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क्षय
३. चारित्रमोह क्षपणा विधान
७वें गुणस्थानके कालमें चार आवश्यक है-१ प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिः २ प्रशस्त प्रकृतियोंका अनन्तगुण क्रमसे चतुस्थानीय अनुभाग बन्ध; ३ अप्रशस्त प्रकृतियोका अनन्तवें भागहीन क्रमसे केवल द्विस्थानीय अनुभाग अन्ध, और ४ पल्य/असं.हीन क्रमसे संख्यात सहस्रबन्धापसरण ।३६२-३६६। तिस गुणस्थानके अन्तमें स्थिति बन्ध व सत्त्व दोनों ही घटकर केवल अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण रहती है।४६४.२. तदनन्तर अपूर्वकरण गुणस्थानमें प्रवेश करके तहॉके योग्य चार आवश्यक करता है-१. असंख्यात गुणक्रमसे गुण श्रेणी निर्जरा; २. असंख्यात गुणा क्रमसे ही गुण संक्रमण; ३. सर्व ही प्रकृतियोंका स्थितिकाण्डक घात औरः ४. केवल अप्रशस्त प्रकृतियोका धात । यहाँ स्थिति काण्डकायाम पत्य/सं. मात्र है, और अनुभाग काण्डक घातमें केवल अनन्त बहुभाग क्रम रहता है। इसके अतिरिक्त पक्य/सं. हीनक्रमसे संख्यात सहस स्थिति बन्धापसरण करता है 1३६७-४१०। इस गुणस्थानके अन्तमें स्थितिबन्ध तो घटकर पृथक्त्व सहस्र सागर प्रमाण और स्थिति सत्त्व घटकर पृथक्त्व लक्ष सागर प्रमाण रहते हैं ।४१४। ३. तदनन्तर अनिवृतिकरण गुणस्थानमे प्रवेश करके तहकि योग्य चार आवश्यक करता है-१. असंख्यात गुणसे गुणश्रेणी निर्जरा; २. असंख्यात गुणाक्रमसे ही गुण संक्रमण; ३. पन्य/असं. आयामवाला स्थिति काण्डक घात; ४. अनन्त बहुभाग क्रमसे अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग काण्डकघात। यह पल्य/असं. व अनन्त बहुभाग अपूर्वकरण वालोकी अपेक्षा अधिक है।४११। इसके प्रथम समयमें नाना जोवोंके स्थिति खण्ड असमान होते हैं परन्तु द्वितीयादि समयों में सर्व के स्थिति सत्त्व व स्थिति खण्ड समान होते हैं।४१२-४१३२ यहाँ स्थिति बन्धापसरणमें पहले पत्य/सं.होनक्रम होता है, तत्पश्चात् पत्य/सं. बहुभाग हीनक्रम और तत्पश्चात पसय/असं. बहुभाग हीनक्रम तक हो जाता है। इस प्रकार विशेष हीनक्रमसे घटतेघटते इस गुणस्थानके अन्तमें स्थितिबन्ध केवल पल्य/असं. वर्ष मात्र रह जाता है ।४१४-४२१। स्थिति सत्त्व भी उपरोक्त क्रमसे ही परन्तु स्थिति काण्डक घात द्वारा घटता घटत: उतना ही रह जाता है ।४१६-४२१। तीन करणों में ही नहीं बल्कि आगे भी स्थिति४-५. बन्ध व सत्त्वका अपसरण बराबर हुआ ही करै है। ३६५-४१८ । 4. अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें ही क्रमकरण द्वारा मोहनीय, तीसिय, बोसिय, वेदनीय, नाम व गोत्र, इन सभी प्रकृतियोंके स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्वके परस्थानीय अल्प-बहुत्वमें विशेष क्रमसे परिवर्तन होता है, अन्तमें नाम व गोत्रकी अपेक्षा वेदनीयका स्थितिबन्ध व सत्त्व ड्योढा रह जाता है ।४२२-४२७१७. क्षपणा अधिकारमें मध्य आठ कषायों ( प्रत्य., अप्रत्या.) की स्थितिका संज्वलन चतुष्ककी स्थिति में संक्रमण करनेका विधान है। यही उन आठोंका परमुखरूपेण नष्ट करना है।४२६। तत्पश्चात ३ निद्रा और १३ नामकर्मकी, इस प्रकार १६ प्रकृतियोंको स्वजाति अन्य प्रकृतियोंमें संक्रमण करके नष्ट करता है ।४३०। ८. तदनन्तर मति आदि चार ज्ञानावरण, चक्षु आदि तीन दर्शनावरण और ५ अन्तराय इन १२ प्रकृतियोको सर्वघातीकी बजाय देशघाती अनुभाग युक्त बन्ध व उदय होने योग्य है। ४३१-४३२।६। अनिवृत्तिकरणका संख्यात भाग शेष रहनेपर ४८४! चार संज्वलन और नव नोकषाय इन १३ प्रकृतियोंका अन्तरकरण करता है । ४३३-४३३ । १०. संक्रमण अधिकारमें प्रथम ही सप्तकरण करता है। अर्थात्-१-२. मोहनीयके अनुभाग बन्ध व उदय दोनोको दारुसे लता स्थानीय करता है । ३. मोहनीयके स्थिति बन्धको पल्य/ असं. से घटाकर केवल संरख्यात वर्ष मात्र करता है; ४. मोहनीयके पूर्ववर्तीय यथा तथा संक्रमणको छोडकर केवल आनुपूर्वीय रूप करता है;. लोभका जो अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता था वह अब नहीं होता; ६. नपुंसक वेदका अधःप्रवृत्ति संक्रमण द्वारा नाश करता है; ७. संक्रमगसे पहले-आवलोमात्र आवाधा व्यतीत भये उदीरणा
होती थी वह अब छह आवली व्यतीत होनेपर होती है।४३६-४३७१ सप्तकरणके साथ ही संज्वलन क्रोध, मान, माया व नव नोकषायों, इन १२ प्रकृतियोंका आनुपूर्वी क्रमसे गुण संक्रमण व सर्व संक्रमण द्वारा एक लोभमें परिणमाकर नाश करता है। उसका क्रम आगे कृष्टिकरण अधिकारके अनुसार जानना ।४३८-४४०। यहाँ स्थितिअन्धापसरणका प्रमाण नवीनस्थिति मन्धसे संरण्यातगुणा घाट होता है । ४४१-४६१। ११. अनिवृत्तिकरणके इस कालमें संज्वलन चतुष्कका अनुभाग प्रथम काण्डकका पात भये पीछे क्रोधसे लगाय लोभ पर्यन्त अनन्त गुणा घटता और लोभसे लगाय क्रोध पर्यन्त अनन्तगुणा बधता हो है। इसे ही अश्वकर्ण करण कहते हैं। तहॉसे आगे अब उन चारोंमें अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है जिससे उनका अनुभाग अनन्त गुणा क्षीण हो जाता है । विशेष-दे० स्पर्धक व अश्वकर्ण ।४६५-४६६। १२० तननन्तर उसी अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके कालमें रहता हुआ इन अपूर्व स्पर्धकोंका संग्रहकृष्टि व अन्तरकृष्टि करण द्वारा कृष्टियों में विभाग करता है। साथ ही स्थिति व अनुभागका बरावर काण्डक घात द्वारा क्षीण करता है। अश्वकर्ण कालमें संज्वलन चतुष्ककी स्थिति अठ वर्ष प्रमाण थी, वह अब अन्तर्मुहूतं अधिक चार वर्ष प्रमाण रह गयी। अवशेष कर्मोंकी स्थिति संख्यात महस्रवर्ष प्रमाण है। संज्वलनका स्थितिसत्त्व पहले संख्यात सहस्रवर्ष था, वह अब घटकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष मात्र रहा और अघातियाका संख्यात सहस्रवर्ष मात्र रहा। कृष्टिकरणमें ही सर्व संज्वलन चतुष्कके सर्व निषेक कृष्टिरूप परिणामे 1४६०-५१४। विशेष—दे० कृष्टि । १३. कृष्टिकरण पूर्ण कर चुकनेंपर वहाँ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके चरम भाग; रहता हुआ इन आदर कृष्टियोको क्रोध, मान; माया व लोभके क्रमसे वेदना करता है । तिस कालमें अपूर्व कृष्टि आदि उत्पन्न करता है । क्रोधादि कृष्टियोंके द्रव्यको लोभकीकृष्टि रूप परिणमाता है। फिर लोभको संग्रहकृष्टिक द्रव्यको भी सूक्ष्म कृष्टि रूप करता है। यहाँ केवल संज्वलन लोभका ही अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितिबन्ध शेष रह जाता है । अन्तमें लोभका स्थिति सत्त्व भी अन्तर्मुहूर्त मात्र रह जाता है, और उसके बन्धकी पुच्छित्ति हो जाती है। शेष घातिमाका स्थितिबन्ध एक दिनसे कुछ कम और स्थिति सत्त्वसंख्यात सहस्र वर्ष प्रमाण रहा।५१४-५७१। विशेष-दे० कृष्टि। १४. अब सूक्ष्म कृष्टिको वेदता हुआ सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानमें प्रवेश करता है। यहाँ सर्व ही कोका जघन्य स्थिति बन्ध होता है। तीन धातियाका स्थिति सत्त्व अन्तर्महुर्त मात्र रहता है। लोभका स्थिति सत्त्व क्षयके सम्मुख है । अघातियाका स्थिति सत्त्व असंख्यात वर्ष मात्र है। याके अनन्तर लोभका भी क्षय करके क्षीणकषाय गुणस्थानमें प्रवेश करै है।५८२-६००। विशेष-दे० कृष्टि ।
४. चारित्रमोह क्षपणा विधानमें प्रकृतियोंके क्षय सम्बन्धी दो मत
घ/१/१,१,२७/२१७/३ अपुवकरण-विहाणेण गमिय अणियट्टिअद्वाए
सखेज्जदि-भागे सेसे...सोलस पयडीओ खवेदि। तदो अंतोमुहत्तं गंतूण पच्चक्रवाणापञ्चक्खाणावरणकोध-माण-माया-लोभे अक्कमेण खवेदि । एसो संतकम्म-पाहुड़-उवएसो। कसाय-पाहुड-उवएसो। पुण अछ कसारसु खीणेसु पच्छा अंतोमुहूतं गतूण सोलस कम्माणि खविजंति त्ति । एदे दो वि उवएसा सञ्चमिदि केवि भण्णं ति, तण्ण घडदे, विरुद्वात्तादो मृत्तादो। दो वि पमाणाई ति क्यणमवि ण घडदे पमाणेण पमाणा विरोहिणा होदव्य' इदि णायादो । -अनिवृत्तिकरणके कालमें संरख्यात भाग शेष रहनेपर. सोलह प्रकृतियोंका क्षय करता है। फिर अन्तर्मुहर्त व्यतीत कर प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्यारण्यानावरण सम्बन्धी क्रोध,
जैनेन्द्र सिदान्त कोश
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