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कारक
२. सम्बन्धकारक निर्देश
है ऐसे अन्यपनेमें कारक व्यपदेश होता है ( उसी प्रकार अनन्यपनेमें भी होता है)।
.. अभेद कारक व्यपदेशका कारण पं.ध /पू./३३१ अतदिदमिहप्रतीतौ क्रियाफलं कारकाणि हेतुरिति । तदिदं स्यादिह संविदि हि हेतुस्तत्त्वं हि चेम्मिथ' प्रेम ।३३१। - यदि परस्पर दोनों ( अन्वय व व्यतिरेकी अंशो) में अपेक्षा रहे तो 'यह वह नहीं है' इस प्रतीतिमें क्रियाफल, कारक, हेतु ये सब बन जाते है और ये वही हैं। इस प्रतीतिमे भी निश्चयसे हेतुतत्त्व ये सब बन जाते है।
भावसे स्वयं ही ध वताका अवलम्बन करनेसे अपादानताको धारण करता हुआ, और स्वयं परिणमित होनेके स्वभावका आधार होनेसे अधिकरणताको आत्मसात् करता हुआ--(इस प्रकार ) स्वयमेव छह कारक रूप होनेसे अथवा उत्पत्ति अपेक्षासे स्वयमेव आविर्भूत होनेसे स्वयंभू कहलाता है। (पं. का./त, प्र./६२)। स.सा./आ./२६७ 'ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृह्णामि।
यत्किल गृहामि सच्चेतनै कक्रियत्वादात्मनश्चेतय एव, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानेनैव चेतये, चेतयमानायैव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानमेव चेतये...कितु सर्व विशुद्धचिन्मात्रो भावोऽस्मि ।-( अन्यसर्व भाव क्योकि मुझसे भिन्न हैं) इसलिए मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने लिये ही, अपनेमेसे ही, अपनेमें ही अपनेको ही ग्रहण करता हूँ। आत्माकी चेतना ही एक क्रिया है इसलिए 'मैं ग्रहण करता हूँ' का अर्थ 'मैं चेतता हूँ' ही है, चेतता हुआ ही चेतता हूँ. चेतते हुएके द्वारा ही चेतता हूँ, चेतते हुएके लिए ही चेतता हूँ, चेतते हुएसे ही चेतता हूँ, चेततेमें ही चेतता हूँ, चैततेको ही चेतता हूँ ( अथवा न तो चेतता हूँ, न चेतता हुआ चेतता हूँ-- इत्यादि छहों बोल) किन्तु सर्व विशुद्ध चिन्मात्र भाव है। का./त. प्र./४६/६२ मृत्तिका घटभावं स्वय स्वेन स्वस्यै स्वस्मात् स्वस्मिन् करोतोत्यात्मात्मानमात्मनात्मने आत्मन आत्मनि जानातो त्यनन्यत्वेऽपि। - 'मिट्टो स्वय घटभावको (घडारूप परिणामको ) अपने द्वारा अपने लिए अपनेमेंसे अपनेमें करती है आत्मा आत्माको आत्मा द्वारा आरमाके लिए आत्मामेसे आत्मामें जानता है' ऐसे अनन्यपने में भी कारक व्यपदेश होता है।
८. अभेद कारक व्यपदेशका प्रयोजन प्र.सा /मू./१६० णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसि । कत्ता ण ण कारयिदा अणुमता व कत्तीणं ।१६०-मै न देह हूँ, न मन हूँ,
और न वाणी हूँ, उनका कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं हूँ, करानेवाला नहीं हूँ ( और ) कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ। (अर्थात अभेद कारक पर दृष्टि आनेसे पर कारकों सम्बन्धी अहंकार टल जाता है) विशेष
दे० कारक १/५। प्र.सा./मू./१२६ कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्पत्ति णिच्छिदो समणो । परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि शुद्धं ॥१२६। - यदि श्रमण 'कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है' ऐसा निश्चयवाला होता हुआ अन्य रूप परिणमित नहीं ही हो तो वह शुद्ध आरमाको उपलब्ध करता है ।१२६। प. प्र / टी/२/१६ यावत्कालमात्मा कर्ता आत्मानं कर्मतापन्न आरमना
करणभूतेन आत्मने निमित्त आरमन' सकाशाद आत्मनि स्थितं न जानासि तावत्कालं परमात्मानं कि लभसे। -जन तक आत्मा नाम कर्ता, कर्मतापन आत्माको, करणभूत आत्माके द्वारा, आत्माके लिए, आत्मामें-से, आत्मामें ही स्थित रहकर न जानेगा तबतक परमात्माको कैसे प्राप्त करेगा।
३. निश्चयसे अभेद कारक ही परम सत्य है प्र. सा./१६. पं. जयचन्द-परमार्थत एकद्रव्य दूसरेकी सहायता नहीं
कर सकता और द्रव्य स्वयं ही, अपनेको, अपनेसे, अपने लिए, अपनेमेंसे, अपने में करता है, इसलिए निश्चय छः कारक ही परमसत्य हैं। * कर्ता कर्म करण व क्रियामें भेदाभेद आदि --दे० कर्ता। * कारण कार्य व्यपदेश दे० कारण। * ज्ञानके द्वारा ज्ञानको जानना-दे० ज्ञान/I/३/
१. द्रव्य अपने परिणामों में कारकान्तरकी अपेक्षा नहीं
करता। पं. का./त. प्र./६२ स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षते। -स्वयमेव षट्कारकी रूपसे वर्तता हुआ (द्रव्य) अन्य कारकको अपेक्षा नहीं करता । (प्र सा /त. प्र. १६ )
९. अभेद व भेदकारक व्यपदेशका नयार्थ त अनु./२६ अभिन्नकतृ कर्मादिविषयो निश्चयो नयः । व्यबहारनयो भिन्नकतृ कर्मादिगोचरः ॥२६॥ = अभिन्न कर्ता कर्मादि कारक निश्चयनयका विषय है और व्यवहार नय भिन्न र्ता कर्मादिको विषय करता है । ( अन ध/१/१०२/१०८) * षट् द्रव्यों में उपकार्य उपकारक भाव ।
--दे० कारण/III/११
५. परमार्थमें पर कारकोंकी शोध करना वृथा है
प्र. सा./त.प्र./१६ अतो न निश्चयत. परेण सहात्मन' कारकत्वसंबन्धोऽ- स्ति, यत' शुद्वात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गणव्यग्रतया परतन्त्रभूयते । अतः यहाँ यह कहा गया समझना चाहिए कि निश्चयसे परके साथ आरमाका कारकताका सम्बन्ध नहीं है, कि जिससे शुद्धात्मस्वभावकी प्राप्तिके लिए सामग्री (बाह्य साधन) टूढनेकी व्यग्रतासे जोव ( व्यर्थ ही ) परतन्त्र होते हैं।
२. सम्बन्धकारक निर्देश १. भेद व अभेद सम्बन्ध निर्देश स. सि./१/१२/२७७ ननु च लोके पूर्वोत्तरकालभाविनामाधाराधेयभावो दृष्टो यथा कुण्डे बदरादीनाम् । न तथाकाशं पूर्व धर्मादीन्युत्तरकालभावीनि; अतो व्यवहारनयापेक्षयापि आधाराधेयकवपनानुपपन्तिरिति । नैष दोषः, युगपदभाविनामपि आधाराधेग्रभावो दृश्यते। घटे रूपादय' शरीरे हस्तादय इति। -प्रश्न-लोकमें जो पूर्वोत्तर कालभावी होते हैं, उन्हींका आधार आधेय भाव देखा गया है । जैसे कि बेरोका आधार कुण्ड होता है। उस प्रकार आकाश पूर्वकालभावी हो और धर्मादिक द्रव्य पीछेसे उत्पन्न हुए हों ऐसा तो है नहीं; अतः व्यवहारनय की अपेक्षा भी आधार आधेय कल्पना (इन द्रव्यों में ) नही बनती उत्तर-यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि एक साथ होने
६. परन्तु लोकमें भेद षटकारकोंका ही व्यवहार होता है पं. का/त. प्र./४६/६२ यथा देवदत्त फलमडकुशेन धनदत्ताय वृक्षाद्वारि
कायामवचिनोतीत्यन्यत्वे कारकव्यपदेशः। -जिस प्रकार 'देवदत्त, फलको, अङ्कुश द्वारा, धनदत्तके लिए वृक्षपरसे, बगीचेमें, तोड़ता
नदी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-७
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