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11 कारण ( उपदानकी मुख्यता गौणता )
ही अपनी शक्ति दर्शन पर्यायको धारण करता है अतः वही मोका कारण है ।
रा. बा./२/१/२०/४३४/२४ धर्माधर्माकापुद्गलाः इति बहुवचनं स्वातप्रतिपत्यर्थं द्रष्टव्यम् । किं पुनः स्वातन्त्र्यम् । धर्मादयो गत्याद्यपग्रहात् प्रति वर्तमानाः स्वयमेत्र तथा परिणमन्ते न परप्रत्ययाधीना तेषां प्रवृत्तिः इत्येतदत्र विवक्षितं स्वातन्त्र्यम् । ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातन्त्र्ये सति विरुध्यत इतिः नैष दोष: बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । न हि गत्यादिपरिणामिनो जीवपुद्गला' गत्याद्य, पग्रहे धर्मादीनां प्रेरकाः । =सूत्रमें 'धर्माधर्माकाशपुः यहाँ बहुवचन स्वातन्त्र्यको प्रतिपत्ति लिए है । प्रश्न -- वह स्वातन्त्र्य क्या है ? उत्तर- इनका यही स्वशतय है कि ये स्वयं गति और स्थिति रूपसे परिणत जीव और लौकी गति और स्थिति में स्वयं निमित्त होते हैं, जीन या गल इन्हें उकसाते नहीं हैं। इनकी प्रवृत्ति पराधीन नहीं है। प्रश्न- बाह्य द्रव्यादिके निमित्तसे परिणामियोंके परिणाम उपलब्ध होते हैं, और वह इस स्वातन्त्र्य के माननेपर विरोधको प्राप्त होता है ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बाह्य वस्तुएँ निमित्त मात्र होती हैं, परिणामक नहीं ।
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श्लो. वा./२/२/६/४०-४२/३१४ चरादिप्रमापेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित' सदा |४०| चितस्तु भावनेत्रादेः प्रमाणत्वं न वार्यते । तत्साधकतमत्वस्य कथं चिदुपपत्तित ॥४१॥ वैशेषिकाकि लोग नेत्र आदि इन्द्रियोंको प्रमाण मानते हैं, परन्तु उनका कहना ठीक नहीं है; क्योंकि नेत्रादि जड़ हैं, उनके प्रमितिका प्रकृष्ट साधकपना सर्वदा नहीं है । प्रमितिका कारण वास्तवमें ज्ञान ही है। जब इन्द्रिय के करण कदापि नहीं हो सकते हो भावेन्द्रियों के सामने की सिद्धि किसी प्रकार हो जाती है, क्योंकि भावेन्द्रिय चेतनस्वरूप हैं और चेतनका प्रमाणपना हमें अभीष्ट है । ( श्लो. वा./२/१/६/२६/३७७/२३); ( प. मु./२/६-६ ); (स्वा. म. / १६ / २०० / २३) ( न्या. दी /२/११/२०) । यो.मा.आ./५/१८-१नवारण पन्ते नागोचरे कि पन्ते न च गुर्वा सेव्यमानैरनारतम् ॥१८॥ उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति जीवस्य परिणामिनः । ततः स्वयं स दाता न परतो न कदाचन |१६| - ज्ञान दर्शन और पारिका न तो यो हरण होता है और न गुरुओकी निरन्तर सेवासे उनकी उत्पत्ति होती है, किन्तु इस जीवके परिणमनशील होनेसे प्रति समय इसके गुणोंकी पर्याय प टती हैं इसलिए मतिज्ञान आदिका उत्पाद न तो स्वयं जीव ही कर सकता है और न कभी पर पदार्थ से ही उनका उत्पाद विनाश हो सकता है।
इ.स.टी./२२/६०/३ तदेव ( निश्चय सम्ययमेव ) काश्येऽपि त कारणम् । कालस्तु तदभावे सहकारिकारणमपि न भवति । वह निश्चय सम्यक्त्व ही सदा तीनो कालोंमें मुक्तिका कारण है । काल तो उसके अभाव में बीतराग चारित्रका सहकारीकारण भी नहीं हो
सकता ।
८. परिणमनमें उपादानकी योग्यता ही प्रधान है
प्र.सा././व रा.प्र./१६६ कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणई पप्पा गच्छेति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिमिदा ( जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मस्वपरिणमयोगिनः गलस्कन्धाः स्वयमेन कर्मभावेन परिणमति कर्मके योग्य स्कन्ध जीवको परिणतिको प्राप्त करके कर्मभानको प्राप्त होते है. जीव उनको परिणमाता नहीं । ९६१| अर्थात् जीव उसको परिणमानवाला नहीं होनेपर भी,
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१. उपादानकी कथंचित् स्वतन्त्रता
कर्मरूप परिणमित होनेवालेकी योग्यता या शक्तिवाले पुद्गल स्कन्ध स्वयमेव कर्मभाव परिणमित होते हैं।
इ. उ. / . /२ सोम्योपादानयोगेन दृषदः स्वर्णता मता इम्पादिस्वादिसंपत्तावात्मनोऽप्यात्मता मता |२| जिस प्रकार स्वर्ण रूप पाषाण में कारण, योग्य उपादानरूप करणके सम्बन्धसे पाषाण भी स्वर्ण हो जाता है, उसी तरह पादिचतुष्टयरूप सुयोग्य सम्पूर्ण सामग्रीके विद्यमान होनेपर निर्मत चैतन्य स्वरूप आत्माकी उपलब्धि हो जाती है (मो.पा./२४)
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प्र.सा./१/४४ केलिन प्रमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासालात स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एवं प्रवर्तते। - केवली भगवानके बिना ही प्रयत्नके उस प्रकारकी योग्यताका सद्भाव होनेसे खड़े रहने, बैठना, विहार और धर्म देशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते है ।
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प./२/१ स्यावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थ उपयस्थापयति ।। जाननेरूप अपनी शक्तिके क्षयोपशमरूप अपनी योग्यतासे ही ज्ञान घटपटादि पदार्थों की खुदी ही रीतिसे व्यवस्था कर देता है। इसलिए विषय तथा प्रकाश आदि उसके कारण नहीं है। (रतो. मा/२/२/६/२०-४९/३१४) (स्लोबा/२/६/२६/३०७/२३ ) ( प्रमाण परीक्षा/पृ.२.६७); (प्रमेय कमल मार्तण्ड पृ. १०५): (ग्या.वी./२/१५/२०); (स्या.म./१६/२०६/१० )
पं. का/ता.वृ./१०६/१६८/१२ शुद्धात्मस्वभाव रूपव्यक्तियोग्यतासहितानां भव्यानामेव न च शुद्धात्मरूपव्यक्तियोग्यता रहितानामभव्यानाय ।
शुद्धात्मस्वभावरूप व्यक्तियोग्यता सहित भव्योंको ही वह चारित्र होता है, शुद्धात्मस्वभावरूप व्यक्तियोग्यता रहित अभक्योंको नहीं। गो.जी./जी.प्र./१८०/९०२२/१० में उत-निमित्तान्तर योग्यता वस्तुनि स्थिता बहिनिश्चयकालस्तु निश्चितं समदर्शिभिः ॥१॥
सोहि वस्तुविषे विठती परिणमनरूप जो योग्यता सो अन्तरंग निर्मित है बहुरि तिस परिणमनका निश्चयकाल माह्य निमित्त है, ऐसे तत्त्वदर्शीनिकरि निश्चय किया है।
९. निमित्तके सद्भावमें भी परिणमन तो स्वतः ही होता है
प्र.सा./त.प्र./६५ द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचित हिरङ्गसाधनसंनिधिसद्भावे विचित्रत्र हुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरणसामर्थ्यस्वभावेनान्तरसाधनतामुपागतेनानुगृहीतमुत्तरावस्थयत्पद्यमानं तेनोत्पादन लक्ष्यते । जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सानिध्य सद्भाव में अनेक प्रकारकी बहुत-सी अवस्थाएँ करता है यह अन्तरंग साधन स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरण के सामर्थ्यरूप स्वभावसे अनुगृहीत होनेपर उत्तर अवस्था उत्पन्न होता हुआ उत्पादने लक्षित होता है (प्र. सा./त.प्र./ ६६, १२४ ) ।
पं.का./त.प्र./०६ शब्द योग्यवर्गगाभिरन्योन्यमनुप्रविश्य समन्ततोऽभिव्यान्य पूरितेऽपि सकले लोके यत्र यत्र बहिरङकारणसामग्री समुदेति तत्र तत्र ताः सन्दरमेन स्वयं व्यपरिणमन्त इति शब्दस्य नियतमुत्पाद्यत्वात । स्कन्धमभवत्वमिति एक दूसरेमें प्रविष्ट होकर सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित ऐसी जो स्वभाव निष्पन्न अनन्तपरमाणुमयी शब्दयोग्य वर्गणाएँ उनसे समस्त लोक भरपूर होनेपर भी जहाँ-जहाँ महिरंग कारणसामग्री उचित होती है वहाँ वहाँ के वर्गणाएँ शब्दरूपसे स्वयं परिणमित होती है; इसलिए शब्द नियतरूपसे उत्पाद होनेसे स्कन्धजन्य है ( और भी दे० कारण / IIT /३/१ )
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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