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केवलज्ञान
पर्यायें हैं उन सबको जो कि स्व और परके भेद से विभक्त हैं उन सबका वास्तवमे उस अतीन्द्रियज्ञानके दृष्टपना है।
प्र. सा / त प्र. / २१ तोऽस्माकममान्त समस्त द्रव्यक्षेत्रात भावतया समक्षस वेदनालम्बनभूता सर्वद्रव्यपर्याया प्रत्यक्षा एव भवन्ति । = इसलिए उनके समस्त द्रव्य क्षेत्र काल और भावका अक्रमिक ग्रहण होनेसे समक्ष संवेदन ( प्रत्यक्ष ज्ञान ) को आलम्बनभूत समस्त हो है (इ.सं./टी./३/२०१६)
प्र. सा./त.प्र./४७ बलमधातिविस्तरेण अनिवारितसर प्रकाशशालि क्षयज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वधा सर्वमेव जानीयाद = अथवा अतिविस्तारसे बस हो- जिसका अनिवार फैलाव है, ऐसा प्रकाशमान होनेसे क्षायिकज्ञान अवश्यमेव, सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्वको जानता है ।
४. केवलज्ञान सर्व द्रव्य व पर्यायोंको जानता है
प्र.सा./मू./४६० अणं तपज्जय मेगमणं ताणि दव्त्रजादाणि । ण बिजाणादि जदि जुगव कि सो सव्वाणि जाणादि । यदि अनन्त पर्यायवाले एक द्रव्यको तथा अनन्त द्रव्य समूहको नहीं जानता तो वह सब अनन्त द्रव्य समूहको कैसे जान सकता है । भ.आ./मू./२९४०-४१ सव्वेहि पज्जएहि य संपुण्णं सव्वदत्वेह | २१४०/-..राह का लोग पर गिदोहो ।२१४१-सम्पूर्ण और उनकी सम्पूर्ण पोसे भरे हुए सम्पूर्ण जगत्को सिद्ध भगवाद देखते हैं, तो भी वे मोहरहित ही रहते है।
त.सू./१/२६ सर्व द्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ।
स.सि./१/२/१३७/८ सर्वेषु प्रन्येषु सर्वेषु पर्यायध्विति जीवाणि तावदनन्तानन्तानि, पुद्गलद्रव्याणि च ततोऽप्यनन्तानन्तानि अणुस्कन्धभेदभिन्नानि धर्माधर्माकाशानि त्रीणि कालश्चासंख्येयस्तेषां पर्यायाश्च त्रिकाल प्रत्येकमनन्तानन्तास्तेषु द्रव्यं पर्यायान किंचित्वज्ञानस्य विषयभावमतिक्रान्तमस्ति अपरिमितमाहात्म्यं हि तदिति ज्ञापनार्थ सर्वद्रव्यपर्यायेषु इत्युच्यते । केवलज्ञानकी प्रवृत्ति सर्व द्रव्यों और उनकी सर्व पर्यायोंमें होती है। जीव द्रव्य अनन्तानन्त है, पुद्गलद्रव्य इनसे भी अनन्तानन्तगुणे हैं जिनके अणु और स्कन्ध ये भेद है। धर्म अधर्म और आकाश ये तीन है, और काल असंख्यात हैं । इन सब द्रव्योकी पृथक पृथकू तीनों कालों में होनेवाली अनन्तानन्त पर्याये हैं । इन सत्रमें केवलज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। ऐसा न कोई द्रव्य है और न पर्याय समूह है जो केवल ज्ञानके विषयके परे हो । केवलज्ञानका माहात्म्य अपरिमित है इसी माता ज्ञान कराने के लिए सूत्रमे 'सर्वद्रव्याययेषु' कहा है (रा. ना २/२६/६/१०/४)
अती का १०६/निर्णयसागर बम्बई- साक्षात्कृतेरेव सर्वद्रव्यपर्यायाद परिच्छिनत्ति (केवलाव्येन प्रत्यक्षेण केवली ) नान्यत ( नागमात् ) इति । = केवली भगवान् केवलज्ञान नामवाले प्रत्यक्षज्ञानके द्वारा सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायोंको जानते है, आगमादि अन्य ज्ञानोंसे नहीं । घ./१/१ १ १/२७/४०/४ सन्चालयहि दिसव्वा जिन्होने सम्पूर्ण
पर्यायों सहित पदार्थोंको जान लिया है।
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प्र. सा /त प्र/२१ सर्वद्रव्यपर्याया' प्रत्यक्षा एव भवन्ति । ( उस ज्ञानके) समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही है ।
नि. सा./ता वृ / ४३ त्रिकालत्रिलोकवर्तिस्थावरजंगमात्मकनिखिल द्रव्यगुणयेनपरिचितिसमर्थ सकल विमल केवलज्ञानावस्था
ढश्च। तीन काल और तीन लोकके स्थावर जंगमस्वरूप समस्त द्रव्य-गुण- पर्यायोंको एक समय में जाननेमें समर्थ सकल विमल केवलज्ञान रूपसे अवस्थित होनेसे आत्मा निर्मूढ है ।
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५. केवलज्ञान त्रिकाली पर्यायोंको जानता है
ध. १/१,१,१३६/१६६/३८६ एय-दवियम्मि जे अत्थ-पज्जया वयणपज्जया वाबि । तीदाणागदभूदा तावदियं तं हवइ दव्वं । एक द्रव्य में अतीत अनागत और गाथामे आये हुए अपि शब्द से वर्तमान पर्यायरूप जितनी अर्थ पर्याय और व्यंजनपर्याय हैं तत्प्रमाण वह द्रव्य होता है जो नाव गो.जी./२८२/२०२३) तथा (क.पा.१/११/१९६/२२/२), (क.पा./१/१.९/१४६/६४/४) (म.सा./त.प्र./ ५२/४) (प्र.सा.प्र./३६,२००) .१/४,१,४५/५०/१४२ क्षायिकमेकमनन्तं
निरतिशयमस्य
३. केवलज्ञानकी सर्वग्राहकत
कालसर्वार्थ युगपदवभास ॥ ५० जना ज्ञान क्षायिक, एक अर्थात् असहाय, अनन्त, तीनों कालों के सर्व पदार्थों को युगपत् प्रकाशित करनेवाला निरतिशय, विनाशसे रहित और व्यवधानसे नियुक्त है (.१/१.१.१/२४/१०२३), (४.११.१.२/१५) १) (. १/१.१.११४/३६८३), (५.६/९.१.१.१४/२१/२) (घ. ११/ १.२.१/२४५/८) (.१६/४/६): (पा.१/११/१२८/४१/६) (प्र.सा./त.प्र. २६/३०/६०) (प.प्रा.टी./११/११/१०) (न्याय बिन्दु / २६१-२६२ चौखम्बा सौरीज)
६. केवलज्ञान सद्भूत व असद्भूत सब पर्यायों को जानता है
प्र.सा./मू./३७ तक्कालिगेव सव्वे सदसम्भूदा हि पज्जया तासि । वट्टते ते गाणे विसेसदो दव्वजादीणं |३७| उन जीवादि द्रव्य जातियोकी समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक पर्यायोंकी भाँति शिष्टता पूर्वका ती है (प्र.1//२०.३८,२१.४१) यो सा /अ/१/२८ अतीता भाविनश्चार्थाः स्वे स्वे काले यथाखिलाः । वर्त - मानास्ततस्तद्वद्वेत्ति तानपि केवलं । २८| भूत और भावी समस्त जिस रुपये अपने अपने कालमें मर्तमान रहते है, केवल हान उन्हे भी उसी रूपसे जानता है।
७. प्रयोजनभूत व अप्रयोजनभूत सबको जानता है
ध. १/४, १,४४/११८/८ ण च खीणावरणो परिमियं चेव जाणदि, णिष्पडिबंधस्स सयलत्थावगमणसहावस्स परिमियस्थावगमबिरोहादो | अत्रोपयोगी श्लोक –'ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबंधरि । दाह्येऽग्निर्दाको न स्यादसति प्रतिबंधरि ।" २६ । - आवरण के क्षीण हो जाने पर आत्मा परिमितको ही जानता हो यह तो हो नहीं सकता क्योंकि, प्रतिबन्धसे रहित और समस्त पदार्थोंके जानने रूप स्वभाव से संयुक्त उसके परिमित पदार्थोंके जाननेका विरोध है । यहाँ उपयोगी श्लोक - "ज्ञानस्वभाव आत्मा प्रतिबन्धकका अभाव होनेपर ज्ञे विषयमें ज्ञानरहित कैसे हो सकता है ? क्या अग्नि प्रतिबन्धकके अभाव मे दाह्यपदार्थका दाहक नहीं होता है। होता ही है । (क. पा. १/१,१६४६/१३/६६) स्वा./१/०५/१२ मध्येवास्तु अनन्तविज्ञानमित्यतिरिच्यते । दोषात्ययेऽवश्यं भावित्वादनन्तविज्ञानत्वस्य । न । चोपाभावेऽपि सदनभ्युपगमात् । तथा च बेोधनचम् "सर्व पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्ट' तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञान स्कोप' तस्मादनुष्ठानगसं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । प्रमाणं दूरदर्शी देते गृधानुपास्महे ।" सम्मतव्यपोहार्थ मनन्त विज्ञानमित्यदुष्टमेव विज्ञानानन्त्यं बिना एक्स्याप्यर्थस्य यथावत परिज्ञानाभावाद तथा चार्ष ३० केली/२/प्रश्न- केवलोके साथ 'अतीत दोष' विशेष देना ही पर्याप्त है, 'अनन्तविज्ञान' भी कहनेकी क्या आवश्यकता ' कारण कि दोषोंके नष्ट होनेपर अनन्त विज्ञानकी प्राप्ति अवश्यंभावी है। उत्तर- कितने ही वादी दोषोका
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