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चालिसिय
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इनके साधु कापालिक होते है अपने सिद्धान्त के अनुसार मे मद्य व मासका सेवन करते है । प्रतिवर्ष एकत्रित होकर स्त्रियोंके साथ क्रीडा करते है । ( षड्दर्शन समुच्चय / ८०-८२/७४-७७)।
२. जैनके अनुसार इस मतकी उत्पत्तिका इतिहास
धर्म परीक्षा / १८/५६-५६ भगवान् आदिनाथके साथ दीक्षित हुए अनेक राजा आदि जब क्षुधा आदिको बाधा न सह सके तो भ्रष्ट हो गये । कच्छ - महाकच्छ आदि राजाओंने फल-मूल आदि भक्षण करना प्रारम्भ कर दिया और उसीको धर्म बताकर प्रचार किया। शुक्र बृहस्पति राजाओं ने चार्वाक मतकी प्रवृत्ति की ।
और
३. इस मसके भेद
ये दो प्रकार के
सुशिक्षित पहले तो पृथिवी के अतिरिक्त आत्माको सर्वथा मानते ही नही और तत्व स्वीकार करते हुए भी मृत्युके समय शरीर के भी विनष्ट हुआ मानते है (स्या. मं./ परि. छ. / पृ.४४३) । ४. प्रमाण व सिद्धान्त
आदि भूतदूसरे उसका साथ उसको
केवल इन्द्रिय प्रत्यक्षको ही प्रमाण मानते है, इस लिए इस लोक तथा ऐन्द्रिय सुखको ही सार मानकर खाना-पीना व मौज उडाना ही प्रधान धर्म मानते है (स्या.मं./परि छ / पृ. ४४४ ) ।
यु. अनु. / ३५ मद्याङ्गबद्ध तसमागमे ज्ञ, शक्त्यन्तर- व्यक्तिरदैवसृष्टिः । इत्यात्म शिश्नोदरपुष्टितुष्टेनिभये । मृदवः प्रलब्धाः १३५ ॥ - जिस प्रकार मद्यागोके समागमपर मदशक्तिकी उत्पत्ति अथवा आनिति होती है उसी तरह पृथिवी, जल आदि पंचभूतों के समागम पर चैतन्य अभिव्यक्त होता है, कोई देवी सृष्टि नहीं है। इस प्रकार यह जिन (चापको का मत है, उन अपने शिश्न और उदरकी पुष्टिमे ही सन्तुष्ट रहनेवाले, अर्थात् खाओ, पीओ, मौज उडाओ के सिद्धान्तवाले, उन निर्लज्जों तथा निर्भयों द्वारा हा । कोमलबुद्धि ठगे गये हैं (दर्शनसमुच्चय / ८४-८५/७०) (सं.भत / १२ / ९) । दे० अनेकात/२/१ (यह मत व्यवहार नयाभासी हैं)।
चालिसिय- (ल. सा / भाषा / २२८/२८५/३) जाकी चालीस कोडाकोडी
सागरको उत्कृष्ट स्थिति ऐसा चारित्रमोह ताको चालिसिय कहिए । चालुक्य जयसिंह ६० १०२४ के एक राजा (सिभि७२/
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शिलालेख ) । चिता-१. लक्षण
चिन्तन करना चिन्ता है।
रा.सू./१/१३ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । = मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ये पर्यायवाची नाम है (.. १३/२०३ / ४१/२४४) । स.सि./१/१२/१०६/५ चिन्तनं चिन्ता (ध.१३/१,१.४१/२४४/३) । स.सि./६/२०/४४४/७ नानावलम्बनेन चिन्ता परिस्पन्दवती - माना पदार्थोका अवलम्बन लेनेसे चिन्ता परिस्पन्दवती होती है। रामा ६/२७/२/६२५/२५ अन्तःकरणस्य वृत्तिर्येषु चिन्तेत्युच्यते । - अन्तकरणकी वृत्तिका पदार्थोंमे व्यापार करना चिन्ता कहलाती है । ६. १३/५४.६३/३२२/१
मागस्य निरायम दिणाण विसेदिजीवो चिंता णाम । = वर्तमान अर्थको विषय करनेवाले मतिज्ञानसे विशेषित जीनकी चिन्ता संता है।
स.सि./पं. जयचन्द /१/१२/२३४ किसी चिह्नको देखकर यहाँ इस चि वाला अवश्य होगा ऐसा ज्ञान, तर्क, व्याप्ति वा ऊह ज्ञान चिन्ता है ।
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चित्रकूट
२. स्मृति चिन्ता आदि ज्ञानोंको उत्पत्तिका क्रम व इनकी एकार्थता दे० मतिज्ञान /
३ ।
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३. चिन्ता व ध्यानमें अन्तर ३० धर्मध्यान चितागति (म.पु/०० श्लोक नं.) पुष्करार्ध द्वीपके पश्चिम के पास गन्धिल नामके देशके विजयार्थी उत्तर श्रेणी में सूर्यप्रभ नगरके राजा सूर्यप्रभका पुत्र था ॥ ३६- २८ । अजितसेना नामा कन्या द्वारा गतियुद्धमें हरा दिया जानेपर | ३०-३१। दीक्षा धारण कर ली और स्वर्ग में सामानि देव हुआ । ३६-३७। यह नेमिनाथ भगवानका पूर्वका सातनों भव है।
चिकित्सा - १. आहारका दोष (दे० आहार/11/४ ) २ वस्तिकाका
दोष दे० अस्तिका
चित्
न्या.वि /बृ./१/८/१४८/६ चिदिति चिच्छत्तिरनुभव इत्यर्थः । = चित् अर्थावदि शक्ति या अनुभव।
अन. ध. /२/३४/९६१ अन्तिमहमिकाया प्रतिनियतावभासियो । प्रतिभासमानमखिर्यद्वपं वेद्यते सदा सा पिय अन्वित और 'अहम्' इस प्रकारके सवेदनके द्वारा अपने स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले जिस रूपका सदा स्वयं अनुभव करते हैं उसीको चित्र या चेतन कहते हैं।
चिति-- (सं.सा./आ./परि. / शक्ति नं. २) अजड़त्वात्मिका चतिशक्तिः। अर्थात् चेतन स्वरूप चितिशक्ति है। चित्त
स.सि./२/१२/१००/१० आत्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम्-आत्माके चैतन्यविशेषरूप परिणामको चित्त कहते है (रा.वा/२/३२/१४९१/ २२) ।
सि.वि./वृ/७/२२/४६२ /२० स्वसंवेदनमेव लक्षणं चित्तस्य । - चित्तका लक्षण स्वसंवेदन ही है ।
नि.सा./ता.वृ / ११६ घो ज्ञानं चित्तमित्यनर्थान्तरम् । =बोध, ज्ञान पित्त में भिन्न पदार्थ नहीं है। ब्र.सं./टी./१४/४६/१०
हेयोपादेय विचारकचित्त हेयोपादेयको विचारनेवाला चिय होता है। सं. श. / टी /५/२२५/३ चित्तं च विकल्पः । • विकल्पका नाम चित्त है । २. मक्ष्यामक्ष्य पदार्थोंका सचिताचित विचार - दे० सचित्त ।
चित्प्रकाश- अन्तर चित्प्रकाश दर्शन है और बाह्य चित्प्रकाश ज्ञान है - दे० दर्शन / २ |
चित्र -
व्या. वि./१/१/८/१४८/१ चिदिति चितिरनुभन इत्यर्थः । सेव प्राण त्रा परिरक्षणं यस्य तच्चित्रम् ।... अनुभवप्रसिद्धं खलु अनुभवपरिरक्षितं भवति । चितशक्ति या अनुभवका नाम चित्र है। वह चित् ही जिसका प्राण या रक्षण है, उसे चित्र कहते हैं। अनुभव प्रसिद्ध होना ही अनुभव परिरक्षित होना है। चित्रकर्म - ०४ ॥
- दे०
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चित्रकारपुर - भरतक्षेत्रका एक नगर चित्रकूट - १. पूर्व निदेहका एक नक्षार
३० मनुष्य ४ पर्वत तथा उसका स्वामी
देव दे० लोक१/२ २. विजयार्थी दक्षिण क्षेणीका एक नगर-दे०
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