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२. निर्देश विषयक शंकाएं व मतार्थ आदि
मिथ्यादर्शनादिकारणत्वाद सिद्धता। अतएव द्रव्यार्थाभावात् च पर्यायान्तरानाश्रयत्वाद आश्रयाभावादप्यसिद्धता। अकारणमेव ह्यस्ति सर्व घटादि, तेनायं द्रव्यार्थिकस्य विरुद्ध एव । सतोऽकारणत्वाव यदस्ति तन्नियमेनैवाकारणम्, न हि किचिदस्ति च कारणवच्च । यदि तदस्त्येव किमस्य कारणेन नित्यवृत्तत्वात् । कारणवत्वं चाप्तत एवं कार्यार्थत्वात कारणस्येति विरुद्धार्थता। मण्डूकशिखण्डकादीनाम असत्प्रत्ययहेतुत्वेन परिच्छिन्नसत्त्वानामभ्युपगमात्तेषां च कारणाभावात् उभयपक्षवृत्तेरनै कान्तिकत्वम् । दृष्टान्तोऽपि साध्यसाधनोभयधर्मविकलः ... एकजीवसंबन्धित्वात
मण्डूकशिखण्ड इत्यस्ति ।... नास्त्यात्मा अप्रत्यक्षत्वाच्छशशृङ्गवदिति; अयमपि न हेतुः असिद्धविरुद्धानै कान्तिकत्वाप्रच्युतेः । सकलविमलकेवलज्ञानप्रत्यक्षत्वाच्छद्वात्मा प्रत्यक्षः, कर्मनोकर्मपरतन्त्रपिण्डात्मा च अवधिमनःपर्ययज्ञानयोरपि प्रत्यक्ष इति 'अप्रत्यक्षत्वात्' इत्यसिद्धो हेतु.। इन्द्रियप्रत्यक्षाभावादप्रत्यक्ष इति चेत्, न; तस्य परोक्षत्वाभ्युपगमात् । अप्रत्यक्षा घटादयोऽग्राहकनिमित्तग्राह्यत्वाद् धूमाद्यनुमिताग्निवत ।" असति च शशशृङ्गादौ सति च विज्ञानादौ अप्रत्यक्षत्वस्य वृत्तेरने कान्तिकता। अथ विज्ञानादेः स्वसंवेद्यत्वात यो गिप्रत्यक्षत्वाञ्च हेतोरभाव इति चेत; आत्मनि कोऽपरितोष । दृष्टान्तोऽपि साध्यसाधनोभयधर्मविकल' पूर्वोक्तेन विधिना अप्रत्यक्षत्वस्य नास्ति स्वस्थ चासिद्ध। रा.वा./२/८/१२/१२२/२५ ग्रहणविज्ञानासंभविफलदर्शनाद् गृहीतृसिद्धिः ।१६। यान्यमूनि ग्रहणानि...यानि च ज्ञानानि तत्सं निकर्षजानि तानि, तेष्वसंभविफलमुपलभ्यते । कि पुनस्तव । आत्मस्वभावस्थानज्ञानविषयसंप्रतिपत्तिः । तदेतद् ग्रहणानां तावन्न संभवतिः अचेतनत्वात, क्षणिकत्वाच्च ततो व्यतिरिक्तेन केनचिद्भवितव्यमिति गृहीतृसिद्धिः। रा.वा./२/८/२०/१२३/१ योऽयमस्माकम् 'आत्माऽस्ति' इति प्रत्ययः स
स शयानध्यवसायविपर्ययसम्यकप्रत्ययेषु यः कश्चित् स्यात, सर्वेषु च विकल्पेष्विष्ट' सिध्यति। न तावत्संशय निर्णयात्मकत्वात् । सत्यपि संशये तदालम्बनात्मसिद्धिः। न हि अवस्तुविषयः संशयो भवति । नाप्यनध्यवसायो जात्यन्धवधिररूपशब्दवतः अनादिसंप्रतिपत्तेः। स्याद्विपर्ययः; एवमप्यात्मास्तित्वसिद्धिः पुरुष स्थाणुप्रतिपत्ती स्थाणुसिद्धिवत् । स्यात्सम्यक्प्रत्ययः; अविवादमेतव-आत्मास्तित्वमिति सिद्धो न पक्ष । -प्रश्न-उत्पादक कारणका अभाव होनेसे, मण्डूकशिखावत आत्माका भी अभाव है। उत्तर-आपका हेतु असिद्ध, विरुद्ध व अनैकान्तिक तीनों दोषोंसे युक्त है। (१) नरनारकादि पर्यायोसे पृथक् आत्मा नहीं मिलता, और वे पर्याएँ मिथ्यादर्शनादि कारणोंसे होती हैं, अतः यह हेतु असिद्ध है। पर्यायों को छोड़कर पृथक आत्मद्रव्यकी सत्ता न होनेसे यह हैतु आश्रयासिद्ध भी है। (२) जितने घटादि सत पदार्थ हैं वे सब स्वभावसे ही सत् है न कि किसी कारण विशेषसे। जो सत् है वह तो अकारण ही होता है। जो स्वयं सत् है उसकी नित्यवृत्ति है अत: उसे अन्य कारणसे क्या प्रयोजन । जिसका कोई कारण होता है वह असव होता है, क्योंकि वह कारणका कार्य होता है, अतः यह हेतु विरुद्ध है। (३) मण्डूकशिखण्ड भी 'नास्ति' इस प्रत्ययके होनेसे सद तो है पर इसके उत्पादक कारण नहीं है, अत' यह हेतु अनै कान्तिक भी है। मण्डूकशिरखण्ड दृष्टान्त भी साध्य, साधन व उभय धर्मोंसे विकल होनेके कारण दृष्टान्ताभास है। क्योंकि उसके भी किसी अपेक्षासे कारण बन जाते हैं और वह कथंचित सत्र भी सिद्ध हो जाता है। प्रश्न-आत्मा नहीं है, क्योंकि गधेके सींगवत् वह प्रत्यक्ष नहीं है। उत्तर-यह हेतु भी असिद्ध,
विरुद्ध व अनै कान्तिक तीनों दोषोसे दूषित है। (४) शुद्धामा तो सकल विमल केवलज्ञान के प्रत्यक्ष है और कर्म नोकर्म संयुक्त अशुद्धात्मा अवधि व मन.पर्यय ज्ञानके भी प्रत्यक्ष है अत उपरोक्त हेतु असिद्ध है। प्रश्न--इन्द्रिय प्रत्यक्ष न होनेसे वह अप्रत्यक्ष है । उत्तर-ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योकि इन्द्रिय प्रत्यक्षको परोक्ष ही माना गया है। घटादि परोक्ष हैं क्योंकि वे अग्राहक निमित्तसे ग्राह्य होते हैं, जैसे कि धूमसे अनुमित अग्नि। असद्भूत शशशृङ्गादि तथा सद्भूत विज्ञानादि दोनों ही अप्रत्यक्ष हैं, अतः उपरोक्त हेतु अनैकान्तिक है। यदि बौद्ध लोग यह कहें कि विज्ञान तो स्वसवेदन तथा योगियोके प्रत्यक्ष है इसलिए आपका हेतु ठीक नहीं है, तो हम कह सकते है कि फिर आत्माको ही स्वसंवेदन व योगिप्रत्यक्ष मानने में क्या हानि है। शशशृगका दृष्टान्त भी साध्य, साधन व उभय धर्मोसे विकल होनेके कारण दृष्टान्ताभास है, क्योकि मण्डूक शिरवाबत शशशृग भी कथाचित् सत् है। इसलिए उसे अप्रत्यक्ष कहना असिख है। (३) इन्द्रियो और तजनित ज्ञानोमें जो सम्भव नहीं है ऐसा जो, 'जो मैं देखनेवाला था वही चलनेवाला हूँ' यह एकत्वविषयक फल सभी विषयों व ज्ञानोमें एकसूत्रता रखनेवाले गृहीता आत्माके सद्भावको सिद्ध करता है। आत्मस्वभावके होनेपर ही ज्ञानकी व विषयों की प्राप्ति होती है, इन्द्रियोके उसका संभवपना नहीं है, क्योंकि वे अचेतन व क्षणिक है। इसलिए उन इन्द्रियो से व्यतिरिक्त कोई न कोई ग्रहण करनेवाला होना चाहिए, यह सिद्ध होता है। (स्या.म./१७/२३३/१६); (६) यह जो हम सबको 'आत्मा है' इस प्रकारका ज्ञान होता है, वह संशय, अनध्यवसाय, विपर्यय या सम्यक इन चार विकल्पों में से कोई एक तो होना ही चाहिए। कोई सा भी विकल्प हमारे इष्टकी सिद्धि कर देता है। यदि यह ज्ञान संशयरूप है तो भी आत्माकी सत्ता सिद्ध होती है, क्योंकि अवस्तुका संशय नहीं होता। अनादिकालसे प्रत्येक व्यक्ति आत्माका अनुभव करता है, अतः यह ज्ञान अनध्यवसाय नहीं हो सकता। यदि इसे विपरीत कहते हैं, तो भी आत्माकी क्वचिव सत्ता सिद्ध हो जाती है, क्योंकि अप्रसिद्ध पदार्थका विपर्यय ज्ञान नहीं होता।
और सम्यक रूपमें तो आत्मसाधक है ही। स्या.म./१७/२३२/५ अहं सुखी अहं दुःखी इति अन्तर्मुखस्य प्रत्ययस्य
आत्मालम्बनतयैवोपपत्तेः .. यत्पुनः अहं गौर' अहं श्याम इत्यादि बहिर्मुख. प्रत्यय स खल्वात्मोपकारकत्वेन लक्षणया शरीरे प्रयुज्यते । यथा प्रियभृत्येऽहमिति व्यपदेश'। स्या.म/१७/२३२/२६ यच्च, अहं प्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् तत्रेयं वासना। ...यथा बीज...न तस्याङ्कुरोत्पादने कादाचित्केऽपि तदुत्पादनशक्तिरपि कायाचित्की। तस्याः कथं चिन्नित्यत्वात। एवमात्मा सदा संनिहितत्वेऽप्यहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् । रूपाद्य पल ब्धिः सकतृ का, क्रियात्वाद, छिदि क्रियावत । यश्चास्याः कर्ता स आत्मा। न चात्र चक्षुरादीनां कतृत्वम् । तेषां कुठारादिवत् करणत्वेनास्वतन्त्रत्वात् । करणत्वं चैषां पौद्गलिकत्वेनाचेतनत्वात, परप्रेर्यत्वात, प्रयोक्तृव्यापारा निरपेक्षप्रवृत्त्यभावात् । स्या,म./१७/२३४/२० तथा च साधनोपादानपरिवर्जनद्वारेण हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्था चेष्टा प्रयत्नपूर्विका, विशिष्ट क्रियात्वात, रथक्रियावत् । शरीरं च प्रयत्नवदधिष्ठितम, विशिष्टक्रियाश्रयत्वात, रथवत् । यश्चास्याधिष्ठाता स आत्मा, सारथिवत् । स्या.म/१७/२३४/१४ तथा प्रेय मनः अभिमतविषयसंबन्धनिमित्तक्रियाश्रयत्वाद, दारकहस्तगतगोलकवत् । यश्चास्य प्रेरकः स आत्मा इति।... तथा अस्त्यात्मा, असमस्तपर्यायवाच्यत्वात् । यो योऽसाङ्क तिकशुद्धपर्यायवाच्या, स सोऽस्तित्वं न व्यभिचरति, यथा घटादिः ।...तथा सुखादीनि द्रव्याश्रितानि, गुणत्वाद, रूपवत् । योऽसौ गुणी स आत्मा। इत्यादिलिगानि । तस्मादनुमानतोऽप्यात्मा सिद्ध.। (७)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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