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जीव
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२. निर्देश विषयक शंकाएँ व मतार्थ आदि
२. निर्देश विषयक शंकाएं व मतार्थ आदि
१.मुक्त जीवमें जीवत्ववाला लक्षण कैसे घटित होता है रा.वा./१/8/9/२५/२७ तथा सति सिद्धानामपि जीवत्वं सिद्धजीवितपूर्वत्वात। संप्रति न जीवन्ति सिद्धा भूतपूर्वगत्या जीवत्वमेषामोपचारिकत्वं. मुख्यं चेष्यते; नैष दोष" भावप्राणज्ञानदर्शनानुभवनाव सांप्रतिकमपि जीवत्वमस्ति। अथवा रूढिशब्दोऽयम् । रूढो वा क्रिया व्युत्पत्त्यथे वेति कादाचित्कं जीवनमपेक्ष्यं सर्वदा वर्तते गोशब्दवत् । -प्रश्न-'जो दशप्राणोसे जीता है...'आदि लक्षण करनेपर सिद्धोंके जीवत्व घटित नहीं होता। उत्तर-सिद्धोंके यद्यपि दशप्राण नहीं हैं, फिर भी वे इन प्राणोंसे पहले जीये थे, इसलिए उनमे भी जीवत्व सिद्ध हो जाता है । प्रश्न-सिद्ध वर्तमानमे नहीं जीते। भूतपूर्वगतिकी उनमें जीवत्व कहना औपचारिक है ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भावप्राणरूप ज्ञानदर्शनका अनुभव करनेसे वर्तमानमें भी उनमें मुख्य जोवत्व है। अथवा रूढिवश क्रियाकी गौणतासे जीव शब्दका निर्वचन करना चाहिए। रूढिमें क्रिया गौण हो जाती है। जैसे कभी-कभी चलती हुई देखकर गौमे सर्वदा गो शब्दकी वृत्ति देखी जाती है, वैसे ही कादाचित्क जीवनकी अपेक्षा करके सर्वदा जीव शब्दकी वृत्ति हो जाती है। ( भ. आ. वि./३७/१३१/१३) (म. पु./२४/१०४)।
ठाणिो भणिदो ।७७॥ -- वह जीव महात्मा चैतन्य या उपयोग सामा- न्यकी अपेक्षा एक प्रकार है । ज्ञान. दर्शन, या संसारी-मुक्त, या भव्यअभव्य, या पाप-पुण्यकी अपेक्षा दो प्रकार है । ज्ञान चेतना, कर्म चेतना कर्मफल चेतना, या उत्पाद, व्यय ध्रौव्य, या द्रव्य-गुण पर्यायकी अपेक्षा तीन प्रकार है। चार गतियोमे भ्रमण करनेकी अपेक्षा चार प्रकार है।। औपशमिकादि पाँच भावोकी अपेक्षा या एकेन्द्रिय आदिकी अपेक्षा पाँच प्रकार है। छह दिशाओमें अपक्रम युक्त होनेके कारण छह प्रकारका है । सप्तभंगीसे सिद्ध होनेके कारण सात प्रकारका है। आठकर्म या सम्यक्त्वादि आठ गुणयुक्त होनेके कारण आठ प्रकारका है । नौ पदार्थोरूप परिणमन करनेके कारण नौ प्रकार का है। पृथिवी आदि पाँच तथा एकेन्द्रियादि पॉच इन दस स्थानोंको प्राप्त होनेके कारण दस प्रकारका है।
५. जीवोंके जलचर, स्थलचर आदि भेद मू. आ./२१६ सकलिदिया य जलथलखचरा...|-पंचेन्द्रिय जीव जल
चर, स्थलचर व नभचरके भेदसे तीन प्रकार हैं। (पं. का/मू./११७) (का. अ./मू./१२६ )।
६. जीवोंके गर्मज आदि भेद पं.सं./प्रा./९/७३ अंडज पोदज जरजा रसजा संसेदिमा य सम्मुच्छा। उभिदिमोववादिम णेया पंचिदिया जीवा ।७३। -अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, स्वेदज, सम्मूछिम, उद्भेदिम और औपपादिक जीवों को पंचेन्द्रिय जानना चाहिए । (ध.१/१,१,३३/गा.१३६/२४६), (का. अ./मू./१३०)।
७. कार्य कारण जीवके लक्षण नि. सा./ता. व./ शुद्धसदभूतव्यवहारेण केवलज्ञानादिशुद्धगुणानामाधारभूतत्वात्कार्यशुद्धजीव । .. शुद्धनिश्चयेन सहजज्ञानादिपरमस्वभावगुणानामाधारभूतत्वात्कारणशुद्धजीवः । शुद्ध सदभूत व्यवहारसे केवल ज्ञानादि शुद्ध गुणोका आधार होनेके कारण कार्य शुद्धजीव' (सिद्ध पर्याय) है। शुद्ध निश्चयनयसे सहजज्ञानादि परमस्वभावगुणोंका आधार होनेके कारण (त्रिकाली शुद्ध चैतन्य) कारण शुद्धजीव है।
6. पुण्य-पाप जीवका लक्षण गो. जी./मू./६२२-६२३/१०७५ जीवदुर्ग उत्तट्ट जीवा पुण्णा हु सम्म
गुणसहिदा । बदसहिदा वि य पावा तव्विवरीया हवं ति त्ति। मिच्छाइट्ठी पावा ताणता य सासणगुणा वि। गो. जी./जी, प्र./६४३/१०६५/१ मिश्राः पुण्यपापमिश्रजीवाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्रपरिणामपरिणतत्वात । -पहले दो प्रकारके जीव कहे गये हैं। उनमेसे जो सम्यक्त्व गुण युक्त या व्रतयुक्त होय सो पुण्य जीव हैं और इनसे विपरीत पाप जीव है। मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवर्ती जोव पापजीव हैं । सम्यक्त्वमिथ्यात्वरूप मिश्रपरिणामोंसे युक्त मिश्र गुणस्थानवर्ती, पुण्यपापमिश्र जीव हैं।
१.नोजीवका लक्षण ध. १२/४,२,६,३/२६६/८ णोजीवो णाम अणंताणंत विस्सासुवचरहिं उपचिदकम्मपोग्गलबंधो पाणधारणाभावादो णाणदंसणाभावादो वा । तत्थतणजीवो वि सिया णोजोवो, तत्तो पुधभूतस्स तस्स अणुवलंभादो।-अनन्तानन्त विनसोपचयोसे उपचयको प्राप्त कर्मपुद्गलस्कन्ध (शरीर) प्राणधारण अथवा ज्ञानदर्शनसे रहित होनेके कारण नोजीव कहलाता है। उससे सम्बन्ध रखनेवाला जीव भी कथंचित नोजीव है, क्योंकि, वह उससे पृथग्भूत नहीं पाया जाता है।
२. औपचारिक होनेसे सिद्धोंमें जीवत्व नहीं है। ध. १४/५,६,१६/१३/३ तं च अजोगिचरिमसमयादी उबरि णत्थि, सिद्धेसु पाणणिबंधणठ्ठकम्माभावादो। तम्हा सिद्धाण जीवा जीविदपुब्बा इदि । सिद्धाणं पि जीवत्तं किण्ण इच्छज्जदे। ण, उवयारस्स सच्चत्ताभावादो। सिद्ध सु पाणाभावण्णहाणुववत्तीदो जीवत्तं ण पारिणामियं किंतु कम्मविवागज । = आयु आदि प्राणोका धारण करना जीवन है। वह अयोगीके अन्तिम समयसे आगे नहीं पाया जाता, क्योंकि, सिद्धों के प्राणोके कारणभूत आठों कर्मों का अभाव है। इसलिए सिद्ध जीव नहीं है, अधिकसे अधिक वे जीवितपूर्व कहे जा सकते हैं। प्रश्न-सिद्धोंके भी जीवत्व क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, सिद्धोंमे जीवत्व उपचारसे है, और उपचारको सत्य मानना ठीक नहीं है। सिद्धो में प्राणोंका अभाव अन्यथा बन नहीं सकता, इससे मालूम पड़ता है, कि जीवत्व पारिणामिक नहीं है, किन्तु वह कर्मोके विपाकसे उत्पन्न होता है।
३. मार्गणास्थानादि जीवके लक्षण नहीं है यो. सा./अ./१/१७ गुणजीवादयः सन्ति विशतिर्या प्ररूपणा । कर्मसंबन्धनिष्पन्नास्ता जीवस्य न लक्षणम् ॥५७-गुणस्थान जीवसमास, मार्गणास्थान, पर्याप्ति आदि जो २० प्ररूपणाएँ है वे भी कमके संबन्धमे उत्पन्न है, इसलिए वे जीवका लक्षण नही हो सकती।
४. तो फिर जीवकी सिद्धि कैसे हो स. सि./११/२८८/८ अत एवात्मास्तित्वसिद्धि। यथा यन्त्रप्रतिमा
चेष्टित प्रयोक्तुरस्तित्वं गमयति तथा प्राणापानादि कर्मोऽपि नियावन्तमात्मानं साधयति । -इसोसे आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि होती है। जैसे यन्त्रप्रतिमाकी चेष्टाएँ अपने प्रयोक्ताके अस्तित्वका ज्ञान कराती है उसी प्रकार प्राण और अपान आदिरूप कार्य भी क्रियावाले आरमाके साधक है । ( स्या. म./७/२३४/२०) । रा, बा /२/८/१८/१२१/१३ 'नास्त्यात्मा अकारणत्वाव मण्डूकशिखण्डबत्' इति । हेतुर यमसिद्धो विरुद्धोऽनै कान्तिकश्च । कारणवा नेवात्मा इति निश्चयो न', नरकादिभवव्यतिरिक्तद्रव्यार्थाभावात, तस्य च
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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