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केवलज्ञान
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६. केवलज्ञानका स्वपर-प्रकाशकपना
वक्तापन आदिका प्रकर्ष होनेपर भी ज्ञानकी हानि नहीं होती। (और भी दे० व्यभिचार/४ ) ।
अयुक्त नहीं है, क्योंकि १. उसका दृष्टके साथ अविरोध है । (जगतमें) दिखाई देता है कि छद्मस्थके भो, जैसे वर्तमान बस्तुका चिन्तवन करते हुए ज्ञान उसके आकारका अवलम्बन करता है, उसी प्रकार भूत और भविष्यत् वस्तुका चिन्तवन करते हुए (भी) ज्ञान उसके आकारका अवलम्बन करता है । २. ज्ञान चित्रपटके समान है। जैसे चित्रपटमें अतीत अनागत और वर्तमान वस्तुओंके आलेख्याकार साक्षात एक क्षण में ही भासित होते है, उसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्तिमें भी अतीत अनागत पर्यायोंके ज्ञयाकार साक्षाद एक क्षणमें हो भासित होते हैं । ३. और सर्व जयाकारों की तात्कालिकता अविरुद्ध है । जैसे चित्रपटमें नष्ट व अनुत्पन्न (बाहूबली, राम, रावण आदि ) वस्तुओके आलेख्याकार वर्तमान ही है, इसी प्रकार अतीत और अनागत पर्यायोके ज्ञयाकार वर्तमान ही है। ३. अपरिणामी केवलज्ञान परिणामी पदार्थों को कैसे जाने
६. अर्हन्तोंको ही केवलज्ञान क्यो अन्यको क्यों नहीं आप्त, मी /मू./६,७ स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् ।
अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्ध न न बाध्यते ।६। त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथै कान्तवादिनाम। आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टादृष्टेन बाध्यते ।७। -हे अर्हन् । वह सर्वज्ञ आप हो है, क्योंकि आप निर्दोष हैं। निर्दोष इसलिए हैं कि युक्ति और आगमसे आपके वचन अविरुद्ध हैं और वचनोमें विरोध इस कारण नहीं है कि आपका इष्ट ( मुक्ति आदि तत्त्व ) प्रमाणसे बाधित नहीं है। किन्तु तुम्हारे अनेकान्त मतरूप अमृतका पान नहीं करनेवाले तथा सर्वथा एकान्त तत्त्वका कथन करनेवाले और अपनेको आप्त समझनेके अभिमानसे दग्ध हुए एकान्तवादियोंका इष्ट (अभिमत तत्त्व ) प्रत्यक्षसे बाधित है। (अष्टसहस्रो ) (निर्णय सागर बम्बई /पृ.६६-६७) (न्याय. दो/२/२४२६/४४-४६ ) ।
घ. १/१,१,२२/१९८/५ प्रतिक्षणं विवर्तमानानर्थानपरिणामि केवलं कथं
परिच्छिनत्तीदि चेन्न, ज्ञ यसमविपरिवर्तिन. केवलस्य तदविरोधात । ज्ञयपरतन्त्रतया परिवर्तमानस्य केवलस्य कथ पुनर्नवोत्पत्तिरिति चेन्न, केवलोपयोगसामान्यापेक्षया तस्योत्पत्तरभावात। विशेषापेक्षया च नेन्द्रियालोकमनोभ्यस्तदुत्पत्तिविंगतावरणस्य तद्विरोधात् । केवलमसहायत्वान्न तत्सहायमपेक्षते स्वरूपहानिप्रसंगात् । -प्रश्न-अपरिवर्तनशील केवलज्ञान प्रत्येक समयमे परिवर्तनशील पदार्थोंको कैसे जानता है । उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योकि, ज्ञेय पदार्थोंको जाननेके लिए तदनुकूल परिवर्तन करनेवाले केवलज्ञानके ऐसे परिवर्तनके मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता। प्रश्न-ज्ञ यकी परतंत्रतासे परिवर्तन करनेवाले केवलज्ञानकी फिरसे उत्पत्ति क्यो नहीं मानी जाये ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, केवलज्ञानरूप उपयोग-सामान्यकी अपेक्षा केवलज्ञान की पुन: उत्पत्ति नही होती है। विशेषकी अपेक्षा उसकी उत्पत्ति होते हुए भी वह ( उपयोग) इन्द्रिय, मन और आलोकसे उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि, जिसके ज्ञानावरणादि कर्म नष्ट हो गये हैं, ऐसे केवलज्ञानमें इन्द्रियादिकी सहायता मानने में विरोध आता है। दूसरी बात यह है कि केवलज्ञान स्वयं असहाय है, इसलिए वह इन्द्रियादिकोंकी सहायताकी अपेक्षा नहीं करता है, अन्यथा ज्ञानके स्वरूपको हानिका प्रसंग आ जायेगा।
७. सर्वज्ञत्व जाननेका प्रयोजन पं. का./ता. वृ./२६/६७/१० अन्यत्र सर्वज्ञसिद्धौ भणितमास्ते अत्र पुनरध्यात्मग्रन्थत्वान्नोच्यते। इदमेव वीतरागसर्वज्ञस्वरूपं समस्तरागादिविभावत्यागेन निरन्तरमुपादेयत्वेन भावनीयमिति भावार्थ: । सर्वज्ञ कीसिद्धिन्यायविषयक अन्य ग्रन्थों में अच्छी तरह की गयी है। यहाँ अध्यात्मग्रन्थ होनेके कारण विशेष नहीं कहा गया है। ऐसा वीतराग सर्वज्ञका स्वरूप ही समस्त रागादि विभावोंके त्याग द्वारा निरन्तर उपादेयरूपसे भाना योग्य है, ऐसा भावार्थ है।
४. केवलज्ञानीको प्रश्न पूछने या सुनने की आवश्यकता
क्यों म. पु /१/१८२ प्रश्नाद्विनैव तद्भाव जानन्नपि स सर्ववित् । तत्प्रश्नान्तमुदै क्षिष्ट प्रतिपत्रनिरोधतः ।१८२। - संसारके सब पदार्थोंको एक साथ जाननेवाले भगवान् वृषभनाथ यद्यपि प्रश्नके विना ही भरत महाराजके अभिप्रायको जान गये थे तथापि वे श्रोताओंके अनुरोधसे प्रश्नके पूर्ण होनेको प्रतीक्षा करते रहे।
५. सर्वज्ञत्वके साथ वक्तृत्वका विरोध नहीं है आप्त. प./मू./88-१०० नाहं निःशेषतत्त्वज्ञो वक्तृत्व-पुरुषत्वतः। ब्रह्मादिवदिति प्रोक्तमनुमानं न बाधकम् ।। हेतोरस्य विपक्षेण विरोधाभावनिश्चयात् । वक्तृत्वादेः प्रकर्षेऽपि ज्ञानानिसिसिद्धित. १००/प्रश्न-अर्हन्त अशेष तत्त्वोका ज्ञाता नहीं है क्योंकि वह वक्ता है और पुरुष है। जो वक्ता और पुरुष है, वह अशेष तत्त्वों का ज्ञाता नही है, जसे ब्रह्मा वगैरह । उत्तर-यह आपके द्वारा कहा गया अनुमान सर्वज्ञका बाधक नहीं है, क्योंकि, वक्तापन और पुरुषपन हेतुओंका, विपक्षके (सर्वज्ञताके ) साथ विरोधका अभाव निश्चित है, अर्थात् उक्त हेतु सपक्ष व विपक्ष दोनोंमे रहता होनेसे अनै कान्तिक है । कारण
६. केवलज्ञानका स्वपर-प्रकाशकपना
१. निश्चयसे स्वको और व्यवहारसे परको जानता है नि सा./मू. १५६ जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।१५६ = व्यवहार नयसे केवली भगवान सबकोजानते है और देखते हैं; निश्चयनयसे केवलज्ञानी आत्माको जानता है और देखता है। (प. प्र./टो./१/५२/५०/८ ( और
भी दे० श्रुतकेवलो/३)/ प प्र/मू./१/५ ते पुणु बंदउँ सिद्धगण जे अप्पाणि वसंत/लोयालोउ वि सयल इहु अच्छहि विमल णियंत ।। मैं उन सिद्धोको वन्दता हूँ, जो निश्चय करके अपने स्वरूपमें तिष्ठते हैं और व्यवहार नयकरि लोकालोकको संशयरहित प्रत्यक्ष देखते हुए ठहर रहे हैं । २. निश्चयसे परको न जाननेका तात्पर्य उपयोगका पर
के साथ तन्मय न होना है प्र. सा./त.प्र./१२/क-४ जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भावि भूतं समस्तं,
मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति पर नैव निलू नकर्मा । तेनास्ते मुक्त एक प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीतज्ञ याकार त्रिलोकी पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः ।४। -जिसने कर्मोको छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, भविष्यत् और वर्तमान समस्त विश्वको एक ही साथ जानता हुआ भी मोहके अभावके कारण पररूप परिणमित नहीं होता, इसलिए अब, जिसके (समस्त) ज्ञेयाकारों को अत्यन्त विकसित ज्ञप्तिके विस्तारसे स्वयं पी गया है ऐसे तीनों लोकके पदार्थोंको पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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