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चारित्र
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७. निश्चय व्यवहार चारित्र समन्वय
मुपलभे। अहो, मोक्षमार्गमे प्रवृत्तिके कारणभूत, पंचमहावत सहित गुप्ति समिति स्वरूप चारित्राचार । मै यह निश्चमसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्माका नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब
तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लू। नि.सा./ता,वृ/१४८ अत्र व्यवहारनयेनापि समतास्तुतिवन्दनाप्रत्यारख्यानादिषडावश्यकपरिहीणः श्रमणश्चारित्रभ्रष्ट इति यावत् । = (शुद्धोपयोग सम्मुरव जीबको शिक्षा दी जाती है कि) यहाँ ( इस लोकमे ) व्यवहार नयसे भी समता, स्तुति, बन्दना, प्रत्याख्यानादि छह आवश्यकसे रहित श्रमण चारित्रपरिभ्रष्ट (चारित्रसे सर्वथा भ्रष्ट ) है। देखो चारित्र/७/३/द्र, सं/टी० त्रिगुप्तिमें असमर्थ जनों के लिए व्यवहार
चारित्रका उपदेश किया जाता है।
६. बाह्य व आभ्यन्तर चारित्र परस्पर अविनामावी हैं प्र सा /मू./गा. चरदि निबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसणसुहम्मि ।
पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपण्णसामण्णो ।२१४। पंचसमिदो तिगुत्तो पंचिदिसंबुडो जिदकसाओ। दसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो ।२४०। समसत्तु बंधुबग्गो समसुहदुक्रवो पस्सणिदसमो। समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समे समणो ।२४१। - जो श्रमण सदा ज्ञान व दर्शनमे प्रतिबद्ध तथा मूलगुणोंमे प्रयत्नशील है वह परिपूर्ण श्रामण्य वाला है ।२१४। पाँच समिति, पंचेन्द्रिय संवर व तीन गुप्ति सहित तथा कषायजयी और दर्शन ज्ञानसे परिपूर्ण जो श्रमण है वह संयत माना गया है ।२४०। शत्रु व बन्धुवर्गमे, सुख व दुःखमे, प्रशंसा व निन्दामें, लोहे ब सोनेमें तथा जीवन व मरणमें जो सम है वह श्रमण है ।२४१ चा. पा./मू./६ सम्मत्तचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्ध । णाणी
अमूढदिट्ठी अचिरे पावेति णिव्वाणं ।।जो ज्ञानी अमृदृष्टि होकर सम्यक्त्वचरण चारित्रसे शुद्ध होते हैं वे यदि संयमचरण चारित्रसे
भी शुद्ध हो जायें तो शीघ्र ही निर्वाणको प्राप्त होते हैं ।।। न, च. वृ/३५३ हेयोपादेयविदो संजमतववीयरायसंजत्तो । जियदुक्रवाइ तहं चिय सामग्गी सुद्धचरणस्स ।३५३। - हेय व उपादेयको जाननेवाला हो संयम तप व वीतरागता संयुक्त हो, दुःखादिको जीतनेवाला हो अर्थात सुख दुःख आदिमें सम हो, यह सब शुद्ध चारित्रकी सामग्री है। न. च. वृ/२०४ जं बिय सरायचरणे [ सरागकाले भेदुवयारेण भिण्ण
चारित्तं । तं चेव वीयराये विपरीयं होइ कायव्वं । उक्तं च-चरिय चरदि सग सो जो परदव्यप्पभावरहिदप्पा । दसणणाणवियप्पा अवियप्पं चावियप्पादो। सराग अवस्थामें भेदोपचार रूप जिस चारित्रका आचरण किया जाता है, उसोका वीतराग अवस्थामें अभेद व अनुपचारसे करना चाहिए। (अर्थात् सराग व वीतराग चारित्रमें इतना ही अन्तर है कि सराग चारित्रमें बाह्य क्रियाओं का विकल्प रहता है और वीतराग अवस्थामें उनका विकल्प नहीं रहता, सराग चारित्रमे वृत्ति बाह्य त्यागके प्रति जाती है और वीतर ग अवस्थामें अन्तरंगकी ओर ) कहा भी है कि
स्व चारित्र अर्थात वीतराग चारित्रका आचरण वही करता है जो परद्रव्य के प्रभावसे रहित हो, तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्रके विकल्पोंसे जो अविकल्प हो गया हो। ध. १/१,१,४/१४४/४ संयमनं संयम । न द्रव्ययम' संयमस्तस्य 'सं'
शब्देनापादितत्वात् । यमेन समितयः सन्ति, तास्वसतीषु संयमोऽनुपपन्न इति चेन्न, 'संशब्देनात्मसात्कृताशेषसमितित्वात । अथवा बतसमितिकषायदण्डेन्द्रियाणां धारणानुपालननिग्रहत्यागजयाः संयम' | 'संयमन करनेको संयम कहते है' संयमका इस प्रकार लक्षण करनेपर भाव चारित्र शून्य द्रव्य चारित्र संयम नहीं हो सकता, क्योंकि 'सं' शब्दसे उसका निराकरण कर दिया गया।
प्रश्न-यहाँ पर 'यम' से समितियोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि समितियों के नहीं होनेपर संयम नहीं बन सकता। उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है क्योंकि 'सं' शब्दसे सम्पूर्ण समितियोंका ग्रहण हो जाता है। अथवा पाँच व्रतोंका धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, क्रोधादि कषायोंका निग्रह करना, मन, बचन और काय रूप तीन दण्डोंका त्याग करना और पाँच इन्द्रियों के विषयोंका जीतना संयम है। प्र. सा/त. प्र./२४७ शुभोपयोगिनां हि शुद्धात्मानुरागयो गिचारित्रतया
समधिगतशुद्धात्मवृत्तिषु श्रमणेषु बन्दननमस्करणाभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिप्रवृत्तिः शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्ताश्रमापनयनप्रवृत्ति च न दुष्येत् । - शुभोपयोगियोंके शुद्धात्माके अनुरागयुक्त चारित्र होता है, इसलिए जिनने शुद्धात्म परिणति प्राप्त की है ऐसे श्रमणोके प्रति जो वन्दन-नमस्कार-अभ्युत्थान, अनुगमन रूप विनीत वर्तनकी प्रवृत्ति तथा शुद्धात्मपरिणतिकी रक्षाकी निमित्तभूत जो श्रम दूर करनेकी (वैयावृत्ति रूप) प्रवृत्ति है, वह शुभोपयोगियोंके लिए दूषित नहीं है। प्र. सा /त. प्र/२००/क. १२ द्रव्यानुसारि चरणं चरणानुसारि द्रब्य मिथो
द्वयमिदं ननु सव्यपेक्षम्। तस्मान्मुमुक्षुरधिरोहतु मोक्षमार्ग द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य ।१२। =चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुसार होता है, इस प्रकार वे दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। इसलिए या तो द्रव्यका अर्थात् अन्तरंग प्रवृत्तिका आश्रय लेकर अथवा चरणका अर्थात बाह्य निवृत्तिका आश्रय लेकर मुमुक्षु मोक्षमार्गमें आरोहण करो। और भी देखो चारित्र/४/२ (चारित्रके सर्व भेद-प्रभेद एक शुद्धोपयोगमें समा जाते हैं।)
७. एक ही चारित्रमें युगपत् दो अंश होते हैं मो. पा / जयचन्द/४२ चारित्र निश्चय व्यवहार भेदकरि दो भेद
रूप है। तहाँ महाबत समिति गुप्तिके भेद करि कह्या है सो तो व्यवहार है। तिनिमें प्रवृत्ति रूप क्रिया है सो शुभ बन्ध करै है, और इन क्रियानिमें जैता अंश निवृत्तिका है ताका फल बन्ध नाहीं है। ताका फल कर्मकी एक देश निर्जरा है। और सर्व कर्म से रहित अपना आत्म स्वरूपमें लीन होना सो निश्चय चारित्र है, ताका फल कर्मका नाश ही है। और भी देखो उपयोग/II/3/२ (जितना रागांश है उतना बंध है,
और जितना वीतरागांश है उतना संवर निर्जरा है।) और भी देखो बत/३/७६ ( सम्यग्दृष्टिकी बाह्य प्रवृत्तिमें अवश्य निवृत्तिका अंश विद्यमान रहता है।) और भी देखो उपयोग/II/३/१ ( शुभोपयोगमें अवश्य शुद्धोपयोगका वंश मिश्रित रहता है।) ८. निश्चय व्यवहार चारित्रकी एकार्थताका नयाथ
नि. सा./ता. वृ./१४८ व्यवहारनयेनापि षडावश्यकपरिहीणः श्रमणश्चारित्रपरिभ्रष्टः इति यावत, शुद्धनिश्चयेन...निर्विकल्पसमाधिस्वरूपपरमावश्यकक्रियापरिहीणश्रमणो निश्चयचारित्रभ्रष्ट इत्यर्थः । पूर्वोक्तस्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयावश्यकक्रमेण स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपेण सदावश्यकं करोतु परममुनिरिति । व्यवहार नयसे तो छह आवश्यकोंसे रहित श्रमण चारित्र परिभ्रष्ट है और शुद्ध निश्चयनयसे निर्विकल्प- समाधि स्वरूप परमावश्यक क्रियासे रहित श्रमण निश्चय चारित्र भ्रष्ट है । ऐसा अर्थ है । ( इसलिए ) स्व वश परमजिन योगीश्वरके निश्चय आवश्यकका जो क्रम पहले कहा गया है (आत्मस्थितिरूप समता, वन्दना, प्रतिक्रमणादि) उस क्रमसे स्वात्माश्रित ऐसे निश्चय धर्म
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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