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नय
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घटादिकं वस्तुरूपं पारमार्थिकम् । पूर्वोत्तरकालभावितत्पर्यायपर्यालोचना पुनरज्यायसी तत्र प्रमाणप्रसाराभावात् । प्रमाणमन्तरेण विचारस्य कर्तुमशक्यत्वात् । अवस्तुत्वाच्च तेषां कि तद्गोचरपर्यायालोचनेन । तथाहि । पूर्वोत्तरकालमानिनो व्यविवर्ता, क्षणक्षयपरमाशुनक्षमा वा विशेषा न कथंचन लोकव्यवहारमुपरचयन्ति । तन्न ते वस्तुरूपाः । शोकव्यवहारोपयोगिनामेव वस्तुवाद। अत एव पन्धा गच्छति, कुण्डिका सवति गिरिर्दह्यते, मञ्चाः क्रोशन्ति इत्यादि व्यवहाराणां प्रामाण्यम् । तथा च वाचकमुख्य ः 'लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थी व्यवहारः व्यवहारमय ऐसा कहता है कि- लोकव्यवहार में आनेवाली वस्तु हो मान्य है । अदृष्ट तथा अव्यवहार्य वस्तुओंकी कल्पना करनेसे क्या लाभ लोकव्यवहार पथपर चलनेवाली वस्तु ही अनुग्राहक है और प्रमाणताको प्राप्त होती है, अन्य नहीं। संग्रहनय द्वारा मान्य अनादि निधनरूप सामान्य प्रमाणभूमिको स्पर्श नहीं करता, क्योंकि सर्वसाधारणको उसका अनुभव नहीं होता । तथा उसे मानने पर सबको ही सर्वदर्शीपने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार ऋजुसूत्रनय द्वारा मान्य क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष भी प्रमाण बाह्य होनेसे हमारी व्यवहार प्रवृत्तिके विषय नहीं हो सकते। इसलिए लोक अमाधित कियाकाल स्थायी व जलधारण आदि अर्थक्रिया करनेमें समर्थ ऐसी घट आदि वस्तुएं ही पारमार्थिक व प्रमाण सिद्ध हैं। इसी प्रकार घट शान करते समय, नैगमनय मान्य उसकी पूर्वोत्तर अवस्थाओंका भी विचार करना व्यर्थ है, क्योंकि प्रमाणगोचर न होनेसे वे अवस्तु हैं। और प्रमाणभूत हुए बिना विचार करना अशक्य है। पूर्वोत्तरकालवर्ती की पर्याय अथवा क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष दोनों ही लोकव्यवहारमें उपयोगी न होनेसे अवस्तु हैं, क्योंकि लोक व्यवहार में उपयोगी ही वस्तु है । अतएव 'रास्ता जाता है, कुण्ड बहता है, पहाड़ जलता है, मंच रोते हैं' आदि व्यवहार भी लोकोपयोगी होनेसे प्रमाण हैं । वाचक मुख्य श्री उमास्वामीने भी तवा
धिगम भाष्य / १ / ३५ में कहा है कि "लोक व्यवहारके अनुसार उपचरित अर्थ (दे० उपचार व आगे असद्भूत व्यवहार ) को बतानेवाले विस्तृत अर्थ को व्यवहार कहते हैं।
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३. व्यवहारनयकी भेद-प्रवृत्तिकी सीमा स.सि./१/३३/१४२ / ८ एवमयं नयस्तावद्वर्तते यावत्पुनर्नास्ति विभाग. ।
= संग्रह गृहीत अर्थको विधिपूर्वक भेद करते हुए (दे० पीछे शीर्षक नं. २/९) इस नयकी प्रवृत्ति वहाँ तक होती है, जहाँ तक कि वस्तु अन्य कोई विभाग करना सम्भव नहीं रहता। (रा. वा./१/३३/६/ ६६/२४) ।
रतो. बा. ४ / २ / ३३ / १६०/२४६/१५ इति अपरापर संग्रहव्यवहारमनः प्रागृजुसूत्रात्परसग्रहादुत्तर' प्रतिपत्तव्यः, , सर्वस्व 'वस्तुन' कथंचित्सामान्य विशेषात्म करवात्। इस प्रकार उत्तरोत्तर हो रहा संग्रह और व्यवहारनयका प्रपंच मुनयसे पहले-पहले और परसंग्रहनयसे उत्तर उत्तर अंशोंकी विवक्षा करनेपर समझ लेना चाहिए; क्योंकि, जगदीस वस्तु कथंचित् सामान्यविशेषात्मक हैं ( रतो. वा. ४/१,३३ / श्लो. ५६/२४४ )
का.अ./मू./२७३ जे संगण महिये विसेसरहिंदं पि मेदवे सद परमाणू पज्जेतुं बमहारणओ हवे सो हु । २०३ जो नय संग्रहनयके द्वारा अभेद रूपसे गृहीत वस्तुओंका परमाणुपर्यंत भेद करता है वह व्यवहार नय है ।
घ. १/१.१.१/१२/११ (विदीपार्थ) वर्तमान पर्यायको
विषय करना ऋजु सूत्र है । इस लिए जबततक द्रव्यगत (दे० नय / ITI/१/२) भेदोंकी ही मुख्यता रहती है, तबतक व्यवहारनयं चलता है और जब कालकृत भेद प्रारम्भ हो जाता है तभी से ऋजुसूत्र नयका प्रारम्भ होता है।
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४. व्यवहारनयके भेद व लक्षणादि
१. पृथक्त्व व एकत्व व्यवहार पं. का. सू. व भाषा / ४० मा घ च कुव्यदि धणिणं जह गामां च विधेहिं भण्णं ति तह पृधत्तं यत्तं चामि तच्चण्धन पुरुषको धनवाद करता है, और ज्ञान आत्माको हानी करता है। ऐसे ही तत्वज्ञ पुरुष पृथक्त्व व एकत्वके भेदसे सम्बन्ध दो प्रकारका कहते हैं। व्यवहार दो प्रकारका है— एक पृथक्त्व और एक एकत्व । जहाँपर भिन्न द्रव्योंमें एकताका सम्बन्ध दिखाया जाता है उसका नाम पृथनव व्यवहार कहा जाता है और एक वस्तुमें भेद दिलाया जाय उसका नाम एकत्व व्यवहार कहा जाता है । न.प.// . २६ प्रमाणनयनिक्षेपात्मकः भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहारः । प्रमाण नय व निक्षेपात्मक वस्तुको जो भेद द्वारा या उपचार द्वारा भेद या अभेदरूप करता है, वह व्यवहार है । (विशेष दे० उपचार /१/२)।
२. सद्भूत व अद्भूत व्यवहार
न..// २५ व्यवहारो द्विविधः सभूतव्यवहारी असहभूतव्यवहारश्च तमस्तुविषयः सद्भूतव्यवहारः भिन्नवस्तुविषयो सद्भूतव्यवहारः । व्यवहार दो प्रकारका है - सद्भूत व्यवहार और असद्भूत व्यवहार । तहाँ सद्भूतव्यवहार एक वस्तुविषयक होता है। और असद्भूत व्यवहार भिन्न वस्तु विषयक । ( अर्थात् एक वस्तुमें गुण-गुणी भेद करना सह या एकत्व व्यवहार है और भिन्न वस्तुओंमें परस्पर कर्ता कर्म व स्वामित्व आदि सम्बन्धों द्वारा अभेद करना असद्भूत या पृथक्त्व व्यवहार है।) (पं. घ. /-/ ११५) (विशेष दे० आगे नय | VIK)
V निश्चय व्यवहार नय
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३. सामान्य व विशेष संग्रह भेदक व्यवहार
न. व. वृ./ २१० जो संगहेण गहियं भेयइ अत्यं असुद्ध सुधं वा । सो
हारो दुविहो अद्धसुद्धत्थभेदकरो | २१०१ -जो संग्रह नयके द्वारा ग्रहण किये गये शुद्ध या अशुद्ध पदार्थका भेद करता है वह व्यवहार नय दो प्रकार का है - शुद्धार्थ भेदक और अशुद्धार्थभेदक । (शुद्धसंग्रहके विषयका भेद करनेवाला शुद्धार्थ भेदक व्यवहार है और अशुद्धसंग्रह विषयका भेद करनेवाला अशुद्धार्थमेवक व्यवहार है।) आ. प./५ व्यवहारोऽपि द्वेधा । सामान्यसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा
व्याणि जीवाजीवा विशेषसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा जीवाः संसारिणी मुक्ताश्च । =व्यवहार भी दो प्रकारका है - समान्य संग्रहभेदक और विशेष संग्रहभेदक । तहाँ सामान्य संग्रहभेदक तो ऐसा है जैसे कि 'द्रव्य जीव व अजीवके भेदसे दो प्रकारका है'। और विशेषसंग्रहमेवक ऐसा है जैसे कि जीव संसारी व मुक्तके भेदसे दो प्रकारका है । ( सामान्य संग्रहनयके विषयका भेद करनेवाला सामान्य संग्रह भेदक और विशेष संग्रहनयका भेद करनेवाला विशेष संग्रहभेदक व्यवहार है ।)
न च श्रुत/१४ अनेन सामान्यसंग्रहनयेन स्वीकृतसत्तासामान्यरूपार्थ भाजीवालादिकथनं सेनान्वेन स्वीकृतार्थं भित्त्वा इत्य श्वरथपदातिकथनं इति सामाण्यसंग्रहभेदकव्यमहारनयो
भवति विशेषसंग्रहनयेन स्वीकृतार्था जीनगलनियाद भित्त्वा देवनारकादिकथनं घटपटादिकथनम्। हस्त्यश्वरथपदाती भिला भद्रगज जात्यश्व महारथ शतभटसहस्रभटादिकथनं...इत्याद्यनेकविषयान् भिया कथनं विशेषसंग्रहभेदकव्यमहारनयो भवति । - सामान्य संग्रहनयके द्वारा स्वीकृत सत्ता सामान्यरूप अर्थका भेद करके जीव पुद्गलादि कहना अथवा सेना शब्दका भेद करके हाथी, घोड़ा, रथ, पिया कहना, ऐसा सामान्य संग्रहभेदक व्यवहार होता है और विशेषसंप्रहृमय द्वारा स्वीकृत जीम व पुद्गलसमूहका मेव
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