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५ केवलज्ञान विषयक शंका-समाधान
केवलज्ञान
८. सूक्ष्मादि पदार्थोंके प्रमेय होनेसे सर्वज्ञत्व सिद्ध है । भ. आ./वि./५१/१७३/१५ प्रत्यक्षस्यावध्यादे. आत्मकारणत्वादसहायता
स्तोति केवलत्वप्रसंग स्यादिति चेन्न रूढेनिराकृताशेषज्ञानावरणस्योआप्त.मी./५ सूक्ष्मान्तरितदूरार्था. प्रत्यक्षा. कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतो
पजायमानस्यैव बोधस्य केवल शब्दप्रवृत्ते । प्रश्न-प्रत्यक्ष अवधि sन्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ।। - सूक्ष्म अर्थात् परमाणु आदिक,
व मन'पर्यय ज्ञान भी इन्द्रियादिको अपेक्षा न करके केवल बात्माके अन्तरित अर्थात कालकरि दूर राम रावणादि और दूरस्थ अर्थात्
आश्रयसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनको भी केवलज्ञान क्यो नहीं क्षेत्रकरि दूर मेर आदि किसी न किसीके प्रत्यक्ष अवश्य हैं, क्योंकि
कहते हो ? उत्तर-जिसने सर्व ज्ञानावरणकर्मका नाश किया है, ऐसे ये अनुमेय हैं। जैसे अग्नि आदि पदार्थ अनुमानके विषय है सो ही
केवलज्ञानको ही 'केवलज्ञान' कहना रूढ है, अन्य ज्ञानो में केवल' किसी के प्रत्यक्ष भी अवश्य होते हैं। ऐसे सर्वज्ञका भले प्रकार निश्चय
शब्दकी रूढि नहीं है। होता है। (न्या.वि./म./३/२६/२६८) (सि.वि./मू./८/३१/५७३) (न्या.
घ./१/१,१,२२/१९६/१ प्रमेयमपि मैवमै क्षिष्टासहायत्वादिति चेन्न, तस्य वि././३/२०/२८८ मे उद्धृत) (आप्त.प.मू./८८-११)(काव्य मीमांसा
तत्स्वभावत्वात् । न हि स्वभावाः परपर्यनुयोगार्हा. अव्यवस्थापत्ते. १) (द्र.सं./टी./५०/२१३/१०) (पं.का./ता बृ./२६/६६/१४) (सा म./१७/
रिति । -प्रश्न-यदि केवलज्ञान असहाय है, तो वह प्रमेयको भी २३७/७) (न्या.दी./२/६२१-२३/४१-४४)
मत जानो। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि पदार्थों का जानना उसका
स्वभाव है। और वस्तुके स्वभाव दूसरों के प्रश्नोंके योग्य नहीं हुआ ९. प्रतिबन्धक कर्मोंका अभाव होनेसे सर्वज्ञत्व
करते है। यदि स्वभाव में भी प्रश्न होने लगें तो फिर वस्तुओको सिद्ध है
व्यवस्था ही नहीं बन सकती।
२. विनष्ट व अनुत्पन्न पदार्थों का ज्ञान कैसे सम्मव है सि.वि./म./८-६ ज्ञानस्यातिशयात् सिध्येद्विभुत्वं परिमाणवत। वैषद्य कचिद्दोषमलहानेस्तिमिराक्षवत् 1८1 माणिक्यादेर्मलस्यापि व्यावृत्ति
क.पा.१/१,१/६१५/२२/२ असति प्रवृत्तौ खरविषाणेऽपि प्रवृत्तिरस्त्विति रतिशयवतो। आत्यन्तिकी भवत्येव तथा कस्यचिदात्मनः।-जैसे
चेत; नः तस्य भूतभविष्यच्छत्तिरूपतयाऽप्यसत्त्यात। वर्तमानपर्यापरिमाण अतिशययुक्त होनेसे आकाशमें पूर्णरूपसे पाया जाता है, वैसे
णामेव किमित्यर्थत्वमिष्यत इति चेत्, न; 'अर्यते परिच्छिद्यते' ही ज्ञान भी अतिशययुक्त होनेसे किसी पुरुष विशेषमें विभु-समस्त
इति न्यायतस्तत्रार्थत्वोपलम्भात् । तदनागतातीतपयिष्वपि समानशेयोका जाननेवाला होता है। और जैसे अन्धकार हटनेपर चक्षु मिति चेतः नः तद्ग्रहणस्य वर्तमानार्थ ग्रहणपूर्वकत्वात् । -प्रश्नस्पष्ट रूपसे जानतो है, वैसे ही दोष और मलकी हानि होनेसे वह यदि विनष्ट और अनुत्पन्नरूपसे असत् पदार्थोंमे केवलज्ञानको प्रवृत्ति ज्ञान स्पष्ट होता है । शायद कहा जाये कि दोष और मलको आत्य
होती है, तो खरविषाणमें भी उसकी प्रवृत्ति होओ ! उत्तर-नहीं, न्तिक हानि नहीं होती तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे क्योंकि खरविषाणका जिस प्रकार वर्तमानमें सत्त्व नहीं पाया जाता माणिक्य आदिसे अतिशयवाली मलकी व्यावृत्ति भी आत्यन्तिकी है, उसी प्रकार उसका भूतशक्ति और भविष्यत् शक्तिरूपसे भी सत्त्व होतो है उसके मल सर्वथा दूर हो जाता है उसी तरह किसी आरमासे नहीं पाया जाता है। प्रश्न-यदि अर्थ में भूत और भविष्यत् पर्याय भो मलके प्रतिपक्षी ज्ञानादिका प्रकर्ष होनेपर मलका अत्यन्ताभाव शक्तिरूपसे विद्यमान रहती है तो केवल वर्तमान पर्यायको ही अर्थ हो जाता है ।७-८ (न्या.वि./मू /३/२१-२५/२६१-२६५), (ध.६/- क्यों कहा जाता है। उत्तर-नहीं, क्योकि, 'जो जाना जाता है उसे ४,१,४४/२६/तथा टीका पृ.११४-११८), (क.पा.१/१,१/९३७-४६/१३ अर्थ कहते है' इस व्युत्पत्तिके अनुसार वर्तमान पर्यायोंमें ही अर्थतथा टीका पृ. ५६-६४), (राग/५-रागादि दोषोंका अभाव असंभव पना पाया जाता है। प्रश्न-यह व्युत्पत्ति अर्थ अनागत और अतीत नहीं है), ( मोक्ष/६-अकृत्रिम भी कर्ममल का नाश सम्भव है); पर्यायों में भी समान है • उत्तर--नहीं, क्योंकि उनका ग्रहण वर्त(न्या.दी./२/७२४-२८/४४-५०), (न्याय बिन्दु चौखम्बा मान अर्थ के ग्रह्ण पूर्वक होता है। सीरीज/श्लो, ३६१-३६२)
ध.६/१,६-१,१४/२६/६ गट्ठाणुप्पण्ण अत्थाणं कधं तदो परिच्छेदो। ण, केवलत्तादो बज्झत्थावेक्वाए विणा तदुप्पत्तीए विरोहाभावा। ण
तस्स विपज्जयणाणत्तं पसज्जदे, जहारूवेण परिच्छित्तीदो। ण गद्दह५. केवलज्ञान विषयक शंका-समाधान
सिंगेण विउचारो तस्स अच्चंताभावरूवत्तादो।-प्रश्न--जो पदार्थ
नष्ट हो चुके हैं और जो पदार्थ अभी उत्पन्न नही हुए हैं, उनका केवल१. केवलज्ञान असहाय कैसे है ?
ज्ञानसे कैसे ज्ञान हो सकता है। उत्तर--नहीं, क्योंकि केवलज्ञानके
सहाय निरपेक्ष होनेसे बाह्य पदार्थों की अपेक्षाके बिना उनके, क.पा.१/१,१/३१५/२१/१ केवलमसहायं इन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्ष- (विनष्ट और अनुत्पन्नके) ज्ञानकी उत्पत्तिमें कोई विरोध नहीं है। स्वात । आत्मसहायमिति न तत्केवलमिति चेत; न; ज्ञानव्यतिरिक्ता- और केवलज्ञानके विपर्ययज्ञानपनेका भी प्रसंग नहीं आता है, क्योंकि स्मनोऽसत्त्वात् । अर्थसहायत्वान्न केवलमिति चेद; न; विनष्टानुत्पन्ना- वह यथार्थ स्वरूपको पदार्थों से जानता है। और न गधेके सींगके तोतानागतेऽर्थेष्वपि तत्प्रवृत्त्युपलम्भाव । -असहाय ज्ञानको साथ व्यभिचार दोष आता है, क्योंकि वह अत्यन्ताभाव रूप है। केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनोव्यापार- प्र.सा./त.प्र /३७ न खत्वेतदयुक्तं--दृष्टाविरोधात । दृश्यते हि छद्मस्थकी अपेक्षासे रहित है । प्रश्न-केवलज्ञान आत्माकी सहायतासे स्यापि वर्तमानमिव व्यतीतमनागतं वा वस्तु चिन्तयत. संविदाउत्पन्न होता है, इसलिए इसे केवल नहीं कह सकते। उत्तर-नहीं, लम्बितस्तदाकार । किंच चित्रपटीयस्थानत्वात् संविद.। यथा हि क्योंकि ज्ञानसे भिन्न आत्मा नहीं पाया जाता है, इसलिए इसे असर चित्रपटबामतिवाहितानामनुपस्थितानां वर्तमानानां च वस्तूनामाहाय कहने में आपत्ति नही है। प्रश्न-केवलज्ञान अर्थकी सहायता लेख्याकाराः साक्षादेकक्षण एवावभासन्ते, तथा संविभित्तावपि । लेकर प्रवृत्त होता है, इसलिए इसे केवल (असहाय) नहीं कह किच सर्वज्ञ याकाराणां तदात्विकत्वाविरोधात । यथा हि प्रध्वस्तानासकते । उत्तर-नहीं, क्योंकि नष्ट हुए अतीत पदार्थोंमें और उत्पन्न मनुदितानां च वस्तूनामालेरख्याकारा वर्तमाना एव तथातीतानामन हुए अनागत पदार्थों में भी केवलज्ञानकी प्रवृत्ति पायी जाती है, इस- नागतानां च पर्यायाणां ज्ञयाकारा वर्तमाना एव भवन्ति। यह लिए यह अर्थ की सहायतासे होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। (तीनों कालोंकी पर्यायों का वर्तमान पर्यायो वव ज्ञानमें ज्ञात होना)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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