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चारित्र पाहुड़
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चार्वाक
ध्यान तथा निश्चयशुक्लध्यानस्वरूपसे परम मुनि सदा आवश्यक करो।
१. व्रतादि बन्धके कारण नहीं बल्कि उनमें अध्यवसान
ही बन्धका कारण है स सा./मू/२६४, २७० तह विय सच्चे दत्ते बंभे अपरिगहत्तणे चेव । कोरइ अज्झवसाणं जं तेण दु वज्झर पुण्णं ।२६४ एदाणि णस्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । तं असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति १२७०१ - इसी प्रकार ( हिसादि पॉचों अवतोवत् ही) सत्यमे, अचौयमें, ब्रह्मचर्यमे और अपरिग्रहमें जो अध्यवसान किया जाता है उससे पुण्यका बन्ध होता है ।२६४। ये ( अवतों और व्रतोंवाले पूर्व कथित) तथा ऐसे हो और भी, अध्यवसान जिनके नहीं है, वे मुनि अशुभ या शुभ कर्मसे लिप्त नहीं होते।२७०। ( मो. मा. प्र./७/३७३/३)
१०. ब्रतोंको त्यागनेका उपाय व क्रम स श,/८४, ८६ अवतानि परित्यज्य वतेषु परिनिष्ठित.। त्यजेत्तान्यपि
संप्राप्य परमं पदमात्मन' 1८४ा अवतो बतमादाय व्रती ज्ञानपरायण । परात्मज्ञानसंपन्न. स्वयमेव परो भवेत् ॥८६॥ हिसादि पाँच अवतोको छोड करके अहिसादि व्रतोंका दृढ़तासे पालन वरे। पीछेसे आत्माके परम वीतराग पदको प्राप्त करके उन व्रतोको (बतोके जध्यवसानको ) भी छोड देवे।४। हिंसादि पाँच अवतोंमें अनुरक्त हुआ मनुष्य पहले बतोंको ग्रहण करके बती बने। पीछे ज्ञान भावनामें लीन होकर केवलज्ञानसे युक्त हो स्वयं ही परमात्मा हो जाता है । ( ज्ञा०/३२२८८); (द्र. सं /टी./५७/२२६/१०); (प. प्र. टी./
२/५/१७७/४) नि.सा /ता, वृ /१०३ भेदोपचारचारित्रम्, अभेदोपचारं करोमि, अभेदो
पचारम् अभेदानुपचार करोमि, इति त्रिविध सामायिकमुत्तरोत्तरस्वीकारेण सहजपरमतत्त्वाविचलस्थितिरूपसहजचारित्रं, निराकारतत्वनिरतत्वान्निराकारचारित्रमिति । -भेदोपचारित्रको अभेदोपचार करता हूं। तथा अभेदोपचार चारित्रको अभेदानुपचार करता हूँ-इस प्रकार त्रिविध सामायिकको (चारित्रको) उत्तरोत्तर स्वीकृत करनेसे सहज परम तत्त्वमें अविचल स्थितिरूप सहज निश्चय चारित्र होता है, कि जो निराकार तत्त्वमें लीन होनेसे निराकार चारित्र है। (और भी दे० धर्मध्यान/६/६) द्र, सं/टी/५७/२३०/८ त्याग' कोऽर्थः । यथैव हिसादिरूपावतेषु निवृत्तिस्तथै कदेशवतेष्वपि। कस्मादिति चेत्-त्रिगुप्तावस्थायां प्रवृत्ति-निवृत्तिरूपविकल्पस्य स्वयमेवावकाशो नास्ति ।-प्रश्न-- व्रतोंके त्यागका क्या अर्थ है ? उत्तर-गुप्तिरूप अवस्थामें प्रवृत्ति तथा निवृत्तिरूप बिकल्पको रंचमात्र स्थान नहीं है। अहिसादिक महावत विकल्परूप हैं अत: वे ध्यान में नहीं रह सकते। चारित्र पाहड़-आ. कुन्दकुन्द (ई. १२७-१७६ ) द्वारा रचित सम्यरचारित्र विषयक, ४४ प्राकृत गाथाओंमें निबद्ध एक ग्रन्थ । इस पर आ. श्रुतसागर (ई०१४८१-१४६६) कृत संस्कृत टीका तथा पं. जयचन्द छाबड़ा (ई० १८१०) कृत भाषा वचनिका उपलब्ध हैं। चारित्र भूषण-इनके मुखसे ही स्वामी समन्तभद्र कृत देवागम स्तोत्रका पाठ सुनकर श्लोकवातिककार श्री विद्यानन्दि आचार्य जिन दीक्षित हो गये थे। आ० विद्यानन्दिजीके अनुसार आपका समय ई० ७५०-८१५ आता है। चारित्र मोहनीय-मोहनीयकर्मका एक भेद-दे० मोहनीय/१। चारित्र लब्धि-दे. लब्धि ।
चारित्रवाद-दे० क्रियावाद । चारित्र विनय-दे० विनय । चारित
द्धि-दे० शुद्धि।
द्व व्रत-चारित्रके निम्न १२३४ अंगोके उपलक्ष में एक उपवास एक पारणा क्रमसे ६ वर्ष, १० मास ८ दिनमै १२३४ उपवास पूरे करे-(१) अहिंसावत-१४ जीव समासxनवकोटि (मन वचन कायxकृत कारित अनुमोदना-१२६ । (२) सत्य व्रत- भय, ईर्ष्या, स्वपक्षपात, पैशुन्य, क्रोध, लोभ, आत्मप्रशंसा और परनिन्दा ये Sxe कोटि =७२ । (३) अचौर्य व्रत-ग्राम, अरण्य, खल, एकान्त, अन्यत्र, उपधि, अमुक्त, पृष्ठ ग्रहण ऐसे ८ पदार्थx कोटि-७२ । (४) ब्रह्मचर्य = मनुष्यणी, देवांगना, तिर्यचिनी व अचेतनी ये चार स्त्रियॉx कोटिx५ इन्द्रिय = १८० 1 (५) परिग्रह त्याग=२४ प्रकार परिग्रह कोदि=२१६ । (६) गुप्ति =३५३ कोटि =२७ । (७) समिति ईर्या, आदान-निक्षेपण व उत्सर्ग ये ३४३ कोटि =२७+भाषा समिति के १० प्रकार सत्यर कोटि-
30+ एषणा समितिके ४६ दोषx कोटि = ४१४ - १२३४ ओं ह्रीं असि आ उ सा चारित्रशुद्धिव्रतेभ्यो नम' इस मंत्रका त्रिकाल जाप्य करे (ह.पु./३४/१००-११०), (वत विधान संग्रह/पृ.५६)। चारित्रसार-चामुण्डराय (ई०श०१०-११) द्वारा रचित, संस्कृत गद्यबद्ध ग्रन्थ । इसमें मुनियोंके आचारका संक्षिप्त वर्णन है। कुल ६००० श्लोक प्रमाण है। (ती./४/२८)। चारित्राचार-दे० आचार । चारित्राराधना-दे० आराधना । चारित्रार्य-दे० आर्य । चारुदत्त-(ह पु/२१/श्लोक नं०) भानुदत्त वैश्यका पुत्र (६-१०); मित्रावतीसे विवाह हुआ (३८); संसारसे विरक्त रहता था (३६); चचा रुद्रदत्तने उसे वेश्याम आसक्त कर दिया (४०-६४); अन्तमें तिरस्कार पाकर वेश्याके घरसे निकला और अपने घर आया (६४-७४); व्यापारके लिए रत्नद्वीपमें गया (७५); मार्गमे अनेकों कष्ट सहे (११२); वहाँ मुनिराजके दर्शन किये (११३-१२६), बहुत धन लेकर घर लौटा (१२७)। चारुदत्त चरित्र-आ. सोमकीर्ति भट्टारक( ई०१४७४) कृत संस्कृत
भाषामे रचा गया ग्रन्थ है। तत्पश्चात् इसके आधारपर कई रचनाएँ हुई-१. कवि भारामल ( ई० १७५६ ) ने चौपाई-दोहेमे एक कृति
रची। चार्वाक
१. सामान्य परिचय स्था.म./परि. छ /१४३-४४४= सर्वजनप्रिय होनेके कारण इसे 'चार्वाक'
सज्ञा प्राप्त है। सामान्य लोगोंके आचरणमे आनेमें कारण इसे 'लोकायत'कहते हैं । आत्मा व पुण्य-पाप आदिका अस्तित्व न माननेके कारण यह मत 'नास्तिक' कहलाता है ।वधार्मिक क्रियानुष्ठानोंका लोप करने के कारण अक्रियावादी'। इसके मूल प्रवर्तक बृहस्पति आचार्य हुए है, जिन्होने बृहस्पति सूत्रकी रचना की थी। आज यद्यपि इस मतका अपना कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है, परन्तु ई० पूर्व ५५०-५०० के अजितकेश कम्बली कृत बौद्ध सूत्रोंमें तथा महाभारत जैसे प्राचीन ग्रन्थोमे भी इसका उल्लेख मिलता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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