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क्षय
1 -(अनन्तश्चात अनिवाडकर शेष सर्व हिजार वर्षाको
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चारित्रमोह क्षपणा विधान * अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना-दे० विसंयोजना ।
समयमनन्तगुणितक्रमेण प्रवर्त मानेन प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशविनाश
पूर्वक प्रतिसमयमैकैकनिषेकं गालयित्वा तदनन्तरसमये क्षायिकसम्यग* समुद्रोंमें दर्शनमोहक्षपण कैसे सम्भव है-दे० मनुष्य/३॥
दृष्टिर्जायते जीव। -अनुभाग तो अनुसमय अपवर्तनकरि अर कर्म २. दर्शनमोह क्षपणाका स्वामित्व
परमाणूनिकी उदीरणा करि यह कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी रही थी
जो सम्यक्त्व मोहनीकी अन्तमुहर्त स्थिति वामै उच्छिष्टावली मिना ४-७ गुणस्थान पर्यन्त कोई भी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव, त्रिकरणपूर्वक सर्व स्थिति है सो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशनिका सर्वथा नाश अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके दर्शनमोहनीयकीक्षपणा प्रारम्भ लीए' जो एक-एक निषेकका एक-एक समयविर्षे उदय रूप होइ करता है। (दे० सम्यग्दर्शन/IVE)
निर्जरना ताकरि नष्ट हो है, बहुरि ताका अनन्तर समयविर्षे *त्रिकरण विधान-दे० करण/३ ।
उच्छिष्टावलो मात्र स्थिति अवशेष रहै उदीरणाका भी अभाव भया,
केवल अनुभागका अपवर्तन है...उदय रूप प्रथम समयतें लगाय ३. दर्शन मोहकी क्षपणाके लिए पुनः निकरण करता है
समय-समय अनन्तगुणा क्रमकरि वर्ते है ताकरि प्रकृति स्थिति अनुगो.क./जी.प्र /५५०/७४४/६, तदनन्तरमन्तर्मुहूर्त विश्रम्यानन्तानुबन्धि
भाग प्रदेशनिका सर्वथा नाश पूर्वक समय-समय प्रति उच्छिष्टावलीके चतुष्कं विसंयोज्यान्तर्मुहूर्तानन्तरं करणत्रयं कृत्वा। - बहुरि ताके
एक-एक निषको गालि निजरा रूप करि ताका अनन्तर समय विष अनन्तरि अन्तर्मुहूर्त विश्राम लेइकरि अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो है : ( अधिक विस्तारसे ध.६/१,६-८,१२/ कीए' पीछे अन्तर्मुहूर्त भया तब बहुरि तीन करण करै । (ल.सा/ २४८-२६६) मू./११३)
७. दर्शनमोहकी क्षपणामें दो मत ४. दर्शनमोहकी प्रकृतियोंका क्षपणाक्रम
ध.६/९.६-८,१२/२५८/३ ताधे सम्मत्तम्हि अहवस्साणि मोत्तूण सव्वगो.क./जी.प्र./५५०/७४४/६ अनिवृत्तिकरणकाले संख्यातबहुभागे गते मागाइदं । संस्खज्जाणि वाससहस्साणि मोत्तूण आगाइदमिदि भणंता
शेषै कभागे मिथ्यात्वं ततः सम्यग्मिथ्यात्वं ततः सम्यक्त्वप्रकृति च वि अस्थि । -(अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना तथा दर्शन मोहके क्रमेण क्षपयति, दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भप्रथमसमयस्थापितसम्यक्त्व- स्थिति काण्डक घातके पश्चात अनिवृत्तिकरणमें उस जीवने ) सम्यप्रकृतिप्रथमस्थित्यामान्तर्मुहूर्तावशेषे चरमसमयप्रस्थापकः । अनन्तर- क्रवके स्थिति सत्त्वमें आठ वर्षोंको छोडकर शेष सर्व स्थिति सस्त्वको समयादाप्रथमस्थितिचरमनिषेकं निष्ठापकः । =अनिवृत्तिकरण काल- (घातार्थ ) किया। सम्यक्त्वके स्थिति सत्यमें संख्यात हजार वर्षोंको का संख्यात भागनिमें एक भाग बिना बहुभाग गये एक भाग अवशेष छोड़कर शेष समस्त स्थिति सत्त्वको ग्रहण किया इस प्रकारसे कहनेरहैं पहिलं मिथ्यात्वकौं पीछे सम्यग्मिथ्यात्वकौं पीछे सम्यक्त्व वाले भी कितने ही आचार्य हैं। प्रकृतिकौं अनुक्रमतें क्षय कर है। तहाँ दर्शन मोहको क्षपणाका प्रारम्भका प्रथम समयविः स्थायी जो सम्यक्त्व मोहनीकी प्रथम स्थिति ताका काल विर्षे अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहें तहाँका अन्तसमय पर्यन्त तौ प्रस्थापक कहिए। बहुरि तिसके अनंतरि समयतें प्रथम स्थितिका * दर्शनमोह क्षपणामें मृत्यु सम्बन्धी दो मतअन्तनिषेकपर्यन्त निष्ठापक कहिए। (गो.जी./जी.प्र./३३५-३३६/
दे० मरण/३ । ४८६ ); (ल.सा./जी.प्र./१२२-१३०)
* नवक समय प्रबद्धका एक आवली पर्यन्त क्षपण ५. कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होनेका क्रम
संभव नहीं दे० उपशम/४/३। ल.सा./जी.प्र./१३१४१७२/३ यस्मिन् समये सम्यक्त्वप्रकृतेरष्टवर्ष मात्रस्थितिमवशेषयन् चरमकाण्डकचरमफालिद्वयं पातयति तस्मिन्नेव
३. चारित्रमोह क्षपणा विधान समये सम्यक्त्वप्रकृत्यनुभागसत्त्वमतीतानन्तरसमयनिषकानुभाग
१. क्षपणाका स्वामित्व सत्त्वादनन्तगुणहीनमवशिष्यते । ल.सा./जी प्र/१४५/२००/१० प्रागुक्तविधानेन अनिवृत्तिकरणचरमसमये क्ष.सा./भाषा./३१२/४८०/१३ तीन करण विधान से क्षायिक सम्यग्दृष्टि
सम्यक्त्वप्रकृतिचरमकाण्डकचरमफालिद्रव्ये अघोनिक्षिप्ते सति तद- होइ.. चारित्रमोहकी क्षपणाको योग्य जे विशुद्ध परिणाम तिनि करि नन्तरोपरितनसमयात.. कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिरिति जीवः संज्ञायते । सहित होह तै प्रमत्ततें अप्रमत्त वि. अप्रमत्त प्रमत्त विर्षे हजारों०१. जिस समय विर्षे सम्यक्त्वमोहनीकी अष्टवर्ष स्थिति शेष राखी वार गमनागमनकरि...क्षपकश्रेणीको सन्मुख...सातिशय प्रमत्तगुणअर मिश्रमोहनी सम्यक्त्वमोहनीका अन्तकाण्डककी दोय फालिका स्थान विर्षे अधःकरण रूप प्रस्थान करै है। पतन भया तिसही समयवि सम्यक्त्व मोहनीका अनुभाग पूर्वसमय
२.क्षपणा विधिके १३ अधिकार के अनुभागते अनन्तगुणा घटता अनुभाग अवशेष रहै है। २. अनिवृत्तिकरणके अन्त समयविष सम्यक्त्वमोहनीका अन्तकाण्डककी अन्त- क्ष. सा./न./३९२ तिकरणमुभयो सरण कमकरणं खणदेसमंतरयं । संकम फालीका द्रव्यको नीचले निषेकनिविर्षे निक्षेपण किये पीछे अनन्तर अपुवफड्ढयाकिट्टीकरणाणुभवणखमणाये। अधःकरण; अपूर्वकरण, समय लगाय 'कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी हो है।
अनिवृत्तिकरण, बंधापसरण, सत्त्वापसरण, क्रमकरण अष्ट कषाय
सोलह प्रकृतिनिको क्षपणा, देशघातिकरणं, अंतरकरण, संक्रमण, ६. तत्पश्चात् स्थिति के निषेकोका क्षयक्रम
अपूर्व स्पर्धककरण, अन्तर कृष्टिकरण, सूक्ष्म-कृष्टि-अनुभवन, ऐसे ये ल.सा./जी.प्र /१५०/२०५/२० एवमनुभागस्यानुसमयमनन्तगुणितापवर्तनेन चारित्र मोहकी क्षपणाविर्षे अधिकार जानने । कर्मप्रदेशानां प्रतिसमयमसंख्यातगुणितोदीरणया च कृतकृत्यवेदक
३. क्षपणा विधि सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वप्रकृतिस्थितिमन्तर्मुहूर्तायामुच्छिष्टायलि मुक्त्वा सर्वा प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशविनाशपूर्वक उदयमुखेन गालयित्वाक्ष.सा./भाषा/१/३६२-६००-१. यहाँ प्रथम ही अधःप्रवृत्तिकरण रूप तदनन्तरसमये उदीरणारहितं केवलमनुभागसमयापवर्तनेन व प्रति- परिणामों को करता हुआ सातिशय अप्रमत्त संज्ञाको प्राप्त होता है । इस
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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