________________
चारित्र
होता नहीं है । इस कथनसे आरण अच्युत कल्पसे ऊपर उत्पन्न होनेवाले मिध्यादृष्टि जीवो के साथ व्यभिचार दोष भी नहीं आता, क्योंकि उन मिथ्यादृष्टियों के भी भाव संयम रहित द्रव्य संयम पाया जाता है।
गो.क./जी.प्र./२००/०३/१३ यः सम्यग्जयः स केवल सम् साक्षाद महामते देवायुमाति यो मिथ्याष्टिर्जीव स उपचारापुजतमहान सतपसा अकामनिर्जरया च देवायुध्नाति । = सम्यग्दृष्टि जीव तो केवल सम्यक्त्व द्वारा अथवा साक्षात् अणुव्रत व महावतों द्वारा देवायु बाँधता है, और मिथ्यादृष्टि जीव उपचार अणुव्रत महावतों द्वारा अथवा बालतप और अकामनिर्जरा द्वारा देवा बाँधता है ( और भी दे० आयु / ३ / ११) ।
२९२
७. निश्चय व्यवहार चारित्र समन्वय
१. निश्चय चारित्रको प्रधानताका कारण
न.च.वृ./३४४,३६६ जह सुह णासह असुहं तहवासुद्धं सुद्ध ेण खलु चरिए । तम्हा सुधुवजोगी मा वट्टउ णिदणादीहि । ३४४ | असुद्धसंवेयणेण अप्पा अंधेर कम्मलोकम्मसंयोग अप्पा मुंह कम्मं पोचम्म | ३६६ | जिस प्रकार शुभोपयोगी अशुभोपयोगका नाश होता है। उसी प्रकार शुद्ध चारित्र अशुद्धका नाश होता है. इसलिए शुद्धो पयोगीको आलोचना, निन्दा, गर्हा आदि करनेकी कोई आवश्यकता नहीं । १४४॥ अशुद्ध संवेदनसे आत्मा कर्म व नोकर्मका बन्ध करता है, और शुद्ध संवेदनसे कर्म व नोकर्म से छूटता है । ३६६॥ ।
२. व्यवहार चारित्रके निषेधका कारण व प्रयोजन प.प्र./टी./२/५२ में उद्धृत रागद्वेषी प्रवृत्तिः स्यान्निवृतिस्तन्नि देवन तो बाह्यार्थ संबन्ध तस्मासांस्तु परित्यजेद राग और द्वेष दोनों प्रवृत्तियाँ है तथा इनका निषेध वह निवृत्ति है । ये दोनों (राग व द्वेष) अपने नहीं हैं, अन्य पदार्थ के सम्बन्धसे है । इस लिए इन दोनों को छोडो।
द्र सं./टी./४५-४६/११६,१६७ पञ्चमहावतपञ्चसमिति त्रिगुप्तिरूपमप्यपहृतसंयमारम्भपयोग सरागचारित्राभिधानं भवति १४५ - १६दी महिषि शुभाशुभचनकायव्यापाररूपस्य तथैवाभ्यन्तरे शुभाशुभमनोविकल्परूपस्य च क्रियाव्यापारस्य योऽसौ निरोधस्त्यागः स च किमर्थ... संसारस्य व्यापारकारणभूतो योऽसौ शुभाशुभकर्मावस्तस्य प्रणाशार्थम् । पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति रूप, अपहृत संयम नामवाला शुभोपयोग लक्षण सराग चारित्र होता है। प्रश्न-बाह्य विषयों में शुभ व अशुभ वचन व कायके व्यापार रूप और इसी तरह अन्तरंग शुभ-अशुभ मनके विकल्प रूप क्रियाके व्यापारका जो निरोध है, वह किस लिए है? उत्तर- संसारके व्यापारका कारणभूत शुभ अशुभ कर्मासन, उसके बिनाशके लिए है। द्र.सं./ टी / ५७/२३०/२ अयं तु विशेष : - व्यवहाररूपाणि यानि प्रसिद्धान्यैकदेशजतानि तानि रक्तानि यानि पुनः सर्वशुभाशुभ निवृत्तिरूपाणि निश्चयवानि तानि त्रिगुप्टिलक्षणस्मशुद्धात्मसंवितिरूपनिर्विकल्पध्याने स्वकृतान्येव न च त्यक्तानि । = व्रतोके त्याग में यह विशेष है कि ध्यानावस्थामै व्यवहार रूप प्रसिद्ध एकदेश का अर्थात महावतों का (दे० बत) त्याग किया है । किन्तु समस्त त्रिगुप्तिरूप स्वशुद्धरूप निर्विकल्प ध्यान में शुभाशुभकी निवृत्तिरूप निश्चय स्वीकार किये गये है। उनका त्याग नहीं किया गया है।
-
३. व्यवहारको निश्चय चारित्रका साधन कहनेका कारण द्र.सं./टी./४५-४६/१६६ / १० ( व्रत समिति आदि ) शुभोपयोगलक्षणं सरागचारित्राभिधानं भवति तत्र योऽसौ बहिर्विषये पञ्च न्द्रियविषय
Jain Education International
७. निश्चय व्यवहार चारित्र समन्वय
परागः उपचरितासन व्यवहारेण यच्चाम्यन्तररागादिपरिहार: स पुनरशुद्ध निश्चयनयेनेति नयविभागो ज्ञातव्य । एवं निश्चयचारित्रसाधकं व्यवहारचारित्रं व्याख्यातमिति रोनेन व्यवहारचारि त्रेण साध्यं परमोपैक्षा तक्षणसुद्धोपयोगाभिना परमं सम्यकचारित्रं ज्ञातव्यम् । = ( व्रत समिति आदि ) शुभोपयोग लक्षणवाला राग चारित्र होता है । ( उसमें युगपत् दो अंग प्राप्त हैंएक बाह्य और एक आभ्यन्तर ) तहाँ बाह्य विषयोंमे पांचों इन्द्रिय विषयादिका त्याग है यो उपचारित असजद व्यवहार नयसे चारित्र है । और जो अन्तर गर्ने रागादिकका त्याग है वह अशुद्ध निश्चय नयसे चारित्र है । इस तरह नय विभाग जानना चाहिए । ऐसे निश्चय चारित्रको साधनेवाले व्यवहार चारित्रका व्याख्यान किया। अब उस व्यवहार चारित्रसे साध्य परमोपेक्षा लक्षण शुद्धोपयोगसे अविनाभूत होनेसे उत्कृष्ट सम्यग्वारित्र जानना चाहिए। ( अर्थात् व्यवहारचारित्र के अभ्यास द्वारा क्रमशः बाह्य और आभ्यन्तर दोनों क्रियाका रोध होते-होते अन्तमें पूर्ण निदिशा प्राप्त हो जाती है। यही इनका साध्यसाधन भाव है । ) प्र.सं./टी./३५/१४६/१२ त्रिगुझिसक्षम निर्विकल्पसमाधिस्थानां यतीनां तमेव पूर्वते तत्रासमर्थनां पुनर्भप्रकारेण संपरप्रतिपक्षभूत मोहो विजृम्भते तेन कारणेन प्रतादिविस्तरं ययाचार्याः । मन, वचन काय इन तीनोंकी गुप्ति स्वरूप निर्विकल्प ध्यानमे स्थित गुनिके तो उस संगर अनुप्रेक्षासे ही संबर हो जाता है, किन्तु उसमे असमर्थ जोनोके अनेक प्रकारसे संवरका प्रतिपक्षभूत मोह उत्पन्न होता है, इस कारण आचार्य व्रतादिका कथन करते है । पं.का./ता.१००१०१/१२ व्यवहारचारित्रं बहिरगावेन मीतरागचारित्रभावनोत्पन्नपरमामृततृप्तिरूपस्य निश्चयसुखस्य बीजं, तदपि निश्चयसुखं पुनरक्षयानन्तसुखस्य बीजमिति । अत्र यद्यपि साध्यसाधकभावज्ञापनार्थ निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गस्यैव मुख्यश्यमिति भावार्थ: । = व्यवहार चारित्र बहिरंग साधक रूपसे वीतराग चारित्र भावना से उत्पन्न परमात्म तृप्तिरूप निश्चय सुखका बीज है। और वह निश्चय सुख भी अक्षयानन्त सुखका बीज है। ऐसा निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्ग में साध्यसाधक भाव जानना चाहिए। ( और [भी] दे० शीर्षक नं० १०) ।
L
-
४. व्यवहार चारित्रको चारित्र कहनेका कारण २. क. ४०४ मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादासंज्ञानः रागद्वेषनिवृत्ये चरणं प्रतिपचते साधुः 1881 रागद्वेषनिवृत हिसा विनिय
कुता भन्ति अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुष सेवते नृपतीन् ॥४८॥ - सम्यग्दृष्टि जीव रागद्वेषको निवृत्ति के लिए सम्यग्वारिशको धारण करता है और रागद्वेषादिकी निवृत्ति हो जानेपर हिंसादिते निवृत्ति पूर्ण हो जाती है, क्योंकि नहीं है आजीविकाकी इच्छा जिसको ऐसा कौन पुरुष है, जो राजाओंकी सेवा करे । स.सा./ता.वृ./२०६ पजीवनिकायरक्षा चारित्रयहेतुवाद उपवहारेण चारित्रे भरत एवं पराश्रितत्वेन व्यवहारमोक्षमार्गः प्रोक्त इति । चारित्रका ( अर्थात रागद्वेषसे निवृत्ति रूप बोतरागताका ) आश्रय होनेके कारण छह कायके जीवोंकी रक्षा भी व्यवहार से चारित्र कहलाती है । पराश्रित होनेसे यह व्यवहार मोक्षमार्ग है ।
५. व्यवहार चारित्रकी उपादेयताका कारण व प्रयोजन र. क. था. / ४६ रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधु ४६| = सम्यग्दृष्टि
to राग-द्वेषी निवृत्ति के लिए सम्यग्चारित्रको धारण करता है । प्र. सा.स.प २०२ अहो मोक्षमार्ग प्रवृत्तिकारणमहामतोि
.. समितिलक्षणचारित्राचार न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मान
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org