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केवलज्ञान
अभाव होनेसे समस्त परिछेद्य आकारोंरूप परिणत होनेके कारण जिसके ग्रहण त्याग कियाका अभाव हो गया है, फिर पररूपसे-आकारान्तररूप नहीं परिणमित होता हुआ सर्व प्रकार से अशेष विश्वको ( मात्र) देखता जानता है। इस प्रकार उस आत्माका (ज्ञेयपदार्थोंसे ही है।
प्रा.
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६० केवलस्यापि परिणामद्वारेण वेदस्य संभवादकान्तिकसुखत्वं नास्तीति प्रत्याचष्टे । (उत्थानिका ) । यतश्च त्रिसमयामनिपदार्थ परिकार खानास्पद चित्रभित्तिस्थानीयमनन्तस्वरूप स्वमेव परिणमत्वमेव परिणाम ततो कुतोऽन्य' परिणामो यद् द्वारेण खेदस्यात्मलाभ । प्रश्न- केवलज्ञानको भी परिणाम (परिणमन) के द्वारा वेदका सम्भव है, इसलिए केवलज्ञान एकान्तिक सुख नहीं है। उत्तर-तीन कालरूप तोन भेद जिसमें किये जाते हैं ऐमे समस्त पदार्थोंकी ज्ञेयाकाररूप विविधताको प्रकाशित करनेका स्थानभूत केवलज्ञान चित्रित दोवारकी भाँति स्वयं ही अनन्तस्वरूप परिणमत होता है, इसलिए केवलज्ञान (स्वयं) ही परिणमन है । अन्य परिणमन कहाँ है कि जिससे खेदकी उत्पत्ति हो । नि. सा./ता.वृ./१७२ विश्वमश्रान्तं जानन्नपि पश्यन्नपि वा मनःप्रवृत्तेभावादपूर्वकं वर्तनं न भवति तस्य विश्वको निर न्तर जानते हुए और देखते हुए भी केवलीको मन प्रवृत्तिका अभाव होनेसे इच्छा पूर्वक वर्तन नहीं होता । स्वा.म./६/४८/२ अथ युष्मत्पक्षेऽपि यदा ज्ञानात्मा सर्व जगत्त्रयं व्याप्नोतीत्युच्यते तदाशुचिरसास्वादादीनामप्युपालम्भसंभावनात नरकादिदु-स्वस्वरूपसंवेदनात्मकतया दुःखानुभवप्रसंगाचच अनिष्टापत्तिवेति चेत् तदुपपतभि प्रतिकर्तुमशक्तस्य टिभिरिवाकरणम्। यतो ज्ञानमप्राप्यकारि स्वस्थानस्थमेव विषयं परिच्छिनत्ति न पुनस्तत्र गत्वा तत्कुतो भवदुपालम्भ समोचोन' । प्रश्न- ज्ञानकी अपेक्षा जिनभगवानको जगत्त्रयमें व्यापी माननेसे आप जैन लोगोंके भगवान्को भी ( शरीरव्यापी भगवान्वद ) अशुचि पदार्थोंके रसास्वादनका ज्ञान होता है तथा नरक आदि दु.खोके स्वरूपका ज्ञान होनेसे दुःखका भी अनुभव होता है, इसलिए अनिष्टापत्ति दोनोंके समान है । उत्तर - यह कहना असमर्थ होकर धूल फेंकने के समान है। क्योंकि हम ज्ञानको कार मानते है अर्थात् ज्ञान आत्मामें स्थित होकर ही पदार्थों को जानता है, शेयपदार्थोंके पास जाकर नहीं। इसलिए आपका दिया हुआ दूषण ठोक नही है ।
२. केवलज्ञान सर्वांगसे जानता है।
ध. १/१,१,१/२७/४८ सव्वावयवेहि दिदुसव्वट्टा । जिन्होंने सर्वांग सर्व पदार्थोंको जान लिया है ( वे सिद्ध है ) ।
क. पा. १/१,९/६४६/६५/२. ण चेगावयवेण चैव गेहदि; सयलावयवगयआवरणस्स णिसिंगारोव ग्रहणविरोहादो दो पत्तमपत्तं च अक्कमेण सयलावयवेहि जाणदि त्ति सिद्ध' । = यदि कहा जाय कि केवली आत्मा एक पदार्थोंका ग्रहण करता है. सो भो कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आमाके सभी प्रदेशों में विद्यमान आवरणकर्म के निर्मूल विनाश हो जानेपर केवल उसके एक अवयव से पदार्थोंका ग्रहण माननेमें विरोध आता है। इसलिए प्राप्त और अप्राप्त सभी पदार्थोंको युगपट्ट अपने सभी अयमोसे केवली जानता है, यह सिद्ध हो जाता है ।
मात्
प्र. सा./त.प्र./४० सर्वतो विशुद्धस्य प्रतिनियतदेशविशुद्धेरन्त समन्ततोऽपि प्रकाशते । = (क्षायिक ज्ञान) सर्वत विशुद्ध होनेके कारण प्रतिनियत प्रदेशोंकी विशुद्धि ( सर्वतः विशुद्धि) के भीतर म जानेसेब सर्वतः सर्वात्मप्रदेशों से भी) प्रकाशित करता है (प्र.सा./ त. प्र. / २२ ) ।
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२. केवलज्ञान प्रतिविम्ववत् जानता है
..जो अन्य जागिण जगु जागिर हवेश अप्पहँ करे rass fife जेण वसेइ || = अपने आत्मा के जाननेसे यह तीन लोक जाना जाता है, क्योंकि आत्मा के भावरूप केवलज्ञानमें यह लोक प्रतिबिम्बित हुआ बस रहा है।
[...]
प्र. सा./त प्र /२०० अथैकस्य ज्ञायकभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वाद ... प्रतिबिम्बवत्तत्र.. समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एव प्रत्यक्ष्यन्तं .. एक ज्ञायकभावका समस्त ज्ञेयोंको जाननेका स्वभाव होनेसे, समस्त द्रव्यमात्रको, मानों वे द्रव्य प्रतिबिम्बवत् हुए हों, इस प्रकार एक क्षण में ही जो प्रत्यक्ष करता है।
२. केवलज्ञानको विचित्रता
४. केवलज्ञान कोरकीर्णवत् जानता है
प्र सात
परिच्छेद प्रति नियतस्त्राव ज्ञानप्रक्षतामनुभवन्त शिलास्तम्भोत्कीर्ण [भूतभाविदेव प्रकम्पातिस्वरूपा । ज्ञानके प्रति नियत होनेसे (सर्व पर्यायें ज्ञानप्रत्यक्ष वर्तती हुई पाषाणस्तम्भमें उत्कीर्ण भूत और भावि देवोंकी भाँति अपने स्वरूपको अकम्पतया अर्पित करती है।
प्र. सा./त. २०० खकस्यायस्वभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावया प्रकीर्णलिनिखातकीलितमज्जिमानतित समस्तमषि द्रव्यजातमेकक्षण एव प्रत्यक्ष्यन्तं । - एक ज्ञायकभावका समस्त योंको जानने का स्वभाव होनेसे, समस्त द्रव्यमात्रको, मानो वे द्रव्य हायक उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हो, कीलित हो गये हों डूब गये हों, समा गये हों, इस प्रकार एक क्षण में ही जो प्रत्यक्ष करता है ।
प्र. सा./त. प्र. / ३७ चित्रपटस्थानीयवाद संविद यथा हि चित्रपट यामतिवाहितानामनुपस्थितानां वर्तमानानां च वस्तूनामालेस्याकारा साक्षादेकक्षण एवावभासन्ते तथा संविद्भितावपि। ज्ञान चित्रपटके समान है। जैसे चित्रपटमें अतीत अनागत और वर्तमान वस्तुओं आलेल्याकार साला एक समयमे भासित होते है । उसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्तिमे भी भासित होते है । ५. केवलज्ञान अक्रम रूपसे जानता है।
ष. वं. १३/५५/ सू. ८२ / ३४६ सव्वजोवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदिति ८२ - केवलज्ञान) सम जीवों और सर्व भावको सम्यक प्रकारसे युगप जानते हैं, देखते हैं और बिहार करते है। (प्र.सा./मू./४७); (बो. सा. अ./२६) (प्र.सा./त.प्र./ ५२/४) (प्र.सा./त.प्र./३२.२१) (.६/४.२.४५/२०/९४२) भ. जा././२१४२ भावे सगसिया सुरो युगवं जहा पयासे तहान केला पारीदि
जैसे सूर्य अपने प्रकाशमें जितने पदार्थ समाविष्ट होते है उन सबको युगपदप्रकाशित करता है, वे सिद्ध परमेशीका ज्ञान सम्पूर्ण ज्ञेयोको युगपत् जानता है। (प. प्र./टी./१/६/७/३ ); (पं.का./ता. [./२२४/९०) (प्र.सं./टी./१४/४/०
सहस्री / निर्णय सागर बम्बई / पृ. ४६. न खलु स्वभावस्य कश्चिदगोचरोऽस्ति । यन्न क्रमेत तत्स्वभावान्तरप्रतिषेधात 'ज्ञ' स्वभावको कुछ भी अगोचर नहीं है, क्योंकि वह क्रमसे नहीं जानता, तथा इससे अन्य प्रकारके स्वभावका उसमे निषेध है । प्र.सा/मू. व. त प्र / २१ सो व ते विजानदि उग्गहपुव्बाहि किरियाहि । २१ । ततोऽस्याक्रमसमाक्रान्त · सर्व द्रव्यपर्याया प्रत्यक्षा एव भवन्ति । = वे उन्हें अवग्रहादि क्रियाओंसे नही जानते ।... अतः अक्रमिक ग्रहण होनेसे तमक्ष सवेदनको आलम्बनभूत समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं।
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