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काल
३. समयादि व्यवहार काल निर्देश व शंका समाधान
१६, काल द्रव्य क्रियावान क्यों नहीं
प्राप्तिमें उपादान कारण जाननी चाहिए, उसमे काल उपादान कारण
नहीं है, इसलिए काल हेय है। स.सि !/२२/२६१/७ वर्तते द्रव्यपर्यायस्तस्य वर्तयिता कालः । यद्यब कालस्य क्रियावत्त्व प्राप्नोति । यथा शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्या- ३. समयादि व्यवहार काल निर्देश व तत्सम्बन्धी पयतीति। नैष दोषः, निमित्तमात्रेऽपि हेतुक व्यपदेशो दृष्ट. ।
शंका समाधान यथा कारीषोऽग्निरध्यापयति । एवं कालस्य हेतुकतॄता। द्रव्यकी पर्याय बदलती है और उसे बदलानेवाला काल है। प्रश्न-यदि
१. समयादिकी अपेक्षा व्यवहार कालका निर्देश ऐसा है तो काल क्रियावान् द्रव्य प्राप्त होता है। जैसे शिष्य पढता है और उपाध्याय पढाता है यहाँ उपाध्याय क्रियावान् द्रव्य है ।
पंका /म./२५ समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती। उत्तर-यह कोई दोष नही है। क्योंकि निमित्तमात्रमें भी हेतुकर्ता मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति कालो परायत्तो ।२।। -समय, निमेष, रूप व्यपदेश देखा जाता है । जैसे - कण्डेकी अग्नि पढाती है। यहाँ काष्ठा, कला, घडी, अहोरात्र, मास, ऋतु, अयन और वर्ष ऐसा जो कण्डेकी अग्नि निमित्त मात्र है। उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है। काल ( व्यवहार काल ) वह पराश्रित है ॥२॥
नि.सा./मू /३१ समयावलिभेदेन दु वियप्पं अहब होइ तिवियप्पं १७. कालाणुको अनन्त कैसे कहते हैं
तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु ॥३१॥ समय और आवलिके
भेदसे व्यवहारकालके दो भेद हैं, अथवा (भूत, वर्तमान और स, सि./५/४०/३१५/६ अनन्तपर्यायवर्तनाहेतुत्वादेकोऽपि कालाणुरनन्त भविष्यतके भेदसे) तीन भेद है। अतीत काल संस्थानोंके और
इत्युपचर्यते। -प्रश्न-[एक कालाणुको भी अनन्त संज्ञा कैसे देते संख्यात आवनिके गुणकार जितना है। हैं 1] उत्तर-अनन्त पर्याय वर्तना गुणके निमित्तसे होती है, इस
सं.सि /५/२२/२६३/३ परिणामादिलक्षणो व्यवहारकाल' । अन्येन परिलिए एक कालाणुको भी उपचारसे अनन्त कहा है।
च्छिन्न अन्यस्य परिच्छेदहेतुः क्रियाविशेष काल इति व्यवयिते । ह.पु./७/१०...। अनन्तसमयोत्पादादनन्तव्यपदेशिनः1१०1 -ये कालाणु
स त्रिधा व्यवतिष्ठते भूतो वर्तमानो भविष्यन्निति" व्यवहारकाले अनन्त समयोंके उत्पादक होनेसे अनन्त भी कहे जाते हैं ।१०॥
भूतादिव्यपदेशो मुख्यः । कालव्यपदेशो गौण', क्रियावद्द्रव्या
पेक्षत्वात्कालकृतत्वाच्च । १८. कालद्रव्यको जाननेका प्रयोजन
स.सि./५/४०/३१५/४ सांप्रतिकस्यैकसमयिकत्वेऽपि अतीता अनागताश्च
समया अनन्ता इति कृत्वा "अनन्तसमय' इत्युच्यते। -१. परिणा.सा./ता.व./१३६/११७/७ एवमुक्तलक्षणे काले विद्यमानेऽपि परमात्मतत्त्व
मादि लक्षणवाला व्यवहार काल है । तात्पर्य यह है कि जो क्रियामलभमानोऽतीतानन्तकाले संसारसागरे भ्रमितोऽयं जीवो यतस्तत.
विशेष अन्यसे परिच्छिन्न होकर अन्यके परिच्छेदका हेतु है उसमें कारणात्तदेव निजपरमात्मतन्त्वं सर्व प्रकारोपादेयरूपेण श्रद्धेयं ज्ञात
काल इस प्रकारका व्यवहार किया जाता है। वह काल तीन प्रकारव्यम.. ध्येयमिति तात्पर्यम् । उपरोक्त लक्षणवाले कालके जाननेपर
का है-भूत, वर्तमान और भविष्यत । ...व्यवहार कालमें भूतादिक भी इस जीवने परमात्म तत्त्वकी प्राप्ति के बिना संसार सागर में अनन्त
रूप संज्ञा मुख्य है और काल संज्ञा गौण है। क्योंकि इस प्रकारका काल तक भ्रमण किया है। इसलिए निज परमात्म तत्त्वसर्व प्रकार उपा
व्यवहार क्रियावाले द्रव्यकी अपेक्षासे होता है तथा कालका कार्य है। देय रूपसे श्रद्धेय है, जानने योग्य है, तथा ध्यान करने योग्य है।
२. यद्यपि वर्तमान काल एक समयवाला है तो भी अतीत और यह तात्पर्य है।
अनागत अनन्त समय है ऐसा मानकर कालको अनन्त समयवाला पं.का./ता वृ./२६/५/२० अत्र व्याख्यानेऽतीतानन्तकाले दुर्लभो योऽसौ कहा है। (रा.वा./५/२२/२४/४८२/8) शुद्धजीवास्तिकायस्तस्मिन्नेव चिदानन्दै ककालस्वभावे सम्यक्श्रद्धानं । घ.१९/४.२,६,२/१/७५ कालो परिणामभवो परिणामो दव्बकालरागादिभ्यो भिन्नरूपेण भेदज्ञानं . विकल्पजालत्यागेन तत्रैव स्थिर- संभूदो। दोणं एस सहाओ कालो खणभंगुरो णियदो।। -समचित्त' च कर्तव्यमिति तात्पर्यार्थ..
यादि रूप व्यवहार काल चूकि जीव व पुद्गलके परिणमनसे जाना पं.का./ता.व./१००/१६०/१२ अत्र यद्यपि काजलब्धिवशेन भेदाभेदरत्न
जाता है, अत' वह उससे उत्पन्न हुआ कहा जाता है । "व्यवहारकाल त्रयलक्षणं मोक्षमार्ग प्राप्य जीवो रागादिरहितनित्यानन्दै कस्वभावमु
क्षणस्थायी है। पादेयभूतं पारमार्थिकसुखं साधयति तथा जीवस्तस्योपादानकारणं न ध.४/१.५,१/३१७/११ कल्यन्ते संख्यायन्ते कर्म-भव-कायायुस्थितयोऽनेच काल इत्यभिप्रायः। --१. इस व्याख्यानमें तात्पर्यार्थ यह है कि नेति कालशब्दव्युत्पत्ते । काल' समय अद्धा इत्येकोऽर्थः । =जिसके अतीत अनन्त कालमें दुर्लभ ऐसा जो शुद्ध जीवास्तिकाय है, उसी द्वारा कर्म, भव, काय और आयुकी स्थितियाँ कल्पित या संख्यात चिदानन्दै ककालस्वभावमे सम्यश्रद्धान, तथा रागादिसे भिन्न रूपसे की जाती हैं अर्थात् कही जाती है, उसे काल कहते हैं, इस प्रकारभेदज्ञान...तथा विकल्प जाल को त्यागकर उसीमें स्थिरचित्त करना की काल शब्दकी व्युत्पत्ति है। काल, समय और अद्धा, ये सब चाहिए। २. यद्यपि जोव काल लब्धिके वशसे भेदाभेद रत्नत्रय रूप एकार्थवाची नाम हैं। (रा.वा./५/२२/२३/४८२/२१) मोक्षमार्गको प्राप्त करके रागादिसे रहित नित्यानन्द एक स्वभाव तथा न. च. वृ /१३७...परिणामो। पज्जयठिदि उवचरिदो ववहारादो य उपादेयभूत पारमार्थिक सुखको साधता है, परन्तु जीब ही उसका __णायब्बो ।१३७१ = परिणाम अथवा पर्यायकी स्थितिको उपचारसे उपादान कारण है न कि काल, ऐसा अभिप्राय है।
वा व्यवहारसे काल जानना चाहिए। द्र.सं.वृ./टी./२१/६३ यद्यपि काललब्धिवशेनानन्तसुखभाजनो भवति गो.जी./मू./५७२/१०१७ ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्ति
जीवस्तथापि...परमात्मतत्त्वस्य सम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठान.. तपश्च- एयट्ठो। वबहारअवठाण ट्ठिदी हु ववहारकालो दु । - व्यवहार रणरूपा या निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं ज्ञातव्यं न अर विकल्प अर भेद अर पर्याय ए सर्व एकार्थ हैं। इनि शब्दनिका च कालस्तेन स हेय इति । यद्यपि यह जीव कालल ब्धिके वशसे __एक अर्थ है तहाँ व्यंजन पर्यायका अवस्थान जो वर्तमानपना ताकरि अनन्त सुरखका भाजन होता है, तथापि • निज परमात्म तत्वका स्थिति जो कालका परिणाम सोई व्यवहार काल है। सम्यश्रद्धान, ज्ञान, आचरण और तपश्चरण रूप जो चार प्रकारकी द्र.सं./मूव टी./२१/६० दव्वपरिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो।... निश्चय आराधना है वह आराधना ही उस जीवके अनन्त सुखकी ।२१ पर्यायस्य सम्बन्धिनी याऽसौ समयघटिकादिरूपा स्थितिः सा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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