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कारक
कारक व्यभिचार
वाले पदार्थों में भी आधार आधेय भाव देखा जाता है । यथा-एटमें
रूपादिकका और शरीरमें हाथ आदिकका। प.ध./उ./२९१ व्याप्यव्यापकभाव' स्थादात्मनि नातदात्मनि । व्याप्यव्यापकताभावः स्वत सर्वत्र वस्तुषु ।२११। म अपनेमें ही व्याप्यव्यापकभाव होता है, अपनेसे भिन्नमें नहीं होता है क्योंकि वास्तविक रीतिसे देखा जाये तो सर्व पदार्थों का अपने में ही व्याप्यव्यापकपनेका होना सम्भव है। अन्यका अन्यमें नहीं। * द्रव्यगुण पर्यायमें युतसिद्ध व समवायसम्बन्धका निषेध
--दे० द्रव्य/५
२. व्यवहारसे ही मिन्न द्रव्योंमें सम्बन्ध कहा जाता है तत्वत: कोई किसीका नहीं
स. सा//२७ ववहारणयो भासदि जीवो देहो य वदि खलु इक्को। ण दुणिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एकट्ठो ।२७। व्यवहारनय तो यह कहता है कि जीव और शरीर एक ही है; किन्तु निश्चयनयके
अभिप्रायसे जीव और शरीर कभी भी एक पदार्थ नहीं हैं। यो. सा./अ/१/२० शरीरमिन्द्रियं द्रव्यं विषयो विभवो विभुः। ममेति व्यवहारेण भण्यते न च तत्त्वतः ।२०। ='शरीर, इन्द्रिय. द्रव्य, विषय, ऐश्वर्य और स्वामी मेरे हैं' यह बात व्यवहारसे कही जाती है, निश्चयनयसे नहीं ।२०। स. सा./आ/१८१ न खत्वेकस्य द्वितीयमस्ति द्वयोभिन्नप्रदेशत्वेनै कसत्तानुपपत्ते, सदसत्त्वे च तेन सहाधाराधेयसंबन्धोऽपि नास्त्येव, ततः स्वरूपप्रतिष्ठित्वलक्षण एत्राधाराधेयसंबन्धोऽवतिष्ठते । वास्तवमें एक वस्तुकी दूसरी वस्तु नहीं है ( अर्थात् एक वस्तु दूसरीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखती) क्योंकि दोनोंके प्रदेश भिन्न हैं, इसलिए उनमें एक सत्ताकी अनुपपत्ति है ( अर्थात दोनों सत्ताएँ भिन्न-भिन्न है) और इस प्रकार जबकि एक वस्तुको दूसरी वस्तु नहीं है तम उनमें परस्पर आधार आधेय सम्बन्ध भी है ही नहीं। इसलिए स्वरूप प्रतिष्ठित वस्तुमें ही आधार आधेय सम्बन्ध है।
४. अन्य द्रव्यको अन्यका कहना मिथ्यात्व है स. सा /मू./३२५-३२६ जह को विणरो जंपइ अम्हें गामविसयणयररहूँ।
ण य हुति तस्स ताणि उ भणइ य मोहेण सो अप्पा ।३२५ एमेव मिच्छदिट्ठी णाणी णीसंसयं हवइ एसो। जो परदव्वं मम इदि जाणतो अप्पणं कुणइ १३२६। -जैसे कोई मनुष्य 'हमारा ग्राम, हमारा देश, हमारा नगर, हमारा राष्ट्र,' इस प्रकार कहता है, किन्तु वास्तवमें वे उसके नहीं हैं; मोहसे वह आरमा 'मेरे हैं। इस प्रकार कहता है। इसी प्रकार यदि ज्ञानी भी 'परद्रव्य मेरा है ऐसा जानता हुआ परद्रव्यको निजरूप करता है वह नि:सन्देह मिथ्यादृष्टि होता है। (स सा./मू./२०/२२)। यो. सा./अ./३/५ मयीदं कार्मणं द्रव्यं कारणेऽत्र भवाम्यहम् । यावदेषामतिस्तावन्मिथ्यात्वं न निवर्तते ।३। 'कर्मजनित द्रव्य मेरे हैं
और मै कर्मजनित द्रव्यों का हूँ', जब तक जीवकी यह भावना बनी रहती है तबतक उसकी मिथ्यात्वसे निवृत्ति नहीं होती। स. सा./आ/३१४-३१५ यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्वलक्षणमि - नातू प्रकृतिस्वभावमात्मनो अन्धनिमित्तं न मुञ्चति, तावत्...स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्याष्टिर्भवति। - जबतक यह आत्मा, (स्व व परके भिन्न-भिन्न ) निश्चित स्वलक्षणोंका ज्ञान (भेदज्ञान) न होनेसे प्रकृतिके स्वभावको, जो कि अपनेको बन्धका निमित्त है उसको नही छोड़ता, तबतक स्व-परके एकत्वदर्शनसे ( एकत्वरूप श्रद्धानसे ) मिथ्यादृष्टि है। ५. परके साथ एकत्वका तात्पर्य स. सा/ता. वृ./६५ ननु धर्मास्तिकायोऽहमित्यादि कोऽपि न ब.ते
तत्कथं घटत इति । अत्र परिहार । धर्मास्तिकायोऽयमिति योऽसौ परिच्छित्तिरूपविकल्पो मनसि वर्तते सोऽप्युपचारेण धर्मास्तिकायो भण्यते । यथा घटाकारविकल्पपरिणतज्ञानं घट इति । तथा तद्धर्मास्तिकायोऽयमित्यादिविकल्पः यदाज्ञेयतत्वविचारकाले करोति जीव तदा शुद्धात्मस्वरूप विस्मरति, तस्मिन्विकल्पे कृते सति धर्मोऽहमिति विकल्प उपचारेण घटत इति भावार्थः । =प्रश्न- "मैं धर्मास्तिकाय हूँ" ऐसा तो कोई भी नहीं कहता है, फिर सूत्रमें यह जो कहा गया है वह कैसे घटित होता है। उत्तर-"यह धर्मास्तिकाय है" ऐसा जो ज्ञानका विकल्प मनमें वर्तता है वह भी उपचारसे धर्मास्तिकाय कहा जाता है। जैसे कि घटाकारके विकल्परूपसे परिणत ज्ञानको घट कहते हैं। तथा 'यह धर्मास्तिकाय है' ऐसा विकल्प, जब जीव ज्ञ यतत्त्व के विचारकालमें करता है उस समय उसे शुद्धात्माका स्वरूप भूल जाता है ( क्योंकि उपयोगमें एक समय एक ही विकल्प रह सकता है); इसलिए उस विकल्पके किये जानेपर "मैं धर्मास्तिकाय हूँ' ऐसा उपचारसे घटित होता है। ऐसा भावार्थ है। ( स. सा./ता. वृ./२६८)
६. मिन्न द्रव्योमें सम्बन्ध निषेधका प्रयोजन स सा./मू./१६-१७ एवं पराणि दब्वाणि अप्पयं कुणदि मंदबुद्धीओ। अप्पाणं अवि य पर करेइ अण्णाणभावेण ।१६। एदेण दु सो कत्ता आदा णिच्छयविदूहि परिकहिदो। एवं खलु जो जाणदि सो मुंचदि सबकत्तित्तं ।१७) = इस प्रकार अज्ञानी अज्ञानभावसे परद्रव्योको अपने रूप करता है और अपनेको परद्रव्योंरूप करता है।६। इसलिए निश्चयके जाननेवाले ज्ञानियों ने उस आत्माको कर्ता कहा है। ऐसा निश्चयसे जो जानता है वह सर्व कतृत्वको छोड़ता है ।६७। कारक व्यभिचार-दे० नय/III/६/८ । * जीव शरीर सम्बन्ध व उसकी मुख्यता गौणताका समन्वय--दे०बन्ध/४ ।
३. मिन द्रव्योंमें सम्बन्ध माननेसे अनेक दोष आते हैं यो. सा /अ./३/१६ नान्यद्रव्यपरिणाममन्यद्रव्यं प्रपद्यते। स्वान्यद्रव्यव्यवस्थेयं परस्य घटते कथम् ।१६। =जो परिणाम एक द्रव्यका है वह दूसरे द्रव्यका परिणाम नहीं हो सकता। यदि ऐसा मान लिया जाये तो संकर होष आ जानेसे यह निज द्रव्य है और वह अन्य द्रव्य है, ऐसी व्यवस्था ही नहीं बन सकती। प.ध./पू./५६७-५७० अस्तिव्यवहार किल लोकानामयमलब्धबुद्धित्वात् । योऽयं मनुजादिवपुर्भवति सजीवस्ततोऽप्यनन्यवाद ।५६७५ सोऽयं व्यवहार' स्यादव्यवहारो यथापसिद्धान्तात् । अप्यपसिद्धान्तत्वं नासिद्धं स्यादनेकमित्वात् ।।६८। नाशक्यं कारण मिदमेकक्षेत्रावगाहिमात्र यत् । सर्वद्रव्येषु यतस्तथावगाहाद्भवेदतिव्याप्तिः ॥५६६। अपि भवति बन्ध्यबन्धकभावो यदि वानयोन शक्यमिति। तदनेकत्वे नियमात्तबन्धस्य स्वतोऽप्यसिद्धत्वाद ॥५७०/ - अलब्धबुद्धि जनोका यह व्यवहार है कि मनुष्यादिका शरीर ही जीव है क्योकि दोनों अनन्य हैं। उनका यह व्यवहार अपसिद्धान्त अर्थात सिद्धान्त विरुद्ध होनेसे अव्यवहार है। क्योकि वास्तवमें वे अनेकधर्मी हैं ।५६७-५६८। एकक्षेत्रावगाहीपनेके कारण भी शरीरको जीव कहनेसे अतिव्याप्ति हो जायेगी, क्योंकि सम्पूर्ण द्रव्योमें ही एकक्षेत्रावगाहित्व पाया जाता है ।५६६। शरीर और जीवमें बन्ध्यबन्धक भावकी आशंका भी युक्त नही है क्योंकि दोनों में अनेकत्व होनेसे उनका बन्ध ही असिद्ध है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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