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केवलज्ञान
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४. केवलज्ञानको सिद्धि हेतु
आप्त.प / मू./६६-११० सुनिश्चितान्वयाधेितोः प्रसिद्धव्यतिरेकत । ज्ञाताऽहन् विश्वतत्त्वानामेवं सिद्ध्येदबाधित' ६६.. एवं सिद्धः सुनिर्णीतासंभवबाधकत्वतः । मुखबईविश्वतत्त्वज्ञ सोऽर्हन्नेव भवानिह ।१०१४-प्रमेयपना हेतुका अन्वय अच्छी तरह सिद्ध है और उसका व्यतिरेक भी प्रसिद्ध है, अतः उससे अर्हन्त निर्वाधरूपसे समस्त पदार्थोंका ज्ञाता सिद्ध होता है ।१६ (१)-त्रिकाल त्रिलोकको न जाननेके कारण इन्द्रिय प्रत्यक्ष बाधक नहीं है ।हए। (२)-केवल सत्ताको विषय करनेके कारण अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और आगम भी बाधक नहीं है । ६८४ (३)-अनै कान्तिक होनेके कारण पुरुषत्व व वक्तृत्व हेतु(अनुमान) बाधक नहीं है-(दे० केवलज्ञान/५) १६६-१०० ।।४) सर्व मनुष्यों में समानताका अभाव होनेसे उपमान भी बाधक नहीं है ।१०११; (५)-अन्यथानुपपत्ति से शून्य होनेसे अापत्ति बाधक नहीं है ।१०। (६)-अपौरुषेय आगम केवल यज्ञादिके विषयमें प्रमाण है, सर्व ज्ञकृत आगम बाधक हो नहीं सकता और सर्वज्ञकृत आगम स्वत' साधक है ।१०३-१०४; (७)-सर्वज्ञत्वके अनुभव व स्मरण विहीन होनेके कारण अभाव प्रमाण भी बाधक नहीं है अथवा असर्वज्ञत्वकी सिद्धिके अभावमे सर्वज्ञत्वका अभाव कहना भी असिद्ध है ।१०५-१०८। इस प्रकार बाधक प्रमाणोंका अभाव अच्छी तरह निश्चित होनेसे सुखकी तरह विश्वतत्त्वोंका ज्ञाता-सर्वज्ञ सिद्ध होता है ।१०।
बुध्येतन स्वयम् ।...| नर' शरीरी वक्ता वासकलझं जगद्विदन्। सर्वज्ञः स्यात्ततो नास्ति सर्वज्ञाभावसाधनम् ।१६। सब जीवों के ज्ञान तथा उनके द्वारा ज्ञेय और अज्ञेय तत्त्वोंको प्रत्यक्षसे जाननेवाला क्या स्वयं सर्वज्ञ नहीं है । यदि वह स्वयं यह नहीं जानता कि सन जीव सर्वज्ञके ज्ञानसे रहित है तो वह स्वयं कैसे सर्वज्ञके अभावका ज्ञाता हो सकता है। शायद कहा जाये कि सब आत्माओंकी असर्वज्ञता प्रत्यक्षसे नही जानते किन्तु अनुमानसे जानते है अत' उक्त दोष नहीं आता। तो पुरुष विशेषको भी वक्तृत्व आदि सामान्य हेतुसे असर्वज्ञत्वका साधन करनेमें भी उक्त कथन समान है क्योंकि सर्वज्ञता और वक्तृत्वका कोई विरोध नहीं है सर्वज्ञ वक्ता हो सकता है । न्याय. वि./वृ./३/११/२८६ पर उधृत (मीमांसा श्लोक चोदना/१३४
१३५) "सर्वत्रोऽयमिति ह्येवं तस्कालेऽपि बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ॥१३४। कल्पनीयाश्च सर्वज्ञा भवेयुर्वहवस्तव । य एव स्यादसर्वज्ञः स सर्वज्ञं न बुध्यते ।१३॥"-उस काल में भी जो जिज्ञासु सर्वज्ञके ज्ञान और उसके द्वारा जाने गये पदार्थोके ज्ञानसे रहित है वे 'यह सर्वज्ञ है ऐसा कैसे जान सकते है। और ऐसा माननेपर आपको बहुतसे सर्वज्ञ मानने होगे क्योंकि जो भी असर्वज्ञ
है वह सर्वज्ञको नहीं जान सकता। द्र. सं./टी./१०/२११/५ नास्ति सर्वज्ञोऽनुपलब्धे । खर विषाणवत् । तत्र प्रत्युत्तर-किमत्र देशेऽत्र काले अनुपलब्धेः, सर्वदेशे काले वा । यद्यत्र देशेऽत्र काले नास्ति तदा सम्मत एव । अथ सर्वदेशकाले नास्तीति भण्यते तज्जगत्रयं कालत्रयं सर्वज्ञरहितं कथं ज्ञात भवता। ज्ञातं चेत्तहिं भवानेव सर्वज्ञः । अथ न ज्ञातं तर्हि निषेधः कथं क्रियते ११...यथोक्तं खरविषाणवदिति दृष्टान्तवचनं तदप्यनुचितम् । खरे विषाणं नास्ति गवादौ तिष्ठतीत्यत्यन्ताभावो नास्ति यथा तथा सर्वज्ञस्यापि नियतदेशकालादिष्वभावेऽपि सर्वथा नास्तित्वं न भवति इति दृष्टान्तदूषणं गतम् । = प्रश्न-सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधेके सींग । उत्तर-सर्वज्ञकी प्राप्ति इस देश व इस काल में नहीं है वा सब देशों व सन कालों में नहीं है। यदि कहो कि इस देश व इस काल में नहीं तब तो हमें भी सम्मत है ही। और यदि कहो कि सब देशों व सब कालोंमें नहीं है, तब हम पूछते हैं कि यह तुमने कैसे जाना कि तीनों जगत व तीनों कालो में सर्वज्ञ नहीं है। यदि कहो कि हमने जान लिया तब तो तुम ही सर्वज्ञ सिद्ध हो चुके और यदि कहो कि हम नहीं जानते तो उसका निषेध कैसे कर सकते हो। (इस प्रकार तो हेतु दूषित कर दिया गया) अब अपने हेतुकी सिद्धि में जो आपने गधेके सींगका दृष्टान्त कहा है वह भी उचित नहीं है, क्योंकि भले ही गधेको सींग न हों परन्तु बैल आदिको तो हैं ही। इसी प्रकार यद्यपि सर्वज्ञ का किसी नियत देश तथा काल आदिमें अभाव हो पर उसका सर्वथा अभाव नहीं हो सकता। इस प्रकार दृष्टान्त भी दूषित है । ( पं. का./ ता. वृ./२६/६/११)
५. बाधक प्रमाणका अभाव होनेसे सर्वज्ञश्व सिद्ध है सि. वि /मू./८/६-७/५३७-५३८ "प्रामाण्यमक्षबुद्धेश्चेद्यथाऽबाधाविनिश्चयाव । निर्णीतासंभवबाधः सर्वज्ञो नेति साहसम् ।६। सर्वशेऽस्तीति विज्ञानं प्रमाणं स्वत एव तत् । दोषवत्कारणाभावाद बाधकासंभवादपि "-जिस प्रकार बाधकाभावके विनिश्चयसे चक्षु आदिसे जन्य ज्ञानको प्रमाण माना जाता है उसी प्रकार बाधाके असंभवका निर्माण होनेसे सर्वज्ञके अस्तित्वको नहीं मानना यह अति साहस है ६। 'सर्वज्ञ है इस प्रकारके प्रवचनसे होने वाला ज्ञान स्वतःही प्रमाण है क्योंकि उस ज्ञानका कारण सदोष नहीं है। शायद कहा जाये कि 'सर्बज्ञ है' यह ज्ञान बाध्यमान है किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उसका कोई बाधक भी नहीं है। (द्र.सं./टी./१०/२१३/७) (पं. का./ता. वृ./२६/६६.१३)।
६. अतिशय पूज्य होनेसे सर्वज्ञत्व सिद्ध है ध.६/४,१,४४/११३/७ कधं सव्वणहू व ढमाणभयवंतो .. णवकेवललद्धीओ...च्छतएण सोहम्मिदेण तस्स कयपूजण्णहाणूववत्तीदो। ण च विजावाइपूजाए वियहिचारो...साहम्माभावादो.. बधम्मियादो वा। -प्रश्न-भगवान बर्द्धमान सर्वज्ञ थे यह कैसे सिद्ध होता है। उत्तर-भगवान में स्थित ना केवल लग्धिको देखनेवाले सौधर्मेन्द्र द्वारा की गयी उनकी पूजा क्योंकि सर्वज्ञताके बिना मन नहीं सक्ती। यह हेतु विद्यावादियोंकी पूजासे व्यभिचरित नहीं होता, क्योंकि व्यन्तरों द्वारा की गयी और देवेन्द्रों द्वारा की गयी पूजामें समानता नहीं है।
७. केवलज्ञानका अंश सर्व प्रत्यक्ष होनेसे केवलज्ञान सिद्ध है
क.पा.१/१/६३१/४४ ण च केवलणाणमसिद्धं : केवलणाणसस्स ससंवेयणपञ्चवखेण णिव्वाहेणुवलं भादो। ण च अवयवे पच्चवखे संते अवयवी परोक्खो त्ति जुत्त; चविखदियविसयीकयअवयवत्थं भस्स वि परोवरखप्पसंगादो। यदि कहा जाय कि केवलज्ञान असिद्ध है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा केवलज्ञानके अंशरूप ( मति आदि) ज्ञानकी निर्बाध रूपसे उपलब्धि होती है। अवयवके प्रत्यक्ष हो जाने पर सहवर्ती अन्य अवयव भले परोक्ष रहें, परन्तु अवयवी परोक्ष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर चक्षुइन्द्रियके द्वारा जिसका एक भाग प्रत्यक्ष किया गया है उस स्तम्भको
भी परोक्षताका प्रसंग प्राप्त होता है। स्या,म /१७/२३७/६ तरिसद्धिस्तु ज्ञानतारतम्य क्वचिद विश्राग्तम. तारतम्यत्वात आकाशे परिणामतारतम्यवत् । = ज्ञानकी हानि और वृद्धि किसी जीवमें सर्वोत्कृष्ट रूपमे पायी जाती है. हानि, बृद्धि होनेसे। जैसे आकाशमें परिणामकी सर्वोत्कृष्टता पायी जाती है वैसे ही ज्ञानकी सर्वोत्कृष्टता सर्वज्ञमें पायी जाती है।
कृष्ट रूपमै यवत् । बार
आकाशमें
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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