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नय
V निश्चय व्यवहार नय
इति चेत, सदभूतो भेदोत्पादकत्वात् असहभूतस्तूपचारोत्पादकत्वात् । - उपनयसे व्यवहारनय उत्पन्न होता है। और प्रमाणनय व निक्षेपात्मक वस्तुका भेद व उपचार द्वारा भेद व अभेद करनेको व्यवहार कहते हैं। प्रश्न-व्यवहार नय उपनयसे कैसे उत्पन्न होता है, उत्तर-क्योंकि सद्भूतरूप उपनय तो अभेदरूप वस्तुमें भेद उत्पन्न करता है और असहभूत रूप उपनय भिन्न वस्तुओं में अभेदका उपचार करता है।
करके देवनारकादि तथा घट पट आदि कहना, अथवा हाथी, घोड़ा, पदातिका भेद करके भद्र हाथी, जातिवाला घोड़ा, महारथ, शतभट, सहस्रभट आदि कहना, इत्यादि अनेक विषयोंको भेद करके कहना विशेषसंग्रहभेदक व्यवहारनय है।
५, व्यवहार-नयामासका लक्षण स्लो. वा. ४/१/३३/श्लो./६०/२४४ कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् । प्रमाणबाधितोऽन्यस्तु तदाभासोऽवसीयताम् 101 -द्रव्य और पर्यायोंके आरोपित किये गये कतिपत विभागोंको जो बास्तबिक मान लेता है वह प्रमाणमाधित होनेसे व्यववहारनयाभास है। (स्या, म. के अनुसार जैसे चार्वाक दर्शन)।(स्या, म./२८/३१७/१५ में प्रमाणतत्त्वालोकालंकार/७/१-५३ से उद्धृत)
६. व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है श्लो, वा. २/१/७/२८/५८५/१ व्यवहारनयोऽशुद्धद्रव्याथिकः।-व्यवहार
नय अशुद्धद्रव्यार्थिकनय है। घ. १/४,१,४६/१७१/३ पर्यायकलङ्कितया अशुद्धद्रव्यार्थिकः व्यवहार
नयः। व्यवहारनय पर्याय ( भेद ) रूप कलंकसे युक्त होनेसे अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। (क. पा. १/१३-१४/३१८२/२१६/२); (प्र.सा./
त.प्र./१८६)। (और भी दे०/नय/IV/२/४ )।
७. पर्यायार्थिक नय भी कथंचित् व्यवहार है गो. जी./मू./२७२/१०१६ ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्ति
एयट्ठो। -व्यवहार, विकल्प, भेद व पर्याय ये एकार्थवाची शब्द हैं। पं.घ./पू./१२१ पर्यायार्थिकनय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति । एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्रः स्यात् । - पर्यायार्थिक और व्यवहार ये दोनों एकार्थवाची है, क्योंकि सप ही व्यवहार केवल
उपचाररूप होता है। स, सा./पं. जयचन्द/६ परसंयोगजनित भेद सब भेदरूप अशुद्धद्रव्या
थिक नयके विषय हैं। शुद्ध (अभेद) द्रव्यको दृष्टिमें यह भी पर्यायाथिक हो है। इसलिए व्यवहार नय ही है ऐसा आशय
जानना। (स.सा./पं.जयचन्द/१२/क. ४) दे० नय/V/२/४ (अशुद्धनिश्चय भी वास्तवमें व्यवहार है।)
4. उपनय निर्देश १. उपनयका लक्षण व इसके भेद आ. प./५ नयानां समीपाः उपनयाः। सद्भूतव्यवहारः असहभूतव्यवहार उपचरितास तव्यवहारश्चेत्युपनयस्त्रेधा । जो नयोंके समीप हो अर्थात नयकी भाँति ही ज्ञाताके अभिप्राय स्वरूप हों उन्हें उपमय कहते हैं, और वह उपनय, सदभूत, असदभूत व उप
चरित असदभूतके भेदसे तीन प्रकारका है। न. च./श्रुत/१८७-१८८ उवणयभेया वि पभणामो ।१८७१ सम्भूदमसम्भूद उपरियं चेव दुविहं सबभूव । तिविहं पि असन्भूव उवयरियं जाण तिविहं पि १८८१ - उपनयके भेद कहते हैं। वह सदभूत, असहभूत
और उपचरित असइभूतके भेदसे तीन प्रकारका है। उनमें भी सद भूत दो प्रकारका है-शुद्ध व अशुद्ध-दे० आगे नय/VIR); असहभूत व उपचरित असदभूत दोनों ही तीन-तीन प्रकारके 'हैं-(स्वजाति, विजाति और स्वजाति-विजाति ।- दे० उपचार/९/२), (न, च./श्रुत/ पृ. २२) ।
२. उपनय भी व्यवहार नय है न.च./भूत/२६/१७ उपनयोपजनितो व्यवहारः। प्रमाणनयनिक्षेपाश्मक:
भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहारः । कथमुपनयस्तस्य जनक
५. सद्भूत असद्भूत व्यवहारनय निर्देश १. सद्भूत व्यवहारनय सामान्य निर्देश १. लक्षण व उदाहरण आ. प./१० एकवस्तुविषयसद्भूतव्यवहारः । -- एक बस्तुको विषय
करनेवाला सद्भूतव्यवहार है। (न. च./श्रुत/२६)। न. च. वृ./२२० गुणगुणिपज्जायदव्वे कारकसम्भावदो य दन्वेसु। तो णाऊणं भेयं कुणयं सन्भूयसद्धियरो ।२२० गुण व गुणीमें अथवा पर्याय व द्रव्यमें कर्ता कर्म करण व सम्बन्ध आदि कारकोंका कथं चित् सद्भाव होता है । उसे जानकर जो द्रव्योंमें भेद करता है वह सदभूत व्यवहारनय है । (न. च. वृ./४६)। न. च. वृ./२२१ दव्वाणां खुपएसा बहुआ बबहारदो य एक्केण । णण्ण य णिच्छयदो भणिया कायस्थ खलु हवे जुत्ती। -व्यवहार अर्थात सदभूत व्यवहारनयसे द्रव्योंके बहुत प्रदेश हैं। और निश्चयनसे वहीं द्रव्य अनन्य है। (न. च. वृ./२२२)। और भी दे. नय/V/४/१,२ में (गुणगुणी भेदकारी व्यवहार नय सामान्यके लक्षण व उदाहरण)।
२. कारण व प्रयोजन पं.ध./पू./५२५-५२८ सदभूतस्तद्गुण इति व्यवहारस्तत्प्रवृत्तिमात्रत्वात । ।१२५॥ अस्यावगमे फल मिति तदितरवस्तुनि निषेधवुद्धिः स्यात् । इतरविभिन्नो नय इति भेदाभिव्यञ्जको न नयः ।५२७१ अस्तमितसर्वसंकरदोषं क्षतसर्वशून्यदोषं वा । अणुरिव वस्तुसमस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणमिदम् ।५२८] = विवक्षित उस वस्तुके गुणोंका नाम सदभूत है और उन गुणोंकी उस वस्तुमें भेदरूप प्रवृत्तिमात्रका नाम व्यवहार है ।५२५। इस नयका प्रयोजन यह है कि इसके अनुसार ज्ञान होनेपर इतर वस्तुओंमें निषेध बुद्धि हो जाती है, क्योंकि विकल्पवश दूसरेसे भिन्न होना नय है। नय कुछ भेदका अभिव्यंजक नहीं है। १६२७। सम्पूर्ण संकर व शून्य दोषोंसे रहित यह वस्तु इस नयके कारण ही अनन्य शरण सिद्ध होती है। क्योंकि इससे ऐसा ही ज्ञान होता है ।५२८॥
३. व्यवहार सामान्य व सद्भूत व्यवहारमें अन्तर पं.ध./पू./५२३/१२६ साधारणगुण इति वा यदि वासाधारणः सतस्तस्य । भवति विवक्ष्यो हि यदा व्यवहारनयस्तदा श्रेयान् ।५२३। अत्र निदानं च यथा सदसाधारणगुणो विवक्ष्य' स्यात् । अविवक्षितोअथवापि च सत्साधारणगुणो न चान्यतरात ॥५२६१ सतके साधारण व असाधारण इन दोनों प्रकारके गुणों से किसीकी भी विवक्षा होनेपर व्यवहारनय श्रेय होता है ।५२३। और सद्भूत व्यवहारनयमें सतके साधारण व असाधारण गुणोंमें परस्पर मुख्य गौण विवक्षा होती है। मुख्य गौण विवक्षाको छोड़कर इस नयकी प्रवृत्ति नहीं होती ।५२६॥ ४. सद्भूत व्यवहारनयके भेद आ.५/१० तत्र सद्भृतव्यवहारो द्विविध-उपचरितानुपचरितभेदात् ।
-सहभूत व्यवहारनय दो प्रकारका है-उपचरित व अनुपचरित। (न. च./श्रुत/पृ.२५); (पं.ध./पू./५३४) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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