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क्षमा
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समयमें उत्कृष्ट योगस्थानको भी पूर्ण करता है, वह जोव उसी नारक पर्यायके अन्तिम समयमें सम्पूर्ण गुणितकर्माशिक होता है। (ध.६/१,६,८,१२/२५७ को टिप्पणी व विशेषार्थ से उद्धृत) गो.जी./मू./२५१ आवासया हु भव अद्धाउस्सं जोगसं किलेसो य । ओकटू टुकट्टणया छच्चेदे गुणिदकम्मंसे ।२५१। -गुणित कर्माशिक कहिए उत्कृष्ट ( कर्म प्रदेश ) संचय जाकै होइ ऐसा कोई जीव तीहि विषै उत्कृष्ट संचयको कारण ये छह आवश्यक होइ ।
३. गुणित क्षपित घोलमानका लक्षण ध.६/१,६,८,१२/२५८/१९ विशेषार्थ-जो जीव उपर्युक्त प्रकारसे न गुणित कर्माशिक है और न क्षपित काशिक हैं, किन्तु अनव स्थितरूपसे कर्मसंचय करता है वह गुणित क्षपित घोलमान है।
४. क्षपित कर्णाशिक क्षायिक श्रेणी ही मांडता है पं.सं./प्रा./५/१८८ टोका -क्षपित कर्माशो जीवः उपरि नियमेन क्षपक
श्रेणिमेवारोहति। -क्षपित कौशिक जीव नियमसे क्षपक श्रेणी ही मांडता है।
५. गुणित कर्माशिकके छह आवश्यक गो.जी./मू./२५१ आवासया हु भवअदाउस्संजोगसं किलेसो य । ओक
टुटुकाट्टणया छच्चेदे गुणिदकम्मंसे। -गुणित कांशिक कहिए उत्कृष्ट संचय जाकै होय ऐसा जो जीव तीहि विष उत्कृष्ट संचय को कारण ये छह आवश्यक होइ, तातै उत्कृष्ट संचय करनेवाले जीवके ये छह आवश्यक कहिये-भवादा, आयुर्वल, योग, संक्लेश, अपकर्षण, उत्कर्षण। ६. गुणित कर्माशिक जीमोंमें उत्कृष्ट प्रदेशघात एक
समय प्रबद्ध ही होता है इससे कम नहीं ध.१२/४,२.१३,२२२/४४६/१४ गुणिदकम्म सियम्मि उक्कस्सेण जदि खओ
होदि तो एगसमयपबद्धो चेव झिज्जदि त्ति गुरूवदेसादो। गुणित कर्माशिक जीबमें उत्कृष्ट रूपसे यदि क्षय होता है तो समय प्रबद्धका ही क्षय होता है। ऐसा गुरुका उपदेश है। क्षमा-१. उत्तम क्षमाका व्यवहार लक्षण बा.अनु./७१ कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंग जदि हवेदि सक्खादं । ण कुणदि किचिवि कोहं तस्स खमा होदि धम्मोत्ति ७१। -क्रोधके उत्पन्न होनेके साक्षात् बाहिरी कारण मिलनेपर भी जो थोडा भी क्रोध नहीं करता है, उसके ( व्यवहार ) उत्तम क्षमा धर्म होता है। (भा.पा./मू./१०७). (का.आ./मू./३६४); (चा.सा./११/२) नि. सा./ता, वृ./११५ अकारणादप्रियवादिनो मिथ्यादृष्टेरकारणेन मा त्रासयितुमुद्योगो विद्यते, अयमपगतो मत्पुण्येनेति प्रथमा क्षमा। अकारणेन संत्रासकरस्य ताडनबधादिपरिणामोऽस्ति, अयं चापगतो मत्सुकृतेनेति द्वितीया क्षमा । -बिना कारण अप्रिय बोलनेवाले मिथ्यादृष्टिको बिना कारण मुझे त्रास देनेका उद्योग वर्तता है, वह मेरे पुण्यसे दूर हुआ ऐसा विचारकर क्षमा करना वह प्रथम क्षमा है। मुझे बिना कारण त्रास देनेवालेको ताडन और वधका परिणाम वर्तता है, वह मेरे सुकृतसे दूर हुआ, ऐसा विचारकर क्षमा करना वह द्वितीय क्षमा है।
२. उत्तम क्षमाका निश्चय लक्षण स. सि./६/६/४१२/४ शरीरस्थितिहेतुमार्गणार्थ परकुलान्युपगच्छतो भिक्षोदुष्टजनाक्रोशप्रहसनावज्ञाताडनशरीरव्यापादनादीनां संनिधाने कालुष्यानुत्पत्तिः क्षमा। -शरीरको स्थितिके कारणकी खोज
करनेके लिए परकुलोंमें जाते हुए भिक्षुको दुष्टजन गाली-गलौज करते हैं, उपहास करते हैं, तिरस्कार करते हैं, मारते-पीटते हैं और शरीरको तोड़ते-मरोड़ते हैं तो भी उनके कलुषताका उत्पन्न न होना क्षमा है। (रा.वा./४/६/२/५६५/२१); (भ.आ./वि./४६/१५४/१२); (चा.सा./५६/१); (पं.वि./१/८२) नि.सा./ता वृ./११५ वधे सत्यमूर्तस्य परमब्रह्मरूपिणो ममापकारहानिरिति
परमसमरसी भावस्थितिरुत्तमा क्षमा। -(मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा बिना कारण मेरा) बध होनेसे अमूर्त परमब्रह्मरूप ऐसे मुझे हानि नहीं होती-ऐसा समझकर परमसमरसी भावमें स्थित रहनां वह उत्तम क्षमा है।
३. उत्तम क्षमाकी महिमा कुरल का./१६/२,१० तस्मै देहि क्षमादानं यस्ते कार्यविघातकः। विस्मृतिः
कार्यहानीना यद्यहो स्यात् तदुत्तमा ।२। महान्तः सन्ति सर्वेऽपि क्षीणकायास्तपस्विनः । क्षमावन्तमनुख्याताः किन्तु विश्वे हि तापसा' ।१० - दूसरे लोग तुम्हें हानि पहुचायें उसके लिए तुम उन्हें क्षमा कर दो, और यदि तुम उसे भुला सको तो यह और भी अच्छा है ।२। उपवास करके तपश्चर्या करने वाले निस्सन्देह महाच हैं, पर उनका स्थान उन लोगोंके पश्चात ही है जो अपनी निन्दा करने वालोंको क्षमा कर देते हैं। भा.पा./भू./१०८ पावं खबइ असेसं खमायपडिमडिओ य मुणिपवरो। खेयरअमरणराणं पसंसणीयो धुर्व होइ ।१०८। जो मुनिप्रवर क्रोधके अभावरूप क्षमा करि मंडित है सो मुनि समस्त पापकू क्षय करै है, बहुरि विद्याधर देव मनुष्यकरि प्रशंसा करने योग्य निश्चयकरि होय है। अन.ध./६/५ यः क्षाम्यति क्षमोऽप्याशु प्रतिकतु कृतागस' । कृतागसं तमिच्छन्ति क्षान्तिपीयूषसंजुषः।। -अपना अपराध करनेवालोंका शीघ्र ही प्रतिकार करने में समर्थ रहते हुए भी जो पुरुष अपने उन अपराधियों के प्रति उत्तम क्षमा धारण करता है उसको क्षमारूपी अमृतका समीचीनतया सेवन करनेवाले साधुजन पापोंको नष्ट कर देनेवाला समझते हैं।
४. उत्तम क्षमाके पालनाथ विशेष भावनाएं भ.आ./मू./१४२०--१४२६ जदिदा सवति असंतेण परो तं णस्थि मेत्ति
खमिदव्वं । अणुकंपा वा कुज्जा पावइ पावं वरावोत्ति ।। =सत्तो बि ण चेव हदो हृदो वि ण य मारिदो ति य खमेज्ज । मारिज्जंतो विसहेज्ज चेव धम्मो ण णट्ठोत्ति ।१४२२३ पुवं सयभुवभुतं काले णाएण तेत्तियं दव्यं । को धारणीओ धणियस्स दितओ दुविवओ होज्ज ।१४२५॥ --मैंने इसका अपराध किया नहीं तो भी यह पुरुष मेरे पर क्रोध कर रहा है, गाली दे रहा है, मैं तो निरपराधी हूँ ऐसा विचार कर उसके ऊपर क्षमा करनी चाहिए। इसने मेरे असहोषका कथन किया लो मेरी इसमें कुछ भी हानि नहीं है, अथवा क्रोध करनेपर दया करनी चाहिए, क्योंकि यह दीन पुरुष असत्य दोषोंका कथन करके व्यर्थ ही पापका अर्जन कर रहा है। यह पाप उसको अनेक दुःवोंको देनेवाला होगा ।१४२०। इसने मेरेको गाली ही दी है, इसने मेरेको पीटा तो नहीं है, अर्थात न मारना यह इसमें महान् गुण है। इसने गाली दी है परन्तु गाली देनेसे मेरा तो कुछ भी नुकसान नहीं हुआ अतः इसके ऊपर क्षमा करना ही मेरे लिए उचित है ऐसा विचार कर क्षमा करनी चाहिए। इसने मेरेको केवल ताडन ही किया है. मेरा बध तो नहीं किया है। वध करनेपर इसने मेरा धर्म तो नष्ट नहीं किया है, यह इसने मेरा उपकार किया ऐसा मानकर क्षमा ही करना योग्य है ।१४२२। ऋण चुकानेके समय जिस प्रकार अवश्य साहूकारका धन वापस देना चाहिए उसी प्रकार मैंने पूर्व जन्ममें पापोपार्जन किया था अब यह मेरेको दुःख दे रहा है यह योग्य ही है। यदि मैं इसे शान्त भावसे सहन करू गा तो पाप
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
मा०२-२३
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