________________
III कारण ( निमित्तकी गौणता मुख्यता)
६३
१. निमित्तके उदाहरणा
क जीवोंके सर्व भेद प्रभेद स्वतः नहीं है, क्योंकि परको अपेक्षाके अभावमें उन भेवो की व्यक्तिका अभाव है। इसलिए अनन्त परिणामी द्रव्य ही उन-उन सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूपसे व्यवहारमें आता है। यह बात न स्वतः होती है और न परकृत
ध./१२/४, २, १३, २४३/४५३/७ कधमेगो परिणामो भिण्ण कज्जकारो।
ण सहकारिकारणसंबंधभेएणतस्स तदविरोहादो। -प्रश्न-एक परिणाम भिन्न कार्योंको करनेवाला कैसे हो सकता है (ज्ञानावरणीयके बन्ध योग्य परिणाम आयु कर्मको भी कैसे माँध सकता है): उत्तर-नहीं, क्योकि, सहकारी कारणोके संबन्धसे उसके भिन्न कार्योक करनेमें कोई विरोध नही है। (पं. का./त. प्र./98/११४) -(दे० पीछे कारण/11/१/।
१. उपादानको ही स्वयं सहकारी मानने में दोष
आप्त. मी./२१ एवं विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत । नेत्ति चेन्न यथा कार्य बहिरन्तरुपाधिभिः ।२१। -पूर्वोक्त सप्तभंगी विष विधि निषेधकरि अनवस्थित जीवादि वस्तु हैं सो अर्थ क्रियाको करै हैं। बहुरि अन्यवादी केवल अन्तरंग कारणसे ही कार्य होना माने तैसा नाही है। वस्तु को सर्वथा सत या सर्वथा असत् माननेसे, जैसा कार्य सिद्ध होना बाह्य अन्तरंग सहकारीकारण अर उपादान कारणनि करि माना है तैसा नाही सिद्ध होय है। तिसकी विशेष चर्चा अष्टसहस्री ते जानना । (दे० धर्माधम/३ तथा काल/२) यदि उपादानको ही सहकारी कारण भी माना जायेगा तो लोक में जीव पुद्गल दो ही द्रव्य मानने होगे।
आप्त. प/११४-११५/३२६६-२६०/२४६-२४७ जीव परतन्त्रोकुर्वन्ति, स परतन्त्रोक्रियते वा यस्तानि कर्माणि। तानि च पुद्गल परिणामात्मकानि जीवस्य पारतन्यनिमित्तत्वात्, निगडादिवत् । क्रोधादिभिव्यभिचार इति चेत्, न, पारतन्ध्यं हि क्रोधादिपरिणामो न पुनः पारतन्त्र्यनिमित्तम् । २६६ । ननु च ज्ञानावरण. जोवस्वरूपधातित्वात्परतन्न्यनिमित्त-वं न पुनर्नामगोत्रसद्वद्यायुषाम् तेषामात्मस्वरूपाघातित्वारपारतन्त्र्यनिमित्तत्वासिझेरिति पक्षाव्यापको हेतुः । ...न, तेषामपि जीवस्वरूपसिद्वत्वप्रतिबन्धत्वात्पारतन्त्र्यनिमित्तत्वोपपत्ते । कथमेवं तेषामघातिकमवं । इति चेत्, जोवन्मुक्तलक्षणपरमार्हन्त्यलक्ष्मीधातित्वाभावादिति न महे ।।२१७ । जो जोवको परतन्त्र करते है अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है उन्हे म कहते है। वे सब पुद्गलपरिणामात्मक है, क्योंकि वे जीवकी परतन्त्रतामें कारण हैं जैसे निगड (बेडी) आदि । प्रश्नउपर्यक्त हेतु क्रोधादिके साथ व्यभिचारी है। उत्तर-नहीं, क्योंकि जीवके क्रोधादि भाव स्वयं परतन्त्रता है, परतन्त्रताका कारण नहीं। ६२६६। प्रश्न-ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्म ही जीवस्वरूप घातक होनेसे परतन्त्रताके कारण है, नाम गोत्र आदि अधाति कर्म नहीं, क्योकि वे जीवके स्वरूपधातक नहीं हैं। अतः उनके परतन्त्रताको कारणता असिद्ध है और इसलिए ( उपरोक्त) हेतु पक्षव्यापक है। उत्तर-नही, क्योकि नामादि अघातीकर्म भी जीव सिदत्वस्वरूपके प्रतिबन्धक है, और इसलिए उनके भो परतन्त्रताकी कारणता उपपन्न है। प्रश्न- तो फिर उन्हे अघाती कर्म क्यों कहा जाता है। उत्तर--जीवन्मुक्तिरूप आहन्त्यलक्ष्मीके घातक नही हैं, इसलिए उन्हे हम अघातिकर्म कहते है। (रा. वा./५/२४/६/४८८/२०), (गो.जी./जो. प्र/२४४/५०८/२)। स. सा./आ./२७६/क २७५ न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्त । तस्मिन्निमित्तं परसंग एव, वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ।२७॥ - सूर्यकान्त मणिकी भॉति आत्मा अपनेको रागादिका निमित्त कभी भी नही होता। (जिस प्रकार वह मणि सूर्यके निमित्तसे ही अग्नि रूप परिणमन करती है, उसी प्रकार आत्माको भो रागादिरूप परिणमन करनेमे ) पर-संग ही निमित्त है। ऐसा वस्तुस्वभाव प्रकाशमान है। प्र. सा/ता. वृ/५ इन्द्रियमन परोपदेशावलोकादिबहिरङ्गनिमिसभूतात ...उपलब्धेरावधारणरूप.. यद्विज्ञानं तत्पराधीनत्वात्परोक्षमित्युच्यते। - इन्द्रिय, मन, परोपदेश तथा प्रकाशादि बहिरंग निमित्तोंसे उपलब्ध होनेवाला जो अर्थावधारण रूप विज्ञान वह पराधीन होने के कारण परोक्ष कहा जाता है। द्र. सं./टी./१४/४४/१० (जोवप्रदेशानां) विस्तारश्च शरीरनामकर्माधीन एव न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति । -(जीवके प्रदेशोका संहार तथा) विस्तार शरीर नामक नामकमके आधीन है, जीवका स्वभाव नहीं है। इस कारण जीवके शरीरका अभाव होनेपर प्रदेशों का ( संहार या) विस्तार नहीं होता है। स्व. स्तो./टी./६२/१६२ "उपादानकारणं सहकारिकारणमपेक्षते । तच्चोपादानकारणं न च सर्वेण सर्व मपेक्ष्यते। किन्तु यद्यन अपेक्ष्यमाणं दृश्यते तत्ते नापेक्ष्यते।" - उपादानकारण सहकारीकारणकी अपेक्षा करता है। सर्व ही उपादान कारणोसे सभी सहकारीकारण अपेक्षित होते हो सो भी नही। जो जिसके द्वारा अपेक्ष्यमाण होता है वही उसके द्वारा अपेक्षित होता है। ३. जैसा-जैसा कारण मिलता है वैसा वैसा ही कार्य होता है
III निमित्तको कथंचित् गौणता मुख्यता १. निमित्तके उदाहरण १. पदव्योंका परस्पर उपकाय उपकारक भाव त. सू./५/१७-२२ गतिस्थित्युपग्रही धर्माधर्मयोरुपकारः ।११ आकाशस्यावगाहः ।१८। शरीरवाड्मनःप्राणापाना' पुद्गला नाम ।१६। मुखदुखजोवितमरणोपग्रहाश्च ।२०। परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।२३। बर्तनापरिणामकिया परत्वापरत्वे च कालस्य ।२२। =(जीव व पुदगलकी) गति और स्थितिमें निमित्त होना यह क्रमसे धर्म और अधर्म द्रव्यका उपकार है ।१७। अवक श देना आकाशका उपकार है ।१८। शरीर, वचन, मन और प्राणापान पुद्गलोका उपकार है ।१६। सुख दुःख जीवन और मरण ये भी पुहगलोंके उपकार हैं ।२०। परस्पर निमित्त होना यह जोबोका उपकार है ।२१। वर्तना परिणाम क्रिया परत्व और अपरत्व ये कालके उपकार है ।२०। (गो. जी./मू/०५
६०६/१०५०, १०६०), ( का अ./५/२०८-२१०) स. सि./५/२०/२८१/२ एतानि सुखादोनि जोवस्य पुद्गलकृत उपकारः,
मूत्तिमद्धे तुसंनिधाने सति तदुत्पत्तेः । ...पुद्गलानां पुदगलकृत उपकार इति। तद्यथा-कंस्यादीनां भस्मादिभिर्जलादीनां कतकादिभिरय प्रभृतीनामुदकादिभिरुपकार' क्रियते। च शब्द:.. अन्योऽपि पुद्गलकृत उपकारोऽस्तीति समुच्चीयते। यथा शरीराणि एवं चक्षुरादोनीन्द्रियाण्यपीति।२०। ...परस्परोपग्रह। जीवानामुपकारः। कः पुनरसौ । स्वामी भृत्य', आचार्यः शिष्य इत्येवमादिभावेन वृत्तिः परस्परोपग्रहः । स्वामी तावद्विस्तत्यागादिना भृत्यानामुपकारे वर्तते । भृत्याश्च हितप्रतिपादनेनाहितप्रतिपेधेनच । आचार्य उपदेशदर्शनेन... क्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणामनुग्रहे वर्तते। शिष्या अपि तदानुकूलवृत्त्या आचार्याणाम् । .. पूर्वोक्तसुरवादिचतुष्टयप्रदर्शनार्थ पुनः
रा. वा./४/४२/७/२५१/१२ नापि स्वत एव, परापेक्षाभावे तद्व्य क्त्यभावात् । तस्मात्तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणं प्रतीत्य तत्तद्रूपं वक्ष्यते। न तत् स्वत एव नापि परकृतमेव ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org