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III कारण (निमितकी गौणता मुख्यता)
३. कर्म व जीवगत कारण कार्य भावकी गोणता
समओ वा।१२२। सांख्यमतानुसारी शिष्यके प्रति आचार्य कहते हैं कि हे भाई! 'यह जीव कर्ममें स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भावसे स्वयं नहीं परिणमता है' यदि तेरा यह मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है और जीव स्वयं क्रोधादि भावरूप नहीं परिण - मता होनेसे संसारका अभाव सिद्ध होता है। अथवा सांख्य मतका प्रसंग आता है ।१२१-१२२१ और पुदगल कर्मरूप जो क्रोध है वह जीवको कोधरूप परिणमन कराता है ऐसा तू माने तो यह प्रश्न होता है कि स्वयं न परिणमते हुएको वह कैसे परिणमन करा सकता है।१२३॥ स.सा./आ/३३२-३३४ एवमोदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमानाः केचिच्छ्रमणाभासा' प्ररूपयन्ति; तेषां प्रकृतेरेकान्तेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकान्तेनाकतृत्वापत्तेः जीव' कर्तेति श्रुतेः कोपो दु'शक्यः परिहर्तुय । - इस प्रकार ऐसे सारख्यमतको अपनी प्रज्ञाके अपराधसे सूत्रके अर्थ को न जाननेवाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते है। उनकी एकान्त प्रकृतिके कर्तृत्वको मान्यतासे समस्त जीवोके एकान्तसे अकर्तृत्व आ जाता है। इसलिए 'जीव कर्ता है। ऐसी जो श्रुति है उसका कोप दूर करना अशक्य हो
जाता है। स.सा/आ/३७२/क.२२१ रागजन्मनि निमित्ततां पर-द्रव्यमेव कलयन्ति ये तुते। उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनी, शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः ।२२१।
जो रागकी उत्पत्तिमें परद्रव्यका ही निमित्तत्व मानते है, वेजिनकी बुद्धि शुद्धज्ञानसे रहित अन्ध है मोहनदीको पार नहीं कर
सकते ।२२१॥ पं.ध./पू./५६६-५७१ अथ सन्ति नयाभासा यथोपचारारब्यहेतुदृष्टान्ता'। १५६६। अपि भवति बन्ध्यवन्धकभावो यदि बानयोर्न शक्यमिति। तदनेकत्वे नियमात्तबन्धस्य स्वतोऽप्यसिद्धत्वात ५७०। अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनै मित्तिकत्वमस्ति मिथः। न यतः स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया ।५७१। = ( जीव व शरीरमें परस्पर मन्ध्यबन्धक या निमित्त नैमित्तिक भाव मानकर शरीरको व्यवहारनयसे जीवका कहना नयाभास अर्थात मिथ्या नय है, क्योकि अनेक द्रव्य होनेसे उनमें वास्तवमें बन्ध्य बन्धक भाव नहीं हो सकता। निमित्त नैमित्तिक भाव भी असिद्ध है क्योंकि स्वयं परिणमन करनेवालेको निमित्तसे क्या प्रयोजन ) ३. कर्म व जीव गत कारण कार्य भावकी गौणता १. जीवके भावको निमित्तमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमते हैं पं.का/मू./६५ अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावहि । गच्छति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा ६॥ -आत्मा अपने रागादि भावको करता है। वहाँ रहनेवाले पुद्गल अपने भावोसे जीवमें अन्योन्य अवगाहरूपसे प्रविष्ट हुए कर्मभावको प्राप्त होते है। (प्र. सा./त. प्र./९८६) स.सा./मू./८०-८१ जीवपरिणामहेदु पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तदेव जीयो वि परिणमइ ।। णवि कुबइ कम्मगुणो जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोह्र पि।८१ पुद्गल जीवके परिणामके निमित्तसे कर्मरूपमें परिणमित होते हैं और जीव भी पुद्गल कर्म के निमित्तसे परिणमन करता है 1८० जीव कर्मके गुणोको नहीं करता। उसी तरह कर्म भी जीवके गुणोंको नहीं करता। परन्तु परस्पर निमित्तसे दोनोके परिणमन जानो । ( स.सा./मू./११,१९६ ) ( स सा /आ/१०५,११६ ) (पु.सि.
उ./१२) प्र.सा/त.प्र./१८७ यदायमात्मा रागद्वेषवशीकृतः शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ग्रे योगद्वारेण प्रविशन्तः कर्मपुद्गला' स्वयमेव समुपा
त्तवैचित्र्यै निावरणादिभाव परिणमन्ते । अतः स्वभावकृतं कर्मणां वैचित्र्यं न पुनरात्मकृतम् । = ( मेघ जलके संयोगसे स्वत. उत्पन्न हरियाली व इन्द्रगोप आदिवत ) जब यह आत्मा रागद्वेषके वशीभूत होता हुआ शुभाशुभ भावरूप परिणमित होता है तब अन्य, योगद्वारोंसे प्रविष्ट होते हुए कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रताको प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते है। इससे कर्मोंकी विचित्रताका होना स्वभावकृत है किन्तु आत्मकृत नहीं। प्र.सा./त.प्र./१६६ जीवपरिणाममात्र बहिरङ्गसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मवपरिणमनशक्तियोगिनः पुद्गलस्कन्धा' स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति ।-बहिरंगसाधनरूपसे जीवके परिणामोंका आश्रय लेकर, जीव उसको परिणमानेवाला न होनेपर भी, कर्मरूप परिणमित होनेकी शक्तिवाले पुद्गलस्कन्ध स्वयमेव कर्मभावसे
परिणमित होते है। (पं.का/त./प्र./६५-६६ ). (स.सा./आ./६१) पं.ध./उ./२६७ सति तत्रोदये सिद्धाः स्वतो नोकर्मवर्गणाः । मनो देहेन्द्रियाकारं जायते तन्निमित्ततः ॥२६७१-उस पर्याप्ति नामकर्मका उदय होनेपर स्वयंसिद्ध आहारादि नोकर्मवर्गणाएँ उसके निमित्तसे मन देह और इन्द्रियोंके आकार रूप हो जाती हैं। २. ११वें गुणस्थानमें अनुमागोदयमें हानिवृद्धि रहते हुए
भी जीवके परिणाम अवस्थित रहते हैं ल. सा./जी. प्र./३०७/३८६ अत. कारणादवस्थितविशुद्धिपरिणामेऽप्यु पशान्तकषाये एतच्चतुस्त्रिशत्प्रकृतीनां अनुभागोदयस्त्रिस्थानसंभवी भवति, कदाचिद्धीयते, कदाचिद्वर्धते, कदाचिद्धानिवृद्धिभ्यां बिना एकादश एवावतिष्ठते।-(यद्यपि तहाँ परिणामोकी अवस्थितिके कारण शरीर वर्ण आदि २५ प्रकृतियें भी अवस्थित रहती हैं परन्तु) अवशेष ज्ञानावरणादि ३४ प्रकृतियें भवप्रत्यय हैं। उपशान्तकषायगुणस्थानके अवस्थित परिणामों की अपेक्षा रहित पर्यायका ही आश्रय करके इनका अनुभाग उदय इहाँ तीन अवस्था लिए है। कदाचित हानिरूप हो है, कदाचित् वृद्धिरूप हो है, कदाचित् अवस्थित जैसाका तैसा रहे है। ३. जीव व कर्म में बध्यघातक विरोध नहीं है यो. सा./अ/8/४६ न कर्म हन्ति जीवस्य न जीवः कर्मणो गुणान् । बध्यघातकभावोऽस्ति नान्योन्यं जीवकर्मणो । न तो कर्म जीवके गुणोंका घात करता है और न जीव कर्मके गुणोंका पात करता है। इसलिए जीव और कर्मका आपसमें बध्यघातक सम्बन्ध नहीं है।
४. जीव व कर्ममें कारणकार्य मानना उपचार है ध.६/१/8,१-८/११/५ मुह्यत इति मोहनीयम् । एवं संते जीवस्स मोहणी
यत्तं पसज्ज दि त्ति णासंकणिज्जं, जीवादो अभिणम्हि पोग्गलदवे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तथा उत्तीदो। जो मोहित होता है वह मोहनीय कम है। प्रश्न-इस प्रकारकी व्युत्पत्ति करनेपर जीवके मोहनीयत्व प्राप्त होता है। उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए; क्योंकि, जीवसे अभिन्न और कर्म ऐसी संज्ञावाले पुद्गलकर्म में उपचारसे कर्मत्वका आरोपण करके उस प्रकारकी
व्युत्पत्ति की गयी है। प्र. सात प्र /१२१-१२२ तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाइद्रव्यकर्मकर्ताप्युपचारात ।१२। परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण एवं कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मणः । .. परमार्थात पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता, न त्वात्मात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मणः ।१२२१ = आत्मा भी अपने परिणामका कर्ता होनेसे द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचारसे है ।१२१॥ परमार्थ त.
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