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निमित्तवाद
कर तीनों कालके सुग्वादिकको जानना, यह व्यञ्जन निमित्तज्ञान है | २००६ | हाथ, पॉब के नोचेकी रेखाऍ, तिल आदि देखकर त्रिकाल सम्बन्धी सुख दुःखादिको जानना सो लक्षण निमित्त है | २०१० | देव, दानव, राक्षस, मनुष्य और तिर्यंचोंके द्वारा छेदे गये शस्त्र एवं वस्त्रादिक तथा प्रासाद, नगर और देशादिक चिन्होको देखकर त्रिकालभावी शुभ, अशुभ, मरण विविध प्रकारके द्रव्य और सुख-दुःखको जानना, यह चिन्ह या छिन्न निमित्तज्ञान है । १०१११०१२। वात-पित्तादि दोषों से रहित व्यक्ति, सोते हुए रात्रिके पश्चिम भागमें अपने मुखकमलमें प्रविष्ट चन्द्र-सूर्यादिरूप शुभस्वप्नको और घृत व तेलको मालिश आदि गर्दभ व ऊँट आदि पर चढना, तथा परदेश गमन आदि रूप जो अशुभ स्वप्नको देखता है, इसके फलस्वरूप तोन काल में होनेवाले दुख-सुखादिकको बतलाना यह स्वप्ननिमित्त है। इसके चिन्ह और मालारूप दो भेद है । इनमें से स्वप्न में हाथी, सिंहादिकके दर्शनमात्र आदिकको चिन्हस्वप्न और पूर्वापर सम्बन्ध रखनेवाले स्वप्नको माला स्वप्न कहते हैं । १०१३-१०१६। (रा. वा./३/३६/२/२०२/१९१) ( १४.१.१४/०२/६) (चा. सा. / २१४ / ३
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निमेष - कालका एक प्रमाण- दे० गणित /३/९/४
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निमित्त वाद - दे० परतंत्रवाद ।
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नियत प्रदेशत्व साखा / परिशक्ति में २४ आसंसारसं हरण विस्तरणलक्षित किंचिदून परम शरीरपरिमाणावस्थितलोकाकाशसम्मितारमावयमस्वलक्षणा नियत प्रदेशस्वशक्तिः १२४ जो अनादि संसारसे लेकर संकोच विस्तारक्षित है और जो परम शरीर के परिमाणसे कुछ न्यूनपरिमाणमें अवस्थित होता है. ऐसा लोका प्रमाण आत्म अवयवत्व जिसका लक्षण है, ऐसी ( जीव द्रव्यकी ) निय प्रदेश शक्ति है।
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नियतवृत्तयः नियता
नियत वृत्ति या वि. / / २ / २ / ५४ / २६ संकरव्यतिकरमिता वृत्तिरात्मलाभो येषां ते तथा नियत अर्थातच व्यतिकर दोषोंसे रहित वृद्धि अर्थाद आमताभ संर उपतकर रहित अपने स्वरूपमें अवस्थित रहना वस्तुको नियतवृत्ति है । (जैसे अग्नि नियत उष्णस्वभावी है) । ( और भी दे० नय / I/५/४ में नय नं. १५ नियत नय ) |
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नियति--जो कार्य या पर्याय जिस निमित्तके द्वारा जिस द्रव्यमे जिस क्षेत्र कालमें जिस प्रकारसे होना होता है. यह कार्य उसी निनिसके द्वारा उसी द्रव्य, क्षेत्र व कालमे उसी प्रकार से होता है, ऐसी द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावरूप चतुष्टयसे समुदित नियत कार्यव्यवस्थाको 'नियति' कहते हैं। नियत कमरय रूप निमितकी अपेक्षा इसे ही 'देव' निस कालको अपेक्षा इसे ही 'काल लब्धि' और होने योग्य नियत भाव या कार्यकी अपेक्षा इसे ही 'भक्ति' कहते हैं अपने-अपने समय में क्रम पूर्वक नम्बरवार पर्यायोंके प्रगट होनेकी अपेक्षा श्री जी स्वामीजोने इसके लिए 'क्रमबद्ध पर्याय' शब्दका प्रयोग किया है । यद्यपि करने धरने के विकल्पोंपूर्ण रागी वृद्धि कुछ अभियत प्रतीत होता है, परन्तु निर्विकल्प समाधिके साक्षीमात्र भागमे विश्वकी समस्त कार्य व्यवस्था उपरोक्त प्रकार नियत प्रतीत होती है ।
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अतः वस्तुस्वभाव, निमित्त (देव) पुरुषार्थ, कालल भवितव्य इन पाँचो समवायोसे समवेत तो उपरोक्त व्यवस्था सम्यक् है और इनसे निरपेक्ष नहीं मिथ्या है निरुपनी पुरुष मिथ्या नियति आपसे पुरुषार्थका तिरस्कार करते है, पर अनेकान्त बुद्धि इस सिद्धान्तको जानकर सर्व बाह्य व्यापारसे विरक्त हो एक ज्ञाताद्रष्टा भाव में स्थिति पाती है ।
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३ देव निर्देश
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नियतिवाद निर्देश मिष्या नियतिवाद निर्देश सम्यक् नियतिवाद निर्देश । नियतिको सिद्धि ।
कालब्धि निर्देश
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काललन्धि सामान्य व विशेष निर्देश ।
एक काललब्धिमें अन्य सर्व लब्धियोंका अन्तर्भाव कालको कर्मचिव प्रधानता के उदाहरण १. मोक्षप्राप्ति में काललब्धि ।
२ सम्यक्त्व प्राप्तिमें काललब्धि । ३. सभी पर्यायोंमें काललब्धि । काकतालीय न्यायसे कार्यकी उत्पत्ति कालब्धि के बिना कुछ नहीं होता । काल अनिवार्य है। पुरुषार्थ भी कथंचित् काललब्धिके आधीन है । - दे० नियति/४/२
कालब्धि मिलना दुर्लभ है । कालपीत गीणता।
देवका लक्षण |
मित्रया देववाद निर्देश |
सम्यक् देववाद निर्देश | कमदयकी प्रधानताके उदाहरण । देवके सामने पुरुषार्थका तिरस्कार।
देवकी अनिवार्यता
नियति
भवितव्य निर्देश
भवितव्यका लक्षण
भवितव्यको कथंचित् प्रधानता ।
भवितव्य अलंघ्य व अनिवार्य है।
नियति
पुरुषार्थका समन्वय
दैव व पुरुषार्थं दोनोंके मेल से अर्थ सिद्धि । अनुद्धिपूर्वक कार्य देन तथा बुद्धिपूर्वक कार्योंमें पुरुषार्थ प्रधान है।
अतः रागदशामें पुरुषार्थ करनेका ही उपदेश है । नियति सिद्धान्तमै खेच्छाचारको अवकाश नहीं। वास्तवमें पाँच समवाय समवेत ही कार्यव्यवस्था सिद्ध है।
नियति व पुरुषार्थादि सहवर्ती हैं।
१. काललब्धि होनेपर शेष कारण स्वतः प्राप्त होते हैं । २. कालादि लब्धि बहिरंग कारण हैं और पुरुषार्थ अन्तरंग कारण है ।
३. एक पुरुषार्थ में सर्व कारण समाविष्ट हैं।
नियति निर्देशका प्रयोजन ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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