________________
२. निमित्तकी कथंचित गौणता
III कारण ( निमित्तको गौणता मुख्यता )
६५ २. निमित्तकी कथंचित् गौणता १. सभी कार्य निमित्तका अनुसरण नहीं करते ध.६/११-६.१६/१६४/७ कुदो । पयडिबिसेसादो। ण च सव्वाई कजाई एयंतेण बज्झत्थमवेविषय चे उप्पज्जंति, सालिबोजादो जवं कुरस्स वि उप्पत्तिप्पसंगा। ण च तारिसाई दवाई तिसु वि कालेसु कहि पि अस्थि, जेसि बलेण सालिमीजस्स जवंकुरप्पायणसत्ती होज, अणबस्थापसंगादो। प्रश्न-(इन सर्व कर्मप्रकृतियौंका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध इतना इतना ही क्यों है। जीव परिणामोके निमित्तसे इससे अधिक क्यो नही हो सकता) उत्तर-क्योकि प्रकृति विशेष होनेसे सुत्रोक्त प्रकृतियोंका यह स्थिति बन्ध होता है। सभी कार्य एकान्तसे बाह्य अर्थकी अपेक्षा करके ही नहीं उत्पन्न होते हैं, अन्यथा शालिधान्यके बीजसे जौके भी अंकुरकी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु उस प्रकारके द्रव्य तीनों ही कालोंमे किसी भी क्षेत्रमें नही है कि जिनके बलसे शालिधान्यके बीजके जौके अंकुरको उत्पन्न करनेकी शक्ति हो सके । यदि ऐसा होने लगेगा तो अनवस्था दोष प्राप्त होगा।
२. धर्मादि द्रव्य उपकारक हैं प्रेरक नहीं पं.का./मु /८८-८६ ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स। हबदिगदिस्स पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च ।८८। विज्जदि जसि गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि । ते सगपरिणामे हि दु गमणं ठाणं च कुब्यति ।८। -धर्मास्तिकाय गमन नहीं करता और अन्य द्रव्यको गमन नहीं कराता। वह जीवों तथा पुद्गलोको गतिका उदासीन प्रसारक ( गति प्रसारमें उदासीन निमित्त) है।। जिनको गति होती है उन्हीको स्थिति होती है । वे तो अपने-अपने परिणामों से गति और स्थिति करते है । ( इसलिए धर्म व अधर्म द्रव्य जीव पुद्गल की गति व स्थितिमे मुख्य हेतु नहीं (त, प्र.टी.)। रा.वा./५/७/४-६/४४६ निष्क्रियत्वात गतिस्थिति-अवगाहनक्रियाहेतुत्वाभाव इति चेत्न, बलाधानमात्रत्वादिन्द्रियवत् ।४। यथा दिदृक्षोश्चक्षुरिन्द्रियं रूपोपलन्धी बलाधानमात्रमिष्ट न तु चक्षुष. तत्सामर्थ्यम् इन्द्रियान्तरोपयुक्तस्य तद्भावात्। तथा स्वयमेव गतिस्थित्यवगाहनपर्यागपरिणामिनां जीवपुद्गलानां धर्माधर्माकाशद्रव्याणि गत्यादिनिवृत्तौ बलाधानमात्रत्वेन विवक्षितानि न तु स्वयं क्रियापरिणामी नि। कुत पुनरेतदेवमिति चेत् । उच्यते-द्रव्यसामथ्यात् ।। यथा आकाशमगच्छत् सर्व द्रव्य संबद्धम, न चास्य सामथ्यमन्यस्यास्ति । तथा च निष्क्रियत्वेऽप्येषां गत्यादिक्रियानिवृत्ति प्रति बनाधानमात्रस्वमसाधारणमवसेयम् । रा.वा /५/१७/१६/४६२/५ तयो. कर्तृत्वप्रसग इति चेत्, न, उपकारवचनाद् यष्टयादिवत ।१६। -जीवपुद्गलानो स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मों उपकारको न प्रेरको इत्युक्तं भवति । ततश्च मन्यामहे न प्रधानकर्तारौ इति 1१७) प्रश्न-क्रियावाले ही जलादि पदार्थ मछली आदिकी गति और स्थितिमें निमित्त देखे गये है, अत' निष्क्रिय धर्माधर्मादि गति स्थितिमे निमित्त कैसे हो सकते है । उत्तर-जे से देखने की इच्छा करनेवाले आत्माको चक्षु इन्द्रिय मलाधायक हो जाती है, इन्द्रियान्तरमे उपयुक्त आत्माको वह स्वयं प्रेरणा नहीं करती। उसी प्रकार स्वयं गति स्थिति और अवगाहन रूपसे परिणमन करनेवाले द्रव्यो की गति आदिमें धर्मादि द्रव्य निमित्त हो जाते है, स्वयं क्रिया नही करते। जैसे आकाश अपनी द्रव्य सामध्यसे गमन न करनेपर भी सभी द्रव्योसे सम्बद्ध है और सवंगत कहलाता है, उसी तरह धर्मादि द्रव्योको भी गति आदि में निमित्तता समझनी चाहिए। जैसे यष्टि चलते हुए अन्धेको उपकारक है उसे प्रेरणा नही करतो उसी प्रकार धर्मादिकोको भी उपकारक
कहनेसे उनमे प्रेरक कतृत्व नहीं आ सकता। इससे जाना जाता है कि ये दोनो प्रधान कर्ता नही है। (रा.बा./२/१७/२४/४६३/३१)। गो.जी/मू./५७०/१०१५ य ण परिणमदि समं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णे हि। विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेतु ।५७०। - काल न तो स्वयं अन्य द्रव्यरूप परिणमन करता है और न अन्यको अपने रूप या किसी अन्य रूप परिणमन कराता है । नाना प्रकारके परिणामो युक्त ये द्रव्य स्वयं परिणमन कर रहे हैं, उनको काल
दब्य स्वयं हेतु या निमित्त मात्र है। पं.क./ता.वृ/२४/१०/११ सर्व द्रव्याणां निश्चयेन स्वयमेव परिणम गच्छन्तां शीतकाले स्वयमेवाध्ययन क्रिया कुर्वाणस्य पुरुषस्याग्निसहकारिवत् स्वयमेव भ्रमण क्रिया कुर्वाणस्य कुम्भकारचक्रस्याधस्तनशिलासहकारिवद्गबहिरङ्गनिमित्तत्वाद्वर्तनालक्षणश्च कालाणुरूपो निश्चयकालो भवति। -सर्व द्रव्यों को जो कि निश्चयसे म्वयं ही परिणमन करते है, उनके बहिरंग निमित्त रूप होनेसे वर्तना लक्षणवाला यह कालाणु निश्चयकाल होता है । जिस प्रकार शीतकाल में स्वयमेव अध्ययन क्रिया परिणत पुरुषके अग्नि सहकारी होती है, अथवा स्वयमेव भ्रमण क्रिया करनेवाले कुम्भारके चक्रको उसकी अधस्तन शिला सहकारी होती है, उसी प्रकार यह निश्चय कालद्रव्य भी, स्वयमेव परिणमनेवाले द्रव्योंको बाह्य सहकारी निमित्त है। (पं का./ता.वृ /८/१४२/१५)। ३. अन्य भी उदासीन कारण धर्मद्रव्यवत् ही जानने इ. उ/मू /३५ नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति । निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेधर्मास्तिकायवत। जो पुरुष अज्ञानी या तत्त्वज्ञानके अयोग्य है वह गुरु आदि परके निमित्तसे विशेष ज्ञानी नही हो सकता। और जो विशेष ज्ञानी है, तत्त्वज्ञानकी योग्यतासे सम्पन्न है वह अज्ञानी नहीं हो सकता। अतः जिस प्रकार धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलोके गमनमें उदासीन निमित्तकारण है, उसी प्रकार अन्य मनुष्यके ज्ञानी करने में गुरु आदि निमित्त कारण हैं। पं का /ता वृ/८/१४२/१५ धर्मस्य गतिहेतुत्वे लोकप्रसिद्धदृष्टान्तमाह
उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहर...भव्याना सिद्धगतेः पुण्यवत... अथवा चतुर्ग तिगमनकाले व्यलिङ्गादिदानपूजादिकं वा बहिरड्गसहकारिकारणं भवति ।८५। - धर्म द्रव्यके गति हेतुत्वपनेमें लोकप्रसिद्ध दृष्टान्त कहते है-जैसे जल मछलियो के गमनमें सहकारी है (और भी दे० धर्माधर्म/२), अथवा जैसे भव्योको सिद्ध गतिमें पुण्य सहकारी है. अथवा जैसे सर्व साधारण जीवोंको चतुर्गति गमनमें द्रव्य लिग व दान पूजादि बहिरंग सहकारी कारण है; (अथवा जैसे शीतकालमे स्वयं अध्ययन करनेवालेको अग्नि सहकारी है, अथवा जैसे भ्रमण करनेवाले कुम्भारके चक्रको उसकी अधस्तन शिला उदासीन कारण है (पं.का /ता वृ/५०/११-दे० पीछेवाला शीर्षक)-उसी प्रकार जोव पुद्गलकी गतिमें धर्म द्रव्य सहकारी कारण है। द्र सं/टी./१८/५६/६ सिद्धभक्तिरूपेणेह पूर्व सविकल्पावस्थाया सिद्धोऽपि
यथा भव्याना बहिरंगसहकारिकारणं भवति तथै ब.. अधर्मद्रव्यं स्थिते सहकारिकारण। -सिद्ध भक्तिके रूपसे पहिले सविकल्पा वस्थामे सिद्ध भगवान भी जैसे भव्य जीवोके लिए बहिरंग सहकारी कारण होते है, तैसे ही अधर्म द्रव्य जीवपुद्गलोंको ठहरनेमें सहकारी कारण होता है। ४. बिना उपादानके निमित्त कुछ न करे ध.१/१,१.१६३/१०३/१२ मानुषोत्तरात्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात् । न हि स्वतोऽसमर्थोऽभ्यतः समर्थो भवत्यत्तिप्रसंगात । - मानुषोत्तर पर्वतके उस तरफ देवों की प्रेरणासे भी मनुष्योका गमन नहीं हो सकता। ऐसा न्याय भी है जो स्वतः असमर्थ होता है वह दूसरो के सम्बन्धसे भी समर्थ नही हो सकता।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० २-९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org