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गुप्त वंश
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गुप्ति
गुप्त वंश-दे० इतिहास/३/४! गुप्तसंघ-दे० इतिहास /५/८ । गुप्तसंवत्-दे० इतिहास /२। गुनि-मन, वचन व कायकी प्रवृत्तिका निरोध करके मात्र ज्ञाता, द्रष्टा भावसे निश्चयसमाधि धारना पूर्ण गुप्ति है, और कुछ शुभराग मिश्रित विकल्पों व प्रवृत्तियों सहित यथा शक्ति स्वरूपमे निमग्न रहनेका नाम आंशिकगुप्ति है। पूर्ण गुप्ति हो पूर्ण निवृत्ति रूप होनेके कारण निश्चयगुप्ति है और आंशिकगुप्ति प्रवृत्ति अशके साथ वर्तने के कारण व्यवहारगुप्ति है।
द्र. सं./टी/३५/१०९/६ व्यवहारेण बहिरङ्गसाधनाथ मनोवचनकायव्यापारनिरोधो गुप्ति ।-व्यवहार नयसे बहिरंग साधन (अर्थात धर्मानुष्ठानों) के अर्थ जो मन वचन कायकी क्रियाको (अशुभ प्रवृत्ति
से ) रोकना सो गुप्ति है। अन. ध/४/१५४ गोप्तुं रत्नत्रयात्मानं स्वात्मानं प्रतिपक्षता। पापयोगानिगृहीयाल्लोकपडक्यादिनिस्पृहः ॥१५४॥ = मिथ्यादर्शन आदि जो आत्माके प्रतिपक्षी, उनसे रत्नत्रयस्वरूप अपनी आत्माको सुरक्षित रखने के लिए ख्याति लाभ आदि विषयों में स्पृहा न रखना गुप्ति है।
३. गुप्तिके भेद स. सि./६/४/४११/६ सा त्रितयी कायगुप्तिग्गुिप्तिर्मनोगुप्तिरिति । वह
गुप्ति तीन प्रकारकी है-काय गुप्ति, वचन गुप्ति और मनोगुप्ति । (रा. वा/8/४/४/५६३/२१)।
१. गुप्तिके भेद, लक्षण व तद्गत शंका
१. गुप्ति सामान्यका निश्चय लक्षण स. सि./8/२/४०६/७ यत' संसारकारणादात्मनो गोपनं सा गुप्तिः । - जिसके बलसे संसारके कारणोंसे आत्माका गोपन अर्थात् रक्षा होती है वह गुप्ति है । (रा. वा./६/२/१/५६१/२७) (भ. आ/वि/११५/ २६६/१७)। द्र. सं/टी/३/१०१/५ निश्चयेन सहजशुद्धात्मभावनालक्षणे गूढस्थाने
संसारकारणरागादिभयादात्मनो गोपनं प्रच्छादनं झम्पनं प्रवेशण रक्षणं गुप्ति'-निश्चयसे सहज-शुद्ध-आत्म-भावनारूप गुप्त स्थानमें संसारके कारणभूत रागादिके भयसे अपने आत्माका जो छिपाना, प्रच्छादन,झपन, प्रवेशन, या रक्षण है सो गुप्ति है। प्र. सा/ता. वृ/२४०/३३३/१२ त्रिगुप्त' निश्चयेन स्वरूपे गुप्त' परिणतः ।
-निश्चयसे स्वरूपमें गुप्त या परिणत होना ही त्रिगुप्तिगुप्त होना है। स. सा/ता. व/३०७ ज्ञानिजीवाश्रितमप्रतिक्रमण तु शुद्धात्मसम्यश्रद्धान
ज्ञानानुष्ठानलक्षणं त्रिगुप्तिरूपं । ज्ञानीजनोंके आश्रित जो अप्रतिक्रमण होता है वह शुद्धात्माके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व अनुष्ठान ही है लक्षण जिसका, ऐसी त्रिगुप्तिरूप होता है। २. गुप्ति सामान्यका व्यवहार लक्षण
म. आ./३३१ मणवचकायपवुत्ती भिक्खू सावज्जकजसंजुत्ता। विप्पं णिवारयंतो तीहिं दु गुत्तो हव दि एसो।३३११ - मन वचन व कायको सावध क्रियायोंसे रोकना गुप्ति है। (भ. आ/वि/१६/६१/३०)। त. सू./8/४ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति । -( मन वचन काय इन तीनों)
योगोंका सम्यक् प्रकार निग्रह करना गुप्ति है। स. सि/६/४/४११/३ योगो व्याख्यातः 'कायवाङ्मनःकर्म योगः' इत्यत्र ।
तस्य स्वेच्छाप्रवृत्तिनिवर्तनम् निग्रहः विषयसुखाभिलाषार्थ प्रवृत्तिनिषेधार्थ सम्यग्विशेषणम् । तस्मात्सम्यगविशेषणविशिष्टात् संक्लेशाप्रादुर्भावपराव कायादियोगनिरोधे सति तन्निमित्तं कर्म नासवतीति । -मन वचन काय ये तीन योग पहिले कहे गये हैं। उसकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको रोकना निग्रह है। विषय सुखकी अभिलाषाके लिए की जानेवाली प्रवृत्तिका निषेध करनेके लिए 'सम्यक् ' विशेषण दिया है। इस सम्यक् विशेषण युक्त संक्लेशको नहीं उत्पन्न होने देनेरूप योगनिग्रहसे कायादि योगोंका निरोध होनेपर तन्निमित्तक कर्मका आत्रव नहीं होता है। (रा. वा/८/४/२-४/५६३/१३), (गो. क/जी. प्र/५४७ ७१४/४)। रा. बा/8/4/8/५६४/३२ परिमितकालविषयो हि सर्वयोगनिग्रहो गुप्ति'।
=परिमित कालपर्यन्त सर्व योगोका निग्रह करना गुप्ति है। प्र. सा//ता. वृ/२४०/३३३/१२ व्यवहारेण मनोवचनकाययोगत्रयेण गुप्त' त्रिगुप्तः । व्यवहारसे मन वचन काय इन तीनों योगोसे गुप्त होना सो त्रिगुप्त है।
४. मन वचन काय गुप्लिके निश्चय लक्षण नि. सा./मू./६९-७० जो रायादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्ती।
अलियादिणियत्ती वा मणं वा होइ वदिगुती ६॥ नि. सा./ता. वृ./६९-७० निश्चयेन मनोवा गुप्तिसूचनेयम् । निश्चयशरीरगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत । काय किरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती। हिसाइणियत्ती वा सरीरगुत्तीत्ति णिहिट्ठा ७०। -रागद्वेषसे मन परावृत्त होना यह मनोगुप्तिका लक्षण है। असत्यभाषणादिसे निवृत्ति होना अथवा मौन धारण करना यह वचनगुप्तिका लक्षण है। औदारिकादि शरीरकी जो क्रिया होती रहती है उससे निवृत्त होना यह कायगुप्तिका लक्षण है, अथवा हिसा चोरी वगैरह पापक्रियासे परावृत होना कायगुप्ति है । ( ये तीनों निश्चय मन वचन कायगुप्तिके लक्षण हैं। (मू. आ/२३२-२३३) (भ. आ./मू /११८७११८८/११७० )। घ.१/१.१२/११६/६ व्यलीकनिवृत्तिर्वाचा संयमत्वं वा वाग्गुप्तिः । असत्य नहीं बोलनेको अथवा वचनसंयम अर्थात मौनके धारण करनेको वचनगुप्ति कहते हैं। ज्ञा /१८/१५-१८ विहाय सर्वसंकल्पान् रागद्वेषावलम्बितान् । स्वाधीन कुरुते चेत समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ।१५। सिद्धान्तसूत्रविन्यासे शश्वत्प्रेरयतोऽथवा । भवत्यविकला नाम मनोगुप्तिर्मनीषिणः ।१६। साधुसंवृत्तबारवृत्तमौनारूढस्य वा मुने । संज्ञादिपरिहारेण वाग्गुप्ति' स्यान्महामुने ।१७। स्थिरीकृतशरीरस्य पर्यकसंस्थितस्य वा । परीषहप्रपातेऽपि कायगुप्तिर्मता मुने ।१८। -रागद्वेषसे अवलम्बित समस्त संकल्पों को छोडकर जो मुनि अपने मनको स्वाधीन करता है और समता भावमें स्थिर करता है, तथा सिद्धान्तके सूत्रको रचनामें निरन्तर प्रेरणारूप करता है, उस बुद्धिमान मुनिके सम्पूर्ण मनोगुप्ति होती है ।१५-१६। भले प्रकार वश करी है वचनोंकी प्रवृत्ति जिसने ऐसे मुनिके तथा संज्ञादि का त्याग कर मौनारूढ होनेवाले महामुनिके वचनगुप्ति होती है ।१७। स्थिर किया है शरीर जिसने तथा परिषह आजानेपर भी अपने पर्यकासनसे ही स्थिर रहे, किन्तु डिगे नहीं, उस मुनिके ही कायगुप्ति मानी गयो है ।१८। ( अन.ध./४/१५६/४८४) नि. सा./ता. वृ/६९-७० सकलमोहरागद्वेषाभावादरखण्डाद्वैतपरमचि पे सम्यगवस्थितिरेव निश्चयमनोगुप्ति' । हे शिष्य त्वं तावन्न चलितां मनोगुप्तिमिति जानीहि । निखिलावृतभाषापरिहृतिर्वा मौनवतं च । ... इति निश्चयवाग्गुप्तिस्वरूपमुक्तम् ६। सर्वेषां जनानां कायेषु बच. क्रिया विद्यन्ते, तासां निवृत्तिः कायोत्सर्गः, स एव गुप्तिर्भवति । पञ्चस्थावराणां त्रसानां हिसानिवृत्ति कायगुप्तिर्वा। परमसंयमधरः परमजिनयोगोश्वर' य. स्वकीयं वपुः स्वस्य वपुषा विवेश
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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