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१. गुप्तिके भेद लक्षण व तद्गत शंकाएँ
गुसि
तस्यापरिस्पन्दमूतिरेव निश्चयकायगुप्तिरिति 1७०।-सकल मोहरागद्वेष के अभावके कारण अखण्ड अद्वैत परमचिद्रूपमे सम्यक रूपसे अवस्थित रहना ही निश्चय मनोगुप्ति है। हे शिष्य। तू उसे अचलित मनोगुप्ति जान । समस्त असत्य भाषाका परिहार अथवा मौनबत सो वचनगुप्ति है। इस प्रकार निश्चय वचनगुप्तिका स्वरूप कहा है।६। सर्वजनीको काय सम्बन्धी बहुत क्रियाएँ होती है, उनकी निवृत्ति मो कायोत्सर्ग है। वही ( काय ) गुप्ति है। अथवा पाँच स्थावरों की और त्रसोंकी हिसानिवृत्ति सो कायगुप्ति है। जो परमसंयमधर परमजिनयोगीश्वर अपने (चैतन्यरूप) शरीरमे अपने (चैतन्यरूप ) शरीरसे प्रविष्ट हो गये, उनकी अपरिस्पन्द मूति ही निश्चय कायगुप्ति है 1901 (और भो देखो व्युत्सर्ग/१ में कायोत्सर्ग)।
अपाय कहते हो तो उसका परिहार शक्य नहीं है, क्योकि, समुद्रकी तर गोवत् सदा ही आत्मामे अनेको ज्ञान उत्पन्न होते रहते है, उनके अविनाश होने का अर्थात स्थिर रहनेका जगतमे कोई उपाय ही नही है और यदि रागादिकोसे व्यावृत्त होना मनोगुप्तिका लषण कहते हो तो वह भी योग्य नहीं है क्योकि इन्द्रियजन्य ज्ञान रागादिकोसे युक्त ही रहता है । (तब वह मनोगुप्ति क्या चीज है') उत्तर--मनोमति ज्ञान रूप भावमनको हम मन कहते है, वह रागादि परिणामोके साथ एक कालमे हो आत्मामे रहते हैं। जब वस्तुके यथार्थ स्वरूपका मन विचार करता है तब उसके साथ रागद्वेष नहीं रहते है, तब मनोगुप्ति आत्मामें है ऐसा समझा जाता है। अथवा जो आत्मा विचार करता है, उसको मन कहना चाहिए. ऐसा आत्मा जन रागद्वेष परिणामसे परिणत नहीं होता है तब उसको मनोगुप्ति कहते है। अथवा यदि आप यह कहो कि सम्यक् प्रकार योगोंका निरोध करना गुप्ति कहा गया है, तो तहाँ ख्याति लाभादि दृष्ट फल की अपेक्षाके बिना वीर्य परिणामरूप जो योग उसका निरोध करना, अर्थात रागादिकार्योके कारणभूत योगका निरोध करना मनोगुप्ति है, ऐसा समझना चाहिए।
५. मन वचन कायगुप्तिके व्यवहार लक्षण नि.सा./मू /६६-६८ कालुस्समोहसण्णारागहोसाइअसुहभावाणं । परिहारी मणुगुत्तो ववहारणयेण परिकहियं ।६६। थोराजचोरभत्तकहादिययणस्स पावहे उस्स । परिहारो बचगुत्ती अलोयादिणियत्तिवयणं वा ।६७॥ बंधणछेदणमारणआकुंचण तह पसारणादीया कायकिरियाणियत्ती णि हिट्ठा कायगुत्तित्ति ६८। कलुपता, मोह, राग, द्वेष आदि अशुभ भावोंके परिहारको व्यवहार नयसे मनोगुप्ति कहा है।६६। पापके हेतुभूत ऐसे स्त्रोकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा इत्यादिरूप वचनोंका परिहार अथवा असत्यादिकको निवृत्तिवाले बचन, वह वचनगुप्ति है।६७ बन्धन, छेदन, मारण, आकुंचन (संकोचना ) तथा प्रसारणा (फैलाना) इत्यादि कायक्रियाओकी निवृत्तिको कायगुप्ति कहा है।६।
६. मनोगुप्तिके लक्षण सम्बन्धी विशेष विचार भ.आ./वि./११८७/११७७/१४ मनसो गुप्तिरिति यदुच्यते कि प्रवृत्तस्य मनसो गुप्तिरथाप्रवृत्तस्य । प्रवृत्तं चेदं शुभं मन' तस्य का रक्षा। अप्रवृत्तं तथापि असत का रक्षा।-किंच मन शब्देन किमुच्यते द्रव्य-मन उत भावमन। द्रव्यवर्गणामनश्चेत् तस्य कोऽपायो नाम यस्य परिहारो रक्षा स्यात् । “अथ नोइन्द्रियमतिज्ञानावरणक्षयोपशमसंजातं ज्ञानं मन इति गृह्यते तस्य अपाय क.। यदि विनाशः स न परिहतुं शक्यते। "ज्ञानानीह.बोचय इवानारतमुत्पद्यन्ते न चास्ति तदविनाशोपायः । अपि च इन्द्रियमतिरपि रागादिव्यावृत्तिरिष्टैव किमुच्यते रागादिणियत्ती मणस्स' इति। अत्र प्रतिविधीयतेनोइन्द्रियमतिरिह मन शब्देनोच्यते। सा रागादिपरिणामैः सह एककालं आत्मनि प्रवर्तते ।.. वस्तुतत्त्वानुयायिना मानसेन ज्ञानेन समं रागद्वेषौ न वर्तते।...तेन मनस्तत्त्वावग्राहिणो रागादिभिरसहचारिता या सा मनोगुप्तिः ।.. अथवा मनःशब्देन मनुते य आत्मा स एव भण्यते तस्य रागादिभ्यो या निवृत्तिः रागद्वेषरूपेण या अपरिणति. सा मनोगुप्तिरित्युच्यते । अथैवं वषे सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः दृष्टफलमनपेक्ष्य योगस्य बीर्यपरिणामस्य निग्रहो रागादिकार्यकरण निरोधो मनोगुप्तिः । - प्रश्न-मनकी जो यह गुप्ति कही गयो है, तहाँ प्रवृत्त हुए मनको गुप्ति होती है अथवा रागद्वेषमे अप्रवृत्त मनकी होती है । यदि मन शुभ कार्य में प्रवृत्त हुआ है तो उसके रक्षण करनेकी आवश्यकता हो क्या । और यदि किसी कार्य में भी वह प्रवृत्त ही नहीं है तो वह अस दूप है। तब उसकी रक्षा ही क्या। और भी हम यह पूछते हैं कि मन शब्दका आप क्या अर्थ करते है-द्रव्यमन या भावमन । यदि द्रव्य वर्गणाको मन कहते हो तो उसका अपाय क्या चीज है, जिससे तुम उसको बचाना चाहते हो ! और यदि भावमनको अर्थात मनोमति ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न ज्ञानको मन कहते हो तो उसका अपाय ही क्या ! यदि उसके नाशको उसका
७. वचनगुप्तिके लक्षण सम्बन्धी विशेष विचार भ.आ/वि./११८७/११७८/५ ननु च वाचः पुद्गलत्वात...न चासौ सवरणे हेतुरनात्मपरिणामत्वात् ।...यां बाचं प्रवर्तयन् अशुभं कर्म स्वीकरोत्यात्मा तस्या वाच इह ग्रहणं, वाग्गुप्तिस्तेन वाग्विशेषस्यानुत्पादकता वाचः परिहारो बारगुप्तिः। मौनं वा सकलाया वाचो या परिहति. सा बाग्गुप्तिः । = प्रश्न-बचन पुद्गलमय हैं. वे आत्माके परिणाम (धर्म) नही हैं अत' कर्मका संवर करनेको वे समर्थ नहीं हैं। उत्तर-जिससे परप्राणियों को उपद्रव होता है, ऐसे भाषणसे आत्माका परावृत्त होना सो वाग्गुप्ति है, अथवा जिस भाषणमे प्रवृत्ति करनेवाला आत्मा अशुभ कर्मका विस्तार करता है ऐसे भाषणसे परावृत्त होना बाग्गुप्ति है। अथवा सम्पूर्ण प्रकारके वचनोंका त्याग करना या मौन धारण करना सो बाग्गुप्ति है । और भी दे–'मौन'। ८. कायगुप्तिके लक्षण सम्बन्धी विशेष विचार भ.आ./वि./११८८/११८२/२ आसनस्थानशयनादीनां क्रियावाद सा चात्मन' प्रवर्तकत्वात् कथमात्मना कार्या क्रियाभ्यो व्यावृत्तिः । अथ मत कायस्य पर्यायः क्रिया, कायाच्चान्तरात्मा ततो द्रव्यान्तरपर्यायात् द्रव्यान्तरं तत्परिणामशून्यं तथापरिणत व्यावृत्तं भवतीति कायक्रियानिवृत्तिरात्मनो भण्यते। सर्वेषामात्मनामित्थं कायगुप्ति स्यात् न चेष्टेति । अत्रोच्यते-कायस्य सम्बन्धिनी क्रिया कायशब्देनोच्यते । तस्याः कारणभूतात्मन. क्रिया कायक्रिया तस्या निवृत्ति । काउस्सग्गो कायोत्सर्ग तद्गगतममतापरिहार. कायगुप्ति.। अन्यथा शरीरमायुः शृङ्खलावबद्धं त्यक्तुं न शक्यते इत्यसंभव. कायोत्सर्गस्य ।। गुप्तिनिवृत्सिवचन इहेति सूत्रकाराभिप्रायो।"कायोत्सर्गग्रहणे निश्चलता भण्यते। यद्यवं 'काय किरियाणिवत्ती' इति न वक्तव्यं, कायोत्सर्गः कायगुप्तिरित्येतदेव वाच्यं इति चेत न कायविषयं ममेदभावरहितत्वमपेक्ष्य कायोत्सर्गस्य प्रवृत्तेः। धावनगमनलइनादि क्रियासु प्रवृत्तस्यापि कायगुप्तिः स्यान्न चेष्यते। अथ कायक्रियानिवृत्तिरित्येतावदुच्यते मूच्छ परिगतस्यापि अपरिस्पन्दता विद्यते इति कायगुप्तिः स्यात। तत उभयोपादानं व्यभिचारनिवृत्तये। कर्मादान निमित्तसकलकायक्रियानिवृत्तिः कायगोचरममतात्यागपरा वा नायगुप्तिरिति सूत्रार्थः । -प्रश्न-आसन स्थान शयन आदि क्रियाओका प्रवर्तक होनेसे आत्मा इनसे कैसे परावृत्त हो सकता है। यदि आप कहो कि ये क्रियाएँ तो शरीरकी पर्यायें हैं और आत्मा शरीरसे भिन्न है। और
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० २-३२
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