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२. तिथंचोंमे सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शकाएँ
किन्नोत्पद्यन्ते । इति चेत किंचातोऽप्रत्याख्यानगुणस्य तिर्यगपर्याप्तेषु सत्त्वापत्ति । न, देवगतिव्यतिरिक्तगतित्रयसंबद्धायुषोपलक्षितानामणुवतोपादानबुद्धयनुत्पत्ते. ।-प्रश्न-जिन्होने मिथ्याष्टि अवस्थामे तिर्यंचायुका बन्ध करनेके पश्चात देशसंयमको ग्रहण कर लिया है और मोहकी सात प्रकृतियोंका क्षय कर दिया है ऐसे मनुष्य तियचोंमे क्यो नहीं उत्पन्न होते है । यदि होते है तो इससे तिर्यंच अपर्याप्तोमें देशसंयमके प्राप्त होनेकी क्या आपत्ति आती है। उत्तर-नहीं, क्यो कि, देवगतिको छोड़कर शेष तीन गति सम्बन्धी आयुबन्धसे युक्त जीवोंके अणुव्रतको ग्रहण करनेकी बुद्धि ही उत्पन्न नहीं होती
है।
९.तियच संयत क्यों नहीं होते ध. १/१.१ १५६/४०१/८ संन्यस्तशरीरत्वात्त्यक्ताहाराणां तिरश्व किमिति संयमो न भवेदिति चेन्न, अन्तरङ्गाया' सकल निवृत्तेरभावात् । किमिति तदभावश्चेज्जातिविशेषात । प्रश्न-शरीरसे संन्यास ग्रहण कर लेनेके कारण जिन्होने आहारका त्याग कर दिया है ऐसे तियचोंके संयम क्यों नहीं होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, आभ्यन्तर सकल निवृत्तिका अभाव है। प्रश्न-उसके आभ्यन्तर सकल निवृत्तिका अभाव क्यो है1 उत्तर-जिस जातिमे वे उत्पन्न हुए हैं उसमें संयम नहीं होता यह नियम है, इसलिए उनके संयम नहीं पाया जाता है।
तिर्य च
७. अपर्याप्त तिर्यंचमें सम्यक्त्व कैसे सम्भव है ध.१/१,१,८४/३२५/४ भवतु नाम मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीना तिर्यक्षु पर्याप्तापर्याप्तद्वयोः सत्त्वं तयोस्तत्रोत्पत्यविरोधात्। सम्यग्दृष्टयस्तु पुनर्नोत्पद्यन्ते तिर्यगपर्याप्तपर्यायेण सम्यग्दर्शनस्य विरोधादिति । न विरोध', अस्यार्षस्याप्रामाण्यप्रसङ्गात् । क्षायिकसम्यग्दृष्टिः सेविततीर्थकरः क्षपितसप्तप्रकृति' कथं तिर्यक्षु दुखभूयस्सूरपद्यते इति चेन्न, तिरञ्चों नारकेभ्यो दुःखाधिक्याभावात् । नारकेष्वपि सम्यग्दृष्टयो नोत्पत्स्यन्त इति चेन्न, तेषां तत्रोत्पत्तिप्रतिपादकार्थेपलम्भात । किमिति ते तत्रोत्पद्यन्त इति चेन्न, सम्यग्दर्शनोपादानात् प्राडू मिथ्यादृष्टयवस्थायां बद्धतिर्यड्नरकायुष्कत्वात् । सम्यग्दर्शनेन तव किमिति न छिद्यते। इति चेत् किमिति तन्न छिद्यते। अपि तु न तस्य निर्मूलच्छेद' । तदपि कुतः। स्वाभाव्यात् । - प्रश्न-मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंकी तिर्यचो सम्बन्धी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थामें भले ही सत्ता रही आवे, क्योकि इन दो गुणस्थानोंकी तिर्यच सम्बन्धी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थामें उत्पत्ति होने में कोई विरोध नही आता है। परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव तो तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होते है; क्योंकि तिर्यचोंकी अपर्याप्त पर्यायके साथ सम्यग्दर्शनका विरोध है। उत्तर-विरोध नहीं है, फिर भी यदि विरोध माना जावे तो ऊपरका सूत्र अप्रमाण हो जायेगा। प्रश्न-जिसने तीर्थ करकी सेवा की है और जिसने मोहनीयकी सात प्रकृतियोंका क्षय कर दिया है ऐसा क्षायिक-सम्यग्दृष्टि जीव दुख महुल तिर्यंचों में कैसे उत्पन्न होता है । उत्तर-नहीं, क्योकि तियंचों के नारकियों की अपेक्षा अधिक दुख नही पाये जाते है। प्रश्न-तो फिर नारकियोमें भी सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होंगे। उत्तरनहीं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों को नारकियों में उत्पत्तिका प्रतिपादन करनेवाला आगम प्रमाण पाया जाता है। प्रश्न-सम्यग्दृष्टि जीव नारकियोंमे क्यों उत्पन्न होते है । उत्तर-नहीं, क्योंकि जिन्होने सम्यग्दर्शनको ग्रहण करनेके पहले मिथ्यादृष्टि अवस्थामे तिर्यंचायु
और नरकायुका बन्ध कर लिया है उनकी सम्यदर्शनके साथ वहाँपर उत्पत्ति मानने में कोई आपत्ति नहीं आती है। प्रश्न-सम्यग्दर्शनकी सामर्थ्य से उस आयुका छेद क्यो नही हो जाता है। उत्तर---उसका छेद क्यों नहीं होता है। अवश्य होता है। किन्तु उसका समूल नाश नहीं होता है। प्रश्न-समूल नाश क्यो नहीं होता है ! उत्तर-आगेके भवके बॉधे हुए आयुकर्मका समूल नाश नही होता है, इस प्रकारका स्वभाव ही है। ध.२/१,१/४८१/१ मणुस्सा पुवनद्ध-तिरिक्खयुगा पच्छा सम्मत्तं घेत्तूण... खझ्यसम्माइट्ठी होदूण असंखेज्ज-वस्सायुगेसु तिरिक्खेसु उप्पज्जति ण अण्णत्थ, तेण भोगभूमि-तिरिवनेमुप्पज्जमाण पेविखऊण असंजदसम्माइट्ठि-अप्पज्जत्तकाले खइयसम्मत्तं लभदि । तत्थ उप्पज्जमाण-कदकर णिज्जं पडच्च वेदगसम्मत्तं लभदि। - (इन क्षायिक व क्षायोपशमिक ) दो सम्यकरवोंके (वहाँ) होनेका कारण यह है कि जिन मनुष्योने सम्यग्दर्शन होनेके पहले तिर्यच आयुको आँध लिया है वे पीछे सम्यक्त्वको ग्रहणकर क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यचोमे ही उत्पन्न होते हैं अन्यत्र नहीं। इस कारण भोगभूमिके तिर्यचोमे उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी अपेक्षासे असंयत सम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त काल मे क्षायिक सम्यक्त्व पाया जाता है। और उन्ही भोग भूमिके तिर्यंचोमे उत्पन्न होनेवाले जीवोंके कृतकृत्य वेदककी अपेक्षा वेदक सम्यवस्व भी पाया जाता है।
१०. सर्व द्वीपसमुद्रों में सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत तियंच __ कैसे सम्भव हैं
ध. १/१.१,१५७/४०२/१ स्वयं प्रभादारान्मानुषोत्तरात्परतो भोगभूमिसमानत्वान्न तत्र देशवतिन' सन्ति तत् एतत्सूत्रं न घटत इति न. वैरसंबन्धेन देवैदनवैरिक्षप्य क्षिप्ताना सर्वत्र सत्त्वाविरोधात् । = प्रश्न - स्वयंभूरमण द्वीपवर्ती स्वयंप्रभ पर्वतके इस ओर और मानुषोतर पर्वतके उस ओर असंरख्यात द्वीपोमें भोगभूमिके समान रचना होनेसे वहॉपर देशवती नहीं पाये जाते हैं, इसलिए यह सूत्र घटित नहीं होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, बैरके सम्बन्धसे देवों अथवा दानवोंके द्वारा कर्मभूमिसे उठाकर लाये गये कर्मभूमिज तिर्य चोंका सब जगह सद्भाव होनेमें कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए वहॉपर तिर्यंचोंके पाँचों गुणस्थान बन जाते हैं। (ध.४/१,४,६/१६६/७ ); (ध. ६/१,६,१.२०/४२६/१०)।
११. ढाई द्वीपसे बाहर क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति क्यों नहीं
घ.६/१.६-८,११/२४४/२ अढाइज्जा · दीवेसु दसणमोहणीयकम्मस्स
खवणमाढवेदि ति, णो सेसदीवेसु । कुदो। सेसदीवह्रिदजीवाणं तक्खवणसतीए अभावादो। लवण-कालोदइसण्णिदेसु दोसु समुह सु दसणमोहणीय कम्मं ववे ति, णो सेससमुद्देसु. तत्थ सहकारिकारणाभावा ।... 'जम्हि जिणा तित्थयत' त्ति विसेसणेण पडिसिद्धत्तादो।अढाई द्वीपोंमे ही दर्शनमोहनीय कर्म के क्षपणको आरम्भ करता है, शेष द्वीपों में नहीं। इसका कारण यह है कि शेष द्वीपोमें स्थित जीवोंके दर्शन मोहनीय कर्मके क्षपणकी शक्तिका अभाव होता है । लवण और कालोदक संज्ञावाले दो समुद्रो में जीव दर्शनमोहनीयकर्मका क्षपण करते है, शेष समुद्रोंमे नहीं, क्योकि उनमें दर्शनमोहके क्षपण. करनेके सहकारी कारणोंका अभाव है।...'जहाँ जिन तीर्थंकर सम्भव है' इस विशेषणके द्वारा उसका प्रतिषेध कर दिया गया है।
८ अपर्याप्त तिर्यचोंमें संयमासंयम क्यों नहीं ध १/१,१,८५/३२६/५ मनुष्याः मिथ्यादृष्टयवस्थायां बद्वतिर्यगायुष' पश्चात्सम्यग्दर्शनेन सहात्ताप्रत्याख्याना' क्षपितसप्तप्रकृतयस्तिर्यक्षु
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-४७
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