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केवलज्ञान
२. केवलज्ञानकी विचित्रता
अर्हन्तोंको ही क्यों हो, अन्यको क्यों नहीं। सर्वज्ञत्व जाननेका प्रयोजन ।
अपेक्षासे रहित है। अथबा केवलज्ञान आत्मा और अर्थसे अतिरिक्त किसी इन्द्रियादिक सहायककी अपेक्षासे रहित है, इसलिए भी वह केवल अर्थात् असहाय है । इस प्रकार केवल अर्थात् असहाय जो ज्ञान है उसे केवलज्ञान कहते हैं।
३. केवलज्ञान एक ही प्रकारका है ध. १२/४,२,१४,५/४८०/७ केवलणाणमेयविधं, कम्मक्खएण उप्पज्जमाणत्तादो। केवलज्ञान एक प्रकारका है, क्योंकि, वह कर्म क्षयसे उत्पन्न होनेवाला है।
केवलज्ञानका स्वपरप्रकाशकपना निश्चयसे स्वको और व्यवहारसे परको जानता है। निश्चयसे परको न जाननेका तात्पर्य उपयोगका परके । साथ तन्मय न होना है। आत्मा शेयके साथ नहीं पर शेयाकारके साथ तन्मय होता है। आत्मा शेयरूप नहीं पर शेयाकाररूपसे अवश्य परिणमन करता है। ज्ञानाकार व शेयाकारका अर्थ । वास्तवमें शेयाकारोंसे प्रतिबिम्बित निज आत्माको देखते हैं। शेयाकारमें शेयका उपचार करके शेयको जाना कहा जाता है। छद्मस्थ भी निश्चयसे स्वको और व्यवहारसे परको जानते है। केवलज्ञानके स्वपरप्रकाशकपनेका समन्वय । ज्ञान और दर्शन स्वभावी आत्मा ही वास्तवमें स्वपर | प्रकाशी है।
-दे० दर्शन/२/६ । । | * | यदि एकको नहीं जानता तो सर्वको भी नहीं जानता
-दे० श्रुतकेवलो
४. केवलज्ञान गुण नहीं पर्याय है ध.६/१,९-१,१७/३४/३ पर्यायस्य केवलज्ञानस्य पर्यायाभावतः सामर्थ्यद्वयाभावात् ।- केवलज्ञान स्वयं पर्याय है और पर्यायके दूसरी पर्याय हातो नहीं है। इसलिए केवलज्ञानके स्व व पर को जाननेवाली दो
शक्तियोंका अभाव है। ध ७/२,१,४६/८८/११ ण पारिणामिएण भावेण होदि, सब्जीवाणं केवलणाणुप्पत्तिप्पसंगादो।प्रश्न-जीव केवलज्ञानी कैसे होता है। ( सूत्र ४६) । उत्तर-पारिणामिक भावसे तो होता नही है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो सभी जीवोंके केवलज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग आ जाता।
५. यह मोह व ज्ञानावरणीयके क्षयसे उत्पन्न होता है त. सू./१०/१ मोहमयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । = मोह
का क्षय होनेसे तथा ज्ञानावरण दर्शनावरण व अन्तराय कर्मका क्षय होनेसे केवलज्ञान प्रगट होता है।
६. केवलज्ञानका मतार्थ ध.६/१,६-६,२१६/४६०/४ केवलज्ञाने समुत्पन्नेऽपि सर्व न जानातीति कपिलो व्रते। तत्र तन्निराकरणार्थ बुद्धयन्त इत्युच्यते। कपिलका कहना है कि केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर भी सब वस्तुस्वरूपका ज्ञान नहीं होता। किन्तु ऐसा नहीं है, अतः इसोका निराकरण करनेके लिए 'बुद्ध होते है' यह पद कहा गया है। प.प्र/टो./१/१/७/१ मुक्तात्मनां सुप्तावस्थाबद्दहि यविषये परिज्ञानं नास्तीति सारख्या वदन्ति, तन्मतानुसारि शिष्यं प्रति जगत्त्रयकालत्रयवतिसर्व पदार्थयुगपत्परिच्छित्तिरूपकेवलज्ञानस्थापनार्थ ज्ञानमयविशेषणं कृतमिति । - 'मुक्तात्माओंके सुप्तावस्थाकी भॉति बाह्य ज्ञेय विषयोका परिज्ञान नहीं होता' ऐसा सांख्य लोग कहते हैं। उनके मतानुसारो शिष्यके प्रति जगतत्रय कालत्रयवर्ती सर्वपदार्थोंको युगपद जाननेवाले केवलज्ञानके स्थापनार्थ 'ज्ञानमय'यह विशेषण दिया है।
१. केवलज्ञान निर्देश
.. केवलज्ञानका व्युत्पत्ति अर्थ स. सि /९/8/१४/६ बाह्येनाभ्यन्तरेण च तपसा यदर्थमर्थिनो मार्ग केवन्ते सेवन्ते तत्केवलम् = अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और अभ्यन्तर तपके द्वारा मार्गका केवन अर्थात् सेवन करते हैं वह केवलज्ञान कहलाता है। (रा. वा./१/४/६/४४-४५) (श्लो. वा ३/१/६/८/५)
२. केवलज्ञान निरपेक्ष व असहाय है स.सि./९/8/8४/७ असहायमिति वा । केवल शब्द असहायवाची है, इसलिए असहाय ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं। मो. पा./टो.६/ ३०८/१३ (श्लो. वा/३/१/8/८/५) ध.६/१,६-१,१४/२६/५ केवलमसहायमिदियालोयणिरवेक्रवं तिकालगोयराण तपज्जायसमवेदाणं तवत्थुपरिमसंकड़ियमसबत्तं केवलणाणं ।
केवल असहायको कहते है। जो ज्ञान असहाय अर्थात् इन्द्रिय और आलोकको अपेक्षा रहित है, त्रिकालगोचर अनन्तपर्यायोंसे समवायसम्बन्धको प्राप्त अनन्त वस्तुओंको जाननेवाला है, असंकुटित, अर्थात सर्व व्यापक है और असपत्न अर्थात प्रतिपक्षी रहित है उसे केवलज्ञान कहते हैं । (ध. १३/५,५,२१/२१३/४ ) क. पा./१/१,१/१/२१,२३ केवलमसहायं इन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षस्वात् ।। -आत्मार्थव्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवलमसहायम् । केवलं च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानम्।असहाय ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार अर्थात् मनोव्यापारको
२. केवलज्ञानको विचित्रता
१. सर्वको जानता हुआ भी व्याकुल नहीं होता ध/१३/५,४,२६/८६/५ केवलिस्स विसईकयासेसदव्यपज्जायस्स सगसम्बद्धाए एगरूवस्स अणिदियस्स।केवली जिन अशेष द्रव्य पर्यायों. को विषय करते है, अपने सब काल में एकरूप रहते हैं और इन्द्रियज्ञानसे रहित है। प्र सा./त प्र/३२ युगपदेव सर्वार्थसार्थसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात संभावितग्रहणमोक्षणक्रियाविराम' प्रथममेव समस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतत्वात् पुनः परमाकारान्तरमपरिणममानः समन्ततोऽपि विश्वमशेषं पश्यति जानाति च एवमस्यात्यन्तविविक्तत्वमेव । एक साथ ही सर्व पदार्थोके समूहका साक्षात्कार करनेसे, ज्ञप्ति परिवर्तनका
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-१९
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