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१. उपादानकी कथंचित् स्वतन्त्रता
II कारण ( उपादानकी मुख्यता गौणता)
उसके कारणभूत दियासलाईके बुझ जानेपर भी कार्यभूत दीपक बुझ नहीं जाता)। १२. कदाचित् निमित्तसे विपरीत भी कार्यकी सम्भावना ध./२/१, १, ५०/२८३/६ किमिति केवलिनो वचनं संशयानध्यवसायजनकमिति चेत्स्वार्थानन्त्याच्छ्रोतुरावरणक्षयोपशमातिशयाभावात् । -- केवलीके ज्ञानके विषयभूत पदार्थ अनन्त होनेसे और श्रोताके । आवरण क्षयोपशम अतिशयतारहित होनेसे केवली के वचनोके निमित्तसे (भी) संशय और अनध्यवसायकी उत्पत्ति हो सकती है।
JI. उपादान कारणकी मुख्यता गौणता १. उपादानकी कथंचित् स्वतन्त्रता . अन्य अन्यको अपने रूप नहीं कर सकता यो. सा./अ./६/४६ सर्वे भावाः स्वस्वभावव्यवस्थिता। न शक्यन्तेऽन्यथा क्तु ते परेण कदाचन ।४६। -समस्त पदार्थ स्वभावसे ही अपने स्वरूपमें स्थित हैं, वे कभी पर पदार्थ से अन्यथा रूप नहीं किये जा सकते अर्थात् कभी पर पदार्थ उन्हें अपने रूपमें परिणमन नहीं करा सकता।
तथा अपनी अनेक प्रकारको पर्यायोंसे और उत्पाद व्यय प्रौव्यसे द्रव्यका जो अस्तित्व है वह वास्तवमें स्वभाव है। प्र. सा/त. प्र./६६ गुणेभ्यः पर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृ कर
णाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्ति युक्तैर्गणैः पर्यायैश्च . यदस्तित्वं स स्वभाव । =जो गुणों और पर्यायोंसे पृथक नहीं दिखाई देता, कर्ता करण अधिकरणरूपसे द्रव्यके स्वरूपको
धारण करके प्रवर्त्तमान द्रव्यका जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है। ६. उपादान अपने परिणमनमें स्वतन्त्र है त. सा //३१ जं कुणइ भावमादा कत्ता स होदि तस्स भावस्स । कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं पुग्गलं दब्वं । - आत्मा जिस भावको करता है, उस भावका बह कर्ता होता है । उसके कर्ता होनेपर पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्म रूप परिणमित होता है। (स. सा./4./०-६१); ( म. सा./आ /१०५); (पु. सि. उ./१२); (और भी देखो कारणIII/३/१)। स मा./मू /११६ अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गलं दव्वं । जीवो परिणामयदे कम्म कम्मत्तमिदि मिच्छा ।११।। -अथवा यदि पुद्गलद्रव्य अपने आप ही कर्मभावसे परिणमन करता है ऐसा माना जाये, तो जीव कर्मको अर्थात पुद्गलद्रव्यको परिणमन कराता है यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है "ततः पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु" अतः पुद्गलद्रव्य परिणामस्वभावी स्वयमेव हो ( आत्मख्याति)। प्र. सा././१५ उवओगविसुद्धो जो विगदावरणातरायमोहरओ। भदो सयमेवादा जादि पार णेयभूदाणं ॥१५॥ =जो उपयोग विशुद्ध है, वह आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय रजसे रहित स्वयमेव होता हुआ शेयभूत पदार्थोके पारको प्राप्त होता है। प्र. सा./मू./१६७ दुपदेसादी खंधा मुहुमा वा बादरा स संठाणा । पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामे हिं जायते। ='द्विप्रदेशादिक स्कन्ध जो कि सूक्ष्म अथवा बादर होते हैं और संस्थानों (आकारों ) सहित होते हैं, वे पृथिवी, जल, तेज और वायुरूप अपने परिणामों से
२. अन्य स्वयं अन्य रूप नहीं हो सकता रा. बा./१/8/१०/४५/२० मनश्चेन्द्रियं चास्य कारणमिति चेत् । न : तस्य तच्छक्यभावात् । मनस्तावन्न कारणम् विनष्टत्वात् । नेन्द्रियमप्यतीतम् तत एव । मनरूप इन्द्रियको ज्ञानका कारण कहना उचित नहीं है, क्योंकि उसमें वह शक्ति ही नहीं है। 'छहों ज्ञानों के लिए एक क्षण पूर्वका ज्ञान मन होता है' यह उन बौद्धोका सिद्धान्त है। इसलिए अतीतज्ञान रूप मन इन्द्रिय भी नही हो सकता। (विशेष देखो कर्ता/३) ३. निमित्त किसीमें अनहोनी शक्ति उत्पन्न नहीं करा
सकता ध/१/१, १, १६३/४०४/१ न हि स्वतोऽसमर्थोऽन्यत' समर्थो भवत्यतिप्रसंगात। -(मानुषोत्तर पर्वतके उस तरफ देवोंकी प्रेरणासे भी मनुष्योंका गमन नहीं हो सकता, क्योकि ऐसा न्याय है कि ) जो स्वयं असमर्थ होता है वह दूसरोंके सम्बन्धसे भी समर्थ नहीं हो सकता। स. सा /आ/१९८-९९६ न हि स्वतोऽसती शक्ति' कर्तृमन्येन पार्यते ।
जो शक्ति (वस्तुमें) स्वतः न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। (पं.ध./उ./६२) ४. स्वभाव सरेकी अपेक्षा नहीं करता स. सा./आ/११६ न हि वस्तु शक्तय' परमपेक्षन्ते। -वस्तुकी शक्तियाँ
परकी अपेक्षा नहीं रखती। प्र. सा./त. प्र./१६ स्वभावस्य तु परानपेक्षवादिन्द्रियविनाप्यात्मनो
ज्ञानानन्दौ संभवतः। -( ज्ञान और आनन्द आत्माका स्वभाव ही है: और ) स्वभाव परकी अपेक्षा नहीं करता इसलिए इन्द्रियों के बिना
भी ( केवलज्ञानी) आत्माके ज्ञान आनन्द होता है । (प्र. मा./त. प्र.) ५. और परिणमन करना द्रव्यका स्वभाव है प्र.सा.//६६ सब्भावो हि सभावो गुणेहिं सगपज्जएहिं चित्तेहि। दबस्स सबकाल उप्पादब्बयधुवत्तेहि ।। = सर्व लोकमें गुण
का. अ./मू /२१६ कालाहनद्धि जुत्ता णाणा सप्तीहि संजुदा अस्था। परिणममाणा हि सयं ण सक्दे को वि वारेदु। -काल आदि लब्धियों से युक्त तथा नाना शक्तियोंवाले पदार्थोंको स्वयं परिणमन करते हुए कौन रोक सकता है। पं.ध./७६० उत्पद्यते विनश्यति सदिति यथास्वं प्रतिक्षणं यावत् । व्यवहारविशिष्टोऽयं नियतमनित्यनय' प्रसिद्ध स्यात ७६०। -सत् यथायोग्य प्रतिसमयमें उत्पन्न होता है तथा विनष्ट होता है यह निश्चयसे व्यवहार विशिष्ट अनित्य नय है । पं. /उ./६३२ तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धान्तो दृड्मोहस्येतरस्य वा।
उदयोऽनुदयो वाथ स्यादनन्यगति' स्वतः। -इसलिए यह सिद्धान्त सिद्ध होता है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही स्वयं अनन्यगति है अर्थात अपने
आप होते हैं, परस्परमें एक दूसरेके निमित्तसे नहीं होते। ७. उपादानके परिणमममें निमिसको प्रधानता नहीं होती
रा. वा /१/२/१२/२०/१६ यदिदं दर्शनमोहाव्यं कर्म तदात्मगुणधाति, कुतश्चिदात्मपरिणामादेवोपक्षीणशक्तिकं सम्यक्त्वाख्या लभते। अतो न तदात्मपरिणामस्य प्रधानं कारणम्, आत्मैव स्वशवल्या दर्शनपर्यायेणोत्पद्यत इति तस्यैव मोक्षकारणत्वं युक्तम् । दर्शनमोहनीय नामके कर्मको आत्मविशुद्धिके द्वारा ही रसघात करके स्वल्पघाती क्षीणशक्तिक सम्यक्त्व कम मनाया जाता है। अतः यह सम्यक्त्वप्रकृति आत्मस्वरूप मोक्ष का प्रधान कारण नहीं हो सक्ती। आत्मा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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