________________
केवलज्ञान
१४७
३. केवलज्ञानकी सर्वग्राहकता
प्र. सा./त.प्र./३७ यथा हि चित्रपटयाम.. वस्तूनामालेख्याकाराः साक्षादेकक्षण एवावभासन्ते तथा संविद्भित्तावपि ।।
जैसे चित्रपटमें वस्तुओंके आलेख्याकार साक्षात एक क्षणमें ही भासित होते हैं, इसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्तिमें भी जानना । (ध ७/२.१,४६/६/६), (द्र.सं./टी/५१/२१६/१३), (नि.सा./ता.व./४३) ।
६. केवलज्ञान तात्कालिकवत् जानता है प्र.सा./मू./३७ तत्कालिगेव सव्वे सदसम्भूदा हि पज्जया तासि । बट्टन्ते ते
णाणे विसेसदो दव्वजादीणं ।३७) =उन द्रव्य जातियों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्याये तात्कालिक पर्यायोंकी भॉति विशिष्टता पूर्वक ज्ञान में वर्तती हैं। (प्र.सा./मू.४७)
७. केवलज्ञान सर्व ज्ञेयोंको पृथक्-पृथक् जानता है प्र. सा./मु./३७ बट्टते ते णाणे विसेसदो दध्वजादीण ।३७१ -द्रव्य
जातियोंकी सर्व पर्यायें ज्ञानमें विशिष्टता पूर्वक वर्तती है। प्र.सा./त.प्र./१२/क४ ज्ञेयाकारां त्रिलोकी पृथगपृथगथ द्योतयत् ज्ञानमूर्ति 18 - ज्ञे याकारोंको (मानो पी गया है इस प्रकार समस्त पदार्थोंको) पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है।
३. केवलज्ञानकी सर्वग्राहकता
१. केवलज्ञान सब कुछ जानता है
प्र.सा./मू/४७ सव्व अत्यं विचित्त विसमं तं गाणं खाइयं भणियं।"
-विचित्र और विषम समस्त पदार्थोंको जानता है उस ज्ञानको क्षायिक कहा है। नि. सा./म./१६७ मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सग च सव्वं च । पेच्छ
तस्स दुणाणं पच्छवावमाणिदियं होइ १६७४ - मूर्त-अमूर्त, चेतनअचेतन, द्रव्योंको, स्वको तथा समस्तको देखनेवालेका ज्ञान अतीन्द्रिय है, प्रत्यक्ष है । (प्र.सा./मू /५४); (आप्त. प./३९/१२६/१०१/६); स्व. स्तो./मू./१०६ "यस्य महर्षेः सकलपदार्थ-प्रत्यवबोधः समजनि साक्षात् । सामरमत्यं जगदपि सर्व प्राञ्जलि भूत्वा प्रणिपतति स्म ।" -जिन महर्षिके सकल पदार्थोंका प्रत्यवबोध साक्षात रूपसे उत्पन्न हुआ है, उन्हे देव मनुष्य सब हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं । (पं.
सं.१/१२६ ); (ध.१०/४,२,४,१०७/३१६/५)। क.पा.१/१,१/६४६/६४/४ तम्हा णिरावरणो केवली भूदं भव्वं भवतं सुहम ववहियं विप्पइट्ठच सव्वं जाणदि त्ति सिद्धा- इसलिए निरावरण केवली.. सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट सभी पदार्थोंको जानते हैं। घ.१/१,१,१/४५/३ स्वस्थिताशेषप्रमेयत्वतः प्राप्तविश्वरूपाः। -अपनेमें
ही सम्पूर्ण प्रमेय रहनेके कारण जिसने विश्वरूपताको प्राप्त कर लिया है। ध.७/२,१,४६/६/१० तदणवगत्थाभावादो। = क्योंकि, केवलज्ञानसे न
जाना गया हो ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है। पं.का/मू.४३की प्रक्षेपक गाथा नं.५ तथा उसकी ता. वृ.टी/८७/६ णाणं
यणिमित्तं केवलणाणं ण होदि मुदणाणं। णेयं केवलणाणं णाणागाणं च णत्थि केबलिणो।५।--न केवले तज्ञानं नास्ति केवलिना शानाज्ञानं च नास्ति क्वापि विषये ज्ञान क्वापि विषये पुनरज्ञानमेव न किन्तु सर्वत्र ज्ञानमेव । - ज्ञेयके निमित्तसे उत्पन्न नहीं होता इसलिए केवलज्ञानको श्रुतज्ञान नहीं कह सकते। और न ही शानाज्ञान कह सकते है। किसी विषयमें तो ज्ञान हो और किसी विषयमें अज्ञान हो ऐसा नहीं, किन्तु सर्वत्र ज्ञान ही है।
२. केवलज्ञान समस्त लोकालोकको जानता है भ.आ./मू./२१४१ पस्सदि जाणदि य तहा तिण्णि वि काले सपज्जए सवे। तह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो। -वे (सिद्ध परमेष्ठी) सम्पूर्ण द्रव्यों व उनकी पर्यायोंसे भरे हुए सम्पूर्ण जगत्को
तीनों कालोंमें जानते हैं। तो भी वे मोहरहित ही रहते है। प्र.सा./मू /२३ आदा णाणपमाणं गाणं णेयप्पमाणमुट्ठि। णेयं लोया
लोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।२३। -आत्मा ज्ञानप्रमाण है, ज्ञानज्ञेयप्रमाण है, ज्ञेय लोकालोक है, इसलिए ज्ञान सर्वगत है। (ध.१/
१,१,१३६/१६८/३८६); (नि.सा./ता.व./१६१/क.२७७)। पं.स./प्रा /१/१२६ संपुण्णं तु समग्गं केवलमसपत्त सव्वभावगयं । लोया
लोय वितिमिरं केवलणाण मुणेयव्वा ।१२६। -जो सम्पूर्ण है, समग्र है, असहाय है, सर्वभावगत है, लोक और अलोकोंमें अज्ञानरूप तिमिरसे रहित है, अर्थात् सर्व व्यापक व सर्वज्ञायक है, उसे केवलज्ञान जानो। (घ. १/१,१,११६/ १८६/३६०); (गो. जी./मू./४६०/८७२)। द्र.सं./मू./५१ णट्ठट्टकामदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा । - नष्ट हो गयी है अष्टकर्मरूपी देह जिसके तथा जो लोकालोकको जानने देखनेवाला है ( वह सिद्ध है ) (द्र.सं./टी./१४/४२/७ ] गया हैअष्टक प. प्र./टी /88/१४/८ केवलज्ञाने जाते सति . सर्व लोकालोकस्वरूपं विज्ञायते। केवलज्ञान हो जाने पर सर्व लोकालोकका स्वरूप जानने में आ जाता है।
३. केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रव्य क्षेत्र काल मावको जानता है ष. रवं.१३/५,५/सू. ८२/३४६ सई भयवं उप्पण्णणणदरिसी सदेवासुरमाणुसस्स लोगस्स अगदि गदि चयणोववाद बंध मोक्रवं इड्ढि हिदि जुदि अणुभागं तक' कलं माणो माणसियं भुत्तं कद' पडिसे विदं आदिकम्म अरहकम्म सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्म समं जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति ।। -स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शनसे युक्त भगवान् देवलोक और असुरलोकके साथ मनुष्यलोककी अगति, गति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तक, क्ल, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरह कर्म, सब लोकों, सब जीवों और मब भावोंको सम्यक प्रकारसे युगपत् जानते है, देखते हैं और विहार करते हैं। ध.१३/५,५,६२/३५०/१२ संसारिणो दुविहा तसा थावरा चेदि ।...तत्थ वणप्फदिकाझ्या अणंतवियप्पा; सेसा असंखेजवियप्पा। एदे सव्वजीवे सबलोगठ्ठिदे जाणदि त्ति भणिदं होदि। -जीव दो प्रकारके हैं-वस और स्थावर । ...इनमेंसे वनस्पतिकायिक अनन्तप्रकारके हैं
और शेष असंख्यात प्रकारके है ( अर्थात् जोवसमासोकी अपेक्षा जीव अनेक भेद रूप हैं)। केवली भगवान् समस्त लोकमें स्थित, इन सब
जीवों को जानते हैं । यह उक्त कथनका तात्पर्य है। प्र. सा./त. प्र./५४ अतीन्द्रियं हि ज्ञानं यदमूतं यन्मूर्तेष्वप्यतीन्द्रिय यत्प्रच्छन्न च तत्सकलं स्वपरविकल्पान्तःपाति प्रेक्षत एव। तस्य खल्वमूर्तेषु धर्माधर्मादिषु, मूर्तेष्वप्यतीन्द्रियेषु परमाण्वादिषु द्रव्यप्रच्छन्नेषु कालादिषु क्षेत्रप्रच्छन्नेष्वलोकाकाशप्रदेशादिषु, कालप्रच्छम्नेस्वसांप्रतिकपर्या येषु, भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायान्तीनसूक्ष्म पर्यायेषु सर्वेष्वपि स्वपरव्यवस्थाव्यवस्थितेष्वम्ति द्रष्टव्यं प्रत्यक्षत्वात् ।
जो अमूर्त है, जो मूर्त पदार्थो में भी अतीन्द्रिय है, और जो प्रच्छन्न (लॅ का हुआ) है, उस सबको, जो कि स्व व पर इन दो भेदों में समा जाता है उसे अतीन्द्रिय ज्ञान अवश्य देवता है। अमूर्त द्रव्य धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आदि, मुर्त पदार्थो में भी अतीन्द्रिय परमाणु इत्यादि, तथा द्रव्यमें प्रच्छन्न काल इत्यादि, क्षेत्रमें प्रच्छन्न अलोकाकाशके प्रदेश इत्यादि, कालमे प्रच्छन्न असाम्प्रतिक ( अतीतअनागत ) पर्यायें, तथा भाव प्रच्छन्न स्थूलपर्यायोंमे अन्तर्लीन सूक्ष्म
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org