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केवलज्ञान
नाश होने पर भी अनन्तविज्ञानकी प्राप्ति स्वीकार नहीं करते एव 'अनन्तविज्ञान' विशेषण दिया गया है। वैशेषिकों का मत है कि "ईश्वर सर्व पदार्थोंको जाते अथवा न जाने, वह इष्ट पदाथको जाने इतना ही बस है। यदि ईश्वर कीडोंकी संख्या गिनने बैठे तो वह हमारे किस कामका " तथा "अतएव ईश्वरके उपयोगी ज्ञानकी ही प्रधानता है, क्योंकि यदि दूर तक देखनेवाले को ही प्रमाण माना जाये तो फिर हमें गीच पक्षियों की भी पूजा करनी चाहिए। इस मतका निराकरण करनेके लिए ग्रन्थकारने अनन्तविज्ञान विशेषण दिया है और वह विशेषण ठीक ही है, क्योंकि अनन्तज्ञानके बिना किसी वस्तुका भी ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता। आगमका वचन भी है-"जो एकको जानता है वही सर्वको जानता है और सर्व को जानता है वह एकको जानता है ।"
८. केवलज्ञानमें इससे भी अनन्तगुणा जानने की सामर्थ्य है
रा.वा./९/२६ / ६ / ६०/५ वायोकाल कस्वभावोऽनन्तः तावन्तोऽनन्ता भन्या यद्यपि स्पु तानपि ज्ञातुमस्य सामर्थ्य मस्तीत्यपरिमितमाहात्म्यं तव केवलज्ञानं वेदितव्यम्। जितना यह लोकालोक स्वभाव से ही अनन्त है, उससे भी यदि अनन्तानन्त विश्व है तो उसको भी जाननेकी सामर्थ्य केवलज्ञानमें है, ऐसा केवलज्ञानका अपरिमित माहात्म्य जानना चाहिए। आ.अ./२१६ वसति भुवि समस्तं सापि संधारितान्यः उदरमुपनिविश सा च ते वा परस्य । तदपि किल परेषां ज्ञानकोणे निलीनं वहति कथमिहाग्यो गर्व मारमाधिकेषु । २११ - जिस पृथिवीके ऊपर सभी पदार्थ रहते है वह पृथिवी भी दूसरोंके द्वारा - अर्थात् घनोदधि, धन और तनुवातबलयोके द्वारा धारण की गयी है। वे पृथिवी और वे तीनों वातवलय भी आकाशके मध्य में प्रविष्ट हैं, और वह आकाश भी केवलियोंके ज्ञानके एक मध्यमे निलीन है। ऐसी अवस्थामें यहाँ दूसरा अपनेसे अधिक गुणोंवालेके विषयमें कैसे गर्व धारण करता है ' ९. केवलज्ञानको सर्व समर्थ न माने सो अज्ञानी है स.सा./आ./४१५/२५५ स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनात्. get पशुः प्रणश्यति चिदाकारा सहामद। स्याद्वादी तु बस स्वधामनि परक्षेत्रे विनास्तितां पार्थोऽपि न वृच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान् । २५५। - एकान्तवादी अज्ञानी, स्वक्षेत्रमें रहनेके लिए भिन्न-भिन्न परक्षेत्रों में रहे हुए शेयपदार्थोंको घोरापदार्थों के साथ चैतन्यके आकारोका भी वमन करता हुआ तुच्छ होकर नाशको प्राप्त होता है और स्याद्वादी तो स्वक्षेत्रमें रहता हुआ. परक्षेत्र में अपना नास्ति जानता हुआ, ज्ञेय पदार्थोंको छोड़ता हुआ भी पर-पदार्थोंसे चैतन्यके आकारों को पता है, इसलिए को प्राप्त नहीं होता ।
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४. केवलज्ञान की सिद्धिमें हेतु
१. यदि अर्वको नहीं जानता तो एकको भी नहीं जान
सकता
प्र.सा./४००४१ जो विजागदि जुग अस्मे तिस्कासि तिहुये। जादु तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्यमेगं वा ॥४८॥ दव्वं अनंतपज्जयमेगमाथि दादाणि न विजानदि जदि जुग कि सो सम्माणि जागादि ४-जो एक ही साथ त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ पदार्थोंको नहीं जानता, उसे पर्याय सहित एक आत्म-टीका) द्रव्य
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४. केवलज्ञानको सिद्धिमें हेतु
जो
भी जानना शक्य नहीं ।४८। यदि अनन्त पर्यायवाले एक द्रव्यको तथा अनन्त द्रव्य समूहको एक ही साथ नही जानता तो वह सबको कैसे जान सकेगा |४| (यो.सा./अ/१/२६-३० ) नि.सा./ /९६० ततदव्यं पाणागुणपण संजु पेसम्म परोक्खदिटी हवे तस्स / १६८ / - विविध गुणों और पर्यायोंसे संयुक्त पूर्वोक्त समस्त द्रव्योंको जो सम्यक् प्रकारसे नहीं देखता उसे परीक्ष दर्शन है। स.सि./९/१२/१०४३/८ यदि प्रत्यर्थमवति सर्वज्ञस्वमस्य नास्ति योगिन',
यस्यानन्ध्यात् यदि प्रत्येक पदार्थको (एक एक करके) क्रमसे जानता है तो उस योगी के सर्वज्ञताका अभाव होता है क्योंकि शेय अनन्त है।
स्या. म./१/५/२१ मे उधृत - जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ । ( आचारांग सूत्र / १/३/४ / सूत्र १२२ ) । तथा एको भावः सर्वथा येन दृष्ट सर्वे भावा सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा एको भाव सर्वथा तेन दृष्टः । =जो एकको जानता है वह सर्व को जानता है और जो सर्व को जानता है वह एकको जानता है। तथा जिसने एक पदार्थ को सब प्रकारसे देखा है उसने सब पदार्थो को सब प्रकारसे देखा है। तथा जिसने सब पदार्थोंको सब प्रकारसे जान लिया है, उसने एक पदार्थको सव प्रकारसे जान लिया है।
श्लो. वा./२/१/५/१४/१६२/१७ यथा वस्तुस्वभावं प्रत्ययोत्पत्तौ कस्यचिनाञ्चनन्तवस्तुप्रत्ययप्रसंगात...जैसी वस्तु होगी वैसा ही हूबहू ज्ञान उत्पन्न होवे तब तो चाहे जिस किसीको अनादि अनन्त वस्तुके ज्ञान होनेका प्रसंग होगा क्योंकि अनादि अनन्त पर्यायोंसे सममेत ही सम्पूर्ण वस्तु है)।
ज्ञा./३४/१३ में उद्धृत -- एको भावः सर्वभावस्वभावः, स भावा एकभावस्वभावाः । एको भावस्तत्त्वतो येन बुद्धः सर्वे भावास्तव बुद्धा' । = एक भाव सर्वभावोंके स्वभावस्वरूप है और सर्व भाव एक भाव के स्वभाव स्वरूप है; इस कारण जिसने तत्त्वसे एक भावको जाना उसने समस्त भावोको यथार्थतया जाना ।
नि. सा./ता.वृ./१६०/ २०४ यो नैव पश्यति जगत्त्रयमेकदेव कालप्रयं च तरसा सकतज्ञमानी प्रत्यक्षदष्टितुला न हि तस्य नित्यं सर्वज्ञता कथमिहास्य जडात्मनः स्यात् । सर्वज्ञताके अभिमानवाला जो जीव शीघ्र एक ही कालमें तीन जगत्को तथा तीन कालको नहीं देखता, उसे सदा ( कदापि ) अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है; उस डात्माको सर्वज्ञता किस प्रकार होगी ।
२. यदि त्रिकालको न जाने तो इसकी दिव्यता ही क्या
प्र. सा./मू./३६ जदि पञ्चवस्वमजायं पजायं पलहर्यं च णाणस्स । ण हमदम तं दिव्यं ति हि के परुनेति यदि अनुत्पन्न पर्याय गाणं । - नष्ट पर्यायें ज्ञानके प्रत्यक्ष हाँ तो
| =
उस ज्ञानको दिव्य कौन
कहेगा '
३. अपरिमिति विषय ही तो इसका माहात्म्य है स.सि./१/२६/१३५/११ अपरिमितमाहात्म्यं हि तदिति ज्ञापनार्थं 'सर्व द्रव्यपर्यायेषु' इत्युच्यते = केवलज्ञानका माहात्म्य अपरिमित है, इसी बात का ज्ञान करानेके लिए सूत्र में 'सर्वद्रव्य पर्यायेषु' पद कहा है (रा./बा./१/२/६/१०/4 )
४. सर्वज्ञत्वका अभाव कहनेवाला क्या स्वयं सर्वश नहीं है
सि.वि./मू./८/१५-१६ सर्यात्मज्ञानविज्ञेयत्वं विनो वेrयं तस्य सर्वशाभावविव्स्थय ॥१३॥ तज्ज्ञे यज्ञाचे कल्याइ यदि
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