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कर्ता
२. निश्चय व व्यवहार कर्ता कर्म भाव निर्देश
ज्ञानरूप करण अंशके द्वारा कारणभूत पदार्थोके कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारोमे व्याप्त हुआ वतता है, इसलिए कार्यमे कारणका (ज्ञयाकारो मे पदार्थोका ) उपचार करके यह कह्नमे विरोध नहीं आता कि
ज्ञान पदार्थोंमे व्याप्त होकर वर्तता है। स. सा/आ/२६४ आरमबन्धयोद्विधाकरणे कार्य कर्तरात्मन' करणमीमासार्या निश्चयत स्वतो भिन्न करणासंभवात भगवती प्रज्ञेव छेदनात्मक करणं । आत्मा और बन्धके द्विधा करनेरूप कार्यमे कर्ता जो आत्मा उसकी करण सम्बन्धी मीमासा करनेपर, निश्चयत. अपनेसे भिन्न करणका अभाव होनेसे भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है।
परिणमनमेव कतृ त्वं सर्वत्र ज्ञातव्यमिति। पुद्गलादीना पञ्चद्रव्याणां च स्वकीयस्वकीयपरिणामेन परिणमनमेव कतृत्वं । वस्तुवृत्त्या पुन' पुण्यपापादिरूपेणाकतृ स्वमेव । -अशुद्ध निश्चय नयसे शुभाशुभ परिणामोका परिणमन ही कर्तापना है। सर्वत्र ऐसा ही जानना चाहिए । पुलादि पाँच द्रव्योके भी अपने-अपने परिणामोंके द्वारा परिणमन करना ही कर्तृत्व है। वस्तुवृत्तिसे अर्थात् शुद्ध निश्चय नयसे तो पुण्यपापका अकर्तापना ही है। (द्र.सं/अधिकार
२ की चूलिका/७८/९)। प.ध./उ /१५२ तद्यथा नव तत्त्वानि केवलं जीवपुद्गलौ। स्वद्रव्याद्यैरनन्यत्वाद्वस्तुतः कतृ कर्मणो' ।१५२१-ये नव तत्व केवल जीव व पुद्गल रूप है, क्योकि वास्तवमे अपने द्रव्य क्षेत्रादिके द्वारा कर्ता तथा कर्ममे अनन्यत्व होता है।
३. निश्चयसे कर्ता व करणमें अभेद रा.वा./१/१/५/४/२६ कर्तृ करणयोरन्यत्वादन्यत्वमात्मज्ञानादीनां परश्वादिवदिति चेत; न; तत्परिणामादग्निवत् । -प्रश्न-कर्ता व करण तो देवदत्त व परशुकी भाँति अन्य होते हैं। इसी प्रकार आत्मा व ज्ञान आदिमे अन्यत्व सिद्ध होता है। उत्तर-नहीं, जैसे अग्निसे उसका परिणाम अभिन्न है उसी प्रकार आत्मासे उसका परिणाम जो ज्ञानादि
वे भी अभिन्न है। प्र.सा/त.प्र /३५ अपृथग्भूतकर्तृ करणत्वशक्तिपारमैश्वर्ययोगित्वादात्मनो
य एव स्वयमेव जानाति स एव ज्ञानमन्तर्लीनसाधकलयोष्णत्वशक्ते स्वतन्त्रस्य जातवेदसो दहन क्रियाप्रसिद्ध रुष्णव्यपदेशवत् ।- आत्मा अपृथग्भूत कर्तृत्व और करणत्वकी शक्तिरूप पारमैश्वर्यवान है, इसलिए जो स्वयमेव जानता है (ज्ञायक है ) वही ज्ञान है। जैसेजिसमें साधकतम (करणरूप) उष्णत्व शक्ति अन्तर्लीन है ऐसी स्वतन्त्र अग्निके दहन क्रियाकी प्रसिद्धि होनेसे उष्णता कही जाती है।
१. निश्चयसे वस्तुका परिणामी परिणाम सम्बन्ध ही उसका कर्ता कर्म भाव है। रा. वा./२/७/१३/११२/३ कतृत्वमपि साधारणं क्रियानिष्पत्तौ सर्वेषां स्वातन्त्र्यात । ननु च जीवपुद्गलानां क्रियापरिणामयुक्तानां कतृ एवं युक्तम्, धर्मादीनां कथम् । तेषामपि अस्त्यादि क्रियाविषयमस्ति कर्तृत्वम् । == कर्तृत्व नामका धर्म भी साधारण है क्योंकि क्रियाकी निष्पत्तिमे सभी द्रव्य स्वतन्त्र हैं। प्रश्न-क्रिया परिणाम युक्त होने के कारण जीव व पुद्गलमें कर्तृत्व धर्म कहना युक्त है, परन्तु धर्मादि द्रव्यों में वह कैसे घटित होता है। उत्तर-उनमें भी अस्ति आदि क्रियाओंका ( अर्थात् षट् गुण हानि वृद्धि रूप उत्पाद व्यय का)
अस्तित्त्व है ही। स.सा./आ./८६/क ५१ यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु
तत्कर्म । या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया १५११ जो परिणमित होता है सो कर्ता है, ( परिणमित होनेवालेका) जो परिणाम है सो कर्म है और जो परिणति है सो क्रिया है। ये तीनों वस्तुरूपसे भिन्न नहीं हैं। स.सा./आ.३११ सर्वव्याणां स्त्रपरिणामै. सह तादात्म्यात कडकणादिपरिणामै काञ्चनवत् । सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पाद्योत्पादकभावाभावात् कतृ कर्मणोरनन्यापेक्षसिद्धत्वात् जीवस्याजीवकत त्वं न सिध्यति । जेसे सुवर्ण का कंकण आदि पर्यायोके साथ तादात्म्य है उसी प्रकार सर्व द्रव्यों का अपने परिणामोके साथ तादात्म्य है। क्योकि सर्व द्रव्योंका अन्य द्रव्यके साथ उत्पाद्य-उत्पादक भावका अभाव है, इसलिए कर्ता कर्मकी अन्य निरपेक्षता सिद्ध होनेसे जीवके अजोक्का कतृत्व सिद्ध नही होता है। स.सा./आ/३४१-३५५ ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कत कर्मभोक्तृभोग्यत्व निश्चयः। = इसलिए परिणाम-परिणामीभावसे वही (एक ही द्रव्यमें) कर्ता कर्मपनका और भोक्तृभोग्यपनका निश्चय है। पं.का./ता.वृ /२७/चूलिका/५७।१७ अशुद्धनिश्चयेन...शुभाशुभपरिणामानां
५. एक ही वस्तुमें कर्ता व कर्म दोनों बातें कैसे हो
सकती हैं स सि /१/१/६/२ नन्वेवं स एव कर्ता स एव करणमित्यायातम् । तच्च विरुद्धम् । सत्यं स्वपरिणामपरिणामिनो दविवक्षाया तथाभिधानात् । यथाग्निर्दहतीन्धन दाहपरिणामैन । = प्रश्न-दर्शन आदि शब्दोंकी इस प्रकार व्युत्पत्ति करनेपर कर्ता और करण एक हो जाता है। किन्तु यह बात विरुद्ध है ? = उत्तर-यद्यपि यह कहना सही है, तथापि स्वपरिणाम और परिणामीमे भेदकी विवक्षा होनेपर उक्त प्रकारसे कथन किया गया है। जैसे 'अग्नि दाह परिणामके द्वारा ईंधनको जलाती है। यह कथन भेद-विवक्षाके होने पर बनता है। रा वा./१/२६/२/८८/३० द्रव्यस्य पर्यायाणां च कथंचिद्भदे सति उक्तः कतृ'कर्मव्यपदेश. सिद्धयति । = एक ही द्रव्य स्वयं कर्ता भी होता है और कर्म भी, क्योंकि उसका अपनी पर्यायोके साथ कथंचित भेद है। श्लो. वा २/१/६/२८-२६/३७८/३ ननु यदेवार्थस्य ज्ञानक्रियायां ज्ञानं करणं सैव ज्ञानक्रिया, तत्र कथं क्रियाकरणव्यवहारः प्राती तिक' स्याद्विरोधादिति चेन्न, कथंचिद्भदात् । प्रमातुरात्मनो हि वस्तुपरिच्छित्तौ साधकतमत्वेन व्यापृतं रूपं करणमा निर्व्यापार तु क्रियोच्यते, स्वातन्त्र्येण पुनाप्रियमाणः कर्तात्मेति निर्णीतप्रायम् । तेन ज्ञानात्मक एवात्मा ज्ञानात्मनार्थं जानातोति कर्तृ करणक्रियाविकल्प प्रतीतिसिद्ध एव । तद्वत्तत्र कर्मव्यवहारोऽपि ज्ञानात्मात्मानमात्मना जानीतीति घटते । सर्वथा कतृ करणकर्म क्रियानामभेदानम्युपगमात, तासां कर्तृत्वादिशक्तिनिमित्तत्वात कथंचिद्भेदसिद्ध। = प्रश्न-जो ही अर्थकी ज्ञान क्रिया करने में करण है वही तो ज्ञान क्रिया है। फिर उसमें क्रियापने और करणपनेका व्यवहार कैसे प्रतीत हो सकता है। इसमे तो विरोध दीख रहा है। उत्तरनहीं, इन दोनोंमे कथंचित् भेद है। प्रमितिको करनेवाले आत्माके वस्तुकी इप्ति करनेमे साधकतमरूपसे व्यापतको करण ज्ञान कहते हैं।
और व्यापार रहित शुद्ध ज्ञानरूप धात्वर्थको ज्ञप्ति क्रिया कहते है। स्वतन्त्रता से व्यापार करने में लगा हुआ आत्मा कर्ता है। इस प्रकार ज्ञानात्मक ही आत्मा अपने ज्ञानस्वभाव करके अर्थ को ज्ञानस्वरूपपने जानता है। इस प्रकार कर्ता कर्म और क्रियाके आकारों का विकल्प करना प्रतीतियोसे सिद्ध ही है। तिन ही के समान उस ज्ञानमें कर्म पनेका व्यवहार भी प्रतीतिसिद्ध समझ लेना चाहिए। सर्वथा कर्ता करण कर्म और क्रियापनका अभेद हम स्वीकार नहीं करते हैं, क्योंकि उनका न्यारी-न्यारी कर्तृत्वादि शक्तियो के निमित्तसे किसी
अपेक्षा भेद भी सिद्ध हो रहा है। ध. १३/६,३.६/१ कधमेक्कम्हि कम्म कत्तारभावो जुजदे । ण सुज्जेदुरखज्जोअ-जलण-मणि-णखतादिसु उभयभाबुवलं भादो।=प्रश्न-एक ही स्पर्श शब्दमें कर्मत्व व कर्तृत्व दोनो कैसे बन सकते हैं । उत्तर
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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