________________
iii कारण ( निमित्तको गौणता मुख्यता )
१. निमित्तके उदाहरण
ध्वनिमें प्रवृत्ति किस कारणसे होती है ? उत्तर-भव्य जीवोंके पुण्यकी प्रेरणासे।
४. निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध
'उपग्रह वचनं क्रियते। सुखादीन्यपि जीवानां जीवकृत उपकार इति ।२१ -ये सुखादिक जीवके पुद्गलकत उपकार हैं, क्योंकि मूर्त कारणोंके रहनेपर हो इनको उत्पत्ति होती है । (इसके अतिरिक्त) पुद्गलोंका भी पुद्गलकृत उपकार होता है। यथा-कांसे आदिका
पदयकोला _माहिका राख आदिके द्वारा, जल आदिका कतक आदिके द्वारा और लोहे आदिका जल आदिके द्वारा उपकार किया जाता है। पुद्गलकृत और भी उपकार हैं, इसके समुच्चयके लिए सूत्रमें 'च' शब्द दिया है। जिस प्रकार शरीरादिक पुद्गलकृत उपकार हैं उसी प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी पुदगलकृत उपकार हैं। परस्परका उपग्रह करना जोवोंका उपकार है। जैसे स्वामी तो धन आदि देकर और सेवक उसके हितका कथन करके तथा अहितका निषेध करके एक दूसरेका उपकार करते है। आचार्य उपदेश द्वारा तथा क्रियामें लगाकर शिष्योका और शिष्य अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा आचार्यका उपकार करते है। इनके अतिरिक्त सुख आदिक भो जीवके जीवकृत उपकार है। (गो. जी./
जी. प्र/६०५-६०६/१०६०-१०६२) (का. अ./टी./२०८-२१०) बसु, श्रा./३४ जोवस्सुवयारकरा कारणभूया हु पंचकायाई । जोबो सत्ता
भूओ सो ताणं ण कारण होइ ।३४॥ व्र.सं./टी./अधि. २ की चूलिका/०८/२ पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि व्यवहारनयेन जोवस्य शरोरवाइमन प्राणापानादिगतिस्थित्यवमाहवर्तनाकार्याणि कुर्वन्तोति कारणानि भवन्ति । जीवद्रव्यं पुनर्यद्यपि गुरुशिष्यादिरूपेण परस्परोपग्रहं करोति तथापि पुद्ग लादिपञ्चद्रव्याणां किमपि न करोतीत्यकारणम् । -पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये पाँचों द्रव्य जीवका उपकार करते हैं, इसलिए वे कारणभूत हैं, किन्तु जीव सत्तास्वरूप है उनका कारण नहीं है ।३४। उपरोक्त पानी द्रव्यों में-से व्यवहार नयकी अपेक्षा जाव के शरीर, वचन, मन. श्वास, निःश्वास आदि कार्य तो पुदगल द्रव्य करता है। और गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तनारूप कार्यक्रमसे धर्म, अधर्म, आकाश और काल करते हैं। इसलिए पुदगलादि पाँच द्रव्य कारण हैं। जीव द्रव्य यद्यपि गुरु शिष्य आदि रूप से आपसमें एक दूसरेका उपकार करता है, फिर भी पुद्गल आदि पाँचों द्रव्योंके लिए जोव कुछ भी नहीं करता, इसलिए वह अकारण है। (पं का./जा./२/५७/१२)।
स. सा./मू/३१२-३१३ चेया उ पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ। पयडी
वि चेयय? उप्पज्जइ विणस्सइ ।३१२। एवं वंधो उ दुण्ह बि अण्णोvणपच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे ।३१३॥ --आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे उत्पन्न होता है और नष्ट होता है तथा प्रकृति भी आत्माके निमित्तसे उत्पन्न होती है तथा नष्ट होती है। इस प्रकार परस्पर निमित्तसे दोनों ही आत्माका और प्रकृतिका बन्ध
होता है, और इससे संसार होता है। ध /२/१, १/४१२/११ तथोच्छवासनिःश्वासप्राणपर्याप्तयोः कार्यकारणयोरात्मपुद्गलोपादानयोर्भेदोऽभिधातव्य इति। - उच्छ्वासनिःश्वास प्राण कार्य है और आत्मा उपादान कारण है तथा उच्छवासनिःश्वासपर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपादाननिमित्तक है। स. सा./आ./२८६-२८७ यथाध कर्म निष्पन्नमुद्दे शनिष्पन्न च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भाव न प्रत्याचष्टे.. इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पृद्धगलद्रव्यं निमित्तभूत प्रत्याचक्षाणो नै मित्तिकभूत बन्धसाधकं भाव प्रत्याचष्टे । .. एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनैमित्तिकभावः । = जैसे अध' कार्यसे उत्पन्न और उद्देश्यसे उत्पन्न हुए निमित्तभूत (आहारादि) पुद्गल द्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा न मित्तिकभूत बन्ध साधक भावका प्रत्यारव्यान नहीं करता, इसी प्रकार समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्तसे होनेवाले भावको (भी) नहीं त्यागता। ...इस प्रकार तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्यका प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा, जैसे नैमित्तिक भूत बन्धसाधक भावका प्रत्याख्यान करता है, उसी प्रकार समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान करता है। इस प्रकार द्रव्य और भावको निमित्तनैमित्तिकपना है। स. सा./आ./३१२-३१३ एवमनयोरात्मप्रकृतयो कत कर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनै मित्तिकभावेन द्वयोरपि बन्धो दृष्टः, ततः संसारः, तत एव च कतृ कर्मव्यवहार । -यद्यपि उन आत्मा और प्रकृतिके कर्ताकर्मभावका अभाव है तथापि परस्पर निमित्तनै मित्तिकभावसे दोनोके बन्ध देखा जाता है। इससे संसार है और यह हो उनके कर्ताकर्मका व्यवहार है । (प. घ/उ./१०७१) स. सा./आ./३४६-३५० यतो खलु शिल्पो सुवर्ण कारादिः कुण्डलादि
परद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति...न त्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनै मित्तिकभावमात्रेणेव तत्र कतृकर्मभोक्त्रभोग्यत्वव्यवहारः। =जैसे शिल्पी (स्वर्णकार आदि ) कुण्डल आदि जो परद्रव्य परिणामात्मक कर्म करता है, किन्तु अनेक द्रव्यत्वके कारण उनसे अन्य होनेसे तन्मय नही होता; इसलिए निमित्तनै मित्तिक भावमात्रसे हो वहाँ कत-कर्मत्वका और भाक्ताभोक्तृत्वका व्यवहार है। ५. अन्य सामान्य उदाहरण स. सि./३/२७/२२३/२ किहेतु को पुनरसौ । कालहेतुको। =ये वृद्धि
हास काल के निमित्तसे होते है । (रा. वा /३/२७/१६१/२६) ज्ञा /२४/२० शाम्यन्ति जन्तवः क्रूरा बद्धवैरा परस्परम् । अपि स्वार्थ प्रवृत्तस्य मुनेः साम्यप्रभावत' ।२०। -इस साम्यभावके प्रभावसे अपने स्वार्थ में प्रवृत्त मुनिके निकट परस्पर वैर करनेवाले कर जीव भी साम्यभावको प्राप्त हो जाते है।
२.द्रव्य क्षेत्र काल माव रूप निमित्त
क. पा. १/२४५/२८६/३ पागभावो कारणं । पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल-भवावेक्वाए जायदे। तदोण सम्बद्ध' दब्बकम्माह सगफलं कुणं ति ति सिद्ध। प्रागभावका विनाश हुए बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है और प्रागभावका विनाश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भवकी अपेक्षा लेकर होता है। इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्यको उत्पन्न नहीं करते हैं, यह सिद्ध होता है। (दे०बन्ध/३) कर्मोंका बन्ध भी द्रव्य क्षेत्र काल व भवको अपेक्षा
लेकर होता है। (दे० उदय/२/३) कर्मोक्का उदय भी द्रव्य क्षेत्र काल ब भवकी अपेक्षा
लेकर होता है।
३. निमित्तकी प्रेरणासे कार्य होना स. सि./५/१६/२८६/६ तत्सामोपेतेन क्रियावतात्मना प्रेर्यमाणा' पुद्गला बाक्त्वेन विपरिणमन्त इति। -इस प्रकारकी (भाव वचनकी) सामर्थ्य से युक्त क्रियावाले आत्माके द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल वचनरूपसे परिणमन करते हैं। (गो. जी./जी. प्र./६०६/१०६२/३)। ६. का./ता. वृ./१/६/१५ वीतरागसर्वज्ञदिव्यध्वनिशास्त्रे प्रवृत्ते किं कारणं । भव्यपुण्यप्रेरणात् । = प्रश्न-वीतराग सर्वज्ञ देवकी दिव्य
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org