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क्षमावणी व्रत
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क्षय
ऋणसे रहित होकर सुखी होऊँगा। ऐसा विचार कर रोष नहीं करना चाहिए । (रा.वा./६/६/२७/५६६/१); (चा सा./५६/३); (पं.वि./१/८४); (ज्ञा /१६/१६); (अन.ध /६/७-८); (रा.वा.हि./8/4/६६५-६६६)
* दश धर्मो की विशेषताएं--(दे० धर्म/८) क्षमावणी व्रत-व्रतविधानसं०/पृ. १०८ आसोज कृ.१ को सबसे
क्षमा माँगकर कुछ फल बाँटे तथा उपवास रखे। क्षमाश्रमण-१. श्वेताम्बराचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमणको ही कदाचित् अकेले क्षमाश्रमण नामसे कहा जाता है। -दे० जिनभद्रगणी; २-यद्यपि श्वेताम्बराचार्य देवधिकी भी क्षमाश्रमण उपाधि थी, परन्तु अकेले क्षमाश्रमण द्वारा उनका ग्रहण नहीं होता। क्षय-कर्मोंके अत्यन्त नाशका नाम क्षय है । तपश्चरण व साम्यभावमें निश्चलताके प्रभावसे अनादि कालके अँधे कर्म क्षण भरमें विनष्ट हो जाते हैं, और साधककी मुक्ति हो जाती है। कसैका क्षय हो जानेपर जीवमें जो ज्ञाता द्रष्टा भाव व अतीन्द्रिय आनन्द प्रकट होता है वह क्षायिक भाव कहलाता है।
१. लक्षण व निर्देश
स्पर्धकोंमें परिणत होकर उदयमें आते हैं। उन सर्वघाती स्पर्धकोंका अनन्तगुण हीनत्व ही क्षय कहलाता है। (ध.५/१,७,३६/२२०/११)। * अपक्षयका लक्षण दे० अपक्षय ।
४. अष्टकर्मोंके क्षयका क्रम त.सू./१०/१ मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । = मोह
का क्षय होनेसे तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका
क्षय होनेसे केवलज्ञान प्रकट होता है। क, पा ३/३,२२/२४३/५ मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ते खड्य पच्छा सम्मत्तं
खबिज्जदि त्ति कम्माणकवमणकम। - मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वको क्षय करके अनन्तर सम्यक्त्वका क्षय होता है। त. सा./६/२१-२२ पूर्वाजितं क्षपयतो यथोतैः क्षयहेतुभिः। संसारबीजं
कात्स्यैन मोहनीय प्रहीयते ॥२१॥ ततोऽन्तरायज्ञाननिदर्शनध्नान्यनन्तरम् । प्रहीयन्तेऽस्य युगपत् त्रीणि कर्माण्यशेषतः ।२२। -पूर्वमें कहे हुए कर्म क्षपणके हेतुओके द्वारा सबसे प्रथम मोहनीय कर्मका क्षय होता है। मोहनीय कर्म हो सब कर्मोंका और संसारका असली कारण है। मोह क्षय हुआ कि बादमें एक साथ अन्तराय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण ये तीन घाती कर्म समूल नष्ट हो जाते हैं। ६. मोहनीयकी प्रकृतियों में पहले अधिक अप्रशस्त प्रकृ
तियोंका क्षय होता है क. पा./२/३,२२/६४२८/२४३/७ मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तेसु के पुब्व खधिज्जदि । मिच्छत्तं । कुदो, अच्चमहत्तादो ।-प्रश्न-मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वमे पहले किसका क्षय होता है। उत्तर-पहले मिथ्यात्वका क्षय होता है। प्रश्न-पहले मिथ्यात्वका क्षय किस कारणसे होता है ? उत्तर-क्योंकि मिथ्यात्व अत्यन्त अशुभ प्रकृति है। ७. अप्रशस्त प्रकृतियोंका क्षय पहले होना कैसे जाना
जाता है क.पा ३/३,२२/४२८/८ असुहस्स कम्मस्स पुव चवखवणं होदि त्ति कुदो णव्बदे। सम्मत्तस्स लोहसंजलणस्स य पच्छा खयण्ण हाणूवत्तीदो। -प्रश्न-अशुभ कर्मका पहले ही क्षय होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है । उत्तर-अन्यथा सम्यक्त्व व लोभ सज्वलनका पश्चात क्षय बन नहीं सकता है, इस प्रमाणसे जाना जाता है कि अशुभ कर्मका क्षय पहले होता है। *कर्मों के क्षयकी ओघआदेशप्ररूपणा-दे० सत्त्व । * स्थिति व अनुभाग काण्डक धात-दे. अपकर्षण।।
१. क्षयका लक्षण स, सि./२/१/१४६/६ क्षय आत्यन्तिकी निवृत्तिः। यथा तस्मिन्नेवाम्भसि शुचिभाजनान्तरसंक्रान्ते पडूस्यात्यन्ताभावः । =जैसे उसी जलको दुसरे साफ बर्तनमें बदल देनेपर कोचडका अत्यन्त अभाव हो जाता है. वैसे ही कर्मोका आत्मासे सर्वथा दूर हो जाना क्षय है। ध.१/१,१,२७/२१५/१ अट ठण्डं कम्माणं मूलुत्तरभेय...पदेसाणं जीवादो
जो णिस्सेस-विणासो त खवणं णाम । = मूलप्रकृति और उत्तर प्रकृतिके भेदसे...आठ कर्मोका जीवसे अत्यन्त विनाश हो जाता है
उसे क्षपण (क्षय) कहते हैं। पं.का./त.प्र./५६ कर्मणां फलदानसमर्थत... अत्यत्तविश्लेष. क्षयः ।।
कर्मों का फलदान समर्थ रूपसे.. अत्यन्त विश्लेष सो क्षय है। गो.क./जी. प्र./८/२६/१४ प्रतिपक्षकर्मणां पुनरुत्पन्यभावेन नाश क्षयः।
-प्रतिपक्ष कर्मोंका फिर न उपजें ऐसा अभाव सो क्षय है।
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२. क्षयदेशका लक्षण गो.क./जी.प्र./४४५/५६६/४ तत्र क्षयदेशो नाम परमुखोक्येन विनश्या
चरमकाण्डकचरमफालि., स्वमुखोदयेन बिनश्यता च समयाधिकावलिः । =जे, प्रकृति अन्य प्रकृति रूप उदय देह विनसें हैं ऐसी परमुखोदयी हैं तिनकें तो अन्त काण्डककी अन्त फालि क्षयदेश है। बहुरि अपने ही रूप उदय देह विनसै है ऐसी स्वमुखोदयी प्रकृति तिनके एक-एक समय अधिक आवली प्रमाण काल क्षयदेश है। गो. क./भाषा,/४४६/५६७/७ जिस स्थानक क्षय भया सो क्षयदेश कहिए है।
२. दर्शनमोह क्षपणा विधान १. छहों कालों में दर्शनमोहनी क्षपणा सम्भव नहीं है
३. उदयाभावी क्षयका लक्षण रा, वा./२/५/३/१०६/३० यदा सर्वघातिस्पर्धकस्योदयो भवति तदेषदप्यात्मगुणस्याभिव्यक्तिनास्ति तस्मात्तदुदयस्याभावः क्षय इत्युच्यते। जब सर्वघाति स्पर्धकोंका उदय होता है तब तनिक भी आत्माके गुणकी अभिव्यक्ति नहीं होती, इसलिए उस उदयके अभावको उदयाभावी क्षय कहते हैं। ध./७/२.१,४६/१२/६ सव्वधादिफद्दयाणि अणंतगुणहीणाणि होदूण देसघादिफद्दयत्तणेण परिणमिय उदयमागच्छति, तेसिमर्णतगुणहीणत्तं खओ णाम ।-सर्वघाती स्पर्धक अनन्तगुणे हीन होकर और देशघाती
ध. ६/१.६-८,१२/२४७/२ एदेण वक्रवाणाभिप्पारण दुस्सम-अइदुस्समसुसमसुसम-सुसमकालेमुप्पण्णाणं व दसणमोहणीयरवषणा णस्थि, अवसेसदोसु वि कालेसुष्पण्णाणमस्थि । कुदो। एइंदियादो आगंतूण तदियकालुप्पण्णबद्धणकुमारादीण दसणमोहरववणदंसणादो। एदं चेवेत्थ वक्खाणं पधाणं कादव्वं । - दुषमा, अतिदुषमा, सुषमसुषमा और सुषमा कालों में उत्पन्न हुए जीवोके ही दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नहीं होती है अवशिष्ट दोनों कालोमें उत्पन्न हुए जीवों के दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होती है। इसका कारण यह है कि एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर (इस अवसर्पिणीके) तीसरे कालमें उत्पन्न हुए वर्द्धमानकुमार आदिकों के दर्शनमोहकी क्षयणा देखी जाती है। यहाँपर यह व्याख्यान ही प्रधानतया ग्रहण करना चाहिए। विशेष दे० मोक्ष/४/३ ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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