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तियंच
२.तियंचोमें सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाएँ
२. तिर्यंचोंमें गुणस्थानोंका स्वामित्व
३. क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य ही होते हैं तिथंच नहीं
फ. वं. १/१,१/८.८४-८८/३२५ तिरिक्खा मिच्छाइद्वि-सासणसम्माइट्ठि
असंजदसम्माइदिठ- ठाणे सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता ८४ सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे-णियमा पज्जत्ता।८। एवं पंचिदिय-तिरिक्खापज्जत्ता ८६। पंचिदियतिरिक्व-जोणिणीसु मिच्छाइट्ठिसासणसम्माइटिठ-ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ (८५ सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिसंजदासंजदट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ।८८ तिथंच मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते हैं अपर्याप्त भी होते हैं।८४३ तिथंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमे नियमसे पर्याप्तक होते हैं।८। तिर्यच सम्बन्धी सामान्य प्ररूपणाके समान पंचेन्द्रिय तिर्यच और पर्याप्तपंचेन्द्रिय तिर्यच भी होते हैं।८६। योनिमती-पंचेन्द्रिय-तियंच मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते हैं और अपप्ति भी होते हैं ।८७। योनिमती तिर्यच सम्यग्मिध्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें नियमसे पर्याप्तक होते हैं ।।
ध.८/३,२७८/३६३/१० तिरिवखेसु खझ्यसम्माइट्ठीसु संजदासंजदाणमणुवलंभादो। -तिर्यंच क्षायिक सम्यग्दृष्टियोमे संयतासंयत जीव पाये
नहीं जाते। गो क./जी.प्र /३२६/४७१/५ क्षायिकसम्यग्दृष्टिदेशसं यतो मनुष्य एव तत. कारणात्तत्र तिर्यगायुरुद्योतस्तिर्यग्गतिश्चेति त्रीण्युदये न सन्ति । - क्षायिक सम्यग्दृष्टि देशसंयत मनुष्य ही होता है, इसलिए तिर्यगायु, उद्योत, तिर्यग्गति, पंचम गुणस्थान विषै नाहीं।
४. तिथंच संयतासंयतों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं
ध.१/१,१,१५८/४०२/६ तिर्यक्षु क्षायिकसम्यग्दृष्टयः संयतासंयताः किमिति न सन्तोति चेन्न, क्षायिकसम्यग्दृष्टीना भोगभूमिमन्तरेणोत्पत्तेर भावात् । न च भोगभुमाबुत्पन्नानामणवतोपादानं संभवति तत्र तद्विरोधात। -प्रश्न-तिर्यचों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव संयतासंयत क्यों नहीं होते हैं। उत्तर-नहीं, क्योंकि, तिर्यचोंमें यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते है तो वे भोगभूमिमें ही उत्पन्न होते है दूसरी जगह नहीं। परन्तु भोगभूमिमे उत्पन्न हुए जीबोके अणुचतकी उत्पत्ति नहीं होती है, क्योकि वहॉपर अणुवतके होनेमे आगमसे विरोध आता है। (ध.१/१,१,८५/३२७/१) (ध.२/१,१/ ४८२/२).
ष, वं.१/१.१/सू. २६/२०७ तिरिक्खा पंचसु हाणेसु अत्थि मिच्छाइटो सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्टि असंजदसम्माइट्ठी संजदा. संजदा त्ति ।२६। मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इन पाँच गुणस्थानोमे तिर्यच होते है ।२६॥
ति. प./५/२६६-३०३ तेतीसभेदसंजुदतिरिक्वजीवाण सम्बकालम्मि । मिच्छत्तगुणट्ठाणं बोच्छ सण्णीण तं माणं ।२६। पणपणअज्जाखंडे भरहेरावदखि दिम्मि मिच्छतं । अबरे वरम्मिपण गुणठाणाणि कयाइदीसं ति ।३०० चविदेहे सठ्ठिसमपिणदसद अज्जवरवंडए तत्तो। विज्जाहरसेढीए बाहिरभागे सयं पहगिरीदो ।३०१। सासणमिस्सविहीणा तिगुण ठाणाणि थोवकालम्मि । अवरे वरम्मि पण गुणठाणाइ कयाइ दीसं ति ।३०२। सब्वेसु वि भोगभुवे दो गुणठाणाणि थोवकालम्मिादीसंति चउत्रियप्प सव्व मिलिच्छम्मि मिच्छर ।२०३।-सज्ञी जीवोको छोड शेष तेतीस प्रकारके भेदोसे युक्त तिर्यच जीवोके सब काल में एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है। संज्ञोजीवोके गुणस्थान प्रमाणको कहते है ।२६ भरत और ऐरावत क्षेत्रके भीतर पाँच-पाँच आर्यखण्डोमे जधन्य रूपसे एक मिश्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे कदाचित् पाँच गुणस्थान भी देखे जाते हैं ३००। पाँच विदेहोके भीतर एकसौ साठ आर्यस्त्रण्डोमे विद्याधर श्रेणियोमे और स्वयंप्रभ पर्वतके बाह्य भागमें सासादन एवं मिश्र गुणस्थानको छोड तीन गुणस्थान जघन्य रूपसे स्तोक कालके लिए होते हैं। उत्कृष्ट रूपसे पाँच गुणस्थान भी कदाचित् देखे जाते है ।३०१-३०२० सर्व भोगभूमियो में दो गुणस्थान और स्तोक कालके लिए चार गुणस्थान देखे जाते है। सर्वम्लेक्षखण्डों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है।०३।
५.तियचिनीमें क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं स.सि /२/५/२३/३ तिरश्चीनां क्षायिक नास्ति । कुत इत्युक्ते मनुष्यकर्मभूमिज एव दर्शनमोहलपणापारम्भको भवति। क्षपणाप्रारम्भकालारपूर्व तिर्यक्षु. बदायुष्कोऽपि उत्कृष्टभोगन मितिर्यक् पुरुषेश्वेवोत्पद्यते न तिर्यस्त्रीषु द्रव्यवेदरत्रीणां तासां क्षायिकासंभवात् । -तिर्यचनियोमे क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है ' प्रश्न- क्यों। उत्तर-कर्मभूमिज मनुष्य हो दर्शन मोहकी क्षपणा प्रारम्भ करता है। क्षपणा कालके प्रारम्भसे पूर्व यदि कोई तिर्यंचायु बद्धायुष्क हो तो वह उत्कृष्ट भोगभूमिके पुरुषवेदी तियंचो मे ही उत्पन्न होता है, स्त्रीवेदी तिर्यचोंगे नहीं। क्योकि द्रव्य स्त्रीवेदी तियंचौके क्षायिक सम्यस्त्वको असम्भावना है। ध १/१,१,१६१/४०३/५ तत्र क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामुत्पत्तेरभावात्तत्र दर्शनमोहनीयस्य क्षपणाभावाच्च । -योनिमती पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमे शागिक सम्यग्दष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते। तथा उनमें दर्शन मोहनीयकोणाका अभाव है।
घ.१/१.१२६/२०८/६ लन्थ्यपर्याप्तेषु मिथ्याष्टिव्यतिरिक्त शेषगुणासंभवात्...शेषेषु पञ्चापि गुणस्थानानि सन्ति,"तिरश्चीवपर्याप्तादायां मिथ्यादृष्टिसासादना एव सन्ति, न शेषास्तत्र तन्निरूपकार्षाभावात् । मलयपर्याप्तकोंमे एक मिथ्यावृष्टि गुणस्थानको छोडकर शेष गुणस्थान असम्भव है...शेष चार प्रकारके तियंचोमे पॉचो ही गुणस्थान होते हैं। तिर्यचनियोके अपर्याप्त कालमे मिथ्यादृष्टि और सासादन ये दो गुणस्थानवाले ही होते है, शेष तीन गुणस्थानवाले नहीं होते है। विशेष-दे० सत् ।
६. अपर्याप्त तिर्थचिनी में सम्यक्त्व क्यों नहीं ध १/१,१,२६/२०४/५ भवतु नामसम्यग्दृष्टिसंयतासंग्रतानां तत्रामत्त्वं पर्याप्ताद्धायामेवेति नियमोपल भाव। कथं पुनरसंयतसम्यग्दृष्टीनामसत्वमिति न, तत्रास तसम्पर टीनामुत्पत्तेरभावात् । प्रश्नतिर्यचनियो के अपर्याप्त काल में सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत इन दो गुणस्थान पालोका अभाव रहा आवे, क्योकि ये दो गुणस्थान पर्याप्त काल में ही पाये जाते है, ऐसा नियम मिलता है। परन्तु उनके अपर्याप्त कालमे असमतसम्यग्दर जीवोका अभाव कैसे माना जा सकता है । उत्तर--नहीं. क्योकि तिथंच नियो में असंयत सम्यग्दृष्टिकी उत्पत्ति नही होती, इसलिए उनके अपर्याप्त काल में चौथा गुणस्थान नहीं पाया जाता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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