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काल
२. निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि
सकता है, पर वह वर्तनाकी उत्पत्तिमें सहकारी नहीं हो सकता।
उसमें तो काल द्रव्यका ही व्यापार है। पं.का./ता.वृ./२५/५३/३ आदित्यगत्यादिपरिणतेधर्मद्रव्यं सहकारिकारणं कालस्य किमायातम् । नैवं । गतिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं भवति काल द्रव्यं च, सहकारिकारणानि बहून्यपि भवन्ति यत् कारणाव घटोत्पत्तौ कुम्भकारचक्रचीवरादिवत् मत्स्यादीनां जलादिवत् मनुष्याणां शकटादिवत् इत्यादि कालद्रव्यं गतिकारणं । कुत्र भणितं तिष्ठतीति चेत् "पोग्गल करणा जीया खंधा खलु कालकरणेहि" क्रियावन्तो भवन्तीति कथयत्यग्रे। -प्रश्न-सूर्यकी गति आदि परिणतिमें धर्म द्रव्य सहकारी कारण है तो काल द्रव्यको क्या आवश्यकता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि गति परिणतके धर्मद्रव्य सहकारी कारण होता है तथा काल द्रव्य भी। सहकारी कारण तो बहुत सारे होते हैं जैसे घटकी उत्पत्तिमें कुम्हार चक्र चीवरादिके समान, मत्स्योंकी गतिमें जलादिके समान. मनुष्यों की गतिमें गाडीपर बैठना आदिके समान,.. इत्यादि प्रकार कालद्रव्य भी गतिमें कारण है। प्रश्न-ऐसा कहाँ है । उत्तर-धर्म द्रव्यके विद्यमान होनेपर भी जीवोंको गतिमें कर्म, नोकर्म, पुद्गल सहकारी कारण होते हैं और अणु तथा स्कन्ध इन दो भेदोंवाले पुद्गलोके गमनमें काल द्रव्य सहकारी कारण होता है। (पं.का /मू-/१८) ऐसा आगे कहेंगे।
१२. काल द्रव्य न माने तो क्या दोष है नि.सा/ता.व./३२ में मार्ग प्रकाशसे उधृत-कालाभावे न भावानां परिणामस्तदन्तरात । न द्रव्यं नापि पर्यायः सर्वाभावः प्रसज्यते । -कालके अभाव में पदार्थोंका परिणमन नहीं होगा, और परिणमन न हो तो द्रव्य भी न होगा, तथा पर्याय भी न होगी। इस प्रकार सर्व के अभावका (शून्य)का प्रसंग आयेगा। गो.जी./जी.प्र /१६८/१०१३/१२ धर्मादिद्रव्याणां स्वपर्यायनिवृति प्रति स्वयमेव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाभावे तवृत्त्यसंभवात् । धर्मादिक द्रव्य अपने-अपने पर्यायनिकी निष्पत्ति विषै स्वयमेव वर्तमान है, तिनके बाह्य कोई कारण भूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति सम्भवे नाहीं।
१३. अलोकाकाशमें वतनाका हेतु क्या है
पं.का./ता.वृ./२४/५०/१३ लोकाकाशावहिर्भागे कालद्रव्यं नास्ति कथमाकाशस्य परिणतिरिति प्रश्ने प्रत्युत्तरमाह-यथैकप्रदेशे स्पष्टे सति लम्बायमानमहावरत्रायां महावेणुदण्डे वा-सर्वत्र चलनं भवति यथैव च मनोजस्पर्शनेन्द्रियविषयैकदेशस्पर्शे कृते सति रसनेन्द्रियविषये च सर्वाङ्गन सुखानुभवो भवति तथा लोकमध्ये रिथतेऽपि कालद्रव्ये सर्वत्रालोकाकाशे परिणतिर्भवति। कस्मात् । अखण्डैकद्रव्यत्वात् । =प्रश्न-लोकके बाहरी भागमें कालाणु द्रव्यके अभावमे अलोकाकाशमें परिणमन कैसे होता है ? उत्तर-जिस प्रकार बहुत बड़े बाँसका एक भाग स्पर्श करनेपर सारा बॉस हिल जाता है...अथवा जैसे स्पर्शन इन्द्रियके विषयका, या रसना इन्द्रियके विषयका प्रिय अनुभव एक अंगमें करनेसे समस्त शरीरमें मुखका अनुभव होता है; उसी प्रकार लोकाकाशमें स्थित जो काल द्रव्य है वह आकाशके एक देशमें स्थित है, तो भी सब अलोकाकाशमे परिणमन होता है, क्योंकि आकाश एक अखण्ड द्रव्य है । (द्र.सं.वृ./टी./२२/६४) ।
११. सर्व द्रव्य स्वभावसे ही परिणमन करते हैं, काल द्रव्यसे क्या प्रयोजन
रा.बा./५/२२/६/४७७/२७ सत्तानां सर्वपदार्थानां साधारण्यस्ति तद्धे'तुका वर्तनेति; तन्न; किं कारणम् । तस्या अप्यनुग्रहाद। कालानुगृहीतवर्तना हि सत्तेति ततोऽप्यन्येन कालेन भवितव्यम् । = प्रश्न--सत्ता सर्व पदार्थों में रहती है, साधारण है, अतः वर्तना सत्ताहेतुक है। उत्तरऐसा नहीं है, क्योंकि वर्तना सत्ताका भी उपकार करती है। कालसे अनुगृहीत वर्तना ही सत्ता कहलाती है। अतः काल पृथक् ही होना
चाहिए। द्र.संवृ./टी./२२/६५/४ अथ मतं यथा कालद्रव्यं स्वस्योपादानकारणं परिणते. सहकारिकारणं च भवति तथा सर्वव्याणि, कालद्रव्येण कि प्रयोजनमिति । नैवम्: यदि पृथग्भूतसहकारिकारणेन प्रयोजनं नास्ति तर्हि सर्वद्रव्याणां साधारणगतिस्थित्यवगाहनविषये धर्माधर्माकाशद्रव्यैरपि सहकारिकारणभूतै. प्रयोजनं नास्ति। किंच, कालस्य घटिकादिवसादिकार्य प्रत्यक्षेणं दृश्यते; धर्मादीनां पुनरागमकथनमेव, प्रत्यक्षेण किमपि कार्य न दृश्यते; ततस्तेषामपि कालद्रव्यस्मेवाभावः प्राप्नोति । ततश्च जीवपुद्गलद्रव्यद्वयमेव, स चागमविरोधः । प्रश्न-(कालकी भाँति ) जीवादि सर्वद्रव्य भी अपने उपादानकारण और अपनेअपने परिणमनके सहकारी कारण रहें। उन द्रव्योके परिणमनमें काल द्रव्य से क्या प्रयोजन है । उत्तर-ऐसा नहीं, क्योंकि यदि अपनेसे भिन्न बहिरंग सहकारी कारणकी आवश्यकता न हो तो सब द्रव्योंके साधारण, गति, स्थिति, अवगाहनके लिए सहकारी कारणभूत जो धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य है उनकी भी कोई आवश्यकता न रहेगी। विशेष-कालका कार्य तो घडी, दिन, आदि प्रत्यक्षसे दीख पड़ता है; किन्तु धर्म द्रव्य आदिका कार्य तो केवल आगमके कथनसे ही जाना जाता है। उनका कोई कार्य प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता। इसलिए जैसे काल द्रव्यका अभाव मानते हो, उसी प्रकार उन धर्म, अधर्म, तथा आकाश द्रव्योंका भी अभाव प्राप्त होता है। और तब जीव तथा पुद्गल ये दो ही द्रव्य रह जायेंगे। केवल दो ही द्रव्योंके माननेपर आगमसे विरोध आता है। (पं.का./ता.वृ./२४/५१)।
१४. स्वयं काल द्रव्यमें वर्तनाका हेतु क्या है ध.४/१,५,१/३२१/५ कालस्स कालो कि तत्तो पुधभूदो अणण्णो वा ।... अणन्भुवगमा ।...एत्थ वि एक्कम्हि काले भेदेण बबहारी जुज्जदे। -प्रश्न-कालका परिणमन करानेवाला काल क्या उससे पृथग्भूत है या अनन्य । उत्तर-हम कालके कालको कालसे भिन्न तो मानते नहीं हैं...यहाँपर एक या अभिन्न काल में भी भेद रूपसे व्यवहार बन जाता है। पं.का./ता.वृ/२४/५०/१६ कालस्य कि परिणतिसहकारिकारणमिति ।
आकाशस्याकाशाधारवत ज्ञानादित्यरत्नप्रदीपानां स्वपरप्रकाशवच्च कालद्रव्यस्य परिणते. काल एव सहकारिकारणं भवति । -प्रश्नकाल द्रव्यकी परिणतिमें सहकारी कारण कौन है। उत्तर-जिस प्रकार आकाश स्वयं अपना आधार है, तथा जिस प्रकार ज्ञान, सूर्य, रत्न बा दीपक आदि स्वपर प्रकाशक हैं, उसी प्रकार कालद्रव्यकी परिणतिय सहकारी कारण स्वयं काल ही है। (द्र.सं.वृ./टी./२२/६५)
१५. काल द्रव्यको असंख्यात माननेकी क्या आवश्यकता, एक अखण्ड द्रव्य मानिए
श्लो वा. २/भाषाकार १/४/४४-४५/१४८/१७ = प्रश्नकाल द्रव्यको
असंख्यात माननेका क्या कारण है 1 उत्तर-काल द्रव्य अनेक हैं, क्योंकि एक ही समय परस्परमें विरुद्ध हो रहे अनेक द्रव्यों की क्रियाओंकी उत्पत्तिमें निमित्त कारण हो रहे हैं...अर्थाद कोई रोगी हो रहा है, कोई निरोग हो रहा है।
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