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दान
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४. दानका महत्त्व व फल
करना भी निश्चय करके गृहकार्योसे संचित हुए पापको नष्ट करता है ।११४। (पं.वि./७/१३) कुरल./५/४ परनिन्दाभयं यस्य विना दानं न भोजनम् । कृतिनस्तस्य
निर्बीजो वंशो नैव कदाचन ।४। कुरल./३३/२ इदं हि धर्मसर्वस्वं शास्तृणां वचने द्वयम् । क्षुधार्तेन समं
भुक्तिः प्राणिनां चैव रक्षणम् ।२। जो बुराईसे डरता है और भोजन करनेसे पहले दूसरों को दान देता है, उसका वंश कभी निर्बीज नहीं होता है। क्षुधाबाधितोंके साथ अपनी रोटी बाँटकर खाना और हिंसासे दूर रहना, यह सब धर्म उपदेष्टाओके समस्त उपदेशोमें
श्रेष्ठतम उपदेश है ।२। (पं.वि./६/३१) पं.वि./७/८ सर्बो वाञ्छति सौख्यमेव तनुभृत्तन्मोक्ष एव स्फुटम् । दृष्टयादित्रय एव सिद्ध्यति स तन्निग्रन्थ एव स्थितम् । तद्वृत्तिवपुषोऽस्य बृत्तिरशनात्तद्दीयते श्रावकै काले क्लिष्टतरेऽपि मोक्षपदवी प्रायस्ततो वर्तते।। - सब प्राणी सुखको इच्छा करते है, वह मुख स्पष्टतया मोक्षमें ही है, वह मोक्ष सम्यग्दर्शनादि स्वरूप रत्नत्रयके होनेपर ही सिद्ध होता है, वह रत्नत्रय साधुके होता है, उक्त साधुकी स्थिति शरीरके निमित्तसे होती है, उस शरीरकी स्थिति भोजनके निमित्तसे होती है, और वह भोजन श्रावकोंके द्वारा दिया जाता है। इस प्रकार इस अतिशय क्लेशयुक्त कालमे भी मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति प्राय: उन श्रावकोंके निमित्तसे ही हो रही है। का.अ./मू./३६३-३६४ भोयण दाणे दिण्णे तिण्णि वि दाणाणि होति दिण्णाणि । भुक्रव-तिसाए वाही दिणे दिणे होंति देहीणं ।३६३। भोयण-बलेण साहू सत्थं सेवेदि रत्तिदिवस पि । भोयणदाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया होंति ३६४। = भोजन दान देनेपर तीनों दान दिये होते हैं। क्योंकि प्राणियोको भूख और प्यास रूपी व्याधि प्रतिदिन होती है। भोजनके बलसे हो साधु रात दिन शास्त्रका अभ्यास करता है और भोजन दान देनेपर प्राणों की भी रक्षा होती है।३६३-३६४। भावार्थ-आहार दान देनेसे विद्या, धर्म, तप, ज्ञान, मोक्ष सभी नियमसे दिया हुआ समझना चाहिए। अमि.श्रा./११/२५,३० केवलज्ञानतो ज्ञानं निर्वाणसुखतः सुखम् । आहारदानतो दानं नोत्तम विद्यते परम् ॥२५॥ बहुनान किमुक्तंन बिना सकलवेदिना। फलं नाहारदानस्य परः शक्नोति भाषितुम् ।३१। -केवलज्ञानत दूजा उत्तम ज्ञान नहीं, और मोक्ष सुःखते और दूजा सुख नहीं और आहारदानते और दूजा उत्तम दान नाही ।२५। जो किछ वस्तु तीन लोकवि सुन्दर देखिये है सो सर्व वस्तु अन्नदान करता जो पुरुष ताकरि लीलामात्र करि शीघ पाइये है। (अमि.श्रा./ ११/१४-४१) । सा.ध,/पृ. १६१ पर फुट नोट-आहाराद्भोगवान् भवेत् । - आहार दानसे भोगोपभोग मिलता है। ३, औषध व ज्ञान दानका महत्व अमि,श्रा./११/३७-५० आजन्म जायते यस्य न व्याधिस्तनुतापकः। कि सुखं कथ्यते तस्य सिद्धस्यैव महात्मनः ।३७। निधानमेष कान्तीनां कीर्तीनां कुलमन्दिरम् । लावण्यानां नदीनाथो भैषज्यं येन दीयते 1३८। लभ्यते केवलज्ञानं यतो• विश्वावभासकम् । अपरज्ञानलाभेषु कीदृशी तस्य वर्णना 1४७। शास्त्रदायी सतां पूज्य सेवनीयो मनीषिणाम् । बादी बारमी कविर्माभ्य, ख्यातशिक्ष' प्रजायते ।५०
जाकै जन्म से लगाय शरीरको ताप उपजावन वाला रोग न होय है तिस सिद्धसमान महात्माका सुख कहिये। भावार्थ-इहाँ सिद्ध समान कह्या सो जैसे सिद्धनिकौ रोग नाही तसे याकै भी रोग नाही, ऐसी समानता देखी उपमा दीनि है ।३७॥ जा पुरुषकरि
औषध दीजिये हे सो यह पुरुष कान्ति कहिये दीप्तिनिका तौ भण्डार होय है, और कीर्तिनिका कुल मन्दिर होय है जामै यशकीत्ति सदा वसै है, बहुरि सुन्दरतानिका समुद्र होय है ऐसा जानना ।३८। जिस
शास्त्रदान करि पवित्र मुक्ति दीजिये है ताकै संसारकी लक्ष्मी देते कहा श्रम है।४६। शास्त्रको देनेवाला पुरुष संतनिके पूजनीक होय है अर पंडितनिके सेवनीक होय है, वादीनिके जीतनेवाला होय है, सभाको रंजायमान करनेवाला वक्ता होय है, नवीन ग्रन्थ रचनेवाला कवि होय है अर मानने योग्य होय है अर विख्यात है शिक्षा जाकी ऐसा होय है। पं.वि./9/8-१० स्वेच्छाहारविहारजल्पनतया नीरुग्वपुर्जायते। साधूनां तु न सा ततस्तदपटु प्रायेण संभाव्यते ॥ कुर्यादौषधपथ्यवारिभिरिद चारित्रभारक्षम यत्तस्मादिह वर्तते प्रशमिनां धर्मो गृहस्थोत्तमात
। व्याख्याता पुस्तकदानमुन्नतधियां पाठाय भव्यात्मना । भक्त्या यत्क्रियते श्रुताश्रयमिदं दानं तदाहुर्बुधा.। सिद्धऽस्मिन् जननान्तरेषु कतिषु त्रैलोक्यलोकोत्सवश्रीकारिप्रकटीकृताखिलजगत्कैवल्यभाजो जना. १० = शरीर इच्छानुसार भोजन, गमन और सम्भाषणसे नीरोग रहता है। परन्तु इस प्रकारकी इच्छानुसार प्रवृत्ति साधुओंके सम्भव नहीं है। इसलिए उनका शरीर प्राय अस्वस्थ हो जाता है। ऐसी अवस्थामे चूंकि श्रावक उस शरीरको औषध पथ्य भोजन और जलके द्वारा व्रतपरिपालनके योग्य करता है अतएव यहाँ उन मुनियों का धर्म उत्तम श्रावकके निमित्तसे ही चलता है ।। उन्नत बुद्धिके धारक भव्य जीवोको जो भक्तिसे पुस्तकका दान किया जाता है अथवा उनके लिए तत्त्वका व्याख्यान किया जाता है, इसे विद्वजन श्रुतदान ( ज्ञानदान) कहते हैं। इस ज्ञानदानके सिद्ध हो जानेपर कुछ थोड़ेसे ही भवोंमें मनुष्य उस केवलज्ञानको प्राप्त कर लेते हैं जिसके द्वारा सम्पूर्ण विश्व साक्षात देखा जाता है। तथा जिसके प्रगट होनेपर तीनो लोकों के प्राणी उत्सवको शोभा करते है ।१०॥ सा.ध./पृ.१६१ पर फुट नोट... आरोग्यमौषधाज ज्ञेयं श्रुतात्स्यात श्रुत
केवली ॥ औषध दानसे आरोग्य मिलता है तथा शास्त्रदान अर्थात (विद्यादान) देनेसे श्रुतकेवली होता है।
४. अभयदानका महत्व मू आ./६३६ मरण भयभीरु आणां अभयं जो देदि सबजावाणं। तं दाणाणवि तं दाणं पुण जोगेसु मूलजोगपि ।६३६-मरणभयसै भययुक्त सब जीवों को जो अभय दान है वही दान सब दानोमें उत्तम है और वह दान सब आचरणोमें प्रधान आचरण है। ज्ञा./८/५४ कि न तप्तं तपस्तेन कि न दत्तं महात्मना । वितीर्ण मभर्य येन प्रोतिमालम्ब्य देहिनाम् ।५४ -जिस महापुरुषने जीवोंको प्रीतिका आश्रय देकर अभयदान दिया उस महात्माने कौनसा तप नहीं किया और कौनसा दान नहीं दिया। अर्थात् उस महापुरुषने समस्त तप, दान किया। क्योंकि अभयदानमें सब तप, दान आ जाते हैं। अमि. श्रा./१३ शरीरं धियते येन शममेव महाव्रतम् । कस्तस्याभयदानस्य फलं शक्नोति भाषितुम् ॥१३ - जिस अभयदान करि जीवनिका शरीर पोषिए है जैसे समभावकरि महाबत पोषिए तैसें सो, तिस
अभयदानके फल कहनेको कौन समर्थ है ।१३।। पं.वि./७/११ सर्वेषामभयं प्रवृद्धकरुणर्य दीयते प्राणिना, दानं स्यादभयादि तेन रहित दानत्रयं निष्फलम् । आहारौषधशास्त्रदानविधिभिः क्षुद्रोगजाड्याद्भयं यत्तत्पात्रजने विनश्यति ततो दान तदेकं परम् ।११। - दयालुपुरुषों के द्वारा जो सब प्राणियोको अभयदान दिया जाता है, वह अभयदान कहलाता है उससे रहित तीन प्रकारका दान व्यर्थ होता है । चूकि आहार, औषध और शास्त्रके दानकी विधिसे क्रमसे क्षुधा, रोग और अज्ञानताका भय ही नष्ट होता है अतएव वह एक अभयदान ही श्रेष्ठ है ।११। भावार्थ-अभयदानका अर्थ प्राणियोंके सर्व प्रकारके भय दूर करना है, अत. आहारादि दान अभयदानके ही अन्तर्गत आ जाते हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-५४
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