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काल
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३. समयादि व्यवहार काल निर्देश व शंका समाधान
व्यवहारकालसंज्ञा भवति, न च पर्याय इत्यभिप्राय'। =जो द्रव्यों के परिवर्तनमें सहायक, परिणामादि लक्षणवाला है, सो व्यवहारकाल है ।२१। द्रव्यकी पर्यायसे सम्बन्ध रखनेवाली यह समय, घड़ी आदि रूप जो स्थिति है वह स्थिति ही 'व्यवहार काल' है। वह पर्याय व्यवहार काल नहीं है । (द्र.सं./टो./२१/६१) पं.ध./पू./२७७ तदुदाहरणं संप्रति परिणमनं सत्तयावधार्यत। अस्ति । विवक्षित्वादिह नास्त्यंशस्याविवक्षया तदिह ।२७७१ = अब उसका उदाहरण यह है कि सत् सामान्यरूप परिणमनकी विवक्षासे काल सामान्य काल कहलाता है। और सतके विवक्षित द्रव्य, गुण व पर्याय रूप विशेष अशोके परिणमनकी अपेक्षासे काल विशेष काल कहलाता है। २. समयादिकी उत्पत्तिके निमित्त
त. स./४/१३, १४ (ज्योतिषदेवाः) मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥१३॥
तरकुत कालविभागः ॥१४॥ -ज्योतिष देव मनुष्य लोकमें मेरुकी प्रदक्षिणा करनेवाले ओर निरन्तर गतिशील है ॥१३॥ उन गमन करनेवाले ज्योतिषियोके द्वारा किया हुआ काल विभाग है ॥१४॥ प्र. सा/त. प्र./१३६ यो हि येन प्रदेशमात्रेण कालपदार्थेनाकाशस्य प्रदे
शोऽभिव्याप्तस्तं प्रदेश मन्दगत्यातिकमत' परमाणोस्तत्प्रदेशमात्रातिक्रमणपरिमाणेन तेन समो य. कालपदार्थ सूक्ष्मवृत्तिरूपसमय ' स तस्य कालपदार्थस्य पर्यायः । -किसी प्रदेशमात्र कालपदार्थ के द्वारा आकाशका जो प्रदेश व्याप्त हो उस प्रदेशको जब परमाणु मन्दगतिसे उन्म घन करता है तब उस प्रदेशमात्र अतिक्रमणके परिमाणके बराबर जो काल पदार्थ की सूक्ष्मवृत्ति रूप 'समय' है, वह उस काल
पदार्थकी पर्याय है। (नि. सा./ता. वृ./३१) । पं. का./त. प्र./२५ परमाणुप्रचलनायत्तः समयः। नयनपुट घटनायत्तो निमिषः । तत्सख्या विशेषतः काष्ठा कला नाली च । गगनमणिगमनायत्तो दिवारात्रः । तत्संरण्याविशेषत मास', ऋतुः, अयनं, संवत्सरमिति। =परमाणुके गमनके आश्रित समय है। ऑख मिचनेके आश्रित निमेष है; उसकी (निमेष की) अमुक संख्यासे काष्ठा, कला, और घड़ी होती है, सूर्यके गमनके आश्रित अहोरात्र होता है; और उसकी ( अहोरात्रकी) अमुक संख्यासे मास, ऋतु, अयन और वर्ष होते हैं । ( द्र. सं. वृ/टी./३५/१३४) द्र. सं. वृ./टी/२१/६२ समयोत्पत्तौ मन्दगतिपरिणतपुद्गल परमाणुस्तथा निमेषकालोत्पत्तौ नयनपुट विघटनं, तथैव घटिकाकालपर्यायोत्पत्ती घटिकासामग्रीभूतजलभाजनपुरुषहस्तादिव्यापारी, दिवसपर्याये तु दिनकरबिम्बमुपादानकारणमिति। समय रूप कालपर्यायकी उत्पत्तिमें मन्दगतिसे परिणत पुद्गल परमाणु, निमेषरूप कालको उत्पत्तिमे नेत्रों के पुटोंका विघटन, घड़ी रूप काल पर्यायकी उत्पत्तिमें घड़ोकी सामग्रीरूप जलका कटोरा और पुरुषके हाथ आदिका व्यापार दिनरूप कालपर्यायकी उत्पत्ति में सूर्यका बिम्ब उपादान कारण है। ३. परमाणुकी तीव्रगतिसे समयका विभाग नहीं हो
जाता प्र. सा./त. प्र./१३६ तथाहि-यथा विशिष्टावगाहपरिणामादेकपरमाणुपरिमाणोऽनन्तपरमाणुस्कन्धः परमाणोरनंशवाद पुनरप्यनन्तांशत्वं न साधयति तथा विशिष्ठगतिपरिणामादेककालाव्याप्त काकाशप्रदेशातिक्रमणपरिमाणावच्छिन्नेनै कसमयेनै कस्माल्लोकान्ताद द्वितीयं लोकान्तमाक्रमत' परमाणोरसंख्येयाः कालाणवः समयस्यानंशवादसंख्येयांशत्वं न साधयन्ति । -जैसे विशिष्ट अवगाह परिणामके कारण एक परमाणुके परिमाणके बराबर अनन्त परमाणुओंका स्कन्ध बनता है तथापि वह स्कन्ध परमाणुके अनन्त अंशोंको सिद्ध नहीं करता, क्योकि परमाणु निरंश है; उसी प्रकार जैसे एक कालाणुसे
व्याप्त एक आकाशप्रदेशके अतिक्रमणके मापके बराबर एक 'समय में परमाणु विशिष्टगति परिणामके कारण लोकके एक छोरसे दूसरे छोर तक जाता है तब ( उस परमाणुके द्वारा उल्लंधित होनेवाले ) असंख्य कालाणु 'समय'के असंख्य अंशोको सिद्ध नहीं करते, क्योंकि 'समय'
निरंश है। पं.का./ता. वृ/२५/५३/८ ननु यावता कालेनै कप्रदेशातिक्रम करोति
पुद्गल परमाणुस्तत्प्रमाणेन समयव्याख्यानं कृतं स एकसमये चतुर्दशरज्जु-गमनकाले यावन्त' प्रदेशास्तावन्तः समया भवन्तीति । नैवं । एकप्रदेशातिक्रमेण या समयोत्पत्तिर्भणिता सा मन्दगतिगमनेन, चतुर्द शरज्जुगमनं यदेकसमये भणितं तदक्रमेण शीघ्रगत्या कथितमिति नास्ति दोष । अत्र दृष्टान्तमाह-यथा कोऽपि देवदत्तो योजनशतं दिनशतेन गच्छति स एव विद्याप्रभावेण दिनेनैकेन गच्छति तत्र किं दिनशतं भवति नैवैकदिनमेव तथा शीघगतिगमने सति चतुर्द शरज्जुगमनेप्येकसमय एव नास्ति दोष' इति । -प्रश्नजितने कालमे "आकाशके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशमे परमाणु गमन करता है उतने काल का नाम समय है" ऐसा शास्त्रमें कहा है तो एक समयमें परमाणुके चौदह रज्जु गमन करनेपर, जितने आकाशके प्रदेश है उतने ही समय होने चाहिए । उत्तर---आगममे जो परमाणुका एक समयमे एक आकाशके प्रदेशके साथ वाले दूसरे प्रदेशपर गमन करना कहा है, सो तो मन्दगतिकी अपेक्षासे है तथा परमाणुका एक समयमें जो चौदह रज्जुका गमन कहा है वह शीघ गमनकी अपेक्षासे है। इसलिए शीघ्रगतिसे चौदह रज्जु गमन करनेमें भी परमाणुको एक ही समय लगता है। इसमें दृष्टान्त यह है कि --जैसे देवदत्त धीमी चालसे सौ योजन सौ दिनमे जाता है, वही देवदत्त विद्याके प्रभावसे शीघ्र गतिके द्वारा सौ योजन एक दिनमें भी जाता है, तो क्या उस देवदत्तको शीघ्रगतिसे सौ योजन गमन करने में सौ दिन हो गये। किन्तु एक ही दिन लगेगा। इसी तरह शीघगतिसे चौदह रज्जु गमन करनेमे भी परमाणुको एक हो समय लगेगा। (द्र. सं./टो./२२/६६/१) श्लो. वा./२/भाषाकार १/५/६६-६८/२७८/२ लोक सम्बन्धी नीचेके वात
बलयसे ऊपरके वातवलयमे जानेवाला वायुकायका जीव या परमाणु एक समयमें चौदह राजू जाता है। अत एक समयके भी असंख्यात अविभाग प्रतिच्छेद माने गये हैं। संसारका कोई भी छोटेसे छोटा पूरा कार्य एक समयसे न्यून कालमें नहीं होता है।
४. व्यवहार कालका व्यवहार मनुष्य क्षेत्र में ही होता है रा. वा./२/२२/२३/१८२/२० व्यवहारकालो मनुष्यक्षेत्रे संभवति इत्युच्यते। तत्र ज्योतिषाणां गतिपरिणामात्, न बहिःनिवृक्तगतिव्यापारत्वात् ज्योतिषानाम् । = सूर्यगति निमित्तक व्यवहारकाल मनुष्य क्षेत्रमें ही चलता है, क्योकि मनुष्य लोकके ज्योतिर्देव गतिशील होते हैं, बाहरके ज्योतिर्देव अवस्थित है । ( गो. जी./म./५७७ ) ध. ४/९/५,१,३२०/५ माणुसखेत्तेक्कसुज्जमंडलेतियालगोयराणं तपज्जाएहि
आबूरिदे । = त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोसे परिपूरित एक मात्र मनुष्य क्षेत्र सम्बन्धी सूर्यमण्डलमें ही काल है; अर्थात कालका आधार मनुष्य क्षेत्र सम्बन्धी सूर्यमण्डल है ।
५. देवलोक आदिमें इसका व्यवहार मनुष्यक्षेत्रकी अपेक्षा
किया जाता है रा, वा./५/२२/२५/४८२/२१ मनुष्यक्षेत्रसमुत्थेन ज्योतिर्गतिसमयावलिकादिना परिच्छिन्नेन क्रियाकलापेन कालवर्तनया कालाव्येन ऊर्ध्वमधस्तिर्यग् च प्राणिनां संख्येयासंख्येयानन्तानन्तकालगणनाप्रभेदेन कर्मभवकायस्थितिपरिच्छेद'। = मनुष्य क्षेत्रसे उत्पन्न आव
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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