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क्रौंच
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क्षपित काशिक
इन्द्रियोंको अपटुता आदिके निमित्तभूत जीवके परिणामको क्रोध
२.क्षपकके भेद कहा जाता है। स. सा./ता. वृ./१६६/२७४/१२ शान्तात्मतत्त्वात्पृथग्भूत एष अक्षमारूपो ध.७/२,१,१/१/८ जे खवया ते दुविहा-अपुव्वकरणखवगा अणियट्टिकरणभावः क्रोधः।-शान्तात्मासे पृथग्भूत यह जो क्षमा रहित भाव है वह खवगा चेदि । जो क्षपक हैं वे दो प्रकारके हैं-अपूर्वकरण-क्षपक और क्रोध है।
अनिवृत्तिकरण क्षपक। द्र.सं./टी./३०/८८/७ अभ्यन्तरे परमोपशममूतिकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्व- क्षपकश्रेणी-दे० श्रेणी/२।
भावपरमात्मस्वरूपक्षोभकारकाः बहिर्विषये तु परेषां संबन्धित्वेन क्रूरत्वाद्यावेशरूपाः क्रोध । - अन्तरंगमें परम-उपशम-मृति केवल
क्षपण-दर्शनमोह व चारित्रमोह क्षपणा विधान । दे० क्षय/२,३ । ज्ञानादि अनन्त, गुणस्वभाव परमात्मरूपमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाले
क्षपणसार-आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (ई०६१)। तथा बाह्य 'विषयमें अन्य पदार्थोके सम्बन्धसे क्रूरता आवेश रूप
द्वारा रचित मोहनीयकमके क्षपण विषयक ६५३ गाथा क्रोध
प्रमाण प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है । इसके आधारपर माधव चन्द्र विद्य* क्रोध सम्बन्धी विषय-दे० कषाय ।
देवने एक स्वतन्त्र क्षपणसार नामका ग्रन्थ संस्कृत गद्यमें लिखा था। *जीवको क्रोधी कहनेकी विवक्षा-दे० जीव/१ ।
इसकी एक टीका पं० टोडरमलजी ( ई०१७६०) कृत उपलब्ध है।
क्षपित कर्माशिक - १. लक्षण क्राच-यह एक राजा थे। जिन्होंने स्वामी कार्तिकेयपर उपसर्ग किया था । समय-अनुमानतः वि० श०१ के लगभग, ई० श०१ का
कर्मप्रकृति/१४-१००/पृ.६४ पल्लासंखियभागेण कम्मटिइमच्छिओ णिगोपूर्व भाग । (का.आ./प्र.६६ P. N. up.)
एसु। सुहमेस (सु.) भवियजोगं जहण्णयं कट्टु निग्गम्म ६४
जोग्गेस (सु.) संखवारे सम्मत्तं लभिय देसवीरियं च । अ टुक्खुत्तो क्लश-स सि./७/११/३४६/१० असद्वद्योदयापादितक्लेशाः क्लिश्य
विरई संजोयणट्ठा य तइवारे ।। मानाः। = असातावेदनीयके उदयसे जो दुखी हैं वे क्लिश्यमान
पडसवसमित्तु मोह लहु खतो भवे खवियकम्मो ।१६। हस्सगुणकहलाते हैं।
संकमद्धाए पूरयित्वा समीससम्मत्तं । चिरसंमत्ता मिच्छत्तंग्गयस्सुब्बरा.वा./७/११/७/५३८/२७ असद्वद्योदयापादितशारीरमानसदुःखसन्तापात
लणथोगो सि ।१००१ - जो जीव पत्यके असंख्यातवें भागसे हीन क्लिश्यन्त इति क्लिश्यमानाः। -आसातावेदनीय कर्म के उदयसे,
सत्तरकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कालतक सूक्ष्म निगोद पर्यायमें जो शरीर और मानस, दु खसे संतापित है वे क्लिश्यमान कह
रहा और भव्य जीवके योग्य जघन्य प्रदेश कर्मसंचयपूर्वक सूक्ष्म लाते हैं।
निगोदसे निकलकर बादर पृथिवी हुआ और अन्तर्मुहूर्त कालमें क्वाथतोय-भरतक्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/। निकलकर तथा साल माहमें ही गर्भसे उत्पन्न होकर पूर्वकोटि आयुक्षणलव प्रतिबुद्धता-दे० प्रतिबुद्धता।
वाले मनुष्योमें उत्पन्न और विरतियोग्य त्रसोंमें हुआ तथा आठ वर्षमें क्षणिकउपादान कारण दे० उपादान ।
संयमको प्राप्त करके संयमसहित ही मनुष्यायु पूर्ण कर पुनः देव, बादर,
पृथिवी कायिक व मनुष्योमें अनेक बार उत्पन्न होता हुआ पल्योपमके क्षत्रवती-भरतक्षेत्र पूर्व आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात बार सम्यक्त्व, उससे स्वक्पक्षत्रिय-म.पु /१६/२८४, २४३ क्षत्रियाः शस्त्रजीवितम् ।१४। स्व
कालिक देश विरति, आठ बार विरतिको प्राप्त कर व आठ ही बार दोभ्यां धारयन् शस्त्रं क्षत्रियानसृजद् विभुः। क्षतास्त्राणे नियुक्ता हि
अनंतानुबन्धीका विसंयोजन व चार बार मोहनीयका उपशम कर क्षत्रियाः शस्त्रपाणय' ।२४३३ - उस समय जो शस्त्र धारण कर
शीघ्र ही कोका क्षय करता है, वह उत्कृष्ट क्षपित काशिक होता आजीविका करते थे वे क्षत्रिय हुए १२८४। उस समय भगवान्ने अपनी
है। (ध.६/१,६-८/१२/२५७ को टिप्पणीसे उद्धृत) दोनों भुजाओंमें शस्त्र धारण कर क्षत्रियोंकी सृष्टि की थी, अर्थात
२. गुणित कांशिकका लक्षण उन्हे शस्त्र विद्याका उपदेश दिया था, सो ठीक ही है. जी हाथोंमे हथियार लेकर सबल शत्रुओंके प्रहारसे निर्बलोंकी रक्षा करते है वे ही ___ कर्मप्रकृति/गा. ७४-८२/पृ. १८७-१८६ जो बायरतसकालेणूणं कम्मट्टिइं क्षत्रिय कहलाते हैं ।२४३। (म.पु./१६/१८३ ); (म.पु./३८/४६)
तु पुढवीए । बायरा(रि) पज्जत्तापज्जत्तगदीहेर रद्धासु ७४ जोगकसाक्षत्रिय-श्रुतावतारकी पट्टावलीके अनुसार (दे० इतिहास ) आप
उकोसो बहुसो निच्चमवि आउबंधं च । जोगजपणेणुवरिल्लठिइणिसेगं भद्रबाहु प्रथम ( श्रुतकेवली ) के पश्चात तृतीय ११ अंग व चौदह पूर्व
बहु' किच्चा ७५ बायरतसेसु तकालमेव मते य सत्तमरिवईए सव्वलहू धारी हुए हैं। अपरनाम कृतिकार्य था। समय-बी०नि० १६१-२०८;
पज्जत्तो जोगकसायाहिओ बहुसो ७६॥ जोगजवमझुवरि मुहुत्तई० पू० ३३६-३१६५० कैलाश चन्द जी की अपेक्षा थी. नि. २५१-२६८
मच्छित्तु जीवियवसाणे। तिचरिमदुचरिमसमए पुरित्तू कसायउक्कस्सं
१७७) जोगुकोसं चरिम-दुचरिमे समए य चरिमसमर्याम्म । संपुण्ण
(दे० इतिहास/४/४) क्षपक-१. क्षपकका लक्षण
गुणियकम्मो पगयं तेणेह सामित्त ।७। संछोभणाए दोहं मोहाणं स.सि./8/४/१५६/४ स एव पुनश्चारित्रमोहक्षपणं प्रत्यभिमुख परिणाम
वेयगस्स खणसेसे। उप्पाइय सम्मत्तं मिच्छत्तगए तमतमाए ।१२। विशुद्धया वर्द्धमान' क्षपकव्यपदेशमनुभवः। -पुनः वह ही ( उप
-जो जीव अनेक भवोंमें उत्तरोत्तर गुणितक्रमसे कर्म प्रदेशोका शामक ही) चारित्रमोहकी क्षपणाके लिए सन्मुख होता हुआ तथा बन्ध करता रहा है उसे गुणितकांशिक कहते हैं। जो जीव उत्कृष्ट परिणामोंकी विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होकर क्षपक संज्ञाको अनुभव योगों सहित बादर पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त भवोंकरता है।
से लेकर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण बादर ध,१/१.१,२७/२२४/८ तत्थ जे कम्म-करखवणम्हि बावादा ते जीवा रखवगा त्रसकायमें परिभ्रमण करके जितने बार सातवीं पृथिवीमें जाने योग्य उच्चति । जो जीव कर्म-क्षपणमें व्यापार करते हैं उन्हें क्षपक होता है उतनी बार जाकर पश्चात् सप्तम पृथिवीमें नारक पर्यायको कहते हैं।
धारण कर शीघ्रातिशीघ्र पर्याप्त होकर उत्कृष्ट योगस्थानों व उत्कृष्ट क.पा./१/१,१८/१३१५/३४७/४ खवयसेढिचढमाणेण मोहणीयस्स अंतर- कषायों सहित होता हुआ उत्कृष्ट कर्मप्रदेशोंका संचय करता है और करणे कदे 'खतओं त्ति भण्ण दि। -क्षपक श्रेणीपर चढ़नेवाला जीव अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुके शेष रहनेपर विचरम और द्विचरम समयमें चारित्रमोहनीयका अन्तरकरण कर लेनेपर क्षपक कहा जाता है। वर्तमान रहकर उत्कृष्ट संक्लेशस्थानको तथा चरम और द्विचरम
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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