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________________ ३. उपादानकी कथंचित् परतन्त्रता II कारण ( उपादानकी मुख्यता गौगता) २. उपादानको कथंचित् प्रधानता १. उपादानके अभाव में कार्यका भी अमाव घ./६/४, १, ४४/११५/७ ण चोवायाणकारणेण विणा कज्जुप्पत्ती, विरोहादो। = उपादान कारणके बिना, कार्यकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा होनेमें विरोध है। पं. का./ता. वृ./६०/११२/१२ परस्परोपादानकतृत्व खलु स्फुटम् । नैव विनाभूते संजाते तु पुनस्ते द्रव्यभावकर्मणी द्वे । के विना । उपादानकर्तारं विना, कितु जीवगतरागादिभावानां जीव एव उपादानकर्ता द्रव्यकर्मणां कर्मवर्गणायोग्यपुद्गल एवेति । =जीव व कर्म में परस्पर उपादान कर्तापना स्पष्ट है, क्योंकि विना उपादानकतकि वे दोनों द्रव्य व भाव कम होने सम्भव नहीं हैं। तहाँ जीबगत रागादि भावकर्मोका तो जीव उपादानकर्ता है और द्रव्य कर्मोंका कर्मवर्गणा योग्य पुद्गल उपादानकर्ता है। प्र.सा./त.प्र./२३८ आगमज्ञानतत्त्वार्थ श्रद्धानसंयतत्वयोगपद्य'ऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् । == आगम ज्ञान तन्वार्थ श्रद्वान और संतत्वकी युगपतता होनेपर भी आत्मज्ञानको ही मोक्षमार्गका साधकतम संमत करना। स्या.म./७/६३/२२ पर उधृत-अव्यभिचारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोsन्तरङ्गश्च । - अव्यभिचारी, अविकल, असाधारण और अन्तरंग अर्थ को मुख्य कहते हैं। स्व. स्तो./५६ की टीका पृ. १५६ अनेन भक्तिलक्षणशुभपरिणामहीनस्य पूजादिकं न पुण्यकारणं इत्युक्तं भवति। तत अभ्यन्तरङ्गशुभाशुभजीवपरिणामलक्षणं कारणं केवलं बाह्यवस्तुनिरपेक्षम् । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि भक्तियुक्त शुभ परिणामोंसे रहित पूजादिक पुण्यके कारण नहीं होते हैं। अतः बाह्य वस्तुओसे निरपेक्ष जीवके केवल अन्तरंग शुभाशुभ परिणाम ही कारण है। ४. विघ्नकारी कारण भी अन्तरंग ही हैं प्र.सा./त,प्र/१२ यदयं स्वयमात्मा धर्मो भवति स खलु मनोरथ एव, तस्य त्वेका बहिर्मोदृष्टिरेव विहन्त्री। -यह आत्मा स्वयं धर्म हो, यह वास्तवमें मनोरथ है। इसमें विघ्न डालने वाली एक बहिर्मोदृष्टि २. उपादानसे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है घ./६/१,६-६/१६/१६४ तम्हा कम्हि वि अंतरंगकारणादो चेव कज्जु'प्पत्ती होदि त्ति णिच्छओ कायव्वो। - कही भी अन्तरंग कारणसे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है, ऐसा निश्चय करना चाहिए ( क्योंकि बाह्यकारणोंसे उत्पत्ति माननेमें शालोके बीजसे जौकी उत्पत्तिका प्रसंग होगा। ३. अन्तरंग कारण ही बलवान है द्र.सं./टी./३५/१४४/२ परमसमाधिदुर्लभ'। कस्मादिति चेत्तत्प्रतिबन्धकमिथ्यात्वविषयकषायनिदानबन्धादिविभावपरिणामानां प्रबलत्वादिति । = परमसमाधि दुर्लभ है। क्योंकि परमसमाधिको रोकनेवाले मिथ्यात्व, विषय, कषाय, निदानबन्ध आदि जो विभाव परिणाम है, उनकी जीवमें प्रबलता है। द्र. सं./टी./१६/२२६५ नित्यनिरञ्जननिष्क्रियनिजशुद्धात्मानुभूतिपति बन्धकं शुभाशुभचेष्टारूप कायव्यापार.. वचनव्यापारं...चित्तव्यापारच किमपि मा कुरुत हे विवेकिजना। -नित्य निरञ्जन निष्क्रिय निज शुद्धात्माकी अनुभूतिके प्रतिबन्धक जो शुभाशुभ मन वचन कायका व्यापार उसे हे विवेकीजनो । तुम मत करो। घि ) अनुभाता परिणाम उत्कृष्ट जाता ३. उपादानकी कथंचित् परतन्त्रता १. निमित्तकी अपेक्षा रखनेवाला पदार्थ उस कार्य के प्रति स्वयं समर्थ नहीं हो सकता ध./१२/४, २,७४८/३६/६ ण केवलमकसायपरिणामो चेव अणुभागधादस्स कारणं, कि पयडिगयससिसव्वपेक्रवो परिणामो अणुभागवादस्स कारणं । तत्थ वि पहाणमंतरंगकारण, तम्हि उक्कस्से सते बहिरंगकारणे थोवे वि बहुअणुभागघाददं सणादो, अंतरंगकारणे थोवे संते बहिरंगकारणे बहुए संते वि बहुअणुभागधादाणुवलंभादो। - केवल अकषाय परिणाम ही (कर्मों के ) अनुभागघातका कारण नहीं है, किन्तु प्रकृतिगत शक्तिको अपेक्षा रखनेवाला परिणाम अनुभागधातका कारण है। उसमें भी अन्तरंग कारण प्रधान है, उसके उत्कृष्ट होनेपर बहिरंगकारणकै स्तोक रहनेपर भी अनुभाग घात बहुत देखा जाता है। तथा अन्तरंग कारणके स्तोक होनेपर बहिरंग कारणके बहुत होते हुए भी अनुभागधात बहुत नहीं उपलब्ध होता। घ./१४१५, ६,६३/१०/१ ण बहिरंगहिंसाए आसवत्ताभावो। तं कुदो णव्वदे। तदभावे वि अंतरंगहिंसादो चेव सिस्थमच्छस्स बंधुवलंभादो। जेण विणा जंण होदि चेव तं तस्स कारणं । तम्हा अंतरंग हिंसा चेव सुद्धगएण हिंसा ण बहिरंगा त्ति सिद्ध । ण च अंतर गहिंसा एत्य अस्थि कसायासंजमाणमभावादो। -(अप्रमत्त जनौको) बहिरंग हिंसा आस्रव रूप नहीं होती। प्रश्न-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? उत्तर-क्योंकि बहिरंग हिसाका अभाव होनेपर भी केवल अन्तरंग हिसासे सिक्थमत्स्यके बन्धकी उपलब्धि होती है। जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है, इसलिए शुद्ध नयसे अन्तरंग हिसा ही हिंसा है, महिर ग मही यह भ त सिद्ध होती है । यहाँ ( अप्रमत्त साधुओंमें ) अन्तरंग हिंसा नही है, क्योंकि कषाय और असंयमका अभाव है। प्र.सा./त.प्र./२२७ यस्य सकलाशनसृष्णान्यत्वात स्वयमनशन एव स्वभावः। तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽन्तरङ्गस्य बलीयस्त्वात... । -समस्त अनशनकी तृष्णासे रहित होनेसे जिसका स्वयं अमशन ही स्वभाव है, वही उसके अनशन नामक तप है. क्योंकि अन्तरंगकी विशेष बलवत्ता है। स्या.म./५/३०/११ समर्थोऽपि तत्तत्सहकारिसमवधाने तं समर्थ करोतीति चेत्, न तहिं तस्य सामर्थ्यम; अपरसहकारिसापेक्षवृत्तित्वात् । सापेक्षमसमर्थम् इति न्यायात। -यदि ऐसा माना जाये कि समर्थ होनेपर भी अमुक सहकारी कारणो के मिलनेपर ही पदार्थ अमुक कार्यको करता है तो इससे उस पदार्थकी असमर्थता ही सिद्ध होती है, क्योंकि वह दूसरों के सहयोगको अपेक्षा रखता है, न्यायका वचन भी है कि "जो दूसरों की उपेक्षा रखता है । वह असमर्थ है। २. व्यावहारिक कार्य करनेमें उपादान निमित्तों के आधीन है त सू./१०/८ धर्मास्तिकायाभावात् । -धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे ___ मोघ लोकान्तसे ऊपर नहीं जाता। (विशेष दे० धर्माधर्म) पभू./सू./१/६६ अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयह वि मज्मि जिय विह आणइ विहि णेइ ।६६। हे जीव । यह आत्मा पंगुके समान है। आप न कहीं जाता है, न आता है। तीनों लोकोंमें इस जीबको कर्म ही ले जाता है और कर्म ही ले आता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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