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III कारण ( निमित्तकी गौणता मुख्यता )
बोपा / ६०/५० १५३ / ९४ पं जयचन्द - अपना भला बुरा अपने भावनि के अधीन है। उपादान कारण होय तो निमित्त भो सहकारी होय । अर उपादान न होय तौ निमित्त कछू न करे है । (भापा / २ / पं. जयचन्द / पृ० १५६/२) (और भी दे० कारण/II/१/७) ।
५. सहकारी कारणको कारण कहना उपचार है
रा. वा. हि/६/२७/७२६ मे श्लो. वा से उद्धृत - अन्यके नेत्रनिको ज्ञानका कारण सहकारीमात्र उपचारकरि कहा है । परमार्थते ज्ञानका कारण आत्मा ही है । दे० कारण /11/१/७ में श्लो० वा० ।
६. सहकारी कारण कार्यके प्रति प्रधान नहीं है
सम्यग्दर्शनपरिणाम
रा.वा./१२/२/१४/२०/१८ वान्यन्दर आस्मीय प्रधानम् सति तस्मिन् बाह्यस्योपावाद तो बाह्य आभ्यन्तर स्याहरू पारार्थेन वर्तत इत्यप्रधानम् सम्यग्दर्शनपरिणाम । रूप आभ्यन्तर आत्मीय भाव ही तहाँ प्रधान है कर्म प्रकृति नही । क्योंकि उस सम्यग्दर्शनके होनेपर वह तो उपग्राहक मात्र है इसलिए बाह्य कारण आभ्यन्तरका उपग्राहक होता है और परपदार्थ रूपसे वर्तन करता है. इस लिए अप्रधान होता है।
७. सहकारीको कारण मानना सदोष है
स सा./आ.२६५ न च बन्धहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्य वस्तु बन्धहेतु' स्यात् ईसमितिपरिणतपाद्यमान वेगापतत्कालोदिमावस्तुनो बन्धहेतुहेतोरन्धहेतुत्वेन बन्धहेतुत्व स्थानकात । - यद्यपि बाह्य वस्तु बन्धके कारणका ( अर्थात् अध्यवसानका ) कारण है, तथापि वह बन्धका कारण नहीं है। क्योंकि ईयसमितिमे परिणमित मुनीन्द्रके चरणसे मर जानेवाले किसी कालप्रेरित जीवकी भाँति बाह्य वस्तुको बन्धका कारणत्त्र माननेमें अनैकान्तिक हेत्वाभासत्व है। अर्थात व्यभिचार आता है तो वा/२/१/६/२१/३०३/१९) प. ८०१ अभिप्रेतमे स्वस्थितिकरणं स्वत न्यायान्तरिचदत्रापि हेतुस्तत्रानव स्थिति |८०१ | = इस स्वस्थितिकरण के विषय में इतना ही अभिप्राय है कि स्थितिकरण स्वयमेव ही होता है। यदि इसका भी न्यायानुसार कोई न कोई कारण मानेगे तो अनवस्था दोष आता है | ८०१ |
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८. सहकारी कारण अहेतुवत् होता है।
पं.ध. /उ./३५१,६७६ मतिज्ञानादिवेलायामात्मोपादानकारणम् । देहेन्द्रियास्तदर्थाश्च बाह्यं हेतुरहेतुवत् । ३५१ | अस्त्युपादानहेतोश्च
क्षति तदति । तदापि न वहिर्वस्तु स्यात्तहेतु ६० मति ज्ञानादिके उत्पन्न होनेके समय आत्मा उपादान कारण है और
इन्द्रिय तथा उन इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ केवल बाह्य हेतु है, अरा. वे अहेतुके बराबर है । ३३११ केवल अपने उपादान हेतुसे ही चारित्रको क्षति अथवा चारित्रको अक्षति होती है। उस समय भी बाह्य वस्तु उस क्षति अक्षतिका कारण नही है । और इसलिए दीक्षादेशादि देने अथवा न देनेरूप बाह्य वस्तु चारित्रको क्षति अक्षति के लिए अहेतु है | ६७
९. सहकारी कारण तो निमित्त मात्र होता है
स.सि /१/२० / १२१ / ३ ( श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमे मतिज्ञान निमित्तमात्र है ।) ( रा वा/१/२०/४/०२/२)
रावा / १/२/११/२०/८ (बाह्य साधन उपकरणमात्र है )
रा. वा /५/७/४/४४६/१८ ( जीव पुद्गलको गति स्थिति आदि कराने में धर्म अधर्म आदि निष्क्रिय द्रव्य इन्द्रियवत् बलाधानमात्र है। )
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२. निमित्तकी कथंचित् गीणता
न च वृ./१३० मे उधृत --- ( सराग व वीतराग परिणामोको उत्पत्ति में बाह्य वस्तु निमितमात्र है।)
ससा /आ /८० ( जीव व पुद्गल कर्म एक दूसरेके परिणामो मे निमित्तमात्र होते है।) (ससा आ /६१) (प्रसास १८६) (सि.उ./१२)
( ससा / ता वृ./१२५) ।
नं.का प्र./६० जीवके सुख-दुख में इष्टानिष्ट विषय निमित्तमात्र है
का अ / मू / २१७ ( प्रत्येक द्रव्यके निज निज परिणाममे बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र है
पंध. / पू / ५७६ ( सर्व द्रव्य अपने भावोके कर्ता भोक्ता है, पर भावो के मापनानिमित है।)
१०. निमित्त परमार्थ में अकिंचित्कर व हेय है
रावा/१/२/१३/२०/१५ ( क्षायिक सम्यक्त्व अन्तर परिणामोसे ही होता है, कर्म पुद्गल रूप बाह्य वस्तु हेय है ।
ससा./ता वृ/ ११६ (पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्मभावरूप परिणमित होता है । तहाँ मिति जोन पर है।)
प्रसा./ता.वृ / १४३ / जीवको सिद्ध गति उपादान कारणसे ही होती है । तहाँ काल द्रव्य रूप निमित्त हेय है ) (द्र.स / टी / २२/६७/४) ११. भिन्न कारण वास्तव में कोई कारण नहीं
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श्लो. वा/२/२/६/४०/३६४ चक्षुरादिप्रमाणं चेद चेतनमपीष्यते । न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित' सदा |४०| = वैशेषिक व नैयायिक लोग इन्द्रियोको प्रमितिका कारण मानकर उन्हे प्रमाण कहते है । परन्तु जड होनेके कारण वे ज्ञप्तिके लिए साधकतम करण कभी नहीं हो सकते ।
स. सा // २१४ आत्ममन्थयोर्द्विधा करणे कार्ये कर्तुरात्मन. करणमीमां सामा निश्चयत स्वतो भिकरणासभवाह भगवती सेनारमकं करणम् । - आत्मा और बन्धके द्विधा करनेरूप कार्य में कर्ता जो आत्मा उसके करण सम्बन्धी मीमांसा करनेपर, निश्चयसे अपने से भिन्न करणका अभाव होनेसे भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है ।
ससा
३०-३११ सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पादभावाभावात्। = सर्व द्रव्योका अन्य द्रव्यके साथ उत्पाद्य उत्पादक भावका अभाव है ।
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प.मु / २ / ६-८ नालोको कारण परिच्छेद्यत्वात्तमोत् । ६ । तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोऽण्डुक ज्ञानवन्नक्तचरज्ञानवश्च 191 अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशक प्रदीपवत् = अन्वयव्यतिरेकसे कार्यकारणभाव जाना जाता है। इस व्यवस्था के अनुसार 'प्रकाश' ज्ञानमे कारण नहीं है, क्योंकि उसके अभाव मे भी रात्रिको विचरने वाले मिली चूहे आदिको ज्ञान होता है और उसके सद्भावमें भी उस वगैरह को ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार अर्थ भी ज्ञानके प्रति कारण नहीं हो सकता, क्योंकि अर्थके अभाव मे भी शमशकादि ज्ञान उत्पन्न होता है। दीपक जिस प्रकार घटादिकोसे उत्पन्न न होकर भी उन्हें प्रकाशित करता है इसी प्रकार ज्ञान भी अर्थ से उत्पन्न न होकर उन्हें प्रकाशित करता है । (न्या. दी /२/९४-५/२६)
१२. व्यके परिणमनको सर्वथा निमित्ताधीन मानना मिथ्या है
ससा / मू/ १२१-१२३ण सयं बद्धो कम्मेण परिणमदि कोमादीहि । जइ एस तुझ जीमो अपरिणामी तदा होदी ११२१ अपरिणत म्ह सर्व जीवे कोहादिएहि माहि संसाररस अभागी पदे संख
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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