाशपुष्पवत् यह दृष्टान्त विपरीत व्यतिरेकी है, क्योंकि यहाँ आकाश में साधन रूप सतकी व्यावृत्तिके द्वारा साध्यरूप freerest निवृत्ति दिखायी गयी है न कि अनित्यत्वकी । म. सु. १/४१-४५ अपौरुवेयः शब्दोऽमुखादिन्द्रियमुखपरमाणुपद ४१ विपरीतान्वयश्च यदपौरुषेयं सदमूर्त नियुदादिनातिप्रसंगाव ४२-४३॥ व्यतिरेक सिद्धरन्यतिरेका परमाद्विमुखा काशवत् विपरीतपतिरेवरच पज्ञार्त तापीरुपे ४४-४५ १. अन्वयान्ताभासके लक्षण- १. 'शब्द अपौरुपेय है क्योंकि वह अमूर्त है इस हेतु दिया गया- 'इन्द्रियल यह दृष्टान्त साध्य दिवस है क्योंकि इन्द्रिय सुख अपौरुषेय नहीं है किन्तु पुरुषकृत ही है । २. 'परमाणुवत्' यह दृष्टान्त साधन विकल है। क्योंकि परमाणु रूप, रस, गन्ध आदि रहते हैं इसलिए वह मूर्त है अमूर्त नहीं है। १. 'घट' यह रान्त उभय निकल है, क्योंकि घट पुरुष है और मूर्त है, इसलिए इसमें अपौरुषेयत्व साध्य एवं अमूर्त हेतु दोनों ही नहीं रहते। ४ उपर्युक्त अनुमानमें जो जो अमूर्त होता है वह यह अपौरुषेय होता है, ऐसी व्यामि है, परन्तु जो जो अपौरुषेय होता है वह यह अमूर्त होता है ऐसी उलटी व्याप्ति दिखाना भी अन्वयदृष्टान्ताभास है, क्योंकि बिजली आदि - से व्यभिचार आता है, अर्थात् बिजली अपौरुषेय है परन्तु अमूर्त नहीं है |४२-४३१ २. व्यतिरेक दृष्टान्ताभासके लक्षण- १ शब्द अपौरुषेय है क्योंकि अमूर्त है इस हेतुमें दिया 'परमाणुवत्' यह दृष्टान्त साध्य विकल है, क्योंकि अपौरुषेयस्वरूप साध्यका व्यतिरेक (अभाव) पौरुपेयत्व परमाणुमें नहीं पाया जाता। २. 'इन्द्रियसुखवत्' यह दृष्टान्त साधन विकल है, क्योंकि अमूर्तत्व रूप साधनका व्यतिरेक इसमें नहीं पाया जाता । ३. 'आकाशवत्' यह दृष्टान्त उभय विकल है, क्योंकि इसमें पौने मूर्त दोनों ही नहीं रहते। ४. ओ मूर्त नहीं है वह अपौरुषेय भी नहीं है इस प्रकार व्यतिरेकदृष्टान्ताभास है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि अमृतरस ऋद्धि दृष्टिभेद १४ c 15 कषाय क्योंकि व्यतिरेक में पहले साध्याभाव और पीछे साधनाभाव कहा जाता है परन्तु यहाँ पहले साधनाभाव और पीछे साध्याभाव कहा नं. विषय दृष्टि नं० १ । दृष्टि नं.२ । दे०गया है इसलिए व्यतिरेक दृष्टान्ताभास है ।४४-४५॥ मार्गणाओंकी अपेक्षा ९. विषम दृष्टान्तका लक्षण |१| स्वर्गवासी इन्द्रोंकी । २८ स्वर्ग/२ न्या. वि /म./२/४२/२६२ विषमोऽयमुपन्यासस्तयोश्चेत्सदसत्वतः...|४२॥ संख्या - दृष्टान्तके सदृश न हो उसे विषम दृष्टान्त कहते है, और वह बिष- ज्योतिषी देवोंका | नक्षत्रादि ३ योजन | ४ योजनकी (ज्योमता भी देश और कालके सत्त्व और असत्त्वकी अपेक्षासे दो प्रकारकी अवस्थान की दूरी पर दूरीपर तिषी हो जाती है। ज्ञान वाले क्षेत्रमें असत् होते हुए भी ज्ञानके कालमें देवोंकी विक्रिया स्व अवधि क्षेत्र प्रमाण घटित नहीं होता| देव/IT उसकी व्यक्तिका सद्भाव हो अथवा क्षेत्रकी भाँति ज्ञानके कालमें भी /२/८ देवोंका मरण उसका सदभाव न हो ऐसे दृष्टांत विषम कहलाते हैं। मूल शरीरमें प्रवेश नियम नही मरण/ करके ही मरते हैं । ५ सासादन सभ्यग- | एकेन्द्रियों में होता है| नहीं होता जन्म २. दृष्टान्त-निर्देश दृष्टि देवोंका जन्म ६ | प्राप्यकारी इन्द्रियो- योजन तकके | नहीं १. दृष्टान्त सवदेशी नहीं होता का विषयपुद्गलोंसे संबंध करके ध.१३/५,५,१२०/३८०/६ ण, सबप्पणा सरिसदिट्ठताभावादो। भावे जान सकती है वाचंदमडी को निण वह सिमियामाहीम |७| बादर तेजस्कायिक | ढाई द्वीप व अर्ध- सवंद्वीप समुद्रीम काय/२॥ भावादो। - दृष्टान्त सर्वात्मना सदृश नहीं पाया जाता। यदि कहो जीवोंका लोकमें | स्वयंभूरमण द्वीपमें | सम्भव हैं कि सर्वात्मना सदृश दृष्टान्त होता है तो 'चन्द्रमुखी कन्या यह घटित अरस्थान | ही होते हैं। नहीं हो सकता, क्योंकि चन्द्रमें भ्र, मुख, आँख और नाक आदिक लन्धि अपर्याप्तके | आयुबन्ध कालमें घटित नहीं योग नही पाये जाते। 'परिणाम योग' होता है होता | चारों गतियों में | एक एक कषाय | नियम नहीं २. अनिष्णातजनोंके लिए ही दृष्टान्तका प्रयोग होता है कषायोंकी प्रधानता प्रधान है निक्षेप/ प. मु./३/४६ बालब्युत्पत्त्यर्थ-तरत्रयोपरमे शास्त्र एवासी मवाद. १० | द्रव्य श्रूतके अध्य- सूत्र समादि अनेकों। नहीं अनुपयोगात् ।४६।- दृष्टान्तादिके स्वरूपसे सर्वथा अनभिज्ञ बालकों के यनकी अपेक्षा भेद भेद हैं समझानेके लिए यद्यपि दृष्टादि ( उपनयनिगमन ) कहना उपयोगी है, | अक्षर श्रुतज्ञान ६ नहीं शुतज्ञाना परन्तु शाखमें ही उनका स्वरूप समझना चाहिए, बादमे नहीं, गुणहानि वृद्धि | वृद्धियोंसे बढ़ता है। । क्योंकि वाद व्युत्पन्नौका ही होता है ।४६। अक्षर श्रुतज्ञानसे दुगुने-तिगुने आदि । सर्वत्र षट्स्थान आगेके श्रुतज्ञानों में क्रमसे होती है वृद्धि होती है ३. व्यतिरेक रूप ही दृष्टान्त नहीं होते वृद्धि क्रम संज्ञी संमूर्च्छनों में होता है न्या.वि./मु /२/२१२/२४१ सर्वत्रैव न दृष्टान्तोऽनन्वयेनापि साधनात । नहीं होता अवधि अवधिज्ञान अन्यथा सर्वभावानाम सिद्धोऽयं क्षणक्षय (२१२॥ सर्वत्र अन्वय को क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य एक श्रेणी रूप ही नहीं ही सिद्ध करने वाले दृष्टान्त नहीं होते, क्योंकि दूसरेके द्वारा अभिमत अवधिज्ञान का विषय जानता है सर्व ही भावोंकी सिद्धि उससे नहीं होती, सपक्ष और विपक्ष इन दोनों धर्मियोंका अभाव होने से । क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य सूक्ष्म निगोदिया- नहीं अवधिज्ञानका विषय की अवगाहना प्रमाण दृष्टि अमृतरस ऋद्धि-दे० ऋद्धि/८ । आकाशकी अनेक दृष्ठि निविष औषध ऋद्धि-दे० ऋद्धि/७। श्रेणियोंको जानता है १६ | सर्वावधिका क्षेत्र । परमावधिसे असं० दृष्टि प्रवाद-ध/४,१,४५/२०६/६ दिविवादो त्ति गुणणामं, गुणित है दिट्ठोओ बददि त्ति सद्दणिप्पत्तीदो। -दृष्टिवाद यह गणनाम. १७ अवधिज्ञानके करण- करणचिहाँका । क्योकि दृष्टियोको जो कहता है, वह दृष्टिवाद है, इस प्रकार दृष्टि चिह्न स्थान अवस्थित है वाद शब्दकी सिद्धि है। यह द्वादशांग श्रूत ज्ञानका १२वाँ अंग है। । क्षेत्रकी अपेक्षा मनः- एकाकाश श्रेणी में | मनःपर्यविशेष दे० श्रुतज्ञान/HIT पर्यय ज्ञानका विषय ही जानता है । य ज्ञान क्षेत्रको अपेक्षा मनः- मनुष्य क्षेत्रके भीतर नहीं दष्टिभद-यद्यपि अनुभवगम्य आध्यात्मिक विषयमें आगममें | पर्यय ज्ञानका विषय भीतर ही जानता है | कहीं भी पूर्वापर विरोध या दृष्टिभेद होना सम्भव नहीं है, परन्तु जन्मके पश्चात् मुहूर्त पृथक्त्व अधिक तीन पक्ष तीन | सूक्ष्म दूरस्थ व अन्तरित पदार्थों के सम्बन्धमें कहीं-कहीं आचार्योंका तियंचोंमें संयमा- दो माससे पहले दिन और अन्तमतभेद पाया जाता है। प्रत्यक्ष ज्ञानियोंके अभावमें उनका निर्णय संयम ग्रहणको | संभव नहीं दुरन्त होनेके कारण धवलाकार श्री बीरसेन स्वामीका सर्वत्र यही मुहूर्त के पश्चात आदेश है कि दोनों दृष्टियोंका यथायोग्य रूपमें ग्रहण कर लेना योग्य योग्यता भी संभव है है। यहाँ कुछ दृष्टिभेदोंका निर्देश मात्र निम्न सारणी द्वारा किया जाता है । उनका विशेष कथन उस उस अधिकारमें ही दिया है। . नहीं नहीं २० - - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिभेद दृष्टिभेद न. विषय दृष्टि नं०१ । दृष्टि नं०२ दे०-1नं. विषय दृष्टि नं०१ दृष्टि न०१ जन्मके पश्चात् अन्तर्मुहर्त अधिक आठ वर्ष पश्चात | संयम ||३७ प्रत्येक शरीर वर्गणा घनावलीके असं- | अनन्तलोक मनुष्यों में संयम व आठ वर्षसे पहले भी संभव है | अल्प | व ध्रुव शून्य ख्यातवें भाग संयमासंयम ग्रहण- संभव नहीं बहुत्व वर्गणामें अल्प-बहुत्वकी योग्यता १/५ | का गुणकार जन्मके पश्चात गर्भसे लेकर आठ | जन्मसे लेकर .. आहारक वर्गणाके | परस्पर अनंतगुणा भागाहारोंसे मनुष्यों में संयम व | वर्ष पश्चात् बीत आठ वर्षके पश्चात । | अल्पसंयमासंयम ग्रहण- | जानेके पश्चात सम्भव है अल्प-बहुत्वका गुण अनन्तगुणा बहुत्व/ कार। की योग्यता संभव है दर्शनमोह प्रकृतियों- सम्य० मिथ्यात्वसे | विशेषाधिक है | अल्पकेवलदर्शनका केवलज्ञान ही है | दोनों है | दर्शन का अल्प-बहुरव सम्यक प्र० को दर्शन नहीं अस्तित्व बहुत्व/ अन्तिम फालि | लेश्या द्रव्यलेश्याके अनु- नियम नहीं | लेश्या असंख्यात गुणी है सार ही भावलेश्या ४० प्रकृति बंध नरकगतिके साथ नियम नहीं प्रकृतिहोती है उदय योग्य प्रकृo बंध लेश्या बकुशादिकी अपेक्षा | नहीं का बंध भी नरकसंयमियो में भी अशुभ गतिके साथ ही लेश्या सम्भव है होता है २६ द्वितीयोपशमकी ४-७ गुणस्थान तक केवल ७खें गुण- सम्य- ४१ बन्धयोग्य प्रकृति | १४८ हैं। । प्राप्ति सम्भव है स्थानमैं ही संभव म्दर्शन | १२० हैं I४२ | अनिवृत्तिकरण में । मान व मायाकी नियम नहीं | २७ / सासादन सम्य- द्वितीयोपशम सम्य० नहींसासादनबंध व्युच्छित्ति | बन्ध व्युच्छित्ति ग्दर्शनकी प्राप्ति से गिरकर प्राप्त होना क्रमसे सं० भाग सम्भव है काल व्यतीत होने| सासादन पूर्वक मरण एके० विक०में | हो सकता है। जन्म पर होती है | करके जन्म संबन्भी उत्पन्न नहीं होता ४३ | आयुका अपवर्तन उत्कृष्ट आयुक | होता है | सर्वार्थ सिद्धिके । पर्याप्त मनुष्यनीसे | सात गुणी है संख्या/२|| अपवर्तन नहीं होता | देवोंकी संख्या तिगुनी है आठ अपकर्षों में आयुमें आवलीका समयघाट मुहूर्व आयु। उपशामक जीवों-८ समय अधिक वर्ष | ३०४ होते हैं असं० भाग शेष आयु न बंधे तो । शेष रहनेपर | ४/३,४ पृथक्त्वमें को संख्या ३०० रहनेपर बंधती है या १६६ होते है बंधती है तीथ कर प्र० का होते हैं ३३+२ प्र० को+ घटित नहीं होता स्थिति स्थिति बंध २ वर्ष हैं तैजसकायिक जीवों- चौथी वार स्थापित नहीं बन्ध " ४६ | परमाणुओंका पर- समगुणवर्ती विषम होता है स्कन्ध की संख्या शलाका राशि स्पर बंध परमाणुओंका बन्ध | अर्ध भागसे ऊपर नहीं होता होती है | परमाणुओंका पर- | एक गुणके अन्तरसे | विषम परमाबादर निगोदकी | जगत श्रेणीके असं०असंख्यात प्रत- | स्पर बंध बं ध नहीं होता णुओ में होता है | एक श्रेणी वर्गणाओं में भाग रावली | उदय व्युच्छित्ति एके० आदि प्रकृ०की| दूसरे गुणस्थानमें| उदय का गुणकार उदय व्युच्छित्ति होती है जिण्डगति में जीव-उपपादस्थानको कर जाता है क्षेत्र/३// | पहले गुणस्थानमें हो का गमन अतिक्रमण नहीं | जाती है करता | | उदय योग्य प्रकृति | १२२ हैं । १४८ हैं | उदय ३४/ कषायौंका जघन्य एक समय है अन्तम काल ० प्रकृतियोंकी सत्ता | सासादनमें आहारक नहीं है । चतुष्कका सत्त्व है ३. सिद्धोंका अक्पबहुत्व सिद्ध कालकी अपेक्षा विशेषाधिक है अप- १ ८वें गुण में ८ प्रकृ० सिद्ध जीव असं. बहुत्व/ का सत्त्व स्थान ख्यात गुणे हैं नहीं है ३६ जघन्य व मादर जगत श्रेणीके असं-आवलीके असं-.. मायाके सत्त्व रहित १० गुणस्थान .. निगोद वर्गणामें अल्प- ख्यातवें भाग ख्यातवें भाग ४ स्थान वे गुण तक हैं बहुत्वका गुणकार तक हैं। आयु अन्तर्मुहूर्त है । काल || ON काल १/४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-५६ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिभेद नं. दृष्टि नं० १ मिश्रगुणस्थान मे तीर्थ करका सत्व नही ५२ प्रकृतियोंषी सच हवे गुणस्थान में पहले ८ कषायोंकी व्यु च्छित्ति होती है पीछे १६ प्रकृ० की उपान्त समय में ७२ की चरम समयमें १३ की दो मत है। ५४ १४ वे गुणस्थान में नामकर्मकी प्रकृ०की सत्त्वव्युत ५५ उत्कर्षण विधान में उत्कृष्ट निषेक सम्बन्धी अनिवृत्तिकरण ८ वर्षों को छोड़कर सम्यक्त्व प्रकृतिको | शेष सर्व स्थिति क्षपणा सवका ग्रहण ५७ १५८ ५६ ६० ६१ विषय ६३ महामरस्यका शरीरमुख और छपर अतिसूक्ष्म दुखमाकालके Ec अवगाहना मरण ६४) मारणान्तिक समु० गत महामरस्यका जन्म दृष्टि नं० २ पहले १६० की व्युच्छित्ति होती है पीछे ८ ययोंकी उपान्त समय में ७३ चरम समय में १२ सीता व सोतोदा नदीके दोनो किनारों पर पाँच द्रह है, कुल २० द्रह हैं प्रत्येक द्रहके दोनों तरफ ५.५ कांचन गिरि है, कुल १०० है दे० सत्त्व संख्यात हजार क्षय /२/७ वर्षोंको छोडकर शेष सर्व स्थिति सत्त्वका ग्रहण पटित नहीं संन होता (३२ हाथ होती है काल आदि हाथ होती है जिस गुणस्थानमें नियम नहीं है मरण/३ बायुबंधी है उसी में मरण होता है। सासादन में मरण नहीं होता है कृतकृत्य वेदक जोव करता है मरण नहीं करता जघन्य आयुवाले होता है जीवोंका मरण नहीं होता निगोद व नरक दो जगह सम्भव है ६ ोिका अन्त वातवलयोंके अंत भीतर-भीतर ६६ वातवलयों का क्रम होता है घनोदधि घन व तनु ६७ देव व उतर कुरुमें स्थित ग्रह व कांचन गिरि मरण समय सभी केवल कापोत मरण/३ देव अशुभ तीन सेश्यामें आते है लेश्याओंमे आ जाते हैं द्वितोयोपशम से प्राप्त होता है ४४२ C घटित नहीं मरण / होता を वियंच ३/३ ही रहत है घन घनोदधि | लोक / तनु २/४ सीताव सोतोदा लोक/ नदोके मध्य ३/१ पाँच द्रह हैं ऐसे १० द्रह है. प्रत्येक के दोनों तरफ १०-१० कांचन गिरि है कुल १०० हैं नं० विषय ६६ सजग समुद्र में देवों की नगरियाँ ७० नंदीश्वर द्वीपस्थ रतिर पर्वत ७१ नंदीश्वर द्वीपकी विदिशाओं में स्थित ਕਾਂਗਰ ਕੀਰ ७२ कुण्डलवर द्वीपस्थ चार हैं जिनेन्द्र कूट ७३ कुमानुष द्वीपोंकी स्थिति ७४ पाण्डुशिलाका विस्तार ७५ सौमनस वन में स्थित बलभद्र नामा कूट ७६जतका विस्तार ७७ लवण समुद्रका विस्तार ७८) शुक्ल व कृष्ण पक्ष में लवण समुश्की वृद्धि-हानि ८२ केवली समुद्धात ८३ ७६ गंगा नदीका | मुख पर २५ यो० है विस्तार चक्रवर्ती रत्नोंको आयुधशालादिमें उत्पत्ति उत्पन्न होते हैं पहले भोजपा अर्थ जानते है फिर उसका विस्तार जानते हैं बोज बुद्धि ऋद्धि ८६ ८७ इति नं० १ आकाश भी है और सागर के दोनों किनारोंपर पृथ्वी पर भी प्रत्येक दिशामें आठ १६ रतिकर है लोक रतिकर हैं ४/५ है नहीं है 17 जम्बू द्वीपकी वेदिका से इनका अन्तराल बताया जाता है ६ माह आयु दोष रहनेपर समुखात होता है ८४) स्पर्शादि गुणोंके परस्पर संयोगसे अनेक भंग भंग बन जाते हैं वीर निर्वाण पश्चात ४६१ वर्ष पश्चात राजा शककी उत्पत्ति कषाय पाहुड़ ग्रन्थ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १००x१००४५० यो० सर्वत्र ५०० योजन दृष्टि नं० २ पृथ्वीपर नग रियों नहीं है १००×५०x८ यो० ५००x२५०x४ योजन है १०००x१००x | ५०० योजन नेरुके पास ५०० और कुलधरके पास २५० यो० पृथ्वीसे ७०० यो० ११०० ऊँचे ऊँचे २०० कोश बढ़ता ५००० है बढता है सभी केवलियोंको होता है दृष्टिभेव आठ हैं विभिन्न प्रकार से बनाया जाता है ६७८५ पश्चात् ६० वर्ष यो० ६४ यो० है कोई नियम नहीं है दोनों एक साथ जानते हैं दे० टोक 跳 लोक / ४/६ लोक / ४/१ लोक / ३/७ यो० लोक लोक / ३/६ लोक / ३/ लोक / ४/१ लोक/ ६/७ शलाका पुरुष फडि २/२ किसी-किसी को केवली होता है अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर भी हो जाता है नहीं बँधते हैं १४०१३ वर्ष पश्चात वर्ष ७६६५ पश्चात् १८० गाथाएँ नाग- कुल ग्रन्थ गुण- कषाय हस्ती आचार्यने धर आचार्यने पाहुड़ रची रचा है ८६ सुग्रीव का भाई बाली दीक्षा धारण कर लक्ष्मण के हाथ से बाली ली मारा गया 19/8 केवली ४/६ घ./पु. १३/२५ वर्ष इतिहास /२/६ :: Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिविष रस ऋद्धि /८ । दृष्टिविष रस ऋद्धि-ि दृष्टि शक्ति ससा / आ./ परि/शक्ति नं. ३ अनाकारोपयोगमयी दृष्टिशक्तिः । यह तोसरो दर्शन क्रिया रूप शक्ति है । कैसी है जिसमें क्षेत्र रूप आकारका विशेष नहीं है ऐसे दर्शनोपयोगमयी (सत्तामात्र पदार्थ से उपयुक्त होने स्वरूप) है। देय - गणितकी विरलन देय विधि- दे० गणित /II/१/६ । देयक्रम --- (क्ष. सा. / भाषा/४७६/५६६/१) अपकर्षण की या द्रव्यको जैसे दीया तैसे जो अनुक्रम सो देयक्रम है । देयद्रव्य जो द्रव्यनिषेो न कृष्टियों आदिमें जोड़ा जाता है उसे देय द्रव्य कहते है । देव श्रुतावतारको पट्टावली के अनुसार आप भद्रबाहु प्रथम (श्रुत केवली) के पश्चाद दसवे ११ अंग व १० पूर्वके धारी हुए आपका अपर नाम गंगदेव था । समय- वी. नि. / ३१५३२६ ( ई. पू. २११ - १६७ ) - दे० इतिहास / ४/४ सिद्ध के देव - देव शब्दका प्रयोग बोतरागी भगवान् अर्थात् अहं लिए तथा देव गति ससारी जीवोंके लिए होता है । अत कथन के प्रसंगको देखकर देव शब्दका अर्थ करना चाहिए। इनके अतिरिक्त पंच परमेष्ठी, चैत्य, चैत्यालय, शास्त्र तथा तीर्थक्षेत्र ये नौ देवता माने गये है।' देवगति देन चार प्रकारके होते हैं-भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिषी व स्वर्गवासी । इन सभीके इन्द्र सामानिक आदि दश श्रेणियाँ होती हैं देवोंके चारों भेदोंका कथन तो उन उनके नाम के अन्तर्गत किया गया है, यहाँ तो देव सामान्य तथा उनके सामान्य भेदका परिचय दिया जाता है। 1 देव (भगवान्) देव निर्देश 9 १ २ ३ ४ आचार्य, उपाध्याय साधु भी कथंचित् देवत्व । आनार्यादि देवत्वं सम्बन्धी शंका समाधान । ५ अन्य सम्बन्धित विषय सिद्ध भगवान् अर्हन्त भगवान् २ देवका लक्षण । देवके भेदोका निर्देश 1 नव देवता निर्देश | देव बाहरमें नहीं मनमें हैं सुदेव श्रद्धानका सम्यग्दर्शनमें स्थान - दे० प्रतिमामें भी कथंचिद् देवत्व 11 | देव (गति) 9 भेद व लक्षण १ देवका लक्षण | २ * ३ ४ देवोंके भवनवासी आदि चार भेद । व्यन्तर आदि देव विशेष आकाशोपपन्न देवोंके भेद । पर्याप्तापर्यातकी अपेक्षा भेद । सम्यग्दर्शन / II / १ - ३० पूजा/३। ૪૪ - दे० मोक्ष | - दे० अहंत । - दे० पूजा / ३ । - दे० १० वह वह नाम । २ १ * देनोंके सर्व भेद नामकर्म कृत २ * देव निर्देश देवोंमें इन्द्रसामानिकादि २० विभाग। इन्द्र सामानिकादि विशेष भेद - दे० वह वह नाम । --०नामकर्म ३ * ५ देवोंका दिव्य आहार ६. देवोंक रोग नहीं होता। ९ कन्दर्पादि देव नीच देव हैं देवोंका दिव्य जन्म (उपपाद शय्यापर होता है) -दे० जन्म / २ । सभी देव नियमसे जिनेन्द्र पूजन करते हैं। देवोके शरीरकी दिव्यता ३ देव गतिमें सुख व दु.ख निर्देश 1 देवविशेष, उनके इन्द्र, वैभव व क्षेत्रादि - दे० वह वह नाम देवोंके गमनागमनमें उनके शरीर सम्बन्धी नियम मारणांतिक समुच्चातगत देवोके मूल शरीरमें प्रवेश करके या बिना किये ही मरण सम्बन्धी दो मत -दे० मरण /५/५ मरण समय अशुभ तीन दयाओंगे या केवल कापोत या पतन सम्बन्धी दो मत - दे०मरण /३० होनेका नियम भाव मार्गणा आयके अनुसार व्यय - दे० मार्गणा । ऊपर-ऊपर के स्वगमें सुख अधिक और विषय सामग्री हीन होती जाती है। १० ऊपर-ऊपर के स्वगमें मविचार भी होन-दोन होता है, और उसमें उनका वीर्यं क्षरण नही होता । देव देवायु व देवगति नामकर्म देवायु के बन्ध योग्य परिणाम देवायुकी बन्ध, उदय, सत्त्वादि बायुष्कोको देवायुबन्धमें ही प्रत होने सम्भव हैं - दे० वह वह नाम । - दे० आयु / ६/७ । सत्त्वादि प्ररूपणाएँ -२०/३। प्ररूपणाएँ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश देवगतिकी मन्ध, उदय, - दे० वह वह नाम । देवगतिमै उद्योत कर्मका अभाव-३०/५ सम्यक्त्वादि सम्बन्धी निर्देश व शंका समाधान देवगतिके गुणस्थान, जीवसमास, मार्गेणास्थानके स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ ३० सत् देवगति सम्बन्धी सद ( अस्तिल) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ - दे० वह वह नाम । कौन देव मरकर कहाँ उत्पन्न हो और क्या गुण प्राप्त करे- दे० जन्म / ६ । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ 1 देव (भगवान्) देवगतिमें सम्यक्त्वका स्वामित्व । | देवगतिमें वेद, पर्याप्ति, लेश्यादि-दे० वह वह नाम । देवगतिमें गुणस्थानोंका स्वामित्व । जन्म-मरण कालमें सम्भव गुणस्थानोंका परस्पर सम्बन्ध-दे० जन्म/६/६। अपर्याप्त देवोंमें उपशम सम्यक्त्व कैसे सम्भव है। ४ / अनुदिशादि विमानोंमें पर्याप्तावस्था उपशम सम्यक्त्व। क्यों नहीं। | फिर इन अनुदिशादि विमानोंमें उपशम सम्यक्त्वका निर्देश क्यों। ६ | भवनवासी देव-देवियों व कल्पवासी देवियों में सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं उत्पन्न होते। क्षायिक | ७ | भवनत्रिक देव-देवी व कल्पवासी देवीमें सम्यक्त्व क्यों नहीं होता। | फिर उपशमादि सम्यक्त्व भवनत्रिक देव व सर्व देवियोंमें कैसे सम्भव हैं। I देव ( भगवान् ) १. देव निर्देश ५. देव का लक्षण र.क./श्रा./मू./५ आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्य नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् । नियमसे वीतराग, सर्वज्ञ और आगमका ईश ही आप्त होता है, निश्चय करके किसी अन्य प्रकार आप्तपना नहीं हो सकता। (ज.प./१३/८४/६५)। वो.पा./मू./२४-२५ सो देवो जो अस्थं धम्म काम सुदेइ णाणं च । सो देह जस्स अस्थि हु अत्थो धम्मो य पव्वज्जा २४। देवो ववगयमोहो उदययरो भव्यजीवाणं ।२१ जो धन, धर्म, भोग और मोक्षका कारण ज्ञानको देवे सो देव है। तहाँ ऐसा न्याय है जो जाकै वस्तु होय सो देवे अर जाकै जो वस्तु न होय सो कैसें दे, इस न्यायकरि अर्थ, धर्म, स्वर्गके भोग अर मोक्षका कारण जो प्रव्रज्या जाकै होय सो देव है ।२४। बहुरि देव है सो नष्ट भया है मोह जाका ऐसा है सो भव्य जीवनिकै उदयका करने वाला है। का अ./मू./३०२ जो जाणदि पच्चरखं तियाल-गुण-पच्चएहि संजुत्तं । लोयालोयं सयलं सो सव्वण्हू हवे देवो ।३०२। जो त्रिकालवर्ती गुण पर्यायोंसे संयुक्त समस्त लोक और अलोकको प्रत्यक्ष जानता है वह सर्वज्ञ देव है। का.अ./टी./१/१/१५ दीव्यति क्रीडति परमानन्दे इति देवः, अथवा दीव्यति कर्माणि जेतुमिच्छति इति देव', वा दीव्यति कोटिसूर्याधिकतेजसा द्योतत इति देव' अर्हन, वादीव्यति धर्मव्यवहार विदधाति देवः, वा दीव्यति लोकालोकं गच्छति जानाति, ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्था इति वचनात्, इति देवा, सिद्धपरमेष्ठी वा दीव्यति स्तौति स्वचिद्रूपमिति देवः सूरिपाठकसाधुरूपस्तम् । =देव शब्द 'दिव' धातुसे बना है, और 'दिव्' धातु के 'क्रीड़ा करना' जयकी इच्छा करना आदि अनेक अर्थ होते हैं । अत' जो परमसुखमें कोडा करता है सो देव है, या जो कर्मोंको जीतनेकी इच्छा करता है वह देव है, अथवा जो करोडों सूर्यों के भी अधिक तेजसे देदीप्यमान होता है वह देव है जैसे—अर्हन्त परमेष्ठी । अथवा जो धर्मयुक्त व्यवहारका विधाता है, वह देव है। अथवा जो लोक अलोकको जानता है. वह देव है जेसे सिद्ध परमेष्ठी। अथवा जो अपने आत्मस्वरूपका स्तवन करता है वह देव है जैसे-आचार्य, उपाध्याय, साधु । पं. ध./उ./६०३-६०४ दोषो रागादिसद्भाव स्यादावरणं च कर्म तत् । तयोरभावोऽस्ति निःशेषो यत्रासौ देव उच्यते ।६०३। अस्त्यत्र केवलं ज्ञानं क्षायिक दर्शनं सुखम् । वीर्य चेति सुविख्यातं स्यादनन्तचतुष्टयम् ।६०४१-रागादिकका सद्भाव रूप दोष प्रसिद्ध ज्ञानावरणादिकर्म, इन दोनोंका जिनमें सर्वथा अभाव पाया जाता है वह देव कहलाता है।६०३। सच्चे देवमें केवलज्ञान, केवल दर्शन, अनन्तसुख और अनन्त वीर्य, इस प्रकार अनन्त चतुष्टय प्रगट हो जाता है ।६०४। ( द. पा./ २/१२/२०)। २. देवके भेदोंका निर्देश पं. का./ता. वृ./१/१/८ त्रिधा देवता कथ्यते। केन । इष्टाधिकृताभिमत भेदेन -तोन प्रकारके देवता कहे गये हैं। १. जो मुझको इष्ट हों; २. जिसका प्रकरण हो; ३. जो सबको मान्य हों। पं.ध.उ./६०६ एको देवो स द्रव्या सिद्ध शुद्धोपलब्धितः । अहं निति सिद्धश्च पर्यायादिद्विधा मतः ।६०६।- वह देव शुद्धोपलन्धि रूप द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे एक प्रकारका प्रसिद्ध है, जऔर पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे अहंत तथा सिद्ध दो प्रकारका माना गया है। ३. नव देवता निर्देश र. क. पा./११६/१६८ पर उद्धृत-अरहंतसिद्धसाहूतिदयं जिणधम्मवयण पडिमाहू। जिण णिलया इदिराए णवदेवता दितु मे बोहि =पंच परमेष्ठी, जिनधर्म, वचन, प्रतिमा ब मन्दिर, ये नब देवता मुझे रत्नत्रयको पूर्णता देवो। ४. आचार्य उपाध्याय साधुमें मी कथंचित् देवत्व नि.सा/ता.व./१४६/क.२५३/२६६ सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः । न कामपि भिदा कापि तां विद्मो हा जड़ा वयम् । सर्वज्ञवीतरागमें और इस स्ववश योगीमे कभी कुछ भी भेद नहीं है, तथापि अरेरे । हम जड हैं कि उनमें भेद मानते है ।२५३। दे,देव./१/१/बो.पा. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष तथा उनकी कारणभूत प्रव्रज्याको देनेवाले ऐसे आचार्यादि देव हैं। ५. आचार्यादिमें देवत्व सम्बन्धी शंका समाधान ध.१/१,१,१/१२/२ युक्तः प्राप्तात्मस्वरूपाणामहता सिद्धानां च नमस्कार, ___ नाचार्यादीनामप्राप्तात्मस्वरूपत्ववतस्तेषां देवत्वाभावादिति न. देवो हि नाम त्रीणि रत्नानि स्वभेदतोऽनन्तभेद भिन्नानि, तद्विशिष्टो जीवोऽपि देवः अन्यथा शेषजीवानामपि देवत्वापत्तेः। तत आचार्यादयोऽपि देवा रत्नत्रयास्तित्वं प्रत्यविशेषात् । नाचार्यादिस्थितरत्नान सिद्धस्थरत्नेभ्यो भेदो रत्नानामाचार्यादिस्थितानामभावापत्तेः । न कारणकार्यत्वादभेद' सत्स्वेवाचार्यादिस्थरत्नावयवेष्वन्यस्य तिरोहितस्य रत्नाभोगस्य स्वावरणविगमत आविर्भावोपलम्भात् । न परोक्षापरोक्षकृतो भेदो वस्तुपरिच्छित्ति प्रत्येकत्वात् । नैकस्य ज्ञानस्यावस्थाभेदतो भेदो निर्मलानिर्मलावस्थावस्थितदर्पणस्यापि भेदापत्तेः । नावयवावयविकृतो भेदः अवयवस्यावयविनोऽव्यतिरेकात। सम्पूर्णरत्नानि देवो न तदेकदेश इति चेन्न, रत्नैकदेशस्य देवत्वाभावे समस्तस्यापि तदसत्त्वापत्ते । न चाचार्यादिस्थितरत्नानि कृत्स्नकर्मक्षयक तणि रत्न कदेशत्वादिति चेन्न, अग्निसमूहकार्यस्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव ४४५ II देव (गति) पलालराशिदाहस्य तत्कणादप्युपलम्भाव। तस्मादाचार्यादयोऽपि देवा इति स्थितम् । प्रश्न-जिन्होंने आत्म स्वरूपको प्राप्त कर लिया है, ऐसे अरहन्त, सिद्ध, परमेष्ठीको नमस्कार करना योग्य है, किन्तु आचार्यादिक तीन परमेष्ठियोने आत्म स्वरूपको प्राप्त नहीं किया है. इसलिए उनमें देवपना नहीं आ सकता है, अतएव उन्हे नमस्कार करना योग्य नहीं है। उत्तर-ऐसा नहीं है, १. क्योकि अपने-अपने भेदोसे अनन्त भेदरूप रत्नत्रय हो देव है, अतएव रत्नत्रयसे युक्त जीव भी देव है, अन्यथा सम्पूर्ण जीवोंको देवपना प्राप्त होने की आपत्ति आ जायेगी, इसलिए यह सिद्ध हुआ कि आचार्यादिक भी रत्नत्रयके यथायोग्य धारक होनेसे देव हैं, क्योकि अरहन्तादिकसे आचार्यादिकमें रत्नत्रयके सद्भावकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है, इसलिए आंशिक रत्नत्रयकी अपेक्षा इनमें भी देवपना बन जाता है। २. आचार्यादिकमें स्थित तीन रत्नोका सिद्धपरमेष्ठीमे स्थित रत्नोसे भेद भी नहीं है, यदि दोनोंके रत्नत्रयमे सर्वथा भेद मान लिया जावे, तो आचार्यादिकमें स्थित रत्नोके अभावका प्रसंग आ जावेगा। ३ आचार्यादिक और सिद्धपरमेष्ठीके सम्यग्दर्शनादिक रत्नों में कारण कार्यके भेदसे भी भेद नही माना जा सकता है, क्योंकि, आचार्यादिकमें स्थित रत्नो के अवयवोंके रहनेपर ही तिरोहित, दूसरे रत्नावयौंका अपने आवरण कर्म के अभाव हो जानेके कारण आविर्भाव पाया जाता है। इसलिए उनमे कार्य-कारणपना भी नहीं बन सकता है । ४. इसी प्रकार आचार्यादिक और सिद्धोंके रत्नों में परोक्ष और प्रत्यक्ष जन्य भेद भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि वस्तुके ज्ञान सामान्यकी अपेक्षा दोनो एक है। ५. केवल एक ज्ञानके अवस्था भेदसे भेद नहीं माना जा सकता। यदि ज्ञानमें उपाधिकृत अवस्था भेदसे भेद माना जावे तो निर्मल और मलिन दशाको प्राप्त दर्पणमें भी भेद मानना पड़ेगा। ६. इसी प्रकार आचार्यादिक और सिद्धोंके रत्नोंमें अवयव और अवयवीजन्य भेद भी नहीं है, क्योकि अवयव अवयवीसे सर्वथा अलग नहीं रहते हैं। प्रश्न- पूर्णताको प्राप्त रत्नोंको ही देव माना जा सकता है, रत्नोके एक देशको देव नही माना जा सक्ता । उत्तर-ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि, रत्नोंके एक देशमें देवपनाका अभाव मान लेनेपर रत्नोकी समग्रता (पूर्णता) में भी देवपना नहीं बन सकता है। प्रश्न - आचार्यादिकमें स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मों के क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उनके रत्न एकदेश है। उत्तरयह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार पलाल राशिका अग्निसमूहका कार्य एक कणसे भी देखा जाता है, उसी प्रकार यहाँ पर भी समझना चाहिए। इसलिए आचार्यादिक भी देव हैं, यह बात निश्चित हो जाती है । (ध.१/४,१,१/११/१)। II. देव (गति ) १. भेद व लक्षण १. देवका लक्षण स.सि./४/१/२६६/५ देवगतिनामकर्मोदये सत्यभ्यन्तरे हेतौ बाह्य विभूतिविशेषै' द्वीपसमुद्रादिप्रदेशेषु यथेष्टं दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । - अभ्यन्तर कारण देवगति नामकर्मके उदय होनेपर नाना प्रकारको बाह्य विभूतिसे द्वीप समुद्रादि अनेक स्थानों में इच्छानुसार क्रोडा करते है वे देव कहलाते है। (रा.वा.४/२/१/२०६/8)। पं.सं /प्रा./२/६३ कोडं ति जदो णिच्चं गुणेहि अढेहि दिब्वभावेहि। भासंतदिव्वकाया तम्हा ते वणिया देवा ।६३॥ = जो दिव्यभाव-युक्त अणिमादि आठ गुणोसे नित्य क्रीड़ा करते रहते हैं, और जिनका प्रकाशमान दिव्य शरीर है, वे देव कहे गये है।६३। (ध. १/१,१, २४/१३१/२०३); (गो.जी /मू./१५१); (पं.सं./सं./१/१४०); (ध.१३/५,५.१४१/३६२/१)। २. देवोंके भवनवासी आदि भेद त सू.४/१ देवाश्चतुर्णिकाया ॥१॥ के पुनस्ते। भवनवासिनो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाश्चेति । (स.सि./४/१/२३७/१) देव चार निकायवाले है ।१। प्रश्न-इन चार निकायोंके क्या नाम हैं ? उत्तर-- भवनावासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक । ( का./मू./११८); (रा.वा./४/१/३/२११/१५); (नि.सा./ता.वृ./१६-१७)। ग.वा/४/२३/४/२४२/१३ षणिकाया' (अपि) संभवन्ति भवन पाता लव्यन्तरज्योतिष्ककल्पोपपन्न विमानाधिष्ठानात् । ...अथवा सप्त देवनिकाया'। त एवाकाशोपपन्न · सह । देवोके भवनवासी. पातालवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पवासी और विमानवासीके भेदसे छह प्रकार हैं। इन छहमें ही आकाशोपपन्न देवोंको और मिला देनेसे सात प्रकारके देव बन जाते है। ३. आकाशोपपन्न देवोंके भेद रावा./४/२३/४/२४२/१७ आकाशोपपन्नाश्च द्वादश विधा । पशुतापिलवणतापि-तपनतापि- भवनतापि-सोमकायिक-यमकायिक-वरुण - कायिक - वैश्रवणकायिक-पितृकायिक-अनलकायिक - रिष्ट-अरिष्ट - संभवा इति । -आकाशोपपन्न देव बारह प्रकार के हैं:-पांशु तापि, लवणतापि, तपनतापि, भवनतापी, सोमकायिक, यमकायिक, वरुणकायिक, वैश्रवणकायिक, पितृकायिक, अनल कायिक, रिष्टक, अरिष्टक और सम्भव । ४. पर्याप्तापर्याप्तको अपेक्षा भेद का.अ मू./१३३." देवा वि ते दुविहा ।१३। पर्याप्ता' निवृत्यपर्याप्ताश्चेति ।टी०=देव और नारकी निवृत्यपर्याप्तक और पर्याप्तकके भेदसे दो प्रकारके होते है । २. देव निर्देश १.देवों में इन्द्र सामानिकादि दश विभाग त. सू /४/४ इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकी काभियोग्यकिस्विषिकाश्चैकश' (चारों निकायके देव क्रमसे १०,८.५.१२ भेदवाले हैं-दे० बह वह नाम ) इन उक्त दश आदि भेदोमे प्रत्येकके इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किस्विषिकरूप है ४(ति.प./३/६२-६३)। त्रि सा./२२३ इंदपडिददिगिदा तेत्तीससुरा समाणतणुरवरवा । परिसत्तय आणीया पइण्णगभियोगकिन्भिसिया ।२२३ - इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगीन्द्र कहिये लोकपाल, त्रायस्त्रिशद्देव, सामानिक. तनुरक्षक, तीन प्रकार पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य, किल्विषिक ऐसें भेद जानने ।२३। २. कन्दर्प आदि देव नीच देव हैं मू.आ./६३ कंदप्पमाभिजोग्गं किविस संमोहमासुरंतं च। ता देव दुग्गईओ मरणम्मि विराहिए होति ।६३-मृत्युके समय सम्यक्त्वका विनाश होनेसे कंदर्प, आभियोग्य, कैत्विष, संमोह और आसुर-ये पाँच देव दुर्गतियाँ होती हैं ।६३। ३. सर्व देव नियमसे जिनेन्द्र पूजन करते हैं ति.प./३/२२८-२२६ णिस्सेस कम्मरखवणेक्कहेदं मण्णं तया तत्थ जिणिंदपूज। सम्मत्तविरया कुव्यंति णिच्च देवा महाणं तविसोहिपुव्वं ।२२८) कुलाहिदेवा इव मण्णमाणा पुराणदेवाण पबोधणेण । मिच्छादा ते य जिणिदपूर्ज भत्तीए णिच्चं णियमा कुणं ति ।२२६ वहाँ पर अविरत सम्यग्दृष्टि देव जिनपूजाको समस्त कोके क्षय करनेमें अद्वितीय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव II देव (गति) कारण समझकर नित्य ही महान् अनन्तगुणो विशुद्धि पूर्वक उसे करते हैं ।२२८। पुराने देवोके उपदेशसे मिथ्यादृष्टि देव भी जिन प्रतिमाओंको कुनाधिदेवता मानकर नित्य ही नियमसे भक्ति पूर्वक जिनेन्द्रार्चन करते हैं ।२२।। (ति.प./4/५८८-५८६); (त्रि.सा./ ५५२-५५३)। ४. देवोंके शरीरकी दिव्यता ति.प./३/२०८ अद्विसिरारुहिरवसामुत्तपुरीसाणि केसलोमाइं। चम्म डमंसप्पहुडी ण होइ देवाण संघडणे ।२०८। देवोंके शरीरमें हड्डी, नस, रुधिर, चर्बी, मूत्र, मल, केश, रोम, चमड़ा और मांसादिक नहीं होता। (ति प./८/५६८)। ध. १४/५.६,६१/८१/८ देव...पत्तेयसरीरा बुच्चति एदेसिं णिगोदजीवेहि सह सबंधाभावादो। -देव...प्रत्येक शरीरवाले होते हैं, क्योकि इनका निगोद जीवोंके साथ सम्बन्ध नहीं होता। ज. प./११/२५४ अट्ठगुणमहिडीओसुहबिउरुग्वणविसेससंजुत्तो । समचउरंससुसंढिय संघदणेसु य असंघदणो ।२१४।अणिमा, महिमादि आठ गुणों व महा-द्धिसे सहित. शुभ विक्रिया विशेषसे संयुक्त, समचतुरस्र शरीर संस्थानसे युक्त, छह संहननोंमें संहननसे रहित, (सौधर्मेन्द्रका शरीर ) होता है। वो.पा./टी./३२/१८/१५ पर उद्धृत-देवा...आहारो अस्थि णत्थि नीहारोश निक्कुंचिया होति ।११-देवोंके आहार होता है, परन्तु निहार नही होता, तथा देव मुंछ-दाढीसे रहित होते है। इनके शरीर निगोद से रहित होते हैं। ५. देवोंका दिव्य आहार ति.प./१५१ उवहिउत्रमाणजीवीव रिससहस्सेग दिव्वअमयमयं । भुजदि मणसाहारं निरूवमयं तुढिपुष्टि कर ५१॥ ( तेसु कबलासणं स्थि । ति.प./६/८७)-देवोके दिव्य, अमृतमय, अनुपम और तुष्टि एवं पुष्टिकारक मानसिक आहार होता है ५५१। उनके कवलाहार नहीं होता। (ति.प./६/८७)। ६. देवोंके रोग नहीं होता ति.प./३/२०६ बण्णरसगंधफासे अइसयवेकुबदिब्बखंदा हि। णेदेसु रोयवादिउवठिदी कम्माणुभावेण ।२०६-चूंकि वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्शके विषयमें अतिशयको प्राप्त क्रियक दिव्य स्कन्ध होते हैं, इसलिए इन देवोंके कर्म के प्रभावसे रोग आदिकी उपस्थिति नहीं होती।२०६३ (ति.प./८/५६६)। ७. देवगति में सुख व दुःख निर्देश ति.प./३/१४१-२३८ चमरिंदो सोहम्मे ईसदि वइरोयणो य ईसाणे। भूदाणंदे वेणू धरणाणं दम्मि वेणुधारि त्ति ।१४१। एदे अठ्ठ सुरिदा अण्णोण्णं बहुबिहाओ भूदीओ। दळूण मच्छरेणं ईसंति सहावदो केई ।१४२॥ विविहरतिकरणभाविद विसुद्धबुद्धीहि दिव्वरूवेहिं । णाणविकुचणं बहुविलाससंपत्तिजुत्ताहिं ।२३१। मायाचारविवज्जिदपकिदिपसण्णाहिं अच्छाराहि समं । णियणियविभूदिजोग्ग संकल्पवसंगदं सोक्रवं ।२३२॥ पडपडहप्पहुदींहि सत्तसराभरणमहुरगीदेहि। वरललितणच्चणेहिं देवा भुजति उवभोग्ग ।२३३। ओहि पि विजाणतो अण्णोण्णुप्पण्णपेम्ममूलमणा। कार्मधा ते सव्वे गर्द पि कालं ण याणं ति ।२३४॥ वररयणकंचणाए विचित्तसयलुज्जलम्मि पासादे। कालागुरुगंधड्ढे रागणिधाणे रमंति सुरा ।२३। सयणाणि आसणणि मउवाणि विचित्तरूवरइदाणि । तणुमणवयणाणंदगजणणाणि होति देवाणं ।२३६। फासरसरूवसधुणिगंधेहि वडियाणि सोक्वाणि। उब जंता देवा तित्ति ण लह ति णिमिसपि ।२३। दीवेसु गदिदेसं भोगरिखदीए वि गंदणवणेसुं। वरपोक्खरिणीं पुलिणस्थलेषु कोडं ति राएण १२३८-चमरेन्द्र सौधर्मसे ईर्षा करता है, वैरोचन ईशानसे, बेणु भूतानन्दसे और वेणुधारी धरणानन्दसे । इस प्रकार ये आठ सुरेन्द्र परस्पर नाना प्रकारकी विभूतियोंको देखकर मात्सर्य से, व कितने ही स्वभावसे ईर्षा करते है ।१४१-१४२। (त्रि.सा/२१२); (भ.आ./मू./१५६८-१६०१) वे देव विविध रतिके प्रकटीकरणमें चतुर, दिव्यरूपोसे युक्त, नाना प्रकारकी बिक्रिया व बहुत विलास सम्पत्तिसे सहित स्वभावसे प्रसन्न रहनेवाली ऐसीअप्सराओके साथ अपनी-अपनी विभूतिके योग्य एवं संकल्पमात्रसे प्राप्त होनेवाले उत्तम पटह आदि वादित्र एवं उत्कृष्ट सुन्दर नृत्यका उपभोग करते हैं ।२३१-२३३। • कामांध होकर बीते हुए समयको भी नहीं जानते है। · सुगन्धसे व्याप्त रागके स्थान भूत प्रासादमें रमण करते हैं। ।२३४-२३।। देवों के शयन और आसन मृदुन्न, विचित्र रूपसे रचित, शरीर एवं मनको आनन्दोत्पादक होते है ।२३६। ये देव स्पर्श, रस, रूप, सुन्दर शब्द और गंधसे वृद्धिको प्राप्त हुए सुखौंको अनुभव करते हुए क्षणमात्र भी तृप्तिको प्राप्त नहीं होते है ।२३७। ये कुमारदेव रागसे द्वीप, कुलाचल, भोगभूमि, नन्दनवन और उत्तम बावड़ी अथवा नदियोके तटस्थानो में भी क्रीडा करते हैं ।२३। त्रि.सा./२१६ अट्ठगुणि डिविसिट्ठणाणामणि भूसणेही दित्तंगा। भुजंनि भोगमिट्ठ सग्गपुवतवेण तत्थ मुरा ।२१६।' (ति प./८/५६०-५६४)। =तहाँ जे देव हैं ते अणिमा, महिमादि आठ गुण ऋद्धि करि विशिष्ट है, अर नाना प्रकार मणिका आभूषणनि करि प्रकाशमान हैं अंग जिनका ऐसे है। ते अपना पूर्व कीया तपका फल करि इष्ट भोगकों भोग4 हैं ।२१॥ ..देवोंके गमनागमनमें उनके शरीर सम्बन्धी नियम ति.प./८/५६५-५६६ गब्भावयारपहूदिसु उत्तरदेहासुराणगच्छति । जम्मण ठाणेसु सुहं मूलसरीराणि चेट्छति ।५६५ णवरि विसेसे एसो सोहम्मीसाणजाददेवाणं । बच्चंति मूलदेहा णियगियकप्पामराण पासम्मि । १६६-गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवोके उत्तर शरीर जाते हैं, उनके मूल शरीर सुख पूर्वक जन्म स्थानमें रहते हैं ।५६५विशेष यह है कि सौधर्म और ईशान कल्पमें हुई देवियों के मूलशरीर अपने अपने कल्पके देवोंके पासमें जाते हैं ।५६६। घ. ४/१.३.१५/७६/8 अप्पणो ओहिखेत्तमेत्तं देवा विउव्वं ति त्ति जं आइरियवयणं तण्ण घडदे । - देव अपने अपने अवधिज्ञानके क्षेत्र प्रमाण विक्रिया करते हैं, इस प्रकार जो अन्य आचार्योंका वचन है, वह घटित नहीं होता। ९. ऊपर-ऊपरके स्वर्गों में सुख अधिक और विषय सामग्री हीन होती जाती है त.सू./४/२०-२१ स्थितिप्रभावसुखा तिलेश्याविशृद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिका ।२० गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः १२३ = स्थिति, प्रभाव, सुख, ध ति, लेश्याविशुद्धि, इन्द्रिय विषय और अवधिविषयकी अपेक्षा ऊपर-ऊपरके देव अधिक हैं ।२० गति, शरीर, परिग्रह और अभिमानकी अपेक्षा ऊपर-ऊपरके देव हीन हैं ।२१॥ १०. ऊपर-ऊपरके स्वर्गों में प्रविचार भी हीन-हीन होता है और उसमें उनका वीर्यक्षरण नहीं होता त.सू /४/- कायप्रविचारा आ ऐशानात् ॥७शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनप्रवीचारा ।। परेऽप्रवीचार। -(भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष और ) ऐशान तकके देव काय प्रबीचार अर्थात शरीरसे विषयसुख भोगने वाले होते है।। शेष देव, स्पर्श, रूप, शब्द और मनसे विषय सुख भोगने वाले होते हैं। बाकीके सब देव विषय सुखसे रहित होते हैं ।। (मू.आ /११३६-११४४); (घ.१/१,१,६८/३३८/५), (ति.प./ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव ४४७ II देव (गति) ति.प./३/९३०-१३१ असुरादिभवणसुरा सब्वे ते होंति कायपविचारा। वेदस्सुदोरणाए अनुभवणं माणुससमाणं ।१३०। धाउविहीणत्तादो रेदविणिग्गमणमत्थि ण हु ताणं । सकप्प सुहं जायदि वेदस्स उदीरणाविगमे १३१॥ =वे सब असुरादि भवनवासी देव (अर्थात् काय प्रविचार वाले समस्त देव) कायप्रविचारसे युक्त होते हैं तथा वेद नोकषायकी उदीरणा होनेपर वे मनुष्यों के समान कामसुखका अनुभव करते हैं। परन्तु सप्त धातुओंसे रहित होनेके कारण निश्चय से उन देवोंके वीर्यका क्षरण नहीं होता। केवल वेद नोकषायकी उदीरणा शान्त होनेपर उन्हें संकल्प सुख होता है। ३. सम्यक्त्वादि सम्बन्धी निर्देश व शंका-समाधान १. देवगतिमें सम्यक्त्वका स्वामित्व ष, खं १/१,२/सू.१६६-१७१/४०५ देवा अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्भा इट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्टि त्ति ।१६६। एवं जाव उवरिम-गेवेज-विमाण-वासिय-देवा त्ति ।१६७। देवा असंजदसम्माइट्ठिठाणे अस्थि खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट ठी उवसमसम्माइटिठ त्ति ।१६८। भव गवासिय-वाणवेंतर-जोइसिय-देवा देवीओ च सोधम्मीसाण-कम्पवासीय-देवीओ च असंजइसम्माइट्ठि-ठाणे खड्यसम्माइट्ठी णस्थि अवसेसा अस्थि अवसेसियाओ अस्थि ।१६।। सोधम्मीसाण-प्पहुडि जाव उवरिम-उवरिम-गेवज-विमाण-वासियदेवा असंजदसम्माइटिट्ठाणे अत्थि खझ्यसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उबसमसम्माइट्ठी ।१७०१ अणुदिस-अणुत्तर-विजय-वइजयंतजयंतावराजिदसवसिद्धि - विमाण - वासिय - देवा असंजदसम्माइदिठाणे अस्थि खायसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी ।१७१। - देव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यावृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि होते है ।१६६। इस प्रकार उपरिम वेयकके उपरिम पटल तक जानना चाहिए ।१६७। देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते है ।१६८६ भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव तथा उनकी देवियाँ और सौधर्म तथा ईशान कल्पवासी देवियों असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते है या नहीं होती हैं। शेष दो सम्यग्दर्शनोंसे युक्त होते हैं या होती है ।१६। सौधर्म और ऐशान कल्पसे लेकर उपरिम ग्रैवेयकके उपरिम भाग तक रहने वाले देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमे क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदग सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं ।१७०। नव अनुदिशों में और विजय, वैजयन्त, और जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थ सिद्धि इन पाँच अनुत्तरोंमे रहने वाले देव असंयत सम्यग्दृष्टिगुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं ।१७१। २. देवगतिमें गुणस्थानोंका स्वामित्व प.ख./१/११/./पृष्ठ देवा चदुसु हाणेसु अस्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति । (२८१२२५) देवा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्भाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि-ठाणे 'सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ६४ सप्मामिच्छाइटिट्ठाणे णियमा पजता ।१५॥ भवणवासिय-वाणवेंतर-जोइसिय-देवा देवीओ सोधम्मीसाण-कप्पवासिय-देवीओ च मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइटि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता, सिया अप्पज्जत्ता, सिया पज्जत्तिओ सिया अपज्जत्तिओ १६ सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे णियमा पजत्त णियमा पज्जत्तियाओ। सोधम्मीसाण-प्पहुडि जाव उवरिम-उबरिम गेबज्जं ति विमाणवासिय-देवेसु मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिाणे सिया पज्जत्ता मिया अपज्जत्ता ।६८) सम्माइट्ठिाणे णियमा पज्जत्ता ६ अणुदिस-अणुत्तर-विजय वहजयंत-जयंतावराजितसम्वसिद्धि-बिमाण-वासिय-देवा असजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ।१००। (६४१००/३३५) -मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यावृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानोमे देव पाये जाते है ।२८॥ देव मिथ्या दृष्टि सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते है और अपर्याप्त भी होते है।६४ा देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें नियमसे पर्याप्तक होते हैं । भवनवासी वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव और उनकी देवियाँ तथा सौधर्म और ईशान कल्पवासिनी देवियाँ ये सब मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते है, और अपर्याप्त भी।६६। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पूर्वोक्त देव नियमसे पर्याप्तक होते हैं ( गो जी./जी.प्र./७०३/११३७/९) और पूर्वोक्त देवियाँ नियमसे पर्याप्त होती हैं ।१७। सौधर्म और ईशान स्वर्ग से लेकर उपरिम ग्रैवेयकके उपरिम भाग तक विमानवासी देवों सम्बन्धी मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें जीव पर्याप्त भी होते है और अपर्याप्त भी होते हैं ।१८) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में देव नियमसे पर्याप्त होते है । नत्र अनुदिशमें और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पाँच अनुत्तर विमानो में रहनेवाले देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं ।१००। [इन विमानोंमे केवल असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है, शेष नहीं। ध.३/१,२,७२/२८२/१], (गो.जी./जी,प्र/७०३/ ११३७/८)। ध.४/१,५.२६३/४६३/६ अंतोमुहूत्तूणड्ढाइ जसागरोवमेसु उप्पण्णसम्मादिहिस्स सोहम्मणिवासिस्स मिच्छत्तगमणे संभवाभावादो । =अन्तर्मुहूर्त कम अढाई सागरोपमको स्थिति वाले देवोंमें उत्पन्न हुए सौधर्म निवासी सम्यग्दृष्टिदेवके मिथ्यात्वमें जानेकी सम्भावना का अभाव है। गो.क./जी.प्र./५५१/७५३/१ का भावार्थ-सासादन गुणस्थानमे भवनत्रिकादि सहस्रार स्वर्ग पर्यन्तके देव पर्याप्त भी होते है, और अपयप्ति भी होते है। ३. अपर्याप्त देवोंमें उपशम सम्यक्त्व कैले सम्मव है ध.२/१,१/१५६/४ देवासंजदसम्माइट ठीणं कधमपजतेकाले उवसम सम्मत्तं लभदि । बुच्चदेवेदगसम्मत्तमुक्सामिय उसमसेढिमारुहिय पुणो ओदरियपमत्तापमत्तसंजद-असंजद-संजदासंजद-उसमसम्माइट्ठि-ट्ठाणेहि मज्झिमतेउलेस्सं परिणमिय काल काऊण सोधम्मीसाण-देवेसुप्पण्णाणं अपज्जत्तकाले उबसमसम्मत्तं लब्भदि । अध ते चेव .. सणक्कुमार माहिदे...ब्रह्म-बह्मोत्तर-लोतव-का विट्ठसुक्क महासुक्क...सदारसहस्सारदेवेसु उप्पज्जंति । अध उवसमसेदि चढिय पुणो दिण्णा चेव मज्झिम-सुक्कलेस्साए परिणदा संता जदि कालं क्रेति तो उवसमसम्मत्तेण सह आणद-पाणद-आरणच्चुद-णवगेवज विमाणवासिय देवेसुप्पज्जति: पुणो ते चेव उक्कस्स-सुक्कलेस्सं परिणमिय जदि काल कर ति तो उवसमसम्मत्तेण सह णवाणुदिसपंचाणुत्तर विमाणदेवेसुप्पज्जति । तेण सोधम्मादि-उचरिमसव्वदेवासजदसम्माइट्ठीणमपज्जत्तकाले उवसमसम्मत्त लम्भदि त्ति। -प्रश्न-असंयत सम्यग्दृष्टि देवों के अपर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व कैसे पाया जाता है। उत्तर-वेदक सम्यक्त्वको उपशमा करके और उपशम श्रेणीपर चढ़कर फिर वहाँसे उतरकर प्रमत्त संयत, अप्रमत्त संयत, असंयत, संयतासंयत, उपशम सम्यग्दृष्टि गुण स्थानोंसे मध्यम तेजोलेश्याको परिणत होकर और मरण करके सौधर्म ऐशान कल्पवासी देवोमें उत्पन्न होने वाले जीवोके अपर्याप्त कालमें औपशमिकसम्यक्त्व पाया जाता है। तथा उपर्युक्त गुणस्थानवर्ती ही जीव ( यथायोग्य उत्तरोत्तर विशुद्ध लेश्यासे मरण करें तो) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव ४४८ II देव (गति) सनत्कुमार और माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं। तथा उपशम श्रेणीपर चढ़ करके और पुन' उतर करके मध्य शुक्ल लेश्यासे परिणत होते हुए यदि मरण करते है तो उपशम सम्यक्त्व के साथ आनत, प्राणत, आरण, अच्युत और नौ ग्रेवेयक विमानवासी देवोमे उत्पन्न होते हैं। तथा पूर्वोक्त उपशम सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्कृष्ट शुक्ल लेश्याको परिणत होकर यदि मरण करते है, तो उपशम सम्यक्त्वके साथ नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानवासी देवों में उत्पन्न होते हैं। इस कारण सौधर्म स्वर्गसे लेकर ऊपरके सभी असंयतसम्यग्दृष्टि देवोके अपर्याप्त कालमें औपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है (स.सि./१/७/२३/७) । अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवोके पर्याप्त कालमें औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है। ५. फिर इन अनुदिशादि विमानों में उपशम सम्यक्त्वका निर्देश क्यों ध.१/१,१.१७१/४०७/७ कथं तत्रोपशमसम्यक्त्वस्य सत्त्वमिति चेत्कथ च तत्र तस्यासत्त्वं । तत्रोत्पन्नेभ्यः क्षायिकक्षायोपशमिक्सम्यग्दर्शनेभ्यस्तदनुत्पत्ते. । नापि मिथ्यादृष्टय उपात्तीपशमिकसम्यग्दर्शनाः सन्तस्तत्रोत्पद्यन्ते तेषां तेन सह मरणाभावात् । न, उपशम ण्यारूढानामारुह्यतीर्णानां च तत्रोत्पत्तितस्तत्र तत्सत्त्वाविरोधात् । = प्रश्नअनुदिश और अनुत्तर विमानोमें उपशम सम्यग्दर्शन सद्भाव कैसे पाया जाता है । प्रतिशंका-वहाँपर उसका सद्भाव कैसे नहीं पाया जा सकता है। उत्तर-वहाँपर जो उत्पन्न होते है उनके क्षायिक, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पाया जाता है, इसलिए उनके उपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। और मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यग्दर्शनको ग्रहण करके वहॉपर उत्पन्न नही होते है, क्योंकि उपशम सम्यग्दृष्टियोंका उपशम सम्यक्त्वके साथ मरण नहीं होता। उत्तर-नहीं, क्योकि उपशम श्रेणी चढनेवाले और चढ़कर उतरनेवाले जोवों को अनुदिश और अनुत्तरोंमें उत्पत्ति होती है, इसलिए वहॉपर उपशम सम्यक्त्वके सद्भाव रहनेमे कोई विरोध नहीं आता है। दे०-मरण/३ द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें मरण सम्भव है परन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्वमे मरण नहीं होता है । ४. अनुदिशादि विमानोंमें पर्याप्तावस्थामें भी उपशम सम्यक्त्व क्यों नहीं ध.२/१,१/५६६/१ केण कारणेण (अनुदिशादिसु) उवसमसम्मत्तं णस्थि । बुच्चदे-तत्य ट्ठिदा देवा ण ताव उवसमसम्मत्तं पडिबज्जति तत्थ मिच्छाइट्ठीणमभावादो। भवदु णाम मिच्छाइट्ठीणमभावो उवसमसम्मत्त पि तत्थ ठ्ठिदा देवा पडिवज्जति को तत्थ विरोधो। इदि ण 'अणंतर पच्छदो य मिच्छत्तं' इदि अणेण पाहूडसुत्तेण सह बिरोहादो। ण तत्थ ठ्ठिद-वेदगसम्माइट्ठिणो उवसमसम्मत्तं पडिवज्जंति मणुसगदि-बदिस्तिण्णगदीसु वेदगसम्माइट्टिजीवाणं दसण मोहुबसमणहेदु परिणामाभावादो। ण य वेदगसम्माइट्टित्तं पडि मणुस्से हितो विसेसाभावादो मणुस्साणं च दंसणमोहुवसमणजोगपरिणामेहि तत्थ णियमेण होदव्वं मणुस्स-संजम-उवसमसेढिसमारूहणजोगत्तणेहि भेदद सगादो। उवसम-से ढिम्हि कालं काऊणुवसमसम्मत्तेण सह देवेसुप्पण्णजीवा ण उवसमसम्मत्तेण सह छ पज्जत्तीओ समाणेति तत्थ तणुवसमसम्मत्तकालोदो छ-पज्जत्तीणं समाणकालस्स बहुत्त बलं भादो। तम्हा पज्जत्तकाले ण एदेसु देवेसु उवसमसम्मत्तमथि त्ति सिद्ध। प्रश्न-नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानोके पर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व क्सि कारणसे नहीं होता। उत्तर-वहॉपर विद्यमान देव तो उपशम सम्यवत्वको प्राप्त होते नही है, क्योंकि वहाँपर मिथ्यादृष्टि जीवोका अभाव है। प्रश्न- भले ही वहाँ मिथ्यादृष्टि जीवोका अभाव रहा आवे, किन्तु यदि वहाँ रहनेवाले देव औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करे तो, इसमें क्या बिरोध है । उत्तर-१. 'अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके प्रथमोपशम सम्यक्त्व के पश्चात मिथ्यात्वका उदय नियमसे होता है परन्तु सादि मिथ्यादृष्टिके भाज्य है' इस कषायप्राभृतके गाथासूत्रके साथ पूर्वोक्त कथन का विरोध आता है। २. यदि कहा जाये कि वहाँ रहनेवाले वेदक सम्यग्दृष्टि देव औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त होते है, सो भी बात नहीं है, क्योकि मनुष्यतिके सिवाय अन्य तीन गतियों में रहनेवाले वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के दर्शनमोहनीयके उपशमन करनेके कारणभूत परिणामोका अभाव है। ३. यदि कहा जाये कि वेदक सम्यग्दृष्टिके प्रति मनुष्योसे अनुदिशादि विमानवासी देवों के कोई विशेषता नहीं है, अतएव जो दर्शनमोहनीयके उषशमन योग्य परिणाम मनुष्योके पाये जाते है वे अनुदिशादि विमानवासी देवोके नियमसे होना चाहिए, सो भी कहना युक्ति संगत नहीं है, क्योंकि संयमको धारण करनेकी तथा उपशम श्रेणीके समारोहण आदिकी योग्यता मनुष्योमें होनेके कारण दोनोमें भेद देखा जाता है। ४. तथा उपशमश्रेणीमे मरण करके औपशमिक सम्यक्त्वके साथ देवोंमे उत्पन्न होनेवाले जीव औपशमिक सम्यक्त्वके साथ छह पर्याप्तियों को समाप्त नहीं कर पाते हैं, क्योंकि, अपर्याप्त अवस्थामे होनेवाले औपशमिक सम्यक्रवके कालसे छहो पर्याप्तियों के समाप्त होनेका काल अधिक पाया जाता है, इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि ६. भवनवासी देव देवियों व कल्पवासी देवियों में सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं उत्पन्न होते ध.१११,१,६७/३३६/५ भवतु सम्यग्मिथ्यादृष्टेरतत्रानुत्पतिस्तस्य तद्गुणेन मरणाभावात् किन्तवेतन्न घटते यदसंयतसम्यग्दृष्टिमरणास्तत्र नोत्पद्यत इति न, जघन्येषु तस्योत्पत्तरभावात् । नारकेषु तिर्यक्षु च कनिष्ठेत्पद्यमानास्तत्र तेभ्योऽधिकेषु किमिति नोत्पद्यन्त इति चेन्न, मिथ्यादृष्टीना प्राग्बद्वायुष्काणां पश्चादात्तसम्यग्दर्शनानां नारकाा त्पत्तिप्रतिबन्धन प्रति सम्यग्दर्शनस्यासामर्थ्यात् । तद्व वेष्वपि किन्न स्यादिति चेत्सत्यमिष्टत्वात् । तथा च भवनवास्यादिष्वप्यसयतसम्यग्दृष्टेरुत्पत्तिरास्कन्देदिति चेन्न. सम्यग्दर्श नस्य बद्धायुषी प्राणिनां तत्तद्गत्यायु सामान्येनाविरोधिनस्तत्तद्गतिविशेषोत्पत्तिविरोधित्वोपलम्भात् । तथा च भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिक...उत्पत्त्या विरोधो असंयतसम्यग्दृष्टे: सिद्धयेदिति तत्र ते नोत्पद्यन्ते ।प्रश्न-सम्यमिथ्यादृष्टि जीवकी उक्त देव देवियोमें उत्पत्ति मत होओ, क्योकि इस गुणस्थानमें मरण नहीं होता है। परन्तु यह बात नहीं घटती कि मरनेवाल। असंयत सम्यग्दृष्टि जीव उक्त देव-देवियोमे उत्पन्न नहीं होता है। उत्तर-महीं क्यों कि सम्यग्दृष्टि की जघन्य देवों में उत्पत्ति नहीं होती। प्रश्न-जघन्य अवस्थाको प्राप्त नारकियोमें और तिर्यचोमें उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव उनसे उत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त भवनवासी देव और देवियोमे तथा कल्पवासिनी देवियों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं। उत्तर-नही. क्योंकि, जो आयुकर्मका अन्ध करते समय मिथ्यादृष्टि थे और जिन्होने अनन्तर सम्यग्दर्शनको ग्रहण किया है, ऐसे जीवोंकी नरकादि गतिमें उत्पत्तिके रोकनेका सामर्थ्य सम्यग्दर्शनमे नहीं है। प्रश्नसम्यग्दृष्टि जीवोकी जिस प्रकार नरकगति आदिमें उत्पत्ति होती है उसी प्रकार देवोंमें क्यो नही होती है। उत्तर-यह कहना ठीक है, क्योकि यह बात इष्ट ही है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो भवनवासी आदि में भी असयत सम्यग्दृष्टि जीवोंकी उत्पत्ति प्राप्त हो जायेगी ? उत्तर--नहीं, क्यो कि, जिन्होंने पहले आयु कर्मका बन्ध जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव ऋद्धि कर लिया है ऐसे जीना उस गति सम्बन्धी आयु सामान्य के साथ विरोध न होते हुए भी उस उस गति सम्बन्धी विशेष में उत्पत्ति के साथ विरोध पाया है। ऐसी अवस्थामें भवनवासी, उत्तर ज्योतिषी प्रकीर्णक, आभियोग्य और फिबिधिक वैनों मे ...असंयत सम्यग्दृष्टिका उत्पत्ति के साथ विरोध सिद्ध हो जाता है। ७. भवनत्रिक देव-देवी व कल्पवासी देवी में क्षायिक सभ्यवश्व क्यों नहीं होता घ. १/१.१.९/२०६२ किमिति क्षायिकसम्यग्टष्टपस्तत्र न सन्तीति दर्शन मोक्षपणाभावात्क्षपितदर्शनमोहकर्मणामपि चेन्न, देवेषु प्राणिनां भवनवास्यादिष्वधमदेवेषु सर्वदेवीषु चोत्पत्तेरभावाच्च । = प्रश्न- क्षायिक सम्यग्दृष्टि जी एस स्थानों में (भवनत्रिक देव तथा सर्व देवियोंमें) क्यों नहीं उत्पन्न होते है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, एक तो वहाँ पर दर्शनमोहनीयका क्षपण नहीं होता है। दूसरे जिन जीने पूर्व पर्याय दर्शन मोहका क्षय कर दिया है उनकी भवनवासी आदि अधम देवों में और सभी देवियों में उत्पत्ति नहीं होती है। ८. फिर उपशमादि सम्यक्त्व भवनन्त्रिक देव व सर्व देवियों में कैसे सम्भव है घ. १/१. १. १६६/४०६/७ सेपसम्यक्त्वस्य तत्र कर्म सम्भव इति चैत्र, तत्रोत्पन्नजीवानां पश्चात्पर्यायपरिणतेः सत्त्वात् । - • प्रश्न- शेषके हो सम्यग्दर्शनोंका उक्त स्थानों मे भवदेव तथा सर्व देवियोंमें) सद्भाव कैसे सम्भव है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, वहाँपर उत्पन्न हुए जोवोंके अनन्तर सम्यग्दर्शनरूप पर्याय हो जाती है, इसलिए शेषके दो सम्यग्दर्शनोंका वहाँ सद्भाव पाया जाता है। आगम के संक्लयिता प्रधान देव ऋद्धि-आचारांग आदि श्वेताम्बराचायें। पतिरमिह नयरे देवपमुसलसंहि । आगमप्रत्थे सिम्हि णवसय असीजाओ मरियो । प इसके अनुसार आप सकल संघ सहित वल्लभीपुर में वी. नि. १८० (ई. ४५३) में खाये थे । ई. ५६३ के विशेषावश्यक भाष्य में आपका नामोल्लेख है। समय- श्वेताम्बर संघ के संस्थापक जिनचन्द्र (ई. ७६) और बि. आ. भा. ( ई. ५६३) के मध्य । (प.सा. ११/प्रेमी जी) । देव ऋषि - दे० ऋषि । देवकीति - १. संघ को गुर्वावली अनुसार आप अनन्तन शिष्य व गुणकीर्ति के सहधर्मा थे । समय-ई. १६०-१०४० (दे. इतिहास ०२. नन्दिके देशी गुर्वावली के अनुसार आग मापनन्दि कोल्लापुरीयके शिष्य तथा गण्ड, विमुक्त, वादि चतुर्मुख आदि अनेक साधुओं व श्रावकों के गुरु थे। आपने कोल्लापुरकी रूपनारायण वसदिके आधीन केल्लगेरेय प्रतापपुरका पुनरुद्धार कराया था । तथा जिननाथपुरमे एक दानशाला स्थापित की थी। इनके शिष्य हुतराज मन्त्रीने इनके पश्चात् इनकी निपाननायी थी। समय-वि ११२०-१२२० (ई. १९३३ - ११४२ २ ४H.L Jam ) -- दे० इतिहास / ७ / ५ । ३. नन्दिसंघके देशीयगणकी गुर्वावलीके अनुसार ( दे० इतिहास ) आप गण्डविमुक्तदेवके शिष्य थे । समय - शक १०८४ मे समाधि (ई ११३५-११६३); ( ष. खं. २/ प्र.४ H. L Jain ) - दे० इतिहास / ७/५ । देवकुरु--- १. विदेह क्षेत्रस्थ एक उत्तम भोगभूमि जिसके दक्षिण में निषेध, उत्तर में सुमे, पूर्वमे सौमनस गजदन्त व पश्चिम विभ गजदन्त है । २. इसका अवस्थान व विस्तार - दे० लोक / ३ /१२ ३. इसमें काल परिवर्तन आदि विशेषताएँ - दे० काल | ४ भा० २-५७ देववर देवकुरु-१. गन्धमादनके उत्तर छूटका स्वामी देव ३० लोक / ५ / ४२ विद्यत्प्रभ गजदन्तस्थ एक कूट - दे० लोक /५/४ ३. सौमनस गजदन्तस्थ एक कूट- दे० लोक५/४ ४. सौमनस गजदन्तस्थ देवकुरु कूट स्वामी देव-दे० लोक /५/४ ४. देवकुरुमे स्थित नाम-३० लोक/५/६ *** देव कूट- १. अपर निदेहस्य चन्द्रगिरि नक्षारका एक फूट ६० लोक/9; २. उपरोक्त कूटका रक्षक एक देव-दे० लोक / ७ । देवचंद्र१. नन्दिसघ देशीयगण के 'अनुसार आप माघनन्दि कोहापुरी के शिष्य, एक कुशल तान्त्रिक थे। समय-वि. १९६०१२२० ( ई० ११३३ - १९६३) । दे० - इतिहास / ७/५ २. पासणाह चरित्रकेचा एक गृहत्यागी गुरु परम्परातकीर्ति, देवकीर्ति, मौनीदेव, माधव चन्द्र, अभयनन्दि, वासवचन्द्र । समयवि. श. १२ का मध्य ( ती० / ४ / १८० ) । ३. राजवलि कथे (कन्नड़ ग्रन्थ) के रचयिता । समय- वि० १८६६ ( ई० १८३६) । ( भ०आ० / ०४/प्रेमी जी) 1 - देव जी - कृति - सम्मेद शिखर विलास, परमात्म-प्रकाशको भाषा टीका । समय-वि १७३४ । (हि. जे सा. इ./ १६५ कामता ) । देवता १ देवी-देवता दे० देव / II । २. नव देवता निर्देश । - दे० देव / I | देवनंदि (--- १. नन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावली के अनुसार आप यशोनन्दिके शिष्य थे और जयनन्दिके गुरु थे । समय-वि. श. -दे० इतिहास /७२ । २११-२०२२६-३८८ ) । २. आ० पूज्यमाद (ई० श. ५) का अपरनाम । ३. रोहिणीविहाण कहा के रचयिता एक अपभ्रंश कमि । समय-वि.श. १५ (ई.श. १५ पूर्व ). ( तो०/४/२४२) । देवपाल - १. भावि कालीन तेईसवे तीर्थंकर हैं। अपरनाम दिव्यपाद दे० तीर्थकर ५२. . / सर्ग / श्लोक पूर्वके तीसरे भ भारत का पुत्र भानुषेण था (२४/१०) फिर दूसरे में चित्रचूल विद्याधरका सेनकान्त नामक पुत्र हुआ (३४ / १३२) । फिर गंगदेव राजाका पुत्र गंगदा हुआ (३४-१४२ ) । वर्तमान भव में वसुदेवका पुत्र था (३४ / ३ ) । सुदृष्टि नामक सेठके घर इनका पालन हुआ (३४/४-३)। नेमिनाथ भगवादके समवसरण में धर्म धवन कर, दीक्षा ने ली ( तथा घोर तप किया); ( ५६ / ११५: ६०/ ७ ), ( अन्त में मोक्ष प्राप्त की ( ६५ / १६ ) । ३. भोजवंशी राजा था। भोजवंश वंशावली के अनुसार ( ० इतिहास) आप राजा नमक पुत्र और जेतुगिदके पिता थे। मालवा ( मागध ) देशके राजा थे। धारी व उज्जैनी आपकी राजधानी भी समय १२१८-१२२८ (दे०सा./१६-२० प्रेमी जी) दे० इतिहास / २८१ देवमाल - अपर विदेहस्थ एक वक्षार । अपरनाम मेघमाल । -दे० लोक /५/३ देवमूढता - ३० ता देवराय - विजयनगरका राजा था। समय-ई. १४१८-१४४६ । देवलोक १. देवलोक निर्देश दे० स्वर्ग ५। २. देवसोमे पृथिमी कायिकादि जीवोकी सम्भावना - दे० काय /२/५ । देववर - मध्यलोकके अन्तमें तृतीय सागर व द्वीप - दे० लोक /५/१ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव विमान देवव्रत देव विमान-१. देवोंके विमानोंका स्वरूप -दे० विमान । २. या देव विमानों में चैत्य चैत्यालयका निर्देश-दे० चेत्य/चैत्यालया। देवसुत-भाविकालीन छठे तीर्थकर हैं। अपरनाम देवपुत्र व जय देव-दे० तीर्थंकर/५। दवसन-१. पंचस्तप संघकी गुर्वावलीके अनुसार-दे०इतिहास । आप वीरसेन (धवलाकार ) के शिष्य थे। समय-ई. ०२०-७० (म. पु./प्र./३१ ५ पन्नालाल)-दे० इतिहास /७/७ । २. माथुर संधी आ० विमल गणो के शिष्य तथा अमितगति प्र० के गुरु । कृतियेंदर्शनसार, भावसंग्रह, अाराधनासार, नयचक्र, आलापपद्धति, तत्वार्थसार, ज्ञानसार, धर्म संग्रह, सावय धम्मदोहा । समय-कि. १०-१०१२ (ई० ६३३-६५५) । दर्शनसार का रचनाकाल वि०६१०। (ती०/२/३६६)। (दे० इतिहास/७/१९)। (जै०/२/३18)। ३. पं० परमानन्द जी के अनुसार सुलोचना चरित्र के कर्ता देवसेन ही भावसंग्रह के कर्ता थे, देवसेन द्वि० नहीं। समय-वि. ११३२-१९९२ (ई०१०७५-१९३५) । (ती./२/३६८.४/१५१) ४. ह.पु./१०/१६ भोजकवृष्णिका पुत्र उग्रसेनका छोटा भाई था । ४. वरांगचरित /सर्ग| श्लोक ललितपुरके राजा थे, तथा वरांगके मामा लगते थे (१६/१३) । वरांगको युद्धमें विजय देख उसके लिए अपना आधा राज्य व कन्या प्रदान की (१६/३०)। देवागम स्तोत्र-दे०-आप्तमीमांसा देवारण्यक-उत्तर कुरु, देव कुरु व पूर्व विदेहके वनखण्ड-दे० लोक /३/६१४॥ देवीदास-आप झाँसी निवासी एक प्रसिद्ध हिन्दी जैन कवि थे। कवि वृन्दावनके समकालीन थे। हिन्दीके ललित छन्दों में निबद्ध आपकी निम्न रचनाएँ उपलब्ध हैं-१ प्रवचनसार; २ परमानन्द विलास; ३. चिद्विलास वचनिका; ४ चौबीसी पूजापाठ। समयआपने प्रवचनसार ग्रन्थ वि. १८२४ मे लिखा था। वि. १८१२-१८२४ (ई. १७५५-१७६७) (वृन्दावन विलास/प्र.१४ प्रेमी जी) (हि.जै.सा.इ./ २१८ कामता)। देवंद्र-आप नन्दिसंघके देशीयगणकी गुर्वावली (-दे० इतिहास) के अनुसार गुणनन्दिके शिष्य तथा वसुनन्दिके गुरु थे /श.सं./७८२ के ताम्रपत्रके अनुसार मान्यखेटके राजा अमोघवर्ष द्वारा एक देवेन्द्र आचार्यको दान देनेका उल्लेख मिलता है। सम्भवतः यह वही हों। समय- शक.७८०-८२०; वि. ६१५-६५: (ई.८५८-८४८) (म.पु./प्र. ४१ प. पन्नालाल) (प.व.२/प्र.१० H.L. Jain)-दे० इतिहास/७/५ । देवंद्र काति-नन्दिसंघ सुरत शाखा के आद्य भट्टारक । समय-वि.१४५०-१४६६ (ई. १३९३-१४४२) । दे० इतिहास/७/४ । २. कथाकोष आदि के रचयिता सांगानेर के भट्टारक । समय-वि. १९४०-१६०२ (भद्रबाहु चरित्र /प्र०४/-उदयलाल)। ३. कल्याण मन्दिर तथा विषापहार पूजा के रचयिता कारजाशाखा के भट्टारक। समय-वि.१७७८-१७८६। (ती./३/४४८)। ४, कालिका पुराण के रचयिता मराठी कवि जो संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा गुजराती भाषा में भी दक्ष थे। (ती./४/३२१)। देवेंद्र सूरि-कर्मविपाक, कर्मस्तव, बन्धस्वामित्व, षडशीति, शतक तथा इन पांचों की स्वोपज्ञ रीका के रचयिता गुरु जगच्चन्द्र सुरि। समय-वि. श०१३ के अन्त से वि०१३२७ तक । (जै०१/४३६) । देश--१.देशका लक्षण १. देश सामान्य ध.१३/५,५,६३/३३५/३ अंग-मंग-कलिग-मगधादओ देसो णाम । - अंग, बंग, कलिग और मगध आदि देश कहलाते है। २. देश द्रव्य पं.प./पू./१४७ का भावार्थ-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल तथा स्थभाष इन सबके समुदायका नाम देश है। ३. देश अवयव रा. वा./७/२/१/५३५/१८ कुतश्चिदवयवाद दिश्यत इति देश प्रदेशः, एकदेश इत्यर्थः । कहीं पर देश शब्द अवयव अर्थ में होता है। जैसे--देश अर्थात् एक भाग । ध.१३/५.३.१८/१८/६ एगस्स दब्वस्स देसं अवयवं। =एकद्व्य का देश अर्थात अवयव। गो.क./जी.प्र./७८५/१५१/५ देशेन लेशेन एकमसंयम दिशति परिहरतीति देशैकदेश देशसंयतः। -देश कहिए लेश किचित एक जु है असंयम ताको परिहारे है ऐसा देशैकदेश कहिए देशसंयत । ४. देशसम्यक्त्व ध.१३/५,५०५६/३२३/७ देसं सम्मेत्तं । -देशका अर्थ सम्यक्त्व है। २. एकदेश लक्षण पं.ध./प्र./ नामैक्देशेन नामग्रहणं । = नामके एकदेश ग्रहणसे पूर्ण देश का ग्रहण हो जाता है, उसे एकदेश न्याय कहते हैं। देशक्रम-दे० क्रम/११ देशघाती प्रकृति-अनुभाग/४। देशघाती स्पर्धक-दे० स्पर्धक । देशचारित्र-दे० संयतासंयत । देशनालब्धि-दे० लब्धि/३। देशप्रत्यक्ष-दे० प्रत्यक्ष/१ । देशभूषण-प.पु/३६/श्लोकवंशधर पर्वतपर ध्यानारूढ थे (३३)। पूर्व वैरसे अग्निप्रभ नाम देवने घोर उपसर्ग किया (१५), जो कि वनवासी रामके आनेपर दूर हुआ (७३)। तदनन्तर इनको केवलज्ञान हो गया (७५)। देशविरत-देविरताविरत । देशवत-१. देशव्रतका लक्षण र.क.श्रा./१२-६४ देशवकाशिकं स्यात्कालपरिच्छेदनेन देशस्य। प्रत्यह मणुव्रताना प्रतिसंहारो विशालस्य ।। गृहहारिग्रामाणां क्षेत्रनदीदावयोजनानां च । देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धाः ।१३। संवत्सरमृतुरयनं मासचतुर्मासपक्षमसं च। देशावकाशिकस्य प्राहू कालावधि प्राज्ञाः।१४। -दिग्वतमें प्रमाण किये हुए विशाल देशमें कालके विभागसे प्रतिदिन त्याग करना सो अणुबतधारियोंका देशावकाशिक बत होता है ।१२। तपसे वृद्धरूप जे गणधरादिक हैं, वे देशावका शिकवतके क्षेत्रकी मर्यादा अमुक घर, गली अथवा कटकछावनी ग्राम तथा खेत, नदी, वन और किसी योजन तककी स्मरण करते हैं अर्थात कहते हैं ।।३। गणधरादिक ज्ञानी पुरुष देशावका शिक व्रतकी एक वर्ष, दो मास, छह मास, एक मास, चार मास, एक पक्ष और नक्षत्र तक कालकी मर्यादा कहते हैं ६४ा (सा-ध-/१/२५) (ला.सं./६/१२२) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशसंयत द्यूतक्रीड़ा स.सि./७/२१/३५६/१२ प्रामादीनामवघृतपरिमाणः प्रदेशो देशः। ततो- देशीनाममालामहिनिवृत्तिर्देशविरतिवतम् । -ग्रामादिककी निश्चित मर्यादारूप देशीयगण-नन्दिसंघकी एक शाखा-दे० इतिहास/५/२,७/५। प्रदेश देश कहलाता है। उससे बाहर जानेका त्याग कर देना देशविरतिवत कहलाता है। (रा.वा./७/२१/३/५४७/२७), (पु.सि.उ./१३६) दह-१. दे० शरीर; २. पिशाच जातीय व्यन्तर देवोका एक भेद का.आ/मू./३६७-३६८ पुव्व-पमाण-कदाणं सव्वादिसीणं पुणो वि संव -दे०पिशाच । रणं। इंदियविसयाण तहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं ।३६७ वासादिकयपमाणं दिणे दिणे लोह-काम-समण81३६८। जो श्रावक देव-दे० नियति/३। लोभ और कामको घटानेके लिए तथा पापको छोड़नेके लिए वर्ष आदिकी अथवा प्रतिदिनकी मर्यादा करके, पहले दिग्बतमें किये दो-१. यह जघन्य संख्या समझो जाती है। २. दोकी संख्या अवहुए दिशाओंके प्रमाणको, भोगोपभोग परिमाणवतमें किये हुए क्तव्य कहलाती है। -दे० अवक्तव्य । इन्द्रियों के विषयों के परिमाणको और भी कम करता है वह देशाव दोलायित-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । काशिक नामका शिक्षावत है। बसु.प्रा./२१५ बयभंग-कारणं होइ जम्मि देसम्मि तत्थ णियमेण । दोष-१. सम्यक्त्वके २५ दोष निर्देश-दे० सम्यग्दर्शन/२ २.संसाकीरइ गमणणियत्ती तं जाणा गुणव्वयं विदियं ।२१। जिस देश में रहते हुए व्रत भंगका कारण उपस्थित हो, उस देश में नियमसे जो रियोके अठारह दोष-दे० अहंत/३ । ३. आप्तमेंसे सर्वदोषोंका गमन निवृत्ति की जाती है, उसे दूसरा देशवत नामका गुणवत अभाव सम्भव है।- दे० मोक्ष/६/४|४. आहार सम्बन्धी ४६ दोषजानना चाहिए ।२१॥ (गुण.श्रा /१४१) दे० आहार/II/४/५. न्याय सम्बन्धी दोष-दे० न्याय/१ । ला.सं./4/१२३ तद्विषयो गतिस्त्यागस्तथा चाशनवर्जनम् । मैथुनस्य दोष-१. जीवके दोष रागादि हैं परित्यागो यद्वा मौनादिधारणम् ।१२३॥ =देशावकाशिक व्रतका विषय गमन करनेका त्याग, भोजन करनेका त्याग, मैथुन करनेका स श/टी./५/२२५/३ दोषाश्च रागादय, । -रागादि दोष कहलाते हैं। त्याग, अथवा मौन धारण करना आदि है। (प.ध./3/६०३) जैनसिद्धान्त प्रवेशिका/२२४ श्रावकके व्रतोको देशचारित्र कहते हैं। द्र, स/टी./१४/४६/११ निर्दोषपरमात्मनो भिन्ना रागादयो दोषाः। निर्दोष परमात्मासे भिन्न रागादि दोष कहलाते है। २. देशव्रतके पाँच अतिचारोंका निर्देश दोहा पाहुड़-१. योगेन्दुदेव (ई०० ६ उत्तरार्ध) कृत अपभ्रंश त.सू./७/३१ आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपा' ।३१ = आन ___ आध्यात्मिक ग्रन्थ । २. देवसेन कृत। समय- ई० १०००। यन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप ये देश (H.L.Jair),(जे०/२/१८३)। विरतिव्रतके पाँच अतिचार है।३१। (र.क.श्रा./मु./१६) दोहासार-दे० योगसार नं. ३ । ३. दिग्व्रत व देशव्रतमें अन्तर दौलतराम-१. जयपुर राज्य के वकील बनकर उदयपुर गए रा.वा./9/२१/२०/३ अयमनयोविशेष -दिग्विरति' सार्वकालिको देश और वहाँ ३० वर्ष रहे। कृतियें-अनेक पुराणों की बचनिकाये, विरतिर्यथाशक्ति काल नियमेनेति । = दिग्विरति यावज्जीवन-सर्व परमात्मप्रकाश बचनिका । आत्मबत्तीसी, अध्यारम बारहखड़ी, कालके लिए होती है जबकि देशवत शक्त्यानुसार नियतकाल के लिए सार समुच्चन, तत्वार्थसूत्र भाषा , चौनीस दण्डक. क्रियाकोष । होता है । (चा.सा./१६/१) टोहरमल कृत पुरुषार्थ सिद्धयुपायकी टीका पूर्ण की। समय-वि० १७७७-१८२२ हाथरस वासी कपडा छापने का व्यवसाय । ४. देशव्रतका प्रयोजन व महत्त्व पवलीवाल जाति । हाथरस से मथुरा और वहां से लश्कर चले गये। कृतियें-छाढाला, पदसंग्रह । समय-जन्म वि०१८५५, मृत्यु वि. स.सि./७/२१/३५६/१३ पूर्ववद्वहिर्महावतत्वं व्यवस्थाय्यम् । यहाँ भो १९२३ । (ती०/४/२८)। पहलेके (दिग्वतके) समान मर्यादाके बाहर महावत होता है । (रा.वा/ ७/२१/२०/५४६/२) द्यानतराय-आगरा निवासी गोयल गोत्री अग्रवाल श्रावक थे। र.क.पा./६५ सीमान्तानां परत स्थूलेतरपञ्चपापसत्यागाव । देशावकाशि- कृत्तिय-धर्मविलास (पदसग्रह), पूजापाठ व भक्तिस्तोत्र, रूपक, केन च महावतानि प्रसाध्यन्ते ।१५। -सीमाओ के परे स्थूल सूक्ष्मरूप काव्य, प्रकीणक काव्य । समय-वि० १७३ -१७८५(ती./४/२७६)। पाँचों पापोंका भले प्रकार त्याग हो जानेसे देशाव काशिकवतके द्वारा भी महाव्रत साधे जाते हैं ।१५। (पुसि उ /१४०) यति-स सि/४/२०/२५१/८ शरीरवसनाभरणादिदीप्ति द्यति । देशसंयत-दे० सयतासंयत । - शरीर, वस्त्र और आभूषण आदिको कान्तिको द्य ति कहते हैं। ( रा. वा /४/२०/४/२३५/१७) देशसत्य-दे० सत्य/१। द्यूतक्रीड़ा-१. घृतके अतिचार देशस्कंध-दे० स्कंध/११ सा ध./३/१६ दोषो होढाद्यपि मनो-विनोदार्थ पणोज्झिनः । हर्षोऽमर्षोवेशस्पर्श-दे० स्पर्श।। दयाङ्गत्वात. कषायो ह्यहसेऽञ्जसा ।१६। -जूआके त्याग करनेवाले श्रावकके मनो विनोदके लिए भी हर्ष और विनोदकी उत्पत्तिका देशातिचार-अतिचारका एक भेद-दे० अतिचार/३।। कारण होनेसे शर्त लगाकर दौडना, जूआ देखना आदि अतिचार होता है, क्योंकि वास्तव में कषायरूप परिणाम पापके लिए देशावधिज्ञान- दे० अवधिज्ञान/१ । होता है ।११। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्योतन ४५२ द्रव्य ला.सं./२/११४,१२० अक्षपाशादिनिक्षिप्त वित्ताज्जयपराजयम् । क्रियायो विद्यते यत्र सर्व द्य तमिति स्मृतम् ।११४॥ अन्योन्यस्येषया यत्र विजिगीषा द्वयोरिति व्यवसायाते कम द्य.तातीचार इष्यते ।१२०१ -जिस क्रियामें खेलनेके पासे डालकर धनकी हार-जीत होती है, वह सब जूआ कहलाता है अर्थात हार-जीतकी शर्त लगाकर ताश खेलना, चौपड़ खेलना, शतरंज खेलना, आदि सब जूआ कहलाता है ।११४। अपने-अपने व्यापारके कार्यों के अतिरिक्त कोई भी दो पुरुष परस्पर एक-दूसरेकी ईयासे किसी भी कार्यमें एक-दूसरेको जीतना चाहते हों तो उन दोनों के द्वारा उस कार्यका करना भी जूआ खेलनेका अतिचार कहलाता है ।१२०॥ * रसायन सिद्धि शर्त लगाना आदि भी जूआ है -दे० छु तक्रीड़ा/१। द्रव्यके भेद व लक्षण द्रव्यका निरुक्त्यर्थ । द्रव्यका लक्षण 'सत्'। द्रव्यका लक्षण 'गुणसमुदाय' । द्रव्यका लक्षण 'गुणपर्यायवान्। द्रव्यका लक्षण 'ऊर्ध्व व तिर्यगंश पिण्ड' । द्रव्यका लक्षण 'त्रिकाल पर्याय पिण्ड' । द्रव्यका लक्षण 'अर्थक्रियाकारित्व'। -दे० वस्तु । द्रव्यके 'अन्वय, सामान्य' आदि अनेक नाम । द्रव्यके छह प्रधान मेद। द्रव्यके दो भेद-संयोग व समवाय । द्रव्यके अन्य प्रकार भेद-प्रमेद। -दे. द्रव्य/३ । पंचास्तिकाय। -दे० अस्तिकाय । संयोग व समवाय द्रव्यके लक्षण । स्व पर द्रव्यके लक्षण। २. द्यूतका निषेध तथा उसका कारण पु.सि.उ./१४६ सर्वानर्थप्रथम मथनं शौचस्य सद्म मायाया'। दूरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं यूतम् ।१४६।-सप्त व्यसनोंका प्रथम यानी सम्पूर्ण अनाँका मुखिया, सन्तोषका नाश करनेवाला, मायाचारका घर, और चोरी तथा असत्यका स्थान जूआ दूर हीसे त्याग कर देना चाहिए ।१४६। (ला.सं./२/१९८) सा.ध./२/१७ ा ते हिंसानृतस्तेयलोभमायामये सजन् । क्व स्वं क्षिपति नानर्थ वेश्याखेटान्यदारवत् ११७ -जुआ खेलने में हिंसा, झूठ, चोरी, लोभ और कपट आदि दोषोंकी अधिकता होती है। इसलिए जैसे वेश्या, परस्त्री सेवन और शिकार खेलनेसे यह जीव स्वयं नष्ट होता है तथा धर्म-भ्रष्ट होता है, इसी प्रकार जूआ खेलनेवाला अपने को किस-किस आपत्तिमें नहीं डालता। ला सं./२/११५ प्रसिद्ध य तकर्मेदं सद्यो बन्धकरं स्मृतम् । यावदापन्मयं ज्ञात्वा त्याज्यं धर्मानुरागिणा ।११५॥ - जूआ खेलना संसार भरमे प्रसिद्ध है। उसी समय महा अशुभकर्मका मन्ध करनेवाला है, समस्त आपत्तियोको उत्पन्न करनेवाला है, ऐसा जानकर धर्मानुरागियोंको इमे छोड़ देना चाहिए ॥११॥ द्रव्य निर्देश व शंका समाधान द्रव्यमें अनन्तों गुण हैं। -दे० गुण/३ । द्रव्य सामान्य विशेषात्मक है। -दे० सामान्य। एकान्त पक्षमें द्रव्यका लक्षण सम्भव नहीं। द्रव्यमें त्रिकाली पर्यायोंका सद्भाव कैसे। द्रव्यका परिणमन। --दे० उत्पाद/२। शुद्ध द्रव्यांको अपरिणामी कहनेकी विवक्षा । -दे० द्रव्य/३ । षट् द्रव्योंकी सिद्धि । --दे० वह वह नाम । षट् द्रव्योंकी पृथक्-पृथक् संख्या । अनन्त द्रव्योंका लोकमें अवस्थान कैसे। -दे० आकाश/३ । ** षट् द्रव्योंकी संख्या अल्पबहुत्व। -दे० अल्पबहुत्व । षट् द्रव्योंको जाननेका प्रयोजन । | द्रव्योका स्वरूप जाननेका उपाय। -दे० न्याय । द्रव्योंमें अच्छे बुरेकी कल्पना व्यक्तिकी रुचिपर आधारित है। -दे० राग/२। | अष्ट मंगल द्रव्य व उपकरण द्रव्य । -दे० चैत्य/१/११ । दान योग्य द्रव्य। -दे० दान/। निर्माल्य द्रव्य। -दे० पूजा/४। द्योतन-दे० उद्योत । द्रामल-दक्षिण भारतका वह भाग है, जो मद्राससे सेरिंगपट्टम और कामोरिम तक फैला हुआ है। और जिसकी पुरानी राजधानी कांचीपुर है । (ध.१/प्र.३२/H.L. Jain) द्रविड़ देश-दक्षिण प्रान्तका एक देश है जिसमें आचार्य कुन्दकुन्द हुए हैं।-दे० कुन्दकुन्द । द्रविड़ संघ-दिगम्बर साधुओंका संघ। -दे० इतिहास/६/३ ] द्रव्य-लोक द्रव्योंका समूह है और वे द्रव्य छह मुख्य जातियों में विभाजित हैं। गणनामें वे अनन्तानन्त हैं। परिणमन करते रहना उनका स्वभाव है, क्योंकि बिना परिणमनके अर्थ क्रिया और अर्थक्रियाके बिना द्रव्यके लोपका प्रसंग आता है। यद्यपि द्रव्यमें एक समय एक ही पर्याय रहती है पर ज्ञानमें देखने पर वह अनन्तों गुणों व उनकी त्रिकाली पर्यायोंका पिण्ड दिखाई देता है। द्रव्य, गुण व पर्यायमें यद्यपि कथन क्रमकी अपेक्षा भेद प्रतीत होता है पर वास्तवमें उनका स्वरूप एक रसात्मक है। द्रव्यकी यह उपरोक्त व्यवस्था स्वत. सिद्ध है, कृतक नहीं हैं। ३ षट् द्रव्य विभाजन १-२ चेतन अचेतन व मूर्तामूर्त विभाग । संसारी जीवका कथंचित् मूर्तत्व। --दे० मूत/२। ३ क्रियावान् व भाववान् विभाग। ४-५ एक अनेक व परिणामी-नित्य विभाग। |६-७) सप्रदेशी-अप्रदेशी व क्षेत्रवान् व अक्षेत्रवान् विभाग। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य ९ १० १ २ ३ * १ २ ३ सर्वगत असत विभाग। व द्रव्योंके भेदादि जाननेका प्रयोजन । जीवका असर्वगतपना । कारण अकारण विभाग कां व भोक्ता विभाग। द्रव्यका एक-दो आदि भागों में विभाजन | — दे० सम्यग्दर्शन / II /३/३ । - दे० जीव / ३ / ५१ - दे० कारण / III / ९ सत् व द्रव्यमें कथंचित् भेदाभेद सत्या द्रव्यको अपेक्षा द्वैत अद्वैत (१-२) एकान्त द्वैत व अद्वैतका निरास । (३) कथं द्वैत व अद्वैतका समन्वय । क्षेत्र या प्रदेशोंको अपेक्षा द्रव्य में कथंचित् भेदाभेद (१) द्रव्यमें प्रदेश कल्पनाका निर्देश । (२-३) आकाश व जीवके प्रदेशत्व में हेतु । (४) द्रव्यमें भेदाभेद उपचार नहीं है। (2) प्रदेशभेद करने नहीं होता। (६) सावयव व निरवयवपनेका समन्वय । ** परमाणु में कथं चित सावयव निरवयवपना । ४५३ - दे० परमाणु/३ । काल या पर्यायकी अपेक्षा द्रम्यमें कथंचित् भेदाभेद भेद व अमेय पक्ष (१३) युक्तिव समन्वय । * द्रव्यमें कथंचित् नित्यानियत्व । - दे० उत्पाद/२ | भाव अर्थात धर्म-धमकी अपेक्षा द्रव्यमें कथंचिद भेदाभेद (१-३) कथंचित् अभेद व भेदपक्षमें युक्ति व समन्वय । द्रव्यको गुण पर्याय ओर गुण पर्यायको द्रव्य रूपसे लक्षित करना । - दे० उपचार / ३ । अनेक अपेक्षाओंसे द्रव्यमें भेदाभेद व विधि-निषेध । -३० मंगी। द्रव्यमें परस्पर षट्कारकी मेद व अभेद । - दे० कारक, कारण व कर्ता । एकान्त भेद या अभेद पक्षका निरास (१-२) एकान्त अभेद व भेद पक्षका निरास । (३-४) धर्म व धर्मो संयोग व समवाय सम्बन्धका निरास । द्रव्यकी स्वतन्त्रता द्रव्य स्वतः सिद्ध है। द्रव्य अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ता। एक द्रव्य अन्य द्रव्यरूप परिणमन नहीं करता । द्रव्य परिणमनकी कथंचित् स्वतन्त्रता व परतन्त्रता । - दे० कारण / II । - दे० १० सत् । द्रव्य अनन्य शरण है । द्रव्य निश्चयसे अपने में ही स्थित है, आकाशस्थित कहना व्यवहार है । १. द्रव्यके भेद व लक्षण १. द्रव्यके भेद व लक्षण १. द्रव्यका निरुक्त्यर्थ पं.का./मू./१ दवियदि गच्छदि ताई ताई सम्भावपज्जयाई जं दवियं तं भण्ण ते अणणभूदंतु सत्तादो । उन उन सद्भाव पर्यायोको जो प्रति होता है, प्राप्त होता है, उसे कहते है जो कि सतासे अनन्यभूत है ( रा. बा./१/३३/२/६७/४ ) । स.सि./१/२/१७/६ गाम्या गच्यते गुणान्द्रोष्यतीति " वा द्रव्यम् । स.सि./६/२/२६६/१० यथास्वं पर्यायन्ते द्रवन्ति मा तानि इति द्रव्याणि । जो गुणोंके द्वारा प्राप्त किया गया था अथवा गुणोंको प्राप्त हुआ था, अथवा जो गुणोंके द्वारा प्राप्त किया जायगा वा गुणों का प्राप्त होगा उसे द्रव्य कहते हैं । जो यथायोग्य अपनी अपनी पर्यायोंके द्वारा प्राप्त होते हैं या पर्यायोको प्राप्त होते हैं वे द्रव्य कहलाते हैं । (रा. मा./५/२/१/४३६/१४) (. १/१.१.१/११/११) (४.३/१.२. २/२/१) (प. १/४,१२६/१६०/१० ) ( घ. १५/१२/१); (क. पा. १ १.१४/१००/२१९/४) ( प . ३) (खा. प./६). यो. सा./ ज/२/५)। रा.वा./५/२/२/४३६/२६ अथवा द्रव्यं भव्ये (जैनेन्द्र व्या, १४/१/१५८] इत्यनेन निपातितो द्रव्यशब्दो वेदितव्यः। इम भवतीति द्रव्यम् । क उपमार्थः द्रु इति दारु नाम यथा अग्रन्थि अनि रातोपकल्प्यमानं तेन तेन अभिलषितेनाकारेण आविर्भवति, तथा द्रव्यमपि आत्मपरिणामगमनसमर्थ पाषाणखननोदकर दविभक्तकतृ करणमुभयनिमित्तवशोपनीतात्मना तेन तेन पर्यायेण द्र इव भवतीति द्रव्यमित्युपमीयते । = अथवा द्रव्य शब्दको इवार्थक निपात मानना चाहिए। 'द्रव्यं भव्य' इस जेनेन्द्र व्याकरण के सूत्रानुसार 'हु' की तरह जो हो वह 'द्रव्य' यह समझ लेना चाहिए। जिस प्रकार बिना 1 की सीधी द्रु अर्थात लकडी बढई आदिके निमित्तसे टेबल कुर्सी आदि अनेक आकारोंको प्राप्त होती है, उसी तरह द्रव्य भी उभय ( बाह्य व आभ्यन्तर ) कारणोंसे उन उन पर्यायोंको प्राप्त होता रहता है जैसे 'पाषाण खोदने पानी निकलता है यहाँ अविभत कर्तृकरण है उसी प्रकार द्रव्य और पर्यायमें भी समझना चाहिए । 1 २. द्रव्यका लक्षण सत् तथा उत्पादम्पचौथ्य त. सू. / ५ / २६ सत् द्रव्यलक्षणम् | २१| द्रव्यका लक्षण सत् है । पं.का./मू./१० दव्य सत्तखयं उप्पादव्ययवत्तसंसृतं जो सत् लक्षणवाला तथा उत्पादव्ययधौव्य युक्त है उसे द्रव्य कहते हैं । (प्र. सा. / मू / ६५-६६ ) (न.च.वृ./३७ ) ( आ. प./६ ) ( यो. सा. अ./ २/६) (पं . ]. / ८६ ) ( दे. सव ) । प्र. सा /त.प्रा.६६ अस्तित्वं हि किल द्रव्यस्य स्वभावः, तत्पुनस्य साधननिरपेक्षत्वादनाद्यनन्ततया हेतुकयैकरूपया वृत्त्या नित्यप्रवृत्तत्वात्... द्रव्येण सहैकरमवलम्बमानं द्रव्यस्य स्वभाव एव कथं न भवेत् |= अस्तित्व वास्तव में द्रव्यका स्वभाव है, और वह अन्य साधनसे निरपेक्ष होनेके कारण अनाद्यनन्त होनेसे तथा अहेतुक एकरूप वृत्तिसे सदा ही प्रवर्तता होनेके कारण द्रव्यके साथ एकत्वको धारण करता हुआ, द्रव्यका स्वभाव ही क्यों न हो ? जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २. का लक्षण गुण समुदाय स. सि. / ५ / २ / २६७ / ४ गुणसमुदायो द्रव्यमिति । गुणोंका समुदाय द्रव्य होता है। का./प्र./४४ हि गुणानां समुदायः वास्तव में द्रव्य गुणोंका समुदाय है। (../३/०३) । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य ४५४ १. द्रव्यके भेद व लक्षण १. द्रव्यका लक्षण गुणपर्यायवान् द्रव्य होना है इस प्रकार कहनेवाले सूत्रकारने तीनों कालों में क्रमसे होनेवाली पर्यायो का आश्रय हो रहा द्रव्य कहा है। त. सू./२/३८ गुणपर्ययवद्गद्रव्यम् ।३८॥ गुण और पर्यायोवाला द्रव्य है। प्र. सा./त.प्र /३६ ज्ञेय तु वृत्तवर्तमानवतिष्यमाणविचित्रपर्यायपरम्परा(नि. सा.मू./8); (प्र. सा./मू./81) (पं. का./मू./१०) (न्या. वि./ प्रकारेण विधाकालकोटिस्पर्शित्वादनाद्यनन्तं द्रव्यं । =शेय-वर्तमू./९/११/४२८) (न.च./वृ./३७) (आ. प./६), (का.अ././ चुकी, वर्तरही और वत नेवाली ऐसी विचित्र पर्यायोके परम्पराके २४२).(त. अनु./१००) (पं.ध/पू./४३८)। प्रकारसे त्रिधा कालकोटिको स्पर्श करता हानेसे अनादि अनन्त स. सि./५/३८/३०६ पर उद्धृत-गुण इदि दब्यविहाण दव्व विकारो द्रव्य है। हि पज्जबो भणिदो। तेहि अणूणं दव्वं अजुपदसिद्ध हवे णिच्चं । - द्रव्यमें भेद करनेवाले धर्मको गुण और द्रव्यके विकारको पर्याय कहते ७. द्रव्यके अन्वय सामान्यादि अनेकों नाम है । द्रव्य इन दोनोंसे युक्त होता है। तथा वह अयुतसिद्ध और नित्य स.सि /१/३३/१४०/६ द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग अनुवृत्तिरित्यर्थः। द्रव्यका होता है। अर्थ सामान्य उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। प्र. सा /त. प्र./२३ समगुण पर्यायं द्रव्यं इति बचनात् । 'युगपत् सर्व- पं.ध/पु./१४३ सत्ता सत्त्वं सद्वा सामान्यं द्रव्यमन्वयो वस्तु । अर्थो गुणपर्याये ही द्रव्य है' ऐसा वचन है। (प.घ./पू. ७३ )। विधिरविशेषादेकार्थवाचका अमी शब्दाः । सत्ता, सत् अथवा सत्त्व, पं.ध./पू. ७२ गुणपर्ययसमुदायो द्रव्यं पुनरस्य भवति वाक्यार्थ: = सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि ये नौ शब्द सामान्य-- गुण और पर्यायोंके समूहका नाम ही द्रव्य है और यही इस व्यके रूपसे एक द्रव्यरूप अर्थ के ही वाचक हैं । लक्षणका वाक्यार्थ है। 1. द्रव्यके छह प्रधान भेद पं.ध./पू./७३ गुणसमुदायो द्रव्यं लक्षण मेतावताऽप्युशन्ति बुधा । समगुणपर्यायो वा द्रव्यं कैश्चिन्निरूप्यते वृद्ध, गुणो के समुदायको _नि सा // जीवा पोग्गल काया धम्माधम्मा य काल आयासं । तच्चस्था द्रव्य कहते हैं; केवल इतनेसे भी कोई आचार्य द्रव्यका लक्षण करते इदि भणिदा जाणागुणपज्जएहि संजुत्ता ! =जीव, पुद्गल काय, है, अथवा कोई कोई वृद्ध आचार्यों द्वारा युगपत् सम्पूर्ण गुण और धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये तत्त्वार्थ कहे हैं जो कि विविध पर्याय ही द्रव्य कहा जाता है। गुण और पर्यायोसे सयुक्त हैं। त.मू./५/१-३,३६ अजीबकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला' ।। द्रव्याणि ॥२॥ ५. द्रष्यका लक्षण ऊध्वं व तिर्यगंश आदिका समूह जीवाश्च ।३। कालश्च ।। = धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये अजीयकाय है ।१। ये चारो द्रव्य है। जीव भी द्रव्य है ।३। काल भ्या वि./मू./१/११५/४२८ गुणपर्ययवद्रव्यं ते सहक्रमप्रवृत्तय । - गुण और पर्यायोवाला द्रव्य होता है और वे गुण पर्याय क्रमसे सह प्रवृत्त और भी द्रव्य है ।३।। (यो.सा./अ./२।१) (द्र,स./मू./१५।५०) । क्रमप्रवृत्त होते है। ९, द्रब्यके दो भेद संयोग व समवाय द्रव्य प्र.सा./त.प्र./१० वस्तु पुनरूतासामान्यलक्षणे द्रव्ये सहभावि विशेष ध.१/१,१,९/१०/६ दबं दुबिह, संजोगदव्वं समवायदव्वं चेदि । (नाम लक्षणेषु गुणेषु क्रमभावि विशेषलक्षणेषु पर्यायेषु व्यवस्थितमुत्पादत्यय निक्षेपके प्रकरण में) द्रव्य-निमित्तके दो भेद हैं-संयोगद्रव्य और धौव्यमयास्तित्वेन निवर्तितनिवृत्तिमच्च । = वस्तु तो ऊर्ध्वता समवायद्रव्य। सामान्यरूप द्रव्यमे, सहभावी विशेषस्वरूप गुणो में तथा क्रमभावी विशेषम्वरूप पर्यायोंमे रहो हुई और उत्पादव्ययधौव्यमय अस्तित्वसे १०. संयोग व समवाय द्रव्यके लक्षण बनी हुई है। प्र.सा./त.प्र./६३ इह खलु यः कश्चन परिच्छिद्यमान पदार्थ. स सर्व एव ध.१/१.१,१/१७/६ तत्थ संजोयदव्यं णाम पुध पुध पसिद्धाणं दव्वाण संजोगेण णिप्पण। समवायदव्वं णाम जं दव्वम्मि समवेदं ।... विस्तारायत-सामान्यसमुदायात्मना द्रव्येणाभिनिवृतत्वाद द्रव्यमय । संजोगदव्य णिमित्त णाम दंडी छत्ती मोली इच्चेवमादि । समवायमाम इस विश्वमे जो कोई जाननेमे आनेवाला पदार्थ है, वह समस्त ही णिमित्तं णाम. गलगंडो काणो कुंडो इच्चेवमाइ। - अलग-अलग विस्तारसामान्य समुदायात्मक (गुणसमुदायात्मक) और आयतसामान्य_ सत्ता रखनेवाले दव्योके मेल से जो पैदा हो उसे संयोग द्रव्य कहते समुदायात्मक (पर्यायसमुदायात्मक) द्रव्यसे रचित होनेसे द्रव्यमय है। हैं। जो द्रव्य में समवेत हो अर्थात् कथंचित तादात्म्य रखता हो उसे समवायव्य कहते हैं। दण्डी, छत्री, मौली इत्यादि संयोगद्रव्य ६. द्रव्यका लक्षण त्रिकाली पर्यायोंका पिंड निमित्तक नाम है; क्यों कि दण्डा, छत्री, मुकुट इत्यादि स्वतन्त्र ध.१/१,१,१३६/गा.१६६/१८६ एय दबियम्मि जे अत्थपज्जया वयण सत्तावाले पदार्थ हैं और उनके संयोगसे दण्डी, छत्री, मौली इत्यादि पज्जया यावि । तीदाणागयभूदा ताव दियं तं हवइ दव्वं १६६। नाम व्यवहार में आते है। गलगण्ड, काना, कुबड़ा इत्यादि समवाय -एक द्रव्यमें अतीत अनागत और 'अपि' शब्दसे वर्तमान पर्यायरूप द्रव्यनिमित्तक नाम हैं, क्योंकि जिसके लिए गलगण्ड इस नामका जितनी अर्थ पर्याय और व्यंजनपर्याय है, तत्प्रमाण वह द्रव्य होता उपयोग किया गया है उससे गलेका गण्ड उससे भिन्न सत्तावालाहै। (ध.३/१,२,१/गा.४/६) (ध.६/४,१,४५/गा.६७/१८३) (क.पा.१/१,१४/ नहीं है । इसी प्रकार काना, कुबडा आदि नाम समझ लेना चाहिए। गा.१०८/२५३) (गो.जी/मू /५८२/१०२३) । आप्स. मी/१०७ नयोपनयकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः। अविष्व ११. स्व व पर द्रव्यके लक्षण ग्भावसंबन्धो द्रव्यमेकमनेकधा।१०७/-जो नैगमादिनय और उनकी प्रसा./ता वृ./११५/१६१/१० विवक्षितप्रकारेण स्वद्रव्यादिचतुष्टयन शाखा उपशाखारूप उपनयो के विषयभूतः त्रिकालवर्ती पर्यायोका तच्चतुष्टयं, शुद्धजीव विषये कथ्यते । शुद्धगुणपर्यायाधारभूतं शुद्धात्मअभिन्न सम्बन्धरूप समुदाय है उसे द्रव्य कहते है । (धः३/१,२,१/गा. द्रव्यं द्रव्यं भण्यते ।...यथा शुद्धात्मद्रव्ये दर्शितं तथा यथासंभवं ३/५); (घ.६/४,१,४५/गा.६६/१८३) (ध.१३/५,५.५६/गा.३२/३१०)। सर्व पदार्थेषु द्रष्टव्यमिति। = विवक्षितप्रकारसे स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, श्लो.वा.२/१/३/६३/२६९/३ पर्ययवद्रव्यमिति हि सूत्रकारैण बदता स्वकाल और स्वभाव, ये चार बातें स्वचतुष्टय कहलाती हैं। तहाँ त्रिकालगोचरानन्तक्रमभाविपरिणामाश्रियं द्रव्यमुक्तम् । -- पर्यायवाला शुद्ध जीवके विषयमें कहते हैं । शुद्ध गुणपर्यायोंका आधारभूत शुद्धात्म जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य ४५५ ३. षद्रव्य विभाजन द्रव्यको स्वद्रव्य कहते हैं। जिस प्रकार शुद्धात्मद्रव्यमें दिखाया गया उसी प्रकार यथासम्भव सर्वपदार्थोमे भी जानना चाहिए। पं.ध/पू./७४,२६४ अयमत्राभिप्रायो ये देशा सदगुणास्तदंशाश्च । एकालापेन समं द्रव्यं नाम्ना त एव निःशेषम् ।७४। एका हि महासत्ता सत्ता वा स्यादवान्तराख्या च। पृथकप्रदेशवत्वं स्वरूपभेदोऽपि नानयोरेव ।२६४१ =देश सवरूप अनुजीवीगुण और उसके अंश देशांश तथा गुणांश हैं। वे ही सब युगपतएकालापके द्वारा नामसे द्रव्य कहे जाते हैं 1७४। निश्चयसे एक महासत्ता तथा दूसरी अवान्तर नामकी सत्ता है। इन दोनों ही में पृथक् प्रदेशपना नहीं है तथा स्वरूपभेद भी नहीं है। २. द्रव्य निर्देश व शंका समाधान १. एकान्त पक्षमें द्रव्यका लक्षण सम्मव नहीं रा.वा./५/२/१२/४४१/१ द्रव्यं भव्ये इत्ययमपि द्रव्यशब्दः एकान्तवादिनां न संभवति, स्वतोऽसिद्धस्य द्रव्यस्य भव्यार्थासंभवात् । संसर्गवादिनस्तावत् गुणकर्म "सामान्यविशेषेभ्यो द्रव्यस्यात्यन्तमन्यत्वे खरविषाणकल्पस्य स्वतोऽसिद्धत्वात न भवनक्रियाया. क्तृत्वं युज्यते।... अनेकान्तबादिनस्तु गुणसन्द्रावो द्रव्यम्, द्रव्यं भव्ये इति चोत्पद्यत. पर्यायिपर्याययोः कथं चिद्भ दोपपत्ते रित्युक्तं पुरस्तात्। -एकान्त अभेद वादियों अथवा गुण कर्म आदिसे द्रव्यको अत्यन्त भिन्न माननेवाले एकान्त संसर्गवादियोंके हॉ द्रव्य ही सिद्ध नहीं है जिसमें कि भवन क्रियाकी कल्पना की जा सके। अतः उनके हॉ 'द्रव्यं भव्ये' यह लक्षण भी नहीं बनता ( इसी प्रकार 'गुणपर्ययवद् द्रव्य' या 'गुणसमुदायो द्रव्यं' भी वे नहीं कह सकते-दे० द्रव्य१/४)अनेकान्तवादियोंके मत में तो द्रव्य और पर्यायमें कथंचित् भेद होनस गुणसन्द्रावो द्रव्यं' और 'द्रव्यं भव्ये' (अथवा अन्य भी) लक्षण बन जाते हैं। ज्ञान भी सम्भव है। तथा ज्ञानमें भी ज्ञेयाकाररूपसे वे विद्यमान रहती हैं, इसलिए कोई विरोध नहीं है)। ३. षद्रव्योंकी संख्याका निर्देश गो, जी./मू./५८८/१०२७ जीवा अणं तसंखाणं तगुणा पुग्गला हु तत्तो दु । धम्मतियं एक्केक्कं लोगपदेसप्पमा कालो।५८८- द्रव्य प्रमाणकरि जीवद्रव्य अनन्त हैं, बहुरि तिनितें पुद्गल परमाणु अनन्त हैं, बहुरि धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य एक-एक ही हैं, जातै ये तीनों अखण्ड द्रव्य हैं। बहुरि जैते लोकाकाशके (असंख्यात) प्रदेश हैं तितने कालाणु हैं । (त. सू./१६)। १. षद्रव्यों को जाननेका प्रयोजन प.प्र./मू./२/२७ दुक्खहँ कारणु मुणिवि जिय दव्वहँ एहु सहाउ। होयवि मोवरवहँ मग्गि लहु गम्मिज्जइ परलोउ ।२७ = हे जीव परद्रव्योंके ये स्वभाव दुःखके कारण जानकर मोक्षके मार्ग में लगकर शीघ ही उत्कृष्टलोकरूप मोक्षमें जाना चाहिए । न. च. वृ./२८४ में उदधृत-णियदव्यजाणण8 इयरं कहियं जिणेहि छहब्वं । तम्हा परबद्दव्वे जाण गभावोण होइ सण्णाणं । न. च. वृ./१० णायव्वं दवियाणं लक्खणसंसिद्धिहेउगुणणियरं। तह पज्जायसहावं एयंतविणासणछा वि।१०।-निजद्रव्यके ज्ञापनार्थ ही जिनेन्द्र भगवान्ने षट् द्रव्योंका कथन किया है। इसलिए अपनेसे अतिरिक्त पर षद्रव्यों को जाननेसे सम्यग्ज्ञान नहीं होता। एकान्तके विनाशार्थ द्रव्योके लक्षण और उनकी सिद्धिके हेतुभूत गुण व पर्याय स्वभाव है, ऐसा जानना चहिए । का. आ. म./२०४ उत्तमगुणाणधामं सबदब्याण उत्तम दव्यं । तच्चाण परमतच्चं जीव जाणेह णिच्छयदो ।२०४। -जीव ही उत्तमगुणोंका धाम है, सब द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और सब तत्त्वों में परमतत्त्व है, यह निश्चयसे जानो। पं. का./ता. वृ /१५/३३/१६ अत्र षट् द्रव्येषु मध्ये...शुद्धजीवास्तिकायाभिधानं शुद्वात्मद्रव्यं ध्यातव्यमित्यभिप्राय' छह द्रव्यों में से शुद्ध जीवास्तिकाय नामवाला शुद्धात्मद्रव्य ही ध्यान किया जाने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है। द्र. सं./टी./अधिकार २ की चूलिका/पृ.७१/८ अत ऊवं पुनरपि षट् द्रव्याणा मध्ये हेयोपादेयस्वरूपं विशेषेण विचारयति । तत्र शुद्धनिश्चयनयेन शक्तिरूपेण शुद्धबुदै कस्वभावत्वात्सर्वे जीवा उपादेया भवन्ति । व्यक्तिरूपेण पुन' पञ्चपरमेष्ठिन एव । तत्राप्यर्हत्सिद्धद्वयमेव । तत्रापि निश्चयेन सिद्ध एव । परमनिश्चयेन तु...परमसमाधिकाले सिद्धसदाश' स्वशुद्धारमैवोपादेय. शेषद्रव्याणि हेयानीति तात्पर्यम् । तदनन्तर छह द्रव्यों में से क्या हेय है और क्या उपादेय इसका विशेष विचार करते हैं। वहाँ शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा शक्तिरूपसे शुद्धबुद्ध एक स्वभावके धारक सभी जीव उपादेय हैं, और व्यक्तिरूपसे पंचपरमेष्ठी ही उपादेय है। उनमें भी अर्हन्त और सिद्ध ये दो ही उपादेय हैं । इन दो में भी निश्चयनय की अपेक्षा सिद्ध ही उपादेय हैं। परम निश्चयनयसे परम समाधिके काल में सिद्ध समान निज शुद्धात्मा ही उपादेय है। अन्य द्रव्य हेय है ऐसा तात्पर्य है। २. द्रव्यमें त्रिकाली पर्यायोंका सद्भाव कैसे सम्भव है श्लो.वा.२/१/५/२६६/१ नन्वनागतपरिणामविशेष प्रति गृहीताभिमुख्य द्रव्य मिति द्रव्यलक्षणमयुक्तं, गुणपर्ययवद्रव्यमिति तस्य सूत्रितत्वात, तदागमविरोधादिति कश्चित, सोऽपि सूत्रानभिज्ञः। पर्ययवद्द्रव्यमिति हि सूत्रकारेण वदता त्रिकालगोचरानन्तक्रमभाविपर्यायाश्रितं द्रव्यमुक्तम्। तच्च यदानागतपरिणामविशेष प्रत्यभिमुख तदा वर्तमानपर्यायाक्रान्तं परित्यक्तपूर्वपर्यायं च निश्चीयतेऽन्यथानागतपरिणामाभिमुख्यानुपपत्तेः रखरविषाणादिवत् ।-निक्षेपप्रकरणे तथा द्रव्यलक्षणमुक्तम् । = प्रश्न - भविष्यमें आनेवाले विशेष परिणामों के प्रति अभिमुखपनेको ग्रहण करनेवाला द्रव्य है' इस प्रकार द्रव्यका लक्षण करनेसे 'गुणपर्ययवद्रव्यं' इस सूत्रके साथ विरोध आता है। उत्तर-आप सूत्रके अर्थ से अनभिज्ञ हैं । द्रव्यको गुणपर्यायवान् कहनेसे सूत्रकारने तीनों कालोंमें क्रमसे होनेवाली अनन्त पर्यायोका आश्रय हो रहा द्रव्य कहा है। वह द्रव्य जब भविष्यमें होनेवाले विशेष परिणामके प्रति अभिमुख है, तम वर्तमाबकी पर्यायोंसे तो घिरा हुआ है और भूतकाल की पर्यायको छोड़ चुका है, ऐसा निर्णीतरूपसे जाना जा रहा है । अन्यथा खरविषाणके समान भविष्य परिणामके प्रति अभिमुखपना न बन सकेगा। इस प्रकारका लक्षण यहाँ निक्षेपके प्रकरणमें किया गया है । ( इसलिए) क्रमश.ध. १३१५.५,७०/३७०/११ तीदाणागयपज्जायाणं सगसरूवेण जीवे संभवादो। -(जिसका भविष्यमें चिन्तवन करेंगे उसे भी मन:पर्ययज्ञान जानता है ) क्योंकि, अतीत और अनागत पर्यायौंका अपने स्वरूपसे जीवमें पाया जाना सम्भव है। (दे० केवलज्ञान/१२)-(पदार्थ में शक्तिरूपसे भूत और भविष्यत्की पर्याय भी विद्यमान हो रहती है, इसलिए, अतीतानागत पदार्थोंका ३. षटद्रव्य विभाजन १. चेतनाचेतन विभाग प्र. सा./मू./१२७ दव्यं जीवमजीवं जीवो पुण चेदणोवोगमओ। पोग्गलदव्बप्पमुहं अचेदणं हवदि य अज्जीवं द्रव्य जीव और अजीवके भेदसे दो प्रकार हैं। उसमें चेतनामय तथा उपयोगमय जीव है और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य ३. पदव्य विभाजन पुद्गलद्रव्यादिक अचेतन द्रव्य हैं । (ध. ३/१,२,१/२/२) (वसु.श्रा./२८) (पं. का/ता. वृ. ५६/१५) ('द्र, स./टो./अधि २ की चूलिका/७६/८) (न्या. दी/३/898/१२२)। पं. का /मू./१२४ आगासकालपुग्गलधम्माधम्मेसु णस्थि जीवगुणा। तेर्सि अचेदणथं भणिदं जीवस्स चेदणदा ।१२४।-आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्ममे जीवके गुण नहीं हैं, उन्हें अचेतनपना कहा है । जीवको चेतनता है। अर्थात् छह द्रव्योमें पाँच अचेतन हैं और एक चेतन । (त. सू./११-४) (पं.का./त. प्र./१७) गो. जी:/मू./५६६/१०१२ गदिठाणोग्गहकिरिया जीवाणं पुग्गलाणमेव हवे। धम्मतिये ण हि किरिया मुक्खा पुण साधगा होति ।१६६।गति स्थिति और अवगाहन ये तीन क्रिया जीव और पुद्गलके ही पाइये हैं । बहुरि धर्म अधर्म आकाशविषै ये क्रिया नाहीं हैं। बहुरि वे तीनों द्रव्य उन क्रियाओके केवल साधक है। पं. का./ता. वृ /२७/५/६ क्रियावन्तौ जीवपुद्गलौ धर्माधर्माकाशकाल द्रव्याणि पुननिष्क्रियाणि । जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य क्रियावाद हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारो निष्क्रिय है । (पं.ध./ उ./१३३ ) दे. जीव/३/८ ( असर्वगत होनेके कारण जीव क्रियावान है; जैसे कि पृथिवी, जल आदि असर्वगत पदार्थ )। २. मूर्तामूर्त विभाग पं. का./मू./१७ आगासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा। मुत्तं पुग्गलदव्यं जोवो खलु चेदणो तेसु । आकाश, काल, जीव, धर्म, और अधर्म अमूर्त हैं। पुद्गलद्रव्य मूर्त है। (त. सू./१५) (वसु श्रा./२८) (द्र. सं./टो./अधि २ को चूलिका/७७/२) (पं. का./ता. वृ/२७/५६/१८)। घ, ३/१,२ १/२) पंक्ति नं.-तं च दव्वं दुविहं, जीवदव्वं अजीवदव्व चेदि ।२। जंतं अजीवदव्वं तं दुविहं, रुवि अजीबदव्वं अरूवि अजीवदव्वं चेदि । तत्थ जंतं रूविअजीवदवं."पुद्गला' रूपि अजीवदव्व शब्दादि ।। जंतं अरू वि अजीबदब्बं तं चउबिह, धम्मदवं, अधम्मदव्वं, आगासदव्व कालदव्य चेदि ।४। वह द्रव्य दो प्रकारका है---जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य। उनमेसे अजीवद्रव्य दो प्रकारका है-रूपी अजीवद्रव्य और अरूपी अजीवद्रव्य । तहाँ रूपी अजीवद्रव्य तो पुद्गल व शब्दादि है, तथा अरूपी अजीवद्रव्य चार प्रकारका है-धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य। (गो. जो /म् /५६३-५६४/१००८)। ४. एक अनेककी अपेक्षा विभाग रा.वा./५/६/६/४४५/२७ धर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं च द्रव्यत एकैकमेव ।... एकमेवाकाशमिति न जीवपुद्गलवदेषां बहुत्वम्, नापि धर्मादिवत जीवपुद्गलानामेकद्रव्यत्वम् । = 'धर्म' और 'अधर्म' द्रव्यकी अपेक्षा एक ही है, इसी प्रकार आकाश भी एक ही है। जीव व पुद्गलोंकी भॉति इनके बहुत्वपना नही है। और न ही धर्मादिकी भाँति जीव व पुद्गलोके एक द्रव्यपना है। (द्र सं./टी./अधि २ की चूलिका/ ७७/६); (प.का./ता../२७/५७/६)। वसु.श्रा./३० धम्माधम्मागासा एगसरूवा पएसअविओगा। ववहारकाल पुग्गल-जीवा हु अणेयरूवा ते ॥३०॥ =धर्म, अधर्म और आवाश ये तीनों द्रव्य एक स्वरूप है अर्थात् अपने स्वरूपको बदलते नहीं, क्योकि इन तीनों द्रव्यों के प्रदेश परस्पर अवियुक्त हैं अर्थात् लोकाकाशमे व्याप्त है। व्यवहार काल, पुदगल और जीव ये तीन द्रव्य अनेक स्वरूप है, अर्थात् वे अनेक रूप धारण करते हैं। ३. क्रियावान् व भाववान् विभाग त. सू./५/७ निष्क्रियाणि च/७/ स. सि.1119/२७३/१२ अधिकृताना धर्माधर्माकाशानां निष्क्रियत्वेऽ भ्युपगमे जीवपुद्गलाना सक्रियत्वमर्यादापन्नम् । = धर्माधर्मादिक निष्क्रिय है। अधिकृत धर्म अधर्म और आकाशद्रव्यको निष्क्रिय मान लेनेपर जीव और पुद्गल सक्रिय है यह बात अर्थापत्तिसे प्राप्त हो जाती है। (वसु. श्रा/३२) (द्र. सं/टो./अधि २ की चूलिका/७७) (प. का /ता. वृ./२७/५७/८)। प्र. सा./त. प्र./१२६ क्रियाभाववत्त्वेन केवल भाववत्त्वेन च द्रव्यस्यास्ति विशेषः । तत्र भाववन्तौ क्रियावन्तौ च पुद्गलजीवौ परिणामादभेदसंघाताभ्यां चोल्पामानावतिष्ठमानभज्यमानत्वात् । शेषद्रव्याणि तु भाववन्त्येव परिणामादेवोत्पद्यमानाव तिष्ठमानभज्यमानत्वादिति निश्चयः । तत्र परिणामलक्षणो भाव', परिस्पन्दलक्षणा किया। तत्र सर्वव्याणि परिणामस्वभावत्वात् भाववन्ति भवन्ति । पुद्गलास्तु परिस्पन्दस्वभावत्वात् ..क्रियावन्तश्च भवन्ति । तथा जीवा अपि परिस्पन्दस्वभावत्वात"क्रियावन्तश्च भवन्ति। -क्रिया व भाववान् तथा केत्रलभात्रवान्को अपेक्षा द्रव्योंके दो भेद हैं। तहाँ पुद्गल और जीव तो क्रिया व भाव दोनोंवाले है, क्योंकि परिणाम द्वारा तथा संघात व भेद द्वारा दोनो प्रकारसे उनके उत्पाद, व्यय व स्थिति होती हैं और शेष द्रव्य केवल भाववाले ही हैं क्योंकि केवल परिणाम द्वारा ही उनके उत्पादादि होते है। भावका लक्षण परिणाममात्र है और क्रियाका लक्षण परिस्पन्दन। समस्त ही द्रव्य भाववाले हैं, क्योकि परिणाम स्वभावी है। पुद्गल क्रियावान भी होते हैं, क्योंकि परिस्पदन स्वभाववाले हैं। तथा जीव भी क्रियावाद भी होते हैं, क्योंकि वे भी परिस्पन्दन स्वभाववाले हैं । (पं.ध./उ./२५)। ५. परिणामी व नित्यकी अपेक्षा विभाग वसु.श्रा./२७,३३ बंजणपरिणइविरहा धम्मादीआ हवे अपरिणामा। अस्थपरिणामभासिय सव्वे परिणामिणो अत्था ।२७। मुत्ता जीवं कार्य णिचा सेसा पयासिया समये । वंजणमपरिणामचुया इयरे त परिणयपत्ता 1३। -धर्म, अधर्म, आकाश और चार द्रव्य व्यंजनपर्यायके अभावसे अपरिणामी कहलाते है। किन्तु अर्थपर्यायकी अपेक्षा सभी पदार्थ परिणामी माने जाते है, क्योकि अर्थपर्याय सभी द्रव्यों में होती है ।२७। जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योको छोड़कर शेष चारों द्रव्योको परमागममे नित्य कहा गया है, क्योंकि उनमें व्यंजनपर्याय नहीं पायी जाती हैं। जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमे व्यंजनपर्याय पायी जाती है, इसलिए वे परिणामी व अनित्य है।३३। (द्र.सं./टी./ अधि. २ की चूलिका/७६-७; ७७-१०) (प.का./ता.वृ./२७/५७/) । ६. सप्रदेशी व अप्रदेशीकी अपेक्षा विभाग बसु. श्रा./२६ सपएसपंचकालं मुत्तूण पएससंचया णेया। अपएसो खलु कालो पएसबन्धच्चुदो जम्हा २६ = कालद्रव्यको छोड़कर शेष पाँच द्रव्य सप्रदेशी जानना चाहिए, क्योंकि, उनमें प्रदेशोका संचय पाया जाता है। कालद्रव्य अप्रदेशी है, क्योकि वह प्रदेशोके बन्ध या समूहसे रहित है, अर्थात् कालद्रव्यके कालाणु भिन्न-भिन्न ही रहते है (द्र.सं./टी./अधि, २ की चूलिका/७७/४); (पं.का./ता.व./२७/१७/४)। (विशेष दे० अस्तिकाय) ७. क्षेत्रवान् व अक्षेत्रवान्की अपेक्षा विभाग वसु.श्रा./३१ आगासमेव वित्तं अवगाहणलक्खण जदो भणियं । सेसाणि पुणोऽवित्तं अवगाहणलक्खणाभावा। = एक आकाश द्रव्य ही जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य ३. षद्रव्य विभाजन कर्तापना है। वस्तुत: पुण्य पाप आदि रूपसे उनके अकर्तापना है। (पं का /ता वृ/२७५७/१५) । क्षेत्रवान् है क्योंकि उसका अवगाहन लक्षण कहा गया है। शेष पाँच द्रव्य क्षेत्रवान् नही है, क्योकि उनमे अवगाहन लक्षण नही पाया जाता (पं.का./ता.वृ./२७/५७/७ ) ( इ.सं /टी / अधि. २ की चूलिका/ ७०/७)। (विशेष दे० आकाश/३) । १०. द्रव्यके या वस्तुके एक दो भादि भेदोकी अपेक्षा विभाग 1. सर्वगत व असर्वगतको अपेक्षा विभाग - विकल्प द्रव्यकी अपेक्षा (क पा.१/१-१४/६१७७/ २११-२१५) वस्तुकी अपेक्षा (ध ६/४,१,४५/१६८-१६६) वसु श्रा./३६ सव्वगदत्ता सव्वगमा वासं णेव सेसगं दव्वं । = सर्वव्यापक होनेसे आकाशको सर्वगत कहते है । शेष कोई भी सर्वगत नहीं है। द्र.स/टी./अधि २ की चूलिका/७८/११ सबगदं लोकालोकव्याप्त्यपेक्षया सर्वगतमाकाशं भण्यते । लोकव्याप्त्यपेक्षया धर्माधर्मों च । जीवद्रव्य पुनरेकजीवापेक्षया लोकपूर्णावस्थायां विहाय असर्वगतं, नानाजीवापेक्षया सर्वगतमेव भवति। पुद्गल द्रव्यं पुनर्लोकरूपमहास्कन्धापेक्षया सर्वगत, शेषपुद्गलापेक्षया सर्वगतं न भवति। कालद्रव्यं पुनरेककालाणुद्रव्यापेक्षया सर्वगतं न भवति, लोकप्रदेशप्रमाणनानाकालाणुविवक्षया लोके सर्वगतं भवति। --लोकालोक्व्यापक होनेकी अपेक्षा आकाश सर्वगत कहा जाता है। लोकमें व्यापक होनेकी अपेक्षा धर्म और अधर्म सर्वगत हैं। जीवद्रव्य एकजीवकी अपेक्षा लोकपूरण समुद्धातके सिवाय असर्वगत है। और नाना जोवोकी अपेक्षा सर्वगत ही हैं। पुदगलद्रव्य लोकव्यापक महास्कन्धकी अपेक्षा सर्वगत है और शेष पुद्गलोंकी अपेक्षा असर्वगत है। एक कालाणुव्यकी अपेक्षा तो कालद्रव्य सर्वगत नहीं है, किन्तु लोकप्रदेशके बराबर असंख्यात कालाणुओंकी अपेक्षा कालद्रव्य लोकमे सर्वगत है (पं.का./ता../२७/ ५७/२१)। सत्ता सत् जीव, अजीव जीवभाव-अजीवभाव। विधिनिषेध । मूर्त-अमूर्त । अस्ति काय-अनस्तिकाय भव्य, अभव्य, अनुभय द्रव्य, गुण, पर्याय (जीव) - संसारी, अससारी | बद, मुक्त, बन्धकारण, मोक्ष(अजीव)-पुद्गल, अपुद्गल कारण (जीव) भव्य, अभव्य, | औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, अनुभय (अजीव ) --मूर्त, क्षायोपशमिक, पारिणामिक अमूर्त जोव, पुद्गन्न, धर्म, अधर्म द्रव्यवत् काल व आकाश जीव, अजीव, आस्रव, बद्ध, मुक्त. पुद्गल, धर्म, अधर्म, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष काल व आकाश जीवास्तव, अजीवासव, | भव्य संसारी, अभव्य संसारी, जीवसंवर, अजीवसंबर मुक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, जीवनिर्जरा, अजीव निर्जरा | आकाश, काल जीवमोक्ष, अजीवमोक्ष जीव, अजीव, पुण्य, पाप, द्रव्यवत् आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष | (जीव)= एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, द्रव्यवत त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय (अजीव) - पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश, काल (जीव) =पृथिवी. अप, तेज, द्रव्यवत वायु, वनस्पति, व त्रस तथा (अजीव )- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल (जीव) - पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति. संज्ञी, असंज्ञी; तथा ( अजीव )= पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश ९. कर्ता व मोक्ताकी अपेक्षा विभाग वसु.श्रा./३५ कत्ता सुहासुहाणं कम्माण फलभोयओ जम्हा। जीवो तप्फलभोया सेसा ण कत्तारा ॥३॥ द्र.सं./टी./अधि. २ की चूलिका ७८/६ शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन यद्यपि... | ११ घटपटादीनामकर्ता जीवस्तथाप्यशुद्धनिश्चयेन...पुण्यपापबन्धयोः कर्ता तत्फलभोक्ता च भवति । मोक्षस्यापि कर्ता तत्फलभोक्ता चेति । शुभाशुभशुद्धपरिणामानां परिणमनमेव कर्तृत्व सर्वत्र ज्ञातव्य १२ मिति । पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां च स्वकीय-स्वकीयपरिणामेन परिणमनमेव क्तृत्वम् । वस्तुवृत्त्या पुनः पुण्यपापादिरूपेणाकतृत्वमेव । -१. जीव शुभ और अशुभ कर्मोंका कर्ता तथा उनके फलका भोक्ता है, किन्तु शेष द्रव्य न कर्मोके कर्ता है न भोक्ता ॥३५॥ २. शुद्धद्रव्याथिकनयसे यद्यपि जीव घटपट आदिका अकर्ता है. तथापि अशुद्धनिश्चयनयसे पुण्य, पाप व बन्ध, मोक्ष तत्वोका कर्ता तथा उनके फलका भोक्ता है। शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणामोंका परिणमन ही सर्वत्र जीवका कर्तापना जानना चाहिए। पुद्गलादि पाँच द्रव्यों का स्वकीय स्वकीय परिणामोंके द्वारा परिणमन करना ही व काल (जीव)= भव्य, अभव्य, अनुभय; (पुद्गल)बादरमादर, बादर, बादरसूक्ष्म, सूक्ष्मबादर, सूक्ष्म, सूक्ष्मसूक्ष्म; ( अमूर्त अजीव ) -- धर्म, अधर्म, आकाश, काल जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-५८ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य ४. सत् व द्रव्यमें कथंचित् भेदाभेद १. सत् या द्रव्यकी अपेक्षा द्वैत-अद्वैत का निरास २. एकान्त - जगत् में एक ब्रह्मके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं, ऐसा 'महादेव' मानने से प्रत्यक्ष गोचर कर्ता, कर्म आदिके भेद तथा शुभ-अशुभ कर्म. उनके सुख-दुःखरूप फल, सुख-दुख के आश्रयभूत यह लोक व परलोक, विद्या व अविद्या तथा बन्ध व मोक्ष इन सब प्रकार के द्वैतोंका सर्वथा अभाव ठहरे ( मी./२४-२५) बौद्धदर्शनका प्रतिभासात तो किसी प्रकार सिद्ध ही नहीं किया जा सकता। यदि ज्ञेयभूत वस्तुको प्रतिभासमें गर्भित करनेके लिए हेतु देते हो तो हेतु और साध्यरूप द्वैत की स्वीकृति करनी पड़ती है और आगम प्रमाणसे मानते हो तो वचनमात्र से ही द्वैतता आ जाती है। (आप्त. मी./ २६ ) दूसरी बात यह भी तो है कि जेसे 'हेतु' के बिना 'अहेतु' शब्दको उत्पत्ति नहीं होती वैसे ही द्वैतके बिना अद्वैतकी प्रतिपत्ति कैसे होगी । ( आप्त. मी./२७) । २. एकान्त इतपक्षका निराम ४५८ गद्रव्य, गुण, कर्म आदि पदार्थोंको सर्वथा भिन्न मानते हैं। परन्तु उनको यह मान्यता युक्त नहीं है, क्योंकि जिस पृथक्त्व नामा गुणके द्वारा वे ये भेद करते हैं, वह स्वयं हो बेचारा द्रव्यादिसे पृथक होकर, निराश्रय हो जानेके कारण अपनी सत्ता खो बैठेगा, तब दूसरों को पृथक् कैसे करेगा । और यदि उस पृथक्त्वको द्रव्यसे अभिन्न मानकर अपने प्रयोजनकी सिद्धि करना चाहते हो तो उन गुण, कर्म आदिको द्रव्यसे अभिन्न क्यों नहीं मान लेते। (आ. मी / २८) इसी प्रकार भेदवादी बौद्वोंके यहाँ भी सन्तान, समुदाय, व प्रेत्यभाव (परलोक) आदि पदार्थ नहीं बन सकेंगे। परन्तु ये सब बातें प्रमाण सिद्ध हैं। दूसरी बात यह है कि भेद पक्षके कारण वे ज्ञेयको ज्ञानसे सर्वथा भिन्न मानते हैं। तुम ज्ञान ही किसे कहोगे ज्ञानके अभाव से ज्ञेयका भी अभाव हो जायेगा । ( आ. .मी. / २१-३०) २. कचिद देत व अतका समन्वय अत दोनोको सर्वथा निरपेक्ष न मानकर परस्पर सापेक्ष मानना चाहिए, क्योंकि, एकत्वके बिना पृथक्त्व और पृथक्त्वके बिना एक प्रमाणताको प्राप्त नहीं होते। जिस प्रकार हेतु अन्वय व व्यतिरेक दोनों रूपों को प्राप्त होकर ही साध्यकी सिद्धि करता है, इसी प्रकार एकत्व व पृथक्त्व दोनोंसे पदार्थ की सिद्धि होती है। (आप्त मी./३३) सत् सामान्यकी अपेक्षा सर्वद्रव्य एक है और स्व स्व लक्षण व गुणों आदिको धारण करनेके कारण सब पृथक-पृथक हैं । (प्र. सा. / मूव त/६७-६८ ); (आप्त. मी / ३४ ) ( का. अ / २३६ ) प्रमाणगोचर होनेसे उपरोक्त द्वैत व अद्वैत दोनों सत्स्वरूप है उपचार नहीं. इसलिए गौण मुख्य विवक्षासे उन दोनोंमें अविरोध है । (आप्त. मी./३६) ( और भी देखो क्षेत्र, काल व भावको अपेक्षा भेदाभेद ) २. क्षेत्र या प्रदेशों की अपेक्षा द्रव्यमें भेद कथंचित् भेदाभेद १. द्रव्यमें प्रदेशकल्पनाका निर्देश जिस पदार्थ में न एक प्रदेश है और न बहुत वह शून्य मात्र है। (सा./मू./९४४-१४५) आगम में प्रत्येक द्रव्यके प्रदेशोंका निर्देश किया है (दे० वह वह नाम ) - आत्मा असंख्यात प्रदेशी है, उसके एक-एक प्रदेशपर अनन्तानन्त कर्मप्रदेश, एक-एक कर्मप्रदेश में अनन्तानन्त औदारिक शरीर प्रदेश, एक-एक शरीरप्रदेश में अनन्ता ४. सत् व द्रव्यमे कथंचित् भेदाभेद नन्तं विसोपचय परमाणु हैं। इसी प्रकार धर्मादि द्रव्यो में भी प्रदेश भेद जाम लेना चाहिए। रा. वा./२/८/१६६४५११७) । २. आकाशके प्रदेशवत्त्वमें हेतु १. घटका क्षेत्र पटका नहीं हो जाता। तथा यदि प्रदेशभिन्नता न होती तो आकाश सर्वव्यापी न होता । ( रा. वा./५/८/५/४५०/३); ( पं, का /त.प्र./५ ) । २. यदि आकाश अप्रदेशी होता तो पटना मथुरा आदि प्रतिनियत स्थानोंमें न होकर एक ही स्थानपर हो जाते (रा. वा./५/८/१८/४५१/२१) २. यदि आकाशके प्रदेश न माने जायें तो सम्पूर्ण आकाश ही श्रोत्र बन जायेगा । उसके भीतर आये हुए प्रतिनियत प्रदेश नहीं तब सभी शब्द सभी को सुनाई देने चाहिए। ( रा. वा० / ५ / ८ / ११ / ४५१/२७) । ४ एक परमाणु यदि पूरे आकाश से स्पर्श करता है तो आकाश अणुत्र बन जायेगा अथवा परमाणु विभु बन जायेगा, और यदि उसके एक देशसे स्पर्श करता है तो जाकाश के प्रवेश मुख्य ही सिद्ध होते हैं, औपचारिक नहीं (रा.वा./५/८/१६/४९/२८) ५. एक आश्रयसे हटाकर दूसरे आश्रयमें अपने आधारको ले जाना, यह वैशेषिक मान्य 'कर्म' पदार्थका स्वभाव है। आकाश में प्रदेशभेदके बिना यह प्रदेशान्तर संक्रमण नहीं बन सकता। ( रा. वा. /५/८/२०/४५१/३१ )। ६. आकाश में दो उँगलियाँ फैलाकर इनका एक क्षेत्र कहनेपर-यदि आकाश अभिनांवाला अविभागी एक द्रव्य है तो दोमें से एकवाले अंशका अभाव हो जायेगा, और इसी प्रकार अन्य अन्य अंशोंका भी अभाव हो जाने से आकाश अणुमात्र रह जायेगा । यदि भिन्न शिवाला एक म्य है तो फिर आकाशमै प्रदेशभेद सिद्ध हो गया। यदि उँग लियोंका क्षेत्र भिन्न है तो आकाशको सविभागी एक द्रव्य माननेपर उसे अनन्तपना प्राप्त होता है और अविभागी एकद्रव्य माननेपर उसमें प्रदेश भेद सिद्ध होता है (प्र. सा. रा. प्र. / ९४०) (विशेष आकाश २) ३. जीव द्रव्यके प्रदेशत्वमें हेतु १. आगम में जोवद्रव्य प्रदेशोंका निर्देश किया है । (दे० जीव/ ४१): (रा. मा./१२/०/१५/४५१/७२ आगम जीवके प्रदेशों चल व अचल प्रदेशरूप विभाग किया है (दे० जीव / ४ ) । ३ आगम में चक्षु आदि इन्द्रियोंमें प्रतिनियत आत्मप्रदेशोंका अवस्थान कहा है । (३० इन्द्रिय/३/५) उनका परस्पर में स्थान संक्रमण भी नहीं होता। (रा. वा./२/०८/१०/०१/१०) ४. अनादि कर्मबन्धनबद्ध संसारी जीब में सावयवपना प्रत्यक्ष है। ( रा. वा./५/८/२२/४५२/८) । ५. आत्माके किसी एक देशमें परिणमन होनेपर उसके सर्वदेशमें परिण मन पाया जाता है । (पं. ध. / ५६४ ) । ४. द्रव्योंका यह प्रदेशभेद उपचार नहीं है। १. मुख्यके अभाव में प्रयोजनवश अन्य प्रसिद्ध धर्मका अन्य में आरोप करना उपचार है । यहाँ सिंह व माणवकवत् पुद्गलादिके प्रदेश मुख्यता और धर्मादि द्रव्योंके प्रदेशवस्य मे गौणता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि दोनों ही अवगाहकी अपेक्षा तुल्य हैं । ( रा. वा /५/८/१९/४५०/२६) । २. जैसे गला 'पटके प्रदेश' ऐसा सोपपद व्यवहार होता है. वैसा ही धर्मादिमें भी 'धर्मप्रदेश ऐसा सोपपद व्यवहार होता है। 'सिंह' व 'माणवक सिंह" ऐसा निरुपपद व सोपपदरूप भेद यहाँ नहीं है। (रा. बा./५/२/११/४५०/ २१) ३ सिंह मुख्य करता आदि धर्मोंको देखकर उसके माणवकमें उपचार करना बन जाता है, परन्तु यहाँ पुद्गल और धर्मादि सभी द्रव्योंके मुख्य प्रदेश होनेके कारण, एकका दूसरेमें उपचार करना नहीं बनता। (रा. वा. /५/८/१३/४५०/३२ ) । ४. पौगलिक घटादिक द्रव्य प्रत्यक्ष है। इसलिए उनमें प्रोवा वैदा आदि निज अवययों द्वारा प्रदेशका व्यवहार बन जाता है, परन्तु धर्मादि द्रव्य परोक्ष होने से जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य वैसा व्यवहार सम्भव नहीं है। इसलिए उनमें मुख्य प्रदेश विद्यमान रहनेपर भी परमाणुके नामसे उनका व्यवहार किया जाता है। ५. प्रदेशमेद करनेसे द्रव्य खण्डित नहीं होता १. घटादिकी भाँति धर्मादि द्रव्यों में विभागी प्रदेश नहीं हैं। अतः अविभाग प्रदेश होनेसे वे निरवयव है ( रा. वा./३/-/६/४६०/८) 1 २. प्रदेशको ही स्वतन्त्र द्रव्य मान लेनेसे द्रव्यंके गुणोंका परिणमन भी सर्वदेशमें न होकर देशांशोंमें ही होगा। परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता, क्योंकि, देहके एकदेशमें स्पर्श होनेपर सर्व शरीरमें इन्द्रियजन्य ज्ञान पाया जाता है। एक सिरेपर हिलाया माँस अपने सर्व पवनें बराबर हिलता है (पं.भ.पू./३१-३५) ३. यद्यपि परमाणु व कालाणु एकप्रदेशी भी द्रव्य हैं, परन्तु वे भी अखण्ड है। (पं.अ./पू./३६) ४. द्रव्यके प्रत्येक प्रदेशमें 'यह वही द्रव्य है' ऐसा प्रत्यय होता +1 (4.14.12./24) ६. सावयव व निरवयवपनेका समन्वय १. पुरुषकी दृष्टि से एकत्व और हाथ-पाँव आदि अंगोंकी दृष्टिसे अनेकवकी भाँति आत्माके प्रदेशोंमें द्रव्य व पर्याय दृष्टिसे एकत्व अनेकत्व के प्रति अनेकान्त है। ( रा. वा /५/८/२१/४५२ / १ ) २. एक पुरुषमें लावक पाचक आदि रूप अनेकत्वकी भाँति धर्मादि द्रव्यों में भी द्रव्यको अपेक्षा और प्रतिनियत प्रदेशोंकी अपेक्षा अनेकत्व है। (रा.वा./५/८/२१/४५२/३) ३. अखण्ड उपयोगस्वरूपकी दृष्टि एक होता हुआ भी व्यवहार दृष्टिसे आत्मा संसारावस्थामें सावयव व प्रदेशवाद है । ३. कालकी या पर्याय-पर्यायीकी अपेक्षा द्रव्यमें कथंचित् भेदाभेद १. कथंचित् अमेद पक्ष युक्ति १. पर्यायसे रहित द्रव्य ( पर्यायी ) और द्रव्यसे रहित पर्याय पायी नहीं जाती, अतः दोनों अनन्य हैं (पं.का./मू./१२) २ गुणों पर्यायोंकी सत्ता भिन्न नहीं है। (प्र.सा./मू./१००); (१.८/३/६४) (पं.प.पू./११७) २. कथंचित् भेद पक्षमें युक्ति १. जो द्रव्य है, सो गुण नहीं और जो गुण है सो पर्याय नहीं, ऐसा इनमें स्वरूप मेद पाया जाता है (म.सा./त.प्र./ १३०) ३. भेदाभेदका समन्वय • १. लक्षणकी अपेक्षा द्रव्य ( पर्यायी ) व पर्यायमें भेद है, तथा वह द्रव्यसे पृथ नहीं पायी जाती इसलिए अभेद है। (क.पा. १/१-१४/१२४१-२४४/२८०/१) (क.पा. १/१-२२/६३६४/२/०३/२) २. धर्मधर्मोरूप भेद होते हुए भी वस्तुस्वरूपसे पर्याय व पर्यायीमें भेद नहीं है। (पं.का.प्र./१२) (का.अ./मू./२४५) २. सर्व पर्यायोंमें अन्वयरूपसे पाया जानेके कारण द्रव्य एक है, तथा अपने गुणपर्यायोंकी अपेक्षा अनेक है । (ध. ३ / १, २, १ / श्लो. ५/६ ) ४. त्रिकालो पर्यायका चिन्ह होनेसे द्रव्य कथं चिद एक व अनेक है। (६.३/१.२. १ / श्लो. २/५) (५.१/४.१.४५/६६/१८३४. व्यरूपसे एक तथा पर्याय रूपसे अनेक है (राजा./१/२/९६/०/२९) (न. बी./३/ ६७१/१२३) ४५९ ४. सत् व द्रव्यमें कथंचित् भेदाभेद ४. मानकी अर्थात् धर्म-धर्मीकी अपेक्षा द्रव्यमें कथंचित् भेदाभेद १. कथंचित् अभेदपक्ष में युक्ति " ९. द्रव्य गुण व पर्याय ये तीनों ही धर्म प्रदेशोंसे पृथक्पृथक् होकर युतसिद्ध नहीं हैं बल्कि तादात्म्य हैं । (पं.का/मू./५०); ( स. सि. / ५ / ३८ / ३० पर उद्धृत गाथा ); (प्र. सा./त. प्र / १५, १०६ ) २. अयुतसिद्ध पदार्थोंमें संयोग व समवाय आदि किसी प्रकारका भी सम्बन्ध सम्भव नहीं है। (रा.वा /५/२/१०/४३१/२५); (क.पा/ १/१-२०/१३२३/३५४/१) ३. गुण द्रव्यके आश्रय रहते हैं । थर्मीके बिना धर्म और धर्मके बिना धर्मो टिक नहीं सकता। (पं.का./ १३); (आ.मी./०५) (२२/४०/६), (पं.ध/पू./०) ४. यदि द्रव्य स्वयं सत् नहीं तो वह द्रव्य नहीं हो सकता । (प्र. सा./मू / १०५) ५. तादात्म्य होनेके कारण गुणोंकी आत्मा या उनका शरीर ही द्रव्य है (आप्त. मी./०५); (पं./५/३६,४१८) ६. यह कहना भी युक्त नहीं है कि अभेद होनेसे उनमें परस्पर लक्ष्य लक्षण भाव न बन सकेगा, क्योंकि जैसे अभेद होनेपर भी दीपक और प्रकाश में लक्ष्य लक्षण भाव बन जाता है, उसी प्रकार आत्मा व ज्ञानमें तथा अन्य द्रव्यों व उनके गुणों में भी अभेद होते हुए लक्ष्य लक्षण भाव बन जाता है । (रा. वा. /५/२/११/४४०/१) ७. द्रव्य व उसके गुणो में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा अभेद है (पं.का./ता.वृ./४ २. कथंचित् भेदपक्षमें युक्ति १ जो द्रव्य होता है सो गुण व पर्याय नहीं होता और जो गुण पर्याय हैं वे द्रव्य नहीं होते, इस प्रकार इनमें परस्पर स्वरूप भेद है (प्र.सा./त.प्र./ १३०) २. यदि गुण गुणी रूपसे भी भेद न करे तो दोनोंमें से किसीके भी लक्षणका कथन सम्भव नहीं । (ध. २/१.२.१/६/३): (का.अ./मू./१९५०) ३. भेदाभेदका समन्वय * १. लक्ष्य लक्षण रूप भेद होनेपर भी वस्तु स्वरूपसे गुण व गुणी अभिन्न है । ( पं. का/त.प्र./६ ) २. विशेष्य-विशेषणरूप भेद होते हुए भी दोनों वस्तुत अपृथक् हैं (क.पा.१/१-१४/१२४२/ २८६ / ३) ३. द्रव्यमें गुण गुणी भेद प्रादेशिक नहीं बल्कि अतद्वाविक है अर्थात् उस उसके स्वरूपको अपेक्षा है (प्र.सा./त.प्र / १) ४. हा आदिका भेद होनेपर भी दोनों लक्ष्य लक्षण रूपसे अभिन्न हैं । ( रा. वा. २/८/६ / ११६/२२) ५. संज्ञाकी अपेक्षा भेद होनेपर भी ससाकी अपेक्षा दोनोंमें अभेद है (पं.का./त.प्र./१२) 4. संज्ञा आदिका भेद होनेपर भी स्वभावसे भेद नहीं है। (पं. का./मू./५१-५२) ७. संज्ञा लक्षण प्रयोजनसे भेद होते हुए भी दोनों में प्रदेशोंसे अमेद है (पं.का.सू./४५-४६): (आप्त, मो. ०१७२); (स.सि /५/२/२६७/७); (पं.का./त.प्र / ५०-५२ ) ८ धर्मीके प्रत्येक धर्मका अन्य अन्य प्रयोजन होता है। उनमेंसे किसी एक धर्म के मुख्य होनेवर शेष गौण हो जाते है (आप्स. मी./२२) (च.१/ ४.१.४५ / १.६८/९८३) ६ अव्यार्थिक दृष्टिसे द्रव्य एक व अखण्ड है, तथा पर्यायार्थिक दृष्टिसे उसमें प्रदेश, गुण व पर्याय आदि के भेद हैं। (पं.अ./-(४) ५. एकान्त भेद या अभेद पक्षका निरास १. एकान्त अभेद पक्षका निरास १. गुण व गुणीमें सर्वथा अभेद हो जानेपर या तो गुण ही रहेंगे, या फिर गुणी ही रहेगा । तब दोनोंका पृथक-पृथक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य ४६० ४. सत् व द्रव्यमे कथंचित् भेदाभेद यदि उष्ण गुणके सयोगसे अग्नि उष्ण होती है तो वह उष्णगुण भी अन्य उष्णगुणके योगसे उष्ण होना चाहिए। इस प्रकार गुणके योगसे द्रव्यको गुणी माननेसे अनवस्थादोष आता है। (रा. वा /१/१/१०/५। २५); (रा.वा /२/८/५/११६/१७) 18. यदि जिनका अपना कोई भी लक्षण नहीं है ऐसे द्रव्य व गुण, इन दो पदार्थोके मिलनेसे एक गुणवान् द्रव्य उत्पन्न हो सकता है तो दो अन्धोंके मिलनेसे एक नेत्रवाद हो जाना चाहिए । (रा. वा/१/६/११/४६/२०); (रा. वा./५/२/३/ ४३७/५ ) । १०. जेसे दीपकका संयोग किसी जात्यंध व्यक्तिको दृष्टि प्रदान नहीं कर सकता उसी प्रकार गुण किसी निर्गुण पदार्थ में अनहुई शक्ति उत्पन्न नहीं कर सकता। (रा. वा./१/१०/३/१०/१५) । व्यपदेश भी सम्भव न हो सकेगा । (रा. वा/५/२/६/४३६/१२) २. अकेले गुणके या गुणीके रहनेपर-यदि गुणी रहता है तो गुणका अभाव होनेके कारण वह निःस्वभावी होकर अपना भी विनाश कर बैठेगा। और यदि गुण रहता है तो निराश्रय होनेके कारण वह कहाँ टिकेगा। (रा.वा/५/२/8/४३६/१३), (रा.वा/५/२/१२/४४०/१०) ३ द्रव्यको सर्वथा गुण समुदाय मानने वालोंसे हम पूछते हैं, कि वह समुदाय द्रव्यसे भिन्न है या अभिन्न 1 दोनों ही पक्षोंमें अभेद व भेद पक्षमें कहे गये दोष आते हैं । (रा.वा/५/२/१/४४०/१४) २. एकान्त मेद पक्षका निरास १. गुण व गुणी अविभक्त प्रदेशी है, इसलिए भिन्न नहीं हैं। (पं.का /मू./४६) २. द्रव्यसे पृथक् गुण उपलब्ध नहीं होते। (रा.वा/ ५/३८/४/५०१/२०) ३. धर्म व धर्मीको सर्वथा. भिन्न, मान लेनेपर कारणकार्य, गुण-गुणी आदिमें परस्पर 'यह इसका कारण है और यह इसका गुण है' इस प्रकार की वृत्ति सम्भव न हो सकेगी। या दण्ड दण्डीकी भॉति युतसिद्धरूप वृत्ति होगी । (आप्त. मी./६२-६३) ४. धर्म-धर्मीको सर्वथा भिन्न माननेसे विशेष्य-विशेषण भाव घटित नहीं हो सकते । (स.म./४/१७/१८) ५. द्रव्यसे पृथक रहनेवाला गुण निराश्रय होनेसे असत हो जायेगा और गुणसे पृथक् रहनेवाला द्रव्य नि स्वरूप होनेसे कल्पना मात्र बनकर रह जायेगा। (पं.का./ मू./४४-४५) (रा.वा/५/२/१/४३६/११) ६. क्योंकि नियमसे गुण द्रव्यके आश्रयसे रहते है, इसलिए जितने गुण होंगे उतने ही द्रव्य हो जायेंगे। (पं. का /मू./४४) ७. आत्मा ज्ञानसे पृथक हो जानेके कारण जड़ बनकर रह जायेगा। (रा.वा/१/१/११/४६/१५) ४. धर्म व धर्मीमें समवाय सम्बन्धका निरास यदि यह कहा जाये कि गुण व गुणी में संयोग सम्बन्ध नहीं है अलिक समवाय सम्बन्ध है जो कि समवाय नामक 'एक', 'विभु', व 'नित्य' पदार्थ द्वारा कराया जाता है, तो वह भी कहना नहीं मनता -क्योकि, १. पहले तो वह समवाय नामका पदार्थ ही सिद्ध नहीं है ( दे० समवाय )। २. और यदि उसे मान भी लिया जाये तो, जो स्वयं ही द्रव्यसे पृथक होकर रहता है ऐसा समवाय नामका पदार्थ भला गुण व द्रव्यका सम्बन्ध कैसे करा सकता है। (आप्त. मी./६४, ६६), (रा. वा./१/१/१४/६/१६)। ३. दूसरे एक समवाय पदार्थकी अनेकोंमें वृत्ति कैसे सम्भव है। (आप्त. मी. ६५) (रा. वा./१/३३/५/ १६/१७ )। ४. गुणका सम्बन्ध होनेसे पहले वह द्रव्य गुणवान् है, या निर्गुण । यदि गुणवान तो फिर समवाय द्वारा सम्बन्ध करानेको कल्पना ही व्यर्थ है, और यदि वह निर्गुण है तो गुणके सम्बन्धसे भी वह गुणवान् कैसे बन सकेगा। क्योकि किसी भी पदार्थ में असत शक्तिका उत्पाद असम्भव है। यदि ऐसा होने लगे तो ज्ञानके सम्बन्धसे घट भी चेतन बन बैठेगा। (पं. का./मू./४८-४६); (रा. वा./२/१/६//२१), (रा. वा./१/३३/२/१६/३); (रा. वा./५/२/३/४३७/ ७)।५. ज्ञानका सम्बन्ध जीव से ही होगा घटसे नहीं यह नियम भी तो नहीं किया जा सकता। (रा. वा./९/१/१३/६/८): (रा. वा/१/४/११/४६/१६)। ६. यदि कहा जाये कि समवाय सम्बन्ध अपने समवायिकारणमें ही गुणका सम्बन्ध कराता है, अन्यमें नहीं और इसलिए उपरोक्त दूषण नहीं आता तो हम पूछते हैं कि गुणका सम्बन्ध होनेसे पहले जब द्रव्यका अपना कोई स्वरूप ही नहीं है, तो समवायिकारण ही किसे कहोगे। (रा. वा./५/२/३/४३७/१७)। ५. द्रव्यको स्वतन्त्रता ३. धर्म-धर्मीमें संयोग सम्बन्धका निरास अब यदि भेद पक्षका स्वीकार करनेवाले वैशेषिक या बौद्ध दण्ड-दण्डीवर गुणके संयोगसे द्रव्यको 'गुणवान' कहते हैं तो उनके पक्षमें अनेकों दूषण आते है-१. द्रव्यत्व या उष्णत्व आदि सामान्य धर्मोके योगसे द्रव्य व अग्नि द्रव्यत्ववान् या उष्णत्ववान बन सकते है पर द्रव्य या उष्ण नहीं। (रा. वा./५/२/४/४३/३२): (रा.वा। १/१/१२/६/४ ) । २. जैसे 'घट', 'पट' को प्राप्त नहीं कर सकता अर्थात् उस रूप नहीं हो सकता, तब 'गुण', 'द्रव्य' को कैसे प्राप्त कर सकेगा (रा. वा./५/२/११/४३६/३१) । ३. जैसे कच्चे मिट्टी के घड़ेके अग्निमें पकनेके पश्चात लाल रंग रूप पाकज धर्म उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार पहले न रहनेवाले धर्म भी पदार्थमें पीछेसे उत्पन्न हो जाते हैं । इस प्रकार 'पिठर पाक' सिद्धान्तको बतानेवाले वैशेषिकोंके प्रति कहते हैं कि इस प्रकार गुणको द्रव्यसे पृथक् मानना होगा, और वैसा माननेसे पूर्वोक्त सर्व दूषण स्वत: प्राप्त हो जायेंगे। (रा. वा./५/ २/१०/४३६/२२)। ४. और गुण-गुणीमें दण्ड-दण्डीवव युतसिद्धत्व दिखाई भी तो नहीं देता। (प्र. सा./ता. वृ./E6)। ५. यदि युत सिद्धपना मान भी लिया जाये तो हम पूछते हैं, कि गुण जिसे निष्क्रिय स्वीकार किया गया है, संयोगको प्राप्त होनेके लिए चलकर द्रव्यके पास कैसे जायेगा। (रा. वा./५/२/8/४३६/१६) ६. दूसरी बात यह भी है कि संयोग सम्बन्ध तो दो स्वतन्त्र सत्ताधारी पदार्थोंमें होता है, जैसे कि देवदत्त व फरसेका सम्बन्ध । परन्तु यहाँ तो द्रव्य व गुण भिन्न सत्ताधारी पदार्थ ही प्रसिद्ध नहीं है, जिनका कि संयोग होना सम्भव हो सके। (स. सि./५/२/२६६/१०) (रा.वा./ १/१/५/७/28/८); (रा. वा./१/६/११/४६/१६); (रा. वा./५/२/१०/ ४३६/२०); (रा. वा./५/२/३/४३६/३१); (क. पा. १/१-२०१७ ३२२/ ३९३/६)। ७. गुण व गुणीके संयोगसे पहले न गुणका लक्षण किया जा सकता है और न गुणीका । तथा न निराश्रय गुणकी सत्ता रह सकती है और न निःस्वभावी गुणी की। (पं.ध./पू./४१-४४).८. १.द्रव्य अपना स्वभाव कमी नहीं तोड़ता पं. का./मू./७ अण्णोणं पविस्संता दिता ओगासमण्णमण्णस्स । मेलंता विय णिच्चं सगं सभा ण विजहंति। वे छहों द्रव्य एक दूसरेमें प्रवेश करते हैं, एक दूसरेको अवकाश देते है, परस्पर (क्षीरनीरवद ) मिल जाते हैं, तथापि सदा अपने-अपने स्वभावको नहीं छोड़ते । (प. प्र./मू./२/२५)।(सं. सा./आ/३)। पं. का./त. प्र/३७ द्रव्यं स्वद्रव्येण सदाशन्यमिति। - द्रव्य स्वद्रव्यसे सदा अशून्य है। २. एक द्रव्य अन्य रूप परिणमन नहीं करता प.प्र./मू./१/६७ अप्पा अप्पु जि परु जि परु अप्पा पर जिण होई। परु जि कयाइ वि अप्पु णवि णियमें पभणहिं जोइ । निजवस्तु आत्मा ही है, देहादि पदार्थ पर ही हैं। आत्मा तो परद्रव्य नहीं होता और परद्रव्य आत्मा नहीं होता, ऐसा निश्चय कर योगीश्वर कहते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य आस्रव न. च. वृ./७ अवरोप्परं विभिस्सा तह अण्णोण्णावगासदो णिच्चं । संतो वि एयते ण परसहावे हि गति [31] परस्पर में तथा एक दूसरेमें प्रवेश पाकर नित्य एकक्षेत्रमें रहते हुए भी द्रव्यों कोई भी अन्य द्रव्यने स्वभावको प्राप्त नही होता आ. / ३ ) । यो सा./ / / सर्वे भायाः स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थिता । न शक्यन्तेऽन्यथा कर्तु ते परेण कदाचन । =समस्त पदार्थ स्वभावसे ही अपने स्वरूप में स्थित हैं, वे कभी अन्य पदार्थोंसे अन्यथा नहीं किये जा सकते । पं.पू. /४६१ न यतोऽशक्यविवेचनमेक क्षेत्रावगाहिनां चास्ति । एकत्वमनेकत्वं न हि तेषां तथापि तदयोगात् ॥ यद्यपि ये सभी द्रव्य एक क्षेत्रालगाड़ी है, सो भी उनमें एकरम नहीं है, इसलिए इन्थोंमें क्षेत्र एकस्व अनेकन मानना युक्त नहीं है। (पं. ध. / / ५६६)। पं. का./त.प्र./३७ द्रव्यमन्यद्रव्यैः सदा शून्यमिति । द्रव्य अन्य द्रव्योंसे सदा शुन्य है । = ३. द्रव्य अनन्यशरण है मा. अ./११ जाइजर मरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा । तम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो |११| जन्म, जरा, मरण, रोग और भय आदिसे आत्मा ही अपनी रक्षा करता है, इसलिए वास्तव में जो कर्मोकी बन्ध उदय और सत्ता अवस्थासे भिन्न है, वह आत्मा ही इस संसारमें शरण है । पं. ध. / पू./८,५२८ तत्त्वं सल्लक्षणिकं स्वसहायं निर्विकल्पं च || अस्तमितसर्वसंकरदोष [तसम्पदोष मा जरिव वस्तुसमस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणम् ॥ ५२८ ॥ तत्त्व सत् लक्षणवाला. स्वसहाय व निर्विकल्प होता है। सम्पूर्ण संकर व शून्य दोषोसे रहित सम्पूर्ण वस्तु सहत व्यवहारनयसे अणुकी तरह अनन्य शरण है. ऐसा ज्ञान होता है। - S मिले हुए इन छहों (स. सा./ ४. द्रच्य निश्रयसे अपने में ही स्थित है, आकाशस्थित कहना व्यवहार है द्रव्य आस्रव - दे० आखव / १ । द्रव्य इन्द्रिय -- दे० इन्द्रिय/१ | द्रव्य कर्म - दे० कर्म / २ | रा. बा/४/१२/५-६१२२४/२८ एवंभूतनयादेशात सर्वद्रव्याणि परमार्थसमा आत्मप्रतिष्ठनि अन्योन्याधारिताव्यापात इति चेन्न व्यमहारतस्तत्सिद्धे ॥६॥ - एवंभूतनयकी दृष्टिसे देखा जाये तो सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित ही है, इनमें आधाराधेय भाव नहीं है, व्यवहारनयसे ही परस्पर आधार-आधेयभावकी कल्पना होती है । जैसे कि वायुके लिए आकाश, जलको वायु, पृथिवीको जल आधार माने जाते है । द्रव्य नय - दे० नय //५ । - द्रव्य निक्षेप दे० १० निक्षेप /५ । द्रव्य निर्जरा - दे० निर्जरा / १ । य नैगम नय ३० नय / III/२। द्रव्य परमाणु - ३० परमाणु/१ द्रव्यत्व - वैशे द / १/२/११/४६ अनेकद्रव्यववे द्रव्यत्वमुक्तम् । - अनेक द्रव्योंमे रहनेवाला एक तथा नित्य धर्म, जिसके द्वारा द्रव्य = की गुण व कर्म ( पर्याय ) से पृथक् पहचान होती है। ४६१ द्रव्य परिवर्तनरूप संसार दे० संसार/ २ द्रव्य पर्याय दे०पर्याय १ द्रव्य पूजा - दे० पूजा / ४ । बंध-२० द्रव्य मूढ दे० मूढ द्रव्य मोक्ष - दे० मोक्ष / १ । लिंग-० द्रव्य लेश्या - दे० लेश्या/३ । द्रव्यवाद दे० सांख्यदर्शन। द्रव्य शुद्धि - दे० शुद्धि | द्रव्य श्रुतज्ञान द्रव्य संग्रह- नेमिचन्द सिद्धान्तिक देवकी तस्व व द्रव्य प्रतिपादक एक प्रसिद्ध प्राकृत गाथाबद्ध रचना। पहले २६ गाथा प्रमाण लघु संग्रह रचा. पीछे उसमें दो अधिकार और जोडकर ५८ गाथा प्रमाण बृहद संग्रह रचा। दो टीकायें हैं । एक प्रभाचन्द (वि० श० १२) कृत और दूसरी ब्रह्मदेव कृत । समय- ई० श० ११ (जे / २ / ३३७, ३४१, ३४३) । द्रव्य संवर - दे० संबर / १ । दे० श्रुतज्ञान / III द्रव्यानुयोग — दे० अनुयोग /९ । द्रव्यार्थिकनय - १. द्रव्यार्थिकनयके भेद व लक्षण आदि-दे० नय IV / १-२ । २ व्यार्थिक व पर्यायार्थिकसे पृथ गुणार्थिक नय नहीं होतो- दे० नय / १/१/५३. निक्षेपोंका यथायोग्य द्रव्याचिकनयमें अन्तर्भाव० निक्षेप २ द्रोणाचार्य ग्रह - उत्तर कुरु व देव कुरुमें स्थित २० द्रह हैं जिनके दोनों तरफ कांचनगिरि पर्वत है-३० सी०/३/१२। ब्रहवती- पूर्वविदेहकी एक विभंगा नदी । - दे० लोक /५/८ । डुमसेन दे० बसेन । --- द्रोण- टीका एक प्रमाण ३० गणित/१/१/२ द्रोणमुख ति.प./४/१४०० दोणमुहाभिघाणं सरिवइबेलाए वेढियं जाण । समुद्रको वेलासे वेष्टित द्रोणमुख होता है । - ध. १३/२-२-६३/३१/१० समुद्रनिम्नगासमीपस्थममरन्नो निवहं द्रोणमुखंनाम जो समुद्र और नदी के समीप स्थित है, और जहाँ नौकाएँ आती जाती है, उसकी द्रोणमुख संज्ञा है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश म.पु / १६/१७३.९७५ भने द्रोणमुखं नाम्ना निम्नगातटमाश्रितम् ।... | १७३ | शतान्यष्टौ च चत्वारि द्वे च स्युग्रमसंख्यया । राजधान्यास्तथा द्रोणमुख कर्वटयो क्रमात । १७५ । जो किसी नदी के किनारेपर हो उसे द्रोणमुख कहते हैं । १७३॥ एक द्रोणमुखमे ४०० गाँव होते जि.सा./६०४-०६ (नदी करि बेरिस द्रोण है। ) द्रोणाचार्य- - (पा.पु. / सर्ग / श्लो.) कौरव तथा पाण्डवके गुरु थे । (८/ २१०-२१२) । अश्वत्थामा इनका पुत्र था । (१०/१४६-१५२) । पाण्डवोंका कौरवों द्वारा मायामहल में जलाना सुनकर दुःखी हुए। (१२/१६७) कौरवोंकी ओरसे अनेक बार पाण्डवोंसे लडे । ( १६ / ६१ ) । अन्तमें स्वयं शस्त्र छोड दिये । (२०/२२२-२३२) । धृष्टार्जुन द्वारा मारे गये (२०/२१३) । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदी ४६२ द्रोपदी-१. (पां. पु./सर्ग/श्लो. )-दूरवर्ती पूर्वभवमें नागश्री ब्राह्मणी थी। (२३/८२)। फिर दृष्टिविष नामक सर्प हुई। (२४/२६)। वहाँसे मर द्वितीय नरकमें गयी। (२४/8)। तत्पश्चात त्रस, स्थावर योनियों में कुछ कम दो सागर पर्यन्त भ्रमण किया। (२४/१०)। पूर्वके भव नं०३ में अज्ञानी 'मातंगी' हुई (२४/११) । पूर्वभव नं०२ में 'दुर्गन्धा' नामकी कन्या हुई ( २४/२४) । पूर्वभव नं०१ में अच्युत स्वर्ग में देवी हुई (२४/७१)। वर्तमान भवमें द्रौपदी हुई (२४/७८)। यह माकन्दी नगरीके राजा द्रुपदकी पुत्री थी। (१५/४३)। गाण्डीव धनुष चढाकर अर्जुनने इसे स्वयंवरमें जीता। अर्जुनके गले में डालते हुए द्रौपदीके हाथकी माला टूटकर उसके फूल पाँचों पाण्डवोंकी गोदमें जा गिरे, जिससे इसे पंचभारीपनेका अपवाद सहना पड़ा। (१५/१०५.११२) । शीलमें अत्यन्त दृढ़ रही। (१५/२२५) । जूएमें युधिष्ठिर द्वारा हारी जाने पर दुःशासनने इसे घसीटा। (१६/१२६)। भीष्मने कहकर इसे छुडाया। (१८/१२६) । पाण्डव वनवासके समय जब वे विराट नगर में रहे तब राजा विराटका साला कीचक इसपर मोहित हो गया। (१७/२४५)। भीमने कीचकको मारकर इसकी रक्षा की। (१७/२७८)1 नारदने इससे क्रुद्ध होकर (२९/१४) धातकोखण्डमें पद्मनाभ राजासे जा इसके रूपकी चर्चा की (२१/३२)। विद्या सिद्धकर पद्मनाभने इसका हरण किया। (२१/५७-६४) । पाण्डव इसे पुन. वहाँसे छुड़ा लाये। (२१/१४०) । अन्त में नेमिनाथके मुखसे अपने पूर्वभव सुनकर दीक्षा ले ली। ( २५/१५) । स्त्री पर्यायका नाश कर १६वें स्वर्गमें देव हुई। ( २५/२४१)। वद्व-मो,.पा./टी./१२/३१२/१२ द्वन्द्व कलयुग्मयो.। -द्वन्द्वका अर्थ कलह व युग्म (जोडा) होता है। द्वात्रिशतिका-१ श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेन दिवाकर (वि.श.9-८) द्वारा विरचित अध्यात्म भावना पूर्ण ३२ श्लोक प्रमाण एक रचना। २. आ. अमितगति (ई.६६३-१०१६) द्वारा रचित समताभावोत्पादक ३२ श्लोक प्रमाण सामायिक पाठ । ३-श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रसरि (ई. १०८८-१९७३) कृत अयोग व्यवच्छेद नामक न्यायविषयक ३२ श्लोक प्रमाण ग्रन्थ, जिसपर स्याद्वादमंजरी नामक टीका उपलब्ध है। दे. उस उस आचार्य का नाम)। द्विचरम-दे० चरम। द्विज-दे० ब्राह्मण। द्वितीयस्थिति-दे० स्थिति।। द्वितीयावलो- दे० आवली । द्वितीयोपशम-द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका विधान दे० उपशम/२; इस सम्बन्धी विषय-दे० सम्यग्दर्शन/IVE | द्विपर्वा एक औषध विद्या-दे० विद्या। द्विपृष्ठ-(म.पु /५८/श्लोक नं०) पूर्व भव नं.३ में भरतक्षेत्र स्थित कनकपुरका राजा 'सुषेण' था (६१)। पूर्वभव नं. २में प्राणत स्वर्गमें देव हुआ।(७६)। वर्तमानभवमें द्वितीय नारायण हुए।-दे० शलाका पुरुष/४। द्विविस्तारात्मक-Two Dimensional, Superficial (ध.५/प्र./२७)। द्वींद्रिय जाति-दे० जाति/ (नामकर्म), द्वींद्रिय जीव-दे० इन्द्रिय/४। द्वीप-1. लक्षण-मध्य लोकमें स्थित तथा समुद्रोंसे वेष्टित जम्मू द्वीपादि भूखण्डोंको द्वीप कहते हैं। एकके पश्चात एकके क्रमसे ये असंख्यात हैं। इनके अतिरिक्त सागरोंमें स्थित छोटे-छोटे भूखण्ड अन्तर्वीप कहलाते है, जिनमें कुभोगभूमिकी रचना है । लवण सागर में ये ४८ है। अन्य सागरोंमें ये नहीं हैं। २. द्वीपोंमें कालवर्तन आदि सम्बन्धी विशेषताएँ असंख्यात द्वीपोंमेंसे मध्यके अढाई द्वीपों में भरत ऐरावत आदि क्षेत्र व कुलाचल पर्वत आदि हैं। तहाँ सभी भरत व ऐरावत क्षेत्रों में षट् काल वर्तन होता है (दे० भरतक्षेत्र)। हैमवत व हैरण्यवत क्षेत्रोंमें जघन्य भोगभूमि; हरि व रम्यक क्षेत्रों में मध्यम भोगभूमि तथा विदेह क्षेत्रके मध्य उत्तर व देवकुरुमें उत्तम भोगभूमियोंकी रचना है। विवेहके ३२, ३२ क्षेत्रों में तथा सर्व विद्याधर श्रेणियोंमें दुषमासुषमा नामक एक ही काल होता है। भरत व ऐरावत क्षेत्रों में एक-एक आर्य खण्ड और पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं। तहाँ सर्व ही आर्य खण्डोंमें तो षट्कालवर्तन है, परन्तु सभी म्लेच्छरखण्डों में केवल एक दुषमासुषमाकाल रहता है। (दे० वह वह नाम) सभी अन्पोंमें कुभोगभूमि अर्थात जघन्य भोगभूमिकी रचना है (दे० भूमि/५) अढ़ाई द्वीपोंसे आगे नागेन्द्र पर्वत तकके असंख्यात द्वीपमें एकमात्र जघन्य भोगभूमिकी रचना है तथा नागेन्द्र पर्वतसे आगे अन्तिम स्वयम्भूरमण द्वीपमें एकमात्र दुःखमा काल अवस्थित रहता है (दे० भूमि/)। * द्वीपोंका अवस्थान व विस्तार आदि-दे० लोक । द्वीपकुमार-भवनवासी देवोंका एक भेद व उनका लोकमें अवस्थान -दे० भवन/१/४ २/२ द्वीप सागर प्रज्ञाप्त-अंग श्रुतज्ञानका एक भेद-दे० श्रुत___ ज्ञान/IIII द्वीपायन-दे० द्वैपायन । द्वेष-१. द्वेषका लक्षण स.सा./आ./५१ अप्रीतिरूपो द्वेष. । प्र.सा./त.प्र./८५ मोहम्-अनभीष्टविषयाप्रीत्याद्वेषमिति । नि.सा./ता.कृ./६६ असह्यजनेषु वापि चासह्यपदार्थ सार्थेषु वा वैरस्य परिणामो द्वेषः । १. अनिष्ट विषयोंमें अप्रीति रखना भी मोहका द्वादशी व्रत-१२ वर्ष पर्यन्त प्रति वर्ष भाद्रपद शु. १२ को उपवास करे। “ॐ ह्रीं अर्हद्भयो नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत-विधान सग्रह/पृ.१२२); (जैन व्रत कथा) द्वारपाल-दे० लोकपाल । द्वारवंग-वर्तमान दरभंगा जिला। (म.पु./प्र.५०/पं. पन्नालाल) द्विकावली व्रत-इसकी तीन प्रकार विधि है बृहद, मध्यम व जघन्य । -तहाँ एक बेला एक पारणाके कमसे ४८ बेले करना बृहद विधि है। एक वर्ष पर्यन्त प्रतिमास शुक्ल १-२.५-६, ६-६व १४-१५ तथा कृष्ण ४-५, ८-१४-१५ इस प्रकार ७ बेले करे। १२ मासके ८४ बेले करना मध्यम विधि है । एक बेला. २ पारणा, १ एकाशनाका क्रम २४ बार दोहराये। इस प्रकार १२० दिनमें २४ बेले करना जघन्य विधि है। --सर्वत्र नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (ह.पु./३४/६८-केवल बृहद विधि); (बत-विधान संग्रह/पृ. ७७-७८); (नवलसाह कृत वर्षमान पुराण) द्विगुण क्रम-Operation of Duplication (ध./प्र.२७) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैत धनुष ही एक भेद है। उसे द्वेष कहते है। २. असह्यजनोंमें तथा असह्य- पदार्थों के समूहमें वैरके परिणाम रखना द्वेष कहलाता है। और भी दे० राग/२। १. द्वेषके भेद क.पा.१/१-१४/चूर्ण सूत्र/६२२६/२७७ दोसो णिक्विवियवो णामदोसो दुवदोसो दव्वदोसो भावदोसो चेदि । = नामदोष, स्थापनादोष, द्रव्यदोष और भावदोष इस प्रकार दोष ( द्वेष ) का निक्षेप करना चाहिए । (इनके उत्तर भेदोके लिए दे० निक्षेप)। दे० कषाय/४ क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, व जुगुप्सा ये छह कषाय द्वेषरूप हैं। ३. द्वेषके भेदोंके लक्षण क.पा.१/१-१४/चूर्ण सूत्र/१२३३-२३३/२८०-२८३ णामढवणा-आगमदव्व णोआगमदध्वजाणुगसरीर-मविय-णिक्खेवा सुगमा त्ति कट ट तेसिमस्थमभणिय तबदिरित्त - णोआगमदबदोससरूवपरूवणठमुत्तर तं भणदि । णोआगमदव्वदोसो णाम जं दव्वं जेण उवधादेण उवभोगं ण 'एदि तस्स दबस्स सो उवघादो दोसो णाम।तं जहा-सादियए अग्गिदद वा मूसयभविवयं वा एवमादि । - नामनिक्षेप, स्थापनानिक्षेप, आगमद्रव्यनिक्षेप और नोआगमद्रव्यनिक्षेपके दो भेद ज्ञायकशरीर और भावी ये सब निक्षेप सुगम है (दे० निक्षेप)। ऐसा समझकर इन सब निक्षेपोके स्वरूपका कथन नहीं करके तद्व यतिरिक्त नोआगमद्रव्यदोषके स्वरूपका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-जो द्रव्य इस उपघातके निमित्तसे उपभोगको नहीं प्राप्त होता है वह उपघात उस द्रव्यका दोष है। इसे ही तद्वयतिरिक्तनोआगमद्रव्यदोष समझना चाहिए। वह उपघात दोष कौन-सा है। साडीका अग्निसे जल जाना अथवा चूहोके द्वारा वाया जाना तथा इसी प्रकार और दूसरे भी दोष है। * द्वेष सम्बन्धी अन्य विषय-दे० राग। * द्वेषका स्वभाव विभावपना तथा सहेतुक अहेतुकपना -दे० विभाव/२,५॥ द्वत-(प.वि/४/३३) बन्धमोक्षौ रतिद्वेषौ कर्मात्मानौ शुभाशुभौ । इति द्वैताश्रिता बुद्धिरसिद्धिरभिधीयते । बन्ध और मोक्ष, राग और द्वेष, कर्म और आत्मा, तथा शुभ और अशुभ, इस प्रकारको बुद्धि द्वैतके आश्यसे होती है । * द्वैत व अद्वैतवादका विधि निषेध व समन्वय -दे० द्रव्य/४॥ द्वैताद्वैतवाद-दे० वेदान्त/३,५,६ द्वैपायन--(ह.पु./६९/श्लो.) रोहिणीका भाई बलदेवका मामा भगवान्से यह सुनकर कि उसके द्वारा द्वारिका जलेगी तो वह विरक्त होकर मुनि हो गया (२८)। कठिन तपश्चरणके द्वारा तैजस ऋद्धि प्राप्त हो गयी, तब भ्रान्तिवश बारह वर्ष से कुछ पहले ही द्वारिका देखनेके लिए आये (४४)। मदिरा पीनेके द्वारा उन्मत्त हुए कृष्णके भाइयोंने उसको अपशब्द कहे तथा उसपर पत्थर मारे (५५)। जिसके कारण उसे क्रोध आ गया और तैजस समुद्धात द्वारा द्वारिकाको भस्म कर दिया। बड़ी अनुनय और विनय करनेके पश्चात केवल कृष्ण व बलदेव दो ही बचने पाये (५६-८६)। यह भाविकालकी चौबीसी में स्वयम्भू नामके १६व तीर्थकर होंगे। -दे० तीर्थकर/५ । २. द्वैपायनके उत्तरमव सम्बन्धी ह. पु./६१/६६ मृत्वा क्रोधाग्निर्दग्धतप सारधनश्च स । बभूवाग्नि कुमाराव्यो मिथ्यादृग्भवनामर' ।। -क्रोधरूपी अग्निके द्वारा जिनका तपरूप श्रेष्ठ धन भस्म हो चुका था ऐसे द्वैपायन मुनि मरकर अग्निकुमार नामक मिथ्यादृष्टि भवनवासी देव हुए। (ध.१२॥ ४,२,७,१६/२१/४) द्वचाश्रय महाकाव्य-श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र सूरि (ई. १०८८११७३) की एक रचना। [ध] धनंजय-१. विजया की उत्तरश्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । २. दिगम्बराम्नायके एक कवि थे। आपने द्विसन्धानकाव्य और नाममाला कोश लिखे है। समय-डॉ० के. बी. पाठकके अनुसार आपका समय ई. ११२३-११५० है। परन्तु पं. महेन्द्र कुमार व पं. पन्नालालके अनुसार ई. श.८ । (सि.वि/प्र.३७/पं. महेन्द्र), (ज्ञा./प्र. ६/पं. पन्नालाल) धन-१. लक्षण स.सि./७/२६/३६८/६ धनं गवादि। =धनसे गाय आदि का ग्रहण होता है । (रा.वा/७/२६/५५५/६), (बो.पा./टी./४६/१११/८) * आयका वर्गीकरण-दे० दान/६ । * दानार्थ मी धन संग्रहका कथंचित् विधि निषेध -दे० दान/६। * पदधन, सर्वधन श्रादि-दे० गणित/11/५/३ । धनद-दे० कुबेर । धनद कलशवत-भाद्रपद कृ.१ से शु. १५ तक पूरे महीने प्रतिदिन चन्दनादि मंगलद्रव्ययुक्त कलशोंसे जिनभगवान्का अभिषेक व पूजन करे। णमोकार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (वत-विधान संग्रह/पृ. ८८) धनदेव-(म.प्र./सर्ग/श्लोक) जम्बूद्वीपके पूर्व विदेहमें स्थित पुष्कलावती देशकी पुण्डरी किणी नगरीके निवासी कुबेरदत्त नामक वणिकका पुत्र था (११/१४) । चक्रवर्ती बज्रनाभिकी निधियोमें गृहपति नामका तेजस्वी रत्न हुआ ।११/१७। चक्रवर्ती के साथ-साथ इन्होने भी दीक्षा धारण कर ली।११।६१-६२।। धनपति-(म. पु/६/श्लोक ) कच्छवेशमें क्षेमपुरीका राजा था। ।२। पुत्रको राज्य दे दीक्षा धारण की।६-७1 ग्यारह अंगोंका ज्ञान प्राप्त कर तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया। समाधिमरण कर जयन्त विमानमें अहम्मिन्द्र हुए । ८.६। यह अरहनाथ भगवान्का पूर्वका दूसरा भव है-दे० अरनाथ । धनपाल-यक्ष जातिके व्यन्तरदेवोका एक भेद-दे० यक्ष । धनराशि-जिस राशिको मूलराशिमें जोडा जाये उसे धनराशि __कहते हैं।-दे० गणित/U/१। घनानन्द-नन्दवंशका अन्तिम राजा था, जिसे चन्द्रगुप्तमौर्य ने परास्त करके मगध देशपर अधिकार किया था । समय-ई०पू० ३३८३२६. दे०-इतिहास/३/४ (वर्तमानका भारतीय इतिहास )। धनिष्ठा-एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र । धनुष-१.क्षेत्रका एक प्रमाण । अपर नाम दण्ड, युग, मूसल, नाली -दे० गणित/I/१/३२. arc (जं.पं./प्र.१०६); (गणित/II/0/३) जैनेन्द्र सिमान्त कोश Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनुषपृष्ठ ४६४ धनुषपृष्ठ-धनुषपृष्ठ निकालनेकी प्रक्रिया-दे० गणित/II/७/३ धन्य-भगवान् महावीरके तीर्थ के १० अनुत्तरोपपादको मेंसे एक-दे० अनुत्तरोपपादक। धन्यकुमार चरित्र-आ. गुणभद्र (ई. ११८२ ) द्वारा रचित ७ परिच्छेदप्रमाण । संस्कृत श्लोकबद्ध एक चरित्र ग्रन्था पोछेसे अनेक कवियों ने इसका भाषामें रूपान्तर किया है । (ती०४/६०) । धम्मरसायण-मुनि पद्मनन्दि (ई०६७७) कृत संसार देह भोग से बिरक्ति विषयक १६३ माथा प्रमाण मुक्तककाव्य । (ता./३/१२१) । धरण-तोलका एक प्रमाण-दे० गणित//१/२। धरणी-१ ध. १३/५.६/सूत्र ४०/२४३ धरणी धरणाट्ठवणा कोट्ठा पदिट्ठा ।४० धरणी, धरणा, स्थापना, कोष्ठा, और प्रतिष्ठा ये एकार्थवाची नाम है। २. पिज पार्वको उत्तर श्रेणोका एक नगर-दे० विद्याधर । धरणोतिलक-भरतक्षेत्रका एक नगर-दे० मनुष्य/४। धरणीधर-प. पु./श्लोक) भगवान् ऋषभदेवका युग समाप्त हो जानेपर इक्ष्वाकुवंशमें अयोध्या नगरीका राजा ।५६-६०) तथा अजितनाथ भगवान्के पडबाबा थे।६३॥ धरणावराह-राजा महीपालका अपरनाम-दे० महीपाल धरणेन्द्र-१. एक लोकपाल-दे० लोकपाल । २. (प. पु./३/ ३०७), (ह. पु/२२/५१-५५)। नमि और विनमि जब भगवान ऋषभनाथसे राज्यकी प्रार्थना कर रहे थे तब इसने आकर उनको अपनी दिति व अदिति नामक देवियोंसे विद्याकोष दिलवाकर सन्तुष्ट किया था। ३. (म.पु/७४/श्लोक) अपनी पूर्वपर्यायमें एक सर्प था । महिपाल (दे० कमठके जीवका आठवाँ भव ) द्वारा पचाग्नि तपके लिए जिस लक्कडमे आग लगा रवीथी,उसीमेंयहाबैठा था । भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा बताया जानेपर जब उसने वह लक्कड काटा तो वह घायन होकर मर गया ।१०१-१०३। मरते समय भगवान पार्श्वनाथने उसे जो उपदेश दिया उसके प्रभावसे वह भवनवासी देवोमे धरणेन्द्र हुआ।११८-११६। जब कमठने भगवान पार्श्वनाथपर उपसर्ग किया तो इसने आकर उनकी रक्षा की ।१३६-१४१। धरसेन-आचार्य अहदली के समकालीन,पूर्वषिद, षट्खण्डागम के मुल, पुष्पदन्त तथा भूतबली के गुरु । समय-वी. नि.६५-६३३ (ई० ३८-१०६) (विशेष दे० कोश परिशिष्ट २/१०)। २. पुनाटसंघ की पट्टावलो के अनुसार दीपसेन के शिष्य, मुधर्मसेन के गुरु समय-ई. श. ५ (रे. इतिहास/ब)। धराधर-विजयाध की दक्षिणश्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । धर्म-१. (म. पु/१६/श्लोक नं०) पूर्वभव नं. २ में भरतक्षेत्रके कुणालदेशमे श्रावस्ती नगरीका राजा था (७२। पूर्वभव नं०१ में लान्तव स्वर्ग में देव हुआ। और वहाँसे चयकर वर्तमानभवमें तृतीय बलभद्र हुए। --दे० शलाकापुरुष/३ । २ (म.पु./१७/श्लोक नं.) यह एक देव था। कृत्याविद्या द्वारा पाण्डवोंके भस्म किये जानेका षड्यन्त्र जानकर उनके रक्षणार्थ आया था ।१५६-१६। उसने द्रौपदीका त। वहॉसे हरण कर लिया और पाण्डवोंको सरोवरके जलसे मुच्छित कर दिया । कृत्याविद्याके आनेपर भीलका रूप बना पाण्डवो के शरीरोंको मृत बताकर उसे धोकेमें डाल दिया। विद्याने वहाँ से लौटकर क्रोधसे अपने साधकोंको ही मार दिया। अन्त में वह देव पाण्डवों को सचेत करके अपने स्थानपर चला गया ।१६३-२२५॥ धर्म-धर्म नाम स्वभाव का है। जीवका स्वभाव आनन्द है, ऐन्द्रिय सुख नही। अत वह अतीन्द्रिय आनन्द ही जीवका धर्म है, या कारणमें कार्यका उपचार करके, जिस अनुष्ठान विशेषसे उस आनन्दकी प्राप्ति हो उसे भी धर्म कहते हैं । वह दो प्रकार का है-एक बाह्य दूसरा अन्तरंग। बाह्य अनुष्ठान तो पूजा, दान, शील, संयम, व्रत, त्याग आदि करना है और अन्तरंग अनुष्ठान साम्यता व वीतरागभावमें स्थितिकी अधिकाधिक साधना करना है। तहाँ बाह्य अनुष्ठानको व्यवहारधर्म कहते हैं और अन्तरंगको निश्चयधर्म । तहाँ निश्चयधर्म तो साक्षात समता स्वरूप होनेके कारण वास्तविक है और व्यवहार धर्म उसका कारण होनेसे औपचारिक । निश्चयधर्म तो सम्यक्त्व सहित ही होता है. पर व्यवहार धर्म सम्यक्त्व सहित भी होता है और उससे रहित भो।उनमेंसे पहला तो निश्चयधर्म से मिलकुल अस्पष्ट रहता है और दूसरा निश्चयधर्म के अश सहित होता है। पहला कृत्रिम है और दूसरा स्वाभाविक । पहला तो साम्यताके अभिप्रायसे न होकर पुण्य आदिके अभिप्रायोंसे होता है और दूसरा केवल उपयोगको माह्य विषयोंसे रक्षाके लिए होता है। पहले में कुत्रिम उपायोंसे बाह्य विषयों के प्रति अरुचि उत्पन्न कराना इष्ट है और दूसरे में वह अरुचि स्वाभाविक होती है। इसलिए पहला धर्म बाह्यसे भीतरकी ओर जाता है जब कि दूसरा भीतरमे बाहरकी ओर निकलता है। इसलिए पहला तो आनन्द प्राप्तिके प्रति अकिचित्कर रहता है और दूसरा उसका परम्परा साधन होता है, क्योंकि वह साधकको धीरेधीरे भूमिकानुसार साम्यताके प्रति अधिकाधिक झुकाता हुआ अन्तमें परम लक्ष्यके साथ घुल-मिलकर अपनी सत्ता खो देता है। पहला व्यवहार धर्म भी कदाचित् निश्चयधर्मरूप साम्यताका साधक हो सकता है, परन्तु तभी जब कि अन्य सत्र प्रयोजनोंको छोड़कर मात्र साम्यताकी प्राप्ति के लिए किया जाये तो। निश्चय सापेक्ष व्यवहारधर्म भी साधककी भूमिकानुसार दो प्रकारका होता है-एक सागार दूसरा अनगार। सागारधर्म गृहस्थ या श्रावकके लिए है और अनगारधर्म साधुके लिए। पहलेमें विकल्प अधिक होनेके कारण निश्चयका अंश अत्यन्त अस्प होता है और दूसरेमे साम्यताकी वृद्धि हो जानेके कारण वह अश अधिक होता है। अत: पहलेमें निश्चय धर्म अप्रधान और दूसरेमे वह प्रधान होता है। निश्चयधर्म अथवा निश्चयसापेक्ष व्यवहार धर्म दोनोंमें ही यथायोग्य क्षमा, मार्दव आदि दस लक्षण प्रकट होते है, जिसके कारण कि धर्मको दसलक्षण धर्म अथवा दश विध धर्म कह दिया जाता है। धमके भेद व लक्षण संसारसे रक्षा करे या स्वभावमें धारण करे सो धर्म । धर्मका लक्षण अहिसा व दया आदि। स्वभाव गुण आदिके अर्थमें धर्म-दे० स्वभाव/१। धर्मका लक्षण उत्तमक्षमादि। -दे० धर्म/८ । धर्मका लक्षण रत्नत्रय । भेदाभेद रत्नत्रय -दे० मोक्षमार्ग। व्यवहार धर्मके लक्षण। व्यवहार धर्म व शुभोपयोग।-दे० उपयोग/II/४ | व्यवहार धर्म व पुण्य ।-दे० पुण्य । निश्चय धर्मका लक्षण। १. साम्यता व मोक्षक्षोभ विहीन परिणाम । २. शुद्धात्मपरिणति। निश्चयधर्म के अपरनाम धर्मके भेद । -दे० मोक्षमार्ग/२/11 धर्मके भेद । सागार व अनगार धर्म । -दे० वह-वह नाम । * जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ४६५ सूचीपत्र व्यवहारधर्मकी कथंचित् प्रधानता व्यवहारधर्म निश्चयका साधन है। व्यवहारधर्मको कथंचित् इष्टता। अन्यके प्रति व्यक्तिका कर्त्तव्य अकर्तव्य। व्यवहार धर्मका महत्व। * * २ / धर्ममें सम्यग्दर्शनका स्थान सम्यग्दर्शन ही धर्मका मूल है। मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शन प्रधान है। -दे० सम्यग्द०/1/५ धर्म सम्यक्त्वपूर्वक ही होता है। सच्चा व्यवहार धर्म सम्यग्दृष्टिको ही होता है। ___-दे० भक्ति। सम्यक्वयुक्त ही धर्म मोक्षका कारण है रहित नहीं। सम्यक्त्व रहित क्रियाएँ वास्तविक व धर्मरूप नहीं हैं। सम्यक्त्वरहित धर्म परमार्थसे अधर्म व पाप है। सम्यक्त्वरहित धर्म वृथा व अकिचित्कर है। धर्मके श्रद्धानका सम्यग्दर्शनमें स्थान । -दे० सम्यग्दर्शन/II/१ ६ निश्चय व व्यवहार धर्म समन्वय * * * * निश्चय धर्मकी कथंचित् प्रधानता * * * निश्चयधर्म ही भूतार्थ है। शुभ-अशुभसे अतीत तीसरी भूमिका ही वास्तविक | धर्म है। * | धर्म वास्तवमें एक है, उसके भेद, प्रयोजन वश किये गये हैं। -दे० मोक्षमार्ग/४। एक शुद्धोपयोगमें धर्मके सब लक्षण गर्मित हैं। | निश्चयधर्मको व्याप्ति व्यवहार धर्मके साथ है, पर ____ व्यवहारकी निश्चयके साथ नहीं। | निश्चय रहित व्यवहार धर्म वृथा है। निश्चय रहित व्यवहार धर्मसे शुद्धात्माकी प्राप्ति नहीं होती। ७ निश्चय धर्मका माहात्म्य । यदि निश्चय ही धर्म है तो सांख्यादि मतोंको मिथ्या क्यों कहते हो।-दे० मोक्षमार्ग/१/३। | निश्चयधर्मकी प्रधानताका कारण । यदि व्यवहारधर्म हेय है तो सम्यग्दृष्टि क्यों करता है। -दे० मिथ्यादृष्टि/४। व्यवहारधर्म निषेधका कारण । व्यवहार धर्म निषेधका प्रयोजन । व्यवहार धर्मके त्यागका उपाय व क्रम । स्वभाव आराधनाके समय व्यवहारधर्म त्याग देना चाहिए।-दे० नय/l/३/६॥ व्यवहारधर्मको उपादेय कहनेका कारण । व्यवहार धर्मका पालन अशुभ वंचनार्थ होता है। -दे० मिथ्याष्टि/४/४। व्यवहार पूर्वक गुणस्थान क्रमसे आरोहण किया जाता है। -धर्मध्यान/६.६। निश्चयधर्म साधुको मुख्य और गृहस्थोंको गौण होता है। -६० अनुभव/५ । व्यवहारधर्म साधुको गौण और गृहस्थको मुख्य होता है। साधु व गृहस्थके व्यवहारधर्ममें अन्तर । -दे० संयम/१/६। साधु व गृहस्थके निश्चयधर्ममें अन्तर । -दे० अनुभव/५ । ७ उपरोक्त नियम चारित्रकी अपेक्षा है श्रद्धाकी अपेक्षा नहीं। निश्चय व व्यवहार परस्पर सापेक्ष ही धर्म हैं निरपेक्ष नहीं। उत्सर्ग व अपवाद मार्गकी परस्पर सापेक्षता। -दे० अपवाद/४। | शान व क्रियानयका समन्वय ।-दे० चेतना/३/८ । धर्म विषयक पुरुषार्थ । -दे० पुरुषार्थ । निश्चय व्यवहारधर्ममें मोक्ष व बन्धका कारणपना निश्चयधर्म साक्षात् मोक्षका कारण है। केवल व्यवहार मोक्षका कारण नहीं। व्यवहारको मोक्षका कारण मानना अज्ञान है। वास्तवमें व्यवहार मोक्षका नहीं संसारका कारण है। व्यवहारधर्म बन्धका कारण है। * याद व्यवहार धर्मकी कथंचित् गौणता व्यवहार धर्म शानी व अज्ञानी दोनोंको सम्भव है। व्यवहाररत जीव परमार्थको नहीं जानते। व्यवहार धर्ममें रुचि करना मिथ्यात्व है। व्यवहार धर्म परमार्थसे अपराध, अग्नि व दुःखस्वरूप * व्यवहार धर्म परमार्थसे मोह व पापरूप है। व्यवहार धर्ममें कथंचित् सावधपना ।-दे० सावध । व्यवहार धर्म अकिचित्कर है। व्यवहार धर्म कथंचित् विरुद्धकार्य (बन्ध ) को करने वाला है। दे० चारित्र/५/५: (धर्म/७)। व्यवहार धर्म कथंचित् हेय है। व्यवहार धर्म बहुत कर लिया अब कोई और मार्ग ढूंढ। व्यवहारको धर्म कहना उपचार है। Kno.6 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-५९ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म १. धर्मके भेद व लक्षण केवल व्यवहारधर्म मोक्षका नहीं बन्धका कारण है। व्यवहार धर्म पुण्यवन्धका कारण है। परन्तु सम्यक् व्यवहारधर्मसे उत्पन्न पुण्य विशिष्ट प्रकारका होता है। मिथ्यात्व युक्त ही व्यवहारधर्म संसारका कारण है सम्यक्त्व सहित नहीं।-दे० मिथ्यादृष्टि/४ । | सम्यक् व्यवहारधर्म निर्जराका तथा परम्परा मोक्षका कारण है। देव पूजा असख्यातगुणो निर्जराका कारण है। दे० पूजा/२॥ सम्यक् व्यवहार धर्ममें संवरका अंश अवश्य रहता है। -दे० संवर/२। १०। परन्तु निश्चय सहित ही व्यवहार मोक्षका कारण है रहित नहीं। ११/ यद्यपि मुख्यरूपसे पुण्यवन्ध ही होता है, पर परम्परासे मोक्षका कारण पड़ता है। परम्परा मोक्षका कारण कहनेका तात्पर्य । | दशधर्म निर्देश धर्मका लक्षण उत्तम क्षमादि । दशधर्मों के नाम निर्देश। -दे० धर्म/२/६ । दशधर्मोके साथ 'उत्तम' विशेषणकी सार्थकता। ये दशधर्म साधुओंके लिए कहे गये हैं। | परन्तु यथासम्भव मुनि व श्रावक दोनोंको होते हैं। इन दशोंको धर्म कहने में हेतु। दशों धर्म विशेष। -दे० वह वह नाम। | गुप्ति, समिति व दशधर्मों में अन्तर । -दे० गुप्ति २। धर्मविच्छेद व पुन: उसकी स्थापना -दे० करकी। में नित्य संसरण करने रूप भावसंसारसे प्राणि को उठाकर जो निर्विकार शुद्ध चैतन्यमें धारण करदे, वह धर्म है। द्र.सं./टो./३/१०१/८ निश्चयेन मंसारे पतन्तमात्मानं धरतीति विशुद्ध ज्ञान दर्शन लक्षण निज शुद्धात्म, भावनात्मको धर्म , व्यवहारेण तत्साधनार्थ देवेन्द्रनरेन्द्रादिवन्धपदे धरतीत्युत्तमक्षमादि.. दशप्रकारो धर्म'। निश्चयसे संसारमें गिरते हए आत्माको जो धारण करे यानी रक्षा करे सो विशुद्धज्ञानदर्शन लक्षणवाला निजशुद्धात्माकी भावनास्वरूप धर्म है। व्यवहारनयसे उसके साधनके लिए इन्द्र चक्रवर्ती आदिका जो बन्दने योग्य पद है उसमे पहुँचानेवाला उत्तम क्षमा आदि दश प्रकारका धर्म है। पंध./उ./७१५ धर्मो नोचैः पदादुच्चै. पदे धरति धार्मिकम् । तत्राज वजवो नोचै पदमुच्चस्तदव्यय. ७१५॥ =जो धर्मात्मा पुरुषोको नीचपदसे उच्चपद में धारण करता है वह धर्म कहलाता है। तथा उनमें संसार नीचपद है और मोक्ष उच्चपद है। २. धर्मका लक्षण अहिंसा व दया आदि बो.पा./म./२५ धम्मो दयाविशुद्धो । =धर्म दया करके विशुद्ध होता है। (नि सा./ता.वृ/६ में उद्धृत); (पं.वि./१/८), (द.पा./टी. २/२/२०) स.सि./९/७/४१६/२ अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिसालक्षण सत्याधिष्ठितो विनयमूल' । क्षमावलो ब्रह्मचर्यगुप्तः उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतावलम्बन । -जिनेन्द्रदेवने जो यह अहिसा लक्षण धर्म कहा है-सत्य उसका आधार है, विनय उसकी जड है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम उसकी प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, निष्परिग्रहता उसका अवलम्बन है। रा.वा./६/१३/१/५२४/६ अहिंसादिलक्षणो धर्मः। -धर्म अहिसा आदि लक्षण वाला है। (द्र सं./टी./३/१४५/३) का.अ./मू./४७८ जीवाणं रक्वणं धम्मो। - जीवोको रक्षा करनेको धर्म कहते हैं । (द.पा./टी./४/८/५) ३. धर्मका लक्षण रत्नत्रय र.क.श्रा./३ सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः। -गणध्सादि आचार्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्रको धर्म कहते है। (का.अ./मू./४७८); (त.अनु./५१) (द्र सं./टी /१४५/३) १. व्यवहार धमके लक्षण प्र.सा./ता.व./८/६/१८ पञ्चपरमेष्ठयादिभक्तिपरिणामरूपो व्यवहारधर्मस्तावदुच्यते।पंचपरमेष्ठी आदिकी भक्तिपरिणामरूप व्यवहार धर्म होता है। प.प्र/टो./२/३/११६/१६ धर्मशब्देनात्र पुण्यं कथ्यते। =धर्मशब्दसे यहाँ (धर्म पुरुषार्थ के प्रकरणमें) पुण्य कहा गया है। प.प्र /टी./२/१११-४/२३१/१४ गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मस्तेनैव सम्यक्त्वपूर्वेण परंपरया मोक्ष लभन्ते । - आहार दान आदिक ही गृहस्थोंका परम धर्म है। सम्यक्त्व पूर्वक किये गये उसी धर्मसे परम्परा मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है। प. प्र./टी /२/१३४/२५१/२ व्यवहारधर्मे च पुन' षडावश्यकादिलक्षणे गृहस्थापेक्षया दानपूजादिलक्षणे वा शुभोपयोगस्वरूपे रति कुरु । - साधुओंकी अपेक्षा षडावश्यक लक्षणवाले तथा गृहस्थोंकी अपेक्षा दान पूजादि लक्षणवाले शुभोपयोग स्वरूप व्यवहारधर्म में रति करो। ५. निश्चयधर्मका लक्षण १. साम्यता व मोहक्षोभ विहीन परिणाम प्र.सा./मू./७ चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्ठो । मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हि समो। चारित्र ही धर्म १. धर्मके भेद व लक्षण १. संसारसे रक्षा करे व स्वभाव में धारण करे सो धर्म र.क.पा./२ देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम्। संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।२। जो प्राणियोंको संसारके दुरवसे उठाकर उत्तम सुख (वीतराग सुख ) में धारण करे उसे धर्म कहते हैं। वह धर्म कर्मों का विनाशक तथा समीचीन है। (म.पु./२/३७) (ज्ञा./२-१०/१५) स.सि./६/२/४०६/११ इष्टस्थाने धत्ते इति धर्म:। -जो इष्ट स्थान (स्वर्ग मोक्ष) में धारण करता है उसे धर्म कहते हैं। (रा.वा./8/२/ ३/५६१/३२) । प.प्र./मू./२/६८ भाउ विसुद्धणु अप्पणउ धम्म भणेविणु लेहु । चउगइ दुक्रवह जो धरइ जीउ पड़तउ एहू ।। -निजी शुद्धभावका नाम ही धर्म है। वह संसारमे पड़े हुए जीवोंको चतुर्गतिके दुःखोंसे रक्षा करता है । (म पु./४७/३०२); (चा,सा./३/१) । प्र.सा./ता वृ./9/8/8 मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपेण भावसंसारे प्राणिन- मुद्धृत्य निर्विकारशुद्धचैतन्ये धरतीति धर्मः। == मिथ्यात्व व रागादि- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म २. धर्ममें सम्यग्दर्शनका स्थान है। जो धर्म है सो साम्य है और साम्य मोहक्षोभ रहित ( रागद्वेष तथा मन, वचन, कायके योगों रहित) आत्माके परिणाम हैं। (मो.पा./मू./५०) भा.पा./मू./८३ मोहरखोहविहीणो परिणामो अपणो धम्मो। -मोह व क्षोभ रहित अर्थात रागद्वेष व योगों रहित आत्माके परिणाम धर्म है। (स. म./३२/३४२/२२ पर उद्धृत), (प.प्र./मू./२/६८). (त.अनु./१२) न.च.वृ./३५६ समदा तह मज्झत्थं सुद्धोभावो य वीयरायत्तं । तह चारिस धम्मो सहावाराहणा भणिया। समता, माध्यस्थता, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभावकी आराधना ये सम एकार्थवाची शब्द हैं। पं.ध./उ./७५५ अर्थाद्वागादयो हिसा चास्त्यधर्मो वतच्युतिः । अहिंसा । तस्परित्यागो व्रतं धर्मोऽथवा किल । -वस्तुस्वरूपकी अपेक्षा रागादि ही हिंसा, अधर्म व अवत है। और उनका त्याग ही अहिंसा, धर्म व व्रत है। २. शुद्धात्म परिणति भा.पा./मू./८५ अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सहलदोसपरिचत्तो। संसारतरणहेदू धम्मो त्ति जिणेहि णिहिट्ठो। -रागादि समस्तदोषोंसे रहित होकर आत्माका आत्मामें ही रत होना धर्म है। प्र.सा./त.प्र./६१ निरुपरागतत्त्वोपलम्भलक्षणो धर्मोपलम्भो। -निरुप रागतत्त्वकी उपलब्धि लक्षणवाला धर्म...। प्र.सा./त.प्र./७८ बस्तुस्वभावत्वाद्धर्मः । शुद्धचैतन्यप्रकाशनमित्यर्थः १७...ततोऽयमात्मा धर्मेण परिणतो धर्म एव भवति । -वस्तुका स्वभाव धर्म है। शुद्ध चैतन्यका प्रकाश करना यह इसका अर्थ है। इसलिए धर्मसे परिणत आत्मा ही धर्म है। पं. का./ता. वृ./८५/१४३/११ रागादिदोषरहितः शुखात्मानुभूतिसहितो निश्चयधर्मों। -रागादि दोषोंसे रहित तथा शुद्धारमाकी अनुभूति सहित निश्चयधर्म होता है। (पं.वि./१/७), (पं.प्र./टो./२/१३४/२५१/ १), (पं.ध./उ./४३२) ६. धर्मके भेद बा.अ./७० उत्तमखममद्दवज्जवसच्चसउच्चं च संजमं चेव। तबतागमकिंचण्हं बम्हा इति दसविहं होदि ७01 - उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दशभेद मुनिधर्मके हैं। (त.सू./४/६), (भ.आ./वि./४६/१५४/१० पर उधृत) म.आ./५५७ तिबिहो य होदि धम्मो सुदधम्मो अस्थिकायधम्मो य। तदिओ चरित्तधम्मौ सुदधम्मो एत्य पुण तित्थं । -धर्मके तीन भेद है-श्रतधर्म, अस्तिकायधर्म, चारित्रधर्म। इन तीनों मेंसे श्रुतधर्म तीर्थ कहा जाता है। पं.वि./६/४ संपूर्ण देशभेदाभ्यां स च धर्मो द्विधा भवेत्। -सम्पूर्ण और एक देशके भेदसे वह धर्म दो प्रकार है। अर्थात् मुनि व गृहस्थ धर्म या अनगार व सागार धर्मके भेदसे दो प्रकारका है। (वा.ब./44) (का.अ./म./३०४), (चा.सा./३/१), (पं.ध./उ./७१७) पं.वि./१/७ धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनोर्मेदाइ विधा च त्रयं । रत्नाना परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्ततः ।...।-दयास्वरूप धर्म, गृहस्थ और मुनिके भेदसे दो प्रकारका है। वही धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्ररूप उत्कृष्ट रत्नत्रयके भेदसे तीन प्रकारका है, तथा उत्तम क्षमादिके भेदसे दश प्रकारका है। (द्र.सं./टी./३५/ १४५/३) २. धर्ममें सम्यग्दर्शनका स्थान १. सम्यग्दर्शन ही धर्मका मूल है द.पा /मू./२ दंसणमूलो धम्मो उबइठो जिणवरेहि सिस्साणं । सर्वज्ञ देवने अपने शिष्यों को 'दर्शन' धर्मका मूल है ऐसा उपदेश दिया है। (पं.ध./उ./७१६) २. धर्म सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है बा. अ./६८ एयारसदसभेयं धम्म सम्मत्तपुष्वयं भणियं । सागारणगारामं उत्तमसुहसंपजुत्तेहि।६८ - श्रावकों व मुनियोंका जो धर्म है वह सम्यक्त्व पूर्वक होता है । (पं.ध./उ./७१७ ) । ३. सम्यक्त्वयुक्त धर्म ही मोक्षका कारण है रहित नहीं बा. अणु./५७ जण्णाणवसं किरिया मोक्खणिमित्तं परंपरया। जो क्रिया ज्ञानपूर्वक होती है वही परम्परा मोक्षका कारण होती है। र. सा./१० दाणं पूजा सील उपवासं बहुविहपि खिवणं पि । सम्मजुदं मोक्खसुहं सम्मविणा दीहसंसार १०॥ दान, पूजा, ब्रह्मचर्य, उपवास, अनेक प्रकारके व्रत और मुनिलिंग धारण आदि सर्व एक सम्यग्दर्शन होनेपर मोक्षमार्गके कारणभूत है और सम्यग्दर्शनके बिना संसारको बढानेवाले हैं। यो. सा./यो /१८ गिहि-बावार परिट्ठिया हेयाहेउ मुणं ति। अणुदिणुझायहि देउ जिणु लहु णिव्वाणु लहति ।-जो गृहस्थीके धन्धेमें रहते हुए भी हेयाहेयको समझते हैं और जिनभगवान्का निरन्तर ध्यान करते हैं, वे शीघ्र ही निर्वाणको पाते हैं। भावसंग्रह/४०४,६१० सम्यग्दृष्टेः पुण्यं न भवति संसारकारण नियमात् । मोक्षस्य भवति हेतुः यदि च निदान स न करोति ४०४॥ आवश्यकानि कर्म वैयावृत्त्यं च दानपूजादि । यत्करोति सम्यग्दृष्टिस्तत्सर्व निर्जरानिमित्तम् ।६१० - सम्यग्दृष्टिका पुण्य नियमसे संसारका कारण नहीं होता है । और यदि व निदान न करे तो मोक्षका कारण होता है ।४०४। षडावश्यक क्रिया, वैयावृत्त्य, दान, पूजा आदि जो कुछ भी धार्मिक क्रिया सम्यग्दृष्टि करता है वह सम उसके लिए निर्जराके निमित्त हैं।६१०। स सा./ता, वृ./१४५ की उत्थानिका/२०८/११ वीतरागसम्यक्त्वं विना वतदानादिकं पुण्यअन्धकारणमेव न च मुक्तिकारणं । सम्यक्त्वसहित पुनः परंपरया मुक्तिकारणं च भवति। - वीतरागसम्यक्त्वके बिना व्रत दानादिक पुण्यबन्धके कारण हैं. मुक्तिके नहीं। परन्तु सम्यक्त्व सहित वे ही पुण्य बन्धके साथ-साथ परम्परासे मोक्षके कारण भी है। (प्र. सा./ता. वृ./२५५/३४८/२०) (नि. सा./ता. वृ./१८/क, ३२) (प्र.सा./ता. वृ./२५५/३४७/२)। (प.प्र./टी./६/६३/४) (प.प्र./ टो./१६१/२१७/१)। ४. सम्यक्त्वरहित क्रियाएँ वास्तविक व धर्मरूप नहीं हैं यो. सा./यो./४७-४८ धम्मु ण पढियई होइ धम्मु ण पोत्थापिच्छिया। धम्मु ण मढिय-पएसि धम्मु ण मत्था लुचियइँ ४७ राय-रोस वे परिहरिवि जो अप्पाणि बसेइ । सो धम्मु बि जिण उत्तिमउ जो पंचम-गइ णेइ ४८-- पढ लेनेसे धर्म नहीं होता, पुस्तक और पीछीसे भी धर्म महीं होता, किसी मठमें रहनेसे भी धर्म नहीं है, तथा केशलोंच करनेसे भी धर्म नहीं कहा जाता है। जो राग और द्वेष दोनोंको छोड़कर निजात्मामें वास करना है, उसे ही जिनेन्द्रदेवने धर्म कहा है। वह धर्म पंचम गतिको ले जाता है। ध.६/४,१.१/६/३ ण च सम्मत्तेण विरहियाणं णाणझाणाणमसंखेजुगुणसेऽणिकम्मणिज्जराए अणिमित्ताणं णाणज्झाणवधएसो परमत्थियो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म अस्थिसम्यक्त्वसे रहित ध्यानके असंख्यात गुणश्रेणीरूप कर्मनिर्जरा के कारण न होनेसे 'ज्ञानध्यान' यह संज्ञा वास्तविक नहीं है। स. सा. / . / २०१ भोगनिमित्तं शुभकर्म मात्रमवृतार्थमेवभोगके निमित्त शुभकर्ममात्र जो कि बतार्थ हैं (उनकी ही अभव्य श्रद्धा करता है ) । जन. प./१६/१०६ व्यवहारमभूतार्थं प्राणो भूतार्थ-विमुखजनमोहाय । केवलमुपयुञ्जानो व्यजनवारयति स्वार्थादि । भूतार्थ से विमुख रहनेवाले व्यक्ति मोहवश अभूतार्थ व्यवहार क्रियाओंमें ही उपयुक्त रहते हुए, स्वर रहित व्यञ्जनके प्रयोगवत् स्वार्थ से भ्रष्ट हो जाते हैं । पं. ध. /उ. / ४४४ नापि धर्मः क्रियामात्रं मिथ्यादृष्टेरिहार्थत' । - मिथ्यादृष्टि केवल क्रियारूप धर्मका पाया जाना भी धर्म नहीं हो सकता । पं. ०९० न धर्मस्तद्विना क्यचित्। सम्यग्दर्शनके बिना कहीं भी वह ( सागार या अनगार धर्म ) धर्म नहीं कहलाता । ५. सम्यक्त्व रहित धर्म परमार्थसे अधर्म व पाप है म. सा./आ./२००/क. १३७ सम्यग्दृष्टि स्वयमहं जातु बंधो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकत्रदना रागिणोऽप्याचरन्तु । आलम्बन्त समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा, आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिता' | १३०| यह मैं स्वयं सम्बन्द है, मुझे कभी बन्ध नहीं होता. ऐसा मानकर जिनका मुख गर्नसे ऊँचा और पुलकित हो रहा है, ऐसे रागी जीव भले ही महाव्रतादिका आचरण करें तथा समितियोंकी उत्कृष्टताका आलम्बन करे, तथापि वे पापी ही हैं, क्योंकि वे आत्मा " ४६८ और अनात्माके ज्ञानसे रहित होनेसे सम्यक्त्व रहित हैं । पं. घ. /उ. ४४४ नापि धर्मः क्रियामात्र निष्यादृप्टेरिहार्थतः । नित्य रागादिसद्भावादयुताधर्म एव स १४४४ मिध्यादृष्टि सदा रागादि भावोंका सद्भाव रहनेसे केवल कियारूप धर्मका पाया जाना भी भारत में धर्म नहीं हो सकता, किन्तु व अधर्म ही है। = ६. सम्यक्त्व रहित धर्म वृथा व अकिंचित्कर है स. सा./मू./१५२ परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई । यं सव्वें भाव भाव मिति सन् १९५२ - परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सब तप और व्रतको सर्वज्ञ देव बाल तप और बालवत कहते हैं । मो.पा./मू./६६ किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि बहुविहं च खवणं तु । किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो | ६६ - आत्मस्वभावसे विपरीत क्रिया क्या करेगी, अनेक प्रकारके उपवासादि तप भी क्या करेंगे, तथा आतापन योगादि कायक्लेश भी क्या करेगा। भ.आ./मू./गा. नं. ३ जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्यत्तकडुनिदा होति । ते तस्स कडुगदोद्धियगदं च दुद्ध हवे अफला ॥५७॥ तह मिच्छन्त कडु गिदे जीवै तवणाणचरणविरियाणि । णासंति वंतमिच्छसम्मिय सफलाणि जायंति ॥ ७३४ | घोडगलिंडसमाणस्स तस्स अब्भंतरम्मि कधिदस्स | अहिरकरणं किं से काहिदि नगदिकरणस्स । | १३४७| अहिंसा आदि आत्माके गुण हैं, परन्तु मरण समय ये मिध्यात्वसे युक्त हो जायें तो कड़वी तुम्बी में रखे हुए दूधके समान पर्थ होते हैं। मिध्यात्वके कारण विपरीत, श्रद्धानी बने हुए इस जीव तप, ज्ञान, चारित्र और वीर्य से गुण नष्ट होते हैं, और मिथ्यात्व रहित तप आदि मुक्तिके उपाय हैं । ७३४१ घोड़ेकी लीद दुर्गन्धयुक्त रहती है परन्तु बाहरसे वह स्निग्ध कान्तिसे युक्त होती है। अन्दर भी वह वैसी नहीं होती। उपर्युक्त दृष्टान्तके समान किसी पुरुषका मुनिका आचरण ऊपरसे अच्छा-निर्दोष दीख पड़ता है परन्तु उसके अन्दरके विचार कषायसे मलिन - अर्थात् गन्दे रहते है । यह बाह्याचरण उपवास, अवमोटर्यादिक तप उसकी कुछ उन्नति नहीं करता है क्योंकि इन्द्रिय कषायरूप, ३. निश्चयधर्मकी कथंचित् प्रधानता अन्तरंग मलिन परिणामोंसे उसका अभ्यन्तर तप नष्ट हुआ है, जैसे बगुला ऊपरसे स्वच्छ और ध्यान धारण करता हुआ दीखता परन्तु अन्तरंग में मत्स्य मारनेके गन्दे विचारोंसे युक्त ही होता है यो सा./यो./३९ बतउसंजमुसीलु जिय ए सव्व अकत्थु । जांब ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥ ३१। जब तक जीवको एक परमशुद्ध पवित्रभावका ज्ञान नहीं होता, तब तक व्रत, तप, संयम और फीस मे सम कुछ भी कार्यकारी नहीं है। आ. अनु./९५ शमबोधवृतपसां पाषाणस्येव गौरवं पुंसः पूज्यं महामणेरिव सदेव सम्यक्त्वयुक्त्यम् ॥१५॥ - पुरुषके सम्यसे रहित | शान्ति ज्ञान, चारित्र और तप इनका महत्त्व पत्थरके भारीपन के समान व्यर्थ है । परन्तु वही उनका महत्त्व यदि सम्यक्त्वसे सहित है तो मूल्यवान् मणिके महत्व के समान पूज्य है । पं. वि./१/५० अन्यस्यतान्तरहशं किमु लोकभक्त्या मोहं कृशीकुरुत किंवा कृमेन एतद्वयं यदि न कि बहुभिर्नियोगे, लेकि किमपरे प्रचुरैस्तपोभिः ॥५०॥ हे मुनिजन । सम्यग्ज्ञानरूप अभ्यन्रनेत्रका अभ्यास कीजिए। आपको लोकभक्तिसे क्या प्रयोजन है । इसके अतिरिक्त आप मोहको कृश करें। केवल शरीरको कृश करनेसे कुछ भी लाभ नहीं है। कारण कि यदि उक्त दोनों नहीं हैं तो फिर उनके बिना बहुत यम नियमोरी, कायक्लेशों से और दूसरे प्रपुर तपोंसे कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । - ब्र. सं./टी./ ४१/१६६/७ एवं सम्यक्त्वमाहात्म्येन शानतपश्चरणमतोपशमध्यानादिकं मिध्यात्वरूपमपि सम्बन्धवति तदभावे विषयुक्तदुग्धमिव सर्व वृथेति ज्ञातव्यम् । सम्यक्त्वके माहात्म्यसे मिथ्याज्ञान, तपश्चरण, व्रत, उपशम तथा ध्यान आदि हैं वे सम्यक् हो जाते हैं । और सम्यक्ess fair fवष मिले हुए दूधके समान ज्ञान तपश्चरमादि सब वृथा हैं, ऐसा जानना चाहिए। ३. निश्चयधर्मकी कथंचित् प्रधानता १. निश्चय धर्म ही भूतार्थ है स.सा./आ./२७५ ज्ञानमात्रं भूतार्थं धर्मं न श्रद्धते । = अभव्य व्यक्ति ज्ञानमात्र भूतार्थ धर्म की श्रद्धा नहीं करता । २. शुभ अशुभसे अतीत तीसरी भूमिका हो वास्तविक धर्म है प्र.सा./मू./१०१ परिणामो पुग्यं असुहो पाव ति भणियम परिणामो दो दुक्खयकारणं समये परके प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है और दूसरेके प्रति प्रवर्तमान नहीं है ऐसा परिणाम, आगममें दुःख क्षयका कारण कहा है । (प.प्र./२/७१) 1 स. श. / ८३ अपुण्यमवतैः पुण्यं वर्तेर्मोक्षस्तयोर्व्ययः । अवतानीव मोक्षार्थी मतान्यपि ततस्त्यजेत्। हिसादि अमतोंसे पाप तथा अहिंसादि मतों से पुण्य होता है। पुण्य व पाप दोनों कर्मोंका विनाश मोक्ष है। अतः मुमुक्षुको अबतकी भाँति बतोंको भी छोड़ देना चाहिए। (मो.सा./पो./१२) (बा.बनु./१०१) (ज्ञा./१२/००) यो.सा./अ./१/७२ सर्वत्र य' सदोदास्ते न च द्वेष्टि न च रज्यते । प्रत्यास्यानावतिकान्तः स दोषाणामचेतः ॥७२॥ जो महानुभाव सर्वत्र उदासी भाव रखता है, तथा न किसी पदार्थ में द्वेष करता है। और न राग, वह महानुभाव प्रत्याख्यानके रहित हो जाता है। द्वारा समस्त दोषों से दे० चारित्र /४/१ (प्रत्याख्यान व अप्रत्याख्यानसे अतीत अप्रत्याख्यानरूप तीसरी भूमिका ही अमृतकुम्भ है) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ४६९ ४. व्यवहार धर्मकी कथंचित् गौणता ३. एक शुद्धोपयोगमें धर्मके सब लक्षण गर्मित हैं प.प्र./टी./२/६/१०/८ धर्मशब्देनात्र निश्चयेन जीवस्य शुद्धपरिणाम एव ग्राह्य । तस्य तु मध्ये वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन सर्वे धर्मा अन्तर्भूता लभ्यन्ते। यथा अहिसालक्षणो धर्मः सोऽपि जीवशुद्धभाव विना न संभवति। सागारानगारलक्षणो धर्मः सोऽपि तथैव । उत्तमक्षमादिदश विधो धर्म, सोऽपि जीवशुद्धभावमपेक्षते। 'सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः' इत्युक्तं यद्धर्मलक्षणं तदपि तथैव। रागद्वेषमोहरहित परिणामो धर्म सोऽपि जीवशुद्धस्वभाव एव । वस्तुस्वभावो धर्म सोऽपि तथैव । .. अत्राह शिष्य। पूर्वसूत्रे भणित शुद्धोपयोगमध्ये संयमादय सर्वे गुणाः लभ्यन्ते। अतएव तु भणितमात्मन, शुद्धपरिणाम एव धर्मः, तत्र सर्वे धर्माश्च लभ्यन्ते । को विशेष । परिहारमाह । तत्र शुद्धोपयोगसंज्ञा मुख्या, अत्र तु धर्मसंज्ञा मुख्या एतावान् विशेषः । तात्पर्य तदेव। -यहाँ धर्म शब्दसे निश्चयसे जीवके शुद्धपरिणाम ग्रहण करने चाहिए। उसमें ही नयविभागरूपसे वीतरागसर्वज्ञप्रणीत सर्व धर्म अन्तर्भूत हो जाते है। वह ऐसे कि-१. अहिंसा लक्षण धर्म है सो जोवके शुद्धभावके बिना सम्भव नही। (दे० अहिसा/२/१)। २. सागार अनगार लक्षणवाला धर्म भी वैसा ही है। ३. उत्तमक्षमादि दशप्रकारके लक्षणवाला धर्म भी जीवके शुद्धभावकी अपेक्षा करता है। ४. रत्नत्रय लक्षणवाला धर्म भी वैसा ही है। ५. रागद्वेषमोहके अभावरूप लक्षणवाला धर्म भी जीवका शुद्ध स्वभाव ही बताता है। और ६. वस्तुस्वभाव लक्षणवाला धर्म भी बैसा ही है। प्रश्न-पहले सूत्र में तो शुद्धोपयोगमें सर्व गुण प्राप्त होते हैं, ऐसा बताया गया है, (दे० धर्म/३/७)। और यहाँ आत्माके शुद्ध परिणामको धर्म बताकर उसमें सर्व धर्मोकी प्राप्ति कही गयी। इन दोनों में क्या विशेष है। उत्तर-वहाँ शुद्धोपयोग संज्ञा मुख्य थी और यहाँ धर्म संज्ञा मुख्य है। इतना ही इन दोनों में विशेष है। तात्पर्य एक ही है। (प्र.सा./ता.व./११/१६) (और भी दे० आगे धर्म/३/७) बाह्यपरिग्रहका त्याग, गिरि-नदी-गुफामे बसना, ध्यान, आसन, अध्ययन आदि सन निरर्थक है। (अन.ध./४/२६/८७१) ६. निश्चय रहित व्यवहार धमसे शुद्धास्माकी प्राप्ति नहीं होती स. सा./म./१५६ मोत्तण णिच्छय बबहारेण विदुसा पवति । परमठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ। -निश्चयके विषयको छोडकर विद्वान व्यवहार [ शुभ कर्मों (त.प्र. टीका)] द्वारा प्रवर्तते है किन्तु परमार्थ के आश्रित योगीश्वरोके ही कर्मों का नाश आगममें कहा है। स.सा./आ./२०४/क १४२ क्लिश्यन्ता स्वयमेव दुष्करतर र्मोक्षोन्मुखैः कर्मभि', किश्यन्तां च परे महावततपोभारेण भग्नाश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं, ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्त क्षमं ते न हि। -कोई मोक्षसे पराड्मुख हुए दुष्करतर कर्मोके द्वारा स्वयमेव क्लेश पाते हैं तो पाओ और अन्य कोई जीव महावत और तपके भारसे बहुत समय तक भग्न होते हुए क्लेश प्राप्त करें तो करो; जो साक्षात मोक्षस्वरूप है, निरामय पद है और स्वयं संवेद्यमान है. ऐसे इस ज्ञानको ज्ञानगुणके बिना किसी भी प्रकारसे वे प्राप्त नहीं कर सकते। ज्ञा./२२/१४ मनः शुद्धचैव शुद्धि स्यादेहिनां नात्र संशयः । वृथा तद्वश्वतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ॥१४॥ =निःसन्देह मनकी शुद्धिसे ही जीवोंकी शुद्धि होती है, मनकी शुद्धिके बिना केवल कायको क्षीण करना वृथा है। ७. निश्चयधर्मका माहात्म्य प.प्र./मू./१/१०४ जइ णिविसद्धु वि कुवि करइ परमप्पइ अणुराउ । अग्गिकणी जिम कट्ठगिरी डहइ असेसु वि पाउ।११४। प.प्र././२/६७ सद्ध: संजमु सील तउ सुद्धहँ दसणु णाणू । सद्ध कम्मरखउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु ।६७१ = जो आधे निमेषमात्र भी कोई परमात्मामें प्रीतिको करे, तो जैसे अग्निकी कणी काठके पहाडको भस्म करती है, उसी तरह सब ही पापोंको भस्म कर डाले ।११४। शुद्धोपयोगियोंके ही संयम. शील और तप होते हैं, शुद्धोंके ही सम्यग्दर्शन और वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान होता है, शुद्धोपयोगियोंके ही कर्मोंका नाश होता है, इसलिए शुद्धोपयोग ही जगदमें मुख्य है। यो.सा./यो./६५ सागारु वि णागारु कु वि जो अप्पाणि वसेइ । सो लहू पावइ सिद्धि-सुहु जिणवरु एम भणेइ। -गृहस्थ हो या मुनि हो, जो कोई भी निज आत्मामें बास करता है, वह शीघ्र ही सिद्धिसुखको पाता है, ऐसा जिनभगवान्ने कहा है। न. च. वृ./४१२-४१४ एदेण सयलदोसा जीवाणासं तिरायमादीया । मोत्तण विविहभाव एत्थे विय संठिया सिद्धा । -इस (परम चैतन्य तत्त्वको जानने) से जीव रागादिक सकल दोषों का नाश कर देता है। और विविध विकल्पोंसे मुक्त होकर, यहाँ ही, इस संसारमें ही सिद्धवत रहता है। ज्ञा./२२/२६ अनन्तजन्यजानेककर्मबन्धस्थिति ढा। भावशुद्धि प्रपन्नस्य मुनेः प्रक्षीयते क्षणात । =जो अनन्त जन्मसे उत्पन्न हई दृढ कर्मबन्धकी स्थिति है सो भावशुद्धिको प्राप्त होनेवाले मुनिके क्षणभरमें नष्ट हो जाती है, क्योंकि कर्मक्षय करने में भावोंको शुद्धता ही प्रधान कारण है। ४. व्यवहार धर्मको कथंचित् गौणता १. व्यवहार धर्म ज्ञानी व अज्ञानी दोनोंको सम्भव है पं.का./त.प्र./१३६ अह रिसद्धादिषु भक्तिः, धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने बासनाप्रधाना चेष्टा,...अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवलभक्तिप्रधानस्या ४. निश्चय धर्मकी व्याप्ति व्यवहार धमके साथ है पर व्यवहारकी निश्चयके साथ नहीं भ.आ./मू./१३४६/१३०६ अभंतरसोधीए सुद्ध णियमेण बहिर करणं । अभंनरदोसेण हु कुणदि णरो बहिरंगदोस। अभ्यन्तर शुद्धिपर नियमसे बाह्यशुद्धि अवलम्बित है। क्योंकि अभ्यन्तर । मनके) परिणाम निर्मल होनेपर वचन व कायकी प्रवृत्ति भी निर्दोष होती है। ओर अभ्यन्तर (मनके) परिणाम मलिन होने पर वचन व काय की प्रवृत्ति भी नियमसे सदोष होती है। लि.पा./मू./२ धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। जाणेहि भावधम्मं किं ते लिगेण कायव्यो ।२। धर्मसे लिंग होता है, पर लिंगमात्रसे धर्म की प्राप्ति नहीं होती। हे भव्य ! तू भावरूप धर्म को जान । केवल लिंगसे तुझे क्या प्रयोजन है। (दे० लिंग/२) (भाबलिंग होनेपर द्रव्यलिंग अवश्य होता है पर द्रव्य लिंग होने पर भावलिग भजितव्य है ) प्र.सा./मू./२४५ समणा सुधुवजुता सहोवजुत्ता य होंति समयम्मि । प्र.सा./त.प्र./२४५ अस्ति तावच्छभोपयोगस्य धर्मेण सहैकार्थसमवायः । शास्त्रो मे ऐसा कहा है कि जो शुद्धोपयोगी श्रमण होते हैं वे शुभोपयोगी भी होते हैं। इसलिए शुभोपयोगका धर्मके साथ एकार्थ समवाय है। ५ निश्चय रहित व्यवहार धर्म वृथा है भा.पा./मू./ बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो । सयलो णाणज्मपणो णिरत्यओ भावरहियाण 1८६) =भावरहित व्यक्तिके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ४७० ४. व्यवहारवर्मको कथंचित् गौणता ज्ञानिनो भवति । उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थानराग- एसु च पसंगो मोहस्सेदाणि लिगाणि।- पदार्थका अयथाग्रहण, तिर्यच निषेधार्थतीवरागज्मरविनोदार्थ वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति । मनुष्यों के प्रति करुणाभाव और विषयोंकी संगति, ये सब मोहके चिह्न धर्ममें अर्थात व्यवहारचारित्रके अनुष्ठानमें भावप्रधान चेष्टा । ... हैं । (अर्थात पहला तो दर्शन मोहका, दूसरा शुभरागरूप मोहका तथा यह (प्रशस्त राग) वास्तवमें जो स्थूल लक्षवाले होनेसे मात्र भक्ति तीसरा अशुभरागरूप मोहका चिह्न है।) (पं. का.मू./१३५/१३६)। प्रधान हैं ऐसे अज्ञानीको होता है। उच्चभूमिकामें स्थिति प्राप्त न पं. बि./७/२५ तस्मात्तत्पदसाधनत्वधरणो धर्मोऽपि नो संमतः। यो की हो तब, अस्थान (अस्थिति) का राग रोकनेके हेतु अथवा भोगादि निमित्तमेव स पुन' पापं बुधैर्मन्यते ।-जो धर्म पुरुषार्थ तीब राग ज्वर मिटानेके हेतु कदाचित ज्ञानीको भी होता है। मोक्षपुरुषार्थका साधक होता है वह तो हमें अभीष्ट है, किन्तु जो धर्म (नि.सा./ता.व./१०५) केवल भोगादिका ही कारण होता है उसे विद्वज्जन पाप ही समझते २. व्यवहाररत जीव परमार्थको नहीं जानते स.सा./मू./४१३ पासंडीलिंगेम व गिहिलिगेस व बहुपयारेसु। कुव्वं ति ६. व्यवहारधर्म अकिंचित्कर है जे ममत्तं तेहि ण णायं समयसारं ।४१३। जो बहुत प्रकारके मुनिलिंगोंमें अथवा गृहीलिंगोंमें ममता करते हैं, अर्थात यह मानते हैं कि स, सा./आ./१५३ अज्ञानमेव बन्धहेतुः, तदभावे स्वयं ज्ञानभूतानां द्रव्य लिंग ही मोक्षका कारण है उन्होंने समयसारको नहीं जाना। ज्ञानिना बहिर्वतनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मासद्भावेऽपि मोक्षसद्भा वात् । -अज्ञान ही बन्धका कारण है, क्योंकि उसके अभावमें स्वयं ३. व्यवहारधर्ममें रुचि करना मिथ्यात्व है हो ज्ञानरूप होनेवाले ज्ञानियोंके बाह्य व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि पं. का./ता. वृ./१६४/२३/१६ यदि पुन शुद्धात्मभावनासमर्थोऽपि तां शुभ कर्मोंका असद्भाव होने पर भी मोक्षका सद्भाव है। त्यक्त्वा शुभोपयोगादेव मोक्षो भवतीत्येकान्तेन मन्यते तदा स्थूलपर ज्ञा./२२/२७ यस्य चित्तं स्थिरीभूतं प्रसन्नं ज्ञानवासितम् । सिद्धमेव समयपरिणामेनाज्ञानी मिथ्यावृष्टिर्भवति। यदि शुद्धात्माकी भावना- मुनेस्तस्य साध्य किं कायदण्डनैः ।२७। जिस मुनिका चित्त स्थिरीमें समर्थ होते हुए भी कोई उसे छोड़कर शुभोपयोगसे ही मोक्ष होता भूत है, प्रसन्न है,रागादिकी कलुषतासे रहित तथा ज्ञानकी वासनासे है, ऐसा एकान्तसे मानता है, तब स्थूल परसमयरूप परिणामसे युक्त है, उसके सब कार्य सिद्ध हैं, इसलिए उस मुनिको कायदण्ड देनेसे अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होता है। क्या लाभ है। ४. व्यवहार धर्म परमार्थसे अपराध अग्नि व दुःखस्व- ७. व्यवहार धर्म कथचित् हेय है स. सा./आ./२७१/क. १७३ सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं पु. सि. उ./२२० रत्नत्रयमिह हेतु निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस- जिनै स्तन्मन्ये व्यवहार एव निरिवलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः । वति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः। = इस लोकमें रत्नत्रयरूप सर्व वस्तुओं में जो अध्यवसान होते हैं वे सब जिनेन्द्र भगवान्ने धर्मनिर्वाणका ही कारण है. अन्य गतिका नहीं। और जो रत्नत्रयमें त्यागने योग्य कहे हैं, इसलिए हम ग्रह मानते है कि पर जिसका पुण्यका आस्रव होता है. यह अपराध शुभोपयोगका है। (और भी आश्रय है ऐसा व्यवहार ही सम्पूर्ण छुड़ाया है। देखो चारित्र /४/३)। प्र. सा./त. प्र./१६७ स्वसमयप्रसिद्धयर्थ पिब्जनलग्नतूलन्यासन्यायप्र. सा.त. प्र./७७,७६ यस्तु पुनः धर्मानुरागमवलम्बते स खल्लूपरक्त- मदिधताऽहंदादिविषयोऽपि क्रमेण रागरेणुरपसारणीय इति ।-जीवचित्तभित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासं सारं शरीरं दुखमेवा- को स्वसमयकी प्रसिद्धिके अर्थ, धुनकीमें चिपकी हुई रूईके न्यायसे, नुभवति ।७७। यः खलु...शुभोपयोगवृत्त्या बकाभिसारिकयेवाभिसार्य- अहंत आदि विषयक भी रागरेणु क्रमशः दूर करने योग्य है। माणो न मोहवाहिनोविधेयतामविकरति स किल समासन्नमहादुःख- ( अन्यथा जैसे वह थोड़ी-सी भी रूई जिस प्रकार अधिकाधिक रूईसंकटः कथमात्मानमविप्लुतं लभते ।७६। जो जीव (पुण्यरूप) धर्मा- को अपने साथ चिपटाती जाती है और अन्तमें धुनकीको धुनने नहीं नुरागपर अत्यन्त अवलम्बित है, वह जीव वास्तबमें चित्तभूमिके देती उसी प्रकार अल्पमात्र भी वह शुभ राग अधिकाधिक रागकी उपरक्त होनेसे (उपाधिसे रंगी होनेसे ) जिसने शुद्धोपयोग शक्तिका वृद्धिका कारण बनता हुआ जीवको संसारमें गिरा देता है।) तिरस्कार किया है, ऐसा वर्तता हुआ संसार पर्यन्त शारीरिक दु.ख ८. व्यवहार धर्म बहुत कर लिया अब कोई और मार्ग का ही अनुभव करता है ।७७। जो जीव धूर्त अभिसारिका की भाँति शुभोपयोग परिणतिसे अभिसार (मिलन) को प्राप्त हुआ मोहकी सेनाको वशवर्तिताको दूर नहीं कर डालता है, तो जिसके महादुःख अमृताशीति/५६ गिरिगहनगुहाद्यारण्यशून्यप्रदेश-स्थितिकरण निरोधसंकट निकट है वह, शुद्ध आत्माको कैसे प्राप्त कर सकता है ।७३। ध्यानतीर्थोपसेवा। पठनजपनहोमै ह्मणो नास्ति सिद्धिः, मृगय तदपरं प. का./त. प्र/१७२ अर्हदादिगतमपि रागं चन्दनगसङ्गतमग्निमिव त्वं भोः प्रकारं गुरुभ्यः।-गिरि, गहन, गुफा, आदि तथा शून्यवन सुरलोकादिक्लेशप्राप्तधात्यन्तमन्तहाय कल्पमानमाकलय्य...। = प्रदेशों में स्थिति, इन्द्रियनिरोध, ध्यान, तीर्थ सेवा, पाठ, जप, होम अर्हन्तादिगत रागको भी, चन्दनवृक्षसंगत अग्निकी भाँति देवलो आदिकोंसे ब्रह्म (व्यक्ति) को सिद्धि नहीं हो सकती। अतः हे कादिके क्लेश प्राप्ति द्वारा अत्यन्त अन्तर्वाहका कारण समझकर (.प्र. भव्य ! गुरुओंके द्वारा कोई अन्य ही उपाय खोज । सा./त. प्र/११) (यो. सा./अ./६/२५), (नि. सा./ता. वृ. १४४)। ९. व्यवहारको धर्म कहना उपचार है पं. का /त. प्र./१६८ रागकलिविलासमूल एवायमनर्थसंतान इति । स सा./आ./४१४ यः खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन 'द्विविध द्रव्य लिंग =यह (भक्ति आदि रूप रागपरिणति) अनर्थसंततिका मूल रागरूप भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः, स केवलं व्यवहार एव, न परक्लेशका विलास ही है। मार्थः । अनगार व सागार, ऐसे दो प्रकारके द्रव्य लिगरूप मोक्षमार्ग५. व्यवहार धर्म मोह व पापरूप है का प्ररूपण करना व्यवहार है परमार्थ नहीं। मो. मा. प्र.//३६७-१५, ३६५/२२ ; ३७२/३ : ३७६/६; ३७७/११ प्र. सा./मू./८५ अठे अजधागहणं करुणाभावो य तिरियमणुएसु । विस- निम्न भूमि में शुभोपयोग और शोपयोग का सहवर्तीपना होने से, हँढ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७९ ५. व्यवहारधर्मकी कथंचित् प्रधानता तथा सम्यम्दष्टि को शुभोपयोग होने पर निकट में ही शुद्धोपयोग की प्राप्ति हो जाती है इसलिये, व्रतादिरूप शुभोपयोग को उपचार से मोक्षमार्ग कह दिया जाता है। ५. व्यवहार धर्मको कथंचित् प्रधानता १. व्यवहार धर्म निश्चयका साधन है द्र.सं./टी./३१/१०२/६ अथ निश्चयरत्नत्रयपरिणत शुद्धात्मद्रव्यं तदबहिरङ्गसहकारिकारणभूतं पञ्चपरमेष्ठचाराधनं च शरणम् । निश्चय रत्नत्रयसे परिणत जो स्वशुद्धात्मद्रव्य है वह और उसका बहिरंगसहकारीकारणभूत पंचपरमेष्ठियोंका आराधन है। २. व्यवहारकी कथंचित् इष्टता प्र.सा./मू-/२६० असुभोवयोगरहिदा मुधुवजुता महोवजुत्ता वा। णित्यारयंति लोगं तेसु पसत्यं लहदि भत्ता।२६-जो अशुभोपयोग रहित वर्तते हुए शुद्धोपयुक्त अथवा शुभोपयुक्त होते हैं वे ( श्रमण ) लोगोंको तार देते हैं। उनकी भक्ति से प्रशस्त पुण्य होता है । २६०। दे. पुण्य/४/४ ( भव्य जीवोंको सदा पुण्यरूप धर्म करते रहना चाहिए।) कुरल काव्य /४/६ करिष्यामीति संकल्पं त्यक्त्वा धर्मी भवद्रुतम् । धर्म एव परं मित्रं यन्मृतौ सह गच्छति ।६। यह मत सोचो कि मैं धीरे-धीरे धर्म मार्गका अवलम्बन करू गा। किन्तु अभी बिना विलम्ब किये ही शुभ कर्म करना प्रारम्भ कर दो, क्योंकि, धर्म ही वह अमर भित्र है, जो मृत्युके समय तुम्हारा साथ देनेवाला होगा। स. स्तो/५८ पूज्यं जिनं त्वाय॑यतो जिनस्य, सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ । दोषायनाऽलं कणिका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशी 1। हे पूज्य श्री वासुपूज्य स्वामी ! जिस प्रकार विष की एक कणिका सागर के जल को दूषित नहीं कर सकती, उसी प्रकार आपकी पूजा में होने वाला लेशमात्र साबय योग उससे प्राप्त वहपुण्य राशि को दूषित नहीं कर सकता। रा.वा./६/३/9/५०७/३४ उत्कृष्टः शुभपरिणामः अशुभजघन्यानुभागबन्धहेतुत्वेऽपि भूयसः शुभस्य हेतुरिति शुभः पुण्यस्येत्युच्यते, यथा अल्पाकारहेतुरपि बहूपकारसद्भावदुपकार इत्युच्यते। यद्यपि शुभ परिणाम अशुभके जघन्य अनुभागबन्धके भी कारण होते हैं, पर बहुत शुभके कारण होनेसे 'शुभः पुण्यस्य' यह सूत्र सार्थक है। जैसे कि थोड़ा अपकार करनेपर भी बहुत उपकार करनेवाला उपकारक ही माना जाता है। प.प्र./टी./२/१५/१७७/४ अत्राह प्रभाकरभट्टः। तहि ये केचन पुण्यपापद्वयं समानं कृत्वा तिष्ठन्तीति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति । भगवानाह यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं.. समाधि लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा संमतमेव । यदि पुनस्तथाविधमवस्थामलभमाना अपि सन्तो गृहस्थावस्थायां दानपूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां षडावश्यकादिकं च त्यक्त्वोभयभ्रष्टाः सन्तः तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम्। -प्रश्न-यदि कोई पुण्य व पाप दोनोंको समान समझकर व्यवहार धर्मको छोड़ तिष्ठे तो उसे क्या दूषण है। उत्तर-यदि शुद्धात्मानुभूतिरूप समाधिको प्राप्त करके ऐसा करता है, तब तो हमें सम्मत ही है। और यदि उस प्रकारकी अवस्थाको प्राप्त किये बिना ही गृहस्थावस्थामें दान पूजादिक तथा साधुकी अवस्थामें षडावश्यकादि छोड देता है तो उभय भ्रष्ट हो जानेसे उसे दूषण ही है। प्र.सा /ता.व./२५०/३४४/१३ इदमत्र तात्पर्यम् । योऽसौ स्वशरीरपोषणार्थ शिष्यादिमोहेन वा सावद्य नेच्छति तस्येदं व्याख्यानं शोभते, यदि पुनरन्यत्र सावधमिच्छति, वैयावृत्त्यादिस्वकीयावस्थायोग्ये धर्मकार्ये नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्ति। यहाँ यह तात्पर्य समझना कि जो व्यक्ति स्वशरीर पोषणार्थ या शिष्यादिके मोहवश सावद्यकी इच्छा नहीं करते उनको ही यह व्याख्यान (बैयावृत्ति आदिमें रत रहनेवाला साधु गृहस्थके समान है) शोभा देता है। किन्तु जो अन्यत्र तो सावद्यको इच्छा करे और धर्म कार्यों के सावध का त्याग करे, उसे तो सम्यकत्व ही नहीं है। द.पा./टी./३/४/१३ इति ज्ञात्वा.. दानपूजादिसत्कर्म न निषेधनीय, आस्तिकभावेन सदा स्थातव्यमित्यर्थः । (द.पा./टी./२/१/२२) चा.पा-टी./८/१३३/१० एवमर्थ ज्ञात्वा ये जिनपूजनस्नपनस्तवननवजीर्ण चैत्यचैत्यालयोद्धारणयात्राप्रतिष्ठादिकं महापुण्यं कर्म प्रभावनाङ्ग गृहस्थाः सन्तोऽपि निषेधन्ति ते पापात्मनो मिथ्यादृष्टयो.. अनन्तसंसारिणो भवन्तीति...-१. ऐसा जानकर दान पूजादि सत्कर्म निषेध करने योग्य नहीं हैं, बल्कि आस्तिक भावसे स्थापित करने योग्य है। (द.पा./टी./१/५/२२) २. जिनपूजन, अभिषेक, स्तवन, नये या पुराने चैत्य चैत्यालयका जीर्णोद्धार, यात्रा प्रतिष्ठादिक महापुण्य कर्म रूप प्रभावना अंगको यदि गृहस्थ होते हुए भी निषेध करते हैं तो वे पापात्मा मिथ्यादृष्टि अनन्त संसारमें भ्रमण करते है। (पं.ध./७३६-७३६) ३. अन्यके प्रति व्यक्तिका कर्तव्य-अकर्तव्य ज्ञा./२-१०/२१ यद्यत्स्वस्यामिष्टं तत्तद्वाकचित्तकर्मभिः कार्यम् । स्वप्नेऽपि नो परेषामिति धर्मस्याग्रिम लिङ्गम् ।२१। -धर्मका मुख्य चिह्न यह है कि, जो जो क्रियाएँ अपनेको अनिष्ट लगती हों, सो सो अन्यके लिए मन वचन कायसे स्वप्नमें भी नहीं करना चाहिए। ४. ज्यवहार धर्मका महत्व आ.अनु./२२४,२२६ विषयविरतिः संगत्यागः कषायविनिग्रह', शमयमदमास्तत्त्वाभ्यासस्तपश्चरणोद्यम' । नियमितमनोवृत्तिर्भ क्तिजिनेषु दयालुता, भवति कृतिन' संसाराब्धेस्तटे निकटे सति ।२२४। समाधिगतसमस्ता' सर्वसावधदूरा', स्वहितनिहितचित्ताः शान्तसर्वप्रचाराः । स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः, कथमिह न विमुक्तेर्भाजनं ते विमुक्ता' ।२२६। - इन्द्रिय विषयोंसे विरक्ति, परिग्रहका त्याग, कषायोंका दमन, शम, यम, दम आदि तथा तत्त्वाभ्यास, तपश्चरणका उद्यम, मनको प्रवृत्ति पर नियन्त्रण, जिनभगवान में भक्ति, और दयालुता, ये सब गुण उसी पुण्यात्मा जीवके होते हैं, जिसके कि संसाररूप समुद्रका किनारा निकट आ चुका है।२२४। जो समस्त हेयोपादेय तत्त्वोंके जानकार, सर्वसावद्यसे दूर, आत्महितमें चित्तको लगाकर समस्त इन्द्रियव्यापारको शान्त करनेवाले है, स्व व परके हितकर बचनका प्रयोग करते हैं, तथा सब संकल्पोंसे रहित हो चुके हैं, ऐसे मुनि कैसे मुक्तिके पात्र न होंगे 1 ॥२२६। का.अ./मू./४३१ उत्तमधम्मेण जुदो होदि तिरिक्खो वि उत्तमो देवो। चंडालो वि सुरिंदो उत्तमधम्मेण संभवदि ।४३१३ =उत्तम धर्मसे युक्त तिथंच भी देव होता है, तथा उत्तम धर्मसे युक्त चाण्डाल भी सुरेन्द्र हो जाता है। ज्ञा./२-१०/४,१९ चिन्तामणिनिधिदिव्यः स्वर्धन. कल्पपादपाः । धर्मस्यैते श्रिया साद्ध मन्ये भृत्याश्चिरन्तनाः ।४। धर्मो गुरुश्च मित्र च धर्मः स्वामी च बान्धवः । अनाथवत्सलः सोऽय संत्राता कारणं विना । ११ । - लक्ष्मीसहित चिन्तामणि, दिव्य नवनिधि, कामधेनु और कल्पवृक्ष, ये सब धर्मके चिरकालसे किंकर है, ऐसा मैं मानता हूँ।४। धर्म गुरु है, मित्र है, स्वामी है, बान्धव है, हितू है, और धर्म ही बिना कारण अनाथोंका प्रीतिपूर्वक रक्षा करनेवाला है। इसलिए प्राणोको धर्म के अतिरिक्त और कोई शरण नहीं है ।१९। ६. निश्चय व व्यवहारधर्म समन्वय १. निश्चय धर्मकी प्रधानताका कारण प.प्र./मू./२/६७ सुद्धहं संजमु सीलु तउ सुद्धहँ दसणु णाणु । सुद्धहँ कम्म जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૭૨ धर्म क्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु ॥ ६७॥ वास्तवमें शुद्धोपयोगियों कोही संयम, शोस, तप, दर्शन, ज्ञान व कर्मका क्षय होता है इसलिए शुद्धोपयोग हो प्रधान है। (और भी दे० धर्म/३/२) २. व्यवहारधर्म निषेधका कारण मो.पा./मू./३१,३२ जो सुन्तो ववहारे सो जोड़ जग्गए सकजम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुतो अप्पणी कज्जे ॥३१॥ इदि जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं । झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदे हि । ३२। जो योगो व्यवहारमें सोता है सो अपने स्वरूपके कार्य में जागता है और जो व्यवहारविषै जागता है, वह अपने आत्मकार्य सोता है। ऐसा जानकर वह योगी सर्व व्यव हारको सर्व प्रकार छोड़ता है, और सर्वज्ञ देवके कहे अनुसार परमात्मस्वरूपको ध्याता है। (स. श. / ७८ ) प. प्र./मू./२/१६४ जामु सुहासुह-भावड़ा णवि सयल वि तुटंति । परम समाहि ण तामु मुणि केवलि एमु भणति । जब तक सकल शुभाशुभ परिणाम दूर नही हो जाते, तब तक रागादि विकल्प रहित शुद्ध चित्त में परम समाधि नहीं हो सकती, ऐसा केवली भगवान् कहते हैं । (at.6./7./20) न.च.वृ./३८१ विदो खलु मोधो वमहारचारिणो जन्हा । तम्हा णिदिकामो ववहारं चयदु तिविहेण । क्योंकि व्यवहारचारीको बन्ध होता है और निश्चयसे मोक्ष होता है, इसलिए मोक्षकी इच्छा करनेवाला व्यवहारका मन वचन कायसे त्याग करता है । पं. वि. /४/३२ निश्चयेन तदेकत्वमसममृतं परम् द्वितीयेन कृतं तं संमृतिर्व्यवहारतः ॥३२॥ निश्चयसे जो वह एकरण है नहीं अद्वैत है, जो कि उत्कृष्ट अमृत और मोक्ष स्वरूप है। किन्तु दूसरे (कर्म व शरीरादि) के निमिससे जो सामान उदित होता है. यह यबहारको अपेक्षा रखनेसे संसारका कारण होता है। ( ३० धर्म /४/नं०) उपवहार धर्मकी च करना मिध्यात्व है | ३| व्यवहार धर्म परमार्थ से अपराध व दुःखस्वरूप है |४| परमार्थ से मोह व पाप है |५| इन उपरोक्त कारणोसे व्यवहार त्यागने योग्य है । 201 दे० चारित्र / २६ अनिष्ट (स्वर्ग) फलदायी होने से सराग चारित्र हेय है। दे० चारित्र / ६ / ४ पहले अशुभ को छोडकर व्रतादि धारण करे। पीछे शुद्ध की उपलब्धि हो जाने पर उसे भी छोड़ दे। (और भी दे० चारित्र ७ / १० ) । ०२ शुद्ध मुमुक्षु अमतों कीप्रति को दे० धर्म / ५ / २२ शुद्धोपलब्धि होने पर शुभ का त्याग न्याय है, अन्यथा उभय पथ से भ्रष्ट होकर नष्ट होता है । ० धर्म /६/४। जिस प्रकार शुभ अशुभ का निरोध होता है उसी से प्रकार शुद्ध से शुभ का भी निरोध होता है। 1 दे० धर्म / ७ / ४ । व्यवहार धर्म मोक्ष का नहीं संसार (स्वर्ग) का कारण है। दे० धर्म / ७ / ५ । व्यवहार धर्मबन्ध (पुण्य बन्ध) का कारण है। दे० धर्म / ७ /६ । व्यवहार धर्म मोक्ष का नहीं बन्ध ( पुण्य बन्ध) का कारण है। दे० धर्म ध्यान / ६ / ६ | व्यवहार पूर्वक क्रम से गुणस्थान आरोहण होता है । दे० नय / ३ / ६ | स्वरूपाराधना के समय निश्चय व्यवहार के समस्त विकल्प या पक्ष स्वत' शान्त हो जाते हैं। ३. व्यवहार धर्मके निषेधका प्रयोजन का.अ./मू./४०६ एदे दं हप्पयारा पावं कम्मस्स णासया भणिया । पुण्णस्स य संजणया पर पुणत्थं ण कायव्वा । =ये धर्मके दश भेद पापकर्मका नाश करनेवाले तथा पुण्यकर्मका बन्ध करनेवाले कहे हैं। किन्तु ६. निश्चय व व्यवहारधर्म समन्वय इन्हें पुण्यके लिए नहीं करना चाहिए । पं.का.वा./१०२/२४६/६ मोक्षाभाषी भव्योऽईदादिविषयेऽपि स्वसंवित्तिलक्षणरागं मा करोतु । =मोक्षाभिलाषी भव्य अर्हन्तादि विषयों में स्वसंवित्ति लक्षणवाला राग मत करो, अर्थात् उनके साथ तन्मय होकर अपने स्वरूपको न भूलो। मो० मा० प्र० / ७ / ३७३ / ३ बतादि के त्याग मात्र से धर्म का लोप नहीं हो जाता । दे० मिध्यादृष्टि / ४ /४ व्यवहारधर्म का प्रयोजनविषयकषाय से बचना है। दे० चारित्र / ७ /६ व्रत पक्ष के त्याग मात्र से कर्म लिप्त नहीं हो जाते। ४. व्यवहारधर्मके त्यागका उपाय व क्रम प्र. सा./मू./१५१,१५६ जो इंदियादिविजई भवीय उबओगमप्पगं झादि । सम्मेहिं सो ण रंगदि किह तं पागा अपुचरति ११६११ अहोयजोगरहि होतो अगदवियम्हि होणं मन्त् णाणपगमप्पणं झाए | १५६ | =जो इन्द्रियादिका विजयी होकर उपयोग मात्र आत्माका ध्यान करता है कमौके द्वारा रंजित नहीं होता, उसे प्राण कैसे अनुसरण कर सकते हैं । १५१ । अन्य द्रव्यमें मध्यस्थ होता हुआ मैं अशुभोपभोग तथा शुभोपभोग युक्त न होकर ज्ञानात्मक आत्माको ध्याता हूँ। (इ. उ. २२) न.च.वृ./१४० जहदि णिरुद्ध अहं हे हम सहेन सुवेम । तम्हा एण कमेण य जोई ज्झाएउ णियआदं । ३४७| जिस प्रकार शुभसे अशुभका निरोध होता है। उसी प्रकार शुद्धसे शुभका निरोध होता है । इसलिए इस क्रमसे ही योगी निजात्माको ध्याओ अर्थात् पहिले अशुभको छोड़नेके लिए शुभका आचरण करना और पीछे उसे भी छोड़कर में स्थित होना और भी ३० चारित्र /०/१०) आ अनु. / १२२ अशुभाच्छुभमायातः शुद्धः स्यादयमागमात् । रवेरप्राप्तसंध्यस्य तमसो न समुद्गमः ॥१२२॥ - यह आराधक भव्य जीव आगमज्ञानके प्रभावसे अशुभसे शुभरूप होता हुआ शुद्ध हो जाता है, जैसे कि बिना सन्ध्या (प्रभात) को प्राप्त किये सूर्य अन्धकारका विनाश नहीं कर सकता । - पं.का/ता.वृ./१६७/२४०/१५ पूर्व विषयानुरागं त्यक्त्वा तदनन्तरं गुणस्थानसोपानक्रमेण रागादिरहितनिजशुद्धात्मनि स्थित्वा चार्हदादिविषयेऽपि रागस्त्याज्य इत्यभिप्रायः । =पहिले विषयोंके अनुरागको छोड़कर, तदनन्तर गुणस्थान सोपानके क्रमसे रागादि रहित निजशुद्धात्मामें स्थित होता हुआ अर्हन्तादि विषयोंनें भी रागको छोड़ना चाहिए ऐसा अभिप्राय है। प. प्र./टी./२/३१/१२/३ यद्यपि व्यवहारेण सविकल्पावस्थायो पित्तस्थिरीकरणार्थ देवेन्द्रचकनपदिभिभूतिविशेषकारण परंपरा पञ्चपरमेष्ठिरूपस्तववस्तुस्तव गुणस्तवादिकं शुद्धात्मप्राप्तिहेतुभूतं वचनेन स्तुत्यं भवति मनसा च तदक्षररूपादिकं प्राथमिकानां ध्येयं भवति तथापि पूर्वोक्तनिश्चयरत्रयपरिणतिकाले केवलज्ञानाथनन्तगुणपरिणतः स्वशुद्धात्मैव ध्येय इति यद्यपि व्यवहारसे सविकल्पावस्थामें चित्तको स्थिर करनेके लिए, देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि विभूति विशेषको कारण तथा परम्परासे शुद्धात्माकी प्राप्तिका हेतुभूत पंचपरमेष्ठीका वचनों द्वारा रूप वस्तु व गुण स्तवनादिक तथा मन द्वारा उनके वाचक अक्षर व उनके रूपादिक प्राथमिक जनों के लिए ध्येय होते हैं, तथापि पूर्वोक्त निश्चय रत्नत्रयरूप परिणति केवलज्ञान आदि अनन्तगुणपरिणत स्मशुद्धात्म ही ध्येय है । ५. व्यवहारको उपादेय कहनेका कारण प्र.सा./त.प्र./२४४ एवमेव शुद्धात्मानुरागयोगप्रशस्त पर्यारूप उपवर्णितः शुभोपयोगः तदयं... गृहिणां तु समस्त विरतेरभावेन कषायसद्भावामानोऽपि स्फटिकस पार्क इमे धस रागसंयोगेन शुद्धा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ ६. निश्चय व व्यवहारधर्म समन्वय स्मनोऽनुभवाकमत' परमनिर्वाणकत्वाच्च मुख्यः । = इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त ( अर्थात सम्यग्दृष्टिकी) प्रशस्तचर्यारूप जो यह शुभोपयोग वणित किया गया है वह शुभोपयोग (श्रमणोंवे तो गौण होता है पर ) गृहस्थोंके तो, सर्वविरतिके अभावसे शुद्धात्मप्रकाशनका अभाव होनेसे कषायके सदभावके कारण प्रवर्तमान होता हुआ भी मुख्य है, क्योंकि जैसे ईन्धनको स्फटिकके सम्पर्कसे सूर्यके तेजका अनुभव होता है और वह क्रमशः जल उठता है, उसी प्रकार गृहस्थको रागके संयोगसे शुद्धात्माका अनुभव होता है, और क्रमशः परम निर्वाणसौख्यका कारण होता है। (प.प्र./टी./२/ १११-४/२३१/१५) पं.वि./६/३० चारित्रं यदभाणि केवलदृशा देव त्वया मुक्तये, पुंसा तरवलु मादृशेन विषमे काले कलौ दुर्धरम् । भक्तिर्या समभूदिह त्वयि दृढा पुण्य' पुरोपाजितः संसारार्णवतारणे जिन ततः सैवास्तु पोतो मम ।३० = हे जिन देव केवलज्ञानी। आपने जो मुक्तिके लिए चारित्र बतलाया है, उसे निश्चयसे मुझ जैसा पुरुष इस विषम पंचम कालमें धारण नहीं कर सकता है। इसलिए पूर्वोपार्जित महान पुण्यसे यहाँ जो मेरी आपके विषयमें दृढभक्ति हुई है वही मुझे इस संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिए जहाजके समान होवे। (और भी दे० मोक्षमार्ग/४/५-६ व्यबहार निश्चयका साधन है) १. व्यवहार धर्म साधुको गौण व गृहस्थको मुख्य होता है दे० वैयावृत्त्य/८ (बाल वृद्ध आदि साधुओंको वैयावृत्त्य करना साधुओं के लिए गौण है और गृहस्थोके लिए प्रधान है ।) दे० साधु/३/५ [ दान पूजा आदि गृहस्थोंके लिए प्रधान है और ध्याना ध्ययन मुनियोंके लिए। दे० संयम/१/६ [बत समिति गुप्ति आदि साधुका धर्म है और पूजा दया दान आदि गृहस्थोका।) दे० धर्म/६/५ ( गृहस्थोंको व्यवहार धर्मको मुख्यताका कारण यह है कि उनके रागकी प्रकर्षताके कारण निश्चय धर्मकी शक्तिका वर्त मानमें अभाव है। प.प्र./टी./२/१३३/२५०/५ इदमत्र तात्पर्यम् । गृहस्थेनाभेदरत्नत्रयपरस्वरूपमुपादेयं कृत्वा भेदरत्नत्रयात्मकः श्रावकधर्म' कर्तव्य., यतिना तु निश्चयरत्नत्रये स्थित्वा व्यावहारिकरत्नत्रयमलेन विशिष्टतपश्चरणं कर्त्तव्यं । - इसका यह तात्पर्य है कि गृहस्थ तो अभेद रत्नत्रयके स्वरूपको उपादेय मानकर भेदरत्नत्रयात्मक श्रावकधर्मको करे और साधु निश्चयरत्नत्रयमें स्थित होकर व्यावहारिक रत्नत्रयके बलसे विशिष्ट तपश्चरण करे। पं.का./ता,वृ./१७२/२४७/१२ तच्च वीतरागत्वं निश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकरूपेण परस्परसापेक्षाभ्यामेव भवति मुक्तिसिद्धये न पुननिरपेक्षाभ्यामिति वार्तिकम् । तद्यथा--ये केचन...निश्चयमोक्षमार्गनिरपेक्ष केवलशुभानुष्ठानरूपं व्यवहारनयमेव मोक्षमार्ग मन्यन्ते तेन तु सुरलोकादिक्लेशपरंपरया संसार परिभ्रमन्तीति, यदि पुन. शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं निश्चयमोक्षमार्ग मन्यन्तै निश्चयमोक्षमार्गानुष्ठानशक्त्यभावान्निश्चयसाधक शुभानुष्ठानं च कुर्वन्ति तहि...परंपरया मोक्षं लभन्ते; इति व्यवहार कान्तनिराकरणमुख्यत्वेन वाक्यद्वयं गतं । येऽपि केवल निश्चयनयावलम्बिनः सन्तोऽपि...शुद्धात्मानमलभमाना अपि तपोधनाचरणयोग्यं षडावश्यकाद्यनुष्ठानं श्रावकाचरणयोग्यं दानपूजाद्यनुष्ठानं च दूषयन्ते तेऽप्युभयभ्रष्टा सन्तो...पापमेव मध्नन्ति । यदि पुनः शुद्धात्मानुष्ठानुरूपं निश्चयमोक्षमार्ग तत्साधक व्यवहारमोक्षमार्ग मन्यन्ते तहि चारित्रमोहोदयात् शक्त्यभावेन शुभाशुभानुष्ठानरहितापि यद्यपि शुद्धात्मभावनासापेक्षशुभानुष्ठानरतपुरुषसदृशा न भवन्ति तथापि...परंपरया मोक्षं च लभन्ते इति निश्चयैकान्तनिराकरणमुख्यत्वेन वाक्यद्वयं गतं । ततः स्थितमेतनिश्चयव्यवहारपरस्परसाध्यसाधकभावेन रागादिविकल्परहितपरमसमाधिमलेनैव मोक्षं लभन्ते। -वह वीतरागता साध्यसाधकभाबसे परस्पर सापेक्ष निश्चय व व्यवहार नयोंके द्वारा ही साध्य है निरपेक्षके द्वारा नहीं। वह ऐसे कि-(नयोंकी अपेक्षा साधकोंको तीन कोटियों में विभाजित किया जा सकता है-केवल व्यवहारावलम्बी, केवल निश्चयावलम्बी और नयातीत। इनमें से भी पहिलेके दो भेद हैं-निश्चय निरपेक्ष व्यवहार और निश्चय सापेक्ष व्यवहार । इसी प्रकार दूसरेके भी दो भेद हैं-व्यवहार निरपेक्ष निश्चय और व्यवहार सापेक्ष निश्चय। इन पाँच विकल्पोंका ही यहाँ स्वरूप दर्शाकर विषयका समन्वय किया गया है।) १. जो कोई निश्चय मोक्षमार्गसे निरपेक्ष केवल शुभानुष्ठानरूप व्यवहारनयको ही मोक्षमार्ग मानते हैं, वे उससे सुरलोकादिकी क्लेशपरम्पराके द्वारा संसारमें ही परिभ्रमण करते हैं। २ यदि वे ही श्रद्धामें शुद्धानुभूति लक्षणवाले मोक्षमार्ग को मानते हुए, चारित्रमें निश्चयमोक्षमार्गके अनुष्ठान (निर्विकल्प समाधि) की शक्ति का अभाव होनेके कारण; निश्चयको सिद्ध करनेवाले ऐसे शुभानुष्ठानको करें तो परम्परासे मोक्ष प्राप्त करते है। इस प्रकार एकान्त व्यवहारके निराकरणकी मुख्यतासे दो विकल्प कहे। ३ जो कोई केवल निश्चयनयावलम्बी होकर, शुद्धात्माकी प्राप्ति न होते हुए भी, साधुओंके योग्य षडावश्यकादि अनुष्ठानको और श्रावकोंके योग्य दान पूजादि अनुष्ठानको दूषण देते हैं, तो उभय भ्रष्ट हुए केवल पापका ही बन्ध करते है। ४. यदि वे ही श्रद्धामें शुद्धात्माके अनुष्ठानरूप निश्चयमोक्षमार्गको तथा उसके साधक व्यवहार मोक्षमार्गको मानते हए; चारित्रमें चारित्रमोहोदयवश शुद्धचारित्रको शक्तिका अभाव होने के कारण, अन्य साधारण शुभ व अशुभ अनुष्ठानसे रहित वर्तते हुए भी; शुद्धास्मभावना सापेक्षा शुभानुष्ठानरत पुरुषके सदृश न होनेपर भी, परम्परासे मोक्षको प्राप्त करते है। इस प्रकार एकान्त निश्चयके निराकरणकी मुख्यतासे दो विकल्प कहे। ५. इसलिए यह सिद्ध होता है कि निश्चय व व्यवहारके साध्यसाधकभावसे प्राप्त निर्विकल्प समाधि के बलसे मोक्ष प्राप्त करते हैं। (और भी दे० चारित्र/७/७ ) ( और भी दे० मोक्षमार्ग/४/६) ७. उपरोक्त नियम चारित्रकी अपेक्षा है श्रद्धाकी अपेक्षा नहीं प्र. सा./पं. जयचन्द/२५४ दर्शनापेक्षासे तो श्रमणका तथा सम्यग्दृष्टि गृहस्थको शुद्धात्माका ही आश्रय है। परन्तु चारित्रकी अपेक्षासे श्रमणके शुद्धात्मपरिणति मुख्य होनेसे शुभोपयोग गौण होता है और सम्यग्दृष्टि गृहस्थके मुनि योग्य शुद्धपरिणतिको प्राप्त न हो सकनेसे अशुभ वंचनार्थ शुभोपयोग मुख्य है।। मो.मा.प्र./७/३३२/१४ सो ऐसी (वीतराग ) दशा न होई, तावत् प्रशस्त रागरूप प्रवत्तौ। परन्तु श्रद्धान तो ऐसा राखौ-यह (प्रशस्तराग) भी बन्धका कारण है, हेय है। श्रद्धान विषयाको मोक्षमार्ग जानें मिथ्यादृष्टि ही है। ८. निश्चय व व्यवहार परस्पर सापेक्ष ही धर्म है। निरपेक्ष नहीं पं. वि./4/६० अन्तस्तत्त्वविशुद्धात्मा बहिस्तत्त्वं दयागिषु । द्वयोः सन्मीलने मोक्षस्तस्माइद्वितीयमाश्रयेत् ।६० -अभ्यन्तर तत्त्व तो विशुद्धात्मा और बाह्य तत्त्व प्राणियोंकी दया, इन दोनोंके मिलने पर मोक्ष होता है । इसलिए उन दोनोंका आश्रय करना चाहिए। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-६० Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. निश्चय व्यवहारधर्म में कथंचित् मोक्ष व बन्धका कारणपना १ निश्चयधर्म साक्षात् मोक्षका कारण स.सा./मू./१५६ मोत्तूण णिच्छयट्ठ ववहारेण विदुसा पवति । परमठमस्सिदाण हु जदीण कम्मरवओ विहिओ। -निश्चयके विषयको छोड़कर विद्वान् लोग व्यवहार [बत तप आदि शुभकर्म(टीका)] द्वारा प्रवर्तते है। परन्तु परमार्थ के आश्रित यतीश्वरोंके हो कर्मोंका नाश आगममें कहा है। यो.सा./यो./१६,४८ अप्पा-दसणु एक्कु परु अण्णु ण कि पि वियाणि । मोक्रवहँ कारण जोइया णिच्छइँ पहउ जाणि ।१६। रायरोस वे परिहरिवि जो अप्पाणि वसेइ । सौ घम्सु वि जिण उत्तियउ जो पचमगइ णेइ ।४८१ =हे योगिन् । एक परम आत्मदर्शन ही मोक्षका कारण है, अन्य कुछ भो मोक्षका कारण नहीं, यह तू निश्चय समझ ।१६। जो राग और द्वेष दोनोंको छोडकर निजात्मामे वसना है. उसे ही जिनेन्द्रदेवने धर्म कहा है। वह धर्म पंचम गतिको ले जानेवाला है। (नि.सा ता.वृ./१८ क ३४) । प.प्र./मू./२/३८/१५६ अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलोणु। संवरणिज्जर जाणि तुई सयल वियप्प विहीणु । मुनिराज जबतक आत्मस्वरूपमे लीन हुआ रहता है, सकल विकल्पोसे रहित उस मुनिको ही तू संवर निजरा स्वरूप जान । न.च.व./३६६ सुद्धसवेयणेण अप्पा मुचेइ कम्म णोकम्म। - शुद्ध सवेदनसे आत्मा कर्मों व नोकर्मोसे मुक्त होता है (पं.वि./१/८१)। २. केवल व्यवहार मोक्षका कारण नहीं स.सा./मू. १५३ वदणियमाणि धरता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता।। परमबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विदंति ।१५। -व्रत और नियमोको धारण करते हुए भी तथा शील और तप करते हुए भी जो परमार्थ से बाहर है, वे निर्वाणको प्राप्त नहीं होते (सू.पा./मू./१५); (यो.सा./यो./मू.'१/१८): (यो सा.अ. १/४८)। र.सा./७० ण हुदडइ कोहाई देहं दंडेइ कह खबइ कम्मं । सप्पो कि मुवइ तहा वन्मिउ मारिउ लोए ।७०। -हे बहिरात्मा! तू क्रोध, मान, मोह आदिका त्याग न करके जो व्रत तपश्चरणादिके द्वारा शरीरको दण्ड देता है, क्या इससे तेरे कर्म नष्ट हो जायेंगे। कदापि नहीं। इस जगदमें क्या कभी बिलको पीटनेसे भी सर्प मरता है। कदापि नहीं। ३. व्यवहारको मोक्षका कारण मानना अज्ञान है पं.का./मू./१६५ अण्णाणादो पाणी जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो। हवदि त्ति दुक्खमोक्ख परसमयरदो हवदि जीवो। -शुद्धसंप्रयोग अर्थात शुभ भक्तिभावसे दुःखमोक्ष होता है, ऐसा यदि अज्ञानके कारण ज्ञानी माने तो वह परसमयरत जीव है। ४. वास्तव में व्यवहार मोक्षका नहीं संसारका कारण है भा.पा./मू./८४ अह पुण अप्पा णिच्छदि पुण्णाई णिरवसेसाणि । तह विण पावदि सिद्धि संसारत्यो पुणो भमदि । = जो आत्माको तो प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं करते और सर्व ही प्रकारके पुण्यकार्योको करते हैं, वे भो मोक्षको प्राप्त न करके संसारमे ही भ्रमण करते हैं (स.सा./मू./१५४)। बा.अणु./५१ पार पज्जएण दु आसवकिरियाए णस्थि णिव्याण । संसारगमणकारणमिदि णिदं आसवो जाण । कर्मोका आस्रव करनेवाली (शुभ) क्रियासे परम्परासे भी निर्वाण नहीं हो सकता। इसलिए संसारमें भटकानेवाले आस्तवको बुरा समझना चाहिए। ७. निश्चय व्यवहारधर्ममें कचित् मोक्ष ब" नव.व./२६६ असुह मुहं चिय कम्म दुविहं तं दव्वभावभेयगयं । तं पिय पड्डुच्च मोह संसारो तेण जीवस्स २६६। = द्रव्य व भाव दोनो प्रकारके शुभ व अशुभ कर्मोसे मोहके निमित्तसे उत्पन्न होने के कारण, संसार भ्रमण होता है (न.च.वृ./३७६) । ५. व्यवहारधर्म बन्धका कारण है न.च.व./२८४ ण हु सुहममुहं हुतं पिय बंधो हवे णियमा । न.च../३६६ असुद्धसंवेयणेण अप्पा बंधेइ कम्म णोकम्मं । --शुभ और अशुभ रूप अशुद्ध सवेदनसे जीवको नियमसे कर्म व नोकर्म का बन्ध होता है (पं.वि./१/८१)। पं.ध./उ./५५८ सरागे वीतरागे वा नूनमौदयिकी क्रिया। अस्ति बन्धफलावश्यं मोहस्यान्यतमोदयात् । -मोहके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण, सरागकी या वीतरागकी जितनी भी औदयिक क्रियाएँ है वे अवश्य ही बन्ध करनेवाली है। ६. केवल व्यवहारधर्म मोक्षका नहीं बन्धका कारण है पं.का.मू./१६६ अहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो । धदि पुण्णं बहुसो ण हु सो कम्मवरवयं कुणदि । - अरहंत, सिद्ध चैत्य, प्रवचन ( शास्त्र) और ज्ञानके प्रति भक्तिसम्पन्न जीव बहुत पुण्य बाँधता है परन्तु वास्तवमें कोका क्षय नहीं करता (प.प्र././२/६१); विसु.श्रा./४०)। स.सा./मू./२७५ सदहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि । धम्म भोगणिमित्तं न तु स कम्मक्रवयणिमित्तं । - अभव्य जीव भोगके निमित्तरूप धर्म की (अर्थात व्यवहारधर्मकी) ही श्रद्धा, प्रतीति व रुचि करता है. तथा उसे ही स्पर्श करता है, परन्तु कर्मक्षयके निमित्तरूप (निश्चय) धर्म को नहीं। ध.१३/५,४,२८/८८/११ पराहीणभावेण किरिया कम्म किण्ण कीरदे । ण तहा किरियाकम्म कुणमाणस्स कम्मवखयाभावादो। जिणिदादिअच्चासणदुवारेण कम्मबंधसंभवादो च । - प्रश्न-पराधीन भावसे क्रिया-कर्म क्यों नहीं किया जाता • उत्तर-नहीं, क्योकि, उस प्रकार क्रियाकर्म करनेवालेके कर्मोंका क्षय नहीं होता और जिनेन्द्रदेव आदिकी आसादना होतेसे कर्मोंक, बन्ध होता है। ७. व्यवहारधर्म पुण्यबन्धका कारण है प्र.सा./मू./१५६ उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स सचयं जादि । असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमस्थि । - उपयोग यदि शुभ हो तो जीवका पुण्य संचयको प्राप्त होता है, और यदि अशुभ हो तो पाप संचय होता है । दोनोंके अभावमें सचय नही होता (प्र.सा./म./ १८१)। पं.का./मू./१३५ रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदा य परिणामो। चित्तम्हि णस्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसव दि । - जिस जीवको प्रशस्त राग है, अनुकम्पा युक्त परिणाम हैं और चित्तमे कलुषताका अभाव है उस जीवको पुण्यका आस्रव होता है (यो.सा./अ./४/३७) । का.अ./मू./४८ विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहि संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो जिंदण गरहाहिं संजुत्तो। सम्यग्दृष्टि, व्रती, उपशमभावसे युक्त तथा अपनी निन्दा और गहीं करनेवाले विरले जन ही पुण्यकर्मका उपार्जन करते हैं। पं.का./ता.व./२६४/२३७/११ स्वभावेन मुक्तिकारणान्यपि पञ्चपरमेष्ट्यादिप्रशस्तद्रव्याश्रितानि साक्षात्पुण्यबन्धकारणानि भवन्ति । सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय यद्यपि स्वभावसे मोक्षके कारण है, परन्तु यदि पंचपरमेष्ठी आदि प्रशस्त द्रव्यों के आश्रित हो तो साक्षात पुण्यबन्धके कारण होते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७५ ७. निश्चय व्यवहारधर्ममे कथंचित मोक्ष " ८. परन्तु सम्बक म्यवहारधर्मसे उत्पन्न पुण्य विशिष्ट प्रकारका होता है द्र.सं./टी./३६/१५२/५ तद्भवे तीर्थंकरप्रकृत्यादि विशिष्टपुण्यबन्धकारणं भवति । -(सम्यग्दृष्टिकी शुभ क्रियाएँ) उस भवमें तीर्थकर प्रकृति आदि रूप विशिष्ट पुण्यबन्धकी कारण होती है (द्र.सं/टी/३८/ १६०/२); (प्र.सा./ता.व./६/८/१०), (प.प्र./टी./२/६/७१/१६६/६)1 प.प्रा./टी./२/६०/१२/१ इदं पूर्वोक्तं पुण्यं भेदाभेदरत्नत्रयाराधना रहितेन दृष्ट श्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबन्धपरिणामसहितेन जीवेन यदुपार्जितं पूर्वभवे तदेव ममकाराहंकारं जनयति, बुद्धिविनाशं च करोति । न चे पुनः सम्यक्त्वादिगुणसहितं भरतसगररामपाण्डवादिपुण्यबन्धवत् । यदि पुनः सर्वेषां मदं जनयति तर्हि ते कथ पुण्यभाजनाः सन्तो मदाहंकारादिविकल्पं त्यक्त्वा मोक्षं गता इति भावार्थः। -जो यह पुण्य पहले कहा गया है वह सर्वत्र समान नहीं होता। भेदाभेद रत्नत्रयकी आराधनासे रहित तथा दृष्ट श्रुत व अनुभूत भोगौकी आकांक्षारूप निदानबन्धवाले परिणामोंसे सहित ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा जो पूर्वभवमें उपाजित किया गया पुण्य होता है, वह ही ममकार व अहंकारको उत्पन्न करता है तथा बुद्धिका विनाश करता है। परन्तु सम्यक्त्व आदि गुणोंके सहित उपाजित पुण्य ऐसा नहीं करता, जैसे कि भरत, सगर, राम, पाण्डव आदिका पुण्य । यदि सभी जीवोंका पुण्य मद उत्पन्न करता होता तो पुण्यके भाजन होकर भी वे मद अहंकारादि विकल्पोंको छोड़कर मोक्ष कैसे जाते. (और भी-दे० मिथ्याष्टि/४); (मिथ्याष्टिका पुण्य पापानुबन्धी होता है पर सम्यग्दृष्टिका पुण्य पुण्यानुबन्धी होता है)। ९. सम्यक व्यवहारधर्म निजराका तथा परम्परा मोक्षका कारण है ... परन्तु निश्चय सहित ही व्यवहार मोक्षका कारण है रहित नहीं स.सा./म./१५६ मोत्तूण णिच्छयह्र बवहारेण विदुसा पवट्ट'ति । परमठमस्सिदाण दु जदीण कम्मस्वओ विहिओ। -निश्चयके विषयको छोडकर विद्वान व्यवहारके द्वारा प्रवर्तते हैं. परन्तु परमार्थ के आश्रित यतीश्वरोंके ही कोंका नाश आगममें कहा गया है। स.श./७१ मुक्तिरेकान्तिकी तस्य चित्ते यस्याचलाधृतिः। तस्य नै कान्तिको मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृतिः। -जिस पुरुषके चित्तमें आत्मस्वरूपकी निश्चल धारणा है, उसकी नियमसे मुक्ति होती है, और जिस पुरुषको आत्मस्वरूपमें निश्चल धारणा नहीं है, उसकी अवश्यम्भाविनी मुक्ति नहीं होती है ( अर्थात् हो भी और न भी हो)। प प्र./टी./२/१६१ यदि निजशुद्धात्मैवोपादेय इति मंत्वा तत्साधकस्बेन तदनुकूलं तपश्चरणं करोति, तत्परिज्ञानसाधकं च पठति तदा परम्परया मोक्षसाधकं भवति, नो चेत पुण्यबन्धकारणं तमेवेति । - यदि 'निज शुद्धात्मा ही उपादेय है' ऐसी श्रद्धा करके, उसके साधकरूपसे तदनुकूल तपश्चरण (चारित्र) करता है, और उसके ही विशेष परिज्ञानके लिए शास्त्रादि पढता है तो वह भेद रत्नत्रय परम्परासे मोक्षका साधक होता है। यदि ऐसा न करके केवल बाह्य क्रिया करता है तो वही पुण्यबन्धका कारण है । (पं.का। ता.व./१७२/२४६/8); (प्र.सा./ता.वृ./२५५/३४६/१) । ११. यद्यपि मुख्यरूपसे पुण्यबन्ध ही होता पर परम्पस से मोक्षका कारण पड़ता है प्र.सा./ता.व./२५५/३४८/२० यदा पूर्वसूत्रकथितन्यायेन सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धो भवति परंपरया निर्वाणं च । - जब पूर्वसूत्रमें कहे अनुसार सम्यनत्वपूर्वक शुभोपयोग होता है तन मुख्यरूपसे तो पुण्यबन्ध होता है, परन्तु परंपरासे निर्वाण भी होता है। 'निज शुद्धामाति, नो चेन पुण्याकं च पठति तदा प्र.सा./मू. प्रक्षेपक/-२ तं देवदेवं जदिवरवसहं गुरु तिलोयस्स । पणमति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्रवयं जंति। -जो त्रिलोकगुरु यतिवरवृषभ उस देवाधिदेवको नमस्कार करते हैं, वे मनुष्य अक्षय मुख प्राप्त करते हैं। भाव संग्रह/४०४,६१० सम्यग्दृष्टे. पुण्यं न भवति संसारकारण नियमाव। मोक्षस्य भवति हेतु. यदि च निदानं न करोति ।४०४। आवश्यकादि कर्म वैयावृत्त्यं च दानपूजादि। यत्करोति सम्यग्दृष्टिस्तत्सर्व निर्जरानिमित्तम् ।६१० सम्यग्दृष्टिका पुण्य नियमसे] संसारका कारण नहीं होता, बलिक यदि वह निदान न करे तो मोक्षका कारण है।४०४। आवश्यक आदि या वैयावृत्ति या दान पूजा आदि जो कुछ भी शुभक्रिया सम्यग्दृष्टि करता है, वह सबकी सब उसके लिए निर्जराकी निमित्त होती है। पु.सि.उ./२११ असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः। सविषक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न अन्धनोपायः ।२१। -भेदरत्नत्रयकी भावनासे जो पुण्य कर्मका वन्ध होता है वह यद्यपि रागकृत है, तो भी वे मिथ्यादृष्टिकी भाँति उसे संसारका कारण नहीं है बल्कि परम्परासे मोक्षका ही कारण है। नि.सा./ता.वृ./७६/क. १०७ शीलमपवर्गयोषिदनमुखस्यापि मूलमाचार्याः । प्राहुर्व्यवहारात्मकवृत्तमपि तस्य परम्पराहेतुः । आचार्योंने शीलको मुक्तिसुन्दरीके अनंगसुखका मूल कारण कहा। व्यवहारादमक चारित्र भी उसका परम्परा कारण है। 1.सं./टी./३६/१५२/६ पारम्पर्येण मुक्तिकारणं चेति। -(वह विशिष्ट पुण्यबन्ध ) परम्परासे मुक्तिका कारण है। १२. परम्परा मोक्षका कारण कहनेका तात्पर्य पं.का./ता../१७०/२४३/१५ तेन कारणेन यद्ययनन्तसंसारछेदं करोति कोऽप्यचरमदेहस्तद्भवे कर्मक्षयं न करोति तथापि...भवान्तरे पुनर्देवेन्द्रादिपदं लभते। तत्र...पञ्चविदेहेषु गत्वा समवशरणे वीतरागसर्वज्ञानं पश्यति...तदनन्तरं विशेषेण दृढधर्मो भूत्वा चतुर्थ गुणस्थानयोग्यमात्मभावनामपरित्यजन् सन् देवलोके कालं गमयति ततोऽपि जीवितान्ते स्वर्गादागत्य मनुष्यभवे चक्रमादिविभूति लब्ध्वापि पूर्वभवभावितशुद्धात्मभावनामलेन मोहं न करोति ततश्च विषयमुख परिहत्य जिनदीक्षा गृहीत्वा निर्विकल्पसमाधिविधानेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजशुद्धात्मनि स्थित्वा मोक्षं गच्छतीति भावार्थः। -- उस पूजादि शुभानुष्ठानके कारणसे यद्यपि अनन्तसंसारकी स्थितिका छेद करता है, परन्तु कोई भी अचरमदेही उसी भवमें कर्मक्षय नहीं करता। तथापि भवान्तरमें देवेन्द्रादि पदोंको प्राप्त करता है। तहाँ पंचविदेहोंमें जाकर समवशरणमें तीर्थंकर भगवान के साक्षात दर्शन करता है। तदनन्तर विशेष रूपसे दृढ़धर्मा होकर चतुर्थ गुणस्थानके योग्य आत्मभावनाको न छोड़ता हुआ देवलोकमें काल गवाता है। जीवनके अन्त में स्वर्ग से चयकर मनुष्य भवमें चक्रवर्ती आदिकी विभूतिको प्राप्त करके भी पूर्वभवमें भावित शुद्धात्मभावनाके बलसे मोह नहीं करता। और विषयसुखको छोड़कर जिनकीक्षा ग्रहण करके निर्विकल्पसमाधिको विधिसे विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी निजशुद्धारमामें स्थित होकर मोक्षको प्राप्त करता है। (द्र.सं./टी./३८/ १६०१); (इ.सं./टी./३५११४५/६); (धर्मध्यान/५/२); (भा.पा./टी./०१/ २३३१६)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकथा ४७६ धर्मध्यान ८. दशधर्म निर्देश १. धर्मका लक्षण उत्तम क्षमादि ज्ञा./२-१०/२ दशलक्ष्मयुत सोऽयं जिनैर्धर्म प्रकीर्तित.। -जिनेन्द्र भगवान्ने धर्मको दश लक्षण युक्त कहा है (पं.वि./१/७); (का.अ./ ४७८); (द्र.सं./टी./३५/१०१/८); (द्र.सं./टी./३/१४५/३): (द.पा.टी./ ६/८/४) २.दशधमौके साथ 'उत्तम' विशेषणकी सार्थकता स.सि./६/६/४१३/५ दृष्टप्रयोजनपरिवर्जनार्थमुत्तमविशेषणम् । -दृष्ट प्रयोजनकी निवृत्तिके अर्थ इनके साथ 'उत्तम' विशेषण दिया है। (रा वा/४/६/२६/५६८/२६)। चा.सा /१८/१ उत्तमग्रहणं ख्यातिपूजादिनिवृत्त्यर्थ । - ख्याति व पूजादि की भावनाको निवृत्तिके अर्थ उत्तम विशेषण दिया है। अर्थात् ख्याति पूजा आदिके अभिप्रायसे धारी गयी क्षमा आदि उत्तम नहीं है। ३. ये दशधर्म साधुओंके लिए कहे गये हैं मा.अनु./६८ एयारस दसभेयं धम्म सम्मत्तं पुवयं भणियं । सागारणगाराणं उत्तम सुहसंपजुत्तेहिं ।६८ =उत्तम सुखसंयुक्त जिनेन्द्रदेवने सागर धर्मके ग्यारह भेद और अनगार धर्मके दश भेद कहे हैं। (का.अ/मू-३०४ ); (चा.सा./२८/१)। ४. परन्तु यथासम्भव मुनि व श्रावक दोनोंको ही होते हैं पं.वि /६/५६ आद्योत्तमक्षमा यत्र सो धर्मो दशभेदभाक । श्रावकैरपि मेव्योऽसौ यथाशक्ति यथागमम् ।। -उत्तम क्षमा है आदिमें जिसके तथा जो दश भेदोंसे युक्त है, उस धर्मका श्रावकोंको भी अपनी शक्ति और आगमके अनुसार सेवन करना चाहिए। रा.वा/हिं/8/६/६६८ ये धर्म अविरत सम्यग्दृष्टि आदिके जैसे क्रोधादिकी निवृत्ति होय तैसे यथा सम्भव होय है, अर मुनिनिके प्रधानपने धर्मचक्र-(म.पु /२२/२१२-२६३) तां पीठिकामलं चक्रु : अष्टमङ्गलसंपदः । धर्मचक्राणि चोढानि प्रांशुभिर्यक्षमूर्धभिः ।२६२। सहस्राणि तान्युद्यद्रत्नरश्मीनि रेजिरे । भानुबिम्बानिवोद्यन्ति पीठिकोदयपर्वतात् ।२६३। -उस ( समवशरण स्थित) पीठिकाको अष्टमंगलरूपी सम्पदाएँ और यक्षों के ऊँचे-ऊँचे मस्तकोंपर रखे हुए धर्मचक्र अलंकृत कर रहे थे ।२६। जिनमें लगे हुए रत्नोंकी किरण ऊपर की ओर उठ रही हैं ऐसे, हज़ार-हजार आरोंवाले वे धर्मचक्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो पीठिकारूपी उदयाचलसे उदय होते हुए सूर्यके बिम्ब ही हों ।२६३।। धमंचक्रवत-इस व्रतकी तीन प्रकार विधि है-बृहद,मध्यम व लघु १. बृहद् विधि-धर्मचक्रके १००० आरोकी अपेक्षा एक उपवास एक पारणाके क्रमसे १००० उपवास करे। आदि अन्तमें एक एक बेला पृथक् करे । इस प्रकार कुछ २००४ दिनों में (५१ वर्ष में ) यह व्रत पूरा होता है। त्रिकाल नमस्कार मन्त्रका जाप्य करे। (ह.पु./३४/ १२४), २. मध्यम विधि-१०१० दिन तक प्रतिदिन एकाशना करे। त्रिकाल नमस्कार मन्त्रका जाप्य करे। (बतविधान संग्रह। पृ.१६३); (नवलसाह कृत बर्द्धमान पुराण) ३. लघु विधि-क्रमशः १२,३,४,५,१ इस प्रकार कुल १६ उपवास करे। बीचके स्थानों में सर्वत्र एक-एक पारणा करे। त्रिकाल नमस्कार मन्त्रका जाप्य करे । (व्रतविधान संग्रह/पृष्ठ १६३), (किशन सिह क्रियाकोश)। धर्मतीर्थ-धर्मतीर्थ की उत्पत्ति-दे० महावीर/२ धर्मदत्तचरित्र-आ. दयासागर सूरि (ई. १४२६) कृत एक चरित्र ग्रन्थ। धर्मद्रव्य-दे० धर्माधर्म। धर्मधर-१. नागकुमार चरित तथा श्रीपाल चरित के रचयिता। मूल संघ सरस्वती गच्छ । महादेव के प्रपुत्र, आशपाल के पुत्र । समय-वि० १५११ । (ती०४/५७) । धर्मध्यान-मनको एकाग्र करना ध्यान है। वैसे तो किसी न किसी विषयमें हर समय ही मन अटका रहनेके कारण व्यक्तिको कोई न कोई ध्यान बना ही रहता है, परन्तु राग-द्वेषमूलक होनेसे श्रेयोमार्गमें वे सब अनिष्ट हैं। साधक साम्यताका अभ्यास करनेके लिए जिस घ्यानको ध्याता है, वह धर्मध्यान है। अभ्यास दशा समाप्त हो जाने पर पूर्ण ज्ञाताद्रष्टा भावरूप शुक्लध्यान हो जाता है। इसलिए किसी अपेक्षा धर्म व शुक्ल दोनों ध्यान समान है। धर्मध्यान दो प्रकारका है-बाह्य व आध्यात्मिक । वचन व कायपरसे सर्व प्रत्यक्ष होने वाला बाह्य और मानसिक चिन्तवनरूप आध्यात्मिक है। वह आध्यात्मिक भी आज्ञा. अपाय आदिके चिन्तवनके भेदसे दस भेदरूप है। ये दसों भेद जैसा कि उनके लक्षणोंपरसे प्रगट है, आज्ञा, अपाय विपाक व संस्थान इन चारमें गर्भित हो जाते हैं-उपाय विचय तो अपायमें समा जाता है और जीव, अजीव, भव, विराग व हेतु विचय-संस्थान विषयमें समा जाते हैं। तहाँ इन सबको भी दोमें गर्भित किया जा सकता है-व्यवहार व निश्चय । आज्ञा, अपाय व विपाक तो परावलम्ब ही होनेसे व्यवहार ही है पर संस्थानविचय चार भेदरूप है-पिंडस्थ (शरीराकृतिका चिन्तवन): पदस्थ (मन्त्राक्षरोंका चिन्तवन), रूपस्थ (पुरुषाकार आत्माका चिन्तवन) और रूपातीत अर्थात् मात्र ज्ञाता द्रष्टाभाव । यहाँ पहले तीन धर्मध्यानरूप है और अन्तिम शुक्लध्यानरूप। पहले तीनोंमें 'पिण्डस्थ' व 'पदस्थ' तो परावलम्बी होनेसे व्यवहार है और 'रूपस्थ' स्वावलम्बी होनेसे निश्चय है । निश्चयध्यान ही वास्तविक है पर व्यवहार भी उसका साधन होनेसे कसी विषय न बना ही रसाधक सामन ५. इन दोंको धर्म कहने में हेतु रा.वा//६/२४१५६८/२२ तेषां संवरणधारणसामाद्धर्म इत्येषा संज्ञा अन्वर्थे ति । - इन धमों में चूकि संवरको धारण करनेकी सामर्थ्य है, इसलिए धारण करनेसे धर्म' इस सार्थक संज्ञाको प्राप्त होते हैं। धर्मकथा-दे० कथा। घमकाति-१. त्रिमलय देशमें उत्पन्न एक प्रकाण्ड बौद्ध नैयायिक थे। आप नालन्दा विश्वविद्यालयके आचार्य धर्मपालके शिष्य तथा प्रज्ञागुप्तके गुरु थे। आपके पिताका नाम कोरुनन्द था। आपकी निम्न कृतियाँ न्यायक्षेत्रमें अतिप्रसिद्ध हैं-१. प्रमाण बार्तिक, २, प्रमाणविनिश्चय, ३. न्यायबिन्दु, ४. सन्तानान्तर सिद्धि, १. सम्बन्ध परीक्षा, . ६. वादन्याय, ७. हेतु-बिन्दु। समय-ई. ६२५-१५०1 (./२/३३१) । २. पद्मपुराण व हरिवश पुराण के रचयिता बलात्कार गणीय भट्टारक । गुरु परम्परा-विभुवन कीर्ति, पद्यनन्दि. यश कीति, ललितकीति, धर्मकीति। समय-वि.y १६८२ । ती०/३/४ ३३)। धर्मचंद्र-बाप रत्नकीर्तिभट्टारकके गुरु थे। तदनुसार आपका समय वि. १२७१ (ई. १२१४) आता है। (माहुमलिचरित्र/प्र.स उदयताल) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान ४७७ सूचोपत्र धर्मध्यानका फल पुण्य व मोक्ष तथा उसका समन्वय धर्मध्यानका फल अतिशय पुण्य । धर्मध्यानका फल सवर, निर्जरा व कर्गक्षय । ३ | धर्मध्यानका फल मोक्ष । धर्मध्यानकी महिमा । -दे० ध्यान/२। | क ही धर्मध्यानसे मोहनीयका उपशम व क्षय दोनों कैसे सम्भव है ? पुण्यात्रव व मोक्ष दोनों होनेका समन्वय । परपदार्थोके चिन्तवनसे कर्मक्षय कैसे सम्भव है ? * " | धर्मध्यान व उसके भेदोंका सामान्य निर्देश धर्मध्यान सामान्यके लक्षण। धर्मध्यानके चिह्न। ३ | धर्मध्यान योग्य सामग्री। धर्मध्यान योग्य मुद्रा, आसन, क्षेत्र, पीठ व दिशा। -दे० कृति कर्म/३॥ धर्मध्यान योग्य काल। -दे० ध्यान/३॥ धर्मध्यानकी विधि । -दे० ध्यान/३ । धर्मध्यान सम्बन्धी धारणाएँ। -दे० पिडस्थ । धर्मध्यानके भेद आशा, अपाय आदि व बाह्य आध्या त्मिक आदि। आशा, विचय आदि १० ध्यानाके लक्षण । संस्थान विचय धर्मध्यानका स्वरूप । संस्थान विचयके पिंडस्थ आदि भेदोंका निर्देश । पिडस्थ आदि ध्यान। -दे० वह वह नाम । बाह्य व आध्यात्मिक ध्यानका लक्षण । धर्मध्यानमे सम्यक्त्व व मावों आदिका * . * " पंचमकालमें भी धर्मध्यानको सफलता १ यदि ध्यानसे मोक्ष होता है तो अब क्यों नहीं | होना? २ | यदि इस कालमें मोक्ष नहीं तो ध्यान करनेसे क्या प्रयोजन । ३ | पंचग काली भी अध्यात्म व्यानका कयचित् सद्भाव व असद्भाव। परन्तु इस कालमें भी ध्यानका सर्वथा अभाव नहीं है। चमकालमें शुक्लध्यान नहीं पर धर्मध्यान अवश्य सम्भव है। निर्देश * निश्चय व्यवहार धर्मध्यान निर्देश धर्मध्यानमें आवश्यक शानकी सीमा। -दे० ध्याता/१। धर्मध्यानमे विषय परिवर्तन क्रम । धर्मध्यानमें सम्भव भाव व लेश्याएँ । धर्मध्यान योग्य ध्याता। -दे० ध्याता/२,४ । सम्यग्दृष्टिको ही सम्भव है। --दे० ध्याता/२,४ । मिथ्यादृष्टिको सम्भव नहीं। गुणस्थानोंकी अपेक्षा स्वामित्व । साधु व श्रावकको निश्चय ध्यानका कथंचित् विधि, निषेध। -दे० अनुभव/५॥ धर्मध्यानके स्वामित्व सम्बन्धी शंकाएँ१. मिथ्यादृष्टिको भी तो देखा जाता है। २. प्रमत्त जनोको ध्यान कैसे सम्भव है । ३. कषायरहित जीवोंमें ही मानना चाहिए । * | धर्मध्यानमें संहनन सम्बन्धी चर्चा । -दे० संहनन । साधु व थानकके योग्य शुद्धोपयोग।-दे० अनुभव । निश्चय धर्मध्यानका लक्षण । निश्चय धर्मध्यान योग्य ध्येय व भावनाएँ।-दे० ध्येय । व्यवहार धर्मध्यानका लक्षण। वाह्य व आध्यात्मिक ध्यानके लक्षण । -दे० धर्मध्यान/१ । व्यवहार ध्यान योग्य अनेको ध्येय ।-दे० ध्येय । सब ध्येयोमें आत्मा प्रधान है।-दे. ध्येय । परम ध्यानके अपर नाम ।-दे० मोक्षमार्ग/111 निश्चय ही न्यान सार्थक है व्यवहार नहीं। व्यवहार यान कथंचित् अज्ञान है । व्यवहार ध्यान निश्चयका साधन है। निश्चय त्याहार ध्यान साध्य सावकपनेका समन्वय। ७। निश्चय व व्यवहार ध्यान में निश्चय' शब्दकी आंशिक प्रवृत्ति । निरीह भावसे किया गया सभी उपयोग एक आत्मो पयोग ही है। सविकल्प अवस्थासे निर्विकल्पावस्थामें चढनेका क्रम । ----दे० धर्म ६/४। धर्मध्यान व अनुप्रेक्षादिमें अन्तर न्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिन्तामें अन्तर । अथवा अनुप्रेक्षादिको अपायविचयमें गर्भित समझना चाहिए। ध्यान व कायोत्सर्गमें अन्तर । माला जपना आदि ध्यान नहीं है। प्राणायाम, समाधि आदि ध्यान नहीं । -दे० प्राणायाम। धर्मध्यान व शुक्लध्यानमें कथंचित् भेदाभेद । ५ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान ४७८ १. धर्मध्यान व उसके भेदोंका सामान्य निर्देश १. धर्मध्यान व उसके भेदोंका सामान्य निर्देश १. धर्मध्यान सामान्यका लक्षण १. धर्मसे युक्त ध्यान भ आ./म् /१७०६/१५४१ धम्मस्स लक्वर्गसे अज्जालगत्तमवोबसमा। उवदेसणा य सुत्ते णिसग्गजाओ रुचीओ दे ।१७०६। -जिससे धर्मका परिज्ञान होता है वह धर्मध्यानका लक्षण समझना चाहिए। आर्जव, लघुत्व, मार्दव और उपदेश ये इसके लक्षण है। (मू. आ./ ६७६) । स. सि./8/२८/४४५/११ धर्मो व्याख्यातः । धर्मादनपेत धर्म्यम् । धर्मका व्याख्यान पहले कर आये हैं (उत्तम क्षमादि लक्षणवाला धर्म है) जो धर्मसे युक्त होता है वह धर्म्य है। (स.सि./६/३६/४५०/४); (रा. वा./8/२८/३/६२७/३०); (रा.वा./६/३६/११/६३२/११); (म. पु./२२१ १३३ ); (त.अनु /५४); ( भा. पा./टी./७८/२२६/१७ ) । नोट-यहाँ धर्मके अनेकों लक्षणों के लिए देखो धर्म/१) उन सभी प्रकार के धर्मोसे युक्त प्रवृत्तिका नाम धर्मध्यान है, ऐसा समझना चाहिए। इस लक्षणकी सिद्धिके लिए-दे० (धर्मध्यान/४/३/२) । २. शास्त्र, स्वाध्याय व तत्व चिन्तवन र. सा./मू./१७ पावारंभणिवित्ती पुण्णारं भपउत्तिकरणं पि । णाण धम्मज्झाणं जिणभणियं सबजीवाणं ।१७। पाप कार्यकी निवृत्ति और पुण्य कार्योंमे प्रवृत्तिका मूलकारण एक सम्यग्ज्ञान है, इसलिए मुमुश्च जीवोके लिए सम्यग्ज्ञान ( जिनागमाभ्यास-गा.१८) ही धर्म ध्यान श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है। भ. आ./ मू./१७१० आलं बणं च वायण पुच्छण परिवट्टणाणुपेहाओ। धम्मस्स तेण अधिसुद्धाओ सव्वाणुपेहाओ।१७१०।८ वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और परिवर्तन ये स्वाध्यायके भेद है। ये भेद धर्मध्यानके आधार भी हैं। इस धर्मध्यानके साथ अनुप्रेक्षाओंका अविरोध है। (भ, आ././१८७५/१६८०); (घ. १३४५,४,२६/गा. २१/६७); ( त. अनु ८१)। ज्ञा. सा./१७ जोवादयो ये पदार्था ध्यातव्या' ते यथास्थिता' चैव । धर्मध्यानं भणितं रागद्वेषौ प्रमुच्य११७ रागद्वेष को त्यागकर अर्थात साम्यभावसे जीवादि पदार्थोंका, वे जैसे-जैसे अपने स्वरूपमे स्थित हैं, वैसे-वैसे ध्यान या चिन्तवन करना धर्मध्यान कहा गया है। ज्ञा./३/२६ पुण्याशयवशाज्जातं शुद्धलेश्यावलम्बनात। चिन्तनाद्वस्तुतत्वस्य प्रशस्तं ध्यानमुच्यते ।२।। = पुण्यरूप आशयके वशसे तथाशुद्धलेश्याके अबलम्बनसे और वस्तुके यथार्थ स्वरूप चिन्तवनसे उत्पन्न हुआ ध्यान प्रशस्त कहलाता है। (ज्ञा./२५/१८ )। ३ रत्नत्रय व संयम आदिमें चित्तको लगाना मू. आ./६७८-६८० ईसणणाणचरित्ते उवओगे संजमे 'बिउस्सगो। पच करवाणे करणे पणिधाणे तह य समिदीसु ६७८॥ विज्जाचरणमवदसमाधिगुण भचेरछक्काए। खमणिग्गह अज्जवमद्दवमुत्ती विणए च सहहणे ।६७४। एवं गुणो महत्थो मणसंकप्पो पसत्थ वीसत्थो। संकप्पोत्ति वियाणह जिणसासणसम्मदं सब ६८० -दर्शन ज्ञान चारित्रमें, उपयोगमें, संयममें, कायोत्सर्गमें, शुभ योग, धर्मध्यानमें, समितिमें. द्वादशांगमें, भिक्षाशुद्धिसे, महावतोंमें, संन्यासमें, गुणमें, ब्रह्मचर्य में, पृथिवी आदि छह काय जीवोंकी रक्षामें, क्षमामें, इन्द्रियनिग्रहमें, आर्जवमें, मार्दवमें, सब परिग्रह त्यागमें, विनयमें, श्रद्धानमें; इन सबमें जो मनका परिणाम है, वह कर्मक्षयका कारण है, सबके विश्वास योग्य है। इस प्रकार जिनशासनमें माना गया सब संकल्प है। उसको तुम शुभ ध्यान जानो। ४. परमेष्ठी आदिकी भक्ति द्र.सं./टी./४८/२०५/३ पञ्चपरमेष्ठिभस्यादितदनुक्लशुभानुष्ठानं पुनर्ब हिरड्गधर्मध्यानं भवति ।-पंच परमेष्ठोकी भक्ति आदि तथा उसके अनुकूल शुभानुष्ठान (पूजा, दान, अभ्युत्थान, विनय आदि ) बहिरंग धर्मध्यान होता है । (पं. का./ता. वृ./१५०/२१७/१६ )। २. धमध्यानके चिह्न ध. १३/५,४,२६/गा. ५४-५५/७६ आगमउवदेसाणा णिसग्गदो जंजिणप्पणीयाणं । भावाणं सद्दहणं धम्मज्भाणस्स तल्लिगं ॥५४॥ जिणसाहु-गुणक्वित्तण-पसंसणा-विणय-दाणसंपण्णा । सुद सीलसंजमरदा धम्मज्माणे मुणेयव्वा ।-आगम, उपदेश और जिनाज्ञाके अनुसार निसर्ग से जो जिन भगवानके द्वारा कहे गये पदार्थों का श्रद्धान. होता है वह धर्मध्यानका लिग है ।५४। जिन और साधुके गुणोंका कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय-दानसम्पन्नता, श्रुत, शील और संयममें रत होना, ये सब बातें धर्मध्यानमें होती है । ।५५। म. सु./२१/१५६-१६१ प्रसन्नचित्तता धर्मसंबेग शुभयोगता सुश्रुतत्वं समाधानं आज्ञाधिगमजाः रुचिः ११५६। भवन्त्येतानि लिङ्गानि धर्म्यस्यान्तर्गतानि वै । सानुप्रेक्षाश्च पूर्वोक्ता विविधाः शुभभावनाः ।१६०। बाह्य च लिङ्गमगानां संनिवेशः पुरोदितः । प्रसन्नवक्त्रता सौम्या दृष्टिश्चेत्यादि लक्ष्यताम् ।१६।-प्रसन्नचित्त रहना, धर्मसे प्रेम करना, शुभ योग रखना, उत्तम शास्त्रोंका अभ्यास करना, चित्त स्थिर रखना और शास्त्राज्ञा तथा स्वकीय ज्ञानसे एक प्रकारकी विशेष रुचि (प्रतीति अथवा श्रद्धा) उत्पन्न होना, ये धर्मध्यानके बाह्य चिह्न हैं. और अनुप्रेक्षाएँ तथा पहले कही हुई अनेक प्रकारकी शुभ भावनाएँ उसके अन्तरंग चिह्न है ।१५९-१६०। पहले कहा हुआ अंगोंका सन्निवेश होना, अर्थात् पहले जिन पर्यकादि आसनोंका वर्णन कर चुके हैं (दे० 'कृतिकर्म') उन आसनोंको धारण करना, मुखकी प्रसन्नता होना, और दृष्टिका सौम्य होना आदि सब भी धर्मध्यानके बाह्य चिह्न समझने चाहिए। ज्ञा./११/१५.१ में उद्धन्द -अलौल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं गन्ध' शुभो मूत्रपुरीषमतपम्। .न्ति प्रसाद' स्वरसौम्यता च योगप्रवृत्ते प्रथम हि चिह्नम् ।१३ -निमय लम्पटताका न होना शरीर नीरोग होना निष्ठरताका न होना, शरीरमेंसे शुभ गन्ध आना, मलमूत्रका अल्प होना, शरीरकी कान्ति शक्तिहीन न होना, 'चित्तकी प्रसन्नता, शन्दोंका उच्चारण सौम्य होना-ये चिह्न योगकी प्रवृत्ति करनेवालेके अर्थात् ध्यान करनेवालेके प्रारम्भ दशामें होते हैं। (विशेष दे० ध्याता)। ३. धमध्यान योग्य सामग्री द. सं./टी./५७/२२६/३ में उद्धृत-'तथा चोक्तं- 'वैराग्यं तत्त्वविज्ञान नैनथ्यं समचित्तता। परीषहजयश्चेति पञ्चैते ध्यानहेतवः । = सो ही कहा है कि-वैराग्य, तत्त्वों का ज्ञान, परिग्रहत्याग, साम्यभाव और परीषहजय ये पाँच ध्यानके कारण हैं। त. अनु./७५, २१८ संगत्याग' कषायाणां निग्रहो व्रत-पर० । मनोडक्षाणां जयश्चेति सामग्रीध्यानजन्मनि १७ ध्यानस्य च पुनर्मूख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम् । गुरूपदेशः श्रद्धानं सदाभ्यासः स्थिरं मनः ।२१८॥ - परिग्रह त्याग, कषायनिग्रह, व्रतधारण, इन्द्रिय व मनोविजय, ये सब ध्यान की उत्पत्तिमें सहायभूत सामग्री हैं ।७५। गुरूपदेश, श्रद्धान, निरन्तर अभ्यास और मनकी स्थिरता, ये चार ध्यानकी सिद्धिके मुख्य कारण हैं । ( ज्ञा./३/१५-२५) । दे. ध्यान/३ (धर्मध्यानके योग्य उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य द्रव्यक्षेत्रकालभावरूप सामग्री विशेष )। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान ४. धर्मध्यानके भेद १. आश, अपाय, विचय आदि ध्यान रा.सू./६/३६ आज्ञापायविपाक संस्थान विषयास धर्म्य । २६ - आशा. आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान, इनकी विचारणाके लिए मनको एकाग्र करना धर्म्मध्यान है (भ.आ./५/१००८/१२३६ (सू. आ./२६०), (शा./१३/५) (. १३/४४.२६/००/१२) ( म.पू./२९/१२४) (ज्ञा./ २३/५); (अनु./१८); (द्र.सं./टी./४८/२०२३) (भा. पा./टी./ १९४ / २६६/२४); (का. अ./टी./४८०/२६६/४) | रा. बा./१/७/१४/४०/९६ धर्मध्यानं दशविध पासा /१०२/४ स्वसंवेद्यमाध्यात्मिक तदशविधं अपायविचर्य, उपायविषयं जीवविचर्य, अजोवविचर्य, विपाकविचर्य, विरागविषयं भवविषयं संस्थानविचर्य, आज्ञा विचयं हेतुविषयं चेति। -आध्यात्मिक धर्मध्यान दश प्रकारका है-अपायनिचय उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाकविचय, विरागविषय भवविषय, संस्थानविषय, आचाविषय और हेतुविषय | (ह.पु./६०३०५०), (भा. पा. टी. ११६/२७०/२) । २. निश्चय व्यवहार या बाह्य व आध्यात्मिक आदि नेद E चा. सा./१७२ / ३ धर्म्यध्यानं बाह्याध्यात्मिकभेदेन द्विप्रकारस् । धर्म्यध्यान बाह्य और आध्यात्मिकके भेदसे दो प्रकारका है। (ह. पु. /५६/३६ ) । t त. अनु. /४७-४६,६६ मुख्योपचारभेदेन धर्म्यध्यानमिह द्विधा ॥४७ ध्यानाम्यपि ॥४८॥ उत्तम...मध्यम ४६|नियाद व्यवहाराच ध्यानं द्विविधा मुख्य और उपचारके भेदसे धर्म्यध्यान दो प्रकारका है |४७| अथवा उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य के भेदसे तीन प्रकारका है | ४६ | अथवा निश्चय व व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका है || ५. आज्ञा विषय आदि ध्यानोंके लक्षण १. अजीव विचय ४. पू. २६/४४ द्रव्याणामप्यजीवानां धर्माधर्मादिसंहिताम्। स्वभावचिन्तनं धर्म्य जीवविचयं मतम् ॥४४॥ धर्म-अधर्म आदि अजीव द्रव्योंके स्वभावका चिन्तवन करना, सो अजीव विचय नामका धध्यान है ४४ २-३ अपाय व उपाय विचय जा भ.आ./नू./१०९२/९५४४ वाण उपाये विचिणादि जिनमदमुवेच्च । विचिणादि व अवाए जीवाण सुभे य असुभे य । १७१२ । - जिनमतको प्राप्त कर कल्याण करनेवाले जो उपाय हैं उनका चिन्तवन करता है, अथवा जीवोंके जो शुभाशुभ भाव होते हैं, उनसे अपायका चिन्तवन करता है। (मु.आ./ ४००); (ध. १३/५,४,२६/ गा. ४०/७२) । घ. १३/१४.२६/गा. ३१/०२ रामद्दोस कसा वासनादिकिरिया महमाणाणं । इहपरलोगावा जो बजपरिवजी ॥ ३६१] - पापीयाग करने वाला साधु राग, द्वेष, कषाय और आस्रव आदि क्रियाओं में विद्यमान जीनोंके इहलोक और परलोकसे अपायका चिन्तन करें। स.सि./ ६ / २६ / ४४६ / ११ जारयन्धवमिध्यादृष्टय सर्वज्ञप्रणतमार्गाद्व मुखमोक्षार्थिन मार्गपरिज्ञानात् सुदूरमेापयन्तीति सम्मागया चिन्तनमपायविषय अथवा मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्य कथं नाम श्मे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिसमन्वाहारोऽपायनिचयः ॥ - मिध्यादृष्टि जीन जन्मान्ध पुरुष समान सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग विमुख होते हैं, उन्हें सम्मार्गका परिज्ञान न होनेसे वे मोक्षार्थी १. धर्मध्यान व उसके भेदोंका सामान्य निर्देश पुरुषों को दूरसे ही त्याग देते हैं, इस प्रकार सन्मार्ग के अपायका चिन्तन करना अपायविचय धर्म्यध्यान है । अथवा - ये प्राणी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रसे कैसे दूर होंगे इस प्रकार निरन्तर चिन्तन करना अपाय विचय धर्मध्यान है । (रा.वा / ६/३६/६-०/६३०/१६). ( म.पू./२१ / १४१-१४२) (भ.आ./वि/१००/१५३६/१८) (रा.सा./०/४१); (झा./३४/१-१०) । इ. पु. / ५६ / ३६-४१ संसारहेतवः प्रायस्त्रियोगानां प्रवृत्तय अायो वर्जनं तासां स मे स्यात्कथमित्यलम् | ३ | चिन्ता प्रबन्ध संबन्धः शुभलेश्मानुरञ्जितः । अपायविचमाख्यं तत्प्रथमं धर्म्यमभीप्सितम् |४०| उपायविचयं तासां पुण्यानामात्मसात्क्रिया । उपायः स कथं मे स्यादिति संकल्प संततिः ।४१। मन, वचन और काय इन तीन योगों की प्रवृत्ति हो, प्रायः संसारमा कारण है सो इन प्रवृत्तियोंका मेरे अपाय अर्थात् त्याग किस प्रकार हो सकता है, इस प्रकार शुभश्यामे अनुरंजित जो चिन्ताका प्रबन्ध है वह अपायविचय नामका प्रथम धर्म्यध्यान माना गया है । ३६-४०| पुण्य रूप योगप्रवृत्तियोको अपने आधीन करना उपाय कहलाता है, वह उपाय मेरे किस प्रकार हो सकता है, इस प्रकारके संकल्पोंकी जो सन्तति है वह उपाय faar नामका दूसरा धर्म्यध्यान है ।४१। (चा.सा./१७३/३), (भ.आ./ वि/१७०८/१५३६/१७): (द्र.सं./टी./४८/२०२/१) । ४. आज्ञाविचय भ.आ./मू./१७९१/१५४३ पंचैव अस्थिकाया छज्जीवणिकाए दव्वमण्णे य। आणागन्भे भावे आणाविचरण विचिणादि । पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, काल, द्रव्य तथा इसी प्रकार आज्ञाग्राह्य अन्य जितने पदार्थ हैं, उनका यह आज्ञाविचय ध्यानके द्वारा चितवन करता है । ( मू.आ./३६६), (ध.१३/५,४,२६/गा. ३८/७१ ) (म.पु. २९/१२५-१४०) । ४७९ घ. १३/५,४,२६/गा. ३५-३०/०१ यतम्बिजारियविरहदो वावि । यगहत्तणेण य णाणावरदिएणं च । ३५। हेदूदाहरणासंभवे य सरिसुट हुज्जाणबुज्भेज्जो । सव्वणुसयमवितथं तहाविहं चितए मदिमं | ३६ | अणुवगहपराग्गहपरायणा जं जिणा जयप्पवरा । जियराममोहाण जन्महाबाहो ते ३०० मतिकी दुर्बलता होनेसे, अध्यात्मविद्याके जानकार आचार्योंका विरह होनेसे ज्ञेयकी गह नता होनेसे ज्ञानको आवरण करनेवाले कर्म की तोता होनेसे, और हेतु तथा उदाहरण सम्भव न होनेसे, नदी और सुखोद्यान आदि चिन्तन करने योग्य स्थानमें मतिमान् ध्याता 'सर्वज्ञ प्रतिपादित मत सत्य है' ऐसा चिन्तवन करे । ३५-३६ । यस जगत् में श्रेष्ठ जिनभगवान्, जो उनको नहीं प्राप्त हुए ऐसे अन्य जीवोंका भी अनुग्रह करनेमें तत्पर रहते हैं. और उन्होने राग-द्वेष और मोहपर विजय प्राप्त कर ली है, इसलिए वे अन्यथा वादी नहीं हो सकते । ३७॥ स.सि./१/३६/४४६/६ उपदेष्टुरभावान्मन्दबुद्धित्वात्कर्मोदयात्सूक्ष्मत्वाच्च पदार्थानां हेतुदृष्टान्तीपरमे सति सर्वज्ञप्रणीतमागमं प्रमाणीकृत्य इत्थमेवेदं नान्यथावादिनो जिना" इति गहनपदार्थ श्रद्धानादर्थाउधारणमाज्ञाविषय | अथवा स्वयं विदितपदार्थतत्त्वस्य सत परं प्रति पिपादयिष स्वसिद्धान्ताविरोधेन तत्त्वसमर्थनार्थ तर्कप्रमाणयोजनपर स्मृतिसमन्याहार सर्वज्ञाशाप्रकाशनार्थ त्वादाज्ञाविचय इत्युच्यते |४४१| = उपदेष्टा आचार्योंका अभाव होनेसे, स्वयं मन्दबुद्धि होने से, कर्मोंका उदय होनेसे और पदार्थोंके सूक्ष्म होनेसे, तथा तत्त्वके समर्थन में हेतु तथा दृष्टान्तका अभाव होनेसे सर्वज्ञनीत आगमको प्रमाण करके, 'यह इसी प्रकार है, क्योंकि जिन अन्यथावादी नहीं होते, इस प्रकार गहनपदार्थ के श्रद्धान द्वारा अर्थका अवधारण करना आज्ञा विचय धर्मध्यान है । अथवा स्वयं पदार्थोंके रहस्यको जानता है, और दूसरोंके प्रति उसका प्रतिपादन करना चाहता है, इसलिए स्वसिद्धान्त के अविरोध जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान द्वारा तत्त्वका समर्थन करनेके लिए, उसके जो तर्क नय और प्रमाण की योजनारूप निरन्तर चिन्तन होता है, वह सर्वशको आशाको प्रकाशित करनेवाला होनेसे आहाविषय कहा जाता है। (रा.बा./१/ २६/४-५/६३०/-) (इ.पू. ५६/४६): (चा. सा. / २०१/४): (त. सा. ७/४०): (ज्ञा. / ३३/६-२२); (द्र.सं./टी./४८/२०२/६) । ५. जीवविचय 1 इ.पू. ५६/४२-४३ अनादिनिधना जीवा द्रव्यादिभ्ययान्यथा असंस्थेयप्रदेशास्ते स्वोपयोगः ४२ अपेनोपकरणाः स्वकृतोचितभोगिन । इत्यादिचेतनाध्यानं यज्जीवविचयं हि तत् । द्रव्यार्थिकनयसे जीव अनादि निधन है. और पर्यायार्थिक नयसे सादिसनिधन है. असंख्यात प्रवेशी है, उपयोग लक्षणस्वरूप है, शरीररूप अचेतन उपकरणसे युक्त है, और अपने द्वारा किये गये कर्मके फलको भोगते है...इत्यादि रूपसे जीवका जो ध्यान करना है वह जीवविचय नामका तीसरा धर्मध्यान है (चा.सा./१७३/५) ४८० ६. भवविचय C = ह.पु. / ५६/४७ प्रेत्यभावो भवोऽमीषा चतुर्गतिषु देहिनाम् । दुःखात्मेचिन्ता तु भवादिविषयं पुनः 1४७1 चारो गतियोंमें भ्रमण करनेवाले इन जीवोंको मरनेके बाद जो पर्याय होती है वह भव कहलाता है । यह भव दुखरूप है। इस प्रकार चिन्तवन करना सो भय नामका सातवाँ धध्यान है (चा. सा./१७६/१) ७. विपाकविचय भ. ज./मू./१०९३/९८४५ एवा जीवाणं पुणपावकम्मफलं । उदीरण संबन्धे मोच विचिणादि जीवों को जो एक और अनेक भवमें पुण्य और पापकर्मका फल प्राप्त होता है उसका तथा उदय, उदीरणा, सक्रम, बन्ध और मोक्षका चिन्तवन करता है। (खा. ४०९), (प. १३/५.४.२६/गा. ४२७२) (स.सि./१/३६/४५०/२): (रा.वा./१/३६/८-६ / ६३०-६३२ में विस्तृत कथन), (भ.आ./ वि. / १७०८ / १५३६/२१) ( म.पू./२१ / १४३-१४७) (त.सा./७/४२) (०/१५/१-११). टी. ४८/२०२/१०) । ४.२६/४५ यच्चतुर्विधमन्यस्य कर्मणोऽष्टविधस्य तु विपाकचित विपाकवि विदु. ॥४५॥ ज्ञानावरणादि आठ कमोंके प्रकृति स्थिति और अनुभाग रूप चार प्रकारके बन्धोंके विपाकफलका विचार करना, सो विपाकविश्चय नामका पाँचवाँ धर्मध्यान है । (चा.सा./१७४/२) । ८, विराग विचय ह.पु / ५६/४६ शरीरमशुचिर्भोगा किपाकफलपाकिनः । विरागबुद्धिरिस्वादि विरागविषयं स्मृतम् ४६ शरीर अपवित्र है और भोग किपाकफलके समान तदात्व मनोहर है, इसलिए इनसे विरक्तबुद्धिका होना ही श्रेयस्कर है, इत्यादि चिन्तन करना विरागविजय नामका छठा धर्म्यध्यान है । (चा.सा./१७१/१) ९. संस्थान विचय (देखो आगे पृथक् शीर्षक) १०. हेतु विचय 1 .पू./६/५० नुसारिणः पंस स्याद्वादप्रक्रियाश्रयाद सन्मार्गाश्रमणध्यान हतुविषयं हि तत् ५० और तर्कका अनुसरण पुरुष स्याद्वादकी प्रक्रियाका आश्रय लेते हुए समीचीन मार्गका आश्रय करते हैं, इस प्रकार चिन्तवन करना सो हेतुविचय नामका दसवाँ ध्यान है (चासा / २०२/१) १. धर्मध्यान व उसके भेदोंका सामान्य निर्देश ६. संस्थानविच धर्मध्यानका स्वरूप घ. १३/५.४.२६/मा, ४३-५०/०२/१३ तिष्णं लोगानं संठागपमामा आउयाविचित ठाणविषयं णाम उत्थं धम्मज्माणं एत्थ गाढ़ाओ जिणदेसियाइ लक्खणसंठाणासणविहाणमाणाईं । उप्पादट्ठिदिभंगादिपज्यमा जे य दव्वाणं ॥४३॥ पंचत्थिकायमइयं लोयमणाइणिहणं जिनकस्वादं णामादिभेयविहियं तिहिमहोलोगभागादि लिदिदीवसारणधर विमाण भवनादिसंठागं वोमादि पट्ठिा जिव लोगदिविहाणं ॥ ४५ ॥ उबजोगलखण मणाइ मिगमत्यंतरं सरीरादो। जीवमरूवि कारि भोई स सयस्स कम्मस्स । ४६ । तम्स य सकम्मजयिं जम्मा कसायपायासं वसणसयसारमीगं मोहावत्तं महाभीमं ॥४७॥ णाणमयकणहारं वरवारितमय महापोयं । संसारसागरमणोरपारमनिचिज्म ४८ सव्वषयसमुहम " यो समयसम्म ४६| उमाणोवर मे नि मुगी पिचमणि-च्यादिविणापरमो होह समाविचितो धम्मज्माने व्हि व पुवं । ०१. तीन लोकोंके संस्थान, प्रमाण और आयु आदिका चितवन करना संस्थान विचय नामका चौथा धर्म ध्यान है । (स.सि./६/१६/४५०/३) (रा.वा./६/३६/१०/६३२ / ६) (भ.आ.// १७०/१५३६/२३) (त.सा./७/४३): (शा./३६/१८४१०६); (व. सं. टी. ४८I २०३/२) । २. जिनदेवके द्वारा कहे गये छह द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, रहनेका स्थान, भेद, प्रमाण उनकी उत्पाद स्थिति और व्यय आदिरूप पर्यायोका चिन्तवन करना |४३| पंचास्तिकायका चिन्तवन करना ४४ (दे० पीछे जीव-जीव विचयके लक्षण ) ३ अपोलोक आदि भागरूपसे तीन प्रकारके (अघो मध्य व उ) लोकका तथा पृथिवी. वलय द्वीप, सागर, नगर, विमान, भवन आदिके संस्थानों (आकारों) का एवं उसका आकाशमै प्रतिष्ठान, नियत और लोकस्थिति आदि भेदका चिन्तन करे 198-४५। (भ.आ./मू./१०१४ १५४५) (गू.आ./४०२) (४.५/५६/४०); (म.पु. २१/१४८-१२०): (शा./ ३६ / १-१०, ८२ - १०); (विशेष दे० लोक) ४. जीव उपयोग लक्षणवाला है, अनादिनिधन है, शरीरसे भिन्न है, अरूपी है, तथा अपने कर्मोंका कर्ता और भोक्ता है | ४६ | ( म.पु. / २१/१५१) ( और दे० पीछे 'जीव विचय' का लक्षण) ५. उस जीवके कर्मसे उत्पन्न हुआ जन्म, मरण आदि यही जल है, कषाय यही पाताल है, सैकडों व्यसनरूपी छोटे मत्स्य है: मोहरूपी आर्त है, और अत्यन्त भयंकर है. ज्ञानपी कर्णधार है, उत्कृष्ट चारित्रमय महापोत है। ऐसे इस अशुभ और अनादि अनन्त ( आध्यात्मिक ) संसारका चिन्तवन करे 1४७-४८ (म.पु. २१/१२-१५३) ६. बहुत कहने से क्या लाभ यह जितना जीवादि पदार्थोंका विस्तार कहा है, उस सबसे युक्त और सर्वनयसमूहमय समय सद्भावका ( द्वादशांगमय सकल श्रुतका) ध्यान करे ४६। (म.पु. / २१/१५४) ७. ऐसा ध्यान करके उसके अन्तमें मुनि निरन्तर अनित्यादि भावनाओंके चिन्तनमें तत्पर होता है। जिससे वह पहलेकी भाँति धर्मध्यान में सुभावितचित्त होता है ।५०१ (भ.आ./व. १०९४/१६४६) (मु. जा /४०२): (चा.सा./१७६/९): (विराग विषयका लक्षणों) नोट (अनुप्रेक्षाओके भेद व सक्षम-३० अनुप्रेक्षा) हा ३६/ श्ल. नं. ८ ( नरकके दुःखोंका चिन्तवन करे ) १११-८९ । ( विशेष देखो नरक) (भव विषयका लक्षण) १. (स्वर्ग के सुख तथा देवेन्द्रोंके वैभव आदिका चिन्वन ०-१२वशेष वर्ग) १०. (सिद्धढोका तथा सिद्ध के स्वरूपका चिन्तवन करे । १८३१ ११. ( अन्तमें कर्म मल से रहित अपनी निर्मल आत्माका चिन्तवन करें ) | १८५ ७. संस्थान विषयके पिण्डस्थ आदि भेदोंका निर्देश ज्ञा - / ३७ / १ तथा भाषाकारकी उत्थानिका - पिण्डस्थं च पदस्थं च स्वरूपस्थ रूप चतुर्द्धा ध्यानमाम्नात भव्यराजीव भास्कर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान ४८१ २. धर्मध्यानमें सम्यक्त्व व भावों आदिका निर्देश १। = इस संस्थान विचय नामा धर्मध्यानमें चार भेद कहे हैं, उनका वर्णन किया जाता है-जो भव्यरूपी कमलोको प्रफुल्लित करनेके लिए सूर्यके समान योगीश्वर हैं उन्होंने ध्यानको पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ऐसे चार प्रकारका कहा है। (भा.पा/टी./६/ २३६/१३) द्र.सं./टो./४८/२०५/३ में उद्धृत-पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थ पिण्डस्थं स्वात्म चिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् । द्र.सं./टो./४६/२०४६/७ पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य ध्येयभूतमहं त्सबज्ञस्वरूपं दर्शयामीति ।-मन्त्रवाक्योंमें स्थिति पदस्थ, निजात्माका चिन्तवन पिंडस्थ, सर्वचिद्रूपका चिन्तवन रूपस्थ और निरंजनका (त्रिकाली शुद्धात्माका) ध्यान रूपातीत है। (भा.पा./टी./६/२३६ पर उद्धृत ) पदस्थ, पिडस्थ व रूपस्थमें अहंत सर्वज्ञ ध्येय होते है। नोट--उपरोक्त चार भेदोंमें पिंडस्थ ध्यान तो अहंत भगवानकी शरीराकृतिका विचार करता है, पदस्थ ध्यान पंचपरमेष्ठीके वाचक अक्षरों व मन्त्रोंका अनेक प्रकारसे विचार करता है, रूपस्थ ध्यान निज आत्माका पुरुषाकाररूपसे विचार करता है और रूपातीत ध्यान विचार व चिन्तवनसे अतीत मात्र ज्ञाता द्रष्टा रूपसे ज्ञानका भवन है (दे० उनउनके लक्षण व विशेष) तहाँ पहिले तीन ध्यान तो धर्मध्यानमें गर्भित हैं और चौथा ध्यान पूर्ण निर्विकल्प होनेसे शुक्लध्यान रूप है (दे० शुक्लध्यान) इस प्रकार संस्थान विचय धर्मध्यानका विषय बहुत व्यापक है। ८. बाह्य व आध्यात्मिक ध्यानका लक्षण ह.पु./१६/३६-३८ लक्षणं द्विविधं तस्य बाह्याध्यात्मिकभेदतः। सूत्रार्थमार्गणं शीलं गुणमालानुरागिता ।३६। जम्माजम्भाक्षुतोद्गारप्राणापानादिमन्दता। निभृतात्मवतात्मत्वं तत्र बाह्यं प्रकीतितम् ॥३७॥ दशधाssध्यात्मिकं धर्नामपायविचयादिकम् ।।३८बाह्य और अभ्यन्तरके भेदसे धर्म्यध्यानका लक्षण दो प्रकारका है। शास्त्रके अर्थकी खोज करना, शीलवतका पालन करना, गुणोंके समूहमें अनुराग रखना अंगड़ाई जमुहाई छींक डकार और श्वासोच्छवासमें मन्दता होना, शरीरको निश्चल रखना तथा आत्माको व्रतोंसे मुक्त करना, यह धर्म्यध्यानका बाह्य लक्षण है। और आभ्यन्तर लक्षण अपाय विचय आदिके भेदसे दस प्रकारका है। चा,सा./१७२/३ धर्म्यध्यानं बाह्याध्यात्मिकभेदेन द्विप्रकारम। तत्र परानुमेयं बाह्य सूत्रार्थगवेषणं दृढव्रतशीलगुणानुरागानिभृतकरचरणबदनकायपरिस्पन्दवाग्व्यापार जम्भम्भोदारक्षक्युप्राणपातोद्रेकादिविरमणलक्षणं भवति। स्वसवेद्यमाध्यात्मिकम, तद्दश विधम् बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे धर्मध्यान दो प्रकारका है। जिसे अन्य लोग भी अनुमानसे जान सकें उसे बाह्य धर्मध्यान कहते है। सूत्रों के अर्थकी गवेषणा (विचार व मनन), व्रतोंको दृढ़ रखना, शील गुणों में अनुराग रखना, हाथ पैर मुंह कायका परिस्पन्दन और वचनव्यापारका बन्द करना, जभाई, जंभाईके उद्गार प्रगट करना, छींकना तथा प्राण-अपानका उद्रेक आदि सब क्रियाओंका त्याग करना बाह्य धर्मध्यान है। जिसे केवल अपना आत्मा हो जान सके उसे आध्यात्मिक कहते हैं। वह आज्ञाविचय आदिके भेदसे दस प्रकारका है। २. धर्मध्यानमें सम्यक्त्व व भावों आदिका निर्देश १. धर्मध्यानमें विषय परिवर्तन निर्देश प्र.सा./ता.वृ./१९६/२६२/६ अथ ध्यानसंतानः कथ्यते-यत्रान्तर्मुहर्त्तपर्यन्तं ध्यानं तदनन्तरमन्तर्मुहूर्तपर्यन्ते तत्त्वचिन्ता, पुनरप्यन्तर्महूर्तपर्यन्तं ध्यानम् । पुनरपि ततः चिन्तेति प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थानव दन्तर्मुहूर्तेऽन्तमुहूर्त गते सति परावर्तनमस्ति स ध्यानसंतानो भण्यते । = ध्यानकी सन्तान बताते है-जहाँ अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त ध्यान होता है, तदनन्तर अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त तत्त्वचिन्ता होती है। पुनः अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त ध्यान होता है, पुन. तत्त्वचिन्ता होती है। इस प्रकार प्रमत्त व अप्रमत्त गुणस्थानकी भॉति अन्तर्मुहूर्त मे परावर्तन होता रहता है, उसे ही ध्यानकी सन्तान कहते है । (चा,सा./२०६/२) । २. धर्मध्यानमें सम्भव भाव व लेश्याएँ घ. १३/५,४,२६/५३/७६ होंति कम्मविसुद्धाओ लेस्साओ पीय पउम मुक्काओ। धम्मज्माणोवगयस्स तिव्वमंदादिभेयाओ ।५६ -धर्मध्यानको प्राप्त हुए जीवके तीव मन्द आदि भेदोको लिये हुए, क्रमसे विशुद्धिका प्राप्त हुई पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होतो है। (म पु./ २१/१५६) । चा.सा./२०३ सर्वमेतत् धर्मध्यानं पीतपद्मशुक्ललेश्या बलाधानम्... परोक्षज्ञानत्वात् क्षायोपशमिकभावम् । =सर्व हो प्रकारके धर्मध्यान पीत पद्म व शुक्ललेश्याके बलसे होते हैं, तथा परोक्षज्ञानगोचर होनेसे क्षयोपशमिक है। म.पु./२१/१५६-१५७) म.पू./२१/१५६-९५७) ज्ञा./४१/१४ धर्मध्यानस्य विज्ञेया स्थितिरान्तर्मुहर्तको । क्षायोपशमिको भावो लेश्या शुक्लैब शाश्वती १४ = इस धर्मध्यानकी स्थिति अन्तमुहूर्त है, इसका भाव क्षायोपश्चमिक है और लेश्या सदा शुक्ल हो रहती है । (यहाँ धर्मध्यानके अन्तिम पायेसे अभिप्राय है)। ३. वास्तविक धर्मध्यान मिथ्यादृष्टिको सम्भव नहीं न.च.व./१७६ माणस्स भावणाक्यि ण हु सो आराहओ हवे नियमा। जो ण विजाणइ वत्थ पमाणणयणिच्छयं किच्चा। जो प्रमाण व नयके द्वारा वरतुका निश्चय करके उसे नहीं जानता, वह ध्यानकी भावनाके द्वारा भी आराधक नहीं हो सकता । ऐसा नियम है। ज्ञा./६/४ 'रत्नत्रयमनासाद्य य. साक्षाद्वयातुमिच्छति । खपुष्पै कुरुते मूढ स वन्ध्यासुतशेखरम/४। ज्ञा./४/१८,३० दुई शामपि न ध्यान सिद्धि' स्वप्नेऽपि जायते। गृह्णता दृष्टिवै कन्याद्वस्तुजात यदृच्छया ।१८। ध्यानतन्त्र निषेध्यन्ते नेते मिथ्यादृश परम् । मुनयोऽपि जिनेशाज्ञाप्रत्यनीकाश्चलाशयाः/३० । -जो पुरुष साक्षात् रत्नत्रयको प्राप्त न होकर ध्यान करना चाहता है, वह मूर्ख आकाशके फूलोसे बन्ध्यापुत्रके लिए सेहरा बनाना चाहता है।४ा दृष्टिकी विकलतासे वस्तुसमूहको अपनी इच्छानुसार ग्रहण करनेवाले मिथ्यादृष्टियोके ध्यानकी सिद्धि स्वप्नमे भी नही होती है ।१८। सिद्धान्तमें ध्यानमात्र केवल मिथ्यादृष्टियोके हो नहीं निषेधते हैं, किन्तु जो जिनेन्द्र भगवान्की आज्ञासे प्रतिकूल है तथा जिनका चित्त चलित है और जैन साधु कहाते है, उनके भी ध्यानका निषेध किया जाता है, क्योकि उनके ध्यानकी सिद्धि नहीं होती/३० । पं.ध/उ./२०६ नोपल ब्धिरसिद्धास्य स्वादुसंवेदनात्स्वयम् । अन्यादे शस्य संस्कारमन्तरेण सुदर्शनात ।२०६॥ संसारी जीवोंके मैं सुखी दुःखी इत्यादि रूपसे सुख-दुःखके स्वादका अनुभव होनेके कारण अशुद्धोपलब्धि असिद्ध नहीं है, क्योंकि उनके स्वयं ही दूसरी अपेक्षाका ( स्वरूपसंवेदनका) संस्कार नहीं होता है। ४. गुणस्थानों की अपेक्षा धर्मध्यानका स्वामित्व स.सि /६/३६/४५०/५ धर्म्यध्यानं चतुर्विकल्पमवसेयम् । तदविरतदेश विरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति । स.सि./६/३७/४५३/६ श्रेण्यारोहणात्याग्धयं श्रेण्यो शुक्ले इति व्याख्याते। १. धर्मध्यान चार प्रकारका जानना चाहिए। यह अविरत, देशविस्त, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत जीवोके होता है। (रा. वा/ १/३६/१३/६३२/१८), (ज्ञा./२८/२८)।२. श्रेणी चढनेसे पूर्व धर्मध्यान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-६१ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान होता है और दोनो श्रेणियों आदिके दो सुध्यान होते है। (रा.वा./१/३०/२/६३३/३) घ. १३/२,४,२६/०४/१० असंजदसम्माविदिह संजदास जनमत संजदसंजदासंजदपमत्त अप्पमत सजद अब संजद अणियहि जद-मपरायस्ययोग सामसु धम्मज्झाणस्स पत्ती होदि त्ति जिणावएसादो । ३. असंयम्य संयतासंयत प्रमत्तस्यत, अमतसंयत सपक उपशामक अपूर्वकरणसंयत, क्षपक व उपशामक अनिवृत्तिकरणसंयत, क्षपक व उपशामक सूक्ष्मसाम्परायसयत जोवोंके धर्मध्यानकी प्रवृत्ति होती है; ऐसा जिनदेवका उपदेश है । ( इससे जाना जाता है। कि धर्मध्यान कषाय सहित जीवोके होता है और शुक्लध्यान उपशान्त या क्षीणकषाय जीवोके ) ( स सि./६/३७/४५३/४ ); (रा.वा / ६/३७/२/६३२/३२) । ५. धर्मध्यानके स्वामित्व सम्बन्धी शंकाएँ ४८२ २. मिध्यादृष्टियों को भी तो धर्मध्यान देखा जाता है रा.जा./हिं/१/३६/७०० प्रश्न- मिध्यादृति अन्यमती तथा भद्रपरिणामी व्रत, शील, संयमादि तथा जीवनिकी दयाका अभिप्रायकरि तथा भगाइको सामान्य भक्ति कर धर्मवृद्धि चित एकाग्रकरि चिन्तयन करें] है, तिनिके शुभ धर्मध्यान कहिये कि नाहीं उत्तर मोक्षमार्गका प्रकरण है । तातै जिस ध्यान ते कर्मकी निर्जरा होय सो ही यहाँ गिणिये है । सो सम्यग्दृष्टि बिना कर्मको निर्जरा होय नाहीं । मिथ्यादृष्टिके शुभध्यान शुभबन्ध हीका कारण है। अनादि ते कई बार ऐसा ध्यानकरि शुभधर्म बान्धे है. परन्तु निर्जरा मिना मोक्षमार्ग नाहीं ताते मिथ्याका ध्यान मोक्षमार्गमे सराह्य नाही (र.आ./प. सदासुखदास पृ. ११५) । म.पु. / २१/१५५ का भाषाकारकृत भावार्थ-धर्मध्यानको धारण करने के लिए कमसे कम सम्यग्दृष्टि अवश्य होना चाहिए। मन्दकषायी मिथ्यादृष्टि जीवोंके जो ध्यान होता है उसे शुभ भावना कहते है । २. प्रमत्तजनोंको ध्यान कैसे सम्भव है। रा.वा./१/३६/१३/६३२/१७ कश्चिदाह - धर्म्यमप्रमत्तसंयत्तस्यैवेति तन्न; किं कारणम् । पूर्वेषा विनिवृत्तिप्रसङ्गात् । असंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासयत प्रमत्तसंयतानामपि धर्मध्यानमिष्यते सम्यक्त्वप्रभवत्वात् । प्रश्न- धर्मध्यान तो अप्रमत्तस्यतोके हो होता है। उत्तर-नही, क्योंकि ऐसा मानने से पहले के गुणस्थानोंगे धर्मध्यानका निषेध प्राप्त होता है । परन्तु सम्यक्त्वके प्रभावसे असयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्त संतजनों में भी धर्मध्यान होना इष्ट है। २. कषाय रहित जीवोंमें ही ध्यान मानना चाहिए , S रा.वा /६/३६/१४/६३२/२१ कश्विदाह-उपशान्त क्षीणपाययोश्च धर्म्यध्यानं भवति न पूर्वेषामेवेति तन्त्र कि कारण शुस्ताभावप्रसाद] उपशान्तीपादयोर्हि शुक्तध्यानमिष्यते तस्याभावः प्रसज्येत । प्रश्न-उपशान्त व क्षीणकषाय इन दो गुणस्थानों में धर्म्यध्यान होता, इससे पहिले गुणस्थानोंमे बिलकुल नही होता उचर नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने सुध्यानके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है उपशान्त व क्षीण पायगुणस्थानमे गुरुध्यान होना इष्ट है । | ३. धर्मध्यान व अनुप्रेक्षादिमें अन्तर १. ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिन्तामें अन्वर भ.आ./ १७९०/१५४३ ( धर्मध्यान/९/९/२) - धर्मध्यान आयेय है और अनुप्रेक्षा उसका आधार है । अर्थात् धर्मध्यान करते समय अनुप्रेक्षाका चिन्तन किया जाता है (भ.आ./मू./१०१४१ १५४५ ) । ३. धर्मध्यान व अनुप्रेक्षा आदिमें अन्तर घ. १३/५.४.२६/गा १२/६४ परिमाणं तं चित्तं । तं होइ भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिन्ता | १२| | जो परिणामोकी स्थिरता होती है उसका नाम ध्यान है, और जो चित्तका एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ मे चलायमान होना है वह या तो भावना है, या अनुप्रेक्षा है या चिन्ता है | १२| ( म. पु. / २१/१ ) | ( दे. शुक्लध्यान / १/४) । रा.मा./१/३६/१२/६३२ / ९४ स्यादेतत्-अनुप्रेक्षा अपि धर्मध्यानेऽन्तर्भअन्तीति पृथगामुपदेोऽमर्थक इतिः सन्नः किं कारणम्। ज्ञानप्रवृत्तिविकल्पत्वात । अनित्यादिविषयचिन्तन यदा ज्ञानं तदा अनुप्रेक्षाव्यपदेशो भवति, यदा तत्रैकाग्र चिन्तानिरोधस्तदा धर्म्यध्यानम् प्रश्न- अनुप्रेक्षाओंका भी ध्यानमें ही अन्तर्भाव हो जाता है, अत: उनका पृथक् व्यपदेश करना निरर्थक है ? उत्तर - नहीं, क्योकि, ध्यान व अनुप्रेक्षा ये दोनों ज्ञानप्रवृत्ति के विकल्प है। जब अनित्यादि विषयो में बार-बार चिन्तनधारा चालू रहती है तब वे ज्ञानरूप है और जब उनमे एकाग्र चिन्तानिरोध होकर चिन्तनधारा केन्द्रित हो जाती है, तब वे ध्यान कहलाती हैं । झा / २२/१६ एकाग्रचिन्तनिरोधो यस्तानमाननापरा अनुप्रेक्षार्यचिन्ता वा तज्ज्ञैरभ्युपगम्यते ॥ १६ ॥ - ज्ञानका एक ज्ञेयमें निश्चल ठहरना ध्यान है और उससे भिन्न भागना है, जिसे विजन अनुप्रेक्षा या अर्थचिन्ता भी कहते हैं। भा. पा. टी./१८/२२६ / १ एकस्मिन्निष्टे वस्तुनि निश्चला मतिर्ध्यानम् । आर्त रौद्रधर्मापेक्षया तु मतिश्चञ्चला अशुभा शुभा वा सा भावना कथ्यते, चित्तं चिन्तनं अनेकनययुक्तानुप्रेक्षणं ख्यापनं श्रुतज्ञानपदालोचन वा कथ्यते न तु ध्यानम् । किसी एक इष्ट वस्तुमें मतिका निश्चल होना ध्यान है। आर्त रोह और धर्मध्यानको अपेक्षा अर्थात इन तीनों ध्यान में मति चंचल रहती है उसे वास्तव में अशुभ या शुभ भावना कहना चाहिए। अनेक नययुक्त अर्थका पुन - पुन, चिन्तन करना अनुप्रेक्षा, ख्यापन श्रुतज्ञानके पदोकी आलोचना कहलाता है, ध्यान नहीं । २. अथवा अनुप्रेक्षादिको अपायविचय धर्मध्यानमें गर्मित समझना चाहिए म.पु. २९/९४२ पायप्रतिकारचिन्हो पायानुचिन्तनम्। अत्रैवान्तर्गत ध्येयं अनुप्रेक्षादित १४११ अथवा उन उपायों (दुखों) के. दूर करनेकी चिन्तासे उन्हें दूर करनेवाले अनेक उपायोका चितवन करना भी अपायविचय कहलाता है। बारह अनुप्रेक्षा तथा दशधर्म आदिका चिन्तयन करना इसी अपायविचय नामके धर्मध्यानमें शामिल समझना चाहिए । ३. ध्यान व कायोत्सर्ग में अन्तर घ. १३/५.४.२०/८/३ व्यस्स णिसम्णस्स पिण्णस्स वा साहुस्स साहि सह परिवागो काउसग्गो पाम पे उफाणस्तो णिवददि मारहाणुखास मादचित्तस्स नि काओस्सग्गुबतीदो एक पवि स्थित या बैठे हुए कायोत्सर्ग करनेवाले साधुका कषायों के साथ शरीरका त्याग करना कायोत्सर्ग नामका तपःकर्म है। इसका ध्यानमें अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि जिसका बारह अनुप्रेक्षाओं के चितवनमें बिस लगा हुआ है. उसके भी कामोत्सर्गकी उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार तपःकर्म का कथन समाप्त हुआ। ४. माला जपना आदि ध्यान नहीं रा. वा./६/२०/२४/६२०/९० स्याम्म रान कि कारण ध्यानातिकमा क्रियते ध्यानमेव न स्याद्वैयग्रबाद । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मात्रकालपरिमगमं व्यानमिति मात्राभिर्यादि कायम - प्रश्न - समयमात्राओंका Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ધર્મધ્યાન ४८३ ३. धर्मध्यान व अनुप्रेक्षा आदिमे अन्तर चानक गिनना ध्यान है। उत्तर-नहीं, क्योकि, ऐसा माननेसे ध्यानके है। क्योकि, कषायसहित धर्मध्यानीके सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके लक्षणका अतिक्रमण हो जाता है, क्योंकि, इसमे एकाग्रता नही है। अन्तिम समयमै मोहनीय कर्मकी सर्वोपशमना देखी जाती है। ४. गिनती करनेमे व्यग्रता स्पष्ट ही है। तीन घातिकर्मोका समूलविनाश करना एकवितर्क अवीचार ( शुक्ल) ५. धर्मध्यान व शुक्लध्यानमें कथंचित् भेदाभेद ध्यानका फल है, परन्तु मोहनीयका विनाश करना धर्मध्यानका फल है। क्योंकि, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें उसका १. विषय व स्थिरता आदिकी अपेक्षा दोनों समान है विनाश देखा जाता है। मा,अनु./६४ सुधुवजोगेण पुणो धम्म सुक्कं च होदि जीवस्स । तम्हा ____ म पु /२१/१३१ विशुद्धिस्वामिभेदात्तु तद्विशेषोऽवधार्यताम् । ५. इन सवरहेदू झाणोत्ति विचिंतये णिच्च ६४। -१. शुद्धोपयोगसे ही दोनोमे स्वामी व विशुद्धिके भेदसे परस्पर विशेषता समझनी जीवको घHध्यान व शुक्लध्यान होते हैं। इसलिए सवरका कारण चाहिए । (त.अनु./१८०) ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिए। (दे० मोक्षमार्ग/२/ दे० धर्मध्यान/४/१/३६. धर्मध्यान शुक्लध्यानका कारण है। ४); (त-अनु./९८०) दे० समयसार-धर्म ध्यान कारण समयसार है और शुक्लध्यान कार्य ध,१३/५,४,२६/७४/१जदि सव्वो समयसब्भावो धम्मज्झाणस्सेव विसओ समयसार है। होदि तो सुझज्झाणेण णिव्विसएण होदव्बमिदि ! ण एस दोसो दोणं पि ज्माणाणं विसयं पडिभेदाभावादो। जदि एवं तो दोणं ४. धर्मध्यानका फल पुण्य व मोक्ष तथा उनका ज्झाणाणमेयत्तं पसज्जदे। कुदो। .-खज्जतो वि...फाडिज्जंतो वि ...कवलिज्जतो वि.. लालिज्जतओ विजिस्से अवत्थाए ज्झेयादो समन्वय ण चल दि सा जीवावत्था ज्झाणं णाम । एसो वि त्थिरभावो उभयत्थ सरिसो,अण्णहाज्माणभावाणुववत्तीदो त्ति । एत्थ परिहारो बुच्चदे १. धर्मध्यानका फल अतिशय पुण्य सच्चं एदेहि दोहि विसरूवेहि दोण्णं ज्माणाणं भेदाभावादो। ध. १३/५,४,२६/५६/७७ होति सुहासव संवर णिज्जरामरसुहाई विउ-प्रश्न- २. यदि समस्त समयसद्भाव (संस्थानविचय) धर्म्य लाई। झाणवरस्स फलाई सुहाणुबंधीणि धम्मस्स ! - उत्कृष्ट धर्मध्यानका ही विषय है तो शुक्लध्यानका कोई विषय शेष नहीं ध्यानके शुभास्रव, संवर, निर्जरा, और देवोका सुख ये शुभानुबन्धी रहता! उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों ही ध्यानोमें विपुल फल होते है। विषयकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। (चा. सा./२१०/३) प्रश्न-यदि ज्ञा./४१/१६ अथावसाने स्वतनु विहाय ध्यानेन संन्यस्तसमस्तसङ्गाः। ऐसा है तो दोनों ही ध्यानोंमे अभेद प्राप्त होता है। क्योकि ग्रवेयकानुत्तरपुण्यवासे सर्वार्थ सिद्धौ च भवन्ति भव्याः। =जो भव्य ( व्याघ्रादि द्वारा) भक्षण किया गया भी, (करोंतों द्वारा) फाडा पुरुष इस पर्यायके अन्त समयमे समस्त परिग्रहोंको छोड़कर धर्मगया भी, (दावानल द्वारा) प्रसा गया भी, (अप्सराओं द्वारा) ध्यानसे अपना शरीर छोडते है, वे पुरुष पुण्यके स्थानरूप ऐसे प्रैवेलालित किया गया भी, जो जिस अवस्थामें ध्येयसे चलायमान यक व अनुत्तर विमानोमे तथा सर्वार्थ सिद्धि में उत्पन्न होते है। नहीं होता, बह जोवकी अवस्था ध्यान कहलाती है। इस प्रकारका यह भाव दोनों ध्यानोमें समान है, अन्यथा ध्यानरूप परिणामकी २. धर्मध्यानका फल संवर निर्जरा व कर्मक्षय उत्पत्ति नहीं हो सकती। उत्तर-यह बात सत्य है, कि इन दोनों प्रकारके स्वरूपोको अपेक्षा दोनों ही ध्यानों में कोई भेद नहीं है। ध.१३/५४,२६/२६,५७/६८,७७ णवकम्माणादाणं, पोराणवि णिज्जराम.पु./२१/१३१ साधारणमिदं ध्येयं ध्यानयोधर्म्य शुक्लयोः। -विषय सुहादाणं । चारित्तभावणाए ज्माणमयत्तण य समेइ ।२६। जह वा की अपेक्षा तो अभीतक जिन ध्यान करने योग्य पदार्थोंका (दे० घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिज्जंति । ज्माणप्पवणोवह्या धर्मध्यान सामान्य व विशेषके लक्षण ) वर्णन किया गया है, वे सब तह कम्मघणा विलिज्जति ।५७ - चारित्र भावनाके बलसे जो धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान इन दोनों ही ध्यानोके साधारण ध्येय ध्यानमें लीन है, उसके नूतन कर्मोका ग्रहण नही होता, पुराने हैं । (त,अनु./१८०) कर्मोंकी निर्जरा होती है और शुभ कर्मोका आस्रव होता है ।२६। (ध/१३/५/४/२६/५६/७७ -दे० ऊपरवाला शीर्षक) अथवा जैसे २. स्वामी, स्थितिकाल, फल व विशुद्धिकी अपेक्षा भेद है मेघपटल पवनसे ताड़ित होकर क्षणमात्रमें विलीन हो जाते ध.१३/५,४,२६/७५/८ तदो सकसायाकसायसामिभेदेण अचिरकालचिर- है, वैसे ही (धर्म्य ) ध्यानरूपी पवनसे उपहत होकर कर्ममेघ कालावट्ठाणेण य दोण्ण झाणाणं सिद्धो भेआ। भी विलीन हो जाते हैं । ध.१३/५,४,२६/८०/१३ अट्ठावीसभेयभिण्णमोहणीयस्स सव्वसमाव- (दे० आगे धर्म्यध्यान/६/३ में ति. प.), (स्वभावसंसक्त मुनिका ध्यान ठाणफलं पुधत्त विदक्कवीचारसुक्कज्झाणं । मोहसव्वुसमो पुण निर्जराका हेतु है।) धम्मज्माणफलं; सकसायत्तणेण धम्मज्झाणिणो सुहमसापराइयस्स (दे० पीछे/धर्म्यध्यान/३/५/२); (सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तमें चरिमसमए मोहणीयस्स सव्वुक्समुवलंभादो। तिणं घादिकम्माणं कर्मों की सर्वोपशमना तथा मोहनीकर्मका क्षय धर्म्यध्यानका हिम्मूलविणासफलमेयत्तविदक्कअवीचारज्माणं । मोहणीय विणासो फल है।) पुण धम्मज्झाणफलं; सुहुसांपरायचरिमसमए तस्स विणासुवलंभादो। १. सकषाय और अकषायरूप स्वामीके भेदसे तथा-- ज्ञा./२२/१२ ध्यानशुद्धि,मन शुद्धि, करोत्येव न केवलम् । विच्छिनत्यपि नि.शड्कं कर्मजालानि देहिनाम् ।१५॥ - मनकी शुद्धता केवल ध्यान(चा.सा./२१०/४) । २. अचिरकाल और चिरकाल तक अवस्थिति को शुद्धताको ही नहीं करती है, किन्तु जीवोंके कर्मजालको भी रहनेके कारण इन दोनों ध्यानोंका भेद सिद्ध है । (चा. सा./२१०/४) । नि सन्देह काटती है। ३. अट्ठाईस प्रकारके मोहनीय कर्मकी सर्वोपशमना हो. जानेपर पं.का./ता.वृ./१७३/२५३/२५ पर उधृत-एकाग्रचिन्तनं ध्यानं फलं उसमें स्थित रखना पृथक्त्व-वितर्कवीचार नामक शुक्लध्यानका संवरनिर्जरे। - एकाग्र चिन्तवन करना तो (धर्म्य) ध्यान है और फल है, परन्तु मोहनीयका सर्वोपशमन करना धर्मध्यानका फल संवर निर्जरा उसका फल है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान ४८४ ५. पंचमकालमे भी धमध्यानको सफलता धर्माध्यानसे अतिक्रान्त होकर अत्यन्त शुद्धताको प्राप्त हुआ धीर वीर मुनि अत्यन्त निर्मल शुक्लध्यानके ध्यावनेका प्रारम्भ करता है। विशेष दे० धर्मध्यान/६/६ । (पं० का/१५०)-(दे० 'समयसार')धर्मध्यान कारण समयसार है और शुक्लध्यान कार्यसमयसार । ६. परपदार्थों के चिन्तवनसे कर्मक्षय कैसे सम्मव है ध. १३/५,४,२६/७०/४ कधं ते णिग्गुणा कम्मक्खयकारिणो । ण तेसि रागादिणिरोहे णिमित्तकारणाणं तदविरोहादो।प्रश्न-जब कि नौ पदार्थ निर्गुण होते है, अर्थात अतिशय रहित होते है, ऐसी हालतमें वे कर्मक्षयके कर्ता कैसे हो सकते है । उत्तर-नहीं, क्योंकि वे रागादिके निरोध करने में निमित्तकारण हैं, इसलिए उन्हे कर्मक्षयका निमित्त मानने में विरोध नहीं आता। (अर्थात उन जीवादि नौ पदार्थोंके स्वभावका चिन्तवन करनेसे साम्यभाव जागृत होता है।) ५. पंचमकालमें भी धर्मध्यानकी सफलता ३. धर्म्यव्यानका फल मोक्ष त. सू./६/२६ परे मोक्षहेतू ।२६।-अन्तके दो ध्यान (धर्म्य व शुक्ल ध्यान ) मोक्षके हेतु है। चा. सा./१७२/२ ससारलतामूलोच्छेदनहेतुभूतं प्रशस्तध्यानं । तदद्विविध, धम्यं शुक्ल चेति । =संसारलताके मूलोच्छेद का हेतुभूत प्रशस्त ध्यान है । वह दो प्रकारका है-धर्म्य व शुल्क । १. एक धर्मध्यानसे मोहनीयके उपशम व क्षय दोनों होनेका समन्वय ध,१३/१४,२६/८१/३ मोहणीयस्स उबसमो जदि धम्मज्झाणफलो तो ण बदी, एयादो दोण्णं कज्जाणमुप्पत्तिविरोहादो। ण धम्मज्झाणादो अणेयभेयभिण्णादो अणेयकज्जाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो।प्रश्न-मोहनीय कर्मका उपशम करना यदि धर्म्यध्यानका फल हो तो इसीसे मोहनीयकाक्ष य नही हो सकता। क्योकि एक कारणसे दो कार्यों की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । उत्तर-नही, क्योंकि धर्म्यध्यानअनेक प्रकारका है। इसलिए उससे अनेक प्रकारके कार्योंकी उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता।। .. धम्यध्यानसे पुण्यात्रव व मोक्ष दोनों होनेका समन्वय १. साक्षात् नहीं परम्परा मोक्षका कारण है ज्ञा./३/३२ शुभध्यानफलोद्भूतां श्रियं त्रिदशसंभवाम् । निर्विशन्ति नरा नाके क्रमाद्यान्ति पर पदम् ॥३२॥ =मनुष्य शुभध्यानके फलसे उत्पन्न हुई स्वर्गको लक्ष्मीको स्वर्ग में भोगते है और क्रमसे मोक्षको प्राप्त होते हैं। और भी दे० आगे धर्माध्यान//२)। २. अचरम शरीरियोंको स्वर्ग और चरम शरीरियोंको मोक्षप्रदायक है ध. १३/५,४,२६/७७/१ किंफलमेदं धम्मज्माणं । अक्रववएसु विउलामरसुहफलं गुणसेडीए कम्मणिज्जरा फलं च । खवरसु पुण असंखेज्जगुणसेडीए कम्मपदेसणिज्जरणफलं सुहकम्माणमुक्कस्साणुभागविहाणफलं च । अतएव धादनपेतं धर्म्यध्यानमिति सिद्धम् । = प्रश्नइस धर्म्यध्यानका क्या फल है ? उत्तर-अक्षपक जीवोंको (या अचरम शरीरियोंको) देवपर्याय सम्बन्धी विपुलसुख मिलना उसका फल है, और गुणश्रेणी में कर्मोकी निर्जरा होना भी उसका फल है। तथा क्षपक जीवोंके तो असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा होना और शुभकर्मोके उत्कृष्ट अनुभागका होना उसका फल है। अतएव जो धर्मसे अनपेत है व धर्मध्यान है यह बात सिद्ध होती है। त. अनु./१९७, २२४ ध्यातोऽर्ह सिद्धरूपेण चरमाङ्गस्य मुक्तये । तयानोपात्तपुण्यस्य स एवान्यस्य भुक्तये ।१६७। ध्यानाभ्यासप्रकर्षण त्रुट्यन्मोहस्य योगिनः। चरमाङ्गस्य मुक्तिः स्यात्तदैवान्यस्य च क्रमात ।२२४।ळ अर्हद्रूप अथवा सिद्धरूपसे ध्यान किया गया (यह आत्मा) चरमशरीरी ध्याताके मुक्तिका और उससे भिन्न अन्य ध्याताके भुक्ति (भोग) का कारण बनता है, जिसने उस ध्यानसे विशिष्ट पुण्यका उपार्जन किया है ।११७ ध्यानके अभ्यासकी प्रकर्षतासे मोहको नाश करनेवाले चरमशरीरी योगीके तो उस भवमें मुक्ति होती है और जो चरम शरीरी नहीं है उनके क्रमसे मुक्ति होती है ।२२४॥ ३. क्योंकि मोक्षका साक्षात् हेतुभूत शुक्लध्यान धर्म्यध्यान पूर्वक ही होता है। ज्ञा./४२/३ अथ धर्म्यमतिक्रान्त' शुद्धि चात्यन्तिकी श्रित' । ध्यातुमारभते वीरः शुक्लमत्यन्तनिर्मलम् ३ = इस धर्म्यध्यानके अनन्तर १. यदि ध्यानसे मोक्ष होता है तो अब क्यों नहीं होता प.प्र./टी./१/६७/६२/४ यद्यन्तर्मुहूर्त परमात्मध्यानेन मोक्षो भवति तर्हि इदानीं अस्माकं तद्ध्यानं कुर्वाणानां कि न भवति । परिहारमाहयादशं तेषां प्रथमसंहननसहितानां शुक्लध्यानं भवति तादृशमिदानी नास्तीति ।-प्रश्न-यदि अन्तर्मुहूर्तमात्र परमात्मध्यानसे मोक्ष होता है तो ध्यान करनेवाले भी हमें आज वह क्यों नहीं होता । उत्तरजिस प्रकारका शुक्लध्यान प्रथम संहननवाले जीवोंको होता है वैसा अब नहीं होता। २. यदि इस कालमें मोक्ष नहीं तो ध्यान करनेसे क्या प्रयोजन द्र. सं./टी./५७/२३३/११ अथ मत-मोक्षार्थ ध्यानं क्रियते, न चायकाले मोक्षोऽस्ति, ध्यानेन कि प्रयोजनम् । नैवं अद्यकालेऽपि परम्परया मोक्षोऽस्ति। कथमिति चेत्, स्वशुद्धात्मभावनाबलेन संसारस्थिति स्तोकं कृत्वा देवलोकं गच्छति, तस्मादागत्य मनुष्यभवे रत्नत्रयभावना लब्ध्वा शीघ्र मोक्ष गच्छतीति। येऽपि भरतसगररामपाण्डबादयो मोक्षं गतास्तेऽपि पूर्वभवेऽभेदरत्नत्रयभावनया संसारस्थिति स्तोकं कृत्वा पश्चान्मोक्षं गताः। तद्भवे सर्वेषां मोक्षो भवतीति नियमो नास्ति । प्रश्न-मोक्षके लिए ध्यान किया जाता है, और मोक्ष इस पंचमकालमे होता नही है, इस कारण ध्यानके करनेसे क्या प्रयोजन 1 उत्तर-इस पंचमकालमें भी परम्परासे मोक्ष है। प्रश्नसो कैसे है ? उत्तर-ध्यानी पुरुष निज शुद्धात्माकी भावनाके बलसे संसारकी स्थितिको अल्प करके स्वर्गमें जाता है। वहाँसे मनुष्यभवमें आकर रत्नत्रयको भावनाको प्राप्त होकर शीघ्र ही मोक्षको चला जाता है । जो भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, रामचन्द्र तथा पाण्डव युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम आदि मोक्षको गये हैं, उन्होने भी पूर्वभवमें अभेदरत्नत्रयकी भावनासे अपने संसारको स्थितिको घटा लिया था। इस कारण उसी भवमें मोक्ष गये । उसी भवमे सबको मोक्ष हो जाता हो, ऐसा नियम नहीं है। (और भी देखो/७/१२)। ३. पंचमकालमें अध्यात्मध्यानका कथंचित् सद्भाव व असद्भाव न. च. वृ./३४३ मज्झिमजहणुक्कस्सा सराय इव वीयरायसामग्गी। तम्हा सुद्धचरित्ता पंचमकाले वि देसदो अत्थि ।३४३१ = सरागकी भाँति वीतरागताकी सामग्री जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट होती है। इसलिए पंचमकालमें भी शुद्धचरित्र कहा गया है। (और भी दे० अनुभव/१२)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान ४८५ ६. निश्चय व्यवहार धर्मध्यान निर्देश को आरोपित करके, तथा उसमे ही एकाग्रताको प्राप्त होकर अन्य कुछ भी चिन्तवन न करे ।१४४। शरीर और मैं अन्य-अन्य है ।१४६) मैं सदा सत्, चित, ज्ञाता, द्रष्टा, उदासीन, देह परिमाण व आकाशवत अमूर्तिक हूँ।१५३॥ दृष्ट जगत न इष्ट है न द्विष्ट किन्तु उपेक्ष्य है ।१५७। इस प्रकार अपने आत्माको अन्य शरीरादिकसे भिन्न करके अन्य कुछ भी चिन्तवन न करे ।१५। यह चिन्ताभाव तुच्छाभाव रूप नहीं है, बल्कि समतारूप आत्माके स्वसंवेदनरूप है ।१६०। (ज्ञा./३१/ २०-३७)। द्र.टी./१८/२०४/११ मैं अनन्त ज्ञानादिका धारक तथा अनन्त सुखरूप हूँ, इत्यादि भावना अन्तरग धर्म ध्यान है। (पं.का./ता.वृ/१५०-१५१/ २१८/१)। नि. सा./ता. वृ./१५४/क. २६४ असारे संसारे कलिबिल सिते पापबहुले, न मुक्तिर्गेिऽस्मिन्ननयंजिननाथस्य भवति । अतोऽध्यात्म ध्यान कथमिह भवन्निर्मल धिया, निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् । १२६४ असार संसारमें, पापसे भरपूर कलिकालका विलास होनेपर, इस निर्दोष जिननाथके मार्ग मे मुक्ति नहीं है। इसलिए इस कालमे अध्यात्मध्यान कैसे हो सकता है । इसलिए निर्मल बुद्धिवाले भवभयका नाश करनेवाली ऐसी इस निजात्मश्रद्धाको अंगीकृत करते हैं। १. परन्तु इस क हमें ध्यानका सर्वथा अभाव नहीं है। मो. पा./मू./७६ भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स। तं अप्पसहावट्ठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी १७६१ = इस भरतक्षेत्रमें दु.षमकाल अर्थात् पचमकालमें भी आत्मस्वभावस्थित साधुको धर्मध्यान होता है । जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी है । (र. सा./६०); (त. अनु./८२)। ज्ञा./४/३७ दुःषमत्वादयं कालः कार्यसिद्धेन साधकम् । इत्युक्त्वा स्वस्य चान्येषां कैश्चिद्ध्यानं निषिध्यते ॥३७॥= कोई-कोई साधु ऐसा कहकर अपने तथा परके ध्यानका निषेध करते हैं कि इस दुषमा पंचमकाल में ध्यानकी योग्यता किसीके भी नहीं है। (उन अज्ञानियों के ध्यानकी सिद्धि कैसे हो सकतो है ।)। ५. पंचमकालमें शुक्लध्यान नहीं पर धर्मध्यान अवश्य सम्भव है त. अनु./६३ अत्रेदानी निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमा । धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणिभ्यां प्राग्विवतिनाम् ।८३१ - यहाँ (भरत क्षेत्रमें ) इस (पंचम ) कालमें जिनेन्द्रदेव शुक्लध्यानका निषेध करते हैं परन्तु श्रेणीसे पूर्ववतियोंके धर्मध्यान बतलाते है । (द्र. सं /टी./५७/२३१/११) (पं.का./ता. वृ./१४६/२११/१७) । ६. निश्चय व्यवहार धर्मध्यान निर्देश १. निश्चय धर्मध्यानका लक्षण मो. पा./मू./८४ पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदसणसमग्गा । जो ज्झायदि सो जोई पावहरो भवदि णिहदो।४।-जो योगी शुद्धज्ञानदर्शन समग्र पुरुषाकार आत्माको ध्याता है वह निर्द्वन्द्व तथा पापोंका विनाश करनेवाला होता है। द्र.सं./मृ./५५-५६ जं किंचिवि चितंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू । लवधूण य एयत्तं तदाहू तं णिच्छय झाणं ५ मा चिठ्ठह मा जंपह मा चिंतह किवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे झाण ५६। -ध्येयमें एकाग्र चित्त होकर जिसकिसी भी पदार्थ का ध्यान करता हुआ साधु जब निस्पृह वृत्ति होता है उस समय वह उसका ध्यान निश्चय होता है। हे भव्य पुरुषो! तुम कुछ भी चेष्टा मत करो, कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो, अर्थात काय, वचन व मन तीनोंकी प्रवृत्तिको रोको; जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आस्मामें स्थिर होवे। आत्मामें लीन होना परमध्यान है ।१६॥ का.अ./मू./४८२ बज्जिय-सयलवियप्पो अप्पसरूवे मणं णिरु'धंतो। जं चिंतदि साणंदे तं धम्म उत्तमं झाणं ।४८२ -सकल विकल्पोंको छोड़कर और आत्मस्वरूपमें मनको रोककर आनन्दसहित जो चिन्तन होता है वही उत्तम धर्मध्यान है। त.अनु./श्लो.नं./ भावार्थ-निश्चयादधुना स्वात्मालम्बनं तन्निरुच्यते ।१४। पूर्व श्रुतेन संस्कार स्वात्मन्यारोपयेत्ततः । तत्रैकाग्र्यं समासाद्य न किंचिदपि चिन्तयेत्।१४४ा- अब निश्चयनयसे स्वात्मलम्बन स्वरूपध्यानका निरूपण करते हैं ।१४११ श्रुतके द्वारा आत्मामें आत्मसंस्कार २. व्यवहार धर्मध्यानका लक्षण त.अनु./१४१ व्यवहारनमादेवं ध्यानमुक्त पराश्रयम् । इस प्रकार व्यवहार नयसे पराश्रित धर्मध्यानका लक्षण कहा है। (अर्थात् धर्मध्यान सामान्य व उसके आज्ञा अपाय विचम आदि भेद सब व्यवहार ध्यानमें गर्मित हैं ।) ३. निश्चय ही ध्यान सार्थक है व्यवहार नहीं प्र.सा./१६३-१६४ देहा वा दविणा वा सुदुक्खा वाधसत्तु मित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगअप्पगो अप्पा ॥१६३। जो एवं जाणिताज्झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा । साकारोऽनाकारः क्षपयति स मोहदुर्गन्थिम् ।१६४= शरीर, धन, सुख, दुःख अथवा शत्रु, मित्रजन ये सब ही जीवके कुछ नहीं है, ध्रुव तो उपयोगात्मक आत्मा है ।१६३। जो ऐसा जानकर विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्माका ध्यान करता है, वह साकार हो या अनाकार, मोहदुर्ग्रन्थिका क्षय करता है। ति.प./६/२१,४० दसणणाणसमग्गं झाणं णो अण्णदव्यसंसत्तं । जायदि 'णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साहुस्स १२१॥ ज्झाणे जदि णियादा णाणादो णावभासदे जस्स । झाणं होदि ग तं पुण जाण पमादो, हू मोहमुच्छा वा ४० = शुद्ध स्वभावसे सहित साधुका दर्शन-ज्ञानसे परिपूर्ण ध्यान निर्जराका कारण होता है, अन्य द्रव्योंसे संसक्त बह निर्जराका कारण नहीं होता ।२१। जिस जीवके ध्यानमें यदि ज्ञानसे निज आत्माका प्रतिभास नहीं होता है तो वह ध्यान नहीं है। उसे प्रमाद, मोह अथवा मूर्छा ही जानना चाहिए ।४०। (त.अनु./१६६) आराधनासार/८३ यावद्विकल्प' कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य । तावन्न शून्यं ध्यान, चिन्ता वा भावनाथवा ८३ -जब तक ध्यानयुक्त योगीको किसी प्रकारका भी विकल्प उत्पन्न होता रहता है. तक तक उसे शून्य ध्यान नहीं है,या तो चिन्ता है या भावना है। (और भी दे० धर्म्यध्यान/३/१) ज्ञा./२८/१६ अविक्षिप्तं यदा चेतः स्वतत्त्वाभिमुखं भवेत्। मनस्तदैव निर्विघ्ना ध्यान सिद्धिरुदाहृता ।१६। = जिस समय मुनिका चित्त क्षोभरहित हो आत्मस्वरूपके सम्मुख होता है. उस काल ही ध्यानकी सिद्धि निर्विघ्न होती है। प्र.सा./त.प्र./१६४ अमुना यथोदितेन विधिना शुद्धात्मानं धु वमधिगच्छतस्तस्मिन्नेव प्रवृत्ते' शुद्धात्मत्वं स्यात् । ततोऽनन्तशक्तिचिन्मात्रस्य परमस्यात्मन एकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानं स्यात् । -इस यथोक्त विधि के द्वारा जो शुद्धात्माको ध्र ब जानता है, उसे उसी में प्रवृत्तिके द्वारा शुद्धात्मत्व होता है, इसलिए अनन्त शक्तिवाले चिन्मात्र परम आत्माका एकाग्रसंचेतन लक्षण ध्यान होता है (प्र.सा./त.प्र./१९८), (नि.सा./ता.व./११६) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान प्र.सा./त.प्र./२४३ यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति सोऽवश्यं ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति । तथाभूतश्च बध्यत एव न तु मुच्यते । जो वास्तवमे ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्रको नही भाता, वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यका आश्रय करता है और ऐसा होता हुआ को ही प्राप्त होता है, परन्तु मुख नहीं होता। नि.सा./ता.३/१४४ यख व्यावहारिकधर्मध्यानपरिणतः व्रत एव चरणकरणप्रधान,किन्तु स निरपेक्षतपोधन. साक्षान्मोक्षकारणं स्वामाश्रयावश्यक कर्म निश्चयत परमावश्यमिश्रान्तरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अतः परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्त णो वास्तवमे व्यावहारिक धर्मध्यानमे परिणत रहता है. इसलिए चरणकरणप्रधान है; किन्तु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्षके कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यककर्मको, निश्चयसे परमारमव विभावरूप निश्चयधर्मध्यानको तथा शुक्लध्यानको नही जानता इसलिए परद्रव्यमे परिणत होनेसे उसे अन्यवश कहा गया है । ४८६ ४. व्यवहार ध्यान कथंचित् अज्ञान है। एतेन कर्मबन्धविषयचिन्ता प्रबंधात्मक विशुद्धधर्मस.सा./आ./१११ ध्यानान्धबुद्धयो बोध्यन्ते। इससे कर्मबन्धने चिन्ताप्रबन्धस्वरूप विशुद्ध धर्मध्यानसे जिनकी बुद्धि अन्धी है, उनको समझाया है । ५. व्यवहार ध्यान निश्चयका साधन प्र.सं./टी./४१ / २०१/४ निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतं यो पयोगलक्षणं व्यवहारध्यानम्। निश्चयध्यानका परम्परासे कारण जो भोपयोग लक्षण व्यवहारध्यान है (द्र.सं./टी./२३/२२१/२) ९. निश्चय व व्यवहार ध्यान में साध्यसाधकपनेका समन्वय 1 घ. १३/२४,२६/२१/६७ मिसमं हि समारोहह दव्वाणो जहा पुरिसो मुताबिकवाली वह कागव समारुह 19 जिस प्रकार कोई पुरुष नसेनी (सीडी) आदि द्रव्यके आलम्बनसे नियमभूमिपर भी आरोहण करता है, उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र आदि तम् उत्तम ध्यानको प्राप्त होता है (भ.आ./वि./१००० १६८१/१२) शा./२३/२४] अभियानासना वेशविशेषविवशात्मनाम् योज्यमानमपि स्वस्मिनचेतः कुरुते स्थितिम् ॥२॥ लक्ष्यं लक्ष्यसंबन्धाय स्थूला सूक्ष्मं विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्बं तत्त्ववित्तत्त्वमजसा 181 - आत्मा के स्वरूपको यथार्थ जानकर अपने मे जोडता हुआ भी अविद्याकी वासनासे विवश है आत्मा जिनका उनका चित्त स्थिरताको नहीं धारण करता है ॥२॥ तक्ष्य सम्बन्धसे अलक्ष्यको अर्थात् इन्द्रियगोचरके सम्बन्धसे इन्द्रियातीत पदार्थोंको तथा स्थूलके आलम्बनसे सूक्ष्मको चिन्तवन करता है। इस प्रकार सालम्ब ध्यानसे निरालम्बके साथ तन्मय हो जाता है |४| ( और भी दे० चारित्र /०/१०) = पं.का/ता.वृ./१५२/२२०/६ अयमत्र भावार्थ - प्राथमिकानां चित्तस्थिरीकरणार्थ विषयाभिलाषरूपध्यानवञ्चनार्थ च परम्परया मुक्तिकारण पचपरमेष्यादिपव्यं ध्येयं भवति इतरध्यानाभ्यासेन चिचे स्थिरे जाते सति निजात्मस्वरूपमेव ध्येयं इति परस्परसापेक्षनिश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकभाव ज्ञात्वा ध्येयविषये विवादो ६. निश्चय व्यवहार धर्मध्यान निर्देश न कर्तव्य । प्राथमिक जनोंको चित्त स्थिर करनेके लिए तथा विषयाभिलाषरूप दुर्ध्यानसे बचनेके लिए परम्परा मुक्ति के कारणभूत पंच परमेष्ठी आदि परद्रव्य ध्येय होते है । तथा दृढतर ध्यानके अभ्यास द्वारा चित्तके स्थिर हो जानेपर निजशुद्ध आत्मस्वरूप ही ध्येय होता है । ऐसा भावार्थ है । इस प्रकार परस्पर सापेक्ष निश्चय व्यवहारनयोके द्वारा साध्यसाधक भावको जानकर ध्येयके विषयमें विवाद नहीं करना चाहिए। (इ.सं./टी./५३/२२३/१२), (१.प्र./टी./२/ ३३ / ९६४/२) पं. का./ता.वृ./१२०/२१७/१४ पदार्थ जीव.. सरागस परमेष्ठिभवत्यादिरूपेण पराश्रितधर्म्यध्यानव हिरड सहकारित्वेनानन्तज्ञानादिस्वरूपोऽहमित्यादिभावनास्वरूपमात्माश्रितं धर्म्यध्यानं प्राप्य आगमकथितक्रमेणासं यतसम्यग्दृष्टमादिगुणस्थानचतुष्टयमध्ये वापि गुणस्थाने दर्शनमोहादिक सम्यवत्वं कृत्वा तदनन्तरमपूर्वक रणादिगुणस्थानेषु प्रकृतिपुरुष निर्मश वियोतिरूपप्रथम ध्यान मनुभूय... मोहक्षपणं कृत्वा भावमोक्षं प्राप्नोति । अनादिकाल से अशुद्ध हुआ यह जीव सरागसम्यग्दृष्टि होकर पंचपरमेष्ठी आदिकी भक्ति आदि रूपसे पराश्रित धर्म्यध्यानके बहिरंग सहकारी पनेसे में अनन्त ज्ञानादि स्वरूप 'ऐमे आत्माश्रित धर्मध्यानको प्राप्त होता है. तत्पश्चात् आगम कथित क्रमसे असंयत सम्यग्दृष्टि आदि अप्रमत्तसंयत पर्यन्तके चार गुणस्थानोंसे किसी एक गुणस्थानमें दर्शनमोहका क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है । तदनन्तर अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंमें प्रकृति व पुरुष ( कर्म व जीव ) सम्बन्धी निर्मल विवेक ज्योतिरूप प्रथम शुक्लध्यानका अनुभव करने के द्वारा वीतराग चारित्रको प्राप्त करके मोहका क्षय करता है, और अन्तमें भारमोक्ष प्राप्त कर लेता है। ७. निश्चय व व्यवहार ध्यानमें निश्चय शब्दकी आंशिक प्रवृत्ति प्र.सं./टी./२४-३६/२२४/६ निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नश्वानृतनिश्चयो प्राह्म निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षा तुझीपयोग लक्षण विवक्षितेदेश शुद्धनिश्चयो ग्राह्यः विशेषनिश्चयः पुनरग्रे वक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थः ॥ ५५॥ ' मा चिट्ठह...।' इदमेवात्मसुखरूपे तन्मयत्वं निश्चयेन परमुकुटध्यानं भवति । 'निश्चय' शब्द से अभ्यास करनेवाले पुरुषकी अपेक्षासे व्यवहार रत्नत्रयके अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए और जिसके ध्यान सिद्ध हो गया है उस पुरुषकी अपेक्षा शुद्धयोगरूप विवक्षित एकदेशसुद्ध निश्चय ग्रहण करना चाहिए। विशेष निश्चय आगेके सूत्र में कहा है, कि मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको रोककर आत्मा के सुखरूपमें तन्मय हो जाना निश्चयसे परम उत्कृष्ट ध्यान है। (विशेष दे० अनुभव / ५ / ७) ८. निरीह मावसे किया गया सभी उपयोग एक आत्म उपयोग ही है | .../८६१-८६ अस्ति ज्ञानोपयोगस्य स्वभावमहिमोदयः आत्मपरोभय कारभामकश्च प्रदीपन 1०६१। निर्विशेषाद्यथात्मानमिव शेय नमेति च राधा सुनिश्चि धर्मादीनवगच्छति ॥८६॥ स्वस्मिन्नेबोपयुक्त वामपयुक्त स एव हि परस्मिन्नुपयुक्त या नोपयुक्तः स एव हि स्वस्मिन्नेवोपयुक्तोऽपि नोकर्या समस्तुतः उपयुक्त परत्रापि नापकर्षाय तत्वतः ॥ २६४॥ तस्मात् स्वस्थितयेऽन्यस्मादेकाकारचिकीर्षया । मासीदसि महाप्राज्ञ सार्थमर्थमवै हि भोः । ८६ - निजमहिमासे ही ज्ञान प्रदोषवत स्व पर व उभयका युगपत् अव - भासक है । ८६१। वह किसी प्रकारका भी भेदभाव न करके अपनी तरह ही अपने विषयभूत मूर्त व अमूर्त धर्म अधर्मादि द्रव्योंको भी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मनाथ ४८७ धर्माधर्म जानता है ।८६२। अत' केवल निजात्मोपयोगी अथवा परपदार्थोपयोगी ही न होकर निश्चयसे वह उभयविषयोपयोगी है ।८६३। उस सम्यग्दृष्टिको स्वमें उपयुक्त होनेसे कुछ उत्कर्ष (विशेष सवर निर्जरा) और परमें उपयुक्त होनेसे कुछ अपकर्ष (बन्ध ) होता हो, ऐसा नहीं है।८६४। इसलिए परपदार्थोके साथ अभिन्नता देखकर तुम दुखी मत होओ। प्रयोजनभूत अर्थको समझो। और भी दे, ध्यान/४/५ (अहंतका ध्यान वास्तवमे तद्गुणपूर्ण आत्माका ध्यान ही है)। धर्मनाथ-(म. पु./६१/श्लोक )-पूर्वभव नं०२ में पूर्व धातकी खण्डके पूर्व विदेहके बत्सदेशकी सुसीमा नगरीके राजा दशरथ थे। (२-३) । पूर्वभव नं०१ में सर्वार्थ सिद्धि देव थे। (8)। वर्तमानभव में १५ वें तीर्थकर हुए ।१३-५॥ (विशेष दे० तीर्थकर/५)। धर्मपत्नी-दे० स्त्री। धर्मपरीक्षा-१.आ.अमितगति द्वारा वि०१०७० में रचित संस्कृत श्लोक बद्ध एक कथानक जिसमें वैदिक मान्यताओं का उपहास किया गया है ।।ती./२/३६३), (जै. /१/३८१) । २. कवि वृत्ति विलास (ई. श १२ पूर्वार्ध)कृत उपर्युक्त विषयक कन्नड रचना । ३. श्रुतकीर्ति (वि श. १६) कृत १७६ अपभ्रश कडबक प्रमाण उपर्युक्त विषयक रचना। (ती./३/४३२) । धमपाल-नालन्दा विश्वविद्यालयके आचार्य एक बौद्ध नैयायिक थे। समय-ई० ६००-६४२ । ( सि. वि./प्र. २५/पं. महेन्द्र )। धर्मभूषण-१. इनके आदेशसे ही ब्र० केशव वर्णीने गोमट्टसारपर कर्णाटक भाषामें वृत्ति लिखी थी। समय-वि० १४१६ (ई० १३५४) । २. न्याय दीपिका के रचयिता नन्दि संघीय भट्टारक । गुरु परम्परा देवेन्द्र कीर्ति, विशाल कीर्ति,शुभ कीति, धर्म भूषण प्र०, अमरकीति, धर्मभूषण द्वि०, धर्मभूषण तृ०। समय-प्रथम का शक १२२०-१२४५ द्वि. का शक १२७०-१२६५: तृ.का सायण (शक १३१२) के समकालीन (ई १३५८-१४१८)। (तो./३/३५५-३५७) -दे० मूढता। धर्मरत्नाकर-आ० जयसेन ( ई० ६६ ) कृत सप्ततत्व निरूपक एक संस्कृत श्लोकबद्ध श्रावकाचार (जै./२/३७५) । धर्म विलास-पंद्यानत राय (ई०१७३३) द्वारा रचित एक पदसंग्रह। धर्मशर्माभ्युदय-१ कवि असग (ई. १८८) कृत २१ सर्ग प्रमाण धर्मनाथ तीर्थंकर चरित (ती./४/२०)1 २. कवि हरिचन्द (ई १० का मध्य) कृत उपर्युक्त विषयक १७५४ श्लोक प्रमाण संस्कृत काव्य। धर्मसंग्रहश्रावकाचार- १० अधिकारो में बद्ध कवि मेधावी (वि. १५४१) को रचना ती./४/६८)। धर्मसूरि-महेन्द्रसुरिके शिष्य थे। हिन्दी भाषामें 'जम्बूस्वामी' सरना' नामक ग्रन्थकी रचना की। समय-वि० १२६६ (ई० १२०६)। (हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास/पृ. ५५ । कामताप्रसाद )। धर्मसेन-१.श्रतावतारके अनुसार आप भद्रबाहु प्रथमके पश्चात् ११३ एकादशांग पूर्वधारी थे। समय-बी०नि० ३२६-३४५ ( ई०पू० २६८१८२) दृष्टि नं.३ को अपेक्षावी.नि.३८१-४०५ -दे० इतिहास/४/४। २. श्रवणवेलगोलाके शिलालेख नं०७ के अनुसार आप श्रीबालचन्द्रके गुरु थे। समय-वि. ७३२ (ई.६७५) (भ. आ/प्र. १६/प्रेमीजी)। ३. लाडबागड़ सघकी गुर्वावलीके अनुसार आप श्रीशान्तिसेनके गुरु । थ। समय-वि.६५५ (ई. ८८)-दे० इतिहास/७/१० धर्मसेन-(वराग चरित/सर्ग/श्लोक)। उत्तमपुरके भोजवंशीय राजा थे । (१/४६) । वरांगकुमारके पिता थे । (२/२) । वरांगको युव राजपद दे दिया तब दूसरे पुत्रने छलपूर्वक वरांगको वहाँसे गायब कर दिया। इसपर आप बहुत दुःखी हुए।(२०/७) । धर्माकरदत्त-अर्चट कविका अपर नाम । -दे० अनुकम्पा । ना-दे० अनुप्रेक्षा। धमाधम-लोकमें छह द्रव्य स्वीकार किये गये हैं ( दे० द्रव्य )। तहाँ धर्म व अधर्म नामके दो द्रव्य है। दोनों लोकाकाशप्रमाण व्यापक असंख्यात प्रदेशी अमूर्त द्रव्य है। ये जीव व पुद्गलके गमन व स्थितिमें उदासीन रूपसे सहकारी हैं, यही कारण है कि जीव व पुदगल स्वयं समर्थ होते हुए भी इनकी सीमासे बाहर नहीं जाते, जैसे मछली स्वयं चलनेमे समर्थ होते हुए भी जलसे बाहर नहीं जा सकती। इस प्रकार इन दोनोके द्वारा ही एक अखण्ड आकाश लोक व अलोक रूप दो विभाग उत्पन्न हो गये हैं। १. धर्माधर्म द्रव्योंका लोक व्यापक रूप ..दोनों अमूर्तीक अजीव द्रव्य हैं गला' ।१। द्रव्याणि ।। त.सू./१/१,२,४ अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला ११॥ द्रव्याणि ।। नित्यावस्थितान्यरूपाणि ।। -धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चारों अजीबकाय हैं ।। चारों ही द्रव्य है ।२। और नित्य अवस्थित व अरूपी है।४। (नि.सा /मू /३७), (गो.जी /पू./५८३,५९२) पं.का./मू./८३ धम्मत्थिकायमरसं अवण्ण गंधं असद्दमफासं। -धर्मास्तिकाय अस्पर्श, अरस, अगन्ध, अवर्ण और अशब्द है। २. दोनों असंख्यात प्रदेशी हैं। त.सू.// असंख्येयाः प्रदेशाधर्माधर्मकजीबाना -धर्म, अधर्म. और एक जीव इन तीनों के असंख्यात प्रदेश है। (प्र. सा./मू./१३५), (नि.सा./मू./३५), (पं.का./मू./८३), (प.प्र./मू./२/२४); (द्र.सं./म्./२५), (गो.जी./मू./५६१/१०२६) * द्रव्यों में प्रदेश कल्पना व युक्ति-दे० द्रव्य/४ । * दोनों एक-एक व निष्क्रिय हैं-दे. द्रव्य/३ । * दोनों अस्तिकाय हैं-दे० अस्तिकाय। * दोनोंकी संख्या-दे० द्रव्य २। ३. दोनों एक एक व अखण्ड हैं त.सू./१६ आ आकाशादेकद्रव्याणि ।६। =धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक-एक द्रव्य हैं । (गो.जी./मू./५८८/१०२७) गो.जी/जी.प्र./५८८/१०२७/१८ धर्माधर्माकाशा' एकैक एव अखण्डद्रव्यत्वात् । -धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक है, क्योंकि अखण्ड हैं। (पं.का./त.प्र/८३) ४. दोनों लोकमें व्यापकर स्थित हैं त. सू /५/१२,१३ लोकाकाशेऽवगाह' ।१२। धर्माधर्मयो' कृत्स्ने ॥१३॥ __ = इन धर्मादिक द्रव्योका अवगाह लोकाकाशमें है ।१२। धर्म और अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाशमें व्याप्त है ।१३। (पं.का./मू./८३), (प्र. सा/म्./१३६) स.सि./२/८-१८/मू. पृष्ठ-पंक्ति-धर्माधर्मों निष्क्रियौ लोकाकाशं व्याप्य स्थितौ । (८/२७४/)। उक्तानां धर्मादीनां द्रव्याणी लोकाकाशेऽवगाहो न बहिरित्यर्थः। (१२/२७७/१) । कृत्स्नवचनमशेषव्याप्तिप्रदर्शनार्थम् । अगारे यथा घट इति यथा तथा धर्माधर्मयोर्लोकाकाशेऽवगाहो न भवति । किं तहि। कृत्स्ने तिलेषु तैलवदिति । (१३/२७८/ १०)। धर्माधर्मावपि अवगाहक्रियाभावेऽपि सर्वत्रव्याप्तिदर्शनादवगाहिनावित्युपचर्यते। (१८/२८४/६)। -धर्म और अधर्म द्रव्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माधर्म 1 निष्क्रिय है और लोकाकाश भरमें फैले हुए धर्मादिकका लोकाकाशमे अवगाह है बाहर नहीं, यह इस सूत्रका तात्पर्य है |१२| सब लोकाकाश के साथ व्याप्ति दिखलानेके लिए सूत्र में कृत्स्न पद रखा है । घरमे जिस प्रकार घट अवस्थित रहता है, उस प्रकार लोकाकाशमे धर्म व अधर्म का अनगाह नहीं है किन्तु जिस प्रकार तिलमें तैल रहता है उस प्रकार सब लोकाकाशमें धर्म और अधर्मका अनगाह है |१३| यद्यपि धर्म और अधर्म द्रव्यमें अवगाहनरूप क्रिया नहीं पायी जातो, तो भी लोकाकाशमें सर्वत्र व्यापनेसे वे अवगाही हैं, ऐसा उपचार किया जाता है | १८| (रा.वा./५/१३/ १/४३६/१४), पं.का./प्र/८३), (प्र.सा./त.प्र./ १३६), (गो.जी. जी १/१८३/१०२४/-) ४८८ ५. व्याप्त होते हुए भी पृथक् सत्ताधारी है पं.का./मू./१६ धमाधम्मागास अपुथब्भू दाःसमाजपरिमाणा । अबुधगुणद्धिविसेसा करिति एत्तमण्णत्तं । ६६ - धम, अधर्म और आकाश, समान परिमाणवाले तथा अपृथग्भूत होनेसे, तथा पृथक् उपलब्धिविशेषवाले होने से एकत्व तथा अन्यत्वको करते है। (पं.का./मू./व टो./८७ ) स.सि./५/११/२००/११ अन्योऽयप्रदेश माहनशक्तियोगाद्वेदितव्य । यद्यपि ये एक जगह रहते है, तो भी अवगाहनशक्ति के योगसे, इनके प्रदेश परस्पर प्रविष्ट होकर व्याघातको प्राप्त नही होते । (रा. वा / ५ /१३/२-३ /४५६/१८) रा. वा/५/१६/१०-११/४६० / १ न धर्मादीना नानात्वम् कुतः । देशसंस्थानकालदर्शनस्पर्शनावगाहमाद्यभेदात १०० न अतस्तसि - | ११ | यत एव धर्मादीना देशादिभि अविशेषस्त्वया चोद्यते अत एव नानात्व सिद्धि, यतो नासति नानात्वेऽविशेषसिद्धि । न ह्येकस्याविशेषोऽस्ति । कि च यथा रूपरसादीनां तुल्यदेशादित्वे ने करव तथा धर्मादीनामपि नानात्वमिति । - प्रश्न - जिस देशमें धर्म द्रव्य है उसी देश अधर्म और आकाशादि स्थित हैं, जो धर्मका आकार है वही अधर्मादिका भी है, और इसी प्रकार कालकी अपेक्षा, स्पर्शनको अपेक्षा केला होने की अपेक्षा और अरूपत्वद्रव्यत्व तथा ज्ञेयत्व आदिकी अपेक्षा इनमें कोई विशेषता न होनेसे धर्मादि द्रव्योमे नानापना घटित नहीं होता उत्तर-जिस कारण तुमने धर्मादि द्रव्यो में एकत्वका प्रश्न किया है. उसी कारण उनकी भिन्नता स्वयं सिद्ध है। जब वे भिन्न-भिन्न है, तभी तो उनमें अमुक दृष्टियोसे एकत्वको सम्भावना की गयी है। यदि ये एक होते तो यह प्रश्न ही नहीं उठता। तथा जिस तरह रूप, रस आदिमे तुल्य देशकालत्व आदि होनेपर भी अपने-अपने विशिष्ट लक्षणके होनेसे अनेकता है, उसी तरह धर्मादि द्रव्योंमे भी लक्षणभेदसे अनेकता है (दे० धर्माधर्म/२/१) ६. लोकव्यापी माननेमें हेतु रा./५/१७/ १४६०/९४ अणुस्कन्धभेदात् पुगलानाए. असंख्येयदेशखाच आमना अवगाहना, एकदेशादिषु पुन असंख्येय भागादिषु च जीवानामवस्थानं युक्तमुक्तम् तु पुनरन्ये प्रदेश कृमलोकव्यापित्वमेव धर्माधर्मयी न पुनर संख्येयभागादिवृत्ति रित्येतत्कथमनपदिष्टहेतुकमवसातुं शक्यमिति । अत्र ब्रम- अवसेयमसशयम् । यथा मत्स्यगमनस्य जलमुपग्रहकारणमिति' नासति चले मत्स्यगमनं भवति तथा जीवानां प्रयोगविसा परि णामनिमित्तातिप्रकाकियो स्वाभमाणाना सर्वत्र भावात तदुपग्रह कारणाभ्यामपि धर्माधर्माभ्यां सर्वगाभ्यां भवितव्य नासतोस्तयोर्गतिस्थितिवृत्तिरिति । प्रश्नअणु स्कन्ध भेदरूप पुद्गल तथा असंख्यप्रदेशी जीव, ये तो अवगाही - २. दोनों के लक्षण व गुण गतिस्थितिहेतुत्व द्रव्य हैं। अत एक प्रदेशादिकमे पृगशोका और लोकके असंख्यातवे भाग आदिमे जोवोका अवस्थान कहना तो युक्त है। परन्तु जो तुल्य असंख्यात प्रदेशी तथा लोकव्यापी हैं, ऐसे धर्म और अधर्म द्रव्योंकी लोकके असंख्येय भाग आदिमे वृत्ति कैसे हो सकती है 1 उत्तर - निःसंशय रूपसे हो सकती है । 1 जैसे जल मछली के तेरनेमे उपकारक है, जल के अभाव में मछलीका तैरना सम्भव नहीं है, वैसे ही जीव और इगलोंकी प्रायोगिक और स्वाभाविक गति और स्थिति रूप परिणमन में धर्म और अधर्म सहायक होते हैं (दे० आगे धर्माधर्म / २)। क्योंकि स्वत: ही गति स्थिति ! लक्षणक्रियाको आरम्भ करनेवाले जोव व पुद्गल लोक में सर्वत्र पाये जाते है, अत: यह जाना जाता है कि उनके उपकारक कारणों को भी सर्वगत ही होना चाहिए क्योंकि उनके सर्वगत न होनेपर उनकी प्रवृत्ति होना सम्भव नहीं है। प्र.सा./त.प्र./ १३६ धर्माधर्मौ सर्वत्रलोके तन्निमित्तगमनस्थानानां जीवपुद्गलानां लोकाच हिस्तदेकदेशे च गमनस्थानासंभवात । धर्म और अधर्म द्रव्य सर्वत्र लोक है, क्योंकि उनके निमित्तसे जिनकी गति और स्थिति होती है, ऐसे जीव और पुद्गलोकी गति या स्थिति लोकसे बाहर नहीं होती, और न लोकके एकदेशमें होती है । ७. इन दानोंसे ही लोक व अलोइके विभागकी व्यवस्था है पं. का./मू./८० जादो अलोगनोगो जेसि सम्भावदो य गमगठिदी । जोनको गति स्थिति तथा अलोक और लोकका विभाग उन दो द्रव्योंके सद्भाव से होता है। स.सि /५/१२/२००/३ लोकालोकविभागश्च धर्माधर्मारिकाद्भाषासद्भावाद्वय असति हि तस्मिन्धर्मास्तिकाये जीवपुलान गतिनियमहेतुस्वभावाद्विभागो न स्यात् असति चाधर्मास्तिकायै स्थितेराश्रयनिमित्ताभावात स्थितेरभावो लोकालोकविभागाभावो वा स्यात् । तस्मादुभयसद्भावासद्भावाल्लोकालोकविभागसिद्धिः । - यह लोकालोकका विभाग धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षासे जानना चाहिए । अर्थात् धर्मास्विकाय और अधर्मास्तिकाय जहाँ तक पाये जाते हैं. वह टोकाकाश है और इससे बाहर अलोकाकाश है. यदि धर्मास्तिकायका सद्भाव न माना जाये तो जीव और पुद्गलों की गतिके नियमका हेतु न रहनेसे लोकालोक्का विभाग नहीं बनता। उसी प्रकार यदि अधर्मास्तिकायका सद्भाव न माना जाये तो स्थितिका निमित्त न रहने से जीव और पुद्गलों की स्थितिका अभाव होता है, जिससे लोकालोकका विभाग नहीं बनता। इसलिए इन दोनों के सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा लोकालोके विभागको सिद्धि होती है। (स.सि./१०/८/४०९/४) (रा.मा./४/९/२१/४२५/३) (न.च.वृ./१३५) २. दोनोंके लक्षण व गुण गतिस्थितिहेतुत्व १. दोनोंके लक्षण व विशेष गुण प्र. खा./मू./९३३ आगासरसवगाही धम्मदव्यस्त गमछेदतं । धम्मंदरदव्बस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा... ...धर्म द्रव्यका गमनहेतुत्व और अधर्म द्रव्यका गुण स्थान कारणता हैं । (नि.सा./मू./३०); (पं.का./मू./८४८६), (रा. सू./२/१७): (प./१५/२३/६) (गो.जी./मू./ ६०२/१०६०), (नि.सा./ता.वृ./१) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माधम ४८९ ३. धर्माधर्म द्रव्योंको सिद्धि गतिस्थितिपरिणामत्वादलोकेऽपि वृत्तिः केन वार्यते।ततो न लोकालोकविभाग. सिध्येत। -जीव ब पुद्गल स्वभावसे ही गति परिणामको तथा गतिपूर्वक स्थिति परिणामको प्राप्त होते हैं। यदि गति परिणाम और गतिपूर्वक स्थिति परिणामका स्वयं अनुभव करनेवाले उन जीव पुद्गलको बहिरंगहेतु धर्म और अधर्म न हो, तो जीव पुदगलके निरर्गल गतिपरिणाम और स्थितिपरिणाम होनेसे, अलोकमे भी उनका होना किससे निवारा जा सकता है। इसलिए लोक और अलोकका विभाग सिद्ध नहीं होता। (पं.का./त प्र./१२). (दे० धर्माधर्म/३/५) अ. प./२ धर्मद्रव्ये गतिहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमेते त्रयो गुणाः । अधर्मद्रव्ये स्थितिहेतुत्वममूतं त्वमचेतनत्वमिति । धर्मद्रव्यमें गतिहेतुत्व, अमूर्तत्व व अचेतनत्व ये तीन गुण हैं और अधर्म द्रव्यमें स्थितिहेतुत्व, अमूर्तत्व व अचेतनत्व ये तीन गुण हैं। नोट:-इनके अतिरिक्त अस्तित्वादि १० सामान्य गुण या स्वभाव होते हैं। -(दे० गुण/३) २. दोनोंका उदासीन निमित्तपना पं.का./भू./८५-८६ उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकर हवदि लोए । तह जीवपुग्गलाणं धम्म दव्वं वियाणाहि ।८। जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दवमधमक्वं । ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ।६। -जिस प्रकार जगदमें पानी मछलियोंको गमनमें अनुग्रह करता है, उसी प्रकार धर्मद्रव्य जीव पुद्गलोंको गमममें अनुग्रह करता है ऐसा जानो।८। जिस प्रकार धर्म द्रव्य है उसी प्रकारका अधर्म नामका द्रव्य भी है, परन्तु वह स्थिति क्रियायुक्त जीव पुद्गलोको पृथिवीकी भाँति (उदासीन) कारणभूत है। स.सि./५/१७/२८२/५ गतिपरिणामिना जीवपुद्गलानां गत्युपग्रह कर्तव्ये धर्मास्तिकायः साधारणाश्रयो जलवन्मत्स्यगमने। तथास्थितिपरिणामिना जीवपुद्गलानां स्थित्युपग्रहे कर्तव्ये अधर्मास्तिकायः साधारणाश्रयः पृथिवीधातुरिवाश्वादिस्थिताविति । -जिस प्रकार मछलीके गमनमें जल साधारण निमित्त है, उसी प्रकार गमन करते हुए जीव और पुद्गलोंके गमनमें धर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है। तथा जिस प्रकार घोड़ा आदिके ठहरनेमें पृथिवी साधारण निमित्त है (या पथिकको ठहरनेके लिए वृक्षकी छाया साधारण निमित्त है इ.स.) उसी प्रकार ठहरनेवाले जीव और पुद्गलोंके ठहरनेमें अधर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है। (रा.वा./५/१/१९-२०/४३३/३०); (द्र.सं./मू./ १७-१८); (गो.जी./जी.प्र./६०५/१०६०/३); (विशेष दे० कारण। III/२/२) ३. धर्माधर्म दोनोंकी कथंचित् प्रधानता भ.आ./मू-२१३४/१८३५ धम्माभावेण दु लोगग्गे पडिहम्मदे अलोगेण । गदिमुवकुणदि हु धम्मो जीवाणं पोग्गलाणं ।२१३४॥ -धर्मास्तिकायका अभाव होनेके कारण सिद्धभगवान लोकसे ऊपर नहीं जाते। इसलिए धर्मद्रव्य ही सर्वदा जीव पुद्गलकी गतिको करता है। (नि.सा./सू./१८४): (त.सू./१०/८) भ.आ.//२१३६/१८३८ कालमणतमधम्मोपग्गहिदो ठादि गयणमोगाढे । सो उवकारो इट्ठो अठिदि समावेण जीवाण।२१३६ - अधर्म द्रव्यके निमित्तसे ही सिद्धभगवान लोकशिवरपर अनन्तकाल निश्चल ठहरते हैं। इसलिए अधर्म ही सर्वदा जीव व पुद्गलकी स्थितिके कर्ता हैं। स.सि./१०/८/११/२ आह -यदि मुक्त ऊर्ध्वगतिस्वभावो लोकान्तादूर्वमपि कस्मान्नोत्पततीत्यत्रोच्यते-गत्युपग्रहकारणभूतो धर्मास्तिकायो नोपर्यस्तीत्यलोके गमनाभाव. । तदभावे च लोकालोकविभागाभावः प्रसज्यते। प्रश्न-यदि मुक्त जीव ऊर्ध्वगति स्वभाववाला है तो लोकान्तसे ऊपर भी किस कारणसे गमन नहीं करता है। उत्तरगतिरूप उपकारका कारणभूत धर्मास्तिकाय लोकान्तके ऊपर नहीं है, इसलिए अलोकमें गमन नहीं होता। और यदि अलोकमें गमन माना जाता है तो लोकालोकके विभागका अभाव प्राप्त होता है। (दे० धर्माधर्म/१/७); (रा.वा./१०/८/१/६४६/8); (ध.१३/१०६२६/२२३/३); (त.सा.14/४४) पं.का./त-प्र./८७ तत्र जोवपुद्गलौ स्वरसत एव गतितत्पूर्व स्थितिपरिणामापन्नौ । तयोर्यदि गतिपरिणामं तत्पूर्वस्थितिपरिणामं वा स्वयमनुभवतोर्बहिरङ्गहेतू धर्माधमौं न भवेताम, तदा तयोनिरर्गल ३. धर्माधर्म द्रव्योंको सिद्धि १. दोनों में नित्य परिणमन होनेका निर्देश पं.का././८४,८६ अगुरुलघुगेहि सया तेहिं अणं तेहि परिणदं णिच्च। गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्जं ।४। जह हदि धम्मदव्यं तह तं जाणेह दवमधमक्वं.. ८६। - वह (धर्मास्तिकाय ) अनन्त ऐसे जो अगुरुलघुगुण उन रूप सदैव परिणमित होता है। नित्य है, गतिक्रियायुक्त द्रव्योंको क्रियामे निमित्तभूत है और स्वयं अकार्य है। जैसा धर्मद्रव्य होता है वैसा ही अधर्मद्रव्य होता है। (गो.जी./ मू./५६६/१०१५) २. परस्परमें विरोध विषयक शंकाका निरास स.सि./१/१७/२८३/६ तुल्यबलत्वात्तयोर्गतिस्थितिप्रतिबन्ध इति चेत् । न, अप्रेरकत्वात् । प्रश्न-धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्यतुल्य बलवाले हैं, अतः गतिसे स्थितिका और स्थितिसे गतिका प्रतिबन्ध होना चाहिए ! उत्तर -नहीं, क्योंकि, ये अप्रेरक हैं। (विशेष दे० कारण/ III/२/२) ३. प्रत्यक्ष न हाने सम्बन्धी शंकाका निरास स.सि./५/१७/२८३/६ अनुपलब्धेर्न तौ स्त रखरविषाणवदिति चेत् । न; सर्वप्रतिवादिनः प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाननिभिवाञ्छति । अस्मान्प्रति हेतोरसिद्धश्च । सर्वज्ञेन निरतिशयप्रत्यक्षज्ञानचक्षुषा धर्मादयः सर्वे उपलभ्यन्ते । तदुपदेशाच्च श्रुतज्ञानिभिरपि । प्रश्न-धर्म और अधर्म द्रव्य नहीं हैं, क्योंकि, उनकी उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधेके सींग ! उत्तर-नहीं, क्योंकि, इसमें सब वादियों को विवाद नहीं है। जितने भी वादी हैं. वे प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकारके पदार्थोंको स्वीकार करते हैं। इसलिए इनका अभाव नहीं किया जा सकता। दूसरे हम जैनोंके प्रति अनुपलब्धि' हेतु असिद्ध है, क्योंकि जिनके सातिशय प्रत्यक्ष ज्ञानरूपी नेत्र विद्यमान है, ऐसे सर्वज्ञ देव सब धर्मादिक द्रव्यों को प्रत्यक्ष जानते है और उनके उपदेशसे श्रुतज्ञानी भी जानते हैं। (रा.वा./५/१७/२८-३०/४६४/१६) ४.दोनोंके अस्तित्वकी सिद्धि में हेतु स सि./१०/८/४७१/४ तदभावे च लोकालोकविभागाभावः प्रसज्यते । - १, उनका अभाव माननेपर लोकालोकके विभागके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। -(विशेष दे० धर्माधर्म/१/७) प्र.सा./त.प्र /१३३ तथै कवारमेन गतिपरिणतसमस्तजीवपुद्गलानामालोकाइ गमनहेतुत्वमप्रदेशत्वारकाले पुद्गलयोः समुद्धातान्यत्र लोकासख्येयभागमात्रत्वाज्जीवस्य लोकालोकसीम्नोऽचलित्वादाकाशस्य विरुद्धकार्यहेतुत्वादधर्मस्यासंभवाद्धर्ममधिगमयति । तथैकवारमेव स्थितिपरिणतसमस्तजीवपुद्गलानामालोकात्स्थानहेतुत्वमः... अधर्ममधिगमयति । २. एक ही कालमें गतिपरिणत समस्त जीवपुद्गलोंको लोकतक गमनका हेतुत्व धर्मको बतलाता है, क्योंकि काल जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-६२ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माधर्म ४९० धमोत्तर और पुद्गल अप्रदेशी हैं, इसलिए उनके बह सम्भव नहीं है; जीव द्रव्य समुद्धातको छोडकर अन्यत्र लोकके असंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिए उसके बह सम्भव नही है। लोक अलोककी सीमा अचलित होनेसे आकाशके वह सम्भव नहीं है और विरुद्ध कार्यका हेतु होनेसे अधर्मके वह सम्भव नहीं है। इसी प्रकार एक ही कालमें स्थितिपरिणत समस्त जीव-पुदगलोंको लोकतक स्थितिका हेतुत्व अधर्म द्रव्यको बतलाता है। ( हेतु उपरोक्तवव ही है) (विशेष दे० धर्माधर्म/१६) ५. आकाशके गति हेतुत्वका निरास ६. भूमि जल आदिके गतिहेतुत्वका निरास स. सि /१/१७/२८३/३ भूमिजलादीन्येव तत्प्रयोजनसमर्थानि नार्थो धर्माधर्माभ्यामिति चेत् । न; साधारणाश्रय इति विशिष्योक्तत्वात् । अनेककारणसाध्यत्वाच्चैकस्य कार्यस्य ।प्रश्न-१. धर्म अधर्म द्रव्यके जो प्रयोजन हैं, पृथिवी व जल आदिक ही उनके करने में समर्थ हैं, अतः धर्म और अधर्म द्रव्यका मानना ठीक नहीं 1 उत्तर-नहीं, क्योंकि, धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थितिके साधारण कारण हैं, और यह ( प्रश्न ) विशेषरूपसे कहा है। (रा. वा./५/१७/२२/४६३/१) । २. तथा एक कार्य अनेक कारणोसे होता है इसलिए धर्म अधर्म द्रव्यको मानना युक्त है। रा. वा./१/१७/२७/५६४/- यथा नायमेकान्तः-सर्वश्चक्षुष्मान बाह्य प्रकाशोपग्रहाद् रूपं गृह्णातीति । यस्माद् द्वीपमार्जारादयः...बिनापि बाह्यप्रदीपाद्युपग्रहादरूपग्रहणसमर्थाः,...यथा वा नायमेकान्त' सर्व एव गतिमन्तो यष्टयाद्युपग्रहात गतिमारभन्ते न वेति,...तथा नायमेकान्तः-सर्वेषामात्मपुद्गलानां सर्वे माह्योपग्रहहेतवः सन्तीति, किन्तु केष चित पतत्रिप्रभृतीनां धर्माधर्मावेव, अपरेषां जलादयोऽपीत्यनेकान्तः । ३. जैसे यह कोई एकान्तिक नियम नहीं है कि सभी आँखवालोंको रूप ग्रहण करनेके लिए बाह्य प्रकाशका आश्रय हो ही, क्योकि व्याघ विज्लों आदिको बाह्य प्रकाशकी आवश्यकता नहीं भी रहती। जैसे यह कोई नियम नहीं कि सभी चलनेवाले लाठीका सहारा लेते ही हों। उसी प्रकार यह कोई नियम नहीं कि सभी जीव और पुद्गलोंको सर्व बाह्य पदार्थ निमित्त ही हों, किन्तु पक्षी आदिकोको धर्म व अधर्म ही निमित्त हैं और किन्हीं अन्यको धर्म व अधर्मके साथ जल आदिक भी निमित्त है, ऐसा अनेकान्त है। ७ अमूर्तिकरूप हेतुका निरास पं का /मू./१२-१५ आगासं अवगासं गमणरिदिकारणेहिं देदि जदि। उढंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठन्ति किध तत्थ ।२। जम्हा उवरिद्वाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । तम्हा गमण ठाणं आयासे जाण स्थि त्ति ६३. जदि हवदि गमणहेदू आगास ठाणकारणं तेसि । पसजदि अलोगहाणी लोगस्स च अंतपरिवढी ।१४। तम्हा धम्माधम्मा गमणद्विदिकारणाणि णागास । इदि जिणबरेहिं भणिदं लोगसहा सण ताणं 1811 - १. यदि आकाश ही अवकाश हेतुकी भाँति गतिस्थिति हेतु भी हो तो ऊर्ध्वगतिप्रधान सिद्ध उसमें (लोकमे) क्यों स्थित हों। ( आगे क्यों गमन न करे ) २। क्योंकि जिनवरोंने सिद्धोंकी स्थिति लोक शिखरपर कहो है, इसलिए गति स्थिति (हेतुत्व) आकाशमें नहीं होता, ऐसा जानो ।१३। २. यदि आकाश जोव व पुद्गलोंको गतिहेतु और स्थितिहेतु हो तो अलोककी हानिका और लोकके अन्तकी वृद्धिका प्रसंग आये।६४। इसलिए गति और स्थितिके कारण धर्म और अधर्म हैं, आकाश नहीं है, ऐसा लोकस्वभावके श्रोताओसे जिनवरोंने कहा है । (और भी दे० धर्माधर्म/ १/७) (रा.वा./५/१७/२१/४६२/३१) स.सि./५/१७/२८३/१ आह धर्माधर्मयोर्य उपकारः स आकाशस्य युक्तः, सर्वगतत्वादिति चेत् । तदयुक्तमः तस्यान्योपकारसद्भावात । सर्वेषां धर्मादीनां द्रव्याणामवगाहनं तत्प्रयोजनम् । एकस्यानेकप्रयोजनकलपनाया लोकालोकविभागाभाव.। = प्रश्न-३.धर्म और अधर्म व्यका जो उपकार है, उसे आकाशका मान लेना युक्त है, क्योंकि आकाश सर्वगत है। उत्तर-यह कहना युक्त नही है; क्योकि, आकाशका अन्य उपकार है । सब धर्मादिक द्रव्योंको अवगाहन देना आकाशका प्रयोजन है। यदि एक द्रव्यके अनेक प्रयोजन माने जाते हैं तो लोकालोकके विभागका अभाव प्राप्त होता है । (रा.वा/५/१७/ २०/४६२/२३) रा. वा./५/१७/२०-२१/४६२/२६ न चान्यस्य धर्मोऽन्यस्य भवितुमर्हति । यदि स्याव, अप्तेजोगुणा द्रवदहनादयः पृथिव्या एव कल्प्यन्ताम् । किं च • यथा अनिमिषस्य ब्रज्या जलोपग्रहाद्भवति, जलाभावे च भुवि न भवति सत्यप्याकाशे । यद्याकाशोपग्रहात मीनस्य गतिर्भवेत् भुवि अपि भवेत्। तथा गतिस्थितिपरिणामिनाम् आत्मपुद्गलानां धर्मोऽधर्मोपग्रहात गतिस्थिती भवतो नाकाशोपग्रहात् । ४. अन्य द्रव्यका धर्म अन्य द्रव्यका नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा माननेसे तो जल और अग्निके द्रवता और उष्णतागुण पृथिवीके भी मान लेने चाहिए। (रा. वा /२/१७/२३/४६३/६ ) (4.का/ता. वृ./२४/५१/४)। ५. जिस प्रकार मछलीकी गति जलमें होती है, जलके अभावमें पृथिवीपर नहीं होती, यद्यपि आकाश विद्यमान है। इसी प्रकार आकाशके रहनेपर भी धर्माधर्म के होनेपर ही जीव व पुद्गलकी गति और स्थिति होती है। यदि आकाशको निमित्त मामा जाये तो मछलीकी गति पृथिवी पर भी होनी चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं होता। इसलिए धर्म व अधर्म हो गतिस्थिति में निमित्त है आकाश नहीं। रा. वा./५/१७/४०-४१/४६६/३ अमूर्तत्वाद्गतिस्थितिनिमित्तत्वानुपपत्तिरिति चेत् । न; दृष्टान्ताभावात ।...न हि दृष्टान्तोऽस्ति येनामूर्तत्वात् गतिस्थितिहेतुत्वं व्यावर्तेत । किं च-आकाशप्रधान विज्ञानादिवत्तत्सिद्ध।"यथा वा अपूर्वाख्यो धर्म क्रियया अभिव्यक्तः सन्नमूतॊऽपि पुरुषस्थोपकारी वर्तते, तथा धर्माधर्म योरपि गतिस्थित्युपग्रहोऽवसेयः।-प्रश्न-अमूर्त होनेके कारण धर्म व अधर्म में गति व स्थितिके निमित्तपनेकी उपपत्ति नहीं बनती। उत्तर-१. नहीं, क्योंकि, ऐसा कोई दृष्टान्त नहीं जिससे कि अमृतत्वके कारण गतिस्थितिका अभाव किया जा सके । २. जिस प्रकार अमूर्त भी आकाश सब द्रव्योंको अवकाश देने में निमित्त होता है, जिस प्रकार अमूर्त भी सांख्यमतका प्रधान तत्त्व पुरुषके भोगका निमित्त होता है, जिस प्रकार अमूर्त भी बौद्धोंका विज्ञान नाम रूपकी उत्पत्तिका कारण है, जिस प्रकार अमूर्त भी मीमांसकोका अदृष्ट पुरुषके उपभोगका का साधन है, उसी प्रकार अमूर्त भी धर्म और अधर्म गति और स्थितिमें साधारण निमित्त हो जाओ। +निष्क्रिय होनेके हेतुका निरास-दे० कारण/III/२१२। * स्वभावसे गति स्थिति होनेका निरास -दे० काल/२/११। धर्मामृत-आ० नयसेन ( ई. ११२५) कृत१४ कथाओं का संग्रह | धर्मास्तिकाय-दे० धर्माधर्म। धर्मी-दे० पक्ष। धर्मोत्तर-अर्चटका शिष्य एक बौद्ध-नैयायिक । समय-ई. श. ७ का अन्तिम भाग। कृतियॉ-१. न्यायबिन्दुकी टीका, २. प्रमाण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवल धूमकेतु क्योंकि अबायके द्वारा बस्तुके सिंगको ग्रहण करके उसके द्वारा उसके द्वारा कालान्तरमें अविस्मरणके कारणभूत संस्कारको उत्पन्न करनेवाला विज्ञान धारणा है, ऐसा स्वीकार किया है। ३. धारणा अप्रमाण नहीं है ध.१३/५,५.३३/२३शम चेदं गहिदग्गाहि ति अप्पमाण, अविस्सरणहुदुलिंगग्गाहिस्स गहिदगहणत्ताभावादो। -यह गृहीतग्राही होनेसे अप्रमाण है, ऐसा नहीं माना जा सकता है; क्योंकि अविस्मरणके हेतुभूत लिंगको ग्रहण करनेवाला होनेसे यह गृहीतग्राही नहीं ही सकता। परीक्षा, ३. अपोह प्रकरण, ४. परलोकसिद्धि, ५. क्षणभंगसिद्धि, ६. प्रमाण विनिश्चय टीका।। घवल-अपभ्रश भाषाबद्ध हरिवंश पुराणके कर्ता एक कवि । समय-वि.श. १०२२ । (हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास/२७ । कामता प्रसाद) (ती./४/११६) धवल सेठ-कौशाम्बी नगरका एक सेठ था। सागरमें जहाज रुक गया तब एक मनुष्यको बलि देनेको तैयार हो गया। तब श्रीपालने जहाज चलाया। मार्गमें चोरोंने उसे पाँध लिया। तब श्रीपालने उसे छुड़ाया। इतने उपकारी उसी श्रीपालकी खी रैनमंजूषा पर मोहित होकर उसे सागरमें धक्का दे दिया। एक देवने रैन मंजूषाकी रक्षा की और सेठको खूब मारा। पीछे श्रीपालका संयोग होनेपर उससे क्षमा माँगी । (श्रीपाल चरित्र) धवला-आ. भ्रतबलि (ई १३६-१५६) कृत षट्खण्डागम अन्धके प्रथम ५ खण्डों पर ७२००० श्लोकप्रमाण एक विस्तृत टीका है, जिसे आ. वीरसेन स्वामीने ई. ८१६ में लिखकर पूरी की। (दे०परिशिष्ट१) धवलाचार्य-हरिवंशके कर्ता एक मुनि। समय-ई.श.११ । (वरांग चरित्र/प्र.२१-२२/पं. खुशालचन्द) घातकोखंड--मध्यलोकमें स्थित एक द्वीप है। ति.प./४/२६०० उत्तरदेवकुरूसं खेत्तेसुं तत्थ धादईरुक्खा। चेह्रति य गुणणामो तेण पुढं धादईखंडो ।२६००1 -धातकोखण्ड द्वीपके भीतर उत्तरकुरु और देवकुरु क्षेत्रोंमें धातकी वृक्ष स्थित है, इसी कारण इस द्वीपका 'धातकी खण्ड' यह सार्थक नाम है। (स.सि./३/३३/२२७/ ६), (रा.वा./३/३३/६/१६६/३) नोट-इस द्वीप सम्बन्धी विशेष (दे० लोक/४/२) धातु-शरीरमें धातु उपधातुओंका निर्देश-दे० जौदारिका । धात्री-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४ । २. बस्तिका का एक दोष-दे० वस्तिका। धान्य रस-दे० रस। धारणा-१. मतिज्ञान विषयक धारणाका लक्षण प.वं १३/५,६/सूत्र ४०/२४३ धरणी धारणा हवणा कोट्ठा पविठ्ठा । -धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा ये एकार्थ नाम है। स. सि./१/१२/११/७ अवेतस्य कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा । यथा-सैवेयं बलाका पूर्वाह यामहमद्राक्षमिति। -अवाय शामके द्वारा जानी गयी वस्तुका जिस (संस्कारके घ./१) कारणसे कालान्तरमें बिस्मरण नहीं होता उसे धारणा कहते हैं। (रा.वा.१/११/४/ १०/८); (ध.१/१,१,११५/३५४/४), (घ.६/१, ६-१,१४/१८/७); (ध.६/४, १,४५/१४४/७), (ध. १३/१०५,३३/२३३/४); (गो. जी./.३०६/६६५), (न्या-दी./२/११/३२/७) २. धारणा ईहा व अवायरूप नहीं है ध.१३/५,५,३३/२३३/१ धारणापच्चओ किं ववसायसरूवो कि णिच्छयसरूवो त्ति । पढमपक्खे धारणेहापच्चयाणमेयत्त, भेदाभावादो। विदिए धारणावायपचयाणमेयत्तं, णिच्छयेभावेण दोण्णं भेदाभावादो ति। ण एस दोसो, अवेदवत्थुलिंगरगहणदुवारेण कालंतरे अविस्मरणहेदु- संस्कारजणं विण्णाणं धारणेत्ति अग्भुवगमादो ।-प्रश्न-धारणा ज्ञान क्या व्यवसायरूप है या क्या निश्चयस्वरूप है। प्रथमपक्षके स्वीकार करने पर धारणा और ईहा ज्ञान एक हो जाते हैं, क्योंकि उनमें कोई भेद नहीं रहता। दूसरे पक्षके स्वीकार करनेपर धारणा और अवाय ये दोनों ज्ञान एक हो जाते हैं, क्योंकि निश्चयभावकी अपेक्षा दोनोंमें कोई भेद नहीं है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है; ७. ध्यान विषयक धारणाका लक्षण म.पु./२१/२२७ धारणा श्रुतनिर्दिष्टवीजानामवधारणम् । शास्त्रों में बत लाये हुए बीजाक्षरोंका अवधारण करना धारणा है। स.सा./ता.कृ./३०६/३८८/११ पञ्चनमस्कारप्रभृतिमन्त्रप्रतिमादिबहिर्द्रव्याबलम्बनेन चित्तस्थिरीकरणं धारणा। -पंचनमस्कार आदि मन्त्र तथा प्रतिमा आदि बाह्य द्रव्योंके आलम्बनसे चित्सको स्थिर करना धारणा है। १. अन्य सम्बन्धित विषय १. धारणाके शानपनेको सिद्धि । -दे० ईहा/३॥ २. धारणा व श्रुतशानमें अन्तर । -दे० श्रुतज्ञान//३॥ ३. धारणाशानको मतिशान कहने सम्बन्धी शंका समाधान -३० मतिज्ञान/३ । ४. अवग्रह आदि तीनों शानोंकी उत्पत्तिका क्रम ।-दे० मतिज्ञाना ५. धारणा शानका जघन्य व उत्कृष्ट काल। -दे० ऋद्धिा२।३ । ६. ध्यान योग्य पॉच धारणाओंका निर्देश। -२० पिण्डस्थ । ७. आग्नेयी आदि धारणाओंका स्वरूप। --दे० बह वह नाम । धारणी-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। धारा-सर्व धारा, वर्गधारा आदि अनेकों विकल्प । के० गणित/II//RI धारा चारण-एक ऋद्धि-दे० ऋद्धि/४/७ । धारा नगरी-वर्तमान 'धार'-(म.पू /प्र.४६/पं. पन्नालाल ) धारावाहिक ज्ञान- दे० श्रुतज्ञान/११ । धारिणी एक औषध विद्या -दे० विद्या। धीरनि.सा./ता.बृ./७३ निखिलधोरोपसर्गविजयोपार्जितधीरगुणगम्भीराः । - समस्त घोर उपसर्गोंपर विजय प्राप्त करते हैं, इसलिए धीर और गुणगम्भीर ( वे आचार्य) होते हैं। आ.पा./टी./४३/१५६/१२ मेयं प्रति धियं बुद्धिमीरयति प्रेरयतीति धीर इति व्युपदिश्यते। - ध्येयों के प्रति जिनकी बुद्धि गमन करती है या प्रेरणा करती है उन्हें धीर कहते हैं। धुवसेन-दे० धवसेन । धुप वशमावत-ध्रुपदशमि वत धूप दशांग। खेवो जिन ठिग भाव अभंग । (यह बत श्वेताम्बर आम्नायमें प्रचलित है।) (बतविधान संग्रह/पृ. १३०); (नवलसाहकृत वर्द्धमान पुराण) धूमकेतु-१. एक ग्रह-दे० ग्रह। २. (ह.पु.४/श्लोक) पूर्वभवमें वरपुरका राजा वीरसेन था।१६३। वर्तमान भक्में स्त्री वियोगके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूम चारण ४९२ ध्याता कारण अज्ञानतप करके देव हुआ।२२१॥ पूर्व वैरके कारण इसने बायाभावादो।'ण च दव्वसुदेण एस्थ अहियारो, पोग्गलवियारस्स प्रद्युम्नको चुराकर एक पर्वतकी शिलाके नीचे दमा दिया ।२२२॥ जडस्स णाणोवलिंगभूदस्स सुदत्तबिरोहादो। थोवदव्यसुदेण अवगयाधूम चारण-दे० ऋद्धि/४ । सेस-णवपयस्थाणं सिवभूदिआदिबीजबुद्धीर्ण झाणाभावेण मोक्खा भावप्पसंगादो। थोवेण णाणेण जदि ज्माणं होदि तो खवगसेडिधूम दोष-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/I/४ । २. बस्ति उवसमसेडिणमप्पाओग्गधम्मज्झाणं चेव होदि । चोहस-दस-णवपुव्यकाका एक दोष-दे० वस्तिका। हरा पुण धम्मसुक्कझाणं दोणं पि सामित्तमुवणमंति, अविरोहादो। धूमप्रभा तेण तेसिं चेव एत्य णिसो कदो। जो चौदह पूर्वोको धारण स.सि./११/२०३/८ धूमप्रभा सहचरिता भूमि मप्रभा ।- जिस पृथिवी- करनेवाला होता है, वह ध्याता होता है, क्योंकि इतना ज्ञान हुए की प्रभा धुके समान है वह भूमि धूमप्रभा है। (ति.प./२/२१), मिना, जिसने नौ पदार्थोंको भली प्रकार नहीं जाना है, उसके ध्यान(रा.वा./३/१/३/१५६/११) की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। प्रश्न-चौदह, दस और नौ पूर्वोके ज. प./११/१२९ अबसेसा पुढवीओ मोद्धमा होति पंकबहुलाओ। बिना स्तोकग्रन्थसे भी नौ पदार्थ विषयक ज्ञान देखा जाता है। -रवप्रभाको छोड़कर (नरककी) शेष छः पृथिवियोंको पंक बहुल उत्तर-नहीं, क्योंकि स्तोक ग्रन्थसे बीजबुद्धि मुनि ही पूरा जान जानना चाहिए। सकते हैं, उनके सिवा दूसरे मुनियोंको जाननेका कोई साधन नहीं * इस पृथिवीका विस्तार -दे० लोक । है। (अर्थात जो भीजबुद्धि नहीं है वे मिना श्रुतके पदार्थोका ज्ञान करनेको समर्थ नहीं है) और द्रव्यश्रुतका यहाँ अधिकार नहीं है। * इसके भवस्थान नकशे-दे० लोक/७ । क्योंकि ज्ञानके उपलिंगभूत पुदगलके विकारस्वरूप जड़बस्तुको धूलिकलशाभिषेक-दे० प्रतिष्ठा विधान । श्रत (ज्ञान) मानने में विरोध पाता है। प्रश्न-स्तोक द्रव्यश्रुतसे नौ पदार्थोंको पूरी तरह जानकर शिवभूति आदि बीजबुद्धि मुनियोंके धूलिशाल-समवशरणका प्रथम कोट-दे० समवशरण। ध्यान नहीं माननेसे मोक्षका अभाव प्राप्त होता है। उत्तर-स्तोक धृतराष्ट्र-(पा.पु./सर्ग/श्लोक) भीष्मके सौतेले भाई व्यासका पुत्र ज्ञानसे यदि ध्यान होता है तो वह क्षपक व उपशमश्रेणीके अयोग्य था। (७/११७)। इसके दुर्योधन आदि सौ कौरव पुत्र थे। (१९८३- धर्मध्यान ही होता है (धवलाकार पृथक्त्व वितर्कवीचारको धर्मध्यान २०५) । मुनियोंसे भावी युद्धमें उन पुत्रोंकी मृत्यु जानकर दीक्षित मानते हैं-दे० धर्मध्यान/२/४-६) परन्तु चौदह, दस और नौ पूर्वोके हो गया । (१०/१२-१६) धारी तो धर्म और शुक्ल दोनों ही ध्यानोंके स्वामी होते हैं। क्योंकि धृति-दे० संस्कार/२। ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता। इसलिए उन्हींका यहाँ निर्देश किया गया है। धृति (देवी)-१. निषध पर्वतपर स्थित तिगिछ हद व धृति म.पू./२/१०१-१०२ स चतुर्दशपूर्वज्ञो दशपूर्वधरोऽपि वा। नवपूर्वधरो कूटकी स्वामिनी देवी-दे० लोक ५/४ २, रुचक पर्वत निवासिनी वा स्याद ध्याता सम्पूर्ण लक्षणः ।१०१॥ श्रुतेन विकलेनापि स्याद एक दिक्कुमारी देवी। -. लोका१३ । ध्याता सामग्री प्राप्य पुष्कलाम् । क्षपकोपशमश्रेण्योः उत्कृष्ट ध्यानघृति भावना-दे० भावना/२। मृच्छति ।१०४॥ -यदि ध्यान करनेवाला मुनि चौदह पूर्वका, या धृतिषेण-भूतावतारको पट्टावलीके अनुसार आप भद्रबाहु प्रथम दश पूर्वका, या नौ पूर्वका जाननेवाला हो तो वह ध्याता सम्पूर्ण लक्षणोंसे युक्त कहलाता है ।१०१। इसके सिवाय अल्पश्रुतज्ञानी (श्रुतकेवली ) के पश्चात सातवें ११ अंग १० पूर्वधारी थे। समय अतिशय बुद्धिमान और श्रेणीके पहले पहले धर्मध्यान धारण करनेबी.नि. २६४-२८२: (ई.पू. २६३-२४५-२० इतिहास/४। वाला उत्कृष्ट मुनि भी उत्तम ध्याता कहलाता है।१०२॥ धैवत-दे० स्वर। स.सा./ता../१०/२२/११ ननु तर्हि स्वसंवेदनज्ञानबलेनास्मिन् कालेऽपि धेर्या-भरत क्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी। -दे० मनुष्य/४। श्रुतकेवली भवति । तन्ना यादृशं पूर्व पुरुषाणां शुक्लध्यानरूप स्वसंवेदन ज्ञानं तादृशमिदानी नास्ति किन्तु धर्मध्यानयोग्यमस्तीति । ध्याता-धर्म व शुक्लध्यानोंको ध्यानेवाले योगीको ध्याता कहते हैं। -प्रश्न-स्वसंवेदनज्ञानके बलसे इस कालमें भी श्रुतकेवली होने उसीकी विशेषताओं का परिचय यहाँ दिया गया है। चाहिए : उत्तर-नहीं, क्योंकि जिस प्रकारका शुक्लध्यान रूप १. प्रशस्त ध्वातामै ज्ञान सम्बन्धी नियम व स्पष्टीकरण स्वसंवेदन पूर्वपुरुषोंके होता था, उस प्रकारका इस कालमें नहीं होता। केवल धर्मभ्यान योग्य होता है। स.सू.३७ शुक्ले चाय पूर्व विदः ॥३७॥ व.सं/टी./१७/२३२ हयथोक्त दशचतुर्दशपूर्वगतश्रुतज्ञानेन ध्यानं भवति स.सि./६/३७/१५३/४ आने शुक्लभ्याने पूर्वविदो भवतः श्रुतकेवलिन तदप्मुसर्गवचनम् । अपवादव्याख्यानेन पुनः पञ्चसमितित्रिगुमिप्रतिइत्यर्थः। (नेतरस्य (रा.वा.)) चशम्देन धर्नामपि समुच्चीयते। पादकसारभूतश्रुतेनापि ध्यानं भवति । तथा जो ऐसा कहा है, कि - शुक्लध्यानके भेदोंमेंसे आदिके दो शुक्तध्यान (पृथक्त्व व एकत्व 'दश तथा चौदह पूर्वतक श्रुतहानसे ध्यान होला है, वह उत्सर्ग बितर्कवीचार) पूर्व विद अर्थात श्रुतकेसीके होते हैं अन्यके नहीं। वचन है। अपवाद व्याख्यानसे तो पाँच समिति और तीन गुप्तिको सूत्र में दिये गये 'च' शब्दसे धर्म्यध्यानका भी समुच्चय होता है। प्रतिपादन करनेवाले सारभूतश्रुतज्ञानसे भी ध्यान होता है। (पं.का./ (अर्थात शुक्लध्यान तो पूर्व विदको ही होता है परन्तु धर्मध्यान ता.व./१४६/२१२/8); (और भी दे० श्रुतकेवली) पूर्व विदको भी होता है और अल्पश्रुतको भी।) (रा.बा./६/३७/१/ ६२/२०) २. प्रशस्त ध्यानसामान्य योग्य ध्याता प.श५-४,२६/६४/६ पउदस्सपुम्बहरो वा [दस णयपुन्वहरो बा, णाणेण ध१३/१,४,२६१६४/६ तत्थ उत्तमसंघडणो ओधबलो ओघसूरो चोहस्सविणा अणवगम-णवषयवस्स माणाणुववत्तीदो ।...चोदस-दस- पुन्बहरो वा [दस] णवपुषहरो वा। -जो उत्तम संहननवाला, पवपुग्वेहि विणा थोषण वि गंधण णवपयस्वावगमोवलं भादो। ण, निसर्गसे बलशाली और शूर, तथा चौदह या दस या नौ पूर्वको थोवेण गण णिस्सेसमधगंतुं मौजबुद्धिमुषिणो मोसूण अण्णेसिमु- धारण करनेवाला होता है वह ध्याता है । (म.पु./२१/८५) जैमेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्याता ४९३ ध्याता म.पु /२१/८६-८७ दोरोत्सारितदुानो दुर्ने श्या. परिवर्जयन् । लेश्याविशुद्धिमालम्ब्य भावयन्नप्रमत्तताम् ।८६ प्रज्ञापारमितो योगी ध्याता स्यादीबलान्वित' । सूत्रालम्बनो धीर. सोढाशेषपरीषह. १८७। अपि चोज तसंवेग' प्राप्तनिर्वेदभावन। वैराग्यभावनोत्कर्षात पश्यन् भोगानतर्ण कान् ।।८। सम्यग्ज्ञानभावनापास्तमिथ्याज्ञानतमोधनः । विशुद्धदर्शनापोढगाढमिथ्यात्वशल्यकः ।। -आर्त व रौद्र ध्यानोंसे दूर, अशुभ लेश्याओंसे रहित, लेश्याओकी विशुद्धतासे अवलम्बित, अप्रमत्त अवस्थाकी भावना भानेवाला ८६ बुद्धिके पारको प्राप्त, योगी, बुद्धिबलयुक्त, सूत्रार्थ अवलम्बी, धीर वीर, समस्त परीषहोंको सहनेवाला 1८७१ संसारसे भयभीत, वैराग्य भावनाएँ भानेवाला, वैराग्यके कारण भोगोपभोगकी सामग्रीको अतृप्तिकर देखता हुआ 1८८ सम्यग्ज्ञानको भावनासे मिथ्याज्ञानरूपी गाढ अन्धकारको नष्ट करनेवाला, तथा विशुद्ध सम्यग्दर्शन द्वारा मिथ्या शल्यको दूर भगाने बाला, मुनि ध्याता होता है। (दे० ध्याता/४ त. अनु.) द्र.सं./मू./७ तवसुदवदवं चेदा झाणरह धुरंधरोहवे जम्हा । तम्हा तत्तिय णिरदा तल्लद्धीए सदा होह । -क्योंकि तप व्रत और श्रुतज्ञानका धारक आत्मा ध्यानरूपी रथकी धुराको धारण करनेवाला होता है, इस कारण हे भव्य पुरुषो! तुम उस ध्यानकी प्राप्ति के लिए निरन्तर तप श्रुत और व्रतमें तत्पर होलो।। चा.सा./१६७/२ ध्याता गुप्तेन्द्रियश्च । -प्रशस्त ध्यानका ध्याता मन वचन कायको वशमें रखनेवाला होता है। ज्ञा./१/६ मुमुक्षुर्जन्मनिर्विगः शान्तचित्तो वशी स्थिर.। जिताक्षः संवृतो धीरो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते।६। मुमुक्षु हो, संसारसे विरक्त हो, शान्तचित्त हो, मनको वश करनेवाला हो, शरीर व आसन जिसका स्थिर हो, जितेन्द्रिय हो, चित्त सवरयुक्त हो (विषयों में विकल न हो), धीर हो, अर्थात उपसर्ग आनेपर न डिगे, ऐसे ध्याताको ही शास्त्रों में प्रशंसा की गयो है। (म.पु /२१/६०-६५); (ज्ञा./२७/३) ३. ध्याता न होने योग्य व्यक्ति ज्ञा.// श्लोक नं. केवल भावार्थ-जो मायाचारो हो ।३२ मनि होकर भी जो परिग्रहधारी हो।३३। ख्याति लाभ पूजाके व्यापारमें आसक्त हो ।३। 'नौ सौ चूहे खाके विक्ली हजको चली' इस उपारल्यानको सत्य करनेवाला हो ।४२। इन्द्रियोंका दास हो ।४३। विरागताको प्राप्त न हुआ हो।४४ा ऐसे साधुओंको ध्यान प्राप्ति नही होती। ज्ञा /६२ एते पण्डितमानिनः शमदमस्वाध्यायचिन्तायुता', रागादिग्रहयश्चिता यतिगुणप्रध्वंसतृष्णाननाः । व्याकृष्टा विषयैर्मदै प्रमुदिताः शङ्काभिरजीकृता, न ध्यानं न विवेचनं न च तप' क बराकाः क्षमाः ६। जो पण्डित तो नहीं है, परन्तु अपनेको पण्डित मानते हैं, और शम, दम, स्वाध्यायसे रहित तथा रागद्वेषादि पिशाचोंसे वंचित हैं, एवं मुनिपनेके गुण नष्ट करके अपना मुँह काला करनेवाले हैं, विषयोंसे आकर्षित, मदोंसे प्रसन्न, और शंका सन्देह शल्यादिसे ग्रस्त हों, ऐसे रंक पुरुष न ध्यान करनेको समर्थ है, न भेदज्ञान करनेको समर्थ हैं और न तप ही कर सकते हैं। दे० मंत्र-(मन्त्र यन्त्रादिकी सिद्धि द्वारा वशीकरण आदि कार्योंकी सिद्धि करनेवालोंको ध्यानकी सिद्धि नहीं होती) दे० धर्म पान/२/३ (मिथ्यादृष्टियों को यथार्थ धर्म व शुक्लध्यान होना सम्भव नहीं है) दे० अनुमव/४/५ (साधुको हो निश्चयध्यान सम्भव है गृहस्थको नहीं, क्योंकि प्रपंचग्रस्त होनेके कारण उसका मन सदा चंचल रहता है। ४. धर्मध्यानके योग्य ध्याता का.अ././४७६ धम्मे एयग्गमणो जो णवि वेदेदि पंचहा विसर्य । वेरग्गमओ णाणी धम्मज्माणं हवे तस्स १४७६३ =जो ज्ञानी पुरुष धर्ममे एकाग्र मन रहता है, और इन्द्रियोके विषयो का अनुभव नही करता, उनसे सदा विरक्त रहता है, उसीके धर्मध्यान होता है । (दे० ध्याता/२ मे ज्ञा./४/६) त. अनु/४१-४५ तत्रासन्नीभवन्मुक्तिः किंचिदासाद्य कारणम् । विरक्तः कामभोगेभ्यस्त्यक्त-सर्वपरिग्रहः ।४१) अभ्येत्य सम्यगाचार्य दीक्षा जैनेश्वरौं श्रित' । तपोसंयमसंपन्न प्रमादरहितांशयः ॥४२सम्यग्निर्णीतजीवादिध्ययवस्तुव्यवस्थिति' । आर्तरौदपरित्यागाल्लब्धचित्तप्रसक्तिक. ४३। मुक्तलोकद्वयापेक्ष सोढाऽशेषपरीपह' । अनुष्ठितक्रियायोगो ध्यानयोगे कृतोद्यमः ।४४। महासत्वः परित्यक्तदुर्लेश्याSशुभभावनाः । इतीहग्लक्षणो ध्याता धर्मध्यानस्य संमतः ।४।। -धर्मध्यानका ध्याता इस प्रकारके लक्षणोंवाला माना गया हैजिसकी मुक्ति निकट आ रही हो, जो कोई भी कारण पाकर कामसेवा तथा इन्द्रियभोगोसे विरक्त हो गया हो, जिसने समस्त परिग्रहका त्याग किया हो, जिसने आचार्य के पास जाकर भले प्रकार जैनेश्वरी दीक्षा धारण की हो, जो जैनधर्ममें दीक्षित होकर मुनि बना हो, जो तप और संयमसे सम्पन्न हो, जिसका आश्रय प्रमाद रहित हो. जिसने जीवादि ध्येय वस्तुकी व्यवस्थितिको भले प्रकार निर्णीत कर लिया हो, आर्त और रौद्र ध्यानोंके त्यागसे जिसने चित्तकी प्रसन्नता प्राप्त की हो, जो इस लोक और परलोक दोनोंकी अपेक्षासे रहित हो, जिसने सभी परिषहोंको सहन किया हो, जो क्रियायोगका अनुष्ठान किये हुए हो (सिदभक्ति आदि क्रियाओं के अनुष्ठानमें तत्पर हो।) ध्यानयोगमें जिसने उद्यम किया हो ( ध्यान लगानेका अभ्यास किया हो). जो महासामर्थ्यवान हो, और जिसने अशुभ लेश्याओ तथा बुरी भावनाओंका त्याग किया हो। (ध्याता/२/में म.पू.) और भी दे० धर्म्यध्यान/९/२ जिनाज्ञापर श्रद्धान करनेवाला, साधुका गुण कीर्तन करनेवाला, दान, श्रुत, शील, संयममें तत्पर, प्रसन्न चित्त, प्रेमी, शुभ योगी, शास्त्राभ्यासी, स्थिरचित्त, बैराग्य भावनामें भानेवाला ये सब धर्मध्यानीके बाह्य व अन्तरंग चिह्न है। शरीरको नीरोगता, विषय लम्पटता व निष्ठुरताका अभाव, शुभ गन्ध, मलमूत्र अल्प होना, इत्यादि भी उसके बाह्य चिह्न है। दे० धर्मध्यान/९/३ वैराग्य, तत्त्वज्ञान, परिग्रह त्याम, परिषहजय, कषाय निग्रह आदि धर्मध्यानकी सामग्री है। ५. शुक्लध्यान योग्य ध्याता ध.१३/१,४,२६/गा,६७-७१/८२ अभयासंमोहविवेगविसग्गा तस्स हाँति लिंगाई। लिंगिजइ जेहि मुणी सुक्कझाणेवगयचित्तो।६७। चालिज्जइ वीहेह व धीरोण परीसहोवसग्गेहि । सहुमेसु ण सम्मुझह भावेसु ण देवमायासु।६८० देह विचित्तं पैच्छइ अपाणं तह य सव्यसंजोए । देहोमहिवोसग्गं हिस्संगो सबदो कुणदि ।६।। ण कसायसमुत्येहि वि बाहिज्जइ माणसेहि दुक्खेहि। ईसाबिसायसोगादिएहि झाणोवगयचित्तो 1001 सीयायवादिएहि मि सारीरेहिं बहुप्पयारेहिं । णो बाहिज्जइ साहू झेयम्मि सुणिच्चलो संता ७१ - अभय, असंमोह, विवेक और विसर्ग ये शुक्लध्यानके लिंग हैं, जिनके द्वारा शुक्लध्यानको प्राप्त हुआ चित्तवाला मुनि पहिचाना जाता है।६। वह धीर परिषहों और उपसगोंसे न तो चलायमान होता है और न डरता है, तथा वह सूक्ष्म भावों व देवमायामें भी मुग्ध नहीं होता है।६८। वह देहको अपनेसे भिन्न अनुभव करता है, इसी प्रकार सब तरहके संयोगोंसे अपनी बात्माको भी भिन्न अनुभव करता है, तथा निःसंग हुआ वह सब प्रकारसे देह व उपाधिका उत्सर्ग करता है । ध्यान में अपने चित्तको लीन करनेवाला, वह कषायोंसे उत्पन्न हुए ईर्ष्या, विषाद और शोक आदि मानसिक दु:खोसे भी नहीं बाँधा जाता है ।७०। ध्येयमें निश्चल हुआ वह साधु शीत व आतप आदि बहुत प्रकारकी बाधाओके द्वारा भी नहीं बाँधा जाता है ७१। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश | Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान सूचीपत्र ध्यानके भेद व लक्षण त.अनु./३५ वज्रसंहननोपेताः पूर्वश्रुतसमन्विताः। दध्युः शुक्लमिहातीताः श्रेण्यारोहणक्षमा' ।३। -वज्रऋषभ संहननके धारक, पूर्वनामक श्रुतज्ञानसे संयुक्त और उपशम वक्षपक दोनों श्रेणियोके आरोहणमें समर्थ, ऐसे अतीत महापुरुषोंने इस भूमण्डलपर शुक्लध्यानको ध्याया है। ६. ध्याताओंके उत्तम आदि भेद निर्देश ध्यान सामान्यका लक्षण । एकाग्र चिन्तानिरोध लक्षणके विषयमें शंका । योगादिकी संक्रान्तिमें भी ध्यान कैसे ? -दे० शुक्लध्यान/४/१। एकाग्र चिन्तानिरोधका लक्षण। -दे० एकाग्र । ध्यान सम्बन्धी विकल्पका तात्पर्य। -दे० विकल्प। ध्यानके भेद । अप्रशस्त, प्रशस्त व शुद्ध ध्यानोंके लक्षण । आर्त रौद्रादि तथा पदस्थ पिडस्ध आदि ध्यानों सम्यन्धी। --दे०वह वह नाम। पं.का./ता.वृ /१७३/२५३/२६ तत्त्वानुशासनध्यानग्रन्थादौ कथितमार्गेण जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिधा ध्यातारो ध्यानानि चे भवन्ति । तदपि कस्मात् । तत्रैवोक्तमास्ते द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपा ध्यानसामग्री जघन्यादिभेदेन त्रिधेति वचनात। अथवातिसंक्षेपेण द्विधा ध्यातारो भवन्ति शुद्धात्मभावना प्रारम्भका पुरुषाः सूक्ष्मस विकल्पावस्थाया प्रारब्धयोगिनो भण्यन्ते, निर्विकल्पशुद्धारमावस्थायां पुननिष्पन्नयोगिन इति संक्षेपेणाध्यात्मभाषया ध्यातृध्यानध्येयानि... ज्ञातव्या.। - तत्त्वानुशासन नामक ध्यान विषयक ग्रन्थके आदिमे (दे० ध्यान/ ३११) कहे अनुसार ध्याता व ध्यान जघन्य मध्यम व उत्कृष्टके भेदसे तीन-तीन प्रकार के हैं क्योंकि वहाँ ही उनका द्रव्य क्षेत्र काल व भावरूप सामग्रीकी अपेक्षा तीन-तीन प्रकारका बताया गया है। अथवा अतिसंक्षेपसे कहें तो ध्याता दो प्रकारका है-प्रारब्धयोगी और निष्पन्नयोगी। शुद्धात्मभावनाको प्रारम्भ करनेवाले पुरुष सूक्ष्म सविकल्पावस्थामें प्रारब्धयोगी कहे जाते हैं। और निर्विकल्प शुद्धारमावस्थामें निष्पन्नयोगी कहे जाते है। इस प्रकार संक्षेपसे अध्यात्मभाषामें ध्याता ध्यान व ध्येय जानने चाहिए। ७. अन्य सम्बन्धित विषय ध्यान निर्देश ध्यान व योगके अंगोंका नाम निर्देश । ध्याता, ध्येय, प्राणायाम आदि । -दे. वह वह नाम । ध्यान अन्तर्महूर्तसे अधिक नहीं टिकता। ध्यान व शान आदिमें कथंचित् भेदाभेद । ध्यान व अनुप्रेक्षा आदिमें अन्तर । -दे० धर्मध्यान/३ । ध्यान द्वारा कार्यसिद्धिका सिद्धान्त । ध्यानसे अनेक लौकिक प्रयोजनोंकी सिद्धि। ऐहिक फलवाले ये सब ध्यान अप्रशस्त हैं। मोक्षमार्गमें यन्त्र-मन्त्रादिकी सिद्धिका निषेध । --दे० मन्त्र। ध्यानके लिए आवश्यक ज्ञानकी सीमा। -दे० ध्याता/१० अप्रशस्त व प्रशस्त ध्यानोंमें हेयोपादेयताका विवेक । ऐहिक ध्यानोंका निर्देश केवल ध्यानकी शक्ति दर्शाने के लिए किया गया है। ९ पारमार्थिक ध्यानका माहात्म्य । ध्यान फल। -दे०वह वह ध्यान । सर्य प्रकारके धर्म एक ध्यानमें अन्तर्भूत है। १. पृथकत्व एकत्व वितर्क विचार आदि शुक्लध्यानोके ध्याता । -दे० शुक्ल ध्यान। २. धर्म व शुक्लध्यानके ध्याताओंमें संहनन सम्बन्धी चर्चा । -दे० संहनन। ३. चारों ध्यानोंके ध्याताओंमें भाव व लेश्या आदि । --दे० वह वह नाम । ४. चारों ध्यानोंका गुणस्थानोंकी अपेक्षा स्वामित्व । -दे० वह वह नाम। ५. आर्त रौद्र ध्यानोंके बाह्य चिह्न । -दे० वह वह नाम । ध्यान एकाग्रताका नाम ध्यान है। अर्थात व्यक्ति जिस समय जिस भावका चिन्तवन करता है, उस समय वह उस भाव के साथ तन्मय होता है। इसलिए जिस किसी भी देवता या मन्त्र, या अहंन्त आदिको ध्याता है, उस समय वह अपनेको वह ही प्रतीत होता है। इसीलिए अनेक प्रकारके देवताओंको ध्याकर साधक जन अनेक प्रकारके ऐहिक फलोंकी प्राप्ति कर लेते है। परन्तु वे सब ध्यान आर्त व रौद्र होनेके कारण अप्रशस्त है। धर्म शुक्ल ध्यान द्वारा शुद्वारमाका ध्यान करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, अत' वे प्रशस्त है। ध्यानके प्रकरण में चार अधिकार होते है-ध्यान, ध्याता, ध्येय व ध्यानफल । चारोंका पृथक-पृथक् निर्दश किया गया है। ध्यानके अनेकों भेद हैं, सबका पृथक-पृथक निर्देश किया है। ध्यानकी सामग्री व विधि द्रव्य क्षेत्रादि सामग्री व उसमें उत्कृष्टादिके विकल्प । ध्यान योग्य मुद्रा, आसन, क्षेत्र व दिशा। -दे० कृतिकर्म/३ । ध्यानका कोई निश्चित काल नही है। ध्यान योग्य भाव। -दे० ध्येय। उपयोगके आलम्बनभूत स्थान । | ध्यानकी विधि सामान्य । ध्यानमें वायु निरोध सम्बन्धी। -दे० प्राणायाम । ध्यानमें धारणाओका अवलम्बन। -दे. पिंडस्थ । ५ अर्हतादिके चिन्तवन द्वारा ध्यानकी विधि । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ४९५ १. ध्यानके भेद व लक्षण ध्यानकी तन्मयता सम्बन्धी सिद्धान्त ध्याता अपने ध्यानभावसे तन्मय होता है। जैसा परिणमन करता है उस समय आत्मा वैसा ही। होता है। | आत्मा अपने ध्येयके साथ समरस हो जाता है। अर्हतको ध्याता हुआ स्वयं अर्हत होता है। ५ | गरुड आदि तत्त्वोंकों ध्याता हुआ स्वयं गरुड आदि रूप होता है। * गरुड आदि तत्त्वोंका स्वरूप। --दे० वह वह नाम । जिस देव या शक्तिको ध्याता है उसी रूप हो जाता है। -दे० ध्यान/२/४.५। | अन्य ध्येय भी आत्मामें आलेखितवत् प्रतीत होते हैं। १. ध्यानके भेद व लक्षण १. ध्यान सामान्यका लक्षण १. ध्यानका लक्षण-एकाग्र चिन्ता निरोध त.सु./६/२७ उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमाऽन्तर्मुहुर्तात ॥२७१ -उत्तम संहननवालेका एक विषयमें वित्तवृत्तिका रोकना ध्यान है, जो अन्तर्महूर्त काल तक होता है । (म.पु./२१/८), (चा सा./ १६६/६), (प्र.सा./त.प्र./१०२), (त.अनु./५६) स.सि./६/२०/४३६/८ चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम् । =चित्तके विक्षेपका त्याग करना ध्यान है। त.अनु./१६ एकाग्रग्रहणं चात्र वैययविनिवृत्तये। व्यग्र हि ज्ञानमेव स्याद् ध्यानमेकाग्रमुच्यते ॥५६॥ = इस ध्यानके लक्षणमें जो एकाग्रका ग्रहण है वह व्यग्रताकी विनिवृत्तिके लिए है। ज्ञान ही वस्तुतः व्यग्र होता है, ध्यान नहीं। ध्यानको तो एकाग्र कहा जाता है। पं.ध/उ./८४२ यत्पुनर्जानमैकत्र नैरन्तर्येण कुत्रचित् । अस्ति तबध्यानमात्रापि क्रमो नाप्यक्रमोऽर्थतः।८४२। -किसी एक विषयमें निरन्तर रूपसे ज्ञानका रहना ध्यान है, और वह वास्तवमें क्रमरूप ही है अक्रम नहीं। २. ध्यानका निश्चय लक्षण-आत्मस्थित आत्मा पं.का./मू./१४६ जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो। तस्स सुहासुहडहणो भाणमओ जायए अगणी। =जिसे मोह और रागद्वेष नहीं है तथा मन वचन कायरूप योगों के प्रति उपेक्षा है, उसे शुभाशुभको जलानेवाली ध्यानमय अग्नि प्रगट होती है। त.अनु./७४ स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन ध्यायेत्स्वस्मै स्वतो यतः। षटकारकमयस्तस्मादध्यानमात्मैव निश्चयात् ।७४ - चू*कि आत्मा अपने आत्माको, अपने आत्मामें, अपने आत्माके द्वारा, अपने आरमाके लिए, अपने-अपने आत्महेतुसे ध्याता है, इसलिए कर्ता. कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ऐसे षट् कारकरूप परिणत आत्मा ही निश्चयनयकी दृष्टिसे ध्यानस्वरूप है। अन.ध./१/११४/११७ इष्टानिष्टार्थमोहादिच्छेदाच्चेतः स्पिरं तत' । ध्यानं रत्नत्रयं तस्मान्मोक्षस्ततः सुखम् ।११४। = इष्टानिष्ट बुद्धिके मूल मोहका छेद हो जानेसे चित स्थिर हो जाता है। उस चित्तकी स्थितताको ध्यान कहते हैं। २. एकाग्र चिन्ता निरोध लक्षणके विषय में शंका स. सि./६/२७/४४५/१ चिन्ताया निरोधो यदि ध्यान, निरोधश्चाभावः, तेन ध्यानमसरखरविषाणवत्स्यात् । नैष दोषः अन्यचिन्तानिवृत्त्यपेक्षयाऽसदिति चोच्यते, स्वविषयाकारप्रवृत्तेः सदिति च; अभावस्य भावान्तरत्वाइधेवारवादिभिरभानस्य बस्तुधर्भवसिधेश्च । अथवा नायं भावसाधन', निरोध निरोध इति । किं तहि। कर्मसाधनः निरुध्यत इति निरोध'। चिम्ता चासौ निरोधश्च चिन्तानिरोध इति । एतदुक्तं भवति-ज्ञानमेवापरिस्पन्दाग्निशिखावदवभासमान ध्यानमिति । प्रश्न-यदि चिन्ताके निरोधका नाम ध्यान है और निरोध अभावस्वरूप होता है, इसलिए गधेके सोंगके समान ध्यान असत ठहरता है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अन्य चिन्ताकी निवृत्तिको अपेक्षा वह असत् कहा जाता है और अपने विषयरूप प्रवृत्ति होनेके कारण वह सत् कहा जाता है। क्योंकि अभाव भावान्तर स्वभाव होता है (तुच्छाभाव नहीं)। अभाव वस्तुका धर्म है यह बात सपक्ष सत्त्व और विपक्ष व्यावृत्ति इत्यादि हेतुके अंग आदिके द्वारा सिद्ध होती है (दे० सप्तभंगी)। अथवा यह निरोध शब्द 'निरोधनं निरोधः' इस प्रकार भावसाधन नहीं है, तो क्या है। "निरुध्यत निरोध'-जो रोका जाता है, इस प्रकार कर्मसाधन है। चिन्ताका जो निरोध वह चिन्तानिरोध है। आशय यह है कि निश्चल अग्निशिखाके समान निश्चल रूपसे अवभास. मान झान ही ध्यान है। (रा.बा//२७/१६-१७/६२६/२४), (विशेष दे० एकाग्र चिन्ता निरोध) दे० अनुभव/२/३ अन्य ध्येयोंसे शून्य होता हुआ भी स्वसंवेदनको अपेक्षा शून्य नहीं है। ३. ध्यानके भेद १. प्रशस्त व अप्रशस्तकी अपेक्षा सामान्य मेद चा सा./१६७/६ तदेतच्चतुरङ्गध्यानमप्रशस्त-प्रशस्तभेदेन द्विविधं । वह (ध्याता, ध्यान, ध्येय व ध्यानफल रूप) चार अंगवाला ध्यान अप्रशस्त और प्रशस्तके भेदसे दो प्रकारका है। (म. पू/२१/२७ ), (ज्ञा./२/१७) ज्ञा./३/२७-२८ संक्षेपरुचिभि. सूत्रात्तन्निरूप्यात्मनिश्चयात। विधैवाभिमतं कैश्चिद्यतो जीवाशयस्त्रिधा ॥२७॥ तत्र पुण्याशयः पूर्व स्तद्विपक्षोऽशुभाशयः। शुद्धोपयोगसंज्ञो य. स तृतीयः प्रकीर्तितः ।२८। -कितने ही संक्षेपरुचिवालोंने तीन प्रकारका ध्यान माना है, क्योंकि, जीवका आशय तीन प्रकारका ही होता है ।२७ उन तीनोंमें प्रथम तो पुण्यरूप शुभ आशय है और दूसरा उसका विपक्षी पापरूप आशय है और तीसरा शुद्धोपयोग नामा आशय है। २. आर्त रौद्रादि चार भेद तथा इनका अप्रशस्त व प्रशस्तमें अन्तर्भावस.सू /8/२८ आर्तरौद्रधHशुक्लानि ।२८/= ध्यान चार प्रकारका है आर्त रौद्र धय और शुक्ल । (भ. आ. मू./१६६६-१७००) (म.पु./ २१/२८); (ज्ञा. सा./१०); (त. अनु./३४); (अन. ध./७/१०३/ ७२७)। मू. आ./३६४ अटच रुद्दसहियं दोणि वि झाणाणि अप्पसत्थाणि । धम्म सुक्कं च दुवे पसत्थझाणाणि णेयाणि ।३६४ =आर्त ध्यान और रौद्रध्यान ये दो तो अप्रशस्त हैं और धर्म्यशुक्ल ये दो ध्यान प्रशस्त हैं। (रा. वा./४/२८/४/६२७/३३); (ध. १३/५,४.२६/४७/११ में केवल प्रशस्तध्यानके ही दो भेदोंका निर्देश है); (म. पु./२१/२७); (चा. सा. १६७/३ तथा १७२/२) (ज्ञा. सा./२/२०) (ज्ञा./२६२०) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ४. अप्रशस्त प्रशस्त व शुद्ध ध्यानोंके लक्षण मु. आ./६८१-६८२ परिवारइड्किसक्कारपूयणं असणपाण हेऊ बा । लयणसयणास भत्तपाणकामट्ठहेऊ वा । ६८१| आज्ञाणिद्द समाजकि - महावगुण झाणमिणवसर मणसंकल्पों दु विरो ।६८२ ॥ डा./३/२६-३१]पुण्याशयनशास्त्रात शुद्धतेश्यानलम्बन चिन्नास्तुतत्त्वस्य प्रशस्तं ध्यानमुच्यते |२१| पापाशयवशान्मोहान्मिथ्यात्वाद्वस्तुविभ्रमात् । कषायाज्जायतेऽजस्रमसद्ध्यानं शरीरिणाम् |३०| क्षीणे रागादिसंताने प्रसन्ने चान्तरात्मनि । य' स्वरूपोपलम्भः स्यात्सशुद्रास्यः प्रकीर्तितः ॥३१॥ १. पुत्रशिष्यादिके लिए हाथी घोड़ लिए, आदरपूजन के लिए भोजनपान के लिए, खुदी हुई पर्वतकी जगहके लिए. शयन-आसन-भक्ति व प्राणोंके लिए, मैथुनकी इच्छा के लिए, आज्ञानिर्देश प्रामाणिकता कीर्ति प्रभावना व गुणविस्तार के लिए इन सभी अभिप्रायोंके लिए यदि कायोत्सर्ग करे तो मनका वह संकल्प' अशुभ ध्यान है /मू. आ./ जोबोंके पापरूप आशयके वश तथा मोह मिथ्यात्वकषाय और तत्त्वोंके अयथार्थ रूप विभ्रमसे उत्पन्न हुआ ध्यान अप्रशस्त व असमीचीन है |३०| (शा./२४ /११) ( और भी दे० अपध्यान ) । २. पुण्यरूप आशयके वशसे तथा शुद्धलेश्याके आलम्बनसे और वस्तुके यथार्थ स्वरूप चिन्तवनसे उत्पन्न हुआ ध्यान है | २६० शेष० धर्मध्यान/१/१) ३. रागादिको सन्तानके क्षीण होनेपर अन्तर आत्मा के प्रसन्न होनेसे जो अपने स्वरूपका अवलम्बन है, वह शुद्धध्यान है । ३१ । (दे० अनुभव ) । ४९६ २. ध्यान निर्देश १. ध्यान व योगके अंगोंका नाम निर्देश घ. १३/५.४,२६/६४/५ सत्याचारि अहियारा होंति प्याता. ध्येयं ध्यानं, ध्यानफलमिति । ध्यानके विषय में चार अधिकार हैं. - ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यानफल । ( चा. सा./१६७/१ ) ( म. पु. / २१/८४ ) ( ज्ञा /४/५ ) ( त. अनु / ३७ ) । म. २१/२२१-२२४ भेद योगमादो यः सोऽनुयोज्य समाहितै। योग कः कि समाधानं प्राणायामश्च कीदृश ॥ २२३ ॥ का धारणा किमाध्यानं कि ध्येयं को स्मृति कि फलं कानि बीजानि प्रत्याहारोऽस्य कीदृश' । २२४। जो छह प्रकारसे योगोंका वर्णन करता है. उस योगवादी विद्वान् पुरुषों को पूछना चाहिए कि योग क्या है समाधान क्या है ? प्राणायाम कैसा है 1 धारणा क्या है ? आध्यान ( चिन्तवन ) क्या है " ध्येय क्या है ? स्मृति कैसी है ? ध्यानका फल क्या है ' ध्यानका बीज क्या है ? और इसका प्रत्याहार कैसा है । ।२२३-२२४। ज्ञा./२२/१ अथ कैश्चिद्यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधन इवानानि योगस्य स्थानानि ।। स्थान्यैर्यमनियमाव पास्यासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधय इति षट् । २। उत्साहान्निश्चयात्संतोषादर्शनाद सुनेर्जनपदत्यागात् पद्मयोगः प्रसिद्ध्यति |१| कई अन्यमती 'आठ अंग योगके स्थान है' ऐसा कहते है - १. यम, २. नियम ३. आसन, ४. प्राणायाम, ५. प्रत्याहार, ६, धारणा, ७ ध्यान और ८ समाधि । किन्हीं अन्यमतियो यम नियमको छोड़कर छह कहे है- १. आसन, २. प्राणायाम, ३, प्रत्याहार, ४. धारणा, ५ ध्यान, ६, समाधि । किसी अन्यने अन्य प्रकार कहा है- १. उत्साहसे, २. निश्चयसे, ३. धैर्यसे, ४. सन्तोषसे दर्शन और देशके स्वागत योगकी सिद्धि होती है। = . २. ध्यान निर्देश २. ध्यान अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं टिक सकता घ. १३/५,४,२६/५१/७६ अंतोमुहुत्तमेतं चितावत्थाणमेगवत्थुम्हि । स्थाणं उम्कानं जोगगिरोहों जिगाणं तु ॥५१। एक वस्तु अन्त मुहूर्त कालतक चिन्ताका अवस्थान होना वयस्थोंका ध्यान है और योग निरोध जिन भगवान्का ध्यान है । ५१॥ त. सू. /६/२० ध्यानमान्तर्मुहुर्ता | २७॥ स.सि./६/२००४४५/१ इत्यनेनानधिकृ ततः परं दुर्धरला देकाग्रचिन्ताया. । रा. वा./१/२०/२१/६२०/५ स्यादेतद ध्यानोपयोगेन दिवसमासाद्ययस्थान नान्तर्मुहुर्तादिति तत्र किं कारणम् इन्द्रियोपप्रसंगावध्यान अन्तर्मुक होता है। इससे कालकी अवधि कर दी गयी। इससे ऊपर एकाग्रचिन्ता दुर्धर है । प्रश्न- एक दिन या महीने भर तक भी तो ध्यान रहनेकी बात सुनी जाती है ? उत्तर--यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि, इतने कालतक एक ही ध्यान रहनेमें इन्द्रियों का उपघात ही हो जायेगा । २. ध्यान व ज्ञान आदिमें कथंचित् भेदाभेद 1 म.पू. २१/१५-१६ प ज्ञानपर्यायो ध्यानाय ध्येयगोचरः । तथाप्येकासंदष्टो धत्ते बोधादि वान्यताम् । १५० हर्षामर्षादिवत् सोऽयं चिद्धमोऽप्यनबोधितः प्रकाशते विभिन्नारमा कथंचि स्तिमितात्मकः १६। यद्यपि ध्यान ज्ञानकी हो पर्याय है और वह ध्येयको विषय करनेवाला होता है। तथापि सहवर्ती होनेके कारण वह ध्यान -ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यरूप व्यवहारको भी धारण कर लेता है | १३| परन्तु जिस प्रकार चित धर्मरूपसे जाने गये हर्ष व क्रोधादि भिन्नभिन्न रूपसे प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार अन्तःकरणका संकोच करनेरूप ध्यान भी चैतन्यके धर्मोसे कथंचित् भिन्न है | १६ | ४. ध्यान द्वारा कार्य सिद्धिका सिद्धान्त त. अनु. / २०० यो यत्कर्मप्रभुर्देवस्तदध्यानाविष्टमानसः । ध्याता तदात्मको भूत्वा साधयत्यात्म वाञ्छितम् ॥ २००॥ -जो जिस कर्मका स्वामी अथवा जिस कर्म के करनेमें समर्थ देव है उसके ध्यानसे व्याप्त चित्त हुआ ध्याता उस देवतारूप होकर अपना वांछित अर्थ सिद्ध करता है । दे० धर्मध्यान /६/८ ( एकाग्रता रूप तुम्मयता के कारण जिस-जिस पदार्थका चितवन जीव करता है, उस समय वह अर्थात उसका ज्ञान तदाकार हो जाता है। -- (दे० आगे ध्यान / ४ ) । ५. ध्यानसे अनेकों लौकिक प्रयोजनोंकी सिद्धि ज्ञा./३८ / श्लो. सारार्थ - अष्टपत्र कमलपर स्थापित स्फुरायमान आत्मा व णमो अहंतान के आठ अक्षरोंको प्रत्येक दिशाके सम्मुख होकर क्रमसे आठ रात्रि पर्यन्त प्रतिदिन ११०० बार जपने से सिह आदि र अन्तु भी अपना गर्व छोड़ देते हैं । ६५-६६ आठ रात्रियाँ व्यतीत हो जानेपर इस कमलके पात्रों पर वर्तनेवाले अक्षरोंको अनुक्रमसे निरूपण करके देखें। तत्पश्चात् यदि प्रणव सहित उसी मन्त्रको ध्यावै तो समस्त मनोवाञ्छित सिद्ध हों और यदि प्रणव (ॐ) से वर्जित ध्यावे तो मुक्ति प्राप्त करे ।१०० - १०२ । ( इसी प्रकार अनेक प्रकारके मन्त्रोंका ध्यान करनेसे, राजादिका विनाश, पापका नाश, भोगोंकी प्राप्ति तथा मोक्ष प्राप्ति तक भी होती है । १०३-११२ ॥ शा./४०/२मन्त्रमण्डलमुद्रादिप्रयोगः सुरासुरनरबाट क्षोभयस्यखिलं क्षणात |२| यदि ध्यानी मुनि मन्त्र मण्डल मुद्रादि प्रयोगोंसे ध्यान करनेमें उद्यत हो तो समस्त सुर असुर और मनुष्यों के समूहको क्षणमात्रमें क्षोभित कर सकता है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ४९७ ३. ध्यानकी सामग्री व विधि त. अनु./श्लो.नं. का सारार्थ-महामन्त्र महामण्डल व महामुद्राका आश्रय लेकर धारणाओं द्वारा स्वयं पार्श्वनाथ होता हुआ ग्रहोके विघ्न दूर करता है ।२०२। इसी प्रकार स्वयं इन्द्र होकर (दे० ऊपर नं. ४ वाला शीर्षक ) स्तम्भन कार्योंको करता है ।२०३-२०४। गरुड होकर विषको दूर करता है, कामदेव होकर जगत्को वश करता है, अग्निरूप होकर शीतज्वरको हरता है, अमृतरूप होकर दाहज्वरको हरता है, क्षीरोदधि होकर जगको पुष्ट करता है ।२०५-२०८। त.अनु./२०६ किमत्र बहुनोक्तेन यद्यत्कर्म चिकीर्षति। तदवतामयो भूत्वा तत्तन्निवर्तयत्ययम् ।२०।। -इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या, यह योगी जो भी काम करना चाहता है. उस उस कर्मके देवतारूप स्वयं होकर उस उस कार्यको सिद्ध कर लेता है ।२०६३ . त.अनु./श्लो.का सारार्थ -शान्तात्मा होकर शान्तिकर्मोंको और क्रूरात्मा होकर क्रूरकर्मोंको करता है ।२१०१ आकर्षण, वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, उच्चाटन आदि अनेक प्रकारके चित्र विचित्र कार्य कर सकता है ।२११-२१६। ६. परन्तु ऐहिक फकवाले ये सब ध्यान अप्रशस्त हैं ज्ञा./30/४ बहूनि कर्माणि मुनिप्रवीरैविद्यानुवादात्यकटीकृतानि । असंख्यभेदानि कुतूहलार्थ कुमार्गकुध्यानगतानि सन्ति ।४। - ज्ञानी मुनियोंने विद्यानुवाद पूर्वसे असंख्य भेदवाले अनेक प्रकारके विद्वेषण उच्चाटन आदि कर्म कौतूहलके लिए प्रगट किये हैं, परन्तु वे सत्र कुमार्ग व कुध्यानके अन्तर्गत हैं। त.अनु./२२० तध्यानं रौद्रमातं वा यदैहिकफलार्थिनाम् । = ऐहिक फलको चाहने वालोके जो ध्यान होता है, वह या तो आर्तध्यान है या रौद्रध्यान। ७. अप्रशस्त व प्रशस्त ध्यानों में हेयोपादेयताका विवेक म.पु./२१/२६ हेयमाद्य द्वयं विद्वि दुर्व्यानं भववर्धनम् । उत्तर द्वितयं ध्यानम् उपादेयन्तु योगिनाम् ।२६। = इन चारों ध्यानोंमेंसे पहलेके दो अर्थात् आर्त रौद्रध्यान छोड़नेके योग्य है, क्योंकि वे खोटे ध्यान हैं और संसारको बढानेवाले है, तथा आगेके दो अर्थात धर्म्य और शुक्लध्यान मुनियोंको ग्रहण करने योग्य है ।२६ (भ.आ./मू./ १६६६-१७००/१५२०). (ज्ञा./२५/२१), (त-अनु३४,२२०) ज्ञा /४०/६ स्वप्नेऽपि कौतुकेनापि नासयानानि योगिभि । सेव्यानि यान्ति बोजत्वं यत. सन्मार्गहानये।६। -योगी मुनियों को चाहिए कि (उपरोक्त ऐहिक फलवाले) असमोचीन ध्यानोंको कौतुक्से स्वप्न में भी न विचारें, क्योंकि वे सन्मार्गकी हानिके लिए बोजस्वरूप हैं। ८. ऐहिक ध्यानोंका निर्देश केवल ध्यानकी शक्ति दर्शानेके लिए किया गया है ज्ञा /४०/४ प्रकटीकृतानि असंख्येयभेदानि कुतूहलार्थम् । -ध्यानके ये असरण्यात भेद कुतूहल मात्रके लिए मुनियोंने प्रगट किये हैं। (ज्ञा./२८/१००)। त.अनु./२१६ अत्रैव माग्रह कार्पुर्यध्यानफलमैहिकम् । इदं हि ध्यान माहात्म्यख्यापनाय प्रदर्शितम् ।२१। -इस ध्यानफलके विषयमें किसीको यह आग्रह नहीं करना चाहिए कि ध्यानका फल ऐहिक ही होता है, क्योंकि यह ऐहिक फल तो ध्यानके माहात्म्यकी प्रसिद्धिके लिए प्रदर्शित किया गया है। ९. पारमार्थिक ध्यानका माहात्म्य भ.आ./मू./१८६१-१९०२ एवं कसायजुद्ध'मि हवदि खवयस्स आउधं झरणं ।...१८१२। रणभूमीए कवचं होदि ज्झाणं कसायजुद्धम्मि/... ।१८६३। वहर रदणेसु जहा गोसीसं चदणं व गंधेसु। वेरुलियं व मणीणं तह ज्माणं होई खंवयस्स १८१६ कषायो के साथ युद्ध करते समय ध्यान क्षपकके लिए आयुध व कवचके तुज्य । ।१८६२-१८६३। जैसे रत्नोमें वज्ररत्न श्रेष्ठ है, सुगन्धि पदार्थाम गोशीर्ष चन्दन श्रेष्ठ है, मणियोमे वैडूर्यमणि उत्तम है, वैसे ही ज्ञान दर्शन चारित्र और तपमें ध्यान ही सारभूत व सर्वोत्कृष्ट है (१८६१ ज्ञा.सा./३६ पाषाणेस्वर्ण काष्ठेऽग्निः विनाप्रयोगैः। न यथा दृश्यन्ते इमानि ध्यानेन विना तथात्मा ।३६। जिस प्रकार पाषाण में स्वर्ण आर काष्ठमें अग्नि बिना प्रयोगके दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार ध्यानक बिना आत्मा दिखाई नहीं देता। अ.ग.पा./१५/६६ तपांसि रौद्राण्यनिर्श विधता, शास्त्राण्यधीतामखिलानि नित्यम्। धत्ता चरित्राणि निरस्ततन्द्रो, न सिध्यति ध्यानमृते तथाऽपि।६६ -निशदिन घोर तपश्चरण भले करा, नित्य ही सम्पूर्ण शास्त्रोका अध्ययन भले करो, प्रमाद रहित होकर चारित्र भले धारण करो, परन्तु ध्यानके मिना सिद्धि नहीं। . ज्ञा./४०/३.५ कुखस्याप्यस्य सामर्थ्यमचिन्न्यं त्रिदशैरपि। अनेकविक्रियासारध्यानमार्गावलम्बित. 1३। असावानन्तप्रथितप्रभवः स्वभावतो यद्यपि यन्त्रनाथ.। नियुज्यमान' स पुन' समाधौ करतात विश्वं चरणाग्रलीनम् ।। - अनेक प्रकारकी विक्रियारूप असार ध्यानमार्गको अवलम्बन करनेवाले क्रोधीके भी ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिसका देव भी चिन्तवन नहीं कर सकते ।। स्वभावसे हो अनन्त और जगत्प्रसिद्ध प्रभावका धारक यह आत्मा यदि समाधिमें जोडा जाये तो समस्त जगतको अपने चरणों में लीन कर लेता है। (केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है । (विशेष दे० धम्यध्यान/४) १०. सर्व प्रकारके धर्म एक ध्यान में अन्तर्भत हैं द्र.सं./म./४७ दुविह पि मोक्रबहे ज्झाणे पाउणदि वं मुणी णियमा । तम्हा पयत्तचित्ता जूय झाणं समभसह ।४७ -मुनिध्यानके करनेस जो नियमसे निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकारके मोक्षमार्गको पाता है, इस कारण तुम चित्तको एकान करके उस ध्यानका अभ्यास करो। (त अनु./३३) (और भी दे० मोक्षमार्ग/२धर्म/३/३) नि.सा./ता,वृ/११६ अत. पंचमहावतपंचसमितित्रिगुप्तिप्रत्या ख्यानप्रायश्चित्तालोचनादिकं सर्व ध्यानमेवेति। -- अत' पंच महावत, पंचसमिति, त्रिगुप्ति. प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त और आलोचना आदि सब ध्यान ही है। ३. ध्यानकी सामग्री व विधि १. ध्यानकी द्रव्य क्षेत्रादि सामग्री व उसमें उत्कृष्टादि विकल्प त.अनु./४८-४६ द्रव्यक्षेत्रादिसामग्री ध्यानोत्पत्तौ यतस्त्रिधा। ध्यातारस्त्रिविधास्तस्मात्तेषां ध्यानापि त्रिधा ।४। सामग्रीत प्रकृष्टाया धयातरि ध्यानमुत्तमम् । स्याज्जघन्यं जघन्याया मध्यमायास्तु मधयमम् ॥४६॥ - ग्रानकी उत्पत्तिके कारणभूत द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदि सामग्री क्योंकि तीन प्रकार की है, इसलिए ध्याता व ध्यान भी तीन प्रकारके हैं ।४। उत्तम सामग्री से ध्यान उत्तम होता है, मध्यम- से मध्यम और जघन्यसे जघन्य ४६। (ध्याता/६) २. ध्यानका कोई निश्चित काल नहीं है ध, १३/५.४.२६/१६/६७ व टीका प्र.६६/६ अणियदकालो-सव्वकालेसु सुहपरिणामसंभवादो। एत्थ गाहाओ-कालो वि सो चिय जहि जोगसमाहाणमुत्तम लहछ । ण हु दिवसणिसाबलादिणियमण उमाणा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-६३ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ४९८ ४. ध्यानकी तन्मयता सम्बन्धी सिद्धान्त समए ।१६। उस (ध्याता) के ध्यान करनेका कोई नियत काल नहीं होता, क्योंकि सर्वदा शुभ परिणामोंका होना सम्भव है । इस विषयमें गाथा है "काल भी वही योग्य है जिसमें उत्तम रीतिसे योगका समाधान प्राप्त होता हो। ध्यान करनेवालोके लिए दिन रात्रि और बेला आदि रूपसे समयमें विसो प्रकारका नियमन नहीं किया जा सकता है । (म.पु./२१/८१) और भी दे० कृतिकर्म/३/८ (देश काल आसन आदिका कोई अटल नियम नहीं है।) ३. उपयोगके आलम्बनमत स्थान रा.वा./९/१४/२/६३४/२४ इत्येवमादिकृतपरिर्मा साधुः, नाभेरूवं हृदये मस्तकेऽन्यत्र वा मनोवृत्ति यथापरिचयं प्रणिधाय मुमुचः प्रशस्तध्यानं ध्यायेत्। - इस प्रकार (आसन, मुद्रा, क्षेत्रादि द्वारा दे० कृतिकर्म/३) ध्यानकी तैयारी करनेवाला साधु नाभिके ऊपर, हृदयमें, मस्तकमें या और कहीं अभ्यासानुसार चित्त वृत्तिको स्थिर रखनेका प्रयत्न करता है। (म.पु./२१/६३) ज्ञा./३०/१३ नेत्रद्वन्द्वे श्रवणयुगले नासिकाग्रे ललाटे, वक्त्रे नाभौ शिरसि हृदये तालुनि भूयुगान्ते। ध्यानस्थानान्यमलमतिभिः कीर्तिताऽन्यत्र देहे, तेष्वेकस्मिन्विगतविषयं चित्तमालम्बनीयम् ।१३। -निर्मल बुद्धि आचार्योने ध्यान करनेके लिए-१, नेत्रयुगल, २. दोनों कान, ३. नासिकाका अग्रभाग,४ ललाट, ३. मुख, ६. नाभि,७. मस्तक, ८. हृदय, इ. तालु, १०, दोनों भौहोंका मध्यभाग, इन दश स्थानोंमेंसे किसी एक स्थानमे अपने मनको विषयोसे रहित करके आलम्बित करना कहा है । (वसु.श्रा./४६८); (गु.श्रा./२३६) ४. ध्यानकी विधि सामान्य ध.१३/५,४,२६/२८-२६/६८ किंचिदिद्विमुपावत्तइत्त, ज्झये णिरुद्धट्ठीओ । अप्पाणम्मि सर्दि संधितुं संसारमोक्रवट्ठ (२८ पच्चाहरित्तु विसएहि इंदियाणं मणं च तेहिती अप्पाणम्मि मणं तं जोर्ग पणिधाय धारेदि ।२६।१. जिसकी दृष्टि ध्येय (दे० ध्येय ) में रुकी हुई है, वह बाह्य विषयसे अपमी दृष्टिको कुछ क्षण के लिए हटाकर संसारसे मुक्त होनेके लिए अपनी स्मृतिको अपनी आत्मामें लगावे १२८॥ इन्द्रियोको विषयोंसे हटाकर और मनको भी विषयोसे दुरकर, समाधिपूर्वक उस मनको अपनी आत्मामें लगावे ॥२१॥ (त.अनु./६४-६५) ज्ञा./३०/५ प्रत्याहृत पुनः स्वस्थं सर्वोपाधिविजितम् । चेत' समत्वमापन्नं स्वस्मिन्नेव लयं व्रजेत् ।। =२, प्रत्याहार (विषयोसे हटाकर मनको ललाट आदि पर धारण करना-दे० 'प्रत्याहार') से ठहराया हुआ मन समस्त उपाधि अर्थात् रागादिकरूप विकल्पोंसे रहित समभावको प्राप्त होकर आत्मामें हो लयको प्राप्त होता है। ज्ञा./३१/३७,३६ अनन्यशरणोभूय स तस्मिक्लीयते तथा । ध्यातृध्यानो भयाभावे ध्येयेनैक्यं यथा व्रजेत् ॥३७॥ अनन्यशरणस्तद्धि तत्सं लीनै कमानस' । तद्गुणस्तत्स्वभावात्मा स तादात्म्याच्च संवसन् ॥३६ ज्ञा./३३/२-३ अविद्यावासनावेशविशेषविवशात्मनाम् । योज्यमानमपि स्वस्मिन् न चेत कुरुते स्थितिम् ।२। साक्षात्कर्तुमतः क्षिप्रं विश्वतत्त्वं यथास्थितम् । विशुद्धि चात्मन' शश्वद्वस्तुधर्मे स्थिरीभवेत् ॥३॥ -३. वह ध्यान करनेवाला मुनि अन्य सबका शरण छोडकर उस परमात्मस्वरूपमे ऐसा लीन होता है, कि ध्याता और ध्यान इन दोनोंके भेदका अभाव होकर ध्येयस्वरूपसे, एकताको प्राप्त हो जाता है।३७। जब आत्मा परमात्माके ध्यानमें लीन होता है, तब एकीकरण कहा है, सो यह एकीकरण अनन्यशरण है। वह तद्गुण है अर्थात परमात्माके ही अनन्त ज्ञानादि गुणरूप है, और स्वभावसे आत्मा है। इस प्रकार तादात्म्यरूपसे स्थित होता है।३६। ४. अपनेमें जोड़ता हुआ भी, अविद्याबासनासे विवश हुआ चित्त जब स्थिरताको धारणा नहीं करता। तो साक्षात् वस्तुओंके स्वरूपका यथास्थित तत्काल साक्षात करनेके लिए तथा आत्माकी विशुद्धि करनेके लिए निरन्तर वस्तुके धर्मका चिन्तवन करता हुआ उसे स्थिर करता है। विशेष दे० ध्येय-अनेक प्रकारके ध्येयोंका चिन्तवन करता है, अनेक प्रकारकी भावनाएँ भाता है तथा धारणाएँ धारता है । ५, अहंतादिके चिन्तवन द्वारा ध्यानकी विधि ज्ञा./४०/१७-२० वदन्ति योगिनो ध्यान चित्तमेवमनाकुलम् । कथं शिवत्वमापन्नमात्मानं संस्मरेन्मुनिः ।१७ विवेच्य तद्गुणग्राम तत्स्वरूपं निरूप्य च। अनन्तशरणो ज्ञानी तस्मिन्नेव लयं ब्रजेव ।१८। तद्गुणग्रामसंपूर्ण तत्स्वभावैकभावित । कृत्वात्मानं ततो ध्यानी योजयेत्परमात्मनि ।१३। द्वयोगणैर्मत साम्यं व्यक्तिशक्तिव्यपेक्षया। विशुधेतरयो' स्वात्मतत्त्वयोः परमागमे ।२०-प्रश्नचित्तके क्षोभरहित होनेको ध्यान कहते हैं, तो कोई मुनि मोक्ष प्राप्त आत्माका स्मरण कैसे करे । ।१७। उत्तर-प्रथम तो उस परमात्माके गुण समूहोंको पृथक्-पृथक् विचारे और फिर उन गुणोंके समुदायरूप परमात्माको गुण गुणीका अभेद करके विचार और फिर किसी अन्यकी शरणसे रहित होकर उसी परमात्मामें लीन हो जावे ।१८। परमात्माके स्वरूपसे भावित अर्थात् मिला हुआ ध्यानी मुनि उस परमात्माके गुण समूहोंसे पूर्ण रूप अपने आत्माको करके फिर उसे परमात्मामें योजन करे ।१६। आगममें कर्म रहित व कर्म सहित दोनो आत्म-तत्त्वोंमें व्यक्ति व शक्तिकी अपेक्षा समानता मानी गयी है ।२०॥ त. अनु./१८४-१९३ तन्न चोद्य यतोऽस्माभिर्भावार्हन्नयमर्पितः । स चाहयाननिष्ठात्मा ततस्तत्रैव तद्ग्रह (१८६। अथवा भाविनो भूताः स्वपर्यायास्तदारिमका' । आसते द्रव्यरूपेण सर्वद्रव्येषु सर्वदा १११२। ततोऽयमहत्पर्यायो भावी द्रव्यात्मना सदा । भव्येष्वास्ते सतश्चास्य ध्याने को नाम विभ्रमः। १६३ - हमारी विवक्षा भाव अहंतसे है और अहतके ध्यानमें लीन आत्मा ही है, अत' अर्हदध्यान लीन आत्मामें अहंतका ग्रहण है ।११। अथवा सर्वद्रव्योमें भूत और भावी स्वपर्यायें तदात्मक हुई द्रव्यरूपसे सदा विद्यमान रहती है। अत: यह भावी अहंत पर्याय भव्य जीवोमे सदा विद्यमान है, तब इस सत् रूपसे स्थिर अर्हत्पर्यायके ध्यानमें विभ्रमका क्या काम है ।१४२-१६३। ४. ध्यानकी तन्मयता सम्बन्धी सिद्धान्त १. ध्याता अपने ध्यानमाव से तन्मय होता है प्र.सा./मू./८ परिणमदि जेण दव्वं तकालं तम्मयति पण्णत्त...1८1जिस समय जिस भावसे द्रव्य परिणमन करता है, उस समय वह.उस भावके साथ तन्मय होता है ) (त,अनु /१६१) त.अनु./१६१ येन भावेन यद्रूपं ध्यायत्यात्मानमात्मवित् । तेन तन्मयता याति सोपाधि' स्फटिको यथा ।११। -आत्मज्ञानी आत्माको जिस भावसे जिस रूप ध्याता है, उसके साथ वह उसी प्रकार तन्मय हो जाता है। जिस प्रकार कि उपाधिके साथ स्फटिक ।१९११ (ज्ञा./२६/ ४३ में उद्धृत)। २. जैसा परिणमन करता है उस समय आत्मा वैसा ही होता है प्र.सा./न./८-६...तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयब्वो।। जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुधेण तथा सुद्धो हवदि हि परिणामसम्भावोह। = इस प्रकार वीतरागचारित्र जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ४९९ रूप धर्मसे परिणत आत्मा स्वयं धर्म होता है | जब वह जीव शुभ अथवा अशुभ परिणामोंरूप परिणमता है तब स्वयं शुभ और अशुभ होता है और जब शुद्धरूप परिणमन करता है तब स्वयं शुद्ध होता है || ३. आत्मा अपने ध्येयके साथ समरस हो जाता है त अनु / १५० सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् एतदेव समाधिः स्याल्लोकद्वयफलप्रदः ॥१३७॥ =उन दोनों ध्येय और ध्याताका जो यह एकीकरण है, वह समरसीभाव माना गया है, यही एकीकरण समाधिरूप ध्यान है, जो दोनों लोकोके फलको प्रदान करनेवाला है । (ज्ञा./३१/३८) | ४. अर्हतको ध्याता हुआ स्वयं अहंत होता है शा./३६/४१-४३ गुणग्राम संसीनमानसस्तद्गताशयः । तद्भावभावितो योगी तन्मयत्वं प्रपद्यते ।४१। यदाभ्यासवशात्तस्य तन्मयत्वं प्रजायते तदात्मानमसी ज्ञानी समीक्षते ॥४२॥ एष देवः स सर्वज्ञः सोऽहं राद्रूपतां गतः । तस्मात्स एवं नान्योऽहं विश्वदर्शीति मन्यते |४३| उस परमात्मामें मन लगानेसे उसके ही गुणों में लीन होकर उसमें ही चितको प्रवेश करके उसी भावसे भावित योगी उसीकी तन्मयताको प्राप्त होता है |४१| जब अभ्यासके वशसे उस मुनिके उस सर्वज्ञके स्वरूपसे तन्मयता उत्पन्न होती है उस समय वह मुनि अपने असर्वज्ञ आत्माको सर्वज्ञ स्वरूप देखता है ॥ ४२ ॥ उस समय वह ऐसा मानता है, कि यह वही सर्वज्ञदेव है, वही तत्स्वरूपताको प्राप्त हुआ मैं हूँ, इस कारण वही निस्वदर्शी में हूँ. अन्य में नहीं|४३| त. अनु. / १६० परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति । अर्ह ध्यानाविष्टो भावार्हन् स्यात्स्वयं तस्मात् । =जो आत्मा जिस भावरूप परिणमन करता है, वह उस भावके साथ तन्मय होता है। ( और भी देखो शीर्षक नं. १ ), अतः अर्हध्यानसे व्याप्त आत्मा स्वयं भाव अहंत होता है ।११० ५. गरुड आदि तत्वोंको ध्याता हुआ आत्मा ही स्वयं उन रूप होता है। - ज्ञा. / २१/६-१७ शिवोऽयं वैनतेयश्च स्मरश्चात्मैव कीर्तितः । अणिमादिगुणानरतवाधित उप प्रधान्तरे वारयन्तिक स्वभावोत्थानन्तज्ञानसुख' पुमान् । परमात्मा विपः कन्तुरहो माहारम्यमात्मनः । ६....तदेवं यदिह जगति शरीर विशेष समवेतं किमपि सामर्थ्यमुपलभामहे तत्सकलमात्मन एवेति विनिश्चयः । आत्मप्रवृत्ति परम्परोत्पादितत्वाद्विग्राहणस्येति ॥ १७० विद्वानों ने इस आत्माको ही शिव, गरुड व काम कहा है, क्योंकि यह आत्मा ही अणिमा महिमा आदि अमुल्य गुणरूपी नौका समूह है। अन्य ग्रन्थमें भी कहा है-- अहो ! आत्माका माहात्म्य कैसा है, अविनश्वर स्वभावसे उत्पन्न अनन्त ज्ञान व सुखस्वरूप यह आत्मा ही शिव, गरुड व काम है।- ( आत्मा ही निश्चय से परमात्म ( शिव ) व्यपदेशका धारक होता है ।१०१ गारुडीविद्याको जाननेके कारण गारुडगी नामको अवगाहन करनेवाला यह आत्मा ही गरुड नाम पाता है | १५ | आत्मा ही कामकी संज्ञाको धारण करनेवाला है | १६ | ) इस कारण शिव गरुड व कामरूपसे इस जगत् में शरीरके साथ मिली हुई जो कुछ सामर्थ्य हम देखते हैं, वह सब आत्माकी ही है । क्योंकि शरीरको ग्रहण करनेमें आत्माकी प्रवृत्ति ही परम्परा हेतु है |१७| त. अनु. / १३५-१३६ या ध्यानमहाद्वाता शून्यीकृतस्य ध्येय. स्वरूपाविवाह संपद्यते स्वयम् ॥१३५॥ तदा तथाविधध्यानसंवित्तिः - ध्वस्तकल्पनः । स एव परमात्मा स्याद्वैनतेयश्च मन्मथः ध्येय | १३६। जिस समय ध्याता पुरुष ध्यानके बलसे अपने शरीरको शुन्य बनाकर ध्येयस्वरूपमे आविष्ट या प्रविष्ट हो जानेसे अपनेको तत्सदृश बना लेता है, उस समय उस प्रकारकी ध्यान संवित्तिसे भेद विकल्प को नष्ट करता हुआ वह ही परमात्मा (शिव) गरुड अथवा काम - देव है । नोट- ( तीनों तत्त्वोके लक्षण- देखो वह वह नाम । ६. अन्य ध्येय मी आत्मामें आलेखतवत् प्रतीत होते हैं उ. अनु. / १३३ याने हि निति स्थेयं ध्येयरूप परिस्फुटम् आलेखितमिवाभाति ध्येयस्यासं निधन | १३३० ध्यानमें स्थिरता के परिपुष्ट हो जानेपर ध्येयका स्वरूप ध्येयके सन्निकट न होते हुए भी, स्पष्ट रूपसे आलेखित जैसा प्रतिभासित होता है। ध्यानशुद्धि दे० शुद्धि ध्येय—क्योंकि पदार्थोंका चिन्तक ही जीवोंके प्रशस्त या अप्रशस्त भावका कारण है, इसलिए ध्यानके प्रकरण में यह विवेक रखना आवश्यक है, कि कौन व कैसे पदार्थ ध्यान किये जाने योग्य हैं और कीन नहीं। 9 १ २ ३ २ १ २ ३ ४ ३ १ २ ३ ४ ५ * ४ १ २ ३ ५ १ २ ३ ४ ध्येय सामान्य निर्देश ध्येयका लक्षण ध्येयका भेद आशा अपाय आदि ध्येय निर्देश दे० धर्मध्यान १ । नाम व स्थापनारूप ध्येय निर्देश । - 1 पाँच धारणाओंका निर्देश दे०पिण्डस्थध्यान आग्नेयी आदि धारणाओंका स्वरूप । प्रम्यरूप ध्येय निर्देश प्रतिक्षण प्रवाहित वस्तु व विश्व ध्येय हैं। चेतनाचेतन पदार्थों का यथावस्थितरूप ध्येय है । सात तत्त्व व नौ पदार्थ ध्येय हैं. 1 अनीहित वृत्तिसे समस्त वस्तुएँ ध्येय है। पंच परमेष्ठीरूप ध्येय निर्देश सिद्धोंका स्वरूप ध्येय है। अर्हन्तोंका स्वरूप ध्येय है। अर्हन्तका ध्यान पदस्थ पिण्डर व रूपस्थ तीनों ध्यानोंमें होता है। आचार्य उपाध्याय व साधु भी ध्येय हैं। पंच परमेष्ठीरूप ध्येयकी प्रधानता पंच परमेष्ठीका स्वरूप । - दे० वह वह नाम । निज शुद्धात्मारूप ध्येय निर्देश निज शुद्धात्मा ध्येय है । शुद्ध पारिणामिक भाव ध्येय है। आत्मरूप ध्येयकी प्रधानता । भावरूप ध्येय निर्देश भावरूप ध्येयका लक्षण । -दे० वह वह नाम । सभी वस्तुओंगास्थित गुण पर्याय ध्येय हैं। रत्नत्रय व वैराग्यकी भावनाएँ ध्येय हैं। ध्यानमें भाने योग्य कुछ भावनाएँ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय ५०० ३. पंचपरमेष्ठीरूप ध्येय निर्देश १. ध्येय सामान्य निर्देश प्रतिक्षण स्थिति, उत्पत्ति और व्ययरूप है तथा अनादिनिधन है वह सब यथावस्थित रूपमें ध्येय है ।११५। (ज्ञा./३१/१७) । १. ध्येयका लक्षण ..चेतनाचेतन पदार्थोंका यथावस्थितरूप ध्येय है चा. सा./१६७/२ ध्येयमप्रशस्तप्रशस्तपरिणामकारण। जो अशुभ तथा शुभ परिणामोंका कारण हो उसे ध्येय कहते हैं। ज्ञा./३१/१८ अमी जीवादयो भावाश्चिदचित्लक्षलाञ्छिताः । तत्स्वरूपा विरोधेन ध्येया धर्मे मनीषिभिः ।१८। -जो जीवादिक षट् द्रव्य २. ध्येयके भेद चेतन अचेतन लक्षणसे लक्षित हैं, अविरोधरूपसे उन यथार्थ स्वरूप ही बुद्धिमान जनों द्वारा धर्मध्यानमें ध्येय होता है । (शा. सा /१७); म. पु./२१/१११ श्रुतमर्थाभिधानं च प्रत्ययश्चेत्यदस्त्रिधा । स शब्द, अर्थ (त, अनु./१११, १३२)। और ज्ञान इस तरह तीन प्रकारका ध्येय कहलाता है। ३. सात तत्त्व व नौ पदार्थ ध्येय हैं त. अनु./E८,६६, १३१ आज्ञापायो विपाकं च संस्थानं भुवनस्य च । यथागममविक्षिपचेतसा चिन्तयेन्मुनिः।१८ नाम च स्थापना द्रव्यं घ.१३/५,४,२६/३ जिणउवइट्ठणवपयत्था वा ज्झेयं होति । -जिनेन्द्र भावश्चेति चतुर्विधम् । समस्तं व्यस्तमप्येतद् ध्येयमध्यात्मवेदिभिः भगवान द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थ ध्येय है। 18 एवं नामादिभेदेन ध्येयमुक्तं चतुर्विधम् । अथवा द्रव्यभावाभ्यां म. पू./२०/१०८ अहं ममात्रवो बन्धः संबरो निर्जराक्षयः। कर्मणामिति द्विधैव तदवस्थितम् ॥१३१। = मुनि आज्ञा, अपाय, विपाक और तत्त्वार्था ध्येयाः सप्त नवाथवा ।१०८ - मै अर्थात् जीव और मेरे लोकसंस्थानका आगमके अनुसार चित्तकी एकाग्रताके साथ अजीब आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा कर्मोका क्षय होनेरूप मोक्ष चिन्तवन करे।हमा अध्यात्मवेत्ताओंके द्वारा नाम, स्थापना, द्रव्य इस प्रकार ये सात तत्त्व या पुण्य पाप मिला देनेसे नौ पदार्थ ध्यान करने योग्य है। और भावरूप चार प्रकारका धयेय समस्त तथा व्यस्त दोनों रूपसे ध्यानके योग्य माना गया है ।। अथवा द्रव्य और भावके भेदसे १. अनीहित वृत्तिसे समस्त वस्तुएँ ध्येय हैं वह दो प्रकारका ही अवस्थित है। ध. १३/१,४,२६/३२/७० आलंबणेहि भरियो लोगो ज्झाइदुमणस्स * आज्ञा अपाय आदि ध्येय निर्देश-दे० धर्मध्यान/१। खवगस्स । जं जं मणसा पेच्छइ तं तं आलं बणं होइ। - यह लोक ध्यानके आलम्बनोंसे भरा हुआ है । ध्यानमें मन लगानेवाला क्षपक ३. नाम व स्थापनारूप ध्येय निर्देश मनसे जिस-जिस वस्तुको देखता है, वह वह वस्तु ध्यानका आलम्बन होती है। त. अनु /१०० वाच्यस्य वाचकं नामं प्रतिमा स्थापना मता।वाच्यका म.पू./२१/१७ ध्यानस्यालम्बनं कृत्स्नं जगत्तत्त्वं यथास्थितम्। विनाजो वाचक शब्द वह नामरूप ध्येय है और प्रतिमा स्थापना पानी त्मात्मीयसङ्कलपाद औदासीन्ये निवेशितम्। - जगतके समस्त तत्त्व गयी है। जो जिस रूपसे अवस्थित हैं और जिनमें मैं और मेरेपनका संकल्प और भी दे० पदस्थ ध्यान (नामरूप ध्येय अर्थात अनेक प्रकारके न होनेसे जो उदासीनरूपसे विद्यमान हैं वे सब ध्यानके आलम्बन मन्त्रों व स्वरव्यंजन आदिका ध्यान)। है।१७। म.पु./२१/१६-२१); (द्र.सं./मू./५५); (त.अनु./१३८) । * पाँच धारणाभोंका निर्देश-दे०.पिण्डस्थ ध्यान पं.का./ता, ग./१७३/२५३/२५ में उद्धृत-ध्येयं वस्तु यथास्थितम् । * आग्नेयी भादि धारणाओंका स्वरूप-दे० वह वह नाम । - अपने-अपने स्वरूपमें यथा स्थित वस्तु ध्येय है। ३. पंच परमेष्ठोरूप ध्येय निर्देश २. द्रव्यरूप ध्येय निर्देश १. सिद्धका स्वरूप ध्येय है १. प्रतिक्षण प्रवाहित वस्तु व विश्व ध्येय है ध.१३/५४,२६/६६/४ को ज्झाइज्जइ । जिणो वीयरायो केवलणाणेण त. अनु/११०-११५ गुणपर्ययवद्गद्रव्यम् ।१००। यथै कमेकदा द्रव्यमुरिपत्सु अवगयतिकालगोयराणं तपज्जाओवचियछद्दव्वो णवकेवललद्धिप्पहुडिस्थास्नु नश्वरम् । तथैव सर्वदा सर्व मिति तत्त्वं विचिन्तयेत् ॥११॥ अणतगुणेहि आरद्धदिव्बदेहधरो अजरो अमरो अजोणिसंभवो" अनादिनिधने द्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् । उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति सव्वलक्षणसंपुण्णदप्पणसंकेतमाणुसच्छायागारो संतो वि सयलजलकल्लोलवज्जले ।११२। यद्विवृतं यथा पूर्व यच्च पश्चाद्विवर्त्यति । माणुसपहावुत्तिण्णो अव्वओ अक्रवओ। .. सगसरूवे दिण्णचित्तविवर्तते यदत्राद्य तदेवेदमिदं च तत् ।११३। सहवृत्ता गुणास्तत्र जीवाणमसेसपावपणासओ.. भैयं होंति । प्रश्न-ध्यान करने पर्यायाः क्रमवर्तिनः । स्यादेतदात्मकं द्रव्यभेते च स्युस्तदारमकाः। योग्य कौन है। उत्तर-जो वीतराग है, केवलज्ञानके द्वारा जिसने १६१४। एवं विधमिदं वस्तु स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकम् । प्रतिक्षणमनाद्य- त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे उपचित छह द्रव्योंको जान लिया नन्तं सर्व ध्येयं यथा स्थितम् ।११। द्रव्यरूप ध्येय गुणपर्यायवान है, नव केवललब्धि आदि अनन्त गुणोंके साथ जो आरम्भ हुए होता है ।१००। जिस प्रकार एकद्रव्य एकसमयमें उत्पाद व्यय धौव्य- दिव्य देहको धारण करता है, जो अजर है, अमर है, अयोनि रूप होता है, उसी प्रकार सर्वद्रव्य सदा काल उत्पाद व्यय धौव्यरूप सम्भव है, अदग्ध है, अछेद्य है...( तथा अन्य भी अनेकों) समस्त होते रहते हैं ।११०। द्रव्य जो कि अनादि निधन है, उसमें प्रतिक्षण लक्षणोंसे परिपूर्ण है, अतएव दर्पणमें संक्रान्त हुई मनुष्यकी छायाके स्व पर्यायें जलमें कल्लोलोंकी तरह उपजती तथा विनशती रहती हैं समान होकर भी समस्त मनुष्यों के प्रभावसे परे है, अव्यक्त है, ।११२। जो पूर्व क्रमानुसार विवर्तित हुआ है, होगा और हो रहा है वही अक्षय हैं। (तथा सिद्धोंके प्रसिद्ध आठ या बारह गुणोसे समवेत है सब यह (द्रव्य ) है और यही सब उन सबरूप है ।११३। द्रव्यमें गुण (दे० मोक्ष/३))। जिन जीवोंने अपने स्वरूपमे चित्त लगाया है सहवर्ती और पर्यायें क्रमवर्ती हैं । द्रव्य इन गुणपर्यायात्मक है और उनके समस्त पापोंका नाश करनेवाला ऐसा जिनदेव ध्यान करने गुणपर्याय द्रव्यात्मक है ।११४। इस प्रकार यह द्रव्य नामकी वस्तु जो योग्य है । (म.पु./२१/१११-११६); (त.अनु./१२०-१२२) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय ५०१ ४. निज शुद्धात्मारूप ध्येय निर्देश ज्ञा./३१/१७ शुद्धध्यान विशीर्ण कर्मकवचो देवश्च मुक्तेर्वर. । सर्वज्ञ' ४. निज शुद्धात्मारूप ध्येय निर्देश सकलः शिवः स भगवान्सिद्ध परो निष्कलः ११७१ शुद्धध्यानसे नष्ट हुआ है कर्मरूप आवरण जिनका ऐसे मुक्तिके वर सर्वज्ञदेव सकल . निज शुद्धात्मा ध्येय है अर्थात् शरीर सहित तो अहंत भगवान है अर्थात निष्कल सिद्ध भगवान् है । (त.अनु./११९) ति.प./६/११ गय सित्थमूसगब्भायारो रयणत्तयादिगुणजुत्तो। णियआदा ज्झायब्वो खयहिदो जीबघणदेसो ।४१ -मोमरहित मूषकके २. अहंतका स्वरूप ध्येय है अभ्यन्तर आकाशके आकार, रत्नत्रयादि गुणोंयुक्त, अनश्वर और जीवधनदेशरूप निजात्माका ध्यान करना चाहिए । म. पू./२१/१२०-१३० अथवा स्नातकावस्था प्राप्तो घातिव्यपायत । जिनोऽहन केवली ध्येयो बिभ्रत्तेजोमयं वपुः ।१२० -घातिया रा.वा./६/२७/७/६२५/३४ एकस्मिन् द्रव्यपरमाणौ भावपरमाणौ वार्थ कर्मों के नष्ट हो जानेसे जो स्नातक अवस्थाको प्राप्त हुए हैं, और जो चिन्तानियमो इत्यर्थ:/...। =एक द्रव्यपरमाणु या भावपरमाणु तेजोमय परम औदारिक शरीरको धारण किये हुए है ऐसे केवल (आत्माकी निर्विकल्प अवस्था) में चित्तवृत्तिको केन्द्रित करना ज्ञानी अर्हत जिन ध्यान करने योग्य हैं ।१२०। वे अहंत हैं, सिद्ध हैं, ध्यान है । (दे० परमाणु) विश्वदर्शी व विश्वज्ञ हैं ।१२१-१२२॥ अनन्तचतुष्टय जिनको प्रगट म.पु./२१/१८,२२८ अथवा ध्येयमध्यात्मतत्त्वं मुक्तेतरात्मकम् । तत्तत्त्वहुआ है।१२३॥ समवशरणमें विराजमान व अष्टप्रातिहार्यों युक्त हैं चिन्तनं ध्यातः उपयोगस्य शुद्धये ।१८। ध्येयं स्याद परमं तत्त्व११२४। शरीर सहित होते हुए भी ज्ञानसे विश्वरूप हैं ।१२५॥ विश्व मवाड्मानसगोचरम् १२२८ - संसारी व मुक्त ऐसे दो भेदवाले व्यापी, विश्वतोमुख, विश्वचक्षु, लोकशिखामणि हैं ।१२६॥ सुखमय, आत्म तत्त्वका चिन्तवन ध्याताके उपयोगकी विशुद्धिके लिए होता निर्भय, निःस्पृह, निधि, निराकुल, निरपेक्ष, नीरोग, नित्य, है ।१८। मन वचनके अगोचर शुद्धात्म तत्त्व ध्येय है ।२२८। कर्मरहित ।१२७--१२८नव केवललब्धियुक्त, अभेद्य, अच्छेद्य, निश्चल १२६। ऐसे लक्षणोंसे लक्षित, परमेष्ठी, परतत्त्व, परं ज्ञा./३१/२०-२१ अथ लोकत्रयीनाममूर्त परमेश्वरम। ध्यातुं प्रक्रमते ज्योति, व अक्षर स्वरूप अहंत भगवान् ध्येय है ।१३०। (त. अनु./ साक्षात्परमात्मानमव्ययम् ।२०। त्रिकाल विषयं साक्षाच्छक्तिव्यक्ति१२३-१२६)। विवक्षया । सामान्येन नयेन के परमात्मानमामनेव।२१ तीन लोक के नाथ अमूर्तीक परमेश्वर परमात्मा अविनाशीका ही साक्षात ध्यान ज्ञा./३१/९७ शुद्धध्यानविशीर्ण कर्मकवचो देवश्च मुक्तर्वरः। सर्वज्ञः करनेका प्रारम्भ करे। २० शक्ति और व्यक्तिकी विवक्षासे तीन कालके सकल: शिव. स भगवान्सिद्ध परो निष्कलः। - शुद्धध्यानसे नष्ट गोचर साक्षात सामान्य (द्रव्याथिक) नयसे एक परमात्माका ध्यान व हुआ है कर्मरूपी आवरण जिनका ऐसे मुक्तिके बर, सर्वज्ञ, देहसहित अभ्यास करे।२१ समस्त कल्याणके पूरक अर्हतभगवान ध्येय हैं। ३. अर्हतका ध्यान पदस्थ पिंडस्थ व रूपस्थ तीनों २. शुद्धपारिणामिक भाव ध्येय है ध्यानामें होता है नि.सा./ता../४१ पञ्चानां भावानां मध्ये...पूर्वोक्तभावचतुष्टयं सावरद्र.सं./टी./१० को पातनिका/२०४/८ पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य णसंयुक्तत्वात न मुक्तिकारणम् । त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरंजन निजध्येयभूतमहत्सर्वज्ञस्वरूपं दर्शयामीति"। -पदस्य, पिण्डस्थ और परमपञ्चमभावभावनया पञ्चमगति मुमुक्षवो यान्ति यास्यन्ति रूपस्थ इन तीन ध्यानोके ध्येयभूत जो श्री अहंत सर्वज्ञ हैं उनके गताश्चेति । =पाँच भावों में से पूर्वोक्त चार भाव आवरण संयुक्त होनेसे स्वरूपको दिखलाता हूँ। मुक्तिके कारण नहीं है। निरुपाधि निजस्वरूप है, ऐसे निरंजन निज परमपंचमभावकी भावनासे (चमगति (मोक्ष) में मुमुक्षु जाते हैं जायेंगे ४. आचार्य उपाध्याय साधु भी ध्येय हैं और जाते थे। त.अनु./१३० सम्यग्ज्ञानादिसंपन्नाः प्राप्तसप्तमहर्दयः । यथोक्तलक्षणा द्र,सं./टी/५७/२३६/८ यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूपः शुद्धपारिणामिकपरमध्येया सूर्यपाध्यायसाधव ११३०। जो सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रयसे भावलक्षणपरमनिश्चयमोक्षः स पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानी भविष्यसम्पन्न हैं, तथा जिन्हें सात महा ऋद्धियाँ या लब्धियाँ प्राप्त हुई हैं, तीत्येवं न । स एव रागादिविकल्परहिते मोक्षकारणभूते ध्यानभावनाऔर जो यथोक्त लक्षणके धारक हैं ऐसे आचार्य, उपाध्याय और पर्याये ध्येयो भवति। =जो शुद्धद्रव्यकी शक्तिरूप शुद्धपरम साधु ध्यानके योग्य हैं। पारिणामिकभावरूप परमनिश्चय मोक्ष है, वह तो जीवमें पहले ही विद्यमान है. अब प्रगट होगी ऐसा नहीं है। रागादि विकल्पोंसे रहित मोक्षका कारणभूत ध्यान भावनापर्यायमें वही मोक्ष (त्रिकाल ५. पंचपरमेष्ठीरूप ध्येयकी प्रधानता निरुपाधि शुद्धात्मस्वरूप) ध्येय होता है। (द्र.सं./टी./१३/१४/१०) त.अनु./१९६,१४० तत्रापि तत्त्वतः पञ्च ध्यातव्याः परमेष्ठिनः ॥११॥ संक्षेपेण यदत्रोक्तं विस्तारात्परमागमे । तत्सर्व ध्यातमेव स्याद ३. आत्मा रूप ध्येयकी प्रधानता ध्यातेषु परमेष्ठिसु ।१४०। आत्माके ध्यानमें भी वस्तुतः पंच परमेष्ठी ध्यान किये जानेके योग्य हैं ।११। जो कुछ यहाँ संक्षेप त.अनु./११७-१९८ पुरुष' पुद्गलः कालो धर्माधौ तथाम्बरम् । षडविधं रूपसे तथा परमागममें विस्ताररूपसे कहा गया है वह सब परमे द्रव्यमारख्यात तत्र ध्येयतमः पुमान् ।११७। सति हि ज्ञातरि ज्ञेयं ष्ठियोंके ध्याये जानेपर ध्यात हो जाता है। अथवा पचपरमे ध्येयता प्रतिपद्यते। ततो ज्ञानस्वरूपोऽयमात्मा ध्येयतम. स्मृतः।११८) ष्ठियोका ध्यान कर लिया जानेपर सभी श्रेष्ठ व्यक्तियों व बस्तुओका - पुरुष (जीव), पुद्गल, काल, धर्म, अधर्म और आकाश ऐसे छह ध्यान उसमें समाविष्ट हो जाता है।१४०। भेदरूप द्रव्य कहा गया है। उन द्रव्यभेदोमें सबसे अधिक ध्यानके योग्य पुरुषरूप आत्मा है ।११७ ज्ञाताके होनेपर ही, ज्ञेय ध्येयताको *पंच परमेष्ठीका स्वरूप-दे० वह वह नाम । प्राप्त होता है, इसलिए ज्ञानस्वरूप यह आत्मा ही ध्येयतम है ।११८। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय ५०२ ध्रुव मतिज्ञान ५. भावरूप ध्येय निर्देश १. भावरूप ध्येयका लक्षण त.अनु /१००,१३२ भावः स्याद्गुणपर्ययौ ।१०। भावध्येयं पुनध्येयसंनिभध्यानपर्यय' ।१३२॥ =गुण व पर्याय दोनों भावरूप ध्येय है ।१००। ध्येयके सदृश्य ध्यानकी पर्याय भावध्येयरूपसे परिगृहीत है ।१३२॥ २. सभी द्रव्योंके यथावस्थित गुणपर्याय ध्येय हैं ध.१३/१,४,२६/७० बारसअणुपेकरवाओ उपसमसेडिखवगसेडिचडविहाणं तेवीसवग्गणाओ पंचपरिसट्टाणि द्विदिअणुभागपयडिपदेसादि सव्वं पि ज्झेयं हो दि त्ति दट्ठव्वं । -बारह अनुप्रेक्षाएँ, उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणीपर आरोहणविधि, तेईस वर्गणाएँ. पाँच परिवर्तन, स्थिति अनुभाग प्रकृति और प्रदेश आदि ये सब ध्यान करने योग्य हैं। त-अनु./११६ अर्थव्यञ्जनपर्याया. मूर्तामूर्ता गुणाश्च ये। यत्र द्रव्ये यथावस्थास्तांश्च तत्र तथा स्मरेत् ।१९६१ =जो अर्थ तथा व्यंजनपर्यायें और मूर्तीक तथा अमूर्तीक गुण जिस द्रव्यमें जैसे अवस्थित हैं, उनको वहाँ उसी रूपमें ध्याता चिन्तन करे । ३. रत्नत्रय व वैराग्यकी भावनाएँ ध्येय हैं ध.१३/५,४,२६/२३/६८ पुबकयब्भासो भावणाहि झाणस्स जोग्गदमुवेदि । ताओ य णाणदं सणचरित्तवेरग्गजणियाओ।२३।-जिसने पहले उत्तम प्रकारसे अभ्यास किया है, वह पुरुष ही भावनाओं द्वारा ध्यानको योग्यताको प्राप्त होता है। और वे भावनाएँ ज्ञान दर्शन चारित्र और वैराग्यसे उत्पन्न होती हैं । (म.पु./२१/१४-६५) नोट-(सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रकी भावनाएँ-दे० वह वह नाम और वैराग्य भावनाएँ-दे० अनुप्रेक्षा) ४. ध्यान में माने योग्य कुछ भावनाएँ मो.पा./मू./८१ उद्घद्धमज्मलोए केइ मज्म ण अहमेगागी। इह भावणाए जोई पावंति हु सासयं ठाणं ।८१1 -ऊर्ध्व मध्य और अधो इन तीनों लोकोंमें, मेरा कोई भी नहीं, मैं एकाकी आत्मा हूँ। ऐसी भावना करनेसे योगी शाश्वत स्थानको प्राप्त करता है। (ति.प./६/३५) र.क.श्रा./१०४ अशरणमशुभमनित्यं दु.खमनात्मानमावसामि भव । मोक्षस्तद्विपरीतारमेति ध्यायं तु सामयिके ।१०४। - मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दुखमय और पररूप संसारमें निवास करता हूँ और मोक्ष इससे 'विपरीत है, इस प्रकार सामायिकमें धयान करना चाहिए। इ उ./२७ एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः । बाह्याः संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ।२७१ =मैं एक हूँ, निर्मम हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ, ज्ञानी योगीन्द्रोके ज्ञानका विषय हूँ। इनके सिवाय जितने भी स्त्री धन आदि संयोगीभाव हैं वे सब मुझसे सर्वथा भिन्न हैं। (सामायिक पाठ/अ./२६), (स.सा /ता.वृ./१८७/२५७/१४ पर उद्धृत) ति.प./६/२४-६५ अहमेक्को रबलु सुद्धो दंसणणाप्पगो सदारूबी णवि अस्थि मज्झि किचिवि अण्णं परमाणुमेत्तं पि।२४। णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे सो मुच्चइ अठकम्भेहिं ।२६। णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारण तेसिं । एवं खलु जो भाओ सो पाबइ सासयं ठाणं ।२८। णाई होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किं पि । एवं खलु जो भावइ सो पाबइ सव्वकल्लाणं ॥३४॥ केवलणाणसहावो केवलदसणसहावो सुहमइओ। केवलविरियसहाओ सोहं इदि चिंतए जाणी।४६ - मै निश्चयसे सदा एक, शुद्ध, दर्शनज्ञानात्मक और अरूपी हूँ । मेरा परमाणुमात्र भी अन्य कुछ नहीं है ।२४। मै न परपदार्थोंका हूँ, और न परपदार्थ मेरे हैं, मैं तो ज्ञानस्वरूप अकेला ही हूँ।२६ न मैं देह हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण ही हूँ ।२८। (प्र.सा/१६०); (आराधनासार/ १०१)। न मैं परपदार्थोका हूँ, और न परपदार्थ मेरे है। यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है ।३४। जो केवलज्ञान व केवलदर्शन स्वभावसे युक्त, सुखस्वरूप और केवल वीर्यस्वभाव हैं वही मैं हूँ, इस प्रकार ज्ञानी जीवको विचार करना चाहिए।४६। (न.च.व./३६१-३६७,४०४-४०८); (सामायिक पाठ/अ./२४); (ज्ञा./१८/२९): (त.अनु./१४७-१५६) ज्ञा./३१/१-१६ स्वविभ्रमसमुद्भुतै रागाद्यतुलबन्धनैः । बद्धो विडम्बितः कालमनन्तं जन्मदुर्गमे १२६ परमात्मा परंज्योतिर्जगज्ज्येष्ठोऽपि वचितः । आपातमात्ररम्यैस्तै विषयैरन्तनीरसैः 1) मम शक्त्या गुणग्रामो व्यक्त्या च परमेष्ठिनः । एतावानानयो दः शक्तिव्यक्तिस्वभावतः ११०१ अहं न नारको नाम न तिर्यग्नापि मानुषः । न देवः किन्तु सिद्धात्मा सर्वोऽयं कर्मविक्रमः ।१२। अनन्तवीर्यविज्ञानदृगानन्दात्मकोऽम्यहम् । किं न प्रोन्मूलयाम्यद्य प्रतिपक्षविषद्रुमम् ॥१३॥ -मैंने अपने ही विभ्रमसे उत्पन्न हुए रागादिक अतुलबन्धनोंसे बंधे हुए अनन्तकाल पर्यन्त संसाररूप दुर्गम मार्गमें विडम्बनारूप होकर विपरीताचरण किया ।२। यद्यपि मेरा आत्मा परमात्मा है, परंज्योति है, जगत्प्रेष्ठ है, महान है, तो भी वर्तमान देखनेमात्रको रमणीक और अन्तमें नीरस ऐसे इन्द्रियोंके विषयोंसे ठगाया गया हूँ ।। अनन्त चतुष्टयादि गुणसमूह मेरे तो शक्तिकी अपेक्षा विद्यमान है और अहंत सिद्धों में वे ही व्यक्त हैं। इतना ही हम दोनोंमें भेद है ।१०। न तो मैं नारकी हूँ, न तिर्यच हूँ और न मनुष्य या देव ही हूँ किन्तु सिद्धस्वरूप हूँ। ये सब अवस्थाएँ तो कर्मविपाकसे उत्पन्न हुई है ।१२। मैं अनन्तवीर्य, अनन्तविज्ञान, अनन्तदर्शन व अनन्तआनन्दस्वरूप हूँ। इस कारण क्या विषवृक्षके समान इन कर्मशत्रुओंको जड़मूलसे न उखाड़ १श स.सा./ता.व./२८५/३६५/१३ बंधस्य विनाशार्थ विशेषभावनामाहसहजशुद्धज्ञानानन्दै कस्वभावोऽहं, निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं, निरंजननिजशुद्धात्मसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्म - कनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागसहजानन्दरूपसुखानुभूतिमात्रलक्ष - णेन स्वसंवेदनज्ञानेन संवेद्यो, गम्यः, प्राप्यो, भरितावस्थोऽहं, रागद्वेषमोहकोधमानमायालोभ-पन्चेन्द्रियविषयव्यापारः, मनोवचनकायव्यापार-भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मख्यातिपूजालाभदृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षारूपनिदानमायामिथ्याशल्यत्रयादि सर्व विभावपरिणामरहितः । शून्योऽहं जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयेन, तथा सर्वे जीवाः इति निरन्तर' भावना कर्तव्या । बन्धका विनाश करनेके लिए विशेष भावना कहते हैंमैं तो सहजशुद्धज्ञानानन्दस्वभावी हूँ, निर्विकल्प तथा उदासीन हूँ। निरंजन निज शुद्ध आत्माके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व अनुष्ठानरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक निविकल्प समाधिसे उत्पन्न वीतरागसहजानन्दरूप मुखानुभूति ही है लक्षण जिसका, ऐसे स्वसंवेदनज्ञानके गम्य हूँ। भरितावस्था व परिपूर्ण हूँ। राग द्वेष मोह क्रोध मान माया व लोभसे तथा पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे, मनोवचनकायके व्यापारसे, भावकर्म द्रव्यकर्म व नोकर्मसे रहित हूँ। ख्याति पूजा लाभसे देखे सुने व अनुभव किये हुए भोगोंकी आकांक्षारूप निदान तथा माया मिथ्या इन तीन शल्यौंको आदि लेकर सर्व विभाव परिणामोंसे रहित हूँ। तिहुँलोक तिहुँकालमें मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदनाके द्वारा शुद्ध निश्चयसे मैं शून्य हूँ। इसी प्रकार सब जीवोंको भावना करनी चाहिए । (स.सा./ता.व./परि. का अन्त) ध्रुव-१. उत्पाद व्यय ध व विषयक दे० उत्पाद व्यय धौव्य । ध्रुवबन्धी प्रकृतियां-दे० प्रकृतिबंध/२ । तिज्ञान-दे० मतिज्ञान/४। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्रुवराज नंदीश्वर कथा नंदा-१, भरतक्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी। - दे० मनुष्य/४। २. नन्दीश्वर द्वीपके पूर्व दिशामे स्थित एक वापी-दे० लोक/४/५३. रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी-दे० लोक/१/१३ । ध्रवराज-(दक्षिण में लाटदेशके नरेश कृष्णराज प्रथमका पुत्र था। राजा श्रीवल्लभका छोटा भाई था। इसने अवन्तीके राजा वत्सराजको युद्धमें हराकर उसका देश छीन लिया था। पीछे मदोन्मत्त हो जानेसे राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष के प्रति भी विद्रोह किया। फलस्वरूप अमोघवर्षने अपने चचा इन्द्रराजके पुत्र कर्कराजकी सहायतासे इसे हराकर इसका सब देश अपने राज्य में मिला लिया। यह राजा प्रतिहारवंशी था। समय-श. ७०२-७५७ (ई०७८०-८३५) दे० इतिहास/३/४ (ह.पु./६६/५२-५३), (ह.पु./प्र./५/पं. पन्नालाल)। नंदावती-नन्दीश्वर द्वीपकी पूर्व दिशामे स्थित एक वापी-दे० लोक/७। नंदा व्याख्या-दे० वाचना। ध्रुव वर्गणा-दे० वर्गणा । ध्रुव शून्य वर्गणा-दे० वर्गणा । नाव-नन्दीश्वरद्वीपका तथा दक्षिण नन्दीश्वर द्वीपका रक्षक देव -दे० व्यन्तर/४ । २. अपरनाम विष्णुनन्दि था-दे० विष्णुनन्दि। नंदिघोषा-१.नन्दीश्वरद्वीपकी पूर्वदिशामें स्थित एक धापी-दे० लोक/५/११/ २. रुचकवर पर्वतवासिनी दिक्कुमारी-दे० लोक/५/१३ नंदिनी-विजया की उत्तरश्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । ध्रुवसेन-श्रुतावतारको पट्टावलीके अनुसार महावीर भगवान्की मूल परम्परामें चौथे ११ अंगधारी थे। आपके अपरनाम ध्र बसेन तथा द्रुमसेन भी थे। समय-वी. नि./४२३-४३६ (ई.पू. १०५-६१) दष्टि नं. ३ के अनुसार बी. नि.४४२-४५४१-दे० इतिहास/४/४। ध्वजभूमि-समवशरणकी पाँचवीं भूमि-दे० समवशरण । नंदिप्रभ-उत्तर नन्दीश्वरद्वीपका रक्षकदेव-दे० व्यन्तर/४ । ध्वान-Range (ज.प./प्र./१०६) [न] नदिमित्र-१ श्रुतावतारकी पट्टावलीके अनुसार आप द्वितीय श्रुत केवली थे। समय-वी. नि. ७६-१२ (ई. पू./४५१-४३५ ) दृष्टि नं. ३ के अनुसार वी. नि. ८८-११६ -दे. इतिहास/४/४i २. (म. पु./६६/श्लोक)-पूर्व भव. नं.२ में पिता द्वारा इनके चाचा को युवराज पद दिया गया । इन्होंने इसमें मन्त्रीकाहाथ समझ उससेवैर बाँध लिया और, दीक्षा ले ली तथा मरकर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुए।१०३-१०॥ वर्तमान भवमें सप्तम बलभद्र हुए।१०६ (विशेष परिचयके लिए-दे० शलकापुरुष/३ । नदिषधन-मगध देशका एक शिशुनागवंशी राजा। समय-ई. पू./४६० नंदिवर्द्धनारुचक पर्वत निवासिनी दो दिक्कुमारी देवियाँ-दे० लोक/६/१३ ॥ नंद-आरा निवासी व गोयलगोत्री एक हिन्दी भाषाके कवि थे। आपने वि. १६६३ (ई. १३०६ ] में सुदर्शनचरित्र और वि० १६७० (ई०१६१३ ) में चौपाईबद्ध यशोधरचरित्र लिखा है । ) (हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास (१२६॥ श्री कामता प्रसाद ) । नवन-१.वर्द्धमान भगवानका पूर्वका दूसरा भव । एक सज्जनके पुत्र थे-दे० महावीर. २. भगवानके तीर्थ में एक अनुत्तरोपपादिकदे० अनुत्तरोपपादिक, ३. सौधर्म स्वर्गका सातवाँ पटल---दे० स्वर्ग५३; ४. मानुषोत्तर पर्वतका एक कूट व उसपर निवासिनी एक सुपर्णकुमारी देवी । (दे० लोक ५/१०) ५. सुमेरु पर्वतका द्वितीय धन जिसके चारों दिशाओमें चार चैत्यालय हैं-दे० लोक/३/६ । ६. सौमनस व नन्दन वनका एक कूट-दे० लोक/५/५,७.विजयाध की उत्तर श्रेणीका एक नगर। -दे० विद्याधर । नद वंश-मगध देशका एक प्रसिद्ध राज्यवंश था। मगधदेशकी राज्यवंशावलीके अनुसार इसका राज्य राजा पालकके पश्चात प्रारम्भ हुआ और मौर्यवंशके प्रथम राजा चन्द्रगुप्त द्वारा इसके अन्तिम राजा धनानन्दके परास्त हो जानेपर इसका नाश हो गया। अवन्ती या उज्जैनी नगरी इसकी राजधानी थी, और मगधदेशमें इसकी सत्ता थी। समय-राजा विक्रमादित्यके अनुसार वी.नि.६०-२१५ (ई० पू०४६७-३१२); तथा इतिहासकारोके अनुसार नवनन्दों का काल (ई० पू० ५२६-३२२)-दे० इतिहास/३/४। (विशेष दे०परिशिष्ट २)। नंदसप्तमी व्रत-सात वर्ष तक प्रतिवर्ष भादों सुदी ७ को उपवास करे। नमस्कारमन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (निर्दोष सप्तमी व्रतकी भी यही विधि है।), (व्रत-विधान संग्रह/पृ. १०५ तथा ८६). (किशन सिंह क्रियाकोश)। नादषण-१. पुन्नाट संघकी गुर्वावलीके अनुसार आप जितदण्डके शिष्य और दीपसेनके गुरु थे-दे० इतिहास/७/८ । २. छठे बलभद्र थे (विशेष परिचयके लिए-दे० शलाकापुरुष/३); (म.पु./६॥ १७४)। ३. (म. पु./५३/श्लोक ) धातकीखण्डके पूर्व विदेहस्थ सुकच्छदेशकी क्षेमपुरी नगरीका गजा था। धनपति नामक पुत्रको राज्य दे दीक्षा धारण कर ली । और अर्हनन्दन मुनिके शिष्य हो गये ।१२-१३। तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध करके मध्यम | वेयकके मध्य विमानमें अहमिन्द्र हुए।१४-१५। यह भगवान सुपार्श्वनाथके पूर्वका भवन, २ है-दे० सुपार्श्वनाथ । ४.(ह.पु./१८/१२७-१७४) एक ब्राह्मण पुत्र था। जन्मते ही माँ-बाप मर गये। मासीके पास गया तो वह भी मर गयी। मामाके यहाँ रहा तो इसे गन्दा देखकर उसकी लडकियोंने इसे बहाँसे निकाल दिया। तब आत्महत्याके लिए पर्वतपर गया। वहाँ मुनिराजके उपदेशसे दीक्षा धर तप किया। निदानमन्ध सहित महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ। यह वसुदेव बलभद्रका पूर्वका दूसरा भव है।-दे० वसुदेव । नंदिसंघ-दिगम्बर साधुओंका एक संध।-दे० इतिहास/५/२। नंदीश्वर कथा-आ. शुभचन्द्र (ई.१५१६-१५५६) द्वारा रचित संस्कृत छन्दबद्ध एक ग्रन्थ । ( दे० शुभचन्द्र )। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदीश्वर दीप नंदीश्वर द्वोपय मध्यलोकका अहम द्वीप है (दे० सोक /४/५) इस द्वीपमें १६ नापियों, ४ अनगिरि १६ दधिल और १२ रविकर नामके कुल ५२ पर्वत हैं। प्रत्येक पर्वतपर एक-एक चैत्यालय है । प्रत्येक अाहिकपर्व अर्थात् कार्तिक, फाल्गुन में आषाढ मासके अन्तिम आठ-आठ दिनों में देवलोग उस द्वीपमें जाकर तथा मनुष्यलोग अपने मन्दिरों व भैरवायोगे उस द्वीप की स्थापना करके खून भक्ति-भाव से इन ५२ पायोंकी पूजा करते हैं। इस द्वीपकी विशेष रचनाके लिए दे० लोक/४/५ नंदीश्वर पंक्तिव्रत- एक अंजनगिरिका एक बेला, ४ दधिमुख के ४ उपवास और आठ दधिमुखके उपवास । इस प्रकार चारों ᄃ दिशाओं सम्बन्धी ४ बेला व ४८ उपवास करे। वीचके ५२ स्थानोंमें एक-एक पारणा करे। इस प्रकार यह व्रत कुल १०८ दिनमें पूरा होता है। ॐ ह्रीं मन्दीवरद्वीपस्य द्वारा राज्जिनालयेभ्यो नम:" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । (ह. पु / ३४ / ८४ ) ( वसु श्रा / ३७३-३७५); (विधान संग्रह / ११०) (किशनसिंह कियाकोश)। नंदीश्वर सागर नन्दीश्वरके आगेवाला सागर दे० लोक/५/१। नंदीसंघ - एक संघ दे०७/०६/ w नंदीसूत्र बलभी बचना के समय वि[सं० ५१३ मे र (जे. सा. इ./१/३१०) । नंदोत्तरा - १. नन्दीश्वरद्वीपकी पूर्व दिशामें स्थित एक वापी । - दे० लोक ५/ ११२. मानुषोत्तर पर्वतके लोहिताक्षकूटका स्वामी एक कुमार देवदे० लोक२/१०३. रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी देवी- दे० लोक /५/१३ | ५०४ १. | नंद्यावर्त- सौधर्म स्वर्गका २६ वॉ पटल दे० स्वर्ग/५/२, २. रुचक पर्व एक कूट दे०सो/५/१३ पर्वतका । नकुल - ( पा. पु. / सर्ग / श्लोक ) । मद्री रानीसे राजा पाण्डुका पुत्र था। (८/१७४-१७५) । ताऊ भीष्मसे तथा गुरु द्रोणाचार्य धनुषविद्या प्राप्त की । (८/२०८-२१४) । (विशेष दे० पाण्डव ) । अन्तमें अपना पूर्वभव सुन दीक्षा धारण कर सी (२६/१२) घोर तप किया (२०/ १७-५१ ) । दुर्योधन के भानजे कुर्युधर द्वारा शत्रुंजयगिरि पर्वतपर घोर उपसर्ग सहा और सर्वार्थसिद्धि गये (२५/ ५२-१३६) । पूर्व भव नं. २ में यह धनश्री ब्राह्मणी था । (२३१८२) । और पूर्व भव नं. १ में अच्युतस्वर्ग में देव (२२/९९४) वर्तमान भवने नकुल हुए। (२४/ ७७)। नक़रवा - भरतक्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी । - - दे० मनुष्य / ४ । नक्षत्र - तावतारकी पट्टावलीके अनुसार आप प्रथम ११ अंगधारी ये समय पी. नि. २४४२६३ ई. पू./९८२-२६४)। दृष्टनं. ३ के अनुसार बी. नि. ४०५४९० ३० इतिहास ४/४ नक्षत्र - १. नक्षत्र परिचय तालिका नाम नं० (ति.प./७/ २६-२०) (वि. सा. १ कृत्तिका २ रोहिणी ३ मृगशिरा ४ वा ५ ६ و १२ ४३२-३३) १३ पुनर्वसु पुष्य आश्लेषा Ε मघा किता ६ पूर्वाफाल्गुनी भग १० उत्तराफाल्गु., १५ १४ विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा १६ १११ हस्त दिनकर चित्रा त्वष्टा स्वाति अनिल देवता (त्रि.सा./ ४३४-३३ ) अग्नि प्रजापति सोम हन्द्राग्नि मित्र इन्द्र १७ मूल नैति १८ पूर्वाषाढा जल १६ उत्तराषाढा विश्व अभिजित् ब्रह्मा २० २१ श्रवण विष्णु २१ घनिष्ठा वसु वरुण २३ शतभिषा २४ पूर्वाभाद्रपदा अज २८ वी २७ अश्विनी २८ रुद्र दिति देवमन्त्री (बृहस्पति) सर्प जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अर्यमा पूषा अश्व भरणी यम आकार (ति.प./०/४६५ ४६७ ) (त्रि. सा. / ४४२ ४४४ ) बीजना गाड़ीकी उद्धि हिरणका शिर दीप तोरण छत्र चीटी आदि कृत मिट्टीला पंज गोमूत्र शर युगल हाथ कमल दीप अधिकरण (अहिरिणी) सेना हाथीका अगला शरीर २५ उत्तराभाद्रप, अभिवृद्धि हाथीका पिछला शरीर नौका घोड़ेका शिर तुम्हा हार वीणा सींग बिच्छू जीर्ण वापी सिहका शिर हार्थीका शिर मृदंग पतिपक्षी मूल तारोका प्रमाण (ति.प./७/४६३-४६४ ) (त्रि. सा. (२४०-४४१) परिवार तारीका प्रमाण ६ ४ २ २ १ १ ४ ६ ३ ह ४ ४ ३ ३ ५ १११ २ २ ३२ ५ ३ नक्षत्र 4646 ५५५५ ३३३३ ११११ ६६६६ ३३३३ ६८५६ ४४४४ २२२२ २२२२ ५५५५ ११११ १९११ ४४४४ ६६६६ ३३३३ ६६६६ ४४४४ ४४४४ ( त्रि. सा. / ४४५ )_ ३३३३ ३३३३ ५५५५ १२३३२१ २२२२ २२२२ २. नक्षत्रोंके उदय व अस्तका क्रम ति. प./७/४६३ एदि मघा मज्झन्हे कित्तियरिक्वस्य अत्थमणसमए । उदर अराहा एवं जाओ २४६३ कृतिका नक्षत्रके अस्तमन कालमें मघा मध्याह्नको और अनुराधा उदयको प्राप्त होता है. इसी प्रकार क्षेत्र नक्षत्रोंके भी उदयादिको जानना चाहिए (विशे पार्थ - जिस समय किसी विवक्षित नक्षत्रका अस्तमन होता है, उस समय उससे आठवाँ नक्षत्र उदयको प्राप्त होता है। इस नियम के अनुसार कृत्तिकादिकके अतिरिक्त शेष नक्षत्रोंके भी अस्तमन मध्याह्न और उदयको स्वयं ही जान लेना चाहिए। ) ३५५५२ ५५५५ ३३३३ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्रमाला व्रत नमस्कार युक्त है, और सदा कलुषचित्त है, उसे नपुंसकवेद जानना चाहिए। (ध. १/१,१,१०१/१७१/३४२ ); (गो. जो./म् /२७५/५६६ ) । स. सि./२/१२/२००/७ नपुंसकवेदोंदयात्तदुभयशक्तिविकलं नपुंसकम् । नपुंसकवेदके उदयसे जो (स्त्री व पुरुष) दोनो शक्तियोसे रहित है वह नपुंसक है। (ध.६/१,६-१/२४/४६/६)। ध.१/१,१,१०१/३४१/११ न स्त्री न पुमान्नपंसकमुभयाभिलाष इति यावत् । -जो न स्त्री है और न पुरुष है, उसे नपुंसक कहते हैं, अर्थात जिसके स्त्री और पुरुष विषयक दोनों प्रकारकी अभिलाषा रूप (.मैथुन संज्ञा) पायी जाती है, उसे नपंसक कहते है। (गो. जी./जी. प्र./२७१/५६१/१७)। २. द्रव्य नपुंसक निर्देश पं.सं./प्रा./१/१०७ उभयलिंगव दि रित्तो। स्त्री व पुरुष दोनो प्रकारके लिगोसे रहित हो वह नपुंसक है। (ध.१/१,१,१०१/१७२/३४२); (गो. जो./मू./२७५/५६६)। गो. जी./जी. प्र./२७१/५६२/१ नपुंसकवेदोदयेन निर्माणनामकदिय युक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयेन उभयलिङ्ग व्यतिरिक्तदेहाङ्कितो भवप्रथमसमयमादि कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यनपुंसकं जीवो भवति । गो, जो./जी./प्र./२७५/५१७/४ उभयलिङ्गव्यतिरिक्तः श्मश्रुस्तनादिपुंस्त्रीद्रव्यलिंगरहित. · जीवो नपुंसकमिति । = नपुंसकवेदके उदयसे तथा निर्माण नामकर्म सहित अंगोपांग नामकर्मके उदयसे स्त्री व पुरुष दोनों लिगोंसे रहित अर्थात् मूंछ, दाढ़ी व स्तनादि, पुरुष व स्त्री योग्य द्रब्य लिगसे रहित देहसे अंकित जीव, भवके प्रथम समयसे लेकर उस भवके चरम समय पर्यन्त द्रव्य नपुंसक होता है। त्रि. सा./४३६ किन्तियपडतिसमए अट्ठम मपरिक्वमेदि मज्झण्ह । अणुराहारिक्खुदओ एवं सेसे वि भासिज्जो ।४३६॥ -- कृत्तिका नक्षत्रके अस्तके समय इससे आठवॉ मघा नक्षत्र मध्याह्नको प्राप्त होता है अर्थात बोचमें होता है और उस मघासे आठवॉ नक्षत्र उदयको प्राप्त होता है। ऐसे ही रोहिणी आदि नक्षत्रोंमें-से जो विवक्षित नक्षत्र अस्तको प्राप्त होता है उससे आठवाँ नक्षत्र मध्याह्नको और उससे भी आठवाँ नक्षत्र उदयको प्राप्त होता है। * नक्षत्रोंकी कुल संख्या, उनका लोकमें अवस्थान व संचार विधि-दे. ज्योतिषदेव /२/३,६,७ । नक्षत्रमाला खत-प्रथम अश्विनी नक्षत्रसे लेकर एकान्तरा क्रमसे ५४ दिनमें २७ उपवास पूरे करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत-विधान-संग्रह/पृ.५३); (किशन सिह क्रियाकोश)। नगर-(ति, प./४/१३१८)- शयरं चउगोउरेहि रमणिज्जं ।-चार गोपुरो ( व कोट ) से रमणीय नगर होता है । (ध. १३/५,५,६३/३३४/ १२); (त्रि. सा./६७४-६७६)। म. पु./१६/१६६-१७० परिखागोपुराट्टालवप्रप्राकारमण्डितम् । नानाभवनविन्यासं सोद्यान सजलाशयम् ।१६६। पुरमेवं विध शस्तं उचितोड़शस्थितम् । पूर्वोत्तर-प्लवाम्भस्कं प्रधान पुरुषोचितम् ॥१७०। जो परिखा, गोपुर, अटारी, कोट और प्राकारसे सुशोभित हो, जिसमें अनेक भवन बने हुए ही, जो बगीचे और तालाबोंसे सहित हो, जो उत्तम रीतिसे अच्छे स्थानपर बसा हुआ हो, जिसमें पानी का प्रवाह ईशान दिशाकी ओर हो और जो प्रधान पुरुषों के रहनेके योग्य हो वह प्रशंसनीय पुर अथवा नगर कहलाता है ।१६६-१७०। नग्नता-दे० अचेलत्व। नघुष-(प. पु./२२/श्लोक) हिरण्यगर्भका पुत्र तथा सुकौशलका पोता था ।१३। शत्रुको वश करनेके कारण इसे सुदास भी कहते थे। ।१३१॥ मांसभक्षी बन गया। रसोइयेने मरे हुए बच्चेका मांस खिला दिया ।१३८। नरमास खानेका व्यसनी हो जानेसे अन्तमें रसोइयेको ही रखा गया ।१४६। प्रजाने विद्रोह करके देशसे निकाल दिया। तम अणुवत धारण किये ।१४८ा राजाका पटबन्ध हाथी उसे उठाकर ले गया, जिस कारण उसे पुनः राज्यपद मिला ।१४। फिर उसने अपने पुत्रको जोतकर, समस्त राज्य उसीको सौप स्वय दीक्षा धारण कर ली।१२। नति-दे० नमस्कार। नदो-१. लोक स्थित नदियोंका निर्देश व विस्तार आदि-दे० लोक३/६:२. नदियोंका, लोकमें अवस्थान-दे० लोक| ३/११ । नदीस्रोत न्यायघ.१/१,१,१६/१८०/७ नदोस्रोतोन्यायेन सन्तीत्यनुवर्तमाने। =नदी स्रोतन्यास 'सन्ति' इस पदकी अनुवृत्ति चली आती है। नन्नराज-आप बर्द्धमानपुर के राजा थे, इनके समयमें ही बर्द्धमानपुरके श्रीपार्श्वनाथके चैत्यालय में श्रीमज्जिनसेनाचार्य ने हरिवंशपुराणकी रचना प्रारम्भ की थी। समय-श ७००-७२५ ( ई०७७८८०३); (ह. पु./६६/५२-५३)। नपुंसक-१. माव नपुंसक निर्देश पं.सं./प्रा./१/१०७ णेवित्थि ण वि पुरिसो णउंसओ उभयलिंगवदिरित्तो। इट्टाव ग्गिसमाणो वेदणगरुओ कलुसचित्तो। -जो भावसे न स्त्रीरूप है न पुरुषरूप, जो द्रव्यकी अपेक्षा तो स्त्रीलिंग व पुरुषलिंगसे रहित है। इंटोंके पकानेवाली अग्निके समान वेदकी प्रबल वेदनासे ३. नपुंसक वेदकर्म निर्देश स.सि./८/8/३८६/३ यदुदयान्नपुंसकान्भावानुपात्रजति स नपुंसकवेदः । -जिसके उदयसे नपुंसक सम्बन्धी भावोंको प्राप्त होता है (दे० भाव नपुंसक निर्देश ), वह नपुंसक वेद है। (रा.वा /६/८/४/५७४/२५) (गो. क./जी. प्र./३३/२८/१)। 6. अन्य सम्बन्धित विषय १. द्रव्य भाव नपुंसकवेद सम्बन्धी विषय । -दे० वेद । २. नपुंसकवेदी भी 'मनुष्य' कहलाता है। -दे. वेद/२। ३. साधुओंको नपुंसककी संगति वर्जनीय है।-दे० संगति। ४. नपुंसकवेद प्रकृतिके बन्ध योग्य परिणाम । -दे० मोहनीय/३६ । ५. नपुंसकको दीक्षा व मोक्षका निषेध।-दे० वेद/७ । नभ:सेन वादन नभ-एक ग्रह-दे० ग्रह । नभस्तिलक-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका नगर -दे० विद्याधर । नमस्कार-१. नमस्कार व प्रणाम सामान्य म.आ./२५ अरहंतसिद्धपडिमातवसुदगुणगुरूण रादीणं । किदिकम्मणि दरेण य तियरणसकोचणं पणमो।२३ - अहंत व सिद्ध प्रतिमाको, तप व श्रुत व अन्य गुणोंमें प्रधान जो तपगुरु, श्रुतगुरु और गुणगुरु उनको तथा दीक्षा व शिक्षा गुरुको, सिद्धभक्ति आदि कृतिकर्म द्वारा (दे० कृतिकर्म/४/३) अथवा बिना कृतिकर्म के, मन, बचन व काय तीनोका संकोचना या नमस्कार करना प्रणाम कहलाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-६४ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार नमस्कार भ,आ./मू-/७५४/६१८ मणसा गुणपरिणामो वाचा गुणभासणंच पचण्हं। काएण संपणामो एस पयत्थो णमोकारो। मनके द्वारा अर्हतादि पंचपरमेष्ठीके गुणोंका स्मरण करना, वचनके द्वारा उनके गुणोंका वर्णन करना, शरीरसे उनके चरणोंमें नमस्कार करना यह नमस्कार शब्दका अर्थ है। (भ आ./वि/५०६/७२८/१३) ध.5/३/४२/१२/७ पंचहि मुट्ठीहि जिणिदचलणेसु णिवदणं णमंसणं ।पाँच मुष्टियो अर्थात पाँच अंगोसे जिनेन्द्रदेवके चरणों में गिरनेको नमस्कार कहते हैं। २. एकांगी आदि नमस्कार विशेष अन.ध./८/६४-६५/८१६ योगैः प्रणामस्त्रेधार्हज्ज्ञानादेः कीर्तनावत्रिभिः । के करौ ककर जानुकरं ककरजानु च ६४ा नम्रमेकद्वित्रिचतुःपञ्चाङ्गः कायिकै क्रमात । प्रणाम' पञ्चधा वाचि यथास्थानं क्रियते सः 181 टीकामें उद्धृत-मनसा वचसा तन्वा कुरुते कीर्तनं मुनिः । ज्ञानादीनां जिनेन्द्रस्य प्रणाम स्त्रिविधो मतः । एकाङ्गो नमने मू! द्वयनः स्यात करयोरपि । ध्यग: करशिरोनामे प्रणामः कथितो जिनः। करजानुविनामेऽसौ चतुरनो मनीषिभिः। करजानुशिरोनामे पञ्चाङ्गः परिकोर्तितः। प्रणामः कायिको ज्ञात्वा पञ्च धेति मुमुक्षुभिः । विधातव्यो यथास्थानं जिनसिद्धादियन्दने ॥ -जिनेन्द्रके ज्ञानादिकका कीर्तन करना, मन, वचन, कायकी अपेक्षा तीन प्रकारका है। जिसमें कायिक प्रणाम पाँच तरहका है। केवल शिरके नमानेपर एकांग, दोनों हाथोंको नमानेसे यंग, दोनों हाथ और शिरके नमानेपर व्यंग, दोनों हाथ और दोनों घुटने नमानेपर चतुरंग तथा दोनों हाथ, दोनों घुटने व मस्तक नमानेपर पंचांग प्रणाम या नमस्कार कहा जाता है। सो इन पाँचोंमें केसा प्रणाम कहाँ करना चाहिए ऐसा जानकर यथास्थान यथायोग्य प्रणाम करना चाहिए। ३. अवनमन या नति ध.१३/५,४,२८/८/९ ओणदं अवनमनं भ्रमावासनमित्यर्थः।-ओणदका अर्थ अवनमन अर्थात् भूमिमे बैठना है। ४. शिरोनति घ./१३/५,४,२८/८/१२ जं जिणिदं पडि सीसणमणं तमेगं सिरं - जिनेन्द्रदेवको शिर नवाना एक सिर अर्थात् शिरोनति कह लाती है। अन.ध./८/80/-१७ प्रत्यावर्तत्रयं भक्त्या नन्नमद क्रियते शिरः । यत्पाणिकुड्मलाडू तत् क्रियायां स्यान्चतु शिर. प्रकृतमें शिर या शिरोनति शब्दका अर्थ भक्ति पूर्वक मुकुलित हुए दोनों हाथोंसे संयुक्त मस्तकका तोन-तीन आवाके अनन्तर नम्रीभूत होना समझना चाहिए। ५. कृतिकर्ममें नमस्कार व नति करनेकी विधि घ.१३/५,४,२८/८६/५ तं च तिण्णिबार कीरदे त्ति तियोणदमिदि भणिदं। तं जहा-सुद्धमणो धोदपादो जिणिदर्दसणजणिदहरिसेण पुलइदंगो संतो जं जिणस्स अग्गे वइसदि तमेगमोणदं । जमुट्ठिऊण जिणिदादीणं विण्णत्ति कादूण वइसणं तं विदियमोणदं । पुणो उट्ठिय सामाइयदंडएण अप्पसुद्धि काऊण सकसायदेहुस्सग्गं करिय जिणाणंतगुणे ज्झाइय चउवीसतित्थयराणं बंदणं काऊण पुणो जिणजिणालयगुरवाणं संथ काऊण जं भूमीए वइसणं तं तदियमोणदं । एवं एक्केक्कम्हि किरियाकम्मे कीरमाणे तिणि चेव ओणमणाणि होति । सवकिरियाकम्मं चदुसिरं होदि। तं जहा सामाइयस्स आदीए जंजिणिदं पडि सीसणमणं तमेगं सिरं । तस्सेव अवसाणे जं सीसणमणं तं विदियं सोस। थोस्सामिदंड्यस्स आदीए जं सीसणमणं तं तदियं सिरं । तस्सेव अवसाणे जं णमणं तं चउत्थं सिर । एवमेग किरियाकम्मं चदुसिरं होदि। ...अधवा सब पि किरियाकम्मं चदुसिरं चदुप्पहाणं होदि; अरहंतसिद्धसाहुधम्मै चेव पहाणभूदे कादूण सम्वकिरियाकम्माणं पउत्ति दंसणादो। -वह (अबनमन या नमस्कार ) तीन बार किया जाता है, इसलिए तीन बार अवनमन करना कहा है। यथा-शुद्धमन, धौतपाद और जिनेन्द्रके दर्शनसे उत्पन्न हुए हर्षसे पुल कित वदन होकर जो जिनदेवके आगे बैठना (पंचांग नमस्कार करना), प्रथम अवनति है। तथा जो उठकर जिनेन्द्र आदिके सामने विज्ञप्ति (प्रतिज्ञा ) कर बैठना यह दूसरी अवनति है। फिर उठकर सामायिक दण्डकके द्वारा आत्मशुद्धि करके. कषायसहित देहका उत्सर्ग करके अर्थात कायोत्सर्ग करके. जिनदेवके अनन्तगुणोंका ध्यान करके, चौबीस तीर्थंकरोंकी वन्दना करके, फिर जिन, जिनालय और गुरुकी स्तुति करके जो भूमिमें बैठना ( नमस्कार करना) वह तीसरी अवनति है। इस प्रकार एक-एक क्रियाकर्म करते समय तीन ही अवनति होती हैं। सब क्रियाकर्म चतुःशिर होता है । यथा सामायिक ( दण्डक) के आदिमें जो जिनेन्द्रदेवको सिर नवाना वह एकसिर है। उसी. के अन्तमें जो सिर नवाना वह दूसरा सिर है। स्थोस्सामि दण्डकके आदिमें जो सिर नवाना वह तीसरा सिर है। तथा उसीके अन्तमें जो नमस्कार करना वह चौथा सिर है। इस प्रकार एक क्रियाकर्म चतु'शिर होता है। अथवा सभी क्रियाकर्म चतुःशिर अर्थात चतुःप्रधान होता है, क्योंकि अहंत, सिद्ध, साधु और धर्मको प्रधान करके सब क्रियाकर्मों की प्रवृत्ति देखी जाती है। (अन, ध./८/ १३/८१६)। अन.ध./८/११/८१७ प्रतिभ्रामरि वा दिस्तुतौ दिश्यकश्चरेत् । श्रीनाव नि शिरश्चैक तदाधिक्यं न दुष्यति । -चैत्यादिकी भक्ति करते समय प्रत्येक प्रदक्षिणामें पूर्वादि चारों दिशाओंकी तरफ प्रत्येक दिशामें तीन आवर्त और एक शिरोनति करनी चाहिए। विशेष टिप्पणी-दे० कृतिकर्म/२ तथा ४/२। * अधिक बार करनेका निषेध नहीं-दे. कृतिकर्म/२/8 । ६. नमस्कारके आध्यात्मिक भेद भ. आ./वि./७२२/८६७/२ नमस्कारो द्विविधः द्रव्यनमस्कारो भाव नमस्कारः। भ. आ./वि/७५३/११६/५ नमस्कारः नामस्थापनाद्रव्यभावविकल्पेन चतुर्धा व्यवस्थितः। = नमस्कार दो प्रकारका है-द्रव्य नमस्कार व भाव नमस्कार । अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य व भावकी अपेक्षा नम स्कार चार प्रकारका है। पं. का./ता.वृ./१// आशीर्वस्तुनमस्क्रियाभेदेन नमस्कारस्त्रिधा। आशीर्वाद, वस्तु और नमस्क्रियाके भेदसे नमस्कार तीन प्रकारका होता है। ७. द्रव्य व माव नमस्कार सामान्य निर्देश भ.आ./वि/७२२/८/२ नमस्तस्मै इत्यादि शब्दोच्चारणं, उत्तमागावनतिः, कृताञ्जलिता द्रव्यनमस्कारः । नमस्कर्तव्याना गुणानुरागो भावनमस्कारस्तत्र रति.। श्री जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो ऐसा मुखसे कहना, मस्तक नम्र करना और हाथ जोड़ना यह द्रव्य नमस्कार है और नमस्कार करने योग्य व्यक्तियोंके गुणों में अनुराग करना, यह भाव नमस्कार है। नोट-द्रव्य नमस्कार विशेषके लिए -दे० शीर्षक तथा भाव नमस्कार विशेषके लिए-दे० आगे न०८। नाम व स्थापनादि चार भेदोके लक्षण-दे० मिक्षप । ८. भेद अभेद भाव नमस्कार निर्देश प्र.सा./त.प्र./२०० स्वयमेव भवतु चास्यैवं दर्शनविशुद्धिमूलया सम्यरज्ञानोपयुक्ततयात्यन्तमव्याबाधरतत्वात्साधोरपि साक्षारिसद्धभूतस्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार मन्त्र ५०७ नय स्वात्मनस्तथाभूतानां परमात्मनां च नित्यमेव तदेकपरायणत्वलक्षणो नमिनाथ नमिनाथ-(म.प्र./६६/श्लोक)-पूर्वभव नं.२ में कौशाम्बी नगरीके भावनमस्कारः। राजा पार्थिवके पुत्र सिद्धार्थ थे।२-४। पूर्वभव नं. १ में अपराजित प्र.सा./त.प्र./२७४ मोक्षसाधनतत्त्वस्य शुद्धस्य परस्परमजाकिभावपरि विमानमें अहमिन्द्र हुए।१६। वर्तमान भवमें २१वें तीर्थकर हुए। णतभाव्यभावकभावत्वात्प्रत्यस्तमितस्वपरविभागो भावनमस्कारोs (युगपत सर्वभव दे० म.पू./६९/७१)। इनका विशेष परिषय-दे० स्तु । -इस प्रकार दर्शनविशुद्धि जिसका मूल है ऐसी, सम्यग्ज्ञान तीर्थकर/५। में उपयुक्तताके कारण अत्यन्त अव्यायाध ( निर्विघ्न व निश्चल) लीनता होनेसे, साधु होनेपर भी साक्षात सिद्धभूत निज आत्माको नमिष-विजयार्घकी उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । तथा सिद्धभूत परमात्माओंको, उसीमें एकपरायणता जिसका लक्षण है ऐसा भाव नमस्कार सदा ही स्वयमेव हो। अथवा मोक्ष नमुचि-राजा पद्मका मन्त्री। विशेष-दे० मलि । के साधन तत्त्वरूप 'शुद्ध' को जिसमें से परस्पर अङ्ग-अजीरूपसे नय-अनन्त धर्मात्मक होनेके कारण वस्तु बड़ी जटिल है ( दे. अनेपरिणमित भाव्यभावताके कारण स्व-परका विभाग अस्त हुआ है कान्त) । उसको जाना जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। उसे ऐसा भाव नमस्कार हो। (अर्थात अभेद रत्नत्रय रूप शुद्धोपयोग कहनेके लिए वस्तुका विश्लेषण करके एक-एक धर्म द्वारा क्रमपूर्वक परिणति ही भाव नमस्कार है।) उसका निरूपण करनेके अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है । कौन धर्मको प्र.सा./ता.वृ./१२/६/१६ अहमाराधकः, एते च अर्हदादयः आराध्या इत्या पहले (और कौनको पीछे कहा जाये यह भी कोई नियम नहीं है। राध्याराधकविकल्परूपो द्वैतनमस्कारो भण्यते । रागाद्यपाधि यथा अक्सर ज्ञानी वक्ता स्वयं किसी एक धर्मको मुख्य करके उसका रहितपरमसमाधिबलेनात्मन्येवाराध्याराधकभावः पुनरद्वैतनमस्कारो कथन करता है। उस समय उसकी दृष्टि में अन्य धर्म गौण होते हैं भण्यते। - 'मैं आराधक हूँ और ये अहंत आदि आराध्य हैं,' पर निषिद्ध नहीं। कोई एक निष्पक्ष श्रोता उस प्ररूपणाको क्रम-पूर्वक इस प्रकार आराध्य-आराधकके विकल्परूप द्वैत नमस्कार है, तथा सुनता हुआ अन्तमें वस्तुके यथार्थ अखण्ड व्यापकरूपको ग्रहण कर रागादिरूप उपाधिके विकल्पसे रहित परमसमाधिके बलसे आत्मा लेता है। अतः गुरु-शिष्यके मध्य यह न्याय अत्यन्त उपकारी है। में (तन्मयतारूप ) आराध्य-आराधक भावका होना अद्वैत नमस्कार अतः इस न्यायको सिद्धान्तरूपसे अपनाया जाना न्याय संगत है। कहलाता है। यह न्याय श्रोताको वस्तुके निकट ले जानेके कारण 'नयतीति नयः' द्र.सं./टी./१/४/१२ एकदेशशुद्धनिश्चयनयेन स्वशुद्धारमाराधनलक्षणभाव के अनुसार नय कहलाता है। अथवा वक्ताके अभिप्रायको या वस्तुके स्तवनेन, असदभूतव्यवहारनयेन तत्प्रतिपादकवचनरूपद्रव्यस्तवनेन एकांश ग्राही ज्ञानको नय कहते हैं। सम्पूर्ण वस्तुके ज्ञानको प्रमाण च 'वन्दे' नमस्करोमि । परमशुद्धनिश्चयनयेन पुनर्वन्धवन्दकभावो तथा उसके अंशको नय कहते हैं। नास्ति। -एकदेश शुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षासे निज शुद्धारमाका अनेक धर्मोको युगपद ग्रहण करनेके कारण प्रमाण अनेकान्तरूप आराधन करनेरूप भावस्तवनसे और असदभूत व्यवहार नयकी अपेक्षा व सकलादेशी है, तथा एक धर्मके ग्रहण करनेके कारण नय एकान्तउस निजशुद्धात्माका प्रतिपादन करनेवाले वचनरूप द्रव्यस्तवनसे रूप व विकलादेशी है। प्रमाण ज्ञानकी अर्थाव अन्य धर्मोकी अपेक्षानमस्कार करता हूँ। तथा परम शुद्धनिश्चयनयसे बन्ध-बन्दक भाव को बुद्धिमें सुरक्षित रखते हुए प्रयोग किया जानेवाला नय ज्ञान या नहीं है। नय वाक्य सम्यक् है और उनकी अपेक्षाको छोड़कर उतनी मात्र ही पं. का./ता.व./१/४/२० अनन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपभावनमस्कारोऽशुद्ध- वस्तुको जाननेवाला नय ज्ञान या नय वाक्य मिथ्या है। वक्ता या निश्चयनयेन, नमो जिनेभ्य इति बचनात्मद्रव्यनमस्कारोऽप्यसदभूत- श्रोताको इस प्रकारको एकान्त हठ या पक्षपात करना योग्य नहीं, व्यवहारनयेन शुद्धनिश्चयनयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभावः।-भग- क्योंकि वस्तु उतनी मात्र है ही नहीं-दे० एकान्त ।। वाल्के अनन्तज्ञानादि गुणोंके स्मरणरूप भावनमस्कार अशुद्ध यद्यपि वस्तुका व्यापक यथार्थ रूप नयज्ञानका विषय न होनेके निश्चयनयसे है। 'जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार हो' ऐसा वचना कारण नयज्ञानका ग्रहण ठीक नहीं, परन्तु प्रारम्भिक अवस्थामें स्मक द्रव्यनमस्कार भी असद्भूत व्यवहारनयसे है। शुद्धनिश्चय उसका आश्रय परमोपकारी होनेके कारण वह उपादेय है। फिर भी नयसे तो अपनेमें ही आराध्य-आराधक भाव होता है। विशेषार्थ नयका पक्ष करके विवाद करना योग्य नहीं है । समन्वय दृष्टिसे काम वचन और कायसे किया गया द्रव्य नमस्कार व्यवहार नयसे नमस्कार लेना ही नयज्ञानकी उपयोगिता है-दे० स्याद्वाद। है। मनसे किया गया भाव नमस्कार तीन प्रकारका है-भगवानके गुण चिन्तवनरूप, निजात्माके गुण चिन्तवनरूप तथा शुद्धात्म संवेदन पदार्थ तीन कोटियों में विभाजित हैं-या तो वे अर्थात्मक अर्थात रूपा तहाँ पहला और दूसरा भेद या द्वैतरूप हैं और तीसरा वस्तुरूप हैं, या शब्दात्मक अर्थात वाचकरूप हैं और या ज्ञानात्मक अभेद व अद्वैत रूप। पहला अशुद्ध निश्चयनयसे नमस्कार है, अर्थात् प्रतिभास रूप हैं। अतः उन-उनको विषय करनेके कारण दुसरा एकदेश शुद्धनिश्चयनयसे नमस्कार है और तीसरा साक्षात नय ज्ञान व नय वाक्य भी तीन प्रकारके हैं-अर्थनय, शब्दनय व शुद्ध निश्चय नयसे नमस्कार है। ज्ञाननय । मुख्य गौण विवक्षाके कारण वक्ताके अभिप्राय भी * साधुओं आदिको नमस्कार करने सम्बन्धी अनेक प्रकारके होते हैं. जिससे नय भी अनेक प्रकारके हैं। वस्तुके -दे० विनय । सामान्यांश अर्थात द्रव्यको विषय करनेवाला मय द्रव्यार्थिक और उसके विशेषांश अर्थात् पर्यायको विषय करनेवाला नय नमस्कार मन्त्र-दे० मन्त्र । पर्यायार्थिक होता है। इन दो मूल भेदोंके भी आगे बनेको उत्तरनमि-१. (प.पु./३/३०६-३०८)-नमि और विनमि ये दो भगवान भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार वस्तुके अन्तरंगरूप या स्वभावको आदिनाथके सालेके पुत्र थे। ध्यानस्थ अवस्थामें भगवानसे भक्ति विषय करनेवाला निश्चय और उसके वाह्य या संयोगी रूपको विषय पूर्वक राज्यकी याचना करनेपर धरणेन्द्रने प्रगट होकर इन्हें विज- करनेवाला नय व्यवहार कहलाता है अथवा गुण-गुणीमें अभेदको यार्धकी श्रेणियोंका राज्य दे दिया और साथ ही कुछ विद्याएँ भी विषय करनेवाला निश्चय और उनमें कथंचित भेदको विषय करनेप्रदान की। इन्हींसे ही विद्याधर वंशकी उत्पत्ति हुई। -दे० वाला व्यवहार कहलाता है । तथा इसी प्रकार अन्य भेद-प्रभेदोंका इतिहास/७/१४-म.पु./१८/६१-१४१ । २. भगवान् वीरके तीर्थ का एक यह नयचक्र उतना ही जटिल है जितनी कि उसकी विषयभूत वस्तु । अन्तकृत वेवली-दे० अन्तकृत् । उस सबका परिचय इस अधिकारमें दिया जायेगा। माताको जाननेवाला है और हर प्रयोग किवि अन्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय I 1 १ १ ** ५ ६ नय सामान्य नय सामान्य निर्देश नय सामान्यका लक्षण १. निरुक्त्यर्थ । २. वक्ताका अभिप्राय । ३. एकदेश वस्तुग्राही । नयाभास निर्देश | ३ नयके मूल भेदोंके नाम निर्देश । नयके भेद प्रमेदोंकी सूची । ५ द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक अथवा निश्चय व्यवहार, ये ही मूल भेद हैं। ६. गुणार्थिक नवका निर्देश क्यों नहीं ? आगम व अध्यात्म पद्धति । ४. प्रमाणगृहीत वस्त्वं शग्राही । ५. श्रुतज्ञानका विकल्प । उपरोक्त लक्षणोंका समीकरण । नय व निक्षेप में अन्तर । नयों व निक्षेपका परस्पर अन्तर्भाव २ नय-प्रमाण सम्बन्ध ↑ नय व प्रमाण में कथंचित् अमेद । २ नय व प्रमाणमें कथंचित् मेद । ३ श्रुतवानमें ही नय होती है, अन्य धानोंमें नहीं। * प्रमाण व नयमें कथंचित् प्रधान व अप्रधानपना । प्रमाणका विषय सामान्य विशेष दोनों है। प्रमाण अनेकान्तग्राही है और नय एकान्तमाही । १ - दे० निक्षेप / १ । । -० निक्षेप / २.३ । - दे० नय / II । ७ प्रमाण सकलादेशी है और नय विकलादेशी । २ ३ प्रमाण व नव सप्तभंगी ११ प्रमाण व नयके उदाहरण । १२ मयके एकान्तग्राही होनेमें शंका । * ८ प्रमाण सकलवस्तुमाहक है और नय सवंशग्राहक । ९ प्रमाण सब धर्मोंको युगपत् ग्रहण करता है तथा नय क्रमसे एक एकको। सकल नयोंका युगपत् ग्रहण ही ग्रहण है। -३० प्रमाण सापेक्ष ही नय सम्यक् है । - दे० नय / II / १० | १० प्रमाण स्यात् पदयुक्त होने से सर्वनयात्मक होता है । * -३० भंगी / २। -दे० पद्धति । नय भी कचित् सकलादेशी है। ३० गी/२ ३। नयको कथंचित् हेयोपादेयता तत्त्व नवपोंसे अतीत है। नयपक्ष कथंचित् हेय है । नय केवल शेय है पर उपादेय नहीं। सकलवस्तु अनेकान्त / २१ ५०८ नयपक्षको हेय कहनेका कारण प्रयोजन | परमार्थतः निश्चय व व्यवहार दोनोंका पक्ष विकल्परूप होनेसे हेय है। ६. प्रत्यक्षानुभूतिके समय निश्चय व्यवहारके विकल्प नहीं रहते । ५ ८ ९ १० ४ * ४ ** ५ * ६ 19 १ शब्द अर्थ धानरूप तीन प्रकार के पदार्थ है। २ शब्दादि नयनिर्देश व लक्षण । ३ वास्तवमें नय ज्ञानात्मक हो है शब्दादिको नय कहना उपचार है । ० बागम /५/६ ५ १ २ ३ परन्तु तत्त्वनिर्णयार्थ नय कार्यकारी है । आगमका अर्थ करनेमें नयका स्थान । II १ २ ३ ४ सम्यक् नय ही कार्यकारी है मिथ्या नय नहीं । निरपेक्ष नय भी कथंचित् कार्यकारी है । नयपक्षकी हेयोपादेयताका समन्वय । शब्द, अर्थ व ज्ञाननय निर्देश -दे० आगम / ३/३ । शब्दमें प्रमाण व नयपना । तीनों नयोंमें परस्पर सम्बन्ध । शब्द में अर्थ प्रतिपादनकी योग्यता। ५ * उपचरित नय उपनय काल अकाल नयका समन्वय मानव कियानयका समन्यय शब्दनयका विषय । शब्दनयकी विशेषताएँ शब्दादि नयोंके उदाहरण । नव प्रयोग शब्दमें नहीं भावमें होता है सूचोपत्र -दे० आगम /४/११ - दे० नमः 111 /९/६ - ३० नय / III / ६-८ द्रव्यनय व भावनय निर्देश अन्य अनेकों नयोंका निर्देश भूत मावि आदि प्रथापन नय निर्देश। अस्तित्वादि सप्तभंगी नयोंका निर्देश । ३० स्याद्वाद / ४ | नामादि निक्षेपरूप नयोंका निर्देश । सामान्य विशेष आदि धर्मोंरूम ४७ नौका निर्देश अनन्त नय होने सम्भव हैं । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश दे० उपचार -दे० नय/V/४/ - ६० नियति / २ | - दे० चेतना /३/८ । सम्यक् व मिथ्यानय नय सम्यक् भी होती है और मिथ्या भी। सम्यक् व मिथ्या नयोंके लक्षण । अन्य पक्षका निषेध न करे तो कोई भी नय मिभ्या नहीं होती। अन्य पक्षका निषेध करनेसे ही मिष्या है। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचीपत्र नय नैगमनय निर्देश नैगमनय अर्थनय व ज्ञाननय है। -दे० नयIII/१ । नैगमनय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। शुद्ध व अशुद्ध सभी नय नैगमनयके पेटमें समा जाती | अन्य पक्षका संग्रह करनेपर वह नय सम्यक है। सर्व एकान्त मत किसी न किसी नयमें गर्भित हैं। और सर्व नय अनेकान्तके गर्भ समाविष्ट है। -दे० अनेकान्त/२॥ ६ | जो नय सर्वथाके कारण मिथ्या है वही कथंचित्के कारण सम्यक् है। सापेक्षनय सम्यक् और निरपेक्षनय मिथ्या है। नयोंके विरोधमें अविरोध। -दे. अनेकान्त/५ । नयोंमें परस्पर विधि निषेध । -दे० सप्तभंगी/५। सापेक्षता व मुख्यगौण व्यवस्था। -दे० स्याद्वाद/३ । मिथ्यानय निर्देशका कारण व प्रयोजन। सम्यग्दृष्टिकी नय सम्यक् तथा मिथ्यादृष्टिकी मिथ्या है। प्रमाणशान होनेके पश्चात् ही नय प्रवृत्ति सम्यक् होती है, उसके बिना नहीं। नैगम तथा संग्रह व व्यवहारनयमे अन्तर । नैगमनय व प्रमाणमें अन्तर। इसमें यथा सम्भव निक्षेपोका अन्तर्भाव-दे० निक्षेप/३ । ५ | भावी नैगमनय निश्चित अर्थमें लागू होता है। | कल्पनामात्र होते हुए भी भावी नैगमनय व्यर्थ नहीं है। संग्रहनय निर्देश संग्रहनयका लक्षण। संग्रहनयके उदाहरण। संग्रहनय अर्थनय है।-दे० नय/III/११ इसमें यथासम्भव निक्षेपोंका अन्तर्भाव । -दे० निक्षेप/३। संग्रहनयके भेद । | पर, अपर तथा सामान्य विशेषरूप मेदोंके रक्षण व उदाहरण। इस नयके विषयकी अद्वैतता। -दे० नय/IV/२/३ । दर्शनोपयोग व संग्रहनयमें अन्तर ।-दे० दर्शन/२/१० । संग्रहाभासके लक्षण व उदाहरण! वेदान्ती व सांख्यमती संग्रहनयाभासी है। -दे० अनेकान्त/RVED | संग्रहनय शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। व्यवहारनय निर्देश-दे० नय/V/४ | नैगम आदि सात नय निर्देश सातों नयोंका समुदित सामान्य निर्देश नयके सात भेदोका नाम निर्देश। -दे०नय/I/१/३ । सातोंमें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग । इनमें द्रव्याथिक पर्यायाथिक विभागका कारण । सातोंमें अर्थ, शब्द' व ज्ञान नय विभाग। इनमें अर्थ, शब्दनय विभागका कारण । नौ मेद कहना भी विरुद्ध नहीं है। पूर्व पूर्वका नय अगले अगले नयका कारण है। सातोंमें उत्तरोत्तर सूक्ष्मता। सातोंकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मताका उदाहरण । शब्दादि तीन नयोंमें परस्पर अन्तर । नैगमनयके भेद व लक्षण नेगम सामान्यका लक्षण---- (१. संकल्पग्राही तथा द्वैतग्राही) संकल्पग्राही लक्षण विषयक उदाहरण । द्वैतग्राही लक्षण विषयक उदाहरण । नैगमनयके भेद । भूत भावी व वर्तमान नैगमनयके लक्षण । भूत भावी वर्तमान नैगमनयके उदाहरण । पर्याय द्रव्य व उभयरूप नैगमसामान्यका लक्षण । द्रव्य व पर्याय आदि नैगमनयके भेदोंके लक्षण व उदाहरण१. अर्थ व्यंजन व तदुभय पर्यायनैगम । २. शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य नैगम । ३. शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यपर्यायनै गम । नेगमाभास सामान्यका लक्षण व उदाहरण । न्याय वैशेषिक नैगमाभासी हैं।-दे० अनेकान्त/२/६ । १० । नगमाभास विशेषोंके लक्षण व उदाहरण। | ऋजुसूत्रनय निर्देश ऋजुसत्र नयका लक्षण। ऋजुसूत्रनयके भेद। सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्रके लक्षण। इस नयके विषयकी एकत्वता। -दे० नय/IV/३ । जुसूत्राभासका लक्षण । | बौद्धमत ऋजुसूत्रामासी है। -दे० अनेकान्त/२/६ | ऋजुसूत्रनय अर्थनय है। दे० नय/III/RI ऋजुसूत्रनय शुद्धपर्यायार्थिक है। इसे कथंचित् द्रव्यार्थिक कहनेका विधि निषेध । सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्रकी अपेक्षा वर्तमानकालका प्रमाण । व्यवहारनय व ऋजुसूत्रमें अन्तर ।-दे० नय/V/४/३॥ * इसमें यथासम्भव निक्षेपोंका अन्तर्भाव। -दे. निक्षेप/३। - - -- - -- जैनेन्द्र सिवान्त कोश Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय सूचीपत्र शब्दनय निर्देश शब्दनयका सामान्य लक्षण । शब्दनयके विषयकी एकत्वता ।-दे० नय/IV/३ । शब्द प्रयोगकी मेद व अभेदरूप दो अपेक्षाएँ। -दे० नय/III/१/१ । २ अनेक शब्दोंका एक वाच्य मानता है। ३ । पर्यायवाची शब्दोंके अर्थमें अमेद मानता है। ४ । पर्यायवाची शब्दोंके प्रयोगमें लिगादिका व्यभिचार स्वीकार नहीं करता। ऋजुसूत्र व शब्दनयमें अन्तर । यह पर्यायार्थिक तथा व्यंजननय है।-दे० नय/III/१ | इसमें यथासम्भव निक्षेपोंका अन्तर्भाव।। -दे० निक्षेप/३। | शब्द नयाभासका लक्षण। वैयाकरणी शब्द नयाभासी है।-दे० अनेकान्त/२/३ । लिगादिके व्यभिचारका तात्पर्य । उक्त व्यभिचारोंमें दोष प्रदर्शन । शब्दमें अर्थ प्रतिपादनकी योग्यता। -दे० आगम/४/१/। सर्व प्रयोगोंको दूषित बतानेसे व्याकरण शास्त्रके साथ विरोध आता है ? शब्द प्रयोगकी भेद-अभेद रूप दो अपेक्षाएँ। -दे० नय/III/R/R | तज्शान परिणत आत्मा उस शब्दका वाच्य है । अर्थभेदसे शब्दभेद और शब्दमेदसे अर्थमेद । इस नयकी दृष्टिमें वाक्य सम्भव नहीं। इस नयमें पदसमास सम्भव नहीं। इस नयमें वर्णसमास तक भी सम्भव नहीं। वाच्यवाचक भावका समन्वय। -दे० आगम/४/४ । समभिरूढ व एवंभूतमें अन्तर।। | यह पर्यायार्थिक शब्दनय है। -दे० नय/III/21 | इसमें यथासम्भव निक्षेपोंका अन्तर्भाव । -दे० निक्षेप/३। एवंभूत नयाभासका लक्षण । वैयाकरणी एवंभूत नयाभासी हैं। -दे० अनेकान्त/२/३ || द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय द्रव्यार्थिक नय सामान्य निर्देश द्रव्यार्थिकनयका लक्षण । यह वस्तुके सामान्यांशको अद्वैतरूप विषय करता ३.६ | द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षा विषयकी अद्वैतता। ७ | इसीसे यह नय एक अवक्तव्य व निर्विकल्प है। | द्रव्यार्थिक व प्रमाण में अन्तर । -दे० नय/III/३/४1 द्रव्यार्थिकके तीन भेद नैगमादि। -दे० नय/III I द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिकमें अन्तर। -दे० नय/V/8/1 * इसमें यथासम्भव निक्षेपोंका अन्तर्भाव । -दे०निक्षेप/२॥ सममिरूढनय निर्देश समभिरूढनयके लक्षण१. अर्थ भेदसे शब्द भेद ( रूढशब्दका प्रयोग) २. शब्दभेदसे अर्थ भेद । ३. वस्तुका निजस्वरूपमें रूढ करना। इस नयके विषयकी एकत्वता। -दे० नय/IV/३ | शब्दप्रयोगकी भेद-अमेद रूप दो अपेक्षा । -दे० नय/III/१/१ । यद्यपि रूदिगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं । परन्तु यहाँ पर्यायवाची शब्द नहीं होते। शब्द वस्तुका धर्म नहीं है, तब उसके भेदसे अर्थ भेद कैसे हो सकता है ? --दे० आगम/४/४ । शब्द व सममिरूढ नयमें अन्तर। * यह पर्यायाथिक शब्दनय है। -दे० नय/IIIRI | इसमें यथासम्भव निक्षेपोंका अन्तर्भाव।। -दे० निक्षेप/३। ५ | समभिरूढ नयाभासका लक्षण। वैयाकरणी समभिरूढ़ नयाभासी हैं। -दे० अनेकान्त/२/81 ८ एवंभूत नय निर्देश तक्रिया परिणत द्रव्य हो शब्दका वाच्य है। सभी शब्द क्रियावाची हैं। -दे० नाम। शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय निर्देश द्रव्याथिकनयके दो भेद-शुद्ध व अशुद्ध । शुद्ध द्रव्यार्थिकनयका लक्षण । द्रव्य क्षेत्रादिकी अपेक्षा इस नयके विषयकी अद्वैतता। शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकी प्रधानता । -दे० नय/V/३/४ | अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयका लक्षण। अशुद्ध द्रव्यार्थिक व्यवहारनय है। -दे० नय/V|४| अशुद्ध व शुद्ध द्रव्यार्थिकमें हेयोपादेयता। -दे० नय/V/ET द्रव्याथिकके दश भेदोंका निर्देश। द्रव्याथिकनय दशकके लक्षण । १. कर्मोपाधि निरपेक्ष, २. सत्ता ग्राहक, ३. भेद निरपेक्ष । ४. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक, ६ १ तसि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ३ पर्यायार्थिकनय सामान्य निर्देश १ पर्यायार्थिकनयका लक्षण । २ यह वस्तु विशेषांशको एकत्वरूपसे ग्रहण करता ३ द्रव्यकी अपेक्षा विषयकी एकत्वता १. पर्यायसे पृथक् द्रव्य कुछ नहीं । २. गुण गुणी में सामान्याधिकरण्य नहीं है । ३. काक कृष्ण नहीं हो सकता ! ४. सभी पदार्थ एक संख्यासे युक्त हैं । क्षेत्रकी अपेक्षा विषयकीकत १. प्रत्येक पदार्थका अवस्थान अपनेमें ही है। २. वस्तु अखण्ड व निरवयव होती है। ३. पलालदाह सम्भव नहीं । ४. कुम्भकार संज्ञा नहीं हो सकती । कालकी अपेक्षा विषयको एकता१. केवल वर्तमान क्षणमात्र ही वस्तु है । * वर्तमान कालका स्पष्टीकरण | ४ ५ ६ ७ ८ ९ ५. उत्पादव्यय सापेक्ष, ६. भेद कल्पना सापेक्ष, ७. अन्वय द्रव्याथिक, ८-६, स्वव पर चतुष्टय ग्राहक, १०. परमभारग्राही शुद्ध द्रव्यार्थिक । १० # -दे० नय /1II/५/७ । २. क्षण स्थायी अर्थ ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है। काल की अपेक्षा एकत्व विषयक उदाहरण १. कषायो भैषज्यम्; २. धान्य मापते समय ही प्रस्थ संज्ञा; ३. कहीं से भी नहीं आ रहा हूँ । ४. श्वेत कृष्ण नहीं किया जा सकता । ५. क्रोधका उदय ही क्रोध कषाय है । ६. पलाल दाह सम्भव नहीं; ७, पच्यमान पक्व । भावकी अपेक्षा विषयकी एकत्वता । किसी भी प्रकारका सम्बन्ध सम्भव नहीं । १. विशेष्य- विशेषण सम्बन्धः २ संयोग व समवायः ३. कोई किसीके समान नहीं; ४. ग्राह्यग्राहक सम्बन्ध ५ वाच्य वाचक सम्बन्ध सम्भव नहीं; ६. बन्ध्यबन्धक आदि अन्य कोई भी सम्बन्ध नहीं । कारण कार्य भाव सम्भव नहीं १. कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है। २-३ विनाश व उत्पाद निर्हेतुक है। यह नय सकल व्यवहारका उच्छेद करता है । पर्यायार्थिकका कचित् द्रव्यार्थिकरना। -३० नम / III/५। पर्यायार्थिकके चार मेद ऋजुसूत्रादि । इसमें स्वासम्भव निक्षेपोंका अन्तर्भाव -- दे० नय / III | -दे० निक्षेप / २। 8 शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिक निर्देश १ शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिकके लक्षण । २-३ पर्यायार्थिकनयके छह मेदोका निर्देश व लक्षण ५११ ६ ७ १ १ निश्चयनयका लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण | २ ३ निश्चयनयका लक्षण अभेद व अनुपचार ग्रहण । निश्चयनयका लक्षण स्वाश्रय कथन निश्चयनयके भेद-शुद्ध व अशुद्ध ४ ५ शुद्ध निश्चयके लक्षण व उदाहरण १. परमभावग्राहीकी अपेक्षा । २. क्षायिकभावग्राहीकी अपेक्षा । एकदेश शुद्ध निश्चयनयका लक्षण | शुद्ध, एकदेश शुद्ध व निश्चयसामान्यमै अन्तर व इनकी प्रयोग विधि | अशुद्ध निश्चयनयका लक्षण व उदाहरण | निश्चयन की निर्विकल्पता ፡ २ १ २ ३ ४ ५ सूचीपत्र १. अनादिनित्य २. सादिनित्य ३. चाण अनित्य, ४. सत्ता सापेक्ष नित्य कर्मोंपाधि निर ५. पेक्ष अनित्य, ६, कर्मोपाधिसापेक्ष । अशुद्ध पर्यायार्थिकनय व्यवहारनय है । - दे० नय / V/४ 1 निश्चय व्यवहारनय निश्चयनय निर्देश १ २ ३ ४ २ शुद्ध व अशुद्ध निश्चयनय दध्यार्थिकके मेद हैं। निश्चयनय एक निर्विकल्प व वचनातीत है। निश्चय नयके भेद नहीं हो सकते । शुद्धनिश्चय ही वास्तवमे निश्चयन है अशुद्ध निश्चयनय तो व्यवहार है। 1 व्यवहारका निषेध ही निश्चयका वाच्य ह 1 -दे० नय / V/१/२ ६ निर्विकल्प होनेसे निश्चयनयमें नयपना कैसे सम्भव है ? उदाहरण सहित तथा सविकल्प सभी नये व्यवहार हैं । ३ निश्चयनयकी प्रधानता निश्चयनय ही सत्यार्थ है। निश्चयनय साधकतम व नवाधिपति है। निश्चयनय हो सम्यक्त्वका कारण है। निश्चयनय ही उपादेय है। 8 व्यवहारनय सामान्य निर्देश १ व्यवहारनय सामान्यके लक्षण१. संग्रह] गृहीत अर्थ निधिपूर्वक भेद । २. अभेद वस्तु गुणगुणी आदिरूप भेद । २. भिन्न पदार्थों कारकादिरूप अभेदोपचार | ४. लोकव्यवहारगत वस्तुविषयक-व्यवहारनय सामान्यके उदाहरण१. संगृहीत अर्थ मे मेद करने सम्बन्धी । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५१२ सूचीपत्र ६ उपचरित असद्भुत व्यवहारनय निर्देश१. भिन्न द्रव्यों में अभेदकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण । २. विभाव भावोंकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण | ३. इस न यके कारण व प्रयोजन । उपचार नय सम्बन्धी। -दे० उपचार । व्यवहारनयकी कथंचित् गौणता २. अभेद वस्तुमें भेदोपचार सम्बन्धी। ३. भिन्न वस्तुओंमें अभेदोपचार सम्बन्धी। ४. लोकव्यवहारगत वस्तु सम्बन्धी। व्यवहारनयकी भेद प्रवृत्तिकी सीमा । व्यवहारनय सामान्यके कारण प्रयोजन । -दे० नय/V/७ | व्यवहारनयके भेद व लक्षणादि-- १. पृथक्त्व व एकत्व व्यवहार । २. सद्भूत व असभूत व्यवहार । ३. सामान्य व विशेष संग्रहभेदक व्यवहार । व्यवहार नयाभासका लक्षण । चार्वाक मत व्यवहारनयाभासी है। -दे० अनेकान्त/२/11 यह द्रव्यार्थिक व अर्थनय है। -दे० नय/III/RA व्यवहारनय अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। पर्यायाथिकनय भी कथंचित् व्यवहार है। इसमें यथासम्भव निक्षेपोंका अन्तर्भाव । -दे०निक्षेप/२। उपनय निर्देश१. उपनयका लक्षण व इसके भेद । २. उपनय भी व्यवहारनय है। arw-r09 * व्यवहारनय असत्यार्थ है, तथा उसका हेतु । व्यवहारनय उपचारमात्र है। व्यवहारनय व्यभिचारी है। व्यवहारनय लौकिक रूढि है। व्यवहारनय अध्यवसान है। व्यवहारनय कथनमात्र है। व्यवहारनय साधकतम नहीं है। व्यवहारनय निश्चय द्वारा निषिद्ध है। -दे० नय/VERI व्यवहारनय सिद्धान्तविरुद्ध तथा नयाभास है। व्यवहारनयका विषय सदा गौण होता है। शुद्ध दृष्टिमें व्यवहार को स्थान नहीं। व्यवहारनयका विषय निष्फल है। व्यहारनयका आश्रय मिथ्यात्व है। । तत्त्व निर्णय करनेमें लोकव्यवहारका विच्छेद होनेका भय नहीं किया जाता। -दे० निक्षेप/३/३ तथा । -दे० नय/III/६/१०IV/३/१०। | १३ व्यवहारनय हेय है। सद्भूत असद्भुत व्यवहार निर्देश सद्भुत व्यवहारनय सामान्य निर्देश१. लक्षण व उदाहरण २. कारण व प्रयोजन ३.व्यवहार सामान्य व सद्भूत व्यवहारमें अन्तर। ४. सद्भूत व्यवहारनयके भेद । अनुपचरित या अशुद्ध सद्भुत व्यवहार निर्देश१. क्षायिक शुद्धकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण । २. पारिणामिक शुद्धकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण । ३. अनुपचारित व शुद्धसद्भूतकी एकार्थता। ४. इस नयके कारण व प्रयोजन। उपचरित या अशुद्ध सद्भुत निर्देश१. क्षायोपशमिकभावकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण । २. पारिणामिकभावमै उपचारकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण । ३, उपचरित व अशुद्ध सदभूतकी एकार्थता। ४. इस नयके कारण व प्रयोजन । असद्भुत व्यवहार सामान्य निर्देश१. लक्षण व उदाहरण । २. इस नयके कारण व प्रयोजन । ३. असदभूत व्यवहारनयके भेद । अनुपचरित असद्भुत गबहार निर्देशः१. भिन्न द्रव्यमें अभेदकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण । २, विभाव भावकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण । ३. इस नयका कारण व प्रयोजन । ७ / व्यवहारनयकी कथचित् प्रधानता व्यवहारनय सर्वथा निषिद्ध नहीं है ( व्यवहार दृष्टिसे यह सत्यार्थ है) २ निचली भूमिकामें व्यवहार प्रयोजनीय है। मन्दबुद्धियोंके लिए व्यवहार उपकारी है। व्यवहारनय निश्चयनयका साधक है। -दे० नय/V/E/RN | व्यवहारपूर्वक ही निश्चय तत्त्वका शान होना सम्भव ३ मन्द ५ व्यवहारके बिना निश्चयका प्रतिपादन शक्य नहीं। तीर्थप्रवृत्तिकी रक्षार्थ व्यवहारनय प्रयोजनीय है। -दे० नय/V//४ वस्तुमें आस्तिक्य बुद्धिके अर्थ प्रयोजनीय है। | वस्तुकी निश्चित प्रतिपत्तिके अर्थ यही प्रधान है। व्यवहारशून्य निश्चयनय कल्पनामात्र है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय व्यवहार व निश्चयकी हेयोपादेयताका समन्वय १ निश्चयनयकी उपादेयताका कारण व प्रयोजन । व्यवहारनयफे निषेधका कारण २ ३ व्यवहारनयके निषेधका प्रयोजन । ४ ** ८ व्यवहारनयकी उपादेयताका कारण व प्रयोजन । परमार्थसे निश्चय व व्यवहार दोनों देय हैं। ९ १ दोनों नयोंगे विषयविरोध निर्देश । दोनों नयोंगे स्वरूपविरोध निर्देश। निश्चय व्यवहार निषेध्यनिषेधक भावका समन्वय । -दे० नम / V/६/२ ॥ निश्चय व्यवहारके विषयोंका समन्वय * ३ दोनोंमें मुख्य गौण व्यवस्थाका प्रयोजन । नयोंमें परस्पर मुख्य गौण व्यवस्था । -दे० स्याद्वाद / ३ । दोनोंमें साध्य साधनभावका प्रयोजन दोनोंकी परस्पर सापेक्षता । ५ ६ दोनोंकी सापेक्षताके उदाहरण । - दे० नय / / ३ । दोनोंकी सापेक्षताका कारण व प्रयोजन। इसलिए दोनों ही नय उपादेय हैं। ज्ञान व क्रियानयका समन्वय । - दे० चेतना /३/८ । I नय सामान्य १. नय सामान्य निर्देश १. नय सामान्यका लक्षण १. निरुपय घ. १/१,९,१ / ३,४/१० उच्चारियमत्थपदं णिक्खेवं वा कर्यं तु दन अत्यं जयंति पच्चतमिति सदो से गया भनिया || जयदि प्ति गयो भणिओ बहूहि गुण पज्जएहि जं दव्वं । परिणाम खेत्तकालं - तर अभिमसभा 181 उच्चारण किये अर्थ, पद और उसमें किये गये को देखकर पदार्थको ठीक निर्णय तक पहुँचा देता है. इसलिए वे नय कहलाते है । ३॥ रु. पा. १/१३१४/२१०/गा. ११०/२५६) अनेक गुण और अनेक पर्यायसहित अथमा उनके द्वारा एक परिणामसे दूसरे परिणाम में, एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें और एक कालसे दूसरे कालमें अविनाशी स्वभावरूपसे रहनेवाले द्रव्यको जो ले जाता है, अर्थात् उसका ज्ञान करा देता है, उसे न कहते हैं |३| तत्त्वार्थाधिगमभाष्य /९/३५ जीवादी पदार्थात् नमन्ति प्राप्नुवन्ति कारयन्ति साधयन्ति निर्वर्तयन्ति, निर्भासयन्ति, उपलम्भयन्ति, व्यञ्जयन्ति इति नयः ।-जीवादि पदार्थोंको जो लाते हैं, प्राप्त कराते हैं. बनाते हैं, अवभास कराते हैं, उपलब्ध कराते हैं, प्रगट कराते हैं, नय हैं। आ.प./१ नानास्वभावेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिन्स्वभावे वस्तु नयति भा० २-६५ ५१३ I नय सामान्य प्रापयतीति वा नयः । = नाना स्वभावोंसे हटाकर वस्तुको एक स्वभावमें जो प्राप्त कराये उसे नय कहते है। (न. च. श्रुत / पृ. १ ) ( न. वृति/५२६) (नवृति/ सूत्र ६) (न्यायावतार टीका/ पृ. ८२), स्या. म. / २८/३१०/१० ) । स्वा म. / २७/३०३/२० नीयते एकदेशविशिष्टोऽर्थः प्रतीतिविषयमभिरिति नीतयो नयाः । - जिस नीतिके द्वारा एकदेश विशिष्ट पदार्थ लाया जाता है अर्थात प्रतीतिके विषयको प्राप्त कराया जाता है, उसे नय कहते है। (स्पा २८/२००/१५)। २. वक्ताका अभिप्राय ति.प./१/८३ मा होदि प्रमाण पत्र वास्स हिदियभाव सम्यग्ज्ञानको प्रमाण और ज्ञाताके हृदय अभिप्रायको नय हैं (सि.वि./मू./१०/२/६८३) । ' ध. १/१,१.१ / ११ / १७ ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते । नयो ज्ञातुरभित्रायो ऽपरिग्रहः | ११ सम्याज्ञानको प्रमाण कहते हैं, और ज्ञाता के अभिप्रायको नय कहते हैं। चीत्र/का ५२ ); ( लघीयस्त्रय स्व वृत्ति/का. ३०); प्रमाण संग्रह / श्लो. ८६ ); (क. पा. १/१३-१४/६ १६८/रो ७५/२००) (४.३/१.२.२/१५/१ ) ( ध. १/४,१,४५/१६२/७ ) ( पं. का./ता.वृ./४३/८६/१२ ) । आ. प./ शातुरभिप्रायो वा नयः । ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते है। (न.च.वृ./१७४) (म्या दी./३/३८२ / १२५ ) । प्रमेयकमलमार्तण्ड / पृ. ६७६ अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वं शग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नमः । प्रतिपक्षी अर्थाद विरोधी धर्मोका निराकरण न करते हुए वस्तु के एक अंश या धर्मको ग्रहण करनेवाला ज्ञाताका अभिप्राय नय है । प्रमाणनय तत्त्वालंकार/७/१ ( स्या. म. / २८/३१६ / २६ पर उद्धृत ) प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नम इति । वक्ताके अभिशय विशेषको नय कहते है। (स्या. म. २८/३१०/१२ ) । ३. एकदेश वस्तुग्राही 308 स.सि./१/३३/९४०/० मस्तन्यनेकान्तात्मन्यनिरोधेन हेत्वगात्साध्य विशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवणः प्रयोगो नयः । अनेकान्तात्मक वस्तु विरोध के बिना हेतुको मुख्यतासे साध्यविशेषको यथार्थताको प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोगको नम कहते हैं (ह. २८/३१)। सारसंग्रह (क. पा. १/१३-१४/२१०/१) अनन्तपर्यायात्मकस्थ वस्तुनोऽन्यतम पर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यपेक्षा निरवद्यप्रयोग नयः । अनन्तपर्यायात्मक वस्तुकी किसी एक पर्यायका ज्ञान करते समय निर्दोष युक्तिको अपेक्षा जो दोषरहित प्रयोग किया जाता है यह नम है (. १/४.१.४५/१६०/२) । श्लो. वा. २/१/६/४/३२१ स्वार्थेकदेश निर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः - अपनेको और अर्थको एकदेशरूपसे जानना नयका लक्षण माना गया है। श्लो. वा. २/१/६/१०/३६०/११) । न.च.वृ./१७४ रससंग नयं)। वस्तुके अंकी ग्रहण करनेवाला नय होता है (न.च.वृ./१०२) (का. अ./मू./२१)। 181 • 1 प्र.सा./ता.वृ./१८१/२४५/१२ देश परीक्षा तात्रयलक्षणं-वस्तु की एकदेश परीक्षा नयका लक्षण है (पं.का./ता. १/४६/८६/१२)। का. अ/यू./२६४ मागाधम्मजुर पिय एवं धम्मं पि पुच्चदे अर्थ । सेय मिलादो पर मिक्लासेसा ॥२६४ नाना युक्त भी पदार्थ के एक धर्मको ही नय कहता है, क्योंकि उस समय उस ही धर्मकी विवक्षा है, शेष धर्मकी विवक्षा नहीं है। पं.का./५०४ इयुक्षणेऽस्मि विरुद्धधर्मयात्म के तरवेाय न्यतरस्य स्यादिह धर्मस्य वाचकश्च नयः । = दो विरुद्धधर्मवालेकिसी एक धर्मका वाचक नय होता है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय और भी देखो-पीछे निरुक्त्यर्थ मे - 'आप' तथा 'स्या. म' । तथा वक्तु' अभिप्रायमे 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' | ४. प्रमाणगृहीत वस्तुका एकअंश माही आ. मी./ १०६ सपने साध्यस्य साधम्र्म्यादिविरोधत स्याद्वाद प्रविभक्तार्थविशेषपको नयः १०६ साधर्मीका विरोध न करते हुए साधर्म्य से हो साध्यको सिद्ध करनेवाला तथा स्वाद्वाद प्रकाशित पदार्थोकी पर्यायोको प्रगट करनेवाला नय है। (ध. ६/४, १.४५ /गा २२ / १६० ) ( क. पा. १ / १३-१४/३ १७४/०२/२१०- रचार्थभाष्यसे उद्भूत) | स. सि /९/६/२०/७ एवं ह्युक्तं प्रगृह्य प्रमाणत परिणतिविशेषादर्थावधारणं नय' । आगम मे ऐसा कहा है कि वस्तुको प्रमाणसे जानकर अनन्तर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थका निश्चय करना नय है । रा.वा./१/३३/९/१४/२९ प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः । = प्रमाण द्वारा प्रकाशित किये गये पदार्थका विशेष प्ररूपण करनेवाला नय है। (श्लो० वा. ४/५/३२/६/२१८)। ५१४ आ.प./ प्रमाणेन बस्तुसंगृहीतार्थैकांशी नय' । प्रमाणके द्वारा संगृहोत वस्तुके अर्थ के एक अंशको नय कहते है। (नयचक्र/भुत/पृ. २) । ( न्या. दी./३/६८२/१२६/७)। प्रमाणनयतत्त्वालंकार/७/१ से स्या. म./२८/३१६/२७ पर उद्धृत - नीयते येन श्रुताख्यानप्रमाण विषयीकृतस्य अर्थस्य अंशस्तदितर शौदासीन्यत स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः इति । श्रुतज्ञान प्रमाणसे जाने हुए पदार्थोंका एक अंश जानकर अन्य अंशोके प्रति उदासीन रहते हुए अभिप्रायको नय कहते है (नय रहस्य / पृ. ७९) ( जैन तर्क / भाषा/पू. २१) नय प्रदीप / यशोविजय / पृ. १७) । ध. १/१,९,१ / ८३/९ प्रमाणपरिगृहोतार्थेकदेशे वस्त्वध्यवसायो नयः । प्रमाणके द्वारा ग्रहण की गयी वस्तुके एक अंशमै वस्तुका निश्चय करनेवाले ज्ञानको न कहते है (म. १/४१.४२/१६३९) (.पा. १/१३-१४/६१६८/१६६/४ ) । B प. ६/४.१.४६/६ तथा प्रभाचन्द्रभट्टारकेरप्यभाणि प्रमाणव्यपाश्रयपरिणाम विकल्प वशीकृतार्थ विशेषप्ररूपणप्रवणः प्रणिधिर्य' स नय इति । प्रमाणव्यपाश्रयस्तत्परिणामविकल्पनशीकृतानां अर्थविशेषाणां प्ररूपणे प्रवण. प्रणिधानं प्रणिधि प्रयोगो व्यवहारात्मा प्रयोक्ता वा स नयः ।, = प्रभाचन्द्र भट्टारकने भी कहा है-प्रमाणके आश्रित परिणामभेदोंसे वशीकृत पदार्थ विशेषोंके प्ररूपण में समर्थ जो प्रयोग हो है वह नय है उसीको स्पष्ट करते हैं जो प्रमाणके आश्रित है तथा उसके आश्रयसे होनेवाले ज्ञाताके भिन्न-भिन्न अभिप्रायोंके अधीन हुए पदार्थ - विशेषों के प्ररूपण में समर्थ है, ऐसे प्रणिधान अर्थात् प्रयोग अथवा व्यवहार स्वरूप प्रयोक्ताका नाम नय है । ( क. पा. १/१३-१४/१७५/२१० ) । 1 स्या. म / २८/३१०/- प्रमाणप्रतिपन्नार्थैकदेशपरामर्शो नयः ।... प्रमाणप्रवृत्तेरुत्तरकालभावी परामर्श इत्यर्थः । = प्रमाणसे निश्चित किये हुए पदार्थोंके एक अंश ज्ञान करनेको नय कहते हैं । अर्थात प्रमाण द्वारा निश्चय होने जानेपर उसके उत्तरकालभावी परामर्शको नय कहते हैं। ५. तनका विकल्पःश्रुतज्ञानका स्लो. व. २/१/६/१को २०/३६० श्रुतता नयाः सिद्धाश्रुतज्ञानको मूलकारण मानकर ही नयज्ञानोकी प्रवृत्ति होना सिद्ध माना गया है। I नय सामान्य आ. ५/६ विकल्पो वा (नयः तज्ञानके विकल्पको न कहते है । (न.च.वृ./१७४ ) ( का. अ./मू./२६३) । = २. उपरोक्त लक्षणका समीकरण घ. १/४.१,४५/१६२० को नयो नाम तुरभिप्रायो नय अभिप्राय इत्यस्य को प्रमाणपरिगृहीतार्थक देशवरत्वध्यवसाय अभिप्रायः । युक्तितः प्रमाणात अर्थपरिग्रह, द्रव्यपर्याययोरन्यतरस्य अर्थ इति परिग्रहो वा नयः । प्रमाणेन परिच्छिन्नस्य वस्तुनः द्रव्ये पर्याये वा वस्त्वध्यवसायो नय इति यावत् । प्रश्न- नय किसे कहते हैं उत्तर ज्ञाताके अभिप्रायको नम कहते हैं। प्रश्न अभिप्राय इसका क्या अर्थ है उत्तर प्रमाणसे गृहीत वस्तुके एक देश में वस्तुका निश्चय ही अभिप्राय है (स्पष्ट ज्ञान होनेसे पूर्व तो ) युक्ति अर्थात् प्रमाणसे अर्थ के ग्रहण करने अथवा इव्य और पर्यायोंने-से किसी एक को ग्रहण करनेका नाम नय है । ( और स्पष्ट ज्ञान होनेके पश्चात ) प्रमाणसे जानी हुई वस्तुके द्रव्य अथवा पर्यायमें अर्थात् सामान्य या विशेषमें वस्तुके निश्चयको नय कहते हैं, ऐसा अभिप्राय है । और भी दे० नय III / २ / २ । ( प्रमाण गृहीत वस्तुमें नय प्रवृत्ति सम्भव है ) ३. नयके मूल भेदोंके नाम निर्देश रा.सु./९/२३ मैगसंयवहारसूत्र शब्दसमभिरूडेवंभूता नयाः ।मैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र शब्द, समभिरूड और एवंभूत मे सात नय हैं। (इ.पु./५८/४९), (घ१/१.१.१/८०/५), (न.च.वृ./१८५). (आ.प./५): (स्या.म./२०/३१०/१५) ( इन सबके विशेष उत्तर भेद देखो नम / III ) | स.सि./१/३३ / १४०/८ स द्वेधा द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति । उस (नय) के दो भेद हैं--अध्यार्थिक और पर्यायार्थिक (स.सि./ १/६/२०१६). (रा. वा / १२ /१/२/४/४ ). ( रा. का/१/२३/२/१४/२४). (८.१/१. ११/०३/१०) (६.६/४.१.४५/१६७/१०), (क.पा./१३-१४/११००/२११/४ ) ( आ. प. / ५ / गा. ४) (न.च.वृ./१४८), (स.सा./आ./१३/क. ८की टीका), (पं.का./४) (स्याम /२०/२१७/१). ( इनके विशेष उचर भेद दे० नय / IV) । आ.प./५/गा. ४ यिवहारणया सभेयाण ताण सम्मानं सम नयों के मूल दो भेद हैं - निश्चय और व्यवहार (न.च.वृ./१८३ ), ( इनके विशेष उत्तर भेद दे० नय/V) । का.अ./मू./२६५ सो श्चिय एक्को धम्मो वाचयसदो वि तस्स धम्मस्स । जं जाणदि तं गाणं ते तिणि वि णय बिसेसा य । = वस्तुका एक धर्म अर्थात् 'अर्थ' इस धर्मका वाचक शब्द और उस धर्मको जाननेबाटा ज्ञान ये तीनों ही नयके भेद हैं। इन नयाँ सम्बन्धी चर्चा दे० नय / I / ४) । पं. ध. / पू. /५०५ द्रव्यनयो भावनयः स्यादिति भेदाद्विधा च सोऽपि यथा । = द्रव्यनय और भावनयके भेदसे नय दो प्रकारका है। (इन सम्बन्धी लक्षण दे० नय / I / ४) । ३० नम // (वस्तुके एक-एक धर्मको आश्रय करके नयके संख्यात असंख्यात व अनन्त भेद हैं ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय I नय सामान्य ४ नयोंके भेद प्रभेदोंका चार्ट:चार्टनं.१:- नय चार्टनं.२: नय आगमनय अध्यात्मनय (दे.चार्टनं. नय उपनय विनय/४) व्यवहार निश्चय द्रव्या - (द.नय///t) - शास्त्रीय .. आगम सदन असन्दूत उपधरित - नय:/) (दे.चार्टन.) द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक असद्भुत अध्यात्म आगम दे.नया द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक अनादिनित्यशुद्ध अशुद्धसदभूत असंभूत सादिनित्यउपचरित अनुपचरित उपचरित अनुपचारित स्वभाव नित्य-4 स्वभाव अनित्य कलापिनिरपेक्ष (स्वभाव अनित्य कपिादिसापेक्ष । स्वताव अनिला (देन/ N/A) नय अनिय अनिय शब्दनय (दे नय/४/४) अशुद्धसममिरूढ़एवंभूत - द्रव्ये द्रव्यारोपण द्रव्य गुणारोपणद्रव्ये पर्यायारोपण गुणे द्रव्यारोपणपर्याय द्रव्यारोपण- विजाति-- गुणे पर्यायारोपण स्वजाति-1 गुणगुणारोपण पर्याय गुणारोपा+उभय पर्याय पर्यायारोपण जुसूत्र - अपर व्यवहार म -pola अपर/संग्रह पर1संग्रह - कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध उत्पादव्यय गौणसत्ता ग्राहक शुद्ध भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध कपिाधि सापेक्ष अशुद्ध उत्पाव्यय सापेक्ष सत्ताग्राहक अशुद्ध भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध अन्वय सापेक्ष स्वद्रव्यादि चतुष्टय ग्राहक परद्रव्यादि चतुष्टय ग्राहक परमभाव ग्राहक R7 PEFFEE (दे नय/II/2) सकल्प मात्र नएकंगमो भूत भावी वर्तमान द्रव्य पर्याय द्रव्य पर्याय शुद्ध अशुद्ध अर्थपर्याय व्यंजनपर्याय अर्थव्यंजन पर्याय शुद्धद्रव्य-अर्थपर्याय अशुद्ध द्रव्य अर्धपर्यायशुद्धद्रव्यव्यजनपर्याय अशुद्ध द्रव्यव्यंजनपर्याय ५. द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक तथा निश्चय व्यवहार ही मूल भेद हैं घ. १/१,१,१/गा.५/१२ तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवायरणी । दव्वडियो य पज्जयणयो य सेसा वियप्पा सि । तीर्थंकरोके वचनोंके सामान्य प्रस्तारका मूल व्याख्यान करनेवाला द्रव्याथिक नय है, और उन्हीं वचनोंके विशेष प्रस्तारका मूल व्याख्याता पर्यायार्थिक नय है। शेष सभी नय इन दोनों नयों के विकल्प अर्थाद भेद हैं । (श्लो.वा/४/१/३३/श्लो,६१२/२२३), (ह.पु./५८/४०)। ध./१,६,१/३/१० दुविहो णिद्द सो दव्व ठ्ठिय पज्जववट्ठिय णयावलंबणेण । तिविहो णिसो किग्ण होज । ण तइजस्स णयस्स अभावा। दो प्रकारका निर्देश है; क्योंकि वह द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करनेवाला है। प्रश्न-तीन प्रकारका निर्देश क्यों नहीं होता है ! उत्तर-नहीं; क्योंकि तीसरे प्रकारका कोई नय ही नहीं है। ६. गुणार्थिक नयका निर्देश क्यों नहीं रा.वा/५/३८/३/५०१/४ यदि गुणोऽपि विद्यते, ननु चोक्तम् तद्विषयस्तृतीयो मूलनय प्राप्नोतीति; नैष दोषः, द्रव्यस्य द्वावात्मानौ सामान्य विशेषश्चेति । तत्र सामान्यमुत्सर्गोऽन्वय' गुण इत्यनर्थान्तरम् । विशेषो भेद, पर्याय इति पर्यायशब्द । तत्र सामान्यविषयो नयः द्रव्यार्थिक' । विशेषविषयः पर्यायार्थिक' । तदुभयं समुदितमयुतसिद्धरूपं द्रव्यमित्युच्यते, न तद्विषयस्तृतीयो नयो भवितुमर्हति, विकलादेशत्वान्नयानाम् । तत्समुदयोऽपि प्रमाणगोचर. सकलादेशत्वात्प्रमाणस्य। - प्रश्न-(द्रव्य व पर्यायसे अतिरिक्त) यदि गुण नामका पदार्थ विद्यमान है तो उसको विषय करनेवाली एक तीसरी (गुणाथिक नामकी ) मूलनय भी होनी चाहिए १ उत्तर- यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि द्रव्यके सामान्य और विशेष ये दो स्वरूप हैं। सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये एकार्थ शब्द हैं । विशेष, भेद और पर्याय ये पर्यायवाची ( एकार्थ ) शब्द हैं। सामान्यको विषय करनेवाला द्रव्याथिक नय है, और विशेषको विषय करनेवाला पर्यायाथिक । दोनोंसे समुदित अयुतसिद्धरूप द्रव्य है। अतः गुण जब द्रव्यका ही सामान्यरूप है तब उसके ग्रहणके लिए द्रव्यार्थिकसे पृथक गुणार्थिक नयकी कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि, नय विकलादेशी है और समुदायरूप द्रव्य सकलादेशी प्रमाणका विषय होता है। (श्लो,वा. ४/१/३३/श्लो.८/२२०); (प्र.सा/त,प्र/११४)। आ.प./५/गा,४ णिच्छयववहारणया मूलभेयाण ताण सव्वाणं । णिच्छयसाहणहेओ दव्वयपज्जत्थिया मुणह ।४। सर्व नयोके मूल निश्चय व व्यवहार ये दो नय हैं। द्रव्यार्थिक या पर्यायार्थिक ये दोनो निश्चयनयके साधन या हेतु हैं । (न.च.व./१८३)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय I नय सामान्य ध.५/१,६,१/३/११ तं पि कधं णव्वदे। संगहासंगह्वदिरित्ततविसयाणुवलं भादो । प्रश्न-यह कैसे जाना कि तीसरे प्रकारका कोई नय नहीं है ? उत्तर-क्योंकि संग्रह और असंग्रह अथवा सामान्य और विशेषको छोड़कर किसी अन्य नयका विषयभूत कोई पदार्थ नहीं पाया जाता। २. नय-प्रमाण सम्बन्ध प्रवृत्ति नहीं हो रही है, क्योंकि वे तीनों सम्पूर्ण देश व कालके अर्थोको विषय करनेको समर्थ नहीं है. ऐसा विशेषरूपसे निर्णीत हो चुका है। (और नयज्ञानकी प्रवृत्ति सम्पूर्ण देशकालवर्ती वस्तुका समीचीन ज्ञान होनेपर ही मानी गयी है-दे० नय/II/२)। उत्तर-आपकी बात युक्त है और वह हमें इष्ट है। प्रश्न-त्रिकालगोचर अशेष पदार्थोके अंशों में वृत्ति होनेके कारण केवलज्ञानको नयका मूल मान लें तो । उत्तर-यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि अपने विषयों की परोक्षरूपसे विकल्पना करते हुए ही नयकी प्रवृत्ति होती है, प्रत्यक्ष करते हुए नहीं। किन्तु केवलज्ञानका प्रतिभास तो स्पष्ट अर्थात् प्रत्यक्ष होता है। अतः परिशेष न्यायसे श्रुतज्ञानको मूल मानकर ही नयज्ञानोंकी प्रवृत्ति होना सिद्ध है। १. नय व प्रमाणमें कथंचित् अभेद ध.१/१,१,१/८०/६ कथं नयानां प्रामाण्यं । न प्रमाणकार्याणां नयानामुप चारत. प्रामाण्याविरोधात् । -प्रश्न-नयोंमे प्रमाणता कैसे सम्भव है। उत्तर-नहीं, क्योंकि नय प्रमाण के कार्य हैं (दे० नय/II/२), इसलिए उपचारसे नयों में प्रमाणताके मान लेनेमे कोई विरोध नहीं आता। स्या.म./२८/३०६/२१ मुख्यवृत्त्या च प्रमाणस्यैव प्रामाण्यम् । यच्च अत्र नयानां प्रमाणतुल्यकक्षतारख्यापनं तव तेषामनुयोगद्वारभूततया प्रज्ञापनाङ्गत्वज्ञापनार्थम् । -मुख्यतासे तो प्रमाणको ही प्रमाणता (सत्यपना है, परन्तु अनुयोगद्वारसे प्रज्ञापना तक पहुँचनेके लिए नयौंको प्रमाणके समान कहा गया है। ( अर्थात् सम्यग्ज्ञान की उत्पत्तिमें कारणभूत होनेसे नय भी उपचारसे प्रमाण है।) पं.ध./पू./६७६ ज्ञानविशेषो नय इति ज्ञानविशेष. प्रमाणमिति नियमात् । उभयोरन्तर्भेदो विषय विशेषान्न वस्तुतो। जिस प्रकार नय ज्ञानविशेष है उसी प्रकार प्रमाण भी ज्ञान विशेष है, अत' दोनोंमें वस्तुतः कोई भेद नहीं है। २. नय व प्रमाणमें कथचित् भेद ध,६/४,१,४५/१६३/४ प्रमाणमेव नयः इति केचिदाचक्षते, तन्न घटते; नयानामभावप्रसंगाव । अस्तु चेन्न नयाभावे एकान्तव्यवहारस्य दृश्यमानस्याभावप्रसङ्गात् । -प्रमाण ही नय है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । परन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा माननेपर नयोंके अभावका प्रसंग आता है। यदि कहा जाये कि नयों का अभाव हो जाने दो, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसे देखे जानेवाले ( जगत्प्रसिद्ध) एकान्त व्यवहारके (एक धर्म द्वारा वस्तुका निरूपण करनेरूप व्यवहारके) लोपका प्रसंग आता है। दे० सप्तभंगी/२ (स्यात्कारयुक्त प्रमाणवाक्य होता है और उससे रहित नय-वाक्य )। पं.ध./पू./१०७,६७४ ज्ञानविकल्पो नय इति तत्रेयं प्रक्रियापि संयोज्या। ज्ञानं ज्ञानं न नयो नयोऽपि न ज्ञान मिह विकल्पत्वात ५०७१ उभयोरन्तर्भे दो विषयविशेषान्न वस्तुतः १६७६।-ज्ञानके विकल्पको नय कहते है, इसलिए ज्ञान ज्ञान है और नय नय है। ज्ञान नय नहीं और नय शान नहीं। ( इन दोनोंमें विषयकी विशेषतासे ही भेद हैं, वस्तुतः नहीं)। ३. श्रुत प्रमाणमें ही नय होती है अन्य ज्ञानों में नहीं श्लो.वा.२/१/६/श्लो,२४-२७/३६६ मतेरवधितोवापि मनःपर्ययतोपि वा। ज्ञातस्यार्थस्य नांशोऽस्ति नयानां वर्तन ननु ।२४। निःशेषदेशकाला गोचरत्वविनिश्चयात् । तस्येति भाषितं कैश्चिद्य क्तमेव तथेष्टितम् ॥२५॥ त्रिकालगोचराशेषपदार्थाशेषु वृत्तित' । केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषां न युज्यते ।२६। परोक्षाकारतावृत्तेः स्पष्टत्वात् केवलस्य तु। श्रुतमूला नयाः सिद्धा वक्ष्यमाणा' प्रमाणवत ।२७) प्रश्न(नय I/१/१/४ में ऐसा कहा गया है कि प्रमाणसे जान ली गयी वस्तुके अंशोंमें नय ज्ञान प्रवर्तता है ) किन्तु मति, अवधि व मनःपर्यय इन तीन ज्ञानोंसे जान लिये गये अर्थ के अंशोमें तो नयोंकी ४. प्रमाण व नयमें कथंचित् प्रधान व अप्रधानपना स सि.//६/२०१६ अभ्यहितत्वात्प्रमाणस्य पूर्वनिपातः । ... कुतोऽभ्यहितत्वम् । नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वाद। -सूत्रमें 'प्रमाण' शब्द पूज्य होनेके कारण पहले रखा गया है। नय प्ररूपणाका योनिभूत होनेके कारण प्रमाण श्रेष्ठ है । (रा.वा/१/६/१/३३/४) न.च./श्रुत/३२ न ह्येवं, व्यवहारस्य पूज्यतरत्वान्निश्चयस्य तु पूज्यतमस्वात् । ननु प्रमाणलक्षणो योऽसौ व्यवहारः स व्यवहारनिश्चयमनुभयं च गृहन्नप्यधिकविषयत्वात्कथं न पूज्यतमो। नैवं नयपक्षातीतमान कर्तुमशक्यत्वात् । तद्यथा। निश्चयं गृह्णन्नपि अन्ययोगव्यवच्छेदनं न करोतीत्यन्ययोगव्यवच्छेदाभावे व्यवहारलक्षणभाव क्रिया निरोद्धुमशक्त' । अत एव ज्ञानचैतन्ये स्थापयितुमशक्य एवात्मानमिति । - व्यवहारनय पूज्यतर है और निश्चयनय पूज्यतम है। (दोनों नयोंकी अपेक्षा प्रमाण पूज्य नहीं है ) । प्रश्न-प्रमाण ज्ञान व्यवहारको, निश्चयको, उभयको तथा अनुभयको विषय करनेके कारण अधिक विषय वाला है। फिर भी उसको पूज्यतम क्यों नहीं कहते । उत्तर-नहीं, क्योंकि इसके द्वारा आत्माको नयपक्षसे अतीत नहीं किया जा सकता वह ऐसे कि-निश्चयको ग्रहण करते हुए भी वह अन्यके मतका निषेध नहीं करता है, और अन्यमत निराकरण न करनेपर वह व्यवहारलक्षण भाव व क्रियाको रोकने में असमर्थ होता है, इसीलिए यह आत्माको चैतन्यमें स्थापित करनेके लिए असमर्थ रहता है। ५. प्रमाणका विषय सामान्य विशेष दोनों हैप. मु./४/१,२ सामान्य विशेषात्मा तदर्थो विषयः ।१। अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्पूर्वोत्तराकारापरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च ।। = सामान्य विशेषस्वरूप अर्थात द्रव्य और पर्यायस्वरूप पदार्थ प्रमाणका विषय है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ में अनुवृत्तप्रत्यय ( सामान्य ) और व्यावृत्तप्रत्यय (विशेष ) होते है। तथा पूर्व आकारका त्याग, उत्तर आकारकी प्राप्ति और स्वरूपकी स्थितिरूप परिणामोंसे अर्थक्रिया होती है। ६. प्रमाण अनेकान्तग्राही है और नय एकान्तग्राही स्व, स्तो./१०३ अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः। अनेकान्तः प्रमाणान्त तदेकान्तोऽपितान्नयात ॥१८-आपके मतमें अनेकान्त भी प्रमाण और नय साधनोंको लिये हुए अनेकान्त स्वरूप है। प्रमाणकी दृष्टिसे अनेकान्त रूप सिद्ध होता है और विवक्षित नयकी अपेक्षासे एकान्तरूप सिद्ध होता है। रा. वा./१६/७/३४/२८ सम्यगेकान्तो नय इत्युच्यते । सभ्यगनेकान्तः प्रमाणम् । नयार्पणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रवणत्वात, प्रमाणापणादनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वात्। - सम्यगेकान्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५१७ I नय सामान्य उनका प्रकर्ष से अर्थात् संशय आदि दोषो से रहित होकर निरूपण करनेवाला नय है । ( क. पा. १/१३-१४/ १७४/२१०/३)। पं.ध./पू./६६६ अयमर्थोऽथ विकल्पो ज्ञान किल लक्षणं स्वतस्तस्य । एकविकल्पो नयस्यादुभयविकल्प प्रमाणमिति बोध.६६६। तत्रोक्तं लक्षण मिह सर्वस्वग्राहकं प्रमाणमिति । विषयो वस्तुसमस्त निरंशदेशादिभूरुदाहरणम् १६७६। =ज्ञान अर्थाकार होता है। वही प्रमाण है। उसमें केवल सामान्यात्मक या केवल विशेषात्मक विकल्प नय कहलाता है और उभय विकल्पात्मक प्रमाण है ।६६६। वस्तुका सर्वस्व ग्रहण करना प्रमाणका लक्षण है। समस्त वस्तु उसका विषय है और निरंशदेश आदि 'भू' उसके उदाहरण है ।६७६। नय कहलाता है और सम्यगनेकान्त प्रमाण। नय विवक्षा वस्तुके एक धर्मका निश्चय करानेवाली होनेसे एकान्त है और प्रमाण विवक्षा वस्तुके अनेक धर्मों की निश्चय स्वरूप होनेके कारण अनेकान्त है। (न. दी./३/२/१२६/१)। ( स. भ. त./७४/४ ) (पं.घ./उ./३३४) । ध.१/४,१.४५/१६३/५ किं च न प्रमाण नय' तस्यानेकान्तविषयत्वाद । न नयः प्रमाणम, तस्यैकान्तविषयत्वात् । न च ज्ञानमेकान्तविषयमस्ति, एकान्तस्य नीरूपत्वतोऽवस्तुनः कर्मरूपत्वाभावात् । न चानेकान्तविषयो नयोऽस्ति, अवस्तुनि वस्त्वर्पणाभावात् । -प्रमाण नय नहीं हो सकता, क्योंकि उसका विषय अनेक धर्मात्मक वस्तु है। न नय प्रमाण हो सकता है, क्योंकि. उसका एकान्त विषय है। और ज्ञान एकान्तको विषय करनेवाला है नहीं, क्योंकि, एकान्त नीरूप होनेसे अवस्तुस्वरूप है, अतः वह कर्म { ज्ञानका विषय ) नहीं हो । सकता। तथा नय अनेकान्तको विषय करनेवाला नहीं है, क्योंकि, अवस्तुमें वस्तुका आरोप नहीं हो सकता। प्र. सा /त.प्र./परि०का अन्त-प्रत्येकमनन्तधर्मव्यापकानन्तनय निरूप्य माणं ...अनन्तधर्माणां परस्परमतद्भावमात्रेणाशक्य विवेचनत्वादमेचकस्वभावैकधर्मव्यापकैकमित्वाद्यथोदितकान्तात्मात्मद्रव्यम् । युगपदनन्तधर्मव्यापकानन्तनयव्याख्याप्येकश्रुतज्ञानलक्षणप्रमाणेन निरूप्यमाणं तु . अनन्तधर्माणां वस्तुत्वेनाशक्य विवेचनत्वान्मेचकस्वभावानन्तधर्मव्याप्येकधर्मित्वात् यथोदितानेकान्तात्मात्मद्रव्यं । ० एक एक धर्म में एक एक नय, इस प्रकार अनन्त धर्मों में व्यापक अनन्त नयोंसे निरूपण किया जाय तो, अनन्तधौंको परस्पर अतद्भावमात्रसे पृथक करनेमें अशक्य होनेसे, आत्मद्रव्य अमेचकस्वभाववाला, एकधर्ममें व्याप्त होनेवाला, एक धर्मो होनेसे यथोक्त एकान्तात्मक है। परन्तु युगपत अनन्त धर्मों में व्यापक ऐसे अनन्त नयों में व्याप्त होनेवाला एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाणसे निरूपण किया जाय तो, अनन्तधर्मोको वस्तुरूपसे पृथक् करना अशक्य होनेसे आरमद्रव्य मेचकस्वभाववाला, अनन्त धमों में व्याप्त होनेवाला, एक धर्मी होनेसे यथोक्त अनेकान्तात्मक है। ७. प्रमाण सकलादेशी है और नय विकलादेशी स. सि./१/६/२०/८ में उद्धृत-सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति । =सकलादेश प्रमाणका विषय है और विकलादेश नयका विषय है । (रा.वा./१/६/३/३३/8). (पं.का./ता.वृ./१४/३२/१९) (और भी दे. सप्तभंगी/२) (विशेष दे० सकलादेश व विकलादेश )। ९. प्रमाण सब धर्मोको युगपत् ग्रहण करता है तथा नय क्रमसे एक एकको घ.६/४,१,४५/१६३ किं च, न प्रमाणेन विधिमात्रमेव परिच्छिद्यते, परव्यावृत्तिमनादधानस्य तस्य प्रवृत्ते साङ्कर्यप्रसङ्गादप्रतिपत्तिसमानताप्रसङ्गो वा । न प्रतिषेधमात्रम, विधिमपरिछिदानस्य इदमस्माद् व्यावृत्तमिति गृहीतुमशक्यत्वात् । न च विधिप्रतिषेधौ मिथो भिन्नौ प्रतिभासेते, उभयदोषानुषङ्गात् । ततो विधिप्रतिषेधात्मक वस्तु प्रमाणसमधिगम्यमिति नास्त्येकान्तविषय विज्ञानम् ।। • प्रमाणपरिगृहीतवस्तुनि यो व्यवहार एकान्तरूप' नयनिबन्धनः । ततः सकलो व्यवहारो नयाधीन' -प्रमाण केवल विधि या केवल प्रतिषेधको नहीं जानता; क्योंकि, दूसरे पदार्थोकी व्यावृत्ति किये विना ज्ञानमें संकरताका या अज्ञानरूपताका प्रसंग आता है, और विधिको जाने बिना 'यह इससे भिन्न है' ऐसा ग्रहण करना अशक्य है। प्रमाणमें विधि व प्रतिषेध दोनों भिन्न-भिन्न भी भासित नहीं होते है, क्योंकि ऐसा होनेपर पूर्वोक्त दोनों दोषों का प्रसंग आता है। इस कारण विधि प्रतिषेधरूप वस्तु प्रमाणका विषय है। अतएव ज्ञान एकान्त (एक धर्म) को विषय करनेवाला नहीं है । -प्रमाणसे गृहीत वस्तुमें जो एकान्त रूप व्यवहार होता है वह नय निमित्तक है । ( नय/V/E/४ ) (पं.ध./पू./६६५)। न.च. वृ./७१ इत्थित्ताइसहावा सवा सम्भाविणो ससब्भावा। उहयं जुगवपमाणं गहइ णो गउणमुक्खभावेण १७१। -अस्तित्वादि जितने भी वस्तुके निज स्वभाव हैं, उन सबको अथवा विरोधी धर्मोको युगपत् ग्रहण करनेवाला प्रमाण है, और उन्हे गौण मुख्य भावसे ग्रहण करनेवाला नय है। न्या. दी./२/8 ८६/१२/१ अनियतानेकधर्मवद्वस्तुविषयत्वात्प्रमाणस्य, नियतकधर्मवद्वस्तुविषयत्वाच्च नयस्य। - अनियत अनेक धर्म विशिष्ट वस्तुको विषय करनेवाला प्रमाण है और नियत एक धर्म विशिष्ट वस्तुको विषय करनेवाला नय है। (पं.ध./पू./६८०)। (और भी दे०-अनेकान्त/३/१)। १०. प्रमाण स्यात्पद युक्त होनेसे सर्व नयारमक होता है स्व, स्तो./६५ नयास्तव स्यात्पदलान्छना इमे, रसोपविद्धा इव लोह शतवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्या. प्रणता हितेषिणः। -जिस प्रकार रसोंके संयोगसे लोहा अभीष्ट फलका देनेवाला बन जाता है, इसी तरह नयों में 'स्यात' शब्द लगानेसे भगवान्के द्वारा प्रतिपादित नय इष्ट फलको देते हैं। (स्या. म./२८/३२१/३ पर उदधृत)। रा.पा./१/७/५/३०/१५ तदुभयसंग्रहः प्रमाणम्। -द्रव्यार्थिक व पर्याया र्थिक दोनों नयों का संग्रह प्रमाण है। (प.सं./पू./६६५) । स्या. म./२८/३२१/१ प्रमाणं तु सम्यगर्थ निर्णयलक्षणं सर्वनयात्मकम् । स्याच्छब्दलाञ्छितानी नयानामेव प्रमाणव्यपदेशभाक्त्वात् । तथा 6.प्रमाण सकल वस्तुग्राहक है और नय तदंशग्राहक न. च. वृ./२४७ इदि तं पमाणविसयं सत्तारूवं खुजं हवे दव्वं । णयविसयं तस्संसं सियभणितं तपि पुन्वुत्तं ।२४७) - केवल सत्तारूप द्रव्य अर्थात सम्पूर्ण धौंकी निर्विकल्प अखण्ड सत्ता प्रमाणका विषय है और जो उसके अंश अर्थात अनेकों धर्म कहे गये हैं वे नयके विषय हैं । ( विशेष दे./नय/I/१/१/३)। आ. /सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणं । सकल वस्तु अर्थात् अखण्ड वस्तु ग्राहक प्रमाण है। ध.१/४,१,४५/१६६/१ प्रकर्षण मानं प्रमाणम् , सकलादेशीत्यर्थः । तेन प्रकाशिताना प्रमाणपरिगृहीतानामित्यर्थः । तेषामर्थानामस्तित्वनास्तित्व-नित्यवानित्यत्वाद्यननन्तात्मकानां जीवादीनां ये विशेषाः पर्यायाः तेषां प्रकर्षेण रूपकः प्ररूपकः निरुद्धदोषानुषङ्गद्वारेणेत्यर्थः । -प्रकर्षसे अर्थात संशयादिसे रहित वस्तुका ज्ञान प्रमाण है। अभिप्राय यह है कि जो समस्त धौंको विषय करनेवाला हो वह प्रमाण है, उससे प्रकाशित उन अस्तित्वादि व नित्यत्व अनित्यत्वादि अनन्त धर्मात्मक जीवादिक पदार्थों के जो विशेष अर्थात पर्यायें हैं. जैनेन्द्र सिमान्तकोश Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५१८ I नय सामान्य सर्व शक्तिमय एक ज्ञानमात्र अनुभव करता है। ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है, इसमे कोई विरोध नहीं है। (विशेष दे० अनेकान्त/५), (पं. ध./पू /५१० )। ३. नय केवल ज्ञेय है पर उपादेय नहीं स.सा./मू./१४३ दोण्हविणयाण भणियं जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धा। ण दु णयपक्वं गिण्हदि किंचिवि णयपक्वपरिहीणो। -नयपक्षसे रहित जीव समयसे प्रतिबद्ध होता हुआ, दोनों ही नयों के कथनको मात्र जानता ही है, किन्तु नयपक्षको किंचितमात्र भी ग्रहण नहीं करता। च श्रीविमलनाथस्तवे श्रीसमन्तभद्र' । सम्यक प्रकारसे अर्थ के निर्णय करने को प्रमाण कहते हैं। प्रमाण सर्वनय रूप होता है। क्यों कि नयवाक्योंमे 'स्यात्' शब्द लगाकर बोलनेको प्रमाण कहते हैं। श्रीसमन्त स्वामीने भी यही बात स्वयभू स्तोत्रमें विमलनाथ स्वामीकी स्तुति करते हुए कही है। (दे० ऊपर प्रमाण नं.१)। ११. प्रमाण व नयके उदाहरण पं.घ./पू./७४७-७६७ तत्त्वमनिर्वचनीयं शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतम् । गुणपर्ययवद्रव्यं पर्यायाथिकनयस्य पक्षोऽयम् ।७४७। यदिदमनिर्वचनीयं गुणपर्ययवत्तदेव नास्त्यन्यत् । गुणपर्ययवद्यदिदं तदेव तत्त्व तथा प्रमाणमिति ७४८१ == 'तत्त्व अनिर्वचनीय है' यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नयका पक्ष है और 'द्रव्य गुण पर्यायवान है' यह पर्यायार्थिक नयका पक्ष है 1७४७१ जो यह अनिर्वचनीय है वही गुणपर्यायवान है, कोई अन्य नहीं, और जो यह गुणपर्यायवान है वही तत्त्व है, ऐसा प्रमाणका पक्ष है 1७४८॥ १२. नयके एकान्तग्राही होने में शका घ.६/४,१,४७/२३६/५ एयंतो अवस्थू कधं ववहारकारणं । एयतो अबस्थूण संवबहारकारणं किंतु तक्कारणमणेयंतो पमाणविस ईकओ, वत्थत्तादो। कधं पुण णओ सव्वसंववहाराणं कारणमिदि । वुच्चदे--को एवं भणदि णओ सयसंववहाराणं कारण मिदि । पमाणं पमाणविसईकयट्ठा च सयलसंववहाराणकारण । किंतु सब्बो संववहारो पमाणणिअंधणो णयसरूवो त्ति परूवेमो, सव्यसंक्वहारेसु गुण-पहाणभाषोवलंभादो। प्रश्न-जब कि एकान्त अवस्तुस्वरूप है, तब वह व्यवहारका कारण कैसे हो सकता है। उत्तर--अवस्तुस्वरूप एकान्त संव्यवहारका कारण नहीं है, किन्तु उसका कारण प्रमाणसे विषय किया गया अनेकान्त है, क्योंकि वह वस्तुस्वरूप है। प्रश्नयदि ऐसा है तो फिर सब संव्यवहारोका कारण नय कसे हो सकता है। उत्तर-इसका उत्तर कहते हैं-कौन ऐसा कहता है कि नय सब संव्यवहारोका कारण है, या प्रमाण तथा प्रमाणसे विषय किये गये पदार्थ भी समस्त संव्यवहारोके कारण है। किन्तु प्रमाणनिमित्तक सब संव्यबहार नय स्वरूप है, ऐसा हम कहते है, क्योंकि सब संव्यवहारोमें गौणता प्रधानता पायी जाती है। विशेष-दे० नय/II/२ ४. नय पक्षको हेय कहनेका कारण व प्रयोजन स. सा./आ./१४४/क. १३-६५ आक्रामन्न विकल्पभावमचलं पक्षनयानां विना, सारो य' समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमान स्वयम् । विज्ञानै करसः स एष भगवान्पुण्यः पुराण' पुमान, ज्ञानं दर्शनमप्ययं किम. थवा यत्किचन कोऽप्ययम् 1३) दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यनिजौघाच्च्युतो, दूरादेव विवके निम्नगमनानीतो निजौघं बलात् । विज्ञान करसस्तदेकरसिनामात्मानमात्मा हरन्, आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्यय तोयवत् ।१४। विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलम् । न जातु कतृ मत्व सविकल्पस्य नश्यति ।६।। -नयों के पक्षोंसे रहित अचल निर्विकल्प भाव को प्राप्त होता हुआ, जो समयका सार प्रकाशित करता है, वह यह समयसार, जो कि आत्मलीन पुरुषो के द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है, वह विज्ञान ही जिसका एक रस है ऐसा भगवान है, पवित्र पुराण पुरुष है । उसे चाहे ज्ञान कहो या दर्शन बह तो ग्रही ( प्रत्यक्ष ) ही है, अधिक क्या कहे ' जो कुछ है, सो यह एक ही है।३। जैसे पानी अपने समूहसे च्युत होता हुआ दूर गहन वनमें बह रहा हो, उसे दूरसे ही ढालवाले मार्ग के द्वारा अपने समूहकी ओर बल पूर्वक मोड दिया जाये, तो फिर वह पानी, पानीको पानेके लिए समूहकी ओर खेचता हुआ प्रवाह-रूप होकर अपने समूह मे आ मिलता है। इसी प्रकार यह आत्मा अपने विज्ञानघनस्वभावसे च्युत होकर प्रचुर विकल्पजालों के गहन वनमें दूर परिभ्रमण कर रहा था। उसे दूर से ही विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा अपने विज्ञानघनस्वभावकी ओर बलपूर्वक मोड दिया गया। इसलिए केवल विज्ञानघनके ही रसिक पुरुषो को जो एक विज्ञान रसवाला ही अनुभवमें आता है ऐसा वह आत्मा, आत्माको आत्मामें खींचता हुआ, सदा विज्ञानघनस्वभावमे आ मिलता है।६४। ( स. सा./आ/१४४)। विकल्प करनेवाला ही केवल कर्ता है, और विकल्प ही केवल कर्म हैं, जो जीव विकल्प सहित है, उसका कर्ताकर्मपना कभी नष्ट नहीं होता ।६५॥ नि. सा/ता. वृ./४८/क.७२ शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्याशि प्रत्यहं, शुद्ध कारण कार्यतत्वयुगलं सम्यग्दृशि प्रत्यहं । इत्थं यः परमागमार्थमतुलं जानाति सदृक् स्वयं, सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम् ॥७२।-शुद्ध अशुद्धकी जो विकल्पना वह मिथ्यादृष्टि को सदैव होती है। सम्यग्दृष्टिको तो सदा कारणतत्त्व और कार्यतत्त्व दोनों शुद्ध है। इस प्रकार परमागमके अतुल अर्थको, सारासारके विचारवाली सुन्दर बुद्धि द्वारा, जो सम्यग्दृष्टि स्वयं जानता है, उसे हम वन्दन करते है। स. सा./ता. वृ./१४४/२०२/१३ समस्तमतिज्ञानविकल्परहितः सन् बद्धाबद्धादिनयपक्षपातरहित. समयसारमनुभवन्नेव निर्विकल्पसमाधिस्थैः पुरुषै दृश्यते ज्ञायते च यत आत्मा तत. कारणात नवरि केवलं सकलविमलकेवलदर्शनज्ञानरूपव्यपदेशसंज्ञा लभते। न च बद्धाबद्धादिव्यपदेशाविति । समस्त मतिज्ञानके विकल्पोसे रहित होकर वद्धाबद्ध आदि नयपक्षपातसे रहित समयसारका अनुभव करके ही, क्योंकि, ३. नयको कथंचित् हेयोपादेयता १. तत्व नय पक्षोंसे अतीत है स.सा./मू./१४२ कम्मं बद्धमबद्धे जीवे एव तु जाण णयपक्वं । पक्रवातिक्कतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो ।१४२ - जीवमे कर्म बद्ध है अथवा अबर है इस प्रकार तो नयपक्ष जानो, किन्तु जो पक्षातिकान्त कहलाता है वह समयसार है । (न.च./श्रुत/२६/१) । न.च./श्रुत/३२-प्रत्यक्षानुभूतिर्नयपक्षातीतः । = प्रत्यक्षानुभूति ही नय पक्षातीत है। २. नय पक्ष कथंचित् हेय है स, सा./आ /परि/क,२७० चित्रात्मशक्तिसमुदायमथोऽयमात्मा, सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणरवण्ड्यमानः । तस्मादरवण्डमनिराकृतरवण्डमेकमेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोस्मि ।२७०।-आत्मामे अनेक शक्तियाँ हैं, और एक-एक शक्तिका ग्राहक एक-एक नय है, 'इसलिए यदि नयोकी एकान्त दृष्टिसे देखा जाये तो आत्माका रखण्ड-खण्ड होकर उसका नाश हो जाये। ऐसा होनेसे स्याद्वादी, नयोंका विरोध दूर करके चैतन्यमात्र वस्तुको अनेकशक्तिसमूहरूप सामान्यविशेषरूप जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय पं. निर्विकल्प समाधिमे स्थित पुरुषों द्वारा आत्मा देखा जाता है, इस लिए वह केवलदर्शन ज्ञान संज्ञाको प्राप्त होता है, बद्ध या अचद्ध आदि व्यपदेशको प्राप्त नही होता । ( स. सा./ता. वृ/१३/३२/७ ) 1 ६. प. पू. ५०६ यदि पानपो नयो विकल्पोऽस्ति सोऽप्यपर मार्यः । नयतो ज्ञान गुण इति शुद्ध ज्ञेयं च किंतु तद्योगात् ५०६॥ अथवा ज्ञानके विकल्पका नाम नय है और वह विकल्प भी परमार्थभूत नहीं है, क्योंकि वह ज्ञानके विकल्परूप नय न तो शुद्ध ज्ञानगुण ही है और न शुद्ध ज्ञेय हो, परन्तु ज्ञेयके सम्बन्धसे होनेवाला ज्ञानका विकल्प मात्र है । स.सा.पं. जयचन्द / १२ / ६ का भाषार्थ-यदि सर्वथा नयाँका पक्षपात हुआ करे तो मिथ्यात्व ही है । ५१९ ५. परमार्थते निश्चय व व्यवहार दोनों ही का पक्ष विकल्परूप होनेस हेब है स. सा. बा. ९४२ यावी व कर्मेति यति स जीवेऽ बद्र कर्मेति एक पक्षमतिकामपि किमतिकामति । यस्तु tased' कर्मेति विकल्पयति सोऽपि जीवे बद्धं कर्मेत्येकं पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिक्रामति । यः पुनर्जीवे बद्धमबद्ध च कर्मेति विकल्पयति स तु तं द्वितयमपि पक्षमनतिक्रामन्न विकल्पमतिक्रामति । ततो य एवं समस्तनमतिक्रामति स एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति । य एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति स एव समयसारं विन्दति ॥८॥ = 'जीव में कर्म बन्धा है' जो ऐसा एक विकल्प करता है, वह यद्यपि 'जीव में कर्म नहीं बन्धा है' ऐसे एक पक्षको छोड देता है, परन्तु विकल्पको नही छोड़ता । जो 'जीवमे कर्म नहीं बन्धा है' ऐसा विकल्प करता है, वह पहले 'जीव में कर्म बन्धा है' इस पक्षको यद्यपि छोड देता है, परन्तु विकल्पको नहीं छोड़ता । जो 'जीनमें कर्म कचिदबा है और कचित् नहीं भी ब है ऐसा उभयरूप विकल्प करता है, वह तो दोनो ही पक्षोंको नहीं छोड़नेके कारण विकल्पको नहीं छोड़ता है । ( अर्थात् व्यवहार या निश्चय इन दोनोंमेसे किसी एक नयका अथवा उभय नयका विकल्प करनेवाला यद्यपि उस समय अन्य नयका पक्ष नहीं करता पर विकल्प तो करता ही है ), समस्त नयपक्षका छोड़नेवाला ही विकल्पोको छोड़ता है और वही समयसारका अनुभव करता है । घ. पू. ६४५-६४ मनु चै परसमय का स निश्चयायसम्ब स्यात् । अविशेषादपि स यथा व्यवहारनयावलम्बी य' । ६४५ | प्रश्नव्यवहार नयावलम्बी जैसे सामान्यरूपसे भी परसमय होता है, वैसे ही निश्चयनयावलम्बी परसमय कैसे हो सकता है । ६४५। उत्तर-( उपरोक्त प्रकार यहाँ भी दोनो नयोंको विकल्पात्मक कहकर समाधान किया है) । ६४६ - ६४८१ ) ६. प्रत्यक्षानुभूतिके समय निश्चयव्यवहारके विकल्प नहीं रहते न. च.वृ./२६६ तच्चाणेसणकाले समयं बज्झेहि जुत्तिमग्गेण । णो बाराहणसमये पश्चक्त्रो खण्ड ओ जम्हा रामान्वेषणकालमे ही युक्तिमार्ग से अर्थात् निश्चय व्यवहार नयों द्वारा आत्मा जाना जाता है, परन्तु आत्माकी आराधना समय ये विकल्प नहीं होते, खोंकि उस समय तो आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष ही है। न. च / श्रुत / ३२ एवमात्मा यावद्व्यवहार निश्चयाभ्यां तत्त्वानुभूतिः तारपरोक्षानुभूतिः। प्रत्यक्षानुभूतिः नयपक्षातीस आत्मा जबतक व्यवहार व निश्चयके द्वारा तत्त्वका अनुभव करता है तबतक उसे परोक्ष अनुभूति होती है, प्रत्यक्षानुभूति तो नय पक्ष अतीत है। I नय सामान्य स.सा / आ / १४३ तथा किल यः व्यवहारनिश्चयनयपक्षयों परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तीत्कदा स्वरूपमेव केवलं जानाति न तु चिन्मयसमयप्रतिबद्धता दारये स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वाद समस्तनय 1 परमात्कथंचनापि नयपक्ष परिगृह्णाति स खलु निखिल विकल्पेभ्य परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्रः समयसारः । =जो श्रुतज्ञानी, परका ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होनेसे, व्यवहार व निश्चय नयपक्षोके स्वरूपको केवल जानता ही है, परन्तु चिन्मय समय से प्रतिबद्धता के द्वारा अनुभव के समय स्वयं ही विज्ञानघन हुआ होनेसे, तथा समस्त नयपक्ष के ग्रहणसे दूर हुआ होनेसे किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करता, वह वास्तवमे समस्त विकल्पोसे पर परमात्मा, ज्ञानामा प्रज्योति आत्मख्यातिरूप अनुभृतिमात्र समयसार है। पु. सि. उ. / ८ व्यवहार निश्चयौ य प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थ' | प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्य' ।' जो जीव व्यवहार और निश्रचय नयके द्वारा वस्तुस्वरूपको यथार्थ रूप जानकर मध्यस्थ होता है अर्थात उभय नयके पक्षसे अतिक्रान्त होता है, वही शिष्य उपदेशके सकल फलको प्राप्त होता है । स.सा./ता.वृ / १४२ का अन्तिम वाक्य / १६६ / ११ समयाख्यानकाले या बुद्धिर्नामा वर्तते तत्त्वस्य सा स्वस्थस्य निवर्तते, हे पादेयतस्तु विनिश्चित्य नयायामुपादेयेऽवस्थान साधुसम्मतं । तय के स्वास्यानकाल मे जो बुद्धि निश्चय य हार इन दोनों रूप होती है, वही बुद्धि स्वमें स्थित उस पुरुषको नहीं रहती जिसने वास्तविक तत्त्वका बोध प्राप्त कर लिया होता है; क्योंकि दोनो नयों से हेय व उपादेय तत्त्वका निर्णय करके हेयको छोड उपादेयमे अवस्थान पाना ही साधुसम्मत है । ७. परन्तु तत्त्व निर्णवार्य नय कार्यकारी है स. सु.//६ प्रमाणनरक्षिनम -प्रमाण और नय पदार्थका ज्ञान होता है । ध. १/१,१.१/गा. १०/१६ प्रमाणनयनिक्षेपैर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते । युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ११० - जिस पदार्थ का प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके द्वारा नयोके द्वारा या निक्षेपोंके द्वारा सूक्ष्म दृष्टिसे विचार नही किया जाता है, वह पदार्थ कभी युक्त होते हुए भी अयुक्त और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्तकी तरह प्रतीत होता है | १० (प.२/१,२.१५/६१/१२६) (वि./१/२) ध.१/१.१.१/गा. (८-६६/११ गति पएहि विनं सुतं अत्यो का जिगर मदम्हि । तो णयवादे णिउणा मुणिणो सिद्धंतिया होंति । ६८| तुम्हा अहिंगय शुत्तेण अत्मसंपायहि अन्य गई निय यादहीना दुरहियम्मा ६६। जिनेन्द्र भगवान् के मतने नयवाद बिना सूत्र और अर्थ कुछ भी नहीं कहा गया है । इसलिए जो मुनि नयवादमें निपुण होते है वे सच्चे सिद्धान्तके ज्ञाता सम ने चाहिए। अत जिसने सूत्र अर्थात् परमागमको भले प्रकार जान लिया है, उसे ही अर्थ संपादनमे अर्थात् नय और प्रमाणके द्वारा पदार्थका परिज्ञान करनेमें, प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि पार्थीका परिज्ञान भी नमवादरूपी जंगलमै अन्तर्निहित है अतएव दुरधिगम्य है |६| क. पा. १/१३-१४/३१०६.८२/२११ स एष याधारम्योपलब्धिनिमियाभावनां श्रेयोऽपदेश | यह नय, पदार्थोंका जैसा स्वरूप है उस रूपसे उनके ग्रहण करनेमे निमित्त होनेसे मोक्षका कारण है । (ध. ६/४,१.४५/१६६ / ६) ध.१/१,१,१/- ३ // नयैर्विना लोकव्यवहारानुपपत्तेर्न या उच्यन्ते । =नयोके बिना लोक व्यवहार नही चल सकता है। इसलिए यहॉपर नयोंका वर्णन करते हैं । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५२० J नय सामान्य ४. शब्द, अर्थ व ज्ञाननय निर्देश क. पा १/१३-१४/६ १७४/२०६/७ प्रमाणादिव नयवाक्यावस्त्ववगममव- लोक्य प्रमाणनयैर्वस्त्वधिगमः इति प्रतिपादितत्वात्। -जिस प्रकार प्रमाणसे वस्तुका बोध होता है, उसी प्रकार नयसे भी वस्तुका बोध होता है, यह देखकर तत्त्वार्थ सूत्र में प्रमाण और नयोसे वस्तुका बोध होता है, इस प्रकार प्रतिपादन किया है। न.च.व./गा.नं. जम्हा णयेण ण विणा होइ णरस्स सियवायपडिबत्ती। तम्हा सो णायव्वो एयन्तं हतुकामेण 1१७५॥ माणस्स भावणाविय ण हु सो आराहओ हवे णियमा। जो ण विजाणइ वत्थं पमाणणयणिच्छयं किना ।१७णिक्खेव णयपमाणं णादणं भावयंति ते तच्चं । ते तस्थतच्चमग्गेलहंति लग्गा हु तत्थयं तच्चं ।२८। =क्यो कि नय ज्ञानके बिना स्याद्वादको प्रतिपत्ति नहीं होती, इसलिए एकान्त बुद्रिका विनाश करनेकी इच्छा रखनेवालोंको नय सिद्धान्त अवश्य जानना चाहिए ।१७५॥ जो प्रमाण व नय द्वारा निश्चय करके वस्तुको नहीं जानता, वह ध्यानकी भावनासे भी आराधक कदापि नहीं हो सकता ।१७। जो निक्षेप नय और प्रमाणको जानकर तत्त्वको भाते हैं, वे तथ्य तत्त्वमार्गमे तत्थतत्त्व अर्थात शुद्धात्मतत्त्वको प्राप्त करते है ।१८१॥ न, च /श्रुत /३६/१० परस्परविरुद्धधर्माणामेकवस्तुन्यविरोधसिद्धयर्थ नय । एक वस्तुके परस्पर विरोधी अनेक धर्मोंमे अविरोध सिद्ध करनेके लिए नय होता है। ८. सम्यक् नय ही कार्यकारी है, मिथ्या नहीं न. च./श्रुत /प.६३/११ दुर्नयैकान्तमारूढा भावा न स्वार्थिकाहिता'। स्वार्थिकास्तविपर्यस्ता निःकलङ्कास्तथा यतः ।१।-दुर्न यरूप एकान्तमें आरूढ भाव स्वार्थ क्रियाकारी नहीं है। उससे विपरीत अर्थात् सुनयके आश्रित निष्कलंक तथा शुद्धभाव ही कार्यकारी है। का.अ./मू /२६६ सयलववहारसिद्धि सुणयादो होदि। =सुनयसे ही समस्त संव्यवहारोंकी सिद्धि होती है। (विशेषके लिए दे० ध.६/४, १,४७/२३६/४)। १. शब्द अर्थ व ज्ञानरूप तीन प्रकारके पदार्थ हैं श्लो. वा./२/१/५/६८/२७८/३३ में उधृत समन्तभद्र स्वामीका वाक्य-बुद्धिशब्दार्थसंज्ञास्तास्तिस्रो बुद्धयादिवाचकाः । - जगतके व्यवहार में कोई भी पदार्थ बुद्धि ( ज्ञान ) शब्द और अर्थ इन तीन भागोमें विभक्त हो सकता है। रा. वा./४/१२/१५/२५६/२५ जीवार्थो जीवशब्दो जीवप्रत्ययः इत्येतस्त्रितयं लोके अविचारसिद्धम् । जीव नामक पदार्थ, 'जीव' यह शब्द और जीव विषयक ज्ञान ये तीन इस लोकमें अविचार सिद्ध हैं अर्थात इन्हें सिद्ध करनेके लिए कोई विचार विशेष करनेको आवश्यकता नहीं। (श्लो.वा.२/१/५/६८/२७८/१६) । पं.का./ता.वृ./३/६/२४ शब्दज्ञानार्थरूपेण त्रिधाभिधेयतां समयशब्दस्य...-शब्द, ज्ञान व अर्थ ऐसे तीन प्रकारसे भेदको प्राप्त समय अर्थात् आत्मा नामका अभिधेय या वाच्य है। ९. निरपेक्ष नय मी कथंचित् कार्यकारी है स.सि./२/३३/१४६/६ अथ तन्त्वादिषु पटादिकार्य शक्त्यपेक्षया अस्तीत्युच्यते। नयेष्वपि निरपेक्षेषु बद्धयभिधानरूपेषु कारणवशात्सम्यग्दर्शनहेतुत्व विपरिणतिसभावात् शक्त्यात्मनास्तित्वमिति साम्पमेवोपन्यासस्य । -(परस्पर सापेक्ष रहकर ही नयज्ञान सम्यक है, निरपेक्ष नहीं. जिस प्रकार परस्पर सापेक्ष रहकर ही तन्तु आदिक पटरूप कार्यका उत्पादन करते हैं। ऐसा दृष्टान्त दिया जानेपर शंकाकार कहता है।) प्रश्न -निरपेक्ष रहकर भी तन्तु आदिकमें तो शक्तिकी अपेक्षा पटादि कार्य विद्यमान है (पर निरपेक्ष नयमे ऐसा नहीं है; अतः दृष्टान्त विषम है)। उत्तर-यही बात ज्ञान व शब्दरूप नयोंके विषयमें भी जानना चाहिए। उनमें भी ऐसी शक्ति पायी जाती है, जिससे वे कारणवश सम्यग्दर्शनके हेतु रूपसे परिणमन करने में समर्थ हैं। इसलिए दृष्टान्तका दान्तिके साथ साम्य ही है। (रा.बा./१/३३/१२/६६/२६) २. शब्दादि नय निर्देश व लक्षण रा. वा./१/६/४/३३/११ अधिगमहेतुर्द्विविधः स्वाधिगमहेतुः पराधिगमहेतुश्च । स्वाधिगमहेतुञ्जनात्मक' प्रमाणनयविकल्पः, पराधिगमहेतुः धचनात्मक' ।-पदार्थोंका ग्रहण दो प्रकारसे होता है-स्वाधिगम द्वारा और पराधिगम द्वारा। तहाँ स्वाधिगम हेतुरूप प्रमाण व नय तो ज्ञानात्मक है और पराधिगम हेतुरूप बचनात्मक है। रा. वा./१/३३/८/६८/१० शपत्यर्थमायाति प्रत्यायतीति शब्दः ।। उच्चरित' शब्द' कृतसंगीतेः पुरुषस्य स्वाभिधेये प्रत्ययमादधाति इति शब्द इत्युच्यते । - जो पदार्थ को बुलाता है अर्थात् उसे कहता है या उसका निश्चय कराता है, उसे शब्दनय कहते हैं। जिस व्यक्तिने संकेत ग्रहण किया है उसे अर्थबोध करानेवाला शब्द होता है। (स्या. म./२८/३१३/२६ )। ध. १/१,१,१/०६/६ शब्दपृष्ठतोऽर्थग्रहणप्रवणः शब्द नयः । - शब्दको ग्रहण करनेके बाद अर्थ के ग्रहण करनेमें समर्थ शब्दनय है। ध.१/१,९,१/०६/१ तत्रार्थव्यवजन पर्याय विभिन्नलिङ्गसंख्याकालकारकपुरुषोपग्रहभेदैरभिन्नं वर्तमानमात्रं वस्त्वध्यवस्यन्तोऽर्थ नयाः, न शब्दभेदनार्थ भेद इत्यर्थः । व्यञ्जनभेदेन वस्तुभेदाध्यबसायिनो व्यञ्जननयाः । - अर्थपर्याय और व्यंजनपर्यायसे भेदरूप और लिंग, संख्या, काल, कारक और उपग्रहके भेदसे अभेदरूप केवल वर्तमान समयवर्ती वस्तुके निश्चय करनेवाले नयोंको अर्थनय कहते है, यहॉपर शब्दोंके भेदसे अर्थ में भेदकी विवक्षा नहीं होती। व्यंजनके भेदसे वस्तुमें भेदका निश्चय करनेवाले नयको व्यंजन नय कहते हैं। नोट-(शब्दनय सम्बन्धी विशेष-दे. नय /III/६-८)। क. प्रा. १/१३-१४/६१८४/२२२/३ वस्तुनः स्वरूप स्वधर्मभेदेन भिन्दानो अर्थ नयः, अभेदको वा । अभेदरूपेण सर्व वस्तु इयति एति गच्छति इत्यर्थ नयः । ..वाचकभेदेन भेदको व्यञ्जननयः । = वस्तुके स्वरूप में वस्तुगत धर्मोके भेदसे भेद करनेवाला अथवा अभेद रूपसे ( उस अनन्त धर्मात्मक ) वस्तुको ग्रहण करनेवाला अर्थनय है तथा वाचक शब्दके भेदसे भेद करनेवाला व्यंजननय है। १० नय पक्षको हेयोपादेयताका समन्वय पं.ध./पू./५०८ उन्मज्जति नयपक्षो भवति विकल्पो हि यदा। न विवक्षितो विकल्प स्वयं निमज्जति तदा हि नयपक्ष:। -- जिस समय विकल्प विवक्षित होता है, उस समय नयपक्ष उदयको प्राप्त होता है और जिस समय विकल्प विवक्षित नहीं होता उस समय वह (नय पक्ष ) स्वयं अस्तको प्राप्त हो जाता है। और भी दे. नय/I/३/६ प्रत्यक्षानुभूतिके समय नय विकल्प नहीं होते। न, च, वृ./२१४ अहवा सिधे सद्दे कीरइ जं किंपि अत्थववहरणं । सो खलु सद्दे विसओ देवो सददेण जह देवो ।२१४।- व्याकरण आदि द्वारा सिद्ध किये गये शब्दसे जो अर्थ का ग्रहण करता है सो शब्दनय है, जसे-'देव' शब्द कहनेपर देवका ग्रहण करना। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ३. वास्तवमै नय ज्ञानात्मक दी है, शब्दादिको नय कहना उपचार है । ध. ६/४,१,४५ / १६४/५ प्रमाणनयाभ्यामुत्पन्नवाक्येऽप्युपचारतः प्रमाणनयौ, ताभ्यामुत्पन्नमधी विधिप्रतिषेधात्मकास्तुविषयमा प्रमाणामथानापि कार्य कारणोपचारतः प्रमाणनया वित्यस्मिद् सूत्रे परिगृहीतो । = प्रमाण और नयसे उत्पन्न वाक्य भी उपचारसे प्रमाण और नय हैं, उन दोनों (ज्ञान व वाक्य) से उत्पन्न अभय बोध विधि प्रतिषेधात्मक वस्तुको विषय करनेके कारण प्रमाणताको धारण करते हुए भी कार्य में कारणका उपचार करनेसे नय है । ( पं. ध. / पू / ५१३ ) । का. अ /टी./२६५ ते त्रयो नयविशेषाः ज्ञातव्याः । ते के। स एव एको धर्मः नित्योऽनित्यो बा...इत्याद्येकस्वभाव' नय नयग्राह्यत्वात् इत्येकनय | ...तत्प्रतिपादकशब्दोऽपि नय. कथ्यते । ज्ञानस्य करणे कार्ये च शब्दे नयोपचारात इति द्वितीयो वाचकनय तं नित्याद्य क धर्मं जानाति तत् ज्ञानं तृतीयो नय । सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणम्. तदेकदेशग्राहको नय, इति वचनाद । -नयके तीन रूप हैं - अर्थ रूप, शब्दरूप और ज्ञानरूप । वस्तुका नित्य अनित्य आदि एकधर्म अर्थरूपनय है । उसका प्रतिपादक शब्द शब्दरूपनय है । यहाँ ज्ञानरूप कारण मे शब्दरूप कार्यका तथा ज्ञानरूप कार्य में शब्दरूप कारणका उपचार किया गया है। उसी नित्यादि धर्मको जानता होनेसे तीसरा वह ज्ञान भी ज्ञाननय है । क्योकि 'सकल वस्तु ग्राहक ज्ञान प्रमाण है और एकदेश ग्राहक ज्ञान नय है, ऐसा आगमका वचन है । ४. तीनों नयों में परस्पर सम्बन्ध श्लो. वा. /४/१/१३ / श्लो. ६६-६७/२८८ सर्वे शब्दनयास्तेन परार्थप्रतिपादने स्वार्थप्रकाशने मारिया स्थिता ॥१६॥ वैय मानयस्त्वंशाः कथ्यन्तेयं उपतिष्ठन्ते प्रधानगुणभावतः । श्रोताओंके प्रति वाच्य अर्थ का प्रतिपादन करनेपर तो सभी नय शब्दमय स्वरूप हैं, और स्वयं अर्थ का ज्ञान करनेपर सभी नय स्वार्थ प्रकाशी होनेसे ज्ञाननय हैं । ६६| 'नीयतेऽनेन इति नयः " ऐसी करण साधनरूप व्युत्पत्ति करनेपर सभी नय ज्ञाननय हो जाती है । और 'नीयते ये इति नमः' ऐसी कर्म साधनरूप व्युत्पति करने पर सभी नयं अर्थ नय हो जाते हैं, क्योंकि नयोके द्वारा अर्थ ही जाने जाते हैं। इस प्रकार प्रधान और गौणरूपसे ये नय तीन प्रकारसे व्यवस्थित होते हैं और भी वे न /111/१/४) नोट- अर्थनयों व शब्दनवने उतरोत्तर सूक्ष्मता (वेन / 111/ १/७) । ५. शब्दनयका विषय ध. ६/४१.४३/१०६/० पजबडिएस सत्यनिभावेण संकेत करणाणुवत्तीए वाचियवाचयभेदाभावादो । कधं सद्दणएसु तिसु वि सहा अपदस्थ गयभेयाणमपिदसदनि धणमेयानं तेसि तदविशेहादो पर्यायार्थिक नय क्योंकि क्षणी होता है इसलिए उसमें शब्द और अर्थ की विशेषतासे संकेत करना न बन सकन के कारण वाच्यवाचक भेदका अभाव है। (विशेष दे. नय / IV / ३ / ८ / ५ ) प्रश्न- तो फिर तीनो ही शब्दनयों में शब्दका व्यवहार कैसे होता है ? उत्तर - अर्थगत भेदको अप्रधानता और शब्द निमिसक भेदकी प्रधानता रखनेवाले उस नयो के शब्दव्यवहार में कोई विरोध नहीं है विशेष निलेप/३/६)। दे न / 111/१/१ (शन्दनयोमे दो अपेक्षासे शब्दों का प्रयोग ग्रहण किया जाता है-शब्दभेदसे अर्थ में भेद करनेकी अपेक्षा और अर्थ भेद होनेपर शब्दभेदको अपेक्षा इस प्रकार भेदरूप शब्द व्यवहारः 220 भा० २-६६ I नय सामान्य तथा दूसरा अनेक शब्दों का एक अर्थ और अनेक अर्थोंका वाचक एक शब्द इस प्रकार अभेदरूप शब्द व्यवहार ) । 1 ये नय / III / ६७ ( तो सदन केवल सिंगादि अपेक्षा भेद करता है पर समानलिंगी आदि एकार्थवाची शब्दों में अभेद करता है। समभिरूढनय समान लिंगादिवाले शब्दों में भी व्युत्पत्ति भेद करता है, परन्तु रूढि वश हर अवस्थामें पदार्थको एक ही नामसे पुकारकर अभेद करता है और एवंभूतनय क्रियापरिणतिके अनुसार अर्थ मेद स्वीकार करता हुआ उसके वाचक शब्द में भी सर्वथा भेद स्वीकार करता है । यहाँ तक कि पद समास या वर्णसमास तकको स्वीकार नहीं करता ) । 1 दे. आगम /४/४ ( यद्यपि यहाँ पदसमास आदिकी सम्भावना न होनेसे शब्द व वाक्योंका होना सम्भव नहीं, परन्तु क्रम पूर्वक उत्पन्न होनेमाले वर्गों व पदोंसे उत्पन्न ज्ञान क्योंकि अक्रमसे रहता है; इसलिए, तहाँ वाच्यवाचक सम्बन्ध भी बन जाता है ) । ५२१ ६. शब्दादि नयोंके उदाहरण घ. २/१.१,१११/२४/१० सपनाश्रय क्रोधकषाय इति भवति तस्य पृष्ठतोऽर्थप्रतिपत्तिप्रमाणत्वात अर्थ नयाश्रयणे क्रोधकपायीति स्याच्योऽर्थस्य भेदाभावाद शब्दनयका आश्रय करनेपर 'क्रोध । = - कषाय' इत्यादि प्रयोग बन जाते हैं, क्योंकि शब्दनय शब्दानुसार अर्थज्ञान करानेमें समर्थ है अर्थनयका आगम करनेपर को कषायो' इत्यादि प्रयोग होते हैं. क्योंकि इस नयकी दृष्टिमें शब्दसे अर्थका कोई भेद नहीं है। पं.ध.पू./१४ अथ यथा यथाऽयं धर्मं समक्षतोऽपेक्ष्य । उष्णोऽ निरिति नागानं वा नयोपचार स्वाद ।२१४१-जैसे अग्निके उष्णता धर्मरूप 'अर्थ' को देखकर 'अग्नि उष्ण है' इत्याकारक ज्ञान और उस ज्ञानका वाचक 'उष्णोऽग्निः' यह वचन दोनों ही उपचारसे नय कहलाते हैं। ७. द्रव्यमय व भावनय निर्देश पं.पू. /५०५ द्रव्यनयो भावनय स्यादिति मेशइडिया च सोऽपि यथा । पौद्गलिकः किल शब्दो द्रव्यं भावश्च चिदिति जीवगुणः |५०५ ॥ - द्रव्यनय और भावनयके भेदसे नय दो प्रकार है, जैसे कि निश्चयसे पौगलिक शब्द द्रव्यनय कहलाता है, तथा जीवका ज्ञान गुण भावनय कहलाता है । अर्थात् उपरोक्त तीन भेदों मेंसे शब्दनय तो द्रव्यनय है और ज्ञाननय भावनय है । ५. अन्य अनेकों नयोंका निर्देश १. मूत मावि आदि प्रज्ञापन नयका निर्देश स.सि./५/३६/३१२/१० अणोरप्येप्रदेशस्य पूर्वोत्तर भागापननयापेक्षयोपचारकल्पनया प्रदेशप्रचय उक्तः । स.सि./२/६/१६०/२ पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया योऽसौ योगप्रवृत्तिः कषायानुरञ्जिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते । स.सि./१०/६/पृष्ठ / पंक्ति भूतग्राहिनयापेक्षया जन्म प्रति पञ्चदशसु कर्मभूमिषु संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धि । ( ४७१ / १२) । प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धो भवति भूतप्रज्ञापनापेक्षा जन्मतोऽविशेषेणोत्सर्पिण्यवसर्पिण्योर्जात सिध्यति विशेषेणावसर्पिण्यां सुषमादुपमायां अन्त्यभागे संहरणत सर्वस्मिन्काले । (४७२/१)। पूर्व नयापेक्षा तु क्षेत्रसिद्धा द्विविधा जन्मत संहरणतश्च । ( ४७३ / ६) । = पूर्व और उत्तरभाव प्रज्ञापन नयकी अपेक्षासे उपचार कल्पना द्वारा एकप्रदेशी भी अणुको प्रदेश प्रचय ( बहु प्रदेशी ) कहा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५२२ क्योंकि जो योगभूतानियकी है। पूर्वभावज्ञापनकी अपेक्षा उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानोंमें भी शुक्लेश्याको ओदयिकी कहा है, प्रवृत्ति कषायके उदयसे अनुरंजित थी वही यह है अपेक्षा जन्मले १५ कर्मभूमियोंमें और संहरणको अपेक्षा सर्व मनुष्यक्षेत्र से सिद्धि होती है। वर्तमानग्राही नवकी अपेक्षा एक समयने सिद्ध होता है। भूत प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा जन्मसे सामान्यतः उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीने सिद्ध होता है, विशेषकी अपेक्षा मामा अन्तिम भागमें और संहरणकी अपेक्षा सब कालोंमें सिद्ध होता है । भूतपूर्व की अपेक्षासे क्षेत्रसिद्ध दो प्रकार है- जन्मसे व संहरथसे । ( रा.वा./ १० / १ ); (त.सा./८/४२) । रा.वा./१०/१/वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति (उपरोक्त नयोंका हो कुछ अन्य प्रकार निर्देश किया है वर्तमान विषय नम (२/६४६/३२) अतीतगोचरनय (५/६४६/३३); भूत विषय नय ( ५ / ६४७ / १ ) प्रत्युत्पन्न भावप्रज्ञापन नय (९४/६४८/२३).... क.पा.१/१२-१४/१२१७/२००/१ हृदपुब्बगईए आगमन सुवतीदो - जिसका आगमजनित संस्कार नष्ट हो गया है ऐसे जीव में भी भूतपूर्व प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा आगम संज्ञा मन जाती है। गोजी./५/१३३/१२१ अटुकलाये लेस्या उच्चदि सा पुल्वगदिणाया । -उपशान्त कषाय आदिक गुणस्थानोंमें पूर्वन्याय लेश्या कही गयी है। प्र.सं./टी./१४/४८/१० अन्तरात्मावस्थायां तु महिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घृतपटवत्। परमात्मस्वरूप तु शक्तिरूपेण भाविने गमनयेन व्यक्तिरूपेण च अन्तरात्माकी अवस्थामे अन्तरात्मा भूतपूर्व न्यायसे घृतके घटके समान और परमात्माका स्वरूप शक्तिरूपसे तथा भावनैगम नयकी अपेक्षा व्यक्तिरूपसे भी जानना चाहिए। । नोट- कालकी अपेक्षा करनेपर नय तीन प्रकारकी है- भूतग्राही, वर्तमानग्राही और भाभीकालग्राही उपरोक्त निर्देशों में इनका विभिन्न नामोंमें प्रयोग किया गया है । यथा - १. पूर्वभाव प्रज्ञापन नय, भूतग्राही नय, भूत प्रज्ञापन नय. भूतपूर्व नय, अतीतगोचर नय, भूतविषय नय, भूतपूर्व प्रज्ञापननय, भूतपूर्व न्याय आदि । २. उत्तर ज्ञापन, भाविने गमनाय २. प्रत्युत्पन्न या वर्तमानग्राहीनय वर्तमाननिय प्रापन भान प्रज्ञापन नय, इत्यादि । तहाँ ये तीनो का विषयक नवें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों में गर्भित हो जाती है-भूत व भावि नये तो द्रव्याधिनयमे तथा वर्तमाननय पर्यायार्थिक अथवा नगमादि सात नयोंमें गर्भित हो जाती है-भूत व भावी नयें तो नैगमादि तीन नयों में और वर्तमान नय ऋजुत्रादि चार नयों में अपना नेगमम इन दो में गति हो जाती है-भूत व भावि नये तो गमनयने और वर्तमानमय ऋजुत्र श्लोक बार्तिकमें कहा भी है = श्लो. बा.४/९/३३/३ अजुनयः शब्दभेदाश्च त्रय. प्रत्युत्पन्नविषयग्राहिणः । शेषा नया उभयभावविषया' । - ऋजुसूत्र नयको तथा तीन शब्दनयोंको प्रत्युत्पन्ननय कहते हैं। शेष दोन नयाँको प्रत्युत्पन्न भी कहते हैं और प्रज्ञापननय भी । - (भूत व भावि प्रज्ञापन नयें तो स्पष्ट ही भूत भावी नैगम नय हैं। वर्तमानादो प्रकार की है एक अर्ध निष्पन्न निष्पन्नका उपचार करनेवाली और दूसरी साक्षात् शुद्ध वर्तमानके एक समयमात्र को सबसे अंग कार करनेवाली वहाँ पहली तो वर्तमान नेगम नय है और दूसरी सूक्ष्म सूत्र विशेषके लिए देखो आगे न / III में नैगमादि नयोके लक्षण भेद व उदाहरण ) । २. अस्तित्वादि सप्तभंगी नयका निर्देश प्र.सा./त.प्र./परि० नय ०३-१ अस्तित्वनयेनायमवगुणकार्मुकान्तरालबर्तिसंहितावस्थलक्ष्योन्मुख विशिखवत् स्वद्रव्यक्षेत्र कालभावैरस्तिद || नास्तित्वनयेनानयोनानयोमयागुणकार्मुकान्तरासव सं हितावस्थालक्ष्योन्मुखप्रासनविशिख परद्रव्यक्षेत्र कालभायैर्नास्तिवत् ॥४॥ अस्तित्व नास्तित्वनयेन प्राक्तन विशिखवत् क्रमतः स्वपरइपरस्तिलमास्तित्वत् । अव सय्यन येनपातनविशिखवत् युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्र कालभावव्यम् । अस्तित्वावक्तव्यनयेन... प्राक्तन विशिखवत अस्तित्ववदवक्तव्यम् ॥७॥ नास्तिवावक्तव्यनयेन ... प्राक्तनविशिखवत् नास्तित्ववदवक्तव्यम् || स्वास्तिवान सम्यनयेन प्राक्तनवि अस्तित्वनास्तिस्ववदवक्तव्यम् ।। १. आत्मद्रव्य अस्तित्वनयसे स्वद्रव्यक्षेत्र काल बभावसे अस्तित्वाला है जैसे कि इसकी अपेक्षा लोहमयी, क्षेत्रकी उपेण पंचा और धनुष के मध्य में निहित कालको अपेक्षा सम्धान 1 में रहे हुए और भावकी अपेक्षा लक्ष्योन्मुख भागका अस्तित्व है। इ (पं. ध. / पू. / ७५६) २. आत्मद्रव्य नास्तित्वनय से परद्रव्य क्षेत्र काल व भावसे नास्तित्ववाला है। जैसे कि द्रव्यकी अपेक्षा अलोहमयी, क्षेत्रकी अपेक्षा प्रत्यंचा और धनुष के बीच में अनिहित, कालकी अपेक्षा सन्धान दशामें न रहे हुए और भावकी अपेक्षा अलक्ष्योन्मुख पहलेवाले बाणका नास्तित्व है, अर्थात् ऐसे किसी बाणका अस्तित्व नहीं १.प./१०/०५७) ३. आत्मद्रव्य अस्तिखनाविनयसे पूर्व के बाकी भाँति ही क्रमशः स्व व पर द्रव्य क्षेत्र काल भावसे अस्तित्व नास्तित्वाला है ।५१ ४. आत्मद्रव्य अवक्तव्य नयसे पूर्व के वाण की भाँति हो युगपत् स्वव पर द्रव्य क्षेत्र काल और भाव से अवक्तव्य है ॥ ६ ॥ ५. आत्म द्रव्य अस्तित्व अवक्तव्य नयसे पूर्व के वाणकी भाँति ( पहले अस्तित्व रूप और पीछे अवक्तव्य रूप देखनेपर) अस्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है ।७। ६. आत्मद्रव्य नास्तित्व अवक्तव्य नयसे पूर्व के बाणकी भाँति ही ( पहले नास्तित्वरूप और पीछे अवक्तव्यरूप देखनेपर) नास्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है |८| ७ आत्मद्रव्य अस्तित्व नास्तित्य अस्य नयसे पूर्वके नामकी भाँति ही (क्रमसे तथा युगपत् देखनेपर) अस्तित्व व नास्तित्ववाला अवक्तव्य है | | ( विशेष दे० सप्तभंगी) । I नय सामान्य *** जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश .. ३. नामादि निक्षेपरूप नयका निर्देश प्र. सा./त.प्र./परि/नय नं. १२-१५ नामनयेन तदात्मवत् शब्दब्रह्मामर्श |१२| स्थापनानयेन मूर्तित्व गलासम्म १३ व्य नयेन माणवकश्रेष्ठश्रमणपार्थिववदनागतातीतपर्यायोद्भासि । १४। भावनयेन पुरुषायितप्रवृत्तयोषिद्वत्तदात्व पर्यायोब्लासि । १५ = आत्मद्रव्य नाम नयसे, नामवाले ( किसी देवदत्त नामक व्यक्ति ) की भाँति शब्दको स्पर्श करनेवाला है; अर्थात पदार्थको शब्द द्वारा कहा जाता है | १२ | आस्थापनानय मूर्तिव्यकी भाँति सर्व प्रगत का अवलम्बन करनेवाला है, (अर्थात् आत्माकी मूर्ति या प्रतिमा काह पाषाण आदि में से बनायी जाती है) ।१३। आत्मद्रव्य द्रव्यनयसे बालक सेठकी भाँति और श्रमण राजाकी भाँति अनागत व अतीत पर्याय से प्रतिभासित होता है ( अर्थाद वर्तमान में भूस या भाषि पर्याया उपचार किया जा सकता है | १४ | आत्मद्रव्य भावनयसे पुरुषके समान प्रवर्तमान स्त्रीकी भाँति तत्कालको (वर्तमानकी) पर्याय रूपसे प्रकाशित होता है। १५२ विशेष दे० निक्षेप )। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ४. सामान्य विशेष आदि धर्मोरूप ४७ नयका निर्देश प्र. सा./त.प्र./ परि/नय नं० तत्तु द्रव्यनयेन पटमात्रवञ्चिन्मात्रम् | ११ पर्यायनयेन तन्तुमात्र दर्शनज्ञानादिमात्र २ विकल्पनयेन शिशुकुमारस्थविरे पुरुषवत्सविकम्प | १०|अविकम्पनयेने करुपमा |११| सामान्यनयेन हारसग्दामसुत्रापि ॥१६॥ विशेषनयेन तदेकमुक्ताफलवदव्यापि | १७ | नित्यनयेन नटवदवस्थायि | १८) अनित्यनयेन रामरावणमदनवस्थावि । १६। सर्वगतनयेन विस्फुरिताक्षचक्षु | २०| असर्व पतनयेन मीलितादात्मवति |२१| शुन्यनयेन शुन्यागारवत्केवलोद्भासि] [२२] अशून्यनयेन लोकाक्रान्तनमितासि ॥२३॥ ज्ञानानयेन महदिन्धनभारपरिणत धूमकेतुववेक | २४| ज्ञानयद्वैतनयेन परप्रतिभिम्भसंवृत्तदर्पनदने कम् | २५ नियतिनयेन नियमितोष्णय नहि नियत स्वभावभासि ॥२६॥ अनियतनयेन नित्यनियमितोपानीयवदनियतस्वभावभासि [२७] स्वभावनयेनानिशिततीक्ष्णकण्टकवत्संस्कारार्थस्यकारि |२८| स्वभावनयेनायस्कारनिविवरसस स्कारसार्थक्यकारि |२| कालनयेन निवाब दिवसानुसारिपच्यमानसहकारफलमसमयायत्तसिद्धिः दः |३०| अकालनयेन कृत्रिमोष्मपाच्यमान सहकार फलवत्समनानायत सिद्धि. ११ पुरुषाकारमयेन पुरुषकारोपधुकुटीक पुरुषकारवादी साध्यसिद्धिः ॥३२॥ देवमयेन पुरुषाकारवादिदतमधुकुक्कुटो गर्भ सम्प्रमाणिक्यदेवादिवदनसाध्यसिद्धिः |३३| ईश्वरनयेन धात्रीहटावलेह्य मानपान्थबालकवत्पारतन्त्र्यभोक्तृ |३४| अनीश्वरनयेन स्वच्छन्ददारित कुरङ्ग कण्ठीरववतन्त्र्यभोक्तृ । ३५। गुनियेनोपाध्याय विनीयमानकुमारकवद्गुणग्राहि । ३६ । अगुणिनयेनोपाध्याय विमीयमान कुमार काध्याय केवलमेन साक्षि |३७| तू नयेन जयागादिपरिनामवतु ॥ अ नयेन स्वकर्मप्रवृत ध्यक्षसमेन साक्षि | २१| भोषनयेन हिताहिताभोक्तृव्याधित दुखादिभक्त 1201 अभोक्तृनयेन हिताहितानोपाधिया ध्यक्षधन्वन्तरिचरवत् केवलमेव साक्षी [४१] क्रियानमेन स्थाभिन्नमूर्धजातदृष्टिलब्ध निधानान्धवदनुष्ठानप्राधान्यसाध्यसिद्धिः ॥४२॥ ज्ञाननयेन चकटीत चिन्तामणिगृहकाणचा विजयद्विवेकप्राधान्यसाध्यसिद्धिः |४३| व्यवहारनयेन बन्धकमोचकपरमाण्वन्तरसंयुज्यमानवियुज्यमानपरमाणुबन्धमोक्षयोतानुवति ॥४४॥ निश्चयनयेन केवलबध्यमानमुच्यमानमधीतिस्निग्ध गुण परिणतपरमाणुमोक्षमता ४५ अनुनयेन घटशराम विशिष्टमात्र वत्सोपाधिस्वभावम् ॥४६॥ शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरुपाधिस्वभावम् | ४७] = १. आत्मद्रव्य द्रव्यनयसे, पटमात्रकी भाँति चिन्मात्र है । २, पर्यायनयसे वह तन्तुमात्रकी भाँति दर्शनज्ञानादि मात्र है । ३. विकल्पमय से बालक कुमार और वृद्ध ऐसे एक पुरुषको भाँति सविकल्प है। ४. विकल्पनयले एकपुरुषमात्रकी भाँति अविकल्प है । ५. सामान्यनयसे हार माला कण्ठीके डोरेकी भाँति व्यापक है । ६. विशेष नयसे उसके एक मोतीकी भाँति, अव्यापक है । ७. नित्यनयसे, नटकी भाँति उपस्थायी है। अनित्यनयसे रामरावणकी भाँति अनवस्थायी है (पं. प./पू. ७००६) १. सर्वगतन से खुली हुई आँखी भांति सर्ववर्ती है। १०. अगलनय सेमिची हुई आँखकी भाँति आत्मवर्ती है । ११. शून्यनयसे शून्यपरकी भाँति एकाकी भासित होता है। १२. अशून्यनयसे लोगों से भरे हुए जहाजकी भाँति मिलित भासित होता है । १३. ज्ञानज्ञेय अद्वैतनयसे महान ईन्धनसमूहरूप परिणत अग्निकी भाँति एक है । १४. ज्ञानपरके प्रतिबिम्बोंसे संपृक्त दर्पणकी भाँति अनेक है । १५. आत्मद्रव्य नियतिनयसे नियतस्वभाव रूप भासित होता है, जिसकी उष्णता नियमित होती है ऐसी अग्निकी भाँति । ५२३ I नय सामान्य १६. अनियतनयसे अनियतस्वभावरूप भासित होता है, जिसकी उष्णता नियमित नहीं है ऐसे पानीकी भाँति १० स्वभावनय से संस्कारको निरर्थक करनेवाला है, जिसकी किसीसे नोक नहीं निकाली जाती, ऐसे पैने कॉटेकी भाँति । १८. अस्वभावनयसे सस्कारको सार्थक करनेवाला है, जिसकी बुहारके द्वारा नोक निकाली गयी है, ऐसे पैने बाणकी भाँति १६. कालनयसे जिसकी सिद्धि समयपर आधार रामती है ऐसा है. गर्मी के दिनोंके अनुसार पकनेवाले आम फलकी भाँति । २०. अकालनयसे जिसकी सिद्धि समयपर आधार नहीं रखती ऐसा है कृत्रिम गर्मी पकाये गये आयफलकी भाँति । २१. पुरुषाकारनयसे जिसकी सिद्धि यत्नसाध्य है ऐसा है, जिसे पुरुषाकारसे नौका वृक्ष प्राप्त होता है, ऐसे पुरुषाकारवादीकी भाँति । २२. देवनयसे जिसकी सिद्धि अयत्नसाध्य है ऐसा है, पुरुषाकारवादी द्वारा प्रदत नींबूके वृक्ष के भीतरसे जिसे माणिक प्राप्त हो जाता है, ऐसे देवबादकी भाँति २३ ईश्वरनय से परतंत्रता भोगनेवाला है, घायकी दुकान पर दूध पिलाये जानेवाले राहगीर २४. अनोश्वरमय से स्वतन्त्रता भोगनेवाला है, हिरनको स्वच्छन्दतापूर्वक फाडकर खा जानेवाले सिहकी भाँति । २५. आत्मद्रव्य गुणीनयसे गुणग्राही है, शिक्षकके द्वारा जिसे शिक्षा दी जाती है ऐसे कुमारकी भाँति । २६. अनुगीनयसे केवल साली ही है। २७ क नय से रंगरेजको भाँति रागादि परिणामका कर्ता है। २८ अकर्तृ नय से केवल साक्षी ही है. अपने कार्य में प्रवृत्त रंगरेजको देखनेवाले पुरुषकी भाँति २१ भोक्तृनयसे सुख-दुखादिका भोता है, हिसकारीअहितकारी अन्नको खानेवाले रोगीकी भाँति । ३०. अभोक्तृनयसे केवल साक्षी हो है. हितकारी अहितकारी अझको खानेवाले रोगीको देखनेवाले वैद्यकी भाँति ३१. किमानयसे अनुष्ठानकी प्रधानता से सिद्धि साधित हो ऐसा है, खम्भेसे सिर फूट जानेपर दृष्टि उत्पन्न होकर जिसे निधान प्राप्त हो जाय ऐसे अन्धेकी भाँति । ३२. ज्ञानमयसे विवेककी प्रधान सिद्धि साधित हो ऐसा है मुट्ठीभर चने देकर चिन्तामणि रत्न खरीदनेवाले घरके कोनेमें बैठे हुए व्यापारीकी भाँति । ३३ आत्मद्रव्य व्यवहारनयसे बन्ध और मोक्ष में द्वैतका अनुसरण करनेवाला है: बन्धक और मोचक अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होनेवाले और उससे वियुक्त होनेवाले परमाणुकी भाँति ३४. निश्चयनयसे मन्ध और मोक्षमें बतका अनुसरण करनेवाला है; अवेले बध्यमान और मुच्यमान ऐसे बन्ध मोक्षोचित स्मग्लरूपगुणरूप परिणत परमाकी भांति ३५. अनुनयसे घट और रामपात्रसे विशिष्ट मिट्टी मात्रकी भांति सोपाधि स्वभावबाला है । ३६. शुद्धनयसे केवल मिट्टी मात्रकी भाँति निरुपाधि स्वभाववाला है। पं. घ. //लोक अस्ति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्यायस्त्रयंमियोऽनेक व्यवहारे कविशिष्टो नयः स वानेकसंज्ञको न्यायात् । ७५२ | एक सदिति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्ययोऽपवा] नाम्ना श्रद्वयमन्यतरं धम एक परिणममानेऽपि तथाभूतेभवनश्यमानेऽपि । नायमपूर्वो भावः पर्यायाधिकविभावन अभिनवभाव परिणतेर्योऽयं वस्तुन्यपूर्व समयो य' । इति यो वदति स कश्चित्पर्यायार्थिकन येष्वभावनय ॥७६४ | अस्तित्वं नामगुण. स्यादिति साधारणः स तस्य । तत्पर्ययश्च नय' समासतोऽस्तित्वनय इति वा । ५६३॥ कर्तृत्वं जीवगुणोऽस्त्वथ वैभाविकोऽथवा भाव। तत्पविशिष्ट कर्तृत्वनयो यथा नाम २५१४| ३७. व्यवहार नयसे द्रव्य, गुण, पर्याय अपने अपने स्वरूपसे परस्परमें पृथक-पृथक हैं, ऐसी अनेनय है 10 १८ नामकी अपेक्षा पृथक्-पृथक् हुए 「 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५२४ II सम्यक् व मिथ्या नय भी द्रव्य गुण पर्याय तीनों सामान्यरूपसे एक सत हैं, इसलिए किसी एकके कहनेपर शेष अनुक्तका ग्रहण हो जाता है। यह एकनय है। १७५३। ३६. परिणमन होते हुए पूर्व पूर्व परिणमनका विनाश होनेपर भी यह कोई अपूर्व भाव नहीं है, इस प्रकारका जो कथन है वह पर्यायार्थिक विशेषण विशिष्ट भावनय है ७६॥ ४०. तथा नवीन पर्याय उत्पन्न होनेपर जो उसे अपूर्वभाव कहता ऐसा पर्यायाथिक नय रूप अभाव नय है ।७६४० ४१. अस्तित्वगुणके कारण द्रव्य सत है, ऐसा कहनेवाला अस्तित्व नय है ।।६३॥ ४२. जीवका वैभाविक गुण ही उसका कर्तृत्वगुण है। इसलिए जीवको कतृत्व गुणवाला कहना सो कतृ त्व नय है ।५६४। मार्गको देखनेवाले आपने ही नय और प्रमाणमार्ग के द्वारा दुर्नयवादका निराकरण किया है (२८जिसके द्वारा पदार्थोके एक अंशका ज्ञान हो उसे नय (सम्यक् नय) कहते हैं। खोटे नयोंको या दुर्नीतियोंको दुर्नय कहते हैं। (स्या.म./२७/३०५/२८)। और भी दे० (नय/I/१/१), (पहिले जो नय सामान्यका लक्षण किया गया वह सम्यक् नयका है।) और भी दे० अगले शीर्षक-(सम्यक् व मिथ्या नयके विशेष लक्षण अगले शीर्षकोंमें स्पष्ट किये गये हैं)। ५. अनन्तों नय होनी सम्भव हैं ध.१/१,१,१/गा.६०/८० जाव दिया क्यण-वहा तावदिया चेव होति णयवादा । जितने भी वचनमार्ग हैं, उतने ही नयवाद अर्थात नयके भेद हैं। (ध.१/४,१,४५/गा.६२/१८१). (क. पा.१/१३-१४/६२०२/गा. ६३/२४५), (ध.१/१,१,६/गा.१०५/१६२). (ह.पु./५८/५२), (गो.क./मू./८६४/१०७३), (प्र. सा./त. प्र./परि. में उद्धृत); (स्या. म./२८/३१०/१३ में उद्धृत)। स.सि./१/३३/१४५/७ द्रव्यस्यानन्तशक्ते प्रतिशक्ति विभिद्यमानाः बहुविकल्पा जायन्ते । -द्रव्यकी अनन्त शक्ति है। इसलिए प्रत्येक शक्तिकी अपेक्षा भेदको प्राप्त होकर ये नय अनेक ( अनन्त) विकल्प रूप हो जाते हैं । (रा. वा/१/३३/१२/६/१८), (प्र. सा./त. प्र./परि. का अन्त), (स्या.म./२८/३१०/११); (पं.घ./पू./५८६,५६५)। रलो.वा.४/१/३३/श्लो, ३-४/२१५ संक्षेपावौ विशेषेण द्रव्यपर्यायगोचरी ।३। विस्तरेणेति सप्तैते विज्ञेया नैगमादयः । तथातिविस्तरेणोक्ततदभेदाः संख्यातविग्रहाः।४। =संक्षेपसे नय दो प्रकार हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक ।३। विस्तारसे नै गमादि सात प्रकार हैं और अति विस्तारसे संख्यात शरीरवाले इन नयोके भेद हो जाते हैं। (स.म./ २८/३१७/१)। म.१/१,१.१/६१/१ एवमेते संक्षेपेण नया' सप्तविधाः। अवान्तरभेदेन पुनरसंख्येयाः। = इस तरह संक्षेपसे नय सात प्रकार के हैं और अवान्तर भेदोंसे असंख्यात प्रकारके समझना चाहिए। 1. अन्य पक्षका निषेध न करे तो कोई भी नय मिथ्या नहीं होता क.पा.१/१३-१४/६२०६/२५७/१ त चैकान्तेन नयाः मिथ्यादृष्टयः एव; परपक्षानिकरिष्णूनां सपक्षसत्त्वावधारणे व्यापूतानां स्यात्सम्यग्दृष्टिस्वदर्शनात् । उक्तं च-णिययवयणिनसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिठ्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा ।११७॥ -द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय सर्वथा मिध्यादृष्टि ही हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो नय परपक्षका निराकरण नहीं करते हुए (विशेष दे० आगे नय/II/४) ही अपने पक्षका निश्चय करने में व्यापार करते हैं उनमें कथंचित समीचीनता पायी जाती है। कहा भी है-ये सभी नय अपने विषयके कथन करनेमें समीचीन हैं, और दूसरे नयोंके निराकरण करनेमें मूढ़ हैं। अनेकान्त रूप समयके ज्ञाता पुरुष 'यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है' इस प्रकारका विभाग नहीं करते हैं ।११७ न.च.व./२९२ ण दु णयपक्खो मिच्छा तं पिय यंतदव्वसिद्धियरा। सियसहसमारूढ़ जिणचयणविगिरगयं सुद्ध। -नयपक्ष मिथ्या नहीं होता, क्योंकि वह अनेकान्त द्रव्यकी सिद्धि करता है। इसलिए 'स्यात्' शब्दसे चिह्नित तथा जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट नय शुद्ध हैं। II. सम्यक् व मिथ्या नय १. नय सम्यक् भी है और मिथ्या मी न.च.व /१८१ एयंतो एयणयो होइ अणेयंतमस्स सम्मूहो। त खलु णाणवियप्पं सम्म मिच्छं च णायव्वं १८२ =एक नेय तो एकान्त है और उसका समूह अनेकान्त है। वह ज्ञानका विकल्प सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी। ऐसा जानना चाहिए। (पं.घ./पू./ १. अन्य पक्षका निषेध करनेसे ही मिथ्या हो जाता है ध.६/४,१,४५/१८२/१ त एव दुरवधीरता मिथ्यादृष्टय प्रतिपक्षनिराकरणमुखेन प्रवृत्तत्वात । -ये (नय ) ही जब दुराग्रहपूर्वक वस्तुस्वरूपका अवधारण करनेवाले होते हैं, तब मिथ्या नय कहे जाते हैं, क्योंकि प्रतिपक्षका निराकरण करनेकी मुख्यतासे प्रवृत्त होते हैं। (विशेष दे०/एकान्त/१/२), (ध.६/४,१,४५/१८३/१०), (क.पा.३/२२/६५१३/ २१२/२)। प्रमाणनयतत्त्वालंकार/७/१/ (स्या. म./२८/३१६/२६ पर उधृत) स्वाभिप्रेताद अंशाद् इतरांशापलापी पुनर्नयाभासः । अपने अभीष्ट धर्मके अतिरिक्त वस्तुके अन्य धर्मों के निषेध करनेको नयाभास कहते हैं। स्या.म./२८/३०८/१ अस्त्येव घटः' इति । अयं वस्तुनि एकान्तास्तित्वमेव अभ्युपगच्छन् इतरधर्माणी तिरस्कारेण स्वाभिप्रेतमेव धर्म व्यवस्थापयति । =किसी वस्तुमें अन्य धर्मोंका निषेध करके अपने अभीष्ट एकान्त अस्तित्वको सिद्ध करनेको दुर्नय कहते हैं, जैसे 'यह घट ही है। ५. अन्य पक्षका संग्रह करनेपर वही नय सम्यक् हो पलापी निध करनेको वस्तुनि एकान्त धर्म जाते हैं २. सम्यक व मिथ्या नयों के लक्षण स्या.म./७४/४ सम्यगेकान्तो नयः मिथ्येकान्तो नयाभासः। सम्यगेकान्तको नय कहते हैं और मिथ्या एकान्तको नयाभास या मिथ्या नय । (दे० एकान्त/१), (विशेष दे० अगले शीर्षक)। स्या. म./म् व टोका/२८/३०७,१० सदेव सव स्यात्सदिति विधार्थो मीयते दुर्नीतिनयप्रमाणैः । यथार्थदर्शी तु नयप्रमाणपथेन दुर्नीतिपथं त्वमास्थः ।२८।...नीयते परिच्छिद्यते एकदेश विशिष्टोऽर्थ आभिरिति नीतयो नयाः । दुष्टा नीतयो दुर्नीतयो दुर्नया इत्यर्थः । - पदार्थ 'सर्वथा सत् है', 'सत है' और 'कथंचित् सत् है इस प्रकार क्रमसे दुर्नय, नय और प्रमाणसे पदार्थों का ज्ञान होता है। यथार्थ सं.स्तो./६२ यथैकशः कारकमर्थसिद्धये, समीक्ष्य शेष स्वसहायकार कम् । तथैव सामान्यविशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः ।६। -जिस प्रकार एक-एक कारक शेष अन्यको अपना सहायकरूप कारक अपेक्षित करके अर्थकी सिद्धिके लिए समर्थ होता है, उसी प्रकार आपके मतमें सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होनेवाले जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५२५ II सम्यक् व मिथ्या नय अथवा सामान्य और विशेषको विषय करनेवाले जो नय है वे मुख्य और गौणकी कल्पनासे इष्ट हैं। घ.६/४.१,४५१८२/१ ते सर्वेऽपि नयाः अनबधृतस्वरूपाः सम्यग्दृष्टय' प्रतिपक्षानिराकरणात । ध.१/४,१,४५/२३९/४ सुणया कधं सविसया। एयंतेण पडिवववणिसेहाकर णादो गुणपहाणभावेण ओसादिदपमाणबाहादो। - मे सभी नय वस्तुस्वरूपका अवधारण न करनेपर समीचीन नय होते हैं. क्योंकि वे प्रतिपक्ष धर्मका निराकरण नहीं करते। प्रश्न-सुनयोंके अपने विषयोंकी व्यवस्था कैसे सम्भव है। उत्तर-चू कि सुनय सर्वथा प्रतिपक्षभूत विषयों का निषेध नहीं करते, अतः उनके गौणता और प्रधानताकी अपेक्षा प्रमाणबाधाके दूर कर देनेसे उक्त विषय व्यवस्था भले प्रकार सम्भव है। स्या.म./२८/३०८/४ स हि 'अस्ति घटः' इति घटे स्वाभिमतमस्तित्वधर्म प्रसाधयन् शेषधर्मेषु गजनिमिलिकामालम्बते । न चास्य तुनंयावं धर्मान्तरातिरस्कारात् । -वस्तुमें इष्ट धर्मको सिद्ध करते हुए अन्य धर्मीमें उदासीन होकर वस्तुके विवेचन करनेको नय कहते हैं। जैसे 'यह घट है'! नयमें दुर्नयकी तरह एक धर्मके अतिरिक्त अन्य धर्मोंका निषेध नहीं किया जाता, इसलिए उसे दुर्न य नहीं कहा जा सकता। १.जो नय सर्वथाके कारण मिथ्या है वही कथंचित्के कारण सम्यक् है स्व. स्तो/१०१ सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च यो नयाः । सर्बथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीह ते १०११-सव, एक, नित्य, वक्तव्य तथा असन, अनेक, अनित्य, व अवक्तव्य ये जो नय पक्ष हैं वे यहाँ सर्वथारूपमें तो अति दूषित हैं और स्यावरूपमें पुष्टिको प्राप्त होते हैं। गो. क./मू./८६४-८६५/१०७३ जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ८६४। परसमयाणं क्यणं मिच्छं खलु होइ सव्वहा षयणा। जेणाणं पुण बयणं सम्मं सु कहचिव वयणादो ।६५।जितने नयवाद है उतने ही परसमय हैं। परसमयवालोंके वचन 'सर्वथा' शब्द सहित होनेसे मिथ्या होते हैं और जैनोंके बही वचन 'कथंचित' शब्द सहित होनेसे सम्यक होते हैं । (देनय//५ में ध.१) न.च.वृ/२१२ ण दु णयपक्रवो मिच्छा तं पिय यंतदबसिद्धियरा। सियसहसमारूढं जिणवयणविणिग्गय सुद्ध'।-अनेकान्त द्रव्यकी सिद्धि करनेके कारण नयपक्ष मिथ्या नहीं होता । स्यात् पदसे अलंकृत होकर वह जिनत्रचनके अन्तर्गत आनेसे शुद्ध अर्थात् समीचीन हो जाता है। (न.च.व./२४६ ) स्या.म /३०/३३६/१३ ननु प्रत्येकं नयानो विरुद्धत्वे कथं समुदिताना निविरोधिता। उच्यते । यथा हि समीचीन मध्यस्थं न्यायनिर्णतारमासाद्य परस्परं विवादमाना अपि वादिनो विवादाइ विरमन्ति एवं नया अन्योऽन्यं वैरायमाणा अपि सर्वज्ञशासनमुपेत्य स्याच्छन्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तयः सन्तः परस्परमत्यन्तं सुहृदभूयावतिष्ठन्ते । प्रश्न-यदि प्रत्येक नय परस्पर विरुद्ध हैं, तो उन नयोंके एकत्र मिलानेसे उनका विरोध किस प्रकार नष्ट होता है ? उत्तर-जैसे परस्पर विवाद करते हुए वादी लोग किसी मध्यस्थ न्यायी के द्वारा न्याय किये जानेपर विवाद करना बन्द करके आपसमें मिल जाते हैं, वैसे ही परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवानके शासनकी शरण लेकर 'स्यात्' शब्दसे विरोधके शान्त हो जानेपर परस्पर मैत्री भावसे एकत्र रहने लगते हैं। पं.ध./पू./३३६-३३७ ननु किं नित्यमनित्यं किमयोभयमनुभयं च तत्त्वं स्यात् । व्यस्त किमथ समस्तं क्रमतः किमथाक्रमादेतत् ।३३६॥ सत्यं स्वपरनिहत्य सर्व किल सर्वथेति पदपूर्वम्। स्वपरोपकृतिनिमित्तं सर्व स्यारस्यात्पदाङ्कितं तु पदम् ।३३-प्रश्न-तत्त्व नित्य है या अनित्य, उभय या अनुभय, व्यस्त या समस्त, क्रमसे या अक्रमसे : उत्तर-'सर्वथा इस पद पूर्वक सब ही कथन स्वपर घातके लिए हैं, किन्तु स्यात् पदके द्वारा युक्त सब ही पद स्वपर उपकारके लिए हैं। ७. सापेक्षनय सम्यक् और निरपेक्षनय मिथ्या होती है आ.मी./१०८ निरपेक्षया नयाः मिथ्या सापेक्षा वस्तुतोऽर्थकत ।-निरपेक्षनय मिथ्या है और सापेक्ष नय वस्तुस्वरूप है। (श्लो.वा.४/९/ ३३/श्लो,८०/२६८) । स्व. स्तो./६१ य एव नित्यक्षणिकादयो नयाः, मिथोऽनपेक्षा स्व-परप्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुने, परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिण' ६१-जो ये नित्य व क्षणिकादि नय है वे परस्पर निरपेक्ष होनेसे स्वपर प्रणाशी हैं। हे प्रत्यक्षज्ञानी विमलजिन ! आपके मतमें वे ही सब नय परस्पर सापेक्ष होनेसे स्व व परके उपकारके लिए हैं। क. पा./१/१३-१४/१२०५/गा, १०२/२४६ तम्हा मिच्छादिट्ठी सव्वे वि णया सपक्रवपडिबद्धा। अण्णोण्णणिस्सिया उण लहंति सम्मत्तसब्भाव १०२ - केवल अपने-अपने पक्षसे प्रतिबद्ध ये सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं। परन्तु यदि परस्पर सापेक्ष हों तो सभी नय समीचीनपनेको प्राप्त होते हैं, अर्थात् सम्यग्दृष्टि होते हैं। स.सि./२/३३/१४५/१ ते एते गुणप्रधानतया परस्परतन्त्राः सम्यग्दर्शनहेतवः पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात्तन्वादय इव यथोपाय विनिवेश्यमाना' पटादिसंज्ञाः स्वतन्त्राश्चासमर्थाः । ये सब नय गौण-मुख्यरूपसे एक दूसरेकी अपेक्षा करके ही सम्यग्दर्शनके हेतु हैं। जिस प्रकार पुरुषकी अर्थक्रिया और साधनोंकी सामर्थ्यवश यथायोग्य निवेशित किये गये तन्तु आदिक पर संज्ञाको प्राप्त होते हैं । ( तथा पटरूपमें अर्थ क्रिया करनेको समर्थ होते हैं। और स्वतन्त्र रहनेपर ( पटरूपमें ) कार्यकारी नहीं होते, वैसे हो ये नय भी समझने चाहिए। (त. सा./१/५१)। सि. वि./मू./१०/२७/६६१ सापेक्षा नया सिद्धा; दुर्नया अपि लोकत' । स्यावादिना व्यवहारात् कुक्कुटग्रामवासितम्। लोकमें प्रयोग की जानेवाली जो दुर्नय हैं वे भी स्याद्वादियोंके ही सापेक्ष हो जानेसे सुनय बन जाती हैं। यह बात आगमसे सिद्ध है । जैसे कि एक किसी घरमें रहनेवाले अनेक गृहवासी परस्पर मैत्री पूर्वक रहते हैं। लघीयस्त्रय/३० भेदाभेदात्मके ज्ञेये भेदाभेदाभिसन्धयः । ये तेऽपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते नयदुर्नया' १३० =भेदाभेदात्मक ज्ञेयमें भेदव अभेदपनेकी अभिसन्धि होनेके कारण, उनको बतलानेवाले नय भी सापेक्ष होनेसे नय और निरपेक्ष होनेसे दुर्नय कहलाते हैं। (.घ./ पू./५१०)। न.च./२४६ सियसावेक्खा सम्मा मिच्छारूवा हु तेहि णिरवेक्खा । तम्हा सियसद्दादो विसयं दोण्हं पि णायव्वं । क्योंकि सापेक्ष नय सम्यक् और निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं, इसलिए प्रमाण व नय दोनों प्रकारके वाक्योंके साथ स्यात् शब्द युक्त करना चाहिए। का.अ./मू./२६६ ते सावेवरवा सुणया णिरवेक्वा ते वि दुण्णया होति । सयलववहारसिद्धी सुणयादो होदि णियमेण । =ये नय सापेक्ष हों तो सुनय होते हैं और निरपेक्ष हों तो दुय होते हैं। सुनयसे ही समस्त व्यवहारों की सिद्धि होती है। ८. मिथ्या नय निर्देशका कारण व प्रयोजन स्या.म./२७/३०६/१ यद् व्यसनम् अत्यासक्तिः औचित्यनिरपेक्षा प्रवृत्तिरिति यावद् दुर्नीतिवादव्यसनम् । = दुर्न यवाद एक व्यसन है । व्यसनका अर्थ यहाँ अति आसक्ति अर्थात अपने पक्षकी हठ है, जिसके कारण उचित और अनुचितके विचारसे निरपेक्ष प्रवृत्ति होती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय III नैगम आदि सात नय निर्देश पं.ध./पू /१६६ अथ सन्ति नयाभासा यथोपचारात्यहेतुदृष्टान्ता। अत्रोच्यन्ते केचिद्धेयतया वा नयादिशुद्वयर्थम् । उपचारके अनुकूल सज्ञा हेतु और दृष्टान्तवाली जो नयाभास है, उनमे से कुछका कथन यहाँ त्याज्यपनेसे अथवा नय आदिकी शुद्धिके लिए कहते है। ९. सम्यग्दृष्टिकी नय सम्यक है और मिथ्याष्टिकी मिथ्या प का/ता.वृ./४३ की प्रक्षेषक गाथा नं. ६/८७ मिच्छत्ता अण्णाणं अविरदिभावो य भाव आवरणा। णेयं पडुच्चकाले तह दुण्णं दुप्पमाणं च ।६। जिस प्रकार मिथ्यात्वके उदयसे ज्ञान अज्ञान हो जाता है, अविरतिभाव उदित होते है, और सम्यक्त्वरूप भाव ढक जाता है, वैसे ही सुनय दुर्नय हो जाती है और प्रमाण दु प्रमाण हो जाता है। न, च.व./२३७ भेदुवयारं णिच्छय मिच्छादिट्ठीण मिच्छरूव खु । सम्मे सम्मा भणिया तेहि दुबंधोब मोक्खो वा.२३७ । - मिथ्यादृष्टियों के भेद या उपचारका ज्ञान नियमसे मिथ्या होता है। और सम्यक्त्व हो जाने पर वही सम्यक् कहा गया है। तहाँ उस मिथ्यारूप ज्ञानसे बन्ध और सम्यकरूप ज्ञानसे मोक्ष होता है। II नैगम आदि सात नय निर्देश १. सातों नयोंका समुदित सामान्य निर्देश १. सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग स. सि./१/३३/१४०/८ स द्वेधा द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति ।... तयोर्भेदा नेगमादयः। -नयके दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । इन दोनों नयोके उत्तर भेद नैगमादि हैं। (रा.वा./२/ ३३/१/१४/२५) (दे० नय/I/१/४) ध.६/४,१,४५/पृष्ठ/पंक्ति-स, एव विधो नयो द्विविधः, द्रव्यार्थिकः पर्यायाथिकश्चेति ।(१६७/१०)। तत्र योऽसौ द्रव्यार्थिकनयः स त्रिविधो नैगमसंग्रहव्यवहारभेदेन (१६८/४)। पर्यायार्थिको नयश्चतुविध' ऋजुमूत्रशब्द-समभिरूदैवं भूतभेदेन । (१७१/७) । इस प्रकारकी वह नय दो प्रकार है-द्रव्यार्थिक व पर्यायाथिक। तहाँ जो द्रव्याथिकनय है वह तीन प्रकार है-नै गम, संग्रह व व्यवहार। पर्यायाथिकनय च र प्रकार है-ऋजुमूत्र, शब्द, समभिरूढ व एवंभूत (ध.१/१,१,१/ गा. ५-७/१२-१३), (क.पा.१/१३-१४/६१८१-१८२/गा. ८७-८६/२१८२२०), (श्लो.वा ४/१/३३/श्लो.३/२१५) (ह.पु./५८/४२), (ध.१/१,१,१ -८३/१०+८४/२+८५/२+८६/३+८६/६); (क. पा.१/१३-१४६१७७/२११/४+ १८२/२१६/१+१८४/२२२/१ + ६१६७/२३५/१); (न.च वृ/श्रुत/२१७) (न.च./पृ.२०) (त.सा./२/४१-४२/३६); (स्या. म, /८२/३१७/१+३१८/२२)। । १०. प्रमाण ज्ञान होनेके पश्चात् ही नय प्रवृत्ति सम्यक होती है, उसके बिना नहीं स. सि./१६/२०१५ कुतोऽभ्यहितत्त्वम् । नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात। एवं युक्तं 'प्रगृह्य प्रमाणत परिणतिविशेषादविधारणं नय' इति । प्रश्न-प्रमाण श्रेष्ठ क्यों है । उत्तर-क्योकि प्रमाणसे ही नय प्ररूपणाकी उत्पत्ति हुई है, अतः प्रमाण श्रेष्ठ है। आगममे ऐसा कहा है कि वस्तुको प्रमाणसे जानकर अनन्तर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय है। दे० नय/I/१/१/४ (प्रमाण गृहीत वस्तुके एक देशको जानना नयका लक्षण है।) रा. वा./१/६/२/३३/६ यतः प्रमाणप्रकाशितेष्वर्थेषु नयप्रवृत्तिर्व्यवहारहेतुर्भवति नान्येषु अतोऽस्याम्यहितस्त्रम् । क्योंकि प्रमाणसे प्रकाशित पदार्थों में ही नयको प्रवृत्तिका व्यवहार होता है, अन्य पदार्थों में नहीं, इसलिए प्रमाणको श्रेष्ठपना प्राप्त है । श्लो.वा./२/१/६/श्लो,२३/३६५ नाशेषवस्तुनिीत प्रमाणादेव कस्यचित् । तादृक् सामर्थ्यशून्यत्वात सन्नयस्यापि सर्वदा १२३- किसी भी वस्तुका सम्पूर्ण रूपसे निर्णय करना प्रमाण ज्ञानसे ही सम्भव है। समीचीनसे भी समीचीन किसी नयकी तिस प्रकार बस्तुका निर्णय करलेनेकी सर्वदा सामर्थ्य नही है। घ.६/४,१,४७/२४०/२ पमाणादो णयाणमुप्पत्ती, अणवगयढे गुणप्पहाण भावाहिप्पायाणुप्पत्तीदो। = प्रमाणसे नयोकी उत्पत्ति होती है, क्योंकि, वस्तुके अज्ञात होनेपर, उसमे गौणता और प्रधानताका अभिप्राय नहीं बनता है। आ.प.//गा.१० नानास्वभावसंयुक्त द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणतः। तच्च सापेक्षसिद्ध्यर्थ स्यान्नयमिश्रितं कुरु ।१०। == प्रमाणके द्वारा नानास्वभावसयुक्त द्रव्यको जानकर, उन स्वभावों में परस्परसापेक्षताको सिद्धिके अर्थ ( अथवा उनमें परस्पर निरपेक्षतारूप एकान्तके विनाशाथ) (न.च.बृ./१७३ ), उस ज्ञानको नयोसे मिश्रित करना चाहिए। (न.च../१७३)। २. इनमें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विमागका कारण ध.१/१.१,१/८४,७ एते त्रयोऽपि नया. नित्यवादिनः स्वविषये पर्यायाभावत' सामान्यविशेषकालयोरभावात्। द्रव्याथिकपर्यायाथिकनययो. किकृतो भेदश्चेदुच्यते अजुसूत्रवचन विच्छेदो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायाथिकाः । विच्छिद्यतेऽस्मिन्काल इति विच्छेद' । ऋजुसूत्रवचनं नाम वर्तमानवचनं, तस्य बिच्छेदः ऋजुसूत्रवचनविच्छेदः । स कालो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिका.। अजुसूत्रवचनबिच्छेदादारभ्य आ एक समयाद्व स्तुस्थित्यध्यवसायिन पर्यायाथिका इति यावत् । -ये तीनों ही (नैगम, संग्रह और व्यवहार) नय नित्यवादी हैं, क्योंकि इन तीनो ही नयोका विषय पर्याय न होनेके कारण इन तीनों नयोंके विषयमे सामान्य और विशेषकालका अभाब है। (अर्थात इन तीनों नयो में काल की विवक्षा नहीं होती।) प्रश्न-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकमें किस प्रकार भेद है। उत्तर-अजुसूत्रके प्रतिपादक वचनोका विच्छेद जिस कालमे होता है, वह ( काल ) जिन नयोंका मुल आधार है, वे पर्यायार्थिक नय हैं। विच्छेद अथवा अन्त जिसकाल में होता है, उस कालको विच्छेद कहते हैं। वर्तमान वचनको ऋजुसुत्रवचन कहते हैं और उसके विच्छेदको ऋजसूत्रवचनविच्छेद कहते है। वह अजुसूत्रके प्रतिपादक वचनोंका विच्छेदरूप काल जिन नयोंका मूल आधार है उन्हें पर्यायाथिकनय कहते हैं। अर्थात ऋजुसूत्रके प्रतिपादक वचनोके विच्छेदरूप समयसे लेकर एकसमय पर्यन्त वस्तुकी स्थितिका निश्चय करनेवाले पर्यायार्थिक नय हैं। (भावार्थ-'देवदत्त' इस शब्द का अन्तिम अक्षर 'त' मुखसे निकल चुकनेके पश्चात्से लेकर एक समय आगे तक हो देवदत्त नामका व्यक्ति है, दूसरे समय में वह कोई अन्य हो गया है। ऐसा पर्यायार्थिकनयका मन्तव्य है । (क.पा.१/१३-१४/१८५/२२३/३) ३. सातों में अर्थ शब्द व ज्ञाननय विभाग रा.वा./४/४२/१७/३६१/२ संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रा अर्थनयाः। शेषा' शब्दनया' । - संग्रह, व्यवहार, व अजुसूत्र ये अर्थनय हैं और शेष जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ( शब्द, समभिरूक और एवंभूत) शब्द या व्यंजननय हैं (६.६/४१, ४५ / १८१/१) । रखो.बा.४/९/३३/१लो.८९/२८६ पर्यन्ताश्चत्वारोऽनया मताः । त्रयः शन्दनयाः सेवा' शम्दवाच्यार्थगोचराः [१] इन सातों में से नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय तो अर्थनय मानी गयी हैं, और शेष तीन (शब्द, समभिरूद और एवंभूत) वाचक शब्द द्वारा अर्थको विषय करनेवाले शब्दनय हैं। (ध.१/१.१.१/०६/३). (क.पा.१/९०४/२२२/१+११६०/१), (न.च.वृ./ २१०) (न.प./त/पृ. २०) (त.सा./१/४३) (स्या, प्र. २०/३११/२१) | नोट - (यद्यपि ऊपर कहीं भी ज्ञाननयका जिक्र नहीं किया गया है, परन्तु जैसा कि आगे मैगमनय लक्षणों परखे विदित है, इनमें से नैगमनय ज्ञाननय व अर्थमय दोनों रूप है। अर्थको विषय करते समय यह अर्थनय है और संकल्प मात्रको ग्रहण करते समय ज्ञाननय है। इसके भूत, भावी आदि भेद भी ज्ञान को ही आश्रय करके किये गये हैं, क्योंकि वस्तुकी भूत भावी पर्यायें वस्तुमें नहीं ज्ञानमें रहती है (द० नम / III/३/६ में रखो.वा.)। इसके अतिरिक्त भी ऊपर के दो प्रमाणों में प्रथम प्रमाणमे इस नयको अर्थनयरूपसे ग्रहण न करनेदूसरे प्रमाण में इसे अर्थनय क्योंकि यह ज्ञाननय होनेके ५२७ का भी यही कारण प्रतीत होता है कहना भी विरोधको प्राप्त नहीं होता साथ-साथ अर्थ नय भी अवश्य है ।) ४. सायोंमें अर्थ, शब्दमय विभागका कारण } - ध. १/१,९,१/८६ / ३ अर्थनयः ऋजुसूत्रः । कुत । ऋजु प्रगुणं सूत्रय तीति सिद्धन्तेऽर्थ नया अर्थव्यवाद। (शब्दभेदकी विवक्षा न करके केवल पदार्थके धर्मोका निश्चय करनेवाला अर्थ नय है, और शब्दभेदसे उसमें भेद करनेवाला व्यंजननय है - दे० I/४/२) याँ प्रनयको अर्थनय समझना चाहिए क्योंकि ऋजु सरल अर्थात वर्तमान समयवर्ती पर्याय मात्रको जो ग्रहण करे उसे ऋजुन कहते हैं। इस तरह वर्तमान पर्यायरूपसे अर्थको ग्रहण करनेवाला होने के कारण यह नय अर्थनय है, यह बात सिद्ध हो जाती है। अर्थको विषय करनेवाले होनेके कारण नैगम, संग्रह और व्यवहार भी अर्थनय है। (शब्दभेदकी अपेक्षा करके अर्थ भेद डालनेवाले होनेके कारण शेष तीन नय व्यंजननम है ।) स्या.म./२०/३१०/१६ अभिप्रायस्तावद् अर्थद्वारेण शब्दद्वारेण वा प्रवर्तते, गत्यन्तराभावात । तत्र ये केचनार्थ निरूपणप्रवणाः प्रमात्राभिप्रायास्ते सर्वेऽपि नचतुष्टयेऽन्तर्भवन्ति ये च शब्दविचारचतुरास्ते शब्दाविनयप्रये इति। अभिप्राय प्रगट करनेके दो ही द्वार है-अर्थ या शब्द। क्योंकि इनके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। तहाँ प्रमाताके जो अभिप्राय अर्थका प्ररूपण करनेमें प्रवीण हैं वे तो अर्थ • नय हैं जो नैगमादि चार नयों में अन्तर्भूत हो जाते हैं और जो शब्द विचार करनेमें चतुर हैं वे शब्दादि सीन व्यंजननय हैं (स्पा म. २८/३११/२६) दे० नव][/२/५ शनय केवल शब्दको विषय करता है अर्थको नहीं। ५. नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं च. १/४,१,४५ / २८१ / ४ नव नया क्वचिच्छ्रयन्त इति चेन्न नयानामियतासंख्या नियमाभावाद प्रश्न कहाँपर नौ नय सुने जाते हैं ? उत्तर- नहीं, क्योंकि 'नय इतने है' ऐसी संख्याके नियमका अभाव है (विशेष ३० नयT/२/५) (क.पा./१/१३-१४/३२०२/२४५/२) ६. पूर्व पूर्वका नव अगले अगलेका कारण है स.सि./१/१३/१४५/७ एष क्रम पूर्वपूर्व हेतुरवास पूर्व पूर्वका नय अगले- अगले नयका हेतु है, इसलिए भी यह क्रम (नैगम, संग्रह, व्यव ||| नैगम आदि सात नय निर्देश हार एवंभूत) कहा गया है। (रा.बा./१/३३/१२/१६/१०) (लो.डा./. ४/१/२३/१.८२/२६१) ७. सालों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता स.सि./१/३३/१४५/७ उत्तरोत्तरसूक्ष्मविषयत्वादेषां क्रमएवमेते नयाः पूर्वपूर्वविरुद्धमहाविषया उच्चरोत्तरानुताप विषया-उत्तरोत्तर सूक्ष्मविषयवाले होनेके कारण इनका यह क्रम कहा है । इस प्रकार ये नय पूर्व पूर्व विरुद्ध महा विषयवाले और उत्तरोतर अनुकूल अन्य विषयमा है (रा./१/३३/१२/११/१०). (लो.बा.४/१/१२/२.८२/ २६६), (ह. पु. / ५८/५०), (त.सा./१/४३) श्लो. वा./४/२/३३/श्लो,१०,१००/२८१ यत्र प्रवर्त्तते स्वार्थे नियमादुशरो पूर्वपूर्वनयस्तत्र वर्तमानो न वार्य पूर्वत्र गोतरा संख्या पंथावातानु तथोत्तरनयः पूर्वयार्थसकले सदा ११००१- जहाँ जिस अर्थको विषय करनेवाला उत्तरवर्ती नय नियमसे प्रवर्तता है तिस तिसमें पूर्ववर्तीनयको प्रवृत्ति नहीं रोकी जा सकती | १८| परन्तु उत्तरवर्ती नये पूर्ववर्ती नयोके पूर्ण विषय में नही हैं। जैसे बड़ी संख्या मे छोटी संख्या समा जाती है पर छोटीमें बड़ी नहीं ( पूर्व पूर्वका विरुद्ध विषय और उत्तर उत्तरका अनुकूल विषय होनेका भी यही अर्थ है (रा.वा./हि./९/२३/१२/४१४) इसी मा/४/९/२३/१लो ८२-८६/२६६ पूर्व पूर्वो नयो भूमविषयः कारणात्मक' । पर' पर' पुनः सूक्ष्मगोचरो हेतुमानिह । ८२ । सम्मानविषयवेनग्रहस्य न युज्यते महाविषयताभावाभावार्थान्नैगमात्रयात् । ३॥ यथा हि सति संकल्पस्यैवासति वेद्यते । तत्र प्रवर्तमानस्य मैगमस्य महार्थता | समाहारोऽपि द्विशेषानबोधकः । न भ्रमविषयोऽशेषसरसग्रहोपदनिर्जुत्रः प्रभूतार्थी वर्तमा नार्थगोचरः । कालातियवृत्यर्थगोचरा उपहारतः ६ कालादिभेदोऽप्यर्थमभिज्ञमुपगत सूत्रान्महार्थोऽत्र शब्दस्तद्विपरीतवित् ॥८७॥ शब्दात्पर्यायभेदेनाभिन्नमर्थ मभीप्सितः । न स्यात्समभिरूढोऽपि महार्थस्तद्विपर्यय १८८। क्रियाभेदेऽपि चाभिन्नमर्थमभ्यु पगच्छत । प्रभूतार्थो नयः समभिहतः ननयो पहले पहले नय अधिक है और आगे आगेके नय सूक्ष्म विषयवाले है । १. संग्रहनय सन्मात्रको जानता है और नैगमनय संकल्प द्वारा विद्यमान व अविद्यमान दोनोको जानता है, इसलिए संग्रहकी अपेक्षा नैगमनयका अधिक विषय है । २. व्यवहारनय संग्रह से जाने हुए पदार्थ को विशेष रूपसे जानता है और संग्रह समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है, इसलिए संग्रह नयका विषय व्यवहारनयसे अधिक है। २. उपमहारनय दोनों कान्तो के पदार्थोंको जानता है और केवल वर्तमान पदार्थोंका ज्ञान होता है, अतएव व्यवहारनयका विषय ऋजुमूत्र से अधिक है । ४. शब्दनय काल आदि के भेदसे वर्तमान पर्यायको जानता है ( अर्थात वर्तमान पर्यायके वाचक अनेक पर्यायवाची सोमेसे काल लिग, संख्या, पुरुष आदि रूप व्याकरण सम्बन्धी विषमताओंका निराकरण करके मात्र समान काल, लिंग आदि वाले शब्दोको ही एकार्थवाची स्पीकार करता है। ऋजुसूत्र काल आदिका कोई भेद नहीं इसलिए शब्दनयसे जुसूत्रनयका विषय अधिक है। ५. समभिरूडनय इन्द्र शक्र आदि ( समान काल, लिंग आदि वाले ) एकार्थवाची शब्दोंको भी व्युत्पत्तिकी अपेक्षा भिन्नरूपसे जानता है, अथवा उनमें से किसी एक ही शब्दको वाचकरूपसे रूढ करता है), परन्तु शब्दनयमे यह सूक्ष्मता नहीं रहती, अतएव समभिरूउसे शब्दनका विषय अधिक है। ६. समभिनय से जाने हुए पदार्थों में क्रिया के भेदसे वस्तु भेद मानना ( अर्थात् समभिरूढ द्वारा रूढ शब्दको उसी समय उसका वाचक मानना जबकि वह वस्तु तदनुकूल क्रियारूपसे परिणत हो ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय एवंभूत है जैसे कि समभिरूडकी अपेक्षा पुरन्दर और शचीपति ( इन शब्दो के अर्थ ) में भेद होनेपर भी नगरोका नाश न करने के समय भी पुरन्दर शब्द इन्द्रके अर्थ में प्रयुक्त होता है, परन्तु एवं भूतकी अपेक्षा नगरोंका नाश करते समय ही इन्द्रको पुरन्दर नामसे कहा जा सकता है।) (अतएव एवंभूत से समभिनयका विषय अधिक है। ७. ( और अन्तिम एवंभूतका विषय सर्वत स्तोक है; क्योकि, इसके आगे वाचक शब्द में किसी अपेक्षा भी भेद किया जाना सम्भव नहीं है | ) ( स्था, म. / २८/३१९/३०) ( रा. वा. हि./१/३३ / ४१३ ) ( और भी देखो आगे शीर्षक नं० १) | भ. १/१.१.२/१३/१९ विशेषार्थ ) वर्तमान समयवर्ती पर्यायकोविषय करना ऋजुसूत्रनय है, इसलिए जब तक द्रव्यगत भेदोंकी ही मुख्यता रहती है तबतक व्यवहारनय चलता है ( दे० नय / V/४,४,३ ), और जब कालकृत भेद प्रारम्भ हो जाता है, तभी से ऋजुसूत्रनयका प्रारम्भ होता है। शब्द समभिरूद और एवंभूत इन तीनों नयका विषय भी वर्तमान पर्यायमात्र है। परन्तु उनमे ऋजुमुत्र के विषयभूत अर्थ के वाचक शब्दोकी मुख्यता है. इसलिए उनका विषय राजुसूत्र से सूक्ष्म सूक्ष्मतर और सुक्ष्मतम माना गया है अर्थात् क लिंग आदिसे भेद करनेवाला शब्दनय है । शब्दनयसे स्वीकृत ( समान) सिंग वचन आदि वाले शब्दों में व्युत्पतिभेद अर्थभेद करनेवाले समभिरूढनय हैं । और पर्यायशब्दको उस शब्द से ध्वनित होनेवाला क्रियाकाल में ही नायक मानने वाला एवंभूतनम समझाना चाहिए । इस तरह ये शब्दादिनय उस अजुसूत्रकी शाखा उपशाखा है । ५२८ ८. सातौंकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मताका उदाहरण घ. ७/२.१.४/१. १-६/२०-२१ नयागामभिप्याओं एत्थ उपपदे जहा - कंपि परं दठठूण य पावजणसमागमं करेमाणं । णेगमणएण भई रइओएस पुरिसो न्ति । १। वत्रहारस्सा दु वयणं जइया कोदंडकंगयहत्थो । भमइ मए मग्गंतो तइया सो होइ रहओ |२| उज्जुसुदस्सदु वयणं जइया इर ठाइदूण ठाणम्मि । आहणदि मए पावो तइया सो होइ रइओ | ३| सद्दणयस्स दु वयणं जइया पाणेहि मोइदो जन्तु तझ्या सो रहओ हिसावम्मेण संजुती व समभिरूढं णारयकम्मस्स बंधगो जझ्या । तहया सो णेरइओ णारयकम्मेण संजुत्तो |५| रिगई संपत्तो जझ्या अणुहवइ णारंयं दुक्खं । तझ्या सो मेरओ एवंभूदो ओ भगदि । ६। यहाँ ( नरक गतिके प्रकरणमें) नयोंका अभिप्राय बतलाते हैं । वह इस प्रकार है- १ किसी मनुष्यको पापी लोगों का समागम करते हुए देखकर नैगमनसे कहा जाता है कि यह पुरुष नारकी है |१| २ ( जब वह मनुष्य प्राणिवध करनेका विचार कर सामग्री संग्रह करता है तब वह संग्रहनयसे नारकी कहा जाता है ) । ३. व्यवहारनयका वचन इस प्रकार हैजब कोई मनुष्य हाथमें धनुष और भाग लेकर मृगको खोजनें भटकता फिरता है, तब वह नारकी कहलाता है |२| ४. ऋऋजुसूत्रनयका वचन इस प्रकार है-जस्थानपर बैठकर पापी मृगोंपर आघात करता है तब वह नारकी कहलाता है । ३१ ५. शब्दनयका वचन इस प्रकार है - जब जन्तु प्राणोंसे विमुक्त कर दिया जाता है, तभी वह आघात करनेवाला हिसा कर्मसे संयुक्त मनुष्य नारकी कहा जाता है |४| ६. समभिरूदनयका वचन इस प्रकार है-जब मनुष्य नारक (गति व आयु) कर्मका बन्धक होकर नारक कर्म से संयुक्त हो जाये तभी वह नारकी कहा जाये । ५। ७. जब वही मनुष्य नरकगतिको पहुँचकर नरकके दुःख अनुभव करने लगता है, तभी वह नारकी है, III नैगम आदि सात नय निर्देश ऐसा एवं भूतनय कहता है । ६। नोट - ( इसी प्रकार अन्य किसी भी विषयपर यथा योग्य रीतिसे ये सातो नय लागू की जा सकती हैं) । ९. शब्दादि तीन नयोंमें अन्तर 1 रा. मा./४/४२/१०/२६९/११ व्ययनपर्यायास्तु दनया द्विविधं वचन प्रकम्पयन्ति-अभेदेनाभिधानं भेदेन च यथा शब्दे पर्यायशब्दायोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेदः समभिरू वा प्रवृतिनिमित्तस्य वृत्तिनिमित्तस्य प घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानाय एवंभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यैवार्थस्याभिधा नाद भेदेनाभिधानम् । अथवा. अन्यथा द्वैविध्यम् एकस्मिन्नर्थे ऽनेकशब्दवृत्ति, प्रत्यर्थं वा शब्दविनिवेश इति । यथा शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य एकः समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य एकः । एवंभूते वर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एकः । १. वाचक शब्दकी अपेक्षा शब्दमय वस्तुको व्यंजनपर्यायोंको विषय करते हैं ( शब्दका विषय बनाते हैं) वे अभेद तथा भेद दो प्रकारके वचन प्रयोगको सामने लाते है ( दो प्रकारके वाचक शब्दोंका प्रयोग करते हैं।) शब्दनयने पर्यायवाची विभिन्न शब्दोंका प्रयोग होनेपर भी उसी अर्थ का कथन होता है अतः अभेद है। समभिरूडनयमें पटन क्रियामें परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही घटका निरूपण होता है। एवंभूत प्रवृत्तिनिमित्तसे भिन्न हो अर्थका निरूपण होता है । २. वाच्य पदार्थ की अपेक्षा- अथमा एक अर्थ में अनेक शब्दोंकी प्रवृत्ति या प्रत्येक में स्वतन्त्र शब्दोंका प्रयोग, इस तरह भी दो प्रकार हैं । शब्दनयमें अनेक पर्यायवाची शब्दोंका वाच्य एक ही होता है । समभिरूढ में चूँकि शब्द नैमित्तिक है, अतः एक शब्दका वाच्य एक ही होता है। एवंभूत वर्तमान निमित्तको पकडता है। अतः उसके मतमें भी एक शब्दका वाच्य एक ही है । २. नेगमनयके भेद व लक्षण १. नैगमनय सामान्यके लक्षण १. निगम अर्थात् संकल्पयाही स.सि./१/३३ / १४१ / २ अनभिनिवृत्तार्थ संकल्पमात्रग्राही नैगमः । - अनिप्पन्न अर्थ में करप मात्रको ग्रहण करनेवाला नय मेगम है (रा. वा/ १/३३/२/१५/१३); ( श्लो. वा/४/१/३३/ श्लो, १७/२३०); (ह.पु./५८/४३); (त.सा./१/४४ ) 1 राना/१/२३/२/१६/१२ निर्णयन्ति तस्मिन्निति निगमनमात्र' वा निगम निगमे कुशसो भयो वा नेगमः। उसमें अर्थात् आत्मामें जो उत्पन्न हो या अवतारमात्र निगम कहलाता है । उस निगममें जो कुशल हो अर्थात् निगम या संकल्पको जो विषय करे उसे नैगम कहते हैं । = रतो. वा ४/२/३३ /तो. १०/२३० संकल्पो निगमस्तत्र भनोऽयं तत्प्रयोजनः। = नैगम शब्दको भव अर्थ या प्रयोजन अर्थ में तद्धितका अण प्रत्यय कर बनाया गया है । निगमका अर्थ संकल्प है, उस संकल्प में जो उपजे अथवा वह संकल्प जिसका प्रयोजन हो वह नैगम नय है । (आ.प./ १); (नि.सा./ता.वृ./१६) । का.अ./ / २०१ जो साहेदि अदीदं विरूवं भविस्सम च। संपडि कालागि सो पत्र गमो ओ | २०११ - जो नय अतीत. अनागत और वर्तमानको विकल्परूपसे साधता है वह नैगमनय है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय २. 'नैकं गमो' अर्थात् द्वैतग्राही 1 श्लो. वा/४/१/३३ / श्लो. २१/२३२ यद्वा नैकं गमो योऽत्र सतां नैगमो मतः । धर्मयोधर्मिणोर्वा विमला धर्मधर्मिणो जो एकको विषय नहीं करता उसे ने गमनय कहते है अर्थात जो गुन्य गौणरूपसे दो धर्मोंको, दो धर्मियोंको अथवा धर्म व धर्मी दोनोको विषय करता है वह नेगम नय है (.६/४.१.४५/११/२) (ध.१३/२. ५.७/१६६/१): (स्या. म. / २८/- ३११/३,३१७/२) स्पा.म./२८/३९६/१४ में उधृत अन्यदेव हि सामान्यमभिज्ञानकार णम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नयः । - अभिन्न ज्ञानका कारण जो सामान्य है, वह अन्य है और विशेष अन्य है, ऐसा मन मानता है । दे० आगे नय / III/३/२ (संग्रह व व्यवहार दोनोंको विषय करता है । ) २. 'संकल्पग्राही' लक्षण विषयक उदाहरण स.सि./१/२३/१४१/२ कश्चित्पुरुषं परिगृहीतपरशुं गच्छन्तमवलोक्य कश्चित्पृच्छति किमी स आह प्रथमानेतुमिति नासो तथा पस्थपर्याय संनिहित तदभिनित संकल्पमात्रे प्रस्थव्यवहार | तथा एधोदकाद्याहरणे व्याप्रियमाणं कश्चिवृति कि करोति भवानिति स आह ओवन पथामीति । न तदौपर्यायः संनिहित तदर्थे व्यापारे स प्रयुज्यते एवं प्रकारो संव्यवहारोऽअनभिनिवृत्तार्थ संकल्पमात्रविषयो नैगमस्य गोचरः । = १. हाथ में फरसा लिये जाते हुए किसी पुरुषको देखकर कोई अन्य पुरुष पूछता है. 'आप किस कामके लिए जा रहे हैं।' वह कहता है कि प्रस्थ लेनेके लिए जा रहा हूँ । उस समय वह प्रस्थ पर्याय सन्निहित नहीं है केवल उसके मनाने का संकल्प होनेसे उसमें (जिस काठको लेने जा रहा है उस काठमे ) प्रस्थ-व्यवहार किया गया है। २. इसी प्रकार ईधन और जल जादिके लाने लगे किसी पुरुषसे कोई पूछता है, कि 'आप क्या कर रहे है । हुए उसने कहा, भात पका रहा हूँ। उस समय भात पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल भात के लिए किये गये व्यापार में भावका प्रयोग किया गया है । इस प्रकारका जितना लोकव्यवहार है वह अनिष्पन्न अर्थ के आलम्बनसे संकल्पमात्रको विषय करता है, वह सब नैगमनयका विषय है। (रा. ना/१/११/२/१५/१३): (श्लो.मा/४/२/२३/१८/२३०) मा० २-६७ १ = ३. 'देवमाही' लक्षण विषयक उदाहरण प.सं./१२/४.११/२/२६५ १. पगमवनहाराणां बाणावरणीय नेणा सिया जीवस्स वा ॥ २॥ नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना कथंचित् जीवके होती है। (यहाँ जीव तथा उसका कर्मायुभन दोनोंका प्रण किया है। बेदना प्रधान है और जीव गौग) | १०/४.२.३/९/१३ २. णेगमववहाराणं णाणावरणीयवेयणा सणावरणीय देणीवेया... नैगम व व्यवहारनयसे वेदना ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनोय... ( आदि आठ भेदरूप है ) । ( यहाँ वेदना सामान्य गौण और ज्ञानावरणीय आदि भेद प्रधानऐसे दोनोंका ग्रहण किया है ।) क. पा. १/१३-१४/६२५० / २१०/१३ म पङ्गच्च कोही समुप्पणी सो तो दो संतोक कोहो हॉत ऐसो दोस्रो जधि संगहादिगया अभिदा, किन्तु मङ्गमणी अवसहाइरिएण वैणावसंविदो तेण ण एस दोसो । तत्थ कधं ण दोसो । कारणम्मि णिलोणकज्जभुभगमादो प्रश्न- जिस मनुष्य के निमितो है, वह मनुष्य उस क्रोधसे अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है ? उत्तर-- यदि यहाँ पर संग्रह आदि नयोंका अवलम्बन = हुआ ५२९ - III नैगम आदि सात नय निर्देश लिया होता, तो ऐसा होता अर्थात संग्रह आदि नयकी अपेक्षा क्रोधसे भिन्न मनुष्य आदिक क्रोध नहीं कहलाये जा सकते है। किन्तु तिषाचार्य चूँकि यहाँ गमनयका अवलम्बन लिया है. इस लिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न-दोष कैसे नही है ? उत्तरक्योंकि नैगमनयको अपेक्षा area कार्यका सद्भाव स्वीकार किया गया है। ( और भी दे० - उपचार /५/३ ) २४.१.४५/१०१/२४. परस्पर विभिनोभयविषयासम्तो नैगमतयः शब्द-शीत-कर्म कार्य कारणाधाराधेयभाव-भविष्यद्वर्तमानमेयोन्यादिकमाश्रित्य स्थितोपचारप्रभव इति यावत् । भिन्न ( भेदाभेद ) दो विषयोका अवलम्बन करनेवाला नैगमनय है । अभिप्राय यह कि जो शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय भूत, भविष्य, वर्तमान मेव व उन्मेयादिका आश्रमकर स्थित उपचारसे उत्पन्न होनेवाला है, वह नैगमनय कहा जाता है (क.पा./९/१३-१४/११-३/२२१/१) । परस्पर . घ. १३/५,३,१२/१३/१५. धम्मदव्वं धम्मदव्वेण पुस्सज्जदि, असंगहियगमणयम सिण लोगागासपदेसमेत धम्मदव्यपदेसाणं पुध-पुध लद्वदव्वववएसाणमण्णोष्णं पासुवलं भादो | अधम्मदव्व मधम्मदवे पुसिज्मविदेस-पदेस परमाणुन मसंग योग मग एका दव्वेण - परमाणूणमसंगहियणेगमणएण पदव्यभावाणमेतसाद -धर्मव्य धर्मद्रव्य के द्वारा स्पर्शको प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक गममयको अपेक्षा लोकाकाश के प्रदेशप्रमाण और पृथक-पृथक द्रव्य संज्ञाको हुए धर्मइपके प्रदेशोंका परस्पर स्पर्श देखा जाता है। अजय अधर्मद्रव्यके द्वारा स्पर्शको प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक नैगमनयकी अपेक्षा द्रव्यभावको प्राप्त हुए अधर्मद्रव्यके स्कन्ध, देश, प्रदेश, और परमाणुओंका एकत्व देखा जाता है। स्पा. म. /२०/३१७/२ ६. धर्मयोनिनो धर्म प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विवक्षण स नैकगमो नैगम । सतु चैतन्यमात्मनीति धर्मयोः । वस्तुपर्यायवद्रव्यमिति धर्मिणो । क्षण मेकं सुखी विषयासक्तजीव इति धर्मधर्मिणोः । =दो धर्म और दो धर्म अथवा एक धर्म और एक धर्ममें प्रधानता और गोमताकी विवक्षाको नैगमनय कहते है। जैसे (१) सत् और चैतन्य दोनों आत्मा धर्म है। यहाँ त और चैतन्य धर्मोपेतन्य विशेष्य होनेसे प्रधान धर्म है और सद विशेषण होनेसे गोम धर्म है (२) पर्यायवाद व्यको मस्तु कहते हैं। यहाँ और वस्तु दो धर्मियों में इव्य मुख्य और मस्तु मौन है अथवा पर्यायवाद वस्तुको द्रव्य कहते हैं, यहाँ वस्तु मुख्य और द्रव्य गौण है। (३) विषयासजीव क्षण भरके लिए सुखी हो जाता है। यहाँ विषयास जीवरूप धर्मी मुल्य और सुखरूप धर्म गौण है। स्वा.म. / १० / ३११/३ त्र गमः सत्तात महासामान्य, अनान्तरसामान्यानि च द्रव्यत्वगुणश्वकर्मत्वादीनि तथान्त्यान् विशेषान् सकलासाधारण रूपलक्षणान् अवान्तर विशेषांश्चापेक्षया पररूपव्यावृत्तनक्षमात् सामान्यान् अत्यन्त स्वरूपानभिप्रेति । - नैगमन सत्तारूप महासामान्यको अवान्तरसामान्यको द्रव्यल. गुणत्व, कर्मत्व आदिको सकल असाधारणरूप अन्त्य विशेषको तथा पररूपसे व्यावृत और सामान्यसे भिन्न अवान्तर विशेषोंको, अत्यन्त एकमेकरूपसे रहनेशन सर्व धर्मोको (मुख्य गौण करके) जानता है । ४. नैगमन के भेद श्लो. वा./४/९/३३/४/२२६/१८ त्रिविधस्तावन्नैगमः । पर्यायने गमः द्रव्य गमः, द्रव्यपर्याय गमश्चेति तत्र प्रथमस्प्रेधा अर्थ पर्यायगम व्यञ्जनपर्याय नमोऽव्यञ्जनंगमस्य इति द्वितीयो द्विधा शुद्धद्रव्यनैगमः अव्यमे गमश्चेति तृतीयश्चतुर्धा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५३० III नैगम आदि सात नय निर्देश शुद्वद्रव्यार्थपर्यायनै गमः, शुद्भद्र व्यव्यानपर्यायनै गमः, अशुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम;- अशुद्रव्यव्यब्जनपर्यायनैगमश्चेति नवधा नैगमः साभास उदाहृत' परीक्षणीयः ।-नैगमनय तीन प्रकारका है-पर्यायनैगम, द्रव्यनगम, द्रव्यपर्यायनैगम । तहाँ पर्यायनै गम तीन प्रकारका है-अर्थपर्यायनै गम, व्यजनपर्यायनैगम और अर्थव्यञ्जनपर्यायनै गम। द्रव्यनै गमनय दो प्रकार का है-शुद्धदव्यनगम और अशुद्धद्रव्यनै गम । द्रव्यपर्यायनैगम चार प्रकार है-शुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, शुद्धद्रव्यव्यजनपर्यायनै गम, अशुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, अशुद्ध द्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगम । ऐसे नौ प्रकारका नैगमनय और इन नौ ही प्रकारका नै गमाभास उदाहरण पूर्वक कहे गये हैं । (क. पा. १/१३-१४/३२०२/२४४/१); (ध.१/४,१,४५/१८१/३)। आ. प./५ नै गमस्त्रेधा भूतभाविवर्तमानकालभेदात् । -भूत, भावि और वर्तमानकालके भेदसे (संकल्पनाही) नै गमनय तीन प्रकार का है। (नि. सा./ता. वृ./१६)। ५. मृत मावी व वर्तमान नैगमनयके लक्षण आ. प./५ अतीते बर्तमानारोपणं यत्र स भूतनैगमो। ...भाविनि भूतबत्कथनं यत्र स भाविनै गमो। ... कर्तुमारब्धमीषन्निष्पन्नमनिष्पन्न वा वस्तु निष्पन्नवत्कथ्यते यत्र स वर्तमाननैगमो। - अतीत कार्य मे 'आज हुआ है' ऐसा वर्तमानका आरोप या उपचार करना भूत नै गमनय है। होनेवाले कार्यको 'हो चुका' ऐसा भूतवद कथन करना भावी नै गमनय है। और जो कार्य करना प्रारम्भ कर दिया गया है, परन्तु अभी तक जो निष्पन्न नहीं हुआ है, कुछ निष्पन्न है और कुछ अनिष्पन्न उस कार्यको 'हो गया' ऐसा निष्पन्नवत् कथन करना वर्तमान नैगमनय है (न.च. वृ./२०६-२०८); (न. च./श्रुत/ पृ. १२)। ६. भूत भावी व वर्तमान नैगमनयके उदाहरण १. भूत नैगम आ. प./५ भूतनै गमो यथा, अद्य दीपोत्सवदिने श्रीवर्द्धमानस्वामी मोक्षगत आज दीपावलीके दिन भगवान बर्द्धमान मोक्ष गये हैं, ऐसा कहना भूत नैगमनय है । (न. च. वृ./२०६ ): (न च./श्रुत/पृ. १०) । नि, सा./ता. वृ./१६ भूतनै गमनयापेक्षया भगवता सिद्धानामपि व्यञ्जनपर्यायत्वमशुद्धत्वं च संभवति। पूर्वकाले ते भगवन्तः संसारिण इति व्यवहारात् । - भूत नैगमनयकी अपेक्षासे भगवन्त सिद्धोंको भी व्यञ्जनपर्यायवानपना और अशुद्धपना सम्भावित होता है, क्योंकि पूर्व कालमें वे भगवन्त संसारी थे ऐसा व्यवहार है। द्र.सं /टी./१४/४८/६ अन्तरात्मावस्थायां तु महिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घृतघटवत्...परमात्मावस्थायां पुनरन्तरात्मबहिरात्मद्वयं भूतपूर्वनयेनेति । = अन्तरात्माकी अवस्थामें बहिरात्मा और परमात्माकी अवस्थामें अन्तरात्मा व बहिरात्मी दोनों घीके घड़ेवत् भूतपूर्व न्यायसे जानने चाहिए। २. भावी नैगमनय आ. प./५ भावि नैगमो यथा-अर्डन सिद्ध एव । = भावी नैगमनयकी अपेक्षा अर्हन्त भगवान सिद्ध ही हैं । न.च. वृ./२०७ णिप्पण्णमिव पर्जपदि भाविपदत्य णरो अणिप्पण्णं । अप्पत्थे जह पत्थं भण्णइ सो भाविणइगमत्तिणओ।२०७। जो पदार्थ अभी अनिष्पन्न है, और भावी कालमें निष्पन्न होनेवाला है, उसे निप्पन्नवत् कहना भावी नैगमनय है। जैसे-जो अभी प्रस्थ नहीं बना है ऐसे काठके टुकड़ेको हो प्रस्थ कह देना । (न. च./श्रुत/पृ.११) (और भी-दे० पीछे संकल्पग्राही नैगमका उदाहरण )। ध.१२/४,२,१०,२/३०३/५ उदीर्ण स्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेश', फलदातृत्वेन परिणतत्वात् । न बध्यमानोपशान्तयो, तत्र तदभावादिति । न, त्रिष्वपि कालेषु प्रकृतिशब्दसिद्धे । ...भूदभविस्सपज्जायाणं, वट्टमाणत्तम्भुषगमादो वा णेगमणयम्मि एसा बुत्पत्ती घडदे । प्रश्न - उदीर्ण कर्म पुलस्कन्धकी प्रकृति संज्ञा भले ही हो, क्योकि, वह फलदान स्वरूपसे परिणत है। बध्यमान और उपशान्त कर्म पुद्गलस्कन्धों की यह सज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि, उनमें फलदान स्वरूपका अभाव है । उत्तर-नहीं, क्योकि, तीनों ही कालोमे प्रकृति शब्दकी सिद्धि की गयी है। भूत व भविष्यत् पर्यायोको वर्तमान रूप स्वीकार कर लेनेसे नैगमनयमें व्युत्पत्ति बैठ जाती है। दे० अपूर्व करण/४ (भूत व भावी नै गमनयसे ८३ गुणस्थानमें उपशामक वक्षपक संज्ञा बन जाती है, भले ही वहाँ एक भी कर्मका उपशम या क्षय नहीं होता। द्र.सं./टी/१४/४८/८ बहिरात्मावस्थायामन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च विज्ञयम्, अन्तरात्मावस्थायां.. परमात्मस्वरूप तु शक्तिरूपेण भाविनै गमनयेन व्यक्तिरूपेण च । - बहिरात्माकी दशामें अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूपसे तो रहते ही हैं, परन्तु भाविन गमनयसे व्यक्तिरूपसे भी रहते हैं। इसी प्रकार अन्तरारमाकी दशामें परमात्मस्वरूप शक्तिरूपसे तो रहता ही है, परन्तु भाविनै गमनयसे व्यक्तिरूपसे भी रहता है। पं. ध /उ./६२१ तेभ्योऽयंगपि छद्मस्थरूपास्तद्रूपधारिण। गुरवः स्युगुरोर्यायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।६२११- देव होनेसे पहले भी, छद्मस्थ रूपमें विद्यमान मुनिको देवरूपका धारी होने करि गुरु कह दिया जाता है । वास्तव में तो देव ही गुरु हैं । ऐसा भावि नैगमनयसे ही कहा जा सकता है। अन्य अवस्था विशेषमें तो किसी भी प्रकार गुरु संज्ञा घटित होती नहीं। ३. वर्तमान नैगमनय आ. प./५ वर्तमाननैगमो यथा-ओदन' पच्यते। वर्तमान नै गमनयसे अधपके चावलो को भी 'भात पकता है' ऐसा कह दिया जाता है। (न. च./श्रुत/पृ. ११)। न. च. वृ./२०८ परद्धा जा किरिया पयणविहाणादि कहइ जो सिद्धा। लोएसे पुच्छमाणे भण्ण इ तं बट्टमाणणयं ।२०८= पाकक्रियाके प्रारम्भ करनेपर ही किसीके पूछनेपर यह कह दिया जाता है, कि भात पक गया है या भात पकाता हूँ, ऐसा वर्तमान नै गमनय है । ( और भी दे० पीछे संकल्पग्राही नैगमनयका उदाहरण)।। ७. पर्याय, द्रव्य व उभयरूप नैगमसामान्यके लक्षण ध.६/४,१,४५/१८१/२ न एकगमो नैगम इति न्यायात शुद्धाशुद्धपर्यायाथिकनयद्वयविषय. पर्यायार्थिकनैगम., द्रव्याथिकनयद्वय विषयः द्रव्यार्थिकनै गम'; द्रव्यपर्यायाथिकनयद्वयविषय. नैगमो द्वन्द्वजः । -जो एकको विषय न करे अर्थात् भेद व अभेद दोनोंको विषय करे वह नैगमनय है' इस न्यायसे जो शुद्ध व अशुद्ध दोनों पर्यायार्थिकनयों के विषयको ग्रहण करनेवाला हो वह पर्यायाथिकनै गमनय है। शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयों के विषयको ग्रहण करनेवाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है । द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक दोनों नयों के विषयको ग्रहण करनेवाला द्वंद्वज अर्थात् द्रव्य पर्यायार्थिक नैगमनय है। क. पा. १/१३-१४/ २०२/२४४/३ युक्त्यवष्टम्भबलेन संग्रहव्यवहारनयविषयः द्रव्यार्थिकनै गमः । ऋजुसूत्रादिनयचतुष्टयविषयं युक्त्यवष्टम्भबलेन प्रतिपन्न' पर्यायाथिकनैगमः । द्रव्यार्थिकनय विषयं पर्यायार्थिकविषयं च प्रतिपन्नः द्रव्यपर्यायाथिकनै गमः। -युक्तिरूप आधारके बलसे संग्रह और व्यवहार इन दोनों (शुद्ध व अशुद्ध द्रव्याथिक) नयोंके विषयको स्वीकार करनेवाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है । ऋजु सूत्र आदि चार नयो के विषय को स्वीकार करने वाला पर्यायार्थिव नय है तथा द्रव्यार्थिक व पर्यायाथिक इन दोनों के विषय को स्वीकार करने वान्ना द्रव्यपर्यायाथिक नैगमनय है जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५३१ III नैगम आदि सात नय निर्देश ४. द्रव्य व पर्याय आदि नैगमनयके भेदोंके लक्षण व व्यञ्जनपर्ययौ। अर्थीकरोति यः सोऽत्र ना गुणीति निगद्यते ।४६। उदाहरण - (शुद्भद्रव्य व उसकी किसी एक अर्थपर्यायको गौण मुख्यरूपसे विषय करनेवाला शुद्धद्रव्य अर्थपर्याय-नै गमनय है) जैसे कि संसारमें १. अर्थ, व्यञ्जन व तदुभय पर्याय नैगम सुख पदार्थ शुद्ध सतस्वरूप होता हुआ क्षणमात्रमे नष्ट हो जाता है । श्लो. वा./४/१/३३/श्लो. २८-३५/३४ अर्थपर्याययोस्तावद्गुणमुख्यस्व- (यहाँ उत्पाद व्यय धौव्यरूप सतपना तो शद्र द्रव्य है और मुख भावतः । क्वचिद्वस्तुन्यभिप्राय, प्रतिपत्तु प्रजायते ।२८। यथा प्रति अर्थ पर्याय है। तहाँ विशेषण होनेके कारण सत् तो गौण है और क्षणं वसि सुरवसं विच्छरीरिणः। इति सत्तार्थपर्यायो विशेषणतया विशेष्य होनेके कारण सुख मुख्य है ।४११) (अशुद्ध द्रव्य व उसकी गुण. २६। संवेदनार्थ पर्यायो विशेष्यत्वेन मुख्यताम् । प्रतिगच्छन्न किसी एक अर्थ पर्यायको गौण मुख्य रूपसे विषय करनेवाला भिप्रेतो नान्यथैवं वचो गति ।३०। कश्चिद्वयब्जनपर्यायौ विषयीकुरु अशुद्धद्रव्यअर्थपर्याय-नै गमनय है। जैसे कि संसारी जीव क्षणमात्रतडजसा । गुणप्रधानभावेन धर्मिण्येकत्र नै गम' ।३२। सच्चैतन्यं नरी- को सुखी है। (यहाँ सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होनेके कारण त्येवं सत्त्वस्य गुणभावतः । प्रधानभावतश्चापि चैतन्यस्याभिसिद्धितः गौण है और संसारी जोवरूप अशुद्धद्रव्य विशेष्य होनेके कारण मुख्य ।३३। अर्थव्यञ्जनपर्यायौ गोचरीकुरुते परः । धार्मिके सुखजीवित्व- है) ।४३ शुद्धद्रव्य व उसकी किसी एक व्यजनपर्यायको गौण मुख्य मित्येवमनुरोधत ॥३५॥ = एक वस्तुमे दो अर्थपर्यायोंको गौण मुख्य- रूपसे विषय करनेवाला शुद्धद्रव्य-व्यंजनपर्याय-नैगमनय है । जैसे कि रूपसे जाननेके लिए नयज्ञानोका जो अभिप्राय उत्पन्न होता है, उसे यह सव सामान्य चैतन्यस्वरूप है । ( यहाँ सब सामान्यरूप शुद्धद्रव्य अर्थ पर्यायनै गम नय कहते हैं। जैसे कि शरीरधारी आत्माका तो विशेषण होनेके कारण गौण है और उसकी चैतन्यपनेरूप व्यञ्जन मुखसंवेदन प्रतिक्षणध्वंसी है। यहाँ उत्पाद, व्यय, धौव्यरूप सत्ता पर्याय विशेष्य होनेके कारण मुख्य है)।४५॥ अशुद्धद्रव्य और उसकी सामान्यकी अर्थपर्याय तो विशेषण हो जानेसे गौण है, और संवेदनरूप किसी एक व्यञ्जन पर्यायको गौण मुरण्यरूपसे विषय करनेवाला अर्थपर्याय विशेष्य होनेसे मुख्य है। अन्यथा किसी कथन द्वारा इस अशुद्धद्रव्य-व्यञ्जनपर्याय-नैगमनय है। जैसे 'मनुष्य गुणी है' ऐसा अभिप्रायको ज्ञप्ति नहीं हो सकती ।२८-३०। एक धर्मीमें दो व्यंजन- कहना। (यहाँ 'मनुष्य' रूप अशुद्धद्रव्य तो विशेष्य होनेके कारण पर्यायोंको गौण मुख्यरूपसे विषय करनेवाला व्यंजनपर्यायनै गमनय मुख्य है और 'गुणी' रूप व्यंजनपर्याय विशेषण होनेके कारण गौण है। जैसे 'आत्मामें सत्त्व और चैतन्य है'। यहाँ विशेषण होनेके है।४६।) (रा.वा./हि /१/३३/१६६) कारण सत्ताकी गौणरूपसे और विशेष्य होनेके कारण चैतन्यकी प्रधानरूपसे ज्ञप्ति होती है ।३२-३३। एक धर्मी में अर्थ व व्यंजन दोनों ९. नेगमामास सामान्यका लक्षण व उदाहरण पर्यायौंको विषय करनेवाला अर्थव्यञ्जनपर्याय नैगमनय है, जैसे कि स्या.म./२८/३१७/५ धर्मद्वयादोनामैकान्तिकपार्थक्याभिसन्धि गमाधर्मात्मा व्यक्तिमें सुखपूर्वक जोवन वर्त रहा है। ( यहाँ धर्मात्मारूप भासः । यथा आत्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्परमत्यन्तपृथग्भूते इत्यादि । धर्मी में सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होनेके कारण गौण है और दो धर्म, दो धर्मी अथवा एक धर्म व एक धर्मी में सर्वथा भिन्नता जोवीपनारूप व्यब्जनपर्याय विशेष्य होनेके कारण मुख्य है ।३।। दिखानेको नैगमाभास कहते हैं। जैसे-आत्मामें सत और चैतन्य (रा. वा./हि/१/३३/१६८-१६६ ) । परस्पर अत्यन्त भिन्न हैं ऐसा कहना। (विशेष देखो अगला शीर्षक) २. शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य नैगम १०. नैगमाभास विशेषोंके लक्षण व उदाहरण श्लो.वा ४/१/३३/श्लो. ३७-३६/२३६ शुद्धद्रव्यमशुद्ध' च तथाभिप्रेति यो श्लो.बा.४/१/३३/श्लो. नं./पृष्ठ २३५-२३६ सर्वथा सुखसंबित्यो नात्वेनयः । स तु नैगम एवेह संग्रव्यवहारत.३७। सइद्रव्यं सकलं वस्तु ऽभिमतिः पुनः। स्वाश्रयाच्चार्थ पर्यायनै गमाभोऽप्रतीतित. ।३१। तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगन्तव्य. १३८यस्तु पर्यायवद्रव्यं तयोरत्यन्तभेदोक्तिरन्योन्य स्वाश्रयादपि । ज्ञेयो व्यञ्जनपर्यायनै गगुणवद्वेति निर्णयः। व्यवहारनयाज्जातः सोऽशुद्धद्रव्यनगमः ॥३१॥ माभो विरोधत. ३४॥ भिन्ने तु सुखजीवित्वे योऽभिमन्येत सर्वथा। =शुद्धद्रव्य या अशुद्धद्रव्यको विषय करनेवाले संग्रह व व्यवहार नय सोऽर्थव्यञ्जनपर्यायनैगमाभास एव नः ३६। सद्रव्यं सकलं वस्तु से उत्पन्न होनेवाले अभिप्राय ही क्रमसे शुद्धद्रव्यनैगम और तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगन्तव्यस्तद्भदोक्तिस्तु दुर्नय ।३८। अशुद्धद्रव्यनैगमनय हैं । जैसे कि अन्वयका निश्चय हो जानेसे सम्पूर्ण तद्भदै कान्तवादस्तु तदाभासोऽनुमन्यते । तथोक्तर्बहिरन्तश्च वस्तुओं को 'सत् द्रव्य' कहना शुद्धद्रव्य नैगमनय है।३७-३८। (यहाँ प्रत्यक्षादिविरोधतः ।४०। सत्त्वं सुखार्थपर्यायाद्भिन्न मेवेति संमतिः । 'सत्' तो विशेषण होनेके कारण गौण है और 'द्रव्य' विशेष्य होनेके दुर्नीतिः स्यात्सबाधत्वादिति नीतिविदो विदुः ॥४२॥ सुखजीवभिदोकारण मुख्य है ।) जो नय 'पर्यायवान द्रव्य है' अथवा 'गुणवान् द्रव्य क्तिस्तु सर्वथा मानवाधिता। दुर्नीतिरेव बोद्धव्या शुद्धबोधरसंशयात है। इस प्रकार निर्णय करता है, वह व्यवहारनयसे उत्पन्न होनेवाला ४४ा भिदाभिदाभिरत्यन्तं प्रतीतेरपलापतः । पूर्ववन्नै गमाभासौ अशुद्वद्रव्यनैगमनय है । (यहाँ 'पर्यायवान' तथा 'गुणवान' ये तो प्रत्येतव्यौ तयोरपि ।४७) =१. नैगमाभासके सामान्य लक्षणवत् यहाँ विशेषण होनेके कारण गौण हैं और 'द्रव्य' विशेष्य होनेके कारण भी धर्मधर्मी आदिमे सर्वथा भेद दर्शाकर पर्यायनै गम व द्रव्यनगम मुख्य है।) (रा.वा./हि./१/३३/११८) नोट-(संग्रह व्यवहारनेय तथा आदिके आभासोंका निरूपण किया गया है ।) जैसे-२ शरीरधारी आत्मामे सुख व संवेदनका सर्वथा नानापनेका अभिप्राय रखना शुद्ध, अशुद्ध द्रव्यनै गमनयमें अन्तरके लिए-दे० आगे नय/III/३) । अर्थ पर्यायनै गमाभास है। क्योंकि द्रव्यके गुणोका परस्परमें अथवा ३. शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यपर्याय नैगम अपने आश्रयभूत द्रव्यके साथ ऐसा भेद प्रतीतिगोचर नहीं है ।३१। श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.४१-४६/२३७ शुद्धद्रव्यार्थ पर्यायनै गमोऽस्ति परो ३. आत्मासे सत्ता और चैतन्यका अथवा सत्ता और चैतन्यका यथा। सत्सुखं क्षणिकं शुद्ध संसारेऽस्मिन्नितीरणम् ।४१। क्षणमेक परस्परमें अत्यन्त भेद मानना व्यजनपर्याय नै गमाभास है ॥३४॥ सुखी जीवो विषयीति विनिश्चय, । विनिर्दिष्टोऽर्थपर्यायोऽशुद्धद्र- ४. धर्मात्मा पुरुषमें सुख व जीवनपनेका सर्वथा भेद मानना व्यर्थनै गमः १४३। गोचरीकुरुते शुद्धद्रव्यव्यब्जनपर्ययौ। नैगमोऽन्यो अर्थव्यञ्जनपर्याय-नै गमाभास है ।३६ ५. सब द्रव्योंमे अन्वयरूपसे यथा सच्चित्सामान्यमिति निर्णय' ॥४॥ विद्यते चापरो शुद्धद्रव्य- रहनेका निश्चय किये बिना द्रव्यपने और सत्पनेको सर्वथा भेदरूप जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५३२ III नैगम आदि सात नय निर्देश कहना शुद्धद्रव्यनै गमाभास है।३८१६.पर्याय व पर्यायवान में सर्वथा भेद मानना अशुद्ध-द्रव्य नै गमाभास है । क्योंकि घट पट आदि बहिरंग पदार्थोमे तथा आत्मा ज्ञान आदि अन्तरंग पदार्थोंमें इस प्रकारका भेद प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे विरुद्ध है।४०१७ सुखस्वरूप अर्थपर्यायसे सत्त्वस्वरूप शुद्धद्रव्यको सर्वथा भिन्न मानना शुद्धद्रव्यार्थपर्याय नै गमाभास है। क्योकि इस प्रकारका भेद अनेक बाधाओ सहित है ।४२॥ ८. सुख और जीवको सर्वथा भेदरूपसे कहना अशुद्धद्रव्यार्थपर्याय नैगमाभास है । क्योंकि गुण व गुणी में सर्वथा भेद प्रमाणोसे बाधित है ।४४। ६. सत व चेतन्यके सर्वथा भेद या अभेदका अभिप्राय रखना शुद्ध द्रव्य व्यब्जनपर्याय-नै गमाभास है ।४७। १०. मनुष्य व गुणीका सर्वथा भेद या अभेद मानना अशुद्ध द्रव्य व्यब्जनपर्याय नैगमाभास है।४७ विषयत्वात् । इस प्रकार वस्तुके उत्तरोत्तर भेदोंको ग्रहण करनेवाला होनेसे इस व्यवहारनयको नैगमपना प्राप्त नहीं हो जाता; क्योंकि, व्यवहारनय तो संग्रह गृहीत पदार्थका व्यवहारोपयोगी विभाग करने में तत्पर है, और नैगमनय सर्वदा गौण प्रधानरूपसे दोनोंको विषय करता है। क. पा. १/२१/१३५४-३५५/३७६/८ ऐसो णेगमो संगमो मंगहिओ असंगहिओ चेदि जइ दुविहो तो णत्थि णेगमो; विसयाभावादो।... ण च संगह विसेसेहितो वदिरित्तो विसओ अस्थि, जेण णेगमणयस्स अत्थित्तं होज्ज । एत्थ परिहारो वुच्चदे-संगह-ववहारणयविसएम अक्कमेण वट्टमाणो णेगमो।'ण च एगविसएहि दुविसओ सरिसो; विरोहादो। तो क्खहिं 'दुविहो णेगमो' त्ति ण घटदे, ण; एयम्मि वट्टमाणअहिप्पायस्स आलंबणभेरण दुब्भावं गयस्स आधारजीवस्स दुभावत्ताविरोहादो। प्रश्न-यह नैगमनय संग्राहिक और असंग्राहिकके भेदसे यदि दो प्रकारका है, तो नैगमनय कोई स्वतन्त्र नय नहीं रहता है। क्योंकि, संग्रहनयके विषयभूत सामान्य और व्यवहारनयके विषयभूत विशेषसे अतिरिक्त कोई विषय नहीं पाया जाता, जिसको विषय करनेके कारण नैगमनयका अस्तित्व सिद्ध होवे। उत्तर-अब इस शंकाका समाधान कहते है-नैगमनय संग्रहनय और व्यवहारनयके विषयमें एक साथ प्रवृत्ति करता है, अतः वह उन दोनोंमें अन्तर्भूत नहीं होता है। केवल एक-एकको विषय करनेवाले उन नयोंके साथ दोनोंको (युगपत् ) विषय करनेवाले इस नयकी समानता नहीं हो सकती है, क्योंकि ऐसा माननेपर विरोध आता है। (श्लो. वा/४/१/३३/श्लो २४/२३३) । प्रश्न-यदि ऐसा है, तो संग्रह और असंग्रहरूप दो प्रकारका नैगमनय नहीं बन सकता ! उत्तर-नहीं, क्योंकि एक जीवमें विद्यमान अभिप्राय आलम्बनके भेदसे दो प्रकारका हो जाता है, और उससे उसका आधारभूत जीव तथा यह नैगमनय भी दो प्रकारका हो जाता है। ३. नैगमनय निर्देश १. नैगम नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है श्लो.वा.४/१/३३/श्लो. १७/२३० तत्र संकल्पमात्रो ग्राहको नैगमो नयः। सोपाधिरित्यशुद्धस्य द्रव्यार्थिकस्याभिधानात् ।१७। -संकल्पमात्र ग्राहो नैगमनय अशुद्ध द्रव्यका कथन करनेसे सोपाधि है । (क्योकि सत्त्व प्रस्थादि उपाधियाँ अशुद्धद्रव्यमे ही सम्भव है और अभेदमे भेद विवक्षा करनेसे भो उसमें अशुद्धता आती है।) ( और भी दे० नय/III/२/१-२)। २. शुद्ध व अशुद्ध सभी नय नेगमके पेटमें समा जाते हैं घ. १/१.१,१/८४/६ यदस्ति न तद् द्वयमतिलड्ध्य वर्तत इति नै कगमो नैगमः, संग्रहासंग्रहस्वरूपद्रव्यार्थिको नैगम इति यावत । - जो है वह उक्त दोनों ( संग्रह और व्यवहार नय) को छोडकर नहीं रहता है। इस तरह जो एकको ही प्राप्त नहीं होता है, अर्थात अनेकको प्राप्त होता है उसे नैगपनय कहते हैं। अर्थात् संग्रह और असंग्रहरूप जो द्रव्याथिकनय है वही नैगम नय है । ( क. पा. १/२१/१३५३/३७६/ ३) । (और भी दे० नय /III/३/३)।। ध/४,१,४५/१७१/४ यदस्ति न तद् द्वयमतिलध्य वर्तते इति संग्रह व्यवहारयोः परस्परविभिन्नोभयविषयावलम्बनो नैगमनयः जो है वह भेद व अभेद दोनोंको उल्लंघन कर नहीं रहता, इस प्रकार संग्रह और व्यवहार नयोंके परस्पर भिन्न (भेदाभेद ) दो विषयोंका अवलम्बन करनेवाला नैगमनय है। (ध.१२/४,२,१०,२/३०३/१); (के. पा/१/१३-१४/६१८३/२३१/१); (और भी दे० नय /III/२/३) । ध. १३/५.५,७/१६६/१ नै कगमो नैगम', द्रव्यपर्यायद्वयं मिथो विभिन्नमिच्छन् नैगम इति यावत् । जो एकको नहीं प्राप्त होता अर्थात अनेकको प्राप्त होता है वह नैगमनय है। जो द्रव्य और पर्याय इन दोनोंको आपसमे अलग-अलग स्वीकार करता है वह नैगम नय है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ध. १३/५,३,७/४/६ णेगमणयस्स असंगहियस्स एदे तेरसविफासा होति त्ति बोद्धब्बा, परिग्गहिदसबणयविसयत्तादो।- असंग्राहिक नै गमनयके ये तेरहके तेरह स्पर्श विषय होते है, ऐसा यहाँ जानना चाहिए: क्योकि, यह नय सब नयोंके विषयोको स्वीकार करता है)। दे. निक्षेप/३ ( यह नय सब निक्षेपोको स्वीकार करता है।) ३. नैगम तथा संग्रह व व्यवहार नयमें अन्तर श्लो. बा. ४/१/३३/६०/२४५/१७ न चैवं व्यवहारस्य नैगमत्वप्रसक्ति' संग्रहविषयप्रविभागपरत्वात, सर्वस्य नैगमस्य तु गुणप्रधानोभय ४. नैगमनय व प्रमाणमें अन्तर श्लो.वा.४/१/३३/श्लो. २२-२३/२३२ प्रमाणात्मक एवायमुभयग्राहकत्वतः इत्ययुक्त इव ज्ञप्ते प्रधानगुणभावतः ।२। प्राधान्येनोभयात्मानमथ गृह णद्धि वेदनम् । प्रमाणं नान्यदित्येतत्प्रपञ्चेन निवेदितम् ।२३। -प्रश्न-धर्म व धर्मी दोनोंका ( अक्रमरूपसे ) ग्राहक होनेके कारण नैगमनय प्रमाणात्मक है । उत्तर-ऐसा कहना युक्त नहीं है। क्योकि, यहाँ गौण मुख्य भावसे दोनोंकी ज्ञप्ति की जाती है। और धर्म व धर्मी दोनोको प्रधानरूपसे ग्रहण करते हुए उभयात्मक वस्तुके जाननेको प्रमाण कहते हैं। अन्य ज्ञान अर्थात केवल धर्मीरूप सामान्यको जाननेवाला संग्रहनय या केवल धर्मरूप विशेषको जाननेवाला व्यवहारनय, या दोनोंको गौणमुख्यरूपसे ग्रहण करनेवाला नैगमनय, प्रमाणज्ञानरूप नहीं हो सकते। श्लो. बा.२/१/६/श्लो.१६-२०/३६१ तत्रांशिन्यापि निःशेषधर्माणां गुण तागतौ। द्रव्याथिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपतः ॥११॥ धर्मिधर्मसमुहस्य प्राधान्यार्पणया विदः । प्रमाणत्वेन निर्णीतेः प्रमाणादपरो नयः ।२०।- जब सम्पूर्ण अंशोंको गौण रूपसे और अंशीको प्रधानरूपसे जानना इष्ट होता है, तब मुख्यरूपसे द्रव्यार्थिकनयका व्यापार होता है, प्रमाणका नहीं ।१६। और जब धर्म व धर्मी दोनोंके समूहको ( उनके अखण्ड व निर्विकल्प एकरसात्मक रूपको) प्रधानपनेकी विवक्षासे जानना अभीष्ट हो, तब उस ज्ञानको प्रमाणपनेसे निर्णय किया जाता है ।२०। जैसे-( देखो अगला उद्धरण )। प.ध./पू./७५४-७५५ न द्रव्यं नापि गुणो न च पर्यायो निरंशदेशत्वात् । व्यक्तं न विकल्पादपि शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतमेतत् १७५४। द्रव्यगुणपर्यायाख्यैर्यदनेकं सद्विभिद्यते हेतोः। तदभेद्यमनं शत्वादेकं सदिति प्रमाणमतमेतत् ।७५॥ अखण्डरूप होनेसे वस्तु न द्रव्य है, न गुण है, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय न पर्याय है, और न वह किसी अन्य विकल्पके द्वारा व्यक्त की जा सकती है, यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नयका मत है । युक्तिके वशसे जो सत् द्रव्यगुण व पर्यायोंके नामसे अनेकरूपसे भेदा जाता है, वही सद अंशरहित होनेसे अभेद्य एक है, इस प्रकार प्रमाणका पक्ष है । ७५५ ५. मावी नैगम नय निश्चित अर्थ में ही लागू होता है दे. अपूर्वकरण /४ ( क्योंकि मरण यदि न हो तो अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती साधु निश्चितरूपमें कर्मोंका उपशम अथवा क्षय करता हैं, इसलिए ही उसको उपशामक व क्षपक संज्ञा दी गयी है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जाता ) । ६. शि/२ ( शरीरकी निष्पत्ति न होनेपर भी निवृत्यपर्याप्त जीवको नैगमनयसे पर्याप्त कहा जा सकता है। क्योंकि वह नियमसे शरीरको निष्पत्ति करनेवाला है ) । . दर्शन/७/२ (पर्याजीमा दर्शन नहीं माना जा सकता. क्योंकि उनमें उसकी निष्पत्ति सम्भव नहीं, परन्तु निर्यात जीवो वह अवश्य माना गया है, क्योंकि उत्तरकाल में उसकी समुश्पत्ति वहाँ निश्चित है। प्र.सं./टी./१४/४०/९ मिध्यादृष्टिभव्यजीवे बहिरात्माव्यक्तिरूपेण अन्त रात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव भाविनै गमनयापेक्षया व्यक्तिरूपेण च | अभव्यजीवे पुनर्बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेशेव न च व्यक्तिरूपेण भाविने गमनयेनेति । मिध्यादृष्टि भव्यजीव महिरात्मा तो व्यक्तिरूपसे रहता है और अन्तरारमा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूपसे रहते हैं. एवं भावि नेगम नयकी अपेक्षा व्यक्तिरूपसे भी रहते हैं। मिध्यादृष्टि अभव्य जीवने बहिरामा व्यक्तिरूपसे और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्ति रूपसे ही रहते हैं। वहाँ भाविनै गमनयकी अपेक्षा भी ये व्यक्तिरूपमें नहीं रहते । = । पं. ध. / ५ / ६२३ भाविने गमनयायत्तो भूष्णुस्तद्वानिवेष्यते । अवश्यभावतो व्याप्ते सद्भावासिद्धिसाधना भाविनगमनयकी अपेक्षा होनेवाला हो चुके हुए के समान माना जाता है, क्योंकि ऐसा कहना अवश्यम्भावी व्याधि पाये जानेसे युक्तियुक्त है । ६. कल्पनामात्र होते हुए भी भावीनैगम व्यर्थ नहीं है रा. बा. १/२३/३/१०/२१ स्यादेतय ने गमनयन ये उपकारो नोपलभ्यते, भाविज्ञाविषये तु राजादायुपलभ्यते ततो नार्थ युक्त इति तन्त्र, किं कारणम् अनतिज्ञानात् नैतदस्माभिः प्रतिज्ञातस्- 'उपकारे सति भवितव्यम्' इति । किं तर्हि । अस्य नयस्य विषयः प्रदर्श्यते । अपि च, उपकार प्रत्यभिमुखत्वादुपकारवानेव । प्रश्न - भाविसंज्ञामें तो यह आशा है कि आगे उपकार आदि हो सकते हैं, पर नैगमनय में तो केवल कल्पना ही कल्पना है, इसके वक्तव्यमें किसी भी उपकारकी उपलब्धि नहीं होती अतः यह संव्यवहारके योग्य नहीं उत्तर - नयोंके विषयके प्रकरण में यह आवश्यक नहीं हैं कि उपकार या उपयोगिताका बिचार किया जाये। यहाँ तो केवल उनका विषय बताना है। इस नयसे सर्वथा कोई उपकार न हो ऐसा भी तो नहीं है, क्योंकि संकल्प के अनुसार निष्पन्न वस्तुसे, आगे जाकर उपकारादिककी भी सम्भावना है ही । 1 रतो. वा.४/९/२३/ श्लो ११-२०/२३१ नये भाविनीं संज्ञां समारियोपचर्यते अवस्थाविषु तद्धावस्तण्डुलेप्योदनादि ९६हिरर्थेषु तथानध्यवसानता स्ववेद्यमान करपे सत्येवास्य प्रवृत्तितः 1201 - प्रश्न - भावी संज्ञाका आश्रय कर वर्तमान में भविष्यका उपचार करना नैगमनय माना गया है। प्रस्थादिके न होनेपर भी काठके टुकडेने प्रस्थकी अथवा भातके न होनेपर भी पायलों में भातकी कल्पना मात्र कर ली गयी है ? उत्तर-- वास्तवमें बाह्य पदार्थोंमें उस ५३३ III नैगम आदि सात नय निर्देश प्रकार भावी संज्ञाका अध्यवसाय नहीं किया जा रहा है, परन्तु अपने द्वारा जाने गये संकल्पके होनेपर हो इस नयकी प्रवृत्ति मानी गयी है अर्थात् इस नयमें अर्थ की नहीं ज्ञानकी प्रधानता है, और इसलिए यह नयज्ञान नय मानी गयी है ।) ४. संग्रहनय निर्देश १. संग्रह नयका लक्षण । - स.सि./१/१३/१४१/- वजारमविरोधेनैकत्वमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रहणात्संग्रहः भेद सहित सब पर्यायों या विशेषोंको अपनी जातिके अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्यसे सबको ग्रहण करनेवाला नय संग्रहनय है । (रा. वा. १ / ३३/५/१५/२६); (रलो. बा./४/१/२३/१लो. ४१/२४०): (ह.पु./२/४४): (न.च./त/पृ. १२) (त.सा./१/४५)। श्लो, मा./२/१/११/रलो. ५०/२४० सममेकीमामसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते। निरुक्त्या लक्षवं तस्य तथा सति विभाव्यते सम्पूर्ण पदार्थोंका एकीकरण और समीचीनपन इन दो अर्थोंमें 'सम' शब्द वर्तता है । उसपर से ही 'संग्रह' शब्दका निरुक्त्यर्थ विचारा जाता है, कि समस्त पदार्थोंको सम्यक् प्रकार एकीकरण करके जो अभेद रूपसे ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है । .१/४१,४२/१००/५ सत्तादिना या सर्वस्य पर्यायकभावेन अतमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिकः सः संग्रहः । =जो सत्ता आदिकी अपेक्षासे पर्यायरूप कलंकका अभाव होनेके कारण सबकी एकताको विषय करता है वह शुद्ध द्रव्याधिक संग्रह है (क.पा. १/१३-१४/४१०२ / २१६/१) । = प. १२/५.२.७/११/२ व्यवहारमनपेश्य सप्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहक संग्रहनयः । उपवहारकी अपेक्षा न करके जो सत्तादिरूपसे सकत पदार्थोंका संग्रह करता है यह संग्रहनय है (प. १/१.१.१/०४/३) । आ.प./६ अभेदरूपतया वस्तुजातं संगृह्णातीति संग्रह. । अभेद रूपसे समस्त वस्तुओंको जो संग्रह करके, जो कथन करता है, वह संग्रह नय है । का.अ./मू./२०२ जो संगदि राज्य दे ना विविदा अपु गमलिंगविसि सो विमजो संगहो होदि । २०२॥ जो नय समस्त वस्तुका अथवा उसके देशका अनेक द्रव्यपर्यायसहित अन्वयगि विशिष्ट संग्रह करता है, उसे संग्रहनय कहते हैं। स्या. म. / २८/३११/७ संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया । विश्वमुपादते - विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तुको सामान्यसे जाननेको संग्रह नय कहते हैं। (स्वा.म./१८/३१७/६) । २. संग्रह नयके उदाहरण स.सि./१/३३/१४९/१ सद् ग्रव्यं घट इत्यादि । सदित्युक्ते सदिति वाग्वज्ञानानुप्रवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां संग्रहः । द्रव्यमित्युक्तेऽपि द्रवति गच्छति तास्तान्पर्यायानित्युपलक्षितानां जीवाजीवभेदमभेदानां संग्रह तथा 'घट' इत्युक्तेऽचि कुध्यभिधानानुगमलिकानुमिसकलार्थ संग्रह एवं प्रकारोऽन्योSपि संग्रहनयस्य विषयः । यथा-सत्, द्रव्य और घट आदि । 'सत्' ऐसा कहनेपर'' इस प्रकारके वचन और विज्ञानको अनुवृत्तिरूप सिंगसे अनुमित सताके आधारभूत सम पदार्थोंका सामान्यरूपसे संग्रह हो जाता है । 'द्रव्य' ऐसा कहनेपर भी 'उन उन पर्यायोंको इनता है अर्थात् प्राप्त होता है इस प्रकार इस व्यक्ति जीव अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है। तथा 'घट' ऐसा कहनेपर भी 'घट' इस प्रकारकी बुद्धि और 'वट' इस प्रकारके शब्दकी अनुवृत्तिरूप लिंगसे अनुमित ( मृद्घट सुवर्णघट आदि ) सब घट पदार्थोंका संग्रह हो जाता है। इस प्रकार अन्य भी संग्रहनयका विषय समझ लेना (रा.वा./९/२३/२/१५/१०) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५३४ III नैगम आदि सात नय निर्देश स्या.म./२८/३१५/में उद्धृत श्लोक नं.२ सद्रूपतानतिक्रान्तं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्व संगृह्णन् सग्रहो मतः ।२। -अस्तित्वधर्मको न छोड़कर सम्पूर्ण पदार्थ अपने-अपने स्वभावमें अवस्थित है। इसलिए सम्पूर्ण पदार्थोके सामान्यरूपसे ज्ञान करनेको संग्रहनय कहते हैं । (रा.वा./४/४२/१७/२६१/४) । ३. संग्रहनयके भेद श्लो.वा/४/१/३३/श्लो.५१,५३/२४० (दो प्रकार के संग्रह नयके लक्षण किये हैं-पर संग्रह और अपर संग्रह ) । (स्या.म./२८/३१७/७) । आ प./५ संग्रहो द्विविधः । सामान्यसंग्रहो...विशेषसंग्रहो। =संग्रह दो प्रकारका है-सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह । (न. च./श्रुत/ न. च. वृ./१८६,२०६ दुविहं पुण सगहें तत्थ ।१८६॥ मुद्धसंगहेण... २०६। - संग्रहनय दो प्रकारका है-शुद्ध सग्रह और अशुद्धसंग्रह । नोट-पर, सामान्य व शुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं और अपर, विशेष व अशुद्ध सग्रह एकार्थवाची हैं। जो परस्पर अविरोधरूपसे सबके सबको कहता है वह सामान्य संग्रहनय बतलाया गया है, और जो एक जातिविशेषका ग्राहक अभिप्रायवाला है वह विशेष संग्रहनय है। ध.१२/४,२,६,११/२६४-३०० संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा जीवस्स । (मूल सू. ११) एवं सुद्धसंगहणयवयणं, जीवाणं तेहिं सह णोजीवाणं च एयत्तब्भुवगमादो । ...संपहि असुद्धसंगहविसए सामित्तपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि । 'जीवाणं' वा। (म.सू. १२) । संगयि णोजीव-जीवबहुत्तब्भुवगमादो। एदमसुद्धसंगहणयवयणं । = 'संग्रहनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना जीवके होती है।सू. ११।" यह कथन शुद्ध संग्रहनयकी अपेक्षा है, क्योंकि जीवोंके और उनके साथ नोजीवोंकी एकता स्वीकार की गयी है। .. अथवा जीवोंके होती है ।सू.१२कारण कि संग्रह अपेक्षा नोजीव और जीव बहुत स्वीकार किये गये हैं। यह अशुद्ध संग्रह नयकी अपेक्षा कथन है। पं. का/ता.वृ./७१/१२३/१६ सर्व जीवसाधारणकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणसमूहेन शुद्धजीवजातिरूपेण संग्रहनयेनै कश्चैव महात्मा। सर्व जीवसामान्य, केवलज्ञानादि अनन्तगुणसमूहके द्वारा शुद्ध जीव जातिरूपसे देखे जायें तो संग्रहनयकी अपेक्षा एक महात्मा ही दिखाई देता है। ५. संग्रहामासके लक्षण व उदाहरण श्लो, वा.४/१/३३/श्लो, ५२-५७ निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायणः । तदाभासः समाख्यातः सद्भिदष्टेष्टबाधनात् ॥५२॥ अभिन्न व्यक्तिभेदेभ्यः सर्वथा बहुधानकम् । महासामान्यमित्युक्तिः केषां चिद्दुर्न यस्तथा १५३। शब्दब्रह्मति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि । संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोऽन्यत्र दर्शितम् ॥५४॥ स्वव्यक्त्यात्मकतैकान्तस्तदाभासोऽप्यनेकधा । प्रतीतिबाधितो बोध्यो निःशेषोऽप्यनया दिशा ॥५७१ -- सम्पूर्ण विशेषोंका निराकरण करते हुए जो सत्ताद्वैतवादियों का 'केवल सत् है, अन्य कुछ नहीं, ऐसा कहना; अथवा सांख्य मतका 'अहंकार तन्मात्रा आदिसे सर्वथा अभिन्न प्रधान नामक महासामान्य है। ऐसा कहना; अथवा शब्दाद्व तवादी वैयाकरणियोंका 'केवल शब्द है', पुरुषा तवादियोंका 'केवल ब्रह्म है', संविदाद्वैतवादी बौद्धोंका 'केवल संवेदन है' ऐसा कहना, सब परसंग्रहाभास है। (स्या.म./२८/३१६/६ तथा ३१७/६)। अपनी व्यक्ति व जातिसे सर्वथा एकात्मकपनेका एकान्त करना अपर संग्रहाभास है, क्योंकि वह प्रतीतियोंसे बाधित है। स्या, म./२८/३१७/१२ तद्वद्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तविशेषान्निह्न - वानस्तदाभासः । धर्म अधर्म आदिकोंको केवल द्रव्यत्व रूपसे स्वीकार करके उनके विशेषोंके निषेध करनेको अपर संग्रहाभास कहते हैं। ४. पर अपर तथा सामान्य व विशेष संग्रहनयके लक्षण व उदाहरण श्लो. वा./४/१/३३/श्लो. ५१,५५,५६ शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मात्र संग्रह. परः । स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह ॥५१॥ द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रेति चापरः। पर्यायत्वं च निःशेषपर्यायव्यापिसंग्रहः ॥५५॥ तथैवावान्तरान भेदान् संगृह्येकत्वतो बहुः । वर्ततेयं नयः सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृतेः ॥५६॥ =सम्पूर्ण जीवादि विशेष पदार्थों में उदासीनता धारण करके जो सबको 'सत् है' ऐसा एकपने रूपसे (अर्थात महासत्ता मात्रको) ग्रहण करता है वह पर संग्रह (शुद्ध संग्रह ) है ।५१॥ अपनेसे प्रतिकूल पक्षका निराकरण न करते हुए जो परसंग्रहके व्याप्य-भूत सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायोंको द्रव्यत्व व पर्यायत्वरूप सामान्य धर्मों द्वारा, और इसी प्रकार उनके भी व्याप्यभूत अवान्तर भेदोंका एकपनेसे संग्रह करता है वह अपर संग्रह नय है (जैसे नारक मनुष्यादिकोंका एक 'जीव' शब्द द्वारा; और 'खट्टा', 'मीठा' आदिका एक 'रस' शब्द द्वारा ग्रहण करना-); (न.च, बृ./२०१); (स्या.म./२८/३१७/७) । न.च./श्रुत/प.१३ परस्पराविरोधेन समस्तपदार्थ संग्रहैकवचनप्रयोगचातुर्येण कथ्यमानं सर्व सदित्येतत सेना वनं नगरमित्येतव प्रभृत्यनेकजातिनिश्चयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं सामान्यसंग्रहनयः। जीवनिचयाजीवनिचयहस्तिनिचयतुरगनिचयरथनिचयपदातिनिचय इति निम्बुजंबीरजंबमाकंदनालिकेरनिचय इति । द्विजवर, वणिग्वर, तलवराद्यष्टादशश्रेणीनिचय इत्यादि दृष्टान्त. प्रत्येकजातिनिचयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं विशेषसंग्रहनय. । तथा चोक्त--'यदन्योऽन्याविरोधेन सर्व सर्वस्य वक्ति यः। सामान्यसंग्रहः प्रोक्तश्चैकजातिविशेषकः ॥ - परस्पर अविरोधरूपसे सम्पूर्ण पदार्थों के संग्रहरूप एकवचनके प्रयोगके चातुर्यसे कहा जानेवाला 'सब सत स्वरूप है', इस प्रकार सेना-समूह, वन, नगर वगैरहको आदि लेकर अनेक जातिके समूहको एकवचनरूपसे स्वीकार करके, कथन करनेको सामान्य संग्रह नय कहते है। जीवसमूह, अजीवसमूह; हाथियोंका झुण्ड, घोड़ोंका झुण्ड, रथोंका समूह, पियादे सिपाहियोंका समूह; निंबू, जामुन, आम, वा नारियलका समूह; इसी प्रकार द्विजवर, बणिश्रेष्ठ, कोटपाल वगैरह अठारह श्रेणिका समूह इत्यादिक दृष्टान्तोंके द्वारा प्रत्येक जातिके समूहको नियमसे एकवचनके द्वारा स्वीकार करके कथन करनेको विशेष संग्रह नय कहते है। कहा भी है नेकधा न्यत्र दर्शितमाया पुरुषातामत्यु ना-समूह, बनपसे स्वीकार करजीवसमूह ६. संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक नय है ध.१/१,१,१/गा.६/१२ दव्वट्ठिय-णय-पवई सुद्धा संगह परूवणा विसयो। -संग्रहनयकी प्ररूपणाको विषय करना द्रव्यार्थिक नयकी शुद्ध प्रकृति है । (श्लो.वा४/१/३३/श्लो.३७/२३६); (क.पा.१/१३-१४/गा.८६/२२०); (विशेष दे०/नय/IVI)। और भी दे० नय/III/१/१-२ यह द्रव्याथिकनय है। * व्यवहारनय निर्देश -दे० पृ. ५५६ ५. ऋजुसूत्रनय निर्देश १. ऋजुसूत्र नयका लक्षण १. निरुक्त्यर्थ स.सि./१/३३/१४२/8 अजु प्रगुणं सूत्रप्रति तन्त्रयतीति ऋजुमूत्रः । -- अजुका अर्थ प्रगुण है । ऋजु अर्थात् सरलको सूत्रित करता है ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय III नैगम आदि सात नय निर्देश ६. ऋजुसूत्रनयको द्रव्यार्थिक कहनेका कथंचित् विधि निषेध १. कथंचित् निषेध ध.१०/४,२,२,३/११/४ तब्भवसारिच्छसामण्णप्पयदव्वमिच्छतो उजुसुदो कधं ण दव्य ठ्ठियो। ण, घड-पडत्यंभादिवंजणपज्जायपरिच्छिण्णसगपुवावरभावविरहियउजुबट्टविसयस्स दब्बठ्ठियणयत्तविरोहादो। का प्रश्न-तद्भावसामान्य व सादृश्यसामान्यरूप द्रव्यको स्वीकार करनेवाला ऋजुसूत्रनय (दे० स्थूल ऋजुसूत्रनयका लक्षण) द्रव्याथिक कैसे नहीं है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, ऋजुसूत्रनय घट, पट व स्तम्भादि स्वरूप व्यंजनपर्यायोंसे परिच्छिन्न ऐसे अपने पूर्वापर भावोंसे रहित वर्तमान मात्रको विषय करता है, अतः उसे द्रव्यार्थिक नय मानने में विरोध आता है अर्थात् स्वीकार करता है. वह ऋजुमूत्र नय है । (रा.वा./१/३३/७/६६/ ३०) (क.पा.१/१३-१४/३१८५/२२३/३) (आ.प./8) २. वर्तमानकालमात्र ग्राही स. सि./२/३३/१४२/६ पूर्वापरास्त्रिकाल विषयानतिशय्य वर्तमानकालविषयानादत्ते अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् । -- यह नय पहिले और पीछेवाले तीनो कालों के विषयोंको ग्रहण न करके वर्तमान कालके विषयभूत पदार्थों को ग्रहण करता है, क्योंकि अतीतके विनष्ट और अनागतके अनुत्पन्न होनेसे उनमे व्यवहार नहीं हो सकता । (रा.वा /१/३३/9/६६/११), (रा.वा./४/४२/१७/२६१/५), (ह.पु./५८/४६), (ध.६/४,१,४५/१७१/७) (न्या,टी.//९८५/१२८)। और भी दे० ( नय/III/१/२) (नय/IV/३) २. ऋजुसूत्र नयके भेद ध.६/४,१,४६/२४४/२ उजुसुदो दुविहो सुद्धो असुद्धो चेदि । = ऋजुसूत्रनय शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकारका है। आ.प./५ ऋजुसूत्रो द्विविध' । सूक्ष्मणुसूत्रो “स्थूलर्जुसूत्रो ।-ऋजुसूत्रनय दो प्रकारका है-सूक्ष्म ऋजुसूत्र और स्थूल ऋजुसूत्र । ३. सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्रनयके लक्षण ध.६/४,१,४६/२४४/२ तत्थ सुद्धो बसईकयअत्थपज्जाओ पडिक्रवणं विवट्टमाणासेसत्यो अप्पणो विसयादो ओसारिदसारिच्छ-तब्भावलक्खणसामण्णो । "...तत्थ जो असुद्धो उजुसुदणओ सो चक्रबुपासिय वेंजणपज्जयविसओ।" अर्थपर्यायको विषय करनेवाला शुद्ध अजुसूत्र नय है । वह प्रत्येक क्षणमें परिणमन करनेवाले समस्त पदार्थों को विषय करता हुआ अपने विषयसे सादृश्यसामान्य व तद्भावरूप सामान्यको दूर करनेवाला है । जो अशुद्ध ऋजुसूत्र नय है, वह चक्षु इन्द्रियकी विषयभूत व्यंजन पर्यायोको विषय करनेवाला है। आ.प./५ सूक्ष्मणुसूत्रो यथा-एकसमयावस्थायी पर्यायः । स्थूलसूत्रो यथा-मनुष्यादिपर्यायास्तदायु प्रमाणकालं तिष्ठन्ति । सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय एकसमय अस्थायी पर्यायको विषय करता है। और स्थूल ऋजुसूत्रकी अपेक्षा मनुष्यादि पर्यायें स्व स्व आयुप्रमाणकाल पर्यन्त ठहरती हैं। (न च.बृ./२११-२१२) (न.च./श्रुत/पृ.१६) का.अ./मू./२७४ जो वट्टमाणकाले अत्थपज्जायपरिणदं अत्थं। संतं साहदि सव्वं तं पि णयं उज्जुयं जाण ।२७४। वर्तमानकालमें अर्थ पर्यायरूप परिणत अर्थको जो सत रूप साधता है वह ऋजुसूत्र नय है। (यह लक्षण यद्यपि सामान्य ऋजुसूत्रके लिए किया गया है, परन्तु सूक्ष्मऋजुसूत्रपर घटित होता है) ४. ऋजुसूत्राभासका लक्षण श्लो,वा,४/१/३३/श्लो,६२/२४८ निराकरोति यद्रव्यं बहिरन्तश्च सर्वथा। स तदाभोऽभिमन्तव्यः प्रतीतेर पलापत.। • एतेन चित्राद्वैतं. संवेदनाद्वैतं क्षणिकमित्यपि मननमृजुत्राभासमायातीत्युक्तं वेदितब्य (पृ. २५३/४)। - बहिरंग ब अन्तरंग दोनों द्रव्योंका सर्वथा अपलाप करनेवाले चित्राद्वैतवादी, विज्ञानाद्वैतवादी व क्षणिकवादी बौद्धोंकी मान्यतामें अजुमूत्रनयका आभास है, क्योंकि उनकी सब मान्यताएँ प्रतीति व प्रमाणसे बाधित है। (विशेष दे० श्लो.वा,४/२/३३/श्लो, ६३-६७/२४८-२५५), (स्या. म./२/३१८/२४) ५. ऋजुसूत्रनय शुद्ध पर्यायाथिक है। न्या.दी./३/8८५/१२४/७ जुसूत्रनयस्तु परमपर्यायार्थिकः । = ऋजुसूत्रनय परम (शुद्ध) पर्यायाथिक नय है । (सूक्ष्म ऋजुसूत्र शुद्ध पर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिक-नय/IV/३) (और भी दे०/नय/III/९/१-२) २. कथंचित् विधि घ.१०/४,२,३,३/१५/६ उजुसुदस्स पज्जवठियस्स कधं दव्वं विसओ। ण, वंजणपज्जायमहिट्ठियस्स दव्वस्स तस्विसयत्ताविरोहादो। ण च उप्पादविणासलक्खणतं तचिसयदवस्स विरुज्झदे, अप्पिदपज्जायभावाभावलक्रवण-उप्पाद विणासविदिरित्त अवट्ठाणाणुवलं भादो। ण च पढमसमए उप्पण्णस्स विदियादिसमएसु अबट्ठाणं, तत्थ पढमविदियादिसमयकप्पणए कारणाभावादो। ण च उत्पादो चेव अबढाणं, विरोहादो उप्पादलक्रवणभावविदिरित्तअबढाणलक्खणाणुवलं भादो च। तदो अव्यढाणाभावादो उप्पाद विणासलकवण दव्वमिदि सिद्ध। - प्रश्न-जुसूत्र चूकि पर्यायार्थिक है, अत. उसका द्रव्य विषय कैसे हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्यो कि, व्यंजन पर्यायको प्राप्त द्रव्य उसका विषय है, ऐसा माननेमें कोई विरोध नहीं आता। (अर्थात अशुद्ध अजुसूत्रको द्रव्यार्थिक मानने में कोई विरोध नहीं है-ध./8) (ध.६/४,१,५८/२६५/६), (ध.१२/४.२,८,१४/२६०/५) (निक्षेप/३/४ ) प्रश्न-ऋजुसूत्रके विषयभूत द्रव्यको उत्पाद विनाश लक्षण मानने में विरोध आता है। उत्तर --सो भी बात नहीं है; क्योंकि, विवक्षित पर्यायका सद्भाव ही उत्पाद है और उसका अभाव ही व्यय है। इसके सिवा अवस्थान स्वतन्त्र रूपसे नही पाया जाता । प्रश्न-प्रथम समयमे पर्याय उत्पन्न होती है और द्वितीयादि समयोंमें उसका अवस्थान होता है। उत्तर-यह बात नहीं बनती%3B क्योंकि उसमे प्रथम व द्वितीयादि समयोंकी कल्पनाका कोई कारण नहीं है । प्रश्न-फिर तो उत्पाद ही अवस्थान बन बैठेगा । उत्तरसो भी बात नहीं है क्योकि, एक तो ऐसा माननेमें विरोध आता है, दूसरे उत्पादस्वरूप भाषको छोडकर अवस्थानका और कोई लक्षण पाया नही जाता। इस कारण अबस्थानका अभाव होनेसे उत्पाद व विनाश स्वरूप द्रव्य है, यह सिद्ध हुआ। (वही व्यंजन पर्यायरूप द्रव्य स्थूल ऋजुमूत्रका विषय है । ध.१२/४,२.१४/२६०/६ वट्टमाणकाल बिसयउजुसुदवत्थुस्स दवणाभावादो ण तत्थ दव्व मिदि णाणावरणीयवेयणा णस्थि त्ति वुत्ते-ण, वट्टमाणकालस्स बंजणपज्जाए पड्डुच्च अवट्टियस्स सगाससावयवाणं गदस्स दब्वत्तं पडि विरोहाभावादो। अप्पिदपज्जाएण वट्टमाणत्तमा वण्णस्स वत्थुस्स अणप्रिपद पज्जाएमु दवणविरोहाभावादो वा अस्थि उजुसुदणयविसए दव्य मिदि। -प्रश्न-वर्तमानकाल विषयक ऋजुसूत्रनयकी विषयभूत वस्तुका द्रवण नहीं होनेसे चू कि उसका विषय, द्रव्य नहीं हो सकता है, अत. ज्ञानावरणीय वेदना उसका विषय नहीं है। उत्तर-ऐसा पूछनेपर उत्तर देते है, कि ऐसा नहीं है, क्योंकि वर्तमानकाल व्यंजन पर्यायोका आलम्बन करके अवस्थित है (दे० जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय III नैगम आदि सात नय निर्देश लिये गये शब्दका यथा योग्य प्रयोग करना शब्दनय है। दे. नय/I/४/२ ( शब्द परसे अर्थका बोध करानेवाला शब्दनय है)। २. अनेक शब्दोंका एक वाच्य मानता है। रा, वा/४/४२/१०/२६१/१६ शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य. एकः । शब्दनयमे अनेक पर्यायवाची शब्दोंका वाच्य एक होता है। स्या. म./२८/३१३/२ शब्दस्तु रूढितो यावन्तो ध्वनय' कस्मिंश्चिदर्थे प्रवर्तन्ते यथा इन्द्रशक्रपुरन्दरादय' सुरपतौ तेषां सर्वेषामप्येकमर्थमभिप्रेति किल प्रतीतिवशाद् । रूढिसे सम्पूर्ण शब्दोके एक अर्थ में प्रयुक्त होनेको शब्दनय कहते है। जैसे इन्द्र शक्र पुरन्दर आदि शब्द एक अर्थ के द्योतक है। अगला शीर्षक), एवं अपने समस्त अवयवोंको प्राप्त है, अतः उसके द्रव्य होनेमे कोई विरोध नही है। अथवा विवक्षित पर्यायसे वर्तमानताको प्राप्त बस्तुको अविवक्षित पर्यायोमे द्रव्यका विरोध न होनेसे, ऋजुसूत्रके विषयमे द्रव्य सम्भव है ही। क.पा.१/१,१३-१४/६२१३/२६३/६ वंजणपज्जायविसयस्स उजुसुदस्स बहुकालावट्ठाणं होदि त्ति णासंकणिज्ज; अप्पिदवंजणपज्जायअवट्टाणकालस्स दव्वस्स वि वट्टमाणत्तणेण गहणादो। यदि कहा जाय कि व्यंजन पर्यापको विषय करनेवाला ऋजुसूत्रनय बहुत कालतक अवस्थित रहता है; इसलिए, वह अजुसूत्र नहीं हो सकता है: क्योकि उसका काल वर्तमानमात्र है। सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नही है, क्योकि, विवक्षित पर्यायके अवस्थान कालरूप द्रव्यको भी ऋजुसूत्रनय वर्तमान रूपसे ही ग्रहण करता है। ७. सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्रकी अपेक्षा वतमान कालका प्रमाण दे० नय/III/१/२ वर्तमान वचनको ऋजुसूत्र वचन कहते है। ऋजुसूत्रके प्रतिपादक वचनोंके विच्छेद रूप समयसे लेकर एक समय पर्यन्त वस्तुकी स्थितिका निश्चय करनेवाले पर्यायार्थिक नय है। (अर्थात मुखद्वारसे पदार्थ का नामोच्चारण हो चुकनेके पश्चात्से लेकर एक समय पर्यन्त ही उस पदार्थको स्थितिका निश्चय करनेवाला पर्यायार्थिक नय है। ध./४,१,४५/१७२/१ कोऽत्र वर्तमानकाल । आरम्भारप्रभृत्या उपरमा देष वर्तमानकाल । एष चानेकप्रकार', अर्थव्यञ्जनपर्यायास्थितेरनेकविधत्वात् । ध.६/४,१,४६/२४४/२ तत्थ सुद्धो विसईकयअत्थपज्जाओ पडिक्रवणं विवट्टमाण...जो सो असुद्धो.. तेसिं कालो जहण्णेण अंतोमुहूत्तमुक्कस्सेण छम्मासा संखेज्जा वासाणि वा । कुदो। चक्विदियगेझवेजणपज्जायाणमप्पहाणीभूदव्वाणमेत्तियं कालभवट्ठाणुवलंभादो। जदि एरिसो वि पज्जवट्ठियणओ अस्थि तो-उपज्जति वियंति य भावा णियमेण पज्जवणयस्स । इच्चेण सम्मइसुत्तेण सह विरोहो होदि त्ति उत्ते ण होवि, असुद्ध उजुसुदेण विसईवयवे जणपज्जाए अप्पहाणीकयसेसपज्जाए पुब्बावरकोटीणमभावेण उप्पत्तिविणासे मोत्तूण उवट्ठाणमुवलं भादो । प्रश्न-यहाँ वर्तमानकालका क्या स्वरूप है ! उत्तर-विवक्षित पर्यायके प्रारम्भकालसे लेकर उसका अन्त होनेतक जो काल है वह वर्तमान काल है। अर्थ और व्यंजन पर्यायोंकी स्थितिके अनेक प्रकार होनेसे यह काल अनेक प्रकार है। तहाँ शुद्ध ऋजुमूत्र प्रत्येक क्षणमे परिणमन करनेवाले पदार्थाको विषय करता है ( अर्थात् शुद्ध ऋजुमूत्रनयकी अपेक्षा वर्तमानकालका प्रमाण एक समय मात्र है) और अशुद्ध ऋजुमूत्रके विषयभूत पदार्थोका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे छ मास अथवा संरख्यात वर्ष है. क्योकि, चक्षु इन्द्रियसे ग्राह्य व्यंजनपर्याये द्रव्यकी प्रधानतासे रहित होती हुई इतने कालतक अवस्थित पायी जाती हैं। प्रश्न-यदि ऐसा भी पर्यायाथिकनय है तो-पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते है और नष्ट होते है, इस सन्मतिसूत्रके साथ विरोध होगा। उत्तर-नहीं होगा; क्योकि, अशुद्ध ऋजुसूत्रके द्वारा व्यंजन पर्यायें हो विषय की जाती है. और शेष पर्याये अप्रधान हैं। (किन्तु प्रस्तुत सूत्रमे शुद्रऋजुसूत्र की विवक्षा होनेसे ) पूर्वापर कोटियोंका अभाव होनेके कारण उत्पत्ति व विनाशको छोड़कर अवस्थान पाया ही नहीं जाता। ६. शब्दनय निर्देश १. शब्दनयका सामान्य लक्षण आ.प./६ शब्दाइ व्याकरणात प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्धः शब्द. शब्दनयः। -शब्द अर्थात् व्याकरणसे प्रकृति व प्रत्यय आदिके द्वारा सिद्ध कर ३. पर्यायवाची शब्दों में अभेद मानता है रा. वा./४/४२/१७/२६१/११ शब्दे पर्यायशब्दान्तरप्रयोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेद। - शब्दनयमें पर्यायवाची विभिन्न शब्दोंका प्रयोग होनेपर भी, उसी अर्थका कथन होता है, अत अभेद है। स्या. म./२८/३१३/२६ न च इन्द्रशक्रपुरन्दरादय. पर्यायशब्दा विभि नार्थवाचितया कदाचन प्रतीयन्ते । तेभ्यः सर्वदा एकाकारपरामर्शोत्पत्तेरस्वलितवृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति । शब्द्यते आहूयतेऽनेनाभिप्रायेणार्थः इति निरुक्तात् एकार्थप्रतिपादनाभिप्रायेणैव पर्यायध्वनीना प्रयोगात् । - इन्द्र, शक्र और पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्द कभी भिन्न अर्थका प्रतिपादन नहीं करते, क्योंकि, उनसे सर्वदा अस्खलित वृत्तिसे एक ही अर्थ के ज्ञान होनेका व्यवहार देखा जाता है। अतः पर्यायवाची शब्दोका एक ही अर्थ है। 'जिस अभिप्रायसे शब्द कहा जाय या बुलाया जाय उसे शब्द कहते है', इस निरुक्ति परसे भी उपरोक्त ही बात सिद्ध होती है, क्योंकि एकार्थ प्रतिपादनके अभिप्रायसे ही पर्यायवाची शब्द कहे जाते है। दे. नय/III/9/४ (परन्तु यह एकार्थता समान काल व लिंग आदिवाले शब्दोमे ही है, सब पर्यायवाचियोमे नही)। ४. पर्यायवाची शब्दोंके प्रयोगमें लिंग आदिका व्यमि चार स्वीकार नहीं करता स, सि./१/३३/१४३/४ लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपरः शब्दनय' । लिग, संख्या, साधन आदि (पृरुष, काल व उपग्रह) के व्यभिचारकी निवृत्ति करनेवाला शब्दनय है। (रा.वा./१/३३/ ६/१८/१२); (ह. पु/५८/४७): (ध. १/१,१,१/८/१);(ध.६/४,१, ४५/१७६/५): ( क. पा. १/१३-१४/९ १६७/२३५); (त, सा./१/४८)। रा. वा./१/३३/४/८/२३ एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ताः। कुतः। अन्यार्थस्याऽज्यार्थन संबन्धाभावाद । यदि स्यात् घटः पटो भवतु पटो वा प्रासाद इति । तस्माद्यथालिङ्ग यथासंख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् । = इत्यादि व्यभिचार (दे० आगे) अयुक्त हैं, क्योकि अन्य अर्थका अन्य अर्थसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अन्यथा घट पट हो जायेगा और पट मकान बन बैठेगा । अत. यथालिंग यथावचन और यथासाधन प्रयोग करना चाहिए । (स.सि./१/२३/१४४ १) (श्लो. वा. ४/१/३३/श्लो. ७२/२५६ ) (घ. १/१,१,१/८६/१) (ध, १/४,१,४५/१७८/३); (क. पा. १/१३-१४/११७/२३७/३)। श्लो. वा. ४/१/३३/श्लो.६८/२५५ कालादिभेदतोऽर्थस्य भेदं यः प्रतिपादयेत । सोऽत्र शब्दनयः शब्दप्रधानवादुदाहृतः। -जो नम काल कारक आदिकें भेदसे अर्थ के भेदको समझता है, वह शब्द प्रधान होनेके कारण शब्दनय कहा जाता है। (प्रमेय कमल मार्तण्ड/प. २०६) (का.अ./मू.२७५)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५३७ III नैगम आदि सात नय निर्देश यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकाला शब्दा भिन्नमेव अर्थमभिदर्धात भिन्नकालशब्दत्वात् तादृसिद्धान्यशब्दवत् इत्यादि काल आदिके भेदसे शब्द और अर्थको सर्वथा अलग माननेको शब्दनयाभास कहते है। जैसे-सुमेरु था, सुमेरु है, और सुमेरु होना आदि भिन्न भिन्न काल के शब्द, भिन्न कालवाची होनेसे, अन्य भिन्नकालवाची शब्दोकी भॉति ही, भिन्न भिन्न अर्थों का ही प्रतिपादन करते है। न. च. वृ/२१३ जो वहणं ण मण्णइ एयत्थे भिण्ण लिंग आईणं । सो सहणओ भणिओ ओ साइआण जहा ।२१३। जो भिन्न लिंग आदिवाले शब्दोंकी एक अर्थ में वृत्ति नहीं मानता बह शब्दनय है, जसे पुरुष, स्त्री आदि। न. च./श्रुत/पृ. १७ शब्दप्रयोगस्याथ जानामीति कृत्वा तत्र एकार्थ मेक शब्देन ज्ञाने सति पर्यायशब्दस्य अर्थक्रमो यथेति चेत् पुष्यतारका नक्षत्रमित्येकार्थो भवति । अथवा दारा कलत्रं भार्या इति एकार्थी भवतीति कारणेन लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचार मुक्त्वा शब्दानुसारार्थ स्वीकर्तव्यमिति शब्दनयः । उक्तं च-लक्षणस्य प्रवृत्तौ वा स्वभावाविष्टालिङ्गतः । शब्दो लिङ्ग स्वसंख्यां च न परित्यज्य वर्तते । ='शब्दप्रयोगके अर्थको मैं जानता हूँ' इस प्रकारके अभिप्रायको घारण करके एक शब्दके द्वारा एक अर्थ के जान लेनेपर पर्यायवाची शब्दोंके अर्थक्रमको (भी भली भाँति जान लेता है। जैसे पुष्य तारका और नक्षत्र, भिन्न लिंगवाले तीन शब्द ( यद्यपि ) एकार्थबाची हैं' अथवा दारा कलत्र भार्या ये तीनों भी ( यद्यपि ) एकार्थवाची है। परन्तु कारेणवशात् लिंग संख्या साधन वगैरह व्यचिचारको छोड़कर शब्दके अनुसार अर्थ का स्वीकार करना चाहिए इस प्रकार शब्दनय है। कहा भी है-लक्षण की प्रवृत्तिमे या स्वभावसे आविष्ट-युक्त लिंगसे शब्दनय, लिंग और स्वसंरव्याको न छोड़ते हुए रहता है। इस प्रकार शब्दनय बतलाया गया है। भावार्थ-(यद्यपि 'भिन्न लिंग आदि वाले शब्द भी व्यवहारमें एकार्थवाची समझे जाते है, ऐसा यह नय जानता है, और मानता भी है। परन्तु वाक्यमें उनका प्रयोग करते समय उनमें लिंगादिका व्यभिचार आने नहीं देता। अभिप्रायमें उन्हे एकार्थवाची समझते हुए भी वाक्यमें प्रयोग करते समय कारणवशात लिंगादिके अनुसार ही उनमें अर्थभेद स्वीकार करता है। ) (आ. प./२) । स्या, म./२८/३१३/३० यथा चाय पर्यायशब्दानामेकमर्थमभिप्रैति तथा तटस्तटी तटस् इति विरुद्ध लिङ्गलक्षणधर्माभिसंबन्धाद वस्तुनो भेद चाभिधत्ते। न हि विरुद्धधर्मकृत भेदमनुभवतो वस्तुनो विरुद्धधर्मायोगो युक्तः । एवं संख्याकालकारकपुरुषादिभेदाद अपि भेदोऽभ्युपगन्तव्यः। स्या. म./२/३१६ पर उदधृत श्लोक नं.५ विरोधिलिङ्गसंख्यादिभेदाद भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्दः प्रत्यवतिष्ठत ।। जैसे इन्द्र शक पुरन्दर ये तीनों समान लिगी शब्द एक अर्थको द्यो तित करते हैं। वैसे तटः, तटो, तटम् इन शब्दोंसे विरुद्ध लिंगरूप धर्मसे सम्बन्ध होनेके कारण, वस्तुका भेद भी समझा जाता है । विरुद्ध धर्मकृत भेदका अनुभव करनेवाली वस्तुमें विरुद्ध धर्मका सम्बन्ध न मानना भी युक्त नहीं है । इस प्रकार संख्या काल कारक पुरुष आदिके भेदसे पर्यायवाची शब्दोंके अर्थ में भेद भी समझना चाहिए। ध.१/१,१.१/गा.७/१३ मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुदवयणविच्छेदो। तस्स दु सद्दादीया साह पसाहा मुहमभेया।-ऋजुसूत्र वचनका विच्छेदरूप वर्तमानकाल ही पर्यायार्थिक नयका मूल आधार है, और शब्दादि नय शाखा उपशाखा रूप उसके उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद हैं। श्लो. वा.४/१/३३/६८/२६/१७ कालकारकलिड्गसंख्यासाधनोपग्रहभेदाद्भिन्नमर्थ शपतीति शब्दो नयः शब्दप्रधानत्वादुदाहृतः। यस्तु व्यवहारनयः कालादिभेदेऽप्यभिन्नमर्थमभिप्रेति । काल, कारक, लिंग, संख्या, साधन और उपग्रह आदिके भेदोंसे जो नय भिन्न अर्थको समझाता है वह नय शब्द प्रधान होनेसे शब्दनय कहा गया है, और इसके पूर्व जो व्यवहारनय कहा गया है वह तो (व्याकरण शास्त्रके अनुसार) काल आदिके भेद होनेपर भी अभिन्न अर्थको समझानेका अभिप्राय रखता है। (नय/III//७ तथा निक्षेप/9/9)। ५. शब्दनयाभासका लक्षण स्या: म./२/३१५/२६ तदभेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभासः।। ६. लिंगादि व्यभिचारका तात्पर्य नोट- यद्यपि व्याकरण शास्त्र भी शब्द प्रयोगके दोषोको स्वीकार नहीं करता, परन्तु कहो-कही अपव.दरूपसे भिन्न लिग आदि वाले शब्दोका भी सामानाधिकरण्य रूपसे प्रयोग कर देता है। तहाँ शब्दनय उन दोषोका भी निराकरण करता है। वे दोष निम्न प्रकार हैरा. वा./१/३३/६/६८/१४ तत्र लिङ्गव्यभिचारस्तावतस्त्रीलिङ्ग पुल्लिङ्गाभिधानं तारका स्वातिरिति। पंल्लिङ्ग स्थ्यभिधानम् अवगमो विद्ये ति । स्त्रीत्वे नपंसकाभिधानम् वीणा आतोद्यमिति । नसके स्त्यभिधानम् आयुध शक्तिरिति । पुंल्लिड्न नपंसकाभिधानं पटो वस्त्रमिति । नसके पुल्लिङ्गाभिधानं द्रव्यं परशुरिति । संख्याव्यभिचारः-एकत्वे द्विस्वम्-गोदौ ग्राम इति। द्वित्वे बहुत्वम्म पुनर्वसू पञ्चतारका इति। बहुत्वे एकत्वम्-आग्रा वनमिति । बहुत्वे द्वित्वम्-देवमनुषा उभौ राशी इति । साधनव्यभिचारः-एहि मन्थे रथेन यास्यसि, नहि यास्यसि यातस्ते पितेति । आदिशब्देन कालादिव्यभिचारो गृह्यते। विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता, भावि कृत्यमासीदिति कालव्यभिचार' । संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमत्युपरमतीति उपग्रहव्यभिचार' ।-१. स्त्रीलिगके स्थानपर पंलिगका कथन करना और पलिगके स्थानपर स्खी लिगका कथन करना आदि लिंग व्यभिचार है। जैसे-(१)-'तारका स्वाति' स्वाति नक्षत्र तारका है। यहॉपर तारका शब्द स्त्रीलिंग और स्वाति शब्द लिंग है। इसलिए स्त्रीलिगके स्थानपर पुंलिंग कहनेसे लिग व्यभिचार है। (२) 'अवगमो विद्या' ज्ञान विद्या है। यहाँपर अवगम शब्द पुंलिग और विद्या शब्द स्त्रीलिग है। इसलिए पुंल्लिगके स्थानपर स्त्रीलिग कहनेसे लिंग व्यभिचार है। इसी प्रकार (३) 'बीणा आतोद्यम्' वीणा बाजा आतोद्य कहा जाता है। यहाँ पर वीणा शब्द स्त्रीलिंग और आतोद्य शब्द, नपुंसकलिग है। (४) 'आयुधं शक्तिः ' शक्ति आयुध है। यहॉपर आयुध शब्द नपुंसकलिग और शक्ति शब्द स्त्रीलिग है। (५) 'पटो वस्त्रम्' पट वस्त्र है। यहॉपर पट शब्द पंल्लिग और वस्त्र शब्द नपुंसकलिग है। (६) 'आयुधं परशुः' फरसा आयुध है। यहाँ पर आयुध शब्द नपुंसकलिग और परशु शब्द पुंलिग है। २. एकवचनकी जगह द्विवचन आदिका क्थन करना संख्या व्यभिचार है। जैसे (१) 'नक्षत्रं पुनर्वसू' पुनर्वसू नक्षत्र है। यहाँपर नक्षत्र शब्द एकवचनान्त और पुनर्वसू शब्द द्विवचनान्त है। इसलिए एकवचनके स्थानपर द्विवचमका कथन करनेसे संख्या व्यभिचार है। इसी प्रकार-(२) 'नक्षत्रं शतभिषजः' शतभिषज नक्षत्र है। यहाँ पर नक्षत्र शब्द एकवचनान्त और शतभिषज् शब्द बहुवचनान्त है। (३) 'गोदौ ग्रामः' गायों को देनेवाला ग्राम है। यहाँपर गोद शब्द द्विवचनान्त और ग्राम शब्द एकवचनान्त है । (४) 'पुनर्वसू पञ्चतारकाः' पुनर्वसू पाँच तारे है। यहाँपर पुनर्वसू द्विवचनान्त और पंचतारका शब्द बहुवचनान्त है । (१) 'आयाः बनम्' आमोंके वृक्ष वन हैं। यहाँपर आन शब्द बहुवचनान्त और वन शब्द एकवचनान्त है। (4) 'देवमनुष्या उभौ राशी' देव और मनुष्य ये दो राशि है। यहाँपर देवमनुष्य शब्द बहुवचनान्त और राशि शब्द द्विवचनान्त है। ३. भविष्यत आदि कालके स्थानपर भूत आदि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-६८ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५३८ III नैगम आदि सात नय निर्देश कालका प्रयोग करना कालव्यभिचार है । जैसे-(१) विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता' जिसने समस्त विश्वको देख लिया है ऐसा इसके पुत्र उत्पन्न होगा। यहॉपर विश्वका देखना भविष्यत् कालका कार्य है, परन्तु उसका भूतकालके प्रयोग द्वारा कथन किया गया है। इसलिए भविष्यत् कालका कार्य भूत कालमें कहनेसे कालव्यभिचार है। इसी तरह (२) भाविकृत्यमासीत् आगे होनेवाला कार्य हो चुका। यहाँपर भूतकालके स्थानपर भविष्य कालका कथन किया गया है। ४. एक साधन अर्थात् एक कारकके स्थानपर दूसरे कारकके प्रयोग करनेको साधन या कारक व्यभिचार कहते हैं। जैसे-'प्राममधिशेते' वह ग्रामोमें शयन करता है । यहाँ पर सप्तमीके स्थानपर द्वितीया विभक्ति या कारकका प्रयोग किया गया है, इसलिए यह साधन व्यभिचार है । ५. उत्तम पुरुषके स्थानपर मध्यम पुरुष और मध्यम पुरुषके स्थानपर उत्तम पुरुष आदिके कथन करनेको पुरुषव्यभिचार कहते है । जैसे-एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहि यास्यसि यातस्ते पिता' आओ, तुम समझते हो कि मैं रथसे जाऊँगा परन्तु अब न जाओगे, क्योकि तुम्हारा पिता चला गया। यहाँ पर उपहास करनेके लिए 'मन्यसे' के स्थान पर 'मन्ये' ऐसा उत्तम पुरुषका और 'यास्यामि' के स्थानपर 'यास्यसि' ऐसा मध्यम पुरुषका प्रयोग हुआ है। इसलिए पुरुषव्यभिचार है। ६. उपसर्गके निमित्तसे परस्मैपदके स्थानपर आत्मनेपद और आत्मनेपदके स्थानपर परस्मैपदका कथन कर देनेको उपग्रह व्यभिचार कहते हैं। जैसे 'रमते' के स्थानपर "विरमति'; 'तिष्ठति' के स्थानपर 'संतिष्ठते' और 'विशति' के स्थानपर 'निविशते' का प्रयोग व्याकरणमें किया जाना प्रसिद्ध है । (स. सि./१/३३/१४३/४); (श्लो. वा. ४/१/३३/श्लो. ६०-७१/२५५); (ध.१/१,१.१/८१/१); (ध.१/४,१,४५/१७६/६); (क. पा. १/१३१४/११६७/२३३/३)। भेदेऽप्यभिन्नमर्थमारता उपसर्गस्य धात्वर्थ मात्रद्योतकत्वादिति । तदपि न श्रेयः। तिष्ठति प्रतिष्ठत इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसङ्गात् । ततः कालादिभेदाद्भिन्न एवार्थोऽन्यथातिप्रसङ्गादिति शब्दनय' प्रकाशयति। तभेदेऽप्यर्थाभेदे 'दूषणान्तरं च दर्शयति-तथा कालादिनानात्वकल्पनं निष्प्रयोजनम् । सिद्धं कालादिन केन कार्यस्येष्टस्य तत्त्वतः ७३। कालाधन्यतमस्यैव कल्पनं ते विधीयताम् । येषां कालादिभेदेऽपि पदार्थकत्वनिश्चयः ।७४। शब्दकालादिभिभिन्नाभिनार्थ प्रतिपादकः। कालादिभिन्नशब्दत्वादृक्सिद्धान्यशब्दवत 1७५॥ ४०-१, काल व्यभिचार विषयक-वैयाकरणीजन व्यवहारनयके अनुरोधसे 'धातु सम्बन्धसे प्रत्यय बदल जाते हैं। इस सूत्रका आश्रय करके ऐसा प्रयोग करते हैं कि 'विश्वको देख चुकनेवाला पुत्र इसके उत्पन्न होवेगा' अथवा 'होनेवाला कार्य हो चुका'। इस प्रकार कालभेद होनेपर भी वे इन में एक ही वाच्यार्थका आदर करते हैं। तो आगे जाकर विश्वको देखेगा ऐसा पुत्र इसके उत्पन्न होगा' ऐसा न कहकर उपरोक्त प्रकार भविष्यत् कालके साथ अतीत कालका अभेद मान लेते हैं, केवल इसलिए कि लोकमें इस प्रकारके प्रयोगका व्यवहार देखा जाता है। परीक्षा करनेपर उनका यह मन्तव्य श्रेष्ठ नहीं है, क्योकि एक तो ऐसा माननेसे मूल सिद्धान्तकी क्षति होती है और दूसरे अतिप्रसंग दोष प्राप्त होता है। क्योंकि, ऐसा माननेपर भूतकालीन रावण और अनागत कालं न शख चक्रवर्ती में भी एकपना प्राप्त हो जाना चाहिए। वे दोनों एक बन बैठेगे। यदि तुम यह कहो कि रावण राजा हुआ था और शंख चक्रवर्ती होगा, इस प्रकार इन शब्दोकी भिन्न विषयार्थता बन जाती है, तब तो विश्वदृश्वा और जनिता इन दोनों शब्दोंकी भी एकार्थता न होओ। क्योंकि 'जिसने विश्वको देख लिया है' ऐसे इस अतीतकालवाची विश्वदृश्वा शब्दका जो अर्थ है, वह 'उत्पन्न होवेगा' ऐसे इस भविष्यकालवाची जनिता शब्दका अर्थ नहीं है । कारण कि भविष्यत् कालमें होनेवाले पुत्रको अतीतकाल सम्बन्धीपनेका विरोध है। फिर भी यदि यह कहो कि भूतकालमें भविष्य कालका अध्यारोप करनेसे दोनों शब्दोंका एक अर्थ इष्ट कर लिया गया है, तब तो काल-भेद होनेपर भी वास्तविकरूपसे अर्थोके अभेदकी व्यवस्था नहीं हो सकती। और यही बात शब्दनय समझा रहा है । २. साधन या कारक व्यभिचार विषयक-तिस ही प्रकार वे वैयाकरणी जन कतकिारक वाले 'करोति' और कर्मकारक वाले 'क्रियते' इन दोनों शब्दों में कारक भेद होनेपर भी, इनका अभिन्न अर्थ मानते हैं; कारण कि, 'देवदत्त कुछ करता है' और 'देवदत्तके द्वारा कुछ किया जाता है। इन दोनों वाक्योंका एक अर्थ प्रतीत हो रहा है। परीक्षा करनेपर इस प्रकार मानना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो 'देवदत्त चटाईको बनाता है' इस वाक्य में प्रयुक्त कर्ताकारक रूप देवदत्त और कर्मकारक रूप चटाईमें भी अभेदका प्रसंग आता है। ३. लिंग व्यभिचार विषयक-सिसी प्रकार वे वैयाकरणी जन 'पुष्यनक्षत्र तारा है' यहाँ लिग भेद होनेपर भी, उनके द्वारा किये गये एक ही अर्थका आदर करते है, क्योंकि लोकमें कई तारकाओसे मिलकर बना एक पुष्य नक्षत्र माना गया है। उनका कहना है कि शब्दके लिगका नियत करना लोकके आश्रयसे होता है। उनका ऐसा कहना श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेसे तो पुल्लिगी पट. और स्त्रीलिंगी झोपड़ी इन दोनों शब्दोंके भी एकार्थ हो जानेका प्रसंग प्राप्त होता है। ४. सरख्या व्यभिचार विषयक-तिसी प्रकार वे वैयाकरणी जन 'आपः' इस स्त्रीलिंगी बहुचनान्त शब्दका और 'अम्भः' इस नपुंसकलिंगी एकवचनान्त शब्दका, लिंग व संख्या भेद होनेपर भी, एक जल नामक अर्थ ग्रहण करते हैं। उनके यहाँ संख्याभेदसे अर्थ में भेद नहीं पड़ता जैसे कि गुरुत्व साधन आदि शब्द । उनका ऐसा मानना श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर तो एक घट और अनेक तन्तु इन दोनोंका भी एक ही अर्थ होनेका प्रसंग प्राप्त होता है । ५. पुरुष व्यभिचार विषयक ७. उक्त व्यभिचारों में दोष प्रदर्शन श्लो, वा./४/१/३३/७२/२५७/१६ यो हि वैयाकरणव्यवहारनयानुरोधेन 'धातुसंबन्धे प्रत्ययः' इति सूत्रमारभ्य विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता भाविकृत्यमासीदित्यत्र कालभेदेऽप्येकपदार्थमाइता यो विश्वं द्रक्ष्यति सोऽस्य पुत्रो जनितेति भविष्यत्कालेनातीतकालस्याभेदोऽभिमतः तथा व्यवहारदर्शनादिति । तन्न श्रेयः परीक्षायां मूलक्षते. कालभेदेऽप्यर्थस्याभेदेऽतिप्रसगाव रावणशङ्खचक्रवर्तिनोरप्यतीतानागतकालयोरेकत्वापत्तेः । आसीद्रावणो राजा शङ्खचक्रवर्ती भविष्यतीति शब्दयोभिनविषयत्वान्नै कार्थतेति चेत्, विश्वदृश्वा जनितेत्यनयोरपि मा भूत तत एव । न हि विश्व दृष्टवानिति विश्वदृश्वेति शब्दस्य योऽर्थोऽतीतकालस्य जनितेति शब्दस्यानागतकालः। पुत्रस्य भाविनोऽतीतत्वविरोधाद। अतीतकालस्याप्यनागतत्वाध्यारोपादेकार्थताभिप्रेतेति चेत, तहि न परमार्थत कालभेदेऽप्यभिन्नार्थव्यवस्था। तथा करोति क्रियते इति कारकयोः कतृ कर्मणो देऽप्यभिन्नमर्थत एबादियते स एवं करोति किंचित् स एव क्रियते केनचिदिति प्रतीतैरिति। तदपि न श्रेयः परीक्षायो । देवदत्तः कटं करोतीत्यत्रापि कतृ कर्मणोर्देवदत्तकटयोरभेदप्रसङ्गात् । तथा पुष्यस्तारकेत्यत्र व्यक्तिभेदेऽपि तत्कृतार्थमेकमाद्रियन्ते, लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वादि । तदपि न श्रेयः, पटकुटोत्यत्रापि कुटकुट्योरेकत्वप्रसङ्गात् तल्लिङ्गभेदाविशेषात् । तथापोऽम्भ इत्यत्र संख्याभेदेऽप्येकमथं जलायमादृताः संख्याभेदस्याभेदकत्वाव गुर्वा दिवदिति । तदपि न श्रेयः परोक्षायाम् । वस्तंतव इत्यत्रापि तथाभावानुषगात संख्याभेदाविशेषात । एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहि यास्यसि स यातस्ते पिता इति साधनभेदेऽपि पदार्थमभिन्नमादृताः "प्रहसे मन्यवाचि युष्मन्मन्यतरस्मादेकवच" इति वचनाव। तदपि न श्रेयः परीक्षाया, अहं पचामि त्वं पचसीत्यत्रापि अस्मद्य ष्मत्साधनाभेदेऽप्येकार्थत्वप्रसङ्गात् । तथा 'संतिष्ठते अवतिष्ठत' इत्यत्रोपसर्ग जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय “हे विदूषक, इधर आओ। तुम मनमें मान रहे होगे कि मैं रथ द्वारा मेले में जाऊँगा, किन्तु तुम नहीं जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता भी गया था " इस प्रकार यहाँ साधन या पुरुषका भेद होनेपर भी वे वैयाकरणी जन एक ही अर्थ का आदर करते हैं। उनका कहना है कि उपहास के प्रसंग में 'मन्य' धातुके प्रकृतिभूत होनेपर दूसरी धातुओंके उत्तमपुरुष के बदले मध्यम पुरुष हो जाता है, और मन्यति धातुको उत्तमपुरुष हो जाता है, जो कि एक अर्थका वाचक है। किन्तु उनका यह कहना भी उत्तम नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेसे तो 'मैं पका रहा हूँ', 'तू पकाता है' इत्यादि स्थलोंमें भी अस्मद् और युष्मत् साधनका अभेद होनेपर एकार्थपनेका प्रसंग होगा । ६. उपसर्ग व्यभिचार विषयक -- तिसी प्रकार वैयाकरणीजन 'संस्थान करता है', 'अवस्थान करता है' इत्यादि प्रयोगों में उपसर्गके भेद होनेपर भी अभिन्न अर्थ को पकड़ बैठे हैं। उनका कहना है कि उपसर्ग केवल धातुके अर्थका घोटन करनेवाले होते हैं मे किसी नवीन अर्थके वाचक नहीं है। उनका यह कहना भी प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो 'तिष्ठति' अर्थात् ठहरता है और 'प्रतिष्ठते' अर्थात् गमन करता है, इन दोनों प्रयोगों में भी एकार्थताका प्रसंग आता है। ७. इसके अतिरिक्त अन्य भी अनेक दूषण आते हैं । (१) लकार या कृदन्तमें अथवा लौकिक वाक्य प्रयोगोंमें कालादिके नानापनेकी कल्पना व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि एक ही काल या उपसर्ग आदि से वास्तविक रूपसे इष्टकार्यकी सिद्धि हो जायेगी ।०३। काल आदिके भेदसे अर्थ भेद न माननेवालोको कोई सा एक काल या कारक आदि ही मान लेना चाहिए । ७४| काल आदिका भिन्न-भिन्न स्वीकार किया जाना ही उनको भिन्नार्थताका द्योतक है । ७५ ॥ 1 ५३९ ९. सर्व प्रयोगोंको दूषित बतानेसे तो व्याकरणशास्त्र के साथ विरोध आता है ? स.सि /१/१२/१४४/१ एवं प्रकार व्यवहारमन्यास्यं मन्यतेः बग्वार्थस्यान्यार्थेन संबन्धाभावात् लोकसमयविरोध इति चेत् विरुध्यता। उमिह मीमांस्यते न भैषज्यमातुरेच्छानुषति । यद्यपि व्यवहारमें ऐसे प्रयोग होते हैं, तथापि इस प्रकारके आहारको शब्दनय अनुचित मानता है, क्योंकि पर्यायार्थिक नयकी दृष्टिसे अन्य अर्थका अन्य अर्थ के साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता। प्रश्न- इससे लोक समयका ( व्याकरण शास्त्रका) विरोध होता है। उत्तर--यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं है, क्योंकि यहाँ तत्त्वकी मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ रोगीको इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती । (रा. बा./१/३३/६/१८/२५) । ७. समभिरूढ नय निर्देश १. समभिरुद्ध नयके लक्षण २. अर्थ मेदसे शब्द भेद (रूढ शब्द प्रयोग ) स.सि./१/२३/१४२/४ नानार्थ समधिरोहणात्सम भिरूडः। यतो नानार्थान्स तीर्थमाभिमुख्येन रुद्रः समभिरूद्धः। गौरित्ययं शब्दों वागादिष्वर्थेषु वर्तमानः पशावभिरूढः । - नाना अर्थोंका समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरूढ नय कहलाता है । चु कि जो नाना अको 'सम' अर्थात् छोड़कर प्रधानतासे एक अर्थ में रूढ होता है। मह समभिरू नय है। उदाहरणार्थ गो' इस शब्दकी बचन, पृथिवी आदि ११ अर्थाने प्रवृति मानी जाती है, तो भी इस नयको अपेक्षा मह एक पशु विशेषके अर्थगे रूढ है (रा.वा./१/३१/१०/१८/२६) 1 III नैगम आदि सात नय निर्देश (खा.प. ५) (न.च.वृ./२१६) १ (न.. /श्रत / पृ.१८) (त.सा./१/४६): (का.अ./ यू./२०६)। रा.वा./४/४२/१७/२६१/१२ समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् (अभेद) । समभिरूढ नयमें घटनकिया परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही पटका निरूपण होता है । अर्थात् जो शब्द जिस पदार्थ के लिए रूढ कर दिया गया है, वह शब्द हर अवस्था में उस पदार्थका वाचक होता है। न. च. / श्रुत/पृ. १८ एकबारमष्टोपवासं कृत्वा मुक्तेऽपि तपोधनं रूढिप्रधानतया यावज्जीवमष्टोपवासीति व्यवहरन्ति स तु समभिरूढनय. । - एक बार आठ उपवास करके मुक्त हो जानेपर भी तपोधनको रूढिकी प्रधानता यावज्जीव अष्टोपवासी कहना समभिरूढ नय है । २. शब्दभेदसे अर्थभेद स.सि./१/१३ / ९४४/५ अथवा अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगः राप्रेकस्यार्थस्यैकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक । शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थ - भेवेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति नानार्थसमभिरोहणात्यमभिरूढः । इन्दनादिन्द्रः, शकनाच्छक्र., पूर्दारणात पुरन्दर इत्येवं सर्वत्र - - अथवा अर्थका ज्ञान करानेके लिए शब्दोंका प्रयोग किया जाता है। ऐसी हालत में एक अर्थ का एक शब्दसे ज्ञान हो जाता है। इसलिए पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार नाना अर्थोका समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरू नय कहलाता है। जैसे इन्द्र, शक और पुरन्दर ये तीन शब्द होनेसे इनके अर्थ भी दोन है। क्योंकि व्युत्पत्तिकी अपेक्षा ऐश्वर्यवाद होनेसे इन्द्र, समर्थ होनेसे शक और नगरोंका दारण करनेसे पुरन्दर होता है । इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए (रा.वा./१/३३/१०/२०/३०), (लो.मा.४/१/२३/रतो. ७६-०७/ २३) (../५८१४८) (.१ / १.१.१/६/४) (६/४१.४५ / १०६/१) (क.पा. १२/१३-१४/२००/२३१/६); (न.च.वृ./२१५); (न.च / श्रुत/पृ.१८); (स्यान /२०/२१४/१५:३९६/३ २१८/२८) । रा.वा./२/४२/१०/२६९/१६ समभिरुते वा नेमितिका शब्दस्यैकशब्दवाच्य एकः । =समभिरूढ नय चूँकि शब्द नैमित्तिक है अत. एक शब्दका वाच्य एक ही होता है । ३. वस्तुका निजस्वरूपमें रूढ रहना स.सि./१/३३/१४४/- अथवा यो यत्राभिरूढः स तत्र समेत्याभिमुख्येनारोहणात्समभिरूढ' । यथा क्व भवानास्ते । आत्मनीति । कुतः । वस्त्वन्तरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्रवृत्तिः स्यात, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्तिः स्यात् । अथवा जो जहाँ अभिरूढ है वह यहाँ 'म्' अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ होनेके कारण समभिरूड़ नय कहलाता है । यथा-आप कहाँ रहते हैं ? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तुकी अन्य वस्तु वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्यकी अन्य में वृत्ति होती है, ऐसा माना जाये तो ज्ञानादिककी और रूपादिककी आकाशमें वृत्ति होने लगे। (रा.वा./१/३३/१०/१६/२) । २. यद्यपि रूढिगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं आ.प./१ परस्परेणाभिरुद्धाः समभिः शन्दभेदेऽयर्थभेदो नास्ति । शक्र इन्द्रः पुरन्दर इत्यादयः समभिरूढाः । =जो शब्द परस्परमें अभिरूड या प्रसिद्ध हैं ये समभिरूड हैं उन शब्दों में भेद होते हुए भी अर्थ भेद नहीं होता । जैसे— शक्र, इन्द्र व पुरन्दर ये तीनों शब्द एक देवराज के लिए अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं । ( विशेष दे० मतिज्ञान / ३/४ ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५४० III नैगम आदि सात नय निर्देश कारक लिंग आदि वाले पर्यायवाची शब्दोंका वह एक ही अर्थ मानता है। वह केवल कारक आदिका भेद हो जानेसे ही पर्यायवाची शब्दोंमें अर्थ भेद मानता है, परन्तु कारकादिका भेद न होनेपर अर्थात समान कारकादिवाले पर्यायवाची शब्दोंमें अभिन्न अर्थ स्वीकार करता है। किन्तु समभिरूढ नय तो पर्यायभेद होनेपर भी उन शब्दोंमें अर्थभेद मानता है। जैसे-कि इन्द्र, पुरन्दर व शक इत्यादि पर्यायवाची शब्द उसी प्रकार भिन्नार्थ गोचर है, जैसे कि बाजी (घोड़ा) व वारण (हाथी) ये शब्द । ५. सममिरूढ नयामासका लक्षण स्या.म./२/३१८/३० पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कुक्षीकुर्वाणस्तदाभास'। यथेन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादयः शब्दाः भिन्नाभिधेया एव भिन्नशब्दत्वात करिकुरतुरङ्गशब्दवद् इत्यादिः। -पर्यायवाची शब्दोंके वाच्यमें सर्वथा नानापना मानना समभिरूढाभास है। जैसे कि इन्द्र, शक्र, पुरन्दर इत्यादि शब्दोंका अर्थ, भिन्न शब्द होनेके कारण उसी प्रकारसे भिन्न मानना जैसे कि हाथी, हिरण, घोड़ा इन शब्दोंका अर्थ। ३. परन्तु यहाँ पर्यायवाची शब्द नहीं हो सकते स. सि./२/३३/१४४/६ तत्रैकस्यार्थस्येकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थकः । शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति ।-जब एक अर्थ का एक शब्दसे ज्ञान हो जाता है तो पर्यायवाची शब्दोंका प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। (रा.वा./१/३३/१०/६/३०)। क. पा.१/१३-१४/६२००/२४०/१ अस्मिन्नये न सन्ति पर्यायशब्दाः प्रतिपदमर्थभेदाभ्युपगमाव। नच द्वौ शब्दावेकस्मिन्नर्थे वर्तेतेः भिन्नयोरेकार्थवृत्तिविरोधात् । न च समानशक्तित्वात्तत्र वर्तते; समानशक्त्योः शब्दयोरेकत्वापत्तेः। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेन भाव्यमिति। - इस नयमें पर्यायवाची शब्द नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि यह नय प्रत्येक पदका भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। दो शब्द एक अर्थ में रहते हैं, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न दो शब्दोंका एक अर्थमें सद्भाव माननेमें विरोध आता है । यदि कहा जाये कि उन दोनों शब्दोंमें समान शक्ति पायी जाती है, इसलिए वे एक अर्थ में रहते हैं, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दो शब्दोंमें सर्वथा समान शक्ति माननेसे वे वास्तवमें दो न रहकर एक हो जायेंगे। इसलिए जब वाचक शब्दोंमें भेद पाया जाता है तो उनके वाच्यभूत अर्थ में भी भेद होना ही चाहिए । (ध.१/१,१,१॥ ८६/५)। घ.६/४,१,४५/१८०/१ न स्वतो व्यतिरिक्ताशेषार्थव्यवच्छेदकः शब्दः अयोग्यत्वात् । योग्यः शब्दो योग्यार्थस्य व्यवच्छेदक इति"न च शब्दद्वयोद्वैविध्ये तत्सामर्थ्ययोरेकरवं न्यायम, भिन्नकालोत्पन्नद्रव्योपादानभिन्नाधारयोरेकत्वविरोधात। न च सादृश्यमपि तयोरेकत्वापत्तेः। ततो वाचकभेदादवश्य वाच्यभेदेनापि भवितव्यमिति। -शब्द अपनेसे भिन्न समस्त पदार्थों का व्यवच्छेदक नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें बैसी योग्यता नहीं है, किन्तु योग्य शब्द योग्य अर्थका व्यवच्छेदक होता है। दूसरे, शब्दोंके दो प्रकार होनेपर उनकी शक्तियोंको एक मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि भिन्न कालमें उत्पन्न व उपादान एवं भिन्न आधारवाली शब्दशक्तियोंके अभिन्न होनेका विरोध है। इनमें सादृश्य भी नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होनेपर एकताकी आपत्ति आती है। इस कारण वाचकके भेदसे वाच्य भेद अवश्य होना चाहिए। नोट-शब्द व अर्थ में बाच्य-वाचक सम्बन्ध व उसकी सिद्धिके लिए दे० आगम/४। ८. एवंभूतनय निर्देश ४. शब्द व सममिरूढ नयमें अन्तर श्लो. वा./४/१/३३/७६/२६३/२१ विश्वदृश्वा सर्वदृश्वेति पर्यायभेदेऽपि शब्दोऽभिन्नार्थमभिप्रेति भविता भविष्यतीति च-कालभेदाभिमननाव। क्रियते विधीयते करोति विदधाति पुष्यस्तिष्यः तारकोड: आपो वा अम्भः सलिलमित्यादिपर्यायभेदेऽपि चाभिन्नमर्थ शब्दो मन्यते कारकादिभेदादेवार्थभेदाभिमननाद । समभिरूढः पुनः पर्यायभेदेऽपि भिन्नार्थानामभिप्रेति । कथं-इन्द्रः पुरन्दरः शक्र इत्याद्याभिन्नगोचरः । यद्वा विभिन्नशब्दत्वाद्वाजिवारणशब्दबत् ७१ -जो विश्वको देख चुका है या जो सबको देख चुका है इन शब्दोंमें पर्यायभेद होनेपर भी शब्द नय इनके अर्थको अभिन्न मानता है। भविता (लुट् ) और भविष्यति (लट् ) इस प्रकार पर्यायभेद होनेपर भी, कालभेद न होनेके कारण शब्दनय दोनोंका एक अर्थ मानता है। तथा किया जाता है, विधान किया जाता है इन शब्दोंका तथा इसी प्रकारः पुष्य व तिष्य इन दोनों एल्लिगी शब्दोंका; तारका व उडका इन दोनों स्त्रोलिंगी शब्दोंका; स्त्रोलिंगी 'अप' व बार शब्दों का नपुंसकलिंगी अम्भस् और सलिल शब्दोंकाः इत्यादि समानकाल १. तस्क्रियापरिणत द्रव्य ही शब्दका वाच्य है स. सि/१/३३/१४६/३ येनात्मना भूतस्तेनै वाध्यवसायतीति एवंभूतः । स्वाभिप्रेतक्रियापरिणतिक्षणे एव स शब्दो युक्तो नान्यथेति । यदैवेन्दति तदैवेन्द्रो नाभिषेचको न पूजक इति । यदैव गच्छति तदैव गौर्न स्थितो न शयित इति । जो वस्तु जिस पर्यायको प्राप्त हुई है उसी रूप निश्चय करनेवाले (नाम देनेवाले) नयको एवंभूत नय कहते हैं। आशय यह है कि जिस शब्दका जो वाच्य है उस रूप क्रियाके परिणमनके समय ही उस शब्दका प्रयोग करना युक्त है, अन्य समयोंमें नहीं। जैसे-जिस समय आज्ञा व ऐश्वर्यवान हो उस समय ही इन्द्र है. अभिषेक या पूजा करनेवाला नहीं। जब गमन करती हो तभी गाय है, बैठी या सोती हुई नहीं। (रा.वा./१/३३/११/६६/); (श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.७८-७६/२६२); (ह.पु./५८/४६); (आ.प./५व); (न.च./श्रुत/पृ.१६पर उद्धृत श्लोक); (त सा /१/५०); (का-अ/मू./२७७), (स्या.म./२८/३११/३)। घ.१४१.१.१/१०/३ एवं भेदे भवनादेवंभूतः। -एवंभेद अर्थात् जिस शब्दका जो वाच्य है वह तद्रूप क्रियासे परिणत समयमें ही पाया जाता है। उसे जो विषय करता है उसे एवंभूतनय कहते हैं। (क पा./ १३-१४/३२०१/२४२/१)। न.च.व./२१६ जंजं करेह कम्मं देही मणवयणकायदो । तं खु _णामजुत्तो एवंभूदो हवे सणओ ।२१६॥ न. च./श्रुत/पृ.१६ यः कश्चित्पुरुषः रागपरिणतो परिणमनकाले रागीति भवति । द्वेषपरिणतो परिणमनकाले द्वेषीति कथ्यते ।..शेषकाले तथा न कथ्यते । इति तप्तायःपिण्डवत् तत्काले यदाकृतिस्तद्विशेष वस्तुपरिणमनं तदा काले 'तक्काले तम्मपत्तादो' इति वचनमस्तीति क्रियाविशेषाभिदानं स्वीकरोति अथवा अभिदानं न स्वीकरोतीति व्यवहरणमेवभूतनयो भवति। -१. यह जीव मन वचन कायसे जब जो-जो चेष्टा करता है, तम उस-उस नामसे युक्त हो जाता है, ऐसा एवंभूत नय कहता है। २. जैसे रागसे परिणत जीव रागपरिणतिके काल में ही रागी होता है और द्वेष परिणत जीव द्वेषपरिणतिके कालमें ही द्वेष्टा कहलाता है। अन्य समयोंमें वह वैसा नहीं कहा जाता। इस प्रकार अग्निसे तपे हुए लोहेके गोलेवद, उम-उस कालमें जिस-जिस आकृति विशेषमें वस्तुका परिणमन होता है, सस जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५४१ III नैगम आदि सात नय निर्देश कालमे उस रूपसे तन्मय होता है। इस प्रकार आगमका वचन है। ४. इस नयको दृष्टिमें वाक्य सम्भव नहीं है। अत क्रियाविशेपके नामकथनको स्वीकार करता है, अन्यथा नामकथन को ग्रहण नहीं करता। इस प्रकारसे व्यवहार करना एवंभूत घ.१/१,१,१/१०/३ न पदाना...परस्परव्यपेक्षाप्यस्ति वर्थिसंख्या कालादिभिभिन्नानां पदाना भिन्नपदापेक्षायोगात । ततो न वाक्यहोता है। मप्यस्तोति सिद्धम् । = शब्दो में परस्पर सापेक्षता भी नहीं है, क्योंकि २. तज्ज्ञानारिणत आत्मा उस शब्दका वाच्य है वर्ण अर्थ संख्या और काल आदिके भेदसे भेदको प्राप्त हुए पदोके १. निर्देश दूसरे पदोंकी अपेक्षा नहीं बन सकती। जब कि एक पद दूसरे पदकी अपेक्षा नहीं रखता है, तो इस नयकी दृष्टिमें बाक्य भी नहीं बन स.सि./९/३३/१४५/५ अथवा येनात्मना येन ज्ञानेन भूतः परिणतस्तेनै सकता है यह बात सिद्ध हो जाती है। वाध्यवसाययति । यथेन्द्राग्निज्ञानपरिणत आत्मैवेन्द्रोऽग्निश्चेति । = अथवा जिस रूपसे अर्थात जिस ज्ञानसे आत्मा परिणत हो उसी ५. इस नयमें पदसमास सम्भव नहीं रूपसे उसका निश्चय करानेवाला नय एवंभूतनय है। यथा-इन्द्र- क.पा १/१३-१४/६२०१/२४२/१ अस्मिन्नये न पदानां समासोऽस्ति: रूप ज्ञानसे परिणत आत्मा इन्द्र है और अग्निरूप ज्ञानसे परिणत स्वरूपत. कालभेदेन च भिन्मानामेकत्वविरोधात । न पदानामेककालआत्मा अग्नि है । (रावा.१/३३/११/१६/१०)।। वृत्तिसमास' क्रमोत्पन्नानां क्षणक्षयिणां तदनुपपत्ते. । नैकार्थे वृत्तिः रा.वा./१/२/५/१/१ यथा “आत्मा तत्परिणामादग्निव्यपदेशभाग भवति, समास" भिन्नपदानामेकार्थे वृत्त्यनुपपत्तेः। =इस नयमें पदोंका स एवभूतनयवक्तव्यतया उष्णपर्यायादनन्या, तथा एवंभूतनयवक्तव्य- समास नहीं होता है; क्योंकि, जो पद काल व स्वरूपकी अपेक्षा वशाज् ज्ञानदर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव ज्ञानं दर्शनं च तत्स्वाभा- भिन्न हैं, उन्हें एक माननेमें विरोध आता है। एककालवृत्तिसमास व्यात् ।- एव भूतनयको दृष्टिसे ज्ञान क्रियामे परिणत आत्मा हो कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पद क्रमसे उत्पन्न होते हैं और ज्ञान है और दर्शनक्रियामें परिणत आत्मा दर्शन है। जैसे कि उष्ण- क्षणध्वंसी हैं। एकार्थ वृत्तिसमास कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पर्यायमे परिणत आत्मा अग्नि है। भिन्न पदोका एक अर्थ में रहता बन नहीं सकता। (ध.१/१,१.१/80/३) रा.वा /१/३३/१२/६६/१३ स्यादेतत्-अग्न्यादिव्यपदेशो यद्यात्मनि क्रियते ६. इस नयमें वर्णसमास तक भी सम्भव नहीं दाहकत्वाद्यतिप्रसज्यते इति; उच्यते-तदव्यतिरेकादप्रसङ्गः। तानि नामादीनि येन रूपेण व्यपदिश्यन्ते ततस्तेषामव्यतिरेकः प्रति घ.१/४,१,४५/१६०/७ बाचकगतवर्णभेदेनार्थस्य भेदक एवंभूतः। - जो नियतार्थवृत्तित्वाद्धर्माणाम् । ततो नो आगमभावाग्नौ वर्तमानं दाह शब्दगत 'घ' 'ट' आदि वर्गों के भेदसे अर्थका भेदक है, वह एवंकत्वं कथमागमभावाग्नौ वर्तेत । = प्रश्न-ज्ञान या आत्मामें अग्नि भूतनय है। व्यपदेश यदि किया जायेगा तो उसमें दाहकत्व आदिका अतिप्रसंग क.पा.१/१३-१४/६२०९/२४२/४ न वर्णसमासोऽप्यस्ति तत्रापि पदसमाप्राप्त होगा । उत्तर--नही; क्यो कि, नाम स्थापना आदि निक्षेपों में सोक्तदोषप्रसङ्गात । तत एक एव वर्ण एकार्थवाचक इति पदगतवर्णपदार्थ के जो-जो धर्म वाच्य होते है, वे ही उनमे रहेंगे, नोआगमभाव मात्रार्थः एकार्थ इत्येवंभूताभिप्रायवात् एवंभूतनयः । = इस नयमें (भोतिक) अग्निमे ही दाहकत्व आदि धर्म होते है उनका प्रसंग जिस प्रकार पदोका समास नहीं बन सकता, उसी प्रकार 'घ' 'ट' आगमभाव (ज्ञानात्मक) अग्निमें देना उचित नहीं है। आदि अनेक वर्णों का भी समास नहीं बन सकता है, क्योंकि ऊपर पदसमास मानने में जो दोष कह आये हैं, वे सब दोष यहाँ भी प्राप्त ३. अथभेदसे शब्दभेद और शब्दभेदसे अर्थभेद करता है होते हैं। इसलिए एवंभूतनयकी दृष्टि में एक ही वर्ण एक अर्थका वाचक है । अत'घट' आदि पदोंमें रहनेवाले छ, अ., अ आदि रा.वा. १/४/४२/१७/२६१/१३ एवभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यै वर्णमात्र अर्थ ही एकार्थ हैं, इस प्रकारके अभिप्रायवाला एवंभूतनय वार्थ स्याभिधानात भेदेनाभिधानम् ।...एवं भूतवर्तमाननिमित्तशब्द समझना चाहिए। (विशेष तथा समन्वय दे० आगम/४/४) एकवाच्य एक.। -एवंभूतनयमें प्रवृत्तिनिमित्तसे भिन्न एक ही अर्थका निरूपण होता है, इसलिए यहाँ सत्र शब्दोंमे अर्थभेद है। ७. सममिरूढ व एवंभूतमें अन्तर एवं भूतनय वर्तमान निमित्तको पकडता है, अतः उसके मतसे एक __ श्लो वा./४/१/३३/७८/२६६/७ समभिरूढो हि शकनक्रियायां सत्यामशब्दका वाच्य एक ही है। सत्यां च देवराजार्थस्य शक्रव्यपदेशमभिप्रैति, पशोर्गमनक्रियायां ध.१/१,१,२/१०/५ ततः पदमेकमेकार्थस्य वाचकमित्यध्यवसायः इत्येवं- सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत्तथारूढेः सद्भावात् । एवं भूतस्तु शकनभूतनयः । एतस्मिन्नये एको गोशब्दो नानार्थे न वर्तते एकस्यैक- क्रियापरिणतमेवार्थ तरिक्रयाकाले शक्रमभिप्रैति नान्यदा। -समभिस्वभावस्य बहुषु वृत्तिविरोधात् । = एक पद एक ही अर्थका वाचक रूढनय तो सामर्थ्य धारनरूप क्रियाके होनेपर अथवा नहीं होनेपर होता है, इस प्रकारके विषय करनेवाले नयको एवंभूतनय कहते हैं। भी देवोंके राजा इन्द्रको 'शक' कहनेका, तथा गमन क्रियाके होनेपर इस नयकी दृष्टि में एक 'गो' शब्द नाना अर्थों में नहीं रहता, क्योंकि अथवा न होनेपर भी अर्थात् बैठी या सोती हुई अवस्थामे भी पशुएक स्वभाववाले एक पदका अनेक अर्थोमें रहना विरुद्ध है। विशेषको 'गौ' कहनेका अभिप्राय रखता है, क्योंकि तिस प्रकार ध.६/४,१,४५/१८०/७ गवाद्यर्थभेदेन गवादिशब्दस्य च भेदकः एवंभूतः। रूढिका सद्भाव पाया जाता है। किन्तु एवंभूतनय तो सामर्थ्य धारनक्रियाभेदे न अर्थ भेदक' एवंभूत', 'शब्दनयान्तर्भूतस्य एवंभूतस्य रूप क्रियासे परिणत ही देवराजको 'शक' और गमन क्रियासे परिणत अर्थनयत्व विरोधात् । - गौ आदि शब्दका भेदक है, वह एवंभूतनय ही पशुविशेषको 'गौ' कहनेका अभिप्राय रखता है, अन्य अवस्थाओंहै। क्रियाका भेद होनेपर एवंभूतनय अर्थका भेदक नहीं है; क्यों कि में नहीं। शब्द नयोके अन्तर्गत आनेवाले एवंभूतनयके अर्थनय होनेका नोट-(यद्यपि दोनों ही नये व्युत्पत्ति भेदसे शब्दके अर्थ में भेद मानती विरोध है। हैं, परन्तु समभिरूढनय तो उस व्युत्पत्तिको सामान्य रूपसे अंगीकार स्या म./२/३१६/उद्धृत श्लो. नं.७ एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नो- करके वस्तुकी हर अवस्थामें उसे स्वीकार कर लेता है। परन्तु त्पद्यते। क्रिपाभेदेन भिन्नत्वाद् एवंभूतोऽभिमन्यते। -वस्तु अमुक एवंभूत तो उस व्युत्पत्तिका अर्थ तभी ग्रहण करता है, जब कि वस्तु क्रिया करनेके समय ही अमुक नामसे कही जा सकती है, वह सदा तक्रिया परिणत होकर साक्षात् रूपसे उस व्युत्पत्तिको विषय बन एक शब्दका बाच्य नही हो सकती, इसे एवंभूतनय कहते हैं। रही हो (स्या.म./२८/३१५.३) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४२ नय iv द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक 4. एवंभूतनयामासका लक्षण स्या. म./२८/३११/३ क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपस्तु तदाभास.। यथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटारव्यं वस्तु न घटशब्दवाच्यम्, घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्त क्रियाश्चन्यरवा पटवद्ध इत्यादि। -क्रियापरिणतिके समयसे अतिरिक्त अन्य समयमें पदार्थको उस शब्दका वाच्य सर्वथा न समझना एवंभूतनयाभास है। जैसे-जल लाने आदिकी क्रियारहित खाली रखा हुआ घड़ा बिलकुल भी 'घट' नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पटकी भाँति वह भी घटन क्रियासे शून्य है। IV द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक १. द्रव्यार्थिकनय सामान्य निर्देश १. द्रव्यार्थिकनयका लक्षण १. द्रव्य ही प्रयोजन जिसका स. सि./२/६/२९/१ द्रव्यमर्थ प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्याथिकः (= द्रव्य जिसका प्रयोजन है, सो द्रव्याथिक है। (रा.वा./१/३३/१/१५/८); (घ. १४१,१,११८३/१९) (ध. ६/४,१,४५/१७०/१) (क. पा, १/१३१४/१८०/२१६/६ ) (आ. प./९) (नि. सा./ता. वृ./१६)। २. पर्यायको गौण करके द्रव्यका ग्रहण श्लो. वा. २/१/६/श्लो. १६/३६१ ताशिन्यपि निःशेषधर्माणा गुणतागतौ। द्रव्याथिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपतः १ - जब सब अंशोंको गौणरूपसे तथा अंशीको मुख्यरूपसे जानना इष्ट हो, तब द्रव्याथिकनयका व्यापार होता है। न.च. वृ./११० पज्जयगउणं किच्चा दव्बंपि य जो हु गिहणए लोए । सो दबत्थिय भणिो "१०-पर्यायको गौण करके जो इस लोकमें द्रव्यको ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं। स. सा./आ./१३ द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिक' | द्रव्य पर्यायात्मक वस्तुमें जो द्रव्यको मुख्यरूपसे अनुभव करावे सो द्रव्याथिकनय है। म. दी./३/१२/१२५ तत्र द्रव्याथिकनयः द्रव्यपर्यायरूपमेकानेकात्मकमनेकान्तं प्रमाणप्रतिपन्नमर्थ विभज्य पर्यायाथिकनयविषयस्य भेदस्योपसर्जनभावेनावस्थानमात्रमध्यनजानव स्वविषय द्रव्यमभेदमेव व्यवहारयति, नयान्तरविषयसापेक्षः सन्नयः इत्यभिधानात् । यथा सुवर्ण मानयेति। अत्र द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्ण दव्यानयनचोदनायां कटकं कुण्डलं केयूरं चोपनयन्नुपनेता कृती भवति, सुवर्णरूपेण कटकादीनां भेदाभावात् । -द्रव्यार्थिकनय प्रमाणके विलयभूत द्रव्यपर्यायात्मक तथा एकानेकात्मक अनेकान्तस्वरूप अर्थका विभाग करके पर्यायाथिकनयके विषयभूत भेदको गौण करता हुआ, उसकी स्थितिमात्रको स्वीकार कर अपने विषयभूत द्रव्यको अभेदरूप व्यवहार कराता है, अन्य नयके विषयका निषेध नहीं करता। इसलिए दूसरे नयके विषयकी अपेक्षा रखनेवाले नयको सद्भनय कहा है। जैसे---यह कहना कि 'सोना लाओं। यहाँ द्रव्यार्थिकनयके अभिप्रायसे 'सोना लाओ' के कहनेपर लानेवाला कड़ा, कुण्डल, केयूर (या सोनेकी डली) इनमेंसे किसीको भी ले आनेसे कृतार्थ हो जाता है, क्योंकि सोनारूपसे कड़ा आदिमें कोई भेद नहीं है। २. द्रव्यार्थिकनय वस्तुके सामान्यांशको अद्वैतरूप विषय करता है स. सि./२/३३/१४०/९ द्रव्यं सामान्यमुत्सर्गः अनुवृत्तिरियर्थः । तद्विषयो द्रव्यार्थिकः। द्रव्यका अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। और इसको विषय करनेवाला नय द्रव्याथिकनय है। (त. सा./ १/३६)। क. पा. १/१३-१४/गा, १०७/२०/२५२ पज्जवणयवाक्कत' बत्थूत्थं] द्रव्ववियस्स वयणिज्ज । जाव दवियोपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्ययणो ।१०७१ = जिस के पश्चात विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसा द्रव्योपयोग अर्थात् सामान्यज्ञान जहाँ तक होता है, वहाँ तक वह वस्तु द्रव्यार्थिकनयका विषय है। तथा वह पर्यायार्थिकनयसे आक्रान्त है । अथवा जो वस्तु पर्यायाथिकनयके द्वारा ग्रहण करके छोड़ दी गयी है, वह द्रव्यार्थिकनयका विषय है। (स.सि./१/६/ २०/१०); (ह. पु./५८/४२)। श्लो. वा. ४/१/३३/३/२१५/१० द्रव्यविषयो द्रव्यार्थः।द्रव्यको विषय करनेवाला द्रव्यार्थ है। (न.च. वृ./१८६)। क. पा.१/१३-१४/१८०/२१६/७ तद्भावलक्षणसामान्येनाभिन्नं सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च वस्त्वभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिक इति यावत् । तदभावलक्षणवाले सामान्यसे अर्थात् पूर्वोत्तर पर्यायोंमें रहनेवाले ऊर्ध्वता सामान्यसे जो अभिन्न है, और सादृश्य लक्षण सामान्यसे अर्थात अनेक समान जातीय पदार्थों में पाये जानेवाले तिर्यग्सामान्यसे जो कथंचिद् अभिन्न है, ऐसी वस्तुको स्वीकार करनेवाला द्रव्यार्थिकनय है। (ध.१/४,१,४५/१६७/११)। प्र. सा./त. प्र./११४ पर्यायार्थिकमेकान्तनिमीलितं विधाय केबलोन्मी लितेन द्रव्याथिकेन यदावलोक्यते तदा नारकतिर्यड्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यमेकमवलोकयतामनक्लोकितविशेषाणां तत्सर्वजीवद्रव्यमिति प्रतिभाति । -पर्यायार्थिक चक्षुको सर्वथा अन्द करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व, तिर्यक्त्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्वपर्यायस्वरूप विशेषोंमें रहनेवाले एक जीव सामान्यको देखनेवाले और विशेषों को न देखनेवाले जीवोको 'यह सब जीव द्रव्य है' ऐसा भासित होता है। का. अ./मू./२६६ जो साहदि सामण्णं अविणाभूदं रिसेसरूवेहि। जाणाजुत्तिबलादो दव्वत्थो सो णओ होदि ।जो नय वस्तुके विशेषरूपोंसे अविनाभूत सामान्यरूपको नाना युक्तियों के बलसे साधता है, वह द्रव्याथिकनय है। ३. द्रव्यकी अपेक्षा विषयकी अद्वैतता १. द्रव्यसे भिन्न पर्याय नामकी कोई वस्तु नहीं रा. वा./१/३३/१/६४/२५ द्रव्यमस्तीति मतिरस्य द्रव्यभवनमेव नातोऽन्ये भावविकाराः, नाप्यभावः तद्वय तिरेकेणानपलब्धेरिति द्रव्यास्तिकः । ...अथवा, द्रव्यमेवार्थोऽस्य न गुणकर्मणी तदवस्थारूपत्वादिति द्रव्यार्थिकः ।...1-व्यका होना ही द्रव्यका अस्तित्व है उससे अन्य भावविकार या पर्याय नहीं है, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यास्तिकनय है। अथवा द्रव्य ही जिसका अर्थ या विषय है, गुण व कर्म ( क्रिया या पर्याय) नहीं, क्योंकि वे भीतदवस्थारूप अर्थात् द्रव्यरूप ही हैं, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यार्थिक नय है। क. पा. १/१३-१४/१८०/२१६/१ द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात । न पर्यायस्तेभ्यः पृथगुत्पद्यते; सत्तादिव्यतिरिक्तपर्यायानुपलम्भाव । न चोत्पत्तिरप्यस्ति; असतः खरविषाणस्योत्पत्तिविरोधात् ।... एतद्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः । द्रव्यसे सर्वथा पृथग्भूत पर्यायोंकी सत्ता नहीं पायी जाती है। पर्याय द्रव्यसे पृथक् उत्पन्न होती है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सत्तादिरूप द्रव्यसे पृथक् पर्यायें नहीं पायी जाती हैं। तथा सत्तादिरूप द्रव्यसे उनको पृथक् माननेपर वे असतरूप हो जाती हैं, अतः उनकी उत्पत्ति भी नहीं बन सकती है, क्योंकि खरविषाणकी तरह असतकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। ऐसा द्रव्य जिस नयका प्रयोजन है वह द्रव्याथिकनय है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय IV द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक २. वस्तुके सब वर्म अभिन्न व एकरस है -- द्रव्यसे पृथग्भूत पर्यायोकी उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योकि असत दे, सप्तभंगी// द्रव्याथिक नयसे काल-आत्मस्वरूप आदि ८ अपेक्षाओ पदार्थ किया नही जा सकता; कार्यको उत्पन्न करनेके लिए उपादानसे द्रव्यके सर्व धर्मोमें अभेद वृत्ति है)। और भी देखो-(नय/IVI कारणका ग्रहण किया जाता है। सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं पायी २/३/१) (नय/IV/२/६/३)। जाती; समर्थ कारण भी शक्य कार्यको ही करते है तथा पदार्थों में कार्यकारणभाव पाया जाता है। ऐसा द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह 8. क्षेत्रकी अपेक्षा विषयकी अद्वैतता है। द्रव्यार्थिक नय है। पं. का./ता, वृ./२७/५७/६ द्रव्याथिकन येन धर्माधर्माकाशद्रव्याण्येकानि और भी दे०-( नय/IV/२/३१४); (नय/IV/२/६/७,१०)। भवन्ति, जीवपुद्गलकालद्रव्याणि पुनरनेकानि। - द्रव्याथिकनयसे ७. इसीसे यह नय वास्तव में एक, अवक्तव्य व निर्विधर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक एक हैं और जीव पुदगल व काल ये तीन द्रव्य अनेक अनेक है । ( दे० द्रव्य/३/४) । और भी देखो नय/IV/२/६/३ भेद निरपेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनयसे धर्म, क. पा. १/१३-१४/गा. १०७/६ २०५ जाव दविओपजोगो अपच्छिमअधर्म, आकाश व जीव इन चारोमें एक प्रदेशीपना है । वियप्पणिव्वयणो 1१०७ -जिसके पीछे विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार दे. नय/IV/२/३/२ प्रत्येक द्रव्य अपने अपनेमें स्थित है। नहीं है ऐसे अन्तिमविशेष तक द्रव्योपयोगकी प्रवृत्ति होती है । ५. कालकी अपेक्षा विषयकी अद्वैतता प. ./पू./५१८ भवति द्रव्यार्थिक इति नय. स्वधात्वर्थसंज्ञकश्चैक - वह अपने धात्वर्थ के अनुसार संज्ञावाला व्याथिक नय एक है। ध, १/१.१.१/गा. ८/१३ दव्य ट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पणमविण8८। और भी देखो-(नय/V/२) - द्रव्याथिकनयकी अपेक्षा पदार्थ सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट स्वभाववाले हैं। (ध,४/१४.४/गा. २६/३३७) (ध.१/४,१,४६/गा.६४/ २. शुद्ध व अशुद्ध द्रव्याथिक नय निर्देश २४४) (क.पा. १/१३-१४/गा,६५/३२०४/२४८) (पं का./मू./११) (पं.ध./पू. २४७)। ..द्रव्यार्थिक नयके दो भेद-शुद्ध व अशुद्ध क. पा. १११३-१४/१८०/२१६/१ अयं सर्वोऽपि 'द्रव्यप्रस्तारः सदादि ध.६/४,१,४६४१७०४५ शुद्धद्रव्यार्थिक, स संग्रह ... अशुद्धद्रव्यार्थिक परमाणुपर्यन्तो नित्य'; द्रव्याच पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् ।। सतः व्यवहारनय । - संग्रहनेय शुद्धद्रव्यार्थिक है और व्यवहारनय अशुद्धआविर्भाव एव उत्पाद' तस्यैव तिरोभाव एव विनाश', इति द्रव्या- द्रव्याथिक । (क. पा. १/१३-१४/१८२/२१६/१) (त.सा./१/४१)। थिकस्य सर्वस्य वस्तुनित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेत स्थितम् । आ. प./ह शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्याधिकस्य भेदी। - शुद्ध निश्चय व एतद्वद्रव्यमर्थ प्रयोजनमस्येति द्रव्याथिक । =सतसे लेकर परमाणु अशुद्ध निश्चय दोनों द्रव्याथिकनयके भेद है। पर्यन्त ये सब द्रव्यप्रस्तार नित्य हैं, क्योंकि द्रव्यसे सर्वथा पृथग्भूत पर्यायोंकी सत्ता नहीं पायी जाती है । सतका आविर्भाव ही उत्पाद २. शुद्ध द्रध्यार्थिक नयका लक्षण है और उसका तिरोभाव हो विनाश है ऐसा समझना चाहिए। इसलिए द्रव्याथिकनयसे समस्त वस्तुएँ नित्य है। इसलिए न तो १. शुद्ध, एक व वचनातीत तत्त्वका प्रयोजक कोई वस्तु उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है । यह निश्चय हो आ. प./६ शुद्धद्रव्यमेवार्थ प्रयोजनमस्येति शुद्धद्रव्याथिक। - शुद्ध जाता है । इस प्रकारका द्रव्य जिस नयका प्रयोजन या विषय है, द्रव्य ही है अर्थ और प्रयोजन जिसका सो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। वह द्रव्याथिकनय है। (ध. १/१,१,१/८४/७) । न. च./श्रुत/पृ. ४३ शुद्धद्रव्यार्थेन चरतीति शुद्धद्रव्यार्थिक' । = जो शुद्धऔर भी देखो-(नय/IV/२/३/३) (नय/IV/२/६/२)। द्रव्यके अर्थरूपसे आचरण करता है वह शुद्ध द्रव्याथिकनय है। ६. मावकी अपेक्षा विषयकी अद्वैतता पं.वि./१/१५७ शुद्ध वागतिवर्तितत्त्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेश इति... | शुद्ध तत्त्व वचनके अगोचर है, ऐसे शुद्ध तत्त्वको ग्रहण रा. वा./१/३३/१/६५/४ अथवा अर्यते गम्यते निष्पाद्यत इत्यर्थः कार्यम् । करनेवाला नय शुद्धादेश है। (पं.ध./पू./७४७)। द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । द्रव्यमेवाथोऽस्य कारणमेव कार्य पं.ध./उ./३३,१३३ अथ शुद्ध नयादेशाच्छुद्धश्चैकविधोऽपि य-शुद्ध नार्थान्तरत्वम्, न कार्यकारणयोः कश्चिद्रूपभेदः तदुभयमेकाकारमेव नयकी अपेक्षासे जीव एक तथा शुद्ध है। पर्वाड्गुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिकः .. अथवा अर्थनमर्थ प्रयोजनम्, और भी दे० नय/III/४-(सत्मात्र है अन्य कुछ नहीं)। द्रव्यमेवार्थोऽस्य प्रत्ययाभिधानानुप्रवृत्तिलिङ्गदर्शनस्य निहोतुमशक्य ३. शुद्धद्रव्यार्थिक नयका विषय त्वादिति द्रव्यार्थिक. -अथवा जो प्राप्त होता है या निष्पन्न होता है, ऐसा कार्य ही अर्थ है । और परिणमन करता है या प्राप्त करता है १. द्रव्यकी अपेक्षा भेद उपचार रहित द्रव्य ऐसा द्रव्य कारण है। द्रव्य ही उस कारणका अर्थ या कार्य है । अर्थात स. सा./मू./१४ जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठ अणण्णय णियदं । अविकारण ही कार्य है, जो कार्य से भिन्न नहीं है । कारण व कार्य में किसी सेसमसं जुत्तं तसुद्धणयं वियाणीहि।१४ = जो नय आत्माको बन्धप्रकारका भेद नहीं है। उङ्गली व उसकी पोरीकी भॉति दोनों रहित और परके स्पर्शसे रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलता रहित, एकाकार हैं। ऐसा द्रव्यार्थिकनय कहता है । अथवा अर्थन या अर्थ विशेष रहित. अन्यके संयोगसे रहित ऐसे पाँच भावरूपसे देखता है, का अर्थ प्रयोजन है। द्रव्य ही जिसका अर्थ या प्रयोजन है सो द्रव्या उसे हे शिष्य ! तू शुद्धनय जान ।१४। (पं.वि./११/१७)। थिक नय है। इसके विचारमें अन्य विज्ञान, अनुगताकार वचन ध.१/४,१४५/९७०५ सत्तादिना य' सर्वस्य पर्यायकलङ्काभावेन अद्वैऔर अनुगत धर्मोंका अर्थात् ज्ञान, शब्द व अर्थ तोनोका लोप नहीं तत्वमध्यवस्थेति शुद्धद्रव्यार्थिक स संग्रहः। =जो सत्ता आदिकी किया जा सकता ! तीनो एकरूप है। अपेक्षासे पर्याय रूप कलंकका अभाव होनेके कारण सबकी अद्वैतताको क. पा. १/१३-१४/१८०/२१६/२ न पर्यायस्तेभ्यः पृथगुत्पद्यते...असद- विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। ( विशेष दे० नय/III करणात उपादानग्रहणात सर्वसंभवाभावात शक्तस्य शक्यकरणात ४) (क. पा./१/१३-१४/ १८२/२१६/१) (न्या. दी./३/८४/कारणाभावाच्च ।......एतद्रव्यमर्थ प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक १२८)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय 15 प्र. स. प्र./ १२५ शुद्धपनिरूपणाय परमव्यसंपर्कासंभवात्पर्मायाणां द्रव्यान्त प्रलयाच्च शुद्धद्रव्य एवात्मावतिष्ठते । शुद्धद्रव्यके निरूपणमें परद्रव्यके सपर्कका असंभव होनेसे और पर्याये द्रव्यके भीतर तीन हो जानेसे आत्मा शुद्धद्रव्य ही रहता है। और भी देखो नयV/१/२ (निश्चयसे न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है ( आत्मा तो एक ज्ञायक मात्र है ) । और भी देखो नम | IV/१/३ द्रव्यार्थिक नय सामान्य में द्रव्यका ब)। और भी देखो नय] [T]२/६/२ (भेद निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नम ) । २. क्षेत्रकी अपेक्षा स्वमें स्थिति प. प्र./मू./१/२६/३२ देहादेहि जो वसह भेयाभेयणएण । सो अप्पा मुणि जीव तुई कि अण् महुए |२१| प.प./टी./२ शुद्धनिश्वयनवेन तु अभेदनयेन स्वदेहान्ने स्वात्मनि वसति यः तमात्मानं मन्यस्व । =जो व्यवहार नयसे देहमें तथा निश्चयनयसे आत्मामें बसता है उसे ही हे जीव तू आत्मा जान | २हा शुद्ध निश्चयन अर्थात अभेदनपसे अपनी देहसे भिन्न रहता हुआ वह निजात्मामें बसता है I इ.सं./टी./११/१८/२ सर्व द्रव्याणि निश्चयनमेन स्वकीयप्रदेशेषु तिष्ठन्ति । सभी निश्चयनयसे निज निज प्रदेशो में रहते हैं। और भी देखो नय] [V]१/४ ) ( | IV/२/६/३)। ३. कालकी अपेक्षा उत्पादव्यय रहित है। पं.का./ता.वृ./११/२७/१६ शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन नरनारकादिविभावपरिणामोत्पतिविनाशरहितस्-शुद्ध द्रव्याविनयसे नर नारकादि विभाव परिणामोंकी उत्पति तथा विनाशसे रहित है। पं. ध. / ५ / २१६ यदि वा शुद्धत्वनयान्नाप्युत्पादो व्ययोऽपि न धौव्यम् । ... केवलं सदिति । २१६६ - शुद्धनयकी अपेक्षा न उत्पाद है, न व्यय है और न मौक्या है, केवल राव है। = और भी देखो - ( नय | IV/१/५ ) ( नय / IV/२/६/२ ) । ( पुइगलका भी ) शुद्ध ४. भावकी अपेक्षा एक व शुद्ध स्वभावी है। आ.प./८ शुद्धद्रव्यार्थिकेन शुद्धस्वभावः । द्रव्याधिकनवसे शुद्धस्वभाव है। प्र.सा.प्र.परिनय नं. ४७ नयेन केवलमृण्मानन्निरुपाधिस्वभावशुद्धयसे आत्मा केवल मिट्टीमात्रकी भाँति शुद्धभाववाला है। (घट, रामपात्र आदिकी भाँति पर्यायगत स्वभाववाला नहीं)। पं. का./ता.वृ. १/४/२१ शुद्ध निश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति । शुद्ध निश्चयनयसे अपनेमें हो आराध्य आराधक भाव होता है। ૧૪૪ IV द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक प्र. सा./त.प्र./परिन. नं. ४६ अनुनयेन पटरावावत्सोपाधि स्वभाव । अशुद्ध नयसे आत्मा घट शराव आदि विशिष्ट ( अर्थात् पर्यायकृत भेदोसे विशिष्ट ) मिट्टी मात्रकी भाँति सोपाधिस्वभाव वाला है। पं.नि./९/१७२७ तद्वाच्यं च तद्वाचकं प्रभेदजनकं शुद्ध तररकस्पितम् | शुद्ध तत्त्व वचनगोचर है। उसका वाचक तथा भेदको प्रगट करनेवाला अशुद्ध नय है । स. सा. पं. जयचन्द / अन्य परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्ध द्रव्यादिकमयके विषय है। और भी देखो नम / V/४ ( व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय होनेसे उसके ही सर्व विकल्प अशुद्धद्रव्यार्थिकनयके विकल्प है। और भी देखो नय / TV / २६ (अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयका पाँच विकल्पों द्वारा लक्षण किया गया है ) । और भी देखो नयV/१ (अशुद्ध निश्चय नयका क्षण )। और भो दे नय/V/९/१/१ (जीन तो मन्य व मोक्षसे अतीत है। और भी देखो आगे ( नम | IV/२/६/१०)। ४. अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयका लक्षण ध. १/४,१,४५/१७१/३ पर्यायकलङ्किततया अशुद्धद्रव्यार्थिकः व्यव हारनय - ( अनेक मेरो रूप ) पर्यायकलंकले युक्त होनेके कारण व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक है । ( विशेष दे० नय/V/४ ) ( क. पा. १/१३-१४/१८२/२१६/२ ) । आ. प / अशुद्धद्रव्यार्थिवेन अशुद्धस्वभावः । अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे (पुद्गल द्रव्यका) अशुद्ध स्वभाव है । आ.प./ अशुद्धयमेवार्थ प्रयोजनमस्येत्यशुद्धद्रव्यार्थिकः अशुद्ध द्रव्य ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो अशुद्ध अत्याधिकतम है। (न. च. / श्रुत/पृ. ४३ ), ५. द्रव्यार्थिकके दश भेका निर्देश आप / ५ द्रव्यार्थिकस्य दश भेदाः । कर्मोपाधिनिरपेक्षः शुद्धद्रव्यार्थिको, ...उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहकः शुद्धद्रव्यार्थिक',... भेदकल्पनानिरपेक्ष' शुद्धोद्रव्याधिक कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धी इव्याधिको उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको, भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धो यार्थिको सापेक्षी द्रव्यार्थिको स्वव्यापिाहयापिंकी, परद्रव्यादिग्राहकद्रव्याधिको परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको द्रव्याधिन १० भेद हैं- १. कर्मोपाधि निरपेक्ष पार्थिक २. उत्पादव्यय गौण सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक; ३. भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्धव्यार्थिक; ४. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक ५. उत्पादव्ययसापेक्ष अधिक भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक; ७ अन्वय द्रव्यार्थिकः ८. स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकः ६. परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकः १० परमभानग्राहक द्रव्यार्थिक। (न.च / श्रुत/पृ. ३६-३७) ६. द्रव्यार्थिक नयदशकके लक्षण ... .. १. कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक य आ.१ / ५ कर्मोपाधिनिरपेक्षः शुद्धद्रव्यार्थिको यथा संसारी जीवो शिद्धसदृक् शुद्धात्मा । 'संसारी जीव सिद्धके समान शुद्धात्मा है' ऐसा कहना कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है । न.च.वृ./१६१ कम्माणं मज्भगदं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं । भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो । कर्मों से बँधे हुए जीवको जो सिद्धों सह शुद्ध बताता है, वह कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्याकिन है (..// ४०/रलो. २) C न.. / श्रुत / पृ. ३ मिथ्यात्वादिगुणस्थाने सिद्धत्वं वदति स्फुटं । कर्मभिनिरपेक्ष शुद्धव्यार्थिको हि सः । मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में अर्थात् अशुद्ध भाव स्थित जोनका जो सिद्धत्व कहता है वह कर्मनिरपेक्ष किमय है। नि.सा./ता.नं./१०० कर्मोपाधिनिरपेक्षतामा निरमार्थिकनयापेक्षा हि भिनभिव्यकर्मभिरच निर्मुक्तम्- कर्मोपाधि निरपेक्ष सत्ताप्राक शुद्ध निश्चयरूप इत्याधिक नमकी अपेक्षा आमा इनद्रव्य व भाव कर्मोंसे निर्मुक्त है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २. सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक आ. ५/५ उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्रहरूः शुद्रव्याधिको यथा व्यं नित्यदपी सत्ता द्रव्यार्थिक नयते द्रव्य नि या नियमानी है (..) (.. //पृ. ४/रतो. २) न.च.मृ / ११२ उप्पादवयं गउणं किच्चा जो गहइ केवला सत्ता । भण्णइ को रह सागाहियो समये ।११२ उत्पाद और व्ययको सो Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५४५ IV द्रव्याथिक व पर्यायाथिक गौण करके मुख्य रूपसे जो केवल सत्ताको ग्रहण करता है, वह सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्याथिकनय कहा गया है। (न.च /श्रुत/४०/श्लो.४) नि. सा /ता.वृ./१६ सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्याथिकन यबलेन पूर्वोक्तव्यजनपर्यायेभ्य. सकाशान्मुक्तामुक्तसमस्तजोवराशय सर्वथा व्यतिरिक्ता एव । सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्याथिकन यके बलसे, मुक्त तथा अमुक्त सभी जीव पूर्वोक्त (नर नारक आदि ) व्यंजन पर्यायोसे सर्वथा व्यतिरिक्त भेद करके उनमें सम्बन्ध स्थापित करता है (जैसे द्रव्य गुण व पर्यायवाला है अथवा जीव ज्ञानवान है) बह भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय है। (न.च./श्रुत/शश्लो .६ तथा/४१/ख.३) (विशेष दे० नय/V/४) ७. अन्वय द्रव्यार्थिक आ.प/५ अन्वयसापेक्षो द्रव्याथिको यथा, गुणपर्यायस्वभाव द्रव्यम् । आ.प./८ अन्वयद्रव्यार्थिकत्वेनै कस्याप्यनेकस्वभावत्वम्। -अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षा गुणपर्याय स्वरूप ही द्रव्य है और इसी लिए इस नयकी अपेक्षा एक द्रव्यके भी अनेक स्वभावीपना है। (जैसे-जीव ज्ञानस्वरूप है, जीव दर्शनस्वरूप है इत्यादि) न.च.वृ/११७ निस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण सव्वदव्वेहिं । विवहावणाहि जो सो अण्णयदव्व थिओ भणिदो।११७ =नि शेष स्वभावोंको जो सर्व द्रव्योंके साथ अन्वय या अनुस्यूत रूपसे कहता है वह अन्वय द्रव्यार्थि कनय है (न. च./श्रुत/४१/श्लो. ४) न. च /श्रुत/पृ. ६/श्लो.७ निःशेषगुणपर्यायान् प्रत्येकं द्रव्यमबबीत् । सोऽन्वयो निश्चयो हेम यथा सरकटकादिषु ।। -जो सम्पूर्ण गुणों और पर्यायों में से प्रत्येकको द्रव्य बतलाता है, वह विद्यमान कड़े वगैरहमें अनुबद्ध रहनेवाले स्वर्ण की भाँति अन्वयद्रव्यार्थिक नय है। प्र. सा./ता. वृ./१०१/१५०/११ पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्य चानुगताकारेणान्वयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विषयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्याथिकनय.।जो पूर्वोक्त उत्पाद आदि तीनका तथा स्वसंवेदनज्ञान दर्शन चारित्र इन तीन गुणोंका (उपलक्षणसे सम्पूर्ण गुण व पर्यायोंका) आधार है वह अन्वय द्रव्य कहलाता है। वह जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्याथिक नय है। ३. भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक आ.प./५ भेदकल्पनानिरपेक्ष' शुतो द्रव्याथिको यथा निजगुणपर्यायस्वभावाद् द्रव्यमभिन्नम्। आ.प./८ भेदकल्पनानिरपेक्षेण कस्वभाव.। -भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा द्रव्य निज गुणपर्यायोके स्वभाव से अभिन्न है तथा एक स्वभावी है। (न.च./श्रुत/४/श्लो.३) न.च. /१६३ गुणगुणिआइचउक्के अत्थे जो जो करइ खलु भेयं । सुद्धो सो दम्वत्यो भेयवियप्पेण णिरवेक्खो ।१९३१ = गुण-गुणी और पर्यायपर्यायी रूप ऐसे चार प्रकारके अर्थ में जो भेद नहीं करता है अर्थात् उन्हे एकरूप ही कहता है, वह भेदविकल्पोंसे निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है । (और भो दे० नय/v/१/२) (न.च./श्रुत/४१/श्लो ५) आ.प/ भेदकल्पनानिरपेक्षेणेतरेषां धर्माधर्माकाशजोवाना चाखण्डत्वादेकप्रदेशत्वम् । - भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे धर्म, अधर्म, आकाश और जीव इन चारों बहुप्रदेशी द्रव्यों के अखण्डता होनेके कारण एकप्रदेशपना है। ४. कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक आ.प./५ कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा। - कर्मजनित क्रोधादि भाव ही आत्मा है ऐसा कहना कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। न.च.वृ./१६४ भावे सरायमादी सव्वे जीवम्मि जो दुजंपदि। सोह असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहिसावेक्खो १६४ -जो सर्व रागादि भावोको जीवमें कहता है अर्थात् जीवको रागादिस्वरूप कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। (न.च./श्रुत/४१/श्लो.१) न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.४ औदयिकादित्रिभावान यो ब्र ते सर्वात्मसत्तया । कर्मोपाधिविशिष्टात्मा स्यादशुद्धस्तु निश्चयः।४।जो नय औदयिक, औपशमिक व क्षायोपशमिक इन तीन भावोंको आत्मसत्तासे युक्त बतलाता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय है। ५. उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक आ.प./५ उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथै कस्मिन्समये द्रव्यमुत्पादव्ययधौव्यात्मकम् । - उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षा द्रव्य एक समयमें ही उत्पाद व्यय व धौव्य रूप इस प्रकार प्रयात्मक है। (न.च.व./१६५), (न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.५) (न.च./श्रुत/४१/श्लो. २) ६. भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक आ.प./५ भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धद्रव्याथिको यथात्मनो ज्ञानदर्शनज्ञाना दयो गुणाः। आ.प./८ भेदकल्पनासापेक्षेग चतुर्णामपि नानाप्रदेशस्वभावत्वम् । -भेद कल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा ज्ञान दर्शन आदि आत्माके गुण हैं, (ऐसा गुण गुणी भेद होता है)-तथा धर्म, अधर्म, आकाश व जीव ये चारों द्रव्य अनेक प्रदेश स्वभाववाले हैं। न.च.वृ./१६६ भेए सदि सब गुणगुणियाईहि कुदि जो दव्वे। सो वि अशुद्धो दिट्टी सहिओ सो भेदकप्पेण । -जो द्रव्यमें गुण-गुणो ८. स्वद्रव्यादि ग्राहक आ. प./५ स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्याथिको यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति। -स्व द्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल व स्वभाव इस स्वचतुष्टयसे ही द्रव्यका अस्तित्व है या इन चारों रूप ही द्रव्यका अस्तित्व स्वभाव है। (आ.प./८); (न. च वृ./१६८),(न, च./श्रुत/पृ.३ पृ.४१/श्लो.५); (नय//५/२) ९. परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्याथिक आ. प./५ परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा-परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्सं नास्ति । - परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल व परभाव इस परचतुष्टयसे द्रव्यका नास्तित्व है। अर्थात् परचतुष्टयकी अपेक्षा द्रव्यका नास्तित्व स्वभाव है। (आ. प./८); (न. च. वृ./१९८); न. च./श्रुत/पृ. ३ तथा ४१/श्लो. ६); (नय/12/२) १०. परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक आ.प./५ परमभावग्राहकद्रव्याथिको यथा-ज्ञानस्वरूप आत्मा। - परमभावग्राहक द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा आत्मा ज्ञानस्वभावमें स्थित है। आ. ५./- परमभावग्राहकेण भव्याभव्यपारिणामिकस्वभावः । ...कर्मनोकर्मणोरचेतनस्वभावः । ... कर्मनोकर्मणोर्मूर्तस्वभावः। ...पुद्गलं बिहाय इतरेषाममूर्तस्वभावः । .. कालपरमाणूनामेकप्रदेशस्वभावम् । -परमभावग्राहक नयसे भव्य व अभव्य पारिणामिक स्वभावी हैं: कर्म व नोकर्म अचेतनस्वभावी है। कर्म व नोकर्म मूर्तस्वभावी हैं, पुद्गलके अतिरिक्त शेष द्रव्य अमृतस्वभावी हैं; काल व परमाणु एकप्रदेशस्वभावी हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-६९ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५४६ IV द्रव्याथिक व पर्यायाथिक न, च. वृ./१६६ गेहद दबसहावं असुद्धसुद्धोवयारपरिचत्तं । सो परमभावगाही णायबो सिद्धिकामेण ।१६६। -जो औदयिकादि अशुद्धभावोंसे तथा शुद्ध क्षायिकभावके उपचारसे रहित केबल द्रव्यके त्रिकाली परिणामाभावरूप स्वभावको ग्रहण करता है उसे परमभावग्राही नय जानना चाहिए । (न. च. वृ./११६) न. च./श्रुत/पृ./३ संसारमुक्तपर्यायाणामाधारं भूत्वाप्यात्मद्रव्यकर्मबन्धमोक्षाणां कारणं न भवतीति परमभावग्राहकद्रव्यार्थिकनयः। -परमभाव ग्राहकनयकी अपेक्षा आत्मा संसार व मुक्त पर्यायोका आधार होकर भी कोंके बन्ध व मोक्षका कारण नही होता है। स. सा./ता. वृ./३२०/४०८/५ सर्वविशुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धोपादानभूतेन शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन कर्तृत्व-भोक्तृत्वमोक्षादि. कारणपरिणामचन्यो जीव इति सूचितः। -सर्वविशुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक, शुद्ध उपादानभूत शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे, जीव कर्ता, भोक्ता व मोक्ष आदिके कारणरूप परिणामोंसे शून्य है। द्र. सै/टी./५७/२३६ यस्तु शुद्धशक्तिरूप. शुद्धपारिणामिकपरमभाव लक्षणपरमनिश्चयमोक्षः स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानी भविष्यतीत्येवं न । -जो शुद्धदव्यकी शक्तिरूप शुद्ध-पारिणामिक परमभावरूप परम निश्चय मोक्ष है वह तो जीवमें पहिले ही विद्यमान है। वह अब प्रकट होगी, ऐसा नहीं है। और भी दे० (नय/V/१/५ शुद्धनिश्चय नय बन्ध मोक्षसे अतीत शुद्ध जीवको विषय करता है)। ३. पर्यायाथिक नय सामान्य निर्देश १. पर्यायार्थिक नयका लक्षण १. पर्याय ही है प्रयोजन जिसका स. सि./१/६/२१/१ पर्यायोऽर्थः प्रयोजनमस्येत्यसो पर्यायार्थिकः।पर्याय ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो पर्यायार्थिक नय। (रा. वा./९/३३/१/8/E); (ध. १/१,१.१/८४/१); (ध./४,१,४५॥ १७०/३); (क. पा.१/१३-१४/७१८१/२१७/१); (आ. प./8); (नि.सा./ ता. वृ./१६); (प.ध./पू./५१६)। २. द्रव्यको गौण करके पर्यायका ग्रहण न. च. वृ./११० पज्जय भउणं किज्जा दव्यं पि य जो हु गिहणए लोए। स्रो दबस्थिय भणियो विवरीओ पज्जयत्थिओ। -पर्यायको गौण करके जो द्रव्यको ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिकनय है। और उससे बिपरीत पर्यायार्थिक नय है। अर्थात द्रव्यको गौण करके जो पर्याय को ग्रहण करता है सो पर्यायाथिकनय है। स. सा./आ./१३ द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि...पर्यायं मुख्यतयानुभवतीति पर्यायार्थिकः। =द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुमें पर्यायको ही मुख्यरूपसे जो अनुभव करता है, सो पर्यायार्थिक नय है। न्या. दी./३/८२/१२६ द्रव्यार्थिकनयमुपसर्जनीकृत्य प्रवर्तमानपर्यायाथिकनयमवलम्ब्य कुण्डलमानयेत्युक्ते न कटकादौ प्रवर्तते, कटकादिपर्यायाद कुण्डलपर्यायस्य भिन्नत्वात् । -जब पर्यायार्थिक नयकी विवक्षा होती है तब द्रव्यार्थिकनयको गौण करके प्रवृत्त होनेवाले पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे 'कुण्डल लाओ' यह कहनेपर लानेवाला कड़ा आदिके लानेमें प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि कड़ा आदि पर्यायसे कुण्डलपर्याय भिन्न है। २. पर्यायार्थिक नय तस्तुके विशेष अंशको एकरव रूपसे विषय करता है स.सि./२/३३/१४१/१ पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः । तद्विपयः पर्यायार्थिकः । -पर्यायका अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति (भेद) है, और इसको विषय करनेवाला नय पर्यायाथिकनय है (त. सा./ १/४०)। श्लो, वा. ४/१/३३/३/२१५/१० पर्यायविषयः पर्यायार्थ । पर्यायको विषय करनेवाला पर्यायार्थ नय है। (न. च../१८३) ह. पु./५८/४२ स्युः पर्यायार्थिकस्यान्मे विशेषविषयाः नयाः ।।२। -ऋजुसूत्रादि चार नय पर्यायार्थिक नयके भेद है। वे सम वस्तुके विशेष अंशको विषय करते हैं। प्र. सा./त. प्र./११४ द्रव्यार्थिकमेकान्तनिमीलितं केवलोन्मीलितेन पर्यायार्थिनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यमनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकाद विशेषाननेकानवलोकयतामनलोकितसामान्यानामन्यत्प्रतिभाति । द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषेभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वाव गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवद। -जब द्रव्यार्थिक चक्षुको सर्वथा बन्द करके मात्र खुली हुई पर्यायार्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तम जीवद्रव्यमें रहनेवाले नारकत्व, तिर्यचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्याय स्वरूप अनेक विशेषोंको देखनेवाले और सामान्यको न देखनेवाले जीवोंको (वह जीवद्रव्य) अन्य-अन्य भासित होता है क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषोंके समय तन्मय होनेसे उन-उन विशेषोंसे अनन्य है-कण्डे, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भाँति। का, अ./मू /२७० जो साहेदि बिसेसे बहुबिहसामण्णसंजुदे सव्वे । साहणलिंग-वसादो पज्जयविसओ ओ होदि । -जो अनेक प्रकारके सामान्य सहित सब विशेषोंको साधक लिंगके बलसे साधता है, वह पर्यायार्थिकनय है। ३. बन्यकी अपेक्षा विषयकी एकरपता १. पर्यायसे पृथक् द्रव्य कुछ नहीं है रा.बा./२/३३/१/३/३ पर्याय एवार्थोऽस्य रूपाथ क्षेपणादिलक्षगो, न ततोऽन्यद् द्रव्यमिति पर्यापार्थिकः । रूपादि गुण तथा उरक्षेपण अवक्षेपण आदि कर्म या क्रिया लक्षणवाली ही पर्याय होती है। पे पर्याय ही जिसका अर्थ हैं, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, ऐसा पर्यायार्थिक नय है । (ध. १२/४,२,८,१५/२६२/१२)। श्लो. वा./२/२/२/४/१२/६ अभिधेयस्य शब्दनयोपकल्पितत्वाद्विशेषस्य ऋजुसूत्रोपकल्पितत्वादभावस्य । -शब्दका बाच्यभूत अभिधेय तो शब्दनयके द्वारा और सामान्य द्रब्यसे रहित माना गया कोरा विशेष ऋजुसुत्रनयसे कल्पित कर लिया जाता है। क. पा.१/१३-१४/१२७८/३१४/४ म च सामण्णमस्थि: विसेसेमु अणुगम अतुट्टसरूवसामण्णाणुवलम्भादो। -इस (ऋजुसूत्र) नयकी दृष्टिमें सामान्य है भी नहीं, क्योंकि विशेषोंमें अनुगत और जिसकी सन्तान ___ नहीं टूटी है. ऐसा सामान्य नहीं पाया जाता । (ध.१३/२०१७/१६/६) क. पा.१/१३-१५/१२७६/३१६/६ तस्स विसए दव्वाभावादो। -शब्दनयके विषयमें द्रव्य नहीं पाया जाता। (क. पा. १/१३-१४/१२८५४ ३२०/४) प्र. सा./त.प्र./परि./नय नं.२ तत तु...पर्यायनयेन तन्तुमात्रबद्धदर्शनज्ञानादिमात्रम् । -इस आत्माको यदि पर्यायार्थिक नयसे देखें तो तन्तुमात्रकी भाँति ज्ञान दर्शन मात्र है । अर्थात जैसे तन्तुओं से भिन्न वस्त्र नामको कोई वस्तु नहीं हैं. वैसे ही ज्ञानदर्शन से पृथक आत्मा नामकी कोई वस्तु नहीं है। २. गुण गुणीमें सामानाधिकरण्य नहीं है रा. वा./२/३३/७/६७/२० न सामानाधिकरण्यम्-एकस्य पर्यायेभ्योऽनन्यत्वाव पर्याया एव विविक्तदाक्तयो द्रव्य नाम न किंचिदस्तीति। -(ऋजुसूत्र नममें गुण व मुणीमें) सामानाधिकरण्य नहीं मन सकला क्योंकि भिन्न शक्तिवाली पर्यायें ही यहाँ अपना अस्तित्व रखती जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५४७ IV द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक हैं, द्रव्य नामकी कोई वस्तु नहीं है। (ध.६/४,१,४५/१७४/७); (क. पा. १९१३-१४/०१/२२६/५) दे० आगे शीर्षक नं.८ अजुसत्र नयकी दृष्टि में विशेष्य-विशेषण, शेयज्ञायक; वाच्य-वाचक, बन्ध्य-बन्धक आदि किसी प्रकारका भी सम्बन्ध सम्भव नहीं है। ३. काक कृष्ण नहीं हो सकता रा. वा./२/३३/७/१७/१७न कृष्णः काकः उभयोरपि स्वात्मकत्वात्कृष्णः कृष्णात्मको न काकात्मकः । यदि काकात्मकः स्यात; भ्रमरादीनामपि काकत्वप्रसङ्गः । काकश्च काकात्मको न कृष्णात्मक.; यदि कृष्णात्मकः, शुक्लकाकाभावः स्यात्। पञ्चवर्णत्वाच्च, पित्तास्थिरुधिरादोना पीतशुक्लादिवर्णत्वाव, तदन्यतिरेकेण काकाभावाच्च । -इसकी दृष्टि में काक कृष्ण नहीं होता, दोनों अपने-अपने स्वभावरूप हैं। जो कृष्ण है वह कृष्णात्मक ही है काकात्मक नहीं; क्योंकि. ऐसा माननेपर भ्रमर आदिकोंके भी काक होनेका प्रसंग आता है। इसी प्रकार काक भी काकात्मक ही है कृष्णात्मक नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर सफेद काकके अभावका प्रसंग आता है। तथा उसके पित्त अस्थि व रुधिर आदिको भी कृष्णताका प्रसंग आता है, परन्तु वे तो पीत शुक्ल व रक्त वर्ण वाले हैं और उनसे अतिरिक्त काक नहीं। (घ. ४/४,१,४५/१७४/३); (क. पा.१/१३-१४/६१८८/२२६/२) ४. सभी पदार्थ एक संख्यासे युक्त हैं प. ख. १२/४,२,६/सू. १४/३०० सदुजुमुदाणं णाणावरणीययणा जीवस्स ॥१४॥ ध.१२/४,२,६,१४/३००/१० किमळं जीव-वेयणाणं सद्दुजुमुदा बहुवयण णेच्छति । ण एस दोसो, महत्ताभावादो। तं जहासव्वं पि बत्थु एगसंखाविसिट्ट, अण्णहा तस्साभावप्पसंगादो। ण च एगत्तपडिग्गहिए वत्थुम्हि दुभावादीणं संभवो अस्थि, सीदुण्हाण व तेसु सहाणबट्ठाणलक्वणविरोहदंसणादो। -शब्द और जुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना जीवके होती है ।१४। प्रश्न-ये नय बहुवचनको क्यों नहीं स्वीकार करते ! उत्तर-यह कोई दोष नहीं; क्योंकि, यहाँ बहुत्वकी सम्भावना नहीं है। वह इस प्रकार कि-सभी वस्तु एक संख्यासे संयुक्त हैं। क्योंकि. इसके बिना उसके अभावका प्रसंग आता है। एकत्वको स्वीकार करनेवाली वस्तुमें द्वित्वादिकी सम्भावना भी नहीं है, क्योंकि उनमें शीत व उष्णके समान सहानवस्थानरूप विरोध देखा जाता है । ( और भी देखो आगे शीर्षक नं.४/२ तथा ६)। घ.१/४,१५६/२६६/६ उजुसुदे किमिदि अणेयसंखा णत्थि । एयसहस्स एयपमाणस्स य एगरथं मोत्तूण अणेगस्थेसु एक्ककाले पवृत्तिविरोहादो। ण च सह-पमाणाणि बहुसत्तिजुत्ताणि अस्थि, एक्कम्हि विरुद्धाणेयसत्तीणं संभवविरोहादो एयसंख मोत्तण अणेयसंखाभावादो वा ।प्रश्न-ऋजुसूत्रनयमें अनेक संख्या क्यों संभव नहीं। उत्तर-चू कि इस नयको अपेक्षा एक शब्द और एक प्रमाणको एक अर्थको छोड़कर अनेक अर्थों में एक कालमें प्रवृत्तिका विरोध है, अत. उसमें एक संख्या संभव नहीं है। और शब्द व प्रमाण बहुत शक्तियोंसे युक्त हैं नहीं क्योंकि, एकमें विरुद्ध अनेक शक्तियोंके होनेका विरोध है। अथवा एक संख्याको छोड़कर अनेक संख्याओंका वहाँ ( इन नयोंमें) अभाव है (क.पा. ११३-१४/२७७/३१३/१, ३१५/१)। १. क्षेत्रकी अपेक्षा विषयकी एकत्वता १. प्रत्येक पदार्थका अवस्थान अपनेमें ही है स.सि./१/३३/१४४/९ अथवा यो यत्राभिरूढ़ः स तत्र समेत्याभिमुख्येना रोहणात्समभिरूडः। यथा क्व भवानास्ते। आरमनीति । कुतः। वस्वन्तरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्तिः स्याद, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्तिः स्यात् । अथवा जो जहाँ अभिरूत है वह वहाँ सम अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखतासे रूढ़ होनेके कारण समभिरूढनय कहलाता है ! यथा-माप कहाँ रहते हैं। अपनेमें, क्योंकि अन्य वस्तुकी अन्य वस्तुमै वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्यकी अन्यमें वृत्ति मानी जाये तो ज्ञानादि व रूपादिकी भी आकाशमे वृत्ति होने लगे। (रा.वा./१/३३/१०/१/२)। रा. वा./१/३३/७/80/१६ यमेवाकाशदेशमवगाई समर्थ आत्मपरिणाम वा तत्रैवास्य वसतिः । - जितने आकाश प्रदेशोंमें कोई ठहरा है, उतने ही प्रदेशों में उसका निवास है अथवा स्वात्मामें; अतः ग्रामनिवास गृहनिवास आदि व्यवहार नहीं हो सकते। (ध.१/४,१,४५/१७४/२); ( क. पा. १/१३-१४/१८७/२२६/१) । २. वस्तु अखण्ड व निरवयव होती है ध.१२/४,२,६,१५/३०१/१ ण च एगत्तविसिट्ट वत्थु अस्थि जेण अगत्तस्स तदाहारो होज्ज। एक्कम्मि खंभम्मि मूलग्गमज्मभेएण अगेयत्तं दिस्सदि त्ति भणिदे ण तत्थ एयत्तं मोत्तूण अणेयत्तस्स अणुवलंभादो। ण ताव थंभगयमणेयत्तं, तत्थ एयत्तुवलंभादो। ण मूलगयमग्गगयं मझगयं वा, तत्थ वि एयत्तं मोत्तूण अणेयत्ताणुवसंभादी। ण तिण्णिमेगेगवत्थूणं समूहो अणेयत्तस्स आहारो, तव्व दिरेगेण तस्समूहाणुवलंभादो। तम्हा णत्थि बहुत्तं । = एकत्वसे अतिरिक्त वस्तु है भी नहीं, जिससे कि वह अनेकत्वका आधार हो सके। प्रश्न-एक खम्भेमें मूल अग्र व मध्यके भेदसे अनेकता देखी जाती है। उत्तरनहीं, क्योंकि, उसमें एकत्वको छोड़कर अनेकत्व पाया नहीं जाता। कारण कि स्तम्भमें तो अनेकत्वकी सम्भावना है नहीं, क्योंकि उसमें एकता पायी जाती है। मुलगत, अग्रगत अथवा मध्यगत अनेकता भी सम्भव नहीं है, क्योंकि उनमें भी एकत्वको छोड़कर अनेकता नहीं पायी जाती। यदि कहा जाय कि तीन एक-एक वस्तुओका समूह अनेकताका आधार है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे भिन्न उनका समूह पाया नहीं जाता। इस कारण इन नयोंकी अपेक्षा बहुत्व सम्भव नहीं है। ( स्तम्भादि स्कन्धोंका ज्ञान भ्रान्त है। वास्तव में शुद्ध परमाणु ही सद है (दे० आगे शीर्षक नं.८/२)। क. पा. १/१३-१४/१६३/२३०/४ ते च परमाणवो निरवयवाः ऊधिो मध्यभागाद्यवयवेषु सत्सु अनवस्थापत्तेः, परमाणोर्वापरमाणुत्वप्रसङ्गाच्च । - ( इस ऋजुसूत्र नयकी दृष्टि में सजातीय और विजातीय उपाधियोंसे रहित ) वे परमाणु निरवयव है, क्योंकि उनके ऊर्ध्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि अवयवोंके माननेपर अनवस्था दोषकी आपत्ति प्राप्त होती है, और परमाणुको अपरमाणुपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। (और भी दे० नय/IV//७ में स. म.)। ३. पलालदाह सम्भव नहीं श.वा./१/३३/७/80/२६ न पलालादिदाहाभाव:-.... यत्पलालं तरहतीति चेवः न; सावशेषात् । ...अवयवानेकरवे यद्यवयवदाहात सर्वत्र दाहोऽवयवान्तरादाहाद ननु सर्वदाहाभावः। अथ दाहः सर्वत्र कस्मान्नादाहः । अतोन दाहः । एवं पानभोजनादिव्यवहाराभावः । - इस ऋजुसूत्र नयकी दृष्टिमें पलालका दाह नहीं हो सकता। जो पलाल है वह जलता है यह भी नहीं कह सकते; क्योंकि, बहुत पलाल 'बिना जला भी शेष है। यदि अनेक अवयव होनेसे कुछ अवयवोंमें दाहकी अपेक्षा लेकर सर्वत्र दाह माना जाता है, तो कुछ अवयवोंमें अदाहकी अपेक्षा लेकर सर्वत्र अदाह क्यों नहीं माना जायेगा ! अतः पान-भोजनादि व्यवहारका अभाव है। ध.६/४,१,४५/१७५/हन पलालावयवी दह्यते, तस्यासस्वात्। नावयवा दह्यन्ते, निरवयवत्वतस्तेषामप्यसत्त्वाच । सपलाल अवयवीका दाह नहीं होता, क्योंकि, अवयवीकी (इस नयमें सत्ता ही नहीं है। न जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय अवयव जलते हैं, क्योंकि स्वयं निरवयव होनेसे उनका भी असत्त्व है। ४. कुम्भकार संज्ञा नहीं हो सकती क. पा. १/१३-१४/६ १०६/२२८/९ कुम्भकारोऽस्ति । तद्यथा - न शिवकादिकरणेन तस्य स व्यपदेशः शिवकादिषु कुम्भभावानुसम्भात् । न कुम्भं करोतिः स्वावयवेभ्य एव सनिष्पतम्भाव । न बहुभ्य एकः घटः उत्पद्यते तत्र यौगपद्य ेन भूयो धर्माणां सत्त्वविरोधात अविरोधे घर न तवेकं कार्यम् विरुद्धधर्माध्यासतः प्राप्ताकरूपाय न चैकेन कृतकार्य एव शेषसहकारिकारणानि व्याप्रियन्ते तद्व्यापार फसाद न चान्यत्र व्याप्रियन्तेः कार्यम प्रसङ्गात् । न चैतदपि एकस्य घटस्य बहुत्वाभावात । - इस ऋजुसूत्र नयको दृष्टिमें कुम्भकार संज्ञा भी नहीं बन सकती है। वह इस प्रकार कि शिवकादि पर्यायोंको करनेसे उसे कुम्भकार कह नहीं सकते, क्योंकि शिवकादिमें कुम्भपना पाया नहीं जाता और कुम्भको मह मनाता नहीं है; क्योंकि, अपने शिवकादि अनयमोंसे ही उसकी उत्पत्ति होती है । अनेक कारणोंसे उसकी उत्पत्ति माननी भी ठीक नहीं है; क्योंकि घटमें युगपत् अनेक धर्मोका अस्तित्व माननेमें विरोध आता है । उसमें अनेक धर्मोका यदि अविरोध माना जायेगा तो वह घट एक कार्य नहीं रह जायेगा, कि विरुद्ध अनेक धमका आधार होनेसे अनेक रूप हो जायेगा । यदि कहा जाय कि एक उपादान कारणसे उत्पन्न होनेवाले उस घटमें अन्य अनेकों सहकारी कारण भी सहायता करते है. तो उनके व्यापारको बिफलता प्राप्त होती है। यदि कहा जाये कि उसी घटमें वे सहकारीकारण उपादान के कार्यसे मित्र ही किसी अन्य कार्यको करते हैं, तो एक घटमें कार्य का प्रसंग आता है, और ऐसा माना नहीं जा सकता, क्योंकि एक घट अनेक कार्यरूप नहीं हो सकता (रा. वा./१/३३/०/१०/१२); (ध. ११४.१,४२/१०३/७ ) । ५. कालकी अपेक्षा विषयकी एकत्वता १. केवल वर्तमान क्षणमात्र ही वस्तु है क. पा. १/१३-१४/११/२९०/१ परि मे ऋजुसूचनविच्छे एति गच्छतीतिपर्यायः स पर्यायः अर्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः । सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च द्रव्यार्थिकाशेषविषयं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदेन पारयन् पर्यायार्थिक इत्यवगन्तव्यः । अत्रोपयोगिन्दी गाथेतनमेण पज्जयस्स उदयगिविच्छेदो तस्य सादीया साहसाहा ममेया परि' का अर्थ भेद है सूत्र रचनके विच्छेदरूप वर्तमान समयमात्र (दे० नय / III / १/२) कालको को प्राप्त होती है, वह पर्याय है। यह पर्याय ही जिस नका प्रयोजन है सो पर्यायार्थिकनय है । सादृश्यलक्षण सामान्य से भिन्न और अभिन्न जो व्याधियका समस्त विषय है (दे० नय IV/१/२)नके विच्छेदरूप कालके द्वारा उसका विभाग करनेवाला पर्यायार्थिकनय है, ऐसा उक्त कथनका तात्पर्य है । इस विषय में यह उपयोगी गाथा है - ऋजुसूत्र वचन अर्थात वचनका विच्छेद जिस कालमे होता है वह काल पर्यायानियका मुल आधार है, और उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेदरूप शब्दादि नय उसी ऋजुसूत्रकी शाखा उपशाखा है ICCI ३० नय / III/२/१/२ (अतीत में अनागत कालको छोड़कर जो केवल वर्तमानको ग्रहण करे सो सूत्र अर्थात् पर्यायार्विक नम है।) ३० नय / III/५/० (सूक्ष्म व स्थूल ऋजुमुश्की अपेक्षा वह काल भी दो प्रकारका है। सूक्ष्म एक समय मात्र है और स्थूल अन्तर्मुहूर्त या संख्यात वर्ष । ) ५४८ IV द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक : रा. वा./१/३३/१/१५/६ पर्याय एवार्थः कार्यमस्य न द्रव्यम् अतीतानागयोनिनुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावाद ।... पर्यायोऽर्थः प्रयोजन मस्य वाग्वज्ञानव्यावृत्तिनिबन्धनव्यवहारप्रसिद्ध रिति । वर्तमान पर्याय ही अर्थ या कार्य है, द्रव्य नहीं, क्योंकि अतीत विनष्ट हो जाने के कारण और अनागत अभी उत्पन्न न होनेके कारण ( खरविषाण की तरह ( स. म. ) उनमें किसी प्रकारका भी व्यवहार संम्भव नहीं । [ तथा अर्थ क्रियान्य होनेके कारण मे अवस्तुरूप हैं ( स. म. ) ] वचन व ज्ञानके व्यवहारकी प्रसिद्धि अर्थ वह पर्याय ही नयका प्रयोजन है । २. क्षणस्थायी अर्थ दी उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है ध. १/१,१,१/गा. ८/१३ उप्पज्जं ति वियेति य भावा नियमेण पज्जवण[यस्स || - पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते हैं और नाशको प्राप्त होते हैं .४/१.५.४/गा. २६/११०) (प. २/४. १.४१/गा. १४/२४४) (क. पा. १२/१३-१४ /गा. १५/२०४/२४०), (पं.का./ यू./१९) (पं.पू./२४७) । - दे० आगे नय / IV/३/७ - ( पदार्थ का जन्म ही उसके नाशमें हेतु है ।) क. पा. ९/११-१२/११०/ना. ११/२२० प्रत्येक जायते चितं जातं जातं प्रश्यति। नष्टं नावर्तते भूयो जायते च नवं नवं ॥११॥ प्रत्येक चित्त ( ज्ञान ) उत्पन्न होता है और उत्पन्न होकर नाशको प्राप्त हो जाता है। तथा जो नष्ट हो जाता है, वह पुनः उत्पन्न नहीं होता, किन्तु प्रति समय नया नया चित्त ही उत्पन्न होता है । (ध. ६/१, ६-६,५/४२०/५) | रा. बा./१/३३/२/१६/९ पर्याय एवास्ति इति मतिरस्य जन्महावभावविकारमात्रमेव भवनं न ततोऽन्य द्रव्यमस्ति तद्वचतिरेकेणानुपलब्धिरिति पर्यायास्तिकः । जन्म आदि भावविकार मात्रका होना ही पर्याय है उस पर्यायका ही अस्तित्व है, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, क्योंकि उस पर्यायसे पृथक उसकी उपलब्धि नहीं होती है। ऐसी जिसकी मान्यता है, सो पर्यायास्तिक नम है। ६. काल एकस्व विषयक उदाहरण । रा. वा./१/३३/७/काय इत्यत्र च संजातरसः कषायो भैषज्यं न प्राथमिककषायोऽल्पोऽनभिव्यक्तरसत्वादस्य विषयः । ( १ ) 1 "..." तथा प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन्निति प्रस्थः, यदेव मिमीते, अतीतानागतधान्यमानासंभवात् । (११)...स्थितमाने च कुतोऽयागच्यसि इति न कुतश्चिद मन्यते तत्कालक्रियापरिणामामाबाद (१४)।- १. 'कायो भैषज्यम्' में वर्तमानकालीन यह कवाय भैषज हो सकती है जिसमें रसका परिपाक हुआ है, न कि प्राथमिक अप रसवाला कच्चा कषाय । २. जिस समय प्रस्थसे धान्य आदि मापा जाता है उसी समय उसे प्रस्थ कह सकते हैं, क्योंकि वर्तमानमें अतीत और अनागतमा धान्यता माप नहीं होता है (प. ६/४,१.४५/१०१/२); ( क. पा. १/१३-१४/१९८६/२२४/८) ३. जिस समय जो बैठा है उससे यदि पूछा जाय कि आप अब कहाँसे आ रहे हैं, तो यह यही कहेगा कि 'कहीं से भी नहीं आ रहा हूँ क्योंकि उस समय आगमन क्रिया नहीं हो रही है (ध. १/४.१,४५/१९०४ / १) (क. पा. १/१३-१४/१०० २२५/७) रा. वा./१/३३/७/१८/७ न शुक्लः कृष्णीभवति; उभयोभिन्नकालावस्वत्वात् प्रत्युत्पन्नविषये निवृत्तयधानभिमन्धाय ४ अजुसूत्र नमकी दहिसे सफेद चीज काली नहीं बन सकती, क्योंकि दोनोंका समय भिन्न-भिन्न है। वर्तमानके साथ अतीतका कोई सम्बन्ध नहीं है। (घ ६/४.९.४५/९७६/३), (क. पा. १/१३-१४/१९१४/ 23014) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोषा Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५४९ IV द्रव्याथिक व पर्यायाधिक क. पा. १/१३-१४/३२७६/३१६/५ सहणयस्स कोहोदओ कोहकसाओ, तस्स विसए दव्वाभावादो। ५. शब्दनयकी अपेक्षा क्रोधका उदय ही क्रोध कषाय है; क्यो कि, इस नयके विषयमें द्रव्य नहीं पाया जाता। ६. पलाल दाह सम्भव नहीं रा. वा./१/३३/७/६७/२६ अतः पलालादिदाहाभावः प्रतिविशिष्टकालपरिग्रहात् । अस्य हि नयस्याविभागो वर्तमानसमयो विषयः । अग्निसंबन्धनदीपनज्वलनदहनानि असंख्येयसमयान्तरालानि यतोऽस्य दहनाभावः। किच यस्मिन्समये दाहन तस्मिन्पलालम्. भस्मताभिनिवृत्तेः यस्मिश्च पलालं न तस्मिन् दाह इति । एवं क्रियमाणकृत-भुज्यमानभुक्त-बध्यमानबद्ध-सिध्यत्सिद्धादयो योज्याः । -इस अजुसूत्र नयकी दृष्टि में पलालका दाह नहीं हो सकताक्योंकि इस नयका विषय अविभागी वर्तमान समयमात्र है। अग्नि मुलगाना धौकना और जलाना आदि असंख्य समयकी क्रियाएँ वर्तमान क्षगमें नहीं हो सकतीं। तथा जिस समय दाह है, उस समय पलाल नहीं है, और जिस समय पलाल है उस समय दाह नहीं है, फिर पलाल दाह कैसा । इसी प्रकार क्रियमाण-कृत, भुज्यमान-भुक्त, मध्यमान-बद्ध, सिद्धचत-सिद्ध आदि विषयों में लागू करना चाहिए। (ध.१४,१, ४६/१७१८) ७. पच्यमान ही पक्व है रा.वा./१/३३/७/१७/३ पच्यमानः पक्वः । पक्वस्तु स्यात्पच्यमानः स्यादु परतपाक इति । असदेतवः विरोधाव । 'पच्यमानः' इति वर्तमानः 'पक्वः' इत्यतीतः तयोरेकस्मिन्नवरोधो विरोधोति; नैष दोषः; पचनस्यादावविभागसमये कश्चिदंशो निवृसो बा, न वा। यदि न निवृत्तः: तद्वितीयादिष्वष्यनिवृत्तः पाकाभावः स्यात् । ततोsभिनिवृत्तः तदपेक्षया 'पच्यमानः पक्व" इतरथा हि समयस्य त्रैविध्यप्रसङ्गः। स एवौदनः पच्यमानः पक्व., स्यात्पच्यमान इत्युच्यते, पक्तुरभिप्रायस्यानिवृत्तेः, पक्तुहि सुविशदमुस्विन्नौदने पक्वाभिप्रायः, स्यादुपरतपाक इति चोच्यते कस्यचित् पक्तुस्तायतैव कृतार्थत्वात् । = इस ऋजुसूत्र नयका विषय पच्यमान पक्व है और 'कथं चिव पकनेवाला' और 'कथंचिव पका हुआ' हुआ।प्रश्न-पत्यमान (पक रहा ) वर्तमानकालको, और पक्व (पक चुका) भूतकालको सूचित करता है, अत' दोनोंका एकमें रहना विरुद्ध है ? उत्तरयह कोई दोष नहीं है। पाचन क्रियाके प्रारम्भ होनेके प्रथम समयमें कुछ अंश पका या नहीं। यदि नहीं तो द्वितीयादि समयोंमें भी इसी प्रकार न पका । इस प्रकार पाकके अभावका प्रसंग आता है। यदि कुछ बंश पक गया है तो उस अंशकी अपेक्षा तो वह पच्यमान भी ओदन पक्व क्यों न कहलायेगा। अन्यथा समयके तीन खण्ड होनेका प्रसंग प्राप्त होगा। (और पुनः उस समय खण्डमें भी उपरोक्त हो शंका समाधान होनेसे अनवस्था आयेगी) वही पका हुआ ओदन कथं चित् 'पच्यमान' ऐसा कहा जाता है; क्योंकि, विशदरूपसे पूर्णतया पके हुए ओदनमें पाचकका पक्षसे अभिप्राय है। कुछ अंशोंमें पचनक्रियाके फलकी उत्पत्तिके विराम होनकी अपेक्षा वही ओदन 'उपरत पाक' अर्थात् कथं चित् पका हुआ कहा जाता है। इसी प्रकार क्रियमाण-कृत; भुज्यमान-भुक्त; बध्यमान-बद्ध और सिद्धयत-सिद्ध इत्यादि ऋजुसूत्र नयके विषय जानने चाहिए। (ध.१/४,१,४५/१७२/३), (क. पा.श १३-१४/३१८५/२२३/३) ७. मावकी अपेक्षा विषयकी एकत्वता रा. वा./१/३३/१/६/७ स एव एकः कार्यकारणव्यपदेशभागिति पर्यायाथिकः । -वह पर्यायही अकेली कार्य व कारण दोनों नामोंको प्राप्त होती हैं, ऐसा पर्यायार्थिक नय है। क. पा. १/१३-१४/१०/गा. ६०/२२७ जातिरेव हि भावानां निरोधे हेतुरिष्यते । - जन्म ही पदार्थ के विनाशमें हेतु है। ध.६/४,१,४३/१७६/२ यः पलालो न स दह्यते, तत्राग्निसंमन्धजनितातिशयान्तराभावात, भावो वा न स पलालप्राप्तोऽन्यस्वरूपत्वात् । -अग्नि जनित अतिशयान्तरका अभाव होनेसे पलाल नहीं जलता। उस का स्वरूप न होनेसे वह अतिशयान्तर पलालको प्राप्त नहीं है। क. पा./९/११-१४/१२७८/३१५/१ उजुसदेसु बहुअग्गहो णस्थि त्ति एय सत्तिसहियएयमणभुवगमादो 1-एक क्षणमें एक शक्तिसे युक्त एक ही मन पाया जाता है, इसलिए ऋजुसूत्रनयमें बहुअवग्रह नहीं होता। स्था.म/२८/३१३/१ तदपि च निरंशमभ्युपगन्तव्यम् । अंशव्याप्तेर्यक्तिरिक्तत्वात । एकस्य अनेकस्वभावतामन्तरेण अनेकस्यावयवव्यापनायोगात् । अनेकस्वभावता एवास्तु इति चेत् । न, विरोधव्यात्रातत्वात् । तथाहि-यदि एकस्वभावः कथमनेकः अनेकश्चेरकथमेकः । अनेकानेकयोः परस्परपरिहारेणावस्थानात । तस्मात् स्वरूपनिमग्नाः परमाणव एव परस्परापसर्णद्वारेण न स्थूलता धारयत पारमार्थिकमिति। वस्तुका स्वरूप निर श मानना चाहिए, क्योंकि वस्तुको अंश सहित मानना युक्तिसे सिद्ध नहीं होता। प्रश्नएक वस्तुके अनेकस्वभाव माने बिना वह अनेक अवयवों में नहीं रह सकती, इसलिए वस्तुमें अनेकस्वभाव मानना चाहिए। उत्तरयह ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेमें विरोध आता है। कारण कि एक और अनेकमें परस्पर विरोध होनेसे एक स्वभाववाली वस्तुमें अनेक स्वभाब और अनेक स्वभाववाली वस्तुमें एकस्वभाव नहीं बन सकते। अतएव अपने स्वरूप में स्थित परमाणु ही परस्परके संयोगसे कथं चित समूह रूप होकर सम्पूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए अजु-सूत्र नयको अपेक्षा स्थूल रूपको न धारण करनेवाले स्वरूपमें स्थित परमाणु ही यथार्थ में सब कहे जा सकते हैं। ८. किसी भी प्रकारका सम्बन्ध सम्भव नहीं १. विशेष्य विशेषण भाव सम्भव नहीं क.पा.१/१३-१४/६१६३/२२६/६ नास्य विशेषणविशेष्यभावोऽपि । तद्यथा-न तावद्भिन्नयो, अव्यवस्थापत्तेः । नाभिन्नयोः एकस्मिस्तद्विरोधात् । - इस (ऋजुसुत्र) नयकी दृष्टिसे विशेष्य विशेषण भाव भी नहीं बनता। वह ऐसे कि-दो भिन्न पदार्थोंमें तो वह बन नहीं सकता; क्योंकि, ऐसा माननेसे अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है। और अभिन्न दो पदार्थों में अर्थात् गुण गुणीमें भी यह बन नहीं सकता क्योकि जो एक है उसमें इस प्रकारका द्वैत करनेसे विरोध आता है । (क. पा.१/१३-१४/६२००/२४०/६), (ध. ६/४,१,४५/१७४/७, तथा पृ.१७६/६)। २. संयोग व समवाय सम्बन्ध सम्भव नहीं क.पा./२/१३-१४/७१६३/२२६/७ न भिन्नाभिन्नयोरस्य नयस्य संयोगः समवायो वास्ति; सर्वथै कत्वमापन्नयोः परित्यक्तस्वरूपयोस्तद्विरोधाद । नैकत्वमापन्नयोस्तौ; अव्यवस्थापत्तेः । ततः सजातीयविजातीयविनिर्मुक्ताः केवला' परमाणव एव सन्तीति भ्रान्तः स्तम्भादिस्कन्धप्रत्ययः। -इस (ऋजुसूत्र ) नयकी दृष्टिसे सर्वथा अभिन्न दो पदार्थों में संयोग व समवाय सम्बन्ध नहीं बन सकता; क्योंकि, जो सर्वथा एकत्वको प्राप्त हो गये हैं और जिन्होंने अपने स्वरूपको छोड दिया है ऐसे दो पदार्थों में संबंध माननेमें विरोध आता है। इसी प्रकार सर्वथा भिन्न दो पदार्थों में भी संयोग या समवाय सम्बन्ध मानने में भी विरोध आता है, तथा अव्यवस्थाको आपत्ति भी आती है अर्थात किसीका भी किसीके साथ सम्बन्ध हो जायेगा । इसलिए सजातीय और विजातीय दोनों प्रकारकी उपाधियोंसे रहित शुद्ध परमाणु ही सत् है। अतः जो स्तम्भादिरूप स्कन्धोंका प्रत्यय होता है, वह अजुसूत्रनयकी दृष्टिमें भ्रान्त है। (और भी दे० पोछे शीर्षक नं०४/२), (स्या.म./२८/३१३/५) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ३. कोई किसीके समान नहीं है। क. पा./१/१३-१४/१९६३ / २३० / ३ नास्य नयस्य समानमस्तिः सर्वथा द्वयोः समानत्वे एकवापत्तेः। न कथंचित्समानतापि विरोधात् । इस अजुनकी दृष्टिमें कोई किसीके समान नहीं है, क्योंकि दोको सर्वथा समान मान लेनेपर उन दोनोंमें एकत्वकी आपत्ति प्राप्त होती है। कथंचित् समानता भी नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है। • ४. ग्राह्यग्राहकभाव सम्भव नही । = क.पा./१/१३-१४/१६५/२३०/८ नास्य नयस्य ग्राह्यग्राहकभावोऽप्यस्ति । तद्यथा - नासंबद्धोऽर्थो गृह्यते; अव्यवस्थापत्तेः । न संबद्धः तस्यातीतत्वाद, चक्षुषा व्यभिचाराच्च । न समानो गृह्यते; तस्यासत्त्वात् मनस्कारेण व्यभिचाराद इस सूत्र नयको दृष्टिमें ब्राह्मग्राहक भाव भी नहीं बनता । वह ऐसे कि - असम्बद्ध अर्थ के ग्रहण माननेमें अव्यवस्थाकी आपत्ति और सम्बद्धका ग्रहण माननेमें विरोध आता है, क्योंकि यह पदार्थ ग्रहणकालमें रहता हो नहीं है, तथा चक्षु इन्द्रियके साथ व्यभिचार भी आता है, क्योंकि चक्षु इन्द्रिय अपनेको नहीं जान सकती । समान अर्थका भी ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि एक तो समान पदार्थ है ही नहीं (दे० ऊपर) और दूसरे ऐसा मानने से मनस्कारके साथ व्यभिचार आता है अर्थात् समान होते हुए भी पूर्वज्ञान उत्तर ज्ञानके द्वारा गृहीत नहीं होता है। ५. वाच्यवाचकभाव सम्भव नहीं 1 = क. पा./१/१३ - १४/१६६/२३१/३ नास्य शुद्धस्य ( नयस्य ) वाच्यवाचकभावोऽस्ति । तद्यथा- न संबद्धार्थः शब्दवाच्यः तस्यातीतत्वात् । नासंबद्धः अव्यवस्थापते. नार्थेन शब्द उत्पाद्यते ताम्बादिभ्यसम्भाद न शब्दादर्थ उत्पद्यते शब्दोत्पते प्रागमि अर्थसत्त्वसम्भात् । न शब्दार्थ योस्तादात्म्यलक्षण प्रतिबन्ध करणाधिकरणभेदेन प्रतिपन्नभेदयोरेकत्वविरोधात् क्षुरमोदकशब्दोचारणे मुखस्य पाटनपूरणप्रसङ्गाच्च । न विकल्प शब्दवाच्यः अत्रापि बाह्यार्थोक्तदोषप्रसङ्गात् । ततो न वाच्यवाचकभाव इति । - १. इस नयको दृष्टिमें वाच्यवाचक भाव भी नहीं होता। वह ऐसे ऋजुसूत्र कि-शब्दप्रयोग कालमें उसके वाच्यभूत अर्थका अभाव हो जा सम्बद्ध अर्थ उसका वाच्य नहीं हो सकता । असम्बद्ध अर्थ भी वाच्य नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा माननेसे अव्यवस्थादोषकी आपत्ति आती है । २. अर्थ से शब्दको उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है. क्योंकि तालु आदिसे उसकी उत्पत्ति पायी जाती है तथा उसी प्रकार शब्दसे भी अर्थकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती क्योकि शब्दोत्पत्तिसे पहिले भी अर्थका सद्भाव पाया जाता है । ३. शब्द व अर्थ में तादात्म्य लक्षण सम्बन्ध भी नहीं है, क्योंकि दोनोंको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियाँ तथा दोनोंका आधारभूत प्रदेश या क्षेत्र भिन्न-भिन्न है । अथवा ऐसा माननेपर 'छुरा' और 'मोदक' शब्दोंको उच्चारण करनेसे मुख कटनेका तथा पूर्ण होनेका प्रसंग आता है । ४ अर्थ की भाँति विकल्प अर्थात् ज्ञान भी शब्दका वाच्य नही है, क्योंकि यहाँ भी ऊपर दिये गये सर्व दोषोंका प्रसंग आता है । अतः वाच्यवाचक भाव नहीं है। दे० नय | III /-/ ४-६ ( वाक्य, पदसमास व वर्णसमास तक सम्भव नहीं ) । दे० नय / I/४/५ ( वाच्यवाचक भावका अभाव है तो यहाँ शब्दव्यवहार कैसे सम्भव है ) | आगम /४/४ उपरोक्त सभी तर्कोंको पूर्व पक्षकी कोटिमें रखकर उत्तर पक्षमें कथंचित् वाच्यवाचक भाव स्वीकार किया गया है। ५५० IV द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक ६. बध्यबन्धक आदि अन्य भी कोई सम्बन्ध सम्भव नहीं क.पा.१/१३-१४/११/२२८/३ ततोऽस्य नयस्य न बन्ध्यबन्धक - मध्यघातक दाहादाहक- संसारादयः सन्ति। इसलिए इस अजुनकी दृष्टिमें बन्ध्यबन्धकभाव, बध्यघातकभाव, दाह्यदाहकभाव और संसारादि कुछ भी नहीं बन सकते हैं। ९. कारण कार्यभाव संभव नहीं १. कारणके बिना ही कार्यकी उत्पत्ति होती है रा. वा/१/१/२४/८/३२ नेमी ज्ञानदर्शनशब्दी करणसाधनौ । किं तर्हि । कर्तृ साधनी तथा चारित्रशब्दोऽपि न कर्मसाधनः किं तहिं । तु साधनः । कथम् एवंभूतनयवशात् एवं नमकी दृष्टिसे ज्ञान, दर्शन व चारित्र ये तीनों ( तथा उपलक्षणसे अन्य सभी) शब्द कर्म साधन नही होते, कर्तासाधन हो होते हैं । क. पा. १/१३-१४/३२८४ / ३१९/३ कर्तृ साधन' कषायः । एदं णेगमसंगहववहारउदातत्य करणभावसंवादो तिहं राहण्याणं ग केण वि कसाओ; तत्थ कारणेण बिणा कज्जुप्पत्तीदो । 'कषाय शब्द कतृ ' साधन है', ऐसी बात नैगम ( अशुद्ध) संग्रह, व्यवहार ब (स्थूल) सूत्र नमकी अपेक्षा समझनी चाहिए क्योंकि, इन नयों में कार्य कारणभाव सम्भव है । परन्तु (सूक्ष्म ऋजुसूत्र ) शब्द, समभिरूढ व एवंभूत इन तीनों शब्द नयोंकी अपेक्षा कषाय किसी भी साधनसे उत्पन्न नहीं होती है; क्योंकि इन नयोंको दृष्टिमें कारण के बिना ही कार्यको उत्पत्ति होती है। घ. १२/४.२.८.१३/२१२/१ तिष्णं संदणयागं णाणावरणीयपोग्गतन्त्रदोदयजणिदणाणं वेयणा । ण सा जोगकसाएहिंतो उप्पज्जदे णिस्ससीदो सत्तिभिसेसस्स उत्पत्ति मिरोहाशे गोइयगदकम्मदव्यधादो, पज्जयवदिरित्तदव्वाभावादो। =तीनों शब्दनयोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय सम्बन्धी पौगलिक स्वाधीक उदयसे उत्पन्न अज्ञानको ज्ञानावरणीय बेदना कहा जाता है। परन्तु वह (ज्ञानावरणीय वेदना) योग व कषायसे उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि जिसमें जो शक्तिनहीं है, उससे उस शक्ति विशेषकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । तथा यह उदयगत कर्मस्कन्धसे भी उत्पन्न नहीं हो सकती क्योंकि, इन नयोंमें) पर्यायों से भिन्न द्रव्यका अभाव है । २. विनाश निर्हेतुक होता है क. पा. १/१३-१४ / १९१० / २२६/- अस्य नयस्य निर्हेतुको विनाशः । तद्यथा- न तावत्प्रसज्यरूपः परत उत्पद्यते; कारकप्रतिषेघे व्यापृतास्परस्माइ घटाभावनिरोधात् न पर्युदासी व्यतिरिक्त उत्पयते; ततो व्यतिरिक्तघटोत्पत्तविनाशनिरोधाय । नाव्यति रिक्तः; उत्पन्नस्योत्पत्तिविरोधात् । ततो निर्हेतुको विनाश इति सिद्ध इस नुनको दृष्टिमें विनाश निर्हेतुक है। वह इस प्रकार कि - प्रसज्यरूप अभाव तो परसे उत्पन्न हो नहीं सकता; क्योंकि, वहाँ क्रियाके साथ निषेध मापक 'न'का सम्बन्ध होता है । अतः क्रियाका निषेध करनेवाले उसके द्वारा घटका अभाव माननेमें विरोध आता है । अर्थात् जब वह क्रियाका ही निषेध करता रहेगा तो विनाशरूप अभावका भी कर्ता न हो सकेगा । पर्युदासरूप अभाव भी परसे उत्पन्न नहीं होता है। पर्युदाससे व्यतिरिक्त घटकी उत्पत्ति माननेपर विवक्षित पटके विनाशके साथ विरोध आता है । घटसे अभिन्न पर्युदासकी उत्पत्ति मानने पर दोनों की उत्पत्ति एकरूप हो जाती है, तब उसकी घटसे उत्पति हुई नहीं कहीं जा सकती। और घट तो उस अभावसे पहिले ही उत्पन्न हो चुका है, अतः उत्पन्नकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। इसलिए विनाश निर्हेतुक है यह सिद्ध होता है । ( ध. ६/४, १० ४५/१७५/२) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५५१ IV द्रव्याथिक व पर्यायाथिक नोट-[ सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय शुद्धपर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (दे० नय/III/१/३,४,७) तथा व्यवहार नय भी कथंचित अशुद्ध पर्यायाथिकनय माना गया है-(दे० नय/ V/४/७)] २. पर्यायार्थिक नयके छ: भेदोंका निर्देश आ.प./५ पर्यायार्थिकस्य षड् भेदा उच्यन्ते-अनादिनित्यपर्यायार्थिको, सादिनित्यपर्यायार्थिको,..... स्वभावो नित्याशुद्धपर्यायाथिको,... भावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको, ... कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभावोऽनित्यशुद्धपर्यायाथिको, ... कर्मोपाधिसापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको । पर्यायार्थिक नयके छ भेद कहते हैं-१. अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय; २. सादिनित्य पर्यायाथिकनय; ३. स्वभाव नित्य अशुद्धपर्यायाथिकनय; ४ स्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायाथिकनय: १. कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभाव अनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय: ६. कर्मोपाधि सापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायाथिकनय । ३. उत्पाद भी निहेंतुक है क. पा.१/१३-१४/३११२/२२८/५ उत्पादोऽपि निर्हेतुकः । तद्यथानोत्पद्यमान उत्पादयति; द्वितीयक्षणे त्रिभुवनाभावप्रसङ्गात् । नोत्पन्न उत्पादयति क्षणिकपक्षक्षतेः। न विनष्ट उत्पादयति; अभावाद्भावोत्पत्तिविरोधात् । न पूर्व विनाशोत्तरोत्पादयोः समानकालतापि कार्यकारणभावसमर्थिका। तद्यथा-नातीतार्थाभावत उत्पद्यते; भावाभावयोः कार्यकारणभावविरोधात । न तद्भावात; स्वकाल एव तस्थोत्पत्तिप्रसगाव । किंच, पूर्वक्षणसत्ता यतः समानसंतानोत्तरार्थक्षणसत्त्वविरोधिनी ततो न सा तदुत्पादिका; विरुद्धयोस्सत्तयोरुत्पाद्योत्पादकभावविरोधात् । ततो निर्हेतुक उत्पाद इति सिद्धम् । = इस ऋजुसूत्रनयकी दृष्टि में उत्पाद भी निर्हेतुक होता है। वह इस प्रकार कि-जो अभी स्वयं उत्पन्न हो रहा, उससे उत्पत्ति माननेमें दूसरे ही क्षण तीन लोकोंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। जो उत्पन्न हो चुका है, उससे उत्पत्ति माननेमें क्षणिक पक्षका विनाश प्राप्त होता है। जो नष्ट हो चुका है, उससे उत्पत्ति माने तो अभावसे भावकी उत्पत्ति होने रूप विरोध प्राप्त होता है। पूर्वक्षणका विनाश और उत्तरक्षणका उत्पाद इन दोनोंमें परस्पर कार्यकारण भावकी समर्थन करनेवाली समानकालता भी नहीं पायी जाती है। वह इस प्रकार कि-अतीत पदार्थ के अभावसे नवीन पदार्थकी उत्पत्ति मानें तो भाव और अभावमें कार्यकारण भाव माननेरूप विरोध प्राप्त होता है। अतीत अर्थ के सद्भावसे नवीन पदार्थका उत्पाद मानें तो अतीतके सद्भावमें ही नवीन पदार्थ की उत्पत्तिका प्रसंग आता है। दूसरे, चूंकि पूर्व क्षणकी सत्ता अपनी सन्तानमें होनेवाले उत्तर अर्थक्षणको सत्ताकी विरोधिनी है, इसलिए पूर्व क्षणकी सत्ता उत्तर क्षणको उत्पादक नहीं हो सकती है। क्योंकि विरुद्ध दो सत्ताओंमें परस्पर उत्पाद्य-उत्पादकभावके माननेमें विरोध आता है । अतएव ऋजुसूत्रनयको दृष्टिसे उत्पाद भी निर्हेतुक होता है, यह सिद्ध होता है। १०. सकल व्यवहारका उच्छेद करता है रा. वा/१/३३/७/85/८ सर्व व्यवहारलोप इति चेत; न; विषयमात्रप्रदर्शनाव, पूर्वनयवक्तव्यात संव्यवहारसिद्धिरिति शंका- इस प्रकार इस नयको माननेसे तो सर्व व्यवहारका लोप हो जायगा। उत्तरनहीं; क्योंकि यहाँ केवल उस नयका विषय दर्शाया गया है। व्यवहारकी सिद्धि इससे पहले कहे गये व्यवहारनयके द्वारा हो जाती है (दे० नयv/४) । (क.पा./२/१३-१४/६१६६/२३२/२), (क.पा./१/१३१४/१२२८/२७८/४)। ३. पर्यायार्थिक नयषटकके लक्षण न. च /श्रुत/पृ.६ भरतादिक्षेत्राणि हिमवदादिपर्वताः पद्मादिसरोवराणि, सुदर्शनादिमेरुनगा. लवणकालोदकादिसमुद्रा' एतानि मध्यस्थितानि कृत्वा परिणतासंख्यातद्वीपसमुद्रा' श्वभ्रपटलानि भवनवासिबाणव्यन्तरविमानानि चन्द्रार्कमण्डलादिज्योतिर्विमानानि सौधर्मकल्पादिस्वर्ग पटलानि यथायोग्यस्थाने परिणताकृत्रिमचैत्यचैत्यालया. मोक्षशिलाश्च बृहबातवलयाश्च इत्येवमाद्यनेकाश्चर्यरूपेण परिणतपुद्गलपर्यायाद्यनेकद्रव्यपर्यायैः सह परिणतलोकमहास्कन्धपर्यायाः त्रिकालस्थिताः सन्तोऽनादिनिधना इति अनादिनित्यपर्यायाथिकनय' 1१। शुद्धनिश्चयनयविवक्षामकृत्वा सकलकर्मक्षयोद्भूतचरमशरीराकारपर्यायपरिणतिरूपशुद्धसिद्धपर्यायः सादिनित्यपर्यायाथिकनय' १२॥ अगुरुलघुकादिगुणा. स्वभावेन षट्हानिषड् वृद्धिरूपक्षणभङ्गपर्यायपरिणतोऽपरिणतसद्व्यानन्तगुणपर्यायासंक्रमणदोषपरिहारेण द्रव्यं नित्यस्वरूपेऽवतिष्ठमानमिति सत्तासापेक्षस्वभाव-नित्यशुद्ध-पर्यायार्थिकनय. ३। सद्गुण विवक्षाभावेन धौव्योत्पत्तिव्ययाधीनतया द्रव्यं विनाशोत्पत्तिस्वरूपमिति सत्तानिरपेक्षोत्पादव्ययग्राहकस्वभावानित्याशुद्धपर्यायार्थिकनयः ।४। चराचरपर्यायपरिणतसमस्तसंसारिजीवनिकायेषु शुद्धसिद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिनिरपेक्ष विभावनित्यशुद्धपर्यायाथिकनय' ।। शुद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिसंजनितनारकादिविभावपर्याया' जीवस्वरूपमिति कर्मोपाधिसापेक्ष-बिभावानित्याशुद्धपर्यायाथिकनय ६३ -१. भरत आदि क्षेत्र, हिमवान आदि पर्वत, पद्म आदि सरोवर, सुदर्शन आदि मेरु, लवण व कालोद आदि समुद्र, इनको मध्यरूप या केन्द्ररूप करके स्थित असंख्यात द्वीप समुद्र, नरक पटल, भवनवासी व व्यन्तर देवोंके विमान, चन्द्र व सूर्य मण्डल आदि ज्योतिषी देवोके विमान, सौधर्म कल्प आदि स्वर्गोके पटल, यथायोग्य स्थानोंमें परिणत अकृत्रिम चैत्यचैत्यालय, मोक्षशिला, बृहद् वातवलय तथा इन सबको आदि लेकर अन्य भी आश्चर्य रूप परिणत जो पुद्गलकी पर्याय तथा उनके साथ परिणत लोकरूप महास्क्रन्ध पर्याय जो कि त्रिकाल स्थित रहते हुए अनादिनिधन हैं, इनको विषय करनेवाला अर्थात् इनकी सत्ताको स्वीकार करनेवाला अनादिनित्य पर्यायार्थिक नय है। २. ( परमभाव ग्राहक ) शुद्ध निश्चयनयको गौण करके, सम्पूर्ण कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न तथा चरमशरीरके आकाररूप पर्यायसे परिणत जो शुद्ध सिद्धपर्याय है, उसको विषय करनेवाला अर्थात उसको सत् समझनेवाला सादिनित्य पर्यायार्थिक नय है । ३ (व्याख्याकी अपेक्षा यह नं.४ है ) पदार्थ में विद्यमान गुणोंकी अपेक्षाको मुख्य न करके उत्पाद व्यय श्रौव्यके आधीनपने रूपसे द्रव्यको विनाश व उत्पत्ति ४. शुद्ध व अशुद्ध पर्यायाथिकनय निर्देश १. शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिकनयके लक्षण आ.प./ शुद्धपर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति शुद्धपर्यायाथिक. । अशुद्धपर्याय एवार्थ. प्रयोजनमस्येत्यशुद्धपर्यायार्थिक'। - शुद्ध पर्याय अर्थात समयमात्र स्थायी, षड्गुण हानिवृद्विध द्वारा उत्पन्न, सूक्ष्म अर्थपर्याय ही है प्रयोजन जिसका वह शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। और अशुद्ध पर्याय अर्थात चिरकाल स्थायी, संयोगी व स्थूल व्यंजन पर्याय हो है प्रयोजन जिसका वह अशुद्ध पर्यायाथिक नय है। न.च./श्रत/पृ.४४ शुद्धपर्यायार्थेन चरतीति शुद्धपर्यायार्थिकः । अशुद्धपर्यायार्थेन चरतीति अशुद्धपर्यायर्थिकः । = शुद्ध पर्यायके अर्थ रूपसे आचरण करनेवाला शुद्वपर्यायार्थिक नय है, और अशुद्ध पर्यायके अर्थरूपसे आचरण करनेवाला अशुद्ध पर्यायाथिकनय है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मय ५५२ V निश्चय व्यवहार नय स्वरूप माननेवाला सत्तानिरपेक्ष या सत्तागौण उत्पादव्ययग्राहक स्वभाव अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय है। ४. (व्याख्याकी अपेक्षा यह नं०३)-अगुरुलघु आदि गुण स्वभावसे ही षट्गुण हानि वृद्धिरूप क्षणभंग अर्थात् एकसमयवर्ती पर्यायसे परिणत हो रहे हैं। तो भी सत् द्रव्यके अनन्तों गुण और पर्यायें परस्पर संक्रमण न करके अपरिणत अर्थात् अपने-अपने स्वरूपमें स्थित रहते हैं। द्रव्यको इस प्रकारका ग्रहण करनेवाला नय सत्तासापेक्ष स्वभावनित्य शुद्धपर्यायाथिकनय है। ५. चराचर पर्याय परिणत संसारी जीवधारियोंके समूहमे शुद्ध सिद्धपर्यायकी विवक्षासे कर्मोपाधिसे निरपेक्ष विभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय है । ( यहाँ पर संसाररूप विभावमें यह नय नित्य शुद्ध सिद्धपर्यायको जाननेकी विवक्षा रखते हुए संसारी जीवोंको भी सिद्ध सदृश बताता है। इसीको आ. प. में कर्मोपाधि निरपेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायाथिकनय कहा गया है। ६. जो शुद्ध पर्यायकी विवक्षा न करके कर्मोपाधिसे उत्पन्न हुई नारकादि विभावपर्यायोको जोवस्वरूप बताता है वह कर्मोपाधिसापेक्ष विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायाथिकनय है। (इसोको आ. प. में कर्मोपाधिसापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहा गया है । ) ( आ. प./५); (न. च. वृ./२००-२०५) (न. च./श्रुत/ पृ. ६पर उद्धृत श्लोक नं.१-६ तथा पृ. ४१ श्लोक ७-१२)। २. उदाहरण दे. मोक्षमार्ग/३/१ दर्शन ज्ञान चारित्र ये तीन भेद व्यवहारसे ही कहे जाते हैं निश्चय से तीनों एक आत्मा ही है। स, सा./आ./१६/क.१८ परमार्थेन त व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषककः । सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः ॥१८ - परमार्थसे' देखनेपर ज्ञायक ज्योति मात्र आत्मा एकस्वरूप है, क्योंकि शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे सभी अन्य द्रव्यके स्वभाव तथा अन्यके निमित्तसे हुए विभावोंको दूर करने रूप स्वभाव है । अतः यह अमेचक है अर्थात् एकाकार है। पं.ध./पू./88 व्यवहारः स यथा स्यात्सद् द्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवो वा। नेत्येतावन्मात्री भवति स निश्चयनयो नयाधिपतिः।- 'सद द्रव्य है' या 'ज्ञानवान जीव है' ऐसा व्यवहारनयका पक्ष है। और 'द्रव्य या जीव सद या ज्ञान मात्र ही नहीं है' ऐसा निश्चयनयका पक्ष है। और भी दे. नय/IV/१/७-६द्रव्य क्षेत्र काल व भावचारों अपेक्षासे अभेद । पर्यायको विवर(यहाँ पर संवा रखते कोपाधि ३. निश्चयनयका लक्षण स्वाश्रय कथन v निश्चय व्यवहार नय १. निश्चयनय निर्देश १. निश्चयका लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण नि.सा./न./१५६ केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं । - निश्चयसे केवलज्ञानी आत्माको देखता है। श्लो. वा./१/७/२८/५८५/१ निश्चनय एवंभूत. = निश्चय नय एवं भूत है। स. सा./ता. वृ./३४/६६/२० ज्ञानमेव प्रत्यारण्यानं नियमान्निश्चयान मन्तव्यं । =नियमसे, निश्चयसे ज्ञानको ही प्रत्याख्यान मानना चाहिए। प्र. सा./ता. वृ./६३/से पहिले प्रक्षेपक गाथा नं. १/१२८/३० परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः। = परमार्थ के विशेषणसे संशयादि रहित निश्चय अर्थका ग्रहण किया गया है। द्र.स./टो./४१/१६४/११श्रद्धान रुचिनिश्चय इद मेवेत्थमेवेति निश्चयबुद्धिः सम्यग्दर्शनम् । श्रद्धान यानी रुचि या निश्चय अर्थात् 'तत्त्वका स्वरूप यह ही है, ऐसे ही है' ऐसी निश्चयबुद्धि सो सम्यग्दर्शन है। स. सा./पं. जयचन्द/२४१ जहाँ निर्वाध हेतुसे सिद्धि होय वही निश्चय १. लक्षण स. सा./आ./२७२ आत्माश्रितो निश्चयनयः । --निश्चय नय आत्माके __ आश्रित है। (नि. सा./ता, वृ./१५६) । त. अनु./५६ अभिन्नकर्तृ कर्मादिविषयो निश्चयो नयः। -निश्चयनयमें कर्ता कर्म आदि भाव एक दूसरेसे भिन्न नहीं होते। ( अन.ध./ १/१०२/१०८)। २. उदाहरण रा. वा./१/७/३८/२२ पारिणामिकभावसाधनो निश्चयतः। -निश्चय से जीवकी सिद्धि पारिणामिकभावसे होती है। स, साा/आ./५६ निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमानः परभाव परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति ।-निश्चयनय द्रव्यके आश्रित होनेसे केवल एक जीवके स्वाभाविक भावको अवलम्बन कर प्रवृत्त होता है, वह सब परभावों को परका बताकर उनका निषेध करता है। प्र. सा./त. प्र./१८६ रागादिपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवोपदाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनयः । -शुद्धद्रव्यका निरूपण करनेवाले निश्चयनयकी अपेक्षा आत्मा अपने रागादि परिणामोंका ही कर्ता उपहाता या हाता (ग्रहण व त्याग करनेवाला) है। (द्र. सं./मु. व टी./८)। प्र. सा./त. प्र/परि./नय नं. ४५ निश्चयनयेन केवलबध्यमानमुच्यमानबन्धमोक्षोचितस्निग्धरूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुवबन्धमोक्षयोरद्वैतानुवति ।-आरमद्रव्य निश्चयनयसे बन्ध व मोक्षमें अद्वैतका अनुसरण करनेवाला है। अकेले बध्यमान और मुच्यमान ऐसे बन्धमोक्षोचित स्निग्धत्व रूक्षत्व गुण रूप परिणत परमाणुकी भाँति । नि. सा./ता, वृ./ह निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीवः। --निश्चयनयसे भावप्राण धारण करनेके कारण जीव है। (द्र. सं./टी./३/११/८)। द्र, सं./टी./१९/५७/६ स्वकीयशुद्धप्रदेशेषु यद्यपि निश्चयनयेन सिधास्तिष्ठन्ति । निश्चयनयसे सिद्ध भगवान स्वकीय शुद्ध प्रदेशों में ही रहते हैं। द्र. सं./टी./८/२२/२ किन्तु शुद्धाशुद्धभावाना परिणममानानामेव कर्तृत्वं ज्ञातव्यम्, न च हस्तादिव्यापाररूपाणामिति-निश्चयनयसे जीवको अपने शुद्ध या अशुद्ध भावरूप परिणामोंका ही कर्तापना जानना चाहिए, हस्तादि व्यापाररूप कार्योंका नहीं। पं. का./ता. वृ./१/४/२१ शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति ।- शुद्ध निश्चयनयसे अपने में ही आराध्य आराधक भाव है। मो. मा. प्र./७/३६६/२ साँचा निरूपण सो निश्चय । मो. मा. प्र./४/४८६/१६ सत्यार्थका नाम निश्चय है। २. निश्चय नयका लक्षण अभेद व अनुपचार ग्रहण आ. प./१० निश्चयनयोऽभेदविषयो। * निश्चय नयका विषय अभेद द्रव्य है। (न. च./श्रुत/२५), आ. प./8. अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः । - जो अभेद व अनुपचारसे वस्तुका निश्चय करता है वह निश्चय नय है। (न.च, वृ./२६२) (न.च./श्रुत/पृ. ३१) (पं.ध./पू./६१४)। पं.ध./पू./६६३ अपि निश्चयस्य नियतं हेतुः सामान्यमिह वस्तु । सामान्य वस्तु ही निश्चयनयका नियत हेतु है। और. भी दे. नय/IV१/२-५; IV/२/३; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ४. निश्चयनयके भेद -- शुद्ध व अशुद्ध आ. प./१० तत्र निश्चयो द्विविधः सुनिश्चयोऽशुवनिश्चयश्च ।निश्चयनय दो प्रकारका है-शुनिश्चय और अशुपनिश्चय। ५. शुद्धनिश्चयनयके लक्षण व उदाहरण २. परममानग्राहीकी अपेक्षा नोट - ( परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक नय ही परम शुद्ध निश्चयनय है अतः दे० नथ //V/२/६/१०) = नि. सा./मू./ ४२ चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोयसोका य । कुलजोणिजीवमग्गणठाणा जीवस्स णो सति ॥४२॥ ( शुद्ध निश्चयनयसे ता.वृ. टोका) जीवको चार गतिके भवोंमें परिभ्रमण, जाति, जरा, मरण, रोग, शोक, कुन योनि, जीवस्थान और मार्गणा स्थान नहीं है । ( स.सा./मू./५०-५५), (बा. अ. / ३७) (प. प्र./मू./१/११-२१, ६८ ) स.सा.//५६ यवहारेण एदे जीनस हवंति वणमादीया गुण ठाणं ता दु भावा ण दु केइ णिच्छयणयस्स १५६। ये जो (पहिले गाथा नं० ५०५५ में) वर्णको आदि लेकर गुणस्थान पर्यन्त भाव कहे गये है व्यवहार नयसे ही जीवके होते हैं परन्तु (शुद्ध) निश्चयनयसे तो इनमें कोई भी जीवके नहीं है। स.सा./१८ मोहम्मदया वु वणिया जे इमे गुणद्वाणा । ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता | ६टा स.सा./आ./६८ एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययनकर्म... संयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गल कर्म पूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात्पुद्गल एव न तु जीव इति स्वयमायातं । - जो मोह कर्मके उदयसे उत्पन्न होनेसे अचेतन कहे गये हैं, ऐसे गुणस्थान जीव कैसे हो सकते हैं और इसी प्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म आदि तथा संयमलब्धि स्थान ये सब १९ बातें पुद्गलकर्म जनित होनेसे नित्य अचेतन स्वरूप हैं और इसलिए पुद्गल हैं जीव नहीं, यह बात स्वतः प्राप्त होती है। (इ.सं./टी./१६/५३/३) । वा. अनु. / ९२ णिच्छयणयेण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो । == निश्चयनयसे जीव सागार व अनगार दोनों धर्मोसे भिन्न है । प्र.///विमो निरायतु जय जीव कम्मु जगह। अप्पा किंपि विकु णवि णिच्छउ एउ भणेइ ॥ ६५॥ बन्धको या मोक्षको करनेवाला तो कर्म है । निश्चयसे आत्मा तो कुछ भी नहीं करता । (पं. ध. /पु/४५६ ) } न च वृ./१९२ दो जोवसहावो जो रहियो व्यभावम्मेहि सो शुद्धमिच्छयादी समासिओ सुगागीहिं । १९३३ - शुद्धनिश्चय नयसे जीवस्वभाव द्रव्य व भावकर्मोंसे रहित कहा गया है । नि. सा./ता.वृ./१५६ शुद्ध निश्चयतः स भगवान् त्रिकालनिरुपाधिनिरवधिनित्यशुद्धसहजज्ञान सहज दर्शनाभ्यां निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्य परमात्मादि जानाति पश्यति च शुद्ध निश्चयनयसे भगवान् त्रिकाल निरुपाधि निरवधि नित्यशुद्ध ऐसे सहजज्ञान और सहज दर्शन द्वारा निज कारणपरमात्माको स्वयं कार्य परमात्मा होनेपर भी जानते और देखते हैं । प्र. सं./टी./४०/२०६/४ साक्षाद्वधनिश्चयनयेन स्त्रीपुरुषसंयोगरहितपुत्रस्येव सुधारिदासंयोगरहितरविशेषस्येन तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति कथमुत्तरं पृथ्वाम इति साक्षात निश्चयनयसे तो जैसे स्त्री व पुरुषसंयोग के बिना पुत्रकी तथा चूना व हल्दीके संयोग बिना सारंगको उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार रागद्वेषकी उत्पत्ति हो नहीं होती, फिर इस प्रश्नका उत्तर ही क्या ? (स. सा./ता.वृ./१११/ १७१/२३) प्र. सं. टी/१०/२३५/० में उधृत करचेत् प्रभवेदन्धो नो बन्धो मोचनं कथम् अमन्धे मोचन मैरयों निरर्थक मन्धश्च शुनिश्चययेन नास्ति तथा बन्धपूर्वकमोक्षोऽपि। जिसके भा० २-७० ५५३ V निश्चय व्यवहार नय मन्म होता है उसको हो मोक्ष होती है। शुद्ध निश्चयमय जीवको बन्ध ही नहीं है, फिर उसको मोक्ष कैसा । अतः इस नयमें मुञ्च धातुका प्रयोग ही निरर्थक है। शुद्ध निश्चय नयसे जीवके बन्ध ही नहीं है, तथा बन्ध पूर्वक होनेसे मोक्ष भी नहीं है (प.प्र./टी./१/ ६८/६९/१) 1 द्र.सं./टी./५७/२३६/८ यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूपः शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरम निश्चयमोक्ष सच पूर्वमेव जी तिष्ठतीदानों भविष्यतीत्येवं न जो रूपारिणामिक भावरूप परम निश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहिले ही विद्यमान है, अब प्रगट होगी, ऐसा नहीं है । ६.का./२०/६०/१३ आत्मा हि शुधनिश्चयेन सत्ताचैतन्यबोधादिशु जति शुद्धज्ञानचेतनयायुक्तत्वाचे यिता... । - शुद्ध निश्चयनयसे आत्मा सत्ता, चैतन्य व ज्ञानादि शुभ मागोसे जीता है और शुद्ध ज्ञान चेतनासे युक्त होनेके कारण चेतता है (नि.सा./ता. १) (द्र.सं./टी./३/१२) और भी दे० नय / IV/२/३ ( शुद्धद्रव्यार्थिकनय द्रव्यक्षेत्रादि चारों अपेक्षासे तत्त्वको ग्रहण करता है। २. क्षायिकभावग्राहीकी अपेक्षा फ आ. प./१० निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयक, शुद्ध निश्चयो यथा केवलज्ञानादयो जीव इति । (स्फटिक) निरुपाधिक गुण व गुणीमें अभेद दर्शानेवाला शुद्ध निश्चयनय है, जैसे केवल ज्ञानादि ही जीव है अर्थात् जीव का स्वभावभूत लक्षण है। . (न. च. / श्रुत/२५); (प्र. सा./ता.वृ./परि./३६८/१२); (पं.का./ता.वृ./ ६१/११३/१२); (द्र.सं./टी./६/१८/८) पं.का./ता.वृ./२०/६०/१७ (शुद्ध) निश्चयेन केवलज्ञानदर्शनरूपशुद्धघोष योगेन युतत्वादुपयोगविशेषता: “मोक्षमोक्षकारणरूपशुपरिणामपरिणमनसमर्थत्वात्... प्रभुर्भवति शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धभावानां परिणामानां कतृ वात्कर्ता भवतिः... शुद्धात्मोत्थवीतराग परमानन्दरूप सुखस्य भोक्तृ त्वात् भोक्ता भवति । यह आत्मा शुभ निश्चय नयसे केवलज्ञान व केवलदर्शनरूप शुद्धधोपयोगले युक्त होनेके कारण उपयोगविशेषतावाला है; मोक्ष व मोक्षके कारणरूप शुध परिणामों द्वारा परिणमन करनेमें समर्थ होनेसे प्रभु है, शुद्धध भावोका या शुद्ध भावोंको करता होनेसे कर्ता है और शुद्धधात्मासे उत्पन्न वीतराग परम आनन्दको भोगता होनेसे भोक्ता ई द्र. सं./टी./६/२३/६ शुद्ध निश्चयनयेन परमात्मस्वभावसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानोत्पन्नसदानन्देवलक्षणं सुखामृत भुक्त इति शुध निश्चयनयसे परमात्मस्वभाव के सम्यकश्रद्धधान, ज्ञान और आचरण से उत्पन्न अविनाशी आनन्दरूप लक्षणका धारक जो सुखामृत है, उसको ( आत्मा ) भोगता है 1 ६. एकदेश शुद्ध निश्चय नयका लक्षण व उदाहरण नोट - ( एकदेश शुद्धभावको जीवका स्वरूप कहना एकदेश शुध निश्चयनय है । यथा - ) ६. सं/टी./४०/२०५ अत्राह शिष्य-रागद्वेषादय कि कर्मजनिता किं जीवनिता इति तत्रोत्तरं स्त्रीपुरुषसंयोगोत्पन्नपुत्र सुपाहर द्रासंयोगोत्पन्नवर्ण विशेष इवोभयसंयोगजनिता इति । पश्चान्नयनिवाशेन विवक्षितेकदेशशुद्ध निश्चयेन कर्मजनिता भण्यन्ते ।प्रश्न - रागद्वेषादि भाव कर्मोंसे उत्पन्न होते हैं या जीवसे 1 उत्तरस्त्री व पुरुष इन दोनोंके संयोगसे उत्पन्न हुए पुत्रके समान और चूना तथा हल्दी इन दोनोंके मेलसे उत्पन्न हुए लालरंगके समान ये रागद्वेषादि कषाय जीव और कर्म इन दोनोंके संयोगसे उत्पन्न होते हैं। जब नकी विवक्षा होती है तो विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्वयनयसे ये कषाय कर्म से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं। (अशुद्ध निश्चयसे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश = Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय जीवन कहे जाते है और साक्षात् शुद्धनिश्चय नयसे ये हैं ही नहीं, तब किसके कहे (३० शीर्षक न. ५/१ मे इ.सं.)। द्र. सं./टी./५७/२३६/७ विवक्षितैकदेश शुद्ध निश्चयनयेन पूर्वं मोक्षमार्गो व्याख्यातस्तथा पर्यायरूपो मोक्षोऽपि । न च शुद्धनिश्चयेनेति । -- पहिले जो मोक्षमार्ग या पर्यायमोक्ष कहा गया है, यह विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनमसे कहा गया है. शुद्ध निश्चयनयसे नहीं ( क्योंकि उसमें तो मोक्ष या मोक्षमार्गका विकल्प ही नहीं है। ५५४ ७. शुद्ध, एकदेश शुद्ध, व निश्चय सामान्यमें अन्तर व इनकी प्रयोग विधि प. प्र./टी./६४/६५/१ सांसारिकं सुखदुःखं यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन जीवजनितं तथापि शुद्धनिश्चयेन कर्मजनितं भवति । सांसारिक सुख दुख यद्यपि अशुद्ध निश्चयनयसे जीव जनित हैं, फिर भी शुद्ध निश्चय कर्मजनित है (यहाँ एकदेश शुद्धको भी शुद्ध निश्चयनय ही कह दिया है) ऐसा ही सर्वत्र यथा योग्य जानना चाहिए ) प्र.सं./टी./१/२१/१२ शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्ध कस्वभावेन यदा परिणमति तदानन्तज्ञानसुखादिशुद्धभावानां छद्मस्थावस्थायां भावनारूपेण विवक्षितेकदेशशुद्ध निश्चयेन कर्ता, मुक्तावस्थायां तु शुद्धनयेनेति । शुभाशुभ मन वचन कायके व्यापार से रहित जब शुद्धबुद्ध एकस्वभावसे परिणमन करता है, तब अनन्तज्ञान अनन्तसुख आदि शुद्धभावका दस्थ अवस्थामें ही भावना रूपसे, एकदेशशुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षा कर्ता होता है, परन्तु मुक्तावस्थामें उन्हीं भावोंका कर्ता शुद्ध निश्चयनयसे होता है। (इस परसे एकदेश शुद्ध व शुद्ध इन दोनों निश्चय नयोंमें क्या अन्तर है यह जाना जा सकता है । ) प्र.सं./टी./५३/२२४/६ निश्चयशवेन तु प्राथमिकापेक्षा व्यवहाररत्नयानुकृतनिश्चयो प्राह्यः निष्पन्नयोनिश्चलपुरुषापेक्षा व्यवहारनत्रयानुकुल निश्चयो ग्राह्यः निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धपयोगलक्षणविवक्षितै कदेशशुद्ध निश्चयो ग्राह्यः । विशेष निश्चयः पुनरग्रे वक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थ: ।...'मा चिटुह मा जंपह...] निश्चय शब्दसे--अभ्मास करनेवाले प्राथमिक, जघन्य पुरुषकी अपेक्षा तो व्यवहार रत्नत्रय के अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए। निष्पन्न योगमें निश्चत पुरुषकी अपेक्षा अर्थात् मध्यम धर्मध्यानको अपेक्षा व्यवहाररत्नत्रयके अनुकूल निश्चय करना चाहिए। निष्यन्नयोग अर्थात उत्कृष्ट धर्मध्यानी पुरुषकी अपेक्षा सुद्धोपयोगरूप विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय ग्रहण करना चाहिए। विशेष अर्थात शुद्ध निश्चय आगे कहते हैं । —मन वचन कायसे कुछ भी व्यापार न करो केवल आत्मामें रत हो जाओ ( यह कथन शुक्लध्यानीकी अपेक्षा समझना ) । ८. अशुद्ध, निश्चयनय का लक्षण व उदाहरण आ. ५/१० सोपाधिकविषयोऽशुद्ध निश्चयो यथा मतिज्ञानादिजीव इति । सोपाधिक गुण व गुणीमें अभेद दर्शानेवाला अशुद्धनिश्चयनय है । जैसे - मतिज्ञानादि ही जीव अर्थात् उसके स्वभावभूत लक्षण है (न/रा/पृ. २५) (प.प्र./टी./७/१३/३) । न. च. वृ./११४ ते चैव भावरूवा जीवे भूदा खओवसमदो य । ते हंति भावपाणा अशुद्ध णिच्छयणयेण णायव्वा । ११४। जीवमें कर्मोंके क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाले जितने भाव हैं, वे जीव के भावप्राण होते हैं, ऐसा अशुद्ध निश्चयनयसे जानना चाहिए। ( पं. का./ता.वृ./२७/ १०/१४) (प्र.सं./टी./३/११/०); नि. सा./ता.वृ./१८ अशुद्धनिश्चयमयेन सकलमोहरागद्वेषादिधामकर्मणकर्ता भोक्ता - अशुद्ध निश्चयनयसे जीव सकल मोह, V निश्चय व्यवहार नय राग, द्वेषादि रूप भावकमका कर्ता है तथा उनके फलस्वरूप उत्पन्न हर्प विषादादिरूप सुख दुःखका मोका है (द्र.सं./टी.// २१/१ तथा १/२२/५)। प. प्र./टी./६४/६५/१ सांसारिकसुखदुःखं यद्यप्यशुद्ध निश्चयनयेन जीवजनितं । - अशुद्ध निश्चयनयसे सांसारिक सुख दुख जीव जनित हैं । प्र.सा./ता.वृ./परि./३६०/१३ अनिश्चययेन सोपाधिस्फटिकम मस्तरागादिविकल्पोपाधिसहितम् । अशुद्ध निश्चयनय से सोपाधिक स्फटिककी भाँति समस्तरागादि विकल्पोंकी उपाधि से सहित है। (द्र.सं./टी./९६/५३/३); (अन. ध./१/१०३ / १०८) प्र.सा./ता.वृ./८/१०/१३ अशुद्धात्मा तु रागादिना अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानकारणं भवति अशुद्ध निश्चय नयसे अशुद्ध करमा रागादिकका अशुद्ध उपादान कारण होता है। । पं. का/खा/६९/११३/१३ कर्मकर्तृत्वप्रस्तावादशुद्ध निश्चयेन रागादयोऽपि स्वभावा भण्यन्ते । -कमका कर्तापना होनेके कारण अशुद्ध निश्चयनयसे रागादिक भी जीवके स्वभाव कहे जाते हैं। द्र.सं./टी./८/२१/१ अशुद्ध निश्चयस्यार्थः कथ्यते - कर्मोपाधिसमुत्पन्न - वादशुद्धः, तत्काले तप्तायः पिण्डवत्तन्मयत्वाच्च निश्चय । इत्युभयमेलापकेन शुद्ध निश्चयो भग्यते अशुद्ध निश्चय' इसका अर्थ कहते हैं - कर्मोपाधिसे उत्पन्न होनेसे अशुद्ध कहलाता है और अपने कासमें (अर्थात् रागादिके कालमें जीव उनके साथ) अग्निमें तपे हुए लोहे के गोलेके समान तन्मय होनेसे निश्चय कहा जाता है। इस रीतिसे अशुद्ध और निश्चय इन दोनोंको मिलाकर अनुध निश्चय कहा जाता है । द्र. सं./टी./४५/११७/१ यच्चाभ्यन्तरे रागादिपरिहारः स पुनरशुद्धनिश्चयेनेति । जो अन्तरंगमें रागादिका त्याग करना कहा जाता है. यह अशुभ निश्चयनयसे पारित्र है। पी./१/१/६/६ भावकर्मदहनं पुनरशुद्ध निश्चयेन भावकमका दहन करना अशुद्ध निश्चय नयसे कहा जाता है । RG - प. प्र./टी./१/१/६/१०/५ केवलज्ञानायनन्तगुणस्मरणरूपो भावनमस्कारः पुनरशुद्ध निश्चयेनेति । भगवान्के केवलज्ञानादि अनन्तगुणका स्मरण करना रूप जो भाव नमस्कार है वह भी अशुद्ध निश्चयनयसे कही जाती है। २. निश्चयनयकी निर्विकल्पता १. शुद्ध व अशुद्ध निश्चय द्रव्यार्थिकके भेद है आ.प./१ शुद्धाशुद्धनिश्चयी द्रव्यार्थिकस्य भेदौ शुद्ध और अशुद्ध ये दोनों निश्चयनय द्रव्यार्थिकनयके भेद हैं। (पं.भ./पू. ६६०) २. निश्चयनय एक निर्विकल्प व वचनातीत है म/१/१५० वागतिवहितत्वमितरद्वाच्चद्वाचके शुद्धा देश इति प्रमेदजनक शुद्ध तर कम्पितम् शुद्ध वचनके बगीच है, इसके विपरीत अशुद्ध तत्त्व वचनके गोचर है। शुद्धतत्त्वको प्रगट करनेवाला शुद्धादेश अर्थात सुनिश्चयनय है और अशुद्ध व भेदको प्रगट करनेवाला अनिश्चय नय है (.ध.पू./०४०) ( पं. घ. /उ. / १३४ ) . . . / २६ स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यत्वम् | अविकल्पवदतिवागिव स्यादनुभवै कगम्यवाच्यार्थः । ६२ । = स्वयं ही यथार्थ अर्थ को विषय करनेवाला होनेसे निश्चय करके वह निश्चयन सम्यक्त्व है, और निर्विकल्प व वचनागोचर होनेसे उसका वाच्यार्थ एक अनुभवगम्य ही होता है।. पं. १३४ एक नयः सर्वो निर्द्वन्द्रो निर्विकल्पक व्यवहारनयोः सइन्द्रःकल्पकः ॥ १३४॥ सम्पूर्ण शुद्ध अर्थात् निश्चय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय नय एक निर्द्वन्द्व और निर्विकल्प है, तथा व्यवहारनय अनेक सद्वन्द्व और सविकल्प है। (पं. घ. / पू. /६५७) और भी देखो न/ IV/१/७ द्रव्यार्थिक नय अवक्तव्य व निर्विकल्प है। ३. निश्चयनयके भेद नहीं हो सकते पं.पू./६६१ पादिकारच बहवो भेदा निश्चयनयस्य यस्य मते । स हि मिष्याष्टि सर्वशाज्ञावमानितो नियम १६६१ - शुद्ध और अशुद्धको) आदि लेकर निश्चयनयके भी महुतसे भेद हैं. ऐसा जिसका मत है, वह निश्चय करके मिध्यादृष्टि होनेसे नियमसे सर्वश की आज्ञाका उल्लंघन करनेवाला है। ४. शुद्धनिश्चय ही वास्तवमें निश्चयनय है, अशुद्ध निश्चय तो व्यवहार है स.सा./ता.वृ./५०/१७/१३ द्रव्यकर्मयन्धापेक्षा योऽसौ बसत व्यवहारस्तदपेक्षया तारतम्यज्ञापनार्थ रामादीनामशुद्ध निश्चयो भण्यते । वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयापेक्षया पुनरशुद्ध निश्चयोऽपि व्यवहार एवेति भावार्थः ॥५७॥ स.सा./ता.वृ./८०/१०८/११ अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्य कर्मापेक्षयाभ्यन्तररागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव । इति व्याख्यानं निश्चयव्यवहारनयविचारकाले सर्वत्र हात द्रव्यकर्म-बन्धकी अपेक्षा जो यह असद्भूत व्यवहार कहा जाता है उसकी अपेक्षा तारतम्यता दर्शानेके लिए ही रागादिकोंको अशुद्ध निश्चयनयका विषय बनाया गया है । वस्तुतः तो शुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहार ही है । अथवा द्रव्य कर्मोंकी अपेक्षा रागादिक अभ्यन्तर हैं। और इसलिए चेतनात्मक हैं, ऐसा मानकर भले उन्हें निश्चय संज्ञा दे दी गयी हो परन्तु शुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षा तो वह व्यवहार ही है। निश्चय व व्यवहारनयका विचार करते समय सर्वत्र यह व्याख्यान जानना चाहिए। ( स. सा./ता.वृ./११५/१७४ /२१), (द्र.सं./टी./ ४८/२०६/१) प्र.सा./ता.वृ./९०६/२६४/१९ परम्परया शुद्धात्मसाधकत्वादयमशुद्धनयोप्युपचारेण शुद्धनमी भण्यते निश्चयनयो न परम्परासे शुद्धात्माका साधक होनेके कारण (दे०/V/८/१ में प्र. सा./ता.वृ./१८६ ) यह अशुद्धनय उपचारसे शुद्धनय कहा गया है परन्तु निश्चय नय । : नहीं कहा गया है । दे० नम / V// अशुद्ध द्रव्याधिकनय वास्तवमे पर्यायायिक होनेके कारण व्यवहार नय है । ५. उदाहरण सहित व सविकल्प सभी नयें व्यवहार है पं. ध. / ५६६, ६१५- ६२१,६४७ सोदाहरणो यावान्नयो विशेषणविशेष्य रूपः स्यात् । व्यवहारापरनामा पर्यायार्थो नयो न द्रव्यार्थः । ५६६॥ अथ पेत्सदेकमितिमा चिदेव जीवोऽथ निश्चयो नदति व्यवहारान्तर्भावो भगति सकस्य तद्विधापतेः । ६९५ एवं सदाहरणे क् लक्षणं तदेकमिति । लक्षणलक्ष्यविभागो भवति व्यवहारतः स नान्यत्र । ६१६० अथवा चिदेव जीवो यदुदाह्रियतेऽभ्यभेदबुद्धिमता। उक्तमदत्रापि तथा व्यवहारनयो न परमार्थः । ६१७॥ ननु केवलं सदेव हि यदि वा जीवो विशेषनिरपेक्षः। भवति च तदुदाहरणं भेदाभावतदा हि को दोषः | ६१ । अपि चैवं प्रतिनियतं व्यवहारस्यावकाश एव यथा । सदनेक च सवेक जीवारिचद्रद्रव्यमारमवानिति चैव । ६२० न यतः सदिति विकल्पो जो काल्पनिक इति विकल्पश्च तत्तद्धर्मविशिष्टस्तवानुपचर्यते स यथा । ६२९ युक्तत्रादपि कल्पनायानुभूतेश्च । सर्वोऽपि नयो यावाद परसमयः स च नयावलम्बी च ॥ ६४७| ५५५ V निश्चय व्यवहार नय - उदाहरण सहित विशेषण विशेष्यरूप जितना भी नय है वह सब 'व्यवहार' नामवाला पर्यायाधिक नय है। परन्तु द्रव्याशिक नहीं ५६६ | प्रश्न - सत् एक है' अथवा 'चित् ही जीव है' ऐसा कहनेवाले नय निश्चयनय कहे गये हैं और एक सयको ही दो आदि भेदोंमें विभाग करनेवाला व्यवहार नय कहा गया है । ६१५। उत्तर--नहीं, क्योंकि, इस उदाहरणमें 'सत् एक' ऐसा कहने में 'सत्' लक्ष्य है और 'एक' उसका लक्षण है । और यह लक्ष्यलक्षण विभाग व्यवहारनय में होता है, निश्चय नहीं । ६१६। और दूसरा जो 'चित ही जीव है, ऐसा कहने में भी उपरोक्तवत लक्ष्य लक्षण भावसे व्यवहारनय सिद्ध होता है, निश्चयन नहीं । ६१७५ प्रश्न – विशेष निरपेक्ष केवल 'सत 'ही' अथवा 'जीव ही' ऐसा कहना तो अभेद होनेके कारण निश्चय नयके उदाहरण मन जायेंगे |१| और ऐसा कहनेसे कोई दोष भी नहीं है, क्योंकि यहाँ 'सद एक है' या 'जीव चिद द्रव्य है' ऐसा कहनेका अवकाश होनेसे व्यवहारनयको भी अवकाश रह जाता है । ६२० उत्तर - यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'सह' और 'जी' यह दो शब्द कहनेरूप दोनों विकल्प भी काल्पनिक है। कारण कि जो उस उस धर्म से युक्त होता है वह उस उस धर्मवाला उपचारसे कहा जाता है | ६२१। और आगम प्रमाण ( दे० नय/I/३/३) से भी यही सिद्ध होता है कि सविकल्प होनेके कारण जिसने भी नम हैं वे सब तथा उनका अवलम्बन करनेवाले पर समय हैं । ६४७ | ६. निर्विकल्प होनेसे निश्चयनय में नयपना कैसे सम्भव है ? पं. ध. / पू. / ६०० - ६१० ननु चोक' लक्षणमिह नयोऽस्ति सर्वोऽपि किल विकल्पात्मा । तदिह विकल्पाभावात् कथमस्य नयत्वमिदमिति चेत् । ६०० तत्र यतोऽस्ति नयत्वं नेति यथा लक्षितस्य पक्षत्वात् । पक्षग्राही च नयः पक्षस्य विकल्पमात्रत्वात् । ६०१ । प्रतिषेध्यो विधिरूपो भवति विकल्प स्वयं विकल्पत्वात् । प्रतिषेधको विकल्पो भवति तथा सः स्वयं निषेधात्मा । ६०२। एकाइवमसि न नैति निश्चयनयस्य तस्य पुनः । वस्तुनि शक्तिविशेषो यथा तथा तदविशेषशक्तित्वात् ॥ ६१०। • प्रश्न- जब नयका लक्षण ही यह है कि 'सब नय विकल्पात्मक होती है (दे० नय/I/१/१/५; तथा नय / I/ २ ) तो फिर यहाँपर विकल्पका अभाव होनेसे इस निश्चयनयको नयपना कैसे प्राप्त होगा ? ६०० उत्तर - यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि निश्चयनयमें भी निषेधसूचक 'न' इस शब्द के द्वारा लक्षित अर्थ को भी पक्षपना प्राप्त है और वही इस नयका नयपना है; कारण कि, पक्ष भी विकल्पात्मक होनेसे नयके द्वारा ग्राह्य है । ६०१। जिस प्रकार प्रतिषेध्य होनेके कारण 'विधि' एक विकल्प है उसी प्रकार प्रतिषेधक होनेके कारण निषेधात्मक 'न' भी एक विकल्प है | ६०० | 'न' इत्याकारको विषय करनेवाले उस निश्चयनयमें एकांगपना (किलादेशीपना) असिध नहीं है; क्योंकि, जैसे वस्तु 'विशेष' यह शक्ति एक अंग है, वैसे ही 'सामान्य' यह शक्ति भी उसका एक अंग है। ३. निश्चयनयकी प्रधानता १. निश्चयनय ही सत्यार्थ है स.सा./मू./१९ भूयो देसिदो सहयो भूतार्थ है। •शुद्धधनय न.. / श्रुत/ ३२ निश्चयनयः परमार्थप्रतिपादकत्वाद्वभूतार्थो - परमार्थका प्रतिपादक होने के कारण निश्चयमय भूतार्थ है (स.सा./बा./११ ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ज Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५५६ v निश्चय व्यवहार नय और भी दे० नय/V/१/१ ( एवंभूत या सत्यार्थ ग्रहण ही निश्चयनयका लक्षण है।) स, सा./पं. जयचन्द/६ द्रव्यदृष्टि शुदध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है। २. निश्चयनय साधकतम व नयाधिपति है न. च./श्रुत/३२ निश्चयनयः...पूज्यतमः । -निश्चयनय पूज्यतम है। म. सा./त. प्र./१८६ साध्यस्य हि शुद्धत्वेन द्रव्यस्य शुद्धत्वद्योतकत्वानिश्चयनय एव साधकतमो। -साध्य वस्तु क्योंकि शुद्ध है अर्थात पर संपर्कसे रहित तथा अभेद है, इसलिए निश्चयनय ही द्रव्यके शुद्धत्वका द्योतक होनेसे साधक है। (दे० नय/V/१/२)। पं.ध./पू./५६६ निश्चयनयो नयाधिपतिः । =निश्चयनय नयाधिपति है। ३. निश्चयनय ही सम्यक्त्वका कारण है स. सा./मू-/भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो। - जो जीव । भूतार्थका आश्रय लेता है वह निश्चयनयसे सम्यग्दृष्टि होता है। न. च. श्रुत/३२ अत्रैवाविश्रान्तान्तर्दृष्टिर्भवत्यात्मा । - इस नयका सहारा लेनेसे ही आत्मा अन्तर्दृष्टि होता है। स.सा./आ./११,४१४ ये भूतार्थमाश्रयन्ति त एव सम्यक् पश्यत सम्यग्दृष्टयो भवन्ति न पुनरन्ये, कतकस्थानीयत्वात शुद्धनयस्य ।१११ य एव परमार्थ परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते त एव समयसार चेतयन्ते। -यहाँ शुद्धनय कतक फलके स्थानपर है (अर्थात् परसंयोगको दूर करनेवाला है ), इसलिए जो शुद्धनयका आश्रय लेते है, वे ही सम्यक अवलोकन करनेसे सम्यग्दृष्टि हैं, अन्य नहीं।११। जो परमार्थको परमार्थबुद्धिसे अनुभव करते हैं वे हो समयसारका अनुभव करते प्रसारसे पूर्ण जो ज्ञान, उससे स्फुरायमान होनेमात्र जो समयसार; उससे उच्च वास्तवमे दूसरा कुछ भी नहीं है। पं.वि/१/१५७ तत्राद्य श्रयणीयमेव सुदृशा शेषद्वयोपायतः। -सम्यग्दृष्टिको शेष दो उपायोंसे प्रथम शुद्ध तत्त्व (जो कि निश्चयनयका वाच्य बताया गया है ) का आश्रय लेना चाहिए। पं.का/ता. वृ./१४/१०४/१८ अत्र यद्यपि पर्यायाथिकनयेन सादि सनिधन जीवद्रव्यं व्याख्यातं तथापि शुद्धनिश्चयेन यदेवानादिनिधनं टङ्कोरकीर्णज्ञायकैकस्वभाव निर्विकारसदानन्दै कस्वरूपं च तदेवोपादेयमित्यभिप्रायः । यहाँ यद्यपि पर्यायार्थिकनयसे सादिसनिधन जीव द्रव्यका व्याख्यान किया गया है, परन्तु शुद्ध निश्चयनयसे जो अनादि निधन टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एकस्वभावी निर्विकार सदानन्द एकस्वरूप परमात्म तत्त्व है, वही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है। (पं.का/ता.वृ./२७/६१/१६)। पं.ध./पू./६३० यदि वा सम्यग्दृष्टिस्तदृष्टिः कार्यकारी स्यात् । तस्माद स उपादेयो नोपादेयस्तदन्यनयवादः १६३०। क्योंकि निश्चयनयपर दृष्टि रखनेवाला ही सम्यग्दृष्टि व कार्यकारी है, इसलिए वह निश्चय ही ग्रहण करनेयोग्य है व्यवहार नहीं। विशेष दे० नय/V/८/१ (निश्चयनयकी उपादेयताके कारण व प्रयोजन । यह जीवको नयपक्षातीत बना देता है।) ४. व्यवहारनय सामान्य निर्देश १. व्यवहारनय सामान्यके लक्षण १. संग्रहनय ग्रहीत अर्थमें विधिपूर्वक भेद घ.१/१.१.१/गाद/१२ पडिरूवं पुण वयणस्थणिच्छयो तस्स बबहारो। लवस्तुके प्रत्येक भेदके प्रति शब्दका निश्चय करना ( संग्रहनयका) व्यवहार है । (क.पा./१/१३-१४/७१८२/८६/२२०) । स. सि./१/३३/१४२/२ संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः । - संग्रहनयके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थोंका विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहारनय है । (रा.वा/१/३३/६/१६/२०), (श्लो,वा./४/१/३३/श्लो.५८/२४४), (ह.पु./५८/४५), (ध.१/१,१,१/८४/४) (त, सा./९/४६), (स्या. म./२८/३१७/१४ तथा ३१६ पृ. उदधृत श्लो, हैं ।४१४॥ पं. वि/१/८० निरूप्य तत्त्वं स्थिरतामुपागता, मतिः सतां शुद्धनयाव लम्बिनी। अखण्डमेकं विशदं चिदात्मक, निरन्तरं पश्यति तत्पर महः 1000 शुद्धधनयका आश्रय लेनेवाली साधुजनोंकी बुद्धितत्वका निरूपण करके स्थिरताको प्राप्त होती हुई निरन्तर, अखण्ड, एक, निर्मल एवं चेतनस्वरूप उस उत्कृष्ट ज्योतिका ही अब लोकन करती है। प्र. सा./ता. वृ./१६१/२५६/१८ ततो ज्ञायते शुधनयाच्छुधात्मलाभएव । -इससे जाना जाता है कि शुद्धनयके अवलम्बनसे आत्मलाभ अवश्य होता है। पं. घ./पू./६२६ स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्य वत्वम् ।-स्वयं ही भूतार्थको विषय करनेवाला होनेसे निश्चय करके, यह निश्चयनय सम्यक्त्व है। मो. मा. प्र./१७/३६६/१० निश्चयनय तिनि ही कौं यथावत् निरूपै है, काहुकौं काविर्षे न मिलावै है । ऐसे हो श्रद्धानः सम्यवस्व हो है। ४. निश्चयनय ही उपादेय है न.च./त/६७ तस्माद्वावपि नाराध्यावाराध्यः पारमार्थिकः। -इसलिए व्यवहार व निश्चय दोनों ही नये आराध्य नहीं है, केवल एक पारमार्थिक नय ही आराध्य है। । सा./त.प्र./१८६ निश्चयनयः साधकतमत्वादुपात्तः। -निश्चयनय साधकतम होनेके कारण उपात्त है अर्थात ग्रहण किया गया है। स. सा./आ./११४/क. २४४ अलमलमतिजल्पविकल्पैरयमिह परमार्थश्चेत्यता नित्यमेकः । स्वरस विसरपूर्ण ज्ञानविस्फूर्तिमात्रान्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति । -बहुत कथनसे और बहुत दुर्विकल्पोंसे बस होओ, मस होओ। यहाँ मात्र इतना ही कहना है, कि इस एकमात्र परमार्थका ही नित्य अनुभव करो, क्योंकि निज रसके आ.प./ संग्रहेण गृहीतार्थस्य भेदरूपतया वस्तु येन व्यवहियतेति व्यवहारः। -संग्रहनय द्वारा गृहीत पदार्थ के भेदरूपसे जो वस्तुमें भेद करता है, वह व्यवहारनय है। (न. च. वृ./२१०), (का. अ./मू./२७३) २. अमेद वस्तुमें गुण-गुणी आदि रूप मेदोपचार न.च.व./२६२ जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स । -सो ववहारो भणियो...॥२६२। -एक अभेद वस्तुमें जो धर्मोका अर्थात गुण पर्यायौंका भेदरूप उपचार करता है वह व्यवहारनय कहा जाता है। (विशेष दे० आगे नय/V/११-३), (पं.ध./पू./६१४). ( आ. प./8) पं.ध./पू./५२२ व्यवहरणं व्यवहारः स्यादिति शब्दार्थतो न परमार्थः । स यथा गुणगुणिनो रिह सदभेदे भेदकरणं स्यात् । -विधिपूर्वक भेद करनेका नाम व्यवहार है। यह इस निरुक्ति द्वारा किया गया शब्दार्थ है, परमार्थ नहीं। जैसा कि यहाँपर गुण और गुणीमें सत् रूपसे अभेद होनेपर भी जो भेद करना है वह व्यवहार नय कहलाता है। ३. भिन्न पदार्थोंमें कारकादि रूपसे अभेदोपचार स.सा./आ./२७२ पराश्रितो व्यवहारः। -परपदार्थ के आश्रित कथन करना व्यवहार है। (विशेष देखो आगे असदभूत व्यवहारनय-नय/ V/५/४-६)। ro . जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय V निश्चय व्यवहार नय त. अनु./२६ व्यवहारनयो भिन्नकत कर्मादिगोचरः । =व्यवहारनय का./ता.वृ./१११/१७५/१३ अनलानिलकायिका तेषु पञ्चस्थावरेषु मध्ये भिन्न कर्ता कर्मादि विषयक है । (अन.ध./१/१०२/१०८) । चलनक्रियां दृष्ट्वा व्यवहारेण त्रसाः भण्यन्ते। -पाँच स्थावरोमें-से ४. लोकव्यवहारगत-वस्तुविषयक तेज वायुकायिक जीवोमें चलनक्रिया देखकर व्यवहारसे उन्हें त्रस कहा जाता है। ध.१३/५०५,७/१/१ लोकव्यवहारनिबन्धतं द्रव्यमिच्छत् व्यवहारनय।। प.ध./पू./५६६ व्यवहार' स यथा स्यात्सद्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवो वा। -लोकव्यवहारके कारणभूत द्रव्यको स्वीकार करनेवाला पुरुष जैसे 'सत द्रव्य है' अथवा 'ज्ञानवान् जीव है' इस प्रकारका जो व्यवहारनय है। कथन है, वह व्यवहारनय है। और भी देखो-(नय/IV/२/६/६), २. व्यवहारनय सामान्यके उदाहरण (नय/V/२/१-३)। १. संग्रह ग्रहीत अर्थमें भेद करने सम्बन्धी ३. भिन्न पदार्थों में कारकरूपसे अभेदोपचार सम्बन्धी स.सि./१/३३/१४२/२ को विधिः । यः संगृहीतोऽर्थस्तदानुपयेणैव व्यव स.सा./मू./५६-६० तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सि, वणं । हार' प्रवर्तत इत्ययं विधिः। तद्यथा-सर्वसंग्रहेण यत्सत्त्वं गृहीतं जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो ।।६। गंधरसफासरूवा तच्चानपेक्षितविशेष नाल संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते। देहो संठाणमाइया जे य। सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदियत्सत्तद् द्रव्यं गुणो वेति । द्रव्येणापि संग्रहाक्षिप्तेन जीवाजीवविशेषा संति ६० - जीवमें कर्मों व नोकर्मों का वर्ण देखकर, जीवका यह नपेक्षेण न शक्यः संव्यवहार इति जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति वा व्यव वर्ण है, ऐसा जिनदेवने व्यवहारसे कहा है।५। इसी प्रकार गन्ध, रस और स्पर्शरूप देह संस्थान आदिक, सभी व्यवहारसे हैं, ऐसा हार आश्रीयते। जीवाजीवावपि च संग्रहाक्षिप्तौ नालं संव्यवहारा निश्चयनयके देखनेवाले कहते हैं ।६०। (द्र.सं./मू./७), (विशेष दे० येति प्रत्येकं देवनारकादिर्घटादिश्च व्यवहारेणाश्रीयते। -प्रश्नभेद करनेकी विधि क्या है। उत्तर-जो संग्रहनयके द्वारा गृहीत नय/V/AI)। अर्थ है उसीके आनुपूर्वीक्रमसे व्यवहार प्रवृत्त होता है, यह विधि द्र. सं./म./२,६ तिकाले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य । बवहारा है। यथा-सर्व संग्रहनयके द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है, वह सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स ।३। पुग्गलकम्मादीणं कत्ता अपने उत्तरभेदोंके बिना व्यवहार करानेमें असमर्थ है. इसलिए वबहारदो ।। ववहारा मुहदुक्ख पुग्गलकम्मफलं प जेदि ।। - भूत भविष्यत् व वर्तमान तीनों कालोंमें जो इन्द्रिय बल, आयु व्यवहारनयका आश्रय लिया जाता है। यथा-जो सत है वह या व श्वासोच्छवासरूप द्रव्यप्राणोंसे जीता है, उसे व्यवहारसे जीव तो द्रव्य है या गुण । इसी प्रकार संग्रहनयका विषय जो द्रव्य है वह भी जीव अजीवकी अपेक्षा किये बिना व्यवहार करानेमें अस कहते हैं। व्यवहारसे जीव पुद्गलकर्मोका कर्ता है । और मर्थ है, इसलिए जीव द्रव्य है और अजीव द्रव्य है, इस प्रकारके व्यवहारसे पुद्गलकर्मोंके फलका भोक्ता है ह(विशेष देखो नय/VII) व्यवहारका आश्रय लिया जाता है। जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य प्र.सा./त.प्र./परि/नय नं०४४ व्यवहारनयेन बन्धकमोचकपरमाण्वन्तर-- भी जबतक संग्रहनयके विषय रहते हैं, तब तक वे व्यवहार करानेमें संयुज्यमानवियुज्यमानपरमाणुवबन्धमोक्षयोद्वैतानुवर्ती ४४ - असमर्थ हैं, इसलिए जीवद्रव्यके देव नारकी आदि रूप और अजीव आत्मद्रव्य व्यव हारनयसे बन्ध और मोक्ष में द्वैतका अनुसरण करनेद्रव्यके घटादि रूप भेदोंका आश्रय लिया जाता है। (रा.वा/१/३३/६/ वाला है । बन्धक और मोचक अन्य परमाणुके साथ संयुक्त होनेवाले ६/१६/२३), (श्लो. वा ४/१/३३/६०/२४४/२५), (स्या. म./२८/ और उससे वियुक्त होनेवाले परमाणुकी भाँति । ३१७/१६)। प्र.सा./त.प्र./१०४ यस्तु पुद्गलपरिणाम आत्मनः कर्म स एव पुण्यपापद्वैतं श्लो, वा ४/१/३३/६०/२४५/१ व्यवहारस्तद्विभज्यते यद्रव्यं तज्जीवादि पुदगलपरिणामस्यात्मा कर्ता तस्योपदाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्याषड् विधं, या पर्यायः स द्विविधः क्रमभावो सहभावी चेति । पुनरपि थिकनिरूपणात्मको व्यवहारनयः। -जो 'पुद्गल परिणाम आत्मासंग्रहः सर्वानजीवादीन संगृह्णाति ।...व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रैति का कर्म है वही पुण्य पापरूप द्वैत है; आरमा पुद्गल परिणामका कर्ता यो जीव' स मुक्तः संसारी च,.. यदाकाशं तक्लोकाकाशमलोकाकाशं है, उसका ग्रहण करनेवाला और छोड़नेवाला है, यह अशुद्धद्रव्यका ...यः क्रमभावी पर्यायः स क्रियारूपोऽक्रियारूपश्च विशेषः, यः सह निरूपणस्वरूप व्यवहारनय है। भावी पर्याय, स गुणः सदृशपरिणामश्च सामान्यमिति अपरापर प.प्र./१/५५/५४/४ य एव ज्ञानापेक्षया व्यवहारनयेन लोकालोकव्यापको संग्रहठ्यवहारप्रपञ्चः। -( उपरोक्तसे आगे)-व्यवहारनय उसका भणित। -व्यवहारनयसे ज्ञानकी अपेक्षा आत्मा लोकालोकविभाग करते हुए कहता है कि जो द्रव्य है वह जीवादिके भेदसे व्यापी है। छः प्रकारका है, और जो पर्याय है वह क्रमभावी व सहभावीके मो.मा.प्र./७/१७/३६६/८ व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यको वा तिनिके भेदसे दो प्रकारको है। पुनः संग्रहनय इन उपरोक्त जीवादिकोंका भावनिकौं वा कारणकार्यादिककौं काहूको काहूविषै मिलाय निरूसंग्रह कर लेता है, तब व्यवहारनय पुनः इनका विभाग करता है पण करै है। कि जीव मुक्त व संसारीके भेदसे दो प्रकारका है. आकाश लोक व अलोकके भेदसे दो प्रकारका है। (इसी प्रकार पुहगल व काल और भी दे० (नय/III/२/३), (नय/V/५/४-६)। आदिका भी विभाग करता है। जो क्रमभावी पर्याय है वह क्रिया ___४. लोक व्यवहारगत वस्तु सम्बन्धी रूप व अक्रिया (भाव) रूप है, सो विशेष है । और जो सहभावी स्या. म./२८/३१९/२३ व्यवहारस्त्वेवमाह । यथा लोकग्राहकमेव वस्तु, पर्याय हैं वह गुण तथा सदृशपरिणामरूप होती हुई सामान्यरूप हैं। अस्तु, किमनया अदृष्टाव्यवह्रियमाणवस्तुपरिकल्पनकष्टपिष्टिकया। इसी प्रकार अपर व पर संग्रह तथा व्यवहारनयका प्रपंच समझ लेना यदेव च लोकव्यवहारपथमवतरति तस्यैवानुग्राहकं प्रमाणमुपलभ्यते चाहिए। नेतरस्य। न हि सामान्यमनादिनिधनमेकं संग्रहाभिमत प्रमाण२. अभेद वस्तुमें गुणगुणीरूप भेदोपचार सम्बन्धी भूमिः, तथानुभवाभावात् । सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसङ्गाच्च । नापि स सा./मू./७ ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दसणं गाणं।-ज्ञानी- विशेषाः परमाणुलक्षणाः क्षणक्षयिणः प्रमाणगोचराः, तथा प्रवृत्तरके चारित्र दर्शन व ज्ञान ये तीन भाव व्यवहारसे कहे गये हैं। (द्र.सं. भावात् । तस्माद् इदमेव निखिललोकाबाधितं प्रमाणसिद्ध मू./६/१७), (स.सा/आ./१६/क.१७) । कियत्कालभाविस्थूलतामाबिभ्राणमुदकाद्याहरणाद्यर्थ क्रियानिर्वर्तनक्षम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय : घटादिकं वस्तुरूपं पारमार्थिकम् । पूर्वोत्तरकालभावितत्पर्यायपर्यालोचना पुनरज्यायसी तत्र प्रमाणप्रसाराभावात् । प्रमाणमन्तरेण विचारस्य कर्तुमशक्यत्वात् । अवस्तुत्वाच्च तेषां कि तद्गोचरपर्यायालोचनेन । तथाहि । पूर्वोत्तरकालमानिनो व्यविवर्ता, क्षणक्षयपरमाशुनक्षमा वा विशेषा न कथंचन लोकव्यवहारमुपरचयन्ति । तन्न ते वस्तुरूपाः । शोकव्यवहारोपयोगिनामेव वस्तुवाद। अत एव पन्धा गच्छति, कुण्डिका सवति गिरिर्दह्यते, मञ्चाः क्रोशन्ति इत्यादि व्यवहाराणां प्रामाण्यम् । तथा च वाचकमुख्य ः 'लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थी व्यवहारः व्यवहारमय ऐसा कहता है कि- लोकव्यवहार में आनेवाली वस्तु हो मान्य है । अदृष्ट तथा अव्यवहार्य वस्तुओंकी कल्पना करनेसे क्या लाभ लोकव्यवहार पथपर चलनेवाली वस्तु ही अनुग्राहक है और प्रमाणताको प्राप्त होती है, अन्य नहीं। संग्रहनय द्वारा मान्य अनादि निधनरूप सामान्य प्रमाणभूमिको स्पर्श नहीं करता, क्योंकि सर्वसाधारणको उसका अनुभव नहीं होता । तथा उसे मानने पर सबको ही सर्वदर्शीपने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार ऋजुसूत्रनय द्वारा मान्य क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष भी प्रमाण बाह्य होनेसे हमारी व्यवहार प्रवृत्तिके विषय नहीं हो सकते। इसलिए लोक अमाधित कियाकाल स्थायी व जलधारण आदि अर्थक्रिया करनेमें समर्थ ऐसी घट आदि वस्तुएं ही पारमार्थिक व प्रमाण सिद्ध हैं। इसी प्रकार घट शान करते समय, नैगमनय मान्य उसकी पूर्वोत्तर अवस्थाओंका भी विचार करना व्यर्थ है, क्योंकि प्रमाणगोचर न होनेसे वे अवस्तु हैं। और प्रमाणभूत हुए बिना विचार करना अशक्य है। पूर्वोत्तरकालवर्ती की पर्याय अथवा क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष दोनों ही लोकव्यवहारमें उपयोगी न होनेसे अवस्तु हैं, क्योंकि लोक व्यवहार में उपयोगी ही वस्तु है । अतएव 'रास्ता जाता है, कुण्ड बहता है, पहाड़ जलता है, मंच रोते हैं' आदि व्यवहार भी लोकोपयोगी होनेसे प्रमाण हैं । वाचक मुख्य श्री उमास्वामीने भी तवा धिगम भाष्य / १ / ३५ में कहा है कि "लोक व्यवहारके अनुसार उपचरित अर्थ (दे० उपचार व आगे असद्भूत व्यवहार ) को बतानेवाले विस्तृत अर्थ को व्यवहार कहते हैं। - ३. व्यवहारनयकी भेद-प्रवृत्तिकी सीमा स.सि./१/३३/१४२ / ८ एवमयं नयस्तावद्वर्तते यावत्पुनर्नास्ति विभाग. । = संग्रह गृहीत अर्थको विधिपूर्वक भेद करते हुए (दे० पीछे शीर्षक नं. २/९) इस नयकी प्रवृत्ति वहाँ तक होती है, जहाँ तक कि वस्तु अन्य कोई विभाग करना सम्भव नहीं रहता। (रा. वा./१/३३/६/ ६६/२४) । रतो. बा. ४ / २ / ३३ / १६०/२४६/१५ इति अपरापर संग्रहव्यवहारमनः प्रागृजुसूत्रात्परसग्रहादुत्तर' प्रतिपत्तव्यः, , सर्वस्व 'वस्तुन' कथंचित्सामान्य विशेषात्म करवात्। इस प्रकार उत्तरोत्तर हो रहा संग्रह और व्यवहारनयका प्रपंच मुनयसे पहले-पहले और परसंग्रहनयसे उत्तर उत्तर अंशोंकी विवक्षा करनेपर समझ लेना चाहिए; क्योंकि, जगदीस वस्तु कथंचित् सामान्यविशेषात्मक हैं ( रतो. वा. ४/१,३३ / श्लो. ५६/२४४ ) का.अ./मू./२७३ जे संगण महिये विसेसरहिंदं पि मेदवे सद परमाणू पज्जेतुं बमहारणओ हवे सो हु । २०३ जो नय संग्रहनयके द्वारा अभेद रूपसे गृहीत वस्तुओंका परमाणुपर्यंत भेद करता है वह व्यवहार नय है । घ. १/१.१.१/१२/११ (विदीपार्थ) वर्तमान पर्यायको विषय करना ऋजु सूत्र है । इस लिए जबततक द्रव्यगत (दे० नय / ITI/१/२) भेदोंकी ही मुख्यता रहती है, तबतक व्यवहारनयं चलता है और जब कालकृत भेद प्रारम्भ हो जाता है तभी से ऋजुसूत्र नयका प्रारम्भ होता है। ५५८ ४. व्यवहारनयके भेद व लक्षणादि १. पृथक्त्व व एकत्व व्यवहार पं. का. सू. व भाषा / ४० मा घ च कुव्यदि धणिणं जह गामां च विधेहिं भण्णं ति तह पृधत्तं यत्तं चामि तच्चण्धन पुरुषको धनवाद करता है, और ज्ञान आत्माको हानी करता है। ऐसे ही तत्वज्ञ पुरुष पृथक्त्व व एकत्वके भेदसे सम्बन्ध दो प्रकारका कहते हैं। व्यवहार दो प्रकारका है— एक पृथक्त्व और एक एकत्व । जहाँपर भिन्न द्रव्योंमें एकताका सम्बन्ध दिखाया जाता है उसका नाम पृथनव व्यवहार कहा जाता है और एक वस्तुमें भेद दिलाया जाय उसका नाम एकत्व व्यवहार कहा जाता है । न.प.// . २६ प्रमाणनयनिक्षेपात्मकः भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहारः । प्रमाण नय व निक्षेपात्मक वस्तुको जो भेद द्वारा या उपचार द्वारा भेद या अभेदरूप करता है, वह व्यवहार है । (विशेष दे० उपचार /१/२)। २. सद्भूत व अद्भूत व्यवहार न..// २५ व्यवहारो द्विविधः सभूतव्यवहारी असहभूतव्यवहारश्च तमस्तुविषयः सद्भूतव्यवहारः भिन्नवस्तुविषयो सद्भूतव्यवहारः । व्यवहार दो प्रकारका है - सद्भूत व्यवहार और असद्भूत व्यवहार । तहाँ सद्भूतव्यवहार एक वस्तुविषयक होता है। और असद्भूत व्यवहार भिन्न वस्तु विषयक । ( अर्थात् एक वस्तुमें गुण-गुणी भेद करना सह या एकत्व व्यवहार है और भिन्न वस्तुओंमें परस्पर कर्ता कर्म व स्वामित्व आदि सम्बन्धों द्वारा अभेद करना असद्भूत या पृथक्त्व व्यवहार है।) (पं. घ. /-/ ११५) (विशेष दे० आगे नय | VIK) V निश्चय व्यवहार नय - www ३. सामान्य व विशेष संग्रह भेदक व्यवहार न. व. वृ./ २१० जो संगहेण गहियं भेयइ अत्यं असुद्ध सुधं वा । सो हारो दुविहो अद्धसुद्धत्थभेदकरो | २१०१ -जो संग्रह नयके द्वारा ग्रहण किये गये शुद्ध या अशुद्ध पदार्थका भेद करता है वह व्यवहार नय दो प्रकार का है - शुद्धार्थ भेदक और अशुद्धार्थभेदक । (शुद्धसंग्रहके विषयका भेद करनेवाला शुद्धार्थ भेदक व्यवहार है और अशुद्धसंग्रह विषयका भेद करनेवाला अशुद्धार्थमेवक व्यवहार है।) आ. प./५ व्यवहारोऽपि द्वेधा । सामान्यसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा व्याणि जीवाजीवा विशेषसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा जीवाः संसारिणी मुक्ताश्च । =व्यवहार भी दो प्रकारका है - समान्य संग्रहभेदक और विशेष संग्रहभेदक । तहाँ सामान्य संग्रहभेदक तो ऐसा है जैसे कि 'द्रव्य जीव व अजीवके भेदसे दो प्रकारका है'। और विशेषसंग्रहमेवक ऐसा है जैसे कि जीव संसारी व मुक्तके भेदसे दो प्रकारका है । ( सामान्य संग्रहनयके विषयका भेद करनेवाला सामान्य संग्रह भेदक और विशेष संग्रहनयका भेद करनेवाला विशेष संग्रहभेदक व्यवहार है ।) न च श्रुत/१४ अनेन सामान्यसंग्रहनयेन स्वीकृतसत्तासामान्यरूपार्थ भाजीवालादिकथनं सेनान्वेन स्वीकृतार्थं भित्त्वा इत्य श्वरथपदातिकथनं इति सामाण्यसंग्रहभेदकव्यमहारनयो भवति विशेषसंग्रहनयेन स्वीकृतार्था जीनगलनियाद भित्त्वा देवनारकादिकथनं घटपटादिकथनम्। हस्त्यश्वरथपदाती भिला भद्रगज जात्यश्व महारथ शतभटसहस्रभटादिकथनं...इत्याद्यनेकविषयान् भिया कथनं विशेषसंग्रहभेदकव्यमहारनयो भवति । - सामान्य संग्रहनयके द्वारा स्वीकृत सत्ता सामान्यरूप अर्थका भेद करके जीव पुद्गलादि कहना अथवा सेना शब्दका भेद करके हाथी, घोड़ा, रथ, पिया कहना, ऐसा सामान्य संग्रहभेदक व्यवहार होता है और विशेषसंप्रहृमय द्वारा स्वीकृत जीम व पुद्गलसमूहका मेव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय V निश्चय व्यवहार नय इति चेत, सदभूतो भेदोत्पादकत्वात् असहभूतस्तूपचारोत्पादकत्वात् । - उपनयसे व्यवहारनय उत्पन्न होता है। और प्रमाणनय व निक्षेपात्मक वस्तुका भेद व उपचार द्वारा भेद व अभेद करनेको व्यवहार कहते हैं। प्रश्न-व्यवहार नय उपनयसे कैसे उत्पन्न होता है, उत्तर-क्योंकि सद्भूतरूप उपनय तो अभेदरूप वस्तुमें भेद उत्पन्न करता है और असहभूत रूप उपनय भिन्न वस्तुओं में अभेदका उपचार करता है। करके देवनारकादि तथा घट पट आदि कहना, अथवा हाथी, घोड़ा, पदातिका भेद करके भद्र हाथी, जातिवाला घोड़ा, महारथ, शतभट, सहस्रभट आदि कहना, इत्यादि अनेक विषयोंको भेद करके कहना विशेषसंग्रहभेदक व्यवहारनय है। ५, व्यवहार-नयामासका लक्षण स्लो. वा. ४/१/३३/श्लो./६०/२४४ कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् । प्रमाणबाधितोऽन्यस्तु तदाभासोऽवसीयताम् 101 -द्रव्य और पर्यायोंके आरोपित किये गये कतिपत विभागोंको जो बास्तबिक मान लेता है वह प्रमाणमाधित होनेसे व्यववहारनयाभास है। (स्या, म. के अनुसार जैसे चार्वाक दर्शन)।(स्या, म./२८/३१७/१५ में प्रमाणतत्त्वालोकालंकार/७/१-५३ से उद्धृत) ६. व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है श्लो, वा. २/१/७/२८/५८५/१ व्यवहारनयोऽशुद्धद्रव्याथिकः।-व्यवहार नय अशुद्धद्रव्यार्थिकनय है। घ. १/४,१,४६/१७१/३ पर्यायकलङ्कितया अशुद्धद्रव्यार्थिकः व्यवहार नयः। व्यवहारनय पर्याय ( भेद ) रूप कलंकसे युक्त होनेसे अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। (क. पा. १/१३-१४/३१८२/२१६/२); (प्र.सा./ त.प्र./१८६)। (और भी दे०/नय/IV/२/४ )। ७. पर्यायार्थिक नय भी कथंचित् व्यवहार है गो. जी./मू./२७२/१०१६ ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्ति एयट्ठो। -व्यवहार, विकल्प, भेद व पर्याय ये एकार्थवाची शब्द हैं। पं.घ./पू./१२१ पर्यायार्थिकनय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति । एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्रः स्यात् । - पर्यायार्थिक और व्यवहार ये दोनों एकार्थवाची है, क्योंकि सप ही व्यवहार केवल उपचाररूप होता है। स, सा./पं. जयचन्द/६ परसंयोगजनित भेद सब भेदरूप अशुद्धद्रव्या थिक नयके विषय हैं। शुद्ध (अभेद) द्रव्यको दृष्टिमें यह भी पर्यायाथिक हो है। इसलिए व्यवहार नय ही है ऐसा आशय जानना। (स.सा./पं.जयचन्द/१२/क. ४) दे० नय/V/२/४ (अशुद्धनिश्चय भी वास्तवमें व्यवहार है।) 4. उपनय निर्देश १. उपनयका लक्षण व इसके भेद आ. प./५ नयानां समीपाः उपनयाः। सद्भूतव्यवहारः असहभूतव्यवहार उपचरितास तव्यवहारश्चेत्युपनयस्त्रेधा । जो नयोंके समीप हो अर्थात नयकी भाँति ही ज्ञाताके अभिप्राय स्वरूप हों उन्हें उपमय कहते हैं, और वह उपनय, सदभूत, असदभूत व उप चरित असदभूतके भेदसे तीन प्रकारका है। न. च./श्रुत/१८७-१८८ उवणयभेया वि पभणामो ।१८७१ सम्भूदमसम्भूद उपरियं चेव दुविहं सबभूव । तिविहं पि असन्भूव उवयरियं जाण तिविहं पि १८८१ - उपनयके भेद कहते हैं। वह सदभूत, असहभूत और उपचरित असइभूतके भेदसे तीन प्रकारका है। उनमें भी सद भूत दो प्रकारका है-शुद्ध व अशुद्ध-दे० आगे नय/VIR); असहभूत व उपचरित असदभूत दोनों ही तीन-तीन प्रकारके 'हैं-(स्वजाति, विजाति और स्वजाति-विजाति ।- दे० उपचार/९/२), (न, च./श्रुत/ पृ. २२) । २. उपनय भी व्यवहार नय है न.च./भूत/२६/१७ उपनयोपजनितो व्यवहारः। प्रमाणनयनिक्षेपाश्मक: भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहारः । कथमुपनयस्तस्य जनक ५. सद्भूत असद्भूत व्यवहारनय निर्देश १. सद्भूत व्यवहारनय सामान्य निर्देश १. लक्षण व उदाहरण आ. प./१० एकवस्तुविषयसद्भूतव्यवहारः । -- एक बस्तुको विषय करनेवाला सद्भूतव्यवहार है। (न. च./श्रुत/२६)। न. च. वृ./२२० गुणगुणिपज्जायदव्वे कारकसम्भावदो य दन्वेसु। तो णाऊणं भेयं कुणयं सन्भूयसद्धियरो ।२२० गुण व गुणीमें अथवा पर्याय व द्रव्यमें कर्ता कर्म करण व सम्बन्ध आदि कारकोंका कथं चित् सद्भाव होता है । उसे जानकर जो द्रव्योंमें भेद करता है वह सदभूत व्यवहारनय है । (न. च. वृ./४६)। न. च. वृ./२२१ दव्वाणां खुपएसा बहुआ बबहारदो य एक्केण । णण्ण य णिच्छयदो भणिया कायस्थ खलु हवे जुत्ती। -व्यवहार अर्थात सदभूत व्यवहारनयसे द्रव्योंके बहुत प्रदेश हैं। और निश्चयनसे वहीं द्रव्य अनन्य है। (न. च. वृ./२२२)। और भी दे. नय/V/४/१,२ में (गुणगुणी भेदकारी व्यवहार नय सामान्यके लक्षण व उदाहरण)। २. कारण व प्रयोजन पं.ध./पू./५२५-५२८ सदभूतस्तद्गुण इति व्यवहारस्तत्प्रवृत्तिमात्रत्वात । ।१२५॥ अस्यावगमे फल मिति तदितरवस्तुनि निषेधवुद्धिः स्यात् । इतरविभिन्नो नय इति भेदाभिव्यञ्जको न नयः ।५२७१ अस्तमितसर्वसंकरदोषं क्षतसर्वशून्यदोषं वा । अणुरिव वस्तुसमस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणमिदम् ।५२८] = विवक्षित उस वस्तुके गुणोंका नाम सदभूत है और उन गुणोंकी उस वस्तुमें भेदरूप प्रवृत्तिमात्रका नाम व्यवहार है ।५२५। इस नयका प्रयोजन यह है कि इसके अनुसार ज्ञान होनेपर इतर वस्तुओंमें निषेध बुद्धि हो जाती है, क्योंकि विकल्पवश दूसरेसे भिन्न होना नय है। नय कुछ भेदका अभिव्यंजक नहीं है। १६२७। सम्पूर्ण संकर व शून्य दोषोंसे रहित यह वस्तु इस नयके कारण ही अनन्य शरण सिद्ध होती है। क्योंकि इससे ऐसा ही ज्ञान होता है ।५२८॥ ३. व्यवहार सामान्य व सद्भूत व्यवहारमें अन्तर पं.ध./पू./५२३/१२६ साधारणगुण इति वा यदि वासाधारणः सतस्तस्य । भवति विवक्ष्यो हि यदा व्यवहारनयस्तदा श्रेयान् ।५२३। अत्र निदानं च यथा सदसाधारणगुणो विवक्ष्य' स्यात् । अविवक्षितोअथवापि च सत्साधारणगुणो न चान्यतरात ॥५२६१ सतके साधारण व असाधारण इन दोनों प्रकारके गुणों से किसीकी भी विवक्षा होनेपर व्यवहारनय श्रेय होता है ।५२३। और सद्भूत व्यवहारनयमें सतके साधारण व असाधारण गुणोंमें परस्पर मुख्य गौण विवक्षा होती है। मुख्य गौण विवक्षाको छोड़कर इस नयकी प्रवृत्ति नहीं होती ।५२६॥ ४. सद्भूत व्यवहारनयके भेद आ.५/१० तत्र सद्भृतव्यवहारो द्विविध-उपचरितानुपचरितभेदात् । -सहभूत व्यवहारनय दो प्रकारका है-उपचरित व अनुपचरित। (न. च./श्रुत/पृ.२५); (पं.ध./पू./५३४) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय आ.प./५ सहभूतव्यवहारो द्विधा युद्धसङ्गभृतव्यवहारो... अशुद्धसत व्यवहारो | सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकारको है -- शुद्ध सदभूत और अशुद्ध सद्भूत । (न. च / श्रुत/२१ ) । २. अनुपचारित या शुद्धसद्भूत निर्देश १. क्षायिक शुद्धकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण ५६० बा. प./१० निरुपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषयोऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा -- जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणाः । निरुपाधि गुण व गुणीमें भेदको विषय करनेवाला अनुपचारित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे- केवलज्ञानादि जीवके गुण हैं (न.च./रा/२५)। आ. प . / ५ शुद्धसद्भूतव्यवहारो यथा - शुद्धगुणशुद्धगुणिनो, शुद्धपर्यायशुद्धपर्यायणोर्भेदकवनस्शुद्धगुण व शुद्धगुणीमें अपना शुद्धपर्याय पर्यासी भेदका कथन करना शुद्ध सहभूत व्यवहारनय है (न. // २१)। नि.सा./ता.वृ./१३ बन्या कार्यदृष्टिः क्षायिकजीवस्य समकेवलावबोधबुद्धभुवनत्रयस्थ ... साथ निधनामुद्रयस्वभानशुद्धसद्भूतव्यवहारन यात्मकस्य तीर्थंकर परमदेवस्य केवलज्ञानादियमपि युगपोकालोकव्यापिनी दूसरी कार्य सुरक्षाक जीवको जिसने कि सकल विमल केवलज्ञान द्वारा तीनभुवनको जाना है, जो सादि अनिधन अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले शुद्धसत व्यवहार नयात्मक है, ऐसे तीर्थंकर परमदेवको केवलज्ञानकी भाँति यह भी युगपत् लोकालोकमे व्याप्त होनेवाली है। (नि. सा./ता. वृ./ ४३ ) । नि. सा./ता.वृ./६ शुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादि शुद्धगुणानामाधारभूतत्वात्कार्य शुद्धजीव - शुद्धसद्भूत व्यवहार से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का आधार होनेके कारण 'कार्यशुद्ध जीव' है (प्र.सा./ता. []/ परि/ १६०/९४)। २. पारिणामिक शुद्धकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरणा नि. सा./ता.वृ./२८ परमाणुपर्याय पुइगतस्य शुद्धपर्यायः परमपारनामिकभावलक्षणः वस्तुष्ट प्रकारहानिवृद्धिरूपः अतिसूक्ष्मः अर्थपर्यायात्मक सादिनिधनोऽपि परद्रव्यनिरपेक्षवासभूतउपहारनवात्मकः । - परमाणुपर्याय पुगलकी पर्याय है। जो कि परमपारिणामिकभाव स्वरूप है, वस्तुमें होनेवाली छह प्रकारकी हानिवृद्धि रूप है, अति सूक्ष्म है, अर्थ पर्यायात्मक है, और सादि सान्त होनेपर भी परद्रव्यसे निरपेक्ष होनेके कारण शुद्धसद्भूत व्यवहारयात्मक है । पं. घ. ५३५-३६ स्यादादिमो यथान्तवना था शक्तिरस्ति यस्य सतः । तत्तत्सामान्यतया निरूप्यते चेद्विशेष निरपेक्षम् १५३५॥ इदमत्रो - दाहरणं ज्ञानं जीवोपजीवि जीवगुणः । ज्ञेवालम्बनकाले न तथा शेयोपजीवि स्यात् ।११६। जिस पदार्थ की जो अन्तलीन (त्रिकाली) शक्ति है, उसके सामान्यपनेते यदि उस पदार्थ विशेषकी अपेक्षा न करके निरूपण किया जाता है तो वह अनुपचरित - सद्भूत व्यवहारनय कहलाता है | ५३५ | जैसे कि ज्ञान जीवका जीवोपजीवी गुण है । घटपट आदि ज्ञेयोंके अवलम्बन काल में भी वह ज्ञेयोपजीवी नहीं हो जाता। ( अर्थात् ज्ञानको ज्ञान कहना ही इस नयको स्वीकार है, घटज्ञान कहना नहीं । ५३६ । २. अनुपचारित व शुद्ध सद्भूत की एकाता द्र.सं./टी./६/१८/५ केवलज्ञानदर्शनं प्रति शुद्धसद्भूत शब्दवाच्योSनुपचरितसभूतव्यवहारः । यहाँ जीवका लक्षण कहते समय केवलज्ञान व केवलदर्शन के प्रति शुद्धसदभूत शब्द वाच्य अनुपचारित सद्भूत व्यवहार है । V निश्चय व्यवहार नव ४. इस नयके कारण व प्रयोजन घ../५३६ फलमास्तिष्यनिदानं सहमे वास्तवतीतिः स्यात् । भवति क्षणिकादिमते परमपेक्षा यतो विनामासात आस्तिक्य पूर्वक यथार्थ प्रतीतिका होना ही इस क्योंकि इस नयके द्वारा बिना किसी परिश्रम के उपेक्षा हो जाती है। सदरूप द्रव्यमें नयका फल है, क्षणिकादि मतोंमें ३. उपचरित या अशुद्ध सद्भूत निर्देश १. क्षायोपशमिक भावकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण आ. प./५ अशुद्धभूतव्यवहारो यथाशुद्धगुणाशुद्धगुणिनोरशुद्धपर्यायाशुद्धपर्यायणोर्भेदन अशुद्धगुण व अशुद्रगुणीने अथवा अशुधपर्याय न अशुद्धपर्यायीमें भेदका कथन करना अशुद्रसभूत व्यवहार नय है ( न च / श्रुत/२१) । आ. प./१० सोपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषय उपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा - जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः । उपाधिसहित गुण व गुणीमें भेदको विषय करनेवाला उपचारित सहभूत व्यवहारमय है। जैसेमतिज्ञानादि जीव के गुण है। (न च.// २५) । नि.सा./ता.वृ./६ अशुद्धभूतव्यवहारेण मतिज्ञानादिविभावगुणानामाधारभूतत्वादखजीवः अशुद्धसहभूत व्यवहारसे मतिज्ञानादि विभावगुणों का आधार होनेके कारण 'अशुद्ध जीव' है । (प्र.सा./ ता.वृ./ परि./३६६/१) २. पारिणामिक भावमें उपचार करने की अपेक्षा लक्षण न उदाहरण पं. भ. पू./२४०-२४१ उपचरितो भूतो व्यवहारः स्यान्नयो मया नाम अविरुद्ध हेतुनापरतोऽयुपचर्यते यतस्व गुणः ४० अर्थविकल्पो ज्ञानं प्रमाणमिति लक्ष्यतेऽनापि यथा अर्थः स्वपरनिकायो भवति विकल्पस्तु चित्तदाकारम् ॥ ३४११ - किसी हेतु के यशसे अपने गुणका भी अविरोधपूर्वक दूसरेमें उपचार किया जाये, तहाँ उपचरित सद्भूत व्यवहारनय होता है । ६४०। जैसे - अर्थ विकल्पात्मक ज्ञानको प्रमाण कहना | यहाँ पर स्वव परके समुदायको अर्थ तथा ज्ञानके उस स्वव परमें व्यवसायको विकल्प कहते हैं । ( अर्थात् ज्ञान गुण तो वास्तव निर्विकल्प मात्र है, फिर भी यहाँ बाह्य अर्थोंका अवलम्बन लेकर उसे अर्थ विकल्पात्मक कहना उपचार है, परमार्थ नहीं ५४१० ३. उपचरित व अशुद्ध सद्भूतकी एकाता प्र.सं./टी./६/१०/६ अग्रस्थज्ञानदर्शनापरिपुर्णपेिक्षया पुनरसतशब्दवाच्य उपचरिवासभूतव्यवहार' । - छद्मस्थ जीवके ज्ञानदर्शनकी अपेक्षासे अशुद्धसद्भूत शब्दसे वाच्य उपचरित सद्भूत व्यवहार है 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ४. इस नमके कारण व प्रयोजन पं. ध. / पू. / ५४४ - ५४५ हेतुः स्वरूपसिद्धि विना न परसिद्धिरप्रमाणत्वात् । तदपि च शक्तिविशेषाद्रव्यविशेषे यथा प्रमाणं स्वाद ॥५४४ वर्षो ज्ञे यज्ञायक करदोषश्रमक्षयो यदि या। अविनाभावात् सायं सामान्यं साधको विशेषः स्यात् । ५४५॥ स्वरूप सिद्धिके बिना परकी सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि वह स्व निरपेक्ष पर अप्रमाणभूत है। तथा प्रमाण स्वयं भी स्वपर व्यवसायात्मक शक्तिविशेषके कारण द्रव्य विशेष विषयमें प्रवृत्त होता है, यही इस नयकी प्रवृत्ति में हेतु है १५४४ । ज्ञेय ज्ञायक भाव द्वारा सम्भव संकरदोषके भ्रमको दूर करना, तथा अविनाभावरूपसे स्थित वस्तुके सामान्य व विशेष अंशोंमें परस्पर साध्य साधनपनेकी सिद्धि करना इसका प्रयोजन Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५६१ V निश्चय व्यवहार नय ४. असद्भुत व्यवहार सामान्य निर्देश १. लक्षण व उदाहरण आ. प./१० भिन्नवस्तुविषयोऽसभूतव्यवहार. । -भिन्न वस्तुको विषय करनेवाला असदभूत व्यवहारनय ह । (न. च./श्रुत/२५) (और भी दे० नयv/४/१ व २) न, च. व./२२३-२२५ अण्णेसि अण्णगुणो भणइ असन्भूद तिविह ते दोबि । सज्जाइ इयर मिस्सो णायव्वो तिविहभेयजुदो ।२२३- अन्य द्रव्यके अन्य गुण कहना असदभूत व्यवहारनय है। यह तीन प्रकारका है-स्वजाति, विजाति, और मिश्र। ये तीनों भी द्रव्य गुण व पर्यायमें परस्पर उपचार होनेमे तीन तीन प्रकारके हो जाते हैं। (विशेष दे० उपचार/५), न. च. वृ./११३,३२० मण वयण काय इंदिय आणप्पाणाजगं च जं जीवे। तमसम्भूओ भणदि हु बवहारो लोयमज्झम्मि ११३। णेयं खु जस्थ णाणं सधेयं जं दंसणं भणियं । चरियं खलु चारित्तं गायव्वं तं असम्भूवं ।३२० - मन, वचन, काय, इन्द्रिय, आनप्राण और आयु मै जो दश प्रकार के प्राण जीवके हैं. ऐसा असदभूत व्यवहारनय कहता है ।११। शेयको ज्ञान कहना जैसे घटज्ञान, श्रद्धयको दर्शन कहना, जैसे देव गुरु शास्त्रकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है, आचरण करने योग्यको चारित्र कहते है जैसे हिंसा आदिका त्याग चारित्र है। यह सब कथन असद्भूतव्यवहार जानना चाहिए ।३२०। आ. प./- असद्भूतव्यवहारेण कर्मनोकर्मणोरपि चेतनस्वभाव. । .. जीवस्याप्यसभूतव्यवहारेण मूर्तस्वभाव.."असदभूतव्यवहारेणाप्युपचारेणामूर्तत्वं ।..असद्भभूतव्यवहारेण उपचरितस्वभाव.।-असदभूत व्यवहारसे कर्म व नोकर्म भी चेतनस्वभावी है, जीवका भी मूर्त स्वभाव है, और पुद्गलका स्वभाव अमूर्त व उपचरित है। पं. का./ता. वृ./१/४/२१ नमो जिनेभ्यः इति वचनारमकद्रव्यनमस्का रोऽप्यसदभूतव्यवहारनयेन | 'जिनेन्द्रभगवानको नमस्कार हो ऐसा वचनात्मक द्रव्य नमस्कार भी असइभृतव्यवहारनयसे होता है। प्र.सा./ता, वृ./१८६/२५३/११ द्रव्यकर्माण्यात्मा करोति भुङ्क्त चेत्य शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकासद्भूतव्यवहारनयो भण्यते । - आत्मा द्रव्यकर्मको करता है और उनको भोगता है, ऐसा जा अशुद्ध द्रव्यका निरूपण, उसरूप असद्भुत व्यवहारनय कहा जाता है। (ग्लिोष दे० आगे उपचरित व अनुपचरित असद्मुत व्यवहार नयके उदाहरण) पं.ध./पू./५२६-५३० अपि चासद्भूतादिव्यवहारान्तो नयश्च भवति यथा। अन्यद्रव्यस्य गुणाः संजायन्ते बलात्तदन्यत्र 1५२६। स यथा वर्णादिमतो मूर्तद्रव्यस्य कर्म किल मूर्तम् । सत्संयोगत्वादिह मूर्ताः क्रोधादयोऽपि जीवभवाः ।१३०। जिसके कारण अन्य द्रव्यके गुण बलपूर्वक अर्थात उपचारसे अन्य द्रव्यके कहे जाते है, वह असहनत व्यवहारनय है ।१२।। जैसे कि वर्णादिमान मूर्तद्रव्यके जो मूर्तकर्म है, उनके संयोगको देखकर, जीवमें उत्पन्न होनेवाले क्रोधादि भाव भी मृत कह दिये जाते हैं ।५३०॥ २. इस नयके कारण व प्रयोजन पं.ध./पू./५३१-५३२ कारणभन्तीना द्रव्यस्य विभावभावशक्तिः स्यात् । सा भवति सहज-सिद्धा केवलमिह जीवपुद्गलयोः ॥३१॥ फलमागन्तुकभावादुपाधिमात्रं विहाय यावदिह । शेषस्तनद्धगुण. स्यादिति मत्वा सुदृष्टिरिह कश्चिद ।५३२। - इस नयमें कारण वह वैभाविकी शक्ति है, जो जीव पुदगलद्रव्यमें अन्तर्लीन रहती है (और जिसके कारण वे परस्परमें बन्धको प्राप्त होते हुए संयोगी द्रव्योंका निर्माण करते है।) १५३श और इस नयको माननेका फल यह है कि क्रोधादि विकारी भावोको परका जानकर, उपाधि मात्रको छोडकर, शेष जीवके शुद्धगुणोंको स्वीकार करता हुआ कोई जीव सम्यग्दृष्टि हो सकता है ।५३२। (और भी दे० उपचार/४/६) ३. असद्भूत व्यवहारनयके मेद आ. प./१० असइभूतव्यवहारो द्विविधः उपचरितानुपचरितभेदात् । -असदभूत व्यवहारनय दो प्रकार है-उपचरित असद्भुत और अनुपचारित असदभूत । (न. च./श्रुत/२५); (प.ध./पू./५३४)। दे० उपचार-असद्भत नामके उपनयके स्वजाति, विजाति आदि २७ भेद) ५. अनु पचरित असद्भूत निर्देश १. भिन्न द्रव्योंमें अमेदकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण आ-प./१० संश्लेषसहितवस्तुसंबन्धविषयोऽनुपचरितासद्भूतव्यबहारो यथा जीवस्य शरीरमिति । संश्लेष सहित वस्तुओंके सम्बन्धको विषय करनेवाला अनुपचरित असहमत व्यवहार नय है। जैसे'जीवका शरीर है' ऐसा कहना । (न. च./श्रुत/पृ. २६) नि, सा./ता, वृ./१८ आसन्नगतानुपचरितासभूतव्यवहारनयाद द्रव्यकर्मणां कर्ता तत्फलरूपाणां सुखदु.खाना भोक्ता च.. अनुपचारितासहभूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता। -आत्मा निकटवर्ती अनुपचरित असदभूत व्यवहारनयसे द्रव्यकर्मोंका कर्ता और उसके फलरूप सुखदुखका भोक्ता है तथा नोकर्म अर्थात शरीरका भी कर्ता है। (स. मा./ता. वृ/२२ की प्रक्षेपक गाथाकी टीका/४६/२१); (पं. का। ता. वृ/२७/१०/२१); (इ. सं./टी./८/२१/४/२३/४)। पं. का./ता. वृ./२७/६०/१५ अनुपचरितासहभूतव्यवहारेण द्रव्यप्राणश्च यथासंभव जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वश्चेति जीवो। -अनुपचरित असदभूत व्यवहारनयसे यथा सम्भव द्रव्यप्राणोंके द्वारा जीता है, जीवेगा, और पहले जीता था, इसलिए आत्मा जीव कहलाता है । (द्र सं टी./३/१२/५): (न. च. वृ./११३) पं. का./ता. वृ./५८/१०६/१४ जोवस्यौदयिकादिभावचतुष्टयमनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यकर्मकृतामेति। -जीवके औदयिक आदि चार भाव अनुपच रित असद्भुत व्यवहारनयसे कर्मकृत है। प्र. सा./ता. वृ/परि./३६६/११ अनुपचरितासदभूत व्यवहारनयेन द्वषणुकादिस्कन्धसंश्लेषसबन्धस्थितपरमाणुवदौदारिकशरीरे वीतरागसर्वज्ञवद्वा विविक्षित कदेहस्थितम् । = अनुपचारित असदभूत व्यवहारनयसे, द्वि अणुक आदि स्कन्धो में संश्लेषसम्बन्धरूपसे स्थित परमाणुकी भाँति अथवा बीतगग सज्ञकी भाँति, यह आत्मा औदारिक आदि शरीरोमेंमे किसी एक विवक्षित शरीरमें स्थित है। (प. प्र./टी./१/२६/३३/१) । द्र.सं./टो /७/२०/१ अनुपचरितारभूतव्यवहारान्मूर्तो। = अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नयसे यह जीव मूर्त है। (पं.का /ता./२७/५७/३)। प, प्र./टी./७/१३/२ अनुपचरितासभृतव्यवहारसंबन्ध द्रव्यकर्म नोकर्म रहितम् । प. प्र./टी./१/१/६/८ द्रव्यकर्मदहनमनुपचरितासभृतव्यवहारनयेन । प.प्र.टा. शिक्षा द्रव्या प प्र./टी./१/१४/२१/१७ अनुपचरितासहभृतव्यवहारनयेन देहादभिन्म । - अनुपरित असद्भूत व्यवहारनयसे जीव द्रव्यकर्म व मोकर्मसे रहित है, द्रव्यकोका दहन करनेवाला है, देहसे अभिन्न है। और भी देखो नय/V/४/२/३--(व्यवहार सामान्यके उदाहरण)। २. विभाव भावको अपेक्षा लक्षण व उदाहरण पं. ध./पू ५४६ अपि वासद्भतो योऽनुपचारिताख्यो नय. स भवति यथा । क्रोधाद्या जीवस्य हि विवक्षिताश्चेदबुद्धिभवा ।-अनुपचरित असदभूत व्यवहारनय, अबुद्धि पूर्वक होनेवाले क्रोधादिक विभावभावोको जीवका कहता है। ३. इस नयका कारण व प्रयोजन प.ध./पू./५४७-५४८ कारणमिह यस्य सतो या शक्ति' स्याद्विभावभाव मयी। उपयोगदशाविष्टा सा शक्ति. स्यात्तदाप्यनन्यमयी ।५४७॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-७१ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय V निश्चय व्यवहार नय फलमागन्तुकभावा' स्वपरनिमित्ता भवन्ति यावन्त' । क्षणिकत्वान्नादेया इति बुद्धि. स्यादनात्मधर्मत्वात् ।।४८ - इस जयकी प्रवृत्तिमें कारण यह है कि उपयोगात्मक दशामें जीवकी वैभाविक शक्ति उसके साथ अनन्यमयरूपसे प्रतीत होती है ।५४ और इसका फल यह है कि क्षणिक होनेके कारण स्व-परनिमित्तक सर्व ही आगन्तुक भावों में जीवकी हेय बुद्धि हो जाती है ।५४८। ६. उपचरित असद्भत व्यवहार निर्देश १. भिन्न द्रव्योंमें अभेदको अपेक्षा लक्षण व उदाहरण आ. प./१० संश्लेषरहितवस्तुसंबन्धविषय उपचरितासभूतव्यवहारो यथा-देवदत्तस्य धनमिति ।-संश्लेष रहित वस्तुओंके सम्बन्धको विषय करनेवाला उपचरित असदभूत व्यवहारनय है। जैसे-देवदत्त का धन ऐसा कहना । (न. च./श्रुत/२५) । आ. प./५ असद्भूतव्यवहार एवोपचार' । उपचारादप्युपचारं य' करोति स उपचरितासभूतव्यवहार' =असहभूत व्यवहार ही उपचार है। उपचारका भी जो उपचार करता है वह उपचरित असत व्यवहारनय है । (न, च./श्रुत/२६) (विशेष दे. उपचार)। नि. साता, वृ./१८/उपचरितासभूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता । = उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे आत्मा घट, पट, रथ आदिका क्र्ता है। (द्र.सं./टी./८/२१/५।। प्र. सा/ता. वृ./परि/३६४/१३ उपचरितासभूतव्यवहारनयेन काष्ठा सनाद्य पविष्टदेवदत्त वरसमवशरणस्थितवीतरागसर्व ज्ञवद्वा विवक्षितैकग्रामगृहादिस्थितम् । - उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे यह आत्मा, काष्ठ, आसन आदिपर मैठे हुए देवदत्तकी भाँति, अथवा समवशरण में स्थित वीतराग सर्वज्ञकी भाँति, विवक्षित किसी एक ग्राम या घर आदिमें स्थित है। द्र. सं./टी/१४/७/१० उपचरितासदभूतव्यवहारेण मोक्षशिलायां तिष्ठ- न्तीति भण्यते। द्र.सं./टी./8/२३/३ उपचरितासभूतव्यवहारेणेष्टानिष्टपञ्चेन्द्रियविषय- जनितसुखदुख भुडक्ते। द्र.सं./टी,/४५/१६६/११ योऽसौ बहिविषये पञ्चेन्द्रिय विषयादिपरित्याग' स उपचरितासभूतब्यवहारेण । - उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे सिद्ध जीव मोक्षशिलापर तिष्ठते है। जीव इष्टानिष्ट पंचेन्द्रियों के विषयोंसे उत्पन्न सुखदुखको भोगता है। बाह्यविषयों-पंचेन्द्रियके विषयोका त्याग कहना भी उपचरित असद्भुत व्यवहारनयसे है। २. विभाव भावोंकी अपेक्षा लक्षण व उदाहस्ण पं.ध./पू./५४६ उपचरितोऽसद्भूतो व्यवहाराव्यो नयः स भवति यथा। क्रोधाद्या' औदयिकाश्चेदबुद्धिजा विवक्ष्याः स्यु।५४६) - उपचरित असदभूत व्यवहारनयसे बुद्धिपूर्वक होनेवाले क्रोधादि विभावभाव भी जीवके कहे जाते हैं। ३. इस नयका कारण व प्रयोजन पं.ध /1/५५०-५५१ बीजं विभावभावाः स्वपरोभयहेतवस्तथा नियमात् । सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद्विना भवन्ति यतः १५० तत्फलभविनाभावात्साध्यं तदबुद्धिपूर्वका भावा । तत्सत्तामात्र प्रति साधनमिह बुद्धिपूर्वका भावा' ५५१। - उपचरित असभूत व्यवहारनयकी प्रवृत्ति में कारण यह है कि उक्त क्रोधादिकरूप विभावभाव नियमसे स्व व पर दोनों के निमित्तसे होते हैं, क्योंकि शक्तिविशेषके रहनेपर भी वे बिना निमित्तके नहीं हो सकते ५५० और इस नयका फल यह है कि बुद्धिपूर्वकके क्रोधादि भावोंके साधनसे अबुद्धिपूर्वकके क्रोधादिभाकोकी सत्ता भी साध्य हो जाती है, अर्थात सिद्ध हो जाती है। ६. व्यवहार नयको कथंचित गौणता १. व्यवहारनय असत्यार्थ है तथा इसका हेतु स सा /मू ११ ववहारोऽभूयत्यो । व्यवहारनय अभूतार्थ है । (न. च | श्रुत/३०)। आप्त मी./४६ संवृत्तिश्चेन्मृषे वैषा परमार्थ विपर्ययात् ।। -संवृत्ति अर्थात व्यवहार प्रवृत्तिरूप उपचार मिथ्या है। क्योंकि यह परमार्थ से विपरीत है। ध. १/१,१,३७/२६३/८ अथवा नेदं व्याख्यान समीचीनं । -(द्रव्येन्द्रियोके सदभावकी अपेक्षा केवलीको पंचेन्द्रिय कहने रूप व्यवहार नयके ) उक्त व्याख्यानको ठीक नहीं समझना।। न. च /श्रुत/२६-३० योऽसौ भेदोपचारलक्षणोऽर्थः सोऽपरमार्थः। अभेदा नुपाचारस्यार्थस्यापरमार्थत्वात् । व्यवहारोऽपरमार्थप्रतिपादकत्वादभूतार्थः । = जो यह भेद और उपचार लक्षणवाला पदार्थ है, सो अपरमार्थ है; क्योंकि, अभेद व अनुपचाररूप पदार्थको ही परमार्थपना है । व्यवहार नय उस अपरमार्थ पदार्थ का प्रतिपादक होनेसे अभूतार्थ है । (पं.ध./पू./५२२)। पं. ध./पू./६३१,६३५ ननु च व्यवहारनयो भवति स सर्वोऽपि कथमभूतार्थ.। गुणपर्ययवद्रव्यं यथोपदेशात्तथानुभूतेश्च ।६३१॥ तदसव गुणोऽस्ति यतो न द्रव्यं नोभयं न तद्योग । केवलमद्वैत सव भवतु गुणो वा तदेव सद्रव्यम्।६३५।- प्रश्न-सब ही व्यवहारनयको अभूतार्थ क्यों कहते हो,क्योंकिद्रव्यजैसे व्यवहारोपदेशसे गुणपर्यायवाला कहा जाता है, वैसा ही अनुभवसे ही गुणपर्यायवाला प्रतीत होता है। १६३१। उत्तर-निश्चय करके वह 'सत' न गुण, न द्रव्य है, न उभय है और न उन दोनोंका योग है किन्तु केवल अद्वैत सत है। उसी सतको चाहे गुण मान लो अथवा द्रव्य मान लो, परन्तु वह भिन्न नहीं है ।६३५॥ पं.का./पं.हेमराज/४५ लोक व्यवहारसे कुछ वस्तुका स्वरूप सधता नहीं। मो. मा प्र/७/३६६/८ व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यकौं वा तिनके भावनिकौ वा कारणकार्यादिककौं काहूको काहविषै मिलाय निरूपण करे है। सो ऐसे श्रद्धानते मिथ्यात्व है। तात याका त्याग करना। मो. मा. प्र./७/४०७/२ करणानुयोगविर्ष भी कहीं उपदेशकी मुख्यता लिये उपदेश हो है, ताकौ सर्वथा तेसै ही न मानना। २. व्यवहारनय उपचार मात्र है स. सा./मू./१५ जोवम्हि हेदुभूदबंधस्स दु पस्सिदूण परिणायं। जीवेण कर्द कम्म भरणदि उवयारमत्तेण । जीवको निमित्तरूप होनेसे कर्मबन्धका परिणाम होता है। उसे देखकर, 'जीवने कर्म किये है। वह उपचार मात्रसे कहा जाना है। (स. सा/आ./१०७) । स्या. म./२८/३१२/८ पर उद्धृत-तथा च माचकमुख्यः " लौकिक समउपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार' । -वाचकमुख श्री उमास्वामीने ( तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/३५ में ) कहा है, कि लोक व्यवहारके अनुसार तथा उपचारप्राय विस्तृत व्याख्यानको उपचार कहते हैं। नदी/१/१४/१२ चक्षुषा प्रमीयत इत्यादिव्यवहारे पुनरुपचारः शर णम् । 'आँखोंसे जानते हैं' इत्यादि व्यवहार तो उपचारसे प्रवृत्त होता है। पं.ध./पू./५२१ पर्यायार्थिक नय इति वा व्यवहार एव नामेति । एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्र' स्यात् ।।२१। पर्यायार्थिक नय और व्यवहारनय दोनों ही एकार्थवाची हैं, क्योंकि सकल व्यवहार उपचार मात्र होता है। पं.ध./उ./११३ तत्राद्वैतेऽपि यदद्वैत तद्विधाप्यौपचारिकम् । तत्राद्य स्वांशसंकल्पश्चेत्सोपाधि द्वितीयकम् । अद्वैतमें दो प्रकारसे द्वैत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय V निश्चय व्यवहार नय किया जाता है-पहिला तो अभेद द्रव्यमें गुण गुणी रूप अंश या भेद कल्पनाके द्वारा तथा दूसरा सोपाधिक अर्थात् भिन्न द्रव्यों में अभेदरूप। ये दोनों ही द्वैत औपचारिक हैं। और भी देखो उपचार/५ (उपचार कोई पृथक् नय नहीं है । व्यवहारका नाम ही उपचार है)। मो. मा. प्र./७/३६६/३ उपचार निरूपण सो व्यवहार । ( मो. मा. / ७/३६६/११): ३. व्यवहारनय व्यभिचारी है स. सा./पं. जयचन्द/१२/क. ६ व्यवहारनय जहाँ आत्माको अनेक भेद रूप कहकर सम्यग्दर्शनको अनेक भेदरूप कहता है, वहाँ व्यभिचार दोष आता है, नियम नहीं रहता। और भी देखो नय/V/८/२ व्यभिचारी होनेके कारण व्यवहारनय निषिद्ध ४. व्यवहारनय लौकिक रूढ़ि है स. सा./आ./८४ कुलाल कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादि रूढोऽस्ति तावद्व्यवहार'। कुम्हार कलशको बनाता है तथा भोगता है ऐसा लोगोंका अनादिसे प्रसिद्ध व्यवहार है। पं. घ./पू./५६७ अस्ति व्यवहारः किल लोकानामयमलब्धबुद्धित्वात् । योऽयं मनुजादिवपुर्भवति सजीवस्ततोऽप्यनन्यत्वात् । =अलब्धबुद्धि होनेके कारण लोगोंका यह व्यवहार होता है, कि जो ये मनुष्यादिका शरीर है, वह जीव है । (पं.ध./3/५६३)। और भो देखो नयVIR/७ में स.म-(व्यवहार लोकानुसार प्रवर्तता है)। ५. व्यवहारनय अध्यवसान है स.सा./आ./२७२ निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसान बन्धहेतुत्वे मुमुक्षोःप्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्ध', तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात् । बन्धका हेतु होनेके कारण, मुमुच जनोंको को नश्चयनयके द्वारा पराश्रित समस्त अध्यवसानका त्याग करनेको कहा गया है, सो उससे वास्तवमें व्यवहारनयका ही निषेध कराया है क्योंकि, (अध्यवसान की भाँति) व्यवहारनयके भी पराश्रितता समान ही है। ६. व्यवहारनय कथन मात्र है स.सा./मू./गा. ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरितदसणं णाणं । णविणाणं ण चरित सणं जाणगो सुद्धो ७१ पंथे मुस्सत पस्सिदूण लोगा भणं ति ववहारी। मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई। तह...जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो।। -ज्ञानीके चारित्र है, दर्शन है, ज्ञान है, ऐसा व्यवहारसे कहा जाता है। निश्चयसे तो न ज्ञान है, न दर्शन है और म चारित्र है 11 मार्ग में जाते हुए पथिकको लुटता देखकर ही व्यवहारी जन ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है। वास्तव में मार्ग तो कोई लुटता नहीं है ।।८। (इसी प्रकार जीवमें कर्म नोकमौके वर्णादिका संयोग देखकर ) जिनेन्द्र भगवान्ने व्यवहारनयसे ऐसा कह दिया है कि यह वर्ण (तथा देहके संस्थान आदि) जीवके है।५। स. सा./आ./४१४ द्विविधं द्रव्यलिङ्ग भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः, स केवल व्यवहार एव न परमार्थः। श्रावक व श्रमणके लिंगके भेदसे दो प्रकारका मोक्षमार्ग होता है, यह केवल प्ररूपण करनेका प्रकार या विधि है । वह केवल व्यवहार ही है. परमार्थ नहीं। .. व्यवहारनय साधकतम नहीं है प्र. सा./त.प्र./१८१ निश्चयनय एव साधकतमो न पुनरशुद्धद्योतको व्यवहारनयः। -निश्चयनय ही साधकतम है, अशुद्धका द्योतन करनेवाला व्यवहारनय नहीं। देखो नय/V/E/R(व्यवहारनयसे परमार्थवस्तुकी सिद्धि नहीं होती। ८. व्यवहारनय सिद्धान्त विरद्ध है तथा नयामास है पं.ध./पू/श्लोक नं० ननु चासद्भूतादिर्भवति स यत्रेत्यतद्गुणारोप.। दृष्टान्तादपि च यथा जीवो वर्णादिमानिहास्त्विति चेत् ।२५२। तन्न यतो न नयास्ते किन्तु नयाभाससंज्ञका. सन्ति । स्वयमप्यतहगुणत्वादव्यवहाराविशेषतो न्यायात् ।५५३३ सोऽयं व्यवहारः स्यादव्यवहारो यथापसिद्धान्ताव । अप्यपसिद्धान्तत्वं नासिद्ध स्यादनेकधर्मित्वात ५६८॥ अथ चेद्धटकर्तासौ घटकारो जनपदोक्तिलेशोऽयम् । दुरो भवतु तदा का नो हानिर्यदा नयाभासः१५७६।-प्रश्नदूसरी वस्तुके गुणोको दूसरी वस्तुमें आरोपित करनेको असदभूत व्यवहारनय कहते हैं (दे० नय/V/५/४-६)। जैसे कि जीवको वर्णादिमान कहना १५५२। उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्वयं अतद्गुण होनेसे, न्यायानुसार अव्यवहारके साथ कोई भी विशेषता न रखने के कारण, वे नय नहीं हैं, किन्तु नयाभास संज्ञक है ।५५३। ऐसा व्यवहार क्योंकि सिद्धान्त विरुद्ध है, इसलिए अब्यवहार है। इसका अपसिद्धान्तपना भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि यहाँ उपरोक्त दृष्टान्तमें जीव व शरीर ये दो भिन्न-भिन्न धर्मी हैं पर इन्हें एक कहा जा रहा है ।५६८। प्रश्न-कुम्भकार घड़ेका कर्ता है, ऐसा जो लोकव्यवहार है वह दुनिवार हो जायेगा अर्थात उसका लोप हो जायेगा । १५७१। उत्तर-दुर्निवार होता है तो होओ. इसमें हमारी क्या हानि है ; क्योकि वह लोकव्यवहार तो नयाभास है। (५७१) ९. व्यवहारनयका विषय सदा गौण होता है स.सि./५/२२/२६२/४ अध्यारोप्यमाणः कालव्यपदेशस्तव्यपदेशनिामत्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति । कुतः; गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात । -(ओदनपाक काल इत्यादि रूपसे) जो काल संज्ञाका अध्यारोप होता है, वह उस संज्ञाके निमित्तभूत मुख्यकालके अस्तित्वका ज्ञान कराता है। क्योंकि गौण व्यवहार मुख्यकी अपेक्षा रखता है। ध.४/१,५,१४५/४०३/३ के वि आइरिया.. कज्जे कारणोवयारमवलंबिय बादरट्ठिदीए चेय कम्मट्टिदिसण्णमिच्छति, तन्न घटते, 'गौणमुख्ययोर्मुल्ये संप्रत्यय' इति न्यायात् । = कितने ही आचार्य कार्य में कारणका उपचारका अवलम्बन करके बादरस्थितिकी ही 'कर्मस्थिति' यह संज्ञा मानते हैं; किन्तु यह कथन घटित नहीं होता है। क्योंकि, 'गौण और मुख्यमें विवाद होनेपर मुख्यमें ही संप्रत्यय होता है' ऐसा न्याय है। न. दी./२/१२/३४ इदं चामुख्यप्रत्यक्षम् उपचारसिद्धत्वात । वस्तुतस्तु परोक्षमेव मतिज्ञानत्वात् । =यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अमुख्य अर्थात् गौण प्रत्यक्ष है; क्योंकि उपचारसे ही इसके प्रत्यक्षपनेकी सिद्धि है। वस्तुतः तो यह परोक्ष ही है; क्योंकि यह मतिज्ञानरूप है। (जिसे इन्द्रिय व बाह्यपदार्थ सापेक्ष होनेके कारण परोक्ष कहा गया है।) न.दी./३/३०/७५ परोपदेशवाक्यमेव परार्थानुमानमिति केचिदा त एवं प्रष्टव्याः; .तरिक मुख्यानुमानम् । अथ गौणानुमानम् । इति, न तावन्मुख्यानुमानम् वाक्यस्याज्ञानरूपत्वात् । गौणानुमानं तवाक्यमिति त्वनुमन्यामहे, तत्कारणे तद्वचपदेशोपपत्तेरायुर्घ तमित्यादिबत् । - (पंचावयव समवेत ) परोपदेश वाक्य ही परार्थानुमान है', ऐसा किन्हीं (नैयायिकों) का कहना है। पर उनका यह कहना ठीक नहीं है। हम उनसे यह पूछते हैं वह वाक्य मुख्य अनुमान है या कि गौण अनुमान है। मुख्य तो वह हो नहीं सकता, क्योंकि वाक्य अज्ञानरूप है। यदि उसे गौण कहते हो तो, हमें स्वीकार है क्योंकि ज्ञानरूप मुख्य अनुमानके कारण ही उसमें ( उपचार या व्यवहारसे) यह व्यपदेश हो सकता है। जैसे 'घी आयु है' ऐसा व्यपदेश होता है। प्रमाणमीमांसा (सिंघी ग्रन्थमाला कलकत्ता/ २/१/२)। और भी दे० नय/VIE/R/३ (निश्चय मुख्य है और व्यवहार गौण)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५६४ १०. शुद्ध दृष्टिमें व्यवहारको स्थान नहीं नि.सा./ता.वृ./४०/ प्रायेषां धियां कुधियामपि । नयेन केनचितेषां भिदां कामपि वेद्म्यहम् ॥ ७१ ॥ = सुबुद्धि हो या कुबुद्धि अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि, सबमे ही जब शुद्धता पहले हो से विद्यमान है उनमे कुछ भी भेद मे किस नयसे करू । ११. व्यवहारनयका विषय निष्फल है = सा/२६६दवसानं तत्सम परभावस्य परस्म व्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थ क्रियाकारित्वाभावात् खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवमिध्यात्वं केवलमात्मनोऽनयमिव मे पर जीवोको सुखी दुखी करता हॅू ) इत्यादि जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योकि परभावका परमें व्यापार न होनेसे स्वार्थ क्रियाकारीपन नहीं है, परभाव परमें प्रवेश नहीं करता। जिस प्रकार कि 'मै आकाशके फूल तोडता है' ऐसा कहना जिम है तथा अपने अनर्थ के लिए है, परका कुछ भी करनेवाला नहीं । पं. ध. /उ./५६३-५६४ तद्यथा लौकिकी रूढिरस्ति नानाविकल्पसात् । निसारैराश्रिता पुम्भिर ||१३| अफलानिष्टफला हेतु म्या योगापहारिणी दुस्याज्या तोकिको सद्धि के पि दुष्कर्मपाकत | ५६४| अनेक विकल्पोवाली यह लौकिक रूढि है। और वह निस्सार पुरुषों द्वारा ति है तथा अफिसको देने नाती है | १३| यह सौकिकी निष्फल है, दुष्फल है, युक्ति रहित है, अन्वर्थ अर्धसे समय उदय होती है तथा किन्हीं के द्वारा दुस्त्याज्य है ।५६४ (पं. ध. /पू./५६३) । १२. व्यवहारनयका आश्रय मिध्याख है ससा./आ./४१४३ उपहारमेव परमार्थ सुधा चेतयन्ते से समयसारमेव नसतयन्ते जो व्यवहारको ही परमार्थ बुद्धिसे अनुभव करते है, वे समयसारका ही अनुभव नहीं करते। (पु.सि.उ./६) । प्रसा४यतितरियो मनुष्य एवाहने .... मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तक्ष परद्रव्येण कर्मणा सङ्गतत्वात्परसमया जायन्ते । वे जिनकी निरर्गल एकान्त दृष्टि उती है ऐसे, "यह मे मनुष्य ही हूँ, ऐसे मनुष्य-महारा आश्रय करके रागी द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्मके साथ संगतता के कारण वास्तव में परसमय होते है । प्र. सा./त. प्र / १६० यो हि नाम शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक निश्चयनय निरनिरूपणार महारयोपि ममत्वं न जहाति स खलु उन्मार्गमेव प्रतिपद्यते । -जो आत्मा शुद्ध द्रव्यके निरूपणस्वरूप निश्वयनयसे निरपेक्ष रहकर अशुद्ध द्रव्यके निरूपणस्वरूप व्यवहारनयसे जिसे मोह उत्पन्न हुआ है, ऐसा वर्तता हुआ, परद्रव्यमें ममत्व नहीं छोड़ता है वह आत्मा वास्तव में उन्मार्गका ही आश्रय लेता है । 1 पं. ध. / . / ५२८ व्यवहार कि मिध्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकरच यत प्रतिषेभ्यस्तस्मादिह मिध्यादृशिस्तदर्थदृष्टिश्च स्वयमेत्र मिथ्या अर्थका उपदेश करनेवाला होनेके कारण व्यवहारनय निश्चय करके मिथ्या है। तथा इसके अर्थ पर दृष्टि रखनेवाला मिथ्यादृष्टि है । इसलिए यह नय हेय है । दे० कर्ता (एक को दूसरेका कर्ता कहना मिथ्या है। कारक / ४ ( एक द्रव्यको दूसरेका बताना मिथ्या है ) । कारण / LET/२/१२ कार्यको सर्वथा निमित्ताधीन कहना मिथ्या है। दे० नय / V/३/३ ( निश्चयनयका आश्रय करनेवाले ही सम्यग्दृष्टि होत हैं, व्यवहारका आश्रय करनेवाले नहीं । ) १३. व्यवहारनय हेय है मो.पा./मू./३२ इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सञ्चहा सव्वं । = ( = ( जो उपहारमें जागता है सो आत्माके कार्य में सोता है गा. ३१) ऐसा जानकर योगी व्यवहारको सर्व प्रकार छोड़ता है । ३२ । प्र.सा.प्र./९४५ प्राशचतुष्काभिसन्धवं व्यवहारजी हेतुभि क्तव्योऽस्ति । - = इस व्यवहार जीवत्वको कारणरूप जो चार प्राणोंकी संयुक्तता है, उससे जीवको भिन्न करना चाहिए। स.सा./१९ अत प्रत्यगात्मदशभिर्व्यवहारमयी नानुसर्तव्यः । - अतः कर्मोंसे भिन्न शुद्धात्माको देखनेवालो को व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है। V निश्चय व्यवहार नय 1 म. सा./ता./१०१/२५२/१२ हवं नयद्वय बदस्ति किरिय नय उपादेय; न चासद्भूतव्यवहारः । यद्यपि नय दो है, किन्तु यहाँ निश्चयन उपादेय है अदभूत व्यवहारनय नहीं (पं.भ./पू./१०) और भी दे० आगे नय / V/ दोनों नयोंके ममन्यनमें इस नयका कचित् ता)। और भी दे० आगे नय / V/८ ( इस नयको हेय कहनेका कारण व प्रयोजन ) ७. व्यवहारनयकी कथंचित् प्रधानता ३. व्यवहारलय सर्वधा निषिद्ध नहीं है ध. १ / १,१.३०/२३० / ४ प्रमाणाभावे वचनाभावतः सकलव्यवहारोच्छिन्तिप्रसाद अस्तु चैन वस्तुविषयविधिप्रतिषेधोर 1 अस्तु चेन्न तथानुपलम्भात् । प्रमाणका अभाव होनेपर वचनकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती और उसके बिना सम्पूर्ण लोकव्यवहारके विनाशका प्रसंग आता है। प्रश्न- यदि लोकव्यवहारका विनाश होता है तो हो जाओ उत्तर-नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर वस्तु विषयक विधिप्रतिषेधका भी अभाव हो जाता है। प्रश्न- वह भी हो जाओ उत्तर नहीं, क्योंकि वस्तुका विधि प्रतिषेधरूप व्यवहार देखा जाता है । ( और भी दे० नय / V/६/३) स.सा./ता.वृ./३६-३६५/४४०/१२ ननु सौगतोऽपि व्यवहारेण सर्वतस्य किमिति दूप दीयते भवद्धिरिति तत्र परिहारमाहसौगतादिमते यथा निश्चयापेक्षया गद्दारो मृषा तथा व्यवहार रूपेणापि व्यवहारो न सत्य इति, जैनमते पुनर्व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया मृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति यदि क व्यवहाररूपेणापि त्यो न भवति तर्हि सर्वोऽपि लोकव्यवहारो निथ्या भवति तथा सत्यतिप्रसङ्ग । एवमात्मा व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति पश्यति निश्चयेन पुन स्वद्रव्यमेवेति । - प्रश्न - सौगत मतवाले (बौद्ध जन ) भी सर्वज्ञपना व्यवहारसे मानते है, तब आप उनको दूषण क्यों देते हैं ( क्योंकि, जैन मतमें भी परपदार्थों का जानना व्यवहारनयसे कहा जाता है ) 1 उत्तर- इसका परिहार करते हैं-सौगत आदि मतोमैं, जिस प्रकार निश्चयकी अपेक्षा व्यवहार झूठ है, उसी प्रकार व्यवहाररूपसे भी वह सत्य नहीं है । परन्तु जैन मतमें व्यवहारनय यद्यपि निश्चयकी अपेक्षा मृषा (झूठ ) है, तथापि व्यवहार रूप से वह सत्य है । यदि लोकव्यवहाररूप से भी उसे सत्य न माना जाये तो सभी लोकव्यवहार मिथ्या हो जायेगा; और ऐसा होनेपर अतिप्रसंग दोष आयेगा। इसलिए आत्मा व्यवहारसे परद्रव्यको जानता देखता है, पर निश्चयनयसे केवल आत्माको ही (विशेष दे० के ६/३/२/४: दर्शन /२/४) स. सा. / पं. जयचन्द / ६ शुद्धता अशुद्धता दोनों वस्तुके धर्म हैं। अशुद्ध को सर्वथा असत्यार्थ ही न मानना । अशुद्धमयको अस्थार्थ कहने से ऐसा हो न समझना कि यह मस्तु सर्वथा ही जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५६५ नहीं: आकाशके फूल की तरह यसत है। ऐसे सर्वथा एकान्त मानने से मिथ्यात्व आता है । ( स. सा./पं जयचन्द / १४) स. सा. जयचन्द / १२ व्यवहारनयको कथंचित असत्यार्थ कहा है यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो शुभवरूप व्यवहार छोड़ दे और घूँ कि शुद्धोपयोगकी साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई, इसलिए उलटा अशुभोपयोगमें ही आकर भ्रष्ट हुआ । यथा कथंचित् स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तब नरकादिगति तथा परम्परासे निगोदको प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करेगा । २. निचो भूमिकामै व्यवहार प्रयोजनीय है सा./१२वेसो गायको परमभावदरिसीहि ममहार बेसिदा पुण जे अपरमे हिदा भावे -परमभावदर्शियोंको ( अर्थात् शुद्वात्मध्यानरत पुरुषोंको) शुद्धतत्व का उपदेश करनेवाला शुद्धtय जानने योग्य है । और जो जोब अपरमभाव में स्थित हैं ( अर्थात बाह्य क्रियाओंका अवलम्बन लेनेवाले हैं ) वे द्वारा उपदेश करने योग्य हैं। व्यवहारनय 1 स. सा./ता.वृ./१२/२६ / ६ व्यवहारदेशितो व्यवहारनयः पुन अधस्तनवाणिकवर्णाभवत्प्रयोजनवाद भवति के ये पुरुषा पुनः अशुद्ध असंयतसम्यग्दृष्टयपेक्षया श्रावकापेक्षया वा सरागसम्यग्दृष्टिलक्षणे शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्तसंयतापेक्षया च भेदरत्नत्रयलक्षणे वा स्थिताः कस्मिन् स्थिताः । जीयपदार्थे तेषामिति भावार्थः । - व्यवहारका उपदेश करनेपर व्यवहारनय प्रथम द्वितीयादि बार पके हुए सुवर्णकी भाँति जो पुरुष अशुद्ध अवस्थामें स्थित अर्थात भेदरत्नत्रय लक्षणवासे १० गुणस्थानोंगे स्थित है, उनको व्यवहारनय प्रयोजनवाद है (मो. मा. प्र./१०/३७२/८) I ३. मन्दबुद्धियोंके लिए उपकारी है घ. १/१.१.३०/२६३/० सर्वत्र निश्चयनयमाश्रित्य प्रतिपाद्य अन व्यवहारनयः किमित्यवलम्ब्यते इति चेन्नैष दोषः, मन्दमेधसामनुग्रहार्थ - स्वात् । प्रश्न - सब जगह निश्चयनयका आश्रय लेकर वस्तुस्वरूपका प्रतिपादन करनेके पश्चात् फिर यहाँपर व्यवहारनयका आलम्बन क्यों लिया जा रहा है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मन्दबुद्धि शिष्यों के अनुग्रहके लिए उक्त प्रकारले वस्तुस्वरूपका विचार किया है। (६.४/१.१.२६/११०/१) (पं.वि./११/-) 1 घ. १९०४.२.५.३/२८९/२ एवं विनहारो किमहं कोरदे हेग गागावरणीयपञ्चदपरिमोहन पडिहारे कारणपडिसेहट्ठ च । प्रश्न - इस प्रकारका व्यवहार किस लिए किया जाता है। उत्तर-पूर्वक ज्ञानावरणीय प्रत्ययका प्रतिबोध करानेके लिए तथा कार्य प्रतिषेध द्वारा कारणका प्रतिषेध करनेके लिए भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है। स. सा./आ./७ यतोऽनन्तधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यान्तेवासिजनस्य तदवगोविधायिभिः कैश्चिद्धस्तमनुशासतां सुरिणां धर्मधर्मिणोः स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमा ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः क्योंकि अनन्त धर्मो बाले एक धर्ममें जो निष्णात नहीं है, ऐसे निकटवर्ती शिष्योंको धर्मीको मतलानेवाले कितने ही धर्मोके द्वारा उपदेश करते हुए थापामापि धर्म और धर्मीका स्वभावसे अभेद है मा नामसे मेद करके, महार मात्रसे ही ऐसा उपदेवा है कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। (पु. सि. उ० / 4), (पं.वि./११/- ) (मो.मा.प्र./०/३०२/१२) ४. व्यवहार पूर्वक ही निश्चय तरबका ज्ञान सम्भव है .नि./११/११ दोपचारविवृर्ति व्यवहारोपायतो यतः सन्तः हमा श्रयन्ति तत्त्वमितिः वहतिः पूज्याकि सज्जन पुरुष V निश्चय व्यवहार नय व्यवहारनयके से ही मुख्य और उपचारभूत कानको जानकर शुद्धस्वरूपका आश्रय लेते हैं, अतएव व्यवहारनय पूज्य है। स. सा./ता.वृ./१/२०/१४ व्यवहारेण परमार्थो ज्ञायते । = परमार्थ जाना जाता है । = व्यवहारनय से ५. व्यवहारके बिना निश्चयका प्रतिपादन शक्य नहीं सखा// हि परमार्थ एवैको मतव्य इति चेट (उत्पनिक)जह णत्रि सक्कमणज्जो अणज्जं भासं विणा उ गाउं । तह बवहारेण विषा परमत्युपसणमसपर्कपश्नतम तो एक परमार्थका हो उपदेश देना चाहिए था. व्यवहारका उपदेश किसलिए दिया जाता है। उत्तर-जैसे अनाजनको अनार्य भाषा भिया किसी भी वस्तुका स्वरूप ग्रहण करानेके लिए कोई समर्थ नहीं है, उसी प्रकार व्यवहारके बिना परमार्थका उपदेश देना अशक्य है (ध./प्र./ ६४१); (मो. मा. प्र. / ७/३७०/४) स.सि./२/१३/१४२/३ सर्वसंग्रहेण यत्स गृहीत यानपेक्षित विशेष नातं सम्यगहारामेति व्यवहारन बाधीयते सर्व संध द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है. वह अपने उत्तर भेदोके बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहारनयका आश्रय लिया जाता है। (रा.वा./१/२३/६/१६/२२) 138 ६. वस्तुमै आस्तिक्य वृद्धि कराना इसका प्रयोजन है रुपा म./२०/३१५/२० पर उद्धृत श्लोक नं ३ व्यवहारस्तु सामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानलाइ व्यापारयति देहिन. 1 - संग्रहनयसे जानी हुई सत्ताको प्रत्येक पदार्थ में भिन्न रूपसे मानकर व्यवहार करनेको व्यवहारनय कहते हैं। यह नय जीवोंका उन भिन्न-भिन्न पदार्थों में व्यापार कराता है, क्योकि जगत्मे वे से भिन्नभिन्न पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहे हैं । पं./५२४ फलमास्तिकयमतिः स्यादनन्तधर्मे धर्मिणस्तस्य । = अनन्तधर्मवाले गुणसद्भावे यस्माद्वद्रव्यास्तित्वस्य सुप्रतीतत्वाद । धर्म में आस्तिक्य वृद्धिका होना ही उसका फल है, क्योिं गुणोंका अस्तित्व माननेवर ही नियमसे छपका अस्तित्व प्रतीत होता है। = ७. वस्तुकी निश्चित प्रतिपत्तिके अर्थ यही प्रधान है पं. ध./पू./६३०-६३६ ननु चैव चेन्नियमादादरणीयो नयो हि परमार्थः । किमकिंचित्कारत्वादव्यवहारेण तथाविधेन यरा ६२० नैव यतो मलादिह विप्रतिपत्तीच संशयापती वस्तुविचारे यदि वा प्रमाणशुभमावलम्बिहान ६३८॥ तस्मादाश्रयणीयः केचित् समयः प्रसङ्गत्वात् ।...।६३६। प्रश्न- जब निश्चयनय ही वास्तव में आदरी है तब फिर अकिंचित्कारी और अपरमार्थभूत व्यवहारनयसे क्या प्रयोजन है ? | ६३७॥ उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि सके सम्बन्ध विप्रतिपत्ति (विषय) होने पर अथवा संय आ पड़नेपर, वस्तुका विचार करनेमें वह व्यवहारनय बलपूर्वक प्रवृत्त होता है। अथवा जो ज्ञान निश्चय व व्यवहार दोनो नयोंका अवलम्बन करनेवाला है वही प्रमाण कहलाता है | ६३८| इसलिए प्रसंगवश वह किन्हीं के लिए आश्रय करने योग्य है । ६३६ | 1 ८. व्यवहार शून्य निश्चयनय कल्पनामात्र है $ BS अन ./१/१००/१०० व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति बोलादिना मिना मूढः स सस्यानि सिसृक्षति | १००| वह मनुष्य बीज खेत जल खाद आदिके बिना ही धान्य उत्पन्न करना चाहता है, भो व्यवहारसे पराङ्मुख होकर केवल निश्चयनयसे ही कार्य सिद्ध करना चाहता है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय V निश्चय व्यवहार नय ८. व्यवहार व निश्चयकी हेयोपादेयताका समन्वय १. निश्चयनयकी उपादेयताका कारण व प्रयोजन स. सा./मू /२७२ णिच्छयणयासिदा मुणिणो पावं ति णिव्वाणं । - निश्चयनयके आश्रित मुनि निर्वाणको प्राप्त होते है। नय/V/३/३ (निश्चयनयके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है।) प.प्र./१/७१ देहहँ पेक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि। जो अजरामरु बंभपरु सो अप्पाणु मुणेउ ।७१। -हे जीव ! तू इस देहके बुढापे व मरणको देखकर भय मत कर। जो वह अजर व अमर परमब्राह्म तत्त्व है उसही को आत्मा मान। न. च./श्रुत/३२ निश्चयनयस्त्वेकत्वे समुपनीय ज्ञानचेतन्ये संस्थाप्य परमानन्दं समुत्पाद्य वीतरागं कृत्वा स्वयं निवर्तमानो नयपक्षातिक्रान्तं करोति तमिति पूज्यतम' | -निश्चयनय एकत्वको प्राप्त कराके ज्ञानरूपी चैतन्यमें स्थापित करता है। परमानन्दको उत्पन्न कर वीतराग बनाता है। इतना काम करके वह स्वतः निवृत्त हो जाता है। इस प्रकार वह जीवको नयपक्षसे अतोत कर देता है । इस कारण वह पूज्यतम है। न. च./श्रुत/६९-७० यथा सम्यग्व्यवहारेण मिथ्याव्यवहारो निवर्तते तथा निश्चयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते। यथा निश्चयनयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते तथा स्वपर्यवसितभावेनै कविकल्पोऽपि निवर्तते। एव हि जीवस्य योऽसौ स्वपर्यवसितस्वभाव स एव नयपक्षातीतः । -जिस प्रकार सम्यकव्यवहारसे मिथ्या व्यवहारकी निवृत्ति होती है, उसी प्रकार निश्चयनयसे व्यवहारके विकल्पोकी भी निवृत्ति हो जाती है। जिस प्रकार निश्चयनयसे व्यवहारके विकल्पोंकी निवृत्ति होती है उसी प्रकार स्वमें स्थित स्वभावसे निश्च यनयकी एकताका विकल्प भी निवृत्त हो जाता है। इसलिए स्वस्थित स्वभाव ही नयपक्षातीत है। (सू.पा./टी,/६/५६/E) स.सा./आ./१८०/क.१२२ इदमेवात्र तात्पर्य हेय. शुद्धनयो न हि। नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्यागाहन्ध एव हि । - यहाँ यही तात्पर्य है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है; क्योंकि, उसके अत्यागसे बन्ध नही होता है और उसके त्यागसे बन्ध होता है। प्र. सा./त. प्र./१६१ निश्चयनयापहस्तितमोहा 'आत्मानमेवात्मत्वेनोपादाय परद्रव्यव्यावृत्तत्वादात्मन्येकस्मिन्नग्रे चिन्ता निरुणद्धि खलु.. निरोधसमये शुद्धारमा स्यात् । अतोऽवधार्यते शुद्धनयादेव शुद्धात्मलाभः। --निश्चयनयके द्वारा जिसने मोहको दूर किया है, वह पुरुष आत्माको ही आत्मरूपसे ग्रहण करता है, और परद्रव्यसे भिन्नस्वके कारण आरगारूप एक अग्रमें ही चिन्ताको रोकता है ( अर्थात निर्विकल्प समाधिको प्राप्त होता है )। उस एकाग्रचिन्तानिरोधके समय वास्तवमें वह शुद्धात्मा होता है। इससे निश्चित हाता है कि शुद्रन यसे ही शुद्धात्माकी प्राप्ति होती है। (स.सा./ता. वृ./४६/८६/१६), (प.ध./पू./६६३) । प्र. सा/ता वृ./९८६/२५३/१३ ननु रागादीनात्मा करोति भुक्ते चेत्येवं लक्षणो निश्चयनयो व्याख्यात', स कथमुपादेयो भवति। परिहारमाह-रागादो नेवात्मा करोति न च द्रव्यकर्म, रागाव्य एव बन्धकारणमिति यदा जानाति जीवस्तदा रागद्वेषादि विकल्पजालस्यागेन रागादिविनाशार्थ निजशुदात्मानं भावयति । ततश्च रागादि बिनायो भवति । रागादिविनाशे च आत्मा शुद्धो भवति । तथैवोपादेयो भण्यते इत्यभिप्राय । =प्रश्न-रागादिकको आत्मा करता है और भोगता है ऐसा ( अशुद्ध) निश्चयका लक्षण कहा गया है। वह कैसे उपादेय हो सकता है । उत्तर-इस शंकाका परिहार करते हैंरागादिकको ही आत्मा करता ( व भोगता है ) द्रव्यकर्मोको नहीं। इसलिए रागादिक ही बन्धके कारण हैं (द्रव्यकर्म नहीं)। ऐसा यह जीव जब जान जाता है तब रागादि विकलपजालका त्याग करके रागादिकके विनाशाथं शुद्धात्माकी भावना भाता है। उससे रागादिकका विनाश होता है । और रागादिकका विनाश होनेपर आरमा शुद्ध हो जाती है। इसलिए इस (अशुद्ध निश्चयनयको भी) उपादेय कहा जाता है। २. व्यवहारनयके निषेधका कारण १. अभूतार्थ प्रतिपादक होनेके कारण निषिद्ध है पंध./पू./६२७-२८ न यतो विकल्पमर्थाकृतिपरिणतं यथा बस्तु । प्रतिषेधस्य न हेतुश्चेदयथार्थस्तु हेतुरिह तस्य ।२७। व्यवहारः किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यतः। प्रतिषेध्यस्तस्मादिह मिथ्यादृष्टिस्तदर्थदृष्टिश्च ।२४ = वस्तुके अनुसार केवल विकल्परूप अर्थाकार परिणत होना प्रतिषेध्यका कारण नहीं है, किन्तु वास्तविक न होनेके कारण इसका प्रतिषेध होता है ।६२१ निश्चय करके व्यवहारनय स्वयं ही मिथ्या अर्थ का उपदेश करनेवाला है, अतः मिथ्या है। इसलिए यहाँपर प्रतिषेध्य है। और इसके अर्थपर दृष्टि रखनेवाला मिथ्यादृष्टि है ।६२८। (विशेष दे० नय/ V/६/१)। २. अनिष्ट फलप्रदायी होनेके कारण निषिद्ध है प्र. सा./त.प्र./ अतोऽवधायंते अशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव। -इससे जाना जाता है कि अशुद्धनयसे अशुद्धआत्माका लाभ होता है। पं.ध./पू./१३ तस्मादनुपादेयो व्यवहारोऽतद्गुणे तदारोपः । इष्टफलाभावादिह न नयो वर्णादिमान यथा जीव। -इसी कारण, अतद्दगुणमें तदारोप करनेवाला व्यवहारनय इष्ट फलके अभावसे उपादेय नहीं है। जैसे कि यहाँ पर जीवको वर्णादिमान कहना नय नहीं है (नयाभास है ), (विशेष दे० नय/V/६/११) । ३. व्यभिचारी होनेके कारण निषिद्ध है स. सा /आ./२७७ तत्राचारादीनां ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यानै कान्तिकत्वाचवहारनय' प्रतिषेध्यः । निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यैकान्तिकत्वात्तत्प्रतिषेधकः । = व्यवहारनय प्रतिषेध्य है। क्योंकि (इसके विषयभूत परद्रव्यस्वरूप ) आचारांगादि (द्वादशांग श्रुतज्ञान, व्यवहारसम्यग्दर्शन व व्यवहारसम्यग्चारित्र) का आश्रयत्व अनै कान्तिक है, व्यभिचारी है ( अर्थात व्यवहारावलम्बीको निश्चय रत्नत्रय हो अथवा न भी हो) और निश्चयनय व्यवहारका निवेधक है; क्योकि ( उसके विषयभूत) शुद्धात्माके ज्ञानादि (निश्चयरत्नत्रयका) आश्रय एकान्तिक है अर्थात निश्चित है। (नय/VI६/३) और व्यवहारके प्रतिषेधक हैं। ३. व्यवहारनय निषेधका प्रयोजन पु. सि. उ/६,७ अबुधस्य बोधनार्थ मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ।६ माणवक एव सिहो यथा भवत्यनवगीतसिहस्य । व्यवहार एव हि तथा निश्चयां यात्यनिश्चयज्ञस्य ७ = अज्ञानीको समझानेके लिए ही मुनिजन अभूतार्थ जो व्यवहारनय, उसका उपदश देते हैं। जो केवल व्यवहार ही को सत्य मानते है, उनके लिए उपदेश नहीं है। जो सच्चे सिंहको नहीं जानते हैं उनको यदि विलाव जैसा सिंह होता है' यह कहा जाये तो बिलावको ही सिंह मान बैठेंगे। इसी प्रकार जो निश्चमको नहीं जानते उनको यदि व्यवहारका उपदेश दिया जाये तो वे उसीको निश्चय मान लेगे ७ (मो. मा.प्र./७/३७२/८)। स. सा./आ./११ प्रत्यगात्मदर्शि भिर्व्यवहारनयो नानुसतव्यः। -अन्य पदार्थोसे भिन्न आत्माको देखनेवालोंको व्यवहारनयका अनुसरण नहीं करना चाहिए। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय V निश्चय व्यवहार नय पं./वि./११/८. व्यवहतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनया - अबोधजनों को समझानेके लिए ही व्यवहारनय है, परन्तु शुद्धनय कर्मोंके क्षयका कारण है। स, सा./ता. वृ./३२४-३२७/४१४/६ ज्ञानी भूत्वा व्यवहारेण परद्रव्यमात्मीयं वदन् सन् कथमज्ञानी भवतीति चेत् । व्यवहारो हि म्लेच्छानां म्लेच्छभाषेव प्राथमिकजनसंबोधनार्थ काल एवानुसतव्यः । प्राथमिकजनप्रतिबोधनकालं विहाय कतकफलवदात्मशुद्धि कारकात शुद्धनयाच्च्युतो भूत्वा यदि परद्रव्यमात्मीयं करोतीति तदा मिथ्यादृष्टिर्भवति । प्रश्न-ज्ञानी होकर व्यवहारनयसे परद्रव्यको अपना कहनेसे वह अज्ञानी कैसे हो जाता है। उत्तर--म्लेच्छोंको समझानेके लिए म्लेच्छ भाषाकी भाँति प्राथमिक जनोको समझानेके समय ही व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य है। प्राथमिक जनाके सम्बोधनकालको छोडकर अन्य समयोमें नहीं। अर्थात् कतकफलकी माँति जो आत्माकी शुद्धि करनेवाला है, ऐसे शुद्धनयसे च्युत होकर यदि परद्रव्यको अपना करता है तो वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। ( अर्थात निश्चयनय निरपेक्ष व्यवहार दृष्टिवाला मियादृष्टि ही सर्वदा सर्वप्रकार व्यवहारका अनुसरण करता है, सम्यग्दृष्टि नहीं। व्यवहार और निश्चय दोनों नयोको मत छोडो; क्योंकि व्यवहार. नयके बिना तो तीर्थका नाश हो जायेगा और निश्चननन्यके बिना तत्वका नाश हो जायेगा । २. जैसे म्लेच्छोको म्लेच्छभाषा वस्तुका स्वरूप बतलाती है (नय/V/७/५) उसी प्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ का कहने वाला है, इसलिए अपरमार्थ भूत होनेपर भी, धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए वह ( व्यवहारनय ) बतलाना न्यायसंगत ही है। परन्तु यदि व्यवहार नय न बतलाया जाय तो, क्योंकि परमार्थ से जीवको शरीरसे भिन्न बताया गया है, इसलिए जैसे भस्मको मसल देनेसे हिंसाका अभाव है, उसी प्रकार उसस्थावर जीवोको निशक्तया मसल देनेमे भी हिंसाका अभार ठहरेगा और इस कारण बन्धका ही अभाव सिद्ध होगा। तथा परमार्थ से जीव क्योकि रागद्वेष मोझे भिन्न बताया गया है, इसलिए रागी द्वेषी मोही जीव कर्म से बन्धता है, उसे छुडाना'-इस प्रकार मोक्षके उपायके ग्रहणका अभाव हो जायेगा। इस प्रकार मोक्षके उपायका अभाव होनेमे मोक्षका ही अभाव हो जायेगा। ४. व्यवहार नयकी उपादेयताका कारण व प्रयोजन दे. नय/V/ निचली भूमिकावालोके लिए तथा मन्दबुद्धिजनो के लिए यह नय उपकारी है। व्यवहारसे ही निश्चय तत्त्वज्ञानकी सिद्धि होती है तथा व्यवहारके बिना निश्चयका प्रतिपादन भी शल्य नहीं है। इसके अतिरिक्त इस नय द्वारा बस्तुमें आस्तिक्य बुद्धि उत्पन्न हो जाती है। श्लो. वा. ४/१/३३/६०/२४६/२८ तदुक्तं-व्यवहारानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता । सान्यथा बाध्यमानाना, तेषां च तरप्रसङ्गतः। -लौकिक व्यवहारोकी अनुकूलता करके ही प्रमाणोका प्रमाणपना व्यवस्थित हो रहा है, दूसरे प्रकारों से नही। क्योकि, वैसा माननेपर तो साध्यमान जो स्वप्न, भ्रान्ति व संशय ज्ञान है, उन्हे भी प्रमाणता प्राप्त हो जायेगी। न.प./श्रूत/३१ किमर्थ व्यवहारोऽसत्कल्पनानिवृत्त्यर्थं सदरत्नत्रयसिद्धयर्थ च । - प्रश्न-अर्थका व्यवहार किसलिए किया जाता है। उत्तर-असत कल्पनाकी निवृत्तिके अर्थ तथा सम्यक् रत्नत्रयकी प्राप्ति के अर्थ। स.सा./आ./१२ अथ च केषां चित्कदाचित्सोऽपि प्रयोजनवान् । ( उत्थानिका)।...ये तु...अपरमं भावमनुभवन्ति तेषां ... व्यवहारनयो ... परिज्ञायमानस्तदात्ये प्रयोजनवान, तीर्थतीर्थफलयोरित्थ मेव व्यवस्थितत्वात् । उक्तं च-'जइ जिणमय पवज्जह ता मा बबहार णिच्छए मुयह । एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं । स. सा./आ./१६ व्यवहारो हि व्यवहारिणा म्लेच्छभाषेव म्तेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव । तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनातत्रसस्थावराणां भस्मन इब निःशङ्कमुपमर्दनेन हिसाभावाद्भवत्येव मन्धस्याभाव । तथा रक्तद्विष्ट विमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषविमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात भवत्येव मोक्षस्याभावः। = १. व्यवहारनय भी किसी किसीको किसी काल प्रयोजनवान है।-जो पुरुष अपरमभावमें स्थित है [ अर्थात् अनुस्कृष्ट या मध्यमभूमिका अनुभव करते है अर्थात् ४-७ गुणस्थान तकके जीवोंको (दे. नय V/७/२)] उनको व्यवहारनय जाननेमें आता हुआ उस समय प्रयोजनवान् है, क्योंकि तीर्थ व तीर्थ के फलकी ऐसी ही व्यवस्थिति है। अन्यत्र भी कहा है-हे भव्य जीवो ! यदि तुम जिनमतका प्रवर्ताना कराना चाहोगे तो ९. निश्चय व्यवहारके विषयोंका समन्वय १. दोनों नयों में विषय विरोध निर्देश श्लो. वा. ४/१/७/२८/५८५/२ निश्चय नयादनादिपारिणामिकचैतन्यलक्षणजीवत्वपरिणतो जीव व्यवहारादौपशमिकादिभाव चतुष्टयस्वभाव ; निश्चयतः स्वपरिणामस्य, व्यवहारत सर्वेषा; निश्चयनयो जीवत्वसाधन., व्यवहारादौपशमिकादिभावसाधनश्च; निश्चयत स्वप्रदेशाधिकरणो, व्यवहारत. शरीराद्यधिकरण; निश्चयतो जीवनसमयस्थिति' व्यवहारतो द्विसमयादिस्थितिरनाद्यवसान स्थिति निश्च यतोऽनन्तविधान एवं व्यवहारतो नारकादिसरयेसासंरध्येयानन्तविधानश्च । - निश्चयनयसे तो अनादि पारिणामिक चैतन्यन क्षण जो जीवस्य भाव, उमसे परिणत जीव है, तथा व्यवहारनयसे औदायिक औपशमिक आदि जो चार भाव उन स्वभाव वाला जीव है ( नय/ V/१/३.५.८)। निश्चयसे स्वपरिणामोका स्वामी व कर्ता भोक्ता है, तथा व्यवहारनयसे सब पदार्थोंका स्वामी व कर्ता भोक्ता है ( नय/V/ १/३.१,८ तथा नय/V/५) निश्चयसे पारिणामिक भावरूप जीवत्वका साधन है तथा व्यवहारनयसे औदयिक औपशामिकादि भावो का साधन है। ( नय/V/१/५८) निश्चयसे जीव स्वप्रदेशोमें अधिष्ठित है (नय/V/१/३), और व्यवहारसे शरीरादिमें अधिष्ठित है (नय/ V/२/) । निश्चयसे जीवन की स्थिति एक समयमात्र है और व्यबहार नयसे दो समय आदि अथवा अनादि अनन्त स्थिति है। (नय/ III/७ ) ( नय/IVR)। निश्चयनयसे जितने जीव है उतने ही अनन्त उसके प्रकार है, और व्यवहारनयसे नरक तिर्यच आदि संरव्यात, असंख्यात और अनन्त प्रकारका है। ( इसी प्रकार अन्य भी इन नयोके अनेको उदाहरण यथा योग्य समझ लेना)। ( विशेष देखो पृथक-पृथक् उस उस नयके उदाहरण) (4.का./ता. वृ./२७/ दे. अनेकान्त/५/४ (वस्तु एक अपेक्षासे जैसी है दूसरी अपेक्षासे वैसी नहीं है।) २. दोनों नयों में स्वरूप विरोध निर्देश .१. इस प्रकार दोनों नय परस्पर विरोधी है मो. मा. प्र./७/३६६/६ निश्चय व्यवहारका स्वरूप तौ परस्पर विरोध' लिये है । जातै समयसार विषै ऐसा कहा है-व्यवहार अभूतार्थ हैऔर निश्चय है सो भूतार्थ है ( नय/V/३/१ तथा नय//६/१) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय ५६८ V निश्चय व्यवहार नय ऐसा भ्रमरूप प्रवर्त नेकरि तौ दोऊ नयनिका ग्रहण करना कह्या नाहीं । (प्र. ३६६/१४ )। नीवली दशाविर्षे आपको भी व्यवहारनय कार्यकारी है। परन्तु व्यवहारको उपचारमात्र मानि बाकै द्वार वस्तुका प्रदान ठीक कर र्ती कार्यकारी होय । बहुरि जो निश्चयवत् व्यवहारे भी सत्यभूत मानि 'वस्तु ऐसे ही है' ऐसा श्रद्धान कर तो उलटा अकार्यकारी हो जाय । (पृ.३७२/8) तथा (और भी दे० नय/V//३)। का. अ./4. जयचन्द/४६४ निश्चयके लिए तो व्यवहार भी सत्यार्थ है और बिना निश्चयके व्यवहार सारहीन है। (का. अ./पं.जय चन्द/४६७)। ३० ज्ञान/IV/३/१ (निश्चय व व्यवहार ज्ञान द्वारा हेयोपादेयका निर्णय करके. करके, शुद्धात्मस्वभावकी ओर झुकना ही प्रयोजनीय है।) (और भी दे०जीव, अजीव, आस्रव आदि तत्त्व व विषय) (सर्वत्र यही कहा गया है कि व्यवहारनय द्वारा बताये गये भेदों या संयोगोंको हेय करके मात्र शुद्वात्मतत्त्वमे स्थित होना ही उस तत्त्वको जाननेका भावार्थ है।) नोट -(इसी प्रकार निश्चयनय साधकतम है, व्यवहारनय साधकतम नहीं है। निश्चयनय सम्यक्त्वका कारण है तथा व्यवहारनयके विषयका आश्रय करना मिथ्यात्व है। निश्चयनय उपादेय है और व्यवहारनय हेय है । ( नय/V३ व ६)। निश्चयनय अभेद विषयक है और व्यवहारमय भेद विषयका निश्चयनय स्वाति है और व्यवहारनय पर।निता (नय/ ब ४) निश्चयनय निविकल्प, एक वचनातीत, व उदाहरण राहत है तथा व्यवहारनय सविकल्प, अनेकों, वचनगोचर व उदाहरण सहित है ( नय/V/२/२.५। २ निश्चय मुख्य है और व्यवहार गीण न च /श्रुत/३२ तह द्वापि सामान्येन पूज्यतां गतौ। मह्येवं, व्यव- हारसय पूज्यतरत्या निश्चयस्य तु पूज्यतमत्वात् । प्रश्न-(यदि द.नो ही नयो के अवलम्बनसे परोक्षानुभूति तथा नयातिक्रान्त होनेपर पत्यक्षानुभूति होती है ) तो दोनो नय समानरूपसे पूज्यताको प्राप्त हा जायेगे। उत्तर-नही, क्योकि, वास्तवमें व्यवहारनय पूज्यतर है और निश्चयनय पूज्यतम । पंध/3./०६ तद् द्विधाय च वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधानं स्वारममबन्धि गुणो यावत परात्मनि ।०६। वह वात्सल्य अंग भी स्व और परके विषयके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेंसे जो स्वारमा सम्बन्धी अर्थात् निश्चय वात्सल्य है वह प्रधान है और जो परात्मा सम्बन्धी अर्थात व्यबहार वात्सल्य है वह गौण है ।८०६। ३. निश्चयनय साध्य है और व्यवहारनय साधक द्र में /टो./१३/३३/इनिजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम् परद्रव्यं हि हेयमित्यहत्सर्वज्ञप्रणात निश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते । - परमात्मद्रव्य उपादेय है और परद्रव्य त्याज्य है, इस तरह सर्वज्ञदेव नणीत निश्चय व्यवहारनयको साध्यसाधक भावसे मानता है। (दे. नय/V/७/४)। ४. व्यवहार प्रतिषेध्य है और निश्चय प्रतिषेधक स, सा/मू./२७२ एवं बबहारण ओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण । - इस प्रकार व्यवहारनयको निश्चयनयके द्वारा प्रतिषिद्ध जान। ( पंध/पू /५६८,६२५.६४३) । दे. स. मा/आ/१४२/क,७०-८६ का सारार्थ (एक नयकी अपेक्षा जीवबद्ध है तो दूसरेकी अपेक्षा वह अबद्ध है, इत्यादि २० उदाहरणों द्वारा दोनों नयो का परस्पर विरोध दर्शाया गया है)। ३. दोनों में मुख्य गौण व्यवस्थाका प्रयोजन प्र. सा./त.प्र./१६१ यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्धद्रव्यनिरूपणास्मकव्यवहारनयाविरोधमध्यस्थः शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयापहस्तितमोह सन् स खलु शुद्धारमा स्यात् । -जो आत्मा मात्र अपने विषयमें प्रवर्तमान ऐसे अशुद्धद्रव्यके निरूपणस्वरूप व्यवहारनयमे अविरोधरूपसे मध्यस्थ रहकर, शुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप निश्चयनयके द्वारा, जिसने मोहको दूर किया है, ऐसा होता हुआ ( एकमात्र आत्मामे चित्तको एकाग्र करता है) वह वास्तवमें शुद्धात्मा होता है। दे० नग/V/८/३ (निश्चय निरपेक्ष व्यवहारका अनुसरण मिथ्यात्व है।) मो. मा प्र./७/पृष्ठ/पंक्ति जिनमार्ग विषै कहीं तो निश्चयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौ तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है' ऐसा जानना । बहुरि कही व्यवहार नयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकी, 'ऐसे हैं नाही, निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है। ऐसा जानना। इस प्रकार जाननेका नाम ही दोनो नयोका ग्रहण है। महरि दोऊ नयनिके व्याख्यानको सत्यार्थ जानि 'ऐसे भी है और ऐसे भी है' ४. दोनोंमें साध्य-साधनमावका प्रयोजन दोनोंकी परस्पर सापेक्षता न. च./श्रुत/५३ वस्तुत' स्याद्भेदः करमान्न कृत इति नाशङ्कनीयम् । यतो न तेन साध्यसाधकयोरविनाभावित्वं । तद्यथा-निश्चयाविरोधेन व्यवहारस्य सम्यग्व्यवहारेण सिद्धस्य निश्चयस्य च परमार्थत्वादिति । परमार्थ मुग्धानां व्यवहारिणो व्यवहारमुग्धानी निश्चयवादिनी उभयमुग्धानामुभयबादिनामनुभयमुग्धानामनुभयवादिनां मोहनिरासार्थ निश्चयव्यवहाराभ्यामालिङ्गित कृत्वा वस्तु निर्णेयं । एव हि कथंचिभेदपरस्पराविनाभाबित्वेन निश्चयव्यवहारयोरनाकुला सिद्धि.। अन्यथाभास एव स्यात् । तस्माइव्यवहार प्रसिद्धयैव निश्चयप्रसिद्धिन्यिथेति, सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततत्त्वसेवया व्यवहाररत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात । प्रश्न-वस्तुतः ही इन दोनो नयोका कथंचित भेद क्यो नहीं किया गया। उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वैसा करनेसे उनमें परस्पर साध्यसाधक भाव नहीं रहता। वह ऐसे कि-निश्चयसे अविरोधी व्यवहारको तथा समीचीन व्यवहार द्वारा सिद्ध किये गये निश्चयको ही परमार्थ पना है। इस प्रकार परमार्थसे मूढ केवल व्यवहारावलम्बियोंके, अथवा व्यवहारसे मूह केवल निश्चयावलम्बियोंके, अथवा दोनोंकी परस्पर सापेक्षतारूप उभयसे मूढ निश्चयव्यवहारावलम्बियोंके, अथवा दोनों नयोंका सर्वथा निषेध करनेरूप अनुभयमूढ अनुभयावलम्बियों के मोहको दूर करनेके लिए, निश्चय व व्यवहार दोनों नयोसे आलिगित करके ही वस्तुका निर्णय करना चाहिए। इस प्रकार कथंचित् भेद रहते हुए भी परस्पर अविनाभावरूपसे निश्चय और व्यवहारको अनाकुल सिद्धि होती है। अन्यथा अर्थात एक दूसरेसे निरपेक्ष वे दोनों ही नयाभास होकर रह जायेगे। इसलिए व्यवहारकी प्रसिद्धिसे ही निश्चयकी प्रसिद्धि है, अन्यथा नहीं। क्योकि समीचीन द्रव्यागमके द्वारा तत्त्वका सेवन करके ही समीचीन रत्नत्रयकी सिद्धि होती है। (पं.ध./ न. च. वृ./२८५-२६२ णो ववहारो मग्गो मोहो हवदि महामहमिदि वयणं । उक्तं चान्यत्र, णियदव्वजाणहू इयरं कहियं जिणेहि छदव्वं । तम्हा परछदव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं ।-ण हु ऐसा सुंदरा जुत्ती। णियसमयं पि य मिच्छा अह जदु मुण्णो य तस्स सौ चेदा जाणगभावो मिच्छा उवयरिबी तेण सो भणई।२८॥ जं चिय जीवसहावं उवयारं भणिय तंपि ववहारो। तम्हा णहु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय तं मिच्या विशेसो भए सम्मा २६ उफेओ जीवाजी सो इह सपरावभासगो भणिओ । तस्स य साहणहेऊ उबयारो भणिय अत्थे |२००१ ज ओ भणिदो साहम अभेदपरमो तह वारी जाहरामऊ अनयारे जो दह सुदेश भणियो जाणदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्ध' । तं सुयकेवलिरिसिणो भणति सम्पदीप २८३ पनवारेण विजाह सम्मगुरू जे पर दव्वं । सम्मगणिच्छय तेण वि सइय सहावं तु जाणतो | २१० ण दुनय पालो मिच्या पिसव्य सिद्धियरा सियससमारूढं जिणवयणविविग्गयं सुद्ध २१२१ प्रश्न- व्यवहारमार्ग कोई मार्ग नहीं है, क्योंकि शुभाशुभरूप वह व्यवहार वास्तवमें मोह है, ऐसा आगमका वचन हैं। अन्य ग्रन्थों में कहा भी है कि 'निज द्रव्यके जाननेके लिए ही जिनेन्द्र भगवान्ने छह द्रव्योंका कथन किया है, इसलिए केवल पररूप उन छह द्रव्योंका जानना सम्यज्ञान नहीं है । (दे० द्रव्य /२/४ ) । उत्तर- आपकी युक्ति सुन्दर नहीं है, क्योंकि परद्रव्योंको जाने बिना उसका स्वसमयपना मिथ्या है, उसकी चेतना शून्य है, और उसका ज्ञायकभाव भी मिथ्या है इसीलिए अपरको जाननेके कारण ही उस जीवस्वभावको उपचरित भी कहा गया है ( दे० स्वभाव ) १२८५। क्योंकि कहा गया वह जीवका उपचरित स्वभाव व्यवहार है, इसीलिए वह मिथ्या नहीं है, बल्कि उसी स्वभावकी विशेषताको दर्शानेवाला है (दे० नय / V/७/१ ) 1२६ । जीवका शुद्ध स्वभाव ध्येय है। और वह स्व पर प्रकाशक कहा गया है । (दे० केवलज्ञान / ६; ज्ञान /7 / ३ दर्शन / २ ) । उसका कारण व हेतु भी वास्तव में परपदार्थों में किया गया ज्ञेयज्ञायक रूप उपचार ही है ।२८७| जिस प्रकार अभेद व परमार्थ पदार्थ में गुण गुणीका भेद करना सभूत है, उसी प्रकार अनुपचार अर्थात् अबद्ध व अस्पृष्ट तत्त्वमें परपदार्थोंको जाननेका उपचार करना भी सद्भत है २८८ आगम में भी ऐसा कहा गया है कि जो इसके द्वारा केवल को जानते हैं वे केवली हैं, ऐसा सोचको प्रकाशित करनेवाले ऋषि अर्थात जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं । ( दे० श्रुतकेवली / २ ) |२८| सम्यक् निश्चय के द्वारा स्वकीय स्वभावको जानता हुआ वह आत्मा सम्यक रूप उपचार से परद्रव्यों को भी जानता है | २०| इसलिए अनेकान्त पक्षको सिद्ध करनेवाला नय पक्ष मिथ्या नहीं है, क्योंकि जिनवचनसे उत्पन्न 'स्यात्' शब्द से आलिंगित होकर वह शुद्ध हो जाता है । ( दे० नय / II ) |२२| ५. दोनोंकी सापेक्षताका कारण व प्रयोजन भा० २०७२ ५६९ ... V निश्चय व्यवहार नय सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते । वस्ततः सभी वस्तु सामान्य विशेषात्मक होनेसे, वस्तुका स्वरूप देखनेवालोके क्रमशः सामान्य और विशेषको जाननेवाली दो आँखें है-व्यार्थिक और पर्यायार्थिक (या निश्चय व व्यवहार) । इनमें से पर्यायार्थिको सर्वथा बन्द करके, जब केवल या थिंक (निश्चय) के द्वारा देखा जाता है. तन यह सब जीव द्रव्य है' ऐसा भासित होता है । और जब द्रव्यार्थिक चक्षुको सर्वथा बन्द करके, केवल पर्यायार्थिक ( व्यवहार ) चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब वह जोव द्रव्य ( नारक तिर्यक् आदि रूप ) अन्य अन्य प्रतिभासित होता है। और जब उन दोनों आँखों को एक ही साथ खोलकर देखा जाता है तब जीव सामान्य तथा उसमें व्यव स्थित (नारक तिर्यक आदि विशेष भी तुम्यकालमें ही दिखाई देते हैं। ) न कार्ये टार्थेन परिन आत्माच पादान कारणं भवति तथापि सहकारिकारणेन विना न सेत्स्यतीति सहकारिकारणप्रसिद्धयर्थं निश्चयव्यवहारयोरविनाभावित्वमाह । यद्यपि मोक्षरूप कार्यार्थ निश्चल नमसे जाना हुआ आमा आदि उपादान कारण तो सबके पास हैं, तो भी वह आत्मा सहकारी कारण बिना मुक्त नहीं होता है । अतः सहकारी कारण - की प्रसिद्धि के लिए, निश्चय व व्यवहारका अविनाभाव सम्बन्ध बतलाते हैं । प्र. सा./त.प्र / १९४ सर्वस्य हि वस्तुन सामान्यविशेषात्मकत्वात रूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्यविशेष परियन्ती किल चषी, व्यार्थिक पर्यायार्थिकं चेति तत्र पर्यायार्थिकमेकान्त निमीलितं द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति । यदा तु दाधिकमेकान्तनिमीलितं ।... पर्यायार्थिकेनाल सदा अन्यदन्यत्प्रतिभाति यदा तु उभे अपिकासोन्मीलिये विधाय तत इतदजीवसामान्य जीवसामान्ये व्यवस्थिता... विशेवाश्च तुल्यकालनेवालोक्यन्ते तर एकचरक्तोकनमेदेशावलोकन, द्विचक्षुरवतो सर्वात । ततः जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश वहाँ एक जखमे देखना एकदेशातोकन है और दोनों आँखोंसे देखना सर्वावलोकन है। इसलिए सर्वावलोकनमें प्रत्यके अन्यस्त्व व अनन्यस्व विरोधको प्राप्त नहीं होते। (विशेष दे० नय // २) ( स.सा./ता वृ./११४/१७४/११) । नि.सा./ता.वृ./१०० मे खलु निश्चयव्यवहारनययोर विरोधेन जानन्ति ते खलु महान्त समस्तशास्त्रहृदयवेदिनः परमानन्दवीतरागसुखाभिलाषिण.... शाश्वत सुखस्य भोक्तारो भवन्तीति । - इस भागवत शास्त्रको जो निश्चय और व्यवहार नयके अविरोधसे जानते हैं वे महापुरुष, समस्त अध्यात्म शास्त्रोंके हृदयको जाननेवाले और परमानन्दरूप वीतराग सुखके अभिलाषी, शाश्वत सुखके भोक्ता होते हैं। और भी देखो नय/ II - ( अन्य नयका निषेध करनेवाले सभी नय मिथ्या हैं । ) ६. दोनोंकी सापेक्षताके उदाहरण दे० उपयोग/17/14 अनुभव /५/- सम्यन्दृष्टि जीवोंको अल्पभूमिकाओंमें शुभोपयोग ( व्यवहार रूप शुभोपयोग ) के साथ-साथ शुद्धोपयोगका अंश विद्यमान रहता है। दे० संबर / २ साधक दशामें जीवकी प्रवृत्तिके साथ निवृत्तिका अंश भी विद्यमान रहता है, इसलिए उसे आसन व संवर दोनों एक साथ होते हैं । दे० छेदोपस्थापना / २ संयम यद्यपि एक ही प्रकारका है, पर समता व व्रतादिरूप अन्तरंग व बाह्य चारित्रको युगपतता के कारण सामायिक व छेदोपस्थापना ऐसे दो भेदरूप कहा जाता है । दे० मोक्षमार्ग/३/९ आत्मा यद्यपि एक शुद्ध-बुकभाव मात्र है, पर वही आत्मा व्यवहारकी विमक्षासे दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप कहा जाता है। दे० मोक्षमार्ग ४ मोक्षमार्ग यद्यपि एक व अभेद ही है, फिर भी विवक्षावश उसे निश्चय व व्यवहार ऐसे दो भेदरूप कहा जाता है। नोट - ( इसी प्रकार अन्य भी अनेक विषयों में जहाँ-जहाँ निश्चय व्यवहारका विकल्प सम्भव है वहाँ वहाँ यही समाधान है | ) ७. इसलिए दोनों ही नय उपादेव हैं दे० नय / V/5/8 दोनों ही नय प्रयोजनीय हैं, क्योंकि व्यवहार नयके feet ater नाश हो जाता है और निश्चयके बिना तत्त्वके स्वरूपका नाश हो जाता है । ३० नम ///-/ १ जिस प्रकार सम्य व्यवहारसे मिथ्या व्यवहारकी निवृत्ति होती है, उसी प्रकार सम्यक निश्चयसे उस व्यवहारकी भी निवृत हो जाती है। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयकोति ५७० नरक दे० मोक्षमार्ग/४/६ साधक पहले सविकल्प दशामे व्यवहार मार्गी होता है और पीछे निर्विकल्प दशामे निश्चयमार्गी हो जाता है । दे० धर्म/६/४ अशुभ प्रवृत्तिको रोकनेके लिए पहले व्यवहार धर्मका ग्रहण होता है । पीछे निश्चय धर्ममें स्थित होकर मोक्षलाभ करता है। नयकाति-१.आप पद्मनन्दि नं०६ के गुरु थे। उन पद्मनन्दिका उल्लेख वि. १२३८,१२४२,१२६३ के शिलालेखोंमें मिलता है। तदनुसार आपका समय -वि. १२२५-१२५०० (ई.११६८-११६३), (पं.वि./ प्र.२८/A.N.Up.)। २ देशीयगण की तृ शाखा में क्लधौतनन्दि के शिष्य।-दे इतिहास/७/५ । नयचक्र-नयचक्र नामके कई ग्रन्थोंका उल्लेख मिलता है। सभी नय व प्रमाणके विषयका निरूपण करते है। १. प्रथम नयचक्र आ. मन्लवादी नं.१(ई. ३५७) द्वारा संस्कृत छन्दोंमें रचा गया था, जो श्लोक वार्तिककी रचना करते समय आ. विद्यानन्दिको प्राप्त था। पर अब वह उपलब्ध नहीं है । २. द्वितीय नयचक्र आ. देवसेन (ई. १३३-६५५) द्वारा प्राकृत गाथाओं में रचा गया है। इसमें कुल ४२३ गाथाएँ है। ३. तृतीय नयचक्रपर पं. हेमचन्द जीने (ई. १६६७) एक भाषा वचनिका लिखी है ।क्षी./२/३३०, ६६६) नयनंदि-नन्दिसंघ देशीयगण, माणिक्य नन्दि के विद्या शिष्य, द्रव्य स ग्रह कार नेमिचन्द्र सिद्धान्तिक के शिष्य । गुरु परम्परानक्षत्र, पद्मनन्दि, विश्वनन्दि, नन्दनन्दि, विष्णुनन्दि, विशाखनन्दि. रामनन्दि. माणिक्यन न्दि, नयनन्दि। कृतियें-- सुदसण चरिउ, सयत विहिबिहाणकव्व । समय-ई. १९३-१०५०। (दे. इतिहास ७/५)। (जी/३/२६२) । . नरकगति सामान्य निर्देश नरक सामान्यका लक्षण। नरकगति या नारकीका लक्षण। नारकियोंके भेद (निक्षेपोंकी अपेक्षा)। नारकीके मेदोंके लक्षण। नरकगतिमें गति, इन्द्रिय आदि १४ मार्गणाओंके स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ। -दे० सद। * | नरकगति सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ । -दे० वह वह नाम । नरकायुके बन्धयोग्य परिणाम । -दे० आयु/३ । नरकगतिमें कर्मप्रकृतियोंके बन्ध, उदय, सत्त्व-विषयक प्ररूपणाएँ। -दे० वह वह माम । नरकगतिमें जन्म मरण विषयक गति अगति प्ररूप -दे० जन्म/। * सभी मार्गणाओंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम। -दे० मार्गणा। __णाएँ। नरकगतिके दुःखोंका निर्देश नरकमें दुःखोंके सामान्य भेद । शारीरिक दुःख निर्देश। क्षेत्रकृत दुःख निर्देश। असुर देवोंकृत दुःख निर्देश। मानसिक दुःख निर्देश। नयनसुख-सुन्दर आध्यात्मिक अनेक हिन्दी पदोके रचयिता। समय-वि. श. १६ मध्य (हि. जैन साहित्य इतिहास/कामताप्रसाद)। नय विवरण-आ. विद्यानन्दि (ई.७७५-८४०) द्वारा संस्कृत भाषामें रचित न्याय विषयक ग्रन्थ है, जिसमें नय व प्रमाणका विस्तृत विवेचन है । ( दे. विद्यानन्दि ) नयसेन-धर्मामत, समय परीक्षा, धर्म परीक्षा के रचयिता कन्नड कवि । गुरु-नरेन्द्र मेन । समय-ई. ११२५ । (ती /४/३०८) । नर-(रा.बा/२/५०/५/१५६/११) धर्मार्थकाममोक्षलक्षणानि कार्याणि नृणन्ति नयन्तीति नराः। = धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरुषार्थ का नयन करनेवाले 'नर' होते हैं। नरक-प्रचुररूपसे पापकर्मों के फलस्वरूप अनेकों प्रकारके असह्य दुःखौंको भोगनेवाले जीव विशेष नारकी कहलाते हैं। उनकी गतिको नरकगति कहते हैं, और उनके रहनेका स्थान नरक कहलाता है, जो शीत, उष्ण, दुर्गन्धि आदि असंख्य दुःखोंकी तीव्रताका केन्द्र होता है। वहाँपर जीव बिलों अर्थात् सुरंगोंमें उत्पन्न होते व रहते हैं और परस्परमें एक दूसरेको मारने-काटने आदि के द्वारा दुःख भोगते रहते हैं। ३ | नारकियों के शरीरकी विशेषताएँ जन्मने व पर्याप्त होने सम्बन्धी विशेषता । शरीरकी अशुभ आकृति। वैक्रियक भी वह मांस आदि युक्त होता है। इनके मूंछ-दाढी नहीं होती। इनके शरीरमें निगोदराशि नहीं होती। नारकियोंको आयु व अवगाहना।-दे० वह वह नाम । | नारकियोंको अपमृत्यु नहीं होती।-दे० मरण/४ । छिन्न भिन्न होनेपर वह स्वतः पुनः पुनः मिल जाता है। आयु पूर्ण होनेपर वह काफूरवत् उड़ जाता है। नरकमें प्राप्त आयुध पशु आदि नारकियोंके ही शरीरकी विक्रिया हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक ९ ४ नारकियों में सम्भव नाव व गुणस्थान आदि १ सदा अशुभ परिणामोंसे युक्त रहते हैं । * वहाँ सम्भव वेद, लेश्या आदि । - दे० वह वह नाम । २-३ नरकगतिमें सम्यक्त्वों व गुणस्थानोंका स्वामित्व । ४ मिथ्यादृष्टिसे अन्यगुणस्थान वहाँ कैसे सम्भव है । वहीं सासादनकी सम्भावना कैसे है ? मरकर पुनः जी जानेवाले उनकी अपर्याप्तावस्थामें भी सासादन] व मिश्र कैसे नहीं मानते १ यहाँ सम्यग्दर्शन कैसे सम्भव है ? अशुभ श्यामें भी सम्यन्त्य कैसे उत्पन्न होता है। - दे० लेश्या / ४ | सम्यक्त्वादिकों सहित जन्ममरण सम्बन्धी नियम । - दे० जन्म / ६ | सासादन, मिश्र व सम्यग्दृष्टि मरकर नरकमें उत्पन्न नहीं होते। इसमें हेतु । कम्परके गुणस्थान यहाँ क्यों नहीं होते। ५ ६ ८ ९ ५ १ २ ३ ४ ५ * on * नारकियको पृथक् विक्रिया नहीं होती । -दे० ८ /१ छह पृथिवियों आयुरूप विक्रिया होती है और सातवी की रूप। वहाँ जल अग्नि आदि जीवोंका भी अस्तित्व है। - ३० काय/२/५ । ९ नरकलोक निर्देश नरककी सात पृथिवियोंके नाम निर्देश । अधोलोक सामान्य परिचय | रत्नप्रमा पृथिवी सरपंक भाग आदि रूप विभाग ६ नरकबिलों में अन्धकार व भयंकरता । ७ नरकोंमें शीत उष्णताका निर्देश । नरक पृथिवियोंमें बादर अप् तेज व वनस्पति कायिकों का अस्तित्व । साठों पृथिवियोंका सामान्य अवस्थान सातों पृथिवियोंकी मोटाई व बिलों आदिका प्रमाण । सातों पृथिवियोंके बिलोंका विस्तार । - दे० १० रत्नप्रभा । पटलों व विठोंका सामान्य परिचय । बिलोंमें स्थित जन्मभूमियोंका परिचय | नरक भूमियोंमें मिट्टी, आहार व शरीर आदिकी दुर्गवियोंका निर्देश | - दे० काय /२/५ । दे० लोक /२ १० बिलोंमें परस्पर अन्तराल । ११ पटलोंके नाम व तहाँ स्थित बिलोंका परिचय । * नरकलोक नको। - दे० लोक /७ । ५७१ १. नरकगति सामान्य निर्देश ५. नरक सामान्यका लक्षण I रा.वा./२/५०/२-३/१६६ / १३ शीतोष्णास योदयापादितवेदनमा नराच कायन्तीति शब्दायन्त इति नारका । अथवा पापकृतः प्राणिन आत्यकिं दुःखं गृणन्ति नयन्तीति नारकाणि श्रणादिकः कर्तर्यक जो नरोको शीत. उष्ण आदि वेदनाओंसे शब्दाकुलित कर दे वह नरक है । अथवा पापी जीवोंको आत्यन्तिक दु.खोंको प्राप्त करानेवाले नरक हैं । १. नरकगति सामान्य निर्देश ध. १४/५, ६,६४१/४१५/- णिरयसे डिबद्धाणि णिरयाणि णाम । - नरकके श्रेणीबद्ध बिल नरक कहलाते है । २. नरकगति या नारकीका लक्षण " ति प./१/६० ण रमंति जदो णिच्चं दव्वे खेत्ते य काल भावे य । अण्णोष्णेहि य णिच्चं तम्हा ते णारया भणिया । ६० यतः तत्स्थानवर्ती द्रव्यमें क्षेत्रने, कालमें, और भावमें जो जीव रमते नहीं हैं, तथा परस्परमें भी जो कभी भी प्रीतिको प्राप्त नही होते हैं, अतaa नारक या नारकी कहे जाते है । (ध. १/१,१.२४ / गा. १२८/ २०२) (गो. जी /मू./१४० / ३६६ । रा.वा./२/५०/३/१३/६/९७ नरकेषु भवा नारका नरको जम्म सेनेवाले जीव नारक है गो जी. जी. ९४०३६६/९८)। घ. १/२१,१.२४/२०१६ हिसादिष्वसदनुष्ठानेषु व्यापृताः निरतास्तेषां गति निरतगतिः । अथवा नरान् प्राणिन. कायति पातयति खलीकरोति इति नरका कर्म तस्य नरकस्यापत्यानि नारकास्तेषां गतिर्नारिकगतिः । अथवा यस्या उदय. सकलाशुभकर्मणामुदयस्य सहकारिकारणं भवति सा नरकगतिः । अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावेष्वन्योन्येषु च विरता' नरता, तेषां गतिः नरतगतिः । = १. जो हिसादि असमीचीन कामोंमें व्यापृत हैं उन्हे निश्त बढ़ते है और उनकी गतिको निरस गति कहते हैं। २ अथवा जो नर अर्थात् प्राणियों को काता है अर्थात गिराता है, पोसता है, उसे नरक कहते है । नरक यह एक कर्म है । इससे जिनकी उत्पत्ति होती है उनको नारक कहते है, और उनकी गतिको नरकगति कहते हैं । ३. अथवा जिस गतिका उदय सम्पूर्ण अशुभ कर्मोंके उदयका सहकारीकारण है उसे नरकगति कहते हैं । ४. अथवा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमे तथा परस्परमे रत नहीं हैं, अर्थाव प्रीति नहीं रखते हैं, उन्हे भरत कहते है और उनकी गतिको नरतगति कहते हैं (गो. जी. जी. प्र. ९४०/२६६/१६) घ. १३/५,५,१४० / ३२/२ न रमन्त इति नारका । जो रमते नहीं हैं वे नारक कहलाते हैं । 1 गो. जी./जी. प्र./ १४७/३६६ / १६ यस्मात्कारणाद ये जीवाः नरकगतिसंवन्ध्यन्नपानादि तद्भूतरूपक्षेत्रे, समयादिस्वायुयानका चिपर्यायरूपभावे भवान्तरवे रोजमज्जनितकोधादिभ्योऽम्योः सह नूतनपुरातननारका परस्परं च न रमन्ते तस्मात्कारणात् ते जीवा नरता इति भणिताः । नरता एव नारताः ।... अथवा निर्गतोऽयः पुण्यं एयः ते निरयाः तेषां गति निरयगतिः इति व्युत्पत्तिभिरपि नारकगतिलक्षणं कथितं । क्योंकि जो जीव नरक सम्बन्धी अन्नपान आदि द्रव्यमें, तहाँको पृथिवीरूप क्षेत्र में, तिस गति सम्बन्धी प्रथम समयसे लगाकर अपना आयुपर्यन्त कालमें तथा जीनो चैतन्यरूप भावोंमें कभी भी रति नहीं मानते ५. और पूर्वक अन्य भय सम्बन्धी वैर के कारण इस भवमे उपजे क्रोधादिकके द्वारा नये व पुराने नारकी कभी भी परस्परमें नहीं रमते इसलिए उनको कभी भी प्रीति नहीं होनेसे वे 'नरत' कहलाते है। नरत को ही नारत जानना । तिनकी गतिको नारतगति जानना । ६. अथवा 'निर्गत' कहिये गया है 'जय' कहिये पुण्यकर्म जिनसे ऐसे जो निरय, निकी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक ५७२ २. नरक गतिके दुःखोका निदेश गति सो निरप गति जानना। इस प्रकार निरुक्ति द्वारा नारकगतिका लक्षण कहा। 3. नारकियोंके भेद पं. का./मू./११८ णेरड्या पुढविभेनगदा। रत्नप्रभा आदि सात पृथिवियोके भेदसे (दे० नरक/५) नारकी भी सात प्रकारके है। (नि. सा./मू./१६)। ध.७/२,१,४/२६/१३ अधवा णामवणदव्वभावभेएण णेरइया चउठिबहा होंति। = अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे नारकी चार प्रकार के होते है (विशेष दे०निक्षेप/१)। ४. नाभीके भेदोंक लक्षण दे, नय/II/१/८ (नै गम नय आदि सात नयों की अपेक्षा नारकी कहनेकी विवक्षा)। 1.७/२,१४/30/४ कम्मणेरइओ णाम णिरयगदिसहगदकम्मदव्बसमूहो। पासपंजरजंतादीणि णोकम्मदवाणि णेरड्यभावकारणाणि णोकम्मदवणेरहओ णाम । नरकगतिके साथ आये हुए कर्मद्रव्यसमूहको कर्मनार की कहते है। पाश, पंजर, यन्त्र आदि नोकर्मद्रव्य जो नारकभावकी उत्पत्तिमै कारणभूत होते है, नोकर्म द्रव्यनारकी है। ( शेष दे० निक्षेप)। ।३२५। पकते तेल में फेंकते हैं ।३२६। शीतल जल समझकर यदि वह वैतरणी नदी में प्रवेश करता है तो भी वे उसे छेदते हैं ।३२७-३२८। कछुओं आदिका रूप धरकर उसे भक्षण करते हैं ।३२६। जब आश्रय हूँढ़नेके लिए बिलोंमें प्रवेश करता है तो वहाँ अग्निकी ज्वालाओंका सामना करना पड़ता है।३३०॥ शीतल छायाके भ्रमसे असिपत्र वनमें जाते है ।३३१। वहाँ उन वृक्षोंके तलवारके समान पत्तोंसे अथवा अन्य शस्त्रास्त्रोंसे छेदे जाते हैं ।३३२-३३३। गृद्ध आदि पक्षी बनकर नारकी उसे चूर-चूट कर खाते है।३३४-३३॥ अंगोपांग चूर्ण कर उसमें क्षार जल डालते हैं ।३३६। फिर खण्ड-खण्ड करके चूल्होंमें डालते हैं । ३३७. तप्त लोहेकी पुतलियोंसे आलिंगन कराते हैं ।३३८) उसीके मांसको काटकर उसीके मुख में देते हैं ।३३६। गलाया हुआ लोहा व ताँबा उसे पिलाते हैं ।३४०। पर फिर भी वे मरणको प्राप्त नहीं होते है (दे० नरक/३) ३४१। अनेक प्रकारके शस्त्रों आदि सपसे परिणत होकर वे नारकी एक दूसरेको इस प्रकार दुख देते हैं ।३४२। (भ. आ./मू./१५६५-१५८०), (स, सि./२/१/२०६/७), (रा. वा./३/२/८/ ३१), (ह. पु./४/३६३-३६५), (म. पु./१०/३८-६३), (त्रि. सा./१८३१६०), (ज. प./११/१५७-१७७), ( का.अ/३६-३६), (ज्ञा./३६/६१-७६) (वसु. श्रा./१६६-१६६) स. सि./३/४/२०८/३ नारकाः भवप्रत्ययेनावधिना दूरादेव दुःखहेतूनवगम्योत्पन्नदुःखाः प्रत्यासत्तौ परस्परालोकनाच्च प्रज्वलितकोपाग्नयः पूर्व भवानुस्मरणाच्चातितीबानुबद्धवैराश्च श्वशृगालादिवत्स्वाभिधाते प्रवर्तमानः स्वविक्रियाकृत.. आयुधैः स्वकरचरणदशनैश्च छेदनभेदनतक्षणदंशनादिभि. परस्परस्यातितीव्र दुःखमुत्पादयन्ति।-नारकियोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। उसके कारण दूरसे ही दुःखके कारणोंको जानकर उनको दुख उत्पन्न हो जाता है और समीपमें आनेपर एक दूसरेको देखनेसे उनकी कोपाग्नि भभक उठती है । तथा पूर्वभवका स्मरण होनेसे उनकी वैरकी गॉठ और दृढ़तर हो जाती हैं, जिससे वे कुत्ता और गीदड़के समान एक दूसरेका घात करनेके लिए प्रवृत्त होते हैं। वे अपनी विक्रियासे अस्त्रशस्त्र बना कर (दे० नरक/३) उनसे तथा अपने हाथ पाँव और दाँतोंसे छेदना, भेदना, छीलना और काटना आदिके द्वारा परस्पर अति तीव दुःखको उत्पन्न करते हैं । (रा. वा./३/४/१/१६५/४), (म. पु./१०/४०,१०३) २. नरक गतिके दुःखोंका निर्देश १. नरकमें दुःखोंके सामा य भेद त. सू /३/४-५ परस्परोदीरितदुरवा ।४। संक्लिष्टासुरोदीरितदुखाश्च प्राक चतुकः ।। -वे परस्पर उत्पन्न किये गये दुखवाले होते हैं। ।४। और चौथी भूमिसे पहले तक अर्थात पहिले दूसरे व तीसरे नरक में संक्लिष्ट असुरोके द्वारा उत्पन्न क्येि दुःखवाले होते है ।। त्रि. सा./१६७ खेतजणि असाद सारीरं माणसं च असुरकयं । भुंजंति जहावसरं भवद्विदी चरिमसमयो त्ति १६७४ -क्षेत्र, जनित, शारीरिक, मानसिक और असुर कृत ऐसी चार प्रकारकी असाता यथा अवसर अपनी पर्यायके अन्तसमयपर्यन्त भोगता है। (का. अ./मू./ ३१)। २. शारीरिक दुःख निर्देश १. नरकमें उत्पन्न होकर उछलने सम्बन्धी दुःख ति.प./२/३१४-३१५ भीदीए कंपमाणो चलिदं दुक्रवेण पट्ठिओ संतो। छत्तीसाउहमज्झे पडिदूणं तत्थ उप्पलइ ।३१४॥ उच्छेहजोयणाणि सत्त धणू छस्सहस्सपंचसया । उप्पलइ पढमखेत्ते दुगुणं दुगुणं कमेण सैसेसु ।३१५। वह नारकी जोव (पर्याप्ति पूर्ण करते ही) भयसे काँपता हुआ बडे कष्टसे चलनेके लिए प्रस्तुत होकर, छत्तीस आयुधोंके मध्यमे गिरकर बहाँसे उछलता है ।३१४। प्रथम पृथिवीमें सात योजन ६५०० धनुष प्रमाण ऊपर उछलता है। इससे आगे शेष छः पृथिवियों में उछलनेका प्रमाण क्रमसे उत्तरोत्तर दूना दूना है।३१५॥ (ह. पु./४/३५५-३६१) (म. पु./१०/३५-३७) (त्रि. सा./१८१-१२) (ज्ञा./३६/१८-१६)। २. परस्पर कृत दुःख निर्देश ति. प./२/३१६-३४२ का भावार्थ - उसको वहाँ उछलता देखकर पहले नारकी उसकी ओर दौडते हैं ।३१६। शस्त्रों, भयंकर पशुओं व वृक्ष नदियों आदिका रूप धरकर (दे० नरक/३) ३१७ उसे मारते हैं व खाते हैं ।३२२। हजारों यन्त्रों में पेलते हैं ।३२३। साकलोंसे बंधते हैं व अग्निमें फेंकते हैं ।३२४१ करोतसे चोरते हैं. व भालोंसे बींधते हैं ३. आहार सम्बन्धी दुःख निर्देश ति, प./२/३४३-३४६ का भावार्थ-अत्यन्त तीखी व कड़वी थोडी सी मिट्टीको चिरकालमें खाते हैं ।३४३। अत्यन्त दुर्गन्धवाला व ग्लानि युक्त आहार करते हैं ।३४४-३४६। दे० नरक/१६ (सातों पृथिवियोंमे मिट्टीकी दुर्गन्धीका प्रमाण) ह. पु./४/३६६ का भावार्थ-अत्यन्त तीक्ष्ण खारा व गरम वैतरणी नदी का जल पीते हैं और दुर्गन्धी युक्त मिट्टीका आहार करते है। त्रि. सा./१६२ सादिकुहिदातिगंधं सणिमणं मट्टियं विभुंजंति । धम्मभवा बंसादिसु असंवगुणिदासह तत्तो। १९२१ =कुत्ते आदि जीवोंको विष्टासे भी अधिक दुर्गन्धित मिट्टीका भोजन करते हैं । और वह भी उनको अत्यन्त अल्प मिलती है, जब कि उनकी भूख बहुत अधिक होती है। ४. भूख-प्यास सम्बन्धी दुःख निर्देश ज्ञा./३६/७७-७८ बुभुक्षा जायतेऽत्यर्थ नरके तत्र देहिनाम् । यो न शामयितुं शक्तः पुद्गलप्रचयोऽखिलः १७७। तृष्णा भवति या तेषु वाडवाग्निरिवोल्वणा । न सा शाम्यति नि:शेषपीतैरप्यम्बुराशिभिः ।७८। -नरकमें नारकी जीवोंको भूख ऐसी लगती है, कि समस्त पुद्गगलोंका समूह भी उसको शमन करने में समर्थ नहीं ७७१ तथा वहाँपर तृष्णा बड़वाग्निके समान इतनी उत्कट होती है कि समस्त समुद्रोंका जल भी पी ले तो नहीं मिटती (७८], जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक ५७३ ३. नारकियोंके शरीरकी विशेषताएं ज्ञा !3/२७-६० का भावार्थ-हाय हाय ! पापकर्म के उदयसे हम इस ( उपरोक्तवत् ) भयानक नरकमे पड़े है ।२७। ऐसा विचारते हुए वज्राग्निके समान सन्तापकारी पश्चात्ताप करते है ।२८। हाय हाय । हमने सत्पुरुषों व वीतरागी साधुओके कल्याणकारी उपदेशोंका तिरस्कार किया है ।२६-३३। मिथ्यात्व व अविद्याके कारण विषयान्ध होकर मैने पाँचों पाप किये ।३४-३७। पूर्व भवोमे मैंने जिनको सताया है वे यहाँ मुझको सिंहके समान मारनेको उद्यत है ।३८-४०। मनुष्य भक्मे मैंने हिताहितका विचार न किया, अब यहाँ क्या कर सकता हूँ 1४१-४४। अब किसकी शरणमें जाऊँ ।४। यह दुःख अब मैं कैसे सहूँगा।४६ जिनके लिए मैने वे पाप कार्य किये वे कुटुम्बोजन अब क्यों आकर मेरी सहायता नहीं करते 1४७-५१। इस संसारमें धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई सहायक नहीं ।।२-५६। इस प्रकार निरन्तर अपने पूर्वकृत पापों आदिका सोव करता रहता है ।६०१ ५. रोगों सम्बन्धी दुःख निर्देश ज्ञा./३६/२० दुःसहा निष्प्रतीकारा ये रोगाः सन्ति केचन । साकल्येनैव गाप्रेषु नारकाणां भवन्ति ते ।२०-दुस्सह तथा निष्प्रतिकार जितने भी रोग इस ससारमें हैं वे सबके सब नारकियों के शरीरमें रोमरोममें होते हैं। * शीत व उष्ण सम्बन्धी दु:ख निर्देश दे० नरक/५/७ (नारक पृथिवीमें अत्यन्त शीत व उष्ण होती हैं।) ३. क्षेत्रकृत दुःख निर्देश दे० नरक/५/६-८ नरक बिल, वहाँकी मिट्टी तथा नारकियों के शरीर अत्यन्त दुर्गन्धी युक्त होते हैं।६। वहाँके बिल अत्यन्त अन्धकार पूर्ण तथा शीत या उष्ण होते हैं ।७-८॥ ४. असुर देवीकृत दुःख निर्देश ति.प./२/३४८-३५० सिकतानन.../...|३४८१...वेतरणिपहुदि असुरसुरा। गंतूण बालुकंतं णारइयाणं पकोपं ति ॥३४६। इह खेत्ते जह मणुवा पेच्छते मेसमहिसजुद्धादि। तह णिरये असुरसुरा णारयकलह पतुट्ठमणा ।३५० -सिकतानन· वैतरणी आदिक (दे० असुर/२) अमरकुमार जातिके देव तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी तक जाकर नारकियों को क्रोधित कराते है।३४८-३४६। इस क्षेत्रमे जिस प्रकार मनुष्य, मेंढे और भैंसे आदिके युद्धको देखते हैं, उसी प्रकार असुरकुमार जातिके देव नारकियोंके युद्धको देखते हैं और मनमें सन्तुष्ट होते हैं। (म. पु./१०/६४) स.सि./३/५/२०६/७ सुतप्तायोरसपायननिष्टप्तायस्तम्भालिङ्गन.. निष्पीडनादिभिर्नारकाणां दु.रवमुत्पादयन्ति । = खूब तपाया हुआ लोहेका रस पिलाना, अत्यन्त तपाये गये लोहस्तम्भका आलिंगन कराना," यन्त्रमें पेलना आदिके द्वारा नारकियों को परस्पर दु.ख उत्पन्न कराते है । (विशेष दे० पहिले परस्परकृत दुःख) (भ, आ./मू./ १५६८-१९७०), (रा. बा./३/५/८/३६९/३१), (ज. प./११/१६८-१६६) म. पु./१०/४१ चोदयन्त्यसुराश्चैनान् यूयं युध्यध्वमित्यरम् । संस्मार्य पूर्ववैराणि प्राक्चतुर्थ्याः सुदारुणाः ।४१ = पहलेकी तीन पृथिवियों तक अतिशय भयंकर असुरकुमार जातिके देव जाकर वहाँके नारकियोंको उनके पूर्वभव बैरका स्मरण कराकर परस्परमें लडने के लिए प्रेरणा करते रहते हैं । (वसु.श्रा./१७०) दे० असुर/३ (अम्बरीष आदि कुछ ही प्रकारके असुर देव नरकोंमें जाते हैं, सब नहीं) ५. मानसिक दुःख निर्देश म. पू./१०/६७-८६ का भावार्थ-अहो ! अग्निके फुलिंगोंके समान यह वायु, तप्त धूलिकी वर्षा ।६७-६८५ विष सरीखा असिपत्र बन ! जवरदस्ती आलिंगन करनेवाली ये लोहेकी गरम पुतलियाँ ७० हमको परस्परमें लड़ानेवाले ये दुष्ट यमराजतुल्य असुर देव ७१॥ हमारा भक्षण करनेके लिए यह सामनेसे आ रहे जो भयंकर पशु ॥७२॥ तीक्ष्ण शस्त्रोंसे युक्त ये भयानक नारकी ।७३-७॥ यह सन्ताप जनक करुण क्रन्दनकी आवाज ७६। शृगालोको हृदयविदारक ध्वनियाँ ७७१ असिपत्रवनमें गिरनेवाले पत्तोंका कठोर शब्द ७८। काँटोवाले सेमर वृक्ष ७६ भयानक वैतरणी नदी ।८०। अग्निकी ज्वालाओं युक्त ये विलें ।। कितने दुःस्सह ब भयंकर हैं। प्राण भी आयु पूर्ण हुए विना छूटते नहीं।२। अरे-अरे ! अब हम कहाँ जावें । इन दुःखोंसे हम कब तिरंगे ।८४॥ इस प्रकार प्रतिक्षण चिन्तवन करते रहनेसे उन्हें दु.सह मानसिक सन्ताप उत्पन्न होता है, तथा हर समय उन्हें मरनेका संशय बना रहता है ।। ३. नारकियोंके शरीरको विशेषताएं १. जन्मने व पर्याप्त होने सम्बन्धी ति. प./२/३१३ पावेण णिरयबिले जादूर्ण ता मुहूत्तर्ग मेत्ते । छप्पज्जत्ती पाविय आकस्मियभयजुदो होदि ।३१३। -नारकी जीव पापसे नरक बिल में उत्पन्न होकर और एक मुहूर्त मात्रमें छह पर्याप्तियोंको प्राप्त कर आकस्मिक भयसे युक्त होता है । (म. पु./१०/३४) म. पु./१०/३३ तत्र वीभत्सुनि स्थाने जाले मधुकृतामिव । तेऽधोमुखा प्रजायन्ते पापिनामुन्नति कुतः ॥३३ = उन पृथिवियोंमें वे जीव मधुमक्खियोंके छत्ते के समान लटकते हुए घृणित स्थानोमें नीचे की ओर मुख करके पैदा होते हैं। २. शरीरकी अशुभ आकृति स. सि./३/३/२०७/४ देहाश्च तेषामशुभनामकर्मोदयादत्यम्ताशुभतरा विकृताकृतयो हुण्डसंस्थाना दुर्दर्शनाः । - नारकियोके शरीर अशुभ नामकर्मके उदयसे होनेके कारण उत्तरोत्तर (आगे-आगेकी पृथिवियोंमें ) अशुभ हैं। उनकी विकृत आकृति है, हुंडक संस्थान है, और देखनेमें बुरे लगते हैं। (रा. वा./३/३/४/१६४/१२), (ह. पु./४/३६८), (म. पु./१०/३४.६५), ( विशेष दे० उदय/६/३) ३. वैक्रियक भी वह मांसादि युक्त होता है रा. वा./३/३/४/१६४/१४ यह श्लेष्ममूत्रपुरीषमलरुधिरवसामेदःपूयवमनपूतिमांसकेशास्थिचर्माद्यशुभमौदारिकगतं ततोऽप्यतीवाशुभत्वं नारकाणां वै क्रियकशरीरत्वेऽपि।जिस प्रकारके श्लेष्म, मूत्र, पुरीष, मल, रुधिर, वसा, मेद, पीप, वमन, पूति, मांस, केश, अस्थि, चर्म अशुभ सामग्री युक्त औदारिक शरीर होता है, उससे भी अतीव अशुभ इस सामग्री युक्त नारकियोंका बैंक्रियक भी शरीर होता है। अर्थाद वै क्रियक होते हुए भी उनका शरीर उपरोक्त बीभत्स सामग्रीयुक्त होता है। ४. इनके मूंछ दाढ़ी नहीं होती मो. पा./टी./३२ में उद्धृत-देवा वि य नेरझ्या हलहर चक्की य तह य तित्थयरा । सव्वे केसव रामा कामा निक्कुंचिया होति ।१।-सभी देव, नारकी, हलधर, चक्रवर्ती तथा तीर्थकर, प्रतिनारायण, नारायण व कामदेव ये सब बिना मूंछ दाढीवाले होते हैं। ५. इनके शरीरमें निगोद राशि नहीं होती ध.१४/५,६,६१/८१/८ पुढवि-आउ-तेउ-वाउकाइया देव-णेरड्या आहारसरीरा पमत्तसंजदा सजोगिअजोगिकेवलिणो च पत्तेयसरीरा बुच्चंतिः जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक ५७४ ४. नारकियोंमे सम्भव भाव व गुणस्थान आदि एदेसि णिगोदजीवेहि सह संबंधाभावादो।- पृथिवीकायिक, जल- कायिक, तेजस्कायिक, बायुकायिक, देव, नारकी, आहारकशरीर, प्रमत्तसंयत, संयोगकेवली और अयोगिकेवली ये जीव प्रत्येक शरीरवाले होते हैं; क्योकि, इनका निगोद जीवोंके साथ सम्बन्ध नहीं होता। ६. छिन्न-भिन्न होने पर वह स्वतः पुनः पुनः मिल जाता है ति. प./२/३४१ करवालपहरभिण्णं कूवजलं जह पुणो वि संघडदि । तह णारयाण अंगं छिज्जंत विविहसत्येहि ।३४११-जिस प्रकार तलवारके प्रहारसे भिन्न हुआ कुएँका जल फिरसे भी मिल जाता है, इसी प्रकार अनेकानेक शस्त्रोसे छेदा गया नारकियोंका शरीर भी फिरसे मिल जाता है।; (ह.पु./४/३६४ ); (म.पु./१०/३६); (त्रि.सा /१६४ ) (ज्ञा./३६/८०)। ४. नारकियोंमें सम्भव भाव व गणस्थान आदि १. सदा अशुभ परिणामों से युक्त रहते हैं त. सू./३/३ नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः । ___नारको निरन्तर अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना व विक्रियावाले है। (विशेष दे० लेश्या/४)। २. नरकगतिमें सम्यक्त्वोंका स्वामित्व ष. खं. १/१.१/सूत्र १५१-१५५/३६६-४०१ णेरइया अस्थि मिच्छाइट्ठी सासण-सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति ।१५१ । एवं जाव सत्तसु पुढवीसु ।१५२। णेरइया असंजदसम्माइटि-ट्ठाणे अस्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी चेदि ।१५३। एवं पढमाए पुढवीए णेरइआ।१५४। विदियादि जाप सत्तमाए पुढवीए णेरड्या असंजदसम्माइwिठाणे खझ्यसम्माइट्ठी णस्थि, अवसेसा अत्थि ॥१५॥ नारकी जीव मिथ्यावृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती होते है ।१५१। इस प्रकार सातों पृथिवियोंमे प्रारम्भके चार गुणस्थान होते है ।१५२। नारकी जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमे क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते है ।१५३। इसी प्रकार प्रथम पृथिवीमें नारको जीव होते है ।१५४। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकी जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते है। शेष दो सम्यग्दर्शनोसे युक्त होते हैं ।१५॥ ७. आयु पूर्ण होनेपर वह काफूरवत् उड़ जाता है ति.प./२/३५३ कदलीघादेण विणा णारयगत्ताणि आउअवसाणे । मारुदपहदभाइ व णिस्सेसाणि विलीयंते ।३५३। =नारकियोके शरीर कदलीघातके बिना (दे० मरण/४) आयुके अन्तमें वायुसे ताड़ितमेघोंके समान निःशेष विलीन हो जाते हैं । (त्रि. सा./१६६ )। ८. नरक में प्राप्त आयुध पशु आदि नारकियोंके ही शरीर की विक्रिया है ति. प./२/३१८-३२१ चक्कसरसूलतोमरमोग्गरकरवत्तकोतसूईणं । मुसलासिप्पहूदीणं वणणगदावाणलादीणं ।३१। वयवग्धतरच्छसिगालसाणमज्जालसीहपहुदीण । अण्णोणं चसदा ते 'णियणियदेहं विगुवंति १३१६। गहिरबिलधूममारुदबइतत्तकहल्लिजंतचुल्लीणं । कंडणिपीसणिदब्बीण रूखमण्णे विकुव्वं ति ।।२०। सूबरवणग्गिसोणिदकिमिसरिदहकूववाहपहुदीर्ण । पुहुपुहुरूवविहीणा णियणियदेह पकुव्वं ति ।३२१॥ -वे नारकी जीव चक्र, वाण, शूली, तोमर, मुद्गर, करोत, भाला, सूई, मूसल, और तलवार इत्यादिक शस्त्रास्त्र; वन एवं पर्वतकी आग; तथा भेड़िया, व्याघ, तरक्ष, शृगाल, कुता, बिलाब, और सिह, इन पशुओके अनुरूप परस्परमें सदैव अपने-अपने शरीरकी विक्रिया किया करते हैं ।३१८-३११अन्य नारकी जीव गहरा बिल, धुआँ, वायु, अत्यन्त तपा हुआ खप्पर, यन्त्र. चूलहा, कण्डनी, (एक प्रकारका कूटनेका उपकरण ), चक्की और दर्वी (बी), इनके आकाररूप अपने-अपने शरीरकी विक्रिया करते है ।३२०) उपर्युक्त नारकी शूकर, दावानल, तथा शोणित और कोडोसे युक्त सरित, द्रह, कूप, और वापी आदिरूप पृथक्-पृथक् रूपसे रहित अपने-अपने शरीरकी विक्रिया किया करते हैं। (तात्पर्य यह कि नारकियोके अपृथक विक्रिया होती है। देवोंके समान उनके पृथक् विक्रिया नहीं होती।३२९॥ (स.सि./३/४/२०८/६); ( रा.वा./३/४/१/१६५/४ ); ( ह.पु./४/३६३); (ज्ञा-/३६/६७ ); ( वसु. श्रा./१६६); ( और भी दे० अगला शीर्षक)। ९. छह पृथिवियों में आयुधों रूप विक्रिया होती है और सातवीं में कीड़ों रूप रा. वा./२/४७/४/१५२/११ नारकाणां त्रिशूलचक्रासिमुद्गरपरशुभिण्डिपालाद्यनेकायुधेकत्व विक्रिवा-आ षष्ठ्या'। सप्तम्या महागोकीटकप्रमाणलोहितकुन्थुरूपैकत्व वि क्रिया । छठे नरक तकके नारकियोंके त्रिशूल, चक्र, तलवार, मुद्गर, परशु, भिण्डिपाल आदि अनेक आयुधरूप एकत्व विक्रिया होती है (दे० वैक्रियक/१)। सातवें नरकमें गाय बराबर कीड़े लोहू, चींटी आदि रूपसे एकत्व विक्रिया होती है। ३. नरकगति में गुणस्थानोंका स्वामित्व ष. ख. १/१,१/सू २५/२०४ गैरइया चउठाणेसु अत्यि मिच्छाइट्ठी __सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइदिन्ति ॥२५॥ ष. सं. १४१,१/सू.७६-८३/३१६-३२३ णेरड्या मिच्छाइटिअसंजदसम्माइट्ठिाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ७१। सासणसम्माइटिसम्मामिच्छाइट्ठिाणे णियमा पज्जत्ता ।। एवं पढमाए पुढवीए णेरड्या ।। विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए रहया मिच्छाइट्ठिाणे सिया पज्जत्ता सिया अप्पज्जत्ता 1८२ सासणसम्माइट्ठि-सम्माभिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिाणे णियमा पज्जत्ता ।। -मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यावृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में नारकी होते है ।२५॥ नारकी जीव मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्यातक होते हैं और अपर्याप्तक भी होते हैं 108 नारकी जीव सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थानोंमे नियमसे पर्याप्तक ही होते हैं 1001 इसी प्रकार प्रथम पृथिवीमे नारकी होते हैं ।८। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक रहनेवाले नारकी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्तक भी होते है और अपर्याप्तक भी होते हैं।२। पर वे (२-७ पृथिवीके नारकी) सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोमे नियमसे पर्याप्तक होते हैं ।३। ४. मिथ्याष्टिसे अन्य गुणस्थान वहाँ कैसे सम्भव है ध.११,१.२५/२०१५/३ अस्तु मिथ्यादृष्टिगुणे तेषां सत्त्वं मिथ्यादृष्टिषु तत्रोत्पत्तिनिमित्त मिथ्यात्वस्य सत्त्वात् । नेतरेषु तेषां सत्त्वं तत्रोत्पत्तिनिमित्तस्य मिथ्यात्वस्यासत्त्वादिति चेन्न, आयुषो बन्धमन्तरेण मिथ्यात्वाविरतिकषायाणां तत्रोत्पादनसामर्थ्याभावात् । न च बद्धस्यायुष. सम्यक्त्वान्निरन्वयविनाशः आर्ष विरोधात् । न हि बद्घायुषः सम्यक्त्वं संयममिवन प्रतिपद्यन्ते सूत्रविरोधात् । प्रश्न-मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें नारकियोंका सत्त्व रहा आवे, क्योकि, वहॉपर ( अर्थात मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ) नारकियोमे उत्पत्तिका निमित्तकारण मिथ्यादर्शन पाया जाता है। किन्तु दूसरे गुणस्थानोमें नारकियोंका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक ५७५ ४. नारकियोंमे सम्भव भाव व गुणस्थान आदि सत्त्व नहीं पाया जाना चाहिए; क्योकि, अन्य गुणस्थान सहित नारकियों में उत्पत्तिका निमित्त कारण मिथ्यात्व नही पाया जाता है। ( अर्थात् मियादृष्टि गुणस्थानमें ही नरकायुका बन्ध सम्भव है, अन्य गुणस्थानों मे नही)। उत्तर-ऐसा नहीं है; क्यो कि, नरकायुके बन्ध बिना मिथ्यादर्शन, अविरत और कषायकी नरकमे उत्पन्न करानेकी सामर्थ्य नहीं है। ( अर्थात नरकायु ही नरकमे उत्पत्तिका कारण है, मिथ्या, अविरति घ कषाय नहीं)। और पहले बंधी हुई आयुका पीछेसे उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन द्वारा निरन्वय नाश भी नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा मान लेनेपर आपसे विरोध आता है। जिन्होंने नरकायुका बन्ध कर लिया है, ऐसे जीव जिस प्रकार संयमको प्राप्त नहीं हो सकते है, उसी प्रकार सम्यक्त्वको भी प्राप्त नहीं होते, यह बात भी नहीं है; क्योंकि, ऐसा मान लेनेपर भी सूत्रसे विरोध आता है (दे० आयु/६/७)। ५. वहाँ सासादनकी सम्मावना कैसे है घ.१/१,१,२५/२०५/- सम्यग्दृष्टीनां बद्धायुषां तत्रोत्पत्तिरस्तीति सन्ति तत्रासंयतसम्यग्दृष्टयः, न सासादनगुणवतां तत्रोत्पत्तिस्तद्गुणस्य तत्रोत्पत्त्या सह विरोधात । तहि कथं तद्वतां तत्र सत्त्वमिति चेन्न, पर्याप्तनरकगत्या सहापर्याप्तया इव तस्य विरोधाभावात् । किमित्यपर्याप्तया 'विरोधश्चेत्स्वभावोऽयं, न हि स्वभावा' परपर्यनुयोगार्हाः ।.. कथं पुनस्तयोस्तत्र सत्त्वमिति चेन्न, परिणामप्ररथयेन तदुत्पत्तिसिद्ध। -जिन जीवोंने पहले नरकायुका बन्ध किया है और जिन्हे पीछेसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ है, ऐसे बद्घायुष्क सम्यग्दृथियोंकी नरकमें उत्पत्ति है, इसलिए नरकमे असंयत सभ्यग्दृष्टि भले ही पाये जावे, परन्तु सासादन गुणस्थानवालोंकी मरकर नरकमें उत्पत्ति नहीं हो सकती (दे० जन्म४/१) क्यो कि सासादन गुणस्थानका नरकमें उत्पत्तिके साथ विरोध है। प्रश्न-तो फिर, सासादन गुणस्थानवालोंका नरकमें सद्भाव कैसे पाया जा सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार नरकगतिमे अपर्याप्त अवस्थाके साथ सासादन गुणस्थानका विरोध है उसी प्रकार पर्याप्तावस्था सहित नरकगतिके साथ सासादन गुणस्थानका विरोध नहीं है। प्रश्न-अपर्याप्त अवस्थाके साथ उसका विरोध क्यों है। उत्तर-यह नारकियोका स्वभाव है और स्वभाव दूसरोके प्रश्नके योग्य नहीं होते है । ( अन्य गतियों में इसका अपर्याप्त काल के साथ विरोध नहीं है. परन्तु मिश्र गुणस्थानका तो सभी गतियों में अपर्याप्त कालके साथ विरोध है ।) (ध१/१,१,८०/ ३२०/८)। प्रश्न-तो फिर सासादन और मिश्र इन दोनों गुणस्थानोंका नरक गतिमे सत्त्व कैसे सम्भव है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, परिणामोके निमित्तसे नरकगतिकी पर्याप्त अवस्थामें उनकी उत्पत्ति बन जाती है। ६. मर-मरकर पुन:-पुनः जी उठनेवाले नारकियोंकी अपर्याप्तावस्थामें भी सासादन व मिश्र मान लेने चाहिए? ध.१/१,१,८०/३२१/१ नारकाणामग्निसंबन्धाइभस्मसाद्भावमुपगताना पुनर्भस्मनि समुत्पद्यमानानामपर्याप्ताद्धायां गुणद्वयस्य सत्त्वाविरोधानियमेन पर्याप्ता इति न घटत इति चेन्न, तेषां मरणाभावाद । भावे वा न ते तत्रोत्पद्यन्ते ।...आयुषोऽवसाने म्रियमाणानामेष नियमश्चेन, तेषामपमृत्योरसत्त्वात् । भस्मसाद्भावमुपगताना तेषा कथं पुनर्मरणमिति चेन्न, देहविकारस्यायुर्विच्छित्यनिमित्तस्वात। प्रश्न-अग्निके सम्बन्धसे भस्मीभाबको प्राप्त होनेवाले नारकियोंके अपर्याप्त काल में इन दो गुणस्थानों के होने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए, इन गुणस्थानों में नारकी नियमसे पर्याप्त होते है, यह नियम नहीं बनता है। उत्तर-नहीं; क्योकि, अग्नि आदि निमित्तोंसे नारकियोका मरण नहीं होता है ( दे. नरक/३/६)। यदि नारकियोंका मरण हो जावे तो पुन' वे वहींपर उत्पन्न नहीं होते है (दे० जन्म/६/६ )। प्रश्न-आयुके अन्तमे मरनेवालोके लिए ही यह सूत्रोक्त (नारकी मरकर नरक व देवगतिमे नही जाता, मनुष्य या तिर्यंचगतिमें जाता है) नियम लागू होना चाहिए . उत्तर-नही, क्योंकि नारकी जीवोके अपमृत्युका सद्भाव नहीं पाया जाता (दे० मरण/४) अर्थात नारकियोका आयुके अन्तमे ही मरण होता है, बीचमैं नहीं। ग्रश्नयदि उनकी अपमृत्यु नहीं होती तो 'जिनका शरीर भस्मीभावको प्राप्त हो गया है, ऐसे नारकियों का, (आयुके अन्तमें) पुनर्मरण कैसे बनेगा ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, देहका विकार आयुकर्मके बिनाशका निमित्त नहीं है। (विशेष दे० मरण/२)। ७. वहाँ सम्यग्दर्शन कैसे सम्भव हैं ध. १/१,१,२५/२०६/७ तहि सम्यग्दृष्टयोऽपि तथैव सन्तीति चेन्न, इष्टस्वाद । सासादनस्येव सभ्यग्दृष्टेरपि तत्रोत्पत्तिर्मा भूदिति चेन्न, प्रथमपृथिव्युत्पत्ति प्रति निषेधाभावात् । प्रथमपृथिव्यामिव द्वितीयादिषु पृथिवीषु सम्यग्दृष्टयः किन्नोत्पद्यन्त इति चेन्न, सम्यक्त्वस्य तत्रतन्यापर्याप्ताद्धया सह विरोधात ।-प्रश्न-तो फिर सम्यग्दृष्टि भी उसी प्रकार होते है ऐसा मानना चाहिए । अर्थात सासादनकी भांति सम्यग्दर्शनकी भी वहाँ उत्पत्ति मानना चाहिए ! उत्तर-नहीं; क्योंकि, यह बात तो हमे इष्ट ही है, अर्थात् सातों पृथिवियोकी पर्याप्त अवस्थामें सम्यग्दृष्टियोका सद्भाव माना गया है । प्रश्न-जिस प्रकार सासादन सम्यग्दृष्टि नरकमे उत्पन्न नही होते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टियोकी भी मरकर वहाँ उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए। उत्तर--सम्यग्दृष्टि मरकर प्रथम प्रथिवीमें उत्पन्न होते है, इसका आगममे निषेध नहीं है। प्रश्न-जिस प्रकार प्रथम पुथिवी में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार द्वितीयादि पुथिवियों में भी सम्यग्दृष्टि क्यों उत्पन्न नहीं होते है। उत्तर-नही; क्योंकि, द्वितीयादि पृथिवियोंकी अपर्याप्तावस्थाके साथ सम्यग्दर्शनका विरोध है। ८. सासादन मिश्र व सम्यग्दृष्टि मरकर नरकमें उत्पन्न नहीं होते । इसका हेतुध. १/१,१,८३/३२३/४ भवतु नाम सम्यग्मिथ्यादृष्टेस्तत्रानुत्पत्तिः । सम्यग्मिथ्यात्वपरिणाममधिष्ठितस्य मरणाभावात् । किन्रवेतन्न युज्यते शेषगुणस्थानप्राणिनस्तत्र नोत्पद्यन्त इति । न तावत् सासादनस्तत्रोत्पद्यते तस्य नरकायुषो अन्धाभावाद । नापि बद्धनरकायुष्क: सासादनं प्रतिपद्य नारकेधूत्पद्यते तस्य तस्मिन गुणे मरणाभावात् । नासंयतसम्यग्दृष्टयोऽपि तत्रोत्पद्यन्ते तत्रोत्पत्तिनिमित्ताभावात् । न तावत्कर्मस्कन्धबहुत्वं तस्य तत्रोत्पत्तेः कारणं क्षपितकाशानामपि जीवानां तत्रोत्पत्तिदर्शनात् । नापि कर्मस्कन्धाणुत्वं तत्रोत्पत्तेः कारणं गुणितकाशानामपि तत्रोत्पत्तिदर्शनात् । नापि नरकगतिकर्मणः सत्त्वं तस्य तत्रोत्पत्तेः कारण तत्सत्त्वं प्रत्यविशेषतः सकलपञ्चेन्द्रियाणामपि नरकप्राप्तिप्रसङ्गात् । नित्यनिगोदानामपि विद्यमानत्रसकर्मणां त्रसेपुत्पत्तिप्रसङ्गात् । नाशुभलेश्यानो सत्त्वं तत्रोत्पत्तेः कारण मरणावस्थायामसंयतसम्यग्दृष्टेः षट् सु पृथिविषूत्पत्तिनिमित्ताशुभलेश्याभावात । न नरकायुष..सत्त्वं तम्य तत्रोत्पत्तेः कारणं सम्यग्दर्शनासिना छिन्नषट्पथिव्यायुष्कत्वात् । न च तच्छेदोऽसिद्ध' आत्तित्सिद्धयुपलम्भात । तत. स्थितमेतत् न सम्यग्दृष्टिः षट्मु पृथिवीपूत्पद्यत इति । -प्रश्न-सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवकी मरकर शेष छह पृथिवियोंमें भी उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणामको प्राप्त हुए जीवका मरण नहीं होता है (दे० मरण/३ )। किन्तु शेष (सासादन व असंयत सम्यग्दृष्टि ) गुणस्थान वाले प्राणी (भी) मरकर वहॉपर उत्पन्न नहीं होते, यह कहना नहीं बनता है। उत्तर१. सासादन गुणस्थानवाले तो नरकमें उत्पन्न ही नहीं होते हैं; क्योंकि, सासादन गुणस्थानबालोके नरकायुका बन्ध ही नहीं होता है जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक ५. नरक लोक निर्देश २. अधोलोक सामान्य परिचय ति, ५ /२/६,२१,२४-२५ खरपंकप्पबहुलाभागा रयणप्पहाए पुढवीए ।। सत्त चियभूमीओ णवदिसभाएण घणोवहि बिलग्गा। अट्ठमभूमी दसदिसभागेसु घणोवहि छिवदि ।२४। पुव्वापरदिभाए वेत्तासणसंणिहाओ संठाओ। उत्तर दक्षिणदीहा अणादिणिहणा य पुढवीओ।२॥ ति. प./१/१६४ सेढीए सत्तसो हेट्ठिम लोयस्स होदि मुहबासो। भूमीवासो सेढीमेत्ताअवसाण उच्छेहो ।१६४। = अधोलोकमे सबसे पहले रत्नप्रभा पृथिवी है, उसके तीन भाग है-खरभाग, कभाग और अप्पबहुलभाग। (रत्नप्रभाके नीचे क्रमसे शर्कराप्रभा आदि छ: पृथिवियाँ है।)। सातो पृथिवियों में ऊर्ध्व दिशाको छोड़ शेष नौ दिशाओमें घनोदधिवातवलयसे लगी हुई है, परन्तु आठवीं पृथिवी दशों-दिशाओमे ही घनोदधि वातवलयको छूती है ।२४। उपर्युक्त पृथिवियाँ पूर्व और पश्चिम दिशाके अन्तरालमें वेत्रासनके सदृश आकारवाली हैं। तथा उत्तर और दक्षिणमें समानरूपसे दीर्घ एवं अनादिनिधन है ।२५॥ (रा. वा./२/१/१४/१६९/१६); (ह. पु./४/६,४८); (त्रि. सा./१४४,१४६); (ज. प./११/१०६,११) । अधोलोकके मुखका विस्तार जगश्रेणीका सातवा भाग (१ राजू), भूमिका विस्तार जगश्रेणी प्रमाण (७ राजू) और अधोलोकके अन्ततक ऊँचाई भी जगणीप्रमाण (७ राजू) ही है ।१६४। (ह. पू./४/६). (ज. प./११/१०८) ध. ४/१,३,१/६/३ मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो।। ध.४/१.३,३/४२/२ चत्तारि-तिण्णि-रज्जुबाहक्लजगपदरपमाणा अधउड्ढलोगा। -मंदराचल के मूलसे नीचेका क्षेत्र अधोलोक है । चार गजू मोटा और जगत्प्रतरप्रयाण लम्बा चौडा अधोलोक है । (दे० प्रकृति बंध/७)। २. जिसने पहले नरकायुका बन्ध कर लिया है ऐसे जीव भी सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर नारकियोमे उत्पन्न नहीं होते है, क्योंकि, नरकायुका बन्ध करनेवाले जीवका सासादन गुणस्थानमें मरण ही नहीं होता है। ३. असंयत सम्यग्दृष्टि जीव भी द्वितीयादि पथिवियोमें उत्पन्न नहीं होते हैं। क्योंकि, सम्यग्दृष्टियोंके शेष छह पथिवियों में उत्पन्न होनेके निमित्त नहीं पाये जाते हैं। ४. कर्मस्कन्धों की बहुलताको उसके लिए वहाँ उत्पन्न होनेका निमित्त नहीं कहा जा सकता; क्योकि, क्षपितकर्माशिकोंकी भी नरकमें उत्पत्ति देखी जाती है। ५ कर्मस्कन्धोंको अल्पता भी उसके लिए वहाँ उत्पन्न होनेका निमित्त नहीं है, क्योकि, गुणितकमाशिकोकी भी वहाँ उत्पत्ति देखी जाती है। ६. नरक गति नामकर्मका सत्त्व भी उसके लिए वहाँ उत्पत्तिका निमित्त नहीं है; क्योंकि नरकगतिके सत्त्वके प्रति कोई विशेषता न होनेसे सभी पंचेन्द्रिय जीवोंको नरकगतिकी प्राप्तिका प्रसंग आ जायेगा। तथा नित्य निगोदिया जीवोंके भी त्रसकर्म की सत्ता रहनेके कारण उनकी त्रसोंमें उत्पत्ति होने लगेगी। ७. अशुभ लेश्या का सत्त्व भी उसके लिए वहाँ उत्पन्न होनेका निमित्त नहीं कहा जा सकता; क्योंकि, मरण समय असंयत सम्यग्दृष्टि जीवके नीचेकी छह पथिवियोमें उत्पत्तिकी कारण रूप अशुभ लेश्याएँ नहीं पायी जातीं । ८. नरकायुका सत्व भी उसके लिए वहाँ उत्पत्तिका कारण नहीं है क्योंकि, सम्यग्दर्शन रूपी खड्गसे नीचेकी छह पृथिवी सम्बन्धी आयु काट दी जाती है। और वह आयुका कटना असिद्ध भी नहीं है; क्योंकि, आगमसे इसकी पुष्टि होती है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि नीचेकी छह पथिवियों में सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होता। ९. उपरके गुणस्थान यहाँ क्यों नहीं होते ति. प./२/२७४-२७५ ताण य पच्चक्वाणावरणोदयसहिदसव्वजीवाणं । हिंसाणं दजुदाणं णाणाविहसंकिलेसपउराणं ।२७४। देसविरदादिउवरिमदसगुणठाणाण हेदुभूदाओ। जाओ विसोधियाओ कइया विण ताओ जायंति ।२७५॥ - अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे सहित, हिंसामें आनन्द माननेवाले और नाना प्रकारके प्रचुर दु.खोंसे संयुक्त उन सब नारकी जीवोके देशविरत आदिक उपरितन दश गुणस्थानोंके हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित भी नहीं होते है १२७४ २७५॥ ध.१/१,१,२५/२०७/३ नोपरिमगुणानां तत्र संभवस्तेषां संयमासंयमसंयमपर्यायेण सह विरोधात। -इन चार गुणस्थानों (१-४ तक) के अतिरिक्त ऊपरके गुणस्थानोका नरकमें सद्भाव नहीं है, क्योंकि, सयमासंयम, और संयम पर्यायके साथ नरकगतिमें उत्पत्ति होनेका विरोध है। ५. नरक लोक निदश १. नरककी सात पृथिवियों के नाम निर्देश त. सू./३/१ रत्नशर्कराबालुकापड्डधूमतमोमहातमःप्रभाभूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽध ।। - रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, और महातमःप्रभा, ये सात भूमियाँ धनाम्बुवात अर्थात् घनोदधि वात और आकाशके सहारे स्थित हैं तथाक्रमसेनीचेनीचे हैं।(ति.प./१/१५२) (ह. पू./४/४३-४५); (म. पु./१०/३१); (त्रि. सा./१४४); (ज. प./११/११३ ) । ति.प./२/१५३ धम्मावंसामेघाअंजणरिट्ठाण उब्भमघवीओ। माषविया इय ताणं पुढवीणं गोत्तणामाणि ।१५३। इन पृथिवियोंके अपर रूढि नाम क्रमसे धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माधवी भी हैं ।४६। (ह. पु./४/४६); (म. पु/१०/३२ ); (ज. प./११/ १११-११२); (त्रि. सा./१४५) । ३. पटलों व बिलोंका सामान्य परिचय ति. प./२/२८,३६ सत्तमखिदिबहुमझे बिलाणि सेसेसु अप्पबहुलं तं । उर्वरि हेठे जोयणसहस्समुझिय हवं ति पडलकमे ।२८। इदयसेढी बदा पइण्णया य हवं ति तिवियप्पा। ते सव्वे णिरयबिला दारुण दुक्रवाण संजणणा।३६ = सातवीं पृथिवीके तो ठीक मध्यभागमें ही नारकियोके बिल हैं। परन्तु उपर अब्बालभाग पर्यन्त शेष छह पथि वियोमें नीचे व ऊपर एक-एक हजार योजन छोडकर पटलोंके क्रमसे नारकियोके बिल हैं ।२८। वे नारकियोके बिल, इन्द्रक, श्रेणी बद्ध और प्रकीर्ण कके भेदसे तीन प्रकारके है। ये सब ही बिल नारकियोंको भयानक दु.ख दिया करते हैं ।३६। (रा. बा./३/२/२) १६२/१०), (ह.पु./१/७१-७२), (त्रि.सा./१५०), (ज. प./११/१४२) । ध. १४/५.६.६४१/४६५/८ णिरयसेडिबाद्धणि णिरयाणि णाम । सेडिबद्धाणं मज्झिमणिरयावासा णिरइंदयाणि णाम । तत्थतणपइण्णया णिरयपत्थडाणि णाम । = नरकके श्रेणीबद्ध नरक कहलाते है, श्रेणीबद्धोंके मध्यमें जो नरकवास हैं वे नरकेन्द्रक कहलाते हैं। तथा वहाँके प्रकीर्ण क नरक प्रस्तर कहलाते हैं। ति. प./२/६५, १०४ संखेज्जमिदयार्ण रु'दं सेढिगदाण जोयणया। त होदि असंखेज्जं पइण्णयाणुभयमिस्सं च ।१५। संखेज्जवासजुत्ते णिरय-विले होति णारया जीवा। संखेज्जा णियमेणं इदरम्मि तहा असंखेज्जा ।१०४। - इन्द्रक बिलोंका विस्तार संरख्यात योजन, श्रेणीबद्ध बिलोंका असंख्यात योजन और प्रकीर्णक जिलोंका विस्तार उभयमिश्र हैं, अर्थात कुछका संख्यात और कुछका असंख्यात योजन है।५। संख्यात योजनवाले नरक बिलोमे नियमसे संख्यात नारकी जीव तथा असंख्यात योजन विस्तारवाले बिलोंमे असंख्यात ही नारकी जीव होते हैं ।१०४। (रा. वा./३/२/२/१६३/११); (ह. पु./४/ १६६-१७०): (त्रि. सा./१६७-१६८)। त्रि. सा./१७७ वज्जघणभित्तिभागा बट्टतिचउरंसबहुविहायारा। णिरया सयावि भरिया सव्वि दियदुवखदाई हि । - यज्र सदृश भोतसे युक्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक ५७७ ५. नरकलोक निर्देश (मिट्टी) है, उसकी गन्धसे यहाँपर एक कोसके भीतर स्थित जीव मर सकते है। इसके आगे शेष द्वितीयादि पृथिवियोमे इसकी घातक शक्ति, आधा-आधा कोस और भी बढ़ती गयी है ।३४६। (ह पु./४/३४२): (त्रि.सा./१६२-१९३) ! ३. नारकियोंके शरीरकी दुर्गन्धि म. पु/१०/१०० श्वमार्जारखरोष्ट्रादिकुणपानां समाहृतौ। यद्वैगन्ध्यं तदप्येषां देहगन्धस्य नोपमा।१००। =कुत्ता, बिलाव, गधा, ऊँट, आदि जीवोंके मृत कलेवरोंको इकट्ठा करनेसे जो दुर्गन्ध उत्पन्न होती है, वह भी इन नारकियोके शरीरकी दुर्गन्धकी बराबरी नहीं कर सकती।१०० और गोल, तिकोने अथवा चौकोर आदि विविध आकारवाले, वे नरक बिल, सब इन्द्रियोंको दुखदायक, ऐसी सामग्रीसे पूर्ण हैं। ४. बिलों में स्थित जन्मभूमियोंका परिचय ति. प./२/३०२-३१२ का सारार्थ-१. इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंके ऊपर अनेक प्रकारको तलवारोंसे युक्त, अर्धवृत्त और अधोमुखवालो जन्मभूमियाँ हैं। वे जन्मभूमियाँ धर्मा (प्रथम) को आदि लेकर तीसरी पथिवी तक उष्ट्रिका, कोथली, कुम्भी, मुद्गलिका, मुद्गर, मृदंग, और नालिके सदृश हैं ।३०२-३०३। 'चतुर्थ व पंचम पृथिवीमें जन्मभूमियोंका आकार गाय, हाथी, घोडा, भस्त्रा, अन्जपुट, अम्बरोष और द्रोणी जैसा है ।३०४। छठी और सातवीं पथिवीकी जन्मभूमियाँ झालर (वाद्यविशेष), भल्लक (पात्रविशेष), पात्री, केयूर, मसूर, शानक, किलिज (तृणकी बनी बड़ी टोकरी). ध्वज, द्वीपी, चक्रवाक, शृगाल, अज. रखर, करभ, संदोलक (झूला), और रीछके सदृश हैं। ये जन्मभूमियाँ दुष्प्रेक्ष्य एवं महा भयानक हैं ।३०५-३०६। उपर्युक्त नारकियों की जन्मभूमियाँ अन्तमें करोंतके सदृश, चारों तरफसे गोल, मज्जवमयी (1) और भयंकर हैं । ३०७१ (रा. वा./३/२/२/१६३/१६); (ह पु/४/३४७-३४६); (त्रि.सा./१८०)। २. उपर्युक्त जन्मभूमियोंका विस्तार जघन्य रूपसे ५ कोस, उत्कृष्ट रूपमे ४०० कोस, और मध्यम रूपसे १०-१५ कोस है ।३०।। जन्मभूमियोंको ऊँचाई अपने-अपने विस्तारकी अपेक्षा पाँचगुणी है। ।३१०१ ( ह. पु./४/३५१)। (और भी देनीचे ह.पु. व त्रि, सा.)। ३. ये जन्मभूमियाँ ७.३,२१ और ५ कोणवाली हैं।३१०। जन्मभूमियोंमें १,२,३.५ और ७ द्वार---कोण और इतने ही दरवाजे होते हैं । इस प्रकारकी व्यवस्था केवल श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंमें ही है 1३११॥ इन्द्रक बिलों में ये जन्मभूमियाँ तीन द्वार और तीन कोनोंसे युक्त हैं । (ह. पु./४/३५२) ह.पू./४/३५० एकद्वित्रिकगव्यूतियोजनव्याससङ्गताः शतयोजनविस्ती स्तेिषूत्कृष्टास्तु वर्णिताः । ३५०वे जन्मस्थान एक कोश, दो कोश, तीन कोश और एक योजन विस्तारसे सहित हैं। उनमें जो उत्कृष्ट स्थान हैं, वे सौ योजन तक चौड़े कहे गये हैं ।३५०। त्रि.सा./१८० इगिवित्तिकोसो वासो जोयणमिव जोयणं सयं जेछ। उट्ठादीणं बहलं सगवित्थारेहिं पंचगुणं १८०1 -एक कोश, दो कोश, तीन कोश, एक योजन, दो योजन, तीन योजन और १०० योजन, इतना धर्मादि सात पृथिवियोमें स्थित उष्ट्रादि आकारवाले उपपादस्थानोंको क्रमसे चौडाईका प्रमाण है ।१८०। और बाहत्य अपने विस्तारसे पाँच गुणा है। ५. नरक भूमियों में दुर्गन्धि निर्देश १. बिलोंमें दुर्गन्धि ति. प./२/३४ अजगजमहिसतुरंगमखरोट्ठमर्जारअहिणरादीणं । कुधि दाणं गंधेहि णिरयबिला ते अणंतगुणा ॥३४॥ =बकरी, हाथी, भैंस, घोड़ा, गधा, ऊँट, बिल्ली, सर्प और मनुष्यादिकके सड़े हुए शरीरोंके गन्धकी अपेक्षा वे नारकियोंके बिल अनन्तगुणी दुर्गन्धसे युक्त होते हैं ।३४ (ति.प./२/३०८); (त्रि.सा./१७८) । २. आहार या मिट्टीकी दुर्गन्धि ति. प./२/३४४-३४६ अजगजमहिसतुरंगमरवरो ठमर्जारमेसपहुदीणं । कुथिताणं गंधादो अणं तगंधो हुवेदि आहारो ।३४४। घम्माए आहारो कोसस्सन्भतरम्मि ठिदजीवे। इह मारदि गधेणं सेसे कोसद्धवड्ढिया सत्ति । ३४६ । = नरकोंमें बकरी, हाथी, भैंस, घोडा, गधा, ऊँट, बिल्ली और मैढे आदिके सड़े हुए शरीरकी गन्धसे अनन्तगुणी दुर्गन्धवालो (मिट्टोका) आहार होता है ।३४४। धर्मा पृथिवीमें जो आहार १. नरक बिलोंमें अन्धकार व भयंकरता ति. प /२/गा. नं. कक्रवकवच्छुरीदो खइरिगालातितिक्रवसूईए। कुंजरचिक्कारादो णिरयाबिला दारुणा तमसहावा १३५॥ होरा तिमिरजुत्ता ।१०२। दुक्ख णिज्जामहामोरा ।३०६। णारयजम्मणभूमीओ भीमा य १३०७। णिच्चंधयारबहुला कत्थुरिहंतो अणंतगुणो ।३१२। -स्वभावत. अन्धकारसे परिपूर्ण ये नारकियोंके बिल कक्षक (क्रकच), कृपाण, छुरिका, खदिर ( स्वैर ) की आग, अति तीक्ष्ण सूई और हाथियोंकी चिक्कारसे अत्यन्त भयानक हैं ।३५॥ ये सब बिल अहोरात्र अन्धकारसे व्याप्त है ।१०२। उक्त सभी जन्मभूमियाँ दुष्प्रेक्ष एवं महा भयानक हैं और भयंकर है।३०६-३०७। ये सभी जन्मभूमियाँ नित्य हो कस्तुरीसे अनन्तगुणित काले अन्धकारसे व्याप्त हैं ।३१२।। त्रि.सा/१८६-१८७,१६१ वेदालगिरि भीमा जंतसुयक्कडगुहा य पडिमाओ। लोहणिहग्गिकणड्ढा परसूकुरिगासिपत्तवर्ण १८६। कूडासामलिरुक्रवा वइदरणिणदीउ खारजलपुण्णा । पुहरुहिरा दुगंधा हदा य किमिकोडिकुलकलिदा १८७४ विच्छियसहस्सवेयणसमधियदुवं धरित्तिफासादो १६१वेताल सदृश आकृतिवाले महाभयानक तो वहाँ पर्वत हैं और सैकड़ों दुखदायक यन्त्रोंसे उत्कट ऐसी गुफाएँ हैं। प्रतिमाएँ अर्थात स्त्रीकी आकृतियाँ व पुतलियाँ अग्निकणिकासे संयुक्त लोहमयी हैं । असिपत्र वन है, सो फरसी, री, खड्ग इत्यादि शस्त्र समान यन्त्रोंकर युक्त है ।१८६। वहाँ झूठे (मायामयी ) शाल्मली वृक्ष है जो महादुःखदायक हैं। बेतरणी नामा नदी है सो खारा जलकर सम्पूर्ण भरी है। घिनावने रुधिरवाले महा दुर्गन्धित द्रह हैं जो कोडों, कृमिकुलसे व्याप्त है ।१८७१ हजारों बिच्छू काटनेसे जैसी यहाँ वेदना होती है उससे भी अधिक वेदना वहाँको भूमिके स्पर्श मात्रसे होती है ।१६१ ७. नरकों में शीत-उष्णताका निर्देश १. पृथिवियोंमें शीत-उष्ण विभाग ति. प/२/२६-३१ पढमादिबितिचउक्के पचमपुरवाए तिचउक्कभागतं । अदिउण्हा णिरयबिला तट्ठियजीवाण तिब्बदाधकरा ।२६। पंचमिखिदिए तुरिमे भागे छट्टीय सत्तमे महिए। अदिसीदा णिरयबिला तदिजीबाण घोरसीदयरा ।३०। बासीदि लक्खाण उण्हभिला पंचवीसिदिसहस्सा । पणहत्तरं सहस्सा अदिसीदबिलाणि इगिलक्खं १३१४ -- पहली पृथिवीसे लेकर पाँचवीं पृथिवीके तीन चौथाई भागमें स्थित नारकियोंके बिल, अत्यन्त उष्ण होनेसे वहाँ रहनेवाले जीवोंको तीव्र गर्मीकी पीडा पहुँचानेवाले हैं।२६। पाँचवीं पुथिवीके अवशिष्ट चतुर्थ भागमें तथा छठी, सातवी पुथिवीमें स्थित नारकियों के बिल. अत्यन्त शीत होनेसे वहाँ रहनेवाले जीवोंको भयानक शीतकी वेदना करनेवाले हैं।३०। नारकियोंके उपर्युक्त चौरासी लाख बिलोंमें-से बयासी लाख पच्चीस हजार बिल उष्ण और एक लाख पचहत्तर हजार बिल अत्यन्त शीत है।३१। (ध.७/२,७,७८/गा.१] जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-७३ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक (४०५/२/४६) (म.पू./१०/१० प्र. खा./१५२). ( ज्ञा. / ३६ / ११ ) । २. नरको शीत-उष्णकी सीमा दि.१/२/३२-१३ मै समतोह पिडं सीदं उन्हे विसम्मि पक्सि हदि तलपदे विलीन |२| मेसमलोह उन्हें सीदे बिलम्म पक्खितं । ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे लवणखंड व |३३| यदि उष्ण बिलमें मेरुके बराबर लाहेका शीतल पिण्ड डाल दिया जाये, तो वह रासप्रदेश तक न पहुँचकर नीच ही मैन ( मोम ) के टुकड़े के समान पिघलकर नष्ट हो जायेगा | ३२ | इसी प्रकार यदि मेरु पर्वतके बराबर लोहेका उष्ण पिण्ड शीत बिलमे डाल दिया जाय तो वह भी तलप्रदेश तक नहीं पहुॅचकर बीच में ही नमक के टुकड़े के समान विलीन हो जायेगा |३३| (भ.आ./मू./१३६३-१६६४). (ज्ञा/३६/१२-९३)" ८. साठों पृथिवियोंकी मोटाई व बिलोंका प्रमाण प्रत्येक कोकके अंधानुप्रमाण नं. १-२ (दे० नरक /५/१) । -- नं. ३ (स.१०/२/१.२२). (शा./३/१/०/१६०/११) (४.५/४/४०६ २०) (.सा./१४६.९४०) (.प./११/११४.१२१-१२२) । नं. ४ (वि.प./२/३०) (रा.वा./३/२/२/१६२/९९) (६.४/०६५) (त्रि सा./९६३), (ज.प./९९/९४६) नं. ५,६ -- ( ति.प./२/७७-७६,८२), (रा. वा/३/२/२/१६२/२५), (ह.पु. /४/ १०४,११७,१२८,१३०,१४४.१४६.१५०), (त्रि. सा. १६३-१६६) । नं. ७ (स.प./२/२६-२७), (रा.वा/३/२/२/१६२/५), (६१/४/०३-०४). (म.पु./१०/१९). (.सा./१५१९). (म.प./११/१४३-१४४) । नं. नाम १ रश्नप्रभा धर्मा खर भाग पंक भाग अम्बहुल २ ३ बालुका ४ पंक प्र ५ धूम प्र. तम प्र. महातम अपर नाम २ मोटाई ३ योजन बिलौका प्रमाण श्रेणीत प्रकीर्णकल ६ ५७८. 50,000 वंशा ११२६८४ ३२,००० मेधा २८,००० ६ १४७६ अजना २४,००० 19 ७०० अरिष्टा २०,००० ५ २६० [मपत्री १६,००० माधवी ८,००० 3 ६० ४ ७. १. ८०,००० १३ ४४२० २६६५५६७ ३० लाख १६,००० ८४,००० कोष्ठक नं. १= (दे० ऊपर कोष्ठक न. ७) । कोष्ठक २४७६३०५ २५ लाख १४६८५१५ १५ लाख ६६६२६३ | १० लाख २६६७३५ ३ लाख ६६६३२. ६६६६५ X ५ ४६ ६६०४८३६०३४७ ८४ लाख ९. सातों पृथिवियोंके बिलोंका विस्तार दे० नरक / ५ / ४ ( सर्व इन्द्रक बिल संख्यात योजन विस्तारबाले है । सर्व श्रेणी मद्ध असंस्थात योजन विस्तारवाते हैं। प्रकीर्णक मिल संख्यात योजन विस्तारवाले भी है और असंख्यात योजन विस्तार वाले भी । १३ (ति.प./२/१६-११.१०३), (रा.वा/३/२/२/१६१/११). (ह.पु / ४ / १६१-१७०); (त्रि.सा./१६७ - १६८) । पृथिवोका न. १ २ ३ ४ ५ ६ ५. नरकलोकके निर्देश कोटक नं. ६-८ (वि.प./२/१५०), (रा.वा./१/२/२/१६३/९४०-४ २१८-२२४); (त्रि. सा. / १७०-१७९) । नं. १ २ नं कुल बिल ५ ६ ७ १ ३० लाख २५ लाख ५ ८४ लाख १३ ५६६६८७ ४४२० २३६५५० ११ ४६६६८६ १५ लाख ६ २६६६६१ १० लाख ७ १६६६६३ ३ लाख ५ ५६६६५ ६६६६५ ३ १६६६६ १ X पृथिवीका नाम विस्तारकी अपेक्षा मिलका विभाग संख्यात यौ असंख्यात बो प्रकीर्णक श्रेणीबद्ध | प्रकीर्णक ३ ४ ५ • इंद्रक रत्नप्रभा शर्करा प्रभा १ २ 3 बालुकाप्रमा ४ पंकप्रभा बिलोंका बाहुल्य या गहराई ई. श्र. प्र. ८ ६ | ७ कोस कोस कोस १४/३ ७/३ २९८४ १११०१९६ ३ ३ |२| | संख्यात योजनवाले प्रकीर्णक असंख्यात योजनवाले श्रेणीबद्ध व प्र० ४६१६७६६५१ ६६०४ १० बिलोंमें परस्पर अन्तराळ १. तिर्यक् अन्तरा (ति.प./२/१००) (इ.पु./२/२५४); (त्रि.सा./१७५-१०६)। बिल निर्देश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश धूमप्रभा तम प्रभा महातम प्रभा १४७६ ११६८५२४ २ ७०० २६० ६० ४ ७११३०० २३६७४० ७६६३६ 33 X ६७१०३६६ २. स्वस्थान ऊर्ध्व अन्तराल ( प्रत्येक पृथिवी के स्व-स्व पटलोंके मध्य बिलोंका अन्तराल ) । (वि.१/२/१६०-१६४): (.पु. /४/२२५-२४८) (त्रि.सा./१०२) 39 כן लाल r जल m जघन्य योजन १३ पो० ७००० यो. ३ ४ ७ १४ ४९ ११ २८ ४ "3" "3" स्वस्थान अन्तराल इन्द्रकौका श्रेणीबद्धोंका | प्रकीर्ण कोंका ६४६२३६४६२ को ६४६९को २६६६, ४७००ध. २६६६, ३६००६. २६६६, ३०००ध. ३२४६, ३५०० ३२४६, २०००, ३२४८, ५५०० १६६४००२०३० २६६१ ५०० atle kkk ४४४६५०० ४४६८, ६००० ४४६७, ६५०० ६६६,५५०० ६६६, २०००, ६६६६,७५00 बिलों के ऊपर तले पृथिवीतल की मोटाई रहस्यो को ३६६६ यो को -ह उत्कृष्ट योजन ३ यो० असं, यो. X " 93 Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक नं. ३. परस्थान ऊर्ध्वं अन्तराल ( ऊपरकी पृथिवी के अन्तिम पटल व नीचेकी पृथिवीके प्रथम पटल के बिलोंके मध्य अन्तराल) (रा.मा/३/२/०/९६०/२०) (सि.प./२/मा. नं.); (त्रि. सा. / १७३ - १७४) । ति. प / ऊपर नीचेकी गा. पृथिवियोंके नाम १ १६८ २ १७० ३ १७२ ४ १७४ १०६ ६ | १७८ ७ X रत्न. प्र - शर्करा - बालुका-पंक धूम-राम तम महातम महातम - इन्द्रक २०,०००यो. कम १ राजू २६००० 29 33 29 13 २२००० " 22 19 33 १८०००० १४००० ३०००० 33 35 X " 12 13 कोक नं. १ ( ति १/२/९०८-१५६) (त्रि, सा./ १६६ ) । 12 3" 13 श्रेणी बद्ध ११. साठ पृथिवियोंमें पटलोंके नाम व उनमें स्थित बिलोंका परिचय इन्द्रकोंवत् ( ति प /२/१८७ - १८८) इन्द्रकोत् ( ति.प./२/१६४) दे० नरक/५/८/१ सांतों पृथिवियों लगभग एक राजूके अन्तरात से नीचे नीचे स्थित हैं । दे० नरक /५/३ प्रत्येक पृथिवी नरक प्रस्तर या पटल है, जो एक-एक हजार योजन अन्तरालसे ऊपर-नीचे स्थित है। = रा.वा/३/२/२/१६२/११ तत्र त्रयोदश नरकप्रस्ताराः त्रयोदशैव इन्द्रकनरकाणि सौमन्तकनिरय... तहाँ रत्नप्रभा पृथिवीके अन्त भागमै तेरह प्रस्तर हैं और तेरह ही नरक है, जिनके नाम सीमन्तक निरय आदि हैं। (अर्थात् पटलोंक भी यही नाम हैं जो कि इन्द्रकोंके हैं। इन्हीं पटलों व इन्द्रकोंके नाम विस्तार आदिका विशेष परिचय आगे कोष्ठकों में दिया गया है। कोड नं. १-४ (दि.१/२/४/४५): (रा.वा./३/२/२/१६२/१९) (६.५/ ४/०६-८२): (प्र.सा./९५४-१५६): (ज.प./११/९४६-१४४) । कोष्ठक नं. ५ - - ( ति.प. / २ / ३८, ५५-५८); (ह.पु. /४/८६-१५०), (त्रि. सा./१६१-१६५)। (६.१०/४/२०१-२१०). प ); ५७९ ), प्रत्येक पृथिवोके पटलों या इन्द्रकों के नाम ति.प. रा. वा. ह. पु. त्रि. सा. २ शतप् २ शीत . प्रस्त तपन तपन स्तन ११ स्तन- स्तन- स्तन | लोलुक लोलुक लोलुप लोला ३ बालुका प्रभा तठ | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ३ । ४ ६ प्रज्व- प्रज्वतिल लित १ १ रत्नप्रभा पृथिवी १३| ४४२० १) सोमंतक सोमंतक सीमंतक सीमंतक १ ४६ ४८ ३८८ ४५ लाख २ निरय निरय नारक निरय १ रीस्क रौरूक रौतक रोख ४० ४७ ३८० ४४०८३३३ १४० ४६३०२४३९६६६६३ १४६ ४५ ३६४ ४२२५००० ४ भ्रान्त भ्रान्त भ्रान्त भ्रान्त ५ उद्भ्रात उद्भ्रांत उद्भ्रान्त उद्भ्रान्त १ ४५४४३५६ ४१३३३३३ संभ्रान्त संभ्रान्त संभ्रान्त संभ्रान्त १४४४३ २४० ४० ४९६६६३ ३६५०००० ३०६६६६६३ ४० २६ ३९६ ३८०००० ७ असभ्रांत असंभ्रांत असंभ्रांत असंभ्रांत १४३४२ ३४० ८. विधान्त विभ्रान्त विभ्रान्त विभ्रान्त १४२ ४१३६२ २८५८३११९ ६ तप्त तप्त त्रस्त त्रस्त १४१ ४० ३२४ १० त्रसित त्रस्त प्रसित प्रसित ९१वक्रान्त व्युत्क्रांत वक्रान्त वक्रान्त १२ अवक्रांत अवक्रांत अवक्रांत अवक्रांत ११३ विक्रांत विक्रांत विक्रांत विक्रात २ शर्करा प्रभा 16 प्रत्येक पटलकी दिशा व विदिशा प्रत्येक पटल इन्द्रक तापन १ ४| तापन आतपन तापन निदाघ निदाघ निदाघ निदाघ १ प्रज्व- उज्ज्व- १ लित लित ५. नरकलोकके निर्देश ९ तरक ३२१६६६६ | ३१२५००० | ३०३३३३३3 १) स्तनक | स्तनक | तरक १३६३५२८४ | ३३०८३३३ २ तनक संस्तनक स्तनक स्तनक १ ३५ ३४ २७६ ३. मनक वनक मनक वनक १ ३४ ३३ २६८ ४ वनक मनक वनक मनक १ ३३ ३२ २६० ५ घात घाट घाट खडा ९ २२ २९ २५९ ३१२५२ ६ संघात संघाट संघाट खडिका १३१ ३० २४४ ७ जिह्वा जिह्न १३० २१ २१६ २१ २० २२८ २६४१५८६ २५०००० २०५८३३३ २६६६६६६ जिडा जिला ८ जिहक उर्जिडि जिह्नक जिक्षिक १ ६ लोल कालोल लोल १० लोक सोकसो लौकिक १ २८ २७ २२० २५७५००० १२७ २४ २१२ २४०३३ लोलवत्स १२६२५२०४ २३६१६६ में श्रेणीबद्ध पित तप्त तप्त तपित तपित १ तपन तपन १ दिशा | विदिशा प्रत्येक इन्द्रकका कुल योग विस्तार ह योजन १ ३६ ३८ ३०८ ३५८३३३३३ ३४६१६६६ १ ३५३७ ३०० १३७ ३६ २१२ ३४००००० २६८४ ११ १४०६ २५ २४ १६६ २३००००० २४ २३ १८८ २ २०८३३३३ २३) २२ १८० | २११६६६६ उ २२ २१ १७२ २०२५००० २९२०६४ ९६३३३३३ २०१६ १५६ १८४१६६६ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक निं० ति प रा व. ७ ८ पटली या इन्द्रको के नाम १ १ आर आर २ आर मार मार तार ३ तार ४ ह. पुत्रि सा २ ३ ४ योजन उज्ज्व-उज्ज्व- उज्ज्व प्रज्व १ १६ १८ १४८ १७५०८०० fea लित लित लित संज्व- १ १८ १७ १४० १६५८३३२ डे लित संज्य- संजय संज्वलित लित लित εसंप्रज्व संप्रज्य सप्रज्व लित । लित लित ४ पंक प्रभाः तत्त्व वर्चस्क वर्चस्क तमक वैमनस्क तमक तार मार तारा चर्चा तमकी ५ ६ वाद खड खड ७ खडखड अखड खडखड ५. धूमप्रभाः भ्रम १ तमक तमो तम २ । भ्रमक ३ झषक झष ४ वाविल अन्ध ५ तिमिश्र तमिल ६ तमः प्रभा १ हिम हिम २ बदल गईल ३ लब्लक ब्लक ७ महातमः प्रभा१ अवधि- |अप्रति स्थान ष्ठान आरा मारा प्रत्येक पटल मे इन्द्रक घाटा घटा ५ श्रेणी बद्ध दिशा विदिशा कुल योग संप्रज्य- १ १७ १६ १३२ १५६६६६६ लिस ६ ७ १ १६ १५ १ १४ १४ तमका १ १ १४ १३ १ १३ १२ भ्रम झष भ्रमका १ झषका १ अन्त अंधेद्रा १ तमिल तिमि १ श्रका ३ ह - ११२ ११ १२ १ ११ १० ४ १०१८ ८ ६६ ११० ६७६ ६२५००० ५ ८ इन्द्रकोका विस्तार हिम हिम बा १२ बर्दल वाईल ७०० १२४ १४७५००० ९१६/ १३८२३२२ १०८ १२६१६६६ १०० १२००००० |११०८३३३ २६० ८ ६८ ८३३३३३. ७ ००१ ६५२ ६५०००० ६ ५४४ ५५८३२२२ ५४ ३६ ४६६६६६ १६० ४ ३ २८ ३७५००० २ २० २८३३३३ लब्लक लल्लक १ २ १ १२ १६१६६६ ५८० १ ४ अप्रति- अवधि- १ १ ४ ४ १००,००० ष्ठित स्थान नरक मुख - अष्टम नारद थे। अपर नाम नरवक्त्र । विशेष दे० शलाका पुरुष / ६ । नरकांता कूट - नील पर्वतस्थ एक कूट - दे० श्लोक ७ । नरकांता देवी - नरकान्ता कुण्ड निवासिनी एक देवी :--- ३० लोक/३/२०१ नरकांता नदीरम्यक क्षेत्रकी प्रधान नदी । - दे० लोक ३/११ । नरकायु दे० आयु / ३ | नरगीत -- विजयार्ध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर - दे० विद्याधर । नलदिवार नरपति - ( म. पु. / ६१ / ८६ - १० ) मघवान चक्रवर्तीका पूर्व का दूसरा भव है। यह उत्कृष्ट तपश्चरणके कारण मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र उत्पन्न हुआ था । नरमद-भरतक्षेत्र पश्चिम आर्यखण्डका एक देश - ३० मनुष्य / ४ । नरवर्मा- - एक भोजवंशी राजा भोजवंशकी वंशावलीके अनुसार यह उदयादित्यका पुत्र और यशोवर्माका पिता था। मालवा देशमें राज्य करता था । धारा या उज्जैनी इसकी राजधानी थी। समयबि. १९५०-१२०० (३० १०६३ ११४३ ) - ३० इतिहास /२/१ नरवाहन- -मगधदेशकी राज्य वंशावलीके अनुसार यह शक जातिका एक सरदार था, जो राजा विक्रमादित्य के काल में मगध देशके किसी भागपर अपना अधिकार जमाये बैठा था। इसका दूसरा नाम नभ सेन था । इतिहास मे इसका नाम नहपान प्रसिद्ध है। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार मालवादेशकी राज्य वंशावली में भी नभ सेनकी बजाय नरवाहन ही नाम दिया है । भृत्यवंशके गोतमीपुत्र सातकर्णी शालिवाहन) ने दी. नि. ६०५ में इसे परास्त करके इसका देश भी मगध राज्यमे मिला लिया ( क. पा. १/प्र.५३/ पं. महेन्द्र ) और इसीके उपलक्ष्यमे उसने शक संवत् प्रचलित किया था। समय- वी. नि. २६६-६०६ ई. पू. २६-०६) नोट वाहन द्वारा बी.नि. ६० में इसके परास्त होनेकी संगति बैठानेके लिए दे० इति हास / ३ / ३ | नरवृषभ - (म. पु / ६१/६६-६८ ) वीतशोकापुरी नगरीका राजा था । दीक्षा पूर्वक मरणकर सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ। यह 'सुदर्शन' नामक के पूर्वका दूसरा भन है-ये सुदर्शन । नरसेनामा कहा, पौपाल पर आदि के रचयिता एक अपभ्रंश कवि गृहस्थ । समय-विश १४ का मध्य (eft,//993) 1 नरेन्द्रसेन- -१ सिद्धान्तसार सग्रह तथा प्रतिष्ठा तिलक के रचयित लाडगड सधी आचार्य गुरु - गुणमेन समय -वश १२ का द्वि चरण (ती / २ /३४) । २. प्रमाण प्रमेय कलिका के रचयिता । गुरुशान्तिमेन । समय-वि १७८०-१७६० । ( इतिहास / ७ /६), (ती./३/ ४२७) । नर्मदा पूर्वदक्षिणी आर्यण्डकी एक नहीं दे० मनुष्य ४ । नल (१. पु/६/१३ व ११६/३६ ) सुग्रीवके चचा ऋक्षरजका पुत्र था | १३ | अन्तमें दीक्षित हो गया था |३६| नलकूबर - ( प. पु. / १२ / ७९ ) राजा इन्द्रका एक लोकपाल जिसने के साथ युद्ध किया । नलदियार - तामिल भाषाका ८००० पद्य प्रमाण एक ग्रन्थ था. जिसे ई० पू० २६१३२२ में विशालाचार्य तथा उनके ८००० शिष्योंने एक रात में रचा था। इसके लिए यह दन्तकथा प्रसिद्ध है कि- बारह वर्षीय दुर्भिक्ष में जब आ. भद्रबाहुका संघ दक्षिण देशमें चला गया तो पाण्ड्य नरेशका उन साधुओंके गुणोंसे बहुत स्नेह हो गया। दुर्भिक्ष समाप्त होनेपर जब विशाखाचार्य पुनः मोकी ओर लौटने लगे तो पाण्डमनरेशने उन्हे स्नेहमा रोकना चाहा तुन आचार्यप्रवरने अपने दस दस शिष्यों को दस दस श्लोकोंमें अपने जीवनके अनुभव नित्रद्ध करनेकी आज्ञा दी। उनके ८००० शिष्य थे, जिन्होंने एक रात में ही अपने अनुभव गाथाओं में गूँथ दिये और सवेरा होते तक ८००० श्लोक प्रमाण एक ग्रन्थ तैयार हो गया। आचार्य ग्रन्थको नदी किनारे छोड़कर बिहार कर गये । राजा उनके बिहारका समाचार जानकर बहुत बिगड़ा और क्रोधवश वे सम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलिन गाथाएँ नदीमें फिंकवा दीं। परन्तु नदीका प्रवाह उलटा हो जानेके क्रोध शान्त होनेपर प्रकार वह ग्रन्थ ८००० इसी ग्रन्थका नाम पीछे कारण उनमें से ४०० पत्र किनारेपर आ लगे। राजाने वे पत्र इकट्ठे करा लिये, और इस श्लोकसे केवल ४०० श्लोक प्रमाण रह गया। नलदियार पड़ा। नलिन -१. पूर्व विदेह एक बार गिरि (लोक २/३) २. उपरोक वक्षारका एक कूट तथा देव (लोक/५/४) । ३. अपर विदेहस्थ एक क्षेत्र । (लोक/५/२) ४. आशीष क्षारका एक फूट तथा देव (लोक/५/४) । १. रुचक पर्वतस्य एक फूट ३० लोक ३/१३१ ६. सौधर्म स्वर्गका आठवाँ पटल- दे० स्वर्ग/५/३१७. कालका एक प्रमाण (गणित / I / १ / ४) । नलिनप्रभ - ( म. पु / ५७/ श्लोक नं० ) पुष्करार्ध द्वीपके पूर्व विदेह में सुकच्छा देशका राजा था १२ ३१ सुपुत्र नामक पुत्रको राज्य दे दीक्षा धारण कर लो और ग्यारह अंगोंका अध्ययन कर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया । समाधिमरण पूर्वक देह त्यागकर सोलहवें अच्युत स्वर्गमें हुआ।१२-१४ नलिनांगकालका एक प्रमाण- दे० गणित / I / १/४ । नलिना-सुमेरुपर्वतके नन्दन आदि वनोंमें स्थित एक भा० लोक /५/६ । नलिनावर्त - पूर्व विदेहस्थ नलिनकूट बहारका एक फूट व उसका रक्षक देव-दे० लोक /५/२.४ | नलिनी - सुमेके नन्दन आदि बनोंमें स्थित एक वाषी लोक २/ नवक समय प्रबद्ध दे० समय प्रबद्ध । नवकार मन्त्र दे० मन्त्र | नवकार व्रत- लगातार ७० दिन एकाशना करे। नमोकार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । ( व्रत विधान संग्रह / पृ. ४७ ) ( वर्द्धमान पुराण नवलसाहकृत ) । नवधा-सि उ/०६ कृतकारितानुमनने का मनोभिरिष्यते • नवधा । कृत कारित अनुमोदनारूप मन वचन काय करके नव प्रकार ( का त्याग औत्सर्गिक है ) । नवधाभक्ति- दे० भक्ति/२ । नवविधि व्रत - किसी भी मासकी चतुर्दशी से प्रारम्भ करकेचौदह रत्नोंकी १४ चतुर्दशी नवनिधिको नममी सनत्रयकी ३ तीज; पाँच ज्ञानोंकी ५ पंचमी, इस प्रकार ३१ उपवास करे । नमोकार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । ( व्रत विधान संग्रह / पृ. १२ ) ( किशनसिंह वाकया)। नवनीत नवनीतकी अमक्ष्यताका निर्देश - दे० भक्ष्याभक्ष्य / २ 1 ५८१ -- १. नवनीतके निषेधका कारण " 1 दे मांस / २, नवनीत, मदिरा, मांस, मधु ये चार महाविकृतियाँ हैं, जो काम मद ( अभिमान व नशा ) और हिंसाको उत्पन्न करते हैं। . . . अलहू विधातान्युकमाङ्गवेराणि नवनीत निम्बक केतकरयेममय फल थोडा परन्तु प्रस । ८५| हिंसा अधिक होनेसे नवनीत आदि वस्तुएँ छोडने योग्य हैं। पु. सि. उ. / १६३ नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानाम् । = [ उसी वर्ण व जातिके ( पु. सि. उ./७१)] बहुतसे जीवोका उत्पत्तिस्थानभूत नवनीत त्यागने योग्य है । साध/२/१२ मधुवनीतं च मुचेापि भूरिशः । द्विमुहूर्तात्परं शरवर जराशयः । ११... नागश्री यंत्र साध/२/१२ में उत-अन्तमुहूर्तात्परत सुसूक्ष्मा जन्तुराशय मूर्च्छन्ति नाद्य तन्नवनीतं विवेकिभि |१| = १. मधुके समान नवनीत भी त्याग देना चाहिए; क्योंकि, उसमें भी दो मुहूर्त के पश्चात् निरन्तर अनेक सम्मानीय उत्पन्न होते रहते है | १२| २. और किन्हीं आचार्यों के मत से तो अन्तर्मुहूर्त पश्चात् ही उसमें अनेक सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते है इसलिए वह नवनीत विवेकी जनों द्वारा खाने योग्य नहीं है | १| नवमिका- रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी देवी । - ३० लोक/२/१३ । नवराष्ट्र भरतक्षेत्र दक्षिण आर्यखण्डका एक देश-३० मनुष्य ४ । नष्ट - अक्षसंचार गणित में संख्याके आधारपर अक्ष या भंगका नाम मठाना 'नट' विधि कहलाती है दे० गणित/11/३/४ नहपान दे० नरवाहन । नहुष कलिंग देशके सोमवंशी राजा । समय - ई० ६१६-६४४ (सि. वि. / प्र./ १५ / पं. महेन्द्र ) । - - नाग - सनत्कुमार स्वर्गका तृतीय पट ३० स्वर्ग /२/३ | नागकुमार १. घ. १३/५.२.१४०/३११/० फणोपलक्षिता नागाः । - फणसे उपलक्षित (भवनवासी देव) नाग कहलाते हैं । २. भवनवासी देवोंका एक भेद है--३० भवन /१/४२. इन देवों के इन्द्रादि तथा लोक में इनका अवस्थान - दे० भवन २/२ ४/११ नागकुमार नागकुमार चरित विषयक तीन काव्य । १. मल्लिषेण (ई. श. ११) कृत । ५ सर्ग, ५०७ पद्य । (ती./३/१७१) । २. धर्मघर (वि. १५२१) कृत । (ती./४/५८) ३. माणिक्य राज (वि. १५७६) कृत । ६] सन्धि ३३०० श्लोक (ती./४/२३७) नागगिरि - १. अपर विदेहस्थ एक वक्षार दे० लोक /५/३२० सूर्य गिरि वक्षारका एक कूट । ३ इस कूटका रक्षक देव । --- -दे० लोक ५/४ ४. भरत क्षेत्र आर्यखण्डका एक पर्वत - दे० मनुष्य / ४ ॥ नागचंद - मल्लिनाथ पुराणके कर्ता एक कन्नड कवि । ई. ११०० । (ती./४/२००) 1 नागदत्त - यह एक साधु थे, जिनको सर्प द्वारा डसा जानेके कारण वैराग्य आया था (बृहत्कथाको कथा नं. २७) नागदेव"आप 'मयण पराजय' के कर्ता हरिदेव सूरिके ही वंशमें उनकी छठी पीढ़ी मे हुए थे। 'कन्नड भाषा में रचित उपरोक्त ग्रन्थ के आधारपर आपने मदन पराजय' नामक संस्कृत भाषाबद्ध ग्रन्थकी रचना की थी। समय- वि. श. १४ का मध्य । (ती./४/६२) । नागनंदिकवि अरुणके गुरु थे। समय नि० ० ११. (६० ० ११ का अन्त) (भ.आ./ प्र, २० / प्रेमी जी ) नागपुर - भरतक्षेत्रका एक नगर-३० मनुष्य ४ नागभट्ट - १. स्वर्गीय चिन्तामणिके अनुसार यह वत्सराज पुत्र थे। इन्होने चक्रायुधका राज्य छोनकर कन्नौजपर कब्जा किया था । समय - वि. ८७-८८२ ( ई०८००-८२५) । नागवर - मध्यलोकके अन्तमे पष्ठ सागर व द्वीप - दे० लोक / ५ / १ । नागधी (पा./सर्ग/स्टोक में.) अग्निमृति की पुत्री थी। सोमभूतिके साथ विवाही गर्यो ( २३/७६-८२) | मिथ्यात्वकी तोचता वश । (२३/८८) एक बार मुनियोंको विष मिश्रित आहार कराया | ( २३ / १०३ ) । फलस्वरूप कुष्ठरोग हो गया और मरकर नरकमे गयी । (२४/२-६)। यह पोदीका दूरवर्ती पूर्वभव है। दे० द्रौपदी। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागसेन ५८२ नाम नागसन-१, श्रुतावतारके अनुसार आप भद्रबाहू प्रथमके पश्चात पाँचवें ११ अग व १० पूर्वधारी हुए। समय-वी. नि. २२६-२४७ दृष्टि नं.३ की अपेक्षा बी नि २८-३००। (दे. इतिहास/४/४)। २. ध्यान विषयक ग्रन्थ तत्त्वानुशासन के कर्ता रामसेन के गुरु और वीरचन्द के विद्या शिष्य। समय-ई १०४७। (ती./३/२३६) कोई कोई इन्हें ही तत्त्वानुशान के रचयिता मानते हैं। (त. अनु./प्र / २ ब्र, श्री लाल) नागहस्ती-१ दिगम्बराम्नायमें आपका स्थान आ. पुष्पदन्त तथा भूतबलि के समकक्ष माना गया है। आ० गुणधर से आगत 'पेज्जदोसपाहुड' के ज्ञान को आचार्य परम्परा द्वारा प्राप्त कर के आपने यत्तिवृषभाचार्य को दिया था। समय-वि. नि. ६२०६८४ (ई. १३-१६२) (विशेष दे कोश ११ परिशिष्ट/३.३)। २. पुन्नाटसंघको गुर्वावलीके अनुसार आप व्याघहस्तिके शिष्य तथा जितदण्डके गुरु थे। (दे० इतिहास/७/८) नागाजन-१. एक बौद्ध विद्वात् । इनके सिद्धान्तोका समन्तभद्र स्वामी (वि. श. २-३) ने बहुत खण्डन किया है, अत: आप उनसे भी पहले हुए है। (र. क. पा./प्र. ८/प', परमानन्द) २. आप आ-पूज्यपादको कमलनी नामक छोटी बहन जो गुणभट्ट नामक ब्राह्मणके साथ परणी थी, उसके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। आ.पूज्यपाद स्वामीने इनको पद्मावती देवीका एक मंत्र दिया था, जिसे सिद्ध करके इन्होने स्वर्ण बनानेकी विद्या प्राप्त की थी। पद्मावती देवीके कहनेसे इसने एक जिनमन्दिर भी बनवाया था। समय-पूज्यपादसे मिलान करनेपर इन का समय लगभग वि. ४८१ ( ई०४२४ ) आता है । ( स. सि./प्र. ८४/ पं. नाथूराम प्रेमी के लेखसे उद्धृत) नाग्न्य-दे० अचेलकत्व । नाटक समयसार-दे० समयसार नाटक । नाड़ी-१ नाडी संचालन सम्बन्धी नियम-दे० उच्छवास । २. औदारिक शरीरमें नाडियोका प्रमाण -दे० औदारिक/१। त. अनु./१०० "वाच्यवाचकं नाम । =वाच्यके वाचक शब्दको नाम ___कहते हैं -दे० आगम/४ । २. नामके भेद ध १/१,१,१/१७/५ तत्थ णिमित्तं चउविह, जाइ-दव्व-गुण-किरिया चेदि । दिव्यं दुविहं, संयोगदव्वं समवायदवं चेदि ।..'च अण्ण णिमित्ततरमथि। = नाम या संज्ञाके चार निमित्त होते हैं--जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया । ( उसमें भी) द्रव्य निमित्त के दो भेद हैसंयोग द्रव्य और समवाय द्रव्य । ( अर्थात् नाम या शब्द चार प्रकारके है -जातिवाचक, द्रव्यवाचक, गुणवाचक और क्रियावाचक) इन चारके अतिरिक्त अन्य कोई निमित्त नहीं है। (श्लगे'. वा. २/१/५/ श्लो. २-१०/१६६) ध. १५/२/३ तं च णाम णिबंधणमत्याहिहाणपच्चयभेएण तिविहं। =वह नाम निबन्धन अर्थ, अभिधान और प्रत्ययके भेदसे तीन प्रकारका है। ३. नामके भेदोंके लक्षण दे. जाति (सामान्य) (गौ मनुष्य आदि जाति बाचक नाम हैं)। दे. द्रव्य/१/१० (दण्डी छत्री आदि संयोग द्रव्य निमित्तक नाम हैं और गलगण्ड काना आदि समवाय द्रव्य निमित्तक नाम हैं।) ध. १/१,१,१/१८/२.५ गुणो णाम पज्जायादिपरोप्परविरुद्धो अविरुद्धो वा। किरिया णाम परिफंदणरूवा । तत्थ...गुणणिमित्तं णाम किण्हो रुहिरो इच्चेवमाइ। किरियाणिमित्तं णाम गायणो णच्चणो इच्चेवमाइ। =जो पर्याय आदिकसे परस्पर विरुद्ध हो अथवा अविरुद्ध हो उसे गुण कहते हैं। परिस्पन्दन अर्थात् हलनचलन रूप अवस्थाको क्रिया कहते है। तहाँ कृष्ण, रुधिर इत्यादि गुणनिमित्तक नाम है, क्यो कि, कृष्ण आदि गुणोके निमित्तसे उन गुणवाले द्रव्योंमें ये नाम व्यवहार में आते है। गायक, नर्तक आदि क्रिया निमित्तक नाम हैं; क्योंकि, गाना नाचना आदि क्रियाओंके निमित्तसे वे नाम व्यवहारमें आते है। ध १५/२/४ तत्थ अत्यो अट्ठविहो एगबहुजीवाजीवजणिदपादेवसंजोगभगभेरण । एदेसु अट्ठसु अत्येसुप्पण्णणाणं पञ्चणिबंधणं । जो णामसद्दो पवुत्तो संतो अप्पाणं चेव जाणावेदि तमभिहाणणामणिबंधणं णाम । - एक व बहूत जीव तथा अजीवसे उत्पन्न प्रत्येक व संयोगी भंगोंके भेदसे अर्थ निबन्धन नाम आठ प्रकारका है (विशेष देखो आगे नाम निक्षेप) इन आठ अर्थोंमे उत्पन्न हुआ ज्ञान प्रत्यय निबन्धन नाम कहलाता है । जो सज्ञा शब्द प्रवृत्त होकर अपने आपको जतलाता है, वह अभिधान निबन्धन कहा जाता है। ४. सर्व शब्द वास्तव में क्रियावाची हैं श्लो. बा./४/१/३३/७४/२६७/६ न हि कश्चिदक्रियाशब्दोऽस्यास्ति गौरश्व इति जातिशब्दाभिमतानामपि क्रियाशब्दत्वात आशुगाम्यश्व इति, शुक्लो नील इति गुणशब्दाभिमता अपि क्रियाशब्द एव । शुचिभवना च्छक्लः नीलान्नील इति । देवदत्त इति यदृच्छा शब्दाभिमता अपि क्रियाशब्दा एव देव एव (एन) देयादिति देवदत्तः यज्ञदत्त इति । मयोगिद्रव्यशब्दा' समवायिद्रव्यशब्दाभिमताः क्रियाशब्द एव । दण्डोऽस्यास्तीति दण्डी विषाणमस्यास्तीति विषाणीत्यादि । पञ्चतयी तु शब्दानां प्रवृत्तिः व्यवहारमात्रान्न न निश्चयादित्ययं मन्येते। जगतमें कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जो कि क्रियाका वाचक न हो। जातिवाचक अश्वादि शब्द भी क्रियावाचक हैं; क्यों कि, आशु अर्थात शीघ गमन करनेवाला अश्व कहा जाता है। गुणवाचक शुक्ल नील आदि शब्द भी क्रियावाचक हैं; क्योंकि, शुचि अर्थात पवित्र होना रूप क्रियासे शुक्ल तथा नील रंगने रूप क्रियासे नील कहा नाथ वंश-दे० इतिहास/१०७ ! नाभांत-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर -दे० विद्याधर । नाभिगिरि-० लोक/३/८ । नाभिराज-म.३/श्लोक नं) आप वर्तमान कल्पके १४ व कुलकर थे ।१२। इनके समय बालककी नाभिमें नाल दिखाई देने लगी थी। इन्होने उसे काटनेका उपाय सुझाया जिससे नाभिराय नाम प्रसिद्ध हो गया ।१६४। -दे० शलाका पुरुष । नाम--१. नामका लक्षण रा. वा /१/५/-/२८/८ नीयते गम्यतेऽनेनार्थ. नमति वार्थमभिमुस्त्रीकरोतीति नाम । -जिसके द्वारा अर्थ जाना जाये अथवा अर्थको अभिमुग्व करे वह नाम कहलाता है। ध. १५/२/२ जस्स णामस्स वाचगभावे पवुत्तीए जो अस्थो आलवर्ण होदि सो णामणिबंधणं णाम, तेण विणा णामपबुत्तीए अभावादो। - जिस नामकी बाचकरूपसे प्रवृत्तिमे जो अर्थ अवलम्बन होता है वह नाम निबन्धन है; क्योंकि, उसके बिना वामकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं है। ध.६/४१/५४/२ नाना मिनोतीति नाम । = नानारूपसे जो जानता है, उसे नाम कहते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्म जाता है । देवदत्त आदि यदृच्छा शब्द भी क्रियावाची हैं; क्योंकि, देव ही जिस पुरुषको देवे ऐसे क्रियारूप अर्थको धारता हुआ देवदत्त है। इसी प्रकार दस भी क्रियावाची है। दण्डी विषाणी आदि संयोगव्यवाची या समत्रायद्रव्यवाची शब्द भी क्रियावाची ही हैं, क्योंकि, दण्ड जिसके पास वर्त रहा है वह दण्डी और सींग जिसके वर्त रहे है वह विषाणी कहा जाता है। जातिशब्द आदि रूप पाँच प्रकार के शब्दोकी प्रवृत्ति तो व्यवहार मात्र होती है। निश्चयसे नहीं है। ऐसा एवंभूत न मानता है। * गाण्यपद आदि नाम - दे० पद । * भगवान्के १००८ नाम - दे० म. पू. १५/ १००-२१०१ ★ नाम निक्षेप - दे० आगे पृथक शब्द । ५८३ नामकर्म - 1. नामकर्मका लक्षण प्र. सा./मू./११७ कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणी सहावेण । अभिभूय र तिरिय रइयं वासुरं कुर्णादि । नाम सज्ञावाला कर्म जीवके शुद्ध स्वभावको आच्छादित करके उसे मनुष्य, तिर्यच, नारकी अथवा देव रूप करता है । (गो.क./मू./१२/१) स.सि./८/२/२०६/२ नाम्नो नरकादिनामकरणम् । स.सि./८/४/३८१/१ नमयत्यात्मानं नम्यतेऽनेनेति वा नाम । = (आत्मा का) नारक आदि रूप नामकरण करना नामकर्म की प्रकृति (स्वभाव) है । जो आत्माको नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता है वह नामकर्म है ( रा. रा./८/३/४/३६०/५ तथा ८/४/२/१४); (प्र.सा./ ता. वृ.) । घ. ६/ १.१.१.१०/१३/३ नाना मिनोति नियतीति नाम के पोस सरीरसंठाणसं घडणवण्णगंधादिकज्जकारया जोवणिविट्ठा ते णामसणिदा होति त्ति उत्त होदि । =जो नाना प्रकारको रचना निर्वृ स करता है, यह नामकर्म है शरीर संस्थान, संहनन, वर्ण, गन्ध आदि कार्यों करनेवाले जो पुद्गल जीव में निविष्ट हैं, वे 'नाम' इस संज्ञा बाले होते हैं. ऐसा अर्थ कहा गया है। गो, क./मू./१२/३) (गो क./ जी. प्र./२०/१३/१६); (द्र.सं./टी./३३/१२/१२) । · २. नामकमके भेद १. मूलमेद रूप ४२ प्रकृतियाँ . . ६/१३-१/२८/५० गदिणार्म जादिणामं सरीरणामे सरीरसंघणणामं सरोरसंवादमार्ग सरीरसंागणार्म सरीरअंगोवंगगार्म सरीरसंघहणणामं दनणामं गंधणामं रसणार्म फासणार्म आणुमीणा अगुस्तहुमणामं उपपादणामं पश्चादणाम उस्सारणाम आदावणामं उज्जोबा विहायगविणामं तसणामं वावरणार्म बादरणामं मुहुमणामं पज्जत्तणामं अपजत्तणामं पत्तेयसरीरणामं साधारणसरीरणामं थिरणाम अथिरणामं सुहणामं असुहणामं सुभगणा दूभगणामं सुस्सरणामं दुस्सरणामं आदेज्जणामं अणादेज्जणामं जसकित्तिणामं अजसकित्तिणामं णिमिणामं तित्थयरणामं चेदि १२८ = १, गति, २. जाति, ३. शरीर, ४. शरीरबन्धन, १. शरीरसंघात ६. शरीरसंस्थान. ७ शरीर अंगोपांग शरीर संहनन, वर्ण, १०. गन्ध, ११. रस. १२. स्पर्श १३ नुपूर्वी १४. अगुरुलघु, १५. उपघात, १६. परघात, १७. उच्छ्वास, १८, आतप, १६. उद्योत २०. विहायोगति, २१ त्रस २२. स्थावर २३, बादर, २४, सूक्ष्म २५ पर्याप्त, २६ अपर्याप्त २७ प्रत्येक शरीर, २८. साधारण शरीर, २६, स्थिर, ३०. अस्थिर, ३१. शुभ, ३२. अशुभ, ३३. सुभग, ३४, दुर्भग, ३५, सुस्वर, ३६. दुःस्वर, ३७. आदेय, ३९ जना, २९. यशःकीति ४०. अमशः कीर्तिः ४१ निर्माण और ४२. तीर्थकर ये नाम कर्मको ४२ पिड प्रकृतियाँ हैं.. नामकर्म १३/२.२ / तू. १०१ / ३६३) (रा. सू. /०/१९) (सू. आ./ १२३०- १२३३ ) (पं/प्र/२/४) (म.बं. १/१४/२८/३) (गो, क/जी.प्र./२६/११/०). २. उत्तर भेदरूप ९३ प्रकृतियों - दे० वह वह नाम गति चार है-नरकारि जाति पाँच हैं- एकेन्द्रिय आदि शरीर पाँच है- औदारिकादि बन्धन पाँच है बौदारिकादि शरीर बन्धन संघात पांच है- औदारिकादि शरीर संघात । संस्थान छह हैं - समचतुरस्र आदि। अंगोपांग तीन हैं- औदारिक आदि । संहनन छह हैं-वज्रऋषभनाराच आदि । वर्ण पॉच हैंसुक्त आदि गन्ध दो सुगन्ध दुर्गन्ध रस पाँच हैं-ठिक्क आदि स्पर्श आठ है— कर्कश आदि आनुपूर्वी चार है- नरकगत्यानुपूर्वी आदि। विहायोगति दो हैं- प्रशस्त अप्रशस्त । - इस प्रकार इन १४ प्रकृतियों के उत्तर भेद ६५ हैं। मूल १४को बजाय उनके ६५ उत्तर भेद गिननेपर नाम कर्मकी कुल प्रकृतियाँ ६३ (४२+६५ १४६३) हो जाती है।) " 1 ३. नामकर्मकी असंख्यात प्रकृतियाँ प. १२/४.१,१४/ सूत्र ९६/४०३ णामस्स कम्मस्स असंगतपडीओ | १६ | नामकर्मकी असंख्यात लोकमात्र प्रकृतियाँ है । ( रा. बा./८/१३/३/५८१/५) • ( १३/२३/१४ पिरयगइया ओग्गाणामार पडीओो अंगुलरस विभागमेसमा हाणि तिरिराणि डीए असंखेज दिमागमे तेहि खगाहन नियहि गुणिदाओ एवडियाओ यडीओ । (११६ / ३७९) । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्विणामाए पथडीओ लोओ सेडीए असंखेज्जदिभागमे ते हि ओगाहवियप्पेहि गुणिदाओ । एवडियाओ पयडीओ । (११८ - ३७६) । मणुसगइपाओग्गाणुपुब्विणामाए पयडीओ पणदाली सजोयणसएसहस्वाहाणि तिरिय१दराणि वाट दफणाणि सेडीए जदभागमेहि जगाहणनियम्पेहि गुणिदाओ एशियाओ पडीओ । (१२०/२००)। देवगहपाओग्गा नामाए पयडीयो जनजोयसमाथि तिरियपदराणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ । एवडियाओ पयडीओ । (१२२/३८३)। नरकगत्यानुपूर्वी नामकर्मको प्रकृतियाँ अंगुल के असंख्यात भागमात्र तिर्यक्प्रतररूप माहत्यको श्रेणिके असंख्यात भागमात्र अवगाहनाविकल्पों गुपित करनेपर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतियाँ हैं ११६। तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियाँ लोकको जगणी असंख्यात भागमात्र अवगाहना विकल्पोंसे गुणित करने पर जो आये उतनी है उसकी इतनी मात्र प्रकृतियों होती हैं ११ मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म की प्रकृतियों कपाट छेदनसे निष्पन्न पैंतालीस लाख योजन मान्यवाले विर्य प्रतरोंको जगणी असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पोंसे गुपित करनेपर जो न आवे उतनी हैं। उसकी उनी मात्र प्रकृतियाँ होती है। १२० देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियाँ नौ सौ यीजन पाहण्य रूप तिर्यक्प्रतको जगशेणी के असंख्यात भागमात्र अवगाहनाविकल्पोसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतनी होती हैं। उसकी उनी मात्र प्रकृतियों १२२ " घ. ३/१,२०० /३० / २] पृढविकाणामकम्मोदयतो जोवा विकाइया चिंति पुडविणाम कहि विबुत्तमिति ण रास्स एवं दियजादिणामकम्मतसादो एवं सदि कम्मा संखा यमो मुत्तसिद्धो ण घडदि त्ति वुच्चदे । ण सुत्ते कम्माणि अट्ठेब अट्ठेदालसयमेवेत्ति संखतरपडिसेहविधायय एवकाराभावदो । पुणो कतियाणि कम्माणि होति हयगय वियपुरतं वसत्तमणुदेहि-गोमिदादीणि बेतियागि कम्मफलानि सोगे उपलम्भते जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकर्म ५८४ कम्माणि वितत्तियाणि चेव । एवं सेसकाइयाणं वि वत्तवं । पृथिवीकाय नामकर्मसे युक्त जीवोंको पृथिवीकायिक कहते है। प्रश्न- पृथिवीकाय नामकर्म कही भी (कर्मके भेदोमे) नहीं कहा गया है ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, पृथिवीकाय नामका कर्म एकेन्द्रिय नामक भीतर अन्तर्भूत है। प्रश्न- यदि ऐसा है तो सूत्र प्रसिद्ध कमोंको संख्याका नियम नहीं रह सकता है उत्तर-सूत्र, कर्न आठही अथवा १४८ ही नहीं कहे गये है; क्योकि आठ या १४८ संख्याको छोडकर दूसरी संख्याओंका प्रतिषेध करनेवाला एवकार पर सूत्र नहीं पाया जाता है। प्रश्न- तो फिर कर्म कितने है । उत्तर-लोकमें घोडा, हाथी, वृक (मेडिया), भ्रमर शलभ मत्कुण, उद्देहिका ( दीमक ), गोमी और इन्द्र आदि रूपसे जितने कर्मो के फल पाये जाते है, कर्म भी उतने ही है । ( ध. ७/२,१.१९/७०/७ ) इसी प्रकार शेष कायिक जीवोके विषयमें भी कथन करना चाहिए। घ. ७/२,१०,१२/२०१५ कम्मोदरण जहा जवाफद शेणं = मतं होदि तहा निगोदामकम्मोदरण निगोदत्तं होदि सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे जिस प्रकार नस्पतिकाविकादि जीवोंके सूक्ष्मपना होता है उसी प्रकार निगोद नामकर्म के उदयसे निगोदव होता है। ध. १३/५.५,१०१/३६६/६ को पिंडो णाम । बहूणं पयडीणं संदोहो पिड़ो । तसादितं त्तिताओ ओत्ति घेत्तव्य, तत्थ वि बहूणं पयडीणमुवलं भादो । कुदो तदुवलद्धी । जुत्तो का जुत्तो । कारणत्रहुत्तेण विणा भमर-पयंग-मायंग-तुरंगादादो 1 1 घ. १३/५,५,१३३/३८७/११ ण च एदासिमुत्तरोत्तरपयडीओ णत्थि, पपरोरा-धमणारीणं साहारणसरीराचं गुलयहतवादी बहुविहार-गमवादीमुक्त भादो १ प्रश्न पिठ (प्रकृति) का अर्थ क्या है ? उत्तर--बहुत प्रकृतियोंका समुदाय पिण्ड कहा जाता है प्रश्न प्रस आदि प्रकृतियों तो बहुत नहीं है, इसलिए क्या प्रकृतियों है उत्तर ऐसा ग्रहण नहीं करना चाहिए क्यों वहाँ भी युक्तिसे बहुत प्रकृतियाँ उपलब्ध होती हैं और वह युक्ति यह है कि क्योकि, कारणके बहुत हुए बिना भ्रमर, पतंग, हाथी, और घोडा आदिक नाना भेद नहीं बन सकते है, इसलिए जाना जाता है, कि सादि प्रकृतियाँ बहुत हैं ।। २. यह कहना भी ठीक नहीं है कि अगुरुलघु नानकर्म आदिको उत्तरोतर प्रकृतियों नहीं है, क्योंकि, धन और धम्ममन आदि प्रत्येक शरीर की और हर मूली आदि साधारणशरीर; तथा नाना प्रकारके स्वर और नाना प्रकारके गमन आदि उपलब्ध होते हैं । और भी दे० नीचे शीर्षक नं० (भवनवासी आदि स मे नामकर्म५ कृत हैं ।) ४. तीर्थंकरववत् गणधर आदि प्रकृतियोंका निर्देश क्यों नहीं रा. वा./८/२१/४९/५८० / ३ यथा तीर्थकर त्वं नामकर्मोच्यते तथा गणधरस्वानामुपसंख्यानं कर्तव्यस् गणधर चक्रघरमा अि विशिष्ट इति चेदः सम्म कि कारणम् अन्यनिमित्तखात् । गणत्वं ज्ञानावरणायोपशमप्रकर्ष निमित्तम् चक्र दरवादोनि उच्चैर्गोत्रविशेषहेतुकानि । - प्रश्न- जिस प्रकार तीर्थ करव नामकर्म कहते हो उसी प्रकार गणधरख आदि नामकमका उल्लेख करना चाहिए था; क्योकि गणधर चक्रधर, वासुदेव, और बलदेव भी विशिष्ट ऋद्धिसे युक्त होते है। उत्तर- नही, क्योंकि, वे दूसरे निमित्तो से उत्पन्न होते है । गणधरत्वमे तो श्रुतज्ञानावरणका प्रकर्ष क्षयोपशम निमित्त है और चक्रधरत्व आदिकोमे उच्चगोत्र विशेष हेतु है नामनिक्षेप ५. देवगतिमें मवनवासी आदि सर्वभेद नाम कर्मकृत हैं रा. वा /४/१०/३/२१६/६ सर्वे ते नामकर्मोदयापादितविशेषा वेदितव्या'। रा. वा. /४/११/३/२१७/१८ नामकर्मोदय विशेषतस्तद्विशेषसंज्ञा' ।... किन्नरनामकर्मोदयारिक किपुरुषनामकर्मोदयात किरुमा इयादि । रा. बा./१/१२/३/२१०/१० मा विशेष पूर्ववनिवृतिर्वेदितव्यादेवगतिनामकर्म विशेषोदयादिति । =वे सब ( असुर नाग आदि भवनवासी देवोके भेद ) नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुए भेद जानने चाहिए। नामकर्मोदयकी विशेषता ही वे (पतर देवी के किन्नर आदि) नाम होते हैं जैसे किन्नर नामकर्म के उदयसे किन्नर और किपुरुष नामकर्म के उदयसे याद उन ज्योतिषी देनोंकी भी पूर्वी 'ति जाननी चाहिए अर्था (सूर्यचन्द्र आदि भी) देवगति नामकर्म विशेषके उदयसे होते हैं। 1 ६. नामकर्मके अस्तित्वकी सिद्धि ध. ६/१,६-१,१०/१३/४ तस्स णामकम्मस्स अत्थितं कुदोवगम्मदे | सरीरठाणादिकभेदणाणुनयसीदो प्रश्न उस नामकर्मका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? उत्तर- शरीर, संस्थान, वर्ण आदि कार्योंके भेद अन्यथा हो नहीं सकते हैं। म. ७/२.१.११/००/१ कारणेण विना कज्यापमुप्पत्ती अस्थि । दोसंति विउ-उ-बाद-दिवसकाहादिसु अमेगाणि कज्जाणि । तदो कज्जमेत्ताणि चैव कम्माणि वि अस्थि ति णिच्छाओ काव्वो । कारणके बिना तो कार्यकी उत्पत्ति होती नहीं है। और पृथिवी, अ, तेज, वायु, वनस्पति और उसकायिक आदि जीयो में उनको उक्त पर्यायरूप अनेक कार्य देखे जाते है। इसलिए जितने कार्य है उतने उनके कारणरूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए । ७. अन्य सम्बन्धित विषय २. नामकर्मके उदाहरण २. नामकर्म प्रकृतियोंमें शुभ-अशुभ विभाग । ३. शुभ-अशुभ नामकर्मके बन्धयोग्य परिणाम ४. नामकर्मकी बन्ध उदय सत्य प्ररूपणार्थे ५. जीव विपाकी भी नामकर्मको अवाती कहनेका कारण। । नामकर्म क्रिया दे० संस्कार/ २० नाम नय (दे० नर्वे ///३) नाम निक्षेप - १. नाम निक्षेपका लक्षण ६. गविनाम कर्म जन्मका कारण नहीं आयु है WAT -३० प्रकृतिगंध / ३ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - दे० प्रकृतिबंध / २ । - दे० पुण्य पाप । दे० यह वह नाम । - दे० ३० अनुभाग /३ । ३० आयु / २ स.सि./१/५/१०/४ अक्षगुणे वस्तुनि संव्यवहारार्थं पुरुषकारानियुज्य मानं संज्ञाकर्म नाम संज्ञा के अनुसार जिसमे गुण नहीं हैं ऐसी वस्तु अवहार के लिए अपनी इच्छासे की गयी संज्ञाको नाम ( नाम निक्षेप) कहते है । (स. सा./आ /१३/क. ८ की टीका); (पं ध/ ५. ०४२)। रा. वा / १/५/१/२०१४ निमिषादम्यनिमित निमित्तान्तरम्, तदमपेक्ष्य किमया सहा नामत्युच्यते यथा परमेश्वर्यन्दन कियानिमित्तान्तरानपेक्षं कस्यचित् इन्द्र इति नाम । = निमित्तसे जो अन्य निमित्त होता है उसे निमित्तान्तर कहते है । उस निमित्तान्तरकी अपेक्षा न करके [ अर्थात् शब्द प्रयोगके जाति, गुण, क्रिया आदि निमित्तों की अपेक्षा न करके लोक व्यवहारार्थ ( श्लो. वा. ) ] की जानेवाली संज्ञा नाम है। जैसे--परम ऐश्वर्यरूप इन्दन क्रियाकी Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८५ अपेक्षा न करके किसीका भी 'इन्द्र' नाम रख देना नाम निक्षेप है । (खोला २/९/२/ १-१०/१६६) (गो. ५२/३२) (तसा / १/१०) नाममाला २ नाम निक्षेपके भेद " खं. १३/५,३/ सूत्र ६/८ जो सो णामफासो णाम सो जीवस्स वा अजीवस्वा जोवाणं वा अजीवाणं वा जोवस्स च अजीवस्स च जीवस्स च अजीवाणं च जीवाणं च अजीवस्स च जीवाणं च अजीवाण च जम्स णाम कीरदि फार्मेत्ति सो सव्वो णामफासो णाम । = - जो वह नाम स्पर्श है वह एक जीव, एक अजीव, नाना जीव, नाना अजीव एक जीव एक अजीव एक जीव नाना अजीव, नाना जीव एक अजीव, तथा नाना जीव नाना अजीव; इनमेंसे जिसका 'स्पर्श' ऐसा नाम किया जाता है वह सब नाम स्पर्श है। नोट - ( यहाँ स्पर्शका प्रकरण होनेमे 'स्पर्श' पर लागू कर नाम निक्षेपके भेद किये गये हैं। पु. में 'कृति' पर लागू करके भेद किये गये है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जान लेना । धवला में सर्वत्र प्रत्येक विषयमे इस प्रार निक्षेप किये गये है ।) (ष. खं. ६/४.१ / सू. ५१ / २४६), (ध. १५ / २ / ४) । ३. अन्य सम्बन्धित विषय २. नाम निक्षेप शब्दस्पर्शी है। २. नाम निक्षेपका नयोंमें अन्तर्भाव । ३ नाम निक्षेप व स्थापना निक्षेपमें अन्तर । नाममाला बर्षादको शब्दकोश' । नाम सत्य — दे० सत्य । नाम सम० निक्षेप // नारकी - दे० नरक / १ नारद - १ प्रत्येक कल्पकालके नौ नारदोका निर्देश व नारदकी उत्पत्ति स्वभाव आदि - (दे० शलाकापुरुष / ७) । २. भावी कालीन २१ वे 'जय' तथा २२ वे 'विमल' नामक तीर्थकरोके पूर्व भवों के नाम- दे० तीर्थंकर / - दे० नय/1/५/३। - दे० निक्षेप / २.३ । -दे० निक्षेप /४ | - नासिंह जैनधर्म के अति एक यादव व होयसळवंशीय राजा थे। इनके मन्त्रीका नाम हुल्लराज था। ये विष्णुवर्द्धन प्रथमले उत्तराधिकारी थे और इनका भी उत्तराधिकारी बल्लाल देव था । समय - श. सं. २०५०-१०८५ (ई० ११२८-११६३) नाराच - दे० संहनन । नारायण ९. नव नारायण परिचय दे० शलाकापुरुष / ४ । २. लक्ष्मणका अपर नाम -- दे० लक्ष्मण । नारायणमत दे० अज्ञानवाद | नारी-१, वीके अर्थ में ० स्त्री २ खण्ड भरत क्षेत्रकी एक नदी - दे० मनुष्य / ४ । ३. रम्यकक्षेत्रकी एक ग्रधान नदी -दे० लोक / ३ / ११ । ४, रम्यक क्षेत्रस्थ एक कुण्ड जिसमें से नारी नदी निकलती है- दे० लोक/३/१० । ५-उपरोक्त कुण्डकी स्वामिनी देवी - दे० लोक / ३ / १० / भा० २०७४ नारोकूट - रा. वा. की अपेक्षा रुक्मि पर्वतका कूट है और ति प. की अपेक्षा नील पर्वतका कूट है। दे० लोक/५/ नालिका पूर्वी खण्डको एक नदी दे० मनुष्य /४ नाली - क्षेत्र व कालका प्रमाण विशेष । दे० गणित //१/४ | 1 नि.कांक्षित नासारिक - भरतक्षेत्र पश्चिमी आर्यखण्डका एक देश - दे० मनुष्य / ४ । नास्तिक बाद ० चाक मौ व नास्तिक्यसि.वि./मू./४/१२/२७१ तत्रेति द्वेधा नास्तिक्यं प्रज्ञासत् प्रज्ञप्तिसत् । तथादृष्टमदृष्टं वा तत्त्वमित्यात्मविद्विषाम् । नास्तिव्य दो प्रकारका है - प्रज्ञासत् व प्रज्ञप्तिसत्, अर्थात् बाह्य व आध्यात्मिक । बाह्यमें दृष्ट घट स्तम्भादि ही सत् है, इनसे अतिरिक्त जीव अजीवादि तत्त्व कुछ नहीं है, ऐसी मान्यतावाले चार्वाक प्रज्ञासत नास्तिक है । अन्तरंगमें प्रतिभासित संवित्ति या ज्ञानप्रकाश ही सत् है, उससे अतिरिक्त बाह्यके घट स्तम्भ आदि पदार्थ अथवा जीब अजीव आदि तत्व कुछ नहीं है. ऐसी मान्यतावाले सौगत (मोड) प्राप्ति सव नास्तिक है। नास्तित्व नय- दे०/५ - नास्तित्व भंग - दे० सप्तभंगी / ४ । नास्तित्व स्वभाव आ. प./६ परस्वरूपेणाभावान्नास्तिस्वभाव' । - पर स्वरूपसे अभाव होना सो नास्तित्व स्वभाव है। जेसे-घट पटस्वभावी नहीं है । 52 - अन्यका अन्यरूपसे न , न च वृ./६१ असंततच्चा हु अण्णमण्णेण । होना ही असत् स्वभाव है। निकषाय-कालीन १८ अ नाम मिनभ दे० तीर्थंकर/२ 1 निःकांक्षित - १ निःकांक्षित गुणका लक्षण १ व्यवहार लक्षण म. सा./२२० जो करेदि के कम्मम्मे सो freita | चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो । २३०1- जो चेतयिता कर्मो के फलोके प्रति तथा (बौद्ध, चार्वाक, परिवाजक आदि अन्य (दे० नीचे के उद्धरण) सर्व धर्मोके प्रति कांक्षा नही करता है, उसको निष्कास सम्यष्टि कहते है। मू. आ./२४६-२५१ तिविहा य होइ करवा इह परलोए तथा कुधम्मे य । तिविहं पिजो ण कुज्जा दंसणसुद्रीमुपगदो सो । २४६१ बलदेव चक्कनट्टीसेट्ठीरायणादि अपिलमा साभिमादी सो 1२५०१ रत्तवडचरगताव सपरिवत्तादीण मण्णतित्थीणं धम्मा य अहिलासो कुधम्मकंवा हवदि एसा । २५११ = अभिलाषा तीन प्रकारकी होती है - इस लोक संबन्धी, परलोक सम्बन्धो, और कुधर्मो सम्बन्धी । जो ये तीनों ही अभिलाषा नहीं करता वह सम्यग्दर्शनकी शुद्धिको पाता है । २४६| इस लोक में बसवेष चक्रवर्ती सेठ आदि बनने या राज्य पानेकी अभिलाषा इस लोक सम्बन्धी अभिलाश है । परलोक में देव आदि होनेकी प्रार्थना करना परलोक सम्बन्धी अभिलाषा है। ये दोनों हो दर्शनको घातनेवाली है | २५०१ रक्तपट अर्थात मोचा, तापस, परिवाजक आदि अन्य धर्मवाली के धर्म मे अभिलाषा करना सी धमक है ।२४९ (१. था. १२) (रा.वा./३/२४/१/५२६/६ ) ( चा. सा/२/५) (पू. सि. उ. २४ ) ( प ध . /उ. / ५४७ ) का. अ./मू./४१६ जो सग्गसुहणिमित्तं धम्मं णायरदि दूसहतवेहि । मोक्खं समीहमाणो णिक्करखा जायदे तस्स |४१६ | = दुर्धर तपके द्वारा मोक्षकी इच्छा करता हुआ जो प्राणी स्वर्गसुखके लिए धर्मका आच रण नही करता है उसके निकांक्षित गुण होता है। ( अर्थात् सम्यदृष्टि मोक्षकी इच्छा तपादि अनुष्ठान करता है न कि इन्द्रियोंके भोगोंकी इच्या) (पं.../५४०) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशंकित ज्ञानपूजातपश्चरणादिकरण ... .टी./४१/१०१/४ इहलोक परलोकाशरूपगाकार, सानिदानत्यागेन केवलज्ञानायनन्तगुणव्यतिरमोक्षार्थ निष्काक्षागुणः कथ्यते । • इति व्यवहार निष्काडू क्षितगुणो विज्ञान तव्य । = इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी आशारूप भोगाकांक्षानिदानके त्यागके द्वारा केवलज्ञानादि अनन्तगुणोकी प्रगटतारूप मोक्षके लिए ज्ञान, पूजा, तपश्चरण इत्यादि अनुष्ठानोंका जो करना है, वही निष्कांक्षित गुण है। इस प्रकार व्यवहार निष्कांक्षित गुणका स्वरूप जानना चाहिए । २. निश्चय लक्षण प्र. सं./टी./४१/१०२/८ निश्चयेन पुनस्तस्यैष व्यवहारनिष्कासा गुणस्य सहकारिश्वेन दृश्यभयागेन निश्चयरत्नभावनोत्पन्नमारमाथि कामोत्थामृतरसे चित्ससंतोष स एवं निष्काहातून इति । निश्चयसे उसी व्यवहार निष्कांक्षा गुणकी सहायता से देखे सुने तथा अनुभव किये हुए जो पाँचों इन्द्रियों सम्बन्धी भोग हैं इनके त्यागसे तथा निश्चयरत्नत्रयकी भावनाये उत्पन्न जो पारमार्थिक निजात्मोत्थ सुखरूपी अमृत रस है, उसमें चित्तको संतोष होना निष्कांक्षागुण है। २. क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि सर्वथा निष्कांक्ष नहीं होता दे. अनुभाग २/६/३ (सम्यक्रय प्रकृतिके उदय वश वेदक सम्यग्दृष्टिकी स्थिरता व निष्कक्षिता गुणका बात होता है।) * मोगाकांक्षा के बिना भी सम्यग्दष्टि प्रवादि क्यों करता 'दे० राग/६ । * अभिलाषा या इच्छाका निपेध - दे. राग । निःशंकित - १. निःशंकित गुणका लक्षण १. निश्चय लक्षण- सप्तभय रहितता स.सा./ /१२ सम्मदिट्ठी जीवा जिसका होति विन्धया। सतभयविमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका | २२८ | सम्यग्दृष्टि जीव निशंक होते हैं. इसलिए निर्भय होते हैं। क्योंकि वे भयों से रहित होते हैं इसलिए निःशंक होते हैं (रा. वा./६/२४/१/५२६/०) (चा. सा./४/३ ) ( पं. ध. /उ. / ४८९ ) । 4 स.सा./आ / २२७/क. १५४ सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कतु क्षमन्ते पर, यद्वजेऽपि पतश्वमी भवतालोक्यमुक्तवनि। सर्वामेव निसर्गनि भयतया शङ्कां विहाय स्वयं जागन्छ स्वगयोधनपुर्योधाय वन्तो न हि । ९५४ | जिसके भयसे चलायमान होते हुए, तीनों लोक अपने मार्ग को छोड देते हैं ऐसा पात होनेपर भी ये सम्पतिजीव स्वभावतः निर्भय होने, समस्त शंकाको छोड़कर स्वयं अपनेअवध्य ज्ञानशरीरी जानते हुए, ज्ञानसे च्युत नहीं होते। ऐसा परम साहस करनेके लिए मात्र सम्बन्दृष्टि ही समर्थ है। विशेष ३० सं ९८६ सा. / आ. / २२८/क. ९५५ - १६० ) । प्र. सं. ४१/१०९ / ९ निश्चयनयेन पुनस्तस्यैव व्यमहारनिशङ्कितगुणस्य सहकारने त्राणगुप्तिव्याधिवेदनाकस्मिकाभिधानभयसप्तर्क मुक्त्वा घोरोपसर्ग परीषहप्रस्तावेऽपि शुद्धोपयोगलक्षण निश्चयरत्नत्रयभावेनैव निशकगुणो ज्ञातव्य इति । = निश्चय नयसे उस व्यवहार निःशंका गुणकी (देखो आगे) सहायतासे इस लोकका भय आदि सात भयाँ (दे० भय) को छोड़कर पोर उपसर्ग तथा परिषोंके आनेपर भी शुद्ध उपयोगरूप जो निश्चय रत्नत्रय है उसकी भावनाको ही निःशंका गुण जानना चाहिए। २. व्यवहार लक्षण - अर्हद्वचन व तत्त्वादिमें शंकाका अभाव मू. आ. / २४८ व य पदव्या एदे जिणदिट्ठा वण्णिदा मए तच्चा । तत्थ भवे जा सका दंसणघादी हवदि एसो । २४८ जिन भगवान् द्वारा = निःशंकित उपदिष्टये भी पदार्थ यथार्थ स्वरूपसे मैने (आ. बहकेर स्वामीने) वर्णन किये हैं। इनमें जो शंकाका होना यह दर्शनको पाटनेवाला पहिला दोष है । र. क. श्रा / ११ इदमेवेदृशमेव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा । इत्यकं पायसाभोवरसन्मार्गेऽसंशया रुचि |११| = वस्तुका स्वरूप यही है और नहीं है, इसी प्रकारका है अन्य प्रकारका नहीं है, इस प्रकारसे जैनमार्ग में तलवारके पानी ( आब) के समान निश्चल श्रद्धान निःशंकित अंग कहा जाता है । (का. अ./मू./ ४१५) । रा.वा./६/२४/९/२२६/६ अर्हदुपदिष्टेमा प्रवचने कमिदं स्याद्रा न बेति शकानिरासो निशङ्कितत्वम् अर्हन्त उपदिष्ट प्रवचन में 'क्या ऐसा ही है या नहीं है इस प्रकारकी शंकाका निरास करना पिना है (चा. सा./१/४): (पू. सि. उ. / २३) (का. अ./ सू./४१४) (अन. ध./२/०२/२००) । प्र. सं./टी./४९/१६६/९० रागाविशेषा अज्ञानं मासत्यवचनकारण दुभयमपि वीतरागसर्वज्ञानां नास्ति ततः कारणात यो पादेयतर मोले मोक्षमार्गे च संशयः संदेहो न कर्तव्य .. इदं व्यवहारेण सम्यक्त्वस्य व्याख्यानम् । = राग आदि दोष तथा अज्ञान ये दोनो असस्य भोलनेके कारण है और ये दोनों ही वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव नहीं हैं, इस कारण उनके द्वारा निरूपित हेयोपादेय तत्त्वमें मोक्षमे और मोक्षमार्ग में भव्य जीवोंको संशय नहीं करना चाहिए। यह व्यवहारनयसे सम्यक्त्वका व्याख्यान किया गया । पं. ४८२ अर्थमादत्र सुत्रार्थे शङ्का न स्यान्मनीषिणाम् । सूक्ष्मान्तरितदूरार्था स्युस्तदास्तिक्यगोचराः । सूक्ष्म अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ सम्यग्दृष्टिको आस्तिक्यगोचर है, इसलिए उसको इनके अस्तित्वका प्रतिपादन करनेवाले आगम में किसी प्रयोजनवश कभी भी शंका नहीं होती है। ते २. निःशंकित अंगकी प्रधानता अन.प./२/०३/२०१ सुरुचिः कृतनिश्चयोऽपि हन्तुं द्विषतमाश्रितः स्पृशन्तम्। उभर्थी जिनवाचि कोटिमाजी रणं योर इम प्रतीते मोहारिक रुचिपूर्वक इनका निश्चय करनेपर भी यदि जिन बचन विषयमें दोनों ही कोटियोंके संशयरूप ज्ञानपर आरूढ रहे. ( अर्थात् वस्तु अंशोंके सम्बन्ध में 'ऐसा ही है अथवा अन्यथा है' ऐसा संशय बना रहे ) तो इधर उधर भागनेवाले घोड़ेपर आरूढ योद्धावत् वैरियों द्वारा मारा जाता है अर्थात मिथ्यात्वको प्राप्त होता है । www ३. क्षयोपशम सम्यग्दृष्टिको कदाचित् तत्वोंमें सन्देह होना सम्भव है। क. पा. ९/११/१२६/३ संसयनिवासाज्यवसायभायगयगण हरदेव पडपट्टमाणसहावा ! - गणधरदेव के संशय विपर्यय और अनध्यवसाय भावको प्राप्त होनेपर (उसको दूर करनेके लिए उनके प्रति प्रवृ करना (दिव्यध्वनिका) स्वभाव है । ३० अनुभाग ४ सम्यग्दर्शनका दान नहीं करनेवाला संदेह सम्यम्प्रकृतिके उदयसे होता और सर्वघातीसंदेह मिथ्यात्व के उदयसे होता है। ★ सम्यग्दृष्टिको कदाचित् अन्ध श्रद्धान भी होता है - दे० श्रद्धान / २ ॥ ★ भयके भेद व लक्षण ४. सम्यग्दष्टिको मय न होनेका कारण व प्रयोजन स.सा./आ/२८८/क. १५५ लोक. शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तामनचोक स्वयमेन केवलमये लोकमत्येककः लोकोऽयं न जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशल्य अष्टमी व्रत ५८७ निंदा रोग व शोकके दु.खोंसे और सप्त भयोंसे रहित अविनाशी तथा कल्याणमय शुद्ध सुख निःश्रेयस कहा जाता है। ति. पं./१/४६ सोकवं तित्थपराणं कप्पातीदाण तह य ईदियादीदं । अतिसयमादसमुत्थं णिस्सेयसमणुवमं परमं ।४६। तीर्थंकर (अर्हन्त ) और कल्पातीत अर्थात् सिद्ध, इनके अतीन्द्रिय, अतिशयरूप, आत्मोत्पन्न, अनुपम और श्रेष्ठ सुखको नि'श्रेयस सुख कहते हैं। निःश्वास-१.श्वासके अर्थ में निःश्वास-दे० अपान । २. कालका __ प्रमाण विशेष-दे० गणित/I/१। निःसंगत्व-निःसंगवारम भावना क्रिया-दे० संस्कार/२। निःसृणात्मक-तैजस शरीर-दे० तैजस । निःसृत-मतिज्ञानका एक भेद-दे० मतिज्ञान/४। निदन-दे. निन्दा। निदा तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तगीः कुतो, निश्शक सततं स्वयं स सहज ज्ञान सदा विन्द ति ।१५।- यह चित्स्वरूप ही इस विविक्त आत्माका शाश्वत, एक और सकलव्यक्त लोक है, क्योकि मात्र चित्स्वरूप लोकको यह ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकाकी देखता हैअनुभव करता है। यह चित्रस्वरूप लोक ही तेरा है, उससे भिन्न दूसरा कोई लोक-यह लोक या परलोक-तेरा नहीं है, ऐसा ज्ञानी विचार करता है, जानता है। इसलिए ज्ञानीको इस लोक्का तथा परलोकका भय कहाँसे हो ? वह तो स्वय निरन्तर निशंक वर्तता। हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है। (कलश १५६-१६० मे इसी प्रकार अन्य भी छहो भयों के लिए कहा गया है। ) (पं. ध /उ/ ५१४१५२२,५२७,५३५.६४२, ५४६ ) । ५. सम्यग्दृष्टिका भय भय नहीं होता पं. ध./उ. श्लोक नं. परत्रात्मानुभूते विना भीति' कुतस्तनी। भीति. पर्यायमूढानां नात्मतत्त्व कचेतसाम् ।४६श ननु सन्ति चतस्रोऽपि संज्ञास्तस्यास्य कस्यचित् । अर्वाक् च तव परि (स्थिति) च्छेदस्थानादस्तित्वसंभवात् । ४६८। तत्कथं नाम निर्भीक' सर्वतो दृष्टिवानपि । अप्यनिष्टार्थसंयोगादस्त्यध्यक्ष प्रयत्नवान् ४ सत्यं भीकोऽपि निर्भीक्स्तत्स्वामित्वाद्यभावत' । रूपि द्रव्यं यथा चक्षुः पश्यदपि न पश्यति ।५०६। सम्यग्दृष्टि. सदै कत्वं स्वं समासादयन्निव । यावत्कर्मातिरिक्तत्वाच्छुद्धमत्येति चिन्मयम् ।।१२। शरीरं मुखदुःखादि पुत्रपौत्रादिक तथा । अनित्य कर्म कार्यत्वादस्वरूपमवैति य..१३॥ = निश्चय करके परपदार्थों में आत्मीय बुद्धिके बिना भय कैसे हो सकता है, अत' पर्यायों में मोह करनेवाले मिथ्यादृष्टियोंको हो भय होता है, केवल शुद्ध आत्माका अनुभव करनेवाले सम्यग्दृष्टियोंको भय नहीं होता प्रश्न-किसी सम्यग्दृष्टिके भीआहार भय मैथुन व परि- ग्रह ये चारों संज्ञाएँ होती है, क्योंकि जिस गुणस्थानतक जिस जिस संज्ञाकी व्युच्छित्ति नहीं होती है (दे० संज्ञा/८ ) उस गुणस्थान तक या उससे पहिलेके गुणस्थानोमें वे वे संज्ञाएँ पायी जाती हैं।४६८) इसलिए सम्यग्दृष्टि सर्वथा निर्भीक कैसे हो सकता है। और वह प्रत्यक्षमें भी अनिष्ट पदार्थ के संयोगके होनेसे उसकी निवृत्तिके लिए प्रयत्नवान् देखा जाता है। उत्तर-ठीक है; किन्तु सम्यग्दृष्टिके परपदार्थों में स्वामित्व नहीं होता है, अतः वह भयवान होकरके भी निर्भीक है। जैसे कि-चक्षु इन्द्रिय रूपी द्रव्यको देखनेपर भी यदि उधर उपयुक्त न हो तो देख नहीं पाता ।५००। सम्यग्दृष्टि जीव सम्पूर्ण कर्मोंसे भिन्न होनेके कारण अपने केवल सत्स्वरूप एकताको प्राप्त करता हुआ ही मानो, उसको शुद्ध चिन्मय रूपसे अनुभव करता है १५१२। और वह कर्मोके फलरूप शरीर सुख दुख आदि तथा पुत्र पौत्र आदिको अनित्य तथा आत्मस्वरूपसे भिन्न समझता है ।।१३। [इसलिए उसे भय कैसे हो सकता है-(दे० इससे पहलेवाला शीर्षक)] (द. पा./पं. जयचन्द/२/११/३)। द. पा./पं. जयचन्द/२/११/१० भय होते ताका इलाज भागना इत्यादि करै है, तहाँ वर्तमानकी पीड़ा नहीं सही जाय तातै इलाज क्रै है। यह निबंलाईका दोष है। * संशय अतिचार व संशय मिथ्यात्वमें अन्तर -दे० संशय/५। निःशल्य अष्टमी व्रत-१६ वर्ष पर्यन्त प्रति भाद्रपद शुक्ला को उपवास करे। तीन बार देव पूजा करे। तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य. करे। (बत विधान संग्रह/पृ. १०१) (किशनसिह क्रियाकोश)। निःश्रेयसर. क. पा./१३१ जन्मजरामयमरणैः शोकैर्दुःस्वैर्भयैश्च परिमुक्तं। निर्वाणं शुद्धसुत्रं निःश्रेयसमिष्यते नित्यं ।१३११ - जन्म जरा मरण १. निन्दा व निन्दनका लक्षण स. सि./६/२५/३३६/१२ तथ्यस्य वातथ्यस्य वा दोषस्योद्भावनं प्रति इच्छा निन्दा। सच्चे या झूठे दोषोंको प्रगट करनेकी इच्छा निन्दा है। (रा, वा./६/२५/१/५३०/२८) । स. सा./ता. वृ./३०६/३८८/१२ आत्मसाक्षिदोषप्रकटनं निन्दा। = आत्म साक्षी पूर्वक अर्थात् स्वयं अपने किये दोषोंको प्रगट करना या उन सम्बन्धी पश्चात्ताप करना निन्दा कहलाती है। (का, अ./टी./८/ २२/१५) । न्या.द./भाष्य/२/१/६४/१०१/ अनिष्टफलवादो निन्दा |-अनिष्ट फलके कहनेको निन्दा कहते है। पं.ध./उ./४७३ निन्दनं तत्र दुर्वाररागादौ दुष्टकर्मणि । पश्चात्तापकरो बन्धो ना नो] पेक्ष्यो नाप्यु (प्य) पेक्षित' 1४७३।- दुरि रागादिरूप दुष्ट कर्मोंका पश्चात्ताप कारक बन्ध अनिष्ट होकर भी उपेक्षित नहीं होता। अर्थात अपने दोषोका पश्चात्ताप करना निन्दन है। २. पर निन्दा व आत्म प्रशंसाका निषेध भ आ./मू./गा. नं. अप्पपसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा। अप्पाणं थोक्तो तणलहुहो होदि हु जणम्मि ।३५१। ण य जायंति असंता गुणा विकत्थं तयस्स पुरिसस्स। धन्ति हु महिलायंतो व पंडवो पंडवो चैव ॥३६२। सगणे व परगणे वा परपरिवादं च मा करेजाह। अच्चासादणविरदा होह सदा वज्जभीरू य ३६। दट ठूण अण्णदोसं सप्पुरिसो लज्जिओ सय होइ। रक्खइ य सयं दोसं व तयं जणजेपणभएण ।३७२१-हे मुनि ! तुम सदाके लिए अपनी प्रशंसा करना छोड़ दो; क्योकि, अपने मुखसे अपनी प्रशंसा करनेसे तुम्हारा यश नष्ट हो जायेगा । जो मनुष्य अपनी प्रशंसा आप करता है वह जगत् में तृणके समान हलका होता है ।३५६। अपनी स्तुति आप करनेसे पुरुषके जो गुण नहीं हैं वे उत्पन्न नहीं हो सकते। जैसे कि कोई नपुंसक स्त्रीवव हावभाव दिखानेपर भी स्त्री नहीं हो जाता नपुंसक ही रहता है ।३६२। हे मुनि । अपने गणमे या परगणमें तुम्हें अन्य मुनियोकी निन्दा करना कदापि योग्य नहीं है। परकी विराधनासे विरक्त होकर सदा पापोंसे विरक्त होना चाहिए ।३६६॥ सत्पुरुष दूसरोंका दोष देखकर उसको प्रगट नहीं करते हैं, प्रत्युत लोकनिन्दाके भयसे उनके दोषों को अपने दोषोंके समान छिपाते हैं। दूसरोंका दोष देखकर वे स्वयं लज्जित हो जाते हैं ।३७२। र.सा./११४ ण सहति इयरदप्पं थुवंति अप्पाण अप्पमाहप्पं । जिब्भणिमित्त कुणं ति ते साहू सम्मउम्मुक्का ।११४ =जो साधु दूसरेके बड़प्पनको जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निदा ५८८ निदा सहन नहीं कर सकता और स्वादिष्ट भोजन मिलनेके निमित्त अपनी महिमाका स्वयं बखान करता है, उसे सम्यक्त्वरहित जानो। कुरल काव्य/१६/२ शुभादशुभसंसक्तो नूनं निन्द्यस्ततोऽधिक । पुर' प्रियंवद' किंतु पृष्ठे निन्दापरायण ।। -सत्कर्मसे विमुख हो जाना और कुकर्म करना निस्सन्देह बुरा है। परन्तु किसीके मुख पर तो हँसकर बोलना और पीठ-पीछे उसकी निन्दा करना उससे भी बुरा है। त. सू./६/२५ परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचै गोत्रस्य ।२३॥ = परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणोका आच्छादन या ढंकना और असद्गुणोंका प्रगट करना ये मीच गोत्रके आस्रव हैं। स. सि./६/२२/३३७/४ एतदुभयमशुभनामकर्मासबकारण वेदितव्यं । च शब्देन...परनिन्दात्मप्रशंसादिः समुच्चीयते। = ये दोनों (योगवक्रता और विसंबाद) अशुभ नामकर्मके आस्रवके कारण जानने चाहिए। सूत्र में आये हुए 'च' पदसे दूसरेकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करने आदिका समुच्चय होता है। अर्थात् इनसे भी अशुभ नामकर्म का आस्रव होता है । (रा.वा./६/२२/१/५२८/२१)। आ.अनु./२४६ स्वान् दोषान् हन्तुमुद्य क्तस्तपोभिरतिदुर्धरै. । तानेव पोषयत्यज्ञ' परदोषकथाशनैः १२४६। =जो साधु अतिशय दुष्कर तपोंके द्वारा अपने निज दोषोंके नष्ट करने में उद्यत है, बह अज्ञानतावश दूसरोंके दोषोंके कथनरूप भोजनोके द्वारा उन्हीं दोषोको पुष्ट करता है। दे० कषाय/१/७ (परनिन्दा व आत्मप्रशसा करना तीन कषायीके चिह्न हैं।) कम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ७६। -जो अडज, रोमज आदि पाँच प्रकारके वस्त्रोमें आसक्त है, अर्थात उनमे से किसी प्रकारका वस्त्र ग्रहण करते हैं और परिग्रहके ग्रहण करने वाले है ( अर्थात श्वेताम्बर साधु), जो याचनाशील है, और अध' कर्मयुक्त आहार करते हैं वे मोक्षमार्गसेच्युत है। आप्त. मी /७ त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तबादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धाना स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते। आपके अनेकान्तमत रूप अमृतसे बाह्य सर्वथा एकान्तवादी तथा आप्तपनेके अभिमानसे दग्ध हुए (सांख्यादि मत ) अन्य मतावलम्बियोके द्वारा मान्य तत्त्व प्रत्यक्षप्रमाणसे बाधित है। द, पा./टी/२/३/१२ मिथ्यादृष्टयः किल बदन्ति व्रतः कि प्रयोजनं,... मयूरपिच्छं किल रुचिर न भवति, सूत्रपिच्छं रुचिरं,.शासनदेवता न पूजनीयाः.. इत्यादि ये उत्सूत्रं मन्यते मिथ्यादृष्टयश्चार्वाका नास्तिकास्ते । यदि कदाग्रहं न मुञ्चन्ति तदा समर्थैरास्तिरुपानद्भिः थलिप्ताभिर्मुखे ताडनीयाः...तत्र पापं नास्ति। भा. पा./टी./१४१/२८७/३ लौंकास्तु पापिष्ठा मिथ्यादृष्टयो जिनस्नपनपूजनप्रतिबन्धकत्वात तेषां संभाषणं न कर्तव्यं तत्संभाषणं महापापमुत्पद्यते । मो. पा./टी./२/३०५/१२ ये गृहस्था अपि सन्तो मनागारमभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रवते ते जिनधर्म विराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः ।"ते लोकाः, तन्नामग्रहणं तन्मुखदर्शनं प्रभातकाले न कर्तव्यं इष्टवस्तुभोजनादिविघ्नहेतुत्वात् । -१. मिथ्यादृष्टि (श्वेताम्बर व स्थानकवासी) ऐसा कहते हैं कि-व्रतोंसे क्या प्रयोजन, आत्मा ही साध्य है । मयूरपिच्छी रखना ठीक नहीं, सूतकी पिच्छी ही ठीक है, शासनदेवता पूजनीय नहीं है, आत्मा ही देव है। इत्यादि सूत्रविरुद्ध कहते हैं। वे मिध्याहृष्टि तथा चार्वाक मतावलम्बी नास्तिक हैं। यदि समझानेपर भी वे अपने कदाग्रहको न छोडे' तो समर्थ जो आस्तिक जन है वे विष्ठासे लिप्त जूता उनके मुख पर देकर मारें। इसमें उनको कोई भी पापका दोष नहीं है । २. लौका अर्थात् स्थानकवासी पापिष्ठ मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक व पूजनका निषेध करते है। उनके साथ सम्भाषण करना योग्य नहीं है। क्योंकि उनके साथ संभाषण करनेसे महापाप उत्पन्न होता है। ३. जो गृहस्थ अर्थात् गृहस्थवत् वखादि धारी होते हुए भी किचित् मात्र आत्मभावनाको प्राप्त करके 'हम ध्यानी हैं' ऐसा कहते हैं, उन्हें जिनधर्मविराधक मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। वे स्थानकवासी या ढं ढियापंथी हैं। सवेरे-सवेरे उनका नाम लेना तथा उनका मुँह देखना नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसा करनेसे इष्ट वस्तु भोजन आदिकी भी प्राप्तिमें विघ्न पड़ जाता है। ३. स्वनिन्दा और परप्रशंसाकी इष्टता त. सू./६/२६ तद्विपर्ययो नीचैवृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ।२६॥ स. सि./६/२६/३४०१७ का पुनरसौ विपर्ययः । आत्मनिन्दा परप्रशंसा सद्गुणोद्भावनमसद्गुणोच्छादन च । -उनका विपर्यय अर्थात परप्रशंसा आत्मनिन्दा सद्गुणोका उद्भावन और असद्गुणोंका उच्छादन तथा नम्रवृत्ति और अनुत्सेक ये उच्चगोत्रके आस्रव हैं। (रा.वा./६/ २६/२/५३१/१७)। का.अ./मू./११२ अप्पाणं जो णिदइ गुणवंताणं रेइ बहुमाणं । मण इंदियाण विजई स सरूवपरायणो होउ ३११२१ =जो मुनि अपने स्वरूपमें तत्पर होकर मन और इन्द्रियोंको वशमें करता है, अपनी निन्दा करता है और सम्यक्त्व वतादि गुणवन्तों की प्रशंसा करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है। भा, पा./टी./48/२१३ पर उद्धृत-मा भवतु तस्य पापं परहितनिरतस्य पुरुषसिंहस्य । यस्य परदोषकथने जिह्वा मौनव्रत चरति । जो परहितमें निरत है और परके दोष कहने में जिसकी जिह्वा मौन व्रतका आचरण करती है, उस पुरुष सिंहके पाप नहीं होता। दे० उपगृहन ( अन्यके दोषोंका ढॉकना सम्यग्दर्शनका अंग है।) * सम्यग्दृष्टि सदा अपनी निन्दा गर्दा करता है –दे० सम्यग्दृष्टि/५। ४. अन्य मतावलम्बियोंका घृणास्पद अपमान द. पा./म./१२ जे दंसणेसु भट्टा पाए पाडंति दसणधराण । ते होति लल्लमूआ बोहि पुण दुल्लहा तेसि ।१२। -स्वयं दर्शन भ्रष्ट होकर भी जो अन्य दर्शनधारियों को अपने पॉवमे पडाते है अर्थात उनसे नमस्कारादि कराते हैं, ते परभवविष लुले व गंगे होते है अर्थात एकेन्द्रिय पर्यायको प्राप्त होते हैं । तिनको रत्नत्रयरूप बोधि दुर्लभ है। मो. पा./मू./७३ जे पंचचेलसत्ता ग्रंथग्गाही य जायणासीला । आधा- ५. अन्यमत मान्य देवी देवताओंकी निन्दा अ.ग.श्रा./४/६६-७६ हिंसादिबादकत्वेन न वेदो धर्मकाक्षिभिः। वृकोपदेशवन्नूनं प्रमाणीक्रियते बुधैः । न विरागा न सर्वज्ञा ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा। रागद्वेषमदक्रोधलोभमोहादियोगत ७१। आश्लिष्टास्ते ऽखिलैर्दोषै। कामकोपभयादिभि । आयुधप्रमदाभूषाकमण्डत्वादियोगत ७३. =धर्मके वांछक पण्डितोंको, खारपटके उपदेशके समान, हिंसादिका उपदेश देनेवाले वेदको प्रमाण नहीं करना चाहिए।६। ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर न विरागी है और न सर्वज्ञ, क्योंकि वे राग-द्वेष, मद, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि सहित हैं ।७१। ब्रह्मादि देव काम क्रोध भय इत्यादि समस्त दोषोसे युक्त हैं, क्योंकि उनके पास आयुध स्त्री आभूषण कमण्डलु इत्यादि पाये जाते हैं ७३॥ दे० विनय/४ ( कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रकी पूजा भक्ति आदिका निषेध । ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निंबदेव ६. मिध्यादृष्टियोंके लिए अपमानजनक शब्दका प्रयोग प्रमाण १ मू. आ. / ६५१ २.सा./१०८ २ पापा./१० ४ भा.पा./मू. ७१ ५.भा.पा./. Jug भा.पा./मू./९४३ ६ | मो.पा./मू /७६ ७ मो.पा./मू./१०० ८ लिंग पा./मू./३४ लिंग प. ४-१८ प्र.स. पू. २६६ १० ११ दे० भव्य / २ १२ ३० मिथ्यादर्शन १३ स.सा./खा./२०१ १४ १५ स सा / आ./८५ नि.सा./ता वृ./ व्यक्ति एकल बिहारी साधु स्वच्छन्द साधु सम्यक्त्वचरण से भ्रष्टसाधु मिथ्यादृष्टि नग्न साधु भावविहीन साधु मिध्यादृष्टि साधु श्वेताम्बर साधु मिध्यादृष्टिका लाग व चारित्र द्रव्य लिगी नग्न साधु " मन्त्रापजीवि नग्न साधु मिथ्यादृष्टि सामान्य बाह्य क्रियाबलम्बी आत्माको कर्मों आदि का कर्ता माननेवाले 92 अन्यवश साधु १४३ / क २४४ १६ यो. सा. / ८ / १८ - १६ लोक दिखावेको धर्म करनेवाले वेदांत 2 निकल निकल परमात्मा दे० परमात्मा /१ निकाचित व निधत - १ लक्षण - उपाधि पाप श्रमण राज्य सेवक ज्ञानमूढ इक्षु पुष्पसम नट श्रमण पाप व तिर्यगा लय भाजन अभव्य पाजीब लौकिक चल शब मोक्षमार्ग भ्रष्ट बाल श्रुत बाल चरण पापमोहितमति नारद, तिच तिर्यग्योनि लौकिक ५८९ सर्वमसे बाहर राजवल्लभ नौकर निवदेव - शिलाहार के नरेश गण्डरादित्य के सामन्त थे । उक्त नरेशका उलेख श. सं. १०३०-१०५८ तकके शिलालेखोंमे पाया जाता है । अत इनका समय - श. सं. २०३०-१०५८ ( ई १९०८ - ११३६ ) होता है। निर्कवेदांत मूढ, लोभी, क्रूर. डरपोक, सूखं भवाभिनन्दी मो./.जी. प्र./४४०/४६३ उदये संक्रमयुर मुवि दादु कमेण णो सकें। उपसंतं च णिति निकाचिदं होदिजं क्रम्मं । ... कर्मइयावयां निक्षेप्तं संक्रामयि चाशक्यं तज्ञिन्तिर्नाम । उदयावयां निक्षेप्तुं संक्रामयितुमुत्कर्षयितुमपकर्षयितुं चाशक्यं निचितं नाम भवति जो धर्म उदयालीमा परी या अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करनेको समर्थन जे सो नि कहिये। बहुरि जो धर्म उदयावी व प्राप्त करनेको वा अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करने की या उत्कर्षण करने को समर्थन जे सो निकाचित कहिए। २. निकाचित व निधत सम्बन्धी नियम गो.क./मू. व जी. प्र / ४५०/५६६ उवसतं च णिति णिकाचिदं तं गुणस्थानपर्यन्तमेव स्यात् तदुपरि निक्षेप गुणस्थानेषु यथासंभवं कामित्यर्थ उपशान्त, नित निका पित ये तीनो प्रकारके कर्म अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यंत ही है। ऊपर के गुणस्थानों में यथासम्भव शक्य अर्थात् जो उदयावली विधै प्राप्त करनेकू समर्थ हूजे ऐसे ही कर्म परमाणु पाइए है। ३ नित व निकाचित कमका मंजन भी सम्भव है भ. ६/९.१-१.२२/४९०१९ जिगमिव समेण धिस विकाचिदस्त भि मिच्छत्तादिकम्म कलावस्स खयदंसणादो । -जिनबिम्बके दर्शन से निधत और निकाचित रूप भी मिध्यात्वादि कर्मकलापका क्षय होता देखा जाता है। निकाय - --- - ( स. सि. /४/१/२३६/- ) देवगतिनामकर्मोदयस्य स्वकर्मविशेषापादितभेदस्य सामर्थ्यान्निचीयन्त इति निकायाः संघाता इत्यर्थ' । अपने अवान्तर कर्मोसे भेदको प्राप्त होनेवाले देवगति नामकर्मके उसकी सामने जो संग्रह किये जाते हैं ने निकाय कह साते है। (रा. बा/४/९/३/२११/११) । निक्कुन्दरी - भरतक्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी- दे० मनुष्य ४ ) । निकृति- मायाका एक भेद (दे० माया/२) निकृति बचन दे० वचन । निक्लोदिम–०५/५/१ निक्षिप्तनिक्षेप निक्षेप जिसके द्वारा वस्तुका ज्ञानमें क्षेपण किया जाय या उपचार से वस्तुका जिन प्रकारोंसे आक्षेप किया जाय उसे निक्षेप कहते है । सो चार प्रकारसे किया जाना सम्भव है- किसी वस्तुकै नाममें उस वस्तुका उपचार वा ज्ञान, उस वस्तुको मूर्ति या प्रतिमामे उस वस्तुका उपचार या ज्ञान वस्तुकी पूर्वापर पर्यायों में से किसी भी एक पर्याय मे सम्पूर्ण वस्तुका उपचार या ज्ञान तथा वस्तुके वर्तमान रूप में सम्पूर्ण वस्तुका उपचार या ज्ञान । इनके भी यथासम्भव उत्तरभेद करके वस्तुको जानने वजनानेका व्यवहार प्रचलित है। वास्तव में ये सभी भेद वक्ताका अभिप्राय विशेष होनेके कारण किसी न किसी नय में गर्भित हैं। निक्षेप विषय है और नय विषयी यही दोनों अन्तर है। आहारका एक दोष-३०४ उत्कर्षण अपकर्षण विधानमें जघन्य उत्कृष्ट निक्षेप । - दे० वह वह नाम 1 9 निक्षेप सामान्य निर्देश १ निक्षेप सामान्यका लक्षण । ३ ५ ६ निक्षेपके ४, ६ या अनेक भेद । चारों निक्षेपोंके लक्षण व मेद आदि । -दे० निक्षेप /४०७ प्रमाण नय और निक्षेपमें अन्तर । निक्षेप निर्देशका कारण व प्रयोजन । नयोंसे पृथक् निक्षेपका निर्देश क्यों । चारों निक्षेपका सार्थक्य व विरोध निरास । वस्तु सिद्धिमें निक्षेपका रुपान -दे० नय /I/३/७ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप १. निक्षेप सामान्य निर्देश ६ निक्षेपोका द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकमें अन्तर्भाव १ भाव निक्षेप पर्यायार्थिक है और शेष तीन द्रव्यार्थिक । २ | भावमें कथंचित् द्रव्यार्थिक और नाम व द्रव्यमें कथंचित् पर्यायार्थिकपना। ३-५ नामादि तीनको द्रव्यार्थिक कहनेमें हेतु। भावको पर्यायार्थिक व द्रव्यार्थिक कहने में हेतु । ३ निक्षेपोंका नैगमादि नयों में अन्तर्माव नयोंके विषयरूपसे निक्षेपोंका नाम निर्देश । तीनों द्रव्याथिक नयोंके सभी निक्षेप विषय कैसे ? ऋजुसूत्रके विषय नाम व द्रव्य कैसे ? ऋजुसूत्रमें स्थापना निक्षेप क्यों नहीं ? शब्दनयोंका विषय नाम निक्षेप कैसे ? शब्दनयोंमें द्रव्यनिक्षेप क्यों नहीं? नाम निक्षेप निर्देश । -दे० नाम निक्षेप। द्रग्यनिक्षेप निर्देश व शंकाएँ | द्रव्यनिक्षेपके लक्षण सम्बन्धी शंका। द्रव्यनिक्षेप व द्रव्यके लक्षणोंका समन्वय । -दे० द्रव्य/२/२ आगम द्रव्य निक्षेप विषयक शंकाएँ। । १. आगमद्रब्यनिक्षेपमें द्रव्य निक्षेपपनेकी सिद्धि । २. उपयोग रहितकी भी आगमसंज्ञा कैसे ? नोआगमद्रव्य निक्षेप विषयक शंकाएँ। १. नौआगममें द्रव्यनिक्षेपपनेकी सिद्धि। २. भावी नोआगम द्रव्य निक्षेपपनेको सिद्धि । ३-४. कर्म व नोकर्ममें द्रव्य निक्षेपपनेको सिद्धि। शायक शरीर विषयक शंकाएँ । १. त्रिकाल ज्ञायकशरोरमें द्रव्यनिक्षेपपनेकी सिद्धि । २ ज्ञायक शरीरोंको नोआगम संज्ञा क्यों? ३. भूत व भावी शरीरोंको नोआगमपना कैसे 1 द्रव्य निक्षेपके भेदोंमें परस्पर अन्तर । १. आगम व नोआगममें अन्तर । २. भावी ज्ञायकशरीर व भावी नोआगममें अन्तर। ३. ज्ञायकशरीर और तद्वथतिरिक्तमें अन्तर । ४. भाविनोआगम व तद्वय तिरिक्तमें अन्तर । 69 * स्थापनानिक्षेप निर्देश स्थापना निक्षेप सामान्यका लक्षण । स्थापना निक्षेपके भेद। स्थापनाका विषय मूर्तीक द्रव्य है। -दे० नय/५/३। सद्भाव व असद्भाव स्थापनाके लक्षण । अकृत्रिम प्रतिमाओमें स्थापना व्यवहार कैसे ? -दे० निक्षेप/५/७/६ । सद्भाव व असद्भाव स्थापनाके भेद । काष्ठकर्म आदि भेदोंके लक्षण । नाम व स्थापनामें अन्तर। सद्भाव व असद्भाव स्थापनामें अन्तर । स्थापना व नोकर्म द्रव्य निक्षेपमें अन्तर । भाव निक्षेप निर्देश व शंका आदि भावनिक्षेप सामान्यका लक्षण । भावनिक्षेपके भेद। आगम व नोआगम भावके भेद व उदाहरण । आगम व नोआगम भावके लक्षण । भावनिक्षेपके लक्षणकी सिद्धि । आगमभावमें भावनिक्षेपपनेकी सिद्धि । आगम व नोआगम भावमें अन्तर । द्रव्य व भाव निक्षेपमें अन्तर । द्रव्यनिक्षपके भेद व लक्षण १. निक्षेप सामान्य निर्देश द्रव्यनिक्षेप सामान्यका लक्षण । द्रव्यनिक्षेपके भेद-प्रभेद । आगम द्रव्यनिक्षेपका लक्षण । नो आगम द्रव्यनिक्षेपका लक्षण । ज्ञायक शरीर सामान्य व विशेषके लक्षण । भावि-नोआगमका लक्षण। तद्वयतिरिक्त सामान्य व विशेषके लक्षण । (१. सामान्य, २. कर्म, ३. नोकर्म, ४-५ लौकिक लोकोत्तर नोकर्म, ६. सचित्तादि नोकर्म तद्वयतिरिक्त) स्थित जित आदि भेदोंके लक्षण । ९ ग्रन्थिम आदि भेदोंके लक्षण । १. निक्षेप सामान्यका लक्षण रा, वा, १/१/-/२८/१२ न्यसनं न्यस्यत इति वा न्यासो निक्षेप इत्यर्थः । सौंपना या धरोहर रखना निक्षेप कहलाता है। अर्थात नामादिकों में वस्तुको रखनेका नाम निक्षेप है। ध.१/१,१.१/गा. १२/१७ उपायो न्यास उच्यते ।१११ -नामादिके द्वारा वस्तुमें भेद करनेके उपायको न्यास या निक्षेप कहते हैं । (ति.प./१/८३) ध.४/१,३,१/२/६ संशये विपर्यये अनध्यवसाये वा स्थित तेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः । अथवा बाह्यार्थ विकसपो निक्षेप. । अप्रकृतनिराकरणद्वारेण प्रकृतप्ररूपको वा = १. संशय, विपर्यय और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप अनध्यवसाय में अवस्थित वस्तुको उनसे निकालकर जो निश्चय में क्षेपण करता है उसे निलेप कहते हैं। अर्थाद जो अनिर्णीत वस्तुका नामादिक द्वारा निर्णय करावे, उसे निक्षेप कहते हैं (क. पा. २/१२/ ४७५/४२५/७); (घ. १/१,१.१/१०/४); (ध. १३/५.३.५/३/११); (ध. १३/ १०६.३/११८/४), (और भी दे० निलेप/१/३) २ अथभा माहरी पदार्थके विकल्पको निक्षेप कहते है। (ध. १३/५.५.३/१६८/४) । ३. अथवा अप्रकृतका निराकरण करके प्रकृतका निरूपण करनेवाला निक्षेप है । (और भी दे० निक्षेप १/४): (. ६/४.१.४६/९४९१९); ( . १३/२२.३/ १६८/४ ) आ. प./६ प्रमाणनययोनिक्षेप आरोपणं स नामस्थापनादिभेदचतुर्विधं इति निक्षेपस्य व्युत्पत्तिः । = प्रमाण या नयका आरोपण या निक्षेप नाम स्थापना आदिरूप चार प्रकारोसे होता है। यही निक्षेपकी व्युत्पत्ति है। न. च. / भूत / ४९ वस्तु नामादिषु क्षिपतीति निक्षेपका नामादिकमें क्षेप करने या धरोहर रखनेको निक्षेप कहते है । न. च. वृ./२६६ जुती सुजुत्तमरगे जं चउभेयेण होइ खलु ठेवणं । वज्जे सदि णामादिसु तं क्खेिवं हवे समये | २६६ | = युक्तिमार्गसे प्रयोजनवश जो वस्तुको नाम आदि चार भेदोमें क्षेपण करे उसे आगम में निक्षेप कहा जाता है। २. निक्षेपके भेद १. चार भेद त. सू./१/५ नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्त्र्यास' नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूपसे उनका अर्थात् सम्यग्दर्शनादिका और जीव आदिका न्यास अर्थात् निक्षेप होता है। (ष. वं. १३/५,५/सू. ४/१६८); (ध. १/ १,१,१/८३/१): (ध. ४/१,३,१/गा. २ / ३); (आ. प./१); (न.च.वृ./२७१); (न. ४) (गो.क./ १२ / ५२) (१.ध.पू. /०४९)। २. छह भेद १४/५.६/ सूत्र ०९/११ क्लेयेति शब्बिहे नगर णामवग्गणा ठेवणवग्गणा दव्ववग्गणा खेत्तवग्गणा कालवग्गणा भाववग्गणा चेदि । वर्गणानिक्षेपका प्रकरण है। वर्गणा निक्षेप छह अकारका है - नामवर्गणा, स्थापनावर्गणा, द्रव्यवर्गणा, क्षेत्रवर्गणा, कालवण और मानवर्गणा । (च. १२/१.१.१/१०/४) । नोट-पट्खण्डागम व धमला सर्वत्र प्रायः इन छह निक्षेपोंके आध्यसे ही प्रत्येक प्रकरणकी व्याख्या की गयी है । ३. अनन्त भेद श्लो. वा./२/१/५/ श्लो. ७१ / २८२ नन्वनन्तः पदार्थानां निथेपो वाच्य इत्यन् । नामादिष्वेव तस्यान्तर्भावात्संक्षेपरूपत 1७१ - प्रश्नपदार्थोंके निक्षेप अनन्त कहने चाहिए । उत्तर- उन अनन्त निक्षेपका संक्षेपरूपसे चार में ही अन्तर्भाव हो जाता है। अर्थात् संक्षेपसे निक्षेप पार हैं और विस्तारसे अनन्त (भ. १४/५.६७१/५९/१४) ४. निक्षेपके भेद प्रभेदोंकी तालिका ५९१ I जाति द्रव्य गुण क्रिया I समवाय ' I नाम स्थापना एक जीव नाना जीव २एक अजीव ३ नाना अजीव ४ एक जीव ५एक अजीब एक जीव ६नाना अजीव नाना जीव ७एक अजीव संयोग असद्भाव 1 नाना जीव ८नाना अजीव ५. सूत्रसम ६. अर्थसम १. स्थित २. जित ३. परिचित ४. वचनोपगत ७. ग्रन्थसम ८. नामसम १. घोषसम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश आगम | अक्ष निक्षेप 1 1 द्रव्य इसके भेद प्रभेद दे० नीचे * वराटक १. काष्ठ कर्म २. चित्र कर्म ३. पोत कर्म ४. लेप्य कर्म ५. लयन कर्म ६. पीस कर्म प्रत्याख्यान ७. गृह कर्म ८. भित्ति कर्म ६. दन्त कर्म १०. भेड कर्म इत्यादि (*) निक्षेप च्युत च्यावित व्यक्त 1 I I भक्त- इंगिनी प्रा २. परिचित १. निक्षेप सामान्य निर्देश सद्भाव 1 क्षेत्र ४ वचनोपगत ५. सूत्रसम ६. अर्थ सम ७. ग्रन्थसम योपगमन ९. स्थित २. जित ८. नामसम ६. घोषसम - T काल ज्ञायक शरीर भावी तद्व्यतिरिक्त I / 1 1 T भूत वर्तमान भावी कर्म नोकर्म 1 T│││T आगम नोआगम 2 उपयुक्त तत्प रिणत १. स्थित २. जित ३. परिचित ४. वचनो पगत ५. सूत्रसम ८. अर्थसम ७. ग्रन्थसम ८ नामसम६. घोषसम नोआगंम I लौकिक लोकोत्तर I 1 T सचित्त अचित्त मिश्र १. प्रथम भाव २. वाइम ३. वेदम ४. पूरिम ५. संघातिम ६. अहोदिम ७. क्खेिदिम ओव्वे लिम ८. ६. उद्द लिम १०. वर्ण ११. चूर्ण १२. गन्ध १३. विलेपन इत्यादि नोट - इन सर्वभेद प्रभेदों के प्रमाणों के लिए - दे० वह वह निक्षेप निर्देश Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप ५९२ १. निक्षेप सामान्य निर्देश ३. प्रमाण नय व निक्षेपमें अन्तर तो प्रकृत वस्तुके निर्णयके लिए सम्पूर्ण निक्षेपोका कथन किया जाता __ है। (और भी दे० आगे निक्षेप/१/५) । ति, प./१/८३ णाणं होदि पमाणं णओ वि णादुस्स हिदियभावस्थो। ___स. सि./१/५/११/१ निक्षेपविधिना शब्दार्थ प्रस्तीर्यते । = किस शब्दका णिखेओ वि उवाओ जुत्तीए अस्थपडिगहणं ।। -सम्यग्ज्ञानको __ क्या अर्थ है, यह निक्षेपविधिके द्वारा विस्तारसे बताया जाता है । प्रमाण और ज्ञाताके हृदयके अभिप्रायको नय कहते है । निक्षेप उपाय रा, वा./१/१/२०/३०/२१ लोके हि सर्व मादिभि सव्यवहारः।स्वरूप है। अर्थात् नामादिके द्वारा वस्तुके भेद करनेके उपायको एक ही वस्तुमें लोक व्यवहार में नामादि चारों व्यवहार देखे जाते हैं। निक्षेप कहते है। युक्तिसे अर्थात् नय व निक्षेपसे अर्थका प्रतिग्रहण (जैसे- 'इन्द्र' शब्दको भी इन्द्र कहते हैं। इन्द्रकी मूर्तिको भी इन्द्र करना चाहिए ।८३। (ध. १/१,१.१/गा. ११/१७); कहते है, इन्द्रपदसे च्युत होकर मनुष्य होनेवालेको भी इन्द्र कहते हैं न. च. वृ./१७२ वत्थू पमाण विसयं णयविसयं हवइ वत्थुपयंसं । जं और शचीपतिको भी इन्द्र कहते है )(विशेष दे० आगे शीर्षक.नं.६) दोहि णिण्णयट्टं तं णिक्वेवे हवे विसयं ।१२। सम्पूर्ण वस्तु प्रमाण- ध. १/१,१,१/३१/१ निक्षेपविस्पृष्ट सिद्वान्तो वर्ण्यमानो वक्तुः श्रोतुश्चोका विषय है और उसका एक अंश नयका विषय है। इन दोनोंसे स्थानं कुर्यादिति बा। = अथवा निक्षेपोको छोडकर वर्णन किया - निर्णय किया गया पदार्थ निक्षेपमे विषय होता है। गया सिद्धान्त सम्भव है, कि वक्ता और श्रोता दोनोंको कुमार्गमें ले प.ध./पू./७३६-७४० ननु निक्षेपो न नयो न च प्रमाण न चांशकं तस्य । जावे, इसलिए भी निक्षेपोंका कथन करना चाहिए। (ध. १/१,२,१३॥ पृथगुददेश्यत्वादपि पृथगिव लक्ष्य स्वलक्षणादिति चेत् ।७३६। सत्य १२६/६)। गुणसापेक्षो सविपक्ष स च नय' स्वयं क्षिपति। य इह गुणाक्षेपः न. च. वृ./२७०,२८१,२८२ दव्वं विविहसहावं जेण सहावेण होइ तं स्यादुपचरित' केवलं स निक्षेप १७४०/-प्रश्न-निक्षेप न तो नय है ज्झेयं । तस्स णिमित्तं कीरइ एक्कं पिय दव्वं चउभेयं ।२७०। णिक्खेवऔर न प्रमाण है तथा न प्रमाण व नयका अंश है, किन्तु अपने लक्षण- णयपमाणं णादूणं भावयंत्ति जे तच्चं। ते तत्थतञ्चमग्गे लहंति लग्गा से वह पृथक् ही लक्षित होता है, क्योंकि उसका उद्देश पृथक् है । हु तत्थयं तच्च ।२८११ गुणपब्जयाण लक्षण सहाव णिक्खेवणयपमाणं उत्तर-ठीक है, किन्तु गुणोकी अपेक्षासे उत्पन्न होनेवाला और वा । जाणदि जदि सवियप दब्बसहावं स्तु बुझेदि ।२२। - द्रव्य विपक्षकी अपेक्षा रखनेवाला जो नय है, वह स्वयं जिसका आक्षेप विविध स्वभाववाला है। उनमें से जिस जिस स्वभावरूपसे वह ध्येय करता है, ऐसा केवल उपचरित गुणाक्षेप ही निक्षेप कहलाता है। होता है, उस उसके निमित्त ही एक द्रव्यको नामादि चार भेद रूप (नय और निक्षेपमें विषय-विषयी भाव है। नाम, स्थापना, द्रव्य कर दिया जाता है ।२७०। जो निक्षेप नय व प्रमाणको जानकर तत्त्वऔर भावरूपसे जो नयोंके द्वारा पदार्थो में एक प्रकारका आरोप किया को भाते है वे तथ्यतत्त्वमार्ग में संलग्न होकर तथ्य तत्त्वको प्राप्त करते जाता है उसे निक्षेप कहते हैं। जैसे-शब्द नयसे 'घट' शब्द ही है।२८१२ जो व्यक्ति गुण व पर्यायोके लक्षण, उनके स्वभाव, निक्षेप, मानी घट पदार्थ है।) नय व प्रमाणको जानता है वही सर्व विशेषोसे युक्त द्रव्यस्वभावको जानता है ।२२। ४. निक्षेप निर्देशका कारण व प्रयोजन ति.प./१/८२ जो ण पमाणणयेहि णिक्खेवेणं णिरक्खदे अस्थ । तस्साजुत्त ५. नयोंसे पृथक् निक्षेपोका निर्देश क्यों जुत्तं जुत्तमजुत्तं च पडिहादि ।२। -जो प्रमाण तथा निक्षेपसे अर्थ- रा, वा./१/३/३२-३३/३२/१० द्रव्यार्थिकपर्यायाथिकान्तर्भावानामादीनां का निरीक्षण नहीं करता है उसको अयुक्त पदार्थ युक्त और युक्त तयोश्च नयशब्दाभिधेयत्वात पौनुरुक्त्यप्रसङ्ग. ३२॥ न वा एष दोषः । पदार्थ अयुक्त ही प्रतीत होता है ।८। (ध. १/१,१.११ गा. १०/१६) ." ये सुमेधसो विनेयास्तेषां द्वाभ्यामेव द्रव्याथिकपर्यायाथिकाभ्यां (ध. ३/१,२,१५/गा. ६१/१२६)। सर्व नयवक्तव्यार्थप्रतिपत्ति' तदन्तर्भावात । ये त्वतो मन्दमेधसः तेषां व. १/१,१,१/गा. १५/३१ अवगयणिवारणटूट पयदस्स परूवणा णिमित्तं ध्यादिनय विकल्प निरूपणम् । अतो विशेषोपपत्ते मादीनामपुनरुक्तच । संसयविणासण तच्चत्त्यवधारणठं च ॥१॥ त्वम्।-प्रश्न-द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयोमें अन्तर्भाव हो जानेध, १/१.१,१/३०-३१ त्रिविधा श्रोतारः, अव्युत्पन्नः अवगताशेषविव के कारण-दे निक्षेप/२, और उन नयोंको पृथक्से कथन किया क्षितपदार्थ : एकदेशतोऽवगतविवक्षितपदार्थ इति ।"तत्र यद्यव्युत्पन्न: जानेके कारण, इन नामादि निक्षेपोंका पृथक् कथन करनेसे पुनरुक्ति पर्यायाथिको भवेन्निक्षेप क्रियते अव्युत्पादनमुखेन अप्रकृतनिराकर होती है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो विद्वान् शिष्य णाय । अथ द्रव्यार्थिकः तद्वारेण प्रकृतप्ररूपणायाशेषनिक्षेपा उच्यन्ते। है वे दो नयोंके द्वारा ही सभी नयोंके वक्तव्य प्रतिपाद्य अर्थों को जान लेते हैं, पर जो मन्दबुद्धि शिष्य हैं, उनके लिए पृथक् 'नय और "द्वितीयतृतीययो संशयितयो' संशयविनाशायाशेषनिक्षेपकथनम् । तयोरेव विपर्यस्यतोः प्रकृतार्थावधारणार्थ निक्षेपः क्रियते । - अप्रकृत निक्षेपका कथन करना ही चाहिए। अत विशेष ज्ञान करानेके कारण विषयके निवारण करनेके लिए, प्रकृत विषयके प्ररूपणके लिए, संशय नामादि निक्षेपोका कथन पुनरुक्त नहीं है। का विनाश करनेके लिए और तत्त्वार्थका निश्चय करनेके लिए निक्षेपोका कथन करना चाहिए। (ध. ३/१,२,२/गा.१२/१७), (घ. ६. चारों निक्षेपोंका सार्थक्य व विरोधका निरास ४/१,३,१/गा. १/२); (ध. १४/५,६.७१/गा. १/५१) (स.सि./१/५// रा, वा./१/१/१९-३०/३०/१६ अत्राह नामादिचतुष्टयस्णभावः । कुतः । ११) (इसका खुलासा इस प्रकार है कि-) श्रोता तीन प्रकारके होते विरोधात। एकस्य शब्दार्थस्य नामादिचतुष्टयं विरुध्यते। यथा हैं---अव्युत्पन्न श्रोता, सम्पूर्ण विवक्षित पदार्थको जाननेवाला श्रोता, नामैके नामैव न स्थापना । अथ नाम स्थापना इष्यतेन नामेदं नाम । एकदेश विवक्षित पदार्थ को जाननेवाला श्रोता (विशेष दे० श्रोता)। स्थापना तहिः न चेयं स्थापना, नामेदम् । अतो नामार्थ एको बिरोतहाँ अव्युत्पन्न श्रोता यदि पर्याय (विशेष) का अर्थी है तो उसे धान्न स्थापना। तथै कस्य जीवादेरर्थस्य सम्यग्दर्शनादेर्वा विरोधाप्रकृत विषयकी व्युत्पत्तिके द्वारा अप्रकृत विषयके निराकरण करनेके नामाद्यभाव इति ।१॥ न वैष दोषः। किं कारणम् । सर्वेषां संव्यवलिए निक्षेपका कथन करना चाहिए। यदि वह श्रोता द्रव्य (सामान्य) हार प्रत्यविरोधान् । लोके हि सर्वैर्नामादिभिष्टः संव्यवहारः। इन्द्रो का अर्थी है तो भी प्रकृत पदार्थ के प्ररूपणके लिए सम्पूर्ण निक्षेप कहे देवदत्तः इति नाम। प्रतिमादिषु चेन्द्र इति स्थापना। इन्द्रार्थे च काष्ठे जाते है। दूसरी व तीसरी जातिके श्रोताओंको यदि सन्देह हो तो द्रव्ये इन्द्रसंव्यवहारः 'इन्द्र आनीत' इति वचनात् । अनागतपरिणामे उनके मन्देहको दूर करनेके लिए अथवा यदि उन्हे विपर्यय ज्ञान हो चार्थे द्रव्यसंव्यवहारो लोके दृष्टः--द्रव्यमय माणवक', आचार्य श्रेष्ठी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप ५९३ 1 २६ वैयाकरणो राजा वा भविष्यतीति व्यवहारदर्शनात शचीपती प भावे इन्द्र इति । न च विरोधः । किंच, 1201 यथा नामैकं नामैवेष्यते न स्थापना इत्याचक्षाणेन त्वया अभिहितानवबोधः प्रकटीक्रियते । यती नैवमाचस्मामेव स्थापना इति किन्तु एकस्यार्थस्य नामस्थापनाद्रव्यभावे न्यासः इत्याचक्ष्महे |२१| नै तदेकान्तेन प्रतिजानीमहेनामै स्थापना भवतीति न वा, स्थापना वा नाम भवति नेति च ॥ २२ ॥ ...यत एव नामादिचतुष्टयस्य विरोधं भवानाचष्टे अतएव नाभाव' । कथम् । इह योऽयं सहानवस्थानलक्षणो विरोधो बध्यघातकवत, स सामर्थानां भवति नासता काकोदवायापन काकदन्त स्वरविषाणयोर्विरोधोऽस्माद किंच (२४..अथ अर्थान्तरभावेऽपि विरोधकत्वमिष्यतेः सर्वेषां पदार्थानां परस्परतो नित्यं विरोधः स्याद। न चासावस्तीति । अतो विरोधाभावः ॥ २५ ॥ स्यादेतत् ताद्गुण्याद् भाव एव प्रमाणं न नामादिः |...तन्नः किं कारणम् ।... एवं हि सति नामाद्याश्रयो व्यवहारो निवर्तेत । स चास्तीति । अतो न भावस्यैव प्रामाण्यम् ॥ २१.. मद्यपि भावस्यैव प्रामान्यं तथापि नामादिव्यवहारा न निवर्तते । कुतः। उपचारात् ।...तत्र किं कारणम्। तद्गुणाभावात् । युज्यते माणवके सिंहाभ्दव्यवहारः कोर्यशौर्यादिगुणे वेदायीगाव, इह तु नामादिषु जीवनादिगुणे देशो न कश्चिदप्यस्तीत्युच्चाराभाया व्यवहारनिवृत्तिः स्यादेव ।२ ... पचारान्नामादिव्यवहारः स्पात् 'गौणमुल्ययोर्मुख्ये संप्रत्ययः' इति मुख्यस्यैव संप्रत्ययः स्मान्न नामादीनाम। यतस्त्वर्थ प्रकरणादिविशेषािभावे सर्वत्र संप्रश्वय अविशिष्टः कृतगर्भवति अती न नामादिषुपचाराट् व्यमहारा २८. स्थादेतत् - कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे संप्रत्ययो भवतीति लोके । तन्न; किं कारणम् । उभयगतिदर्शनात् । लोके ह्यर्थात् प्रकरणाद्वा कृत्रिमे संप्रत्ययः स्यात् अर्थी वास्यैवसंज्ञकेन भवति नामसामान्यापेक्षया स्यादकृत्रिमं विशेषापेक्षया कृत्रिमम् । एवं स्थापनादयश्चेति ॥३०॥ प्रश्न- विरोध होनेके कारण एक जीवादि अर्थके नामादि चार निक्षेप नहीं हो सकते। जैसे- नाम नाम ही है, स्थापना नहीं । यदि उसे स्थापना माना जाता है तो उसे नाम नहीं कह सकते; यदि नाम कहते हैं तो स्थापना नहीं कह सकते, क्योंकि उनमें विरोध है |१६| उत्तर- १ - एक ही वस्तु लोकव्यवहारमें नामादि चारों व्यवहार देखे जाते हैं, अत: उनमें कोई विरोध नहीं है। उदाहरणार्थ इन्द्र नामका व्यक्ति है ( नाम निक्षेप ) मूर्ति में इन्द्रकी स्थापना होती है । इन्द्रके लिए लाये गये काइको भी होग इन्द्र कह देते हैं सद्भाव असदभाव स्थापना ) । अगेकी पर्यायकी योग्यतासे भी इन्द्र, राजा, सेठ आदि व्यवहार होते हैं (द्रव्य निक्षेप ) । तथा शचीपतिको इन्द्र कहना प्रसिद्ध ही है ( भाव निक्षेप) [२०] ( स्लो. बा. २/९/२/पो. ७६-८२/२८८) २. 'नाम नाम ही है स्थापना नहीं' यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि नाम स्थापना है, किन्तु नाम स्थापना द्रव्य और भावसे एक वस्तुमें चार प्रकारसे व्यवहार करनेकी बात है ।२१। ३. पदार्थ व उसके नामादिमें सर्वथा अभेद या भेद हो ऐसा भी नहीं है क्योंकि अनेकान्तवादियोंके हाँ संज्ञा संक्षण प्रयोजन आदि तथा पर्यायार्दिक नयकी अपेक्षा कथंचित् भेद और द्रव्पार्थिकनयकी अपेक्षा कथंचित् अभेद स्वीकार किया जाता है । ( श्लो. वा. २/१/५/७३-८७/२८४-३१३); ४. 'नाम स्थापना ही है या स्थापना नहीं है' ऐसा एकान्त नहीं है; क्योंकि स्थापनामें नाम अवश्य होता है पर नाममें स्थापना हो या न भी हो (दे० निक्षेप / ४ / ६ ) इसी प्रकार द्रव्यमें भाव अवश्य होता है, पर भाव निक्षेपमें द्रव्य विवक्षित हो अथवा न भी हों । (दे० निक्षेप /७/८ ) / 1२२|५छाया और प्रकाश तथा कौआ और उल्लूमें पाया जानेवाला सहानमस्थान और मध्यघातक विरोध विद्यमान ही पदार्थोंमें होता है. ****** भा० २-७५ १. निक्षेपोंका द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक *** अविद्यमान खरविषाण आदिमें नहीं। अतः विरोधकी सम्भावनासे ही नामादि चतुष्टयका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है | २४ | ६. यदि अर्थान्तररूप होनेके कारण इनमें विरोध मानते हो, तब तो सभी पदार्थ परस्पर एक दूसरे के विरोधक हो जायेगे । २५। ७. प्रश्नभावनिक्षेप में वे गुण आदि पाये जाते हैं अत इसे ही सत्य कहा जा सकता है नामादिको नहीं ? उत्तर-ऐसा माननेपर तो नाम स्थापना और द्रव्य होनेवाले मावद लोक व्यवहारोंका लोप हो जायेगा । लोक व्यवहार में बहुभाग तो नामारि तीनका ही है । २६ । यदि कहो कि व्यवहार तो उपचार से है, अतः उनका लोप नहीं होता है, तो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि बच्चे में क्रूरता शूरता आदि गुणोंका एकदेश देखकर उपचार से सिंह-व्यवहार तो उचित है, पर नामादिमें तो उन गुणोंका एकदेश भी नहीं पाया जाता अतः नामाद्याश्रित व्यवहार औपचारिक भी नहीं कहे जा सकते |१०| यदि फिर भी उसे औपचारिक ही मानते हो तो 'गौण और मुख्यमें मुख्यका ही ज्ञान होता है इस नियम के अनुसार मुख्यरूप 'भाव' का ही संप्रत्यय होगा नामादिका नहीं । परन्तु अर्थ प्रकरण और संकेत आदि के अनुसार नामादिका मुख्य प्रत्यय भी देखा जाता है |२| कृत्रिम और अकृत्रिम पदार्थो कृत्रिमका ही बोध होता है यह नियम भी सर्वथा एक रूप नहीं है क्योंकि इस नियम की उभयरूपसे प्रवृत्ति देखी जाती है। सोमे अर्थ और प्रकारणसे कृत्रिममें प्रत्यय होता है. परन्तु अर्थ व प्रकरणसे अनभिट्ट व्यक्तिमै तो कृत्रिम व अकृत्रिम दोनोंका ज्ञान हो जाता है जैसे किसी गँवार व्यक्तिको 'गोपालको लाओ' कहनेपर वह गोपाल नामक व्यक्ति तथा ग्वाला दोनोंको ला सकता है |२| फिर सामान्य दृष्टिसे नामादि भी तो अकृत्रिम ही है। अतः इनमें कृत्रिमत्व और अत्रिम अनेकान्त है 120 स्लो. बा. २/९/२/०७/३१२/२४ कचिदय किया न नामादयः कुर्वन्तीत्ययुक्तं तेषामवस्तुत्वप्रसहाय न चैतदुपपन्नं भागवन्नामादीनाममारिया मस्त्वसिद्ध ेः। : १० मे चारों कोई भी अर्थक्रिया नहीं करते, यह कहना भी ठोक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेरी उनमें अवस्तुनेका प्रसंग आता है । परन्तु भाववत् नाम आदिक में भी वस्तुत्व सिद्ध है । जैसे -- नाम निक्षेप संज्ञा-संज्ञेय व्यवहारको कराता है, इत्यादि । · • २. निक्षेपोंका द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयोंमें अन्तर्भाव 1 १. माव पर्यायार्थिक है और शेष तीन द्रव्यार्थिक स.सि./१/६/२०/६ नयो द्विविधो द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च । पर्यायाकिमयेन भावतयमधिगन्तव्य । इतरेषां श्याणां व्यार्थिकमन सामान्यात्मकत्वात् । =नय दो हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । पर्यायार्थिकनयका विषय भाव निक्षेप है, और शेष तीनको द्रव्याकिन ग्रहण करता है, क्योंकि वह सामान्यरूप है । ( ध. १/१, १.१ /गा. सन्मतितर्क से उत९५) (ध. ४/१.२.१ /गा. २/३ ) (. १/४,१.४५ / गा. ६६/१०५) (क. पा. १/१.१३-१४/४२११/गा. ९११/२६० ) ( रा. बा. १ / २ / ११ / १२ / ६) (सि. वि. / / १२ / २ / ०४९) (रतो. वा. २/१/५/एस. ६६ / २०१). । २. भाव में कथंचित् द्रव्यार्थिकपना तथा नाम व द्रव्यमें पर्यायार्थिकपना दे. निक्षेप /३/१ ( नैगम संग्रह और व्यवहार इन तीन द्रव्यार्थिक नयोंमें चारों निक्षेप संभव हैं, तथा ऋजुसूत्र नयमे स्थापना से अतिरिक्त तीन निक्षेप सम्भव है । तीनों शब्दनयो में नाम व भाव ये दो ही निक्षेप होते हैं।) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप २. द्रव्याथिक व पर्यायाथिकमें अन्तर्भाव ३. नामको द्रव्यार्थिक कहनेमें हेतु श्लो. बा, २/१/५/६६/२७६/२४ नन्वस्तु द्रव्यं शुद्धमशुद्ध च द्रव्यार्थिकनयादेशाद, नाम-स्थापने तु कथं तयोः प्रवृत्तिमारभ्य प्रागुपरमादन्वयित्वादिति बम । न च तदसिद्ध देवदत्तं इत्यादि नाम्नः क्वचिद्बालाद्यवस्थाभेदाद्भिन्नेऽपि विच्छेदानुपपत्तेरन्वयित्व सिद्ध । क्षेत्रपालादिस्थापनायाश्च कालभेदेऽपि तथात्वाविच्छेदः इत्यन्वयित्वमन्वयप्रत्ययविषयत्वात् । यदि पुनरनाद्यनन्तान्वयासत्त्वान्नामस्थापनयोरनन्वयित्वं तदा घटादेरपि न स्यात् । तथा च कुतो द्रव्यत्वम् । व्यवहारनयात्तस्यावान्तरद्रव्यत्वे तत एव नामस्थापनयोस्तदस्तु विशेषाभावात् । -प्रश्न-- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य तो भले ही द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानतासे मिल जायें, किन्तु नाम स्थापना द्रव्याथिकनयके विषय कैसे हो सकते है । उत्तर-तहाँ भी प्रवृत्तिके समयसे लेकर विराम या विसर्जन करनेके समय तक, अन्वयपना विद्यमान है। और वह असिद्ध भी नहीं है; क्योंकि देवदत्त नामके व्यक्ति में बालक कुमार युवा आदि अवस्था भेद होते हुए भी उस नामका विच्छेद नहीं बनता है। (ध.४/१,३,१/३।६) । इसी प्रकार क्षेत्रपाल आदिकी स्थापनामें काल भेद होते हुए भा. तिस प्रकारको स्थापनापनेका अन्तगल नहीं पड़ता है। यह वह है' इस प्रकारके अन्वय ज्ञानका विषय होते रहनेसे तहाँ भी अन्वयीपना बहुत काल तक बना रहता है। प्रश्न-परन्तु नाम व स्थापनामें अनादिसे अनन्त काल तक तो अन्वय नहीं पाया जाता' उत्तर-इस प्रकार तो घट, मनुष्यादिको भी अन्वयपना न हो सकनेसे उनमे भी द्रव्यपना न बन सकेगा। प्रश्न-तहाँ तो व्यवहार नयकी अपेक्षा करके अवान्तर द्रव्य स्वीकार कर लेनेसे द्रव्यपना बन जाता है । उत्तर-तब तो नाम व स्थापनामें भी उसी व्यवहारनयकी प्रधानतासे द्रव्यपना हो जाओ, क्योंकि इस अपेक्षा इन दोनों में कोई भेद नहीं है। ध, ४/१,३१/३/७ बाच्यवाचकशक्तिद्वयात्मके कशब्दस्य पर्यायाथिकनये असंभवाद्वा दव्व ठियणयस्मेत्ति वुच्चदे । = वाच्यवाचक दो शक्तियोंवाला एक शब्द पर्यायार्थिक नयमे असम्भव है, इसलिए नाम द्रव्यार्थिक नयका विषय है, ऐसा कहा जाता है। (ध.६/४.१,४५/ १८६/६) (विशेष दे० नय/IV/३/८/२) । ध.१०/४,२,२,२/१०/२ णामणिक्खेवो दव्वटि ठयणए कुदो संभवदि । एक्कम्हि चेव दवम्हि वट्टमाणाणं णामाणं तब्भवसामाणम्मि तीदाणागय-बट्टमाणपज्जाएसु संचरणं पड्डुच्च अत्तव्य ववएसम्मि अप्पहाणीकयपज्जायम्मि पउत्तिदंसणादो, जाइ-गुण-कम्मेसु बट्टमाणाणं सारिच्छसामण्णम्मि बत्तिविसेसाणुवुत्तीदो ल द्धदव्वववएसम्मि अप्पहाणी करावत्तिभावम्मि पउतिदंसणादो, सारिच्छसामण्णप्पयणामेण विणा सद्दव्ववहाराणुववत्तीदो च । प्रश्न-नाम निक्षेप द्रव्यार्थिकनयमें कैसे सम्भव है। उत्तर-चू कि एक ही द्रव्यमें रहनेवाले द्रव्यवाची शब्दोंकी, जिसने अतीत, अनागत व वर्तमान पर्यायोंमें संचार करनेकी अपेक्षा 'द्रव्य' व्यपदेशको प्राप्त किया है और जो पर्यायको प्रधानतासे रहित है ऐसे तभावसामान्य में, प्रवृत्ति देखी जाती है ( अर्थात् द्रव्यसे रहित केवल पर्यायमें द्रव्यवाची शब्दको प्रवृत्ति नहीं होती है)। (इसी प्रकार ) जाति, गुण व क्रियावाची शब्दों की, जिसने व्यक्ति विशेषोंमे अनुवृत्ति होनेसे 'द्रव्य' व्यपदेशको प्राप्त किया है. और जो व्यक्ति भावकी प्रधानतासे रहित है, ऐसे सादृश्यसामान्यमें, प्रवृत्ति देखी जाती है । तथा सादृश्यसामान्यात्मक नामके बिना शब्द व्यवहार भी घटित नही होता है, अत' नाम निक्षेप द्रव्यार्थिक नयमें सम्भव है । (ध.४/१,३,१/३/६) । और भी दे०निक्षेप/३ (नाम निक्षेपको नै गम संग्रह व व्यवहार नयोका विषय बतानेमे हेतु । तथा द्रव्यार्थिक होते हुए भी शब्दनयोका विषय बनने में हेतु। ४. स्थापनाको द्रव्यार्थिक कहने में हेतु दे० पहला शीर्षक नं.३('यह वही है। इस प्रकार अन्वयज्ञानका विषय होनेसे स्थापना निक्षेप द्रव्याथिक है)। ध.४/१,३ १/४/२ सम्भावासब्भावसरूवेण सक्वदआवि त्ति वा, पधाणापधाणदव्याण मेगत्तणिबंधणेत्ति वा एवणणिक्खेत्रो दयट्ठियणयबुल्लीणो। स्थापना निक्षेप तदाकार और अतदाकार रूपसे सर्वद्रव्योमें व्याप्त होनेके कारण; अथवा प्रधान और अप्रधान द्रव्यो को एकताका कारण होनेसे द्रव्याथिकनयके अन्तर्गत है। ध. १०/४,२,२,२/१०/८ कधं दवठियणए वणणामसंभवो। पडिणिहिज्ज माणस्स पडिणिहिणा सह एयत्तवज्झवसायादो सब्भावासभाबठवणभेएण सव्वत्थेसु अण्णयदसणादो च। =प्रश्न-द्रव्याथिक नयमें स्थापना निक्षेप कैसे सम्भव है। उत्तर-एक तो स्थापनामें प्रतिनिधीयमानकी प्रतिनिधिके साथ एकताका निश्चय होता है, और दूसरे सद्भावस्थापना व असदभावस्थापनाके भेद रूपसे सब पदार्थोमें अन्वय देखा जाता है, इसलिए द्रव्यार्थिक नयमें स्थापनानिक्षेप सम्भव है। ध.६/४,१,४५/१८६/६ कधं ठ्वणा दबटिठयविसओ। ण, अतम्हि तग्गहे सते ठवणुववत्तोदो। नहीं; क्योंकि जो वस्तु अतद्रूप है उसका तद्रूपसे ग्रहण होने पर स्थापना बन सकता है। और भी दे० निक्षेप/३ (स्थापना निक्षेपको नैगम, संग्रह व व्यवहार नयोका विषय बतानेमें हेतु।) ५. द्रव्यनिक्षेपको द्रव्यार्थिक कहनेमें हेतु ध.६/४,१,४५/१८७/१ दव्वसुदणाणं पिदव्वठियणयविसओ, आहाराहेयाण मेयत्तकप्पणाए दध्वसुदग्गणादो। - द्रव्य श्रुतज्ञान ( श्रुतज्ञानके प्रकरण में ) भी द्रव्याथिकनयका विषय है। क्यों कि आधार और आधेयके एकत्वकी कल्पनासे द्रव्यश्रुतका ग्रहण किया गया है। (विशेष दे० निक्षेप/३ मे नै गम, संग्रह व व्यवहारनयके हेतु ।) ६. भावनिक्षेपको पर्यायार्थिक कहने में हेतु ध.६/४,१,४५/१८७/२ भावणिक्खेबो पज्जवठ्ठियणयविसओ, वट्टमाणपज्जाएणुवल क्खियदव्वग्गहणादो। =भाव निक्षेप पर्यायाथिकनयका विषय है; क्योंकि वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यका यहाँ भाव रूपसे ग्रहण किया गया है। (विशेष दे० निक्षेप/३ में जुसूत्र नयमे हेतु ) ७. भाव निक्षेपको द्रव्यार्थिक कहनेमें हेतु क. पा./१/१,१३-१४/२६०/१ णाम-ठ्ठवणा-दन्न-णिवरवेवाणं तिहं पि तिण्णि वि दवठ्ठियणया सामिया होंतु णाम ण भावणियखेवस्स; तस्स पज्जवट्ठियणयमवलं बिय( पवट्टमाणत्तादो)..ण एस दोसो; बट्टमाण पज्जाण्ण उवल विखयं दवं भावो णाम | अप्पट्टाणीकयपरिणामेसु सुद्धदव्य ठ्ठिएसु णएसु णादीदाणगयवट्टमाणकाल विभागो अत्थि; तस्स पट्टाणीकयपरिणामपरिणाम(णय )त्तादो। ण तदो एदेसु ताव अस्थि भावणिवखेवो; वट्टमाणकालेण विणा अण्णकालाभावादो। वंजणपज्जाएण पादिदव्वेसु सुट असुद्धदबटिएसु वि अस्थि भावणिक्खेवा, तत्थ वि तिकालसंभवादो। अथवा, सवदवठ्ठियणएसु तिणि काला संभव ति; सुणएसु तदविरोहादो। ण च दुण्णएहिं ववहारो; तेसिं विसयाभावाहो। च सम्मइसुत्तेण सह विरोहो; उज्जुसुदणयविसयभावणिखेवमस्सिदूण तप्पउत्तीदो। तम्हा णेगम-संग्गह-ववहारणएसु सव्वणिवखेग संभवंति त्ति सिद्ध । प्रश्न-(तद्भावसामान्य व सादृश्यसामान्यको अवलम्बन करके प्रवृत्त होनेके कारण) नाम, स्थापना व द्रव्य इन तीनों निक्षेपो के नै गमादि तीनो ही द्रव्याथिकनय स्वामी होओ, परन्तु भावनिक्षेपके वे स्वामो नहीं हो सकते है; क्योकि, भावनिक्षेप पर्यायाथिक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप ३. निक्षेपोंका नैगमादि नयों में अन्तर्भाव नयके आश्रयसे होता है (दे०निक्षेप/२/१)। उत्तर-१. यह दोष- युक्त नहीं है; क्योकि वर्तमानपर्यायसे उपलक्षित द्रव्यको भाव कहते हैं। शुद्ध द्रव्याथिकनयमे तो क्योकि, भूत भविष्यत और वर्तमानरूपसे कालका विभाग नहीं पाया जाता है, कारण कि वह पर्यायोंकी प्रधानतासे होता है; इसलिए शुद्ध द्रव्यार्थिक नयों में तो भावनिक्षेप नहीं बन सकता है, क्योंकि भावनिक्षेपमें वर्तमानकालको छोड़कर अन्य काल नहीं पाये जाते हैं। परन्तु जब व्यंजनपर्यायोंकी अपेक्षा भावमें द्रव्यका सद्भाव स्वीकार कर दिया जाता है, तब अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयों में भाव निक्षेप बन जाता है; क्योंकि, व्यंजनपर्यायको अपेक्षा भाव में भी तीनों काल सम्भव हैं । (ध.६/४,१,४८/२४२/८), (ध.१०/४,२,२,३/११/१), (ध.१४/५,६,४/ ३/७)। २. अथवा सभी समीचीन नयोमें भी क्योंकि तीनों ही कालोंको स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है। इसलिए सभी द्रव्यार्थिक नयोंमें भावनिक्षेप बन जाता है। और व्यवहार मिथ्या नयोंके द्वारा किया नहीं जाता है, क्योंकि, उनका कोई विषय नहीं है। ३. यदि कहा जाय कि भाव निक्षेपका स्वामी द्रव्यार्थिक नयोंको भी मान लेनेपर सन्मति तर्कके 'णामं ठवणा' इत्यादि (दे० निक्षेप/२/१ ) सूत्रके साथ विरोध आता है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, जो भावनिक्षेप ऋजुसूत्र नयका विषय है, उसकी अपेक्षासे सन्मतिके उक्त सूत्रकी प्रवृत्ति हुई है। (ध.१/१,१,१/१५/६). (ध.६/४,१,४६/२४४/१०)। अतएव नैगम संग्रह और व्यवहारनयों में सभी निक्षेप संभव हैं, यह सिद्ध होता है। ध,१/१,१,१/१४/२ कधं दवठ्यि -णये भाव-णिवखेवस्स संभवो। ण, वट्टमाण-पज्जायोवलक्वियं दव्वं भावो इदि दव्वठ्ठिय-णयस्स वट्टमाणमवि आरंभप्पहुडि आ उवरमादो । संगहे सुद्धदबटिए वि भावणिक्खेवस्स अत्थित्तं ण विरुज्झदे सुकुक्खि-णिक्वित्तासेसविसेस-सत्ताए सव्व-कालमव हिदाए भावन्भुवगमादो त्ति । म प्रश्न-द्रव्यार्थिक नयमें भावनिक्षेप कैसे सम्भव है ! उत्तर१. नहीं; क्योंकि वर्तमान पर्यायसे युक्त द्रव्यको ही भाव कहते हैं, और वह वर्तमान पर्याय भी द्रव्यकी आरम्भसे लेकर अन्त तककी पर्यायों में आ ही जाती है। (ध.१०/५,५,६/३६/७)। २. इसी प्रकार शुद्ध द्रव्याथिक रूप संग्रहनयमे भी भाव निक्षेपका सद्भाव विरोधको प्राप्त नहीं होता है; क्योंकि अपनी कुक्षिमें समस्त विशेष सत्ताओंको समाविष्ट करनेवाली और सदा काल एक रूपसे अवस्थित रहनेवाली महासत्तामें हो 'भाव' अर्थात पर्यायका सद्भाव माना गया है। ष खं.१३/५,४/सू./४० सद्दणओ णामकम्मं भावकम्मं च इच्छदि। शब्दनय नामकर्म और भावकर्मको स्वीकार करता है। (ष.वं. १०/४,२,२/सूत्र ४/११); (ष.ख.१३/५,६/सूत्र ८/२००); (ष ख.१४/५,६/ सू.६/३); (प.वं.१४/५,६/सूत्र७४/५३); (क.पा.१/१,१३-१४/१२१४/चूर्ण सूत्र/२६४)। ध.१/१,१.१/१६/५ सह-समभिरूढ-एवंभूद-णएम वि णाम-भाव-णिवरेवा हवं ति तेसि चेय तत्थ संभवादो। =शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नयमें भी नाम और भाव ये दो निक्षेप होते है, क्योकि ये दो ही निक्षेप वहाँपर सम्भव है. अन्य नही। (क.पा.१/१,१३-१४/६२४०/ चूर्ण सूत्र/२८५) । २. तीनों द्रव्यार्थिक नयोंके समी निक्षेप विषय कैसे? ध.१/१,१,१/१४/१ तत्थ णेगम-संगह-ववहारणएसु सव्वे एदे णिवखेवा हवं ति तबिसयम्मि तम्भव-सारिच्छ-सामण्ण म्हि सव्वणिवखेवस भवादो। नै गम, संग्रह और व्यवहार इन तीनो नयोंमे सभी निक्षेप होते है; क्योंकि इन नयोके विषयभूत तद्भवसामान्य और सादृश्यसामान्यमे सभी निक्षेप सम्भव है। (क.पा.१/१,१३-१४/६२११/२५६/८)। क.पा.१/१,१३-१४/६२३६/२८३/६ णेगमो सव्वे कसाए इच्छदि। कुदो। संगहासंगहसरूवणेगम्मि विसयीकयसयललोगववहारम्मि सव्वकसायसभवादो। -नै गमनय सभी (नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव) कषायौंको स्वीकार करता है; क्योंकि वह भेदाभेदरूप है और समस्त लोकव्यवहारको विषय करता है। दे०निक्षेप/२/३-७ ( इन द्रव्यार्थिक नयोंमे भावनिक्षेप सहित चारो निक्षेपोंके अन्तर्भावमें हेतु), ३. निक्षेपोंका नेगमादि नयोंमें अन्तर्भाव ३. ऋजुसूत्रका विषय नाम निक्षेप कैसे घ.१/१,१,१/१६/४ ण तत्थ णामणिक्खेवाभावो वि सद्दोवलद्धि काले णियत्तवाचयत्तु बलभादो। =(जिस प्रकार ऋजुसूत्रमे द्रव्य निक्षेप घटित होता है) उसी प्रकार वहाँ नामनिक्षेपका भी अभाव नहीं है; क्योंकि जिस समय शब्दका ग्रहण होता है, उसी समय उसकी नियत वाच्यता अर्थात् उसके विषयभूत अर्थका भी ग्रहण हो जाता है। घ.६/४,१,४६/२४३/१० उजुसुदणोणाम पज्जवटियो व तस्स णामदव्व-गणणगंथकदी होति त्ति, विरोहादो । .. एत्थ परिहारो वुच्चदे-उजुसुदो दुविहो सुद्धो असुद्धो रेदि । तत्थ सुद्धो विसईकय अत्थपज्जाओ...। एदस्स भाव मोत्तूण अण्ण कदीओ ण संभवं ति, विरोहादो। तत्थ जो सो असुद्धो उजुसुदणओ सो चक्खुपासियवेजणपज्जयविसओ । ...तम्हा उजुसुदे ठवणं मोत्तूण सव्वणिक्खेवा संभवंति त्ति वुत्तं । -प्रश्न-ऋजुसत्रनय पर्यायाथिक है, अत: वह नामकृति, द्रव्यकृति, गणनकृति और ग्रन्थकृतिको कैसे विषय कर सकता है, क्योकि इसमें विरोध है। उत्तर-यहाँ इस शंकाका परिहार करते हैं-जुसूत्रनय शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें अर्थ पर्यायको विषय करनेवाले शुद्ध ऋजुसूत्र मे तो भावकृतिको छोड़कर अन्य कृतियाँ विषय होनी सम्भव नहीं हैं: क्योंकि इसमे विरोध है। परन्तु अशुद्ध ऋजुसूत्रनय चक्षु इन्द्रियकी विषयभूत व्य जन पयोयोको विषय करनेवाला है। इस कारण उसमें स्थापनाको छोड़कर सब निक्षेप सम्भव है ऐसा कहा गया है। (विशेष दे० नय/III/५/६ ) । क. पा./१/१,१३-१४/१२२८/२७८/३ दबट्ठियणयमस्सिदूण 'ट्ठिदणाम कथमुजुसुदे पज्जवट्ठिए स भवइ। ण, अत्थणएमु सहस्स अत्थाणुसारित्ताभावादो। सद्दबवहारेचप्पलए संते लोगववहारो सयलो वि उच्छिज्जदि त्ति चे; होदि तदुच्छेदो, किन्तु णयस्स विसओ अम्मे हि परूविदो। प्रश्न-नामनिक्षेप द्रव्याथिकनयका आश्रय १. नयोंके विषयरूपसे निक्षेपोंका निर्देश ष. वं./१३/५,४/सूत्र ६/३६ णेगम-ववहार-संगहा सव्वाणि ।६। -नै गम, व्यवहार और संग्रहनय सब कर्मोको (नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि कर्मोको) स्वीकार करते हैं। (ष.वं./१०/४.२.२/सूत्र २/१०); (ष.वं./१३/११/सू.६/१६८); (ष,खं/१४/५.६,६/सूत्र४/३); (प.ख.१४/ ५.६/सूत्र ७२/५२); ( क. पा./१/१,१३-१४/६२११/चूर्ण सूत्र/२५६); (ध.१/१,११/१४/१)। ष,खं.१३/१४/सू.७/३६ उजुसुदो ठवणकम्मं णेच्छदि । -जुसूत्र नय स्थापना कर्मको स्वीकार नहीं करता । अर्थात अन्य तीन निक्षेपोंको स्वीकार करता है । (ष. खं.१०/४,२.२/सूत्र ३/११); (ष.वं.१३/५/सू.७/१६६); (ष.व.१४/५,६/सूत्र ५/३); (प.वं.१४/५,६/ सूत्र/७३/५३); (क.पा.१/१,१३-१४/१२१२/चूर्ण सूत्र/२६२); (ध.१/१,१. १/१६/१)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप ३. निक्षेपोंका नैगमादि नयोंमें अन्तर्भाव लेकर होता है और अजुसूत्र पर्यायाथिक है, इसलिए उसमे नामनिक्षेप कैसे सम्भव है । उत्तर-नहीं, क्योंकि, अर्थनयमे शब्द अपने अर्थका अनुसरण नहीं करता है ( अर्थ शब्दादि नयोंकी भॉति ऋजुसूत्रनय शब्दभेदसे अथभेद नहीं करता है, केवल उस शब्दके संकेतसे प्रयोजन रखता है ) और नाम निक्षेपमें भी यही बात है। अत ऋजुसूत्रनयमे नानिक्षेप सम्भव है। प्रश्न-यदि अर्थनयोमें शब्द अर्थ का अनुसरण नहीं करते है तो शब्द व्यवहारको असत्य मानना पडेगा, और इस प्रकार समस्त लोकव्यवहारका व्युच्छेद हो जायेगा। उत्तर-यदि इससे लोकव्यवहारका उच्छेद होता है तो होओ, किन्तु यहाँ हमने नयके विषयका प्रतिपादन किया है। और भी दे० निक्षेप/३/६ (नामके बिना इच्छित पदार्थका कथन न हो सकनेसे इस नयमें नामनिक्षेप सम्भव है।) ४. ऋजुसूत्रका विषय व्यनिक्षेप कैसे घ. १/१,१,१/१६/३ कधमुज्जुसुदे पज्जवटिए दव्य णिकरखेवो त्ति । ण, तत्थ वट्टमाणसमयाणं तगुण पिणद-एगदव्व-संभवादो। -प्रश्न-ऋजुसूत्र तो पर्यायार्थिकनय है, उसमें द्रव्यनिक्षेप कैसे घटित हो सकता है। उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है; क्योकि अजुसूत्र नयमे वर्तमान समयवर्ती पर्यायसे अनन्तगुणित एक द्रव्य ही तो विषय रूपसे सम्भव है। ( अर्थात वर्तमान पर्यायसे युक्त द्रव्य ही तो विषय होता है, न कि द्रव्य-विहीन केवल पर्याय ।) ध १३/५,५,७/१६६/८ कधं उजुसुदे पज्जवठ्ठिए दव्वणिक्वेबसंभवो। ण असुद्धपज्जवहिए वंजणपरजायपरतते सुहमपज्जायभेदेहि जाणत्तमुवगए तदविगेहादो । = प्रश्न-ऋजुसूत्रनय पर्यायार्थिक है, उसका विषय द्रव्य निक्षेप होना कैसे सम्भव है। उत्तर-नहीं, क्योकि, जो व्यंजन पर्यायोके आधोन है और जो सूक्ष्मपर्यायों के भेदोके आलम्बनसे नानात्यको प्राप्त है, ऐसे अशुद्ध पर्यायाथिकनयका विषय द्रव्य निक्षेप है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता है। (ध.१३/५,४,७/४०/२) । क. पा./१/१,१३-१४/१२१३/२६३/४ ण च उजुसुदो (सुदे) [ पज्जवहिए ] णए दव्वणिक्खेबो ण संभवइः [वंजणपज्जायरवेण] अवठ्यिस्स वत्थुस्स अणेगेसु अत्थविजणपज्जाएसु संचरंतस्स दबभावुवलं भादो। • सव्वे (सुद्धे ) पुण उजुसुदे णस्थि दव्यं य पज्जायप्पणाये तदसंभवादो। यदि कहा जाय कि ऋजुसूत्रनय तो पर्यायार्थिक है, इसलिए उसमें द्रव्य निक्षेप सम्भव नहीं है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ अर्पित (विवक्षित ) व्यंजन पर्यायकी अपेक्षा अवस्थित है और अनेक अर्थपर्याय तथा अवान्तर व्यंजनपर्यायोंमें संचार करता है (जैसे मनुष्य रूप व्यंजनपर्याय बाल, युवा, वृद्धादि अवान्तर पर्यायोंमें) उसमें द्रव्यपनेकी उपलब्धि होती ही है, अतः ऋजुसूत्रमें द्रव्य निक्षेप बन जाता है। परन्तु शुद्ध ऋजुसूत्रनयमें द्रव्य निक्षेप नहीं पाया जाता है, क्योकि उसमें अर्थपर्यायको प्रधानता रहती है। (क. पा.१/१,१३-१४/७२२८/ २७६/३।। (और भी दे० निक्षेप/३/३ तथा नय/III/५/६) । ५. ऋजुसूत्रमें स्थापना निक्षेप क्यों नहीं ध.६/४.१,४६/२४५/२ क ट्ठवणणिक्खेवो ण त्थि । संकप्पयसेण अण्णस्स दव्वस्स अण्णसरूवेण परिणामाणुवलं भादो सरिसत्तणेण दवाणमेगत्ताणुवलंभादो। सारिच्छेण एगत्ताणभुवगमे क णाम-गणण-गंधकदीणं संभवो। ण तब्भाव-सारिच्छसामष्णेहि विणा वि वट्टमाणकालविसेसप्पणाए वितासिमस्थित्तं पडि विरोहाभावादो। -प्रश्नस्थापना निक्षेप ऋजुसूत्रनयका विषय कैसे नहीं उत्तर-क्योंकि एक तो संकल्पके वशसे अर्थात् कल्पनामात्रसे एक द्रव्यका अन्यस्वरूपसे परिण मन नहीं पाया जाता ( इसलिए तद्भव सामान्य रूप एकताका अभाव है); दूसरे सादृश्य रूपसे भी द्रव्यो के यहाँ एकता नहीं पायी जाती, अत' स्थापना निक्षेप यहाँ सम्भव नहीं है। (ध. १३/५,५,७/१६६/६) । प्रश्न-सादृश्य सामान्यसे एकताके स्वीकार न करनेपर इस नयमें नामकृति गणनाकृति और ग्रन्थकृतिकी सम्भावना कैसे हो सकती है। उत्तर-नहीं; क्यो कि, तद्भावसामान्य और सादृश्य सामान्यके बिना भी वर्तमानकाल विशेषकी विवक्षासे भी उनके अस्तित्वके प्रति कोई विरोध नहीं है। क. पा. १/१,१३-१४/६ २१२/२६२/२ उजुसुदविसए किमिदि ठवणा ण चस्थि (णत्थि)। तत्थ सारिच्छलक्रवणसामण्णाभावादो। ण च दोह लक्खणसंताणम्मि वट्टमाणाणं मारिच्छविरहिएण एगत्तं संभवइ, विरोहादो। असुद्धेसु उजुसुदेसु बहुएमु घडादिअत्येसु एगसण्णिमिच्छतेसु सारिच्छलक्खणसामण्णमथि त्ति ठवणाए संभवो किण्ण जायदे । होदु णाम सारित्तं; तेण पुण [णियत्तं ]; दब्व-खेत्तकालभावेहि भिण्णाणमेयत्तविरोहादो। ण च बुद्धीए भिण्णत्थाणमेयत्तं सक्किज्जदे [ काउं तहा ] अणुवलं भादो। ण च एयत्तेण विणा ठवणा संभव दि, विरोहादो।प्रश्न-जुसूत्रके विषयमें स्थापना निक्षेप क्यों नहीं पाया जाता है । उत्तर-क्योंकि, ऋजुसूत्रनयके विषयमें सादृश्य सामान्य नही पाया जाता है। प्रश्न-क्षणसन्तानमें विद्यमान दो क्षणों में सादृश्यके बिना भी स्थापनाका प्रयोजक एकत्व बन जायेगा। उत्तर-नहीं; क्योंकि, सादृश्यके विना एकत्वके मानने में विरोध आता है। प्रश्न-'घट' इत्याकारक एक संज्ञाके विषयभूत व्यंजनपर्यायरूप अनेक घटादि पदार्थों में सादृश्यसामान्य पाया जाता है, इसलिए अशुद्ध ऋजुसूत्र नयोंमें स्थापना निक्षेप क्यों सम्भव नहीं ! उत्तर-नहीं; क्योंकि, इस प्रकार उनमें सादृश्यता भले ही रही आओ, पर इससे उनमें एकत्व नहीं स्थापित किया जा सकता है; क्योंकि, जो पदार्थ ( इस नयकी दृष्टिमें) द्रव्य क्षेत्र काल और भावको अपेक्षा भिन्न हैं (दे० नय/IV/३) उनमें एकत्त्व माननेमें विरोध आता है। प्रश्न-भिन्न पदार्थोको बुद्धि अर्थात् कल्पनासे एक मान लेंगे। उत्तर-यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि, भिन्न पदार्थों में एकत्व नहीं पाया जाता है, और एकत्वके बिना स्थापनाकी संभावना नही है; क्योंकि, ऐसा माननेमें विरोध आता है। (क. पा. १/१,१३-१४/ २२८/२७८/१); (ध. १३/५,५,७/१६६/६ ) । ६. शब्दनयोंका विषय नामनिक्षेप कैसे ध.१/४,१,५०/२४५/४ होर्दु भावकदो सद्दणयाणं विसओ, तेसिं विसए दवादीणमभावादो। कितु ण तेसि णामकदी जुज्जदे, दवट्ठियणय मोत्तूण अण्णत्थ सण्णासण्णिसर्वधाणुववत्तीदो। खणक्खइभावमिच्छताणं सण्णासंबधा माघडंतु णाम । कितु जेण सद्दणया सहजणिदभेदपहाणा तेण सण्णासण्णिसंबंधाणमघडणाए अणत्थिणो। सगभुवगमम्हि सण्णासण्णिसंबंधो अस्थि चेवे ति अज्झवसायं काऊण बबहरणसहावा सद्दणया, तेसिमण्णहा सद्दण्यात्ताणुषवत्तीदो। तेण तिसु सद्दणएमु णामकदी वि जुज्जदे ।-प्रश्न-भावकृति शब्दनयोंकी विषय भले हो हो; क्योंकि, उनके विषयमें द्रव्यादिक कृतियोंका अभाव है । परन्तु नामकृति उनकी विषय नहीं हो सकती; क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयको छोड़कर अन्य (शब्दादि पर्यायाथिक ) नयोंमें संज्ञा-संज्ञी सम्बन्ध बन नही सकता । (विशेष दे० नय/IV/R/S/L) उत्तर-पदार्थको क्षणक्षयी स्वीकार करनेवालों के यहाँ ( अर्थात् पर्यायार्थिक नयोंमे) संज्ञा-संज्ञी संबंध भले ही घटित न हो; किन्तु चूं कि शब्द नये शब्द जनित भेदकी प्रधानता स्वीकार करते हैं (दे० नय/I/8/) अत. वे सज्ञा-संज्ञी सम्बन्धोंके (सर्वथा) अघटनको स्वीकार नहीं कर सकते। इसीलिए (उनके ) स्वमतमें संज्ञा-संज्ञीसम्बन्ध है ही. ऐसा निश्चय करके शब्दनय भेद करने रूप स्वभाववाले हैं; क्यों कि, इसके बिना उनके शब्दनयत्व ही नहीं बन सकता। अतएव तीनों शब्दनयों में नामकृति भी उचित है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप ध. १४/५ ६,७/४/१ कधं णामबंधस्स तत्थ संभवो ण णामेण विणा इच्छिदत्थपरूवणाए अणुववत्तीदो। प्रश्न- इन दोनों (ऋजुसून्न व शब्द ) नयो में नामबन्ध कैसे सम्भव है ? उत्तर - नहीं; क्योंकि, नामके बिना इच्छित पदार्थका कथन नहीं किया जा सकता; इस अपेक्षा नामबन्धको इन दोनों पार्थक) नयोका विषय स्वीकार किया है। (च. ११/५४.८/५०/५)। = क. पा./१/१.१२-१४२२१/२०१० अणे 1 घर-खेस-कालभावेहि पुधभूदेसु एक्को घडसद्दो वट्टमाणो उबलब्भदे, एवमुवलभमाणे कथं सक्षणए पज्जवट्ठिए णामणिक्खेवस्स संभवो त्ति । ण; एदम्मि गए सि सदा दव्य प्रेस काल भावनायिभावेण भिष्णमन्याभावादो तत्व के दुग्ध होगा कितु यस्स विसओ परूविज्जदे ण च सुणएसु किं पि दुग्धमत्थि । प्रश्न- द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न अनेक घटरूप पदार्थों में ( सादृश्य सामान्य रूप ) एक घट शब्द प्रवृत्त होता हुआ पाया जाता है। जबकि 'घट' शब्द इस प्रकार उपलब्ध होता है तब पर्यायार्थिक शब्दनयमें नाम निक्षेप कैसे सम्भव है; ( क्योकि पर्यायार्थिक नयोंमें सामान्यका ग्रहण नहीं होता दे० नय / IV / ३ ) | उत्तर - नहीं; क्योकि, इस नयमें द्रव्य-क्षेत्र -काल और भावरूप वाच्यसे भेदको प्राप्त हुए उन अनेक घट शब्दोका परस्पर अन्वय नहीं पाया जाता है, अर्थात् वह नय द्रव्य क्षेत्रादिके भेदसे प्रवृत्त होनेवाले घट शब्दोको भिन्न मानता है और इसलिए उसमें नामनिक्षेप बन जाता है। प्रश्न- यदि ऐसा है तो शब्दनयमें संकेतका ग्रहण करना कठिन हो जायेगा उत्तर ऐसा होता है तो होजा, किन्तु यहाँ तो शब्दtय विषयका कथन किया है। ५९७ दूसरे सुनयोंकी प्रवृत्ति, क्योंकि, सापेक्ष होती है, इसलिए उनमें कुछ भी कठिनाई नहीं है। ( विशेष दे० आगम /४/४ ) । ७. शब्दनयोंमें द्रव्य निक्षेप क्यों नहीं ध. १०/४,२,२,४/१२/१ किमिदि दव्वं णेच्छदि । पज्जायंतरसंकंतिविरोहादी सभेपण अत्थपढणवावदम्मि वत्युविसेसाणे णाम-भावं मोण पहाणत्ताभावादो । प्रश्न- शब्दनय द्रव्य निक्षेपको स्वीकार क्यो नहीं करता ? उत्तर- एक तो शब्दनयकी अपेक्षा दूसरी पर्यायका संक्रमण मामनेने विरोध आता है। दूसरे, वह शब्दभेद अर्थ के कथन करनेमें व्याप्त रहता है (दे० नय/I/४/५ ), अत: उसमें नाम और भावकी ही प्रधानता रहती है, पदार्थोंके भेदोंकी प्रधानता नहीं रहती; इसलिए शब्दनय द्रव्य निक्षेपको स्वीकार नहीं करता । घ. १३/०९/२००/३ मा दव्वाविणाभावे संते वितत्य दहि तत्स सक्ष्णयस्स अस्थिन्ताभावादी सदुवारेण जवारेण च अत्यभेदमिच्छंतर सद्दणए दो चेत्र णिवखेवा संभवंति त्ति भणिद होदि । = यद्यपि नाम द्रव्यका अविनाभावी है ( और वह शब्दनयका विषय भी है ) तो भी द्रव्य में शब्दनयका अस्तित्व नहीं स्वीकार किया गया है । अतः शब्द द्वारा और पर्याय द्वारा अर्थभेदको स्वीकार करनेवाले (शब्दभेदसे अर्थ भेद और अर्थभेदसे शब्दभेदको स्वीकार करनेवाले ) शब्द नय में दो ही निक्षेप सम्भव है । क. पा. १/१,१३-१४/२९४ / २६४/४ दव्य गरियो। लिंगादे (1) सहवाचियाणमेयत्ताभावे दव्वाभावादो। वंजणपज्जाए पच्च शुद्ध निउजु अस्थि दवं लिगसंख्याका कारय पुरसोब गाणं पादेयत भुभगमादो शब्द नय प्रत्यनिक्षेप भी सम्भव नहीं है क्योंकि, इस नयकी में लिगादिकी अपेक्षा शब्दक वाच्यभूत पदार्थों में एकत्व नहीं पाया जाता है। किन्तु व्यंजनपर्यायकी अपेक्षा शुद्धसूत्रयमें भी द्रव्यनिक्षेप पाया जाता है, क्योंकि, ऋजुसूत्रनय लिग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपग्रहमेंसे प्रत्येकका अभेद स्वीकार करता है (अर्थात् में द्रव्य निक्षेप बन जाता है परन्तु शब्द नयमें नहीं ) । = ४. स्थापना निक्षेप निर्देश ४. स्थापना निक्षेप निर्देश १. स्थापना निक्षेप सामान्यका लक्षण 1 स.सि./१/१/१७/४ काष्ठचित्रकर्मा निक्षेपादिषु सोऽयं हति स्थाप्यमाना स्थापना कष्टकर्म पुस्तकर्म, चित्रकर्म और अक्ष निक्षेप आदिमें 'यह वह है' इस प्रकार स्थापित करनेको स्थापना कहते है ( रा. मा./१/२/२/२०/१८) । रा. वा / १/५/२/२८/१८ सोऽयमित्यभिसंबन्धत्वेन अन्यस्य व्यवस्थापनामात्र स्थापना | = 'यह वही है' इस प्रकार अन्य वस्तुमें बुद्धिके द्वारा अन्यका आरोपण करना स्थापना है । (ध. ४/१.५, १/३१४/१); (गो.क./ मृ. २३/५३) (ता/१/११) (पं. ७/१/०४२ ) । श्लो. वा./२/१/५/श्लो. ५४/२६३ वस्तुनः कृतसंज्ञस्य प्रतिष्ठा स्थापना मता । = कर लिया गया है नाम निक्षेप या संज्ञाकरण जिसका ऐसी बस्तुकी उन वास्तविक धर्मो के बयारोपसे 'यह वही है ऐसी प्रतिष्ठा करना स्थापनानिक्षेप माना गया है। २. स्थापना निक्षेपके भेद १. सद्भाव व असद्भाव स्थापना रूप दो भेद रतो. मा २/१/१/रलो. २४/२६२ सद्भावेतरभेदेन द्विधा तखाधिशेषतः । = वह सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापनाके भेदसे दो प्रकारका है । (ध. १/१.१.१/२०/१) न. च वृ./ २०३ सायार इयर ठवणा । साकार व अनाकारके भेद से स्थापना दो प्रकार है । २. काष्ठ कर्म आदि रूप अनेक भेद .. १/४.१/ सूत्र ५२ / २४८ जा साठवणकी गाम सा कट्टकम्मे वा चिचकम्मे वा पोतकम्मे वा लेप्यकम्मे मा कम्मे वा सेलकम्मेसु वा गिहम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडक मे वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया ठेवणार ठविज्जति कदित्ति सा सव्वा ण कदी णाम १५२ - जो वह स्थापनाकृति है। यह काष्ठकमोंमें, अथनः चित्रर्मोने, अथवा पोतकमोंमें, अथवा सेप्यकमोंमें, अथवा मोंगे अपन शेलक्योंमे अथवा गृहफर्मोंमें, अथवा भिशियमोंमें, अथमा दन्तकमोंमें, अथवा भडकम अथवा अक्ष या वराटक ( कौडी व शतर जका पासा); तथा इनको आदि लेकर अन्य भी जो 'कृति' इस प्रकार स्थापना में स्थापित किये जाते हैं, वह सब स्थापना कृति कही जाती है । " 1 नोट - (धवलामे सर्वत्र प्रत्येक विषय में इसी प्रकार निक्षेप किये गये हैं ।) (ष. वं. १३/५.३ / सूत्र १० /१), (ष खं, १४ / ५,६ / सू. ६/५) २. सद्भाव असद्भाव स्थापनाके लक्षण श्लो. वा. २/१/५/५४/२६३/१७ तत्राध्यारोप्यमाणेन भावेन्द्रादिना समाना प्रतिमा सद्भाव स्थापना मुख्यदर्शिनः स्वयं तस्यास्तद बुद्धिस भवाद । कथञ्चित् सादृश्य सद्भावात् । मुख्याकारशून्या वस्तुमात्रा पुनरसद्भावस्थापना परोपदेशादेव तत्र सोऽयमिति सप्रत्ययात् । भाव निक्षेपके द्वारा कहे गये अर्थाद वास्तविक पर्यायसे परिणत इन्द्र आदिके समान बनी हुई काष्ठ आदिकी प्रतिमामें आरोपे हुए उन इन्द्रादिकी स्थापना करना सद्भावस्थापना है; क्योंकि, किसी अपेक्षासे इन्द्रआदिका साहस्य यहाँ विद्यमान है, तभी तो मुख्य पदार्थको जीवकी तिस प्रतिमा के अनुसार साहस्यसे स्वयं 'यह वही है ऐसी बुद्धि हो जाती है। मुख्य आाकारोंसे शुन्य केवल वस्तुमें 'यह वही है ऐसी स्थापना कर लेना असद्भाव स्थापना है; क्योकि मुख्य पदार्थको देखनेवाजे भी जीवको दूसरोंके उपदेश से ही 'यह वही है' ऐसा समीचीन जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप ५९८ ४. स्थापना निक्षेप निर्देश ज्ञान होता है, परोपदेशके बिना नहीं। (ध. १/१.१,१/२०/१), (न. च वृ./२७३) ४. सद्भाव असद्भाव स्थापनाके भेद ध. १३/५,४,१२/४२/१ कठ्ठकम्मप्पहुडि जाब भंडकम्मे त्ति ताव एदेहि सम्भावट्ठवणा परूविदा। उधरिमेहि असब्भावट्ठवणा समुद्दिट्ठा। = (स्थापनाके उपरोक्त काष्ठकर्म आदि भेदों में से ) काष्ठकमसे लेकर भेंडकर्म तक जितने कर्म निर्दिष्ट हैं उनके द्वारा सद्भाव स्थापना कही गयी है, और आगे जितने अक्ष बराटक आदि कहे गए है, उनके द्वारा असद्भावस्थापना निर्दिष्ट की गयी है। (ध.६/४,१,५२/२५०/३) ध.६/४,१,५२/२५०/३ एदे सम्भावठ्ठवणा। एदे देसामासया दस परूविदा। संपहि असम्भावठ्ठवणाविसयस्सुवलक्खणर्छ भणदि--...जेच अण्णे एवमादिया त्ति वयणं दोण्ण अवहारणपडिसेणफलं । तेण तंभतुलाहल-मूसलकम्मादोणं गहणं । -ये (काष्ठ कर्म आदि) सद्भाव स्थापनाके उदाहरण हैं। ये दस भेद देशामर्षक कहे गये है, अर्थात इनके अतिरिक्त भी अनेकों हो सकते है। अब असद्भावस्थापनासम्बन्धी विषयके उपलक्षणार्थ कहते है-इस प्रकार 'इन (अक्ष व वराटक) को आदि लेकर और भी जो अन्य है' इस वचनका प्रयोजन दोनो भेदोंके अवधारणका निषेध करना है, अर्थात् 'दो ही है। ऐसे ग्रहणका निषेध करना है। इसलिए स्तम्भकर्म, तुलाकम, हलकम, मूसलकर्म आदिकों का भी ग्रहण हो जाता है। ५. काष्ठकर्म भादि भेदोंके लक्षण ध.१/४,१,५२/२४६/३ देव-णेरइय-तिरिक्ख-मणुस्साण गच्चण-हसणगायण-तूर-वोणादिवायणकिरियावावदाण कडिदपडिमाओ कठ्ठकम्मे त्ति भणं ति । पड-कुड्ड-फलहियादीमु णच्चणादिकिरियावावददेव-णेरइय-तिरिक्वमणुस्साणं पडिमाआ चित्तकम्म, चित्रण क्रियन्त इति व्युत्पत्ते । पोत्त वस्त्रम्, तेण कदाओं पडिमाओ पात्तकम्म । कड-सक्रवर-मट्टियादीणं लेबो लेप्प, तेण घडिदपडिमाओ लेप्पकम्म । लेणं पब्बओ, तम्हि घडिदपडिमाओ लेणकम्मं । सेलो पत्थरो, तम्हि घडिदपडिमाओ सेलकम्म । 'गिहाणि जिणघरादाणि, तेसु कदपडिमाओ गिहकम्म, हय-हत्थि-णर-वराहादिसरूवेण घडिदघराणि गिहकम्ममिदि वुत्त होदि । घरकुड्डेसु तदो अभेदेण चिदपडिमाओ भित्तिकम्म। हस्थिदतेसु किण्णपडिमाओ दतकम्म । भेंडो सुप्पसिद्धो, तेण धडिदपडिमाआ भेडकम्म ।" अक्खे त्ति वत्ते जूबक्खो सयडक्खो वा घेत्तब्वो। वराडओ त्ति वुत्ते कब ड्डिया घेत्तव्बा । -नाचना, हॅसना, गाना तथा तुरई एव वीणा आदि वाद्योके बजानेरूप 'क्रियाओमे प्रवृत्त हुए देव, नारकी, तिर्यच और मनुष्योको काष्ठसे निर्मित प्रतिमाओको काष्ठकर्म कहते है। पट, कुड्य ( भित्ति ) एवं फल हिका ( काष्ठ आदिका तख्ता) आदिमे नाचने आदि क्रियामें प्रवृत्त देव, नारकी, तिर्यच और मनुष्योकी प्रतिमाओको चित्रकर्म कहते हैं। क्योंकि, चित्रसे जो किये जाते है वे चित्रकर्म है' ऐसी व्युत्पत्ति है। पोत्तका अर्थ वस्त्र है, उससे की गयी प्रतिमाओका नाम पोत्तकर्म है। कूट ( तृण ), शर्करा (बालू ) व मृत्तिका आदिके लेपका नाम लेप्य है। उससे निर्मित प्रतिमाये लेप्यकर्म कही जाती है। लयनका अर्थ पर्वत है, उसमे निर्मित प्रतिमाओका नाम लयनकर्म है । शैलका अर्थ पत्थर है, उसमे निर्मित प्रतिमाओंका नाम शेलकर्म है। गृहोसे अभिप्राय जिनगृह आदिकोसे है, उनमें की गयी प्रतिमाओका नाम गृहकर्म है। घोडा, हाथी, मनुष्य एवं वराह ( शूकर ) आदिके स्वरूपसे निर्मित घर गृहकर्म कहलाते हैं, यह अभिप्राय है। घरको दीवालों में उनसे अभिन्न रची गयी प्रतिमाओंका नाम भित्तिकर्म है। हाथी दाँतोपर खोदी हुई प्रतिमाओंका नाम दन्तकर्म है । भेंड सुप्रसिद्ध है । उस पर खोदी गई प्रतिमाओं का नाम भेंडकर्म है। अक्ष ऐसा कहनेपर ताक्ष अथवा शकटाक्षका ग्रहण करना चाहिए (अर्थात् हार जीतके अभिप्रायसे ग्रहण किये गये जूआ खेलनेके अथवा शतरंज व चौसर आदिके पासे अक्ष हैं ) बराटक ऐसा कहनेपर कपर्दिका (कौड़ियो ) का ग्रहण करना चाहिए । (ध. १३/५,३,१०/४/८); (घ. १४/५.६६/५/१०) ६. नाम व स्थापनामें अन्तर रा. बा./९/५/१३/२६/२५ नामस्थापनयोरेकत्वं संज्ञाकर्माविशेषादिति चेत्; ना आदरानुग्रहाकाक्षित्वात् स्थापनायाम् ।...यथा अर्ह दिन्द्रस्कन्देश्वरादिप्रतिमासु आदरानुग्रहाकाक्षित्वं जनस्य,न तथा परिभाषते वर्तते। ततोऽन्यत्वमनयोः।। रा, वा./१/५/२३/३०/३१ यथा ब्राह्मणः स्यान्मनुष्यो ब्राह्मणस्य मनुष्य जात्यात्मकत्वात्। मनुष्यस्तु ब्राह्मण' स्यान्न वा, मनुष्यस्य वाह्मणजात्यादिपर्यायात्मकत्वादशनात् । तथा स्थापना स्यान्नाम, अकृतनाम्न' स्थापनानुपपत्तेः। नाम तु स्थापना स्यान्न वा, उभयथा दर्शनात् । -१. यद्यपि नाम और स्थापना दोनों निक्षेपों में संज्ञा रखी जाती है, बिना नाम रखे स्थापना हो ही नहीं सकती; तो भी स्थापित अहंन्त, इन्द्र, स्कन्द और ईश्वर आदिकी प्रतिमाओंमें मनुष्यको जिस प्रकारकी पूजा, आदर और अनुग्रहकी अभिलाषा होती है, उस प्रकार केवल नाममें नहीं होती, अतः इन दोनोंमें अन्तर है । (ध. १/१,७,१/गा. १/१८६), ( श्लो. वा. २/१/३/श्लो, १५/२६४) २. जैसे ब्राह्मण मनुष्य अवश्य होता है। क्योंकि, ब्राह्मणमें मनुष्य जातिरूप सामान्य अवश्य पाया जाता है; पर मनुष्य ब्राह्मण हो न भी हो, क्योंकि मनुष्यके ब्राह्मण जाति आदि पर्यायात्मकपना नहीं देखा जाता। इसी प्रकार स्थापना तो नाम अवश्य होगी, क्योंकि बिना नामकरण के स्थापना नहीं होती; परन्तु जिसका नाम रखा है उसकी स्थापना हो भी न भी हो, क्योंकि नामवाले पदार्थों में स्थापनायुक्तपना व स्थापनारहितपना दोनों देखे जाते हैं। ध.५/१,७,१/गा, २/१८६ णामिणि धम्मुवयारो णामट्ठवणा य जस्स तं थविदं । तद्धम्मे ण वि जादो सुणाम ठवणाणमविसेसं। -नाममें धर्मका उपचार करना नामनिक्षेप है, और जहाँ उस धर्म की स्थापना को जाती है, वह स्थापना निक्षेप है । इस प्रकार धर्मके विषयमें भी नाम और स्थापनाको अविशेषता अर्थात् एकता सिद्ध नहीं होती। ७. सद्भाव व असद्भाव स्थापनामें अन्तर दे, निक्षेप/४/३ (सद्भाव स्थापनामें बिना किसी के उपदेशके 'यह वही हैं ऐसी बुद्धि हो जाती है, पर असदभाव स्थापनामें बिना अन्यके उपदेशके ऐसी बुद्धि होनी सम्भव नहीं।) ध, १३/५.४,१२/४२/२ सब्भावासब्भावठ्ठवणाणं को विसेसो। बुद्धीए ठविज्जमाणं वण्णाकारादीहि जमणुहरइ दव्वं तस्स सम्भावसण्णा । दव्व-खेत्त-वेयणावेयणादिभेदेहि भिण्णाण पडिणिभि-पडिणिभेयाणं कधं सरिसत्तमिदि चेण, पाएण सरित्तवल भादो। जमसरिसं दवं तमसम्भावठवणा। सव्वदव्वाणं सत्त-पमेयत्तादीहि सरिसत्तमुवल भदि त्ति चे-होदु णाम एदेहि सरिसत्तं, किंतु अप्पिदेहि वण्ण-करचरणादीहि सरिसत्ताभावं पेक्खिय असरिसत्तं उच्चदे।-प्रश्नसद्भावस्थापना और असद्भावस्थापनामें क्या भेद है ? उत्तर- बुद्धिद्वारा स्थापित किया जानेवाला जो पदार्थ वर्ण और आकार आदिके द्वारा अन्य पदार्थका अनुकरण करता है उसको सद्भावस्थापना संज्ञा है। प्रश्न-द्रव्य, क्षेत्र, वेदना, और अवेदना आदिके भेदसे भेदको प्राप्त हुए प्रतिनिभ और प्रतिनिभेय अर्थात सदृश और सादृश्यके मूलभूत पदार्थों में सदृशता कैसे सम्भव है ! उत्तर-नहीं, क्योकि, प्रायः कुछ बातो में इनमें सदृशता देखी जाती है। जो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप ५. द्रव्य निक्षेपके भेद व लक्षण असदृश द्रव्य है वह असद्भावस्थापना है। प्रश्न-सब द्रव्यों मे सत्त्व ६.तद्वयतिरिक्त नो आगम द्रव्य निक्षेप दो प्रकार है-कर्म व नोकमा और प्रमेयत्व आदिके द्वारा समानता पायी जाती है 1 उत्तर-द्रव्योमें इन धर्मोकी अपेक्षा समानता भले ही रहे, किन्तु विवक्षित वर्ण (स. सि./१/५/१८/७); (रा. वा./१/३/७/२६/११); (श्लो. वा. २/२/ हाथ और पैर आदिको अपेक्षा समानता न देखकर असमानता कही १/श्लो.६३/२६%); (ध.१/१,१,१/२६/४); (ध.३/१.२,२/११/१); (ध. जाती है। ४/१,३१/६/8); (गो.क /मू/६३/५४)। ध. १३/५,३,१०/१०/१२ कथमत्र स्पृश्यस्पर्शकभावः। ण, बुद्रीए एयत्त ७. नोकर्म तद्वयतिरिक्त दो प्रकारका है-लौकिक व लोकोत्तर ।-(ध. मावण्णेसु तवरोहादो सत्त-पमेयत्तादीहि सव्यस्स सबबिसयफोसणु १/१,१,२/२६/६); (ध.४/१,३.१/७/१)। बलं भादो वा । प्रश्न-यहाँ ( असद्भाव स्थापनामें ) स्पी-स्पर्शक ८. लौकिक व लोकोत्तर दोनों ही तद्वयतिरिक्त तीन तीन प्रकारके है-- भाव कैसे हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योकि, बुद्धिसे एकत्वको सचित्त, अचित्त व मिश्र :-(ध.१/१,१,१/२७/१७. २८/१). (ध.६॥ प्राप्त हुए उनमें स्पर्श्व-स्पर्शक भावके होनेमे कोई विरोध नहीं १,७,१/१८४/७)। आता। अथवा सत्व और प्रमेयत्व आदिकी अपेक्षा सर्वका सर्व ६. आगम द्रव्य निक्षेपके ह भेद है-स्थित, जित, परिचित, वाचनोपगत. विषयक स्पर्शन पाया जाता है। सूत्रसम, अर्थसम, ग्रंथसम, नामसम और घोषसम।-(ष खं. ६/४,१ सू.५४/२५१); (ष, वं.१४/५.६/सू. २५/२७) । ५. द्रव्य निक्षेपके भेद व लक्षण १०.ज्ञायक शरीरके भी उपरोक्त प्रकार स्थित जित आदि भेद है (ष खं.१/४,१/सू. ६२/२६८)। ..द्रव्य निक्षेप सामान्यका लक्षण ११. तद्वयतिरिक्त नो आगमके अनेक भेद हैं- १. ग्रन्थिम, २. वाइम, रा, वा.१/५/३-४/२८/२१ यद् भाविपरिणामप्राप्ति प्रति योग्यतामाद- ३. वेदिम, ४. पूरिम, ५. सघातिम, ६. अहोदिम, ७. णिवखेदिम, ८. धानं तद् द्रव्यमित्युच्यते। .. अथवा अतद्भाव वा द्रव्य मित्युच्यते । ओव्वेलिम, ६. उद्वेलिम, १०. वर्ण, ११. चूर्ण, १२. गन्ध, १३. विले. यथेन्द्रमानीत काष्ठमिन्द्रप्रतिमापर्यायप्राप्ति प्रत्यभिमुखम् इन्द्रः पन, इत्यादि । (ष.ख/४,१/सू.६५/२७२) । इत्युच्यते। आगामी पर्यायकी योग्यतावाले उस पदार्थको द्रव्य नोट-(इन सब भेद प्रभेदों को तालिका दे० निक्षेप/१/२). कहते है, जो उस समय उस पर्यायके अभिमुख हो, अथवा अतद्भावको द्रव्य कहते हैं। जैसे-इन्द्रप्रतिमाके लिए लाये गये काष्ठको भी ३. आगम द्रव्य निक्षेपका लक्षण इन्द्र कहना । (क्योकि, जो अपने गुणो व पर्यायो को प्राप्त होता है, स, सि./१/५/१८/२ जीवप्राभृतज्ञायी मनुष्यजीवप्राभृतज्ञायी वा अनुपहुआ था और होगा उसको ही द्रव्य कहते है दे० द्रव्य/१/१) (श्लो. युक्त आत्मा आगमद्रव्यजीवः। - जो जीवविषयक या मनुष्य जीव वा.२/१/२श्लो.६०/२६६); (ध.१/१,१,१/२०१६); (त. सा./१/१२)। विषयक शास्त्रको जानता है, किन्तु वर्तमानमें उसके उपयोग प.ध./पू./७४३ अजुसूत्रनिरपेक्षतया, सापेक्ष भाविनै गमादिनयै । छद्म- रहित है वह आगम द्रव्यजीव है। ( इसी प्रकार अन्य भी जिस जिस स्थो जिनजीवो जिन इव मान्यो यथात्र तद्रव्यम्। -ऋजुसूत्रनय- विषय सम्बन्धी शास्त्रको जानता हुआ उसके उपयोगसे रहित रहनेकी अपेक्षा न करके और भाविनैगमादिक नयोकी अपेक्षासे जो कहा वाला आत्मा उस उस नामवाला ही आगम द्रब्य है। जैसे मगल जाता है, वह द्रव्य निक्षेप है। जैसे कि छद्मस्थ अवस्थामें वर्तमान विषयक शास्त्रको जाननेवाला आत्मा आगम द्रव्य मंगल है।) (रा. जिन भगवान के जीवको जिन कहना। वा./२/2/1/२६/३); (श्लो, वा. २/१/५/श्लो. ६१/२६७); (ध.३/१,२, नय/11/३ जैसे-आगे सेठ बननेवाले बालकको अभीसे सेठ कहना २/१२/११); (ध.४/१,३,१११/२); (ध. १/१,१,१/८३/३); (गो.क./अथवा जो राजा दीक्षित होकर श्रमण अवस्थामें विद्यमान है उसे भी मू./५४/५३); (न, च, वृ./२७४)। राजा कहना)। ध.१/१,११/२१/१ तत्थ आगमदो दवमंगलं णाम मंगलपाहुडजाणओं २. द्रव्य निक्षेपके भेद-प्रभेद अणुवजुत्तो, मंगल-पाहुड़-सद्द-रयणा वा, तस्सत्थ-वणवखर-रयणा वा। मंगल प्राभृत अर्थात् मंगल विषयका प्रतिपादन करनेवाले १. द्रव्य निक्षेपके दो भेद हैं-आगम व नोआगम (प.खं/४.१/स. शास्त्रको जाननेवाला, किन्तु वर्तमानमे उसके उपयोगसे रहित जीव५३/२५०); (ष रवं. १४/५,६/सूत्र ११/७); ( स.सि./१/५/१८१); (रा. को आगम द्रव्यमंगल कहते हैं। अथवा मंगलविषयके प्रतिपादक वा./१/१/५/२६/३); (श्लो.वा,२/१/५/श्लो,६०/२६६); (ध.१/१,१,२/ शास्त्रको शब्द रचनाको आगम द्रव्यमंगल कहते है। अथवा मंगल२०/७); (ध. ३/१,२,२/१२/३); (घ. ४/१,३,१/५/१); (गो.क./मू./ विषयके प्रतिपादक शास्त्रकी स्थापनारूप अक्षरोकी रचनाको भी ५४/५३); (न. च.व./२७४ )। आगम द्रव्य मंगल कहते है । (ध. ५/१,६,१/२/३)। २. नो आगम द्रव्यनिक्षेप तीन प्रकारका है-ज्ञायक शरीर, भावी व ४. नोआगम द्रव्य निक्षेपका लक्षण तद्वयतिरिक्त । (प.वं.१/४.१/सूत्र ६१/२६७) (स.सि./२/५/१८/३), (रा. वा./१/५/७/२६/८); (श्लो.वा. २/१/५/श्लो .६२/२६७), (ध.१/ (पूर्वोक्त आगमद्रव्यकी आत्माका आरोप उसके शरीरमें करके उस जोवके शरीरको ही नोआगम द्रव्य जीव या नोआगम द्रव्य १,१,१/२१/२); (ध.३/१,२,२/१३/२); (ध.४/१,३,१/६/१); (गो. मगल आदि कह दिया जाता है। और वह शरीर ही तोन प्रकारका क.मू.५५/५४); (न. च. वृ./२७५) । ३. ज्ञायक शरीर तीन प्रकारका है-भूत, वर्तमान, व भात्री।-(श्लो. है भूत, भावि व वर्तमान । अथवा उसके शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य जो कर्म या नोकर्म रूप पदार्थ हैं उनको भी नोआगम द्रव्य वा. २/१//श्लो.६२/२६७); (ध. १/१,१,१/२१/३), (ध.४/१.३.१/ कह दिया जाता है। इसोका नाम तद्वयतिरिक्त है। इनके पृथक्६/२); (गो.क/मू./५५/५४)। पृथक् लक्षण आगे दिये जाते हैं । ) ४. भूत ज्ञायक शरीर तीन प्रकारका है-च्युत, च्यावित व त्यक्त । ५. ज्ञायक शरीर सामान्य व विशेष लक्षण (ष. ख.६/४,१/ सू.६३/२६६); ( श्लो. वा. २/१/५/श्लो.६२/२६७); (ध.१/१,१,१/२२/३); (ध.४/१/३,१/६/३); (गो.क./मू./५६/५४)। १. ज्ञायक शरीर सामान्य ५. त्यक्त ज्ञायकशरीर तीन प्रकारका है-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी ब स.सि./१/५/१८/४ तत्र ज्ञातुर्यच्छरीरं त्रिकालगोचर तज्ज्ञायकशरीरमा प्रायोपगमन | -(ध.१/११,१/२३/३); (गो.क./म् /५६/५६)। -ज्ञाताका जो त्रिकाल गोचर शरीर है वह ज्ञायकशरीर नोआगम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप ६०० ५. द्रव्य निक्षेपके भेद व लक्षण द्रव्य जीत्र है। (रा, वा/१/१/७/२६/९), (श्लो. वा/२/१/५/श्लो.६२/ २६७). (ध.१/१,१,१/२१/३), (गो.क./मू./५५/५४)। २. च्युत च्यावित व त्यक्त अतीत शायक शरीर ध.१/१,९,१/२२/३ तरथ चुदं णाम कयलीघादेण विणा पक्कं पि फलं व कम्मोदएण ज्झीयमाणायुक्खयपदिदं । चइदं णाम कयलीधादेण छिण्णायुक्खयपदिसरीरं । चत्तसरीरं तिविह, पावोगमण-विहाणेण, इंगिणीविहाणेण, भत्तपच्चक्वाणविहाणेण चत्तमिदि। -- कदली. घात मरणके बिना कर्मके उदयसे झडनेवाले आयुकर्मके क्षयसे, पके हुए फलके समान, अपने आप पतित शरीरको च्युतशरीर कहते हैं। कदलीघातके द्वारा आयुके छिन्न हो जानेसे छूटे हुए शरीरको च्यावित शरीर कहते हैं। (कदलीघातका लक्षण दे० मरण/४)। त्यक्त शरीर तीन प्रकारका है-प्रायोपगमन विधानसे छोडा गया, इंगिनो विधानसे छोड़ा गया और भक्त प्रत्याख्यान विधानसे छोडा गया । ( इन तीनोंका स्वरूप दे० सल्लेखना/३), (गो. क./म./५६, ५८/५४)। घ. १/१,१,१/२५/६ कयलीघादेण मरणकरवाए जीवियासाए जीवियमरणासाहि विणा पदिदं सरीरं चइदं । जीवियासाए मरणासाए जीवियमरणासाहि विणा वा कयलीघादेण अचत्तभावेण पदिदं सरीर चुदं णाम । जी विदमरणासाहि विणा सरूवोवलद्धि णिमित्तं व चत्त बझंतरडगपरिग्गहस्स कयलीघादेणियरेण वा पदिदसरीरं चत्तदेहमिदि । यमरणकी आशासे या जोवनकी आशासे अथवा जीवन और मरण इन दोनोंकी आशाके बिना ही कदलीघातसे छूटे हुए शरीरको च्यावित कहते है । जीवनकी आशासे, मरणकी आशासे अथवा जीवन और मरण इन दोनोंकी आशाके बिना ही कदलीधात व समाधिमरणसे रहित होकर छूटे हुए शरीरको च्युत कहते हैं। आत्म स्वरूपकी प्राप्तिके निमित्त, जिसने बहिरंग और अन्तरंग परिग्रहका त्याग कर दिया है, ऐसे साधुके जीवन और मरणकी आशाके बिना ही, कदलीधातसे अथवा इतर कारणोंसे छूटे हुए शरीरको त्यक्त शरीर कहते हैं। ३. भूत वर्तमान व भावी ज्ञोयक शरीर ( वर्तमान प्राभृतका ज्ञातापर अनुपयुक्त आत्माका वर्तमानवाला शरीर; उस ही आत्माका भूतकालीन च्युत, च्यावित या त्यक्त शरीरः तथा उस ही आत्माका आगामी भवमें होनेवाला शरीर, क्रमसे वर्त. मान, भूत व भावी ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्य जीव या मगल आदि कहे जाते है।) ६. भावि नोआगमका लक्षण स. सि./१/१/१८/५ सामान्यापेक्षया नोआगम-भाविजीवो नास्ति, जीवनसामान्यसदापि विद्यमानत्वात । विशेषापेक्षया स्वस्ति । गत्यन्तरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभवप्राप्तिं प्रत्यभिमुखो मनुष्यभाविजीवः। -जीव सामान्यकी अपेक्षा 'नोआगम भावी जीव' यह भेद नहीं बनता है; क्यों कि जीवमे जीवत्व सदा पाया जाता है। हाँ, पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा 'नो आगम भावी जीव' यह भेद बन जाता है; क्योकि जो जीव अभी दूसरी गतिमें विद्यमान है, वह ( अज्ञायक जीव ) जब मनुष्य भवको प्राप्त करनेके प्रति अभिमुख होता है, तब वह मनुष्य भावी जीव कहलाता है। रा वा/१/५/७/२६/8 जीवन-सम्यग्दर्शनपरिणामप्राप्ति प्रत्यभिमुख द्रव्यं भावीत्युच्यते । - जीवन या सम्यग्दर्शन आदि पर्यायो की प्राप्तिके अभिमुख अज्ञायक जीवको जीवन या सम्यग्दर्शन आदि कहना भावी नोआगम द्रव्य जीव या भावी नोआगम सम्यगदर्शन है। श्लोवा/२/२/५/श्लो.६३/२६८ भाविनोआगमद्रव्यमेष्यत् पर्यायमेव तत् । =जो आत्मा भविष्यत्में आनेवाली पर्यायोके अभिमुख है, उन पर्यायोसे आक्रान्त हो रहा वह आत्मा भावीनोअागम द्रव्य है।। ध.१/१,१,१/२६/३ भव्यनोआगमद्रव्यं भविष्यत्काले मंगलप्राभृतज्ञायको जीवः मंगलपर्यायं परिणस्यतीति वा। -जो जीव भविष्यकालमें मंगल शास्त्रका जाननेवाला होगा, अथवा मंगल पर्यायसे परिणत होगा उसे भव्य नोआगम द्रव्यमंगल कहते है। (ध.४/१,३,१/६/६), (गो.क./मू./६२/५८)। ७. तद्वयतिरिक्त सामान्य व विशेषके लक्षण १. तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य स.सि./१/१८/७ तद्वय तिरिक्तः कर्मनोकर्म विकल्पः। -तव्यतिरिक्तके दो भेद हैं-कर्म व नोकर्म। (रा. वा/१/५/७/२१/११), (श्लो. वा/२/ १/५/श्लो,६६/२६८)। ध.१/१,१,१/८३/५ तव्वदिरित्तं जीवठाणाहार-भूदागास-दव्यं 1 जीवस्थानों के अथवा जीवस्थान विषयक शास्त्रके आधारभूत आकाशद्रव्यको तद्वचतिरिक्त नोआगम द्रव्य जीवस्थान कहते हैं। (अथवा उस-उस पर्यायके या शास्त्रज्ञानसे परिणत जीवके निमित्तभूत कर्म वर्गणाओं या अन्य बाह्य द्रव्योंको उस-उस नामसे कहना तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यनिक्षेप है)। २. कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य श्लो. वा/२/१/५/श्लो ६४/२६८ ज्ञानावृत्त्यादिभेदेन कर्मानेकविधमतर। ___ज्ञानावरण आदि भेदसे कर्म अनेक प्रकार माने गये हैं। ध.४/१, ३.१/६/१०)। ध १११.१.१/२६/४ तत्र कर्ममंगलं दर्शनविशुद्भवादिषोडशधाप्रविभक्ततीर्थ कर-नामक - कारणैर्जीव - प्रदेश - निबद्ध - तीर्थ करनामकर्ममाङ्गल्य निबन्धनत्वान्मडगलम् । - दर्शन विशुद्धि आदि सोलह प्रकारके तीर्थंकर-नामकर्म के कारणों से जीवप्रदेशों के साथ अंधे हुए तीर्थकर नामकर्मको. कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्य मंगल कहते हैं। क्योंकि वह भी मंगलपनेका सहकारी कारण है। गो. क /म./६३/५८ कम्मसरूवेणागयकम दव्वं हवे णियमा ।- ज्ञानावरणादि प्रकृतिरूपये परिणमे पुदगलद्रव्य कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य कर्म जानना। (यहाँ 'कर्म का प्रकरण होनेसे कर्मपर लागू करके दिखाया है)। ३. नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य सामान्य श्लो.वा/२/१५ श्लो.६४-६५ नोकर्म च शरीरवपरिणामनिरुत्सुकम् ।६।। पुदगलद्रव्यमाहारप्रभृत्युपचयात्मकम् ॥६५॥ =वर्तमानमें शरीरपनारूप परिगतिके लिए उत्साहरहित जो आहारवर्गणा, भाषावर्गणा आदि रूप एकत्रित हुआ पुद्गलद्रव्य है वह नोकर्म समझ लेना चाहिए। ध. ३/१,२,२/१५/३ आगममधिगम्य विस्मृत' क्वान्तर्भवतीति चेत्तद्व्यतिरिक्तद्रव्यानन्ते। प्रश्न-जो आगमका अध्ययन करके भूल गया है उसका द्रव्यनिक्षेपके किस भेदमें अन्तर्भाव होता है। उत्तर-ऐसे जीवका नोकर्म तद्वयतिरिक्त द्रव्यानन्तमें अन्तर्भाव होता है ( यहाँ 'अनन्त'का प्रकरण है)। गो, क./मू./६४.६७/५६,६६ कम्मद्दव्वादणं णोकम्मदव्वमिदि होदि ।। पडपडिहारसिमज्जा आहारं देह उच्चणीचड्गम् । भंडारी मूलाणं णोकम्मं दवियकम्मं तु । -कर्मस्वरूपसे अन्य जो कार्य होते हैं उनके बाह्यकारणभूत वस्तुको नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यकर्म जानना ( यहाँ 'कर्म'का प्रकरण है।६४। जैसे-ज्ञानावरणका नोकर्म सरीठ वस्त्र है, दर्शनावरणका नीकर्म द्वारविष तिष्ठता द्वारपाल है। वेदनीयका नोकर्म मधुलिप्त खड्ग है। मोहनीयका नो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप ५. द्रव्य निक्षेपके भेद व लक्षण कर्म, मदिरा, आयुका नोकर्म चार प्रकार आहार, नामकर्मका नोकर्म औदारिकादि शरीर और गोत्रकर्मका नोकर्म ऊँचा-नीचा शरीर है। ४. लौकिक व लोकोत्तर सामान्य नोकर्म तदयतिरिक्त घ.४/१,३,१/७/१ णोकम्मदव्ववेत्तं तं दुविहं, ओषयारियं परमत्थियं चेदि । तत्थ ओवयारियं णोकम्मदव्यखेत्तं लोगपसिद्ध सालिखेतं वीहिखेतमेवमादि । पारमत्थियं णोकम्मदव्यखेतं आगासदव्यं । -नोकर्म द्रव्यक्षेत्र ( यहाँ क्षेत्रका प्रकरण है) औपचारिक और पारमार्थिकके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें से लोकमें प्रसिद्ध शालिक्षेत्र, वी हिक्षेत्र, इत्यादि औपचारिक नोकर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र कहलाता है। आकाश द्रव्य पारमार्थिक नोकर्म तइव्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र है। नोट-(अन्य भी देखो वह-वह विषय )। ५. सचित्त अचित्त मिश्र सामान्य नोकर्म तद्व्यतिरिक्त घ./१,७.१/१८४७ तम्वदिरित्तणोआगमदेवभावो तिविहो सचित्ताचित्तमिस्सभेएण । तत्थ सचित्तो जीवदव्वं । अचित्तो पोग्गल-धम्माधम्म-कालागासदव्बाणि । पोग्गलजीवदव्वाण संजोगो कधं चिज्जाचंतरत्तमावण्णो णोआगममिस्सदव्वभावो णाम । -तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यभावनिक्षेप (यहाँ भावका प्रकरण है) सचित्त अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है। उनमें जीव द्रव्य सचित्त भाव है, पुद्गल धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय काल और आकाशद्रव्य अचित्तभाव हैं। कथंचित जात्यंतर भावको प्राप्त पृद्गल और जीव द्रव्योंका संयोग अर्थात शरीरधारी जीव नोआगम मिश्रद्रव्य भावनिक्षेप है। (ध./१,६.१/३/१--यहाँ 'अन्तर' के प्रकरण में तीनों भेद दर्शाये हैं। नोट-(अन्य भी देखो वह बह विषय)। ६. लौकिक व लोकोत्तर सचितादि नोकर्म तद्वयतिरिक्त घ.१/१,१.२/२७/९ तत्र लौकिकं त्रिविधम्, सचित्तमचित्तं मिश्रमिति । तत्राचित्तमङ्गलम-'सिद्धत्थ-पुण्ण-कभो बंदणमाला य मङ्गलं छत्तं । सेदो वण्णो आदसणो य कण्णा य जच्चस्सो ।१३। सचित्तमङ्गलम् । मिश्रमङ्गलं सालंकारकन्यादिः । लोकोत्तरमङ्गलमपि त्रिविधम, सचित्तमचित्तं मिश्रमिति । सचित्तमहदादीनामनाद्यनिधनजीवद्रव्यम् । न केवलज्ञानादिमङ्गलपर्यायविशिष्टाहदादीनाम जीवद्रव्यस्यैव ग्रहणं तस्य वर्तमानपर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावइति भावनिक्षेपान्तर्भावात । न केवलज्ञानादिपर्यायाण ग्रहणं तेषामपि भावरूपत्वात । अचित्तमङ्गलं कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयादिः, तत्स्थप्रतिमास्तु संस्थापनान्तर्भावात् । अकृत्रिमाण कथं स्थापनाव्यपदेशः। इति चेन्न, तत्रापि बुद्धया प्रतिनिधौ स्थापयितमुरख्योपलम्भात् । यथा अग्निरिव माणवकोऽग्निः तथा स्थापनेव स्थापनेति तासां तद्वयपदेशोपपत्तेर्वा। तदुभयमपि मिश्रमङ्गलम्। -लौकिक मंगल (यहाँ मंगलका प्रकरण है) सचित्त-अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है। इनमें सिद्धार्थ अर्थात् श्वेत सरसों, जलसे भरा हुआ कलश, बन्दनमाला, छत्र, श्वेतवर्ण और दर्पण आदि अचित्त मंगल हैं। और बालकन्या तथा उत्तम जातिका घोडा आदि सचित्त मंगल हैं । १३. अलंकार सहित कन्या आदि मित्रमंगल समझना चाहिए। (दे० मंगल/१/४)। लोकोत्तर मंगल भी सचित्त अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है। अहंतादिका अनादि अनिधन जीवद्रव्य सचित्त लोकोत्तर नोआगम तव्यतिरिक्तद्रव्य मंगल है। यहाँ पर केवल ज्ञानादि मंगलपर्याययुक्त अहंत आदिका ग्रहण नहीं करना चाहिए, किन्तु उनके सामान्य जीव द्रव्यका ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वर्तमानपर्याय सहित द्रव्यका भाव निक्षेपमें अन्तर्भाव होता है। उसी प्रकार केवलज्ञानादि पर्यायोका भी इसमे ग्रहण नहीं होता, क्योंकि वे सब पर्याये भावस्वरूप होनेके कारण उनका भी भाव निक्षेपमें ही अन्त र्भाव होगा। कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालयादि अचित्त लोकोत्तर नोआगम तद्व्यतिरिक्त द्रव्यमंगल हैं। उनमें स्थित प्रतिभाओंका इस निक्षेपमें ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्योकि उनका स्थापना निक्षेपमें अन्तर्भाव होता है । प्रश्न-अकृत्रिम प्रतिमाओमे स्थापनाका व्यवहार कैसे सम्भव है। उत्तर-इस प्रकारको शंका उचित नहीं हैं। क्योंकि, अकृत्रिम प्रतिमाओं में भी बुद्धिके द्वारा प्रतिनिधित्व मान लेनेपर 'ये जिनेन्द्रदेव हैं। इस प्रकारके मुख्य व्यवहारकी उपलब्धि होती है। अथवा अग्नि तुल्य तेजस्वी मालकको भी जिस प्रकार अग्नि कहा जाता है उसी प्रकार अकृत्रिम प्रतिमाओंमें की गयी स्थापनाके समान यह भो स्थापना है। इसलिए अकृत्रिम जिन प्रतिमाओ में स्थापनाका व्यवहार हो सकता है। उन दोनों प्रकारके सचित्त और अचित्त मंगलको मिश्रमंगल कहते हैं (जैसे-साधु संघ सहित चैत्यालय)। ८. स्थित जित आदि भेदोंके लक्षण ध.६/४,१,५४/२५१/१० अवधृतमानं स्थितम्, जो पुरिसो भावागमन्मि वुड्ढओ गिलाणो व्ब सणि सणि संचरदि सो तारिससंसकारजुत्तो पुरिसो तभावागमो च स्थित्वा वृत्तेः द्विदं णाम। नैसंग्यवृत्तिजितम्, जेण संसकारेण पुरिसो भावागमम्मि अक्वलिओ संघरइ तेण संजुत्तो पुरिसो तन्भावागमो च जिदमिदि भण्णदे। यत्र यत्र प्रश्नः क्रियते तत्र तत्र आशुतमवृत्ति परिचितम्. क्रमेणोत्क्रमेणानुभयेन च भावागमाम्भोधौ मत्स्यवच्चटुलतमवृत्तिर्जीवो भावागमश्च परिचितम् । शिष्याध्यापन वाचना । सा चतुर्विधा नंदा भद्रा जया सौम्या चेति । " एतासा वाचनानामुपगतं वाचनोपगतं परप्रत्यायनसमर्थम् इति यावत् । ध.६/४,१.५४/२५६/७ तित्थयरवयण विणिग्गयबीजपदं सुत्तं । तेण सुत्तेण समं वट्टदि उप्पज्जदि त्ति गणहरदेवम्मिट्टिदसुदणाणं सुत्तसमं । अयेते परिच्छिद्यते गम्यते इत्यर्थो द्वादशाङ्गविषयः, तेण अत्येण समं सह वट्टदि ति अस्थसमं । दब्बसुदाइरिए अणवेक्विय संजमजणिदसुदणागावरणक्रव ओषसमसमुप्पण्णबारहंगमुदं सयंबुद्धाधारमत्थसममिदि वुत्तं होदि । गणहरदेव विरइददब्बसुदं गंथो, तेण सह बट्टदि उप्पज्जदि त्ति बोहियबुद्धाइरिएसु द्विदबारहंगसुदणाणं गंथसमं । नाना मिनोतीति नाम । अणेणेहि, पयारेहि अत्थपरिच्छिन्ति णामभेदेण कुणदि त्ति एगादि अवरवराण बारसंगाणि ओगाणं मज्झदिदव्बसुदणाणवियप्पा णाममिदि बुत्तं होदि । तेण नामेण दब्बसुदेण समं सट्टवट्टदि उप्पज्जदि त्ति सेसाइरिएसु दिसुदणाणं णामसमं । सुई मुद्दा" पंचते...अणिओगस्स घोससाणो णामेगदेसेण अणिोगो बुच्चदे। सच्चभामापदेण अवगम्ममाणस्थस्स तदेगदेसभामासदादो वि अवगमादो।" घोसेण दव्बाणिओगहारेण सम सह बट्टदि उप्पज्जदि त्ति घोससमं णाम अणियोगमुदणाणं । १. अवधारण किये हुए मात्रका नाम स्थितआगम है। अर्थात जो पुरुष भावआगममें वृद्ध व व्याधिपीडित मनुष्यके समान धीरे-धीरे संचार करता है वह उस प्रकारके संस्कारसे युक्त पुरुष और वह भावागम भी स्थित होकर प्रवृत्ति करनेसे अर्थात् रुक-रुककर चलनेसे स्थित कहलाता है। २, नैसर्ग्यवृत्तिका नाम जित है। अर्थात् जिस संस्कारसे पुरुष भावागममें अस्खलितरूपसे संचार करता है, उससे युक्त पुरुष और भावागम भी 'जित' इस प्रकारका कहा जाता है। ३. जिस जिस विषयमें प्रश्न किया जाता है, उसउसमें शीघ्रतापूर्ण प्रवृत्तिका नाम परिचित है। अर्थात् क्रमसे, अक्रमसे और अनुभयरूपसे भावागमरूपी समुद्रमें मछलीके समान अत्यन्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-७६ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप चलता पूर्ण प्रवृत्ति करनेवाला जीव और वह भावागम भी परिचित कहा जाता है । ४. शिष्योंको पढानेका नाम वाचना है । वह चार प्रकार है- नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या । ( विशेष दे० वाचना ) | इन चार प्रकारकी वाचनाओको प्राप्त वाचनोपगत कहलाता है । अर्थात् जो दूसरोको ज्ञान करानेमे समर्थ है वह वाचनोपगत है । १. तीर से निकला बीजपद सूत्र कहलाता है। (विशेष देखो आगम ७) उस सूत्र के साथ चूँ कि रहता अर्थात् उत्पन्न होता है, अतः गणधर देव में स्थित श्रुतज्ञान सूत्रसम कहा गया है । ६, जो ''जाना जाता है यह वाक्यका विषय अर्थ है, उस अर्थ के साथ रहने के कारण अर्थसम कहलाता है। श्रुत अनायकी अपेक्षा न करके सथमसे उत्पन्न हुए श्रुतज्ञानावरण क्षयो पशमसे जन्य स्वयंबुद्धोमे रहनेवाला द्वादशांगत अर्थसम है यह अभिप्राय है । ७ गणधर देवसे रचा गया द्रव्यश्रुत ग्रन्थ कहा जाता है। उसके साथ गहने अर्थाद उत्पन्न होनेके कारण मुख आचार्योंमे स्थित द्वादशांग श्रुतज्ञान ग्रन्थसम कहलाता है । ८, 'नाना मिनोति' अर्थात नानारूप जो जानता है उसे नाम कहते है। अनेको कमद्वारा भेद करनेके कारण एक आदि अपरूप मारह अगोके अनुयोगोंके मध्य स्थित द्रव्यश्रुत ज्ञानके भेद नाम है, यह अभिप्राय है । उस नामके अर्थात् के साथ रहने अर्थात होनेके कारण दोष आचार्योंमें स्थित श्रुतज्ञान नामसम कहलाता है । ६. सूची; मुद्रा आदि पाँच दृष्टान्तोंके वचनसे (दे० अनुयोग / २ / १) घोष संज्ञावाला अनुयोगका अनुयोग (घोषानुयोग ) नामका एकदेश होनेते अनुयोग कहा जाता है क्योंकि पद अरगम्यमान अर्थ उरुपदके एकदेशभृत भामा शब्द से भी जाना ही जाता है ।...घोष अर्थात् द्रव्यानुयोगद्वारके समं अर्थात् साथ रहता है, अर्थात उत्पन्न होता है, इस कारण अनुयोग झन घोष कहलाता है। नोट-ये उपरोक्त नौकेनौ भेदों यहाँ भी दिये है (ध. १/४ १.६२/६२/२४९/५) (१२/२६१२०-१) ६०२ ९. ग्रन्थिम आदि भेदोंके लक्षण ध. १/२,१.६४/२०२/१३ सत्य गंधणकिरियापितमादिद गंवि धाम वाकिरियाप्प पारि-विदयबालकंस स्थाविदम्यवाद काम सुतिको der किरियाणिफण्णं वेदिमं णाम । तलाव लि-जिणहरा हिट्ठाणादिद पूरणकिरियाणिफण्णं पूरिमं णाम । कट्टिमणिधर पावरहादिव्वं कहिय पत्थरादिसंवाद किरिया संचा दिमं गामणिर्ममनुजंगीरादि बहोदिन किरिया फिरण महोदिमं णाम। अहोदिमकिरियासचित अचिम्बा रोवणकिरिति हो। पोखरिणी यायी मतनायमादि-सुरु दव्वं णिक्खोदण करियाणिप्फण्णं णिवखोदिमं णाम । णिक्खोदणंमिदितं होदि एक-दू-मिस- डोराम किरियामिमि नाम गंधिम-वाहमा पाम पिसारयामसि च नायकुलार्ण किरिया गररया दिवाणामपि पिंडिया कादि किरिया णं णाम बहूणं दवा 'जागेणुइदगंध पहाणं दव्वं गंधं णाम । घुट्ट-पिट्ठ- चंदण-कुंकुमदिवसे शाम १ ग्रन्धनेरूप किया सिद्ध हुए फूल आदि द्रव्यको ग्रन्थिम कहते हैं । २. बुनना क्रियासे सिद्ध हुए सूप पिटारी, चंगेर, कृतक, चालनी, कम्बल और वस्त्र आदि द्रव्य वाम कहा है। २. बेधन कियाने सिद्ध हुए सूति (सोम निकालनेका स्थान ) इंधुत्र ( भट्ठी ) कोश और पत्य आदि द्रव्य बेधिम कहे - ६. द्रव्यनिक्षेप निर्देश व शंकाएँ जाते है । ४. पूरण क्रियासे सिद्ध हुए तालाबका बाँध व जिनग्रहका चबूतरा आदि द्रव्यका नाम पूरिम है । ५. काष्ठ, ईंट और पत्थर आदिकी संघातन क्रियासे सिद्ध हुए कृत्रिम जिनभवन, गृह, प्राकार और स्तूप आदि द्रव्य सघातिम कहलाते है । ६ नीम, आम, जामुन ओर अंबीर आदि अयोधि क्रियासे सिद्ध हुए द्रव्यको अघोधि " कहते हैं । अधोधिम क्रियाका अर्थ सचित्त और अचित्त द्रव्योंकी रोपन किया है। यह तात्पर्य है ७ पुष्करिणी, बापी फूप. तडाग, लयन और सुरग आदि निष्खनन क्रियासे सिद्ध हुए द्रव्य णिवरखोदिम कहलाते है। खिदिमसे अभिप्राय खोदना किया है) उपबेलन क्रिया सिद्ध हुए एकगुणे, दुगुने एवं तिगुणे सूत्र डोरा, वेष्ट आदि द्रव्य उपवेल्लन कहलाते हैं । ६. ग्रन्थिम व वाइम आदि द्रव्य के उद्वेल्लनसे उत्पन्न हुए द्रव्य उद्वेल्लिम कहलाते हैं । १०. चित्रकार एवं वर्णोंके उत्पादनमे निपुण दूसरोंकी क्रियासे सिद्ध मनुष्य. तुरग आदि अनेक आकाररूप द्रव्य वर्ण कहे जाते हैं । ११, चूर्णन क्रियासे सिद्ध हुए पिष्ट, पिष्टिका, और कणिका आदि द्रव्यको चूर्ण कहते है । १२. बहुत द्रव्योंके संयोग से उत्पादित गन्धकी प्रधानता रखनेवाले द्रव्यका नाम गन्ध है । १३. घिसे व पीसे गये चन्दन और ककुम आदि द्रव्य विलेपन कहे जाते हैं । ६. द्रव्यनिक्षेप निर्देश व शंकाएँ १. द्रव्य निक्षेपके लक्षण सम्बन्धी शंका दे द्रव्य / २/२ (भविष्य पर्यायके प्रति अभिमुखपने रूप लक्षण 'गुणपर्ययवान द्रव्य इस लक्षणके साथ विशेषको प्राप्त नहीं होता)। रा. वा./१/५/४/२८/२५ युक्तं तावत् सम्यग्दर्शनप्राप्ति प्रति गृहीताभिमुख्यमिति, अतत्परिणामस्य जीवस्य संभवातः इदं त्वयुक्तम्जीवनपर्यायप्राप्ति प्रति गृहीताभिमुख्यमिति । कुतः । सदा तत्परिणामात् । यदि न स्यात, प्रागजीव प्राप्नोतीति । नैष दोष, मनुष्यजीवादिविषापेक्षा सव्यपदेशो मेदितव्यः प्रश्न- सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके प्रति अभिमुख कहना तो मुख है; क्योंकि पहले जो पर्याय नहीं है, उसका आगे होना सम्भव है; परन्तु जीवनपर्यायके प्रति अभिमुख कहना तो युक्त नहीं है, क्योंकि, उस पर्यायरूप तो यह सदा ही रहता है। यदि न रहता तो उससे पहले उसे अजीब का प्रसंग प्राप्त होता 1 उत्तर - यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, यहाँ जीवन सामान्यकी अपेक्षा उपरोक्त बात नहीं कही गयी है, बि मनुष्यादिपने रूप जीवल विशेषको अपेक्षा भात कही है। नोट - यह लक्षण नोआगम तथा भावी नोआगम द्रव्य निक्षेपमें घटित होता है- (दे० निक्षेप /६/३/२.२ ) । २. आगम द्रव्य निक्षेप विषयक शंका १. आगम-द्रव्य - निक्षेपमें द्रव्यनिक्षेपपनेकी सिद्धि श्लो, वा. २/१/५/६६/२७०/१ तदेवेदमित्येकत्व प्रत्यभिज्ञानमन्वयप्रत्ययः । सतावज्जोवादिप्राभृतज्ञायिन्यात्मन्यनुपयुक्ते जीवाद्यागमद्रव्येऽस्ति । स एवाहं जीवादिप्राभृतज्ञाने स्वयमुपयुक्त प्रागासम् स एवेदानीं तत्रानुपयुक्त वर्ते पुनरुपयुक्तो भविष्यामीति संप्रत्ययात् । - 'यह वही है' इस प्रकारका एकत्व प्रत्यभिज्ञान अन्वयज्ञान कहलाता है। जीवादि विषयक शास्त्रको जाननेवाले वर्तमान अनुपयुक्त आत्मामें वह अवश्य विद्यमान है। क्योंकि, 'जो ही मे जीवादि शास्त्रोंको जाननेमें पहले उपयोग सहित था, वही मैं इस समय उस शास्त्रज्ञानमें उपयोग रहित होकर वर्त रहा हूँ और पीछे फिर शास्त्रज्ञानमें उपयुक्त हो जाऊँगा । इस प्रकार द्रव्यपनेकी लडीको लिये हुए भले प्रकार ज्ञान हो रहा है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप २. उपयोगरहितकी भी आगम संज्ञा कैसे है। = घ. ४/१.३.१/२/२ कथमेवरस जीवदवियस्स दाशावरशीयनल ओवसमविट्टिस्स एयभावले सागमप दिरित्तस्स आगमपलेत्तरएसो न एसोसो, आधारे आयोववारेण कारने जुनारेणागमववरसखओवसम विसिट्ठजी वदन्वावलंबणेण वा तस्स तदविरोहा प्रश्न श्रुतज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशम से विशिष्ट तथा द्रव्य और भावरूप क्षेत्रागम से रहित इस जीवद्रव्यके आगम क्षेत्र रूप संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है (यहाँ 'क्षेत्र' विषयक प्रकरण है ) ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, आधाररूप आत्मामें आधेयभूतक्षयोपशम-स्वरूप आगमके उपचारसे; अथवा कारणरूप आत्मा में कार्यरूप क्षयोपशमके उपचारसे, बथवा प्राप्त हुई है आगमसंज्ञा जिसको ऐसे क्षयोपशमसे युक्त जोवइम्पर्क अनलम्बनसे जीवके आगमद्रव्यक्षेत्ररूप संज्ञाके होनेमें कोई विरोध नहीं है। घ. ७/२,९,१/४/२ कथमागमेण विप्यमुक्कस्स जीवदव्त्रस्स आगमववएसो ए एस दोस्रो आगमाभावे मि आगमसं सकारसहियस्स पृथ् लद्धागमववएसस्स जीवदव्वस्स आगमववएसुवलंभा । एदेण भट्टसंसकारजीवदव्वस्स वि गहणं कायव्वं, तत्थ वि आगमन व एसुवलंभा । प्रश्न- जो आगमके उपयोगले रहित है, उस जीवद्रव्यको 'आगम' कैसे कहा जा सकता है ! उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, आगम के अभाव होनेपर भी आगमके संस्कार सहित एवं पूर्व काल में आगम संज्ञाको प्राप्त जीवद्रव्यको आगम कहना पाया जाता है। इसी प्रकार जिस जीवका आगमसंस्कार भ्रष्ट हो गया है उसका भी ग्रहण कर लेना चाहिए क्योंकि उसके भी (भूतपूर्व प्रज्ञापननयकी अपेक्षाक. पा.) आगमसंज्ञा पायी जाती है। (नं. पा. ९/९.१३-१४६२१७ १६६ / २ ) । ३. नोआगम द्रव्यनिक्षेप विषयक शंका १. नोआगममें द्रव्य निक्षेपपनेकी सिद्धि = श्लो. बा. २/१/५/६६/२०४/१ एतेन जीवादिनो आगमद्रव्य सिद्धिरुक्ता । य एवाई मनुष्यजीव भागास स एवाना य पुनर्मनुष्यो भविष्या मीत्ययस्यस्य सर्वभाष्यमाध्यमानस्य सद्भावात् । ननु जीवादिनोजयममा जादा सार्वकालिकत्वेनानागतत्वासिद्धस्तदभिमुख्यस्य कस्यचिदभावादिति चेत सत्यमेतत् । तत एव जीवादिविशेषापेक्षाही जीवारिद्रय निक्षेपो इस कथनसे, जीव, सम्यग्दर्शन आदिके मोम की सिद्धि भी कह दी गयी है। क्योंकि 'जो ही मैं पहले मनुष्य जीव था, सो ही मैं इस समय देव होकर व रहा हूँ तथा भविष्यामे फिर नै मनुष्य हो जाऊँगा, ऐसा सर्वतः अबाधित अन्वयज्ञान विद्यमान है। प्रश्न- जीव पुदगल आदि सामान्य द्रव्योंका नोआगमद्रव्य तो असम्भव है; क्योंकि, जीवपना पुद्गलपना आदि धर्म तो उन द्रव्योंमें सर्वकाल रहते है । अत' भविष्यत्में उन धर्मोंकी प्राप्ति असिद्ध होनेके कारण उनके प्रति अभिमुख होनेवाले पदार्थोंका अभाव है उपर आपकी बात सत्य है, सामान्यरूपसे जीव पुद्गल आदिका नोआगम द्रव्यपना नहीं बनता । परन्तु जोवादि विशेषकी अपेक्षा बन जाता है, इसीलिए मनुष्य देव आदि रूप जीव विशेषोके ही यहाँ उदाहरण दिये गये हैं । । और भी दे० निक्षेप/६/१ तथा निक्षेप/६/१/२) । २. भावी नोआगम इन्यनिक्षेपपनेकी सिद्धि स.सि./१/५/१०/ सामान्यापेक्षया नोश्रागमभाविजीयो नास्ति जीवनसामान्यसदापि विद्यमानत्वात् । विशेषापेक्षया त्वस्ति । गत्यन्तरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभवप्राप्ति प्रत्यभिमुखो मनुष्य भाविजीव' । जीवसामान्यकी अपेक्षा 'नोआगमभावी जीव' यह भेद नहीं बनताः क्योंकि, जीव में जीवत्व सदा पाया जाता है। यहाँ पर्याया ६०३ ६. द्रव्यनिक्षेप निर्देश व शंकाएँ fire ant अपेक्षा 'नोआगमभावी जीव' यह भेद बन जाता है; क्योंकि जो जीव दूसरी गतिमें विद्यमान है, वह जब मनुष्य भयको प्राप्त करने के लिए सन्मुख होता है तब वह मनुष्यभावी जीव कहलाता है। (यहाँ 'जीव' विषयक प्रकरण है। (और भी दे० निक्षेप/६/१६/ ३/१) (क. पा १ / १,१३-१४ / २१७ /२७०/६ ) । घ. ४ / १.१.१ / ६ / ६ भवियं खेत पाहुजाभावो जीवो हिस्स जोक्स चागम ओसमर हिदन्तादो। अनागमस्स खेतययएसो । न क्षेत्रपश्यस्मिन् भावक्षेत्रागम इति जीवद्रव्यस्य पुरे क्षेत्रत्वसिद्ध ेः । - नोआगमद्रव्यके तीन भेदोंमेंसे जो आगामी कालमें क्षेत्रविषयक शास्त्रको जानेगा ऐसे जीवको भावी नोआगम-द्रव्य कहते हैं । ( क्षेत्र विषयक प्रकरण है)। प्रश्न-जो जीव क्षेत्रागमरूप क्षयोपशमसे रहित होनेके कारण अनागम है, उस जीवके क्षेत्र संज्ञा कैसे बन सकती है। उधर नहीं; क्योंकि, 'भाव से रूप आगम जिसमें निवास करेगा इस प्रकारको निरुतिके मनसे जीवद्रव्य के क्षेत्रागमरूप क्षयोपशम होनेके पूर्व ही क्षेत्रपा सिद्ध है। २. कर्म तद्व्यतिरिक्त नोआगममें द्रव्यनिक्षेपपना • ध. ४/१,३,१ / ६ / १ तत्थ कम्मदव्यवखेत्तं णाणावरणादिअट्ठविहकम्मदव्वं । कधं कम्मस्स खेत्तववएसो न, क्षियन्ति निवसन्त्यस्मिन् जीवा इति कर्मणां क्षेत्रत्व सिद्ध । ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्म कर्म (यतिरिक्त नोआगम ) द्रव्यक्षेत्र कहते हैं। प्रश्न - कर्मद्रव्यको क्षेत्र संज्ञा कैसे प्राप्त हुई ? उत्तर- - नहीं; क्योंकि, जिसमें जो 'सिमन्ति' अर्थात निवास करते है, इस प्रकारकी निरुक्तिके बल से कर्मों के क्षेत्रपना सिद्ध है । ४. नोकपतिरिति नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपना घ. १/४.१.६०/२२२/३ जा सा सम्यदिरित्तदव्यगंधकदी सा गंधिमबाइम-वेदिन परिमादिभेषण अमेयविहा कधम्मेदेसि गंधसण्णा एदे जीव बुद्धीए अप्पाणम्मि गंथदित्ति तेसिं गंधत्तसिद्धी । =जो तद्वतिरिक्त द्रव्यग्रन्थकृति है वह गथना, बुनना, वेष्टित करना और पूरना आदिके भेदसे अनेक प्रकार की है। प्रश्न-- इनकी ग्रन्थ संज्ञा कैसे सम्भव है ? उत्तर -नहीं; क्योंकि, जीव इन्हें बुद्धिसे आत्मामें ता है। अतः उनके ग्रन्थपना सिद्ध है । - ४. ज्ञायकशरीर विषयक शंकाएँ २. त्रिकाल घायकशरीरोंमें द्रव्यनिक्षेपपनेकी सिद्धि श्लो. वा. २/१/५/६६/२७४ /२७ नन्वेवमागमद्रव्यं वा बाधितात्तदन्वयप्रत्ययान्मुख्य सिद्धचतु ज्ञायकशरीरं तु त्रिकालमोचरं तपतिरि कर्म कर्म विकल्पमनेकविध कथं तथा सिद्धय ेदप्रतीयभावादिति चेन्न, तत्रापि तथाविधान्वयप्रत्ययस्य धान्वयप्रत्ययस्य सद्भावात् । यदेव मे शरीर ज्ञातुमारभमाणस्य तत्त्वं तदेवेदानी परिसमाय ज्ञानस्य वर्तत इति वर्तमानज्ञायकशरीरे तावदन्वयप्रत्ययः । यदेवोपज्ञानस्य मे शरीरमासी देवानानुपयुक्तीस ज्ञायकशरीरे प्रत्यवमर्श' । यदेवाधुनानुपयुक्ततत्त्वज्ञानस्य शरीरं तदेबोपयुक्त ज्ञानस्य भविष्यतीत्यनागराज्ञायकवारीरप्रत्ययः । प्रश्नअन्वयज्ञानसे मुख्य बागमस्य यो भने ही निर्वाधरूप सिद्ध हो जाओ परन्तु त्रिकालवर्ती ज्ञायक शरीर और कर्म नोकर्मके भेदो से अनेक प्रकारका तद्वयतिरिक्त भला कैसे मुख्य सिद्ध हो सकता है; क्योंकि उसकी प्रतीति नहीं होती है उत्तर नहीं; वहाँ भी तिस प्रकार अनेक भेदोंको लिये हुए अन्वयज्ञान विद्यमान है । वह इस प्रकार कि तत्त्वों को जाननेके लिए आरम्भ करनेवाले मेरा जो ही शरीर पहले था, वही तो इस समय तत्त्वज्ञानकी भली भाँति समाप्त कर लेनेवाले मेरा यह शरीर व रहा है, इस प्रकार वर्तमान के ज्ञायवशरीर में जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप अन्वय प्रत्यय विद्यमान है। तत्त्वज्ञानमें उपयोग लगाये मेरा जो हुए ही शरीर पहले था वही इस भोजन करते समय तत्वज्ञान में नहीं उपयोग लगाये हुए मेरा यह शरीर है, इस प्रकार भूतकाल के ज्ञायकशरीरमें प्रत्यभिज्ञान हो रहा है। तथा इस वाणिज्य करते समय तत्त्वज्ञानमें नहीं उपयोग लगा रहे मेरा जो भी शरीर है, पीछे तत्त्वज्ञानमे उपयुक्त हो जानेपर वही शरीर रहा आवेगा, इस प्रकार भविष्यतके ज्ञायक शरीरमें अन्वयज्ञान हो रहा है। २. धावक शरीरोको नोआगम संत्रा क्यों ? ६०४ १/४/११/७/२ कपमेदेसि तिष्णं सरीराणं गच्चेया जिगएसो मधगृहसहचारारण तौदाणागयमाणम आण एसो जिणाहारपाण तीदानामय वट्टमाणसरीराणं दव्य जग पडि गिरोहाभावादी प्रश्न इन अचेतन तीन शरीरोंके (नोआगम) 'जिन' संज्ञा कैसे सम्भव है (यहाँ 'जिन' विषयक प्रकरण है ) 1 उत्तर - नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार धनुष - सहचार रूप पर्यायसे अतीत, अनागत और वर्तमान मनुष्योंकी 'धनुष' संज्ञा होती है, उसी प्रकार ( आधारने आधेयका आरोप करके) जिनाधार रूप पर्याय अतीत, अनागत और वर्तमान शरीरोंके द्रव्य जिनके प्रति कोई विरोध नहीं है। घ. ६/४.१६३/२००/ १ कधं सरीराणं णोआग मदव्यक दिव्ववएसो । आधारे आधे ओवयारादो। प्रश्न- शरीरोको नोआगम-द्रव्यकृति संज्ञा कैसे सम्भव है (यहाँ 'कृति' विषयक प्रकरण है ) ? उत्तर - चूँकि शरीर नोआगम द्रव्यकृतिके आधार हैं, अतः आधारमें आधेयका उपचार करनेसे उक्त संज्ञा सम्भव है। (ध. ४ / १,३,९/६/६ ) ३. भूत व भावी शरीरोंको नोआगमपना कैसे है १.११.१३-१४/२००/३ हो गाम महमाणसरीरस्स पेज्जागमयमएसी पैज्जागमेण सह एवभादो ण भविय समुज्भादाणमेसा सन्नापेज्जपान संबंधाभावादति ण एस दोसो दव्यदिव्यपणाए सरीरम्मि तिसरीरभावेण एयत्तमुवगयम्मि तदविरोहादो । प्रश्नवर्तमान शरीरकी नोआगम द्रव्यपेज्ज संज्ञा होओ, क्योंकि वर्तमान शरीरका पेज्जविषयक शास्त्रको जाननेवाले जीवके साथ एकत्व पाया जाता है। परन्तु भाविशरीर और अतीत शरीरको नोआगम-द्रव्यपेज्ज संज्ञा नहीं दी जा सकती है, क्योंकि इन दोनों शरीरोंका पेज्जके साथ सम्बन्ध नहीं पाया जाता है। (यहाँ 'पेज्ज' विषयक प्रकरण है ) उत्तर - यह दोष उचित नहीं है, क्योंकि द्रव्यार्थिकनयी दृष्टि भूत भविष्य और वर्तमान ये तीनों शरीर शरीरस्यकी अपेक्षा एक्रूप हैं, अत एकत्वको प्राप्त हुए शरीर में नोआगम द्रव्यपेज्ज संज्ञाके मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। 2 . १/१.१.१/२१/४ बहारस्सामववारावो भवबुधरिदमंगलज्जारा परिषद जीक्सरीरस्स मंगलबएसो पण असं ते ददमंगलपज्जायाभावा । ण रायपज्जायाहारत्तणेण अणागदादीदजीवे वि रायववहारोवलभा । प्रश्न-बाधारभूत शरीर में आधेयंभूत आत्माके उपचार से धारण की हुई मंगल पर्यायसे परिणत जीवके शरीरको नोआगम हायकशरीर द्रव्यमंगल कहना तो उचित भी है, परन्तु भावी और भूतकालके शरीरकी अवस्थाको मंगल संज्ञा देना किसी प्रकार भी उचित नहीं है; क्योंकि उनमें मंगलरूप पर्यायका अभाव है । ( यहाँ 'मंगल' विषयक प्रकरण है ) 1 उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, राजयका आधार होनेसे अनागत और अतीत जीवमें भी जिस प्रकार राजारूप व्यवहारकी उपलब्धि होती है, उसी प्रकार मगल पर्याय से परिणत जीवका आधार होने से अतीत और अनागत शरीरमें भी मगलरूप व्यवहार हो सकता है। (ध. ५/१.६, १/२/६) । ध. ४ / १.३.१ / ६ / ३ भवदु पुव्विल्लस्स दव्त्रखेत्तागमत्तादो खेत्तववएसो. एक्स्स पुर्ण सरोरस्स अगागमस्स खेत्त बनएसो ण घडदि ति । एत्थ ६. द्रव्यनिक्षेप निर्देश व शंकाएँ 1 = परिहारो बुच्चदे तं जया -क्षयत्यक्षेण्यस्मिन् प्रत्यागमो गागमो वेति त्रिविधमपि शरीरं क्षेत्रम्, आधारे आधेयोपचाराद्वा । - प्रश्न- इव्य क्षेत्रागनके निमित्त से पूर्व के (भूत) शरीरको क्षेत्र संज्ञा भले ही रही आओ, किन्तु इस अनागम ( भावी) शरीर के क्षेत्र संज्ञा घटित नहीं होती । (यहाँ 'क्षेत्र' विषयक प्रकरण है ) ? उत्तरउक्त शंकाका यहाँ परिहार करते हैं। वह इस प्रकार है- जिसमें द्रव्यरूप आगम अथवा भावरूप आगम वर्तमान कालमें निवास करता है, भूतकाल में निवास करता था और आगामी कालमें निवास करेगा; इस अपेक्षा तीनों ही प्रकारके शरीर क्षेत्र कहलाते हैं। अथवा, आधाररूप शरीर में आधेयरूप क्षेत्रागमका उपचार करनेसे भी क्षेत्र संज्ञा बन जाती है। ५. वम्यनिक्षेपके भेदोंमें परस्पर अन्तर १. आगम व नोआगममें अन्तर लो. वा. १२/१/२/२७५/१८ तस्यागमद्रव्यादन्यत्वं सुप्रीतमेवानात्मस्वात् । वह ज्ञायक शरीर नोआगमद्रव्य आगमद्रव्यसे तो भिन्न भले प्रकार जाना ही जा रहा है, क्योंकि आगमज्ञानके उपयोग रहित आत्माको आगमद्रव्य माना है, और जीवके जड़ शरीरको नोआगम माना है। घ. १/४.१.६३/२००/२ दि एवं तो सरीरागमागमनमारेण किल् बुमदे आगमगोआगमाणं भेदपप्पायनमुपादे पञ्जोजणाभावादी च । प्रश्न- यदि ऐसा है अर्थात आधार में आधेयका उपचार करके शरीरको नोआगम कहते हों तो शरीरोंको उपचारसे आगम क्यों नहीं कहते ? उत्तर- आगम और नोआगमका भेद बतलानेके लिए; अथवा कोई प्रयोजन न होनेसे भी शरीरोंको आगम नहीं कहते । घ. ६/४,१,१/७/३ आगमसण्णा अणुवजुत्त जीवदव्वस्से एत्थ किण्ण कदा, उपजोगाभावं परि विमेाभावादी ण, एत्य आगमसंस्काराभावेग तदभावाद... भविस्सकाले पाहुजाणमस्स भूदकाले गाण विस्सरिदस्स य णोआगमभवियदव्वजिणन्तं किण्ण इच्छज्जदे ण, आगमदक्स्स आगमसंसकारपज्जायस्स आहारत्तणेण तीदाणागदवट्टमाण णोआगमदव्वत्तविरोहादो प्रश्न- अनुपयुक्त जीवद्रव्यके समान यहाँ (त्रिकाल गोचर ज्ञायक शरीरोंकी भी ) आगम संज्ञा क्यों नहीं की, क्योंकि दोनोंमें उपयोगाभावकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है ! उत्तर- नहीं की, क्योंकि यहाँ आगम संस्कारका अभाव होनेसे उत संज्ञाका अभाव है । प्रश्न - भविष्यकाल में जिनप्राभृतको जाननेवाले भूतकाल में जानकर विस्मरणको प्राप्त हुए जीवद्रव्यके नोखागमभाती जिनश्व क्यों नहीं स्वीकार करते (यहाँ 'जिन' विषयक प्रकरण है ) ? उत्तर- नहीं क्योंकि आगम संस्कार पर्यायका आधार होनेसे अतीत, अनागत व वर्तमान आगमद्रव्य के नोआगम द्रव्यत्वका विरोध है । ( भावार्थ - आगमद्रव्यमें जीवद्रव्यका ग्रहण होता है और नोआगम में उसके आधारभूत शरीरका जीवनें आगमसंस्कार होना सम्भव है, पर शरीर में वह सम्भव नहीं है । इसीलिए ज्ञायकके शरीरको आगम अथवा जीवद्रव्यको नोआगम नहीं कह सकते हैं । ) २. भावी ज्ञायकशरीर व भावी नोआगममें अन्तर 1 = श्लो. वा. २/१/५/६६/२७६/१७ तर्हि ज्ञायकशरीर भाविनोआगमद्रव्यादनम्यदेवेति चेत्रज्ञायविशिष्टस्य ततोऽन्यबाद प्रश्न- तब तो (भावी) ज्ञायकशरीर भाविनोआगमसे अभिन्न ही हुआ ? उत्तरनहीं, क्योंकि, उस ज्ञायकशरीरसे ज्ञायक आत्मा करके विशिष्ट भावी नोआगमद्रव्य भिन्न है । क. पा. १/१,१३-१४/१ २२७/२७०/२४ - भाषाकार - जिस प्रकार भावी और धृत शरीर में शरीरसामान्यको अपेक्षा वर्तमान शरीरोंसे एक मानकर उन भूत व भावी शरीर में) नोआगम द्रव्यपेज संज्ञाका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप ६०५ ७. भावनिक्षेप निर्देश व शंका आदि २. भावनिक्षेपके भेद स.सि./१/१/१८/७ भाव जीवो द्विविधः-आगमभावजीवो नोआगमभावजीवश्चेति। -भाव जीवके दो भेद है-आगम-भावजीव और नोआगम-भावजीव। (रा. वा./२/५/६/२६/१५); (श्लो. वा. २/१/२/ श्लो. ६७); (ध. १/१,१,१/२६/७१८३/६); (ध. ४/१,३,१/७/8); ( गो. क./मू./६४/५६); (न.च. वृ./२७६ ) । घ. १/१,१,१/२६/६ णो-आगमदो भावमंगलं दुविहं, उपयुक्तस्तत्परिणत इति । -नोआगम भाव मगल, उपयुक्त और तत्परिणतके भेदसे दो प्रकारका है। व्यवहार किया है (दे० निक्षेप/12/३), उसी प्रकार वर्तमान जीव ही भविष्यत में पेज्जविषयक शास्त्रका ज्ञाता होगा; अतः जीव सामान्यकी अपेक्षा एकत्व मानकर वर्तमान जीव (के शरीरको) भाविनोआगम द्रव्यपेज्ज कहा है। (ध. १/१,१,१/२६/२१ पर विशेषार्थ)। स. सि./पं. जगरूप सहाय/१// पृ.४६ भावी ज्ञायकशरीरमें जीवके (जीव विषयक) शास्त्रको जाननेवाला शरीर है। परन्तु भावी नोआगमद्रव्यमें जो शरीर आगे जाकर मनुष्यादि जीवन प्राप्त करेगा। उन्हें उनके ( मनुष्यादि विषयोंके) शास्त्र जाननेकी आवश्यकता नहीं। अज्ञायक होकर ही ( शरीर) प्राप्त कर सकेगा। ऐसा ज्ञायकपना और अज्ञायकपनाका दोनोंमें भेद व अन्तर है। ३. शायक शरीर और तद्व्यतिरिक्तमें अन्तर श्लो. वा. २/१/५/६६/२७५/२५ कर्म नोकर्म वान्वयप्रत्ययपरिच्छिन्नं ज्ञायकशरीरादनन्यदिति चेद न, कार्मणस्य शरीरस्य तैजसस्य च शरीरस्य शरोरभावमापन्नस्याहारादिपुद्गलस्य वा ज्ञायकशरीरत्वासिद्ध, ओदारिकवै क्रियकाहारकशरोरत्रयस्यैव ज्ञायकशरोरत्वोपत्तेरन्यथा विग्रहगतावपि जोबस्योपयुक्तज्ञानत्वप्रसगाव तैजसकार्मण शरीरयोः सदभावात् ।-प्रश्न-तद्वय तिरिक्तके कर्म नोकर्म भेद भो अन्वय ज्ञानसे जाने जाते हैं, अतः ये दोनों ज्ञायकशरीर नोआगमसे भिन्न हो जायेंगे। उत्तर-नहीं, क्योंकि, कार्माण वर्गणाओंसे बने हुए कार्मणशरीर और तैजस वर्गणाओसे बने हुए तैजसशरीर इन दोनों शरीररूपसे शरीरपनेको प्राप्त हो गये पुद्गलस्कन्धोको ज्ञायक शरीरपना सिद्ध नहीं है । अथवा आहार आदि वर्गणाओको भी ज्ञायकशरीरपना असिद्ध है । वस्तुतः बन चुके औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीरोंको ही ज्ञायकशरोरपना कहना युक्त है। अन्यथा विग्रहगतिमें भी जीवके उपयोगात्मक ज्ञान हो जानेका प्रसंग आवेगा, क्योंकि कार्मण और तेजस दोनो ही शरीर वहाँ विद्यमान हैं। ४. भाविनोआगम व तद्वयतिरिक्तमें अन्तर श्लो. वा. २/१५/६६/२७६/६ कर्मनोकर्म नोआगमद्रव्यं भाविनोआगम द्रव्यादनान्तरमिति चेन्न, जीवादिप्राभृतज्ञायिपुरुषकर्मनोकर्मभावमापन्नस्यैव तथाभिधानात, ततोऽन्यस्य भाविनोआगमद्रव्यत्वोपगमात् । प्रश्न-कर्म और नोकर्मरूप नोआगम द्रव्य भावि-नोआगमद्रव्यसे अभिन्न हो जावेगा 1 उत्तर-नहीं. क्योंकि, जीवादि विषयक शास्त्रको जाननेवाले ज्ञायक पुरुषके ही कर्म व नोकौंको तैसा अर्थात् तद्वयतिरिक्त नोआगम कहा गया है। परन्तु उससे भिन्न पड़े हुए और आगे जाकर उस उस पर्यायरूप परिणत होनेवाले ऐसे कर्म व नोकर्मोंसे युक्त जीवको भाविनोआगम माना गया है। ३. आगम व नोआगम भावके भेद व उदाहरण घ. वं. १३/५.५/सू. १३६-१४०/३१०-३६१ जा सा आगमदो भावपयढ़ी णाम तिस्से इमो णिदेसो-ठिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अत्थसम गथसम णामसमं घोससमं । जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेहणा वा थय-थुदिधम्मकहा वा जेचामण्णे एवमादिया उवजोगा भावे त्ति कट टु जावदिया उबजुत्ता भावा सा सव्वा आगमदो भावपयडी णाम ।१३६। जा सा णोआगमदो भावपयडी णाम सा अणेय विहा। त जहा-सुर-असुरणाग-सुवण्ण-किण्णर-किंपुरिस-गरुड-गंधव्य-जक्रवारवरख-मणुअ-महोग मिय-पसु-पक्खि -दुवय-चउपय-जलचर-थलचर-खगचर-देव-मणुस्स - तिरिवरख-णेरड्य-णियगुणा पयडी सा सव्वा णोआगमदो भावपयडी णाम ।१४०) जो आगम-भावप्रकृति है, उसका यह निर्देश हैस्थित, जित, परिचित, वाचनापगत, सूत्रसम, अर्थ सम, ग्रन्थसम, नामसम, और घोषसम । तथा इनमें जा वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा तथा इनको आदि लेकर और जो उपयोग है वे सब भाव हैं। ऐसा समझकर जितने उपयुक्त भाव है वह सब आगम भाव कृति है ।१३६॥ जो नोआगम भावप्रकृति है वह अनेक प्रकार की है। यथा-सुर असुर, नाग, सुपर्ण, किनर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, मनुज, महोरग, मृग, पशु, पक्षी, द्विपद, चतुष्पद, जलचर, स्थलचर, खगचर, देव, मनुष्य, तिथंच और नारकी; इन जीवो की जो अपनीअपनी प्रकृति है वह सब नोआगमभावप्रकृति है। (यहाँ 'कर्म प्रकृति' विषयक प्रकरण है। ४. आगम व नोआगम भावके लक्षण स. सि./१/१/१८/८ तत्र जीवप्राभृतविषयोपयोगविष्टो मनुष्यजीवप्राभृतविषयोपयोगयुक्तो बा आरमा आगमभावजीवः । जीवनपर्यायण मनुष्य जीवत्वपर्याय वा समाविष्ट आरमा नोआगमभावजीवः । -जो आत्मा जोव विषयक शास्त्रको जानता है और उसके उपयोगसे युक्त है वह आगम-भाव-जीव कहलाता है। तथा जीवनपर्याय या मनुष्य जीवनपर्यायसे युक्त आत्मा नोआगम भाव जीव कहलाता है। (यहाँ 'जोव' विषयक प्रकरण है) (रा. वा./१/५/१०-११/१६); (श्लो. वा. २/१/५/श्लो.६७-६८/२७६ ); (ध. १/१.१,१/८३/६); (ध. १/१,६,१/३/५) (गो. क./मू. ६५-६६/५६) । ध. १/१,१,१/२६/८ आगमदो मंगलपाइडजाणओ उवजुत्तो। णोआगमदो भावमगलं दुविह, उपयुक्तस्तत्परिणत इति। आगममन्तरेण अर्थोपयुक्त उपयुक्तः । मङ्गलपर्यायपरिणतस्तत्परिणत इति ।-जी मंगलविषयक शास्त्रका ज्ञाता होते हुए वर्तमानमें उसमे उपयुक्त है उसे आगमभाव मंगल कहते है। नोआगम-भाव-मगल उपयुक्त और तत्परिणतके भेदसे दो प्रकार का है। जो आगमके बिना ही मंगलके अर्थ में उपयुक्त है, उसे उपयुक्त नोआगम भाव मगल कहते है, और मंगलरूप अर्थात् जिनेन्द्रदेव आदिको वन्दना भावस्तुति आदिमे ७. भाव निक्षेप निर्देश व शंका आदि १. भावनिक्षेप सामान्यका लक्षण स. सि./१/३/१७/६ वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षित द्रव्यं भावः । वर्तमानपर्यायसे युक्त द्रव्यको भाव कहते है। (रा. वा./१/१/८/२६/१२); ( श्लो. वा. २/१/५/श्लो. ६७/२७६ ); (ध. १/१,१,१/१४/३ व २६/७); (ध.६/४,१,४८/२४२/७) (त. सा./१/१३) । ध. १४१,७,१/१८७/६ दवपरिणामो पुवावरकोडिवदिरित्तवट्टमाणपरिणामुवल क्खियदव्वं बा।-द्रव्यके परिणामको अथवा पूर्वापर कोटिसे व्यतिरिक्त वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यको भाव कहते हैं। दे. नय///३ (भाव निक्षेपसे आत्मा पुरुषके समान प्रवर्तती स्त्रीकी भाँति पर्यायोल्लासी है)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप परिणत जीवको तत्परिणत नोआगमभाव मगल कहते है। (ध.४/ १.२.१/७/८ ) 1 न.च.वृ./२७६-२७७ अरहतसत्थजाणो आगमभावी हु अरहतो | २७६ तग्गुणए य परिणदो णोआगमभाव होइ अरहंतो । तग्गुगाई भाटा केवलणाणी हु परिणदो भणिओ । २७७॥ - अर्हन्त विषयक शास्त्रका ज्ञायक ( और उसके उपयोग युक्त आत्मा ) आगमभाव अर्हन्त है । २०६| उसके गुणो परिणत अर्थात केरसज्ञानादि अनन्तचतुश्यरूप परिणत आत्मा नोआगम-भाव अर्हन्त है । अथवा उनके गुणोंको ध्यानेवाला आत्मा नोआगमभाव अर्हन्त है । २७७ ५. भावनिक्षेपके लक्षणकी सिद्धि श्लो. बा. २/९/२/११/२७०/१० नन्वेवमतीतस्थानागतस्य च पर्यायस्व भावरूपता विरोधाद्वर्तमानस्यापि सा न स्यात्तस्य पूर्वापेक्षयानागतत्वात् उत्तरापेक्षयातीतत्वादतो भावलक्षणस्याव्याप्तिरसभत्रो वा स्यादिति चेत्र अतीतस्यानागतस्य च पर्यायस्य स्वकापेक्षा सांप्रतिकामरूपतोपपत्तेरननुयायिनः परिणामस्व सप्रियोपगमादुक्तदोषाभावात् प्रश्न-भूत और भविष्य को इस लक्षणके अनुसार, भाव निक्षेपपनेका विरोध हो जानेके कारण वर्तमानकालको पर्याय को भी वह भावरूपपना न हो सकेगा। क्योकि वर्तमानकालकी पर्याय भूतकालकी पर्यायकी अपेक्षासे भविष्यत्कालमें है और उत्तरकालकी अपेक्षा मी की है। अभावनिक्षेपके कथित लक्षणमे अव्याप्ति या असम्भव दोष आता है ? उत्तर- नहीं, क्योकि भविष्यत्कालको ये भी अपने अपने अपेक्षा वर्तमान की ही है; अतः भावरूपता बन जाती है। जो पर्याय आगे पीछेकी पर्यायोंमें अनुगम नहीं करती हुई केरल वर्तमान काल में ही रहती है, वह वर्तमान कालको पर्याय भावनिक्षेपका विषय मानी गयी है। अतः पूर्वोक्त लक्षणमें कोई दोष नहीं है। ६. आगममावनिक्षेपमें भावनिक्षेपपनेकी सिद्धि ६०६ तो वा २/९/२/६६/२७८/१६ कथं पुनरागमो जीनादिभाव इति चेत प्रत्ययजीवादिवस्तुनः साप्रतिपर्यायत्वात् प्रत्ययात्मा हि जीवादय प्रसिद्धा एवार्थाभिधानात्मकजीवादिवत् । प्रश्न- ज्ञानरूप आगमको जीवादिभाव निक्षेपपना कैसे है । उत्तर- ज्ञानस्वरूप जीवादि वस्तुओंको वर्तमानकालकी पर्यायपना है, जिस कारण से कि जीवादिपदार्थ ज्ञानस्वरूप होते हुए प्रसिद्ध हो ही रहे हैं, जैसे कि अर्थ और क्षम्य रूप जन आदि हैं (दे० नया/४/१ ७. आगम व नोआगमभावमें अन्तर श्लो. वा. २/१/५/६६/२७८/१७ तत्र जीवादिविषयोपयोगाख्येन तत्प्रत्ययेनाविष्ट पुमानेव तदागम इति न विरोधः, ततोऽन्यस्य जीवादिपर्यायस्यार्थान व्यवस्थापनात् । = जीवादि विषयोंके उपयोग नामक ज्ञानोंमे सहित आत्मा तो उस उस जीवादि आगमभावरूप कहा जाता है; और उससे भिन्न नोआगमभाव है जो कि जीव आदि पर्यायो आविष्ट सहकारी पदार्थ आदि स्वरूप व्यवस्थित हो रहा है । ८. द्रव्य व भावनिक्षेपमें अन्तर रा.वा./१/२/१३/२६/२५ भावयोरेकर अभ्यतिरेकादिति चेदः नः कथंचित् संज्ञास्वालक्षण्यादिभेदात् तद्भेदसिद्धे' । रा. वा./१/५/२३/३१/१ तथा द्रव्यं स्याद्भाव भावद्रव्यार्थादेशात न भावपर्यायार्यादेशाद द्रव्यम् । भावस्तु द्रव्यं स्थान्न वा उभयथा दर्शनात् । = प्रश्न - द्रव्य व भावनिक्षेपमे अभेद है, क्योंकि इनकी पृथक सत्ता नहीं पायी जाती उत्तर नही, संज्ञा लक्षण आदिकी दृष्टिसे इनमे भेद है। अथवा द्रव्य तो भाव अवश्य होगा क्योंकि उसकी उस निग्रहस्थान योग्यताका विकास अवश्य होगा, परन्तु भावद्रव्य हो भी और न भी हो, क्योंकि उस पर्यायमें आगे अमुक योग्यता रहे भी न भी रहे। श्लो, वा./२/१/५/६६/२७६/६ नापि द्रव्यादनर्थान्तरमेव तस्याबाधितभेदप्रत्ययविषयत्वाय अन्यान्ययविषयत्वामुपाद्रव्यय= वर्तमानको विशेषपर्यायको ही विषय करनेवाला वह भावनिक्षेप निर्वाध भेदज्ञानका विषय हो रहा है, अन्यथा द्रव्यनिक्षेपके समान भावनिक्षेपको भी तीनों कालके पदार्थों का ज्ञान करनेवाले अन्वयज्ञानकी विषयताका प्रसंग होवेगा । भावार्थ - अन्वयज्ञानका विषय द्रव्यनिक्षेप है और विशेषरूप भेदके ज्ञानका विषय भावनिक्षेप है । भविष्य पर्यायोंका संकलन द्रव्यनिपसे होता है, और केवल वर्तमान पर्यायका भावनिक्षेपले आकलन होता है। निक्षेपाधिकरण० अधिकरण निगमन-१ निगमनका लक्षण - न्या. सू./मू./१/१/२६ पदेशात्प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम् । न्या. सू /भाष्य /१/१/११ / ३८ / १२ उदाहरणस्थयोर्धर्मयो' साध्यसाधनभावोपपत साध्ये विपरीत प्रतिषेधार्थं निगमन हेतु पूर्वक पुनः प्रतिज्ञा या पक्षका वचन कहना निगमन है । ( न्या. दी./३/६३२ / ७६/९)। साधनभूतका साध्यधर्मके साथ समान अधिकरण (एक आश्रय ) होनेका प्रतिपादन करना उपनय है । उदाहरणमें जो दो धर्म है उनके साध्यसाधनभाव सिद्ध होनेमें विपरीत प्रसंग के खण्डन के लिए निगमन होता है। प. मु. / ३ / ५१ प्रतिज्ञास्तु निगमनं ॥ ५१ ॥ प्रतिज्ञाका उपसंहार करना निगमन है । न्या. दी./३/६७२/१०९ साधनानुवाद पुरस्सरं साध्यनियमवचनं निग मनम्। तस्मादग्निमानवेति साधनको दुहराते हुए साध्यके निश्वरूप वचनको निगमन कहते हैं जीसे धूमवाला होनेसे यह अग्निवाला ही है । = २. निगमनाभासका लक्षण न्या. दी./३/६७२/११२ अनयोर्व्यत्ययेन कथनमनयोराभास' । उपनयकी जगह निगमन और निगमनकी जगह उपनयका कथन करना उपनयाभास तथा निगमनाभास हैं । ― निगूढतर्क - - Abstract reasoning ध ५/प्र २७ । निगोद - दे० वनस्पति /२ । निग्रह - स.सि./६/४/१२/३ स्वेच्छाप्रवृतिनिवर्तनं निग्रहस्वप्रवृति को रोकना निग्रह है। (रा. वा./६/४/२/२६३/९३) । निग्रहस्थान - १. निग्रहस्थानका लक्षण - न्या. सू./११/२/९९६ विप्रतिपत्तिरप्रतिपतिरच निग्रहस्थानम् । विप्रतिपत्ति अर्थात् पक्षको स्वयं ठीक न समझकर उलटा समझना तथा अप्रतिपत्ति और दूसरेके द्वारा सिद्ध किये गये पक्षको समझकर भी उसकी परवाह न करते हुए उसका खण्डन न करना, अथवा प्रतिवादी द्वारा अपने पर दिये गये दोषोंका निराकरण न करना, ये निग्रहस्थान हैं। अर्थात इनमे वादीकी पराजय होती है। स्टोवा. ४/९/६६ / न्या. / ग्लो. १६-१०० / ३४३ तूष्णींभावोऽथना दोषानासति सत्यसाधने नाविनोके परस्यैष्टा पक्षसिद्धिनं चान्यथा ॥ ६३ कस्यचित्तत्त्वसंसिद्धक्षेप निराकृते कीर्ति पराजयोऽवश्यमकीर्तिकृदिति स्थितम् । १००| =वादीके द्वारा कहे गये सत्य हेतुमें प्रतिवादीका चुप रह जाना, अथवा सत्य हेतुमें दोषोका प्रसंग न उठाना हो, बादी पक्षकी सिद्धि है, अन्य प्रकार नहीं || दूसरेके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निघंटु ६०७ नित्य अनित्य समा जाति पक्षका निराकरण करनेसे एककी यश कीर्ति होती है और दूसरेका पराजय होता है, जो कि अवश्य ही अपकीर्तिका करनेवाला है । अत स्वपक्षकी सिद्धि और परपक्षका निराकरण करना ही जयका कारण है। इस कर्तव्यको नही करनेवाले वादी या प्रतिवादीका निग्रहस्थान हो जाता है। दे. न्याय/२ वास्तवमे तो स्वपक्षको सिद्धि ही प्रतिवादीका निग्रहस्थान है। २. निग्रहस्थानके भेद न्या.सू./मू.५/२/१ प्रतिज्ञाहानि' प्रतिज्ञान्तरं प्रतिज्ञाविरोध' प्रतिज्ञासंन्यासो हेत्वन्तरमर्थान्तरं निरर्थकमविज्ञातार्थमपार्थ कमप्राप्तकालं न्यूनमधिकं पुनरुक्तमननुभाषणमज्ञानमप्रतिभाविक्षेपो मतानुज्ञापर्यनुयोज्योपेक्षणनिरनुयोज्यानुयोगोऽपसिद्धान्तो हेत्वाभासश्च निग्रहस्थानानि । निग्रहस्थान २२ हैं-१. प्रतिज्ञाहानि, २, प्रतिज्ञान्तर, ३. प्रतिज्ञाविरोध, ४. प्रतिज्ञासन्यास, ५ हेत्वन्तर, ६. अर्थान्तर, ७. निरर्थक, ८. अविज्ञातार्थ, ६. अपार्थक, १०. अप्राप्तकाल , ११. न्यून, १२. अधिक, १३. पुनरुक्त, १४. अननुभाषण, १५. अज्ञान, १६. अप्रतिभा, १७ विक्षेप, १८. मतानुज्ञा, १६. पर्यनुयोज्यानुपेक्षण, २०. निरनुयोज्यानुयोग, २१, अपसिद्धान्त और २२. हेत्वाभास । सि. वि /मू /५/१०/३३४ असाधनाग वचनमदोषोद्भावनं द्वयो । निग्रहस्थानमिष्टं चेत् कि पुन' साध्यसाधनै ।१०। -(बौद्धोके अनुसार ) असाधनाङ्ग वचन अर्थात् असिद्ध व अनै कान्तिक आदि दूषणो सहित प्रतिज्ञा आदिके वचनोका कहना और अदोषोद्भावन अर्थात् प्रतिवादीके साधनो मे दोषों का न उठाना ये दो निग्रहस्थान स्वीकार किये गये हैं, फिर साध्यके अन्य साधनोंसे क्या प्रयोजन है । ३, अन्य सम्बन्धित विषय १. जय पराजय व्यवस्था । -दे० न्याय/२। २. नैयायिकों द्वारा निग्रहस्थानोंके प्रयोगका समर्थन - दे० वितडा। ३. नैयायिक व बोद्धमान्य निग्रहस्थानोंका व उनके प्रयोगका निषेध । -दे० न्याय/२। ४. निग्रहस्थानके भेदोंके लक्षण -दे० वह वह नाम। निघंटु१. १३०० श्लोक प्रमाण संस्कृत भाषामें लिखा गया एक पौराणिक ग्रन्थ । २ श्वेताम्बराचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरि ( ई० १०८८११४३ ) को 'निघटुशेष' नामको रचना। ३. आ. पद्मनन्दि ( ई० १२८०-१३३०) कृत 'निघंटु वैद्यक' नामका आयुर्वेदिक ग्रन्थ( यशस्तिलकचम्पू/प्र. पं० सुन्दरलाल )। निज गुणानुस्थान- दे० परिहार प्रायश्चित्त । निजात्माष्टक-आ. योगेन्ददेव ( ई० श०६) द्वारा रचित सिद्ध स्वरूपानुवाद विषयक आठ अपभ्रंश दोहे। निजाष्टक-आ० योगेन्दुदेव (ई० श०/६) द्वारा रचित अध्यात्म भाव विषयक आठ अपभ्रंश दाहे। नित्य-वैशे. सु./म/४/१/१ सदकारणपन्नित्यम् । =सत और कारण रहित नित्य कहलाता है । (आप्त प/टी/२/६/४/३)। त.सू./५/३१ तद्भावाव्ययं नित्य ।३१। = सतके भावसे या स्वभावसे अर्थात अपनी जातिसे च्युत न होना नित्य है। स. सि./५/४/२७०/३ नित्यं ध वमित्यर्थः । 'नेधू व त्य.' इति निष्पा दिखात। स. सि./५/३१/३०२/५ येनात्मना प्रारदृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते। यद्यत्यन्तनिरोधोऽभिनबप्रादुर्भावमात्रमेव वा स्यात्तत. स्मरणानुपपत्तिः । तदधीनलोकसंव्यवहारो विरुध्यते । ततस्तद्भावेनाव्ययं नित्यमिति निश्चीयते। --१. नित्य शब्द का अर्थ ध्रुव है ( 'नेधु वेत्य.' इस वार्तिक्के अनुसार 'नि' शदसे धबार्थ मे 'त्य' प्रत्यय लगकर नित्य शब्द बना है । २. पहले जिस रूप वस्तुको देखा है उसी रूप उसके पुन' होनेसे 'वही यह है' इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान होता है। यदि पूर्ववस्तुका सर्वथा नाश ही जाये या सर्वथा नयी वस्तुका उत्पाद माना जाये तो इससे स्मरणकी उत्पत्ति नहीं हो सकती और स्मरणकी उत्पत्ति न हो सकनेसे स्मरणके आधीन जितना लोक सव्यवहार चालू है, वह सब विरोधको प्राप्त होता है। इसलिए जिस वस्तुका जो भाव है उसरूपसे च्युत न होना तदभावाव्यय अर्थात नित्य है, ऐसा निश्चित होता है। (रा. वा./३/४/१-२/४४३६); ( रा. वा./५/३१/१/४६६/३२)। न. च. वृ./६१ सोऽयं इति तं णिच्चा।='यह वह है' इस प्रकारका प्रत्यय जहाँ पाया जाता है, वह नित्य है । * द्रव्यमें निस्य अनित्य धर्म-दे० अनेकान्त/४ । * द्रव्य व गुणों में कथंचित् नित्यानित्यात्मकता दे० उत्पाद व्ययधौव्य/२ । * पर्यायमें कथंचित् नित्यत्व-दे० उत्पाद व्यय धौव्य /३ । * षट् द्रव्योंमें नित्य अनित्य विभाग-दे० द्रव्य/३ । नित्य नय-दे० नय/I/५ । नित्य निगोद-दे० वनस्पति/२ । नित्य पूजा-दे० पूजा/१/३, पूजापाठ । नित्य मरण-दे० मरण/१ । नित्य महोद्योत-१० आशाधर (ई० ११७३-१२४३) की एक संस्कृत छन्दबद्ध भक्तिरसपूर्ण ग्रन्थ है, जिस पर आ० श्रुतसागर (ई० १४८१-१४६६) ने महाभिषेक नामकी टीका रची है। नित्यरसी व्रत-वर्ष मे एक बार आता है। ज्येष्ठ कृ० १ से ज्येष्ठ पूर्णिमा तक कृ०१ को उपवास तथा २-१५ तक एकाशना करें। फिर शु.१ को उपवास और २-१५ तक एकाशना करें। जघन्य १ वर्ष, मध्यम १२ वर्ष और उत्कृष्ट २४ वर्ष तक करना पडता है । 'ॐ ह्री श्री वृषभजिनाय नमः' इस मंत्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत विधान संग्रह/पृ. १०२)। नित्य वाहिनी-विजया की दक्षिणश्रेणीका एक नगर -दे० विद्याधर। नित्य अनित्य समा जातिन्या. सू /मू./५/१/३२,३५/३०२ साधर्म्यात्तु ल्यधर्मोपपत्ते. सर्वानित्यत्व प्रसङ्गादनित्यसम' ।३२॥ नित्यमनित्यभावाद नित्ये नित्यत्वोपपत्तेन्नित्यसम' ।३५॥ न्या. सू //५/१/३२,३५/३०२ अनित्येन घटेन साधादनित्यः शब्द इति न वतोऽस्ति घटेनानित्येन सर्वभावान साधर्म्यमिति सर्व स्यानित्यत्वमनिष्ट संपद्यते सोऽयमनित्यत्वेन प्रत्यवस्थानादनित्यसम इति ।३२॥ अनित्य शब्द इति प्रतिज्ञायते तदनित्यत्वं कि शब्दे नित्यमथानित्यं यदि तावत्सर्वदा भवति धर्मस्य सदा भावाद्धर्मिणोऽपि सदाभाव इति। नित्यः शब्द इति । अथ न सर्वदा भवति अनित्यवस्थाभावान्नित्यः शब्द । एवं नित्यत्वेन प्रत्यवस्थानान्नित्यसम अस्योत्तरम् । = साधर्म्य मात्रसे तुल्यधर्मसहितपना सिद्ध हो जानेसे सभी पदार्थो में अनित्यत्वका प्रसंग उठाना अनित्यसम जाति है। जैसे-घटके साथ कृतकत्व आदि करके साधर्म्य हो जाने से यदि शब्दका अनित्यपना साधा जावेगा, तब तो यो घटके सत्व, प्रमेयत्व आदि रूप साधर्म्य सम्भवनेसे सब पदार्थोके अनित्यपने का प्रसग हो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्यालोक जावेगा। इस प्रकार प्रत्यवस्थान देना अनित्यसमा जाति है । अनित्य भी स्वयं नित्य है इस प्रकार अनित्यमें भी नित्यत्वका प्रसंग उठाना नित्यसमा जाति है । जैसे- 'शब्द अनित्य है' इस प्रकारकी प्रतिज्ञा करनेवाले वादीपर प्रतिवादी प्रश्न उठाता है, कि वह शब्द के आधारपर ठहरनेवाला अनित्यधर्म क्या नित्य है अथवा अनित्य । प्रथमपक्षके अनुसार धर्म को तीनोंकालों तक नित्य ठहरनेवाला धर्मी नित्य हो होना चाहिए । द्वितीय विकल्पके अनुसार अनित्यपन धर्मका नाश हो जानेपर शब्दके नित्यपनका सद्भाव हो जानेसे शब्द नित्य सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार नित्यत्वका प्रत्यवस्थान उठाना नित्यसमा जाति है। (श्तो. वा. ४/२/३३ / या/रतो. ४२८-४२८/५१: स्लो. ४३०-४४०/२३६ मैं इसपर चर्चा की गयी है ) । नित्यालोक रुचक पर्वतस्थ एक कूट - ३० लोक /५/१३ | नित्योद्योत- १. रुपक पर्वतस्य एक ट० सोक //११,२. विज यार्थी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० 'विद्याधर निदर्शन दृष्टान्त । निदाघ — तीसरे नरकका पाँचन - ० नरक /५ निदान - १. निदान सामान्यका लक्षण -- स.सि./७/३७/३७२/७ भोगाकाङ्क्षया नियतं दीयते चित्तं तस्मिंस्तेनेति वा निदानम् । =भोगाकांक्षासे जिसमें या जिसके कारण चित्त नियमसे दिया जाता है वह निदान है (रा. मा./०/२०/६/२५१/१ ); (द्र.सं./टी./४२/१८४/१) । स.सि./७/१८/३६/२ निदान विषयभोगाकाङ्क्षा। भोगोंकी सालसा निदान शक्य है (रा. मा. १७/१८/२/२४६/२४) (१२/४.२. १/२०४६)। २. निदानके भेद भ.आ./मू./१२१५/१२१५ तत्थ विदाणं तिविहं होइ पसत्थापसत्यभोग | १२९४ निरान राज्यके तीन भेद है-प्रशस्त अस्तभोगकृत (अ. ग. श्रा/७/२०)। ६०८ २. प्रशस्तादि निदानोंके लक्षण भ.आ./मू./१२१६- ९२११ / १२९५ संजमहेदु पुरिसतसतत विरयसंघदणबुद्धी साब अबंधुकुलादीणि जिदाणं होदि हु पसत्थं । १२१६ | माणेण जाइकुलरूवमादि आइरियगणधर जिणन्तं । सोभग्गाणादेयं पत्तो अप्पत्वं तु २१ कुद्धो विअप्पसरथं मरने पफ परमधादीयं जह उग्णसेवा नि मसि । १२१८| देविग मणिभोगो पारिस्सर सिथिनाहतं केसमचार होदि भोगकरं । १२१६ - पौरुष शारीरिकस, मीरामकर्म का क्षयोपशम होनेसे उत्पन्न होनेवाला दृढ़ परिणाम, वज्रवृषभनाराचादिकसंहनन, ये सब संयमसाधक सामग्री मेरेको प्राप्त हो ऐसी मनकी एकाग्रता होती है, उसको प्रशस्त निदान कहते हैं । धनिककुलमें, मंधुओं में उत्पन्न होनेका निदान करना प्रशस्त निदान है । १२१६ | अभिमानके वश होकर उत्तम मातृवंश. उत्तम पितृवंशकी अभिलाषा करना, आचार्य पदवी, गणधरपद, तीर्थंकरपद, सौभाग्य, आज्ञा और सुन्दरपना इनकी प्रार्थना करना सब अप्रशस्त निदान है क्योंकि मानकषायसे दूषित होकर उपर्युक्त अवस्थाको अभि षा की जाती है। १२१० क्रुद्ध होकर मरणसमय में शत्रुपधादिककी इच्छा करना यह भी अप्रशस्त निदान है | १२१८ | देव मनुष्यों में प्राप्त होनेवाले भोगोंको अभिलाषा करना भोगकृत निदान है। स्त्रीपना, पनिरूपना श्रेष्ठपद सार्थमाहरना, केशवपद वर्ती निद्रा पना, इनकी भोगोंके लिए अभिलाषा करना यह भोगनिदान है। १२११०.२६/३४-३६) (अ. ग. प्रा./७/२१-२५) । ४. प्रशस्ता प्रशस्त निदानकी इष्टता अनिष्टता भ.आ.// ९२२३-९२२६ कोडी संतो लह वह उच्च रसावर्ण एससी सामाने भोगहे पिदाषेण । १२२३४ पुरिसत्तादि निदा पि मोक्कामा मुणी ण इकाईति पुरितामो भागो भवमओ व संसारी । १२२४ दुस्समवयकम्म वस्त्रयसमाधिमरणं च बोहिलाहो य । एयं पत्थेयव्वं ण पच्छणीयं तओ अण्णं । १२२५ ॥ पुरिसत्तादीणि पुणो संजमलाभो य होइ परलोए । आराधयस्स णियमा तत्थमकदे जिंदा १२२६। जैसे कोई कुष्ठरोगी मनुष्य कुष्ठरोगका नाशक रसायन पाकर उसको जलाता है, वैसे ही निदान करनेवाला मनुष्य सर्व दुरूपी रोग नाशक संयमका भोग निदानसे नाश करता है | १२२३। संयमके कारणभूत पुरुषत्व, संहनन आदिरूप (प्रवास) निदान भी मुनि नहीं करते क्योंकि पुरुषत्वादि पर्याय भी भव ही हैं और भव संसार है | १२२४ | मेरे दुःखोका नाश हो, मेरे कर्मोंका नाश हो, मेरे समाधिमरण हो, मुझे रत्नत्रयरूप बोधिकी प्राप्ति हो इन बातोंकी प्रार्थना करनी चाहिए क्योंकि मे मोसके कारण प्रशस्त निदान है) । ९२२३। जिसने रत्नत्रयकी आराधना की है उसको निदान न करनेपर भी अन्य जन्ममें निश्चय से पुरुष आदि व संयम आदि की प्राप्ति होती है। १२२६ (अ. ग.वा./ २३-२५) । निद्रा - १. निद्रा व निद्राप्रकृति निर्देश १. पाँच प्रकारकी निद्राओंके लक्षण स. सि. / ८ /७/३८१ / ५ मदखेदक्लमविनोदनार्थः स्वापो निद्रा । तस्या उपर्युपरि वृत्तिनिद्रानिद्रा या क्रियात्मानं प्रचयति सा प्रयता शोकश्रममदादिप्रभवा आसीनस्यापि नेत्रगात्रविक्रियासूचिका । सेव पुनरावर्त माना प्रचलाप्रचला । स्वप्ने यथा वीर्यविशेषाविर्भावः सा स्त्यानगृद्धि । स्यामतेरनेकार्थत्वात्स्वप्नार्थ दह गृह्यते गृधेर दीष्टि । त्याने स्वप्ने पति दीप्यते यदुदयादात्मा रौद्रं महुकर्म करोति सा स्यानमिद खेद और परिभ्रमन्याको दूर करनेके लिए नीद लेना निद्रा है। उसकी उत्तरोत्तर अर्थात् पुनः पुनः प्रवृत्ति होना निदानिश है जो शोकश्रम और मद आदिके कारण उत्पन्न हुई है और जो बैठे हुए प्राणीके भी नेत्र - गात्रकी विक्रियाको सूचक है, ऐसी जो क्रिया आत्माको 'चलायमान करती है, वह प्रचला है। तथा उसीकी पुनः पुनः प्रवृत्ति होना प्रचलाप्रचला है। जिसके निमित्तसे स्वप्न में वीर्यविशेषका आविर्भाव होता है वह I नगृद्धि है। यति धातुके अनेक अर्थ है उनमें यहाँ स्वप्न अर्थ लिया गया है और 'वृद्धि' दीध्यते जो स्वप्न में प्रदीप्त होती है। 'स्यानगृद्धि' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - स्त्याने स्वप्ने गृद्धघति धातुका दीप्ति अर्थ लिया गया है। अर्थात् जिसके उदयसे आत्मा रौद्र बहुकर्म करता है वह स्त्यानगृद्धि है । ( रा. वा. / ८ /७/२-६/५७२/ ६ ); ( गो . क./जी. प्र. / ३३ / २७/१० ) । २. पाँचों निद्राओंके चिह्न १. निद्राके चिह्न ध. ६/१.६-१.१६/३२/३.६ णिद्दाए तिब्बोदरण अप्पकालं सुवइ, उठातो हुद, अप्पसण वि चे ...मिरे पो सहु अप्पासाहारेदि मा मया कंपदि यणो सुखदिनिद्रा प्रकृतिके तोत्र उदयसे जीव अल्पकाल सोता है, उठाये जानेपर जल्दी - " जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१५.५.८४विबइसदि, बइहा चव हदि कि उदयसे चलता २. साधुओंके लिए निद्राका निर्देश निद्रा उठ बैठता है और अल्प शब्दके द्वारा भी सचेत हो जाता है। निद्रा बदा गो. क./मू./२४/१६ पयलापयलुदयेण य बहेदि लाला चलं ति अंगाई। प्रचलाप्रचलाके उदयसे पुरुष मुख से लार बहाता है और उसके हस्त प्रकृतिके उदयसे गिरता हुआ जोव जल्दी अपने आपको सँभाल लेता पादादि चलायमान हो जाते है। है, थोड़ा थोडा काँपता रहता है और सावधान सोता है। ध,१३/५,५,८१/८ जिस्से पयडीए उदएण अद्धजगंतओ सोवदि. ५. स्त्यानगृद्धिके चिह्न धूलोए भरिया इव लोयणा होति गुरुवभारेणोठद्धव सिरमभारिय ध ६/१,६-१,१६/३२/१ थीणगिद्धीए तिब्बोदएण उट्ठा विदो वि पुणो होइ सा णिहा णाम । =जिस प्रकृतिके उदयसे आधा जागता हुआ सोवदि, सुत्तो वि कम्म कुण दि. सुत्तो वि झवखइ, दते कडकडावेइ । सोता है, धूलिसे भरे हुएके समान नेत्र हो जाते है, और गुरुभारका -स्त्यानगृदिके तीन उदयसे उठाया गया भी जीव पुन' सो जाता उठाये हुएके समान शिर अति भारी हो जाता है, वह निद्रा है, सोता हुआ भी कुछ क्रिया करता रहता है, तथा सोते हुए भी प्रकृति है। बडबडाता है और दॉतोको कड़कडाता है। गो. क./मू /२४/१६ णिदुदये गब्छतो ठाइ पुणो वइसइ पडेई । निद्रा ध. १३/५,५,८५/५ जिस्से णिहाए उदएण जंतो वि थंभियो व णिच्चलो के उदयसे मनुष्य चलता चलता खड़ा रह जाता है, और खड़ा खड़ा चिट्ठदि, ट्ठियो वि वइस दि, वइट्ठओ वि णिवज्जदि, णिवण्णओ वि बैठ जाता है अथवा गिर पड़ता है। उहाविदो विण उहदि, सुत्तओ चेव पंथे हदि, कसदि, लणदि, २. निद्रानिद्राके चिह्न परिबादि कुण दि सा थीण गिद्धी णाम ।जिस निद्राके उदयसे चलता चलता स्तम्भित किये गयेके समान निश्चल खड़ा रहता है, खडा खडा ध.६/१,६-१:१६/३१/8 तत्थ णिहाणिहाए तिबोदएण रुक्खग्गे विसम भी बैठ जाता है, बैठकर भी पड़ जाता है, पड़ा हुआ भी उठानेपर भी भ्रमीए जत्थ वा तत्थ वा देसे घोरतो अधोरंतो वा णिभर सुबदि । निद्रानिद्रा प्रकृतिके तीन उदयसे जीव वृक्षके शिखर पर, विषम नहीं उठता है, सोता हुआ भी मार्गमे चलता है, मारता है, काटता भ्रमिपर, अथवा जिस किसी प्रदेशपर बुरघुराता हुआ या नहीं घुर है और बडबडाता है वह स्त्यानगृद्धि प्रकृति है। घुराता हुआ निर्भर अर्थात् गाढ निद्रामे सोता है। गो. क./म् /२३/१६ थीणुदयेणुढविदे सोवदि कम्मं करेदि जप्पदि य । ध.१३/५,५,६५/३५४/३ जिस्से पयडीए उदएण अइणिभर सोब दि, -स्त्यानगृद्धिके उदयसे उठाया हुआ सोता रहता है तथा नींद हीमें अण्णे हिं अट्ठाबिज्जंतो वि ण उट्ठह साणिवाणिहा णाम | अनेक कार्य करता है, बोलता है, पर उसे कुछ भी चेत नहीं जिस प्रकृतिके उदयसे अतिनिर्भर होकर सोता है, और दूसरोंके हो पाता। द्वारा उठाये जानेपर भी नहीं उठता है, वह निद्रानिद्रा प्रकृति है। ३. निद्राओंका जघन्य व उत्कृष्ट काल व अन्तर गो, क./मू./२३/१६ णिहाणिद्दुदयेण य ण दिठिमुग्धादिदं सक्को । -निद्रानिद्राके उदयसे जीव यद्यपि सोनेमें बहुत प्रकार सावधानी घ. १५/५/पंक्ति णिवाणिहा-पयलापयला-थीगिद्धीणमुदीरणाए कालो करता है परन्तु नेत्र खोलनेको समर्थ नहीं होता। जहण्णेण एगसमओ। कुदो। अद्धुवोदयादो। उकारसेण अंतीमुहत्तं । एवं णिहापयलाणं पि वत्तव्वं । (६११४)। णिद्दा पयलाणमंतरं जह३. प्रचलाके चिह्न ण्णमुक्कस्सं पि अंतोमुहुत्तं । णिद्दागिहा-पयलापयला-थीणगिरीणमंध.६/१,६-१,१६/३२/४ पयलाए तिब्बोदएण बालुवाए भरियाई व लोय- तर जहणेण अंतोमुहत्त, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि साहियाणि णाई होंति, गुरुवभारोड्ढव्वं व सीसं होदि. पुणो पुणो लोयणाई अंतोमुहुत्तेण ।(६८/४)। =निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानउम्मिल्ल-णि मिलणं कुणं ति। -प्रचला प्रकृतिके तीब उदयसे लोचन गृद्धिकी उदीरणाका काल जघन्यसे एक समय है; क्यो कि, ये अधुबालुकासे भरे हुएके समान हो जाते है, सिर गुरुभारको उठाये हुएके वोदयी प्रकृतियॉ है। उनकी उदीरणाका काल उत्कर्ष से--अन्तर्मुहूत समान हो जाता है और नेत्र पुन' पुन' उन्मीलन एवं निमीलन करने प्रमाण है । इसी प्रकारसे निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों के उदीलगते हैं। रणाकालका कथन करना चाहिए ।।६९/१४)। निद्रा और प्रचलाकी ध.१३/१४५,८५/३५४/४ जिस्से पयडीए उदएण अद्धसुत्तस्स सीसं मणा उदीरणाका अन्तरकाल जघन्य व उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहर्त मात्र है। मणा चलदि सा पयला णाम । जिस प्रकृतिके उदयसे आधे सोते हुए- निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, और स्त्यानगद्धिका वह अन्तरकाल का शिर थोड़ा-थोड़ा हिलता रहता है, वह प्रचला प्रकृति है। जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कुष्टसे अन्तर्महूर्त से अधिक तेतीस सोगगो. क./मू./२५/१७ प्रचलुदयेण य जीवो ईसम्मीलिय सुवेइ सुत्तोवि। रोपम प्रमाण है। ईस ईसं जाणदि मुहूं मुहं सोबदे मंदं ।२१ प्रचलाके उदयसे जीव किंचित नेत्रको खोलकर सोता है। सोता हुआ कुछ जानता २. साधुओंके लिए निद्राका निर्देश रहता है। बार बार मन्द मन्द सोता है। अर्थात् बारबार सोता व १. शितिशयन मूलगुणका लक्षण जागता रहता है। ४. प्रचला-प्रचलाके चिह . आ./३२ फासुयभूमिपएसे अप्पमसथारिदम्हि पच्छण्णे । दंडंधणुव्य सेज्जं रिवदिसयणं एयपासेण ।३२॥ =जीवबाधारहित, अल्पसंस्तर ध./६/१.६-१,१६/३१/१० पयलापयलाए तिव्योदएण बइठ ओ बा रहित. असंयमीके गमनरहित गुप्तभूमिके प्रदेशमे दण्डके समान उब्भवों वा मुहेण गलमाणलालो पुणो पुणो कंपमाणसरीर-सिरो अथवा धनुषके समान एक कर्बटसे सोना क्षितिशयन मूलगुण है । णिभर सुबदि ।-प्रचलाप्रचला प्रकृति के तीव्र उदयसे बैठा या खडा अनु. ध./६/११/१२१ अनुत्तानोऽनवाड स्वप्याद्भूदेशेऽसंस्तृते स्वयम् । हुआ मुँहसे गिरती हुई लार सहित तथा बार-बार कपते हुए शरीर स्वमात्रे संस्तृतेऽल्प वा तृणादिशयनेऽपि वा । = तृणादि रहित केवल और शिर-युक्त होता हुआ जीव निर्भर सोता है। भूमिदेशमे अथवा तृणादि संस्तरपर, ऊर्ध्व व अधोमुख न होकर ध, १३/५,५,६५/३५४/४ जिस्से उदएण ठ्ठियो णिसण्णो वि सोवदि किसी एक ही कर्व टपर शयन करना क्षितिशयन है। गहगहियो व सीसं धुणदि वायायलया व चदुसु वि दिसासु लोट्टदि सा पयलापयला णाम । =जिसके उदयसे स्थित व निषण्ण अर्थात २. प्रमार्जन पूर्वक कर्वट लेते हैं बैठा हुआ भी सो जाता है, भूतसे गृहीत हएके समान शिर धुनता है, भ. आ //६६/२३४ इरियादाणणिखेवे विवेगठाणे णिसीयणे सयणे । तथा बायुसे आहत लताके समान चारो ही दिशाओमें लोटता है, उन्नत्तणपरिवत्तण पसारणा उटणायरसे १६ = शरीरके मल मूत्रादिवह प्रचला-प्रचला प्रकृति है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-७७ समान चारात हुएके समान शिक्षण अर्थात Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निधत्त ६१० निमित्त कारण को फेकते समय, बैठते-खडे होते व सोते समय, हाथ-पाँव पसारते निबन्धन-स. सि./१/२६/१३३/७-निबन्धनं निबन्ध' । - निबया सिकोड़ते समय, उत्तानशयन करते समय या करवट बदलते न्धन शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है जोड़ना. सम्बन्ध करना । (रा. समय, साधुजन अपना शरीर पिच्छिकासे साफ करते हैं । वा./१/२६.../८७/८)। ३. योग निद्रा विधि घ. १११/१० निबध्यते तदस्मिन्निति निबन्धनम्, जं दवं जाम्ह णिबद्ध तं णिबंधणं ति भणिदं होदि। -निबध्यते तदस्मिन्निति मू. आ./७६४ सज्झायज्झाणजुत्ता रत्ति ण सुबंति ते पयामं तु । सुत्तत्थं चिंतता णिदाय वसंण गच्छति ७६४। -स्वाध्याय व ध्यानसे युक्त निबन्धनम्' इस निरुक्तिके अनुसार जो द्रव्य जिसमे सम्बद्ध है उसे साधु सूत्रार्थ का चिन्तवन करते हुए रात्रिको निद्राके वश नही होते निबन्धन कहा जाता है। हैं। यदि सोवें तो पहला व पिछला पहर छोडकर कुछ निद्रा ले २. द्रव्य क्षेत्रादि निबन्धन लेते हैं ।७६४ ध.१५/२/१० जं दव्वं जाणि दवाणि अस्सिदण परिणमदि जस्स वा अन, ध./8/9/८५१ क्लमं नियम्य क्षणयोगनिद्रया लातं निशीथे दब्वस्स सहावो दव्वंतरपडिबद्धो तं दव्वणिबंधणं । खेत्तणिबंधणं घटिकाद्वयाधिके । स्वाध्यायमत्यस्य निशाद्विनाडिकाशेषे प्रतिक्रम्य णाम गामणयरादीणि, पडिणियदखेत्ते तेसि पडिबद्धत्तुवलं भादो। जो च योगमुत्सृजेत् ।। =मनको शुद्ध चिद्रूपमें रोकना योग कहलाता जम्हि काले पडिबद्धो अत्थो तक्काल णिबंधण। तं जहा-चुअफुहै। 'रात्रिको मैं इस वस्तिकामें ही रहूँगा' ऐसी प्रतिज्ञाको योग ल्लाणि चेत्तमासणिबद्धाणि.. तत्थेव तेसिमुबलंभादो ।...चरत्तियाओ निद्रा कहते हैं । अर्धरात्रिसे दो घड़ी पहले और दो घड़ी पीछेका, णिबंधो त्ति वा । जं दब्वं भावस्स आलंबणमाहारो होदि तं ये चार घडी काल स्वाध्यायके अयोग्य माना गया है । इस अल्पकाल भावणिवंधणं । जहा लोहस्स हिरण्णसुवण्णादीणि णिबंधणं, ताणि में साधुजन शरीरश्रमको दूर करनेके लिए जो निद्रा लेते हैं उसे क्षण अस्सिऊण तदुप्पत्तिदसणादो, उप्पण्णस्स वि लोहस्स तदावलंबणयोगनिद्रा समझना चाहिए। दसणादो। -जो द्रव्य जिन द्रव्योंका आश्रय करके परिणमन दे. कृतिकर्म/४/३/१-(योगनिद्रा प्रतिष्ठापन व निष्ठापनके समय साधुको करता है, अथवा जिस द्रव्यका स्वभाव द्रव्यान्तरसे प्रतिबद्ध है वह योगिभक्ति पढनी चाहिए। द्रव्य निबन्धन कहलाता है। ग्राम व नगर आदि क्षेत्रनिबन्धन हैं; ३. अन्य सम्बन्धित विषय क्योकि, प्रतिनियत क्षेत्रमें उनका सम्बन्ध पाया जाता है। जो अर्थ १. पाँच निद्राओंको दर्शनावरण कहनेका कारण । जिस कालमे प्रतिबद्ध है वह काल निबन्धन कहा जाता है । यथा-दे० दर्शनावरण आम्र वृक्षके फूल चैत्र माससे सम्बद्ध हैं क्योंकि वे इन्हीं मासोंमें पाये जाते हैं। अथवा पंचरात्रिक निबन्धन कालनिबन्धन है (१)। जो २. पाँचों निद्राओं व चक्षु आदि दर्शनावरणमें अन्तर । द्रव्य भावका अवलंबन अर्थात आधार होता है, वह भाव निबन्धन -दे० दर्शनावरण /८ । ३. निद्रा प्रकृतियोंका सर्वघातीपना। --दे० अनुभाग/४ । होता है। जैसे-लोभके चाँदी, सोना आदिक है; क्योंकि, उनका आश्रय करके लोभकी उत्पत्ति देखी जाती है. तथा उत्पन्न हुआ लोभ ४. निद्रा प्रकृतियोंकी बन्ध, उदय सत्त्वादि प्ररूपणाएँ। भो उनका आलम्बन देखा जाता है । -दे० वह वह नाम। निबद्ध मंगल-दे० मंगल । ५. अति संक्लेश व विशुद्ध परिणाम सुप्तावस्थामें नहीं होते। निमंत्रण दे० समाचार। -दे० विशुद्धि/१०॥ ६. निद्राओंके नामों में द्वित्वका कारण। -दे० दर्शनावरण ।। निमग्ना७. जो निजपदमें जागता है वह परपदमें सोता है। ति.प./४/२३६ णियजलभरउवरिगदं दव्वं लहुगं पि णेदि हेहम्मि । --दे० सम्यग्दृष्टि/४। जेणं तेण भण्णइ एसा सरिया णिमग्गा त्ति ।२३१) -(विजयार्घकी पश्चिमी गुफाकी एक नदी है-दे० लोक/३/५)क्योंकि यह नदी अपने निधत्त-दे०निकाचित । जलप्रवाहके ऊपर आयी हुई हलकीसे हलकी वस्तुको भी नीचे ले निधि-चक्रवर्तीकी ह निधि-दे० शलाका पुरुष/२ । जाती है, इसीलिए यह नदी निमग्ना कही जाती है ।२३। (त्रि. सा. ५६१) निधुरा-भरत क्षेत्र पूर्वी आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४।। निमित्त-आहारका एक दोष । दे० आहार/II/४ | निह्नवमू. आ./२८४ कुलवयसीलविहूणे सुत्तत्य सम्मगागमित्ताणं । कुलवयसील महल्ले णिण्हवदोसो दु जपतो।२८४ा कुल. व्रत, शील विहीन निमित्त कारणमठ आदिका सेवन करनेके कारण, कुल, ब्रत व शीलसे महान गुरुके १. निमित्त कारणका लक्षण पास अच्छी तरह पढ़कर भी मैने ऐसे बती गुरुसे कुछ भी नहीं पढ़ा' ऐसा कहकर गुरु व शास्त्रका नाम छिपाना निहव है। स. सि/१/२१/१२५/७ प्रत्ययः कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम।स.सि./६/१०/३२७/११ कुतश्चित्कारणान्नास्ति न वेद्मीत्यादि ज्ञानस्य प्रत्यय, कारण व निमित्त ये एकार्थवाची नाम हैं। (ध. १२/४,२,८, व्यपलपनं निह्नव'। किसी कारणसे, ऐसा नहीं है, मैं नहीं जानता' २/२७६/२): ( और भी दे० प्रत्यय)। ऐसा कहकर ज्ञानका अपलाप करना निह्नव है। (रा. बा./६/१०/२/ स. सि./१/२०/१२०/७ पूरयतीति पूर्व निमित्त कारणमित्यमर्थान्तरम् । ५१७/१३); (गो. क /जी. प्र. ८००/७१/१०)। - 'जो पूरता है अर्थात् उत्पन्न करता है इस व्युत्पत्तिके अनुसार पूर्व ५. आ./वि /११३/२६१/४ निषोऽपलापः । कस्यचित्सकाशे श्रुतमधो- निमित्त कारण ये एकार्थवाची नाम हैं । (रा. वा./१/२०/२/७०/२६)। त्यन्यो गुरु रित्यभिधानमपलाप'। -अपलाप करना निहव है। एक श्लो. बा. २/१/२/११/२८/१३-भाषाकार-कार्यकालमें एक क्षण पहलेसे 'आचार्य के पास अध्ययन करके 'मेरा गुरु तो अन्य है' ऐसा कहना रहते हुए कार्योत्पत्तिमें सहायता करनेवाले अर्थको निमित्तकारण अपलाप है। कहते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त निमित्तकारण २. निमित्तके एकार्थवाची शब्द १. निमित्त-(दे० निमित्तका लक्षण; स. सि./८/१९. रा. वा./८/११: प्र.सा./त. प्र. ); २. कारण (दे०निमित्तका लक्षण; स.सि./८/ ११. रा. वा./८/११: प्र. सा./त.प्र./६९) ३. प्रत्यय (दे० निमित्तका लक्षण ); ४. हेतु (स. सा./मू./20 स. सि./८/१९, रा. वा. 1८/१९, प्र. सा./त. प्र./१५) । ५. साधन (रा./१/७/.../३८/२; स. सि./१/७/२६/१); ६.सहकारी (द्र. सं./मू./९७, न्या.दी./ १/१४/१३/१: का. अ./मू./२१८); ७. उपकारी (पं.ध./उ./४१, १०६);८.उपग्राहक (त.सू./१/१७);६. आश्रय (स, सि./२/१७/ २८२/६); १०. आलम्बन (स.सि./१/२३/१२६/६); ११. अनुग्राहक (स.सि./4/११/३२६/११); १२. उत्पादक (स.सा./मू./१००), १३. कर्ता (स.सा./मू./१०६६ स. सा./आ./१००); १४. हेतुकर्ता (स.सि./ १/२२/२६१/८; 4. का./त. प्र./८८) १५. प्रेरक (स.सि./१/१६/२८६/ ६); १६. हेतुमत (प.ध./उ./१०१); १७. अभिव्यंजक (प.ध./ उ./३६०)। तत्तदेवेति कृत्वा यथा कनकपात्रं कनकेन क्रियभाणं कनकमेव न स्वन्यत्। निश्चयनयसे कर्म और करणमें अभेद भाव है, इस न्यायसे जो जिससे किया जाये वह वही है। जैसे-सुवर्ण से किया हुआ सुवर्णका पात्र सुवर्ण ही है अन्य कुछ नहीं। (और भी दे० कारक/ १/२); (प्र. सा./त. प्र./१६,३०,३५,६६,१८,११७,१२६) । ५. करण व कारणके भेदोंका निर्देश स्या. म./८/७/५ में उद्धृत-न चैवं करणस्य द्वैविध्यमप्रसिद्धम् । यदाहुलाक्षणिकाः-'करण द्विविधं ज्ञेयं बाह्याभ्यन्तरं बुधैः। = करण दो प्रकारका न होता हो ऐसा भी नहीं। वैयाकरणियोंने भी कहा है-१. बाह्य और २. अभ्यन्सरके भेदसे करण दो प्रकारका जानना चाहिए। (और भी दे० कारण/१/२)।३.स्व निमित्त, ४. पर निमित्त (उत्पादव्ययधोव्य/१/२)।५.बलाधान निमित्त (स.सि./२/७/२७३/११); (रा. वा./५/७/४/४४६/१८);६,प्रतिबन्ध कारण (स.सि./४२४/ २६६/८). (रा.वा./२/२४/१५/४८६/७) ७. कारक हेतु, ६.ज्ञायक हेतु, ६. व्यंजक हेतु ( दे० हेतु)। ३.करणका लक्षण जैनेन्द्र व्याकरण/१/२/११३ साधकतमं करणं । - साधकतम कारणको करण कहते हैं। (पाणिनि व्या./५/४/४२); (न्या. वि././१३/ ५८/२). स. सा./आ./परि-/शक्ति नं.४३ भवद्भावभवनसाधकतमत्वमयी करण शक्तिः । -होते हुए भावके होने में अतिशयवाद साधकतमपनेमयी करण शक्ति है। .. करण व कारणके तुलनात्मक प्रयोग स. सि./९/१४/१०८/५ यथा इह धूमोऽग्नेः । एवमिदं स्पर्शनादिकरणं नासति कर्तर्यात्मनि भवितुमर्हसीति ज्ञातुरस्तित्वं गम्यते। -जैसे लोकमें धूम अग्निका ज्ञान कराने में करण होता है, उसी प्रकार ये स्पर्शनादिक करण (इन्द्रियाँ) कर्ता आत्माके अभावमें नहीं हो सकते, अतः उनसे ज्ञाताका अस्तित्व जाना जाता है। श्लो, वा./२/१/६/श्लो.४०-४३१४ चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचितः सदा।४। चितस्तु भावनेत्रादेः प्रमाणत्वं न वार्यते । तत्साधकतमश्वस्य कचिदुपपत्तितः ।४॥ - -नैयायिक लोग चक्षु आदि इन्द्रियोंमें, ज्ञानका सहायक होनेसे, उपचारसे करणपना मानकर, 'चक्षुषा प्रमीयते' ऐसी तृतीमा विभक्ति अर्थात् करण कारकका प्रयोग कर देते हैं। परन्तु उनका ऐसा करना ठीक नहीं है, क्योंकि, उन अचेतन नेत्र आदिको प्रमितिका साधकतमपना सर्वदा नहीं है ।४० हाँ यदि भावइन्द्रिय (ज्ञानके क्षयोपशम) स्वरूप नेत्र कान आदिको करण कहते हो तो हमें इष्ट है; क्योंकि, चेतन होनेके कारण प्रमाण है। उनकी किसी अपेक्षासे ज्ञप्तिक्रियाका साधकतमपना या करणपना सिद्ध हो जाता है । (स्या, म./ १०१०६/१४ ); (न्या. दी./१/१४/१२)। भ, आ./वि./२०/७१/४ क्रियते रूपादिगोचरा विज्ञप्तय एभिरिति करणानि इन्द्रियाण्युच्यन्ते क्वचित्करणशब्देन । अन्यत्र क्रियानिष्पत्तौ यदतिशयितं साधकं तरकरणमिति साधकतममात्रमुच्यते । क्वचित्तु क्रियासामान्यवचनः यथा 'कृ' करणे इति । करण शब्दके अनेक अर्थ है-रूपादि विषयको ग्रहण करनेवाले ज्ञान जिनसे किये जाते हैं अर्थात् उत्पन्न होते हैं वे इन्द्रियाँ करण हैं। कार्य उत्पन्न करनेमें जो कर्ताको अतिशय सहायक होता है उसको भी करण या साधकतम मात्र कहते हैं। जैसे-देवदत्त कुल्हाड़ीसे लकड़ी काटता है। कहीं-कहीं करण शब्दका अर्थ सामान्य क्रिया भी माना गया है। जैसे-'डुकृञ् करणे' प्रस्तुत प्रकरणमें करण शब्दका क्रिया ऐसा अर्थ है। स, सा./आ./६५-६६ निश्चयतः कर्मकरणयोरभिन्नत्वाद यद्यन क्रियते ६.निमित्तके भेदोके लक्षण व उदाहरण रा, वा./१/सू./वार्तिक/पृष्ठ/प. इन्द्रियानिन्द्रियजलाधानात पूर्व नुपलब्धेऽर्थ नोइन्द्रियप्राधान्यात् यदुत्पद्यते ज्ञान तत् श्रुतम् । (रा. वा./ १/६/२७/४७/२६)। यतः सत्यपि सम्यग्दृष्टेः श्रोत्रंद्रियबलाधाने बाह्याचार्यपदार्थोपदेशसंनिधाने च तज्ञानावरणोदयशीवृतस्य। स्वयमन्तःश्रुतभवन निरुत्सुकत्वादात्मनो न श्रुतं भवति, अतः माह्यमतिज्ञानादिनिमित्तापेक्ष आत्मैव आभ्यन्तर- भूतभवनपरिणामाभिमुख्याव श्रुतीभवति, न मतिज्ञानस्य श्रुतीभवनमस्ति, तस्य निमित्तमात्रत्वाव (रा.वा./१/२०/४/७४/७)। चक्षरादीनां रूपा दिविषयोपयोगपरिणामाद प्राक् मनसो व्यापारः।...ततस्तबलाधानीकृत्य चक्षुरादीनि विषयेषु व्याप्रियन्ते । (रा. वा /२/१५/४/१२६/२०)। श्रोत्रबलाधानादुपदेश श्रुत्वा हिताहितप्राप्तिपरिहारार्थमाद्रियन्ते। अतः श्रोत्रं महूपकारीति । (रा. वा/२/११/७/१३१/३०)। युज्यते धर्मास्तिकायस्य जीवपुद्गलगति प्रत्यप्रेरकत्वम, निष्क्रियस्यापि बलाधानमात्रत्व दर्शनाच, आत्मगुणस्तु अपरत्र क्रियारम्भे प्रेरको हेतुरिष्यते तद्वादिभिः । न च निष्क्रियो द्रव्यगुण प्रेरको भवितुमर्हति... किच, धर्मास्तिकायाख्यद्रव्यमाश्रयकारणं भवतु न तु निष्क्रियात्मद्रव्यगुणस्य ततो व्यतिरेकेणाऽनुपलभ्यमानस्य क्रियाया आश्रयकारणत्वं युक्तम् । (रा. वा./५/७/१३/४४७/३३)। उपकारो मलाधानम् अवलम्बनम् इत्यनन्तरम् । तेन धर्माधर्मयोः गतिस्थितिनिवर्तने प्रधानकतृत्वमपोदितं भवति । यथा अन्धस्येतरस्य वा स्वजवाबलाइगच्छतः यष्ट्याद्य पकारकं भवति न तु प्रेरकं तथा जीवपुद्गलाना स्वशक्त्यैव गच्छता तिष्ठतां च धर्माधमौं उपकारको न प्रेरको इत्युक्तं भवति । (रा. वा//१७/१६/७)। -इन्द्रिय व मनके बलाधान निमित्तसे पूर्व उपलब्ध पदार्थ में, मनकी प्रधानतासे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह श्रुत है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवकोश्रोत्रेन्द्रियका बलाधाननिमित्त होते हुए भी तथा बाह्य में आचार्य, पदार्थ व उपदेशका सानिध्य होनेपर भी, भूतज्ञानावरणसे वशीकृत आत्माका स्वयं श्रुतभवनके प्रति निरुत्सुक होनेके कारण, श्रुतज्ञान नहीं होता है, इसलिए बाह्य जो मतिज्ञान आदि उनको निमित्त करके आत्मा ही अभ्यन्तरमें श्रुतरूप होनेके परिणामकी अभिमुख्यताके कारण श्रुतरूप होता है। मतिज्ञान श्रुत रूप नहीं होता, क्योंकि वह तो श्रुतज्ञानका निमित्तमात्र है। चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान होनेसे पहले ही मनका व्यापार होता है। उसको वलाधान करके चक्षु आदि इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में व्यापार करती है। श्रोत्र इन्द्रियके बलाधानसे उपदेशको सुनकर हितकी प्राप्ति और अहितके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त ६१२ निमित्तज्ञान परिहारमें प्रवृत्ति होती है, इसलिए प्रोत्रेन्द्रिय बहुत उपकारी है। धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलकी गतिमे अप्रेरक कारण है अत वह निष्क्रिय होकर भी बलाधायक हो सकता है। परन्तु आप तो आत्माके गुणको परकी क्रियामे प्रेरक निमित्त मानते हो, अतः धर्मास्तिकायका दृष्टान्त विषम है। कोई भी निष्क्रिय द्रव्य या उसका गुण प्रेरक निमित्त नहीं हो सकता। धर्मास्तिकाय द्रव्य तो अन्यत्र आश्रयकारण हो सकता है, पर निष्क्रिय आत्माका गुण जो कि पृथक् उपलब्ध नहीं होता, क्रियाका आश्रयकारण भी सम्भव नहीं है। उपकार, बलाधान, अवलम्बन ये एकार्थवाची शब्द हैं । ऐसा कहनेसे धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यका जीव पुद्गलकी गतिस्थितिके प्रति प्रधान कर्तापनेका निराकरण कर दिया गया। जैसे लाठी चलते हुए अन्धेकी उपकारक है, उसे प्रेरणा नहीं करती उसी तरह धर्मादिको भी उपकारक कहनेसे उनमें प्रेरकपना नहीं आ सकता है। पं. का./त. प्र./८५-८८ धर्मोऽपि स्वयमगच्छन् अगमयंश्च स्वयमेव गच्छता जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन गमनमनुगृह्णाति इति ।८५ तथा अधर्मोऽपि स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन् परमस्थापयंश्च स्वयमेव तिष्ठतां जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णातीति ।८६। यथा हि गतिपरिणत प्रभब्जनो वैजयन्तीनां अतिपरिणामस्य हेतुकविलोक्यते न तथा धर्म: (८८ निमित्त ज्ञान १. निमित्तज्ञान सामान्यका लक्षण रा. वा./३/३६/३/२०२/२१ एतेषु महानिमित्तेषु कौशलमष्टाजमहानिमित्तज्ञता। - इन (निम्न ) आठ महानिमित्तोंमें कुशलता अष्ठांग महानिमित्तज्ञता है। २. निमित्तज्ञानके भेद ति, प./४/१००२, १०१५ णइमित्तिका य रिद्धी णभभउमंगसराइ बेजणयं । लक्षणचिहं सउणं अछवियप्पेहिं वित्थरिदं ।१००२। तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दोभेदं ।१०१५। =नैमित्तिक ऋद्धि नभ (अन्तरिक्ष),भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, चिह्न (छिन्न); और स्वप्न इन आठ भेदोंसे विस्तृत है ।१००२॥ तहाँ स्वप्न निमित्तज्ञानके चिह्न और मालारूपसे दो भेद हैं ।१०१श (रा. वा./१/२०/१२/ ७६/८); (रा. वा./३/३६/३/२०२/१०); (घ.६/४,१,१४/गा. १६/७२); (ध.६/४,१.१४/७२/२: ७३/६); (चा, सा./२१४/३)। पं. का./ता. वृ./४/१४२/११ यथा सिद्धो भगवानुदासीनोऽपि सिद्धगुणा नुरागपरिणतानां भव्यानां सिद्धगते सहकारिकारणं भवति तथा धर्मोऽपि स्वभाबेन व गतिपरिणतजीवपुद्गलानामुदासीनोऽपि गतिसहकारिकारणं भवति । -- १. धर्म द्रव्य स्वयं गमन न करता हुआ और अधर्म द्रव्य स्वयं पहलेसे हो स्थिति रूप वर्तता हुआ, तथा ये दोनों ही परको गमन व स्थिति न कराते हुए जीव व पुदगलोंको अविनाभावी सहायरूप कारणमात्ररूपसे गमन व स्थितिमें अनुग्रह करते हैं।८५-८६। जिस प्रकार गतिपरिणत पवन ध्वजाओंके गतिपरिणामका हेतुकर्ता दिखाई देता है, उसी प्रकार धर्म द्रव्य नहीं है ।८८। २. जिस प्रकार सिद्ध भगवान् स्वय उदासीन रहते हुए भी, सिद्धोके गुणानुराग रूपसे परिणत भव्योकी सिद्धगतिमें, सहकारी कारण होते हैं, उसी प्रकार धर्मद्रव्य भी स्वभावसे ही गतिपरिणत जीवोंको, उदासीन रहते हुए भी, गतिमें सहकारी कारण हो जाता है। नोट-( उपरोक्त उदाहरणोपरसे निमित्तकारण व उसके भेदोंका स्पष्ट परिचय मिल जाता है। यथा-स्वयं कार्यरूप परिणमे वह उपादान कारण है तथा उसमें सहायक होनेवाले परद्रव्य व गुण निमित्त कारण हैं। वह निमित्त दो प्रकारका होता है-बलाधान व प्रेरक । बलाधान निमित्तको उदासीन निमित्त भी कहते हैं, क्योंकि, अन्य द्रव्यको प्रेरणा किये बिना, वह उसके कार्यमें सहायक मात्र होता है। परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि वह बिलकुल व्यर्थ ही है; क्योंकि, उसके बिना कार्यकी निष्पत्ति असम्भव होनेसे उसको अविनाभावी सहायक माना गया है। प्रेरक निमित्त क्रियावान द्रव्य ही हो सकता है। निष्क्रिय द्रव्य या वस्तुका गुण प्रेरक नहीं हो सकते। वस्तुकी सहायता व अनुग्रह करनेके कारण वह निमित्त उपकार, सहायक, सहकारी, अनुग्राहक आदि नामोंसे पुकारा जाता है। प्रेरक निमित्त किसी द्रव्यकी क्रियामें हेतुकर्ता कहा जा सकता है, पर उदासीन निमित्तको नहीं। कार्य क्षणसे पूर्व क्षणमें वर्तनेवाला अन्य द्रव्य सहकारी कारण कहलाता है (दे० कारण/I/३/१)। स्व व पर निमित्तक उत्पादके लिए -दे० उत्पादव्ययधौव्य/१ * निमित्तकारणकी मुख्यता गौणता-दे० कारण/HHI ३. निमित्तज्ञान विशेषोंके लक्षण ति.प./४/१००३-१०१६ रविससिगहपहुदीणं उदयत्थमणादि आई दणं । खोणत्तं दुक्खसुहं जं जाणइ त हि णहणिमित्तं ।१००३। घणसुसिरणिद्धलुक्रवप्पहुदिगुणे भाविदूण भूमीए। जं जाणइ खयवड्ढि तम्मयसकणयरजदपमुहाणं ।१००४। दिसिविदिसअंतरेसुं चउरंगबलं ठिदं च दळूणं । जं जाणइ जयमजयं तं भउमणिमित्तमुद्दि ११००५॥ वातादिप्पणिदीओ रुहिरप्पहुदिस्सहावसत्ताई। णिण्णाण उण्णयाणं अंगोवंगाण सणा पासा ।१००६। णरतिरियाण दट्ठं जं जाणइ दुक्रवसोक्खमरणाई। कालत्तयणिप्पण्णं अंगणिमित्त पसिद्ध तु ॥१००७। णरतिरियाणणिचित्तं सद्द सोदूण दुक्रवसोक्खाई। कालत्तयणिप्पण्णं जं जाणइ तं सरणिमित्त ।१००८। सिरमुहकंधप्पहुदिसु तिलमसयप्पहुदिआइ दट ठूणं । जं तियकालसुहाई जाणइ तं वेंजणणिमित्तं ॥१००६। करचरणतलप्पहूदिसु पंकयकुलिसादिमाणि दळूणं । जं तियकालसुहाई लक्खइ तं लक्रवणाणिमित्तं ।१०१० । सुरदाणबरक्रवसणरतिरिरगहिं छिण्णसत्थवत्थाणि । पासादणयरदेसादियाणि चिण्हाणि दट्ठूणं ।१०११॥ कालत्तयसंभूदं सुहासुहं मरणविविहदव्वं च । सुहदुक्खाई लक्खा चिण्हणिमित्तं तितं जाणइ 1१०१२। वातादिदोसचत्तो पच्छिमरते मुयकरवियहुदि । णियमुहकमलपवि४ देखिय सउणम्मि सुहसउणं ।१०१३। घडतेल्लभंगादि रासहकरभादिएम आरुहणं । परदेसगमणसव्वं जं देखई असुहसउणं तं ।१०१४॥ ज भासइ दुक्खसुहप्पमुहं कालत्तए वि संजादं। तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दो भेदं ।१०१५। करिकेसरिपहुदोणं दसणमेत्तादि चिण्हसउणं तं । पुत्वावरसंबंध सउणं तं मालसउणो त्ति ।१०१६। -सूर्य चन्द्र और ग्रह इत्यादिके उदय व अस्तमन आदिकोंको देखकर जो क्षीणता और दुःख-सुख (अथवा जन्म-मरण ) का जानना है, वह नभ या अन्तरिक्ष निमित्तज्ञान है ।१००३। पृथिवीके धन, मृषिर ( पोलापन ), स्निग्धता और रूक्षताप्रभृति गुणोंको विचारकर जो ताँबा, लोहा, सुवर्ण और चाँदी आदि धातुओं की हानि वृद्धिको तथा दिशा-विदिशाओंके अन्तरालमें स्थित चतुरंगवलको देखकर जो जय-पराजयको भी जानना है उसे भौम निमित्तज्ञान कहा गया है ।१००४-१००। मनुष्य और तिर्यचौंके निम्न व उन्नत अंगोपांगोंके दर्शन व स्पर्शसे वात, पित्त, कफ रूप तीन प्रकृतियों और रुधिरादि सात धातुओं को देखकर तीनों कालोंमें उत्पन्न होनेवाले सुख-दुख या मरणादिको जानना, यह अंगनिमित्त नामसे प्रसिद्ध है ।१००६-१००७१ मनुष्य और तिर्यचोंके विचित्र शब्दौको सुनकर कालत्रयमें होनेवाले दुख-सुःखको जानना, यह स्वर निमित्तज्ञान है । ११००८। सिर मुख और कन्धे आदिपर तिल एवं मशे आदिको देख जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तवाद कर तीनों कालके सुग्वादिकको जानना, यह व्यञ्जन निमित्तज्ञान है | २००६ | हाथ, पॉब के नोचेकी रेखाऍ, तिल आदि देखकर त्रिकाल सम्बन्धी सुख दुःखादिको जानना सो लक्षण निमित्त है | २०१० | देव, दानव, राक्षस, मनुष्य और तिर्यंचोंके द्वारा छेदे गये शस्त्र एवं वस्त्रादिक तथा प्रासाद, नगर और देशादिक चिन्होको देखकर त्रिकालभावी शुभ, अशुभ, मरण विविध प्रकारके द्रव्य और सुख-दुःखको जानना, यह चिन्ह या छिन्न निमित्तज्ञान है । १०१११०१२। वात-पित्तादि दोषों से रहित व्यक्ति, सोते हुए रात्रिके पश्चिम भागमें अपने मुखकमलमें प्रविष्ट चन्द्र-सूर्यादिरूप शुभस्वप्नको और घृत व तेलको मालिश आदि गर्दभ व ऊँट आदि पर चढना, तथा परदेश गमन आदि रूप जो अशुभ स्वप्नको देखता है, इसके फलस्वरूप तोन काल में होनेवाले दुख-सुखादिकको बतलाना यह स्वप्ननिमित्त है। इसके चिन्ह और मालारूप दो भेद है । इनमें से स्वप्न में हाथी, सिंहादिकके दर्शनमात्र आदिकको चिन्हस्वप्न और पूर्वापर सम्बन्ध रखनेवाले स्वप्नको माला स्वप्न कहते हैं । १०१३-१०१६। (रा. वा./३/३६/२/२०२/१९१) ( १४.१.१४/०२/६) (चा. सा. / २१४ / ३ • निमेष - कालका एक प्रमाण- दे० गणित /३/९/४ | निमित्त वाद - दे० परतंत्रवाद । = नियत प्रदेशत्व साखा / परिशक्ति में २४ आसंसारसं हरण विस्तरणलक्षित किंचिदून परम शरीरपरिमाणावस्थितलोकाकाशसम्मितारमावयमस्वलक्षणा नियत प्रदेशस्वशक्तिः १२४ जो अनादि संसारसे लेकर संकोच विस्तारक्षित है और जो परम शरीर के परिमाणसे कुछ न्यूनपरिमाणमें अवस्थित होता है. ऐसा लोका प्रमाण आत्म अवयवत्व जिसका लक्षण है, ऐसी ( जीव द्रव्यकी ) निय प्रदेश शक्ति है। ६१३ - नियतवृत्तयः नियता नियत वृत्ति या वि. / / २ / २ / ५४ / २६ संकरव्यतिकरमिता वृत्तिरात्मलाभो येषां ते तथा नियत अर्थातच व्यतिकर दोषोंसे रहित वृद्धि अर्थाद आमताभ संर उपतकर रहित अपने स्वरूपमें अवस्थित रहना वस्तुको नियतवृत्ति है । (जैसे अग्नि नियत उष्णस्वभावी है) । ( और भी दे० नय / I/५/४ में नय नं. १५ नियत नय ) | " नियति--जो कार्य या पर्याय जिस निमित्तके द्वारा जिस द्रव्यमे जिस क्षेत्र कालमें जिस प्रकारसे होना होता है. यह कार्य उसी निनिसके द्वारा उसी द्रव्य, क्षेत्र व कालमे उसी प्रकार से होता है, ऐसी द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावरूप चतुष्टयसे समुदित नियत कार्यव्यवस्थाको 'नियति' कहते हैं। नियत कमरय रूप निमितकी अपेक्षा इसे ही 'देव' निस कालको अपेक्षा इसे ही 'काल लब्धि' और होने योग्य नियत भाव या कार्यकी अपेक्षा इसे ही 'भक्ति' कहते हैं अपने-अपने समय में क्रम पूर्वक नम्बरवार पर्यायोंके प्रगट होनेकी अपेक्षा श्री जी स्वामीजोने इसके लिए 'क्रमबद्ध पर्याय' शब्दका प्रयोग किया है । यद्यपि करने धरने के विकल्पोंपूर्ण रागी वृद्धि कुछ अभियत प्रतीत होता है, परन्तु निर्विकल्प समाधिके साक्षीमात्र भागमे विश्वकी समस्त कार्य व्यवस्था उपरोक्त प्रकार नियत प्रतीत होती है । अतः वस्तुस्वभाव, निमित्त (देव) पुरुषार्थ, कालल भवितव्य इन पाँचो समवायोसे समवेत तो उपरोक्त व्यवस्था सम्यक् है और इनसे निरपेक्ष नहीं मिथ्या है निरुपनी पुरुष मिथ्या नियति आपसे पुरुषार्थका तिरस्कार करते है, पर अनेकान्त बुद्धि इस सिद्धान्तको जानकर सर्व बाह्य व्यापारसे विरक्त हो एक ज्ञाताद्रष्टा भाव में स्थिति पाती है । २ १ २ ५ ६ १ २ ३ ४ ६ ८ ३ देव निर्देश ४ १ २ ३ ५ १ २ ३ ४ ५ नियतिवाद निर्देश मिष्या नियतिवाद निर्देश सम्यक् नियतिवाद निर्देश । नियतिको सिद्धि । कालब्धि निर्देश ६ काललन्धि सामान्य व विशेष निर्देश । एक काललब्धिमें अन्य सर्व लब्धियोंका अन्तर्भाव कालको कर्मचिव प्रधानता के उदाहरण १. मोक्षप्राप्ति में काललब्धि । २ सम्यक्त्व प्राप्तिमें काललब्धि । ३. सभी पर्यायोंमें काललब्धि । काकतालीय न्यायसे कार्यकी उत्पत्ति कालब्धि के बिना कुछ नहीं होता । काल अनिवार्य है। पुरुषार्थ भी कथंचित् काललब्धिके आधीन है । - दे० नियति/४/२ कालब्धि मिलना दुर्लभ है । कालपीत गीणता। देवका लक्षण | मित्रया देववाद निर्देश | सम्यक् देववाद निर्देश | कमदयकी प्रधानताके उदाहरण । देवके सामने पुरुषार्थका तिरस्कार। देवकी अनिवार्यता नियति भवितव्य निर्देश भवितव्यका लक्षण भवितव्यको कथंचित् प्रधानता । भवितव्य अलंघ्य व अनिवार्य है। नियति पुरुषार्थका समन्वय दैव व पुरुषार्थं दोनोंके मेल से अर्थ सिद्धि । अनुद्धिपूर्वक कार्य देन तथा बुद्धिपूर्वक कार्योंमें पुरुषार्थ प्रधान है। अतः रागदशामें पुरुषार्थ करनेका ही उपदेश है । नियति सिद्धान्तमै खेच्छाचारको अवकाश नहीं। वास्तवमें पाँच समवाय समवेत ही कार्यव्यवस्था सिद्ध है। नियति व पुरुषार्थादि सहवर्ती हैं। १. काललब्धि होनेपर शेष कारण स्वतः प्राप्त होते हैं । २. कालादि लब्धि बहिरंग कारण हैं और पुरुषार्थ अन्तरंग कारण है । ३. एक पुरुषार्थ में सर्व कारण समाविष्ट हैं। नियति निर्देशका प्रयोजन । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियति ६१४ २. काललब्धि निर्देश १. नियतिवाद निर्देश १. मिथ्या नियतिवाद निर्देश गो. क.मू./८८२/१०६६ जत्तु जदा जेश जहा जस्स य णि यमेण होदि तत्तु तदा। तेण तहा तस्स हवे इदि वादो णियदि वादो दु ।८८२। -जो जब जिसके द्वारा जिस प्रकारसे जिसका नियमसे होना होता है, वह तब ही तिसके द्वारा तिस प्रकारसे तिसका होता है, ऐसा मानना मिथ्या नियतिवाद है।। अभिधान राजेन्द्रकोश - ये तु नियतिवादिनस्ते ह्येवमाहु', नियति नाम तत्त्वान्तरमस्ति यतशादेते भावा. सर्वेऽपि नियतेने त्र रूपेण प्रादुर्भावमश्नुवते नान्यथा। तथाहि-यद्यदा यतो भवति तत्तदा तत एव नियतेनैव रूपेण भवदुपलभ्यते, अन्यथा कार्यभावव्यवस्था प्रतिनियतव्यवस्था च न भवेत नियामकाभावात् । तत एवं कार्य नै यत्यत प्रतीयमानामेनां नियति को नाम प्रमाण पञ्चकुशलो बाधितुं क्षमते। मा प्रापदन्यत्रापि प्रमाणपथव्याघातप्रसङ्गः। =जो नियतिवादी हैं, वे ऐसा कहते हैं कि नियति नामका एक पृथक् स्वतन्त्र तत्त्व है, जिसके वशसे ये सर्व ही भाव नियत ही रूपसे प्रादुर्भावको प्राप्त करते हैं, अन्यथा नहीं। वह इस प्रकार कि-जो जन जो कुछ होता है, वह सब वह ही नियतरूपसे होता हुआ उपलब्ध होता है, अन्यथा कायभाव व्यवस्था और प्रतिनियत व्यवस्था न बन सकेगी, क्योंकि उसके नियामकका अभाव है। अर्थात नियति नामक स्वतन्त्र तत्त्वको न माननेपर नियामकका अभाव होनेके कारण वस्तुकी नियत कार्यव्यवस्थाकी सिद्धि न हो सकेगी। परन्तु वह तो प्रतीतिमें आ रही है, इसलिए कौन प्रमाणपथमे कुशल ऐसा व्यक्ति है जो इस नियति तत्त्वको बाधित करनेमें समर्थ हो। ऐसा माननेसे अन्यत्र भी कही प्रमाणपथका व्याघात नहीं होता है। २. सम्यक् नियतिवाद निर्देश प. पु./११०/४० प्रागेव यदवाप्तव्यं येन यत्र यथा यत' । तत्परिप्राप्यतेऽवश्य तेन तत्र तथा तत. 1801 -जिसे जहाँ जिस प्रकार जिस कारणसे जो वस्तु पहले ही प्राप्त करने योग्य होती है उसे वहाँ उसी प्रकार उसी कारण से वही वरतु अवश्य प्राप्त होती है । (प. पु./२३/६२; २६/८३)। का. अ./मू./३२१-३२३ जं जस्स जम्मि देसे जेण बिहाणेण जम्मि कालम्मि। णादं जिणेण णियदं जम्म वा अव मरणं वा ।३२१। तं तस्य तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि काल म्मिा को सक्कदि वारेदं इंदो वा तह जिणिदो बा ।३२२॥ एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए। सो सहिठी सुद्धो जो संकदि सो ह कुट्ठिी ।३२३। -जिस जीवके, जिस देशमें, जिस कालमे, जिस विधानसे, जो जन्म अथवा मरण जिनदेवने नियत रूपसे जाना है; उस जीवके उसी देशमे, उसी कालमें उसी विधानसे वह अवश्य होता है। उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन टाल सकनेमे समर्थ है १३२१-३२२। इस प्रकार जो निश्चयसे सब द्रव्योको और सब पर्यायोंको जानता है वह सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्वमें शंका करता है वह मिथ्यादृष्टि है।३२३। (यहाँ अविरत सम्यग्दृष्टिका स्वरूप बतानेका प्रकरण है)। नोट-(नियत व अनियत नयका सम्बन्ध नियतवृत्तिसे है, इस नियति सिद्धान्तसे नहीं । दे० नियत वृत्ति।) ३.नियतिकी सिद्धि दे० निमित्त/२ ( अष्टांग महानिमित्तज्ञान जो कि श्रुतज्ञानका एक भेद है अनुमानके आधारपर कुछ मात्र क्षेत्र व कालको सीमा सहित अशुद्ध अनागत पर्यायोंको ठीक-ठीक परोक्ष जानने में समर्थ है।) दे० अवधिज्ञान/८ (अबधिज्ञान क्षेत्र व कालको सीमाको लिये हुए अशुद्ध अनागत पर्यायोंको ठीक-ठीक प्रत्यक्ष जानने में समर्थ है। दे० मन पर्यय ज्ञान/१/३/३(मन.पर्ययज्ञान भीक्षेत्र व कालकी सीमाको लिये हुए अशुद्ध पर्यायरूप जीवके अनागत भावों व विचारोंको ठीकठीक प्रत्यक्ष जानने में समर्थ है।) दे० केवलज्ञान/३ (केवलज्ञान तो क्षेत्र व कालकी सीमासे अतीत शुद्ध व अशुद्ध सभी प्रकार की अनागत पर्यायोंको ठीक-ठीक प्रत्यक्ष जानने में समर्थ है।) और भी इनके अतिरिक्त सूर्य ग्रहण आदि बहुतसे प्राकृतिक कार्य नियत कालपर होते हुए सर्व प्रत्यक्ष हो रहे हैं। सम्यक् ज्योतिष ज्ञान आज भी किसी-किसी ज्योतिषीमें पाया जाता है और वह निःसंशय रूपसे पूरी दृढताके साथ आगामी घटनाओंको बताने में समर्थ है।) २. काललब्धि निर्देश १. काललब्धि सामान्य व विशेष निर्देश स. सि./२/३/१० अनादिमिथ्यादृष्टे व्यस्य कर्मोदयापादितकालुण्ये सति कुतस्तदुपशम. । काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात्। तत्र काललब्धिस्तावत्-कर्माविष्ट आत्मा भव्य' कालेऽर्द्धपुद्गलपरिवर्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवतिनाधिके इति । इयमेका काललब्धिः । अपरा कर्म स्थितिका काललब्धि' । उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति । क्व तर्हि भवति । अन्तःकोटाकोटोसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामनशात्सकर्मसु च ततः संख्येयसागरोपमसहस्रोनायामन्तःकोटाकोटोसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति। अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया। भव्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तक' सर्व विशुद्ध, प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति। -प्रश्न-अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यके कर्मोके उदयसे प्राप्त कलुषताके रहते हुए इन (कर्म प्रकृतियों का) उपशम कैसे होता है ? उत्तर-काललब्धि आदिके निमित्तसे इनका उपशम होता है। अब यहाँ काललब्धिको बतलाते हैकर्मयुक्त कोई भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गलपरिवर्तन नामके कालके शेष रहनेपर प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके योग्य होता है, इससे अधिक कालके शेष रहनेपर नहीं होता, (संसारस्थिति सम्बन्धी) यह एक काललब्धि है। (का. अ./टी./१८८/१२९/७) दूसरी काललब्धिका सम्बन्ध कर्म स्थितिसे है। उत्कृष्ट स्थितिवाले कर्मोके शेष रहनेपर या जघन्य स्थितिवाले कर्मों के शेष रहनेपर प्रथम सम्यक्त्यका लाभ नहीं होता। प्रश्न-तो फिर किस अवस्थामें होता है ? उत्तर-जम बँधनेवाले कर्मोंकी स्थिति अन्त.कोड़ाकोड़ी सागर पड़ती है. और विशुद्ध परिणामों के वशसे सत्ता में स्थित कर्मोकी स्थिति संख्यात हजार सागर कम अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्राप्त होती है। तब ( अर्थात् प्रायोग्यलब्धिके होनेपर ) यह जीव प्रथम सम्यक्त्वके योग्य होता है। एक काललब्धि भव की अपेक्षा होती है जो भव्य है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्व विशुद्ध है, वह प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है। (रा. वा./२/३/२/२०४/१९); (और भी दे० नियति/२/३/२) दे० नय/I/५/४/नय नं १६ कालनयसे आत्म द्रव्यको सिद्धि समयपर आधारित है, जैसे कि गर्मी के दिनोंमें आम्रफल अपने समयपर स्वयं पक जाता है। २. एक काललब्धिमें सर्व लब्धियोंका अन्तर्भाव ष. खं./६/१,६-८/सूत्र ३/२०३ एदेसिं चेव सब्बकम्माण जावे अंतोकोड़ा कोडिढिदि बंधदि तावे पढमसम्मत्तं लंभदि । ध.६/१,६-८,३/२०४/२ एदेण खओवसमलद्धी विसोहिलदी देसणलद्धी पाओग्गल द्धि त्ति चत्तारि लद्धीओ परूविदाओ । घ.६/१,६-८,३/२०५१ सुत्ते काललद्धी चेव परूविदा, तम्हि एदासि लद्धीणं कध संभवो। ण, पडिसमयमणतगुणहीणअणुभागुदीरणाए जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियति २. काललब्धि निर्देश तत्व की माँधता सूत्र में चारा अणंतगुणकमेण वड्ढमाण विसोहीए आइरियोवदेसोवलंभस्स य तत्थेव संभवादो। - इन ही सर्व कर्मोकी जब अन्तःकोडाकोड़ी स्थितिको बाँधता है, तब यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है। २. इस सूत्रके द्वारा क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि और प्रायोग्यलब्धि ये चारों लब्धियाँ प्ररूपण की गयी हैं। प्रश्न-सूत्रमें केवल एक काललब्धि ही प्ररूपणा की गयी है, उसमें इन शेष लब्धियोंका होना कैसे सम्भव है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, प्रति समय अनन्तगुणहीन अनुभागकी उदीरगाका ( अर्थात क्षयोपशमलन्धिका ), अनन्तगुणित क्रम द्वारा बर्द्धमान विशुद्धिका (अर्थात् विशुद्धि लब्धिका ); और आचार्यके उपदेशकी प्राप्तिका (अर्थात देशनालब्धिका ) एक काललब्धि (अर्थात प्रायोग्यलन्धि)में होना सम्भव है। ३. काललब्धिकी कथंचित् प्रधानताके उदाहरण १. मोक्ष प्राप्तिमें काललब्धि मो. पा./मू./२४ अइसोहणजोएणं सुद्ध हेमं हवेइ जह तह या कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि ।२४। - जिस प्रकार स्वर्णपाषाण शोधनेकी सामग्रीके संयोगसे शुद्ध स्वर्ण बन जाता है, उसी प्रकार काल आदि लब्धिकी प्राप्तिसे आत्मा परमात्मा बन जाता है। आ. अनु /२४१ मिथ्यात्वोपचितात्स एव समल' कालादिलब्धौ क्वचित सम्यक्त्ववतदक्षताकलुषतायोगैः क्रमान्मुच्यते ॥२४॥ - -मिथ्यात्वसे पुष्ट तथा कर्ममल सहित आत्मा कभी कालादि लन्धिके प्राप्त होनेपर क्रमसे सम्यग्दर्शन, बतदक्षता, कषायोंका विनाश और योगनिरोधके द्वारा मुक्ति प्राप्त कर लेता है। का, अ/मू./१८८ जीवो हवेइ कत्ता सव्वं कम्माणि कुव्बदे जम्हा । कालाइ-लद्धिजुत्तो संसार कुणइ मोक्वं च १८८, सर्व कर्मोको करनेके कारण जोव कर्ता होता है। वह स्वयं ही संसारका कर्ता है और कालादिलब्धिके मिलनेपर मोक्षका कर्ता है। प्र. सा./ता. वृ/२४४/२०५/१२ अत्रातीतानन्तकाले ये केचन सिद्धमुखभाजन जाता, भाविकाले विशिष्टसिद्धसुखस्य भाजनं भविष्यन्ति ते सर्वेऽपि काललब्धिवशेनैव । -अतीत अनन्तकालमें जो कोई भी सिद्धसुखके भाजन हुए हैं, या भावीकालमें होंगे वे सब काललन्धिके वशसे ही हुए हैं । (पं. का./ता. व./१००/१६०/१२ ); (द्र. सं. टी./ ६३/३)। पं. का./ता././२०/४२/१८ कालादिलब्धिवशाभेदाभेदरत्नत्रयात्मक व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्ग लभते । - काल आदि लब्धिके वशसे भेदाभेद रत्नत्रयात्मक व्यवहार व निश्चय मोक्षमार्गको प्राप्त करते हैं। पं. का./ता. वृ./२६/६/६ स एव चेनयितात्मा निश्चयनयेन स्वयमेव कालादिलब्धिवशात्सर्वज्ञो जातः सर्वदर्शी च जातः। -वह चेतयिता आरमा निश्चयनयसे स्वयम् ही कालादि लब्धिके वशसे सर्वज्ञ व सर्वदर्शी हुआ है। दे. नियति/५/६ (काललब्धि माने तदनुसार बुद्धि व निमित्तादि भी स्वतः प्राप्त हो जाते हैं।) २. सम्यक्त्व प्राप्तिमें काललब्धिम. पु./६२/३१४-३१५ अतीतानादिकालेऽत्र कश्चिरकालादिलब्धितः । १३१४॥ करणत्रयसं शान्तसप्तप्रकृतिसंचय । प्राप्तविच्छिन्नसंसार' रागसंभूतदर्शनः ।३१५। -अनादि कालसे चला आया कोई जीव काल आदि लब्धियोंका निमित्त पाकर तीनों करणरूप परिणामों के द्वारा मिथ्यादिसात प्रकृतियोंका उपशम करता है,तथासंसारकीपरिपाटीका विच्छेद कर उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। ( स. सा./ता. वृ./ ३७३/४५६/१५)। ज्ञा./10 में उद्धृत श्लो.नं.१ भव्यः पर्याप्तक. संज्ञी जीव पञ्चेन्द्रियान्वितः। काललध्यादिना युक्त. सम्यक्त्वं प्रतिपद्यतः।१। जो भव्य हो, पर्याप्त हो, संज्ञी पंचेन्द्रिय हो और काललन्धि आदि सामग्री सहित हो वही जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होता है। (दे. नियति/ २/१); (अन. ध./२/४६/१७१); ( स. सा./ता. वृ./१७१/२३८/१६) । स. सा./ता.व./३२१/४०८/२० यदा कालादिलन्धिवशेन भव्यत्वशक्ते र्व्यक्तिर्भवति तदाय जीवः सम्यवश्रद्धानज्ञानानुचरण पर्यायण परिणमति। -जब कालादि लब्धिके वशसे भव्यत्व'शक्तिकी व्यक्ति होती है तब यह जीव सम्यक् श्रद्धान ज्ञान चारित्र रूप पर्यायसे परिणमन करता है। ३. सभी पर्यायोंमें काललब्धि का, अ./मू./२४४ सव्वाण पज्जायाणं अविजमाणाण होदि उप्पत्ती। कालाई-लद्धीए अणाइ-णिहणम्मि दयम्मि।-अनादिनिधन द्रव्यमें काललब्धि आदिके मिलनेपर अविद्यमान पर्यायोंकी ही उत्पत्ति होती है। (और भी दे० आगे शीर्षक नं.६)। ४. काकतालीय न्यायसे कायकी उत्पत्ति ज्ञा.१२ काकतालीयकन्यायेनोपलब्ध यदि त्वया। तत्तहि सफल कार्य कृत्वात्मन्यात्मनिश्चयम् ।२। -हे आत्मन् ! यदि तूने काकतालीय न्यायसे यह मनुष्यजन्म पाया है, तो तुझे अपने में ही अपनेको निश्चय करके अपना कर्त्तव्य करना तथा जन्म सफल करना चाहिए। प.प्र./टी./१/८/८१/१६ एकेन्द्रियविकलेन्द्रिय.. आत्मोपदेशादीनुत्तरोत्तरदुर्लभक्रमेण दुःप्राप्ता कालल ब्धि', कथं चिकाकतालीयकन्यायेन तां लब्ध्वा...यथा यथा मोही विगलयति तथा तथा...सम्यक्त्वं लभते। = एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियसे लेकर आत्मोपदेश आदि जो उत्तरोत्तर दुर्लभ आते हैं. काकतालीय न्यायसे काललब्धिको पाकर वे सब मिलनेपर भी जैसे-जैसे मोह गलता जाता है, तैसे-तैसे सम्यक्त्वका लाभ होता है । ( द्र. सं./टी./३५/१४३/११) । ५. काललब्धिके बिना कुछ नहीं होता ध.१/४,१.४४/१२०/१० दिव्वज्झुणीए किमळं तत्थापउत्ती। गणिदाभावादो। सोहम्मिदेण तखणे चेव गणिदो किण्ण ढोइदो। काललद्धीए विणा असहायस्स देविदस्स तड्ढोयणसत्तीए अभावादो। -प्रश्न-इन (छयासठ) दिनोंमे दिव्यध्वनिकी प्रवृत्ति किसलिए नहीं हुई। उत्तर-गणधरका अभाव होनेके कारण । प्रश्न - सौधर्म इन्द्र ने उसी समय गणधरको उपस्थित क्यों नहीं किया । उत्तरनहीं किया, क्योंकि, काललब्धिके बिना असहाय सौधर्म इन्द्र के उनको उपस्थित करनेकी शक्तिका उस समय अभाव था। (क पा, ११,१/५७/०६/१) । म.पु./६/११५ तद्गृहाणाद्य सम्यक्त्वं तल्लाभे काल एष ते। काललब्ध्या विना नार्य तदुत्पत्तिरिहानिनाम् ॥११॥ म.पु./४७/३८६ भव्यस्यापि भवोऽभवद् भवगत' कालादिलब्धेविना ।... १३८६४ -१. (प्रीतिंकर और प्रीतिदेव नामक दो मुनि वज्रजंघके पास आकर कहते हैं) हे आर्य! आज सम्यग्दर्शन ग्रहण कर। उसके ग्रहण करनेका यह समय है ( ऐसा उन्होंने अवधिज्ञानसे जान लिया था), क्योंकि काललब्धिके बिना संसार में इस जीवको सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति नहीं होती। (म. पू./४८/८४) ।११५॥ २. कालादि लब्धियों के बिना भव्य जीवोंको भी संसार में रहना पड़ता है ।३८६। का, अ./मू./४०८ इदि एसो जिणधम्मो अलद्धपुवो अणाइकाले वि। मिच्छत्तसंजुदाणं जीवाण लद्धिहीणाणं ।४०८ - इस प्रकार यह जिनधर्म कालादि लब्धिसे होन मिथ्यादृष्टि जीवोंको अनादिकाल बीत जानेपर भी प्राप्त नहीं हुआ। ६. काळलब्धि अनिवार्य है का.अ./मू./२१६ कालाइलद्धिजुत्ता णाणासत्तीहि संजुदा अत्था। परि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियति काल आदि णममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारे' |२१| लब्धियोसे युक्त तथा नाना शक्तियोवाले पदार्थको स्वयं परिणमन करते कौन रोक सकता है । हुए ७. कालब्धि मिलना दुर्लभ है भ आ./वि/१५८/३७०/१४ उपशमकालकरण लन्धयो हि दुर्लभाः प्राणिनो मुहृदो विद्वास इव । जैसे विद्वान मित्रकी शति दुर्लभ है, वैसे ही उपशम, काल व करण इन लब्धियोंकी प्राप्ति दुर्लभ है। ६१६ ८. काललब्धिको कथंचित् गौणता रा.वा./१/३/०-१/२३/२० भव्यस्य कासेन निमसोपपतेः अभिगमसम्यक्त्वाभाव ॥७॥ न विवक्षितापरिज्ञानात् । ... यदि सम्यग्दर्शनादेवाजिदगिमा हानचारित्ररहितान्मोक्ष एट स्याद. तत् इदं युक्तं स्यात् 'भव्यस्य कालेन निःश्रेयसोपपत्तेः' इति । नाययिोनयानकर्मनिर्जरापूर्वकमोक्ष कालस्य नियमोsस्ति । केचिद् भव्याः संख्येयेन कालेन सेत्स्यन्ति. केचिदसंख्येयेन केभिरनन्तेन अपरे अनन्तानन्तेनापि न सेत्स्यन्ति। ततश्च न युक्तम्- 'भवस्य कालेन निःश्रेयसोपपत्तेः' इति । प्रश्नभव्य जीव अपने समय के अनुसार ही मोक्ष जायेगा, इसलिए अधिगम सम्यक्त्वका अभाव है, क्योकि उसके द्वारा समय से पहले सिद्धि असम्भव है || उत्तर- नहीं, तुम विवक्षाको नहीं समझे। यदि ज्ञान व चारित्र शुन्य केवल निसर्गज या अधिगमन सम्यग्दर्शन ही से मोक्ष होना हमें इष्ट होता तो आपका यह कहना युक्त हो जाता कि भव्य जीवको समयके अनुसार मोक्ष होती है, परन्तु यह अर्थ तो यहाँ विवक्षित नहीं है । ( यहाँ मोक्षका प्रश्न ही नहीं है । यहाँ तो केवल सम्यक्त्वकी उत्पत्ति दो प्रकारसे होती है यह बताना इष्ट हैदे० अधिगम ) दूसरी बात यह भी है कि भव्योंकी कर्म निर्जराका कोई समय निश्चित नहीं है और न मोक्षका ही । कोई भव्य संख्यात कासमें सिद्ध होगे, कोई असंख्यातमें और कोई अनन्त कालमें | कुछ ऐसे भी है जो अनन्तानन्त कालमे भी सिद्ध नहीं होंगे। अतः भव्य मोक्षके कासनियमको बाल उचित नहीं है ( श्लो. वा. २/१/३/४/७५/८ ) । म.प्र. ०४/३०६-४१३ का भावार्थ जिकडे पूर्व जीव खदिरसारने समाधिगुप्त मुनि कोवेका मांस न खानेका मत लिया। बीमार होनेपर वैद्यो द्वारा कौवों का मांस खानेके लिए आग्रह किये जानेपर भी उसने वह स्वीकार न किया। तब उसके साले शूरवीर ने उसे बताया कि जब वह उसको देखनेके लिए अपने गॉवसे आ रहा था तो मार्ग में एक यक्षिणी रोती हुई मिली। पूछनेपर उसने अपने रोनेका कारण यह बताया, कि खदिरसार जो कि अब उस व्रतके प्रभाव से मेरा पति होनेवाला है, तेरी प्रेरणासे यदि कौबेका मांस खा लेगा तो नरकके दुःख भोगेगा। यह सुनकर खदिरसार तुरत श्रावक के व्रत धारण कर लिये और प्राण त्याग दिये। मार्ग में शूरवीरको पुनः वही यक्षिणी मिली । जब उसने उससे पूछा कि क्या वह तेरा पति हुआ तो उसने उत्तर दिया कि अब तो श्रावकवतके प्रभावसे वह व्यन्तर होनेकी बजाय सौधर्म स्वर्ग में देव उत्पन्न हो गया, अत मेरा पति नहीं हो सकता । म पू/०६/१-३० भगवान महावीर के दर्शनार्य जानेवाले राजा बेकि मार्ग में ध्यान निमग्न परन्तु कुछ विकृत मुखवाते धर्मरुचिको वन्दना की। समवशरणमे पहुँचकर गणधरदेव से प्रश्न करनेपर उन्होंने बताया कि अपने छोटेसे पुत्रको ही राज्यभार सौपकर यह दीक्षित हुए है । आज भोजनार्थ नगर में गये तो किहीं मनुष्यों की परस्पर बातचीतको सुनकर इन्हें यह भान हुआ कि मन्त्रियोंने उसके पुत्रको बाँध रखा है और स्वयं राज्य बॉटनेकी तैयारी कर रहे है । वे निराहार ही लौट आये और अब ध्यानमें बैठे हुए कोधके वशीभूत हो संरक्षणानन्द २. देव निर्देश 1 नामक रौद्रध्यान में स्थित हैं यदि आगे अन्तर्मुहूर्त तक उनकी यही अवस्था रही तो अवश्य ही नरकायुका बन्ध करेगे । अत तू शीघ्र ही जाकर उन्हें सम्बोध । राजा श्रेणिकने तुरत जाकर मुनिको सावधान किया और वह चेत होकर रौद्रध्यानको छोड शुक्लध्यान में प्रविष्ट हुआ। जिसके कारण उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । मो.मा.प्र./६/४५६ / ३ काललन्धि वा होनहार का वस्तु नाहीं । जिसका विषे कार्य सोई काललन्धि और जो कार्य भया सोई होनहार । दे. नय / I / ५ / ४ / नय. नं. २० कृत्रिम गर्मी के द्वारा पकाये गये आम्र फलकी भाँति अकालनय से आत्मद्रव्य समयपर आधारित नहीं । ( और भी दे. उदीरणा / १/१) । ३. देव निर्देश १. देवका लक्षण · अष्टशती /- योग्यता कर्म पूर्वं वा देवम्। कहलाता है। 1 म. ५/४/२७ विधिष्टा विधाता च कर्म पुराकृतम्। श्रश्चेति पर्याया विशेयाः कर्मविधि खष्टा विभाता देव पुराकृत कर्म और ईश्वर से सब कर्मरूपी ईश्वरके पर्यायवाचक शब्द हैं, इनके सिवाय और कोई लोकका बनानेवाला ईश्वर नही है । आ. अनु / २६२ यत्प्राग्जन्मनि संचितं तनुभृता कर्माशुभं वा शुभं । तद्दैवं... १२६२ ) - प्राणीने पूर्व भव में जिस पाप या पुण्य कर्मका संचय किया है, वह देव कहा जाता है । २. मिथ्या देववाद निर्देश = योग्यता या पूर्वकर्म ब आप्त. मी./ देवादेवार्थसिद्धिश्चेद्दैवं पौरुषत' कथं । दैवतश्चेदनिमहापौरुषं निष्फलं भवेत् से ही सर्व प्रयोजनों की सिद्धि होती है। वह देव अर्थात् पाप कर्मस्वरूप व्यापार भी पूर्वके देवसे होता है। ऐसा माननेसे मोक्षका व पुरुषार्थ का अभाव ठहरता है। अतः ऐसा एकान्त देववाद मिथ्या है । गो.क././८११/२००२ दवमेव परं मणे धिपमगर एसो सालसमुत्तंगो कण्णी हण्णइ संगरे । ८६११ -- देव ही परमार्थ है । निरयेक पुरुषार्थको शिकार है। देखो पर्यंत सरीखा उत्तंग राजा कर्म भी संग्राममें मारा गया। ३. सम्यग्देववाद निर्देश सुभाषित रत्नसन्दोह / ३५६ यदनीतिमतां लक्ष्मीर्यदपथ्यनिषेविणां च कल्पत्वम् अनुमीयते विधातुस्वेारित्यमेतेन ॥ २५६॥ बडा ही स्वेच्छाचारी है, यह मनमानी करता है। नीति तथा पथ्यसेवियोंको तो यह निर्धन व रोगी बनाता है और अनीति व अपथ्यसेवियोंको धनवान् व नीरोग बनाता है । दे नय/1/५/४/ नय नं. २२ नींके वृक्षके नीचैसे रत्न पानेकी भाँति, देव नयसे आत्मा अयत्नसाध्य है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पं. ध. /उ./८७४ दैवादस्तं गते तत्र सम्यक्त्वं स्यादनन्तरम् । देवान्नान्यतरस्यापि योगवाही च नाप्ययम् 15७४ | = दैवसे अर्थात् काललब्धिसे उस दर्शन मोहनीय उपशमादि होते ही उसी समय सम्यग्दर्शन होता है, और देयसे यदि उस दर्शन मोहनीयका अभाव न हो तो नहीं होता, इसलिए यह उपयोग न सम्यक्त्वकी उत्पत्ति में कारण है और दर्शनमोहके अभाव में। ( पं. ध. /उ. / ३७८ ) । पंच सोनं, सारा इसी प्रकार वियोग अपने-अपने कारणोंका या कर्मोदयादिका सन्निधान होनेपर - पंचेन्द्रिय व मन अगोपांग नामकर्म के बन्धकी प्राप्ति होती है | २६४॥ इन्दियों बादिकी पूर्णता होती है | २६८] सम्पादटिको भी कदाचित आरम्भ आदि Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियति ४. भवितव्य निर्देश क्रियाएँ होतो है ।४२६। कदाचित् दरिद्रताको प्राप्ति होती है ।५०७१ मृत्यु होती है।५४०। कमोदय तथा उनके फलभूत तोव मन्द संक्लेश विशुद्ध परिणाम होते है।६८३ ऑखमें पीडा होती है ।६६११ ज्ञान व रागादिमे हीनता होती है।८८ नामकमके उदयवश उस-उस गतिमै यथायोग्य शरीरकी प्राप्ति होती है ।९७७--ये सब उदाहरण दैवयोगमे होनेवाले कार्योंकी अपेक्षा निर्दिष्ट है। ४. कर्मोदयकी प्रधानताके उदाहरण स.सा./आ./२५६/क १६८ सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदया- न्मरणजो वितदुरवसौख्यम् । अज्ञानमेतदिह यत्तु पर परस्य, कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदु:रवसौरव्यम् ।१६८। =इस जगत में जोवोंके मरण, जीवित, दुःख, सुख-सब सदैव नियमसे अपने कर्मोदयसे होता है। यह मानना अज्ञान है कि-दूसरा पुरुष दूसरेके मरण, जीवन, दुःख सुखको करता है। पं. वि./३/१८ यैव स्वकर्मकृतकालात्र जन्तुरतत्रैव याति मरण न पुरो न पश्चात् । मूढास्तथापि हि मृते स्वजने विधाय शोक परं प्रचुरदुःखभुजा भवन्ति ।१८। = इस संसारमे अपने कर्म के द्वारा जो मरणका समय नियमित किया गया है, उसी समयमें ही प्राणी मरणको प्राप्त होता है, वह उससे न तो पहले मरता है और न पीछे भी। फिर भी मूर्ख जन अपने किसी सम्बन्धीके मरणको प्राप्त होनेपर अतिशय शोक करके बहुत दुःख भोगते है ।१८। (६.वि./३/१०)। ५. दैवके सामने पुरुषार्थका तिरस्कार कुरल काव्य/३८/६,१० यत्नेनापि न तद् रक्ष्यं भाग्यं नैव यदिच्छति । भाग्येन रक्षित वस्तु प्रक्षिप्त नापि नश्यति । देवस्य प्रबला शक्तियंतस्तद्ग्रस्तमानव' । यदैव यतते जेतं तदेवाशु स पात्यते ।१०। भाग्य जिस बातको नहीं चाहता उसे तुम अत्यन्त चेष्टा करनेपर भी नहीं रख सकते, और जो वस्तुएँ भाग्यमें बदी हैं उन्हें फेंक देनेपर भी वे नष्ट नहीं होती।६ (भ. आ./५ /१७३१/१५६२ ); (पं. वि/१.१८८) दैबसे बढ़कर बलवान और कौन है, क्योंकि जब ही मनुष्य उसके फन्देसे छूटनेका यत्न करता है, तब ही वह आगे बढकर उसको पछाड देता है ।१०॥ आ. मी./८६ पौरुषादेव सिद्धिश्चेत्पौरुषं दैवत' कथम् । पौरुषाच्चेदमोघं स्यात्सर्वप्राणिषु पौरुषम् ।। -यदि पुरुषार्थसे ही अर्थको 'सिद्धि मानते हो तो हम पूछते है कि देवसिद्ध जितने भी कार्य हैं, उनकी सिद्धि कैसे करोगे। यदि कहो कि उनकी सिद्धि भी पुरुषार्थ द्वारा ही होती है, तो यह बताइए. कि पुरुषार्थ तो सभी व्यक्ति करते हैं, उनको उसका समान फल क्यों नहीं मिलता। अर्थात् कोई सुरवी व कोई दुःखी क्यों है ! आ. अनु./३२ नेता यत्र वृहस्पतिः प्रहरणं वज्र' सुराः सैनिकाः, स्वर्गों दुर्गमनुग्रहः खलु हरेरे रावतो वारणः। इत्याश्चर्यबलान्वितोऽपि बलिभिद्भग्न. परै संगरेः, तद्व्यक्तं ननु दैवमेव शरण घिधिग्वृथा पौरुषम् ॥३२॥ = जिसका मन्त्री बृहस्पति था, शस्त्र बज्र था, सैनिक देव थे, दुर्ग स्वर्ग था, हाथी ऐरावत था, तथा जिसके उपर विष्णुका अनुग्रह था; इस प्रकार अद्भुत बलसे संयुक्त भी वह इन्द्र युद्धमे दैत्यों (अथवा रावण आदि ) द्वारा पराजित हुआ है। इसोलिए यह स्पष्ट है कि निश्चयसे दैव ही प्राणोका रक्षक है, पुरुषार्थ व्यर्थ है, उसके लिए बार बार धिक्कार हो। पं.वि./३/४२ राजापि क्षणमात्रतो विधिवशाद्रवायते निश्चित, सर्वव्याधिविवर्जितोऽपि तरुणोऽप्याशु क्षयं गच्छति। अन्यै कि किल सारतामुपगते श्रीजी विते द्वे तयो., ससारे स्थितिरीदृशीति विदुषा कान्यत्र कार्यो मद. १४२३ -भाग्यवश राजा भी निश्चयसे क्षणभरमें रंकके समान हो जाता है, तथा समस्त रोगोंसे रहित युवा पुरुष भी शीघ्र ही मरणको प्राप्त हाता है। इस प्रकार अन्य पदार्थों के विषयमें तो क्या कहा जाय, किन्तु जो लक्ष्मी और जीवित दोनों ही संसारमें श्रेष्ठ समझे जाते है, उनकी भी जब ऐसो (उपर्युक्त) स्थिति है तम विद्वान् मनुष्यको अन्य किसके विषयमे अभिमान करना चाहिए। पंध./उ./५७१ पौरुषो न यथाकामं पुंस कर्मोदित प्रति। न पर पौरुषापेक्षो देवापेक्षा हि पौरुष' ५७१२ -दैव अर्थात् कर्मोदयके प्रति जीवका इच्छानुकूल पुरुषार्थ कारण नहीं है, क्योंकि, पुरुषार्थ केवल पौरुषको अपेक्षा नहीं रखता है, किन्तु देवकी अपेक्षा रखता है। और भी, दे, पुण्य/४/२ (पुण्य साथ रहनेपर बिना प्रयत्न भी समस्त इष्ट सामग्री प्राप्त होती है, और वह साथ न रहनेपर अनेक कष्ट उठाते हुए भी वह प्राप्त नहीं होती)। ६. दैवकी अनिवार्यता पद्म पु./४६/६-७ सस्पन्दं दक्षिण चक्षुरवधार्य व्यचिन्तयत् । प्राप्तव्यं विधि योगेन कर्म कर्त, न शक्यते ।६। क्षुद्रशक्तिसमासक्ता मानुषास्तावदासताम् । न सुरैरपि कर्माणि शक्यन्ते कर्तुमन्यथा।७। -दक्षिण नेत्रको फडकते देख उसने विचार किया कि दैवयोगसे जो कार्य जैसा होना होता है, उसे अन्यथा नहीं किया जा सकतादाहीन शक्तिवालोंकी तो बात ही क्या, देवोके द्वारा भी कर्म अन्यथा नहीं किये जा सकते ७ म.पु./४४/१६६ स प्रताप. प्रभा सास्य सा हि सर्वेकपूज्यता। प्रातः प्रत्यहमर्कस्याप्यतयः कर्कशो विधि.। = सूर्य का प्रताप व कान्ति असाधारण है और असाधारण रूपसे ही सब उसकी पूजा करते है, इससे जाना जाता है कि निष्ठुर दैव तर्कका विषय नही है। ४. भवितव्य निर्देश १. भवितव्यका लक्षण मो.मा.प्र./8/४५६/४ जिस काल विषे जो कार्य भया सोई होनहार (भवितव्य) है। जैन तत्त्व मीमांसा/पृ.६५ फूलचन्द-भक्तिं योग्य भवितव्यं तस्य भावः भवितव्यता। - जो होने योग्य हो उसे भवितव्य कहते हैं। और उसका भाव भवितव्यता कहलाता है। २. भवितव्यकी कथंचित् प्रधानता पं. वि/३/५३ लोकश्चेतसि चिन्तयन्ननुदिन कल्याणमेवात्मनः, कुर्यात्सा भवितव्यतागतवती तत्तत्र यद्रोचते। मनुष्य प्रतिदिन अपने कल्याणका ही विचार करते हैं. किन्तु आयी हुई भवितव्यता वही करती है जो कि उसको रुचता है। का, अ./पं. जयचन्द/३१९-३१२ जो भवितव्य है वही होता है। मो. मा. प्र./२/पृष्ठ/पंक्ति-क्रोधकरि (दूसरेका) बुरा चाहनेकी इच्छा तौ होय, बुरा होना भवितव्याधीन है।५६/८। अपनी महंतताकी इच्छा तौ होय, महंतता होनी भवितव्य आधीन है ।५६/१८। मायाकरि इष्ट सिद्धिके अर्थि छल तो करै, अर इष्ट सिद्धि होना भवितव्य आधीन हे १५७/३१ मो. मा. प्र/३/८०/११ इनकी सिद्धि होय (अर्थात कषायोके प्रयोजनोंकी सिद्धि होय) तौ कषाय उपशमनेतें दुख दूर होय जाय सुखी होय, परन्तु इनकी सिद्धि इनके लिए (किये गये) उपायनिके आधीन नाही, भवितव्यके आधीन है। जाते अनेक उपाय करते देखिये हैं अर सिद्धि न हो है। बहुरि उपाय बनना भी अपने आधीन नाही. भवितव्यके आधीन है। जाते अनेक उपाय करना विचार और एक भो उपाय न होता देखिये है। बहुरि काकताली न्यायकरि भवितव्य ऐसा ही होय जैसा आपका प्रयोजन होय तसाही उपाय होय अर तातै कार्यकी सिद्धि भी होय जाय। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-७८ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियति २. भवितव्य अध्य व अनिवार्य है स्न स्तो / ३३ अध्यातिविव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यसि । अनीश्वरो जन्तुरहं कियाः सहस्व कार्येपिति साध्ववादी |३३|अन्तरंग ओर बाह्य दोनों कारणोंके अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होनेवाला कार्य हो जिसका हायक है. ऐसी इस भवितव्यता की शक्ति अवध्य है। बहकार पीडित हुआ संसारी प्राणी मन्त्र-तन्त्रादि अनेक सहकारी कारणोंको मिलाकर भी सुखादि कार्य सम्पन्न करने में समर्थ नहीं होता है। (पं.वि./३/-) प. पु. ४९/१०२ पक्षिणं संयतोऽगारीमा मैत्रीरघुना द्विज । मा दोर्यद्यथा भाव्यं कः करोति तदन्यथा । १०२ । रामसे इतना कहकर सुनिराजने गृद्धसे कहा कि हे द्विज़ अब भयभीत मत होवो, ओ मत, जो भवितव्य है अर्थात् जो बात जैसी होनेवाली है, उसे अन्यथा कौन कर सकता है। ५. नियति व पुरुषार्थका समन्वय = १. देव व पुरुषार्थ दोनोंके मेलसे ही अर्थ सिद्धि होती है अष्टशती / योग्यता कर्म पूर्व वा देवमुभयमदृष्टम्, पौरुषं पुनरिह चेष्टितं दृष्टताभ्यागर्थ सिद्धि तदन्यतरापायेऽघटनाद पौरुषमात्रेदर्शनात्। देवमात्रे या समीहानर्थनमप्रसंगात (संसारी जीवों में देव व पुरुषार्थ सम्बन्धी प्रकरण है ) पदार्थ की योग्यता अर्थात भवितव्य और पूर्व कर्म मे दोनों देव कहलाते हैं। ये दोनों ही अदृष्ट है । तथा व्यक्तिकी अपनी चेष्टाको पुरुषार्थ कहते हैं जो दृष्ट है । इन दोनोंसे ही अर्थ सिद्धि होती है, क्योंकि, इनमें से किसी एक के अभाव में अर्थसिद्धि घटित नहीं हो सकती । केवल पुरुषार्थ से तो अर्थसिद्धि होती दिखाई नहीं देती (दे० नियति / ३ / ५) तथा केवल दैवके माननेपर इच्छा करना व्यर्थ हुआ जाता है । (दे० नियति / ३/२) । प.पु / ४६/२३९ कृत्यं किचिद्विशदमनसा माप्तवाक्यानपेक्षं नाप्तेरुक्तं फलति पुरुषस्योज्झितं पौरुषेण । देवापेतं पुरुषकरणं कारणं नेष्टसङ्गे तस्माद्भव्याः कुरुत यतनं सर्वहेतुप्रसादे । २३१ - हे राजन् ! निर्मल चिसके धारक मनुष्योंका कोई भी कार्य आठ वचनोंसे निरपेक्ष नहीं होता. और आप्त भगवादने मनुष्यों के लिए जो कर्म मतलाये है वे पुरुषार्थ के बिना सफल नहीं होते। और पुरुषार्थ दैवके बिना इष्ट सिद्धिका कारण नहीं होता। इसलिए हे भव्यजीबो ! जो सबका कारण है उसके (अर्थात् आत्माके) प्रसन्न करनेमें यत्न करो | २३१ | " २. अबुद्धिपूर्व के कार्यों में देव तथा बुद्धिपूर्वकके कार्यों में पुरुषार्थ प्रधान है ४.मी./११ अबुद्धिपूरपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदेवः बुद्धिपूर्वविपेक्षा यामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात ।१११ = [केवल देव हो से यदि अर्थसिद्धि मानते हो तो पुरुषार्थ करना व्यर्थ हो जाता है दि० निर्यात / २ / २ में आप मी.) केवल पुरुषार्थ से हो यदि अर्थसिद्धि मानी जाय तो पुरुषार्थ तो सभी करते हैं फिर सबको समान फलकी प्राप्ति होती हुई क्यों नहीं देखी जाती (दे० नियति / ३ / ५ में आप्त. मी./८६) । परस्पर विरोधी होनेके कारण एकान्त उभयपक्ष भी योग्य नहीं । एकान्त अनुभय मानकर सर्वथा अवक्तव्य कह देने से भी काम नहीं चलता, क्योंकि, सर्वत्र उनको पर्चा होती सुनी जाती है। (आप्स. मी./ १०) इसलिए अनेकान्त को स्वीकार करके दोनोंसे ही कथंचित् कार्यसिद्धि मानना योग्य है। वह ऐसे कि - कार्य व कारण दो प्रकारके देखे जाते है-अबुद्धि पूर्वक स्वतः हो जानेवाले या मिस जानेवाले तथा बुद्धिपूर्वक किये जानेवाले या मिलाये जानेवाले ५. नियति व पुरुषार्थका समन्वय (दे० इससे अगला सन्दर्भ / मो. मा.प्र.)] सहाँ अधिपूर्वक होने वाले मिलनेवाले कार्य व कारण तो अपने देवसे ही होते हैं और पूर्वक किये जानेवाले मिलाये जानेवाले इष्टानिष्ट कार्य व कारण अपने पुरुषार्थ से होते हैं। अर्थात् अनुपूर्व कार्य कारणों में देव प्रधान है और बुद्धिपूर्वकालों में पुरुषार्थ प्रधान है। मो.ना.प्र./७/२६/११ प्रश्न जो कर्मका निमित हो है (अर्थात् रागादि मिटे हैं), तो कर्मका उदय रहै तावत् विभाव कैसे दूर होता याका उद्यम करना तो निरर्थक है ? उत्तर--एक कार्य होने लिये अनेक कारण चाहिए हैं। तिनवि जे कारण बुद्धिपूर्वक होय तिनको तौ उद्यम करि मिलावे, और अबुद्धिपूर्वक कारण स्वयनेम मिले तम कार्यसिद्धि होय जैसे पुत्र होनेका कारण बुद्धिपूर्वक ती विवाहादिक करना है और अनुद्धिपूर्वक भवितव्य है। यहाँ पुत्रका अर्थी विमा आदिका तौ उद्यम करें अर भविष्य स्वयमेव होय, तन पुत्र होय जैसे विभाव दूर करनेके कारण बुद्धिपूर्वक तौ तत्त्वविचारादि है अर अबुद्धिपूर्वक मोह कर्म का उपक्षमारि है। सो ताका अर्थी तत्वविचारादिका तौ उद्यम करें, अर मोहकर्मका उपशमादि स्वयमेव होय, तन रागादि दूर होय । " ६१८ ३. अतः रागदशा में पुरुषार्थ करनेका हो उपदेश है दे० नय/५/४-नमनं० २१ जिस प्रकार पुरुषार्थ द्वारा ही अर्थात् चकर उसके निकट जानेसे ही पथिकको वृक्षको प्राप्ति होती है, उसी प्रकार पुरुषाकारनयसे आत्मा यत्नसाध्य है । प्र.सं./टी./२१/६३/३ यद्यपि कालधिवशेनानन्तसुलभाजनो भवति जीवस्तथापि सम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठान तपश्चरणरूपा या निश्चयचतुर्विधाराधना सेव तत्रोपादानकारणं ज्ञातव्यं न कालस्तेन इति यद्यपि यह जो कालन्धिके वासे अनन्तमुका भाजन होता है तो भी सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, आचरण व तपश्चरणरूप जो चार प्रकारकी निश्चय आराधना है, वह ही उसकी प्राप्तिमें उपादानकारण जाननी चाहिए, उसमें काल उपादान कारण नहीं है, इसलिए वह कालद्रव्य त्याज्य है । ... ... मो. मा. प्र./७/२१०/१ प्रश्न-जैसे विवाहादिक भी भक्तिस्य बाधीन है. वैसे विचारादिक भी कर्मका क्षयोपशमादिक के आधीन है. तातें उद्यम करना निरर्थक है । उत्तर- ज्ञानावरणका तौ क्षयोपशम सत्यविचारादि करने योग्य तेरे भया है। माहीतें उपयोग क यहाँ लगावनेका उद्यम कराइए हैं। असंज्ञी जीवनिकें क्षयोपशम नाहीं है, तो उनको काहे की उपदेश दीजिए है (अर्थात अबुद्धिपूर्वकमिसनेवाला देवाधीन कारण ही तुझे देवसे मिल ही चुका है. प्रेम मुजिपूर्वक किया जानेवाला कार्य करना शेष है यह तेरे पुरुपार्थ के आधीन है। उसे करना तेरा कर्तव्य है। ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोण " मो. मा. प्र./१/४५५/१७ प्रश्न--जो मोक्षका उपाय काललब्धि आए भवानुसार मने है कि, मोहाविका उपशमादि भए बने हैं, अथवा अपने पुरुषार्थ से उद्यम किए भने सो कहो जो पहिले दो कारण मिले है. तो हमको उपदेश काहेको दीजिए है। अर पुरुषार्थ भने है, तो उपदेश सर्व हुने तिनिविधै कोई उपाय कर कोई न कर सके, सो कारण कहा उत्तर—एक कार्य होनेव अनेक कारण मिले हैं। सो मोक्षका उपाय बने है तहां तौ पूर्वोक्त तीनौं (काललब्धि, भवितव्य व कर्मोंका उपशमादि) ही कारण मिले हैं। पूर्वोस तीन कारण कहे, तिनिमिषे काल या होनहार (भय) तो कछू वस्तु माहीं जिसकावि कार्य मनें, सोई कालय और जो कार्य बना सोई होनहार बहुरि जो कर्मका उपशमादि है; सो पुगलकी शक्ति है। ताका कर्ता हर्ता आत्मा नाहीं । बहुरि पुरुषार्थ उद्यम करिए हैं, सो यह आत्माका कार्य है, तातै आत्माको पुरुषार्थ करि उद्यम करनेका उपदेश दोजिये है । Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियति - ४. नियति सिद्धान्तमें स्वच्छन्दाचारको अवकाश नहीं मो. मा. प्र./७/२८ प्रश्न- होनहार होय, तो तहाँ (तत्त्वविचारादिके उपयोग लागे बिना होनहार कैसे लागे (अतः उद्यम करना निरर्थक है) उत्तर जो ऐसा ज्ञान है, तो सर्वत्र कोई ही कार्यका उद्यम मति करै । तू खान-पान व्यापारादिकका तौ उद्यम करें, और यहाँ (मोक्षमार्ग में होनहार बढाने सो जानिए है, तेरा अनुराग (रूचि) यहाँ नाहीं। मानादिककरि ऐसी कूठी बातें बनाने है। या प्रकार जे रागादिक होते (निश्चयनयका आय लेकर) तिनिकरि रहित आम की माने है ते मिध्यादृष्टि है। 1 प्र. सा. पं. जयचन्द / २०२ इस विभावपरिगतिको पृथक होती न देखकर मह (सम्म) आकुसव्याकुल भी नहीं होता क्योंकि जानता है कि समयसे पहिले अक्रमरूपसे इसका अभाव होना सम्भव नहीं है), और वह सफल विभाव परिणतिको दूर करनेका पुरुषार्थ किये बिना भी नहीं रहता । ० नियति/५/७ (निर्यातनिर्देशका प्रयोजन धर्म लाभ करना है ।) ५. वास्तव में पाँच समवाय समवेत ही कार्य व्यवस्था सिद्ध है प.पू./३१/२१२-२१३ भरतस्य किमा कृतं दशरथेन किए। लक्ष्मणयोरेषा का मनीषा व्यवस्थिता । २११) कालः कर्मेश्वरी देव स्वभावः पुरुषः क्रिया । नियतिर्वा करोत्येवं विचित्र कः समीहितम् | २१३ - (दशरथने रामको वनबास और भरतको राज्य दे दिया । इस अवसर पर जनसमूहमें यह बातें चल रही हैं ।) - भरतका क्या अभिप्राय था । और राजा दशरथने यह क्या कर दिया । राम लक्ष्मणके भी यह कौनसी बुद्धि उत्पन्न हुई है ।२१२ यह सब काल कर्म, ईश्वर, दैव, स्वभाव, पुरुष, क्रिया अथवा नियति ही कर सकती है। ऐसी विचित्र चेष्टाको और दूसरा कौन कर सकता है २१३ (कालको नियति कर्म व ईश्वरको निमित्तने और देव व क्रियाको भवितव्य में गर्भित कर देनेपर पाँच बातें रह जाती हैं । स्वभाव, निमित, नियति पुरुषार्थ व भवितव्य इन पाँच समवायोंसे समवेत ही कार्य व्यवस्थाकी सिद्धि है, ऐसा प्रयोजन है ।) पं. का./ता.वृ./२०/४२/१० यदा कालादिसन्धिवशाद्ध दाभेदरत्नत्रयात्मक व्यवहार निश्चयमोक्षमार्ग लभते तदा तेषां ज्ञानावरणादिभावानां श्रव्यभावकर्मरूपपर्यायाणामभावं विनाशं कृत्वा पर्यायार्थिकनयेनाभूतपूर्वसिद्धो भवति । द्रव्याधिकनयेन पूर्वमेव शिद्धरूपं इति वार्तिकं । - जब जीव कालादि लब्धिके वशसे भेदाभेद रत्नत्रयात्मक व्यवहार व निश्चय मोक्षमार्गको प्राप्त करता है, तब उन ज्ञानावरणादिक भावोंका तथा द्रव्य भावकर्मरूप पर्यायोंका अभाव या विनाश करके सिद्धपर्यायको प्रगट करता है। वह सिद्धपर्याय पर्यायार्थिकनयसे तो अभूतपूर्व अर्थात् पहले नहीं थी ऐसी है द्रव्यार्थिकनयसे यह जीव पहिले से ही सिद्ध रूप था। इस मानवमें आचार्यने सिपाि रूप कार्य में पाँचों समवायोंका निर्देश कर दिया है। इम्पार्थिकनयसे जीवका त्रिकाली सिद्ध सदृश शुद्ध स्वभाव, ज्ञानावरणादि कर्मोंका अभावरूप निमित्त कालादिसन्धि रूप नियति, मोक्षमार्गरूप पुरुषार्थ और सिद्ध पर्यायरूप भवितव्य ) मो. मा. प्र./२/०३/१० प्रश्नका कासविषे दशरीरको मा पुत्रादिकको इस जीवकै आधीन भी तो क्रिया होती देखिये है, तब तो सुखी हो है (अर्थादिसुख दुःख भवितव्याधोन हो तो नहीं हैं, अपने आधीन भी तो होते ही हैं। उत्तरशरीरादिककी भवितव्यकी और जबकी इच्छाकी विधि मिले, कोई एक प्रकार जैसे वह चाहे जैसे परिणमैताकाहू का विवाहीका विचार होते सुखी सी आभासा होय है, परन्तु सर्व ही तो सर्व प्रकार यह चाहें तैसे न ६१९ ५. नियति व पुरुषार्थका समन्वय परिणमै । (यहाँ भी पाँचों समवायोंके मिलनेसे ही कार्य की सिद्धि होना बताया गया है, केवल इच्छा या पुरुषार्थ से नहीं। तहाँ सुखप्रतिरूप कार्यमें 'परिणमन' द्वारा जीवका स्वमान 'शरीरादि द्वारा निमित्त, काहू काल विचे' द्वारा नियति 'इच्छा' द्वारा पुरुषार्थ और भवितव्य द्वारा भविस्यका निर्देश किया गया है। ) , ६. नियति व पुरुषार्थादि सहवर्ती हैं। १. काललब्धि होनेपर शेष कारण स्वतः प्राप्त होते हैं प.पु./२३/२४६ प्राप्ते विनाशकालेऽपि बुद्धिर्जन्तोविनश्यति। विधिना प्रेरितस्तेन कर्मपार्क विष्ट २४६ - विनाशका अवसर प्राप्त होगेपर जीवकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। सो ठीक है; क्योंकि, भवितव्यताके द्वारा प्रेरित हुआ यह जीव कर्मोदयके अनुसार पेष्टा करता है। असहली / १. २५० साहसी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता । जिस जीवकी जैसी भवितव्यता होती है उसकी वैसी ही बुद्धि हो जाती है। वह प्रयत्न भी उसी प्रकारका करने लगता है और उसे सहायक भी उसीके अनुसार मिल जाते हैं। E म.पु. ४०/९००-१०० कदाचित् कालसन्ध्याविचोदितोऽभ्यर्ण निवृत्तिः ॥ विलोकयन्नभोभागं अकस्मादन्धकारितम् । ९७७) चन्द्रग्रहणमालोक्य धिगैतस्यापि चेदियम् । अवस्था संसृतौ पापग्रस्तस्यान्यस्य का गतिः | १७८ | किसी समय जब उसका मोक्ष होना अत्यन्त निकट रह गया तब गुणपाल सन्धि आदिसे प्रेरित होकर आकाशकी ओर देख रहा था कि इसनेमें उसकी दृष्टि अरमाद अन्धकारसे भरे हुए चन्द्रग्रहणकी ओर पड़ी। उसे देखकर वह संसारके पापग्रस्त जीवोंकी दशाको विकारने लगा और इस प्रकार उसे वैराग्य आ गया १७७-१७८ । पं. का/पं. हेमराज / १६१/२३३ प्रश्न जो आप ही से निश्चय मोक्षमार्ग होय तो व्यवहारसाधन किसलिए कहा ? उत्तर - आत्मा-अनादि अविद्यासे युक्त है। जब काललब्धि पानेसे उसका नाश होय उस समय व्यवहार मोक्षमार्गको प्रवृत्ति हो है |... (तभी) सम्यक् रत्नत्रय ग्रहण करने का विचार होता है, इस विचारके होनेपर जो अनादिका ग्रहण था, उसका तो त्याग होता है, और जिसका त्याग था उसका ग्रहण होता है । २. कालादि सब्धि बहिरंग कारण दें और पुरुषार्थ अन्तरंग कारण है म.पु. /६/९९६ देशनाकालध्यादिनाशकारण संपदि । अन्तःकरणसाम भव्यात्मा स्पाइ विशुद्धकृत (ह) १९९६ मदेशनालय और कालन्धि आदि बहिरंग कारण तथा करण लब्धिरूप अन्तरंग कारण सामग्रीको प्राप्ति होती है, तभी यह भव्य प्राणी विशुद्ध सम्य दर्शनका धारक हो सकता है । प्र.सं./टी./२६/१२९/४ केन कारणतेन गलति 'जहकालेज स्वासपच्यमानाम्र फलवत्सविपाक निर्जरापेक्षया अभ्यन्तरे निजशुद्धात्म 1 त्रित्तिपरिणामस्य बहिरंगसहकारिकारणभूतेन काललब्धिसंज्ञेन यथाकालेन न केवलं यथाकालेन 'तवेण' अकालपच्यमानानामाचादिफलवद विपाक निर्जरापेक्षया चेति 'तस्स' कर्मणो गलन यच सा द्रव्यनिर्जरा प्रश्न-कर्म किस कारण गलता है उत्तर कालेज अपने समय पर पकनेवाले आमके फलके समान तो सविपाक निर्जराको अपेक्षा, और अन्तरंगमें निजशुद्धात्मा अनुभवरूप परिणामको महिरंग सहकारीकरणभूत काललब्धिसे यथा समय और 'तवेणय' बिना समय पकते हुए आम बादि फलोंके समान अविपाक निर्जराकी अपेक्षा उस कर्मका गलना द्रव्यनिर्जरा है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश -- Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियति ६२० निरतिचार दे. पद्धति/२/३ (बागम भाषामें जिसे कालादि लब्धि कहते हैं अध्यात्म भाषामें उसे ही शुद्धात्माभिमुख स्वसंवेदन ज्ञान कहते हैं।) ३. एक पुरुषार्थ में सर्वकारण समाविष्ट हैं मो. मा. प्र./६/१५६/८ यहु आत्मा जिस कारण” कार्य सिद्धि अवश्य होय, तिस कारणरूप उद्यम कर, तहाँ तो अन्य कारण मिलें ही मिलें, अर कार्यकी भी सिद्धि होय ही होय । बहुरि जिस कारण” कार्यसिद्धि होय, अथवा नाहीं भी होय, तिस कारणरूप उद्यम करै तहाँ अन्य कारण मिलें तो कार्य सिद्धि होय न मिले तो सिद्धि न होय । जैसे-...जो जीव पुरुषार्थकरि जिनेश्वरका उपदेश अनुसार मोक्षका उपाय करै हैं, ताकै काललब्धि व होनहार भी भया। अर कर्मका उपशमादि भया है, तो यह ऐसा उपाय करै है। तातै जो पुरुषार्थ करि मोक्षका उपाय कर है, ताकै सर्व कारण मिले हैं, ऐसा निश्चय करना ।...बहुरि जो जीव पुरुषार्थ करि मोक्षका उपाय न करें, ताकै काललन्धि वा होनहार भी नाहीं। अर कर्मका उपशमादि न भया है, तो यह उपाय न करै है। तातै जो पुरुषार्थकरि मोक्षका उपाय न करै है, ताकै कोई कारण मिले नाहीं, ऐसा निश्चय करना। ७. नियति निर्देशका प्रयोजन पं. वि./३/८,१०,५३ भवन्ति वृक्षेषु पतन्ति नून पत्राणि पुष्पाणि फलानि यद्वव । कुलेषु तद्वत्पुरुषाः किमत्र हर्षेण शोकेन च सन्मतीनाम् ।। पूर्वोपार्जितकर्मणा विलिखितं यस्यावसानं यदा, तज्जायेत तदैव तस्य भविनो ज्ञावा तदेतद्ध बम् । शोकं मुञ्च मृते प्रियेऽपि सुखदं धर्म कुरुष्वादराव, सर्वे दूरमुपागते किमिति भोस्तद्धृष्टिराहम्यते। ११ मोहोक्लासवशादतिप्रसरतो हित्वा विकल्पाद बहून, रागद्वेषविषोज्झितैरिति सदा सद्भिः सुख स्थीयताम् ॥५३॥ -जिस प्रकार वृक्षों में पत्र, पुष्प एवं फल उत्पन्न होते हैं और वे समयानुसार निश्चयसे गिरते भी है उसी प्रकार कुटुम्ब में जो पुरुष उत्पन्न होते हैं वे मरते भी है। फिर बुद्धिमान मनुष्यों को उनके उत्पन्न होनेपर हर्ष और मरमेपर शोक क्यों होना चाहिए । पूर्वोपाजित कर्मके द्वारा जिस प्राणीका अन्त जिस समय लिखा है उसी समय होता है, यह निश्चित जानकर किसी प्रिय मनुष्यका मरण हो जानेपर भी शोकको छोड़ो और विनयपूर्वक धर्मका आराधन करो। ठीक है-सर्पके निकल जानेपर उसकी लकीरको कौन लाठीसे पीटता है ।१०। (भवितव्यता वही करती है जो कि उसको रुचता है) इसलिए सजन पुरुष रागद्वेषरूपी विषसे रहित होते हुए मोहके प्रभावसे अतिशय विस्तारको प्राप्त होनेवाले बहुतसे विकल्पोंको छोड़कर सदा सुखपूर्वक स्थित रहें अर्थात साम्यभावका आश्रय करें ।५३।। मो. पा./पं. जयचन्द/८६ सम्यग्दृष्टिकै ऐसा विचार होय है-जो वस्तुका स्वरूप सर्वज्ञने जैसा जान्या है, तैसा निरन्तर परिणमै है, सो होय है। इष्ट-अनिष्ट मान दुखी सुखी होना निष्फल है। ऐसे विचारतै दुख मिट है, यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है। जातै सम्यक्त्व का ध्यान करना कह्या है। नियम-१. रत्नत्रयके अर्थमें नि:सा./मू./३,१२० णियमेण य जं कज्ज तणियम णाणदं सणचरितम्। ३. मुहअसुहवयणरयणं रायादिभाववारण किच्चा । अप्पाणं जो झायदि तस्स दुणियम हवे णियमा ११२०। -नियम अर्थात नियमसे जो करणे योग्य हो वह अर्थात ज्ञान दर्शन चारित्र ।३। शुभाशुभवचनरचनाका और रागादि भावों का निवारण करके, जो आत्माको ध्याता है, उसको निश्चित रूपसे नियम है ।१२० नि. साता. वृ./गा. नियमशब्दस्तावत् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु वर्तते ॥१॥ यः.. स्वभावानम्तचतुष्टयात्मकः शुद्धज्ञानचेतनापरिणामः स नियमः । नियमेन च निश्चयेन यरकार्य प्रयोजनस्वरूपं ज्ञामदर्शन चारित्रम् ।। नियमेन स्वात्माराधनातत्परता ।१२३॥ -नियम शब्द सम्यग्दर्शन शान चारित्रमें वर्तता है। जो स्वभावानन्तचतुष्टयात्मक शुद्धज्ञान चेतनापरिणाम है बह नियम है। नियमसेअर्थात निश्चय से जो किया जाने योग्य है अर्थात् प्रयोजनस्वरूप है ऐसा ज्ञानदर्शनचारित्र नियम है। निज आस्माकी आराधनामें तत्परता सो नियम है। २. वचनरूप नियम स्वाध्याय है मि.सा./मू./१५३ बयणमय पडिकमणं वयणमयं पच्चक्रवाणं णियमं च। आलोयणवयणमयं तं सर्व जाण सज्झाउँ। बचनमयी प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना ये सब स्वाध्याय जानो। ३. सावधि त्यागके अर्थमें र. क. पा./८७-८१ नियम' परिमितकालो ८७] भोजनवाहनशयनस्नानपवित्राङ्गरागकुममेषु । ताम्बूलवसनभूषणमन्मथसंगीतगीतेषु ८८ अद्य दिवा रजनी वा पक्षो मासस्तथातुरयनं वा। इति कालपरिच्छित्या प्रत्यारण्यानं भवेनियमः ८६ -जिस त्यागमें कालकी मर्यादा है वह नियम कहलाता है।८७। भोजन, सवारी, शयन, स्नान, कंकुमादिलेपन, पुष्पमाला, ताम्बूल, वस्त्र, अलंकार, कामभोग, संगीत और गीत इन विषयों में-आज, एकदिन, एकरात, एकपक्ष, एकमास तथा दो मास, अथवा छहमास इस प्रकार कालके विभागसे त्याग करना सो नियम है। (सा.ध./५/१४)। रा.वा./९/७/२/५३३/१५ इदमेवेत्थमेव वा कर्तव्यमित्यन्यनिवृत्तिः नियमः।-'यह ही तथा ऐसा ही करना है। इस प्रकार अन्य पदार्थकी निवृत्तिको नियम कहते हैं। प. पु./१४/२०२ मधुतो मद्यतो मासात ा ततो रात्रिभोजनात् । वेश्या संगमनाच्चास्य विरतिनियमः स्मृतः ।२०२ . गृहस्थ मधु, मद्य, मांस, जूआ, रात्रिभोजन और वेश्यासमागमसे जो रिक्त होता है, उसे नियम कहा है। नियमसार-1. नियमसारका कक्षण नि. सा./मू./३ णियमेण य जं कज्ज तण्णियमं णाणदसणचरित्तं । विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणम् । -नियमसे जो करने योग्य हो अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्रको नियम कहते हैं। इस रत्नत्रयसे विरुद्ध भावोंका त्याग करनेके लिए वास्तवमें 'सार' ऐसा वचन कहा है। नि, सा./ता. वृ./१ नियमसार इत्यनेन शुद्धरत्नत्रयस्वरूपमुक्तम् । - 'नियमसार' ऐसा कहकर शुद्धरत्नत्रयका स्वरूप कहा है। २. नियमसार नामक ग्रन्थ आ. कुन्दकुन्द (ई० १२७-९७६ ) कृत, अध्यात्म विषयक, १७०प्राकृतगाथा बद्ध शुद्धात्मस्वरूप प्रदर्शक, एक ग्रन्थ । इसपर केवल एक टीकाउपलब्ध है-मुनि पद्मप्रभ मन्लधारीदेव (११४०-१९८५) कृत संस्कृत टीका। (ती/२/११४)। नियमित सान्द्र-Regular Solid (ज.प./प्र. १०७) । कालका प्रमाण विशेष-दे० गणित/I/१/४ । -कालका प्रमाण विशेष-हे. गणित/1/१/४ | निरंतर-१.निरन्तर बंधी प्रकृति-दे० प्रकृतिबंध/२ | २. निरन्तर सान्तर वर्गणा-दे० वर्गणा। ३. निन्तर स्थिति - दे० स्थिति/१। निरतिचार-निरतिचार शीलंबत भावना-दे० शील । जैमेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरनुयोज्यानुपेक्षण ६२१ १. निर्जराके भेद व लक्षण निरनुयोज्यानुपेक्षण भ. आ./वि./४३/१४२/२ तत् त्रितयमिह निर्ग्रन्थशब्देन भण्यते ।- सम्य ग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रयको यहाँ निर्ग्रन्थ न्या. सू./न./५/२/२२ अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानाभियोगो निरनुयोज्या शब्द द्वारा कहा गया है। नुयोगः ।२२। -निग्रहस्थान नहीं उठानेके अवसरपर निग्रहस्थानका उठा देना वक्ताका 'निरनुयोज्यानुयोग' नामक निग्रहस्थान है। प्र.सा./ता. वृ/२०४/२७८/१५ व्यवहारेण नग्नत्वं यथाजातरूपं निश्चयेन तु स्वात्मरूपं तदित्थं भूतं यथाजातरूपं धरतीति यथाजातरूपधरः नोट-(श्लो. वा. ४/१/३३/न्या. श्लो, २६२-२६३)-में इसका निरा निर्ग्रन्थो जात इत्यर्थः । = व्यवहारनयसे नग्नत्वको यथाजातरूप करण किया है। कहते हैं और निश्चयनयसे स्वात्मरूपको। इस प्रकारके व्यवहार व निरन्वय--(न्या. बि./वृ./२/११/११८/२४)-निरन्वयम् अन्वया- निश्चय यथाजातरूपको धारण करनेवाला यथाजातरूपधर कहलाता निष्क्रान्तं तत्त्वं स्वरूपम् । - अन्वय अर्थात् अनुगमन या संगतिसे है । 'निर्ग्रन्थ होना' इसका ऐसा अर्थ है। निष्क्रान्त तत्त्व या स्वरूप। २. निग्रन्थ साधु विशेषके अर्थमें निरपेक्ष-दे० स्याद्वाद/२ । स. सि./६/४६/४६०/१० उदकदण्डराजिवदनभिव्यक्तोदयकर्माण. ऊर्ध्व निरय--प्रथम नरकका द्वितीय पटल-दे० नरक/२/११ तथा रत्नप्रभा मुहर्तादुभिद्यमानकेवलज्ञानदर्शनभाजो निर्ग्रन्थाः । -जिस प्रकार निरर्थक-(न्या. सू /मू. व. वृ./५/२/८) वर्णक्रमनि शवन्निरर्थकम् जलमें लकड़ीसे को गयी रेखा अप्रगट रहती है, इसी प्रकार जिनके ८ यथा नित्यः शब्दः कचटतपाः जबडदशत्वाव झभवघढधषवदिति । कर्मोंका उदय अप्रगट हो, और अन्तर्मुहुर्तके पश्चाव ही जिन्हे केवलएवंप्रकारनिरर्थकम् । अभिधानाभिधेयभावानुपपत्तौ अर्थ गतेरभावाद ज्ञान व केवलदर्शन प्रगट होनेवाला है, वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। वर्णाः क्रमेण निर्दिशन्त इति ।। =वर्णों के क्रमका नाममात्र कथन (रा. वा./६/४६/४/६३६/२८); (चा. सा./१०२/१) करनेके समान निरर्थक निग्रहस्थान होताहै। जैसे-क, च, ट, त, प नोट-निर्ग्रन्थसाधुकी विशेषताएँ-दे० साधु/५ । ये शब्द नित्य है। ज, ब, ग, ड, द, श, स्व, होनेके कारण, झ, भ, निर्जर पंचमी व्रत-प्रतिवर्ष आषाढ़ शु०५ से लेकर कार्तिक ब, घ, ढ, ध, ष की नाई । वान्यवाचक भावके नहीं बननेपर अर्थका शु०५ तक की कुल ६ पंचमियोंके उपवास ५ वर्ष पर्यन्त करे। ज्ञान नहीं होनेसे वर्ण ही क्रमसे किसीने कह दिये हैं, इसलिए यह __ नमोकारमन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (वत विधान संग्रह/पृ०६७) निरर्थक है। निजरा-कर्मोके झड़नेका नाम निर्जरा है। वह दो प्रकार की हैनोट- (श्लो. वा. ४/१/३३/न्या./श्लो, १६७-२००/३८२) में इसका सविपाक व अविपाक । अपने समय स्वयं कर्मोंका उदयमें आ आकर निराकरण किया गया है। झड़ते रहना सविपाक तथा तप द्वारा समयसे पहले ही उनका निराकांक्ष-१. निराकांक्ष अनशन-दे० अनशन २. निराकाक्ष झडना अविपाक निर्जरा है । तिनमें सविपाक सभी जीवोको सदा गुण-दे० निःकांक्षित। निरन्तर होती रहती है, पर अविपाक निर्जरा केवल तपस्वियोंको निराकार-दे० आकार । ही होती है। वह भी मिथ्या व सम्यक दो प्रकारकी है। इच्छा निरोधके बिना केवल बाह्य तप द्वारा की गयी मिथ्या व साम्यताकी निराकुलता-दे० सुख । वृद्धि सहित कायक्लेशादि द्वारा की गयी सम्यक है। पहली में नवीन निरूपणा-(रा. वा./१/१२/११/१२/१८) तस्य नामादिभि' प्रकल्पना कर्मोंका आगमन रूप संवर नहीं रुक पाता और दूसरीमें रुक जाता प्ररूपणम् । नाम जाति आदिकी दृष्टिसे शब्दयोजना करना है। इसलिए मोक्षमार्गमें केवल यह अन्तिम सम्यक् अविपाक निरूपण कहलाता है। निर्जराका ही निर्देश होता है पहली सविपाक या मिथ्या अविपाक निरोध-(रा. वा./४/२७/१/६२५/२६ ) गमनभोजनशयनाध्ययना का नहीं। दिषु क्रियाविशेषेषु अनियमेन वर्तमानस्य एकस्याः क्रियायाः १. निर्जराके भेद व लक्षण कतृत्वेनालस्थानं निरोध इत्यवगम्यते । = गमन, भोजन, शयन, १. निर्जरा सामान्यका लक्षण और अध्ययन आदि विविध क्रियाओं में भटकनेवाली चित्तवृत्तिका एक क्रियामें रोक देना (चिन्ता) निरोध है। भ. आ./मू./१८४७/१६५६ पुम्बकदकम्मसडणं तु णिज्जरा। = पूर्वबद्ध निर्गमन-किस गतिसे निकलकर किस गति व गुणस्थान आदिमें कर्मोका झड़ना निर्जरा है। वा. अ./६६ बंधपदेशग्गलणं णिज्जरणं । -आत्मप्रदेशोके साथ कर्मजन्मे । इस सम्बन्धी गति अगति तालिका-दे० जन्म/६ । प्रदेशोंका उस आत्माके प्रदेशोंसे झड़ना निर्जरा है। (न. च. वृ./ निर्ग्रन्थ-1. निष्परिग्रहके अर्थ में १५७); ( भ. आ./वि./१८४७/१६५६/६)। . ध. १/४,१,६७/३२३/७ बवहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथो, अब्भंतरंग स. सि./१/४/१४/५ एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा। -एकदेश रूपसे कारणत्तादो। एदस्स परिहरण णिग्गंथं। णिच्छयणर्य पडच्च कर्मोंका जुदा होना निर्जरा है। (रा.वा./१/१/१६/२७/७); (भ.आ./ मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो। तेसि परिच्चागो णिग्गथं । वि./१८४७/१६५६/१०); (द्र. सं/टी./२८/८/१३); (पं.का./ता.वृ./१४४/ णडगमणएण तिरयणाणुवजोगी बज्झम्भंतरपरिग्गहपरिच्चाओ २०६/१७) । णिग्गथं । = व्यवहारनयको अपेक्षा क्षेत्रादिक (बाह्य) ग्रन्थ हैं, क्योंकि स. सि./८/२३/३६६/६ पीडानुग्रहावात्मने प्रदायाम्यवहृतोदनादिविकावे अभ्यन्तर ग्रन्थ (मिथ्यात्वादि ) के कारण हैं, और इनका त्याग रवत्पूर्वस्थितिक्षयादवस्थानाभावारकर्मणो निवृत्तिनिर्जरा। जिस निर्ग्रन्थता है। निश्चयनयकी अपेक्षा मिथ्यात्वादिक ( अभ्यन्तर ) प्रकार भात आदिका मल निवृत्त होकर निर्जीर्ण हो जाता है, उसी ग्रन्थ हैं, क्योंकि, वे कर्मबन्धके कारण हैं और इनका त्याग करना प्रकार आत्माका भला बुरा करके पूर्व प्राप्त स्थितिका नाश हो जानेके निर्ग्रन्थता है। नैगमनयकी अपेक्षा तो रत्नत्रयमें उपयोगी पड़नेवाला कारण कर्मकी निवृत्तिका होना निर्जरा है। (रा. वा./८/२३/१/ जो भी बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह (ग्रन्थ ) का परित्याग है उसे ५८३/३०)। निर्ग्रन्थता समझना चाहिए।-(बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रहके भेदोंका रा.वा.//सूत्र/वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति-निर्जीर्यते निरस्यते यथा निरसननिर्दश-दे० ग्रन्थ); (नि, सा./ता.व./४४)। मात्रं वा निर्जरा (४/१२/२७)। निर्जरेव निर्जरा। कः उपमार्थः। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरा यथा मन्त्रीषार्णवीर्यविपाकं विषं न दोष तथा विशेषेण निर्जीणरसं कर्म न संसारफलम् ॥ ( २ / ११ / १० /- ) | धाविपाकात्तपसो वा उपभुक्तवीर्यं कर्म निर्जरा । ( ७ /१४/४०/१७) | १. जिनसे कर्म मड (ऐसे जीमके परिणाम) अथवा जो कर्म मह वे निर्जरा है (भ.आ./वि./८/१३४/१६) २. निर्जराको भौति निर्जरा है। जिस प्रकार मन्त्र या औषध आदि नि.शक्ति किया हुआ विष, दोष उत्पन्न नहीं करता; उसी प्रकार तप आदिसे नीरस किये गये और निःशक्ति हुए कर्म संसारचक्रको नहीं चला सकते । ३. यथाकाल या तपोविशेषसे कर्मोंकी फलदानशक्तिको नष्ट कर उन्हें कड़ा देना निर्जरा है । (द्र.सं/मू./३६/१५० ) । का.अ./मू./१०३ सव्वेसि कम्मा सन्तिविवाओ ने तदणं तरं तु सडणं कम्माणं णिज्जरा जाण ॥ १०३ ॥ शक्तिके उदय होनेको अनुभाग कहते हैं । उसके खिरनेको निर्जरा कहते हैं । ६२२ अणुभाओ । - सत्र कर्मोंकी पश्चात् कर्मोके २. निर्जराके भेद पढमा विग भ.आ./सू. १४०-१४०/९६२६ सा पुणो हवेह दुबिहा जादा विदिया अविवागजाया य । १८४७ | तहका लेण तवेण य पच्चं ति कदाणि कम्माणि | ९८४८११. वह दो प्रकारकी होती है- विपाकज व अविपाकज । ( स सि./८/२३/३६६/८); (रा. वा / १/४/११/२७/६; १/७/१४/४०/९० : ८/२३/२/०४/२) (म./१/०) (त.सा./०/२) २. अथवा वह दो प्रकारकी है-स्वकालपक्व और तपद्वारा कर्मों को पाकर की गयी (मा. अ./६७): (रा. सू./८/२१-२२+१/३); (द्र.सं./ भू./३६/१५०); (डा. अ. / . / १०४) । रा. वा./१/७/१४/४०/१६ सामान्यादेका निर्जरा, द्विविधा यथाकालीपक्रमिकभेदाद, अहधा कर्मप्रकृतिभेदाव एवं संख्येयासंख्येयानन्तविकल्पा भवति धर्मरस निर्हरणभेदात सामान्यसे निर्जरा एक प्रकारकी है। यथाकाल व औपक्रमिकके भेदसे दो प्रकारकी है। मूल कर्म प्रकृतियों की हिसे आठ प्रकारकी है। इसी प्रकार कमोंके रसको क्षीण करनेके विभिन्न प्रकारोंकी अपेक्षा संख्यात असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं। प्र.सं./टी./३६/९३०,१११ भाव निर्जरा द्रव्यनिर्जरा -भाव निर्जरा व द्रव्यनिर्जराके भेदसे दो प्रकार हैं। ३. सविपाक व अविपाक निर्जराके लक्षण स.सि./८/२३/२६६६६ क्रमेण परिपाककासप्राप्तस्यानुभवोदयाव सिखोसोऽप्रविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निजरा यत्कर्माप्राविपाको मिकक्रियाविशेषसामर्थ्यानुदीर्णमतादुद्दीन दयावलि प्रवेश्य वेद्यते आम्रपनसादिपाकवत् सा अविपाकजा निर्जरा । शब्दो निमित्तान्तरसमुच्चयार्थः । क्रमसे परिपाककालको प्राप्त हुए और अनुभवरूपी उदयावली के स्रोत में प्रविष्ट हुए ऐसे शुभाशुभ कर्मको फल देकर जो निवृत्ति होती है वह विचाजा निर्जरा है। तथा आम और पनस (कटहल ) को औपक्रमिक क्रिया विशेषके द्वारा जिस प्रकार अकाल में पका लेते हैं; उसी प्रकार जिसका विपाककाल अभी नहीं प्राप्त हुआ है तथा जो उससे बाहर स्थित है, ऐसे कर्मको (तपादि) औपकमिक किया विशेषकी सामर्थ्य उदासी में प्रविष्ट कराके अनुभव किया जाता है। वह अविपाकजा निर्जरा है । सूत्र च शब्द अन्य निमित्तका समुचय करानेके लिए दिया है। अर्याद विपाक द्वारा भी निर्जरा होती है और तप द्वारा भी (रा.वा./८/ २३/२/५/०४/३) (भ आ./वि./१०४६/१६६०/२०) (न.च.वृ./१५८) (त.सा./७/३-५) (प्र./टी./३६/१५१/३) स.सि./१/०/४१०/१ निर्जरा बेदना विपाक हर सा द्वेषा-अबुद्धिपूर्वा कुशलता चेति तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मविपाका २. निर्जरा निर्देश अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा परिषमे कुठे कुशलता सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति वेदना विपाकका नाम निर्जरा है। वह दो प्रकार की है- अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला । नरकादि गतियों में धर्मफलके विपाक जायमान जो निर्जरा होती है वह अकुशलानुमन्या है तथा परिषहके जीतनेपर जो निर्णरा होती है वह कुशलता निर्जरा है वह भो शुभानुमन्धा और निरनुबन्धाके भेद से दो प्रकारकी होती है। ४. द्रव्य भाव निर्जराके लक्षण = इ.सं./टी./३६/१५०/१० भावनिर्जरा सा का ये भावेन जीवपरिणामेन । कि भवति 'सर्डादि' विशीयते पतति गलति वियति । कि कतु" "कम्मपुग्गर्स'को न यच सा द्रब्य निर्जरा। ==जीवके जिन शुद्ध परिणामों से पुद्गल कर्म झड़ते हैं वे जीवके परिणाम भाव निर्जरा हैं और जो कर्म कहते हैं वह द्रव्य निर्जरा है। पं.का./ता.वृ./१४४/२०६ / ९६ कर्मश किनिसमसमर्थः शुद्धोपयोगी भावनिर्जरा तस्य शुद्धोपयोगेन सामर्थ्येन नीरखीभूतानां पूर्वोपार्जित कर्मपुद्गलानां संवरपूर्व कभावेनै कदेशसंक्षयो द्रव्यनिर्जरेति सूत्रार्थः | १४४| कर्मशक्ति निर्मूलनमें समर्थ जीवका शुद्धोपयोग तो भा निर्जरा है। उस शुद्धोपयोगकी सामर्थ्यसे नोरसीभूत पूर्वोपार्जित कर्नगला संवरपूर्वकायसे एकदेश क्षम होना द्रव्यनिर्जरा है। ५. अकाम निर्जराका लक्षण = | = स.सि./६/२०/३३५/१० अकामनिर्जरा अकामधारक निरोधबन्धनवज्रपु तृष्णा निरोधह्मचर्यभूशय्यामसाधारणपरितापादिः । अकामेन निर्जरा अकामनिर्जरा पारकर्मे रोक रखनेपर या रस्सी आदिसे बॉध रखनेपर जो भूख-प्यास सहनी पड़ती है. महचर्य पालना पड़ता है, भूमिपर सोना पड़ता है, मल-मूत्रको रोकना पड़ता है और सन्ताप आदि होता है, ये सब अकाम है और इससे जो निर्जरा होती है यह अकामनिर्जरा है ( रा. मा./६/२०/९/२०/१६) - रा. वा./६/१२/७/२२२/२८ विषयानर्थ निवृति चारमाभिप्रायेणाकुर्वतः पारतन्त्र्याद्भोगोपभोगनिरोधोऽकामनिर्जरा अपने अभिप्रायसेन किया गया भी विषयोंकी निवृत्ति या त्याग तथा परतन्त्रताके कारण भोग-उपभोगका निरोध होनेपर उसे शान्तिसे सह जाना अकाम निर्जरा है । ( गो . क./जी. प्र. / ५४८/७१७/२३ ) ★ गुणश्रेणी निर्जरा दे०संक्रमण / ८ * । * काण्डकघात दे० अपकर्षण/४। २. निर्जरा निर्देश १. सविपाक व अविपाकमै अन्तर भ.आ./ / ९४१ / ९८६० मेसि उदयसमागदस्स कम्मस्स णिज्नरा होइ । कम्मस्स तवेण पुणों सव्वस्स वि णिज्जरा होइ । १. सविपाक निर्जरा तो केवल सर्व उदयगत कर्मोंको ही होती है, परन्तु तपके द्वारा अर्थात् अविपाक निर्जरा सर्व कर्मकी अर्थात् पक्क व अपक सभी कमोंकी होती है। (यो. सा./अ./६/२-३) (दे० निर्जरा/१/२) | मा.अ./६० चायुगदी पदमा धनुत्ता हमे विदिया। ६-२ चतुर्गतिके सर्व ही जीवोंको पहिलो अर्थात् सविपाक निर्जरा होती है, और सम्यग्दृष्टिवारियोंको दूसरी अर्थात् अविपाक निर्जरा होती है। (त.सा./७/६) (और भी दे० मिध्यादृष्टि/४ निर्जरा/३/२) ६० निर्जरा / १ / ३३. सविपाक निर्जरा कुशलानुबन्धा है और अविपाक निर्जला है वहाँ भी मिध्यादृष्टियोंकी अधिक निर्जरा निरोध न होनेके कारण शुभानुबन्धा है और सम्यष्टियों जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरा की अविपाक निर्जरा इच्छा निरोध होनेके कारण निरबनुबन्धा है । ० निर्जरा/३/१९/४ विपाक निर्जरा ही नोलको कारण है विषाक निर्जरा नहीं। ६२३ * निश्चय धर्म व चारित्र आदिमें निर्जराका कारणपना -दे० वह वह नाम 1 * व्यवहार धर्म आदिमें कथंचित् निर्जराका कारणपना -दे० धर्म / ०/१ । * व्यवहार धर्ममें बन्धके साथ निर्जराका अंश -दे० सेवर। * व्यवहार समिति आादिसे केवळ पापकी निर्जरा होती है पुण्यकी नहीं - दे० संबर / २ | २. कमकी निर्जरा क्रमपूर्वक ही होती है । ५.१३/५०४.२४/२/५ अनि तिनसतकम् पदमा तो अकमेव शिवदवे । ण, दोत्तडणं व वज्भकम्मक्खंधपदणमवेक्खिय णिवदं ताणममेण पदविरोहादो प्रश्न- यदि जिन भगवानके सत्कर्मका पतन हो रहा है, तो उसका युगपत् पतन क्यों नहीं होता ? उत्तरनहीं, क्योंकि, पृष्ट नदियोंके समान मंथे हुए कर्मस्कन्धों पतनको देखते हुए पतनको प्राप्त होनेवाले उनका अक्रमसे पतन माननेमें विरोध आता है । ३. निर्जरा उपकी प्रधानता | भ. आ. १.९०४६/९० तवसा विणा व मोक्लो संरमिलेग होइ कम्मस्समभोगादीई विणा हु खोयदि सुगुप्त ४ तपके बिना, केवल कर्म के सबरसे मोक्ष नहीं होता है। जिस धनका संरक्षण किया है वह धन यदि उपभोगमें नहीं लिया तो समाप्त नहीं होगा। इसलिए कर्म की निर्जरा होनेके लिए तप करना चाहिए। मू. आ./२४२ - जमजोगे जुतो जो तबसा चेट हवे अगेगविधं । सो कम्मणिज्जराए विलाए वट्टदे जोवो | २४२। इन्द्रियादि संयम व योगसे सहित भी जो मनुष्य अनेक मेदरून तपमें वर्तता है, वह जीव बहुतसे कर्मोकी निर्जरा करता है ! रा. वा./१/२३/०/१८४/१५ परत कायमोचितो की तपसा चेटवे अयहिं सो कम्मराए विपुलर बट्टदे मस्सो ि काय, मन और बचन गुप्तिमे युक्त होकर जो अनेक प्रकारके तप करता है वह मनुष्य विपुल कर्म निर्जराको करता है । नोट- निश्चय व्यवहारचारित्रादि द्वारा कर्मोकी निर्जराका निर्देश - (१० चारित्र /२/२: धर्म / ७६: धर्मध्यान /4/३) । ४. निर्जरा व संवरका सामानाधिकरण्य उ. सु./६/३ तपसा निर्जराश्च तपके द्वारा संवर व निर्जरा दोनों होते है। FRED वा. अ./६६ जेण हवे संवरणं तेग दु णिज्जरणमिदि जाणे ॥६६॥ जिन परिणामोंसे सबर होता है, उनसे ही निर्जरा भी होती है। स. सि. / ६ / ३ / ४१०/६ तपो धर्मेऽन्तर्भूतमपि पृथगुच्यते उभयसाधनवस्थापनार्थ संपरं प्रति प्राधान्यप्रतिपादनार्थं य - तपका धर्म में (१० धर्मोमें) अन्तर्भाव होता है, फिर भी संगर और निर्जरा इन दोनोंका कारण है, और संवरका प्रमुख कारण है, यह बतानेके लिए उसका अलग से कथन किया है। (रा. वा./६/३/१-२/५१२/२७ ) । प. प्र./मू./२/३८ अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्पसरूवि णिलीणु । संबर पिज्जर जानि तु समय महीष्णु मुनिराज ज तक आत्मस्वरूपमें लीन हुआ ठहरता है, तबतक सकल विकल्प समूह ३. निर्जरा सम्बन्धी नियम व शंकाएँ से रहित उसको तू संवर व निर्जरा स्वरूप जान । ( और भी दे० चारित्र/२/२ धर्म / ०/ धर्मध्याना० ६/३ आदि) । ५. संबर सहित ही बधार्थ निर्जरा होती है उससे रहित नहीं |= .../१४ जो संवरेण ती अप्पसानो हि अप्पा गुणि ऊण झादि णिदं जाणं खो संधूणोदि कम्मरयं संवरसे युक्त ऐसा जो जीव, वास्तव आरमप्रसाधक वर्तता हुआ, आत्माका अनुभव करके ज्ञानको निश्चत रूपसे ध्याता है, वह कर्मको खिरा देता है। भ.आ./मू./१८५४/१६६४ तवसा चेव ण मोरखो संवरहीणस्स होइ जिनयणे ण हुसोले परिसते किसिणं परिस्सदि । ९८५८४० - जो मुनि संबर रहित है, केवल तपश्चरणसे ही उसके कर्मका नाश नहीं हो सकता है, ऐसा जिनवचनमें कहा है। यदि जलप्रवाह आता ही रहेगा तो तालाब कम सूखेगा 1 ( यो. सा. / ६/६ ); विशेष- दे० निर्जरा/३/१ । * मोक्षमार्ग में संवरयुक्त अविपाक निर्जरा ही इट है, सविपाक नहीं दे० निर्जरा/३/१ । ★ सम्यग्दष्टिको ही यथार्थ निर्जरा होती है -२० निर्जरा/२/१:३/९ ३. निर्जरा सम्बन्धी नियम व शंकाएँ १. ज्ञानीको ही निर्जरा होती है, ऐसा क्यों २.सं./टी./३६/१९४१/१ अत्राह शिष्यः- सविपाकनिर्जरा नरकादिगतिष्वज्ञानिनामपि दृश्यते संझानिनामेवेति नियमो नास्ति रात्रीत्तरम् - अत्रैव मोक्षकारणं या संवरपूर्वका निर्जरा से प्राह्मा या पुनरानिनां निर्जरा सा गजस्मानमनिकला। यतः स्तोकं कर्म निर्जरयति बहुत बध्नाति तेन कारणेन सा न ग्राह्या । या तु सराग 1 टान निर्जरा सा यद्यप्यशुभकर्म विनाशं करोति तथापि संसारस्थिति स्तोकं कुरुते तने तीर्थकर प्रकृत्यादि विशिष्टन्ध कारणं भवति पारम्पर्येण मुक्तिकारणं चेति वीतरागसइट पुनः पुण्यपापविनाशेऽपि मुक्तिकारणमिति प्रश्न जो सविपाक निर्जरा है वह तो नरक आदि गतियों में अज्ञानियों के भी होती हुई देखी जाती है। इसलिए सम्यग्ज्ञानियोके ही निर्जरा होती है, ऐसा नियम क्यों उतर यहाँ जो संवर पूर्वक निर्जरा है उसीको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, वही मोक्षका कारण है और जो अज्ञानियोंके निजरा होती है वह तो गजस्नान के समान निष्फल है। क्योंकि अज्ञानी जीव थोड़े कमकी तो निर्जरा करता है और महुतसे कर्मोंको बाँधता है। इस कारण अज्ञानियोंकी सविपाक निर्जराका यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिए। तथा ( ज्ञानी जीवों में भी) जो सरागसम्यहियोंके निर्जरा है. वह यद्यपि अशुभ कर्मोंका नाश करती है, शुभ कर्मोंका नाश नहीं करती है, (दे० संवर२/४) फिर भी संसारकी स्थितिको थोडा करती है. और उसी भवमें तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्यबन्धका कारण हो जाती है । वह परम्परा मोक्षका कारण है। वीतराग सम्यग्दृष्टियों के पुण्य तथा पाप दोनोंका नाश होनेपर उसी में यह अविपाक निर्जरा मोक्षका कारण हो जाती है / २. प्रदेश गळनाले स्थिति व अनुभाग नहीं गढ़ते ध. १२/४,२,१३,१६२/४३१ / १२ खवगसेडीए पत्तधादस्स भावस्स कधमतगुणते. आज अस्स सबसेडीए पदेशस्स भाष व दिदि अनुभागाणं पादाभायादो प्रश्नक्षपक श्रेणी में पाठको जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरानुप्रेक्षा ६२४ निर्माण प्राप्त हुआ (कर्मका) अनुभाग अनन्तगुणा कैसे हो सकता है । उत्तर- नहीं, क्योंकि, क्षपकश्रेणी में आयुकर्मके प्रदेशकी गुणश्रेणी निर्जराके अभावके समान स्थिति व अनुभागके घातका अभाव है। क. पा/१/४-२२/६५७२/३३७/११ ठ्ठिदीए इव पदेसगलणाए अणुभागघादो णस्थि त्ति। प्रदेशोंके गलनेसे, जैसे स्थितिघात होता है वैसे अनुभागका घात नहीं होता। (और भी दे० अनुभाग/२/१)। ३. अन्य सम्बन्धित विषय १. शनी व अज्ञानीकी कर्म क्षपणामें अन्तर-दे० मिथ्यादृष्टि/४ । २. अविरत सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानोंमें निर्जराका अल्पबहुत्व तथा तद्गत शंकाएँ। --दे. अल्पबहुत्व । ३. संयतासंयतकी अपेक्षा संयतकी निर्जरा अधिक क्यों ? -दे० अल्पबहुत्व १/३।। ४. पॉचों शरीरोंके स्कन्धोंकी निर्जराके जघन्योत्कृष्ट स्वामित्व सम्बन्धी प्ररूपणा। -दे० ष. वं. १/४,१/सूत्र ६६-७१/३२६-३५४ । ५. पाँचौ शरीरोंकी जघन्योत्कृष्ट परिशातन कृति सम्बन्धी प्ररूपणाएँ। -दे० ध०६/४,१,७१/३२१-४३८ । ६. कर्मोंकी निर्जरा अवधि व मनःपर्यय शानियों के प्रत्यक्ष है। -दे० स्वाध्याय/१। निर्जरानुप्रेक्षा-दे० अनुप्रेक्षा । निणय-(रा.वा./१/१३/३/५८/8)-न हि यत एव सशयस्तत एव निर्णयः । -संशयका न होना ही निर्णय या निश्चय है। न्या. सू./२/१/४१ विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः ॥४॥ तकं आदि द्वारा पक्ष व प्रतिपक्षमें से किसी एककी निवृत्ति होनेपर, दूसरेकी स्थिति अवश्य ही होगी। जिसकी स्थिति होगी उसका निश्चय होगा। उसीको निर्णय कहते हैं। निदण्ड-नि, सा./ता. वृ./४३ मनोदण्डो वचनदण्ड' कायदण्डश्चेत्येतेषां योग्यद्रव्यभावकर्मणामभावान्निर्दण्डः। -- मनदण्ड अर्थात् मनोयोग, वचनदण्ड और कायदण्डके योग्य द्रव्यकर्मों तथा भावकों का अभाव होनेसे आत्मा निर्दण्ड है। निदुख-एक ग्रह-दे० ग्रह। निर्देश-१. निर्देशका लक्षण स, सि./१/७/२२/३ निर्देशः स्वरूपाभिधानम्। -किसी वस्तुके स्वरूपका कथन करना निर्देश है। रा. वा/१७/.../३८/२ निर्देशोऽर्थावधारणम् । =पदार्थ के स्वरूपका निश्चय करना निर्देश है। ध. १/१,१,८/१६०४१ निर्देश प्ररूपणं विवरणं व्याख्यानमिति यावत । ध.३/१,२,१/८/8 सोदाराणं जहा णिच्छयो होदि तहा देसो णिदेसो। कुतीर्थपाखण्डिनः अतिशय्य कथनं वा निर्देश.। -१. निर्देश, प्ररूपण, विवरण और व्याख्यान ये सब पर्यायवाची शब्द हैं । २. जिस 'प्रकारके कथन करनेसे श्रोताओंको पदार्थ के विषयमें निश्चय होता है, उस प्रकारके कथन करनेको निर्देश कहते है। अथवा कुतीर्थ अर्थात सर्वथा एकान्तवादके प्रस्थापक पाखण्डियोंको उल्लंघन करके अतिशय रूप कथन करनेको निर्देश कहते हैं। २. निर्देशके भेद ध. १/१,१,८/१६०/२ स द्विविधो द्विप्रकार, ओधेन आदेशेन च । - वह निर्देश ओघ व आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारका है। [ ओघ व आदेशके लक्षण (दे० वह वह नाम)] । निदोष-नि. सा./ता ७.४३ निश्चयेन निखिलदुरितमलकलङ्कपङ्कनिनिक्तसमर्थ सहजपरमवीतरागसुखसमुद्रमध्यनिर्मग्नस्फुटितसह - जावस्थात्मसहजज्ञानगात्रपवित्रत्वान्निर्दोषः । निश्चयसे समस्तपापमल कलंकरूपी कीचडको धो डालने में समर्थ, सहज-परमवीतरागसुख समुद्र में मग्न प्रगट सहजावस्थास्वरूप जो सहजज्ञानशरीर, उनके द्वारा पवित्र होनेके कारण आत्मा निर्दोष है। निर्दोष सप्तमी व्रत-दे० नंदसप्तमो व्रत । निद्वन्द-मो. पा./टी./१२/३१२/१० निर्द्वन्दो निष्कलहः केनापि सह कलहरहित। अथवा निर्द्वन्द्वो नियुग्मः स्त्रीभोगरहितः । 'द्वन्द्वं कलहयुग्मयो' इति वचनात् । क्योकि द्वन्द्र कलह व युग्म इन दो अथोंमें वर्तता है, इसलिए निर्द्वन्द्व शब्दके भी दो अर्थ होते हैं-निष्कलह अर्थात किसीके साथ भी कलहसे रहित; तथा निर्युग्म अर्थात भोगसे रहित। निनामिक-ह.प्र./३३/श्लोक नं.) राजा गंगदेवका पुत्र था। पूर्व, भवके वै रके कारण जन्मते ही माताने त्याग दिया। रेवती नामक धायने पाला ।१४४। एक दिन अपने भाइयोंके साथ भोजन करनेको बैठा तो माताने लात मारी ।१४७ मुनि दीक्षा ले घोर तप किया। अगले भवमें कृष्ण नामक नवॉ नारायण हुआ।-दे० कृष्ण । निर्मम-- नि. सा./ता. वृ./४३ प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तमोहरागद्वेषाभावान्निर्ममः । __-प्रशस्त व अप्रशस्त समस्त प्रकारके मोह राग व द्वेषका अभाव होने से आत्मा निर्मम है। मो. पा./टी./१२/३१२/१२ निर्ममो ममत्वरहित', ममेति अदन्तोऽव्यय. शब्दः। निर्गतं ममेति परिणामो यस्येति निर्ममः।-निर्मम अर्थात __ ममत्वरहित । 'मम' यह एक अदन्त अव्यय शब्द है। मम' जिसमेंसे निकल गया है ऐसा परिणाम जिसके बर्तता है, वह निर्मम है। निर्मल-भावी कालीन १६वें तीर्थकर-दे० तीर्थ कर/५। निर्माण-१. निर्माण नामकर्म सामान्य स, सि./८/११/३८६/१० यन्निमित्तारपरिनिष्पत्तिस्तन्निर्माणम। निर्मी यतेऽनेनेति निर्माणम् । -जिसके निमित्त से शरीरके अंगोपांगोंकी रचना होती है, वह निर्माण नामकर्म है। निर्माण शब्दका व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है-जिसके द्वारा रचना की जाती है वह निर्माण है । (रा. वा./८/११/६/१७६/२१ ); (गो. क./जी. प्र./३३/३०/११)। ध. ६/१,६-१,२८/३ नियतं मानं निमानं । -नियत मानको निर्माण कहते हैं। २.निर्माण नामकमके भेद व उनके लक्षण स.सि./८/११/३८६/११ तद द्विविध-स्थाननिर्माणं प्रमाणनिर्माण चेति । तज्जाति नामोदयापेक्षं चक्षुरादीनां स्थान प्रमाण व निर्वतयति । वह दो प्रकारका है-स्थाननिर्माण और प्रमाणनिर्माण । उस उस जाति नामकर्म के अनुसार चक्षु आदि अवयवों या अंगोपांगों के स्थान व प्रमाणकी रचना करनेवाला स्थान व प्रमाण नामकर्म है। (रा.वा./८/११/११५७६/२२ ): (ध. १३/५,६,१०१/३६६/६); (गो. क./जी, प्र./३३/३०/१६)। ध, ६/१,६-१,२८/६६/३ त दुविहं पमाणणिमिणं संठाणणिमिणमिदि। जस्स कम्मस्स उदएण जोवाणं दो वि णिमिणाणि होति, तस्सकम्मरस णिमिणमिदि सण्णा। जदि पमाणणिमिणणामकम्मण होज्ज, तो जधा-बाहु-सिर--णासियादीणं वित्थारायामा लोयंतविसप्पिणो होज्ज। ण चेव, अणुवलं भा। तदो कालमस्सिदूण जाई च जीवाणं पमाणणिवत्तयं कम्म पमाणणिमिणं णाम । जदि संठाणणिमिणकम्म णाम ण होज्ज, तो अंगोवंग-पच्चंगाणि संकर-वदियरसरूवेण होज्ज । ण च एवं, अणुवलंभा। तदो कण्ण-णयण-णासिया जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्माणरज ६२५ निर्वर्गण दोण सजादि अणुरूवे अप्पप्पणो छाणे जं णियामयं त संठाणणिमिणमिदि। पर वह दो प्रकारका है--प्रमाण निर्माण और संस्थाननिर्माण । जिम कर्म के उदयसे जीवोके दोनो ही प्रकारके निर्माण होते है, उस कर्मको निर्माण' यह सज्ञा है। यह प्रमाणनिर्माण नामकर्म न हो, तो जंघा, बाहू, शिर और नासिका आदिका विस्तार और आयाम लोकके अन्ततक फैलनेवाले हो जावेगे। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योकि ऐसा पाया नही जाता है। इसलिए कालको और जातिको आश्रय करके जीवो के प्रमाणको निर्माण करनेवाला प्रमाण-निर्माण नामकर्म है। यदि संस्थान निर्माण नामकर्म न हो तो, अंग, उपंग और प्रत्यग संकर और व्यतिकर स्वरूप हो जावेगे अर्थात नाकके स्थानपर ही ऑख आदि भी बन जायेगी अथवा नाकके स्थान पर ऑख और मस्तकपर मुंह लग जायेगा। किन्तु ऐसा है नहीं, क्यो कि, ऐसा पाया नहीं जाता है। इसलिए कान, ऑख, नाक आदि अंगोका अपनी जातिके अनुरूप अपने स्थानपर रचनेवाला जो नियामक कर्म है, वह सस्थाननिर्माण नामकर्म कहलाता है। * निर्माण प्रकृतिकी बन्ध उदय सत्व प्ररूपणाएँ दे० वह वह नाम निर्माणरज-एक लौकान्तिक देव-दे० लौकान्तिका निर्माल्य-पूजाका अवशेष द्रव्य-दे० पूजा/४। निमंढ--नि. सा /ता. ७./१३ सहजनिश्चयनयनलेन सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमबीतरागसुखाद्यनेकपरमधर्माधारनि . जपरमतत्त्वपरिच्छेदनसमर्थत्वा निर्मूढ , अथवा साद्यनिधनामूर्ता. तीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भुतव्यवहारनयबलेन त्रिकाल त्रिलोकवति - स्थावरजंगमात्मकनिखिलद्रव्यगुणपर्यायकसमयपरिच्छित्तिसमर्थ - सकलविमलकेवलज्ञानावस्थत्वान्निर्मूढश्च । -सहज निश्चयनयसे सहजज्ञान-दर्शन-चारित्र और परमवीतराग सुरव आदि अनेक धर्मों के आधारभूत निज परमतत्त्व को जानने में समर्थ होनेसे आत्मा निर्मू ढ है। अथवा सादि अनन्त अमूर्त अतोन्द्रिय स्वभाववाले शुद्धसद्भूत व्यवहारनयसे तीन काल और तीन लोकके स्थावर जंगमस्वरूप समस्त द्रव्यगुण-पर्यायको एक समयमें जानने में समर्थ सकल विमल केवलज्ञानरूपसे अवस्थित होनेसे आत्मा निर्मूढ है। निर्यापक--१. सल्लेखनाकी अपेक्षा निर्यापकका स्वरूप भ आ./मू./गा. संविगतज्जभी रुस्स पाक्ष्मूलम्मि तस्सविहरतो। जिण वयणसम्बसारस्स होदि आराधओ तादी १४००। पंचच्छसत्तजोयणसदाणि तत्तोऽहियाणि वा गहुँ । णिज्जावगण्णेस दि समाधिकामो अणुण्णादं ।४०१। आयारत्थो पुण से दोसे सव्वे वि ते विवज्जेदि। तम्हा आयारत्यो णिज्जवओ होदि आयरिओ ।४२७१ जह पक्रनुभिदुम्मीए पोदं रदणभरिद समुद्दम्मि। णिज्जवओ धारेदि हु जिदकरणो बुद्धिसंपण्णो ।५०३। तह सजमगुणभरिदं परिस्सहुम्मी हिं सुभिदमाइदं । णिज्जवओ धारेदि हु मुहरिहि हिदोवदेसेहि ५०४। इय णित्रओं खवयस्स होइ णिज्जाबओ सदाच रिओ ।५०६। इय अट्ठगुणोवेदो कसिणं आराधणं उवविधेदि ।५०७। एदारिसमि थेरे असदि गणत्थे तहा उवज्झाए। होदि पवत्ती थेरो गणधरवसहो य जदणाए ।६२६। जो जारिसओ कालो भरदेरवदेसु होइ बासेसु । ते तारिसया तदिया वोद्दालीसं पि णिज्जवया ।६७१। -साधु संघमे उत्कृष्ट निर्यापकाचार्यका स्वरूप जो संसारसे भय युक्त है, जो पापकर्मभीक है, और जिसको जिनागमका सर्वस्वरूप मालूम है, ऐसे आचार्य के चरणमूल में वह यति समाधिमरणोद्यमी होकर आराधनाकी सिद्धि करता है ।४००। जिसको समाधिमरणकी इच्छा है ऐसा मुनि ५००,६००,७०० योजन अथवा उससे भी अधिक योजन तक बिहार कर शास्त्रोक्त निर्यापकका शोध करे।४०१। आचारवत्व गुणको धारण करनेवाले आचार्य सर्व दोषोका त्याग करते है। इसलिए गुणोमे प्रवृत्त होनेवाले दोषोसे राहत ऐसे आचार्य निर्यापक होने लायक जानने चाहिए ।४२७। (विशेष दे० आचार्य१/२ मे अाचार्य के ३६ गुण) जिस प्रकार नौका चलानेमे अभ्यस्त बुद्धिमान नाविक, तर गो द्वारा अत्यन्त नुभित समुद्रमे रलो से भरी हुई नौकाको डूबनेसे रक्षा करता है।५०३। उसो प्रकार संयम गुणोंसे पूर्ण यह क्षपकनौका प्यास आदिरूप तर गोसे क्षुब्ध होकर तिरछी हो रही है। ऐसे समय में निर्यापकाचार्य मधुर हितोपदेशके द्वारा उसको धारण करते है, अर्थात उसका संरक्षण करते है 1५०४। इस प्रकारसे क्षेपकका मन आहादित करनेवाले आचार्य निर्यापक हो सकते है। अर्थात निर्यापक त्व गुणधारक आचार्य क्षपकका समाधिमरण साध सकते है १५०६। इस प्रकार आचारवत्त्व आदि आठ गुणोसे पूर्ण आचार्यका (दे० आचार्य१२)आश्रय करनेसे क्षपकको चार प्रकारकी बाराधना प्राप्त होती है ।।०७। अक्प गुणधारी भी निर्यापक सम्भव है-उपरोक्त सर्व आचारवत्त्व आदि गुणोंके धारक यदि आचार्य या उपाध्याय प्राप्त न हो तो प्रवर्तक मुनि अथवा अनुभवी वृद्ध मुनि वा बालाचार्य यलसे व्रतोमे प्रवृत्ति करते हुए क्षपक का समाधिमरण साधनेके लिए निर्यापकाचार्य हो सकते है।६२६। जैसे गुण ऊपर वर्णन कर आये। ऐसे ही मुनि निर्यापक होते है, ऐसा नही समझना चाहिए। परन्तु भरत ओर ऐरावत क्षेत्रमे विचित्र काल का परावर्तन हुआ करता है इसलिए कालानुसार प्राणियोके गुणोमें भी जधन्य मध्यमता । उत्कृष्टता आती है। जिस समय जैसे शोभन गुणोका सम्भव रहता है, उस समय वैसे गुणधारक मुनि निर्यापक व परिचारक समझकर ग्रहण करना चाहिए ।६७१। * सल्लेखनाम निर्यापकका स्थान -(दे० सल्लेखना/५) । २. छेदोपस्थापनाको अपेक्षा निर्यापक निर्देश प्र. सा.त. प्र./२१० यता लिड्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन य किलाचार्य प्रवज्यादायक. स गुरु., यः पुनरनन्तरं सविकल्पच्छेदोपस्थापनसंयमप्रतिपादकत्वेन छेदं प्रत्युपस्थापक' स निर्यापक', योऽपि छिन्नसंयमप्रतिसंधान विधानप्रतिपादकरवेन छेदे सत्युपस्थापक सोऽपि निर्यापक एव । ततश्छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्ति । - जो आचार्य लिगग्रहणके समय निर्विकल्प सामायिकसंयमके प्रतिपादक होनेसे प्रवज्यादायक हैं वे गुरु है, और तत्पश्चात् तत्काल हो जो (आचार्य) सविकल्प छेदोपस्थापना संयमके प्रतिपादक होनेसे छेदके प्रति उपस्थापक (भेदमें स्थापन करनेवाले) है वे निर्यापक हैं। उसी प्रकार जो छिन्न संयमके प्रतिसन्धानकी विधिके प्रतिपादक होनेसे छेद होनेपर उपस्थापक ( पुन स्थापित करनेवाले ) है, वे भी निर्यापक है । इसलिए छेदोपस्थापकपर भी होते है। (यो, सा./अ./ 1) निलांछन कर्म- दे० सावद्या५ । निलपन-ध १४/५.६.६५२/५०७/१ आहारसरी रिदियआणपाण अपज्जत्तोणं णिवत्ती पिल्लेवणं णाम। -आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छवास अपर्याप्तियोकी निवृत्तिको निर्लेपन कहते हैं। निवंगे-- गो. क /जी प्र/६६०/११८७/११ निर्वगं सर्वथा असदृशं । =जो सर्वथा असदृश हो उसे निर्वर्ग कहते है। निर्वगण-ल. सा./जी प्र./४३/७७/५) अनुकृष्टय, प्रतिसमय परिणामरवण्डानि तासामवा आयाम तत्संख्येत्यर्थ । तदेव तत्परिणाममेव निर्वर्गणकाण्डकमित्युच्यते। बर्गणा समयसाहश्यं ततो निष्क्रान्ता उपर्युपरि समयबतिपरिणामखण्डा तेषां काण्डक पर्व जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-७९ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वज्ञशविला निर्वाण्डप्रति समयके परिणाम खण्डको अनुकृष्टि कहते हैं । उस अनुकृष्टिका काल आयाम कहलाता है । वह ऊर्ध्व गच्छ संस्थात गुणे होते हैं। उन परिणामोंको ही निर्वा काठक कहते हैं। समय की समानताका नाम वर्गणा है, उस समान समयोंसे रहित जो ऊपरके समयवर्ती परिणाम खण्ड है उनके काण्डक या पर्वका नाम निर्वणा काण्डक है। विशेष- दे० करण /४/३/ निर्वज्ञशांवला- एक विद्याधर विद्या- दे० विद्या । - निर्तनाधिकरण निर्वहण - वृत्तिः । अर्था -भ.आ./वि./२/१४/२० निराकुलं बहनं धारणं निर्वहणं, परीषाद्य, पनिपातेऽप्याकुलतामन्तरेण दर्शनादिपरिणती सम्यग्दर्शनादि गुणोंको निराकुलतासे धारण करना परीषादिक प्राप्त हो जानेपर भी व्याकृत चित्त न होकर सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयरूप परिणतिमें तत्पर रहना, उससे च्युत न होना, यह निर्वहण शब्दका अर्थ है न. प./१/१६/९०४) निर्वाण नि.सा./मू./१७-१८१ णवि दुक्खं पवि सुक्खं णवि पीडा व विज्जदे बाहा । गवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होइ णिव्वाणं १७६॥ णवि इंदिय उवसग्गा वि मोहो विहियो ण णिद्दा य । ण य तिहा व हा तत्थेव य होइ णिव्वाणं (१८०॥ णवि कम्म णोकम्मं णवि चिता मेव अट्टागि। गवि धम्मनका सत्व व होफिया ११८११ - जहाँ दुःख नहीं है, सुख नहीं है, पीड़ा, बाधा, मरण, जन्म कुछ नहीं है वहीं निर्माण है। १०६ जहाँ इन्द्रियों, मोह, विस्मय, निद्रा, तृषा, क्षुधा, कुछ नहीं है वहीं निर्वाण है । १८०| जहाँ कर्म और नोकर्म, चिन्ता, आर्त व ध्यान अपना धर्म न शुक्लध्यान कुछ नहीं है, वहीं निर्माण है । १०१। 1 भ. जा./वि./१२/२३/२० निर्वाण विनाश तथा प्रयोग निर्माणः प्रदोषो नष्ट इति यान्तु विनाशसामान्यमुपादाय वर्तमानोऽपि निर्वाणशब्दः चरणशब्दस्य निर्जातकर्मशातनसामर्थ्याभिधायिनः प्रयोगकर्म विनाशचरो भवति । स च कर्मणां विनाशो द्विप्रकारः, कतिपयः प्रलय. सकलप्रलयश्च । तत्र द्वितीयपरिग्रहमाचष्टे । = निर्वाण शब्दका 'विनाश' ऐसा अर्थ है । जैसे--प्रदीपका निर्वाण हुआ अर्थात् प्रदीप नष्ट हो गया। परन्तु यहाँ चारित्रमें जो कर्म नाश करनेका सामर्थ्य है उसका प्रयोग यहाँ प्रकृतमें) निर्वाण शब्दसे किया गया है। वह कर्मका नाश दो प्रकारसे होता है-थोड़े कर्मोंका नाश और सकल कर्मोंका नाश । उनमेंसे दूसरा अर्थात सर्व कर्मोंका बिनाश हो यहाँ अभी है। प्र.सा./ता.वृ./// स्वाधीनातीन्द्रियरूपपरमज्ञानसुखलक्षण निर्मा णम् । १. स्वाधीन अतीन्द्रियरूप परमज्ञान व सुख लक्षण निर्वाण है । - २. भूतकालीन प्रथम तीर्थकर १०] तीर्थंकर / ५ । * भगवान् महावीरका निर्वाण दिवस दे० इतिहास / २ | निर्वाण कल्याणक वेला - दे० कल्याणकत | निर्वाह दे० निर्वहण निविध्या - भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी- दे० मनुष्य / ४ | निविकृति - सा. ध. / टीका /५/३५ विक्रियते जिह्वामनसि येनेति विकृतिर्गोर सेक्षुर सफल रसधान्यरसभेदाच्चतुविधा । तत्र गोरसः क्षीरादिरस खण्डगुडादि फसरसों शशक्षाशादिनिष्यन्द.. धान्यरसस्तै लमण्डादिः । अथवा यद्य ेन सह भुज्यमानं स्वदते तत्तत्र विकृतिरित्युच्यते । भोजनं निविकृति । १. जिसके आहार से जिहा और मनमें विकार पैदा होता है उसे विकृति कहते है जैसे-दूध, घी आदि गोरस, खाण्ड गुड आदि निविचिकित्सा इक्षुरस, दाख, आम आदि फलरस और तेल माण्ड आदि धान्य रस । ऐसे चार प्रकारके रस विकृति हैं। ये जिस आहार में न हों वह निविकृति है २ अथवा जिसको मिलाकर भोजन करनेसे भोजनमें विशेष स्वाद आता है उसको विकृति कहते हैं। जैसे-साग, चटनी आदि पदार्थ) इस विकृति रहित भोजन अर्थात् व्यंजनादिकसे रहित भात आदिका भोजन निनिकृति है। (भ.आ./ताराधना टीका / २५४ /४०५/१६) ( निविचिकित्सा - १. दो प्रकारको विचिकित्सा ६२६ सू.आ./२५२ मि दुवा दब्बे भावे व होड़ गाया। - विचिकित्सा दो प्रकार है-द्रव्य व भाव । म २. व्य निर्विचिकित्साका लक्षण २. साधु व धर्मात्माकि शरीरोंकी अपेक्षा यू.आ./२५३ उच्चार परसवणं वं सिंघाणच चम्मट्ठी पूर्ण च मंससोदित जन्तावि साहूणं ॥२५३॥ साधुयों के शरीर के विष्ठामल, मूत्र, कफ, नाकका मल, चाम, हाड़, राधि, मांस, लोही, वमन, सर्व अंगोका मल, लार इत्यादि मलोंको देखकर ग्लानि करना द्रव्य विचिकित्सा है (तथा ग्लानि न करना द्रव्य निर्विचिकित्सा है ।) (अन. ४/२/८०/२००) र. क. श्रा./१३ स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचित्सिता । १३। - स्वभाव से अपवित्र और रत्नजयसे पवित्र ऐसे धर्मात्माओंके शरीर में ग्लानि न करना और उनके गुणों में प्रीति करना सम्यग्दर्शनका निर्विधित्सा अंग माना गया है । (का. अ. / . /४१७) ४.सं./टी./४९/१०२/१ भेदाभेदरत्नत्रयाराधकभव्यजीवानां दुर्गन्धवीभत्सादिकं दृष्ट्वा धर्मबुद्धया कारुण्यभावेन वा यथायोग्यं विधिकित्सापरिहरणं द्रव्यनिर्विचिकित्सागुणो भण्यते । - भेदाभेद रत्नत्रयके आराधक भव्यजीवोंकी दुर्गन्धी तथा आकृति आदि देखकर धर्मबुद्धिसे अथवा करुणाभाव से यथायोग्य विचिकित्सा ( ग्लानि ) को दूर करना द्रव्य निर्विचिकित्सा गुण है। २. जीव सामान्यके शरीरों व सर्वपदार्थों की अपेक्षा म.आ./२५२ उच्चारादि २५१ विद्या आदि पदार्थोंमें ग्लानिका होना द्रव्य विचिकित्सा है । ( वह नहीं करनी चाहिए पु. सि. उ. ) (पु. सि. उ० / २५) । स. सा./मू./२३१ जो ण करेदि जुगुप्पं चेदा सव्वे सिमेव धम्माणं । सो लुगिदिगो सम्मादिदिगुणेवव्यो । २३९॥ जो चेतयिता सभी धर्मों या वस्तुस्वभावोंके प्रति जुगुप्सा ( ग्लानि ) नहीं करता है, उसको निश्चयसे निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । स. सा./ता.वृ./२३१/३१३ / १२ यश्चेतयिता आत्मा परमात्मतत्वभावनामलेन जुगुको निन्दा दोष द्वे विचिकित्सान करोति, केपी संचधित्वेन । सर्वेषामेव वस्तुधर्माणां स्वभावानां दुर्गन्धादिविषयेमा स सम्यग्दृष्टिः निर्विचिकित्सः खलु स्फुट मन्तव्यो । -जो आत्मा परमात्म तत्वको भावना के महसे सभी वस्तुधर्मो या स्वभाव अथवा दुर्गन्ध आदि विषयों में ग्लानि या जुगुप्सा नहीं करता, न ही उनकी निन्दा करता है, न उनसे द्वेष करता है, वह निर्विचिकित्स सम्यग्दष्टि है, ऐसा मानना चाहिए। .../५८० दुर्वात् दुःखिते पुंसि तीमा सातामृणास्पदे यन्नासूयापर चेत स्मृतो निर्विचिकित्सकः ॥५८०० दुर्देव वश तीव्र असाता उदयसे किसी पुरुषके दुःखित हो जानेपर उससे घृणा नहीं करना निर्विचिकित्सा गुण है। (ता. सं./३/१०२ ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निविचिकित्सा ३. भाव निर्विचिकित्साका लक्षण १. परीषहोंने ठानि न करना मु. आ./२४२ सुहादिए मानविदिगिका धादि २२ परीषहोंने संक्लेश परिणाम करना भावविचिकित्सा है। उसका न होना सो निसा गुण है - पु. सि. उ. ); (पु. सि. उ. / २५) । २. असत् व दूषित संकल्प विकल्पोंका निरास रा. वा./६/२४/९/२२६/१० शरीराचसु विस्वभावमवगम्य सुचीति मिथ्यासंकल्पापनयः, प्रवचने या स्वमयुक्तं घोर कष्टं न चेदिदं सर्वमुपपन्नमित्यशुभभावनाविरहः निर्विचिकित्सता । - शरीरको अत्यन्त अशुचि मानकर उसमें शुचिवके मिथ्या संकल्पको छोड़ देना, अथवा अर्हन्तके द्वारा उपदिष्ट प्रबचनमें यह अयुक्त है, घोर कष्ट है, यह सम नहीं बनता' आदि प्रकारकी अशुभ भावनाओंसे चित विचिकित्सा नहीं करना अर्थाद ऐसे भावों का गिरह निर्विचिकित्सा है (म. पू./१३/३९५-३१६) (पा, सा./२/ द्र.सं./टी./४१/१७२/११ यत्पुनर्जेनसमये सर्व समीचीनं परं किन्तु वस्त्रावरणं जलस्नानादिकं च न कुर्वन्ति देन वृषणमिवादि कुत्सितभावस्य विशिष्टविवेकमसेन परिहरण सा निर्विचिकित्सा भण्यते । 'जैनमत सम अच्छी बातें हैं, परन्तु वस्त्र के आवरण से रहितता अर्थात् नग्नपना और जलस्नान आदिका न करना यही एक दूषण है' इत्यादि बुरे भावोंको विशेष इनके मसरी दूर करना, वह निर्विचिकित्सा कहलाती है। ३. ऊँच-नीच के अथवा मशंसा निन्दा आदिके भावका निरास पं. ध. /उ./५७८-५८४ आत्मन्यात्मगुणोत्कर्ष बुद्धयां स्वात्मप्रशंसनात् । परत्राप्यपकर्षेषु बुद्धिर्विचिकित्सता स्मृता ॥ ५७८ ॥ नैतत्तन्मनस्यज्ञानमस्म्यहं संपद पदम्। नासावस्मत्समो दोनो दराको विपद पद ॥८१॥ प्रत्युत ज्ञानमेतत्तत्र कर्मविपाकः प्राणिनः सदृशाः सर्वे सस्थावर योनयः ॥ ८-अपने अपनी प्रशंसा द्वारा अपने गुणकी उत्कर्षता के साथ-साथ जो अन्य गुणोंके अपकर्ष में बुद्धि होती है उसको विचिकित्सा कहते हैं। ऐसी बुद्धि न होता सोनि चिकित्सा है। सम्यग्दृष्टि मनमें यह अज्ञान नहीं होता है कि मैं सम्पत्तियोंका आस्पद हूँ और यह दीन ग़रीब विपत्तियोंका आस्पद है. इसलिए हमारे समान नहीं है |१| बल्कि उस निर्विचिकित्सके तो ऐसा ज्ञान होता है कि कर्मोंके उदयसे उत्पन्न त्रस और स्थावर यो निवाले सर्व जीव सदृश हैं । ५८२ | (ला. सं./४/१००-१०५) । ४. निश्चय निर्विचिकिल्ला निर्देश प्र.सं./टी./४९/९०३/२ नियमेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिविचिकित्सागुणस्य महेन समस्तद्वेगादिविकल्परूपकवतोमासायागेन निर्मलासमानुभूतिलक्षणे निजशुद्धात्मनि व्यवस्थान निर्विचिकित्सा गुण इति निश्चयसे तो इसी (पूर्वो) निर्विचिकित्सा गुणके बलसे जो समस्त राग-द्वेष आदि विकल्परूप तरंगों का त्याग करके निर्मल आत्मानुभव लक्षण निज सुद्धात्मामें स्थिति करना निर्मिचिकित्सा गुण है। निशुंभ विचिकित्सा या जुगुप्साको यदि अतिचार कहोगे तो मिध्यान असंयम यादों को जुगुप्सा होती है, उसे भी सम्यग्दर्शनका अतिचार मानना पड़ेगा। उत्तर-यहाँपर जुगुप्साका विषय नियत समझना चाहिए। रत्नत्रयमेंसे किसी एकमें अथवा रत्नत्रयाराधकों में कोपादि न जुगुप्सा होना ही सम्यग्दर्शन का अतिचार है क्योंकि, इसके वशीभूत मनुष्य अन्य सम्यग्दृष्टि जीवके ज्ञान, दर्शन व आचरणका तिरस्कार करता है । तथा निरतिचार सम्यग्दृष्टिका तिरस्कार करता है । अतः ऐसी जुगुप्सासे रत्नत्रयके माहात्म्यमें अरुचि होनेसे इसको अतिचार समझना चाहिए। ( अन ध/२/७१/२०७) । निर्विष ऋद्धि - दे० ऋद्धि / ७ । निर्वृत्ति-स.सि./२/१७/९०६६४ नियते इति निवृतिः । रचना का नाम निवृत्ति है। ६२७ रा.वा./२/१०/२/१३०/० कर्मणा या निर्वते निष्णायते सा निवृतिरित्युपदिश्यते नामकर्मसे जिसकी रचना हो उसे (इन्द्रियको ) निति कहते हैं। -दे० इन्द्रिय / १ । ★ पर्यात अपर्याप्त निर्वृति३० पर्या४/१। निर्वृति अक्षर दे० बार । निर्वृति इंद्रियनिर्वृति विद्यादे०विद्या । निर्वृत् कर्म दे० कर्ता/ निर्वेगनी कथा दे० कथा | निर्वेचनी कथा कथा निर्वेद - पं. ध. /उ. /४४२-४४३ संवेगो विधिरूपः स्यान्निर्वेदश्च (स्तु) निषेधनात् । स्याद्विवक्षावशाद्द्वैतं नार्थादर्थान्तरं तयोः ॥ ४४२ | स्यागः सर्वाभिलाषस्य निर्वेदो लक्षणात्तथा। स संवेगोऽथमा धर्मः साभिलाषन धर्मा ४४३ संवेग विधिरूप होता है और निषेधको विषय करनेके कारण निर्वेद निषेधात्मक होता है । उन सवेगन निर्वेद विवक्षा यश ही भेद है, वास्तव में कोई भेद नहीं है । ४४२ | सब अभिलाषाओंका रयाग निर्वेद कहलाता है और धर्म तथा धर्मके फलमें अनुराग होना संवेग कहलाता है। वह संवेग भी सर्व अभिलाषाओंके व्यागरूप पड़ता है; क्योंकि, सम्यग्दृष्टि अभिलाषावान् नहीं होता | ४४३ | निलय - एक ग्रह-दे० ग्रह | निवृत्ति-सा / ../१०६/२८८/११ महिरविषयवायादीहागतचित्तस्य निवर्तनं निवृत्तिः । बहिरंग विषय कषाय आदि रूप अभिलाषाको प्राप्त चित्तका त्याग करना अर्थात् अभिलाषाओंका त्याग करना निवृत्ति है । * प्रवृत्ति में भी निवृत्तिका अंश * प्रवृति व निवृत्तिसे अतीत०] संवर/२ । तीसरी भूमिका ही श्रेय है-दे० धर्म/३/२। निशि भोजन कथाभारामत (१० १०५६) द्वारा हिन्दी भाषा में रचित कथा ! निशि भोजन त्याग रात्रिभोजन त्याग निशुंभ-म. पु. / अधि. /श्लोक - दूरवर्ती पूर्व भव में राजसिंह नामका बड़ा मल्ल था । (६१/५६-६० ) । अपर नाम मधुक्रीड़ था। पूर्व भवमें पुण्डरीक नामक नारायण के जीवका शत्रु था । (४/१८० ) । वर्तमान अनमें पाँचों प्रतिनारायण हुआ देशका पुरुष / ५। ५. इसे सम्यक्त्वका अतिचार कहनेका कारण भ. जा./वि./४४/१४४ / १ विचिकित्सा जुगुप्सा मिथ्यात्वा संयमादिषु जुगुप्सायाः प्रवृत्तिरतिचारः स्यादिति चेत इहापि नियतनिधया जुगुप्सेति मतातिचारत्वेन । रत्नत्रयाणामन्यतमे तद्वति वा कोपादिनिमित्ता जुगुप्सा हह गृहोता ततस्तस्य दर्शनं ज्ञानं चरणं बाझोमममिति । यस्य हि एवं भ इति पद्धानं स तस्य जुगुप्स करोति । ततो रमत्रयमाहारम्यारुचिर्युज्यते अतिचारः 1 प्रश्न जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय ६२८ निषेक सा पसल ४३३२६/१ अहंदादिकारते हैं (भ. ओ निषिधीयोगिक निश्चय-प्र. सा./ता-वृ./६३/११८/३१ परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः। = परमार्थ का विशेष रूपसे तथा संशयादि रहित अवधारण निश्चय है। द्र. सं./टी./४१/१६४/११ श्रद्धानं रुचिनिश्चय इदमेवेत्थमेवेति निश्चय बुद्धिः सम्यग्दर्शनम् । श्रद्धान, रुचि, निश्चय अर्थात् यह इस प्रकार ही है ऐसी निश्चय बुद्धि सम्यग्दर्शन है। निश्चय नथ-१. सर्व नयोंके मूल निश्चय व्यवहार-(दे० नय] I/१) २. निश्चय व्यवहार नय-दे० नय/V) निश्चयावलंबी-दे० साधु।३ । निश्चल-एक ग्रह- दे० ग्रह । निश्चित विपक्ष वृत्ति-दे० व्यभिचार । निषद्यका-दे० समाचार। निषद्या - दे० निषिद्धिका । निषद्या क्रिया-दे० संस्कार/२ । निषद्या परीषहस. सि./६//४२३/७ स्मशानोद्यानशून्यायतनगिरिगुहागहरादिष्वनभ्यस्तपूर्वेषु निवसत आदित्यप्रकाशस्वेन्द्रियज्ञानपरीक्षितप्रदेशे कृतनियमक्रियस्य निषद्या नियमितकालामास्थितवतः सिंहव्याधादिविविधभीषणध्वनिश्रवणानिवृत्तभयस्य चतुर्विधोपसर्गसहनादप्रच्युतमोक्षमार्गस्य वीरासनोत्कुटिकाद्यासनादविचलितविग्रहस्य तत्कृतबाधासहन निषद्या परिषहविजय इति निश्चीयते। जिनमें पहले रहनेका अभ्यास नहीं किया है ऐसे श्मशान, उद्यान, शून्यधर, गिरिगुफा और गह्वर आदिमें जो निवास करता है, आदित्यके प्रकाश और स्वेन्द्रिय ज्ञानसे परीक्षित प्रदेशमें जिसने नियम क्रिया की है, जो नियत काल निषद्या लगाकर बैठता है, सिंह और व्याघ्र आदिकी नाना प्रकारकी भीषण ध्वनिके सुननेसे जिसे किसी प्रकारका भय नहीं होता, चार प्रकारके उपसर्गके सहन करनेसे जो मोक्षमार्गसे च्युत नहीं हुआ है, तथा वीरासन और उत्कटिका आदि आसनके लगानेसे जिसका शरीर चलायमान नहीं हुआ है, उसके निषद्या कृत बाधाका सहन करना निषद्या परीषहजय निश्चित होता है। (रा. वा./६/४/१२/६१०/२२ ); (चा. सा./११८/३)। निषध-रा, वा./३/११/५-६/१८३/८-यस्मिन् देवा देव्यश्च क्रीडार्थ निषीधन्ति स निषधः, पृथोदरादिपाठात् सिद्ध । अन्यत्रापि तत्तुल्यकारणत्वात्तत्प्रसङ्गः इति चेन्न; रूढिविशेषबललाभात । क्व पुनरसौ। हरिविदेयोमर्यादाहेतुः । =जिसपर देव और देवियाँ क्रीडा करें वह निषध है। क्योंकि यह संज्ञा रूढ है, इसलिए अन्य ऐसे देवक्रोडाकी तुल्यता रखनेवाले स्थानोंमें नहीं जाती है। यह वर्षधर पर्वत हरि और विदेहक्षेत्रकी सीमापर है। विशेष-दे० लोक/३/३।। ज. दी. प./प्र./१४१ A.N. U.P. A H.L. Jain इस पर्वतसे हिन्द्रकुश शृखलाका तात्पर्य है। हिन्दूकुशका विस्तार वर्तमान भूगोलके अनुसार पामीर प्रदेशसे, जहाँसे इसका मूल है, काबुलके पश्चिममें कोहेबाबा तक माना जाता है। "कोहे-बाबा और बन्दे-बाबाकी परम्पराने पहातोको उस ऊँची शृखलाको हेरात तक पहुंचा दिया है। पामीरसे हेरा तक मानो एक ही शृखला है।" अपने प्रारम्भसे ही यह दक्षिण को दाबे हुए पश्चिमकी ओर बढ़ता है। यही पहाड़ ग्रीकोंका परोपानिसस है। और इसका पार्श्ववर्ती प्रदेश काबुल उनका परोपानिसदाय है। ये दोनों ही शब्द स्पष्टतः 'पर्वत निषध' के ग्रीक रूप हैं, जैसा कि जायसवालने प्रतिपादित किया है । "गिर निसा (गिरि निसा) भी गिरि निषधका ही रूप है। इसमें गिरि शब्द एक अर्थ रखता है। वायु पुराण/४६/१३२ में पहाड़ीकी शृखलाको पर्वत और एक पहाड़ीको गिरि कहा गया है-"अपवर्णास्तु गिरयः पर्वभिः पर्वता' स्मृताः।" निषधकूट-निषध पर्वतका एक कूट तथा सुमेरु पर्वतके सौमनस व __ नन्दनवन में स्थित एक कूट-दे० लोक/५/४ ५। निषध देव-निषध पर्वतके निषधकूटकार क्षक देव-दे० लोक/७ । निषध हद-देवकुरुके १० हृदोंमेसे एक-दे० लोक/VE निषाद-एक स्वरका नाम-दे० स्वर । निषिक्त-ध.१४/५६.२४६/३३२/8 पढमसमए पदेसरगं णिसित्तं पढमसमयबद्धपदेसग्गं त्ति भणिदं होदि । प्रथम समयमें प्रदेशान निषिक्त किया है। अर्थात प्रथमसमय जो प्रदेशाग्र बाँधा गया है, यह तात्पर्य है। निषिद्धिका-श्रतज्ञानमें अंगबाह्यका १४वाँ विकल्प-दे० श्रुत ज्ञान/III) निषीधिकाभ. आ./मु./१९६७-१९७०/१७३५ समणाणं ठिदिकप्पो वासावासे तहेव उड्ढबंधे । पडिलिहिदव्वा णियमा णिसीहिया सव्वसाधूहि ।१९६७ एगता सालोगा णादिविकिट्ठा ण चावि आसण्णा । वित्थिण्णा विद्धत्ता णिसीहिया दूरमागाढा ११६६८। अभिमुआ असुसिरा अघसा अज्जोवा बहुसमा य असिणिडा। णिज्जंतुगा अहरिदा अविला य तहा अणाबाधा 1१६६१ जा अवरदक्षिणाए व दक्खिणाए व अध व अवराए। वसधीदो वणिज्जदि णिसीधिया सा पसत्यत्ति ।१६७०1 भ. आ./वि./१४३/३२६/१ णिसिहीओ निषिधीर्योगिवृत्तिर्यस्या भूमौ सा निषिधी इत्युच्यते । - अर्हदादिकोंके व मुनिराजके समाधिस्थानको निषिद्धिका या निषीधिका कहते हैं (भ. आ./वि.)। चातुर्मासिकयोगके प्रारम्भकालमें तथा ऋतु प्रारम्भमें निषीधिकाकी प्रतिलेखना सर्व साधुओंको नियमसे करने चाहिए, अर्थात उस स्थानका दर्शन करना तथा उसे पीछीसे साफ करना चाहिए। ऐसा यह मुनियोंका स्थित कल्प है ।१६६७। वह निषीधिका एकान्तप्रदेशमें, अन्य जनोंको दीख न पड़े ऐसे प्रदेशमें हो। प्रकाश सहित हो। वह नगर आदिकोंसे अतिदूर न हो। न अति समीप भी हो। वह टूटी हुई, विध्वस्त की गयी ऐसी न हो। वह विस्तीर्ण प्रासक और दृढ होनी चाहिए ।१९६८। वह निषी धिका चौंटियोंसे रहित हो, छिद्रोंसे रहित हो, घिसी हुई न हो, प्रकाश सहित हो, समान भूमिमें स्थित हो, निर्जन्तुक व बाधारहित हो, गीली तथा इधर-उधर हिलनेवाली न हो। वह निषीधिका क्षपककी वसतिकासे नैऋत दिशामें, दक्षिण दिशामें अथवा पश्चिम दिशामें होनी चाहिए। इन्हीं दिशाओं में निषाधिकाकी रचना करना पूर्व आचार्योंने प्रशस्त माना है ।१९६९-१६७०) * निषीधिकाको दिशाओंपरसे शुभाशुभ फल विचार -दे० सल्लेखना/६/३ । निषेक-१. लक्षण ष. खं/६/१, ६-६/सू. ६/१५० आबाधुणिया कम्मठ्ठिदी कम्मणिसेओ।। = ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय व अन्तराय) इन कर्मोंका आबाधाकालसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक होता है। (ष. वं. ६/१,६-६/सू. ६,१२,१५,१८,२१/पृ. १५६-१६५ में अन्य तीन कर्मोंके सम्बन्धमें उपरोक्त ही बात कही है)। ध, ११/४,२,६,१०१/२३७/१६ निषेचनं निषेकः, कम्मपरमाणुक्रवंधणिक्खेबो णिसेगो णाम । -निषेचनं निषेकः' इस निरुक्तिके अनुसार कर्म परमाणुओंके स्कन्धोंके निक्षेपण करनेका नाम निषेक है। थानको ना इत्युच्यते । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निषेकहार गो.क./मू./१६०/१६६ आवाहूणियम्मदिदी भिसेो पुसतकम्माणं । आउस णिसेगो पुण सगट्ठदी होदि नियमेण | ११६ = आयु वर्जित सात कर्मोंकी अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेसे उन-उनका आबाधा काल घटाकर जो शेष रहता है, उतने कालके जितने समय होते है; उतने ही उस उस कर्म के निषेक जानना । और आयु कर्मकी स्थिति प्रमाण कालके समय जितने उसके निषेक है। क्योंकि आयुकी आबाचा पूर्व भनकी आने व्यतीत हो चुकी है। (गो.क.यू./११६ ११०२) । गो. जी. / भाषा / ६७११७३ / १४ एक एक समय ( उदय आने ) सम्बन्धी जेता द्रव्यका प्रमाण ताका नाम निषेक जानना । (विशेष दे० उदय / ३ में कमकी निषेक रचना) | २. अन्य सम्बन्धित विषय १. उदय प्रकरण में कर्म प्रदेशोंकी निषेक रचना २. स्थितिप्रकरण में कर्मप्रदेशोंकी निषेक रचना २. मिरेको अनुभागरूप-स्पर्धक रचना में ४. निक्षेप व अतिस्थापनारूप निषेक निबेकहार // १२ / ११११- दोगुणहाणिपमा से हारो दु होइ । = गुणहानिके प्रमाणका दुगुना करनेसे दो गुणहानि होती है, उसीको निषेकहार कहते हैं (विशेष दे० गणित / II/५) निषेध - पं. ध./पू. /२७५-२७६ सामान्यविधिरूपं प्रतिषेधात्मा । भवति विशेषश्च । उभयोरन्यतरस्योन्मग्नत्वादस्ति नास्तीति | २७५॥ तत्र निरंशो विधिरिति स यथा स्वयं सदिति । तदिह विभज्य विभागः प्रतिपेधरकपनं तस्य २०६। विधिरूप वर्तना सामान्य काल ( स्व काल ) है और निषेधस्वरूप विशेषकाल कहलाता है। तथा इनमें से किसी एककी मुख्य विवक्षा होनेसे अस्ति नास्ति रूप विकल्प होते हैं । २७५। उनमे अंश कल्पनाका न होना ही विधि है; क्योंकि स्वयं सब सत् रूप है । और उसमे अंश कल्पना द्वारा विभाग करना प्रतिषेध है । (विशेष दे० सप्तभंगी / ४) । * प्रतिषेध के भेद - पर्युदास व प्रसज्य - दे० अभाव | निषेध साधक हेतु - दे० हेतु । निषेधिक० समाचार | निष्काम भाव - दे० नि'कांक्षित | निष्कुट दे० क्षेत्र निष्क्रांत क्रिया - दे० क्रिया । निष्क्रियत्व शक्ति - दे० उदय / ३ | - दे० स्थिति / ३ | - ३० स्पर्धक । -- दे० अपकर्षण / २ । स. सा./डा/परि/शक्ति नं. २३ सलफर्मो परमप्रदेश निष्क्रियशक्तिः । समस्त कर्मो के अभाव से प्रवृत्त आत्मप्रदेशोंकी निस्पन्दता स्वरूप निष्क्रियत्व शक्ति है । FU निष्ठापक — दे० प्रस्थापक । निष्पत्ति - Ratio (ज. प. प्र. १०७ ) । निष्पिण्छ- दिगम्बर साधुओंका एक संघ (दे० इतिहास/५/१६) निसर्ग स.सि./१/३/१२/३ निसर्गः स्वभाव इत्यर्थः । स.सि./ ६ / ६ / ३२६ / ६ निसृज्यत इति निसर्गः प्रवर्तन निसर्गा अर्थ स्वभाव है अथवा निसर्गका अर्थ प्रवर्तन है । (रा. व/१/३/-/ २२/१६ तथा ६/६/२/५१६/२) । निसर्ग क्रिया -दे० क्रिया / ३ । नृपदत्त निसगंज- - १. निसर्गज सम्यग्दर्शन -- दे० अधिगमज । २. ज्ञानदर्शन चारित्रादिमे निसर्गज व अधिगमजपना व उनका परस्परमे सम्बन्ध - दे० अधिगमज | निसर्गाधिकरण -- दे० अधिकरण | निसही — दे० असही । । निस्तरण. आ./नि/२/१४/२९ भवान्तरप्रापण दर्शनादीना निस्तरण - अन्य भवने सम्यग्दर्शनादिकोको पहुँचाना अर्थात् आमरण निर्दोष पालन करना, जिससे कि वे अन्य जन्म में भी अपने साथ आ सकें। अनघ /९/१६/ १०४ निस्तीर्णस्तु स्थिरमपि तदप्रापणं कृच्छ पाते। परीषह तथा उपसर्गोंके उपस्थित रहनेपर भी उनसे चलायमान न होकर इनके अंत तक पहुँचा देनेको अर्थात् क्षोभ रहित होकर मरपास पहुँचा देने को निस्तरण कहते है। निस्तारक मन्त्र - - दे० मन्त्र / १/६ | निस्तीर्ण ६२९ -दे० निस्तरण । । नोच- नीच गोत्र व नीच कुल आदि दे० वर्ण व्यवस्था । नीचैर्वृति-स.सि./६/२८/२४०/९ गुणोत्कृष्टेषु विनयेनावनति नचैवृत्ति। जो गुणोंमे उत्कृष्ट है उनके प्रति विनयसे नम्र रहना नीचे है। नीतिवाक्यामृत-आ. सोमदेव ( ०१४२१६०) द्वारा रचित यह संस्कृत श्लोकम राजनीति विषयक प्रन्थ है। (ती./२/७३)। नीतिसार- आा. इन्द्रनन्दि (ई.स. १०) की नीति विषयक रचना । नील । -रा. वा./३/११/७-८/१८३ / २१ - नीलेन वर्णेन योगात् पर्वतो नील इति व्यपदिश्यते संज्ञा चास्य वासुदेवस्य कृष्णव्यपदेशमद कम पुनरसी विदेहरम्यकविनिवेशविभागी ॥८॥ नीलवर्ण होने के कारण इस पर्वतको नील कहते है वासुदेवकी कृष्ण संज्ञाकी तरह यह संज्ञा है । यह विदेह और रम्यक क्षेत्रकी सीमापर स्थित है । विशेष दे० लोक / ३/४ | नोल. नीस पर्वउपर स्थित एक मूट तथा उसका राजदेव दे० लोक ५ / ४:२. एक ग्रह-दे० ग्रह; ३. भद्रशाल वनमे स्थित एक दिग्गजेन्द्र पर्वत - दे० लोक ५/३:४. रुचक पर्वत के श्रीवृक्ष कूटपर रहनेवाला एक दिग्गजेन्द्र देव - दे० लोक५/१३,५. उत्तरकुरुमें स्थित १० द्रहों में से एक - दे० लोक५/६६६० नील नामक एक लेश्या - दे० लेश्या; ७.पं.पू./अधि/ श्लो. नं. -सुग्रीव के चाचा किरके राजा राजका पुत्र था (१/१३) अन्तमें दीक्षित हो मोक्ष पधारे (१९६/१६) । नीलाभास - एक ग्रह - दे० ग्रह । नृत्य माल्य-विजयार्थ पट खपात कामदेव दे० लोक /५/४ । नृपतुंग -- अपरनाम अमोघवर्ष था— दे० अमोघवर्ष । नृपदत्त - ( ह. पु./ अधि. / श्लोक नं. ) - पूर्व भव नं. ३ में भानु सेठका पुत्र भानुकीति था। (२४/१७-१८) दूसरे में चित्र विद्या धरका पुत्र गरुडकान्त था। ( ३४ / १३२-१३३) । पूर्व के भवमें राजा गङ्गदेवका पुत्र ग था । ( ३४ / १४२-१४३) । वर्तमान भवमें वसुदेवका पुत्र हुआ। ( ३५ / ३) । जन्मते ही एक देवने उठाकर इसे सुदृष्टि सेठके यहाँ पहुँचा दिया। (३५/४-५) । वही पोषण हुआ। दीक्षा धारण कर घोर तप किया। ( ५६ / ११५-१२० ); ( ६० /७) । अन्तमें मोक्ष सिधारे (११/१६-१७) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृपनंदि नृपनंदि राजा भोजके समकालीन थे। तदनुसार इनका समय वि० १०७८-१११२ ( ई० १०२१-१०२५ ); आता है । ( वसु. श्रा०/प्र. RE / H L Jain) नेत्रोन्मीलन - प्रतिष्ठा विधानमे भगवान्की नेत्रोन्मीलन क्रिया - दे० प्रतिष्ठा विधान । नेमिचंद्र बलात्कार प्रभाचन्द्र के शिष्य भानुचन्द्र के 1 गुरु । समय-शक ४७८-४८७ ( ई० ५५६-५६५) । दे. इतिहास / ७ / २ ) । २. नन्दिसंघ देशोय गण । अभयनन्दि के दीक्षाशिष्य और बीरनन्दि तथा इन्द्रनन्दके लघु गुरु भाई अथवा विद्या शिष्य । मन्त्री चामुण्डरायके गुरु उपाधि सिद्धान्त चक्रवर्ती कृतियें गोमहसार, लब्धिसार, शपणसार, त्रिलोक्सार । समय-लगभग ई० ६८१ । ई०श० १०-११ (०तिहास ७/०९/२० (०/२/४२२) २. वि संघ देशीयगण | श्रावकाचार के कर्ता वसुनन्दि के शिष्य । उपाधि सैद्धान्तिक देव । कृति - द्रव्य संग्रह । समय-धारा नगरी के राजा भोज (वि० १०७५-११२५) के समकालीन अर्थात लगभग वि० ११२५ ( ई० १०६८) । (दे० इतिहास /७/५), (ती०/२/४४१) ४ क्षपणासार के कर्ता माधवचन्द्र त्रैविद्य (वि० १२६० ई० १२०३ ) के गुरु । समयलगभग ई० १२८० - १२१० । ५. अर्ध नेमिपुराण के कर्ता एक कन्नड कवि । समय - ई० श० १३/ (ती० /४/३०६) ६. रवित्रत कथा के कर्ता एक अभ्रश कवि । समय- वि० श० १५ / ( ती०/४/२४३) । ७. नन्दिसंघ बलात्कारगण सरस्वती गच्छ । भट्टारक ज्ञानभूषण (वि० १५५५ दे० इतिहास / ७ / ४) के शिष्य केशव वर्णी कृत कन्नड टीका ( वि०१४१६ ) के आधारपर गोमहसारकी 'जीव प्रबोधिना' नामक संस्कृत टीका लिखी। समय-ई० श० १६ का प्रारम्भ । (जै० / १/४०४) | नेमिचन्द्रिका - प० मनरंगलाल ( ई० १८००-१८३२ ) छन्दबद्ध कथा ग्रन्थ । नेमिदत्त - नन्दिसंघ बलात्कार गण सूरत शाखा । भट्टारक महिलभूषण ( इति० / ७ / ४ ) के शिष्य एक ब्रह्मचारी । कृतिये - आराधना कथा कोष, नेमिनाथ पुराण, श्रीपाल चरित, सुदर्शन चरित प्रीतं महामुनि चरित, रात्रिभोजन त्याग क्या, धन्यकुमार चरित, नेमिनिर्वाण काव्य, नागकुमार कथा, धर्मोपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार, मालारोहिणी । समय-वि० १५७५-१५८५. ई० श० १६ । (जै० / २/३०८), (सी०/३/४०३) । नेमिदेव के सोमदेव ( ई०२३३) के गुरु बाद विजेता । समय ई० ११८ - १४३ । ( योगमार्ग/प्र० प्र० श्री लाल) । कृत भाषा - सूर्य पूर्व नेमिनाथ - (म. पु. / ७० / श्लो. नं. पूर्व भव नं. ६ में पुष्करार्ध द्वीपके पश्चिम मेरुके पास मन्धित देश, विवार्थ पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में नगर के राजा सूर्यप्रभके पुत्र चिन्तागति मे २६-२५ में चतुर्थ स्वर्गमे सामानिकदेव हुए 1३६पूर्व भवनं धमें सुगन्धिता देशके सिंहपुर नगरके राजा अदासके पुत्र अपराजित हुए |४१ । पूर्वभव नं० ३ में अच्युत स्वर्गमे इन्द्र हुए १५० पूर्वभय नं. २ मे हस्तिनापुर के राजा श्री चन्द्र के पुत्र प्रतिष्ठ हुए । ५१ | और पूर्व भव मे जयन्त नामक अनुत्तर विमानमें अहमिन्द्र हुए । ५६| ( ह. पु. / ३४/१७-४३ ); ( म. पू. /७२/२७७ में युगपत् सर्व भन दिये है। वर्तमान भगमे २२ तीर्थकर हुए ६० तीर्थकर / ६३० नोकर्याहार नेमिनाथ पुराण० मिस ई० १४२५) कृत यथा नाम संस्कृत ग्रन्थ अधिकार स० १६ । (ती०/३/४०४ ) | नेमि निर्वाण काव्य - बाग्भट्ट (६० १०७५ - ११२५) कृत १५ सर्ग प्रमाण यथानाम संस्कृत काव्य ( ती० / ३ / ४०४) । नेमिषेण- [माथुर संघकी गुर्वावसी के अनुसार आप अमितगति प्र के शिष्य तथा श्री माधवसेनके गुरु थे। समय- वि. १०००-१०४० ( ई० १४३ - ६८३ ) - दे० इतिहास / ७ /११ । नैऋत्य - १. पश्चिम दक्षिणी कोणवाली विदिशा । २. लोकपाल देवका एक भेददे० लोकपाल नैगमनय - २० नम /III/२-३ | नेपाल - भरतक्षेत्रके विन्ध्याचल पर्वतपर स्थित एक देश-दे० मनुष्य / ४। नैमित्तिक कार्य दे० कारण/111 नैमित्तिक सुख दे० सुख । नैमिष --- विजयार्ध की उत्तरश्रेणीका एक नगर - दे० विद्याधर । नैयायिक दर्शन दे० न्याय ९ । नैषध-भरतक्षेत्र के विन्ध्याचल पर्वत पर स्थित -६० मनुष्य ४ मैष्ठिक ब्रह्मचारी - दे० ब्रह्मचारी | एक देश नैष्ठिक श्रावक - १. श्रावक सामान्य (दे० श्रावक / १) । २. नैष्ठिक श्रावककी ११ प्रतिमाएँ - दे० वह वह नाम । - चक्रवर्तीकी नवनिधिमेंसे एक-दे० शलाका पुरुष / २ । नैसर्पनो- . ६/१,६-१,२३/गा. ८-१, ४४, ४६ प्रतिषेधयति समस्तप्रसक्तमर्थं तु जगति नोशव्द । स पुनस्तदवयवे वा तस्मादर्थान्तरे या स्याव नो त शविषयप्रतिषेधो ऽन्यः स्वपरयोगात् । जगमें 'भ' यह शब्द प्रसक्त समस्त अर्थका तो प्रतिषेध करता ही है, किन्तु वह प्रसक्त अर्थके अवयव अर्थात् एक देशमें अथवा उससे भिन्न अर्थ में रहता है, अर्थात् उसका बोध कराता है ।८। 'नो' यह शब्द स्व और परके योगसे विक्षित वस्तुके एकवेशका प्रतिषेधक और विधायक होता है घ. १५/४/८ पोसो सम्पडिसेति किरण पेटपदे। [१] गाणावरणस्साभावस्त पसंगादो, सु [व] वयण विरोहादो च । तम्हा फोटो सहिओ ति धेतव्यं प्रश्न 'नो' शब्दको सबके प्रतिषेधक रूपसे क्यों नहीं ग्रहण किया जाता ? उत्तर--नहीं, क्योंकि मेसा स्वीकार करनेपर एक तो ज्ञानावरण अभावका प्रसंग आता है दूसरे स्ववचनका विरोध भी होता है, इसलिए 'नो' शब्दको देश प्रतिषेधक ही ग्रहण करना चाहिए। नोआगम १. नोआगम-दे० आगम / १ । २. नोआगम द्रव्यनिक्षेप / ५ । ३० नोआगमभाव निक्षेप-दे० निक्षेप / ७ ॥ नो इंद्रिय- -दे० मन / ८ । दे० । नो ओम - ३० जन नोकर्म - दे० कर्म /२ नोकर्माहार - दे० आहार /I/१ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नो कषाय न्याय मन्वीक्षा तथा प्रवर्तत इत्यान्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम् । -प्रमाणसे बस्तुकी परीक्षा करनेका नाम न्याय है। प्रत्यक्ष और आगमके आश्रित अनुमानको अन्वीक्षा कहते है, इसीका नाम आन्वीक्षिकी या न्यायविद्या व न्यायशास्त्र है। २. न्यायामासका लक्षण नो कषाय-१. नोकषाय-दे० कषाय/१। २. नोकषाय वेदनी -दे० मोहनीय/१। नो कृति-दे० कृति। नो क्षेत्र-दे० क्षेत्र/१। नोजीव-दे० जीव/१। नो त्वचा-दे० त्वचा। नो संसार-दे० संसार। नौकार श्रावकाचार-आ० योगेन्दुदेव (ई० श० ६) द्वारा रचित प्राकृत दोहाबद्ध एक ग्रन्थ । न्या. द./भाष्य/१/१/१/पृ.३/२० यत्पुनरनुमानप्रत्यक्षागमविरुद्ध' न्यायाभासः स इति । -जो अनुमान प्रत्यक्ष और आगमके विरुद्ध हो उसे न्यायाभास कहते है। ३. जैन न्याय निर्देश न्यग्रोध-परिमंडल-दे० सस्थान । न्याय-तर्क व युक्ति द्वारा परोक्ष पदार्थोकी सिद्धि व निर्णयके अर्थ न्यायशास्त्रका उद्गम हुआ। यद्यपि न्यायशास्त्रका मूल आधार नैयायिक दर्शन है, जिसने कि वैशेषिक मान्य तत्त्वोंकी युक्ति पूर्वक सिद्धि की है, परन्तु वीतरागताके उपासक जैन व बौद्ध दर्शनोंको भी अपने सिद्धान्तकी रक्षाके लिए न्यायशास्त्रका आश्रय लेना पड़ा। जैनाचार्यों में स्वामी समन्तभद्र (वि० श०२-३), अकलंक भट्ट (ई०६४०-६८०) और विद्यानन्दि (ई० ७७५-८४०) को विशेषतः वैशेषिक, सारख्य, मीमांसक व बौद्ध मतोंसे टक्कर लेनी पड़ी। तभीसे जैनन्याय शास्त्रका विकास हुआ। बौद्धन्याय शास्त्र भी लगभग उसी समय प्रगट हुआ। तीनों ही न्यायशास्त्रोंके तत्त्वोंमें अपनेअपने सिद्धान्तानुसार मतभेद पाया जाता है। जैसे कि न्याय दर्शन जहाँ वितंडा, जाति व निग्रहस्थान जैसे अनुचित हथकण्डोंका प्रयोग करके भी वादमें जीत लेना न्याय मानता है, वहाँ जैन दर्शन केवल सद्हेतुओंके आधारपर अपने पक्षकी सिद्धि कर देना मात्र ही सच्ची विजय समझता है। अथवा न्याय दर्शन विस्तार रुचिवाला होनेके कारण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान व आगम इस प्रकार चार प्रमाण, १६ तत्त्व, उनके अनेकों भेद-प्रभेदोंका जाल फैला देता है, जब कि जैनदर्शन संक्षेप रुचिवाला होनेके कारण प्रत्यक्ष व परोक्ष दो प्रमाण तथा इनके अंगभूत नय इन दो तत्त्वोंसे ही अपना सारा प्रयोजन सिद्ध कर लेता है। त. सू./९/६, ६-१२,३३ प्रमाणनयैरधिगमः ।६। मतिश्रुतावधिमन.पर्यय केवलानि ज्ञानम ।। तत्प्रमाणे ।१०। आद्य परोक्षम् ।११। प्रत्यक्षमन्यत् ।१२नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढ वभूता नयाः ।३३। = प्रमाण और नयसे पदार्थोंका निश्चय होता है ।६। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय व केवल ये पॉच ज्ञान हैं। वह ज्ञान ही प्रमाण है वह प्रमाण, प्रत्यक्ष व परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है ।६०) इनमें पहले दो मति व श्रुत परोक्ष प्रमाण है। ( पाँचों इन्द्रियो व छटे मनके द्वारा होनेवाला ज्ञान मतिज्ञान है और अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति व आगम ये सब श्रुतज्ञानके अवयव है ) ॥११॥ शेष तीन अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं (इनमें भी अवधि व मनःपर्यय देश प्रत्यक्ष और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। उपचारसे इन्द्रिय ज्ञान अर्थात मतिज्ञानको भी साव्यवहारिक प्रत्यक्ष मान लिया जाता है) ।१२। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एव भूत ये सात नय हैं। (इनमें भी नैगम, संग्रह व व्यवहार द्रव्यार्थिक अर्थात सामान्यांशग्राही हैं और शेष ४ पर्यायार्थिक अर्थात् विशेषांशग्राही है) ३३ (विशेष देखो प्रमाण, नय, निक्षेप, अनुमान, प्रत्यक्ष, परोक्ष आदि विषय) प. मु./१/१ प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः। - प्रमाणसे पदार्थों का वास्तविक ज्ञान होता है प्रमाणाभाससे नहीं होता। १. न्याय दर्शन निर्देश १. न्यायका लक्षण न्या. दी./१/१/३/४ 'प्रमाणनयैरधिगमः' इति महाशास्त्रतत्त्वार्थ सूत्रम् । तत्खलु परमपुरुषार्थ निःश्रेयससाधनसम्यग्दर्शनादिविषयभूतजीवादितत्त्वाधिगमोपनयनिरूपणपरम् । प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादयः सम्यगधिगम्यन्ते । तद्वयतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासंभवात् । ततस्तेषां सुखोपायेन प्रमाणनयात्मकन्यायस्वरूपप्रतिबोधकशास्त्राधिकार संपत्तये प्रकरणमिदमारभ्यते ।६६-१॥ -- 'प्रमाणनयैरधिगमः' यह उपरोक्त महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्रका वाक्य है। सो परमपुरुषार्थरूप, मोक्षके कारणभूत सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयके विषयभूत, जीवादि तत्त्वों का ज्ञान करानेवाले उपायोंका प्रमाण और नय रूपसे निरूपण करता है, क्योंकि प्रमाण और नयके द्वारा ही जीवादि पदार्थोंका विश्लेषण पूर्वक सम्यग्ज्ञान होता है । प्रमाण और नयको छोड़कर जीवादि तत्त्वोंके जानने में अन्य कोई उपाय नही है। इसलिए सरलतासे प्रमाण और नयरूप न्यायके स्वरूपका बोध करानेवाले जो सिद्धिविनिश्चय आदि बड़े-बड़े शास्त्र हैं, उनमे प्रवेश पानेके लिए यह प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है। ध.१३/५,१.१०/२८६/६ न्यायादनपेतं न्याय्यं श्रुतज्ञानम् । अथवा, ज्ञेयानुसारित्वान्न्यायरूपत्वाद्वा न्यायः सिद्धान्तः । =न्यायसे युक्त है इसलिए श्रुतज्ञान न्याय कहलाता है। अथवा शेयका अनुसरण करनेवाला होनेसे या न्यायरूप होनेसे सिद्धान्तको न्याय कहते हैं। न्या. वि./वृ./१/३/२८/१ नीयतेऽनेनेति हि नीतिक्रियाकरणं न्याय उच्यते । -जिसके द्वारा निश्चय किया जाये ऐसी नीति क्रियाका करना न्याय कहा जाता है। न्या. द /भाष्य/१/१/१/पृ. ३/१८ प्रमाणैरर्थ परीक्षणं न्यायः। प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानं सान्वीक्षा प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षण दे० नय/I/३/७ (प्रमाण, नय व निक्षेपसे यदि बस्तुको न जाना जाये तो युक्त भी अयुक्त और अयुक्त भी युक्त दिखाई देता है।) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय ६३२ १. न्याय दर्शन निर्देश ४. जैन न्यायके अवयव चार्ट नं०१ वस्तु विवेक (न्या-दी-/१/६२/५) उद्देश्य लक्षणानिर्देश (वस्तुकोनामनिशा परीक्षा (वस्तुकानामनिदश)सम्यक मिध्या (लक्षण) (लक्षणामास) प्रमाण (देनय) आत्मभूत अनात्ममूत अतिव्याप्त अव्याप्त असम्सव सम्यक मिश्या (प्रमाण) (प्रमाणामास) नय प्रत्यक्ष परोक्ष आगम सम्यक मिथ्या स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क (प्रत्यक्ष) अनुमान (प्रत्यक्षामास) (व्यामिज्ञान) (वनज्ञान) सांत्यवहारिक पारमार्थिक बौद्धमान्य) न्यायमान्य - (मतिज्ञान) कुल्पनापोट इन्द्रियार्थसन्निकष सहभावीक्रमभावी अवग्रह ईहा अवाय धारणा, सकल, दश एकत्व सादृश्य विसादृश्य तत्प्रतियोगी अवाय धारा केवलज्ञान) देश अवधि मन.पर्यय स्वार्थानुमान परानुमान धर्मी साधन (पर्वत) प्रमाण विकल्प उभय प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण उपनय निगमन सिद्ध सिद्ध सिद्ध देचार्ट । अन्धी व्यतिरेकी चार्टन हेतु (दे.हेतु) हेतु सम्यक हेतु मिथ्याहेत (हेत्वाभास) उपलब्धि अनुपलब्धि (विधिरूप) (प्रतिषेधरूप) (हे हेतु) ___प्रसिद्ध विरुद्ध अनैकान्तिक अकिंचित्कर अविरुद्धो- विरुद्धोप- अविरुद्धानुप- विरुद्धानुपपलब्धि लब्धि लब्धि लब्धि (विधिसाधक) (प्रतिषेधसाधक) (विधि साधक) (प्रतिषेध साधक) व्याप्यन व्याप्या स्वभाव " सिद्ध सिद्ध विपक्षवृत्ति विपक्षवृत्ति विषय साधन कार्य कार्य- कार्य व्याप्य कारण प्रत्यक्ष अनुमान आगम लोक स्ववचन कारण- कारण कार्य बाधित बाधित बाधित बाधित बाधित पूर्वचर पूर्वचर कारणउत्तरचर उतरचर- पूर्वचर सहचर, सहचरJ उत्तरचर सहचर) स्वभाव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय ५ नैयायिक दर्शन निर्देश न्या. सु./ /९/९/१-२ प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनान्त सिद्धान्तानयनतर्क निर्णयवादजपवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां सम ज्ञानान्निश्रेयसाधिगम |१| दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः |२| =१. प्रमाण, २. प्रमेय, ३. संशय, ४. प्रयोजन, ५. दृष्टान्त, ६. सिद्धान्त, ७. अवयव, ८. तर्क, ६. निर्णय, १०. वाद, ११. जल्प, १२. वितण्डा, १३. हेत्वाभास, १४. छल, १५, जाति, १६. निग्रहस्थान- इन १६ पदार्थोंके तत्त्व ज्ञानसे मोक्ष होता है ।। तत्त्वज्ञानसे मिथ्याज्ञानका नाश होता है. उससे दोषोंका अभाव होता है, दोष न रहने प्रवृत्तिको निवृत्ति होती है, फिर उससे जन्म दूर होता है, जन्मके अभाव से सब दुखो - का अभाव होता है। दुःखके अत्यन्त नाशका ही नाम मोक्ष है ॥२॥ षट् दर्शन समुच्चय / श्लो. १७-३३/पृ. १४-३१ का सार - मन व इन्द्रियो द्वारा वस्तु यथार्थ ज्ञानको प्रमाण कहते है । वह चार प्रकारका है. (दे० अगला शीर्षक ) | प्रमाण द्वारा जिन पदार्थोंका ज्ञान होता है वे प्रमेय हैं। वे १२ माने गये है ( दे० अगला शीर्षक ) । स्थाणुमे पुरुषका ज्ञान होनेकी भाँति संशय होता है (दे० संशय)। जिससे प्रेरित होकर लोग कार्य करते हैं वह प्रयोजन है। जिस बासमें पक्ष न विपक्ष एक मत हों उसे दृष्टान्त कहते है (दे० दृष्टान्त) | प्रमाण द्वारा किसी बातको स्वीकार कर लेना सिद्धान्त है। अनुमान की प्रक्रिया मे प्रयुक्त वाक्योंको अवयव कहते हैं। वे पाँच हैं (दे० अगला शीर्षक) । प्रमाणका सहायक तर्क होता है। पक्ष व विपक्ष दोनोका विचार जिस विषयपर स्थिर हो जाये उसे निर्णय कहते हैं । तत्त्व जिज्ञासासे किया गया विचार-विमर्ष बाद है। स्वपक्षका साधन और परपक्षका खण्डन करना जल्प है । अपना कोई भी पक्ष स्थापित न करके दूसरेके पक्षका खण्डन करना वितण्डा है । असत् हेतुको हेत्वाभास कहते है। यह पाँच प्रकारके है (दे० अगला शीर्षक) वक्ता अभिप्रायको उलटकर प्रगट करना छल है। वह तीन प्रकारका है (दे० शीर्षक नं० ७) । मिथ्या उत्तर देना जाति है। वह २४ प्रकार का है। वादी व प्रतिवादीके पक्षका स्पष्ट भाव न होना निग्रह स्थान है । वे भी २४ हैं (दे० वह यह नाम नैयायिको कार्यकारणको सर्वथा भिन्न मानते हैं, इसलिए ये असत कार्यवादी हैं । जो अन्यथासिद्ध न हो उसे कारण कहते है वह तीन प्रकारका है - समवायी, असमवायी व निमित्त । सम्बन्ध दो प्रकारका है-संयोग व समवाय । 1 ६. नैयायिक दर्शन मान्य पदार्थोंके भेद १- प्रमाण: - ( न्या. सू./१/१/३) (षड् दर्शन समुच्चय) लौकिक पांच ज्ञानेन्द्रिय (दे. आगे प्रमेय) इन्द्रिय सन्निकर्ष मन संयोग संयुक्त समवाय संयुक्त समवेत प्रत्यक्ष लौकिक अलौकिक व्याप्ति halblet - समवाय समवेतसमवाय भा० २-८० 67 प्रमाण अनुगान योगिज पूर्व शेष सामान्यतो वत् वत् दृष्ट (लक्षण दे· अनुमान) (तीनों के दो दो आवश्यक) सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति धूम देखने से उपगान (दै उपमान) ज्ञानलक्षणा प्रत्यासत्ति (एक पदको सुनकर अगले को सुनने की इच्छा 'चन्दन देखने से ) गन्ध का ज्ञान ६३३ शब्द [ शब्द ने अर्थबोध की पा आकांक्षा योग्यता सन्निधि तात्पर्य धर्मता १. न्याय दर्शन निर्देश " २ प्रमेय - न्या. सू./मू./१/१/१-२२ का सारार्थ - प्रमेय १२ हैंआत्मा शरीर इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति दोष, प्रेमभान फल, दुःख और अपवर्ग । तहाँ ज्ञान, इच्छा, सुख, दुःख आदिका आधार आत्मा है । चेष्टा, इन्द्रिय, सुख दुखके अनुभवका आधार शरीर है । इन्द्रिय दो प्रकारकी हैं- बाह्य व अभ्यन्तर अभ्यन्तर इन्द्रिय मन है माह्य इन्द्रिय दो प्रकारकी है-कर्मेन्द्रिय ज्ञानेन्द्रिय वाकू, हस्त पाद, जननेन्द्रिय और गुदा ये पाँच कर्मेन्द्रिय हैं। चक्षु, रसना, घाण, त्वक् व श्रोत्र ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । रूप, रस आदि उन पाँच इन्द्रियोके पाँच विषय अथवा सुख-दुःख के कारण 'अर्थ' कहलाते हैं । उपलब्धि या ज्ञानका नाम बुद्धि है। अणु, प्रमाण. नित्य, जीवात्माओं को एक दूसरेसे पृथक करनेवाला, तथा एक कालमें एक ही इन्द्रियके साथ संयुक्त होकर उनके क्रमिक ज्ञानमें कारण बननेवाला मन हैं । मन, वचन, कायकी क्रियाको प्रवृत्ति कहते है । राग, द्वेष व मोह 'दोष' कहलाते हैं। मृत्युके पश्चात् अन्य शरीर मे rtant स्थितिका नाम प्रेत्यभाव है। सुख-दुःख हमारी प्रवृत्तिका फल है। अनुकूल फलको सुख और प्रतिकूल फलको दुःख कहते है । ध्यान-समाधि आदिके द्वारा आत्मसाक्षात्कार हो जानेपर अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेश मे पाँच लेन हो जाते है। आगे चलकर छह इन्द्रियों, इनके छह विषय, तथा छह प्रकारका इनका ज्ञान, सुख, दुःख और शरीर इन २१ दोषोसे आत्यन्तिकी निवृत्ति हो जाती है। वहीं अपवर्ग या मोक्ष है। शब्द वाक्य पद लौकिक वैदिक 'दोनो की चारचार आवश्यकताएँ है. ३-६ न्या.सू./मू./१/१/२३-३१/२८-३३ का सार - संदाय प्रयोजन व दृष्टान्त एक-एक प्रकार के हैं। सिद्धान्त चार प्रकारका है-सर्व शास्त्रों में अविरुद्ध अर्थ सर्वत्र है. एक शास्त्रमे सिद्ध और दूसरेमे असिद्ध अर्थ प्रतितन्त्र है जिस अर्थकी सिद्धिले अन्य अर्थ भी स्वतः सिद्ध हो जाये वह अधिकरण सिद्धान्त है। किसी पदार्थको मानकर भी उसकी विशेष परीक्षा करना अभ्युपगम है । هاليه 1 ७. अवयव - न्या. सू./मू./१/१/३२-३६/३३-३६ का सार - अनुमानके अवयव पाँच प्रति हेतु उदाहरण उपनय और निग मन । साध्यका निर्देश करना प्रतिज्ञा है । साध्य धर्मका साधन हेतु कहलाता है। उसके तीन आवश्यक है- पक्षवृत्ति, सपक्षवृत्ति और विपक्ष व्यावृत्ति | साध्यके तुल्य धर्मवाले दृष्टान्तके वचनको उदाहरण कहते हैं । वह दो प्रकारका है अन्वय व व्यतिरेकी । साध्यके उपसंहारको उपनय और पाँच अनयमों युक्त वाक्यको इराना निगमम है। पदों का निर्वि उच्चारण बक्ताका { अभिप्राय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ८-१२. न्या. सू./१/१/४०-४२/३६-४१ तथा १/२/१-३/४०-४३का सार-तर्क निर्णय, वाद, जल्प, aaण्डा एक एक प्रकारके है । १३. हेत्वाभासन्या. सू./९/२/४-६/४४-४० का सारार्थ हेलाभास पाँच है- 'सव्यभिचारी, विरुद्ध. प्रकरण सम, साध्यसम और कालातीत । पक्ष व विपक्ष दोनोको स्पर्श करनेवाला सव्यभिचार है। वह तीन प्रकार है साधारण असाधारण व अनुपसंहारी स्वपक्षविरुद्ध साध्यको सिद्ध करनेवाला विरुद्ध है। पक्ष व विपक्ष दोनों हीके निर्णय से रहित प्रकरणसम है 1 केवल शब्द भेद द्वारा साध्यको ही हेतुरूपसे कहना साध्यसम है । देश कालके ध्वंससे युक्त कालातीत याविष्ठ है १४-१६. मा. स./१/२/ १०-२० / ४८-५४ का सारार्थ - छल तीन प्रकारका या - वाक् छल, सामान्यछल और उपचार छल । Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय २. वस्तु विचार व जय-पराजय व्यवस्था र व जय-पराजय व्यवस्था वक्ताके वचनको घुमाकर अन्य अर्थ करना वाक्छल है। सम्भावित अर्थको सभी में सामान्यरूपसे लागू कर देना सामान्य छल है। उपचारसे कही गयी बातका सत्यार्थ रूप अर्थ करना उपचारछल है। ७. नैयायिकमतके प्रवर्तक व साहित्य नैयायिक लोग यौग व शेष नामसे भी पुकारे जाते है । इस दर्शनके मूल प्रवर्तक अक्षपाद गौतम ऋषि हुए हैं, जिन्होंने इसके मूल ग्रन्थ न्यायसूत्रकी रचना की। इनका समय जैकोबीके अनुसार ई० २००-४५०, यूईके अनुसार ई० १५०-२५० और प्रो० ध्र वके अनुसार ई० पू० की शताब्दी दो बताया जाता है । न्यायसूत्र पर ई. श. ४ में वात्सायनने भाष्य रचा । इस भाष्यपर उद्योतकरने न्यायवार्तिककी रचना की। तथा उसपर भी ई० ८४०में वाचस्पति मिश्रने तात्पर्य टीका रची। उन्होंने ही न्यायसूचिनिबन्ध व न्यायसूत्रोद्धारकी रचना की। जयन्तभट्ट ने ई० ८८० मे न्यायमञ्जरी, न्यायकलिका; उदयनने ई.श, १० में बाचस्पतिकृत तात्पर्यटीकापर तात्पर्यटीका-परिशुद्धि तथा उदयनकी रचनाओंपर गंगेश नैयायिकके पुत्र बर्द्धमान आदिने टीकाएँ रचीं। इसके अतिरिक्त भी अनेक टीकाएँ व स्वतन्त्र ग्रन्थ प्राप्त हैं। जसे-भासर्वज्ञकृत न्यायसार, मुक्तावली, दिनकरी, रामरुद्री नामकी भाषा परिच्छेद युक्त टोकाएँ, तर्कसग्रह, तर्कभाषा, तार्किकरक्षा आदि। न्याय दर्शनमें नव्य न्यायका जन्म ई० १२००में गंगेशने तत्त्वचिन्तामणि नाम ग्रन्थकी रचना द्वारा किया, जिसपर जयदेवने प्रत्यक्षालोक, तथा वासुदेव सार्वभौम (ई० १५००) ने तत्त्वचिन्तामणि व्याख्या लिखी। वासुदेवके शिष्य रघुनाथने तत्त्वचिन्तामणिपर दीधिति, वैशेषिकमतका खण्डन करनेके लिए पदार्थखण्डन, तथा ईश्वरसिद्धिके लिए ईश्वरानुमान नामक ग्रन्थ लिखे। (स्या. म./परि-ग/पृ. ४०८-४१८) । * नैयायिक मतके साधु-दे० वैशेषिक । * नैयायिक व वैशेषिक दर्शन में समानता व असमानता -दे० वैशेषिक। १. वस्तुविचारमें परीक्षाका स्थान ति. प./१/८३ जुत्तीए अत्थपडिगहणं ।-(प्रमाण, नय और निक्षेपकी) ___ युक्तिसे अर्थका परिग्रहण करना चाहिए। दे.नय/I/३/७ जो नय प्रमाण और निक्षेपसे अर्थ का निरीक्षण नहीं करता ___ है, उसको युक्त पदार्थ अयुक्त और अयुक्त पदार्थ युक्त प्रतीत होता है। क. पा. १/१-१/१२/७/३ जुत्तिविरहियगुरुवयणादो पयमाणस्स पमाणाणुसारितविरोहादो। जो शिष्य युक्तिकी अपेक्षा किये बिना मात्र गुरुवचनके अनुसार प्रवृत्ति करता है उसे प्रमाणानुसारी माननेमें विरोध आता है। न्या. दी /१/२/४ इह हि प्रमाणनयविवेचनमुद्दे शलक्षणनिर्देशपरीक्षा द्वारेण क्रियते। अनुद्दिष्टस्य लक्षनिर्देशानुपपत्तेः । अनिर्दिष्टलक्षणस्य परीक्षितुमशक्यत्वात् । अपरीक्षितस्य विवेचनायोगात् । लोकशास्त्रयोरपि तथैव वस्तुविवेचनप्रसिद्ध। -इस ग्रन्थमें प्रमाण और नयका व्याख्यान उद्देश, लक्षणनिर्देश तथा परीक्षा इन तीन द्वारा किया जाता है। क्योकि विवेचनीय वस्तुका उद्दश नामोल्लेख किये बिना लक्षणकथन नहीं हो सकता और लक्षणकथन किये बिना परीक्षा नहीं हो सकती, तथा परीक्षा हुए बिना विवेचन अर्थात निर्णयात्मक वर्णन नहीं हो सकता। लोक व्यवहार तथा शास्त्रमें भी उक्त प्रकारसे ही वस्तुका निर्णय प्रसिद्ध है। भद्रबाहु चरित्र (हरिभद्र सूरि कृत) प्रस्तावना पृ.६ पर उद्धृतपक्षपातो न मे वीरेन दोषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः । - न तो मुझे वीर भगवाहमें कोई पक्षपात है और न कपिल आदि अन्य मत-प्रवर्तकों में कोई द्वेष है। जिसका वचन युक्तिपूर्ण होता है उसका ग्रहण करना ही मेरे लिए प्रयोजनीय है। २. न्यायका प्रयोग लोकव्यवहारके अनुसार ही होना चाहिए। ध. १२/४,२,८,१३/२८६/१० न्यायश्चर्यते लोकव्यवहारप्रसिद्धयर्थम, न तदनहि तो न्यायः, तस्य न्यायाभासत्वात् । न्यायकी चर्चा लोकव्यवहारकी प्रसिद्धि के लिए हो की जाती है। लोकव्यवहारके बहिर्गत न्याय नहीं होता है, किन्तु वह केवल नयाभास ही है। ३. वस्तुकी सिद्धिसे ही जीत है, दोषोद्भावनसे नहीं न्या वि./मू./२/२१०/२३६ वादी पराजितो युक्तो वस्तुतत्त्वे व्यवस्थितः । तत्र दोषं ब्र वाणो वा विपर्यस्तः कथं जयेत् ।२१०। वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था हो जानेपर तो वादीका पराजित हो जाना युक्त भी है। परन्तु केवल बादीके कथनमें दोष निकालने मात्रसे प्रतिवादी कैसे जीत सकता है! सि. वि./मू. व.मू. बृ./५/११/३३७ भूतदोषं समुद्भाव्य जितवाद पुनरन्यथा। परिसमाप्तेस्तावतै वास्य कथं वादी निगृह्यते ।११॥ तन्न समापितम्-'विजिगीषुणोभयं कर्त्तव्यं स्वपक्षसाधनं परपक्षदूषणं च' इति ।- प्रश्न-वादीके कथनमें सद्भुत दोषोंका उद्भावन करके ही प्रतिवादी जीत सकता है। बिना दोषोद्भावन किये ही बादकी परिसमाप्ति हो जानेपर वादीका निग्रह कैसे हो सकता है ! उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि, वादी व प्रतिवादी दोनों ही के दो कर्तव्य हैंस्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण । ( सि. वि./म. वृ./५/२/३११/१७)। ४. निग्रहस्थानोंका प्रयोग योग्य नहीं श्लो. वा. १/१/३३/न्या./श्लो. १०१/३४४ असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावन द्वयोः । न युक्तं निग्रहस्थानं संहान्यादिवत्ततः।१०११ -बौद्धोके ८. न्यायमें प्रयुक्त कुछ दोषों का नाम निर्देश श्लो. वा. ४/१/३३/न्या./श्लो, ४५७-४५६ सांकर्यात प्रत्यवस्थानं यथानेकान्तसाधने । तथा वैयतिकर्येण विरोधेनानवस्थया ।४५४। भिन्नाधारतयोभाभ्यां दोषाभ्यां संशयेन च । अप्रतीत्या तथाभावेनान्यथा वा यथेच्छया ।४५८। वस्तुतस्ताहशैर्दोषैः साधनाप्रतिघाततः । सिद्ध मिथ्योत्तरत्वं नो निरवद्यहि लक्षणम् ।४५६। - जैनके अनेकान्त सिद्धान्तपर प्रतिवादी (नैयायिक ), संकर, व्यतिकर, विरोध, अनवस्था, वैयधिकरण, उभय, संशय, अप्रतिपत्ति, व अभाव करके प्रसंग या दोष उठाते हैं अथवा और भी अपनी इच्छाके अनुसार चक्रक, अन्योन्याश्रय, आत्माश्रय, व्याघात, शाल्यत्व, अतिप्रसंग आदि करके प्रतिषेध रूप उपालम्भ देते हैं। परन्तु इन दोषों द्वारा अनेकान्त सिद्धान्तका व्याघात नहीं होता है। अतः जैन सिद्धान्त द्वारा स्वीकारा गया 'मिथ्या उत्तरपना' ही जातिका लक्षण सिद्ध हुआ। और भी-जातिके २४ भेद, निग्रहस्थानके २४ भेद, लक्षणाभासके तीन भेद, हेत्वाभासके अनेकों भेद-प्रभेद, सब न्यायके प्रकरण 'दोष' संज्ञा द्वारा कहे जाते हैं । विशेष दे० वह वह नाम । * वैदिक दर्शनोंका विकासक्रम-दे० दर्शन ( षट्दर्शन )। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकणिका ६२५ न्योन दशमी व्रत न्याय चूलिका-श्री अकलंक भट्ट ( ई० ६४०-६८०) द्वारा संस्कृतं गद्यमें रचा गया एक न्याय विषयक ग्रन्थ । न्याय दीपिका-आ.धर्मभ्रषण (ई० १३६०) द्वारा संस्कृत भाषामें रचित तीन परिच्छेद प्रमाण न्याय विषयक ग्रन्थ । समय-ई.१३६०१४१८ । (तो /३/३५७) । न्याय भागमत समुच्चय-चन्द्रप्रभ काव्यके द्वितीय सर्गपर पं0 जयचन्द छाबड़ा (ई०१७६३-१८२६) द्वारा भाषामें रचित एक न्याय विषयक ग्रन्थ । न्याय विनिश्चय-आ. अकलंक भट्ट (ई०६२०-६८०) कृत यह न्यायविषयक ग्रन्थ है। आचार्य श्री ने इसे तीन प्रस्तावोंमें ४८० संस्कृत श्लोकों द्वारा रचकर स्वयं ही संस्कृतमे इसपर एक वृत्ति भी लिख दी है। इसके तीन प्रस्तावों में प्रत्यक्ष, अनुमान व प्रवचन ये तीन विषय निबद्ध है । इस ग्रन्थपर आ, वादिराज सूरि ( ई०१०१०१०६३) ने संस्कृत भाषामें एक विशद विवरण लिखा है।( सि.वि./प्र. ५८/५० महेन्द्र) (ती०/२/३०६) । द्वारा माना गया असाधनांग वचन और अदोषोभावन दोनोंका निग्रहस्थान कहना युक्त नहीं है। और इसी प्रकार नैयायिको द्वारा माने गये प्रतिज्ञाहानि आदिक निग्रहस्थानोंका उठाया जाना भी समुचित नहीं है। न्या. वि./ /२/२१२/२४२/६ तत्र च्च सौगतोक्तं निग्रहस्थानम् । नापि नैयायिकपरिकल्पितं प्रतिज्ञाहान्यादिकमः तस्यासदूषणत्वात् । मा बौद्धों द्वारा मान्य निग्रहस्थान नहीं है। और न इसी प्रकार नैयायिकोंके द्वारा कल्पित प्रतिज्ञा-हानि आदि कोई निग्रहस्थान है। क्योंकि, वे सब असत् दूषण हैं। ५. स्व पक्षकी सिद्धि करनेपर ही स्व-परपक्षके गुणदोष कहना उचित है न्या. वि./वृ./२/२०८/पृ. २३५ पर उद्धृत-वादिनो गुणदोषाभ्यां स्याता जयपराजयौ । यदि साध्यप्रसिद्धौ च व्यपार्था. साधनादयः । रुिद्ध' हेतुमुद्भाव्य वादिनं जयतीतरः। आभासान्तरमुद्भाव्य पक्षसिद्धिमपेक्षते। =गुण और दोषसे वादोकी जय और पराजय होती है। यदि साध्यकी सिद्धि न हो तो साधन आदि व्यर्थ हैं। प्रतिवादी हेतुमें विरुद्धताका उद्भावन करके वादीको जीत लेता है किन्तु अन्य हेत्वाभासोका उद्भावन करके भो पक्षसिद्धिकी अपेक्षा करता है। ६. स्वपक्ष सिद्धि ही अन्यका निग्रहस्थान है न्या.वि././२/१३/२४३ पर उद्धृत-स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः । एक की स्वपक्षकी सिद्धि ही अन्य वादीका निग्रहस्थान है। सि वि./मू./१/२०/३५४ पक्षं साधितवन्तं चेद्दोषमुभावयन्नपि । वैतण्डि को निगृहीयान् वादन्यायो महानयम् ।२० = यदि न्यायवादी अपने पक्षको 'सिद्ध करता है और स्वपक्षकी स्थापना भी न करनेवाला वितण्डावादी दोषोंको उद्भावना करके उसका निग्रह करता है तो यह महान् वादन्याय है अर्थात् यह वादन्याय नहीं है वितण्डा है। * वस्तुकी सिद्धि स्याद्वाद द्वारा हो सम्मव है -दे० स्याद्वाद न्यायाणका-श्वेताम्बर उपाध्याय श्री विनयविजय (ई०१६७७) द्वारा संस्कृत भाषामें रचित एक ग्रन्थ । न्यायकूमूद चान्द्रका-श्री अकलंक भट्ट कृत लघो यस्त्रयपर आ. प्रभाचन्द्र (ई०१५०-१०२०) द्वारा रचित टीका । इसमें ७ परिच्छेद हैं। (ती०/२/३०६) न्यास-दे० निक्षेप। न्यासापहार-स. सि./७/२६/३६६/१० हिरण्यादेद्रव्यस्य निक्षेप्तुविस्मृतसंख्यस्याल्पसंख्येयमाददानस्यैवमित्यनुज्ञावचनं न्यासापहारः। -धरोहरमें चॉदी आदिको रखनेवाला कोई उसकी संख्या भूलकर यदि उसे कमती देने लगा तो 'ठीक है' इस प्रकार स्वीकार करना न्यासापहार है । (रा. वा./७/२६/४/५५३/३३) (इसमें मायाचारीका दोष भी है) दे० माया/२ । न्यून-१. न्या. सू./मू./४/२/१२/३१५ हीनमन्यतमेनाप्यषयोन न्यूनम् ।१२। -प्रतिज्ञा आदि पाँच अवयवोंमेंसे किसी एक अवयम्की होन वाक्य कहना न्यून नामक निग्रहस्थान है। (श्लो. वा. ४/१/३४ न्या./२२०/३६६/११ में इसका निराकरण किया गया है) २. गणितको व्यकलन विधिमें मूलराशिको ऋण राशिकर न्यून कहा जाता है दे० गणित/II/१/४ । न्योन दशमी व्रत-न्योन दशमि दश दशमि कराय, नये नये दश पात्र जिमाय। (यह व्रत श्वेताम्बर व स्थानकवासी आम्नायमें प्रचलित है।) (वत विधान संग्रह/पृ. १३१) इति द्वितीयो खण्डः जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [परिशिष्ट] परिशिष्ट १-(आगम विचार) कर्म प्रकृति-१. श्रुतज्ञानके 'दृष्टिप्रवाद' नामक बारहवें अग के अन्तर्गत 'अग्रायणी' नामक द्वितीय पूर्व है। उसके पांचवें वस्तु अधिकारसे सम्बद्ध चतुर्थ प्राभृतका नाम 'महाकर्म प्रकृति' है (दे० श्रुतज्ञान1I/१)। आचार्य परम्परा द्वारा इसका ही कोई अश आचार्य गुणधर तथा धरसेन को प्राप्त था। आ० धरसेन से इसी का अध्ययन करके आ० भूतबलिने 'षटूबण्डागम' की रचना की थी (दे० आगे पटवण्डागम)। २.इसी प्राभूत (कर्म प्रकृति के उच्छिन्न अर्थ की रक्षा करनेके लिये श्वेताम्बराचार्य शिवशर्म सूरि (वि० ५००) ने 'कम प्रकृति के नाम से ही एक दूसरे प्रन्थ की रचना की थी, जिसका अपर नाम 'कर्म प्रकृति संग्रहिणी' है ।२६३। इस ग्रन्थमें कर्मों के मन्ध उदय सत्त्व आदि वश करणोंका विवेचन किया गया है।२९। इसकी अनेकों गाथायें षट्खण्डागम तथा कषाय पाहुडको टीका धवला तथा जयधवलायें और यतिवृषभाचार्यके चूर्णिसूत्रों में पाई जाती है।३०॥ मा. मलयगिरि कृत संस्कृत टीकाके अतिरिक्त इसपर एक प्राचीन प्राकृत चूणि भी उपलब्ध है ।२६३' (जै०/१/पृ०) । कर्मस्तव-१५ प्राकृत गाथाओं वाला यह ग्रन्थ कर्मोके बन्ध उदय सत्त्वको विवेचना करता है। दिगम्बर पंचसंग्रह वि० श०१) के 'कर्मस्तव' नामक तृतीय अधिकारमें इसकी ५३ गाथाओका ज्योंका श्यों ग्रहण कर लिया गया है ।३२२। दूसरी ओर विशेषावश्यक भाष्य (वि०६५०) में इसका नामोल्लेख पाया जाता है । इसका रचना काल (वि००७-६) माना जा सकता है ।२५। इस प्रन्थपर २४ तथा ३२ गाथावाले दो भाष्य उपलब्ध है, जिनके रचयिताके विषयमें कुछ ज्ञात नहीं है। तीसरी एक संस्कृत वृत्ति है जो गोविन्दाचार्य कृत है १४३२॥ (जै०/१/पृष्ठ संख्या )। कषायपाहड़-साक्षात भगवान महावीरसे आगत द्वादशांग शुतहान के अन्तर्गत होनेसे तथा सूत्रात्मक शैली में निबद्ध होनेसे दिगम्बर आम्नाय में यह ग्रन्थ आगम अथवा सूत्र माना जाता है। (ज००/६/ पृ०१३-१५४) में आ० वीरसेन स्वामीने इस विषय में विस्तृत चर्चा की है। चौदह पूर्वो में से पचम पूर्व के दसवें वस्तु अधिकारके अन्तर्गत 'पेजपाहुड़' नामक तृतीय पाहुड इसका विषय है ।।१६००० पद प्रमाण इस का मूल विषय वि०पू० प्रथम शताब्दी में ज्ञानोच्छेदके भय से युक्त आ० गुणधर देव द्वारा १८० सूत्र गाथाओं में उपसहत कर दिया गया। १८० सूत्र गाथा परिमाण यह ग्रन्थ कर्म प्रकृति आदि १५ अधिकारों में विभक्त है।' आ० गुणधर द्वारा कथित मे १८० गाथायें आचार्य परम्परासे मुख दर मुख आती हुई आर्यमक्ष और नागहस्ती को प्राप्त हुई। आचार्य गुणधरके मुख कमलसे विनिर्गत इन गाथाओं के अर्थ को उन दोनों आचार्योंके पादमूल में सुनकर आ. यतिवृषभने ई. १५०-१८० में १००० चूर्ण सूत्रोंकी रचना की। इन्ही चूर्ण सूत्रों के आधारपर ई०१८० के आसपास उच्चारणाचायने विस्तृत उच्चारणा वृत्ति लिखी, जिसको आधार बनाकर ई००५-४ में आ० पदेन ने ६०,००० श्लोक प्रमाण एक अन्य टीका लिखो। इन्हीं बप्पदेवसे सिद्धान्तका अध्ययन करके ई० ८१६ के आस-पास श्री वीरसेन स्वामीने इसपर २०,००० श्लोक प्रमाण जयधबला नामक अधरी टीका लिखी जिसे उनके पश्चात् ई०८३७ में उनके शिष्य आजिनमेन ने ४०००० श्लोक प्रमाण टीका लिखकर पूरा किया इस प्रकार इस ग्रन्थ का उत्तरोत्तर विस्तार होता गया। यद्यपि ग्रन्थमें आ० गुणधर देवने १८० गाथाओं का निर्देश किया है, तदपि यहाँ १८० के स्थानपर २३३ गाथायें उपलब्ध हो रही हैं। इन अतिरिक्त ५३ गाथाओं की रचना किसने की. इस विषयमें आचार्यों तथा विद्वानोका मतभेद है, जिसकी चर्चा आगे की गई है। इन ५३ गाथाओंमें १२ गाथायें विषय-सम्बन्धका ज्ञापन कराने वाली हैं, ६ अद्धा परिमाणका निर्देश करती है और ३५ गाथायें सक्रमण वृत्ति से सम्बद्ध हैं |(तो०/२/३३), (जै०/१/२८)। ___ अतिरिक्त गाथाओं के रचयिता कौन !-श्री वीरसेन स्वामी इन ५३ गाथाओं को यद्यपि आचार्य गुणधरको मानते हैं (दे. उपर) तदपि इस विषयमें गुणधरदेवकी अज्ञताका जो हेतु उन्होंने प्रस्तुत किया है उसमें कुछ बल न होने के कारण विद्वान लोग उनके अभिमतसे सहमत नहीं है और इन्हें नागहस्ती कृत मानना अधिक उपयुक्त समझते हैं। इस सन्दर्भ में वे निम्न हेतु प्रस्तुत करते हैं। १ यदि ये गाथायें गुणधरकी होती तो उन्हें १८० के स्थानपर २३३ गाथाओं का निर्देश करना चाहिये था। २. इन ५३ गाथाओंकी रचनाशैलो मूल वाली १८० गाथाओसे भिन्न है। ३. सम्बन्ध ज्ञापक और अदा परिमाण वाली १८ गाथाओंपर यतिवृषभाचार्य के चूर्णसूत्र उपलब्ध नहीं है । ४. संक्रमण वृत्तिवाली ३५ गाथाओं में से १३ गाथायें ऐसी हैं जो श्वेताम्बराचार्य श्री शिवशर्म सूरि कृत 'कर्म प्रकृति' नामक ग्रन्थ में पाई जाती हैं, जबकि इनका समय वि. श. ५ अथवा ई. श. ५ का पूर्वाध अनुमित किया जाता है । ५. ग्रन्थके प्रारम्भमें दी गई द्वितीय गाथामें १८० गाथाओंको १५ अधिकारों में विभक्त करने का निर्देश पाया जाता है। यदि वह गाथा गुणधराचार्य की हुई होती तो अधिकार विभाजनके स्थानपर वहाँ "१६००० पद प्रमाण कषाय प्राभृत को १८० गाथाओं में उपसंहृत करता है" ऐसी प्रतिज्ञा प्राप्त होनी चाहिये थी, क्योंकि वे ज्ञानोच्छेदके भयसे प्राभृतको उपसंहृत करने के लिये प्रवृत्त हुए थे। (तो./२/३४); (जै./१/२८-३०)। गाहा जयि गाहा जम्मि अत्यम्मि ॥ (२० पा० १/२/१०११)। पुणा ताओ सुत्त गाहाओआइरिय परंपराए गच्छमाणाओ अज्जमखुणागहत्यीण पत्ताअ।।। (ज० 2०1पृ०८८)। 'पुणो ते सिं दोण्ई पि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहरमुह कमलविणिग्गायाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवसह भडारएण पवयणवच्छलेग चुणिमुत्तं कयं । (ज० ५० १/६८/८८) । टिप्पणी:- पुबम्मि पंचम्मि दु दसमे वत्थुम्हि पाहुडे तदिए। पेज ति पाहुम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडंणाम ॥ (क० पा० १/६८/८७)। एदं पेज्जदासपाहुड सोलसपदसहस्सपमाणं होतं असीदि सदमेत गाहाह उवसंधारिदं । (ज० ध०१/६६८/८७)। गाहासदे असीदे अत्ये पण्णरसधा विहत्तम्मि। वोच्छामि सुत्स जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट चूड़ामणि- १. विजयार्ध की उत्तर श्रेणी का एक नगर । (दे. विद्याघर २. इन्दनन्दिश्रुतावतार के अनुसार तुम्बुलाचार्यने 'वायपाहुड़' तथा 'बटखण्डागम' के आद्य ५ खण्डोंपर कन्नड भाषा में ४००० श्लोक प्रमाण चूडामणि नामक एक टोका लिखी थी। ई. १६०४ के भट्टालक कृत कर्णाटक शब्दानुशासनमें इमे 'तत्त्वार्थ महा शास्त्र' की १६००० श्लोक प्रमाण व्याख्या कही गई है । प. जुगल किशोर जी मुख्तार तथा डा हीरा लाल जो शास्त्री के अनुसार 'तस्वार्थ महा शास्त्र' का अभिप्रेत यहां उमाम्वामी कृत तत्त्वार्थ सूत्र न होकर सिद्धान्त शास्त्र है (जे./१/२०५-२७६) । 1 चूर्णी - अल्प शब्दों में महान अर्थका धारावाही विवेचन करनेवाले चौर्ण अथवा चूर्णी कहलाते हैं। (दे. अभिधान राजेन्द्र कोश में 'पद') इसको रचनाका प्रचार दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायो में पाया जाता है । दिगम्बर आम्नायमें यतिवृषभाचार्य कषाय पाहुड़ पर चूर्णि सूत्रोकी रचना की है। इसी प्रकार श्वेताम्बराम्नायमें भी 'कर्म प्रकृति' 'शतक' तथा 'सप्ततिका' नामक प्राचीन ग्रन्थोंपर चूर्णये उपलब्ध हैं। यथा १ कर्मप्रकृति नि शिवशमं सूरि (कृ' प्रकृति पर किसी अज्ञात आचार्य द्वारा रचित इस प्राकृत भाषा बद्ध चूर्ण में यद्यपि यत्र तत्र 'कषायपाहुड़ चूर्णि' (वि. श २-३ ) के साथ साम्य पाया जाता है तदपि शैल। १३०६ । तथा भाषाका भेद होनेसे दोनों भिन्न है । ३०६ कर्म प्रकृति चूर्णि में जो गद्यांश पाया जाता है वह 'नन्द सूत्र' (वि. ५१६ ) से लिया गया प्रतीत होता है और दूसरी और चन्द्र महत्तर (दि. ०५०-१०००) कृत पत्र संग्रह द्वितीय भाग इस चूर्णिका पर्याप्त उपयोग किया गया है । इसलिये पं. कैलाशचन्द जी इसका रचना काल वि. ५५० से ७५० के मध्य स्थापित करते हैं । ३११ (जै./१/ पृष्ठ ) । २. कषायपाहुड चूर्णि - आ. गुणधर (वि. पू.श. १) द्वारा कथित पाके सिद्धान्त सूत्रोंपर यति वृषभाचार्य वि. श. २-३ में चूर्णि सूत्रोंकी रचना की थी, जिनको आधार मानकर पचाइ आचार्यों ने इस ग्रन्थपर विस्तृत वृत्तियें लिखीं, यह बात सर्वप्रसिद्ध है (दे. इससे पहले कषाय पाहु यद्यपि इन सूत्रोंका प्रतिपाद्य भी ही है जो कि कषायपाहुड़ का तथापि कुछ ऐसे विषयों की भी यहां विवेचना कर दी गई है जिनका कि संकेत मात्र देकर गुणधर स्वामी ने छोड़ दिया था । २१० सिद्धान्त सूत्रोंके आधार पर रचित होते हुए भी, आ. वीरसेन स्वामीने इन्हें सिद्धान्त सूत्रोंके समकक्ष माना है और इनका समक्ष रखकर पट्खण्डागम के मूलसूत्रों का समीक्षात्मक अध्ययन किया है । १७४ | जिस प्रकार कषाय पाहुडके मूल सूत्रोंका रहस्य जानने के लिये यतिवृषभ को आर्यमक्षु तथा नागहस्ति के पादमूलमें रहना पड़ा उसी प्रकार इनके चूर्णि सूत्रोंका रहस्य समझने के लिये श्री वीरसेन स्वामीको उच्चारणाचार्यों तथा चिरन्ताचायों की शरण में जाना पड़ा । १७८१ (जै./१/ पृष्ठ ) । ३. लघु शतक चूर्णि - श्वेताम्बराचार्य श्री शिवशर्म सूरि (वि.श. ५) कृत 'शतक' पर प्राकृत गाथा बद्ध यह ग्रन्थ ॥ ३५७ | चन्द्रर्षि महत्तरकी कृति माना गया है |३३८ ये चन्द्र पंचसंग्रहकार ह है या कोई अन्य इसका कुछ निश्चय नहीं है (दे, आगे परिशिष्ट / २ | परन्तु क्योंकि तत्वार्थ भाष्य की सिद्धसेन गणी (वि. श. १) कृत टीका के साथ इसकी बहुतसी गाथाओं या वाक्योंका साम्य पाया जाता है, इस लिए उसके साथ इसका आदान प्रदान निश्चित है । ६६२-३६३ ० संग्रह में सम्मिलित दिगम्बरीय पंच समह (वि. श. ८ से पूर्व ) की अति प्रसिद्ध 'ज' सामण्णं' गहण...' गाथा इसमें उद्धृत पाई जाती है । ३६२। इसके अतिरिक्त विशेषावश्यक भाष्य (वि. ६५०) की भी अनेकों गाथायें इसमें उद्धृत हुई मिलती हैं । ३६०१ ६३८ १ आगम विचार अभपदेव देव सूरि (वि. १०८८-१९३५) के अनुसार उनका वितरि भाष्य इसके आधारपर रचा गया है। इन सब प्रमाणों पर से यह कहा जा सकता है कि इसकी रचना वि. ७५०-१००० में किसी समय हुई है । ३६६ | ४. बृहद् शतक चूर्णि - आ. हेमचन्द्र कृत शतक वृत्तिमें प्राप्त 'चूलिका बहुवचनान्त निर्देश' पर से ऐसा लगता है कि शतकपर अनेकों चूर्णयें लिखी गई हैं. परन्तु उनमें दो प्रसिद्ध है तथा बृहद् । कहीं-कहीं दामों के मतों में परस्पर भेद पाया जाने से इन दोनों को एक नहीं कहा जा सकता ॥ ३६७॥ लघु चूर्णि प्रकाशित हो चुकी हैं | ३१५० शतक चूर्णिके नामसे जिसका उल्लेख प्रायः किया जाता है वह यह (लघु) चूर्णि ही है । बृहद् चूर्णि यद्यपि आज उपलब्ध नहीं है, तदपि आ. मलयगिरि (विश. १२ कृत पच संग्रह टोका तथा कर्म प्रकृति टीका में उक्त'च तक ऐस उल्लेख द्वारा वि. श. १२ में इस की विद्यमानता सिद्ध होती है । परन्तु लघु शतक चूर्णि में क्योंकि इसका नामोल्लेख प्राप्त नहीं होता है इसलिये यह अनुमान किया जा सकता है कि इसकी रचना उसके अर्थात् वि ७५०-१००० के पश्चात कभी हुई है। ५ सप्ततिका चूर्णि सित्तरि या सप्ततिका' नामक श्वेताम्बर ग्रन्थपर प्राकृत भाषा में लिखित इस चूर्ण में परिमित शब्दों द्वारा 'सित्तरि' की ही मूल गाथाओंका अभिप्राय स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया गया है। इसमें 'कर्म प्रकृति', 'शतक' तथा 'सत्कर्म' के साथ 'कषाय पाहुड़' का भी निर्देश किया गया उपलब्ध होता है | १६८ इसके अनेक स्थलो पर 'शतक' के नाम से 'शतक चूर्ण' (ि ७५०१०००) का भी नामोल्लेख किया गया प्रतीत होता है । ३७०| आ. अभयदेव सुर (वि. १०-१९२५) का अनुसरण करते हुए सप्ततिका पर भाष्य लिखा है । ३७० | और इसीका अर्थावबोध कराने लिये आ० मलयगिरि (वि. श. १२) ने सप्ततिका पर टीका लिखी है । ३६ । इसलिये इसका रचना काल वि.श. १०-११ माना जा सकता है | ३७०) (जै./१/ पृष्ठ) तस्वार्थसूत्र - सामान्य परिचय अध्यायोंमें विभक्त छोटे छोटे ३५७ सूत्रों वाले इस ग्रन्थने जैनागमके सकल मूल तथ्यों का अत्यन्त संक्षिप्त परन्तु विशद विवेचन करके गागर में सागरकी उक्ति को चरितार्थ कर दिया है इसलिये जैन सम्प्रदाय में इस ग्रन्थका स्थान आगम ग्रन्थों की अपेक्षा किसी प्रकार भी कम नहीं। सूत्र संस्कृत भाषा में रचे गए हैं। साम्प्रदायिकता से ऊपर होने के कारण दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायों में इसको सम्मान प्राप्त है। नाम्नायमें यह संस्कृत का आद्य ग्रन्थ माना जाता है क्योंकि इससे पहले के सर्व ग्रन्थ मागधी अथवा शौरसेनो प्राकृत में लिखे गए हैं योग करणानुयोग इन तीनों अनुयोगका सकल सार इसमें गर्म है तो २/१२४-१५६) जे०/२/२२७) सर्वार्थ सिद्धि राजवार्तिक तथा श्लोक वार्तिक इस ग्रन्थकी सर्वाधिक मान्य टीकायें हैं। इसके अनुसार इस ग्रन्थका प्राचीन नाम तत्त्वार्थ सूत्र न होकर 'तत्त्वार्थ' अथवा 'तत्रार्थ शास्त्र' है। सूत्रात्मक होने के कारण बाद यह वार्थ सूत्र के नाम से प्रसिद्ध हो गया । मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करने के कारण 'मोक्ष शास्त्र' भी कहा जाता है। (तो०/२/ १२३) (जै०/२/२४६, २४७) जेनाम्नाय में यह आय संस्कृत ग्रन्थ माना जाता है क्योंकि इससे पहले के सकल शास्त्र प्राकृत भाषा में लिखे गये है। (०/२/२४९) । २. दिगम्बर प्रन्थ-यद्यपि यह ग्रन्थ दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों को मान्य है परन्तु दोनों आम्नायों में इसके जा पाठ प्राप्त होते हैं उनमें बहुत कुछ भेद पाया जाता है (सी०/२/१६२) (१०/२/२१ दि वराम्नाय वाले पाठ के अध्ययन से पता चलता है कि सूत्रकार ने अपने गुरु कुन्दकुन्द के प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, नियमसार आदि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २. आचार्य विचार प्रन्थों का इस ग्रन्थ में पूरी तरह अनुसरण किया है, जैसे द्रव्य के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले सद्रव्य लक्षणम्, उत्पाद व्ययधोव्ययुक्तं सन, गुण पर्ययवद्रव्यम् ये तीन सूत्र पञ्चास्तिकाय की दशमी गाथा का पूरा अन सरण करते है। (ती०/२/१५१. १५६१६०) (जे०/२ १५)। इसलिए श्वेताम्बर मान्य तरवार्थाधिगम से यह भिन्न है। यह वास्तव में कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ न होकर मूल तत्त्वार्थ सूत्र पर रचित भाष्य है (तो०/२/१५०)। दूसरी बात यह भी कि दिगम्बर आम्नायमें इसका जितना प्रचार है उतना श्वेताम्बर आम्नायमें नहीं है। वहाँ इमे आगम साहित्य से कुछ छोटा समझा जाता है । (ज०/ २/२४७) दिगम्बर आम्नाय में इसकी महत्ता इस बात से भी सिख है कि जितने भाष्य या टीकायें इस ग्रन्थ पर लिखे गए उतने अन्य किसी अन्य पर नहीं हैं। १. आ० समन्त भद्र (वि०श०२-३) कृत गन्धहस्त महाभाष्य: २. आ० पूज्यपाद (ई० श०५) कृत सर्वार्थसिद्धिः ३ योगीन्द्रदेव (ई० श०६) विरचित तत्त्व प्रकाशिका: ४. अकलंक भट्ट (ई०६२०-६८०) विरचित तत्वार्थ राजवातिकालंकार, ५. विद्यानन्दि (ई० ७७५-८४०) रचित श्लोकवार्तिक ६. अभयनन्दि (ई. श०१०-११) कृत तत्त्वार्थ वृत्ति: ७ आ. शिवकोटि (ई००११) कृत रत्नमाला; आ० प्रभाचन्द्र (वि० श०११) कृत तत्वार्थ वृत्ति पदः ६.आ० भास्करानन्दि (वि० श० १२-१३) कृत सुखबोधिनी; १० मुनि बाल चन्द्र (वि० श०१३ का अन्त) कृत तत्वाथ सूत्रवृत्ति (कन्नड);११ योगदेव भट्टारक (वि०१६३६) रचित मुखबोध-वृत्ति; १२. विबुध सेनाचार्य (1) बिरचित तत्त्वार्थ टीका; १३. प्रभाचन्द्र न० ८ (वि. १४८६) कृत तत्वार्थ रत्न प्रभाकर; १४. भट्टारक श्रुतसागर (वि० श० १६) कृत तत्त्वार्थ वृत्ति। जबकि श्वेताम्बर आम्नाय में केवल ३ टीकायें प्रचलित हैं। १.वाचक उमास्वाति कृत तत्वार्थाधिगम भाष्यः २. सिद्धसेन गणी (वि००। कृत तत्त्वार्थ भाष्य वृत्तिः ३, हरिभद्र सुनुकृत तत्वार्थ भाष्य वृत्ति (वि० श०/--6)। ३ कथा-मर्थ सिद्धि के प्रारम्भ में इस ग्रन्थ को रचना के विषय में एक सक्षिप्त सा इतिवृत्त दिया गया है, जिसे पश्चद्वर्ती आचार्यों ने भी अपनी टीकाओ में दोहराया है। तदनुसार इस प्रन्थ की रचना सौराष्ट्र देश में गिरनार पर्वत के निकट रहने वाले किसी एक आसन्न भव्य शास्त्रवेत्ता श्वेताम्बर विद्वान के निमित्त से हुई थी। उसने 'दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग' यह स्त्र मनावर अपने घर के बाहर किसी पाटिये पर लिख दिया था। कुछ दिनों पश्चात् चर्या के लिए गुजरते हुए भगवान् उमास्वामी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उस सूत्र के आगे 'सम्यक' पद जोड़ दिया। यह देख कर वह आसन्न भव्य खोज करता हुआ उनकी शरण को प्राप्त हुए। आरम हित के विषय में कुछ चर्चा करने के पश्चात उसने इनसे इस विषय में सूत्र ग्रन्थ रचने को प्रार्थना की, जिस से प्रेरित होकर आचार्य प्रवर ने यह ग्रन्थ रचा। सर्वार्थ सिद्धिकार ने उस भव्य के नाम का उल्लेख नहीं किया, परन्तु पश्चाद्वर्ती टीकाकारों ने अपनीअपनी कृतियों में उसका नाम कल्पित कर लिया है। उपर्युक्त टीकाओं में से अष्टम तथा दशम टीकाओं में उसका नाम 'सिद्धमय' कहा गया है, जबकि चतुर्दशम में उसे 'द्वैपायन' बताया गया है। इस कथा में कितना तथ्य है यह तो नहीं कहा जा सकता परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह अन्य किसी आसन्म भव्य के लिये लिखा गया था। (ती०/२/१५३) (जै०/२/२४१)। ४. समय-ग्रन्ध में निबद्ध 'सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शन कालान्तरभावाम्पबहूस्वश्च ।१.८।' सूत्र १० ख०/१/१७ का रूपान्तरण मात्र है। दूसरी ओर कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का इसमें अनुसरण किया गया है, तीसरी ओर आ० पूज्यपाद देवनन्दि ने इस पर सर्वार्थ सिद्धि नामक टोका लिखी है । इसलिये इस ग्रन्थ का रचनाकाल षटखण्डा गम (वि० श०५) और कुन्दकुन्द (वि० श०२-३) के पश्चात् तथा पूज्यपाद (वि० श०२) से पूर्व कहीं होना चाहिये। ५० कैलाश पन्द जी वि० श०३ का अन्त स्वीकार करते हैं । (जै०२/२६६-२७०)। धवला जयघवला-कषाय पाहड़ तथा षटखण्डागमके आद्य पांच खण्डों पर ई. शताब्दी ३ में आ. बप्पदेव ने जो व्याख्या लिखी थी (दे०बप्पदेव); वारग्राम (बड़ौदा) के जिनालय में प्राप्त उस व्यारण्यासे प्रेरित होकर आ. बीरसेन स्वामीने इन नामों वाली अति विस्तीर्ण टीकायें लिखी (वे. वीरसेन) । इनमें से ७२००० श्लोक प्रमाण धवसा टीका षटु खण्डागमके आद्य पाँच खण्डोंपर है, और १०००० श्लोक प्रमाण जयधवला टीका कषाय पाहूड पर है। इसमें से २०,००० श्लोक प्रमाण आद्य एक तिहाई भाग आ० वीरसेन स्वामीका है और ४०,००० श्लोक प्रमाण अपर दो तिहाई भाग उनके शिष्य जिनसेन द्वि.का है, जो कि उनके स्वर्गारोहण के पश्चात ग्रन्ध को पूरा करने के लिये उन्होंने रचा था (इन्द्र नन्दिश्रुतावतार) ॥९७७-१८४। ये दोनों प्रन्थ प्राकृत तथा संस्कृत दोनों से मिश्रित भाषामें लिखे गए है। दर्शनोपयोग, ज्ञानोपयोग, संयम, क्षयोपशम आदि के जो स्वानभवगम्य विशद् लक्षण इस ग्रन्थमें प्राप्त होते हैं, और कषायपाहड तथा षट् खण्डागमकी सैद्धान्तिक मान्यताओं में प्राप्स पारस्परिक विरोधका जो सुयुक्ति युक्त तथा समतापूर्ण समन्वय इन ग्रन्थोंमें प्रस्तुत किया गया है वह अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। इनके अतिरिक्त प्रत्येक विषयमें स्वयं प्रश्न उठाकर उत्तर देना तथा दुर्गम विषयको भी सुगम बना देना, इत्यादि कुछ ऐसी विशिष्टतायें है जिन के कारण टीका रूप होते हुए भी ये आज स्वतन्त्र ग्रन्थके रूपमें प्रसिद्धहो गए हैं। अपनी अन्तिम प्रशस्तिके अनुसार जयधवला की पूर्ति आ. जिनसेन द्वारा राजा अमोघवर्ष के शासन काल (शक. ७५६, ई०८३७) में हुई। प्रशस्ति के अर्थ में कुछ भ्रान्ति रह जाने के कारण धवला की पूर्ति के कालके विषयमें कुछ मतभेद है । कुछ विद्वान इसे राजा जगतुंग के शासन काल(शक ७३८, ई.८१६)में पूर्ण हुई मानते हैं। और कोई वि. ८३८(ई. ७८१) में मानते है । जयधवला की पूर्ति क्योंकि उनकी मृत्यु के पश्चात हुई है इसलिये धवला की पूर्तिका यह काल (ई. ७८१) हो उचित प्रतीत होता है। दूसरी वात यह भी है कि पुन्नाट संघीय आ. जिनमेन ने क्योंकि अपने हरिवंश पुराणकी प्रशस्ति (शक. ७०३, ई. ७८१) में वीरसेन के शिष्य पंचस्तूपीय जिनसेन का नाम स्मरण किया है इसलिए इस विषयमें दिये गए दोनों ही मत समन्वित हो जाते हैं (ब./१/२५५) (तो./२/३२४) । परिशिष्ट २-(आचार्य विचार) गंधहस्तीवेताम्बर आम्नायमें यह नाम आ. सिद्धमेन की उपाधि के रूप में प्रसिद्ध है। परन्तु क्योंकि सिद्धमेन नाम के दो आचार्य हुए है, एक सिद्धसेन दिवाकर और दूसरे सिबसेन गणी, इसलिए यह कहना कठिन है कि यह इनमें से किसको उपाधि है। उपाध्याय यशोविजय जी (वि. श. १७) ने इसे सिद्धसेन दिवाकर की उपाधि माना है।३१७ परन्तु प०सुखलाल जी इसे सिद्धसेन गणी की उपाधि मानते है।३१८ा आ शालांक (वि. श६-१०) ने आचारसंग सत्र की अपनी वृत्ति में गन्धहस्तीकृत जिस विवरण का उल्लेख किया है. वह इन्हीं की कृति थी ऐसा अनुमान होता है ।३१६६ (जै./१पृष्ठ) गगीष-सिद्धर्षि (वि.६६२) के ज्येष्ठ गुरु भ्राता तथा शिक्षा गुरु (दे. सिद्ध ऋषि) कृति-कर्म विपाक । इसकी परमानन्द कृति टीका राजा कुमारपाल (वि. १९६४-१२३०) के शासनकाल में रची गई ॥४३॥ अतः इनका काल वि. श. का अन्त अथवा १० का प्रारम्भ माना जा सकता है ।४३२॥ (जै./९/पृष्ठ)। उपाधिसलिए ने इसे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2. आचार्य विचार चन्द्रावमहत्तर-श्वेताम्बर पंचसंग्रह प्राकृत तथा उस की स्वोपज्ञ टीका के रचियता एक प्रसिद्ध श्वेताम्बर आचार्य / 351, 36 // शतक चूणि के रचयिता का नाम भी यद्यपि यही है / 358 तदपि यह बात सन्दिग्ध है कि ये दोनों एक ही व्यक्ति थे या भिन्न (३५६इनकी स्वोषज्ञ टीका में एक ओर तो विशेषावश्यक भाष्य (वि.६०) की कुछ गाथायें उद्धृत पाई जाती हैं, और दूसरी ओर गर्गर्षि (वि. श. 1.10) कृत 'कर्म विपाक' के एक मत का खण्डन किया गया उपलब्ध होता है 1361 / इस पर से इनका काल वि. श.१०के अन्त में स्थापित किया जा सकता है। शतक चूणिका काल क्योंकि वि. 7501000 निश्चित किया गया है (दे. परिशिष्ट/१), इसलिये यदि दोनों के रचयिता एक ही व्यक्ति हैं तो कहना होगा कि वे इसी अवधि (वि.श.१-१०) के मध्य में कहीं हुए है।३६६ (जै./१/पृष्ठ)। नन्दवंश-मगध देश का एक प्राचीन राज्यवंश। जैन शास्त्र के अनुसार इसका काल यद्यपि अवन्ती नरेश पालक के पश्चात बी.मी. 10 (ई.पू.४६७) से प्रारम्भ हो गया था, तदपि जैन इतिहासकार श्री जायसवाल जी के अनुसार यह मान्यता भ्रान्तिपूर्ण है। अवन्ती राज्य को मगध राज्य में मिलाकर उसकी वृद्धि करने के कारण श्रेणिक वंशीय नागदास के मन्त्री ममुनाग का नाम नन्दिवर्द्धन पड़ गया था। वास्तव में वह नन्द वंश का राजा नहीं था। नन्दवंश में महानन्द तथा उसके आठ पुत्र ये नव नन्द प्रसिद्ध हैं, जिनका काल ई.पू.४१० से 326 तक रहा (दे. इतिहास/३/४)। इस वंश की चौथी पीढ़ी अर्थाद महानन्दि के काल से इस वंश में जैन धर्म ने प्रवेश पा लिया था / 332 / खारवेल के शिलालेख के अनुसार कलिंग देश पर चढाई करके ये वहां से जिनमूर्ति ले आए थे।३५२। हिन्दु पुराणों ने साम्प्रदायिकता के कारण ही इनको शूद्रा का पुत्र लिख दिया है। जिसका अनुसरण करते हए यूनानी लेखकों ने भी इन्हें नाई का पुत्र सिख दिया।३३२॥ धनानन्द इस वंश के अन्तिम राजा थे। जिन्होंने भोग विलास में पड़ जाने के कारण अपने मन्त्री शाकटाल को सकुटुम्ब बन्दी बनाकर अन्धकूप में डाल दिया था।३६४। (जै./पी./ पृष्ठ); (भद्रबाहु चरित्र/३/८) समाप्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश